कबाड़: क्या यादों को कभी भुलाया जा सकता है?

‘‘सुनिए, पुताई वाले को कब बुला रहे हो? जल्दी कर लो, वरना सारे काम एकसाथ सिर पर आ जाएंगे.’’

‘‘करता हूं. आज निमंत्रणपत्र छपने के लिए दे कर आया हूं, रंग वाले के पास जाना नहीं हो पाया.’’

‘‘देखिए, शादी के लिए सिर्फ 1 महीना बचा है. एक बार घर की पुताई हो जाए और घर के सामान सही जगह व्यवस्थित हो जाए तो बहुत सहूलियत होगी.’’

‘‘जानता हूं तुम्हारी परेशानी. कल ही पुताई वाले से बात कर के आऊंगा.’’

‘‘2 दिन बाद बुला ही लीजिए. तब तक मैं घर का सारा कबाड़ निकाल कर रखती हूं जिस से उस का काम भी फटाफट हो जाएगा और घर में थोड़ी जगह भी हो जाएगी.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. वैसे भी वह छोटा कमरा बेकार की चीजों से भरा पड़ा है. खाली हो जाएगा तो अच्छा है.’

जब से अविनाश की बेटी सपना की शादी तय हुई थी उन की अपनी पत्नी कंचन से ऐसी बातचीत चलती रहती थी. जैसेजैसे शादी का दिन नजदीक आ रहा था, काम का बोझ और हड़बड़ाहट बढ़ती जा रही थी.

घर की पुताई कई सालों से टलती चली आ रही थी. दीपक और सपना की पढ़ाई का खर्चा, रिश्तेदारी में शादीब्याह, बाबूजी का औपरेशन वगैरह ऐसी कई वजहों से घर की सफाईपुताई नहीं हुई थी. मगर अब इसे टाला नहीं जा सकता था. बेटी की शादी है, दोस्त, रिश्तेदार सभी आएंगे. और तो और लड़के वालों की तरफ से सारे बराती घर देखने जरूर आएंगे. अब कोई बहाना नहीं चलने वाला. घर अच्छी तरह से साफसुथरा करना ही पड़ेगा.

दूसरे ही दिन कंचन ने छोटा कमरा खाली करना शुरू किया. काफी ऐसा सामान था जो कई सालों से इस्तेमाल नहीं हुआ था. बस, घर में जगह घेरे पड़ा था. उस पर पिछले कई सालों से धूल की मोटी परत जमी हुई थी. सारा  कबाड़ एकएक कर के बाहर आने लगा.

‘‘कल ही कबाड़ी को बुलाऊंगी. थक गई इस कबाड़ को संभालतेसंभालते,’’ कमरा खाली करते हुए कंचन बोल पड़ीं.

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आंगन में पुरानी चीजों का एक छोटा सा ढेर लग गया. शाम को अविनाश बाहर से लौटे तो उन्हें आंगन में फेंके हुए सामान का ढेर दिखाई दिया. उस में एक पुराना आईना भी था. 5 फुट ऊंचा और करीब 2 फुट चौड़ा. काफी बड़ा, भारीभरकम, शीशम की लकड़ी का मजबूत फ्रेम वाला आईना. अविनाश की नजर उस आईने पर पड़ी. उस में उन्होंने अपनी छवि देखी. धुंधली सी, मकड़ी के जाले में जकड़ी हुई. शीशे को देख कर उन्हें कुछ याद आया. धीरेधीरे यादों पर से धूल की परतें हटती गईं. बहुत सी यादें जेहन में उजागर हुईं. आईने में एक छवि निखर आई…बिलकुल साफ छवि, कंचन की. 29-30 साल पहले की बात है. नईनवेली दुलहन कंचन, हाथों में मेहंदी, लाल रंग की चूडि़यां, घूंघट में शर्मीली सी…अविनाश को अपने शादी के दिन याद आए.

संयुक्त परिवार में बहू बन कर आई कंचन, दिनभर सास, चाची सास, दादी सास, न जाने कितनी सारी सासों से घिरी रहती थी. उन से अगर फुरसत मिलती तो छोटे ननददेवर अपना हक जमाते. अविनाश बेचारा अपनी पत्नी का इंतजार करतेकरते थक जाता. जब कंचन कमरे में लौटती तो बुरी तरह से थक चुकी होती थी. नौजवान अविनाश पत्नी का साथ पाने के लिए तड़पता रह जाता. पत्नी को एक नजर देख पाना भी उस के लिए मुश्किल था. आखिर उसे एक तरकीब सूझी. उन का कमरा रसोईघर से थोड़ी ऊंचाई पर तिरछे कोण में था. अविनाश ने यह बड़ा सा आईना बाजार से खरीदा और अपने कमरे में ऐसे एंगल (कोण) में लगाया कि कमरे में बैठेबैठे रसोई में काम करती अपनी पत्नी को निहार सके.

इसी आईने ने पतिपत्नी के बीच नजदीकियां बढ़ा दीं. वे दोनों दिल से एकदूसरे के और भी करीब आ गए. उन के इंतजार के लमहों का गवाह था यह आईना. इसी आईने के जरिए वे दोनों एकदूसरे की आंखों में झांका करते थे, एकदूसरे के दिल की पुकार समझा करते थे. यही आईना उन की नजर की जबां बोलता रहा. उन की जवानी के हर पल का गवाह था यह आईना.

आंगन में खड़ेखड़े, अपनेआप में खोए से, अविनाश उन दिनों की सैर कर आए. अपनी नौजवानी के दिनों को, यादों में ही, एक बार फिर से जी लिया. अविनाश ने दीपक को बुलाया और वह आईना उठा कर अपने कमरे में करीने से रखवाया. दीपक अचरज में पड़ गया. ऐसा क्या है इस पुराने आईने में? इतना बड़ा, भारी सा, काफी जगह घेरने वाला, कबाड़ उठवा कर पापा ने अपने कमरे में क्यों लगवाया? वह कुछ समझ नहीं पा रहा था. वह अपनी दादी के पास चला गया.

‘‘दादी, पापा ने वह बड़ा सा आईना कबाड़ से उठवा कर अपने कमरे में लगा दिया.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’

‘‘दादी, वह कितनी जगह घेरता है? कमरे से बड़ा तो आईना है.’’

दादी अपना मुंह आंचल में छिपाए धीरेधीरे मुसकरा रही थीं. दादी को अपने बेटे की यह तरकीब पता थी. उन्होंने अपने बेटे को आईने में झांकते हुए बहू को निहारते पकड़ा भी था.

दादी की वह नटखट हंसी… हंसतेहंसते शरमाने के पीछे क्या माजरा है, दीपक समझ नहीं सका. पापा भी मुसकरा रहे थे. जाने दो, सोच कर दीपक दादी के कमरे से बाहर निकला.

इतने में मां ने दीपक को आवाज दी. कुछ और सामान बाहर आंगन में रखने के लिए कहा. दीपक ने सारा सामान उठा कर कबाड़ के ढेर में ला पटका, सिवा एक क्रिकेट बैट के. यह वही क्रिकेट बैट था जो 20 साल पहले दादाजी ने उसे खरीदवाया था. वह दादाजी के साथ गांव से शहर आया था. दादाजी का कुछ काम था शहर में, उन के साथ शहर देखने और बाजार घूमने दीपू चल पड़ा था. चलतेचलते दादाजी की चप्पल का अंगूठा टूट गया था. वैसे भी दादाजी कई महीनों से नई चप्पल खरीदने की सोच रहे थे. बाजार घूमतेघूमते दीपू की नजर खिलौने की दुकान पर पड़ी. ऐसी खिलौने वाली दुकान तो उस ने कभी नहीं देखी थी. उस का मन कांच की अलमारी में रखे क्रिकेट के बैट पर आ गया.

उस ने दादाजी से जिद की कि वह बैट उसे चाहिए. दीपू के दादाजी व पिताजी की माली हालत उन दिनों अच्छी नहीं थी. जरूरतें पूरी करना ही मुश्किल होता था. बैट जैसी चीजें तो ऐश में गिनी जाती थीं. दीपू के पास खेल का कोई भी सामान न होने के कारण गली के लड़के उसे अपने साथ खेलने नहीं देते थे. श्याम तो उसे अपने बैट को हाथ लगाने ही नहीं देता था. दीपू मन मसोस कर रह जाता था.

दादाजी इन परिस्थितियों से अच्छी तरह वाकिफ थे. उन से अपने पोते का दिल नहीं तोड़ा गया. उन्होंने दीपू के लिए वह बैट खरीद लिया. बैट काफी महंगा था. चप्पल के लिए पैसे ही नहीं बचे, तो दोनों बसअड्डे के लिए चल पड़े. रास्ते में चप्पल का पट्टा भी टूट गया. सड़क किनारे बैठे मोची के पास चप्पल सिलवाने पहुंचे तो मोची ने कहा, ‘‘दादाजी, यह चप्पल इतनी फट चुकी है कि इस में सिलाई लगने की कोई गुंजाइश नहीं.’’

दादाजी ने चप्पल वहीं फेंक दीं और नंगे पांव ही चल पड़े. घर पहुंचतेपहुंचते उन के तलवों में फफोले पड़ चुके थे. दीपू अपने नए बैट में मस्त था. अपने पोते का गली के बच्चों में अब रोब होगा, इसी सोच से दादाजी के चेहरे पर रौनक थी. पैरों की जलन का शिकवा न था. चेहरे पर जरा सी भी शिकन नहीं थी.

हाथ में बैट लिए दीपक उस दिन को याद कर रहा था. उस की आंखों से आंसू ढलक कर बैट पर टपक पड़े. आज दीपू के दिल ने दादाजी के पैरों की जलन महसूस की जिसे वह अपने आंसुओं से ठंडक पहुंचा रहा था.

तभी, शाम की सैर कर के दादाजी घर लौट आए. उन की नजर उस बैट पर गई जो दीपू ने अपने हाथ में पकड़ रखा था. हंसते हुए उन्होंने पूछा, ‘‘क्यों बेटा दीपू, याद आया बैट का किस्सा?’’

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‘‘हां, दादाजी,’’ दीपू बोला. उस की आंखें भर आईं और वह दादाजी के गले लग गया. दादाजी ने देखा कि दीपू की आंखें नम हो गई थीं. दीपू बैट को प्यार से सहलाते, चूमते अपने कमरे में आया और उसे झाड़पोंछ कर कमरे में ऐसे रख दिया मानो वह उस बैट को हमेशा अपने सीने से लगा कर रखना चाहता है. दादाजी अपने कमरे में पहुंचे तो देखा कि दीपू की दादी पलंग पर बैठी हैं और इर्दगिर्द छोटेछोटे बरतनों का भंडार फैला है.

‘‘इधर तो आइए… देखिए, इन्हें देख कर कुछ याद आया?’’ वे बोलीं.

‘‘अरे, ये तुम्हें कहां से मिले?’’

‘‘बहू ने घर का कबाड़ निकाला है न, उस में से मिल गए.’’

अब वे दोनों पासपास बैठ गए. कभी उन छोटेछोटे बरतनों को देखते तो कभी दोनों दबेदबे से मुसकरा देते. फिर वे पुरानी यादों में खो गए.

