जहर का पौधा: भाभी का मन कठोर था

बहुत ज्यादा थक गया था डाक्टर मनीष. अभीअभी भाभी का औपरेशन कर के वह अपने कमरे में लौटा था. दरवाजे पर भैया खड़े थे. उन की सफेद हुई जा रही आंखों को देख कर भी वह उन्हें ढाढ़स न बंधा सका था. भैया के कंधे पर हाथ रखने का हलका सा प्रयास मात्र कर के रह गया था. टेबललैंप की रोशनी बुझा कर आरामकुरसी पर बैठना उसे अच्छा लगा था. वह सोच रहा था कि अगर भाभी न बच सकीं तो भैया जरूर उसे हत्यारा कहेंगे. भैया कहेंगे कि मनीष ने बदला निकाला है. भैया ऐसा न सोचें, वह यह मान नहीं सकता. उन्होंने पहले डाक्टर चंद्रकांत को भाभी के औपरेशन के लिए बुलाया था. डाक्टर चंद्रकांत अचानक दिल्ली चले गए थे. इस के बाद भैया ने डाक्टर विमल को बुलाने की कोशिश की थी, पर जब वे भी न मिले तो अंत में मजबूर हो कर उन्होंने डाक्टर मनीष को ही स्वीकार कर लिया था.

औपरेशनटेबल पर लेटने से पहले भाभी आंखों में आंसू लिए भैया से मिल चुकी थीं, मानो यह उन का अंतिम मिलन हो. उस ने भाभी को बारबार ढाढ़स दिलाया था, ‘‘भाभी, आप का औपरेशन जरूर सफल होगा.’’ किंतु भीतर ही भीतर भाभी उस का विश्वास न कर सकी थीं. और भैया कैसे उस पर विश्वास कर लेते? वे तो आजीवन भाभी के पदचिह्नों पर चलते रहे हैं.

डाक्टर मनीष जानता है कि आज से 30 वर्ष पहले जहर का जो पौधा भाभी के मन में उग आया था, उसे वह स्नेह की पैनी से पैनी कुल्हाड़ी से भी नहीं काट सका. वह यह सोच कर संतुष्ट रह गया था कि संसार की कई चीजों को मानव चाह कर भी समाप्त करने में असमर्थ रहता है. जहर के इस पौधे का बीजारोपण भाभी के मन में उन की शादी के समय हुआ था. तब मनीष 10 वर्ष का रहा होगा. भैया की बरात बड़ी धूमधाम से नरसिंहपुर गई थी. उसे दूल्हा बने भैया के साथ घोड़े पर बैठने में बड़ा आनंद आ रहा था. आने वाली भाभी के प्रति सोचसोच कर उस का बालकमन हवा से बातें कर रहा था. मां कहा करती थीं, ‘मनीष, तेरी भाभी आ जाएगी तो तू गुड्डो का मुकाबला करने के काबिल हो जाएगा. यदि गुड्डो तुझे अंगरेजी में चिढ़ाएगी तो तू भी भाभी से सारे अर्थ समझ कर उसे जवाब दे देना.’ वह सोच रहा था, भाभी यदि उस का पक्ष लेंगी तो बेचारी गुड्डो अकेली पड़ जाएगी. उस के बाद मन को बेचारी गुड्डो पर रहरह कर तरस आ रहा था.

भैया का ब्याह देखने के लिए वह रातभर जागा था और घूंघट ओढ़े भाभी को लगातार देखता रहा था. सुबह बरात के लौटने की तैयारी होने लगी थी. विवाह के अवसर पर नरसिंहपुर के लोगों ने सप्रेम भेंट के नाम पर वरवधू को बरतन, रुपए और अन्य कई किस्मों की भेंटें दी थीं. बरतन और अन्य उपहार तो भाभी के पिताजी ने दे दिए थे किंतु रुपयों के मामले में वे अड़ गए थे. इस बात को मनीष के पिता ने भी तूल दे दिया था. भाभी के पिता का कहना था कि वे रुपए लड़की के पिता के होते हैं, जबकि मनीष के पिता कह रहे थे कि यह भी लोगों द्वारा वरवधू को दिया गया एक उपहार है, सो, लड़की के पिता को इस पर अपनी निगाह नहीं रखनी चाहिए.

बात बढ़ गई थी और मामला सार्वजनिक हो गया था. तुरंत ही पंचायत बैठाई गई. पंचायत में फैसला हुआ कि ये रुपए वरवधू के खाते में ही जाएंगे. इस फैसले से भाभी के पिता मन ही मन सुलग उठे. उस समय तो वे मौन रह गए, किंतु बाद में इस का बदला निकालने का उन्होंने प्रण कर लिया.

उन की बेटी ससुराल से पहली बार 4 दिनों के लिए मायके आई तो उन्होंने बेटी के सामने रोते हुए कहा था, ‘बेटा, तेरे ससुर ने जिस दिन से मेरा अपमान किया है, मैं मन ही मन राख हुआ जा रहा हूं.’

भाभी ने पिता को सांत्वना देते हुए कहा था, ‘पिताजी, आप रोनाधोना छोडि़ए. मैं प्रण करती हूं कि आप के अपमान का बदला ऐसे लूंगी कि ससुर साहब का घर उजड़ कर धूल में मिल जाएगा. ससुरजी को मैं बड़ी कठोर सजा दूंगी.’ इस के पश्चात भाभी ने ससुराल आते ही किसी उपन्यास की खलनायिका की तरह शतरंज की बिसात बिछा दी. चालें चलने वाली वे अकेली थीं. सब से पहले उन्होंने राजा को अपने वश में किया. भैया के प्रति असाधारण प्रेम की जो गंगा उन्होंने बहाई, तो भैया उसी को वैतरणी समझने लगे. भैया ने पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा सी कर दी.

मनीष को अच्छी तरह याद है कि एक बार वह महल्ले के बच्चों के साथ गुल्लीडंडा खेल रहा था. गुल्ली अचानक भाभी के कमरे में घुस गई थी. वह गुल्ली उठाने तेजी से लपका. रास्ते में खिड़की थी, उस ने अंदर निगाह डाली. भाभी एक चाबी से माथे पर घाव कर रही थीं. जब वह दरवाजे से हो कर अंदर गया तो भाभी सिर दबाए बैठी थीं. उस ने बड़ी कोमलता से पूछा, ‘क्या हुआ, भाभी?’ तब वे मुसकरा कर बोली थीं, ‘कुछ नहीं.’ वह गुल्ली उठा कर वापस चला गया था.

लेकिन शाम को सब के सामने भैया ने मनीष को चांटे लगाते हुए कहा था, ‘बेशर्म, गुल्ली से भाभी के माथे पर घाव कर दिया और पूछा तक नहीं.’ भाभी के इस ड्रामे पर तो मनीष सन्न रह गया था. उस के मुंह से आवाज तक न निकली थी. निकलती भी कैसे? उम्र में बड़ी और आदर करने योग्य भाभी की शिकायत भैया से कर के उसे और ज्यादा थोड़े पिटना था. भैया घर के सारे लोगों पर नाराज हो रहे थे कि उन की पत्नी से कोई भी सहानुभूति नहीं रखता. सभी चुपचाप थे. किसी ने भी भैया से एक शब्द नहीं कहा था. इस के बाद भैया ने पिताजी, मां और भाईबहनों से बात करना छोड़ दिया था. वे अधिकांश समय भाभी के कमरे में ही गुजारते थे.

इस के बाद एक सुबह की बात है. भैया को सुबह जल्दी जाना था. भाभी भैया के लिए नाश्ता तैयार करने के लिए चौके में आईं. चौके में सभी सदस्य बैठे थे, सभी को चाय का इंतजार था. मनीष रो रहा था कि उसे जल्दी चाय चाहिए. मां उसे समझा रही थीं, ‘बेटा, चाय का पानी चूल्हे पर रखा है, अभी 2 मिनट में उबल जाएगा.’ उसी समय भाभी ने चूल्हे से चाय उतार कर नाश्ते की कड़ाही चढ़ा दी. मां ने मनीष के आंसू देखते हुए कहा, ‘बहू, चाय तो अभी दो मिनट में बन जाएगी, जरा ठहर जाओ न.’

इतनी सी बात पर भाभी ने चूल्हे पर रखी कड़ाही को फेंक दिया. अपना सिर पकड़ कर वे नीचे बैठ गईं और जोर से बोलीं, ‘मैं अभी आत्महत्या कर लेती हूं. तुम सब लोग मुझ से और मेरे पति से जलते हो.’ इतना सुन कर भैया दौड़ेदौड़े आए और भाभी का हाथ पकड़ कर अपने कमरे में ले गए. वे भी चीखने लगे, ‘मीरा, तुम इन जंगलियों के बीच में न बैठा करो. खाना अपने कमरे में ही बनेगा. ये अनपढ़ लोग तुम्हारी कद्र करना क्या जानें.’

भैया के आग्रह पर 4-5 दिनों बाद ही घर के बीच में दीवार उठा दी गई. सारा सामान आधाआधा बांट लिया गया. इस बंटवारे से पिताजी को बहुत बड़ा धक्का लगा था. वे बीमार रहने लगे थे. उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र लिख दिया था.

भैया केंद्र सरकार की ऊंची नौकरी में थे. अच्छाखासा वेतन उन्हें मिलता था. मनीष को याद नहीं है कि विवाह के बाद भैया ने एक रुपया भी पिताजी की हथेली पर धरा हो. पिताजी को इस बात की चिंता भी न थी. पुरानी संपत्ति काफी थी, घर चल जाता था. एक दिन भाभी के गांव से कुछ लोग आए. गरमी के दिन थे. मनीष और घर के सभी लोग बाहर आंगन में सो रहे थे. अचानक मां आगआग चिल्लाईं. सभी लोग शोर से जाग गए. देखा तो घर जल रहा था. पड़ोसियों ने पानी डाला, दमकल विभाग की गाडि़यां आईं. किसी तरह आग पर काबू पाया गया. घर का सारा कीमती सामान जल कर राख हो गया था. घर के नाम पर अब खंडहर बचा था. भैया के हिस्से वाले घर को अधिक क्षति नहीं पहुंची थी. पिताजी ने कमचियों की दीवार लगा कर किसी तरह घर को ठीक किया था. मां रोती रहीं. मां का विश्वास था कि यह करतूत भाभी के गांव से आए लोगों की थी. पिताजी ने मां को उस वक्त खामोश कर दिया था, ‘बिना प्रमाण के इस तरह की बातें करना अच्छा नहीं होता.’

साहूकारी में लगा रुपया किसी तरह एकत्र कर के पिताजी ने मनीष की दोनों बहनों का विवाह निबटाया था. उस समय मनीष 10वीं कक्षा का विद्यार्थी था. मां को गठियावात हो गया था. वे बिस्तर से चिपक गई थीं. पिताजी मां की सेवा करते रहे. मगर सेवा कहां तक करते? दवा के लिए तो पैसे थे ही नहीं. मनीष को स्कूल की फीस तक जुटाना बड़ा दुरूह कार्य था, सो, पिताजी ने, जो अब अशक्त और बूढ़े हो गए थे, एक जगह चौकीदारी की नौकरी कर ली.

भाभी को उन लोगों पर बड़ा तरस आया था. वे कहने लगीं, ‘मनीष, हमारे यहां खाना खा लिया करेगा.’ मां के बहुत कहने पर मनीष तैयार हो गया था. वह पहले दिन भाभी के घर खाने को गया तो भाभी ने उस की थाली में जरा सी खिचड़ी डाली और स्वयं पड़ोसी के यहां गपें लड़ाने चली गईं. उस दिन वह बेचारा भूखा ही रह गया था.

मनीष ने निश्चय कर लिया था कि अब वह भाभी के घर खाना खाने नहीं जाएगा. इस का परिणाम यह निकला कि भाभी ने सारे महल्ले में मनीष को अकड़बाज की उपाधि दिलाने का प्रयास किया. मां कई दिनों तक बीमार पड़ी रहीं और एक दिन चल बसीं. मनीष रोता रह गया. उस के आंसू पोंछने वाला कोई भी न था.

पिताजी का अशक्त शरीर इस सदमे को बरदाश्त न कर सका. वे भी बीमार रहने लगे. अचानक एक दिन उन्हें लकवा मार गया. मनीष की पढ़ाई छूट गई. वह पिताजी की दिनरात सेवा करने में जुट गया. पिताजी कुछ ठीक हुए तो मनीष ने पास की एक फैक्टरी में मजदूरी करनी शुरू कर दी. लकवे के एक वर्ष पश्चात पिताजी को हिस्टीरिया हो गया. उसी बीमारी के दौरान वे चल बसे. मनीष के चारों ओर विपत्तियां ही विपत्तियां थीं और विपत्तियों में भैयाभाभी का भयानक चेहरा उस के कोमल हृदय पर पीड़ाओं का अंबार लगा देता. उस ने शहर छोड़ देना ही उचित समझा.

एक दिन चुपके से वह मुंबई की ओर प्रस्थान कर गया. वहां कुछ हमदर्द लोगों ने उसे ट्यूशन पढ़ाने के लिए कई बच्चे दिला दिए. मनीष ने ट्यूशन करते हुए अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. प्रथम श्रेणी में पास होने से उसे मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया. उसे स्कौलरशिप भी मिलती थी.

फिर एक दिन मनीष डाक्टर बन गया. दिन गुजरते रहे. मनीष ने विवाह नहीं किया. वह डाक्टर से सर्जन बन गया. फिर उस का तबादला नागपुर हो गया यानी वह फिर से अपने शहर में आ गया. मनीष ने भैया व भाभी से फिर से संबंध जोड़ने के प्रयास किए थे किंतु वह असफल रहा था. भाभी घायल नागिन की तरह उस से अभी भी चिढ़ी हुई थीं. उन्हें दुख था तो यह कि उन्होंने जिस परिवार को उजाड़ने का प्रण लिया था, उसी परिवार का एक सदस्य पनपने लगा था.

मनीष को भाभी के इस प्रण की भनक लग गई थी किंतु इस से उसे कोई दुख नहीं हुआ. उस के चेहरे पर हमेशा चेरी के फूल की हंसी थिरकती रहती थी. उस ने सोच रखा था कि भाभी के मन में उगे जहर के पौधे को वह एक दिन जरूर धराशायी कर देगा. मनीष को संयोग से मौका मिल भी गया था. भाभी के पेट में एक बड़ा फोड़ा हो गया था. उस फोड़े को समाप्त करने के लिए औपरेशन जरूरी था. यह संयोग की ही बात थी कि वह औपरेशन मनीष को ही करना पड़ा.

