सास भी कभी बहू थी: भाग 2- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

एक बार सुमित्रा बुखार में तप रही थी. उसे बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी. कमरे में दिनभर पड़े रहने पर भी किसी ने उस का हाल तक जानने की कोशिश न की थी. जब उस से रहा न गया तो वह धीरेधीरे चल कर रसोई तक आई.

‘‘मांजी,’’ उस ने कहा, ‘‘एक गिलास दूध मिलेगा क्या? मुझ से अब खड़ा भी नहीं रहा जाता.’’

‘‘दूध?’’ सास ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘अरी बहू, यहां दूध अंजन लगाने तक तो मिलता नहीं, तुम गिलासभर दूध की फरमाइश कर रही हो. कहो तो थोड़ी कड़क चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए.’’

उस के मातापिता को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने आग्रह कर के उस के घर एक गाय भेज दी.

‘‘अरे बाप रे, यह क्या बहू, इस गाय का सानीपानी कौन करेगा? इस उम्र में मुझ से ये सब न होगा.’’

‘‘आप चिंता न करें, मांजी, मैं सब कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है, जो करना हो करो. लेकिन एक बात बताए देती हूं कि घर में गाय आई है तो दूध सभी को मिलेगा. यह नहीं हो सकता कि तुम दूध सिर्फ अपने बच्चों के लिए बचा कर रखो.’’

‘‘ठीक है, मांजी,’’ सुमित्रा ने बेमन से सिर हिलाया.

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घर के काम के अलावा गाय की सानीपानी कर के वह बुरी तरह थक जाती थी. पर और कोई इलाज भी तो न था. दिन गिनतेगिनते वह घड़ी भी आ पहुंची जब उस का पति रजनीश लंदन से वापस लौट आया. आते ही उस की नियुक्ति मुंबई के एक बड़े अस्?पताल में हो गई और वह अपने परिवार को ले कर चला गया.

कुछ साल सुमित्रा के बहुत सुख से बीते. समय मानो पंख लगा कर उड़ चला. बच्चे बड़े हो गए. बड़ी 2 बेटियों की शादी हो गई. बेटे ने वकालत की पढ़ाई कर ली और उस की प्रैक्टिस चल निकली.

एक दिन दिल की धड़कन रुक जाने से अचानक रजनीश का देहांत हो गया. सुमित्रा पर फिर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा.

धीरेधीरे वह अपने दुख से उबरी. उस ने फिर से अपना उजड़ा घोंसला समेटा. अब घर में केवल वह और उस का बेटा कुणाल रह गए थे. सुमित्रा उस के पीछे पड़ी कि वह शादी कर ले, ‘‘अकेला घर भांयभांय करता है. तेरा घर बस जाएगा तो मैं अपने पोतेपोतियों से दिल बहला सकूंगी.’’

‘‘क्यों मां, हम दोनों ही भले हैं. किसी और की क्या जरूरत. अपने दिन मजे में कट रहे हैं.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते. समाज का नियम है तो मानना ही पड़ेगा. सही समय पर तेरी शादी होनी जरूरी है नहीं तो लोग तरहतरह की बातें बनाएंगे. और मुझे भी तो बुढ़ापे में थोड़ा आराम की जरूरत है. तेरी पत्नी आ कर अपनी गृहस्थी संभाल लेगी तो मैं चैन से जी सकूंगी.’’

कुणाल थोड़े दिन टालता रहा पर जब शहर के एक अमीर खानदान की बेटी ज्योति का रिश्ता आया तो वह मना नहीं कर सका. जब उस ने ज्योति को देखा

तो देखता ही रह गया. अपार धनराशि के साथ इतना अच्छा रूप मानो सोने पे सुहागा.

सुमित्रा ने जरा आपत्ति की, ‘‘शादी हमेशा बराबर वालों में ही ठीक होती है. वे लोग बहुत पैसे वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां. हमें उन के पैसों से क्या लेनादेना?’’

‘‘बहू बहुत ठसके वाली हुई तो? नकचढ़ी हुई तो?’’

‘‘यह कोई जरूरी नहीं उसे अपने पैसे का घमंड हो. आप बेकार में मन में वहम मत पालो. और सोचो यदि गरीब घर की लड़की हुई तो वह अपने परिवार की समस्याएं भी साथ लाएंगी. हमें उन से भी जूझना पड़ेगा.’’

सुमित्रा ने हथियार डाल दिए.

‘‘वाह सुमित्रा तेरे तो भाग खुल गए,’’ उस की सहेलियां खुश हो रही थीं, ‘‘बहू मिली खूब सुंदर और साथ में दहेज इतना लाई है कि तेरा घर भर गया.’’

सुमित्रा भी बड़ी खुश थी. पर धीरेधीरे उसे लगने लगा कि उस का भय दुरुस्त था.

ज्योति मांबाप की लाड़ली, नाजों से पली बेटी थी. वह बातबात पर बिगड़ती, रूठ जाती, अपनी मनमानी न होने पर भूख हड़ताल कर देती, मौनव्रत धारण कर लेती, कोपभवन में जा बैठती और घर में सब के हाथपांव फूल जाते. कुणाल हमेशा बीवी का मुंह जोहता रहता था. और सुमित्रा को भी सदा फिक्र लगी रहती कि पता नहीं किस बात को ले कर बहू बिदक जाए और घर की सुखशांति भंग हो जाए.

बहू के हाथों घर की बागडोर सौंप कर सुमित्रा यह सोच कर निश्चिंत हो गई कि अब वह अपने सब अरमान पूरे करेगी. वह भी अपनी हमउम्र स्त्रियों की तरह पोतीपोते गोद में खिलाएगी, घूमेगीफिरेगी, मन हुआ तो किट्टी पार्टी में भी जाएगी, ताश भी खेलेगी. अब उसे कोई रोकनेटोकने वाला न था. अब वह अपनी मरजी की मालिक थी, एक आजाद पंछी की तरह.

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कुछ दिन चैन से बीते पर शीघ्र  ही उसे अपने कार्यक्रम पर पूर्णविराम लगाना पड़ा. ज्योति ने अनभ्यस्त हाथों से घर चलाने की कोशिश तो की पर उसे किफायत से घर चलाने का गुर मालूम न था. वह एक बड़े घर की बेटी थी. महीनेभर चलने वाला राशन 15 दिन में ही खत्म हो जाता. नौकरचाकर अलग लूट मचाए रहते थे. आएदिन घर में छोटीमोटी चोरी करते और चंपत हो जाते.

सास भी कभी बहू थी: भाग 1- सास बनकर भी क्या था सुमित्रा का दर्जा

सुमित्रा की आंखें खुलीं तो देखा कि दिन बहुत चढ़ आया था.  वह हड़बड़ा कर उठी. अभी सास की तीखी पुकार कानों में पड़ेगी. ‘अरी ओ महारानी, आज उठना नहीं है क्या? घर का इतना सारा काम कौन निबटाएगा? इतनी ही नवाबी थी तो अपने मायके से एकआध नौकर ले कर आना था न.’

फिर उन का बड़बड़ाना शुरू हो जाएगा. ‘उंह, इतने बच्चे जन कर धर दिए. इन को कौन संभालेगा? इन का बाप सारी चिंता छोड़ कर परदेस में जा बैठा है. जाने कौन सी पढ़ाई है शैतान की आंत की तरह जो खत्म ही नहीं हो रही और अपने परिवार को ला पटका मेरे सिर. हम पहले ही अपने झंझटों से परेशान हैं. अपनी बीमारियों से जूझ रहे हैं, अब इन को भी देखो.’

सुमित्रा झटपट तैयार हो कर रसोई की ओर दौड़ी. पहले चाय बना कर घर के सब सदस्यों को पिलाई. फिर अपने बच्चों को स्कूल के लिए तैयार किया. उन का नाश्ता पैक कर के दिया. उन्हें स्कूल की बस में चढ़ा कर लौटी तो थक कर निढाल हो गई थी.

अभी तक उस ने एक घूंट चाय तक न पी थी. सच पूछो तो उसे चाय पीने की आदत ही न थी. बचपन से ही वह दूध की शौकीन थी. उस के मायके में घर में गायभैंसें बंधी रहती थीं. दहीदूध की इफरात थी.

जब वह ब्याह कर ससुराल आई तो उस ने डरतेडरते अपनी सास से कहा था कि उसे चायकौफी की आदत नहीं है. उसे दूध पीना अच्छा लगता है.

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सास ने मुंह बना कर कहा था, ‘‘दूध किसे अच्छा नहीं लगेगा भला. लेकिन शहरों में दूध खरीद कर पीना पड़ता है. यहां तुम्हारे ससुर की तनख्वाह में दूध वाले का बिल चुकाना भारी पड़ता है. बालबच्चों को दूध मिल जाए तो वही गनीमत समझो.’’

उस के बाद सुमित्रा की फिर मुंह खोलने की हिम्मत न हुई थी. उस ने कमर कस ली और काम में लग गई. घर में महाराजिन थी पर जब वह काम से नागा करती तो सुमित्रा को उस का काम संभालना पड़ता था. महरी नहीं आई तो सब सुमित्रा का मुंह जोहते रहते और वह झाड़ू ले कर साफसफाई में जुट जाती. घर में कई सदस्य थे. एक बेटी थी जो अपने परिवार के साथ मायके में ही जमी हुई थी उस का पति घरजमाई था और सास का बेहद लाड़ला था.

सुमित्रा के अलावा 2 देवरदेवरानियां भी थीं पर वे बहुएं बड़े घर से आई थीं और सास की धौंस की वे बिलकुल परवा न करती थीं. तकरीबन रोज ही वे खापी, बनठन कर सैरसपाटे को चल देतीं. कभी मल्टी प्लैक्स सिनेमाघर में फिल्म देखतीं तो कभी चाटपकौड़ी खातीं.

सुमित्रा का भी बड़ा मन करता था कि वह घूमेफिरे पर इस शौक के लिए पैसा चाहिए था और वह उस के पास न था. उस का पति डाक्टरी पढ़ने के लिए लंदन यह कह कर गया था, ‘तुम कुछ दिन यहीं मेरे मातापिता के पास रहो. तकलीफ तो होगी पर थोड़े ही समय के लिए. एफआरसीएस की पढ़ाई पूरी होगी और नौकरी लग जाएगी, मैं तुम लोगों को ले जाऊंगा और फिर हमारे दिन फिर जाएंगे.’

सुमित्रा मान गई थी. इस के सिवा और कोई चारा भी तो न था. बच्चों की पढ़ाई की वजह से उस का शहर में रहना अनिवार्य था. उन के भविष्य का सोच कर वह तंगी में अपने दिन काट रही थी. सासससुर ने एक मेहरबानी कर दी थी कि उसे अपने बच्चों समेत अपने घर में शरण दी थी. लेकिन वे उसे हाथ पे हाथ धरे ऐश करने नहीं दे सकते थे. सास तो हाथ धो कर उस के पीछे पड़ी रहतीं. दिनभर उस के ऊपर आदेशों के कोड़े दागती रहतीं.

वे उस के लिए खोजखोज कर काम निकालतीं. वह जरा सुस्ताने बैठती कि उन की दहाड़ सुनाई देती, ‘अरी बहू, थोड़ी सी बडि़यां उतार ले. खूब कड़ी धूप है.’ या ‘थोड़ा सा आम का अचार बना ले.’ उन्हें लगता कि बेटा एक पाई तो भेजता नहीं, कम से कम बहू से ही घर का काम करवा कर थोड़ीबहुत बचत कर ली जाए तो क्या बुराई है. इस महंगाई के जमाने में चारचार प्राणियों को पालना कोई हंसीखेल तो था नहीं.

