Love Story : प्यार का पहला खत – एक ही नजर में सौम्या के दिल में उतर गया आशीष

Love Story : मेरे हाथ में किताब थी और मैं इधरउधर देखे जा रही थी क्योंकि वह मेरे हाथ में किताब पकड़ा कर गायब हो चुका था या यों कहें वह कहीं छिप गया या वहां से दूर भाग चुका था. शायद मेरी मति मारी गई थी जो मैं ने उस से किताब ले ली थी. सच कहूं तो वह काफी समय से मुझे इंप्रैस करने में लगा हुआ था. हालांकि कभी कुछ कहा नहीं था और आज जब उसे पता चला कि मुझे इस सब्जैक्ट की किताब की जरूरत है तो न जाने कहां से फौरन उस किताब को अरेंज कर के मेरे हाथों में पकड़ा कर चला गया था.

मैं ने उस समय तो वह किताब पकड़ ली थी लेकिन अब उस के छिप जाने या गायब हो जाने से मेरा दिमाग बहुत परेशान हो रहा था. कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. मैं इस तरह परेशान हाल ही उस पार्क में पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गई. वहां पर कुछ लोग जौगिंग कर रहे थे और वे मेरे आसपास ही घूम रहे थे. मुझे लगा कि शायद मेरी परेशान हालत देख कर वे सब मेरे और करीब आ रहे हैं. खैर, हर तरफ से मन हटा कर मैं ने किताब का पहला पन्ना खोला, सरसराता हुआ एक सफेद प्लेन पेपर मेरे हाथों के पास आ कर गिर पड़ा. न जाने क्यों मेरा मन एकदम से घबरा गया, समझ ही नहीं आया क्या होगा इस में. फिर भी झुक कर उसे उठाया और खोल कर चैक किया, कहीं कुछ भी नहीं लिखा था.

मैं खुद को ही गलत कहने लगी. वह तो एक समझदार लड़का है और मेरी हैल्प करना चाहता है, बस. मैं ने दूसरा पन्ना पलटा तो एक और सफेद प्लेन पन्ना सरक कर गिर पड़ा. इस समय मैं अनजाने में ही जोर से चीख पड़ी. पार्क में मौजूद आधे लोग पहले से ही मेरी तरफ देख रहे थे और बचेखुचे लोग भी अपनी सेहत पर ध्यान देने के बजाय मेरी ओर निहार रहे थे.

‘‘क्या हुआ सौम्या?’’ अचानक से आशीष दौड़ कर मेरे पास आ गया. वह मेरे चीखने की आवाज सुन कर काफी घबराया हुआ लग रहा था.

‘‘कुछ नहीं, बस इस घास के कीड़े से डर गई थी. यह मेरे पैर पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था,’’ उस ने घास पर चल रहे हरे रंग के एक छोटे से कीड़े को दिखाते हुए कहा.

‘‘तुम बहुत डरती हो सौम्या. इस नन्हे से कीड़े से ही डर गईं. देखो, वह तुम्हारी जरा सी चीख से कैसे दुबक गया,’’ आशीष मुसकराते हुए बोला. सौम्या भी थोड़ा झेंपते हुए मुसकरा दी.

‘‘तुम अभी तक कहां थे आशीष? मेरी एक चीख पर दौड़ते हुए अचानक कहां से आ गए?’’

‘‘अरे पागल, मैं तो यहीं पर था, जौगिंग कर रहा था.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम यहां रोज आते हो?’’

‘‘हां और क्या. तुम्हें क्या लगा आज तुम्हारी वजह से पहली बार आया हूं?’’

‘‘नहींनहीं. ऐसा नहीं है, मैं ने यों ही पूछा.’’

‘‘चलो, अब मैं घर आ जा रहा हूं. तुम आराम से इस किताब को पढ़ कर वापस कर देना,’’ आशीष बिना कुछ कहे व रुके वहां से चला गया.

‘कितना बुरा है आशीष, बताओ उस ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि तुम साथ चल रही हो?’ उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह किताब दे कर उस पर कोई एहसान कर के गया है.

मैं उदास होे घर की तरफ वापस चल पड़ी. मन में उस के लिए न जाने क्याक्या सोच रही थी और वह एकदम से उस का उलटा ही निकला.

घर आ कर भी बिलकुल मन नहीं लगा. कमरे में बैड पर लेट कर उस के बारे में ही सोचती रही, आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या है यह सब? मन उस की तरफ से हट क्यों नहीं रहा? क्या वह भी मेरे बारे में सोच रहा होगा?

ओह, यह आज मेरे मन को क्या हो गया है. उस ने हलके से सिर को झटका दिया, पर दिमाग था कि उस की तरफ से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. चलो, थोड़ी देर मां के पास जा कर बैठती हूं. अब तो वे स्कूल से आ गई होंगी. थोड़ी देर उन से बातें करूंगी तो उधर से दिमाग हट जाएगा.

वह मां के पास आ कर बैठ गई.

‘‘तुम आ गई सौम्या बेटा?’’

‘‘हां मा.’’

‘‘बेटा, एक कप चाय बना लाओ. आज मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है. स्कूल में बच्चों की कौपियां चैक करना बहुत दिमाग का काम है. वह बिना कुछ बोले चुपचाप किचन में आ कर चाय बनाने लगी. 2 कप चाय बना कर वापस मां के पास आ कर बैठ गई.

लेकिन आज मां ने कोई बात नहीं की. उन्होंने चुपचाप चाय पी और आंखें बंद कर के लेट गईं. शायद वे आज बहुत थकी हुई थीं.

सौम्या वहां से उठ कर अपने कमरे में आ गई. इसी तरह 10 दिन गुजर गए.

आज कालेज में फेयरवेल पार्टी थी. येलो कलर की साड़ी पहन कर वह कालेज पहुंची. वहां सब उसे ही देख रहे थे. उसे लगा आज तो पक्का आशीष उस से बात करेगा. लेकिन पूरी पार्टी निकल गई पर आशीष ने एक बार भी उस की तरफ नजर उठा कर नहीं देखा. अब सच में उसे बहुत गुस्सा आने लगा था.

गुस्से और रोने के समय अकसर सौम्या के चेहरे पर लालिमा आ जाती है जो उस की सुंदरता में इजाफा कर देती है. वह यों ही कालेज गेट से बाहर निकल कर आ गई. अचानक से लगा कि कोई उस के पीछे आ रहा है. कौन हो सकता है, मन में थोड़ी घबराहट का भाव आया और दिल तेजी से धड़कने लगा.

वह एकदम से सौम्या के सामने आ गया.

‘‘ओह आशीष तुम, मैं तो एकदम घबरा ही गई थी,’’ उस का दिल वाकई में घबराहट के कारण तेजी से धड़कने लगा था.

वह कुछ नहीं बोला, फिर थोड़ी देर ऐसे ही खड़े रहने के बाद एक खूबसूरत सा लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘यह सर ने आप के लिए भिजवाया है.’’

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘आप की ड्रैस के लिए शायद बैस्ट कौंप्लिमैंट्स हैं.’’

उस के चेहरे को पढ़ते हुए लगा कि वह सच ही कह रहा है, क्योंकि उस के चेहरे पर कोई भी भाव ऐसा नहीं था जिस से लगे कि वह मजाक कर रहा है. उस वक्त अचानक से उस के मन में यह खयाल आया कि यह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा तो शायद लिख कर दिया हो.

‘‘सौम्या, अगर तुम कहो तो आज मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ दूं? आज मैं अपने पापा की कार ले कर आया हूं,’’ आशीष ने उसे जाते देख कर कहा.

उस ने बिना देर किए फौरन सिर हिला दिया था क्योंकि वह आशीष के साथ थोड़ी सी देर का साथ भी गंवाना नहीं चाहती थी. ड्राइविंग सीट पर बैठे आशीष के चेहरे को सौम्या बराबर पढ़ती रही पर उस पर ऐसा कोई भाव नहीं था जिस से अनुमान भी लगाया जा सके कि उस के दिल में कोई कोमल भावना भी है.

सौम्या का घर आ गया था और वह उतर गई. उस ने आशीष से कहा, ‘‘आशीष घर के अंदर नहीं आओगे?’’

‘‘नहीं, आज नहीं फिर कभी. आज तो मुझे जल्दी घर पहुंचना है.’’

‘ओह, कितना खड़ूस है यह, इस की नजर में उस की कोई वैल्यू ही नहीं. मैं ही पागल हूं, जो इस से एकतरफा प्यार कर रही हूं. आज से इस के बारे में सोचना बिलकुल बंद.’ उस ने मन ही मन एक कठोर निर्णय लिया था. चाहे कैसे भी हो, मुझे अपने मन को समझाना ही पड़ेगा.

चलो, अब कभी उस का नाम ले कर उसे याद नहीं करूंगी. मैं मुसकराती गुनगुनाती अपने कमरे में आ गई. आईने के सामने खड़े हो कर खुद को निहारा. मन में उदासी का भाव आया. उस की वजह से ही तो इतना सजसंवर के गई थी. खैर, अब छोड़ो. उस ने हाथ में पकड़े लिफाफे को बैड पर रखा और कपड़े चेंज करने के लिए अलमारी से कपड़े निकालने लगी.

‘चलो, पहले इस लिफाफे को ही खोल कर देख लूं, सर ने न जाने क्या लिखा होगा?’ बेमन से उस को खोला.

उस में से सफेद रंग का प्लेन पेपर निकल कर नीचे गिर पड़ा. ओह, यह तो आशीष की बदतमीजी है. आज उसे फोन कर के कह ही देती हूं कि उसे इस तरह का मजाक पसंद नहीं है.

गुस्से में आ कर वह फोन मिला ही रही थी कि लिफाफे के अंदर रखे एक कागज पर नजर चली गई.

वह निकाल कर पढ़ने के लिए खोला ही था कि मम्मी के कमरे में आने की आहट सी हुई. मम्मी को भी अभी ही आना था.

‘‘बेटा, जरा मार्केट तक जा रही हूं, कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

‘‘नहीं मम्मी, कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘चलो, ठीक है.’’

मम्मी के जाते ही उस ने उस पेपर को पढ़ना शुरू कर दिया, ‘प्रिय सौम्या, के संबोधन के साथ शुरू हुआ वह पत्र तुम्हारा आशीष के साथ खत्म हुआ. उस के बीच में जो लिखा था वह उसे खुशी से झुमाने के लिए काफी था. वह भी मुझे उतना ही प्यार करता था. वह भी मेरे लिए इतना ही बेचैन था. वह भी कुछ कहने को तरसता था. वह भी मेरा साथ पाना चाहता था. लेकिन मेरी ही तरह इस डर का शिकार था कि कहीं मैं मना न कर दूं. उस के प्यार को अस्वीकृत न कर दूं.

वाकई वह मुझे सच्चा प्यार करता है, तभी तो कभी उस ने मेरे हाथ तक को एक बार भी टच नहीं किया वरना कितने मौके आए थे. वह खुशी से झूम उठी. एक बार खुद को आईने में निहारा और अब वह खुद पर ही मोहित हो गई और उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘आई लव यू, आशीष.’’

उस की आंखों के सामने आशीष का मुसकराता चेहरा था और अब वह शरमा के अपनी नजरें नीचे की तरफ कर के जमीन को देखने लगी थी. आखिर, उस के सच्चे मन की दुआ सफल जो हो गई थी.

Kahaniyan : वह चालाक लड़की – क्या अंजुल को मिल पाया उसका लाइफ पार्टनर

Kahaniyan : रोज की तुलना में अंजुल आज जल्दी उठ गई. आज उस का औफिस में पहला दिन है. मास मीडिया स्नातकोत्तर करने के बाद आज अपनी पहली नौकरी पर जाते हुए उस ने थोड़ा अधिक परिश्रम किया. अनुपम देहयष्टि में वह किसी से उन्नीस नहीं.

सभी उस की खूबसूरती के दीवाने थे. अपनी प्रखर बुद्धि पर भी पूर्ण विश्वास है. अपने काम में तीव्र तथा चतुर. स्वभाव भी मनमोहक, सब से जल्दी घुलमिल जाना, अपनी बात को कुशलतापूर्वक कहना और श्रोताओं से अपनी बात मनवा लेना उस की खूबियों में शामिल है. फिर भी उस ने यह सुन रखा है कि फर्स्ट इंप्रैशन इज द लास्ट इंप्रैशन. तो फिर रिस्क क्यों लिया जाए भले?

मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी का माहौल उसे मनमुताबिक लगा. आबोहवा में तनाव था भी और नहीं भी. टीम्स आपस में काम को ले कर खींचातानी में लगी थीं किंतु साथ ही हंसीठिठोली भी चल रही थी. वातावरण में संगीत की धुन तैर रही थी और औफिस की दीवारों पर लोगों ने बेखौफ ग्राफिटी की हुई थी.

अंजुल एकबारगी प्रसन्नचित्त हो उठी. उन्मुक्त वातावरण उस के बिंदास व्यक्तित्व को भा गया. उस की भी यही इच्छा थी कि जो चाहे कर सकने की स्वतंत्रता मिले. आज तक  अपने जीवन को अपने हिसाब से जीती आई थी और आगे भी ऐसा ही करने की चाह मन में लिए जीवन के अगले सोपान की ओर बढ़ने लगी.

बौस रणदीप के कैबिन में कदम रखते हुए अंजुल बोली, ‘‘हैलो रणदीप, आई एम अंजुल, योर न्यू इंप्लोई.’’ उस की फिगर हगिंग यलो ड्रैस ने रणदीप को क्लीन बोल्ड कर दिया. फिर ‘‘वैलकम,’’ कहते हुए रणदीप का मुंह खुला का खुला रह गया.

अंजुल को ऐसी प्रतिक्रियाओं की आदत थी. अच्छा लगता था उसे सामने वाले की ऐसी मनोस्थिति देख कर. एक जीत का एहसास होता था और फिर रणदीप तो इस कंपनी का बौस है. यदि यह प्रभावित हो जाए तो ‘पांचों उंगलियां घी में और सिर कड़ाही में’ वाली कहावत को चिरतार्थ होते देर नहीं लगेगी. वैसे रणदीप करीब 40 पार का पुरुष था, जिस की हलकी सी तोंद, अधपके बाल और आंखों के नीचे काले घेरे उसे आकर्षक की परिभाषा से कुछ दूर ही रख रहे थे.

अंजुल अपना इतना होमवर्क कर के आई थी कि उस का बौस शादीशुदा है. 1 बच्चे का बाप है, पर जिंदगी में तरक्की करनी है तो कुछ बातों को नजरअंदाज करना ही होता है, ऐसी अंजुल की सोच थी.

अपने चेहरे पर एक हलकी स्मित रेखा लिए अंजुल रणदीप के समक्ष बैठ गई. उस का मुखड़ा जितना भोला था उस के नयन उतने ही चपल दिल मोहने की तरकीबें खूब आती थीं.

रणदीप लोलुप दृष्टि से उसे ताकते हुए कहने लगा, ‘‘तुम्हारे आने से इस ऐजेंसी में और भी बेहतर काम होगा, इस बात का मुझे विश्वास है. मुझे लगता है तुम्हारे लिए मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट सही रहेगा. अपने ए वन ग्रेड्स और पर्सनैलिटी से तुम जल्दी तरक्की कर जाओगी.’’

‘‘मैं भी यही चाहती हूं. अपनी सफलता के लिए आप जैसा कहेंगे, मैं वैसा करती जाऊंगी,’’ द्विअर्थी संवाद करने में अंजुल माहिर थी. उस की आंखों के इशारे को समझाते हुए रणदीप ने उसे एक सरल लड़के के साथ नियुक्त करने का मन बनाया. फिर अपने कैबिन में अर्पित को बुला कर बोला, ‘‘सीमेंट कंपनी के नए प्रोजैक्ट में अंजुल तुम्हें असिस्ट करेंगी. आज से ये तुम्हारी टीम में होंगी.’’

‘‘इस ऐजेंसी में तुम्हें कितना समय हो गया?’’ अंजुल ने पहला प्रश्न दागा.

अर्पित एक सीधा सा लड़का था. बोला, ‘‘1 साल. अच्छी जगह है काम सीखने के लिए. काफी अच्छे प्रोजैक्ट्स आते रहते हैं. तुम इस से पहले कहां काम करती थीं?’’

अर्पित की बात का उत्तर न देते हुए अंजुल ने सीधा काम की ओर रुख किया, ‘‘मुझे क्या करना होगा? वैसे मैं क्लाइंट सर्विसिंग में माहिर हूं. मैं चाहती हूं कि मुझे इस सीमेंट कंपनी और अपनी क्रिएटिव टीम के बीच कोऔर्डिनेशन का काम संभालने दिया जाए.’’

अगले दिन अंजुल ने फिर सब से पहले रणदीप के कैबिन से शुरुआत की, ‘‘हाय रणदीप, गुड मौर्निंग,’’ कर उस ने पहले दिन सीखे सारे काम का ब्योरा देते हुए रणदीप से कुछ टिप्स लेने का अभिनय किया और बदले में रणदीप को अपने जलवों का भरपूर रसास्वादन करने दिया. रणदीप की मधुसिक्त नजरें अंजुल के सुडौल बदन पर इधरउधर फिसलती रहीं और वह बेफिक्री से मुसकराती हुई रणदीप की आसक्ति को हवा देती रही.

जल्द ही अंजुल ने रणदीप के निकट अपनी जगह स्थापित कर ली. अब यह रोज का क्रम था कि वह अपने दिन की शुरुआत रणदीप के कैबिन से करती. रणदीप भी उस के यौवन की खुमारी में डुबकी लगाता रहता.

उस सुबह कौफी देने के बहाने रणदीप ने अंजुल के हाथ को हौले से छुआ. अंजुल ने इस की प्रतिक्रिया में अपने नयनों को झाका कर ही रखा. वह नहीं चाहती थी कि रणदीप की हिम्मत कुछ ढीली पड़े. फिर काम दिखाने के बहाने वह उठी और रणदीप के निकट जा कर ऐसे खड़ी हो गई कि उस के बाल रणदीप के कंधे पर झालने लगे. इशारों की भाषा दोनों तरफ से बोली जा रही थी.

तभी अर्पित बौस के कैबिन में प्रविष्ट हुआ तो दोनों संभल गए. उफनते दूध में पानी के छींटे लग गए. किंतु अर्पित के शांत प्रतीत होने वाले नयनों ने अपनी चतुराई दर्शाते हुए वातावरण को भांप लिया.

इस प्रकरण के बाद अर्पित का अंजुल के प्रति रवैया बदल गया. अब तक अंजुल को नई

सीखने वाली मान कर अर्पित उस की हर मुमकिन मदद कर रहा था, परंतु आज के दृश्य के बाद वह समझा गया कि इस मासूम दिखने वाली सूरत के पीछे एक मौकापरस्त लड़की छिपी है. कौरपोरेट वर्ल्ड एक माट्स्करेड पार्टी की तरह हो सकता है जहां हरकोई अपने चेहरे पर एक मास्क लगाए अपनी असली सचाई को ढकते हुए दूसरों के सामने अपनी एक छवि बनाने को आतुर है.

आज लंच में अर्पित ने अंजुल को टालते हुए कहा, ‘‘आज मुझे कुछ काम है. तुम लंच कर लो,’’ वह अब अंजुल से बहुत निकटता नहीं चाह रहा था. उस की देखादेखी टीम के अन्य लोगों ने भी अंजुल को टालना आरंभ कर दिया. इस से अंजुल को काम समझाने और करने में दिक्कत आने लगी.

‘‘जो नई पिच आई है, उस में मैं तुम्हारे साथ चलूं? मुझे पिच प्रेजैंटेशन करना आ जाएगा,’’ अंजुल ने अपनी पूरी कमनीयता का पुट लगा कर अर्पित से कहा. अपने कार्य में दक्ष होते हुए भी उस ने अर्पित की ईगो मसाज की.

‘‘उस का सारा काम हो चुका है. तुम्हें अगली पिच पर ले चलूंगा. आज तुम औफिस में दूसरी प्रेजैंटेशन पर काम कर लो,’’ अर्पित ने हर प्रयास करना शुरू कर दिया कि अंजुल केवल औफिस में ही व्यस्त रहे.

अपने हाथ से 2 पिच के अवसर निकलते ही अंजुल भी अर्पित की चाल समझाने लगी, ‘उफ, बेवकूफ है अर्पित जो मुझे इतना सरलमति समझा रहा है. क्या सोचता है कि यदि यह मुझे अवसर नहीं प्रदान करेगा तो मैं अनुभवहीन रह जाऊंगी,’ सोचते हुए अंजुल ने सीधा रणदीप के कैबिन में धावा बोल दिया.

‘‘रणदीप, क्या मैं आप के साथ आज लंच कर सकती हूं? आप के साथ मेरे इंडक्शन की फीडबैक बाकी है,’’ अंजुल ने अपने प्रस्ताव को इस तरह रखा कि वह आवश्यक कार्य प्रतीत हुआ. अत: रणदीप ने सहर्ष स्वीकारोक्ति दे दी.