यह वही पानदान था जो दादी ने अपनी सास से छिपा कर, चुपके से खरीदा था. दादाजी को पान का बड़ा शौक था, मगर उन दिनों पान खाना अच्छी आदत नहीं मानी जाती थी. दादाजी के शौक के लिए दादीजी का जी बड़ा तड़पता था. अपनी सास से छिपा कर उन्होंने पैसे जोड़ने शुरू किए, कुछ दादाजी से मांगे और फिर यह पानदान दादाजी के लिए खरीद लिया. चोरीछिपे घर में लाईं कि कहीं सास देख न लें. बड़ा सुंदर था पानदान. पानदान के अंदर छोटीछोटी डब्बियां लौंग, इलायची, सुपारी आदि रखने के लिए, छोटी सी हंडिया, चूने और कत्थे के लिए, हंडियों में तिल्लीनुमा कांटे और हंडियों के छोटे से ढक्कन. सारे बरतन पीतल के थे. उस के बाद हर रात पान बनता रहा और हर पान के साथ दादादादी के प्यार का रंग गहरा होता गया.

दादाजी जब बूढ़े हो चले और उन के नकली दांत लग गए तो सुपारी खाना मुश्किल हो गया. दादीजी के हाथों में भी पानदान चमकाने की आदत नहीं रही. बहू को पानदान रखने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. अत: पानदान स्टोर में डाल दिया गया. आज घर का कबाड़ निकाला तो दादी को यह पानदान मिल गया, दादी ने पानदान उठाया और अपने कमरे में ले आईं. इस बार सास से नहीं अपनी बहू से छिपा कर.

थरथराती हथेलियों से वे पानदान संवार रही थीं. उन छोटी डब्बियों में जो अनकहे भाव छिपे थे, आज फिर से उजागर हो गए. घर के सभी सदस्य रात के समय अपनेअपने कमरों में आराम कर रहे थे. कंचन, अविनाश उसी आईने के सामने एकदूसरे की आंखों में झांक रहे थे. दादादादी पान के डब्बे को देख कर पुरानी बातों को ताजा कर रहे थे. दीपक बैट को सीने से लगाए दादाजी के प्यार को अनुभव कर रहा था जब उन्होंने स्वयं चप्पल न खरीद कर उन पैसों से उसे यह बैट खरीद कर दिया था. नंगे पांव चलने के कारण उन के पांवों में छाले हो गए थे.

सपना भी कबाड़ के ढेर में पड़ा अपने खिलौनों का सैट उठा लाई थी जिस से वह बचपन में घरघर खेला करती थी. यह सैट उसे मां ने दिया था.

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छोटा सा चूल्हा, छोटेछोटे बरतन, चम्मच, कलछी, कड़ाही, चिमटा, नन्हा सा चकलाबेलन, प्यारा सा हैंडपंप और उस के साथ एक छोटी सी बालटी. बचपन की यादें ताजा हो गईं. राखी के पैसे जो मामाजी ने मां को दिए थे, उन्हीं से वे सपना के लिए ये खिलौने लाई थीं. तब सपना ने बड़े प्यार से सहलाते हुए सारे खिलौनों को पोटली में बांध लिया था. उस पोटली ने उस का बचपन समेट लिया था. आज उन्हीं खिलौनों को देख कर बचपन की एकएक घटना उस की आंखों के सामने घूमने लगी थी. दीपू भैया से लड़ाई, मां का प्यार और दादादादी का दुलार…

जिंदगी में कुछ यादें ऐसी होती हैं, जिन्हें दोबारा जीने को दिल चाहता है, कुछ पल ऐसे होते हैं जिन में खोने को जी चाहता है. हर कोई अपनी जिंदगी से ऐसे पलों को चुन रहा था. यही पल जिंदगी की भागदौड़ में कहीं छूट गए थे. ऐसे पल, ये यादें जिन चीजों से जुड़ी होती हैं वे चीजें कभी कबाड़ नहीं होतीं.

Serial Story: नादान दिल (भाग-1)

जबसे ईशा यहां आई थी उस ने जी भर कर चिनार के पेड़ देख लिए थे. उन की खुशबू को करीब से महसूस किया था. उसे बहुत भाते थे चिनार के पत्ते. जहां भी जाती 1 अपनी डायरी में रखने के लिए ले आती. बहुत ही दिलकश वादियां थीं. उस ने आंखों ही आंखों में कुदरत की मनमोहक ठंडक अपने अंदर समेटनी चाही.

‘‘ईशा…’’ अपना नाम सुन कर उस की तंद्रा भंग हुई और फिर छोटी सी पगडंडी से कूदतीफांदती होटल के सामने की सड़क पर आ गई.

‘‘बहुत देर हो गई है… अब चला जाए,’’ पास आती शर्मीला ने कहा, ‘‘सुबह पहलगाम के लिए जल्दी निकलना है. थोड़ा आराम कर लेंगे.’’

‘‘ईशा भाभी तो यहां आ कर एकदम बच्ची बन गई हैं, मैं ने अभी देखा पहाड़ी में दौड़ती फिर रही थीं,’’ विरेन भाई ने चुटकी ली.

ईशा झेंप गई. वह खुद में इतनी गुम थी कि पति परेश और उस के दोस्तों की मौजूदगी ही भूल गई थी. इन हसीन वादियों ने उस के पैरों में जैसे पंख लगा दिए थे. ईशा ने कश्मीर की खूबसूरती के बारे में बहुत पढ़ा और सुना था. अकसर फिल्मों में लव सौंग गाते हीरोहीरोइन के पीछे दिखती बर्फ से ढकी पहाडि़यों पर उस की नजरें ठहर जाती थीं और फिर रोमानी खयालात मचल उठते.

कभी सोचा नहीं था कि गुजरात से इतनी दूर यहां घूमने आएगी और इन वादियों में आजाद पंछी की तरह उड़ती फिरेगी. उस ने खुद को एक अरसे बाद इतना खुश पाया था. वे लोग देर तक बस घूम ही रहे थे. अब अंधेरा गहराने लगा तो वापस होटल चल पड़े. शाम से ही पहाड़ों पर हलकी बारिश होने लगी थी. ठंड कुछ और बढ़ गई थी. होटल के अपने नर्म बिस्तर पर करवटें बदलती ईशा की नींद आंखमिचौली खेल रही थी. बगल में सोया परेश गहरी नींद में डूबा था. रात काफी बीत चुकी थी. उस ने एक बार फिर घड़ी पर नजर डाली. वक्त जैसे कट ही नहीं रहा था. हैरत की बात थी कि दिन भर घूमने के बाद भी थकान का नामोनिशान न था.

खयालों का काफिला गुजरता जा रहा था कि एकाएक 2 नीली आंखें जैसे सामने आ गईं. झील सा नीला रंग लिए रशीद की आंखें… वह  2 दिनों से उन लोगों का ड्राइवर एवं गाडड बना था. जिस दिन वे लोग होटल पहुंचे थे, परेश ने घूमने के लिए रशीद की ही गाड़ी बुक कराई थी. किसी विदेशी मौडल सा दिखने वाला गोराचिट्टा रशीद स्वभाव से भी बड़ा मीठा था. उस के बारे में एक और बात उन लोगों को पसंद आई कि वह कहीं पास ही रहता था. वे जब भी बुलाते तुरंत हाजिर हो जाता.

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2 दिनों में ही रशीद ने उन्हें करीब हर घूमने लायक जगह दिखा दी थी. ईशा रशीद से उन जगहों के बारे में बहुत सी बातें पूछती और पूरी जानकारी अपनी डायरी में लिख लेती. ईशा को डायरी लिखने का शौक था. उस के हर अच्छेबुरे अनुभव की साक्षी थी उस की डायरी. बाकी लोग अपने काम से काम रखने वाले थे, मगर ईशा के बातूनीपन की वजह से रशीद और ईशा के बीच खूब बातें होतीं और लगभग एक ही उम्र के होने की वजह से बहुत सी बातों में दोनों की पसंद भी मिलती थी. अकसर ड्राइवर के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठी ईशा जब कभी अचानक सामने देखती, शीशे में उस की और रशीद की नजरें टकरा जातीं. झेंप कर ईशा नजरें झुका लेती. रशीद भी थोड़ा शरमा जाता. उस के साथ हुई बातों से ईशा को पता चला कि वह पढ़ालिखा है और किसी बेहतर काम की तलाश में है. छोटी बहन की शादी की जिम्मेदारी उसी के कंधों पर थी, जिस के लिए उसे पैसों की जरूरत थी. उस की सादगी भरी बातों से ईशा के दिल में उस के प्रति हमदर्दी पैदा हो गई थी, जिस में दोस्ती की महक भी शामिल थी.

अहमदाबाद के रहने वाले परेश और ईशा की शादी को कम ही अरसा हुआ था. मरजी के खिलाफ हुई इस शादी से ईशा खुश नहीं थी. पारंपरिक विचारों वाले परिवार में पलीबढ़ी ईशा अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती थी. मगर जब मैनेजमैंट की पढ़ाई के बीच ही घर वालों ने एक खातेपीते व्यापारी परिवार के लड़के परेश से रिश्ता तय कर दिया तो ईशा के कुछ कर दिखाने के सपने अधूरे ही रह गए.

वह किसी बड़ी नौकरी में अपनी काबिलीयत साबित करना चाहती थी. बहुत झगड़ी थी घर वालों से पर पिता ने बीमार होने का जो जबरदस्त नाटक खेला था उस दबाव में आ कर ईशा ने हथियार डाल दिए थे. ऊपर से मां ने भी पिता का ही साथ दिया. ईशा को समझाया कि उसे कौन सी नौकरी करनी है. व्यापारी परिवार की बहुएं तो बस घर संभालती हैं.

शादी के बाद पति परेश के स्वभाव का विरोधाभास भी दोनों के बीच की दीवार बना. दोनों मन से जुड़ ही नहीं पाए थे. एक फासला हमेशा बरकरार रहता जिसे न कभी ईशा भर पाई न ही परेश. जिस मलाल को ले कर ईशा का मन आहत था, परेश ने कभी उस पर प्यार का मरहम तक लगाने की कोशिश नहीं की. घर का इकलौता बेटा परेश अपने पिता के साथ खानदानी कारोबार में व्यस्त रहता. सुबह का निकला देर रात ही घर लौटता था.

एक बंधेबंधाए ढर्रे पर जिंदगी बिताते परेश और ईशा नदी के 2 किनारों जैसे थे, जो साथ चलते तो हैं, मगर कभी एक नहीं हो पाते. ईशा पैसे की अहमियत समझती थी, मगर जिंदगी के लिए सिर्फ पैसा ही तो सब कुछ नहीं होता. परेश उस के लिए वक्त निकालने की कोई जरूरत तक नहीं समझता था. यह और बात थी कि दोनों हमबिस्तर होते, मगर वह मिलन सूखी रेत पर पानी की बूंदों जैसा होता, जो ऊपर ही ऊपर सूख जाता अंदर तक भिगोता ही नहीं था.

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चुलबुली और बातूनी ईशा शादी के बाद उत्साहहीन रहने लगी. आम पतियों की तरह परेश उस पर जबतब रोब नहीं गांठता था. दोनों के बीच कोई खटास या मनमुटाव भी नहीं था, मगर वह कशिश भी नहीं थी, जो 2 दिलों को एकदूजे के लिए धड़काती है.  विरेन और परेश की दोस्ती पुरानी थी. विरेन को दोस्त का हाल खूब पता था. विरेन ने एक दिन परेश को सुझाव दिया कि ईशा के साथ कुछ वक्त अकेले में बिताने के लिए दोनों को घर से कहीं दूर घूम आना चाहिए.

