रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 1- क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

लेखिका- विमला भंडारी

घंटी की आवाज से मैं एकदम चौंक उठी. सोचा, बेवक्त कौन आया है नींद में खलल डालने. उठ कर देखा तो डाकिया बंद दरवाजे के नीचे से एक लिफाफा खिसका गया था.

झुंझलाई सी मैं लिफाफा ले कर वहीं सोफे पर बैठ गई. जम्हाई लेते हुए मैं ने सरसरी नजर से देखा, ‘यह तो किसी के विवाह का कार्ड है. अरे, यह तो टुलकी की शादी का निमंत्रणपत्र है.’

सारा आलस, सारी नींद पता नहीं कहां फुर्र हो गई. टुलकी के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ उस का हस्तलिखित पत्र भी था. बड़े आग्रह से उस ने मुझे विवाह में बुलाया था. मेरे खयालों के घेरे में 12 वर्षीया टुलकी की छवि अंकित हो आई.

लगभग 8 वर्ष पूर्व मैं उदयपुर अस्पताल में कार्यरत थी. टुलकी मेरे मकानमालिक की 4 बेटियों में सब से बड़ी थी. छोटी सी टुलकी को घर के सारे काम करने पड़ते थे. भोर में उठ कर वह किसी सुघड़ गृहिणी की भांति घर के कामकाज में जुट जाती. वह पानी भरती, मां के लिए चाय बनाती. फिर आटा गूंधती और उस के अभ्यस्त नन्हेनन्हे हाथ दो परांठे सेंक देते. इस तरह टुलकी तैयार कर देती अपनी मां का भोजन.

टुलकी की मां पंचायत समिति में अध्यापिका थीं. चूंकि स्कूल शहर के पास एक गांव में था, इसलिए उस को साढ़े 6 बजे तक आटो स्टैंड पहुंचना होता था. जल्दबाजी में वह अकसर अपना टिफिन ले जाना भूल जाती. ऐसे में टुलकी सरपट दौड़ पड़ती आटो स्टैंड की ओर और मां को टिफिन थमा आती.

लगभग यही समय होता जब मैं अपनी रात की ड्यूटी पूरी कर घर लौट रही होती. आटो स्टैंड से ही टुलकी वापस मेरे साथ घर की ओर चल पड़ती.

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‘आज तुम्हारी मां फिर टिफिन भूल गईं क्या?’ मेरे पूछते ही टुलकी ‘हां’ में गरदन हिला देती. मैं देखती रह जाती उस के मासूम चेहरे को और सोचती, ‘दोनों में मां कौन है और बेटी कौन?’

घर पहुंचते ही टुलकी पूछती, ‘सिस्टर, आप के लिए चाय बना दूं?’

‘नहीं, रहने दे. अभी थोड़ी देर सोऊंगी. रातभर की थकी हूं,’ कहती हुई मैं अपने बालों को जूड़े के बंधन से मुक्त कर देती. मेरे काले घने, लंबे बालों को टुलकी अपलक देखती रह जाती. पर यह मैं ने तब महसूस किया जब एक दिन वह बर्फ लेने आई. उस के कटे बालों को देख मैं हैरानी से पूछ बैठी, ‘बाल क्यों कटवा लिए, टुलकी?’

उस की पहले से सजल मिचमिची आंखों से आंसू बहने लगे. मेरे पुचकारने पर उस के सब्र का बांध टूट गया. भावावेश में वह मेरे सीने से लिपट गई. मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा. उस के रूखे बालों में हाथ घुमाते हुए मैं ने पुचकारा, ‘रो मत बेटी, रो मत. क्या हुआ, क्या बात हुई, मुझे बता?’

सिसकियों के बीच उभरते शब्दों से मैं ने जाना कि टुलकी के लंबे बालों में जुएं पड़ गई थीं. मां से सारसंभाल न हो पाई. इसलिए उस के बाल जबरदस्ती कटवा दिए गए.

‘सिस्टर, मुझे आप जैसे लंबे बाल…’ उस ने दुखी स्वर में मुझ से कहा, ‘देखो न सिस्टर, मैं सारे घर का काम करती हूं, मां का इतना ध्यान रखती हूं…क्या हुआ जो मेरे बालों में जुएं पड़ गईं. इस का मतलब यह तो नहीं कि मेरे बाल…’ और उस की रुलाई फिर से फूट पड़ी.

मैं उसे दिलासा देते हुए बोली, ‘चुप हो जा मेरी अच्छी गुडि़या. अरे, बालों का क्या है, ये तो फिर बढ़ जाएंगे, जब तू मेरे जितनी बड़ी हो जाएगी तब बढ़ा लेना इतने लंबे बाल.’

हमेशा चुप रहने वाली आज्ञाकारिणी टुलकी मेरी ममता की हलकी सी आंच मिलते ही पिघल गई थी. पहली बार मुझे महसूस हुआ कि इस अबोध बच्ची ने कितना लावा अपने अंदर छिपा रखा है.

टुलकी की मां उस को जोरजोर से आवाजें देती हुई कोसने लगी, ‘पता नहीं कहां मर गई यह लड़की. एक काम भी ठीक से नहीं करती. बर्फ क्या लेने गई, वहीं चिपक गई.’

मां की चिल्लाहट सुन कर बर्फ लिए वह दौड़ पड़ी. उस दिन के बाद वह हमेशा स्नेह की छाया पाने के लिए मेरे पास चली आती.

एक दिन जब टुलकी अपनी मां के सिर की मालिश कर रही थी तो मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई, ‘क्या जिंदगी है, इस लड़की की. खानेखेलने की उम्र में पूरी गृहस्थिन बन गई है. इसे थोड़ा समय खेलने के लिए भी दिया करो, भाभी. तुम इस की सही मां हो, तुम्हें जरा खयाल नहीं आता कि…’

‘क्या करूं, सिस्टर, आज सिर में बहुत दर्द था,’ टुलकी की मां ने अपराधभाव से अपनी नजर नीची करते हुए कहा.

मैं ने टुलकी को उंगली से गुदगुदाते हुए उठने का इशारा किया तो उस ने हर्षमिश्रित आंखों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में कुछ कहा. फिर वह बाहर भाग गई. मुझे लगा, जैसे मैं ने किसी बंद पंछी को मुक्त कर दिया है.

‘आज आटो के इंतजार में सड़क पर 2 घंटे तक खड़ा रहना पड़ा. शायद तेज धूप के कारण सिर में दर्द होने लगा है. सोचा, थोड़ी मालिश करवा लूं, ठीक हो जाएगा,’ टुलकी की मां सफाई देती हुई बोलीं.

शायद कुछ दर्द के कारण या फिर अपनी बेबसी के कारण टुलकी की मां की आंखें नम हो आई थीं. यह देख मैं इस समय ग्लानि से भर गई.

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‘क्या करूं सिस्टर, एक लड़के की चाह में मैं ने पढ़ीलिखी, समझदार हो कर भी लड़कियों की लाइन लगा दी. पता नहीं क्याक्या देखना है जिंदगी में…’ कहती हुई वह अपनी बेबसी पर सिसक उठी.

सारा दोष ‘प्रकृति’ पर मढ़ कर वह अपनेआप को तसल्ली देने लगी. मैं सोचने लगी कि इन्होंने तो सारा दोष प्रकृति को दे कर मन को समझा दिया पर टुलकी बेचारी का क्या दोष जो असमय ही उस का बचपन छिन गया.

‘क्या उस का दोष यही है कि वह घर में सब से बड़ी बेटी है?’ मन में बारबार यही प्रश्न घुमड़ रहा था. टुलकी बारबार मेरे मानसपटल पर उभर कर पूछ रही थी, ‘मेरा कुसूर क्या है, सिस्टर?’

उस दिन भी मैं सो रही थी कि एकाएक मुझे लगा कि कोई है. आंखें खोल कर देखा तो टुलकी सामने खड़ी थी. पता नहीं कब आहिस्ता से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई थी. वह एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने आंखों ही आंखों में सवाल किया, ‘क्या है?’

आगे पढ़ें- मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को…

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हस्ताक्षर: आखिर कैसे मंजू बनी मंजूबाई?

लेखक- धीरज कुमार

मंजू आईने में अपने गठीले बदन को निहार रही थी और सोच रही थी कि बिना कलह के दो रोटी भी खाओ, तो सेहत अच्छी हो ही जाती है. वह अपने चेहरे के सामने आए बालों को हाथों से सुलझा कर, अपनी बड़ीबड़ी आंखें में तैरते हुए सपनों को देखने की कोशिश कर रही थी. अभी भी उस के चेहरे पर चमक बाक़ी थी. फिर वह याद करने लगी थी…  कैसे वह मंजू से मंजूबाई बन गई थी. जब शादी कर के इस घर में आई थी, तब उस की सास कितनी खुश हुई थीं.  वे उस की सुंदर काया देख कर घरघर कहती फिरतीं थीं, ‘मेरी बहू बहुत ही खूबसूरत है. वह लाखों में एक है.’

और फिर एक दिन सासुमां ने उसे समझाया था, ‘अब बहू, तुम्हें ही मेरे लल्ला को सुधारना है. थोड़ाबहुत उसे पीने की आदत है.’

‘सुनिए जी, आप शराब पीना बंद कर दीजिए. मुझे यह सब पसंद नहीं है,’ मैं ने पति की बांहों में सिमट कर मनाने की कोशिश की थी.

कुछ दिनों तक उस का पीना कुछ कम हुआ, लेकिन जल्द ही वह पुरानी आदत के कारण पीने लगा था. फिर तो वह मेरी सुनता ही नहीं था. जब मना करती, वह भड़क जाता. उस दिन, पहली बार अपने पति से पीटी गई थी. मैं खूब रोई थी.

मैं अपने समय को कोस रही थी. गरीब मांबाप की बेटी, अपने समय को ही दोष दे कर रह जाती है. शराब की लत ने उसे बीमार कर दिया था. मैं रोज उस से लड़ती. यह लड़ाईझगड़ा मेरी पिटाई पर खत्म होता. आसपास वाले लोग तमाशा देखते. उन लोगों के लिए  यह सब मनोरंजन का साधन था. जबकि, मैं रोज मर और जी रही थी.

मैं उसे सुधार न सकी. देखतेदेखते मैं 2 बेटियों की मां बन गई थी. अब तो सुंदर त्वचा हडि्डयों से चिपक कर, बदसूरत और काली बन चुकी थी.

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सासुमां  घर के सारा सामान व जेवरात बेच कर बीमार बेटे को बचाने में लग गई थीं. लेकिन गुरदे की बीमारी ने उस की जान ले ली. सासुमां अपने लल्ला के वियोग में ज्यादा दिन टिक नहीं पाईं.

कुछ जलने की बू आने लगी. तभी उसे याद आया, गैस पर दाल उबल रही थी. वह किचेन की तरह दौड़ पड़ी. जल्दीजल्दी कलछी से दाल को चला कर  चूल्हे से नीचे रख दी. पूरी तरह से नहीं जली थी.

काम से निबट कर  कमरे में खाट पर लेट गई और सोचने लगी, 2 बेटियों की अकेली मां…  बच्चों को पालने के लिए घरघर झाड़ूपोंछा करने लगी थी. बाद में प्राइवेट स्कूल में साफसफाई और झाड़ू लगाने का काम मिल गया . बेटियां उसी स्कूल में पढ़ने लगी थीं.

इन दिनों स्कूल में गरमी की छुट्टी चल रही थी. रिंकी और पिंकी नाश्ता करने के बाद इत्मीनान से सो रही थीं. मैं दोपहर का भोजन तैयार कर रही थी क्योंकि राघव आने वाला था. वह उसी स्कूल में बस का ड्राइवर है. जरूरत पड़ने पर वह मेरी मदद कर देता था. मेरी बेटी बीमार हो जाती थी, तो वह कई बार अस्पताल ले गया था. इतना ही नहीं, उन दिनों जब मैं काफी हताश और निराश थी तो उस ने आगे बढ़ कर सहारा दिया था. फिर कैसे हम दोनों एकदूसरे के दुखसुख के साथी बन गए, पता ही नहीं चला.