वह जानता था कि यदि औपरेशन असफल रहा तो भैया जरूर उस पर हत्या का आरोप लगा देंगे. वह अपने कमरे में बैठा इसी बात को बारबार सोच रहा था. उसी वक्त मनीष के सहायक डाक्टर रामन ने कमरे में प्रवेश किया. ‘‘हैलो, सर, मीराजी अब खतरे से बाहर हैं,’’ रामन ने टेबललैंप की रोशनी करते हुए कहा.

‘‘थैंक्यू डाक्टर, आप ने बहुत अच्छी खबर सुनाई,’’ मनीष ने कहा, ‘‘लेकिन आगे भी मरीज की देखभाल बहुत सावधानी से होनी चाहिए.’’ ‘‘ऐसा ही होगा, सर,’’ डाक्टर रामन ने कहा.

‘‘मीराजी के पास एक और नर्स की ड्यूटी लगा दी जाए,’’ मनीष ने आदेश दिया. ‘‘अच्छा, सर,’’ डाक्टर रामन बोला. एक सप्ताह में मनीष की भाभी का स्वास्थ्य ठीक हो गया. हालांकि अभी औपरेशन के टांके कच्चे थे लेकिन उन के शरीर में कुछ शक्ति आ गई थी. मनीष भाभी से मिलने के लिए रोज जाता था. वह उन्हें गुलाब का एक फूल रोज भेंट करता था.

एक महीने बाद भाभी को अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. मनीष भैयाभाभी को टैक्सी तक

छोड़ने गया. सारी राह भैया अस्पताल की चर्चा करते रहे. भाभी कुछ शर्माई सी चुपचुप रहीं. मनीष ने कहा, ‘‘भाभीजी, मेरी फीस नहीं दोगी.’’

‘‘क्या दूं तुम्हें?’’ भाभी के मुंह से निकल पड़ा. ‘‘सिर्फ गुलाब का एक फूल,’’ मनीष ने मुसकराते हुए कहा.

घर पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही भाभी के स्वस्थ हो जाने की खुशी में महल्लेभर के लोगों को भोज दिया गया. भाभी सब से कह रही थीं, ‘‘मैं बच ही गई वरना इस खतरनाक रोग से बचने की उम्मीद कम ही होती है.’’ लेकिन भाभी का मन लगातार कह रहा था, ‘मनीष ने अस्पताल में मेरे लिए कितना बढि़या इंतजाम कराया. मैं ने उसे बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी किंतु उस ने मेरा औपरेशन कितने अच्छे ढंग से किया.’

भाभी बारबार मनीष को भुलाने का प्रयास करतीं किंतु उस की भोली सूरत और मुसकराता चेहरा सामने आ जाता. वे सोचतीं, ‘आखिर बेचारे ने मांगा भी क्या, सिर्फ एक गुलाब का फूल.’ आखिर भाभी से रहा नहीं गया. उन्होंने अपने बाग में से ढेर सारे गुलाब के फूल तोड़े और अपने पति के पास गईं.

‘‘जरा सुनिए, आज के भोज में सारे महल्ले के लोग शामिल हैं, यदि मनीष को भी अस्पताल से बुला लें तो कैसा रहेगा वरना लोग बाद में क्या कहेंगे?’’ ‘‘हां, कहती तो सही हो,’’ भैया बोले, ‘‘अभी बुलवा लेता हूं उसे.’’

एक आदमी दौड़ादौड़ा अस्पताल गया मनीष को बुलाने, लेकिन मनीष नहीं आ सका. वह किसी दूसरे मरीज का जीवन बचाने में पिछली रात से ही उलझा हुआ था. मनीष ने संदेश भेज दिया कि वह एक घंटे बाद आ जाएगा. किंतु मरीज की दशा में सुधार न हो पाने के कारण मनीष अपने वादे के मुताबिक भोज में नहीं पहुंच सका. भाभी द्वारा तोड़े गए गुलाब जब मुरझाने लगे तो भाभी ने खुद अस्पताल जाने का निश्चय कर लिया.

भोज में पधारे सारे मेहमान रवाना हो गए, तब भाभी ने मनीष के लिए टिफिन तैयार किया और गुलाब का फूल ले कर भैया के साथ अस्पताल की ओर रवाना हो गईं. अस्पताल पहुंचने पर पता चला कि मनीष एक वार्ड में पलंग पर आराम कर रहा है. उस ने मरीज को अपना स्वयं का खून दिया था, क्योंकि तुरंत कोई व्यवस्था नहीं हो पाई थी और मरीज की जान बचाना अति आवश्यक था.

भाभी को जब यह जानकारी मिली कि मनीष ने एक गरीब रोगी को अपना खून दिया है तो उन के मन में अचानक ही मनीष के लिए बहुत प्यार उमड़ आया. भाभी के मन में वर्षों से नफरत की जो ऊंची दीवार अपना सिर उठाए खड़ी थी, एक झटके में ही भरभरा कर गिर पड़ी. उन के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘मनीष वास्तव में एक सच्चा इंसान है.’’

भाभी के मुंह से निकली इस हलकी सी प्रेमवाणी को मनीष सुन नहीं सका. मनीष ने तो यही सुना, भाभी कह रही थीं, ‘‘मनीष, तुम्हारी भाभी ने तुम्हारे लिए कुछ भी अच्छा नहीं किया. लेकिन आश्चर्य है, तुम इस के बाद भी भाभी की इज्जत करते हो.’’ ‘‘हां, भाभी, परिवाररूपी मकान का निर्माण करने के लिए प्यार की एकएक ईंट को बड़ी मजबूती से जोड़ना पड़ता है. डाक्टर होने के कारण मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी भाभी के मन में कहीं न कहीं स्नेह का स्रोत छिपा है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष,’’ कहते हुए भावावेश में भाभी ने मनीष का हाथ पकड़ लिया. उन की आंखों में आंसू छलक आए. वे बोलीं, ‘‘मैं ने तुम्हारा बहुत बुरा किया है, मनीष. मेरे कारण ही तुम्हें घर छोड़ना पड़ा.’’ ‘‘अगर घर न छोड़ता तो कुछ करगुजरने की लगन भी न होती. मैं यहां का प्रसिद्ध डाक्टर आप के कारण ही तो बना हूं,’’ कहते हुए मनीष ने अपने रूमाल से भाभी के आंसू पोंछ दिए.

देवरभाभी का यह अपनापन देख कर भैया की आंखें भी खुशी से गीली हो उठीं.

संतुलित सहृदया: भाग 2- एक दिन जब समीरा से मिलने आई मधुलिका

‘‘उस में एक तरह से यायावर बनना पड़ता है और मुझे भरेपूरे परिवार में रहना पसंद है.’’ ‘‘लेकिन परिवार में रहते हुए तो आप की अपनी प्रतिभा का पूर्ण विकास नहीं हो सकता?’’

‘‘अकेले रहते हुए या कहिए आज की न्यूक्लीयर फैमिली में केवल व्यावसायिक पहलू को ही प्राथमिकता मिलती है. दूसरी सभी योग्यताएं या शौक तो समय की कमी या समझौतों की बलि चढ़ जाते हैं. दहेज या रूढि़वादी वाले मामलों को छोड़ दें तो संयुक्त परिवारों में रहने वालों के न्यूक्लीयर फैमिलीज में अधिक तलाक होते हैं,’’ मधुलिका मुसकराई, ‘‘वैसे अगर आप में प्रतिभा है और आप को संतुलित वातावरण मिलता है तो फिर आप की प्रतिभा को कहीं भी निखरने में देर नहीं लगेगी.’’ ‘‘फैमिली और प्रोफैशनल लाइफ क्लैश

नहीं करेंगी?’’ ‘‘अगर आप दोनों में तालमेल बना कर रखें तो कभी नहीं. मगर यह तभी हो सकता है जब आप को दोनों से प्यार हो.’’

‘‘लगता है खुश रखोगी मेरे भैया को,’’ समीरा मुसकरा कर बोली. ‘‘मैं किसी व्यक्ति विशेष की खुशी में नहीं पूरे परिवार की खुशी में यकीन रखती हूं,’’ मधुलिका ने बड़ी बेबाकी से कहा.

समीरा कहां हार मानने वाली थी. बोली, ‘‘वह व्यक्ति विशेष भी परिवार के खुश होने पर ही खुश होगा…’’ ‘‘और परिवार व्यक्ति विशेष के खुश होने पर,’’ मधुलिका ने बात काटी, ‘‘दोनों एकदूसरे के पूरक जो हैं.’’

तभी खाने का बुलावा आ गया. खाना बढि़या था. सभी ने बहुत तारीफ करी. ‘‘खाने की नहीं, हमारी बिटिया की बात करिए वह पसंद आई या नहीं?’’ राघव ने पूछा.

‘‘उसे तो नपसंद करने का सवाल ही नहीं उठता अंकल,’’ समीरा चहकी. ‘‘जी हां, आप की बिटिया अब हमारी है देवराजजी,’’ कृपाशंकर ने जोड़ा.

‘‘तो फिर रोके की रस्म कर दें?’’ ‘‘कल शाम को करेंगे खूब धूमधाम से… मैं ने इवेंट मैनेजमैंट वालों से बात की हुई है. अभी फोन पर कह देता हूं कि शानदार समारोह का आयोजन शुरू कर दें हमारे बगीचे में… आप लोग भी अपने परिचितों को आमंत्रित कर लीजिए राघवजी… एक ही बेटा है हमारा. अत: इस की शादी की छोटी से छोटी रस्म भी बड़े धूमधड़ाके से होगी.’’

समीरा चौंक पड़ी कि तो फिर वह कल सुबह दिल्ली कैसे जाएगी? कल शाम को तो उसे जैसे भी हो दिल्ली में रहना ही है. ‘‘यह रोके की रस्म इतनी हड़बड़ाहट में करने की क्या जरूरत है पापा? पहले लड़के और लड़की को 1-2 बार आपस में मिलने, बात करने दीजिए,’’ समीरा बोली, ‘‘फिर अगले सप्ताहांत इतमीनान से तैयारी कर के दावत और रोका करिएगा.’’

‘‘अगले सप्ताहांत तक हम यहां नहीं रुक सकते,’’ मधुलिका की मां बोलीं, ‘‘ये तो आज शाम को ही निकलना चाह रहे हैं, क्योंकि सोमवार को इन की जरूरी मीटिंग है और मोहित का प्रोजैक्ट प्रेजैंटेशन.’’ ‘‘तो शाम को निकल जाओ आंटी, मैं भी कल जा रही हूं. अगले सप्ताहांत हम सब फिर आ जाएंगे दावत और रस्म के लिए,’’ समीरा चहकी.

‘‘तो फिर तुम्हारे लड़केलड़की को अकेले मिलवाने के प्रस्ताव का क्या होगा?’’ राघव बोले. ‘‘लड़की को रोक लो अंकल और अगर यह नहीं हो सकता तो भैया को जयपुर घूमने भेज दो,’’ समीरा ने सुझाव दिया.

‘‘यह बढि़या रहेगा,’’ देवराज ने कहा, ‘‘हम तो आप को जयपुर बुलाना चाहते ही हैं अपने गरीबखाने पर.’’ ‘‘हम फिर कभी आएंगे देवराजजी… फिलहाल तो सुनील अकेला ही आएगा,’’ कृपाशंकर ने कहा.

‘‘मैं भी नहीं जा सकता पापा… अगले सप्ताह प्रदूषण नियंत्रण विभाग वाले फैक्टरी का निरीक्षण करने आ रहे हैं,’’ सुनील बोला. ‘‘ज्यादा भाव मत खाओ भैया… पापा हैं न संभाल लेंगे सब,’’ समीरा बोली.

‘‘नहीं समीरा, मुझे प्रदूषण नियंत्रण के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है,’’ कृपाशंकर बोले. ‘‘भैया से समझ लेना पापा… अभी तो चलिए… इन लोगों को भी आज ही जयपुर के लिए निकलना है,’’ समीरा उठ खड़ी हुई, ‘‘अगले सप्ताह रोके की दावत पर मिलेंगे.’’

समीरा को लगा कि सुनील और मम्मी रोके की रस्म टलने से खुश नहीं हैं, लेकिन इस समय तो उसे केवल अपनी खुशी से मतलब था जो दिल्ली जा कर मयंक से मिलने पर ही मिलेगी.

रास्ते में ही मम्मीपापा दावत की रूपरेखा बनाने लगे जो घर पहुंचने तक बहस में बदल गई. दावत में गानेबजाने के आयोजन पर दोनों में मतभेद था. इस से पहले कि बहस झगड़े में बदलती फोन की घंटी बजी. सुनील बराबर के कमरे में फोन सुनने चला गया.

‘‘बांसुरी बनने से पहले ही बांस नहीं रहा, इसलिए आप लोग भी शांत हो जाएं. देवराजजी का फोन था, खेद प्रकट करने को कि मधुलिका का रिश्ता मुझ से नहीं करेंगे, सुनील ने सपाट स्वर में कहा.’’ ‘‘ऐसे कैसे नहीं करेंगे?’’ समीरा आवेश में चिल्लाई, ‘‘मैं पूछती हूं उन से वजह.’’

‘‘उन्होंने वजह बता दी है जो तुम सुन नहीं सकोगी.’’

‘‘क्यों नहीं सुन सकूंगी, बताओ तो?’’ ‘‘उन का कहना है कि हमारे घर में मम्मीपापा या मेरी नहीं सिर्फ तुम्हारी मरजी चलती है समीरा. बहन के इशारों पर चलने वाले वर को वह अपनी बेटी नहीं देंगे और आज जो हुआ है उसे देखते हुए उन का सोचना सही है,’’ सुनील का स्वर तल्ख हो गया.

‘‘तू ठीक कहता है, समीरा ही तो फैसले ले रही थी सब की बात काट कर,’’ मम्मी ने कहा. ‘‘अगर मेरे फैसले गलत थे तो आप सही फैसले ले लेतीं न उसी समय… एक तो सब कामधाम छोड़ कर यहां आओ और फिर बेकार के उलाहने सुनो,’’ समीरा मुंह बना कर अपने कमरे में चली गई.

कुछ देर के बाद मम्मी ने यह कह कर वातावरण हलका करना चाहा कि शादीब्याह संयोग से होते हैं, किसी के कहने या चाहने से नहीं. सुनील भी यथासंभव सामान्य व्यवहार करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन लग रहा था कि उसे गहरा आघात लगा है, जिस से उबरने में समय लगेगा. लेकिन समीरा खुश थी कि उसे अब दिल्ली जाने से कोई रोकेगा नहीं. दिल्ली लौटने पर उम्मीद से ज्यादा खुशी मिल गई. मयंक ने बताया कि उसे नौकरी मिल गई है. ‘‘जौइन कब करोगे?’’