महीने में एक दिन सुमित्रा को छुट्टी मिलती कि वह पास ही के गांव में अपने मातापिता से मिल आए. उस के बच्चे इस अवसर का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते. चलते वक्त उस की सास उस के हाथ में बस के टिकट के पैसे पकड़ातीं और कहतीं, ‘वापसी का किराया अपने मांबाप से ले लेना.’

साल में एक बार बच्चों की स्कूल की छुट्टियों में सुमित्रा को अपने मायके जाने की अनुमति मिलती थी. वे दिन उस के लिए बड़ी खुशी के होते. गांव की खुली हवा में वह अपने बच्चों समेत खूब मौजमस्ती करती. अपने बच्चों के साथ वह खुद भी बच्चा बन जाती. वह घर के एक काम को हाथ न लगाती. बातबात पर ठुनकती. थाली में अपनी पसंद का खाना न देख कर रूठ जाती. उस के मांबाप उस की मजबूरियों को जानते थे. उस की तकलीफ का उन्हें अंदाजा था.

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वे उस का मानमनुहार करते. यथासाध्य उस की मदद करते. चलते वक्त उस के और बच्चों के लिए नए कपड़े सिलवा देते. सुमित्रा को भेंट में एकआध छोटामोटा गहना गढ़वा देते.

जब वह मांबाप की दी हुई वस्तुएं अपनी सास को दिखाती तो वे अपना मुंह सिकोड़ कर कहतीं, ‘बस इतना सा ही दिया तुम्हारे मांबाप ने? यह जरा सी मिठाई तो एक ही दिन में चट कर जाएंगे ये बच्चे. और ये साड़ी? हुंह, लगती तो नहीं कि असली जरी की है. और यह गहना, महारानी, यह मेरी बेटी को न दिखाना वरना वह मेरे पीछे पड़ जाएगी कि उसे भी मैं ऐसा ही हार बनवा दूं और यह मेरे बस का नहीं है.’

सुमित्रा को लाचारी से अपना हार बक्से में बंद कर के रखना पड़ता और बातें वह बरदाश्त कर लेती थी पर जब खानेपीने के बारे में उस की सास तरफदारी करती तो उस के आंसू बरबस निकल आते. घर में जब भी कोई अच्छी चीज बनती तो पहले ससुर और बेटों के हिस्से में आती. फिर बच्चों को मिलती. कभीकभी ऐसा भी होता कि मिठाई या अन्य पकवान खत्म हो जाता और सुमित्रा के बच्चे निहारते रह जाते, उन्हें कुछ न मिलता. सुमित्रा के मायके से कभी भूलाभटका कोई सगा संबंधी आ जाता तो उसे कोई पानी तक को न पूछता और यह बात उसे बहुत अखरती थी.

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दोनों ही काली: भाग 3- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 अगले दिन वह सीधा उस ब्रांच पहुंचा जहां वह ब्रांच मैनेजर की हैसियत से पोस्ट था. स्टाफ ने बताया कि वह तो 10 दिन से छुट्टी पर हैं.’’

‘‘छुट्टी पर?’’

‘‘जी सर.’’

‘‘ओह,’’ कहते हुए राबर्ट शाखा से बाहर निकल आया. बैंक की पार्किंग में खड़ी अपनी कार में बैठ कर किसी गहरी सोच में डूब गया.

10 दिन पहले ही तो मैस्सी से उस की मुलाकात मां के घर पर हुई थी. मैस्सी बता रही थी कि उस ने दाढ़ी बढ़ा ली है, जाने क्या मंथन अपने दिमाग में करता रहता है. नलिनी कुछ पूछती है तो उसे अजीब सी नजरों से घूरने लगता है.

कभी किसी बच्ची को गोद में ले कर सामने पहुंचती है तो चीख पड़ता है, ‘‘मेरे सामने मत लाया करो इन बच्चियों को. मुझे इन से कोई लगाव नहीं है.’’

‘‘और राबर्ट, पारस ने तो घर आना ही बंद कर दिया. नलिनी का फोन नंबर भी ब्लौक कर रखा है,’’ मैस्सी ने ही उसे ये सब बताया.

कार में बैठे हुए राबर्ट फिर सोच में डूब गया.

बैंक में काम का प्रैशर भी समझ में आता है, पर अपनी पत्नी और हाल ही में पैदा हुई बच्चियों को बिना देखे वह कैसे रह पाता होगा? आखिर वह छुट्टी ले कर कहां गया होगा? 5 दिन से घर नहीं आया यानी उसे छुट्टी लिए 5 दिन बीत गए हैं.

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अचानक राबर्ट का ध्यान दोनों जुड़वां बच्चियों की तरफ चला गया. क्या बच्चियों का काला पैदा होना ही तो दूर भाग जाने का कारण नहीं है? अरे काला होना कोई अभिशाप तो नहीं है. मैं भी तो काले रंग का पैदा हुआ था. मेरे मांबाप ने अपने जीतेजी इस बात का एहसास तक नहीं होने दिया कि मुझ से पहले नीग्रो जैसा काला उन के खानदान में कभी पैदा ही नहीं हुआ.

कितनी बेहतरीन परवरिश की. उच्च स्तर की शिक्षा दिलवाई. चर्च में फादर होने के साथसाथ घर और समाज का भला ही सोचा. चैरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से हौस्पिटल और स्कूल, कालेजस बनवाए. आज मेरा जो भी मानसम्मान है वह उन्हीं के पद्चिह्नों पर चलने के कारण ही तो है.

मगर यह पारस कहां चला गया. मुझ से पक्की दोस्ती होने के बाद से इस ने हर परेशानी, हरेक खुशी और बहुत सी अंतरंग बातें मुझ से शेयर की हैं, लेकिन इस बार ऐसा क्या बैठ

गया इस के दिमाग में, जो इस ने मुझे फोन तक नहीं किया.

फोन का विचार आते ही राबर्ट ने अपना मोबाइल उठा कर पारस का नंबर डायल किया. उधर से वौइस मैसेज डायल्ड नंबर इज आऊट औफ नेटवर्क कवरेज. सुन कर वह और बेचैन हो उठा.

राबर्ट ने कार स्टार्ट की. घर आया. मैस्सी को बताया तो उसे भी चिंता होने लगी. बोली, ‘‘चलो नलिनी के पास चलते हैं. शायद

उस के पास पारस का कोई मैसेज आया हो.’’

दोनों एक उम्मीद ले कर नलिनी के पास पहुंचे. 45 दिन पहले जन्मी दोनों

बच्चियां राबर्ट और मैस्सी को देख कर अपने नन्हे हाथपैर तेजी से चला कर ऐसे खुशी का इजहार करने लगीं जैसे उन्हें जाने क्या मिल गया हो.

मगर नलिनी का चेहरा उदास था और आंखें बता रही थीं कि वह रातभर रोती रही है.

मैस्सी ने उसे अलग कमरे मे ले जा कर कुरेदा, ‘‘यह तू ने क्या हाल बना रखा है? क्या हुआ तुझे? और यह पारस तुझ से बिना मिले कहां जा सकता है? क्या तुझे कोई सूचना दे कर गया है वह?’’

नलिनी कुछ बोली नहीं. उस ने कोरियर से प्राप्त एक पत्र मैस्सी की तरफ बढ़ा दिया. पत्र पढ़ कर एक बार तो मैस्सी भी सकते में आ गई. सोचने लगी क्या यह बात सच भी हो सकती है. जीजा और साली के किस्से तो बहुत सुने हैं और पारस का शक सही भी हो सकता है. राबर्ट के रंग से हूबहू बच्चियां कहीं राबर्ट और नलिनी के अंतरंग संबंधों का नतीजा तो नहीं हैं.

राबर्ट नलिनी की पारस से शादी के बाद अकसर ही तो बैंक औफिसर्स क्वार्टर में कौफी पीने पहुंच जाता था. शर्तें लगाने के साथ ही प्यारभरी आकर्षक बातें कर के किसी को भी अपना बना लेने में

तो वह माहिर है ही. बहुत पहले उस ने भी तो शादी से पहले अपना सर्वस्व राबर्ट को सौंप दिया था. नलिनी भी उस के प्रेम के झांसे में फंस सकती है.

उस ने पत्र पढ़ने के बाद कुछ देर तक सुबकती हुई नलिनी के चेहरे की तरफ देखा.

उधर मां वाले कमरे मे राबर्ट मां के पास बैठा दोनों बच्चियों से ऐसे बतिया रहा था जैसे वे दोनों उस की सब बातें समझ रही हों.

तभी अचानक दरवाजे से

अंदर लड़खड़ा कर घुसते हुऐ पारस की तेज चीखती आवाज पूरे घर मे गूंज उठी.

मैस्सी और नलिनी भी पारस की गुस्साभरी आवाज सुन कर अपनी बातचीत उसी जगह छोड़ कर कमरे से निकल कर मां वाले कमरे में घबराई हुई लपकती चली आईं.

बढ़ी हुई दाढ़ी, शराब के नशे में डूबी लाल आंखें, मुंह से गाली भरे गंदे शब्द निकलता हुआ. पारस तेजी से राबर्ट की तरफ बढ़ा जा रहा था, लेकिन इस से पहले कि उस के

दोनों हाथ राबर्ट की गरदन को

जकड़ पाते, नलिनी और मैस्सी दौड़ कर उन दोनों के बीच पहुंच गईं. पारस को पूरी ताकत से रोकते हुए दोनों ने उसे राबर्ट की तरफ बढ़ने

से रोका.

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तभी नलिनी चीख पड़ी, ‘‘पागल हो गए हो क्या? जीजाजी से इस तरह का बरताव क्यों कर रहे हो? एक तो 5 दिनों से न मेरी सुध ली और न बच्चों का खयाल आया… खुद मिलने न आ कर कोरियर द्वारा जो खत लिख कर मुझे भिजवाया वह भी शायद इसी तरह शराब पी कर विवेक खोने के बाद लिखा होगा?’’

‘‘तू बीच से हट जा, तुझे तो मैं बाद में समझूंगा. पहले इस आस्तीन के सांप से निबट लूं. यह दोस्ती के नाम पर कलंक है. ये दोनों जुड़वां इसी की काली करतूत का फल है. मेरे बच्चे कभी काले हो ही नहीं सकते थे. इस जैसे लोग ही घरेलू औरतों को रंडी बना दते हैं.’’

‘‘पारस़,’’ नलिनी और मैस्सी एकसाथ चीखीं.

मां को कुछ समझ नहीं आ रहा था. वह पारस के बिलकुल करीब आ कर बोली, ‘‘किस ने तुझे इतनी पिला दी और यह तू क्या बोल

रहा है? राबर्ट की तो तू हमेशा तारीफ करता फिरता था?’’

राबर्ट अब तक संभल चुका था. उस ने सब को पारस के पास से हटाया और मैस्सी से बोला, ‘‘तुम मां और नलिनी को ले कर उधर जा कर बैठो. मैं इस की गलतफहमियां दूर कर के नशा उतारता हूं.’’

मां को साथ ले कर मैस्सी और नलिनी उसी कमरे में एक ही

पालने में लेटी दोनों बच्चियों के पास पड़े दीवान पर बैठ गईं, हालांकि सभी इस बात से डर रही थीं कि दोनों में कहीं मारपीट न शुरू हो जाए. इसलिए उन का सारा ध्यान राबर्ट और पारस की तरफ ही था.

दोनों बच्चियां मस्त, अपने

नन्हे हाथपैर चलाने में व्यस्त थीं. कुछ देर पहले ही नलिनी ने दोनों को अपने स्तन से बारीबारी भरपेट दूध पिलाया था.

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दोनों ही काली: भाग 1- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

जहां एक तरफ नलिनी लेडी डाक्टर वी. डिसूजा के मैटरनिटी हौस्पिटल के लेबररूम में सहज प्रसव के लिए असहनीय पीड़ा से तड़प रही थी वहीं उस के पति पारस और राबर्ट के बीच शर्त लग रही थी.

