मेरे बेटे की उम्र 2 साल है, उसे 2-3 बार कानों का संक्रमण हो गया है, मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल-

मेरे बेटे की उम्र 2 साल है, उसे 2-3 बार कानों का संक्रमण हो गया है. बताएं क्या करूं?

जवाब-

शिशुओं और छोटे बच्चों में मध्य कान का संक्रमण अधिक होता है. इसे चिकित्सकीय भाषा में ओटिटिस मीडिया कहते हैं. आप को घबराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि एक अनुमान के अनुसार लगभग 75% बच्चे अपने जीवन के पहले 3 सालों में कम से कम

50% बच्चे 1 से अधिक बार इस संक्रमण के शिकार होते है.

बच्चों में यह समस्या इसलिए अधिक होती है क्योंकि उन की यूस्टेशियन ट्यूब्स व्यस्कों की तुलना में छोटी और सीधी होती हैं इसलिए बैक्टीरिया और वायरस के लिए उन में घुसना आसान होता है.

बच्चों को नहलाते समय कानों में पानी घुसने से भी संक्रमण हो जाता है, इसलिए उन्हें नहलाते समय इयर प्लग का इस्तेमाल करें. धूल, मिट्टी और दूसरे कणों से होने वाले संक्रमण से बचाने के लिए जब भी बच्चे को बाहर ले जाएं उस के कानों को कपड़े या टोपी से अच्छी तरह ढक लें. समस्या गंभीर होने पर डाक्टर को दिखाएं.

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नए बच्चे के आगमन के साथ पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ जाती है. मातापिता के लिए अपने बच्चे की मुसकान से अधिक कुछ नहीं होता. यह मुसकान कायम रहे, इस के लिए जरूरी है बच्चे का स्वस्थ रहना. शिशु जब 9 माह तक मां के गर्भ में सुरक्षित रह कर बाहर आता है तो एक नई दुनिया से उस का सामना होता है, जहां पर हर पल कीटाणुओं के संक्रमण के खतरों से उस के नाजुक शरीर को जू झना पड़ता है. ऐसे में जरूरी है, उस के खानपान और रखरखाव में पूरी तरह हाईजीन का खयाल रखना.

पूरी खबर पढ़ने के लिए- नया बच्चा और हाईजीन

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कम उम्र में घुटनों का दर्द का कारण और इलाज बताएं?

सवाल- 

मेरी 34 वर्षीय घरेलू महिला हूं. प्रसव के बाद मेरे जोड़ों में काफी दर्द रहने लगा है. बताएं मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब-

गर्भावस्था और प्रसव के दौरान शरीर में कई रासायनिक और हारमोनल परिवर्तन होते हैं, जिन का प्रभाव जोड़ों पर भी पड़ता है. गर्भावस्था में वजन बढ़ने से भी कमर, कूल्हों और घुटनों के जोड़ों पर दबाव पड़ता है और उन में टूटफूट की प्रक्रिया तेज हो जाती है. कई महिलाएं गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान अपने खानपान का ध्यान नहीं रखतीं, जबकि इस दौरान उन के शरीर को पोषक तत्त्वों की काफी अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है, जिस से उन के शरीर में पोषण तत्त्वों की कमी हो जाती है और यह हड्डियों की कमजोरी का कारण बन जाता है. अपने खानपान का ध्यान रखें, बढ़े हुए वजन को कम करें और शारीरिक रूप से सक्रिय रहें.

सवाल-

मेरी उम्र 57 साल है. पिछले 1 साल से मेरे घुटनों में इतना दर्द है कि मुझे अपनी दैनिक गतिविधियां करने में भी परेशानी हो रही है. मैं जानना चाहती हूं कि मेरे लिए आंशिक घुटना प्रत्यारोपण कितना कारगर रहेगा?

जवाब-

अगर आप के घुटनों में इतनी तकलीफ है तो तुरंत किसी अच्छे और्थोपैडिक सर्जन से जांच कराएं. अगर सर्जरी कराना जरूरी हो तो उस में देरी न करें. आप के लिए कौन सी सर्जरी बेहतर रहेगी यह इस पर निर्भर करेगा कि आप के घुटनों के दर्द का कारण क्या है और समस्या किस स्तर पर है. अगर पूरा घुटना खराब नहीं है तो आंशिक घुटना प्रत्यारोपण सर्जरी एक बेहतर विकल्प है, क्योंकि इस में पूरे घुटने को नहीं केवल क्षतिग्रस्त भाग को बदला जाता है. संपूर्ण घुटना प्रत्यारोपण के विपरीत, इस में घुटनों का जोड़ 70% सुरक्षित रहता है. इस में मरीज रिकवर भी जल्दी होता है और सर्जरी के बाद उसी दिन या अगले दिन घर जा सकता है.

सवाल-

मैं जानना चाहती हूं कि बोन डैंसिटी टैस्ट क्या होता है और इसे कब कराना चाहिए?

जवाब-

बोन डैंसिटी टैस्ट में एक विशेष प्रकार के ऐक्सरे जिसे डीएक्सिए कहते हैं के द्वारा स्पाइन, कूल्हों और कलाइयों की स्क्रीनिंग की जाती है. इन भागों की हड्डियों की डैंसिटी माप कर इन की शक्ति का पता लगाया जाता है ताकि हड्डियों के टूटने से पहले ही उन का उपचार किया जा सके. आप 45 साल की उम्र में बोन डैंसिटी टैस्ट करा सकती हैं और इसे हर 5 साल बाद कराएं.

-डा. गौरव गुप्ता

एमएस, और्थोपैडिक सर्जन एवं निदेशक, फ्लोरेस हौस्पिटल, प्रताप विहार, गाजियाबाद.

