आलू वड़ा

‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया. मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

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‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

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‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

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करो ना क्रांति: राजकुमारी को क्या मिला था सबक

आज़ादी का दिन जब पहली बार आयोजित किया गया होगा, कितना उल्लास रहा होगा हर भारतीय के मन में. परन्तु आज आज़ादी के ७० वर्ष बाद यह कोरोना का लौकडाउन महज़ छुट्टी का एक दिन भर रह गया हैं. पुरुष पूरा दिन आदेश देने में व्यतीत करते हैं और स्त्रियाँ उसे पूरा करने में. प्रकृति ने भी स्त्री और पुरुष की रचना करते समय अंतर किया था. सारी पीड़ा तो स्त्री के हिस्सें मे डाल दी और पुरुष को दे दिया कठोर संवेदनहीन दिल. स्त्रियाँ तो १५ अगस्त १९४७ के पूर्व भी पराधीन थीं, और आज भी हैं. स्त्रियाँ भी अपनी इस दशा के लिए कम उत्तरदायी नहीं हैं क्योंकि पराधीनता को अपनी नियति मान स्वीकार भी तो उन्होंने ही किया है, शायद धर्म के धुरंधर प्रचार के कारण.

“भाभी हल्वे में चीनी कितनी डालूँ ?” विराज के तेज़ी से दोड़ते सोच के घोड़ों को अदिति की आवाज़ के चाबुक ने लगाम लगा कर रोक दिया था.जमीनी हकीकत जानते हुए भी, पता नहीं क्यों उसके मन के भीतर सोयी हुई एक्टिविस्ट गाहे-बगाहे जाग उठती थी.अमर की आदेशों की लिस्ट लंबी होती जा रही थी. घर के काम में उसकी सहायता के लिये आने वाली बाई विमला को भी संक्रमण के खतरे की वजह से उसने छुट्टी दे दी थी. पता नहीं वह कैसे गुजारा कर रही होगी. कहा भी था कि उसे घर पर ही रहने दें, कुछ आराम हो जाएगा और उसको वेतन भी दिया जा सकेगा.

इन्हें ही लगा थाकि न जाने कहां से कोरोना लें आई हो. मेरी एक नहीं चली. सब ने कहा कि वे खुद काम कर लेंगे. पर अब घर के सभी कामों की जिम्मेदारी विराज और उसकी ननद अदिति के ऊपर आ गयी थी. अदिति दिल्ली यूनिवर्सिटी से ग्रैजुवेशन कर रही थी. विराज का प्रयास था कि अदिति पर भी कम से कम काम का दबाव पड़े. इसलिये वो अधिकतर काम स्वयं ही निबटा ले रही थी. उसके दोनों बच्चें १० साल की आन्या और १२ साल का मानव अपने कमरे में वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे. पति अमर अपने कमरे में अधलेटे हुए चाय की चुस्कियां ले रहे थें.

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अचानक वहीं से चीख कर बोलें,“सुनो आज नेटफलिक्स पर एक नयी फिल्म आयी है. सब साथ ही देखेंगे.” फिर थोड़ा रुककर बोलें, “ये तुम्हारे बच्चें इतना शोर क्यों कर रहे हैं? देखो जरा !”अन्य दिन तो वर्क फ्रौम होम होता था तो फिर भी अमर समय पर नहा लिया करते थें. लेकिन शनिवार होने के कारण महाशय छुट्टी मोड में चले गये थें. बच्चों की तो खैर, छुट्टियाँ ही थी. “बाबू साहेब सुबह से लेटे-लेटे हुक्म दे रहे हैं. मैं घर के रोजमर्या के कार्यों के साथ बढ़े हुये कामों को भी निबटाने में लगी हूँ, यह नहीं दिख रहा हैं जनाब को. जब कुछ गलत करे तो बच्चें मेरे, परन्तु जब यही बच्चें कुछ अच्छा करते हैं, तो इनके हो जाते हैं.”

सोच तो इतना कुछ लिया विराज ने परन्तु प्रत्यक्ष में इतना भर कह पाई, “जी, बस अभी देखती हूँ.”
सभी काम निबटाने में बारह बज गये थें. पूरा परिवार फिल्म देखने बैठ गया. विराज ने सोचा थोड़ा सुस्ता ले, तभी अमर की आवाज कानों में पड़ी. “अरे विराज कहाँ हो भई?”“थोड़ा थक गयी थी. सोचा लेट लेती हूँ !” विराज अनमनी सी हो गयी थी. “अरे इतनी मुश्किल से तो फैमिली टाइम मिला है. उसमें भी इन्हें सोना है !”
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अमर की बात सुनकर विराज को ऐसा मालूम हुआ जैसे गुस्से की एक लहर तनबदन में रेंग गयी हो. मन में आया कि कह दे, “फॅमिली टाइम या पैर फैलाकर ऑर्डर देने का टाइम.” वैसे आम दिनों में भी अमर घर का कोई काम नहीं करते थें. लेकिन विमला और अदिति की सहायता से काम हो जाता था. फिर विराज को थोड़ा मी टाइम भी तो मिल जाया करता था. लेकिन अब तो विराज के पास दो घड़ी बैठकर चाय पीने का भी समय नहीं था.

“अरे कहाँ रह गयी !?” अमर ने जब दुबारा बुलाया विराज को मन मारकर जाना ही पड़ा. फिल्म वाकई में अच्छी थी. विराज को भी अच्छा लग रहा था कि पूरा परिवार एक साथ बैठा था. तभी अचानक अमर ने फरमान सुनाया, “विराज पकोड़े बना लो. फिल्म के साथ सभी को मजा आ जायेगा.”“सभी को या तुम्हें !” विराज के इस अचानक पूछे गये प्रश्न पर अमर चौंक गया था. फिर थोड़ा गुस्से में बोला, “मैं तो सभी के लिये कह रहा था. तुम्हारा मन नहीं तो मत बनाओ.”

“मम्मी प्लीज” अब तो बच्चें भी चिल्लाने लगे थें. विराज उठ कर रसोई में चली गयी थी.
थोड़ी देर बाद अदिति को वहाँ बैठी देखकर, अमर बोल पड़े थे,” अरे तुम कहाँ  बैठ रही हो, अंदर रसोई में जाओ भाभी के साथ.”अदिति के चेहरे पर एक पल की झेंप को पहचान लिया था विराज ने. दोनों की नज़रें मिली और हालें दिल बयां हो गया था. विराज ने इशारे से अदिति को अंदर बुला लिया था.
अंदर रसोई में भी कुर्सियां लगी हुई थी, उनमें से एक पर अदिति को बैठने का इशारा करके विराज ने अपना सारा ध्यान गैस पर रखी हुई कढ़ाई पर लगा दिया था.

“कितनी गर्मी हैं आज!” अदिति ने बात शुरू करने के लिए यह जुमला कहा था शायद.
“हमम! चाहो तो वापस कमरे में जाकर बैठ जाओ, वहां तो ए सी लगा है.”
“नही-नहीं, मैं ठीक हूँ.”“भाभी आपको क्या लगता है, यह लॉकडाउन कब तक रहेगा?” अदिति फिर बोली थी.“देखो कब तक चलता है ! बस देश में सब ठीक रहें !” विराज ने दार्शनिक के अंदाज़ में कहा.
“भाभी मुझे आपके साथ बातें करना बहुत पसंद है.” अदिति ने बात बदल दी थी.

“आजकल हमें समय भी बहुत मिल रहा है. तुम्हारे साथ कितनी विषयों पर बातें हो जाती हैं” विराज ने उसकी बात का अनुमोदन किया था.“आप तो मेरी प्यारी भाभी है !” अदिति ने पीछे से विराज को अपने अंक में भर कर कहा था. “इसी बात पर मेरी तरफ से तुम्हें ट्रीट.” विराज ने मुस्कुराते हुए कहा.
“क्या मिलेगा ट्रीट में ?” अदिति ने पूछा था.“तुम पहले ये पकौड़े दे आओ. खाना तो तैयार ही है. तुम्हें अच्छी सी चाय पिलाती हूँ?”“भाभी आप चाय लेकर बालकोनी में चलो, मैं पकोड़े देकर आती हूँ.” अदिति ने बड़े प्यार से विराज को कहा था.

“लॉकडाउन में भी इन्हें पाँच दिन का काम और दो दिन की छुट्टी मिल रही है, परन्तु हमें कब मिलती हैं छुट्टी? यदि कुछ कहूँगी तो एक ही उत्तर मिलेगा, तुम तो सारा दिन घर में आराम ही करती हो. हमें तो बड़ी मुश्किल से छुट्टियाँ मिलती हैं. उस समय दिल करता हैं की कह दूँ, यह आराम एक दिन के लिए तुम भी लेकर देखो .” “तो कहती क्यों नहीं ?” विराज को पता ही नहीं चला था कि कब उसके मन की आवाज जबान से निकलने लगी थी. अदिति ने सब सुन लिया था. उसके प्रश्न का उत्तर सोचने में विराज को समय लगा. अदिति भी पास आकर बैठ गयी और अपना प्रश्न दोहरा दिया था. इस बार विराज बोली थी.
“अब बात तो उनकी भी पूरी तरह से गलत नहीं हैं. ऑफिस में परेशानी तो कई तरह की होती ही हैं.” अब विराज का स्वर बदल गया था.

“पुरुषों से अपने कार्य के लिए सम्मान की अपेक्षा हम तभी कर सकते हैं जब स्वयं हम अपने कार्य को सम्मानित महसूस करे.” अदिति की आँखों में चमक थी. “हमारे कार्य का कोई आर्थिक महत्व नहीं हैं, सम्मान इस दुनिया में द्रव्य सम्बन्धी हैं.” विराज ने एक आह भरकर अपनी बात रखी थी.
“मैं ऐसा नहीं मानती. कामकाजी स्त्रियों को कौन सा सम्मान ज्यादा मिल जाता हैं? घर आकर उन्हें भी चूल्हा-चौकी की इस आग में जलना ही पड़ता हैं. बाहर से थक कर दोनों ही आते हैं, परन्तु पुरुष के हिस्से आती हैं टीवी का रिमोट और सोफे का आराम. स्त्री के हिस्से आती हैं रसोई और बच्चों की पढाई.” अदिति ने उसकी इस बात का खंडन किया था.