राबर्ट यूनिवर्सिटी में साथ पढे़ अपने परम मित्र पारस से शर्त लगाने में जुटा था. अपने स्वभाव के अनुसार मजे लेने के लिए या यों भी कहा जा सकता है कि डिलिवरीरूम के बाहर वाले चौड़े गलियारे में चेहरे पर अजीब सा तनाव लिए. इधर से उधर टहलते पारस का मूड रिफ्रैश करने की गरज से राबर्ट यह शर्त लगा बैठा.

‘‘देखना तुम्हारे दोनों जुड़वां बच्चे काले होंगे.’’

‘‘तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?’’

‘‘क्योंकि मुझ से दोस्ती होने से पहले तुम मेरे काले रंग को ले कर कितना क्रिटिसाइज करते थे. तुम ने तो मेरी शादी होने से पहले क्लास में ही यह शर्त भी लगा ली थी कि साथ पढ़ने वाली गोरे रंग की मानसी मुझ से कभी शादी के लिए राजी न होगी और याद है वह शर्त तू हार गया था.’’

‘‘हां याद है. तू ने केवल उस से केवल शादी ही नहीं की उसे प्यार के बंधन में बांधने के बाद मानसी से मैस्सी भी बना दिया.’’

‘‘तो फिर इस बार भी लगा

ले शर्त.’’

‘‘शर्तवर्त मैं नहीं लगाने वाला, मुझे विश्वास है कि जब नलिनी और मैं दोनों ही गोरे रंग के हैं. तो काले बच्चे हो ही नहीं सकते.’’

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तभी लेबररूम के बाहर लगी स्टील की लंबी बैंच पर बच्चों के कुशलतापूर्वक प्रसव होने की सूचना का इंतजार करती राबर्ट की वाइफ मैस्सी बोल पड़ीं, ‘‘तुम दोनों न समय देखते हो न स्थान बस शर्तें लगाने में जुट जाते हो. वह सामने वाला बोर्ड भी नहीं दिख रहा है क्या. देखो क्या लिखा है.’’

मैस्सी ने ध्यान दिलाया तो दोनों की नजरें उधर घूम गईं जिधर छोटा सा इंसट्रक्शन बोर्ड दीवार पर फिक्स था, लिखा था, ‘‘कीप साइलैंस.’’

दोनों बोर्ड की तरफ देख कर अचानक चुप हो गए. लेकिन ज्यादा देर तक चुप रहना दोनों की फितरत में ही न था, इसलिए वे वहां से उठ कर हौस्पिटल के बाहर बने कैफेटेरिया में कौफी पीने चले गए. ‘‘वैसे तो मैं वह एक शर्त छोड़ कर अधिकतर शर्तें तुझ से हारा ही हूं

पर इस बार मेरी बात सच न निकले तो आगे से मैं तुझ से शर्त लगाना छोड़ दूंगा.’’

‘‘राबर्ट तुम, छोड़नेपकड़ने वाली बात कम से कम मुझ से तो न किया करो. जैसे तुम हार्ट पेशैंट होने के बाद भी वादा कर के सिगरेट पीना आज तक नहीं छोड़ पाए तो मुझे विश्वास है कि शर्तें लगाना भी नहीं छोड़ पाओगे.’’

‘‘अच्छा यह बताओ कि अगर मैं शर्त जीत गया तो तुम मुझे कौन सी पिक्चर दिखाओगे?’’ राबर्ट न फिर छेड़ा.

‘‘मुझे न शर्त लगानी है न कोई पिक्चर दिखानी है. वैसे भी सारे पिक्चरहौल और मौल खोलने की इजाजत अभी नहीं मिली है. मैं तो यही मना रहा हूं कि सही ढंग से डिलिवरी हो जाए. वैसे भी डाक्टर डिसूजा के अनुसार नलिनी का होमोग्लोबिन कम है और डिलिवरी कौंप्लिकेटेड है.’’

‘‘अरे तुम चिंता न करो. डाक्टर डिसूजा का इस शहर में कोई मुकाबला नहीं है. इस से भी ज्यादा कौंप्लिकेटेड केस उन्होंने सुलझाए हैं. सब से बड़ी बात है कि उन की कोशिश पहले तो नौर्मल डिलिवरी कराने की होती है. सिजेरियन डिलिवरी तो बहुत मजबूरी में करती हैं,’’ राबर्ट ने कहा.

इस पर पारस बोला, ‘‘तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे डाक्टर डिसूजा द्वारा होने वाली हर डिलिवरी की खबर तुम्हें सब से पहले मिल जाती हो.’’

‘‘अरे तू यह क्यों भूल जाता है वह हमारी रैड क्रौस सोसाइटी की सब से होशियार डाक्टर हैं. पर ये सब बातें छोड़. मैं यह शर्त लगाने को भी तैयार हूं कि नलिनी की डिलिवरी नौर्मल होगी.’’

दोनों के कौफी के कप खाली हो चुके थे. राबर्ट द्वारा काउंटर पर भुगतान करने के बाद दोनों कैफेटेरिया से बाहर निकल कर हौस्पिटल के कौरीडोर से गुजरते हुए वहां पहुंच गए जहां मैस्सी खुशखबरी का इंतजार कर रही थी.

उन के पहुंचने के 10 मिनट बाद ही लेबररूम से एक नर्स ने निकल कर खुश होते हुए समाचार दिया, ‘‘सिजेरियन डिलिवरी हुई है और दोनों लड़कियां हैं. मजेदार बात यह है कि दोनों ही काली हैं.’’

‘‘सिस्टर क्या मैं अपनी वाइफ से मिलने अंदर जा सकता हूं?’’ पारस ने पूछा तो नर्स बोली, ‘‘नहीं सर आप अभी मिलने नहीं जा सकते. क्लीनिंग चल रही है. अभी कुछ देर बाद जब हम उन्हें प्राइवेट रूम मे शिफ्ट कर देंगे तब आप मिल लीजिएगा. हां मैडम आप मेरे साथ अंदर जा कर मिल सकती हैं.’’

मैस्सी सिस्टर के साथ अंदर चली गईं तो दोनों मित्र बैंच पर बैठ गए. बैठते ही राबर्ट बोला, ‘‘अच्छा ही हुआ जो तुम ने शर्त नहीं लगाई वरना तुम आज तो अवश्य ही हार जाते. चलो कोई बात नहीं. सब से पहले तो मेरी गुड विशेज स्वीकार करो फिर यह बताओ कि

2-2 कन्या रत्नों की प्राप्ति के बाद किस होटल में ट्रीट दे रहे हो?’’ कहते हुए राबर्ट अपने स्वभाव के अनुसार खिलखिला कर हंस पड़ा. फिर जब उस की नजर पारस के चेहरे पर पड़ी तो अपनी हंसी रोकते हुए बोला, ‘‘अरे तुम खुश होने के बजाय यह मायूस सा चेहरा बना कर क्यों बैठ गए हो और मुझे क्यों इस तरह लगातार घूरे जा रहे हो?’’

राबर्ट ने टोका तो जैसे गहरे खयालों की दुनिया से निकल कर अपने सिर को झटकते हुए पारस खुद को ही समझाते हुए बड़बड़ाया, ‘‘तुम इन्हें रत्न कह रहे हो, रत्न कभी काले नहीं होते. काला रंग हमेशा से बुरा माना जाता रहा है.’’

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‘‘ऐसा नहीं है पारस, काला रंग अपना अलग ही महत्त्व रखता है,’’ अब बताओ मेरा रंग भी कितना डार्क है और क्या कमी है मुझ में, खूबसूरत वाइफ. मैस्सी, एक अच्छा रुतवा, तुम्हारे जैसे प्यारेप्यारे मित्र.’’

राबर्ट बोलता रहा, लेकिन पारस फ्यूज बल्ब की तरह मुंह लटकाए ही रहा तो उस ने टोक दिया, ‘‘अजीब नेचर है तुम्हारा. खुश होने के बजाय रोनी सूरत बना रखी है. क्या चल रहा है तुम्हारे मन में?’’

‘‘मैं तो अपने प्रारब्ध को कोस रहा हूं.’’

पारस के मुंह से ऐसा सुनते ही राबर्ट ने उसे समझाया, ‘‘देखो पारस मेरे और मैस्सी के हिस्से में तो संतानसुख था ही नहीं. लेकिन अगर मैस्सी का गर्भाशय की पथरी के कैंसर बन जाने के कारण औपरेशन करवा कर पूरा गर्भाशय निकलवाना न पड़ता और वह प्रैगनैंट होती तो मैं लड़की ही चाहता.’’

‘‘पता है आजकल लड़कों से ज्यादा लड़कियां ज्यादा रिलायबिल होती हैं. तुझे शायद पता नहीं कि कोविड के बाद से शादीशुदा लड़कों का नया डायलौग क्या हो गया है,’’ राबर्ट लगातार बोले जा रहा था.

‘‘क्या?’’ पारस ने पूछा तो राबर्ट बोला, ‘‘मैं ने सोसायटी के पार्क में मौर्निंगवाक करते समय अकसर सीनियर्स को अपने शादीशुदा बच्चों का हवाला देते हुए सुना है.’’

‘‘कोविड में सब चले गए पर यह बुड्ढा पता नहीं कब तक जीएगा,’’ कोई अपने लड़के का जिक्र करते हुए कहता है.

‘‘अच्छाखासा कोविड पौजिटिव अटैक आया था पर यह बुड्ढा कोरोना जंग जीत कर फिर घर वापस आ गया.’’

‘‘लेकिन पारस मैं ने किसी के भी मुख से अपनी लड़की की बुराई नहीं सुनी बल्कि पता यह चला कि अपने पिता की दयनीय स्थिति देख कर कई लड़कियां उन्हें अपने साथ ले गईं.’’

‘‘राबर्ट, यह जरूरी तो नहीं कि सब लड़के ऐसे ही विचार रखते हों. हमारे पड़ोस के अमन साहब के दोनों लड़के और बहुएं तो कोरोना से ठीक होने वाले अपने बूढ़े सासससुर का बहुत खयाल रखते हैं,’’ पारस से चुप न रहा गया.

उस के इतना कहते ही राबर्ट बोला, ‘‘पारस इसी बात पर मैं तुम से शर्त लगा सकता हूं कि उन की सेवा के पीछे, अमन साहब की लाखों की पूंजी या जमीनजायदाद का जरूर चक्कर होगा जिसे उन्होंने दबा रखा होगा.’’

इन दोनों का वार्त्तालाप अभी और खिंचता अगर मैस्सी बाहर निकल कर इन दोनों के पास आ कर यह न बतातीं, ‘‘राबर्ट मैं ने अपने 30 साल के जीवन में कभी इतने सुंदर काले बच्चे एक साथ कभी नहीं देखे. एक की सुंदरता काले गुलाब पर पड़ती धूप जैसी और दूसरे की जगमगाती रात्रि की तरह आकर्षक.’’

‘‘तुम्हें जब से स्कूल मे इंग्लिश के साथसाथ औप्शनल सब्जैक्ट हिंदी भी पढ़ाने को मिली है, बड़ी सुंदरसुंदर उपमाएं देने लगी हो.’’

राबर्ट ने अपने स्वभाव के अनुसार चहकते हुए जब मैस्सी से कहा तो वे बोलीं, ‘‘यह पारस भाई साहब को क्या हो गया है? ये तो खुश होने की जगह उदास बैठे हैं,’’ उन का ध्यान पारस के चेहरे की तरफ चला गया था.

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‘‘अरे यह नलिनी से शर्त हार गया है. कितनी बार मैं इसे समझा चुका हूं कि कभी शर्त लगानी ही पड़े तो मुझ से लगाया कर,’’ कहते हुए राबर्ट फिर हंस पड़ा.

