छद्म वेश : मधुकर और रंजना की कहानी

लेखक – अर्विना

शाम धुंध में डूब चुकी थी. होटल की ड्यूटी खत्म कर तेजी से केमिस्ट की दुकान पर पहुंची. उसे देखते ही केमिस्ट सैनेटरी पैड को पेक करने लगा. रंजना ने उस से कहा कि इस की जगह मेंस्ट्रुअल कप दे दो. केमिस्ट ने एक पैकेट उस की तरफ बढ़ाया.

मधुकर सोच में पड़ गया कि यह युवक मेंस्ट्रुअल कप क्यों ले रहा है. ऐसा लगता तो नहीं कि शादी हो चुकी हो. शादी के बाद आदमियों की भी चालढाल बदल जाती है.

इस बात से बेखबर रंजना ने पैकेट अपने बैग में डाला और घर की तरफ कदम बढ़ा दिए. बीचबीच में रंजना अपने आजूबाजू देख लेती. सर्दियों की रात सड़क अकसर सुनसान हो जाती है. तभी रंजना को पीछे से पदचाप लगातार सुनाई दे रही थी, पर उस ने पीछे मुड़ कर देखना उचित नहीं समझा. उस ने अपनी चलने की रफ्तार बढ़ा दी. अब उस के पीछे ऐसा लग रहा था कि कई लोग चल रहे थे. दिल की धड़कन बढ़ गई थी. भय से चेहरा पीला पड़ गया था. घर का मोड़ आते ही वह मुड़ गई.

अब रंजना को पदचाप सुनाई नहीं दे रही थी. यह सिलसिला कई दिनों से चल रहा था. यह पदचाप गली के मोड़ पर आते ही गायब हो जाती थी. घर में भी वह किसी से इस बात का जिक्र नहीं कर सकती. नौकरी का बहुत शौक था. घर की माली हालत अच्छी थी. वह तो बस शौकिया नौकरी कर रही थी. स्त्री स्वतंत्रता की पक्षधर थी, पर खुद को छद्म वेश में छुपा कर ही रखती थी. स्त्रीयोचित सजनेसंवरने की जगह वह पुरुष वेशभूषा में रहती. रात में लौटती तो होंठों पर लिपस्टिक और आईब्रो पेंसिल से रेखाएं बना लेती. अंतरंग वस्त्र टाइट कर के पहनती, ताकि स्त्रियोचित उभार दिखाई न दे. इस से रात में जब वह लौटती तो भय नहीं लगता था.

लेकिन कुछ दिनों से पीछा करती पदचापों ने उस के अंदर की स्त्री को सोचने पर मजबूर कर दिया. रंजना ने घर के गेट पर पहुंच कर अपने होंठ पर बनी नकली मूंछें टिशू पेपर से साफ कीं और नौर्मल हो कर घर में मां के साथ भोजन किया और सो गई.

होटल जाते हुए उस ने सोचा कि आज वह जरूर देखेगी कि कौन उस का पीछा करता है. रात में जब रंजना की ड्यूटी खत्म हुई तो बैग उठा कर घर की ओर चल दी. अभी वह कुछ ही दूर चली थी कि पीछे फिर से पदचाप सुनाई दी.

रंजना ने हिम्मत कर के पीछे देखा. घने कोहरे की वजह से उसे कुछ दिखाई नहीं दिया. एक धुंधला सा साया दिखाई दिया. जैसे ही वह पलटी, काले ओवर कोट में एक अनजान पुरुष उस के सामने खड़ा था.

यह देख रंजना को इतनी सर्दी में पसीना आ गया. शरीर कांपने लगा. आज लगा, स्त्री कितना भी पुरुष का छद्म वेश धारण कर ले, शारीरिक तौर पर तो वह स्त्री ही है. फिर भी रंजना ने हिम्मत बटोर कर कहा, ‘‘मेरा रास्ता छोड़ो, मुझे जाने दो.’’

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‘‘मैं मधुकर. तुम्हारे होटल के करीब एक आईटी कंपनी में सौफ्टवेयर इंजीनियर हूं.’’

‘‘तुम इस होटल में काम करते हो. यह तो मैं जानता हूं.’’

‘‘तुम शादीशुदा हो क्या?’’

रंजना ने नहीं में गरदन हिलाई. वह जरूरत से ज्यादा डर गई. उस का बैग हाथ से छूट गया और सारा सामान बिखर गया.

रंजना अपना सामान जल्दीजल्दी समेटने लगी, लेकिन मधुकर के पैरों के पास पड़ा केमिस्ट के यहां से खरीदा मेंस्ट्रुअल कप उस की पोल खोल चुका था. मधुकर ने पैकेट चुपचाप उठा कर उस के हाथ में रख दिया.

‘‘तुम इस छद्म में क्यों रहती हो? मेरी इस बात का जवाब दे दो, मैं रास्ता छोड़ दूंगा.’’

‘‘रात की ड्यूटी होने की वजह से ये सब करना पड़ा. स्त्री होने के नाते हमेशा भय ही बना रहता. इस छद्म वेश में किसी का ध्यान मेरी ओर नहीं गया, लेकिन आप ने कैसे जाना?’’

‘‘रंजना, मैं ने तुम्हें केमिस्ट की दुकान पर पैकेट लेते देख लिया था.’’

‘‘ओह… तो ये बात है.’’

‘‘रंजना चलो, मैं तुम्हें गली तक छोड़ देता हूं.’’

दोनों खामोश साथसाथ चलते हुए गली तक आ गए. मधुकर एक बात का जवाब दो कि तुम ही कुछ दिनों से मेरा पीछा कर रहे हो.

रहस्यमयी लड़के का राज आज पता चल ही गया. हाहाहा… क्या बात है?

चलतेचलते बातोंबातों में मोड़ आ गया. मधुकर रंजना से विदा ले कर चला गया.

रंजना कुछ देर वहीं खड़ी रास्ते को निहारती रही. दिल की तेज होती धड़कनों ने रंजना को आज सुखद एहसास का अनुभव हुआ.

घर पहुंच कर मां को आज हुई घटना के बारे में बताया. मां कुछ चिंतित सी हो गईं.

सुबह एक नया ख्वाब ले कर रंजना की जिंदगी में आई. तैयार हो कर होटल जाते हुए रंजना बहुत खुश थी. मधुकर की याद में सारा दिन खोई  रही. मन भ्रमर की तरह उड़उड़ कर उस के पास चला जाता था.

ड्यूटी खत्म कर रंजना उठने को हुई, तभी एक कस्टमर के आ जाने से बिजी हो गई. घड़ी पर निगाह गई तो 8 बज चुके थे. रंजना बैग उठा कर निकली, तो मधुकर बाहर ही खड़ा था.

‘‘रंजना आज देर कैसे हो गई?’’

‘‘वो क्या है मधुकर, जैसे ही निकलने को हुई, तभी एक कस्टमर आ गया. फौर्मेलिटी पूरी कर के उसे रूम की चाबी सौंप कर ही निकल पाई हूं.’’

रंजना और मधुकर साथसाथ चलते हुए गली के मोड़ पर पहुंच मधुकर ने विदा ली और चला गया.

यह सिलसिला चलते हुए समय तो जैसे पंखों पर सवार हो उड़ता चला जा रहा था. दोनों को मिले कब 3 महीने बीत गए, पता ही नहीं चला. आज मधुकर ने शाम को डेट पर एक रेस्तरां में बुलाया था.

ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी रंजना खुद को पहचान नहीं पा रही थी. मां की साड़ी में लिपटी रंजना मेकअप किए किसी अप्सरा सी लग रही थी. मां ने देखा, तो कान के पीछे काला टीका लगा दिया और मुसकरा दीं.

‘‘मां, मैं अपने दोस्त मधुकर से मिलने जा रही हूं,’’ रंजना ने मां से कहा, तो मां पूछ बैठी, ‘‘क्या यह वही दोस्त है, जो हर रोज तुम्हें गली के मोड़ तक छोड़ कर जाता है?’’

‘‘हां मां ,ये वही हैं.’’

‘‘कभी उसे घर पर भी बुला लो. हम भी मिल लेंगे तुम्हारे दोस्त से.’’‘‘हां मां, मैं जल्दी ही मिलवाती हूं आप से,’’ कंधे पर बैग झुलाती हुई रंजना निकल पड़ी.

गली के नुक्कड पर मधुकर बाइक पर बैठा उस का इंतजार कर रहा था.

बाइक पर सवार हो रैस्टोरैंट पहुंच गए. मधुकर ने रैस्टोरैंट में टेबल पहले ही से बुक करा रखी थी.

रैस्टोरैंट में अंदर जा कर देखा तो कौर्नर टेबल पर सुंदर सा हार्ट शेप बैलून रैड रोज का गुलदस्ता मौजूद था.

‘‘मधुकर, तुम ने तो मुझे बड़ा वाला सरप्राइज दे दिया आज. मुझे तो बिलकुल भी याद नहीं था कि आज वैलेंटाइन डे है. नाइस अरैंजमैंट मधुकर…

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‘‘आज की शाम तुम ने यादगार बना दी…’’

‘‘रंजना बैठो तो सही, खड़ीखड़ी मेरे बारे में कसीदे पढ़े जा रही हो, मुझे भी तो इजहारेहाल कहने दो…’’ मुसकराते हुए मधुकर ने कहा.

‘‘नोटी बौय… कहो, क्या कहना है?’’ हंसते हुए रंजना बोली.

मधुकर ने घुटनों के बल बैठ रंजना का हाथ थाम कर चूम लिया और दिल के आकार की हीरे की रिंग रंजना की उंगली में पहना दी.

‘‘अरे वाह… रिंग तो  बहुत सुंदर है,’’ अंगूठी देख रंजना ने कहा.

डिनर के बाद रंजना और मधुकर बाइक पर सवार हो घर की ओर चले जा रहे थे, सामने से एक बाइक पर 2 लड़के मुंह पर कपड़ा बांधे उन की बाइक के सामने आ गए. मधुकर को ब्रेक लगा कर अपनी बाइक रोकनी पड़ी.

लड़कों ने फब्तियां कसनी शुरू कर दीं और मोटरसाइकिल को उन की बाइक के चारों तरफ घुमाने लगे. उस समय सड़क भी सुनसान थी. वहां कोई मदद के लिए नहीं था. रंजना को अचानक अपनी लिपिस्टिक गन का खयाल आया. उस ने धीरे से बैग में हाथ डाला और गन चला दी.

गन के चलते ही नजदीक के थाने  में ब्लूटूथ के जरीए खबर मिल गई. थानेदार 5 सिपाहियों को ले कर निकल पड़े. कुछ ही देर में पुलिस के सायरन की आवाज सुनाई देने लगी.

लड़कों ने तुरतफुरत बैग छीनने की कोशिश की. मधुकर ने एक लड़के के गाल पर जोरदार चांटा जड़ दिया. इस छीनाझपटी में रंजना का हाथ छिल गया, खून रिसने लगा.

बैग कस कर पकड़े होने की वजह से बच गया.

सामने से पुलिस की गाड़ी  आती देख लड़के दूसरी दिशा में अपनी बाइक घुमा कर भाग निकलने की कोशिश करें, उस से पहले थानेदार ने उन्हें धरदबोचा और पकड़ कर गाड़ी में बैठा लिया.

थानेदार ने एक सिपाही को आदेश दिया कि इस लड़के की बाइक आप चला कर इस के घर पहुंचा दें. इस लड़के और लड़की को हम जीप से इन के घर छोड़ देते हैं.

रंजना और मधुकर जीप में सवार हो गए.

‘‘आप का क्या नाम है?’’ थानेदार ने अपना सवाल रंजना से किया.

‘‘मेरा नाम रंजना है. मैं एक होटल में रिसेप्शनिस्ट हूं. ये मेरे दोस्त मधुकर हैं. ये आईटी कंपनी में इंजीनियर के पद पर हैं.’’

‘‘रंजना, आप बहुत ही बहादुर हैं. आप ने सही समय पर अपनी लिपिस्टिक गन का इस्तेमाल किया है.’’

‘‘सर, रंजना वाकई बहुत हिम्मत वाली है.’’

थानेदार ने मधुकर से पूछा, ‘‘तुम भी अपने घर का पता बताओ.’’

‘‘सर, त्रिवेणी आवास विकास में डी 22 नंबर मकान है. उस से पहले ही मोड़ पर रंजना का घर है.’’

‘‘ओके मधुकर, वह तो पास ही में है.’’

पुलिस की जीप रंजना के घर के सामने रुकी.

पुलिस की गाड़ी देख रंजना की मां घबरा गईं और रंजना के पापा को आवाज लगाई, ‘‘जल्दी आइए, रंजना पुलिस की गाड़ी से आई है.’’

रंजना के पापा तेजी से बाहर की ओर लपके. बेटी को सकुशल देख उन की जान में जान आई.

थानेदार जोगिंदर सिंह ने सारी बात रंजना के पापा को बताई और मधुकर को भी सकुशल घर पहुंचाने के लिए कहा.

थानेदार जोगिंदर सिंह मधुकर को अपने साथ ले कर जीप में आ बैठे, ‘‘चल भई जवान तुझे भी घर पहुंचा दूं, तभी चैन की सांस लूंगा.’’

मधुकर को घर के सामने छोड़ थानेदार जोगिंदर सिंह वापस थाने चले गए.

मधुकर ने घर के अंदर आ कर इस बात की चर्चा मम्मीपापा के साथ खाना खाते हुए डाइनिंग टेबल पर विस्तार से बताई.

मधुकर के पापा का कहना था कि बेटा, तुम ने जो भी किया उचित था. रंजना की समझदारी से तुम दोनों सकुशल घर आ गए. मधुकर रंजना जैसी लड़की तो वाकई बहू बनानेलायक है. मम्मी ने भी हां में हां मिलाई.

‘‘मधुकर, खाना खा कर रंजना को फोन कर लेना.’’ मां ने कहा.

‘‘जी मम्मी.’’

मधुकर ने खाना खाने के बाद वाशबेसिन पर हाथ धोए और वहां लटके तौलिए से हाथ पोंछ कर सीधा अपने कमरे की बालकनी में आ कर रंजना को फोन मिलाया. रिंग जा रही थी, पर फोन रिसीव नहीं किया.

