आंखों को छोड़ कैमरे से मस्ती

आजकल लोग किसी भी टूरिस्ट प्लेस पर जाएं तो वे सामने की ऐतिहासिक बिङ्क्षल्डग, नेचर का कमाल, सनराइज या सनसाइट, वहीं मौजमस्ती अपनी आंखों से नहीं मोबाइल स्क्रीन पर देखते हैं. कहीं कुछ अच्छा या बुरा हो रहा हो. भाई कैमरे चालू हो जाते है और नजारे का आनंद लेने की जगह सब फोटो खींचने में बिजी हो जाते हैं.

यह तो तब है जब हरेक के पास कैमरा है और हरेक के पास सैंकड़ों तरीके हैं जिन से अपनी जानपहचान वाले का खींचा सीन या घटना वे आराम से देख सकते हैं. पर अपनी बात कैमरे से कहने की बुरी लत इस कदर भर चुकी है कि लोग असल में जहां हैं, जो देख रहे हैं, जो कर रहे हैं इस पूरी तरह एंजौय करना भूल चुके हैं और अपने मित्रों, दोस्तों या अनजानों को बताने में लग रहते हैं कि देखो हमें क्या दिखा.

कैमरे की भूख का नरेंद्र मोदी भी खूब बड़ा रहे है. सोशल मीडिया ऐसी किलपिंगों से भरा है जिन में प्रधानमंत्री दूसरे लोगों को हटाने में लगे हैं यदि वे फोटोग्राफों के फ्रेंम में पूरी तरह आ सकें. शायद यही सी बिमारी उन के भक्तों ने पकड़ ली पर इतना कहना होगा कि यह दुनिया भर में हो रहा है और हम भारतीय कुछ खास फोटोजीवी हों, ऐसा नहीं है. सैल्फी तरकीब, बेहतर फोलों, 4जी, 5जी से अपलोड करना और डाउन लाउड करने की कैपेसिटी ने सब को मोबाइल फोटो का गुलाम बना दिया है.

फोटोग्राफ बहुत कुछ कहता है पर जब फोटोज की बाढ़ आ जाए तो जो कहा गया वह सब फ्लड के गंदे पानी में बह जाता है. आज हरेक के फोन में इस कदर फोटो भरे हैं कि किसी फोटो की कोई कीमत नहीं है. आज हर कोई दूसरों को इस बेसब्री से अपना खींचा फोटो दिखाने में लगा है कि उस के पास दूसरे के फोटो देखने का समय है न इच्छा. अपने को दूसरों पर थोपने की कोशिश की जो तकनीक मोबाइलों ने सिखाई है वह उस क्लास की तरह है जिस में हर जना अपना पाठ एक साथ दूसरे को सुना रहा है और जो जरूरत की बात वह कहे बिना दबी जा रही है.

घूमें, फिरे, दोस्तों से मिले, कुछ अच्छा दिखे तो एक दो फोटो खीचें पर अपने लिए अपने समय के फोटो खींचने में बर्बाद न करें. आप अगर कुछ खास कर रहे हैं, किसी शादीब्याह, फक्शन में हैं तो उसे एंजौय करें. उस का फोटो न खींचे अपना हाथ उठा कर पीछे वाले का मजा खराब न करें. मोबाइल आप को आप की यादें सुरक्षित रखने के लिए हो, दुनिया भर में ढिढोंरा पीटने के लिए नहीं.

समाज पहले लड़कों को सुधारे

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा असल में ‘बेटी बचाओ पढ़ाओं’ से होते हुए ‘बेटी बचाओ, बेटी रौंदो’ तक पहुंचा हुआ है. वैसे तो सदियों से औरतों को पकड़ कर जबरदस्ती रेप किया जाता रहा है और हर राज्य यही कहता रहा है कि दूसरे देश में हमला करने पर पैसा तो मिलेगा, औरतें भी मिलेंगी और तभी सैनिक जान का जोखिम लेने वाले मिलते थे पर एजूकेटड, लाअवाइडिग, पुलिस सेना से भरे देश में आसानी से लड़कियों का बलात्कार हो और कुछ न हो, यह बेहद अफसोस की बात है.

उत्तर प्रदेश के अंबेडकर जिला में 5 अक्तूबर को एक 15 साला लड़क़ी ने सूसाइड कर लिया क्योंकि 2 दिन तक उसे रेप करने के बाद जब छोड़ा गया तो पुलिस शिकायत के बावजूद सिवाए मेडिकल एक्जामिनेशन के कुछ नहीं हुआ. नारा तो ‘बेटी बचाओ, बेटी रेप कराओ, बेटी मरने दो’ बन गया है.

रेप के बाद लड़कियां कितनी तड़पती हैं, यह सुप्रीम कोर्ट के एक हाल के जजमेंट से भी जाहिर है जिस में सुप्रीम कोर्ट ने संसद के कानून को सुधारते हुए कहा कि हर रेप की शिकार लडक़ी का औरत को 24 सप्ताह तक का गर्भ गिराने का मौलिक हक है और इस में मैरिड औरत भी शामिल है. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, यही यह बताने के लिए काफी है कि देश में रेप आज भी सीरियस है और तमाम एजूकेशन के बाद लड़कियों को खुद को बंद कर रखना पड़ता है क्योंकि कब न जाने कौन उन के बदन का ही नहीं उन के जीने के हदों, उन की खुशियों का रेप कर जाए.

रेप के बहुत कम मामले सामने आते है क्योंकि रेप विक्टिम आमतौर पर चुप दर्द सहती रहती हैं, वे जानती है कि देश, समाज, घरपरिवार उन्हें रेप के लिए विक्टिम नहीं एक्यूज्ड मानेगा. ‘तुम बाहर गई क्यों’, ‘तुम लड़ी क्यों नहीं’, ‘तुम ने ऐसे दोस्त क्यों बनाए’, ‘तुम्हारी गलती जरूर होगी’, ‘तुम अपनी मर्जी से गई होगी और अब रेप का बहाना बना रही’, जैसे जुमले हर विक्टिम को सुनने को मिलेंगे.

पुलिस भी रेप के मामलों में कम काम करती है क्योंकि वह जानत है कि बहुत सारी शिकायत करने वालियां बाद में लंबी अदालती काररवाई से घबरा कर मामला बंद कराने के लिए शिकायत पलट देंगी. फिर पुलिस क्यों न मामला ठंडा होने दे. हां, पुलिस को रेपिस्ट से बहुत कुछ मिल ही जाता है.

रेप कानून का जितना मामला, उस से बढ़ कर समाज का है. लडक़े जबरदस्ती न करें यह उन्हें सिखाना होगा. यही लडक़े हर दुबलेपतले लडक़े का पर्स नहीं छीनते. रेप करने वालों को बचपन से सिखा दिया जाता है कि लड़कियां मजे लेने के लिए होती हैं. पौर्न लिटरेचर में यह भरा होता है.

रेप के बाद सूसाइड बहुत मामलों में विक्टिम के लिए ठीक होता है पर यह सूसाइड सारे घरवालों के मुंह पर कालिख पोत जाता है, यह विक्टिम समझ नहीं पातीं.

मुंबई लोकल ट्रेन की यात्रा, जहां महिला गैंग का रहता है बोलबाला

अरे हटो-हटो मुझे अंदर आने दो… नहीं उतरों आंटी, क्या यही एक ट्रेन है, जो अंतिम है, उतरो, उतर जाओं जगह नहीं है, दूसरी में चढ़ जाना 3 से 4 मिनट में एक लोकल ट्रेन आती है, फिर भी घर जाने की जल्दी में इसी में चढ़ना है… ऐसी कहे जा रही थी, मुंबई की विरार लेडीज स्पेशल में एक युवा महिला, चढ़ने वाली 45 वर्षीय महिला को, जिसे हर रोज इसे सुनना पड़ता है, लेकिन घर का बजट न बिगड़े, इसलिए इतनी मुश्किलों के बाद भी वह जॉब कर रही है, हालाँकि कोविड के बाद उन्हें केवल 3 दिन ही ऑफिस आना पड़ता है, लेकिन इन 3 दिनों में ऑफिस आना भारी पड़ता है. कई महिलाएं भी उस दबंग महिला की हाँ में हाँ मिला रही थी और उस महिला को उतरने के लिए कह रही थी.

