लेखिका- विमला भंडारी
घंटी की आवाज से मैं एकदम चौंक उठी. सोचा, बेवक्त कौन आया है नींद में खलल डालने. उठ कर देखा तो डाकिया बंद दरवाजे के नीचे से एक लिफाफा खिसका गया था.
झुंझलाई सी मैं लिफाफा ले कर वहीं सोफे पर बैठ गई. जम्हाई लेते हुए मैं ने सरसरी नजर से देखा, ‘यह तो किसी के विवाह का कार्ड है. अरे, यह तो टुलकी की शादी का निमंत्रणपत्र है.’
सारा आलस, सारी नींद पता नहीं कहां फुर्र हो गई. टुलकी के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ उस का हस्तलिखित पत्र भी था. बड़े आग्रह से उस ने मुझे विवाह में बुलाया था. मेरे खयालों के घेरे में 12 वर्षीया टुलकी की छवि अंकित हो आई.
लगभग 8 वर्ष पूर्व मैं उदयपुर अस्पताल में कार्यरत थी. टुलकी मेरे मकानमालिक की 4 बेटियों में सब से बड़ी थी. छोटी सी टुलकी को घर के सारे काम करने पड़ते थे. भोर में उठ कर वह किसी सुघड़ गृहिणी की भांति घर के कामकाज में जुट जाती. वह पानी भरती, मां के लिए चाय बनाती. फिर आटा गूंधती और उस के अभ्यस्त नन्हेनन्हे हाथ दो परांठे सेंक देते. इस तरह टुलकी तैयार कर देती अपनी मां का भोजन.
टुलकी की मां पंचायत समिति में अध्यापिका थीं. चूंकि स्कूल शहर के पास एक गांव में था, इसलिए उस को साढ़े 6 बजे तक आटो स्टैंड पहुंचना होता था. जल्दबाजी में वह अकसर अपना टिफिन ले जाना भूल जाती. ऐसे में टुलकी सरपट दौड़ पड़ती आटो स्टैंड की ओर और मां को टिफिन थमा आती.
लगभग यही समय होता जब मैं अपनी रात की ड्यूटी पूरी कर घर लौट रही होती. आटो स्टैंड से ही टुलकी वापस मेरे साथ घर की ओर चल पड़ती.
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‘आज तुम्हारी मां फिर टिफिन भूल गईं क्या?’ मेरे पूछते ही टुलकी ‘हां’ में गरदन हिला देती. मैं देखती रह जाती उस के मासूम चेहरे को और सोचती, ‘दोनों में मां कौन है और बेटी कौन?’
घर पहुंचते ही टुलकी पूछती, ‘सिस्टर, आप के लिए चाय बना दूं?’
‘नहीं, रहने दे. अभी थोड़ी देर सोऊंगी. रातभर की थकी हूं,’ कहती हुई मैं अपने बालों को जूड़े के बंधन से मुक्त कर देती. मेरे काले घने, लंबे बालों को टुलकी अपलक देखती रह जाती. पर यह मैं ने तब महसूस किया जब एक दिन वह बर्फ लेने आई. उस के कटे बालों को देख मैं हैरानी से पूछ बैठी, ‘बाल क्यों कटवा लिए, टुलकी?’
उस की पहले से सजल मिचमिची आंखों से आंसू बहने लगे. मेरे पुचकारने पर उस के सब्र का बांध टूट गया. भावावेश में वह मेरे सीने से लिपट गई. मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा. उस के रूखे बालों में हाथ घुमाते हुए मैं ने पुचकारा, ‘रो मत बेटी, रो मत. क्या हुआ, क्या बात हुई, मुझे बता?’
सिसकियों के बीच उभरते शब्दों से मैं ने जाना कि टुलकी के लंबे बालों में जुएं पड़ गई थीं. मां से सारसंभाल न हो पाई. इसलिए उस के बाल जबरदस्ती कटवा दिए गए.