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जब कोई होने लगे डिप्रेशन का शिकार

रीमा का सारा दिन चिड़चिड़ाना, छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा करना और बेवजह रोने लग जाना, नींद न आना, किसी काम में मन न लगना और अकेले बैठना, उसके इस व्यवहार से घर के सारे लोग परेशान थे. पति चिल्लाता कि कोई कमी नहीं है, फिर भी यह खुश नहीं रह सकती है, सास अलग ताने मारती कि इसे तो काम न करने के बहाने चाहिए. जब देखो अपने कमरे में जाकर बैठ जाती है.

 भौतिकतावादी संस्कृति से उपजी समस्याएं

रीमा की तरह कितने लोग हैं जो आज ऐसे हालातों से गुजर रहे हैं और जानते तक नहीं कि वे डिप्रेशन का शिकार हैं. वक्त जिस तेजी से बदला है और भौतिकवादी संस्कृति और सोशल मीडिया ने जिस तरह से हमारे जीवन में पैठ बनाई है, उसने डिप्रेशन को बड़े पैमाने पर जन्म दिया है और हर उम्र का व्यक्ति चाहे बच्चा ही क्यों न हो, इससे जूझ रहा है. मानसिक रूप से एक लड़ाई लड़ने वाले इंसान को बाहर से देखने पर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि वह भीतर से टूट रहा है. यहां तक कि ऐसे लोग जिनकी जिंदगी रुपहले पर्दे पर चमकती दिखाई देती है, भी इसका शिकार हो चुके हैं, जैसे आलिया भट्ट, वरुण धवन, मनीषा कोईराला, शाहरुख खान, और प्रसिद्ध लेखक जे.के. ऱॉउलिंग, कुछ ऐसे नाम हैं जो डिप्रेशन का शिकार हो चुके हैं. सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद से डिप्रेशन को लेकर समाज में चिंता और ज्यादा बढ़ गई है. केवल पैसे या स्टेट्स की कमी ही अब इसकी वजह नहीं रही है. भौतिकतावादी संस्कृति ने दिखावे की संस्कृति को बढ़ाया है डिसकी वजह से हर जगह प्रतिस्पर्धा बढ़ी है और जो इस प्रतिस्पर्धा में खुद को असफल या पीछे रह जाने के एहसास से घिरा पाता है, वह डिप्रेशन का शिकार हो जाता है. संघर्ष करने, चुनौतियों का सामना और सहनशीलता कम होने से केवल ‘अपने लिए’ जीने की चाह ने संबंधों में दूरियां पैदा कर दी हैं. यही वजह है कि व्यक्ति समाज से कटा हुआ अनुभव करता है और अकेलेपन का शिकार हो जाता है.

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‘‘मैं इन दिनों बहुत डिप्रेस्ड फील कर रही हूं.’’ ‘‘मैं बहुत लो फील कर रहा रहा हूं,’’ ये वाक्य अकसर सुनाई देते हैं तब पता चलता है कि वह डिप्रेशन में है, लेकिन कोई इस स्थिति में जा रहा है, अगर पहले ही पता चल जाए तो समय रहते उसे संभाला जा सकता है और आत्महत्या करने जैसी दुखद पीड़ा से उन्हें बचाया जा सकता है.

डॉ. समीर पारेख, डायरेक्टर, मेंटल हेल्थ एंड बिहेवेरियल साइंसेज, फोर्टिस हेल्थकेयर के अनुसार, ‘‘आज भी डिप्रेशन के लिए थेरेपिस्ट की मदद लेने की बात को लेकर एक हिचक कायम है. लेकिन डिप्रेशन से ग्रस्त व्यक्ति को यह समझाएं कि जैसे चोट लगने पर आप डॉक्टर के पास जाते हैं, उसी तरह थेरेपिस्ट से नियमित अंतराल पर मिलना जरूरी है. यह एक बीमारी है, यह बात स्वीकार कर लेना, उनके लिए आवश्यक है. अगर फिर भी वह जाने को तैयार न हो तो उसे योग या मेडीटेशन करने, संगीत सीखने या किसी हॉबी को अपनाने की सलाह दी जा सकती है. इस तरह उसे अपना ध्यान दूसरी जगह लगाने में मदद मिलेगी.’’

कैसे पहचानें

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक डिप्रेशन एक मानसिक बीमारी है, जो आमतौर पर मनस्थिति में होने वाले उतार-चढ़ाव और कम समय के लिए होने वाली भावनात्मक प्रतिक्रिया है, जबकि चिंता में व्यक्ति डर और घबराहट का अनुभव करता है. जब कोई व्यक्ति किसी स्थिति में खुद को बेबस महसूस करता है, तो इसे चिंता कहते हैं. लेकिन जब व्यक्ति को लगने लगता है उसके जीने का कोई अर्थ नहीं है, तो यह स्थिति डिप्रेशन कहलाती है. डिप्रेशन का अर्थ होता है आशाहीनता की स्थिति. जब मनुष्य को अपने जीवन में किसी भी प्रकार की उम्मीद या आशा की संभावना नहीं दिखाई देती, तो वह डिप्रेशन की स्थिति में चला जाता है. तब व्यक्ति हमेशा उलझन में और हारा हुआ महसूस करता है. उसके अंदर आत्मविश्वास की कमी हो जाती है, काम में ध्यान नहीं लगा पाता और अकेला रहना पसंद करता है. समाजशास्त्री एमिल दुरखाइम ने अपनी पुस्तक ‘आत्महत्या’ में लिखा कि जो लोग अपने समाज से कम जुड़े या कटे होते हैं, अकसर ऐसे ही लोग आत्महत्या अधिक करते हैं. यदि कोई व्यक्ति उदास है, हताश महसूस कर रहा है, तो उसे नज़रअंदाज़ करने के बजाय उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले जाएं

भ्रम होना या किसी बात को लेकर निश्चित न हो पाना, बार-बार भूलना, हर छोटी घटना पर अचानक निराश हो जाना, लगातार सोचना और तनाव में रहना. सोचते रहने से उनका एक नकारात्मक दृष्टिकोण बन जाता है और वह हर किसी को शक की नजर से देखने लगता है. खुद पर उसका विश्वास उठने से शंका ही उसे घेरे रहती है और अपने ही वजूद पर सवाल खड़े करता रहता है कि “मैं आखिर क्यों जी रहा/रही हूं, हर चीज इतनी बुरा क्यों है, मैं इससे बेहतर क्यों नहीं हो सकता/सकती’’ आदि. अपने ही सवालों में जब तकोई व्यक्ति उलझा दिखाई दे तो समझ लें कि वह डिप्रेशन से घिरा है.