अबला नहीं सबला है यहाँ

यहाँ ये बता दें कि विरार लेडीज स्पेशल रोज चर्चगेट से चलकर हर स्टेशन पर रूकती हुई विरार पहुँचती है, लेकिन उतरने वालों से चढ़ने वालों की संख्या हमेशा अधिक रहती है.गेट के एक कोने में खड़ी महिला गोरेगांव उतरने का इंतजार कर रही थी, लेकिन वह मन ही मन सोच रही थी कि क्या वह उतर पाएगी? क्योंकि इस विरार लेडीज स्पेशल में बोरीवली तक की किसी महिला यात्री को चढ़ने या उतरने नहीं दिया जाता, क्योंकि बोरीवली लेडीज स्पेशल है, इसलिए विरार महिलाओं की कई गैंग,जो इस बात का इत्मिनान करती है कि बोरीवली तक उतरने वाली कोई महिला इस ट्रेन में चढ़ी है या नहीं.  4 से 5 महिला गैंग, जिसमें 7 से 8 महिलाएं हर एक गैंग में होती है. अगर गलती से से भी कोई महिला इस लोकल में चढ़ जाती है तो उसे ट्रेन की गैंग विरार तक ले जाती है. यहाँ यह समझना मुश्किल होता है कि अबला कही जाने वाली महिला इतनी सबला कैसे हो गयी?

कठिन सफर

असल में मुंबई की लोकल ट्रेन यात्रा के उस एक घंटे में एक महिला ही दूसरी महिला की शत्रु बन जाती है. मायानगरी की भागदौड़ में घर-परिवार के साथ कैरियर को भी संवारने का दबाव महिलाओं पर होता है. सुबह कार्यालय पहुंचने की जल्दी और शाम को घर लौटने की, इसके लिए महिलाएं बहुत कुछ झेलती है, इसमें सबसे दुखदायी है ऑफिस से घर पहुंचने के लिए मुंबई से विरार की ट्रेन यात्रा, जहां महिला डिब्बे में महिलाएं ही दूसरी महिलाएं की शत्रु बन जाती हैं. मुंबई से विरार के बीच की इस ट्रेन यात्रा में महिलाओं की गैंग का बोलबाला रहता है, ऐसे में कई बार कई महिलाओं ने अपनी नासमझी से जान तक गवां दी है, सुबह निकली महिला चलकर नहीं, स्ट्रेचर पर मृत अवस्था में घर पहुँचती है. यहाँ सीट भी उन्ही महिला को मिलती है, जो उस महिला गैंग की सदस्य है, अन्यथा कुछ भी कर लें, आपको मारपीट से लेकर अपनी जान भी गवानी पड़ सकती है.

दमदम मारपीट

ऐसी ही एक घटना पिछले दिनों ठाणे पनवेल लोकल ट्रेन के महिला कोच में तुर्भे स्टेशन पर सीट खाली होने पर एक महिला यात्री ने दूसरी महिला यात्री को सीट देने की कोशिश की, ऐसे में तीसरी महिला ने उस सीट को कब्ज़ा करने की कोशिश की, पहले तीनों में बहस हुई, बाद में बात इतनी बढ़ी कि वे आपस में मारपीट करने लगी. कुछ देर बाद मामला इस कदर बढ़ गया कि महिलाओं में बाल खींचना, घूंसा थप्पड़ तक शुरू हो गई.इस मारपीट में महिला पुलिस आ गयी, लेकिन वह भी घायल हो गयी.इस मामले में दोनों महिलाओं ने एक दूसरे के खिलाफ मामला दर्ज कराया है. महिला पुलिस सहित करीब तीन महिलाएं इस विवाद में घायल हुई है.

सूत्रों के अनुसार वाशी रेलवे स्टेशन के वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक एस कटारे ने जानकारी देते हुए बताया कि सीट को लेकर शुरू हुए विवाद में कुछ महिलाओं ने आपस में मारपीट की थी. इस मारपीट में एक महिला पुलिसकर्मी भी घायल भी हो गई है. उसका इलाज कराया गया है. इसके अलावा सरकारी कर्मचारी से मारपीट करने की वजह एक महिला को गिरफ्तार भी किया गया है.

शिकायत नहीं

मुंबई लोकल के ट्रेन की इस सफ़र में बहस, मारपीट, कपडे फाड़ना, धक्के देना आदि होते रहते है, लेकिन सही तरह से वही महिला इन लोकल्स में सफर कर पाती है, जो झगडे से अलग किसी कोने में खड़ी रहकर अपने पसंद के गाने हेड फ़ोन के द्वारा सुनते हुए खुश रहे. इन लोकल्स में सीट मिलना लक की बात होती है और कोई आपको सीट छोड़ देने को कहे, तो हंसती हुई तुरंत सीट छोड़कर खड़े हो जाना ही अच्छा होता है, ताकि आप सही सलामत अपनी जान लेकर घर पहुँच सकें.

महिलाएं रखें इन सामान्य कानून की जानकारी

भारत एक ऐसा देश है जो अपनी समृद्ध सुंदर संस्कृति और परंपरा के लिए जाना जाता है. भारतीय संस्कृति में महिलाओं को देवी लक्ष्मी का स्थान दिया गया है. लेकिन पिछले कुछ सालों में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों को देखकर लगता है कि महिलाओं की सुरक्षा दांव पर लगी है. जैसा कि हम सचमुच देख सकते हैं कि भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध हर मिनट होते हैं. प्राचीन काल से मध्यकाल तक महिलाओं की स्थिति में गिरावट आई है जो इतने उन्नत युग में जारी है.

प्रत्येक दिन एक अकेली महिला, एक बालिका, एक युवा लड़की, एक मां और जीवन के सभी क्षेत्रों की महिलाओं के साथ मारपीट, छेड़छाड़ और उत्पीड़न किया जा रहा है. सड़कें, सार्वजनिक परिवहन, सार्वजनिक स्थान, विशेष रूप से, शिकारियों का क्षेत्र बन गए हैं. महिलाओं के खिलाफ कुछ सामान्य अपराध हैं बलात्कार, दहेज हत्या, घर या कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, अपहरण और अपहरण, पति, रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता, एक महिला पर हमला, बच्चे और सेक्स, तस्करी, हमला, बाल विवाह और कई अन्य.

यद्यपि भारत के संविधान ने समानता और लैंगिक भेदभाव से मुक्ति के समान अधिकार दिए हैं, लेकिन भारतीय महिलाओं को खुद इन अधिकारों के बारे में पूर्ण रूप से जानकारी नहीं है जिसके कारण वह खुद को कमज़ोर और पिछड़ा समझती आयीं हैं. बेहतर यही है की महिलाएं कानून एवम अपने अधिकारों के बारे में जानकारी रखें ताकि स्वयं या किसी और महिला को जरूरत पढ़ने पर वह सही कदम उठा सकें.

निम्नलिखित सामान्य कानून हैं जिनकी जानकारी  हर भारतीय महिला को होनी चाहिए:

मुफ्त सहायता का अधिकार

जब कोई महिला बिना किसी वकील के साथ पुलिस थाने जाती है तो उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि उसे कानूनी सहायता प्राप्त करने का अधिकार है और उसे इसकी मांग करनी चाहिए.

एकान्तता का अधिकार

बलात्कार की शिकार महिला को यह अधिकार है कि वह बिना किसी और की बात सुने या किसी महिला कांस्टेबल या पुलिस अधिकारी के साथ व्यक्तिगत रूप से मजिस्ट्रेट के सामने अपना बयान दर्ज करा सकती है. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत, पुलिस को पीड़िता को जनता के सामने तनाव दिए बिना उसकी गोपनीयता देनी होगी.