विराज उनकी बातों को अनमने भाव से सुन रही थी कि अनायास ही नीचे की फ्लैट से आ रही एक स्त्री की आवाज ने उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था. विराज उसे नहीं जानती थी. कभी मिलने का समय ही नहीं मिल पाया था. वो और उसके पति दोनों ही इंजीनियर थें. कभी-कभी बालकोनी से उनके मध्य एक मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाया करता था.

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वो किसी से फोन पर बात कर रही थी-“मेरी राय में इसमें मर्दों से ज्यादा औरतों की गलती हैं. दोष पुरुष पर डाल कर औरत अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती. बचपन से मर्द को यह बताया जाता हैं की तेरे सारे काम करने के लिए घर में एक स्त्री हैं. उसकी परवरिश ही ऐसी होती हैं की वो स्वभाववश ही आराम पसंद हो जाता हैं. कभी माँ, कभी बहन, कभी बीवी बन कर हम औरतें ही उन्हें आलसी बना देती हैं. अब जब मर्द को यह पता हो की, घर में औरत हैं उसका काम करने को तो फिर वो क्यों अपने शरीर को कष्ट देगा. आराम किसे बुरा लगता हैं? इसलिए वो तो काम नहीं करेगा, तुझे काम करवाना पड़ेगा. उसे समझाने से पहले तुझे खुद समझना होगा की तू भी इन्सान हैं और तुझे भी आराम की उतनी ही जरुरत हैं. तुझे क्या लगता हैं रवि  हमेशा से घर के काम में मेरी मदद करता था ! नहीं, उसे खाना बनाना मैंने सिखाया हैं. अब देख मुझे से भी अच्छी खीर बनाता है. चल अब फ़ोन रखती हूँ, रवि बुला रहा है.”

फ़ोन रख कर न मालूम किस भावना के वशीभूत होकर उसने ऊपर देखा. वहाँ दो जोड़ी आँखों को अपनी ओर घूरता पाया. उन आँखों में इर्ष्या और सम्मान का भाव एक साथ मौजूद था. इर्ष्या इसलिए कि जो बात वे अभी तक सोच भी नहीं पाई थी, उसे वो इतने अच्छे से समझ गयी थी. सम्मान इसलिए कि न केवल समझी थी अपितु अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन भी ले आई थी.उन दोनो की खामोशी ने एक दूसरे से संवाद कर लिया, और एक छोटी सी चिंगारी उसकी आँखों से विराज की आँखों में प्रवेश कर गयी थी. बिना किसी शोर के एक मूक क्रांति का जन्म हुआ था.वो अंदर चली गयी थी. अदिति और विराज दोनों चुप थें.

“मध्यम वर्ग की सोच में बदलाव एक क्रांति ही ला सकती हैं.” अदिति ने चुप्पी तोड़ी थी.“तब तक …” विराज ने प्रश्न ऐसे पूछा था जैसे उत्तर उसे पहले से पता हो.“जो जैसे चल रहा है, वैसे ही चलता रहेगा.” अदिति जैसे स्वयं को समझा रही थी.उसकी बात सुनकर विराज एक मुस्कान के साथ बोली, “ बात किसी वर्ग की नहीं हैं. बात सिर्फ इतनी है कि, जो तू कहता है, बात सही लगती हैं; पर वो मेरे नहीं तेरे होठों पर सजती है.”“आप कहना क्या चाहती हैं !?” अदिति के स्वर में उत्सुकता थी.

“समाज में सकारात्मक परिवर्तन के हम सभी पक्षधर हैं. परन्तु पहला कदम उठाने से डरते हैं.  बदलाव केवल क्रांति ही ला सकती हैं, यह एक भ्रान्ति हैं. आत्मविश्वास के साथ बढे हुए छोटे-छोटे कदम भी परिवर्तन ला सकते हैं.” “जैसे की …” अदिति को विराज की बातों ने जैसे सम्मोहित कर लिया था.
“बच्चों को खाने के लिए बुला लेते हैं.” विराज ने अनायास ही बातों का रुख बदल दिया.
दोनों ही वर्तमान में लौट आये थें.“हाँ, मैं आन्या को बुला लाती हूँ. खाना लगाने में मदद कर देगी.”
“क्यों?” विराज ने अदिति की तरफ बिना देखे पूछ लिया था.??? अदिति के चेहरे पर प्रश्न था.
“मानव क्या करेगा ? पुरुष होने की उत्कृष्टता का लाभ लेगा ! बदलाव अपनी परवरिश में लाना होगा. अपने बेटों को हुक्म देने वाला नहीं, साथ देने वाला पुरुष बनाना होगा, और अपनी बेटियों को गलत का विरोध करना सिखाना होगा. तुम समझ रही हो ना !?”

विराज के इन शब्दों ने जैसे अदिति पर जादू कर दिया था. पहला कदम लेना उतना मुश्किल भी नहीं था.
“भाभी, मैं अभी मानव और आन्या को बुला कर लाती हूँ. आज उन्हें मेज़ पर खाना लगाना सिखाते हैं” लगभग उछलती हुई अदिति अंदर की तरफ चली गयी थी. कुछ सोचकर विराज भी उस तरफ चल दी थी, आखिर बड़े बच्चे को भी तो उसका नया पाठ समझाना था.

जब विराज बैठक में पहुंची तो अमर किसी से फोन पर बात कर रहे थें. टी वी बंद था. बच्चें भी अपने कमरे में जा चुके थें. अमर की स्त्री स्वतंत्रता और सशक्तिकरण पर चर्चा अभी-अभी समाप्त हुई थी. पुरुष बॉस और स्त्री बॉस में कौन ज्यादा प्रभावी होता हैं; इस प्रिय विषय पर वाद-विवाद कई घंटों तक चला था. स्त्रियों की मानसिक क्षमता का भी आंकलन हो चुका था. अभी शेरों-शायरी का दौर जारी था और श्रीमान अमर जी एक शेर सुना रहे थें.

“एक उम्र गुजार दी तेरे शहर में, अजनबी हम आज भी हैं.तेरी ख्वाहिशों के नीचे, मेरे दम तोड़तें ख्वाब आज भी हैं….”अमर ने अपनी पंक्तियाँ अभी समाप्त ही की थी की विराज ने उन्ही पंक्तियों के साथ अपने शब्द जोड़ दिए थें …. “तेरे दर्वाज़ाऐ क़ल्ब पर दस्तक देते मेरे हाँथों को देखा हैं कभी
तेरी गर्म रोटी की चाह में झुलसे मेरे हाथ तब भी थे और आज भी हैं …”

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अमर चौंक कर पलट गये थें. अपने स्वप्न में भी विराज से इस तरह के व्यवहार की उम्मीद उन्होंने नहीं की थी. उन्होंने कंधे उचका कर विराज से कारण पूछा. बेपरवाह विराज ने उनके कान पर से फोन हटाया और कॉल काट दी. कमरे में तूफान के बाद वाली शांति पसर गयी थी.अपनी दम्भी आवाज़ में अमर ने पूछा था, “यह क्या हो रहा है विराज !?

“कुछ नहीं! इस कोरोना फीवर ने मुझे दो बातें समझा दी हैं.”“अच्छा ! जरा मैं भी तो सुनूँ कौन-कौन सी !” अमर के स्वर में तल्खी थी. विराज सामने पड़े सोफ़े पर आराम से बैठकर बोली, “पहली तो ये कि सही शिक्षा किसी भी उम्र में दी जा सकती है; मात्र एक मंत्र पढ़ना है, तुम भी करो ना. दूसरी, फॅमिली टाइम घर की स्त्रियों के लिये भी होता है. घर सभी का तो घर के काम मात्र स्त्री के क्यों ! मुसीबत तो सब पर आयी है, तो उसका सामना भी तो सबको मिलकर ही करना होगा.”

इतना कहकर विराज ने पलट कर पीछे देखा. आन्या और अदिति मेज पर खाना लगा रहे थें और मानव ग्लासों में पानी भर रहा था. अमर की नजर भी विराज की नजर का पीछा करते हुये उधर ही चली गयी थी.
“सुनो !” विराज की आवाज पर अमर ने उसकी तरफ देखा.“खाना तैयार हैं, मेज़ पर लगा दिया हैं. अदिति अपना और मेरा खाना यहीं ले आयेगी.”

अमर चुपचाप अंदर की तरफ जाने लगा था कि विराज ने फिर पुकारा-“सुनो ! बड़े बर्तन तो मैंने धो दिये थें. अपने और बच्चों के बर्तन धोकर अलमारी में रख देना.” इतना कहकर बिना अमर की तरफ देखे, विराज टी वी खोलकर अपना धारावाहिक देखने में तल्लीन हो गयी थी. घर में करो ना क्रांति का बिगुल बज चुका था. टीवी से आवाज़ आ रही थी.

राजकुमार कुछ देर तक राजकुमारी के विचार परिवर्तन की राह देखता रहा. वह उनके कोमल ह्रदय को लेकर विश्वस्त था. परन्तु राजकुमारी की अनभिज्ञता उसे व्यग्र कर रही थी. उसकी निर्निमेष दृष्टि से अविचलित राजकुमारी अपनी सखियों के साथ आखेट में व्यस्त थी. राजकुमारी की ना को हाँ में बदलने का दम्भ जो उसने अपने मित्रों के सामने भरा था, वह दम तोड़ रहा था. थके क़दमों से वह आगे बढ़ गया था. इस परिवर्तन को उसने अनमने भाव से स्वीकार कर लिया था. अपनी गले में लटकती माला से खेलती हुयी राजकुमारी भी जानती थी कि यह पहला सबक था, पूरी शिक्षा अभी शेष थी.

