नव प्रभात: भाग 1- क्या था रघु भैया के गुस्से का अंजाम

‘‘कहां मर गई हो, कितनी देर से आवाज लगा रहा हूं. जिंदा भी हो या मर गईं?’’ रघुवीर भैया एक ही गति से निरंतर चिल्ला रहे थे.

‘‘क्या चाहिए आप को?’’ गीले हाथ पोंछते हुए इंदु कमरे में आ कर बोली.

‘‘मेरी जुराबें कहां हैं? सोचा था, पढ़ीलिखी बीवी घर भी संभालेगी और मेरी सेवा भी करेगी, लेकिन यहां तो महारानीजी के नखरे ही पूरे नहीं होते. सुबह से साजशृंगार यों शुरू होता है जैसे किसी कोठे पर बैठने जा रही हो,’’ कितनी देर तक भुनभुनाते रहे.

थोड़ी देर बाद फिर चीखे, ‘‘नाश्ता तैयार है कि होटल से मंगवाऊं?’’

इंदु गरमगरम परांठे ले आई. तभी ऐसा लगा, जैसे कोई चीज उन्होंने दीवार पर दे मारी हो. शायद कांच की प्लेट थी.

‘‘पूरी नमक की थैली उड़ेल दी है परांठे में. आदमी भूखा चला  जाए तो ठूंसठूंस कर खाएगी खुद.’’

‘‘अच्छा, सादा परांठा ले आती हूं,’’ इंदु की आवाज में कंपन था.

‘‘नहीं चाहिए, कुछ नहीं चाहिए. अब शाम को मैं इस घर में आऊंगा ही नहीं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? यों भूखे घर से जाएंगे तो मेरे गले से तो एक निवाला भी नहीं उतरेगा.’’

‘‘मरो जा कर,’’ उन्होंने तमाचा इंदु के गाल पर रसीद कर दिया और पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर गाड़ी यों स्टार्ट की जैसे किसी जंग पर जाना हो. ऐसे मौके पर अकसर वे गाड़ी तेज गति से ही चलाते थे.

अम्माजी सहित पूरा परिवार सिमट आया था आंगन में. नन्हा सौरभ मेरे पल्लू से मुंह छिपाए खड़ा था. अकसर रघुवीर भैया की चीखें सुन कर परिवार के सदस्य तो क्या, आसपड़ोस के लोग भी जमा हो जाते. पर क्या मजाल जो कोई एक शब्द भी कह जाए.

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एक बार फिर आशान्वित नजरों से मैं ने दिवाकर की ओर देखा था. शायद कुछ कहें. पर नहीं, अपमान का घूंट पीना उन्हें भली प्रकार आता था. उधर, अम्माजी को देख कर यों लगता जैसे तिरस्कृत होने के लिए यह बेटा पैदा किया था.

चिढ़ कर मैं ने ही मौन तोड़ा, ‘‘एक दिन आप का भाई उस भोलीभाली लड़की को जान से मार डालेगा लेकिन आप लोग कुछ मत कहिएगा? न जाने इतना अन्याय क्यों सहा जाता है इस घर में?’’

क्रोध से मेरी आवाज कांप रही थी. उधर, इंदु सिसक रही थी. मैं सोचने लगी, अब शाम तक यों ही वह भूखीप्यासी अपने कमरे में लेटी रहेगी. और रघुवीर भैया शाम को लौटेंगे जैसे कुछ हुआ ही न हो.

एक बार मन में आया, उस के कमरे में जा कर प्यार से उस का माथा चूम लूं, सहानुभूति के चंद बोल आहत मन को शांत करते हैं. पर इंदु जैसी स्वाभिमानी स्त्री को यह सब नहीं भाता था. होंठ सी कर मंदमंद मुसकराते रहना उस का स्वभाव ही बन गया था. क्या मजाल जो रघु भैया के विरोध में कोई कुछ कह जाए.

ब्याह कर के जब घर में आई थी तो बड़ा ही अजीब सा माहौल देखा था मैं ने. रघुवीर भैया और दिवाकर दोनों जुड़वां भाई थे, पर कुछ पलों के अंतराल ने दिवाकर को बड़े भाई का दरजा दिलवा दिया था. शांत, सौम्य और गंभीर स्वभाव के कारण ही दिवाकर काफी आकर्षक दिखाई देते थे.

उधर, रघुवीर उग्र स्वभाव के थे. कोई कार्य तो क्या, शायद पत्ता भी उन की इच्छा के विरुद्ध हिल जाता तो यों आंखें फाड़ कर चीखते मानो पूरी दुनिया के स्वामी हों. अम्माजी और दिवाकर उन्हें नन्हे बालक के समान पुचकारते, सफाई देते, लेकिन वे तो जैसे ठान ही चुके होते थे कि सामने वाले का अनादर करना है.

अम्माजी तब अपने कमरे में सिमट जाया करती थीं और बदहवास से दिवाकर घर छोड़ कर बाहर चले जाते. मैं अपने कमरे में कितनी देर तक थरथर कांपती रहती थी. उस समय क्रोध अपने पति और अम्माजी पर ही आता था, जिन्होंने उन पर अंकुश नहीं रखा था. तभी तो बेलगाम घोडे़ की तरह सरपट भागते जाते थे.

एक दिन मैं ने दिवाकर से खूब झगड़ा किया था. खूब बुराभला कहा था रघु भैया को. दिवाकर शांत रहे थे. गंभीर मुखमुद्रा लिए अपने चेहरे पर मुसकान बिखेर कर बोले, ‘‘शालू, रघु की जगह अगर तुम्हारा भाई होता तो तुम क्या करतीं? क्या ऐसे ही

कोसतीं उसे?’’

‘‘सच बताऊं, मैं उस से संबंधविच्छेद ही कर लेती. हमारे परिवार में बच्चों को ऐसे संस्कार दिए जाते हैं कि वे बड़ों का अनादर कर ही नहीं सकते,’’ क्रोध के आवेग में बहुतकुछ कह गई थी. जब चित्त थोड़ा शांत हुआ तो खुद को समझाने बैठ गई कि मेरे पति भी इसी परिवार के हैं, कभी दुख नहीं पहुंचाया उन्होंने किसी को. फिर रघु भैया का व्यवहार ऐसा क्यों है?

एक दिन, अम्माजी ने अखबार रद्दी वाले को बेच दिए थे. रघु भैया को किसी खास दिन का अखबार चाहिए था. टूट पड़े अम्माजी पर. दिवाकर ने उन्हें शांत करते हुए कहा, ‘आज ही दफ्तर की लाइब्रेरी से तुम्हें अखबार ला दूंगा.’

पर रघु भैया की जबान एक बार लपलपाती तो उसे शांत करना आसान नहीं होता था. गालियों की बौछार कर दी अम्मा पर. वे पछाड़ खा कर गिर पड़ी थीं.

दिवाकर अखबार लेने चले गए और मैं डाक्टर को ले आई थी. तब तक रघु भैया घर से जा चुके थे. डाक्टर अम्माजी को दवा दे कर जा चुके थे. मैं उन के सिरहाने बैठी अतीत की स्मृतियों में खोती चली गई. कैसे हृदयविहीन व्यक्ति हैं ये? संबंधों की गरिमा भी नहीं पहचानते.

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दिन बीतते गए. रघु भैया के विवाह के लिए अम्माजी और दिवाकर चिंतित थे. दिवाकर अपने भाई के लिए संपन्न घराने की सुंदर व सुशिक्षित कन्या चाहते थे. अम्माजी चाह रही थीं, मैं अपने मायके की ही कोई लड़की यहां ले आऊं. पर मुझे तो रघु भैया का स्वभाव कभी भाया ही नहीं था. जानबूझ कर दलदल में कौन फंसे.

एक दिन दिवाकर मुझ से बोले, ‘शालू, रघु के लिए कोई लड़की देखो.’

मैं विस्मय से उन का चेहरा निहारने लगी थी.  समझ नहीं पा रही थी, वे वास्तव में गंभीर हैं या यों ही मजाक कर रहे हैं. रघु भैया के स्वभाव से तो वही स्त्री सामंजस्य स्थापित कर सकती थी जिस में समझौते व संयम की भावना कूटकूट कर भरी हो. घर हो या बाहर, आपा खोते एक पल भी नहीं लगता था उन्हें. मैं हलकेफुलके अंदाज में बोली, ‘ब्याह भले कराओ देवरजी का पर उस स्थिति की भी कल्पना की है तुम ने कभी, जब वे पूरे वातावरण को युद्धभूमि में बदल देते हैं. मैं तो डर कर तुम्हारी शरण में आ जाती हूं पर उस गरीब का क्या होगा?’

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नव प्रभात: भाग 2- क्या था रघु भैया के गुस्से का अंजाम

मैं ने बात सहज ढंग से कही थी पर दिवाकर गंभीर थे. मेरे दृष्टिकोण का मानदंड चाहे जो भी हो पर दिवाकर के तो वे प्रिय भाई थे और अम्माजी के लाड़ले सुपुत्र.

दोनों की दृष्टि में उन का अपराध क्षम्य था. वैसे लड़का सुशिक्षित हो, उच्च पद पर आसीन हो और घराना संपन्न हो तो रिश्तों की कोई कमी नहीं होती. कदकाठी, रूपरंग व आकर्षक व्यक्तित्व के तो वे स्वामी थे ही. मेरठ वाले दुर्गाप्रसाद की बेटी इंदु सभी को बहुत भायी थी.

मैं सोच रही थी, ‘क्या देंगे रघु भैया अपनी अर्धांगिनी को? उन के शब्दकोश में तो सिर्फ कटुबाण हैं, जो सर्पदंश सी पीड़ा ही तो दे सकते हैं. भावों और संवेदनाओं की परिभाषा से कोसों दूर यह व्यक्ति उपेक्षा के नश्तर ही तो चुभो सकता है.’

इंदु को हमारे घर आना था. वह आई भी. 2 भाइयों की एकलौती बहन. इतना दहेज लाई कि अम्माजी पड़ोसिनों को गिनवागिनवा कर थक गई थीं. अपने साथ संस्कारों की अनमोल धरोहर भी वह लाई थी. उस के मृदु स्वभाव ने सब के मन को जीत लिया. मुझे लगा, देवरजी के स्वभाव को बदलने की सामर्थ्य इंदु में है.

विवाह के दूसरे दिन स्वागत समारोह का आयोजन था. दिवाकर की वकालत खूब अच्छी चलती थी. संभ्रांत व आभिजात्य वर्ग में उन का उठनाबैठना था. रघु भैया चार्टर्ड अकाउंटैंट थे. निमंत्रणपत्र बांटे गए थे. ऐसा लग रहा था, जैसे पूरा शहर ही सिमट आया हो.

इंदु को तैयार करने के लिए ब्यूटीशियन को घर पर बुलाया गया था. लोगों का आना शुरू हो गया था. उधर इंदु तैयार नहीं हो पाई थी. रघु भीतर आ गए थे. क्रोध के आवेग से बुरी तरह कांप रहे थे. सामने अम्माजी मिल गईं तो उन्हें ही धर दबोचा, ‘कहां है तुम्हारी बहू? महारानी को तैयार होने में कितने घंटे लगेंगे?’

मैं उन का स्वभाव अच्छी तरह जानती थी, बोली, ‘ब्यूटीशियन अंदर है. बस 5 मिनट में आ जाएगी.’

पर उन्हें इतना धीरज कहां था. आव देखा न ताव, भड़ाक से कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर पहुंच गए. शिष्टाचार का कोई नियम उन्हें छू तक नहीं गया था. ब्यूटीशियन को संबोधित कर आंखें तरेरीं, ‘अब जूड़ा नहीं बना, चुटिया बन गई तो कोई आफत नहीं आ जाएगी. गंवारों को समय का ध्यान ही नहीं है. यहां अभी मेहंदी रचाई जा रही है, अलता लग रहा है, वहां लोग आने लगे हैं.’

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अपमान और क्षोभ के कारण इंदु के आंसू टपक पड़े थे. वह बुरी तरह कांपने लगी थी. मैं भाग कर दिवाकर को बुला लाई थी. भाई को शांत करते हुए वे बोले, ‘रघु, बाहर चलो. तुम्हारे यहां खड़े रहने से तो और देर हो जाएगी.’

‘मैं आप की तरह नहीं जो बीवी को सिर पर चढ़ा कर रखूं. मेरे मुंह से निकला शब्द पत्थर की लकीर होता है.’

दिवाकर में न जाने कितना धीरज था जो अपने भाई का हर कटु शब्द शिरोधार्य कर लेते थे. मुझे तो रघु भैया किसी मानसिक रोगी से कम नहीं लगते थे.

जैसेतैसे तैयार हो कर नई बहू जनवासे में पहुंच गई. लेकिन ऐसा लग रहा था मानो उस ने उदासी की चादर ओढ़ी हुई हो. बाबुल का अंगना छोड़ कर ससुराल में आते ही पिया ने कैसा स्वागत किया था उस का.