माहौल को हलका बनाने के लिए राबर्ट के कथन के बाद भी जब मैस्सी ने पारस को वैसे ही गंभीर देखा तो बोलीं, ‘‘पारस भाई साहब, नलिनी को प्राइवेट वार्ड मे शिफ्ट कर दिया गया है आइए वहीं चल कर बैठते हैं. दोनों बच्चियों को देख कर आप खुश हो जाऐंगे. बहुत प्यारी बच्चियां हैं. मैं ने तो उन का नामकरण भी कर दिया है. रातिका और दिनिका.’’

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दोनों ही काली: भाग 4- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 राबर्ट पारस के ठीक सामने खड़ा हो कर उस की आंखों में अपनी आंख डालता हुआ बोला, ‘‘तू मुझे मार डालना चाहता है तो ले मैं तेरे सामने खड़ा हूं… मार डाल मुझे. लेकिन जिस कारण से तेरी आंखों में खून उतर आया है, उस का जिम्मेदार तेरे भीतर उपजा शक का बीज है.

‘‘जब से दोनों जुड़वां बच्चियां मेरे काले रंग से मिलतीजुलती पैदा हुई हैं तुझे लगता है कि वह मेरे और नलिनी के बीच अवैध संबंधों का नतीजा है. इसी कारण तुम ने नलिनी और बच्चों को मां के पास पटक

कर अपने बैंक क्वार्टर में रहने की ठान ली और मिलनाजुलना तक बंद कर दिया.’’

‘‘हां मेरी सोच गलत नहीं है. नलिनी की कोख में अगर तुम्हारा बीज न गया होता तो इतने काले बच्चे पैदा ही नहीं होते. क्या यह गलत है कि मेरी अनुपस्थिति में तुम हर दूसरे दिन उस से मिलने चले आते थे?’’

‘‘यह सच है कि तुम्हारा बैंक क्वार्टर मेरी वैलफैयर सोसाइटी के औफिस जाने के मार्ग में पड़ता था तो मैं नलिनी के हाथ से बनी काफी पीने और हाल चाल लेने के लिये तुम्हारे घर जाकर बैठ जाता था.’’

‘‘लेकिन तुम्हारी नियत सही नहीं थी.’’

अब मेरी नियत सही थी या गलत ये तो या नलिनी जानती है या मेरा जमीर.

‘‘इस की परख तो डीएनए टेस्ट से हो सकती है क्योंकि मैं ने कभी इस एंगिल से सोचा ही नहीं कि तुम्हारा नलिनी से भी संबंध कायम हो सकता है. फिर दोनों बच्चों का तुम्हारे रंग का होना भी एक सवाल तो खड़ा करता ही है. पारस भाईसाहब अगर न आए होते तो मै पत्र पढ़ कर नलिनी से यही सचाई जानने का प्रयास कर रही थी और वो कुछ बताने ही जा रही थी तभी.

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‘‘इसलिए हम सब के साथ तुम्हारा डीएनए टेस्ट होना बहुत

जरूरी है क्योंकि एकांत के क्षणों में 2 विपरीत लिंगी लोगों में सैक्स की इच्छा उठना और उस का क्रिया मे तब्दील हो जाना कोई नई बात नहीं है.’’

‘‘ठीक है अगर तुम भी मुझ पर शक कर रही हो तो मैं अपना भी डीएनए टैस्ट करवाने को तैयार हू. पर इस बार में स्टैम्प पेपर पर लिखित शर्त तुम सब से लगाता हूं.’’

‘‘इस में शर्त की क्या बात है?’’

‘‘बिलकुल शर्त की बात है और वह भी लिखित, जिस पर सब के हस्ताक्षर होंगे और यह मांजी पर निर्भर करेगा कि वह जीतने वाले के साथ कैसा जस्टिस करती हैं और हारने वालों को क्या सजा देती हैं… बोलो पारस तुम्हें यह शर्त मंजूर है?’’

‘‘राबर्ट तुम ज्यादा सयाने न बनों शर्त बताओ,’’ पारस का नशा कम हो चुका था.

वह पास पड़ी कुरसी पर बैठ कर राबर्ट को घूर रहा था.

राबर्ट बोला, ‘‘मेरी डीएनए रिपोर्ट अगर बच्चियों से मैच नहीं करी तो 2 में से 1 बच्ची कानूनीरूप से मेरी और अगर मैच कर गईं तो दोनों बच्चियां मेरी. उन्हें पढ़ालिखा कर डाक्टर बनाने की जिम्मेदारी मेरी.’’

राबर्ट की बात सुन कर सब को सोच में डूबा देख कर मां बोल पड़ी, ‘‘क्या यह शर्त लगाना जरूरी है?’’

‘‘हां मां केवल मेरे ही मानसम्मान का सवाल नहीं है. आप के ऊपर भी इस बात को ले कर कोई कटाक्ष करे इसे मैं बरदाश्त नहीं कर सकता और आज यह मेरा दोस्त मुझे मारने चले था उसे देख कर हारने की दशा में मेरा इन बच्चियों को ले कर इस शहर से बहुत दूर चला जाना ठीक रहेगा,’’ कह कर राबर्ट उठ खड़ा हुआ. उस ने मैस्सी को अपने घर चलने का इशारा किया. फिर नलिनी से पारस का ध्यान रखने की कहता हुआ बच्चियों के पालने के पास खड़ा हो कर उन्हें प्यारभरी नजरों से देखने लगा.

इस के बाद मां के पास जा कर बोला, ‘‘मां मैं चलता हूं, कल सवेरे वकील और स्टांप पेपर ले कर शर्त की लीगल फौर्मैलिटी करवाने आऊंगा उस के बाद हम डीएनए टैस्ट के लिए जाएंगे.’’

मैस्सी को ले कर राबर्ट जब चला गया तब नलिनी पारस को वहां से उठा कर अपने कंधे का सहारा देती हुई कमरे में ले गई और बैड पर लिटा दिया.

‘‘तुम आराम से लेट जाओ, तुम मेरे चरित्र को ले कर और बच्चियों के काले रंग से जीजाजी का रंग मैच हो जाने के कारण अंदर ही अंदर इतना घुटने के बजाय अपने मन की बात मुझ से शेयर कर लेते तो यह नौबत ही न आती.

‘‘उन्हें मार डालने की बात तुम्हारे मन में आई ही कैसे? अगर तुम्हें बच्चियों के पैदा

होने के बाद शक हुआ ही था तो दोष और इलजाम मुझ पर लगाते, मुझे गालियां देते, मेरा गला घोंट देते.’’

पारस अब तक खामोश था. बोला, ‘‘नलिनी मेरा मन ऐसा करने का भी हुआ पर मैं ने सोचा तुम्हें मारने पर मैं तुम्हारे साथ इन बच्चियों का भी हत्यारा कहलाऊंगा और तुम्हें मार डालना सब से सरल था. इसी उधेड़बुन में मैं 5 दिन तक बदहवास सा इस शहर के बाहरी सुनसान इलाकों में भटकता रहा.

‘‘एक बार को तो मैं ने यह भी सोच

लिया कि ये सब करने के बजाय क्यों न अपनी लीला ही समाप्त कर लूं. फिर मन ने कहा तू अपनेआप को समाप्त करने की क्यों सोच रह है. सारा दोष तो राबर्ट का है. ये काली बच्चियां उसी की तो देन हैं.

‘‘बस मैं इसी हालत में बार में गया.

खूब शराब पी फिर उठ कर सीधा राबर्ट के घर गया. उस का घर लौक देख कर सीधा यहां

चला आया.’’

‘‘और ये सब तुम ने इसलिए किया कि दोनों बच्चियां काले रंग की पैदा हुई थीं. काश, तुम ने उन्हें सीने से लगा कर नन्हीनन्ही धड़कनें सुनी होतीं. अब तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊं कि ये हमारेतुम्हारे प्यार की ही निशानी हैं.’’

‘‘वह तो हम सब के डीएनए टैस्ट का रिजल्ट बता ही देगा.’’

‘‘लेकिन उस से पहले जीजाजी जो कानूनी शर्तनामा बनवा कर ला रहे हैं उस के अनुसार

शर्त जीतने पर भी हमारी ही हार है. हम एक बच्ची से हाथ धो बैठेंगे और शर्त हार गए तो

दोनों से.’’

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‘‘उस से क्या फर्क पड़ता है. कम से कम टैस्ट की रिपोर्ट आने पर दूध का दूध और पानी का पानी तो हो जाएगा.’’

‘‘मतलब तुम्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं है.’’

पारस कुछ बोला नहीं. करवट बदल कर उस ने मुख दूसरी तरफ कर लिया. नलिनी कुछ देर चुप रही फिर उसे अपनी तरफ वापस करवट दिलाने के बाद बोली, ‘‘आज रातभर के लिए  मेरी एक विनती मानोगे पारस?’’

‘‘कैसी विनती?’’

‘‘आज रातभर इसी पलंग पर दोनों बच्चियां हमारे बीच सोएंगी.’’

‘‘इस से क्या होगा?’’

‘‘मुझे नहीं पता कि इस से क्या होगा, पर  आप इस दोष से तो बच जाएंगे कि पैदा होने के बाद एक दिन भी अपने पिता के पास बच्चियां नहीं रह पाईं.’’

‘‘ठीक है एक दिन के लिए मैं ने मानी तुम्हारी बात.’’

और उस रात जबजब नन्हे हाथ पारस के बदन से टकराए, उसे एक मखमली

अनुभूति हुई और भावावेश में आ कर उस ने बच्चियों की तरफ करवट ले कर जब उन्हें सीने से लगाया तो उन नन्ही धड़कनों के मधुर स्पंदन ने उस से न जाने कितने संवाद कर डाले.

सवेरे राबर्ट मैस्सी के साथ कानूनी शर्तनामा टाइप करा कर लाया तो स्वभाव से हट कर उस के चेहरे पर गंभीरता थी. साथ आए वकील ने अपने सामने सब के दस्तखत लिए.

जब डीएनए टैस्ट की रिपोर्ट आई तो दूरदूर तक कहीं बच्चों की रिपोर्ट से राबर्ट की रिपोर्ट मैच नहीं कर रही थी, जबकि पारस का डीएनए बच्चियों से पूरी तरह मैच कर रहा था.

शर्त के अनुसार पारस और नलिनी को उन में से एक बच्ची राबर्ट और मैस्सी को देनी पड़ी. मैस्सी ने नाम रख दिया था रातिका.

देखते ही देखते पारस से दूर जाती हुई, मानसी की गोद से पीछे की ओर देख कर रोती हुई रातिका जैसे अपने पिता से पूछ रही हो,

‘‘पापा क्या कुसूर था मेरा जो आप ने मुझे

अपनी मां से तो दूर करा ही बहन से भी दूर

कर दिया,’’

आज इस घटना को घटे 1 साल हो गया है. राबर्ट और मैस्सी शिमला जा कर सैटल हो गए. मां भी नहीं रहीं. पारस का प्रमोशन के साथ मुंबई हैड औफिस में ट्रांसफर हो गया और वह नलिनी तथा दिनिका के साथ वहीं रह रहा है.

रातिका के हिस्से का दूध अभी भी नलिनी के स्तनों में भर आता है और तब वह दर्द से तड़प उठती है.

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दादी अम्मा : आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा

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दोनों ही काली: भाग 2- क्यों पत्नी से मिलना चाहता था पारस

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

 वहां से उठ कर तीनों प्राइवेट रूम में आए. लंबी डिलिवरी के बाद की थकान,

लेकिन आसपास बच्चियों के नन्हे दिलों की धड़कन और छोटेछोटे मुलायम हाथपैरों की हलचल ने नलिनी को गहरी नींद न सोने दिया था. इसलिए पारस को नलिनी के बैड के पास रखी कुरसी पर बैठा कर राबर्ट को साथ लिए मैस्सी कल फिर मौर्निंग वाली औनलाइन क्लास निबटाने के बाद आने की कह कर चली गई.