लंच के दौरान अंजुल ने अपने काम का ब्योरा दिया और साथ ही दबेढके शब्दों में एक स्वतंत्र क्लाइंट लेने की पेशकश कर डाली, ‘‘टीम में सभी इतने व्यस्त रहते हैं कि किसी से काम सीखना मुझे उन के काम में रुकावट बनना लगता है और फिर अपनी शिक्षा, प्रशिक्षण व अनुभव के बल पर मुझे पूर्ण विश्वास है कि एक क्लाइंट मैं हैंडल कर सकती हूं, यदि आप अनुमति दें तो?’’

बातचीत के दौरान अंजुल के नयनों का मटकना, उस के भावों का अर्थपूर्ण चलन उस के अधरों पर आतीजाती स्मितरेखा, कभी पलकें उठाना तो कभी झाकाना, सबकुछ इतना मनमोहक था कि रणदीप के पुरुषमन ने उसे एक अवसर देने का निश्चय कर डाला, ‘‘ठीक है, सोचता हूं कि तुम्हें किस अकाउंट में डाल सकता हूं.’’

उस शाम अंजुल ने आर्ट गैलरी में कुछ समय व्यतीत करने का सोची. जब से जौब लगी तब से उस ने कोई तफरी नहीं की. दिल्ली आर्ट गैलरी शहर की नामचीन जगहों में से एक है सो वहीं का रुख कर लिया. मंथर गति से चलते हुए अंजुल वहां सजी मनोरम चित्रकारियां देख रही थी कि अगली पेंटिंग पर प्रचलित लौंजरी ब्रैंड ‘औसम’ के मालिक महीप दत्त को खड़ा देखा. ऐजेंसी में उस ने सुना था कि पहले महीप दत्त का अकाउंट उन्हीं के पास था, किंतु पिछले साल से उन्होंने कौंट्रैक्ट रद्द कर दिया, जिस के कारण ऐजेंसी को काफी नुकसान हुआ. स्वयं को सिद्ध करने का यह स्वर्णिम अवसर वह जाने कैसे देती. उस ने तुरंत महीप दत्त की ओर रुख किया.

‘‘आप महीप दत्त हैं न ‘औसम’ ब्रैंड के मालिक?’’ अपने मुख पर उत्साह के सैकड़ों दीपक जला कर उस ने बात की शुरुआत की.

‘‘यस. आप हमारी क्लाइंट हैं क्या?’’ महीप अपने ब्रैंड को प्रमोट करने का कोई मौका नहीं चूकते थे.

‘‘मैं आप की क्लाइंट हूं और आप मेरे.’’

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’

‘‘दरअसल, मैं आप के ब्रैंड की लौंजरी इस्तेमाल करती हूं और एक हैप्पी क्लाइंट हूं. मेरा नाम अंजुल है और मैं मचल ऐडवर्टाइजिंग ऐजेंसी में कार्यरत हूं, जिस के आप एक हैप्पी क्लाइंट नहीं हैं. सही कहा न मैं ने?’’ वह अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘तो आप यहां मचल की तरफ से आई हैं?’’ महीप ने हैंड शेक करते हुए कहा, परंतु उन के चेहरे पर तनाव की रेखाएं सर्वविदित थीं, ‘‘मैं काम की बात केवल अपने औफिस में करता हूं,’’ कहते हुए वे आगे बढ़ गए.

‘‘काम की बात तो यह है महीप दत्तजी कि मैं आप को वह फीडबैक दे सकती हूं, जो आप के लिए सुननी जरूरी है और वह भी फ्री में. मैं यहां आप से मचल की कार्यकर्ता बन कर नहीं, बल्कि आप की क्लाइंट के रूप में मिल रही हूं. विश्वास मानिए, मुझे आइडिया भी नहीं था कि मैं यहां आप से मिल जाऊंगी,’’ अंजुल के चेहरे पर मासूमियत के साथ ईमानदारी के भाव खेलने लगे. वह अपने चेहरे की अभिव्यक्ति को स्थिति के अनुकूल मोड़ना भली प्रकार जानती थी.

बोली, ‘‘मैं जानती हूं कि अब आप अपने विज्ञापन किसी एजेंसी के द्वारा नहीं, बल्कि सोशल मीडिया पर इन्फ्लुऐंसर के जरीए करते हैं. किंतु एक इन्फ्लुऐंसर की पहुंच केवल उस के फौलोअर्स तक सीमित होती है. मेरा एक सुझाव है आप को- आप का प्रोडक्ट प्रयोग करने वाली महिलाएं आम गृहिणियां या कामकाजी महिलाएं अधिक होती हैं, उन की फिगर मौडल की दृष्टि से बिलकुल अलग होती है.

‘‘मौडल का शरीर एक आदर्श फिगर होता है, जबकि आम महिला की जरूरत भिन्न होती है. तो क्यों न आप अपने विज्ञापन में मौडल की जगह आम महिलाओं से अपनी बात कहलवाएं. यदि वे कहेंगी तो यकीनन अधिक प्रभाव पड़ेगा,’’ अपनी बात कह कर अंजुल महीप दत्त की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगी.

कुछ क्षण मौन रह कर महीप ने अंजुल के सुझाव को पचाया. फिर अपनी कलाई पर

बंधी घड़ी देख कहने लगे, ‘‘तुम से मिल कर अच्छा लगा, अंजुल. आल द बैस्ट,’’ और महीप चले गए.

उन के चेहरे पर कोई भाव न पढ़ने के कारण अंजुल असमंजस में वहीं खड़ी रह गई.

अगले दिन अंजुल औफिस में अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रही थी कि रणदीप का फोन आया, ‘‘क्या मेरे कैबिन में आ सकती हो?’’

अंजुल तुरंत रणदीप के कैबिन में पहुंची. वहां उन के साथ महीप दत्त को बैठा देख कर उस के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. सिर हिला कर हैलो किया. रणदीप ने उसे बैठने का इशारा किया.

‘‘महीप हमारे साथ दोबारा जुड़ना चाहते हैं और साथ ही यह भी कि उन का अकाउंट तुम हैंडल करो,’’ कहते हुए रणदीप के मुख पर कौंटै्रक्ट वापस मिलने की प्रसन्नता थी तो अंजुल के चेहरे पर अपनी जीत की दमक. अब उस के रास्ते में कोई रोड़ा न था. उस ने साधिकार अपना स्वतंत्र अकाउंट प्राप्त किया था.

‘‘इस कौंट्रैक्ट की खुशी में क्या मैं आप को एक डिनर के लिए इन्वाइट कर सकती हूं?’’ अचानक अंजुल ने पूछा.

यह सुन कर रणदीप चौंक गया. फिर बोला, ‘‘कल चलते हैं. आज मुझे अपनी पत्नी के साथ बाहर जाना है,’’ रणदीप ने जानबूझा कर अपनी पत्नी का जिक्र छेड़ा ताकि अंजुल भविष्य की कोई कल्पना न करने लगे और फिर फ्लर्ट किसे बुरा लगता है खासकर तब जब सबकुछ सेफजोन में हो.

‘औसम’ के औफिस में जब अंजुल मीडिया प्लानिंग डिपार्टमैंट की तरफ से क्रिएटिव दिखाने पहुंची तो वहां उसे करण मिला. करण ‘औसम’ की ओर से अंजुल को काम समझाने के लिए नियुक्त किया गया था. आज एक लौंजरी ब्रैंड के साथ मीटिंग के लिए अंजुल बेहद सैक्सी ड्रैस पहन कर गई. उसे देखते ही करण, जोकि लगभग उसी की उम्र का अविवाहित लड़का था, अंजुल पर आकृष्ट हो उठा. जब उसे ज्ञात हुआ कि अंजुल के यहां आने का उपलक्ष्य क्या है, तो उस के हर्ष ने सीमा में बंधने से इन्कार कर दिया.

‘‘हाय अंजुल,’’ करण की विस्फारित आंखें उस के मन का हाल जगजाहिर कर रही थीं, ‘‘मैं तुम्हारा मार्केटिंग क्लाइंट हूं.’’

होंठों को अदा से भींचती हुई अंजुल ने जानबूझा कर अपना हाथ बढ़ा कर मिलाते हुए कहा, ‘‘और मैं तुम्हें सर्विस दूंगी, पर कोई ऐसीवैसी सर्विस न मांग लेना वरना…’’ कहते हुए अंजुल ने उस के कंधे पर आहिस्ता से अपना हाथ रखा और हंस पड़ी.

उस के शरारती नयन करण के अंदर एक सुरसुरी पैदा करने लगे. मन ही मन वह बल्लियों उछलने लगा. आज से पहले उस ने कभी इतनी हौट लड़की के साथ काम नहीं किया था. बहुत जल्दी दोनों में दोस्ती हो गई. करण ने अंजुल को अगले हफ्ते अपने औफिस की पार्टी का न्योता दे डाला.

‘‘इतनी जल्दी पार्टी इन्वाइट? हम आज ही मिले हैं,’’ अंजुल ने करण की गति को थामने का नाटक करते हुए कहा.

‘‘मैं टाइम वेस्ट करने में विश्वास नहीं करता,’’ वह अपने पूरे वेग से दौड़ना चाह रहा था.

‘‘दिन में सपने देख रहे हो…’’

‘‘दिन में सपने देखने को प्लानिंग कहते हैं, मैडम,’’ अंजुल की खुमारी पहले ही दिन से करण के सिर चढ़ कर बोलने लगी.

पार्टी में अंजुल काली चमकदार ड्रैस में कहर ढा रही थी. करण तो उस के पास से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. कभी दौड़ कर स्नैक्स लाता तो कभी ड्रिंक.

‘‘क्या कर रहे हो करण. मैं खुद ले लूंगी जो मुझे चाहिए होगा,’’ उस की इन हरकतों से मन की तहों में पुलकित होती अंजुल ने ऊपरी आवरण ओढ़ते हुए कहा.

‘‘ये सब मैं तुम्हारे लिए नहीं, अपने लिए कर रहा हूं. मुझे पता है किस को खुश करने से मैं खुश रहूंगा,’’ करण फ्लर्ट करने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहता था.

पार्टी में सब ने बहुत आनंद उठाया. खायापीया, थिरकेनाचे. पार्टी खत्म होने

को थी कि अंजुल के पास अचानक महीप आ पहुंचे. इसी बात की राह वह न जाने कब से देख रही थी.

औसम की पार्टी में आने का एक कारण यह भी था.

‘‘तुम्हें यहां देख कर अच्छा लगा,’’ संक्षिप्त सा वाक्य महीप के मुख से निकला.

‘‘तुम महीप दत्त को कैसे जानती हो?’’ उन की मुलाकात से करण अवश्य अचरज में पड़ गया, ‘‘बहुत ऊंची चीज लगती हो.’’

‘‘हैलो, चीज किसे बोल रहे हो?’’ अंजुल ने अपनी कोमल उंगलियों से एक हलकी सी चपत करण के गाल पर लगाते हुए कहा, ‘‘आफ्टर औल, महीप दत्त हमारे क्लाइंट हैं,’’ उस ने इस से अधिक कुछ बताने की आवश्यकता नहीं समझा.

अंजुल हर दूसरे दिन औसम के औफिस पहुंच जाती. करण से फ्लर्ट करने से उस के कई काम बन जाते, यहां तक कि जब उस की ऐड कैंपेन डिजाइन में कुछ कमी रह जाती तब भी उसे काम करवाने के लिए फालतू समय मिल जाता. ‘औसम’ के फाइनैंस सैक्सशन से भी अंजुल एकदम समय पर पेमैंट निकलवाने में कारगर सिद्ध होती.

‘‘हमारे यहां एक फाइनैंस डिपार्टमैंट पेमैंट को ले कर बहुत बदनाम है, पर देखता हूं कि तुम्हारी हर पेमैंट टाइम से हो जाती है. वहां भी अपना जादू चलाती हो क्या?’’ एक दिन करण के पूछने पर अंजुल खीसें निपोरने लगी. अब उसे क्या बताती कि अपनी सैक्सी बौडी पर मर्दों की लोलुप्त नजरों को झेलना उस की कोई मजबूरी नहीं, अपितु कई नफे हैं. जरा अदा से हंस दिए, एकाध बार हाथ से हाथ छुआ दिया, आंखों की गुस्ताखियों वाला खेल खेल लिया और बन गया अपना मन चाहा काम.

कुछ माह बीतने के बाद इतने दिनों की जानपहचान, हर मुलाकात में फ्लर्ट, दोनों का लगभग एक ही उम्र का होना, ऐसे कारणों की वजह से अंजुल को आशा थी कि संभवतया करण उस के साथ लिवइन में रहने की पेशकश कर सकता है. तभी तो वह हर बार अपने मकानमालिक के खड़ूस होने, अधिक किराया होने, कमरा अच्छा न होने जैसी बातें किया करती, ‘‘काश, मैं किसी के साथ अपना किराया आधा बांट सकती.’’

‘‘तुम अपना रूम शेयर करने को तैयार हो? मैं तो कभी भी शेयर न करूं. मुझे अपनी प्राइवेसी बहुत प्यारी है,’’ करण की ऐसी फुजूल की बातों से अंजुल का मनोबल गिर जाता.

‘‘जरा मेरे कैबिन में आना, अंजुल,’’ रणदीप ने इंटरकौम पर कहा.

अंजुल ने उस के कैबिन में प्रवेश किया तो हर ओर से ‘हैप्पी बर्थडे टु यू’ के सुर गुंजायमान होने लगे.

रणदीप आज उस का जन्मदिन खास अपने कैबिन में औफिस के सभी लोगों को बुला कर मना रहा था, ‘‘अंजुल, हमारे औफिस में जब से आईं हैं तब से इन की मेहनत और लगन ने हमारी ऐजेंसी को कहां से कहां पहुंचा दिया…’’, रणदीप सब को संबोधित करते हुए कहने लगा.

‘‘ऐसा लग रहा है जैसे हम तो यहां काम करने नहीं तफरी करने आते हैं,’’ लोगों में सुगबुगाहट होने लगी.

‘‘हमारा तो कभी जन्मदिन नहीं मनाया गया,’’ अर्पित फुंका बैठा था. आखिर उस के नीचे आई अंजुल आज औफिस में उस से अधिक धूम मचा रही थी.

‘‘आप अंजुल हैं क्या जो रणदीप आप की तरफ यों मेहरबान हों?’’ दबेढके ठहाकों के स्वर अंजुल के कानों में चुभने लगे.

औफिस में शानदार पार्टी फिर कभी रणदीप तो कभी करण तो कभी फाइनैंस डिपार्टमैंट के अनिल साहब… अंजुल ने कहां नहीं अपने तिलिस्म का जादू बिखेरने का प्रयास किया. किंतु हाथ क्या लगा. केवल दफ्तर के लोगों की खुसपुसाहट. पुरुष सहकर्मियों की लार टपकाती निगाहें या फिर महिला सहकर्मियों की घृणास्पद हेय दृष्टि.

आज अंजुल पूरे 32 वर्ष की हो गई थी, परंतु इतनी खूबसूरती और इतनी हौट फिगर होते हुए भी कोई उस का हाथ थामने को तैयार नहीं था. सब को केवल उस की कमर में अपनी बांह की चाहत थी. व्यग्र मन और निद्राहीन नयन लिए अंजुल कई घंटे बिस्तर पर लेटी अपने कमरे की छत ताकती रही.

जब पिछले महीने वह अपना रूटीन चैकअप करवाने डाक्टर के पास गई थी तब उस लेडी डाक्टर ने भलमनसाहत में सलाह दी थी कि देखिए अंजुल, स्त्रियों का शरीर एक जैविक घड़ी के हिसाब से चलता है. मां और बच्चे की अच्छी सेहत के लिए 30 वर्ष की आयु से पहले बच्चा हो जाए तो सर्वोत्तम रहता है किंतु 35 वर्ष से देर करना श्रेयस्कर नहीं रहता. आप की बायोलौजिकल क्लौक चल रही है. आप को सैटल होने के बारे में सोचना चाहिए. इन विचारों में घिरी अंजुल के कानों में घड़ी की टिकटिक का शोर बजने लगा. व्याकुलता से उस ने तकिए से अपने कान ढक लिए.

अगले दिन अंजुल ने औफिस में एक नए प्रोजैक्ट की पिच के बारे में सुना तो रणदीप से उसे मांगने पहुंच गई.

‘‘परंतु यह प्रोजैक्ट मुंबई में है और तुम दिल्ली का ‘औसम’ अकाउंट हैंडल कर रही हो,’’ रणदीप के सुरों में हिचकिचाहट थी.

‘‘सो वाट, रणदीप, मैं दोनों को हैंडल कर सकती हूं. मुंबई में भी तो हमारा एक औफिस है. मैं वहां विजिट करती रहूंगी और ‘औसम’ तो जाती ही रहती हूं,’’ अंजुल ने रणदीप को अपनी बात मानने हेतु राजी कर लिया.

मुंबई पहुंच कर अंजुल औफिस के गैस्ट हाउस में ठहरी. कमरा एकदम साधारण

था, किंतु उस के यहां आने का लक्ष्य कुछ और था. अंजुल डरने लगी थी कि कहीं ऐसा न हो जाए कि उस के हाथों से उस की उम्र तेजी से रेत की मानिंद फिसल जाए और वह खाली हथेलियों को मलती रह जाए. अपनी सैक्सी बौडी की बदौलत उस ने कई अवसर पाए थे, जिन्हें उस ने अपनी बुद्धि व चपलता के बलबूते बखूबी भुनाया था.

उस का अनुमान रहा था कि इसी आकर्षण के कारण उसे अपना जीवनसाथी मिल जाएगा, परंतु अब बढ़ती उम्र ने उसे डरा दिया था. हो सकता है करण बात आगे बढ़ाए, मगर अभी तक उस ने ऐसा कोई इशारा नहीं दिया, केवल फ्लर्ट करता रहता है.

इसलिए समय रहते उसे अपने लिए एक जीवनसाथी तो खोजना ही पड़ेगा. मुंबई में 2 दफ्तरों में जा कर हो सकता है उसे अपने औफिस या फिर क्लाइंट औफिस में कोई मिल जाए…

जब अंजुल मुंबई में क्लाइंट के औफिस पहुंची तो उसे एक लड़के से मिलवाया गया. लड़का बेहद खूबसूरत लगा. उसे देख कर अंजुल के मन में सुनहरे ख्वाब सजने लगे.

‘‘माई नेम इस ऋषि. मैं इस औफिस की तरफ से आप का कौंटैक्ट पौइंट रहूंगा,’’ ऋषि ने अपना परिचय दिया.

‘‘आप का नाम, आप का व्यक्तित्व, सबकुछ शानदार है. आप से मिल कर बेहद प्रसन्नता हुई,’’ अंजुल ने अपने दिल में उठ रही हिलोरों को बाहर बहने से बिलकुल नहीं रोका.

उस की बात सुन कर ऋषि हौले से हंस पड़ा. काम पर अपनी पकड़ से अंजुल ने उसे पहली ही मीटिंग में प्रभावित कर दिया. फिर लंच के समय ऋषि ने अंजुल से पूछा कि औफिस की तरफ से उस के लिए क्या मंगवाया जाए?

‘‘कुछ भी चलेगा बस साथ में आप की कंपनी जरूर चाहिए,’’ अंजुल अब समय बरबाद नहीं करना चाहती थी.

पहले ही दिन से दोनों में अच्छी मित्रता हो गई. अपने बचपन, शिक्षा, कैरियर, परिवार संबंधी काफी बातें साझा करने के बाद दोनों ने शाम को एकदूसरे से विदा ली. गैस्ट हाउस लौट कर अंजुल ने कपड़े बदले और निकल गई गेटवे औफ इंडिया की सैर करने. ‘कल ऋषि से कहूंगी कि मुंबई की सैर करवाए,’ वह सोचने लगी. आज इसलिए नहीं कहा कि कहीं वह डैसपरेट न लगे. सुबह जो कमरा उसे बहुत साधारण लगा था, अब वहीं उसे उजले सपनों ने घेर लिया.

अगले दिन क्लाइंट औफिस जाते हुए रास्ते में करण का फोन आया, ‘‘हाय जानेमन, कैसा लग रहा है मुंबई?’’

‘‘फर्स्ट क्लास, शहर भी और यहां के लोग भी,’’ अंजुल ने चहक कर उत्तर दिया.

Short Story : नाम की केंचुली

Short Story :  होटल सिटी पैलेस के रेस्तरां से बाहर निकलते समय पीहू की चाल जरूर धीमी थी मगर उस के कदमों में आत्मविश्वास की कमी नहीं थी. चेहरे पर उदासी की एक परत जरूर थी लेकिन पीहू ने उसे अपने मन के भीतर पांव नहीं पसारने दिया.