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सिद्धार्थ की वापसी -भाग 1 : सुमित और तृप्ति शादी के बाद भी खुश क्यों नहीं थे

सुमित और तृप्ति का वैवाहिक जीवन सुचारु रूप से चल रहा था. फिर भी एक अनकही दूरी दोनों के बीच बनी हुई थी. इस का कारण था सिद्धार्थ. आखिर, कौन था यह सिद्धार्थ? ‘‘क्या बात है, सुमित. बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठे हो, कुछ चाहिए क्या?’’ तृप्ति ने सुमित को कहीं शून्य में ताकते देख प्रश्न किया, मगर सुमित स्वयं में ही डूबा बैठा रहा. ‘‘सुमित…? कहां खो गए तुम?’’ तृप्ति ने अपना स्वर ऊंचा कर फिर कहा तो मानो सुमित की तंद्रा टूटी. ‘‘कुछ कहा क्या तुम ने?’’ सुमित ने प्रश्न किया. ‘‘तुम्हारी तबीयत तो ठीक है, सुमित? आजकल देखती हूं तुम बात करतेकरते बीच में ही कहीं खो जाते हो?’’ ‘‘मैं क्या छोटा बच्चा हूं जो कहीं खो जाऊंगा,’’ सुमित बोला.

‘‘बड़े भी खो जाते हैं, सुमित, और मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती,’’ तृप्ति गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मैं कई दिनों से तुम्हारी आंखों में अजीब सी तड़प देख रही हूं. मैं जब भी पूछती हूं, तुम टाल जाते हो. आज मैं तुम से जान कर ही रहूंगी.’’ ‘‘अगर मैं कहूं कि मैं भी तुम्हें खोना नहीं चाहता तो?’’ ‘‘विवाह के 7 वर्षों बाद भी यदि तुम्हें इतना विश्वास नहीं है तो हमारा दांपत्य अर्थहीन है, सुमित,’’ तृप्ति बोली. उस के स्वर की वेदना को सुमित ने साफ अनुभव किया था. ‘‘तो सुनो, तृप्ति, तुम्हें नहीं बताऊंगा तो और किसे बताऊंगा? जब से सिद्धार्थ से मिल कर लौटा हूं, मन बहुत उदास है.’’ ‘‘सिद्धार्थ यानी गौतम बुद्ध. वे कहां मिल गए तुम्हें?’’ तृप्ति हंसी. ‘‘यह उपहास का विषय नहीं है, तृप्ति,’’ सुमित के स्वर में तीव्र वेदना थी. ‘‘तुम्हें दुख पहुंचाने का मेरा विचार नहीं था, पर मैं सचमुच कुछ नहीं समझी,’’ कहते हुए तृप्ति ने नजरें नीची कर ली थीं.

‘‘मैं अपने पुत्र सिद्धार्थ की बात कर रहा था.’’ ‘‘ओह, सिद्धू,’’ तृप्ति ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा. ‘‘हां, उस का पूरा नाम सिद्धार्थ ही है, तृप्ति.’’ तृप्ति के सिर पर मानो किसी ने जोर से प्रहार किया था और अनेक चेहरे उस की आंखों के सामने गड्डमड्ड होते चले गए थे. पता नहीं, वह यह कैसे भूल जाती है कि वह सुमित की दूसरी पत्नी है. पहली पत्नी का पुत्र सिद्धू है और उस का अस्तित्व वह चाह कर भी नकार नहीं पाती है. सुमित से उस का पहला परिचय बड़ी ही नाटकीय परिस्थितियों में हुआ था. दोनों के कार्यालय एक ही भवन में थे और एक दिन अचानक वह बातों में इस तरह खो गई थी कि उसे समय का ध्यान ही नहीं रहा था. वह जब तक कार्यालय भवन के नीचे पहुंची थी, बस जा चुकी थी. दिसंबर के महीने में 5 बजते ही अंधेरा घिरने लगता है और उस दिन हलकी बूंदाबांदी भी हो रही थी. ‘कहां जाना है, आप को?’ तभी सुमित का स्कूटर उस के पास आ कर रुका था कि वह घबरा गई थी.

‘आप को चिंता करने की जरूरत नहीं है. मैं अगली बस से चली जाऊंगी,’ तुरंत जवाब दे तृप्ति ने बेरुखी दिखाई थी. ‘मैं चिंता नहीं कर रहा हूं, पर आज बस चालकों ने अचानक हड़ताल कर दी है. इसीलिए मानवता के नाते पूछ लिया कि शायद आप को सहायता की जरूरत हो,’ सुमित ने भी दोटूक उत्तर दिया था. ‘हड़ताल? क्यों, क्या हुआ?’ तृप्ति चौंकी थी. ‘पता नहीं, सुना है, यात्रियों की किसी बस चालक से हाथापाई हो गई थी, इसीलिए जनता को इस आकस्मिक हड़ताल का सामना करना पड़ा है.’ ‘ओह, मुझे तो पता ही नहीं था. अभी तो कोई औटो भी नजर नहीं आ रहा है. क्या आप मुझे मलकपेट तक छोड़ देंगे?’ अचानक तृप्ति अब नरम हुई थी. ‘इसीलिए मैं ने आप से पूछा था. वैसे मेरा घर भी उधर ही है. आप चाहें तो मेरे साथ आ सकती हैं. मैं इसी भवन में ‘मौडल सौफ्टवेयर’ में कार्यरत हूं. पता नहीं आप ने कभी मुझे देखा है या नहीं, पर मैं तो प्रतिदिन आप को बस का इंतजार करते यहीं खड़ी देखता हूं,’ सुमित ने अपना परिचय देते हुए कहा था. तृप्ति को घर जो पहुंचना था, सो वह लपक कर सुमित के स्कूटर की पिछली सीट पर बैठ गई थी, पर वह रास्तेभर स्वयं को कोसती रही थी कि इस तरह दीनदुनिया से वह बेखबर क्यों रहती है? ये महाशय तो प्रतिदिन मुझे निहारते रहे और मैं इन के अस्तित्व से सर्वथा अनभिज्ञ हूं. उस के बाद तो यह रोज की ही बात हो गई. यद्यपि सुमित का घर दूसरी ओर पड़ता था, पर तृप्ति से घनिष्ठता बढ़ाने के लिए ही उस ने हड़ताल वाले दिन झूठ बोल दिया था.

जब एक दिन सुमित उसे अपने घर ले गया था और सुमित ने हकीकत बयान की थी तब वह यह जान कर खूब हंसी थी. धीरेधीरे सुमित का मनमोहक व्यक्तित्व उस के अस्तित्व पर छाता चला गया था. उस दिन सुमित ने उसे खुद ही भोजन बना कर खिलाया था. भोजन ठीकठाक ही बना था, पर सुमित के प्रेमपूर्ण व्यवहार से ही वह तृप्त हो गई थी. यों तो सुमित उसे घर तक छोड़ने आया था, पर खापी कर लौटने में काफी देर हो गई थी. तृप्ति के पिता अर्जुन राव दरवाजे पर ही खड़े बेचैनी से उस का इंतजार कर रहे थे. ‘क्या बात है, पिताजी? आप दरवाजे पर ही खड़े हैं? यह समय तो आप के पसंदीदा टीवी कार्यक्रम का है,’ कहते हुए तृप्ति पिता को देखते ही मुसकराई थी. ‘जब जवान बेटी के कदम भटक रहे हों तो दरवाजे पर खड़े रहना ही तो पिता की नियति बन जाती है,’ पिता का क्रोधित स्वर सुन कर वह सहम गई थी. उस के पिता ने उस से कभी भी इस तरह बात नहीं की थी. ‘पूछिए न, अब पूछते क्यों नहीं? इतनी देर से तो घर सिर पर उठा रखा था,’ अंदर पहुंचते ही उस की मां, जो भरी बैठी थीं, कहते हुए बिफर पड़ी. ‘हांहां, पूछूंगा क्यों नहीं, मैं क्या डरता हूं? आजकल तुम किस के साथ घूमतीफिरती हो?’ पिता का पारा फिर चढ़ने लगा था.

‘‘शायद आप सुमित की बात रहे हैं. मैं उस के साथ केवल घूमफिर नहीं रही हूं, हम दोनों एक ही भवन के कार्यालयों में काम कर रहे हैं और बहुत अच्छे मित्र हैं,’ तृप्ति बोली थी. ‘और केवल मित्रता के नाते ही वह तुम्हें प्रतिदिन घर छोड़ने आता है?’ उस की मां ने प्रश्न किया था. ‘और तुम 9 बजे तक उस के साथ घूमती रहती हो? यह शरीफ लड़कियों के घर लौटने का समय है? तुम तो शायद अत्याधुनिक हो गई हो, पर हमें इसी समाज में रहना है,’ अर्जुन राव बोले थे. ‘आप वेंकट बाबू के बेटे के संबंध में बात चलाओ ताकि जल्दी से जल्दी इस के विवाह का प्रबंध किया जा सके, नहीं तो यह मित्रता तो हमारी नाक ही कटवा कर रहेगी,’ तृप्ति की मां बोली थीं. ‘नहीं मां, ऐसी गलती मत करना. मैं सुमित के अलावा और किसी से विवाह नहीं करूंगी,’ तृप्ति घबरा कर बोली थी.

सिद्धार्थ की वापसी -भाग 2 : सुमित और तृप्ति शादी के बाद भी खुश क्यों नहीं थे

देखा, आ गई न गाड़ी पटरी पर, खुल गई मित्रता की पोल,’ मां और पिताजी लगभग एकसाथ बोले थे. ‘ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप दोनों सोच रहे हैं. बस, हम दोनों को एकदूसरे का साथ अच्छा लगता है,’ तृप्ति ने सफाई देनी चाही थी. ‘ठीक है, हमारी बात हमें अच्छी तरह समझ में आ गई. अब तुम भी तुम्हारी बात समझ लो. कल ही सुमित से बात करो और यदि वह विवाह के लिए तैयार है तो हम उस के मातापिता से बात आगे बढ़ाएंगे, नहीं तो हम तुम्हारा विवाह कहीं और कर देंगे,’ तृप्ति के पिता ने सख्ती से कहा था. ‘इसे आदेश समझूं या चेतावनी?’ कह कर तृप्ति ने मुसकराना चाहा था. ‘वह तुम्हारी इच्छा है, पर हम अब और चुप्पी नहीं साध सकते. इस पार या उस पार, हमें समाज में रहना है और उस के बनाए नियमकायदे हमें मानने पड़ते हैं.