सोने के तरीके में आने वाला बदलाव भी इसकी बड़ी पहचान है. या तो व्यक्ति बहुत ज्यादा सोएगा या नींद नहीं आएगी, रात में बेचैनी बनी रहेगी और सुबह उठने की इच्छा नहीं होगी.

डिप्रेशन होने पर या तो भूख बढ़ जाती है या कम हो जाती है. कुछ का वजन कम होने लगता है और कुछ का बढ़ने लगता है. उसे लगता है वह बीमार है. सिरदर्द, पेट या पीठ दर्द हमेशा बना रहता है.

इसके अतिरिक्त ऐसे लोगों को गुस्सा बहुत आता है, वह भी बिना कारण के. डॉं. समीर पारेख कहते हैं इसके शिकार लोगों में सोशल मीडिया की लत देखने को भी मिली है. वे सोशल मीडिया अपडेट के लिए लगातार उसे देखते रहते हैं. निरंतर सोशल मीडिया से जुड़े रहना अनियंत्रित डिप्रेशन को बढ़ाता है.

आपको किसी व्यक्ति में अचानक बदलाव महसूस हो तो उसे डिप्रेशन से बचाने के लिए पहले से तैयारी अवश्य कर लें.

क्या करें

  • कोशिश करें कि वह अकेला न रहे. उसकी उदासी को दूर करने के लिए उसका मन किसी ऐसी चीज में लगाएं जो उसे पसंद हो.
  • उससे ज्यादा से ज्यादा बात करने की कोशिश करें. उसकी सुनें, अपनी राय कम दें. वह भी कहे, उसके आधार पर उसका आकलन करने के बजाय उसके अंदर के डर, निराशा और सवालों को बाहर आने दें.
  • कोई डिप्रेशन में है, यह समझने के लिए, इस बीमारी के बारे में जानकारी हासिल करें. इसके लक्षणों के बारे में पढ़ें और ऐसे लोगों के लेख भी जिन्होंने डिप्रेशन से बाहर निकलने में दूसरों की मदद की थी. जैसे ऐसे लोगों के सोने के तरीकों में बदलाव आ जाता है. वे या केवल कुछ घंटों के लिए सोते हैं या बहुत ज्यादा समय तक सोते रहते हैं. उनके खाने-पीने की आदतों के बदलाव पर भी गौर करें. कहीं वे पहले की अपेक्षा ज्यादा तो नहीं खाने लगे हैं या उन्हें भूख लगनी बंद तो नहीं हो गई है. उनके मूड में भी परिवर्तन आने लगता है. गुस्सा, चिंता, अपराधबोध, उदासी की भावना से वे घिरे रहने लगते हैं. अगर ऐसा दिखे तो उनके प्रति संवेदनशील रहें और अपने व्यवहार से जताएं कि आपको उनकी परवाह है.
  • ऐसे लोगों के व्यवहार और मनोदशा पर बहुत ज्यादा बात करने के बजाय, उन्हें महसूस कराएं कि वे जैसे भी हैं, आप हमेशा उनका साथ देंगे और बेहिचक होकर वे उनसे जो चाहे शेयर कर सकते हैं.
  • उन्हें सलाह न दें, न ही आश्वासन कि सब ठीक हो जाएगा. उनकी मन की उथल-पुथल को समझें. यह जानें कि वे क्या करना चाहते हैं. ऐसे लोगों के मन में अकसर आत्महत्या या खुद को नुकसान पहुंचाने के ख्याल आते हैं. उन्हें विश्वास में लेकर ही पता लगाया जा सकता है उनके दिमाग में ऐसी बातें तो नहीं आ रही हैं.
  • परिवार, समाज और प्रियजनों के लिए उनकी कितनी अहमियत  है, इसका एहसास समय-समय पर कराते रहें. निरर्थक होने की भावना डिप्रेशन को बढ़ाती है.
  • उनकी मदद करते समय उन्हें ऐसा न लगे कि वे खुद कोई काम नहीं कर सकते हैं. डिप्रेशन से घिरे लोगों को अकसर लगता है कि उनकी जरूरत किसी को नहीं है. इसलिए वे दूसरों पर बोझ न बनें, यह सोचकर एक दूरी बनाने लगते हैं. इस तरह वे और ज्यादा अकेले हो जाते हैं जो उनके लिए अच्छा नहीं है. उन्हें एहसास कराएं कि आप उनकी जिंदगी में बहुत महत्व रखते हैं.

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  • ऐसे लोगों का ख्याल रखना आसान नहीं होता है, इसलिए धैर्य रखें. उनसे किसी तरह की अपेक्षा रखे बिना उन्हें भरपूर प्यार दें. ऐसे लोगों के अंदर आशावादी सोच पैदा करना उन्हें ठीक करने की दिशा में पहला कदम होता है. जिंदगी को एक और मौका देने के लिए संघर्ष करने की उन्हें वजह दें, वे जल्दी ही अपने डिप्रेशन से बाहर निकल आएंगे. उन्हें वापस सामान्य जिंदगी जीने के लिए समय व एक स्पेस दोनों की जरूरत होती है.