मधुकर ने दोबारा फोन मिलाया ट्रिन… ट्रिन. उधर से आवाज आई, ‘‘हैलो, मैं रंजना की मम्मी बोल रही हूं…’’

‘‘जी, मैं… मैं मधुकर बोल रहा हूं. रंजना कैसी है?’’

‘‘बेटा, रंजना पहली बार साड़ी पहन कर एक स्त्री के रूप में तैयार हो कर गई थी और ये घटना घट गई. यह घटना उसे अंदर तक झकझोर गई है. मैं रंजना को फोन देती हूं. तुम ही बात कर लो.’’

‘‘रंजना, मैं मधुकर.‘‘

‘‘क्या हुआ रंजना? तुम ठीक तो हो ? तुम बोल क्यों नहीं रही हो?’’

‘‘मधुकर, मेरी ही गलती है कि मुझे इतना सजधज कर साड़ी पहन कर जाना ही नहीं चाहिए था.’’

‘‘देखो रंजना, एक न एक दिन तुम्हें इस रूप में आना ही था. घटनाएं तो जीवन में घटित होती रहती हैं. उन्हें कपड़ों से नहीं जोड़ा जा सकता है. संसार में सभी स्त्रियां स्त्रीयोचित परिधान में ही रहती हैं. पुरुष के छद्म वेश में कोई नहीं रहतीं. तुम तो जमाने से टक्कर लेने के लिए सक्षम हो… इसलिए संशय त्याग कर खुश रहो.’’

‘‘मधुकर, तुम ठीक कह रहे हो. मैं ही गलत सोच रही थी.’’

‘‘रंजना, मैं तुम्हें हमेशा के लिए अपना बनाना चाहता हूं.’’

‘‘लव यू… मधुकर.’’

‘‘लव यू टू रंजना… रात ज्यादा हो गई है. तुम आराम करो. कल मिलते हैं… गुड नाइट.’’

सुबह मधुकर घर से औफिस जाने के लिए निकल ही रहा था कि मम्मी की आवाज आई, ‘‘मधुकर सुनो, रंजना के घर चले  जाना. और हो सके तो शाम को मिलाने के लिए उसे घर ले आना.’’

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‘‘ठीक है मम्मी, मैं चलता हूं,’’ मधुकर ने बाइक स्टार्ट की और निकल गया रंजना से मिलने.

रंजना के घर के आगे मधुकर बाइक पार्क कर ही रहा था कि सामने से रंजना आती दिखाई दी. साथ में उस की मां भी थी. रंजना के हाथ में पट्टी बंधी थी.

‘‘अरे रंजना, तुम्हें तो आराम करना चाहिए था.’’

‘‘मधुकर, मां के बढ़ावा देने पर लगा कि बुजदिल बन कर घर में पड़े रहने से तो अपना काम करना बेहतर है.’’

‘‘बहुत बढ़िया… गुड गर्ल.’’

‘‘आओ चलें. बैठो, तुम्हें होटल छोड़ देता हूं.’’

‘‘रंजना, मेरी मां तुम्हें याद कर रही थीं. वे कह रही थीं कि रंजना को शाम को घर लेते लाना… क्या तुम चलोगी मां से मिलने?’’

‘‘जरूर चलूंगी आंटी से मिलने. शाम 6 बजे तुम मुझे होटल से पिक कर लेना.’’

‘‘ओके रंजना, चलो तुम्हारी मंजिल आ गई.’’

बाइक से उतर कर रंजना ने मधुकर को बायबाय किया और होटल की सीढ़ियां चढ़ कर अंदर चली गई.

मधुकर बेचैनी से शाम का इंतजार कर रहा था. आज रंजना को मां से मिलवाना था.

मधुकर बारबार घड़ी की सूइयों को देख रहा था, जैसे ही घड़ी में 6 बजे वह उठ कर चल दिया, रंजना को पिक करने के लिए.

औफिस से निकल कर मधुकर होटल पहुंच कर बाइक पर बैठ कर इंतजार करने लगा. उसे एकएक पल भारी लग रहा था.

रंजना के आते ही सारी झुंझलाहट गायब हो गई और होंठों पर मुसकराहट तैर गई.

बाइक पर सवार हो कर दोनों मधुकर के घर पहुंच गए.

मधुकर ने रंजना को ड्राइंगरूम में बिठा कर कर मां को देखने अंदर गया. मां रसोई में आलू की कचौड़ी बना रही थीं.

‘‘मां, देखो कौन आया है आप से मिलने…’’ मां कावेरी जल्दीजल्दी हाथ पोछती हुई ड्राइंगरूम में पहुंचीं.

‘‘मां, ये रंजना है.’’

‘‘नमस्ते आंटीजी.’’

‘‘नमस्ते, कैसी हो  रंजना.’’

‘‘जी, मैं ठीक हूं.’’

मां कावेरी रंजना को ही निहारे जा रही थीं. सुंदर तीखे नाकनक्श की रंजना ने उन्हें इस कदर प्रभावित कर लिया था कि मन ही मन वे भावी पुत्रवधू के रूप में रंजना को देख रही थीं.

‘‘मां, तुम अपने हाथ की बनी गरमागरम कचौड़ियां नहीं खिलाओगी. मुझे तो बहुत भूख लगी है.’’

मां कावेरी वर्तमान में लौर्ट आई और बेटे की बात पर मुसकरा पड़ीं और उठ कर रसोई से प्लेट में कचौड़ी और चटनी रंजना के सामने रख कर खाने का आग्रह किया.

रंजना प्लेट उठा कर कचौड़ी खाने लगी. कचौड़ी वाकई बहुत स्वादिष्ठ बनी थी.

‘‘आंटी, कचौड़ी बहुत स्वादिष्ठ बनी हैं,’’ रंजना ने मां की तारीफ करते हुए कहा.

मधुकर खातेखाते बीच में बोल पड़ा, ‘‘रंजना, मां के हाथ में जादू है. वे खाना बहुत ही स्वादिष्ठ बनाती हैं.’’

‘‘धत… अब इतनी भी तारीफ मत कर मधुकर.’’

नाश्ता खत्म कर रंजना ने घड़ी की तरफ देखा तो 7 बजने वाले थे. रंजना उठ कर जाने के लिए खड़ी हुई.

‘‘मधुकर बेटा, रंजना को उस के घर तक पहुंचा आओ.’’

‘‘ठीक है मां, मैं अभी आया.’’

मां कावेरी ने सहज, सरल सी लड़की को अपने घर की शोभा बनाने की ठान ली. उन्होंने मन ही मन तय किया कि कल रंजना के घर जा कर उस के मांबाप से उस का हाथ मांग लेंगी. इस के बारे में मधुकर के पापा की भी सहमति मिल गई.

सुबह ही कावेरी ने अपने आने की सूचना रंजना की मम्मी को दे दी थी.

शाम के समय कावेरी और उन के पति के आने पर रंजना की मां ने उन्हें आदरपूर्वक ड्राइंगरूम में बिठाया.

‘‘रंजना के पापा आइए, यहां आइए, देखिए मधुकर के मम्मीपापा आ गए  हैं.’’

रंजना और मधुकर के पापा के बीच राजनीतिक उठापटक के बारे में बातें करने के साथ ही कौफी की चुसकी लेते हुए इधरउधर की बातें भी हुईं.

रंजना की मम्मी मधुकर की मां कावेरी के साथ बाहर लौन में झूले पर बैठ प्रकृति का आनंद लेते हुए कौफी पी रही थीं.

मधुकर की मां कावेरी बोलीं, ‘‘शारदाजी, मैं रंजना का हाथ अपने बेटे के लिए मांग रही हूं. आप ना मत कीजिएगा.’’

‘‘कावेरीजी, आप ने तो मेरे मन की बात कह दी. मैं भी यही सोच रही थी,’’ कहते हुए रंजना की मां शारदाजी मधुकर की मां कावेरी के गले लग गईं.

‘‘कावेरीजी चलिए, इस खुशखबरी को अंदर चल कर सब के साथ सैलिब्रेट करते हैं.’’

शारदा और कावेरी ने हंसते हुए ड्राइंगरूम में प्रवेश किया तो दोनों ने चौंक कर देखा.

‘‘क्या बात है, आप लोग किस बात पर इतना हंस रही हैं?’’ रंजना के पिता महेश बोले.

‘‘महेशजी, बात ही कुछ ऐसी है. कावेरीजी ने आप को  समधी के रूप में पसंद कर लिया है.’’

‘‘क्या… कहा… समधी… एक बार फिर से कहना?’’

‘‘हां… हां… समधी. कुछ समझे.’’

‘‘ओह… अब समझ आया आप लोगों के खिलखिलाने का राज.’’

‘‘अरे, पहले बच्चों से तो पूछ कर रजामंदी ले लो,’’ मधुकर के पाप हरीश ने मुसकरा कर कहा.

रंजना के पापा महेश सामने से बच्चों को आता देख बोले, ‘‘लो, इन का नाम लिया और ये लोग हाजिर. बहुत लंबी उम्र है इन दोनों की.’’

मधुकर ने आते ही मां से चलने के लिए कहा.

‘‘बेटा, हमें तुम से कुछ बात करनी है.”

“कहिए मां, क्या कहना चाहती हैं?’’

‘‘मधुकर, रंजना को हम ने तुम्हारे लिए मांग लिया है. तुम बताओ, तुम्हारी क्या मरजी है.’’

‘‘मां, मुझे कोई ओब्जैक्शन नहीं है. रंजना से भी पूछ लो कि वे क्या चाहती हैं?’’

मां कावेरी ने रंजना से पूछा, ‘‘क्या तुम मेरी बेटी बन कर मेरे घर आओगी.’’

रंजना ने शरमा कर गरदन झुकाए हुए हां कह दी.

यह देख रंजना के पापा महेशजी चहक उठे. अब तो कावेरीजी आप मेरी समधिन हुईं.

ऐसा सुन सभी एकसाथ हंस पड़े. तभी रंजना की मां शारदा मिठाई के साथ हाजिर हो गईं.

‘‘लीजिए कावेरीजी, पहले मिठाई खाइए,’’ और झट से एक पीस मिठाई का कावेरी के मुंह में खिला दिया.

कावेरी ने भी शारदा को मिठाई खिलाई. प्लेट हरीशजी की ओर बढ़ा दी. मधुकर ने रंजना को देखा, तो उस का चेहरा सुर्ख गुलाब सा लाल हो गया था. रंजना एक नजर मधुकर पर डाल झट से अंदर भाग गई.

‘‘शारदाजी, एक अच्छा सा सुविधाजनक दिन देख शादी की तैयारी कीजिए. चलने से पहले जरा आप रंजना को बुलाइए,’’ मधुकर की मां कावेरी ने कहा.

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रंजना की मां शारदा उठीं और अंदर जा कर रंजना को बुला लाईं. कावेरी ने अपने हाथ से कंगन उतार कर रंजना को पहना दिए.

रंजना ने झुक कर उन के पैर छुए.

हरीश और कावेरी मधुकर के साथ शारदाजी और महेशजी से विदा ले कर घर आ गए.

2 महीने बाद शारदाजी के घर से आज शहनाई के स्वर गूंज रहे थे. रंजना दुलहन के रूप में सजी आईने के सामने बैठी खुद को पहचान नहीं पा रही थी. छद्म वेश हमेशा के लिए उतर चुका था.

‘‘सुनो रंजना दी…’’ रंजना की कजिन ने आवाज लगाई, ‘‘बरात आ गई…’’

रंजना मानो सपने से हकीकत में आ गई. रंजना के पैर शादी के मंडप की ओर बढ़ गए.

सौतन

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पिंजरे का पंछी: कामिनी के सपनों के पीछे कौन लगा था?

लेखक- डा. उमेश चमोला

कामिनी दरवाजे के बाहर खड़ी थी. खूब सजधज कर. सामने उसे एक अधेड़ उम्र का आदमी आता दिखाई दिया. उसे लगा कि वह उस की ओर चला आ रहा है. पर यह क्या? वह उस के बगल में खड़ी लड़की के पास चला गया और उस से बातें करने लगा. कामिनी सोचने लगी, ‘अब मेरी जवानी ढलने लगी है, शायद इसीलिए लड़के तो दूर अधेड़ भी मेरे पास आने से कतराने लगे हैं. आज भी मैं कुछ कमा नहीं पाई. अब मैं दीदी को क्या जवाब दूंगी? यही हाल रहा तो एक दिन वे मुझे यहां से निकाल बाहर करेंगी.’

इस के बाद कामिनी पुरानी यादों में खो गई. कामिनी के मातापिता गरीब थे. उस की मां लोगों के बरतन साफ कर के घर का खर्चा चलाती थी.

मातापिता ने कामिनी को अपना पेट काट कर पढ़ाना चाहा और उसे शहर के एक स्कूल में भरती किया. उन का सपना था कि कामिनी भी पढ़लिख कर समाज में नाम कमाए.

एक दिन स्कूल से छुट्टी होने के बाद कामिनी घर आने के लिए आटोरिकशा का इंतजार करने लगी. तभी उस के सामने एक कार आ कर रुकी. उस कार से एक अधेड़ आदमी बाहर आया. वह कामिनी से बोला, ‘बेटी, यहां क्यों खड़ी हो?’

‘मुझे घर जाना है. मैं आटोरिकशा का इंतजार कर रही हूं.’

‘बेटी, तुम्हारा घर कहां है?’ वह आदमी बोला.

‘देवनगर,’ कामिनी बोली.

‘मुझे भी देवनगर जाना है. हमारे साथ कार में बैठ जाओ.’

उस आदमी की बात सुन कर कामिनी उस की कार में बैठ गई. कार में 2 आदमी और भी बैठे थे.

कार को दूसरी तरफ अनजानी जगह पर जाते देख कामिनी हैरानी से बोली, ‘अंकल, आप कह रहे थे कि आप को देवनगर जाना है, पर आप तो…’

‘बेटी, मुझे जरूरी काम याद आ गया. मैं किसी दोस्त से मिलने जा रहा हूं. तुम्हें ये लोग तुम्हारे घर छोड़ देंगे,’ कामिनी की बात पूरी होने से पहले ही वह आदमी बोला.

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कार आगे दौड़ने लगी. कार को दूसरी दिशा में जाते देख कामिनी बोली, ‘अंकल, यह तो देवनगर जाने का रास्ता नहीं है. आप मुझे कहां ले जा रहे हैं?’