अरे, यह क्या कोई विलायत है जो तुम खुलेआम अपने पुरुष मित्र के साथ घूमती रहोगी और कोई कुछ नहीं कहेगा? यह बात बिरादरी में फैल गई तो तुम्हारा विवाह करवाना कठिन हो जाएगा,’ तृप्ति के पिता ने गंभीरता से कहा था. ‘आप ऐसी बातें कर के मुझे नीचा दिखाने का प्रयत्न क्यों करते रहते हैं? आप डरते होंगे बिरादरी से, मैं नहीं डरती. फिर बिरादरी ने हमारे लिए किया ही क्या है कि हम हर पल उस से थरथर कांपते रहें,’ तृप्ति स्वयं पर नियंत्रण न रख सकी थी. ‘देखा, न कहती थी मैं कि लड़की को अधिक पढ़ाओलिखाओ मत. चलो, पढ़लिख भी ली तो कम से कम नौकरी तो मत करवाओ, पर मेरी सुनता ही कौन है. आप को तो बेटी को अपने पैरों पर खड़ा करना था. चलो, अच्छा हुआ, पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो गई है आप की बेटी,’ तृप्ति की मां व्यंग्य से बोली थीं.

‘क्यों बात का बतंगड़ बना रही हैं आप. कह तो दिया है कि सुमित से बात करूंगी,’ कहती हुई तृप्ति अपने कक्ष की ओर चली गई थी और मातापिता देर तक बड़बड़ाते रहे थे. तृप्ति जब दूसरे दिन कार्यालय पहुंची तो किसी भी कार्य में उस का मन नहीं लगा था. उस ने कई बार सुमित को फोन किया, पर वह भी न जाने कहां चला गया था. ‘शाम को 5 बजे तक लौट आएगा वह,’ उस के सहकर्मी ने तृप्ति को बताया था. ‘क्या हुआ? कहां चले गए थे तुम? सुबह से मैं ने तुम्हें हजार बार फोन किया था,’ शाम को जब कार्यालय बंद होने पर तृप्ति नीचे उतरी तो सुमित को स्कूटर सहित सामने खड़ा देख वह भड़क उठी थी. ‘खैरियत तो है, आज तो आप पत्नी की तरह डांट रही हैं. बात क्या है? घर जल्दी पहुंचना है क्या? आइए, बैठिए. मिनटों में आप हवा से बातें कर रही होंगी,’ सुमित ने स्कूटर पर बैठने का इशारा करते हुए मुसकरा कर कहा था. ‘ऐसा कुछ नहीं है, पर मुझे तुम से बहुत जरूरी बात करनी है. मैं अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकती,’

कहते हुए तृप्ति रोंआसी हो उठी थी. ‘ऐसी क्या जरूरी बात है? चलो, कहीं बैठ कर चाय पीते हैं,’ अपना उपहास भूल कर सुमित ने प्रस्ताव दिया था, पर तृप्ति ने केवल हां में सिर हिला दिया था तो एक रैस्टोरैंट में जा कर वे दोनों एकदूसरे के सामने बैठ कर चाय पीने लगे. ‘हां, बोलो, समस्या क्या है? मैं तो तुम्हारी हालत देख कर घबरा ही गया था,’ कहते हुए सुमित ने अपनी आकुल नजरें तृप्ति के चेहरे पर टिका दी थीं. ‘मैं कल जब देर से घर पहुंची तो मां और पिताजी बहुत नाराज थे,’ तृप्ति ने अपने मन की बात कहनी शुरू की थी. ‘उन का नाराज होना सही था. यदि जवान बेटी रात को 10 बजे घर पहुंचे तो कौन से मातापिता नाराज नहीं होंगे,’ सुमित ने शालीन लहजे में समझाते हुए कहा था. ‘10 बजे? मैं पूरे 11 बजे घर पहुंची थी, वह भी तुम्हारे कारण क्योंकि तुम्हें मुझे अपने हाथ का पकाया भोजन कराने का शौक जो चढ़ आया था. फिर भी तुम यह निर्णय कर लो कि तुम मेरी तरफ हो या उन की तरफ,

’ तृप्ति झुंझला उठी थी. ‘मैं पूरी तरह अपनी तृप्ति के साथ हूं, पर बताओ तो सही कि आगे क्या हुआ?’ ‘पिताजी का आदेश है कि हमारे संबंध को जल्दी से जल्दी परिभाषित किया जाए,’ कहते हुए तृप्ति खिलखिला कर हंसी थी. तृप्ति ने सोचा था कि उस की बातें सुनते ही सुमित भावुक हो कर, उस का हाथ अपने हाथ में ले कर कल्पनाओं में खो जाएगा या फिर कहेगा कि यह क्या प्रिये, इतनी सी बात के लिए तुम इतनी परेशान थीं. हम दोनों तो बने ही एकदूसरे के लिए हैं, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ था वह गुमसुम बैठा रहा. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं. ‘बात क्या है, सुमित? तुम तो बिलकुल गुमसुम हो गए. शायद तुम ने मेरी बात का मतलब नहीं, समझा?’ ‘मैं ने तुम्हारी बात का मतलब अच्छी तरह समझ लिया है, तृप्ति. पर मेरे लिए तुम्हारी बात का उत्तर दे पाना सरल नहीं होगा,’ सुमित गंभीर स्वर में बोला था. ‘अर्थात मेरे मातापिता जो सोच रहे थे, वही सही था? साथ घूमनाफिरना, सैरसपाटा अलग बात है, पर विवाह अपने लोगों में भारीभरकम दहेज ले कर ही करोगे?’ तृप्ति आवेशपूर्ण स्वर में बोली थी.

‘ऐसा कुछ नहीं है. तुम जैसी पत्नी तो किसी खुशमिजाज इंसान को ही मिलेगी.’ ‘हां, और तुम खुद को उस खुशमिजाजी से वंचित रख कर कितना बड़ा त्याग कर रहे हो,’ तृप्ति ने उलाहनाभरे अंदाज में कहा था. ‘तृप्ति, क्या हम केवल मित्र बन कर नहीं रह सकते? मैं कारण बता कर तुम्हें खोना नहीं चाहता?’ ‘यदि तुम ने आज ही मुझे सबकुछ नहीं बताया तो मैं तुम्हारा मुंह भी नहीं देखूंगी,’ तृप्ति ने तैश में आ कर कहा. ‘तो सुनो, मेरी शादी हो चुकी है. 2 वर्ष पहले मेरे बेटे सिद्धार्थ के जन्म के समय वह हम सब को रोताबिलखता छोड़ कर चली गई थी.’ ‘और आप का बेटा?’ ‘उझानी नाम का छोटा सा कसबा है, वहीं मेरे मातापिता के पास रहता है.’ ‘6 महीने से हम दोनों साथ घूमफिर रहे हैं. तुम ने इतनी बड़ी बात मुझ से छिपाए रखी?’ कहते हुए तृप्ति रोंआसी हो गई. ‘ऐसी कोई विशेष बात भी नहीं, फिर तुम ने कभी पूछा नहीं, तो मैं क्यों बताता? पर जब आज बात शादी की उठी तो तुम्हें खोने का खतरा उठा कर भी मैं ने यह बात बताई, क्या यही काफी नहीं है?’ सुमित ने अपनी बात स्पष्ट की थी. ‘नहीं, यह सच नहीं है. 6 माह तक तुम मेरे साथ घूमतेफिरते रहे, यों दुनियाभर की बातें करते हो, पर बातोंबातों में भी तुम ने कभी अपने विवाह या बेटे का नाम तक नहीं लिया,’ तृप्ति ने शिकायती लहजे में कहा. ‘यह तुम नहीं, तुम्हारी वह मानसिकता बोल रही है जिस में हमारे समाज का हर व्यक्ति एक पुरुष और स्त्री की मित्रता को सही परिप्रेक्ष्य में आंक ही नहीं पाता. उस की परिणति व लक्ष्य दोनों ही केवल वैवाहिक संबंध ही क्यों होते हैं,

तृप्ति?’ सुमित धीरगंभीर स्वर में बोला था. ‘सुमित, इतने आदर्शवादी बनने का प्रयास मत करो. क्या तुम ने इन महीनों में कभी विवाह के संबंध में नहीं सोचा?’ कहते हुए तृप्ति की आंखें छलछला आई थीं. ‘तृप्ति, मैं झूठ नहीं कहूंगा, तुम मुझे पहली ही नजर में भा गई थीं, पर मेरी पत्नी के निधन के बाद मेरा जीवन बहुत अस्तव्यस्त हो गया था. अभी तो उसे नए सिरे से संवारने का समय भी नहीं मिला. सोचा था कि तुम्हें धीरेधीरे सिद्धार्थ के संबंध में बताऊंगा, उस से मिलवाऊंगा शायद बात बन जाए. मैं सिद्धार्थ को भी बहुत चाहता हूं और नए संबंध बनाते समय पुराने संबंधों को तोड़ा तो नहीं जाता न?’ ‘ओह, तो तुम ने सोचा था कि यदि तुम मेरे बहुत आगे बढ़ने के बाद अपने पुत्र का प्रवेश हमारी कहानी में करोगे तो तुम गलती पर थे. आज के बाद तुम मुझ से मिलने का प्रयास मत करना.