अब वह छुट्टियों में मेरे  घर कभीकभी आने लगा था. बच्चों के लिए टॉफियां और मिठाइयां ले कर आता. वह बच्चों के साथ घुलमिल गया था. बच्चे भी उसे अंकल अंकल करने लगे थे.

जब पेट की भूख शांत हुई तो तन की भूख मुझे सताने लगी. पति के साथ झगड़े के कारण असंतुष्ट ही रही. उस का भरपूर प्यार मिला नहीं. आखिर कब तक अकेली रहती. ऐसे में राघव का साथ मिला. वह भी अपनी पत्नी से दूर रहता है. वह इतना भी नहीं कमा पाता है कि हजार किलोमीटर दूर अपनी पत्नी के पास जल्दीजल्दी जा सके. शायद हम दोनों की तनहाइयां एकदूसरे को पास ले आई थीं.

जब कल शाम को बाजार से लौट रही थी तो पड़ोस की कांताबाई मिल गई थी. वह मेरी विपत्तियों  में अंतरंग सहेली बन चुकी थी. उसी ने मुझे शुरू में झाड़ूपोंछा का काम दिलाया था. मेरा हालचाल जानने के बाद  वह पूछने लगी थी, ‘राघव इन दिनों तुम्हारे घर ज्यादा ही आ रहा है?’

‘कांता, तुम तो जानती हो, वह बच्चों के पास आ जाता है, इसीलिए मैं मना नहीं कर पाती हूं.’ मैं ने सफाई देने की कोशिश की थी.

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‘मंजू, मैं तुम को बहुत पहले से जानती हूं. महल्ले वाले तुम दोनों के बारे में तरहतरह के किस्सेकहानियां गढ़ रहे हैं. मैं चाहती हूं कि अगर तुम्हारे मन में उस के प्रति कुछ है,  तो तुम जल्दी से  कोई निर्णय ले लो. तुम अकेले कब तक रहोगी.’ उस ने मुझे समझाने की कोशिश की थी.

‘अरे कांता,  तुम भी मुझे नहीं समझ पाईं. मैं अब 2 बेटियों की मां हूं. तुम जो सोच रही हो ऐसा कुछ भी नहीं है. और ये महल्ले वालों का क्या है. उन्हें तो, बस, मनोरंजन होना चाहिए. उन को किसी के दुखसुख से क्या मतलब. वह मेरे साथ स्कूल में काम करता है. बच्चों से ज्यादा हिलमिल गया. बच्चों के बीमार होने पर उस ने कई बार मेरी मदद की है. बस, उस से अपनत्व हो गया है. लेकिन लोगों का क्या है, वे तो गलत निगाह से  देखेंगे ही न. उस के भी अपने बच्चे हैं.  इस बार लौकडाउन होने के कारण वह अपने घर नहीं जा सका है. वह अकेला रहता है, इसीलिए कभीकभी खाने के लिए उसे बुला लेती हूं,’ वह जरा बनावटी गुस्से में बोली थी.

‘मैं जानती थी कि तू कभी ऐसा नहीं करेगी,’ कांता संतुष्ट होते हुए बोली.

‘कांता, मैं विवाहबंधन को अच्छी तरह से झेल चुकी हूं. विवाह के बाद कितना सुख मिला है, वह भी तुझे मालूम है. सो, इस जन्म में तो विवाह करने से रही.’

यह सब कहते हुए मंजू की आंखों में आंसू तैरने लगे थे. कुछ रुक कर उस ने फिर बोलना शुरू किया, ‘रही बात महल्ले वालों की, जिस दिन मैं अपने पति से पीटी जाती थी, उस दिन भी ये लोग मजा लेते थे. लेकिन कभी भी मेरे दुखती रग पर मरहम लगाने नहीं आते थे. हां, वे नमक छिड़कने जरूर आते थे. मैं इन बातों पर ध्यान नहीं देती. मुझे जो मरजी है, वही करूंगी. मैं लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देती.’ इस बार मंजू गुस्से से उबलने लगी थी.

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कांता ने गहरी सांस ली और उसे समझाने लगी,  ‘मंजू, मैं जानती हूं. लेकिन समाज में रहना है तो लोगों पर ध्यान देना ही पड़ता है. लोग क्या सोच रहे हैं, हम लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिन हमारे बच्चों पर तो पड़ सकता है न.’

आज मैं सोच रही थी. जैसे ही राघव  मेरे पास आएगा, मैं उसे मना करूंगी कि अब तुम रोजरोज मत आया करो. महल्ले वाले किस्सेकहानियां गढ़ने लगे हैं. अब बच्चे भी बड़े होने लगे हैं. उन पर बुरा असर पड़ेगा. मैं यह भी सोच रही थी कि कैसे राघव को मना करूंगी. मुझे भी लग रहा है कि लोगों से बचने के लिए उसे आने से मना करना ही उचित होगा. अभी इसी उधेड़बुन में थी कि  किसी की आने की आहट मिली.

सामने राघव खड़ा मुसकरा रहा था. आते ही मुझे बांहों में भर लिया था उस ने. न चाहते हुए भी मैं खुद को रोक नहीं पाई. उस के आलिंगन में खिंचती चली गई. उस ने मेरे होंठों पर चुबंन जड़ दिए. और मैं कुछ क्षणों के लिए सुख के सागर डुबती चली गई.

एक घड़ी औरत : भाग 3- क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

शीलाजी उस दिन उस के सारे चित्र अपने साथ ले गईं. कुछ दिनों बाद औफिस में उन का फोन आया कि वे उन चित्रों की प्रदर्शनी अमृता शेरगिल और हुसैन जैसे नामी चित्रकारों के चित्रों के साथ लगाने जा रही हैं. सुन कर वह हैरान रह गई. प्रदर्शनी में वह अपनी सहेली और नरेश के साथ गई थी. तमाम दर्शकों, खरीदारों और पत्रकारों को देख कर वह पसोपेश में थी. पत्रकारों से बातचीत करने में उसे खासी कठिनाई हुई थी क्योंकि उन के सवालों के जवाब देने जैसी समझ और ज्ञान उस के पास नहीं था. जवाब शीलाजी ने ही दिए थे.

वापस लौटते वक्त शीलाजी ने नरेश से कहा, ‘आप बहुत सुखी हैं जो ऐसी हुनरमंद बीवी मिली है. देखना, एक दिन इन का देश में ही नहीं, विदेशों में भी नाम होगा. आप इन की अन्य कार्यों में मदद किया करो ताकि ये ज्यादा से ज्यादा समय चित्रकारिता के लिए दे सकें. साथ ही, यदि ये मेरे यहां आतीजाती रहें तो मैं इन्हें आधुनिक चित्रकारिता की बारीकियां बता दूंगी. किसी भी कला को निखारने के लिए उस के इतिहास की जानकारी ही काफी नहीं होती, बल्कि आधुनिक तेवर और रुझान भी जानने की जरूरत पड़ती है.’

नरेश के साथ उस दिन लौटते समय प्रिया कहीं खोई हुई थी. नरेश ही बोले, ‘तुम तो सचमुच छिपी रुस्तम निकलीं, प्रिया. मुझे तुम्हारा यह रूप ज्ञात ही न था. मैं तो तुम्हें सिर्फ एक कुशल डिजाइनर समझता था, पर तुम तो मनुष्य के मन को भी अपनी कल्पना के रंग में रंग कर सज्जित कर देती हो.’

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व्यस्तता बहुत बढ़ गई थी. आमदनी का छोटा ही सही, पर एक जरिया प्रिया को नजर आने लगा तो वह पूरे उत्साह से रंग, कूचियां और कैनवस व स्टैंड आदि खरीद लाई. पर समस्या यह थी कि वह क्याक्या करे? कंपनी में ड्रैस डिजाइन करने जाए या घर संभाले, बच्चों की देखरेख करे या पति का मन रखे? अपने स्वास्थ्य की तरफ ध्यान दे या रोज की जरूरतों के लिए बेतहाशा दौड़ में दौड़ती रहे?

प्रिया की दौड़, जो उस दिन से शुरू हुई, आज तक चल रही थी. घर और बाहर की व्यस्तता में उसे अपनी सुध नहीं रही थी.

‘‘अब हमें एक कार ले लेनी चाहिए,’’ एक दिन नरेश ने कहा.

प्रिया सुन कर चीख पड़ी, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

‘‘क्यों भई, क्यों?’’ नरेश ने हैरानी से पूछा.

‘‘फ्लैट के कर्ज से जैसेतैसे इतने सालों में अब कहीं जा कर हम मुक्त हो पाए हैं,’’ प्रिया बोली, ‘‘कुछ दिन तो चैन की सांस लेने दो. अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं, उन की मांगें भी बढ़ती जा रही हैं. पहले होमवर्क मैं करा दिया करती थी पर अब उन के गणित व विज्ञान…बाप रे बाप… क्याक्या पढ़ाया जाने लगा है. मैं तो बच्चों के लिए ट्यूटर की बात सोच कर ही घबरा रही हूं कि इतने पैसे कहां से आएंगे. पर आप को अब कार लेने की सनक सवार हो गई.’’

‘‘अरे भई, आखिरकार इतनी बड़ी कलाकार का पति हूं. शीलाजी की कलादीर्घा में आताजाता हूं तुम्हें ले कर. लोग देखते हैं कि बड़ा फटीचर पति मिला है बेचारी को, स्कूटर पर घुमाता है. कार तक नहीं ले कर दे सका. नाक तो मेरी कटती है न,’’ नरेश ने हंसते हुए कहा.

‘‘हां मां, पापा ठीक कहते हैं,’’ बच्चों ने भी नरेश के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘अपनी कालोनी में सालभर पहले कुल 30 कारें थीं. आज गिनिए, 200 से ऊपर हैं. अब कार एक जरूरत की चीज बन गई है, जैसे टीवी, फ्रिज, गैस का चूल्हा आदि. आजकल हर किसी के पास ये सब चीजें हैं, मां.’’

‘‘पागल हुए हो तुम लोग क्या,’’ प्रिया बोली, ‘‘कहां है हर किसी के पास ये सब चीजें? क्या हमारे पास वाश्ंिग मशीन और बरतन मांजने की मशीन है? कार ख्वाब की चीज है. टीवी, कुकर, स्टील के बरतन और गैस हैं ही हमारे पास. किसी तरह तुम लोगों के सिर छिपाने के लिए हम यह निजी फ्लैट खरीद सके हैं. घर की नौकरानी रोज छुट्टी कर जाती है, काम का मुझे वक्त नहीं मिलता, पर करती हूं, यह सोच कर कि और कौन है जो करेगा. जरूरी क्या है, तुम्हीं बताओ, कार या अन्य जरूरत की चीजें?’’

‘‘तुम कुछ भी कहो,’’ नरेश हंसे, ‘‘घर की और चीजें आएं या न आएं, बंदा रोजरोज शीलाजी या अन्य किसी के घर इस खटारा स्कूटर पर अपनी इतनी बड़ी कलाकार बीवी को ले कर नहीं जा सकता. आखिर हमारी भी कोईर् इज्जत है या नहीं?’’

उस दिन प्रिया जीवन में पहली बार नरेश पर गुस्सा हुई जब एक शाम वे लौटरी के टिकट खरीद लाए, ‘‘यह क्या तमाशा है, नरेश?’’ उस का स्वर एकदम सख्त हो गया.