घर आ कर बिस्तर पर लेटी तो अखिल के साथ अपने रिश्ते को अंतिम विदाई देती उस की आंखें छलछला आईं.

पूरे 5 साल का साथ था उन का. ब्रेकअप तो खलेगा ही लेकिन इसे ब्रेकअप कहना शायद इस रिश्ते का अपमान होगा. इसे टूटा हुआ तो तब कहा जाता जब इस रिश्ते को जबरदस्ती बांधा जाता.

अखिल के साथ उस के बंधन में तो जबरदस्ती वाली कोई बात ही नहीं थी. यह तो दोनों का अपनी मरजी से एकदूसरे का हाथ थामना था जिसे अनुकूल न लगने पर उस ने बहुत हौले से छुड़ा लिया था, अखिल को भावी जीवन की शुभकामनाएं देते हुए.

पीहू और अखिल कालेज के पहले साल से ही अच्छे दोस्त थे. आखिरी बरस में आतेआते दोस्ती ने प्रेम का चोला पहन लिया. लेकिन यह प्रेम किस्सेकहानियों या फिल्मों वाले प्रेम की तरह अंधा नहीं बल्कि समय के साथ परिपक्व और समझदार होता गया था. यहां चांदतारे तोड़ कर चुनरी में टांकने जैसी हवाई बातें नहीं होती थीं, यहां तो अपने पांवों पर खड़ा हो कर साथ चलने के सपने देखे जा रहे थे.

कालेज खत्म होने के बाद पीहू और अखिल दोनों ही जौब की तलाश में जुट गए ताकि जल्द से जल्द अपने सपनों को हकीकत में ढाल सकें. हालांकि अखिल का अपना पारिवारिक व्यवसाय था लेकिन वह खुद को जमाने की कसौटी पर परखना चाहता था इसलिए एक बार कोई स्वतंत्र नौकरी करना चाहता था जो उसे विरासत में नहीं बल्कि खुद अपनी मेहनत से मिली हो.

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए दोनों दिल्ली आ गए. एक ही कोचिंग में साथसाथ तैयारी करने और घर के अनुशासन से दूर रहने के बावजूद दोनों ने अपनी परिधि तय कर रखी थी. जब भी अकेले में कोई एक बहकने लगता तो दूसरा उसे संभाल लेता. कई जोड़ियों को लिवइन में रहते देख कर उन का मन अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटका.

“यार जब हम ने शादी करना तय कर ही लिया है तो अभी क्यों नहीं? सिर्फ एक बार…” कई बार उतावला पुरुष मन हठ पर उतर आता.

“शादी के बाद यही सब तो करना है. एक बार कैरियर बन जाए बस. फिर तो सदा साथ ही रहना है…” संयमी स्त्री उस के बढ़े हाथ हंस कर परे सरका देती. वहीं कभी जब सधे हुए नाजुक कदम अरमानों की ढलान पर फिसलने लगते तो दृढ़ मजबूत बांहें उन्हें सहारा दे कर थाम लेती और गर्त में गिरने से बचा लेती.

आज ऊपर तो कल नीचे, कोलंबस झूले से रिश्ते में दोनों झूल रहे थे. इसी बीच पीहू की बैंक में नौकरी लग गई और उस ने दिल्ली छोड़ दिया.

हालांकि दोनों फोन के माध्यम से बराबर जुड़े हुए थे लेकिन अब अखिल के लिए दिल्ली में अकेले रह कर परीक्षा की तैयारी करना जरा मुश्किल हो गया था. मन उड़ कर बारबार पीहू के पास पहुंच जाता लेकिन फिर भी वह खुद को एक मौका देने का मानस बनाए हुए वहां टिका रहा.

2 साल मेहनत करने के बाद भी अखिल का कहीं चयन नहीं हुआ तो वह वापस आ कर अपने परिवार के पुश्तैनी बिजनैस में हाथ बंटाने लगा. भागदौड़ खत्म हुई, स्थायित्व आ गया. जिंदगी एक तय रास्ते पर चलने लगी.

जैसाकि आम मध्यवर्गीय परिवारों में होता है, बच्चों के जीवन में स्थिरता आते ही घर में उन के लिए योग्य जीवनसाथी की तलाश शुरू हो जाती है. अखिल के घर में भी उस की शादी की बात चलने लगी. उधर पीहू के लिए भी लड़के की तलाश जोरशोर से जारी थी. जहां अखिल के परिवार की प्राथमिकता घरेलू लड़की थी, वहीं पीहू के घर वाले उस के लिए कोई बैंकर ही चाहते थे ताकि दोनों में आसानी से निभ जाए.

अखिल संयुक्त परिवार में तीसरी पीढ़ी का सब से बड़ा बेटा है. उस के द्वारा उठाया गया कोई भी अच्छाबुरा कदम भावी पीढ़ी के लिए लकीर बन सकता है. पारंपरिक मारवाड़ी परिवार होने के कारण अखिल के घर में बड़ों की बात पत्थर की लकीर मानी जाती है. दादा ने जो कह दिया वही फाइनल होता है. इस के बाद पापा या चाचा की एक नहीं चलने वाली. दूसरी तरफ पीहू का परिवार इस मामले में जरा तरक्कीपसंद है. उन्हें पीहू की पसंद पर कोई ऐतराज नहीं था बशर्ते कि उस का चयन व्यावहारिक हो.

परिवार की परिपाटी से भलीभांति परिचित अखिल घर वालों के सामने अपनी बात कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, उधर पीहू इस मामले में एकदम शांत थी. वह अखिल की पहल की प्रतीक्षा कर रही थी. उस ने ना तो अखिल पर शादी करने का कोई दबाव बनाया और ना ही अपनी असहमति जताई.

“पीहू मैं बहुत परेशान हूं यार. क्या करूं समझ में नहीं आ रहा. घर वाले चाहते हैं कि मेरी शादी किसी सजातीय मारवाड़ी खानदान की लड़की से हो यानी यह शादी सिर्फ 2 लोगों का नहीं बल्कि 2 व्यापारिक घरानों का मिलन हो ताकि यह संबंध दोनों परिवारों के बिजनैस को भी आगे बढ़ाए, लेकिन तुम तो जानती हो ना मैं ने तो तुम्हारे साथ के सपने देखे हैं. तुम्हीं बताओ, मैं कैसे अपने दादाजी को राजी करूं?” एक दिन अखिल ने कहा.

“इतनी हिम्मत तो तुम्हें जुटानी ही होगी अखिल. यदि आज हिम्मत नहीं करोगे तो सोच लो, बाद में पछताना ना पड़े,” पीहू ने गंभीर हो कर कहा.

“तो क्या तुम कुछ नहीं करोगी?” अखिल ने आश्चर्य से पूछा.

“तुम्हारे परिवार के मामले में मैं क्या कर सकती हूं? मैं अपनेआप में साफ हूं और जानती हूं कि मुझे तुम से शादी करनी है. इस के लिए मेरे घर वाले भी राजी हो जाएंगे लेकिन पहले तुम तो अपने घर वालों को राजी करो. लेकिन एक बात ध्यान रहे अखिल, मैं जैसी हूं मुझे इसी रूप में स्वीकार करना होगा. मुझ से मेरी पहचान छीनने की कोशिश मत करना. ना अभी, ना बाद में,” पीहू ने अपना फैसला सुनाया तो अखिल सोच में पड़ गया.

आधुनिक और आत्मनिर्भर पीहू की छवि उस के दादाजी की पसंद से एकदम विपरीत है. वैसे भी उन के परिवार में आजतक कोई विजातीय बहू या दामाद नहीं आए. उन्हें पीहू के लिए तैयार करना आसान नहीं होगा.

अखिल अपनी चाची से थोड़ा खुला हुआ था. उस ने उन से बात की. पहले तो चाची ने अखिल को ही समझाने का प्रयास किया लेकिन जब वह नहीं माना तो उन्होंने अखिल के चाचा से उस की पसंद का जिक्र किया. जैसाकि अंदेशा था, सुनते ही वे उखड़ गए.

“दिमाग खराब हो गया क्या लड़के का? अपने समाज में लड़कियों का अकाल पड़ गया क्या? अरे मैं तो उसे दिल्ली भेजने की उस की जिद पूरी करने के फैसले के ही खिलाफ था. फिर सोचा था जवानी की जिद है, सालदो साल में उतर जाएगी लेकिन यहां तो एक जिद के साथ दूसरी जिद भी साथ उठा लाया. एक तो बिजनैस में 2 साल पिछड़ गया, दूसरा यह प्रेम का चक्कर… समझाओ उसे कि नौकरी करने वाली लड़कियां हमारे यहां नहीं चल सकतीं,” चाचा ने अखिल को दिल्ली भेजने के बड़े भाई के फैसले का गुस्सा चाची पर उतारा.

लेकिन अखिल ने हौसला बनाए रखा. पिता को राजी करने का उस का प्रयास जारी रहा. इधर वह पीहू को भी जौब छोड़ने के लिए राजी कर रहा था ताकि कम से कम लड़की के घरेलू होने की शर्त तो पूरी हो सके. अखिल का प्रस्ताव पीहू के जरा भी गले नहीं उतरता था.

“तुम मुझे क्यों समझा रहे हो अखिल? मैं अपनी नौकरी जारी रखूंगी, बस इतना ही तो चाह रही हूं. देखो, समझने की जरूरत तुम्हें है. तुम्हारे सामने 2 विकल्प हैं. एक तुम्हारे परिवार की परंपरा और दूसरा तुम्हारा प्यार यानी मैं और मैं भी बिना अपनी पहचान खोए. जानते हो ना कि जब हमें 2 में से किसी 1 विकल्प का चुनाव करना होता है तो फैसला बहुत सोचसमझ कर करना पड़ता है. तुम तय करो कि तुम्हें क्या चाहिए,” पीहू ने दृढ़ता से कहा.

एक तरह से उस ने अपना निर्णय अखिल के सामने साफ कर दिया. बुझा हुआ अखिल एक बार फिर से अपने घर वालों को मनाने में जुट गया. इस बार उस ने दादाजी को चुना.

कहते हैं कि मूल से प्यारा सूद होता है. दादाजी पोते के आग्रह पर पिघल गए. थोड़ी नानुकुर के बाद उन्होंने विजातीय पीहू के साथ उस का गठजोड़ करने के लिए हरी झंडी दिखा दी. अपनी कुछ शर्तों के साथ वे पीहू के परिवार से मिलने को तैयार भी हो गए.

अखिल इसे अपनी जीत समझते हुए खुशी से उछलने लगा. उस ने फोन पर पीहू को यह खुशखबरी दी और आगे की प्लानिंग करने के लिए उसे उसी होटल सिटी पैलेस में मिलने के लिए बुलाया जहां वे अकसर मिला करते थे. हालांकि पीहू अभी भी थोड़ी आशंकित थी.

“तुम ने उन्हें बता तो दिया ना कि मैं शादी के बाद जौब नहीं छोडूंगी?” पीहू ने अखिल को एक बार फिर से आगाह किया.

“जौबजौब… यह कैसी जिद पकड़ कर बैठी हो तुम? अरे हमारे परिवार को कहां कोई कमी है जो अपनी बहूबेटियों से नौकरी करवाएंगे…” पीहू की बात सुनते ही अखिल बिफर गया.

पीहू की आशंका सही साबित हुई. उस ने अखिल की तरफ अविश्वास से देखा तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ. उस ने पीहू का हाथ कस कर पकड़ लिए और अपने स्वर को भरसक मुलायम किया.

“हमारे यहां बहुएं सिर्फ हुक्म चलाती हैं, हुक्म बजाती नहीं,” कहते हुए अखिल ने प्यार से पीहू के गाल खींच दिए. पीहू ने उस के हाथ झटक दिए.

“हमारे समाज में बहुओं के नखरे तब तक ही उठाए जाते हैं जब तक वे सिर पर पल्लू डाले, आंखें नीची किए सजीधजी गुड़िया सी घर में पायल बजाती घूमती रहें.”

“मुझ से यह उम्मीद मत रखना,” पीहू ने कहा.

“अरे यार गजब करती हो. एक बार शादी तो हो जाने दो फिर कर लेना अपने मन की. मैं बात करूंगा ना अपने घर वालों से,” अखिल ने उसे मनाने की कोशिश की.

“मेरे लिए भी यही बात तुम ने अपने घर में कही होगी कि एक बार शादी हो जाने दो, फिर छुड़वा देंगे नौकरी. मैं बात करूंगा ना पीहू से. है ना?”अखिल की आंखों में झांक कर पीहू ने उस की नकल उतारते हुए कहा.

बात सच ही थी. उस ने अपने दादाजी को यही कह कर पीहू से शादी करने के लिए राजी किया था. अखिल के पास पीहू के सवालों का कोई जवाब नहीं था. वह नजरें चुराने लगा.

“अच्छा बताओ, मेरी मां का नाम क्या है?” पीहू के अचानक दागे गए इस सवाल से अखिल अचकचा गया. उस ने इनकार में अपने कंधे उचका दिए.

“नहीं पता ना? पता होगा भी कैसे क्योंकि लोग उन्हें उन के नाम से जानते ही नहीं. वे बाहर के लोगों के लिए मिसेज सक्सेना और रिश्तेदारों के लिए पीहू की मम्मी हैं. और सिर्फ वे ही क्यों, ऐसी न जानें कितनी ही औरतें हैं जो अपना असली नाम भूल ही गई होंगी. वे या तो मिसेज अलांफलां या फिर गुड्डू, पप्पू की मम्मी के नाम से पहचानी जाती हैं. मैं ने देखा है अपने आसपास. अपने घर में भी. बहुत बुरा लगता है,” कहती हुई पीहू आवेश में आ गई.

“लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत जरूरी है. मैं तुम्हें प्यार करती हूं लेकिन सिर्फ इसी वजह से तुम्हारे घर में शोपीस बन कर नहीं रह सकती. तुम तो मेरे संघर्ष के साथी हो. सब जानते हो. मैं ने कितनी मुश्किल से अपनी पहचान बनाई है. इतनी मेहनत से हासिल इस मुकाम को मैं घूंघट की ओट में नहीं छिपा सकती. अपने नाम की पहचान को ऐशोआराम के लालच की आग में नहीं झोंक सकती,” पीहू ने अखिल का चेहरा पढ़ते हुए कहा.

“इस का मतलब तुम्हारे लिए तुम्हारी अपनी पहचान मुझ से अधिक जरूरी है. क्या तुम नहीं चाहतीं कि तुम्हारा नाम मेरे नाम से जुड़ कर पहचाना जाए, हमारे नाम एक हो जाएं? जरा सोचो, पीहू अखिल लखोटिया… आहा… सोच कर ही कितना अच्छा लग रहा है,” अखिल के स्वर में अभी भी एक उम्मीद शेष थी.

“नहीं, मैं नहीं चाहती कि मेरी पहचान तुम्हारे नाम की केंचुली में छिप जाए. पीहू अखिल सक्सेना या पीहू सक्सेना लखोटिया जैसा कुछ बन कर इतराने की बजाय मैं सिर्फ पीहू सक्सेना कहलाना अधिक पसंद करूंगी. सक्सेना ना भी हो तो भी चलेगा. मैं तो सिर्फ पीहू बन कर भी खुश रहूंगी. बल्कि मैं तो कहती हूं कि दुनिया की हर लड़की के लिए उस की अपनी पहचान बहुत जरूरी है,” पीहू ने भावुक होते हुए अखिल का हाथ थाम लिया.

“यानी तुम्हारी ना समझूं? हमारे सपनों का क्या होगा पीहू?” अखिल रुआंसा हो गया.

“हमारे सपने जुड़े हुए जरूर थे लेकिन उस के बावजूद भी वे स्वतंत्र थे, एकदूसरे से अलग थे. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं. मैं यह भी नहीं चाहती कि तुम मेरे लिए अपने परिवार से बगावत करो, लेकिन माफ करना, मैं अपनी पहचान नहीं खो सकती. इसे तुम मेरा आखिरी फैसला ही समझो,” पीहू ने अपना आत्मविश्वास से भरा फैसला सुना दिया और स्नेह से अखिल का कंधा थपथपाती हुई उठ खड़ी हुई.

पीहू नहीं जानती थी कि वह अपने इस निर्णय को कितनी सहजता से स्वीकार कर पाएगी लेकिन यह भी तो आखिरी सच है कि हमारे हरेक कठोर निर्णय के समय मन के तराजू में एक तरफ निर्णय और दूसरी तरफ उस की कीमत रखी होती है.

आज भी पीहू के मन की तुला पर एक तरफ उस की निज पहचान थी तो दूसरी तरफ उस का प्रेम और सुविधाओं से भरा भविष्य. पीहू ने प्रेम की जगह अपनी पहचान को चुना. वह अखिल के नाम की केंचुली पहनने से इनकार कर अपने गढ़े हुए रास्ते पर बढ़ गई.

अखिल नम आंखों से उस आत्मविश्वास की मूरत को जाते हुए देख रहा था.

Hindi Kahani : कैसा मोड़ है यह

Hindi Kahani : ‘‘अदालतसे गुजारिश है कि मेरी मुवक्किला को जल्दी न्याय मिले ताकि वह अपनी एक नई जिंदगी शुरू कर सके,’’ माला के वकील ने अपनी दलीलें पेश करने के बाद जज साहब से कहा. जज साहब ने मामले की गंभीरता को समझते हुए अगली तारीख दे दी. तलाक के मामलों में बहुत जल्दी फैसला लेना मुश्किल ही होता है, क्योंकि अदालत भी चाहती है कि तलाक न हो. यही वजह थी कि हमेशा की तरह आज भी अदालत में कोई फैसला नहीं हुआ. दोनों ही पक्षों के वकील अपनीअपनी दलीलें पेश करते रहे, पर जज साहब ने तो तारीख बढ़ाने का ही काम किया.

वल्लभ और माला दोनों उदास और खिन्न मन से अदालत से बाहर निकल आए, लेकिन बाहर निकलते वक्त उन्हें नेहा और भानू की घूरती नजरों का सामना करना पड़ा. उन दोनों की नफरत, क्रोध और धोखा देने के आक्रोश का सामना वे दोनों पिछले 5 सालों से कर रहे हैं और अब तो जैसे आदत ही हो गई है. वल्लभ उस नफरत और आक्रोश के साए में जीतेजीते टूट सा गया है. अफसोस और अपराधभाव उस के चेहरे के भावों से परिलक्षित होने लगे हैं. सच तो यह भी है कि अदालत के चक्कर काटतेकाटते वह थक गया है. हालत तो माला की भी कुछ ऐसी ही है, क्योंकि पिछले 5 सालों से वह भी अपनेपरायों सब की नफरत झेल रही है. यहां तक कि उस के बच्चे भी उस से दूर हो गए हैं. आखिर क्या मिला उन्हें इस तरह का कदम उठा कर?

‘‘चलो तुम्हें घर छोड़ देता हूं,’’ वल्लभ ने माला से कहा, तो थकी हुई आवाज में उस ने कहा, ‘‘मैं चली जाऊंगी, तुम्हें तो वैसे ही देर हो चुकी है.’’

‘‘बैठो,’’ वल्लभ ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा. फिर माला को उस के घर छोड़ कर जहां वह बतौर पेइंग गैस्ट रहती थी, वल्लभ औफिस की ओर चल दिया.

लंच टाइम हो चुका था. आज भी हाफ डे लगेगा. इस केस के चक्कर में हर महीने छुट्टियां या हाफ डे लेने पड़ते हैं. कितनी बार तो वह विदआउट पे भी हो चुका है. निजी कंपनियों में सरकारी नौकरी जैसे सुख नहीं हैं कि जब चाहे छुट्टी ले लो. यहां तो काम भी कस कर लेते हैं और समय देख कर काम करने वालों को तो पसंद ही नहीं किया जाता है. माला की तो इस वजह से 2 नौकरियां छूट चुकी थीं. अदालत में आतेजाते और वकील की फीस देतेदेते उन की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ गई थी. बेशक माला और वल्लभ एकदूसरे का पूरा साथ दे रहे थे और उन के बीच के प्यार में इन 5 सालों में कोई कमी भी नहीं आई थी, पर कहीं न कहीं दोनों को लगने लगा था कि ऐसा कदम उठा कर उन से कोई भूल हो गई है. उन्हें अभी भी अलग ही रहना पड़ रहा था. समाज, परिवार और दोस्तों, सब की नाराजगी सहते हुए वे जी रहे थे, सिर्फ इस आशा से कि एक दिन अदालत का फैसला उन के हक में हो जाएगा और वे दोनों साथसाथ रहने लगेंगे.

वल्लभ औफिस में भी सारा दिन तनाव में ही रहा. वह काम में मन ही नहीं लगा पा रहा था. ‘‘कोई बात बनी?’’ कुलीग रमन ने पूछा तो उस ने सिर हिला दिया, ‘‘माला के लिए भी कितना मुश्किल है न यह सब. लेकिन फिर भी वह तेरा साथ दे रही है. वह सचमुच तुझ से प्यार करती है यार वरना कब की भानू के पास चली जाती.’’