उस के बाद के दिनों में राबर्ट तो क्रिश्चियन वैलफेयर सोसाइटी का चेयरमैन होने के कारण अगले माह होने वाले सोसायटी के सालाना फंक्शन के आयोजन में व्यस्त हो गया, लेकिन मैस्सी नलिनी के डिस्चार्ज होने तक लगातार हौस्पिटल के चक्कर लगाती रही और डिस्चार्ज

के बाद वही उसे अपनी कार से ले कर मां के

घर आई.

वह जानती थी कि अपनी मां के पास रह कर ही नलिनी की सही देखभाल हो पाएगी.

उस के बाद मां के घर में जब भी मैस्सी नलिनी से मिलने पहुंची तो पारस को उस ने बहुत ही गंभीर और अपने में ही खोया हुआ पाया.

पारस ने अपना ज्यादातर समय बैंक में बिताना शुरू कर दिया था. मैनेजर पद के दायित्व का निर्वहन करने के बाद जब वह घर लौटता तो मैस्सी को नलिनी के पास ही पाता. बच्चियों को गोद में लेना तो दूर उसे उन के पास बैठना तक गवारा नहीं था.

समय एक एक दिन कर के बीत रहा था. दोनों बच्चियां भी मैस्सी के स्पर्श को पहचानने लगी थीं और पहचानती भी क्यों नहीं. आखिर मैस्सी उन की सगी मौसी थी, जो बचपन में मानसी के नाम से पुकारी जाती थी. यूनिवर्सिटी से इंग्लिश लिटरेचर में एमए करने के दौरान हंसमुख काला राबर्ट उस के जीवन में आया और मां तथा बड़े ताऊ के तमाम विरोध के बाद मानसी ने राबर्ट से शादी कर के क्रिश्चियन धर्म स्वीकार कर लिया.

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पिता तो बहुत पहले ही इस जगत को छोड़ गए थे. उस के बाद संयुक्त परिवार में एकमात्र बच्चे के विदेश जा कर बस जाने के गम में ताई भी ज्यादा समय तक जिंदा न रही. अपनी दोनों बच्चियों के साथ ही अब उन्हें अकेले बूढे़ जेठ का भी खयाल रखना पड़ता.

इस का एक कारण यह भी था कि नलिनी और मानसी के पिता की मृत्यु के बाद से उन्होंने भी बिना किसी लागलपेट के अपने दायित्व का निर्वहन बखूबी किया था. इसलिए मानसी का मैस्सी बन जाना उन्हें शुरू में तो बहुत अखरा

पर जब अपने अल्सर के औपरेशन के लिए नलिनी ने मैस्सी से परामर्श लिया तो राबर्ट ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अपनी सोसाइटी के चैरिटेबल हौस्पिटल में स्वयं ले जा कर उन का सफल औप्ररेशन करवा दिया तब से मैस्सी और राबर्ट का इस घर में आनाजाना बढ़ गया. हालांकि उस के बाद ताऊजी भी ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे.

पारस बैंक में प्रोविशनरी औफिसर चयनित होने के बाद शुरू के दिनों में राबर्ट की वैलफेयर सोसाइटी के गैस्टहाउस में ही रहता रहा.

एक दिन जब राबर्ट मैस्सी के साथ नलिनी को एमएससी

की डिगरी हासिल करने की बधाई देने आया तो मैस्सी की मां ने कहा, ‘‘मैस्सी बेटी, तू नलिनी के लिए भी राबर्ट जैसा कोई लड़का ढूृंढ़ दे ताकि मेरी जब आंखें मुंदें तो उस समय कोई ख्वाहिश न हो वरना सुना है कि मरते समय अगर मन में कोई इच्छा रह जाती है तो मन भटकता रहता है.’’

यह सुन कर राबर्ट जोर से हंसा फिर बोला, ‘‘मांजी मैं शर्त लगा सकता हूं कि जीव मरने के बाद अपने मन को भी साथ ले जाता है फिर जब मन भी साथ चला गया तो भटकेगा कौन?’’

‘‘अरे तुम तो मां से भी शर्त लगाने में जुट गए… तुम्हारी नजर में कोई लड़का हो तो बताओ.’’

जब मैस्सी ने कहा तो राबर्ट ने नलिनी की तरफ गौर से देखा.

अपनी ओर यों घूरते देख नलिनि बोली, ‘‘जीजाजी आप मुझे ऐसे क्यों घूर रहे हैं?’’

‘‘मैं इसलिए घूर रहा हूं कि इतनी सुंदर और गोरीचिट्टी होने के बाद भी कोई बांका छोरा तुम्हें फंसा क्यों नहीं पाया.’’

‘‘मेरा नाम नलिनी है, मानसी नहीं जिसे कोई भी फंसा ले.’’

‘‘ठीक, एक लड़का तो है मेरी नजर में. अच्छे घर का है बैंक में पीओ है और वह भी यही कहता है कि उसे कोई भी लड़की फंसा नहीं सकती, जबकि मजेदार बात यह है कि वह बेहद स्मार्ट है, गुड लुकिंग है. मैस्सी उसे अच्छी तरह जानती है.’’

‘‘तो उस से बात कर के देखो शायद उसे नलिनी पसंद आ जाए,’’ मां प्रसन्न होते हुए बोली.

‘‘मांजी मुझे पूरा विश्वास है कि नलिनी को वह रिजैक्ट कर ही नहीं सकता.’’

और यही सच भी हुआ. पारस को नलिनी पहली भेंट में पसंद भी आ गई. दोनों की शादी कराने में राबर्ट ने अपनी भूमिका बड़ी कुशलता से निभाई और शादी के बाद नलिनी कुछ दिन तो अपने सासससुर के पास रही, फिर पारस उसे अपने बैंक से मिले औफिसर्स फ्लैट में ले आया.

राबर्ट और मैस्सी का अकसर मिलनेजुलने आना हो ही जाता था. कभीकभी राबर्ट अकेला ही अपनी साली के हाथ से बनी कौफी पीने चला आता था.

बातबात पर किसी से भी शर्त लगाने को तैयार हंसमुख स्वभाव वाले राबर्ट से जीजासाली वाला तो रिश्ता था ही और जब से राबर्ट ने पारस से शादी करवाने में नलिनी की मां के साथ उस पर भी एक उपकार किया था तब से वह उन का और ज्यादा सम्मान करने लगी थी.

समय बीता नलिनी की कोख भारी हुई और डाक्टर डिसूजा ने शुरुआती परीक्षण में ही नलिनी के साथ आए पारस को बता दिया कि योर वाइफ इज कैरिंग ट्विंस.’’

तब से ही पारस एक अजीब सी मिश्रित प्रक्रिया से गुजर रहा था. नलिनी उसे

समझाती, ‘‘अरे तुम तो ऐसे घबरा रहे हो जैसे कोख मेरी नहीं तुम्हारी भारी हो गई हो.’’

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है और मैं चितिंत हूं कि तुम इकहरे बदन की हो… यह 2-2 कैसे तुम्हारी छोटी सी कोख संभाल पाएगी.’’

‘‘कोख के बारे में मैं बस इतना जानती हूं कि जरूरत के हिसाब से वह अपना आकार एडजस्ट कर लेती है, फिर मैं इस संसार में अकेली थोड़े ही हूं जो जुड़वां बच्चों की मां बनूंगी.’’

9 महीने कब में पूरे हो गए पारस को पता ही न चला. हां नलिनी ने 1-1 दिन अपने गर्भ में होने वाली हलचल और मीठीमीठी पीड़ा का अनुभव करा.

अब नतीजा सामने था. दोनों नन्ही किलकारियों को साथ ले कर वह अपनी अनुभवी मां के पास आ गई थी. मैस्सी रोज चक्कर लगा लेती.

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बच्चियों के शरीर का आकार बढ़ना शुरू हो गया. मां की देखरेख में नलिनी और रातिकादिनिका पलनेबढ़ने लगीं.

राबर्ट भी आ कर सब का मन बहला जाता. पर जबतब नलिनी से पूछता, ‘‘पारस बैंक से कब लौटता है?’’

उस का उतरा चेहरा देख कर वह मां से पूछता, ‘‘मां इधर जब भी मिलने आया हूं पारस से मुलाकात नहीं हुई.’’

‘‘हां बेटे वह हफ्ताभर पहले जब आया था तो बता रहा था कि आजकल बैंकों में वर्क प्रैशर बहुत बढ़ गया है. सरकार की इतनी फाइनैंस स्कीमें आ गई हैं कि लोन वितरण करने और लाभार्थियों के खाते में सरकारी अनुदान का लेनदेन स्टाफ से करवाने के बाद इतना थक जाता हूं कि वहीं पास में अपने बंगले में सो जाता हूं.’’

‘‘और खाना वगैरह?’’

‘‘वहीं बैंक कैंटीन में खा लेते है,’’ इस बार नलिनी बोल पड़ी.

‘‘अच्छा,’’ कहते हुए उस ने दोनों बच्चियों को बारीबारी से गोद में उठा कर प्यार किया

और फिर नलिनी के हाथ से बनी कौफी पी कर चला गया.

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खुद के लिए एक दिन

कोरोनाकाल में घर और दफ्तर की भागतीदौड़ती जिंदगी में थोड़ा सा ठहरती हुई मैं रिश्तों के जाल में फंसी हुई खुद से ही खुद का परिचय कराती हुई मैं. एक बेटी, एक बहू, एक पत्नी, एक मां और एक कर्मचारी की भूमिका निभाते हुए खुद को ही भूलती हुई मैं, इसलिए सोचा चलो आज खुद के साथ ही 1 दिन बिताती हूं मैं.

अब आप लोग सोच रहे होंगे कि कोरोनाकाल में भी अगर मुझे खुद के लिए समय नहीं मिला तो फिर ताउम्र नहीं मिलेगा. पर अगर सच बोलूं तो शायद कोरोनाकाल में हम लोगों की अपनी प्राइवेसी खत्म हो गई है.

हम चाहें या न चाहें हम सब परिवाररूपी जाल में बंध गए हैं. घर में कोई भी एक ऐसा कोना नहीं है जहां खुद के साथ कुछ समय बिता सकूं. सब से पहले अगर यह बात सीधी तरह किसी को बोली जाए तो अधिकतर लोगों को समझ ही नहीं आएगा कि खुद के साथ समय बिताने के लिए 1 दिन की आवश्यकता ही क्या है?

आज का समय तो जब तक जरूरी न हो घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर क्या हर इंसान को भावनात्मक और मानसिक आजादी की आवश्यकता नहीं होती है? लोग माखौल उड़ाते हुए बोलेंगे कि यह नए जमाने की नई हवा है जिस के कारण यह फितूर मेरे दिमाग मे आया है. कुछ लोग यह जुमला उछालेंगे कि जब कोई काम नहीं होता न तो ऐसे ही खुद को पहचानने का कीड़ा दिमाग को काटता है. यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि शायद मैं भी उन लोगों मे से ही हूं जो ऐसे ही प्रतिक्रिया करेगा.

अगर कोई मुझ से भी बोले कि आज मैं खुद के साथ समय बिताना चाहती या चाहता हूं, तो ऐसे लोगों को हम स्वार्थी या बस अपने तक सीमित या बस केवल अपनी खुशी देखने वाला और भी न जाने क्याक्या बोलते हैं.

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चलिए, अब रबरबैंड की तरह बात को न खींचते हुए मैं अपने अनुभव को साझा करना चाहती हूं. खैर लौकडाउन खत्म हुआ और मेरा दफ्तर चालू हो गया पर बच्चों और पति का अभी भी घर से स्कूल और दफ्तर जारी था. छुट्टी का दिन मेरे लिए और अधिक व्यस्त होता है क्योंकि जिन कार्यों की अनदेखी मैं दफ्तर के कारण कर देती थी वे सब कार्य ठुनकते हुए कतार में सिर उठा कर खड़े रहते थे कि उन का नंबर कब आएगा? बच्चे अगर सामने से नहीं पर आंखों ही आंखों में यह जरूर जता देते हैं कि मैं हर दिन कितनी व्यस्त रहती हूं, उन को जब मेरी जरूरत होती है तो मैं दफ्तर के कार्यों में अपना सिर डाल कर बैठी रहती हूं.

पति महोदय का बस यही वाक्य होता है कि तुम्हें ही सारा काम क्यों दिया जाता है? जरूर तुम ही भागभाग कर हर काम के लिए लपकती होंगी. अरे, वर्कफ्रौम होम के लिए बात क्यों नहीं करती हो? पर फिर जब हर माह की 5 तारीख को जब वेतन आता है तो वे सारी चीजें भूल जाते हैं और नारीमुक्ति या उत्थान के पुजारी बन जाते हैं.

ऐसे ही एक ठिठुरते हुए रविवार में सब के लिए खाना परोसते हुए मेरे दिमाग में यह खयाल आया कि क्यों न दफ्तर से छुट्टी ले ली जाए और बस लेटी रहूं. घर पर तो यह मुमकिन नहीं था. पहले तो बिना किसी कारण छुट्टी लेना किसी को हजम नहीं होगा. दूसरा, अगर ले भी ली तो सारा समय घर के कामों में ही निकल जाना है. कहने को तो मेरे जीवन में बहुत सारे मित्र हैं पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं यह दिन साझा कर सकूं. पर न जाने क्यों मन ने कुछ नया करने की ठानी थी, खुद के साथ समय बिताने की दिल ने की मनमानी थी.

जब से यह खयाल मन में आया तो कुछ जिंदगी में रोमांच सा आ गया साथ ही साथ एक अनजाना डर भी था कि कहीं मैं इस वायरस की चपेट में न आ जाऊं पर फिर अंदर की औरत बोल उठी,’अरे तो रोज दफ्तर भी तो जाती हो. उस में भी तो इतना ही जोखिम है. मेरे पास भी कुछ ऐसा होना चाहिए जो मेरा बेहद निजी हो.’

पूरा रविवार पसोपेश में बीत गया. ‘करूं या न करूं…’ सोचते हुए सांझ हो गई. मुझे कहीं घूमने नहीं जाना था, न ही किसी दर्शनीय स्थल के दर्शन करने थे, कारण था कोरोना. मुझे तो अपने अंदर की औरत को पहचाना था कि क्या इस कोरोना की आपाधापी में उस में थोड़ी सी चिनगारी अभी भी बाकी है?

दफ्तर में तो छुट्टी की सूचना दे दी थी पर अब सवाल यह था कि खुद को कहां पर ले जाऊं? क्या होटल सेफ रहेगा या मौल के किसी कैफे में? तभी फेसबुक पर ओयो रूम दिखाई पड़े. यहां पर घंटों के हिसाब से कमरे उपलब्ध थे. किराया भी बस ₹1,000 तक था. कोरोना के कारण घर से ही चेकइन करने की सुविधा थी पर फिर दिमाग में आया कि कहीं पुलिस की रेड न पड़ जाए क्योंकि ऐसे माहौल में कमरे घंटों के हिसाब से क्यों लिए जाते हैं यह सब को पता है तो ऐसे कमरों में ठहरना क्या सुरक्षित रहेगा?

इधरउधर होटल खंगाले तो कोई भी होटल ₹5,000 से कम नहीं था. पति महोदय मेरी समस्या को चुटकी में ही हल कर सकते थे पर यह तो मेरी खुद के साथ की डेट थी फिर उन से मदद कैसे ले सकती थी? और अगर सच बोलूं तो मुझे अपने पति से कोई लैक्चर नहीं सुनना था. यह बात नहीं सुननी थी कि मैं मिडऐज क्राइसिस से गुजर रही हूं इसलिए ऐसी बचकानी हरकतें कर रही हूं.

माह की 27 तारीख थी. बहुत अधिक शाहीखर्च नहीं हो सकती थी इसलिए धड़कते दिल से एक ओयो रूम ₹900 में 8 घंटों के लिए बुक कर दिया. वहां से कन्फर्मेशन में भी आ गया. फिर शाम के 5 बजे से मैं अपने मोबाइल को ले कर बेहद सजग हो गई जैसे मेरी कोई चोरी छिपी हो उस में.

बेटे ने जैसे ही हमेशा की तरह मेरे मोबाइल को हाथ लगाया, मैं फट पड़ी,”मैं तुम्हारे मोबाइल को हाथ नहीं लगाती हूं तो तुम्हें क्या जरूरत पड़ी है?”

बेटा खिसिया कर बोला,”मम्मी, मेरे एक फ्रैंड ने मुझे ब्लौक कर रखा है या नहीं, बस यही देखना चाहता था.”

पति और घर के अन्य सदस्य मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे. मैं बिना कोई उत्तर दिए रसोई में घुस गई. फिर रात को मैं ने अपने कार्ड्स और आईडी सब अपने पर्स में रख लिए. सुबह दफ्तर के समय ही घर से निकली और धड़कते दिल से कैब बुक करी. कैब ड्राइवर ने कैब उस गंतव्य की तरफ बढ़ा दी और फिर करीब आधे घंटे के बाद हम वहां पहुंच गए.

मुझे उतरते हुए कैब ड्राइवर ने पूछा,”मैम, आप को यहीं जाना था न?”

मुझे पता था वह बाहर ओयो रूम का बोर्ड देख कर पूछ रहा होगा. मैं कट कर रह गई पर ऊपर से खुद को संयत करते हुए बोली,”हां, पर तुम क्यों पूछ रहे हो?” वह कुछ न बोला पर उस के होंठों पर व्यंगात्मक मुसकान मुझ से छिपी न रही.

मैं अंदर पहुंची पर कोई रिसैप्शन नहीं दिखाई दिया, फिर भी मैं अंदर पहुंच गई तो एक ड्राइंगरूम दिखाई दिया. 2 बड़े बड़े सोफे पड़े हुए थे और एक डाइनिंग टेबल भी थी. 2 लड़के सोए हुए थे. मुझे देखते हुए आंखे मलते हुए उठने ही वाले थे कि मैं तीर की गति से बाहर निकल गई. खुद पर गुस्सा आ रहा था कि एक भी ऐसा कोना नहीं है मेरे इस शहर में.शहर में ही क्यों, मेरा निजी कुछ भी नहीं है मेरे जीवन में.

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अब खुद के साथ समय बिताना भी मुश्किल हो गया था. जो फोन नंबर वहां पर अंकित था, वह मिलाया तो पता लगा कि वह नंबर आउट औफ सर्विस है. यह स्थान एक घनी आबादी में स्थित था इसलिए सड़क पर आतेजाते लोगों में से कुछ मुझे आश्चर्य से और कुछ बेशर्मी से देख रहे थे. मैं बिना कुछ सोचे तेजतेज कदमों से बाहर निकल गई. नहीं समझ आ रहा था कि कहां जाऊं?

ऐसे ही चलती रही. एक मन किया कि किसी मौल मैं चली जाऊं पर फिर वहां पर मैं क्या खुद से गुफ्तगू कर पाऊंगी? करीब 1 किलोमीटर चलतेचलते फिर से एक इमारत दिखाई दी. ओयो रूम का बोर्ड यहां भी मौजूद था. न जाने क्या सोचते हुए मैं उस इमारत की ओर बढ़ गई. वहां पर देखा कि रिसैप्शन आरंभ में ही था. उस पर बैठे हुए पुरूष को देख कर मैं ने बोला,”सर, कमरा मिल जाएगा?”

रिसैप्शनिस्ट बोला,”जरूर मैडम, कितने लोगों के लिए?”

मैं ने कहा,”बस मैं…”

उस ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और फिर बोला,”मैडम, कोई मेहमान या दोस्त आएगा आप से मिलने?”

मैं बोली,”नहीं, दरअसल घर की चाबी नहीं मिल रही है,” न जाने क्यों एक झूठ जबान पर आ गया खुद को सामान्य दिखाने के लिए. मुझे मालूम था कि अगर उसे पता चलेगा कि मैं ऐसे ही समय बिताने आई हूं तो शायद वह मुझे पागल ही करार कर देता.

आज पहली बार मन ही मन कोरोना को धन्यवाद दिया. मास्क के पीछे मुझे बेहद सुरक्षित महसूस हो रहा था. रूम नंबर 202 के अंदर घुसते ही मैं ने देखा एक छोटा सा बैड है, साफसुथरी रजाई भी रखी हुई थी. मेरे सामने ही रूम को दोबारा सैनिटाइज करा गया था. मैं ने राहत की सांस ली और अपना मास्क निकाला और फिर दोबारा से हाथ सैनिटाइज कर लिए थे. टीवी चलाने की कोशिश करी तो जाना मुझे तो पता ही नहीं यह नए जमाने के स्मार्ट टीवी कैसे चलाते हैं. थोड़ीबहुत कोशिश करी और फिर नीचे से लड़का बुला कर टीवी को चलवाया गया.

एक म्यूजिक चैनल औन किया तो जाना कि न जाने कितने साल हाथों से फिसल गए. न कोई गाना पहचान पा रही थी और न ही कोई अभिनेता या अभिनेत्री. फिर भी कुछ झिझक के साथ रजाई ओढ़ते हुए मैं लेट गई. मन में यह सोचते हुए कि न जाने कितने जोड़ों ने इस को ओढ़ कर प्रेमक्रीड़ा करी होगी.

टनटन करते हुए व्हाट्सऐप के दफ्तर वाले ग्रुप पर कार्यों की बौछार हो रही थी. मैं ने तुरंत डेटा बंद किया और मन ही मन मुसकराने लगी.

कुछ आधे घंटे बाद एक असीम शांति महसूस हुई. ऐसी शांति जो कभी योगा में भी लाख कोशिशों के बाद भी नहीं हुई थी. लेटे हुए मैं यही सोच रही थी कि कौनकौन से मोड़ से जिंदगी गुजर गई और मुझे पता भी नहीं चला. फिर गुसलखाने जा कर अपनेआप को निहारने लगी. घर पर न तो फुरसत थी और न ही इजाजत, जैसे ही देखना चाहती कि एकाएक एक जुमला उछाला जाता,”अब क्या देख रही हो? कौनसा 16 साल की हो….” जैसे सुंदर दिखना बस युवाओं का मौलिक अधिकार है. 40 वर्ष की महिला तो महिला नहीं एक मशीन है.

आईना देखते हुए मेरी त्वचा ने चुगली करी कि कब से पार्लर का मुंह नहीं देखा? शायद पहले तो फिर भी माह में 1 बार चली जाती थी पर अब तो 9 माह से भी अधिक समय हो गया था. बाल भी बेहद रूखे और बेजान लग रहे थे. झिझकते हुए रूम से बाहर निकली तो देखा सामने ही पार्लर भी था. बिना कुछ सोचे कमरे में ताला लगाया और पार्लर चली गई. हेयर स्पा और फेसियल कराया तो बहुत मजा आया. ऐसा लगा जैसे खुद के लिए कुछ करना अंदर से असीम शांति और खुशी भर देता है.

जब 3 घंटे बाद कमरे में पहुंची तो कस कर भूख लग गई थी. इंटरकौम से खाना और्डर किया. बहुत दिनों बाद बिना किसी ग्लानि के अपना पसंदीदा तंदूरी रोटी और बेहद तीखा कोल्हापुरी पनीर खाया.

