वारिस : भाग 1- सुरजीत के घर में कौन थी वह औरत

होश संभालने के साथ ही नरेंद्र उस औरत को अपने घर में देखता आ रहा था. वह कौन थी, उसे नहीं पता था.

बचपन में जब भी वह किसी से उस औरत के बारे में पूछता था तो वह उस को डांट कर चुप करा देता था.

घर के बाईं ओर जहां गायभैंस बांधे जाते थे उस के करीब ही एक छोटी सी कोठरी बनी हुई थी और वह औरत उसी कोठरी में सोती थी.

मां का व्यवहार उस औरत के प्रति अच्छा नहीं था जबकि उस का बाप  बलवंत और बूआ सिमरन उस औरत के साथ कुछ हमदर्दी से पेश आते थे.

नरेंद्र की मां बलजीत का सलूक तो उस औरत के साथ इतना खराब था कि वह सारा दिन उस से जानवरों की तरह काम लेती थी और फिर उस के सामने बचाखुचा और बासी खाना डाल देती थी. कई बार तो लोगों का जूठन भी उस के सामने डालने में बलवंत परहेज नहीं करती थी. लेकिन जैसा भी, जो भी मिलता था वह औरत चुपचाप खा लेती थी.

होश संभालने के बाद नरेंद्र ने घर में रह रही उस औरत को ले कर एक और भी अजीब चीज महसूस की थी. वह हमेशा नरेंद्र की तरफ दुलार और हसरत भरी नजरों से देखती थी. वह उसे छूना और सहलाना चाहती थी. पर घर के किसी सदस्य के होने पर उस औरत की नरेंद्र के करीब आने की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन जब कभी नरेंद्र उस के सामने अकेले पड़ जाता और आसपास कोई दूसरा नहीं होता तो वह उस को सीने से लगा लेती और पागलों की तरह चूमती.

ये भी पढ़ें- बुद्धि का इस्तेमाल: श्रद्धा और अंधश्रद्धा में क्या फर्क है

ऐसा करते हुए उस की आंखों में आंसुओं के साथसाथ एक ऐसा दर्द भी होता था जिस को शब्दों में जाहिर करना मुश्किल था.

‘कुदेसन’ शब्द को नरेंद्र ने पहली बार तब सुना था जब उस की उम्र 14-15 साल की थी.

गांव के कुछ दूसरे लड़कों के साथ नरेंद्र जिस सरकारी स्कूल में पढ़ने जाता था वह गांव से कम से कम 2 किलोमीटर की दूरी पर था.

नरेंद्र के साथ गांव के 7-8 लड़कों का समूह एकसाथ स्कूल के लिए जाता था और रास्ते में अगर कोई झगड़ा न हुआ तो एकसाथ ही वे स्कूल से वापस भी आते थे.

सुबह स्कूल जाने से पहले सारे लड़के गांव की चौपाल पर जमा होते थे. एकसाथ मस्ती करते हुए स्कूल जाने में रास्ते की दूरी का पता ही नहीं चलता था और जब कभी समूह का कोई लड़का वक्त पर चौपाल नहीं पहुंचता था तो उस की खोजखबर लेने के लिए किसी लड़के को उस के घर दौड़ाया जाता था. हमारे साथ स्कूल जाने वाले लड़कों में एक सुरजीत भी था जिस के साथ नरेंद्र की खूब पटती थी. दोनों एक ही कक्षा में पढ़ते थे. नरेंद्र कई बार सुरजीत के घर भी जा चुका था.

एक दिन जब स्कूल जाते समय  सुरजीत गांव की चौपाल पर नहीं पहुंचा तो उस की खोजखबर लेने के लिए नरेंद्र उस के घर पहुंच गया.

पहले तो घर में दाखिल हो कर नरेंद्र ने देखा कि सुरजीत को बुखार है. वह वापस मुड़ा तो उस की नजर सुरजीत के घर में एक औरत पर पड़ी जो उस के लिए अनजान थी.

वह जवान औरत गांव में रहने वाली औरतों से एकदम अलग थी, बिलकुल उसी तरह जैसे उस के अपने घर में रह रही औरत उसे नजर आती थी. चूंकि नरेंद्र को स्कूल जाने की जल्दी थी इसलिए उस ने इस बारे में सुरजीत से कोई बात नहीं की.

2 दिन बाद सुरजीत स्कूल जाने वाले लड़कों में फिर से शामिल हो गया तो छुट्टी के बाद गांव वापस लौटते हुए नरेंद्र ने उस से उस अजनबी औरत के बारे में पूछा था. इस पर सुरजीत ने कहा, ‘बापू ने ‘कुदेसन’ रख ली है.’

‘‘कुदेसन, वह क्या होती है?’’ नरेंद्र ने हैरानी से पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता. लेकिन ‘कुदेसन’ के कारण मां और बापू में रोज झगड़ा होने लगा है. मां कुदेसन को घर में एक मिनट भी रखने को तैयार नहीं, लेकिन बापू कहता है कि भले ही लाशें बिछ जाएं, कुदेसन यहीं रहेगी,’’ सुरजीत ने बताया.

‘‘मगर तेरा बापू इस कुदेसन को लाया कहां से है?’’

‘‘क्या पता, तुम को तो मालूम ही है कि मेरा बापू ड्राइवर है. कंपनी का ट्रक ले कर दूरदूर के शहरों तक जाता है. कहीं से खरीद लाया होगा,’’ सुरजीत ने कहा.

ये भी पढ़ें- वो नीली आंखों वाला: वरुण को देखकर क्यों चौंक गई मालिनी

सुरजीत की इस बात से नरेंद्र को और ज्यादा हैरानी हुई थी. उस ने जानवरों की खरीदफरोख्त की बात तो सुनी थी मगर इनसानों को भी खरीदा या बेचा जा सकता है यह बात वह पहली बार सुरजीत के मुख से सुन रहा था.

‘कुदेसन’ शब्द एक सवाल बन कर नरेंद्र के जेहन में लगातार चक्कर काटने लगा था. उस को इतना तो एहसास था कि ‘कुदेसन’ शब्द में कुछ बुरा और गलत था. किंतु वह बुरा और गलत क्या था? यह उस को नहीं पता था.

‘कुदेसन’ शब्द को ले कर घर में किसी से कोई सवाल करने की हिम्मत उस में नहीं थी. बाहर किस से पूछे यह नरेंद्र की समझ में नहीं आ रहा था.

असमंजस की उस स्थिति में अचानक ही नरेंद्र के दिमाग में अमली चाचा का नाम कौंधा था.

अमली चाचा का असली नाम गुरबख्श था. अफीम के नशे का आदी (अमली) होने के कारण ही गुरबख्श का नाम अमली चाचा पड़ गया था. गांव के बच्चे तो बच्चे जवान और बड़ेबूढे़ तक गुरबख्श को अमली चाचा कह कर बुलाते थे. दूसरे शब्दों में, गुरबख्श सारे गांव का चाचा था.

गांव की चौपाल के पास ही अमली चाचा पीपल के नीचे जूतों को गांठने की दुकानदारी सजा कर बैठता था. वह अकेला था, क्योंकि उस की शादी नहीं हुई थी. एकएक कर के उस के अपने सारे मर गए थे. आगेपीछे कोई रोने वाला नहीं था अमली चाचा के. गांव के हर शख्स से अमली चाचा का मजाक चलता था.

बड़े तो बड़े, नरेंद्र की उम्र के लड़कों के साथ भी उस का हंसीमजाक चलता था. आतेजाते लड़के अमली चाचा से छेड़खानी करते थे और वह इस का बुरा नहीं मानता था. हां, कभीकभी छेड़खानी करने वाले लड़कों को भद्दीभद्दी गालियां जरूर दे देता था.

शरारती लड़के तो अमली चाचा की गालियां सुनने के लिए ही उस को छेड़ते थे.

जानें आगे क्या हुआ कहानी के अगले भाग में…

ये भी पढ़ें- प्रमाण दो: यामिनी और जीशान के रिश्ते की कहानी

सौतन: भाग 4- क्या भारती के पति को छीनना चाहती थी सुदर्शना

बस गरम रोटी सेंकती थी. इस बीच, भारती का जन्मदिन आया तो उसे एक माइक्रोवेव गिफ्ट, कर गई. सुदर्शना से परिचय होने के बाद भारती के परिवार में मानो सुख, उल्लास की बाढ़ आ गई. सुखी परिवार तो पहले भी था पर अब एक मजबूत, घने पेड़ की छाया और मिल गई. काम है नहीं, चिंता भी कुछ नहीं तो भारती नित नया कुछ व्यंजन या पकवान बनाती. अब हाथ में पूरा समय है तो उस ने पुराने सामानों की सफाई शुरू की.

उसे सुदर्शना की याद आई. कुछ हफ्ते पहले ही उस की तबीयत खराब हुई थी. तब भारती अधिकतर समय उसी के पास बैठी रहती. सूप, चायकौफी बना कर पिलाती. बातें करती. उस समय पूछा था, ‘‘दीदी, आप इतनी सुंदर, पढ़ीलिखी, इतनी बड़ी नौकरी, आप के पिता भी कितने बड़े डाक्टर थे, जैसा कि आप ने बताया तो आप की शादी नहीं की उन्होंने?’’ वह हंसी, ‘‘सब को परिवार, पति, संतान का सुख नहीं मिलता.’’

‘‘पर क्यों, दीदी?’’

‘‘अरे, मैं कुंआरी नहीं. शादी हुई थी मेरी, पूरे सात फेरे, सिंदूरदान सबकुछ.’’

चौंकी भारती, हाय, कैसा न्याय है? इतनी नेक हैं दीदी और उन को विधवा का जीवन.

‘‘दीदी, आप के पति का देहांत कैसे हुआ था?’’

सिहर उठी थी सुदर्शना, ‘‘न, न, वे जीवित हैं, सुखी हैं. स्वस्थ हैं.’’

‘‘तो क्या उन्होंने आप को छोड़ दिया? क्यों?’’

ये भी पढ़ें- वो नीली आंखों वाला: वरुण को देखकर क्यों चौंक गई मालिनी

‘‘नहीं रे, वे मुझे कभी नहीं छोड़ते पर मजबूरी थी. देख, एक तो हम दोनों ही नाबालिग थे. स्कूल से भाग शादी की थी. फिर वे थे गरीब परिवार के. मेरे पिता इतने पैसे वाले और प्रभावशाली व्यक्ति थे. उन्होंने मेरे पति को बहुत डराया. उन के पिता को बुला कर धमकी दी कि अगर अपने बेटे को नहीं समझाया तो पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे. वह हम दोनों का पहला प्यार था. बहुत छोटेपन से हम एक आर्ट स्कूल में थे. वहां से ही प्यार था. उस के बाद मुझे छोड़ बाहर चले गए वे. हम हमेशा के लिए अलग हो गए.’’ भारती के आंसू आ गए, ‘‘कितनी दुखभरी कहानी है. फिर आप ने शादी नहीं की?’’

हंसी सुदर्शना, ‘‘पगली, शादी, प्यार, यह सब जीवन में एक बार ही होता है.’’

‘बेचारी,’ भारती ने गहरी सांस ली. यह घटना उस ने पति को सुनाई थी. संजीव ने ध्यान नहीं दिया, उलटे समझाया था, ‘‘देखो, बड़े घरों में घटनाएं भी बड़ीबड़ी घटती हैं. तुम इतनी अंदर मत घुसा करो.’’ अगले दिन भारती के पास करने के लिए कुछ खास काम नहीं था. संजीव की एक पुरानी अलमारी साफ करने की सोची. वैसे वह अलमारी उस के ससुरजी की थी. उस में ससुरजी के कपड़ेलत्ते जितने थे, वे सब संजीव ने उन की बरसी पर ही गरीबों में बांट दिए थे. उस के बाद से इस अलमारी में संजीव अपने कागजपत्तर रखता था. फिर उस ने एक छोटी स्टील की अलमारी खरीदी तो उस को कोने में रख दिया. आज लगभग 6 वर्ष बाद उसे भारती ने खोला था. सोचा, इस की मरम्मत, रंगरोगन करा कर चांदनी को दे देगी. भारती ने सोचा कि पहले सारा सामान नीचे उतार कर रैक अच्छी तरह साफ कर के फिर सारा सामान झाड़ कर ऊपर रखेगी. उस ने सब से पहले ऊपर के खाने को टटोला. एक लैदर का पुराना छोटा सा पोर्टफोलियो बैग लौकर में मिला. आजकल इन का चलन समाप्त हो गया है, पहले था. संजीव को कभी लेते नहीं देखा. शायद, ससुरजी का होगा. उस पर मोटी धूल की परत थी. एक फटे तौलिए का टुकड़ा ले वह बैग को ले कर कुरसी खींच कर बैठ गई. पहले सोचा था ऊपरऊपर से पोंछ कर रख देगी पर फिर सोचा कि अब जब निकाला ही है तो अंदर के कागजपत्तर भी झाड़ दे. बेकार के कागज होंगे तो उन को फेंक बैग को हलका कर देगी.