जीरो एफआईआर का अधिकार

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, एक बलात्कार पीड़िता जीरो एफआईआर के तहत किसी भी पुलिस स्टेशन से अपनी पुलिस शिकायत दर्ज करा सकती है.

गिरफ्तारी का अधिकार

सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक, किसी महिला को सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है. सिवाय, अगर महिला ने गंभीर अपराध किया है, तो पुलिस को मजिस्ट्रेट से लिखित रूप में यह बताना होगा कि रात के दौरान गिरफ्तारी क्यों जरूरी है.

थाने न बुलाने का अधिकार

दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 160 के अनुसार महिलाओं को पूछताछ के लिए थाने नहीं बुलाया जा सकता है. पुलिस महिला कांस्टेबल और परिवार के सदस्यों या दोस्तों की मौजूदगी में किसी महिला से उसके आवास पर पूछताछ कर सकती है.

गोपनीयता का अधिकार

किसी भी स्थिति में बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर नहीं की जा सकती है. न तो पुलिस और न ही मीडिया पीड़िता का नाम सार्वजनिक कर सकता है. भारतीय दंड संहिता की धारा 228-ए पीड़ित की पहचान के प्रकटीकरण को दंडनीय अपराध बनाती है.

कुछ कानूनों में हालिया संशोधन:

16 दिसंबर 2012 की रात को हुए सामूहिक बलात्कार ने पूरे देश को इस कदर आक्रोश की स्थिति में ले लिया कि इसने बहुप्रतीक्षित अधिनियम यानी आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम द्वारा आपराधिक कानून को एक नया आकार देने के लिए मजबूर कर दिया. २०१३ इस प्रकार अधिनियम में निम्नलिखित धाराएं शामिल हैं:

-धारा 354ए में यौन उत्पीड़न और यौन उत्पीड़न के लिए सजा का प्रावधान है.

-धारा 354बी में कपड़े उतारने के इरादे से महिला पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग करने का प्रावधान है.

-धारा 354सी में तांत्रिकता का प्रावधान है.

-धारा 354डी में पीछा करने का प्रावधान है.

-धारा 376 के तहत ‘बलात्कार’ की परिभाषा में संशोधन किया गया है.

-मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2017 किसी भी रूप में तत्काल “तीन तलाक” को “अवैध और शून्य” बनाता है.

कंजर्वेटिव धर्म के गुलाम

मीट खाना अपनी पसंद नापसंद पर निर्भर करता है और ङ्क्षजदा पशुओं के प्रति दया या क्रूरता से इस का कोई मतलब नहीं है. मुंबई हाईकोर्ट ने कुछ जैन संगठनों की इस अर्जी को खारिज कर दिया कि मीट के खाने के विज्ञापन भी न छापें और टीवी पर न दिखाए जाएं क्योंकि ये मीट न खाने वालों की भावनाओं को आहट करते हैं.

पशु प्रेम वाले में लोग वही हैं जो गौपूजा में भी विश्वास करते हैं पर उस के बछड़े का हिस्सा छीन कर उस का दूध पी जाते हैं. ये वही लोग हैं जो वह अन्न खाते हैं जो जानवरों के प्रति क्रूरता बरतते हुए किसानों द्वारा उगाया जाता है, ये वही लोग है जो पेड़ों से उन फलों को तोड़ कर खाते हैं जिन पर हक तो पक्षियों का है और उन की वजह से पक्षी कम हो रहे हैं.

यह विवाद असल में बेकार का है कि मीट खाने या न खाने वालों में से कोई बेहतर है या नहीं. अगर एक समाज या एक व्यक्ति मीट नहीं खाता तो यह उस की निजी पसंद पर टिका है और हो सकता है यह पसंद परिवार और उस के समाज ने उसे विरासत में दी हो. पर इस जने को कोई हक नहीं कि दूसरों को अपनी पसंद के अनुसार हांकने कीकोशिश करे.

पिछले सालों में सभी को एक डंडे से हांकने की आदत फिर बढ़ती जा रही है. पहले तो धर्म हर कदम पर नियम तय किया करते थे और किसी के एक इंच इधरउधर नहीं होने देते थे पर जब से स्वतंत्रताओं का युग आया है और लोगों को छूट मिली है कि वे तर्क तथ्य और सुलभता के आधार पर अपनी मर्जी से अपने फैसले करें और तब तक आजाद हैं जब तक दूसरे के इन्हीं हकों को रोकते हैं, तब से समाज में विविधवा बढ़ी है.

आज खाने में शुद्ध वैष्णव भोजनालय और चिकन सैंटर बराबर खुल सकते हैं और खुलते हैं पर कुछ कंजर्वेटिव धर्म के गुलाम दूसरों पर अपनी भक्ति थोपने की कोशिश करने लगे हैं. भारत को तो छोडि़ए, स्वतंत्रताओं का गढ़ रहा अमेरिका भी चर्च के आदेशों के हिसाब से गर्भपात को रोकने की कोशिश कर रहा है जिस का असल में अर्थ है औरत की कोख पर बाहर वालों का हमला.

मीट खाना अच्छा है या बुरा यह डाक्टरों का फैसला होना चाहिए धर्म के ठेकेदारों का नहीं जो हमेशा संूघते रहते हैं कि किस मामले में दखल दे कर अपना झंडा ऊंचा किया जा  सकता है. यह तो पक्की बात है कि जब भी कोई धाॢमक मुद्दा बनता है, चंदे की बरसात होती है. यही तो धर्म को चलाता है और यही मीट खाने वालों को रोकने के प्रयासों के पीछे है.

क्या होती है आवर्तनशील प्राकृतिक खेती, जिसे जानने विदेशी भी आते है?

80 के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एमबीए करने वाले ग्राम बरोखरपुर, बाँदा जिला, उत्तरप्रदेशप्रेम सिंह ने शुरुआत में नौकरी की. कुछ दिनों बाद नौकरी से उनका मन भर गया और कुछ अलग करने की इच्छा हुई, तब उन्होंने25 एकड़ जमीन में खेती करने का संकल्प लिया और तब से लेकर आज तक खेती ही करते है. प्रेम सिंह जैविक खेती करते हैं और आसपास के सैकड़ों किसान उनसे खेती की तकनीक सीखने आते हैं और उन्हें अपनी उपज भी बेचते हैं. केवल देश से ही नहीं विदेश से भी उनकी इस जैविक खेती करने की कला को सीखने विदेशी भी आते है. वे अपनी इस सफलता से बहुत खुश है और चाहते है कि विश्व में आगे भी ऐसी खेती की जाय, ताकि किसी को भूखों न मरना पड़े और पर्यावरण संतुलन बनी रहे. उन्होंने खेती और उससे जुडी हुई कई बातों पर बातचीत की, आइये जानते है, कैसे प्रेम सिंह ने ऐसा कर दिखाया और आगे भी मॉडर्न और अधिक उन्नतखेती करने वाले है.

नहीं थी इच्छा पिता की

किसान प्रेम सिंह कहते है कि मैं ग्राम बरोखर खुर्द, बाँदा जिला, उत्तरप्रदेश का रहने वाला हूँ,साल 1987 में पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद कुछ दिनों तक जॉब किया, लेकिन अंत में खेती करने का मन बना लिया. असल में नौकरी करने के बाद सफलता बहुत देर में प्रयास करने के बाद मिलती है. सैलरी भी अच्छी नहीं थी, लेकिन मुझे लगा कि नौकरी में परिवार को लेकर इधर से उधर भागना पड़ता है और मेरे पिता के पास खेत थी, तो मैंने समय बर्बाद न कर खेती की ओर गया. पिता चाहते नहीं थे कि मैं खेती करूँ, उनसे काफी दिनों तक मन-मुटाव चलता रहा, पर मैंने का 1987 से खेती का काम शुरू कर दिया.