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हंसीखुशी के माहौल में सब काम सही तरीके से निबट गए. दूसरे दिन वे दोनों कश्मीर के लिए चल दिए थे. वहां जा कर इंदु ने हमें पत्र लिखा. ऐसा लगा, जैसे अपने मृदु व कोमल स्वभाव से हमसब को अपना बनाना चाह रही हो. शुष्क व कठोर स्वभाव के रघु भैया तो उसे ये औपचारिकताएं सिखाने से रहे. उन्हें तो अपनों को पराया बनाना आता था.

उस दिन रविवार था. हमसब शाम को टीवी पर फिल्म देख रहे थे. दरवाजे की घंटी बजाने का अंदाज रघु भैया का ही था. द्वार पर सचमुच इंदु और रघु भैया ही थे.

इंदु हमारे बीच आ कर बैठ गई. हंसती रही, बताती रही. रघु भैया अपने परिजनों, स्वजनों से सदैव दूर ही छिटके रहते थे.

मैं बारबार इंदु की उदास, सूनी आंखों में कुछ ढूंढ़ने का प्रयास कर रही थी. बात करतेकरते अकसर वह चुप हो जाया करती थी. कभी हंसती, कभी सहम जाती. न जाने किस परेशानी में थी. मुझे कुछ भी कुरेदना अच्छा नहीं लगा था.

दूसरे दिन से इंदु ने घर के कामकाज का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया था. मेरे हर काम में हाथ बंटाती. अम्माजी की सेवा में आनंद मिलता था उसे. रघु भैया के मुख से बात निकलती भी न थी कि इंदु फौरन हर काम कर देती.

एक बात विचारणीय थी कि पति के रौद्र रूप से घबरा कर वह उस के पास पलभर भी नहीं बैठती थी. हमारे साथ बैठ कर वह हंसती, बोलती, खुश रहती थी लेकिन पति के सान्निध्य से जैसे उसे वितृष्णा सी होती थी.

कई बार जब पति का तटस्थ व्यवहार देखती तो उन्हें खींच कर सब के बीच लाना चाहती, लेकिन वे नए परिवेश में खुद को ढालने में असमर्थ ही रहते थे.

सुसंस्कृत व प्रतिष्ठित परिवार में पलीबढ़ी औरत इस धुरीविहीन, संस्कारविहीन पुरुष के साथ कैसे रह सकती है, मैं कई बार सोचती थी. इस कापुरुष से उसे घृणा नहीं होती होगी? वैसे उन्हें कापुरुष कहना भी गलत था. कोई सुखद अनुभूति हुई तो जीजान से कुरबान हो गए, मगर दूसरी ओर से थोड़ी लापरवाही हुई या जरा सी भावनात्मक ठेस पहुंची तो मुंह मोड़ लिया.

एक बार दिवाकर दौरे पर गए हुए थे. मैं अपने कमरे में कपड़े संभाल रही थी कि देवरजी की बड़बड़ाहट शुरू हो गई. कुछ ही देर में चिंगारी ने विस्फोट का रूप ले लिया था. उन के रजिस्टर पर मेरा बेटा आड़ीतिरछी रेखाएं खींच आया था. हर समय चाची के कमरे में बैठा रहता था. इंदु को भी तो उस के बिना चैन नहीं था.

‘बेवकूफ ने मेरा रजिस्टर बरबाद कर दिया. गधा कहीं का…अपने कमरे में मरता भी तो नहीं,’ रघु भैया चीखे थे.

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इंदु ने एक शब्द भी नहीं कहा था. क्रोध में व्यक्ति शायद विरोध की प्रतीक्षा करता है, तभी तो वार्त्तालाप खिंचता है. आगबबूला हो कर रघु पलंग पर पसर गए.

अचानक पलंग से उठे तो उन्हें चप्पलें नहीं मिलीं. पोंछा लगाते समय रमिया ने शायद पलंग के नीचे खिसका दी थीं. रमिया तो मिली नहीं, सो उन्होंने पीट डाला मेरे बेटे को.

इंदु ने उस के चारों तरफ कवच सा बना डाला, पर वे तो इंदु को ही पीटने पर तुले थे. मैं भाग कर अपने बेटे को ले आई थी. पीठ सहलाती जा रही और सोचती भी  जा रही थी कि क्या सौरभ का अपराध अक्षम्य था. किसी को भी मैं ने कुछ नहीं कहा था. चुपचाप अपने कमरे में बैठी रही.

नव प्रभात: भाग 3- क्या था रघु भैया के गुस्से का अंजाम

पति को शांत कर कुछ समय बाद इंदु मेरे कमरे में आ कर मुझ से क्षमायाचना करने लगी. मैं बुरी तरह उत्तेजित हो चुकी थी. अपनेआप को पूर्णरूप से नियंत्रित करने का प्रयास किया लेकिन असफल ही रही, बोली, ‘देखूंगी, जब अपने बेटे से ऐसा ही व्यवहार करेंगे.’

इंदु दया का पात्र बन कर रह गई. बेचारी और क्या करती. हमेशा की तरह उसे बैठने तक को नहीं कहा था मैं ने.

शाम को अपनी गलती पर परदा डालने के लिए रघु भैया खिलौना बंदूक ले आए थे. सौरभ तो सामान्य हो गया. अपमान की भाषा वह कहां पहचानता था, लेकिन मेरा आहत स्वाभिमान मुझे प्रेरित कर रहा था कि यह बंदूक उस क्रोधी के सामने फेंक दूं और सौरभ को उस की गोद से छीन कर अपने अहं की तुष्टि कर लूं.

लेकिन मर्यादा के अंश सहेजना दिवाकर ने खूब सिखाया था. उस समय अपमान का घूंट पी कर रह गई थी. दूसरे की भावनाओं की कद्र किए बिना अपनी बात पर अड़े रह कर मनुष्य अपने अहंकार की तुष्टि भले ही कर ले लेकिन मधुर संबंध, जो आपसी प्रेम और सद्भाव पर टिके रहते हैं, खुदबखुद समाप्त होते चले जाते हैं.

उस के बाद तो जैसे रोज का नियम बन गया था. इंदु जितना अपमान व आरोप सहती उतनी ही यातनाओं की पुनरावृत्ति अधिक तीव्र होती जाती थी. भावनाओं से छलकती आंखों में एक शून्य को टंगते कितनी बार देखा था मैं ने. प्रतिकार की भाषा वह जानती नहीं थी. पति का विरोध करने के लिए उस के संस्कार उसे अनुमति नहीं देते थे.

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उधर, रघु भैया को कई बार रोते हुए देखा मैं ने. इधर इंदु अंतर्मुखी बन बैठी थी. कितनी बार उस की उदास आंखें देख कर लगता जैसे पारिवारिक संबंधों व सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने में असमर्थ हो. 1 वर्ष के विवाहित जीवन में वह सूख कर कांटा हो गई थी. अब तो मां बनने वाली थी. मुझे लगता, उस की संतान अपनी मां को यों तिरस्कृत होते देखेगी तो या स्वयं उस का अपमान करेगी या गुमसुम सी बैठी रहेगी.

एक दिन इंदु की भाभी का पत्र आया. ब्याह के बाद शायद पहली बार वे पति के संग ननद से मिलने आ रही थीं. इंदु पत्र मेरे पास ले आई और बोली, ‘‘भाभी, मेरे भाभी और भैया मुझ से मिलने आ रहे हैं.’’

इंदु का स्वर सुन कर मैं वर्तमान में लौट आई, बोली, ‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है.’’

‘‘आप तो जानती हैं, इन का स्वभाव. बातबात में मुझे अपमानित करते हैं. भाभीभैया को मैं ने कुछ नहीं बताया है आज तक. उन के सामने भी कुछ…’’ उस का गला रुंध गया.

‘‘दोषी कौन है, इंदु? अत्याचार करना अगर जुर्म है तो उसे सहना उस से भी बड़ा अपराध है,’’ मैं ने उसे समझाया. मैं मात्र संवेदना नहीं जताना चाह रही थी, उस का सुप्त विवेक जगाना भी चाह रही थी.

मैं ने आगे कहा, ‘‘पति को सर्वशक्तिमान मान कर, उस के पैरों की जूती बन कर जीवन नहीं काटा जा सकता. पतिपत्नी का व्यवहार मित्रवत हो तभी वे सुखदुख के साथी बन सकते हैं.’’

इंदु अवाक् सी मेरी ओर देखती रही. उस का अर्धसुप्त विवेक जैसे विकल्प ढूंढ़ रहा था. दूसरे दिन सुबह ही उस के भैयाभाभी आए थे. उन का सौम्य, संतुलित व संयमित व्यवहार बरबस ही आकर्षित कर रहा था हमसब को. उपहारों से लदेफदे कभी इंदु को दुलारते, कभी रघु को पुचकारते. कितनी देर तक इंदु को पास बैठा कर उस का हाल पूछते रहे थे.

गांभीर्य की प्रतिमूर्ति इंदु ने उन्हें अपने शब्दों से ही नहीं, हावभाव से भी आश्वस्त किया था कि वह बहुत खुश है. 2 दिन हमारे साथ रह कर अम्माजी व रघुवीर भैया से अनुमति ले कर वे इंदु को अपने साथ ले गए थे.

प्रथम प्रसव था, इसलिए वे इंदु को अपने पास ही रखना चाहते थे. रघुवीर भैया का उन दिनों स्वभाव बदलाबदला सा था. चुप्पी का मानो कवच ओढ़ लिया था उन्होंने. इंदु के जाने के बाद भी वे चुप ही रहे थे.

प्रसव का समय नजदीक आता जा रहा था. हमसब इंदु के लिए चिंतित थे. यदाकदा उस के भाई का फोन आता रहता था. रघुवीर भैया व हम सब से यही कहते कि उस समय वहां हमारा रहना बहुत ही जरूरी है. डाक्टर ने उस की दशा चिंताजनक बताई थी. ऐसा लगता था, रघु इंदु से दो बोल बोलना चाहते थे. उन जैसे आत्मकेंद्रित व्यक्ति के मन में पत्नी के लिए थोड़ाबहुत स्नेह विरह के कारण जाग्रत हुआ था या अपने ही व्यवहार से क्षुब्ध हो कर वे पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहे थे, इस बारे में मैं कुछ समझ नहीं पाई थी.

रघु के साथ मैं व सौरभ इंदु के मायके पहुंचे थे. मां तो इंदु की बचपन में ही चल बसी थीं, भैयाभाभी उस की यों सेवा कर रहे थे, जैसे कोई नाजुक फूल हो.

अवाक् से रघु भैया कभी पत्नी को देखते तो कभी साले व सलहज को. ऐसा स्नेह उन्होंने कभी देखा नहीं था. पिछले वर्ष जब इंदु को पेटदर्द हुआ था तो दवा लाना तो दूर, वे अपने दफ्तर जा कर बैठ गए थे. यहां कभी इंदु को फल काट कर खिलाते तो कभी दवा पिलाने की चेष्टा करते. इंदु स्वयं उन के अप्रत्याशित व्यवहार से अचंभित सी थी.

3 दिन तक प्रसव पीड़ा से छटपटाने के बाद इंदु ने बिटिया को जन्म दिया था. इंदु के भैयाभाभी उस गुडि़या को हर समय संभालते रहते. इधर मैं देख रही थी, रघु भैया के स्वभाव में कुछ परिवर्तन के बाद भी इंदु बुझीबुझी सी ही थी. कम बोलती और कभीकभी ही हंसती. कुछ ही दिनों के बाद इंदु को लिवा ले जाने की बात उठी. इस बीच, रघु एक बार घर भी हो आए थे. पर अचानक इंदु के निर्णय ने सब को चौंका दिया. वह बोली, ‘‘मैं कुछ समय भैयाभाभी के पास रह कर कुछ कोर्स करना चाहती हूं.’’

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ऐसा लगा, जैसे दांपत्य के क्लेश और सामाजिक प्रताड़ना के त्रास से अर्धविक्षिप्त होती गई इंदु का मनोबल मानो सुदृढ़ सा हो उठा है. कहीं उस ने रघु भैया से अलग रहने का निर्णय तो नहीं ले लिया?

स्पष्ट ही लग रहा था कि कोर्स का तो मात्र बहाना है, वह हमसब से दूर रहना चाहती है. उधर, रघु भैया बहुत परेशान थे. ऊहापोह की मनोस्थिति में आशंकाओं के नाग फन उठाने लगे थे. इंदु के भैयाभाभी ने निश्चय किया कि पतिपत्नी का निजी मामला आपसी बातचीत से ही सुलझ जाए तो ठीक है.

इंदु कमरे में बेटी के साथ बैठी थी. रघु भैया के शब्दों की स्पष्ट आवाज सुनाई दे रही थी. इंदु से उन्होंने अपने व्यवहार के लिए क्षमायाचना की लेकिन वह फिर भी चुप ही बैठी रही. रघु भैया फिर बोले, ‘‘इंदु, प्यार का मोल मैं ने कभी जाना ही नहीं. यहां तुम्हारे परिवार में आ कर पहली बार जाना कि प्यार, सहानुभूति के मृदु बोल मनुष्य के तनमन को कितनी राहत पहुंचाते हैं.