बैग खोलते ही संजीव के स्कूल के कागज, रिपोर्टकार्ड और कुछ सर्टिफिकेट मिले. उस ने कभी बताया नहीं कि वह आर्ट स्कूल में भी जाता था. तभी चांदनी का हाथ ड्राइंग में इतना साफ है. पिता से विरासत में मिली सौगात है उस को. मन ही मन गर्व का अनुभव किया उस ने. तभी उस की नजर एक लिफाफे पर पड़ी. कुतूहल के साथ उस ने उसे उठाया. मथुरा के किसी फोटोस्टूडियो का लिफाफा है. मथुरा से तो दूरदराज तक इन लोगों का कोई मतलब नहीं है. हो सकता है ससुरजी कभी परिवार सहित दर्शन करने गए हों, तब फोटो खिंचवाया हो. उस ने उस में से फोटो निकाला और देखते ही उस के पूरे शरीर को मानो लकवा मार गया. संजीव और सुदर्शना विवाह की वेदी के सामने विवाह के जोड़े और जयमाला के साथ. लगभग 19-20 वर्ष पुराना फोटो है. उस समय रंगीन फोटो कम लिए जाते थे. पर यह फोटो रंगीन है. सुदर्शना की मांग में लाल सिंदूर की रेखा, संजीव के गले में फूलों की माला, माथे पर टीका और गुलाबी चादर में गठजोड़ा. दोनों की ही उम्र 16-17 वर्ष से कम ही है. बहुत बदल गए हैं दोनों. पर पहचानने में कोई परेशानी नहीं. पीछे बड़ेबड़े अक्षरों में लिखा है ‘संजीव वैड्स सुदर्शना’. बेहोशी की दशा से उभर भारती को होश में आते ही मानो क्रोध का ज्वालामुखी फूट पड़ा. संजीव उस का वह पति जिस पर उसे गर्व है. वह अपने को सारी सहेलियों से ज्यादा पति सुहागिन मान इतराती है, गर्व से फूलीफूली फिरती है. वह विश्वासघाती है. वह पहले से ही विवाहित था. सुदर्शना उस की पहली पत्नी ही नहीं, उस का पहला प्यार भी है. तो क्या ‘आंचल’ में उस का फ्लैट लेना, फिर कामवाली के बहाने उस के घर में घुसना और फिर उस से, परिवार में बेटी से इतना घुलमिल जाना, यह सब सोचीसमझी साजिश है? दोनों जरूर मिलते होंगे आज भी. यह सब जो हो रहा है, सब इन दोनों की योजना है. वह मूर्ख की मूर्ख ही बनी रही. अपने ऊपर भी गुस्सा आया, क्या किया उस ने? अपनी मूर्खता के कारण स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली. पति पर इतना अंधा विश्वास अपनी कोई सहेली कभी नहीं करती है. एक वही आज तक मूर्ख बन कर धोखे की दुनिया में जीती रही. अब इस विश्वासघाती पति के साथ एक दिन नहीं रहेगी और उस डायन को उसी के फ्लैट में जा कर सब के सामने झाड़ू से पिटाई कर के आएगी. तभी भारती की कुछ व्यावहारिक बुद्धि जागी, संजीव के साथ न रहेगी यह तो तय है पर वह जाएगी कहां? मांबाप नहीं हैं, दादी भी नहीं. घर पर बहुओं की सरकार है. वे ननद और उस की बेटी को तो अपने घर पैर भी न धरने देंगी. ‘हाय, क्या करूं मैं’ सोचसोच कर बहुत रोई भारती. फिर आंसू पोंछ ठंडे दिमाग से सोचने बैठी. 14 वर्ष पूरे हो चुके थे विवाह को. चांदनी 10 वर्ष पूरा कर 11वें साल में चल रही थी.

ये भी पढ़ें- प्रमाण दो: यामिनी और जीशान के रिश्ते की कहानी

उस ने आज तक संजीव के चरित्र में कोई उन्नीसबीस नहीं देखा. उस की किसी इच्छा को अपनी क्षमता में रहते अपूर्ण नहीं रखा. तब क्या पता था कि यह सब चालाकी थी. उस के सारे मन पर तो सुदर्शना का अधिकार था. आज दोनों के मुखौटे नोच फेंकेगी वह, आग लगा देगी परिवार को और सब से पहले इस मनहूस फोटो को, जिसे इतने वर्षों से सीने में छिपा रखा है और उसे भनक तक नहीं लगने दी. वह उठ कर फोटो को ले कर गैस पर जलाने ले जा रही थी कि तभी एक बात ध्यान में आई. अच्छा, इतने वर्षों में कभी भी संजीव को अलमारी खोलते तो नहीं देखा. उस ने फिर फोटो को देखा, दो मासूम बच्चे ही लग रहे हैं. 5-6 वर्षों में ही अपनी चांदनी इतनी ही बड़ी हो जाएगी. संजीव…उस का पति है, पति के धर्म को निभाने में कहीं भी वह चूका नहीं. किसी प्रकार की समस्या, कठिनाई आई तो ढाल बन कर उस के सामने आ गया. उसे हर कठिनाई से बचाता रहा. उसे हर तरह से खुश रखने का प्रयास करता रहा. आज तक एक कटु शब्द तक नहीं बोला वह उस से. पति उस का इतना अच्छा है कि उस से उस की हमउम्र स्त्रियां ईर्ष्या करती हैं. और सुदर्शना, वह भी तो ठीक बड़ी बहन की तरह उस पर लाड़प्यार बरसाती है, उस का ध्यान रखती है, उस के लिए चिंता करती है. सब चालाकी तो नहीं लगती.

संजीव भी अपनी सीमा में रह कर ही सुदर्शना से मिलता है. शालीनता बनाए रखता है, मर्यादा बनाए रखने में सतर्क रहता है. सुदर्शना भी संजीव के साथ व्यवहार में सदा ही औपचारिकता बना कर रखती है जबकि चांदनी और उस के साथ एकदम एकात्म हो कर घुलमिल गई है. सब प्रकार के आमोदप्रमोद में घुलमिल उपभोग करती है जबकि दोनों रीतिरिवाजों के तहत बंधनों के पतिपत्नी हैं. पल में सारा क्रोध, सारी उत्तेजना शांत हो गई भारती की. उस का कितना ध्यान रखते हैं दोनों. वह आहत न हो, मन में संदेह न हो, उस का विश्वास न टूटे, यही सोच वे कितने संयत, कितने सतर्क हो कर एकदूसरे से औपचारिक संपर्क बना कर रखते हैं. कितना कष्ट होता होगा उन दोनों को ही. एकदूसरे को समर्पित थे दोनों. बाल बुद्धि में भाग कर भले ही विवाह किया हो पर विवाह तो झूठा नहीं था. भले ही समाज ने दोनों को खींच कर अलग कर दिया हो पर मन का बंधन क्या टूटता है कभी? सच तो यह है कि वही खुद सुदर्शना का संसार, अधिकार यहां तक कि पति कब्जा किए बैठी है. ये दोनों तो तिलतिल मर कर जी रहे हैं प्रतिदिन. एकदूसरे को सामने पाते ही कितनी पीड़ा होती होगी मन में. उसे दुख न हो, यही सोच वे दोनों सहज भाव से बस अच्छे पड़ोसी की तरह एकदूसरे से हंसतेबोलते, योजनाएं बनाते हैं. बस, इसलिए कि उस के सुखी जीवन में दुख की छाया न पड़े और एक वह है कि उन को ही अभियुक्त बना कठघरे में खड़ा करने चली थी. छि:छि:, कितना ओछापन है उस में. संयोग से सुदर्शना को संजीव फिर से मिल गया. पर अब वह उस का नहीं, भारती का पति है. चाहती तो वह भारती से उस के पति को छीनने की कोशिश कर सकती थी पर उस ने ऐसा नहीं किया. वह उस की बहन और संजीव की अच्छी दोस्त बन गई. इस परिवार की सच्ची शुभचिंतक बन गई और वह उस पर ही आक्रोश में भर कर अपने हाथ से सजाए गृहस्थी में आग लगाने जा रही थी. कितना छोटा मन है उस का.आंसू पोंछ भारती ने फोटो को लिफाफे में भर कर बैग में रख कर धूल की परत समेत जहां था वहीं रख दिया. ताला लगा उस ने हाथ धोए. खिड़की से ठंडी हवा के झोंके ने आ कर उस के माथे को चूमा. उस का मन हलका हो गया मानो हरी घास के ऊपर हिरशृंगार के फूल बखर गए हों. उस ने सोचा आज रात सुदर्शना को खाने पर बुला उस के पसंद के दहीबड़े, आलूपरांठा बनाएगी जो संजीव और चांदनी को भी पसंद हैं और उसे तो हैं ही.

ये भी पढ़ें- सुबह अभी हुई नहीं थी: आखिर दीदी को क्या बताना चाहती थी मीनल

सौतन: भाग 3- क्या भारती के पति को छीनना चाहती थी सुदर्शना

‘‘क्यों?’’

सुदर्शना हंसी, ‘‘बड़ेबड़े लोग हैं सब. सभी अपने को दूसरे से बड़ा समझते हैं. आपस में आनाजाना भी नहीं. बस, चढ़तेउतरते हायहैलो.’’ ‘‘अब जो भी काम हो यहां आ जाइए अपना घर समझ कर.’’ तभी संजीव, चांदनी को ले कर बाइक से घर लौटा. भारती ने आपस में परिचय कराया, ‘‘मेरे पति संजीव और ये हैं सुदर्शना दीदी, ‘आंचल’ सोसाइटी में नई आई हैं.’’ पता नहीं संजीव एकदम चौंका या सहमा. शायद स्तर के अंतर को समझ संकुचित हुआ, एक पल रुक कर उस के हाथ उठे, ‘‘नमस्कार.’’

‘‘नमस्कार.’’

‘‘यह मेरी बेटी चांदनी, प्राइवेट स्कूल में 8वीं में पढ़ती है.’’

सुदर्शना ने उसे गोद में खींच माथे को चूमा, ‘‘बड़ी प्यारी बच्ची है तुम्हारी. अब मैं चलूं?’’

भारती ने रोका, ‘‘घर में तो खानेपीने का जुगाड़ है नहीं. कामवाली शाम को आएगी तो आप दोपहर में खाना हमारे साथ खाइए.’’

‘‘अरे नहीं, मैं कैंटीन से लंच पैक करा कर लाई हूं, वह खराब हो जाएगा.’’ संजीव जल्दी से बोला, ‘‘नहींनहीं, तब तो नहीं रोकेंगे आप को.’’

भारती ने अवाक् हो संजीव का मुख देखा. इतने वर्षों से उसे देख रही है. उसे संजीव का आज का व्यवहार बड़ा ही अजीब लगा. वह लोगों को खिलाना बहुत पसंद करता है. दोस्त आते हैं तो जबरदस्ती उन को खाना खिला कर भेजता है. असल में उसे भारती के हाथ से बने स्वादिष्ठ भोजन पर गर्व है. आज स्वभाव के विपरीत आग्रह करना तो दूर, सुदर्शना को भगाने को उतावला हो उठा. क्या उसे भी पहले सुदर्शना जैसी एलिट क्लास की महिला को देख कर घबराहट हुई जैसे उसे हुई थी. पर सुदर्शना वैसी नहीं है. वह बहुत अच्छी है. दो मिनट बैठ बात करता तो समझ जाता जैसे वह समझ गई है. सुदर्शना ने उन से विदा ली. जाते समय फिर चांदनी को प्यार किया. सब को अपने फ्लैट पर आने का निमंत्रण दिया और चली गई.

कुछ देर बाद जब सब खाने बैठे तब चांदनी ने कहा, ‘‘मैं आंटी को जानती हूं.’’

ये भी पढ़ें- पुरस्कार: रिटायरमेंट के बाद पिता और परिवार की कहानी

संजीव चौंका, ‘‘अरे, कैसे?’’

‘‘हमारे स्कूल की चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन करने आई थीं. ये फाइन आर्ट अकादमी की डायरैक्टर हैं.’’

भारती का मुंह खुल गया, ‘‘हैं…’’

‘‘हां मम्मी. और इन के बनाए चित्र लाखों में बिकते हैं.’’

‘‘बाप रे, देखने में लगता नहीं. इतनी सीधीसादी हैं न जी.’’ संजीव खाने में मस्त था, शायद सुना ही नहीं, चौंका, ‘‘क्या, क्या कह रही हो?’’