‘‘कल गाड़ी और फ्लैट की चाबियां भी मिल जाएंगी, मगर अभी अनंत के पास ही रहूंगा… मुंबई से सामान लाने के बाद अपने फ्लैट में शिफ्ट करूंगा.’’ ‘‘फ्लैट है कहां?’’ समीरा ने उत्सुकता

से पूछा. ‘‘तुम्हारे पड़ोस यानी डिफैंस कालोनी में, लेकिन अगर दूर भी होता तो भी चलता, क्योंकि जब मिलना हो तो फासलों से कुछ फर्क नहीं पड़ता.’’

‘‘मिलने पर फर्क फासलों से नहीं फुरसत से पड़ता है यार,’’ अनंत बोला. ‘‘यह भी तू ठीक कहता है,’’ मयंक ने उसांस ले कर कहा, ‘‘क्योंकि जौइन करने से पहले ही चेतावनी मिल गई है कि किसी प्रोग्राम की ऐडवांस प्लैनिंग मत करना.’’

समीरा को अनंत का टोकना अच्छा नहीं लगा. ‘‘मगर बगैर ऐडवांस प्लैनिंग के फुरसत का मजा तो उठा सकते हैं?’’

‘‘दैट्स द स्पिरिट समीरा, वी आलवेज कैन,’’ मयंक फड़क कर बोला, ‘‘अनंत कह रहा था तुम अपने भैया के लिए लड़की देखने गई थीं.’’ समीरा सकपका गई. बोली, ‘‘मगर भैया फिलहाल शादी करने के मूड में ही नहीं हैं.’’

सिल्वर जुबली गिफ्ट: भाग 1- क्यों गीली लकड़ी की तरह सुलगती रही सुगंधा

दोपहर से ही मेहमानों की गहमागहमी थी. सभी दांतों तले उंगली दबाए भव्य आयोजन की चर्चा में व्यस्त थे. ‘‘कम से कम 2-3 लाख रुपए का खर्चा तो आया ही होगा,’’ एक फुसफुसाहट थी.

‘‘कैसी बात करती हो मौसी, इतने तो अब गांव की दावतों में खर्च हो जाते हैं. यह तो फाइवस्टार की दावत है और वह करीब 1,500 आदमियों की,’’ एक खनकती आवाज ने अपने समसामयिक ज्ञान को बोध कराया. ‘‘अब भइया, ये न मनाएंगे ऐसी मैरिज एनिवर्सरी तो क्या हम मनाएंगे. इन के शहर में ही तो 400 साल पहले एक बादशाह ने वक्त के माथे पर ताजमहल का अमिट तिलक लगाया था,’’ डाह से भरा कुछ फटा सा स्वर गूंजा.

‘‘सही बात है जहां पलोबढ़ो वहां की आबोहवा का असर तो पड़ता ही है.’’ जितने मुंह उतनी ही बातें सुनाई दे रही थीं और पास ही के कमरे में अपनी सिल्वर जुबली पार्टी के लिए तैयार होती सुगंधा के कानों में भी पड़ रही थीं. उस ने सोचा, ‘ठीक ही तो कह रहे हैं सब, इंद्र मेरे अरमानों की कब्र तो शादी की पहली रात को ही खोद चुका था और पिछले 25 वर्षों से मेरी भावनाओं को लगातार पत्थर कर के उस कब्र पर मकबरा भी बना रहा है. अगर तथ्यों की बारीकियों में जाएं तो ताजमहल के हर पत्थर पर भी फरेब की ही इबारत लिखी दिखाई देगी, मुहब्बत की नहीं.’

सुगंधा के मन में पिछले 25 वर्षों से बर्फ बन कर जमी वेदना आर्द्र हो कर बाहर निकलने को व्याकुल हो रही थी. उस का मन हो रहा था कि वह इस दुख को अपनी आवाज बना ले और दुनिया को चीखचीख कर बताए कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती, यहां तक कि संसारभर में मुहब्बत का प्रतीक माने जाने वाले ताजमहल की हकीकत भी घिनौनी ही है. आज सुगंधा और इंद्र के विवाह के

25 साल पूरे हो चुके थे. सुगंधा ने ब्यूटीशियन को पेमैंट दे कर विदा किया और आदमकद दर्पण में खुद को निहारने लगी. इंद्र ने आज के दिन के लिए शहर के सब से नामी ड्रैस डिजाइनर से खासतौर पर साड़ी तैयार करवाई थी. दर्पण में खुद का रूप निहारने पर मन गर्व के सागर में गोते खाने लगा. अनायास ही वह दिन याद आ गया जब उस ने 25 साल पहले इसी तरह तैयार होने के बाद खुद को आदमकद दर्पण में निहारा था. फर्क था तो भावनाओं का, तब मन में पिया मिलन की लहरें हिलोरें ले रही थीं और आज 25 साल पहले सुहागरात को हुई उस की ख्वाहिशों की लाश का रंज टीस रहा था. थकने लगी थी वह अब यह सब बरदाश्त करतेकरते. मन करता था कि भाग जाए कहीं सब की निगाहों से दूर, कहीं बहुत दूर, किसी ऐसी दुनिया में जहां वह सुकून की सांस ले सके.

शादी से सिल्वर जुबली तक के सफर में कितने ही ज्वारभाटे आए थे. वह आज वरमाला के दिन से कहीं ज्यादा खूबसूरत लग रही थी. 25 साल से रिश्ते की कड़वाहट का जहर पीती रही थी. मन इस जहर की कड़वाहट से संतृप्त हो दम तोड़ने को छटपटा रहा था. मगर तन, वह तो बेशर्म बन कर और निखरता चला गया था. तभी दरवाजे पर दस्तक की आवाज ने सुगंधा के मानसपटल पर चल रहे अतीत के चलचित्र में विघ्न डाला. ‘‘जल्दी से बाहर आओ माई लव, पार्टी शुरू होने का समय हो चुका है, अब तक तो ज्यादातर मेहमान होटल पहुंच चुके होंगे. अच्छा नहीं लगता कि हम ‘स्टार्स औफ द इवनिंग’ हो कर भी सब से बाद में वहां पहुंचें,’’ इंद्र ने कमरे में दाखिल होते हुए सुगंधा से कहा. इंद्र अपने चचेरे भाई विजय के साथ दूसरे कमरे में तैयार हो कर आया था.

‘‘लोग उम्र के साथ ढलते जाते हैं मगर भाभीजान, आप तो उम्र के साथ पुरानी शराब की तरह दिलकश होती जा रही हैं,’’ विजय भी इंद्र के पीछेपीछे चले आए और आदतानुसार उन्होंने मुगलिया अंदाज में सीधा हाथ अपने माथे पर रख कर, थोड़ा सा बाअदब मुद्रा में झुकते हुए कहा, ‘‘इस से पता चलता है कि जागीरदार ने अपनी जागीर की हिफाजत में बड़ी ही एहतियात बरती है.’’ इंद्र खुद की तारीफ करने का कोई अवसर व्यर्थ नहीं जाने देता था.

सुगंधा पर उन की बातों का कोई असर हो रहा है या नहीं, इस की परवा किए बिना दोनों भाई अपनी ही बातों पर जोरजोर से कहकहे लगाने लगे. घर में आए हुए सारे रिश्तेदार भी अब तक होटल जाने के लिए निकल चुके थे. होटल और घर की दूरी सिर्फ एक किलोमीटर की थी, मगर इंद्र ने सब की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए किराए की कई कारों का इंतजाम करा रखा था. कुछ पास के शहरों में रहने वाले रिश्तेदार अपनी कारों में ही आए थे. सब से आखिर में सुगंधा, इंद्र और विजय ही घर में बचे थे. इंद्र के निर्देशानुसार विजय ने इंद्र की निजी कार को लाल गुलाब की लडि़यों से बड़ी ही खूबसूरती के साथ सजाया था और भाईभाभी के शोफर की भूमिका भी बखूबी निभाई.

होटल के रिसैप्शन हौल में घुसते ही भव्यता की रंगीन चकाचौंध ने सुगंधा की बुद्धिमत्ता का हरण करना शुरू कर दिया और वह रंगीन चकाचौंध कुछ पल के लिए उस के जीवन के काले यथार्थ पर हावी होेने लगी. सुगंधा की दशा सुंदरवन में कुलांचें मारती हिरनी सी हो गई, उसे वहम होने लगा कि उस की जिंदगी तो इतनी भव्य है, फिर वह दुखी और एकाकी कैसे हो सकती है. सचाई भव्यता का ग्रास बन कर सुगंधा की बुद्धिमत्ता को ग्रहण लगा रही थी. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी बधाइयां देने स्टेज पर आ रहे थे और सुगंधा व इंद्र के सुखी वैवाहिक जीवन का राज जानने को उत्सुक थे.

कुछ चेहरों पर डाह था तो कुछ पर बढि़या दावत मिलने की संतुष्टि. कोई कहता कि एकदूसरे के लिए बने हैं. हकीकत इस के विपरीत कितनी बेनूर, बेरंग थी, इस का इल्म किसी को न था. दुनिया की नजरों में सुगंधा और इंद्र की शादी एक आदर्श मिसाल थी, मगर बंद दरवाजों के पीछे का विद्रूप सच सुगंधा अपने मन की सात परतों में छिपाए बैठी थी. इंद्र की बातों का वह एक आंसरिंग मशीन के जैसे ही जवाब देती आई थी. सामाजिकरूप से वह ब्याहता थी, मगर इंद्र को भावनात्मक तलाक तो वह बहुत पहले ही दे चुकी थी.

साठ पार का प्यार – भाग 2

पर समीर को तो लगता कि सब सुहानी को बेवकूफ बनाते हैं. उन के कानों पर जूं न रेंगती. उन के पास तो वक्त ही वक्त था इन सब बातों पर ध्यान देने के लिए. सुहानी कई कामों में लगी रहती. कई सामाजिक कामों से भी उस ने खुद को जोड़ रखा था. वह एक लेडीज क्लब की मैंबर भी थी. उसे समीर की इन बेकार की बातों से उलझन होती. वह चाहती, समीर भी अपनी नियमित दिनचर्या बनाएं, ताकि उन की सेहत भी ठीक रहे और वे किसी सामाजिक संस्था से भी जुड़ें जिस से व्यस्त रहें और से उन की मानसिक सेहत भी ठीक रहे.

सोचतेसोचते सुहानी पार्क में पहुंच गई. रोज वह पास की ही सड़क पर वाक कर लेती थी, पर उस दिन वह घर से थोड़ी दूर पार्क में चली गई थी. वहां हर तरह, हर उम्र के स्त्रीपुरुष थे. कोई दौड़ रहा था, कोई चल रहा था, कोई कसरत कर रहा था.

सुहानी थोड़ी देर बैंच पर बैठ गई. बस, उसी दिन से सुहानी के दिमाग में एक तरकीब आई समीर को बदलने की. बोलने से तो समीर कभी नहीं मानेंगे, उसे पता था. देखते हैं आगेआगे होता है क्या. सुहानी होंठों ही होंठों में मुसकराई और फिर उठ कर चलने लगी. इस तरह से पूरा घंटा पार्क में बिता कर वह घर वापस आ गई.

‘‘आज तो बहुत देर कर दी, रोज तो आधे घंटे में वापस आ जाती थी,’’ समीर उस के चेहरे को देख कर घूरते हुए बोले.

‘‘आज से पार्क जाना शुरू कर दिया है,’’ सुहानी एक मस्त अंगड़ाई सी ले कर कुरसी पर बैठ कर जूते के फीते खोलती हुई बोली, ‘‘मजा आ गया आज तो, वहां तो बहुत लोग आते हैं हर उम्र के.’’ वह मजे से एक आंख दबा कर आगे बोली, ‘‘फोर्टीज से ले कर सिक्सटीज तक के. इस से ऊपर के भी आते हैं. जल्दी ही नए दोस्त बन जाएंगे, फिर जौगिंग का अपना ही मजा आएगा.’’

वह जूते उठा कर कमरे में चली गई. ‘क्या कह गई थी सुहानी’ समीर उस की कही बात पर मन ही मन अटकलें लगाने लगे. सुहानी यों भी हंसमुख थी. सेहत ठीक थी. बिजी रहने से उस की मानसिक सेहत भी अच्छी रहती थी. पर उस दिन से तो वह और भी खुश व मस्त रहने लगी थी. हर समय गुनगुनाती, हंसतीखिलखिलाती सुहानी को देख कर समीर का ध्यान दूसरी बातों से हट कर सुहानी पर ही केंद्रित हुआ जा रहा था.

वे समझ नहीं पा रहे थे कि सुहानी में इतना बदलाव कैसे आया. सुहानी को दोपहर में खाना खाने के बाद सोने की आदत थी. पर एक दिन सोने के बजाय वह साड़ी प्रैस करने लगी.

‘‘सुहानी, तुम कहीं जा रही हो?’’

‘‘हां,’’ सुहानी साड़ी उठा कर कमरे में तैयार होने चली गई. तैयार हो कर वह जब बाहर निकली तो समीर उसे देख कर चौंक गए.

सुहानी ने यों तो अपनी उम्र को बांध ही रखा था. पर आज तो आलम कुछ अलग ही था. आज तो सुहानी को देख कर उन का दिल भी कुछ खास अंदाज में धड़क गया. स्टाइलिश साड़ी और स्टाइलिश ब्लाउज.

‘‘यह साड़ी कब खरीदी,’’ समीर साड़ी को घूरते हुए बोले, ‘‘मेरे साथ तो कभी नहीं ली?’’

‘‘खरीदी कहां डियर, तुम मुझे इतना चटख रंग कहां लेने देते. वह तो जब पिछली बार पुणे गई थी तो भाभी ने जबरदस्ती दिला दी थी.’’

‘‘तो तुम ने दिखाई क्यों नहीं अभी तक?’’

‘‘मैं ने सोचा कहीं तुम्हें पसंद नहीं आई तो तुम मुझे इस का ब्लाउज भी नहीं सिलवाने दोगे. आज मेरी एक सहेली के घर पर सारी सहेलियां इकट्ठी हो रही हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बस, ऐसे ही. हंगामा पार्टी है.’’

‘‘हंगामा पार्टी? क्या मतलब? बर्थडे पार्टी, रिसैप्शन पार्टी, मैरिज पार्टी, रिटायरमैंट पार्टी तो सुनी हैं. आजकल के युवाओं की तथाकथित ब्रेकअप पार्टी के बारे में भी पढ़ा है, लेकिन यह हंगामा पार्टी क्या होती है?’’

