Serial Story: महकी रात की रानी (भाग-3)

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लंच के समय अमोली का मन कुछ खाने को नहीं कर रहा था. वह चुपचाप अपनी सीट पर बैठी थी कि सुजीत फू्रटचाट ले कर आ गया. अमोली की टेबल पर चाट की प्लेट रख वह सामने वाली कुरसी पर बैठ गया. बोला, ‘‘मु झे पता था तुम भूखी बैठी होंगी… पहले यह चाट खाओ और फिर डांट लगाना जी भर के.’’

सुजीत की बात सुन अमोली चुपचाप बैठी रही, पर मन ही मन गुस्से से उबल रही थी. ‘‘जानता हूं, बहुत नाराज हो मु झ से… सोच रही होंगी किस धोखेबाज से पाला पड़ गया. पर मेरे  झूठ बोलने की वजह नहीं जानना चाहोगी?’’

‘‘जो भी वजह हो आप ने अच्छा नहीं किया,’’ अमोली के अंदर दबा क्रोध बाहर आ गया.

‘‘मेरा कुसूर है, मानता हूं पर क्या करता मैं? मन से कभी दूर नहीं होता… तुम्हारा यलो कलर की साड़ी में दपदप करता रूप… यही कलर था न तुम्हारी साड़ी का उस फोटो में जो मैट्रीमोनियल साइट पर डाला हुआ था 2 साल पहले… उस पिक को देख कर दीवाना हो गया था मैं… कहा था मैं ने पेरैंट्स से कि पहली बार कोई लड़की पसंद आ रही है मु झे… इसी से बात आगे बढ़ाओ, मगर अपने मम्मीपापा की इकलौती बेटी नमिता का पैसा उन की आंखों को चकाचौंध किए था… बांध दिया उसे मेरे गले… फिर अचानक जब औफिस में तुम्हें देखा तो बस देखता ही रह गया… फोटो से कहीं ज्यादा सुंदर नजर आ रही थीं तुम… नहीं रोक सका खुद को… अब माफ करो या सजा दो, सब मंजूर है.’’

‘‘पर सच भी तो बोल सकते थे न तुम?’’ सुजीत के इस बार सही बात बता देने पर अमोली कुछ शांत हो गई थी. उसे याद था कि शादी.कौम पर 2 साल पहले सचमुच पीले रंग की साड़ी में तसवीर डाली थी उस की.

‘‘अगर मैं सच बोलता तो क्या इतनी क्लोज हो पातीं तुम मु झ से? तुम्हारे प्यार को बस महसूस करना चाहता था मैं. मु झे पता है कि एक दिन पराई हो जाओगी… जीवनभर के लिए बांध कर तो नहीं रख सकता हूं तुम्हें, पर सोचा कि जितना भी साथ तुम्हारा पा लूं उतना अच्छा… बीलीव मी… आई एम नौट लाइंग दिस टाइम.’’

सब सुन कर अमोली कुछ देर खामोश बैठी रही. फिर कुछ सोचती हुई बोली, ‘‘सौरी, मु झे नहीं पता था कि आप मु झे पहले से ही पसंद करते हैं, माफ कर दोगे न?

‘‘थैंक यू अमोली, पर यह सवाल तो मु झे पूछना चाहिए था… चलो अंत भला तो सब भला… अब शाम को मिलते हैं कौफी शौप में… थैंक्स अगेन,’’ और मुसकरा कर लाइब्रेरी से बाहर चला गया सुजीत.

शाम को दोनों जा कर कौफी टेबल पर बैठे तो अमोली ने बात शुरू करते हुए पूछा, ‘‘और क्या बताया नमिता ने आप को मेरे बारे में?’’

‘‘बस पुराने दिनों को याद कर रही थी… कैसा कोइन्सिडैंस है न कि तुम उस की सहेली निकलीं. कह रही थी कि तुम्हें अपने घर देखते ही वह तो खुशी से पगला सी गई थी,’’ सुजीत हंसते हुए बोला.

‘‘झूठ, सफेद  झूठ बोल रही है नमिता…’’ ‘‘अरे, क्या तुम उस के साथ नहीं पढ़ती थीं?’’ आश्चर्यचकित हो सुजीत पूछ बैठा.

‘‘यह बात नहीं है. मेरा मतलब नमिता के खुश होने से था. उस का तो मूड औफ हो गया था मु झे देख कर… पता है क्यों? मेरे पहुंचते ही अक्षय को वापस जो जाना पड़ा था.’’

‘‘किस को, कहां से जाना पड़ा था वापस?’’ माथे पर त्योरियां चढ़ाता हुआ सुजीत बोला.

‘‘अरे, कालेज में था न हमारा क्लासमेट अक्षय, नमिता का पक्का दोस्त… तुम्हारे घर आया था उस दिन… मु झ से बस हैलो कर के वापस चला गया.’’

‘‘लेकिन किसी अक्षय की बात कभी नमिता ने मु झ से नहीं की… मु झे तो आज पता लगा है.’’

‘‘पर नमिता तो उस दिन मु झ से कह रही थी कि वे दोनों अकसर मिलते रहते हैं… दोनों को साउथ इंडियन खाने का शौक है, इसलिए जिस जगह जा कर वे कालेज टाइम में खाया करते थे वहीं अकसर अब भी जाते रहते हैं…इधर कुछ दिनों से बेटे के कारण नमिता नहीं जा पा रही तो वह ही आ जाता है मिलने…दोस्ती निभाना खूब जानता है अक्षय.’’

‘‘पर नमिता न जाने क्यों छिपाती रही ये सब मु झ से… आज ये सब बातें सुन कर मेरा जी तो चाह रहा है कि अभी नमिता को फोन कर कह दूं कि जाओ उसी अक्षय के पास… क्यों रह रही हो मेरे साथ,’’ सुजीत अन्यमनस्क सा दिख रहा था.

‘‘छोड़ो न गुस्सा… लो आ गई कौफी,’’ कौफी का कप सुजीत की ओर खिसकाते हुए अमोली ने कहा.

‘‘मु झे हैरानी हो रही है कि नमिता ने मु झ से कभी अक्षय का जिक्र नहीं किया… कहती रहती है हमेशा कि बहुत प्यार करती है मु झे… पर देखो उस का यह प्यार… धोखेबाज… जरूर दाल में काला है,’’ कौफी का घूंट भरते हुए सुजीत का चेहरा उस हारे हुए खिलाड़ी सा दिख रहा था, जो खीजने से ज्यादा कुछ नहीं कर पाता.

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‘‘प्यार का मतलब यह तो नहीं कि नमिता की कोई पर्सनल लाइफ नहीं है… क्या हुआ अगर आप को नहीं बताया? होगी कोई वजह.’’

‘‘पर हसबैंडवाइफ में इतनी अंडरस्टैंडिंग तो होनी चाहिए कि सब बातें आपस में शेयर करें. तुम नहीं सम झोगी, अभी शादी नहीं हुई न तुम्हारी.’’

‘‘हां, नहीं हुई शादी. पर आप की इस बात से सहमत हूं कि पतिपत्नी में आपसी सम झ का होना बहुत जरूरी है. आप तो अक्षय के बारे में सुनते ही बेचैन हो गए और सोचो अगर मैं उस दिन नमिता को आप के और अपने रिश्ते के बारे में बता देती तो क्या होता? वह भी ऐसे ही निराश होती न?’’

सुजीत चुपचाप अमोली को सुन रहा था.

‘‘देखिए, पत्नी या पति के अपनेअपने अलग दोस्त हो सकते हैं, फिर दोस्त चाहे महिला हो या पुरुष, इस में कुछ गलत नहीं है. पर आप अगर नमिता को बिना बताए मु झ से दोस्ती रख सकते हैं तो नमिता किसी अक्षय से क्यों नहीं? आप मु झे पहले से पसंद करते थे और मेरा साथ चाहते थे तो नमिता को भी यह अधिकार होना चाहिए कि ऐसे किसी पसंद करने वाले से अपना संबंध न तोड़े और आप को इस की जानकारी भी न दे. क्या कुछ गलत कहा मैं ने?’’

‘‘पर नमिता से शादी मेरी मरजी के खिलाफ हुई थी.’’

‘‘तो इस में उस का क्या दोष? फिर यह भी तो हो सकता है कि वह भी किसी और से करना चाह रही हो शादी, पर उस के मम्मीपापा को आप पसंद थे.’’

कुछ देर तक सोचने के बाद सुजीत बोला, ‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो… ये

बातें तो कभी मेरे दिमाग में आई ही नहीं.’’

अमोली खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘मेरा मजाक उड़ा रही हो,’’ सुजीत के चेहरे पर बेचारगी झलक रही थी.

‘‘नहीं बाबा, खुद पर हंस रही हूं… पता है, अक्षय नामक किरदार मैं ने आज ही गढ़ा है. ऐसा कोई व्यक्ति नमिता की जिंदगी में नहीं है और कभी था भी नहीं. मेरा मकसद आप को इस रिश्ते की अहमियत तक लाना था जिसे आप भूल चुके थे.’’

‘‘तुम खूबसूरत ही नहीं गजब की सम झ भी रखती हो,’’ सुजीत अमोली को देख मुसकरा दिया.

‘‘नहीं, मैं एक औरत होने के नाते औरत के मन को सम झती हूं बस. मु झ से भी जिंदगी में कोई भूल हो सकती है… मेरे दोस्त बने रहना और ऐसे वक्त पर सही राह दिखाना मु झे,’’ अमोली भी मुसकरा दी.

कौफी पी कर दोनों बाहर आए तो हमेशा की तरह सुजीत ने अमोली को मैट्रो स्टेशन तक छोड़ने के लिए अपनी कार में बैठा लिया. रास्ते में एक जगह कार रोक कर कुछ लाने बाहर चला गया. जब लौटा तो साथ में लाए पैकेट को डैशबोर्ड पर रख दिया. अखबार के कागज में डोरी में बंधे पैकेट से  झांकते सफेद फूलों को देख अमोली सम झ गई कि सुजीत सड़क के किनारे बैठी गजरेवाली से रात की रानी के फूलों का गजरा खरीद लाया है. वह जानती थी कि नमिता को बालों में गजरा लगाना बहुत पसंद है. फूलों की सुगंध कार में फैल गई.

‘अब इन रात की रानी के फूलों की तरह सुजीत और नमिता का जीवन भी प्रेम की महक से सराबोर होने वाला है,’ सोच कर अमोली मन ही मन मुसकरा उठी.

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मृगतृष्णा

गली में पहरा देते चौकीदार के डंडे की खटखट और सन्नाटे को चीरती हुई राघव के खर्राटों की आवाज के बीच कब रात का तीसरा प्रहर भी सरक गया, पता ही न चला. पलपल उधेड़बुन में डूबा दिमाग और आने वाले कल होने वाली संभावनाओं से आशंकित मन पर काबू रखना मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा था. मैं लाख कोशिश करती, फिर भी 2 दिनों पहले वाला प्रसंग आंखों के सामने उभर ही आता था. उन तल्ख तेजाबी बहसों और तर्ककुतर्क के पैने, कंटीले झाड़ की चुभन से खुद को मुक्त करने का प्रयास करती तो एक ही प्रश्न मेरे सामने अपना विकराल रूप धारण कर के खड़ा हो जाता, ‘क्या खूनी रिश्तों के तारतार होने का सिलसिला उम्र के किसी भी पड़ाव पर शुरू हो सकता है?’

कभी न बोलने वाली वसुधा भाभी, तभी तो गेहुंएं सांप की तरह फुंफकारती हुई बोली थीं, ‘सुमि, अब और बरदाश्त नहीं कर सकती. इस बार आई हो तो मां, बाऊजी को समझा कर जाओ. उन्हें रहना है तो ठीक से रहें, वरना कोई और ठिकाना ढूंढ़ लें.’

‘कोई और ठिकाना? बाऊजी के पास तो न प्लौट है न ही कोई फ्लैट. बैंक में भी मुट्ठीभर रकम होगी. बस, इतनी जिस से 1-2 महीने पैंशन न मिलने पर भी गुजरबसर हो सके. कहां जाएंगे बेचारे?’ भाभी के शब्द सुन कर कुछ क्षणों के लिए जैसे रक्तप्रवाह थम सा गया था. जिस बहू का आंचल कितनी ही व्यस्तताओं के बावजूद कभी सिर से सरका न हो, जिस ने ससुर से तो क्या, घर के किसी भी सदस्य से खुल कर बात न की हो, वह यों अचानक अपनी ननद से मुंहजोरी करने का दुसाहस भी कर सकती है?

मैं पलट कर भाभी के प्रश्न का मुंहतोड़ जवाब देने ही वाली थी कि मां ने बीचबचाव सा किया था, ‘बहू, ठीक ढंग से तुम्हारा क्या मतलब है?’

‘मकान का पिछला हिस्सा खाली कर के इन्हें हमारे साथ रहना होगा,’ भाभी ने अपना फैसला सुनाया.

‘उस हिस्से का क्या करोगे?’ अपनी ऊंची आवाज से मैं ने भाभी के स्वर को दबाने की पुरजोर कोशिश की तो जोरजोर से चप्पल फटकारते हुए वे कमरे से बाहर चली गईं.

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मैं ने एक नजर विवेक भैया पर डाली कि शायद पत्नी की ऐसी हरकत उन्हें शर्मनाक लगी हो. पर वह मेरा कोरा भ्रम था. भैया की आवाज तो भाभी से भी बुलंद थी, ‘किराए पर देंगे और क्या करेंगे? इस मकान को बनवाने के लिए बैंक से इतना कर्जा लिया है, उसे भी तो उतारना है. कोई पुरखों की जमीनजायदाद तो है नहीं.’

‘किराए पर ही देना है तो हम से किराया ले लो. मैं अपना चौका ऊपर ही समेट लूंगी,’ अपने घुटनों को सहलाती हुई मां, बेटे के मोह में इस कदर फंसी हुई थीं कि  इस बात की तह तक पहुंच ही नहीं पा रही थीं कि उन्हें घर से बेघर करने में भाभी को भैया का पूरा साथ मिला हुआ है. पथराए से बाऊजी चुपचाप पलंग के एक कोने पर बैठे बेमकसद एक ही तरफ देख रहे थे.

‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तो पैंशन के मिलते हैं. उतना तो आप का निजी खर्चा है. मकान के उस हिस्से से तो 3 हजार रुपए की उगाही होगी,’ भैया ने भाभी की आवाज में आवाज मिलाई तो बाऊजी अपने बेटे का चेहरा देखते रह गए थे. उन का पूरा शरीर कांप रहा था.

‘जब पूत ही कपूत बन जाए तो उस पराए घर की बेटी को क्या कहा जा सकता है?’ फुसफुसाती हुई मां की आवाज भीग गई. वे रोतरोते भी बाऊजी से उलझ पड़ीं, ‘इसलिए तो तुम से कहती थी, चार पैसे बुढ़ापे के लिए संभाल कर रखो. पर तुम ने कब सुनी मेरी? अब देख लिया, अपनी औलाद भी किस तरह मुंह फेरती है.’

मैं मां की बात और नहीं सुन पाई थी. पूरा माहौल तनावभरा हो गया था. अगले दिन चुपचाप अपने घर लौट आई थी. अब वहां कहनेसुनने के लिए बचा ही क्या था. अब तो सारे रिश्ते ही झूठे लग रहे थे.

शाम को मैं चौके में चाय बनाने के लिए घुस गई थी. मन, मस्तिष्क जैसे बस में ही नहीं थे. काफी समय बीत जाने के बाद भी जब चाय नहीं बन पाई तो राघव खुद ही चौके में आ गए थे, एक प्याली मुझे दे कर दूसरी प्याली हाथ में ले कर अम्मा के पास जा कर अखबार खोल कर बैठ गए. सुबह के कुछ घंटे अम्मा के साथ बिताना उन की आदत में है. इसीलिए तो मैं ने उन्हें श्रवण कुमार का नाम दिया था.

चौके से बाहर निकल कर मैं कुछ काम निबटाने के लिए यहांवहां घूम रही थी. पर मन तनाव की गिरफ्त में था. भाभी के बरताव का डंक मेरे मन में बुरी तरह चुभा हुआ था. भाभी तो पराए घर की है, पर भैया को क्या हुआ? वे तो सब की इज्जत करते थे, फिर यह बदलाव क्यों आया? न जाने कब आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं गश खा कर गिर पड़ी. आंख खुली तो अम्मा मेरी पेशानी सहला रही थीं. बदहवास से राघव मेरी आंखों पर पानी के छींटे डाल रहे थे.

‘क्या बात है सुमि, कुछ परेशान दिख रही हो?’ इन्होंने पूछा.

‘नहीं, कुछ भी तो नहीं,’ चालाकी से मैं ने अपना दुख छिपाने की नाकाम सी कोशिश की. पर पूरे शरीर का तो खून ही जैसे किसी ने निचोड़ लिया था.

राघव आश्वस्त नहीं हुए थे, ‘देखो सुमि, सुख बांटने से बढ़ता है, दुख बांटने से कम होता है. हम तुम्हारे अपने ही तो हैं…कुछ कहती क्यों नहीं?’

मैं सोचने लगी कि राघव जैसे लोग कितने सुखी रहते हैं. बिना किसी गिलेशिवे के जिंदगी में आए उतारचढ़ावों को स्वीकार करते चले जाते हैं. लेकिन हमारे जैसे लोग हर रिश्ते को कसौटी पर ही परखते रह जाते हैं. जिंदगी में जो पाया है, उस से संतुष्ट नहीं होते. कुछ और पाने की लालसा में जो कुछ पाया है, उसे भी खो देते हैं.

अपराधबोध मन पर हावी हो उठा था. राघव के कसे हुए तेवरों में दोस्ती की परछाईं थी. फिर भी विश्वास करने को जी नहीं चाह रहा था.

अपने अभिभावकों के पक्षधर बने रहने वाले राघव को भला मेरे मायके वालों से क्यों सहानुभूति होने लगी. आज भी यदि अम्मा और मुझे एक ही तुला पर रख कर तोला जाए तो शायद राघव की नजरों में अम्मा का ही पलड़ा भारी होगा.

एक नजर अम्मा को देखा था. कहते हैं, औरत ही औरत की पीड़ा को समझ सकती है. पर उन आंखों में भी जो भाव थे, उन्हें अपनेपन की संज्ञा देना गलत था.

मौकेबेमौके अम्मा कितनी बार तो सुना चुकी थीं, ‘अपने मायके का दुख डंक की तरह चुभता है.’

‘जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई’ की दुहाई समयसमय पर देने वाली अम्मा इस समय मेरे मर्म पर निशाना लगाने से नहीं चूकेंगी, इतना तो इस घर में इतने बरसों से रहतेरहते जान ही गईर् थी. शादी के बाद हर 2 दिनों में मेरे मायके में संदेश भिजवाने वाली अम्मा की नजरें मेरे ही मां, बाऊजी में खोट निकालेंगी.

प्याज के छिलकों की तरह अतीत के दृश्य परतदरपरत मेरी आंखों के सामने खुलते चले गए थे. जब भी अम्मा, पिताजी इकट्ठे बैठते, अम्मा आंखें नम कर लेतीं, ‘संस्कार बड़ों से मिलते हैं. मैं तो पहले ही कहती थी, किसी अच्छे परिवार से नाता जोड़ो. मेरा राघव एकलौता बेटा है, उस की तो गृहस्थी ही नहीं बसी.’

‘ऐसी बात नहीं है,’ पिताजी भीगे स्वर में कहते, ‘बहू के मायके वाले तो बहुत अच्छे हैं. रमेश चंद्र प्रोफैसर थे. शीला बहन तो परायों को भी अपना बनाने वालों में हैं. भाई कितना मिलनसार है…और भाभी अमीर खानदान की एकलौती वारिस है, पर घमंड तो छू तक नहीं गया. हां, बहू का स्वभाव विचित्र है. संवेदनशीलता, भावुकता नाम को भी नहीं. मैं तो हीरा समझ कर लाया था. अब यह कांच का टुकड़ा निकली तो जख्म तो बरदाश्त करने ही पड़ेंगे.’

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पिताजी मेरे मायके का जुगराफिया खींचतेखींचते जब मुझे कोसते तो अम्मा के जख्मों की कुरेदन और बढ़ जाती. वे मेरे मातापिता को बुलवा भेजतीं. शिकायतों की फेहरिस्त काफी लंबी होती थी. जैसे, मुझे बड़ों का सम्मान करना नहीं आता, पति को कुछ समझती नहीं, कोई काम करीने से कर नहीं सकती, ‘बेहद नकचढ़ी है आप की बेटी,’ कहतेकहते अम्मा बहस का सारांश पेश करतीं. मां सजायाफ्ता मुजरिम की तरह गरदन लटका कर मेरा एकएक गुनाह कुबूल करती जातीं. बाऊजी कभी उन के आरोपों का खंडन करना चाहते भी, तो मां आंख के इशारे से रोक देतीं. समधियाने में तर्कवितर्क करना उन्हें जरा नहीं भाता था. फिर राघव तो उन के दामाद थे. उन्हें कुछ बुरा न लगे, इसलिए वे चुप ही रहना पसंद करती थीं. बेचारी मां को देख कर ससुराल के लोगों पर गुस्सा आता और मां पर दया. निम्नमध्यवर्गीय परिवार में 2 बच्चों की मां से अधिक निरीह जीव शायद और कोई नहीं होता.

इधर मेरे मातापिता के घर से बाहर निकलते ही माहौल बिलकुल बदल जाता. अम्मा, पिताजी किसी न किसी बहाने से घर के बाहर निकल जाते थे, ताकि हम दोनों पतिपत्नी आपस में बातचीत कर के ‘इस मसले’ को हल कर सकें. पर मुझे तो उस समय राघव की शक्ल से भी चिढ़ हो जाती थी. उन्हीं के सामने मेरे मातापिता की बेइज्जती होती रहती, पर वे मेरे पक्ष में एक भी शब्द कहने के बजाय उपदेश ही देते रहते.

अम्मा घर लौट कर बड़े प्यार से एक थाली में छप्पनभोग परोस कर मुझे समझातीं, ‘बहू, कमरे में जा, राघव अकेला बैठा है, खुद भी खा, उसे भी खिला.’

‘मेमने की खाल में भेडि़या,’ मैं मन ही मन बुदबुदाती. इसी को तो तिरिया चरित्तर कहते हैं. मन में दबा गुस्सा मुंह पर आ ही जाता था और मैं चिढ़ कर जवाब देती थी, ‘कोई नन्हे बालक हैं, जो मुंह में निवाला दूंगी? अपने लाड़ले की खुद ही देखभाल कीजिए.’

कमरे में जाने के बजाय मैं घर से निकल पड़ती और सामने वाले पार्क में जा कर बैठ जाती. कालोनी के लोग अकसर पार्क में चलहकदमी करते रहते थे. मेरी पनीली आंखें और उतरा हुआ चेहरा देख कर आसपास खड़े लोगों में जिज्ञासा पैदा हो जाती थी. वे तरहतरह की अटकलें लगाते. कोई कुछ कहता, कोई कुछ पूछता.

मैं घर में घटने वाले छोटे से छोटे प्रसंग का बढ़चढ़ कर बयान करती. ससुराल पक्ष के हर सदस्य को खूब बदनाम करती. घर लौटने का मन न करता था. ऐसा लगता, सभी मेरे दुश्मन हैं. यहां तक कि मां, बाऊजी भी दुश्मन लगते थे. इन लोगों को कुछ कहने के बजाय वे यों मुंह लटका कर चले जाते हैं जैसे बेटी दे कर कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो.

2-4 दिन शांति से बीतते और फिर वही किस्सा शुरू हो जाता. गलती राघव की थी, उस के अभिभावकों की थी या मेरी, नहीं जानती, पर पेशी के लिए मेरे मांबाऊजी को ही आना पड़ता था. कुछ ही समय में मां तंग आ गई थीं. तब विवेक भैया ही आ कर मुझे ले जाते थे.

मायके में भी मेरे लिए उपदेशों की कमी नहीं थी, ‘राघव एकलौता बेटा है, सर्वगुण संपन्न. न देवर न कोई ननद, जमीनजायदाद का एकलौता वारिस है. तू थोड़ा झुक कर चले तो घर खुशियों से भर जाए.’

‘मां, अगर तुम चाहती हो कि बेजबान गाय की तरह खूंटे से बंधी जुगाली करती रहूं तो तुम गलत समझती हो.’

यहांवहां डोलती भाभी, मेरे मुख से निकले हर शब्द को चुपचाप सुन रही होगी, इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया, क्योंकि उन के हावभाव देख कर जरा भी एहसास नहीं होता था कि मेरे शब्दों ने उन पर कोई प्रभाव भी छोड़ा होगा. मां अकेले में मुझे समझातीं, ‘पगली, समझौता करना औरत की जरूरत है. अपनी भाभी को देख, लाखों का दहेज लाई है. हम ने तो तुझे 4 चूडि़यों और लाल जोड़े में ही विदा कर दिया था.’

तब मैं दांत पीस कर रह जाती, ‘कैसी मां है, बेटी के प्रति जरा भी सहानुभूति नहीं.’

मां जातीं तो बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ जाते. मेरे सिर पर हाथ रख कर कहते, ‘चिंता मत कर सुमि, मैं जब तक जिंदा हूं, तेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. न जाने कैसे लोगों से पाला पड़ा है. लोग बहू को बेटी की तरह रखते हैं, और ये लोग…’

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बाऊजी के शब्दों से ऐसा लगता था जैसे डूबते को एक सहारा मिला हो. ‘कोई तो है, जो मेरा अपना है,’ सोचते हुए मैं समर्पित भाव से चौके में जा कर बाऊजी की पसंद के पकवान बना कर उन्हें आग्रहपूर्वक खिलाती. राघव की कमाई से जोड़ी हुई रकम से मैं भाभी के साथ बाजार जा कर उन के लिए कोई अच्छा सा उपहार ले आती थी. बाऊजी तब मुझे खूब दुलारते, ‘कितना अंतर है बेटी और बेटे में? सुमि मुझे कितना मान देती है.’

अप्रत्यक्ष रूप से दिया गया वह उपालंभ भैयाभाभी हम सब से नजरें चुराते हुए यों झेलते थे, जैसे उन्होंने कोई कठोर अपराध किया हो. मुझे लगता, मां भी बाऊजी की तरह ही क्यों नहीं सोचतीं? वे तो मेरी जननी हैं, उन्हें तो बेटी के प्रति और भी संवेदनशील होना चाहिए था.

अपरिपक्वता की दहलीज पर कुलांचें भरता मन सोच ही नहीं पाया कि मां की भी तब अपनी मजबूरी रही होगी. महंगाई के जमाने में पति की सीमित आमदनी में से 2 बच्चों की परवरिश करना कोई हंसीखेल तो था नहीं. घर के खर्चों में से इतना बचता ही कहां था, जो अपनी बीए पास बेटी के लिए दहेज की रकम जुटा पातीं. एकएक पैसा सोचसमझ कर खर्च करने वाली मां कभीकभी एक रूमाल और चप्पल लेने के लिए भी तरसा देती थीं.

फैशनेबल पोशाकों में लिपटी हुई अपनी सहपाठिनों को देख कर मेरा मन तड़पता तो जरूर था, पर कर कुछ भी नहीं पाता था. अभावों के शिलाखंड तले दबाकुचला बचपन धीरेधीरे सरकता चला गया और मुझे यौवन की सौगात थमा गया. बचपन में मिले अभावों ने मेरे मन में कुंठा की जगह ऊंची इच्छाओं को जन्म देना शुरू कर दिया था.

मैं बेहद महत्त्वाकांक्षी हो उठी थी. कल्पनाओं के संसार में मैं ने रेशमी परिधानों से सजेसंवरे ऐसे धनवान पति की छवि को संजोया था, जिस के पास देशीविदेशी डिगरियों के अंबार हों, नौकरों की फौज हो, आलीशान बंगला हो, गाडि़यां हों. सास के रूप में ऐसी चुस्तदुरुस्त महिला की कल्पना की थी जो क्लबों में जाती हो, किटी पार्टियों में रुचि लेती हो. सिगार के कश लेते हुए ससुर पार्टियों में ही बिजी रहते हों.

कुल मिला कर मैं ने बेहद संभ्रांत ससुराल की कल्पना की थी. कहते हैं, जीवन में जब कुछ भी नहीं  मिलता, तो बहुत कुछ पाने की लालसा मन में इतनी तेज हो उठती है कि इंसान अपनी औकात, अपनी सीमाओं तक को भूल जाता है. तभी तो साधारण से व्यक्तित्व वाले बीए पास राघव, जिन के पास ओहदे के नाम पर लोअर डिवीजन क्लर्क के लेबल के अलावा कुछ भी न था, मुझे जरा भी आकर्षित नहीं कर पाए थे. उस पर उन का एकलौता होना मुझे इस बात के लिए हमेशा आशंकित करता रहा था कि हो न हो, इन लोगों की उम्मीदें मुझ से बहुत अधिक होंगी.

मेरे विरोध के बावजूद मां, बाऊजी ने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी और मैं राघव की दुलहन बन कर इस घर में आ गई. यों कमी इस घर में भी कोई न थी. शिक्षित परिवार न सही, जमीनजायदाद सबकुछ था, यहां तक कि मुंहदिखाई की रस्म पर पिताजी ने गाड़ी की चाबी मुझे दे दी थी. पर मेरा मन परेशान था. हीरे, चांदी की चकाचौंध और सोने, नगीने की खनक तो राघव के पिता की दी हुई है, उस का अपना क्या है? वेतन भी इतना कि ऐशोआराम के साधन तो दूर की बात, मेरे लिए अपनी जरूरतें पूरी करना भी मुश्किल था.

मैं हर समय चिढ़तीकुढ़ती रहती. सासससुर को बेइज्जत करना और पति की अनदेखी करना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया था. शुरू में तो राघव कुछ नहीं कहते थे, पर जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा तो फट पड़े थे, ‘तुम कोई महारानी हो, जो हमेशा लेटी रहो और मां सेवा करती रहें?’

‘क्या मतलब?’ मैं तन गई थी.

‘मतलब यह कि घर की बहू हो, घर के कामकाज में मां की मदद करो.’

‘क्यों, क्या मेरे आने से पहले तुम्हारी मां काम नहीं करती थीं?’ मैं ने ‘महाभारत’ शुरू होने की पूर्वसूचना सी दी थी.

‘तब और अब में फर्क है. जब कोई सामने होता है तो उम्मीद होती ही है.’

‘मेरी मां तो मेरी भाभी से जरा भी उम्मीद नहीं करतीं. तुम्हारे घर के रिवाज इतने विचित्र क्यों हैं?’

‘तुम्हारी भाभी नौकरी करती है, आर्थिक रूप से तुम्हारे परिवार की सहायता करती है,’ राघव ने गुस्से से मेरी ओर देखा तो मैं समझ गई कि काम तो मुझे करना ही पड़ेगा, पर इतनी जल्दी मैं झुकने को तैयार न थी. खामोश नदी में पत्थर फेंकना मुझे भी आता था. मैं मुस्तैदी से काम में जुट गई. सास चाय बनातीं, मैं चीनी उड़ेल देती. पिताजी या राघव मीनमेख निकालते तो मैं अम्मा का नाम लगा देती.

एक दिन मैं ने सब्जी को इतने छोटेछोटे टुकड़ों में काट दिया कि अम्मा परेशान हो उठीं. फिर तो आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया. मैं ने हर आरोप का मुंहतोड़ जवाब दिया. घात लगा कर हर समय आक्रमण की तैयारी में मैं लगी रहती. क्या मजाल जो कोई थोड़ी सी भी चूंचपड़ कर ले.

राघव को बुरा तो लगता था, पर मेरे अशिष्ट स्वभाव को देख कर चुप हो जाते थे. जल्द ही सास समझ गईं कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं. सासससुर दोनों ने खुद को एक कमरे में समेट लिया. घर में अब मेरा एकछत्र राज था. अपनी मरजी से पकाती, घूमतीफिरती. घर में खूब मित्रमंडली जमती थी. कुल मिला कर आनंद ही आनंद था.

अपने रणक्षेत्र में विजयपताका फहरा कर मैं ने भाभी को फोन किया. मजे लेले कर खूब किस्से सुनाए. भाभी तब तो चुपचाप सुनती रही थीं, पर जब मैं मां के पास गई तो उन्होंने जरूर कुरेदा था, ‘क्या बात है सुमि, बहुत खुश दिखाई दे रही हो?’

‘भाभी, घर का हर आदमी अब मेरे इशारों पर नाचता है. क्या मजाल जो कोई उफ भी कर जाए.’

‘घर का खर्चा भी तुम्हारे ही हाथ में होगा?’ उन की जिज्ञासा और बढ़ गईर् थी.

‘ससुरजी पूरी पैंशन मेरे हाथ पर रख देते हैं. तुम तो जानती ही हो, राघव की तनख्वाह तो इतनी कम है कि राशन का खर्चा भी नहीं निकल सकता.’

अपनी पूरी तनख्वाह मां की हथेली पर रखने वाली भाभी के मन में ईर्ष्या के बीज अंकुरित हो चुके हैं, मैं तब भला कहां जान पाईर् थी.

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‘भाभी, बस एक ही बात खटकती है,’ मैं ने मुंह लटका लिया.

‘वह क्या?’

‘राघव की मुंहबोली बहन जबतब आ टपकती है.’

‘अपने सगेसंबंधी भी कभी बुरे लगते हैं, उन से तो घर भराभरा लगता है,’ अपने सुखी संसार पर कलह के बादलों का पूर्वानुमान होते देख मां ने जैसे मुझे आगाह किया था, पर सीख तो उसी को दी जाती है जो सीखना चाहे. मैं तो सिखाना चाहती थी.

‘घर तो भरा रहता है, पर आवभगत भी तो करनी पड़ती है. खर्चा होता है सो अलग.’

मां जैसे सकते में आ गई थीं. हर सगेसंबंधी का आदरसत्कार करने वाली मां को बेटी के कथन में पराएपन की बू आ रही थी. अपना मत व्यक्त कर के मैं तो लौट आई थी.

मेरे विवाह को 3 वर्ष हो गए थे. घर में नया मेहमान आने वाला था. सभी खुश थे. अम्मा (राघव की मां) मेरी खूब देखभाल करती थीं. जीजान से वे नन्हे शिशु के आगमन की तैयारियों में जुटी हुई थीं. किस समय किस चीज की जरूरत होगी, इसी उधेड़बुन में उन का पूरा समय निकल जाता था.

‘कहीं ऐसा न हो, मेरे करीब आ कर वे मेरे साम्राज्य में हस्तक्षेप करना शुरू कर दें,’ आशंका के बादल मेरे मन के इर्दगिर्द मंडराने लगे थे. एक दिन मैं ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया, ‘अम्मा, आप ज्यादा परेशान न हों, प्रसव मैं अपनी मां के घर पर करूंगी.’

‘पहली जचगी, वह भी मायके में?’ वे चौंकी थीं.

‘जी हां, क्योंकि आप से ज्यादा मुझे अपनी मां पर भरोसा है,’ बहुत दिनों बाद मैं ने खाली प्याले में तूफान उठाया था. सहसा सामने खड़े राघव का पौरुष जाग गया था. उन्होंने खींच कर एक तमाचा मेरे गाल पर जड़ दिया था, ‘इस घर में तुम ने नागफनी रोपी है. पूरे घर को नरक बना कर रख दिया. अब तो इस घर की दीवारें भी काटने को दौड़ती हैं.’

‘मेरा अपमान करने की तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई. अब मैं एक पल भी यहां नहीं रुकूंगी.’

मैं ने बैग में कपड़े ठूंसे और मां के पास चली आई. वैसे भी 8वां महीना चल रहा था, आना तो था ही. मुझे किसी ने रोका नहीं था और अगर कोई रोकता भी तो मैं रुकने वाली नहीं थी.

मां के ड्राइंगरूम में काफी हलचल थी. भाभी के मातापिता बेटी की ‘गोद भराई’ की रस्म पर रंगीन टीवी और फ्रिज लाए थे. छोटेछोटे कई उपहारों से कमरा भरा हुआ था. घर के सभी सदस्य समधियों की सेवा में बिछे हुए थे.

मां ने उड़ती सी नजर मुझ पर डाली थी. उन की अनुभवी आंखों को यह समझते जरा भी देर न लगी कि मेरे घर में जरूर कुछ न कुछ घटना घटी है. पर पाहुनों के सामने पूछतीं कैसे? अपने साथ मेरी ससुराल भी तो बदनाम होती, जो उन की जैसी समझदार महिला को कतई मंजूर न था.

मेहमान चले गए तो मां व बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ गए. भैया के कमरे से छन कर आ रही रोशनी से साफ था कि वे लोग अभी तक सोए नहीं है. मां धीरेधीरे मुझे कुरेदती रहीं और मैं सब कुछ उगलती चली गई, ‘मां, तुम नहीं जानती, वे कैसेकैसे संबोधन मुझे देते हैं…उन्होंने मुझे ‘नागफनी’ कहा है,’ मैं रोंआसी हो उठी थी.

‘ठीक ही तो कहा है, गलत क्या, कहा है?’ भैया की गुस्से से भरी आवाज थी. आपे से बाहर हो कर न जाने कब से वे दरवाजे पर खड़े हुए मेरी और मां की बातें सुन रहे थे. मां कभी मेरा मुंह देखतीं कभी भैया का.

‘सुमि, आखिर भावनाओं का भी कुछ मोल होता है. राघव एकलौते हैं… न जाने कैसीकैसी उम्मीदें रखते हैं लोग अपने बेटे और बहू से, पर तू तो कहीं भी खरी नहीं उतरी. तुझे तो खामोश नदी में पत्थर फेंकना ही आता है.’

मां भैया को चुप करवाना चाहती थीं, पर उन का गुस्सा सारी सीमाएं पार कर चुका था, ‘इस लड़की को सबकुछ तो मिला…पैसा, प्यार, मान, इज्जत…इसी में सबकुछ पचाने की सामर्थ्य नहीं है. जब सबकुछ मिल जाए तो उस की अवमानना, उस के तिरस्कार में ही सुख मिलता है,’ कहते हुए भैया उठे और कमरे से बाहर निकल गए.

उस के बाद भैयाभाभी की बातचीत काफी देर तक चलती रही. इधर मां मुझे पूरी रात समझाती रहीं कि मैं अपना फैसला बदल लूं. एक तो खर्च का अतिरिक्त भार वहन करने की क्षमता उन में नहीं थी. जो कुछ करना था, भैयाभाभी को ही करना था. दूसरे, बढ़े हुए काम का बोझ उठाने की हिम्मत भी उन के कमजोर शरीर में नहीं थीं. भैयाभाभी के बदले हुए तेवरों में उन्हें आने वाले तूफान की संभावना साफ दिखाई दे रही थी.

पर मैं टस से मस न हुई. राघव की मां से कुछ भी अपने लिए करवाने का मतलब था अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारना. दूसरे ही दिन राघव के पिता का फोन आया था, ‘बच्चे हैं…नोकझोंक तो आपस में चलती ही रहती है. बहू से कहिए, सामान बांध ले और घर लौट आए.’

पर मैं तो विष की बेल बनी हुई थी. न जाना था, न ही गई. पूरा दिन आराम करती, न हिलती, न डुलती. मां की भी उम्र हो चली थी, कितना कर पातीं? भाभी पूरा दिन दफ्तर में काम करतीं और लौट कर मां का हाथ बंटातीं. मैं भाभी को सुना कर मां का पक्ष लेती, ‘मां बेचारी कितना काम करती हैं. एक मेरी सास हैं, राजरानी की तरह पलंग पर बैठी रहती है.’

मां से सहानुभूति जताते हुए मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ती थी. मां मुझे दुलारती रहतीं, पर इस बीच भाभी मैदान छोड़ कर चली जाती थीं. काफी दिनों तक उन का मूड उखड़ा रहता था.

नन्हें अभिनव के आगमन पर सभी मौजूद थे. उसे देखते ही राघव की मां निहाल हो उठी थीं, ‘हूबहू राघव की तसवीर है. वैसे ही नाकनक्श, उतना ही उन्नत मस्तक, वही गेहुंआं रंग.’

‘सूरत चाहे राघव से मिले, पर सीरत मुझ से ही मिलनी चाहिए,’ मैं ने बेवकूफीभरा उत्तर दिया और अपने गंदे तरीके पर राघव की नाराजगी की प्रतीक्षा करने लगी. पर उन्होंने कुछ नहीं कहा था.

पोते को दुलारने के लिए बढ़े अम्मा के हाथ खुदबखुद पीछे हट गए थे. मैं मन ही मन विजयपताका लहरा कर मुसकरा रही थी. 2 महीने तक मां और भाभी मेरी सेवा करती रहीं. राघव की मां खूब सारे मेवे, पंजीरी और फल भिजवाती रही थीं, पर मैं किसी भी चीज को हाथ न लगाती थी.

एक दिन मां के हाथ की बनी हुई खीर खा रही थी कि भाभी ने करारी चोट की. ‘दीदी, तुम्हारी सास ने इतने प्रेम से कलेवा भेजा है, उस का भी तो भोग लगाओ.’

‘अपनी समझ अपने ही पास रखो तो बेहतर होगा. मेरे घर के मामलों में ज्यादा हस्तक्षेप न करो.’

‘तुम्हारा घर…’ मुंह बिचकाते हुए भाभी कमरा छोड़ कर चली गईं तो मैं कट कर रह गई. आखिरकार मैं अपशब्दों पर उतर आईर् थी.

उन्हीं दिनों भैयाभाभी ने दफ्तर से कर्जा ले कर मेरी ही ससुराल के पास मकान खरीद लिया था. 4 कमरों के इस मकान में आने से पहले ही मां ने यह फैसला ले लिया था कि मां और बाऊजी, पिछवाड़े के हिस्से में रहेंगे. यह मशवरा उन्हें मैं ने ही दिया था और भैया मान भी गए थे.

नए मकान में आने की तैयारी जोरशोर से चल रही थी. उठापटक और परेशानी से बचने के लिए मैं ससुराल लौट आई थी.

घर लौटी तो खुशी के बादल छा गए थे. सास ने भावावेश में आ कर अभिनव को गोद में ले लिया और लगीं उस का मुंह चूमने.

‘नन्हा, फूल सा बालक, कहीं कोई संक्रमण हो गया तो?’ मैं ने उसे अपनी गोद में समेट लिया और साथ ही सुना भी दिया, ‘बच्चे की देखभाल मैं खुद करूंगी. आप सब को चिंता करने की जरूरत नहीं है.’

पिताजी अब कुछ भी नहीं कहते थे, जैसे समझ गए थे कि बहू के सामने कुछ भी कहना पत्थर पर सिर पटकने जैसा ही है. पासपड़ोस के लोग अम्माजी से सवाल करते कि बहू मायके से क्या लाई है तो मैं बढ़चढ़ कर मायके की समृद्धि और दरियादली का गुणगान करती. भाभी के मायके से आई हुई चूडि़यां मां ने मुझे उपहारस्वरूप दी थीं. बाकी सब के लिए उपहार मैं राघव की कमाई से बचाई हुई रकम से ही ले आई थी. सास की एक सहेली ने उलटपलट कर चूडि़यां देखीं, फिर प्रतिक्रिया दी, ‘मोटे कंगन होते तो ठीक रहता, मजबूती भी बनी रहती.’

मैं उस दिन खूब रोई थी, ‘आप लोग दहेज के लालची हैं. कोई और बहू होती तो थाने की राह दिखा देती.’

उस दिन के बाद से मैं ने उन लोगों को अभिनव को छूने न दिया. कोई परेशानी होती तो रिकशा करती और मां के पास पहुंच जाती. मायका तो अब कुछ ही गज के फासले पर था.

राघव के पिता का स्वास्थ्य अब गिरने लगा था. घर का वातारण देख कर वे अंदर ही अंदर घुलने लगे थे. डाक्टर ने दिल का रोग बताया था. जिस वृक्ष की जड़ें खोखली हो गई हों वह कब तक अंधड़ों का मुकाबला कर सकता है? और एक रात ससुरजी सोए तो उठे ही नहीं. पूरे घर का वातावरण ही बदल गया. शोक में डूबी अम्मा का रहासहा दर्प भी जाता रहा. साम्राज्य तो उन का पहले ही छिन गया था.

राघव ने मुझे विश्वास में ले कर सलाह दी ‘अम्मा बहुत अकेलापन महसूस करती हैं, कुछ देर अभिनव को उन के पास छोड़ दिया करो.’

दुख का माहौल था. तब कुछ भी कहना ठीक न जान पड़ा था, पर मैं ने मन ही मन एक फैसला ले लिया था, ‘अभिनव को अम्मा से दूर ही रखूंगी.’

 

मायके के पड़ोस वाले स्कूल में अभिनव का दाखिला करवा दिया. स्कूल बंद होने के बाद बाऊजी अभिनव को अपने घर ले जाते थे. मां उसे नहलाधुला कर होमवर्क करवातीं और सुला देतीं. शाम को मैं जा कर उसे ले आती थी. एक तो सैर हो जाती थी, दूसरे, इसी बहाने से मैं मां से भी मिल लेती थी. बाऊजी की देखरेख में अभिनव तो कक्षा में प्रथम आने लगा था, पर मां इस अतिरिक्त कार्यभार से टूट सी गई थीं. एकाध बार दबे शब्दों में उन्होंने कहा भी था, ‘शतांक को भी देखना पड़ता है. बहू तो नौकरी करती है.’

पर मैं अभिनव को अपने घर के वातावरण से दूर ही रखना चाहती थी.

धीरेधीरे भाभी ने उलाहने देने शुरू कर दिए थे, ‘पहले बेटी घर पर अधिकार जमाए रखती थी, अब नाती भी आ जाता है. मेरा शतांक बीमार हो या स्वस्थ रहे, पढ़े न पढ़े, इन्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता है. एक को सिर पर चढ़ाया हुआ है, दूसरा जैसे पैरों की धूल है.’

भाभी ने साफ तौर पर अभिनव की तुलना शतांक से कर के जैसे सब का अपमान करने की हिम्मत जुटा ली थी. अपने सामने अपने ही मातापिता की झुकी हुई गरदन देखने की पीड़ा कितनी असहनीय होती है, उस दिन मैं ने पहली बार जाना था.

फिर भी हिम्मत जुटा कर कहा था मैं ने, ‘घर तो मेरे बाऊजी और मां का है. हम तो आएंगे ही.’

‘भूल कर रही हो, यह घर मेरे और तुम्हारे भैया के अथक परिश्रम से बना है. तुम्हारे सासससुर की तरह किसी ने हमें उपहार में नहीं दिया. यह अलग बात है कि तुम्हारी तरह नातेरिश्तेदारों से संबंध तोड़ कर नहीं बैठे हैं. यही गनीमत समझो.’

वसुधा भाभी के शब्दों ने बारूद के ढेर में चिनगारी लगाने का काम किया था. उस दिन के बाद से स्थिति बिगड़ती चली गई. कभी मांबाऊजी का अपमान होता, कभी मेरा और कभी अभिनव का. ऐसे माहौल में मांबाऊजी पिछवाड़े का हिस्सा छोड़ कर भैयाभाभी के साथ समायोजन कैसे स्थापित कर सकते थे? अपने पास इतने साधन नहीं थे कि अलग से गृहस्थी बसा सकें. कहां जाएंगे मांबाऊजी, यही प्रश्न मन को बारबार कटोचता है.

आत्मविवेचन करती हूं तो मां की मौन आंखों के बोलते प्रश्नों का जवाब ढूंढ़ नहीं पाती. कभी लगता है, शायद मैं ही दोषी हूं, अपनी ससुराल और पति से दूर भाग कर मायके में सुख ढूंढ़ने की कोशिश करती रही. पर सुख पाना तो दूर, मां व बाऊजी को ही दरदर भटकने को मजबूर कर दिया.

‘कितनी सुखी हैं राघव की मां? संस्कारी बेटा है, सिर पर छत है और पिताजी की छोड़ी हुई संपदा, जिसे जब तक जीएंगी, भोगेंगी. सिर्फ मेरी ही स्थिति परकटे पक्षी सी हो गई है, जिस में उड़ने की तमन्ना तो है, पर पंख ही नहीं हैं. कहां ढूंढ़ूं इन पंखों को? मायके की देहरी पर या ससुराल के आंगन में?’ यही सोचतेसोचते आंखें एक बार फिर नम हो आई हैं.

अधिकार: मां के प्यार से क्यों वंचित था कुशल?

मां के होते हुए भी बचपन से उस के प्यार को तरसते हुए कुशल का मन कड़वाहट से भर गया था. पर आशा के मिलने के बाद प्रेम और स्नेह के एहसास से उस का दिल भर उठा था. लेकिन परिस्थितियां हर बार उसे आशा के पास आने के बजाय दूर ढकेल रही थीं.

त्योहार पर घर गया तो ताऊजी ने फिर से अपनी जिद दोहरा दी. वे चाहते थे कि मैं शादी कर लूं. जबकि मुझे शादी के नाम से चिढ़ होने लगती थी. हालांकि ताईजी ने मुझे सदा पराया ही समझा, पर ताईजी ने

मेरे लिए अपनी ममता की धारा कभी सूखने नहीं दी. मेरी मां मेरी कड़वाहट की एक बड़ी वजह थी, जिस ने मेरे

भीतर की सभी कोमल भावनाओं को जला दिया था, परंतु ताऊजी कभी भी मेरी मां के खिलाफ कुछ सुनना पसंद नहीं करते थे. वे उस के लिए सुरक्षाकवच जैसे थे. एक बार जब मैं मां के खिलाफ बोला था तो उन्होंने मुझ पर हाथ उठा दिया था.

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छुट्टी के बाद मैं वापस चला आया. अस्पताल में आते ही वार्ड कर्मचारी ने एक महिला से मिलाया, जो कुछ महीने पहले गुजर गई एक अनाथ बच्ची के बारे में पूछताछ कर रही थी. मेरी नजर उस महिला पर टिक गई. 3 साल की उस बच्ची, जो मेरी मरीज थी, से उस औरत की सूरत काफी मिलतीजुलती थी.

जब मैं ने उस महिला से बात की तो पता चला, वह उस बच्ची की मां है. उस की बात सुन मैं हैरान रह गया कि इतनी संभ्रांत महिला और उस की संतान लावारिस मर गई? वह महिला अनाथालय से मेरा पता ले कर आई थी.

‘‘वह बच्ची कैसी थी?’’ उस के भर्राए स्वर पर मेरे अंदर की कड़वाहट जबान पर चली आई.

‘‘अब राख कुरेदने से क्या होगा, जो हो गया, सो हो गया,’’ मैं उसे रोता, सुबकता छोड़़ कर चला आया और सोचने लगा कि जिंदा बच्ची को तो पूछा नही, अब आंसू बहाने यहां चली आई है.

अकसर मेरी शामें घर के पास शांत समुद्रतट पर गुजरती थीं. अपने काम से बचाखुचा समय मैं लहरों से ही बांटता था. गीली रेत का घर बनाना मुझे अच्छा लगता था. उस शाम भी वहां बैठाबैठा मैं कितनी देर मुन्नी के ही विषय में सोचता रहा.

दूसरे दिन भी उस औरत ने मुझ से मिलना चाहा, मगर मैं ने टाल दिया. पता नहीं क्यों, मुझे औरतों से नफरत होती, विशेषकर ऐसी औरतों से जो अपनी संतान को अनाथ कर कहीं दूर चली जाती हैं. हर औरत में अपनी मां की छवि नजर आती, लेकिन हर औरत ममता से शून्य महसूस होती.

कुछ दिनों बाद एकाएक वार्ड में उसी औरत को देख मैं चौंक पड़ा. पता चला, आधी रात को कुछ पुलिसकर्मी उसे यहां पहुंचा गए थे. पूछताछ करने पर पता चला कि 2 दिनों से उसे कोई भी देखने नहीं आया. मैं सोचने लगा, क्या यह औरत इस शहर में अकेली है?

वह रात मैं ने उस की देखभाल में ही बिताई. सुबहसुबह उस ने आंखें खोलीं तो मैं ने पूछा, ‘‘आप कैसी हैं?’’ लेकिन उस ने कोई जवाब न दिया.

दूसरी सुबह पता चला कि वह अस्पताल से चली गई है. शाम को घर गया तो ताऊजी का पत्र खिड़की के पास पड़ा मिला. उन्होंने लिखा कि उन्हें मुझ पर हाथ नहीं उठाना चाहिए था, मगर मेरा व्यवहार ही अशोभनीय था, जिस पर उन्हें क्रोध आ गया.

मैं यह जानता था कि मेरा व्यवहार अशोभनीय था, परंतु मेरे साथ जो हुआ था उस की शिकायत किस से करता? जब मैं बहुत छोटा था, तभी मां हाथ छुड़ा कर चली गई थी.

मैं चाय बनाने में व्यस्त था कि द्वार की घंटी बजी. दरवाजा खोलने पर देखा कि सामने वही औरत खड़ी है. मैं ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे, आप…आइए…’’

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उसे बिठाने के बाद मैं चाय ले आया. फिर गौर से उस के समूचे व्यक्तित्व को निहारा. साफसुथरा रूप और कानों में छोटेछोटे सफेद मोती. याद आया, मेरी मां के कानों में भी सफेद हीरे दमकते रहते थे. जब भी कभी ताऊजी की उंगली पकड़े उस से मिलने जाता, उन हीरों की चमक से आंखें चौंधिया जातीं. मैं मां के रूप में ममत्व का भाव ढूंढ़ता रहता, पर वह पलभर भी मेरे पास न बैठती.

वह औरत धीरे से बोली, ‘‘मैं ने आप को बहुत परेशान किया. मेरी बेटी की वजह से आप को बहुत तकलीफ हुई.’’

‘‘वह तो मेरा फर्ज था,’’ मैं ने गौर से उस की ओर देखते हुए कहा.

‘‘एक मां होने के नाते यह संतोष व्यक्त करने चली आई कि आप ने उस की मौत आसान कर के मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है. उस दुखियारी को आखिरी वक्त पर किसी का सहारा तो मिला,’’ यह कहने के साथ वह मेज पर फूलों का एक गुलदस्ता रख कर चली गई.

दूसरी शाम मैं सागरतट पर बैठा था, तभी वह औरत एक छाया की तरह सामने चली आई और बोली, ‘‘क्या आप के पास बैठ सकती हूं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. बैठिए.’’

चंद पलों के बाद उस ने गंभीर स्वर में पूछा, ‘‘वह मुन्नी देखने में कैसी थी?’’

‘‘जी?’’ मैं उस के प्रश्न पर चौंका कि फिर से वही प्रश्न, जो उस दिन भी किया था.

‘‘आप भी सोचते होंगे, मैं कैसी मां हूं, जिसे यह भी नहीं पता कि उस की बेटी कैसी थी. जब मेरे पति की ऐक्सिडैंट में मौत हुई, उस समय बच्ची का जन्म नहीं हुआ था. मेरे ससुराल वालों ने पति के जाते ही आंखें फेर लीं.

‘‘फिर जब बच्ची का जन्म हुआ तो मेरे ही मांबाप उसे अनाथालय में छोड़ गए. वे मुझे यही बताते रहे कि मृतबच्चा पैदा हुआ था.’’

‘‘उस के बाद क्या हुआ?’’ मैं ने धीरे से पूछा.

‘‘उस के बाद क्या होता. मेरी बसीबसाई गृहस्थी उजड़ गई. खाली हाथ रह गई. पति और बच्ची की कोई भी निशानी नहीं रही मेरे पास.’’

‘‘लेकिन आप के मांबाप ने ऐसा क्यों किया?’’ मैं पूछे बिना रह न सका.

‘‘डाक्टर साहब, एक बच्ची की मां की दूसरी शादी

कैसे होती. इसलिए उन्होंने शायद यही उचित समझा,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.

‘‘तो क्या आप ने शादी की?’’

‘‘नहीं, बहुत चाहा कि अतीत को काट कर फेंक दूं. परंतु ऐसा नहीं हुआ. अतीत कोई वस्त्र तो नहीं है न, जिसे आप जब चाहें बदल लें,’’ अपने आंसू पोंछ वह बोली, ‘‘अभी कुछ दिनों पहले मेरी मां भी चल बसी. पर मरतमरते मुझ पर एक एहसान कर गई. मुझे बताया कि मेरी बेटी जिंदा है. तब मैं ने सोचा कि मांबेटी साथसाथ रहेंगी तो जीना आसान हो जाएगा. लेकिन यहां आ कर पता चला कि वह भी नहीं बची.’’

मेरा मन भर आया था. मैं हमेशा अपनी मां के स्वार्थ को नियति मान कर उस से समझौता करता रहा. मैं सोचने लगा, क्या मेरी मां अकेले रह मुझे पाल नहीं सकती थी? जो औरत मेरे सामने बैठी थी उसे मैं नहीं जानता था, मगर यह सत्य था कि वह जो भी थी, कम से कम रिश्तों के प्रति ईमानदार तो थी. मेरी मां की तरह स्वार्थी और कठोर नहीं थी.

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मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप की बेटी बहुत मासूम थी, बहुत ही प्यारी.’’

‘‘वह कैसी बातें करती थी?’’

‘‘अभी बहुत छोटी थी न, 3 साल का बच्चा भला कैसी बातें कर सकता है.’’

‘‘मरने से पहले क्या वह बहुत तड़पी थी? क्या उसे बहुत तकलीफ हुई थी?’’

‘‘नहीं, तड़पी तो नहीं थी लेकिन बहुत कमजोर हो गई थी. हमेशा मेरे गले से ही लिपटी रही थी,’’ कहते हुए मैं ने हाथ उठा कर उस का कंधा थपथपा दिया, ‘‘आप जब चाहें, मेरे पास चली आएं. मुन्नी के बारे में मुझे जो भी याद होगा, बताता रहूंगा.’’

बाद में पता चला कि वह बैंक में कार्यरत है. हर शाम वह सागरतट पर मेरे पास आ जाती. अपनी बच्ची का पूरा ब्योरा मुझ से लेती और रोती हुई लौट जाती. वह नईनई कोचीन आई थी, किसी से भी तो उस की जानपहचान न थी.

उस की बातें दिवंगत पति और अनदेखी बच्ची के दायरे से बाहर कभी जाती ही नहीं थीं. मैं चुपचाप उस के अतीत में जीता रहता. कभीकभी विषय बदलने की कोशिश भी करता कि इतने तनाव से कहीं उस की मानसिक हालत ही न बिगड़ जाए.

एक शाम जब मैं घर आया तो ताऊजी को बाहर इंतजार करते पाया. मैं उन की आवभगत में लग गया. मगर मेरे सारे स्नेह को एक तरफ झटक वे नाराजगी से बोले, ‘‘आशा को कब से जानते हो? जानते हो, वह विधवा है? क्या रिश्ता बांधना चाहते हो उस से?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं. वह दुखी है. अकसर मेरे पास चली आती है.’’

‘‘अच्छा. क्या तुम उस का इलाज करते हो? देखो कुशल, मैं नहीं चाहता, तुम उस से मेलजोल बढ़ाओ. उस की दिमागी हालत खराब रही है. उस ने बड़ी मुश्किल से खुद को संभाला है.’’

‘‘उसे पागल बनाने में उस के मांबाप का भी दोष है. क्यों उस की बच्ची को यहां फेंक गए?’’ मैं ने आशा की सुरक्षा में होंठ खोले, मगर ताऊजी ने फिर चुप करा दिया, ‘‘मांबाप सदा संतान का भला सोचते हैं. सत्येन को जो ठीक लगा, उस ने किया. अब कृपया तुम उस का साथ छोड़ दो.’’

यह सुन कर मैं स्तब्ध रह गया कि आशा, ताऊजी के मित्र सत्येन की पुत्री है. वे एक दिन रह कर चले गए, मगर मेरा पूरा अस्तित्व एक प्रश्नचिह्न के घेरे में कैद कर गए, मैं सोचने लगा, क्या आशा से मिल कर मैं कोई अपराध कर रहा हूं? ताऊजी को इस मेलजोल से क्या आपत्ति है?

रात की ड्यूटी थी. सो, 2 दिनों से मैं तट पर नहीं जा पाया था. रात के 11 बजे थे, तभी अचानक आशा को अपने सामने पाया. उस के कपड़े भीगे थे और उन पर रेत चमक रही थी. जाहिर था, अब तक वह अकेली सागरतट पर बैठी रही होगी.

फटीफटी आंखों से उस ने मुझे देखा तो मैं ने साधिकार उस का हाथ पकड़ लिया. फिर अपने कमरे में ला कर उसे कुरसी पर बिठाया.

उस के पैरों के पास साड़ी को रक्तरंजित पाया. झट से उस का पैर साफ कर के मैं ने पट्टी बांधी.

‘‘मैं आप को बहुत तकलीफ देती हूं न. अब कभी आप के पास नहीं आऊंगी,’’ उस की बात सुन मैं चौंक उठा.

वह आगे बोली, ‘‘जो मर गए वे तो छूट गए, पर मैं ही दलदल में फंसी रह गई. मेरा ही दोष था जो आप के पास आती रही. सच, आप को ले कर मैं ने कभी वैसा नहीं सोचा, जैसा आप के ताऊजी ने सोचा. मैं तो अपनी मरी हुई बच्ची के  लिए आती रही, क्योंकि आखिरी समय आप ही उस के पास थे. मैं मुन्नी की कसम खाती हूं, मेरे मन में आप के लिए…’’

‘‘बस, आशा,’’ मैं ने उसे चुप करा दिया. फिर धीरे से उस का कंधा थपथपाया, ‘‘ताऊजी की ओर से मैं तुम से क्षमा मांगता हूं. तुम जब भी चाहे, मेरे पास चली आना.’’

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थोड़ी देर बाद जब वह जाने लगी तो मैं ने लपक कर उस का हाथ पकड़ लिया. मैं ने उसे इतनी रात गए जाने नहीं दिया था, सुबह होने तक रोक लिया था. टिटनैस का टीका लगा कर वहीं अपने बिस्तर पर सुला दिया था और खुद पूरी रात बरामदे में बिताई थी. सुबह राउंड से वापस आया तो पाया, मेरा शौल वहीं छोड़ वह जा चुकी थी.

उस के बाद वह मुझ से मिलने नहीं आई. उस के घर का मुझे पता नहीं था और बैंक फोन करता तो वह बात करने से ही इनकार कर देती.

एक सुबह 10 बजे उस के बैंक चला गया. मुझे देखते ही वह भीतर चली गई. उस के पीछे जा कर तमाशा नहीं बनना था, सो हार कर वापस चला आया. परंतु असंतुलित मन ने उस दिन मेरा साथ न दिया, मोटरसाइकिल को बीच सड़क में ला पटका.

ऐक्सिडैंट की बात सुन ताऊजी भागे चले आए. थोड़ी देर बाद मैं ने कहा, ‘‘ताऊजी, आशा को सूचित कर दीजिए. मैं उस से मिलना चाहता हूं.’’

क्षणभर को ताऊजी चौंक गए थे, फिर बोले, ‘‘क्या, बहुत तकलीफ है?’’

जी चाह रहा था, ताऊजी से झगड़ा करूं, मगर लिहाज का मारा मैं चुप था. बारबार मन में आता कि ताऊजी से

पूछूं कि उन्होंने आशा का अपमान

क्यों किया था? क्यों मुझे इस आग में ढकेल दिया?

ताऊजी मेरे जख्मी शरीर को सहलाते हुए बोले, ‘‘कुशल, धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा.’’

अचानक मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘मैं आशा से मिलना चाहता हूं.’’

‘‘लेकिन उस से तो तुम्हारा कोई रिश्ता ही नहीं है. तुम्हीं ने तो

कहा था.’’

‘‘हां, मैं ने कहा था और अब भी मैं ही कह रहा हूं कि उस से रिश्ता बांधना चाहता हूं.’

‘‘वह तो विधवा है, भला उस से तुम्हारा रिश्ता कैसे?’’

‘‘क्या विधवा का पुनर्विवाह नहीं हो सकता?’’

‘‘हो क्यों नहीं सकता, मैं तो हमेशा इस पक्ष में रहा हूं.’’

‘‘तो फिर आप आशा के खिलाफ क्यों हैं?’’

‘‘क्योंकि तुम इस पक्ष में कभी नहीं रहे. तुम अपनी मां से इतनी नफरत करते हो. जानते हो न उस का कारण क्या है? उस का पुनर्विवाह ही इस घृणा का कारण है. जो इंसान अपनी मां के साथ न्याय नहीं कर पाया, वह अपनी पत्नी से इंसाफ कैसे करेगा?’’

मैं ने हिम्मत कर के कुछ कहना चाहा, मगर तब तक ताऊजी जा चुके थे. मैं सोचने लगा, क्यों ताऊजी आशा को मुझ से दूर करना चाहते हैं? किस अपराध की सजा देना चाहते हैं?

तभी कंधे पर किसी ने हाथ रखा. मुड़ कर देखा, आशा ही तो सामने खड़ी थी.

‘‘यह क्या हो गया?’’ उस ने हैरानी से पूछा.

मेरा जी चाहा कि उस की गोद में समा कर सारी वेदना से मुक्ति पा लूं. लेकिन वह पास बैठी ही नहीं, थोड़ी देर सामने बैठ कर चली गई.

एक दिन आशा का पीछा करते मैं

ने उस का घर देख लिया. दूसरे

दिन सुबहसवेरे उस का द्वार खटखटा दिया. वह मुझे सामने पा कर हैरान रह गई. मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘नाराज मत होना. नाश्ता करने आया हूं.’’

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‘‘मैं यहां अकेली रहती हूं, कोई क्या सोचेगा. आप यहां क्यों चले आए?’’

‘‘तुम भी तो मेरे पास चली आती थीं, मैं ने तो कभी मना नहीं किया.’’

‘‘वह मेरी भूल थी. मेरा पागलपन था.’’

‘‘और यह मेरा पागलपन है. मुझे तुम्हारी जरूरत है. मैं तुम्हारे साथ एक रिश्ता बांधना चाहता हूं. चाहता हूं, तुम हमेशा मेरी आंखों के सामने रहो,’’ समीप जा कर मैं ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘तुम से पहले मेरा जीवन आराम से चल रहा था, कहीं कोई हलचल न थी. मुझे ज्यादा नहीं चाहिए. बस, थोड़ा सा ही प्यार दे दो. देखो आशा, मैं तुम्हारे किसी भी अधिकार में हस्तक्षेप नहीं करूंगा. तुम अगर अपने दिवंगत पति के साथ मुझे बांटना न चाहो, तो मत बांटो.’’

‘‘जानते हो, मुझे अभी भी पागलपन के दौरे पड़ते हैं,’’ वह मेरी आंखों में झांकते हुए बोली.

‘‘पागल लोग बैंक में इतनी अच्छी तरह काम नहीं कर सकते. तुम पागल नहीं हो. तुम पागल नहीं…’’

मेरे हाथ से बांह छुड़ा कर वह भीतर चली गई.

मैं भी तेज कदमों से उस के पीछेपीछे गया और तनिक ऊंची आवाज में कहा, ‘‘मुझे जो कहना था, कह दिया. अब चलता हूं, नाश्ता फिर किसी दिन.’’

‘‘कुशल,’’ आशा ने पुकारा, परंतु मैं रुका नहीं.

मैं शाम तक बड़ी मुश्किल से खुद को रोक पाया. मुझे फिर सामने पा कर आशा एक बार फिर तनाव से भर उठी. पर खुद को संभालते हुए बोली, ‘‘आइए. बैठिए. मैं चाय ले कर आती हूं…’’

‘‘नहीं, तुम मेरे पास बैठो, चाय की इच्छा नहीं है.’’

आशा मेरे पास बैठ गई. मैं अपने विषय में सबकुछ बताता रहा और वह सुनती रही.

‘‘तुम्हीं कहो, अगर मैं तुम से शादी करना चाहूं तो गलत क्या है? 25 साल पहले अगर ताऊजी मेरी मां का पुनर्विवाह करा सकते थे, तो अब तुम नया जीवन आरंभ क्यों नहीं कर सकतीं?’’

‘‘आप के साथ जो हुआ, वह मां के पुनर्विवाह की वजह से ही हुआ न? आप अपनी मां का सम्मान नहीं कर पाते, उन के पति को अपना पिता स्वीकार नहीं करते. इस अवस्था में आप मेरा सम्मान कैसे करेंगे?

‘‘अगर आप पुनर्विवाह को बुरा नहीं मानते तो पहले अपनी मां का सम्मान कीजिए, उन से नाता जोडि़ए.’’

मैं आशा की दलील पर खामोश था. उस की दलील में दम था और उस का तुरंत कोई तोड़ मेरी समझ में न आया. आशा के मोह में बंधा, बस, इतना ही कह पाया, ‘‘अगर तुम चाहती हो, तो उन लोगों से नाता जोड़ने में मुझे कोई परेशानी नहीं है.’’

‘‘मेरी इच्छा पर ही ऐसा  क्यों…क्या आप अपने मन से ऐसा नहीं चाहते?’’

‘‘मैं ने कहा न कि मैं इतना तरस चुका हूं कि कोई इच्छा अब जिंदा नहीं रही. मां ने जो भी किया, हो सकता है, उस की गृहस्थी के लिए वही अच्छा हो. यह सच ही है कि अतीत के भरोसे जीवन नहीं कटता और न ही मरने वाले के साथ इंसान मर ही सकता है. जो भी हुआ होगा, शायद अच्छे के लिए ही हुआ होगा, मगर इस सारे झमेले में मैं तो कहीं का नहीं रहा.’’

मेरे कंधे पर पड़ा शौल सरक गया था. एकाएक आशा बोली, ‘‘अरे, आप की बांह अभी भी…’’

‘‘हां, 3 हफ्ते का प्लास्टर है न.’’ मुझे ऐसा लगा, जैसे उस ने कुछ नया ही देख लिया, झट पास आ कर उस ने शौल मेरी पीठ से भी सरका दी, ‘‘आप के कपड़ों पर तो खून के धब्बे हैं.’’

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फिर वह डबडबाई आंखों से बोली, ‘‘इतनी तकलीफ में भी आप मेरे पास चले आते हैं?’’

‘‘दर्द कम करने ही तो आता हूं. तुम छूती हो तो….’’

‘‘ऐसा क्या है मेरे छूने में?’’

‘‘वह सबकुछ है जो मुझ जैसे इंसान को चाहिए. मगर यह सत्य है, इसे वासना नहीं कहा जा सकता, जैसा शायद ताऊजी ने समझा था.’’

बांह का प्लास्टर खुलने को 2 हफ्ते बाकी थे. इस दौरान आशा ने मुझे संभाल लिया था. वह हर शाम मेरे घर आती और भोजन का सारा प्रबंध करती.

जिस दिन मैं ने प्लास्टर कटवाया, उस दिन सीधा आशा के पास ही चला गया. मुझे स्वस्थ पा कर उस की आंखें भर आईं.

सहसा आशा को छाती से लगा कर मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए. वह मुझ से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी. आशा के स्पर्श में एक अपनापन था, एक विश्वास था.

प्लास्टर के खुलते ही मैं अस्पताल जाने लगा, मेरी दिनचर्या फिर से शुरू हो गई. एक दिन ताऊजी मिलने चले आए. उन्होंने ही बताया कि मेरी मां के दूसरे पति को दिल का दौरा पड़ा है. तीनों बच्चे अमेरिका में हैं और ऐसी हालत में वह अकेली है. वे सोचते हुए से बोले, ‘‘कुशल, तुम्हें अपने पिता से मिलना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, भला वह इंसान मेरा पिता कैसे हो सकता है जिस ने कभी मुझे मेरी मां से जोड़ने का प्रयास नहीं किया? फिर भी मैं उन से मिलने चला गया. मेरे पहुंचने पर वे बस, मेरा हाथ पकड़े लेटे रहे और फिर सब समाप्त हो गया. अमेरिका से उन के बच्चे भला इतनी जल्दी कैसे आ सकते थे? ताऊजी ने मेरे हाथों ही उन का दाहसंस्कार करवाया. जब मैं लौटने लगा तो ताऊजी ने ही टोक दिया, ‘‘कुछ दिन अपनी मां के पास रह ले, वह अकेली है.’’

मैं 7 दिनों से उस घर में था, पर एक बार भी मां ने मुझे पुकारा नहीं था. उस ने अपने विदेशी बच्चों का नाम लेले कर मृतपति का विलाप तो किया था, मगर मुझ से लिपट कर तो एक बार भी नहीं रोई थी. फिर ऐसी कौन सी डोर थी, जिसे ताऊजी अभी भी गांठ पर गांठ डाल कर जोड़़े रखने का प्रयास कर रहे थे? जब मैं बैग उठा कर चलने लगा, तब मां की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘कुशल से कह दीजिए, आशा से मिले तो बता दे कि उस का काम हो जाएगा. शारदा उस का अधिकार उसे देने को तैयार है.’’

तब जैसे पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गईर् थी. ताऊजी की तरफ प्रश्नसूचक भाव से देखा. पता चला, शारदा आशा की सास का नाम है और आशा अपनी ससुराल में अपना स्थान पाने के लिए अकसर मां को फोन करती है.

मैं वापस तो चला आया, परंतु पूरे रास्ते आशा के व्यवहार का अर्थ खोजता रहा. उस ने तो कभी नहीं बताया था कि वह मेरी मां को जानती है और अकसर उन से फोन पर बातचीत करती है.

शाम को मैं अस्पताल में ही था कि आशा चली आई. इतने दिनों बाद उसे देख खून में एक लहर सी उठी. उसे पास तो बिठा लिया, परंतु अविश्वास ने अपना फन न झुकाया.

चंद पलों के बाद वह बोली, ‘‘आप की मां अब अकेली रह गई हैं न. आप उन्हें भी साथ ही ले आते. उन के बच्चे भी तो उन के पास नहीं हैं. आप को उन का सहारा बनना चाहिए.’’

मैं हैरान रह गया और सोचने लगा कि कोई बताए मुझे, तब मुझे किस का सहारा था, जब मां ने 6 साल के बच्चे को ताऊजी की चौखट पर पटका था? क्या उस ने सोचा था कि अनाथ बच्चा कैसे पलेगा? सारे के सारे भाषण मेरे लिए ही क्यों भला? सहसा मुझे याद आया, आशा तो मेरी मां को जानती है. कहीं अपनी ससुराल में अपना अधिकार पाने के लिए मां की वकालत का जिम्मा तो नहीं ले लिया इस ने?

मेरे मन में शक और क्रोध का एक ज्वार सा उठा और आशा को वहीं बैठा छोड़ मैं बाहर निकल गया.

उसी रात मां का फोन आ गया. लेकिन ‘हूं…हां’ में ही बात हुई. मां ने मुझे बुलाया था.

सुबह ही त्रिचूर के लिए गाड़ी पकड़ ली. सोचा था मां की गोद में सिर छिपा कर ढेर सारा ममत्व पा लूंगा, मगर वहां तो उन्होंने एक बलिवेदी सजा रखी थी. ताऊजी भी वहीं थे. पता चला कि मां ने आशा की ननद को मेरे लिए चुन रखा है. उस की तसवीर भी उन्होंने मेरे सामने रख दी, ‘‘नीरा पसंद आएगी तुम्हें…’’

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‘‘नीरा कौन?’’ मैं अवाक रह गया.

‘‘आशा ने तुम्हें सब समझा कर नहीं भेजा? मैं ने उस से कहा था कि तुम्हें अच्छी तरह समझाबुझा कर भेजे. देखो कुशल, मेरी सारी जायदाद तुम्हारी है. मेरे बच्चों ने वापस आने से इनकार कर दिया है. सब तुम्हें दे दूंगी. बस, नीरा के लिए हां कर दो.’’

मैं हक्काबक्का रह गया. हताश नजरों से ताऊजी को देखा और सोचा कि मेरी मां और आशा दोनों ही सौदेबाज निकलीं. आशा को ससुराल में अपना अधिकार चाहिए और उस के लिए उस ने मुझे मेरी मां के हाथों बेच दिया.

शाम को कोचीन पहुंच कर अपना सारा गुस्सा आशा पर उतारा. वह मेरे उठे हुए हाथ को देख सन्न रह गई. उस के आंसू से भरे चेहरे पर कईर् भाव जागे थे. मानो कुछ कहना चाहती हो, मगर मैं रुका ही नहीं. मेरे लिए सब फिर समाप्त हो गया.

एक दिन सुबहसुबह ताऊजी आ पहुंचे. मेरी अस्तव्यस्त दशा पर वे भीग से गए, ‘‘मुन्ना, तुझे क्या हुआ है?’’

‘‘कुछ भी तो नहीं,’’ जी चाह रहा था, चीखचीख कर आसमान सिर पर उठा लूं.

तभी ताऊजी बोले, ‘‘आशा की सास ने उस का सामान भेजा है, उसे दे आना.’’ उन्होंने एक अटैची की तरफ इशारा किया.

मैं क्रोध से भर उठा कि यही वह सामान है, जिस के लिए आशा मुझे छलती रही. आक्रोश की पराकाष्ठा ही थी जो उठ कर अटैची खोल दी और उस का सारा सामान उलटपलट कर पैरों से रौंद डाला.

तभी एक झन्नाटेदार हाथ मेरे गाल पर पड़ा, ‘‘मुन्ना,’’ ताऊजी चीखे थे, ‘‘एक विधवा से शादी करना चाहते हो, क्या यही सम्मान करोगे उस के पूर्व पति का? अरे, जब तुम उस का सम्मान ही नहीं कर पाओगे तो उस के साथ न्याय क्या करोगे? अतीत की यादों से लिपटी किसी विधवा से शादी करने के लिए बहुत बड़ा कलेजा चाहिए. उस के पति का अपमान कर रहे हो और दावा करते हो कि उस से प्यार करते हो?’’

मेरे पैरों के नीचे शायद आशा के पति की चंद तसवीरें थीं. एक पुरुष के कुछ कपड़े इधरउधर बिखरे पड़े थे. ताऊजी की आंखें आग उगल रही थीं. ऐसा लगा, एक तूफान आ कर चला गया.

थोड़ी देर बाद खुद ही आशा का सामान सहेज कर मैं ने अटैची में रखा और तसवीरें इकट्ठी कर एक तरफ रखीं. फिर अपराधभाव लिए ताऊजी के पास बैठा.

वे गंभीर स्वर में बोले, ‘‘तुम आशा के लायक नहीं हो.’’

‘‘मैं ने सोचा था, उस ने मुझे छला है,’’ मैं धीरे से बोला.

‘‘क्या छला है, उस ने? तुम्हारी मां से यह जरा सामान मंगवाया, पर बदले में क्याक्या दिला दिया तुम्हें. क्या इसी विश्वास के बल पर उस का हाथ पकड़ोगे?’’

मैं चुपचाप रहा था.

‘‘देखो कुशल, आशा मेरी बेटी जैसी है. अगर 25 साल पहले मैं अपनी विधवा भाभी का पुनर्विवाह किसी योग्य पुरुष से करवा सकता था तो अब 25 साल बाद आशा को तुम्हारे जैसे खुदगर्ज से बचा भी सकता हूं. इतना दम है अभी इन बूढ़ी हड्डियों में.’’

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‘‘मैं खुदगर्ज नहीं,’’ बड़ी मुश्किल से मैं ने अपने होंठ खोले. फिर उसी पल आशा का सामान उसे देने गया.

वह मेरे हाथों में विजय का सामान देख कर हतप्रभ थी. अपने पति की तसवीरें देख कर वह हैरान रह गई.

मैं ने धीरे से कहा, ‘‘यह सामान तुम्हारे लिए अमूल्य था. मैं तुम्हारी भावनाओं का बहुत सम्मान करता हूं. पर कम से कम मुझे सच तो बतातीं. लेकिन मेरी मां से क्यों मांगा यह सब? सौदेबाजी क्यों की आशा? क्या मेरे बारे में एक बार भी नहीं सोचा?

‘‘तुम ने सोचा, वह औरत जमीन, जायदाद के लोभ से मुझे खरीद लेगी. लेकिन मैं तो पहले से ही तुम्हारे हाथों बेमोल बिक चुका था. क्या कोई बारबार बिक सकता है? फिर यह सामान मंगा कर तुम ने कोई चोरी तो नहीं की? तुम रिश्तों के प्रति ईमानदार हो, तभी तो मैं भी तुम से प्यार करता हूं.’’

आशा मुझे एकटक देख रही थी. मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे मैं रो पड़ा.

आशा ने अटैची खोल कर उस में से विजय के कपड़े निकाले. एकएक कपड़े के साथ उस की एकएक याद जुड़ी थी. फिर वह फफकफफक कर रो पड़ी.

मैं ने आशा को अपनी बांहों में ले लिया. फिर आंसू पोंछ उस का माथा चूम लिया. वह मेरी छाती में समाई बिलखने लगी.

‘‘बस आशा, अब मेरे साथ चलो, ताऊजी आए हुए हैं. आज सारी बात तय हो जाएगी,’’ कहते हुए मैं ने उस के माथे पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए.

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हृदय परिवर्तन: क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई?

Serial Story: हृदय परिवर्तन (भाग-1)

विनय का फोन आया. सहसा विश्वास नहीं हुआ. अरसा बीत गया था मुझे विनय से नाता तोड़े हुए. तोड़ने का कारण था विनय की आंखों पर पड़ी अहंकार की पट्टी. अहं ने उस के विवेक को नष्ट कर दिया था. तभी तो मेरा मन उस से जो एक बार तिक्त हुआ तो आज तक कायम रहा. न उस ने कभी मेरा हाल पूछा न ही मैं ने उस का पूछना चाहा. दोस्ती का मतलब यह नहीं कि उस के हर फैसले पर मैं अपनी सहमति की मुहर लगाता जाऊं. अगर मुझे कहीं कुछ गलत लगा तो उस का विरोध करने से नहीं चूका. भले ही किसी को बुरा लगे. परंतु विनय को इस कदर भी मुखर नहीं हो जाना चाहिए था कि मुझे अपने घर से चले जाने को कह दे. सचमुच उस रोज उस ने अपने घर से बड़े ही खराब ढंग से चले जाने के लिए मुझ से कहा. वर्षों की दोस्ती के बीच एक औरत आ कर उस पर इस कदर हावी हो गई कि मैं तुच्छ हो गया. मेरा मन व्यथित हो गया. उस रोज तय किया कि अब कभी विनय के पास नहीं आऊंगा. आज तक अपने निर्णय पर कायम रहा.

विनय और मैं एक ही महल्ले के थे. साथसाथ पढ़े, सुखदुख के साथी बने. विनय का पहला विवाह प्रेम विवाह था. उस की पत्नी शारदा को उस की मौसी ने गोद लिया था. देखने में वह सुंदर और सुशील थी. मौसी का खुद का बड़ा मकान था, जिस की वह अकेली वारिस थी. इस के अलावा मौसी के पास अच्छाखासा बैंक बैलेंस भी था जो उन्होंने शारदा के नाम कर रखा था. विनय के मांबाप को भी वह अच्छी लगी. भली लगने का एक बहुत बड़ा कारण था उस की लाखों की संपत्ति, जो अंतत: विनय को मिलने वाली थी. दोनों की शादी हो गई. शारदा बड़ी नेकखयाल की थी. हम दोनों की दोस्ती के बीच कभी वह बाधक नहीं बनी. मैं जब भी उस के घर जाता मेरी आवभगत में कोई कसर न छोड़ती. एक तरह से वह मुझ से अपने भाई समान व्यवहार करती. मैं ने भी उसे कभी शिकायत का मौका नहीं दिया और न ही मर्यादा की लक्ष्मणरेखा पार की.

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इसी बीच वह 2 बच्चों की मां बनी. विनय की सरकारी नौकरी ऐसी जगह थी जहां ऊपरी आमदनी की सीमा न थी. उस ने खूब रुपए कमाए. पर कहते हैं न कि बेईमानी की कमाई कभी नहीं फलती. जब उस का बड़ा लड़का अमन 10 साल का था तो उस समय शारदा को एक लाइलाज बीमारी ने घेर लिया. उस के भीतर का सारा खून सूख गया. विनय ने उस का कई साल इलाज करवाया. लाखों रुपए पानी की तरह बहाए. एक बार तो वह ठीक हो कर घर भी आ गई, मगर कुछ महीनों के बाद फिर बीमार पड़ गई. इस बार वह बचाई न जा सकी. मुझे उस के जाने का बेहद दुख था. उस से भी ज्यादा दुख उस के 2 बच्चों का असमय मां से वंचित हो जाने का था. पर कहते हैं न समय हर जख्म भर देता है. दोनों बच्चे संभल गए. विनय की एक तलाकशुदा बेऔलाद बहन राधिका ने उस के दोनों बच्चों को संभाल लिया. इस से विनय को काफी राहत मिली.

शारदा के गुजर जाने के बाद राधिका और दूसरे रिश्तेदार विनय पर दूसरी शादी का दबाव बनाने लगे. विनय तब 42 के करीब था. मैं ने भी उसे दूसरी शादी की राय दी. अभी उस के बच्चे छोटे थे. वह अपनी नौकरी देखे कि बच्चों की परवरिश करे. घर का अकेलापल अलग काट खाने को दौड़ता. विनय में थोड़ी हिचक थी कि पता नहीं सौतली मां उस के बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करे? मेरे समझाने पर उस की आंखों में गम के आंसू आ गए. निश्चय ही शारदा के लिए थे. भरे गले से बोला, ‘‘क्यों बीच रास्ते में छोड़ कर चली गई? मैं क्या मां की जगह ले सकता हूं? मेरे बच्चे मां के लिए रात में रोते हैं. रात में मैं उन्हें अपने पास ही सुलाता हूं. भरसक कोशिश करता हूं उस की कमी पूरी करूं. औफिस जाता हूं तो सोचता हूं कि जल्द घर पहुंच कर उन्हें कंपनी दूं. वे मां की कमी महसूस न करें.’’ सुन कर मैं भी गमगीन हो गया. क्षणांश भावुकता से उबरने के बाद मैं बोला, ‘‘जो हो गया सो हो गया. अब आगे की सोच.’’

‘‘क्या सोचूं? मेरा तो दिमाग ही काम नहीं करता. अमन 17 साल का है तो मोनिका 14 साल की. वे कब बड़े होंगे कब उन के जेहन से मां का अक्स उतरेगा, सोचसोच कर मेरा दिल भर आता है.’’ ‘‘देखो, मां की कसक तो हमें भी रहेगी. हां, दूसरी पत्नी आएगी तो हो सकता है इन्हें कुछ राहत मिले.’’ ‘‘हो सकता है लेकिन गारंटेड तो नहीं. कहीं मेरा विवाह का फैसला गलत साबित हो गया तो मैं खुद को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा. बच्चों की नजरों में अपराधी बनूंगा वह अलग.’’

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विनय की शंका निराधार नहीं थी. पर शंका के आधार पर आगे बढ़ने के लिए अपने कदम रोकना भी तो उचित नहीं. भविष्य में क्या होगा क्या नहीं, कौन जानता है? हो सकता है कि विनय ही बदल जाए? बहरहाल, कुछ रिश्ते आए तो राधिका ने इनकार कर दिया. कहने लगी कि सुंदर लड़की चाहिए. बड़ी बहन होने के नाते विनय ने शादी की जिम्मेदारी उसी को सौंप दी थी. लेकिन इस बात को जिस ने भी सुना उसे बुरा लगा. अब इस उम्र में भी सुंदर लड़की चाहिए. विनय के जेहन से धीरेधीरे शारदा की तसवीर उतरने लगी थी. अब उस के तसव्वुर में एक सुंदर महिला की तसवीर थी. ऐसा होने के पीछे राधिका व कुछ और शुभचिंतकों का शादी का वह प्रस्ताव था जिस में उसे यह आश्वासन दिया गया था कि उन की जानकारी में एक विधवा गोरीचिट्टी, खूबसूरत व 1 बच्ची की मां है. अगर वह तैयार हो तो शादी की बात छेड़ी जाए. भला विनय को क्या ऐतराज हो सकता था? अमूमन पुरुष का विवेक यहीं दफन हो जाता है. फिर विनय तो एक साधारण सा प्राणी था. उस विधवा स्त्री का नाम सुनंदा था. सुनने में आया कि उस का पति किसी निजी संस्थान में सेल्स अधिकारी था और दुर्घटना में मारा गया था.

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Serial Story: हृदय परिवर्तन (भाग-3)

दूसरा भाग पढ़ने के लिए- हृदय परिवर्तन- विनय के सुनंदा से शादी के फैसले पर बच्चों ने कैसी थी

सुन कर सुनंदा आगबबूला हो गई, ‘‘तुम्हारे जैसा बेशर्म नहीं देखा. शादी के समय तुम्हीं ने कहा था कि मैं इस को पिता का नाम दूंगा. अब क्या हुआ, आ गए न अपनी औकात पर. मैं तुम्हें छोड़ने वाली नहीं.’’ ‘‘हां, आ गया अपनी औकात पर,’’ विनय भी ढिठाई पर उतर आया, ‘‘मेरे पास इस के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है. भेज दो इसे इस के पिता के पास. वही इस की शादी करेगा. मैं इस का बाप नहीं हूं.’’ सुन कर सुंनदा आंसू बहाने लगी. फिर सुबकते हुए बोली, ‘‘क्या यह भी तुम्हारा तुम्हारा बेटा नहीं है? क्या इस से भी इनकार करोगे?’’ सुनंदा ने अपने बेटे की तरफ इशारा किया. उसे देखते ही विनय का क्रोध पिघल गया. सुनंदा की चाल कामयाब हुई. आखिरकार अमन की ही शर्तों पर मकान बिका. मोनिका रुपए लेने में संकोच कर रही थी. अमन ने जोर दिया तो रख लिए. उस रोज के बाद विनय का मन हमेशा के लिए अमन से फट गया.  रिटायर होने के बाद विनय अकेला पड़ गया. सुनंदा का बेटा अभी 15 साल का था. उस का ज्यादातर लगाव अपनी मां से था. सुनंदा की बेटी भी मां से ही बातचीत करती. वह सिर्फ उन दोनों का नाम का ही पिता था. ऐसे समय विनय को आत्ममंथन का अवसर मिला तो पाया कि उस ने अमन और मोनिका के साथ किए गए वादे ठीक से नहीं निभाए. उसे तालमेल बैठा कर चलना चाहिए था. अपनी गलती सुधारने के मकसद से विनय ने मुझे याद किया. मैं ने उस से कोई वादा तो नहीं किया, हां विश्वास जरूर दिलाया कि अमन को उस से मिलवाने का भरसक कोशिश करूंगा. इसी बीच विनय को हार्टअटैक का दौरा पड़ा. मुझे खबर लगी तो मैं भागते हुए अस्पताल पहुंचा. सुनंदा नाकभौं सिकोड़ते हुए बोली, ‘‘इस संकट की घड़ी में कोई साथ नहीं है. बड़ी मुश्किल से महल्ले वालों ने विनय को  पहुंचाया.’’

मैं ने मन ही मन सोचा कि आदमी जो बोता है वही काटता है. चाहे विनय हो या सुनंदा दोनों की आंख पर स्वार्थ की पट्टी पड़ी रही. विनय कुछ संभला तो अमन को ले कर भावुक हो गया. मोनिका विनय को देखने आई, मगर अमन ने जान कर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई. रात को मैं ने अमन को फोन किया. विनय की इच्छा दुहराई तो कहने लगा,‘‘अंकल, कोई भी संतान नहीं चाहेगी कि उस की मां की जगह कोई दूसरी औरत ले. इस के बावजूद अगर पापा ने शादी की तो इस आश्वासन के साथ कि हमारे साथ नाइंसाफी नहीं होगी. बल्कि नई मां आएगी तो वह हमारा बेहतर खयाल रखेगी. हमें भी लगा कि पापा नौकरी करें कि हमें संभालें. लिहाजा इस रिश्ते को हम ने खुशीखुशी स्वीकार कर लिया. हमें सुनंदा मां से कोई शिकायत नहीं. शिकायत है अपने पापा से जिन्होंने हमें अकेला छोड़ दिया और सुनंदा मां के हो कर रह गए. मोनिका की शादी जैसेतैसे की, वहीं सुनंदा मां की बेटी के लिए पुश्तैनी मकान तक बेच डाला. मुझे संपत्ति का जरा सा भी लोभ नहीं है. मैं तो इसी बहाने पापा की नीयत को और भी अच्छी तरह जानसमझ लेना चाहता था कि वे सुनंदा मां के लिए कहां तक जा सकते हैं. देखा जाए तो उस संपत्ति पर सिर्फ मेरा हक है. पापा ने सुनंदा मां के लिए फ्लैट खरीदा. अपनी सारी तनख्वाह उन्हें दी. तनख्वाह ही क्यों पी.एफ., बीमा और पैंशन सभी के सुख वे भोग रही हैं. बदले में हमें क्या मिला?’’

‘‘क्या तुम्हें रुपयों की जरूरत है?’’

‘‘हमें सिर्फ पापा से भावनात्मक लगाव की जरूरत थी, जो उन्होंने नहीं दिया. वे मां की कमी तो पूरी नहीं कर सकते थे, मगर रात एक बार हमारे कमरे में आ कर हमें प्यार से दुलार तो सकते थे. इतना ही संबल हमारे लिए काफी था,’’ कहतेकहते अमन भावुक हो गया. ‘‘उन्हें अपने किए पर अफसोस है.’’ ‘‘वह तो होगा ही. उम्र के इस पड़ाव पर जब सुनंदा मां ने भी उपेक्षात्मक रुख अपनाया होगा तो जाहिर है हमें याद करेंगे ही.’’ ‘‘तुम भी क्या उसी लहजे में जवाब देना चाहते हो? उस ने प्रतिशोध लेना चाहते हो?’’

‘‘मैं क्या लूंगा, वे अपनी करनी का फल भुगत रहे हैं.’’

‘जो भी हो वे तुम्हारे पिता हैं. उन्होंने जो किया उस का दंड भुगत रहे हैं. तुम तो अपने फर्ज से विमुख न होओ, वे तुम से कुछ मांग नहीं रहे हैं. वे तो जिंदगी की सांध्यबेला में सिर्फ अपने किए पर शर्मिंदा हैं. चाहते हैं कि एक बार तुम बनारस आ जाओ ताकि तुम से माफी मांग कर अपने दिल पर पड़े नाइंसाफी के बोझ को हलका का सकें. मेरे कथन का उस पर असर पड़ा. 2 दिन बाद वह बनारस आया. हम दोनों विनय के पास गए, सुनंदा ने देखा तो मुंह बना लिया. विनय अमन को देख कर भावविह्वल हो गया. भर्राए गले से बोला, ‘‘तेरी मां से किया वादा मैं नहीं निभा पाया. हो सके तो मुझे माफ कर देना,’’ फिर थोड़ी देर में भावुकता से जब वह उबरा तो आगे बोला, ‘‘मां की कमी पूरी करने के लिए मैं ने सुनंदा से शादी की, मगर मैं उस पर इस कदर लट्टू हो गया कि तुम लोगों के प्रति अपने दायित्वों को भूल गया. मुझे सिर्फ अपने निजी स्वार्थ ही याद रहे.’’

‘‘सुनंदा मां को सोचना चाहिए था कि आप ने शादी कर के उन्हें सहारा दिया. बदले में उन्होंने हमें क्या दिया? आदमी को इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए,’’ अमन बोला. सुनंदा बीच में बोलना चाहती थी पर विनय ने रोक दिया. मुझे लगा यही वक्त है वर्षों बाद मन की भड़ास निकालने का सो किचिंत रोष में बोला, ‘‘भाभी, जरूरत इस बात की थी कि आप सब मिल कर एक अच्छी मिसाल बनते. न अमन आप की बेटी में फर्क करता न ही आप की बेटी अमन में. दोनों ऐसे व्यवहार करते मानों सगे भाईबहन हों. मगर हुआ इस का उलटा. आप ने आते ही अपनेपराए में भेद करना शुरू कर दिया. विनय की कमजोरियों का फायदा उठाने लगीं. जरा सोचिए, अगर विनय आप से शादी नहीं करता तब आप का क्या होता? क्या आप विधवा होने के सामाजिक कलंक के साथ जीना पसंद करतीं? साथ में असुरक्षा की भावना होती सो अलग.’’

विधवा कहने पर मुझे अफसोस हुआ. बाद में मैं ने माफी मांगी. फिर मैं आगे बोला,‘‘कौन आदमी दूसरे के जन्मे बच्चे की जिम्मेदारी उठाना चाहता है? विधुर हो या तलाकशुदा पुरुष हमेशा बेऔलाद महिला को ही प्राथमिकता देता है. इस के बावजूद विनय ने न केवल आप की बेटी को ही अपना नाम दिया, बल्कि उस की शादी के लिए अपना पुश्तैनी मकान तक बेच डाला.’’ अपनी बात कह कर हम दोनों अपनेअपने घर लौट आए, एक रोज खबर मिली कि सुनंदा और विनय दोनों दिल्ली अमन से मिलने जा रहे हैं. निश्चय ही अपनी गलती सुधारने जा रहे थे. मुझे खुशी हुई. देर से सही सुनंदा भाभी का हृदयपरिवर्तन तो हुआ.

पहला भाग पढ़ने के लिए- हृदय परिवर्तन भाग-1

Serial Story: हृदय परिवर्तन (भाग-2)

पहला भाग पढ़ने के लिए- हृदय परिवर्तन भाग-1

राधिका को इस रिश्ते में कोई खामी नजर नहीं आई. वजह सुनंदा का खूबसूरत होना था. रही 8 वर्षीय बच्ची की मां होने की बात, तो थोड़ी हिचक के साथ विनय ने इसे भी स्वीकार कर लिया. सुनंदा वास्तव में खूबसूरत थी. मगर पता नहीं क्यों मैं इस रिश्ते से खुश नहीं था. मेरा मानना था कि विनय को एक घर संभालने वाली साधारण महिला से शादी करनी चाहिए थी. मजबूरी न होती तो शायद ही सुनंदा इस रिश्ते के लिए तैयार होती क्योंकि दोनों के व्यक्तित्व में जमीनआसमान का अंतर था. जुगाड़ से क्लर्की की नौकरी पाने वाला विनय कहीं से भी सुनंदा के लायक नहीं था. मुझे सुनंदा पर तरस भी आया कि काश उस का पति असमय न चल बसा होता तो उस का एक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन होता.  विनय मेरा दोस्त था. पर जब मैं मानवता की दृष्टि से देखता था तो लगता था कि कुदरत ने सुनंदा के साथ बहुत नाइंसाफी की. उस की बेटी भी निहायत स्मार्ट व सुंदर थी, जबकि विनय की पहली पत्नी से पैदा दोनों संतानों में वह आकर्षण न था. अकेली स्त्री के लिए जीवन काटना आसान नहीं होता सो सुनंदा के मांबाप ने सामाजिक सुरक्षा के लिए सुनंदा को विनय के साथ बांधना मुनासिब समझा.

सुनंदा ने अतीत को भुला दिया और विनय को अपनाने में ही भलाई समझी. विनय उस के रूपरंग का इस कदर दीवाना हो गया कि न तो उसे बच्चों की सुध रही न ही रिश्तदारों की. सब से कन्नी काट ली. और तो और सुनंदा के रूपसौंदर्य को ले कर इस कदर शंकित हो गया कि उसे छोड़ कर औफिस जाने में भी गुरेज करता. मैं अब उस के घर कम ही जाता. मुझे लगता विनय को मेरी मौजूदगी मुनासिब नहीं लगती. वह हर वक्त सुनंदा के पीछे साए की तरह रहता. उस के रंगरूप को निहारता. सुनंदा अपने पति की इस कमजोरी को भांप  गई. फिर क्या था अपने फैसले उस पर थोपने लगी. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से सब से ज्यादा परेशान अमन और मोनिका थे. वे दोनों एकदम से अलगथलग पड़ गए. विनय कहीं से आता तो सीधे सुनंदा के कमरे में जा कर उसे आलिंगनबद्ध कर लेता. बच्चों का हालचाल लेना महज औपचारिकता होती.

सुनंदा के रिश्ते में शादी थी. विनय व सुनंदा अपनी बेटी के साथ वहां जा रहे थे. अमन भी जाना चाहता था. उस ने दबी जबान से जाने की इच्छा जाहिर की तो विनय ने उसे डांट दिया, ‘‘जा कर पढ़ाई करो. कहीं जाने की जरूरत नहीं.’’ अमन उलटे पांव अपने कमरे में आ कर अपनी मां की तसवीर के सामने सुबकने लगा. तभी राधिका आ गई. उस को समझाबुझा कर शांत किया. विनय वही करता जो सुनंदा कहती. विनय का सारा ध्यान सुनंदा की बेटी शुभी पर रहता. बहाना यह था कि वह बिन बाप की बेटी है. विनय सुनंदा के रंगरूप पर इस कदर फिदा था कि उसे अपने खून से उपजे बच्चों का भी खयाल नहीं था. अमन किधर जा रहा है, क्या कर रहा है, उस की कोई सुध नहीं लेता. बस बच्चों के स्कूल की फीस भर देता, उन की जरूरत का सामान ला देता. इस से ज्यादा कुछ नहीं. अमन समझदार था. पढ़ाईलिखाई में अपना वक्त लगाता. थोड़ाबहुत भावनात्मक सहारा उसे अपनी बूआ राधिका से मिल जाता, जो विनय की उपेक्षा से उपजी कमी को पूरा कर देता.

अब विनय अपने पुश्तैनी मकान को छोड़ कर शारदा के मकान में रहने लगा. यह वही मकान था जिसे शारदा की मां अपने मरने के बाद अपने नाती अमन के नाम कर गई थीं. पुश्तैनी मकान में संयुक्त परिवार था, जहां उस की निजता भंग होती. भाईभतीजे उस के व्यवहार में आए परिवर्तन का मजाक उड़ाते. अब जब वह अकेले रहने लगा तो सुनंदा के प्रति कुछ ज्यादा ही स्वच्छंद हो गया. राधिका कभीकभार बच्चों का हालचाल लेने आ जाती. मुझे अमन से विनय का हालचाल मिलता रहता. विनय के व्यवहार में आए इस परिवर्तन से मैं भी आहत था. सोचता उसे राह दिखाऊं मगर डर लगता कहीं अपमानित न होना पड़े. अमन से पता चला कि सुनंदा मां बनने वाली है तो विश्वास नहीं हुआ. 2 बच्चे पहली पत्नी से तो वहीं सुनंदा से एक 8 वर्षीय बेटी. और पैदा करने की क्या जरूरत थी? अमन इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने चला गया. मोनिका बी.ए. में थी. वह खुद 45 की लपेट में था. ऐसे में बाप बनने की क्या तुक? यहीं से मेरा मन उस से तिक्त हो गया. मुझे दोनों घोर स्वार्थी लगे. मैं ने राधिका से पूछा. पहले तो उस ने आनाकानी की, बाद में हकीकत बयां कर दी. कहने लगी कि इस में मैं क्या कर सकती हूं. यह उन दोनों का निजी मामला है. उस ने पल्लू झाड़ लिया, जो अच्छा न लगा. कम से कम विनय को समझा तो सकती थी. दूसरी शादी करते वक्त मैं ने उसे आगाह किया था कि यह शादी तुम दोनों सिर्फ एकदूसरे का सहारा बनने के लिए कर रहे हो. तुम्हें अकेलेपन का साथी चाहिए, वहीं सुनंदा को एक पुरुष की सुरक्षा. जहां तुम्हारे बच्चों की देखभाल करने के लिए एक मां मिल जाएगी, वहीं सुनंदा की बेटी को एक बाप का साया. विनय मुझ से सहमत था. मगर अचानक दोनों में क्या सहमति बनी कि सुनंदा ने मां बनने की सोची?

सुनंदा ने एक लड़के को जन्म दिया. वह बहुत खुश थी. विनय की खुशी भी देखने लायक थी मानों पहली बार पिता बन रहा हो. राधिका को सोने की अंगूठी दी. वह बेहद खुश थी. कुछ दिनों के बाद एक होटल में पार्टी रखी गई. मैं भी आमंत्रित था. रिश्तेदार पीठ पीछे विनय की खिल्ली उड़ा रहे थे मगर वह इस सब से बेखबर था. सुनंदा से चिपक कर बैठा अपने नवजात शिशु को खेला रहा था. अमन और मोनिका उदास थे. उदासी का कारण था उन की तरफ से विनय की बेरुखी. रुपयापैसा दे कर बच्चों को बहलाया जा सकता है, मगर उन का दिल नहीं जीता जा सकता. अमन और मोनिका को सिर्फ मांबाप का प्यार चाहिए था. मां नहीं रहीं, मगर पिता तो अपने बच्चों को भावनात्मक संबल दे सकता था. मगर इस के उलट पिता अपनी नई पत्नी के साथ रासरंग में डूबा था. जबकि दूसरी शादी करने के पहले उस ने अमन व मोनिका को विश्वास में लिया था. अब उन्हीं के साथ धोखा कर रहा था. पूछने पर कहता कि मैं ने दोनों की परवरिश में कया कोई कमी रख छोड़ी है? उन्हें अच्छे स्कूल में पढ़ाया और अब क्व10 लाख दे कर अमन को इंजीनियरिंग करवा रहा हूं.

अब विनय से कौन तर्क करे. जिस का जितना बौद्धिक स्तर होगा वह उतना ही सोचेगा. राधिका भी दोनों बच्चों की तरफ से स्वार्थी हो गई थी. परित्यक्त राधिका को विनय से हर संभव मदद मिलती रहती सो वह अमन और मोनिका में ही ऐब ढूंढ़ती.मेरे जेहन में एक बात रहरह कर शूल की तरह चुभती कि आखिर सुनंदा ने एक बेटे की मां बनने की क्यों सोची? अमन मौका देख कर मेरे पास आया और व्यथित मन से बोला, ‘‘क्या आप को यह सब देख कर अच्छा लग रहा है? यह मेरे साथ मजाक न हीं कि इस उम्र में मेरे पिता बाप बने हैं.’’ गुस्सा तो मुझे भी आ रहा था. मैं ने उस के मुंह पर विनय पर कोई टीकाटिप्पणी करने से बचने की कोशिश की पर ऐसे समय मुझे शारदा की याद आ रही थी. वह बेचारी अगर यह सब देख रही होती तो क्या बीतती उस पर. किस तरह से उस के बच्चों को बड़ी बेरहमी के साथ उस का ही बाप हाशिये पर धकेल रहा था. कैसे पुरुष के लिए प्यारमुहब्बत महज एक दिखावा होता है. शारदा से उस ने प्रेम विवाह किया था. कैसे इतनी जल्दी उसे भुला कर सुनंदा का हो गया. तभी 2 बुजुर्ग दंपती मेरे पास आ कर खड़े हो गए. उन की बातचीत से जाहिर हो रहा था कि सुनंदा के मांबाप हैं. बहुत खुश सुनंदा की मां अपने पति से बोली, ‘‘अब सुनंदा का परिवार संपूर्ण हो गया. 1 लड़का 1 लड़की.’’

तो इसका मतलब विनय के परिवार से अमन और मोनिका हटा दिए गए, मेरे मन में यह विचार आया. घर आ कर मैं ने गहराई से चिंतनमनन किया तो पाया कि सुनंदा द्वारा एक बेटे की मां बनना विनय के साथ रिश्तों को प्रगाढ़ बनाने का जरीया था. ऐसे तो विनय की 2 संतानें और सुनंदा की 1. लेकिन आज तो विनय उस के रूपजाल में फंसा हुआ है, कल जब उस का अक्स उतर जाएगा तब वह क्या करेगी? हो सकता है वह अपने दोनों बच्चों की तरफ लौट जाए तब तो वह अकेली रह जाएगी. यही सब सोच कर सुनंदा ने एक पुत्र की मां बनने की सोची ताकि पुत्र के चलते विनय खून के रिश्ते से बंध जाए. साथ ही पुत्र के बहाने धनसंपत्ति में हिस्सा भी मिलेगा वरना अमन और मोनिका ही सब ले जाएंगे, उस के हिस्से में कुछ नहीं आएगा. औसत बुद्धि का विनय सुनंदा की चाल में आसानी से फंस गया यह सोच कर मुझे उस की अक्ल पर तरस आया.

अमन ने बी.टैक कर के अपने पसंद  की लड़की से शादी कर ली, जान कर विनय ने उस से बात करना छोड़ दिया. वहीं अमन का कहना था, ‘‘जब उन्हें हमारी परवाह नहीं तो हम क्यों उन की परवाह करें. क्या दूसरी शादी उन्होंने हम से पूछ कर की थी? कौन संतान चाहेगी कि उस के हिस्से का प्रेम कोई और बांटे?’’ ‘‘ऐसा नहीं कहते. उन्होंने तुम्हें पढ़ायालिखाया,’’ मैं बोला. ‘‘पढ़ाना तो उन्हें था ही. पढ़ा कर उन्होंने हमारे ऊपर कौन सा एहसान किया है? नानी हमारे नाम काफी रुपयापैसा छोड़ गई थीं. आज भी पापा जिस मकान में रहते हैं वह मेरी नानी का है और मेरे नाम है.’’ ‘आज के लड़के काफी समझदार हो गए हैं. उन्हें बरगलाया नहीं जा सकता,’ यही सोच कर मैं ने ज्यादा तूल नहीं दिया. मोनिका की शादी कर के विनय पूरी तरह सुनंदा का हो कर रह गया. न कभी अमन के बारे में हाल पूछता न ही मोनिका का. समय बीतता रहा. विनय ने सुनंदा के लिए एक फ्लैट खरीदा. फिर वहीं जा कर रहने लगा. अमन को पता चला तो बनारस आया और अपने मकान की चाबी ले कर दिल्ली लौट गया. विनय ने उसे काफी भलाबुरा कहा. खिसिया कर यह भी कहा कि पुश्तैनी मकान में उसे फूटी कौड़ी भी नहीं दूंगा. अमन ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि वह जानता था कि यह उतना आसान नहीं जितना पापा सोचते हैं.

सुनंदा की लड़की भी शादी योग्य हो गई थी. सुनंदा उस की शादी किसी अधिकारी लड़के से करना चाहती थी, जबकि विनय उतना दहेज दे पाने में समर्थ नहीं था. बस यहीं से दोनों में मनमुटाव शुरू हो गया. सुनंदा उसे आए दिन ताने मारने लगी. कहती, ‘‘अमन को पढ़ाने के लिए 10 लाख खर्च कर दिए वहीं मेरी बेटी की शादी के लिए रुपए नहीं हैं?’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है. फ्लैट खरीदने के बाद मेरे पास 10 लाख ही बचे हैं. 35 लाख कहां से लाऊं?’’

‘‘अमन से मांगो,’’ सुनंदा बोली.

‘‘बेमलतब की बात न करो. मैं ने तुम्हारे लिए उस से अपना रिश्ता हमेशा के लिए खत्म कर लिया है.’’

‘‘मेरे लिए?’’ सुनंदा ने त्योरियां चढ़ाईं, ‘‘यह क्यों नहीं कहते दो पैसे आने लगे तो तुम्हारे बेटे के पर निकल आए?’’

‘‘कुछ भी कह लो. मैं उस से फूटी कौड़ी भी मांगने वाला नहीं.’’

‘‘ठीक है न मांगो. पुश्तैनी मकान बेच दो.’’

‘‘विनय को सुनंदा की यह मांग जायज लगी. वैसे भी संयुक्त परिवार के उस मकान में अब रहने को रह नहीं गया था. अमन को भनक लगी तो भागाभागा आया.’’ ‘‘मकान बिकेगा तो सब को बराबरबराबर हिस्सा मिलेगा,’’ अमन विनय से बोला.

‘‘सब का मतलब?’’

‘‘मोनिका को भी हिस्सा मिलेगा.’’

‘‘मोनिका की शादी में मैं ने जो रुपए खर्च किए उस में सब बराबर हो गया.’’ ‘‘आप को कहते शर्म नहीं आती पापा? मोनिका क्या आप की बेटी नहीं थी, जो उस की शादी का हिसाब बता रहे हैं?’’‘‘तुम दोनों के पास मकान है.’’ ‘‘वह मकान मेरी नानी का दिया है. यह मकान मेरे दादा का है. कानूनन इस पर मेरा हक भी है. बिकेगा तो मेरे सामने. हिसाब होगा तो मेरे सामने,’’ अमन का हठ देख कर सामने तो सुनंदा कुछ नहीं बोली, मगर जब विनय को अकेले में पाया तो खूब लताड़ा, ‘‘बहुत पुत्रमोह था. मिल गया उस का इनाम. मेरे बेटेबेटी के मुंह का निवाला छीन कर उसे पढ़ायालिखाया, बड़ा आदमी बनाया. अब वही आंखें दिखा रहा है.’’ ‘‘मैं ने किसी का निवाला नहीं छीना. वह भी मेरा ही खून है.’’

‘‘खून का अच्छा फर्ज निभाया,’’ सुनंदा ने तंज कसा.

‘‘बेटी तुम्हारी है मेरी नहीं,’’ विनय की सब्र का बांध टूट गया.

आगे पढ़िए- क्या सुनंदा अपने सौतेले बच्चों को मां जैसा प्यार दे पाई…

 

Short Story: जब मेरे पति को कोरोना वायरस इंफेक्शन हुआ

भारत में अब तक कोरोना घरघर नहीं फैला है, पर जिन देशों में फैल चुका है, वहां से पता चलता है कि यदि घर के एक जने को हो जाए तो बाकी के लिए उसे घर में झेलना एक चुनौती होता है.

न्यूयार्क के क्वींस इलाके में रहने वाली जैशन इस समस्या को हर पल महसूस कर रही है. उस का 56 साल का पति कई दिन पुराने कपड़ों में कई दिनों से बदली नहीं गई चादर पर सिमटा दोमंजिला मकान की ऊपरी मंजिल पर अकेला पड़ा है…

जैशन… यानी कि मैं अपनी बैठक में ही फोम का गद्दा डाल कर सो रही हूं ताकि अपने पति पर नजर रख सकूं. वह मदद के लिए बुदबुदा रहा है…उस की आवाज कर्कश है… ऊनी शर्ट और ऊपर से स्वेटर पहने होने के बावजूद वह कंपकंपा रहा है.

मैं उसे जगाना नहीं चाहती थी, लेकिन उस के बाथरूम में दवा रखना भूल गई थी मैं…
जिस बोतल से उस की डिश में कैप्सूल डालती हूं, उसे यहां नहीं छोड़ सकती. इसे दूसरे बाथरूम में बिल्कुल अलग रखना है.

‘‘कुछ और चाहिए?’’ मैं उस से पूछती हूं… जो भी उस का छुआ हुआ है, उसे बड़ी सावधानी से किचन तक ले जाती हूं, जहां मेरी 16 साल की बेटी एम्मा खड़ी है.

मैं तब तक बाहर ही खड़ी रहती हूं, जब तक कि वह डिशवाशर नहीं खोल देती… और रेक्स को खींच नहीं देती, ताकि मुझे कुछ भी छूना न पड़े और वह फिर से उन्हें बंद कर दे…
वह मेरे लिए नल खोल देती है और मैं डिस्पोजेबल साबुन को अपनी कोहनी से अपनी ओर खींच कर हाथ धोती हूं.

मेरा पति जेम्स अच्छी कदकाठी का है. वह अकसर ही हमारे ब्रोकलिन एरिया से क्वींस में जमैका घाटी तक 5 घंटे की बाइक चला कर आताजाता रहता है…

आज वह छत को घूरते हुए पीठ के बल लेटा है… कभी करवट बदल लेता है. कई दिनों से वह एक ही पाजामा पहने हुए है… देर तक उस के पास रुक कर कपड़े बदलना एक बहुत ही कठिन काम है… कंबल और चादर की वह अपने नीचे गठरी सी बना लेता है. बाहर बहुत ही ठंड है…

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यह 12 मार्च… यानी 12 दिन पहले की बात है, जब जेम्स सो कर उठा तो उसे बहुत जोर की ठंड लगी.
अगले दिन जब अमेरिका में कोरोना वायरस की खबरें फैल रही थीं… उसे लगा कि वह कुछ अच्छा महसूस कर रहा है, तभी उसे फिर से ठंड लगने लगी… उसे 100 डिगरी बुखार था.

तभी से जेम्स को हमारे बैडरूम तक सीमित कर दिया गया. यहां वह अपार्टमेंट के सामने चैराहे पर निरंतर आते ट्रकों की आवाजों की शिकायत करता है. कुछ ब्लौक्स (रिहायशी क्षेत्र) दूर पश्चिम में स्थित न्यूयार्क बंदरगाह से आने वाली धमाकेदार आवाजों से भी वह परेशान रहता है.बैडरूम का दरवाजा कस कर बंद रखा जाता है, क्योंकि हर समय भीतर जाने की कोशिश करते रहने वाली बिल्ली को फिर रात में बाहर कौन लाएगा…

बीमारी के लक्षण दिखने के 2 दिन बाद जेम्स को हमें सौंपते हुए क्लिनिक से हमें हिदायत देते हुए कहा गया, ‘‘क्या करोगे अगर तुम कोरोना की चपेट में आ गए? निर्देशों को पढ़ो और अपनेआप को घर के अन्य लोगों और जानवरों से अलग कर लो…’’ उस के बाद उसे 101.5 डिगरी बुखार आया और फ्लू का उस का टेस्ट नेगेटिव आया.

कुछ महीने पहले उसे गंभीर अस्थमा का अटैक आया था और उसे एडमिट कराना पड़ा था. इसी वजह से उस का कोरोना वायरस की फैल रही महामारी कोविड 19 का टेस्ट कराया गया. उस के एक दिन बाद ही टेस्ट किट की कमी हो गई थी, साथ ही सख्ती भी और बढ़ा दी गई थी…

तब से हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो बस जेम्स के चारों ओर घूमती है. डाक्टर से मिल कर हम ने तय किया कि यदि उस की हालत और खराब हो जाती है, तो कौन सा रूम उसे देना चाहिए… बहुत सारे काम थे… उस की दवाएं, जो बारबार स्टाक से बाहर हो जाती थीं… उन्हें वैबसाइट पर ढूंढ़ना… हमारे पास वे सामान भी नहीं थे, जो बहुत बुखार या बहुत पसीना आने पर चाहिए होते हैं.

हम एक उस दुनिया में थे, जहां समाचारों में बस ‘टेस्टिंग, क्वारंटीन, दवाओं की कमी और महामारी के फैलाव की कहानियां थीं और डर भरी रातें तो अभी आने को थीं.

ऐसे में जेम्स के दोस्तों ने दवाएं और वाइन ला कर दे कर मेरी बड़ी मदद की… एक दोस्त पैरासिटामोल छोड़ गया था और एक दूसरा दोस्त पास की ही फार्मेसी से वाइन की बोतल छोड़ गया, जो आगे आने वाली डरावनी रातों में मेरे बड़े काम आई…

3 दिन बाद उस के डाक्टर ने बताया कि टेस्ट पौजिटिव आया है. उस समय जेम्स करवट से लेट कर न्यूयार्क स्टेट में कन्फर्म हुए केसों के बारे में एक लेख पढ़ रहा था. वह उसी वायरस की कहानियां पढ़ रहा था, जिस ने इस समय स्वयं उसी पर हमला कर दिया था. वह लोगों को अस्पताल में भरती करने, उन्हें सांस लेने के लिए वेंटिलेटर पर रखने और उन की मृत्यु की कहानियां पढ़ रहा था.

जिस दिन जेम्स ने पहली बार खुद को बीमार महसूस किया था, उसी दिन मैं ने और एम्मा ने एचबीओ टीवी पर चेरनेबिल सीरीज देखना शुरू किया था. यह सीरीज 1986 में रूस में हुई परमाणु दुर्घटना से संबंधित थी. 3 एपिसोड देखने के बाद ही हम ने उसे देखना बंद कर दिया.

अब वह समय पीछे छूट गया है, जब हम साथ बैठ कर कुछ देखते थे. अब तो बस भागदौड़ रह गई है… उस ने एकाध कटोरी सूप पी लिया है या नहीं, वह सूंघने में असमर्थ है, क्योंकि उस की नाक चोक हो गई है.

अब मेरा सारा समय… उस का बौडी टेंपरेचर लेने, औक्सीटोमीटर से औक्सीजन का स्तर मापने इत्यादि में गुजरता है. एक दोस्त ने डाक्टर की सलाह पर खून में औक्सीजन का स्तर मापने के लिए मौनिटर ला दिया था, जो मेरे बहुत काम आया…
जेम्स को दवा देना, चाय देना, डाक्टर को उस की गिरती हालत के बारे में मैसेज करना… और बारबार हाथ धोना… और जब वह अपने बिस्तर में खांस रहा और पैरों को रगड़ रहा होता तो उस से कुछ दूर खड़े हो कर उसे देखना…
‘‘तुम यहां मत खड़ी हो… मौत मुझे बुला रही है,’’ वह कहता.
‘‘जी.’’
फिर जैसेजैसे रात गहराती जाती, वह डरने लगता.
‘‘बुखार, पसीना, सिरदर्द, बदन दर्द और रात का लंबा समय उसे घबरा देता. यह एक पत्थर कूटने वाली मशीन की तरह मुझे कूट कर रख देता है,’’ वह कहता.
एम्मा का हाईस्कूल 13 मार्च से बंद हो गया था और न्यूयार्क के अन्य स्कूलों की तरह औनलाइन पढ़ाई शुरू हो गई थी. एम्मा और क्लास के अन्य बच्चों को शिक्षकों ने कड़े निर्देश दिए थे.
‘‘यह छुट्टियां नहीं रेगुलर स्कूल है,’’ उन से कहा गया था. मैं ने प्रिंसिपल और स्कूल को एक मेल लिखा और बताया कि घर में एम्मा किन हालात से गुजर रही है.’’
पूरे समय कभी मैं डाक्टर को मैसेज लिखती, कभी जेम्स के भाईबहनों को…अपने मातापिता, भाई, जेम्स के बिजनेस पार्टनर को… उस के दोस्तों, कर्मचारियों को मैसेज लिखलिख कर जेम्स की हालत के बारे में बताती.

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जेम्स बहुत थका हुआ और कमजोर है और सारा समय इन मैसेज के जवाब नहीं दे सकता है.
‘‘मेरे परिवार से कुछ भी मत छिपाना,’’ जेम्स कहता.
‘‘वह उस ग्रे स्वेटर को मांग रहा है, जो उस के पिता पहनते थे, जब वे जिंदा थे.’’
हमारे चारों ओर जो लोग थे, वे सामान्य जीवन जी रहे थे. हर कोई हमारा सलाहकार बन गया था और अपनेअपने अनुभवों के अनुसार इस महामारी से जुड़े मीम्स शेयर कर रहा था.
‘‘घर से स्कूलिंग कैसे करें… सोशल डिस्टेंस कैसे बनाएं वगैरह…’’ वे नहीं जानते थे कि हमारा घर एक अस्थायी अस्पताल में तबदील हो चुका था. हर आने वाला पल कैसा होगा, हमारे लिए यही महत्वपूर्ण था.
‘‘मैं ने बिल्ली की गंदगी साफ कर दी है,’’ एम्मा कह रही थी.
बाहर कोने में कुछ लोग खड़े थे. मैं उन से बात करना चाहती थी…
‘‘ये परिवार से जुड़ने के लिए एक अच्छा समय है.‘‘ वे कह रहे थे. मैं वापस आ गई… अब मैं उन्हें नहीं देखना चाहती थी.
इस समय एम्मा मेरी मददगार बन गई थी. बाथरूम का आधा हिस्सा हम ने ले लिया था और आधा जेम्स के सामान… उस की गंदगी के लिए था.
‘‘ये गंदे, बुरे सपने भरे जैसे दिन थे…’’
एम्मा हर काम में मेरी मदद कर रही थी. नर्सिंग के काम के अलावा घर को व्यवस्थित करने, रसोई का काम करने, बिल्ली को खाना खिलाने, उस की गंदगी साफ करने, कपड़े तह करने के साथ ही जेम्स के लिए बीचबीच में हलका खाना पकाने, बरतन साफ करने, हर काम में मेरी मदद करती…
इन मुश्किल दिनों में जब मैं जेम्स के कमरे से बिना छुए डिशवाशर में डालने को बरतन लाती और बारबार धोने से रुखे हो गए अपने हाथों को धोती, तब भी वह मेरी मदद करती.
‘‘हम ऐसे बात करते जैसे हम बराबर के हो गए हैं,’’ वह सही ही तो कहती है…
मेरा सारा समय हमें सेफ रखने में बीत रहा था. दरवाजों के हेंडल्स को पोंछना, बिजली के स्विचों, नलों को कीटाणुनाशक से साफ करना मेरा रोज का काम हो गया था. हर रोज अल्कोहल से अपने फोन को साफ करती. रात होते ही दिनभर के इस्तेमाल हुए कपड़ों को धुलने फेंक देती.
जब एम्मा नहाने जाती, तो मैं सारे बाथरूम को अच्छे से साफ करती. हर उस चीज को हटा देती, जो जेम्स ने इस्तेमाल की होती. साथ ही, एम्मा को निर्देश देती कि किसी भी चीज को छुए नहीं और शावर ले कर सीधे अपने कमरे में जाए.
मेरे मन में डर बैठ गया था, उस की सुरक्षा को ले कर…
‘‘अगर एम्मा को भी कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा…’’ यह सोच कर मैं बेहद डर गई थी.
अगर जेम्स कभी हमारे नहाने से पहले बाथरूम इस्तेमाल कर लेता, तो मैं फिर से उसे साफ करती तब हम बाथरूम में जाते.

मैं ने उसे एप्सोम साल्ट से स्नान करवाया. फिर तो वह इतना कमजोर हो गया था कि बाथरूम तक भी नहीं जा पा रहा था और बीच में ही गिर जा रहा था… फिर बस मुंह धुला कर ही काम चलाया जाने लगा.
मैं आगे की संभावनाओं के बारे में विचार करती, ‘‘अगर एम्मा बीमार हो गई तो…’’
‘‘मैं उस की भी देखभाल कर लूंगी.’’ बात तो यह थी कि, ‘‘अगर मैं खुद बीमार हो गई तो…’’
मैं अपनी बेटी को समझा देना चाहती थी कि अगर ऐसी कोई परिस्थिति आ जाए तो वह क्या करेगी.
‘‘क्या होगा, अगर जेम्स को अस्पताल में एडमिट करना पड़ा तो….?’’ और अगर मैं…‘‘
‘‘क्या एक 16 वर्ष की बच्ची को घर में अकेले छोड़ा जा सकता है…..?’’

पर, एक बात मैं अच्छे से जानती हूं कि मैं उसे अपने मातापिता के पास नहीं भेज सकती. वे 78 वर्ष के थे और पास ही लौंग आईलैंड में रहते थे.
हालांकि, वे तो उसे अपने पास बुलाना चाहते थे, पर इस में खतरा था. उन की पोती उन्हें एक अदृश्य, खतरनाक वायरस की चपेट में ले सकती थी.
‘‘नहीं, उसे किसी और के पास भेजना होगा… कोई ऐसा जिस के पास उसे अलग से रखने और देखभाल के लिए एक बाथरूम और बैडरूम हो…’’
रात के 4-4 बजे तक मैं फर्श पर लेटी अवाक सी सोचती, सुनती, जागती रहती.
बुखार में जेम्स बुरी तरह बड़बड़ाता… एम्मा को अपनी 20 साल पुरानी गर्लफ्रैंड के नाम से बुलाता… 3 बार हम ने उसे अस्पताल में भरती कराने की सोचा. एक बार तो डाक्टर से बात करते ही मेरी हिचकी बंध गई और मैं रोने के लिए बाथरूम की तरफ भागी.
हर बार हम ने घर पर ही रहने का निर्णय लिया, क्योंकि उसे सांस लेने में तकलीफ नहीं थी. यदि होती तो उसे अस्पताल में भरती कराना ही पड़ता.
न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के इमर्जैंसी रूम की एक डाक्टर से हम ने वीडियो फोन से बात की. डाक्टर 250 से ज्यादा ऐसे मरोजों को देख चुकी थी, जिन्हें फ्लू जैसे लक्षण थे. उन्होंने हम से कहा कि जेम्स को हम घर पर ही रख सकते हैं, बशर्ते उस की औक्सीटोमीटर में औक्सीजन की माप सही बनी रहे और उसे सांस लेने में कोई तकलीफ न हो.

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मैं हलके से बेडरूम का दरवाजा खोलती तो पाती कि जेम्स सो रहा है…उस के पास जा कर देखती कि उस की सांसें चल रही हैं या नहीं. वैसे ही जैसे कभी एम्मा को देखती थी, जब वह छोटी थी और अपने पालने में सोती थी.
ऐसी ही उन बुरी रातों में मैं जेम्स से कुछ दूरी बना कर कंबल में मुड़े हुए उस के पैरों को रगड़ रही थी… दुख के उन पलों में एक क्षण ऐसा आया था, जब मेरे होंठों से वही गीत फूट पड़ा, जो मेरी मां और मेरी दादी मुझे गा कर सुनाया करती थीं. वह एक आयरिश बाल गीत था, जो छोटे बच्चों को सुलाने के लिए गाया जाता था.
मेरी दादी उसे रशियन में गाती थीं. वह मेरे बचपन का गीत था, जो लगभग 40 साल बाद मेरे होठों पर फूटा था, जिसे मैं अपने मृतप्रायः, बीमार पति के समक्ष गुनगुना रही थी.
‘‘हम कितने मनहूस माहौल में रह रहे हैं,’’ मैं रसोई में एम्मा से कह रही थी.
‘‘हमारे जैसे और भी बहुत लोग हैं,’’ एम्मा ने कहा..
दूर से देखने पर जेम्स और भी कमजोर नजर आता. उस की 6 फुट 1 इंच की काया बड़ी ही दीनहीन सी लगती. उस का कमजोर शरीर ढेर सारे कपड़ों में लिपटा हुआ था… जिन में वह अपनी विंटर जैकेट के नीचे एक और जैकेट, जिस के नीचे उस के पापा का ग्रे ऊनी स्वेटर था, जिस के नीचे एक डबल फोल्ड शर्ट थी, जिस के नीचे एक धारीदार बनियान पहने था. उस पर भी वह कहता था कि उसे ठंड लग रही है.
मार्च के चमकते हुए सूरज में भी उस के मुंह पर वही मास्क चढ़ा रहता, जो कि टेस्ट के लिए क्लिनिक जाते समय उसे पहनाया गया था…
हम लोग क्लिनिक जा रहे थे. हम दोनों ने ही ‘डिस्पोजेबल ग्लव्स’ पहन रखे थे. उस से पहले वाला दिन बड़ा ही कठिन था, जब जेम्स को सारा दिन चक्कर और उलटी आती रही. वह अपनेआप खा भी नहीं पा रहा था.चम्मच से खिलाने पर ही थोड़ाबहुत खा पा रहा था. इन्हेलर का इस्तेमाल करने पर भी उसे खांसी आ रही थी.
सुबह पसीने से वह नहाया हुआ था और शाम को लुढ़का पड़ा था. वह डरा हुआ था. उस ने मुझ से कहा, ‘‘उसे खांसी के साथ खून आया था.’’
हम ने उस के डाक्टर से बात की.
‘‘हम सब अंधे के समान काम कर रहे हैं.’’ उन्होंने कहा, ‘‘कई मरीज एक सप्ताह के भीतर ही अच्छा महसूस करने लगते हैं, जबकि अन्य ज्यादा गंभीर केसों में उलटा हो जाता है…
‘‘वायरस फेफड़ों पर हमला कर देता है और खतरा और ज्यादा बढ़ जाता है,’’ डाक्टर ने बताया.
‘‘अगर मरीज की स्थिति नहीं सुधरती है, तो अगली अवस्था निमोनिया की होती है… ऐसा अन्य मरीजों में देखा गया है,’’ डाक्टर ने यह भी बताया.
डाक्टर ने एक फार्मेसी से एंटीबायोटिक लेने को कहा, जो एक घंटे में ही बंद होने वाली थी. मैं ने जेम्स के दोस्त को मैसेज किया. उस ने कहा कि वह दवा ले लेगा…
मैं ने उसे संतरे भी लाने को कहा. जेम्स को संतरे का जूस और उस की फांकें पसंद थीं और हमारे पास घर पर बस एक संतरा बचा था. इस समय संतरे जैसी कई चीजें महंगी हो गई थीं.
डाक्टर ने सुबह हमें सब से पहले आने और आ कर सीने का एक्सरे कराने को कहा. हम धीरेधीरे चल कर आ रहे थे. जेम्स धीरेधीरे खांसते हुए चल रहा था. कुछ और लोग दिखाई दे रहे थे. हालांकि उन की संख्या पहले से काफी कम थी, जबकि न्यूयार्क के गवर्नर एंड्रयू क्योमो ने लोगों से जहां तक हो सके, घरों में ही रहने को कहा था.
कुछ जौगिंग करने वाले भी थे, जैसे कि एक हफ्ते पहले मैं भी उन में से एक होती थी.
मैं ने जेम्स का ध्यान उन की तरफ से हटाने का प्रयास किया और उसे डालियों पर खिलती हुई कलियां दिखाने लगी.
‘‘मुझे महसूस हो रहा था कि वे हमारी तरफ मुड़ कर देखेंगे, तो शायद जेम्स को अच्छा न लगे.’’ पर वे खुद बड़े सावधान थे, ‘‘अपने मास्क पहने हुए वे लोग खुद को हम से बचाते हुए सीधे निकल गए…’’
क्लिनिक पर एक और जोड़ा था, जो मास्क पहने था, और अंदर चला गया.एक आदमी मास्क पहन कर वहीं इंतजार कर रहा था.
जेम्स एक कुरसी पर आंखें बंद कर बैठ गया था. मैं ने परिचारिका से कहा, ‘‘मेरे पति का कोविड 19 टैस्ट पौजिटिव आया है.’’
परिचारिका की आंखें मास्क में से ही हठात एक क्षण को मुझ से मिलीं. उस ने मुझे भी एक मास्क दिया.
आज जेम्स का डाक्टर किसी अन्य क्लीनिक पर था, इसलिए हमें दूसरे डाक्टर को दिखाना था. हमें पूरी जानकारी उसे फिर से देनी थी.
मास्क पहने हम इंतजार कर रहे थे. जेम्स की आंखें अभी भी बंद थीं. मैं अपने पीछे की खिड़की से बाहर देखने लगी…
‘‘गली में लोग और दिनों की तरह ही चल रहे थे, तभी एक आदमी आया, अपने गंजे सिर पर हाथ फेरता हुआ एक छोटे से कैफे में घुस गया.
एक अन्य परिचारिका आई. पहली वाली ने उस के कान में कुछ फुसफुसाया… और उस ने अपना मास्क पहन लिया.
हमें अंदर बुलाया गया. मास्क पहनी हुई एक नर्स ने जेम्स की नब्ज देखी.उसे हलका बुखार था. लगभग 99 डिगरी… शायद उस ने इबुप्रोफेन दवा ली थी, इसलिए बुखार हलका हो गया था. उस का ब्लड प्रेशर ठीक था.नब्ज भी सही थी और औक्सीजन का स्तर भी ठीक था.
हम ने डाक्टर को उस के बुखार, पसीने, मितली, खांसी और खांसी के साथ आए खून के बारे में बताया.
एक बार फिर जेम्स का परीक्षण किया गया. उसे आंखें बंद कर कुरसी पर सिर टिका कर बैठने को कहा गया, वहीं कोई किसी मरीज से कह रहा था, ‘‘वह बहुत बीमार है. उसे 5 ब्लौक्स (रिहाइशी क्षेत्र) दूर अस्पताल में भरती हो जाना चाहिए.’’
डाक्टर अंदर आता है. उस ने चेहरे पर मास्क और हाथों में प्लास्टिक का कवर पहन रखा है. एक पतले से गाउन में जेम्स को एक्सरे के लिए ले जाया जाता है.
‘‘यह बहुत ही कठिन और अजीब था.’’ लौट के आने पर उस ने कहा, ’’अपने सिर के नीचे हाथों को रखे रखना…’’
‘‘यह एक्सरे एक हफ्ते पहले वाले से अलग है,’’ रेडियोलौजिस्ट से सलाह कर डाक्टर ने हम से कहा.
‘‘अब यह बाएं फेफड़े में निमोनिया दिखा रहा है.’’
‘‘पिछली रात डाक्टर ने ठीक ही एंटीबायोटिक लिखी थी.’’

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डाक्टर ने स्टैथोस्कोप से सुना, ‘‘जेम्स के फेफड़े ठीक लग रहे थे, घरघरा नहीं रहे थे. उसे सांस लेने में भी परेशानी नहीं हो रही थी.’’ उस की घर पर रख कर ही देखभाल की जा सकती थी.
‘‘लेकिन, अब तुम्हें और जल्दीजल्दी दिखाने आना होगा,’’ डाक्टर ने कहा. हम क्लिनिक के दरवाजे पर खड़े बाहर की ओर देख रहे थे… 2 बुजुर्ग औरतें दरवाजे के बाहर बातें कर रहीं थी. क्या मैं उन से कहूं कि, ‘‘वे बाहर हैं… घर जाएं… अपने हाथ धोएं और भीतर ही रहें…’’ या फिर, ‘‘जब तक वे चली न जाएं, हम यों ही यहीं खड़े रहें. और जब वे चली जाएं, तब हम यहां सब 3 ब्लौक्स दूर अपने घर को निकलें.’’
मैं ने मैग्नोलिया, फोरसाथिया के खिले हुए फूलों को देखा… जेम्स कह रहा था कि, ‘‘उसे ठंड लग रही थी.’’
‘‘उस की गरदन पर बाल बढ़ गए थे… बड़ी हुई दाढ़ी में से सफेद बाल दिख रहे थे…’’
फुटपाथ पर कुछ लोग हम से आगे निकल रहे थे. वे नहीं जानते कि हम उन के भविष्य के दृष्टा हैं.
एक स्वप्न, एक पूर्वाभास मुझे हो रहा है कि, ‘‘कल वो भी हम जैसे ही होंगे या तो जेम्स की तरह, मास्क पहने हुए, या फिर यदि भाग्यशाली हुए तो मुझ जैसे – उस की सेवा करते हुए.’’

Serial Story: धोखा (भाग-2)

दूसरे दिन सुबह जब सब नाश्ता कर रहे थे तो रश्मि ने रोहन से कहा, ‘‘सुनिए, मेरे खयाल में अब तो काफी दिन हो चुके हैं, अगर शालिनी का काम बाकी है तो वह किसी गर्ल्स होस्टल में इंतजाम कर लेगी?’’

‘‘क्यों ऐसी भी क्या जल्दी है?’’ रोहन ने कहा.

‘‘बात कुछ नहीं बस बच्चों के ऐग्जाम सिर पर हैं… उन की पढ़ाई नहीं हो पा रही… फिर मेहमान कुछ दिन के ही अच्छे होते हैं.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हो रश्मि? क्या शालिनी से यह सब कहते ठीक लगेगा? फिर एक तो वह तुम्हारी सहेली है… इस नए शहर में कहां जाएगी?’’

‘‘कहीं भी जाए या कहीं भी इंतजाम करे यह हमारी सिरदर्दी नहीं,’’ रश्मि ने कुछ झल्ला कर कहा.

‘‘ठीक है कुछ दिन और देखो या तो वह कोई इंतजाम कर लेगी या फिर मैं  ही उस का कोई इंतजाम कर दूंगा. तुम परेशान न हो,’’ रोहन उसे दिलासा दे कर औफिस चला गया.  रोहन का सारा दिन उधेड़बुन में बीता. अब उसे शालिनी का साथ अच्छा लगने लगा था. वह उस के बिना नहीं रहना चाहता था, परंतु रश्मि का क्या इलाज किया जाए? बहुत सोचने के बाद रोहन ने एक उपाय सोचा. उस ने शहर से बाहर बनी नई कालोनी में एक मकान किराए पर लिया और उस में शालिनी को शिफ्ट कर दिया.

एक बार को शालिनी हिचकिचाई. कहा, ‘‘रोहन, क्या यह ठीक होगा?’’

‘‘देखो शालिनी तुम्हारा कोई नहीं है और अब न ही मैं तुम्हारे बिना रह सकता हूं. तुम बताओ क्या तुम मेरे बिना रह पाओगी? इतने दिन साथ गुजारने के बाद क्या हम दोनों को एकदूसरे की आदत नहीं हो गई है?’’

‘‘यह तो ठीक है, परंतु रश्मि और बच्चे. ऊपर से यह समाज क्या हमें जीने देगा?’’ शालिनी कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘देखो शालिनी अब मेरीतुम्हारी बात बहुत बढ़ गई है. अब न तो मैं तुम्हें छोड़ सकता हूं और न ही तुम्हारे बिना रह सकता हूं. तुम्हारी तो तुम ही जानो पर मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि तुम्हारे विचार भी यही हैं.’’

‘‘वह सब तो ठीक है, परंतु रश्मि मेरी सहेली है और उस के साथ यह अन्याय होगा.’’

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‘‘तुम्हें अब सिर्फ अपने और मेरे बारे में सोचना है शालिनी,’’ रोहन ने बात खत्म करते हुए कहा, ‘‘अब देखो इस शहर में कितने ही लोगों से तुम्हें मिलवा दूंगा, जिन्होंने न सिर्फ 2-2 शादियां कर रखी हैं वरन दोनों निभा भी रहे हैं.’’

‘‘परंतु लोग क्या कहेंगे?’’ शालिनी बोली.

‘‘देखो शालिनी, अब तुम कुछ मत सोचो. सोचो तो सिर्फ अपनी नई जिंदगी के बारे में.’’  रोहन की बात सुन कर शालिनी ने उस से सोचने के लिए 2 दिन का समय मांगा.

‘‘ठीक है, मैं चलता हूं. तुम्हारी जरूरत का सारा सामान यहां है.’’  रोहन घर पहुंचा तो रश्मि और बच्चे उसे अकेला देख कर बहुत खुश हुए. उन्होंने सोचा कि शालिनी चली गई है अपने शहर.

रश्मि ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘आज अकेले? क्या शालिनी वापस चली गई?’’

रोहन चुप रहा और अपने कमरे में कपड़े चेंज करने चला गया. रश्मि कुछ सोचती रह गई. जब वह वापस आया तो रश्मि ने फिर दोहराया, ‘‘आप ने बताया नहीं कि शालिनी वापस चली गई क्या?’’  ‘‘देखो रश्मि, तुम ने चाहा कि शालिनी यहां से चली जाए और वह चली गई. अब वह कहां गई और क्यों गई, इस से तुम्हें मतलब नहीं होना चाहिए. रहा मेरे जल्दी आने का प्रश्न तो आज मैं यह फैसला कर के आया हूं कि अब मैं शालिनी से शादी कर रहा हूं. तुम साथ रहोगी या अलग यह फैसला तुम्हें करना है.’’  रश्मि और बच्चे यह सुन कर हैरान रह गए.

‘‘तुम्हें पता भी है कि तुम क्या कह रहे हो?’’ रश्मि ने लगभग चीखते हुए कहा. दोनों बच्चे शलभ और रीतिका डर गए. तभी रश्मि को लगा कि उन्हें बच्चों के सामने ये सब बातें नहीं करनी चाहिए. अत: उस ने सामान्य होने की कोशिश की और बच्चों से कहा, ‘‘बेटा, आप अपने कमरे में जा कर पढ़ाई करो.’’

अब बच्चे इतने भी छोटे नहीं थे कि वे अपनी मां की बात न समझ सकें. दोनों  सिर झुकाए अपने कमरे में चले गए.  ‘‘हां, अब बताओ कि तुम क्या कह रहे थे? तुम्हें शालिनी से शादी करनी है? तुम इतनी बड़ी सजा मुझे कैसे दे सकते हो? सिर्फ तुम्हारे कारण मैं अपने मातापिता और घरपरिवार को छोड़ कर आई थी.’’

‘‘हां तुम आई थीं पर यह फैसला भी तुम्हारा था. फिर मैं कब मना कर रहा हूं, क्या बिगड़ जाएगा अगर शालिनी भी हमारे साथ रहे?’’ रोहन ने कहा.  ‘‘यह कभी नहीं हो सकता रोहन, तुम मुझे इतना बड़ा धोखा नहीं दे सकते.’’

‘‘धोखा, जो धोखा करता है उसे धोखा ही तो मिलता है. यही दुनिया का सत्य है. तुम ने भी तो अपने मातापिता को धोखा दिया था. तुम्हारी मां असमय गुजर गईं. वे क्या जी पाईं और पिताजी? वे भी जैसे जी रहे हैं वह जीना नहीं होता. क्या तुम ने उन के लिए सोचा? आज बात करती हो धोखे की.’’

‘‘उस की वजह भी तुम थे रोहन… तुम ने तो मुझे न घर का छोड़ा और न घाट का,’’ रश्मि ने सिर थामते हुए कहा.

‘‘अब यह फैसला तुम्हारा है रश्मि तुम साथ रहो या अलग. हां यह जरूर है कि तुम्हारे और बच्चों के खर्च का पैसा मैं तुम्हें देता रहूंगा,’’ रोहन ने कहा.

‘‘बस करो रोहन… तुम क्या दोगे, जाओ आज मैं ने तुम्हें शालिनी दी, तुम्हारा नया घर, नई पत्नी, तुम्हें मुबारक… मुझे तुम से कुछ नहीं चाहिए. चले जाओ यहां से अभी इसी वक्त,’’ रश्मि ने चिल्ला कर कहा तो रोहन चला गया.  रश्मि की आंखों के सामने सब कुछ घूमने लगा. उस की बनाई दुनिया, उस का घर, उस के सपने सब कुछ भरभरा कर ढह गया.  तभी बिल्ली ने कूद कर फ्लौवर पौट गिरा दिया तो रश्मि की तंद्रा भंग हुई.

‘‘फिरफिर क्या हुआ रश्मि,’’ मैं ने पूछा.

‘‘होना क्या था रोहन मुझे अधर में छोड़ कर चला गया और आज मैं अपने बच्चों के साथ अकेले जिंदगी गुजार रही हूं. सारे दुख, सारा अकेलापन अपने अंदर समेटे चलती जा रही हूं बस.’’

‘‘परंतु कब तक?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जब तक जीवन है… न मैं हारूंगी, न रोहन के पास जाऊंगी और न ही अपने पिता के पास.’’

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‘‘चल जाने भी दे. जब भी कभी तू अकेलापन महसूस करेगी मुझे अपने करीब पाएगी.’’  उधर रोहन ने शालिनी से शादी कर ली और अपने नए घर में मगन हो गया. धीरेधीरे उन का रिश्ता सभी को मालूम हो गया. सामने तो कोई कुछ नहीं कहता था, परंतु पीठ पीछे सभी उस की बुद्धि पर तरस खाते, ‘‘देखो रोहन ने इस उम्र में अपनी इतनी सुंदर, सुघड़ पत्नी व 2 बच्चों को छोड़ कर नई शादी कर ली,’’ नरेंद्रजी बोले.  ‘‘भई, हम तो रश्मि भाभी के बारे में सोचते हैं… वे अकेली ही हर हालात का सामना कर रही हैं,’’ निरंजन कुछ सोचते हुए बोले.  ऐसा नहीं था कि रोहन को इन सब बातों का पता नहीं था, परंतु वह बड़ी चतुरता से सफाई दे देता था.  एक दिन रोहन लौटा तो उस के हाथ में शिमला के 2 टिकट थे. घर में घुसते ही  चिल्लाया, ‘‘शालिनी… ओ शालू देखो मैं क्या लाया हूं?’’

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