बदला कृषि पद्यति

प्रेम सिंह 1987 से 89 तक कन्वेंशनल फार्मिंग किया, जिसमे रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग कर, एक ही तरह की फसलें उगाना था. जिसमे धान और गेहूँ बहुत मात्रा में उत्पन्न होते रहे. पिता की तरह परम्परागत खेती में कुछ अधिक कर नहीं पा रहा था.दो साल बाद जब उन्होंने डायरी पलती तो देखा कि जितनी आमदनी थी. फसल बेचने के बाद बहुत कम पैसे हाथ आते थे क्योंकि उसमे से अधिकतर पैसा रासायनिक उर्वरकों, बीज, पशुओं की दवाइयां आदि खरीदने में लग जाता था. 60 हज़ार रुपये ट्रेक्टर की क़िस्त के लिए बैंक में जाता था. हाथ में 30 से 35 हज़ार ही एक साल में बच पाता था. इसमें 4 भाइयों के परिवार को पालना कठिन था. बीमारी, पढाई-लिखी सब में पैसों की जरुरत थी.

बदला खेती करने का तरीका

प्रेम सिंह कहते है कि साल 1989 में मेरे अंदर खेती के तरीके को बदलने की इच्छा पैदा हुई. मैंने  बागवानी, फ्लोरीकल्चर, खेती की लागत में कमी करने की कोशिश की, जिसमे एक जुताई में ही साल में एक से अधिक फसलों का तैयार हो जाना, आदि पर विचार करने लगा. इस सोच के साथ मैंने रूरल मैनेजमेंट में एमबीए कर लिया, क्योंकि मेरी सफलता न मिलने की वजह मैं अपने कम ज्ञान को समझ रहा था. ऐसे ही वर्ष 1992 से 1995 तक आते-आते वैकल्पिक व्यवस्था के परिणाम आने लगे. मैं गुड़ बनाने लगा, उसमे सालाना डेढ़ लाख रुपये तक आमदनी होने लगी, इसके बाद फ़ूड प्रोसेसिंग, दलिया बनाने का काम आदि भी शुरू कर दिया, इससे आमदनी में खूब वृद्धि हो गई. इससे पैसे भी मिलने के अलावाकईयों को रोजगार भी देने लगा. आमदनी में बृद्धि होने से कर्जमुक्ति मिली. उस समय मुझे पता नहीं चल पा रहा था कि मैं क्या कर रहा हूँ, क्योंकि तब जैविक खेती का प्रचलन नहीं था. 2002 में पता चला कि यही वैकल्पिक विधि है.

किये संसाधनों पर काम

किसान प्रेम सिंह का आगे कहना है कि धीरे-धीरे मैंने जो जरूरतें एक अच्छी खेती के लिए थी, उसपर काम किया, जो निम्न है, मसलन जल संतुलन का काम, जिसमे गढ्ढा खोद कर तालाब बनाया गया, जिसमे बारिश का पानी रुकता था और बिना पैसे के खेतों में साफ पानी से सिंचाई कर लेता था.उर्वरता संतुलन के लिए गाय, भैस, बकरी, मछली, मुर्गी, आदि सब पालने की वजह से खाद की समस्या दूर हो गई, क्योंकि इससे कम्पोस्ट खाद मिल जाने लगा. खेती में रासायनिक उर्वरकों के बदले कम्पोस्ट खादों का प्रयोग करने लगे, जो पशु-पालन से आने लगी. खाद खरीदने के पैसे में कमी आ गयी, इसके अलावा गाय,भैस, मुर्गी, मछली से आमदनी के स्त्रोत भी बढ़ने लगे. मैंकई प्रकार के कम्पोस्टिंग  बनाता हूँ. पहले सभी भाइयों ने साथ मिलकर काम किया, लेकिन अब सब अलग-अलग काम करते है, बाग़ वही है, लेकिन हम सभी चारों भाई पैसा बाँट लेते है.

मुनाफा कैसे हो

प्रेम सिंह के पास खेती बहुत अधिक है,वे अपने गांव बडोखर खुर्द में रहते है,जबकि एक भाई महोबा गांव में है, दूसराहरदोई में, पिता की खेत के अलावा माँ की प्रॉपर्टी भी उनके पास आई है, क्योंकि माँ के परिवार में कोई किसानी करने वाला नहीं है. खेत छोटे-छोटे है,लेकिन कई जगह है. कहीं 10 बीघे,कहीं 15 तो कहीं 5 बीघे ऐसे बंटे हुए खेत है. इसलिए उनके भाईयों को भी उनकी तरह ही अलग-अलग जगहों पर जाकर खेती करना पड़ता है. इस काम के लिए उन्हें श्रम करने वालों की आवश्यकता होती है. इस समय प्रेम सिंह के पास 10 लोग स्थायी रूप से साथ रहते है, काम करते हुए ही सभी लोग प्रशिक्षित हो गए है. उन्हें ट्रेनिंग की जरुरत नहीं होती, देहात में जन्मजात सीखे रहते है. वर्ष 1995 के बाद उनकी खेती अच्छी चलने लगी. साल 2004 के बाद में बाहर से लोग उनके पास आने लगे औरउन्हें अपनी खेती करने की विधि को एक्सप्लेन करने के लिए बुलावा भी आने लगा.एक बार प्रेम सिंह ने एक विदेशी से उनके पास आने की वजह जाननी चाही, तो उन्हें पता चला कि  यहाँ कीखेती की कुछ खास पद्यतिउन्हें पसंद है. प्रेम सिंह ने निम्न विषयों पर अधिक ध्यान दिया.

  • जल संतुलन
  • वायुऔर ताप का संतुलन, जो पेड़ पौधों के लगाने से हुआ,
  • उर्वरता संतुलन
  • उर्जा संतुलन, जिससेयहाँ 11 किलोवाट सोलर एनर्जी मिलती है,
  • सामाजिक संतुलन –उनकी माँ कहती थी कि जमीन उनकी होने पर भी वे उसका मालिकनहीं, यह एक सामाजिक जिम्मेदारी है, जिसमे अधिक से अधिक लोग जुड़ कर अच्छा काम करें. यहाँ वेतन देने का काम नहीं होता, साल भर का मेहनताना पहले तय हो जाता है. प्रोसेसिंग काउंटर से ही लोग आकर उचित मूल्य देकर सामान ले जाते है, कोई बाज़ार माल बेचने नहीं जाता.

बने किसान देश हो खुशहाल

साल 2010 में कलबुर्गी में ‘भारत विकास सम्मेलन’ हुआ था. वहां देश के 10 पुरस्कृत किसानों में से मैं भी एक किसान प्रेम सिंह भी थे. वे कहते है कि पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने भाषण के दौरान 5 बच्चों को प्रश्न पूछने का मौका दिया. उसमे से एक लड़के ने अंत में उनसे पूछ लिया कि वे डॉक्टर, इंजिनियर, नेता, ब्यूरोक्रेट्स आदि बनने के लिए प्रेरित करते है, लेकिन किसी को किसान बनने के लिए प्रेरित क्यों नहीं करते?किसान और खेती के बिना देश और देश का भविष्य क्या होगा?इस प्रश्न ने मुझे हिला कर रख दिया, क्योंकि किसी के पास इसका जवाब नहीं था. अगले दिन सभी अखबारों की सुर्ख़ियों में जब ये खबर छपी, तो मैंने इसपर विचार करने की सोची, क्योंकि किसान और किसानी के बारें में किसी के पास कोई उत्तर नहीं था.

क्या है आवर्तनशील खेती

किसान प्रेम सिंह कहते है कि मैंने अपने आसपास के सभी किसानों से बातचीत की और खुद कुछ करने की योजना बनाई, क्योंकि संसद और नेता कोई भी इसमें कुछ नहीं करते. 6 महीने बाद सभी ने तय किया कि स्कूल कॉलेजों के इतिहास में राजा-रजवाड़े के बारें में पढ़ाया जाता है,जिन्होंने हमें लूटा,जबकि किसान के बारें में कभी नहीं पढ़ा जाता, इसलिए मैंने साल 2011 में एक किताब किसान की जिंदगी के बारें में लिखा और एक म्यूजियम किसानी में प्रयोग किये जाने वाली वस्तुओं को लेकर बनाया, ताकि बाहर से आने वालों को भी काम का अंदाजा मिले.इसे मैंनेआवर्तनशील प्राकृतिक खेती का नाम दिया. स्वास्तित्व विकास पर आधारित ये उन्नत खेती है.

विदेशी किसानो की भीड़

प्रेम सिंह का कहना है कि किसान की स्वायत्तता पर मैंने अधिक जोर दिया, जिसमें किसान  बीज, उर्जा, पानी, विचार सबअपने हिसाब सेकरें, इसकी उन्हें आज़ादी हो, क्योंकि गांव में सभी किसान का पुश्तैनी खेती है और वे जन्म के बाद से ही खेती के बारें में जानना शुरू कर देते है.जल, उर्जा, उर्वरता आदि में संतुलन के बाद समृद्धि आती है, अर्थात् प्राकृतिक नियमों के अनुसार खेती करने से ही समृद्धिआती है.इसलिए मैंने खेत के कुछ भाग में फल, वन, पशु और घर में प्रयोग के सामान पैदा करता हूँ. बचने वाले सामान को प्रोसेस कर बाजार भेजते है. साथ ही आसपास के गाँव से आने वाले किसी को भी जरुरत के अनुसार सहायता करते है.अभी तक 23 देशों से लोग मुझसे मिलने आये है और इस खेती को करने के तरीके को जाना है.

अमेरिका, इजराइल और अफ्रीका जैसे समृद्ध देशों से भी किसानों और विशेषज्ञों का तांता भी प्रेम सिंह के खेतों में लगा रहता है. आज पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन और संसाधनों की कमी का सामना कर रही है, ऐसे में भारतीय किसान द्वारा ईजाद की गई आवर्तनशील खेती की ये तकनीक बड़े खर्चों को बचाने में कामयाब हो रही है.

युवाओं का बढ़ता रुझान

किसान आगे कहते है कि पेंडेमिक के बाद एक परिवर्तन मैंने यूथ में देखा है. करीब 80 प्रतिशत युवा नौकरी छोड़ या नौकरी चले जाने की वजह से खेती सीखने आ रहे है. ये नया ट्रेंड विकसित हुआ है. असल में इन युवाओं को समझ में आया है कि केवल नौकरी कर अपने पैसों को बाहर के जंक फ़ूड और डॉक्टर पर खत्म करदेते है और अंत में एक कफन में ही जाना पड़ता है. इसके अलावा एककर्मचारी एक अमीर व्यक्ति को ही अमीर बनाते जाते है और 60 साल के बाद उन्हें अयोग्य घोषित कर रिटायर्ड कर दिया जाता है.

नीतियों में बदलाव ठीक नहीं

प्रेम सिंह कहते है कि हर नई सरकार को नीतियाँ बदलना ठीक नहीं.यही वजह है कि व्यापार में अब अस्थिरता आ गयी है. किसी भी व्यवसाय में स्थिरता लाने में बहुत समय लगता है. इसलिए भी लोग नौकरी छोड़कर किसानी सीखने चले आते है. बदलती नीतियों की वजह से किसान समस्याग्रस्त हो जाते है.इस सरकार ने किसानों के भले के लिए नीतियाँ बनाई थी, लेकिन इसे लागू करने में किसानों का विरोध हो रहा था, तो तुरंत इसे वापस लेनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कानून अगर बन जाती, तो भारत सरकार को दिसम्बर या जनवरी तक बाहर से गेहूँ खरीदने की नौबत आती और जनता की स्थिति बहुत ख़राब होती. पूरा सामान व्यापारियों के पास चले जाने पर ग्राहकों को अधिक पैसे से उसे खरीदने पड़ते, क्योंकि व्यापारियों ने उसे अधिक दाम पर किसानों से ख़रीदा है. युक्रेन की युद्ध भी देश की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया है.देखा जाय तो सरकार की नीतियों के वापस लेने तक खाद्यान्न का बहुत बड़ा हिस्सा व्यापारी ले गए है. अगर सरकार को किसी बात की जानकारी नहीं है, तो उन्हें चुप रहना चाहिए.उसे छेड़-छाड़ करना ठीक नहीं. सरकार की नीतियाँ ठीक नहीं थी और इसे हटा लेना ही देश के लिए हितकारी रहा.

पुश्तैनी है किसानी

प्रेम सिंह के परिवार के सभी इस व्यवसाय से जुड़े है, बच्चे भी यही काम करेंगे. बेटा वकालत के साथ खेती का भी काम करता है. शिविर का आयोजन प्रेम सिंहहर साल करते है और उसके ज़रिये लोगों तक जागरूकता फैलातेहै.करीब 500 किसानों ने मिलकर सरकार से प्राकृतिक खेती का ऐसा सवरूप जो जल, वायु, ताप, उर्वरता, उर्जा, समाज संतुलित कर, आवर्तनशील खेती के बारें में जानकारी देने के लिए समय-समय पर वर्कशॉप का आयोजन किया जाय, ताकि लोगइस प्रकार की खेती से भ्रमित न हो.

आर्थिक संकट विश्व में

श्री लंका में खेती करने की वजह से आर्थिक संकट आने के बारें में पूछने पर प्रेम सिंह कहते है कि ये केमिकल लॉबी की एक साजिश है, क्योंकि प्राकृतिक खेती से उपज कम नहीं होती, बार-बार केमिकल डालने से खेती की उर्वरता कम हो जाती है और उसका खामियाजाकिसान और आम लोग भुगत रहे है. देखा जाय तो प्राकृतिक खेती में किसी प्रकार का पैसा नहीं लगता. श्री लंका के सरकार के पास केमिकल खरीदने का पैसा नहीं था, तो उन्होंने प्राकृतिक तरीके से खेती करने का सुझाव दिया था, लेकिन मिट्टी की उपजाऊ कम हो जाने से फसल कम हुई. इसमें केवल खेती ही नहीं सरकार की नीतियां भी गलत है.

किसान प्रेम सिंह आगे भी कृषि से जुडी विषयों पर युवाओं को जागरूक बनाने के लिए निरंतर प्रयास कर रहे है, क्योंकि कृषि में उन्नति ही देश को उन्नत बना सकती है और सही खेती करने से खाद्य समस्या भी कम हो सकती है.

दुनिया में परचम लहराती, सबसे युवा महिला उद्यमी नेहा नारखेडे़

भारत की सबसे युवा ‘सेल्फ मेड’ महिला नेहा नारखेड़े, 37 साल की उम्र में 4700 करोड़ रुपए की संपत्ति अजीत करके जहां देश का गौरव बढ़ाया है वहीं महिलाओं को एक बार फिर सशक्त रूप में स्वयं को प्रस्तुत करके एक उदाहरण बन गई है.

आइए! आज आपको हम मिलाते हैं महाराष्ट्र के पुणे में जन्मी नेहा नारखेड़े से . जिसने सिर्फ 37 साल की उम्र में भारत की सबसे युवा ‘सेल्फ मेड’ महिला का मुकाम हासिल किया है. नेहा नारखेड़े ने जॉर्जिया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की है, वह ‘कंफ्लुएंट’ की सह संस्थापक भी हैं. प्रतिष्ठित फोर्ब्स की लिस्ट में भी नेहा नारखेड़े अपनी जगह बना चुकी हैं. इस तरह नेहा ने जहां देश की युवा पीढ़ी को अपने उद्यम से प्रेरणा दी है वही दुनिया में भारत का नाम भी रोशन किया है.

एक महत्वपूर्ण मुकाम

आमतौर पर महिलाओं को हमारे देश में इस दृष्टि से देखा जाता है कि मानो एक आम गृहणी और बच्चे पैदा कर वंश वृद्धि की हाड मांस की पुतली . मगर जब यह महिलाएं बाहर निकलती हैं तो दूसरी महिलाओं को ही नहीं पुरूष को भी पीछे छोड़ने का माद्दा रखती हैं, यह बारम बार सिद्ध हुआ है.

और इस सच्चाई को नेहा ने फिर दुनिया को बताया है.

पुणे में जन्मी नेहा नारखेड़े ने  37 साल की उम्र में जो मुकाम हासिल किया है, वह असाधारण  है. नेहा नारखेड़े ने IIFL वेल्थ हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2022 में जगह बनाई है. दुनिया के धनपतियों की इस लिस्ट में नेहा नारखेड़े सबसे युवा सेल्फ मेड वुमन आंत्रप्रेन्योर हैं.

नेहा नारखेड़े की प्रारंभिक पढ़ाई पुणे में ही हुई, हालांकि बाद में वह कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई करने के लिए अमेरिका चली गई .

नेहा नारखेड़े ने जॉर्जिया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की, वह ‘कंफ्लुएंट’ की सह संस्थापक हैं. इसके अलावा आपाचे काफ्का जो कि एक ओपन सोर्स मेसेजिंग सिस्टम है, को डिवेलप करने में नेहा नारखेड़े की महत्ती भूमिका  है, वर्तमान में नेहा कई तकनीकी कंपनियों में सलाहकार और निवेशक के रूप में अपनी सेवाएं दे रही हैं.

हारुन इंडिया रिच लिस्ट में नेहा नारखेड़े को 336वां स्थान मिला है, उनकी अनुमानित संपत्ति 4700 करोड़ रुपए की है.

नेहा नारखेड़े अपनी कंपनी शुरू करने से पहले प्रतिष्ठित लिंक्डइन और ओरैकल के लिए काम कर चुकी हैं, वह अपाचे काफ्का सॉफ्टवेयर बनाने वाली टीम का हिस्सा थीं, उन्होंने 2014 में अपनी खुद की कंपनी शुरू की. 15 साल पहले नेहा नारखेड़े अमेरिका चली गई थीं और वहीं से मास्टर्स की डिग्री ली, उन्होंने अपना ग्रैजुएशन पुणे विश्वविद्यालय से ही किया था.

दुनिया की प्रसिद्ध

फोर्ब्स की अमीर सेल्फ मेड महिलाओं की लिस्ट में भी नेहा नारखेड़े ने 57वां स्थान हासिल किया था. इससे पूर्व 2018 में फोर्ब्स ने टेक से जुड़ी महिलाओं की लिस्ट में नेहा नारखेड़े का नाम शामिल किया था. हुरुन इंडिया के मुताबिक, लिस्ट में 1000 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति वाले कुल 1103 लोगों को शामिल किया गया था.

इस तरह भारतीय परिवेश के लिए विशेष तौर पर हमारे पुरुष समाज को यह एक ऐसा उदाहरण दुनिया ने गौरवशाली भूमिका के साथ दिखलाया है जिससे प्रेरणा लेकर के देश की महिलाओं में ऊंचा मुकाम हासिल करने का हौसला पैदा होगा .

कानून के निशाने पर पेट्स लवर्स

शहरों में ‘पेट्स लवर्स’ की संख्या बढ़ती जा रही है. इन में कुत्ते के साथसाथ बिल्ली और दूसरे पेट्स भी आते हैं. कुत्ते को ले कर कई बार पड़ोसियों में आपस में  झगड़े होने लगते हैं. कई बार लोग शौकिया पेट्स पाल लेते हैं, फिर आवारा छोड़ देते हैं. छोटे डौग्स को खिलौने जैसा सम झने लगते हैं. मगर अब ऐसा करने वाले सावधान हो जाएं. अब सरकार पशु कू्ररता निवारण अधिनियम का सख्ती से पालन कराने लगी है. पशु अधिकारों के लिए मेनका गांधी ने बड़ी लड़ाई लड़ी. उस के बाद अब तमाम एनजीओ ऐसे बन गए हैं जो पशु अधिकारों की लड़ाई लड़ने लगे हैं.

ऐसे में कोई भी गलती करना पशुओं को पालने वाले पर भारी पड़ सकती है. सरकारी कर्मचारी सड़कों पर घूम रहे पशुओं का भले ही ध्यान न रखें, लेकिन अगर पशु पालने वाले के खिलाफ कोई शिकायत मिलेगी तो वे अपनी मनमानी पर उतर आएंगे. काला हिरन का शिकार करना फिल्म स्टार सलमान खान को भारी पड़ चुका है.

लखनऊ का चर्चित पिटबुल कांड

पेट्स पालने वालों में सब से अधिक संख्या डौग पालने वालों की होती है. ये जहां रहते हैं वहां इन के पड़ोसी परेशान रहते हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि अब लोग खतरनाक किस्म के डौग पालने लगे हैं, जिन को देख कर ही लोग डर जाते हैं खासकर बच्चे बहुत डरते हैं. इस के अलावा कई बार डौग घरों के आसपास गंदगी करते हैं. ऐसे में डौग लवर जिस भी सोसाइटी में रहते हैं वहां लोगों के निशाने पर रहते हैं. सोसाइटी और अपार्टमैंट्स में भी इन के लिए अलग नियम बन गए हैं.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के कैसरबाग महल्ले में एक घर में पिटबुल और लैब्राडोर प्रजाति के 2 डौग पले हुए थे. घर में एक जवान लड़का अमित त्रिपाठी और उस की 82 साल की बूढी मां सुशीला त्रिपाठी रहती थीं. मां टीचर के पद से रिटायर थीं. बेटा जिम ट्रेनर के रूप में काम करता था. एक दिन घर में मां अकेली थीं. पता नहीं किन हालात में पिटबुल प्रजाति वाले कुत्ते ने उन्हें काट लिया.

इस के बाद उन की बौडी से खून ज्यादा निकल गया और जब तक कि बेटे को पता चला काफी देर हो चुकी थी. वह अपनी मां को ले कर अस्पताल गया. वहां पता चला मां की मौत हो चुकी है.

मौका पा कर महल्ले वालों ने कुत्ते को बाहर कराने के लिए हल्ला मचा दिया. पिटबुल को आदमखोर घोषित कर दिया. नगर निगम के लोग कुत्ते को ले गए. उस के व्यवहार को देखासम झा. 14 दिन अपनी देखरेख में अस्पताल में रखा. कुत्ते में खराब लक्षण नहीं दिखे तब उसे वापस मालिक को दे दिया गया. इस के बाद भी महल्ले वालों को दिक्कत बनी हुई है.

ऐसे मामले किसी एक जगह के नहीं हैं. अब लोग अपार्टमैंट्स में रहते हैं. वहां भी कुत्ते पालते हैं. बिल्लियां भी पालते हैं. ये पेट्स कई तरह से दिक्कत देते हैं. एक तो आवाज करते हैं, गंदगी करते हैं. दूसरे अनजान लोगों को देख कर काटते और भूकते हैं, जिस की वजह से अनजान लोगों को डर लगता है.

पहले लोगों के बडे़बड़े घर होते थे. ऐसे में डौग या दूसरे पालतू जानवरों को पालने से दूसरों को दिक्कत नहीं होती थी. अब महल्ले और कालोनी में छोटे घर होते हैं. अपार्टमैंट में तो बहुत ही करीबकरीब घर होते हैं. ऐसे में अगर आप पेट्स लवर हैं तो ऐसे पेट्स पालें जिन से लोगों को दिक्कत न हो.

डौंग का ले कर नियम

डौग को ले कर तमाम तरह के नियम बन गए हैं. नगर निगम से लाइसैंस लेना पड़ता है. इन को समयसमय पर वैक्सीन लगवानी पड़ती है. डौग की ट्रेनिंग ऐसी हो जिस से वह ऐसे काम न करे जिस से पड़ोस में रहने वालों को दिक्कत हो. कालोनियों ने अपनेअपने नियम अलग बनाए हैं. ऐसे में अगर आप को पेट्स पालने हैं तो सब से पहले नियमों का पालन करें.

अपने पेट्स को सही तरह से ट्रेनिंग दें और पड़ोसियों की सहमति भी लेते रहें. खतरनाक किस्म की प्रजातियां न पालें. कोई दिक्कत हो तो ऐनिमल्स डाक्टर से संपर्क करें. वह पेट्स के व्यवहार को देख व सम झ कर उस का इलाज करता है. सोसाइटी के निशाने पर आने से बचने के लिए जरूरी है कि उन की सहमति से काम करें.

अगर कोई बेवजह आप को परेशान कर रहा है तो कई कानून पेट्स पालने वालों के लिए भी हैं. कई संस्थाएं भी हैं जो ऐनिमल लवर्स की मदद करती हैं और उन के अधिकारों की रक्षा करने के लिए आवाज उठाती हैं. भारत सरकार ने पशुओं की सुरक्षा के लिए कानून भी बनाया है जो उन के अधिकारों की रक्षा करता है. इस को पशु कू्ररता निवारण अधिनियम के नाम से जाना जाता है.

क्या है पशु कू्ररता निवारण अधिनियम

पशु क्रूरता निवारण अधिनियम का उद्देश्य ‘जानवरों को अनावश्यक दर्द पहुंचाने या पीड़ा देने से रोकना’ है, जिस के लिए अधिनियम में जानवरों के प्रति अनावश्यक कू्ररता और पीड़ा पहुंचाने के लिए सजा का प्रावधान किया गया है. 1962 में बने इस अधिनियम की धारा 4 के तहत ‘भारतीय पशु कल्याण बोर्ड’ की स्थापना भी की गई है. 3 महीने की समय सीमा में इस के तहत मुकदमा दर्ज किया जा सकता है. इस के बाद अधिनियम के तहत किसी भी अपराध के लिए कोई मुकदमा दर्ज नहीं होगा.

जो लोग अपने घर में पालतू जानवर तो रखते हैं, लेकिन जानेअनजाने में उन के साथ कई बार ऐसा सलूक करते हैं, जो अपराध की श्रेणी में आता है. इस की भी सजा मिल सकती है. इसी तरह आसपास घूमने वाले जानवरों के साथ भी लोगों का व्यवहार बहुत माने रखता है. गलत व्यवहार पर सजा हो सकती है.

दंडनीय अपराध

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(1) के मुताबिक, हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना भारत के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है. पशु कू्ररता निवारण अधिनियम में साफ कहा गया है कि कोई भी पशु (मुरगी समेत) सिर्फ बूचड़खाने में ही काटा जाएगा. बीमार और गर्भ धारण कर चुके पशुओं को मारा नहीं जाएगा.

भारतीय दंड संहिता की धारा 428 और 429 के मुताबिक किसी पशु को मारना या अपंग करना, भले ही वह आवारा क्यों न हो, दंडनीय अपराध है. पशु कू्ररता निवारण अधिनियम 1960 के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर 3 महीने की सजा हो सकती है. वाइल्डलाइफ ऐक्ट के तहत बंदरों को कानूनी सुरक्षा दी गई है. इस के तहत बंदरों से नुमाइश करवाना या उन्हें कैद में रखना गैरकानूनी है.

कुत्तों के लिए कानून को 2 श्रेणियों में बांटा गया है- पालतू और आवारा. कोई भी व्यक्ति या स्थानीय प्रशासन पशु कल्याण संस्था के सहयोग से आवारा कुत्तों का बर्थ कंट्रोल औपरेशन कर सकती है. उन्हें मारना गैरकानूनी है. जानवर को पर्याप्त भोजन, पानी, शरण देने से इनकार करना और लंबे समय तक बांधे रखना दंडनीय अपराध है.

इस के लिए जुर्माना या 3 महीने की सजा या फिर दोनों हो सकते हैं. पशुओं को लड़ने के लिए भड़काना, ऐसी लड़ाई का आयोजन करना या उस में हिस्सा लेना संज्ञेय अपराध है. पीसीए ऐक्ट की धारा 22(2) के मुताबिक भालू, बंदर, बाघ, तेंदुए, शेर और बैल को मनोरंजन के लिए ट्रेड करना और इस्तेमाल करना गैरकानूनी है.

 प्रतिबंधित है यह

ड्रग्स ऐंड कौस्मैटिक रूल्स 1945 के मुताबिक जानवरों पर कौस्मैटिक्स का परीक्षण करना और जानवरों पर टैस्ट किए जा चुके कौस्मैटिक्स का आयात करना प्रतिबंधित है. ‘स्लौटर हाउस रूल्स 2001’ के मुताबिक देश के किसी भी हिस्से में पशु बलि देना गैरकानूनी है. जब हम चिडि़याघर घूमने जाते हैं तो वहां भी कुछ नियम है. चिडि़याघर और उस के परिसर में जानवरों को चिढ़ाना, खाना देना या तंग करना दंडनीय अपराध है. ऐसा करने वाले को 3 साल की सजा, 25 हजार रुपए का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.

पशुओं को एक से दूसरी जगह ले जाने को ले कर भी कानून बनाया गया है. पशुओं को असुविधा में रख कर, दर्द पहुंचा कर या परेशान करते हुए किसी भी गाड़ी में एक से दूसरी जगह ले जाना मोटर व्हीकल ऐक्ट और पीसीए ऐक्ट के तहत दंडनीय अपराध है. पंछी या सांपों के अंडों को नष्ट करना या उन से छेड़छाड़ करना या फिर उन के घोंसले वाले पेड़ को काटना या काटने की कोशिश करना शिकार कहलाएगा.

इस के दोषी को 7 साल की सजा या 25 हजार रुपए का जुर्माना या फिर दोनों हो सकते हैं. किसी भी जंगली जानवर को पकड़ना, फंसाना, जहर देना या लालच देना दंडनीय अपराध है. इस के दोषी को 7 साल तक की सजा या 25 हजार रुपए का जुर्माना अथवा दोनों हो सकते हैं.

मुसलिम औरतों के हिजाब पर आपत्ति

औरतों के लिए तरहतरह के कपडों तक के नियम धर्म ने तय कर रखे हैं. लगभग हर धर्म औरतों के लिए तय करता है कि कब क्या करना है क्या नहीं. उत्तर भारतीय वधूओं के लिए घूंघट आज भी जरूरी है. गनीमत है कि अब दिन भर सिर पर पल्लू या घर में जेठ या ससुर के सामने पूरा घूंघट सिर्फ गांवों तक रह गया है. मुसलमानों में हिजाब एक विवाद बन गया है.

हिजाब ड्रैस का कोई दिखावटी हिस्सा नहीं है और यह कहना कि औरतें अपनी मर्जी से उसे पहन रही हैं. धर्म के कहने पर अपने को धोखा देना है. हिजाब कोरा धार्मिक है वर्ना इसे घर में भी पहना जाता. जो मुसलिम औरतें कह रही हैं कि हिजाब उन की आईडैंटिटी की निशानी है, वे केवल धर्म गुरूओं के आदेशों पर कर रही हैं. ईरान की औरतों ने यह साबित कर दिया है.

ईरान में 22 साल एक औरत को पब्लिक में हिजाब जलाने पर मोरल पुलिस, यानी धाॢमक पुलिस ने पकड़ लिया और अगले दिन उस की लाश मिली जैसा हमारे यहां होता है. कस्टोडियल डैं्रस ईरान, भारत जैसे देशों में आम है.