‘बेटी, हम तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ देंगे. उस से पहले हम तुम से एक बात करना चाहते हैं. हम कोई गैर नहीं हैं. हम तुम्हें और तुम्हारे मातापिता को अच्छी तरह से जानते हैं.

‘एक दिन हम ने तुम्हें अपनी सहेली से कहते सुना था कि तुम हीरोइन बनना चाहती हो. तुम चाहो तो हम तुम्हें किसी फिल्म में हीरोइन का रोल दिला देंगे. तब दुनियाभर में तुम्हारा नाम होगा. तुम्हारे पास इतनी दौलत हो जाएगी कि तुम अपने मांबाप के सारे सपने पूरे कर सकोगी.

‘हीरोइन बनने के बाद तुम अपने मातापिता से मिलने जाओगी, तो सोचो कि वे कितने खुश होंगे? कुछ दिनों के बाद तुम्हें फिल्म में रोल मिल जाएगा, तब तक तुम्हें अपने मातापिता से दूर रहना होगा.’

कामिनी की आंखों में हीरोइन बनने का सपना तैरने लगा. वह ख्वाब देखने लगी कि उसे बड़े बैनर की फिल्म मिल गई है. पत्रपत्रिकाओं और टैलीविजन के खबरिया चैनलों में उस के नाम की चर्चा हो रही है. समाज में उस के मातापिता की इज्जत बढ़ गई है. उस के पुराने मकान की जगह पर अब आलीशान कोठी है. सब उसी में रह रहे हैं.

‘बेटी, क्या सोच रही हो?’ उस आदमी के सवाल ने कामिनी का ध्यान भंग किया.

‘अंकल, मैं फिल्म में हीरोइन बनने को तैयार हूं,’ कामिनी ने कहा.

2-3 घंटे के सफर के बाद वह कार शहर से दूर एक इलाके में पहुंच गई. कामिनी को इस जगह के बारे में पता नहीं था. कार से उतर कर वे दोनों आदमी कामिनी को ले कर एक मकान में गए.

दरवाजे पर खटखट करने पर एक मोटी औरत बाहर आई. वहां आसपास खड़ी लड़कियां उसे ‘दीदी’ कह कर पुकार रही थीं.

उन आदमियों को देख कर वह औरत बोली, ‘ले आए तुम नई को?’

‘बेटी, तुम्हें कुछ दिन यहीं रहना है. उस के बाद हम तुम्हें फिल्म बनाने वाले के पास ले चलेंगे,’ एक आदमीने कहा और वे दोनों वहां से चले गए.

दीदी ने कामिनी के रहने का इंतजाम एक अलग कमरे में कर दिया. वहां सुखसुविधाएं तो सभी थीं, पर कामिनी को वहां का माहौल घुटन भरा लगा.

3 दिन के बाद दीदी कामिनी से बोली, ‘आज हम तुम्हें एक फिल्म बनाने वाले के पास ले चलेंगे. वे जो भी कहें, सबकुछ करने को तैयार रहना.’

कुछ देर बाद एक कार आई. उस में 2 आदमी बैठे थे. दीदी के कहने पर कामिनी उस कार में बैठ गई. एक घंटे के सफर के बाद वह एक आलीशान कोठी में पहुंच गई. वहां वे आदमी उसे एक कमरे में ले गए.

उस कमरे में एक आदमी बैठा था. उसे वहां के लोग सेठजी कह रहे थे. कामिनी को उस कमरे में छोड़ वे दोनों आदमी बाहर निकले.

जाते समय उन में से एक ने कामिनी से कहा, ‘ये सेठजी ही तुम्हारे लिए फिल्म बनाने वाले हैं.’

सेठजी ने कामिनी को कुरसी पर बिठाया. इंटरव्यू लेने का दिखावा करते हुए वे कामिनी से कुछ सवालपूछने लगे. इसी बीच एक आदमी शरबत के 2 गिलास ले कर वहां आया. एक गिलास सेठजी ने पीया और दूसरा गिलास कामिनी को पीने को दिया.

शरबत पीने के बाद कामिनी पर बेहोशी छा गई. उसे जब होश आया, तो उस ने अपने सामने सेठजी को मुसकराते हुए देखा. वह दर्द से कराह रही थी.

‘मेरे साथ धोखा हुआ है. मैं तुम सब को देख लूंगी. मैं तुम्हें जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दूंगी,’ कामिनी चिल्लाई.

‘तुम्हारे साथ कोई धोखा नहीं हुआ है. तुम फिल्म में हीरोइन बनना चाहती थीं. लो, देख लो अपनी फिल्म,’ कह कर सेठजी ने कंप्यूटर में सीडी डाल कर उसे दिखा दी.

सीडी को देख कर कामिनी सन्न रह गई. उस फिल्म में सेठजी उस की इज्जत के साथ खेलते दिखाई दिए. ‘वैसे तो यह फिल्म हम किसी को नहीं दिखाएंगे. अगर तुम ने हमारी शिकायत पुलिस से की, तो हम इसे सारी दुनिया में पहुंचा देंगे,’ कंप्यूटर बंद करते हुए सेठजी बोले.

कमिनी को इस घटना से सदमा पहुंच गया. वह बेहोश हो गई. कुछ देर बाद वे दोनों आदमी कामिनी को कार में बैठा कर दीदी के पास ले गए.

कामिनी गुमसुम रहने लगी. वह न कुछ खाती थी, न किसी से बातें करती थी.

एक दिन दीदी कामिनी के कमरे में आ कर बोली, ‘देखो, यहां जो भी लड़की आती है, वह अपनी इच्छा से नहीं आती. वह कुछ दिनों तक तेरी तरह गुमसुम रहती है, बाद में खुद को संभाल लेती है. इस दलदल में जो एक बार पहुंच गई, वह चाह कर भी वापस नहीं जा सकती.

‘अगर तुम यहां से चली भी गई, तो तुम्हारा समाज तुम्हें फिर से नहीं अपनाएगा, इसलिए तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम अब यहीं के समाज में रहने का मन बनाओ. धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’

दूसरे दिन दीदी ने कामिनी को कार में बिठा कर दूसरे आदमी के पास भेजा. अब वह इसी तरह कामिनी को इधरउधर भेजने लगी. एक दिन दीदी ने कामिनी से कहा, ‘तुझे इधरउधर जाते हुए काफी समय हो गया है. अब मैं तुझे एक नया काम सिखाऊंगी.’

‘नया काम… मतलब?’ कामिनी चौंकते हुए बोली. ‘मतलब यह है कि अब तुझे किसी सेठ के पास नहीं जाना है. तुझे यहीं दुकान में रह कर ग्राहकों को अपनी ओर खींचना है.’

‘किस दुकान में?’

‘यहीं.’

‘लेकिन यह तो मकान है, दुकान कहां है?’

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‘यही मकान तुम्हारे धंधे की दुकान है. जैसे शोरूम में अलगअलग डिजाइन के कपड़े सजा कर रखे रहते हैं, वैसे ही तुम्हें यहां सजधज कर आधे कपड़ों में रहना है. तुम्हें कुछ नहीं करना है. बस, यहां से गुजरने वाले मर्दों को ललचाई नजरों से देखना है.’

दीदी के समझाने पर कामिनी सोचने लगी, ‘यहां रहने वाली सभी लड़कियां इस शोरूम की चीजें हैं. शोरूम में रखी चीजों को ग्राहक देख कर पसंद करता है. खरीदने के बाद वे चीजें उसी की हो जाती हैं. ग्राहक उस चीज की इज्जत करता है. हम जिस्म के सौदे की वे चीजें हैं, जिन्हें ग्राहक कुछ देर के लिए खरीद कर मजा ले कर चला जाता है.

‘वासना के भूखे दरिंदे हमारे पास आ कर अपनी भूख मिटाते हैं. हम भी चाहते हैं कि हमारा दिल किसी के लिए धड़के. वह एक हो. वह हम पर मरमिटने को तैयार हो. हम भी समाज के रिश्तों की डोर से बंधें.’

पिंजरे में बंद पंछी की तरह कामिनी का मन फड़फड़ा रहा था.

एक दिन कामिनी ने सोच लिया कि वह इस दुनिया से बाहर आ कर रहेगी. ज्यादा से ज्यादा इस कोशिश में उस की जान चली जाएगी. जिस्म के शोरूम की चीज बने रहने से अच्छा है कि वह मौत को गले लगा ले. अगर वह बच गई, तो समाज का हिस्सा बन जाएगी.

कामिनी ने दीदी को भरोसे में ले लिया. अपने बरताव और काम से उस ने दीदी पर असर जमा लिया. दीदी को यकीन हो गया था कि कामिनी ने खुद को यहां की दुनिया में ढाल लिया है.

एक दिन मौका देख कर कामिनी वहां से भाग गई और ट्रेन में बैठ कर अपने घर चली गई. इतने सालों के बाद कामिनी को देख कर उस के भाई खुश हो गए. उन्होंने कामिनी को बताया कि मातापिता की मौत हो चुकी है. वह अपने भाई विनोद और सोहन के साथ रहने लगी.

भाइयों को दुख न पहुंचे, यह सोच कर उस ने अपने बीते दिनों के बारे में कुछ नहीं बताया. कामिनी का भाई विनोद एक कंपनी में काम करता था. उस कंपनी का मालिक रवींद्र नौजवान था. एक दिन वह विनोद के जन्मदिन की पार्टी में उस के घर आया. विनोद ने उस से कामिनी का परिचय कराया. उसे कामिनी पसंद आ गई. धीरेधीरे रवींद्र और कामिनी के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं.

एक दिन दोनों ने प्रेमविवाह कर लिया. रवींद्र और कामिनी एकदूसरे को बहुत प्यार करते थे. शादी के बाद कामिनी रवींद्र के साथ शहर में किराए के मकान में रहने लगी.

एक दिन रवींद्र की कंपनी में बैठक चल रही थी. रवींद्र को याद आया कि उस की जरूरी फाइल तो घर पर ही रह गई है. रवींद्र ने सुपरवाइजर प्रदीप को वह फाइल लेने अपने घर भेज दिया.

रवींद्र के घर पहुंच कर प्रदीप ने दरवाजे पर खटखट की. थोड़ी देर बाद कामिनी बाहर आ गई. ‘कामिनी, तू यहां? तू ने मुझे पहचाना?’ कामिनी को देख कर प्रदीप बोला.

‘नहीं तो,’ कामिनी बोली.

‘वहां मैं तुम्हारे पास कई बार आया करता था. क्या तुझे यहां साहब किराए पर लाए हैं?’

प्रदीप की बात सुन कर कामिनी चुप रही. प्रदीप कामिनी को बांहों में भरने लगा. वह उसे चूमने की कोशिश करने लगा.

‘परे हट जाओ मेरे सामने से,’ कामिनी चिल्लाई.

‘जानम, मैं ने तुम्हें कई बार प्यार किया है. आज यहां तू और मैं ही तो हैं. मेरी इच्छा पूरी नहीं करोगी?’

‘नहीं, तुम्हें मुझ से तमीज से बात करनी चाहिए. मैं तुम्हारे साहब की बीवी हूं,’ कामिनी चिल्लाई.

‘तमीज से?’ प्रदीप हंस कर बोला.

‘मैं साहब को तुम्हारे बारे में सबकुछ बता दूंगा,’ प्रदीप बोला.

‘नहीं, तुम ऐसा नहीं करोगे. मेरी जिंदगी बरबाद हो जाएगी.’

‘ठीक है. अगर तुम अपनी जिंदगी बरबाद होने से बचाना चाहती हो, तो मैं जब चाहूं तुम्हें मेरी इच्छा पूरी करनी होगी. तुम्हें यह काम आज और अभी से करना होगा. जिस दिन तुम ने मेरा कहा नहीं माना, मैं तुम्हारी पूरी कहानी साहब को बता दूंगा,’ जातेजाते प्रदीप कामिनी से बोला.

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अब प्रदीप रवींद्र की गैरहाजिरी में समयसमय पर कामिनी से मिलने आने लगा.

एक दिन किसी काम से रवींद्र अपने घर समय से पहले आ गया. उस ने प्रदीप और कामिनी को एकसाथ देख लिया. उस ने प्रदीप और कामिनी को बुरी तरह डांटा. उस ने प्रदीप को नौकरी से हटाने की धमकी दी. प्रदीप ने रवींद्र को कामिनी के बारे में सबकुछ बता दिया. रवींद्र ने कामिनी का साथ छोड़ दिया. कामिनी के बारे में जब उस के भाइयों को पता चला, तो उन्होंने भी उसे अपने साथ रखने से मना कर दिया.

कामिनी के पास फिर उसी दुनिया में लौटने के सिवा कोई रास्ता नहीं रह गया था. ‘‘कामिनी, आज भी कुछ कमाया या नहीं?’’ दीदी की बात सुन कर कामिनी यादों से बाहर आ गई.

दादी अम्मा : भाग 1-आखिर कहां चली गई थी दादी अम्मा

लेखक- असलम कोहरा

दादी अम्मा कहीं चली गई थीं. कहां गई थीं, किसी को पता नहीं चला. रातदिन की उपेक्षा और दुर्दशा के कारण एक न एक दिन यह होना ही था. पहले कभीकभी अकेलेपन से दिल घबराने या तबीयत खराब होने पर वे पासपड़ोस के घरों में या महल्ले के हकीम साहब से माजून लेने चली जाती थीं. लेकिन 2-3 घंटे या फिर देर हुई तो शाम तक घर वापस आ जाती थीं. इस बार जब वे देर रात तक नहीं लौटीं तो तीनों बेटों को चिंता सताने लगी. तमाम रिश्तेदारों में पूछताछ की, लेकिन उन का कहीं पता नहीं चला.

‘‘पता नहीं कहां चली गईं अम्मा, दिल फटा जा रहा है, चचा. 1 महीने से ज्यादा वक्त हो गया है, न जाने किस हाल में होंगी,’’ बड़े बेटे रेहान ने मायूसी भरे लहजे में हाजी फुरकान से कहा.

हाजी फुरकान पूरे महल्ले के मुंहबोले चचा थे. रेहान के घर पर उन का कुछ ज्यादा ही आनाजाना था. वे दादी अम्मा के बारे में ही पूछने आए थे.

‘‘बेटा, दुखी मत हो. सब्र से काम लो,’’ हाजी फुरकान ने दिलासा दिया.