‘‘सुना नहीं, सुदर्शनाजी कितनी बड़ी नौकरी पर हैं. इन के चित्र लाखों में बिकते हैं. पर देखो, कितनी अच्छी हैं, हम लोगों से कैसे घुलमिल गईं. लगता ही नहीं कि इतने ऊंचे स्तर की हैं.’’

‘‘हां, हां, वह तो है. पर भारती, हमारे और इन के स्तर में बहुत बड़ा अंतर है. तुम जरा संभल कर मिलनाजुलना.’’

‘‘अरे, वह मैं समझती हूं. मैं तो गई नहीं, वही मदद मांगने आई थीं. सो, भोले सब्जी वाले की बहन को उन के घर काम पर लगा दिया, बस. अब कौन रोजरोज आएंगी वे.’’

संजीव ‘यह भी ठीक है.’ सोच कर चुप हो गया. पर इन लोगों ने जैसा सोचा था कि बात आईगई हो गई, ऐसा हुआ नहीं. क्योंकि सुदर्शना ने स्वयं ही बारबार आ कर घनिष्ठता बढ़ा ली. स्वभाव भी उस का इतना मधुर और मिलनसार था कि ये लोग भी उस से घुलमिल गए. वह चांदनी की आदर्श, भारती की स्नेहमयी दीदी और संजीव की शुभचिंतक बन गई. भोले भी बड़ा खुश था, उस की दीदी को सुदर्शना मोटा वेतन देती और रोज ही कुछ न कुछ घर ले जाने को देती. उस का आर्थिक संकट दूर हो गया. अब भारती के घर सुदर्शना का आनाजाना बहुत हो गया. धीरेधीरे संजीव भी खुल गया उस के सामने. अब तो घर की व्यक्तिगत बातें भी उस के सामने करते यह परिवार नहीं हिचकता. जैसे उस दिन दीवार पर फ्रेम किए चांदनी के बनाए 2 चित्रों को देख उस ने कहा, ‘‘चांदनी का हाथ बहुत अच्छा है. इसे आर्ट स्कूल में क्यों नहीं भेजती.’’

भारती ने रुकरुक कर जवाब दिया, ‘‘स्कूल…से…लौट…समय…होमवर्क भी रहता है.’’

‘‘पर वहां शाम की क्लासेज भी होती हैं शनिवार और रविवार को, तो क्या परेशानी है.’’

‘‘नहीं, असल में पूरे वर्ष की फीस जमा करते हैं वहां, अब एकदम 24 हजार रुपए…’’ सुदर्शना चुप हो गई. एक हफ्ते बाद चांदनी का जन्मदिन आया. शाम को बच्चों की पार्टी हो गई. रात को खाने पर सुदर्शना को बुलाया था भारती ने. उस दिन वह कुछ काम में व्यस्त थी, देर से आई 11 बजे के आसपास. चांदनी को ले कर एक बार बाजार गई थी. उसे सुंदर सा एक ड्रैस खरीद दिया. रात खाने पर आई तो सब से पहले उस ने चांदनी को खूब प्यार किया, आशीर्वाद दिया. फिर बोली, ‘‘भारती, मैं ने चांदनी को कोई गिफ्ट नहीं दिया अभी तक.’’

भारती से पहले संजीव बोल पड़ा, ‘‘अरे, इतना महंगा ड्रैस…’’

‘‘वह गिफ्ट नहीं. गिफ्ट यह है,’’ उस ने एक लिफाफा बढ़ा दिया संजीव की ओर.

संजीव हैरान था, ‘‘यह क्या?’’

‘‘बर्थडे गिफ्ट.’’

चांदनी के होंठों पर दबी मुसकान अर्थात उसे पता है कि इस में क्या है. संजीव ने भारती की ओर देखा, उस ने असमंजस से सिर हिलाया. उसे भी कुछ पता नहीं. संजीव ने सोचा, इस में चैक होगा. खोला तो चौंका, मुंह से निकला, ‘‘अरे, यह कब…?’’

ये भी पढ़ें- सोने का झुमका : पूर्णिमा का झुमका खोते ही मच गया कोहराम

खिलखिला उठी चांदनी, ‘‘जब ड्रैस लेने गई थी…’’ आर्ट कालेज में चांदनी के भरती होने की पूरे 2 वर्ष की फीस 48 हजार रुपए की रसीद. संजीव के पैरों के नीचे की जमीन खिसकने लगी. भारती ने भी देखा, वह कुछ बोलती कि सुदर्शना ने रोका, ‘‘देखो भारती, आज खुशी का दिन है. चांदनी को मैं अपनी बेटी मानती हूं. उस के लिए 2 रुपए का सामान लाने में भी मुझे बड़ा सुख मिलता है. मैं तुम लोगों को अपना मानती हूं. तुम लोग भले ही मुझे पराया समझते हो.’’ व्यावहारिक ज्ञान भारती को संजीव से ज्यादा है. उस ने बात संभाली, ‘‘नहीं दीदी, आप को भी हम परिवार का हिस्सा समझते हैं.’’

‘‘तो फिर इतने परेशान क्यों हो?’’

संजीव अब तक संभल गया था, बोला, ‘‘सुदर्शनाजी, रकम बहुत बड़ी है.’’ ‘‘देखिए, संजीवजी, मैं संसार में एकदम अकेली हूं, मेरी आय काफी है. मेरे लिए यह सजा है कि मेरे पास कोई नहीं है जिस पर मैं 10 रुपए भी खर्च करूं. पता नहीं, किस अच्छे काम के चलते इतने दिनों बाद मुझे एक ऐसा परिवार मिला जो मुझे अपना लगा, जिस ने मुझे अपना समझा. कृपया, कुछ कर के मुझे सुख मिले तो मुझे रोक कर उस सुख से वंचित मत करिए.’’ यह कह कर उस ने हाथ जोड़े. भारती लिपट गई उस से.

‘‘ना-ना दीदी, आप जो मन में आए, करिए, हम कुछ नहीं कहेंगे. चांदनी आप की ही बेटी है.’’ दोनों के बीच स्तर के नाम की जो कांच की दीवार थी वह झनझना कर टूट गई. सुदर्शना इस परिवार की सदस्या बन गई. वास्तव में इन लोगों को याद ही न रहा कि सुदर्शना पड़ोस में रहने वाली एक पारिवारिक मित्र भर है. उस के बिना ये लोग अब कुछ सोच भी नहीं सकते थे. घूमना, खाना, भविष्य योजना, यहां तक कि आर्थिक योजना सब कुछ में सुदर्शना शामिल हो गई. संजीव ने थोड़ा रोकने का प्रयास न किया हो, ऐसी बात नहीं पर चांदनी व भारती की खुशी देख वह चुप रह जाता. धीरेधीरे घर की कायापलट हो रही थी. सब से पहले उस ने एक माली लगाया जिस से बगीचा सजसंवर जाए. वह अकादमी में काम करता रविवार पूरा दिन यहां काम कर जाता, वेतन नहीं लेता. पैसों की बात करते ही हाथ जोड़ता, ‘‘मैडमजी का बहुत उपकार है मेरे ऊपर. आप उन के अपने हैं, पैसे की बात न करें. बहुत ले रखा है उन से. भारती को ठंड में काम करने में कष्ट होता है, जल्दी ठंड लग जाती है. उस ने भोले की दीदी को भारती के घर काम के लिए लगा दिया. 8 बजे के बाद आ कर पूरा काम करती, यहां तक कि सागसब्जी, दाल भी रात के लिए बना जाती. रात को भारती…

ये भी पढ़ें- बुद्धि का इस्तेमाल: श्रद्धा और अंधश्रद्धा में क्या फर्क है

सौतन: भाग 2- क्या भारती के पति को छीनना चाहती थी सुदर्शना

‘‘अरे दोनों सोसाइटी हमारे अगलबगल में हैं. मतलब उत्तर और दक्षिण में. पर पूरबपश्चिम तो एकदम खुला है, कभी बंद होगा ही नहीं. सामने चौड़ा हाइवे, पीछे सरकारी कालेज का खेल मैदान. उगते और डूबते सूरज की पहली से ले कर अंतिम किरण तक हमारे घर में खुशियों की तरह बिखरी रहेगी. हवा, धूप की चिंता हमें नहीं.’’ भारती ने चैन की सांस ली. संजीव उस की हर समस्या का हल कितने आराम से कर देता. घर में भले ही हजार असुविधा थीं पर भारती तृप्त थी, संतुष्ट थी संजीव जैसे पति को पा कर. सोसाइटी ‘आंचल’ के मुहूर्त के बाद 5वें दिन लगभग 11 बजे का समय था, भोले सब्जी का ठेला ले कर आया, ‘‘भाभीजी, ताजी भिंडी लाया हूं, बिक्री की शुरुआत करा दो.’’ भारती के घर की जमीन पर केले और पपीते खूब उगते थे और चारदीवारी पर सेम की बेल भी खूब फलती थी. भोले सब ले जाता, बदले में हिसाब से दूसरी सब्जी दे जाता. भारती और उस का यह हिसाबकिताब बहुत पुराना था. इस तरह सब्जी खरीदने के पैसे बचा लेती थी वह.

भारती भिंडी छांट रही थी कि एक चमचमाती गाड़ी आ कर रुकी. चालक की सीट से एक युवती झांकी, ‘‘हाय.’’

सकपका गई भारती. इतनी अभिजात महिला से इस से पहले कभी संपर्क नहीं हुआ था उस का. ‘हाय’ के उत्तर में क्या कहे, यह भी उसे नहीं पता.

थोड़ी सी घबराहट के साथ उस ने कहा, ‘‘जी, जी.’’ युवती उतर आई. उस से 4-5 साल बड़ी ही होगी पर बड़े घर की छाप, वेशभूषा, हावभाव और महंगे कौसमेटिक्स ने उस को बहुत कोमल और आकर्षक बना रखा था. सुंदर तो थी ही, गोरीचिट्टी, तराशे नैननक्श और सुगठित लंबा तन भी. शरबती रंग की शिफौन साड़ी, मैचिंग ब्लाउज, कंधों तक कटे बाल और धूप का चश्मा सिर के ऊपर चढ़ाया हुआ. हाथ में मोबाइल.

ये भी पढ़ें- मालती: पति के शराब की लत देखकर क्या था मालती का फैसला

‘‘नमस्कार, मैं ‘आंचल’ सोसाइटी में नईनई आई हूं.’’ वह तो भारती देखते ही समझ गई थी, कहने की जरूरत ही नहीं थी. ऐसी गाड़ी, यह व्यक्तित्व भला और किस का होगा. यहां के पुराने रहने वाले कम ही हैं. जो हैं वे लगभग उसी के स्तर के हैं. पर यह तो…घबरा कर भिंडी की टोकरी छोड़ उस ने हाथ जोड़े, ‘‘नमस्कार.’’

‘‘मैं सुदर्शना, फाइन आर्ट्स अकादमी में काम करती हूं. अकेली हूं. 105 नंबर फ्लैट मेरा है. आप का नाम?’’

‘‘भारती.’’

‘‘सुंदर नाम है. मैं आप से थोड़ी मदद चाहती हूं. यहां आबादी कम है. अपनी कालोनी से बस आप को ही देख पाती थी.’’ युवती के सहज व्यवहार ने उसे भी सहज बना दिया. कुछ लोग इतने सहजसरल होते हैं कि अगले ही पल में उन से दूसरे लोग घुलमिल जाते हैं, उन्हें अपना समझने लगते हैं. सुदर्शना उन लोगों में से एक है.

‘‘कहिए, मैं क्या कर सकती हूं?’’

‘‘यहां ही बात करें या…?’’

लज्जित हुई भारती को अपनी भूल का अनुभव हुआ, ‘‘नहींनहीं, आइए, अंदर बैठते हैं.’’

वह मुड़ी तो भोले ने कहा, ‘‘भाभीजी, भिंडी…’’

‘‘तू छांट कर दे जा,’’ फिर भारती उस महिला की ओर मुखातिब हुई, ‘‘चलिए.’’

युवती हंसी, ‘‘तुम मुझ से छोटी हो. दीदी कह सकती हो, भारती.’’

खिल उठी भारती. इतने बड़े हाईफाई लोग ऐसे सीधे, सरल भी होते हैं? बैठक में ला कर बैठाया. सुदर्शना ने मुग्ध हो कर देखा. पुराना घर, पुराना साजसामान, उन को भी भारती ने झाड़पोंछ कर इतने सुंदर ढंग से सजा रखा था कि देखते ही आंखों में ठंडक पहुंच जाए, मन खुश हो जाए.