खाने में करें इन चीजों का बदलाव तो बनी रहेगी हेल्थ

आपने एक से भले दो की कहावत तो सुनी होगी. यही कहावत खाद्य पदार्थों पर भी लागू होती है. जी हां, कुछ खाद्य पदार्थ ऐसे होते हैं जिनका किसी दूसरे खाद्य पदार्थ के साथ मिश्रण कर सेवन करने से उसका स्वाद तो बढ़ता ही है साथ ही में दोनों इडेबल फूड के मिक्स-अप से पोषक तत्व भी दोगुना बढ़ जाते हैं. उदाहरण के तौर पर पीनट-बटर चॉकलेट के साथ अच्छा टेस्ट देता है. ऐसे ही कई सारे खाद्य पदार्थ के संयोजन हैं जिनके सेवन से बहुत सारे फायदे मिलते हैं. चलिए जानते हैं ऐसे ही उन एडिबल फूड के बारे में जो स्वाद के साथ ही सेहत भी स्ट्रॉंग रखते हैं –

  • डार्क चॉकलेट और रास्पबेरी
  • दही और शतावरी
  • टमाटर के साथ ऑलिव ऑयल
  • सिरका और चावल
  • मांस और गाजर
  • ग्रीन टी के साथ लेमन जूस
  • ट्यूना और एडैमाम

डार्क चॉकलेट और रास्पबेरी:  शोध के मुताबिक रास्पबेरी में वजन कम करने या मेनटेन रखने में मददगार सिद्ध होता है. इसमे पाए जाने वाले फ्लेवोनॉयड और डार्क चॉकलेट के समायोजन से ह्रदय स्वस्थ बना रहता है और कभी भी हार्ट अटैक की समस्या नहीं होती है.

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दही और शतावरी: दही के गुणों से हम सभी अच्छी तरह से परिचित हैं. दही न सिर्फ पाचन क्रिया को दुरूस्त रखता है बल्कि भूख को भी बढ़ाने का गुण इसमें पाया जाता है. इसको शतावरी के साथ लेने से शरीर में कैल्सियम की कमी पूरी होती है. इसमें पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन पाया है, शतावरी में फाइबर होता है जो हड्डियों के लिए बहुत जरूरी होता है. अत: दही और शतावरी का मिश्रण गुड हेल्थ के लिए बहुत जरूरी है.

टमाटर के साथ ऑलिव ऑयल : लाल टमाटर के किस्से बचपन में आपने बहुत सुने होंगे. दरअसल, टमाटर में उच्च मात्रा में लाइकोपीन पाया जाता है, जो फैट में घुलनशील एंटीऑक्सीडेंट है. टमाटर को आप सलाद में यूज कर सकते हैं. टमाटर के साथ ऑलिव ऑयल लेने से लाइकोपीन के अवशोषण को यह बढ़ा देता है.

सिरका और चावल : चावल का मेल हर तरल खाद्य पदार्थों के साथ आसानी से हो जाता है. ज्यादातर लोगों को चावल बेहद पसंद होते हैं. वहीं चिकित्सक चावल को खाने में परहेज बरतनेकी बात भी करते हैं, क्योंकि इसमें फैट व शुगर लेवल ज्यादा पाया जाता है. लेकिन अगर आप चावल को सिरके के साथ खाते हैं तो यह चावल में मौजूद ग्लाइसेमिक लोड को 20 से 30 प्रतिशत तक कम कर सकता है.

ग्रीन टी और नींबू का रस: एक रिसर्च के मुताबिक लेमन जूस और ग्रीन टी के समायोजन से शरीर में कई सारे पोषक तत्व मिलते हैं. इसमें मौजूद विटामिन-सी बॉडी को ग्रीन-टी में मौजूद कैटेचिन और एंटीऑक्सीडेंट से ज्यादा फायदेमंद साबित होता है. इन दोनों का कॉम्बिनेशन सेहत के लिए बहुत अच्छा साबित होता है.

मांस और गाजर: गाजर को खाने से आंखों की रोशनी बढ़ती है, ऐसा हम सभी जानते हैं. इसमें कैरोटीन, विटामिन-ए व बी उच्च मात्रा में पाया जाता है, जो शरीर में मौजूद कोशिकाओं के विकास के लिए अति आवश्यक है. वहीं मांस में जस्ता नाम का फैक्ट पाया जाता है, जो विटामिन-ए और जस्ता की सहक्रियाशीलता से जैव उपलब्धता व विटामिन-ए के अवशोषण बढ़ा देता है.

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ट्यूना और एडमॉम: हड्डियों की मजबूती के लिए ट्यूना और एडमॉम का मिश्रण बहुत जरूरी है. इसमें जीनिस्टीन नाम का फैक्ट पाया जाता है. यह फैक्ट आपको  सोया में मिलता है. अगर आप दोनों को साथ में लेते हैं तो विटामिन-डी की कमी पूरी होती है साथ ही हडि्डयां और मशल्स दोनों ही मजबूत रहते हैं.

हालांकि स्वास्थ्य से संबंधित किसी भी चीज को इस्तेमाल करने से पहले आप अपने घरेलू डायटीशियन व चिकित्सक से सलाह जरूर लें क्योंकि दुनिया में जितने लोग हैं, उतनी ही उनकी अलग-अलग शारीरिक समस्याएं भी हैं.

अगर आपको भी है नेल्स चबाने की आदत, तो हो जाइए अलर्ट

आजकल की डेली बिजी लाइफस्टाइल में कईं लोगों में नेल्स को खाने की आदत हो जाती है. नेल्स हमारी खूबसूरती को बढ़ाते है, लेकिन नेल्स चबाकर हम अपनी खूबसूरती में दाग लगा देते हैं. नेल्स में कई तरह की बिमारियों वाले जर्म यानी विषाणु पाए जाते हैं, जो हेल्थ को नुकसान पहुंचा सकते हैं. कई बार यह भी कहा जाता है कि नेल्स चबाना टेन्शन होने की निशानी होती है, जिससे हम छुटकारा जल्दी नहीं पा पाते. लेकिन क्या आपको पता है कि नेल्स चबाने की आपकी ये आदत आपकी हेल्थ को बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है. आज हम आपको नेल्स चबाने से होने वाली बिमारियों के बारे में बताएंगे…

1. गंदे नेल्स चबाने से पनपते हैं रोगजनक बैक्टीरिया

नेल्स में साल्मोनेला और ई कोलाई जैसे रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया पनपते हैं. जब आप दांतों से नेल्स काटते हैं तो ये बैक्टीरिया आपके मुंह में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं. ऐसे में आपका बीमार होना तय है. कई शोध भी कहते हैं कि हमारे नेल्स उंगलियों से दोगुने गंदे होते हैं. ऐसे में नेल्स चबाना हमारे लिए बेहद हानिकारक हो सकता है.