‘‘उस समय कोई 3 वर्ष के रहे होंगे हम दोनों भाई, जब पिताजी का साया सिर से उठ गया था. उन की मृत्यु से मां विक्षिप्त सी हो उठी थीं. वे घर को पूरी तरह से संभाल नहीं पा रही थीं.  ऐसे समय में रिश्तेदार कितनी मदद करते हैं, यह तुम जान सकती हो.

‘‘मां का पूरा आक्रोश तब मुझ पर उतरता था. मुझे लगता वे मुझ से घृणा करती हैं.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. कोई मां अपने बेटे से घृणा नहीं कर सकती,’’ इंदु का अस्फुट सा स्वर था.

‘‘बच्चे की स्कूल की फीस न दी जाए, बुखार आने पर दवा न दी जाए, ठंड लगने पर ऊनी वस्त्र न मिलें, तो इस भावना को क्या कहा जाएगा?

‘‘मां ऐसा व्यवहार मुझ से ही करती थीं. दिवाकर का छोटा सा दुख उन्हें आहत करता. उन की भूख से मां की अंतडि़यों में कुलबुलाहट पैदा होती. दिवाकर की छोटी सी छोटी परेशानी भी उन्हें दुख के सागर में उतार देती.’’

‘‘दिवाकर भैया क्या विरोध नहीं करते थे?’’

‘‘इंदु, जब इंसान को अपने पूरे मौलिक अधिकार खुदबखुद मिलते रहते हैं तो शायद दूसरी ओर उस का ध्यान कभी नहीं खिंचता. या हो सकता है, मुझे ही ऐसा महसूस होता हो.’’

‘‘शुरूशुरू में चिड़चिड़ाहट होती, क्षुब्ध हो उठता था मां के इस व्यवहार पर. लेकिन बाद में मैं ने चीख कर, चिल्ला कर अपना आक्रोश प्रकट करना शुरू कर दिया. बच्चे से यदि उस का बचपन छीन लिया जाए तो उस से किसी प्रकार की अपेक्षा करना निरर्थक सा लगता है न?

‘‘हर समय उत्तरदायित्वों का लबादा मुझे ही ओढ़ाया जाता. यह मकान, यह गाड़ी, घर का खर्चा सबकुछ मेरी ही कमाई से खरीदा गया. दिवाकर अपनी मीठी वाणी से हर पल जीतते रहे और मैं कर्कश वाणी से हर पल हारता रहा.

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‘‘धीरेधीरे मुझे दूसरों को नीचा दिखाने में आनंद आने लगा. बीमार व्यक्ति को दुत्कारने में सुख की अनुभूति होती. कई बार तुम्हें प्यार करना चाहा भी तो मेरा अहं मेरे आगे आ जाता था. जिस भावना को कभी महसूस नहीं किया, उसे बांट कैसे सकता था. अपनी बच्ची को मैं खूब प्यार दूंगा, विश्वास दूंगा ताकि वह समाज में अच्छा जीवन बिता सके. उसे कलुषित वातावरण से हमेशा दूर रखूंगा. अब घर चलो, इंदु.’’

रघु फूटफूट कर रोने लगे थे. इंदु अब कुछ सहज हो उठी थी. रघु भैया दया के पात्र बन चुके थे. मैं समझ गई थी कि मनुष्य के अंदर का खोखलापन उस के भीतर असुरक्षा की भावना भर देता है. फिर इसी से आत्मविश्वास डगमगाने लगता है. इसीलिए शायद वे उत्तेजित हो उठते थे. इंदु घर लौट आई थी. वह, रघु भैया और उन की छोटी सी गुडि़या बेहद प्रसन्न थे. कई बार मैं सोचती, यदि रघु भैया ने अपने उद्गार लावे के रूप में बाहर न निकाले होते तो यह सुप्त ज्वालामुखी अंदर ही अंदर हमेशा धधकता रहता. फिर विस्फोट हो जाता, कौन जाने?

एनिवर्सरी गिफ्ट: भाग 1- बेटा-बहू से भरे दिनेश और सुधा का कैसा था परिवार

लेखिका- ऋतु थपलियाल

सुबह की लालिमा नंदिनी का चेहरा भिगो रही थी. पर नंदिनी के चेहेरे पर अभी भी आलस की अंगड़ाई अपनी बांहें फैलाए बैठी थी. तभी नंदिनी को अपने बालों पर जय की उंगलियों का स्पर्श महसूस हुआ. 6 वर्षों से जय के प्रेम का सान्निध्य पा कर नंदिनी के जीवन में अलग ही चमक आ गई थी. उस ने अपने पति जय की तरफ करवट ली और एक मुसकान अपने अधरों पर फैला ली.

‘हैप्पी एनिवर्सरी मेरी जान,’ जय ने नंदिनी के चेहरे को चूमते हुए कहा.

‘सेम टू यू माई डियर,’ प्रेम का प्रस्ताव पाते ही नंदिनी जय के समीप चली गई.

‘तो आज क्या प्रोग्राम है आप का?’ जय ने नंदिनी को अपनी बांहों में कसते हुए पूछा.

‘प्रोग्राम तो तुम को तय करना है. आज तो मुझे बस सजना और संवरना है,’ नंदिनी ने जय को देखते हुए कहा और उस के चेहरे पर एक मीठी सी मुसकान तैर गई.

‘तुम शादी के 6 वर्षों बाद भी नहीं बदली हो. आज भी उतनी ही खुबसूरत और…,’ जय ने शरारती लहजे में नंदिनी को देखते हुए कहा. वह जानता था, नंदिनी आज भी उतने ही जतन से सजा करती है जितने जतन से वह शादी के बाद सजती थी.

अजय उस की खूबसूरती और सादगी का दीवाना था. आस्ट्रेलिया में दोनों मिले थे. जय अपनी पढ़ाई के सिलसिले में मेलबोर्न गया था. अजनबी देश में एकमात्र सहारा जय का दोस्त सुनील था, जो वहां अपने रिश्तेदार के साथ रह रहा था. सुनील के रिश्तेदार की बेटी नंदिनी थी.

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नंदिनी और जय की पहली ही मुलाक़ात दोनों को एकदूसरे के करीब ले आई थी. लेकिन जैसेजैसे समय अपने पंख लगा कर उड़ता गया, नंदिनी और जय के बीच प्रेम का अटूट बंधन बनता गया. और शादी के 6 वर्षों भी दोनों में वही प्रेम बरकरार था.

लेकिन आज 5 साल सुनते ही नंदिनी जय की बांहों से अपनेआप को मुक्त करवा कर बैठ गई.

‘6 साल…,’ उस ने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा.

‘जी, 6 साल. नंदिनी, सच तुम्हारे साथ ये 6 साल कैसे बीते, मुझे पता ही न चला,’ जय ने नंदिनी को बांहों में भरते हुए कहा जैसे वह भी नंदिनी से ऐसे ही उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो.

लेकिन इस बार नंदिनी ज्यादा असहज हो गई थी. वह जय की बांहों से निकल कर बैड से नीचे उतर गई थी.

‘क्या हुआ नंदू, कोई बात हो गई है? क्या मुझ से कोई गलती हो गई है?’

‘नहींनहीं, कैसी बातें कर रहे हो तुम. तुम ने तो मुझे हर जगह सपोर्ट किया है. बस…’ नंदिनी अपनी बात पूरी नहीं कर पाई, उस के चेहरे पर एक उदासी की छाया सी आ गई.

‘ओह, मैं समझ गया,’ जय ने नंदिनी के पास आ कर उस का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा.

‘देखो नंदू, वह मेरी मां है. मैं उस की इकलौती संतान हूं. मां और पापा ने मुझे बहुत संघर्ष से पाला है, मैं उन की उम्मीद हूं. पहले तो मैं उन की मरजी के खिलाफ विदेश गया, फिर तुम से शादी की, उस के बाद परिवार न बड़ा कर तुम्हारे कैरियर के फैसले में साथ दिया. अचानक से मैं ने सब काम खासतौर से अपनी मां की मरजी के खिलाफ जा कर किए हैं. ऐसे में मां को धक्का लगना लाजिमी है. लेकिन तुम चिंता मत करो, इस बार मैं ने कुछ सोच रखा है.’

‘तुम ने सोच रखा है… क्या कहना चाहते हो तुम, प्लीज, साफसाफ कहो न,’ नंदिनी ने छोटे बच्चे की तरह मचलते हुए जय से कहा.

‘मां हर बार तुम से बच्चे के लिए कहती, इसलिए मैं ने बच्चे के लिए सोच लिया है.’

‘बच्चे के लिए सोच लिया है…मतलब… जय, मैं समझ नहीं पा रही हूं कि तुम क्या कहना चाहते हो. तुम ही तो हो जो मेरी सारी प्रौब्लम समझते हो. वैसे भी, कौन मां नहीं बनना चाहता है. लेकिन न जाने मैं क्यों कंसीव नहीं कर पा रही हूं. जो इलाज चल भी रहा था वह इस लौकडाउन के चलते बंद हो गया,’ नंदिनी की आवाज में भारीपन आने लगा था, ‘रही बात मां की, तो तुम्हें पता ही है कि वे मुझ से अभी तक कटीकटी सी रहती हैं और हर साल एनिवर्सरी के दिन उन का एक ही सवाल होता है. ऐसे मैं मेरा मन बात करने को नहीं करता है.’ और नंदिनी की आंखों में दुख का सैलाब तैरने लगा था.

जय नंदिनी की हालत समझता था. इसलिए उस ने उसे प्यार से पकड़ कर कमरे के कोने में करीने से सजी कुरसी पर बैठा दिया. और धीरे से नंदिनी को सहलाने लगा. वह जानता था नंदिनी और मां के बीच एक खाई है जिसे भरना मुश्किल है लेकिन वह यह भी जानता था कि यह नामुमकिन नहीं है.

मेलबोर्न में उस ने नंदिनी से शादी करने का सपना देख तो लिया था पर इस सपने को पूरा करने में जो मुश्किलें आने वाली थीं उन से जय अनजान नहीं था. एक दिन जब हिम्मत कर के जय ने अपने मातापिता को अपने और नंदिनी के बारे में बता दिया, तब जय के पिता दिनेश ने तो खुलेहाथों से नंदिनी को स्वीकार किया, पर जय की मां सुधा ने आसमान सिर पर उठा लिया था. आखिर उन की इकलौती औलाद उन के संस्कारों के खिलाफ कैसे जा सकती थी. एक गैरजातीय लड़की को वे अपनाने के लिए तैयार न थीं. उन्होंने जय को काफी उलाहने दिए. जय लगभग टूट गया था. उस के सामने सारे दरवाजे बंद हो रहे थे. नंदिनी के साथ वह अपने भविष्य के सपने देखने लगा था. इतना आगे आ जाने के बाद वह अब पीछे नहीं हट सकता था.

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इस कशमकश की घड़ी में अगर किसी ने उस का साथ दिया था तो वे थे जय के पिता दिनेश, जिन्होंने संकटमोचक की तरह जय को एक सुझाव दिया कि पढ़ाई ख़त्म होते ही जय भारत में ही अपनी नौकरी करे और नंदिनी को विदा करवा कर भारत ले आए. उस के बाद वे सब संभाल लेंगे. जय के पिता जानते थे कि यह सब करना आसान न होगा क्योंकि जय की मां पहले से ही जय की गैरजातीय पसंद से सख्त नाराज थी. जैसा जय के पिता दिनेश ने सोचा था वैसा ही हुआ. जय के भारत लौटने की ख़ुशी सुधा को जहां राहत पहुंचा रही थी, वहीं नंदिनी से विवाह का समाचार सुधा के लिए गहरा आघात साबित हुआ था. इस समाचार को पा कर वे अपनेआप को संभाल न पाईं और उन की तबीयत खराब हो गई. हालांकि, जैसे ही सुधा ने जय को अपनी आंखों के सामने देखा, उन का मन पिघल गया पर अपने बेटे के साथ नंदिनी को देख कर सुधा को अपना बेटा उन से छिन जाने का एहसास हुआ. मां और बेटे के बीच में शायद नंदिनी अनजाने ही आ गई थी और यही उस बेचारी का दोष था जिस के लिए सुधा जी ने उसे शादी के 6 साल बाद भी माफ़ नहीं किया था.

जय अपनी मां और नंदिनी दोनों के जज्बातों को समझता था, इसलिए जिंदगी में कड़वाहट न हो, उस ने अलग रहने का फैसला किया. लेकिन उसे नहीं पता था कि मां की नाराजगी नंदिनी के प्रति कम नहीं, बल्कि बढ़ जाएगी.

बेचारी नंदिनी असहाय सी महसूस करने लगी थी. वह हर कोशिश करती कि उस की सास सुधा उसे अपना ले. पर हर बार वह नाकामयाब हो जाती थी.

लेकिन जय के पिता दिनेश जी का संपर्क बच्चों के साथ लगातार बना रहा. वहीं, सुधा ने एक साल तक नंदिनी से बात नहीं की और न ही उसे अपनाने में दिलचस्पी दिखाई. हालांकि ऐसे कई मौके आए जब नंदिनी और सुधा जी का आमनासामना हुआ. पर नंदिनी ने हमेशा अपनेआप को असहज ही महसूस किया.