‘‘चचा, दुख तो इस बात का है कि हम तीनों भाइयों ने उन की कोई खिदमत नहीं की. अब कैसे प्रायश्चित्त करें कि दिल को सुकून मिले. हम उन की खिदमत न कर पाने से तो दुखी हैं ही, उस से भी बड़ी परेशानी यह है कि अम्मा की कई ख्वाहिशें अधूरी रह गई हैं. न वे कुछ मनचाहा खापी सकीं और न ही पहनओढ़ सकीं. इस के पछतावे में हम सब का दिल बैठा जा रहा है.’’

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तभी आंगन के दूसरी ओर बने कमरे में से उस का छोटा भाई जुबैर अपनी बीवीबच्चों के साथ आ गया.

‘‘जुबैर बेटा, अपने भाई को समझाओ, ज्यादा आंसू न बहाए, सबकुछ ठीक हो जाएगा,’’ हाजी फुरकान ने जुबैर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा. थोड़ी देर बाद उन्होंने दोनों भाइयों से पूछा, ‘‘फैजान कहां है? उसे भी जरा बुलाओ. कुछ खास बात करनी है तुम सब भाइयों के साथ.’’

जुबैर मकान के सामने के हिस्से के ऊपर बने कमरों में से एक कमरे का परदा हटा कर उस में घुस गया. थोड़ी देर बाद वह फैजान को ले कर नीचे आ गया. हाजी फुरकान तीनों भाइयों को ले कर घर की बैठक में चले गए.

‘‘बेटा, परेशान और पशेमान होने की कोई जरूरत नहीं है. अली मियां की मजार पर बैठने वाले मुजाविर गफूर मियां को तुम जानते ही हो. हर मर्ज का इलाज है उन के पास. वे और उन के साथी जाबिर मियां तुम्हें सभी दुखों से नजात दिला देंगे. जनाब जाबिर मियां तो तावीजगंडों और झाड़फूंक में माहिर हैं, माहिर, समझे. अपनी रूहानी ताकतों से अम्मा का पता लगा लेंगे. अगर जिंदा हुईं तो उन्हें घर आने पर मजबूर कर देंगे और यदि मर गई होंगी तो उन की रूह को सुकून दिला देंगे,’’ हाजी फुरकान ने ऐसी शान से कहा जैसे उन्होंने रेहान और उस के भाइयों के दुख दूर करने का ठेका ले रखा हो.

‘‘चचाजान, गफूर मियां और जाबिर मियां से जल्दी मिला दीजिए,’’ जुबैर तपाक से बोला.

‘‘जब तुम सब ने मुझ पर भरोसा किया है तो समझ लो कि तुम्हारी सारी परेशानियों का खात्मा हो गया. मैं कल ही गफूर मियां और जाबिर मियां को बुला लाऊंगा,’’ भरोसा दे कर हाजी फुरकान चले गए.

अपने अब्बू और चाचाओं की ये सारी बातें रेहान की बड़ी बेटी आरजू भी सुन रही थी. 12वीं कक्षा में पढ़ रही आरजू अपनी दादी अम्मा से काफी घुलीमिली थी. एक तरह से वह उन्हें ही अपनी मां समझती थी. वह अपनी दादी को बहुत चाहती थी और दादी अम्मा कह कर पुकारती थी. दादी अम्मा के चले जाने से सब से अधिक दुख उसी को था. अब्बू और चाचाओं के दोहरे व्यवहार को देख कर उस का कलेजा फटा जा रहा था. जब से उस ने होश संभाला था तब से घर में दादी अम्मा की उपेक्षा और दुर्दशा देख रही थी.

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जब तक अम्मा घर पर थीं तो बेटों ने उन की महत्ता नहीं समझी. अब उन्हें उन की कमी दुख दे रही थी. अलग रहते हुए भी अम्मा पूरे घरबार के टब्बर को कैसे समेटे रहती थीं. शादीब्याह और दूसरे कार्यक्रमों में जब बेटे अपनी बीवियों के साथ कुछ दिनों के लिए चले जाते तो अम्मा ही उन के बच्चों को ऐसे संभालतीं जैसे मुरगी अपने चूजों को परों के नीचे सुरक्षा देती है. घर के कार्यक्रमों में भी उन की मौजूदगी से सब निश्चिंत से हो जाते.

कई बार हलकीफुलकी बीमारी में तो बच्चे दादी अम्मा की गरम गोद, उन की कड़वे तेल की मालिश और घरेलू नुस्खों से ही ठीक हो जाते थे. अब उन के चले जाने से घर का भारीपन कहीं खो गया था. लगा, जैसे घर की छत उड़ गई हो और दीवारें नंगी हो गई हों. बेटेबहुएं पछता रही थीं कि काश, वे घर के बुजुर्ग का मूल्य समझ पाते. दादी अम्मा के साए में घर और बच्चों को सुरक्षित समझते हुए बेटे और बहुएं अपनेआप में मगन थे. लेकिन अब सुरक्षा का आवरण कहीं नहीं था. घर के सूनेपन और बच्चों के पीले चेहरों ने बेटों और बहुओं को झकझोर कर रख दिया था. उन्हें पछतावा हो रहा था कि जो अम्मा अकेले पूरे घर को समेटे हुए थीं, उन्हें पूरे घर के लोग मिल कर भी क्यों नहीं समेटे रख सके. पूरा घर आह भर रहा था, काश, दादी अम्मा वापस आ जाएं.

अम्मा का चरित्र कुछ इस तरह आंखों के सामने चित्रित होने लगा: दादी अम्मा जब इस घर में आई थीं तो उस समय उन की उम्र यही कोई 19 वर्ष की रही होगी. मांबाप ने उन का प्यारा सा नाम रखा था, सकीना. पिछड़े घराने से ताल्लुक रखने के कारण वे बस 5 दरजा तक ही पढ़ सकी थीं, लेकिन सुंदरता, गुणवत्ता और गुरुत्वता उन में कूटकूट कर भरी थी. मांबाप ने उन का विवाह महल्ले के 10वीं पास सुलेमान बेग से कर दिया था.

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बचपना : पिया की चिट्ठी देख क्यों खुश नहीं थी सुधा

लेखक- रामसरन गंगवार ‘रामशरण’

आज फिर वही चिट्ठी मनीआर्डर के साथ देखी, तो सुधा मन ही मन कसमसा कर रह गई. अपने पिया की चिट्ठी देख उसे जरा भी खुशी नहीं हुई.

सुधा ने दुखी मन से फार्म पर दस्तखत कर के डाकिए से रुपए ले लिए और अपनी सास के पास चली आई और बोली ‘‘यह लीजिए अम्मां पैसा.’’

‘‘मुझे क्या करना है. अंदर रख दे जा कर,’’ कहते हुए सासू मां दरवाजे की चौखट से टिक कर खड़ी हो गईं. देखते ही देखते उन के चेहरे की उदासी गहरी होती चली गई.

सुधा उन के दिल का हाल अच्छी तरह समझ रही थी. वह जानती थी कि उस से कहीं ज्यादा दुख अम्मां को है. उस का तो सिर्फ पति ही उस से दूर है, पर अम्मां का तो बेटा दूर होने के साथसाथ उन की प्यारी बहू का पति भी उस से दूर है.

यह पहला मौका है, जब सुधा का पति सालभर से घर नहीं आया. इस से पहले 4 नहीं, तो 6 महीने में एक बार

तो वह जरूर चला आता था. इस बार आखिर क्या बात हो गई, जो उस ने इतने दिनों तक खबर नहीं ली?

अम्मां के मन में तरहतरह के खयाल आ रहे थे. कभी वे सोचतीं कि किसी लड़की के चक्कर में तो नहीं फंस गया वह? पर उन्हें भरोसा नहीं होता था.

हो न हो, पिछली बार की बहू की हरकत पर वह नाराज हो गया होगा. है भी तो नासमझ. अपने सिवा किसी और का लाड़ उस से देखा ही नहीं जाता. नालायक यह नहीं समझता, बहू भी तो उस के ही सहारे इस घर में आई है. उस बेचारी का कौन है यहां?

सोचतेसोचते उन्हें वह सीन याद आ गया, जब बहू उन के प्यार पर अपना हक जता कर सूरज को चिढ़ा रही थी और वह मुंह फुलाए बैठा था.

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अगली बार डाकिए की आवाज सुन कर सुधा कमरे में से ही कहने लगी, ‘‘अम्मां, डाकिया आया है. पैसे और फार्म ले कर अंदर आ जाइए, दस्तखत कर दूंगी.’’

सुधा की बात सुन कर अम्मां चौंक पड़ीं. पहली बार ऐसा हुआ था कि डाकिए की आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी दरवाजे तक नहीं गई… तो क्या इतनी दुखी हो गई उन की बहू?

अम्मां डाकिए के पास गईं. इस बार उस ने चिट्ठी भी नहीं लिखी थी. पैसा बहू की तरफ बढ़ा कर अम्मां रोंआसी आवाज में कहने लगीं, ‘‘ले बहू, पैसा अंदर रख दे जा कर.’’

अम्मां की आवाज कानों में पड़ते ही सुधा बेचैन निगाहों से उन के हाथों को देखने लगी. वह अम्मां से चिट्ठी मांगने को हुई कि अम्मां कहने लगीं, ‘‘क्या देख रही है? अब की बार चिट्ठी भी नहीं डाली है उस ने.’’

सुधा मन ही मन तिलमिला कर रह गई. अगले ही पल उस ने मर जाने के लिए हिम्मत जुटा ली, पर पिया से मिलने की एक ख्वाहिश ने आज फिर उस के अरमानों पर पानी फेर दिया.

अगले महीने भी सिर्फ मनीआर्डर आया, तो सुधा की रहीसही उम्मीद भी टूट गई. उसे अब न तो चिट्ठी आने का भरोसा रहा और न ही इंतजार.

एक दिन अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई. पहली बार तो सुधा को लगा, जैसे वह सपना देख रही हो, पर जब दोबारा किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो वह दरवाजा खोलने चल दी.

दरवाजा खुलते ही जो खुशी मिली, उस ने सुधा को दीवाना बना दिया. वह चुपचाप खड़ी हो कर अपने साजन को ऐसे ताकती रह गई, मानो सपना समझ कर हमेशा के लिए उसे अपनी निगाहों में कैद कर लेना चाहती हो.

सूरज घर के अंदर चला आया और सुधा आने वाले दिनों के लिए ढेर सारी खुशियां सहेजने को संभल भी न पाई थी कि अम्मां की चीखों ने उस के दिलोदिमाग में हलचल मचा दी.

अम्मां गुस्सा होते हुए अपने बेटे पर चिल्लाए जा रही थीं, ‘‘क्यों आया है? तेरे बिना हम मर नहीं जाते.’’

‘‘क्या बात है अम्मां?’’ सुधा को अपने पिया की आवाज सुनाई दी.

‘‘पैसा भेज कर एहसान कर रहा था हम पर? क्या हम पैसों के भूखे हैं?’’ अम्मां की आवाज में गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा था.

‘‘क्या बात हो गई?’’ आखिर सूरज गंभीर हो कर पूछ ही बैठा.

‘‘बहू, तेरा पति पूछ रहा है कि बात क्या हो गई. 2 महीने से बराबर खाली पैसा भेजता रहता है, अपनी खैरखबर की छोटी सी एक चिट्ठी भी लिखना इस के लिए सिर का बोझ बन गया और पूछता है कि क्या बात हो गई?’’

सूरज बिगड़ कर कहने लगा, ‘‘नहीं भेजी चिट्ठी तो कौन सी आफत आ गई? तुम्हारी लाड़ली तो तुम्हारे पास है, फिर मेरी फिक्र करने की क्या जरूरत पड़ी?’’

सुधा अपने पति के ये शब्द सुन कर चौंक गई. शब्द नए नहीं थे, नई थी उन के सहारे उस पर बरस पड़ी नफरत. वह नफरत, जिस के बारे में उस ने सपने में भी नहीं सोचा था.

सुधा अच्छी तरह समझ गई कि यह सब उन अठखेलियों का ही नतीजा है, जिन में वह इन्हें अम्मां के प्यार पर अपना ज्यादा हक जता कर चिढ़ाती रही है, अपने पिया को सताती रही है.

इस में कुसूर सिर्फ सुधा का ही नहीं है, अम्मां का भी तो है, जिन्होंने उसे इतना प्यार किया. जब वे जानती थीं अपने बेटे को, तो क्यों किया उस से इतना प्यार? क्यों उसे इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि वह इस घर की बेटी नहीं बहू है?

अम्मां सुधा का पक्ष ले रही हैं, यह भी गनीमत ही है, वरना वे भी उस का साथ न दें, तो वह क्या कर लेगी. इस समय तो अम्मां का साथ देना ही बहुत जरूरी है.

अम्मां अभी भी अपने बेटे से लड़े जा रही थीं, ‘‘तेरा दिमाग बहुत ज्यादा खराब हो गया है.’’

अम्मां की बात का जवाब सूरज की जबान पर आया ही था कि सुधा बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘यह सब अच्छा लगता है क्या आप को? अम्मां के मुंह लगे चले जा रहे हैं. बड़े अच्छे लग रहे हैं न?’’

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‘‘चुप, यह सब तेरा ही कियाधरा है. तुझे तो चैन मिल गया होगा, यह सब देख कर. न जाने कितने कान भर दिए कि अम्मां आते ही मुझ पर बरस पड़ीं,’’ थोड़ी देर रुक कर सूरज ने खुद पर काबू करना चाहा, फिर कहने लगा, ‘‘यह किसी ने पूछा कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं भेजी? इस की फिक्र किसे है? अम्मां पर तो बस तेरा ही जादू चढ़ा है.’’

‘‘हां, मेरा जादू चढ़ा तो है, पर मैं क्या करूं? मुझे मार डालो, तब ठीक रहेगा. मुझ से तुम्हें छुटकारा मिल जाएगा और मुझे तुम्हारे बिना जीने से.’’

अब जा कर अम्मां का माथा ठनका. आज उन के बच्चों की लड़ाई बच्चों का खेल नहीं थी. आज तो उन के बच्चों के बीच नफरत की बुनियाद पड़ती नजर आ रही थी. बहू का इस तरह बीच में बोल पड़ना उन्हें अच्छा नहीं लगा.

वे अपनी बहू की सोच पर चौंकी थीं. वे तो सोच रही थीं कि उन के बेटे की सूरत देख कर बहू सारे गिलेशिकवे भूल गई होगी.