2. स्किन इन्फेक्शन होने का हो सकता है खतरा

नेल्स चबाने से उसके आस-पास की स्किन सेल्स को भी नुकसान होता हैं. ऐसे में पैरोनिशिया से पीड़ित होने का खतरा होता है. यह एक स्किन इन्फेक्शन है जो नेल्स की आस-पास की त्वचा में होता है.

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3. दांतों को भी पहुंचता है नुकसान

नेल्स चबाने से आपके दांतों पर बहुत बुरा असर पड़ता है. नेल्स से निकलने वाली गंदगी आपके दांतों को कमजोर करने लगती है. एक रिसर्च से ये बात सामने आई है कि अधिक नेल्स चबाने वाले लोग तनाव में ज्यादा रहते हैं. नेल्स चबाने से नाखूनों की गंदगी दांतों तक पहुंचती रहती है जिससे दांत भी कमजोर होने लगते हैं.

4. स्किन में हो सकता है घाव

लगातार नेल्स चबाने वाले लोग डर्मेटोफेजिया नाम की बीमारी के शिकार हो जाते हैं. इस बीमारी में स्किन पर घाव बनने लगते हैं. यहां तक की इसके इंफेक्शन से नसों को भी नुकसान पहुंचता है.

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5. कैंसर का भी होता है खतरा

हमेशा नेल्स चबाने से आंतों का कैंसर हो सकता है. दरअसल नेल्स चबाने से नेल्स में मौजूद बैक्टीरिया हमारी आंतों तक पहुंच जाते हैं जो कैंसर जैसे रोग भी दे सकते हैं.

हर्निया: जब दर्द बन जाए नासूर  

बदलती दिनचर्या, वातावरण, खानपान वगैरह के कारण हर्निया की बीमारी तेजी से फैल रही है. जब शरीर के किसी भाग में उभार आए, असहनीय दर्द हो और यह दर्द रुकरुक कर अचानक हो तो ये हर्निया के आम लक्षण हैं. सही समय पर इलाज न करवाने पर इस की गंभीरता बढ़ जाती है. इसलिए अगर आप को भी खुद में ऐसे लक्षण दिखाई दें तो तुरंत डाक्टर को दिखाएं ताकि स्थिति गंभीर न हो.आइए, इस संबंध में विस्तार से जानते हैं ‘एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसेज’ के डाइरैक्टर सर्जन डा. वेद प्रकाश से:

क्या है हर्निया

हर्निया आमतौर पर तब होता है जब पेरिटोनियम जो मांसपेशियों से बनी दीवार होती है, उस में कमजोरी आ जाती है, जिस से पेट के अंदरूनी भाग अपने नियत स्थान पर न रह कर उभार के रूप में दिखने लगते हैं. यही स्थिति हर्निया कहलाती है.

कैसेकैसे हर्नियाफीमोरल हर्निया: यह हर्निया आमतौर पर महिलाओं को होता है खासकर प्रैगनैंट व मोटापे से ग्रस्त महिलाओं को. यह तब होता है जब आंत धमनी को ऊपर जांघ में ले जाने वाली नली में प्रवेश करती है.

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इसैंशियल हर्निया: इस प्रकार के हर्निया में पेट की सर्जरी होने वाले भाग की दीवार पर अधिक भार पड़ने से मांसपेशियों में बहुत अधिक खिंचाव आता है, जिस से वह भाग उभर जाता है.

नाभि हर्निया:

इस हर्निया में पेट की सब से कमजोर मांसपेशियां नाभि के माध्यम से उभार के रूप में प्रकट होती हैं. यह आमतौर पर मोटापे से ग्रस्त महिलाओं और उन महिलाओं को होता है, जिन के बहुत बच्चे होते हैं, क्योंकि बारबार सर्जरी वगैरह के कारण उन की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं.इंगुइनल हर्निया: इंगुइनल हर्निया में आंत या ब्लैडर पेट की दीवार के जरीए बाहर की तरफ उभरता है या फिर पेट और जांघ के बीच का भाग इंगुइनल नली में होता है. यह अकसर उस भाग में कमजोरी के कारण होता है.

महिलाएं सब से ज्यादा प्रभावित क्यों:

महिलाओं में ऐब्डौमिनल हर्निया बहुत आम है, क्योंकि प्रैगनैंसी के दौरान महिलाओं की ऐंटीरीअर ऐब्डौमिनल वौल मसल्स पर खिंचाव जो बढ़ता है. सर्जरी वाली जगह पर सब से ज्यादा हर्निया के विकसित होने के चांसेज होते हैं, क्योंकि उस जगह पर खिंचाव सब से अधिक पड़ता है. मोटापा महिलाओं में हर्निया का सब से बड़ा कारण है.स्टेजस औफ हर्निया

रिड्यूसिबल हर्निया:

इस में लेटने पर गांठ कई बार गायब हो जाती है, लेकिन खांसने, छींकने की स्थिति में दिखाई देती है. अगर गांठ का साइज बहुत बड़ा नहीं होता है तो इसे कंट्रोल या कम किया जा सकता है.

इररिड्यूसिबल हर्निया: इस में किसी भी स्थिति में गांठ दिखनी बंद नहीं होती है.