आगे पढ़ें- उस ने जय को निराश नहीं किया. जौब…

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एनिवर्सरी गिफ्ट: भाग 2- बेटा-बहू से भरे दिनेश और सुधा का कैसा था परिवार

लेखिका- ऋतु थपलियाल

समय चंचल हिरन की भांति दौड़ने लगा था. जय और नंदिनी की शादी को 2 साल बीत गए थे. सुधा ने बेटे को तो अपना लिया था पर नंदिनी के लिए आज भी वह अपनी बांहें नहीं फैला पाई थी. कहते हैं समय घावों को भर देता है, पर नंदिनी के साथ ऐसा नहीं हो रहा था. वह सपनों से भरी अल्हड सी लड़की, जो मेलबोर्न से भारत चली आई थी, जय के साथ कदम से कदम मिला कर चलने की कोशिश कर रही थी. जय ने नंदिनी की तनाव से भरी जिंदगी को दूर करने का फैसला लिया और नंदिनी को जौब करने के लिए प्रोत्साहित किया. नंदिनी जय के इस फैसले से फूली नहीं समा रही थी. उसे पहली बार तपिश में ठंडी फुहार का अनुभव हुआ. जय को अपने जीवनसाथी के रूप में चुन कर उस को गर्व महसूस हो रहा था.

उस ने जय को निराश नहीं किया. जौब लगते ही नंदिनी की मेहनत रंग लाई और वह उन्नति के शिखर पर चढ़ने लगी. दोनों एकदूसरे को संभालते हुए आगे बढ़ रहे थे. लेकिन शायद दोनों की खुशियों को फिर से नजर लगने वाली थी. जय और नंदिनी की शादी को 2 साल पूरे हो गए थे. हालांकि सुधा का गुस्सा और नाराजगी अभी भी शांत नहीं हुई थी लेकिन बेटे को तो अपने से दूर नहीं किया जा सकता, इसलिए दोनों परिवार महीने में एकबार आपस में मिल कर अच्छा समय बिताने की कोशिश करने लगे थे. सबकुछ ठीक रहता पर नंदिनी कहीं न कहीं अजनबी जैसा महसूस करती थी.

और एक दिन फिर से एक जलजला नंदिनी और जय के जीवन में आ गया. दिनेश जी और सुधा की एनिवर्सरी का दिन था. दोनों परिवार एकसाथ बैठे हुए थे. तभी सुधा ने जय के सामने एक इच्छा रख दी, जिसे सुन कर जय और नंदिनी फिर से दोराहे पर खड़े हो गए.

‘जय, तुम ने जो चाहा, हम ने उसे स्वीकार किया पर कम से कम तुम एक इच्छा तो हमारी पूरी कर दो,’ सुधा ने चाय का घूंट भरते हुए कहा.

‘मां, कैसी बातें करती हैं आप, आप ने और पापा ने जो मेरे लिए किया है, मैं उस का ऋण कभी नहीं चुका सकता. आप हुक्म करें, आप की क्या इच्छा है. मैं और नंदिनी उसे जरूर पूरी करेंगे.’

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‘देखो, समय का क्या भरोसा. कब क्या हो जाए. तुम्हारे साथ के सभी दोस्तों के घर में रौनक हो गई है, मैं भी चाहती हूं कि अगले साल तक तुम दोनों भी दो से तीन हो जाओ. कम से कम मेरे जो अरमान तुम्हारी शादी के लिए थे, वे पोते का मुंह देख कर पूरा हो सकें,’ सुधा ने तिरछी निगाह से नंदिनी को देखते हुए जय से कहा.

जय और नंदिनी के चेहरे का जैसे रंग उड़ गया था. ऐसा नहीं था कि वे दोनों बच्चा नहीं चाहते थे लेकिन जिस तरह से नंदिनी अपने कैरियर के सफर में आगे बढ़ रही थी, जय और नंदिनी ने फैसला किया था कि अभी वे 2 साल और इंतजार करेंगे.

लेकिन सुधा की यह ख्वाहिश सुन कर फिर से जय उसी दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया जहां से वह चला था. जय की समझ में नहीं आ रहा था कि वह मां से क्या कहे क्योंकि बड़ी मुश्किल से मां ने नंदिनी को स्वीकारोक्ति दी थी, यह अलग बात थी कि इस में नाराजगी का पुट हमेशा से ही विद्यमान रहा था. अब अगर वह मां को अपना फैसला सुनाता है तो कहीं पहले जैसी स्थिति न हो जाए.

जय के चेहरे पर आए तनाव को दिनेशजी ने बखूबी पढ़ लिया था. उन्होंने बात को संभालते हुए कहा. ‘जल्दबाजी की कोई जरूरत नहीं है. तुम और नंदिनी इस फैसले के लिए स्वतंत्र हो.’

दिनेशजी का यह कहना जय की मां सुधा को अपना अपमान लगा और वह झटके के साथ उठ कर अपने कमरे के भीतर चली गई. एक खुशनुमा माहौल फिर से उदासी के दामन में सिमट गया.

अब यह इच्छा हर साल जय को सताने लगी थी क्योंकि मां जब भी फोन पर बात करती, अपनी इस इच्छा को जरूर जताती थी. और हर साल पूछा जाने वाला यह सवाल जय और नंदिनी को दंश के समान पीड़ा पहुंचाने लगा था. हालांकि इस दौरान नंदिनी ने इलाज भी शुरू कर दिया था, वह सुधाजी को कोई भी शिकायत का मौका नहीं देना चाहती थी लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर था. नंदिनी को कुछ गायनिक कोम्प्लिकेशन थे जिन का पहले इलाज होना था, फिर आगे की प्रक्रिया हो सकती थी. दोनों इसी आस से इलाज करवा रहे थे कि उन्हें जल्द ही कामयाबी मिल जायगी. पर अचानक से कोरोना का कहर आ गया और सबकुछ बंद हो गया.

जय ने नंदिनी को समझाते हुए कहा, ‘नंदू, कल पापा से बात हुई थी, तब हम दोनों ने एक समाधान निकाला है.’

‘प्लीज, पूरी बात बताइए कि आप दोनों के बीच क्या बात हुई और क्या समाधान निकाला है.’

‘नंदू, पापा एक संस्था के साथ व्हाट्सऐप ग्रुप में जुड़े हुए हैं. उस में बहुत सारे ऐसे बच्चों के बारे में सूचना आ जाती है जिन्होंने अपने मातापिता कोरोना में खो दिया है और अब कोई भी रिश्तेदार उन्हें अपनाने के लिए तैयार नहीं है.’

‘तो तुम कहना क्या चाहते हो, तुम कही एडौप्शन की बात तो नहीं कर रहे हो,’ नंदिनी कहतेकहते कुरसी से लगभग खड़ी हो गई, ‘तुम जानते हो तुम क्या कह रहे हो?’

‘हां, पापा और मैं ने यही सोचा है. इस में गलत क्या है?’

‘नहीं जय, इस में कुछ भी गलत नहीं है बल्कि यह तो बहुत ही अच्छा तरीका है अपनी खाली पड़ी दुनिया को रंगों और किलकारियों से भरने का. लेकिन तुम शायद भूल गए हो कि मां ने मुझे ही अब तक नहीं अपनाया है तो फिर किसी के बच्चे को कैसे स्वीकार करेंगी.’

‘उस की तुम चिंता मत करो. मैं ने कल पापा से बात की है. अब लौकडाउन में मिलने वाली छूट के समय वे मां को ले कर आ रहे है. तब सब साथ में ही बात करेंगे.’

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‘ओह, जय, मुझे तो बहुत टैंशन हो रही है. तुम दोनों ने जो सोचा है, मैं उस का विरोध नहीं करती हूं, पर मां…’ कहतेकहते नंदिनी चुप हो गई.

‘माई डियर, माना कि मेरी मां थोड़ा पुराने ख़यालात की है लेकिन तुम भूल रही हो कि वे भी एक मां हैं. जब तुम्हारी पीड़ा को उन के आगे रखूंगा तो वे जरूर समझ जाएंगी. और वैसे भी, मैं ने अपने संकटमोचक से बात कर ली है. इस बार तो मान को मानना ही होगा.’

“संकटमोचक… कौन?’ नादिनी ने आश्चर्य से जय को देखते हुए कहा. आखिर, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि जय के दिमाग में क्या चल रहा है.

‘वह तो तुम्हें शाम को ही पता चलेगा. तब तक क्यों न हम दोनों अपनी एनिवर्सरी सैलिब्रेट कर लें,’ कहते हुए जय ने नंदिनी को अपनी बांहों में उठा लिया. नंदिनी की खिलखिलाहट से घर गूंजने लगा.

दिन का समय हो आया था. सूरज अपनी तपिश की किरणों से धरती को गरमी दे रहा था. नंदिनी शिद्दत के साथ अपने सासससुर के पसंदीदा खाने को बनाने में लगी हुई थी. तभी डोरबैल बजी. जय तेजी से दरवाजे की ओर लपका था. दरवाजा खुलते ही सुधा और दिनेश ने जय को देखा और उन के चेहरे पर ममत्व से भरी मुसकान फ़ैल गई. दोनों ने जय को बधाई दी और गले से लगा लिया. सुधा घर के अंदर आ कर ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गई. दिनेशजी नंदिनी को ढूंढते हुए किचन में चले गए और उस को पैसों का लिफाफा पकड़ाते हुए बोले, ‘शादी की बहुतबहुत शुभकामनाएं. हम दोनों की ओर से यह छोटी सी भेंट है. तुम अपने लिए कुछ खरीद लेना. हां, जय की चिंता मत करना, उस को उस की मां ने दे दिया है.’ ससुर और बहू के मुख पर हलकी सी हंसी तैर गई.

नंदिनी ने ससुर को पानी का गिलास दिया और साथ ही साथ उन के पैरों को भी स्पर्श कर लिया. दिनेशजी ने भी अपनी बहू के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया. फिर वे ड्राइंगरूम में सुधा के समीप आ कर सौफे पर बैठ गए.

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एनिवर्सरी गिफ्ट: भाग 3- बेटा-बहू से भरे दिनेश और सुधा का कैसा था परिवार

लेखिका- ऋतु थपलियाल

सुधा के चेहरे पर अब भी नंदिनी को ले कर एक तनाव बना हुआ था. उस तनाव को सभी महसूस कर रहे थे. नंदिनी ने सुधा को भी पानी दिया और उस के चरण स्पर्श किए. पर सुधा ने ‘ठीक है, ठीक है’ कह कर अपनी नाराजगी फिर से दिखा दी थी. जय मौके की नजाकत को भांप गया था. उस ने नंदिनी को जल्दी से खाना लगाने का इशारा कर दिया था.

डाइनिंग टेबल पर सबकुछ अपनी मनपसंद का बना देख सुधा कुछ कह नहीं पाई. हां, दिनेशजी ने अपनी बहूँ के हाथ के बने खाने की खूब तारीफ की. सुधा चुप ही रही.

खाना खाने के बाद सब ड्राइंगरूम में आ गए. नंदिनी ने सभी को आइसक्रीम सर्व की और अपने आइसक्रीम का बाऊल ले कर सब के साथ बैठ गई. सुधा शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. तभी उस ने जय से पूछ ही लिया.

‘जय, मुझे कब तक इंतजार करना होगा.’

जय तो इसी मौके की तलाश कर रहा था. उस ने अपने पापा दिनेशजी की ओर देखा और कहा, ‘मां, पापा ने एक सुझाव दिया है मैं और नंदिनी बिलकुल तैयार हैं, बस, अगर आप की हां हो जाए तो… अगले 15 दिनों में ही मैं आप की इच्छा पूरी कर सकता हूं.‘

सुधा को लगा शायद उन के बेटे जय का दिमाग खराब हो गया है. भला 15 दिनों में कोई कैसे मातापिता बन सकता है.

‘जय, पागल हो गए हो, क्या कह रहे हो. 15 दिनों में भला कौन मांबाप बन सकता है. सुनो, मैं इस तरह के मजाक को बिलकुल भी बरदाश्त नहीं करूंगी.’ सुधा ने अपने तीखे लहजे से अपनी बात कही और जय को चेतावनी भी दे दी कि वे अब उस की एक नहीं सुनेंगी.

तभी दिनेशजी ने कहा, ‘सुधा, यह सब ईश्वर के हाथ में होता है.’

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‘अच्छा, तो तुम ही बताओ कि शादी को 6 साल होने को आ गए हैं पर अभी तक कुछ क्यों नहीं हुआ. जय और उस के दोस्त नीरज की शादी एकसाथ हुई थी. नीरज 2 बच्चों का पापा बन गया है और हमारा जय अभी तक… माना कि शादी के कुछ साल एंजौय में बीत गए, पर उस के बाद तो नंदनी की ही लापरवाही रही न. मैं ने कितना कहा था कि मेरे पास आ जाओ, मैं इलाज करवा देती हूं पर हर बार जय कहता था कि मां, नंदिनी का डाक्टर घर के पास ही है, उस को वहीं दिखाने में सुविधा होगी. फिर लेदे कर इस कोरोनाकाल ने कसर पूरी कर दी. एक साल से इलाज वहीं का वहीं रह गया. और अब यह दूसरा साल भी ऐसे ही जाएगा.’

‘ऐसी बात नहीं है सुधा, वे दोनों अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे थे पर नाकामयाब हो रहे थे. फिर यह कोरोना आ गया. अब यह तो उन दोनों के बस के बाहर था और कहीं न कहीं मुझे लगता है कि वे अब तुम्हारे रौद्र रूप का सामना नहीं करना चाहते हैं.’ दिनेश जानते थे कि सुधा के आगे किसी का तर्क नहीं चलेगा पर आज उन्होंने भी सुधा से तर्क करने की ठान ली थी. दोनों में जैसे जिरह शुरू हो गई थी.

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं गलत हूं, गुस्सैल हूं और मेरी वजह से यह सब हुआ है. और वे दोनों मेरे स्वभाव की वजह से मातापिता नहीं बन पा रहे हैं,’ अचानक से लगे आरोप को सुधा सहन नहीं कर पाई और बौखला गई.

सुधा के इस रूप को देख कर नंदिनी सहम सी गई थी. उस की आंखें छलछलाने लगीं. उस को लगा, शायद अब वह सुधाजी की नाराजगी बरदाश्त नहीं कर पाएगी. वह दौड़ती हुई अपने कमरे में चली गई.

दिनेशजी ने फिर से सुधा को समझाने का प्रयास किया, ‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो. मेरा यह कहने का मतलब नहीं था.’

‘तो फिर तुम क्या कहना चाहते हो? पहले तो जय ने लव मैरेज की, मैं ने नंदिनी को गैरजातीय होते हुए भी अपना लिया. फिर दोनों ने अपने कैरियर को तवज्जुह दी. उसे भी मैं ने स्वीकार कर लिया. अपनी कोई इच्छा उन पर नहीं थोपी. पर अब तो मुझे ख़ुशी का एक मौका दे दे,’ सुधा ने ऊंची आवाज में दिनेश से कहा.

‘तुम ने उन्हें अपना लिया?’ दिनेश के चेहरे पर प्रश्न था, जो सुधा को देख कर उन्होंने पूछा था, ‘सुधा, जब से नंदनी इस घर में आई है, तुम ने उस से ठीक से बात भी नहीं की. हमेशा उस को एहसास करवाया कि वह गैरजातीय है और सब से जरूरी कि वह तुम्हारी पसंद की नहीं है. उस बेचारी पर कितना प्रैशर रहता होगा, यह मैं समझ सकता हूं,’ दिनेश ने लगभग चिल्लाते हुए कहा.

सुधा दिनेश के इस रूप को देख कर सहम सी गई थी. आज तक दिनेश ने कभी इस तरह झल्ला कर उस से बात नहीं की थी. जय ने भी अपने पिता का ऐसा रूप पहली बार देखा था. घर में गरमहट का माहौल हो गया था.

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं उन की निजी जिंदगी में दखलंदाजी कर रही हूं जिस से दोनों के ऊपर प्रैशर बन रहा है और इस वजह से उन दोनों के यहां बच्चा नहीं हो रहा है?’

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‘नहीं, तुम गलत समझ रही हो. मैं, बस, तुम्हें उस एहसास को याद दिलाना चाहता हूं जो तुम शायद भूल गई हो कि जय के होने से पहले तुम्हारे साथ भी यही सब हुआ था. हमारी शादी को 6 महीने ही हुए कि तुम अपना कैरियर बनाना चाहती थीं, इसलिए जल्दी बच्चा न करने का फैसला लेना चाहती थीं. और उस के बाद 2 साल तक हमारे चाहने पर भी तुम कंसीव नहीं कर पाई थीं. मां का कितना प्रैशर तुम पर था, कुछ याद आया तुम्हें,’ दिनेश ने सुधा को लगभग झिंझोड़ते हुए कहा, वह तो शुक्र था कि तुम जल्दी ही कंसीव कर गईं वरना… न जाने तुम्हें भी नंदिनी के जैसे तनावयुक्त माहौल का शिकार होना पड़ता. बेचारी नंदिनी तो गैरजातीय होने का भी दुख झेल रही है,’ जय के पिता अपनी बात कहतेकहते रोआंसे हो उठे थे.

अपने जीवन की इतनी बड़ी सचाई अपने बेटे और बहू के आगे खुलते देख सुधा सहम सी गई थी. जय समझ चुका था कि दोनों कहीं मुख्य मुद्दे से भटक न जाएं, उस ने तुरंत मां का हाथ पकड़ लिया.

बेटे का सहारा पा कर सुधा कुछ नरम पड़ गई थी. सुधा ने लगभग रोते हुए अपने बेटे से कहा, ‘जय, देखो, तुम्हारे पापा मुझ से क्या कह रहे हैं. मैं अपने दिनों को भूल गई हूं और मैं जानबूझ कर नंदिनी पर प्रैशर बना रही हूं क्योंकि मैं उसे पसंद नहीं करती हूं. अरे, जो भय मैं ने उस समय महसूस किया था, बस, मैं यही चाहती हूं कि वह अब फिर से हमारे सामने न आए. क्या ऐसा सोचना गलत है?’

तभी दिनेशजी ने सुधा को उन के अतीत की कुछ और बातें याद दिलाईं, बोले, ‘याद है तुम्हें जब तुम छहसात महीने तक कंसीव नहीं कर पाई थीं, तो तुम मां का फोन भी नहीं लेती थीं क्योंकि उन की एक ही बात तुम्हें भीतर तक दुख पहुंचा जाती थी. उस समय तुम पर कितना दबाव था, यह सिर्फ मैं ही जानता हूं. वही दबाव आज जय और नंदिनी महसूस कर रहे हैं.’

सुधा की आंखें फर्श पर जा कर टिक गई थीं जैसे उस के सामने अतीत के पन्ने किसी ने खोल कर रख दिए थे. वह कुछ भी नहीं कह पा रही थी. उस के भीतर जैसे कुछ थम गया था.

‘सुधा, क्या तुम ने यह प्रैशर डालने से पहले जय और नंदिनी से बात की है कि क्या कारण है कि उन को संतान का सुख नहीं मिल पा रहा है, कहीं हमारे बच्चों को हमारी सहायता की जरूरत तो नहीं है,’ इस बार दिनेशजी ने अपनी आवाज को नर्म रखते हुए कहा.

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एनिवर्सरी गिफ्ट: भाग 4- बेटा-बहू से भरे दिनेश और सुधा का कैसा था परिवार

लेखिका- ऋतु थपलियाल

सुधा मौन हो गई थी क्योंकि उस ने ऐसा किया ही नहीं था. नंदिनी को अपनाने में जो कशमकश शादी के समय हुई थी, वही कशमकश उसे आज भी हो रही थी. जय सुधा के चेहरे के बदलते भावों को देखते ही समझ गया कि पापा की कही गई बात सीधा निशाने पर जा कर लगी है. अब वह किसी भी तरह से यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता था.

‘मां, माना कि मैं ने आप की मरजी के खिलाफ जा कर शादी की पर नंदिनी के मन में आप के प्रति कोई बुरी भावना नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से वह बेचारी शारीरिक और मानसिक तनाव झेल रही है. हम दोनों ही चाहते हैं कि हम जल से जल्द आप की इच्छा को पूरा कर सकें पर शायद…,’ जय ने मां की ओर देख कर कहा. उस की आवाज में एक पीड़ा थी जिसे शायद सुधाजी ने महसूस कर लिया था.

दिनेश धीरे से सुधा के समीप आ गए और उन्होंने ने सुधा के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘हो सकता है इलाज में मिल रही नाकामयाबी और तुम्हारे प्रश्नों की बौछार से दोनों बच्चे बचना चाहते हों.’

सुधा मासूम बच्चे की तरह दिनेश और जय के चेहरे की तरफ देखने लगी थी.

‘आप का सोचना भी गलत नहीं है पर अगर इस मुश्किल घड़ी में हम बच्चों को आप लोग रास्ता नहीं दिखाएंगे तो और कौन दिखाएगा. मां, दादी तो अनपढ़ थीं पर आप तो पढ़ीलिखी हो. और वैसे भी, आजकल तो आईवीएफ और सैरोगेसी सुविधाएं उपलब्ध हैं. आप लोगों के समय यह सब कहां था,’ जय ने गंभीर स्वर में मां सुधा की ओर देखते हुए कहा.

‘तो मैं ने कब मना किया है आईवीएफ करवाने से,’ सुधा ने जय की ओर देखते हुए लगभग रुंधे गले से कहा.

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इस बार दिनेशजी ने कहा, ‘तुम अब भी गलत समझ रही हो. तुम जो कहती हो उस में गलत कुछ भी नहीं है, बस, समझने की जरूरत है कि उन दोनों के साथ कैसी परेशानी आ रही है. हो सकता है कि आईवीएफ करवाने के लिए उन के पास इतना बजट ही न हो.’

‘अरे, अगर ऐसी समस्या है तो जय को मुझ से बात करनी चाहिए थी न. मैं उस की मां हूं, कोई दुश्मन तो नहीं हूं न,’ सुधा ने जय और दिनेश की ओर देखते हुए कहा जैसे वह अपनी सफाई रखना चाहती थी.

‘सुधा, बच्चों का ऐसा व्यवहार कोई नया नहीं है. जब उन्हें लगता है कि वे हमारी इच्छा को पूरा नहीं कर पा रहे हैं तो वे आंखें चुराना शुरू कर देते हैं.’

सुधा चुपचाप दिनेश का मुंह देखने लगी थी. उस की आंखों में नमी आ गई थी. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह दिनेश को अपनी सफाई में अब क्या जवाब दे.

तभी जय की गंभीर आवाज उस के कानों से टकरा गई, ‘मां, कोरोना की वजह से नंदिनी का इलाज भी रुक गया. हर महीने के तनाव में घिरी नंदिनी के जीवन का बस अब एक ही मकसद रह गया है कि वह जल्दी से तुहारी इच्छा पूरी कर सके. मैं उस को रोज घुटते और टूटते हुए देखता हूं. बच्चे के लिए मां ही सब से बड़ा सहारा होती है. और मेरे लिए आप हैं. पर आप की नाराजगी के कारण मैं अपनी कोई बात आप से कह भी नहीं पाया. अब मुझे भी एक घुटन सी महसूस होने लगी है.’

जय सुधा से थोड़ी दूर जा बैठा था. वह नहीं चाहता था कि मां उस के छलक आए आंसू देखे.

उस के अधूरे वाक्य में सुधा को अपने बेटे का दिया हुआ संदेश साफ़ सुनाई दे रहा था. उस की आंखें छलछला आईं. वह कुरसी पर बैठ कर ही रोने लगी. शायद बेटे की पीड़ा उस ने महसूस कर ली थी जिसे वह बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

दिनेश ने सुधा का चेहरा अपने हाथों में ले कर कहा, ‘सुधा, मैं समझ सकता हूं कि तुम्हें उन की चिंता है पर अपने बच्चों की परेशानी हम नहीं समझेंगे, तो और कौन समझेगा. जिस तरह से समय निकल रहा है और दोनों बच्चों की उम्र बढ़ रही है, उस से हो सकता है कि नंदिनी को भी कंसीव करने में परेशानियों का सामना करना पड़े. पर एक तरीका है जिस से इस महामारी के समय भी जय के घर किलकारियां गूंज सकती हैं और तुम्हारी इच्छा भी पूरी हो सकती है.’

सुधा ने प्रश्न भरी नज़रों से दिनेश की ओर देखा.

‘जब जय से बात हुई थी तब मैं ने उस से इस बात का जिक्र किया था. सौरी कि तुम्हें नहीं बताया. उस ने और नंदिनी ने इस का फैसला भी तुम पर ही छोड़ दिया है.’

‘जब तुम दोनों ने आपस में बात कर ली है तो फिर मुझे क्या फैसला लेना है. मैं भला क्यों उन की खुशियों में आड़े आऊंगी. मैं तो बस चाहती हूं कि मुझे दादी कहने वाला जल्दी से आ जाए.’ सुधा ने अपने आंसुओं को पोंछते हुए कहा. उस की कही बात में नाराजगी भी झलक रही थी.

‘मैं जानता हूं, तुम जय का भला चाहती हो, पर नंदिनी का क्या…’

‘फिर तुम अजीब बात करने लगे हो, जय और नंदिनी एक ही तो हैं,’ दिनेश की बातें सुन कर सुधा ने थोड़ा चिढ़ते हुए कहा.

‘चलो, तुम ने माना तो कि जय और नंदनी एक ही हैं. सुधा, मेरा तुम से एक सवाल है कि क्या तुम ने नंदिनी को दिल से स्वीकार कर लिया है?’

सुधा दिनेश की ओर देखने लगी जैसे वह इस पहेली को सुलझाना चाहती थी. उस ने थोड़ा नाराज होते हुए कहा, ‘आप भी कैसे बातें करते हैं, जब कह रही हूं कि जय और नंदिनी एक ही हैं तब… और वैसे भी, आज आप ने अतीत की बातों को याद दिला कर मुझे एहसास करवा दिया की नंदिनी भी कहीं न कहीं मेरी ही तरह हर बात से छिपना चाहती है. उसे उस छांव की तलाश है जो इस धूप से उसे बचा सकती है.’

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परदे के पीछे छिपी नंदिनी की हिचकियां ड्राइंगरूम में बैठे तीनों सदस्यों ने सुन ली थीं. जय तुरंत उठ कर नंदिनी की ओर चल पड़ा और उस का हाथ पकड़ कर सब के सामने ले आया. नंदिनी की आंखों से अभी भी आंसूं टपक रहे थे.

‘मां, अगर आप चाहो तो इस धूप को हमेशा के लिए ठंडी छांव में बदल सकती हो,’ जय ने मां सुधा को प्यारभरी नजरों से देखते कहा.

‘अब पहेलियां बुझाना बंद भी करो. जल्दी बताओ, मैं तुम दोनों के लिए ऐसा क्या कर सकती हूं?’

‘देखा, अब की न तुम ने पढ़ीलिखी, समझदार सास वाली बात,’ कह कर दिनेश लगभग हंसने लगे.

‘बस, बस, अब जल्दी बताओ. ज्यादा बेर के पेड़ पर चढ़ाने की जरूरत नहीं है,’ सुधा अपनी जिज्ञासा को छिपाने में असमर्थ हो रही थी. इसलिए उस की आतुरता उस की आवाज से ही झलकने लगी थी.

‘पापा के दोस्तों का एक व्हाट्सऐप समूह है. उस में किसी ने मैसेज भेजा था कि इस कोरोनाकाल में एक 6 महीने की बच्ची अनाथ हो गई है. उस के मातापिता कोरोना की वजह से अब इस दुनिया मे नहीं रहे. रिश्तेदारों ने भी लेने से मना कर दिया है, इसलिए अगर कोई उस बच्ची को लेने का इच्छुक हो तो वह दिए गए नंबर पर फोन कर सकता है,’ जय एक सांस में सारी बात कह गया था. शायद उसे डर था कि कहीं मां फिर से नाराज न हो जाए.

सुधा चुपचाप जय की बातें सुन रही थी. वह उठ कर खड़ी हो गई. कमरे में सन्नाटा छा गया. सभी जानते थे कि सुधा ने बड़ी मुश्किल से अभीअभी नंदिनी को स्वीकार किया था, अब किसी बाहरी बच्चे को स्वीकार करना सुधा के लिए आसान निर्णय नहीं होगा. जय सुधा के उत्तर की प्रतीक्षा कर ही रहा रहा था की सुधा अपना मोबाइल ले कर अपने पति दिनेश के सामने जा खड़ी हो गई.

‘जल्दी से वह नंबर बताओ जो तुम्हारे ग्रुप में आया है.’

दिनेश को जैसे किसी ने नींद से जगा दिया था. उन्होंने तुरंत अपना फोन निकाल कर सुधा को फोन नंबर दिया. सुधा नंबर ले कर दूसरे कमरे में चली गई. अगले ही पल सुधा ने उस नंबर पर बात की. बात खत्म होते ही वह वापस ड्राइंगरूम में आई और उस ने जय और नंदिनी को तैयार होने को कहा. किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सब आश्चर्य से सुधा को देख रहे थे.

‘अब ऐसे क्या देख रहे हो, मुझे लगा, जय और नंदनी की खुशियों को जल्दी से ले आते हैं. कहीं कोई और न ले जाए. मैं ने अभी जिस नंबर पर बात की है वह आश्रम की संचालिका का नंबर है. उसी ने बताया कि वहां कोरोनाकाल में बेसहारा हुए बच्चे हैं और वह 6 महीने की बच्ची अभी भी आश्रम में ही है. उन्होंने कहा है कि हमें वहां आ कर कुछ फौर्मेलिटीज पूरी करनी होंगी, तभी हम बच्ची को ले जा सकते हैं.’

जय सुधा का धन्यवाद करना चाहता था लेकिन सुधा ने उस को गले लगाते हुए कहा, ‘आज मेरे परिवार ने मेरी आंखें खोल दीं. पढ़ेलिखे होने का मतलब केवल जौब करना ही नहीं होता है, परिवार मे खुशियां बिखेरना भी होता है. और अगर ये खुशियां बाहर से आती हैं तो इस में बुराई ही क्या है. जय और नंदनी, जल्दी से तैयार हो जाओ. हमें जल्दी ही आश्रम के लिए निकलना है. वैसे भी, सरकार ने शाम के 8 बजे तक ही बाहर निकलने की आजादी दी है, इसलिए सभी जल्दी करो.’

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‘लेकिन मां, तुम ने मुझे तो एनिवर्सरी का गिफ्ट दे दिया था, पर नंदिनी को कुछ भी नहीं दिया था. तो मैं समझूं कि आप अभी भी नंदिनी से नाराज हो,’ जय ने अपनी पत्नी के हाथों को पकड़ते हुए कहा.

सुधा कुछ कहती, उस से पहले ही नंदिनी ने अपनी सास की ओर देखते हुए कहा, ‘नहीं जय, मां ने तो मुझे तुम्हारे गिफ्ट से भी ज्यादा अनमोल गिफ्ट दिया है जिस के लिए मैं मां की हमेशा ऋणी रहूंगी.’

और सुधा ने नंदिनी को गले से लगा लिया. सारे गिलेशिकवे आंसुओं में बह गए थे. नंदिनी ने सुधा के गले लगे ही जय को देख कर कहा, ‘तुम्हारे संकटमोचक ने फिर से बचा लिया.’ जय जोरजोर से हंसने लगा. दिनेशजी जय के कंधे पर हाथ रख कर मुसकरा रहे थे. आज परिवार में खुशहाली छा गई थी और एनिवर्सरी गिफ्ट को लाने के लिए सब तैयार हो कर आश्रम की ओर चल पड़े.

विद्रोह: घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

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मंथर हत्या: सुरेश और उसकी पत्नी ने कैसे दिया माता-पिता को धोखा

बड़े भैया और सुरेश दोनों सगे भाई थे लेकिन दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर था. मैं अनीता जोशी, माताजी की नर्स हूं. माताजी जब बड़े भैया के यहां से वापस आई थीं, एकदम चुस्त- दुरुस्त थीं. खूब हंसहंस कर बाबूजी को बता रही थीं कि क्या खाया, क्या पिया, किस ने पकाया.

बड़े भैया जब भी कनाडा से भारत आते मां को अपने फ्लैट पर ले जाते और अमृतसर से अपनी छोटी बहन मंजू को भी बुला लेते. कई सालों से यह सिलसिला चल रहा है. महीना भर के लिए मेरी भी मौज हो जाती. मैं भी उधर ही रहती. माताजी पिछले 4 सालों से मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर थीं. 90 साल की उम्र ठहरी, शरीर के सभी जरूरी काम बिस्तर पर ही निबटाने पड़ते थे.

वैसे देखा जाए तो सुरेश और उन की पत्नी संतोष को सेवा करनी चाहिए. मांबाप के घर में जो रह रहे हैं. कभी काम नहीं जमाया. एक तरह से बाबूजी का ही सब हथिया कर बैठ गए हैं. संतोष बीबीजी भी एकदम रूखी हैं. पता नहीं कैसे संस्कार पाए हैं. औरत होते हुए भी इन का दिल कभी अपनी सास के प्रति नहीं पसीजता. बस, अपने पति और बच्चों से मतलब या पति की गांठ से.

इधर कई महीनों से माताजी रात को आवाज लगाती थीं तो सुरेश का परिवार सुनीअनसुनी कर देता था. एक दिन बाबूजी ने सुरेश के बच्चों को फटकारा तो वह कहने लगे कि ऊपर तक आवाज सुनाई नहीं देती. आवाज लगाना फुजूल हुआ तो माताजी ने कटोरी पर चम्मच बजा कर घंटी बना ली. इस पर संतोष बीबीजी ने यह कह कर कटोरी की जगह प्लास्टिक की डब्बी रखवा दी कि कटोरी बजाबजा कर बुढि़या ने सिर में दर्द कर दिया.

मैं ड्यूटी पर आई तो माताजी ने कहा कि अनीता, तू ने मुझे रात को खाना क्यों नहीं दिया. मैं बोली कि खाना तो मैं बना कर जाती हूं और आशीष आप को दोनों समय खाना खिलाता है. मैं ने ऊपर जा कर छोटी बहू संतोष से पूछा तो वह बोलीं, ‘‘अरे, इस बुढि़या का तो दिमाग चल गया है. खाऊखाऊ हमेशा लगाए रखती है. खाना दिया था यह भूल गई.’’

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अगले दिन बाबूजी से पूछा तो वह कहने लगे कि डाक्टर ने खाने के लिए मना किया है. रात का खाना खिलाने से इन का पेट खराब हो जाएगा. ताकत की दवाइयां दे गया है. आशीष खिला देता है.

मैं ने माताजी से पूछा, ‘‘डाक्टर आप को देखने आया था लेकिन आप ने तो नहीं बताया.’’

माताजी हैरान हो कर बोलीं, ‘‘कौन सा डाक्टर? अरे, मैं तो डा. चावला को दिखाती थी पर उन को मरे हुए तो 2 साल हो गए. दूसरे किसी डाक्टर को ये इसलिए नहीं दिखाते कि मुझ पर इन को पैसा खर्च करना पड़ेगा.’’

मैं ने फिर पूछा, ‘‘ताकत की गोलियां कहां हैं मांजी, दूध के संग उन्हें मेरे सामने ही ले लो.’’

वह बोलीं, ‘‘कौन सी गोलियां? मरने को बैठी हूं… झूठ क्यों बोलूंगी? 3 दिन से रात का खाना बंद कर दिया है मेरा. जा, पूछ, क्यों किया ऐसा.’’

मैं ने तरस खा कर जल्दी से एक अंडा आधा उबाला और डबल रोटी का एक स्लाइस ले कर अपने घर जाने से पहले उन्हें खिला दिया.

अगले दिन मेरी आफत आ गई. सुरेश बाबू ने मुझे डांटा और कहा कि जो वह कहेंगे वही मुझे करना पड़ेगा. रात को उन्हें पाखाना कौन कराएगा.

मैं ने दबी जबान से दलील दी कि भूख तो जिंदा इनसान को लगती ही है, तो चिल्ला पड़े, ‘‘तू मुझे सिखाएगी?’’

मैं भी मकानजायदाद वाली हूं. घर से कमजोर नहीं हूं. मेरा बड़ा बेटा डाक्टरी पढ़ रहा है. छोटा दर्जी की दुकान करता है. उसी की कमाई से फीस भरती हूं. दोनों मुझे यहां कभी न आने देते. मगर माताजी मेरे बिना रोने लगती हैं. मैं हूं भी कदकाठी से तगड़ी. माताजी 80 किलो की तो जरूर होंगी. उन्हें उठानाबैठाना आसान काम तो नहीं और मैं कर भी लेती हूं.

एक बार कनाडा से माताजी जिमर फ्रेम ले आई थीं जो वजन में हलका और मजबूत था. माताजी उसे पकड़ कर चल लेती थीं. अंदरबाहर भी हो आती थीं. पर तभी छोटी बहू के पिताजी को लकवा मार गया. अत: उन्होंने जिमर फ्रेम अपने पिताजी को भिजवा दिया.

बड़े भैया जब अगली बार आए तो अपनी मां को एक पहिएदार कुरसी दिला गए. मैं उसी पर बैठा कर उन को नहलानेधुलाने बाथरूम में ले जाती थी. मगर 2 साल पहले जब आशीष ने कंप्यूटर खरीदा तो संतोष बीबीजी ने उस की पुरानी मेज माताजी के कमरे में रखवा दी जिस से व्हील चेयर के लिए रास्ता ही नहीं बचा.

बड़े भैया कनाडा से आते तो अपनी मां के लिए जरूरत का सब सामान ले आते. भाभीजी सफाईपसंद हैं, एकदम कंचन सा सास को रखतीं. भाभीजी अपने हाथ से माताजी की पसंद का खाना बना कर खिलातीं. बाबूजी बड़े भैया के घर नहीं जाते थे. सुरेश ने कुछ ऐसा काम कर रखा था कि बाप बेटे से जुदा हो गया. बाबूजी के मन में अपने बड़े बेटे के प्रति कैसा भाव था यह तब देखने को मिला जब भैया माताजी से मिलने आए तो बाबूजी परदे के पीछे चले गए. इस के बाद ही बड़े भैया ने अलग मकान लिया और मां को बुलवा कर उन की सारी इच्छाओं को पूरा करते थे. तब मेरी भी खूब मौज रहती. वह मुझे 24 घंटे माताजी के पास रखते और उतने दिनों के पैसों के साथ इनाम भी देते.

फिर जब उन के कनाडा जाने का समय आता तो वह माताजी को वापस यहां छोड़ जाते और वह फिर उसी गंदी कोठरी में कैद हो जातीं. भाभीजी की लाई हुई सब चीजें एकएक कर गायब हो जातीं. मैं ने एक बार इस बात की बाबूजी से शिकायत की तो उलटा मुझ पर ही दोष लगा दिया गया. मैं ने जवाब दे दिया कि कल से नहीं आऊंगी, दूसरा इंतजाम कर लो. मगर माताजी ने मेरे नाम की जो रट लगाई कि उन का चेहरा देख कर मुझे अपना फैसला बदलना पड़ा.

खाना तो रोज बनता है इस घर में. बाबूजी को खातिर से खिलाते हैं मगर मांजी के लिए 2 रोटी नहीं हैं. यह वही मां है जिस ने किसी को कभी भूखा नहीं सोने दिया. देवर, ननद, सासससुर, बच्चे सब संग ही तो रहते थे. आज उसी का सब से लाड़ला बेटा उसे 2 रोटी और 1 कटोरी सब्जी न दे? क्या कोई दुश्मनी थी?

माताजी की सहेली भी मैं ही थी. एक दिन उन से पूछा तो कहने लगीं कि बाबूजी की ये खातिरवातिर कुछ नहीं करते. सब नीयत के खोटे हैं. बाबूजी के बैंक खाते में करोड़ों रुपए हैं इसलिए उन्हें मस्का लगाते हैं. मैं ठहरी औरत जात. 2-4 गहने थे उन्हें बेटी के नेगजोग में दे बैठी. इन पर बोझ नहीं डाला कभी. अब मैं खाली हाथ खर्चे ही तो करवा रही हूं. रोज दवाइयां, डाक्टर. ऊपर से मुझे दोष लगाते हैं कि तू मेरे गहने परायों को दे आई.

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आज सुरेश अपनी बीवी को 5 हजार रुपया महीना जेबखर्च देता है. मेरा आदमी इसे देख कर भी नहीं सीखता. पहले तो ऐसा रिवाज नहीं था. औरतों को कौन जेबखर्च देता था.

माताजी की बाबूजी से नहीं बनती. कैसे बने? शराबी का अपना दिमाग तो होता नहीं. सुरेश के हाथ कठपुतली बन कर रह गए हैं. 10वीं में बेटा फेल हुआ तो उसे अपने साथ दुकानदारी में लगा लिया और पीना भी सिखा दिया. अब उसी नालायक से यारी निभा रहे हैं. माताजी कहती थीं कि देखना अनीता, जिस दिन मेरी आंखें बंद हो जाएंगी यह बाप की रोटीपानी भी बंद कर देगा. बाप को बोतल पकड़ा कर निचोड़ रहा है, ताकि जल्दी मरे.

माताजी कोसतीं कि इतनी बड़ी कोठी कौडि़यों के मोल बेच दी और इस दड़बे जैसे घर में आ बैठा, जहां न हवा है न रोशनी. मेरे कमरे में तो सूरज के ढलने या उगने का पता ही नहीं चलता. ऊपर से संतोष ने सारे घर का कबाड़ यहीं फेंक रखा है.

माताजी रोज अपनी कोठी को याद करती थीं. सुबह चिडि़यों को दाना डालती थीं. सूरज को निकलते देखतीं, पौधों को सींचतीं. ग्वाला गाय ले कर आता तो दूध सामने बैठ कर कढ़वातीं. लोकाट और आम के पेड़ थे, लाल फूलों वाली बेल थीं.

बड़े भैया के बच्चे सामने चबूतरे पर खेलते थे. बड़े भैया अच्छा कमाते थे. सारे घर का खर्च उठाते थे. सारा परिवार एक छत के नीचे रहता था और यह सुरेश की बहू डोली से उतरने के 4 दिन बाद से  ही गुर्राने लगी. अपने घर की कहानी सुनातेसुनाते माताजी रो पड़तीं.

इस बार बड़े भैया जब आए तब जाने क्यों बाबूजी खुद ही उन से बोलने लगे. भाभीजी ने पांव छुए तो फल उठा कर उन के आंचल में डाले. पास बैठ कर घंटों अच्छे दिनों की यादें सुनाने लगे. जब वह लोग माताजी को अपने फ्लैट पर ले गए तो मैं ने देखा कि उस रोज बाबूजी पार्क की बेंच पर अकेले बैठे रो रहे थे.

मैं रुक गई और पूछा, ‘‘क्या बात हो गई?’’ तो कहने लगे कि अनीता, आज तो मैं लुट गया. मेरा एक डिविडेंड आना था. सुरेश फार्म पर साइन करवाने कागज लाया था. मगर मैं ने कुछ अधिक ही पी रखी थी. उस ने बीच में सादे स्टांप पेपर पर साइन करवा लिए. नशा उतरने के बाद अपनी गलती पर पछता रहा हूं. अरे, यह सुरेश किसी का सगा नहीं है. पहले बड़े भाई के संग काम करता था तो उसे बरबाद किया. वह तो बेचारा मेहनत करने परदेस चला गया. मुझ से कहता था, भाई ने रकम दबा ली है और भाग निकला है. मैं भी उसे ही अब तक खुदगर्ज समझता रहा मगर बेईमान यह निकला.

मैं ने कहा, ‘‘अभी भी क्या बिगड़ा है. सबकुछ तो आप के पास है. बड़े को उस का हक दो और आप भी कनाडा देखो.’’

वह हताश हो कर बोले, ‘‘अनीता, कल तक सब था, आज लुट गया हूं. क्या मुंह दिखाऊंगा उसे. मुझे लगता है कि मैं ने इस बार बड़े से बात कर ली तो छोटे ने जलन में मुझे बरबाद कर दिया.’’

मन में आया कह दूं कि आप को तो रुपए की बोरी समझ कर संभाल रखा है. मांजी पर कुछ नहीं है इसलिए उन्हें बड़े भाई के पास बेरोकटोक जाने देता है. मगर मैं क्यों इतनी बड़ी बात जबान पर लाती.

होली की छुट्टियों में मैं गांव गई थी. जाते समय जमादारिन से कह गई थी कि माताजी को देख लेगी. 4 दिन बाद गांव से लौटी तो देखा माताजी बेहोश पड़ी थीं. बड़े भैया 1 माह की दवाइयां, खाने का दिन, समय आदि लिख कर दे गए थे. उसी डा. चावला को टैक्सी भेज कर बुलवाया था जिसे इन लोगों ने मरा बता दिया था. माताजी देख कर हैरान रह गई थीं. डाक्टर साहब ने हंस कर कहा था, ‘‘उठिए, मांजी, स्वर्ग से आप को देखने के लिए आया हूं.’’

बाबूजी ने मुझे बताया कि जब से तू गांव गई सुरेश ने एक भी दवाई नहीं दी. कहने लगा कि आशीष और विशेष की परीक्षाएं हैं, उस के पास दवा देने का दिन भर समय नहीं और मुझे तो ठीक से कुछ दिखता नहीं.

माताजी ब्लड प्रेशर की दवा पिछले 55 साल से खाती आ रही हैं. मुझे बाबूजी से मालूम हुआ कि दवा बंद कर देने से उन का दिल घबराया और सिर में दर्द होने लगा तो सुरेश ने आधी गोली नींद की दे दी थी. उस के बाद ही इन की हालत खराब हुई है.

मैं ने माताजी की यह हालत देखी तो झटपट बड़े भैया को फोन लगाया. सुनते ही वह दौड़े आए. बड़ी भाभी ने हिलाडुला कर किसी तरह उठाया और पानी पिलाया. माताजी ने आंखें खोलीं. थोड़ा मुसकराईं और आशीर्वाद दिया, ‘‘सुखी रहो…सदा सुहागिन बनी रहो.’’

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बस, यही उन के आखिरी बोल थे. अगले 7 दिन वह जिंदा तो रहीं पर न खाना मांगा न उठ कर बैठ पाईं. डाक्टर ने कहा, सांस लेने में तकलीफ है. चम्मच से पानी बराबर देते रहिए.

मैं बैठी रही पर उन्होंने आंखें नहीं खोलीं. ज्यादा हालत बिगड़ी तो डाक्टर ने कहा कि इन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ेगा.

सुरेश झट से बोला, ‘‘देख लो, बाबूजी. क्या फायदा ले जाने का, पैसे ही बरबाद होंगे.’’

तभी बड़ी भाभी ने अंगरेजी में बाबूजी को डांटा कि आप इन के पति हैं. यह घड़ी सोचने की नहीं बल्कि अपनी बीवी को उस के आखिरी समय में अच्छे से अच्छे इलाज मुहैया कराने की है, अभी इसी वक्त उठिए, आप को कोई कुछ करने से नहीं रोकेगा.

2 दिन बाद माताजी चल बसीं. उन का शव घर लाया गया. महल्ले की औरतें घर आईं तो संतोष बीबीजी ऊपर से उतरीं और दुपट्टा आंखों पर रख कर रोने का दिखावा करने लगीं.

अंदर मांजी को नहलानेधुलाने का काम मैं ने और बड़ी भाभी ने किया. बड़े भैया ने ही उन के दाहसंस्कार पर सारा खर्च किया.

कल माताजी का चौथा था. कालोनी की नागरिक सभा की ओर से सारा इंतजाम मुफ्त में किया गया. पंडाल लगा, दरी बिछाई गई. रस्म के मुताबिक सुरेश को सिर्फ चायबिस्कुट खिलाने थे.

सुबह 11 बजे मैं घर पहुंची तो देखा, बाबूजी उसी पलंग पर लेटे हुए थे जिस पर माताजी लेटा करती थीं. मैं ने उन्हें उठाया, कहा कि पलंग की चादरें भी नहीं बदलवाईं अभी किसी ने.

यह सुनते ही सुरेश चिल्लाए, ‘‘तेरा अब यहां कोई काम नहीं, निकल जा. होली की छुट्टी लेनी जरूरी थी. मार डाला न मेरी मां को. अब 4 दिन की नागा काट कर हिसाब कर ले और दफा हो.’’

‘‘माताजी को किस ने मारा, यह इस परिवार के लोगों को अच्छी तरह पता है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा हिसाब.’’

मैं चिल्ला पड़ी थी. मेरा रोना निकल गया पर मैं रुकी नहीं. लंबेलंबे डग भर कर लौट पड़ी.

बाबूजी मेरे पीछेपीछे आए. मेरे कंधे पर हाथ रखा. उन की आंखों में आंसू थे, भर्राए गले से बोले, ‘‘अब मेरी बारी है, अनीता.’’

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वक्त की अदालत में: भाग 4- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

मेहर ने क्या चाहा था. बस, शादी के बाद एक सुकूनभरी जिंदगी. वह भी न मिल सकी उसे. पति ऐसा मिला जिस ने उसे पैर की जूती से ज्यादा कुछ न समझा. लेकिन वक्त की धारा में स्थितियां बदलती हैं और वह ऐसी बदली कि…

एक लंबी जद्दोजेहद के बावजूद कामांध मुकीम बारबार मुंह से  फुंफकार निकालते हुए सहर को अपनी तरफ खींचने के लिए जोर लगा रहा था. तभी मैं ने एक जोरदार लात उस के कूल्हे पर दे मारी. वह पलट कर चित हो गया. गुस्से से बिफर कर मैं ने दूसरी लात उस के ऊपर दे मारी. दर्द से चीखने लगा. मारे दहशत के मैं ने जल्दी से सहर का हाथ खींच कर उठाया और तेजी से उसे कमरे से बाहर खींच कर दरवाजे की कुंडी चढ़ा दी. और धड़धड़ करती सीढि़यां उतर कर संकरे आंगन के दूध मोगरे के पेड़ के साए तले धम्म से बैठ कर बुरी तरह हांफने लगी.

रात का तीसरा पहर, साफ खुले आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे. नीचे के कमरों में देवरदेवरानी और सास के खर्राटों की आवाजें गूंज रही थीं. दोनों बहनें दम साधे चौथे पहर तक एकदूसरे से लिपटी, गीली जमीन पर बैठी अपनी बेकसी पर रोती रहीं. ऊपर के कमरे में पूरी तरह खामोशी पसरी पड़ी थी. नशे में धुत मुकीम शायद सुधबुध खो कर सो गया था.

अलसुबह मैं छोटी बहन को उंगली के इशारे से यों ही चुप बैठे रहने को कह कर दबे कदमों से ऊपर पहुंची. बिना आवाज किए कुंडी खोली. हलके धुंधलके में मुकीम का नंगा शरीर देखते ही मुंह में कड़वाहट भर गई. थूक दिया उस के गुप्तांग पर. वह कसमसाया, लेकिन उठ नहीं सका. मैं ने पर्स में पैसे ठूंसे और दोनों नींद से बो िझल बच्चों को बारीबारी कर के नीचे ले आई और दबेपांव सीढि़यां उतर गई. दोनों बहनें मेनगेट खोल कर पुलिस थाने की तरफ जाने वाली सड़क की ओर दौड़ने लगीं.

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दिन का उजाला शहर के चेहरे पर खींची सड़कों पर फैलने लगा था. ठंडी हवा के  झोंके राहत देने लगे थे. चलते हुए हांफने लगी थीं हम दोनों बहनें. पुलिस थाने से पहले एक पुलिया पर बैठ धौंकती सांसों पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगीं. सड़क पर मौर्निंग वाक करते इक्कादुक्का लोग दिखाई देने लगे थे. बच्चों की आंखें भी खुल गई थीं. मम्मी और खाला को सड़क के किनारे बैठा देख कर वे हैरानी से पूछने लगे, ‘क्या हुआ मम्मी, आप रो क्यों रही हैं?’ ‘कुछ नहीं बेटे’, कह कर मैं ने रुलाई दबाते हुए दोनों बच्चों को सीने से चिपका लिया.

इस घटना ने मेरे दिलोदिमाग को  झक झोर दिया. क्या गजब कर रही हो मेहर? कुंआरी बहन को पुलिस थाने में खड़ा कर के अपने शौहर की करतूतों का बखान करते हुए क्या बदनामी के छीटों से उस के सुनहरे भविष्य पर कालिमा पोत दोगी. तुम्हारी कमजोरी के कारण पहले ही वह मर्द तुम पर इतना हावी है, और अब भी उस का क्या बिगाड़ लोगी. वह मर्द है, सुबूतों के अभाव में बेदाग बरी हो जाएगा. लेकिन तुम्हारी बहन के साथ बलात्कार की तोहमत लगते ही वह कानून और समाज दोनों के हाथों बुरी तरह रुसवा कर दी जाएगी. तुम्हारा सदमा क्या कम है अम्मीअब्बू के लिए जो अब अपने पति के अक्षम्य अपराध की खातिर उन की जिंदगी को नारकीय बनाने जा रही हो. तुम्हारी अबोध बहन जिंदगीभर मीठे खवाबों की लाश ढोतेढोते खुद एक जिंदा लाश बन जाएगी. क्यों बरबाद कर रही हो बहन की जिंदगी? यह तुम्हारी जंग है, तुम लड़ो और जीतो. मैं जैसे डरावने खवाब से जागी.

नहीं, नहीं, मैं अपनी चरमराती जिंदगी की काली छाया अपनी छोटी बहन के उजले भविष्य पर कतई नहीं पड़ने दूंगी. धीरेधीरे मेरा चेहरा कठोर होने लगा. एक ठोस फैसला लिया, ‘सहर, तुम अभी इसी वक्त स्टेशन के लिए रवाना हो जाओ. एन्क्वायरी से पूछ कर रायपुर जाने वाली पहली ट्रेन की जनरल बोगी में बैठ जाना. सामने से गुजरते रिकशे को रोक लिया मैं ने. सहर रात के हादसे से बेहद डर गई थी. दिल से बहन को उस गिद्ध के नुकीले पंजों के बीच अकेले छोड़ना नहीं चाह रही थी लेकिन मेरे बारबार इसरार करने पर रिकशे पर बैठ गई.

सूरज अपनी सुनहरी किरणों के कंधों पर सवार धीरेधीरे  आसमान पर चढ़ने लगा था. पूरा शहर, गलीकूचे, घर उजाले से दमकने लगे थे, लेकिन मेरी ब्याहता जिंदगी का सूरज आज हमेशाहमेशा के लिए डूबने वाला है, यह जानते हुए भी मैं दोनों बच्चों की उंगली पकड़े पुलिस थाने के मुख्यद्वार तक पहुंच गई.

रात की ड्यूटी वाले पुलिसकर्मी खाकी पैंट पर सिर्फ सफेद बनियान पहने दोनों हाथ ऊपर कर के अंगड़ाइयां ले कर मुंह से लंबीलंबी उबासियां लेते हुए रात की खुमारी उतार रहे थे.

‘मु झे रिपोर्ट लिखवानी है,’ मेरा चेहरा सख्त और आवाज में पुख्तगी थी. 2 बच्चों के साथ मैक्सी पहने सामने खड़ी महिला को देख कर भांपते देर नहीं लगी. वे समझ गए कि नारी उत्पीड़न और घरेलू मारपीट का मामला लगता है.

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सिपाही ने बीड़ी सुलगाते हुए पूछा, ‘क्या हुआ?’

मैं ने बहन के साथ बलात्कार की कोशिश वाली घटना को छिपा कर बाकी सारी दास्तान आंसूभरी आंखों और लरजती आवाज से सुना दी.

‘पढ़ीलिखी लगती है’, सिपाही दूसरे की तरफ देख कर फुसफुसाया. फिर बोला, ‘रिपोर्ट तो हम लिख लेंगे मैडम, मगर यहां आएदिन ही औरतमर्द का  झगड़ा भांगड़ का तमाशा देखते हैं हम.’

‘मु झ पर जुल्म हो रहा है. मैं अपनी सुरक्षा के लिए आप के पास रिपोर्ट लिखवाने आई हूं. और आप इसे तमाशा कह रहे हैं?’

‘अरे मैडम, हम तो रोेजिच ये भांगड़ देखते हैं न. औरत बड़े गुस्से में आ कर रिपोर्ट लिखवाती है अपने मरद और ससुराल वालों के खिलाफ. फिर पता  नहीं कहां से उस के भीतर हिंदुस्तानी औरत का मोरल सिर उठाने लगता है और वह पति को ले कर कंप्रोमाइज करने आ जाती है. ऐसे में हमारी पोजिशन बड़ी खराब हो जाती है. न तो हम कोई ऐक्शन ले सकते हैं, न ही थाने का मजाक बनते देख सकते हैं. आप बुरा नहीं मानने का,’ होंठ टेढ़े कर के बीड़ी के आखिरी सिरे की आग को टेबल पर रगड़ता हुआ बोला सिपाही.

‘नहीं, मैं रिपोर्ट वापस नहीं लूंगी. थक गई हूं मैं 12 सालों से रोजरोज गालियां सुनते और मार खाते हुए’, कह कर मैं ने गले पर लिपटा दुपट्टा नीचे खिसका दिया. गले और कंधे पर जमे खून के धब्बे और नीले निशान देख कर थाना इंचार्ज ने सारी स्थिति सम झ कर रिपोर्ट लिख दी. महाराष्ट्र पुलिस हमेशा से अपनी मुस्तैदी के कारण शाबाशी की हकदार रही है. तुरंत हरकत में आ गई. मु झे लेडी पुलिस के साथ मेओ अस्पताल मैडिकल के लिए भेजा और दूसरी तरफ नंगे पड़े मुकीम को थाने ले आई.

दूसरे दिन लोकल अखबारों में मर्दाना वहशत को महिला समाज में दशहत बना कर सुर्खियों में खबर छपी, ‘सरकारी शिक्षिका घरेलू हिंसा की शिकार, पति पुलिस कस्टडी में.’ पुलिस ने मु झे बच्चों के साथ घर पहुंचा दिया और वायरलैस से खबर दे कर अब्बू को नागपुर बुलवा लिया. तीसरे दिन शाम को ट्रक में भर कर बेटी का सामान स्कूल क्वार्टर में पहुंचा दिया. अब्बू एक हफ्ते तक साथ रहे. मेरे सिर पर हाथ रख कर सम झाते रहे, ‘सब्र करो, बेटा. सब ठीक हो जाएगा.’

घर के टूटने के मानसिक आघात से उबरने में लंबा वक्त लगा मु झे. अब्बू वापस चले गए. मैं बच्चों के साथ करोड़ों की आबादी वाले देश में तनहा रह गई.

स्कूल में सहकर्मियों के साथसाथ विद्यार्थियों से नजरें मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती थी. बचपन से ही मैं अंतर्मुखी, अल्पभाषी, कभी भी किसी से अपना दुखदर्द बांटने के लिए शब्द नहीं बटोर पाती थी. रात की भयावहता मेरे अंदर के सुलगते ज्वालामुखी के लावे को आंखों के रास्ते निकालने में मदद करती. होंठों पर गहरी खामोशी और आंखों के नीचे काले दायरे मेरी बेबसी की कहानी के लफ्ज बन जाते. हर रात आंसुओं से तकिया भीगता. मेरा खंडित परिवार मिलिट्री एरिया के स्कूल में महफूज तो था लेकिन डाक टिकट के परों पर बैठ कर कागजी यमदूतों को मु झ तक पहुंचने से रोकने के लिए कोई कानून नहीं बना था.

2 महीने बाद ही कोर्ट का नोटिस मिला, ‘घर से चोरी कर के चुपचाप भागने का इलजाम…’ चीजों की लिस्ट में आधुनिक घरेलू चीजों के अलावा इतने जेवरात और रुपयों का जिक्र था जिन्हें मुकीम ने कभी देखा भी नहीं होगा. एक हफ्ते बाद फिर दूसरा नोटिस मिला, ‘बच्चों पर पिता का मालिकाना हक जताने का दावा.’

वकील ने तसल्ली दी थी, ‘दुहानी गाय हाथ से निकल गई. बस, इस की तिलमिलाहट है. जो शख्स अच्छा शौहर नहीं बन सका वह अच्छा बाप कैसे बन सकता है.’

प्राथमिक शिक्षिका की सीमित तनख्वाह, उस पर सरकारी क्वार्टर का किराया, फैस्टिवल एडवांस की कटौती, बच्चों की किताबों और घर का खर्च. महीने के आखिरी हफ्ते में एक वक्त की रोटी से ही गुजर करनी पड़ती.

तीसरे महीने प्राचार्य ने मेरे सारे ओरिजिनल सर्टिफिकेट मंगवाए तो मुकीम की बिजबिजाती बदलेभरी सोच का एक और घिनौना सुबूत सामने आया, ‘जाली सर्टिफिकेट से हासिल नौकरी की एन्क्वायरी.’ 12 साल साथ रह कर भी मेरी एक भी खूबी मुकीम का दिल नहीं जीत सकी. बेरहम को अपने बच्चों पर भी रहम नहीं आया.

आधी रात को घर की खटकती कुंडी की कर्कश आवाज ने मु झे नींद से जगा दिया. दरवाजा खोला तो 3 कलीग, एक महिला 2 पुरुष, मुझे निर्विकार और उपेक्षित भाव से घूर रहे थे. ‘सर, इस वक्त?’ शब्द गले में अटकने लगे मेरे.

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सौरी मैडम, फौर डिस्टर्बिंग यू इन दिस औड टाइम. मिसेस ने बतलाया कि आप की तबीयत खराब है, इसलिए खबर लेने आए हैं. अंदर आने के लिए नहीं कहेंगी? सहज बनने का अभिनय करते हुए दरवाजे से मेरे थोड़ा हटते ही तीनों घर में घुस आए. मेरे माथे पर हथौड़े पड़ने लगे. मेरी बीमारी की  झूठी खबर किस दुश्मन ने उड़ाई होगी. और मेरी खैरियत जानने के लिए आधी रात का ही वक्त चुनने की गरज क्यों आन पड़ी मेरे कलीग्स को? लेकिन प्रत्यक्ष में ठहरी हुई  झील की तरह मैं शांत रही.

‘आप ने बरसात में छत के टपकने की कंपलेंट की थी न. कौन सा कमरा है?’ कहते हुए रस्तोगीजी घड़घड़ाते हुए बैडरूम में पहुंच गए, ‘एक्चुअली बिल्ंिडग मेंटिनैंस का चार्ज पिछले हफ्ते ही दिया गया है न मु झे.’

‘बच्चे सो गए क्या?’ महिला सहकर्मी ने बनावटी हमदर्दी दिखलाई और आंखें घुमाघुमा कर खूंटी पर टंगे कपड़ों और रैक पर रखे जूतों के साइज नापने लगी.

‘मैडम, क्या मैं आप का टौयलेट यूज कर सकता हूं?’ निगमजी ने औपचारिकता निभाई.

‘ओह, श्योर सर.’

तीनों अध्यापक घर के किचन, बैडरूम और बाथरूम का निरीक्षण करने लगे. मैं हैरानपरेशान, बस, चुपचाप उन्हें अपने ही घर में बेहिचक चहलकदमी करते देखती रही. दूसरे दिन दहकता शोला अंतरंग कलीग ने सीने में डाल दिया. ‘मुकीम ने हायर अथौरिटी से कंपलेंट की है कि यू आर लिविंग विद समबडी एल्स.’ सुन कर मेरे बरदाश्त का बांध तिलमिलाहट के तूफानी वेग में बुरी तरह से टूट गया.

मर्द समाज के पास औरत को बदनाम करने के लिए सब से सिद्धहस्त बाण, उस के चरित्र को  झूठमूठ ही आरोपित करना है, बस. औरत अपनी सचाई का सुबूत किसे बनाएगी? कौन कोयले की दलाली में हाथ काले करेगा? कोई सुबूत नहीं. चश्मदीद गवाह नहीं. अपराध और मढ़े गए ग्लानिबोध से टूटी, अपनेआप ही केंचुए की तरह अपने दामन के व्यास को समेट लेगी. सदियों से बड़ी ही कामयाबी से इस नुस्खे को आजमा कर मर्द समाज अपनी मर्दाना कामयाबी पर ठहाके लगाते हुए जश्म मना रहा है.

3 केसों की तारीखें पड़ने लगीं. कोर्ट के नोटिस आने लगे. वकील साहब ने मेरी नौकरी की मजबूरी को देख कर पेशी पर अपना मुंशी खड़ा करने का वादा किया. ‘मैडम, मेरी फीस कम कर दीजिए मगर मुंशी तो छोटी तनख्वाह वाला बालबच्चेदार आदमी है.’

अगले भाग में पढ़ें- ‘उन्होंने क्या दूसरा निकाह कर लिया है?

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