अम्मां की आवाज से गुस्सा अचानक काफूर गया. वे सूरज को बच्चे की तरह समझाने लगीं, ‘‘इस को पागल कुत्ते ने काटा है, जो तेरी खुशियां छीनेगी? तेरी हर खुशी पर तो तुझ से पहले खुश होने का हक इस का है. फिर क्यों करेगी वह ऐसा, बता? रही बात मेरी, तो बता कौन सा ऐसा दिन गुजरा, जब मैं ने तुझे लाड़ नहीं किया?’’

‘‘आज ही देखो न, यह तो किसी ने पूछा नहीं कि हालचाल कैसा है? इतना कमजोर कैसे हो गया तू? तुम को इस की फिक्र ही कहां है. फिक्र तो इस बात की है कि मैं ने चिट्ठी क्यों नहीं डाली?’’ सूरज बोला.

अम्मां पर मानो आसमान फट पड़ा. आज उन की सारी ममता अपराधी बन कर उन के सामने खड़ी हो गई. आज यह हुआ क्या? उन की समझ में कुछ न आया.

अम्मां चुपचाप सूरज का चेहरा निहारने लगीं, कुछ कह ही न सकीं, पर सुधा चुप न रही. उस ने दौड़ कर अपने सूरज का हाथ पकड़ लिया और पूछने लगी, ‘‘बोलो न, क्या हुआ? तुम बताते क्यों नहीं हो?’’

‘‘मैं 2 महीने से बीमार था. लोगों से कह कर जैसेतैसे मनीआर्डर तो करा दिया, पर चिट्ठी नहीं भेज सका. बस, यही एक गुनाह हो गया.’’

सुधा की आंखों से निकले आंसू होंठों तक आ गए और मन में पागलपन का फुतूर भर उठा, ‘‘देखो अम्मां, सुना कैसे रहे हैं? इन से तो अच्छा दुश्मन भी होगा, मैं बच्ची नहीं हूं, अच्छी तरह जानती हूं कि भेजना चाहते, तो एक नहीं 10 चिट्ठियां भेज सकते थे.

‘‘नहीं भेजते तो किसी से बीमारी की खबर ही करा देते, पर क्यों करते ऐसा? तुम कितना ही पीछा छुड़ाओ, मैं तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाली.’’

अम्मां चौंक कर अपनी बहू की बौखलाहट देखती रह गईं, फिर बोलीं, ‘‘क्या पागल हो गई है बहू?’’

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‘‘पागल ही हो जाऊं अम्मां, तब भी तो ठीक है,’’ कहते हुए बिलख कर रो पड़ी सुधा और फिर कहने लगी, ‘‘पागल हो कर तो इन्हें अपने प्यार का एहसास कराना आसान होगा. किसी तरह से रो कर, गा कर और नाचनाच कर इन्हें अपने जाल में फंसा ही लूंगी. कम से कम मेरा समझदार होना तो आड़े नहीं आएगा,’’ कहतेकहते सुधा का गला भर आया.

सूरज आज अपनी बीवी का नया रूप देख रहा था. अब गिलेशिकवे मिटाने की फुरसत किसे थी? सुधा पति के आने की खुशियां मनाने में जुट गई. अम्मां भी अपना सारा दर्द समेट कर फिर अपने बच्चों से प्यार करने के सपने संजोने लगी थीं.

वारिस : सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत

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‘मां’ तो ‘मां’ है: क्या सास को मां मान सकी पारुल

लेखिका- प्रीता जैन

बेटा पारुल 3 बजने को है खाना खाया कि नहीं ओह! माँ नही खाया आप चिंता ना करो अभी खा लेती हूँ, ठीक है 15 मिनट में फिर फोन करती हूँ सब काम छोड़ पहले खाना खा. कहने को तो निर्मला जी पारुल की सास हैं पर शादी के बाद उसकी हर इच्छा का ध्यान रखते हुए भरपूर प्यार दिया हर जरूरत का ख्याल रखा फटाफट टिफिन खोल खाना खाने बैठी ताकि माँ को तसल्ली हो जाए, खा-पी 10-15 मिनट आराम करने की सोच किसी को कमरे में ना आने के लिए चपरासी को बोल दिया.

आँख बंद कर बैठी ही थी कि एक साल पुरानी यादों ने आ घेरा, उसकी और साहिल की जोड़ी को जो कोई देखता यही कहता एक-दूसरे के लिए ही बने हैं परस्पर इतना आपसी प्रेम कि शादी के

24 साल बाद भी एक साथ घूमते-फिरते यही कोशिश रहती हर क्षण साथ ही रहें पल भर को भी अलग ना होना पड़े, बेहद प्यार करने वाले दो बेटे अंकुर व नवांकुर कहने का मतलब हंसता-मुस्कुराता सुखी परिवार. किंतु विधाता के मन की कोई नहीं जानता, पिछले साल नए साल की पार्टी का जश्न मना खुशी-खुशी सोए रात को अचानक साहिल की छाती में तेज़ दर्द उठा जब तक पारुल या घरवाले कुछ समझ हॉस्पिटल पहुंचाते तब तक साहिल का साथ छूट चुका था पारुल की दुनिया वीरान हो चुकी थी.

‌सुबह से ही लोगों का आना-जाना शुरू हो गया, साहिल थे ही इतने मिलनसार-ज़िंदादिल कि कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था वो अब नहीं है अनंत यात्रा के लिए निकल चुके हैं. पारुल को समझ नहीं आ रहा था या यूं कहलें समझना नहीं चाह रही थी ये क्या हो रहा है? एकाएक जिंदगी में कैसा तूफान आ गया? जिससे सारा घर बिखर गया तहस-नहस हो गया, बच्चों का सास-ससुर का मुँह देख अपने को हिम्मत देने लगती फिर अगले ही पल साहिल की याद संभलने ना देती.

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खैर! जाने वाला चला गया, अब तो रीति-रिवाज़ निभाने ही थे तीसरे दिन उठावनी की रस्म हुई
विधि-विधान से सब  होने के बाद निर्मला जी पारुल की तरफ देख बोलीं, जल्दी से अच्छी सी साड़ी पहन तैयार हो जा आज ऑफिस खोलने जाना है. पारुल क्या किसी को भी समझ नहीं आया
निर्मला जी कह क्या रही हैं? कुछ देर से फिर बोलीं, जा पारुल तैयार होकर आ तुझे आज से ही साहिल का सपना पूरा करना है जो उसका मोटरपार्ट्स का काम है जिन ऊंचाइयों तक वो ले जाना चाहता था अब तुझे ही पूर्ण करना है, उठ! मेरी बिटिया देर ना कर अपने साहिल की इच्छा पूरी करने का प्रण कर.

‌पारुल जानती-समझती थी माँ जो कुछ भी कहेंगी या करेंगी उसमे कहीं ना कहीं भलाई होगी हित ही छुपा होगा, इसलिये सवाल-जवाब किए बिना तैयार हो शॉप के लिए चल दी साथ में ससुर और दोनों बेटे अंकुर-नवांकुर थे. शॉप खोल काम शुरू करने की रस्म निभाई किंतु घर आकर उसके सब्र का बांध फिर टूट गया, निर्मला जी ने तो अपना दिल पत्थर का बना लिया था क्योंकि उनकी आंखों को पारुल व बच्चों का भविष्य जो दिख रहा था.

निर्मला जी ने अपने पति की ओर देखा फिर दोनों जन पारुल के पास आए, सिर पर हाथ रख ढाढस बांधने लगे. निर्मला जी उसका सिर अपनी गोदी में रख पुचकारते हुए बोलीं, हमारा प्यारा साहिल हमसे बहुत दूर चला गया जीवन का कटु सत्य है अब कभी ना लौटकर आएगा, परंतु यह भी उतना ही कटु सत्य है कि जाने वाले के करीबी या जो पारिवारिक सदस्य होते हैं उनकी बाकी जिंदगी सिर्फ रो-रोकर शोक करते रहने से तो नहीं बीत सकती. जिंदा रहने के लिए खाना-पीना और
घरेलू-बाहरी सभी काम करना अत्यंत जरूरी रहता है, यह तो जीवन है बेटा जिसके नियम-कायदे हम इंसानों को मानने ही पड़ते हैं हमारी इच्छा या अनिच्छा मायने नहीं रखती. बेटा अब साहिल तो नहीं है लेकिन तुझसे जुड़े दोनों बच्चे तथा हमारा परिवार है, हम सभी को एक-दूसरे का सहारा बन रहना होगा एक-दूजे के लिए ख़ुशीपूर्वक ज़िंदगानी बितानी होगी.
सबसे अहम बात जीने के लिए आत्मनिर्भर होना पड़ेगा बेटा पारुल जो भी तुझे समझा अथवा कह रही हूँ वो हमेशा अपनी माँ की सीख मान याद रखना, अब से मैं तेरी सासू माँ नहीं माँ हूँ और
माँ तो माँ होती है.

साहिल को गए अभी तीन दिन हुए हैं ऐसे ही 30 दिन फिर 3 महीने और साल दर साल होते जाएंगे, ये नाते-रिश्तों का तू सोच रही हो कि तेरा व तेरे बच्चों का संग-साथ देते रहेंगे तो अभी से इस भ्रम में ना रह, भूल जा कोई साथ देता रहेगा. वो तो जब तक हम माँ-पिता हैं तब तक तुझे किसी तरह की परेशानी ना होने देंगे लेकिन बाद में मेरी बिटिया को किसी पर भी निर्भर ना होना पड़े अभी से इस बारे में सोचना होगा, हम अपने अनुभवों व तज़ुर्बे से बता रहे हैं कोई जीवन में ज्यादा दिन साथ नहीं दे सकता एकाध दिन की बात अलग है. उठ! बेटा पारुल आगे की सोच, जो होना था हो गया हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते अब अपने और बच्चों के भविष्य की सोच बाकी का जीवन कैसे बिताना है ध्यान दे.

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माँमाँ यह क्या कह रही हो आप, क्या करूं कैसे करूं? मुझे तो कुछ नहीं आता सब तो साहिल ही संभालते थे, आप सब मेरी चिंता ना करो मेरी जिंदगी कैसे ना कैसे बीत ही जाएगी.

कैसी बात कर रही है? सिर्फ भावनाओं के सहारे नहीं रहा जा सकता, समय के साथ-साथ प्रैक्टिकल होना पड़ता है जिंदगी बसर करने के लिए बहुत कुछ सहना और फिर करना भी पड़ता है. साहिल तो यादों में हम सबके साथ हमेशा रहेगा, अब तेरहवीं की रस्म के बाद ऑफिस जा व साहिल ने जो बिजनेस शुरू किया है उसको किसी के भी भरोसे ना छोड़ते हुए स्वयं के बलबूते आगे बुलंदियों तक ले जा, यह काम तुझे ही पूरा करना है बेटा. अब कुछ और ना सोच, कुछ दिनों बाद तू ऑफिस की जिम्मेदारी संभाल घर और बच्चों को मैं देख लिया करूंगी फिर कह रही हूँ, साहिल की यादों के संग आगे बढ़ अपनी जिंदगी हंसते-मुस्कुराते बच्चों व अपनों के साथ बिता.

किन्तु…पर कैसे माँ मुझे तो बिजनेस का कुछ भी अता-पता नहीं, अकेले नहीं संभाल सकती मैं.

कितनी बार हंसकर ही सही पर साहिल से कहती थी अपने साथ कभी तो मुझे भी ऑफिस ले चला करो जानना-समझना चाहती हूँ तो पता है माँ, साहिल बोला करते थे तू तो घर की रानी बनकर रह किसी बात की चिंता ना कर मैं हूँ ना सब संभालने के लिए, अब तुम्हीं बताओ ऐसा कहकर फिर क्यूँ छोड़कर चले गए मुझे अब कैसे संभालूं?

कोई बात नहीं मेरी बच्ची, होनी का किसी को नहीं पता कब क्या हो जाए? कोई नही जानता यहां तक कि अगले पल की खैर-खबर नहीं रहती. तू समझदार हैं पढ़ी-लिखी है इसलिए काम के बारे में जल्दी सीख जाएगी, तेरे पापा को भी थोड़ी बहुत बिज़नेस की जानकारी व समझ है. वैसे तो साहिल अपने पापा को भी ऑफिस ना आने देता था यही कहता रहता था, घर पर रह आराम करो बहुत काम कर लिया किंतु फिर भी कुछेक जानकारी तो है जिससे काफी हद तक तुझे स्वनिर्भर होने में अपना योगदान दे सकेंगे.
हाँ बेटा! तू बिलकुल चिंता मत कर, अभी तेरा पापा जिंदा है नई राह पर हर कदम तेरे साथ है बस! मानसिक तौर पर खुद को मजबूत कर ले ज़रा हिम्मत ना हार, हम सबकी खुशियों का एकमात्र सहारा तू ही है. अंकुर तथा नवांकुर के जीवन की अभी शुरुआत हुई है उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए उन्हें खुशियों की सौगात देने का स्वयं से वादा करते हुए घर-बाहर की जिम्मेदारी निष्ठा से पूर्ण करने का निश्चय कर, तेरे मम्मी-पापा सिर्फ और सिर्फ तेरे संग हैं.
पारुल अब हम दोनों की बात का मान रखते हुए स्वाभिमान के साथ अपने उद्देश्य को हर हाल में पूरा करना, हिम्मत कर एक और बात मन की कहना चाहूँगी, बिटिया यदि जीवन के किसी मोड़ या रास्ते में दूसरा साहिल मिलने लगे तो इधर-उधर की परवाह किए बिना निःसंकोच उसका हाथ थाम लेना, इससे सफर जीवन का आसानी से कट जाएगा समय का ज्यादा मालुम ना पड़ेगा.

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माँमाँ…..आगे के शब्द नही मुँह से निकल सके निःशब्द हो चुकी थी पारुल, सिर्फ अपने
माँ-पिताजी तुल्य सास-ससुर को निहार रही थी.
तभी मैडम-मैडम की आवाज से पारुल का ध्यान भंग हुआ चेतना में वापिस लौटी, हाँ-हाँ बोलो क्या कहना चाहते हो? वो मीटिंग के लिए आपका सभी इंतज़ार कर रहे हैं बता दें कब शुरू करनी है? ओह! तुम सभी मेंबर्स को जाकर कह दो 10 मिनट से बातचीत करते हैं.