‘‘लौटरी के टिकट,’’ नरेश बोले, ‘‘मुझे कार खरीदनी है, और कहीं से पैसे की कोई गुंजाइश निकलती दिखाईर् नहीं देती, इसलिए सोचता हूं…’’

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‘‘अगर मुझे खोना चाहते हो तभी आज के बाद इन टिकटों को फिर खरीद कर लाना. मैं गरीबी में खुश हूं. मैं दिनरात घड़ी की तरह काम कर सकती हूं. मरखप सकती हूं, भागदौड़ करती हुई पूरी तरह खत्म हो सकती हूं, पर यह जुआ नहीं खेलने दूंगी तुम्हें इस घर में. इस से हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा, सिवा बरबादी के.’’

प्रिया का कड़ा रुख देख कर उस दिन के बाद नरेश कभी लौटरी के टिकट नहीं लाए. पर प्रिया की मुसीबतें कम नहीं हुईं. बढ़ती महंगाई, बढ़ते खर्च और जरूरतों में सामंजस्य बैठाने में प्रिया बुरी तरह थकने लगी थी. नरेश में भी अब पहले वाला उत्साह नहीं रह गया था. प्रिया के सिर में भारीपन और दर्र्द रहने लगा था. वह नरेश से अपनी थकान व दर्द की चर्चा अकसर करती पर डाक्टर को ठीक से दिखाने का समय तक दोनों में से कोई नहीं निकाल पाता था.

प्रिया को अब अकसर शीलाजी व अन्य कलापे्रमियों के पास आनाजाना पड़ता, पर वह नरेश के साथ स्कूटर पर या फिर बस से ही जाती. जल्दी होने पर वे आटोरिक्शा ले लेते. और तब वह नरेश की कसमसाहट देखती, उन की नजरें देखती जो अगलबगल से हर गुजरने वाली कार को गौर से देखती रहतीं. वह सब समझती पर चुप रहती. क्या कहे? कैसे कहे? गुंजाइश कहां से निकाले?

‘‘औफिस से डेढ़ लाख रुपए तक का हमें कर्ज मिल सकता है, प्रिया,’’ नरेश ने एक रात उस से कहा, ‘‘शेष रकम हम किसी से फाइनैंस करा लेंगे.’’

‘‘और उसे ब्याज सहित हम कहां से चुकाएंगे?’’ प्रिया ने कटुता से पूछा.

‘‘फाइनैंसर की रकम तुम चुकाना और अपने दफ्तर का कर्ज मैं चुकाऊंगा पर कार ले लेने दो.’’

नरेश जिस अनुनयभरे स्वर में बोले वह प्रिया को अच्छा भी लगा पर वह भीतर ही भीतर कसमसाई भी कि खर्च तो दोनों की तनख्वाह से पूरे नहीं पड़ते, काररूपी यह सफेद हाथी और बांध लिया जाए…पर वह उस वक्त चुप रही, ठीक उस शुतुरमुर्ग की तरह जो आसन्न संकट के बावजूद अपनी सुरक्षा की गलतफहमी में बालू में सिर छिपा लेता है.

पति के जाने के बाद प्रिया जल्दीजल्दी तैयार हो कर अपने दफ्तर चल दी. लेकिन आज वह निकली पूरे 5 मिनट देरी से थी. उस ने अपने कदम तेज किए कि कहीं बस न निकल जाए, बस स्टौप तक आतीआती वह बुरी तरह हांफने लगी थी.

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एक घड़ी औरत : भाग 2- क्यों एक घड़ी बनकर रह गई थी प्रिया की जिंदगी

बाद में किसी न किसी बहाने नरेश औफिस में आते रहे. प्रिया को बहुत जल्दी एहसास हो गया कि महाशय के दिल में कुछ और है. एक दिन वह शाम को औफिस से बाहर निकल रही थी कि नरेश अपने स्कूटर पर आते नजर आए. पहले तो वह मुसकरा दी पर दूसरे ही क्षण वह सावधान हो गई कि अजनबी आदमी से यों सरेराह हंसतेमुसकराते मिलना ठीक नहीं है.

‘अगर बहुत जल्दी न हो आप को, तो मैं पास के रेस्तरां में कुछ देर बैठ कर आप से एक बात करना चाहता हूं,’ नरेश ने पास आ कर कहा.

प्रिया इनकार नहीं कर पाई. उन के साथ रेस्तरां की तरफ चल दी. वेटर को 1-1 डोसा व कौफी का और्डर दे कर नरेश प्रिया से बोले, ‘भूख लगी है, आज सुबह से वक्त नहीं मिला खाने का.’

वह जानती थी कि यह सब असली बात को कहने की भूमिका है. वह चुप रही. नरेश उसे भी बहुत पसंद आए थे… काली घनी मूंछें, लंबा कद और चेहरे पर हर वक्त झलकता आत्मविश्वास…

‘टीवी में एक विज्ञापन आता है, हम कमाते क्यों हैं? खाने के लिए,’ प्रिया हंसी और बोली, ‘कितनी अजीब बात है, वहां विज्ञापन में उस बेचारे का खाना बौस खा जाता है और यहां वक्त नहीं खाने देता.’

‘हां प्रिया, सचमुच वक्त ही तो हमारा सब से बड़ा बौस है,’ नरेश हंसे. फिर जब तक डोसा और कौफी आते तब तक नरेश ने पानी पी कर कहना शुरू किया, ‘अपनी बात कहने से मुझे भी कहीं देर न हो जाए, इसलिए मैं ने आज तय किया कि अपनी बात तुम से कह ही डालूं.’

प्रिया समझ गई थी कि नरेश उस से क्या कहना चाहते हैं, पर सिर झुकाए चुपचाप बैठी रही.

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‘वैसे तो तुम किसी न किसी से शादी करोगी ही, प्रिया, क्या वह व्यक्ति मैं हो सकता हूं? कोई जोरजबरदस्ती नहीं है. अगर तुम ने किसी और के बारे में तय कर रखा हो तो मैं सहर्ष रास्ते से हट जाऊंगा. और अगर तुम्हारे मांबाप तुम्हारी पसंद को स्वीकार कर लें तो मैं तुम्हें अपनी जिंदगी का हमसफर बनाना चाहता हूं.’

प्रिया चुप रही. इसी बीच डोसा व कौफी आ गई. नरेश उस के घरपरिवार के बारे में पूछते रहे, वह बताती रही. उस ने नरेश के बारे में जो पूछा, वह नरेश ने भी बता दिया.

जब नरेश के साथ वह रेस्तरां से बाहर निकली तो एक बार फिर नरेश ने उस की ओर आशाभरी नजरों से ताका, ‘तुम ने मेरे प्रस्ताव के बारे में कोईर् जवाब नहीं दिया, प्रिया?’

‘अपने मांबाप से पूछूंगी. अगर वे राजी होंगे तभी आप की बात मान सकूंगी.’

‘मैं आप की राय जानना चाहता हूं.’ सहसा एक दूरी उन के बीच आ गई.

‘क्यों एक लड़की को सबकुछ कहने के लिए विवश कर रहे हैं?’ वह लजा गई, ‘हर बात कहनी जरूरी तो नहीं होती.’

‘धन्यवाद, प्रिया,’ कह कर नरेश ने स्कूटर स्टार्ट कर दिया, ‘चलो, मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूं.’

उस के बाद जैसे सबकुछ पलक झपकते हो गया. उस ने अपने घर जा कर मातापिता से बात की तो वे नाराज हुए. रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. जाति बाधा बन गई. वह उदास मन से जब वापस लौटने लगी तो पिता उसे स्टेशन तक छोड़ने आए, ‘तुम्हें वह लड़का हर तरह से ठीक लगता है?’ उन्होंने पूछा.

प्रिया ने सिर्फसिर ‘हां’ में हिलाया. पिता कुछ देर सोचते रहे. जब गाड़ी चलने को हुई तो किसी तरह गले में फंसे अवरोध को साफ करते हुए बोले, ‘बिरादरी में हमारी नाक कट जाएगी और कुछ नहीं प्रिया. वैसे, तुम खुद अब समझदार हो, अपना भलाबुरा स्वयं समझ सकती हो. बाद में कहीं कोई धोखा हुआ तो हमें दोष मत देना.’

मातापिता इस शादी से खुश नहीं थे, इसलिए प्रिया ने उन से आर्थिक सहायता भी नहीं ली. नरेश ने भी अपने मातापिता से कोई आर्थिक सहायता नहीं ली. दोनों ने शादी कर ली. शादी में मांबाप शामिल जरूर हुए पर अतिथि की तरह.

विवाह कर घर बसाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी खर्च करने के बाद भी दोनों को अपने मित्रोंसहेलियों से कुछ उधार लेना पड़ा था. उसे चुका कर वे निबटे ही थे कि पहला बच्चा आ गया. उस के आने से न केवल खर्चे बढ़े, कुछ समय के लिए प्रिया को अपनी नौकरी भी छोड़नी पड़ी. जब दूसरी कंपनी में आई तो उसे पहले जैसी सुविधाएं नहीं मिलीं.

नरेश की भागदौड़ और अधिक बढ़ गई थी. घर का खर्च चलाने के लिए वे दिनरात काम में जुटे रहने लगे थे.

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‘मैं ने एक फ्लैट देखा है, प्रिया’ एक दिन नरेश ने अचानक कहा, ‘नया बना है, तीसरी मंजिल पर है.’

‘पैसा कहां से आएगा?’ प्रिया नरेश की बात से खुश नहीं हुई. जानती थी कि फ्लैट जैसी महंगी चीज की कल्पना करना सपना है. पर दूसरे बच्चे की मां बनतेबनते प्रिया ने अपनेआप को सचमुच एक नए फ्लैट में पाया, जिस की कुछ कीमत चुकाई जा चुकी थी पर अधिकांश की अधिक ब्याज पर किस्तें बनी थीं, जिन्हें दोनों अब तक लगातार चुकाते आ रहे थे.

उस की नई बनी सहेली ने प्रिया का परिचय एक दिन शीला से कराया, ‘नगर की कलामर्मज्ञा हैं शीलाजी,’ सहेली ने आगे कहा, ‘अपने मकान के बाहर के 2 कमरों में कलादीर्घा स्थापित की है. आजकल चित्रकारी का फैशन है. इन दिनों हर कोईर् आधुनिक बनने की होड़ में नएपुराने, प्रसिद्ध और कम जानेमाने चित्रकारों के चित्र खरीद कर अपने घरों में लगा रहे हैं. 1-1 चित्र की कीमत हजारों रुपए होती है. तू भी तो कभी चित्रकारी करती थी. अपने बनाए चित्र शीलाजी को दिखाना. शायद ये अपनी कलादीर्घा के लिए उन्हें चुन लें. और अगर इन्होंने कहीं उन की प्रदर्शनी लगा दी तो तेरा न केवल नाम होगा, बल्कि इनाम भी मिलेगा.’

प्रिया शरमा गई, ‘मुझे चित्रकारी बहुत नहीं आती. बस, ऐसे ही जो मन में आया, उलटेसीधे चित्र बना देती थी. न तो मैं ने इस के विषय में कहीं से शिक्षा ली है और न ही किसी नामी चित्रकार से इस कला की बारीकियां जानीसमझी हैं.’

लेकिन वह सचमुच उस वक्त चकित रह गई जब शीलाजी ने बिना हिचक प्रिया के घर चल कर चित्रों को देखना स्वीकार कर लिया. थोड़ी ही देर में तीनों प्रिया के घर पहुंचीं.

2 सूटकेसों में पोलिथीन की बड़ीबड़ी थैलियों में ठीक से पैक कर के रखे अपने सारे चित्रों को प्रिया ने उस दिन शीलाजी के सामने पलंग पर पसार दिए. वे देर तक अपनी पैनी नजरों से उन्हें देखती रहीं, फिर बोलीं, ‘अमृता शेरगिल से प्रभावित लगती हो तुम?’

प्रिया के लिए अमृता शेरगिल का नाम ही अनसुना था. वह हैरान सी उन की तरफ ताकती रही.

‘अब चित्रकारी करना बंद कर दिया है क्या?’