‘‘मतलब,’’ सुहानी किसी नवयौवना की तरह पलकें झपकाती हुई बोली, ‘‘लव इन सिक्सटीज डियर. तेज म्यूजिक पर डांस करेंगे, मस्ती करेंगे, गाना गाएंगे और…’’

‘‘और?’’

‘‘और उस के बाद केक काटेंगे खाएंगेपिएंगे, बस,’’ कहती हुई सुहानी ने हथेलियां एकदूसरे पर झाड़ दीं.

‘‘मैं यहां अकेला बैठा रहूं और तुम अपनी सहेलियों के साथ हंगामा पार्टी करो,’’ समीर झुंझला कर बोले.

‘‘लव इन सिक्सटीज डियर. मजबूरी है, खुद से प्यार करना सीख रही हूं. यह कोई आसान बात नहीं. जब खुद से प्यार करूंगी तभी तो तुम से…’’ सुहानी ने बात अधूरी छोड़ दी और अपना सिर समीर के कंधों पर टिका कर, मदभरी नजरों से समीर की आंखों में देखने लगी. फिर जानलेवा मुसकराहट समीर पर डाल कर सुहानी बाहर निकल गई.

‘बहकने का पूरा सामान है आजकल सुहानी के पास. यह क्या हो गया सुहानी को,’ समीर सोच रहे थे, आखिर इस के पीछे रहस्य क्या है.

सुहानी के मिशन को लगभग एक हफ्ता हो गया था. एक दिन समीर सुबह नहाधो कर अखबार पढ़ने बैठे ही थे कि अचानक बैडरूम से तेज म्यूजिक की आवाज सुन कर चौंक गए. वे उठ कर बैडरूम की तरफ भागे. उन्होंने बैडरूम का भिड़ा दरवाजा थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. सुहानी अंदर नहाने के लिए घुसी थी पर अंदर का दृश्य देख कर उन का दिल किया कि सिर पर हाथ रख कर वहीं बैठ जाएं.

सुहानी तेज म्यूजिक पर जोरजोर से नृत्य कर रही थी. जैसे भी उस से हो पा रहा था, वह हाथपैर मार रही थी. उन्होंने अंदर जा कर म्यूजिक औफ कर दिया.

‘‘यह क्या कर रही हो सुहानी, हाथपैर तोड़ने का इरादा है क्या? तुम तो नहाने जा रही थी?’’

‘‘हां, पर मेरा दिल किया कि थोड़ी देर नाच लूं. उस दिन हंगामा पार्टी में खूब नाचे थे. थोड़ा पसीना निकलेगा, फिर सुस्ता कर नहा लूंगी,’’ सुहानी म्यूजिक औन करती हुई आगे बोली, ‘‘आओ न, तुम भी नाचो.’’ वह समीर को खींचने लगी.

‘‘अरेरेरे, यह क्या कर रही हो, ये सब वाहियात बातें मुझ से नहीं होतीं? तुम्हीं करो. मुझे वैसे भी डांस करना कहां आता है.’’

‘‘डांस न सही, थिरक तो सकते ही हो समीर. थिरकना तो सब को आता है. आओ न, कोशिश तो करो. देखो, कितना मजा आता है…’’

वह आंखों में सारे रहस्यभर कर, चुहलभरे अंदाज में भौंहों को नचा कर आगे बोली, ‘‘तुम्हारी सुरा और सुंदरी से भी ज्यादा मजा है थिरकने में. कर के तो देखो. जिस्म के अंग खुल जाएंगे, दिमाग की तनी नसें ढीली पड़ जाएंगी…’’

उस ने समीर का हाथ खींचा और जबरदस्ती साथ में डांस करने लगी. अपने हाथों से पकड़पकड़ कर उन के हाथपैर इधरउधर फेंकने लगी. कभी गोल चक्कर घुमा देती, कभी कमर और हाथ पकड़ कर दो कदम आगे, दो कदम पीछे डांस करने लगती.

करतेकरते समीर को भी लगा, कुछ मजा आ रहा है. बदन भी थोड़ाबहुत संगीतमय हो रहा था, सुरताल पर सही थिरकने लगा था. वे भी कोशिश करने लगे. थोड़ी देर तो सुहानी जबरदस्ती करती रही, पर थोड़ी देर बाद वे हलकीफुलकी कोशिश खुद भी करने लगे. सुहानी को इतना मस्त देख कर उन का दिल भी कर रहा था कि वे खुद भी उस की मस्ती में डूब जाएं.

थोड़ी देर बाद वे थक कर बैठ गए. सुहानी ने म्यूजिक औफ कर दिया.

‘‘क्यों, मजा आया न…’’

समीर को भी लग रहा था. बदन के सारे सैल्स जैसे खुल कर ढीले पड़ गए हों और वे खुद को बहुत खुश व जिस्म में आराम महसूस कर रहे थे.

सुहानी थोड़ी देर सुस्ता कर नहाने चली गई और समीर बैठ कर अखबार पढ़ने लगे.

‘बकवास, कितना बोर अखबार है, रोज एकजैसी खबरें. चाहे आधे घंटे में खत्म कर लो, चाहे 2 घंटे तक चाटते रहो. मैटर नहीं बदलने वाला, वही रहेगा,’ यह बड़बड़ाते समीर ने अखबार एक तरफ पटका और सुहानी के विषय में सोचने लगे.

‘मजे तो सुहानी ले रही है जिंदगी के. उसे देख कर लगता ही नहीं कि वह जीवन के 59 वसंत देख चुकी है.’

संतुलित सहृदया: भाग 1- एक दिन जब समीरा से मिलने आई मधुलिका

समीरा की पहली ऐनिमेशन फिल्म के पुरस्कृत होने पर उसे बधाई देने उस के सहपाठी अनंत के साथ उस का दोस्त मयंक भी आया था. ‘‘मयंक सुबह ही मुंबई से आया है… मेरे पास ठहरा है,’’ अनंत ने कहा, ‘‘तुम्हें मुबारक देने आना जरूरी था, लेकिन मयंक को अकेला कैसे छोड़ता, इसलिए साथ ले आया.’’

‘‘बहुत अच्छा किया. मुझे भी इन से मिल कर अच्छा लगा,’’ समीरा मयंक की ओर मुड़ी, ‘‘वैसे दिल्ली किस सिलसिले में आना हुआ?’’ ‘‘नौकरी की तलाश में…’’

‘‘बेहतर नौकरी की तलाश कह यार,’’ अनंत ने बात काटी, ‘‘यह उस लोकप्रिय टीवी चैनल में प्रोग्राम प्लैनर है, जिस के सीरियल वर्षों तक चलते हैं और भाई को कुछ नया करने को नहीं मिलता. इसीलिए चैनल बदल रहा है.’’ ‘‘अच्छा तो आप भी हमारी ही बिरादरी के हैं.’’ ‘‘जी हां, तभी तो अनंत से दोस्ती है.’’

‘‘तुम्हारे से भी हो सकती है अगर तुम इसे भी इनाम मिलने की खुशी की दावत में शामिल कर लो,’’ अनंत ने कहा, ‘‘और मुझे तो दावत आज ही चाहिए समीरा.’’ ‘‘जरूर. पहले घर पर ही सीता काकी के बनाए गाजर के हलवे से मुंह मीठा करो, फिर खाना खाने बाहर चलेंगे,’’ समीरा चहकी.

फिर कुछ ही देर में एक प्रौढ़ महिला चाय और नाश्ता ले आई. ‘‘मजा आ गया,’’ मयंक ने नाश्ता करते हुए कहा, ‘‘बाहर कहीं खाने जाने के बजाय घर पर ही क्यों न खाना खाएं अनंत? भई मैं तो रोजरोज बाहर खाना खा कर आजिज आ चुका हूं.’’

‘‘अगर समीरा को खिलाने में परेशानी न हो तो मैं भी बाहर के बजाय घर पर ही अरहर की दाल और चावल खाना पसंद करूंगा.’’ ‘‘बिटिया को काहे की परेशानी? मैं हूं न सब बनाने को,’’ सीता काकी बोली, ‘‘दालचावल के साथ और क्या बनाऊं?’’

‘‘भुनवा आलूप्याज का रायता और रोटी,’’ कह कर मयंक समीरा की ओर मुड़ा, ‘‘सीता काकी तुम्हारे साथ ही रहती हैं समीरा?’’ ‘‘हां, काकी के रहने से घर वाले भी निश्चिंत हो गए हैं.’’

‘‘यानी अब शादी का तकाजा नहीं करते?’’ मयंक ने चुटकी ली. ‘‘उस का अभी सवाल ही नहीं उठता… मेरे बड़े भाई की शादी के बाद मेरी तरफ ध्यान देंगे… भैया सिर्फ मेरी पसंद की लड़की से शादी करेंगे और फिलहाल तो मैं अपने कैरियर में पैर जमाने में इतनी व्यस्त हूं कि भैया के लिए लड़की पसंद करने की फुरसत ही नहीं है.’’

‘‘भैया तुम्हारी पसंद की लड़की ही क्यों चाहते हैं?’’ अनंत ने पूछा. ‘‘क्योंकि मम्मीपापा के बाद हम दोनों भाईबहन ही एकदूसरे का सहारा होंगे, इसलिए हमारे जीवनसाथी हमारी पसंद के होने चाहिए. भैया ने किताबीकीड़ा होने की वजह से कभी लड़कियों में दिलचस्पी नहीं ली, मगर अब पत्नी ऐसी चाहते हैं, जो घरपरिवार के साथसाथ उन के बिजनैस का भी दायित्व संभाले और सोसायटी में उभरते उद्योगपति की सुंदर, स्मार्ट पत्नी भी लगे.’’

‘‘लगता है आप की फैमिली भी मेरे परिवार की ही तरह सोचती है,’’ मयंक ने कहा, ‘‘बड़े भैया के लिए लड़की दीदी और मैं पसंद करेंगे और मेरी बीवी सिर्फ भाभी, क्योंकि परिवार की संयुक्तता तो देवरानीजेठानी के तालमेल पर ही निर्भर करती है.’’ ‘‘तेरा तो यार दिनरात लड़कियों से पाला पड़ता है… कोई पसंद आ गई तो क्या करेगा?’’ अनंत ने चुटकी ली.

‘‘तभी तो लड़कियों से हायबाय तक बहुत संभल कर करता हूं… खड़ूस, नकचढ़ा, अकड़ू न जाने कितने उपनाम हैं मेरे… भाभी आ जाएं फिर आंखों से मांबहन का चश्मा उतार कर आसपास देखूंगा कि कोई भाभी की कसौटी पर उतरने लायक है या नहीं,’’ मयंक हंसा. दोनों दोस्तों ने चटखारे लेले कर खाना

खाया और फिर मयंक ने कहा, ‘‘पेट तो भर गया काकी, लेकिन आंखें नहीं भरीं… कल वापस मुंबई जा रहा हूं, लेकिन जब भी आऊंगा खाना यहीं खाऊंगा.’’ कुछ सप्ताह के बाद अनंत ने बताया कि मयंक रविवार सुबह दिल्ली आ रहा है.

‘‘उफ, शुक्रवार शाम को मैं आगरा जा रही हूं,’’ समीरा के मुंह से बेखास्ता निकला, ‘‘भैया के लिए एक रिश्ता आया है… लड़की भैया के लिए उपयुक्त है, लेकिन रिश्ता पक्का मेरे पसंद करने के बाद होगा. इसलिए मेरा जाना जरूरी है.’’ ‘‘वापस कब आओगी?’’

‘‘रविवार की रात को. अगर किसी रस्मवस्म के लिए रुकना पड़ा तो सोमवार को.’’ ‘‘रस्म दिन में करवा कर रविवार की शाम को ही वापस आ जाओ,’’ अनंत ने आग्रह किया, ‘‘मयंक तुम्हारे न होने पर सोचेगा कि मैं ने तुम्हें उस का संदेशा नहीं दिया.’’

‘‘कौन सा संदेशा?’’ समीरा के दिल की धड़कनें तेज हो गई. ‘‘होमली फील करने के लिए शाम तुम्हारे घर गुजारेगा.’’

थोड़ी सी मायूसी तो हुई, मगर फिर सोचा कि अनंत से और क्या कहलवाता? इतना इशारा तो कर ही दिया कि मेरा घर अपना सा लगता है. ‘‘मैं रविवार की शाम तक जरूर आ जाऊंगी,’’ समीरा ने कह तो दिया, मगर वह जानती थी कि अगर शादी तय हो गई तो जल्दी लौटना नहीं हो सकेगा. वह रास्ते भर इसी बारे में सोचती रही.

‘‘सुनील को मधुलिका का विवरण और फोटो इतना अच्छा लगा कि उस ने और जगह मना करवा दिया. कहने लगा कि मेरी पसंद समीरा को भी जरूर पसंद आएगी,’’ मैं ने बताया तभी मधुलिका के मामा जो रिश्ता करवा रहे थे का फोन आया, ‘‘देखिए, कृपाशंकरजी आप के इस आश्वासन पर कि आज आप की बेटी आ जाएगी मैं ने देवराज जीजाजी को सपरिवार बुला लिया है…’’ ‘‘मेरी बेटी आ गई है, राघवजी,’’ कृपाशंकर ने बात काटी, ‘‘शाम को मिल लें.’’

‘‘दोपहर को लंच पर आ जाएं ताकि शाम तक तय हो जाए,’’ राघव ने कहा, ‘‘असल में एक अजीब सी शर्त है मधु की शादी के लिए… उसे भरीपूरी क्लोजनिट फैमिली चाहिए. ऐसे ही एक और परिवार का प्रस्ताव भी है जीजाजी के पास… अगर आप के यहां बात नहीं बनती तो जीजाजी उन लोगों से तुरंत मिलना चाहते हैं. इसीलिए जल्दी में हैं.’’ ‘‘देखिए, हम ने तो तसवीर पसंद कर के ही मिलने का फैसला किया है,’’ स्पष्टवादी पापा ने कहा, ‘‘समीरा की व्यवस्तता के कारण मिलने में देर हो गई. खैर, लंच पर मिलते हैं.’’

समीरा ने राहत की सांस ली. दूसरी पार्टी भी जल्दी में है, इसलिए रोके की रस्म तो आज ही हो जानी चाहिए ताकि काम का बहाना बना कर वह कल ही दिल्ली लौट आए. मधुलिका तसवीर से भी अधिक आकर्षक थी. तटस्थ लगने की कोशिश करने के बावजूद सुनील की मुखमुद्रा से तो लग रहा था कि वह उस पर मर मिटा है.