‘‘रमन तू सही कह रहा है. पर माला और मैं अब दोनों ही बहुत थक गए हैं. अब तो लगता है कि 5 साल पहले जैसे जिंदगी चल रही थी, वही ठीक थी. न माला मेरी जिंदगी में आती और न यह तूफान आता. 42 साल का हो गया हूं, पर अभी भी परिवार बनाने के लिए भाग रहा हूं. माला भी अब 40 की है. कभीकभी गिल्टी फील करता हूं कि मेरी वजह से उसे भानू को छोड़ना पड़ा,’’ वल्लभ भावुक हो उठा.

‘‘संभाल अपनेआप को यार. प्यार कोई सोचसमझ कर थोड़े ही करता है. वह तो बस हो जाता है. तू अपने आप को दोष मत दे. सब ठीक हो जाएगा,’’ रमन ने उसे तसल्ली तो दे दी. पर वह भी जानता था कि मामला इतनी आसानी से सुलझने वाला नहीं है.

‘‘कैसे ठीक हो जाएगा? अब तक तो तू समझ ही गया होगा कि नेहा मुझे कभी तलाक नहीं देगी और अदालत के चक्कर लगवाती रहेगी. वह उन लोगों में से है, जो न खुद चैन से जीते हैं और न दूसरों की जीने देते हैं.’’

वल्लभ को मायूस देख रमन ने उस का कंधा थपथपाया. हालांकि वह जानता था कि उस की तसल्ली भी उस के काम नहीं आएगी. औफिस से लौट कर अपने घर का दरवाजा खोल वल्लभ बिना लाइट जलाए ही सोफे पर पसर गया. शरीर और मन जब दोनों ही थक जाएं तो इंसान बिलकुल टूट जाता है. बीते पल उसे बारबार झकझोर रहे थे. 15 साल पहले उस की और नेहा की शादी हुई थी. उस समय वह नौकरी करता था. पर उस का वेतन इतना नहीं था कि नेहा के शाही खर्चों को वह उठा सके. उस के ऊपर छोटी बहन का भी दायित्व था और अपनी मां की भी वह सहायता करना चाहता था, क्योंकि पिता थे नहीं. नेहा को उस के घर के हालात पता थे, फिर भी उस के  मांबाप ने उस की उस से शादी की तो कुछ देखा ही होगा. पर नेहा बहुत गुस्सैल और कर्कश स्वभाव की थी. वह बातबात पर उस से लड़ने लगती और मां से भी बहस करने लगती. बहन को ताने देती कि उस की वजह से उसे अपनी छोटीछोटी खुशियों को भी दांव पर लगाना पड़ता है.

नेहा चाहती थी कि सारा दिन घूमे या शौपिंग करे. घर का काम करना तो उसे पसंद ही नहीं था. वल्लभ उसे समझाने की कोशिश करता तो वह मायके चली जाती और बहुत मिन्नतों के बाद वापस आती. रोजरोज की किचकिच से वह तंग आ गया था. शादी के 2 साल बाद जब उन का बेटा हुआ तो उसे लगा कि अब शायद नेहा सुधर जाएगी. पर वह तो वैसी लापरवाह बनी रही. मां या बहन को ही बेटे को संभालना पड़ता. बेटा बीमार होता तो भी उसे छोड़ सहेलियों के साथ पिक्चर देखने चली जाती. एक बार बेटे को निमोनिया हुआ और नेहा ने उसे ठंडे पानी से नहला दिया. नन्ही सी जान ठंड सह नहीं पाई और बुखार बिगड़ गया. 2 दिन बाद उस की मौत हो गई. कुछ दिन नेहा रोई, शांत बनी रही, पर फिर वापस अपने ढर्रे पर लौट आई.

परेशान वल्लभ ने घर में रहना ही कम कर दिया. मां बहन को ले कर गांव चली गई. नेहा कईकई दिनों तक खाना नहीं बनाती थी. घर गंदा पड़ा रहता, पर वह तो बस घूमने निकल जाती. वल्लभ उस समय इतना परेशान था कि वह घंटों पार्क में बैठा रहता. ‘‘क्यों आजकल घर में दिल नहीं लगता? क्या कोई और मिल गई है?’’ नेहा का कटाक्ष उसे आहत कर जाता. उस ने बहुत बार उसे प्यार से समझाना चाहा, पर वह अपनी मनमानी करती रही. मांबहन के जाने के बाद से जैसे वह और आजाद हो गई थी. वल्लभ का जिस बिल्डिंग में औफिस था, उसी की दूसरी मंजिल पर माला का औफिस था. लिफ्ट में आतेजाते उन की मुलाकातें हुईं और फिर बातें होने लगीं. धीरेधीरे एकदूसरे के प्रति उन का आकर्षण बढ़ने लगा. वल्लभ तो वैसे भी प्यार के लिए तरसरहा था और माला भी अपने वैवाहिक जीवन से दुखी थी. उस के पति भानू को शराब की लत थी और नशे में वह उसे मारता था. अपने दोनों बच्चों की खातिर वह उसे सह रही थी. धीरेधीरे वे दोनों कब एकदूसरे को चाहने लगे, उन्हें पता नहीं चला. दोनों ही अपनेअपने साथी से छुटकारा पा एक खुशहाल जीवन जीने के सपने देखने लगे. पर उस के लिए दोनों का तलाक लेना जरूरी था. नेहा तो अपने बच्चों को भी अपने साथ रखना चाहती थी, जिसे ले कर वल्लभ को कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि वह खुद बच्चों के लिए तरस रहा था.

उन दोनों के रिश्ते के बारे में लोगों को पता चलते ही जैसे बम फूटा था. नेहा तो जैसे रणचंडी बन गई थी, ‘‘तुम चाहते होगे कि तुम्हें तलाक दे दूं ताकि तुम उस कलमुंही के साथ गुलछर्रे उड़ा सको. कभी नहीं. अब समझ आया कि मुझ से क्यों भागते रहते हो. मुझे छोड़ तुम दूसरी शादी करने का सपना देख रहे हो. सारी उम्र अदालत के चक्कर काटते रहना, पर मैं तुम्हें तलाक देने वाली नहीं.’’

माला के साथ तो भानू ने और भी बुरा व्यवहार किया, शर्म नहीं आई तुझे, किसी और के साथ मुंह काला करते हुए…’’ यह तो उस ने कहा ही इस के अलावा उस ने पासपड़ोस वालों के सामने क्याक्या नहीं कहा. उस के बाद वह उसे रोज ही मारने लगा. बच्चे कुछ समझ नहीं पा रहे थे, इसलिए सहमे से रहते. जब कभी माला से मिलने वल्लभ घर जाता तो बच्चे कहते, ‘‘मम्मी, ये अंकल हमारे घर क्यों आते हैं? हमें अच्छा नहीं लगता. हमारे स्कूल फैं्रड्स कहते हैं कि आप दूसरी शादी करने वाली हो. मम्मी, पापा जैसे भी हैं हमें उन्हीं के साथ रहना है.’’

फिर एक वक्त ऐसा आया जब भानू तो तलाक देने को तैयार हो गया. पर उस की शर्त थी कि वह उसे तलाक और बच्चों को कस्टडी तभी देगा जब वह उसे क्व20 लाख देगी. माला कहां से लाती इतनी बड़ी रकम. तब से यानी पिछले 5 सालों से माला और वल्लभ दोनों तलाक पाने के लिए लड़ रहे हैं, पर कोई फैसला ही नहीं हो पा रहा है. समय के साथसाथ पैसा भी खर्च हो रहा है और माला और वह साथसाथ नहीं रह सकते, इसलिए दोनों अलगअलग रह रहे हैं.मोबाइल बजा तो वल्लभ की तंद्रा भंग हुई. 9 बज गए थे. उस ने लाइट जलाई. फोन पर माला थी. ‘‘वल्लभ, मैं तो अदालत के चक्कर लगातेलगाते तंग आ गई हूं. भानू ने आज तो मुझे धमकी दी है कि जल्दी ही मैं ने उसे पैसे नहीं दिए तो वह बच्चों को ले कर कहीं दूर चला जाएगा. कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं,’’ कहते हुए माला रो रही थ, लेकिन आज वल्लभ के पास कुछ कहने के लिए शब्द ही नहीं थे. कैसे कहे वह कि माला सब ठीक हो जाएगा, तुम चिंता मत करो. मैं तुम्हारे साथ हूं. कहां कुछ ठीक हो पा रहा है? ‘‘कल मिल कर बात करते हैं,’’ कह कर वल्लभ ने फोन काट दिया.

इन 5 सालों में उस के बालों की सफेदी चमकने लगी थी. काम में ध्यान नहीं लगा पाने के कारण प्रमोशन हर बार रुक जाता था. मां अलग नाराज थीं कि चाहे बीवी जैसी हो उस के साथ निभाना ही पड़ता है. इस चक्कर में बहन की शादी भी नहीं हो पा रही थी. सारे रिश्तेदारों ने उस से मुंह मोड़ लिया था. समाज से कट गया था वह पूरी तरह और औफिस में भी वह मजाक का पात्र बन गया था.

माला से प्यार करने की उसे इतनी बड़ी सजा मिलेगी उस ने कहां सोचा था. कहां तो उस ने सोचा था कि नेहा से तलाक ले कर माला के साथ एक खुशहाल जिंदगी बिताऊंगा, पर यहां तो सब उलटा हो गया था. इतनी मुसीबतें झेलने से तो अच्छा था कि वह कर्कशा बीवी के साथ ही जिंदगी गुजार लेता. उस का तो अब यह हाल है कि न माया मिली न राम. ‘‘आखिर हमें क्या मिला वल्लभ? माना कि भानू के साथ मैं कभी सुखद जीवन जीने की बात तो छोड़ो उस के सपने भी नहीं देख पाई, पर उस से अलग हो कर भी कहां सुखी हूं? मेरे बच्चे तक अब मुझ से मिलना नहीं चाहते हैं और तुम से भी दूर ही तो रहना पड़ रहा है. समाज मुझे ऐसे देखता है मानो पति को छोड़ मैं ने कोई बड़ा अपराध किया है. 40 साल की हो गई हूं और कुछ सालों में बुढ़ापा छा जाएगा, तब मेरा क्या होगा? दिनरात की भागदौड़ में कैरियर भी ठीक से बन नहीं पाया है और मेरे मांबाप तक ने मेरा साथ देने के लिए मना कर दिया है,’’ वल्लभ से मिलते ही जैसे माला के अंदर भरा गुबार बाहर निकल आया.

‘‘मेरी भी हालत कुछ ऐसी ही है माला, पर अब कर भी क्या सकते हैं?’’ वल्लभ ने एक आह भरी.

‘‘जानते हो जिन के घर में मैं बतौर पेइंग गैस्ट रहती हूं, वे अकसर कहती हैं कि जैसे आप पेरैंट्स चूज नहीं कर सकते हो, वैसे ही पार्टनर के बारे में अपनी तरफ से कोई फैसला नहीं ले सकते हो. जिस से एक बार शादी हो जाए, वह जैसा है उसे वैसा ही ऐक्सैप्ट कर लो. यही प्रैक्टिकल ऐप्रोच मानी जाती है.’’

वल्लभ को लगा कि वे माला से ठीक ही कह रही थीं. आखिर माला और उसे शादी के बाद प्यार में पड़ कर क्या मिला? तलाक न जाने कब मिले और कोई गारंटी भी नहीं कि मिलेगा भी कि नहीं. एक हफ्ते बाद फिर उन के केस की सुनवाई हुई. नेहा अड़ी हुई थी कि वह तलाक नहीं देगी और भानू पैसे मांग रहा था. अदालत की सीढि़यां उतरते हुए माला और वल्लभ ने एकदूसरे को इस तरह देखा कि मानों पूछ रहे हों कि अब क्या करें? दोनों के पास इस का कोई उत्तर नहीं था पर शायद भीतर ही भीतर दोनों समझ गए थे कि तलाक लेने का उन का फैसला गलत था. शादीशुदा हो कर प्यार करना और उसे निभाना उतना आसान नहीं है, जितना कि उन्होंने सोचा था. दोनों चुपचाप एक बैंच पर जा कर बैठ गए. जिंदगी उन्हें जिस मोड़ पर ले आई थी वहां से लौटना क्या अब आसान होगा? थोड़ी देर बाद माला उठी और बिना कुछ कहे चल दी. हर बार की तरह वल्लभ ने उस से न घर तक छोड़ आने की बात कही और न ही उस ने कार में बैठते हुए अदालत की उन सीढि़यों को देखा, जिन पर चलतेचलते उन दोनों के पैर ही नहीं दिलोदिमाग भी थक गया था.

Stories : खौफ – क्या था स्कूल टीचर अवनि और प्रिंसिपल मि. दास के रिश्ते का सच

Stories : प्रिंसिपल दास की नजरें आजकल अक्सर ही अवनि पर टिकी रहती थीं. अवनि स्कूल में नई आई थी और दूसरे टीचर्स से काफी अलग थी. लंबी, छरहरी, गोरी, घुंघराले बालों और आत्मविश्वास से भरपूर चाल वाली अवनि की उम्र 30- 32 साल से अधिक की नहीं थी. उधर 48 साल की उम्र में भी मिस्टर दास अकेले थे. बीवी का 10 साल पहले देहांत हो गया था. तब से वे स्कूल के कामों में खुद को व्यस्त रखते थे. मगर जब से स्कूल में टीचर के रूप में अवनि आई है उन के दिल में हलचल मची हुई है. वैसे अवनि विवाहिता है पर कहते हैं न कि दिल पर किसी का जोर नहीं चलता. प्रिंसिपल दास का दिल भी अवनि को देख बेकाबू रहता था.

” अवनि बैठो,” प्रिंसिपल दास ने अवनि को अपने केबिन में बुलाया था.

उन की नजरें अवनि के बालों में लगे गुलाब पर टिकी हुई थीं. अवनि के बालों में रोज एक छोटा सा गुलाब लगा होता था जो अलगअलग रंग का होता था. प्रिंसिपल दास ने आज पूछ ही लिया,” आप के बालों में रोज गुलाब कौन लगाता है?”

“कोई भी लगाता हो सर वह महत्वपूर्ण नहीं. महत्वपूर्ण यह है कि आप की नजरें मेरे गुलाब पर रहती हैं. जरा अपनी मंशा तो जाहिर कीजिए,”
शरारत से मुस्कुराते हुए अवनि ने पूछा तो प्रिंसिपल दास झेंप गए.

हकलाते हुए बोले,” नहीं ऐसा नहीं. दरअसल मेरी नजरें तो… आप पर ही रहती हैं.”

अवनि ने अचरज से प्रिंसिपल दास की तरफ देखा फिर मीठी मुस्कान के साथ बोली,” यह बात तो मुझे पता थी जनाब बस आप के मुंह से सुनना चाहती थी. वैसे मानना पड़ेगा आप हैं काफी दिलचस्प.”

“थैंक्स,” अवनि के कमेंट पर प्रिंसिपल दास थोड़े शरमा गए थे.

पानी का गिलास बढ़ाते हुए बोले,” आप के लिए क्या मंगाऊं चाय या कॉफी?”

“नहीं नहीं पानी ही ठीक है. आज तो आप की बातों ने ही चायकॉफ़ी का सारा काम कर दिया,” कहते हुए अवनि हंस पड़ी.

ऐसी ही दोचार छोटीमोटी मुलाकातों के बाद आखिर प्रिंसिपल दास ने एक दिन हिम्मत कर के कह ही दिया,” आप मुझे बहुत अच्छी लगती हो. वैसे मैं जानता हूं एक विवाहित स्त्री से मेरा ऐसी बातें कहना उचित नहीं पर बस एक बार कह देना चाहता था.”

“मिस्टर दास हर बात जुबां से कहनी जरूरी तो नहीं होती. वैसे भी आप की नजरें यह बात कितनी ही दफा कह चुकी हैं.”

“तो क्या आप भी नजरों की भाषा पढ़ लेती हैं?”

“बिल्कुल. मैं हर भाषा पढ़ लेती हूं.”

“आप के पति भी आप से बहुत प्यार करते होंगे न,” प्रिंसिपल ने उस के चेहरे पर निगाहें टिकाते हुए पूछा.

“देखिए मैं यह नहीं कहूंगी कि वह प्यार नहीं करते. प्यार तो करते हैं पर बहुत बोरिंग इंसान हैं. न कहीं घूमने जाना, न रोमांटिक बातें करना और न हंसनाखिलखिलाना. वैरी बोरिंग. घर में पति के अलावा केवल सास हैं जो बीमार हैं. ससुर हैं नहीं. पूरे दिन घर में बोर हो जाती थी इसलिए स्कूल जॉइन कर लिया. मुझे घूमनाफिरना, दिलचस्प बातें करना, दुनिया की खुशियों को अपनी बाहों में समेट लेना यह सब बहुत पसंद है. आप जैसे लोग भी पसंद हैं जिन के अंदर कुछ अट्रैक्शन हो. मेरे पति में कोई अट्रैक्शन नहीं है.”

प्रिंसिपल दास को अवनि की बातें सुन कर गुदगुदी हो रही थी. अवनि जैसी महिला उन्हें अट्रैक्टिव कह रही थी और क्या चाहिए था. उन्हें दिल कर रहा था अपनी महबूबा यानी अवनि को बाहों में भर लें पर कैसे? कोई पृष्ठभूमि तो बनानी पड़ेगी.

मिस्टर दास ने इस का भी उपाय निकाल लिया.

“अवनि क्यों न आप की क्लास के बच्चों को ले कर हम पिकनिक पर चलें. स्पोर्ट्स डे के दौरान आप की क्लास के बच्चों ने बेहतरीन परफॉर्मेंस दी. उन के रिजल्ट भी काफी अच्छे आए हैं.”

“ग्रेट आइडिया सर. बताइए न कब चलना है और कहां जाना है?” खुश हो कर अवनि ने कहा.

अवनि क्लास 7 की क्लास टीचर थी. अगले संडे ही कक्षा 7 के बच्चों को शहर के सब से खूबसूरत पार्क में ले जाया गया. पूरे दिन बच्चे एक तरफ खेलते रहे और पार्क के दूसरे कोने में मिस्टर दास अवनि के साथ रोमांस की पींगे बढ़ाने में व्यस्त रहे.

अब तो अक्सर बहाने ढूंढे जाने लगे. प्रिंसिपल और अवनि कभी कोई मीटिंग अटैंड करने बाहर निकल जाते तो कभी किसी सेलिब्रेशन के नाम पर, कभी स्कूल के दूसरे बच्चे और टीचर की शामिल होते तो कभी दोनों अकेले ही जाने का प्रोग्राम बना लेते. प्रिंसिपल को हर समय अवनि का साथ पसंद था तो अवनि को इस बहाने घूमनाफिरना, खानापीना और मस्ती मारना. दोनों ही एकदूसरे की इच्छा पूरी कर अपना मतलब निकाल रहे थे. ऐसे ही वक्त गुजरता रहा. उन का यह अवैध रिश्ता वैध रास्तों से आगे बढ़ता रहा.

अब तो अवनि अक्सर अपने हाथ का बना खाना और पकवान आदि प्रिंसिपल के लिए ले कर आती. सब की नजरें बचा कर दोनों एकदूसरे में खो जाते. पर कहते हैं न इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपता. धीरेधीरे स्टाफ रूम में दूसरे टीचर इन के रिश्ते पर कानाफूसी करने लगे. मगर अवनि इन बातों के लिए तैयार थी. वह बड़ी कुशलता से इन बातों को अफवाह बता कर आगे बढ़ जाती.

एक दिन अवनि स्कूल आई तो उसे खबर मिली कि साधारण टीचर के रूप में हाल ही में आई मिस श्वेता गुलाटी को प्रमोशन दे कर क्लास 10th की क्लास टीचर बना दिया गया है. इस बात से हर कोई अचंभित था. स्कूल के सब से सीनियर क्लास की क्लास टीचर बनना और वह भी इतने कम दिनों में, किसी को भी सहजता से कुबूल नहीं हो रहा था. अवनि तो बौखला ही गई.

वह पहले से ही यह बात गौर कर रही थी कि प्रिंसिपल दास आजकल श्वेता गुलाटी पर काफी मेहरबान रहने लगे हैं. 20 साल की श्वेता काफी खूबसूरत थी जैसे अभीअभी किसी कमसिन कली ने पंखुड़ियां खोली हों. वह जब इंग्लिश में गिटिरपिटिर करती तो दूसरे टीचर इनफीरियरिटी कंपलेक्स से ग्रस्त हो जाते. उस पर श्वेता के कपड़े भी काफी बोल्ड होते. कभी ऑफशोल्डर्ड ड्रेस तो कभी स्लीवलैस, कभी बैकलेस तो कभी शौर्ट स्कर्ट. वैसे तो उस की अदाओं के दीवाने स्कूल के ज्यादातर पुरुष थे मगर सब से ज्यादा पावरफुल प्रिंसिपल दास ही थे. सो श्वेता उन के केबिन के आसपास मंडराने लगी थी.