अब कोरोना का डर काफी हद तक दिमाग से निकल गया था. जब पूरे 8 घंटे बिताने के बाद मैं घर पहुंची तो देखा चारों ओर घर में तूफान आया हुआ है. अभीअभी दोनों बच्चे लड़ाई कर के बैठे थे. पर यह क्या मुझे बिलकुल भी गुस्सा नहीं आया. गुनगुनाती हुई मैं रसोई में घुस गई और गरमगरम पोहे बनाने में जुट गई.

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अंदर बैठी हुई खूबसूरत महिला फिर से दिल के दरवाजे पर दस्तख दे रही थी कि मैं अगली डेट पर कब जा रही हूं? शायद दूसरों को खुश करने से पहले खुद को खुश करना जरूरी है. इस कोरोनाकाल में मेरे अंदर चिड़चिड़ापन और तनाव बढ़ गया था, जो आज काफी हद तक कम हो गया था.

बात तो समझ आ गई कि खुद के साथ समय बिताना बेहद जरूरी है. लेकिन एक डेट के बाद यह भी समझ में अवश्य आ गया कि ऐसा कौंसैप्ट हमारे समाज मे अभी प्रचिलित नहीं है. अभी यह रचना लिखते हुए भी मेरे दिमाग मे यह बात आ रही है कि अगर उस दिन मुझे किसी जानपहचान वालों ने देख लिया होता तो शायद मैं भी उन के लिये एक अनसुलझी कहानी बन जाती. पर हम सब को तो मालूम है न कि हर प्रेमकहानी में थोड़ाबहुत जोखिम तो होता ही है और यह जोखिम मैं अब लेने के लिए तैयार हूं.

सौतेली मां

लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह

मां की मौत के बाद ऋजुता ही अनुष्का का सब से बड़ा सहारा थी. अनुष्का को क्या करना है, यह ऋजुता ही तय करती थी. वही तय करती थी कि अनुष्का को क्या पहनना है, किस के साथ खेलना है, कब सोना है. दोनों की उम्र में 10 साल का अंतर था. मां की मौत के बाद ऋजुता ने मां की तरह अनुष्का को ही नहीं संभाला, बल्कि घर की पूरी जिम्मेदारी वही संभालती थी.

ऋजुआ तो मनु का भी उसी तरह खयाल रखना चाहती थी, पर मनु उम्र में मात्र उस से ढाई साल छोटा था. इसलिए वह ऋजुता को अभिभावक के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं था. तमाम बातों में उन दोनों में मतभेद रहता था. कई बार तो उन का झगड़ा मौखिक न रह कर हिंसक हो उठता था. तब अंगूठा चूसने की आदत छोड़ चुकी अनुष्का तुरंत अंगूठा मुंह में डाल लेती. कोने में खड़ी हो कर वह देखती कि भाई और बहन में कौन जीतता है.

कुछ भी हो, तीनों भाईबहनों में पटती खूब थी. बड़ों की दुनिया से अलग रह सकें, उन्होंने अपने आसपास इस तरह की एक दीवार खड़ी कर ली थी, जहां निश्चित रूप से ऋजुता का राज चलता था. मनु कभीकभार विरोध करता तो मात्र अपना अस्तित्व भर जाहिर करने के लिए.

अनुष्का की कोई ऐसी इच्छा नहीं होती थी. वह बड़ी बहन के संरक्षण में एक तरह का सुख और सुरक्षा की भावना का अनुभव करती थी. वह सुंदर थी, इसलिए ऋजुता को बहुत प्यारी लगती थी. यह बात वह कह भी देती थी. अनुष्का की अपनी कोई इच्छाअनिच्छा होगी, ऋजुता को कभी इस बात का खयाल नहीं आया.

अगर अविनाश को दूसरी शादी न करनी होती तो घर में सबकुछ इसी तरह चलता रहता. घर में दादी मां यानी अविनाश की मां थीं ही, इसलिए बच्चों को मां की कमी उतनी नहीं खल रही थी. घर के संचालन के लिए या बच्चों की देखभाल के लिए अविनाश का दूसरी शादी करना जरूरी नहीं रह गया था.

इस के बावजूद उस ने घर में बिना किसी को बताए दूसरी शादी कर ली. अचानक एक दिन शाम को एक महिला के साथ घर आ कर उस ने कहा, ‘‘तुम लोगों की नई मम्मी.’’

उस महिला को देख कर बच्चे स्तब्ध रह गए. वे कुछ कहते या इस नई परिस्थिति को समझ पाते, उस के पहले ही अविनाश ने मां की ओर इशारा कर के कहा, ‘‘संविधा, यह मेरी मां है.’’

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बूढ़ी मां ने सिर झुका कर पैर छू रही संविधा के सिर पर हाथ तो रखा, पर वह कहे बिना नहीं रह सकीं. उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इस तरह अचानक… कभी सांस तक नहीं ली, चर्चा की होती तो 2-4 सगेसंबंधी बुला लेती.’’

‘‘बेकार का झंझट करने की क्या जरूरत है मां.’’ अविनाश ने लापरवाही से कहा.

‘‘फिर भी कम से कम मुझ से तो बताना चाहिए था.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है,’’ अविनाश ने उसी तरह लापरवाही से कहा, ‘‘नोटिस तो पहले ही दे दी थी. आज दोपहर को दस्तखत कर दिए. संविधा का यहां कोई सगासंबंधी नहीं है. एक भाई है, वह दुबई में रहता है. रात को फोन कर के बता देंगे. बेटा ऋजुता, मम्मी को अपना घर तो दिखाओ.’’

उस समय क्या करना चाहिए, यह ऋजुता तुरंत तय नहीं कर सकी. इसलिए उस समय अविनाश की जीत हुई. घर में जैसे कुछ खास न हुआ हो, अखबार ले कर सोफे पर बैठते हुए उस ने मां से पूछा, ‘‘मां, किसी का फोन या डाकवाक तो नहीं आई, कोई मिलनेजुलने वाला तो नहीं आया?’’

संविधा जरा भी नरवस नहीं थी. अविनाश ने जब उस से कहा कि हमारी शादी हम दोनों का व्यक्तिगत मामला है. इस से किसी का कोई कुछ लेनादेना नहीं है. तब संविधा उस की निडरता पर आश्चर्यचकित हुई थी. उस ने अविनाश से शादी के लिए तुरंत हामी भर दी थी. वैसे भी अविनाश ने उस से कुछ नहीं छिपाया था. उस ने पहले ही अपने बच्चों और मां के बारे में बता दिया था. पर इस तरह बिना किसी तैयारी के नए घर में, नए लोगों के बीच…

‘‘चलो,’’ ऋजुता ने बेरुखी से कहा.

संविधा उस के साथ चल पड़ी. उसे पता था कि विधुर के साथ शादी करने पर रिसैप्शन या हनीमून पर नहीं जाया जाता, पर घर में तो स्वागत होगा ही. जबकि वहां ऐसा कुछ भी नहीं था. अविनाश निश्चिंत हो कर अखबार पढ़ने लगा था. वहीं यह 17-18 साल की लड़की घर की मालकिन की तरह एक अनचाहे मेहमान को घर दिखा रही थी. घर के सब से ठीकठाक कमरे में पहुंच कर ऋजुता ने कहा, ‘‘यह पापा का कमरा है.’’

‘‘यहां थोड़ा बैठ जाऊं?’’ संविधा ने कहा.

‘‘आप जानो, आप का सामान कहां है?’’ ऋजुता ने पूछा.

‘‘बाद में ले आऊंगी. अभी तो ऐसे ही…’’

‘‘खैर, आप जानो.’’ कह कर ऋजुता चली गई.

पूरा घर अंधकार से घिर गया तो ऋजुता ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘मनु, तू जाग रहा है?’’

‘‘हां,’’ मनु ने कहा, ‘‘दीदी, अब हमें क्या करना चाहिए?’’

‘‘हमें भाग जाना चाहिए.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘कहां, पर अनुष्का तो अभी बहुत छोटी है. यह बेचारी तो कुछ समझी भी नहीं.’’

‘‘सब समझ रही हूं,’’ अनुष्का ने धीरे से कहा.

‘‘अरे तू जाग गई?’’ हैरानी से ऋजुता ने पूछा.

‘‘मैं अभी सोई ही कहां थी,’’ अनुष्का ने कहा और उठ कर ऋजुता के पास आ गई. ऋजुता उस की पीठ पर हाथ फेरने लगी. हाथ फेरते हुए अनजाने में ही उस की आंखों में आंसू आ गए. भर्राई आवाज में उस ने कहा, ‘‘अनुष्का, तू मेरी प्यारी बहन है न?’’

‘‘हां, क्यों?’’

‘‘देख, वह जो आई है न, उसे मम्मी नहीं कहना. उस से बात भी नहीं करनी. यही नहीं, उस की ओर देखना भी नहीं है.’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘क्यों?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘वह अपनी मम्मी थोड़े ही है. वह कोई अच्छी औरत नहीं है. वह हम सभी को धोखा दे कर अपने घर में घुस आई है.’’

‘‘चलो, उसे मार कर घर से भगा देते हैं,’’ मनु ने कहा.

‘‘मनु, तुझे अक्ल है या नहीं? अगर हम उसे मारेंगे तो पापा हम से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘भले न करें बात, पर हम उसे मारेंगे.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते मनु, पापा उसे ब्याह कर लाए हैं.’’

‘‘तो फिर क्या करें?’’ मनु ने कहा, ‘‘मुझे वह जरा भी अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘मुझे भी. अनुष्का तुझे?’’

‘‘मुझे भी अच्छी नहीं लगती.’’ अनुष्का ने कहा.

‘‘बस, तो फिर हम सब उस से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘पापा कहेंगे, तब भी?’’ मनु और अनुष्का ने एक साथ पूछा.

‘‘हां, तब भी बात नहीं करेंगे. उसे देख कर हंसना भी नहीं है, न ही उसे कुछ देना है. उस से कुछ मांगना भी नहीं है. यही नहीं, उस की ओर देखना भी नहीं है. समझ गए न?’’

‘‘हां, समझ गए.’’ मनु और अनुष्का ने एक साथ कहा, ‘‘पर दादी मां कहेंगी कि उसे बुलाओ तो…’’

‘‘तब देखा जाएगा. दोनों ध्यान रखना, हमें उस से बिलकुल बात नहीं करनी है.’’

‘‘पापा, इसे क्यों ले आए?’’ मासूम अनुष्का ने पूछा.

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‘‘पता नहीं.’’ ऋजुता ने लापरवाही से कहा.

‘‘दीदी, एक बात कहूं, मुझे तो अब पापा भी अच्छे नहीं लगते.’’

‘‘मुझे भी,’’ मनु ने कहा. मनु ने यह बात कही जरूर, पर उसे पापा अच्छे लगते थे. वह उस से बहुत प्यार करते थे. उस की हर इच्छा पूरी करते थे. पर दोनों बहनें कह रही थीं, इसलिए उस ने भी कह दिया. इतना ही नहीं, उस ने आगे भी कहा, ‘‘दीदी, अब यहां रहने का मन नहीं होता.’’

‘‘फिर भी रहना तो पड़ेगा ही. अच्छा, चलो अब सो जाओ.’’

‘‘मैं तुम्हारे पास सो जाऊं दीदी?’’ अनुष्का ने पूछा.

‘‘लात तो नहीं मारेगी?’’

‘‘नहीं मारूंगी.’’ कह कर वह ऋजुता का हाथ पकड़ कर क्षण भर में सो गई.

ऋजुता को अनुष्का का इस तरह सो जाना अच्छा नहीं लगा. घर में इतनी बड़ी घटना घटी है, फिर भी यह इस तरह निश्चिंत हो कर सो गई. कुछ भी हो, 17-18 साल की एक लड़की पूरी रात तो नहीं जाग सकती थी. वह भी थोड़ी देर में सो गई.

सुबह वह सो कर उठी तो पिछले दिन का सब कुछ याद आ गया. उस ने अनुष्का को जगाया, ‘‘कल रात जैसा कहा था, वैसा ही करना.’’

‘‘उस से बात नहीं करना न?’’ अनुष्का ने कहा.

‘‘किस से?’’

‘‘अरे वही, जिसे पापा ले आए हैं, नई मम्मी. भूल गई क्या? दीदी, उस का नाम क्या है?’’

‘‘संविधा. पर हमें उस के नाम का क्या करना है. हमें उस से बात नहीं करनी है बस. याद रहेगा न?’’ ऋजुता ने कहा.

‘‘अरे हां, हंसना भी नहीं है.’’

‘‘ठीक है.’’

इस के बाद ऋजुता ने मनु को भी समझा दिया कि नई मम्मी से बात नहीं करेगा. जबकि वह समझदार था और खुद भी उस से चिढ़ा हुआ था. इसलिए तय था कि वह भी संविधा से बात नहीं करेगा. विघ्न आया दादी की ओर से. चायनाश्ते के समय वह बच्चों का व्यवहार देख कर सब समझ गईं. अकेली पड़ने पर वह ऋजुता से कहने लगीं, ‘‘बेटा, अब तो वह घर आ ही गई है. उस के प्रति अगर इस तरह की बात सोचोगी, तो कैसे चलेगा. अविनाश को पता चलेगा तो वह चिढ़ जाएगा.’’

‘‘कोई बात नहीं दादी,’’ पीछे खड़े मनु ने कहा.

‘‘बेटा, तू तो समझदार है. आखिर बात करने में क्या जाता है.’’

दादी की इस बात का जवाब देने के बजाए ऋजुता ने पूछा, ‘‘दादी, आप को पता था कि पापा शादी कर के नई पत्नी ला रहे हैं?’’

‘‘नहीं, जब बताया ही नहीं तो कैसे पता चलता.’’

‘‘इस तरह शादी कर के नई पत्नी लाना आप को अच्छा लगा?’’

‘‘अच्छा तो नहीं लगा, पर कर ही क्या सकते हैं. वह उसे शादी कर के लाए हैं, इसलिए अब साथ रहना ही होगा. तुम सब बचपना कर सकते हो, पर मुझे तो बातचीत करनी ही होगी.’’ दादी ने समझाया.

‘‘क्यों?’’ ऋजुता ने पूछा.

‘‘बेटा, इस तरह घरपरिवार नहीं चलता.’’

‘‘पर दादी, हम लोग तो उस से बात नहीं करेंगे.’’

‘‘ऋजुता, तू बड़ी है. जरा सोच, इस बात का पता अविनाश को चलेगा तो उसे दुख नहीं होगा.’’ दादी ने समझाया.

‘‘इस में हम क्या करें. पापा ने हम सब के बारे में सोचा क्या? दादी, वह मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती. हम उस से बिलकुल बात नहीं करेंगे. पापा कहेंगे, तब भी नहीं.’’ ऋजुता ने कहा. उस की इस बात में मनु ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘बेटा, तू बड़ी हो गई है, समझदार भी.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘बिलकुल नहीं करेगी बात?’’ दादी ने फिर पूछा. इसी के साथ वहां खड़ी अनुष्का से भी पूछा, ‘‘तू भी बात नहीं करेगी अनुष्का?’’

अनुष्का घबरा गई. उसे प्यारी बच्ची होना अच्छा लगता था. अब तक उसे यही सिखाया गया था कि जो बड़े कहें, वही करना चाहिए. ऋजुता ने तो मना किया था, अब क्या किया जाए? वह अंगूठा मुंह में डालना चाहती थी, तभी उसे याद आ गया कि वह क्या जवाब दे. उस ने झट से कहा, ‘‘दीदी कहेंगी तो बात करूंगी.’’

अनुष्का सोच रही थी कि यह सुन कर ऋजुता खुश हो जाएगी. पर खुश होने के बजाए ऋजुता ने आंखें दिखाईं तो अनुष्का हड़बड़ा गई. उस हड़बड़ाहट में उसे रात की बात याद आ गई. उस ने कहा, ‘‘बात की छोड़ो, हंसना भी मना है. अगर कुछ देती है तो लेना भी नहीं है. वह मुझे ही नहीं मनु भैया को भी अच्छी नहीं लगती. और ऋजुता दीदी को भी, है न मनु भैया?’’

‘‘हां, दादी मां, हम लोग उस से बात नहीं करेंगे.’’ मनु ने कहा.

‘‘जैसी तुम लोगों की इच्छा. तुम लोग जानो और अविनाश जाने.’’

पर जैसा सोचा था, वैसा हुआ नहीं. बच्चों के मन में क्या है, इस बात से अनजान अविनाश औफिस चले गए. जातेजाते संविधा से कहा था कि वह चिंता न करे, जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा.

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संविधा ने औफिस से 2 दिनों की छुट्टी ले रखी थी. नया घर, जिस में 3 बच्चों के मौन का बोझ उसे असह्य लगने लगा. उसे लगा, उस ने छुट्टी न ली होती, तो अच्छा रहता.   अविनाश के साथ वह भी अपने औफिस चली गई होती.

अविनाश उसे अच्छा तो लग रहा था, पर 40 की उम्र में ब्याह करना उसे खलने लगा था. बालबच्चों वाला एक परिवार…साथ में बड़ों की छत्रछाया और एक समझदार आदमी का जिंदगी भर का साथ…उस ने हामी भर दी और इस अनजान घर में आ गई. पहले से परिचय की क्या जरूरत है, अविनाश ने मना कर दिया था.

उस ने कहा था, ‘‘जानती हो संविधा, अचानक आक्रमण से विजय मिलती है. अगर पहले से बात करेंगे तो रुकावटें आ सकती हैं. बच्चे भी पूर्वाग्रह में बंध जाएंगे. तुम एक बार किसी से मिलो और उसे अच्छी न लगो, ऐसा नहीं हो सकता. यह अलग बात है कि तुम्हें मेरे बच्चे न अच्छे लगें.’’

तब संविधा ने खुश हो कर कहा था, ‘‘तुम्हारे बच्चे तो अच्छे लगेंगे ही.’’

‘‘बस, बात खत्म हो गई. अब शादी कर लेते हैं.’’ अविनाश ने कहा.

फिर दोनों ने शादी कर ली.

संविधा ने पहला दिन तो अपना सामान लाने और उसे रखने में बिता दिया था पर चैन नहीं पड़ रहा था. बच्चे सचमुच बहुत सुंदर थे, पर उस से बिलकुल बात नहीं कर रहे थे. चौकलेट भी नहीं ली थी. बड़ी बेटी ने स्थिर नजरों से देखते हुए कहा था, ‘‘मेरे दांत खराब हैं.’’

संविधा ढीली पड़ गई थी. अविनाश से शिकायत करने का कोई मतलब नहीं था. वह बच्चों से बात करने के लिए कह सकता है. बच्चे बात तो करेंगे, पर उन के मन में सम्मान के बजाए उपेक्षा ज्यादा होगी. ऐसे में कुछ दिनों इंतजार कर लेना ज्यादा ठीक रहेगा. पर बाद में भी ऐसा ही रहा तो? छोड़ कर चली जाएगी.

रोजाना कितने तलाक होते हैं, एक और सही. अविनाश अपनी बूढ़ी मां और बच्चों को छोड़ कर उस के साथ तो रहने नहीं जा सकता. आखिर उस का भी तो कुछ फर्ज बनता है. ऐसा करना उस के लिए उचित भी नहीं होगा. पर उस का क्या, वह क्या करे, उस की समझ में नहीं आ रहा था. वह बच्चों के लिए ही तो आई थी. अब बच्चे ही उस के नहीं हो रहे तो यहां वह कैसे रह पाएगी.

दूसरा दिन किस्सेकहानियों की किताबें पढ़ कर काटा. मांजी से थोड़ी बातचीत हुई. पर बच्चों ने तो उस की ओर ताका तक नहीं. फिर भी उसे लगा, सब ठीक हो जाएगा. पर ठीक हुआ नहीं. पूरे दिन संविधा को यही लगता रहा कि उस ने बहुत बड़ी गलती कर डाली है. ऐसी गलती, जो अब सुधर नहीं सकती. इस एक गलती को सुधारने में दूसरी कई गलतियां हो सकती हैं.

दूसरी ओर बच्चे अपनी जिद पर अड़े थे. जैसेजैसे दिन बीतते गए, संविधा का मन बैठने लगा. अब तो उस ने बच्चों को मनाने की निरर्थक चेष्टा भी छोड़ दी थी. उसे लगने लगा कि कुछ दिनों के लिए वह भाई के पास आस्ट्रेलिया चली जाए. पर वहां जाने से क्या होगा? अब रहना तो यहीं है. कहने को सब ठीक है, पर देखा तो बच्चों की वजह से कुछ भी ठीक नहीं है. फिर भी इस आस में दिन बीत ही रहे थे. कभी न कभी तो सब ठीक हो ही जाएगा.

उस दिन शाम को अविनाश को देर से आना था. उदास मन से संविधा गैलरी में आ कर बैठ गई. अभी अचानक उस का मन रेलिंग पर सिर रख कर खूब रोने का हुआ. कितनी देर हो गई उसे याद ही नहीं रहा. अचानक उस के बगल से आवाज आई, ‘‘आप रोइए मत.’’

संविधा ने चौंक कर देखा तो अनुष्का खड़ी थी. उस ने हाथ में थामा चाय का प्याला रखते हुए कहा, ‘‘रोइए मत, इसे पी लीजिए.’’

ममता से अभिभूत हो कर संविधा ने अनुष्का को खींच कर गोद में बैठा कर सीने से लगा लिया. इस के बाद उस के गोरे चिकने गालों को चूम कर वह सोचने लगी, ‘अब मैं मर भी जाऊं तो चिंता नहीं है.’

तभी अनुष्का ने संविधा के सिर पर हाथ रख कर सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मम्मी ही तो हूं, इसलिए तुम मम्मी कह सकती हो.’’

‘‘पर दीदी ने मना किया था,’’ सकुचाते हुए अनुष्का ने कहा.

‘‘क्यों?’’ मन का बोझ झटकते हुए संविधा ने पूछा.

‘‘दीदी, आप से और पापा से नाराज हैं.’’

‘‘क्यों?’’ संविधा ने फिर वही दोहराया.

‘‘पता नहीं.’’

‘‘तुम मान गई न, अब दीदी को भी मैं मना लूंगी.’’ खुद को संभालते हुए बड़े ही आत्मविश्वास के साथ संविधा ने कहा.

संविधा की आंखों में झांकते हुए अनुष्का ने कहा, ‘‘अब मैं जाऊं?’’

‘‘ठीक है, जाओ.’’ संविधा ने प्यार से कहा.

‘‘अब आप रोओगी तो नहीं?’’ अनुष्का ने पूछा.

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‘‘नहीं, तुम जैसी प्यारी बेटी को पा कर भला कोई कैसे रोएगा.’’

छोटेछोटे पग भरती अनुष्का चली गई. नन्हीं अनुष्का को बेवफाई का मतलब भले ही पता नहीं था, पर उस के मन में एक बोझ सा जरूर था. उस ने बहन से वादा जो किया था कि वह दूसरी मां से बात नहीं करेगी. पर संविधा को रोती देख कर वह खुद को रोक नहीं पाई और बड़ी बहन से किए वादे को भूल कर दूसरी मां के आंसू पोंछने पहुंच गई.

जाते हुए अनुष्का बारबार पलट कर संविधा को देख रही थी. शायद बड़ी बहन से की गई बेवफाई का बोझ वह सहन नहीं कर पा रही थी. इसलिए उस के कदम आगे नहीं बढ़ रहे थे.

नीड़: सिद्धेश्वरीजी क्या समझ पाई परिवार और घर की अहमियत

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