‘हां, अब तो बस 3 चीजें याद रह गई हैं, नून, तेल और लकड़ी,’ हंसते वक्त उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगी.

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रंग जीवन में नया आयो रे: भाग 2- क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

लेखिका- विमला भंडारी

‘आप को उड़ती हुई पतंग देखना अच्छा लगता है, सिस्टर?’

मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को देखती रही कि वह आगे कुछ बोले, पर जब चुप रही तो मैं ने पूछ लिया, ‘क्यों, क्या हुआ?’

वह चुप रही. मन में कुछ तौलती रही कि मुझ से कहे या न कहे. मैं उसे इस स्थिति में देख प्रोत्साहित करते हुए बोली, ‘तुझे पतंग चाहिए?’

उस ने ‘न’ में गरदन हिलाई तो मैं झुंझलाते हुए बोली, ‘तो फिर क्या है?’

वह सहम गई. धीरे से बोली, ‘कुछ नहीं, सिस्टर?’ और जाने को मुड़ी.

‘कुछ कैसे नहीं, कुछ तो है, बता?’ चादर एक तरफ फेंकते हुए मैं उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोली.

‘सिस्टर, मैं शाम को छत पर पतंग देख रही थी तो पिताजी ने गुस्से में मेरे बाल खींच लिए. कहने लगे कि नाक कटानी है क्या? लड़की जात है, चल, नीचे उतर. सिस्टर, क्या पतंग देखना बुरी बात है?’

मैं ने बात की तह में जाते हुए पूछ लिया, ‘छत पर तुम्हारे साथ कौन था?’

‘कोई नहीं,’ टुलकी की मासूम आंखें सचाई का प्रमाण दे रही थीं.

‘और पड़ोस की छत पर?’ मैं तहकीकात करते हुए आगे बोली.

‘वहां 2 लड़के थे सिस्टर, पर मैं उन्हें नहीं जानती.’

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बस, बात मेरी समझ में आ गई थी कि टुलकी को डांट क्यों पड़ी. सोचने लगी, ‘छोटी सी अबोध बच्ची पर इतनी पाबंदी. पर मैं कर ही क्या सकती हूं?’

टुलकी के पिता पुलिस में सबइंस्पैक्टर थे, सो रोब तो उन के चेहरे व  आवाज में समाया ही रहता था. अपनी बेटियों से भी वह पुलिसिया अंदाज में पेश आते थे. जरा सी भी गलती हुई नहीं कि टुलकी के गालों पर पिताजी की उंगलियों के निशान उभर आते.

एक दिन अचानक टुलकी के पिता की कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘मेरी जान खाने को चारचार बेटियां जन दीं निपूती ने, एक भी बेटा पैदा नहीं किया. सारी उम्र हड्डियां तोड़तोड़ कर दहेज जुटाता रहूंगा और बुढ़ापे में ये सब चल देंगी अपने घर. कोई भी सेवा करने वाला नहीं होगा.’

मारपीट और चीखचिल्लाहट की आवाजें आ रही थीं. मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार खड़ी थी पर वह सब सुन कर मुझ से नहीं रहा गया. बाहर निकल कर देखा कि टुलकी भय से थरथर कांपती हुई दीवार से सट कर खड़ी है.

‘इंस्पैक्टर साहब, आप भी क्या बात करते हैं. बेटियां जनी हैं तो इस में नीरा भाभी का क्या दोष?’ एक नजर कलाई पर बंधी घड़ी की ओर फेंकते हुए मैं

ने कहा.

मुझे देख वे जरा संयमित हुए. चेहरे पर छलक आए पसीने को पोंछते हुए बोले, ‘अब आप ही बताओ सिस्टर, चारचार बेटियों का दहेज कहां से जुटा पाऊंगा?’

‘अब कह रहे हैं यह सब. आप को पहले मालूम नहीं था जो चारचार बेटियों की लाइन लगा दी?’

मेरे कहने पर वे थोड़ा झुंझलाए. फिर कुछ कहने ही वाले थे कि मैं फिर घुड़कते हुए बोली, ‘आप अकेले तो नहीं कमा रहे, नीरा भाभी भी तो कमा रही हैं.’

‘कमा रही है तो रोब मार रही है. घर का कुछ खयाल नहीं करती. उस छोटी सी लड़की पर पूरे घर का बोझ डाल दिया है.’

‘नौकरी और घरगृहस्थी ने तो भाभी को निचोड़ ही लिया है. अब उन में जान ही कितनी बची है जो आप उन से और ज्यादा काम की उम्मीद करते हैं.’

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वे दुखी स्वर में बोले, ‘सिस्टर, आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं. देखो, टुलकी का प्रगतिपत्र,’ टुलकी का प्रगतिपत्र आगे करते हुए बोले, ‘सब विषयों में फेल है.’

‘इंस्पैक्टर साहब, आप ही थोड़ा जल्दी उठ कर टुलकी को पढ़ा क्यों नहीं देते?’

‘जा री टुलकी, सिस्टर के लिए चाय बना ला,’ वे ऊंचे स्वर में बोले.

‘देखो सिस्टर, सारा दिन ये खुद ही लड़की से काम करवाते रहते हैं और दोष मुझे देते हैं,’ साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए नीरा भाभी रसोई की ओर बढ़ते हुए बोलीं तो मुझे एकाएक ध्यान आया कि इस पूरे प्रकरण में मुझे 10 मिनट की देर हो गई है. मैं उसी क्षण अस्पताल की ओर चल पड़ी.

उस दिन के बाद से इंस्पैक्टर साहब रोज सुबह टुलकी को पढ़ाने लगे पर उस का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था. उस का ध्यान बराबर घर में हो रहे कामकाज व छोटी बहनों पर लगा रहता. उस के पिता उत्तेजित हो जाते और टुलकी सबकुछ भूल जाती और प्रश्नों के उत्तर गलत बता देती.

टुलकी की शिकायतें अकसर स्कूल से भी आती रहती थीं, कभी समय से स्कूल न पहुंचने पर तो कभी गृहकार्य पूरा न करने पर. ऐसे में टुलकी का अध्यापिका द्वारा दंडित होना तो स्वाभाविक था ही, साथ ही अब घर में भी उसे मार पड़ने लगी. मैं सोचती रह जाती, ‘नन्ही सी जान कैसे सह लेती है इतनी मार.’ पर देखती, टुलकी इस से जरा भी विचलित न होती, मानो दंड सहने की आदत पड़ गई हो.

टुलकी की परीक्षाएं नजदीक थीं. सो, नीरा भाभी छुट्टियां ले कर घर रहने लगीं. अब उस की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा.

मातापिता के इस एक माह के प्रयास के कारण टुलकी जैसेतैसे पास हो गई.

एक दिन टुलकी के भाई का जन्म हुआ जो उस के लिए बेहद प्रसन्नता का विषय था. इस से पहले मैं ने कभी टुलकी को इस तरह प्रफुल्लित हो कर चौकडि़यां भरते नहीं देखा था.

मुझे मिठाई का डब्बा देते हुए बोली, ‘जब हम सब चली जाएंगी तब भैया ही मातापिता की सेवा करेगा.’

मैं ने ऐसे ही बेखयाली में पूछ लिया था, ‘कहां चली जाओगी?’

‘ससुराल और कहां,’ मुझे अचरज से देखती टुलकी बोली.

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उस के छोटे से मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर उस समय तो मुझे बहुत हंसी आई थी पर अब उसी टुलकी के विवाह का कार्ड देखा तो मन की राहों से उस का मासूम, बोझिल बचपन गुजरता चला गया.

फिर शीघ्र ही मेरा वहां से तबादला हो गया था. अस्पताल की भागदौड़ में अनेक अविस्मरणीय घटनाएं अकसर घटती ही रहती हैं. मैं तो टुलकी को

लगभग भूल ही चुकी थी. किंतु जब उस ने मुझे याद किया और इतने मनुहार से पत्र लिखा तो हृदय की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. सोचा, ‘मैं जरूर उस की शादी में जाऊंगी.’

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यह क्या हो गया: भाग 3- नीता की जिद ने जब तोड़ दिया परिवार

एक हफ्ते बाद भी उन का दर्द ठीक नहीं हुआ है. तुम बच्चों क मांपिताजी के पास छोड़ कर कुछ दिनों के लिए आ जाओ.’’

लतिका ने चिढ़ कर कहा, ‘‘जो इंसान मेरी बात नहीं मानता, मैं उस की चिंता क्यों करूं, तुम ही बताओ? क्या मैं गलत कहती हूं? क्या हमारा हिस्सा नहीं है पिताजी के मकान में?’’

‘‘लेकिन जीजाजी ऐसी बातें करने वाले इंसान नहीं हैं दीदी, अपने परिवार से प्यार करना बुरी बात तो नहीं.’’

‘‘वन्या, तुम छोटी हो, मुझे उपदेश देने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर लतिका ने फोन रख दिया. 10-15 दिन बाद भी शेखर के दर्द में कमी नहीं आईर्. प्रणव फिर उन्हें डाक्टर के पास ले कर गए. शेखर तो लगातार छुट्टी पर ही थे. कुछ और टैस्ट हुए. अब की बार रिपोर्ट्स आईं तो सब का दिल दहल गया. शेखर को स्पाइन का कैंसर था जो कमर के निचले हिस्से से सिर के पीछे के हिस्से तक फैल चुका था, और रीढ़ की हड्डी को 65 प्रतिशत नुकसान पहुंचा चुका था. सब एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. स्वभाव से शांत और नरम शेखर ने अपनी स्थिति को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया. औफिस के और लोग भी थे. वे सब से सामान्य रूप से बातचीत करते रहे, जैसे कुछ हुआ ही न हो उन्हें. उन्हें इतना सामान्य देख कर सब के दिलों में उन के लिए इज्जत और भी बढ़ गई. कमर में दर्द तो उन्हें कई बार होता था लेकिन वे इसे अपने काम का टूरिंग जौब और बढ़ती उम्र का प्रैशर समझ लेते थे. अब और दवाएं तुरंत शुरू हो गईं और कीमोथेरैपी शुरू होेने वाली थी. उन्होंने औफिस से लंबी छुट्टी ले ली थी. उन के बौस आनंद कपूर भी उन का बहुत साथ दे रहे थे. उन्होंने कह दिया था, ‘‘बस, तुम आराम करो, अपना इलाज करवाओ और अब अपनी फैमिली को बुला लो तो ठीक रहेगा, तुम्हें आराम मिलेगा.’’

बहुत सोचसमझ कर शेखर ने तन्वी को फोन किया, ‘‘बेटा, अगर हो सके तो 3-4 दिन की छुट्टी ले कर मुंबई आ जाओ.’’

तन्वी घबरा गई, ‘‘पापा, आप ठीक तो हैं न?’’

‘‘हां ठीक हूं, बस तुम लोगों को देखने का मन कर रहा है. तीनों आ जाओ.’’

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तन्वी को पिता के स्वर की उदासी कुछ खटकी. उस ने लतिका से कहा, ‘‘मम्मी, पापा की तबीयत ठीक नहीं लग रही है, हम तीनों मुंबई चलते हैं.’’

‘‘नहीं, मुझे नहीं जाना.’’

तन्वी हैरानी से बोली, ‘‘आप कैसी बात कर रही हैं, आप को पापा की चिंता नहीं हो रही है?’’