पर जो बात ईरानी धार्मिक मुल्लाओं ने सोची नहीं थी, वह हुई. इस मौत पर हंगामा हुआ. पूरा देश हिजाब की जबरदस्ती पर खड़ा हो गया है. जगहजगह उपद्रव हो रहे हैं. आगजनी हो रही है. ईरान सरकार जो मुल्लाओं के हिसाब से चलती हुआ नहीं कर रही कि इन लोगों को दबाने के लिए काफिरों की बनाई गई बंदूकों से आम जनता को डरा कर घरों या  जेलों में बंद कर रही है.

म्हासा अमीनी की पुलिस के हाथों मौत हुई. अब ईरानी पुलिस, भारतीय पुलिस की तर्ज पर, कह रही है कि मौत तो हार्ट फेल होने से हुई थी. जिस औरत ने पब्लिक में विरोध किया हो, उस का दिल इतना कमजोर नहीं होता कि पुलिस के हाथों में जाते ही टूट जाए. ईरान के 10-12 शहरों में मोरल पुलिस की मनमानी के खिलाफ दंगे होने लगे हैं.

यह हाल बिलकुल भारत जैसा है. ईरान में भी भारत जैसी धर्म की देन सरकार है जो धर्म को पहला फर्ज मानती है, गुड गवनैंस को नहीं. भारत में भी सरकार का कर्म धर्म के हिसाब से हो रहा है. मंदिरों और तीर्थों के लिए सडक़ें बन रही है और उन्हें विकास कहा जा रहा है. मुसलमानों के मकान तोड़े जा रहे है और उसे एनक्रोसमैंट के रोकने का एक्शन कहा जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट को समय हिजाब और ज्ञानवापी मसजिद की गुत्थी सुलझाने में लगाया जा रहा है और इसे न्याय करना सिखाया कहा जा रहा है. जबकि संपत्ति, अपराधों, तलाक, जेलों में बंद निर्दोषों के मामले 10-10 साल से लटक रहे हैं. ईरान और भारत में बहुत सी बातें एक सी हैं.

हमारे यहां मुसलिम औरतों के हिजाब पर आपत्ति है पर किसी हिंदू औरत तो किसी मंदिर में बिना सिर ढके जाने पर भी रोक है. हिंदू औरतें अगर देवीदेवता के सामने बिना सिर ढके चली जाएं तो उन्हें मारापीटा तो नहीं पर टोका जरूर जाता है. भारत सरकार और ईरान सरकार दोनों औरतों को धर्म की गुलाम मानती हैं और ऐसी औरतों की भी कमी नहीं जो अपनी आजादी को धर्म के नाम पर कुर्बान करने में आसानी से तैयार हो जाती हैं. म्हासा अमीनी की मौत ने अंधविश्वास के सड़े भूसे में एक चिंगारी फेंकी है. यह आग कितनी फैलती है देखना बाकी है.

कर्म करें या व्रत

यह सोचने वाली बात है कि क्यों हर व्रत का पालन बस स्त्रियां ही करती हैं फिर चाहे वह करवाचौथ का हो, अहोई अष्टमी या वट सावित्री? क्यों बस पुरुषों की लंबी उम्र की कामना के लिए ही व्रत रखे जाते हैं? हर व्रत के साथ एक पौराणिक कथा भी जुड़ी होती है जिस कारण अधिकतर स्त्रियां इन व्रतों को बहुत ही  श्रद्धा और कड़े नियमों के साथ रखती हैं.

मान्यता तो यह भी है कि यदि पहला करवाचौथ व्रत निर्जला रखा है तो हर करवाचौथ ऐसे ही रखना होता है चाहे ऐसे व्रतों का आप के स्वास्थ्य पर कितना भी बुरा प्रभाव क्यों न पड़े.

क्या वास्तव में हर माह पूर्णिमा या निर्जला एकादशी व्रत करने से घर में शांति बनी रहती है? क्यों हम इन व्रतों पर इतनी श्रद्धा रखते हैं? क्या यह हमारी भीरुता का परिचायक नहीं है? जीवन में आने वाली कठिनाइयों का सामना करने के बजाय हमारे धर्मगुरु हमें व्रत करने की सलाह देते हैं.

पढ़ेलिखे भी झांसे में

क्यों हम किसी भी कठिन समय में कर्म के बजाय व्रत को महत्त्व देते हैं? क्यों आज भी पढे़लिखे लोग इन व्रतों के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं?

इस के पीछे का कारण है उन का अंधविश्वास या फिर उन का आलस्य. किसी भी समस्या के समाधान के लिए हमें एक सुनियोजित तरीके से काम करना होता है, जिस के लिए लगती है कड़ी मेहनत और अथक प्रयास. मगर बहुत बार हमें व्रत की राह अधिक आसान लगती है क्योंकि हमें हमेशा से ही वह चीज ज्यादा आकर्षित करती है जो हमें सपनों की दुनिया में खींच ले जाती है.

वैभवलक्ष्मी के व्रत करने से धन लाभ होगा, ऐसा मान कर न जाने कितनी महिलाएं इस व्रत को करती हैं तथा सच्ची श्रद्धा से इस का उद्यापन भी करती हैं. इन व्रतों का कड़े नियम से पालन करने में और इन के उद्यापन में भी बेहद खर्चा होता है. ये व्रत हमारी जेब पर बहुत भारी पड़ते हैं. समय पर खानापीना न खा कर और रात में गरिष्ठ भोजन के कारण हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है यह तो हम सब जान ही चुके होंगे.

गहरी साजिश है यह

मेरी अपनी सास हमेशा करवाचौथ के उपवास को बहुत ही श्रद्धा के साथ रखती थीं. हर व्रत उन के पति की लंबी आयु के लिए ही होता था, फिर भी उन की चिर सुहागन की इच्छा पूरी न हो सकी.

गौर करें तो पाएंगे कि सारे व्रत केवल महिलाएं ही रखती हैं? फिर चाहे वह पूर्णमासी का व्रत हो, एकादशी का हो, अष्टमी का हो या फिर करवाचौथ का. हर व्रत के पीछे मुख्य भावना होती है परिवार की सुखशांति या फिर पुत्र अथवा पति की लंबी आयु. ये व्रतअनुष्ठान बस स्त्रियां ही क्यों रख पाती हैं क्योंकि उन्हें बचपन से ही इच्छाओं को दमन करने की शिक्षा दी जाती है. यह समाज में पुरुषों की सत्ता का दबदबा रखने के लिए भी किया जाता है.

सारे व्रत महिलाएं रखती हैं पर उन व्रतों के नियम बनाने वाले सब पंडित पुरुष ही हैं. क्यों अब तक भी पंडिताई में पुरुषों का ही वर्चस्व है? क्या इस के पीछे यह कारण तो नहीं है कि हमारा धर्म आज भी महिलाओं को एक ऐसे अंधकार में रखना चाहता है जहां पर नारी खुल कर सोच न पाए. अगर व्रत करने से जिंदगी आसान हो जाती है तो शायद ही हमें अपने आसपास कोई दुखी इनसान मिले.

जिंदगी की राह ऐसे आसान बनाइए

जो समय और ऊर्जा हमारी महिलाएं इन व्रतों को रखने में लगाती हैं, उतने ही समय में तो वे कितने ही लाभकारी कार्य भी कर सकती हैं. जो समय और ऊर्जा महिलाएं इन व्रतों को करने में लगाती हैं उतने ही समय में वे कोई लाभकारी हुनर सीख सकती हैं जो उन की जिंदगी की राह को आसान बना सकने में सक्षम रहेगा. मैं व्रतअनुष्ठानों के खिलाफ कोई मुहिम नहीं छेड़ रही हूं. मैं बस यह कहना चाहती हूं कि आप भले ही कोई भी व्रत रखें पर उसे अपनी खुशी के लिए रखें. अपने समय और स्वास्थ्य के हिसाब से आप उन के नियम और कायदों को ढाल भी लें.

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