‘‘तुम तो बहुत ही सुगृहिणी हो. घर को कितना सुंदर सजा रखा है.’’ लजा गई भारती. उस की प्रशंसा सभी करते हैं पर इन के द्वारा की गई प्रशंसा में दम था.

‘‘नहीं दीदी, मामूली साजसामान…’’

‘‘उसी को तुम ने असाधारण ढंग से सजा रखा है. तुम्हारे पति तुम से बहुत प्रसन्न रहते होंगे.’’ पानीपानी हो गई वह अपनी प्रशंसा सुन. पल में सुदर्शना उसे अपनी सगी सी लगने लगी.

‘‘चाय लेंगी या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं, बस, तुम से एक सहायता चाहिए.’’

‘‘कहिए,’’ भारती ने घड़ी देखी. आज शनिवार है. बापबेटी दोनों का हाफडे है, जल्दी लौटेंगे और खाने की तैयारी कुछ नहीं हुई. चिंता होने लगी उसे. पर सुदर्शना का साथ अच्छा भी लग रहा था.

ये भी पढ़ें- चिड़िया चुग गईं खेत: शादीशुदा मनोज के साथ थाईलैंड में क्या हुआ था

‘‘मेरा किराए का घर यहां से 10 किलोमीटर दूर है. पुरानी कामवाली यहां नहीं आ सकती. यहां कोई मिली नहीं. एक कामवाली चाहिए.’’

‘कामवाली?’ भारती सकपका गई.

असल में कामवालियों से परिचय नहीं था उस का. सारा काम स्वयं करती थी. संजीव ने कई बार कहा भी पर वह तैयार नहीं हुई. बेकार में 600-800  रुपए महीना चले जाएंगे, उन्हीं पैसों से सागभाजी का खर्चा निकल आता है. ‘‘मैं अकेली हूं. साढ़े 8 बजे निकल कर साढ़े 5 बजे तक लौटती हूं. खानानाश्ता सब बनाना पड़ेगा. छुट्टी के दिन दोपहर का खाना भी. दूसरे दिन रात का खाना, बाकी सफाई, कपड़े, झाड़ू, बरतन, सौदासपाटा. सुबह साढ़े 6 बजे आ जाए, फिर शाम भी 6 बजे. पैसा जो मांगेगी दे दूंगी.’’

भोले इतने में भिंडी ले कर अंदर आ गया, ‘‘भाभीजी, रसोई में रख दूं?’’

‘‘रख दे. सुन भोले, कोई कामवाली ला देगा?’’

‘‘किस के लिए?’’

‘‘यह मेरी दीदी हैं. ‘आंचल’ सोसाइटी में रहने आई हैं. अकेली हैं. कामवाली को सारा काम, सौदासपाटा सब करना पड़ेगा. सुबह व शाम आना है.’’

‘‘भाभीजी, मेरी दीदी ही काम खोज रही हैं.’’

‘‘तेरी दीदी?’’

‘‘अब क्या कहूं. अलीगढ़ के पास एक गांव में ब्याही थीं. 8 बीघा जमीन, पक्का घर, 2 बच्चे 8वीं और छठी में पढ़ने वाले. जीजा अचानक चल बसे. देवर ने मारपीट कर भगा दिया. जमीन का हिस्सा नहीं देना चाहता. 2 महीने से यहां आई हुई हैं. मेरी ठेले की आमदनी है बस. घर में मां, अपने 2 बच्चे, बीवी. परेशानी है तो…

‘‘तो तू जा कर ले आ उसे.’’

‘‘मेरा ठेला…’’

‘‘यहां छोड़ जा.’’

‘‘सुबह की बिक्री नहीं होगी. उसे शाम को ले आऊंगा.’’

‘‘ठीक है फ्लैट नंबर 105. देख, ये मेरी दीदी हैं, अकेली रहती हैं. नौकरी पर जाती हैं. समय पर काम चाहिए.’’

‘‘जी, मैं दीदी को सब समझा दूंगा.’’

भोले चला गया. सुदर्शना ने कहा, ‘‘बड़ा उपकार किया तुम ने मुझ पर. फ्लैटों में तो कोई किसी की सहायता नहीं करता.’’

ये भी पढ़ें- अपनी मंजिल: क्या था सुदीपा का फैसला

सौतन: भाग 1- क्या भारती के पति को छीनना चाहती थी सुदर्शना

निकलते-निकलते उसे वहीं देर हो गई. सुबह से उस का सिर भारी था, सोचा था घर जल्दी जा कर थोड़ा आराम करेगा पर उठते समय ही बौस ने एक जरूरी फाइल भेज दी. उसे निबटाना पड़ा. वैसे, यह काम रमेश का है पर वह धूमकेतु की तरह उदय हो दांत निपोर कर बोला, ‘‘यार, आज मेरा यह काम तू निबटा दे. मेरे दांत में दर्द है, डाक्टर को दिखाना है, प्लीज.’’

‘‘कट कर दे.’’

‘‘बाप रे, बुड्ढा कच्चा चबा जाएगा. आजकल वह कटखना कुत्ता बना है.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ उसे, वह ठीकठाक तो है?’’

‘‘कुछ ठीकठाक नहीं, सब गड़बड़ हो गया है.’’

‘‘क्या गड़बड़ है?’’

‘‘इस उम्र में उस की बीवी ठेंगा दिखा कर भाग गई.’’

‘‘हैं…’’

‘‘तभी तो बौखला कर अब हमारे ऊपर गरज रहा है.’’ रमेश निकल गया और संजीव लेट हो गया. पत्नी भारती और 10 वर्ष की बेटी चांदनी उस की प्रतीक्षा में थे. उसे देखते ही भारती चाय का पानी रखने गई. संजीव सीधा बाथरूम गया फ्रैश होने. एक गैरसरकारी दफ्तर में मामूली क्लर्क है वह. मामूली परिवार का बेटा है. उस के पिता भी क्लर्क थे. उस का जीवन भी मामूली है. मामूली रहनसहन, मामूली पत्नी, मामूली समाज में उठनाबैठना. पर वह अपने जीवन में संतुष्ट है, सुखी है. कारण यह कि उस की आशाएं, योजनाएं, मित्र सभी मामूली हैं. मामूली जीवन में फिट हो कर भी संजीव एक जगह ट्रैक से अलग हट गया है. वह है बेटी चांदनी का पालनपोषण. अपने वेतन की ओर ध्यान न दे कर, भारती की आपत्ति को नजरअंदाज कर उस ने बेटी को एक महंगे अंगरेजी माध्यम स्कूल में डाला है. उस का वेतन हाथ में आता है 7 हजार रुपए. इस महंगाई के जमाने में क्या होता है उस में. पर भारती अपनी मेहनत, सूझबूझ और सुघड़ता से बड़े सुंदर ढंग से घर चला लेती है. किसी प्रकार का अभावबोध पति या बेटी को नहीं होने देती. पुराना घर और साथ में चारों ओर छूटी जमीन संजीव की एकमात्र पैतृक संपत्ति है. किराया बचता है और खुली, बड़ी जगह में रहने का सुख भी है.

ये भी पढ़ें-  ‘मां’ तो ‘मां’ है: क्या सास को मां मान सकी पारुल

भारती भी मामूली घर की बेटी है. सम्मिलित परिवार था. मां, चाची मिल कर घर का काम करतीं. दादीमां भी हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठती थीं, मिर्चमसाले कूटतीं, दाल, चावल, गेहूं बीन कर साफ करतीं. इसलिए शादी से पहले भारती को काम नहीं करना पड़ा. पर शादी के बाद सारा काम उस ने अपने सिर पर उठा लिया, और उस से उसे खुशी ही मिली. अपना घर, अपना पति और अपनी बच्ची, उन सब के लिए कुछ भी कर सकती है. प्राइवेट स्कूल में बेटी को डालने के बाद तो झाड़ूबरतन भी खुद ही करती, महीने के 500 रुपए बच जाते. उस ने वास्तव में घर को खुशहाल बना रखा था क्योंकि उस ने अपने घर में देखा था कि निर्धनता में भी कैसे सुखी रहा जाता है. वहां तीजत्योहार बड़े उत्साह से मनाए जाते, पूड़ीकचौरी, लड्डू, गुजिया बनते, हर मौसम का अचार पड़ता. यहां तक कि मार्चअप्रैल में मिट्टी के नए कलश में गाजरमूली का पानी वाला अचार पड़ता, पापड़ बनते, बडि़यां तोड़ी जातीं. अभावबोध कभी नहीं रहा. उसी ढंग से उस ने अपने इस घर को भी सुख का आशियाना बना रखा था. पति की हर बात मान कर चलने वाली भारती ने विरोध भी किया था बेटी को इतने महंगे स्कूल में डालने के लिए पर बापबेटी दोनों की इच्छा देख वह चुप हो गई थी.

चाय के साथ गरम पकौड़े ले कर आई भारती संजीव के पास बैठ गई. चांदनी पार्क में खेलने गई थी.

‘‘सुनोजी, वो बंसलजी आज फिर आए थे.’’ पकौड़े खातेखाते संजीव के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘कब?’’

‘‘आज तो तुम लेट आए हो. तुम्हारे आने के 10-15 मिनट पहले.’’ चाय का घूंट भर कर उस ने एक और पकौड़ा उठाया, ‘‘अब क्या चाहिए? मैं ने मना तो कर दिया.’’

‘‘अरे, गुस्सा क्यों करते हो? वह तो निमंत्रण देने आए थे.’’

‘‘किस बात का निमंत्रण?’’

‘‘उन की सोसाइटी ‘आंचल’ का मुहूर्त है कल, मतलब गृहप्रवेश.’’

‘‘उन बड़ेबड़े लोगों में हम जैसे मामूली लोगों का क्या काम?’’ भारती बहुत ही धीरगंभीर है. शांत स्वर में बोली, ‘‘देखो, मान के पान को भी आदर देना चाहिए. वह बड़ेबड़े लोगों की सोसाइटी है, सब जानते हैं. पर उन्होंने हमें निमंत्रण दिया है तो मान दे कर ही. फिर हमें उन का भी मान रखना चाहिए.’’

‘‘तुम बहुत ही भोली हो. आज के संसार में तुम जैसी को बेवकूफ माना जाता है क्योंकि तुम चालाक लोगों के छक्केपंजे नहीं पकड़ पातीं. अरे मानवान कुछ नहीं, स्वार्थ है उन का सिर्फ.’’

भारती अवाक् संजीव का मुंह देखने लगी, ‘‘अब क्या स्वार्थ, सोसाइटी तो बन चुकी?’’

‘‘उस का धंधा है सोसाइटी बनाना. एक बन गई तो क्या काम छोड़ देगा? चौहान का घर खरीद रखा है, अब दूसरी सोसाइटी वहां बनेगी. वह जगह कम है, साथ में लगा है हमारा घर. हमारा घर पुराना व छोटा है पर जमीन कितनी सारी है, यह मिल गई तो यहां ‘आंचल’ से दोगुनी बड़ी सोसाइटी बनेगी.’’

‘‘पर चांदनी तो जाने के लिए उछल रही है, उस की स्कूल की 2 सहेलियां भी यहां आ रही हैं.’’ ‘‘वह बच्ची है. एक काम करते हैं, कल शनिवार है, आधी छुट्टी तो है ही, सोमवार को सरकारी छुट्टी है. चलो, उसे आगरा घुमा लाते हैं. वह खुश हो जाएगी और तुम भी तो अपनी बूआ से मिलने की बात कब से कह रही हो. 2 दिन उन के घर में भी रह लेंगे.’’ भारती चहक उठी, ‘‘सच, तब तो बड़ा अच्छा होगा. चांदनी खुश हो जाएगी ताजमहल देख कर. पर आखिरी महीना है, हाथ खाली होगा.’’

ये भी पढ़ें- नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

‘‘अरे वह जुगाड़ हो जाएगा.’’

दूसरे दिन शनिवार को ही संजीव सपरिवार आगरा चला गया, लौटा मंगलवार को. रविवार को सोसाइटी में ‘गृहप्रवेश’ समारोह था. आतेआते रात हो गई. गेट के सामने से ही ‘आंचल’ सोसाइटी पर नजर पड़ी. 150 फ्लैटों में बस 4-6 फ्लैट ही बंद हैं, बाकी फ्लैटों की खिड़कियां दूधिया रोशनी से झिलमिला रही हैं. खिड़कियों पर परदे पड़े हैं. भारती अवाक्. फिर बोली, ‘‘अरे, लोग रहने भी आ गए?’’ रिकशे से बैग उतार पैसे चुका रहा था संजीव. उस ने नजरें उठाईं फिर देख कर बोला, ‘‘तो क्या घर खाली पड़ा रहता? दिल्ली में किराया तो आसमान छूता है.’’