तुम ने यह समझ भी कैसे लिया कि मैं तुम्हारे जैसे व्यक्ति को कभी स्वीकार कर पाऊंगी,’ कहते हुए तृप्ति उठ खड़ी हुई थी. ‘रुको तो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं,’ सुमित बोला था. ‘धन्यवाद, मुझे अपने घर की राह पता है, वह तो तुम्हारी संगति में पड़ कर भूल गई थी,’ कहते हुए तृप्ति रैस्टोरैंट से बाहर चली गई और सुमित पुकारता ही रह गया था. क्षणांश में ही तृप्ति उस की आंखों से ओझल हो गई थी. अगले दिन से सुमित उसी जगह खड़ा हो कर तृप्ति के कार्यालय की सीढि़यों की ओर ताकता रहता, पर तृप्ति पता नहीं कार्यालय आती भी थी या नहीं और आती थी तो किधर से निकल जाती थी, पता ही नहीं चलता था. कुछ दिनों बाद वह नजर भी आई थी तो मुंह फेर कर चल दी थी. ‘तृप्ति, मुझे तुम से जरूरी बातें करनी हैं,’ एक दिन कार्यालय से लौट कर तृप्ति आंखें मूंदे सोफे पर पसरी हुई थी,

बेटी की चिट्ठी: क्या था पिता का स्मृति के खत का जवाब

प्यारे पापा, नमस्ते.

सभी बच्चों की वरदियां बन गई हैं, पर मेरी अभी तक नहीं बनी है. मैडम रोज डांटती हैं. किताबें भी पूरी नहीं खरीदी हैं. जो खरीदी हैं, उन पर भी मम्मी ने खाकी जिल्द नहीं चढ़ाई है. अखबार की जिल्द लगाने के लिए मैडम मना करती हैं. कोई भी बच्चा अखबार की जिल्द नहीं चढ़ाता.

आप जल्दी घर पर आएं और वरदी व जिल्द जरूर लाएं. मम्मी ने मुझे जो टीनू की पुरानी वरदी दी थी, वह अब छोटी हो गई है. कई जगह से घिस भी गई है. मम्मी की आंख में दर्द रहता है.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे जूते और जुराबें फट गई हैं. मां ने जूते सिल तो दिए थे, मगर उन में अंगूठा फंसता है. ऐसे में दर्द होता है. मैडम कहती हैं कि जूते छोटे पड़ गए हैं, तो नए ले लो. ये सारी उम्र थोड़े ही चलेंगे. मेरे पास ड्राइंग की कलर पैंसिलें नहीं हैं. रोजरोज बच्चों से मांगनी पड़ती हैं. आप घर आते समय हैरी पौटर डब्बे वाली कलर पैंसिलें जरूर लाना.

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हमारे स्कूल में फैंसी बैग कंपीटिशन है, पर मेरा तो बैग ही फट गया है. आप एक अच्छा सा बैग भी जरूर ले आना, नहीं तो मैं उस दिन स्कूल नहीं जाऊंगी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

हमारे स्कूल का एनुअल फंक्शन 15 दिन बाद है. सभी बच्चे कोई न कोई प्रोग्राम दे रहे हैं. मुझे भी देना है. कोई अच्छी सी ड्रैस ले आना. मम्मी के सिर में दर्द रहता है. डाक्टर ने बताया कि चश्मा लगेगा, तभी दर्द ठीक होगा. उन की नजर बहुत कमजोर हो गई है.

सभी बच्चों ने गरम वरदियां ले ली हैं. ठंड बढ़ गई है. गरमी वाली वरदी रहने दें, अब सर्दी वाली वरदी ही ले आएं. मम्मी ने इस बार भी अखबार की जिल्द चढ़ाई थी. मैडम ने 10 रुपए जुर्माना कर दिया है. 2 महीने की फीस भी जमा करानी है. आप इस बार पैसे ले कर जरूर आना, नहीं तो मेरा नाम काट दिया जाएगा.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैडम ने कहा है कि स्कूल बस का किराया नहीं दे सकते, तो पैदल आया करो. कम से कम फीस तो हर महीने भेज दिया करो, नहीं तो किसी खैराती स्कूल में जा कर धूप सेंको. स्कूल में डाक्टर अंकल ने हमारा चैकअप किया था. मेरे नाखूनों पर सफेदसफेद धब्बे हैं. डाक्टर अंकल ने बताया कि कैल्शियम की कमी है. मम्मी की आंखें ज्यादा खराब हो गई हैं. वे दिनरात अखबार के लिफाफे बनाती रहती हैं. मैडम ने कहा है कि अगर घर पर कोई पढ़ा नहीं सकता, तो ट्यूशन रख लो.

पापा, आप घर वापस क्यों नहीं आते? मुझे आप की बड़ी याद आती है. मम्मी कहती हैं कि आप रुपए कमाने गए हो, फिर भेजते क्यों नहीं?

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैं ने ट्यूशन रख ली है, मगर आप पैसे जरूर भेज देना. अगले महीने से इम्तिहान शुरू हो रहे हैं. सारी फीस देनी होगी. आप वरदी नहीं लाए. मुझे ठंड लगती है. मैडम कहती हैं कि यह लड़की तो ठंड में मर जाएगी. क्या मैं सचमुच मर जाऊंगी?

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पापा, ट्यूशन वाले सर भी रुपए मांग रहे हैं. वे कहते हैं कि जब रुपए नहीं हैं, तो पढ़ क्यों रही हो? किसी के घर जा कर बरतन साफ करो. हां पापा, मुझे ड्राइवर अंकल ने स्कूल बस से नीचे उतार दिया. आजकल पैदल ही स्कूल जा रही हूं. पढ़ने का समय नहीं मिलता. हमारी गाय भी थोड़ा सा दूध दे रही है. मम्मी कहती हैं कि चारा नहीं है. लोगों के खेतों से भी कब तक लाते रहेंगे.

पापा, आप हमारी बात क्यों नहीं सुनते?
आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे सालाना इम्तिहान हो गए हैं. मां ने गाय बेच कर सारी फीस जमा करा दी. ट्यूशन वाले सर के भी रुपए दे दिए हैं. बाकी बचे रुपयों से मां के लिए ऐनक खरीदनी पड़ी. पिछले दिनों आए तूफान व बारिश से घर की छत उखड़ गई है.

पापा, आप खूब सारे रुपए ले कर जल्दी घर आएं, तब तक मेरे इम्तिहान का रिजल्ट भी निकल जाएगा. पापा, क्या आप को हमारी याद ही नहीं आती? हमें तो आप हर पल याद आते हैं.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरा रिजल्ट आ गया है. मैं अपनी क्लास में फर्स्ट आई हूं. मुझे बैग, जूते और वरदी लेनी है. और हां पापा, इस बार मैं पुरानी नहीं, नई किताबें लूंगी. पुरानी किताबों के कई पन्ने फटे होते हैं.

आजकल स्कूल में मेरी छुट्टियां चल रही हैं. सभी बच्चे बाहर घूमने जाते हैं. मैं भी मम्मी के साथ कागज के लिफाफे बनाना सीख रही हूं, ताकि इस बार मुझे स्कूल पैदल न जाना पड़े.

पापा, बारिश में छत से पानी टपकता है. बाकी बातें मैं आप के घर आने पर करूंगी. अब की बार आप घर नहीं आए, तो मैं आप को कभी चिट्ठी नहीं लिखूंगी. तब तक मेरी और आप की कुट्टी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

स्मृति की लिखी इन सभी चिट्ठियों का एक बड़ा सा बंडल बना कर संबंधित डाकघर ने इस टिप्पणी के साथ उसे वापस भेज दिया, ‘प्राप्तकर्ता पिछले साल हिंदूमुसलिम दंगों में मारा गया, जिस की जांच प्रशासन ने हाल ही में पूरी की है, इसलिए ये सारी चिट्ठियां वापस भेजी जाती हैं.’

मां का दिल महान: क्या हुआ था कामिनी के साथ

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स्वीकृति के तारे: क्यों एक कठपुतली थी वह

वह हमेशा ही टुकड़ों में बंटी रही. दूसरों के हिसाब से जीने के लिए मजबूर किसी अधबनी खंडित मूर्ति की तरह. जिसे कभी तो अपने मतलब के लिए तराश लिया जाता, तो कभी निर्जीव पत्थर की तरह संवेदनहीन मान उस की उपेक्षा कर दी जाती. आज फलां दुखी है तो उसे उस के दुखों पर मरहम लगाना होगा. आज फलां खुश है तो उसे अपने आंसुओं को पी कर जश्न में शामिल होना होगा. आज फलां के जीवन में झंझावात आया है तो उसे भी अपने जीवन की दिशा बदल लेनी चाहिए. आज फलां की नौकरी छूटी है तो उसे उस की मदद करनी चाहिए. खंडित मूर्ति को अपने को संवारना सुनने में भी कितना अजीब लगता है. ऐसे में अपने पर खर्च करना फुजूलखर्ची ही तो होता है.

संपूर्णता वह कभी नहीं पा पाई. मूर्ति पर जब भी मिट्टी लगाई गई या रंग किया गया, तो उसे पूरी तरह से या तो सूखने नहीं दिया या फिर कई जगह ब्रश चलाना आवश्यक ही नहीं समझा किसी भी फ्रंट पर, इसलिए चाह कर भी वह संपूर्ण नहीं हो पाई क्योंकि उस से जो कडि़यां जुड़ी थीं, उस से जो संबंध जुड़े थे, उन्होंने उस की भावनाओं को नरम घास पर चलने का मौका ही नहीं दिया. उन की भी शायद कोई गलती नहीं थी. आखिर, ढेर सारा पैसा कमाने वाली लड़की भी तो किसी एटीएम मशीन से कम नहीं होती है. फर्क इतना है कि एटीएम में कार्ड डालना होता है जबकि उस के लिए तो मजबूरियों व भावनाओं का बटन दबाना ही काफी था.

घर की बड़ी लड़की होना और उस पर से जिम्मेदारियों को सिरमाथे लेना – ऐसे में कौन चाहेगा कि वह अपने सपनों को सच करने की चाह भी करे. दोष न तो उस के मांबाबूजी का है, न उस के भाई का और न ही उस की 2 छोटी बहनों का. दोष है तो सिर्फ उस का. अपने ही हाथों अपने अरमानों को कुचलते हुए सब को यह एहसास दिलाते रहने की उस की उस कोशिश का कि सब का खयाल रखना उस का दायित्व है और उस के लिए चाहे कितना ही खंडखंड होना, बिखरना ही क्यों न पड़े, वह तैयार है.

ऐसे में उम्र की तरह जीवन भी अपनी गति से हाथ से फिसलता रहा.