‘सिस्टर, मुझे आप जैसे लंबे बाल…’ उस ने दुखी स्वर में मुझ से कहा, ‘देखो न सिस्टर, मैं सारे घर का काम करती हूं, मां का इतना ध्यान रखती हूं…क्या हुआ जो मेरे बालों में जुएं पड़ गईं. इस का मतलब यह तो नहीं कि मेरे बाल…’ और उस की रुलाई फिर से फूट पड़ी.
मैं उसे दिलासा देते हुए बोली, ‘चुप हो जा मेरी अच्छी गुडि़या. अरे, बालों का क्या है, ये तो फिर बढ़ जाएंगे, जब तू मेरे जितनी बड़ी हो जाएगी तब बढ़ा लेना इतने लंबे बाल.’
हमेशा चुप रहने वाली आज्ञाकारिणी टुलकी मेरी ममता की हलकी सी आंच मिलते ही पिघल गई थी. पहली बार मुझे महसूस हुआ कि इस अबोध बच्ची ने कितना लावा अपने अंदर छिपा रखा है.
टुलकी की मां उस को जोरजोर से आवाजें देती हुई कोसने लगी, ‘पता नहीं कहां मर गई यह लड़की. एक काम भी ठीक से नहीं करती. बर्फ क्या लेने गई, वहीं चिपक गई.’
मां की चिल्लाहट सुन कर बर्फ लिए वह दौड़ पड़ी. उस दिन के बाद वह हमेशा स्नेह की छाया पाने के लिए मेरे पास चली आती.
एक दिन जब टुलकी अपनी मां के सिर की मालिश कर रही थी तो मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई, ‘क्या जिंदगी है, इस लड़की की. खानेखेलने की उम्र में पूरी गृहस्थिन बन गई है. इसे थोड़ा समय खेलने के लिए भी दिया करो, भाभी. तुम इस की सही मां हो, तुम्हें जरा खयाल नहीं आता कि…’
‘क्या करूं, सिस्टर, आज सिर में बहुत दर्द था,’ टुलकी की मां ने अपराधभाव से अपनी नजर नीची करते हुए कहा.
मैं ने टुलकी को उंगली से गुदगुदाते हुए उठने का इशारा किया तो उस ने हर्षमिश्रित आंखों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में कुछ कहा. फिर वह बाहर भाग गई. मुझे लगा, जैसे मैं ने किसी बंद पंछी को मुक्त कर दिया है.
‘आज आटो के इंतजार में सड़क पर 2 घंटे तक खड़ा रहना पड़ा. शायद तेज धूप के कारण सिर में दर्द होने लगा है. सोचा, थोड़ी मालिश करवा लूं, ठीक हो जाएगा,’ टुलकी की मां सफाई देती हुई बोलीं.
शायद कुछ दर्द के कारण या फिर अपनी बेबसी के कारण टुलकी की मां की आंखें नम हो आई थीं. यह देख मैं इस समय ग्लानि से भर गई.
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‘क्या करूं सिस्टर, एक लड़के की चाह में मैं ने पढ़ीलिखी, समझदार हो कर भी लड़कियों की लाइन लगा दी. पता नहीं क्याक्या देखना है जिंदगी में…’ कहती हुई वह अपनी बेबसी पर सिसक उठी.
सारा दोष ‘प्रकृति’ पर मढ़ कर वह अपनेआप को तसल्ली देने लगी. मैं सोचने लगी कि इन्होंने तो सारा दोष प्रकृति को दे कर मन को समझा दिया पर टुलकी बेचारी का क्या दोष जो असमय ही उस का बचपन छिन गया.
‘क्या उस का दोष यही है कि वह घर में सब से बड़ी बेटी है?’ मन में बारबार यही प्रश्न घुमड़ रहा था. टुलकी बारबार मेरे मानसपटल पर उभर कर पूछ रही थी, ‘मेरा कुसूर क्या है, सिस्टर?’
उस दिन भी मैं सो रही थी कि एकाएक मुझे लगा कि कोई है. आंखें खोल कर देखा तो टुलकी सामने खड़ी थी. पता नहीं कब आहिस्ता से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई थी. वह एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने आंखों ही आंखों में सवाल किया, ‘क्या है?’
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