‘‘पार्टी जबरदस्त हुई होगी?’’

‘‘क्यों नहीं, बड़े लोगों की पार्टी थी. खाना, पीना, नाच, मस्ती सभी कुछ…’’

‘‘अच्छा हुआ कि हम नहीं गए.’’

संजीव हंसा, ‘‘ऐसे लोगों में हम चल नहीं पाते, तभी निकल गया था.’’

‘‘चलो पड़ोस बसा. रोशनी, चहलपहल रहेगी. सूना पड़ा था.’’

‘‘शहर लगभग सीमा के पास है. तभी आबादी कम है.’’

‘‘इतने बड़े लोगों के बीच बंसलजी को हमें बुलाना नहीं चाहिए था.’’

‘‘अरे उस ने उम्मीद नहीं छोड़ी. दूसरी सोसाइटी में बड़े फ्लैट का लाखों रुपए का चारा जो डाल रखा है.’’ संजीव ने गलत नहीं कहा. ‘आंचल’ बनाते समय ही उस की नजर इस घर पर थी. घर तो पुराना और जर्जर है पर साथ में जमीन बहुत सारी है. कुल मिला कर 3 बीघा तो होगी. यह मिल जाती तो 4 स्विमिंग पूल, कम्युनिटी हौल बनवाता तो इन्हीं फ्लैटों के दाम 10-10 लाख रुपए और बढ़ जाते. एक फ्लैट और 20-30 लाख रुपए कैश देने को तैयार था. रातोंरात संजीव की आर्थिक दशा सुधर जाती. भविष्य सुनहरा होने के साथ ही साथ सुखआराम से भरपूर सुंदर झिलमिलाता घर मिलता. एक उच्च समाज का प्रवेशपत्र भी हाथोंहाथ मिल जाता. पर संजीव नहीं माना. मामूली आदमी जो ठहरा. उस के लिए ग्लैमर से ज्यादा अपनी जड़, अपनी पहचान कीमत रखती थी. निर्धन पिता से पाई एकमात्र संपत्ति थी यह घर. इस को वह जीवनभर संभाल कर रखना चाहता था. भारती भी घर में बहुत संतुष्ट थी. दिनरात घर की सफाई और साजसज्जा में लगी रहती थी. घर की मरम्मत के लिए खर्चे से बचा कर पैसे भी जोड़ रही थी. उसे बस एक ही चिंता थी सो एक दिन संजीव से बोली, ‘‘सुनोजी, दोनों ओर ऊंचीऊंची सोसाइटी बन गईं तो हमारे घर की धूप, हवा, रोशनी एकदम बंद हो जाएगी.’’

संजीव चाय पी रहा था. हंस कर बोला, ‘‘कुछ भी बंद नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’

ये भी पढ़ें- बुलडोजर : कैसे पूरे हुए मनोहर के सपने

ऐसे ही सही: भाग 1- क्यों संगीता को सपना जैसा देखना चाहता था

पार्किंग में अपना स्कूटर खड़ा कर के मैं इमरजेंसी वार्ड की तरफ बढ़ा. काफी पूछने पर पता चला कि जिस व्यक्ति को मैं ने यहां भरती कराया था वह अब आई.सी.यू. में है. रात को हालत ज्यादा बिगड़ जाने के कारण उसे वहां शिफ्ट कर दिया गया था. आई.सी.यू. चौथी मंजिल पर था. मैं लिफ्ट का इंतजार करने के बजाय तेजी से सीढि़यां चढ़ता हुआ वहां पहुंचा.

थोड़ा सा ढूंढ़ने पर मैं ने उन की पत्नी को एक कोने में मायूस गुमसुम बैठे देखा. मैं तेजी से उन के पास गया और उन का हाल पूछा. वह पहले तो मुझे अजनबियों की तरह देखती रहीं फिर याद आने पर मेरे साथ उठ कर एक तरफ आ कर फूटफूट कर रोने लगीं.

‘‘क्या हुआ. सब ठीक तो है न?’’ मैं थोड़ा चिंतित हो गया.

‘‘कुछ भी ठीक नहीं है. आप के जाने के बाद कई डाक्टर आए. कई टैस्ट किए फिर भी कमर से नीचे के हिस्से में कोई हरकत नहीं हो रही है. उन्हें रात को ही यहां शिफ्ट कर दिया गया था. बस, तब से यहीं बैठी हूं. क्या करूं…एकदम नया शहर और आते ही यह हादसा,’’  कह कर वह पुन: साड़ी का पल्लू मुंह में दबाए सिसकने लगीं. मेरी समझ में नहीं आ रहा था, मैं क्या कहूं.

सब से पहले मैं ने कैंटीन से चाय और बिस्कुट ला कर उन्हें दिए. लग रहा था जैसे रात से उन्होंने कुछ खाया नहीं है. उन के पास ही उन की 10 साल की बेटी बैठी हुई थी, जो थोड़ीथोड़ी देर में सहमे हुए मां का हाथ पकड़ लेती थी. उन के पास कुछ देर बैठ कर मैं डाक्टर से मिलने चला गया.

ये भी पढ़ें- घर वापसी : क्या लड़कियों की दलाली करता था पूरन

डाक्टर से पता चला कि उन की स्पाइनल कौर्ड में कोई गहरी चोट आई है जिस के कारण यह हादसा हुआ है. यह भी कह पाना मुश्किल है कि वह कब तक ठीक हो पाएंगे और ठीक भी हो पाएंगे या नहीं.

‘‘तो क्या यह उम्र भर यों ही पड़े रहेंगे,’’ मैं ने बेचैनी से पूछा.

‘‘अभी कुछ भी कहना संभव नहीं,’’ डाक्टर बोला, ‘‘कुछ विशेषज्ञ बुलाए हैं…शायद वे कुछ सलाह दे सकें.’’

‘‘तो आप उन्हें कब तक यहां आई.सी.यू. में रखेंगे?’’

‘‘ज्यादा से ज्यादा 3 दिन,’’ कह कर डाक्टर वहां से चला गया.

एक बीमा एजेंट होने के नाते उन की बीमारी के प्रति जानकारी रखना मेरे लिए स्वाभाविक बात थी. और तब ज्यादा जब सबकुछ मेरी आंखों के सामने हुआ.

कल दोपहर को आफिस जाते समय अचानक स्पीड ब्रेकर सामने आ गया तो मुझे तेजी से ब्रेक लगाने पड़े, क्योंकि स्पीड ब्रेकर ठीक से नहीं बना था. इतने में देखा कि एक तेज गति से आती वैन उस स्पीड ब्रेकर से टकराई और चलाने वाला व्यक्ति उछल कर बाहर जा गिरा. वैन सामने पेड़ से टकरा गई. यह हादसा मुझ से कुछ ही दूरी पर हुआ था.

मैं ने वहां जा कर उस व्यक्ति को  देखा जो मूर्च्छितावस्था में एक तरफ पड़ा हुआ था. मैं ने कुछ लोगों की सहायता से उसे एक आटोरिकशा में लिटाया और पास ही एक नर्सिंग होम में ले गया. उस व्यक्ति के सिर पर गहरी चोट का निशान था.

वहां मौजूद डाक्टरों को मैं ने पूरी घटना का विवरण दिया और उसे लिटा दिया. उस की जेब से एक परिचयपत्र निकला जिस पर उस के आफिस का पता और फोन नंबर लिखा था. पता चला कि वह एक सरकारी संस्थान में डिप्टी डायरेक्टर है और उस का नाम विनोद शर्मा है.

मैं ने उस संस्थान से उन के घर का फोन नंबर लिया और उन की पत्नी को इस हादसे के बारे में बताया. थोड़ी ही देर में वह वहां आ गईं. उन को सबकुछ बताने के बाद मैं ने उन से इजाजत मांगी. वह मन भर कर बोलीं, ‘‘मैं आप की बहुत शुक्रगुजार हूं कि आप ने इन्हें यहां तक पहुंचा दिया, वरना आज के व्यस्त जीवन में कौन ऐसा करता है.’’

‘‘अरे, यह तो मेरा फर्ज था. बस, यह ठीक हो जाएं तो समझूंगा कि मेरा लाना सफल हुआ.’’

‘‘एक मेहरबानी और कर दीजिए,’’ वह कहने लगीं, इन की गाड़ी किसी तरह घर पहुंचा दीजिए…जो भी खर्च आएगा, मैं दे दूंगी.’’

ये भी पढ़ें-प्यार है: लड़ाई को प्यार से जीत पाए दो प्यार करने वाले

‘‘ठीक है, मैम, अभी तो देखना होगा कि वह चलने लायक है या नहीं,’’ कह कर मैं ने अपने एक परिचित को वर्कशाप में फोन कर के गाड़ी को वहां से निकालने का इंतजाम किया. बीमा एजेंट होने के नाते यह सब काम करना, करवाना मैं अच्छी तरह जानता था.

इस सारी प्रक्रिया से निबट कर मैं जब घर पहुंचा तो 8 बज चुके थे. संगीता ने दरवाजा खोलते ही अपने चिरपरिचित स्वर में मुंह बना कर कहा, ‘‘तो आज क्या बहाना है देर से आने का?’’

इतना सुनना था कि मेरा मन  कसैला हो गया. उस का यह स्वभाव और व्यवहार सर्पदंश की तरह मुझे हर बार डंस जाता. मेरे विवाह को 4 साल हो चुके थे और इन 4 सालों में मैं ने कभी उस के मुंह से फूल झड़ते नहीं देखे. हमेशा किसी न किसी बात को ले कर वह ताने देती रहती थी.

शुरुआत में मैं ने बड़ी कोशिश की कि उस के पास बैठ कर कोई प्यार की बात कर सकूं. मगर हर बात मायके से शुरू हो कर मायके पर ही खत्म होती. बातों को तूल न देने के लिए मैं खामोश हो जाता और इस खामोशी का उस ने भरपूर फायदा उठाया.

हद तो तब हो गई जब मेरी सास और साली ने मुझ पर संगीता को खुश रखने का दबाव बनाना शुरू कर दिया. उसे अच्छे कपडे़े, जेवर और घुमानेफिराने, घर जल्दी लौटने का सिलसिलेवार क्रम भी उन्होंने ही तय कर दिया. मैं हर बात का जवाब देना जानता था पर मर्यादाओं में रह कर और वह अमर्यादित हो चुकी थी.

‘‘यह बात तो तुम प्यार से भी पूछ सकती हो. पर मेरे किसी उत्तर से तुम संतुष्ट तो होगी नहीं इसलिए कोई बहाना नहीं बनाऊंगा,’’ मैं ने मेज पर अपना बैग रखते हुए बड़ी नरमी से कहा.

‘‘5 बजे तुम्हारा आफिस बंद हो जाता है और 7 बजे से पहले तुम कभी आते नहीं हो. सुबह भी 8 बजे चले जाते हो. तुम से तो मजदूर अच्छे होते हैं जिन का कोई समय तो होता है.’’

‘‘तो फिर किसी मजदूर से ही शादी कर लेतीं. वह तुम्हारे घर वालों के इशारों पर नाचता और समय पर आ भी जाता. तुम्हें अच्छी तरह मेरे काम और व्यक्तिगत संपर्क के बारे में पता है.’’

‘‘पता नहीं तुम्हारी कौन सी बात से प्रभावित हो कर पापा ने शादी के लिए हां कर दी. आज इस घर में जो कुछ भी है, पापा का दिया हुआ है वरना तुम तो उन के सामने खड़े भी नहीं हो सकते.’’

‘‘जानता हूं…तभी तो तुम्हारी मां से सारा दिन ताने और आदेश सुनने पड़ते हैं. सभी कुछ तो हमारे घर पर था. कमी किस बात की थी. तुम्हीं ने जिद कर के मुझे अलग कर दिया था. सुखसुविधाओं को जुटा लेने से भी कहीं गृहस्थी चलती है. पहले पति से नहीं बनी तो मेरे पल्ले बांध दिया…और यह बात भी हम से छिपा ली. तुम ने अलग किया है तो घरगृहस्थी के सामान की व्यवस्था भी तुम करोगी. मैं ने तो पहले ही कह दिया कि…’’

‘‘मेरे पास तो कुछ भी नहीं है. यही न. कौन से मांबाप अपनी बच्ची को ऐसी हालत में देख सकते हैं. तुम्हारे मांबाप ने क्या किया,’’ वह बात काट कर तेज आवाज में बोली.

ये भी पढे़ं- मां बेटी: क्यों गांव लौटने को मजबूर हो गई मालती

‘‘उन्होंने अपने इकलौते बेटे की जुदाई का गम सहन किया…’’ कहतेकहते मेरी आंखें भर आईं और मैं बिना कोई बात किए दूसरे कमरे में चला गया. मेरा मौन हमेशा कह देता कि शादी की कीमत चुका रहा हूं.