अवनि गुस्से में आगबबूला हो कर प्रिंसिपल के केबिन में पहुंची पर वे वहां नहीं थे. पूछने पर पता चला कि वे मिस गुलाटी के साथ लाइब्रेरी में हैं. अवनि का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. उस ने बैग उठाया और बिना किसी को इन्फॉर्म किए घर चली आई. बाद में उस के मोबाइल पर प्रिंसिपल का फोन आया तो अवनि ने फोन उठाया ही नहीं.

अगले दिन भी वह स्कूल नहीं पहुंची तो प्रिंसिपल ने उसे मैसेज किया,’ मैं तुम्हारे घर के सामने कार ले कर पहुँच रहा हूं. मुझ से नाराज हो तो भी एक बार हमें बात करनी चाहिए. आज हम बाहर ही लंच करेंगे. मैं 20 -25 मिनट में पहुंच जाऊँगा, तैयार रहना. ‘

अवनि तैयार हो कर बाहर निकली. तब तक प्रिंसिपल की कार पहुंच चुकी थी. वह कार में पीछे जा कर बैठ गई. दोनों शहर से दूर एक रेस्टोरेंट पहुंचे. कोने की एक खाली सीट पर बैठते हुए प्रिंसिपल ने बात शुरू की,” अब आप कुछ बताएंगी इस नाराज़गी की वजह क्या है?”

“वजह भी बतानी पड़ेगी? आप इतने नादान तो नहीं.”

“ओके बाबा मैं ने श्वेता को प्रमोशन दी इसी बात पर नाराज़ हो न?” प्रिंसिपल ने अपनी गलती मानी.

“मैं जान सकती हूं उस में ऐसे कौन से सुर्खाब के पंख लगे हैं जो मुझ में नहीं?” गुस्से में अवनि ने कहा.

“ऐसा कुछ नहीं है डार्लिंग…..मैं… ”

“डोंट टेल मी डार्लिंग. अब तो नई डार्लिंग मिल गई है जनाब को.”

“अरे ऐसी बात नहीं अवनि. ऐसा क्यों कह रही हो?”

“सच ही कह रही हूं. जरूर उस ने खुश कर दिया होगा आप को. तभी तो इतने कम समय में…, ” अवनि ने सीधा इल्जाम लगा दिया था.

“जुबान संभाल कर बात करो अवनि. मैं ऐसा नहीं कि हर किसी को इसी नजर से देखूं. खबरदार जो ऐसी बातें कीं. मैं प्रिंसिपल हूं, मेरे पास ऑथोरिटी है. जो मुझे काबिल लगेगा उसे प्रमोशन दूंगा. इस में तुम्हें बीच में आने का कोई हक नहीं.” प्रिंसिपल ने भी तेवर में कहा.

“हक तो वैसे भी कुछ डिसाइड नहीं हुए हैं मेरे. अब बता देना कि मैं कहां फेंक दी जाऊंगी? अब मेरी जरुरत तो रही नहीं आप को ”

“शट अप अवनि कैसी बातें कर रही हो? ”

“बातें ही नहीं काम भी करूंगी. आप खुद को सीनियर मोस्ट मत समझो. आप के ऊपर भी मैनेजमेंट है. मैं मैनेजमेंट से आप की शिकायत करूंगी.”

“अच्छा तो इतनी सी बात के लिए तुम मुझे धमकी दे रही हो? अवनि मेरे प्यार का यही बदला दोगी? ठीक है मैं भी देख लूंगा. तुम्हारे भी तो अमीर पति हैं न जिन्हें धोखा दे रही हो. मेरे पास भी बहुत से सबूत हैं अवनि जिन्हें तुम्हारे पति को दिखा दूं तो अभी हाथ में तलाक के कागजात मिल जाएंगे,” प्रिंसिपल ने धमकी दी.

“तो मिस्टर दास आप भी सावधान रहना. मेरे साथ आप की बहुत सी तस्वीरें, मैसेज और चैटिंग हैं जिन्हें मैनेजमेंट को दिखा कर अभी आप को नौकरी से निकलवा सकती हूं. आप को लूज करेक्टर साबित कर इज्जत पानी में मिला सकती हूं. पर मैं ऐसा करूंगी नहीं. मैं ने भी प्यार किया है आप को. भले ही आज कोई और पसंद आ गई हो.”

“ऐसा नहीं है अवनि. श्वेता पसंद नहीं आई बल्कि मेरे छोटे भाई की फ्रेंड है और फिर काबिल भी है. नॉलेज अच्छी है उस की. अगर तुम्हें बुरा लगा तो सॉरी पर मेरा मकसद तुम्हें हर्ट करना नहीं था,” प्रिंसिपल की आवाज नर्म पड़ गई थी.

“इट्स ओके सर. शायद मैं ने भी कुछ ज्यादा ही कह दिया आप को,”

अवनि ने भी झगड़ा बढ़ाना उचित नहीं समझा. झगड़ा बढ़ता इस से पहले ही दोनों ने पैचअप कर लिया. दोनों ही जानते थे कि उन के हाथ में एकदूसरे की कमजोर कड़ी है. नुकसान दोनों का ही होना था. बात आई गई हो गई. दोनों फिर से एकदूसरे के रोमांस में डूबते चले गए.

मगर इस बार दोनों की ही तरफ से सावधानी बरती जा रही थी. मिल कर तस्वीरें और सेल्फी लेने की परंपरा बंद कर दी गई. दोनों घूमने भी जाते तो साथ में तस्वीरें कम से कम लेते. चैटिंग के बजाय व्हाट्सएप कॉल करते और मैसेज करना भी बंद कर दिया गया. दोनों को ही डर था कि सामने वाला कभी भी उस की पोल पट्टी खोल कर उसे नंगा कर सकता है. उन के बीच पतिपत्नी का रिश्ता तो था नहीं जो हक के साथ रोमांस करें. यहां रोमांस भी छिपछिप कर करना था और एकदूसरे पर कोई हक भी नहीं था.

अवनि ने अपने मोबाइल ‘में से वे सारी तसवीरें निकाल कर लैपटॉप में एक जगह इकट्ठी कर लीं जिन तस्वीरों में दोनों एकदूसरे के बहुत करीब नजर आ रहे थे. यही नहीं सारी चैटिंग और मैसेज भी एक जगह स्टोर कर के रख लिए. वह कभी भी मौके पर चौका मारने के लिए तैयार थी. उसे पता था कि प्रिंसिपल भी ऐसा ही कुछ कर सकता है. इसलिए वह इस रिश्ते को खत्म कर उस की नाराजगी भी बढ़ाना नहीं चाहती थी.

अब उन के बीच जो रोमांस था उस में मजा तो था पर एकदूसरे से ही खौफ भी था. प्यार के साथ डर की यह भावना दोनों के लिए ही नई थी. मगर अब यही खौफ उन की जिंदगी का हिस्सा बन चूका था. दोनों ही एकदूसरे को प्यार भरी नजरों से देखते थे पर दोनों के दिमाग का एक हिस्सा समझ रहा था कि एक शख्स मेरी तबाही की वजह बन सकता है.

Interesting Hindi Stories : बेटी के लिए – क्या वर ढूंढ पाए शिवचरण और उनकी पत्नी

Interesting Hindi Stories : शिवचरण अग्रवाल बाजार से लौटते ही कुरसी पर पसर गए. मलीन चेहरा, शिथिल शरीर देख पत्नी माया ने घबरा कर माथा छुआ, ‘‘क्या हुआ… क्या तबीयत खराब लग रही है. भलेचंगे बाजार गए थे…अचानक से यों…’’

कुछ देर मौन रख वह बोले, ‘‘लौटते हुए अजय की दुकान पर उस का हालचाल पूछने चला गया था. वहां उस ने जो बताया उसे सुन कर मन खट्टा हो गया.’’

‘‘ऐसा क्या बता दिया अजय ने जो आप की यह हालत हो गई?’’ माया ने पंखा झलते हुए पूछा.

‘‘वह बता रहा था कि कुछ दिन पहले उस की दुकान पर समधीजी का एक रिश्तेदार आया था…उसे यह पता नहीं था कि अजय मेरा भांजा है. बातोंबातों में मेरा जिक्र आ गया तो वह कहने लगा, ‘अरे, उन्हें तो मैं जानता हूं…बड़े चालाक और घटिया किस्म के इनसान हैं… दरअसल, मेरे एक दूर के जीजाजी के घर उन की लड़की ब्याही है…जीजाजी बता रहे थे कि शादी में जो तय हुआ था उसे तो दबा ही लिया, साथ ही बाद में लड़की के गहनेकपडे़ भी दाब लेने की पूरी कोशिश की…क्या जमाना आ गया है लड़की वाले भी चालू हो गए…’ रिश्तेदारी का मामला था सो अजय कुछ नहीं बोला मगर वह बेहद दुखी था…उसे तो पता ही है कि मैं ने मीनू की शादी में कैसे दिल खोल कर खर्च किया है, जो कुछ तय था उस से बढ़चढ़ कर ही दिया, फिर भी मीनू के ससुर मेरे बारे में ऐसी बातें उड़ाते फिरते हैं… लानत है….’’

तभी उन की छोटी बेटी मधु कालिज से वापस आ गई. उन की उतरी सूरत देख उस का मूड खराब न हो अत: दोनों ने खुद को संयत कर किसी दूसरे काम में उलझा लिया.

आज का मामला कोई नया नहीं था. साल भर ही हुआ था मीनू की शादी को मगर आएदिन कुछ न कुछ फेरबदल के साथ ऐसे मामले दोहराए जाते पर शिवचरण चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे…इन हालात के लिए वह स्वयं को ही दोषी मानते थे.

आज शिवचरण की आंखों के सामने बारबार वह दृश्य घूम रहा था जब कपूर साहब ने उन से अपने बड़े बेटे के लिए मीनू का हाथ मांगा था.

रजत कपूर उन के नजदीकी दोस्त एवं पड़ोसी दीनदयाल गुप्ता के बिजनेस पार्टनर थे. बेहद सरल, सहृदय और जिंदादिल. दीनदयाल के घर शिवचरण की उन से आएदिन मुलाकातें होती रहीं. जैसे वह थे वैसा ही उन का परिवार था. 2 बेटों में बड़ा बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था और छोटा एम.बी.ए. पूरा कर अपने पिता का बिजनेस में हाथ बंटा रहा था. एक ऐसा हंसताखेलता परिवार था जिस में अपनी लड़की दे कर कोई भी पिता अपनी जिंदगी को सफल मानता. ऐसे परिवार से खुद रिश्ता आया था मीनू के लिए.

कपूर साहब भी अपने बड़े बेटे के लिए देखेभाले परिवार की लड़की चाह रहे थे और उन की नजर मीनू पर जा पड़ी. उन्होंने बड़ी विनम्रता से निवेदन किया था, ‘शिवचरण भाईसाहब, बेटी जैसे अब तक आप के घर रह रही है वैसे ही आगे हमारे घर रहेगी. बस, तन के कपड़ों में विदा कर दीजिए, मेरे घर में बेटी नहीं है, उसे ही बेटी समझ कर दुलार करूंगा.’

इतना अपनापन से भरा निवेदन सुन कर शिवचरण गद्गद हो उठे थे. कितनी धुकधुक रहती है पिता के मन में जब वह अपनी प्यारी बेटी को पराए हाथों में सौंपता है. मन आशंकाओं से भरा रहता है. रातदिन यही चिंता लगी रहती है कि पता नहीं बेटी सुखी रहेगी या नहीं, मानसम्मान मिलेगा या नहीं…मगर इस आग्रह में सबकुछ कितना पारदर्शी… शीशे की तरह साफ था.

शिवचरण ने जब इस बात पर अपनी पत्नी के साथ बैठ कर विचार किया तो धीरेधीरे कुछ प्रश्न मुखरित हो उठे. मसलन, ‘परिवार और लड़का तो वाकई लाखों में एक है मगर… हम वैश्य और वह पंजाबी…घर वालों को कैसे राजी करेंगे…’

यह सचमुच एक गंभीर समस्या थी. शिवचरण का भरापूरा कुटुंब था जिस में इस रिश्ते का जिक्र करने का मतलब था सांप की पूंछ पर पैर रखना. वैसे तो सभी तथाकथित पढे़लिखे समकालीन भद्रजन थे मगर जब किसी के शादीब्याह की बात आती तो एकएक पुरातन रीतिरिवाज खोजखोज कर निकाले जाते. मसलन, जाति, गोत्र, जन्मपत्री, मांगलिक-अमांगलिक…और यहां तो बात विजातीय रिश्ते की थी.

बेटी के सुखद भविष्य के लिए शिवचरण ने तो एक बार सब को दरकिनार करने की सोच भी ली थी मगर माया नहीं मानी.

‘शादीब्याह के मसले पर घरपरिवार को साथ ले कर चलना ही पड़ता है. अगर अभी नजरअंदाज कर दिया तो सारी उम्र ताने सुनते रहेंगे…तुम्हें कोई कुछ न बोले मगर मैं तो घर की बड़ी बहू हूं. तुम्हारी अम्मां मुझे नहीं बख्शेंगी.’

और अम्मां से पूछने पर जो कुछ सुनने को मिला वह अप्रत्याशित नहीं था.

‘क्या हमारी बिरादरी में कोई अच्छा लड़का नहीं मिला जो दूसरी बिरादरी का देखने चल दिया.’

‘नहीं, अम्मां, खुद ही रिश्ता आया था. बेहद भले लोग हैं. कोई दानदहेज भी नहीं लेंगे.’

‘तो क्या पैसे बचाने को ब्याह रहा है वहां? तेरे पास न हों तो मुझ से ले लेना…अरे, बेटी के ब्याह पर तो खर्च होता ही है…और मीनू घर की बड़ी लड़की है, अगर उसे वहां ब्याह दिया तो सब यही समझेंगे कि लड़की तेज होगी, खुद से पसंद कर ब्याह कर बैठी. फिर छोटी को कहीं ब्याहना भी मुश्किल हो जाएगा.’

अम्मां ने तिवारीजी को भी बुलवा लिया. लंबा तिलक लगाए वह आए तो अम्मां ने खुद ही उन के पांव नहीं छुए, सब से छुआए. 4 कचौड़ी, 6 पूरी और 2 रसगुल्लों का नाश्ता करने के बाद समस्या पर विचार कर के वह बोले, ‘यजमान, यह आप की मरजी है कि आप विवाह कहां करें पर आप ने जाति के बाहर विवाह किया तो मैं आप के घर में पैर नहीं रखूंगा. आखिर सनातन प्रथा है यह जाति की. आप जैसे नए लोग तोड़ते हैं तभी तो तलाक होते हैं. न कुंडली मिली, न अपनी जाति का, न घर के रीतिरिवाज का पता. आप सोच भी कैसे सकते हैं.’

अम्मां और तिवारीजी के आगे शिवचरण के सभी तर्क विफल हो गए और उन्हें इस रिश्ते को भारी मन से मना करना पड़ा. दीनदयाल ने यह बात विफल होती देख वहां अपनी भतीजी की बात चला दी और आज वह कपूर साहब के घर बेहद सुखी थी.

जब शिवचरण मीनू के लिए सजातीय वर खोजने निकले तो उन्हें एहसास हुआ कि दूल्हामंडी में से एक अदद दूल्हा खरीदना कितना कठिन कार्य था. जो लड़का अच्छा लगता उस के दाम आसमान को छूते और जिस का दाम कम था वह मीनू के लायक नहीं था. कपूर साहब के रिश्ते पर चर्चा के समय जिन सगेसंबंधियों ने मीनू के लिए सुयोग्य वर खोज लाने और हर तरह का सहयोग देने की बात की थी इस

समय वे सभी पल्ला झाड़ कहीं गायब हो गए थे.

भागदौड़ कर के अंत में एक जगह बात पक्की हुई. रिश्ता तय होते समय लड़के के मातापिता का रवैया ऐसा था जैसे लड़की पसंद कर उन्होंने लड़की वालों पर एहसान किया है. उस समय शिवचरण को कपूर साहब का नम्र निवेदन बहुत याद आ रहा था. उस दिन जो उन के कंधे झुके तो आज तक सीधे नहीं हुए थे.

अतीत की यादों में खोए शिवचरण को तब झटका लगा जब पत्नी ने आ कर कहा कि दीनदयाल भाई साहब आए थे और आप के लिए एक निमंत्रण कार्ड दे गए हैं.

उस दिन दीनदयाल के घर एक पारिवारिक समारोह में शिवचरण की मुलाकात उन के बड़े भाई से हो गई जो अब कपूर साहब के समधी थे. उन की बात चलने पर वह गद्गद हो कर बोले, ‘‘बस, क्या कहें, हमारी बिटिया को तो बहुत अच्छा घरवर मिल गया. ऐसे सज्जन लोग कहां मिलते हैं आजकल…उसे हाथों पर उठा कर रखते हैं…बेटी ससुराल में खुश हो, एक बाप को और क्या चाहिए भला…’’ शिवचरण के चेहरे पर एक दर्द भरी मुसकान तैर आई.

घर आ कर मन और अधिक अपराधबोध से ग्रसित हो गया. वह खुद पर बेहद नाराज थे. बारबार स्वयं को कोस रहे थे कि क्यों मैं उस समय जातिवाद की ओछी मानसिकता से उबर नहीं पाया…क्यों सगेसंबंधियों और बिरादरी की कहावत से डर गया…अपनी बेटी का भला देखना मेरी अपनी जिम्मेदारी थी, बिरादरी की नहीं. दीनदयाल भी तो हमारी जाति के ही हैं. उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ा वहां रिश्ता करने से…उन का मानसम्मान उसी तरह बरकरार है…सच तो यह है कि आज के भागदौड़ भरे जीवन में किसी के पास इतना समय नहीं कि रुक कर किसी दूसरे के बारे में सोचे…‘लोग क्या कहेंगे’ जैसी बातें पुरानी हो चुकी हैं. जो इन्हें छोड़ आगे नहीं बढ़ते, आगे चल कर वे मेरी ही तरह रोते हैं.

शिवचरण अखबार पढ़ रहे थे तभी दीनदयाल उन से मिलने आए तो बातोंबातों में वह अपनी व्यथा कह बैठे, ‘‘क्या बताऊं भाईजी, कपूर साहब जैसा समधी खोने का दर्द अभी तक दिल में है…एक विचार आया है मन में…अगर उन के छोटे बेटे के लिए मधु का रिश्ता ले कर जाऊं तो…जब वह आए थे तो मैं ने इनकार कर दिया था, न जाने अब मेरे जाने पर कैसा बरताव करेंगे, यही सोच कर दिल घबरा रहा है.’’

‘‘नहीं, भाई साहब, उन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं, दिल में किसी के लिए मैल नहीं रखते…वह तो खुशीखुशी आप का रिश्ता स्वीकारते मगर आप ने यह फैसला लेने में जरा सी देर कर दी. अभी 2 दिन पहले ही उन के छोटे बेटे का रिश्ता तय हुआ है.’’

एक बार फिर शिवचरण खुद को पराजित महसूस कर रहे थे.

वह अपनी गलती का प्रायश्चित्त करना चाह रहे थे मगर उन्हें मौका न मिला. सच ही है, कुछ भूलें ऐसी होती हैं जिन को भुगतना ही पड़ता है.

‘‘फोन की घंटी बज रही थी. शिवचरण ने फोन उठाया, ‘‘हैलो.’’

‘‘नमस्ते, मामाजी,’’ दूसरी ओर से अजय की आवाज आई, ‘‘वह जो आप ने मधु के लिए वैवाहिक विज्ञापन देने को कहा था, उसी का मैटर कनफर्म करने को फोन किया है…पढ़ता हूं…कोई सुधार करना हो तो बताइए :

‘‘अग्रवाल, उच्च शिक्षित, 23, 5 फुट 4 इंच, गृहकार्य दक्ष, संस्कारी कन्या हेतु सजातीय वर चाहिए.’’

‘‘बाकी सब ठीक है, अजय. बस, ‘अग्रवाल’ लिखना जरूरी नहीं और ‘सजातीय’ शब्द की जगह लिखो, ‘जातिधर्म बंधन नहीं.’’’

‘‘मगर मामाजी, क्या आप ने सगेसंबंधियों से इस बारे में…’’

‘‘सगेसंबंधी जाएं भाड़ में….’’ शिवचरण फोन पर चीख पडे़.

‘‘और मामीजी…’’

‘‘तेरी मामी जाए चूल्हे में…अब मैं वही करूंगा जो मेरी बेटी के लिए सही होगा.’’