आगे पढ़ें- शादी के बाद कुछ कारोबारी जिम्मेदारियों के चलते दोनों…

Serial Story: नादान दिल (भाग-2)

ईशा जानती थी कि विरेन भाई उन के हितैषी हैं, मगर परेशानी यह थी कि परेश के मन की थाह ईशा अभी तक नहीं लगा पाई थी. परेश उस से कितना तटस्थ रहता पर ईशा कोई कदम नहीं उठाती उस दूरी को मिटाने के लिए. अपने घर वालों की मनमरजी का बदला एक तरह से वह अपनी शादी से ले रही थी. यह बात उस के मन में घर कर गई थी कि कहीं न कहीं परेश भी उतना ही दोषी है जितने ईशा के मांबाप. वह सब को दिखा देना चाहती थी कि वह इस जबरदस्ती थोपे गए रिश्ते से खुश नहीं है.

शादी के बाद कुछ कारोबारी जिम्मेदारियों के चलते दोनों कहीं नहीं जा पाए थे और ईशा ने भी कभी कहीं जाने की उत्सुकता नहीं दिखाई. इस तरह से उन का हनीमून कभी हुआ ही नहीं. अब जब अकेले घूम आने की चर्चा हुई तो ईशा को लग रहा था कि परेश और वह एकदूसरे के साथ से जल्दी ऊब जाएंगे. अत: उस ने विरेन और उस की पत्नी शर्मीला को साथ चलने को कहा. सब ने मिल कर जगह का चुनाव किया और कश्मीर आ गए.  रात के अंधेरे में हाउस बोटों की रोशनी जब पानी पर पड़ती तो किसी नगीने सी

झिलमिलाती झील और भी खूबसूरत लगती. ईशा पानी में बनतीमिटती रंगीन रोशनी को घंटों निहारती रही. कदमकदम पर अपना हुस्न बिछाए बैठी कुदरत ने उस के दिल के तार झनझना दिए. उस का मन किया कि परेश उस के करीब आए, उस से अपने दिल की बात करे. अपने अंह को कुचल कर वह खुद पहल नहीं करना चाहती थी. उन के पास बेशुमार मौके थे इन खूबसूरत नजारों में एकदूसरे के करीब आने के बशर्ते परेश भी यही महसूस करता. शर्मीला और ईशा दोस्त जरूर थीं, मगर दोस्ती उतनी गहरी भी नहीं थी कि ईशा उस से अपना दुखड़ा रोती. ऐसे में वह खुद को और भी तनहा महसूस करती.

बहुत देर तक यों ही अकेले बैठी ईशा का मन ऊब गया तो वह कमरे में आ गई. परेश वहां नहीं था. शायद जाम का दौर अभी और चलेगा. उस ने उकता कर एक किताब खोली, पर फिर झल्ला कर उसे भी बंद कर दिया.

‘चलो शर्मीला से गप्पें लड़ाई जाएं’ उस ने सोचा. शर्मीला और विरेन का कमरा बगल में ही था. कमरे के पास पहुंच कर उस ने दरवाजे पर दस्तक दी. कुछ देर इंतजार के बाद कोई जवाब न पा कर उलटे पैर लौट आई अपने कमरे में और बत्ती बुझा कर उस तनहाई के अंधेरे में बिस्तर पर निढाल हो गई. आंसुओं की गरम बूंदें तकिया भिगोने लगीं. नींद आज भी खफा थी.

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दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर सब घूमने निकल गए. रशीद हमेशा की तरह समय पर आ गया था. रास्ता पैदल चढ़ाई का था. पहाड़ी रास्तों को तेज कदमों से लांघतीफांदती ईशा जब ऊपर चोटी पर पहुंच कर किसी उत्साही बच्चे की तरह विजयी भाव से खिलखिलाने लगी तो रशीद ने उसे पानी की बोतल थमाई. ईशा ने ढलान की ओर देखा सब कछुए की चाल से आ रहे थे. घने जंगल से घिरी छोटी सी यह घाटी बहुत लुभावनी लग रही थी. ‘‘आप तो बहुत तेज चलती हैं मैडमजी,’’ रशीद हैरान था उसे देख कर कि शहर की यह कमसिन लड़की कैसे इन पहाड़ी रास्तों पर इतनी तेजी से चल रही है. ईशा ने अपनी दोनों बांहें हवा में लहरा दीं और फिर आंखें बंद कर के एक गहरी सांस ली. ताजा हवा में देवदार और चीड़ के पेड़ों की खुशबू बसी थी.

‘‘रशीद तुम कितनी खूबसूरत जगह रहते हो,’’ ईशा मुग्ध स्वर में बोली. रशीद ने उस पर एक मुसकराहट भरी नजर फेंकी. आज से पहले किसी टूरिस्ट ने उस से इतनी घुलमिल कर बातें नहीं की थीं. ईशा के सवाल कभी थमते नहीं थे और रशीद को भी उस से बातें करना अच्छा लगता था.

अब तक बाकी लोग भी ऊपर आ चुके थे. उस सीधी चढ़ाई से परेश, विरेन और शर्मीला बुरी तरह हांफने लगे थे. थका सा परेश एक बड़े पत्थर पर बैठ गया तो ईशा को न जाने क्यों हंसी आ गई. काम में उलझा परेश खुद को चुस्त रखने के लिए कुछ नहीं करता था. विरेन कैमरा संभाल सब के फोटो खींचने लगा. वे लोग अभी मौसम का लुत्फ ले ही रहे थे कि एकाएक आसमान में बादल घिर आए और देखते ही देखते चमकती धूप में भी झमाझम बारिश शुरू हो गई. जिसे जहां जगह दिखी वहीं दौड़ पड़ा बारिश से बचने के लिए. बारीश ने बहुत देर तक रुकने का नाम नहीं लिया तो उन लोगों ने घोड़े

किराए पर ले लिए होटल लौटने के लिए. पहली बार घोड़े पर बैठी ईशा बहुत घबरा रही थी. बारिश के कारण रास्ता बेहद फिसलन भरा हो गया था. बाकी घोड़े न जाने कब उस बारिश में आंखों से ओझल हो गए. रशीद ईशा के घोड़े की लगाम पकड़े साथ चल रहा था. ईशा का डर दूर करने के लिए वह घोड़े को धीमी रफ्तार से ले जा रहा था.

‘‘और धीरे चलो रशीद वरना मैं गिर जाऊंगी,’’ ईशा को डर था कि जरूर उस का घोड़ा इस पतली पगडंडी में फिसल पड़ेगा और वह गिर जाएगी.

‘‘आप फिक्र न करो मैडमजी. आप को कुछ नहीं होगा. धीरे चले तो बहुत देर हो जाएगी,’’ रशीद दिनरात इन रास्तों का अभ्यस्त था. उस ने घोड़े की लगाम खींच कर थोड़ा तेज किया ही था कि वही हुआ जिस का ईशा को डर था. घोड़ा जरा सा लड़खड़ा गया और ईशा संतुलन खो कर उस की पीठ से फिसल गई. एक चीख उस के मुंह से निकल पड़ी.

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रशीद ने लपक कर उसे थाम लिया और दोनों ही गीली जमीन पर गिर पड़े. ईशा के घने बालों ने रशीद का चेहरा ढांप लिया. दोनों इतने पास थे कि उन की सांसें आपस में टकराने लगीं. रशीद का स्पर्श उसे ऐसा लगा जैसे बिजली का तार छू गया हो. रशीद की बांहों ने उसे घेरा था. उस अजीब सी हालत में दोनों की आंखें मिलीं तो ईशा के तनबदन में जैसे आग लग गई. चिकन की कुरती भीग कर उस के बदन से चिपक गई थी. मारे शर्म के ईशा का चेहरा लाल हो उठा. उस की पलकें झुकी जा रही थीं. उस ने खुद को अलग करने की पूरी कोशिश की. दोनों को उस फिसलन भरी डगर पर संभलने में वक्त लग गया. पूरा रास्ता दोनों खामोश रहे. उस एक पल ने उन की सहज दोस्ती को जैसे चुनौती दे दी थी. बेखुदी में ईशा को कुछ याद नहीं रहा कि कब वह होटल पहुंची. गेट से अंदर आते ही उस ने देखा परेश, विरेन और शर्मीला होटल की लौबी में बेसब्री से उस का इंतजार कर रहे थे.

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Serial Story: नादान दिल (भाग-3)

परेश लपक कर उस के पास आया. ईशा के कपड़ों में मिट्टी लगी थी. उस ने बताया कि वह घोड़े से फिसल गई थी. परेश चिंतित हो उठा. शर्मीला और विरेन को भी फिक्र हो गई. ईशा ने जब तीनों को आश्वस्त किया कि वह एकदम ठीक है तब सब को तसल्ली हुई. ईशा शावर की गरम बौछार में बड़ी देर तक बालों से मिट्टी छुड़ती रही. जितना ही खुद को संयत करने की कोशिश करती उतनी ही और बेचैन हो जाती. आज की घटना रहरह कर विचलित कर रही थी. आंखें बंद करते ही रशीद का चेहरा सामने आ जाता. उन बांहों की गिरफ्त अभी तक उसे महसूस हो रही थी. ऐसा क्यों हो रहा था उस के साथ, वह समझ नहीं पा रही थी. पहले तो कभी उसे यह एहसास नहीं हुआ था. तब भी नहीं जब परेश रात के अंधेरे में बिस्तर पर उसे टटोलता. परेश ने उस के लिए सूप का और्डर दे दिया था और खाना भी कमरे में ही मंगवा लिया था.

‘‘ईशा घर से फोन आया था… मुझे कल वापस जाना होगा,’’ परेश ने खाना खाते हुए बताया.

‘‘अचानक क्यों? हम 2 दिन बाद जाने ही वाले हैं न?’’ ईशा ने पूछा.

‘‘तुम नहीं बस मैं जाऊंगा… कोई जरूरी काम आ गया है. मेरा जाना जरूरी है.

मगर तुम फिक्र मत करो. मैं ने सब ऐडवांस बुकिंग करवाई है. कल सुबह हम लोग श्रीनगर जा रहे हैं जहां से मैं एअरपोर्ट चला जाऊंगा.’’

‘‘तो फिर मैं वहां अकेली क्या करूंगी.

2 दिन बाद चलेंगे… क्या फर्क पड़ेगा?’’ ईशा को यह बात अटपटी लग रही थी कि दोनों साथ में छुट्टियां बिताने आए थे और अब इस तरह परेश अकेला वापस जा रहा है.

‘‘मैं अगर कल नहीं पहुंचा तो बहुत नुकसान हो जाएगा… यह डील हमारे बिजनैस के लिए बहुत जरूरी है… देखो, तुम समझने की कोशिश करो. वैसे भी तुम कुछ दिन और रुकना चाहती थी, घूमना चाहती थी और फिर तुम अकेली नहीं हो, विरेन और शर्मीला भाभी तुम्हारे साथ हैं. तब तक घूमोफिरो, यहां काफी कुछ है देखने के लिए,’’ परेश ने बात खत्म की.

परेश के स्वभाव की यही खासीयत थी कि वह दिल का बहुत उदार था. परेश को आराम से खाना खाते देख कर ईशा को उस के प्रति अपनी बेरुखी कहीं कचोटने लगी. बेशक वह चाहता तो ईशा को अपने साथ चलने के लिए मजबूर कर सकता था, लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया. यह ईशा की ही जिद थी कि कुछ दिन और रुका जाए जिसे परेश ने मान भी लिया था. वजह क्या थी उस की समझ नहीं आ रहा था पर अब परेश का इस तरह बीच में ही उसे अकेला यहां छोड़ कर जाना भी अच्छा नहीं लग रहा था. एक शाल लपेट कर ईशा बालकनी में आ गई. ठंडी हवा ने बदन को सिहरा दिया. बाहर सड़क पर इक्कादुक्का लोग ही दिख रहे थे… होटल में रुके टूरिस्ट दिन भर की थकान के बाद आराम कर रहे थे. चारों तरफ नीरवता पसरी थी.

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ईशा का ध्यान गेट के पास टिमटिमाती रोशनी पर गया. यह उन की गाड़ी थी जो उन लोगों ने किराए पर ली थी. सुबह उन्हें जल्दी निकलना था तो रशीद ने गाड़ी वहीं खड़ी कर दी थी. उस अंधेरे में भी ईशा ने रशीद की आंखें पहचान लीं. वह ईशा को ही देख रहा था. उस ने हाथ से कुछ इशारा किया.

परेश टीवी पर खबरें देखने में व्यस्त था, ईशा कमरे से निकल कर बालकनी से गेट पर आई. बोली, ‘‘क्या बात है?’’ ईशा के लहजे में संकोच था. कितनी नादान थी वह… रशीद के एक इशारे पर दौड़ी चली आई. रशीद करीब आया और अपनी जींस की जेब से कुछ निकाल कर उस की ओर बढ़ा दिया. होटल के गेट से आती रोशनी में ईशा ने देखा. उस के कान का झुमका था. अनायास हाथ कान पर चला गया. एक झुमका गायब था. जब वह घोड़े से फिसली थी तब गिर गया होगा. मगर एक मामूली झुमके के लिए रशीद इतनी देर से क्यों उस का इंतजार कर रहा था. अब तक तो उसे चले जाना चाहिए था. ईशा ने रशीद की तरफ देखा जो न जाने कब से टकटकी लगाए उसे ही देख रहा था.

‘‘इसे तुम सुबह भी दे सकते थे, न चाहते हुए भी उस की आवाज में तलखी आ गई.’’

‘‘मुझे लगा आप इसे ढूंढ़ रही होंगी,’’ रशीद बोला और फिर पलट कर तेज कदमों से सड़क के उस पार चला गया. नींद फिर उस के साथ आंखमिचौली करने लगी थी. उस ने अपनी तरफ के साइड लैंप को जला कर डायरी निकाल ली और बड़ी देर तक कुछ लिखती रही. जब लिखना बंद किया तो खयालों ने आ घेरा…

उसे शादी के दिन से अब तक परेश के साथ बिताए लमहे याद आने लगे. परेश उस की खुशी का ध्यान रखता था, यह बात उस ने जान कर भी कभी नहीं मानी. उस के अहं ने एक पत्नी को कभी समर्पण नहीं करने दिया. परेश ने कभी उस पर अपनी इच्छा नहीं थोपी और ईशा इस बात से और भी परेशान हो जाती.

आखिर वह किस बात का बदला ले परेश से. अपने सपनों के बारे में उस ने परेश को तो कभी बताया ही नहीं था तो उसे कैसे मालूम होता कि ईशा क्यों खफा है जिंदगी से… आज उस के अंदर यह परिवर्तन अचानक कैसे आ गया… परेश के लिए उस के दिल में कोमल भावनाएं जाग गई थीं, जो अब तक निष्ठुर सो रही थीं. जो रिश्ता सूखे ठूंठ सा था, वहीं से एक कोपल फूट निकली थी आज. सुबह के न जाने किस पहर में ईशा को नींद आई और वह बेसुध सो रही थी. परेश उसे बारबार जगाने की कोशिश कर रहा था. हड़बड़ी में उठ कर ईशा जल्दी से तैयार हो कर सब के साथ गाड़ी में जा बैठी. गाड़ी तेज रफ्तार से भाग रही थी. दिलकश नजारे पीछे छूटते जा रहे थे. ईशा जितनी बार सामने की तरफ देखती, 2 नीली आंखें उसे ही देख रही होतीं. यह हर बार इत्तेफाक नहीं हो सकता था. सब खामोश थे, रेडियो पर एक रोमांटिक गाना बज रहा था, ‘प्यार कर लिया तो क्या…प्यार है खता नहीं…’ किशोर कुमार की नशीली आवाज में गाने के बोल और भी मुखर हो उठे. रशीद ने जानबूझ कर वौल्यूम बढ़ा दिया और एक बार फिर शीशे में दोनों की आंखें मिलीं, सब की नजरों से बेखबर.

ईशा का दिल जैसे चोर बन गया था. उसे खुद पर ही शर्म आने लगी. परेश को अभी निकलना था अहमदाबाद के लिए. अभी 2 दिन और ईशा को यहीं रहना था और इन 2 दिनों में वह इसी तरह रशीद की गाड़ी में घूमते रहेंगे. बारबार एक खयाल उस के दिल में चुभ रहा था कि कुछ गलत हो रहा है.

बीती शाम की बातें ईशा भूली नहीं थी और रात को जब वह रशीद से मिली थी तो उस की आंखों में अपने लिए जो कुछ भी महसूस किया था, उसे यकीन था इन 2 दिनों का साथ उस आग को और भड़का देगा. अचानक उसे परेश की जरूरत महसूस होने लगी. वह परेश की पत्नी है और किसी को भी हक नहीं है उस के बारे में इस तरह सोचने का.

उस ने अपना सिर झटक कर इन खयालों को भी झटक देना चाहा कि नहीं, इन सब बातों का उस के लिए कोई मतलब नहीं है. माना कि उस के और परेश के बीच प्यार नहीं है मगर किसी और के लिए भी वह अपने दिल को इस तरह नादान नहीं बनने देगी, हरगिज नहीं. उस ने खुद को ही यकीन दिलाया.

एअरपोर्ट पहुंच कर जब सब गाड़ी से उतरे तो ईशा ने परेश के साथ ही अपना बैग भी उतरवा लिया. ‘‘तुम क्यों अपना सामान निकाल रही हो?’’ परेश ने उसे चौंक कर देखा.

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‘‘मैं आप के साथ ही चल रही हूं. टिकट मिल जाएगा न?’’

उस के अचानक लिए इस फैसले से विरेन और शर्मीला भी चौंक गए कि कल तक तो वह बहुत उतावली हो रही थी यहां कुछ और दिन बिताने के लिए.

‘‘ईशा भाभी परेश भाई के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती…आज पता चला इन के दिल का हाल…बहुत चाहने वाली पत्नी पाई है परेश भाई,’’ शर्मीला ने ईशा और परेश को छेड़ा. परेश भी एक सुखद आश्चर्य से भर उठा कि क्या सच में ईशा के दिल में उस के लिए प्यार छिपा था? धूप का चश्मा आंखों पर लगा ईशा ने आंखों के कोनों से देखा. रशीद अपनी नीली आंखों से निहारता हुआ गाड़ी के बाहर खड़ा उन का इंतजार कर रहा था.

फ्लाइट का वक्त हो चला था. दोनों गेट की ओर बढ़ने लगे तो शर्मीला और विरेन ने हाथ हिला कर उन्हें विदाई दी. ईशा ने मुड़ कर देखा, रशीद के चेहरे पर हैरानी और उदासी थी, मगर ईशा का दिल शांत था. फिर अचानक उसे कुछ याद आया. वह पलटी और रशीद के पास आई.

‘‘आप जा रही हैं, आप ने बताया नहीं?’’ आहत से स्वर में रशीद ने पूछा. अपना हैंडबैग खोल कर उस ने एक लिफाफा निकाल कर रशीद की तरफ बढ़ा दिया. रशीद ने उसे सवालिया नजरों से देखा. ‘‘तुम्हारी बहन की शादी में तो मैं आ नहीं पाऊंगी इसलिए मेरी तरफ से यह उस के लिए है.’’ रशीद ने इनकार किया तो ईशा ने बड़े अधिकार से उस का हाथ पकड़ कर लिफाफा हाथ में थमा दिया. आखिरी बार फिर 2 जोड़ी आंखें मिलीं और फिर एक प्यारी मुसकराहट के साथ ईशा ने विदा ली.

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जीतन: उसके कौन से अतीत की परतें खुलीं?

Serial Story: जीतन (भाग-2)

पूर्व कथा

अनाथ जीतेंद्र उर्फ जीतन को धनबाद के जंगलों से उठा कर एक समर्थ परिवार के मुखिया ने अपने अधीन पासी परिवार को सौंप दिया था. वर्षों तक उसी परिवार की दया और सहानुभूति के सहारे पलाबढ़ा जीतेंद्र कुशाग्र बुद्धि निकला और सफलता की सीढि़यां चढ़ता गया. हालात के मारे पासीपासिन तो शहर छोड़ कर चले गए पर जीतन धीरेधीरे प्रमोद के परिवार का अंग बन गया. एक दिन उसे एक पत्र मिला जो उस की असली मां ने लिखा था. जिस का नाम महुआ था. उसी पत्र से उस के अतीत की कई परतें खुलीं और जीतन खूब रोया. तभी से वह जुट गया अपनी असली मां की तलाश में.

अब आगे…

जीतेंद्र ने अपनी बीमारी की वजह से 8वें वर्ष में स्कूल जाना प्रारंभ किया. कागजों में गोबीन पासी जीतेंद्र के पिता थे. चूंकि पिताजी परंपराओं से घबराते थे इसलिए उस का दाखिला स्कूल औफ स्टडीज में प्रोफैसरों और लेक्चररों के बच्चों के साथ नहीं करवाया. एक और वजह थी कि यह स्कूल जरा महंगा था.

हमारे कंधों पर चमकीले, भड़कीले बैग लटके रहते थे. हमें लेने स्कूल की बस आती थी जबकि जीतेंद्र हमारे इस्तेमाल किए हुए कपड़े और जूते पहने पैदल ही अपने स्कूल चल पड़ता था. उसे हमारी तरह नाश्ते में आमलेट व टोस्ट नहीं मिलते थे. यद्यपि हमारे पिताजी उस के गार्जियन थे फिर भी हम सब की तरह वे उस के कमरे में नहीं जाया करते थे. पर जीतेंद्र इस बात का इंतजार करता रहता था कि कब मातापिता सो कर उठें और आंगन में आएं ताकि वह उन के चरण छू सके. आशीर्वाद के नाम पर पिताजी अकसर उस से यह जरूर पूछते थे, कैसे हो जीतन?

जीतेंद्र हम सब से ज्यादा मेधावी था. हायर सैकेंडरी की सफलता के बाद वह राष्ट्रीय छात्रवृत्ति भी पाने लगा. इतना ही नहीं, जीतन ने अपने शरीर के सामने हमें बौना बना रखा था. हमारे पास सिर्फ एक ऊंची जाति एक समर्थ परिवार होने के साथसाथ समाज की एक झूठी शान थी, जो उस के पास नहीं थी. उस ने हमारे मातापिता से बेटा शब्द शायद ही कभी सुना हो, पर उसे यह पता था कि सगा बेटा न होने के बाद भी उसे कोई डांट नहीं सकता था.

एक बार एक राजमिस्त्री ने जीतेंद्र को लावारिस कह कर थप्पड़ मार दिया था. हमारी तरह जीतन भी पिताजी का नाम ले कर अपनी शेखी बघारता था और यही उस राजमिस्त्री को अखरता था. जब बहुत देर तक वह खाना खाने नहीं आया तो मां एक थाली में खाना डाल कर जीतेंद्र के कमरे में गईं. जीतेंद्र अपनी कुरसी पर आंसुओें से नहाया बैठा हुआ था. उसे देख कर मां एकदम घबरा गईं और बोलीं, ‘‘क्या बात है जीतेंद्र, आज खाना भी नहीं लेने आए. अपने कमरे में बैठे रो रहे हो, किस ने तुम्हारा दिल दुखाया है?

जीतेंद्र उठ कर मां के दोनों पैर पकड़ कर रोने लगा. हम पिताजी के संग जब बरामदे में आए तो देखा कि मां जीतेंद्र से अपने दोनों पांव छुड़वाने का प्रयास कर रही थीं. मां ने गुस्से में जो कहा वह मैं सुन नहीं पाया लेकिन उस राजमिस्त्री को मां ने कहीं का नहीं छोड़ा. सपरिवार उस से धनबाद छुड़वा कर ही दम लिया.

हायर सैकेंडरी के बाद हम सब भाई बनारस आ गए पर जीतेंद्र धनबाद में ही रहा. उस ने पी.के. राय मैमोरियल कालेज में दाखिला ले लिया. इस कालेज में जाति और इलाके के नाम पर गुटबंदी बहुत थी. हायर सैकेंडरी के बाद जीतेंद्र ने पैंट- कमीज से अलविदा कहा और खादी के कुरतेपाजामे पहनने लगा. वह दाढ़ी भी रखने लगा. उस पर स्थानीय रंगदारों का दबाव पड़ा तो वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘मैं अपने मातापिता को निराश नहीं कर सकता. क्या सोचेंगे वे मेरे बारे में. फिर ऐसी प्रभुता की लड़ाइयों में रखा भी क्या है?’’

अपनी कक्षाओं के बाद जीतेंद्र ज्यादातर घर पर ही होता था. धनबाद में उस का कोई जिगरी दोस्त भी नहीं था. पढ़ाई के अलावा उस के पास 3 व्यस्तताएं थीं. सुबहशाम डट कर कसरत करना, तरहतरह की किताबें पढ़ना और बागान में लगी सब्जियों की देखभाल करना. इस दौरान हमारे मातापिता में भी कई परिवर्तन आए. वे उस से गप्पें मारने के लिए अकसर उस के कमरे में चले जाते. जीतेंद्र भी अब घर के दूसरे कमरों में आनेजाने लगा था.

मैं धनबाद आया तो स्टेशन पर मुझे लेने के लिए जीतेंद्र ही आया हुआ था. सारे रास्ते मैं उसे बनारस के बारे में बताता रहा. मेरे हैंडबैग को तो उस ने मुझे हाथ भी नहीं लगाने दिया. दूसरे दिन से ही वार्षिक खेल शुरू होने थे. मुझे पता था कि जीतेंद्र उस में जरूर भाग लेगा.

‘‘किनकिन मुकाबलों में भाग लेने जा रहे हो.’’

‘‘मां और बाबूजी के लिए मैं सिर्फ दौड़ूंगा भैया.’’

जीतेंद्र की जीतों से मां के नाम का भी जयजयकार होना था. भला यह मौका वे कैसे छोड़ देतीं.

धनबाद ने इस के पहले शायद ही इस तरह का धावक देखा होगा. जीतेंद्र दौड़ता नहीं, उड़ता था. गठीले बदन का जीतेंद्र जब ट्रैक पर आ कर खड़ा होता तब पूरे स्टेडियम की सांसें रुक जाती थीं. मैं ने न जाने कितनी बार मां को यह कहते सुना था कि यह लड़का तूफान है. इस की बराबरी कौन करेगा.

अंतिम दिन की रिले रेस कुछ ज्यादा ही उत्तेजक थी. जीतेंद्र पूरी जीजान लगाए दौड़े जा रहा था. एकएक को उस ने पछाड़ा और सब से पहले लाल फीते को अपने  सीने से छू लिया. पी.के. राय कालेज के तत्कालीन पिं्रसिपल

डा. गोस्वामी भागते हुए हमारे मातापिता से मिलने आए, ‘‘सिंह साहब, यह बालक बेहद अद्भुत है. इस के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. इस ने कालेज का नाम रौशन कर दिया है. पढ़ता भी है, खेलता भी है, गाना भी गाता है, भाषण भी देता है.’’

हमारी सब से बड़ी दीदी कुसुम की गंभीर बीमारी के चलते जीजाजी सपरिवार धनबाद आए. दीदी का इलाज धनबाद के डाक्टर शरण ने अपने हाथोें में लिया. कुछ सप्ताह जीजाजी धनबाद में रहे फिर वापस चले गए. मैं उन दिनों इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ रहा था. दीदी का स्वास्थ्य दिनबदिन बिगड़ता चला जा रहा था. जीतेंद्र के अलावा हम में से कोई भी धनबाद में नहीं था.

दीदी के साथसाथ मां ने भी खाट पकड़ ली थी. ऊपर से दीदी के 3 छोटेछोटे बच्चे. पिताजी को भी मौसमी बीमारी ने घेर रखा था. हमारे लिए नरायन सिंह और जीतेंद्र 2 सब से बड़े संबल थे. पहला पिताजी के अधीन चौकीदार था और दूसरा उन का पाया हुआ बेटा. हमारी दीदी के बच्चे जीतेंद्र को मामा कह कर बुलाते थे. जीतेंद्र हमारी दीदी को बहन और जीजाजी को पाहुन कहता था. हमारी दीदी की तरह जीजाजी भी उसे जीतू कह कर बुलाते थे.

मां और दीदी के बिस्तर के बगल में वह पहरेदारों की तरह बैठा अपनी हरी गमछी से अपना चेहरा ढंके दिनरात सुबकता रहता था. वह सिर्फ दीदी के बच्चों से ही बोलता था.

अपने कालेज के प्रिंसिपल डा. गोस्वामी से जीतेंद्र जा कर माफी मांग आया, ‘‘सर, मेरे मातापिता को मेरी जरूरत है. मेरे दूसरे भाई अपनी पढ़ाई में लगे हुए हैं. वे धनबाद नहीं आ सकते. कुसुम बहन बीमार हैं. मैं बीए की फाइनल परीक्षा में शरीक नहीं हो पाऊंगा और आने वाले 6 महीने की फीस भी नहीं भर पाऊंगा.’’

गांव से हमारी चाची भी धनबाद आ चुकी थीं. 6 महीने तक यह त्रासदी चली. जिस का अंत भी कम भयावह न था. कोलकाता के एक अस्पताल में दीदी की मृत्यु हो गई. उन्हें बचाया नहीं जा सका. अंतिम समय में उन के संग जीजाजी अपने एक दोस्त के साथ थे. धनबाद से सिर्फ जीतेंद्र और पिताजी ही कोलकाता जा पाए. दीदी के ससुराल से कोई भी समय से न आ पाया.

जीतेंद्र का अतीत धनबाद के लिए एक खुली किताब थी. पर उसे किसी भी तरह का सहारा नहीं चाहिए था. उस के पास हमारे मातापिता थे. नरायन सिंह था. मुर्मु था और पासिन जैसी मां थी. इन 6 लोगों में जीतेंद्र के प्राण बसते थे. जीतेंद्र इन के भी चरण छूता था.

पासी की मृत्यु के बाद पासिन को दानापुर छोड़ कर दोबारा जीतेंद्र को  धनबाद आना पड़ा.

जो मुर्मू जीतेंद्र को थामे हमारे घर लाया था वह जाति का मांझी था. जीतेेंद्र के बचपन के बनाए सारे खिलौने उसी के बनाए और तराशे हुए थे. काम के बाद घर जाने से पहले वह रोज ही हमारे घर आ कर जीतेंद्र को लिवा जाता था. जीतेंद्र किसी भी तरह परित्यक्त न था पर वह पूर्णतया स्वीकृत भी नहीं था.

हमारे मातापिता ने भी उसे कई बातों से वंचित कर रखा था. वह हमारे संग गांव नहीं जाता था. उसे पूजा की वेदी पर बैठने नहीं दिया जाता था. उसे न तो गोद में लिया जाता था और न गले लगाया जाता था. मां उस के लिए व्रत नहीं रखती थीं. वह हमारे घर पर अगर नौकर न था तो हमारा 5वां भाई भी नहीं था.

हमारे घर में शुरू के दिनों में उस के बरतन अलग थे. रसोई में भी उस के आने की मनाही थी. वह मिडल स्कूल के बोर्ड की परीक्षा में बिना किसी सिफारिश के अपनी योग्यता के बल पर 88 प्रतिशत अंकों के साथ पास हुआ और दैनिक अखबार में उस का नाम आया. पिताजी की बासी रोटी पर पलता अनाथ लड़का जीतेंद्र सफलता की कोई सीमा ही नहीं जानता था. तब कुछ न कुछ शर्म हमारे मांबाप को भी आई ही होगी. जीतेंद्र पर थोपे प्रतिबंधों में शायद इसलिए कटौतियां की गईं.

बीए करने के बाद न जाने क्यों उस ने एमए नहीं करना चाहा. वह बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन की तैयारी में लग गया.

जीतेंद्र अपने पैसे मां के पास ही रखता था और वह भी बचपन के दिनों से. अगर किसी ने उस के हाथ पर 2 पैसे भी रखे तो उन्हें लिए वह मां के सामने जा खड़ा हुआ. मां उस के पैसे अलग अलमारी में रखती थीं. मैं ने उस के बचपन से ले कर आज तक की उम्र में अपनेआप पर या हम पर पाई तक खर्च करते नहीं देखा. वह हम सब की नजरों में एक नंबर का मक्खीचूस था. परंतु कुसुम दीदी के बच्चों पर वह दिल खोल कर खर्च करता था.

जीतेंद्र का चयन मुंसिफ मजिस्ट्रेट पद के लिए हो चुका था. स्टेशन पर जीतेंद्र को छोड़ने मैं भी साथ गया हुआ था. बस से उसे रांची जाना था, जो धनबाद से सुबह 5 बजे चलती थी. एक दिन पहले ही पिताजी उस से उस का सूटकेस आदि ठीक करवा चुके थे. आधी रात को ही नरायन सिंह स्टेशन वैगन ले कर हमारे घर आ चुका था. हमारे मातापिता की आंखों से नींद कोसों दूर थी.

जीतेंद्र पहली बार घर छोड़ कर जा रहा था. पता नहीं अकेले वह कैसे रहेगा, यह उन की सब से बड़ी चिंता थी. जीतेंद्र भी बड़ा असहज था. उस की भी चिंता कुछ पिताजी से मिलतीजुलती ही थी. उस के बगैर हमारे मातापिता कैसे रहेंगे. पहली बार हम सभी को इस बात का एहसास हुआ कि जीतेंद्र कहां तक हमारे मन में समा चुका है.

यद्यपि जीतेंद्र के साथ मेरा व्यक्तिगत संबंध लंबा नहीं रहा था फिर भी पिताजी द्वारा भेजे गए समाचार मुझे नियमित तौर पर मिले. उन के पत्रों के आधार पर मैं यह अवश्य कह सकता हूं कि पिताजी लगातार इस बात का प्रयास करते रहे कि उन के मन में जीतेंद्र और उन के सगे बच्चों के बीच कोई अंतर न रह जाए.

मां को सदैव इस बात का डर लगा रहता था कि जीतेंद्र को कोई उन से छीन न ले. अपने बच्चों से वे प्यार करती थीं और जीतेंद्र पर दया रखती थीं, फिर भी वह उन का प्रिय था. जीतेंद्र उन की दया से ही खुश था. एक परोपकारी के दिए करोड़  रुपए से एक कंजूस की दी गई दमड़ी किसी भी अर्थ में कम नहीं होती है. मां ने उसे नकारा नहीं बस यही उसे आंदोलित कर के रख देता था.

मेरे कहनेसमझाने पर जीतेंद्र उस शाम बनारस में रुक गया. मुंगेर लौटने से पहले और गई रात तक अपनी मां की याद में सिसकसिसक कर रोता रहा. मैं स्वयं अपने जीवन में न जाने कितनी बार कई कारणों से रोया और कइयों को रोते देखा.

उस दिन पिताजी का भेजा पत्र मिला. पत्र में लिखा था कि करौंधी चौक पर एक औरत जीतेंद्र का पता ढूंढ़ती फिर रही थी. कई दुकानदार और गुमटी वालों ने इस बात की पुष्टि भी की थी.

यह पता लगते ही मैं ने मुंगेर न्यायालय में कार्यरत जीतेंद्र को फोन पर सूचना दे दी.

खबर मिलते ही जीतेंद्र अवकाश ले कर वाराणसी जा पहुंचा. कुछ दुकानदारों से पूछने पर उसे पता चला कि आजकल वह औरत दशाश्वमेध घाट की सीढि़यों पर पड़ी रहती है. कोई कुछ दे देता है तो खा लेती है.

दशाश्वमेध घाट पर जब जीतेंद्र पहुंचा तो उसे काफी देर तक ढूंढ़ना पड़ा. आखिर एक तख्त के पीछे उस ने एक महिला को बेसुध पड़े देखा. उस के हाथ में पुरानी प्लास्टिक की थैली थी. थैली को खोलने पर उस में से तह लगा एक अखबार का टुकड़ा उस ने निकाला. उसे खोलने पर उसे अखबार में छपी अपनी ही तसवीर दिखाई दी. देखते ही उस की आंखों में आंसू छलक आए. उस के मन में कोई संदेह न रहा कि यही उस की मां है.

मां को दोनों हाथों में उठाए वह घाट से बाहर निकला और पास के नर्सिंग होम ले गया. 2 घंटे बाद महुआ को होश आ गया. सामने जीतेंद्र को देखते ही उस ने अपना चेहरा हाथों से छिपा लिया. बोली, ‘‘क्यों आए हो मुझ कलंकिनी के पास? मेरी काली छाया तुम्हें भी बदनाम कर देगी.’’ जीतेंद्र मां के पैरों से लिपट गया और रोते हुए बोला, ‘‘मां, तुम ने तो मुझे जन्म दिया था. तुम्हारे बिना मेरा अस्तित्व ही कहां होता.’’

इन दिनों जीतेंद्र अपनी मां के साथ मुंगेर में ही है. पता लगा है कि महुआ अब उस के लिए एक दुलहन की तलाश में है. सच है, जिंदगी में एक के बाद दूसरी तलाश जारी ही रहती है.

Serial Story: जीतन (भाग-1)

मेरे ही कहने पर जीतेंद्र मुझ से मिलने बनारस आया था. 9 साल पहले उस से मेरी मुलाकात बनारस में हुई थी. अब जीतेंद्र मुंसिफ मैजिस्ट्रेट से जज बन चुका था और पटना में तैनात था. खादी का वही कुरतापाजामा, चमड़े की काली चप्पल और गले में अंगोछा. सच पूछो तो मेरी नजर में उस की यह एक पहचान बन चुकी थी. दोपहर को खाने के बाद मैं उसे ले कर छत पर आ गया. बातचीत की शुरुआत धनबाद से हुई. मिसिर मुर्मु और पासिन से मिलने जीतेंद्र अकसर धनबाद जाया करता था. वह नरायण सिंह की तेरहवीं पर भी धनबाद गया था. वह समाज और जीवन में गुजरी कई बातों के खिलाफ था पर वह उन को साधारण ढंग से लेता भी नहीं था. एक जज की हैसियत से अपने फैसले विधि में समाहित अपने विवेक के आधार पर देता था. वहां वह अपने को बिलकुल भूल जाता था. जीतेंद्र निर्भय था और अपने जीवन में सौंदर्य सिर्फ सचाइयों में ढूंढ़ता था. गया और पटना के कई सम्मानित व्यक्ति उस के मित्र भी थे.

अचानक वह कुछ अनमना सा हो चला. चुपचाप उठा और जा कर मुंडेर पर खड़ा हो गया. अब मुझे भी उठना पड़ा. मैं बगल में खड़ा उस के कुछ कहने का इंतजार करने लगा.

मुंडेर पर खड़ा वह अनवरत रोए जा रहा था. बहुत धीरे से उस के मुंह से निकला, ‘मैं उन्हें ढूंढ़ कर मानूंगा.’

मैं चौंका, ‘‘किसे, जीतन?’’

‘‘अपनी मां को.’’

‘‘क्यों? उन का कुछ पता चला है क्या?’’

‘‘भैया, कुसुम दीदी की मौत के बाद मुझे अपने कमरे की खिड़की की चौखट पर एक बंद लिफाफा मिला था. न जाने लिफाफे को वहां कौन रख गया था. मैं उसे साथ लाया हूं. आप पढ़ेंगे उसे? इस पत्र का जिक्र मैं पहली बार सिर्फ आप से कर रहा हूं,’’

जीतेंद्र ने क्षणभर चुप होने के बाद कहा था, ‘‘इस पत्र में आप का भी जिक्र है. बड़ी सतर्कता से मैं ने थोड़ी पूछताछ रानीबांध में की. कोई चटर्जी परिवार कभी वहां रहता तो था पर अब वह कहां है, किसी को पता नहीं है. धनबाद से ले कर आसनसोल तक, कोलकाता से ले कर मालदहा तक… कहांकहां उन्हें नहीं ढूंढ़ा. अपना नाम दे कर मैं ने. अखबारों में इश्तहार छपवाने से डरता हूं. पता नहीं, आज भी वे मुझे स्वीकार कर पाएंगे या नहीं. मैं उन की बदनामी नहीं चाहता हूं. मैं उन्हें सिर्फ एक बार दूर से देखना चाहता हूं.’’

मैं ने पत्र को बड़ी सावधानी से खोला. लगभग पीले हो गए कागज पर स्याही की लिखावट भी काफी धुंधली हो चली थी. मैं फिर भी इसे पढ़ सकता था. लिखा था:

प्रिय जीतेंद्र, तुम्हें मेरा आशीर्वाद. देखते ही देखते तुम 22 साल के एक सुंदर और मोहक नौजवान बन गए. तुम्हें तुम्हारी अपनी एक मां ने त्याग दिया पर तुम्हें 2 माताएं मिलीं, जिन्हें तुम मान देते हो. तुम्हारे जीवन में अब एक तीसरी मां का कोई स्थान नहीं है. मेरा नाम महुआ है. हम 3 बहनें हैं. मेरी सब से छोटी बहन शिखा कुसुम की सहेली रही है. प्रमोद हम सभी को जानता है. वही हमारे घर पर प्राय: आया करता था.

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तुम जाति के ब्राह्मण हो. तुम्हें मैं ने एक बहुत बड़े विद्वान से अपनी बेहद कम उम्र में पाया था. इसलिए मुझे तुम्हारा तिरस्कार करना पड़ गया था.

जिस बच्चे को मैं सांप और बिच्छुओं के हवाले कर आई थी आज वह सूर्य की तरह अपनी किरणें बिखेर रहा है…उस की जाति उस का पौरुष है. उस का मुकुट उस का स्वाभिमान है…जब तक मैं जीवित हूं, तुम्हें दूर से निहारती रहूंगी.

तुम्हारी महुआ.’

इस पत्र को मैं ने कई बार पढ़ा. न चाहते हुए भी मेरी आंखें बहने लगीं.

यह सत्य था कि रानीबांध से ठीक पहले रास्ते के बाईं ओर एक पक्के मकान में कभी शिखा दीदी रहती थीं. उन से बड़ी 2 बहनें भी थीं. मुझे कुसुम दीदी जबतब यहां भेजा करती थीं. इस परिवार के घर में अलग से एक मंदिर भी था. मैं ने अपने दिमाग पर जोर डाला तो शिखा दीदी का चेहरा मुझे हलकाफुलका याद आया और किसी का नहीं. पर ये तीनों बहनें सांवले रंग की थीं. हां, शिखा दीदी की सब से बड़ी बहन हमेशा मेरी दाईं बांह पर चलने से पहले मनौती का एक लाल धागा बांध देती थीं जिसे मैं रास्ते में तोड़ कर फेंक देता था.

‘‘भैया, कैसी थीं मेरी मां.’’

‘‘बहुत कोशिश की, जीतन. अब कुछ भी याद नहीं आ रहा. पर तुम्हारी मां तुम्हारी ही तरह सांवली थीं और बेहद ममतामयी थीं. बस, इतना ही मुझे याद है.’’

गले से लग कर जीतेंद्र ऊंची आवाज में रोने लगा. उस की याद में सिर्फ उस की मां थीं.

मैं जब अपने जीवन में उठापटक से घिरा पड़ा था तब जीतेंद्र अपनी सफलताओं के शिखर पर खड़ा था. इस का मुझे कोई खास दुख भी नहीं था. हमारे पिताजी की दी गई सरपरस्ती में एक पासी परिवार में पला बच्चा रांची यूनिवर्सिटी के बी.ए. फाइनल में मैरिट लिस्ट में आया था. जीतेंद्र को हमारे परिवार में हमारा दर्जा तो नहीं मिला पर भूख और गरीबी का कहर उसे नहीं झेलना पड़ा. 6 फुट 3 इंच का कद, कसरती बदन, घने बाल, भारी दाढ़ी, सांवला रंग लिए धनबाद की सड़कों पर जब वह निकलता था तब एकबारगी सब की नजरें उस पर उठ जाती थीं.

पिताजी के अलावा हमारी अहमियत उस के जीवन में कितनी थी, यह मैं नहीं जानता हूं पर हमारे पिताजी उस के लिए किसी वरदान से कम न थे. जिस परिवार में वह पला और बड़ा हुआ. उस में भी 5 बच्चे थे. यह एक पासी परिवार था पर ताड़ी से अपनी जीविका नहीं चलाता था.

जीतेंद्र के पालक पिता इंडियन स्कूल औफ माइंस के ओल्ड हौस्टल में एक चौकीदार थे और उन की पत्नी हमारे घर बरतन मांजने का काम करती थी. यह परिवार हमारे अहाते में बने एक कमरे में रहता था. आसपास की जमीन को इस परिवार ने ताड़ के सूखे पत्तों से घेर रखा था. परिवार में भारी तंगी थी जिस का दोष घर के मालिक पासी पर मढ़ा जाता था, जिसे शराब पीने की बुरी लत थी. आएदिन ओल्ड हौस्टल के लड़के उस की शिकायत पिताजी से करने आते थे क्योंकि वह छोटीमोटी चोरियां भी करता था. कई बार वह पकड़ा और पीटा भी जा चुका था पर पिताजी की वजह से किसी तरह उस की नौकरी बहाल थी.

जीतेंद्र को धनबाद में हमारी सरकारी कोठी के समीप के जंगलों में पाया गया था. मैं तब 4 वर्ष का था. वह शाम मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. हम भाईबहन को चौकीदार राम सजीवन कोई कहानी सुना रहा था. अचानक हमारे कानों में किसी बच्चे के रोने की आवाज आई. बच्चा चुप होने का नाम ही न ले रहा था. राम सजीवन का कहानी में मन नहीं लगा तो उस ने अपनी लाठी और टौर्च संभाली और सामने की सड़क पर आ गया.

सड़क पर पहले से दोचार लोग जमा हो चुके थे. राम सजीवन टौर्च की रोशनी जंगल के अलगअलग हिस्सों पर डाले जा रहा था पर जंगल में जाने की हिम्मत किसी में न थी. इस जंगल में न जाने कौनकौन से जंगली जानवर बसते थे. अंगरेजों के जमाने में इस जंगल में उन की एक जेल होती थी जिस में सिर्फ फांसी पाने वाले कैदी रखे जाते थे. उन्हें इसी जेल में फांसी भी दी जाती थी.

अचानक हमें पिताजी और मां आते दिखे. देखते ही देखते पिताजी को 8-10 लोगों ने घेर लिया. मां को वापस भेज कर पिताजी एक बड़ी सी टौर्च संभाले जंगल की तरफ बढ़े. तब तक राम सजीवन भाग कर पिताजी के पास पहुंच चुका था. हमें अब टौर्चों की रोशनियां ही नजर आ रही थीं. जंगल में एक नवजात शिशु पाए जाने की संभावना के बारे में किसी को कोई शंका नहीं थी. मगर वह बच्चा किस अवस्था में मिलेगा इस पर लोगों की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी. कई तो सड़क छोड़ कर जंगल के समीप तक जा पहुंचे थे. पासिन भी अपने बच्चों के साथ घर के फाटक पर आ गई थी. तभी हमें जंगल से पिताजी के नेतृत्व में गए लोग बाहर आते दिखे. इन मेें सब से पहले हम ने मुर्मु को पहचाना. अपने हाथों में वह बड़ी सावधानी से कुछ संभाले लगभग भागता हमारे घर की तरफ बढ़ा आ रहा था. ठीक उस के पीछे पिताजी और उन के पीछे दूसरे लोग.

मुर्मु के हाथों में बच्चा आंखें बंद किए अचेत लेटा था जिस का सिर्फ हृदय धड़क रहा था. अपनी मां के अलावा इस बच्चे के जीवन में मुर्मु संभवतया पहला मानवीय स्पर्श था.

उस बच्चे के जीवन में तीसरा  मानवीय स्पर्श एक मां का स्तन  था. झटपट पासिन ने अपने 2 सप्ताह के बच्चे को अपनी 7 साल की बेटी के हवाले कर के इस बच्चे को अपना स्तन दिया. उस का अचेत शरीर अब भी बेजान सा था. बच्चे के मातापिता का कोई पता न लग पाया और पता भी कैसे लग पाता. उन्हें ढूंढ़ने का आखिर प्रयास भी किस ने किया. धइया पुलिस चौकी का हवलदार रामनुपूर पांडे बच्चे के मातापिता को ढूंढ़ने के मनगढं़त प्रयासों के नाम पर हमारे घर की चाय वर्षों तक पीता रहा.

पिताजी इस बच्चे को जीतन कह कर बुलाते थे. वैसे उस का पूरा नाम जीतेंद्र था. जीतेंद्र को पासिन जब तक अपना दूध देती रही उस का जीवन सुखमय था लेकिन दूध सूखते ही उस के जीवन में माड़ और भात की एक कभी न खत्म होने वाली बरसात आई. पासी को हर महीने पिताजी 50 रुपए मां की आंख बचा कर दिया करते थे जिन्हें वह शराब के ठेके पर लुटा दिया करता था. मां भी पासिन के उस बच्चे को बचे खाने या फिर हमारे उतरन कपड़े भिजवाती थीं. पर जीतेंद्र को बस वही मिल पाता था जो उस के भाईबहनों के किसी काम का नहीं होता था.

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जीतेंद्र जब 3 वर्ष का हुआ तब अचानक उसे पीलिया ने धर दबोचा. उस की दवा में पिताजी ने कोई कोरकसर नहीं रखी. उसे बचा तो लिया गया पर अब वह एक सुंदर सांवला, सलोना बच्चा न था.

जब पिताजी से ओल्ड हौस्टल की आनरेरी वार्डनशिप ले ली गई तब पासी की नौकरी खतरे में आ गई. स्कूल औफ माइंस के दूसरे निदेशक डा. मरवाहा डा. दीना प्रसाद की तरह दीनों के नाथ न थे. पासी को बस, उन्होंने जेल में नहीं डलवाया. उसे मुअत्तल कर के फौरन सपरिवार हौस्टल छोड़ने को कह दिया. जीतेंद्र को वह अपने साथ नहीं ले गया. हमारे ही घर छोड़ गया.

हमारे घर पर जितने भी सरकारी नौकर काम करते थे उन में से सिर्फ मिश्र ही था जिस पर जीतेंद्र के पालनपोषण का बोझ डाला जा सकता था. उस की अपनी भी एक 7 साल की बेटी थी. पर वह अपने मातापिता के साथ ही रहती थी. हमारे घर के दूसरे नौकर जीतेंद्र को अछूत, किसी के पाप की निशानी समझते थे. इस निरक्षर मिश्र का कहना था कि हम अपनी गलतियां अपने बच्चों पर नहीं थोप सकते. यह एक घोर अपराध है.

सुबह 7 बजे से ले कर शाम के 4 बजे तक मिश्र के जिम्मे सिर्फ एक काम होता था, जीतेंद्र की देखभाल करना. जीतेंद्र को चलना भी मिश्र ने ही सिखाया. दिनप्रतिदिन जीतेंद्र का स्वास्थ्य बेहतर होता जा रहा था. पीलिया का अवशेष अब जीतेंद्र में नहीं देखा जा सकता था. जीतेंद्र के लिए खाना लेने मिश्र ही रसोई में आता था. जिस कमरे में पासी परिवार रहता था वह कमरा अब जीतेंद्र का था. हमसब की तरह  उस के पास भी एक चारपाई, एक मेज, एक कुरसी थी. उस के दरवाजे और खिड़की पर भी परदे लटकते थे. इन्हें मां ने ही सिल रखा था.

जीतेंद्र की बहुत सारी बातें मां को भाने लगी थीं.

– क्रमश:

पेनकिलर: वर्षा की जिंदगी में आखिर क्या हुआ?

Serial Story: पेनकिलर (भाग-1)

‘‘हाय,कैसी हो?’’ फोन उठाते ही दूसरी तरफ से विद्या का चहकता स्वर सुनाई दिया.

‘‘अरे विद्या तू… कैसी है? कितने दिनों बाद याद आई आज मेरी,’’ विद्या की आवाज सुनते ही मीता खुशी से बोली.

‘‘तो तूने ही मुझे इतने दिन कहां याद किया मेरी जान?’’ कहते हुए विद्या जोर का ठहाका लगा कर हंस दी, ‘‘अच्छा ये गर्लफ्रैंड वाली शिकवेशिकायतों की बातें छोड़ और यह बता आज घर पर ही है या कहीं जा रही है?’’

‘‘नहीं, कहीं नहीं जा रही घर पर ही हूं,’’ मीता ने कहा.

‘‘ठीक है तो सुबह 10 बजे डाक्टर के यहां अपौइंटमैंट है… तेरा घर उधर ही है तो सोचा आज तुझ से भी मिल लूं. 11 बजे तक फ्री हो कर तेरे घर आती हूं बाय.’’

इस से पहले कि मीता पूछ पाती उसे क्या हुआ है, विद्या ने फोन काट दिया. फिर मीता भी जल्दीजल्दी अपना काम खत्म करने में लग गई ताकि उस के आने से पहले फ्री हो जाए और उस के साथ चैन से बैठ कर बातें कर पाए.

मीता जब किराए के मकान में रहती थी तब विद्या उस की पड़ोसिन थी. हंसमुख स्वभाव की विद्या के साथ जल्द ही मीता की गहरी दोस्ती हो गई. 3 साल मीता उस मकान में रही. इन 3 सालों में वह और विद्या एकदूसरे के साथ बहुत घुलमिल गई थीं. हर सुखदुख, बाहर आनाजाना, फिल्म देखना, शौपिंग करना… कितने सुखद दिन थे वे. फिर मीता अपने घर में शिफ्ट हो गई.

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ठीक 11 बजे विद्या आ गई. मीता काम निबटा कर बेचैनी से उस की राह देख रही थी. आते ही दोनों सखियां आत्मीयता से गले मिलीं.

‘‘पहले यह बता कि डाक्टर के यहां क्यों गई थी?’’ मीता ने चिंतित स्वर में पूछा.

‘‘अरे कुछ नहीं बाबा. दांत में दर्द था तो रूट कैनाल ट्रीटमैंट करवाया… आज ड्रैसिंग करवाने आना था तो सोचा इसी बहाने तुझ से मिल लूं. वैसे तो घर छोड़ कर न तेरा आना

हो पाता है और न मेरा,’’ विद्या सोफे पर बैठते हुए बोली.

‘‘अच्छा किया तूने जो चली आई. कम से कम मिलना तो हुआ. एक समय था कि सुबह, दोपहर, शाम जब मन होता पहुंच जाते थे एकदूसरे के पास और कहां अब दोढाई साल हो गए मिले हुए,’’ मीता भी सामने वाले सोफे पर बैठते हुए बोली.

‘‘और बता क्या चल रहा है आजकल?’’ विद्या ने पूछा और फिर बातों का सिलसिला शुरू हो गया. दुनियाजहान की बातों का सिलसिला… लेकिन विद्या देख रही थी कि मीता बहुत धीमी आवाज में बातें कर रही है और खासतौर पर हंसते हुए वह बहुत ही असहज हो जाती व आवाज भी धीमी कर लेती.

विद्या के अनुसार घर में कोई नहीं था. बच्चे स्कूल जा चुके थे और मीता के पति औफिस.  तब मीता इतनी असहज क्यों है?

आखिरकार विद्या से रहा नहीं गया तो उस ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या बात है मीता कुछ परेशान सी हो, सब ठीक तो है?’’

‘‘नहीं यार ऐसी कोई बात नहीं है… वर्षा ऊपर वाले कमरे में बैठी है, इसलिए और कुछ नहीं,’’ मीता दबी आवाज में बोली.

‘‘अरे वाह वर्षा आई हुई है और तूने मुझे बताया भी नहीं… बुला न उसे. ऊपर क्या कर रही है? नहाने गई है क्या?’’ विद्या ने चहक कर एक के बाद एक कई प्रश्न पूछ डाले.

‘‘आई हुई नहीं है यार वह तो शादी के 3-4 महीनों बाद से ही यहीं है,’’ मीता ने उदास स्वर में कहा.

‘‘यहीं है? लेकिन क्यों?’’ किसी बुरी आशंका से विद्या का कलेजा धड़क गया.

वर्षा मीता की इकलौती ननद है. 2 साल पहले बहुत धूमधाम से मीता और उस के पति ने उस का विवाह किया था. लोग वाहवाह

कर उठे थे. देखभाल कर बहुत अच्छे घर में ब्याहा था उसे. लड़का भी हर तरह से गुणी था. फिर अचानक…

‘‘कुछ नहीं वही इश्क का चक्कर… जल्द ही वर्षा को पता चल गया कि कार्तिक का विवाह के बहुत पहले से ही अपनी कंपनी में काम करने वाली एक विवाहित महिला से अफेयर है. अपने पति से तलाक ले कर कार्तिक से शादी तो नहीं कर रही पर उसे छोड़ भी नहीं रही. कार्तिक भावनात्मक रूप से उस औरत के साथ इतनी गहराई से जुड़ा हुआ था कि न तो वह किसी भी तरह से वर्षा से तालमेल बैठा पा रहा था और न ही उसे स्वीकार कर पा रहा था.

‘‘मांबाप के दबाव में आ कर वर्षा को उस घर की बहू तो बना दिया, लेकिन अपनी पत्नी नहीं बना पाया. बेचारी वर्षा अंदर तक टूट गई. सब के समझानेधमकाने, मिन्नतें करने किसी का भी उन दोनों पर असर नहीं हुआ. सब के सामने कार्तिक और वह औरत अपने रिश्ते से साफ मुकर जाते.

‘‘वर्षा उम्रभर तो किसी की बहू बन कर नहीं रह सकती थी न. आखिर उस बेचारी के भी कुछ अरमान, उमंगें थीं अपने पति से. लेकिन सब खाक हो गया. आखिर फैमिली कोर्ट में चुपचाप आपसी राजमंदी से तलाक दिलवा कर हम वर्षा को घर ले आए,’’ मीता ने संक्षेप में बताया, ‘‘बस तब से डेढ़ साल हो गया बेचारी इतनी मानसिक त्रासदियों से गुजरी है कि जीवन से ही निराश हो गई है. रातदिन चुपचाप पड़ी रहती है. लोग पूछने न लगें इसलिए अपनेआप को घर में ही कैद कर रखा है. कहीं नहीं निकलती, किसी से मिलतीजुलती नहीं.

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‘‘उस के दुख से दुखी हो कर हम भी कहीं आ जा नहीं पाते. उस के उदास, निराश चेहरे को देख कर मन ही नहीं करता. न बाहर जाने का, न तीजत्योहार मनाने का. एक इंसान की गलती की वजह से कितनी जिंदगियों में वीरानी फैल गई. पूरे घर में हर समय नकारात्मकता छाई रहती है. समझ नहीं आता इस स्थिति से हम कैसे बाहर निकलें. हर समय घर में घुटनभरा माहौल रहता है. बच्चे भी सहमेसहमे से रहते हैं.’’

विद्या मीता के चेहरे पर उदासी और घुटन की घनी छाया देख रही थी. विद्या के आने से कुछ समय के लिए मीता के मन से वह छाया लुप्त जरूर हो गई थी, लेकिन अतीत की बात आते ही फिर से घनी हो कर चेहरे पर छा गई. विद्या स्थिति की गंभीरता को समझ गई. ऐसी हताशा से उबरना और दूसरे को उबारना कितना मुश्किल होता है, यह वह समझती थी.

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Serial Story: पेनकिलर (भाग-2)

पहला भाग पढ़ने के लिए- पेनकिलर भाग-1

5 मिनट तक दोनों के बीच मौन पसरा रहा, फिर विद्या ने ही सवाल किया, ‘‘वर्षा की दूसरी शादी करने की नहीं सोची? तलाक तो हो ही चुका है.’’

‘‘वह शादी और पुरुष के नाम से ही इतनी विरक्त हो चुकी है कि इस बारे में सोचना भी नहीं चाहती. बहुत कोशिशें की, मगर वह डिप्रैशन से ग्रस्त हो चुकी है… क्या करें…’’ मीता की आंखें डबडबा आईं.

विद्या समझ रही थी कि वर्षा के हालात का असर न सिर्फ घर पर, बल्कि मीता के

दांपत्य पर भी पड़ रहा होगा. वह और आरुष शायद पिछले डेढ़ साल से फिल्म देखने या घूमने भी नहीं जा पाए होंगे. घर में भी खुल कर बातें या हंसीमजाक नहीं कर पाते होंगे.

‘‘इस बीमारी का इलाज तो तुझे ही करना होगा. वर्षा की बीमारी को तुम सब कब तक भुगतते रहोगे?’’ विद्या ने सहानुभूति से कहा.

‘‘यह तो ऐसा दर्द है जो लगता है उम्रभर के लिए मिल गया है. कुछ समझ ही नहीं आ रहा है कि वर्षा को इस दर्द से कैसे उबारें,’’ मीता दुखी स्वर में बोली.

‘‘डाक्टर नब्ज देखता है, बीमारी पहचानता है और फिर इलाज भी करता है. बिना इलाज किए छोड़ नहीं देता. इसी तरह जीवन में भी दर्द और समस्याएं होती हैं. सिर्फ सहते रहने से ही बात नहीं बनती. उन्हें दूर तो करना ही पड़ता है, समय रहते इलाज करना पड़ता है.

‘‘शरीर के दर्द में डाक्टर पेनकिलर देता है. दर्द बहुत ज्यादा हो तो इंजैक्शन लगाता है. मन के दर्द में राहत देने के लिए हमें ही एकदूसरे के लिए पेनकिलर का काम करना पड़ता है. तुम भी वर्षा के लिए पेनकिलर बन जाओ, चाहे शुरू में थोड़ी कड़वी ही लगे, लेकिन तभी वह दर्द से बाहर आ सकेगी,’’ विद्या ने समझाया.

मीता सोच में डूबी बैठी रही. सचमुच वर्षा का दर्द तो कम नहीं हुआ उलटे वे सब एक बोझिल दर्द के नीचे दब कर छटपटा रहे हैं. वह आरुष, बच्चे सब.

‘‘चल अब फटाफट 3 कप चाय बना. ऊपर वर्षा के साथ बैठ कर पीते हैं,’’ विद्या ने सिर झटक कर जैसे वातावरण में फैले तनाव को दूर करना चाहा.

‘‘लेकिन वर्षा तो किसी से मिलना ही नहीं चाहती. किसी को भी देखते ही बहुत असहज हो जाती है,’’ मीता शंकित स्वर में बोली.

‘‘थोड़ी देर तक ही असहज रहेगी, फिर अपनेआप सहज हो जाएगी. तू मुझ पर विश्वास तो रख,’’ विद्या मुसकराते हुए बोली.

मीता एक ट्रे में चायबिस्कुट ले आई और फिर दोनों वर्षा के कमरे में आ गईं. विद्या ने देखा कि वर्षा खिड़की के बाहर कहीं शून्य में झांक रही थी. किसी के आने का आभास होते ही उस ने दरवाजे की तरफ देखा. मीता के साथ विद्या को आया देख उस के चेहरे का रंग उड़ गया. उसे लगा कि उस के बारे में सुन कर वे उस से सहानुभूति जताएंगी, उसे बेचारी की नजरों से देखेंगी. फिर उस के घाव हरे हो जाएंगे.

वर्षा का हताश, पीड़ा से भरा चेहरा देख कर विद्या का दिल पसीज गया. लेकिन अभी समय खुद दर्द में डूबने का नहीं वरन वर्षा को दर्द से बाहर निकालने का है. विद्या ने चाय पीते हुए पुरानी बातें करनी शुरू कर दीं. कालेज, पुराने महल्ले, बाहर घूमनेफिरने के दिनों की मस्तीभरी यादें. विद्या देख रही थी वर्षा के चेहरे से असहजता के भाव धीरेधीरे दूर हो रहे हैं, वह सामान्य हो रही है.

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15-20 मिनट बाद ही जब वर्षा को यकीन हो गया कि विद्या उस के घाव कुरेद कर उसे दर्द देने नहीं आई हैं तो उस के चेहरे पर राहत के भाव आ गए और वह सामान्य हो कर कभी मुसकरा देती तो कभी एकाध शब्द बोल देती. मीता के चेहरे से भी तनाव की परतें छंटने लगीं.

करीब 1 घंटे तक सामान्य हलकीफुलकी बातें करने के बाद अचानक विद्या

बोली, ‘‘आज मैं डैंटिस्ट के यहां गई थी. बहुत दिनों से दाढ़ में असहनीय दर्द हो रहा था. उस दर्द की वजह से सिर, गरदन, जबड़े सबकुछ दर्द करने लगा था. यहां तक कि बुखार तक रहने लगा था. बहुत परेशान हो गई थी. एक छोटी सी दाढ़ ने पूरे शरीर को त्रस्त कर दिया था. शरीर ही क्यों पूरी दिनचर्या, जीवन सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया था. आखिर डाक्टर ने रूट कैनाल ट्रीटमैंट कर के सड़ी हुई नर्व को निकाल दिया. अब चैन मिला है. दर्द खत्म हो गया. अब जीवन, दिनचर्या सबकुछ ठीक हो गया.’’

वर्षा और मीता आश्चर्य से उस की तरफ देखने लगीं कि अचानक यह क्या बात छेड़ दी विद्या ने. दोनों कुछ समझ पातीं उस से पहले ही विद्या ने वर्षा से एक अजीब सवाल कर दिया, ‘‘अच्छा बताओ वर्षा मैं ने सड़ी नर्व निकलवा कर ठीक किया या नहीं या मुझे उम्रभर वह दर्द सहते रहना चाहिए था? क्या उसी दर्द को सहते हुए अपना जीवन, घरपरिवार सबकुछ अस्तव्यस्त कर देना चाहिए था?’’

वर्षा अचकचा गई कि इस सवाल का क्या तुक है. फिर भी उस ने अपनेआप को संभाल कर जवाब दिया, ‘‘न…नहीं … किसी भी दर्द को क्यों सहना? आप ने ठीक ही किया कि उस का इलाज करवा कर दर्द से नजात पा ली. यही तो करना चाहिए था.’’

‘‘तो बस फिर वर्षा, कार्तिक भी तुम्हारी वही सड़ी हुई नर्व है, जिस की वजह से तुम्हारा पूरा जीवन दर्द से भरता जा रहा है और अस्तव्यस्त हो रहा है. समय रहते उसे अपने जीवन से उखाड़ फेंको. थोड़ा दर्द जरूर होगा, लेकिन आगे पूरा जीवन दर्दरहित और सुखमय गुजरेगा. तुम्हारा भी और दूसरों का भी वरना कीड़ा एक दांत के बाद दूसरे दांतों को भी धीरेधीरे खराब करता जाएगा, वे भी बेवजह दर्द और सड़न के शिकार हो जाएंगे. तुम समझ रही हो न मैं क्या कहना चाह रही हूं?’’ विद्या ने वर्षा के हाथ पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा.

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‘‘हां दीदी मैं समझ रही हूं आप क्या कहना चाह रही हो,’’ वर्षा कांपते स्वर में बोली.

विद्या ने अपनी घड़ी देखी और फिर बोली, ‘‘अरे बाप रे ढाई बज गए. बातों में समय कब कट गया पता ही नहीं चला. बच्चों के घर आने का समय हो गया है. मैं चलती हूं.’’

अचानक वर्षा ने विद्या का हाथ पकड़ लिया, ‘‘फिर कब आओगी दीदी?’’

आगे पढ़ें- मीता सुखद आश्चर्य से भर गई…

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