जिद: भाग 3- क्या परिवार से हटकर चंचल कुछ सोच पाई

लेखिकारिजवाना बानो ‘इकरा’

‘‘हम्म… मुझे लगता था कि तेरे पास बंगला है, गाड़ी है, पैसा है, सब है तो तू तो बहुत खुश होगी. लेकिन जब अंकल ने बताया कि तुम साल में एक ही बार पीहर आती हो, तो कुछ खटका सा हुआ. सब ठीक है न चंचल? तुम बिजी रहती हो, इसीलिए कम आ पाती हो न घर?‘‘

अब बारी चंचल की थी, ‘‘हां, बिजी तो रहती हूं. 2 बच्चे, सासससुर, जेठजेठानी और पतिदेव. उस पर से इतनी बड़ी कोठी. कहां समय मिलता है?‘‘

चंचल की आंखों का शून्य, लेकिन आकांक्षा पढ़ चुकी थी, ‘‘और जौब…? तुझे तो अपनी आजादी बहुत पसंद थी. जौब क्यों नहीं की तुम ने?‘‘

‘‘शिशिर…‘‘

‘‘शिशिर? तुम ने बात की थी न शादी से पहले ही उस से तो…? फिर क्या बात हुई?‘‘

‘‘हां, की थी, लेकिन मांजी को पसंद नहीं और शिशिर भी मां का कहा नहीं टाल सकते. सो, अब सुहाना और आशु ही जौब है मेरी,‘‘ मुसकराते हुए चंचल बोली.

‘‘हम्म…तू खुश है?‘‘

‘‘हां बहुत, सबकुछ तो है मेरे पास, किस बात की कमी है?‘‘

तभी भाई का फोन आ गया, ‘‘दीदी, आशु आप को ढ़ूंढ़ रहा है तब से. रोरो कर बुरा हाल कर लिया है अपना. आप आ जाइए, जल्दी.‘‘

‘‘ओह्ह, आई मैं बस. तब तक उसे तुम किंडर जौय दिला लाओ. थोड़ा ध्यान भटकेगा उस का. मैं पहुंच ही रही हूं बस,‘‘ फोन डिस्कनैक्ट होने के साथ ही चंचल उठ खड़ी हुई.

‘‘निकलना होगा अक्कू मुझे. आशु रो रहा है. आते वक्त नाना के साथ खेलने में इतना बिजी था कि मैं ने डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा.‘‘

‘‘अच्छा सुन, फोन करना… और मिलती भी रहना अब, बिजी मैडम,‘‘ गले लगाते हुए आकांक्षा ने बोला.

हड़बड़ाहट में भी चंचल के चेहरे पर मुसकान आ गई. ‘‘मिलते हैं. चल, बाय. खयाल रखना अपना. मैं फोन करती हूं.‘‘

10 मिनट बाद चंचल अपने घर थी और आशु में बिजी हो गई. उधर आकांक्षा भी अपने वीकेंड वाले काम निबटाने में लग गई है. सबकुछ रुटीन जैसा दिख रहा है, चल भी रहा है, लेकिन दोनों के मन में उथलपुथल मची है.

अपनेअपने रुटीन में बिजी ये दोनों सहेलियां, जिन के पास खुद के बारे में सोचने का समय नहीं होता, वो दोनों ही एकदूसरे के बारे में सोच रही हैं, बल्कि सोचे ही जा रही हैं.

चंचल की आंखों के सामने से आकांक्षा को रोना नहीं आ रहा. और आकांक्षा के जेहन से चंचल के ये शब्द, ‘‘सबकुछ तो है मेरे पास, किस बात की कमी है?‘‘

ये भी पढ़ें- मजुरिया का सपना : कैसे पूरा हुआ उस का सपना

आकांक्षा जानती है कि इस बात का मतलब है कि जो दिख रहा है, वो सच नहीं है. इधर चंचल आकांक्षा के साथसाथ मौडल मीनाक्षी के बारे में भी सोच रही थी. सब से कमजोर बैकग्राउंड होने के बाद भी उस ने वो पा लिया, जो उस ने चाहा था. उस के पास सब से ज्यादा जो था, वो थी ‘जिद‘, वरना उस के सपनों का कौन मजाक नहीं उड़ाता था कालेज में.

रविवार के बाद सोमवार भी इसी तरह गुजर गया. न औफिस में मन लगा आकांक्षा का, न घर में. मांपापा, भाईबच्चे, सब के होते हुए भी चंचल अपने में खोई सी रही. जाने क्या था वो, जो दोनों के मन में बीज ले रहा था.

मंगल की शाम को चंचल ने भाई को आवाज लगाई, ‘‘मनु, ओ मनु…‘‘

‘‘आया दीदी.‘‘

‘‘एक बात बता… एमबीए कंपलीट हुए मुझे 10 साल हो गए न, इतना गैप हो जाने के बाद कोई जौब मिलेगी क्या मुझे?‘‘

‘‘जौब? अचानक से दीदी? जीजाजी से पूछा आप ने? और समधिनजी, उन को बुरा लगा तो…?‘‘

‘‘मैं ने जो पूछा, उस में से किसी एक बात का भी जवाब नहीं दिया तू ने. तेरे जीजाजी और समधिनजी को नहीं करनी जौब. मुझे करनी है जौब. अब तू कुछ हैल्प कर सकता है तो बता या मैं कुछ और सोचूं?‘‘

अपनी दीदी में अचानक से आए आत्मविश्वास को देख आश्चर्यमिश्रित खुशी से मनु बोला, ‘‘अरे, करूंगा क्यों नहीं? लेकिन सच बात यह है कि इतने गैप के बाद आप को अच्छा पैकेज मिलना मुश्किल है. बहुत स्ट्रगल रहेगा, जौब मिलना भी एक मुश्किल टास्क रहेगा. कंपनियां एक्सपीरियंस्ड लोगों को पहले बुलाती हंै.‘‘

‘‘अच्छा…‘‘ मायूस हो गई चंचल.

‘‘अरे, इस में उदास होने वाली क्या बात है? पूरी बात तो सुनिए.‘‘

‘‘सुना…‘‘

‘‘वर्क फ्रौम होम कर सकती हैं आप दीदी. शेयर मार्केट की करंट स्ट्रेटेजी समझने के लिए एक सर्टिफिकेट कोर्स कर लो आप. फिर आप अपने हिसाब से औनलाइन टाइम स्पैन सलैक्ट कर पाएंगी. और बच्चों को भी देख पाएंगी.‘‘

‘‘हम्म…. ठीक.‘‘

‘‘मुझे कल तक का समय दो, मैं पूरी डिटेल्स पता कर के बताता हूं आप को.‘‘

इधर, डिनर पर पंकज, हमेशा की तरह अपनी कंपनी और मालिक संचेती के बखान किए जा रहा था, लेकिन आकांक्षा का ध्यान न खाने में था और न ही पंकज की बातों में. डिनर के बाद पंकज ने पूछा भी, ‘‘तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी? इतवार से देख रहा हूं तुम्हें, बुझीबुझी सी हो. और तुम ने बताया भी नहीं कि तुम्हारी सहेली से मुलाकात कैसी रही? क्या झटका दे दिया उस ने मेरी जान को?‘‘

‘‘कुछ भी तो नहीं,‘‘ एक फीकी मुसकान के साथ आकांक्षा उठ कर अपने काम में लग गई.