ओब्स्ट्रक्शन हर्निया: जब आंतों पर प्रैशर पड़ने के कारण वह फट जाए, जिस से मोशन में भी दिक्कत होती है तो उसे ओब्स्ट्रक्शन हर्निया कहते हैं. इस स्थिति में मरीज की तुरंत सर्जरी की जाती है.

स्ट्रैंग्युलेटेड हर्निया: जब आंत में रक्त की सप्लाई बंद हो जाती है तो ऐसी स्थिति को स्ट्रैंग्युलेटेड हर्निया कहते हैं. इस स्थिति में भी मरीज की तुरंत सर्जरी की जाती है.

कैसे होता है ट्रीटमैंट

अगर स्थिति कंट्रोल में है तब तो उसे दवा के जरीए कंट्रोल किया जा सकता है, लेकिन अगर हर्निया का साइज काफी बड़ा होने के साथसाथ काफी दर्द भी महसूस होता है तो सर्जरी की ही सलाह दी जाती है. सर्जरी 2 तरह से की जाती है-

लैप्रोस्कोपिक व ओपन सर्जरी.

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लैप्रोस्कोपिक सर्जरी में हर्निया को ठीक करने के लिए छोटा सा कट दे कर छोटे से कैमरे व लघु निर्मित शल्य चिकित्सा उपकरणों का उपयोग किया जाता है.ओपन सर्जरी में कट बड़ा होता है, जिसे ठीक होने में काफी समय लगता है. मरीज 1-2 हफ्ते तक सामान्य रूप से घूमने में असमर्थ होता है.

किन बातों का रखें ध्यान

दवा समय पर खाएं ताकि रिकवरी जल्दी हो सके.- सर्जरी के बाद डाक्टर की सलाह पर ही बाथ लें.- सर्जनी के 5-6 दिनों बाद शौर्ट वौक करें ताकि पैरों में ब्लड क्लोर्ट्स न पड़े और ब्लड सर्कुलेशन सही हो.- भारी सामान न उठाएं- नियमित चैकअप करवाती रहें.- हैल्दी डाइट लेने के साथसाथ पानी भी खूब पीएं.

क्या हैं हर्निया के लक्षण

हम अकसर लापरवाही के कारण लक्षण दिखने पर भी उन्हें अनदेखा कर देते हैं, जो बाद में हमारे समक्ष गंभीर स्थिति पैदा कर देते हैं. इसलिए जब भी आप को ये लक्षण दिखाई दें तो तुरंत डाक्टर से मिलें ताकि समय पर सही इलाज हो सके:- खांसने, छींकने या फिर सामान उठाने पर पेट के निचले हिस्से में दर्द महसूस करना.- पेट में भारीपन महसूस करना.- उलटी व कब्ज की समस्या.- सूजन वाली जगह पर दर्द होना.

दौड़ने से पहले जरूर जानें यह बातें

शरीर को चुस्तदुरुस्त बनाए रखने के लिए कुछ लोग जिम जा कर पसीना बहाते हैं, तो कुछ घर पर ही व्यायाम करते हैं. कुछ मौर्निंग वाक करते हैं तो कुछ दौड़ लगाते हैं. यदि आप भी दौड़ कर फिट रहना चाहते हैं, तो यह एक अच्छी बात है. लेकिन दौड़ने से पहले कुछ बातें जान लेना भी जरूरी है अन्यथा दौड़ने से लाभ के बजाय हानि भी हो सकती है.

चिकित्सा वैज्ञानिकों के अनुसार, रोज 1 घंटा दौड़ कर आप न केवल स्वस्थ और निरोगी रह सकते हैं, अपितु अपनी आयु को भी 3 साल तक बढ़ा सकते हैं. 18 से 100 साल की उम्र के 55 हजार लोगों के लाइफस्टाइल की स्टडी कर वैज्ञानिक इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि किसी भी ऐक्सरसाइज की तुलना में दौड़ने से क्वालिटी औफ लाइफ सब से ज्यादा बढ़ती है. इस स्टडी को लीड करने वाली अमेरिका की ‘आयोवा स्टेट यूनिवर्सिटी’ के प्रोफैसर डकचुल्ली के अनुसार, स्टडी में पाया गया कि दूसरी ऐक्सरसाइज करने वाले लोगों की तुलना में धावक लंबे समय तक जीते हैं.

धावकों में जल्दी मौत के लिए जिम्मेदार कारणों से लड़ने की क्षमता सब से ज्यादा पाई गई.आम लोगों की तुलना में रोज दौड़ने वाले को दिल का दौरा पड़ने की आशंका भी 25% तक कम हो जाती है. दौड़ना फिटनैस को बढ़ाता है, जो अच्छी सेहत के प्रमुख इंडिकेटर्स में से एक है. रोज 1 घंटे दौड़ते हैं तो प्रीमैच्योर डैथ की आशंका 40% तक कम हो जाती है. दौड़ने से संपूर्ण शरीर के सभी अंगों का अच्छा व्यायाम हो जाता है. पैरों के अलावा हृदय, फेफड़ों आदि की भी कसरत हो जाती है और उन की कार्यक्षमता बढ़ती है.

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कब करें दौड़ने की शुरुआत

विशेषज्ञों का कहना है कि मोटापा दूर करने के लिए डाइटिंग करने की नहीं, दौड़ने की जरूरत है. यदि पहले से दौड़ लगाते हैं, तो मोटापा कभी हावी होगा ही नहीं. दौड़ने से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं तथा वे अधिक क्षमता के साथ काम करती हैं. रनिंग से पेट की मांसपेशियों का भी व्यायाम होता है. दौड़ने से डायबिटीज भी कंट्रोल में रहती है, क्योंकि इस में काफी मात्रा में कैलोरी बर्न होती है.

