सासुजी हों तो हमारी जैसी: कैसे उलटपुलट गई पति-पत्नी की जिंदगी

पत्नीजी का खुश होना तो लाजिमी था, क्योंकि उन की मम्मीजी का फोन आया था कि वे आ रही हैं. मेरे दुख का कारण यह नहीं था कि मेरी सासुजी आ रही हैं, बल्कि दुख का कारण था कि वे अपनी सोरायसिस बीमारी के इलाज के लिए यहां आ रही हैं. यह चर्मरोग उन की हथेली में पिछले 3 वर्षों से है, जो ढेर सारे इलाज के बाद भी ठीक नहीं हो पाया.

अचानक किसी सिरफिरे ने हमारी पत्नी को बताया कि पहाड़ी क्षेत्र में एक व्यक्ति देशी दवाइयां देता है, जिस से बरसों पुराने रोग ठीक हो जाते हैं.

परिणामस्वरूप बिना हमारी जानकारी के पत्नीजी ने मम्मीजी को बुलवा लिया था. यदि किसी दवाई से फायदा नहीं होता तो भी घूमनाफिरना तो हो ही जाता. वह  तो जब उन के आने की पक्की सूचना आई तब मालूम हुआ कि वे क्यों आ रही हैं?

यही हमारे दुख का कारण था कि उन्हें ले कर हमें पहाड़ों में उस देशी दवाई वाले को खोजने के लिए जाना होगा, पहाड़ों पर भटकना होगा, जहां हम कभी गए नहीं, वहां जाना होगा. हम औफिस का काम करेंगे या उस नालायक पहाड़ी वैद्य को खोजेंगे. उन के आने की अब पक्की सूचना फैल चुकी थी, इसलिए मैं बहुत परेशान था. लेकिन पत्नी से अपनी क्या व्यथा कहता?

निश्चित दिन पत्नीजी ने बताया कि सुबह मम्मीजी आ रही हैं, जिस के चलते मुझे जल्दी उठना पड़ा और उन्हें लेने स्टेशन जाना पड़ा. कड़कती सर्दी में बाइक चलाते हुए मैं वहां पहुंचा. सासुजी से मिला, उन्होंने बत्तीसी दिखाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया.

हम ने उन से बाइक पर बैठने को कहा तो उन्होंने कड़कती सर्दी में बैठने से मना कर दिया. वे टैक्सी से आईं और पूरे 450 रुपए का भुगतान हम ने किया. हम मन ही मन सोच रहे थे कि न जाने कब जाएंगी?

घर पहुंचे तो गरमागरम नाश्ता तैयार था. वैसे सर्दी में हम ही नाश्ता तैयार करते थे. पत्नी को ठंड से एलर्जी थी, लेकिन आज एलर्जी न जाने कहां जा चुकी थी. थोड़ी देर इधरउधर की बातें करने के बाद उन्होंने अपने चर्म रोग को मेरे सामने रखते हुए हथेलियों को आगे बढ़ाया. हाथों में से मवाद निकल रहा था, हथेलियां कटीफटी थीं.

‘‘बहुत तकलीफ है, जैसे ही इस ने बताया मैं तुरंत आ गई.’’

‘‘सच में, मम्मी 100 प्रतिशत आराम मिल जाएगा,’’ बड़े उत्साह से पत्नीजी ने कहा.

दोपहर में हमें एक परचे पर एक पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल का पता उन्होंने दिया. मैं ने उस नामपते की खोज की. मालूम हुआ कि एक पहाड़ी गांव है, जहां पैदल यात्रा कर के पहुंचना होगा, क्योंकि सड़क न होने के कारण वहां कोई भी वाहन नहीं जाता. औफिस में औडिट चल रहा था. मैं अपनी व्यथा क्या कहता. मैं ने पत्नी से कहा, ‘‘आज तो रैस्ट कर लो, कल देखते हैं क्या कर सकते हैं.’’

वह और सासुजी आराम करने कमरे में चली गईं. थोड़ी ही देर में अचानक जोर से कुछ टूटने की आवाज आइ. हम तो घबरा गए. देखा तो एक गेंद हमारी खिड़की तोड़ कर टीवी के पास गोलगोल चक्कर लगा रही थी. घर की घंटी बजी, महल्ले के 2-3 बच्चे आ गए. ‘‘अंकलजी, गेंद दे दीजिए.’’

अब उन पर क्या गुस्सा करते. गेंद तो दे दी, लेकिन परदे के पीछे से आग्नेय नेत्रों से सासुजी को देख कर हम समझ गए थे कि वे बहुत नाराज हो गईर् हैं. खैर, पानी में रह कर मगर से क्या बैर करते.

अगले दिन हम ने पत्नीजी को चपरासी के साथ सासुजी को ले कर पहाड़ी वैद्य झुमरूलाल के पास भेज दिया. देररात वे थकी हुई लौटीं, लेकिन खुश थीं कि आखिर वह वैद्य मिल गया था. ढेर सारी जड़ीबूटी, छाल से लदी हुई वे लौटी थीं. इतनी थकी हुई थीं कि कोई भी यात्रा वृत्तांत उन्होंने मुझे नहीं बताया और गहरी नींद में सो गईं. सुबह मेरी नींद खुली तो अजीब सी बदबू घर में आ रही थी.

उठ कर देखने गया तो देखा, मांबेटी दोनों गैस पर एक पतीले में कुछ उबाल रही थीं. उसी की यह बदबू चारों ओर फैल रही थी. मैं ने नाक पर रूमाल रखा, निकल कर जा ही रहा था कि पत्नी ने कहा, ‘‘अच्छा हुआ आप आ गए.’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ सूखी लकडि़यां, एक छोटी मटकी और ईंटे ले कर आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ मेरा दिल जोरों से धड़क उठा. ये सब सामान तो आखिरी समय मंगाया जाता है?

पत्नी ने कहा, ‘‘कुछ जड़ों का भस्म तैयार करना है.’’

औफिस जाते समय ये सब फालतू सामान खोजने में एक घंटे का समय लग गया था. अगले दिन रविवार था. हम थोड़ी देर बाद उठे. बिस्तर से उठ कर बाहर जाएं या नहीं, सोच रहे थे कि महल्ले के बच्चों की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘भूत, भूत…’’

हम ने सुना तो हम भी घबरा गए. जहां से आवाज आ रही थी, उस दिशा में भागे तो देखा आंगन में काले रंग का भूत खड़ा था? हम ने भी डर कर भूतभूत कहा. तब अचानक उस भूतनी ने कहा, ‘‘दामादजी, ये तो मैं हूं.’’

‘‘वो…वो…भूत…’’

‘‘अरे, बच्चों की गेंद अंदर आ गईर् थी, मैं सोच रही थी क्या करूं? तभी उन्होंने दीवार पर चढ़ कर देखा, मैं भस्म लगा कर धूप ले रही थी. वे भूतभूत चिल्ला उठे, गेंद वह देखो पड़ी है.’’ हम ने गेंद देखी. हम ने गेंद ली और देने को बाहर निकले तो बच्चे दूर खड़े डरेसहमे हुए थे. उन्होंने वहीं से कान पकड़ कर कहा, ‘‘अंकलजी, आज के बाद कभी आप के घर के पास नहीं खेलेंगे,’’ वे सब काफी डरे हुए थे.

हम ने गेंद उन्हें दे दी, वे चले गए. लेकिन बच्चों ने फिर हमारे घर के पास दोबारा खेलने की हिम्मत नहीं दिखाई.

महल्ले में चोरी की वारदातें भी बढ़ गई थीं. पहाड़ी वैद्य ने हाथों पर यानी हथेलियों पर कोई लेप रात को लगाने को दिया था, जो बहुत चिकना, गोंद से भी ज्यादा चिपकने वाला था. वह सुबह गाय के दूध से धोने के बाद ही छूटता था. उस लेप को हथेलियों से निकालने के लिए मजबूरी में गाय के दूध को प्रतिदिन मुझे लेने जाना होता था.

न जाने वे कब जाएंगी? मैं यह मुंह पर तो कह नहीं सकता था, क्यों किसी तरह का विवाद खड़ा करूं?

रात में मैं सो रहा था कि अचानक पड़ोस से शोर आया, ‘चोरचोर,’ हम घबरा कर उठ बैठे. हमें लगा कि बालकनी में कोई जोर से कूदा. हम ने भी घबरा कर चोरचोर चीखना शुरू कर दिया. हमारी आवाज सासुजी के कानों में पहुंची होगी, वे भी जोरों से पत्नी के साथ समवेत स्वर में चीखने लगीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’

महल्ले के लोग, जो चोर को पकड़ने के लिए पड़ोसी के घर में इकट्ठा हुए थे, हमारे घर की ओर आ गए, जहां सासुजी चीख रही थीं, ‘‘दामादजी, चोर…’’ हम ने दरवाजा खोला, पूरे महल्ले वालों ने घर को घेर लिया था.

हम ने उन्हें बताया, ‘‘हम जो चीखे थे उस के चलते सासुजी भी चीखचीख कर, ‘दामादजी, चोर’ का शोर बुलंद कर रही हैं.’’

हम अभी समझा ही रहे थे कि पत्नीजी दौड़ती, गिरतीपड़ती आ गईं. हमें देख कर उठीं, ‘‘चोर…चोर…’’

‘‘कहां का चोर?’’ मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘कमरे में चोर है?’’

‘‘क्या बात कर रही हो?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं?’’

‘‘अंदर क्या कर रहा है?’’

‘‘मम्मी ने पकड़ रखा है,’’ उस ने डरतेसहमते कहा.

हम 2-3 महल्ले वालों के साथ कमरे में दाखिल हुए. वहां का जो नजारा देखा तो हम भौचक्के रह गए. सासुजी के हाथों में चोर था, उस चोर को उस का साथी सासुजी से छुड़वा रहा था. सासुजी उसे छोड़ नहीं रही थीं और बेहोश हो गई थीं. हमें आया देख चोर को छुड़वाने की कोशिश कर रहे चोर के साथी ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर सरैंडर कर दिया. वह जोरों से रोने लगा और कहने लगा, ‘‘सरजी, मेरे साथी को अम्माजी के पंजों से बचा लें.’’

हम ने ध्यान से देखा, सासुजी के दोनों हाथ चोर की छाती से चिपके हुए थे. पहाड़ी वैद्य की दवाई हथेलियों में लगी थी, वे शायद चोर को धक्का मार रही थीं कि दोनों हथेलियां चोर की छाती से चिपक गई थीं. हथेलियां ऐसी चिपकीं कि चोर क्या, चोर के बाप से भी वे नहीं छूट रही थीं. सासुजी थक कर, डर कर बेहोश हो गई थीं. वे अनारकली की तरह फिल्म ‘मुगलेआजम’ के सलीम के गले में लटकी हुई सी लग रही थीं. वह बेचारा बेबस हो कर जोरजोर से रो रहा था.

अगले दिन अखबारों में उन के करिश्मे का वर्णन फोटो सहित आया, देख कर हम धन्य हो गए. आश्चर्य तो हमें तब हुआ जब पता चला कि हमारी सासुजी की वह लाइलाज बीमारी भी ठीक हो गई थी. पहाड़ी वैद्य झुमरूलालजी के अनुसार, हाथों के पूरे बैक्टीरिया चोर की छाती में जा पहुंचे थे.

यदि शहर में आप को कोई छाती पर खुजलाता, परेशान व्यक्ति दिखाई दे तो तुरंत समझ लीजिए कि वह हमारी सासुजी द्वारा दी गई बीमारी का मरीज है. हां, चोर गिरोह के पकड़े जाने से हमारी सासुजी के साथ हमारी साख भी पूरे शहर में बन गई थी. ऐसी सासुजी पा कर हम धन्य हो गए थे.

वजूद से परिचय: भैरवी के बदले रूप से क्यों हैरान था ऋषभ?

‘‘मम्मी… मम्मी, भूमि ने मेरी गुडि़या तोड़ दी,’’ मुझे नींद आ गई थी. भैरवी की आवाज से मेरी नींद टूटी तो मैं दौड़ती हुई बच्चों के कमरे में पहुंची. भैरवी जोरजोर से रो रही थी. टूटी हुई गुडि़या एक तरफ पड़ी थी.

मैं भैरवी को गोद में उठा कर चुप कराने लगी तो मुझे देखते ही भूमि चीखने लगी, ‘‘हां, यह बहुत अच्छी है, खूब प्यार कीजिए इस से. मैं ही खराब हूं… मैं ही लड़ाई करती हूं… मैं अब इस के सारे खिलौने तोड़ दूंगी.’’

भूमि और भैरवी मेरी जुड़वां बेटियां हैं. यह इन की रोज की कहानी है. वैसे दोनों में प्यार भी बहुत है. दोनों एकदूसरे के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं.

मेरे पति ऋषभ आदर्श बेटे हैं. उन की मां ही उन की सब कुछ हैं. पति और पिता तो वे बाद में हैं. वैसे ऋषभ मुझे और बेटियों को बहुत प्यार करते हैं, परंतु तभी तक जब तक उन की मां प्रसन्न रहें. यदि उन के चेहरे पर एक पल को भी उदासी छा जाए तो ऋषभ क्रोधित हो उठते, तब मेरी और मेरी बेटियों की आफत हो जाती.

शादी के कुछ दिन बाद की बात है. मांजी कहीं गई हुई थीं. ऋषभ औफिस गए थे. घर में मैं अकेली थी. मांजी और ऋषभ को सरप्राइज देने के लिए मैं ने कई तरह का खाना बनाया.

परंतु यह क्या. मांजी ऋषभ के साथ घर पहुंच कर सीधे रसोई में जा घुसीं और फिर

जोर से चिल्लाईं, ‘‘ये सब बनाने को किस ने कहा था?’’

मैं खुशीखुशी बोली, ‘‘मैं ने अपने मन से बनाया है.’’

वे बड़बड़ाती हुई अपने कमरे में चली गईं और दरवाजा बंद कर लिया. ऋषभ भी चुपचाप ड्राइंगरूम में सोफे पर लेट गए. मेरी खुशी काफूर हो चुकी थी.

ऋषभ क्रोधित स्वर में बोले, ‘‘तुम ने अपने मन से खाना क्यों बनाया?’’

मैं गुस्से में बोली, ‘‘क्यों, क्या यह मेरा घर नहीं है? क्या मैं अपनी इच्छा से खाना भी नहीं बना सकती?’’

मेरी बात सुन कर ऋषभ जोर से चिल्लाए, ‘‘नहीं, यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मां की इच्छानुसार चलना होगा. यहां तुम्हारी मरजी नहीं चलेगी. तुम्हें मां से माफी मांगनी होगी.’’

मैं रो पड़ी. मैं गुस्से से उबल रही थी कि सब छोड़छाड़ अपनी मां के पास चली जाऊं. लेकिन मम्मीपापा का उदास चेहरा आंखों के सामने आते ही मैं मां के पास जा कर बोली, ‘‘मांजी, माफ कर दीजिए. आगे से कुछ भी अपने मन से नहीं करूंगी.’’