पारुल उठी, एक गिलास पानी पिया और अपनी सासू माँ यानी अपनी माँ को मन ही मन हाथ जोड़ तहे दिल से धन्यवाद दिया, क्योंकि उन्हीं के स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन से प्रेरित हो कुछ ही समय में आत्मनिर्भर बन अपना आत्मसम्मान अपनी खुद की पहचान बनाने में कामयाब हो सकी थी.

अपनी मंजिल: क्या था सुदीपा का फैसला

लेखिका- सीमा गर्ग

“मां, मैं आप से बारबार कह चुकी हूं कि अभी शादी नहीं करूंगी. मुझे अभी आगे पढ़ाई करनी है,” सुदीपा ने मां के समीप जा कर बड़े प्यार से कहा.

“सुदीपा बेटा, क्या खराबी है लड़के में? इंजीनियर है, ऊंचे खानदान और रसूख वाला है. तेरे पापा के मित्र का लड़का है और अच्छी आमदनी है उस की. शुक्र मनाओ कि जिस शानदार और आरामदायक जिंदगी जीने के लिए अधिकतर लड़कियां केवल सपने देखती आई हैं, वे सारी खुशियां तुम्हें बिना मांगे ही मिल रहा है. 2 हजार गज में बनी शानदार कोठी है उन की…

“दसियों नौकरचाकर वहां एक आवाज पर हाथ बांधे खडे रहते हैं. इतने योग्य और गुणवान लड़के का रिश्ता खुद चल कर तुम्हारे पास आया है. सारे सुख व ऐश्वर्य हैं उस घर में. और क्या चाहिए तुम्हें…” मां ने नाराजगी जाहिर करते हुए सुदीपा के गाल पर हलकी सी चपत लगाई .

मां के गले से लिपटती सुदीपा बोली,”मेरी प्यारी मां, मुझे आगे बढ़ने के लिए पढ़ाई करनी है अभी. मुझे अभी योग्य शिक्षिका बनना है, जिस से कि अपने भीतर समाए ज्ञान को अन्य को बांट सकूं,” सुदीपा मां को मनाने के लिए हरसंभव प्रयास कर रही थी, क्योंकि मां के इनकार करने पर ही यह रिश्ता टल सकता था.

“सुदीपा, तुम एक बार उस लड़के से मिल कर देख तो लो,” सुदीपा को विचार में डूबा देख कर मां ने उस पर आखिरी बात छोड़ते हुए कहा.

एमए की हुई सुदीपा गोरीचिट्टी, लंबी, छरहरी काया वाली आकर्षक युवती थी. संगीत विशारद में विशेष योगदान हेतु गोल्ड मैडलिस्ट थी. उस के पड़ोसी, परिचित, नातेरिश्तेदार आदि सभी सुदीपा के सुंदर व्यक्तित्व एवं हंसमुख व्यवहार की प्रशंसा किए
बिना नहीं रहते थे. जैसे अधिकतर लोग रूपसौंदर्य और सुगढ़ता को देख कर अनायास ही कह उठते हैं कि कुदरत ने इसे बहुत फुरसत में गढ़ा होगा, ऐसे ही रूपवती सुदीपा जब गजगामिनी चाल की मंथर गति से चलती थी तब अनेक चाहने वाले उसे पाने की तमन्ना रखते थे.

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मन ही मन उसे चाहने वाले आहें भरते थे और सुदीपा से मिलने के बहाने ढूंढ़ा करते थे. वह तो अपनेआप में खुश रहने वाली मस्त लड़की थी. सुदीपा की कमर तक लहराते बाल बिजलियां गिराती थीं. पतलीपतली और लंबी उंगलियां जब सितार पर राग छेड़तीं तो उसे देखनेसुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते.

मां का कहना मान कर एक दिन सुदीपा समीर नाम के उस लड़के से मिली. वह लड़का उसे सुंदर लगा. रूपरंग, व्यक्तित्व के अनुसार वह सुदर्शन नवयुवक था. 2-4 मुलाकातों के बाद सुदीपा को समीर पसंद आ गया था. संयोग से तभी सुदीपा को कालेज में अध्यापिका की नौकरी भी मिल गई थी.

सुदीपा के मम्मीपापा सगाई कर के ही उसे नौकरी पर जाने देने की जिद कर रहे थे. इसलिए मम्मीपापा का दिल रखने के लिए उस ने सगाई की हामी भर दी. नौकरी पर जाने से पहले ही दोनों की धूमधाम से सगाई हो गई थी.

कोमल कुआंरे मन में सुंदर जीवन के अनेक रंगीन सपने सजाए सुदीपा कालेज में पहुंच गई. वह दिल्ली शहर की एक सोसायटी फ्लैट में किराए पर रहने लगी. सगाई हो जाने के कारण समीर काम के सिलसिले में जब दिल्ली आता तो सुदीपा से मिलने चला आता था. दोनों तरफ से रिश्ते की डोर मजबूत हो जाए, एकदूसरे को अच्छी तरह से जानसमझ लें,
इस के लिए वे किसी रेस्तरां में कौफी पीने या कभी डिनर करने चले जाते थे. कभीकभी कोई अच्छी और नई मूवी साथ देखने के लिए मौल भी चले जाते थे.

ऐसे ही उन के बीच प्यार भरी मेलमुलाकातों का सिलसिला जारी था. अब सुदीपा और समीर के बीच घनिष्ठता भरे संबंध पनपने लगे थे. मगर इधर कुछ दिनों से सुदीपा ने एहसास किया था कि समीर में शिष्टाचार और विनम्रता जैसे संस्कारी गुण बहुत कम थे. उस ने कई बार समीर को फोन पर अपनी बात मनवाने के लिए सामने वाले को दबंग टाइप से हड़काते हुए भी सुना था.सुदीपा के साथ होने पर भी लापरवाह सा समीर फोन पर अकसर गालीगलौच कर दिया करता था. सुदीपा आधुनिक और खुले विचारों को दिल में जगह देने वाली संस्कारी और मृदुभाषी लडकी थी.

एक दिन सुदीपा कुछ खरीदारी कर के सोसायटी में प्रवेश कर रही थी. उस के दोनों हाथों में सामान था कि तभी अचानक हाई हील सैंडिल के कारण उस का संतुलन बिगड़ गया और वह डगमगा कर नीचे गिर पड़ी.तभी अचानक एक हाथ ने सहारा दे कर उसे उठाया,”अरे, आप को तो काफी चोटें लगी हैं. मैं आप का सामान समेट देता हूं…” अपने सामने गोरेचिट्टे, लंबे कद के सुंदर नाकनक्श वाले लड़के की आवाज सुन कर वह अचकचा गई.

उस की कुहनियां छिल गई थीं. पैर में मोच आ गई थी. उस लड़के ने अपने कंधे पर उस का हाथ पकड़ कर सहारा दिया,”आइए, मैं आप को कमरे तक छोड़ देता हूं,” वह चुपचाप लगंडाते हुए उस के साथ चल पड़ी.

टेबल पर सामान रख कर लड़के ने कहा,”मैं फस्ट ऐड बौक्स ला कर पट्टी बांध देता हूं,” अब वह लड़का ड्रैसिंग कर रहा था.

वह अब तक स्वयं को काफी संभाल चुकी थी. अकेले कमरे में अनजान लड़के के हाथ में अपना हाथ देख कर सुदीपा के मन को भारतीय संस्कार और परंपराएं घेरने लगीं. लेकिन वह लड़का बड़ी सहजता से उस के हाथ पर दवा लगा कर पट्टी बांध रहा था. उस लड़के के स्पर्श से सुदीपा असहज और रोमांचित हो रही थी,”अब तुम आराम करो मैं चाय बना लाता हूं,” थोड़ी देर में वह ट्रै में चाय और बिस्कुट ले आया.

वे दोनों कुछ देर एकदूसरे के परिवार के बारे में बात करते रहे. चलते समय उस ने एक गहरी नजर डाली और अपना फ्लैट नंबर बता कर बोला,”कोई भी जरूरत हो तो मुझे बता देना. संकोच मत करना…”

जब तक उस के पैर की मोच ठीक नहीं हो गई तब तक वह रोज उस के लिए कभी चाय बना कर लाता, तो कभी सैंडविच ले आता. बाहर से एकसाथ खाना भी और्डर कर देता फिर दोनों साथ ही खाना खाते.

सुदीपा के के मन में प्रेम का पहला एहसास फूटा था. एक अनजान कोमल स्पर्श दिल में तरंगित हो कर रमने लगा था. वह अपने घरसमाज की वर्जनाएं जानती थी. संस्कारित परंपराओं के बंधन में बंधने के बाद भी रूमानियत से भीगा एहसास बंजर मरूस्थल में हरा होने लगा था. समीर का साथ पा कर उस ने कभी ऐसा स्पर्श, स्नेह व अपनेपन का एहसास नहीं जाना था.

सुदीपा के मन की भीतरी परतों में शेखर के प्रति रोमांस का बीज पनपने लगा. शेखर बहुत अपनेपन से उस की देखभाल कर रहा था. उस का साथ मिलने के कारण उसे किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हुई थी .
अब वह ठीक हो कर कालेज जाने लगी थी.

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रात के 8 बज रहे थे. गुलाबी रंग की कैप्री के साथ मैंचिग टौप में लंबी खुली केशराशि के बीच सुदीपा ऐसी लग रही थी जैसे श्यामल घटाओं के बीच दूधिया चांद खिला हो. उस ने मैंचिग ईयर टौप्स के साथ गले में छोटे मोतियों की माला पहनी थी. आज वह बहुत खुश थी. उस का गुलाब की तरह खिला खिला रूप सौंदर्य चित्ताकर्षक था. खुद को आईने में देख कर वह स्वयं ही लजा गई. वह रसोईघर में जा रही थी कि अचानक से बेल बजी. दरवाजा खोल कर देखा तो सामने समीर खडा था,”अरे, समीर तुम?” अकस्मात समीर को सामने देख कर वह अचकचा गई.

“हां मेरी जान, तुम्हारा समीर…” कहतेकहते समीर ने उसे बांहों में उठा कर 3-4 गोल चक्कर से घुमा दिया.

“आज तो तुम बेहद खूबसूरत और रूप की रानी लग रही हो. किस पर बिजली गिराओगी,” समीर ने रोमांटिक अंदाज में कहते हुए खींच कर उसे अपने सीने से लगाना चाहा.

तेज शराब के भभके से सुदीपा का तनमन जलने लगा. वह चिहुंक कर दूर जा खडी हुई. समीर ने आगे बढ़ कर उस की कलाई पकड़ ली. उस ने हाथ छुड़ा कर दूर जाने का प्रयत्न किया, लेकिन समीर की पकड़ से छूट नहीं सकी. समीर जोरजबरदस्ती करने लगा. यों अचानक ऐसे किसी हालात का सामना करना पड़ेगा, उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था.सुदीपा का दिलदिमाग सुन्न हो गया. समीर की बांहों में कसमसा कर दरवाजा खोलते हुए बोली,”समीर, अभी तुम होश में नहीं हो, जाओ.अभी होटल चले जाओ और कल आना.”

“क्यों, कल क्यों मेरी जान, जो होना है आज ही होने दो न. अब तो हम दोनों की शादी भी होने वाली है. इसलिए तुम तो मेरी हो.”

शादी होने वाली है, हुई तो नहीं है न.
फिलहाल, मैं तुम से कोई बात नहीं करना चाहती. प्लीज, तुम यहां से चले जाओ,” सुदीपा ने संयत स्वर में उसे समझाने की कोशिश की.

मगर अपनी मनमरजी पर उतारू समीर ने उस की एक नहीं सुनी. पुरुषत्व के दर्प में चूर, शराब के नशे में मदहोश, समीर के भीतर का जानवर जनूनी हो गया. अपने मंसूबे पूरे न होते देख अब समीर बदतमीजी पर उतर आया. उस के हाथ में सुदीपा का टौप आ गया. जबरदस्ती खींचते हुए टौप चर्रचर्र… कर फटता चला गया.

“यू ब्लडीफूल, तेरी इतनी हिम्मत. तू मुझे मना करती है… अरे, तेरे जैसी पचासों लड़कियां मेरे आगेपीछे घूमती हैं. तू समझती क्या है अपनेआप को…मैं जिस चीज पर हाथ रख देता हूं, वह मेरी हो जाती है…” नशे में समीर की लड़खड़ाती जबान से अंगार बरसने लगे.

जैसे ही वह सुदीपा को पकड़ने के लिए बढ़ा नशे की झोंक में लहराते हुए पीछे को गिर पड़ा. अपनी अस्मिता पर प्रहार होता देख सुदीपा रणचंडी बन गई. उस में न जाने कहां से इतनी शक्ति आ गई कि त्वरित ताकत से मेज पर रखा चाकू हाथ में ले कर डगमगाते समीर को पूरी शक्ति से बाहर धकेल दिया और बिजली की फुरती से दरवाजा बंद कर लिया. समीर बहुत देर तक दरवाजे पर आवाजें देता रहा, लेकिन उस के कान जैसे बहरे हो चुके थे. वह दरवाजे से लगी फूटफूट कर रोने लगी.

वह स्वयं को संयत कर उठी और कटे पेड़ की भांति पलंग पर गिर पड़ी. बिस्तर पर लेटी तो लगा जैसे समीर की ओछी सोच में लिपटे हाथ लंबे हो कर उस की ओर बढ़ रहे हैं. उस ने घबरा कर आंखे बंद कीं तो समीर की लाल घूरती आंखें देख सूखे पत्तों सी कांपने लगी.

सूरज चढ़ आया था. पूरी रात आंखों में कट गई. वह उस दिन को कोस रही थी जब समीर के साथ उस की सगाई हुई थी. लगाव रूमानियत से भीगे मीठे एहसास का प्रेममयी भाव सोच कर शेखर का चेहरा उस की आंखों के समक्ष तैर उठा. उसे इन दोनों की जेहनी सोचसमझ में जमीनआसमान का फर्क नजर आ रहा था.

मोबाइल की घंटी बजने पर न चाहते हुए भी देखा तो मां का फोन था,”मां खुशी से चहकते हुए बता रही थीं,”बेटा, सुबह तुम्हारे पापा के पास समीर के पापा का फोन आया था. वह इसी महीने शादी करने के लिए जोर डाल रहे हैं. कहते हैं कि अगले माह समीर विदेश जा रहा है. वह जल्दी ही तुम दोनों को विवाह बंधन में बांधना चाहते हैं.”

“नहींनहीं… मां, मैं समीर से शादी नहीं करूंगी. मैं उस की शक्ल भी देखना नहीं चाहती. आप मुझे समीर के साथ विवाह की सूली पर मत टांगना. मैं जी नहीं सकूंगी,” कहतेकहते उस की रुलाई फूट पड़ी.

“क्या बात है बेटा? तुम बहुत परेशान लग रही हो,” मां के स्वर में चिंता झलकने लगी.

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“हां मां, यहां बहुत कुछ घटा है,” और
उस ने मां को रात की सारी घटना बता दी,”मां, पत्नी का दिल जीतने के लिए पति के मन में भावनात्मक लगाव होता है. पर समीर केवल वासना का लिजलिजा कीडा़ निकला.उसे बस मेरा जिस्म चाहिए था, जिसे वह जबरदस्ती हासिल कर के अपनी मर्दानगी की मुहर लगाना चाहता था. उसे मेरी खुशियों से कोई सरोकार नहीं है…

“मेरी अपनी मंजिल समीर कभी नहीं हो सकता,” कह कर वह बच्चों की तरह बिलखने लगी.

सारी सचाई जान कर मां की आंखों से समीर के गुणी और लायक वर होने का परदा हट चुका था,”अच्छा सुदीपा… बेटा… तू रोना बंद कर और बिलकुल चिंता मत कर. अच्छा ही हुआ कि हमें उस की औकात शादी से पहले पता चल गई,”मां ने बेटी को धीरज बंधाया,” मैं और पापा आज तुम्हारे पास आ रहे हैं. मैं हूं न… तुम्हारी मां अब सब संभाल लेगी…”

सुदीपा ने इत्मीनान की सांस ले कर फोन रख दिया.

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औकात से ज्यादा: भाग 1- सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे का सच जान पाई निशा

लड़कियों को काम कर के पैसा कमाते देख निशा के अंदर भी कुछ करने का जोश उभरा. सिर्फ जोश ही नहीं, निशा के अंदर ऐसा आत्मविश्वास भी था कि वह दूसरों से बेहतर कर सकती थी. निशा कुछ करने को इसलिए भी बेचैन थी क्योंकि नौकरी करने वाली लड़कियों के हाथों में दिखलाई पड़ने वाले आकर्षक व महंगे टच स्क्रीन मोबाइल फोन अकसर उस के मन को ललचाते थे और उस की ख्वाहिश थी कि वैसा ही मोबाइल फोन जल्दी उस के हाथ में भी हो. निशा के सपने केवल टच स्क्रीन मोबाइल फोन तक ही सीमित नहीं थे.  टच स्क्रीन मोबाइल से आगे उस का सपना था फैशनेबल कीमती लिबास और चमचमाती स्कूटी. निशा की कल्पनाओं की उड़ान बहुत ऊंची थी, मगर उड़ने वाले पंख बहुत छोटे. अपने छोटे पंखों से बहुत ऊंची उड़ान भरने का सपना देखना ही निशा की सब से बड़ी भूल थी. वह जिस उम्र में थी, उस में अकसर लड़कियां ऐसी भूल करती हैं. वास्तव में उन को इस बात का एहसास ही नहीं होता कि सपनों की रंगीन दुनिया के पीछे की दुनिया कितनी बदसूरत व कठोर है.

अपने सपनों की दुनिया को हासिल करने को निशा इतनी बेचैन और बेसब्र थी कि मम्मी और पापा के समझाने के बावजूद 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए कालेज में दाखिला नहीं लिया. वह बोली, ‘‘नौकरी करने के साथसाथ आगे की पढ़ाई भी हो सकती है. बहुत सारी लड़कियां आजकल ऐसा ही कर रही हैं. कमाई के साथ पढ़ाई करने से पढ़ाई बोझ नहीं लगती.’’ ‘‘जब हमें तुम्हारी पढ़ाई बोझ नहीं लगती तो तुम को नौकरी करने की क्या जल्दी है?’’ मम्मी ने निशा से कहा. ‘‘बात सिर्फ नौकरी की ही नहीं मम्मी, दूसरी लड़कियों को काम करते और कमाते हुए देख कई बार मुझ को कौंप्लैक्स  महसूस होता है. मुझे ऐसा लगता है जैसे जिंदगी की दौड़ में मैं उन से बहुत पीछे रह गई हूं,’’ निशा ने कहा. ‘‘देख निशा, मैं तेरी मां हूं. तुम को समझाना और अच्छेबुरे की पहचान कराना मेरा फर्ज है. दूसरों को देख कर कुछ करने की बेसब्री अच्छी नहीं. देखने में सबकुछ जितना अच्छा नजर आता है, जरूरी नहीं असलियत में भी सबकुछ वैसा ही हो. इसलिए मेरी सलाह है कि नौकरी करने की जिद को छोड़ कर तुम आगे की पढ़ाई करो.’’

‘‘जमाना बदल गया है मम्मी, पढ़ाई में सालों बरबाद करने से फायदा नहीं.  बीए करने में मुझे जो 3 साल बरबाद करने हैं, उस से अच्छा इन 3 सालों में कहीं जौब कर के मैं अपना कैरियर बनाऊं,’’ निशा ने कहा. मम्मी के लाख समझाने के बाद भी निशा नौकरी की तलाश में निकल पड़ी. उस के अंदर जबरदस्त जोश और आत्मविश्वास था. उस के पास ऊंची पढ़ाई के सर्टिफिकेट और डिगरियां नहीं थीं, लेकिन यह विश्वास अवश्य था कि अगर अवसर मिले तो वह बहुतकुछ कर के दिखा सकती है. वैसे देखा जाए तो लड़कियों के लिए काम की कमी ही कहां? मौल्स, मोबाइल और इंश्योरैंस कंपनियों, बड़ीबड़ी ज्वैलरी शौप्स और कौस्मैटिक स्टोर आदि पर ज्यादातर लड़कियां ही तो काम करती नजर आती थीं. ऐसी जगहों पर काम करने के लिए ऊंची क्वालिफिकेशन से अधिक अच्छी शक्लसूरत की जरूरत थी जोकि निशा के पास थी. सिर्फ अच्छी शक्लसूरत कहना कम होगा, निशा तो एक खूबसूरत लड़की थी. उस में वह जबरदस्त चुंबकीय खिंचाव था जो पुरुषों को विचलित करता है. कहने वाले इस चुंबकीय खिंचाव को सैक्स अपील भी कहते हैं.

निशा उत्साह और जोश से भरी नौकरी की तलाश में निकली अवश्य, मगर जगह- जगह भटकने के बाद मायूस हो वापस लौटी. नौकरी का मिलना इतना आसान नहीं जितना लगता था. निशा 3 दिन नौकरी की तलाश में घर से निकली, मगर उस के हाथ सिर्फ निराशा ही लगी. इस पर मम्मी ने उस को फिर से समझाने की कोशिश की, ‘‘मैं फिर कहती हूं, यह नौकरीवौकरी की जिद छोड़ और आगे की पढ़ाई कर.’’ निशा अपनी मम्मी की कहां सुनने वाली थी. उस पर नौकरी का भूत सवार था. वैसे भी, बढ़े हुए कदमों को वापस खींचना अब निशा को अपनी हार की तरह लगता था. वह किसी भी कीमत पर अपने सपनों को पूरा करना चाहती थी. फिर एक दिन नौकरी की तलाश में निकली निशा, घर आई तो उस के चेहरे पर अपनी कामयाबी की चमक थी. निशा को नौकरी मिल गई थी. नौकरी के मिलने की खुशखबरी निशा ने सब से पहले अपनी मम्मी को सुनाई थी. निशा को नौकरी मिलने की खबर से मम्मी उतनी खुश नजर नहीं आईं जितना कि निशा उन्हें देखना चाहती थी.

मम्मी शायद इसलिए एकदम से अपनी खुशी जाहिर नहीं कर सकीं क्योंकि एक मां होने के नाते जवान बेटी की नौकरी को ले कर दूसरी तरह की कई चिंताएं थीं. इन चिंताओं को अपनी रंगीन कल्पनाओं में डूबी निशा नहीं समझ सकती थी. बेटी की नौकरी की खबर से खुश होने से पहले मम्मी कई बातों को ले कर अपनी तसल्ली कर लेना चाहती थीं.

‘‘किस जगह पर नौकरी मिली है तुम को?’’ मम्मी ने पूछा.

‘‘शहर के एक बहुत बड़े शेयरब्रोकर के दफ्तर में. वहां पहले भी बहुत सारी लड़कियां काम कर रही हैं.’’

‘‘तनख्वाह कितनी होगी?’’

‘‘शुरू में 20 हजार रुपए, बाद में बढ़ जाएगी,’’ इतराते हुए निशा ने कहा. नौकरी को ले कर मम्मी के ज्यादा सवाल पूछना निशा को अच्छा नहीं लग रहा था. तनख्वाह के बारे में सुन मम्मी का माथा जैसे ठनक गया. उन को सबकुछ असामान्य लग रहा था.  बेटी की योग्यता को देखते हुए 20 हजार रुपए तनख्वाह उन की नजर में बहुत ज्यादा थी. एक मां होने के नाते उन को इस में सब कुछ गलत ही गलत दिख रहा था. वे जानती थीं कि मात्र 7-8 हजार रुपए की नौकरी पाने के लिए बहुत से पढ़ेलिखे लोग इधरउधर धक्के खाते फिर रहे थे. ऐसे में अगर उन की इतनी कम पढ़ीलिखी लड़की को इतनी आसानी से 20 हजार रुपए माहवार की नौकरी मिल रही थी तो इस में कुछ ठीक नजर नहीं आता था. निशा की मम्मी ने दुनिया देखी थी, इसलिए उन को मालूम था कि अगर कोई किसी को उस की काबिलीयत और औकात से ज्यादा दे तो इस के पीछे कुछ मतलब होता है, और औरत जात के मामले में तो खासकर. लेकिन निशा की उम्र शायद अभी इस बात को समझने की नहीं थी. उजालों के पीछे की अंधेरी दुनिया के सच से वह अनजान थी. सोचने और विचार करने वाली बात यह थी कि मात्र दरजा 10+2 तक पढ़ी हुई अनुभवहीन लड़की को शुरुआत में ही कोई इतनी मोटी तनख्वाह कैसे दे सकता था. मम्मी को हर बात में सबकुछ गलत और संदेहप्रद लग रहा था, इसलिए उन्होंने निशा को उस नौकरी के लिए साफसाफ मना किया, ‘‘नहीं, मुझ को तुम्हारी यह नौकरी पसंद नहीं, इसलिए तुम वहां नहीं जाओगी.’’

मम्मी की बात को सुन निशा जैसे हैरानी में पड़ गई और बोली, ‘‘इस में नापसंद वाली कौन सी बात है, मम्मी? इतनी अच्छी सैलरी है. किसी प्राइवेट नौकरी में इतनी बड़ी सैलरी मिलना बहुत मुश्किल है.’’ ‘‘सैलरी इतनी बड़ी है, इस कारण ही तो मुझ को यह नौकरी नापसंद है,’’ मम्मी ने दोटूक लहजे में कहा.

‘‘सैलरी इतनी बड़ी है इसलिए तुम को यह नौकरी पसंद नहीं?’’

‘‘हां, क्योंकि मैं नहीं मानती सही माने में तुम इतनी बड़ी सैलरी पाने के काबिल हो. जो कोई भी तुम को इतनी सैलरी देने जा रहा है उस की मंशा में जरूर कुछ खोट होगी,’’ मम्मी ने अपने मन की बात निशा से कह दी. मम्मी की बात को निशा ने सुना तो गुस्से से उत्तेजित हो उठी, ‘‘आप पुरानी पीढ़ी के लोगों को न जाने क्यों हर अच्छी चीज में कुछ गलत ही नजर आता है. वक्त बदल चुका है मम्मी, अब काबिलीयत का पैमाना सर्टिफिकेटों का पुलिं?दा नहीं बल्कि इंसान की पर्सनैलिटी और काम करने की उस की क्षमता है.’’

‘‘मैं इस बात को नहीं मानती.’’

‘‘मानना न मानना तुम्हारी मरजी है मम्मी, मगर ऐसी बातों का खयाल कर के मैं इतनी अच्छी नौकरी को हाथ से जाने नहीं दे सकती. मैं बड़ी हो गई हूं, इसलिए अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेने का मुझे हक है,’’ निशा के तेवर बगावती थे. उस के बगावती तेवरों को देख मम्मी एकाएक जैसे ठिठक सी गईं, ‘‘एक मां होने के नाते तुम को समझाना मेरा फर्ज था, मगर लगता है तुम मेरी बात मानने के मूड में नहीं हो. अब इस मामले में तुम्हारे पापा ही तुम से कोई बात करेंगे.’’

‘‘मैं पापा को मना लूंगी,’’ निशा ने लापरवाही से कहा. मम्मी के विरोध को दरकिनार कर के निशा ने जैसा कहा, वैसे कर के भी दिखलाया और नौकरी पर जाने के लिए पापा को मना लिया. लेकिन मम्मी निशा से नाराज ही रहीं. मम्मी की नाराजगी की परवा नहीं कर के निशा नौकरी पर चली गई. एक नौकरी उस के कई सपनों को पूरा करने वाली थी, इसलिए वह रुकती तो कैसे रुकती. मगर उस को यह नहीं मालूम था कि कभीकभी अपने कुछ सपनों की अप्रत्याशित कीमत भी चुकानी पड़ती है. संजय शहर का एक नामी शेयरब्रोकर था. पौश इलाके में स्थित उस का एअरकंडीशंड औफिस काफी शानदार था और उस में कई लड़कियां काम करती थीं. शेयरब्रोकर संजय की उम्र तकरीबन 40 वर्ष थी. उस का सारा रहनसहन और जीवनशैली एकदम शाही थी. ऐसा क्यों नहीं होता, एक ब्रोकर के रूप में वह हर महीने लाखों की कमाई करता था. संजय के औफिस में एक नहीं, कई कंप्यूटर थे जिन के जरिए वह दुनियाभर के शेयर बाजारों के बारे में पलपल की खबर रखता था.

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सोने का झुमका : पूर्णिमा का झुमका खोते ही मच गया कोहराम

लेखक- राज किशोर श्रीवास्तव

जगदीश की मां रसोईघर से बाहर निकली ही थी कि कमरे से बहू के रोने की आवाज आई. वह सकते में आ गई. लपक कर बहू के कमरे में पहुंची.

‘‘क्या हुआ, बहू?’’

‘‘मांजी…’’ वह कमरे से बाहर निकलने ही वाली थी. मां का स्वर सुन वह एक हाथ दाहिने कान की तरफ ले जा कर घबराए स्वर में बोली, ‘‘कान का एक झुमका न जाने कहां गिर गया है.’’

‘‘क…क्या?’’

‘‘पूरे कमरे में देख डाला है, मांजी, पर न जाने कहां…’’ और वह सुबकसुबक कर रोने लगी.

‘‘यह तो बड़ा बुरा हुआ, बहू,’’ एक हाथ कमर पर रख कर वह बोलीं, ‘‘सोने का खोना बहुत अशुभ होता है.’’

‘‘अब क्या करूं, मांजी?’’

‘‘चिंता मत करो, बहू. पूरे घर में तलाश करो, शायद काम करते हुए कहीं गिर गया हो.’’

‘‘जी, रसोईघर में भी देख लेती हूं, वैसे सुबह नहाते वक्त तो था.’’ जगदीश की पत्नी पूर्णिमा ने आंचल से आंसू पोंछे और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. सास ने भी बहू का अनुसरण किया.

रसोईघर के साथ ही कमरे की प्रत्येक अलमारी, मेज की दराज, शृंगार का डब्बा और न जाने कहां-कहां ढूंढ़ा गया, मगर कुछ पता नहीं चला.

अंत में हार कर पूर्णिमा रोने लगी. कितनी परेशानी, मुसीबतों को झेलने के पश्चात जगदीश सोने के झुमके बनवा कर लाया था.

तभी किसी ने बाहर से पुकारा. वह बंशी की मां थी. शायद रोनेधोने की आवाज सुन कर आई थी. जगदीश के पड़ोस में ही रहती थी. काफी बुजुर्ग होने की वजह से पासपड़ोस के लोग उस का आदर करते थे. महल्ले में कुछ भी होता, बंशी की मां का वहां होना अनिवार्य समझा जाता था. किसी के घर संतान उत्पन्न होती तो सोहर गाने के लिए, शादीब्याह होता तो मंगल गीत और गारी गाने के लिए उस को विशेष रूप से बुलाया जाता था. जटिल पारिवारिक समस्याएं, आपसी मतभेद एवं न जाने कितनी पहेलियां हल करने की क्षमता उस में थी.

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‘‘अरे, क्या हुआ, जग्गी की मां? यह रोनाधोना कैसा? कुशल तो है न?’’ बंशी की मां ने एकसाथ कई सवाल कर डाले.

पड़ोस की सयानी औरतें जगदीश को अकसर जग्गी ही कहा करती थीं.

‘‘क्या बताऊं, जीजी…’’ जगदीश की मां रोंआसी आवाज में बोली, ‘‘बहू के एक कान का झुमका खो गया है. पूरा घर ढूंढ़ लिया पर कहीं नहीं मिला.’’

‘‘हाय राम,’’ एक उंगली ठुड्डी पर रख कर बंशी की मां बोली, ‘‘सोने का खोना तो बहुत ही अशुभ है.’’

‘‘बोलो, जीजी, क्या करूं? पूरे तोले भर का बनवाया था जगदीश ने.’’

‘‘एक काम करो, जग्गी की मां.’’

‘‘बोलो, जीजी.’’

‘‘अपने पंडित दयाराम शास्त्री हैं न, वह पोथीपत्रा विचारने में बड़े निपुण हैं. पिछले दिनों किसी की अंगूठी गुम हो गई थी तो पंडितजी की बताई दिशा पर मिल गई थी.’’

डूबते को तिनके का सहारा मिला. पूर्णिमा कातर दृष्टि से बंशी की मां की तरफ देख कर बोली, ‘‘उन्हें बुलवा दीजिए, अम्मांजी, मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.’’

‘‘धैर्य रखो, बहू, घबराने से काम नहीं चलेगा,’’ बंशी की मां ने हिम्मत बंधाते हुए कहा.

बंशी की मां ने आननफानन में पंडित दयाराम शास्त्री के घर संदेश भिजवाया. कुछ समय बाद ही पंडितजी जगदीश के घर पहुंच गए. अब तक पड़ोस की कुछ औरतें और भी आ गई थीं. पूर्णिमा आंखों में आंसू लिए यह जानने के लिए उत्सुक थी कि देखें पंडितजी क्या बतलाते हैं.

पूरी घटना जानने के बाद पंडितजी ने सरसरी निगाहों से सभी की तरफ देखा और अंत में उन की नजर पूर्णिमा पर केंद्रित हो गई, जो सिर झुकाए अपराधिन की भांति बैठी थी.

‘‘बहू का राशिफल क्या है?’’

‘‘कन्या राशि.’’

‘‘ठीक है.’’ पंडितजी ने अपने सिर को इधरउधर हिलाया और पंचांग के पृष्ठ पलटने लगे. आखिर एक पृष्ठ पर उन की निगाहें स्थिर हो गईं. पृष्ठ पर बनी वर्गाकार आकृति के प्रत्येक वर्ग में उंगली फिसलने लगी.

‘‘हे राम…’’ पंडितजी बड़बड़ा उठे, ‘‘घोर अनर्थ, अमंगल ही अमंगल…’’

सभी औरतें चौंक कर पंडितजी का मुंह ताकने लगीं. पूर्णिमा का दिल जोरों से धड़कने लगा था.

पंडितजी बोले, ‘‘आज सुबह से गुरु कमजोर पड़ गया है. शनि ने जोर पकड़ लिया है. ऐसे मौके पर सोने की चीज खो जाना अशुभ और अमंगलकारी है.’’

पूर्णिमा रो पड़ी. जगदीश की मां व्याकुल हो कर बंशी की मां से बोली, ‘‘हां, जीजी, अब क्या करूं? मुझ से बहू का दुख देखा नहीं जाता.’’

बंशी की मां पंडितजी से बोली, ‘‘दया कीजिए, पंडितजी, पहले ही दुख की मारी है. कष्ट निवारण का कोई उपाय भी तो होगा?’’

‘‘है क्यों नहीं?’’ पंडितजी आंख नचा कर बोले, ‘‘ग्रहों को शांत करने के लिए पूजापाठ, दानपुण्य, धर्मकर्म ऐसे कई उपाय हैं.’’

‘‘पंडितजी, आप जो पूजापाठ करवाने  को कहेंगे, सब कराऊंगी.’’ जगदीश की मां रोंआसे स्वर में बोली, ‘‘कृपा कर के बताइए, झुमका मिलने की आशा है या नहीं?’’

‘‘हूं…हूं…’’ लंबी हुंकार भरने के पश्चात पंडितजी की नजरें पुन: पंचांग पर जम गईं. उंगलियों की पोरों में कुछ हिसाब लगाया और नेत्र बंद कर लिए.

माहौल में पूर्ण नीरवता छा गई. धड़कते दिलों के साथ सभी की निगाहें पंडितजी की स्थूल काया पर स्थिर हो गईं.

पंडितजी आंख खोल कर बोले, ‘‘खोई चीज पूर्व दिशा को गई है. उस तक पहुंचना बहुत ही कठिन है. मिल जाए तो बहू का भाग्य है,’’ फिर पंचांग बंद कर के बोले, ‘‘जो था, सो बता दिया. अब हम चलेंगे, बाहर से कुछ जजमान आए हैं.’’

पूरे सवा 11 रुपए प्राप्त करने के पश्चात पंडित दयाराम शास्त्री सभी को आसीस देते हुए अपने घर बढ़ लिए. वहां का माहौल बोझिल हो उठा था. यदाकदा पूर्णिमा की हिचकियां सुनाई पड़ जाती थीं. थोड़ी ही देर में बंशीं की मां को छोड़ कर पड़ोस की शेष औरतें भी चली गईं.

‘‘पंडितजी ने पूरब दिशा बताई है,’’ बंशी की मां सोचने के अंदाज में बोली.

‘‘पूरब दिशा में रसोईघर और उस से लगा सरजू का घर है.’’ फिर खुद ही पश्चात्ताप करते हुए जगदीश की मां बोलीं, ‘‘राम…राम, बेचारा सरजू तो गऊ है, उस के संबंध में सोचना भी पाप है.’’

‘‘ठीक कहती हो, जग्गी की मां,’’ बंशी की मां बोली, ‘‘उस का पूरा परिवार ही सीधा है. आज तक किसी से लड़ाई-झगड़े की कोई बात सुनाई नहीं पड़ी है.’’

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‘‘उस की बड़ी लड़की तो रोज ही समय पूछने आती है. सरजू तहसील में चपरासी है न,’’ फिर पूर्णिमा की तरफ देख कर बोली, ‘‘क्यों, बहू, सरजू की लड़की आई थी क्या?’’

‘‘आई तो थी, मांजी.’’

‘‘लोभ में आ कर शायद झुमका उस ने उठा लिया हो. क्यों जग्गी की मां, तू कहे तो बुला कर पूछूं?’’

‘‘मैं क्या कहूं, जीजी.’’

पूर्णिमा पसोपेश में पड़ गई. उसे लगा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए. यह तो सरासर उस बेचारी पर शक करना है. वह बात के रुख को बदलने के लिए बोली, ‘‘क्यों, मांजी, रसोईघर में फिर से क्यों न देख लिया जाए,’’ इतना कह कर पूर्णिमा रसोईघर की तरफ बढ़ गई.

दोनों ने उस का अनुसरण किया. तीनों ने मिल कर ढूंढ़ना शुरू किया. अचानक बंशी की मां को एक गड्ढा दिखा, जो संभवत: चूहे का बिल था.

‘‘क्यों, जग्गी की मां, कहीं ऐसा तो नहीं कि चूहे खाने की चीज समझ कर…’’ बोलतेबोलते बंशी की मां छिटक कर दूर जा खड़ी हुई, क्योंकि उसी वक्त पतीली के पीछे छिपा एक चूहा बिल के अंदर समा गया था.

‘‘बात तो सही है, जीजी, चूहों के मारे नाक में दम है. एक बार मेरा ब्लाउज बिल के अंदर पड़ा मिला था. कमबख्तों ने ऐसा कुतरा, जैसे महीनों के भूखे रहे हों,’’ फिर गड्ढे के पास बैठते हुए बोली, ‘‘हाथ डाल कर देखती हूं.’’

‘‘ठहरिए, मांजी,’’ पूर्णिमा ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं अभी टार्च ले कर आती हूं.’’

चूंकि बिल दीवार में फर्श से थोड़ा ही ऊपर था, इसलिए जगदीश की मां ने मुंह को फर्श से लगा दिया. आसानी से देखने के लिए वह फर्श पर लेट सी गईं और बिल के अंदर झांकने का प्रयास करने लगीं.

‘‘अरे जीजी…’’ वह तेज स्वर में बोली, ‘‘कोई चीज अंदर दिख तो रही है. हाथ नहीं पहुंच पाएगा. अरे बहू, कोई लकड़ी तो दे.’’

जगदीश की मां निरंतर बिल में उस चीज को देख रही थी. वह पलकें झपकाना भूल गई थी. फिर वह लकड़ी डाल कर उस चीज को बाहर की तरफ लाने का प्रयास करने लगी. और जब वह चीज निकली तो सभी चौंक पड़े. वह आम का पीला छिलका था, जो सूख कर सख्त हो गया था और कोई दूसरा मौका होता तो हंसी आए बिना न रहती.

बंशी की मां समझाती रही और चलने को तैयार होते हुए बोली, ‘‘अब चलती हूं. मिल जाए तो मुझे खबर कर देना, वरना सारी रात सो नहीं पाऊंगी.’’

बंशी की मां के जाते ही पूर्णिमा फफक-फफक कर रो पड़ी.

‘‘रो मत, बहू, मैं जगदीश को समझा दूंगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आप उन से कुछ मत कहिएगा. मौका आने पर मैं उन्हें सबकुछ बता दूंगी.’’

शाम को जगदीश घर लौटा तो बहुत खुश था. खुशी का कारण जानने के लिए उस की मां ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा, आज बहुत खुश हो?’’

‘‘खुशी की बात ही है, मां,’’ जगदीश पूर्णिमा की तरफ देखते हुए बोला, ‘‘पूर्णिमा के बड़े भैया के 4 लड़कियों के बाद लड़का हुआ है.’’ खुशी तो पूर्णिमा को भी हुई, मगर प्रकट करने में वह पूर्णतया असफल रही.

कपड़े बदलने के बाद जगदीश हाथमुंह धोने चला गया और जाते-जाते कह गया, ‘‘पूर्णिमा, मेरी पैंट की जेब में तुम्हारे भैया का पत्र है, पढ़ लेना.’’

पूर्णिमा ने भारी मन लिए पैंट की जेब में हाथ डाल कर पत्र निकाला. पत्र के साथ ही कोई चीज खट से जमीन पर गिर पड़ी. पूर्णिमा ने नीचे देखा तो मुंह से चीख निकल गई. हर्ष से चीखते हुए बोली, ‘‘मांजी, यह रहा मेरा खोया हुआ सोने का झुमका.’’

‘‘सच, मिल गया झुमका,’’ जगदीश की मां ने प्रेमविह्वल हो कर बहू को गले से लगा लिया.

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उसी वक्त कमरे में जगदीश आ गया. दिन भर की कहानी सुनतेसुनते वह हंस कर बिस्तर पर लेट गया. और जब कुछ हंसी थमी तो बोला, ‘‘दफ्तर जाते वक्त मुझे कमरे में पड़ा मिला था. मैं पैंट की जेब में रख कर ले गया. सोचा था, लौट कर थोड़ा डाटूंगा. लेकिन यहां तो…’’ और वह पुन: खिलखिला कर हंस पड़ा.

पूर्णिमा भी हंसे बिना न रही.

‘‘बहू, तू जगदीश को खाना खिला. मैं जरा बंशी की मां को खबर कर दूं. बेचारी को रात भर नींद नहीं आएगी,’’ जगदीश की मां लपक कर कमरे से बाहर निकल गई.

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