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घड़ी की रफ्तार भी उस की जिंदगी की तरह ही तेज है. 9 बज चुके थे. सवा 9 बजे की चार्टर्ड बस अगर छूट गई तो फिर 3 बसें बदल कर औफिस जाना होगा. मन हुआ कि एक बार शीशे के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारे. पर फिर अपनी सूती साड़ी की प्लेटों को ठीक कर ऐसे ही बाहर आ गई. जानती थी कि चेहरे के खत्म होते लावण्य और आंखों में बसी उदासी देख आईना भी उस से अनगिनत सवाल पूछने लगेगा. उस क्यों का जवाब देने का न तो उस के पास समय था और न ही कोई तर्क.

‘‘औफिस से आते समय अपने बाबूजी की ये दवाइयां ले आना. उन की खांसी तो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही है,’’ मां ने उसे परचा थमाते हुए यह कहा तो मन में सवालों के गुंजल चक्कर काटने लगे.

‘‘क्या सोचने लगी?’’ मां ने फिर कहा.

‘‘मां, दवाइयां तो भुवन भी ला सकता है,’’ उस की आवाज में कंपकंपाहट थी.

‘‘क्यों, तुझे कोई दिक्कत है लाने में. उसे क्यों परेशान करती है. सारा दिन तो बेचारा पढ़ता रहता है. और सुन, आज सब्जी नहीं बन पाई है. रोटियां पैक कर दी हैं. सब्जी कैंटीन से ले लेना,’’ कागज में लिपटी रोटियां मां ने उसे ऐसे थमाईं मानो एहसान कर रही हों.

भीतर फिर कुछ टूटा. अपनी ही मां क्या ऐसा कर सकती है? स्वार्थ की ममता शायद ऐसी ही होती है. तभी तो उस के सामने और कुछ दिखाई नहीं देता है. न ही बेटी की खुशी, न उस की पीड़ा. बस, केवल एक डर मन में समाया रहता है कि कहीं अगर इस ने अपनी जिंदगी को ले कर कुछ ख्वाब बुनने शुरू कर दिए या अपने सपनों को पंख देने की चाह उस के अंदर पैदा होने लगी तो बाकी लोेगों का क्या होगा. बाबूजी की दवाइयां कहां से आएंगी.

भुवन और दोनों बेटियों की पढ़ाई

व शादी कैसे होगी, घर का खर्च और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कैसे होगा?

उसे मांबाबूजी की तकलीफ और मजूरियां सब दिखाई देती हैं. सब समझ भी आती हैं. इसलिए वह भी बिना कुछ कहे उन की डोर से बंधी कठपुतली की तरह नाचती रहती है. लेकिन, बस, एक ही कसक उसे टीस देती है कि सब की खुशियों का खयाल रखने वाली इस बेटी से मां को वैसी ममता क्यों नहीं है जैसी बाकी तीनों बच्चों से. वह तो उन की सौतेली बेटी भी नहीं है. सभी कहते हैं कि रिया की शक्ल बिलकुल मां से मिलती है. फिर वह क्यों उन के लाड़प्यार से वंचित है? क्यों मां को उस की बिलकुल भी परवाह नहीं है?

न ही उसे कभी अपने सवाल का जवाब मिल सकता, क्योंकि उसे सवाल पूछने का हक नहीं है. कौन यकीन करेगा कि इस जमाने में एक कमाने वाली आत्मनिर्भर लड़की भी इतनी असहाय हो सकती है. इतनी बेचारी कि उसे अपनी ही कमाई के एकएक पैसे का हिसाब देना पड़ता हो.

चार्टर्ड बस का सफर उस के लिए किसी राहत से कम नहीं होता है. घर के घुटनभरे माहौल की यातना से मुक्ति उसे यहीं मिलती है. हर तरह के कार्यक्षेत्रों से जुड़े लोग एकसाथ आधेपौने घंटे का सफर हंसतेगाते बिताते हैं. यह सच है कि थकावट आजकल हर इंसान की जीवनशैली का हिस्सा बन चुकी है और यही वह समय होता है जब कुछ समय बैठने का अवसर मिलता है. चाहे तो आंखें मूंद कर अपनी दुनिया में लीन हो जाओ या चैन से अपनी नींद पूरी कर लो या फिर अपने घरऔफिस की समस्या को बांट अपने मन को हलका कर लो. कभीकभी तो बात करतेकरते समाधान भी मिल जाता था.

बच्चों की समस्याएं चुटकी में सुलझ जाती थीं और दूसरों की परेशानियों के आगे अपनी परेशानी बौनी लगने लगती थी. किसी का जन्मदिन है, तो मिठाई बंट रही है. मंगलवार है, तो प्रसाद बंट रहा है. एक पूरी दुनिया ही जैसे बस में सिमट गई हो. रिया की कितनी ही सहेलियां बन गई हैं. रोज जिस के साथ बैठो, उस के साथ आत्मीयता पनप ही जाती है. मेहा और सपना के साथ उस की बहुत छनती है. हालांकि दोनों ही विवाहित और दोदो बच्चों की मां हैं, फिर भी उन की बातों का विषय केवल पति व बच्चों तक ही सीमित नहीं होता है. उन के साथ रिया हर तरह के विषय पर बिंदास हो बात कर सकती है.

‘‘ले रिया ढोकला खा. तेरे लिए खास बना कर लाई हूं. वैसे भी तुझे देख कर लग रहा है कि भूखी ही घर से आई है,’’ सपना ने ढोकले का डब्बा उस के सामने करते हुए कहा.

‘‘तेरे जैसा ढोकला तो कोई बना ही नहीं सकता है,’’ मेहा ने झट ढोकला उठा कर मुंह में डाल लिया.

‘‘कुछ तो शर्म कर. औफर मैं रिया को कर रही हूं और खुद खाने में लगी है,’’ सपना ने उसे प्यार से झिड़का.

‘‘अरे खाने दे न,’’ रिया ने कहा तो सपना हंसते हुए बोली, ‘‘जब से बस में चढ़ी है तब से ही चिप्स खा रही है. पिछले 2 सालों में कितनी मोटी हो गई है. देख तो सीट भी कितनी घेर कर बैठती है.’’ यह सुन मेहा ने उसे चिकोटी काटी. रिया खिलखिला कर हंस पड़ी.

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‘‘कितनी अच्छी लगती है हंसते हुए. बुझीबुझी सी मत रहा कर, रिया. घर से निकले तो दुखों की गठरी वहीं दरवाजे पर छोड़ आया कर. चल बाय, मेरा स्टैंड आ गया,’’ सपना ने उस के कंधे पर आश्वासन का हाथ रखा. उस का भी स्टैंड अगला ही था.

औफिस में वही एक  सा रूटीन. बस, एक ही तसल्ली थी कि यहां काम की क्रद होती थी. इसलिए उस को तरक्की करते देर नहीं लगी थी. कौर्पोरेट औफिस में जिस तरह एक व्यवस्था व नियम के अनुसार काम चलता है, वही कल्चर यहां भी था. काम करोगे तो आगे बढ़ोगे, वरना जूनियर भी तेजी से आगे निकल जाएंगे. काम पूरा होना चाहिए. उस के लिए कैसे मैनेज करना है, यह तुम्हारा काम है. मैनेजमैंट को इस से कोई मतलब नहीं.

मार्केटिंग हैड होने के नाते कंपनी की उस से उम्मीदें न सिर्फ काम को ले कर जुड़ी हैं, बल्कि मुनाफे की भी वह उम्मीद रखती है. रिया कार रख सकती है. बेहतरीन सुविधाओं से युक्त घर में रह सकती है और अपनी लाइफस्टाइल को बढि़या बना सकती है. क्योंकि, कंपनी उसे सुविधाएं देती है. पर रिया ऐसा कुछ भी नहीं कर पाती है, क्योंकि उसे बेहतरीन जिंदगी जीने का हक नहीं है. वह वैसे ही जीती है जैसे उस की मां चाहती है. सुविधाओं के लिए मिलने वाले पैसे मां उसे अपने पर खर्च भी नहीं करने देती, बल्कि उन से दोनों बहनों के लिए जेवर खरीद कर रखती है. और उस के लिए… क्या मां के मन में एक बार भी यह विचार नहीं आता कि इस बेटी के अंदर भी जान है, वह कोई बेजान मूर्ति नहीं है. उस के विवाह का खयाल क्यों नहीं उसे परेशान करता.

‘‘मैं जानती हूं कि तू हमारी खातिर कुछ भी कर सकती है. अब जब लोग पूछते हैं कि तेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ, तो मैं यही समझाती हूं कि तू ने अपनी इच्छा से ब्याह न करने का फैसला किया है. वरना, क्या मैं तुझे कुंआरी रहने देती. आखिर, अपने भाईबहन की कितनी चिंता है तुझे,’’ मां की यह बात सुन वह हैरान रह जाती. उस ने आखिर ऐसा कब कहा, उस से कब उस की इच्छा पूछी गई है?

‘‘मैडम, मिस्टर दीपेश पांडे आप से मिलना चाहते हैं. क्या आप के केबिन में उन्हें भेज दूं?’’ इंटरकौम पर रिसैप्शनिस्ट ने पूछा.

‘‘5 मिनट बाद.’’

दीपेश के आने से पहले खुद को संभालना चाहती थी वह. कंपनी जौइन किए हुए हालांकि उसे अभी 2 महीने ही हुए हैं, पर अपनी काबिलीयत और कंविंसिंग करने की क्षमता के कारण वह कंपनी को करोड़ों का फायदा करा चुका है. कंपनी के एक्स्पोर्ट डिपार्टमैंट को वही संभालता है. रिया से कोई 1-2 साल छोटा ही होगा. पर उस के सामने आते ही जैसे रिया की बोलती बंद हो जाती है. जब वह सीधे उस की आंखों में आंखें डाल कर किसी प्रोजैक्ट पर डिस्कस करता है तो वह हड़बड़ा जाती है. ऐसा लगता है मानो उस की आंखें सीधे उस के दिल तक पहुंच रही हों, मानो वे उस से कुछ कहना चाह रही हों. मानो उस में कोई सवाल छिपा हो.