‘‘जो भी समझो, तुम दोनों को जाना हो तो चले जाओ, मुझे नहीं जाना.’’ तन्वी गुस्से में फिर कुछ नहीं बोली और छुट्टी ले कर सौरभ के साथ मुंबई पहुंच गई. शेखर की हालत देख कर दोनों बच्चे उन के सीने से लग कर फफक पड़े. संध्या वहीं काम कर रही थी. उसे शेखर की बीमारी के बारे में पता था. उस की भी आंखें भर आईं. शेखर से न लेटा जा रहा था, न बैठा. वे बस सोफे पर तकिया रख कर अधलेटे से बैठे रहते थे. रात को भी उसी स्थिति में सोते थे. पिता की हालत देख कर दोनों बच्चे बहुत दुखी हुए. शेखर ने बच्चों को अपने पास बिठा कर अपनी बीमारी के  बारे में बताते हुए कहा, ‘‘मैं तुम लोगों को दुखी नहीं देख पाऊंगा. इलाज शुरू हो ही चुका है. आजकल तो हर बीमारी का इलाज है,’’ यह कहते हुए शेखर हलके से मुसकरा दिए. बच्चों ने हौसला रखते हुए खुद को संभाला, सौरभ ने कहा, ‘‘हां पापा, आप जरूर ठीक हो जाएंगे. अब हम यहीं रहेंगे, आप के पास.’’

शेखर ने कहा, ‘‘नहीं, तुम दोनों अपने काम का नुकसान नहीं करोगे.’’

तन्वी ने कहा, ‘‘पापा, आप का ध्यान रखने से बढ़ कर हमारे लिए और कोई काम जरूरी नहीं है. आप की देखरेख इस समय हमारा सब से पहला काम है.’’

शेखर ने कहा, ‘‘बस मां, पिताजी और चाचू को कुछ मत बताना.’’

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‘‘ठीक है, पापा, मैं फिर मां को आने के लिए कहती हूं.’’

शेखर ने ‘हां’ में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘कह दो.’’ शेखर के दिल में एक आस थी कि शायद उन की बीमारी की बात सुन कर लतिका अपनी जिद, अहं, लालच छोड़ कर फौरन चली आएगी. लतिका ने सारी बात सुन कर तन्वी से कहा, ‘‘उन्हें मेरी जरूरत नहीं है. अगर होती तो इतने दिनों में भी क्या मेरी बात पर ध्यान नहीं देते. अपने परिवार के लिए हमेशा मेरी बात अनसुनी की है. अब उन सब को ही बुलाएं, मुझे क्यों बुला रहे हैं.’’ लतिका ने क्या कहा होगा, तन्वी  का चेहरा देख कर ही शेखर जान गए. फिर वे बहुत देर तक कुछ नहीं बोले.

तन्वी ने कहा, ‘‘सौरभ, हम दोनों में से  कोई एक यहां पापा के पास रहेगा, अभी मैं ने अपने बौस को फोन पर सब बताया है. उन्होंने मुझे घर से ही काम करने की परमिशन दे दी है. अभी तो मैं यहां रहूंगी. तुम चले जाओ. कालेज की छुट्टी होते ही तुम आ जाना. फिर मैं चली जाऊंगी. हम सब मैनेज कर लेंगे.’’ शेखर को अपने बच्चों पर बहुत प्यार आया. तन्वी ने फोन पर वन्या को सब बताया तो वह आकाश के साथ फौरन आ गई. आ कर शेखर के पास बैठ कर रोने लगी, ‘‘दीदी के व्यवहार पर शर्मिंदा हूं मैं जीजाजी, हैरान हूं उन के स्वभाव पर. इस समय भी इतनी जिद और गुस्सा.’’

शेखर ने शांत स्वर में कहा, ‘‘मैं ने बहुत कोशिश की पर उस की सोच को बदल नहीं पाया. अगर मैं अपने मातापिता, भाई और उस के परिवार को अपने से अलग नहीं देख सकता तो क्या मेरी गलती है यह? मेरा भाई जिस की नईनई नौकरी है, जो अभी आर्थिक रूप से बहुत मजबूत नहीं है उस पर मैं घर के बंटवारे का दबाव कैसे डालूं. मैं यह सब नहीं कर सकता. और लतिका को मैं ने कभी कोई कमी कहां होने दी पर उस का लालच समय के साथ बढ़ता ही चला गया. और अब मुझे नहीं पता मैं कितने दिन जिऊंगा. तो क्या मैं अब अपने मातापिता को दुखी करूंगा, हिस्से की बात छेड़ कर. यह तो मुझ से कभी नहीं हो पाएगा,’’ शेखर का स्वर भरा र् गया. वहां बैठा हर व्यक्ति दुखी हो गया. शेखर की कीमोथैरेपी का पहला दिन था. प्रणव की कार से ही शेखर, वन्या और तन्वी हौस्पिटल पहुंचे. सौरभ को तन्वी ने भेज दिया था. डाक्टर से बात कर के प्रणव ने कीमो का दिन शनिवार का रखवाया था ताकि वह शेखर के साथ रह सके. उन्हें हौस्पिटल आनेजाने में परेशानी न हो. प्राइवेट रूम बुक कर लिया गया था. नर्स ने शेखर के कपड़े बदलवा कर इंजैक्शन देने की तैयारी शुरू कर दी थी. अपने मन की घबराहट पर काबू पाने के लिए तन्वी ने बाहर पड़ी बैंच पर बैठ कर अपना लैपटौप खोल लिया था. शेखर बैड पर लेट चुके थे. नर्स डाक्टर के आने का इंतजार कर रही थी. शेखर बिलकुल चुप थे. प्रणव बाहर रखी एक दूसरी बैंच पर बैठा तो वन्या वहीं बैठती हुई बोली, ‘‘आप लोगों का बड़ा सहारा है जीजाजी को.’’

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झंझावात: भाग 5- पैसों के कारण बदलते रिश्तों की कहानी

लेखक- रााकेश भ्रमर

अनिल के दिमाग में कई सारे चित्र एकसाथ कौंध गए. रीना के खाते में कुछेक लाख रुपए होंगे, जो ब्लैक से व्हाइट किए थे, कुछ लाख घर में पड़े थे. 10 लाख रुपए तो हो जाएंगे, परंतु कुछ दिनों पहले ही उस ने ‘कैश डाउन’ पर एक घर बुक किया था, अलौट होने पर एकसाथ पूरा पैसा भरना पड़ेगा. इसी साल अलौट हो जाएगा.

उस ने कहा, ‘‘आप ने पहली बार मुझ से कुछ कहा है, मना तो नहीं करूंगा, परंतु रकम छोटी नहीं?है. मेरी भी अपनी जरूरतें?हैं. समय सब का एकजैसा नहीं रहता. कल क्या होगा, कोई नहीं जानता. इसलिए मैं पहले ही कह देता हूं. थोड़ाथोड़ा कर के पैसा लौटाते रहिएगा. इसे बिना ब्याज का उधार समझिएगा, दान नहीं.’’ अनिल की स्पष्टता से सासससुर के चेहरे लटक गए, परंतु कहीं बात न बिगड़ जाए, ससुरजी जल्दी से बोले, ‘‘अरे बेटा, यह भी कोई कहने की बात?है.’’

और इस तरह रीना के दूसरे भाई की किराने की दुकान गली में खुल गई.

3 वर्षों बाद

रीना एक बेटे की मां बनी. उस की छठी खूब धूमधाम से मनाई गई. बेटी का चौथा जन्मदिन आया, तो उस का जश्न भी एक बड़े होटल में मनाया गया.

इस के बाद पता नहीं किस की नजर अनिल के सुखी परिवार पर पड़ गई. उस की शिकायत विजिलैंस और एंटी करप्शन विभाग में किसी ने कर दी. जांच शुरू हुई तो रीना के फर्जी कारोबार की भी जांच होने लगी.

अनिल के हाथ से सारे प्रोजैक्ट्स वापस ले लिए गए. उस की पोस्टिंग औफिस में कर दी गई. वहां कमाई का कोई अवसर नहीं था. वह सूखे रेगिस्तान में एकएक बूंद के लिए  तरसने लगा.

उन दिनों घर का माहौल बीमार और थकाथका सा था. हर कोने में मनहूसियत और बोझिलता थी. अनिल और रीना भी आपस में कम ही बात करते. उन्हें लगता कुछ बोलेंगे, तो कहीं कुछ अप्रिय न घटित हो जाए.

ऐसे दिनों की अपेक्षा किसी ने नहीं की थी.

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उन के बुरे दिन थे, परंतु उन को सांत्वना और आश्वासन देने वाला कोई नहीं था. यहां तक कि रीना के मम्मीपापा और भाई भी एक अटूट दूरी बनाए हुए थे. इस का स्पष्ट कारण भी था कि कहीं अनिल उन से पैसे वापस न मांग बैठे.

इसी बीच, उस का मकान बन कर तैयार हो गया और बिल्डर की तरफ से पूर्ण भुगतान के लिए डिमांड नोटिस आ गई. अनिल वैसे ही परेशान?था. इन्क्वारी की वजह से ऊपरी आमदनी ठप थी. वेतन से कितनी बचत होती थी, रीना का हाथ पहले की तरह खुला हुआ था. हफ्ते नहीं तो महीने में एक बार अपने और बच्चों के लिए खरीदारी करती ही?थी.

जोड़तोड़ कर के भी पैसे पूरे नहीं हो रहे थे. ठेकेदारों ने भी उस से दूरी बना रखी थी. सच भी तो है, बिना मतलब के कोई किसी को क्यों घास डालेगा. अनिल अब हर ठेकेदार के लिए एक मामूली क्लर्क के समान था.

बहुत सोचबिचार कर अंत में उस ने निर्णय लिया और रीना से कहा, ‘‘अपने पापा से पैसे के लिए कहो, वरना मकान हाथ से निकल जाएगा.’’

रीना ने आश्चर्य से कहा, ‘‘मैं? आप कहते तो शायद दे भी दें. मेरे कहने पर देंगे?’’

‘‘तुम एक बार कह कर तो देखो,’’ उस ने जोर दिया.

‘‘मैं मम्मी से कह सकती हूं.’’

‘‘ठीक है, उन्हीं से कहो.’’

दूसरे दिन रीना स्वयं मम्मी के यहां गई. कुछ देर इधरउधर की बातें करने के बाद बोली, ‘‘मम्मी, आप को तो मालूम है, इन के खिलाफ जांच चल रही?है. पता नहीं, कब तक चलेगी. इसी बीच मकान का अलौटमैंट लैटर आ गया. बकाया राशि 3 महीने के अंदर जमा करनी है. वे कह रहे थे, आप अगर कुछ रुपए वापस कर दें…’’

उस की मम्मी ने रीना को ऐसे देखा जैसे उस ने कोई अनहोनी बात कह दी थी, या उस के सिर पर सींग उग आए थे. कड़े स्वर में बोली, ‘‘हमारे पास पैसे कहां?’’

‘‘आप से पैसे नहीं मांग रही हूं. जो आप ने लिए?हैं, वह वापस मांग रही हूं,’’ रीना ने ऐसे कहा जैसे मम्मी ने उस की बात नहीं समझी?थी.

‘‘मैं भी उन्हीं पैसों की बात कर रही हूं जो तुम लोगों ने दिए थे, सब दुकान में लगा दिए. क्या मेरे पास रखे?हैं. और बिटिया, क्या हम ने वापस देने के लिए मांगे थे?’’ दामादजी की कोई पसीने की कमाई?थी? घूस में लिए थे. और कमा लेंगे.’’

‘‘क्या?’’ रीना के सिर में जैसे बम फटा हो, ‘‘यह आप क्या कह रही हो, मम्मी?’’

‘‘हां, ठीक कह रही हूं. दामादजी की अभी लंबी नौकरी है. आज नहीं तो कल, फिर से ऊपरी आमदनी वाली जगह पर लग जाएंगे. हमारे पास क्या जरिया?है? कहां से लौटाएंगे? दो पैसे की इन्कम से?घर चलाएंगे या जोड़जोड़ कर तुम्हें लौटाएंगे,’’ मम्मी ने साफ मना कर दिया.

रीना लगभग रोंआसी हो गई. उस का मम्मी से लड़ने का मन कर रहा था, परंतु उद्वेग में उस का गला भर आया और वह केवल इतना ही कह सकी, ‘‘वे मुझे घर से निकाल देंगे.’’