शिवचरण ने फोन रख दिया…फोन रख कर उन्हें लगा जैसे आज वह खुल कर सांस ले पा रहे हैं और अपने चारों तरफ लिपटे धूल भरे मकड़जाल को उन्होंने उतार फेंक दिया.

Latest Hindi Stories : सीप में बंद मोती

Latest Hindi Stories : फोटो में अरुणा के सौंदर्य को देख कर आलोक बहुत खुश था. लेकिन शादी के बाद अरुणा के सांवले रंग को देख कर उस के भीतर हीनभावना घर कर गई. जब उसी सांवलीसलोनी अरुणा के गुणों का दूधिया उजाला फूटने लगा तो उस की आंखें चौंधिया सी गईं.

टन…टन…दफ्तर की घड़ी ने साढ़े 4 बजने की सूचना दी तो सब एकएक कर के उठने लगे. आलोक ने जैसे यह आवाज सुनी ही नहीं.

‘‘चलना नहीं है क्या, यार?’’ नरेश ने पीठ में एक धौल मारी तो वह चौंक गया, ‘‘5 बज गए क्या?’’

‘‘कमाल है,’’ नरेश बोला, ‘‘घर में नई ब्याही बीवी बैठी  है और पति को यह भी पता नहीं कि 5 कब बज गए. अरे मियां, तुम्हारे तो आजकल वे दिन हैं जब लगता है घड़ी की सुइयां खिसक ही नहीं रहीं और कमबख्त  5 बजने को ही नहीं आ रहे, पर एक तुम हो कि…’’

नरेश के व्यंग्य से आलोक के सीने में एक चोट सी लगी. फिर वह स्वयं को संभाल कर बोला, ‘‘मेरा कुछ काम अधूरा पड़ा है, उसे पूरा करना  है. तुम चलो.’’

नरेश चल पड़ा. आलोक गहरी सांस ले कर कुरसी से टिक गया और सोचने लगा. वह नरेश को कैसे बताता कि नईनवेली बीवी है तभी तो वह यहां बैठा है. उस  के अंदर की उमंग जैसे मर सी गई है. पिताजी को भी न जाने क्या सूझी कि उस के गले में ऐसी नकेल डाल दी जिसे न वह उतार सकता है और न खुश हो कर पहन सकता है. वह तो विवाह करना ही नहीं चाहता था. अकेले रहने का आदी हो गया था…विवाह की इच्छा ही नहीं होती थी.

उस ने कई शौक पाले हुए थे. शास्त्रीय संगीत  के महान गायकों के  कैसटों का  अनुपम खजाना था उस के पास जिन्हें सुनतेसुनते वह न जाने कहां खो जाता था. इस के अलावा अच्छा साहित्य पढ़ना, शहर में आयोजित सभी चित्रकला प्रदर्शनियां देखना, कवि सम्मेलनों आदि में भाग लेना उस के प्रिय शौक थे और इन सब में व्यस्त रह कर उस ने विवाह के बारे  में कभी सोचा भी न था.

ऐसे में पिताजी का पत्र आया था,  ‘आलोक, तुम्हारे लिए एक लड़की देखी है. अच्छे खानदान की, प्रथम श्रेणी में  एम.ए. है. मेरे मित्र की बेटी है. फोटो साथ भेज रहा हूं. मैं तो उन्हें हां कर चुका हूं. तुम्हारी स्वीकृ ति का इंतजार है.’

अनमना सा हो कर उस ने फोटो उठाया और गौर से देखने लगा था. तीखे नाकनक्श की एक आकर्षक मुखाकृति थी. बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें जैसे उस के सारे वजूद पर छा गई थीं और जाने किस रौ में उस ने वापसी डाक से ही पिताजी को अपनी स्वीकृति  भेज  दी थी.

पिताजी ने 1 माह बाद ही विवाह की तारीख नियत कर दी थी. उस के दोस्त  नरेश, विपिन आदि हैरान थे और उसे सलाह दे रहे थे  कि सिर्फ फोटो देख कर ही वह विवाह को कैसे राजी हो गया. कम से कम एक बार लड़की से रूबरू तो हो लेता. पर जवाब में वह हंस कर बोला था, ‘फोटो तो मैं ने देख ही लिया है. अब पिताजी लंगड़ीलूली बहू तो चुनेंगे नहीं.’

पर कितना गलत सोचा था उस ने. विवाह की प्रथम रात्रि को ही उस ने अरुणा के चेहरे पर  प्रथम दृष्टि डाली तो सन्न रह गया था. अरुणा की रंगत काफी सांवली थी. फिर तो वे बड़ीबड़ी भावप्रवण आंखें, जिन में वह अकसर कल्पना में डूबा रहता था, वे तीखे नाकनक्श जो धार की तरह सीधे उस के हृदय में उतर जाते थे, सब जैसे कपूर से  उड़ गए थे और रह गया था अरुणा का सांवला रंग.

अरुणा से तो उस ने कुछ नहीं कहा, पर सुबह पिताजी से लड़ पड़ा था, ‘कैसी लड़की देखी है आप ने मेरे लिए? आप पर भरोसा कर  के मैं ने बिना देखे ही विवाह के लिए हां कर दी थी और आप ने…’

‘क्यों, क्या कमी है लड़की में? लंगड़ीलूली है क्या?’ पिताजी टेढ़ी  नजरों से उसे देख कर बोले थे.

‘आप ने तो बस, जानवरों की तरह सिर्फ हाथपैरों की सलामती का ही ध्यान रखा. यह नहीं देखा कि उस का रंग कितना काला है.’

‘बेटे,’ पिताजी समझाते हुए बोले थे, ‘अरुणा अच्छे घर की सुशील लड़की है.

प्रथम श्रेणी में एम.ए. है. चाहो तो नौकरी करवा लेना. रंग का सांवला होना कोई बहुत बड़ी कमी नहीं है. और फिर अरुणा सांवली अवश्य है, पर काली नहीं.’

पिताजी और मां दोनों ने उसे अपने- अपने ढंग से समझाया था पर उस का आक्रोश कम न हुआ था. अरुणा के कानों में भी शायद इस वार्तालाप के  अंश पड़ गए थे. रात को वह धीमे स्वर में बोली थी, ‘शायद यह विवाह आप की इच्छा के विरुद्ध हुआ है…’

वह खामोश रहा था. 15 दिन बाद ही वह काम पर वापस आ गया था. अरुणा भी उस के साथ थी. कानपुर आ कर अरुणा ने उस की अस्तव्यस्त गृहस्थी को सुचारु रूप से समेट लिया था.

‘‘साहब, घर नहीं जाना क्या?’’

चपरासी दीनानाथ का स्वर कान में पड़ा तो उस की विचारतंद्रा टूटी. 6 बज चुके थे. वह उठ खड़ा हुआ . घर जाने का भी जैसे कोई उत्साह नहीं था उस के अंदर. उसे आए 15 दिन हो गए हैं. अभी तक उस के दोस्तों ने अरुणा को नहीं देखा है. जब भी वे घर आने की बात करते हैं वह कोई  न कोई बहाना बना कर टाल जाता है.

आखिर वह करे भी क्या? नरेश की बीवी सोनिया कितनी सुंदर है और आकर्षक भी. और विपिन की पत्नी कौन सी कम है. राजेश की पत्नी लीना भी कितनी गोरी और सुंदर है. अरुणा तो इन सब के सामने कुछ भी नहीं. उस के दोस्त तो पत्नियों को बगल में सजावटी वस्तु की तरह लिए घूमते हैं. एक वह है कि दिन के समय भी अरुणा को साथ ले कर बाहर नहीं निकलता. न जाने कैसी हीन ग्रंथि पनप रही है उस के अंदर. कैसी बेमेल जोड़ी है उन की.

घर पहुंचा तो अरुणा ने बाहर कुरसियां निकाली हुई थीं. तुरंत ही वह चाय और पोहा बना कर ले आई. वह खामोश चाय की चुसकियां ले रहा था. अरुणा उस के मन का हाल काफी हद तक समझ रही थी. उस ने छोटे से घर को तो अपने कुशल हाथों और कल्पनाशक्ति से सजा  रखा था पर पति के मन की थाह वह नहीं ले पा सकी थी.

छोटे से बगीचे से फूलपत्तियां तोड़ कर वह रोज पुष्पसज्जा करती. कई बार तो आलोक भी सजे हुए सुंदर से घर को देख कर हैरान रह जाता. तारीफ के बोल  उस के मुंह से निकलने को ही होते पर वह उन्हें अंदर ही घुटक लेता.

पाक कला में निपुण अरुणा रोज नएनए व्यंजन बनाती. उस की तो भूख जैसे दोगुनी हो गई थी. नहाने जाता तो स्नानघर में कपड़े, तौलिया, साबुन सब करीने से सजे मिलते. यह सब देख कर  मन ही  मन अरुणा के प्रति प्यार और स्नेह के अंकुर से फूटने लगते, पर फिर उसी क्षण वही पुरानी कटुता उमड़ कर सामने आ जाती और वह सोचता, ये काम तो कोई नौकर भी कर सकता है.

एक दिन वह दफ्तर से आ कर बैठा ही था कि नरेश, विवेक, राजेश सजीधजी  पत्नियों के साथ उस के घर आ धमके. नरेश बोला, ‘‘आज पकड़े गए, जनाब.’’

उन सब के चेहरे देख कर एक बार तो आलोक सन्न सा रह गया. क्या सोचेंगे ये सब अरुणा को देख कर? क्या यही रूप की रानी थी, जिसे अब तक उस ने छिपा कर रखा हुआ था? पर मन के भाव छिपा कर वह चेहरे पर मुसकान ले आया और बोला, ‘‘आओआओ, यार, धन्यवाद जो तुम सब इकट्ठे आए.’’

‘‘आज तो खासतौर से भाभीजी से मिलने आए हैं,’’ विवेक  बोला और फिर सब बैठक में आ गए. सुघड़ता और कलात्मकता से सजी बैठक में आ कर सभी नजरें घुमा कर सजावट देखने लगे. राजेश बोला, ‘‘अरे वाह, तेरे घर का तो कायाकल्प हो गया है, यार.’’

तभी अंदर से अरुणा मुसकराती हुई आई और सब को नमस्ते कर के बोली, ‘‘बैठिए, मैं आप लोगों के लिए चाय लाती हूं.’’

‘‘आप भी क्या सोचती होंगी कि आप के पति के कैसे दोस्त हैं जो अब तक मिलने भी नहीं आए पर इस में हमारा कुसूर नहीं है. आलोक ही बहाने बनाबना कर हमें आने से रोकता रहा.’’

‘‘अरुणा, तुम्हारी पुष्पसज्जा तो गजब की है,’’ सोनिया प्रंशासात्मक स्वर में बोली, ‘‘हमारे बगीचे में भी फूल हैं पर   मुझे सजाने का तरीका ही नहीं आता. तुम सिखा देना मुझे.’’

‘‘इस में सिखाने जैसी तो कोई बात ही नहीं,’’ अरुणा संकुचित हो उठी. वह रसोई में चाय बनाने चली गई.  कुछ ही देर में प्लेटों में गरमागरम ब्रेडरोल और गुलाबजामुन ले आई.

‘‘आप इनसान हैं या मशीन?’’ विवेक हंसते हुए बोला, ‘‘कितनी जल्दी सबकुछ तैयार कर लिया.’’

‘‘अब आप लोग गरमागरम खाइए मैं ब्रेडरोल तलती जा रही हूं.’’

1 घंटे बाद जब सब जाने लगे तो नरेश आलोक को कोहनी मार कर बोला, ‘‘वाकई यार, तू ने बड़ी सुघड़ और अच्छी बीवी पाई है.’’

आलोक समझ नहीं पाया, नरेश सच बोल रहा है या मजाक कर रहा है. जाते समय सब आलोक और अरुणा को आमंत्रित करने लगे  तो आलोक बोला, ‘‘दिन तय मत करो, यार, जब फुरसत होगी आ जाएंगे और फिर  खाना खा कर ही आएंगे.’’

‘‘फिर तो तुम्हें फीकी मूंग की दाल और रोटी ही मिलेगी,’’ विवेक हंसता हुआ बोला, ‘‘हमारी पत्नी का तो लगभग रोज का यही घिसापिटा मीनू है.’’

‘‘और कहीं हमारे यहां खिचड़ी  ही न बनी हो. सोनिया जब भी थकी होती है खिचड़ी ही बनाती है. वैसे अकसर यह थकी ही रहती है,’’ नरेश टेढ़ी नजरों से सोनिया को देख कर बोला.

सब चले गए तो अरुणा बिखरा घर सहेजने लगी और आलोक आरामकुरसी पर पसर गया. उस ने कनखियों से अरुणा को देखा, क्या सचमुच उसे  सुघड़ और बहुत अच्छी पत्नी मिली है? क्या सचमुच उस के दोस्तों को उस के जीवन पर रश्क है? उस के मन में अंतर्द्वंद्व सा चल रहा था. उसे अरुणा पर दया सी आई. 2 माह होने को हैं. उस ने अरुणा को कहीं घुमाया भी नहीं है. कभी घूमने निकलते भी हैं तो रात को.

एक दिन शाम को आलोक दफ्तर  से आया तो बोला, ‘‘अरुणा, झटपट तैयार हो जाओ, आज नरेश के घर चलते हैं.’’

अरुणा ने हैरानी से उसे देखा और फिर खामोशी से तैयार होने चल पड़ी.  थोड़ी देर में ही वह तैयार हो कर आ गई. जब वे नरेश के घर पहुंचे तो अंदर से जोरजोेर से आती आवाज से चौंक कर दरवाजे पर ही रुक गए. नरेश चीख रहा था, ‘‘यह घर है या नरक, मेरे जरूरी कागज तक तुम संभाल कर नहीं रख सकतीं. मुन्ने ने सब फाड़ दिए हैं. कैसी जाहिल औरत हो, कौन तुम्हें पढ़ीलिखी कहेगा?’’

‘‘जाहिल हो तुम,’’ सोनिया का तीखा स्वर गूंजा, ‘‘मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं जो तुम्हारा बिखरा सामान ही सारा दिन सहेजती रहूं.’’

बाहर खड़े अरुणा और आलोक संकुचित से हो उठे. ऐसे हालात में वे कैसे अंदर जाएं, समझ नहीं पा रहे थे. फिर आलोक ने  गला खंखार कर दरवाजे पर लगी घंटी बजाई. दरवाजा सोनिया ने खोला. बिखरे बाल, मटमैली सी सलवटों वाली साड़ी और  मेकअपविहीन चेहरे  में वह काफी फूहड़ और भद्दी लग रही थी. आलोक ने हैरानी से सोनिया को देखा. सोनिया संभल कर बोली, ‘‘आइए… आइए, आलोकजी,’’ और वह अरुणा का हाथ थाम कर अंदर ले आई.

उन्हें सामने देख नरेश झेंप सा गया और वह सोफे पर बिखरे कागजों  को समेट कर बोला, ‘‘आओ…आओ, आलोक, आज कैसे रास्ता भूल गए?’’

आलोक और अरुणा सोफे पर बैठ गए. आलोक ने नजरें घुमा कर देखा, सारी बैठक अस्तव्यस्त थी. बच्चों के खिलौने, पत्रिकाएं, अखबार, कपड़े इधरउधर पड़े थे. हालांकि नरेश के घर आलोक पहले भी आता था, पर अरुणा के आने के बाद वह पहली बार यहां आया था. इन 2 माह में ही अरुणा  के कारण व्यवस्थित रूप से सजेधजे घर में रहने से उसे नरेश का घर बड़ा ही बिखरा और अस्तव्यस्त लग रहा  था.

अनजाने ही वह सोनिया और अरुणा की तुलना करने लगा. सोनिया नरेश से किस तरह जबान लड़ा रही थी. घर भी कितना गंदा रखा हुआ है. स्वयं भी किस कदर फूहड़ सी बनी हुई है. क्या फायदा ऐसे मेकअप और लीपापोती का जिस के उतरते ही औरत कलईर् उतरे बरतन सी बेरंग, बेरौनक नजर आए.

इस  के विपरीत अरुणा कितनी सभ्य और सुसंस्कृत है. उस के साथ कितनी शालीनता से बात करती है. अपने सांवले रंग पर फबने वाले हलके रंग के कपड़े कितने सलीके से पहन कर जैसे हमेशा तैयार सी रहती है. घर भी कितना साफ रखती है. लोग जब उस के घर की तारीफ करते हैं तब गर्व से उस का सीना  भी फूल जाता है.

तभी सोनिया चाय और एक प्लेट में भुजिया लाई तो नरेश बोला, ‘‘अरे, आलोक और उस की पत्नी पहली बार घर आए हैं, कुछ खातिर करो.’’

‘‘अब घर में तो कुछ है नहीं. आप झटपट जा कर बाजार  से ले आओ.’’

‘‘नहीं…नहीं,’’ आलोक बोला, ‘‘इस समय कुछ खाने की इच्छा भी नहीं है,’’ मन ही मन वह सोच रहा था, अरुणा मेहमानों के सामने हमेशा कोई न कोई घर की बनी हुई चीज अवश्य रखती है. जो खाता है, तारीफ किए बिना नहीं रहता. कुछ देर बैठ कर आलोक और अरुणा ने उन से विदा ली. बाहर आ कर आलोक बोला, ‘‘रास्ते में विवेक का घर भी पड़ता है. जरा उस के यहां भी हाजिरी लगा लें.’’

चलतेचलते उस ने अरुणा का हाथ अपने हाथों में ले लिया. अरुणा हैरानी से उसे देखने लगी. सदा उस की उपेक्षा करने वाले पति का यह अप्रत्याशित व्यवहार उस की समझ में नहीं आया.

विवेक के घर जब वे पहुंचे तो दरवाजा खटखटाने पर तौलिए से हाथ पोंछता विवेक रसोई  से निकला और उन्हें  देख कर शर्मिंदा सा हो कर बोला, ‘‘अरे वाह, आज तो जाने सूरज कहां से निकला जो तुम  लोग हमारे घर आए हो.’’

विवेक  के घर का भी वही हाल था.  बैठक इस तरह से अस्तव्यस्त थी  जैसे  अभी तूफान आ कर गुजरा हो. विवेक पत्रिकाएं समेटता हुआ बोला, ‘‘आप लोग बैठो, मैं चाय बनाता हूं. नीलम तो लेडीज क्लब गई हुईर् है.’’

पत्नी क्लब में पति रसोई में. आलोक को मन ही मन हंसी आ गई. तभी अरुणा खड़े हो कर बोली, ‘‘आप बैठिए भाई साहब, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर अरुणा रसोई में चली गई.

तभी विवेक का 1 साल का बेटा भी उठ कर रोने लगा. विवेक उसे हिलाडुला कर चुप कराने का प्रयास करने लगा.

कुछ ही देर में अरुणा ट्रे में चाय और दूध की बोतल ले आई और बोली, ‘‘आप लोग चाय पीजिए, मैं मुन्ने  को दूध पिलाती हूं,’’ और विवेक के न न करते भी उस ने मुन्ने को अपनी गोद में लिटा लिया और बोतल से दूध पिलाने लगी. विवेक धीमे स्वर में आलोक से बोला, ‘‘यार, बीवी हो तो तुम्हारे जैसी, दूसरों  का घर भी कितनी अच्छी तरह संभाल लिया. एक हमारी मेम साहब हैं, अपना घर भी नहीं संभाल सकतीं. घर आओ तो पता चलता है किट्टी पार्टी  में गई हैं या क्लब में. मुन्ना आया के भरोसे रहता है.’’

उस दिन आलोक देर रात तक सो नहीं सका. वह सोच में निमग्न था. उसे तो अपनी पत्नी के सांवले रंग पर शिकायत थी पर यहां तो उस के दोस्तों को अपनी गोरीचिट्टी बीवियों से हर बात पर शिकायत है.

इतवार के दिन सभी दोस्तों ने आलोक की शादी की खुशी में पिकनिक का आयोजन  किया था. विवेक, राजेश, नरेश, विपिन सभी शरीक थे इस पिकनिक में.

खानेपीने का सामान आलोक के दोस्त लाए थे. आलोक को उन्होंने कुछ भी लाने से मना कर दिया था, पर फिर भी अरुणा ने मसालेदार छोले बना लिए  थे. सभी छोलों को  चटकारे लेले कर खा रहे थे. आलोक हैरानी से देख रहा था कि अरुणा ही सब के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी. सोनिया उस से बुनाई डालना सीख रही थी तो नीलम उस  के घने लंबे बालों का राज पूछ रही थी. राजेश की पत्नी लीना उस से मसालेदार छोले बनाने की विधि पूछ रही थी. तभी विवेक बोला, ‘‘अरुणा भाभी, चाय तो आप के हाथ की ही पिएंगे. उस दिन आप की बनाई चाय का स्वाद अभी तक जबान पर है.’’