ऐसा नहीं है कि रिया को उस का

साथ अच्छा नहीं लगता. उस का

बात करने का अंदाज, हर बात पर मुसकराना और जिंदादिली – सब उसे भाता है, लेकिन अपने ओहदे की गरिमा का उसे पूरा खयाल रहता है. पूरा औफिस उस की इज्जत उस के काम के अलावा उस की शिष्टता के लिए भी करता है. डिगनिटी को कैसे मेंटेन कर के रखा जाता है, यह वह बखूबी जानती है. इन 2 महीनों में न जाने कितनी बार उस के साथ इंटरैक्शन हो चुका है, फिर भी बिना इजाजत वह कमरे में नहीं आता. और रिया उस की इस बात की भी कायल है.

न जाने क्यों उस के हाथ बालों को संवारने लगे. बैग में से शीशा निकाल कर उस ने अपने को निहारा. 35 वर्ष की हो चली है, पर आकर्षण अभी भी है. इस खंडित मूर्ति को अगर नए सिरे से संवारा जाए तो इस में भी जान भर सकती है. प्यार और एहसास जैसे शब्द उस की जिंदगी के शब्दकोश में न हों, ऐसा कहना गलत होगा. बस, कभी उन पन्नों को खोलने की उस ने हिम्मत नहीं की जिन पर वे लिखे हुए हैं.

दीपेश से मिलने के बाद न जाने क्यों उस के अंदर उन पन्नों को छू कर पढ़ने की चाह जागने लगी है. इस से पहले भी कई पुरुषों ने उस की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन उसे तब कभी ऐसा नहीं लगा कि वह उन के साथ किसी ऐसी राह पर कदम रख सकती है जो दूर तक जाती हो, पर…

‘‘मैम, कैन आई टेक योर फाइव मिनट्स,’’ दीपेश ने दरवाजे पर से ही पूछा.

‘‘प्लीज, डू कम इन ऐंड बाइ द वे, यू कैन कौल मी, रिया. यहां सभी एकदूसरे का नाम ले कर संबोधित करते हैं.’’

‘‘थैंक्स रिया. तुम ने मुझे कितनी बड़ी परेशानी से बचा लिया. वरना मैम कहतेकहते मैं बोर होने लगा था.’’ रिया उस के शरारती अंदाज को नजरअंदाज न कर सकी और खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘माई गौड, आप हंसती भी हैं. मुझे तो यहां का स्टाफ कहता है कि आप को किसी ने कभी हंसते हुए नहीं देखा. बट वन थिंग, आप हंसते हुए बहुत खूबसूरत लगती हैं. यू नो, यू आर अ कौंबीनेशन औफ ब्रेन ऐंड ब्यूटी.’’

उस की बात सुन रिया फिर सीरियस हो गई, ‘‘टैल मी, क्या डिस्कस करना चाहते थे?’’

‘‘दैट्स बैटर. अब लग रहा है कि किसी सीनियर कलीग से बात कर रहा हूं.’’ उस के गंभीर हो जाने को भी दीपेश एक सौफ्ट टच देने से बाज न आया. मन में उस समय अनगिनत फूल एकसाथ खिल उठे. उन की खुशबू उसे छूने लगी. उसे विचलित करने लगी. काश, दीपेश यों ही सामने बैठा रहे और वह उसे सुनती रहे.

‘‘तो रिया, मेरे इस प्रपोजल पर आप की क्या राय है?’’ चौंकी वह, कुछ सुना हो तो राय दे.

‘‘इस फाइल को यहीं छोड़ दो. एक बार पढ़ कर, फिर बताती हूं कि क्या किया जाए,’’ अपने को संभाल पाना इतना मुश्किल तो कभी नहीं था रिया के लिए. तो क्या पतझड़ में भी बहार आ जाती है?

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‘‘आजकल तू कुछ ज्यादा ही बनठन कर औफस नहीं जाने लगी है?’’ मां ने उसे टोका तो सचमुच उसे एहसास हुआ कि वह अपने पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगी है. बालों का जूड़ा कस कर बांधने के बजाय ढीला छोड़ देती है. अलमारी में बंद चटख रंगों की साडि़यां पहनने लगी है और बारबार शीशा देखने की आदत भी हो गई है.

‘‘कोई ऐसा काम न करना जिस से हमारी बदनामी हो. तेरी दोनों बहनों की शादी भी करनी है,’’ मां ने कहा तो उस का मन पहली बार विरोध करने को आतुर हो उठा.

‘‘और मेरी? अच्छा मां, सच कहना, क्या मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूं?’’

‘‘रिया, मां से कैसे बात कर रही है?’’ बाबूजी का स्वर गूंजा तो पलभर को उस का विरोध डगमगाया, लेकिन फिर जैसे भीतर से किसी ने हिम्मत दी. शायद, उन्हीं सतरंगी फूलों ने…

‘‘बाबूजी, आखिर क्यों मेरे साथ मां ऐसा व्यवहार करती हैं जैसे मैं…’’ उस के शब्द आंसुओं में डूबने लगे.

‘‘उस की मजबूरी है, बेटा. वह ऐसा न करे तो यह घर कैसे चले. तेरी कमाई है तो घर चल रहा है. बाकी और चार लोगों की जिंदगी बचाने के लिए वह तुझे ले कर स्वार्थी हो गई है ताकि कहीं तेरा मोह, तेरे प्रति उस की ममता उसे तुझे अपनी जिंदगी जीने देने की आजादी न दे दे.’’

उस ने मां को देखा. उन के दर्द से भीगे आंचल में उस के लिए भी ममता का सागर लहरा रहा था. फिर क्या करे वह. एक तरफ उस की उमंगें उसे दीपेश की ओर धकेल रही हैं तो दूसरी ओर मां की उस से बंधी आस उसे अपने को खंडित और अधूरा बनाए रखने के लिए मजबूर कर रही है. क्या वह कभी पूर्ण हो कर नहीं जी पाएगी? क्या उसे अपनी खुशियों के बारे में सोचने का कोई हक नहीं है? अपनी जिंदगी को रंगों से भरने की चाह क्या उसे नहीं है? लेकिन वह यह सब क्या सोचने लगी. दीपेश को ले कर इतनी आश्वस्त कैसे हो सकती है वह? उस ने तो खुल कर क्या, अप्रत्यक्ष रूप से भी कभी यह प्रदर्शित नहीं किया कि रिया को ले कर उस के मन में कोई भाव है. शायद वही अब अपनी अधूरी जिंदगी से ऊब गई है या शायद पहली बार किसी ने उस के मन के तारों को छुआ है.

‘‘मेरा प्रपोजल पसंद आया, अगर आप की तरफ से ओके हो तो मैं इस पर काम करना शुरू करूं?’’ दीपेश का आज बिना इजाजत लिए चले आना उसे अजीब तो लगा पर एक अधिकार व अपनेपन की भावना उसे सिहरा गई.

‘‘प्लीज गो अहेड,’’ उस ने अपने को संभालते हुए कहा.

‘‘आज शाम के गेटटूगेदर में तो आप आ ही रही होंगी न? मार्केटिंग की फील्ड के सारे ऐक्सपर्ट्स वहां एकत्र होंगे.’’

‘‘आना ही पड़ेगा. दैट इज अ पार्ट औफ माई जौब. वरना मुझे इस तरह की पार्टियों में जाना कतई पसंद नहीं है.’’

पार्टी में मार्केटिंग से जुड़े हर पहलू पर बात करतेकरते कब रात के 11 बज गए, इस का उसे अंदाजा ही नहीं हुआ. मां तो आज अवश्य ही हंगामा कर देंगी. वैसे भी आज जब वह तैयार हो रही थी, तो उन्होंने कितना शोर मचाया था. उस ने गुलाबी शिफौन की साड़ी के साथ मैचिंग मोतियों की माला पहनी थी. उस की सुराहीदार गरदन पर झूलता ढीला जूड़ा और मेकअप के नाम पर सिर्फ माथे पर लगी छोटी सी बिंदी के बावजूद उस की सुंदरता किसी चांदनी की तरह लोगों को आर्किषत करने के लिए काफी थी.

‘‘काम के नाम पर रात को घर से निकलना न जाने कैसा फैशन है.’’ मां की बड़बड़ाहट की परवा न करने की हिम्मत उस समय रिया के अंदर कैसे आ गई थी, वह नहीं जानती. इसलिए हाई हील की सैंडिल उन के सामने जोर से चटकाते हुए वह उन के सामने से निकली थी.

‘‘कैसे जाएंगी आप? मैं आप को छोड़ दूं,’’ दीपेश ने पूछा तो वह मना नहीं कर पाई. और कोई विकल्प भी नहीं था, क्योंकि कंपनी में ऐसा कोई नहीं था जो उस से इस तरह का सवाल करने की हिम्मत कर पाता. गलती उसी की थी जिस ने अपने ऊपर गंभीरता का लबादा ओढ़ा हुआ था. केवल काम की बातों तक ही सीमित था उस का अपने कलीग्स से व्यवहार.

कार में कुछ देर की खामोशी के बाद दीपेश बोला, ‘‘रिया, जानती हो, मैं ने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’ दीपेश के अचानक इस तरह के सवाल से हैरान रिया ने उसे देखा.

‘‘मैं चाहता था कि मेरा जीवनसाथी ऐसा हो जो समझदार व मैच्योर हो. मेरे काम और मेरे परिवार को समझ सके ताकि बैलेंस करने में न उसे दिक्कत आए, न मुझे. तुम से मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरी खोज पूरी हो गई है, पर तुम अपने में इतनी सिमटी रहती हो कि तुम से कुछ कहने की हिम्मत कभी नहीं हुई.

‘‘तुम्हारे प्रति यह लगाव कोई कच्ची उम्र का आकर्षण नहीं है. एक एहसास है जिसे प्यार के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है. मैं तुम्हारे और तुम्हारी घर की स्थितियों के बारे में सबकुछ जानता हूं. क्या तुम मेरे साथ जिंदगी की राह पर चलना पसंद करोगी? एक बार मजबूत हो कर तुम्हें फैसला लेना ही होगा. हम दोनों मिल कर तुम्हारे परिवार को संभालें तो?’’