मैं ने मांजी के साथ समझौता कर लिया था. सभी कार्यों में उन का ही निर्णय सर्वोपरि रहता. मुझे कभीकभी बहुत गुस्सा आता मगर घर में शांति बनी रहे, इसलिए खून का घूंट पी जाती.

सब सुचारु रूप से चल रहा था कि अचानक हम सब के जीवन में एक तूफान आ गया. एक दिन मैं औफिस में चक्कर खा कर गिर गई और फिर बेहोश हो गई. डाक्टर को बुलाया गया, तो उन्होंने चैकअप कर बताया कि मैं मां बनने वाली हूं.

सभी मुझे बधाई देने लगे, मगर ऋषभ और मैं दोनों परेशान हो गए कि अब क्या किया जाए.

तभी मांजी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘तुम्हारे बेटा नहीं था उसी कमी को पूरा करने के लिए यह अवसर आया है.’’

मां खुशी से नहीं समा रही थीं. वे अपने पोते के स्वागत की तैयारी में जुट गई थीं.

 

अब मां मुझे नियमित चैकअप के लिए डाक्टर के पास ले जातीं.

चौथे महीने मुझे कुछ परेशानी हुई तो डाक्टर के मुंह से अल्ट्रासाउंड करते समय अचानक निकल गया कि बेटी तो पूरी तरह ठीक है औैर मां को भी कुछ नहीं है.

मांजी ने यह बात सुन ली. फिर क्या था. घर आते ही फरमान जारी कर दिया कि दफ्तर से छुट्टी ले लो और डाक्टर के पास जा कर गर्भपात कर लो. मांजी का पोता पाने का सपना जो टूट गया था.

मैं ने ऋषभ को समझाने का प्रयास किया, परंतु वे गर्भपात के लिए डाक्टर के पास जाने की जिद पकड़ ली. आखिर वे मुझे डाक्टर के पास ले ही गए.

डाक्टर बोलीं, ‘‘आप लोगों ने आने में बहुत देर कर दी है. अब मैं गर्भपात की सलाह नहीं दे सकती.’’

अब मांजी का व्यवहार मेरे प्रति बदल गया. व्यंग्यबाणों से मेरा स्वागत होता. एक दिन बोलीं, ‘‘बेटियों की मां तो एक तरह से बांझ ही होती हैं, क्योंकि बेटे से वंश आगे चलता है.’’

अब घर में हर समय तनाव रहता. मैं भी बेवजह बेटियों को डांट देतीं. ऋषभ मांजी की हां में हां मिलाते. मुझ से ऐसा व्यवहार करते जैसे इस सब के लिए मैं दोषी हूं. वे बातबात पर चीखतेचिल्लाते, जिस से मैं परेशान रहती.

एक दिन मांजी किसी अशिक्षित दाई को ले कर आईं और फिर मुझ से बोलीं, ‘‘तुम औफिस से 2-3 की छुट्टी ले लो… यह बहुत ऐक्सपर्ट है. इस का रोज का यही काम है.

यह बहुत जल्दी तुम्हें इस बेटी से छुटकारा दिला देगी.’’

सुन कर मैं सन्न रह गई. अब मुझे अपने जीवन पर खतरा साफ दिख रहा था. मैं ऋषभ के आने का इंतजार करने लगीं. वे औफिस से आए तो मैं ने उन्हें सारी बात बताई.

ऋषभ एक बार को थोड़े गंभीर तो हुए, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘‘मांजी नाराज हो जाएंगी, इसलिए उन का कहना तो मानना ही पड़ेगा.’’

मुझे कायर ऋषभ से घृणा होने लगी. अपने दब्बूपन पर भी गुस्सा आने लगा कि क्यों मैं मुखर हो कर अपने पक्ष को नहीं रखती. मैं क्रोध से थरथर कांप रही थी. बिस्तर पर लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी.

ऋषभ बोले, ‘‘क्या बात है? बहुत परेशान दिख रही हो? सो जाओ… डरने की जरूरत नहीं है. सबेरे सब ठीक हो जाएगा.’’

मैं मन ही मन सोचने लगी कि ऋषभ इतने डरपोक क्यों हैं? मांजी का फैसला क्या मेरे जीवन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? मेरा मन मुझे प्रताडि़त कर रहा था. मुझे अपने चारों ओर उस मासूम का करुण क्रंदन सुनाई पड़ रहा था. मेरा दिमाग फटा जा रहा था… मुझे हत्यारी होने का बोध हो रहा था. ‘बहुत हुआ, बस अब नहीं,’ सोच मैं विरोध करने के लिए मचल उठी. मैं चीत्कार कर उठी कि नहीं मेरी बच्ची, अब तुम्हें मुझ से कोई नहीं दूर कर सकता. तुम इस दुनिया में अवश्य आओगी…

मैं ने निडर हो कर निर्णय ले लिया था. यह मेरे वजूद की जीत थी. अपनी जीत पर मैं स्वत: इतरा उठी. मैं निश्चिंत हो गई और प्रसन्न हो कर गहरी नींद में सो गई.

सुबह ऋषभ ने आवाज दी, ‘‘उठो, मांजी आवाज दे रही हैं. कोई दाई आई है… तुम्हें बुला रही हैं.’’

मेरे रात के निर्णय ने मुझे निडर बना दिया था. अत: मैं ने उत्तर दिया, ‘‘मुझे सोने दीजिए… आज बहुत दिनों के बाद चैन की नींद आई है. मांजी से कह दीजिए कि मुझे किसी दाईवाई से नहीं मिलना.’’

मांजी तब तक खुद मेरे कमरे में आ चुकी थीं. वे और ऋषभ दोनों ही मेरे धृष्टता पर हैरान थे. मेरे स्वर की दृढ़ता देख कर दोनों की बोलती बंद हो गई थी. मैं आंखें बंद कर उन के अगले हमले का इंतजार कर रही थी. लेकिन यह क्या? दोनों खुसुरफुसुर करते हुए कमरे से बाहर जा चुके थे.

भैरवी और भूमि मुझे सोया देख कर मेरे पास आ गई थीं. मैं ने दोनों को अपने से लिपटा कर खूब प्यार किया. दोनों की मासूम हंसी मेरे दिल को छू रही थी. मैं खुश थी. मेरे मन से डर हवा हो चुका था. हम तीनों खुल कर हंस रहे थे.

ऋषभ को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि रात भर में इसे क्या हो गया. अब मेरे मन में न तो मांजी का खौफ था न ऋषभ का और न ही घर टूटने की परवाह थी. मैं हर परिस्थिति से लड़ने के लिए तैयार थी.

यह मेरे स्वत्व की विजय थी, जिस ने मुझे मेरे वजूद से मेरा परिचय कराया था.

हिमशिला : माँ चुपचाप उसकी और क्यों देख रही थी

उस ने टैक्सी में बैठते हुए मेरे हाथ को अपनी दोनों हथेलियों के बीच भींचते हुए कहा, ‘‘अच्छा, जल्दी ही फिर मिलेंगे.’’

मैं ने कहा, ‘‘जरूर मिलेंगे,’’ और दूर जाती टैक्सी को देखती रही. उस की हथेलियों की गरमाहट देर तक मेरे हाथों को सहलाती रही. अचानक वातावरण में गहरे काले बादल छा गए. ये न जाने कब बरस पड़ें? बादलों के बरसने और मन के फटने में क्या देर लगती है? न जाने कब की जमी बर्फ पिघलने लगी और मैं, हिमशिला से साधारण मानवी बन गई, मुझे पता ही नहीं चला. मेरे मन में कब का विलुप्त हो गया प्रेम का उष्ण सोता उमड़ पड़ा, उफन पड़ा.

मेरी उस से पहली पहचान एक सैमिनार के दौरान हुई थी. मुख पर गंभीरता का मुखौटा लगाए मैं अपने में ही सिकुड़ीसिमटी एक कोने में बैठी थी कि ‘हैलो, मुझे प्रेम कहते हैं,’ कहते हुए उस का मेरी ओर एक हाथ बढ़ा था. मैं ने कुछकुछ रोष से भरी दृष्टि उस पर उठाई थी, ‘नमस्ते.’ उस के निश्छल, मुसकराते चेहरे में न जाने कैसी कशिश थी जो मेरे बाहरी कठोर आवरण को तोड़ अंतर्मन को भेद रही थी. मैं उस के साथ रुखाई से पेश न आ सकी. फिर धीरेधीरे 3 दिन उस के बिंदास स्वभाव के साथ कब और कैसे गुजर गए, मालूम नहीं. मैं उस की हर अदा पर मंत्रमुग्ध सी हो गई थी. सारे दिनों के साथ के बाद अंत में अब आज विदाई का दिन था. मन में कहींकहीं गहरे उदासी के बादल छा गए थे. उस ने मेरे चेहरे पर नजरें गड़ाए हुए मोहक अंदाज में कहा, ‘अच्छा, जल्दी ही फिर मिलेंगे.’

उस के हाथों की उष्णता अब भी मेरे तनबदन को सहला रही थी. मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या मैं वही वंदना हूं, जिसे मित्रमंडली ने ‘हिमशिला’ की उपाधि दे रखी थी? सही ही तो दी थी उन्होंने मुझे यह उपाधि. जब कभी अकेले में कोई नाजुक क्षण आ जाता, मैं बर्फ सी ठंडी पड़ जाती थी, मुझ पर कच्छप का खोल चढ़ जाता था. पर क्या मैं सदा से ही ऐसी थी? अचानक ही बादलों में बिजली कड़की. मैं वंदना, भोलीभाली, बिंदास, जिस के ठहाकों से सारी कक्षा गूंज उठती थी, मित्र कहते छततोड़, दीवारफोड़ अट्टहास, को बिजली की कड़क ने तेजतेज कदम उठाने को मजबूर कर दिया. तेज कदमों से सड़क मापती घर तक पहुंची. हांफते, थके हुए से चेहरे पर भी प्रसन्नता की लाली थी. दरवाजा मां ने ही खोला, ‘‘आ गई बेटी. जा, जल्दी कपड़े बदल डाल. देख तो किस कदर भीग गई.’’

‘‘अच्छा मां,’’ कह कर मैं कपड़े बदलने अंदर चली गई.

मेरे हाथ सब्जी काट रहे थे पर चारों ओर उसी के शब्द गूंज रहे थे, ‘बधाई, वंदनाजी. आप के भाषण ने मुझे मुग्ध कर लिया. मन ने चाहा कि गले लगा लूं आप को, पर मर्यादा के चलते मन मसोस कर रह जाना पड़ा.’ उस के गले लगा लूं के उस भाव ने मेरे होंठों पर सलज्ज मुसकान सी ला दी. मां चौके में खड़ी कब से मुझे देख रही थीं, पता नहीं. पर उन की अनुभवी आंखों ने शायद ताड़ लिया था कि कहीं कुछ ऐसा घटा है जिस ने उन की बेटी को इतना कोमल, इतना मसृण बना डाला है.

‘‘बीनू, कौन है वह?’’

मैं भावलोक से हड़बड़ा कर कटु यथार्थ पर आ गई,  ‘‘कौन मां? कोई भी तो नहीं है?’’

‘‘बेटी, मुझ से मत छिपा. तेरे होंठों की मुसकान, तेरी खोईखोई नजर, तेरा अनमनापन बता रहा है कि आज जरूर कोई विशेष बात हुई है. बेटी, मां से भी बात छिपाएगी?’’

मैं ने झुंझला कर कहा, ‘‘क्या मां, कोई बात हो तो बताऊं न. और यह भी क्या उम्र है प्रेमव्रेम के चक्कर में पड़ने की.’’ मां चुपचाप मेरी ओर निहार कर चली गईं. उन की अनुभवी आंखें सब ताड़ गई थीं. मैं दाल धोतेधोते विगत में डूब गई थी. कालेज से आई ही थी कि मां का आदेश मिला, ‘जल्दी से तैयार हो जाओ. लड़के वाले तुम्हें देखने आ रहे हैं.’

‘मां, इस में तैयार होने की क्या बात है? देखने आ रहे हैं तो आने दो. मैं जैसी हूं वैसी ही ठीक हूं. गायबैल भी क्या तैयार होते हैं अपने खरीदारों के लिए?’

पिताजी ने कहा, ‘देख लिया अपनी लाड़ली को? कहा करता था कालेज में मत पढ़ाओ, पर सुनता कौन है. लो, और पढ़ाओ कालेज में.’

मैं ने तैश में आ कर कहा, ‘पिताजी, पढ़ाई की बात बीच में कहां से आ गई?’

मां ने डपटते हुए कहा, ‘चुप रह, बड़ों से जबान लड़ाती है. एक तो प्रकृति ने रूप में कंजूसी की है, दूसरे तू खुद को रानी विक्टोरिया समझती है? जा, जैसा कहा है वैसा कर.’ इस से पहले मेरे रूपरंग पर किसी ने इस तरह कटु इंगित नहीं किया था. मां के बोलों से मैं आहत हो उन की ओर देखती रह गई. क्या ये मेरी वही मां हैं जो कभी लोगों के बीच बड़े गर्व से कहा करती थीं, ‘मैं तो लड़केलड़की में कोई फर्क ही नहीं मानती. बेटी के सुनहले भविष्य की चिंता करते हुए मैं तो उसे पढ़ने का पूरा मौका दूंगी. जब तक लड़कियां पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाएंगी, समाज से दहेज की बुराई नहीं जाने की.’

आज वही मां मेरे रूपरंग पर व्यग्ंय कर रही हैं, इसलिए कि मेरा रंग दबा हुआ सांवला है, मेरे बदन के कटावों में तीक्ष्णता नहीं है, मुझे रंगरोगन का मुलम्मा चढ़ाना नहीं आता, आज के चमकदमक के बाजार में इस अनाकर्षक चेहरे की कीमत लगाने वाला कोई नहीं. आज मैं एक बिकाऊ वस्तु हूं. ऐसी बिकाऊ वस्तु जिसे दुकानदार कीमत दे कर बेचता है, फिर भी खरीदार खरीदने को तैयार नहीं. ये सब सोचतेसोचते मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. मैं ने अपनेआप को संयत करते हुए हाथमुंह धोया, 2 चोटियां बनाईं, साड़ी बदली और नुमाइश के लिए  खड़ी हो गई. दर्शकों के चेहरे, मुझे देख, बिचक गए.

औपचारिकतावश उन्होंने पूछा, ‘बेटी, क्या करती हो?’

‘जी, मैं बीए फाइनल में हूं.’

मुझे ऊपर से नीचे तक भेदती हुई उन की नजरें मेरे जिस्म के आरपार होती रहीं, मेरे अंदर क्रोध का गुबार…सब को सहन करती हुई मैं वहां चुपचाप सौम्यता की मूर्ति बनी बैठी थी. एकएक पल एकएक युग सा बीत रहा था. मैं मन ही मन सोच रही थी कि ऐसा अंधड़ उठे…ऐसा अधंड़ उठे कि सबकुछ अपने साथ बहा ले जाए. कुछ बाकी न रहे. अंत में मां के संकेत ने मेरी यातना की घडि़यों का अंत किया और मैं चुपचाप अंदर चली गई.