‘‘उस की तू चिंता मत कर. अभी तेरी शादी के 7 साल नहीं हुए हैं. अनिल ने अगर ऐसी कोई हिमाकत की तो उसे दहेज कानून में फंसा दूंगी.’’

‘‘आप ऐसा करोगी?’’ रीना ने हैरानी से पूछा.

‘‘हां, इसलिए चुपचाप अपने घर जा और आज के बाद पैसे मांगने यहां मत आना.’’

रीना के हृदय में हाहाकार मचा हुआ था. मस्तिष्क में आंधियां सी चल रही थीं. शरीर जैसे झंझावात से डांवांडोल हो रहा?था. छोटे बच्चे को गोदी में लिए जब गिरतेपड़ते वह घर पहुंची, तो ऐसे हांफ रही थी जैसे किसी वीरान रेगिस्तान में उसे जंगली जानवरों ने दौड़ा लिया था और वह बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचा कर घर तक पहुंची थी.

अनिल घर पर ही?था. उस की दशा देख कर वह समझ गया, पूछा, ‘‘उन्होंने मना कर दिया?’’

रीना ने अपने पति के चेहरे को देखा. वह बहुत मासूम और निरीह लग रहा था. रीना को उस पर तरस आया. मन हुआ उस के गले लग कर खूब रो ले, परंतु वह केवल इतना ही कह सकी, ‘‘हां’’

‘‘मैं जानता था, यही होगा. पैसा ऐसा है ही कि वह रिश्तों को बनाता कम, बिगाड़ता ज्यादा?है. यही बात मैं सदा तुम से कहता था.’’

‘‘हां, आज मैं समझ गई हूं कि पैसे के आगे सगे मांबाप भी कैसे पराए हो जाते हैं.’’

‘‘पराए तो फिर भी पैसे वापस कर देते?हैं, लेकिन अपने कभी नहीं करते. पैसे के लिए वे ईमानधर्म और रिश्ते सब खराब कर लेते?हैं.’’

‘‘अब आप क्या करोगे?’’ उस ने रांआसे स्वर में पूछा.

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‘‘मैं तो किसी न किसी प्रकार पैसे का प्रबंध कर लूंगा, परंतु आज एक प्रण लेता हूं, चाहे कोई कितना भी बड़ा लालच दे, मैं घूस के पैसे को हाथ नहीं लगाऊंगा. मैं नहीं चाहता, मेरे मासूम बच्चों पर उस पैसे की छाया पड़े और वे बिगड़ जाएं. रिश्ते बिगड़ गए, तो कोई बात नहीं. फिर बन जाएंगे. परंतु अगर औलाद खराब निकल गई तो जीवनभर का रोना रहेगा.’’

‘‘मैं भी यही चाहती हूं. पैसे के कितने रंग मैं ने देख लिए. यह कैसे लोगों के मन में पाप भरता है, यह?भी देख लिया. यह सुख कम, दुख ज्यादा देता?है.’’

‘‘हां, चलो उठो. आज से हम एक नया जीवन आरंभ करेंगे, उस ने रीना की गोदी से छोटे मुन्ने को ले लिया.’’

रीना ने उस के कंधे पर अपना सिर रख दिया. उस के सारे झंझावात मिट चुके थे.?

झंझावात: भाग 4- पैसों के कारण बदलते रिश्तों की कहानी

आजकल अनिल उसे बचत की हिदायत देने लगा था. लखनऊ में एक मकान और एक प्लौट खरीदने की बात चल रही थी. उस ने फौर्म भर दिया, बुकिंग अमाउंट दे दिया था. अलौट होते ही पूरा पैसा भरना पड़ेगा. मकान और प्लौट रीना के ही नाम?थे. अनिल की

2 नंबर की कमाई भी उस के बूटिक के नाम पर सफेद हो रही थी. फिर भी रुपएपैसे के लेनदेन में पति की सहमति आवश्यक थी. हजारदोहजार की बात हो, तो कोई आंख मूंद कर दे भी दे.

रात को सोते समय उस ने अनिल से बात की. सुन कर अनिल गंभीर हो गया. फिर बोला, ‘‘रीना, एक बात हमेशा ध्यान रखना, पैसा रिश्ते बनाता?है, तो बिगाड़ता भी है, जब तक हम देते हैं, हम बहुत प्रिय होते?हैं, परंतु जिस दिन अपना दिया हुआ मांग बैठते?हैं, उसी दिन उन के सब से बड़े शत्रु हो जाते?हैं, रिश्तों की सारी मधुरता विष बन जाती?है.’’

‘‘वे मेरे मांबाप हैं, उन की जरूरत पर काम नहीं आएंगे, तो किस के काम आएंगे,’’ रीना ने मान करते हुए कहा.

‘‘ठीक?है, समाज में रहते हुए हम सभी एकदूसरे के काम आते?हैं, परंतु पैसे का लेनदेन रिश्तों की निकटता और मधुरता को समाप्त कर देता है. हमारे पास पैसा है, परंतु इस का अर्थ यह नहीं कि लोग हमें गरीब की भैंस समझ कर दुहने लगे. तुम पहले भी इन सब को बहुतकुछ दे चुकी हो. मैं मना नहीं करता, दे दो. तुम्हारे भाई की नौकरी का सवाल है. परंतु जिस दिन भी तुम उन से एक पैसा मांग बैठोगी, उसी दिन बेटी होते हुए भी तुम उन की सब से बड़ी दुश्मन हो जाओगी.’’

‘‘मुझे नहीं लगता, ऐसा होगा.’’

अनिल हंस पड़ा, ‘‘गांठ बांध लो, एक दिन ऐसा ही होगा.’’

‘‘अच्छा, तब की तब देखी जाएगी, अभी तो 3 लाख रुपए दे दो.’’

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दे देना, तुम्हारे पास ही तो रखे?हैं,’’ उस ने टालने जैसे भाव से कह कर करवट बदल ली.

3 लाख रुपए दे कर रीना के छोटे भाई की नौकरी लग गई. परंतु बड़ा वाला घर में बेकार बैठा था. मांबाप की चिंता का सब से बड़ा कारण वही था. उस की उम्र भी निकल गई थी. अब या तो वह कोई प्राइवेट जौब करता या अपना कोई व्यवसाय.

कुछ दिनों बाद पता चल गया कि वह?क्या करना चाहता था. एक दिन रीना की मम्मी सुबहसुबह आ गई. अब तक रीना की बच्ची लगभग एक साल की हो गई थी. कुछ दिनों बाद ही उस का पहला जन्मदिन आने वाला था.

रीना की मम्मी उस दिन मोनी को खूब प्यारदुलार कर रही थी. फिर जब अनिल औफिस चला गया, तो रीना से बोली, ‘‘बेटी, एक बहुत जरूरी काम?है, कहने में संकोच हो रहा है, परंतु कहे बिना भी काम नहीं चलने वाला. दामाद जी बने रहें उन की नौकरी बनी रहे. तेरे घर में ऐसे ही धनवर्षा होती रहे, तू सदा खुशियों में झूलती रहे. मोनी के मुंह में सदा चांदी का चम्मच रहे.’’

‘‘मम्मी,’’ रीना ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आज बड़ी बातें कर रही हो, लगता है बहुत तगड़ी डिमांड है.’’

उस की मम्मी झेंप गई. सिर झुकाते हुए बोली, ‘‘बेटी, अपनी औलाद के लिए मांबाप को न जाने किसकिस के सामने हाथ फैलाना पड़ता है.’’

रीना ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘अब ऐसी कौन सी जरूरत आ पड़ी?’’

‘‘अब क्या बताऊं, परेश बेकार बैठा है. 30 साल का हो गया?है. शादी करनी?है, परंतु एक बेकारबेरोजगार लड़के के हाथ में कौन बाप अपनी बेटी का हाथ देगा?’’

‘‘तो क्या उस की शादी करने जा रही हो?’’ रीना ने बीच में बात काट कर पूछा.

‘‘नहीं रे, मैं तो उस के काज के बारे में कह रही थी. कुछ करेगा नहीं, तो शादी कहां से होगी? अपने घर के पास महल्ले में ही एक दुकान खाली?है. सोचते हैं कि उस के लिए किराने की दुकान खुलवा दें.’

‘‘तो खुलवा दो,’’ रीना ने खुशीमन से कहा.

‘‘खुलवा तो दें, परंतु इतना पैसा हमारे पास कहां है? तुम कुछ मदद कर दो.’’

‘‘मदद…कितनी?’’ रीना की आवाज जैसे थम गई.

‘यही कोई 10 लाख रुपए,’’ उस की मम्मी ने भी दबे स्वर में कहा.

‘10 लाख रुपए!’’ रीना के मुंह से निकला. उसे अनिल की पिछली नसीहत याद आ गई. मन में भय व्याप्त हो गया. 10 लाख रुपए बहुत बड़ी रकम होती?है. 3 लाख पर अनिल कितना नाराज हुआ था? अब 10 लाख रुपए क्या खुशीमन से देगा? मन को कड़ा कर के उस ने कहा, ‘‘मम्मी, यह बात आप स्वयं उन से कहिए.’’

‘‘बेटी, तुम एक बार कह कर तो देखो,’’ मम्मी ने मनुहार जैसी की.

‘‘नहीं मम्मी.’’ अभी कुछ दिनों पहले ही उन्होंने लखनऊ में एक मकान बुक किया है, कैश डाउन पेमैंट पर. अलौटमैंट होते ही पूरा पैसा एकमुश्त भरना पड़ेगा. इस के अलावा 2 प्लौट लिए हैं. हर महीने उन की मोटी किस्त जाती?है. मैं पहले ही उन की नजरों में बहुत बुरी बन चुकी हूं. अब और बुरी नहीं बनूंगी,’’ रीना ने साफसाफ कह दिया.

उस की मम्मी बोली, ‘‘बेटी, तू बदल गई?है. माना कि तेरे पास पैसा है, परंतु वे दिन भूल गई जब हम तेरी जरूरतें पूरी करने के लिए क्याक्या कष्ट नहीं उठाते?थे.’’ मम्मी की आवाज में नाराजगी और गुस्सा था.

‘‘मम्मी, आप तो बुरा मान गईं. परंतु आप नहीं जानतीं कि वे कितनी मेहनत से पैसा कमाते?हैं. क्या उन्हें तकलीफ नहीं होती जब हम इसे बेरहमी से लुटाने लगते?हैं.’’

‘बेटी, यह कोई लूट नहीं है. जरूरत है, इसीलए मांग रही हूं. तू खुदगर्ज हो गई है. कोई बात नहीं, मैं अब दामादजी से ही मांगूगी. तेरे सामने कभी हाथ नहीं फैलाऊंगी.’’ मां मुंह फुला कर चली गई. रीना को आज समझ में आ रहा था कि पैसों का लेनदेन रिश्तों में खटास भर देता?है. अब ऐसा ही कुछ रीना और उस के मायके के बीच होने वाला था. किसी अनहोनी की आंशका से वह डर गई. काश, उस के साथ कोई अप्रिय घटना न हो.

रीना ने अनिल को इस संबंध में कुछ नहीं बताया.

दूसरे दिन सुबह 8 बजे ही रीना के मम्मीपापा उस के घर पर आ धमके. अनिल ने हैरानी से रीना को देखा और इशारोंइशारों में पूछा, ‘‘क्या बात है?’’ रीना जानती थी, फिर भी इनकार में सिर हिला दिया, जैसे कुछ नहीं जानती थी.

चाय पीते हुए रीना के डैडी ने बहुत मधुर आवाज में अनिल से कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारे समय से हमारा समय भी जुड़ा हुआ?है. वरना बहुत कष्ट में जी रहे होते. रीना का रिश्ता तुम्हारे साथ जुड़ गया, तो हमारा समय सुधर गया.’’

अनिल समझ गया, पैसे की मांग होगी, तभी जबान में मिसरी घुल रही है. डिमांड भी छोटीमोटी नहीं होगी, वरना ससुरजी नहीं आते. सासुजी रीना से ही मांग लेतीं.

‘‘बताइए पापा जी, मैं क्या कर सकता हूं.’’ पहेलियां बुझाने का समय उस के पास नहीं था. तैयार हो कर औफिस भी जाना था उसे.

‘‘बेटा, अपने छोटे साले को तो तुम ने सही जगह पर लगवा दिया. बीच वाला बेकार?है. सरकारी नौकरी के लिए अब उस की उम्र नहीं रही. सोचता हूं, कोई छोटामोटा धंधा करवा दूं,’’ गिरधारी लाल की जबान से अभी तक मिसरी टपक रही थी.

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‘‘अच्छा है,’’ अनिल ने कहा.

‘‘बस, तुम्हारा ही आसरा है. मेरे पास तो कुछ है नहीं. रिटायरमैंट के बाद जो बचा था, रीना की शादी में खर्च कर दिया.’’ यह बता कर वे जैसे अनिल के ऊपर एहसान लाद रहे?थे. बिना दहेज के शादी हुई?थी. खामखां, हीन बनने की कोशिश कर रहे थे.

अनिल प्रभावित नहीं हुआ. सीधे पूछा, ‘‘बताइए, कितना पैसा चाहिए?’’ सुन कर रीना के साथसाथ उस के मम्मीपापा भी हैरान रहे गए. वे तो समझ रहे थे, अनिल आसानी से नहीं मानेगा, परंतु…? सभी एकदूसरे का मुंह ताकने लगे.

अनिल ऊपर से जितना कठोर था, अंदर से उतना ही कोमल था. किसी को कष्ट में नहीं देख सकता था वह. गैर भी उस के सामने हाथ फैलाता, तो वह कुछ न कुछ दे देता. परंतु वह पैसे का महत्त्व भी जानता था और यह भी समझता था कि बहुत निकटसंबंधियों में पैसे का लेनदेन कटुता को भी जन्म देता था. परंतु यहां मामला उलट था. ससुरजी पहली बार उस से कुछ मांगने आए थे. मना नहीं कर सकता था. मना कर सकता था अगर पहले से ही अपनी मुट्ठी बंद कर के रखता.

उस के घर में पैसे की रेलपेल थी, इसलिए रिश्तेदार गुड़ में चींटी की तरह चिपके हुए थे. पहले दिया था, अब किस मुंह से मना करता. रीना से वह कुछ भी कह सकता था, परंतु ससुरजी को कैसे मना करता. ससुरजी भी चालाक थे, उन्हें पता था, रीना से बात नहीं बनेगी. इसीलए सीधे उस के पास आए थे.

‘‘बेटा, 10 लाख रुपए दे देते, तो छोटी सी दुकान खुल जाती,’’ ससुरजी की वाणी में मधुरता के साथसाथ दीनता भी टपकने लगी. सासुजी ने इस बीच जबान भी नहीं खोली थी. बेटी के साथ भी कोई संवाद नहीं किया था. शायद अभी तक नाराज थीं.

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झंझावात: भाग 3- पैसों के कारण बदलते रिश्तों की कहानी

उस रात उसे नींद भी नहीं आई. अनिल सो गया, तो वह चुपके से उठी. अलमारी खोल कर रुपए गिने. कई बार गिने कुल 70 हजार थे. वह चकित रह गई. इतने सारे रुपए. रात में कई बार उठ कर उस ने रुपए गिने.

उसे लग रहा?था जैसे किसी साम्राज्य की वह महारानी बन गई थी. उसे दुनिया बहुत छोटी लगने लगी थी. रुपए नियमितरूप से आ रहे थे. अलमारी का लौकर भर गया, तो सूटकेस में रखने लगी. कभीकभी सोचती, इतने रुपयों का वह?क्या करेगी? घर में इतना रुपया रखना भी खतरे से खाली नहीं था. कहीं चोरीडकैती पड़ जाए, इस शंका के साथसाथ मन में एक अनमना?भय कुंडली मार कर बैठ गया. एक दिन पति से पूछा, ‘‘इतना सारा रुपया घर में पड़ा?है, क्या होगा इस का?’’

अनिल ने लापरवाही से कह दिया, ‘‘तुम अपने गहनेकपड़ों के ऊपर खर्च करो. ज्यादा होगा, तो कहीं इन्वैस्ट करने के बारे में सोचा जाएगा.’’

दूसरे ही दिन रीना अपनी मम्मी के पास गई. ‘‘मम्मी मुझे कुछ गहने खरीदने हैं. मेरे साथ ज्वैलर्स के यहां चलोगी?’’

‘‘क्यों नहीं बेटी? उस की मम्मी फौरन तैयार हो गईं. फिर दोनों बाजार गईं रीता ने अपने लिए कई हजार रुपयों के गहने खरीदे. इस के बाद भी उस के पर्स में कई हजार रुपए बचे रह गए थे. उस की मम्मी ने धीरे से पूछा, ‘‘दामादजी, खूब कमा रहे हैं?’’

‘‘हां,’’ रीना ने संक्षिप्त जवाब दिया.

‘‘तो बेटी हमारा भी खयाल रखना. तुझे तो पता है, तेरे पापा का सारा पैसा तेरी शादी में लग गया. अब हाथ खाली है. 2 बेटे बेरोजगार हैं. घरखर्च मुश्किल से चलता?है. पैंशन से क्या होता है. तुझे घर के हालात पता ही?हैं, बताने की जरूरत नहीं?है, बाकी तू समझदार?है. पैसे को जमा कर के रखोगी, तो शैतान खाएगा. कुछ पुण्य के काम में खर्च करोगी, तो बरकत होगी.’’

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रीना ध्यान से मम्मी की बात सुन रही थी. वे ठीक ही कह रही थीं. पापा की कमाई में क्या बरकत हो सकती?है? उसे अभी इतना जीवन का अनुभव नहीं?था, परंतु मम्मी कह रही?थीं तो सच ही कह रही होंगी. उस ने पूछा, ‘‘मम्मी, आप को कुछ चाहिए, तो बोलिए.’’

मम्मी छोटे बच्चे की तरह इठला गईं, ‘‘तेरा मन है तो एक अंगूठी दिलवा दे. बाद में कुछ और लूंगी.’’

‘‘ठीक है,’’ रीना ने मम्मी के लिए तुरंत एक अंगूठी खरीद दी.

फिर तो यह जैसे एक क्रम बन गया. दूसरेतीसरे महीने रीना कोई न कोई गहना गढ़वा लेती, साथ ही मां के लिए भी छोटामोटा गहना बनवाती, अपने पापा के लिए भी एक चेन और अंगूठी बनवा दी थी. भाइयों को बहन की इस उदारता का पता चला, तो वे भी रीना के आगपीछे डोलने लगे. छोटीछोटी मांगों से थोड़ाथोड़ा आगे बढ़ते गए. फिर उन की मांग मोटरसाइकिल पर जा कर रुकी. पैसा अथाह था, इसलिए रीना और अनिल ने उन की मांगें पूरी कर दीं.

कुछ दिन बीते, पैसा जमा होतेहोते लाखों पहुंच गया. रीना के पास भी इतने गहनेकपड़े हो गए कि उन के प्रति उस का मोह समाप्त हो गया?था. जीवन में विलासिता की अन्य वस्तुएं भी थीं. यों तो अनिल को औफिस की तरफ से जीप मिली हुई थी, परंतु घर में अपनी गाड़ी हो तो उस की अनुभूति ही अलग होती?है. आज बाजार में इतनी अच्छी लग्जरी गाडि़यां आ गई थीं कि चाहे तो रोज एक गाड़ी खरीद लें.

रीना का बड़ा मन था गाड़ी खरीदने का. उस ने मन की बात अनिल से कही, तो वह बोला, ‘‘गाड़ी तो कई लाख की आएगी. इन्कम कहां से दिखाएंगे?’’

‘‘इतना पैसा तो घर में ही रखा?है?’’ रीना ने मासूमियत से कहा.

‘‘मूर्ख, यह कोई वेतन का पैसा नहीं है. गाड़ी खरीदते ही इन्कमटैक्स वाले सूंघते हुए घर पहुंच जाएंगे. मैं कल औफिस में पता करता हूं कि गाड़ी खरीदने का क्या तरीका?है, ताकि बाद में कोई झंझट पैदा न हो.’’

दूसरे दिन उस ने अपने एक्स ई (अधिशासी अभियंता) से पूछा, ‘‘सर, मुझे एक गाड़ी खरीदनी है, कैसे करूं?’’

‘‘पैसा है?’’

‘‘हां?’’

‘‘उसे व्हाइट कर लिया?’’

‘‘कैसे करूं?’’

‘‘अभी तक नहीं समझ में आया? तो?क्या सारा पैसा ऐसे ही घर में रख रखा?है?’’

‘‘हां,’’ अनिल ने मूर्ख की तरह सिर हिला कर कहा. उस ने यह नहीं बताया कि उस का अधिकांश पैसा तो उस की बहनों, सालों और सासससुर ने हड़प कर लिया था.

‘‘मूर्ख, मरेगा एक दिन. आजकल एंटी करप्शन और विजिलैंस वाले बहुत सक्रिय हैं. किसी ने शिकायत कर दी तो… खैर, मैं एक सीए का फोन नंबर देता हूं. उस से बात कर के उस के औफिस चले जाओ. ध्यान रहे, फोन पर कोई बात न करना. उस के औफिस में जा कर ही बात करना.’’

अगले दिन ही वह सीए के दफ्तर में पहुंचा. अपनी समस्या बताई, तो सीए मुसकरा कर बोला, ‘‘कोई बात नहीं. काम हो जाएगा.’’ उस ने अपनी फीस बताई. अनिल ने हां की और घर चला आया.

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एक हफ्ते के अंदर ही रीना के नाम से कागजों पर एक बुटीक खुल गया. यह बुटीक पिछले 3 सालों से चल रहा था. पहले 2 सालों की इन्कम मात्र इतनी थी कि उस पर कोई इन्कम टैक्स नहीं बनता?था. तीसरे साल इन्कम काफी बढ़ी हुई थी, जिस पर लगभग एक लाख रुपए इन्कम टैक्स देना था.

रीना ने फर्जी बिलों पर दस्तखत बना दिए. सीए ने बताया कि 2 महीने के अंदर रीना का पैनकार्ड भी बन जाएगा, एडवांस टैक्स के बजाय एकमुश्त टैक्स भर देंगे. रिटर्न भरने की तारीख अभी कई महीने बाद की?थी. पिछले 2 सालों के रिटर्न सीए ने कुछ जुर्माना भर कर दाखिल करवा दिए.

इस तरह अनिल के कई लाख रुपए व्हाइट हो गए. अब उस ने कार खरीद ली.

एक साल बाद रीना एक बच्ची की

मां बनी. एक तीनसितारा होटल में

जश्न मनाया गया. रीना और अनिल के जीवन में खुशियों के फूल खिल गए थे. दुख की कहीं कोई छाया नहीं थी.

बेटी की देखभाल के बहाने आजकल रोज ही रीना की मम्मी उस के घर आने लगी?थी. वह नवजात को तेल लगाती, नहलातीधुलाती और रीना को उस के पालनपोषण के तरीके बताती.

इसी बीच रीना के छोटे भाई की कहीं सरकारी नौकरी की बात चली. 3 लाख रुपयों की मांग?थी. उस की मम्मी ने रीना से चिरौरी की, ‘‘बेटी, तेरे भाई की जिंदगी का सवाल है. बड़ा तो लगता?है बेरोजगार ही रह जाएगा. उसे कोई प्राइवेट धंधा करवाना पड़ेगा. छोटा ही कहीं लग जाए तो…’’ आगे उन्होंने बात को रीना के समझने के लिए छोड़ दिया.

रीना अब नासमझ नहीं थी. रुपए का खेल वह अच्छी तरह समझ गई थी. रुपया जिस के पाले में होता?है, उस से हारने के लए सभी तत्पर रहते?हैं.

सीए अनिल के रुपए व्हाइट कर ही रहा?था. इस के अलावा भी काफी रुपया ब्लैक का घर में रखा हुआ?था. उस ने कहा, ‘‘मैं उन से पूछ कर बताऊंगी.’’

‘‘बेटी, तू कहेगी तो दामादजी न थोड़ी ही कहेंगे.’’

‘‘फिर भी उन से पूछना जरूरी है,

3 लाख रुपए की बात है.’’

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झंझावात: भाग 2- पैसों के कारण बदलते रिश्तों की कहानी

अनिल के स्वर में खीझ उभर आई, ‘‘यह क्या है रीना? यह बेरुखी क्यों?’’

‘‘मेरा मन नहीं है,’’ रीना ने ढिठाई से कहा.

‘‘मन नहीं है? यह कौन सी बात हुई? इस बात को तुम सीधे ढंग से, प्यार से मुसकरा कर कह सकती थी. तुम्हारा व्यवहार बता रहा है कि कोई और बात है?’’

रीना ने अपना मुंह अनिल की तरफ कर के कहा, ‘‘मैं एक इंसान हूं, मेरा भी मन है. जब मेरी इच्छा होगी. तभी तो कुछ करूंगी. बिना इच्छा के कोई काम नहीं होता.’’

‘‘यह अचानक मन और इच्छा कहां से आ गए. तुम तो मुझ से ढंग से बात भी नहीं कर रही हो. मैं तुम्हारे साथ कोई जबरदस्ती तो नहीं कर रहा. नहीं मन है, तो नहीं करेंगे, परंतु बात तो ठीक से करो. तुम्हें कोई परेशानी हो, तो बताओ,’’ उस ने उसे अपनी तरफ खींचा.

रीना नाटक तो कर रही थी, परंतु मन में एक डर भी बैठ गया था कि कहीं अनिल नाराज न हो जाए, सारा बनाबनाया खेल बिगड़ जाएगा. उस ने कहा, ‘‘मैं आप की कौन हूं?’’

अनिल का मुंह एक बार फिर से खुल गया, ‘‘क्या कह रही हो तुम? मेरी समझ में तुम्हारी पहेलियां नहीं आ रही हैं? जरा, खुल कर बताओ, तुम्हें क्या हुआ है? और तुम क्या चाहती हो?’’

रीना ने उस के सीने पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘मैं आप की पत्नी हूं न. तो फिर इस घर में मुझे पत्नी के सारे अधिकार चाहिए.’’

‘‘मतलब…? तुम्हें कौन से अधिकार चाहिए?’’ उस की हैरानगी खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी.

‘‘पत्नी के नाते, तुम पर, तुम्हारे घर पर और तुम्हारी सभी चीजों पर मुझे अधिकार चाहिए. कोई तीसरा हमारे बीच में न रहे,’’ उस ने कटुता और मधुरता के मिश्रित भाव से कहा.

अनिल समझ गया, ‘‘तुम्हारा मतलब मां से है?’’

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‘‘हां.’’

‘‘मां विधवा हैं. वे इस उम्र में कहां जाएंगी?’’

‘‘नहीं, आप नहीं समझे. मैं मां को घर से निकालने के लिए नहीं कह रही, परंतु उन को बुढ़ापे में आराम करने दीजिए. घर की जिम्मेदारी मुझे संभालने दीजिए. वैसे भी, आप बहुत भोले हैं. आप को पता नहीं, जो कुछ आप कमा कर लाते हैं, वह कहां जाता है?’’

‘‘कहां जाता है?’’

‘‘आप की बहनें किसी न किसी बहाने लूट कर ले जाती हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ? उन को जरूरत होती है, तो ले जाती हैं.’’

‘‘न जाने आप को अक्ल कब आएगी? उन की जरूरतें कभी खत्म नहीं होंगी और आप हमेशा इसी तरह लुटते रहेंगे. जरा सोचिए. क्या कल हमारे बच्चे नहीं होंगे? उन की शिक्षा पर पैसा खर्च नहीं होगा? क्या आप उन के लिए कुछ जोड़ कर नहीं रखेंगे? हमारे खर्च हमेशा इतने ही नहीं रहेंगे, बढ़ेंगे. जमाने को देखते हुए नया घर, बंगला और कार…क्या, यह सब नहीं चाहिए?’’

अनिल सोच में पड़ गया, फिर बोला, ‘‘परंतु मां के रहते घर की सारी जिम्मेदारी तुम्हें सौंपना ठीक नहीं रहेगा. उन के मन पर क्या गुजरेगी? पिताजी के मरने पर किस तरह उन्होंने मेरी शिक्षा के लिए कष्ट उठाए. कहांकहां से पैसे का प्रबंध किया, मैं ही जानता हूं. मैं उन्हें बुढ़ापे के सुख से वंचित नहीं कर सकता. रुपयापैसा उन्हीं के हाथ में रहेगा, बाकी घर की सारी जिम्मेदारियां तुम संभाल लो.’’

अनिल के निर्णय से रीना का दिल टूट गया. वह क्या सोच कर आई थी, क्या हो गया था? उस का मनचाहा नहीं हुआ, तो उस के मन में और ज्यादा कटुता भर गई. उस ने अनिल के साथ संबंध बनाए, परंतु बेमन से. उन के दांपत्य जीवन के लिए यह शुभ लक्षण नहीं था.

रीना ने फोन पर अपनी मम्मी से सलाह ली, तो उन्होंने बताया, ‘‘वहां रह कर तू कुछ नहीं कर पाएगी. किसी तरह पति को मना कर उन का ट्रांसफर इलाहाबाद करवा ले,’’ इलाहाबाद रीना का मायका था.

‘‘क्या वे मान जाएंगे?’’

‘‘तू अगर मनवाएगी तो क्यों नहीं मानेंगे?’’

‘‘ठीक है, कोशिश करती हूं?’’

इस बार रीना ने रूठने और मनाने की प्रक्रिया नहीं दोहराई. उस ने दूसरा ही शस्त्र अपनाया. उस ने अपने स्वभाव और व्यवहार को आवश्यकता से अधिक मृदु बना लिया. पति को इतना लाड़प्यार करती कि आश्चर्यचकित रह जाता कि रीना के हृदय में प्रेम का इतना लंबाचौड़ा सागर अचानक कहां से उफानें मारने लगा. वह मन ही मन सोचता और इंतजार करता कि आगे क्या होगा? वह प्यार के मजे लूट रहा था.

एक रात प्यार के सम्मोहन में डूबे

अनिल से रीना ने कहा, ‘‘क्या

आप का ट्रांसफर नहीं हो सकता?’’

‘‘ट्रांसफर? क्यों?’’

‘‘मुझे मम्मीपापा की बहुत याद आती है. मैं चाहती हूं, जब तक हमारे कोई बच्चा न हो, तब तक के लिए आप अपना तबादला इलाहाबाद करवा लो. मैं अपने मम्मीपापा और भाइयों के करीब रह लूंगी. बाद में जो होगा, देखा जाएगा.’’

‘‘तुम जबतब इलाहाबाद जाती ही रहती हो. क्या यह कम है?’’

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‘‘जानू, जबतब जाने और किसी के पास रहने में फर्क है. आप क्या मेरे लिए इतना नहीं कर सकते? आखिर जीवनभर हमें साथ रहना है. एकदूसरे की इच्छा का सम्मान करना हमारा धर्म है.’’

‘‘परंतु मां कहां रहेंगी?’’

‘‘मां के लिए आप क्यों परेशान होते हैं. आप की कोई न कोई बहन हमेशा यहां रहती है. वे अकेली थोड़े रहेंगी. तब भी ननदें आतीजाती रहेंगी. आप उन के खर्च के लिए पैसे देते रहिएगा. फिर लखनऊइलाहाबाद में दूरी ही कितनी है. चाहे तो हर संडे को आप मां से आ कर मिल सकते हैं.’’

अनिल के मन को बात जंच गई. वह कुछ दिन पत्नी के साथ एकांत में बिताना चाहता था. इस घर में कोई न कोई रिश्तेदार बना ही रहता था. गांव से दूरी बहुत कम थी. सगे रिश्तेदारों के अलावा दूर के रिश्तेदार भी आते रहते थे. गांव से किसी का भी काम लखनऊ में पड़ता, रात रुकना होता, तो वह धमकता हुआ अनिल के घर आ जाता. गांव के रिश्ते ऐसे होते हैं कि किसी को मना भी नहीं किया जा सकता.

अनिल मान गया. अगले दिन ही उस ने अपने तबादले के लिए लिख कर दे दिया. वह जिस विभाग में था, वहां तबादले आसानी से नहीं होते थे. सारे लोग कमाते थे, इसलिए ट्रांसफर में भी पैसा चलता था. उस ने हैडऔफिस जा कर संबंधित क्लर्कों और इंजीनियरों की मुट्ठी गरम की, तब जा कर उस का ट्रांसफर हुआ.

जिस दिन तबादले का और्डर उसे मिला, रीना की खुशी का ठिकाना नहीं था. परंतु अनिल की मां दुखी हो गईं, बोलीं, ‘‘बेटा, बुढ़ापे में यही दिन देखना बदा था.’’

अनिल ने बात बनाते हुए कहा, ‘‘मां, नौकरी का मामला है, जाना ही पड़ेगा, परंतु आप चिंतित न हों. मैं हर इतवार को आता रहूंगा. और फिर दीदी लोग बारीबारी से आती ही रहती हैं, आप अकेली नहीं रहोगी. मैं भी उन को बोल दूंगा कि आप का खयाल रखें.’’

अनिल ने इलाहाबाद में जौइन कर लिया. दोचार दिन गैस्टहाउस में रहा, कुछ दिन ससुराल में डेरा डाला. एक महीने के ही अंदर सिविल लाइंस एरिया में उसे सरकारी मकान मिल गया. वह रीना के साथ अपने नए घर में शिफ्ट हो गया. नए घर को सजानेसंवारने में रीना की मां का बहुत योगदान था. नया फर्नीचर, नए परदे आदि सबकुछ खरीद कर लाया गया. बाहरी कामों के लिए रीना के दोनों बेरोजगार भाइयों ने बहुत भागदौड़ की. अनिल केवल पैसे खर्च कर रहा था. सारा काम उस के सालों और सास ने संभाल लिया.

घर सज गया, तो रीना को लगा, अब वह इस घर की रानी थी. यहां उस के जीवन में दखल देने वाला कोई नहीं था. वह चाहे जो कर सकती थी, जैसे चाहे रह सकती थी अपने पति के साथ, अपनी खुशियों के साथ. उस की खुशियों को पंख लग गए.

इलाहाबाद में अनिल के जीवन में कुछ दिन शांति रही. जब नया प्रोजैक्ट मिला, तो फिर से घर में पैसे की आमद शुरू हुई. पहली बार जब नोटों की मोटी गड्डी ला कर अनिल ने रीना के हाथों पर रखी, तो उस का पूरा शरीर रोमांचित हो उठा, दिमाग में सनसनी सी दौड़ गई.

उस के हाथ कांपने लगे. बोलना चाह कर भी वह कुछ बोल न पाई. अनिल ने शांत भाव से कहा, ‘‘अलमारी में रख दो.’’

रीना की समझ में नहीं आ रहा था वह उन पैसों का क्या करे. पहली बार इतने पैसे उस के हाथ में आए थे. अंत में अपने को संयत कर उस ने पैसे अलमारी के लौकर में रख दिए. उस का मन कर रहा था गिन कर देखे. सभी पांचपांच सौ और दोदो हजार रुपए के नोट थे. 58 हजार रुपए से कम क्या होंगे? ज्यादा भी हो सकते हैं? अनिल से भी न पूछ सकी. वह सामान्य था. उस के लिए यह कोई नई बात नहीं थी.

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