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रिया चुप थी. उसे समझ नहीं आ

रहा था कि  क्या सचमुच उस की

जिंदगी में रंग भर सकते हैं, क्या सचमुच अपूर्ण, खंडित इस मूर्ति के अंदर भी लहू का संचार हो सकता है? उस का घर आ चुका था.

दीपेश ने जाती हुई रिया का आगे बढ़ कर हाथ थाम लिया. मां को बालकनी में खड़ी देख अचकचाई रिया. पर दीपेश की हाथों की दृढ़ता ने उसे संबल दिया. अपना दूसरा हाथ दीपेश के हाथ पर रखते हुए उस ने दीपेश को देखा. रिया की आंखों में स्वीकृति के असंख्य तारे टिमटिमा रहे थे.

घर के अंदर कदम रखते हुए मां को सामने खड़े देख रिया ने उन्हें ऐसे देखा, मानो अपना फैसला सुना रही हो. उस के चेहरे पर लालिमा बन छाई खुशी और उस की आंखों में झिलमिलाते रंगीन सपनों को देख मां कुछ नहीं बोलीं. बस, उसे अपने कमरे की ओर जाते देखती रहीं. उस ने अपनी बेजान सी बेटी के अंदर प्यार से सजे प्राणों का संचार होते जैसे देख लिया था. वे जान गई थीं कि अब नहीं रोक पाएंगी वे उसे.

धर्मणा के स्वर्णिम रथ: क्या हुआ था ममता के साथ

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अम्मी कहां : कहां खो गईं थी अम्मी

लेखिका- रश्मि नायर

‘‘अम्मीजान, आप यहीं खड़ी रहना, मैं टिकट ले कर अभी आता हूं,’’ कह कर मोहिन खान अपनी मां को रेलवे प्लेटफार्म की तरफ जाने वाली सीढ़ी के पास छोड़ कर टिकट लेने चला गया.

टिकट खिड़की पर लाइन लंबी थी, जो बस स्टौप तक पहुंच गई. उसे इतनी भीड़ होने का अंदाजा न था. उस ने सोचा, ‘टिकट ही तो लेनी है. उस में कौन सी बड़ी बात है.’

पर जब वह टिकट लेने पहुंचा, तो सब ने उसे ‘लाइन से आओ’ कह कर पीछे भेज दिया. वह सब से पीछे जा कर खड़ा हो गया और लाइन आगे बढ़ने का इंतजार करता रहा. पर कहां? लाइन वहीं की वहीं, धीरेधीरे चींटी की तरह आगे बढ़ रही थी.

मोहिन खान को अपनी मां को ले कर भिंडी बाजार जाना था. कल उस के भतीजे का पहला जन्मदिन था.

चूंकि उस की मां की उम्र हो चुकी थी. उस ने सोचा कि आज मां को वहां छोड़ कर कल शाम अपनी बीवी और बच्चे को साथ ले जाएगा, इसलिए मां को भाई के घर छोड़ कर उसे किसी भी हाल में वापस लौटना था, क्योंकि नौकरों के भरोसे वह दुकान छोड़ नहीं सकता था, इसलिए उसे जल्दी थी.

वहां उस की अम्मी इंतजार कर के थक गईं. मन ही मन कुढ़ते हुए वे सोचने लगीं कि पता नहीं कहां चला गया. कह कर गया था कि टिकट लाने जा रहा हूं, पर इतनी देर हो गई और अब तक नहीं लौटा.

उन्होंने गुस्से में आव देखा न ताव धीरेधीरे सीढ़ी चढ़ कर 2 नंबर के प्लेटफार्म पर आ गईं. यह सोच कर कि उन का बेटा पीछेपीछे आ जाएगा.

जो ट्रेन आई, वे उस में चढ़ गईं.

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उन्हें अपनी सहेली की बेटी सुलताना मिली. उसे भी भिंडी बाजार जाना था. वे कई सालों बाद उस से मिलीं, तो बतियाने लगीं.

इधर मोहिन खान टिकट ले कर सीढि़यों के पास पहुंचा. वहां अपनी अम्मी को न देख कर वह घबरा गया. उस ने टिकटघर के आसपास का सारा इलाका छान मारा, पर उसे उस की अम्मी कहीं नहीं नजर आईं.

शाम ढल चुकी थी. अंधेरा भी हो गया. सड़कें, दुकान, मकान, होटल यहां तक कि टिकटघर के साथ प्लेटफार्म भी बिजली की रोशनी से जगमगाने लगे थे.

उस ने सभी प्लेटफार्म देख लिए, पर अम्मी का कहीं पता नहीं चला. पूछताछ करे भी तो किस से? उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे.

मोहिन खान ने बारीबारी से सब को फोन कर के पूछ लिया, पर कहीं से भी उस की अम्मी के पहुंचने की खबर नहीं मिली. अब तो वह और भी डर गया. उस के परिवार वाले भी परेशान थे. भिंडी बाजार में फोन करने पर उस के भाईजान और भाभीजान दोनों परेशान हो गए. कुर्ला से भायखाला का आधे घंटे का सफर है, फिर वे कहां रह गईं.

भिवंडी में मझले भाई असलम को पता चला, तो वह भी परेशान हो गया. गोवंडी में मोहिन खान की आपा को जब यह बात पता चली, तो वे बहुत गुस्से में बिफर कर फोन पर ही चिल्लाईं, ‘कितने लापरवाह हो तुम लोग? अभी कल ही तो छोड़ आई थी मैं उन्हें, कहीं कोई झगड़ा तो नहीं कर लिया किसी ने?’ कह कर गुस्से से फोन रख दिया.

मझला भाई भी अपने परिवार के साथ अम्मी को ढूंढ़ता हुआ पहुंच गया. फिर सब ने मिल कर अंदाजा लगाया कि कहीं वे वापस मोहिन खान के घर तो नहीं चली गईं?

यह सोच कर मझले भाई ने उसे फोन लगा कर कहा, ‘‘देखो मोहिन, तुम घबराना मत. तुम एक काम करो, एक बार घर जा कर देख लो. कहीं वे वापस न चली गई हों. अगर वे घर पर न हों, तो भी फिक्र मत करो. तुम दुकान बंद कर के बीवीबच्चों के साथ यहां चले आओ. हम सब मिल कर ढूंढ़ते हैं.’’

‘‘अच्छा भाईजान,’’ कह कर मोहिन खान सीधा घर गया. वहां अम्मी को न पा कर दोनों मियांबीवी कुछ देर बाद भिंडी बाजार पहुंच जाते हैं.

सब कितने खुश थे कि कल असलम के बच्चे का पहला जन्मदिन मनाया जाने वाला था. सब सोच रहे थे कि बड़े धूमधाम से जन्मदिन मनाएंगे कि अचानक यह खबर मिली. जहां कल के जश्न की तैयारियां होनी थीं, आज वहां एक अजीब सी खामोशी छाई थी.

जैसेजैसे रात होती गई, सब की फिक्र भी बढ़ती जा रही थी. सब के चेहरे मायूस थे. फिर सब ने तय किया कि अगर कल शाम तक कोई खबर नहीं मिली या अम्मी नहीं लौटीं, तो पुलिस में शिकायत दर्ज करेंगे. रात के साढ़े 11 बजे थे. सब थक चुके थे, पर किसी को भी न भूख थी, न आंखों में नींद.

अचानक दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खुलते ही सामने अम्मी को एक अजनबी के साथ देख कर सब को हैरानी हुई. सब के चेहरे खुशी से चमक उठे.

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अम्मी ने उस अजनबी को भीतर बुलाया और सोफे पर बैठाया. बहू से कहा, ‘‘शबनम, जरा पानी तो लाना.’’

‘‘जी अम्मीजान,’’ कह कर वह रसोईघर में गई और एक ट्रे में एक जग पानी भर कर और कुछ खाली गिलास भी ले आई.

तब तक अम्मी भी बैठ चुकी थीं. उन को पानी पिला कर वह जाने लगी, तो अम्मी ने कहा, ‘‘बहू, ये हमारे मेहमान हैं, आज रात यहीं रुकेंगे. इन के खानेपीने का इंतजाम करो.’’

‘‘जी अम्मीजान,’’ कह कर वह वापस रसोईघर में चली गई.

अब अम्मी बेटों और दामाद की ओर मुड़ कर बोलीं, ‘‘यह मेरी सहेली का बेटा है, जो मुझे छोड़ने आया है. हुआ यों कि मैं मोहिन खान के इंतजार में खड़ीखड़ी थक कर यह सोच कर धीरेधीरे चल पड़ी कि मेरे पीछे चला आएगा, पर वह नजर ही नहीं आया…

‘‘मैं यह सोच कर गाड़ी में भी चढ़ गई कि वह पीछे ही होगा, पर इस का तो पता ही नहीं था.

‘‘फिर मुझे मेरी सहेली की बेटी सुलताना मिली. उस से पता चला कि उस की मां की तबीयत आजकल खराब चल रही है, इसलिए मैं उसे देखने चली गई थी. वह भिंडी बाजार में ही रहती है.’’

यह सुन कर सब खामोश हो गए. कुछ ही देर में शबनम ने आ कर अम्मी के कान में कहा, ‘‘अम्मीजान, खाना लग चुका है.’’

‘‘चलो, खाना लग चुका है,’’ अम्मी ने कहा.

बाद में अम्मी अपनी सहेली के बेटे अजीज को मेहमानों के कमरे में पहुंचा कर खुद भी आराम करने अपने कमरे में चली गईं. बाकी सब भी सोने के लिए जाने की तैयारी में थे कि ऐसे में असलम के मोबाइल फोन की घंटी बजी. सामने से पूछा गया… ‘अम्मी कहां…’

इस से पहले कि उस की बात पूरी होती, असलम ने कहा, ‘‘अम्मी यहां…’’ और इस से आगे वह खुशी के मारे कुछ भी नहीं कह पाया.

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