‘रुक्मिणी, उन की 2 लाख रुपए नकद की मांग है. क्या करें, अपना ही सोना खोटा है. सिक्का चलाने के लिए उपाय तो करना ही पड़ेगा न. पर मैं इतने रुपए लाऊं कहां से? भविष्य निधि से निकालने पर भी तो उन की मांग पूरी नहीं कर सकता.’ मां ने लंबी सांस भरते हुए कहा, ‘जाने भी दो जी, बीनू के बापू. यही एक लड़का तो नहीं है. अपनी बेटी के लिए कोई और जोड़ीदार मिल जाएगा.’ फिर तो उस जोड़ीदार की खोज में आएदिन नुमाइश लगती और इस भद्दे, बदसूरत चेहरे पर नापसंदगी के लेबल एक के बाद एक चस्पां कर दिए जाते रहे. लड़के वालों की मांग पूरी करने की सामर्थ्य मेरे पिताजी में न थी.

देखते ही देखते मैं ने बीए प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर लिया और मां के सामने एमए करने की इच्छा जाहिर की. पिताजी तो आपे से बाहर हो उठे. दोनों हाथ जोड़ कर बोले, ‘अब बस कर, बीए पढ़ कर तो यह हाल है कि कोई वर नहीं फंसता, एमए कर के तो हमारे सिर पर बैठ जाएगी.’ मेरी आंखों में आंसू झिलमिला उठे. मां ने मेरी बिगड़ी बात संवारी,‘बच्ची का मन है तो आगे पढ़ने दीजिए न. घर बैठ कर भी क्या करेगी?’ रोज ही एक न एक आशा का दीप झिलमिलाता पर जल्दी ही बुझ जाता. मां की उम्मीद चकनाचूर हो जाती. आखिर हैं तो मातापिता न, उम्मीद का दामन कैसे छोड़ सकते थे.

मैं ने अब इस आघात को भी जीवन की एक नित्यक्रिया के रूप में स्वीकार कर लिया था. पर इस संघर्ष ने मुझे कहीं भीतर तक तोड़मरोड़ दिया था. मेरी वह खिलखिलाहट, वे छतफोड़, दीवार तोड़ ठहाके धीरेधीरे बीते युग की बात हो गए थे. मेरे विवाह की चिंता में घुलते पिताजी को रोगों ने धरदबोचा था. नियम से चलने वाले मेरे पिताजी मधुमेह के रोगी बन गए थे, पर मेरे हाथ में कुछ भी न था. मैं अपनी आंखों के सामने असहाय सी, निरुपाय सी उन्हें घुलते देखती रहती थी. अपनी लगन व मेहनत से की पढ़ाई से मैं एमए प्रथम वर्ष में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गई. फाइनल में पहुंची कि एक दिन ट्रक दुर्घटना में पिताजी के दोनों पैर चले गए. मां तो जैसे प्रस्तर शिला सी हो गईं. घर की दोहरी जिम्मेदारी मुझ पर थी. मैं पिताजी का बेटा भी थी और बेटी भी. मैं ने ट्यूशनों की संख्या बढ़ा ली. पिताजी को दिलासा दिया कि जयपुरी कृत्रिम पैरों से वे जल्द ही अपने पैरों पर चलने में समर्थ हो सकेंगे. सब ठीक हो जाएगा. एमए उत्तीर्ण करते ही मुझे कालेज में नौकरी मिल गई.

धीरेधीरे जिंदगी ढर्रे पर आने लगी थी. मेरे तनाव कम होने लगे थे. कभी किसी ने मुझ से मित्रता करनी चाही तो ‘भाई’ या ‘दादा’ के मुखौटे में उसे रख कर अपनेआप को सुरक्षित महसूस करती. किसी की सहलाती हुई दृष्टि में भी मुझे खोट नजर आने लगता. एक षड्यंत्र की बू सी आने लगती. लगता, मुझ भद्दी, काली लड़की में किसी को भला क्या दिलचस्पी हो सकती है?

और उस पर मांपिताजी की नैतिकता के मूल्य. कभी किसी सहकर्मी को साथ ले आती तो पिताजी की आंखों में शक झलमला उठता और मां स्वागत करते हुए भी उपदेश देने से नहीं चूकतीं कि बेटा, बीनू के साथ काम करते हो? बहुत अच्छा. पर बेटा, हम जिस परिवार में, जिस समाज में रहते हैं, उस के नियम मानने पड़ते हैं. हां, मैं जानती हूं बेटा, तुम्हारे मन में खोट नहीं पर देखो न, हम तो पहले ही बेटी की कमाई पर हैं, फिर दुनिया वाले ताने देते हैं कि रोज एक नया छोकरा आता है. बीनू की मां, बीनू से धंधा करवाती हो क्या?

मां के उपदेश ने धीरेधीरे मुझे कालेज में भी अकेला कर दिया. खासकर पुरुष सहकर्मी जब भी देखते, उन के मुख पर विद्रूपभरी मुसकान छा जाती. मुझे मां पर खीझ होने लगती थी. यह नैतिकता, ये मूल्य मुझ पर ही क्यों आरोपित किए जा रहे हैं? मैं लोगों की परवा क्यों करूं? क्या वे आते हैं बेवक्त मेरी सहयता के लिए? बेटी की कमाई का ताना देने वालों ने कितनी थैलियों के मुंह खोल दिए हैं मेरे सामने? एक अकेले पुरुष को तो समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता? ये दोहरे मापदंड क्यों?

कई बार मन विद्रोह कर उठता था. इन मूल्यों का भार मुझ से नहीं उठाया जाता. सब तोड़ दूं, झटक दूं, तहसनहस कर दूं, पर मांपिताजी के चेहरों को देख मन मसोस कर रह जाती. वंदनाजी, आप हमेशा इतने तनाव में क्यों रहती हैं? मैं जानता हूं, इस कठोर चेहरे के पीछे स्नेहिल एक दिल छिपा हुआ है. उसे बाहर लाइए जो सब को स्नेहिल कर दे. ‘वंदनाजी नहीं, बीनू’ मेरे मुंह से सहसा निकल गया. प्रेम शायद मेरे दिल की बात समझ गया था.

‘बीनू, इस बार दिल्ली आओ तो अपने कार्यक्रम में 4 दिन बढ़ा कर आना. वे 4 दिन मैं तुम्हारा अपहरण करने वाला हूं.’ प्रेम की ये रसीली बातें मेरे कानों में गूंज उठतीं और मैं अब तक की तिक्तता को भूल सी जाती. मेरे अंतर की स्रोतस्विनी का प्रवाह उमड़ पड़ने को व्याकुल हो उठा है. उसे अब अपना लक्ष्य चाहिए ‘प्रेम का सागर.’ नहींनहीं, अब वह किसी वर्जना, किसी मूल्य के फेर में नहीं अटकने वाली. वह तो उन्मुक्त पक्षी के समान अपने नीड़ की ओर उड़ना चाहती है. कोई तो है इस कालेभद्दे चेहरे की छिपी आर्द्रता को अनुभूत करने वाला. आज बादल भी तो कितनी जोर से बरस रहे हैं. बरसो…बरसो…बरसो न मेरे प्रेमघन…मेरा पोरपोर भीग जाए ऐसा रस बरसो न मेरे प्रेमघन.

लेखिका- डा. माया गरानी

आदमी का स्वार्थ: पेड़ के पास क्यों आता था बच्चा

उस बालक को मानो सेब के उस पेड़ से स्नेह हो गया था और वह पेड़ भी बालक के साथ खेलना पसंद करता था. समय बीता और समय के साथसाथ नन्हा सा बालक कुछ बड़ा हो गया. अब वह रोजाना पेड़ के साथ खेलना छोड़ चुका था. काफी दिनों बाद वह लड़का पेड़ के पास आया तो बेहद दुखी था.

‘‘आओ, मेरे साथ खेलो,’’ पेड़ ने लड़के से कहा.

‘‘मैं अब नन्हा बच्चा नहीं रह गया और अब पेड़ पर नहीं खेलता,’’ लड़के ने जवाब दिया, ‘‘मुझे खिलौने चाहिए. इस के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं. मैं पैसे कहां से लाऊं?’’

‘‘अच्छा तो तुम इसलिए दुखी हो?’’ पेड़ ने कहा.

‘‘मेरे पास पैसे तो नहीं हैं, पर तुम मेरे सारे सेब तोड़ लो और बेच दो. तुम्हें पैसे मिल जाएंगे.’’

यह सुन कर लड़का बड़ा खुश हुआ. उस ने पेड़ के सारे सेब तोड़ लिए और चलता बना. इस के बाद वह लड़का फिर पेड़ के आसपास दिखाई नहीं दिया. पेड़ दुखी रहने लगा.

अचानक एक दिन लड़का फिर पेड़ के पास दिखाई दिया. वह अब जवान हो रहा था. पेड़ बड़ा खुश हुआ और बोला, ‘‘आओ, मेरे साथ खेलो.’’

‘‘मेरे पास खेलने के लिए समय नहीं है. मुझे अपने परिवार की चिंता सता रही है. मुझे अपने परिवार के लिए सिर छिपाने की जगह चाहिए. मुझे एक घर चाहिए. क्या तुम मेरी मदद कर सकते हो?’’ युवक ने पेड़ से कहा.

‘‘माफ करना, मेरे बच्चे, मेरे पास तुम्हें देने के लिए कोई घर तो नहीं है, हां, अगर तुम चाहो तो मेरी शाखाओं को काट कर अपना घर बना सकते हो.’’

युवक ने पेड़ की सभी शाखाओं को काट डाला और खुशीखुशी चलता बना. उस को प्रसन्न जाता देख कर पेड़ प्रफुल्लित हो उठा. इस तरह नन्हे बच्चे से जवान हुआ दोस्त फिर काफी समय के लिए गायब हो गया और पेड़ फिर अकेला हो गया, उस की हंसीखुशी उस से छिन गई.

काफी समय बाद अचानक एक दिन गरमी के दिनों में वही युवक  से अधेड़ हुआ व्यक्ति पेड़ के पास आया तो पेड़ खुशी से फूला नहीं समाया, मानो उस की जिंदगी वापस आ गई हो. पेड़ ने उस से कहा, ‘‘आओ, मेरे साथ खेलो.’’

‘‘मैं बहुत दुखी हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘अब मैं बूढ़ा होता जा रहा हूं. मैं एक जहाज पर लंबे सफर पर निकलना चाहता हूं ताकि आराम कर सकूं. क्या तुम मुझे एक जहाज दे सकते हो?’’

‘‘मेरे तने को काट कर जहाज बना लो. तुम इस जहाज से खूब लंबा सफर करना और बस, अब खुश हो जाओ,’’ बालक से अधेड़ बने व्यक्ति ने पेड़ के तने से एक जहाज बनाया और सफर पर निकल गया और फिर गायब हो गया.

काफी समय के बाद वह पेड़ के पास फिर पहुंचा.

‘‘माफ करना मेरे बच्चे, अब मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं बचा है. अब तो सेब भी नहीं रहे,’’ पेड़ ने बालक से कहा.

‘‘मेरे दांत ही नहीं हैं कि मैं सेब चबाऊं,’’ उस ने उत्तर दिया.

‘‘अब वह तना भी नहीं बचा जिस पर चढ़ कर तुम खेलते थे.’’

‘‘अब मेरी उम्र मुझे पेड़ पर चढ़ने की इजाजत नहीं देती,’’ रुंधे गले से उस ने कहा.

‘‘मैं सही मानों में तुम्हें कुछ दे नहीं सकता. अब मेरे पास केवल मेरी बूढ़ी मृतप्राय जड़ें ही बची हैं,’’ पेड़ ने आंखों में आंसू ला कर कहा.

‘‘अब मैं ज्यादा कुछ नहीं चाहता. चाहता हूं तो बस एक आराम करने की जगह. मैं इस उम्र में अब बहुत थका सा महसूस कर रहा हूं,’’ उस ने कहा.

‘‘वाह, ऐसी बात है. पेड़ की पुरानी जड़ें टेक लगा कर आराम करने के लिए सब से बढि़या हैं. आओ मेरे साथ बैठो और आराम करो,’’ पेड़ ने खुशीखुशी उस को आराम करने की दावत दी.

वह टेक लगा कर बैठ गया.

ये सेब के पेड़ हमारे अभिभावकों की तरह हैं. जब हम बच्चे होते हैं तो पापामम्मी के साथ खेलना पसंद करते हैं. जब हम पलबढ़ कर बड़े होते हैं तो अपने मातापिता को छोड़ कर चले जाते हैं और उन के पास गाहेबगाहे अपनी जरूरत से ही जाते हैं, जब कोई ऐसी जरूरत आन पड़ती है जिसे खुद पूरा करने में असमर्थ होते हैं. इस के बावजूद हमारे अभिभावक ऐसे मौकों पर हमारी सब जरूरतें पूरी कर हमें खुश देखना चाहते हैं.

आदमी कितना कू्रर है कि उस सेब के पेड़ का फल तो फल उस की शाखाएं और तने तक काट डालता है, वह भी अपने स्वार्थ की खातिर. इतना कू्रर कि पेड़ काटते समय उसे जरा भी उस पेड़ पर दया नहीं आई, जिस के साथ बचपन से खेला, उस के फल खाए और उस के साए में मीठी नींद का मजा लिया.

भाभी हमारे यहां ऐसे ही होता है

निधिकी शादी को 5 वर्ष हो चुके थे. सासससुर और पति नितिन के साथ उस ने बेहतर सामंजस्य बैठा लिया था, लेकिन उस की नकचढ़ी ननद निकिता अब भी मानती नहीं थी कि निधि उन के घर की परंपरा को निभा पा रही है.

अकसर निकिता किसी न किसी बात पर मुंह बना कर बोल ही देती, ‘‘भाभी, हमारे यहां ऐसा ही होता है.’’

उस की यही बात निधि को चुभती थी. शुरूशुरू में अपने कमरे में जा कर रोती भी थी. पति नितिन को भी बताया तो उन्होंने भी यह कह कर टाल दिया, ‘‘उस की बात को दिल से मत लगाओ, घर में सब से छोटी है, सब की प्यारी होने से थोड़ी मुंहफट हो गई है. अनसुना कर

दिया करो.’’

निधि को सम झ नहीं आता कि कोई उसे कुछ कहता क्यों नहीं है. क्या उसे दूसरे घर नहीं जाना है. परंतु सब ऐसे ही चलता रहा. न निधि ने बुरा मानना छोड़ा न ही निकिता ने उसे घर के रिवाज सिखाना.

आज निधि का बेटा पहली बार अपने स्कूल जा रहा था. सभी ऐसे उत्साहित थे जैसे कोई त्योहार हो. निधि ने उसे स्कूल यूनिफौर्म पहना कर तैयार कर दिया. उस के बाल कंघी कर रही थी तभी निकिता कटोरी में कुछ ले कर आई और चम्मच से उसे खिलाने लगी. धु्रव नानुकर कर रहा था. निधि ने भी बोल दिया, ‘‘दीदी बच्चा है, नहीं मन है उस का, स्कूल से आ कर खा लेगा.’’

निकिता तुनक गई, ‘‘भाभी, हमारे यहां ऐसा ही होता है. जब कोई पहली बार घर से बाहर किसी काम के लिए जाता है, मीठा दही खा कर ही जाता है.’’

निधि कुछ बोलती उस से पहले ही नितिन ने आ कर धु्रव को गोद में उठा लिया और अपनी उंगली में लगा कर मीठा दही उस के होंठों पर लगा दिया, ‘‘स्कूल को लेट हो रहा है,’’ कह कर धु्रव को ले कर चला गया.

निधि अपने कमरे में चली गई. निकिता अब भी बोले जा रही थी, ‘‘मैं ने क्या गलत कर दिया. भाई तो अब सबकुछ भूल गए हैं. पहली बार औफिस गए थे तब भी मीठा दही मु झ से ही मांग कर खा कर गए थे. उन का बेटा मेरा भी तो भतीजा है, क्या मैं उसे दही नहीं खिला सकती?’’

पापाजी ने उसे आवाज लगाई तब जा कर वह चुप हुई. निधि इन घटनाओं से बहुत आहत होती थी, परंतु कोई हल नहीं निकाल पाती.

संयोग से उसी दिन उस की मम्मी का

फोन आया. उन्होंने बताया कि उस का भाई और भाभी विदेश से वापस आने वाले हैं. भाई विदेश में ही नौकरी करता था. उस ने वहीं पर भारतीय मूल की एक लड़की से विवाह कर लिया था. शादी के बाद वे दोनों पहली बार घर वापस आ रहे थे.

मां चाहती थी कि पूरे रीतिरिवाज के साथ नई बहू का स्वागत किया जाए. इसीलिए उन्होंने निधि को घर बुलाया था. घर उसी शहर में था इसलिए नितिन उसी दिन शाम को निधि को उस के घर छोड़ आया.

अगले दिन भाईभाभी आ गए. दरवाजे पर उस के भाई विकास के साथ खड़ी

लड़की को देख कर निधि दंग रह गई. उस ने लाल रंग की साड़ी पहन रखी थी, सिर पर पल्लू ले रखा था और माथे पर लाल रंग की बड़ी सी बिंदी लगा रखी थी. किसी भी तरह से वह विदेशी लड़की नहीं दिख रही थी. मम्मीपापा तो उस की एक  झलक पर ही गदगद हो गए. निधि भी उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाई.

विकास बोला, ‘‘अरे भई अब घर के अंदर भी तो आने दो. क्या बाहर ही खड़े रखोगे.’’

निधि ने मुसकरा कर दोनों को अंदर आने का इशारा किया. घर की देहरी के अंदर रंगोली बना कर, चावलों से भरा एक कलश रखा था.

नई बहू ने पैर अंदर रखने से पहले उसे हाथ में उठा लिया.

निधि तुरंत उस के हाथ से कलश ले कर वापस उसी स्थान पर रख कर बोली, ‘‘भाभी हमारे यहां कलश को पैर से गिरा कर तब घर के अंदर प्रवेश करते हैं.’’

नई बहू ने मुसकरा कर वैसा ही किया और विकास के साथ अंदर आ गई. बाकी की रस्में पूरी करने के बाद सब ने खाना खाया और निधि मां के कमरे में सोने चली गई. मां अभी बाहर ही थीं. तभी भाभी कमरे में आईं. निधि के इशारा करने पर उस के पास ही बैठ गई. निधि का हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘थैंक्यू, दीदी आप ने मु झे बताया कि घर के अंदर आने की रस्म कैसे की जाती है. मैं तो उलटा ही कर रही थी.’’

निधि हैरान थी कि भाभी इतनी अच्छी हिंदी भी बोल लेती हैं. भाभी ने निधि का हाथ पकड़ा तो उस की चेतना वापस आई, ‘‘दीदी जब तक मैं यहां हूं, आप को रुकना पड़ेगा. मु झे और भी बहुत कुछ जानना है आप के घर के रिवाजों के बारे में. अब यही मेरा भी घर है.’’

भाभी की बात से निधि को कुछ याद आया. उस का व्यवहार… जब निकिता उसे अपने घर

के बारे में कुछ बोलती थी तब उस ने कभी भी भाभी की तरह निकिता की बातों को सहजता से नहीं लिया.

निधि ने भाभी के हाथ पर हाथ रख कर कहा, ‘‘पूरी कोशिश करूंगी भाभी, आप के

जाने तक रुकने की. वैसे तो आप खुद बहुत सम झदार हो. कुछ दिन यहां रहोगी तो देख कर ही सब सीख जाओगी. अभी आप सो जाओ, कल बात करेंगे.’’

भाभी गुड नाइट बोल कर चली गई. निधि की आंखों में नींद नहीं थी. उस के सामने वे सभी घटनाएं घूम रही थीं जब उस की और निकिता की बहस होती थी.

अगले दिन निधि उठते ही फिर से आगे की रस्मों के विषय में मां से बात कर रही थी. तभी फोन की घंटी बज उठी. उस ने फोन अटैंड किया, निकिता का फोन था. निकिता कुछ बोलती उस से पहले ही निधि शुरू हो गई, ‘‘दीदी, मैं जानती हूं हमारे घर में बहुएं अधिक समय तक मायके में नहीं रुकती हैं पर 2 दिन नई भाभी के पास रुक रही हूं. आप वहां हो इसलिए मु झे अपने घर की चिंता नहीं है.’’

उधर से निकिता की खनकती हंसी सुनाई दी, ‘‘मैं कल आ रही हूं भाई के साथ आप को लाने के लिए. कोई बहाना नहीं चलेगा भाभी, हमारे यहां ऐसा ही होता है.’’

निधि भी हंसे जा रही थी, शायद 5 वर्ष में पहली बार खुल कर हंसी थी. निधि का पूरा दिन हंसते हुए ही बीता. अगले दिन नितिन, निकिता और धु्रव उसे घर वापस ले जाने के लिए आ गए. भाभी ने बहुत जल्दी की लेकिन नितिन निधि को साथ ले कर ही गए. इस बार पहली बार ससुराल जाते हुए निधि के मन पर कोई बो झ नहीं था. रास्ते में कार में बाते करते हुए सब खुश थे. निकिता बड़ी उत्सुकता से नई बहू की बातें सुन रही थी. निधि ने उसे छेड़ा, ‘‘अब शादी का अगला नंबर आप का ही है, निकिता दीदी. तभी इतने ध्यान से सब सुन रही हो.’’

‘‘ऐसा नहीं है भाभी, कुछ सोच रही थी,’’ निकिता ने निधि की बात का जवाब दिया.’’

हमें भी बताओ ऐसी कौन सी बात है,’’ निधि ने फिर छेड़ा.

निकिता ने बात को टालते हुए कहा, ‘‘अरे छोड़ो न भाभी. आप इन सब बातों को नहीं

मानती हो.’’

अब तो निधि की उत्सुकता और भी बढ़ गई, ‘‘आप बता कर तो देखो,’’ वह हंसते हुए बोली.

धु्रव कुछ खाने की जिद कर रहा था. नितिन ने कार को किनारे रोक दिया और धु्रव को ले कर सामने दुकान पर चला गया.

निकिता और निधि भी कुछ देर के लिए कार से बाहर आ गए. सामने देख कर निकिता अचानक बच्चे की तरह उछल पड़ी, ‘‘अरे भाभी यही वह जगह है जहां परसों सत्संग होने वाला है. 2 साल बाद देवीजी पधार रही हैं.

निधि को याद आ गया, ‘‘अच्छा वही, जिन से धु्रव के पहले जन्मदिन पर घर में सत्संग करवाया था.’’

निकिता ने आश्चर्य से निधि की ओर देख कर कहा, ‘‘आप को याद है? इस बार आप भी साथ में आना.’’

निधि ने बेमन से हां बोल दिया.

मम्मीजी की तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए निधि को ही निकिता के साथ सत्संग में जाना पड़ा. निकिता सक्रियता से सब व्यवस्था देख रही थी. शहर के दूसरे लोग भी थे आयोजन में. सत्संग खत्म होने ही वाला था कि तेज आंधी चलने लगी. प्रवचन सुनने आए लोगों में अफरातफरी मच गई. सब जल्दी से निकलना चाहते थे. देखतेदेखते पंडाल पूरा खाली हो गया. आयोजक भी चले गए. नितिन कार ले कर बाहर ही खड़े थे इसलिए निकिता और निधि भी कार में बैठ कर घर आ गए.

 

थोड़ी देर बाद ही पुलिस स्टेशन से फोन आया कि कई औरतों के गहने और

आदमियों के पर्स गायब हो गए. सुबह होते ही पुलिस स्टेशन बुलाया. रात जैसेतैसे गुजरी. सुबह पुलिस स्टेशन में सभी आयोजक थे. निधि का नाम भी आयोजकों में था. पुलिस लगातार पूछताछ कर रही थी. उस का कहना था कि या तो देवीजी और उन के लोग या फिर आयोजक दोनों में से कोई इस लूट में शामिल है.

‘‘देवीजी कभी ऐसा नहीं कर सकती हैं. उन्होंने तो अपनी संपत्ति भी आश्रम को ही दे रखी है,’’ निधि ऊंचे स्वर में बोली.

पुलिस इंस्पैक्टर ने उसे शांत रहने की हिदायत देते हुए बताया कि देवीजी एक लंबी सजा काट चुकी औरत है. ठगी के केस में कई साल जेल में थी. जेल से छूट कर उस ने भगवान के प्रवचन दे कर ठगी शुरू कर दी थी. पुलिस को सूचना मिली थी, इसलिए सत्संग परिसर में पुलिसकर्मी साधारण कपड़े पहने घूम रहे थे.

सारा सामान देवीजी के शिष्यों के पास से ही बरामद कर लिया गया. निकिता घर पंहुची

तो मम्मीपापा की नजरों का सामना नहीं कर पा रही थी. उसे सामान्य होने में कई दिन लगे.

निधि पूरा समय उस के साथ थी और एक बदलाव महसूस कर रही थी कि निकिता अब बातबात पर बोलना भूल गई है कि भाभी हमारे यहां ऐसा ही होता है

निगाहों से आजादी कहां : क्या हुआ था रामकली के साथ

‘‘अरे रामकली, कहां से आ रही है?’’ सामने से आती हुई चंपा ने जब उस का रास्ता रोक कर पूछा तब रामकली ने देखा कि यह तो वही चंपा है जो किसी जमाने में उस की पक्की सहेली थी. दोनों ने ही साथसाथ तगारी उठाई थी. सुखदुख की साथी थीं. फुरसत के पलों में घंटों घरगृहस्थी की बातें किया करती थीं.

ठेकेदार की जिस साइट पर भी वे काम करने जाती थीं, साथसाथ जाती थीं. उन की दोस्ती देख कर वहां की दूसरी मजदूर औरतें जला करती थीं, मगर एक दिन उस ने काम छोड़ दिया. तब उन की दोस्ती टूट गई. एक समय ऐसा आया जब उन का मिलना छूट गया.

रामकली को चुप देख कर चंपा फिर बोली, ‘‘अरे, तेरा ध्यान किधर है रामकली? मैं पूछ रही हूं कि तू कहां से आ रही है? आजकल तू मिलती क्यों नहीं?’’

रामकली ने सवाल का जवाब न देते हुए चंपा से सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘पहले तू बता, क्या कर रही है?’’

‘‘मैं तो घरों में बरतन मांजने का काम कर रही हूं. और तू क्या कर रही है?’’

‘‘वही मेहनतमजदूरी.’’

‘‘धत तेरे की, आखिर पुराना धंधा छूटा नहीं.’’

‘‘कैसे छोड़ सकती हूं, अब तो ये हाथ लोहे के हो गए हैं.’’

‘‘मगर, इस वक्त तू कहां से आ रही है?’’

‘‘कहां से आऊंगी, मजदूरी कर के आ रही हूं.’’

‘‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं पकड़ लेती?’’

‘‘कौन सा काम पकड़ूं, कोई मिले तब न.’’

‘‘मैं तुझे काम दिलवा सकती हूं.’’

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘मेहरी का काम कर सकेगी?’’

‘‘नेकी और पूछपूछ.’’

‘‘तो चल तहसीलदार के बंगले पर. वहां उन की मेमसाहब को किसी बाई की जरूरत थी. मुझ से उस ने कहा भी था.’’

‘‘तो चल,’’ कह कर रामकली चंपा के साथ हो ली. वैसे भी वह अब मजदूरी करना नहीं चाहती थी. एक तो यह हड्डीतोड़ काम था. फिर न जाने कितने मर्दों की काम वासना का शिकार बनो. कई मजदूर तो तगारी देते समय उस का हाथ छू लेते हैं, फिर गंदी नजरों से देखते हैं. कई ठेकेदार ऐसे भी हैं जो उसे हमबिस्तर बनाना चाहते हैं.

एक अकेली औरत की जिंदगी में कई तरह के झंझट हैं. उस का पति कन्हैया कमजोर है. जहां भी वह काम करता है, वहां से छोड़ देता है. भूखे मरने की नौबत आ गई तब मजबूरी में आ कर उसे मजदूरी करनी पड़ी.

जब पहली बार रामकली उस ठेकेदार के पास मजदूरी मांगने गई थी, तब वह वासना भरी आंखों से बोला था, ‘‘तुझे मजदूरी करने की क्या जरूरत पड़ गई?’’

‘‘ठेकेदार साहब, पेट का राक्षस रोज खाना मांगता है?’’ गुजारिश करते हुए वह बोली थी.

‘‘इस के लिए मजदूरी करने की क्या जरूरत है?’’

‘‘जरूरत है तभी तो आप के पास आई हूं.’’

‘‘यहां हड्डीतोड़ काम करना पड़ेगा. कर लोगी?’’

‘‘मंजूर है ठेकेदार साहब. काम पर रख लो?’’

‘‘अरे, तुझे तो यह हड्डीतोड़ काम करने की जरूरत भी नहीं है,’’ सलाह देते हुए ठेकेदार बोला था, ‘‘तेरे पास वह चीज है, मजदूरी से ज्यादा कमा सकती है.’’

‘‘आप क्या कहना चाहते हैं ठेकेदार साहब.’’

‘‘मैं यह कहना चाहता हूं कि अभी तुम्हारी जवानी है, किसी कोठे पर बैठ जाओ, बिना मेहनत के पैसा ही पैसा मिलेगा,’’ कह कर ठेकेदार ने भद्दी हंसी हंस कर उसे वासना भरी आंखों से देखा था.

तब वह नाराज हो कर बोली थी, ‘‘काम देना नहीं चाहते हो तो मत दो. मगर लाचार औरत का मजाक तो मत उड़ाओ,’’ इतना कह कर वह ठेकेदार पर थूक कर चली आई थी.

फिर कहांकहां न भटकी. जो भी ठेकेदार मिला, उस के साथ वह और चंपा काम करती थीं. दोनों का काम अच्छा था, इसलिए दोनों का रोब था. तब कोई मर्द उन की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा करता था.

मगर जैसे ही चंपा ने काम पर आना बंद किया, फिर काम करते हुए उस के आसपास मर्द मंडराने लगे. वह भी उन से हंस कर बात करने लगी. कोई मजदूर तगारी पकड़ाते हुए उस का हाथ पकड़ लेता, तब वह भी कुछ नहीं कहती है. किसी से हंस कर बात कर लेती है तब वह समझता है कि रामकली उस के पास आ रही है.

कई बार रामकली ने सोचा कि यह हाड़तोड़ मजदूरी छोड़ कर कोई दूसरा काम करे. मगर सब तरफ से हाथपैर मारने के बाद भी उसे ऐसा कोई काम नहीं मिला. जहां भी उस ने काम किया, वहां मर्दों की वहशी निगाहों से वह बच नहीं पाई थी. खुद को किसी के आगे सौंपा तो नहीं, मगर वह उसी माहौल में ढल गई.

‘‘ऐ रामकली, कहां खो गई?’’ जब चंपा ने बोल कर उस का ध्यान भंग किया तब वह पुरानी यादों से वर्तमान में लौटी.

चंपा आगे बोली, ‘‘तू कहां खो गई थी?’’

‘‘देख रामवती, तहसीलदार का बंगला आ गया. मेमसाहब के सामने मुंह लटकाए मत खड़ी रहना. जो वे पूछें, फटाफट जवाब दे देना,’’ समझाते हुए चंपा बोली.

रामकली ने गरदन हिला कर हामी भर दी.

दोनों गेट पार कर लौन में पहुंचीं. मेमसाहब बगीचे में पानी देते हुए मिल गईं. चंपा को देख कर वे बोलीं, ‘‘कहो चंपा, किसलिए आई हो?’’

‘‘मेमसाहब, आप ने कहा था, घर का काम करने के लिए बाई की जरूरत थी. इस रामकली को लेकर आई हूं,’’ कह कर रामकली की तरफ इशारा करते हुए चंपा बोली.

मेमसाहब ने रामकली को देखा. रामकली भी उन्हें देख कर मुसकराई.

‘‘तुम ईमानदारी से काम करोगी?’’ मेमसाहब ने पूछा.

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘रोज आएगी?’’

‘‘हां, मेमसाहब.’’

‘‘कोई चीज चुरा कर तो नहीं भागोगी?’’

‘‘नहीं मेमसाहब. पापी पेट का सवाल है, चोरी का काम कैसे कर सकूंगी…’’

‘‘फिर भी नीयत बदलने में देर नहीं लगती है.’’

‘‘नहीं मेमसाहब, हम गरीब जरूर हैं मगर चोर नहीं हैं.’’

चंपा मोरचा संभालते हुए बोली, ‘‘आप अपने मन से यह डर निकाल दीजिए.’’

‘‘ठीक है चंपा. इसे तू लाई है इसलिए तेरी सिफारिश पर इसे रख

रही हूं,’’ मेमसाहब पिघलते हुए बोलीं, ‘‘मगर, किसी तरह की कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’’

‘‘आप को जरा सी भी शिकायत नहीं मिलेगी,’’ हाथ जोड़ते हुए रामकली बोली, ‘‘आप मुझ पर भरोसा रखें.’’

फिर पैसों का खुलासा कर उसे काम बता दिया गया. मगर 8 दिन का काम देख कर मेमसाहब उस पर खुश हो गईं. वह रोजाना आने लगी. उस ने मेमसाहब का विश्वास जीत लिया.

मेमसाहब के बंगले में आने के बाद उसे लगा, उस ने कई मर्दों की निगाहों से छुटकारा पा लिया है. मगर यह केवल रामकली का भरम था. यहां भी उसे मर्द की निगाह से छुटकारा नहीं मिला. तहसीलदार की वासना भरी आंखें यहां भी उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

मर्द चाहे मजदूर हो या अफसर, औरत के प्रति वही वासना की निगाह हर समय उस पर लगी रहती थी. बस फर्क इतना था जहां मजदूर खुला निमंत्रण देते थे, वहां तहसीलदार अपने पद का ध्यान रखते हुए खामोश रह कर निमंत्रण देते थे.

ऐसे ही उस दिन तहसीलदार मेमसाहब के सामने उस की तारीफ करते हुए बोले, ‘‘रामकली बहुत अच्छी मेहरी मिली है, काम भी ईमानदारी से करती?है और समय भी ज्यादा देती है,’’ कह कर तहसीलदार साहब ने वासना भरी नजर से उस की तरफ देखा.

तब मेमसाहब बोलीं, ‘‘हां, रामकली बहुत मेहनती है.’’

‘‘हां, बहुत मेहनत करती है,’’ तहसीलदार भी हां में हां मिलाते हुए बोले, ‘‘अब हमें छोड़ कर तो नहीं जाओगी रामकली?’’

‘‘साहब, पापी पेट का सवाल है, मगर…’’

‘‘मगर, क्या रामकली?’’ रामकली को रुकते देख तहसीलदार साहब बोले.

‘‘आप चले जाओगे तब आप जैसे साहब और मेमसाहब कहां मिलेंगे.’’

‘‘अरे, हम कहां जाएंगे. हम यहीं रहेंगे,’’ तहसीलदार साहब बोले.

‘‘अरे, आप ट्रांसफर हो कर दूसरे शहर में चले जाएंगे,’’ रामकली ने जब तहसीलदार पर नजर गड़ाई, तो देखा कि उन की नजरें ब्लाउज से झांकते उभार पर थीं. कभीकभी ऐसे में जान कर के वह अपना आंचल गिरा देती ताकि उस के उभारों को वे जी भर कर देख लें.

तब तहसीलदार साहब बोले, ‘‘ठीक कहती हो रामकली, मेरा प्रमोशन होने वाला है.’’

उस दिन बात आईगई हो गई. तहसीलदार साहब उस से बात करने का मौका ढूंढ़ते रहते हैं. मगर कभी उस पर हाथ नहीं लगाते हैं. रामकली को तो बस इसी बात का संतोष है कि औरत को मर्दों की निगाहों से छुटकारा नहीं मिलता है. मगर वह तब तक ही महफूज है, जब तक तहसीलदार की नौकरी इस शहर में है.

तीमारदारी: राज के साथ क्या हुआ

सरकारी अस्पताल का बरामदा मरीजों से खचाखच भरा हुआ था. छींक आने के साथ गले में दर्द, सर्दी, खांसी, बुखार से सम्बंधित मरीजों की तादाद यहां अचानक ही बढ़ गई थी.

मरीजों को सुबह से ही तमाम सरकारी अस्पताल में लंबीलंबी लाइनों में खड़े देखा जा सकता था क्योंकि इन अस्पतालों में मरीजों को पहले ओपीडी में पर्ची बनवाने के बाद ही डाक्टर के पास जाना होता था. देखने के बाद डाक्टर दवा दे कर घर भेज देते थे.

तब तक कोरोना अपने देश में आया नहीं था. एक सरकारी अस्पताल में ऐसे मरीजों की तादाद ज्यादा ही बढ़ गई.

सरकार ने इन मरीजों को गंभीर बता कर भर्ती करने के लिए कहा तो ऐसे में वहां डाक्टरों की जिम्मेदारी बढ़ गई. स्टाफ की भी जरूरत आ पड़ी.

इन मरीजों को अलग ही वार्ड में रखा गया था. छूत की बीमारी बता कर इन मरीजों को दूर से ही दवा, खाना दिया जाता था. मरीजों के साथ एक तरह से अलग तरह का ही बरताव किया जाता था.

इन मरीजों की देखरेख के लिए सीनियर डाक्टर कमल ने अपने से जूनियर डाक्टर सुनील से कुछ को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रखने के लिए कहा.डाक्टर सुनील ने किसी नर्स के माध्यम से राज को मैडिकल अटेंडेंट के तौर पर रख लिया.

‘‘बधाई हो राज, तुम नौकरी पर रख लिए गए हो. अपने काम में मन लगाना ताकि किसी को कहने का मौका न मिले. तुम यहां इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’ डाक्टर सुनील ने राज का हौसला बढ़ाते हुए कहा.

“जी डाक्टर साहब,” इतना ही कह सका राज.

जो भी हो, राज  की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है.अस्पताल में राज को 6 महीने की पहले ट्रेनिंग दी गई. पर उसे इस छूत की बीमारी के बारे में ज्यादा नहीं बताया गया था.

जब डाक्टरों को खुद ही नहीं पता था, तो वे उसे क्या बताते. राज को अस्पताल में सबकुछ करना पड़ता था. मरीजों के टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी उस पर थी. हर बिस्तर तक जा कर उसे मरीजों को दवा देनी पड़ती थी.

वैसे, राज अस्पताल के आसपास ही रहता था और पैदल ही चला आता था. वह एक पिछड़े इलाके से ताल्लुक रखता था और गरीब भी.

यहां  अस्पताल की नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. किसी से मिलने की मनाही थी. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें.

यहां नर्सों का दबदबा था. राज को पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना निकाला जा सकता है.राज को पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए.

एक दिन जब राज अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी उमेश ने बताया, ‘‘एक नया मरीज भरती हुआ है. उसे दवा दे देना.’’यह कह कर वह उमेश अपनी ड्यूटी खत्म कर घर चला गया.

 राज ने उस मरीज को गौर से देखा. उस के गले में बेहद दर्द था. उसे छींकें भी बहुत आ रही थीं. बुखार से उस का बदन तप रहा था. पर राज ने डाक्टर को न बुला कर डाक्टर द्वारा दी गई पर्ची के मुताबिक उसे दवा दे दी. पर उस मरीज की तबियत बिगड़ने लगी.

अगले दिन उस मरीज की जांच की गई. डाक्टर कमल राज पर चिल्लाया, ‘‘यह क्या है…? तुम ने तो मरीज का कोई केयर ही नहीं किया है?’’यह सुन कर राज के पैरों तले जमीन खिसक गई. वह बोला, ‘‘सर, मैं ने उसे दवा दी थी.’’

“पर, दवा से कुछ असर नहीं हुआ.” राज ने अपनी बात कही. उस की बात सुन कर डाक्टर कमल उस पर बिगड़ा, ‘‘तुम्हारी समझाने की ड्यूटी नहीं है. तुम्हारी लापरवाही के चलते इस मरीज की हालत बिगड़ी है. कहीं दवा से कोई इंफैक्शन न हो जाए.’’

यह सुन कर राज की बोलती बंद हो गई. डाक्टर द्वारा डांट खा कर राज अपने को अपमानित सा महसूस करने लगा.राज को बड़ी कुंठा होने लगी.अब वह अपनेआप को बड़ा बेबस महसूस कर रहा था.

यही सोच कर राज कुछ दिन की छुट्टी ले कर अपने गांव जाने की योजना बनाने लगा.अगले दिन यही सोच कर राज  सीनियर डाक्टर कमल के पास चला गया, ‘‘सर, मुझे तो अपनेआप पर शर्म आ रही है, इसलिए मैं कुछ दिन की छुट्टी ले कर गांव जाना चाहता हूं.’’

वह सीनियर डाक्टर तुरंत मुड़ा और दूसरे मरीज को आवाज दी. वह मरीज उस के चैंबर में आया. राज वहीं खड़ा उस डाक्टर और मरीज को देखने लगा.

उस मरीज को देखने के बाद सीनियर डाक्टर कमल ने राज से समझाते हुए कहा, ‘‘उस दिन उस मरीज की जान चली जाती, अगर थोड़ी देर और होती.”

“क्या तुम ने खबर देखी है कि सरकार ने इस तरह के मरीजों को कोरोना होने की बात कही है, इसलिए इन्हें भर्ती किया जा रहा है. मरीज भी पहले से ज्यादा हो गए हैं. इन मरीजों को ले कर सरकार बहुत गंभीर है. और तुम ऐसे समय में छुट्टियां मांग रहे हो. ऐसे समय में तो तुम्हें इन मरीजों की तीमारदारी करनी चाहिए. यह भी एक तरह की देशभक्ति है.”

इतना कह कर सीनियर डाक्टर कमल अपने चैंबर से चला गया.यह सुन कर राज को दुख होने लगा. डाक्टर द्वारा समझाए जाने पर उस ने छुट्टी पर न जाने का मन बनाया. उसे अब इस नौकरी का असली माने पता चला था. यही तो उस का असली काम था, जिसे करने से वह चूक रहा था.

सवाल का जवाब: जफर ने कौन सा झूठ बोला था

जफर दफ्तर से थकाहारा जैसेतैसे रेलवे के नियमों को तोड़ कर एक धीमी रफ्तार से चल रही ट्रेन से कूद कर, मन ही मन में कचोटने वाले एक सवाल के साथ, उदासी से मुंह लटकाए हुए रात के साढ़े 8 बजे घर पहुंचा था. बीवी ने खाना बना कर तैयार कर रखा था, इसलिए वह हाथमुंह धोने के लिए वाशबेसिन की ओर बढ़ा तो देखा कि उस की 7 साल की बड़ी बेटी जैना ठीक उस के सामने खड़ी थी. वह हंस रही थी. उस की हंसी ने जफर को अहसास करा दिया था कि जरूर उस के ठीक पीछे कुछ शरारत हो रही है.

जफर ने पीछे मुड़ कर देखने के बजाय अपनी गरदन को हलका सा घुमा कर कनखियों से पीछे की ओर देखना बेहतर समझा कि कहीं उस के पीछे मुड़ कर देखने से शरारत रुक न जाए.

आखिरकार उसे समझ आ गया कि क्या शरारत हो रही है. उस की दूसरी

6 साला बेटी इज्मा ठीक उस से डेढ़ फुट पीछे वैसी ही चाल से जफर के साए की तरह उस के साथ चल रही थी.

बस, फिर क्या था. एक खेल शुरू हो गया. जहांजहां जफर जाता, उस की छोटी बेटी इज्मा उस के पीछे साए की तरह चलती. वह रुकता तो वह भी उसी रफ्तार से रुक जाती. वह मुड़ता तो वह भी उसी रफ्तार से मुड़ जाती. किसी भी दशा में वह जफर से डेढ़ फुट पीछे रहती.

इज्मा को लग रहा था कि जफर उसे नहीं देख रहा है, जबकि वह उस को कभीकभी कनखियों से देख लेता, इस तरह कि उसे पता न चले.

इस अनचाहे आकस्मिक खेल की मस्ती में जफर अपने 2 दिन पहले की सारी परेशानी और गम भूल सा गया था. तभी उसे अहसास हुआ कि इस नन्ही परी ने खेलखेल में उसे गम और परेशानियों का हल दे दिया था. इस मस्ती में उसे उस के बहुत बड़े सवाल का जवाब मिल गया था, जिस का जवाब ढूंढ़तेढूंढ़ते वह थक चुका था.

पिछले 2 दिनों से वह हर वक्त दिमाग में सवालिया निशान लगाए घूम रहा था. मगर जवाब कोसों दूर नजर आ रहा था, क्योंकि 2 दिन पहले उस की दोस्त नेहा ने कुछ ऐसा कर दिया था जिस के गम के बोझ में जफर जमीन के नीचे धंसता चला जा रहा था.

हमेशा सच बोलने का दावा करने वाली नेहा ने उस से एक झूठ बोला था. ऐसा झूठ, जिसे वह कतई बरदाश्त नहीं कर सकता था.

आखिर क्यों और किसलिए नेहा ने ऐसा किया?

इस सवाल ने दिमाग की सारी बत्तियों को बुझा कर रख दिया था. इस झूठ से जफर का उस के प्रति विश्वास डगमगा गया था.

वह ठगा सा महसूस कर रहा था. उसे लगने लगा था कि अब वह दोबारा कभी भी नेहा पर भरोसा नहीं कर पाएगा. ऐसा झूठ जिस ने रिश्तों के साथ मन में भी कड़वाहट भर दी थी और जो आसानी से पकड़ा गया था, क्योंकि उस शख्स ने जफर को फोन कर के बता दिया था कि नेहा अभीअभी उस से मिलने आई थी. जब जफर ने पूछा तो नेहा ने इनकार कर दिया था.

नेहा ने झूठ बोला था और उस शख्स ने सचाई बता दी थी. इतनी छोटी सी बात पर झूठ जो किसी मजबूरी की वजह से भी हो सकता था, जफर ने दिल से लगा लिया था. इस झूठ को शक और अविश्वास की कसौटी पर रख कर वह नापतोल करने लगा.

झूठ के पैमाने पर नेहा से अपने रिश्ते को नापने लगा तो सारी कड़वाहट उभर कर सामने आ गई. सारी कमियां याद आने लगीं. अच्छाई भूल गया. अच्छाई में भी बुराई दिखने लगी और यही वजह उस की परेशानी का सबब बन गई. उस के जेहन में एक, बस एक ही सवाल गूंज रहा था कि नेहा ने उस से आखिर क्यों झूठ बोला था?

जफर की नन्ही परी इज्मा ने बड़ी मासूमियत से उसे गम के इस सैलाब

से बाहर निकाल लिया था. उसे अपने सवाल का जवाब उस की इन मस्तियों में मिल गया था क्योंकि अब वह समझ गया था कि उस की बेटी थोड़ी मस्ती के लिए उस की साया बन कर, उस की पीठ के पीछे चल कर खेल खेल रही थी, जिस का मकसद खुशी था. अपनी भी और उस की भी. ठीक उसी तरह नेहा भी उस से झूठ बोल कर एक खेल खेल रही थी.

जफर की पीठ पीछे की घटना थी. उस ने शायद उस नन्ही परी की तरह

ही आंखमिचौली करने की सोची थी, क्योंकि इस से पहले कितनी ही बार जफर ने उस को परखा था. उस ने कभी झूठ नहीं बोला था. आज शायद उस का मकसद भी उस नन्ही परी की तरह मस्ती करने का था. शायद कुछ समय बाद वह सबकुछ बता देने वाली थी जिस तरह नन्ही परी ने बाद में बता दिया था.

जफर ठहरा जल्दी गुस्सा होने वाला इनसान, उस की एक न सुनी और बारबार फोन करने पर भी उसे सच बताने का मौका ही नहीं दिया था.

वह हैरान थी और डरी हुई भी. उस ने उस से बात तक नहीं की. जब तक बात न हो, गिलेशिकवे और बढ़ जाते हैं. बातचीत से ही रिश्तों की खाइयां कम होती हैं. यहां बातचीत के नाम पर

2 दिनों से सिर्फ ‘हां’ या ‘न’ दो जुमले इस्तेमाल हो रहे थे.

नेहा जफर की नाराजगी को ले कर परेशान थी और वह उस के झूठ को ले कर. नन्ही परी की मस्ती की अहमियत को इस सवाल के जवाब के रूप में समझ कर मेरी दिमाग की सारी घटाएं छंट गई थीं. दिल पर छाया कुहरा अब ऐसे हट गया था, जैसे सूरज की किरणों से कुहरे की धुंध हट जाया करती है.

सबकुछ साफ दिखाई दे रहा था. समझ में आ गया था कि कोई सच्चा इनसान कभीकभी छोटीछोटी बातों के लिए झूठ क्यों बोल देता है. शायद मस्ती के लिए. जो बात वह दिमाग के सारे घोड़े दौड़ा कर भी नहीं सोच पा रहा था, वह इस नन्ही परी इज्मा की शरारत ने समझा दी थी, वह भी कुछ ही पलों में.

जफर का गुस्सा अब पूरी तरह से शांत हो गया था. एकदम शांत. वह समझ गया था कि उसे क्या करना है.

जफर ने खुद ही नेहा को फोन किया. नेहा ने सफाई देने की कोशिश की, मगर जफर ने उसे रोक दिया.

जफर ने अपनी नन्ही परी इज्मा का पूरा किस्सा सुनाया. अब नेहा एकदम शांत थी. उस की नाराजगी और सफाई अब दोनों की ही कोई अहमियत नहीं रह गई थी. फिर उस ने पहले की तरह एक चुटकुला छेड़ दिया था और वे दोनों सबकुछ भूल कर पहले जैसे हो गए थे.

लेखक- मौहम्मद आसिफ

गली नंबर 10: कौनसी कड़वी याद थी उसे के दिल में

चेहरे पर ओढ़ी खामोशी, आंखों का आकर्षण बरबस मुझे उस की ओर खींच ले गया था. उस से मिलने की चाह में एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. लेकिन यह कैसी बेबसी थी कि उस की आंखों का दर्द देख कर भी मैं सिर्फ महसूस करता रह गया, बेबस सा.

उस के व्यक्तित्व ने मुझे ऐसा प्रभावित कर रखा था कि घंटों तो क्या, अगर पूरे दिन भी इंतजार करना पड़ता तो भी मैं कुछ बुरा महसूस नहीं करता. एक अजीब रूमानी आकर्षण ने मुझे अपने पाश में ऐसा जकड़ लिया था कि मैं अपने खुद के अस्तित्व से भी उदासीन रहने लगा था. हर ‘क्यों’ का उत्तर अगर मिल जाता तो दुनिया ही रुक गई होती. पर पार्क की बैंच पर बैठ कर किसी की प्रतीक्षा करने का अनोखा आनंद तो वही जान सकता है जो ऐसे पलों से गुजरा हो.

पिछले जमाने की रहस्यमयी फिल्मों की नायिका सी यह लड़की मुझे शहर की एक सड़क पर दिखी थी. पता नहीं क्यों, पहली नजर में ही मैं उस के प्रति आकर्षित हो गया था और यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मैं ने उस के बाद, उस रास्ते के अनगिनत चक्कर काटे थे. मन में पक्की उम्मीद थी कि एक न एक दिन तो वह फिर मिलेगी और ऐसा ही हुआ. एकदो बार फिर आमनासामना हुआ और पता नहीं कैसे, उसे भी यह एहसास हो गया कि मैं वहां उसी के लिए चक्कर काटा करता हूं. शायद इसीलिए उस ने, थोड़ी चोरी से, मेरी और देखना शुरू कर दिया था. बस, कहानी यहीं से शुरू हुई थी.

बातचीत की हालत में पहुंचने में काफी समय लगा और जब मिलने के वादे तक पहुंचे तो वह भी हफ्ते में सिर्फ एक दिन, मंगलवार और समय दोपहर का. मुझे लगा कि शायद उसे उस दिन घर से निकलने में आसानी होती होगी. वैसे, मंगलवार को मेरी भी सिर्फ 2 ही क्लास होती थीं, इसलिए कालेज से जल्दी निकल पाना आसान था. जगह तय हुई यही पार्क…मैं तो कालेज से निकल कर, तेजतेज कदमों से सीधा पार्क जा पहुंचता और पहले से तय बैंच पर जा कर बैठ जाता. वह देर से आए या जल्दी, मेरी आंखें पार्क के गेट पर टिकी रहतीं. उस का वह गेट से घुसना, धरती पर नजर बिछाए हौलेहौले चलना और फिर निकट आ कर आधा इंच मुसकराना, मुझे बहुत मोहक लगता था.

हम एक ही बैंच पर पासपास बैठे होते पर उस की ओर से कोई ऐसी क्रिया होती नहीं लगती थी जो प्यार का संदेश दे सके. वह कम बोलती थी, मैं ही बकबक करता रहता था. मैं ने अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की योजनाएं तक सबकुछ उस को बता डाली थीं. पर उस के बारे में मैं अब तक कुछ जान पाने में सफल नहीं हो सका था. मैं जब भी उस से उस के बारे में कोई प्रश्न करता तो वह अनजान सी आसमान की तरफ देखने लगती. उस के चेहरे पर छाया सांध्यकालीन शून्य और रहस्यमय हो जाता.

अपने इस तथाकथित ‘अचीवमैंट’ को निकट मित्रों से साझा कर डालना स्वाभाविक था. पर जब मैं ने उन्हें यह बताया कि मेरे प्यार का सफर एक बिंदु पर ही अटका हुआ है तो वे सब के सब सलाहकार बन गए.

एक ने कहा –

‘अगर वह प्यार न करती होती तो चल कर पार्क तक आती ही क्यों.’

बात ठीक लगी.

दूसरे ने कहा –

‘अच्छे संस्कारों वाली होगी. शी वोंट कम रनिंग ऐंड ले डाउन विद यू.’

यह बात अनजाने ही मन को सुख का एहसास करा गई.

तीसरे ने कहा-

‘ऐसा करो, एक दिन पार्क में तुम देर से जाओ. अगर वह बैठ कर तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही तो पक्का है कि वह तुम्हें प्यार करती है. और अगर उठ कर वापस चली गई, तो समझ लेना कि यह सब खेल था.’

यह बात सब को जम गई. सब की सहमति से आने वाले मंगलवार को ही यह निर्णायक प्रयोग करने का निर्णय ले लिया गया.

गिनगिन कर दिन काटे. आखिर, मंगलवार आया. क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा था, मुझे कोई ज्ञान नहीं. देर करनी थी, सो, बैठा रहा. जैसे ही निर्णायक घड़ी आई, मैं भारीभारी पैर उठाता पार्क की ओर चल दिया. मित्रों ने मुझे ऐसे विदा किया जैसे मैं श्मशान घाट जा रहा हूं.

मुझे नहीं मालूम था कि दिल इतनी तेज भी धड़क सकता है. पार्क के गेट की ओर बढ़ते हुए मेरे हाथपैर लगभग कांप रहे थे पर, जैसे ही मेरी दृष्टि ने पार्क के भीतर प्रवेश किया, दिल बल्लियों उछल पड़ा. वह पार्क की उसी बैंच पर बैठी अपने पैर के अंगूठे से जमीन पर कुछ रेखाचित्र बना रही थी.

मेरी गति में अचानक तेजी आ गई. मैं लगभग भागता हुआ बैंच तक जा पहुंचा. वह मुसकराई और एक ओर खिसक कर मेरे बैठने के लिए ज्यादा जगह बना दी.

मन के भीतर अब तक पनपते अपनेपन की जगह अब अधिकार भाव ने ले ली थी. इसलिए बैंच पर बैठते ही मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच दबा लिया. वह सकुचाई जरूर, पर प्रतिरोध नहीं किया.

मेरे मन का विश्वास अब चरम पर था. मैं ने बिना किसी हिचकिचाहट के सीधेसीधे उस से प्रश्न कर दिया, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’

वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए बैठी पैर के अंगूठे से जमीन पर रेखाचित्र बनाती रही.

मैं उतावला हो रहा था. मैं ने अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘बोलो, शादी करोगी मुझ से?’’

वह सिर झुकाएझुकाए ही धीरे से बोली, ‘‘इस के लिए आप को हमारी मम्मी से मिलना होगा.’’

मेरा मन बेकाबू हो उठा था, ‘‘हां…हां, क्यों नहीं. बोलो, कब, कहां?’’

वह थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, ‘‘पूछ कर बताऊंगी.’’

इतना कह कर वह एकदम उठी और चल दी. गेट के पास पहुंच कर उस ने एक बार मुड़ कर मेरी ओर देखा और बाहर चली गई.

अब मेरा एकएक दिन मुश्किल से कट रहा था, अगले मंगलवार के इंतजार में.

आखिर वह दिन आया. अब समस्या थी कि दोपहर तक का समय कैसे काटा जाए. कालेज जाने का कोईर् फायदा लग नहीं रहा था. सो, सड़कों के चक्कर काटकाट कर सूरज के चढ़ने को निहारता रहा.

समय होते ही मैं पार्क की ओर भागा.

मैं जब पार्क में पहुंचा तो यह देख कर थोड़ी निराशा हुई कि बैंच अभी खाली पड़ी थी. खैर, मैं अपनी उसी जगह जा कर बैठ गया जहां मैं अकसर बैठा करता था. मेरी नजर गेट पर ही टिकी रही.

जैसेजैसे समय बीत रहा था, एक अनजान सा डर मुझे परेशान किए था. तभी एक गरीब सा दिखने वाला आदमी मेरी ओर बढ़ने लगा. वह जैसे ही पास आया उस ने एक मुड़ा हुआ कागज मेरी ओर बढ़ाया. कंपकंपाते हाथों से वह कागज मैं ने उस से लिया और जल्दी से खोल कर पढ़ा. उस में लिखा था –

‘आप इन के साथ चले आएं. ये आप को पहुंचा देंगे.’

जो कुछ हो रहा था उस ने मुझे सारी हालत पर विचार करने को मजबूर कर दिया था. पहले मैं ने उस आदमी को गौर से देखा. यह वही आदमी था जिस के रिकशे पर वह पार्क आयाजाया करती थी. तब मैं ने उस आदमी को आगे चलने का इशारा किया और मैं उस के पीछे हो लिया.

मैं इस सड़क पर कभी बहुत आगे तक गया नहीं था, इसलिए मुझे पता नहीं था कि यह सड़क आगे जा कर एक पतली गली जैसी हो जाती है. छोटीछोटी ढेरों दुकानें, खुली नालियां

और एकदूसरे को धकियाती भीड़. मुझे लगा कि शायद सफाई कर्मचारियों को

इस रास्ते का पता मालूम नहीं होगा.

थोड़ा आगे जा कर रिकशा रुक गया. रिकशे वाले ने एक गहरी सांस ली और बोला, ‘‘बाबू साहब, रिकशा इस के आगे न जा पाएगा. दस कदम आगे चल कर बाईं ओर की गली नंबर 10 में मुड़ जाइएगा. 2 कोठियां छोड़ कर एक जीना ऊपर जाता दिखेगा. बस, उस में चढ़ जाइएगा, मैडम मिल जाएंगी.’’

मैं ने उसे पैसे देने की कोशिश की, पर उस ने लिए नहीं. जहां कहीं मैं इस समय था वह जगह ऐसी लग रही थी जैसे यह शहर का हिस्सा है ही नहीं. जगहजगह टूटे प्लास्टर वाले रंगबिरंगे मकान लगभग वैसे ही लग रहे थे जैसे माचिस की ढेर सारी डब्बियां एकदूसरे के ऊपर रख दी गई हों. हर मकान के बाहर, धूप में सूखते मैलेकुचैले कपड़े और दीवारों पर चिपकी पान की पीक के अलावा जगहजगह पी हुई बीड़ीसिगरेटों के बचे टुकड़े बिखरे पड़े थे.

अब मुझे डर लगने लगा था, पर फिर भी, पैर अनजाने ही आगे बढ़ते चले जा रहे थे. तभी सामने की दीवार पर एक जंग खाई टीन की पट्टी लगी दिखाई दी, जिस पर लगभग मिटता हुआ सा लिखा था- ‘गली नंबर-10.’ मैं उस ओर मुड़ गया.

गली के मुहाने पर ही पड़ी प्लास्टिक की कुरसी पर एक पुलिसमैन बैठा दिखाई दिया. उसे पुलिसमैन मानने में तनिक शंका हो रही थी. पैंट से बाहर निकली मुड़ीतुड़ी कमीज, मुंह में भरी पान की पीक, बिना धुला सा चेहरा. पर हां, हाथ में डंडा जरूर था.

वह मेरी ओर देख कर मुसकराया. मैं ने भी मुसकरा कर मुसकराहट का उत्तर दे दिया. मुझे मुसकराते देख वह इतनी जोर से हंसा कि उस के मुंह में भरी पीक उछल कर उस की कमीज पर आ गिरी. मुझे यह सब देख उबकाई सी आने लगी, इसलिए मैं तेजी से आगे बढ़ गया.

रिकशे वाले द्वारा बताई सीढ़ी सामने थी. एकदम पतला सा जीना था और जीने की दीवारें बहुत ही ज्यादा गंदी थीं. छोटीछोटी सीढि़यों पर पैर तो मैं ने रख दिए पर मन में ‘आगे जाऊं या पीछे’ की उलझन और बढ़ गई. सोच रहा था ‘नर्क में भी अप्सराएं रहती हैं, ऐसा तो कभी किसी ने बताया नहीं. या कहीं, मेरे साथ कोई उपहास प्रायोजित तो नहीं किया गया है.’ अपनी सुरक्षा का डर भी जोर पकड़ने लगा था. तभी सामने एक दरवाजा आ गया. दरवाजे के बाजू में लिखा था ‘नं.-3.’

मेरा हाथ दरवाजा खटखटाने को आगे बढ़ गया. भीतर से किसी महिला की आवाज आई, ‘‘खुला है, तशरीफ ले आइए.’’

पसोपेश की हालत में होते हुए भी पैर आगे बढ़ ही गए. अब मैं एक बड़े कमरे में खड़ा था. कमरे में कई दरवाजे खुल रहे थे जिन पर परदे पड़े हुए थे. सामने वाली दीवार के साथ एक तख्त बिछा हुआ था जिस पर गहरे रंग की चादर बिछी थी और इधरउधर 2-3 मसनद जैसे तकिए भी लगे थे. मसनदों का रंग भी चादर की तरह सुर्ख था.

तख्त पर एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी जिस के दोनों हाथ किसी कड़ी चीज को काटने में व्यस्त थे और आंखें मेरे ऊपर गड़ी हुई थीं. वे बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘बैठिए.’’

मैं ने इधरउधर देखा. बेंत से बनी कई कुरसियां पड़ी थीं. मैं ने एक कुरसी खींची और उस पर बैठ गया.

मेरी नजर महिला पर कम, इधरउधर के वातावरण पर ज्यादा थी. मैल की आगोश में लिपटी दीवारें, कमरों के दरवाजों पर झूलते सिल्की परदों से मेल नहीं खा रही थीं.

मन घबराने लगा था. तभी वे महिला जो शायद उस की मम्मी ही रही होंगी, धीरे से बोलीं, ‘‘क्या सोच रहे हो, हम ने आप को यहां क्यों बुलाया. किसी बेहतर जगह भी तो बुला सकते थे. पर…पर वह हमारी नजर में आप के साथ धोखा होता.’’

इस के बाद वे थोड़ी देर चुप रहीं. फिर कुछ बैठी सी आवाज में बोलीं, ‘‘धोखा दे कर, बाद में उस का अंजाम भुगतना अब हमारे बूते का नहीं रह गया है बरखुरदार.’’

यह कहतेकहते शायद उन का गला भर आया था, इसलिए वे चुप हो गईं. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ पुरानी यादें उन के जेहन में उतर आई थीं.

मैं चुप ही रहा.

सुपारी काटने में व्यस्त उन के हाथों

की गति पहले से तेज हो गई थी.

शायद वे अपने मन के आवेश को कड़ी सुपाड़ी के ऊपर उतारने की कोशिश कर रही थीं. वे अचानक फिर से बोलीं, ‘‘आंखें बूढ़ी हो गईं एक ऐसे मर्द का दीदार करने की ख्वाहिश में जिस में इतनी हिम्मत हो कि वह औरत के जिस्म के सौदागरों को चुनौती दे सके.’’ उन की तकलीफ मुझे झकझोरने लगी थी.

वे शायद अपने आंसू रोकने की कोशिश कर रही थीं. थोड़ी देर चुप रहीं. फिर वे बोलीं, ‘‘यहां तक आने की हिम्मत दिखाई है तुम ने. तो सुनो, गौर से सुनो, यहां रह रही सैकड़ों लड़कियों की कराहती आवाजें जो चीखचीख कर पूछ रही हैं कि इन का क्या कुसूर था. कुसूर तो कमबख्त वक्त का था जिस ने इन्हें बदनाम कोख में ला पटका.’’

मेरे चिंतन पर प्रश्नचिह्न लग गया था.

मेरे कानों में सैकड़ों कराहते नारी स्वर गूंजने लगे थे. मेरी आंखें गीली हो आई थीं.

वे फिर बोलीं. इस बार उन की आवाज में कुछ उत्तेजना सी थी, ‘‘साहबजादे, अगर एक मासूम को इस नरक से निकालने का हौसला रखते हो तो जाओ अपने मांबाप, घरखानदान वालों से पूछो कि क्या वे गली नंबर-10 के कोठे नंबर-3 की एक लड़की को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हैं.’’

मैं खामोश था.

वे चुप थीं.

थोड़ी देर चुप रह कर वे तनिक धीमी आवाज में बोलीं, ‘‘अगर वे हां कर दें तो हमें खबर कर देना. हम बेटी को दुलहन बना कर खुद छोड़ने आ जाएंगे.’’

वे थोड़ा सा चुप हुईं और फिर कराहती सी आवाज में बोलीं, ‘‘और अगर ‘न’ कर दें तो तुम फिर कभी इस ओर मत आना. ये बदनाम गलियां हैं. बेकार में बदनाम हो जाओगे.’’

वे बहुत थकी सी लगने लगी थीं. वे धीरेधीरे उठीं और बिना मेरी ओर देखे पीछे के कमरे के अंदर चली गईं.

अब एकदम सन्नाटा हो गया था.

मैं कुरसी पर बैठा अपनी चेतना लौटने का इंतजार करता रहा. फिर मैं भी कुरसी से उठा और धीरेधीरे बाहर की ओर चल दिया.

मुझे लग रहा था कि कमरे के दरवाजे पर पड़े परदे के पीछे से याचनाभरी

2 आंखें मेरा पीछा कर रही हैं.

मैं कितनी ही कोशिशें करने के बाद  घर वालों से कुछ न कह सका और न कभी फिर वह लड़की ही मिली. दिनदहाड़े आगरा घूमनेफिरने के बाद टैक्सी वाला तारीफों के पुल बांधते हुए हमें एक दुकान में यह कह कर ले गया कि यहां आगरा की प्रसिद्ध वस्तुएं फिक्स रेट पर मिलती हैं. दुकान के पहले छोर में हैंडीक्राफ्ट के आइटम रखे थे, जिन के दाम और क्वालिटी पहली नजर में हमें बाजार की अपेक्षा उचित लगे. हम ने कुछ आइटम खरीद लिए.

दुकान पर हमारा भरोसा जमता देख, दुकानदार आग्रह कर के हमें दुकान के दूसरे छोर में ले गया जहां हैंडलूम के आइटम थे.

हमारे लाख मना करने के बाद कि हमारे पास खरीदारी के लिए पैसे ही नहीं हैं, वह बोला, ‘‘अरे साहब, पैसे कौन मांग रहा है. आप आइटम तो पसंद कीजिए. जितने का भी सामान हो उस का सिर्फ 40 फीसदी दे जाइए, हम सामान पार्सल से आप के घर भेज देंगे. डाक का खर्च हमारा रहेगा, बाकी पैसे दे कर पार्सल छुड़ा लेना.’’

हमारे नानुकुर करने के बाद भी वह एक साड़ी मेरी मिसेज को दिखाते हुए बोला, ‘‘बहनजी, यह बांस (बैंबू)

की साड़ी आगरा की प्रसिद्ध साड़ी

है, इसे जरूर ले जाइए, कीमत मात्र 1,200 रुपए.’’

मैं ने पत्नी को एकदो साड़ी खरीदने की सहमति दे डाली. फिर क्या था, मोहतरमा ने 6 साडि़यां पैक करा डालीं.

दुकानदार ने प्रत्येक साड़ी के कोने में हमारे हस्ताक्षर करा लिए ताकि साडि़यों के बदले जाने की गुंजाइश न रहे. दुकानदारी के तरीके से प्रभावित हो कर हम इतने निश्ंिचत हो गए कि बिल की काउंटरफाइल में लिखी शर्तों को पढ़े  बगैर हम ने उन की शर्तों पर साइन कर दिए. सारी जेबें खंगालने के बाद 3 हजार रुपए अदा कर के हम अपने घर को विदा हो लिए.

घर पहुंचने के एक हफ्ते के अंदर पार्सल भी पहुंच गया. डाकिया बाकी के 3 हजार रुपए के अलावा 125 रुपए डाकखर्च भी मांगने लगा. हमारे यह कहने पर कि डाकखर्च तो दुकानदार ने दे दिया होगा, वह बोला, ‘‘नहीं, बकाया डाकखर्च देने पर ही मैं पार्सल आप को दे सकता हूं.’’ 125 रुपए के पीछे 3 हजार फंसते देख हम ने पार्सल छुड़ा लिया.

हम ने पार्सल खोला. हस्ताक्षरयुक्त साडि़यां पा कर तसल्ली हुई. आगरा की निशानी के नाम पर बड़े उत्साह से पहनने के बाद एक ही धुलाई में साडि़यों का सारा आकर्षण भी धुल गया. इस ठगी की कटु याद आज भी मुझे कचोटती है.

लेखक-सुबोध मिश्र

वह बदनाम लड़की : आकाश की जिंदगी में कैसे आया भूचाल

आकाश जैसे एक खूब पढ़ेलिखे व काबिल इनसान की एक कालगर्ल से यारी…? यकीन मानिए, वह अपनी पत्नी प्रिया को पूरा प्यार देने वाला अच्छा इनसान है और हवस मिटाने के लिए यहांवहां झांकना भी उसे हरगिज गवारा नहीं है. इस के बावजूद वह टीना को दिलोजान से चाहता है, उस की इज्जत करता है.

आप के दिमाग में चल रही कशमकश मिटाने के लिए हम आप को कुछ पीछे के समय में ले चलते हैं. कुछ साल हो गए हैं आकाश को बैंगलुरु आए हुए. एक छोटे कसबे से निकल कर इस महानगरी की एक निजी कंपनी में जब क्लर्की का काम मिला तो पत्नी प्रिया को भी वह अपने साथ यहां ले आया था और उस के नन्हेमुन्ने प्रियांशु ने भी यहीं पर जन्म लिया था.

औफिस से अपने किराए के घर और घर से औफिस, यही आकाश की दिनचर्या बन चुकी थी. ऐसे ही एक दिन वह बस में सवार हो कर औफिस जा रहा था कि कंडक्टर की बहस ने उस का ध्यान खीच लिया. एक बेहद हसीन लड़की शायद पैसे घर पर ही भूल आई थी और कंडक्टर बड़े शांत भाव से पैसों का तकाजा कर रहा था. उस लड़की के चेहरे के भाव उस की परेशानी बयां करने के लिए काफी थे.

न जाने आकाश के मन में क्या आया कि उस ने लड़की के टिकट के पैसे अदा कर दिए. वह उसे ‘थैंक्स’ कह कर पीछे की सीट पर बैठ गई. आकाश ने भी पैसों को ज्यादा तवज्जुह नहीं दी और अपना स्टौप आते ही नीचे उतर गया.

आकाश कुछ कदम ही चला था कि हांफते हुए वह लड़की एकदम उस के आगे आ कर खड़ी हो गई और बोली, ‘‘सर… आप के पैसे मैं कल लौटा दूंगी. हुआ यह कि मैं आज जल्दी में अपने पर्स में पैसे डालना ही भूल गई.’’

आकाश ने उस का चेहरा देखा तो अपलक निहारता ही रह गया. फिर जैसे उसे अपनी हालत का बोध हुआ. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘मैडम, वह इनसान ही क्या, जो इनसान के काम न आए. आप पैसों की टैंशन न लें.’’

‘‘नहीं सर, आप ने आज मुझे शर्मिंदा होने से बचा लिया. प्लीज, मुझे अपना घर या औफिस का पता बता दें. मैं किसी का अहसान नहीं रख सकती.’’

‘‘तो फिर कल मैं बिना टिकट बस में चढ़ूंगा. आप मेरा टिकट ले कर अहसान चुका देना,’’ आकाश के इस अंदाज ने उस लड़की के होंठों पर हंसी बिखेर दी.

साथसाथ चलते हुए आकाश को पता चला कि उस का नाम टीना है और वह प्राइवेट नौकरी करती है. काम के बारे में पूछने पर वह हंस कर टाल गई. साथ ही, यह भी पता चला कि वह इस महानगरी के पौश इलाके छायापुरम में रहती है. बाकी उस की बातें, उस का लहजा उस के ज्यादा पढ़ेलिखे होने का सुबूत दे ही रहा था.

आकाश ने उसे वापसी के खर्च के लिए 100 रुपए देने चाहे, लेकिन उस ने कहा कि उस की सहेली इस जगह काम करती है. वह उस से पैसा ले लेगी.

आकाश के औफिस का पता ले कर पैसे आजकल में लौटाने की बात

कह कर वह चली गई. न जाने उस छोटी सी मुलाकात में क्या जादू था कि आकाश दिनभर टीना के बारे में ही सोचता रहा.

अगले दिन आकाश ने टीना का इंतजार किया, पर वह नहीं आई. कुछ दिन बीत गए. आकाश के दिमाग से अब वह पूरा वाकिआ निकल ही गया था.

आज काम की भारी टैंशन थी. आकाश अपने केबिन में फाइलों में सिर खपाए बैठा था कि किसी ने पुकारा, ‘‘हैलो, सर.’’

काम की चिंता में गुस्से से सिर उठाया तो सामने टीना को देख आकाश का सारा गुस्सा काफूर हो गया.

‘‘सौरी सर, मैं आप के पैसे तुरंत नहीं लौटा पाई. दरअसल, मेरा इस तरफ आना ही नहीं हुआ,’’ वह एक ही सांस में कह गई.

आकाश ने उसे कुरसी पर बैठने का इशारा करते हुए चपरासी को कौफी लाने को बोल दिया. इस बीच उन दोनों में हलकीफुलकी बातों का दौर शुरू हो गया.

आकाश को अच्छा लगा, जब टीना ने उस के बारे में, उस के परिवार और उस के शौक का भी जायजा लिया. लेकिन तब तो और भी अच्छा लगा, जब आकाश के शादीशुदा होने की बात सुन कर भी उस के चेहरे पर किसी तरह के नैगेटिव भाव नहीं उभरे.

आकाश अंदाजा लगाने लगा कि टीना उस के बारे में क्या सोच बना रही होगी, पर वह नहीं चाहता था कि उस से बातों का यह सिलसिला यहीं टूट जाए.

आकाश की इस हालत को टीना ने भी महसूस किया और कौफी की घूंट भर कर कहा, ‘‘आकाशजी, आज तक न जाने मैं कितने मर्दों से मिली हूं लेकिन आप से जितनी प्रभावित हुई हूं, उतनी कभी किसी से नहीं हुई.’’

आकाश खुद पर ही इतरा गया. आखिर में उस के जज्बात शब्दों में उमड़ ही आए, ‘‘क्या हम अच्छे दोस्त बन सकते हैं?’’

टीना ने मूक सहमति तो दी, लेकिन यह भी साफ कर दिया कि आकाश के शादीशुदा होने के चलते उस की पत्नी प्रिया को वह दोस्ती हरगिज गवारा नहीं होगी. पर आकाश का बावला मन तो किसी भी तरह उस के साथ के लिए छटपटा रहा था. आकाश ने बचकाने अंदाज में बोल दिया, ‘‘हमारी दोस्ती के बारे में प्रिया को कभी पता नहीं चलेगा. मैं दोस्ती तो निभाऊंगा, पर पति धर्म मेरे लिए बढ़ कर होगा.’’

टीना ने सहमति जताई और आकाश को अपना मोबाइल नंबर दे कर चली गई. आकाश फिर से अपने काम में जुट गया. फाइलों का जो ढेर उसे सिरदर्दी दे रहा था, अब वह पलक झपकते ही निबट गया.

मोबाइल फोन पर मैसेज और बातों का सिलसिला शुरू हो गया. शाम को टीना ने आकाश को अपने घर बुला लिया. घर क्या आलीशान बंगला था, जिस के आसपास सन्नाटा पसरा हुआ था. टीना के दरवाजा खोलते ही शराब का तेज भभका आकाश की नाक से टकराया. टीना ने उसे भीतर बुला कर दरवाजा बंद कर दिया.

आकाश कुछ सोचनेसमझने की कोशिश करता, इस से पहले ही टीना ने उसे बैठने का संकेत किया और खुद उस के सामने सोफे पर पसर गई और बोली, ‘‘तुम मेरा यह अंदाज देख कर हैरान हो रहे होगे न. दरअसल, आज मैं तुम से अपनी जिंदगी के कुछ गहरे राज बांटना चाहती हूं.’’

चंद पल चुप रहने के बाद टीना बोली, ‘‘हम अपनी जिंदगी में एक नकाब ओढ़े रहते हैं. यह ऊपर का जो चेहरा है न, यह सब को दिखता है, पर जो चेहरा अंदर है उसे कोई दूसरा नहीं देख पाता. तुम भी सोच रहे होगे कि मैं कैसी बहकीबहकी बातें कर रही हूं. पर आकाश, मैं ने तुम्हारे अंदर एक सच्चा इनसान, एक सच्चा दोस्त देखा है

जो जिस्म नहीं, दिल देखता है. और इस दोस्त से मैं भी कुछ छिपा

कर नहीं रखना चाहती… तुम मेरी नौकरी पूछते थे न? तो सुनो, मैं एक कालगर्ल हूं,’’ इतना कह कर वह ठिठक गई.

आकाश को झटका सा लगा. उस के होंठ कुछ कहने को थरथराए, इस

से पहले ही टीना बोली, ‘‘मेरी कोई मजबूरी नहीं थी, न ही किसी ने मुझे जबरन इस धंधे में धकेला. मेरे बीटैक होने के बावजूद कोई भी नौकरी, कोई भी तनख्वाह मेरी ऐशोआराम की जरूरतें, मेरे शाही ख्वाब पूरे नहीं कर सकती थी, इसलिए मैं ने अपने रूप, अपनी जवानी के मुताबिक देह का धंधा चुना. तुम यह जो आलीशान फ्लैट देख रहे हो, यह मैं नौकरी कर के कभी नहीं बना सकती थी.

‘‘आकाश, मैं ने बहुत पैसा कमाया, बहुत संबंध बनाए, लेकिन रिश्ता नहीं कमा सकी. मैं कोई ऐसा शख्स चाहती थी जिसे मैं खुल कर अपनी भावनाएं साझा कर सकूं. लेकिन हर किसी की नजरें मेरे जिस्म से हो कर गुजरती थीं. यही वजह है कि तुम्हारे अंदर की सचाई देख कर मैं खुद तुम्हारी दोस्ती को उतावली थी. पर मुझे यह मंजूर नहीं

हो रहा था कि मैं अपने दोस्त को अंधेरे में रखूं,’’ कह कर उस ने आकाश को सवालिया नजरों से देखा.

‘‘टीना, मैं तुम्हारे काम के बारे में सुन कर चौंका तो जरूर हूं, लेकिन मुझे झटका नहीं लगा. तुम ने जिस बेबाकी से मुझे अपने बारे में बताया, उसे जान कर मेरी दोस्ती और गहरी हुई है.

‘‘मेरी जानकारी में ऐसी कई और

भी लड़कियां और औरतें हैं, जिन्होंने शराफत का चोला ओढ़ रखा है, लेकिन उन के नाजायज रिश्तों ने आपसी रिश्तों को ही बदनाम कर दिया है. भले ही यह पेशा अपनाना तुम्हारी मजबूरी न हो, लेकिन दिलोदिमाग और जिस्मानी मेहनत तो इस में भी है. हर किसी को अपनी जरूरत के मुताबिक काम चुनने का हक है. कानून और समाज भले ही इसे नाजायज माने, लेकिन मैं इस में कुछ भी गलत नहीं मानता.’’

‘‘दोस्त, मैं तुम्हारी सोच की कायल हूं. अच्छा यह बताओ, क्या पीना चाहोगे…’’

‘‘फिलहाल तो मैं कुछ नहीं लूंगा. अच्छा, तुम्हारे परिवार में और कौनकौन हैं?’’

‘‘मेरी मम्मी बचपन में ही चल बसी थीं और पापा की मौत 2 साल पहले हुई. वे इलाहाबाद में रहते थे लेकिन अपनी आजादी के चलते मैं ने बैंगलुरु आना ही मुनासिब समझा. अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारा चेहरा क्यों लटका हुआ है.’’

‘‘कोई खास बात नहीं है,’’ कह कर आकाश ने टालने की कोशिश की, पर टीना के जोर देने पर उसे बताना पड़ा, ‘‘मेरा नया बौस मुझे बेवजह परेशान कर रहा है.’’

‘‘चिंता न करो. सब ठीक हो जाएगा. अब तो मेरे हाथ की बनी कौफी ही तुम्हारा मूड ठीक करेगी,’’ टीना ने कहा.

कौफी वाकई उम्दा बनी थी. तरावट महसूस करते हुए आकाश ने उस से विदा लेनी चाही. न जाने आकाश के दिल में क्या भाव उभरे कि उस ने टीना से लिपट कर उस का चेहरा चूमना चाहा, तो वह छिटक कर पीछे हट गई और बोली, ‘‘दोस्त, दूसरों और तुम्हारे बीच में बस यही तो फासला है. क्या इसे भी मिटाना चाहोगे…’’

गर्मजोशी से इनकार में सिर हिलाते हुए आकाश ने उस से विदा ली.

अगले 2 दिनों में बौस के तेवर बिलकुल बदले देखे तो आकाश को यकीन न हुआ. साथ में काम करने वालों में से एक ने कहा, ‘‘यार, क्या जादू चलाया है तू ने? कल तक तो यह तुझे काट खाने को दौड़ता था और अब तो तेरा मुरीद हो कर रह गया है. अब तो तेरी प्रमोशन पक्की.’’

अगले ही महीने आकाश का प्रमोशन कर दिया गया. जब उस ने यह खुशखबरी टीना को सुनाई, तो उस ने मुबारकबाद दी.

आकाश ने पूछा, ‘‘यह सब कैसे हुआ टीना?’’

‘‘बौस शायद तुम्हारे काम से खुश हो गया होगा.’’

‘‘टीना, प्लीज सच क्या है?’’

‘‘सच तो यह है कि मुझ से अपने दोस्त का लटका चेहरा देखा नहीं

गया और…’’

‘‘और क्या?’’

‘‘और यह कि सख्त दिखने वाले बुढ़ऊ ही महफिल में हुस्न के तलबे चाटते हैं. वैसे, तुम चिंता न करो. उसे मेरी और तुम्हारी दोस्ती की कोई खबर नहीं है.’’

‘‘टीना, मेरे लिए तुम ने…’’

‘‘बस, अब भावुक मत होना. और कोई परेशानी हो तो साफ बताना.’’

उस दिन से आकाश के मन में टीना के लिए और ज्यादा इज्जत बढ़ गई. वह उस के लिए सच्चे दोस्त से बढ़ कर साबित हुई.

कुछ दिन बाद जब आकाश ने अपने लिए एक छोटा सा घर खरीदने के लिए बैंक के कर्ज के बावजूद 2 लाख रुपए कम पड़े तो टीना ने उसे इस मुसीबत से भी उबार दिया.

हालांकि आकाश ने उसे वचन दिया कि भविष्य में वह यह रकम उसे जरूर वापस लौटाएगा.

अब आकाश के दिल में टीना के लिए प्यार की भावना उछाल मारने लगी थी. लेकिन उस ने कभी इन जज्बातों को खुद पर हावी न होने दिया. वह औफिस से छुट्टी के बाद आज शाम को फिर टीना के घर पर था.

‘‘टीना, मैं तुम्हारा सब से अच्छा दोस्त हूं तो फिर मुझ से ऐसी दूरी क्यों?’’

‘‘आकाश, अकसर हम मतलबी बन कर दूसरे रिश्तों खासकर अपनों को भूल जाते हैं. फिर क्या तुम नहीं मानते कि दोस्ती दिलों में होनी चाहिए, जिस्म की तो भूख होती है?’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहता. मेरे लिए तुम ही सबकुछ हो…’’ भावनाओं के जोश में आकाश ने लपक कर उसे अपनी बांहों के घेरे में कस लिया. उस के लरजते लबों ने जैसे ही टीना के तपते गालों को छुआ, उस की आंखें मुंद गईं. सांसों के ज्वारभाटे के साथ ही उस की बांहें भी आकाश पर कसती चली गईं.

‘टिंगटांग…’ तभी दरवाजे की घंटी बजते ही टीना आकाश से अलग हुई. उसे जबरन एक तरफ धकेल कर टीना ने दरवाजा खोला. कोरियर वाला उसे एक लिफाफा थमा कर चला गया. आकाश ने लिफाफे की बाबत पूछा तो उस ने लिफाफा अलमारी में रख कर बात टाल दी.

जब आकाश ने दोबारा उसे अपनी बांहों में लिया तो उस ने आहिस्ता से खुद को उस की पकड़ से छुड़ा लिया और बोली, ‘‘नहीं आकाश, यह सब करना ठीक नहीं है.’’

आकाश नाराजगी जताते हुए वहां से चला गया.

अगले दिन जब सुबह टीना ने मोबाइल फोन पर बात की तो आकाश ने काम का बहाना बना कर फोन काट दिया. वह चाहता था कि टीना को अपनी गलती का अहसास हो.

रात को 10 बजे मोबाइल फोन बज उठा. टीना का नंबर देख कर आकाश कांप गया. नजर दौड़ाई. प्रिया और प्रियांशु सो रहे थे. उस ने फोन काट दिया. मोबाइल फोन फिर बजने पर आकाश ने रिसीव किया तो उधर से टीना का बड़ा धीमा स्वर सुनाई दिया. ‘‘हैलो आकाश, कैसे हो? नाराज हो न?’’

आकाश नहीं चाहता था कि प्रिया उठ जाए और उसे टीना की भनक तक लगे, इसलिए फौरन कहा, ‘‘नहीं, नाराज नहीं. कहो, कैसे याद किया?’’

‘‘दोस्त, तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. मैं तुम्हें अभी अपने पास देखना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं देखता हूं.’’

तभी प्रिया ने करवट बदली तो आकाश ने फोन काट कर मोबाइल स्विच औफ कर दिया. अब जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था. प्रिया को क्या जवाब देगा भला… और टीना को इस समय फोन करने की क्या सूझी? कल तक इंतजार नहीं कर सकती थी?

इसी उधेड़बुन में आकाश की आंख लग गई.

सुबह उठते ही प्रिया ने रोज की तरह अखबार की सुर्खियों को टटोलते हुए कहा, ‘‘छायापुरम में अकेली रहने वाली कालगर्ल की मौत.’’

आकाश फौरन बिस्तर से उठ कर बैठ गया. खबर में उस की उत्सुकता देख प्रिया ने पूरी खबर पढ़ी, ‘‘छायापुरम में तनहा जिंदगी बसर करने वाली टीना की कल देर रात ब्रेन हैमरेज से मौत हो गई. वह देह धंधे से जुड़ी बताई जाती थी. डाक्टर के मुताबिक टीना काफी समय से दिमागी कैंसर से पीडि़त थी. कल रात हालत बिगड़ने पर पड़ोसियों ने उसे अस्पताल पहुंचाया, लेकिन रास्ते में ही उस ने दम तोड़ दिया.’’

खबर पढ़ने के बाद प्रिया ने कह दिया, ‘‘ऐसी औरतों का तो यही हश्र होता है,’’ और उस ने आकाश की तरफ देखा.

आकाश की आंखों में पानी देख कर उस ने वजह पूछी. आकाश ने सफाई दी, ‘‘कुछ नहीं, आंखों में कचरा चला गया है. मैं अभी आंखें धो कर आता हूं.’’

संदीप कुमार

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