हमारी रातें यों ही करवटें बदलते निकल जातीं और सुबह बिना किसी बात के…मैं ने मन ही मन यह फैसला किया कि टकराव की स्थिति पैदा न होने देने के लिए कम से कम घर पर रहूं.

एक दिन उत्सुकतावश मैं ने शर्माजी को फोन किया. पता चला कि उन की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है. अब उन्हें एक बडे़ प्राइवेट नर्सिंग होम में शिफ्ट कर दिया गया है जहां पर ज्यादा सुविधाएं थीं. देश के कई बडे़ डाक्टर उन्होंने अपनी जांच के लिए बुलवाए पर कोई फायदा नहीं हुआ. मैं उसी समय उन के नर्सिंग होम में पहुंचा. उन की हालत देख कर मन कसैला सा हो उठा.

आगे पढ़ें- माहौल को हलका करने के लिए मैं ने…

कितना सहेगी आनंदिता: भाग 3- जब सामने आया जिंदगी का घिनौना रुप

लेखक-अरुण अर्णव खरे

आप ने कहा आप का कोई अपना ऐडमिट नहीं है, फिर यह बच्चा कौन है आप का?’ शेखर आश्चर्य से आनंदिता की ओर देखते हुए बोला.

‘वह दीदी बोलता है, तो भाई समझ लीजिए.’‘प्लीज, पहेलियां मत बुझाइए.’

‘मैं सच में ज्यादा नहीं जानती उस के बारे में. हमारी सर्वेंट के भाई का लड़का है. 5 साल का है. जन्म से ही थैलेसीमिया से पीडि़त है. पर आप यहां कैसे?’‘मैं…’ शेखर उत्तर देते हुए अचकचा गया लेकिन तुरंत ही संभलते हुए बोला, ‘मैं भी ब्लड डोनेट करने आया हूं, मेरे दोस्त को जरूरत है.’‘आप बहुत अच्छे हैं. बेहतरीन खिलाड़ी के साथसाथ एक नेकदिल इंसान भी.’

आनंदिता चली गई, जिंदगी का एक नया फलसफा सिखा कर. उस दिन ब्लड डोनेट कर शेखर ने स्वयं को एक अच्छा काम दूसरों के लिए करने पर जलते हुए दीए के प्रकाश सा आलोकित महसूस किया. इस के बाद तो शेखर अपनी हर धड़कन में आनंदिता की उपस्थिति अनुभव करने लगा. धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के निकट आने लगे, एकदूसरे के बारे में दोनों ही बहुतकुछ जान गए. शेखर के पिता नरसिंहपुर में डैंटल सर्जन हैं जबकि आनंदिता के मातापिता नहीं थे. जब वह 2 साल की थी, तभी उस के मातापिता एक नाव दुर्घटना में बेतवा नदी में बह गए थे. उसे बचा लिया गया था. तभी से वह अपने मामा के यहां रह रही है. उन्होंने उसे बेटी से बढ़ कर पाला है. आनंदिता नाम भी उन्होंने ही दिया है.

ये भी पढ़ें- पुरस्कार: रिटायरमेंट के बाद पिता और परिवार की कहानी

समय के साथ शेखर और आनंदिता नजदीक आते गए. बैडमिंटन ने भी इस में अहम रोल अदा किया. पहले साल यूनिवर्सिटी बैडमिंटन के सिंगल्स में उपविजेता रहने के बाद शेखर अगले वर्ष चैंपियन बन गया. आनंदिता भी ज्यादा पीछे नहीं रही. वह उस वर्ष की उपविजेता बन कर लौटी. शेखर के टिप्स और कोर्ट में उस की उपस्थिति हमेशा प्रेरणादायी सिद्ध होती. प्रारंभिक आसक्ति ने प्रेम का स्वरूप कब ले लिया, दोनों को पता ही नहीं चला. एकदो हफ्ते तक जब मिलना नहीं होता, तो मन की बेचैनी दोनों के रिश्तों को परिभाषित करती प्रतीत होती. यह प्यार दोनों ही अपने दिलों में अधिक समय तक दबा कर नहीं रख सके. दोनों को ही एकदूसरे का साथ हमेशा सुखकर लगता था. उन्हें एहसास होने लगा था कि वे दोनों एकदूसरे के बिना अधूरे हैं. उन्होंने एक दिन सदा साथ देने का वादा एकदूसरे से कर डाला. इस के बाद शेखर आनंदिता के घर भी आनेजाने लगा. मामामामी को भी वह पसंद था. शेखर ने अपनी मां को भी आनंदिता के बारे में बता दिया था. सबकुछ मनमुताबिक और सुगमता से हो रहा था. बस, इंतजार था तो पढ़ाई पूरी कर एक अच्छी सी नौकरी का.

शेखर ने जिस वर्ष मैकेनिकल में अपनी इंजीनियरिंग पूरी की उसी साल आनंदिता ने एमकौम कर लिया. आनंदिता सीए करना चाह रही थी. सो, उस ने पंचरत्न कोचिंग संस्थान जौइन कर लिया. शेखर का कैंपस सेलैक्शन किर्लोस्कर गु्रप्स में ट्रेनी इंजीनियर के रूप में हो गया. जुलाई में उसे जौइन करना था. प्रशांत उसे विदा करने स्टेशन तक आया. उस के 2 पेपर रुके हुए थे, सो, सप्लिमैंट्री एग्जाम तक प्रशांत को होस्टल में ही रुकना था.

‘‘अरे कितना सोओगे, हम कब से आप के जागने का इंतजार कर रहे हैं. मुकुल भाईसाहब मिलने आए थे लेकिन आप को सोता देख कर लौट गए. नीचे डाइनिंग हौल में बुला गए हैं,’’ आनंदिता की आवाज ने शेखर को सपनों की दुनिया से यथार्थ की जमीन पर ला दिया.

ये भी पढे़ं- सोने का झुमका : पूर्णिमा का झुमका खोते ही मच गया कोहराम

‘‘ओह, 4 बज गए. मैं 2 मिनट में पहुंचता हूं वहां. तुम लोग चलो,’’ कहता हुआ शेखर वाशरूम में घुस गया.

शाम का कार्यक्रम सुव्यवस्थित और मंत्रमुग्ध करने वाला रहा. रुद्र और प्रथम सहित कई बच्चों ने शानदार प्रस्तुतियां दीं. शेखर के कहने पर रुद्र ने प्रथम से एक बार फिर सुबह की घटना के लिए सौरी कहा. प्रथम ने भी उस का हाथ थाम कर सौरी कहा. दोनों को बात करते देख कर शेखर और आनंदिता का मन हलका हो गया. अगले दिन सभी का सांची स्तूप देखने का प्रोग्राम था. उसी दिन शाम को महिलाओं के लिए वूमेंस स्पैशल नाइट का आयोजन किया गया था. आनंदिता ने ‘आप की नजरों ने समझा…’ गीत गा कर समां बांध दिया. बाद में सभी ने डीजे पर जम कर डांस किया.

उस दिन आनंदिता के गायन को सभी ने बहुत सराहा. शेखर को भी बधाइयां मिलीं. नींद की आगोश में भी शेखर खुद को गर्वित महसूस करता रहा. एसिड से जलने के बाद आनंदिता का बैडमिंटन खेलना छूट गया था, लेकिन जिंदगी से हारना उसे स्वीकार नहीं था. उस ने विलास सिरपुरकर का संगीत विद्यालय जौइन कर लिया. उन्हीं से उस ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली थी. लगन की पक्की तो वह शुरू से थी, सो, थोड़े समय में ही उसे स्वर साधना आ गया. वह सबकुछ भूल कर संगीत को समर्पित हो गई थी.

शादी के लिए भी शेखर को कितना मनाना पड़ा था. वह तो विवाह के लिए तैयार ही नहीं थी. विद्रूप चेहरा ले कर किसी के जीवन को ग्रहण लगाना नहीं चाहती थी वह. शेखर को भी ट्रेनिंग के बाद ही पता चला था उस हादसे के बारे में. आनंदिता को देख कर दहल गया था वह. इतनी सुंदर और सुशील लड़की के साथ इतना घिनौना कृत्य. कौन राक्षस है जिस ने ऐसा किया होगा. कई दिनों तक सोचता रहा था शेखर. आनंदिता भी अनभिज्ञ थी. उस का तो कभी किसी से मामूली विवाद भी नहीं हुआ था.

पूरे 7 साल इंतजार किया था उस ने  आनंदिता का. सब ने उसे मना किया था, धिक्कारा था, चेतावनी दी थी. पर वह आनंदिता को कैसे छोड़ सकता था. उस ने सदा साथ निभाने का वादा किया था उस से. आखिरी दम तक हार न मानने की ट्रेनिंग ली थी बैडमिंटन कोर्ट पर. फिर जिंदगी के सब से महत्त्वपूर्ण मैच में वह घुटने कैसे टेक सकता था.

ये भी पढ़ें- बुद्धि का इस्तेमाल: श्रद्धा और अंधश्रद्धा में क्या फर्क है

आनंदिता ने पूरी कोशिश की थी उसे डिगाने की. उस के हर प्लेसमैंट को सूझबूझ के साथ रिटर्न करती रही. वह हर पौइंट के लिए जूझता रहा. लेकिन मैच पौइंट पर आ कर आनंदिता भावुक हो गई और उस के अनुरोध को टाल नहीं सकी. दोनों ने कोर्ट मैरिज की. उन्हें आशीर्वाद देने आनंदिता के मामामामी और शेखर के पापामम्मी ही उपस्थित थे. अपनों की उपस्थिति ने दोनों को असीम ऊर्जा दी और साहस भी. साहस, जिंदगी की हर परीक्षा में उत्तीर्ण होने का, निश्चित हो आगे बढ़ते जाने का.

एलुमिनी मीट के अंतिम दिन सभी का गुलाबगंज के पास बमौरी गांव के भ्रमण का कार्यक्रम था, जिसे एलुमिनी एसोसिएशन ने कालेज प्रबंधन के सहयोग से गोद लिया था. गांव में बच्चों के लिए एक कंप्यूटर सैंटर और लाइब्रेरी का लोकार्पण तथा निराश्रित महिलाओं के संवर्द्धन हेतु सिलाई मशीनें भेंट की जानी थीं. आनंदिता के सुझाव पर ही एसोसिएशन ने सामाजिक दायित्वों के निर्वहन की इस पहल को खुशीखुशी स्वीकार किया था.

अगले दिन सभी को वापस लौटना था. देररात तक लोग एकदूसरे से मिलते रहे. प्रशांत को अकेला देख कर आनंदिता उस के पास चली आई, ‘‘भाईसाहब, मैं आप से कुछ बात करना चाहती हूं.’’

‘‘यदि आप प्रथम की बात को ले कर दुखी हैं तो मैं आप से माफी मांगता हूं,’’ प्रशांत ने कहा.

‘‘नहीं, वह तो बच्चा है. मैं हूं ही ऐसी. पहली बार जो भी देखता है, डर जाता है.’’

प्रशांत को कोई उत्तर नहीं सूझा. वह चुप रहा. आनंदिता बोली, ‘‘कुछ पूछना है आप से?’’

‘‘हां, निसंकोच पूछिए.’’

‘‘मुझ से क्या गलती हुई थी जो आप ने इतनी बड़ी सजा दी मुझे?’’

‘‘आप से और गलती? मैं कुछ समझा नहीं,’’ प्रशांत विस्मय से आनंदिता की ओर देखते हुए बोला.

‘‘मुझे पता है, वे आप ही थे. मैं आप की आवाज कभी भूल ही नहीं पाई. पहले दिन जब आप ने नमस्ते बोला था, तभी मैं समझ गई थी. उस दिन आप के कहे शब्द, ‘सबक सिखा दिया, सुरु जल्दी चल  यहां से,’ अभी भी कानों में गूंजते रहते हैं. इतना सह लिया जिंदगी में कि अब कोई दर्द माने नहीं रखता. आप विश्वास कीजिए, आप की खुशहाल जिंदगी को नरक नहीं बनाऊंगी. बस, मेरा अपराध बता दीजिए ताकि दुनिया से विदा होते समय दिल पर कोई बोझ न रहे,’’ वर्र्षों से दिल के अंदर दबा दर्द पिघल कर आनंदिता की आवाज में घुल गया था.