लीना, सोनिया, नीलम आदि ताश खेलने लगीं और अरुणा स्टोव जला कर चाय बनाने लगी. विवेक भी उस का हाथ बंटाने लगा. चाय की चुसकियों के साथ एक बार फिर  अरुणा की तारीफ शुरू हो गई. चाय खत्म होते ही विवेक बोला, ‘‘अब अरुणा भाभी एक गाना सुनाएंगी.’’

‘‘मैं…मैं…यह आप क्या कह रहे हैं, भाई साहब?’’

‘‘ठीक कह रहा हूं,’’ विवेक बोला, ‘‘आप बेध्यानी में चाय बनाते समय गुनगुना रही थीं. मैं ने पीछे से सुन लिया था. अब कोईर् बहाना नहीं चलेगा. आप को गाना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां…हां…’’ सब समवेत स्वर में बोले. मजबूरन अरुणा को गाने के लिए हां भरनी पड़ी. उस ने एक गाना गाना शुरू कर दिया. झील का खामोश किनारा उस की मीठी आवाज से गूंज उठा. सभी मंत्रमुग्ध से उस का गाना सुन रहे थे. आलोक भी हैरान था. अरुणा इतना अच्छा गा लेती है, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. बड़े ही मीठे स्वर में वह गा रही थी. गाना खत्म हुआ तो सब ने तालियां बजाईं. अरुणा संकुचित हो उठी. आलोक गहराई से अरुणा को देख रहा था.

उसे लगा अरुणा इतनी सांवली नहीं  है जितनी वह सोचता है. उस की आंखें काफी बड़ी और भावपूर्ण हैं. गठा हुआ बदन, सदा मुसकराते से होंठ एक खास किस्म की शालीनता से भरा हुआ व्यक्तित्च. वह तो सब से अलग है. उस की आंखों पर अब तक जाने कौन सा परदा पड़ा हुआ था जिस के आरपार वह देख नहीं पा रहा था. उस की गहराई में तो गया ही नहीं था जहां अरुणा अपने इस रूपगुण के साथ मौजूद थी, सीप में बंद मोती की तरह.

एक उस के सांवले रंग की ही आड़ ले कर बाकी सभी गुणों को वह अब तक नजरअंदाज करता रहा था. अगर गोरा रंग ही खुशी और सुखमय वैवाहिक जीवन का आधार होता तो उस के दोस्त शायद खुशियों के सैलाब में डूबे होते, पर ऐसा कहां है?

पिकनिक के बाद थकेहारे शाम को वे  घर लौटे तो आलोक क ो अपेक्षाकृत प्रसन्न और मुखर देख कर अरुणा विस्मित सी थी. घर में खामोशी की चादर ओढ़ने  वाला आलोक  आज खुल कर बोल रहा था. कुछ हिम्मत कर के अरुणा बोली, ‘‘क्या बात है? आज आप काफी प्रसन्न नजर आ रहे हैं.’’

Famous Hindi Stories : लूडो की बाजी – जब एक खेल बना दो परिवारों के बीच लड़ाई की वजह

Famous Hindi Stories :  सुबीर और अनु लूडो खेल रहे थे. सुबीर की लाल गोटियां थीं और अनु की नीली. पर पता नहीं क्या बात थी कि सुबीर की गोटियां बारबार अनु की गोटियों से पिट रही थीं. जैसे ही कोई लाल गोटी जरा सा आगे बढ़ती, नीली गोटी झट से आ कर उसे काट देती. जब लगातार 5वीं बार ऐसा हुआ तो सुबीर चिढ़ गया, ‘‘तू हेराफेरी कर रहा है,’’ वह अनु से बोला.

‘‘वाह, मैं क्या कर रहा हूं…तुझे ठीक से खेलना ही नहीं आता, तभी तो हार रहा है. ले बच्चू, यह गई तेरी एक और गोटी,’’ अनु ताली बजाता हुआ बोला.

सुबीर का धैर्य अब समाप्त हो गया. लाख कोशिश करने पर भी उस की आंखों में आंसू आ ही गए.

‘‘रोंदू, रोंदू,’’ अनु उसे अंगूठा दिखाता हुआ बोला, ‘‘यह ले, मेरी दूसरी गोटी भी पार हो गई. यह ले, अब फिर से आ गए 6.’’

सुबीर उठ कर खड़ा हो गया, ‘‘मैं नहीं खेलता तेरे साथ, तू हेराफेरी करता है.’’

जीतती बाजी का ऐसा अंत होते देख कर अनु को भी क्रोध आ गया. उस ने सुबीर को एक घूंसा दे मारा.

अब घूंसा खा कर चुप रहने वाला सुबीर भी नहीं था. सो हो गई दोनों की जम कर हाथापाई. सुबीर ने अनु के बाल नोचे तो अनु ने उस की कमीज फाड़ दी. दोनों गुत्थमगुत्था होते हुए कोने में पड़ी हुई मेज से जा टकराए. सुबीर की तो पीठ थी मेज की ओर, सो उसे अधिक चोट नहीं आई, पर अनु का सिर मेज के नुकीले कोने पर जा लगा. उस के सिर में घाव हो गया और खून बहने लगा. खून देखते ही अनु चीखने लगा, ‘‘मां, मां, सुबीर मुझे मार रहा है.’’

खून देख कर अनु की मां घबरा गईं, ‘‘क्या हुआ मेरे बच्चे?’’

‘‘मां, सुबीर ने मेरी लूडो फाड़ दी और मुझे मारा भी है. मां, सिर में बहुत दर्द हो रहा है,’’ अनु सिसकता हुआ बोला.

यह सब सुन कर अनु की मां सुबीर पर बरस पड़ीं, ‘‘जंगली कहीं का…मांबाप ने घर पर कुछ नहीं सिखाया क्या? खबरदार, इस ओर दोबारा कदम रखा तो…’’

सुबीर को बहुत गुस्सा आया कि अपने बेटे को तो कुछ कहा नहीं और मुझे डांट दिया. वह गुस्से से बोला, ‘‘आप का बेटा जंगली है. आप भी जंगली हैं. सारी कालोनी वाले कहते हैं कि आप झगड़ालू हैं.’’

‘‘बड़ों से बात करने तक की तमीज नहीं तुझे,’’ अनु की मां अपनी निंदा सुन कर चीखीं और उन्होंने सुबीर के गाल पर एक तमाचा दे मारा.

गाल पर हाथ रख कर सुबीर सीधा अपनी मां के पास गया. उस ने खूब बढ़ाचढ़ा कर सारा किस्सा सुनाया. सुन कर सुबीर की मां को भी क्रोध आ गया. उन्होंने भी अपने बेटे से कह दिया, ‘‘ऐसे लोगों के घर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है.’’

इस के बाद दोनों घरों की बोलचाल बंद हो गई.

वार्षिक परीक्षाएं आने वाली थीं, सो सुबीर और अनु ने सारा समय पढ़नेलिखने में लगा दिया. पर इस के बाद जब छुट्टियां आरंभ हुईं तो दोनों ऊबने लगे. अनु अपनी मां के साथ लूडो खेलने का प्रयत्न करता, पर वैसा मजा ही नहीं आता था जो सुबीर के साथ खेलने में आता था.

सुबीर अपने पिताजी के साथ क्रिकेट खेलता तो उसे भी बिलकुल आनंद नहीं आता था. वे स्वयं ही जानबूझ कर जल्दी ‘आउट’ हो जाते, परंतु सुबीर का शतक अवश्य बनवा देते.

सुबीर और अनु दोनों ही अब पछताने लगे कि नाहक बात बढ़ाई. एक दिन अनु ने देखा कि सुबीर दोनों घरों के बीच बनी बाड़ के पास बैठ कर कंचे खेल रहा है. अनु भी चुपचाप अपने कंचे ले कर अपनी बाड़ के पास बैठ कर खेलने लगा. कुछ देर दोनों चुपचाप खेलते रहे. फिर अनु ने देखा सुबीर का एक कंचा उस के बगीचे में आ गया है. उस ने कंचा उठा कर सुबीर को देते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारा है.’’

सुबीर भी बात करने का बहाना ढूंढ़ रहा था, तपाक से बोला, ‘‘कंचे खेलोगे?’’

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा. मैदान साफ पा कर वह बाड़ में से निकल कर सुबीर के बगीचे में पहुंच गया. थोड़ी देर बाद जब सुबीर की मां ने पुकारा तो वह चुपचाप वहां से खिसक कर अपने बगीचे में आ गया.

यह तरीका दोनों को ठीक लगा. अब जब भी अवसर मिलता, दोनों एकसाथ खेलते. मित्र के साथ खेलने का आनंद ही कुछ और होता है. अब बस, एक ही परेशानी थी कि उन्हें डरडर कर खेलना पड़ता था.

‘‘कितना अच्छा हो यदि हमारे माता- पिता भी फिर से मित्र बन जाएं,’’ एक दिन अनु बोला.

‘‘पर यह कैसे संभव होगा, समझ में नहीं आता. मैं तो अपने मातापिता के सामने तेरा नाम लेने से भी डरता हूं,’’ सुबीर उदास हो कर बोला.

एक दिन सुबह का समय था. सुबीर घर पर अकेला था. वह एक पुस्तक ले कर पेड़ पर चढ़ गया और पढ़ने लगा.

अचानक ‘धड़ाम’ की आवाज हुई. अनु ने आवाज सुनी तो वह तेजी से बाहर भागा. उस ने देखा कि सुबीर जमीन पर पड़ा कराह रहा है. वह तेजी से उस के पास गया और उसे खड़ा करने का प्रयत्न करने लगा.

‘‘अनु, मेरी पीठ में जोर की चोट लगी है. बहुत दर्द हो रहा है,’’ सुबीर दर्द से परेशान हो कर बोला.

अनु ने एक क्षण इधरउधर देखा, फिर जल्दी से बोला, ‘‘तुम हिलना मत, मैं सहायता के लिए अभी किसी को बुला कर लाता हूं.’’

अनु सीधा अपनी मां के पास गया और बोला, ‘‘मां, जल्दी चलो, सुबीर को बहुत चोट लगी है. उस की मां भी घर पर नहीं हैं…उसे बहुत दर्द हो रहा है.’’

अनु की मां सुबीर को गोद में उठा कर अंदर ले गईं. फिर उस की टांगों और बांहों की खरोंचों को साफ कर उन पर दवा लगा दी. अभी वे उस की पीठ पर मरहम लगा ही रही थीं कि सुबीर की मां बाजार से लौट आईं.

सुबीर के इर्दगिर्द कई लोगों को देख कर वे घबरा गईं. अनु उन को देखते ही बोला, ‘‘चाचीजी, सुबीर को बहुत दर्द हो रहा है, इसे जल्दी से अस्पताल ले चलिए,’’ उस की आंखों में आंसू तैर रहे थे.

सुबीर की मां अनु के सिर पर प्यार से हाथ फेरती हुई बोलीं, ‘‘अरे, बेटा, रोते नहीं…सुबीर दोचार दिन में बिलकुल ठीक हो जाएगा. तुम इसे देखने आया करोगे न?’’

अनु की आंखों में चमक आ गई. वह उत्सुकता से मां की ओर देखने लगा.

‘‘हां, यह अवश्य आएगा. अनु पास रहेगा तो सुबीर भी अपना दर्द भूल जाएगा,’’ अनु की मां बोलीं.

सुबीर की मां अनु की मां की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुईं. फिर बोलीं, ‘‘आप ने सुबीर की इतनी देखभाल की. उस के लिए बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘सुबीर भी तो मेरा ही बेटा है…जैसा अनु वैसा सुबीर. अपने बेटे के लिए कुछ करने के लिए धन्यवाद कैसा,’’ अनु की मां ने उत्तर दिया. थोड़ी देर बाद अनु और सुबीर जब अकेले रह गए तो अनु बोला, ‘‘तू पुस्तक पढ़तापढ़ता सो गया था क्या, एकदम से गिर कैसे गया?’’

‘‘जानबूझ कर गिरा था.’’

‘‘क्या?’’ अनु की आंखें आश्चर्य से फैल गईं, ‘‘जानता है, हड्डीपसली भी टूट सकती थी.’’

‘‘जानता हूं,’’ सुबीर गंभीरता से बोला, ‘‘पर मुझे उस का भी दुख न होता. अब हम सब फिर से मित्र बन गए हैं. तेरी मां ने मुझे कितना प्यार किया…’’

‘‘और तेरी मां ने मुझे…अब हम कभी झगड़ा नहीं करेंगे,’’ अनु भी गंभीर हो कर बोला.

‘‘हां, और क्या…खेल में हारजीत तो लगी ही रहती है. वास्तव में जीतने का मजा आता ही हारने के बाद है,’’ सुबीर बोला.

अनु को अब हंसी आ गई, ‘‘बड़ी बुद्धिमानी की बातें कर रहा है. अब कभी हारने पर रोएगा तो नहीं?’’

‘‘नहीं,’’ सुबीर भी हंसने लगा, ‘‘और न ही जीतने पर तुम्हें चिढ़ाऊंगा.’’

दोनों मित्र एक बार फिर मिल कर लूडो खेलने लगे.

Stories : कर्मफल – क्या हुआ था मुनीम के साथ

Stories :  गांव की एक कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती सूरज की गाड़ी ईंटभट्ठे पर पहुंची. मुनीम उसे दफ्तर में ले आया. कुछ समय तक सूरज ने फाइलें देखीं, फिर मुनीम उसे भट्ठे का मुआयना कराने लगा, ताकि वह भट्ठे के काम को समझ सके और सभी मजदूर भी अपने छोटे ठाकुर से परिचित हो जाएं.

चलतेचलते सूरज और मुनीम एक ओर गए, जहां कई औरतें मिट्टी गूंधने में मसरूफ थीं. सूरज की नजर खूबसूरत चेहरे, गदराए जिस्म, नशीली आंखों और संतरे की फांकों जैसे होंठों वाली एक लड़की पर जा टिकी.

‘‘मुनीमजी, हम पहली बार मिट्टी में गुलाब खिला हुआ देख रहे हैं,’’ सूरज ने उस लड़की के बदन का बारीकी से मुआयना करते हुए कहा.

‘‘हुजूर, यहां हर रोज आप को ऐसे ही गुलाब खिले मिलेंगे…’’ मुनीम ने भी चुटकी ली.

‘‘मुनीमजी, उस लड़की को कितनी तनख्वाह मिलती है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, वह तनख्वाह पर नहीं,

60 रुपए की दिहाड़ी पर काम करती है,’’ मुनीम ने बताया.

‘‘बस, 60 रुपए हर रोज… आप इतनी कम दिहाड़ी दे कर उस के हुस्न की तौहीन कर रहे हैं,’’ सूरज ने शिकायती अंदाज में कहा.

‘‘सभी मजदूरों की दिहाड़ी दीवाली पर बढ़ाई जाती है. पिछली दीवाली पर उस की दिहाड़ी 50 रुपए से 60 रुपए हो गई थी. अगली दीवाली पर 70 रुपए कर देंगे,’’ मुनीम ने कहा.

‘‘वह लड़की कितने दिनों से यहां काम कर रही है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, तकरीबन 3 साल से,’’ मुनीम ने जवाब दिया.

‘‘3 साल में हर मजदूर को तरक्की मिल जाती है, पर अब तक उस लड़की की तरक्की क्यों नहीं हुई?’’ सूरज ने नाराजगी जताई.

‘‘हुजूर, दीवाली पर उस का प्रमोशन कर देंगे,’’ मुनीम तुरंत बोला.

अगले पड़ाव पर काम में मसरूफ दूसरी लड़कियों पर नजर डालते हुए सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, ईंटों का यह बगीचा खूबसूरत फूलों से भरा पड़ा है.’’

‘‘हुजूर, यह बगीचा आप का ही है. मैं तो सिर्फ माली हूं. इस बगीचे का जो फूल आप के मन को भाया करे, तो गुलाम को हुक्म कर दें. उसे आप की सेवा के लिए हाजिर कर दिया जाएगा,’’ मुनीम बेहिचक बोला.

पहले तो सूरज ने तीखी नजरों से मुनीम को देखा, फिर एक आजाद कहकहा मार कर बोला, ‘‘आप का बड़ा पारखी दिमाग है. इतनी सी देर में आप हमारी इच्छाओं से वाकिफ हो गए.’’

सूरज के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर मुनीम के चेहरे पर मुसकान उभर आई.

सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, हम सब से पहले उस लड़की का प्रमोशन करना चाहते हैं, जिस की मदमस्त जवानी ने हमारे अंदर हलचल सी मचा दी है.’’

अगले दिन मुनीम ने उस लड़की को सूरज की हवेली में पहुंचा दिया.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ सूरज ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘सुमन…’’ उस लड़की ने शरमाते हुए अपना नाम बताया.

‘‘सुमन का मतलब जानती हो?’’ सूरज ने उस की तरफ बारीकी से नजर डालते हुए पूछा.

‘‘फूल…’’ सुमन बोली.

‘‘तुम भी फूल जैसी कोमल, खूबसूरत और महक वाली हो. तुम्हारे रूप के मुताबिक ही तुम्हारा काम होना चाहिए, इसीलिए तुम्हारे काम में बदलाव कर के तुम्हें तरक्की दे दी है. अब तुम भट्ठे पर काम करने के बजाय यहां का काम देखोगी,’’ सूरज ने उस को बताया.

सुमन अपने काम में मसरूफ हो गई और कुछ ही देर में सूरज के लिए कौफी बना लाई. कौफी का प्याला मेज पर रखने के लिए वह झुकी, तो उस के उभार बाहर झांकने लगे.

सुमन जैसे ही सीधी हुई, सूरज ने आ कर उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

‘‘छोटे ठाकुर, यह क्या कर रहे हैं आप? मैं गांव की लड़की हूं और यह सब नहीं करती,’’ सुमन सूरज की पकड़ से निकलने की कोशिश करने लगी.

सूरज ने बांहों का घेरा कस लिया और बोला, ‘‘शहर में यह सब आम बात है. तुम्हारी जवानी उफनती नदी की तरह है. मैं तुम्हारी जवानी के समंदर में डूब जाना चाहता हूं.’’

अगले ही पल सूरज की उंगलियां सुमन की छाती पर रेंगने लगीं.

‘‘ऐसा मत करो. गुदगुदी होती है,’’ सुमन ने एक अनोखी सी आह भरी. जब सूरज की छुअन से सुमन को मजा आने लगा, तो उस ने खुद को सूरज के हवाले कर दिया.

सूरज सुमन को बिस्तर पर ले गया. अगले ही पल एकएक कर के सुमन की देह से सारे कपड़े अलग होते चले गए. 2 जवान देहों के टकराने से उठा तूफान तब थमा, जब दोनों जिस्म थक कर निढाल पड़ गए.

मुनीम की मदद से सूरज की इन हरकतों को बढ़ावा मिलता रहा.

एक दिन मुनीम के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई, जब सूरज की नजर उस की जवान बेटी पर रुकी. वह किसी काम के सिलसिले में मुनीम के पास आई थी.

‘‘मुनीमजी, इस भट्ठे पर हम पहली बार इस लड़की को देख रहे हैं. अब तक उसे कहां छिपा कर रखा था?’’ सूरज ने बेहिचक पूछा.

‘‘छोटे ठाकुर, यह मेरी बेटी पुष्पा है,’’ मुनीम के चेहरे का रंग उतर गया.

‘‘मुनीमजी, पुष्पा हो या सुमन, एक ही बात है. दोनों का मतलब एक ही होता है… फूल. और तुम यह बात अच्छी तरह जानते हो कि हम खूबसूरत फूलों के बहुत शौकीन हैं. जो फूल हमें अच्छा लगता है, उसे सूंघते जरूर हैं,’’ सूरज ने कहा.

मुनीम का दिल धक से रह गया. उस ने एक बार फिर से याद कराया, ‘‘छोटे ठाकुर, पुष्पा मेरी बेटी है.’’

‘‘सुमन भी किसी की बेटी थी,’’ सूरज ने ताना कसा.

मुनीम को वहां से खिसकने में देर न लगी. लेकिन उस के कानों में सूरज के बोलने की आवाज आती रही, ‘‘मुनीमजी, मेरी बातों की टैंशन मत लेना. आज मुझे शराब कुछ ज्यादा चढ़ गई है, इसलिए जबान काबू में नहीं है.’’

मुनीम तेज कदमों से अपनी बेटी के साथ दफ्तर से बाहर निकल आया.

एक दिन अनहोनी घटना घट गई. उस दिन मुनीम ईंटभट्ठे से घर लौटा, तो चौंक पड़ा. मुनीम ने सूरज को घर से बाहर निकलते देखा.

मुनीम के चेहरे पर चिंता के भाव उभर आए. उस के कदम घर में घुसने के लिए तेजी से बढ़े.

पुष्पा दीवार से टेक लगाए बैठी सुबक रही थी. यह नागवार नजारा देख कर मुनीम गश खा कर कटे पेड़ की तरह धड़ाम से फर्श पर गिर पड़ा.