मधुलिका का छोटा भाई मोहित समीरा से बड़ी दिलचस्पी से ऐनिमेशन फोटोग्राफी के बारे में पूछ रहा था. ‘‘लगता है फोटोग्राफी का बहुत शौक है तुम्हें?’’ समीरा ने पूछा.

‘‘हमारे यहां सभी को फोटोग्राफी का शौक है. मधु दीदी से तो पापा ने एमबीए करने के बजाय फोटोग्राफी का प्रोफैशनल कोर्स करने को कहा भी था.’’ ‘‘फिर आप ने किया क्यों नहीं? समीरा ने मधुलिका से पूछा.’’

जिंदगी जीने का हक : केशव के मन में उठी थी कैसी ललक

प्रणव तो प्रिया को पसंद था ही लेकिन उस से भी ज्यादा उसे अपनी ससुराल पसंद आई थी. हालांकि संयुक्त परिवार था पर परिवार के नाम पर एक विधुर ससुर और 2 हमउम्र जेठानियां थीं. बड़ी जेठानी जूही तो उस की ममेरी बहन थी और उसी की शादी में प्रणव के साथ उस की नोकझोक हुई थी. प्रणव ने चलते हुए कहा था, ‘‘2-3 साल सब्र से इंतजार करना.’’

‘‘किस का? आप का?’’

‘‘जी नहीं, जूही भाभी का. घर की बड़ी तो वही हैं, सो वही शादी का प्रस्ताव ले कर आएंगी,’’ प्रणव मुसकराया, ‘‘अगर उन्होंने ठीक समझा तो.’’

‘‘यह बात तो है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘जूही दीदी, मुझे बहुत प्यार करती हैं और मेरे लिए तो सबकुछ ही ठीक चाहेंगी.’’

प्रणव ने कहना तो चाहा कि प्यार तो वह अब हम से भी बहुत करेंगी और हमारे लिए किसे ठीक समझती हैं यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन चुप रहा. क्या मालूम बचपन से बगैर औरत के घर में रहने की आदत है, भाभी के साथ तालमेल बैठेगा भी या नहीं.

अभिनव के लिए लड़की देखने से पहले ही केशव ने कहा था, ‘‘इतने बरस तक यह मकान एक रैन बसेरा था लेकिन अभिनव की शादी के बाद यह घर बनेगा और इस में हम सब को सलीके से रहना होगा, ढंग के कपड़े पहन कर. मैं भी लुंगीबनियान में नहीं घूमूंगा और अभिनव, प्रभव, प्रणव, तुम सब भी चड्डी के बजाय स्लीपिंग सूट या कुरतेपाजामे खरीदो.’’

‘‘जी, पापा,’’ सब ने कह तो दिया था लेकिन मन ही मन डर भी रहे थे कि पापा का एक भरेपूरे घर का सपना वह पूरा कर सकेंगे कि नहीं.

केशव मात्र 30 वर्ष के थे जब उन की पत्नी क्रमश: 6 से 2 वर्ष की आयु के 3 बेटों को छोड़ कर चल बसी थी. सब के बहुत कहने के बावजूद उन्होंने दूसरी शादी के लिए दृढ़ता से मना कर दिया था.

वह चार्टर्ड अकाउंटेंट थे. उन्होंने घर में ही आफिस खोल लिया ताकि हरदम बच्चों के साथ रहें और नौकरों पर नजर रख सकें. बच्चों को कभी उन्होंने अकेलापन महसूस नहीं होने दिया. आवश्यक काम वह उन के सोने के बाद देर रात को निबटाया करते थे. उन की मेहनत और तपस्या रंग लाई. बच्चे भी बड़े सुशील और मेधावी निकले और उन की प्रैक्टिस भी बढ़ती रही. सब से अच्छा यह हुआ कि तीनों बच्चों ने पापा की तरह सीए बनने का फैसला किया. अभिनव के फाइनल परीक्षा पास करते ही केशव ने ‘केशव नारायण एंड संस’ के नाम से शहर के व्यावसायिक क्षेत्र में आफिस खोल लिया. अभिनव के लिए रिश्ते आने लगे थे. केशव की एक ही शर्त थी कि उन्हें नौकरीपेशा नहीं पढ़ीलिखी मगर घर संभालने वाली बहू चाहिए और वह भी संयुक्त परिवार की लड़की, जिसे देवरों और ससुर से घबराहट न हो.

जूही के आते ही मानो घर में बहार आ गई. सभी बहुत खुश और संतुष्ट नजर आते थे लेकिन केशव अब प्रभव की शादी के लिए बहुत जल्दी मचा रहे थे. प्रभव ने कहा भी कि उसे इत्मीनान से परीक्षा दे लेने दें और वैसे भी जल्दी क्या है, घर में भाभी तो आ ही गई हैं.

‘‘तभी तो जल्दी है, जूही सारा दिन घर में अकेली रहती है. लड़की हमें तलाश करनी है और तैयारी भी हमें ही करनी है. तुम इत्मीनान से अपनी परीक्षा की तैयारी करते रहो. शादी परीक्षा के बाद करेंगे. पास तो तुम हो ही जाओगे.’’

अपने पास होने में तो प्रभव को कोई शक था ही नहीं सो वह बगैर हीलहुज्जत किए सपना से शादी के लिए तैयार हो गया. लेकिन हनीमून से लौटते ही यह सुन कर वह सकते में आ गया कि पापा प्रणव की शादी की बात कर रहे हैं.

‘‘अभी इसे फाइनल की पढ़ाई इत्मीनान से करने दीजिए, पापा. शादीब्याह की चर्चा से इस का ध्यान मत बटाइए,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘भाभी की कंपनी के लिए सपना आ ही गई है तो इस की शादी की क्या जल्दी है?’’

‘‘यही तो जल्दी है कि अब इस की कोई कंपनी नहीं रही घर में,’’ केशव ने कहा.

‘‘क्या बात कर रहे हैं पापा?’’ प्रभव हंसा, ‘‘जब देखिए तब मैरी के लिटिल लैंब की तरह भाभी से चिपका रहता है और अब तो सपना भी आ गई है बैंड वैगन में शामिल होने को.’’

सपना हंसने लगी.

‘‘लेकिन देवरजी, भाभी के पीछे क्यों लगे रहते हैं यह तो पूछिए उन से.’’

‘‘जूही मुझे बता चुकी है सपना, प्रणव को इस की ममेरी बहन प्रिया पसंद है, सो मैं ने इस से कह दिया है कि अपने ननिहाल जा कर बात करे,’’ कह कर केशव चले गए.

‘‘जब बापबेटा राजी तो तुम क्या करोगे प्रभव पाजी?’’ अभिनव हंसा, ‘‘काम तो इस ने पापा के साथ ही करना है. पहली बार में पास न भी हुआ तो चलेगा लेकिन जूही, तुम्हारे मामाजी तैयार हो जाएंगे अधकचरी पढ़ाई वाले लड़के को लड़की देने को?’’

‘‘आप ने स्वयं तो कहा है कि देवरजी को काम तो पापा के साथ ही करना है सो यही बात मामाजी को समझा देंगे. प्रिया का दिल पढ़ाई में तो लगता नहीं है सो करनी तो उस की शादी ही है इसलिए जितनी जल्दी हो जाए उतना ही अच्छा है मामाजी के लिए.’’

जल्दी ही प्रिया और प्रणव की शादी भी हो गई. कुछ लोगों ने कहा कि केशव जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए और कुछ लोगों की यह शंका जाहिर करने पर कि बच्चों के तो अपनेअपने घरसंसार बस गए, केशव के लिए अब किस के पास समय होगा और वह अकेले पड़ जाएंगे, अभिनव बोला, ‘‘ऐसा हम कभी होने नहीं देंगे और होने का सवाल भी नहीं उठता क्योंकि रोज सुबह नाश्ता कर के सब इकट्ठे ही आफिस के लिए निकलते हैं और रात को इकट्ठे आ कर खाना खाते हैं, उस के बाद पापा तो टहलने जाते हैं और हम लोग टीवी देखते हैं, कभीकभी पापा भी हमारे साथ बैठ जाते हैं. रविवार को सब देर से सो कर उठते हैं, इकट्ठे नाश्ता करते हैं…’’

‘‘फिर सब का अलगअलग कार्यक्रम रहता है,’’ केशव ने अभिनव की बात काटी, ‘‘यह सिलसिला कई साल से चल रहा है और अब भी चलेगा, फर्क सिर्फ इतना होगा कि अब मैं भी छुट्टी का दिन अपनी मर्जी से गुजारा करूंगा. पहले यह सोच कर खाने के समय पर घर पर रहता था कि तुम में से जो बाहर नहीं गया है वह क्या खाएगा लेकिन अब यह देखने को सब की बीवियां हैं, सो मैं भी अब छुट्टी के रोज अपनी उमर वालों के साथ मौजमस्ती और लंचडिनर बाहर किया करूंगा.’’

‘‘बिलकुल, पापा, बहुत जी लिए… आप हमारे लिए. अब अपनी पसंद की जिंदगी जीने का आप को पूरा हक है,’’ प्रणव बोला.

‘‘लेकिन इस का यह मतलब नहीं है कि पापा बाहर लंचडिनर कर के अपनी सेहत खराब करें,’’ प्रभव ने कहा, ‘‘हम में से कोई तो घर पर रहा करेगा ताकि पापा जब घर आएं तो उन्हें घर खाली न मिले.’’

‘‘हम इस बात का खयाल रखेंगे,’’ जूही बोली, ‘‘वैसे भी हर सप्ताह सारा दिन बाहर कौन रहेगा?’’

‘‘और कोई रहे न रहे मैं तो रहा करूंगा भई,’’ केशव हंसे.

‘‘यह तो बताएंगे न पापा कि जाएंगे कहां?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कहीं भी जाऊं, मोबाइल ले कर जाऊंगा, तुझे अगर मेरी उंगली की जरूरत पड़े तो फोन कर लेना,’’ केशव प्रिया की ओर मुड़े, ‘‘प्रिया बेटी, इसे अब अपना पल्लू थमा ताकि मेरी उंगली छोड़े.’’

लेकिन कुछ रोज बाद प्रिया ने खुद ही उन की उंगली थाम ली. एक रोज जब रात के खाने के बाद वह घूमने जा रहे थे तो प्रिया भागती हुई आई बोली, ‘‘पापाजी, मैं भी आप के साथ घूमने चलूंगी.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि आप सड़क पर अकेले घूमते हैं और मैं छत पर तो क्यों न हम दोनों साथ ही टहलें?’’ प्रिया ने उन के साथ चलते हुए कहा.

‘‘मगर तुम छत पर अकेली क्यों घूमती हो?’’

‘‘और क्या करूं पापाजी? प्रणव को तो 2-3 घंटे पढ़ाई करनी होती है और मुझे रोशनी में नींद नहीं आती, सो जब तक टहलतेटहलते थक नहीं जाती तब तक छत पर घूमती रहती हूं.’’

‘‘टीवी क्यों नहीं देखतीं?’’

‘‘अकेले क्या देखूं, पापाजी? सब लोग 1-2 सीरियल देखने तक रुकते हैं फिर अपनेअपने कमरों में चले जाते हैं.’’

‘‘अब तो बस कुछ ही महीने रह गए हैं प्रणव की परीक्षा में,’’ केशव ने दिलासे के स्वर में कहा, ‘‘तुम चाहो तो इस दौरान मायके हो आओ.’’

‘‘नहीं, पापाजी, उस की जरूरत नहीं है. बस, रात को यह थोड़ा सा वक्त अकेले गुजारना मुश्किल हो जाता है लेकिन अब इस समय आप के साथ घूमा करूंगी, गपें मारते हुए.’’

‘‘मैं बहुत तेज चलता हूं. थक जाओगी.’’

‘‘चलिए, देखते हैं.’’

कुछ दूर जाने के बाद, एक कौटेज में से एक प्रौढ़ महिला निकलती हुई दिखाई दीं. प्रिया पहचान गई. मालिनी नामबियार थीं, जो उस की शादी की दावत में आई थीं तब पापाजी ने बताया था कि ये सब भाई आज जो कुछ भी हैं मालिनीजी की कृपा से हैं. यह इन की गणित की अध्यापिका और स्कूल की प्राचार्या हैं, बहुत मेहनत की है इन्होंने इन सब पर.

मगर पापाजी ने जिस कृतज्ञता से आभार प्रकट किया था, किसी भी भाई ने मालिनीजी की खातिर में उतनी रुचि नहीं दिखाई थी.

उन्हें देख कर मालिनीजी रुक गईं. पापाजी ने उस का परिचय करवाया. मालिनीजी भी उन के साथ टहलते हुए प्रिया से बातें करने लगीं. कुछ देर के बाद केशव को टांगें घसीटते देख कर बोलीं, ‘‘थक गए? चलिए, कौफी पी जाए.’’

‘‘मगर कौफी यहां कहां मिलेगी?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘मेरे घर पर.’’

प्रिया ने केशव की ओर देखा, वह बगैर कुछ कहे मालिनी के पीछे उस के घर में चले गए. जब मालिनीजी कौफी लाने अंदर गईं तो प्रिया ने पूछा, ‘‘आप पहले भी यहां आ चुके हैं, पापा?’’

केशव सकपकाए.

‘‘बच्चों की पढ़ाई के सिलसिले में आना पड़ता था. इसी तरह जानपहचान हो गई तो आनाजाना बना हुआ है.’’

‘‘आंटी ने शादी नहीं की?’’

‘‘अभी तक तो नहीं.’’

प्रिया ने कहना चाहा कि अब इस उम्र में क्या करेंगी लेकिन तब तक मालिनीजी कौफी की ट्रौली धकेलती हुई आ गईं. जितनी जल्दी वह कौफी लाई थीं उस से लगता था कि तैयारी पहले से थी. प्रिया को कच्चे केले के चिप्स बहुत पसंद आए.

‘‘किसी छुट्टी के दिन आ जाना, बनाना सिखा दूंगी,’’ मालिनी ने कहा.

‘‘तरीका बता देने से भी चलेगा, आंटी. अब तो रोज घूमते हुए आप से मुलाकात हुआ करेगी सो किसी रोज पूछ लूंगी,’’ प्रिया ने चिप्स खाते हुए कहा.

मालिनी ने चौंक कर उस की ओर देखा.

‘‘तुम रोज सैर करने आया करोगी?’’

‘‘हां, आंटी?’’

‘‘अरे, नहीं, 2 रोज में ऊब जाएगी,’’ केशव हंसे.