प्रशांत को काटो तो खून नहीं. दिसंबर अंत की शीतल रात में भी माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिलाने लगीं. उस का शरीर निढाल होने लगा. वर्षों पीछे छोड़ा गया समय इस तरह सामने आ खड़ा होगा, उस ने कल्पना भी नहीं की थी. बड़ी मुश्किल से वह बोल पाया, ‘‘मैं ईर्र्ष्या में अंधा हो गया था, इसलिए इतना बड़ा अन्याय कर बैठा.’’

‘‘कैसी ईर्ष्या?’’

‘‘शेखर से ईर्र्ष्या. मैं हर तरह के हथकंडे अपना कर के भी कभी उस से आगे नहीं निकल सका. वह हर बात में मुझ से बीस सिद्ध हुआ करता था. पढ़ाई में मुझ से बहुत आगे रहता. बैडमिंटन में अनुशासनहीनता के कारण मैं दोबारा टीम में स्थान नहीं पा सका. 2 बार क्लास रिप्रेजैंटेटिव के चुनाव में उस से हार गया. मेरी सनक के कारण स्कूल गर्लफ्रैंड ने भी मुझ से नाता तोड़ लिया.

ये भी पढे़ं- वो नीली आंखों वाला: वरुण को देखकर क्यों चौंक गई मालिनी

‘‘उसी समय शेखर को आप मिल गईं. वह अकसर आप से मुलाकात के किस्से सुनाता. बहुत तारीफ करता आप की. मैं सुनता और अंदर ही अंदर सुलगा करता. बहुत गुस्सा आता अपनी नाकामियों पर और उस की उपलब्धियों पर. जब किर्लोस्कर में उस का कैंपस सेलैक्शन हो गया और मैं 2 पेपर्स में फेल हो गया तो बहुत रोया था. जिस दिन वह जा रहा था, मैं उसे छोड़ने स्टेशन तक गया था. बहुत खुश था वह. उस ने बताया था कि ट्रेनिंग के बाद आप से शादी करने वाला है. तभी मैं ने निर्णय कर लिया कि जिंदगी में अभी तक जितनी आसानी से उसे सबकुछ मिलता रहा है अब उतनी आसानी से आप को वह नहीं पा सकेगा. मैं जिंदगी का सब से भयंकर सबक सिखाऊंगा उसे.

‘‘मैं ने कई बार आप का पीछा किया. आप की गतिविधियों पर नजर रखी. सप्लिमैंट्री एग्जाम के बाद जिस रात मुझे वापस लौटना था, उसी शाम को मैं ने आप पर तेजाब फेंकने का फैसला कर लिया था. मेरे दोस्त सुरेश ने इस में मेरा साथ दिया. उसी ने अपने स्कूटर से मुझे भागने में मदद की. और मैं ने आप की जिंदगी नरक बना दी.

‘‘पर शेखर तो अलग ही मिट्टी से बना इंसान निकला. इस स्थिति में भी आप को अपना कर कितना खुश है आज भी. उस जैसे लोगों के कारण ही दुनिया में मानवता जिंदा है. मैं अपराधी हूं आप का. माफी के काबिल नहीं हूं. माफी मांग कर अपने गुनाह की सजा से बचना भी नहीं चाहता. कोई इतना ईर्ष्यालु न हो कि वह मानव सभ्यता के लिए कलंक बन जाए,’’ कहते हुए प्रशांत की आंखों से आंसू बहने लगे.

आनंदिता ने उस के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘रो लीजिए, मन हलका हो जाएगा. पर आप को मेरी कसम कि प्रथम और रोहिणी भाभी से कुछ मत कहिएगा. वे जिंदगीभर इस सदमे से उबर नहीं पाएंगे,’’ इतना कह कर आनंदिता तेजी से कदम बढ़ाते हुए अपने कमरे की ओर चल दी.

ये भी पढ़ें- प्रमाण दो: यामिनी और जीशान के रिश्ते की कहानी

कितना सहेगी आनंदिता: भाग 2- जब सामने आया जिंदगी का घिनौना रुप

लेखक-अरुण अर्णव खरे

विश्वविद्यालय स्पर्धा हेतु कालेज की बैडमिंटन टीम का सेलैक्शन होना था. 4 नाम तो लगभग तय थे. केवल 2 स्थानों के लिए ही क्वालिफाइंग मुकाबले होने थे और इत्तफाक से शेखर और प्रशांत इन स्थानों के लिए दावेदार थे. शेखर ने ट्रायल मैचों में शानदार प्रदर्शन किया. उस ने टीम के कप्तान को भी हराया और अपना स्थान सुरक्षित कर लिया. दूसरी ओर प्रशांत, कप्तान और सैकंड ईयर के छात्र अविनाश पुरी से हार कर सेलैक्शन की रेस से बाहर हो गया. शेखर उस के हार जाने से दुखी था, पर प्रशांत अपेक्षा के विपरीत शांत था.

3 दिनों बाद ही टीम को स्पर्धा हेतु सीहोर जाना था. उस दिन सभी मैस में नाश्ता करने एकत्र हुए थे. सदा की तरह शेखर और प्रशांत साथ ही बैठे थे. उन्होंने अविनाश को भी पास बैठने के लिए बुला लिया. नाश्ते में उस दिन सांभरबड़ा बने थे. नाश्ता सर्र्व करते समय गादीराम अचानक स्लिप हुआ और खौलते हुए सांभर का बरतन अविनाश के ऊपर जा गिरा. अविनाश के हाथ और जांघों पर फफोले उभर आए. अविनाश टीम के साथ नहीं जा सका. प्रशांत को टीम में जगह मिल गई, लेकिन इस तरह टीम में स्थान पाने को ले कर वह बहुत अपसैट था. शेखर और कप्तान के बहुत समझाने के बाद ही वह नौर्मल हुआ था.

ये भी पढ़ें-मालती: पति के शराब की लत देखकर क्या था मालती का फैसला

हमीदिया कालेज के विरुद्ध पहले मैच में पहला सिंगल्स मुकाबला खेलते हुए प्रशांत हार गया. एक लाइनकौल को ले कर वह अंपायर से उलझ गया और उन्हें मां की भद्दी गाली दे बैठा. विश्वविद्यालय की अनुशासन समिति ने प्रशांत को दोषी मानते हुए स्पर्द्धा से बाहर कर दिया. उसे वापस लौटना पड़ा. प्रशांत के इस तरह बाहर जाने से शेखर दुखी था. उस ने उसे सांत्वना देनी चाही तो वह बेरुखी से ‘रहने दो’ कहता हुआ अपना सामान पैक करता रहा.

उसे सुबह की बस से वापस लौटना था. शेखर का मन नहीं माना, वह प्रशांत के पास ही बैठ गया, बोला, ‘भाई, यह सबक है आगे के लिए. मैच में एग्रेशन के साथ ही कूल रहना भी बहुत जरूरी है. मैच में उतारचढ़ाव तो आते ही हैं. हर स्थिति में चित्त को स्थिर ही रहना चाहिए. यही मैच टैंपरामैंट है. अगले साल फिर से मौका मिलेगा खुद को साबित करने का.’

‘क्या खाक मौका मिलेगा, इस साल कैसे मौका मिला था, पता है न तुझे.’

‘पता है भाई, तुम उत्तेजित न हो.’

‘क्या पता है तुम को. यदि मैं ने गादीराम को पैर अड़ा कर गिराया न होता तो क्या अविनाश टीम से बाहर होता और मुझे टीम में जगह मिलती. सारे किएधरे पर पानी फिर गया.’

प्रशांत की बात सुन कर शेखर अवाक रह गया. उसे पूरा घटनाक्रम याद हो आया, तो यह प्रशांत का सोचासमझा प्लान था. अविनाश के जलने पर उस का दुखी दिखना भी उस के इस खतरनाक प्लान का ही एक भाग था. कितना शातिर खेल खेला था उस ने. शायद उसी शातिराना खेल की सजा मिली है उसे. शेखर स्वयं को असहज महसूस करने लगा. वह कल के मैच के लिए आराम करने का बहाना बना कर चला आया वहां से.

अगले दिन शेखर अपना मैच खेल कर सुस्ताने बैठा ही था कि बगल के हौल से आ रही तालियों की आवाज ने उस का ध्यान खींचा. वह उत्सुकतावश उठ कर उस ओर चला आया. एक सुंदर सी लड़की अपने पावरफुल स्मैश और सटीक नैट ड्रौप्स से प्रतिद्वंद्वी लड़की को पूरे कोर्ट में नचा रही थी. शेखर मंत्रमुग्ध सा उस के खेल को देखता रहा. मैच की समाप्ति पर शेखर उस को बधाई देने से खुद को रोक नहीं सका, ‘कांग्रेचुलेशंस, योर ड्रौप्स आर अमेजिंग.’

‘थैंक्स, शेखर सर.’

ये भी पढ़ें- चिड़िया चुग गईं खेत: शादीशुदा मनोज के साथ थाईलैंड में क्या हुआ था

अपना नाम सुन कर शेखर कुतूहल से उस की ओर देखने लगा. वह शरमाते हुए बोली, ‘कल दोपहर में मैं ने आप का मैच देखा था और शाम को बहुत देर तक आप सरीखे बैकहैंड ड्रौप्स की प्रैक्टिस की थी.’

आनंदिता के साथ शेखर की यह पहली मुलाकात थी. उस रात लेटालेटा वह बहुत देर तक आनंदिता के बारे में सोचता रहा. पहली ही नजर में भा जाने वाली देहयष्टि, गोरा रंग, आकर्षक चेहरा, बड़ीबड़ी आंखें, लंबी गरदन, करीने से कटे हुए बाल, बिजली सी चपलता और सब से बढ़ कर स्त्रियोचित हया. अगले दिन वह फिर शेखर के मैच के समय कोर्ट में उपस्थित थी. दोनों की नजरें मिलीं. उस ने आंखों ही आंखों में गुडलक कहा. शेखर आसानी से मैच जीत गया. बाद में वह भी आनंदिता को चीयर करने गया. दोनों ने मैच के बाद कौफी पी. तभी उसे पता चला कि आनंदिता भी विदिशा से खेलने आई है. वह जैन कालेज में बीकौम फर्स्ट ईयर की स्टूडैंट है.

दोनों की अगली मुलाकात 2 माह बाद एक रैस्टोरैंट में हुई. शेखर अपने क्लासमेट की बर्थडे पार्टी में वहां गया था जबकि आनंदिता पहले से कुछ सहेलियों के साथ वहां उपस्थित थी. दोनों ने एकदूसरे को देखा. लेकिन दोस्तों की उपस्थिति के कारण बातचीत नहीं हो सकी. वह समय था ही ऐसा, लड़केलड़की को बात करते देखा नहीं कि बतंगड़ बनाना शुरू. आनंदिता जल्दी ही सहेलियों के साथ चली गईर् और शेखर दूसरी टेबल पर बैठा उसे दरवाजे से बाहर जाते देखता रहा.

आनंदिता ने दरवाजे से बाहर पैर रखने के पहले एक बार मुड़ कर देखा था उसे. उस की नजरों में कुछ जादू था. शेखर ने दिल में कुछ अलग सा, अप्रतिम सा, महसूस किया था. उसे अपनी सांसें पहली बारिश के बाद फिजा में घुलती मिट्टी की सोंधीसोंधी खुशबू से सराबोर महसूस होने लगी थ

आनंदिता इस के बाद शेखर के दिलोदिमाग में बस गई. उस का मन उस की एक झलक देखने के लिए  बेचैन रहने लगा. वह 2-3 बार क्लास से बंक मार कर जैन कालेज के चक्कर भी लगा आया था, लेकिन इच्छा अधूरी ही रही. जब मुलाकात हुई तो इतनी अप्रत्याशित कि उसे आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ.

उस के कालेज में स्टूडैंट यूनियन के चुनाव के दौरान 2 समूहों में झगड़ा हो गया था. मारपीट में 6 स्टूडैंट्स को काफी चोटें आई थीं, जिन में प्रशांत भी शामिल था. उस का सिर फटने से काफी खून बह गया था. उसे खून की तुरंत जरूरत थी. लेकिन अस्पताल में उस के समूह का खून उपलब्ध नहीं था. शेखर जानता था कि उस का ब्लडगु्रप भी यही है जिस की प्रशांत को जरूरत थी. वह खून देने में हिचकिचा रहा था लेकिन मदद के लिए भागदौड़ कर रहा था. वह अस्पताल के ब्लडबैंक में मदद की आशा में फिर से आया था कि सामने आनंदिता को ब्लड डोनेट करता देख कर चौंक गया. वह सबकुछ भूल कर आनंदिता को देखता रहा.

ब्लड डोनेट कर आनंदिता जब बाहर आई तो शेखर सामने आ गया, ‘कौन ऐडमिट है आप का जिस के लिए आप ने ब्लड डोनेट किया?’

‘मेरा कोई अपना ऐडमिट नहीं है. मैं तो एक बच्चे को हर 3-4 माह में एक यूनिट ब्लड देती हूं. उसे थैलेसीमिया है.’

ये भी पढ़ें- अपनी मंजिल: क्या था सुदीपा का फैसला

कितना सहेगी आनंदिता: भाग 1- जब सामने आया जिंदगी का घिनौना रुप

लेखक-अरुण अर्णव खरे

आनंदिता इतनी खूबसूरत थी कि शेखर पहली नजर में ही उस के व्यक्तित्व और खूबसूरती पर फिदा हो गया था. जिंदगी का एक खुशनुमा दौर था उन दोनों का लेकिन, उन्हें क्या पता था कि जिंदगी का एक घिनौना रूप भी उन्हें देखना पड़ेगा.

‘‘पापा, सी देयर, हाऊ स्केरी इज दैट आंटी,’’ प्रशांत के 12 वर्षीय पुत्र प्रथम ने हाथ के इशारे से आनंदिता को दिखाते हुए कहा, ‘‘अरे, वे तो इसी ओर आ रही हैं.’’

प्रथम अपनी बात समाप्त कर पाता, इस से पहले ही आनंदिता का बेटा रुद्र चिल्लाते हुए उस की ओर लपका, ‘‘ओए, क्या बोला तू ने, स्केरी, मैं बताता हूं इस का मतलब तुझे.’’

‘‘रुद्र, बेटे रुको, ऐसा नहीं करते,’’ आनंदिता और शेखर दोनों ने ही बेटे को रोकना चाहा लेकिन तब तक रुद्र ने प्रथम को धक्का दे कर नीचे गिरा दिया था और उस के गालों पर ताबड़तोड़ 3 तमाचे जड़ दिए थे,  ‘‘क्या बोला तू ने मेरी मां के लिए, फिर से बोल, देख, मैं क्या हाल करता हूं तेरा.’’

शेखर ने रुद्र को पकड़ कर अलग किया. आनंदिता ने गुस्से से कांप रहे बेटे को मीठी डांट लगाते हुए कहा, ‘‘बेटा, इतना गुस्सा अच्छा नहीं होता. माफी मांगो इन से. हम यहां एलुमिनी मीट में पुराने दोस्तों से मिलने आए हैं. अगर तुम ऐसा ही करोगे तो हम वापस चलते हैं.’’

‘‘सौरी,’’ रुद्र ने मां की आज्ञा मानते हुए प्रथम की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. प्रशांत ने भी बेटे से हाथ मिलाने को कहा. लेकिन प्रथम आंख दिखाता हुआ कमरे के अंदर चला गया.

‘‘सौरी प्रशांत, यह अच्छा नहीं हुआ. हम शर्मिंदा हैं. रुद्र को ऐसा नहीं करना चाहिए. बच्चा है, हम समझाएंगे उसे,’’ शेखर ने प्रशांत से हाथ मिलाते हुए कहा. ‘‘इन से मिलो, ये हैं मेरी बेटरहाफ आनंदिता. तुम्हें याद होगा, मैं तुम से अकसर इन के बारे में ही बातें किया करता था.’’

ये भी पढ़ें- ‘मां’ तो ‘मां’ है: क्या सास को मां मान सकी पारुल

‘‘नमस्ते,’’ प्रशांत की आवाज सुन कर आनंदिता ने असहज महसूस किया लेकिन तुरंत ही संभलते हुए बोली, ‘‘नमस्ते भाईसाहब.’’

इसी बीच प्रशांत की पत्नी रोहिणी भी कमरे से बाहर आ गई थी. औपचारिक परिचय हुआ. वर्षों रूममेट रहे 2 मित्रों की मुलाकात अजीब सी कड़वाहटभरे माहौल में हुई. शेखर और आनंदिता रुद्र के व्यवहार को ले कर दुखी थे. उस ने पहले कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया था, उस समय भी नहीं जब पिं्रसिपल ने आनंदिता को विनयपूर्वक स्कूल के कार्यक्रमों में आने से मना किया था. शायद उस समय का गुस्सा था जो मौका पा कर अब बाहर आ गया था.

शेखर के सामने फादर विलियम्स का चेहरा घूम गया और उन के कहे शब्द कानों में गूंजने लगे, ‘आई होप, यू विल अंडरस्टैंड माइ पोजिशन. मुझे स्कूल के दूसरे बच्चों का भी ध्यान रखना है. मिसेज अग्निहोत्री जब भी स्कूल आती हैं, मैं ने स्वयं कुछ बच्चों की आंखों में भय महसूस किया है. हम रुद्र को पढ़ाना चाहते हैं. ही इज ए मेरीटोरियस स्टूडैंट, लेकिन आप को मेरी बात ध्यान में रखनी होगी, मिस्टर अग्निहोत्री. प्लीज डोंट बिं्रग हिज मदर फौर पीटी मीटिंग्स ऐंड इन अदर स्कूल ऐक्टिविटीज. इट्स माय हंबल रिक्वैस्ट.’

तब आनंदिता ने आगे बढ़ कर उस को इस असमंजस से उबारा था, ‘शेखर, अपने बच्चे के लिए इतना त्याग तो मुझे करना ही चाहिए. मैं सह सकती हूं इतना, तो… जीवन में जब इतना सहा है तो यह कौन सी बड़ी बात है.

आनंदिता की बात सुन कर अंदर तक भीग गया था वह. और कितना सहेगी आनंदिता. पिछले 20 सालों से सह ही तो रही है और शायद आखिरी सांस तक सहती ही रहेगी. घटनाएं भी किसीकिसी के जीवन को कैसे बदल डालती हैं. हर पल नई चुनौती. नई परीक्षा. हर आंख घूरती हुई, उपेक्षा और घृणा का भाव लिए.

क्या गलती है आनंदिता की? किसी के वहशीपन की सजा भुगत रही है वह तो. उसे पता ही नहीं कि किस ने उस के ऊपर तेजाब फेंका था. क्या अपराध था उस का. क्या चाहता था वह. पर उस के निशाने पर वह थी, यह जानती है.

जब यह हादसा हुआ था उस समय वह अकेली ही थी. खरी फाटक के मोड़ के आगे सुनसान सड़क पर. कोचिंग क्लास से लौटने में देर हो गई थी उस दिन उसे. रात गहराने लगी थी. वह जल्दी से घर पहुंच जाना चाहती थी. पर नहीं रोक पाई वह गहराते हुए अंधेरे को. और अगले कुछ ही क्षणों में सारी जिंदगी उसी अंधेरे के हवाले हो गई. पर हिम्मतवाली है आनंदिता. इतना सब होने के बाद भी जिंदगी से हारी नहीं. उठ कर खड़ी हो गई. दरिंदगी को ठेंगा दिखाते हुए जिंदादिली की मिसाल बन कर. अब तक कितनी ही विपरीत पस्थितियों से, घूरती आंखों और कड़वी जबानों से बिना उफ किए लड़ती आई है. आगे भी लड़ेगी इसी बहादुरी से.

‘‘मुझे माफ कर दो, मां. अब दोबारा ऐसी गलती नहीं करूंगा,’’ रुद्र आनंदिता से लिपट कर बोल रहा था, ‘‘आप को दुख पहुंचाया मैं ने. क्या करूं मैं, आप की तरह अच्छा नहीं बन पाया. कोशिश करूंगा कि फिर आप को दुखी न करूं.’’

आनंदिता ने खींच कर उसे गले लगा लिया, ‘‘गलती का एहसास हो जाना, पछतावे के बराबर है, बेटा. अब आगे ध्यान रखना. फिर कभी मेरे लिए इस तरह किसी से बिहेव मत करना. यदि कोई तुम्हें बदसूरत मां का बिगड़ैल बेटा कहेगा, तो मैं नहीं सह पाऊंगी. मैं सब से लड़ सकती हूं पर खुद से लड़ने की शक्ति नहीं है मुझ में.’’

ये भी पढ़ें- नीला पत्थर : आखिर क्या था काकी का फैसला

‘अरे, तुम दोनों यहां आओ मेरे पास, बैठो. हमें शाम के कार्यक्रम के बारे में फाइनल करना है. तुम अपनी सीडी भी चैक कर लो, रुद्र, जिस पर तुम डांस करने वाले हो,’’ शेखर ने रुद्र और आनंदिता का ध्यान बंटाने के लिए कहा, ‘‘आनंदी, तुम भी एक बार रुद्र को प्रैक्टिस करा दो और स्वयं भी गाना गुनगुना कर देख लो कि कहीं कुछ भूल तो नहीं रही हो. बहुत दिनों से अभ्यास नहीं किया है तुमने भी.’’

आनंदिता और रुद्र अभ्यास में लग गए जैसे कुछ हुआ ही न हो. शेखर पलंग पर 2 तकियों के सहारे टिक गया. थोड़ी देर तक वह रुद्र के डांस स्टैप्स को देखता रहा, फिर आंखें बोझिल होने लगीं. उस के सामने बारबार प्रशांत और उस के बेटे प्रथम की तसवीर आ कर मन में हलचल मचा रही थी. क्या प्रथम के रूप में प्रशांत फिर लौट आया है? वैसी ही उद्दंडता, बेशर्मी और अक्खड़पन. 5 साल उस ने प्रशांत के साथ एक ही रूम में रहते हुए गुजारे थे. वह उस की कितनी ही कारगुजारियों का प्रत्यक्षदर्शी था. कितनी बार उस ने प्रशांत की ज्यादतियों का खमियाजा भी भुगता था, पर प्रशांत के चेहरे पर कभी आत्मग्लानि की हलकी सी शिकन तक नहीं देखी थी.रुद्र के स्टैप्स देखते हुए शेखर यादों में खो गया. मस्तिष्क में उभर आई

प्रशांत के साथ हुई पहली मुलाकात. एसए इंजीनियरिंग कालेज के ओल्ड होस्टल में उसे और प्रशांत को एक ही रूम अलौट हुआ था. शेखर पहले होस्टल में रहने आ गया था. प्रशांत ने 2 दिनों बाद वार्डन को रिपोर्ट किया था. उस ने प्रशांत का स्वागत करते हुए परिचय दिया था, ‘मैं शेखर अग्निहोत्री, नरसिंहपुर से.’ प्रशांत ने पूरी तरह बेरुखी दिखाई और बिना कोई उत्तर दिए अपना सामान शेखर के पलंग पर रख दिया और बोला, ‘तुम अपना बिस्तर उठा कर उस पलंग पर रखो, मैं यह पलंग लूंगा. यह टेबल और अलमारी भी खाली कर दो, मैं अपना सामान इन में रखूंगा.’

शेखर अवाक रह गया था, पर संयत रहा था. उस ने अपना बिस्तर और अन्य सामान हटा लिया. तीसरे दिन ही प्रशांत एक सीनियर से उलझ गया, जिस के कारण उस की पिटाई तो हुई ही, शेखर भी सीनियर्स के राडार पर आ गया. रात में जबतब उसे रैगिंग के लिए बुला लिया जाता, पिटाई होती और घंटों एक पैर पर खड़ा रखा जाता.

5 वर्षों में ऐसी कितनी ही ज्यादतियां शेखर ने सहन की थीं. प्रशांत अकसर ही उस के सैशनल पेपर और ड्राइंगशीट्स फोल्डर से निकाल कर अपने नाम से सब्मिट कर देता. शेखर को दोबारा मेहनत करनी पड़ती और टीचर्स की डांट मिलती, वह अलग. शेखर के विरोध का कभी कोई असर प्रशांत पर नहीं हुआ. वह तो जैसे शेखर की हर चीज पर अपना हक समझता था. धीरेधीरे शेखर भी सावधानी बरतने लगा और वह अपने नोट्स, ड्राइंगशीट्स अलमारी में लौक कर के रखने लगा. 4 माह बीत गए. प्रशांत बदलने लगा. उस के व्यवहार में काफी परिवर्तन आ गया और वह विनम्र होने के साथ ही दोस्ताना भी हो गया. शेखर से उस की जमने लगी. दोनों अपनी बहुत सी बातें भी आपस में शेयर करने लगे..

ये भी पढे़ं- बुलडोजर : कैसे पूरे हुए मनोहर के सपने

नीड़: भाग 1- सिद्धेश्वरीजी क्या समझ आई परिवार और घर की अहमियत

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

ये भी पढे़ं- गिरह: कौनसा हादसा हुआ था शेखर और रत्ना के साथ

बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

ये भी पढ़ें- ले बाबुल घर आपनो…: सीमा ने क्या चुना पिता का प्यार या स्वाभिमान

‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिगरी दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

ये भी पढ़ें- ठगनी: लड़कों को हुस्न के जाल में फंसाती थी लड़की

उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

आगे पढें- ‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें