मरजी की मालकिन: घर की चारदीवारी से निकलकर अपने सपनों को पंख देना चाहती थी रश्मि

family story in hindi

उसकी मम्मी मेरी अम्मा: दो माओं की कहानी

दीक्षा की मम्मी उसे कार से मेरे घर छोड़ गईं. मैं संकोच के कारण उन्हें अंदर आने तक को न कह सकी. अंदर बुलाती तो उन्हें हींग, जीरे की दुर्गंध से सनी अम्मा से मिलवाना पड़ता. उस की मम्मी जातेजाते महंगे इत्र की भीनीभीनी खुशबू छोड़ गई थीं, जो काफी देर तक मेरे मन को सुगंधित किए रही.

मेरे न चाहते हुए भी दीक्षा सीधे रसोई की तरफ चली गई और बोली, ‘‘रसोई से मसालों की चटपटी सी सुगंध आ रही है. मौसी क्या बना रही हैं?’’

मैं ने मन ही मन कहा, ‘सुगंध या दुर्गंध?’ फिर झेंपते हुए बोली, ‘‘पतौड़े.’’

दीक्षा चहक कर बोली, ‘‘सच, 3-4 साल पहले दादीमां के गांव में खाए थे.’’

मैं ने दीक्षा को लताड़ा, ‘‘धत, पतौड़े भी कोई खास चीज होती है. तेरे घर उस दिन पेस्ट्री खाई थी, कितनी स्वादिष्ठ थी, मुंह में घुलती चली गई थी.’’

दीक्षा पतौड़ों की ओर देखती हुई बोली, ‘‘मम्मी से कुछ भी बनाने को कहो तो बाजार से न जाने कबकब की सड़ी पेस्ट्री उठा लाएंगी, न खट्टे में, न ढंग से मीठे में. रसोई की दहलीज पार करते ही जैसे मेरी मम्मी के पैर जलने लगते हैं. कुंदन जो भी बना दे, हमारे लिए तो वही मोहनभोग है.’’

अम्मा ने दही, सौंठ डाल कर दीक्षा को एक प्लेट में पतौड़े दिए तो उस ने चटखारे लेले कर खाने शुरू कर दिए. मैं मन ही मन सोच रही थी, ‘कृष्ण सुदामा के तंबुल खा रहे हैं, वरना दीक्षा के घर तो कितनी ही तरह के बिस्कुट रखे रहते हैं. अम्मा से कुछ बाजार से मंगाने को कहो तो तुरंत घर पर बनाने बैठ जाएंगी. ऊपर से दस लैक्चर और थोक के भाव बताने लगेंगी, ताजी चीज खाया करो, बाजार में न जाने कैसाकैसा तो तेल डालते हैं.’

दीक्षा प्लेट को चाटचाट कर साफ कर रही थी और मैं उस की मम्मी, उस के घर के बारे में सोचे जा रही थी, ‘दीक्षा की मम्मी साड़ी और मैचिंग ब्लाउज में मुसकराती हुई कितनी स्मार्ट लगती हैं. यदि वे क्लब चली जाती हैं तो कुंदन लौन में कुरसियां लगा देता है और अच्छेअच्छे बिस्कुटों व गुजराती चिवड़े से प्लेटें भरता जाता है. अम्मा तो बस कहीं आनेजाने में ही साड़ी पहनती हैं और उन के साथ लाल, काले, सफेद रूबिया के 3 साधारण ब्लाउजों से काम चला लेती हैं.’

प्लेट रखते हुए दीक्षा अम्मा से बोली, ‘‘मौसी, आप ने कितने स्वादिष्ठ पतौड़े बनाए हैं. दादी ने तो अरवी के पत्ते काट कर पतौड़े बनाए थे, पर उन में वह बात कहां जो आप के चटपटे पतौड़ों में है.’’

मैं और दीक्षा कैरम खेलने लगीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी आज कहां गई हैं?’’

दीक्षा ने उदासी से उत्तर दिया, ‘‘उन का महिला क्लब गरीब बच्चों के लिए चैरिटी शो कर रहा है, उसी में गई हैं.’’

मैं ने आश्चर्य से चहक कर कहा, ‘‘सच? मौसी घर के साथसाथ समाजसेवा भी खूब कर लेती हैं. एक मेरी अम्मा हैं कि कहीं निकलती ही नहीं. हमेशा समय का रोना रोती रहेंगी. कभी कहो कि अम्मा, मौल घुमा लाओ, तो पिताजी को साथ भेज देंगी. तुम्हारी मम्मी कितनी टिपटौप रहती हैं. अम्मा कभी हमारे साथ चलेंगी भी तो यों ही चल देंगी. दीक्षा, सच तो यह है कि मौसीजी तेरी मम्मी नहीं, वरन दीदी लगती हैं,’’ मैं मन ही मन अम्मा पर खीजी.

रसोई से अम्मा की खटरपटर की आवाज आ रही थी. वे मेरे और दीक्षा के लिए मोटेमोटे से 2 प्यालों में चाय ले आईं. दीक्षा उन से लगभग लिपटते हुए बोली, ‘‘मौसी, आप भी कमाल हैं, बच्चों का कितना ध्यान रखती हैं. आइए, आप भी कैरम खेलिए.’’

अम्मा छिपी रुस्तम निकलीं. एकसाथ 2-2, 3-3 गोटियां निकाल कर स्ट्राइकर छोड़तीं. अचानक उन को जैसे कुछ याद आया. कैरम बीच में ही छोड़ कर कहते हुए उठ गईं, ‘‘मुझे मसाले कूट कर रखने हैं. तुम लोग खेलो.’’

अम्मा के जाने के बाद दीक्षा आश्चर्य से बोली, ‘‘तुम लोग बाजार से पैकेट वाले मसाले नहीं मंगाते?’’

मेरा सिर फिर शर्म से झुक गया. रसोई से इमामदस्ते की खटखट मेरे हृदय पर हथौड़े चलाने लगी, ‘‘कई बार मिक्सी के लिए बजट बना, पर हर बार पैसे किसी न किसी काम में आते रहे. अंत में हार कर अम्मा ने मिक्सी के विचार को मुक्ति दे दी कि इमामदस्ते और सिलबट्टे से ही काम चल जाएगा. मिक्सी बातबात में खराब होती रहती है और फिर बिजली भी तो झिंकाझिंका कर आती है. ऐसे में मिक्सी रानी तो बस अलमारी में ही सजी रहेंगी.’’

मुझे टैस्ट की तैयारी करनी थी, मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी चैरिटी शो से कब लौटेंगी? तेरे पापा भी तो औफिस से आने वाले हैं.’’

दीक्षा ने लंबी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘मम्मी का क्या पता, कब लौटें? और पापा को तो अपने टूर प्रोग्रामों से ही फुरसत नहीं रहती, महीने में 4-5 दिन ही घर पर रहते हैं.’’

अतृप्ति मेरे मन में कौंधी, ‘एक अपने पिताजी हैं, कभी टूर पर जाते ही नहीं. बस, औफिस से आते ही हम भाईबहनों को पढ़ाने बैठ जाएंगे. टूर प्रोग्राम तो टालते ही रहते हैं. दीक्षा के पापा उस के लिए बाहर से कितना सामान लाते होंगे.’

मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘सच दीक्षा, फिर तो तेरा सारा सामान भारत के कोनेकोने से आता होगा?’’

दीक्षा रोनी सूरत बना कर बोली, ‘‘घर पूरा अजायबघर बन गया है और फिर वहां रहता ही कौन है? बस, पापा का लाया हुआ सामान ही तो रहता है घर में. महल्ले की औरतें व्यंग्य से मम्मी को नगरनाइन कहती हैं, उन्हें समाज कल्याण से फुरसत जो नहीं रहती. होमवर्क तक समझने को तरस जाती हूं मैं. मम्मी आती हैं तो सिर पर कस कर रूमाल बांध कर सो जाती हैं.’’

पहली बार दीक्षा के प्रति मेरे हृदय की ईर्ष्या कुछ कम हुई. उस की जगह दया ने ले ली, ‘बेचारी दीक्षा, तभी तो इसे स्कूल में अकसर सजा मिलती है. इस का मतलब अभी यह जमेगी हमारे घर.’

अम्मा ने रसोई से आ कर प्यार से कहा, ‘‘चलो दीक्षा, सीमा, कल के लिए कुछ पढ़ लो. ये आएंगे तो सब साथसाथ खाना खा लेना. उस के बाद उन से पढ़ लेना. कल तुम लोगों के 2-2 टैस्ट हैं, बेटे.’’

दीक्षा ने अम्मा की ओर देखा और मेरे साथ ही इतिहास के टैस्ट की तैयारी करने लगी. उसे कुछ भी तो याद नहीं था. उस की रोनीसूरत देख कर अम्मा उसे पाठ याद करवाने लगीं. जैसेजैसे वह उसे सरल करकर के याद करवाती जा रही थीं, उस के चेहरे की चमक लौटती जा रही थी. आत्मविश्वास उस के चेहरे पर झलकने लगा था.

पिताजी औफिस से आए तो हम सब के साथ खाना खा कर उन्होंने मुझे तथा दीक्षा को गणित के टैस्ट की तैयारी के लिए बैठा दिया. दीक्षा को पहाडे़ भी ढंग से याद नहीं थे. जोड़जोड़ कर पहाड़े वाले सवाल कर रही थी. तभी दीक्षा की मम्मी कार ले कर उसे लेने आ गईं.

अम्मा सकुचाई सी बोलीं, ‘‘दीक्षा को मैं ने जबरदस्ती खाना खिला दिया है. जो कुछ भी बना है, आप भी खा लीजिए.’’

थोड़ी नानुकुर के बाद दीक्षा की मम्मी ने हमारे उलटेसीधे बरतनों में खाना खा लिया. मैं शर्र्म से पानीपानी हो गई. स्टूल और कुरसी से डाइनिंग टेबल का काम लिया. न सौस, न सलाद. सोचा, अम्मा को भी क्या सूझी? हां, उन्होंने उड़द की दाल के पापड़ घर पर बनाए थे. अचानक ध्यान आया तो मैं ने खाने के साथ उन्हें भून दिया. दीक्षा की मम्मी ने भी दीक्षा की ही तरह हमारे घर का खाना चटखारे लेले कर खाया. फिर मांबेटी चली गईं.

अब अकसर दीक्षा की मम्मी उसे हमारे घर कार से छोड़ जातीं और रात को ले जातीं. समाज कल्याण के कार्यों में वे पहले से भी अधिक उलझती जा रही थीं. शुरूशुरू में दीक्षा को संकोच हुआ, पर धीरेधीरे हम भाईबहनों के बीच उस का संकोच कच्चे रंग सा धुल गया. पिताजी औफिस से आ कर हम सब के साथ उसे भी पढ़ाते और गलती होने पर उस की खूब खबर लेते.

मैं ने दीक्षा से पूछा, ‘‘पिताजी तुझे डांटते हैं तो कितना बुरा लगता होगा? उन्हें तुझे डांटना नहीं चाहिए.’’

दीक्षा मुसकराई, ‘‘धत पगली, मुझे अच्छा लगता है. मेरे लिए उन के पास वक्त है. दवाई भी तो कड़वी होती है, पर वह हमें ठीक भी करती है. मेरे मम्मीपापा के पास तो मुझे डांटने के लिए भी समय नहीं है.’’

मुझे दीक्षा की बुद्धि पर तरस आने लगा, ‘अपने मम्मीपापा की तुलना मेरे मातापिता से कर रही है. मेरे पिताजी क्लर्क और उस के पापा बहुत बड़े अफसर. उस की मम्मी कई समाजसेवी संस्थाओं की सदस्या, मेरी अम्मा घरघुस्सू. उस के  पापा क्लबों, टूरों में समय बिताने वाले, मेरे पिताजी ट्यूशन का पैसा बचाने में माहिर. उस की मम्मी सुंदरता का पर्याय, मेरी अम्मा को आईना देखने तक की भी फुरसत मुश्किल से ही मिल पाती है.’

अचानक दीक्षा 1 और 2 जनवरी को विद्यालय नहीं आई. यदि वह 3 जनवरी को भी नहीं आती तो उस का नाम कट जाता. इसलिए मैं 3 जनवरी को विद्यालय जाने से पूर्व उस के घर जा पहुंची. काफी देर घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला.

मैं आश्चर्यचकित हो दीक्षा को देखे चली जा रही थी. वह एकदम मुरझाए हुए फूल जैसी लग रही थी. मैं ने उसे मीठी डांट पिलाते हुए कहा, ‘‘दीक्षा, तू बीमार है, मुझे मैसेज तो कर देती.’’

वह फीकी सी हंसी के साथ बोली, ‘‘मम्मी पास के गांवों में बच्चों को पोलियो की दवाई पिलवाने चली जाती हैं…’’

‘‘और कुंदन?’’ मैं ने पूछा.

‘‘4-5 दिनों से गांव गया हुआ है. उस की बेटी बीमार है.’’

पहली बार मेरे मन में दीक्षा की मम्मी के लिए रोष के तीव्र स्वर उभरे, ‘‘और तू जो बीमार है तो तेरे लिए मौसीजी का समाजसेविका वाला रूप क्यों धुंधला जाता है. चैरिटी घर से ही शुरू होती है.’’ यह कह कर मैं ने उस को बिस्तर पर बैठाया.

दीक्षा ने बात पूरी की, ‘‘पर घर की  चैरिटी से मम्मी को प्रशंसा के पदक और प्रमाणपत्र तो नहीं मिलते. गवर्नर उन्हें भरी सभा में ‘कल्याणी’ की उपाधि तो नहीं प्रदान करता.’’

शो केस में सजे मौसी को मिले चमचमाते पदक, जो मुझे सदैव आकर्षित करते थे, तब बेहद फीके से लगे. अचानक मुझे पिछली गरमी में खुद को हुए मलेरिया के बुखार का ध्यान आ गया. बोली, ‘‘दीक्षा, मुझे कहलवा दिया होता. मैं ही तेरे पास बैठी रहती. मुझे जब मलेरिया हुआ था तो मैं अम्मा को अपने पास से उठने तक नहीं देती थी. बस, मेरी आंख जरा लगती थी, तभी वे झटपट रसोई में कुछ बना आती थीं.’’

दीक्षा के सिरहाने बिस्कुट का पैकेट तथा थर्मस में गरम पानी रखा हुआ था. मैं ने उसे चाय बना कर दी. फिर स्कूल जा कर अपनी और दीक्षा की छुट्टी का प्रार्थनापत्र दे आई. लौटते हुए अम्मा को सब बताती भी आई.

पूरा दिन मैं दीक्षा के पास बैठी रही. थर्मस का पानी खत्म हो चुका था. मैं ने थर्मस गरम पानी से भर दिया. दीक्षा का मन लगाने के लिए उस के साथ वीडियो गेम्स खेलती रही.

शाम को मौसीजी लौटीं. उन की सुंदरता, जो मुझे सदैव आकर्षित करती थी, कहीं गहन वन की कंदरा में छिप गई थी. बालों में चांदी के तार चमक रहे थे. मुंह पर झुर्रियों की सिलवटें पड़ी थीं. उन में सुंदरता मुझे लाख ढूंढ़ने पर भी न मिली.

वे आते ही झल्लाईं, ‘‘यह पार्लर भी न जाने कब खुलेगा. रोज सुबहशाम चक्कर काटती हूं. आजकल मुझे न जाने कहांकहां जाना पड़ता है. कोई पहचान ही नहीं पाता. यदि पार्लर कल भी न खुला तो मैं घर पर ही बैठी रहूंगी. इस हाल में बाहर जाते हुए मुझे शर्म आती है. सभी आंखें फाड़फाड़ कर देखते हैं कि कहीं मैं बीमार तो नहीं.’’

मैं ने चैन की सांस ली कि चलो, मौसी कल से दीक्षा के पास पार्लर न खुलने की ही मजबूरी में रहेंगी. उन की सुंदरता ब्यूटीपार्लर की देन है. क्रीम की न जाने कितनी परतें चढ़ती होंगी.

मन ही मन मेरा स्वर विद्रोही हो उठा, ‘मौसी, तब भी आप को अपनी बीमार बिटिया का ध्यान नहीं आता. कुंदन, ब्यूटीपार्लर…सभी तो बारीबारी से बीमार दीक्षा की ओर संकेत करते हैं. आप ने तो यह भी ध्यान नहीं किया कि स्कूल में 3 दिनों की अनुपस्थिति में दीक्षा का नाम कटतेकटते रह गया.

‘ओह, मेरी अम्मा कितनी अच्छी हैं. उन के बिना मैं घर की कल्पना ही नहीं कर सकती. वे हमारे घर की धुरी हैं, जो पूरे घर को चलाती हैं. आप से ज्यादा तो कुंदन आप के घर को चलाने वाला सदस्य है.

मेरी अम्मा की जो भी शक्लसूरत है, वह उन की अपनी है, किसी ब्यूटीपार्लर से उधार में मांगी हुई नहीं. यदि आप का ब्यूटीपार्लर 4 दिन भी न खुले तो आप की सुंदरता दम तोड़ देती है. अम्मा ने 2 कमरों के मकान को घर बनाया हुआ है, जबकि आप का लंबाचौड़ा बंगला, बस, शानदार मगर सुनसान स्मारक सा लगता है.

‘मौसी, आप कितनी स्वार्थी हैं कि अपने बच्चों को अपना समय नहीं दे सकतीं, जबकि हमारी अम्मा का हर पल हमारा है.’

मेरा मन भटके पक्षी सा अपने नीड़ में मां के पास जाने को व्याकुल होने लगा.

 

खरोंचें: टूटे रिश्तों की कहानी

कितनी आरजू, कितनी उमंग थी मन में. लेकिन हकीकत में मिला क्या? सारे सपने चूरचूर हुए

और रह गई सिर्फ आह. ‘‘आप इंडिया से कनाडा कब आए?’’‘‘यही कोई 5 साल पहले.’’ ‘‘यहां क्या करते हैं?’’ ‘‘फैक्टरी में लगा हूं.’’ ‘‘वहां क्या करते थे?’’ ‘‘बिड़लाज कंसर्न में अकाउंट्स अधिकारी था.’’

इन सज्जन से मेरी यह पहली मुलाकात है. अब आप ही बताएं, भारत का एक अकाउंट्स अधिकारी कनाडा आ कर फैक्टरी में मजदूरी कर रहा है. उसे कनाडा आने की बधाई दूं या 2-4 खरीखोटी सुनाऊं, यह फैसला मैं आप पर छोड़ता हूं.

‘‘अच्छा, तो वहां तो आप अपने विभाग के बौस होंगे?’’ ‘‘हांहां,  वहां करीब 60 लोग मेरे मातहत थे. अकाउंट विभाग का इंचार्ज था न, 22 हजार रुपए तनख्वाह थी.’’ ‘‘तो घर पर नौकरचाकर भी होंगे?’’ ‘‘हां, मुझे तो आफिस की तरफ से एक अर्दली भी मिला हुआ था. कार और ड्राइवर तो उस पोस्ट के साथ जुडे़ ही थे.’’

‘‘अच्छा, फिर तो बडे़ ठाट की जिंदगी गुजार रहे थे आप वहां.’’ ‘‘बस, ऊपर वाले की दया थी.’’ ‘‘भाभीजी क्या करती थीं वहां?’’ ‘‘एक स्कूल में अध्यापिका थीं. कोई नौकरी वाली बात थोड़ी थी, अपने छिटपुट खर्चों और किटी पार्टी की किश्तें निकालने के लिए काम करती थीं, वरना उन्हें वहां किस बात की कमी थी.’’

‘‘तो भाभीजी भी आप के साथ ही कनाडा आई होंगी? वह क्या करती हैं यहां?’’

‘‘शुरू में तो एक स्टोर में कैशियर का काम करती थीं. फिर नौकरी बदल कर किसी दूसरी जगह करने लगीं. अब पता नहीं क्या करती हैं.’’ ‘‘पता नहीं से मतलब?’’ ‘‘हां, 2 साल पहले हमारा तलाक हो गया.’’

लीजिए, कनाडा आ कर अफसरी तो खोई ही, पत्नी भी खो दी. ‘‘माफ कीजिए, आप के निजी जीवन में दखल दे रहा हूं, पर यह तो अच्छा नहीं हुआ.’’ ‘‘अच्छा हुआ क्या, कुछ भी तो नहीं. यहां आ कर शानदार नौकरी गई, पत्नी गई और अब तो…’’

‘‘अब तो क्या?’’ ‘‘मेरी बेटी भी पता नहीं कहां और किस के साथ रहती है.’’ ‘‘आप की बेटी भी है. वह तलाक के बाद आप के पास थी या आप की पत्नी के पास?’’

‘‘मेरी बेटी 18 साल से बड़ी थी इसलिए उस ने न मेरे साथ रहना पसंद किया न अपनी मां के साथ, अलग रहने चली गई.  कहने लगी कि जो अपनी गृहस्थी नहीं संभाल सके वे मेरी जिंदगी क्या संभालेंगे. कहां चली गई किसी को पता नहीं. हां, कभीकभी फोन कर देती है, इसी से पता चलता है कि वह है, पर कहां है कभी नहीं बताती. फोन करती है तो ‘पे’ फोन से. आप ने सुना है किसी को स्वर्ग में नरक भोगते? मैं भोग रहा हूं.’’

मैं उन से क्या कहूं? क्या कह कर दिलासा दूं? स्वर्ग की चाह हम ने खुद की थी, हमारा फैसला था यह, हमारी महत्त्वाकांक्षा थी जो हमें उस आकाश के आंचल से इस आकाश के आंचल तले समेट लाई. जब जीवन वहां के अंदाज को छोड़ कर यहां के अंदाज में बदलने लगा तो हमें महसूस हुआ कि हम नरक के दरवाजे पर पहुंच गए. नरक भोगने जैसी बातें करने लगे.

मैं यह समझता हूं कि यह नरक भोगना नहीं है, यह बदल रही जीवन शैली की सचाइयों से मुझ जैसे प्रवासियों का परिचय है. यह पहला अनुभव है जो वहां की जीवन शैली से यहां की जीवन शैली में परिवर्तन के क्रम का पहला पड़ाव समान है. याद है जब भारत की भीड़ भरी बसों और ट्रेनों में धक्कामुक्की कर के चढ़ते थे और उस प्रयास में लग जाती थीं कुछ खरोंचें. वही खरोंचें हैं ये.

 

हंसी के घुंघरु

उस दिन मेरे पिता की बरसी थी. मैं पिता के लिए कुछ भी करना नहीं चाहता था. शायद मुझे अपने पिता से घृणा थी. यह आश्चर्य की बात नहीं, सत्य है. मैं घर से बिलकुल कट गया था. वह मेरे पिता ही थे, जिन्होंने मुझे घर से कटने पर मजबूर कर दिया था.

नीरा से मेरा प्रेम विवाह हुआ था. मेरे बच्चे हुए, परंतु मैं ने घर से उन अवसरों पर भी कोई संपर्क नहीं रखा.

लेकिन मेरे पिता की पुण्य तिथि मनाने के लिए नीरा कुछ अधिक ही उत्साह से सबकुछ कर रही थी. मुझे लगता था कि शायद इस उत्साह के पीछे मां हैं.

मैं सुबह से ही तटस्थ सा सब देख रहा था. बाहर के कमरे में पिता की तसवीर लग गई थी. फूलों की एक बड़ी माला भी झूल रही थी. मुझे लगता था कि मेरी देह में सहस्रों सूइयां सी चुभ रही हैं. नीरा मुझे हर बार समझाती थी, ‘‘बड़े बड़े होते हैं. उन का हमेशा सम्मान करना चाहिए.’’

नीरा ने एक छोटा सा आयोजन कर रखा था. पंडितपुरोहितों का नहीं, स्वजनपरिजनों का. सहसा मेरे कानों में नीरा का स्वर गूंजा, ‘‘यह मेरी मां हैं. मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं अपनी सास के साथ हूं.’’

बातें उड़उड़ कर मेरे कानों में पड़ रही थीं. हंसीखुशी का कोलाहल गूंज रहा था. मैं मां की सिकुड़ीसिमटी आकृति को देखता रहा. मां कितनी सहजता से मेरी गृहस्थी में रचबस गई थीं.

मैं नीरा की इच्छा जाने बिना ही मां को जबरन साथ ले आया था. साथ क्या ले आया था, मुझे लाना पड़ा था. कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं था.

राजू व रमेश विदेश में बस गए थे. पिता की मृत्यु पर वे शोक संवेदनाएं भेज कर निश्चिंत हो गए थे. रीना, इला और राधा आई थीं. मैं श्राद्ध के दिन अकेला ही गांव पहुंचा था.

नीरा नहीं आई थी. मैं ने जोर नहीं दिया था. शायद मैं भी यही चाहता था. जब मेरे हृदय में मृत पिता के लिए स्नेह जैसी कोई चीज ही नहीं थी तो नीरा के हृदय की उदासीनता समझी जा सकती थी.

मेरी दोनों बेटियां मां के पास रह गई थीं. परिवार के दूसरे बच्चे भी सचाई को पहचान गए थे. लोगों की देखादेखी, जब वे बहुत छोटी थीं तो दादादादी की बातें पूछा करती थीं. मैं पता नहीं क्यों ‘दादा’, ‘दादी’ जैसे शब्दों के प्रति ही असहिष्णु हो गया था.

‘दादी’ शब्द मेरे मानस पर दहशत से अधिक घृणा ही पैदा करता था. मेरे बचपन की एक दादी थीं, किंतु कहानियों वाली, स्नेह देने वाली दादी नहीं. हुकूमत करने वाली दादी, मुझे ही नहीं मेरी मां को छोटीछोटी बात पर चिमटे से पीटने वाली दादी. मैं अब भी नहीं समझ पाता हूं, मेरी मां का दोष क्या था?

मेरा घर मध्यवर्गीय बिहारी घर था. सुबह होती कलह से, रात होती कलह से. मेरे पिता का कायरपन मुझे बचपन से ही उद्दंड बनाता गया.

मेरी एक परित्यक्ता बूआ थीं. अम्मां से भी बड़ी बूआ, हर मामले में हम लोगों से छोटी मानी जाती थीं. खानेपहनने, घूमने में उन का हिस्सा हम लोगों जैसा ही होता था. किंतु उन की प्रतिस्पर्धा अम्मां से रहती थी. सौतन सी, वह हर चीज में अम्मां का अधिक से अधिक हिस्सा छीनने की कोशिश करती थीं. बूआ दादी की शह पर कूदा करती थीं.

दादी और बूआ रानियों की तरह आराम से बैठी रहती थीं. हुकूमत करना उन का अधिकार था. मेरी मां दासी से भी गईबीती अवस्था में खटती रहती थीं. पिता बिस्तर से उठते ही दादी के पास चले जाते. दादी उन्हें जाने क्या कहतीं, क्या सुनातीं कि पिता अम्मां पर बरस पड़ते.

एक रोज अम्मां पर उठे पिता के हाथ को कस कर उमेठते हुए मैं ने कहा था, ‘‘खबरदार, जो मेरी मां पर हाथ उठाया.’’

पहले तो पिता ठगे से रह गए थे. फिर एकाएक उबल पड़े थे, लेकिन मैं डरा नहीं था. अब तो हमारा घर एक खुला अखाड़ा बन गया था. दादी मुझ से डरती थीं. मेरे दिल में किसी पके घाव को छूने सी वेदना दादी को देखने मात्र पर होती. मैं दादी को देखना तक नहीं चाहता था.

मैं सोचा करता, ‘बड़ा हो कर मैं अच्छी नौकरी कर लूंगा. फिर अम्मां को अपने पास रखूंगा. रहेंगी दादी और बूआ पिता के पास.’

उन का बढ़ता अंतराल मेरे अंतर्मन में घृणा को बढ़ाता गया. मेरी अम्मां कमजोर हो कर टूटती चली गईं.

उस दिन वह घर स्नेहविहीन हो जाएगा, ऐसा मैं ने कभी सोचा भी नहीं था. अम्मां सारे कामों को निबटा कर सो गई थीं. राधा उन की छाती से चिपटी दूध पी रही थी. मैं बगल के कमरे में पढ़ रहा था.

दादी का हुक्म हुआ, ‘‘जरा, चाय बनाना.’’

कोई उत्तर नहीं मिला. वैसे भी अम्मां तो कभी उत्तर दिया ही नहीं करती थीं. 10 मिनट बाद दादी के स्वर में गरमी बढ़ गई. चाय जो नहीं मिली थी. दादी जाने क्याक्या बड़बड़ा रही थीं. अम्मां की चुप्पी उन के क्रोध को बढ़ा रही थी.

‘‘भला, सवेरेसवेरे कहीं सोया जाता है. कब से गला फाड़ रही हूं. एक कप चाय के लिए, मगर वह राजरानी है कि सोई पड़ी है,’’ और फिर एक से बढ़ कर एक कोसने का सिलसिला.

मैं पढ़ाई छोड़ कर बाहर आ गया. अम्मां को झकझोरती दादी एकाएक चीख उठीं. मैं दरवाजा पकड़ कर खड़ा रह गया. सारे काम निबटा कर निर्जला अम्मां प्राण त्याग चुकी थीं.

दादी ने झट अपना मुखौटा बदला, ‘‘हाय लक्ष्मी…हाय रानी…तुम हमें छोड़ कर क्यों चली गईं,’’ दादी छाती पीटपीट कर रो रही थीं. बूआ चीख रही थीं. मेरे भाईबहन मुझ से सहमेसिमटे चिपक गए थे. अम्मां की दूधविहीन छाती चबाती राधा को यत्न से अलग कर मैं रो पड़ा था.

दादी हर आनेजाने वाले को रोरो कर कथा सुनातीं. पिता भी रोए थे.

अम्मां के अभाव ने घर को घर नहीं रहने दिया. बूआ कोई काम करती नहीं थीं. आदत ही नहीं थी. पिता को थोड़ी कमाई में एक बावर्ची रखना संभव नहीं था. वैसे भी कोई ऐसा नौकर तो बहू के सिवा मिल ही नहीं सकता था, जो बिना बोले, बिना खाए खटता रहे. समय से पूर्व ही रीना को बड़ा बनना पड़ा.

देखते-देखते अम्मां की मृत्यु को 6 माह बीत गए. दादी रोजरोज पिता के नए रिश्ते की बात करतीं. 1-2 रिश्तेदारों ने दबीदबी जबान से मेरी शादी की चर्चा की, ‘‘लड़का एम.एससी. कर रहा है. इसी की शादी कर दी जाए.’’

पर मेरे कायर पिता ने मां की आज्ञा मानने का बहाना कर के मुझ से भी छोटी उम्र की लड़की से ब्याह कर लिया.

मेरा मन विद्रोह कर उठा. लेकिन उस लड़की लगने वाली औरत में क्या था, नहीं समझ पाया. वह बड़ी सहजता से हम सब की मां बन गई. हम ने भी उसे मां स्वीकार कर लिया. मुझे दादी के साथसाथ पिता से भी तीव्र घृणा होने लगती, जब मेरी नजर नई मां पर पड़ती.

‘क्या लड़कियों के लिए विवाह हो जाना ही जीवन की सार्थकता होती है?’ हर बार मैं अपने मन से पूछा करता.

मां के मायके में कोई नहीं था. विधवा मां ने 10वीं कक्षा में पढ़ती बेटी का कन्यादान कर के निश्ंिचता की सांस ली थी.

मेरी दूसरी मां भी मेरी अम्मां की तरह ही बिना कोई प्रतिवाद किए सारे अत्याचार सह लेती थीं. अम्मां की मृत्यु के बाद घर से मेरा संबंध न के बराबर रह गया था.

पहली बार नई मां के अधर खुले, जब रीना के ब्याह की बात उठी. वह अड़ गईं, ‘‘विवाह नहीं होता तो मत हो. लड़की पढ़ कर नौकरी करेगी. ऐसेवैसे के गले नहीं मढूंगी.’’

पिता सिर पटक कर रह गए. दादी ने व्यंग्यबाण छोड़े. लेकिन मां शांत रहीं, ‘‘मैं योग्य आदमी से बेटी का ब्याह करूंगी.’’

मां की जिद और हम सब का सम्मिलित परिश्रम था कि अब सारा घर सुखी है. हम सभी भाईबहन पढ़लिख कर अपनीअपनी जगह सुखआनंद से थे.

नई मां ही थीं वह सूत्र जिस ने पिता के मरने के बाद मुझे गांव खींचा था. दादी मरीं, बूआ मरीं, पिता के बुलावे आए, पर मैं गांव नहीं आया. पता नहीं, कैसी वितृष्णा से मन भर गया था.

मैं अपनेआप को रोक नहीं पाया था. पिता के श्राद्ध के दिन घर पहुंचा था. भरे घर में मां एक कोने में सहमीसिकुड़ी रंग उड़ी तसवीर जैसी बैठी थीं. पूरे 10 साल बाद मैं गांव आया था. उन 10 सालों ने मां से जाने क्याक्या छीन लिया था.

पिता ने कुछ भी तो नहीं छोड़ा था उन के लिए. हर आदमी मुझे समझा रहा था, ‘‘अपना तो कोई नहीं है. एक तुम्हीं हो.’’

मां की सहमी आंखें, तनी मुद्रा मुझे आश्वस्त कर रही थीं, ‘‘मोहन, घबराओ नहीं. मुझे कुछ साल ही तो और जीना है. मेहनतमजदूरी कर के जी लूंगी.’’

सामीप्य ने मां की सारी निस्वार्थ सेवाएं याद दिलाईं. जन्म नहीं दिया तो क्या, स्नेह तो दिया था. भरपूर  स्नेह की गरमाई, जिस ने छोटे से बड़ा कर के हमें सुंदर घर बनाने में सहारा दिया था.

पता नहीं किस झोंक में मां के प्रतिवाद के बाद भी मैं उन्हें अपने साथ ले आया था.

‘नीरा क्या समझेगी? क्या कहेगी? मां से उस की निभेगी या नहीं?’ यह सब सोचसोच कर मन डर रहा था. कभीकभी अपनी भावुकता पर खीजा भी था. हालांकि विश्वास था कि मेरी मां ‘दादी’ नहीं हो सकती है.

अब 1 साल पूरा हो रहा था. मां ने बड़ी कुशलता से नीरा ही नहीं, मेरी बेटियों का मन भी जीत लिया था.

शुरू शुरू में कुछ दिन अनकहे तनाव में बीते थे. मां के आने से पहले ही आया जा चुकी थी. नई आया नहीं मिल रही थी. नौकरों का तो जैसे अकाल पड़ गया था. नीरा सुबह 9 बजे दफ्तर जाती और शाम को थकीहारी लौटती. अकसर अत्यधिक थकान के कारण हम आपस में ठीक से बात नहीं कर पाते थे. मां क्या आईं, एक स्नेहपूर्ण घर बन गया, बेचारी नीरा आया के  नहीं रहने पर परेशान हो जाती थी. मां ने नीरा का बोझ बांट लिया. मां को काम करते देख कर नीरा लज्जित हो जाती. मां घर का काम ही नहीं करतीं, बल्कि नीरा के व्यक्तिगत काम भी कर देतीं.

कभी साड़ी इस्तिरी कर देतीं. कभी बटन टांक देतीं.

‘‘मां, आप यह सब क्यों करती हैं?’’

‘‘क्या हुआ, बेटी. तुम भी तो सारा दिन खटती रहती हो. मैं घर मैं खाली बैठी रहती हूं. मन भी लग जाता है. कोई तुम पर एहसान थोड़े ही करती हूं. ये काम मेरे ही तो हैं.’’

नीरा कृतज्ञ हो जाती.

‘‘मां, आप पहले क्यों नहीं आईं?’’ गले लिपट कर लाड़ से नीरा पूछती. मां हंस देतीं.

नीरा मां का कम खयाल नहीं रखती थी. वह बुनाई मशीन खरीद लाई थी. मेरे नाराज होने पर हंस कर बोली, ‘‘मां का मन भी लगेगा और उन में आर्थिक निर्भरता भी आएगी.’’

मैं अतीत की भूलभूलैया से वर्तमान में लौटता. नीरा का अंगअंग पुलक रहा था. वह मां के स्नेह व सेवा तथा नीरा के आभिजात्य और समर्पित अनुराग का सौरभ था, जो मेरे घरआंगन को महका रहा था.

कैसे बहुओं की सासों से नहीं पटती? क्या सासें केवल बुरी ही होती हैं? लेकिन मेरी मां जैसी सास कम होती हैं, जो बहू की कठिनाइयों को समझती हैं. घावों पर मरहम लगाती हैं और लुटाती हैं निश्छल स्नेह.

रात शुरू हो रही थी. नीरा थकी सी आरामकुरसी पर बैठी थी. लेकिन आदतन बातों का सूत कात रही थी. मेरी दोनों बेटियां दादी की देह पर झूल रही थीं.

‘‘दादीजी, आज कौन सी कहानी सुनाओगी?’’

‘‘जो मेरी राजदुलारी कहेगी.’’

मैं ने मां को देखा, कैसी शांत, निद्वंद्व वह बच्चों की अनवरत बातों में मुसकराती ऊन की लच्छियां सुलझा रही थीं. मुझे लग रहा था कि वह मेरी सौतेली नहीं, मेरी सगी मां हैं. उम्र में बड़ा हो कर भी मैं बौना होने लगा था. मैं ने नीरा को मां के सामने ही कुरसी से उठा लिया, ‘‘लो, संभालो अपनी इस राजदुलारी को. इसे भी कोई कहानी सुना दो. यह कब से मेरा सिर खा रही है.’’

‘‘मां, सिर में भेजा हो तब तो खाऊं न.’’

नीरा मुसकरा दी. मां की दूध धुली खिलखिलाहट ने हमारा साथ दिया. देखते ही देखते हंसी के घुंघरुओं की झनकार से मेरा घरआंगन गूंज उठा.

पहला पहला प्यार : मां को कैसे हुआ अपने बेटे की पसंद का अहसास

‘‘दा,तुम मेरी बात मान लो और आज खाने की मेज पर मम्मीपापा को सारी बातें साफसाफ बता दो. आखिर कब तक यों परेशान बैठे रहोगे?’’

बच्चों की बातें कानों में पड़ीं तो मैं रुक गई. ऐसी कौन सी गलती विकी से हुई जो वह हम से छिपा रहा है और उस का छोटा भाई उसे सलाह दे रहा है. मैं ‘बात क्या है’ यह जानने की गरज से छिप कर उन की बातें सुनने लगी.

‘‘इतना आसान नहीं है सबकुछ साफसाफ बता देना जितना तू समझ रहा है,’’ विकी की आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘दा, यह इतना मुश्किल भी तो नहीं है. आप की जगह मैं होता तो देखते कितनी स्टाइल से मम्मीपापा को सारी बातें बता भी देता और उन्हें मना भी लेता,’’ इस बार विनी की आवाज आई.

‘‘तेरी बात और है पर मुझ से किसी को ऐसी उम्मीद नहीं होगी,’’ यह आवाज मेरे बड़े बेटे विकी की थी.

‘‘दा, आप ने कोई अपराध तो किया नहीं जो इतना डर रहे हैं. सच कहूं तो मुझे ऐसा लगता है कि मम्मीपापा आप की बात सुन कर गले लगा लेंगे,’’ विनी की आवाज खुशी और उत्साह दोनों से भरी हुई थी.

‘बात क्या है’ मेरी समझ में कुछ नहीं आया. थोड़ी देर और खड़ी रह कर उन की आगे की बातें सुनती तो शायद कुछ समझ में आ भी जाता पर तभी प्रेस वाले ने डोर बेल बजा दी तो मैं दबे पांव वहां से खिसक ली.

बच्चों की आधीअधूरी बातें सुनने के बाद तो और किसी काम में मन ही नहीं लगा. बारबार मन में यही प्रश्न उठते कि मेरा वह पुत्र जो अपनी हर छोटीबड़ी बात मुझे बताए बिना मुंह में कौर तक नहीं डालता है, आज ऐसा क्या कर बैठा जो हम से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है. सोचा, चल कर साफसाफ पूछ लूं पर फिर लगा कि बच्चे क्या सोचेंगे कि मम्मी छिपछिप कर उन की बातें सुनती हैं.

जैसेतैसे दोपहर का खाना तैयार कर के मेज पर लगा दिया और विकीविनी को खाने के लिए आवाज दी. खाना परोसते समय खयाल आया कि यह मैं ने क्या कर दिया, लौकी की सब्जी बना दी. अभी दोनों अपनीअपनी कटोरी मेरी ओर बढ़ा देंगे और कहेंगे कि रामदेव की प्रबल अनुयायी माताजी, यह लौकी की सब्जी आप को ही सादर समर्पित हो. कृपया आप ही इसे ग्रहण करें. पर मैं आश्चर्यचकित रह गई यह देख कर कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उलटा दोनों इतने मन से सब्जी खाने में जुटे थे मानो उस से ज्यादा प्रिय उन्हें कोई दूसरी सब्जी है ही नहीं.

बात जरूर कुछ गंभीर है. मैं ने मन में सोचा क्योंकि मेरी बनाई नापसंद सब्जी या और भी किसी चीज को ये चुपचाप तभी खा लेते हैं जब या तो कुछ देर पहले उन्हें किसी बात पर जबरदस्त डांट पड़ी हो या फिर अपनी कोई इच्छा पूरी करवानी हो.

खाना खा कर विकी और विनी फिर अपने कमरे में चले गए. ऐसा लग रहा था कि किसी खास मसले पर मीटिंग अटेंड करने की बहुत जल्दी हो उन्हें.

विकी सी.ए. है. कानपुर में उस ने अपना शानदार आफिस बना लिया है. ज्यादातर शनिवार को ही आता है और सोमवार को चला जाता है. विनी एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा है. बचपन से दोनों भाइयों के स्वभाव में जबरदस्त अंतर होते हुए भी दोनों पल भर को भी अलग नहीं होते हैं. विकी बेहद शांत स्वभाव का आज्ञाकारी लड़का रहा है तो विनी इस के ठीक उलट अत्यंत चंचल और अपनी बातों को मनवा कर ही दम लेने वाला रहा है. इस के बावजूद इन दोनों भाइयों का प्यार देख हम दोनों पतिपत्नी मन ही मन मुसकराते रहते हैं.

अपना काम निबटा कर मैं बच्चों के कमरे में चली गई. संडे की दोपहर हमारी बच्चों के कमरे में ही गुजरती है और बच्चे हम से सारी बातें भी कह डालते हैं, जबकि ऐसा करने में दूसरे बच्चे मांबाप से डरते हैं. आज मुझे राजीव का बाहर होना बहुत खलने लगा. वह रहते तो माहौल ही कुछ और होता और वह किसी न किसी तरह बच्चों के मन की थाह ले ही लेते.

मेरे कमरे में पहुंचते ही विनी अपनी कुरसी से उछलते हुए चिल्लाया, ‘‘मम्मा, एक बात आप को बताऊं, विकी दा ने…’’

उस की बात विकी की घूरती निगाहों की वजह से वहीं की वहीं रुक गई. मैं ने 1-2 बार कहा भी कि ऐसी कौन सी बात है जो आज तुम लोग मुझ से छिपा रहे हो, पर विकी ने यह कह कर टाल दिया कि कुछ खास नहीं मम्मा, थोड़ी आफिस से संबंधित समस्या है. मैं आप को बता कर परेशान नहीं करना चाहता पर विनी के पेट में कोई बात पचती ही नहीं है.

हालांकि मैं मन ही मन बहुत परेशान थी फिर भी न जाने कैसे झपकी लग गई और मैं वहीं लेट गई. अचानक ‘मम्मा’ शब्द कानों में पड़ने से एक झटके से मेरी नींद खुल गई पर मैं आंखें मूंदे पड़ी रही. मुझे सोता देख कर उन की बातें फिर से चालू हो गई थीं और इस बार उसी कमरे में होने की वजह से मुझे सबकुछ साफसाफ सुनाई दे रहा था.

विकी ने विनी को डांटा, ‘‘तुझे मना किया था फिर भी तू मम्मा को क्या बताने जा रहा था?’’

‘‘क्या करता, तुम्हारे पास हिम्मत जो नहीं है. दा, अब मुझ से नहीं रहा जाता, अब तो मुझे जल्दी से भाभी को घर लाना है. बस, चाहे कैसे भी.’’

विकी ने एक बार फिर विनी को चुप रहने का इशारा किया. उसे डर था कि कहीं मैं जाग न जाऊं या उन की बातें मेरे कानों में न पड़ जाएं.

अब तक तो नींद मुझ से कोसों दूर जा चुकी थी. ‘तो क्या विकी ने शादी कर ली है,’ यह सोच कर लगा मानो मेरे शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया. कहां कमी रह गई थी हमारे प्यार में और कैसे हम अपने बच्चों में यह विश्वास उत्पन्न करने में असफल रह गए कि जीवन के हर निर्णय में हम उन के साथ हैं.

आज पलपल की बातें शेयर करने वाले मेरे बेटे ने मुझे इस योग्य भी न समझा कि अपने शादी जैसे महत्त्वपूर्ण फैसले में शामिल करे. शामिल करना तो दूर उस ने तो बताने तक की भी जरूरत नहीं समझी. मेरे व्यथित और तड़पते दिल से एक आवाज निकली, ‘विकी, सिर्फ एक बार कह कर तो देखा होता बेटे तुम ने, फिर देखते कैसे मैं तुम्हारी पसंद को अपने अरमानों का जोड़ा पहना कर इस घर में लाती. पर तुम ने तो मुझे जीतेजी मार डाला.’

पल भर के अंदर ही विकी के पिछले 25 बरस आंखों के सामने से गुजर गए और उन 25 सालों में कहीं भी विकी मेरा दिल दुखाता हुआ नहीं दिखा. टेबल पर रखे फल उठा कर खाने से पहले भी वह जहां होता वहीं से चिल्ला कर मुझे बताता था कि मम्मा, मैं यह सेब खाने जा रहा हूं. और आज…एक पल में ही पराया बना दिया बेटे ने.

कलेजे को चीरता हुआ आंसुओं का सैलाब बंद पलकों के छोर से बूंद बन कर टपकने ही वाला था कि अचानक विकी की फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘तुम ने देखा नहीं है मम्मीपापा के कितने अरमान हैं अपनी बहुओं को ले कर और बस, मैं इसी बात से डरता हूं कि कहीं बरखा मम्मीपापा की कल्पनाओं के अनुरूप नहीं उतरी तो क्या होगा? अगर मैं पहले ही इन्हें बता दूंगा कि मैं बरखा को पसंद करता हूं तो फिर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि मम्मीपापा उसे नापसंद करें, वे हर हाल में मेरी शादी उस से कर देंगे और मैं यही नहीं चाहता हूं. मम्मीपापा के शौक और अरमान पूरे होने चाहिए, उन की बहू उन्हें पसंद होनी चाहिए. बस, मैं इतना ही चाहता हूं.’’

‘‘और अगर वह उन्हें पसंद नहीं आई तो?’’

‘‘नहीं आई तो देखेंगे, पर मैं ने इतना तो तय कर लिया है कि मैं पहले से यह बिलकुल नहीं कह सकता कि मैं किसी को पसंद करता हूं.’’

तो विकी ने शादी नहीं की है, वह केवल किसी बरखा नाम की लड़की को पसंद करता है और उस की समस्या यह है कि बरखा के बारे में हमें बताए कैसे? इस बात का एहसास होते ही लगा जैसे मेरे बेजान शरीर में जान वापस आ गई. एक बार फिर से मेरे सामने वही विकी आ खड़ा हुआ जो अपनी कोई बात कहने से पहले मेरे चारों ओर चक्कर लगाता रहता, मेरा मूड देखता फिर शरमातेझिझकते हुए अपनी बात कहता. उस का कहना कुछ ऐसा होता कि मना करने का मैं साहस ही नहीं कर पाती. ‘बुद्धू, कहीं का,’ मन ही मन मैं बुदबुदाई. जानता है कि मम्मा किसी बात के लिए मना नहीं करतीं फिर भी इतनी जरूरी बात कहने से डर रहा है.

सो कर उठी तो सिर बहुत हलका लग रहा था. मन में चिंता का स्थान एक चुलबुले उत्साह ने ले लिया था. मेरे बेटे को प्यार हो गया है यह सोचसोच कर मुझे गुदगुदी सी होने लगी. अब मुझे समझ में आने लगा कि विनी को भाभी घर में लाने की इतनी जल्दी क्यों मच रही थी. ऐसा लगने लगा कि विनी का उतावलापन मेरे अंदर भी आ कर समा गया है. मन होने लगा कि अभी चलूं विकी के पास और बोलूं कि ले चल मुझे मेरी बहू के पास, मैं अभी उसे अपने घर में लाना चाहती हूं पर मां होने की मर्यादा और खुद विकी के मुंह से सुनने की एक चाह ने मुझे रोक दिया.

रात को खाने की मेज पर मेरा मूड तो खुश था ही, दिन भर के बाद बच्चों से मिलने के कारण राजीव भी बहुत खुश दिख रहे थे. मैं ने देखा कि विनी कई बार विकी को इशारा कर रहा था कि वह हम से बात करे पर विकी हर बार कुछ कहतेकहते रुक सा जाता था. अपने बेटे का यह हाल मुझ से और न देखा गया और मैं पूछ ही बैठी, ‘‘तुम कुछ कहना चाह रहे हो, विकी?’’

‘‘नहीं…हां, मैं यह कहना चाहता था मम्मा कि जब से कानपुर गया हूं दोस्तों से मुलाकात नहीं हो पाती है. अगर आप कहें तो अगले संडे को घर पर दोस्तों की एक पार्टी रख लूं. वैसे भी जब से काम शुरू किया है सारे दोस्त पार्टी मांग रहे हैं.’’

‘‘तो इस में पूछने की क्या बात है. कहा होता तो आज ही इंतजाम कर दिया होता,’’ मैं ने कहा, ‘‘वैसे कुल कितने दोस्तों को बुलाने की सोच रहे हो, सारे पुराने दोस्त ही हैं या कोई नया भी है?’’

‘‘हां, 2-4 नए भी हैं. अच्छा रहेगा, आप सब से भी मुलाकात हो जाएगी. क्यों विनी, अच्छा रहेगा न?’’ कह कर विकी ने विनी को संकेत कर के राहत की सांस ली.

मैं समझ गई थी कि पार्टी की योजना दोनों ने मिल कर बरखा को हम से मिलाने के लिए ही बनाई है और विकी के ‘नए दोस्तों’ में बरखा भी शामिल होगी.

अब बच्चों के साथसाथ मेरे लिए भी पार्टी की अहमियत बहुत बढ़ गई थी. अगले संडे की सुबह से ही विकी बहुत नर्वस दिख रहा था. कई बार मन में आया कि उसे पास बुला कर बता दूं कि वह सारी चिंता छोड़ दे क्योंकि हमें सबकुछ मालूम हो चुका है, और बरखा जैसी भी होगी मुझे पसंद होगी. पर एक बार फिर विकी के भविष्य को ले कर आशंकित मेरे मन ने मुझे चुप करा दिया कि कहीं बरखा विकी के योग्य न निकली तो? जब तक बात सामने नहीं आई है तब तक तो ठीक है, उस के बारे में कुछ भी राय दे सकती हूं, पर अगर एक बार सामने बात हो गई तो विकी का दिल टूट जाएगा.

4 बजतेबजते विकी के दोस्त एकएक कर के आने लगे. सच कहूं तो उस समय मैं खुद काफी नर्वस होने लगी थी कि आने वालों में बरखा नाम की लड़की न मालूम कैसी होगी. सचमुच वह मेरे विकी के लायक होगी या नहीं. मेरी भावनाओं को राजीव अच्छी तरह समझ रहे थे और आंखों के इशारे से मुझे धैर्य रखने को कह रहे थे. हमें देख कर आश्चर्य हो रहा था कि सदैव हंगामा करते रहने वाला विनी भी बिलकुल शांति  से मेरी मदद में लगा था और बीचबीच में जा कर विकी की बगल में कुछ इस अंदाज से खड़ा होता मानो उस से कह रहा हो, ‘दा, दुखी न हो, मैं तुम्हारे साथ हूं.’

ठीक साढ़े 4 बजे बरखा ने अपनी एक सहेली के साथ ड्राइंगरूम में प्रवेश किया. उस के घुसते ही विकी की नजरें विनी से और मेरी नजरें इन से जा टकराईं. विकी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और उन्हें हमारे पास ला कर उन से हमारा परिचय करवाया, ‘‘बरखा, यह मेरे मम्मीपापा हैं और मम्मीपापा, यह मेरी नई दोस्त बरखा और यह बरखा की दोस्त मालविका है. ये दोनों एम.सी.ए. कर रही हैं. पिछले 7 महीने से हमारी दोस्ती है पर आप लोगों से मुलाकात न करवा सका था.’’

हम ने महसूस किया कि बरखा से हमारे परिचय के दौरान पूरे कमरे का शोर थम गया था. इस का मतलब था कि विकी के सारे दोस्तों को पहले से बरखा के बारे में मालूम था. सच है, प्यार एक ऐसा मामला है जिस के बारे में बच्चों के मांबाप को ही सब से बाद में पता चलता है. बच्चे अपना यह राज दूसरों से तो खुल कर शेयर कर लेते हैं पर अपनों से बताने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

बरखा को देख लेने और उस से बातचीत कर लेने के बाद मेरे मन में उसे बहू बना लेने का फैसला पूर्णतया पक्का हो गया. विकी बरखा के ही साथ बातें कर रहा था पर उस से ज्यादा विनी उस का खयाल रख रहा था. पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर थी. यों तो हमारा फैसला पक्का हो चुका था पर फिर भी मैं ने एक बार बरखा को चेक करने की कोशिश की कि शादी के बाद घरगृहस्थी संभालने के उस में कुछ गुण हैं या नहीं.

मेरा मानना है कि लड़की कितने ही उच्च पद पर आसीन हो पर घरपरिवार को उस के मार्गदर्शन की आवश्यकता सदैव एक बच्चे की तरह होती है. वह चूल्हेचौके में अपना दिन भले ही न गुजारे पर चौके में क्या कैसे होता है, इस की जानकारी उसे अवश्य होनी चाहिए ताकि वह अच्छा बना कर खिलाने का वक्त न रखते हुए भी कम से कम अच्छा बनवाने का हुनर तो अवश्य रखती हो.

मैं शादी से पहले घरगृहस्थी में निपुण होना आवश्यक नहीं मानती पर उस का ‘क ख ग’ मालूम रहने पर ही उस जिम्मेदारी को निभा पाने की विश्वसनीयता होती है. बहुत से रिश्तों को इन्हीं बुनियादी जिम्मेदारियों के अभाव में बिखरते देखा था मैं ने, इसलिए विकी के जीवन के लिए मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी.

मैं ने बरखा को अपने पास बुला कर कहा, ‘‘बेटा, सुबह से पार्टी की तैयारी में लगे होने की वजह से इस वक्त सिर बहुत दुखने लगा है. मैं ने गैस पर तुम सब के लिए चाय का पानी चढ़ा दिया है, अगर तुम्हें चाय बनानी आती हो तो प्लीज, तुम बना लो.’’

‘‘जी, आंटी, अभी बना लाती हूं,’’ कह कर वह विकी की तरफ पलटी, ‘‘किचन कहां है?’’

‘‘उस तरफ,’’ हाथ से किचन की तरफ इशारा करते हुए विकी ने कहा, ‘‘चलो, मैं तुम्हें चीनी और चायपत्ती बता देता हूं,’’ कहते हुए वह बरखा के साथ ही चल पड़ा.

‘‘बरखाजी को अदरक कूट कर दे आता हूं,’’ कहता हुआ विनी भी उन के पीछे हो लिया.

चाय चाहे सब के सहयोग से बनी हो या अकेले पर बनी ठीक थी. किचन में जा कर मैं देख आई कि चीनी और चायपत्ती के डब्बे यथास्थान रखे थे, दूध ढक कर फ्रिज में रखा था और गैस के आसपास कहीं भी चाय गिरी, फैली नहीं थी. मैं निश्चिंत हो आ कर बैठ गई. मुझे मेरी बहू मिल गई थी.

एकएक कर के दोस्तों का जाना शुरू हो गया. सब से अंत में बरखा और मालविका हमारे पास आईं और नमस्ते कर के हम से जाने की अनुमति मांगने लगीं. अब हमारी बारी थी, विकी ने अपनी मर्यादा निभाई थी. पिछले न जाने कितने दिनों से असमंजस की स्थिति गुजरने के बाद उस ने हमारे सामने अपनी पसंद जाहिर नहीं की बल्कि उसे हमारे सामने ला कर हमारी राय जाननेसमझने का प्रयत्न करता रहा. और हम दोनों को अच्छी तरह पता है कि अभी भी अपनी बात कहने से पहले वह बरखा के बारे में हमारी राय जानने की कोशिश अवश्य करेगा, चाहे इस के लिए उसे कितना ही इंतजार क्यों न करना पड़े.

मैं अपने बेटे को और असमंजस में नहीं देख सकती थी, अगर वह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा है तो उस की बात को मैं ही कह कर उसे कशमकश से उबार लूंगी.

बरखा के दोबारा अनुमति मांगने पर मैं ने कहा, ‘‘घर की बहू क्या घर से खाली हाथ और अकेली जाएगी?’’

मेरी बात का अर्थ जैसे पहली बार किसी की समझ में नहीं आया. मैं ने विकी का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘तेरी पसंद हमें पसंद है. चल, गाड़ी निकाल, हम सब बरखा को उस के घर पहुंचाने जाएंगे. वहीं इस के मम्मीडैडी से रिश्ते की बात भी करनी है. अब अपनी बहू को घर में लाने की हमें भी बहुत जल्दी है.’’

मेरी बात का अर्थ समझ में आते ही पूरा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. मम्मीपापा को यह सब कैसे पता चला, इस सवाल में उलझाअटका विकी पहले तो जहां का तहां खड़ा रह गया फिर अपने पापा की पहल पर बढ़ कर उन के सीने से लग गया.

इन सब बातों में समय गंवाए बिना विनी गैरेज से गाड़ी निकाल कर जोरजोर से हार्न बजाने लगा. उस की बेताबी देख कर मैं दौड़ते हुए अपनी खानदानी अंगूठी लेने के लिए अंदर चली गई, जिसे मैं बरखा के मातापिता की सहमति ले कर उसे वहीं पहनाने वाली थी.

जब मियां बीवी राजी तो क्यूं करें रिश्तेदार दखलअंदाजी

‘‘दादू …’’ लगभग चीखती हुई झूमुर अपने दादू से लिपट गई.

‘‘अरेअरे, हौले से भाई,’’ दादू बैठे हुए भी झूमुर के हमले से डगमगा गए, ‘‘कब बड़ी होगी मेरी बिटिया?’’

‘‘और कितना बड़ी होऊं? कालेज भी पास कर लिया, अब तो नौकरी भी लग गई है मुंबई में,’’ झूमुर की अपने दादू से बहुत अच्छी घुटती थी. अब भी वह मातापिता व अपने छोटे भाई के साथ सपरिवार उन से मिलने अपने ताऊजी के घर आती, झूमुर बस दादू से ही चिपकी रहती. ‘‘अब की बार मुझे बीकानेर भी दिल्ली जितना गरम लग रहा है वरना यहां की रात दिल्ली की रात से ठंडी हुआ करती है.’’

‘‘चलो आओ, खाना लग गया है. आप भी आ जाएं बाबूजी,’’ ताईजी की पुकार पर सब खाने की मेज पर एकत्रित हो गए. मेज पर शांति से सब ने भोजन किया. अकसर परिवारों में जब सब भाईबहन इकट्ठा होते हैं तो खूब धमाचौकड़ी मचती है. लेकिन यहां हर ओर शांति थी. यहां तक कि पापड़ खाने में भी आवाज नहीं आ रही थी. ऐसा रोब था राधेश्याम यानी सब से बड़े ताऊजी का. यों देखने में उन्हें कोई इतना सख्त नहीं मान सकता था- साधारण कदकाठी, पतली काया. किंतु रोब सामने वाले के व्यक्तित्व में होता है, शरीर में नहीं. राधेश्याम का रोब पूरे परिवार में प्रसिद्घ था. न कोई उन से बहस कर सकता था और न ही कोई उन के विरुद्घ जा सकता था. कम बोलने वाले मगर अमिताभ बच्चन की स्टाइल में जो बोल दिया, सो बोल दिया.

हर साल एक बार सभी ताऊ, चाचा व बूआ अपनेअपने परिवार सहित बीकानेर में एकत्रित हुआ करते थे. पूरे परिवार को एकजुट रखने में इस एक हफ्ते की छुट्टियों का बड़ा योगदान था. चूंकि दादाजी यहीं रहते थे राधेश्याम के परिवार के साथ, इसलिए यही घर सब का हैड औफिस जैसा था.

राधेश्याम के फैक्टरी जाते ही सब भाईबहन अपने असली रंग में आ गए. शाम तक खूब मस्ती होती रही. सारी महिलाएं कामकाज निबटाने के साथ ढेर सारी गपें भी निबटाती रहीं. झूमुर के पापा व चाचा अखबार की सुर्खियां चाट कर, थोड़ी देर सुस्ता लिए.  इसी बीच झूमुर फिर अपने दादू के पास हो ली,  ‘‘कुछ बढि़या से किस्से सुनाओ न दादू.’’ बुजुर्गों को और क्या चाहिए भला. पोतेपोतियां उन के जमाने के किस्से सुनना चाहें तो बुजुर्गों में एक नूतन उमंग भर जाती है.

‘‘बात 1950 की है जब मैं हाईस्कूल में पढ़ता था. हमारे एक मास्साब थे, मतलब टीचर हरगोविंद सर. एक बार…,’’ इस से पहले कि दादू आगे किस्सा सुनाते, झूमुर बीच में ही कूद पड़ी, ‘‘स्कूल का नहीं दादू, कोई और किस्सा. अच्छा यह बताइए, आप दादी से कैसे मिले थे. आप ठहरे राजस्थानी और दादी तो बंगाल से थीं. तो आप दोनों की शादी कैसे हुई?’’

‘‘अच्छा, तो आज दादूदादी की प्रेमकहानी सुननी है?’’ कह दादू हंसे. दादी को इस जग से गए काफी समय बीत चुका था. कई वर्षों से वे अकेले थे, बिना जीवनसाथी के. अब केवल दादी की यादें ही उन का साथ देती थीं. पूर्ण प्रसन्नता से उन्होंने अपनी कहानी आरंभ की, ‘‘बात 1957 की है. मैं ने अपना नयानया कारोबार शुरू किया था. बाजार से ब्याज पर 3,500 रुपए उठा कर मैं ने यहीं बीकानेर में बंधेज के कपड़ों का कारखाना शुरू किया था. लेकिन राजस्थान का काम राजस्थान में कितना बिकता और मैं कितना  मुनाफा कमा लेता? फिर मुझे बाजार से उठाया असल और सूद भी लौटाना था, और अपने पैरों पर खड़ा भी होना था…’’

‘‘ओहो दादू, आप तो अपने कारोबार के किस्सों में उलझ गए. असली मुद्दे पर आओ न,’’ झूमुर खीझ कर बोली.

‘‘थोड़ा धीरज रख, उसी पर आ रहा हूं. कारोबार को आगे बढ़ाने हेतु मैं कोलकाता पहुंचा. वहां तुम्हारी दादी के पिताजी की अपनी बहुत बड़ी दुकान थी कपड़ों की, लाल बाजार में. उन से मुलाकात हुई. मैं ने अपना काम दिखाया, बंधेज की साडि़यों व चुन्नियों के कुछ सैंपल उन के पास छोड़े. कुछ महीनों में वहां भी मेरा काम चल निकला.’’

‘‘और दादी? वे तो अभी तक पिक्चर में नहीं आईं,’’ झूमुर एक बार फिर उतावली हो उठी.

‘‘तेरा नाम शांति रखना चाहिए था. जरा भी धैर्य नहीं. आगे सुन, दादी के पिताजी ने ही हमारी शादी की बात चलाई. मेरे पिताजी को रिश्ता भा गया और हमारी शादी हो गई.’’

‘‘धत्त तेरे की. इस कहानी में तो कोई थ्रिल नहीं- न कोई विलेन आया और न ही कोई व्हाट नैक्स्ट मोमैंट. इतनी सहजता से हो गया सब? और जो कोई न मानता तो?’’ पूछने के साथ झूमुर का उत्साह कुछ फीका पड़ गया.

‘‘ओहो बिटिया, तू तो अपने दादू के किस्सों में उलझ गई. असली मुद्दे पर आ,’’ दादू झूमुर की नकल उतारते हुए बोले. आखिर उन्होंने बाल धूम में सफेद नहीं किए थे. उन के पास वर्षों का अनुभव तथा पारखी नजर थी. ‘‘तेरे दादू उड़ती चिरैया के पर गिन लेते हैं, समझी?’’ झूमुर की उत्सुकता, उस का अचानक दादूदादी की कहानी में रुचि दिखाना देख दादू भांप गए थे कि झूमुर उन से कुछ कहना चाहती है, ‘‘बात क्या है?’’

शाम ढलने को थी. राधेश्याम फैक्टरी से घर लौट चुके थे. हर तरफ फिर शांति थी. रात के भोजन के समय एक बार फिर ताईजी की पुकार पर सब मेज पर पहुंच गए. इस पूरे परिवार में झूमुर सब से निकट अपने दादू से थी. शुरू से ही उस ने दादू को सब से सरल , समझदार और खुले विचारों का पाया था. कैसी अजीब बात है कि ऐसे दादू के बेटे, अगली पीढ़ी के होते हुए भी संकीर्ण सोच के वारिस थे. उसे याद है कि छोटे ताऊजी की बेटी, रेणु दीदी, ने अपने कालेज के एक जाट लड़के को पसंद कर लिया था किंतु परिवार का कोई सदस्य नहीं माना था. उन्हें समाज में कमाई गई अपनी इज्जत और रुतबे की चिंता ज्यादा थी. राधेश्याम के कहने पर आननफानन रेणु की शादी अपनी जाति के एक परिवार में तय कर दी गई थी. हालांकि उस की शादी परिवार की इच्छा से की गई थी, फिर भी आज तक उसे माफ नहीं किया गया था. परिवार में सब ओर उस की बेशर्मी के किस्से बांचे जाते थे. उस ने भी कभी इस परिवार के किसी समारोह में हिस्सा नहीं लिया था.

अगली सुबह झूमुर बगीचे में झूले पर गुमसुम बैठी थी कि वहां दादू पहुंच गए, ‘‘बताई नहीं तूने मुझे असली बात.’’ वे भी झूमुर के साथ झूले पर बैठ गए.

‘‘एक आप ही हो दादू जिस से मैं अपने मन की बात…’’

‘‘जानता हूं. असली बात पर आ, वरना फिर कोई आ धमकेगा और हमारी बात बीच में ही रह जाएगी.’’

‘‘कालेज में मेरे साथ एक लड़का पढ़ता था- रिदम.  अच्छा लड़का है, नौकरी भी बहुत अच्छी लग गई है हैदराबाद में.’’

‘‘समझ गया. तुझे वह लड़का पसंद है. तो दिक्कत क्या है?’’

‘‘वह लड़का हमारे धर्म का नहीं है, ईसाई है.’’

‘‘हूं…’’ कुछ क्षण दोनों के बीच चुप्पी छाई रही. मुद्दा वाकई गंभीर था. दूसरे प्रांत या दूसरी जाति का ही नहीं, बल्कि दूसरे धर्म का प्रश्न था. उस पर इन के परिवार की गिनती शहर के जानेमाने रईस, इज्जतदार खानदानों में होती है.

‘‘हम ने अपने कालेज के दीक्षांत समारोह में दोनों परिवारों को मिलवाया. रिदम के परिवार को कोई एतराज नहीं है. मम्मी को रिदम व उस का परिवार बहुत पसंद आया है. किंतु पापा राजी नहीं हैं. उन की मजबूरी है- परिवार जो रजामंद नहीं होगा.’’ झूमुर की चिंता का कारण वाजिब था, ‘‘मैं ने पापा की काफी खुशामद की, काफी समय से उन्हें मना रही हूं. दादू, यदि रिदम नहीं तो कोई नहीं-यह बात मैं ने पापामम्मी से कह भी दी है.’’ आजकल की पीढ़ी अपनी बात रखने में कोई झिझक, कोई संकोच नहीं दिखाती है. झूमुर ने भी साफतौर से अपने दादू को सब बता दिया.

‘‘तो मामला गंभीर है. देख बिटिया, वैसे तो उम्र के इस पड़ाव में, सबकुछ देख चुकने के बाद मैं यह मानता हूं कि जो कुछ है, यही जीवन है. इसे अच्छे से जियो, खुश रहो, बस. यदि तुझे विश्वास है कि तू उस लड़के के साथ खुश रहेगी तो मैं दूंगा तेरा साथ किंतु तुझे मेरी एक बात माननी होगी-एकदम चुप रहना होगा.’’ दादू की बात मान कर झूमुर ने अपने होंठ सिल लिए. उसे अपने दादू पर पूरा विश्वास था.

दादू ने भी बिना समय गंवाए अपने बेटे बृजलाल से इस विषय में बात की. बृजलाल अचरज में थे कि पिताजी को यह बात किस ने बता दी. ‘‘मुझ से यह बात स्वयं झूमुर ने साझा की है. अब तू यह बता कि परिवार की खुशी के आगे क्या अपनी इकलौती बिटिया की खुशी खोने को तैयार है?’’

‘‘पिताजी, यही तो दुविधा है. मैं झूमुर को उदास भी नहीं देख सकता हूं और अपने परिवार को नाराज भी नहीं कर सकता हूं.’’

‘‘और यदि दोनों ही न रूठें तो?’’ दादू के दिमाग में खिचड़ी पक रही थी. उन्होंने बृजलाल से अपना आइडिया बांटा. उन के कहने पर झूमुर ने उसी शाम परिवार वालों के लिए फिल्म की टिकटें मंगवा दीं. जब सभी खुशीखुशी फिल्म देखने चल पड़े तो अचानक दादू ने तबीयत नासाज होने की बात कर अपने संग राधेश्याम और बृजलाल को घर में रोक लिया. अब सब जा चुके थे. सो, दादू चैन से अपने दोनों बेटों से बात कर सकते थे. ‘‘देखो भाई, मुझे तुम दोनों से एक बहुत ही गंभीर विषय में बात करनी है. मेरी एक समस्या है और इस का उपाय तुम दोनों के पास है,’’ कहते हुए उन्होंने पूरी बात राधेश्याम और बृजलाल के समक्ष रख दी.  दोनों मुंह खोले एकदूसरे को ताकने लगे. इस से पहले कि कोई कुछ बोलता, दादू आगे बोले, ‘‘मैं पहले ही एक पोती को अपनी जिंदगी से खो चुका हूं सिर्फ इसी सिलसिले में. झूमुर मेरी सब से प्यारी पोती है और सब जानते हैं सूद असल से प्यारा होता है. मैं नहीं चाहता हूं कि झूमुर को भी खो दूं या हमारी झूठी शान और इज्जत के चक्कर में झूमुर अपनी हंसीखुशी खो बैठे. इस परेशानी का हल तुझे निकालना है राधे, और वह भी ऐसे कि किसी को कानोंकान खबर न हो.’’

‘‘मैं, पिताजी?’’ राधेश्याम हतप्रभ रह गए. एक तो विधर्म विवाह की बात से वे परेशान थे, ऊपर से पिताजी इस का हल निकालने का बीड़ा उन्हें ही दे बैठे थे.

‘‘बस, यह समझ ले कि मेरे परिवार के हित में मेरी यह आखिरी इच्छा है. मेरी पोती की खुशी और घरपरिवार की इज्जत-दोनों का खयाल रखना है,’’ पिताजी की आज्ञा सर्वोपरि थी.

राधेश्याम ने बहुत सोचा-पहले तो बृजलाल से आंखोंआंखों में मूक शिकायत की लेकिन उस की झुकी गरदन के आगे वे भी बेबस थे. दोनों भाइयों ने मिल कर सोचा कि रिदम के परिवार से मिला जाए और आगे की बात तय की जाए. परिवार के बाकी सदस्यों को बिना खबर किए दोनों दूसरे शहर रिदम के घर चले गए. वहां बातचीत वगैरा हो गई और अपने घर लौट कर दोनों भाइयों ने बताया कि एक अच्छा रिश्ता मिल गया. सो, बात पक्की कर दी गई. शादी की तैयारियां आरंभ हो गईं.

किंतु रिश्तेदारों से कोई बात छिपाना ऐसे है जैसे धूप में बर्फ जमाना. रिश्तेनाते मकड़ी के जालों की भांति होते हैं. बड़े ताऊजी ने बूआ को कह डाला, साथ ही ताकीद की कि वह आगे किसी से कुछ नहीं बताएगी. बूआ के पेट में मरोड़ उठी तो उन्होंने अपनी बेटी को बता दिया. और सब रिश्तेदारों में बात फैल गई कि यह रिश्ता झूमुर की पसंद का है, तथा लड़का ईसाई है लेकिन सभी चुप थे. यह बवाल अपने सिर कौन लेता कि बात किस ने फैलाई.

बड़े संयुक्त परिवारों की यह खासीयत होती है कि मुंह के सामने ‘हम साथसाथ हैं’ और पीठ फिरते ही ‘हम आप के हैं कौन?’ सभी रिश्तेदार शादी वाले घर में एकदूसरे का काम में हाथ बंटवाते, स्त्रियां बढ़चढ़ कर रीतिरिवाज निभाने में लगी रहतीं, कोई न कोई रिवाज बता कर उलझउलझाती रहतीं परंतु जहां मौका पड़ता, कोई न कोई कह रहा होता, ‘‘अब हमारे बच्चों पर इस का क्या असर होगा, आखिर हम कैसे रोक पाएंगे आगे किसी को अपनी मनमानी करने से. ऐसा ही था तो छिपाने की क्या आवश्यकता थी. बेचारी रेणु के साथ ऐसा क्यों किया था फिर…’’

दादू के कानों में भी खुसुरफुसुर पड़ गई. यह तो अच्छा नहीं है कि पता सब को है, सब पीठ पीछे बातें भी बना रहे हैं किंतु मुंह पर मीठे बने हुए हैं. दादू को पारिवारिक रिश्तों में यह दोगलापन नहीं भाया. उन के अनुभवी मस्तिष्क में फिर एक विचार आया किंतु इस बार उन्होंने स्वयं ही इसे परिणाम देने की ठानी. न किसी दूसरे को कुछ करने हेतु कहेंगे, न वह किसी और से कहेगा, और न ही बात फैलेगी.

नियत दिन पर बरात आई. धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ. फिर कुछ ऐसा हुआ जिस की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. अचानक विवाह समारोह में एक व्यक्ति आए हाथ में रजिस्टर कलम पकड़े. उन के लिए एक कुरसी व मेज लगवाई गई. और दादू ने हाथ में माईक पकड़ घोषणा करनी शुरू कर दी, ‘‘मेरी पौत्री के विवाह में पधारने हेतु आप सब का बहुतबहुत आभार…आप सब ने मेरी पौत्री को पूरे मन से आशीष दिए. हम सब निश्चितरूप से यही चाहते हैं कि झूमुर तथा रिदम सदैव प्रसन्न रहें. इस अवसर पर मैं आप सब को एक खुशखबरी और देना चाहता हूं. मेरा परिवार इस पूरे शहर में, बल्कि आसपास के शहरों में भी काफी प्रसिद्ध श्रेणी में आता है किंतु मेरे परिवार के ऊपर एक कलंक है, अपनी एक बेटी की इच्छापालन न करने का दोष. आज मैं वह कलंक धोना चाहता हूं. हम कब तक अपनी मर्यादाओं के संकुचित दायरों में रह कर अपने ही बच्चों की खुशियों का गला घोंटते रहेंगे? जब हम अपने बच्चों को अच्छी शिक्षादीक्षा प्रदान करते हैं तो उन के निर्णयों को मान क्यों नहीं दे सकते?’’

‘‘मेरी झूमुर ने एक ईसाई लड़के  को चुना. हमें भी वह लड़का व उस का परिवार बहुत पसंद आया. और सब से अच्छी बात यह है कि न तो झूमुर अपना धर्म बदलना चाहती है और न ही रिदम. दोनों को अपने संस्कारों, अपनी संस्कृतियों पर गर्व है. कितना सुदृढ़ होगा वह परिवार जिस में 2-2 धर्मों, भिन्न संस्कृतियों का मेल होगा. लेकिन कानूनन ऐसी शादियां सिविल मैरिज कहलाती हैं जिस के लिए आज यहां रजिस्ट्रार साहब को बुलाया गया है.’’

दादू के इशारे पर झूमुर व रिदम दोनों रजिस्ट्रार के पास पहुंचे और दस्तखत कर अपने विवाह को कानूनी तौर पर साकार किया.

इस प्रकार खुलेआम सारी बातें स्पष्ट रूप से कहने और स्वीकारने से रिश्तेदारों द्वारा बातों की लुकाछिपी बंद हो गई तथा आगे आने वाले समय के लिए भी बात खुलने का डर या किसी प्रकार की शर्मिंदगी का प्रश्न समाप्त हो गया. दादू की दूरंदेशी और समझदारी ने न केवल झूमुर के निर्णय की इज्जत बनाई बल्कि परिवार में भी एकरसता घोल दी. पूरे शहर में इस परिवार की एकता व हौसले के चर्चे होने लगे. विदाई के समय झूमुर सब के गले मिल कर रो रही थी. किंतु दादू के गले मिलते ही, उन्होंने उस के कान में ऐसा क्या कह दिया कि भीगे गालों व नयनों के बावजूद वह अपनी हंसी नहीं रोक पाई. जब मियांबीवी राजी तो क्यों करें रिश्तेदार दखलबाजी.

Mother’s Day 2024- अधूरी मां- भाग 2: क्या खुश थी संविधा

संविधा भी पहले नौकरी करती थी. उसे भी 6 अंकों में वेतन मिलता था. इस तरह पतिपत्नी अच्छी कमाई कर रहे थे. लेकिन संविधा को इस में संतोष नहीं था. वह चाहती थी कि भाई की तरह उस का भी आपना कारोबार हो, क्योंकि नौकरी और अपने कारोबार में बड़ा अंतर होता है. अपना कारोबार अपना ही होता है.

नौकरी कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कितना भी वेतन मिलता हो, नौकरी करने वाला नौकर ही होता है. इसीलिए संविधा भाई की तरह अपना कारोबार करना चाहती थी. वह फ्लैट में भी नहीं, कोठी में रहना चाहती थी. अपनी बड़ी सी गाड़ी और ड्राइवर चाहती थी. यही सोच कर उस ने सात्विक को प्रेरित किया, जिस से उस ने अपना कारोबार शुरू किया, जो चल निकला. कारोबार शुरू करने में राजन के ससुर ने काफी मदद की थी.

संविधा ने सात्विक को अपनी प्रैगनैंसी के बारे में बताया तो वह बहुत खुश

हुआ, जबकि संविधा अभी बच्चा नहीं चाहती थी. वह अपने कारोबार को और बढ़ाना चाहती भी. अभी वह अपना जो काम बाहर कराती थी, उस के लिए एक और फैक्टरी लगाना चाहती थी. इस के लिए वह काफी मेहनत कर रही थी. इसी वजह से अभी बच्चा नहीं चाहती थी, क्योंकि बच्चा होने पर कम से कम उस का 1 साल तो बरबाद होता ही. अभी वह इतना समय गंवाना नहीं चाहती थी.

सात्विक संविधा को बहुत प्यार करता था. उस की हर बात मानता था, पर इस तरह अपने बच्चे की हत्या के लिए वह तैयार नहीं था. वह चाहता था कि संविधा उस के बच्चे को जन्म दे. पहले उस ने खुद संविधा को समझाया, पर जब वह उस की बात नहीं मानी तो उस ने अपनी सास से उसे मनाने को कहा. रमा बेटी को मनाने की कोशिश कर रही थीं, पर वह जिद पर अड़ी थी. रमा ने उसे मनाने के लिए अपनी बहू ऋता को बुलाया था. लेकिन वह अभी तक आई नहीं थी. वह क्यों नहीं आई, यह जानने के लिए रमा देवी फोन करने जा ही रही थीं कि तभी डोरबैल बजी.

ऋता अकेली आई थी. राजन किसी जरूरी काम से बाहर गया था. संविधा भैयाभाभी की बात जल्दी नहीं टालती थी. वह अपनी भाभी को बहुत प्यार करती थी. ऋता भी उसे छोटी बहन की तरह मानती थी.

संविधा ने भाभी को देखा तो दौड़ कर गले लग गई. बोली, ‘‘भाभी, आप ही मम्मी को समझाएं, अभी मुझे कितने काम करने हैं, जबकि ये लोग मुझ पर बच्चे की जिम्मेदारी डालना चाहते हैं.’’

ऋता ने उस का हाथ पकड़ कर पास बैठाया और फिर गर्भपात न कराने के लिए समझाने लगी.

‘‘यह क्या भाभी, मैं ने तो सोचा था, आप मेरा साथ देंगी, पर आप भी मम्मी की हां में हां मिलाने लगीं,’’ संविधा ने ताना मारा.

‘‘खैर, तुम अपनी भाभी के लिए एक काम कर सकती हो?’’

‘‘कहो, लेकिन आप को मुझे इस बच्चे से छुटकारा दिलाने में मदद करनी होगी.’’

‘‘संविधा, तुम एक काम करो, अपना यह बच्चा मुझे दे दो.’’

‘‘ऋता…’’ रमा देवी चौंकीं.

‘‘हां मम्मी, इस में हम दोनों की समस्या का समाधान हो जाएगा. पराया बच्चा लेने से मेरी मम्मी मना करती हैं, जबकि संविधा के बच्चे को लेने से मना नहीं करेंगी. इस से संविधा की भी समस्या हल हो जाएगी और मेरी भी.’’

संविधा भाभी के इस प्रस्ताव पर खुश हो गई. उसे ऋता का यह प्रस्ताव स्वीकार था. रमा देवी भी खुश थीं. लेकिन उन्हें संदेह था तो सात्विक पर कि पता नहीं, वह मानेगा या नहीं?

संविधा ने आश्वासन दिया कि सात्विक की चिंता करने की जरूरत नहीं है, उसे वह मना लेगी. इस तरह यह मामला सुलझ गया. संविधा ने वादा करने के लिए हाथ बढ़ाया तो ऋता ने उस के हाथ पर हाथ रख कर गरदन हिलाई. इस के बाद संविधा उस के गले लग कर बोली, ‘‘लव यू भाभी.’’

‘‘पर बच्चे के जन्म तक इस बात की जानकारी किसी को नहीं होनी चाहिए,’’ ऋता

ने कहा.

ठीक समय पर संविधा ने बेटे को जन्म दिया. सात्विक बहुत खुश था. बेटे के

जन्म के बाद संविधा मम्मी के यहां रह रही थी. इसी बीच ऋता ने अपने लीगल एडवाइजर से लीगल दस्तावेज तैयार करा लिए थे. ऋता ने संविधा के बच्चे को लेने के लिए अपनी मम्मी और पापा को राजी कर लिया था. उन्हें भी ऐतराज नहीं था. राजन के ऐतराज का सवाल ही नहीं था. लीगल दस्तावेजों पर संविधा ने दस्तखत कर दिए. अब सात्विक को दस्तखत करने थे. सात्विक से दस्तखत करने को कहा गया तो वह बिगड़ गया.

रमा उसे अलग कमरे में ले जा कर कहने लगी, ‘‘बेटा, मैं ने और ऋता ने संविधा को समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह मानी ही नहीं. उस के बाद यह रास्ता निकाला गया. तुम्हारा बेटा किसी पराए घर तो जा नहीं रहा है. इस तरह तुम्हारा बेटा जिंदा भी है और तुम्हारी वजह से ऋता और राजन को बच्चा भी मिल रहा है.’’

रमा की बातों में निवेदन था. थोड़ा सात्विक को सोचने का मौका दे कर रमा देवी ने आगे कहा, ‘‘रही बच्चे की बात तो संविधा का जब मन होगा, उसे बच्चा हो ही जाएगा.’’

रमा देवी सात्विक को प्रेम से समझा तो रही थीं, लेकिन मन में आशंका थी कि पता नहीं, सात्विक मानेगा भी या नहीं.

सात्विक को लगा, जो हो रहा है, गलत कतई नहीं है. अगर संविधा ने बिना बताए ही गर्भपात करा लिया होता तो? ऐसे में कम से कम बच्चे ने जन्म तो ले लिया. ये सब सोच कर सात्विक ने कहा, ‘‘मम्मी, आप ठीक ही कह रही हैं… चलिए, मैं दस्तखत कर देता हूं.’’

सात्विक ने दस्तखत कर दिए. संविधा खुश थी, क्योंकि सात्विक को मनाना आसान नहीं था. लेकिन रमा देवी ने बड़ी आसानी से मना लिया था.

समय बीतने लगा. संविधा जो चाहती थी, वह हो गया था. 2 महीने आराम कर के संविधा औफिस जाने लगी थी. काफी दिनों बाद आने से औफिस में काम कुछ ज्यादा था. फिर बड़ा और्डर आने से संविधा काम में कुछ इस तरह व्यस्त हो गई कि ऋता के यहां आनाजाना तो दूर वह उस से फोन पर भी बातें नहीं कर पाती.

एक दिन ऋता ने फोन किया तो संविधा बोली, ‘‘भाभी, लगता है आप बच्चे में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गई हैं, फोन भी नहीं करतीं.’’

‘‘आप व्यस्त रहती हैं, इसलिए फोन नहीं किया. दिनभर औफिस की व्यस्तता, शाम को थकीमांदी घर पहुंचती हैं. सोचती हूं, फोन कर के क्यों बेकार परेशान करूं.’’

‘‘भाभी, इस में परेशान करने वाली क्या बात हुई? अरे, आप कभी भी फोन कर सकती हैं. भाभी, आप औफिस टाइम में भी फोन करेंगी, तब भी कोई परेशानी नहीं होगी. आप के लिए तो मैं हमेशा फ्री रहती हूं.’’

संविधा ने कहा, ‘‘बताओ, दिव्य कैसा है?’’

‘‘दिव्य तो बहुत अच्छा है. तुम्हारा धन्यवाद कैसे अदा करूं, मेरी समझ में नहीं आता. इस के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मम्मीपापा बहुत खुश रहते हैं. पूरा दिन उसी के साथ खेलते रहते हैं.

जिंदगी की धूप- भाग 2 : मौली के मां बनने के लिए क्यों राजी नहीं था डेविड

कमबख्त, घंटी बजती जा रही थी और वौइस मैसेज पर जा कर थम जाती, तो वह  झल्ला कर फोन काट देती. पता नहीं, डेविड फोन क्यों नहीं उठा रहा है, कुछ सोच कर उस ने फोन रख दिया. अपने दफ्तर के बालकनी में वह इधरउधर घूमने लगी. फिर सोचा, क्यों न मम्मीपापा को फोन करूं? रिंग जाने लगी लेकिन वहां भी कोई फोन नहीं उठा रहा था.

वह मन में सोचने लगी. यह क्या बात है, मैं इतनी बड़ी खबर बताना चाहती हूं और कोई फोन उठा ही नहीं रहा है. जब कोई बात नहीं होती तो घंटों बिना मतलब की बातें करते हैं और बारबार कहते हैं, ‘‘और बताओ क्या चल रहा है?’’

आज जब बात है तो कोई सुनने वाला नहीं है.

तभी जैनेटर कूड़ा उठाने के लिए आई और एक मुसकान के साथ में बोली, ‘‘हाउ आर यू?’’ अब तो मौली के पेट में गुड़गुड़ होने लगी और पेट में दबी बात बाहर आने के लिए छटपटाने लगी. आखिर में उस ने अपने को रोका और सिर्फ इतना ही बोल पाई, ‘‘गुड, ऐंड यू?’’ उस ने जवाब में अंगूठे और तर्जनी को मिलाया और एक वी शेप बनाते हुए अपने ठीकठाक होने का संकेत देते हुए ‘हैव ए नाइस डे…’ का रटारटाया संवाद कह कर चलती बनी.

उस ने सोचा कि अच्छा ही हुआ जो उसे कुछ नहीं बताया. नहीं तो सारा मजा किरकिरा हो जाता. वह अपनी मशीनी मुसकान के साथ मुबारकबाद देती और चली जाती. अपनी खास बात वह सब से पहले उन लोगों को बताना चाहती थी जो इसे उसी की तरह महसूस कर सकें.

उस का मन हुआ फोन पर मैसेज भेज दूं लेकिन फिर वह रुक गई क्योंकि वह उस ऐक्साइटमैंट को नहीं सुन पाएगी जो वह शब्दों से सुनना चाह रही थी. तभी फोन की घंटी घनघना उठी.

उस ने थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए कहा, ‘‘कहां थे? इतनी देर से फोन मिला रही थी?’’

‘‘कहां हो सकता हूं? जेलर हूं. राउंड पर तो जाना ही पड़ता है,’’ डेविड की आवाज में थोड़ी  झुं झलाहट थी.

‘‘अच्छा तो यहां भी एक राउंड लगाने आ जाओ,’’ आवाज में मधु घोलते हुए उस ने कहा.

‘‘क्या बात है आज तो बड़ी रोमांटिक हो रही हो?’’

‘‘क्या लंच पर मिलें. ब्राइटस्ट्रीट पर?’’

‘‘नहीं यार, आज बहुत काम है.’’

देख लो, मु झे तुम्हें कुछ बताना है. बहुत खास बात है.’’

उस की आवाज की गुदगुदी और खुशी को महसूस करते हुए वह बोला, ‘‘अच्छा  ठीक है चलो मिलते हैं 12 बजे.’’

फिर दोनों अपनेअपने काम में मशगूल हो गए. मौली अपनी मीटिंग जल्दीजल्दी निबटाने लगी और बराबर घड़ी भी देखती जाती. जैसे

12 बज जाएंगे और उसे पता नहीं चलेगा. उस ने काम इतनी रफ्तार से खत्म किया कि पौने 12 बजे ही लंच पर पहुंच गई और बैठते ही एक लैमनेड और्डर कर दिया. करने को कुछ नहीं था तो अपने मोबाइल से डेविड को संदेश पर संदेश भेजने लगी.

‘‘कहां हो? जल्दी आओ यार.’’

जब वह आया तो उस ने पूछा, ‘‘भई, ऐसी क्या बेताबी थी कि तुम ने यहां मिलने के लिए बुला लिया?’’

‘‘पति महोदय, इतनी आसानी से तो मैं नहीं बता दूंगी,’’ मौली मुसकराती हुई बोली.

‘‘तुम्हें प्रमोशन मिला है क्या?’’

‘‘उस ने ‘न’ में सिर हिला दिया.’’

‘‘अच्छा पहले बताओ. दफ्तर की खबर है या घर की?’’

‘‘घर की.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘तुम ने नया सोफा और्डर कर दिया है जिस के बारे में तुम बोल रही थीं?’’

‘‘उफ, तुम भी कितने बोरिंग हो. नए सोफे के लिए कौन इतना ऐक्साइटेड होता है?’’

‘‘क्या तुम्हारी बहन आ रही है?’’

‘‘नहीं, बाबा.’’

‘‘फिर तुम्हारे घर से कोई और आ रहा है क्या?’’

‘‘नहीं, जी,’’ मौली इतराते हुए बोली, ‘‘अच्छा, मैं हार गया अब बताओ.’’

मौली से अब और नहीं रोका जा रहा था, ‘‘हम पेरैंट्स बनने वाले हैं,’’ उस ने लगभग चीखते हुए कहा.

आसपास के लोग उन की तरफ देखने लगे और कुछ लोगों ने तो बाकायदा ताली बजाते हुए मुबारकबाद भी दे दी.

लजाते हुए गुलाबी हो आए गालों पर हाथ रखते हुए उस ने सब को ‘शुक्रिया’ कहा.

डेविड सामने की सीट से उठ कर उस के पास आ गया और उसे गले से लगा लिया.

फिर उस के हाथ सरकते हुए मौली के पेट पर आ कर रुक गए.

देर तक डेविड मौली की आंखों में देखता रहा उस की आंखें गीली हो गईं. उसे लगा वह रो देगा. मौली की आंखों में भी नमी थी.

उस ने कहा, ‘‘मु झे लग रहा था कि यही बात है.’’

‘‘तो पहले क्यों नहीं बताया, बुद्धू.’’

‘‘मु झे लगा कि अगर यह सच नहीं हुआ तो तुम परेशान हो जाओगी,’’ डेविड ने मौली के होंठों को चूमते हुए कहा.

तभी वहां वेटर आया और दोनों ने फलाफल और सैंडविच और्डर किया और अपने इन खुशी के पलों को बारबार जीने की कोशिश करने लगे. आज दोनों बहुत खुश हैं मानो जिंदगी में सबकुछ मिल गया हो.

मौली ने कहा, ‘‘देखो, अभी सितंबर का महीना है तो हमारा बच्चा जून में होगा. जून में तो हमारी छुट्टियां भी होती हैं और मेरी मां के स्कूल भी बंद होते हैं, वे भी हमारे पास रहने आ सकती हैं. कितना अच्छा होगा कि हमारे बच्चे को नानी का साथ मिलेगा. क्या जिंदगी में कुछ इतना परफैक्ट होता है? कुदरत ने हमें सबकुछ कितना सोचसम झ कर दिया है.’’

डेविड ने मुसकरा कर उस की बात का समर्थन किया. डेविड मौली की किसी भी बात को नहीं काटना चाहता था जो वह कहती उसे खुशी से स्वीकृति दे देता. उसे मालूम है कि मौली के लिए उस की स्वीकृति कितनी जरूरी है.

क्रिसमस को डेविड की मां भी जरमनी से आ गईं. मौली उन को ज्यादा पसंद नहीं करती थी. उसे लगता था कि वे उन की जिंदगी में बहुत दखल देती हैं. भई, सभी लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहते हैं.

मौली ने डेविड से साफ कह दिया था कि तुम्हारी मां बहुत कड़क स्वभाव वाली हैं और उन का हुक्म बजाना मु झ से नहीं हो पाएगा. तब से डेविड कोशिश करता था कि मौली और मां को दूर रखा जाए लेकिन बच्चे की खबर सुन कर उस की मां मिलने चली आईं और इस अवसर पर उन्हें रोकना डेविड को उचित भी नहीं लगा था.

वे आईं तो उन्होंने मौली का खूब ध्यान रखा और उसे खानेपीने की पौष्टिक चीजें खिलाती रहीं.

इस बार मौली और मां में खूब बन रही थी. दोनों जब भी साथ होतीं तो खिलखिलाती  रहतीं. अभी टीवी पर खबर आ रही थी कि चीन में नोवल कोरोना वायरस पाया गया है. इसलिए पूरे वुहान शहर को ही बंद कर दिया गया है. दोनों खबर देख कर पेट पकड़ कर हंसने लगीं कि भला किसी शहर को यों भी लौकडाउन किया जा सकता है. कितने बेवकूफ हैं?

मौली बोली, ‘‘अगर यहां ऐसा हो तो मैं तो मर ही जाऊं.’’

मां ने कहा, ‘‘जाने कैसेकैसे लोग हैं, चमगादड़ तक को नहीं छोड़ते.’’

‘‘कुत्ते और बिल्ली कम पड़ गए होंगे,’’ कह कर दोनों देर तक हंसती रहीं.

फिर एक दिन जब मौली ने कहा कि उस की मां एक बेबी शौवर रखना चाहती हैं तो उन्होंने कहा, ‘‘जरमन में लोग कहते हैं पहले बच्चे में बेबी शौवर नहीं करना चाहिए.’’

मौली को यह बात नागवार गुजरी. अब वह किस संस्कृति के तौर तरीके अपनाए अमेरिकी या जरमनी? हालांकि मौली का पेट दिखने लगा था और अब तो 5 महीने गुजर चुके थे और सब को बताना सेफ था. जाने क्या सोच कर उस ने सास की बात रख ली और बेबी शावर नहीं रखा, बस फोन पर अपने खास जानने वालों को खबर कर दी.

सर्दी में मौली अपना खास ध्यान रखने लगी और जाने कितने ही लेख और किताबें गर्भावस्था पर पढ़ डालीं. अपने पहले बच्चे के लिए जितनी तैयारी कर सकती थी कर ली. लेकिन कोरोना के कहर के बारे में रोज सुनसुन के उस के कान पक गए थे. क्या है यह कोरोना और कैसे फैलता है किसी को ठीक से नहीं मालूम था.

जल्दी ही नर्सिंगहोम में सब को एक ज्ञापन मिला कि सभी कर्मचारियों के लिए मास्क पहनना अनिवार्य है, तो मौली को यह सम झने में बहुत मुश्किल आई कि क्यों जरूरी है? वह तो नर्सिंगहोम में एक फाइनैंशियल औफिसर है और उस का डाक्टर और नर्स से इतना वास्ता भी नहीं पड़ता. उसे ज्यादातर इंश्योरैंस कंपनी के साथ ही बातचीत करनी होती थी या मरीजों के क्लेम फाइल करने होते थे जिसे वह नर्सिंगहोम में ही बने हुए अपने एक अंडरग्राउंड दफ्तर में बैठ कर करती थी जिस में उस के साथ 3 और लोग भी थे.

अब इस कोरोना की मुसीबत की वजह से उसे पूरे दिन मास्क लगाके और बारबार  हैंड सैनिटाइजर से हाथ रगड़ने पड़ते थे. हर 1 घंटे में वह दफ्तर के बाहर आ बैठती और एक पेड़ के नीचे मास्क हटा कर लंबीलंबी सांस लेती. उस की सांसें वैसे भी बहुत फूलती हैं लंबेचौड़े कद और भरेभरे बदन वाली तो वह पहले से ही थी.

Mother’s Day Special: पुनरागमन- भाग 2- क्या मां को समझ पाई वह

‘‘अब बताओ, हुआ क्या है, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं ने मांजी से बारबार कहा कि कपड़े गंदे न करें, जरूरत पड़ने पर मुझे बताएं. सुबह मैं ने उन से बाथरूम चलने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और दो मिनट बाद ही बिस्तर गंदा कर दिया. मैं ने उन की सफाई के साथ ही साथ उन से नहाने के लिए भी कहा तो वे बोलीं, ‘पानी कमरे में ही ले आओ, मैं कमरे में ही नहाऊंगी.’ बहुत समझाने पर भी जब मांजी नहीं मानीं तो मैं पानी कमरे में ले आई. वैसे भी अकेले मेरे लिए मांजी को उठाना मुश्किल था. मैं ने सोचा था कि गीले कपड़े से पोंछ दूंगी, फिर खाना खिला दूंगी. पर मांजी ने तो गुस्से में पैर से पानी की पूरी बालटी ही उलट दी और खाने की थाली उठा कर नीचे फेंक दी. मैं तो दिनभर कमरा साफ करकर के थक जाती हूं.’’

नीरू ने मां के कमरे में पैर रखा तो उस का दिल घबरा गया. पूरे कमरे में पानी ही पानी भरा था. खाने की थाली एक ओर पड़ी थी और कटोरियां दूसरी तरफ. रोटी, दाल, चावल सब जमीन पर फैले थे. मां मुंह फुलाए बिस्तर पर बैठी थीं.

नीरू ने मां के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, खाना क्यों नहीं खाया? तुम ने कल रात को भी खाना नहीं खाया. इस तरह तो तुम कमजोर हो जाओगी.’’

मैं आया के हाथ का खाना नहीं खाऊंगी, आया गंदी है. उसे भगा दो. मुझ से कहती है कि मेरी शिकायत तुम से करेगी, फिर तुम मुझे डांटोगी. तुम डांटोगी मुझे?’’ मां ने किसी छोटे बच्चे की तरह भोलेपन से पूछा तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने मां के गले में हाथ डाल कर प्यार किया और कहा, ‘‘मैं अपनी प्यारी मां को अपने हाथों से खाना खिलाऊंगी. बोलो, क्या खाओगी?’’

‘‘मिठाई दोगी?’’ मां ने आशंकित हो कर कहा.

‘‘मिठाई? पर मिठाई तो खाना खाने के बाद खाते हैं. पहले खाना खा लो, फिर मिठाई खा लेना.’’

‘‘नहीं, पहले मिठाई दो.’’

‘‘नहीं, पहले खाना, फिर मिठाई.’’ नीरू ने मां की नकल उतार कर कहा तो मां ताली बजा कर खूब हंसीं और बोलीं, ‘‘बुद्धू बना रही हो, खाना खा लूंगी तो मिठाई नहीं दोगी. पहले मिठाई लाओ.’’

नीरू ने मिठाई ला कर सामने रख दी तो मां खुश हो कर बोलीं, ‘‘पहले एक पीस मिठाई, फिर खाना.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, लड्डू लोगी या रसगुल्ला?’’

‘‘रसगुल्ला,’’ मां ने खुश हो कर कहा.

नीरू ने एक रसगुल्ला कटोरी में रख कर उन्हें दिया और उन के लिए थाली में खाना निकालने लगी. दो कौर खाने के बाद ही मां फिर खाना खाने में आनाकानी करने लगीं. ‘‘पेट गरम हो गया, अब और नहीं खाऊंगी,’’ मां ने मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छा, एक कौर मेरे लिए, मां. देखो, तुम ने कल भी कुछ नहीं खाया था, अभी दवाई भी खानी है और दवाई खाने से पहले खाना खाना जरूरी है वरना तबीयत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मैं नहीं खा सकती. अब एक कौर भी नहीं.’’ तुम तो दारोगा की तरह पीछे लग जाती हो. मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मेरी अम्मा बनने चली हो. अब पेट में जगह नहीं है तो क्या करूं, पेट बड़ा कर लूं,’’ कहते हुए मां ने पेट फुला लिया तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंसते हुए थाली की ओर हाथ बढ़ाया तो मां ने समझा कि नीरू फिर उस से खाने के लिए कहेगी. सो, अपनी आंखें बंद कर के लेट गईं. तभी फोन की घंटी बजी तो नीरू फोन पर बात करने लगी. बात करतेकरते नीरू ने देखा कि मां ने धीरे से आंखें खोल कर देखा और रसगुल्ले की ओर हाथ बढ़ाया पर नीरू को अपनी ओर आते देखा तो झट से बोलीं, ‘‘हम रसगुल्ला थोड़े उठा रहे थे, हम तो उस पर बैठा मच्छर भगा रहे थे.’’

‘‘तुम्हें एक रसगुल्ला और खाना है?’’ नीरू ने हंस कर पूछा.

‘‘हां, मुझे रसगुल्ला बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘तो पहले रोटी खाओ, फिर रसगुल्ला भी खा लेना.’’

‘रसगुल्ला, कचौड़ी, कचौड़ी फिर रसगुल्ला, फिर कचौड़ी…’ मां मुंह ही मुंह में बुदबुदा रही थीं. नीरू ने सुना तो उसे हंसी आ गई.

‘‘शाम को मेहमान आने वाले हैं. तब तुम्हारी पसंद की कचौड़ी बनाऊंगी,’’ नीरू ने मां को मनाने के लिए कहा तो मां प्रसन्न हो कर बोलीं, ‘‘हींग वाली कचौड़ी?’’

‘‘हां, हींग वाली. लो, अब एक रोटी खा लो, फिर शाम को कचौड़ी खाना.’’

‘‘तो मैं शाम को रोटी नहीं खाऊंगी, हां. मुझे पेटभर कचौड़ी देना.’’

‘‘अच्छा बाबा. मैं तो इसलिए रोकती हूं कि मीठा और तलाभुना खाने से तुम्हारी शुगर बढ़ जाती है. आज शाम को जो तुम कहोगी मैं तुम्हें वही खिलाऊंगी पर अभी एक रोटी खाओ.’’

नीरू ने मां को रोटी खाने के लिए मना ही लिया. शाम को मां अपने कमरे में अकेली बैठी कसमसा रही थीं. बाहर के कमरे से लगातार बातों के साथसाथ हंसने की भी आवाजें आ रही थीं. ‘क्या करूं, नीरू को बुलाने के लिए आवाज दूं क्या? नहींनहीं, नीरू गुस्सा करेगी. तो फिर? मन भी तो नहीं लग रहा है. मैं भी उसी कमरे में चली जाऊं तो? ये मेहमान भी चले क्यों नहीं जाते. 2 घंटे से चिपके हैं. अभी न जाने कितनी देर तक जमे रहेंगे. मैं पूरे दिन नीरू का इंतजार करती हूं कि शाम को नीरू के साथ बातें करूंगी वरना इस कमरे में अकेले पड़ेपड़े कितना जी घबराता है, किसी को क्या पता?’

अचानक मां के कमरे से ‘हाय मर गई. हे प्रकृति, तू मुझे उठा क्यों नहीं लेती,’ की आवाज आने लगी तो सब का ध्यान मां के कमरे की ओर गया. सब दौड़ते हुए कमरे में पहुंचे तो देखा मां अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही हैं. नीरू ने मां से पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, कराह क्यों रही हो?’’

‘‘मेरा पेट गरम हो रहा है. देखो, और गरम होता जा रहा है. गरमी बढ़ती जा रही है. खड़ीखड़ी क्या कर रही हो? मेरे पेट की आग से पूरा घर जल जाएगा. सब जल जाएंगे.’’

मां की बात सुन कर नीरू ने कहा, ‘‘चलो, अस्पताल चलते हैं.’’ फिर नीरू ने मेहमानों से कहा, ‘‘आप आराम से बैठें, मैं मां को डाक्टर को दिखा कर आती हूं.’’

समय की नजाकत को भांपते हुए मेहमानों ने भी कहा, ‘‘आप मां को अस्पताल ले जाएं, हम फिर कभी आ जाएंगे.’’

कल्पवृक्ष: विवाह के समय सभी मजाक क्यों कर रहे थे?

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