‘‘नहीं, पापाजी. ऊबी तो अकेले छत पर टहलते हुए हूं.’’

‘‘तुम छत पर अकेली क्यों टहलती हो?’’ मालिनी ने भौंहें चढ़ा कर पूछा.

जवाब केशव ने दिया कि प्रणव परीक्षा की तैयारी के लिए रात को देर तक पढ़ता है और तब तक समय गुजारने को यह टहलती रहती है. टीवी कब तक देखे और उपन्यास पढ़ने का इसे शौक नहीं है.

‘‘मगर प्रणव रात को क्यों पढ़ता है?’’

‘‘सुबह जल्दी उठ कर पढ़ने की उसे आदत नहीं है और दिन में आफिस जाता है,’’ केशव ने बताया.

‘‘आफिस में 5 बजे के बाद आप सब मुवक्किल से मिल कर उन की समस्याएं सुनते हो न?’’ मालिनीजी ने पूछा, ‘‘अगर चंद महीने प्रणव वह समस्याएं न सुने तो कुछ फर्क पड़ेगा क्या? काम तो उसे वही करना है जो आप बताओगे. सो कल से उसे 5 बजे से पढ़ने की छुट्टी दे दो ताकि रात को मियांबीवी समय से सो सकें.’’

‘‘यह तो है…’’

‘‘तो फिर कल से ही प्रणव को स्टडी लीव दो ताकि किसी का भी रुटीन खराब न हो,’’ मालिनीजी का स्वर आदेशात्मक था, होता भी क्यों न, प्राचार्य थीं.

प्रिया ने सिटपिटाए से केशव को देख कर मुश्किल से हंसी रोकी.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा. लाइबे्ररी तो आफिस में ही है. वहीं से किताबें ला कर घर पर पढ़ता है, कल कह दूंगा कि दिन भर लाइबे्ररी में बैठ कर पढ़ता रहे, कुछ जरूरी काम होगा तो बुला लूंगा,’’ केशव बोले.

लौटते हुए केशव ने प्रिया से कहा कि वह प्रणव को न बताए कि मालिनीजी ने उस की स्टडी लीव की सिफारिश की है, नहीं तो चिढ़ जाएगा.

‘‘टीचर से सभी बच्चे चिढ़ते हैं और स्कूल छोड़ने के बाद तो उन की हर बात हस्तक्षेप लगती है.’’

‘‘यह बात तो है, पापाजी. वैसे यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि हम मालिनीजी से मिले थे,’’ प्रिया ने केशव को आश्वस्त किया.

अगले रोज से प्रणव ने रात को पढ़ना छोड़ दिया. प्रिया ने मन ही मन मालिनीजी को धन्यवाद दिया. जिस रोज प्रणव की परीक्षा खत्म हुई, रात के खाने के बाद केशव ने उस से पूछा, ‘‘अब क्या इरादा है, कहीं घूमने जाओगे?’’

‘‘जाना तो है पापा, लेकिन रिजल्ट निकलने के बाद.’’

‘‘तो फिर कल मुझ से पूरा काम समझ लो, वैसे तो तुम सब संभाल ही लोगे फिर भी कुछ समस्या हो तो इन दोनों से पूछ लेना,’’ केशव ने अभिनव और प्रभव की ओर देखा, ‘‘तुम लोगों के पास वैसे तो अपना बहुत काम है लेकिन इसे कुछ परेशानी हो तो वक्त निकाल कर देख लेना, कुछ ही दिनों की बात है. मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगा.’’

‘‘आप कहीं जा रहे हैं, पापा?’’ सभी ने एकसाथ चौंक कर पूछा.

‘‘हां, कोच्चि,’’ केशव मुसकराए, ‘‘शादी करने और फिर हनीमून…’’

‘‘शादी और आप… और वह भी अब?’’ अभिनव ने बात काटी, ‘‘जब करने की उम्र थी तब तो करी नहीं.’’

‘‘क्योंकि तब तुम सब को संभालना था. अब तुम्हें संभालने वालियां आ गई हैं तो मैं भी खुद को संभालने वाली ला सकता हूं. कोच्चि के नाम पर समझ ही गए होंगे कि मैं मालिनी की बात कर रहा हूं,’’ कह कर केशव रोज की तरह घूमने चले गए.

‘‘अगर पापा कोच्चि का नाम न लेते तो भी मैं समझ जाता कि किस की बात कर रहे हैं,’’ प्रभव ने दांत पीसते हुए कहा, ‘‘वह औरत हमेशा से ही हमारी मां बनने की कोशिश में थी. मैं ने आप को बताया भी था भैया और आप ने कहा था कि आप इस घर में उस की घुसपैठ कभी नहीं होने देंगे.’’

‘‘तो होने दी क्या?’’ अभिनव ने चिढ़े स्वर में पूछा, ‘‘वह हमारे घर न आए इसलिए कभी अपनी या तुम्हारे जन्मदिन की दावत नहीं होने दी. हालांकि त्योहार के दिन किसी रिश्तेदार के घर जाना मुझे बिलकुल पसंद नहीं था लेकिन उस औरत से बचने के लिए मैं बारबार बूआ या मौसी के घर जाने की जलालत भी झेल लेता था. अगर पता होता कि हमारी शादी के बाद वह हमारी मां की जगह ले लेगी तो मैं न अपनी शादी करता न तुम्हें करने देता.’’

‘‘लेकिन अब तो हम सब की शादी हो गई है और पापा अपनी करने जा रहे हैं,’’ प्रणव बोला.

‘‘हम जाने देंगे तब न? हम अपनी मां की जगह उस औरत को कभी नहीं लेने देंगे,’’ प्रभव बोला.

‘‘सवाल ही नहीं उठता,’’ अभिनव ने जोड़ा.

‘‘मगर करोगे क्या? अपनी शादियां खारिज?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘उस से कुछ फर्क नहीं पड़ेगा,’’ जूही बोली, ‘‘क्योंकि पापाजी की जिम्मेदारी आप लोगों को सुव्यवस्थित करने तक थी, जो उन्होंने बखूबी पूरी कर दी. अब अगर आप उस में कुछ फेरबदल करना चाहते हो तो वह आप की अपनी समस्या है. उस से पापाजी को कुछ लेनादेना नहीं है.’’

‘‘उस सुव्यवस्था में फेरबदल हम नहीं पापा कर रहे हैं और वह हम करने नहीं देंगे,’’ अभिनव ने कहा.

‘‘मगर कैसे?’’ प्रणव ने पूछा.

‘‘कैसे भी, सवाल मत कर यार, सोचने दे,’’ प्रभव झुंझला कर बोला. फिर सोचने और सुझावों की प्रक्रिया बहस में बदल गई और बहस झगड़े में बदलती तब तक केशव आ गए, वह बहुत खुश लग रहे थे.

‘‘अच्छा हुआ तुम सब यहीं मिल गए. मैं और मालिनी परसों कोच्चि जा रहे हैं, शादी तो बहुत सादगी से करेंगे मगर यहां रिसेप्शन में तो तुम लोग सादगी चलने नहीं दोगे,’’ केशव हंसे, ‘‘खैर, मैं तुम लोगों को अपनी मां के स्वागत की तैयारी के लिए काफी समय दे दूंगा.’’

‘‘मगर पापा…’’

‘‘अभी मगरवगर कुछ नहीं, अभिनव. मैं अब सोने या यह कहो सपने देखने जा रहा हूं,’’ यह कहते हुए केशव अपने कमरे में चले गए.

‘‘पापाजी बहुत खुश हैं,’’ जूही ने कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता वह आप के कहने से अपना इरादा बदलेंगे.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं सो बदलने को कह कर हमें उन की खुशी में खलल नहीं डालना चाहिए,’’ सपना बोली.

‘‘और चुपचाप उन्हें अपनी मां की जगह उस औरत को देते हुए देखते रहना चाहिए?’’ अभिनव ने तिक्त स्वर में पूछा.

‘‘उन मां की जगह जिन की शक्ल भी आप को या तो धुंधली सी याद होगी या जिन्हें आप तसवीर के सहारे पहचानते हैं? उन की खातिर आप उन पापाजी की खुशी छीन रहे हैं जो अपनी भावनाओं और खुशियों का गला घोंट कर हर पल आप की आंखों के सामने रहे ताकि आप को आप की मां की कमी महसूस न हो?’’ अब तक चुप बैठी प्रिया ने पूछा, ‘‘महज इसलिए न कि मालिनीजी आप की टीचर थीं और उन्हें या उन के अनुशासन को ले कर आप सब पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं?’’

कोई कुछ नहीं बोला.

‘‘जूही दीदी, सपना भाभी, सास के आने से सब से ज्यादा समस्या हमें ही आएगी न?’’ प्रिया ने पूछा, ‘‘क्या पापाजी की खुशी की खातिर हम वह बरदाश्त नहीं कर सकतीं?’’

‘‘पापाजी को अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का पूरा हक है और हम उन के लिए कुछ भी सह सकती हैं,’’ सपना बोली.

‘‘सहना तब जब कोई समस्या आएगी,’’ जूही ने उठते हुए कहा, ‘‘फिलहाल तो चल कर इन सब का मूड ठीक करो ताकि कल से यह भी पापाजी की खुशी में शामिल हो सकें.’’

तीनों भाइयों ने मुसकरा कर एकदूसरे को देखा, कहने को अब कुछ बचा ही नहीं था.

साठ पार का प्यार – भाग 1

सुबहसुबह रजाई से मुंह ढांपे समीर  काफी देर तक जब पत्नी के उठाने का और गरमागरम चाय के कप का इंतजार करतेकरते थक गए तो रजाई से धीरे से मुंह निकाल कर बाहर झांका, ‘अभी तक कहां है सुहानी’ तो जो कुछ नजर आया, उस पर यकीन करना मुश्किल हो गया.

उलटेसीधे गाउन पर 2-3 स्वेटर पहने, मुंह और सिर भी शौल से लपेटे रहने वाली सुहानी आज गुलाबी रंग का चुस्त ट्रैक सूट पहने, ड्रैसिंग मिरर के सामने खुद को कई एंगल से निहारनिहार कर खुश हो रही थी.

‘‘यह क्या कर रही हो सुहानी,’’ समीर हैरानी से पलकें झपकाते हुए बोले.

‘‘ओह, उठ गए तुम. मैं जौगिंग पर जा रही हूं.’’ वह ‘जौगिंग’ शब्द पर जोर डालती हुई मीठी मुसकराहट के साथ आगे बोली, ‘‘मैं ने चाय पी ली, तुम्हारी रखी है, गरम कर के पी लेना.’’

‘‘लेकिन तुम इतने कम कपड़े पहन कर कहां जा रही हो, सर्दी लग जाएगी. वाक पर तो रोज ही जाती हो, आज यह जौगिंग की क्या सूझी,’’ समीर उठ कर बैठते हुए बोले. उन्हें सामने खड़ी सुहानी पर अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था.

‘‘डार्लिंग,’’ सुहानी प्यार से उन के गालों पर हलकी सी चिकौटी काटती, दिलकश मुसकराहट बिखेरती हुई बोली, ‘‘पहले सारे किस्सेकहानियों में फोर्टीज की बात होती थी, अब सिक्सटीज की बात होती है. सुना नहीं, ‘लव इन सिक्सटीज?’ ’’

वह थोड़ा सा उन से सट कर बैठती हुई आगे बोली, ‘‘मैं ने सोचा, लव दूसरे से करना जरूरी है क्या, क्यों न खुद से ही शुरुआत की जाए. पहले खुद से, फिर तुम से,’’ उस ने रोमांटिक अंदाज में समीर के होंठों पर उंगली फेरने के साथ उन की आंखों में झांका.

समीर को गले से थूक निगलना पड़ा. 64 साल की उम्र में भी बांछें खिल गईं. मन ही मन सोचने लगे, ‘वैसे तो हाथ ही नहीं आती है…अब उम्र हो गई है, ये है, वो है. बिगड़ी घोड़ी सी बिदक जाती है. आज क्या हो गया.’

‘‘लेकिन इतने कम कपड़ों में तुम्हें ठंड नहीं लगेगी,’’ बुढ़ापे में चिंता स्वाभाविक थी.

‘‘अंदर से सारा इंतजाम किया हुआ है,’’ वह अंदर पहने कपड़े दिखाती हुई बोली, ‘‘ठंड नहीं लगेगी. अब तुम भी रजाई फेंक कर उठ जाओ और चाय गरम कर के पीलो,’’ उस ने फिर एक बार समीर के होंठों को हौले से छूने के साथ मस्तीभरी नजरों से देखा.

समीर को लगा कि शायद सुहानी कहीं मस्ती में उन के होंठों को चूम ही न ले. पर सुहानी का इतना नेक इरादा न था. वह उठ खड़ी हुई.

उस ने एकदो बार अपनी ही जगह पर खड़े हो कर जूते फटकारे. थोड़ी उछलीकूदी.

‘‘यह क्या कर रही हो?’’ समीर की हैरानी अभी भी कम नहीं हो रही थी.

‘‘बौडी को वार्मअप कर रही हूं डियर,’’ कह कर, तीरे नजर उन पर डाल कर, उन्हें खुश करती, 2 उंगलियों से बाय करती, बलखाती हुई सुहानी बाहर निकल गई.

समीर बेवकूफों की तरह थोड़ी देर वैसे ही बैठ कर उस भिड़े दरवाजे को देखते रहे जो अचानक लगे धक्के से अभी भी हिल रहा था. फिर हकीकत में वे रजाई फेंक कर उठ खड़े हो गए.

सड़क पर सुहानी हलकी चाल से दौड़ रही थी. उस का पहला दिन था. एक तय चाल से वाक करना और हलकी चाल से दौड़ना, दोनों बातें अलग थीं. अधिक थकान न हो, इसलिए वह बहुत एहतियात बरत रही थी. समीर को रिटायर हुए 4 साल हो गए थे. रिटायर होने के बाद भी 2 साल तक वे छिटपुट इधरउधर जौब करते रहे, पर 2 साल से पूरी तरह घर पर ही थे. समीर को सेहत का पाठ पढ़ातेपढ़ाते सुहानी थक चुकी थी. समीर सेहत के मामले में लापरवाह थे.

सुहानी अपनी सेहत का पूरा खयाल रखती थी, रोज वाक पर जाती थी, खाने में परहेज करती थी. पर समीर के पास हर बात के लिए कारण ही कारण थे. कभी नौकरी की व्यस्तता का बहाना, फिर कभी रिटायरमैंट केबाद कुछ समय आराम करने का बहाना. 2 साल से हर तरह से खाली होने के बावजूद समीर को सुबह की सैर पर ले जाना टेढ़ी खीर था. वे आलसी इंसान थे. आराम से उठो, सब तरह का खाना खाओपियो, ऐश करो.

समीर का बढ़ता वजन, बढ़ता पेट देख कर सुहानी को चिंता होती. उन का बढ़ता ब्लडप्रैशर, कभीकभी शुगर का बढ़ना उस की पेशानी में बल डाल देता. वह सोच में पड़ जाती कि कैसे समीर को अपनी सेहत पर ध्यान देने की आदत डाले, कैसे समझाए समीर को, कैसे उन का आलसीपन दूर करे.

इसी कशमकश में डूबतीउतराती सुहानी की नजर एक दिन पत्रिका में छपे एक लेख ‘लव इन सिक्सटीज’ पर पड़ी. वाह, कितना रोमांचक और रोमैंटिक टाइटल है. उस लेख को पढ़ कर पलभर के लिए उसे भी रोमांच हो आया. उस का दिल किया कि थोड़ा रोमांस वह भी कर ले समीर से. पर समीर के थुलथुलेपन को देख कर उस का सारा रोमांस काफूर हो गया.

बात सिर्फ सेहत के प्रति लापरवाही की होती, तो भी एक बात थी, पर घर में दिनभर खाली रहने के चलते समीर को हर छोटीछोटी बात पर टोकने की आदत पड़ गई थी. घर में काम वाली, धोबी, प्रैसवाला, माली सभी समीर के इस रवैए से परेशान रहने लगे थे.

‘ठीक से काम नहीं करती हो तुम, पोंछा ऐसे लगाते हैं क्या, बरतन भी कितने गंदे धोती हो. प्रैस कितनी गंदी कर के लाता है यह प्रैसवाला, लगता है बिना प्रैस किए ही तह कर दिए कपड़े.’’ कभी माली के पीछे पड़ जाते, ‘‘कुछ काम नहीं करता यह माली, बस आता है और फेरी लगा कर चला जाता है. तुम भी इसे देखती नहीं हो…’’

कभी सुहानी के ही पीछे पड़ जाते, ‘‘तुम कामवाली को गरम पानी क्यों देती हो काम करने के लिए? गीजर चला कर बरतन धोती है, गरम पानी से पोंछा लगाती है. उस से बिजली का बिल बढ़ता है. कामवाली को सर्दी की वजह से आने में देर हो जाती तो समीर की भुनभुनाहट शुरू हो जाती. रोज देर से आने लगी है, तुम इसे कुछ कहती क्यों नहीं, लगता है इस ने सुबह कहीं काम पकड़ लिया है?’’

पोंछा लगा कर कामवाली कमरे का पंखा चला देती तो वे हर कमरे का पंखा बंद कर के बड़बड़ाते रहते, ‘मैं तो नौकर हूं न, पंखे बंद करना मेरा काम है. सर्दी हो या गरमी, इसे पंखे जरूर चलाने हैं.’

माली से जब वे अपने हिसाब से काम कराने लगते तो उसे कुछ समझ नहीं आता और वह भाग खड़ा होता. जब सुहानी कई बार फोन कर के मिन्नतें करती तब जा कर वह आता. कामवाली डांट खा कर जबतब छुट्टी कर लेती. प्रैसवाला कईकई दिनों के लिए गायब हो जाता. सुहानी को काम करने वालों को रोकना मुश्किल हो रहा था. पर समीर थे कि अपने निठल्लेपन से बाज नहीं आ रहे थे.

काम वाले जबतब सुहानी से साहब की शिकायत करते रहते. सुहानी समीर को कई बार समझाती, ‘इन के पीछे क्यों पड़े रहते हो समीर. तुम अपने काम से काम रखा करो. इन सब को जैसे मैं इतने सालों से हैंडिल कर रही थी, अब भी कर लूंगी. तुम्हारे ऐसे रवैए से ये सब किसी दिन भाग खड़े होंगे.’

कौन है वो: क्यों किसी को अपने घर में नही आने देती थी सुधा

जैसे ही डोरबैल बजी तो अधखुले दरवाजे में से किसी ने अंदर से ही दबे स्वर में पूछा, ‘‘जी कहिए?’’

रितिका की पैनी नजर अधखुले दरवाजे में से अंदर तक झांक रही थी. शायद कुछ तलाश करने की कोशिश कर रही थी, किसी के अंदर होने की आहट ले रही थी. जब उस ने देखा पड़ोसिन तो अंदर आने के लिए आग्रह ही नहीं कर रही तो बात बनाते हुए बोली, ‘‘आज कुछ बुखार जैसा महसूस हो रहा है. क्या आप के पास थर्मामीटर है? मेरे पास है पर उस की बैटरी लो है.’’

जी अभी लाती हूं कह कर दरवाजा बंद कर सुधा अंदर गई और फिर आधे से खुले दरवाजे से बाहर झांक कर उस ने थर्मामीटर अपनी पड़ोसिन रितिका के हाथ में थमा दिया.

रितिका चाह कर भी उस के घर की टोह नहीं ले पाई. घर जाते ही उस ने अपनी सहेली को फोन किया और रस ले ले कर बताने लगी कि कुछ तो जरूर है जो सुधा हम से छिपा रही है. अंदर आने को भी नहीं कहती.

अपार्टमैंट में यह अजब सा तरीका था. महिलाएं अकसर अकेले में एकदूसरे के घर जातीं लेकिन मेजबान महिला से कह देतीं कि वह किसी को बताए नहीं कि वह उस के घर आई थी वरना लोग बहुत लड़ातेभिड़ाते हैं.

कई दिन तो यह समझ ही नहीं आया कि आखिर वे ऐसा क्यों करती हैं? सभी एकसाथ मिल कर भी तो दिन व समय निश्चित कर मिल सकती हैं, किट्टी पार्टी भी रख सकती हैं.

अकसर जब वे मिलतीं तो सुधा व उस की बेटी संध्या के बारे में जरूर चर्चा करतीं. उन्हें शक था कि कोई तीसरा जरूर है उन के घर में जिसे वह छिपा रही है.

एक महिला ने बताया ‘‘मेरी कामवाली कह रही थी कि कोई ऐक्सट्रा मेंबर है उस के घर में. पहले खाने के बरतन में 2 प्लेटें होती थीं, अब 3 लेकिन कोई मेहमान नजर नहीं आता. न ही कोई सूटकेस न कोई जूते. पर हां, हर दिन 3 कमरों में से एक कमरा बंद रहता है, जिस की साफसफाई सुधा उस से नहीं करवाती. इसलिए कोई है जरूर.’’

‘‘मुझे भी शक हुआ था एक रात. उस के घर की खिड़की का परदा आधा खुला था. मैं बालकनी में खड़ी थी. मुझे लगा कोई पुरुष है जबकि वहां तो मांबेटी ही रहती हैं.’’

‘‘कैसी बातें करती हो तुम? क्या उन के कोई रिश्तेदार नहीं आ सकते कभी?’’

‘‘तुम सही कहती हो. हमें इस तरह किसी पर शक नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘शक तो नहीं करनी चाहिए पर फिर वह घर का दरवाजा आधा ही क्यों खोलती है? किसी को अंदर आने को क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरे, उन की मरजी. कोई स्वभाव से एकाकी भी तो हो सकता है.’’

‘‘तुम बड़ा पक्ष ले रही हो उन का, कहीं तुम्हारी कोई आपसी मिलीभगत तो नहीं?’’ और सब जोर से ठहाका मार कर हंस पड़ीं.

रितिका अपनी कामवाली से खोदखोद कर पूछती, ‘‘कुछ खास है उस घर में. क्यों सारे दिन दरवाजा बंद रखती है यह मैडम?’’

‘‘मुझे क्या पता मैडम, मैं थोड़े ही वहां काम करती हूं,’’ कामवाली कभीकभी खीज कर बोलती.

पर तुम्हें खबर तो होगी, ‘‘जो उधर काम करती है. क्या तुम और वह आपस में बात नहीं करतीं? तुम्हारी सहेली ही तो है वह,’’ रितिका फिर भी पूछती.

रितिका का अजीब हाल था. कभी रात के समय खिड़की से अंदर झांकने की कोशिश करती तो कभी दरवाजे के बाहर से आहट लेने की. मगर सुधा हर वक्त खिड़की के परदे को एक सिरे से दूसरे सिरे तक खींच कर रखती और टीवी का वौल्यूम तेज रहता ताकि किसी की आवाज बाहर तक न सुनाई दे.

घर की घंटी बजी तो रितिका ने देखा ग्रौसरी स्टोर से होम डिलीवरी आई है. उस का सामान दे कर जैसे ही डिलीवरी बौय ने सामने के फ्लैट में सुधा की डोरबेल बजाई रितिका ने पूछा, ‘‘शेविंग क्रीम किस के लिए लाया है?’’

‘‘मैडम ने फोन से और्डर दिया. क्या जाने किस के लिए?’’ उस ने हैरानी से जवाब दिया.

अब तो जैसे रितिका को पक्का सुराग मिल गया था. फटाफट 3-4 घरों में इंटरकौम खड़का दिए, ‘‘अरे, यह सुधा शेविंग क्रीम कब से इस्तेमाल करने लगी?’’

‘‘क्या कह रही हो तुम?’’

‘‘हां, सच कह रही हूं. ग्रौसरी स्टोर से शेविंग क्रीम डिलिवर हुआ है आज फ्लैट नंबर 105 में,’’ जोर से ठहाका लगाते हुए उस ने कहा.

‘‘वाह आज तो खबरी बहुत जबरदस्त खबर लाई है, दूसरी तरफ से आवाज आई.’’

‘‘पर देखो तुम किसी को कहना नहीं. वरना सुधा तक खबर गई तो मेरी खटिया खड़ी कर देगी.’’

लेकिन उस के स्वयं के पेट में कहां बात टिकने वाली थी. जंगल की आग की तरह पूरे अपार्टमैंट में बात फैला दी. अब तो वाचमैन भी आपस में खुसरफुसर करने लगे थे, ‘‘कल मैं ने इंटरकौम किया तो फोन किसी पुरुष ने उठाया. शायद सुधा मैडम घर में नहीं थीं. वहां तो मांबेटी ही रहती हैं. तो यह आदमी कौन है?’’ एक ने कहा.

‘‘तो तूने क्यों इंटरकौम किया 105 में?’’

अरे कूरियर आया था. फिर मैं ने कूरियर डिलिवरी वाले लड़के से भी पूछा तो वह बोला कि ‘‘हां, एक बड़ी मूछों वाले साहब थे घर में.’’

‘‘बौयफ्रैंड होगा मैडम सुधाजी का. आजकल बड़े घरों में लिवइन रिलेशन खूब चलते हैं. अपने पतियों को तो ये छोड़ देती हैं, फिर दूसरे मर्दों को घर में बुलाती हैं. फैशन है आजकल ऐसा,’’ एक ने तपाक से कहा.

अगले दिन जैसे ही सुधा ने ग्रौसरी स्टोर में फोन किया और सामान और्डर किया तो शेविंग ब्लैड सुनते ही उधर से आवाज आई ‘‘मैडम यह तो जैंट्स के लिए होता है. आप क्यों मंगा रही हैं?’’ शायद उस लड़के ने जानबूझ कर यह हरकत की थी.

सुधा घबरा गई पर हिम्मत रखते हुए बोली, ‘‘तुम से मतलब? जो सामान और्डर किया है जल्दी भिजवा दो.’’

पर इतने में कहां शांति होने वाली थी. डिलिवरी बौय अपार्टमैंट में ऐंट्री करते हुए सिक्योरिटी गार्ड्स को सब खबर देते हुए अंदर गया.

शाम को जब सुधा की बेटी संध्या अपार्टमैंट में आई तो वाचमैन उसे कुछ संदेहास्पद निगाहों से देख रहे थे. फिर क्या था वाचमैन से कामवाली बाई और उन से हर घर में फ्लैट नंबर 105 की खबर पहुंच गई थी.

अपार्टमैंट की तथाकथित महिलाओं में यह खबर बढ़चढ़ कर फैल गई. सब एकदूसरे को इंटरकौम कर के या फिर चोरीचुपके घर जा कर मिर्चमसाला लगा कर खबर दे रही थीं और हर खबर देने वाली महिला दूसरी को कहती कि देखो मैं तुम्हें अपनी क्लोज फ्रैंड मानती हूं. इसीलिए तुम्हें बता रही हूं. तुम किसी और को मत बताना. विभीषण का श्राप जो ठहरा महिलाओं को चुप कैसे कर सकती थीं. कानोकान बात बतंगड़ बनती गई. सभी ने अपनीअपनी बुद्घि के घोड़े दौड़ाए. एक ने कहा कि सुधा का प्रेमी है जरूर. अपने पति को तो छोड़ रखा है. बेटी का भी लिहाज नहीं. इस उम्र में भला कोई ऐसी हरकत करता है क्या? तो दूसरी कहने लगी कि एक दिन मेरी कामवाली बता रही थी कि उस की सहेली फ्लैट नंबर 105 में काम करती है. कोई लड़का है घर में जरूर, बेटी का बौयफ्रैंड होगा.

सभी की नजरें फ्लैट नंबर 105 पर टिकी थीं. किसी ने सुधा से आड़ेटेढ़े ढंग से छानबीन करने की कोशिश भी की पर सुधा ने बिजी होने का बहाना किया और वहां से खिसक ली.

अब जब बात चली ही थी तो ठिकाने पर भी पहुंचनी ही थी. इसलिए पहुंच गई सोसायटी के सेक्रैटरी के पास, जो एक महिला थीं. उन्हें भी सुन कर बड़ा ताज्जुब हुआ कि गंभीर और सुलझी हुई सी दिखने वाली सुधा ने अपने घर में किसे छुपा रखा है? न तो कोई दिखाई देता है और न ही कभी खिड़कीदरवाजे खुलते हैं.

कोई आताजाता भी नहीं है. उन्होंने भी सिक्युरिटी हैड को सुधा के घर आनेजाने वालों पर नजर रखने की हिदायत दे दी. ‘‘कोई भी आए तो पूरी ऐंट्री करवाओ और मैडम को इंटरकौम करो. किसी पर कुछ शक हो तो तुरंत औफिस में बताना.’’

वाचमैन को तो जैसे इशारे का इंतजार था. मौका आ भी गया जल्द ही.

एक नई महिला आई फ्लैट नंबर 105 में. देखने में पढ़ीलिखी, टाइट जींस और शौर्टटौप पहन कर, एक हाथ में लैपटौप बैग था, दूसरे में एक छोटा कैबिन साइज सूटकेस. लेकिन जब वह गई तो बैग उस के हाथ में नहीं था. जाहिर था, सुधा के घर छोड़ आई थी. मतलब कुछ सामान देने आई थी.

रात के समय सुधा कुछ कपड़े हैंगर में डाल कर सुखा रही थी वाचमैन ने अपनी पैनी नजर डाली तो देखा हैंगर में कुछ जैंट्स शर्ट्स सूख रहे हैं. तो कामवाली से क्यों नहीं सुखवाए ये कपड़े?

अगले दिन जब सुबह हुई वाचमैन ने फिर देखा शर्ट रस्सी से गायब थे. वाचमैन ने यह खबर झट सेक्रैटरी मैडम तक पहुंचा दी, ‘‘मैडम कोई तो मर्द है इस घर में पर नजर आता नहीं.’’ आप कहें तो हम उन के घर जा कर पूछताछ करें?

‘‘नहीं इस सब की आवश्यकता नहीं,’’ सेक्रैटरी महोदया ने कहा.

अगले ही दिन सोसायटी औफिस में कुछ लोग बातचीत करने आए और वे उस महिला के बारे में पूछताछ करने लगे जो सुधा के घर बैग छोड़ गई थी. औफिस मैनेजर ने वाचमैन से पूछा तो बात खुल गई कि वह महिला सुधा के घर आई थी और 1 घंटे में वापस भी चली गई थी. उन लोगों ने सुधा के बारे में मैनेजर व वाचमैन से जानकारी ली. दोनों ने बहुत बढ़चढ़ कर चटखारे लेले कर सुधा के बारे में बताया और सुधा के घर में किसी पुरुष के छिपे होने का अंदेशा जताया. आज उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे उन्होंने किसी अवार्ड पाने के लिए काम किया है. उन्होंने उसी समय पुलिस को बुलवाया और सुधा के घर की तलाशी का आदेश जारी कर दिया.

वाचमैन, मैनेजर व पुलिस समेत वे लोग फ्लैट नं. 105 में पहुंच गए. जैसे ही घंटी बजी सुधा ने अधखुले दरवाजे से बाहर झांका. इतने सारे लोगों और पुलिस को साथ देख उस के होश उड़ गए. उस ने झट से दरवाजा बंद करने की कोशिश की पर पुलिस के बोलने पर दरवाजा खोलना पड़ा.

जैसे ही घर की तलाशी ली गई बड़ी मूछों वाले महाशय सामने आए. सुधा बहुत डर गई थी. उस के मुंह से घबराहट के कारण एक शब्द भी नहीं निकला. सामने के फ्लैट में रितिका को जैसे ही कुछ आवाज आई. वह बाहर निकल कर सुधा के घर में ताकझांक करने लगी. वह समझ गई थी आज कुछ तो खास होने वाला है. पुलिस भी है और अपार्टमैंट का सैक्युरिटी हैड व मैनेजर भी. वह झट से अंदर गई और कुछ खास सहेलियों को इंटरकौम पर सूचना दे दी. बाहर जो नजारा देखा उस का पूरा ब्यौरा भी दे दिया.

एक से दूसरे व दूसरे से तीसरे घर में इंटरकौम के मारफत खबर फैली और साथ में यह चर्चा भी कि वह पुरुष सुधा का प्रेमी है या उस की बेटी संध्या का बौयफ्रैंड? फिर भी अपने घर के बंद दरवाजे के आईहोल से वह देखने की कोशिश कर रही थी कि बाहर क्या चल रहा है. थोड़ी ही देर में मूछों वाले साहब पुलिस की गिरफ्त में थे और न के साथ रवाना हो गए थे.

पूरे अपार्टमैंट में सनसनी फैल गई थी और अब अगले ही दिन अखबार में खबर आई तो 3 महीनों से छिपा राज खुल गया था.

हकीकत यह थी कि बड़ी मूछों वाले साहब जिन्हें सुधा ने अपने घर में छिपा कर रखा था, वे उन के पुराने पारिवारिक मित्र थे और किसी प्राइवैट बैंक में मैनेजर के तौर पर काम कर रहे थे और अपना टारगेट पूरा करने के लिए लोगों को अंधाधुंध लोन दे रहे थे. लोन के जरूरी कागजात भी पूरी तरह से चैक नहीं कर रहे थे. सिर्फ वे ही नहीं उन के साथ बैंक के कुछ अन्य कर्मचारी भी इस घपले में लिप्त थे.

यह बात तब खुली जब उन के कुछ क्लाइंट्स लोन चुकाने में असमर्थ पाए गए. बैंक के सीनियर्स ने जब इस की जांच की तो बड़ी मूछों वाले मिस्टर कालिया और उन के कुछ साथियों को इस में शामिल पाया. जांच हुई तो पाया गया कि कागजात भी पूरे नहीं थे. बल्कि लोन लेने वालों के द्वारा ये लोग कमीशन भी लिया करते थे ताकि लोन की काररवाई जल्दी हो जाए.

मिस्टर कालिया के अन्य साथी तो पकड़े गए थे पर इन्हें तो सुधा ने दोस्ती के नाते अपने घर में पनाह दी हुई थी. वह टाईट जींस और शौर्टटौप वाली महिला इन की पत्नी हैं. बैंक वाले पुलिस की मदद से मिसेज कालिया को ट्रैक कर रहे थे और वे सुधा के घर आए तो उन्हें समझ आ गया था कि हो न हो मिस्टर कालिया जरूर इसी अपार्टमैंट में छिपे हैं

इस बहाने एक बैंक में बैंक कर्मियों द्वारा किए गए घोटाले का परदाफाश हुआ और मजे की बात यह कि अपार्टमैंट की बातूनी महिलाओं, वाचमैन और ग्रौसरी स्टोर के लड़कों को अब चटखारे ले कर सुनाने के लिए एक नया किस्सा भी मिल गया.

पहचान: पति की मृत्यु के बाद वेदिका कहां चली गई- भाग 1

वेदिकाने उठ कर दीवारों की सरसराहट का मकसद जानने की कोशिश की, फिर धीरे से दरवाजा खोल कर बाहर ?ांका. वहां कोई नहीं था. तभी हवा में तैरती एक तरंग उस का नाम ले कर आई तो वेदिका ने कान लगा कर सुनने की कोशिश की.

मम्मीजी के कमरे से जेठजी की आवाज आ रही थी, ‘‘अब उस का यहां क्या काम है? विदित चला गया…अब उस का यहां रहने का कोई हक नहीं बनता.’’

‘‘तो क्या करें घर से निकाल दें? उस के मांबाप ने तो विदित के जाने पर अफसोस करने आना भी जरूरी नहीं सम?ा…अब उसे उठा कर सड़क पर तो फेंक नहीं सकते,’’ यह मम्मीजी का स्वर था.

‘‘पर मम्मीजी जब उस के मातापिता तक उस से संबंध रखने को तैयार नहीं हैं, तो हम भला क्यों इस पचड़े में पड़ें? आज उसे और कल को उस के बच्चे को भी हम कब तक खिलाएंगे? हमारा खाएगी और कल को हम से ही हिस्सा मांगने खड़ी हो जाएगी. क्या हक बनता है उस का? मैं तो कहती हूं कि उसे अभी घर से निकाल दो. जहां जाना जाए. चाहे मांबाप के घर या और कहीं…यह तो विदित से भाग कर शादी करने से पहले सोचना था,’’ यह भाभी की आवाज थी. वही भाभी जो उस की और विदित की शादी से नाखुश हो कर भी विदित के साथ मुंह में मिस्री घोल कर बतियाती थीं. मगर आज मिस्री थूक कर दिल में इकट्ठा किया जहर को जबान पर ले आई थीं.

‘‘बस करो…तुम लोग बस एकतरफा सोचते और बोलते हो. ऐसे ही घर से निकाल दोगे तो जाएगी कहां? अभी विदित को गए महीना भी नहीं हुआ. थोड़ा धीरज धरो, फिर सोचेंगे कि क्या करना है?’’ बाबूजी ने कहा.

4 महीने पहले उस ने और विदित ने घर से भाग कर शादी कर ली थी. वेदिका एमबीए की मेधावी छात्रा थी और विदित एक मशहूर वकील. किसी सेमिनार में दोनों का परिचय हुआ तो पहली ही नजर में प्यार हो गया. 6 महीनों में स्थिति एकदूसरे के बिना न जीने की हो गई. परिवारों के मानने की संभावना नहीं के बराबर थी, इसलिए दोनों ने हां न के पचड़े में पड़ने की जरूरत नहीं सम?ा. हां, शादी कर के वे सब से पहले वेदिका के घर पहुंचे थे जहां पहले रिवाज के तौर पर उन के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया गया. वहां से निकलते ही वेदिका की रुलाई फूट पड़ी. ऐसी विदाई की तो उस ने कल्पना भी नहीं की थी. विदित देर तक उसे धैर्य बंधाता रहा. विदित के घर पहुंचने के पहले ही कोई यह खबर पहुंचा आया था. घर का दरवाजा नौकर ने खोला और आशीर्वाद के नाम पर सुनने को मिला कि तुम ने हमारी नाक कटवा दी…कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.

विदित ने वेदिका के डूबते दिल को सहारा दिया. उस ने अगले ही दिन कश्मीर के टिकट बुक करा लिए. 15 दिन दोनों दीनदुनिया से दूर एकदूसरे में खोए दिलों के घाव को भरने में लगे रहे, जो उन के अपनों ने दिए थे.

वापस आने पर भी ज्यादा कुछ नहीं बदला था. विदित उस की ढाल बना रहा. मम्मीजी और भाभी का व्यवहार बेइज्जती की हद तक रूखा था, लेकिन वेदिका धीरज से सब सहती रही. उसे विश्वास था कि एक दिन वह सब का दिल जीत लेगी. पढ़ाई शुरू करने का विदित का प्रस्ताव भी उस ने इसीलिए टाल दिया था, क्योंकि अभी वक्त कच्चे रिश्तों को संवारने का था. रिश्ते संवरते उस के पहले ही एक दुर्घटना में विदित की जिंदगी की डोर कच्चे धागे की तरह टूट गई और इसी के साथ वेदिका की भी हर आस टूट गई.

15 दिनों तक मेहमानों का आनाजाना लगा रहा. जिन मेहमानों को दुलहन के रूप में मुंहदिखाई का अवसर नहीं मिला था, नियति ने आज उन्हें उस के जख्मों को कोचने का अवसर दे दिया था. वेदिका ने पथराए मन से सब ?ोला. वह भावनाओं से भीगे एक कोमल कंधे के सहारे के लिए छटपटाती रही.

8 दिन पहले सुबहसुबह वेदिका चक्कर खा कर गिर पड़ी. जब आंख खुली तो डाक्टर को यह कहते सुना, ‘‘प्रैगनैंसी कन्फर्म करने के लिए कुछ टैस्ट लिख रहा हूं जल्द ही करवा लें.’’

यह सुन सब के मुंह में जैसे कुनैन घुल गई और शायद सब ने यही कामना की होगी कि टैस्ट नैगेटिव आए. खुद वेदिका भी नहीं सम?ा पाई थी कि इस खबर पर खुश होए या रोए. बस पेट पर हाथ रखे सुन्न सी बैठी रही. हां, एक आस सी जरूर जागी थी कि शायद इस बच्चे की वजह से इस घर में उसे थोड़ी सी जगह मिल जाए.

उसे हर जगह सिर्फ वीरानगी ही नजर आई. एक अजीब सी तटस्थता जैसे वह बच्चा सिर्फ और सिर्फ वेदिका का है.

सारी रात वेदिका सिसकियां भरती रही. सुबह बिस्तर से उठने लगी तो टांगों ने सहारा देने से इनकार कर दिया. 10 मिनट लगे होंगे उसे व्यवस्थित होने में. कमरे से बाहर आई तो उस के पैर वहीं ठिठक गए. 4 महीनों में पहली बार किसी अपरिचित चेहरे पर उसे एक जोड़ी आंखों में करुणा नजर आई. उन आंखों की मालकिन को तो वह नहीं जानती थी, लेकिन संवेदना की डोर से वह उन फैली बांहों तक खिंची चली आई. उस की पीठ सहलाते हाथों के कोमल स्पर्श ने अनकही संवेदना को उस तक पहुंचा दिया. तभी घूरती कठोर नजरों ने उसे यथार्थ में ला पटका. वह छिटक कर अलग हो गई. काम करते भी कई बार उस ने उन नजरों की तरलता महसूस की. हालांकि उन का परिचय वह अब तक नहीं जान सकी थी. भाभी से पूछा भी था, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

आधी रात के लगभग वेदिका की नींद खुली. दरवाजे पर खटखट की आवाज हुई थी. दुविधा में उस ने दरवाजा खोला तो वही 2 आंखें नजर आईं. हाथों ने कोमलता से उसे धक्का दे कर अंदर किया और दरवाजा बंद हो गया. लाइट जलाने के लिए बढ़ते हाथों को दृढ़ता से रोक दिया गया. नाइट बल्ब के धीमे प्रकाश में उसे चुप रहने का इशारा करते हाथों ने हाथ थाम कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘मैं विदित के मामा की बेटी राधिका हूं. विदित से बहुत क्लोज थी. तुम से शादी के बारे में विदित ने सिर्फ मु?ो बताया था. मैं हमेशा उस का साथ दूंगी, यह मेरा उस से वादा था. अब विदित तो रहा नहीं, लेकिन तुम तो हो, इसलिए अब तुम्हारे बुरे वक्त में तुम्हारी मदद कर के अपना वादा निभाना चाहती हूं. इसी के इंतजाम में लगी थी, इसलिए यहां 1 महीने बाद आई,’’ फुसफुसाते स्वर में उस ने अपने आने का मकसद बताया.

फिर कुछ देर चुप रहने के बाद आगे बोली, ‘‘तुम तो एमबीए कर रही थीं न? तुम्हारी मार्कशीट और बाकी सारे पेपर्स कहां हैं?’’

‘‘मेरे पास हैं,’’ वेदिका ने भी अपनी आवाज को भरसक धीमा करते हुए कहा.

‘‘विदित का अकाउंट और उस का एटीएम? कितने पैसे हैं उस के अकाउंट में?’’

‘‘मेरे पास है. लगभग 2 लाख रुपए होंगे,’’ उस के स्वर में उल?ान थी.

‘‘तुम्हारे गहने या और कुछ भी हैं?’’

‘‘एक सैट डायमंड का है…यही कोई 80-90 हजार रुपए का. उस के अलावा कुछ खास नहीं.’’

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