दौड़ने से न सिर्फ आप को फिट रहने में मदद मिलती है, बल्कि इसे सब से प्रभावी अवसादरोधी के तौर पर भी देखा जा रहा है, क्योंकि 97% लोगों ने महसूस किया कि इस से उन की मानसिक और भावनात्मक सेहत में भी मदद मिली. इस सर्वे में 4 शहरों मुंबई, दिल्ली, बैंगलुरु और जयपुर को शामिल किया गया था. सुबह के समय दौड़ने से औक्सीजन भी ज्यादा मिलती है, जोकि फेफड़ों के लिए बहुत जरूरी है. दौड़ लगाने से रक्तसंचार तेज होता है, जिस से शरीर की कोशिकाएं पुष्ट होती हैं तथा सही ढंग से कार्य करती हैं.

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यदि आप कभी दौड़े नहीं हैं, तो पहली बार में ही विश्व रिकौर्ड बनाने की कोशिश न करें. शुरुआत पैदल चलने यानी मौर्निंग वाक से करें. मौर्निंग वाक में पहले सामान्य चाल से चलें, फिर तेज चाल चलने का अभ्यास करें. जौगिंग भी करें. इस के बाद जब भी दौड़ने की शुरुआत करें, उस की दूरी कम रखें और अधिक तेज गति से न दौड़ें. हर सप्ताह दूरी और दौड़ने की रफ्तार बढ़ाएं. उतना ही दौड़ें, जितना बरदाश्त हो सके. यदि असहज महसूस करें, तो दौड़तेदौड़ते रुक जाएं. थोड़ा विश्राम कर लें. याद रहे, रनिंग से पहले वार्मअप करना बहुत जरूरी है.

ओवेरियन सिस्ट न करें नजरअंदाज

ओवेरियन सिस्ट महिलाओं में होने वाली एक आम समस्या है. यह हर महीने मासिकचक्र के दौरान हो सकती है, जिस के बारे में महिलाओं को जानकारी नहीं होती. कई बार यह सिस्ट अपनेआप ठीक हो जाती है, लेकिन अगर समय के साथ इस का आकार बढ़ता है, तो इस का इलाज करवा लेना जरूरी हो जाता है. मुंबई के ‘वर्ल्ड औफ वूमन’ की स्त्री और प्रसूति रोग विशेषज्ञा डा. बंदिता सिन्हा के अनुसार कुछ सिस्ट निम्न हैं:

सिंपल फौलिक्युलर सिस्ट: यह नौर्मल सिस्ट है और हर महिला में होती है. यह ओवुलेशन की प्रक्रिया में होती है. यह एग फौर्मेशन में बनती है. यह नैचुरल होती है और इस से नुकसान नहीं होता. अगर यह 4 सैंटीमीटर से अधिक बड़ी हो जाती है, तो यह दवा से गला कर निकाल दी जाती है, क्योंकि सिस्ट बड़ी होने के बाद कई बार दर्द होता है और यह पीरियड को भी अनियमित कर सकती है, मगर प्रैगनैंसी में समस्या नहीं होती.

पौलिसिस्टिक ओवरी सिस्ट: इस में कई सिस्ट होती हैं, जिस से नियमित ओवुलेशन नहीं होता. इस में ओवरी काम नहीं करती. हारमोनल असंतुलन की वजह से एग नहीं बनते और बच्चा होना मुश्किल हो जाता है. इस सिस्ट को ठीक तरह से ट्रीट करना जरूरी होता है.

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लक्षण

– पीरियड का अनियमित होना.

– ओवुलेशन का न होना.

– पीरियड का धीरेधीरे कम हो जाना.

– अचानक वजन बढ़ना.

– हेयर लौस होना.

– चेहरे पर अचानक बालों का उगना.

ऐंडोमेट्रायोसिस: यह सिस्ट ओवरी में बनती है और उस के अंदर ब्लीडिंग होती है. खून अंदर होने की वजह से यह सिस्ट काले रंग की दिखती है. यह सिस्ट धीरेधीरे अंडे की क्वालिटी को खराब करती है और बाद में ओवरी और ट्यूब को भी खराब करती है. इंटरनल ब्लीडिंग होने की वजह से आसपास के और्गन एकदूसरे से चिपक जाते हैं. ऐसे रोगी को पीरियड के दौरान असहनीय दर्द होता है, ब्लीडिंग अधिक होती है. ऐसे रोगी को इन्फर्टिलिटी हो सकती है. इस में माइल्ड, मौडरेट और सीवियर क्वालिटी होती है. उसी के हिसाब से इलाज किया जाता है.

लक्षण

– हर पीरियड के वक्त दर्द का धीरेधीरे बढ़ना

– लोअर ऐब्डोमेन के साथसाथ कमर में भी दर्द होना.

– दर्द का अधिक समय तक पीरियड के बाद भी होते रहना.

कई बार यह सिस्ट सोनोग्राफी से भी नहीं दिखती. तब लैप्रोस्कोपी का सहारा लेना पड़ता है.

कार्पस ल्युटियम सिस्ट: यह प्रैगनैंसी को सपोर्ट करती है और प्रैगनैंसी के दौरान ही होती है. यह हार्मलैस होती है. यह बच्चे

के साथ रहती है, उस के लिए ओवरी में जगह बनाती है.

हेमोरहेजिक सिस्ट: यह पीरियड के बाद बनती है और अपनेआप गल जाती है. इस में रोगी को औब्जर्वेशन में रखना पड़ता है. 5% केस में अगर अधिक ब्लीडिंग हो, तो सर्जरी करनी पड़ती है. इस में फर्टिलिटी को कोई नुकसान नहीं होता.

डरमोइड सिस्ट: यह अधिकतर ओवरी में प्रैगनैंसी के साथ होती है. इस तरह की सिस्ट में हेयर, नेल्स, बोंस आदि होते हैं, जिन्हें लैप्रोस्कोपी से निकाल दिया जाता है.

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सिस्ट निकालने के बाद निम्न सावधानियां बरतनी जरूरी हैं:

– माइल्ड सिस्ट होने पर भी इलाज के बाद समयसमय पर जांच करवानी चाहिए.

– सिस्ट निकालने के तुरंत बाद प्रैगनैंसी की सलाह दी जाती है ताकि प्रैगनैंसी में हुए हारमोनल बदलाव से फिर से सिस्ट होने का खतरा न हो. गर्भधारण न होने पर दोबारा सिस्ट डेढ़दो साल में हो सकती है.

घुटने को मोड़ने में मुश्किल होती है और सूजन भी हो गई है, मैं क्या करुं?

मेरी उम्र 42 साल है. कई दिनों से मेरे बाएं घुटने में तेज दर्द हो रहा है. घुटने को मोड़ने में मुश्किल होती है और सूजन भी हो गई है. डाक्टर को दिखाया था, उन्होंने कहा कि मामूली समस्या है जल्दी ठीक हो जाएगी. लेकिन मेरा दर्द घुटने से नीचे बढ़ने लगा है और मेरा चलना दूभर हो गया है. बताएं मैं क्या करूं?

आप जिस समस्या का जिक्र कर रही हैं उसे बेकर्स सिस्ट कहते हैं. यह एक नर्म गांठ है, जिस में दर्द और सूजन होती है. हालांकि ज्यादातर मामलों में यह समस्या खुद ठीक हो जाती है, लेकिन कुछ मामलों में यह गंभीर भी हो सकती है. दरअसल, कई बार गांठ घुटने के अंदर ही फट जाती है तो घुटना लाल पड़ जाता है और दर्द पिंडली तक पहुंच जाता है. आप के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है और यह समस्या ज्यादातर उन्हीं महिलाओं को होती है जो 40 वर्ष की उम्र पार कर चुकी होती हैं. इस की गंभीरता इस के कारण पर निर्भर करती है. सही इलाज के लिए किसी अच्छे डाक्टर से संपर्क करें. जांच करने के बाद डाक्टर आप को फिजिकल थेरैपी के साथ मेडिकेशन या द्रव को बाहर निकालने की प्रक्रिया की सलाह देगा.

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डॉक्टर अतुल मिश्रा, फोर्टिस अस्पताल, नोएडा

कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन के दौरान गठिया के मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई है. सामान्य दिनों की तुलना में लॉकडाउन के दौरान महिलाओं को घुटने के दर्द से अधिक समस्या हुई है.

घुटनों और जोड़ों के दर्द के कारण उन्हें चलनेफिरने और खासतौर पर सीढ़ियां चढ़ने में दिक्कत होती है. घुटनों में दर्द का मुख्य कारण गठिया है और इसके लिए उठनेबैठने का तौर तरीका भी काफी हद तक जिम्मेदार है. नियमित जीवन में छोटीछोटी चीजें घुटने का दर्द दे सकती हैं.

भारत के लोगों में घुटने मोड़ कर और पालथी मार कर बैठने की अक्सर आदत होती है. सामूहिक भोजन करना हो, घर के कामकाज करने हो या आपस में बातें करनी हों-इन सभी कामों में महिलाएं घुटने मोड़ कर ही बैठती है. यहां तक कि भारतीय शैली के शौचालय में भी घुटने के बल बैठना पड़ता है. बैठने की यह शैली हमारी आदतों में शुमार हो गई है और इस आदत के कारण यहां लोग कुर्सी, सोफे या पलंग पर भी घुटने मोड़ कर बैठना पसंद करते हैं. बैठने के इस तरीके में घुटने पर दबाव पड़ता है जिससे कम उम्र में ही घुटने खराब होने की आशंका बढ़ती है. हालांकि इस के असर तुरंत नहीं दिखते लेकिन उम्र बढ़ जाने पर घुटने की समस्या हो जाती है.”

पूरी खबर पढ़ने के लिए- बैठने का तरीका दे सकता है घुटने का दर्द

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz
 
सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

मेरे दाएं घुटने में दर्द हो रहा है, इसका कारण और इलाज बताएं?

सवाल-

मेरी उम्र 38 साल है. कुछ दिनों  से मेरे दाएं घुटने में दर्द हो रहा है. सूजन भी हो गई है. कृपया इस के होने का कारण और समाधान बताएं?

जवाब-

इस का कारण चोट, गठिया या कोई अन्य कारण जैसेकि बेकर्स सिस्ट हो सकता है. बेकर्स सिस्ट सीनोवियल द्रव से भरी एक नर्म गांठ है, जो घुटनों के पीछे की ओर विकसित हो जाती है. इसे पोप्लिटीयल सिस्ट के नाम से जाना जाता है. गांठ दर्ददायक होती है. इस के आसपास सूजन आ जाती है. ऐसे में घुटने को मोड़ना मुश्किल हो जाता है.

यदि असल समस्या यही है तो लापरवाही दिखाना आप पर भारी पड़ सकता है. इसलिए जल्द से जल्द इस की जांच कराएं. समस्या हलकी होगी तो यह खुद ठीक हो जाएगी और डाक्टर आप को केवल आराम और हलकी दवाइयों की सलाह देगा. समस्या गंभीर होने पर आप को अन्य विकल्पों की सलाह दी जाएगी.

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भारत के लोगों में घुटने मोड़ कर और पालथी मार कर बैठने की अक्सर आदत होती है. सामूहिक भोजन करना हो, घर के कामकाज करने हो या आपस में बातें करनी हों-इन सभी कामों में महिलाएं घुटने मोड़ कर ही बैठती है. यहां तक कि भारतीय शैली के शौचालय में भी घुटने के बल बैठना पड़ता है. बैठने की यह शैली हमारी आदतों में शुमार हो गई है और इस आदत के कारण यहां लोग कुर्सी, सोफे या पलंग पर भी घुटने मोड़ कर बैठना पसंद करते हैं. बैठने के इस तरीके में घुटने पर दबाव पड़ता है जिससे कम उम्र में ही घुटने खराब होने की आशंका बढ़ती है. हालांकि इस के असर तुरंत नहीं दिखते लेकिन उम्र बढ़ जाने पर घुटने की समस्या हो जाती है.”

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