ये भी पढ़ें- एक घड़ी औरत : क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

पंकज ने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया. वह अपनी जिम्मेदारी पूरी कर चुका है. अब न बताएं तो आकांक्षा की मरजी. आकांक्षा भी जानती थी कि औपचारिकता थी वो, दोबारा नहीं पूछने वाला पंकज.

मंगल की रात दोनों सहेलियों के लिए मंगलकारी या यों ही कहिए, क्रांतिकारी रही. आकांक्षा ने खुद को इस बात के लिए तैयार किया कि वो पंकज को साफसाफ शब्दों में बात करेगी कि वो मां बनने की खुशी से अब और दूर नहीं रह सकती और चंचल ने तमाम कोर्सेज देख कर, दिल्ली के एमिटी कालेज में एप्लाई भी कर दिया.

बुधवार की सुबह दोनों के लिए परीक्षा की घड़ी थी जैसे. चंचल शिशिर के फोन का इंतजार कर रही थी और आकांक्षा पंकज के जागने का.

‘‘हैलो, कैसी है मेरी दो जान? और जान की स्वीट सी मम्मी? सुबह हुई या नहीं?‘‘

‘‘हैलो शिशिर, हम सब अच्छे हैं. आप लोग सब कैसे हैं?‘‘

शिशिर को याद आया कि सालों से चंचल ने उसे नाम से नहीं बुलाया है, एकदम से अपना नाम सुन कर चैंक सा गया, ‘‘हम भी बढ़िया. क्या बात है चंचल? सब ठीक है न?‘‘

‘‘हां, सब बढ़िया. क्यों, क्या हुआ?‘‘

‘‘लगा मुझे, अच्छा सुहाना से बात कराओ तो…‘‘

‘‘शिशिर, मुझे आप से कुछ बात करनी है?‘‘

‘‘हां, हां, बताओ.‘‘

‘‘मैंने एमिटी से शेयर मार्केट में स्पेशलाइजेशन सर्टिफिकेट कोर्स एप्लाई किया है.‘‘

‘‘अच्छा? क्यों अपने गरीब भाई को हैल्प करनी है क्या तुम्हें?‘‘ व्यंग्यात्मक हंसी हंसते हुए शिशिर बोला.

आगे पढ़ें- चिकनीचुपडी बातों को आकांक्षा….

ये भी पढ़ें- टेढ़ीमेढ़ी डगर: सुमोना ने कैसे सिखाया पति को सबक

झंझावात: पैसों के कारण बदलते रिश्तों की कहानी

family story in hindi

टाइमपास

family story in hindi

रिश्तों की मर्यादा: क्या देख दंग रह गई थी माला

ढोलक पर बन्नाबन्नी गाते सब के बीच बैठी माला कोने में 20 वर्षीय भांजी रुचि की फुसफुसाहट सुनते ही तिलमिला उठी. वह तुरंत उठी और दुकान से सटे कमरे में जा कर देखा तो उस की 8 वर्षीय बेटी परी जेठानी के पिता की गोदी में बैठी थी और जिस तरह से कहानी सुनाते उन के हाथ उस मासूम के कोमल अंगों को छू रहे थे, माला की आंखों में खून उतर आया. उस की पिता की उम्र के उस व्यक्ति की नापाक हरकत कतई माफी योग्य नहीं थी. उस का जी चाहा कि बेटी के साथ ऐसा घिनौना खिलवाड़ करने वाले का मुंह नोच ले, पर समझदार माला शादी जैसे मौके पर रंग में भंग नहीं डालना चाहती थी.

वैसे भी मिनी उस की प्रिय भतीजी थी और उसी की शादी अटेंड करने वह इंदौर से इटावा अपने पति और बेटी के साथ आई थी. इसलिए जैसेतैसे अपनेआप को नियंत्रित कर उस ने तेज आवाज में बेटी को आवाज दी, “चलो, परी खेल हो चुका. अब आओ, हाथमुंह धुला कर तुम्हें तैयार कर दूं.”

मां की आवाज सुनते ही परी भाग कर आई और उस के पैरों से लिपट गई. तभी जेठानी के पिता की आंखें माला से जा मिलीं. उस की आंखों में घृणा मिश्रित क्रोध देख वे थोड़ा सकपकाते हुए बोले, “बच्चों ने जिद की तो उन्हें कहानी सुना रहा था.”

‘छि: कैसा बेशर्म इनसान है. रंगेहाथों पकड़े जाने पर भी वह बातें बना रहा है,’ माला उस के दुस्साहस पर हैरान थी. इस तरह अपनों की भीड़ में कोई व्यक्ति वो भी पिता जैसे सम्मानित ओहदे वाला ऐसी नीच हरकत करेगा, उस ने सपने में भी नहीं सोचा था.

रिश्तों की मर्यादा भंग होती देख मन का आक्रोश आंखों के रास्ते उमड़तेघुमड़ते बहने लगा. उफ्फ क्या करूं, क्या कवीश को बताना ठीक रहेगा. लेकिन, अगर उन्हें गुस्सा आ गया तो माहौल बिगड़ते समय न लगेगा. ठीक है, देखती हूं अगर उन्होंने फिर ऐसी हरकत दोहराई तो उन की उम्र और ओहदे का खयाल न रखूंगी… सोचते हुए माला ने जैसे मन ही मन कुछ ठान लिया.

वाशरूम में उस ने परी के हाथमुंह धुलाते समय उसे नाना से दूर रहने को कहा.

“पर क्यों मम्मी, नाना तो हमें प्यार करते हैं, चौकलेट भी देते हैं.”

ये भी पढ़ें- सांवरी: गरीब की जिंदगी पर कैसे लगा लॉकडाउन?

“पर, उन्हें आप को यहांवहां छूना नहीं चाहिए. ये गलत होता है,” कहते हुए माला ने उसे अच्छेबुरे टच के बारे में समझाया.

“हां मम्मी, उन का छूना तो मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा था. मैं उन की गोद में बैठना भी नहीं चाहती थी, लेकिन उन्होंने कहा कि कहानी सुनने के लिए तो सब को बारीबारी से उन की गोद में बैठना होगा.

“पर, अब मैं नाना से चौकलेट भी नहीं लूंगी और कहानी भी नहीं सुनूंगी, फिर आप सुनाओगी न मुझे कोई अच्छी सी कहानी,” नन्ही परी मचल उठी.

“हां, मैं अपनी परी को एक सुंदर सी कहानी सुनाऊंगी, पर रात को सोते समय.

“लेकिन, अब हमेशा ध्यान रखना है कि आप को रुचि दीदी के साथ ही रहना है. ठीक है?”

“ओके…” अपनी छोटीछोटी बांहें उस के गले में डाल परी झूल गई.

12 साल पहले 5 भाईबहनों वाले उस हवेलीनुमा घर में माला सब से छोटी बहू बन कर आई थी. सासससुर थे नहीं, इसलिए अपने से काफी बड़े जेठजेठानी को ही वह सासससुर सा सम्मान देती थी. उस से बड़ी 3 ननदें भी उस पर बहुत स्नेह लुटाया करती थीं.

माला को याद आया, जब वह नीता दीदी के पिता से पहली बार मिलने पर उन के पैर छूने झुकी थी, तो उन्होंने ये कहते हुए उसे पैर नहीं छूने दिया था कि “कहीं बिटियन से पांव छुआए जात हैं. अरे बिटिया तो देवी का अवतार होती हैं. उन के तो पांव पूजे जात हैं…” और आज एक बिटिया के अंदर उन्हें देवी के बजाय उस की देह का दर्शन हो रहा है.
कैसी दोगुली मानसिकता, कैसा पाखंड… माला विचारों के भंवर में गोते लगा ही रही थी कि बाहर से आती भतीजे की आवाज ने उसे चौंका दिया, “चाची क्या कर रही हो, चाचा कब से आवाज दिए जा रहे हैं.”

“आईईई…” परी के कपड़े बदल चुकी माला ने जवाब दिया और परी को दुलारते हुए बाहर भेजा और खुद भी जल्दीजल्दी तैयार होने लगी.

आज लेडीज संगीत था, जिस में उस की और कवीश की भी परफोर्मेंस थी. प्योर जोर्जेट की रेड कलर की बौर्डर वाली साड़ी में माला बेहद खूबसूरत लग रही थी. शादी के लिए बुक किया गया गार्डन घर से 5 मिनट के फासले पर था. वहीं संगीत का प्रोग्राम होना था. काफी बड़े स्टेज की सजावट देखते ही बनती थी. पीच कलर का गाउन पहने मिनी भी बिलकुल गुड़िया सी लग रही थी.
सब से पहले दुलहन की सहेलियों का डांस हुआ, फिर मिनी ने भी उन को ज्वाइन कर लिया.

“मम्मा, मम्मा, मुझे भी डांस करना है.”

काफी देर से परी जिद कर रही थी. फिर तो वह भी कमर पर दोनों हाथ रखे ठुमकठुमक कर सब के बीच खूब नाची. फिर बारी आई माला और कवीश की. पुराने गीतों की पैरोडी पर उन दोनों ने इतना मस्ती भरा डांस किया कि सभी मंत्रमुग्ध हो उन्हें देखते रह गए. फिर तो क्या बच्चे क्या बड़े सभी एकएक कर डांस की मस्ती में डूबते चले गए.
माला भी प्रोग्राम ऐंजौय कर रही थी, पर उस की पैनी नजरें अपनी बच्ची की सुरक्षा के लिए पूरी तरह मुस्तैद थीं. उस की नजर बराबर दीदी के पिताजी पर थी. परी को खाना खिलाने के दौरान उस का ध्यान थोड़ा भटका तो वे गायब थे. “दीदी, क्या बात है, पिताजी नजर नहीं आ रहे?”

“अरे, उन से ज्यादा देर बैठा नहीं जाता. कहने लगे कि तुम बच्चों का प्रोग्राम है, तुम लोग मस्ती करो. मुझ से अब बैठा नहीं जाएगा. सो, खाना खा कर घर निकल गए.”

“दीदी, मेरी तबियत भी कुछ ढीली लग रही है, शायद थकान का असर है. घर जा कर आराम करती हूं. परी को ले जा रही हूं. कवीश पूछे तो बता देना.”

“अरे, पर तू ने तो अभी कुछ खाया भी नहीं है.”

“अभी भूख नहीं है. अगर लगी तो किसी के हाथों घर पर ही मंगवा लूंगी. आप चिंता न करो,” कहते हुए माला ने परी का हाथ पकड़ा और लंबे डग भरती हुई घर की तरफ चल दी. वह बेहद परेशान थी, क्योंकि बात यहां सिर्फ उस की बच्ची के प्रति हुए अन्याय की नहीं थी, बल्कि ये एक अनाचार और व्यभिचार था, जिसे करने वाला बेहद करीबी रिश्ते में बंधा एक धूर्त व्यक्ति था. सभ्य समाज का दुश्मन ऐसा व्यक्ति कभी भी किसी भी निरीह को अपनी कुचेष्टाओं का शिकार बना सकता है. तो क्या मासूमों के दोषी को यों ही छोड़ देना सही है, क्या रिश्ते की आड़ में उस की धृष्टता क्षमा करने योग्य है? ऐसे अनेक प्रश्न उस के मन को मथ रहे थे.
उस की आंखों के आगे जेठानी नीता की तसवीर तैर गई. कितनी अच्छी हैं दीदी, अपने पिता की सचाई जान कर उन्हें कितनी तकलीफ होगी? फिलहाल वह समझ नहीं पा रही थी कि उसे क्या करना चाहिए. जानबूझ कर माला घर के सामने वाले गेट से न जा कर आंगन में बने पीछे वाले दरवाजे से अंदर घुसी. वहां नाइन और कामवाली अगले दिन की पूजा के लिए मंडप के नीचे कुछ तैयारी कर रही थीं. परी को उस ने हाल में ले जा कर चुपचाप बैठने को कहा.

आंगन से लगे लंबे गलियारे को पार करती हुई वह दुकान के पास वाले कमरे तक जा पहुंची, तभी उस के कानों में बच्चों के खिलखिलाने की आवाज पड़ी, “नानाजी, अब हमारी बारी है.”

ये भी पढ़ें- आखिर कब तक: धर्म के नाम पर दो प्रेमियों की बलि

“सब की बारी आएगी, तनिक धीरज रखो… नाना के हाथों की जादू वाली मालिश,” खरखराती आवाज में भद्दी सी हंसी सुन वह खड़ी न रह सकी. उटका हुआ दरवाजा हाथ से ठेलते ही खुल गया.
अंदर का नजारा देख उसे एक बार फिर अपनी आंखों पर विश्वास न हुआ. आसपड़ोस के बच्चे नाना कहे जाने वाले शख्स को घेरे बैठे थे और अपनी गोदी में 5-6 साल की बच्ची को उलटा लिटाए वो उस की मालिश करने की भावभंगिमा कर रहा था. लपक कर माला ने बच्ची को उस की गोद से लगभग छीना और सभी को प्यार से अपनेअपने घर जाने को कहा.

“तुम बहुत जल्दी आ गई बिटिया,” उस के चेहरे पर अभी भी कुटिल मुसकान तैर रही थी.

“आप को शर्म नहीं आती ये नीच हरकत करते हुए. कहने को आप पितातुल्य हैं, पर आप को पिता कहना उस पवित्र शब्द का अपमान होगा. उम्र में आप की पोतियों से भी छोटी हैं ये बच्चियां. सच बताएं, आप का विवेक मर चुका है क्या, जो इन के साथ इतनी घिनौनी हरकत करते वक्त आप के हाथ नही कांपे,” अत्यंत क्षोभ व गुस्से से वह फट पड़ी.

“तुम क्या कह रही हो, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा. मुझ पर झूठा इलजाम लगाते तुम्हें शर्म आनी चाहिए.”

अचानक ही उस की बोली और सुर बदल चुका था. बेशर्मी की ये पराकाष्ठा देख माला दंग थी.

“सच में आप जैसे इनसान को चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए. जिस तरह की जलील हरकत आप ने की है, कायदे से आप को पुलिस में दे देना चाहिए, परंतु मैं सिर्फ समझाइश दे कर छोड़ रही हूं. वक्त रहते सुधर जाइए, नहीं तो दीदी और दूसरे लोगों को पता चला तो आप कहीं के नहीं रहेंगे,” आवेश में ऊंची होती उस की आवाज आंगन में काम कर रहे लोगों तक जा पहुंची.

“पागल हो क्या, बित्तेभर की छोकरी मुझे सबक सिखाने चली है, जानती नहीं कि कौन हूं मैं? तुझे तो…” तैश में उस ने माला पर अपना हाथ छोड़ दिया. पर उस उठे हाथ को किसी ने हवा में ही रोक लिया.

“खबरदार, जो माला पर हाथ उठाया. और सही कहा आप ने, वो मासूम आप को जानेगी भी कैसे? पर, मैं आप की भलेमानस वाली छवि के पीछे की घिनौनी हकीकत से भलीभांति वाकिफ हूं. आप इस संसार के सब से निकृष्ट व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपनी घृणित वासना की पूर्ति के लिए अपनी बच्ची तक को न छोड़ा. सच में आप को पिता कहते मुझे लज्जा आती है,” गुस्से में नीता का चेहरा तमतमा रहा था.

“ये क्या कह रही हो दीदी, एक बाप अपनी बेटी के साथ ऐसा कैसे…”

“बाप… इस की दरिंदगी देख प्रकृति ने इसे बाप बनने का अवसर ही कहां दिया?

“एक अदद बच्चे की आस में इस की सहृदय पत्नी तमाम कोशिशें कर के हार गई. सब तरफ से निराश हो कर उस की जिद पर मुझे एक अनाथालय से गोद लिया गया था. लेकिन बेटी हो कर भी मैं इस की बेटी कभी न बन सकी.

“एक दिन इसे मेरे साथ गलत हरकत करते देख मां का दिल भारी पीड़ा से भर उठा. उस दिन मुझे अपने सीने से चिपटाए वे देर तक रोती रहीं. 2 दिन बाद ही उन्होंने अपने भाई को बुला कर मुझे उन के हाथों सौंप दिया. उन 2 दिनों में वे साए की तरह मेरे साथ रहीं. और मेरे जाने के महीनेभर बाद ही ये खबर आ गई कि घर के अहाते में बने कुएं में कूद कर उन्होंने आत्महत्या कर ली. शायद इन का ये भयावह रूप उन की बरदाश्त से बाहर हो चुका था…” कहते हुए नीता फफक पड़ी.

“काश, उस वक्त मैं अपनी मां के साथ मजबूती से खड़ी हो पाती और इसे इस के किए का दंड दिला पाती, तो आज मेरी मां जिंदा होती. मैं ने तो सदा ही इस से एक निश्चित दूरी बना रखी थी.

“मिनी की शादी में भी न बुलाती, पर तुम्हारे भैया ने कहा तो उन्हें कैसे मना करती. अपना हर जख्म उन से साझा करना पड़ता. फिर मुझे भी लगा कि उम्र के इस पड़ाव पर जीवन की काफी ठोकरें खाने के बाद शायद इन्हें कुछ समझ आ गई हो, पर नहीं, कुछ लोगों की फितरत कभी नहीं बदलती. सोचती हूं कि इन्हें न बुलाना ही सही होता. वो तो अच्छा हुआ, तुम्हारी बातों से मुझे कुछ संदेह हुआ और मैं तुम्हारे पीछे चल पड़ी. पर अब क्या करूं? इन की हैवानियत ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा, क्या बताऊंगी तुम्हारे भैया को. जी तो कर रहा है कि अपनेआप को ही खत्म कर लूं. मैं नहीं रहूंगी, तो इस घर से इन का रिश्ता भी हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा.”

“गलती से भी ऐसा कभी मत सोचना. भुगतना तो उसे पड़ेगा, जिस ने ये जलील काम किया है. इन्हें इन के गुनाहों की सजा मिल कर रहेगी, ताकि ऐसी घिनौनी हरकत करने से पहले कोई सौ बार सोचे.”

दरवाजे पर नीता के पति खड़े थे.

“तुम यहां…?”

“हां, रुचि ने तुम दोनों को एक के बाद एक जाते देखा तो उस ने आज सुबह की घटना मुझे कह सुनाई और मैं सीधा यहां चला आया. तुम्हारी पूरी बात सुनते ही मैं ने कवीश को पुलिस को फोन करने को कहा है, पुलिस आती ही होगी,” कहते हुए नीता के कंधे को उन्होंने हौले से थपथपाया मानो उस के साथ खड़े रहने का भरोसा दे रहे हों.

“तुम अपने बाप को जेल भिजवाओगी?” इनसानी चोले के पीछे छिपे हैवान की आंखों में गहरा अविश्वास था.

“नहीं, मैं उस अनाचारी को जेल भेजूंगी, जिस ने रिश्तों की सभी मर्यादाओं को लांघ जाने का दुस्साहस किया है,” तल्ख स्वर में जवाब दे कर नीता ने घृणा से मुंह फेर लिया और भारी कदमों से अपने कमरे की ओर चल दी.

ये भी पढ़ें- मुसाफिर : चांदनी ने क्या किया था

“मुझे माफ कर दो दीदी, तुम्हारे आंसुओं की जिम्मेदार हूं मैं. ऐसे मौके पर ये सब नहीं चाहती थी, पर…”

“कैसी बातें करती हो माला, तुम्हारी वजह से आज एक अपराधी अपनी सही जगह पहुंच जाएगा. शुक्रगुजार हूं तुम्हारी, आज तुम्हारे कारण ही मैं इतनी हिम्मत जुटा पाई और एक सही फैसला लिया है,” नीता उस की बात को काटते हुए बोली.

“सच में दीदी, गर्व है मुझे आप पर,” कहते हुए माला नीता के गले लग गई.

पुलिस की गाड़ी का सायरन धीरेधीरे पास हो कर तेज ध्वनि में तबदील हो रहा था.

टूटे घरौंदे: सालों बाद पत्नी और बच्चों से मिलकर क्यों हैरान था मुरली

family story in hindi

सांवरी: गरीब की जिंदगी पर कैसे लगा लॉकडाउन?

लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

सोलह साल की सांवरी, कब से दिल्ली शहर में रह रही है , उसे खुद भी याद नहीं है,जबसे होश संभाला है अपने आपको इसी ज़ुल्मी शहर में पाया है. ज़ुल्मी इसलिए है ये शहर ,क्योंकि यहाँ कोई उससे अच्छे से नहीं बोलता और कोई भी उसकी चिंता भी नहीं करता .

अच्छे घरों की लड़कियां सुंदर साफ़ कपड़ों मे जब स्कूल जा रही होती हैं तब सांवरी को भी अम्मा और पापा के साथ काम पर निकलना पड़ता है.
हाँ , काम पर ,
और सांवरी को काम की कभी कोई कमी नहीं होती ,उसके परिवार को ठेकेदार बराबर काम देता रहता है.

इस शहर में जो आसमान को चूमती हुयी इमारतें रोज़ बनती ही रहती हैं ,उन्ही इमारतों में काम करती है सांवरी और उसके पापा और अम्मा.

और इसीलिये उसके परिवार को घर की भी कोई ज़रूरत नहीं खलती ,जिस इमारत में काम किया वहीं सो गए ,फिर सुबह होने के साथ उसी इमारत मे काम करने का सिलसिला फिर शुरू .
हाँ ये अलग बात है कि जब ये इमारत बन कर तैयार हो जायेगी तब तक सांवरी और उनका परिवार कहीं और जा चुका होगा ,किसी और इमारत को बनाने के लिए .

वैसे ये बात भी सांवरी किसी को नहीं बताती कि उसकी असली उम्र सोलह साल है ,क्योंकि अगर ठेकेदार को असली उम्र बता दी न तो फिर वो सांवरी को काम से हटा देगा क्योंकि अट्ठारह साल से कम उम्र के बच्चों को ठेकेदार काम पर नहीं रखता है ,पिछली बार जो ठेकेदार था न ,तो पापा ने उसको असली उमर बता दी थे सांवरी की ,तो उसने काम से हटा दिया था सांवरी को ,और जो चार पैसे वो कमाकर लाती थी वो भी मिलने बंद हो गए थे फिर .

उस दिन के बाद सांवरी और पापा सबको अपनी उमर अट्ठारह साल ही बताते हैं .

वैसे तो इस वाली इमारत में काम करते पांच महीने हो चुके हैं पर इस ठेकेदार ने अभी तक पगार नहीं दी है ,कई बार सब मजदूरों ने मिलकर कहा भी तो बस थोड़े बहुत पैसे दे देता है और ऊपर से पैसे न आने का बहाना बना देता है .

ये भी पढ़ें- छोटू की तलाश : क्या पूरी हो पाई छोटू की तलाश

पर ये क्या ……आज अचानक से ये अफरा तफरी क्यों मच गयी है?
सारा काम क्यों बंद करा दिया गया है?
“चलो चलो ….आज से काम बंद हो रहा है …कोई कोरोना वायरस है …जो बीमारी फैला रहा है …इसलोये सरकार का आदेश है कि सब काम बंद रहेगा और कोई भी बाहर नहीं निकलेगा “ठेकेदार ने काम बंद करते हुए कहा

“काम बंद करें ….,पर उससे क्या होगा ? और फिर हम कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या?”
“अरे …वो सब मुझे नहीं पता ….वो सब जाकर सरकार से पूछो….फिलहाल काम बंद करने का है…” चीख पड़ा था ठेकेदार

“ठीक है ….हमारी पगार तो दे दो”एक मज़दूर बोला

“पगार कही भागी जा रही है क्या? जब काम शुरू होगा तब मिल जायेगा पगार”ठेकेदार का रुख सख्त था.

मज़दूर समझ गए थे कि इससे बहस करना बेकार है ,भारी मन से उन्होंने काम बंद कर दिया और अधबनी इमारत में जाकर सर औंधा कर के बैठ गए.

अभी कुछ ही समय हुआ था उन सबको सुस्ताते हुए कि उन लोगों के देखा कि उनकी ही तरह एक मजदूरों का टोला ,जो कहीं और काम करता था और उनके ही गांव की तरफ का लग रहा था ,वो अपना सामान सर पर रख कर तेज़ी से चला आ रहा है

“अरे अब यहाँ मत रुको ….अब अपने घर चलो …यहाँ सब खत्म हो रहा है ….काम एंड करा दिया गया है और पुलिस शहर बंद करा रही है और सुना है कोई बीमारी फ़ैल रही है जिससे आदमी तुरंत ही मर जा रहा है .
उनमें से सबसे आगे चलने वाले मज़दूर ने चेताया

सांवरी और उसके साथ वाले मज़दूर भी यह सुनकर डर गए और सबने ही घर लौट चलने की बात मान ली.

भला दिहाड़ी मजदूरों के पास सामान ही कितना होता है?
जिसके पास जो भी सामान था ,उसे बोरे में बाँध बस स्टैंड की तरफ चल पड़े सभी.

परंतु तब तक देर हो चुकी थी सरकार ने संक्रमण फैलने के डर से बस और ट्रेने सभी बंद करा दी थी.

चारो तरफ अफरा तफरी का माहौल था,पुलिस हाथों में डंडे लेकर लोगों को मार रही थी और लोगों से घर से नहीं निकलने को कह रही थी पर फिर भी ज़रूरी सामान जुटाने को लोग घर से बाहर तो निकल ही रहे थे.

“अब हम घर कैसे जाएंगे” रोने लगी थी सांवरी
“हाँ ….हम लोगों का घर तो बहुत दूर है …क्या हम सब यहीं मर जायेंगे?” एक मज़दूर बोला
“नहीं अगर मरना है …तो यहाँ परदेस मैं नहीं मरेंगे ….अपने घर ..चलने की कोशिश तो करेंगे ही और अगर इस कोशिश में मर भी गए तो कोई बात नहीं” बिहार का एक मज़दूर हिम्मत दिखाते हुए बोला

“हाँ …चलो चलते हैं और हो सकता है कि हमें रास्ते में ही कोई सवारी मिल जाए और हम घर के नज़दीक पहुच जाए”

“हाँ ये सही रहेगा….चलो…चलते हैं”
और इस तरह बिहार और उत्तरप्रदेश के कई अलग अलग इलाकों से आया हुआ ये मजदूरों का गुट लौट पड़ा अपने घर की तरफ ,
सारी दुनिया भी घूम लो पर फिर भी संकट आने पर हर व्यक्ति को अपना घर ही याद आता है.
और फिर शहर में भला इन मजदूरों को कौन खाना ,पानी पूछता
सभी को अपनी राजनीति की पडी थी .

ये भी पढ़ें- हस्ताक्षर: आखिर कैसे मंजू बनी मंजूबाई?

पुलिस सड़कों पर थी और चारो तरफ लॉकडॉउन कर दिया गया था अर्थात हर एक व्यक्ति को घर मे ही रहने था बाहर नहीं निकलना था और इसी तरह इस कोरोना वायरस से रोकथाम संभव थी.

सारे मज़दूर अपने परिवारों को साथ ले,अपने सामान को सर पर उठाये ,हाथों में पकडे ,बच्चों को सुरक्षा की नज़रिए से अपने आगे पीछे चलाते हुए ,चल पड़े थे अपने गांव की तरफ ,वहां वे कब पहुचेंगे ,कैसे पहुचेंगे ,पहुचेंगे भी या नहीं ,इन सब बातों जा उन्हें कोई भी अंदाज़ा नहीं था और ना ही शायद वो इन बातों को जानना चाहते थे.
सामने कभी न खत्म होने वाला हाईवे दिखाई दे रहा था ,फिर भी सभी मजदूरों का टोला ,मन में एक आतंक लिए चला जा रहा था सिर्फ इस उम्म्मीद में कि अगर घर पहुच गए तो सब सही हो जायेगा.

“ए क्या तुम लोगों को पता नहीं है क्या कि पूरे शहर में लॉकडाउन है और तुम लोग एक साथ ,इतना सारा सामान लिए कहाँ चले जा रहे हो “एक पुलिस वाला चिल्लाया

“जी …साहेब हम सब लोग अपने गांव की तरफ जा रहे है ….और कोई सवारी भी नहीं मिला रही है इसलिए पैदल ही चले जा रहे हैं …कभी न कभी तो पहुच ही जायेंगे” सांवरी के पापा आगे आकर बोले
” स्साले …..तुम लोगों की जान बचाने के लिए हम लोग रात दिन ड्यूटी कर रहें हैं और तुम लोग सड़क पर घूम कर हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर दे रहे हो……..

तुम लोग ऐसे नहीं मानोगे …चलो सब के सब मुर्गा बनो .. सालों ”
और पुलिस वाले ने सारे मजदूरों को सजा के तौर पर मुर्गा बनवा दिया ,सारे मज़दूर लाठी खाने के डर के आगे मुर्गा बन गए ,उन मजदूरों की औरतें और बच्चे बेबस होकर देखते ही रहे.
डर से व्याकुल ,भूख से परेशान मज़दूर फिर से पैदल चल पड़े अपने गांव की तरफ.
अब तक देश में सरकार की तरफ से इस लॉकडाऊन की हालत को सुधारने के लिए बहुत सारे प्रयास किये जा रहे थे पर मजदूरों तक तो सिर्फ पुलिस के डंडे ही आ रहे थे.
पर फिर भी उनसब ने ठान रखा था कि जब तक जान है चलते रहेंगे.

पर मनुष्य शरीर की भी एक सीमा है आओर जब उनके शरीर की चलने की सीमा समाप्त हो गयी और रात हो गयी तो सबने एक मति से वहीँ हाईवे के किनारे सोने की योजना बनाई और जिसके पास जो जो भी था वहीँ किनारे पर बिछाकर सोने की तैयारी करने लगे.

कुछ देर बाद वहां पर एक पुलिस की गाड़ी आयी जिसने उन्हें कुछ खाने के बिस्कुट दिए
जो इतने पर्याप्त तो नहीं थे कि उनकी भूख मिटा सकें पर सच्चाई तो यह थी कि उनको खाकर उन मजदूरों की भूख और भड़क गयी थी ,पर मरता क्या न करता .

बिस्कुट खाकर पानी पीकर रात भर वे सब वहीं पड़े रहे और भोर होते ही फिर चल पड़े .
सांवरी भी अपने अम्मा और पापा के साथ चली जा रही थी ,आगे जाकर थोड़ा थक गयी तो सड़क के किनारे सुस्ताने बैठ गयी .
“अरे तुम्हे भूख लगी है क्या?” अचानक से एक आदमी सांवरी के पास आकर बोला
सांवरी चुपचाप हँसे देखती रही
“देख अगर खाना चाहिए तो मेरे साथ चल मैं तुझे खाना देता हूँ ….वहाँ उधर रखा हुआ है “उस आदमी ने जोर देते हुए कहा
भूख तो लगी ही थी सांवरी को सो वह उस आदमी के साथ जाने लगी ,बेचारी को ये भी नहीं ध्यान आया कि उसके माँ और पापा मजदूरों के साथ आगे बढ़ चुके है.

ये भी पढ़ें- बह गया जहर: मुग्धा से क्यों माफी मांग रहा था अमर

जब चलते हुए कुछ देर हो गयी तो तो सांवरी ने कहा
“कहाँ है खाना”
“हाँ इधर है …खाना ” झाड़ियों में कोई और आदमी छुपा हुआ बैठा था उसने लपककर सांवरी को पकड़ लिया और उसका मुंह दबा दिया और फिर दोनों आदमियों ने मिलकर सांवरी का बलात्कार किया और उसके विरोध करने पर उसको मारा भी .

सांवरी की दुनिया लूट चुकी थी वह रो रही थी पर वहां उसका रूदन सुनने वाला कोई भी नहीं था.
रोते रोते ही सांवरी उठी और आगे जाकर एक खाई में कूदकर उसने आत्म हत्या कर ली.

मजदूरों का काफिला आगे चलता जा रहा था , किसी ने सांवरी की फ़िक्र भी नहीं करी थी
लॉकडाऊन अब भी जारी था. ऐसे दरिंदों को पुलिस भी नहीं पहचान पा रही थी ,वे अब भी खुले सड़कों पर घूम रहे हैं. मज़दूर अब भी सड़क पर पैदल ही जा रहे थे बस सांवरी की ज़िंदगी पर ही पूरा लॉकडाउनन
लग चुका था.

दोनों ही काली: क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

family story in hindi

मैं हारी कहां: उस औरत का क्या था प्रवीण के साथ रिश्ता

family story in hindi

मां का दिल महान: भाग 3- क्या हुआ था कामिनी के साथ

अगले दिन नाश्ता करने के बाद शुचि रम्या के घर जा पहुंची. द्वार खोलते ही उसे देख कर चौंक गई थी रम्या.

‘‘मांजी की तो तबीयत ठीक नहीं है. मैं ने सोचा मैं ही तुम्हारी सहायता कर दूं,’’ शुचि सोफे पर पसरते हुए लापरवाही से बोली.

‘‘क्या कह रही हो, तुम? आज औफिस नहीं जाना क्या?’’ रम्या चौंक कर बोली.

‘‘आज छुट्टी ले ली है मैं ने. पड़ोसियों के लिए इतना त्याग तो करना ही पड़ता है. सोचा, पहले तुम्हारा हाथ बंटा दूं, उस के बाद हम सब का घूमने जाने का कार्यक्रम है. चलो बताओ, क्या करना है? मेरे पास अधिक समय नहीं है,’’ शुचि बोली.

‘‘काम तो बहुत सारा है. दहीबड़े बनाने हैं. खट्टीमीठी दोनों तरह की चटनी बनानी हैं. कचौड़ी बनाने की तैयारी भी करनी है. तुम्हें आता है ये सब?’’

‘‘पहले ही कहे देती हूं. मांजी की तरह कुशल नहीं हूं मैं. वैसे भी थोड़ा जल्दी थक जाती हूं.’’

‘‘तुम चिंता मत करो, मैं सब संभाल लूंगी.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो? पड़ोसी धर्म भी कोई चीज होती है. पर पहले थोड़ी चाय तो बनाओ. क्या है न, बिना पैट्रोल के गाड़ी चलती नहीं है,’’ शुचि बेबाकी से हंस दी.

‘‘अभी बना देती हूं. हम दोनों ने भी चाय कहां पी है. पलक को ट्यूशन के लिए भेज कर अभी जरा सा समय मिला है. अभी तक सुषमा भी नहीं आई है. हर रोज तो 7 बजे तक आ जाती थी,’’ रम्या चाय बनाने की तैयारी करते हुए बोली.

‘‘इन कामवालियों के संबंध में तो कुछ न कहना ही अच्छा है. इन्हें कुछ भी दो पर इन का मुंह तो कभी सीधा होता ही नहीं,’’ रम्या अब भी केवल अपनी कामवाली सुषमा को कोस रही थी.

‘‘तो काम शुरू करें,’’ चाय के कप उठाते हुए रम्या बोली.

‘‘अवश्य, पर यह तो बताओ कि तुम मुझे दोगी क्या?’’ शुचि पूछ बैठी.

कुछ देर के लिए तो मानो कक्ष की हवा थम सी गई और शुचि का प्रश्न दीवारों से टकरा कर लौट आया.

‘‘क्या कह रही हो तुम? ऐसी बात भला तुम सोच भी कैसे सकती हो?’’

ये भी पढ़ें- शिणगारी: आखिर क्यों आज भी इस जगह से दूर रहते हैं बंजारे?

‘‘कमाल है, आज तुम्हें यह बात बड़ी विचित्र लग रही है. पर कल तो तुम ने यही बात मेरी मांजी से कही थी. तुम तो किसी से बिना पारिश्रमिक दिए काम करवाती ही नहीं हो. है न?’’ शुचि ने व्यंग्य किया.

‘‘वह तो मैं ने यों ही कह दिया था. म…म…मुझे लगा, मांजी खुश हो जाएंगी,’’ रम्या न चाहते हुए भी हकला गई.

‘‘मुझे भी खुश कर दो न. क्या है न, घर में खाने को नहीं है, तुम कुछ दे दोगी तो काम चल जाएगा,’’ शुचि अब भी क्रोध में थी.

‘‘तुम तो व्यर्थ ही बात का बतंगड़ बना रही हो. तुम इन वृद्धों की मानसिकता को समझती नहीं हो. यह कोई भी कार्य कुछ पाने की आशा से ही करते हैं,’’ रम्या अपनी ही बात पर अड़ी थी.

‘‘तुम्हारे विचार जान कर प्रसन्नता हुई. पर इन्हें अपने पास ही रखो. मांजी को बहुत बुरा लगा है, यह तो तुम समझ ही गई होंगी. मैं तो तुम्हें केवल यह बताने आई थी, भविष्य में तुम ने उन्हें अपमानित करने का प्रयत्न किया तो पता नहीं शायक क्या कर बैठें. अभी तो हम ने यह बात उन से छिपा कर रखी है,’’ तीखे स्वर में बोल कर शुचि बाहर निकल गई. रम्या सामने रखी ठंडी होती चाय को देखती रही.

‘‘स्वयं ही चाय बनवाई और छोड़ कर चली गईं. तुम तो अपनी चाय पी लो,’’ सुहास बोला.

‘‘वह मुझे इतना कुछ सुना कर चली गई और तुम चुप बैठे देखते रहे,’’ रम्या सुहास पर ही बरस पड़ी.

‘‘तुम क्या चाहती थीं मैं ढालतलवार ले कर मैदान में कूद पड़ता?’’

‘‘वह तो कोई विरला ही दिन होगा. पर मैं भी चुप नहीं बैठूंगी. ऐसा मजा चखाऊंगी कि शुचि याद रखेगी.’’

‘‘होश की बात करो, रम्या. स्वीकार कर लो कि भूल तुम्हारी थी. तुम ने कामिनी आंटी का अपमान किया है. जा कर क्षमा मांग लो और बात को यहीं समाप्त कर दो. तुम नहीं जाना चाहतीं तो मुझ से कहो, मैं क्षमा मांग लूंगा. वे बड़ी हैं, हमारी मां की आयु की हैं, क्षमा मांगने से हम छोटे नहीं हो जाएंगे. सोचता हूं तो मुझे भी आश्चर्य हो रहा है कि तुम ने उन से ऐसा व्यवहार किया. तुम्हें शायद पता नहीं है कि शायक के पिता रंगपुर के जानेमाने चिकित्सक थे.’’

कुछ देर के लिए रम्या चित्रलिखित सी बैठी रही. बात इतनी बढ़ जाएगी, यह तो उस ने सोचा ही नहीं था. पर अब कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा. अदिति और आर्यन पलक की जन्मदिन पार्टी में नहीं आए तो पलक को कितना बुरा लगेगा.

रम्या चुपचाप शुचि के घर की तरफ चल पड़ी. शुचि ने द्वार खोला तो सामने रम्या को खड़े देख कर हैरान रह गई.

‘‘मांजी, कहां हैं आप? शुचि बता रही थी कि आप नाराज हैं,’’ रम्या उन के पास बैठते हुए बोली, ‘‘मेरा इरादा आप का अपमान करने का नहीं था, न ही मैं आप को दुख पहुंचाना चाहती थी. पता नहीं कैसे वह सब मेरे मुंह से निकल गया. भूल हो गई, क्षमा कर दीजिए.’’

ये भी पढ़ें- नाक: रूपबाई के साथ आखिर क्या हुआ

‘‘अरे बैठो, मैं ने किसी बात का बुरा नहीं माना. समय बहुत बदल गया है. अब न किसी के पास दूसरों के लिए समय है और न ही प्रेम या आदर. ऐसे में क्या बुरा मानना,’’ कामिनी हर शब्द पर जोर दे कर बोलीं.

वे अपनी बात पूरी कर पातीं कि उस से पहले ही सुजाताजी के बेटे अनुराग ने प्रवेश किया. वह बदहवास हो रहा  था.

‘‘क्या हुआ, अनुराग?’’ शुचि उस की हड़बड़ाहट देख कर बोली.

‘‘मां स्नानघर में फिसल कर गिर गईं. शायद हड्डी टूट गई है. अस्पताल ले जाना पड़ेगा. मां ने कामिनी आंटी को फौरन आने को कहा है. कह रही थीं कि भूलचूक माफ कर के तुरंत आ जाएं,’’ वह बोला.

‘‘कैसी भूलचूक?’’ शुचि ने प्रश्न किया.

‘‘मुझे क्या पता. यह तो मां ही बता सकती हैं,’’ अनुराग ने कंधे उचका कर अपनी विवशता प्रकट की तो शुचि ने प्रश्नवाचक मुद्रा में कामिनी पर दृष्टि डाली.

‘‘वह सब बाद में, चल कर सुजाताजी को देखते हैं,’’ कामिनी अनुराग के साथ चल दीं.

सभी लपक कर सुजाताजी के फ्लैट में पहुंचे.

‘‘देखो न कामिनी, यह क्या हो गया,’’ सुजाता कामिनी को देखते ही बोलीं, ‘‘मुझ से तो चला भी नहीं जा रहा.’’ सुजाता ने कस कर कामिनी के हाथ पकड़ लिए. तब तक ऐंबुलैंस आ गई थी. सुजाता को ऐंबुलैंस से अस्पताल पहुंचाया.

सुजाता के पैर की हड्डी न केवल टूट गई थी बल्कि अपने स्थान से खिसक भी गई थी. तुरंत उन का औपरेशन किया गया. पूरे समय सगी बहन से भी बढ़ कर कामिनी ने सुजाता की सेवा की.

3 माह के बाद सुजाता ने बैसाखी के सहारे चलना प्रारंभ किया. सदाशय हाइट्स का तो अब कायाकल्प ही हो गया है. अब केवल कामिनी ही नहीं सब एकदूसरे के इस तरह काम आते हैं मानो एक ही परिवार के सदस्य हों. कामिनी का मन भी शायक और शुचि के पास रम सा गया है, अदिति और आर्यन छात्रावास से घर जो आ गए हैं.

सुजाताजी ने किस भूलचूक की माफी मांगी थी, शुचि ने यह कई बार पूछने का यत्न किया पर हर बार कामिनी ने मुसकरा कर टाल दिया.

‘‘जाने भी दे, शुचि. जब कोई माफी मांग ले तो माफ करने में ही समझदारी है. है कि नहीं?’’

‘‘ठीक है,’’ शुचि बोली पर उस के मन में मां की महानता के लिए सम्मान और बढ़ गया था.

ये भी पढ़ें- घोंसला: सारा ने क्यों शादी से किया था इंकार

रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 3- क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

लेखिका- विमला भंडारी

निश्चय करते ही मुझे अस्पताल की थका देने वाली जिंदगी एकाएक उबाऊ व बोझिल लगने लगी. सोच रही थी कि दो दिन पहले ही छुट्टी ले कर चली जाऊं. अपने इस निर्णय पर मैं खुद हैरान थी.

विवाह के 2 दिन पूर्व मैं उदयपुर जा पहुंची. टुलकी ने मुझे दूर से ही देख लिया था. चंचल हिरनी सी कुलांचें मारने वाली वह लड़की हौलेहौले मेरी ओर बढ़ी. कुछ क्षण मैं उसे देख कर ठिठकी और एकटक उसे देखने लगी, ‘यह इतनी सुंदर दिखने लग गई है,’ मैं मन ही मन सोच रही थी कि वह बोली, ‘‘सिस्टर, मुझे पहचाना नहीं?’’ और झट से झुक कर मुझे प्रणाम किया.

मैं उसे बांहों में समेटते हुए बोली, ‘‘टुलकी, तुम तो बहुत बड़ी हो गई हो. बहुत सुंदर भी.’’

मेरे ऐसा कहने पर वह शरमा कर मुसकरा उठी, ‘‘तभी तो शादी हो रही है, सिस्टर.’’

उस से इस तरह के उत्तर की मुझे उम्मीद नहीं थी. सोचने लगी कि इतनी संकोची लड़की कितनी वाचाल हो गई. सचमुच टुलकी में बहुत अंतर आ गया था.