लेखक- अंसारी एम. जाकिर

Storytelling : कामयाब

Storytelling :  हमेशा जिंदादिल और खुशमिजाज रमा को अंदर आ कर चुपचाप बैठे देख चित्रा से रहा नहीं गया, पूछ बैठी, ‘‘क्या बात है, रमा…?’’

‘‘अभिनव की वजह से परेशान हूं.’’

‘‘क्या हुआ है अभिनव को?’’

‘‘वह डिपे्रशन का शिकार होता जा रहा है.’’

‘‘पर क्यों और कैसे?’’

‘‘उसे किसी ने बता दिया है कि अगले 2 वर्ष उस के लिए अच्छे नहीं रहेंगे.’’

‘‘भला कोई भी पंडित या ज्योतिषी यह सब इतने विश्वास से कैसे कह सकता है. सब बेकार की बातें हैं, मन का भ्रम है.’’

‘‘यही तो मैं उस से कहती हूं पर वह मानता ही नहीं. कहता है, अगर यह सब सच नहीं होता तो आर्थिक मंदी अभी ही क्यों आती… कहां तो वह सोच रहा था कि कुछ महीने बाद दूसरी कंपनी ज्वाइन कर लेगा, अनुभव के आधार पर अच्छी पोस्ट और पैकेज मिल जाएगा पर अब दूसरी कंपनी ज्वाइन करना तो दूर, इसी कंपनी में सिर पर तलवार लटकी रहती है कि कहीं छटनी न हो जाए.’’

‘‘यह तो जीवन की अस्थायी अवस्था है जिस से कभी न कभी सब को गुजरना पड़ता है, फिर इस में इतनी हताशा और निराशा क्यों? हताश और निराश व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता. जीवन में सकारात्मक ऊर्जा लाने के लिए सोच भी सकारात्मक होनी चाहिए.’’

‘‘मैं और अभिजीत तो उसे समझासमझा कर हार गए,’’ रमा बोली, ‘‘तेरे पास एक आस ले कर आई हूं, तुझे मानता भी बहुत है…हो सकता है तेरी बात मान कर शायद मन में पाली गं्रथि को निकाल बाहर फेंके.’’

‘‘तू चिंता मत कर,’’ चित्रा बोली, ‘‘सब ठीक हो जाएगा… मैं सोचती हूं कि कैसे क्या कर सकती हूं.’’

घर आने पर रमा द्वारा कही बातें चित्रा ने विकास को बताईं तो वह बोले, ‘‘आजकल के बच्चे जराजरा सी बात को दिल से लगा बैठते हैं. इस में दोष बच्चों का भी नहीं है, दरअसल आजकल मीडिया या पत्रपत्रिकाएं भी इन अंधविश्वासों को बढ़ाने में पीछे नहीं हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो विभिन्न चैनलों पर गुरुमंत्र, आप के तारे, तेज तारे, ग्रहनक्षत्र जैसे कार्यक्रम प्रसारित न होते तथा पत्रपत्रिकाओं के कालम ज्योतिषीय घटनाओं तथा उन का विभिन्न राशियों पर प्रभाव से भरे नहीं रहते.’’

विकास तो अपनी बात कह कर अपने काम में लग गए पर चित्रा का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार रमा की बातें उस के दिलोदिमाग में घूम रही थीं. वह सोच नहीं पा रही थी कि अपनी अभिन्न सखी की समस्या का समाधान कैसे करे. बच्चों के दिमाग में एक बात घुस जाती है तो उसे निकालना इतना आसान नहीं होता.

उन की मित्रता आज की नहीं 25 वर्ष पुरानी थी. चित्रा को वह दिन याद आया जब वह इस कालोनी में लिए अपने नए घर में आई थी. एक अच्छे पड़ोसी की तरह रमा ने चायनाश्ते से ले कर खाने तक का इंतजाम कर के उस का काम आसान कर दिया था. उस के मना करने पर बोली, ‘दीदी, अब तो हमें सदा साथसाथ रहना है. यह बात अक्षरश: सही है कि एक अच्छा पड़ोसी सब रिश्तों से बढ़ कर है. मैं तो बस इस नए रिश्ते को एक आकार देने की कोशिश कर रही हूं.’

और सच, रमा के व्यवहार के कारण कुछ ही समय में उस से चित्रा की गहरी आत्मीयता कायम हो गई. उस के बच्चे शिवम और सुहासिनी तो रमा के आगेपीछे घूमते रहते थे और वह भी उन की हर इच्छा पूरी करती. यहां तक कि उस के स्कूल से लौट कर आने तक वह उन्हें अपने पास ही रखती.

रमा के कारण वह बच्चों की तरफ से निश्ंिचत हो गई थी वरना इस घर में शिफ्ट करने से पहले उसे यही लगता था कि कहीं इस नई जगह में उस की नौकरी की वजह से बच्चों को परेशानी न हो.

विवाह के 11 वर्ष बाद जब रमा गर्भवती हुई तो उस की खुशी की सीमा न रही. सब से पहले यह खुशखबरी चित्रा को देते हुए उस की आंखों में आंसू आ गए. बोली, ‘दीदी, न जाने कितने प्रयत्नों के बाद मेरे जीवन में यह खुशनुमा पल आया है. हर तरह का इलाज करा लिया, डाक्टर भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे क्योंकि हर जांच सामान्य ही निकलती… हम निराश हो गए थे. मेरी सास तो इन पर दूसरे विवाह के लिए जोर डालने लगी थीं पर इन्होंने किसी की बात नहीं मानी. इन का कहना था कि अगर बच्चे का सुख जीवन में लिखा है तो हो जाएगा, नहीं तो हम दोनों ऐसे ही ठीक हैं. वह जो नाराज हो कर गईं, तो दोबारा लौट कर नहीं आईं.’

आंख के आंसू पोंछ कर वह दोबारा बोली, ‘दीदी, आप विश्वास नहीं करेंगी, कहने को तो यह पढ़ेलिखे लोगों की कालोनी है पर मैं इन सब के लिए अशुभ हो चली थी. किसी के घर बच्चा होता या कोई शुभ काम होता तो मुझे बुलाते ही नहीं थे. एक आप ही हैं जिन्होंने अपने बच्चों के साथ मुझे समय गुजारने दिया. मैं कृतज्ञ हूं आप की. शायद शिवम और सुहासिनी के कारण ही मुझे यह तोहफा मिलने जा रहा है. अगर वे दोनों मेरी जिंदगी में नहीं आते तो शायद मैं इस खुशी से वंचित ही रहती.’

उस के बाद तो रमा का सारा समय अपने बच्चे के बारे में सोचने में ही बीतता. अगर कुछ ऐसावैसा महसूस होता तो वह चित्रा से शेयर करती और डाक्टर की हर सलाह मानती.

धीरेधीरे वह समय भी आ गया जब रमा को लेबर पेन शुरू हुआ तो अभिजीत ने उस का ही दरवाजा खटखटाया था. यहां तक कि पूरे समय साथ रहने के कारण नर्स ने भी सब से पहले अभिनव को चित्रा की ही गोदी में डाला था. वह भी जबतब अभिनव को यह कहते हुए उस की गोद में डाल जाती, ‘दीदी, मुझ से यह संभाला ही नहीं जाता, जब देखो तब रोता रहता है, कहीं इस के पेट में तो दर्द नहीं हो रहा है या बहुत शैतान हो गया है. अब आप ही संभालिए. या तो यह दूध ही नहीं पीता है, थोड़ाबहुत पीता है तो वह भी उलट देता है, अब क्या करूं?’

हर समस्या का समाधान पा कर रमा संतुष्ट हो जाती. शिवम और सुहासिनी को तो मानो कोई खिलौना मिल गया, स्कूल से आ कर जब तक वे उस से मिल नहीं लेते तब तक खाना ही नहीं खाते थे. वह भी उन्हें देखते ही ऐसे उछलता मानो उन का ही इंतजार कर रहा हो. कभी वे अपने हाथों से उसे दूध पिलाते तो कभी उसे प्रैम में बिठा कर पार्क में घुमाने ले जाते. रमा भी शिवम और सुहासिनी के हाथों उसे सौंप कर निश्ंिचत हो जाती.

धीरेधीरे रमा का बेटा चित्रा से इतना हिलमिल गया कि अगर रमा उसे किसी बात पर डांटती तो मौसीमौसी कहते हुए उस के पास आ कर मां की ढेरों शिकायत कर डालता और वह भी उस की मासूमियत पर निहाल हो जाती. उस का यह प्यार और विश्वास अभी तक कायम था. शायद यही कारण था कि अपनी हर छोटीबड़ी खुशी वह उस के साथ शेयर करना नहीं भूलता था.

पर पिछले कुछ महीनों से वह उस में आए परिवर्तन को नोटिस तो कर रही थी पर यह सोच कर ध्यान नहीं दिया कि शायद काम की वजह से वह उस से मिलने नहीं आ पाता होगा. वैसे भी एक निश्चित उम्र के बाद बच्चे अपनी ही दुनिया में रम जाते हैं तथा अपनी समस्याओं के हल स्वयं ही खोजने लगते हैं, इस में कुछ गलत भी नहीं है पर रमा की बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. इतने जहीन और मेरीटोरियस स्टूडेंट के दिलोदिमाग में यह फितूर कहां से समा गया?

बेटी सुहासिनी की डिलीवरी के कारण 1 महीने घर से बाहर रहने के चलते ऐसा पहली बार हुआ था कि वह रमा और अभिनव से इतने लंबे समय तक मिल नहीं पाई थी. एक दिन अभिनव से बात करने के इरादे से उस के घर गई पर जो अभिनव उसे देखते ही बातों का पिटारा खोल कर बैठ जाता था, उसे देख कर नमस्ते कर अंदर चला गया, उस के मन की बात मन में ही रह गई.

वह अभिनव में आए इस परिवर्तन को देख कर दंग रह गई. चेहरे पर बेतरतीब बढ़े बालों ने उसे अलग ही लुक दे दिया था. पुराना अभिनव जहां आशाओं से ओतप्रोत जिंदादिल युवक था वहीं यह एक हताश, निराश युवक लग रहा था जिस के लिए जिंदगी बोझ बन चली थी.

समझ में नहीं आ रहा था कि हमेशा हंसता, खिलखिलाता रहने वाला तथा दूसरों को अपनी बातों से हंसाते रहने वाला लड़का अचानक इतना चुप कैसे हो गया. औरों से बात न करे तो ठीक पर उस से, जिसे वह मौसी कह कर न सिर्फ बुलाता था बल्कि मान भी देता था, से भी मुंह चुराना उस के मन में चलती उथलपुथल का अंदेशा तो दे ही गया था. पर वह भी क्या करती. उस की चुप्पी ने उसे विवश कर दिया था. रमा को दिलासा दे कर दुखी मन से वह लौट आई.

उस के बाद के कुछ दिन बेहद व्यस्तता में बीते. स्कूल में समयसमय पर किसी नामी हस्ती को बुला कर विविध विषयों पर व्याख्यान आयोजित होते रहते थे जिस से बच्चों का सर्वांगीण विकास हो सके. इस बार का विषय था ‘व्यक्तित्व को आकर्षक और खूबसूरत कैसे बनाएं.’ विचार व्यक्त करने के लिए एक जानीमानी हस्ती आ रही थी.

आयोजन को सफल बनाने की जिम्मेदारी मुख्याध्यापिका ने चित्रा को सौंप दी. हाल को सुनियोजित करना, नाश्तापानी की व्यवस्था के साथ हर क्लास को इस आयोजन की जानकारी देना, सब उसे ही संभालना था. यह सब वह सदा करती आई थी पर इस बार न जाने क्यों वह असहज महसूस कर रही थी. ज्यादा सोचने की आदत उस की कभी नहीं रही. जिस काम को करना होता था, उसे पूरा करने के लिए पूरे मनोयोग से जुट जाती थी और पूरा कर के ही दम लेती थी पर इस बार स्वयं में वैसी एकाग्रता नहीं ला पा रही थी. शायद अभिनव और रमा उस के दिलोदिमाग में ऐसे छा गए थे कि  वह चाह कर भी न उन की समस्या का समाधान कर पा रही थी और न ही इस बात को दिलोदिमाग से निकाल पा रही थी.

आखिर वह दिन आ ही गया. नीरा कौशल ने अपना व्याख्यान शुरू किया. व्यक्तित्व की खूबसूरती न केवल सुंदरता बल्कि चालढाल, वेशभूषा, वाक्शैली के साथ मानसिक विकास तथा उस की अवस्था पर भी निर्भर होती है. चालढाल, वेशभूषा और वाक्शैली के द्वारा व्यक्ति अपने बाहरी आवरण को खूबसूरत और आकर्षक बना सकता है पर सच कहें तो व्यक्ति के व्यक्तित्व का सौंदर्य उस का मस्तिष्क है. अगर मस्तिष्क स्वस्थ नहीं है, सोच सकारात्मक नहीं है तो ऊपरी विकास सतही ही होगा. ऐसा व्यक्ति सदा कुंठित रहेगा तथा उस की कुंठा बातबात पर निकलेगी. या तो वह जीवन से निराश हो कर बैठ जाएगा या स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के लिए कभी वह किसी का अनादर करेगा तो कभी अपशब्द बोलेगा. ऐसा व्यक्ति चाहे कितने ही आकर्षक शरीर का मालिक क्यों न हो पर कभी खूबसूरत नहीं हो सकता, क्योंकि उस के चेहरे पर संतुष्टि नहीं, सदा असंतुष्टि ही झलकेगी और यह असंतुष्टि उस के अच्छेभले चेहरे को कुरूप बना देगी.

मान लीजिए, किसी व्यक्ति के मन में यह विचार आ गया कि उस का समय ठीक नहीं है तो वह चाहे कितने ही प्रयत्न कर ले सफल नहीं हो पाएगा. वह अपनी सफलता की कामना के लिए कभी मंदिर, मसजिद दौड़ेगा तो कभी किसी पंडित या पुजारी से अपनी जन्मकुंडली जंचवाएगा.

मेरे कहने का अर्थ है कि वह प्रयत्न तो कर रहा है पर उस की ऊर्जा अपने काम के प्रति नहीं, अपने मन के उस भ्रम के लिए है…जिस के तहत उस ने मान रखा है कि वह सफल नहीं हो सकता.

अब इस तसवीर का दूसरा पहलू देखिए. ऐसे समय अगर उसे कोई ग्रहनक्षत्रों का हवाला देते हुए हीरा, पन्ना, पुखराज आदि रत्नों की अंगूठी या लाकेट पहनने के लिए दे दे तथा उसे सफलता मिलने लगे तो स्वाभाविक रूप से उसे लगेगा कि यह सफलता उसे अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण मिली पर ऐसा कुछ भी नहीं होता.

वस्तुत: यह सफलता उसे उस अंगूठी या लाकेट पहनने के कारण नहीं मिली बल्कि उस की सोच का नजरिया बदलने के कारण मिली है. वास्तव में उस की जो मानसिक ऊर्जा अन्य कामों में लगती थी अब उस के काम में लगने लगी. उस का एक्शन, उस की परफारमेंस में गुणात्मक परिवर्तन ला देता है. उस की अच्छी परफारमेंस से उसे सफलता मिलने लगती है. सफलता उस के आत्मविश्वास को बढ़ा देती है तथा बढ़ा आत्मविश्वास उस के पूरे व्यक्तित्व को ही बदल डालता है जिस के कारण हमेशा बुझाबुझा रहने वाला उस का चेहरा अब अनोखे आत्मविश्वास से भर जाता है और वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल होता जाता है. अगर वह अंगूठी या लाकेट पहनने के बावजूद अपनी सोच में परिवर्तन नहीं ला पाता तो वह कभी सफल नहीं हो पाएगा.

इस के आगे व्याख्याता नीरा कौशल ने क्या कहा, कुछ नहीं पता…एकाएक चित्रा के मन में एक योजना आकार लेने लगी. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि उसे एक ऐसा सूत्र मिल गया है जिस के सहारे वह अपने मन में चलते द्वंद्व से मुक्ति पा सकती है, एक नई दिशा दे सकती है जो शायद किसी के काम आ जाए.

दूसरे दिन वह रमा के पास गई तथा बिना किसी लागलपेट के उस ने अपने मन की बात कह दी. उस की बात सुन कर वह बोली, ‘‘लेकिन अभिजीत इन बातों को बिलकुल नहीं मानने वाले. वह तो वैसे ही कहते रहते हैं. न जाने क्या फितूर समा गया है इस लड़के के दिमाग में… काम की हर जगह पूछ है, काम अच्छा करेगा तो सफलता तो स्वयं मिलती जाएगी.’’

‘‘मैं भी कहां मानती हूं इन सब बातों को. पर अभिनव के मन का फितूर तो निकालना ही होगा. बस, इसी के लिए एक छोटा सा प्रयास करना चाहती हूं.’’

‘‘तो क्या करना होगा?’’

‘‘मेरी जानपहचान के एक पंडित हैं, मैं उन को बुला लेती हूं. तुम बस अभिनव और उस की कुंडली ले कर आ जाना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

नियत समय पर रमा अभिनव के साथ आ गई. पंडित ने उस की कुंडली देख कर कहा, ‘‘कुंडली तो बहुत अच्छी है, इस कुंडली का जाचक बहुत यशस्वी तथा उच्चप्रतिष्ठित होगा. हां, मंगल ग्रह अवश्य कुछ रुकावट डाल रहा है पर परेशान होने की बात नहीं है. इस का भी समाधान है. खर्च के रूप में 501 रुपए लगेंगे. सब ठीक हो जाएगा. आप ऐसा करें, इस बच्चे के हाथ से मुझे 501 का दान करा दें.’’

प्रयोग चल निकला. एक दिन रमा बोली, ‘‘चित्रा, तुम्हारी योजना कामयाब रही. अभिनव में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया. जहां कुछ समय पूर्व हमेशा निराशा में डूबा बुझीबुझी बातें करता रहता था, अब वही संतुष्ट लगने लगा है. अभी कल ही कह रहा था कि ममा, विपिन सर कह रहे थे कि तुम्हें डिवीजन का हैड बना रहा हूं, अगर काम अच्छा किया तो शीघ्र प्रमोशन मिल जाएगा.’’

रमा के चेहरे पर छाई संतुष्टि जहां चित्रा को सुकून पहुंचा रही थी वहीं इस बात का एहसास भी करा रही थी, कि व्यक्ति की खुशी और दुख उस की मानसिक अवस्था पर निर्भर होते हैं. ग्रहनक्षत्रों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता. अब वह उस से कुछ छिपाना नहीं चाहती थी. आखिर मन का बोझ वह कब तक मन में छिपाए रहती.

‘‘रमा, मैं ने तुझ से एक बात छिपाई पर क्या करती, इस के अलावा मेरे पास कोई अन्य उपाय नहीं था,’’ मन कड़ा कर के चित्रा ने कहा.

‘‘क्या कह रही है तू…कौन सी बात छिपाई, मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है.’’

‘‘दरअसल उस दिन तथाकथित पंडित ने जो तेरे और अभिनव के सामने कहा, वह मेरे निर्देश पर कहा था. वह कुंडली बांचने वाला पंडित नहीं बल्कि मेरे स्कूल का ही एक अध्यापक था, जिसे सारी बातें बता कर, मैं ने मदद मांगी थी तथा वह भी सारी घटना का पता लगने पर मेरा साथ देने को तैयार हो गया था,’’ चित्रा ने रमा को सब सचसच बता कर झूठ के लिए क्षमा मांग ली और अंदर से ला कर उस के दिए 501 रुपए उसे लौटा दिए.

‘‘मैं नहीं जानती झूठसच क्या है. बस, इतना जानती हूं कि तू ने जो किया अभिनव की भलाई के लिए किया. वही किसी की बातों में आ कर भटक गया था. तू ने तो उसे राह दिखाई है फिर यह ग्लानि और दुख कैसा?’’

‘‘जो कार्य एक भूलेभटके इनसान को सही राह दिखा दे वह रास्ता कभी गलत हो ही नहीं सकता. दूसरे चाहे जो भी कहें या मानें पर मैं ऐसा ही मानती हूं और तुझे विश्वास दिलाती हूं कि यह बात एक न एक दिन अभिनव को भी बता दूंगी, जिस से कि वह कभी भविष्य में ऐसे किसी चक्कर में न पड़े,’’ रमा ने उस की बातें सुन कर उसे गले से लगाते हुए कहा.

रमा की बात सुन कर चित्रा के दिल से एक भारी बोझ उठ गया. दुखसुख, सफलताअसफलता तो हर इनसान के हिस्से में आते हैं पर जो जीवन में आए कठिन समय को हिम्मत से झेल लेता है वही सफल हो पाता है. भले ही सही रास्ता दिखाने के लिए उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा पर उसे इस बात की संतुष्टि थी कि वह अपने मकसद में कामयाब रही.

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