अचानक मेरा ध्यान उस के हाथों की ओर गया, ‘‘यह क्या, टुलकी, तुम ने तो अपने हाथ बहुत खराब कर रखे हैं, जरा भी ध्यान नहीं दिया. बड़ी लापरवाह हो. अरे दुलहन के हाथ तो एकदम मुलायम होने चाहिए. दूल्हे राजा तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले कर क्या सोचेंगे कि क्या किसी लड़की का हाथ है या…?’’ मैं कहे बिना न रह सकी.

मेरी बात बीच में ही काटती हुई टुलकी उदास स्वर में बोल उठी, ‘‘सिस्टर, किसे परवा है मेरे हाथों की, बरतन मांजमांज कर हाथों में ये रेखाएं तो अब पक्की हो गई हैं. आप तो बचपन से ही देख रही हैं. आप से क्या कुछ छिपा है.’’

‘‘अरे, फिर भी क्या हुआ. तुम्हारी मां को अब तुम से कुछ समय तक तो काम नहीं करवाना चाहिए था,’’ मैं ने उलाहना देते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- अपरिमित: अमित और उसकी पत्नी के बीच क्या हुई थी गलतफहमी

‘‘मेरा जन्म इस घर में काम करने के लिए ही हुआ है,’’ रुलाई को रोकने का प्रयत्न करती टुलकी को देख मेरे अंदर फिर कुछ पिघलने लगा. मन कर रहा था कि खींच कर उस को अपने सीने में भींच लूं. उसे दुनिया की तमाम कठोरता से बचा लूं. मेरी नम आंखों को देख कर वह मुसकराने का प्रयत्न करते हुए आगे बोली, ‘‘मैं भी आप से कैसी बातें करने लग गई, वह भी यहीं सड़क पर. चलिए, अंदर चलिए, सिस्टर, आप थक गई होंगी,’’ मुझे अंदर की ओर ले जाती टुलकी कह उठी, ‘‘आप के लिए चाय बना लाती हूं.’’

बड़े आग्रह से उस ने मुझे नाश्ता करवाया. मैं देख रही थी कि यों तो टुलकी में बड़ा फर्क आ गया है पर काम तो वह अब भी पहले की तरह उन्हीं जिम्मेदारियों से कर रही है.

मेरे पूछने पर कहने लगी, ‘‘मां तो नौकरी पर रहती हैं, उन्हें थोड़े ही मालूम है कि घर में कहां, क्या पड़ा है. मैं न देखूंगी तो कौन देखेगा. और यह टिन्नू,’’ अपनी छोटी बहन की ओर इशारा करते हुए कहने लगी, ‘‘इसे तो अपने शृंगार से ही फुरसत नहीं है. अब देखो न सिस्टर, जैसे इस की शादी हो रही हो. रोज ब्यूटीपार्लर जाती है.’’

‘‘दीदी, आज आप की पटोला साड़ी मैं पहन लूं?’’ अंदर आती टिन्नू तुनक कर बोली.

‘‘पहन ले, मोपेड पर जरा संभलकर जाना.’’

‘‘पायलें भी दो न, दीदी.’’

‘‘देख, तू ने लगा ली न वही बिंदी. मैं ने तुझे मना किया था कि नहीं?’’

‘‘मैं ने मां से पूछ कर लगाई है,’’ इतराती हुई टिन्नू निडर हो बोली.

‘‘मां क्या जानें कि मैं क्यों लाई?’’

‘‘आप और ले आना, मुझे पसंद आई तो मैं ने लगा ली. इस पटोला पर मैच कर रही है न. अब मुझे जल्दी से पायलें निकाल कर दे दो. देर हो रही है. अभी बहुत से कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘नहीं दूंगी.’’

‘‘तुम नहीं दोगी तो मैं मां से कह कर ले लूंगी,’’ ठुनकती हुई टिन्नू टुलकी को अंगूठा दिखा कर चली गई.

‘‘देखो सिस्टर, मेरा कुछ नहीं है. मैं कुछ नहीं, कोई अहमियत नहीं,’’ भरे गले से टुलकी कह रही थी.

‘‘टुलकी, ओ टुलकी,’’ तभी उस की मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘हलवाई बेसन मांग रहा है.’’

‘‘टुलकी, जरा चाकू लेती आना?’’ किसी दूसरी महिला का स्वर सुनाई दिया.

‘‘दीदी, पाउडर का डब्बा कहां रखा है?’’ टुलकी की छोटी बहन ने पूछा.

‘‘क्या झंझट है, एक पल भी चैन नहीं,’’ झुंझलाती हुई वह उठ खड़ी हुई.

मैं बैठी महसूस कर रही थी कि विवाह के इन खुशी से भरपूर क्षणों में भी टुलकी को चैन नहीं.

दिनभर के काम से थकी टुलकी अपने दोनों हाथों से पैर दबाती, उनींदी आंखें लिए ‘गीतों भरी शाम’ में बैठी थी और ऊंघ रही थी. उल्लास से हुलसती उस की बहनें अपने हाथों में मेहंदी रचाए, बालों में वेणी सजाए, गोटा लगे चोलीघाघरे में ढोलक की थाप पर थिरक रही थीं.

सभी बेटियां एक ही घर में एक ही मातापिता की संतान, एक ही वातावरण में पलीबढ़ीं पर फिर भी कितना अंतर था. कुदरत ने टुलकी को ‘बड़ा’ बना कर एक ही सूत्र में मानो जीवन की सारी मधुरता छीन ली थी.

टुलकी के जीवन की वह सुखद घड़ी भी आई जब द्वार पर बरात आई, शहनाई बज उठी और बिजली के नन्हे बल्ब झिलमिला उठे.

ये भी पढ़ें- धर्मणा के स्वर्णिम रथ: क्या हुआ था ममता के साथ

मैं ने मजाक करते हुए दुलहन बनी टुलकी को छेड़ दिया, ‘‘अब मंडप में बैठी हो. किसी काम के लिए दौड़ मत पड़ना.’’

धीमी सी हंसी हंसती वह मेरे कान में फुसफुसाई, ‘फिर कभी इधर लौट कर नहीं आऊंगी.’

बचपन से चुप रहने वाली टुलकी के कथन मुझे बारबार चौंका रहे थे. इतना परिवर्तन कैसे आ गया इस लड़की में?

मायके से विदा होते वक्त लड़कियां रोरो कर कैसा बुरा हाल कर लेती हैं पर टुलकी का तो अंगप्रत्यंग थिरक रहा था. मुझे लगा, सच, टुलकी के बोझिल जीवन में मधुमास तो अब आया है. उस के वीरान जीवन में खुशियों के इस झोंके ने उसे तरंगित कर दिया है.

विदा के झ्रसमय टुलकी के मातापिता, भाई और बहनों की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी लेकिन टुलकी की आंखें खामोश थीं, उन में कहीं भी नमी दिखाई नहीं दे रही थी. इसलिए वह एकाएक आलोचना व चर्चा का विषय बन गई. महिलाओं में खुसरफुसर होने लगी.

लेकिन मैं खामोश खड़ी देख रही थी बंद पिंजरे को छोड़ती एक मैना की ऊंची उड़ान को. एक नए जीवन का स्वागत वह भला आंसुओं से कैसे कर सकती थी.

ये भी पढ़ें- अम्मी कहां : कहां खो गईं थी अम्मी

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें