अपराधिनी: भाग 2- क्या था उसका शैली के लिए उसका अपराध

लेखिका-  रेणु खत्री

मेरे लिए कार कंपनी के मालिक, बेहद आकर्षक रोहित का रिश्ता आया. वे मुझे देखने आ रहे थे. मेरी मां, दादी और चाची तो थीं ही मेहमानों की खातिरदारी हेतु, परंतु मैं ने शैली और उस की मां को भी बुलवा लिया. सभी ने मिल कर बहुत अच्छी रसोई बनाई. देखनेदिखाने की रस्म, खानापीना सब अच्छे से संपन्न हो गया. अगले सप्ताह तक जवाब देने को कह कर लड़के वाले विदा ले चले गए.

मधुर पवन की बयार, बादलों की लुकाछिपी, वर्षा की बूंदें, प्रकृति की छुअन के हर नजारे में मुझे अपने साकार होते स्वप्नों की राहत का एहसास होता. लेकिन उस दिन मानो मुझ पर वज्रपात हो गया जब रोहित ने मेरे स्थान पर शैली को पसंद कर लिया. वादे के अनुसार, एक सप्ताह बाद रोहित के मामा ने हमारे यहां आ कर शैली का रिश्ता मांग लिया.

एक बार तो हम सभी हैरान रह गए और परेशान भी हुए. बस, एक मेरी अनुभवी दादी ने सब भांप लिया कि यहां बीच राह में समय खड़ा है. मेरी मां का तो यह हाल था कि वे मुझे ही डांटने लगीं कि तुम ने ही शैली को बुलाया था न, अब भुगतो. पर मेरी दादी रोहित के मामाजी को शैली के घर ले कर गईं. उन्हें समझाया. दादी शैली की शादी से भी खुश थीं.

तनाव दोनों घरों में था. मेरे तो सपने टूट गए. इतना अच्छा रिश्ता शैली की झोली में जाने से मेरी मां का स्वार्थ जाग उठा. वे शैली व उस की मां को भलाबुरा कहने लगीं और मैं ने अपनेआप को एकांत के हवाले कर दिया.

इस घटना से मेरे अंदर न जाने क्या दरक गया कि मेरे जीवन का सुकून खो गया और मेरी मित्रता मेरे अविश्वास की रेत बन कर मेरे हाथों से यों ढह गई मानो हमारी दोस्ती एक छलावा मात्र हो जिसे किसी स्वार्थ के लिए ही ओढ़ा हो.

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उधर, शैली नहीं चाहती थी कि हमारी दोस्ती इस रिश्ते की वजह से समाप्त हो. मेरी दादी ने इस बीच पुल का काम किया. उन्होंने पापा को समझाया, ‘शैली भी हमारी ही बेटी है. बचपन से हमारे यहां आतीजाती रही है. हम उसे अच्छी तरह जानतेसमझते हैं. फिर क्यों नहीं सोचते कि वह स्वार्थी नहीं है. वह हमारी प्रिया के मुकाबले ज्यादा सूबसूरत है, गुणी भी है. क्या हुआ जो रोहित ने उसे पसंद कर लिया. अरे, अपनी प्रिया के लिए रिश्तों की कमी थोड़े ही है.’

पापा दादी की बात से सहमत हो गए. मैं दादी की वजह से इस शादी में बेमन से शरीक हुई थी. विदाई के समय शैली मेरे गले लग कर इस कदर रोई मानो वह मुझ से आखिरी विदाई ले रही हो.

शैली की शादी के बाद उस की मां से मैं ने बोलना छोड़ दिया. लगभग 2 महीने बाद शैली मायके आई. वह मुझ से मिलने आई. मेरी दादी ने उसे बहुत लाड़ किया. पर मैं ने और मेरी मां ने उस के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया. मेरी मां तो उसे अनदेखा कर बाजार चली गईं और मैं ने उस का हालचाल पूछने के बजाय उस से गुस्से में कह दिया, ‘अब तो खुश हो न मुझे रुला कर. मेरे हिस्से की खुशियां छीनी हैं तुम ने. तुम कभी सुख से नहीं रह पाओगी.’

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वह रोती हुई बाहर निकल गई और उस के बाद मुझ से कभी नहीं मिली. इस तरह की भाषा बोलना हमारे संस्कारों में नहीं था. और फिर, वह तो मेरी जान थी. फिर भी, पता नहीं कैसे मैं उस के साथ ऐसा व्यवहार कर गई जिस का मुझे उस वक्त कोई पछतावा नहीं था.

दादी को मेरा इस तरह बोलना बहुत बुरा लगा. उन्होंने मुझे बहुत डांटा और उसे मनाने के लिए कहा. पर मैं अपनी जिद पर अड़ी थी. मुझे अपने किए का पछतावा तब हुआ जब शैली का परिवार दिल्ली को ही अलविदा कह कर न जाने कहां बस गया.

वक्त बहुत बड़ा मरहम भी होता है और सबक भी सिखाता है. वह तो निर्बाध गति से चलता रहता है और हर किसी को अपने हिसाब से तोहफे बांटता रहता है. मुझे भी शशांक के रूप में वक्त ने ऐसा तोहफा दिया जो मेरे हर वजूद पर खरा उतरा. इन 19 वर्षों में उन्होंने मुझे शिकायत का कोई अवसर नहीं दिया. मोटर पार्ट्स की कंपनी में मैनेजर के पद पर विराजित शशांक ने बच्चों को भी अच्छी शिक्षा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढ़ाना और घर पर भी हम सभी को हमेशा भरपूर समय दिया है उन्होंने.

वक्त के साथ मैं बहुतकुछ भूल चुकी थी. पर आज शैली के साथसाथ दादी भी बहुत याद आने लगीं. सही कहती थीं दादी, ‘बेटा, कभी ऐसा कोई काम मत करो कि तुम अपनी ही नजरों में गिर जाओ.’ आज मेरा मन बहुत बेचैन था. मैं शैली से मिल अर अपने किए की माफी मांगना चाहती थी. मेरे व्यवहार ने उसे उस समय कितना आहत किया होगा, इसे मैं अब समझ रही थी. यादों के समंदर में गोते खाते वह समय भी नजदीक आ गया जब हमें उस से मिलने जाना था.

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हैदराबाद की राहों पर कदम रखते ही मेरे दिल की धड़कनें तेज हो गईं. अपनेआप में शर्मिंदगी का भाव लिए बस यही सोचती रही कि कैसे उस का सामना कर पाऊंगी. हमारी आपसी कहानी से शशांक अनभिज्ञ थे. एक बार तो मैं शैली से अकेले ही मिलना चाहती थी. सो, मैं ने शशांक से कहा, ‘‘आप अपने औफिस की मीटिंग में चले जाइए, मैं टैक्सी ले लूंगी, शैली से मिल आऊंगी.’’ उन्हें मेरा सुझाव ठीक लगा.uyj7

अब मैं बिना किसी पूर्व सूचना के शैली के बताए पते पर पहुंच गई. उसी ने दरवाजा खोला. उस का शृंगारविहीन सूना चेहरा देख कर मेरा दिल बैठने लगा. हम दोनों ही गले लग कर जीभर रोए मानो आंसुओं से मैं अपने किए का पश्चात्ताप कर रही थी और वह उस पीड़ा को नयनों से बाहर कर रही थी जिस से मैं अब तक अनजान थी. मैं उस के घर में इधरउधर झांकने लगी कि बच्चे वगैरह हैं या नहीं, मैं पूछ ही बैठी, ‘‘रोहितजी कहां हैं? कैसे हैं? और बच्चे…?’’

मेरा कहना भर था कि उस की आंखें फिर भीग गईं. अब शैली ने बीते 20 वर्षों से, दामन में समाए धूपछांव के टुकड़ों को शब्दों में कुछ यों बयां किया, ‘‘रोहित से मेरा विवाह होने के 4 माह बाद ही एक सड़क दुर्घटना में वे हमें रोता छोड़ कर हमेशा के लिए हम से बिछुड़ गए. सुसराल वालों ने इस का दोष मेरे सिर पर मढ़ा.

अगले भाग में पढ़ें- अब लगता है शायद नियति ने ही ऐसा तय कर रखा था.

क्या कूल हैं ये: बेटे- बहू से मिलने पहुंचे समर का कैसा था सफर

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मोहमोह के धागे: भाग 2- मानसिक यंत्रणा झेल रही रेवती की कहानी

अब रेवती का उत्साह बढ़ गया. अगले दिन उतावली हो समय से पहले ही मंदिर में जा बैठी. साधुमहाराज पुजारी के साथ जब प्रवचन हौल में पधारे तो उन की नजर गद्दी के ठीक सामने अकेली बैठी रेवती पर पड़ी.श्वेत वस्त्र, सूनी मांग, सूनी कलाइयां देख उन्हें सम झते देर न लगी कि कोई विधवा है. वे धीमे स्वर में पुजारी से रेवती का सारा परिचय पता कर आंखें बंद कर गद्दी पर विराजमान हो गए. देखतेदेखते हौल खचाखच भर गया.

प्रवचन के बीच आज उन्होंने एक ऐसा भजन गाने के लिए चुना जब कृष्ण गोपियों से दूर चले जाते हैं. गोपियां उन के विरह में रोती हुई गाती हैं- ‘आन मिलो आन मिलो श्याम सांवरे, वन में अकेली राधा खोईखाई फिरे…’ लोग स्वर से स्वर मिलाने लगे. रेवती की आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे. अंत में प्रसाद वितरण के बाद लोग चले गए तो रेवती भी उठ खड़ी हुई. अचानक उस ने देखा साधुमहाराज उसे रुकने का संकेत कर रहे हैं. वह असमंजम में इधरउधर देख खड़ी हो गई.

साधुमहाराज ने उसे अपनी गद्दी के पास बुला कर बैठने को कहा. डरती, सकुचाती रेवती बैठ गई तो उन्होंने रेवती के बारे में जो पुजारी से जानकारी हासिल की थी, सब अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर रेवती को कह डाली. भोली रेवती हैरान हो उठी. उन के कदमों पर लोट गई, बोली, ‘‘यह सब सत्य है.’’

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साधु महाराजजी ने कहा, ‘‘जब मैं पूजा के समय गहरे ध्यान में था तो एक फौजी मु झे ध्यानावस्था में दिखाई देता है. मानो कुछ कहना चाहता हो. अब सम झ में आया वह तुम्हारा शहीद पति ही है जो मेरे ध्यान ज्ञान के जरिए कोई संदेश देना चाहता है. कल जब मैं ध्यान में बैठूंगा तो उस से पूछूंगा.’’

भोलीभाली रेवती उस के शब्दजाल में फंसती गई. रेवती ने साधु के पैर पकड़ लिए, बोली, ‘‘महाराज, मेरा कल्याण करो.’’

साधु महाराज ने उसे हिदायत दी, ‘‘देवी, ध्यान रखना यह बात हमेशा गुप्त रखना वरना मेरी ज्ञानध्यानशक्ति कमजोर पड़ जाएगी. मैं फिर तुम्हारे लिए कुछ न कर पाऊंगा. जाओ, अब घर जाओ.’’

प्रसाद ले कर रेवती घर पहुंची. उस ने सासससुर को बड़े आदर से खाना परोसा. रणवीर की शहादत के बाद वह अवसाद की ओर चली गई थी. अब खुद ही उस से निकलने लगी है. इस का कारण मंदिर जाना, पूजापाठ में मन लगाना ही सम झा गया. दिन बीतते जा रहे थे. एक दिन प्रवचन के बाद साधुमहाराज ने एकांत में रेवती को बुलाया और कहा, ‘‘मु झे साधना के दौरान तुम्हारे पति ने दर्शन दिए. उस ने कहा, ‘मैं रेवती को इस तरह अकेला असहाय अवस्था में छोड़ आया था. अब मैं फिर उसी घर में जन्म ले कर रेवती का दुख दूर करूंगा.’’’

परममूर्खा और भावुक रेवती पांखडी साधुमहाराज की बातें सुन कर आंसुओं में डूब गई.

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साधुमहाराज ने आगे कहा, ‘‘पर उसे दोबारा उसी घर में जन्म लेने से बुरी शक्तियां रोक रही हैं. उस के लिए मु झे बड़ी पूजा, यज्ञ, साधना करनी पड़ेगी. इस सब के लिए बहुत धन की जरूरत है जो तुम जानती हो हम साधुयोगियों के पास नहीं होता. अगर तुम कुछ मदद करो तो तुम्हारे पति का पुनर्जन्म लेना संभव हो सकता है.’’

यह सुन रेवती गहरी सोच में डूब गई. रेवती को इस तरह चुप देख साधु बोले, ‘‘नहींनहीं, इतना सोचने की जरूरत नहीं है. अगर नहीं है, तो रहने दो. मैं तो तुम्हारे पति की भटकती आत्मा की शांति के बारे में सोच रहा था.’’

रेवती को पता था 4-5 हजार रुपए उस की अलमारी में रखे हैं या फिर खानदानी गहने जो देवर की शादी के समय निकाले गए थे. कुछ व्यस्तता और बाद में रणवीर की मृत्यु के बाद किसी को बैंक में रखवाने की सुधबुध न रही. रेवती ने सोचा पति ही नहीं, तो गहने किस काम के. यह सोच कर बोली, ‘‘महाराज, रुपए तो नहीं, पर कुछ गहने हैं? वह ला सकती हूं क्या?’’

मक्कार संन्यासी बोला, ‘‘अरे, जेवर से तो बहुत दिक्कत हो जाएगी, पर क्या करूं बेटी, तुम्हें असहाय भी नहीं छोड़ना चाहता. चलो, कल सवेरे 8 बजे मैं यहां से प्रस्थान करूंगा, तुम जो देना चाहती हो, चुपचाप यहीं दे जाना.’’

रेवती पूरी रात करवट बदलती रही. उसे सवेरे का इंतजार था. उस ने रात को ही एक गुत्थीनुमा थैली में सारे गहने और 4 हजार रुपए रख लिए थे. वह पाखंडी साधुमहाराज से इतनी प्रभावित थी कि इस सब का परिणाम क्या होगा, एक बार भी नहीं सोचा. सवेरे उठ जल्दी से काम पूरा कर साधु को विदा देने मंदिर पहुंच गई. साधुमहाराज जीप में बैठ चुके थे. रेवती घबरा गई. वह बिना सोचेसम झे भीड़ को चीरती हुई जीप के पास पहुंच गई और पैरों में पोटली रख, पैर छू बाहर निकल आई.

रेवती भी भीड़ में धक्के खाती अंदर जा श्रद्धालुओं के साथ साधुमहाराज के सामने नीचे बिछी दरी पर जा बैठी. एक लोटा ताजा जूस पी कर साधुमहाराज ने अपना प्रवचन देना आरंभ कर दिया. बीचबीच में वे भजन भी गाते जिस में जनता उन का अनुकरण करती. रेवती तो साधुमहाराज के बिलकुल सामने बैठी थी. वह तो ऐसी मंत्रमुग्ध हुई कि आंखों से अविरल आंसू बह निकले. प्रसाद ले अभिभूत सी घर पहुंची.

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बहुत दिनों बाद आज न जाने कैसे वह सासससुर से बोली, ‘‘आप दोनों का खाना लगा दूं?’’ दोनों ने हैरानी से हामी भर दी. रणवीर की मृत्यु के बाद रेवती एकदम चुप हो गई थी. घर में किसी से बात न करती. बेमन से खाना बना अपने कमरे में चली जाती. देवरदेवरानी अपने काम पर चले जाते. दोपहर को ससुर कांपते हाथों से खाना गरम कर पत्नी को देते और खुद भी खा लेते. रेवती बहुत कम खाना खाती. कभी कोई फल, कभी दही या छाछ पी लेती. उस की भूख मानो खत्म सी हो गई थी. उस ने जल्दी से खाना गरम किया और दोनों की थालियां लगा लाई. यही नहीं, पास बैठ कर मंदिर में सुने प्रवचन के बारे में भी बताने लगी.

सासससुर दोनों ने सांत्वना की सांस ली, चलो, अच्छा हुआ बहू का किसी ओर ध्यान तो लगा. वे इतने नए एवं उच्च विचारों के नहीं थे कि बहू की दूसरी शादी के बारे में सोचते अथवा आगे पढ़ाई करवाने की सोचते. राजस्थान के परंपरागत रूढि़वादी परिवार के थे जो इतना जानते थे कि पति की मृत्यु के साथ उस की पत्नी का जीवन भी खत्म हो गया. पति की आत्मा की शांति हेतु आएदिन व्रतअनुष्ठान चलते रहे. बहू का पूजापाठ में रु झान देख कर दोनों ने उस की प्रशंसा करते हुए रोज समय पर मंदिर जाने की सलाह दी.

अगले भाग में पढ़ें- वह दिल की गहराइयों से बच्ची को प्यार करने लगी थी.

वक्त की अदालत में: भाग 5- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

‘जी, मैं दे दूंगी. बेफिक्र रहें.’ अपने बच्चों की मासूम जिदों का गला घोंट कर भी मैं वकील और मुंशी की फीस तनख्वाह मिलते ही अलग डब्बे में रखने लगी.

खूबसूरत ख्वाबों का मृगजाल दिखलाने वाली जिंदगी का बेहद तकलीफजदा घटनाक्रम इतनी तेजी से घटा कि मुझे अपने स्लम एरिया में हाल में किस्तों पर अलौट हुए आवास विकास के 2 कमरों के मकान पर जाने का मौका ही नहीं मिला.

4 महीने बाद चाबी पर्स में डाल कर अपनी चचेरी बहन और बच्चों के साथ उस महल्ले में पहुंचने ही वाली थी कि नुक्कड़ पर सार्वजनिक नल से पानी भरती परिचित महिला मुझे देख कर जोर से चिल्लाई, ‘अरे बाजी, आप? बड़े दिनों बाद दिखलाई दीं. मास्टर साहब तो कह रहे थे आप का दूर कहीं तबादला हो गया है. और वह औरत क्या आप की रिश्तेदार है जिस के साथ मास्टर साहब रह रहे हैं?’ भीतर तक दरका देने वाले समाचार ने एक बार फिर मुझ को आजमाइश की सलीब पर लटका दिया.

‘उन्होंने क्या दूसरा निकाह कर लिया है? भरे बदन वाली गोरीचिट्टी, बिलकुल आप की तरह है. मगर आप की तरह हंसमुख नहीं है. हर वक्त मुंह में तंबाकू वाला पान दबाए पिच्चपिच्च थूकती रहती है.’ मु झ को चुप देख कर पड़ोसिन ने पूरी कहानी एक सांस में सुना दी.

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कलेजा निचोड़ लेने वाली अप्रत्याशित घटना की खबर मात्र ने मु झ को हिला कर रख दिया. गरम गोश्त के सौदागर, औरतखोर मुकीम ने 4 महीनों में ही अपनी शारीरिक भूख के संयम के तमाम बांध तोड़ डाले. घर से मेरे निकलते ही उस ने दूसरी औरत घर में बिठा ली. जैसे औरत का अस्तित्व उस के सामने केवल कमीज की तरह बदलने वाली वस्तु बन कर रह गया हो. एक नहीं तो दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी. मात्र खिलौना. दिल भर गया, कूड़ेदान में डाल दिया. हाड़मांस के शरीर और संवेदनशील हृदय वाली त्यागी, ममतामयी, सहनशील, कर्मशील औरत के वजूद की कोई अहमियत नहीं पुरुषप्रधान मुसलिम भारतीय परिवारों में. यही कृत्य अगर औरत करे तो वह वेश्या, कुलटा. कठमुल्लाओं ने मर्दों को कौन सी घुट्टी पिला दी कि वे खुद को हर मामले में सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिकारी होने का भ्रम पालने लगे हैं.

मैंने प्रश्नवाचक दृष्टि से चचेरी बड़ी आपा की तरफ देखा. ‘तुम यहीं पेड़ के नीचे खड़ी रहो, मैं देखती हूं, माजरा क्या है,’ यह कह कर उन्होंने कंधे पर हाथ रख कर मु झे तसल्ली दी थी.

उन के जाने और आने के बीच लगभग एक घंटे तक मैं बुरे खयालों के साथ आंखें मींच कर खड़ी रही. कौन है वह औरत, क्या सचमुच मुकीम ने दूसरा निकाह कर लिया है? मेरी हसरतों की लाश पर अपनी ऐयाशी का महल तामीर करते हुए उसे अपने पिता होने का जरा भी खयाल नहीं आया. औरत सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन और मर्द केवल बीज बोने वाला हल. फसल के लहलहाने या बरबाद होने से उस का कोई वास्ता नहीं. निर्ममता का ऐसा कठोर और स्पंदनहीन हादसा क्या हर युग में ऐसा ही अपना रूप बदलबदल कर घटता होगा.

नफरत की आग में पूरा शरीर धधकने लगा था. एक अदद 2 कमरों का मकान जिसे अपना पेट काटकाट कर बड़ी मुश्किल से किस्तों में खरीदने की हिम्मत की थी मैं ने अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए, बहेलिया ने परिंदों को जाल में फंसाने के बाद कितनी बेदिली से उन के घोंसलों के तिनके भी हवा में उड़ा दिए. घर, पति, इज्जत, सबकुछ लूट लिया. जीवन के चौराहे पर हर तरफ त्रासदियों की दहकती आग ही आग थी. कौन सा रास्ता मिलेगा बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए? शायद कोई नहीं.

आपा वापस लौट आईं उदास और निरीह चेहरा लिए हुए ‘केस की हर पेशीयों में वह औरत अकसर मुकीम को कोर्ट में मिल जाती थी. 4 बच्चों की मां ने शौहर के उत्पीड़न से पीडि़त हो कर घर छोड़ दिया और खानेखर्चे का दावा पति पर ठोंक दिया. उन की मुलाकातें बढ़ती गईं. एकदूसरे की  झूठीसच्ची दर्दीली कहानी और अत्याचार का मुलम्मा चढ़ा कर सुनाया गया फर्जी फसाना, एकदूसरे की शारीरिक, मानसिक भूख की क्षुधा मिटाने का जरिया बनता चला गया.’

मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. चुपचाप थके कदमों से वापस लौट आई. अपने अधिकारों का हनन करने और करवाने के प्रति आक्रोश व्यक्त करूं या वक्त की अदालत के फैसले का इंतजार करते हुए अपने और बच्चों के जीवित रखने के प्रयासों में लग जाऊं या फिर अतीत और भविष्य से आंखें मूंद लूं?

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‘मैडम, कल स्कूल इंस्पैक्शन टीम में असिस्टैंट कमिश्नर आ रहे हैं. अगर आप कहें तो आप के ट्रांसफर के लिए सिफारिश कर दूं?’ मुकीम के भेजे कागजी जानवर के तेजी से बढ़ते खूनी पंजों के नाखूनों से खुद भी आहत होते प्राचार्य ने मु झ से हमदर्दी से पूछा, ‘यहां तो आप के शौहर ने आप का जीना हराम कर ही रखा है, ऊपर से स्टाफ को भी अनर्गल बकवास का मौका दे दिया है. टीचर्स बच्चों पर कम, आप के बारे में ही चर्चारत रहते हैं. ये लीजिए आप के ओरिजिनल सर्टिफिकेट, सब सही पाए गए हैं. चैक कर के रिसीविंग दे दीजिए.’

सच झूठ की लड़ाई में हर युग में सच का ही परचम लहराते देखा गया है. वकील साहब ने यकीन दिलाया था, ‘आप फिक्र न कीजिए. हियरिंग पर ही आप को आना पड़ेगा कोर्ट में, बाकी मैं संभाल लूंगा. बस, फीस टाइम पर मनीऔर्डर करती जाइएगा.’ लुटे मुसाफिर की जरूरत के वक्त उस का पैरहन तक उतारने में नहीं हिचकते वकील लोग.

मुकीम ने स्टाफ के पुरुष शिक्षकों के सामने अपने उजड़ जाने की कपोलकल्पित कहानियां सुना कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया. फिर मु झे डराधमका कर कंप्रोमाइज करने के कई हथकंडे अपनाए. लेकिन मैं शिलाखंड बनी बदसूरते हाल के हर  झं झावात सहते हुए उस की हर कोशिश, चाल को नाकाम करती हुई नौकरी, बच्चे और अपनी मर्यादा के प्रति पूरी तरह से निष्ठावान रही.

एक दिन डाक से आया लिफाफा खोला तो उस में दोनों बच्चों के नाम सौसौ रुपए के चैक थे. दूसरे दिन बैंक में जमा करवा दिए. 5वें दिन बैंक मैनेजर ने उन चैक्स के बाउंस हो जाने की खबर दी. चालबाजी, शातिरपन, मक्कारी भला कब तक सचाई के सूरज का सामना कर पाएगी. कोर्ट में वही चैक उस की कमजर्फी और बच्चों के प्रति गैरजिम्मेदाराना बरताव का ठोस सुबूत बन गए.

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ट्रांसफर और्डर हाथ में थमाते हुए प्राचार्य ने मुसकरा कर कहा था, ‘आप जब चाहेंगी, आप का रिलीविंग और्डर और बच्चों की टीसी तैयार करवा दूंगा.’

मैं ने अब्बू को बतलाए बगैर जरूरत का सामान पैक किया और चल पड़ी सौ द्वीपों के बीच सब से ज्यादा आबाद टापू की ओर. जुल्म सहती औरत का अरण्य रुदन सुनते गूंगे, बहरे और अंधे नाकारा शहर से हजारों मील दूर अंडमान निकोबार की तरफ. पानी के जहाज का सफर, उछाल मारती लहरों का बारबार किनारे से सिर पटकना. नहीं, अब और नहीं सहूंगी जिल्लत, रुसवाई और लोगों की आंखों में उगते चुभते सवालों के प्रहारों को. नहीं होने दूंगी अपने दामन को और जख्मी. अब मैं, मेरे बच्चे और मेरा भविष्य… खुशियों की आस की एक किरण क्षितिज से चलती हुई अंतस में कही समा जाती.

अगले भाग में पढ़ें- पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे.

वक्त की अदालत में: भाग 1- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

मैं बिस्तर पर ही थी कि मोबाइल बज उठा, ‘‘हैलो.’’

‘‘जी दीदी, नमस्ते, मैं नवीन बाबू बोल रहा हूं.’’

इतनी सुबह नवीन बाबू का फोन? कई शंकाएं मन में उठने लगीं. उन के घर के सामने की सड़क के उस पार मेरा नया मकान बना था नागपुर में. वहां कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई. ‘‘जी भैया, नमस्ते. खैरियत तो है?’’

‘‘आप को एक खबर देनी है,’’ नवीन बाबू की आवाज में बौखलाहट थी, ‘‘दीदी, आप के शौहर की कोई जवान बेटी है क्या?’’

‘‘हां, है न.’’

‘‘उस का नाम निलोफर है क्या?’’

‘‘नाम तो मु झे पता नहीं. हां, उस महल्ले में मेरी एक कलीग रहती है, उस से पूछ कर बतला सकती हूं.’’

‘‘मु झे विश्वास है, निलोफर अब्दुल मुकीम की दूसरी बीवी की बेटी है. पता लिखा है प्लौट नं. 108, लश्करी बाग.’’

‘‘हां, मेरे घर का पता तो यही था. मगर हुआ क्या, बतलाइए तो.’’

‘‘निलोफर के साथ कांड हो गया है. पेपर में खबर छपी है,’’ भैया कोर्ट की भाषा में बोले, ‘‘कल पांचपावली थाने की पुलिस मेरे कोर्ट में एक आरोपी को पकड़ कर लाई थी. जज साहब ने बड़ी मुश्किल से उस का पीसीआर दिया है. आरोपी पर 4 धाराएं लगी हैं. लड़की को बहलाफुसला कर होटल में ले जा कर बलात्कार करने और लड़की द्वारा शादी के लिए कहने पर उसे और उस के बाप से 5 लाख रुपए की डिमांड करने, न देने पर बाप को जान से मार देने की धमकी के 4 केस लगाए गए हैं.’’ यह सब सुन कर मेरे कानों से गरमगरम भाप निकलने लगी. सिर चकराने लगा. वह आगे बोलता रहा, ‘‘इतना ही नहीं दीदी, आरोपी खुद पुलिसमैन है और अनुसूचित जाति का है. दीदी, आप जब नागपुर आएंगी न, तब पीसीआर की कौपी दिखलाऊंगा.’’ नवीन बाबू की आवाज ‘‘हैलो, हैलो…’’ आती रही और मेरे हाथ से मोबाइल छूट कर बिस्तर पर गिर पड़ा.

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मैं पसीने से लथपथ थी. दिमाग सुन्न सा हो गया. और मैं बिस्तर पर ही बुत बनी बैठी रही. दोपहर के 3 बजे आंख खुली. घर का सांयसांय करता सन्नाटा नवीन बाबू की आवाज की प्रतिध्वनि से टूटने लगा. बड़ी मुश्किल से उठी. घसीटते कदमों से किचन में जा कर पानी का बड़ा गिलास गटगट कर के गले से नीचे उतार लिया और धम्म से वहीं फर्श पर सिर पकड़ कर बैठ गई. धीरेधीरे आंखें बंद होने लगीं लेकिन मस्तिष्क में जिंदगी की काली किताब का एकएक बदरंग पन्ना समय की तेज हवाओं से फड़फड़ाने लगा.

40 साल पहले मेरे पोस्टग्रेजुएट होने के बाद अम्मी व अब्बू की रातों की नींद हराम हो गई थी, मेरी शादी की फिक्र में. पूरे एक साल की तलाश के बाद भी जब सही रिश्ता नहीं मिला तो मेरी बढ़ती उम्र और छोटी 2 बहनों के भविष्य की खातिर मु झे एक ग्रेजुएट, पीटी टीचर से शादी की रजामंदी देनी पड़ी.

ससुराल में 2 देवर, एक ब्याहता ननद और बेवा सास. निम्न मध्यवर्गीय परिवार में खाना पकाने के भी समुचित बरतन नहीं थे.

‘लोग कहते हैं आप के 3-3 बेटे हैं. इतना दहेज मिलेगा कि घर में रखने की भी जगह नहीं होगी.’ सास की यह बात सुन कर शादी की तारीख तय करने गए अम्मी व अब्बू आश्चर्य से एकदूसरे का मुंह ताकने लगे. अपनी हैसियत से कहीं ज्यादा जेवरात, कपड़े, घरेलू सामान देने पर भी मेहर की रकम को कम से कम करवाने पर सास के अडि़यल स्वभाव ने मेरे विदा होने से पहले ही कड़वाहट की बरछियों से मेरे मधुर सपनों की महीन चादर में कई सुराख कर दिए जिन में से मेरी पीड़ा को बहते हुए आसानी से देखा जा सकता था.

‘दुलहन, जो जेवर हम ने तुम्हें निकाह के वक्त पहनाए थे वे हमें वापस दे दो. तुम्हारे देवर के निकाह में वही जेवर छोटी दुलहन के लिए ले जाएंगे,’ सास ने शादी के 5वें दिन ही हुक्म दिया. मैं ने अकेले में मुकीम से पूछा तो उन्होंने हामी भर दी और बगलें  झांकते हुए काम का बहाना कर के कमरे से बाहर चले गए. दूसरे ही दिन मैं ने मन मसोस कर अपने मायके और निकाह के वक्त दिए गए तमाम जेवर सास के हाथ में थमा दिए. उन का चेहरा खिल गया.

पूरे दिन में सिर्फ एक वक्त चाय और दो वक्त खाना बनता जिस में से रसेदार सब्जी होती तो दालचावल नहीं बनते. हां, जुमे के दिन विशेष खाना जरूर पकता था.

शौहर के संसर्ग के शहदीले सपने तब कांच की तरह टूट गए जब शादी के 10वें दिन शौहर को आधीरात नशे में धुत देखा. ‘शादी की पार्टी में दोस्तों ने जबरदस्ती पिला दी,’ मेरे पूछने पर उन्होंने कहा. मेरे संस्कार धूधू कर के जलने लगे.

मेरे हाथों की मेहंदी का रंग फीका भी नहीं पड़ा था कि एक शाम शादी के वास्ते लिए गए कर्ज की अदायगी को ले कर मुकीम, सास और देवर के बीच जबरदस्त  झगड़ा होने लगा. ‘मु झे अपने दूसरे बेटों की शादियां भी करनी हैं और घर भी चलाना है. तू अपनी शादी का कर्जा खुद अदा कर और घर में खर्च के लिए भी पैसे दे, सम झा,’ सास अपने बेटे यानी मेरे शौहर मुकीम से बोलीं.

‘नहीं, शादी का कर्जा दोनों भाई मिल कर देंगे और घर भी दोनों मिल कर चलाएंगे,’ मुकीम ने जवाब  दिया.

‘अरे वाह रे वाह, एक तू ही चालाक है. तुम दोनों मियांबीवी. और वह अकेला. वह क्यों देगा तेरा कर्जा? उस पर से तेरे कमरे की बिजली का खर्च. पानी, हाउसटैक्स, पूरे 5 हजार रुपए का खर्च है महीने का. उस पर तेरा शौक पीना… वह क्यों उठाएगा इतना खर्च? तू ने शादी की है, तू भरता रह अपना कर्जा.’ बात तूल पकड़ती चली गई. घर से चीखनेचिल्लाने की आती हुई आवाजों ने पड़ोसियों को अपनी खिड़कियों की  िझरी से  झांकने के लिए बाध्य कर दिया. उसी दिन मु झे ससुराल की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति का पता चला.

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चीखना, चिल्लाना, गालीगलौज के बीच दोनों भाइयों का हाथापाई का दृश्य देख कर मैं भीतर तक सहम गई थी. मायके में मेरे घर के शांत व शालीन वातावरण में ऊंची आवाज में बोलना बदतमीजी सम झी जाती थी. ससुराल में परिवार के सदस्यों के बीच फौजदारी की हद तक की लड़ाई का दंगाई दृश्य देख कर मैं बुरी तरह आहत हो गई. सास गुस्से से तनतनाती हुई बेटी के घर चली गई, लेकिन जातेजाते अपनी आपसी लड़ाई का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ गई. वह मेरे और मुकीम के बीच तनाव व मनमुटाव का कसैला धुआं फैला गई. रिश्तेदारों के सम झानेबु झाने पर वापस लौट तो आई लेकिन घर में 2 चूल्हों का पतीला ले कर. मेरे और सास, देवर, ननद के बीच अबोले की काली चादर तन गई.

मैं ऊपर की मंजिल वाले कमरे में तनहा बैठी उन बेतुके और अनबु झे कारणों को ढूंढ़ती जिन्होंने मु झे निहायत बदकार, खुदगर्ज और कमजर्फ बहू बना दिया क्योंकि उन को यह वहम हो गया था कि मैं मुकीम को सब के खिलाफ भड़काती हूं.

जीवन के सतरंगी सपनों का पड़ाव घुटन के संकरे दर्रे में सिमट गया. मैं बीमार पड़ गई और मुकीम, पैसा खर्च न करना पड़े, मु झे बुखार की हालत में ही मायके छोड़ आए. वे बोले थे, ‘बीमार लड़की मेरे गले मढ़ दी आप लोगों ने. पूरा इलाज करवाइए, पूरी तरह से ठीक होने पर ही मु झे सूचित कीजिएगा.’ अम्मी व अब्बू उस की धमकी सुन कर स्तब्ध रह गए.

टायफाइड हो गया था मु झे. पलंग पर हड्डियों के ढांचे के बीच सिर्फ 2 पलकें ही खुलतीं, बंद होतीं, जो मेरे जीवित होने की सूचना देतीं. महीनों तक न कोई खत, न कोई खबर, न फोन. अब्बू ने भी चुप्पी साध ली थी.

अचानक एक दिन घर के सामने मुकीम को रिकशे से उतरते देख दोनों छोटी बहनों ने चहकते हुए दरवाजा खोला, ‘खुशामदीदी भाईसाहब.’ मेहमानखाने में अम्मी के साथ मु झे खड़ा देख कर वह चौंक कर बोला, ‘अरे, मैं तो सम झा था कि अब तक मरखप गई होगी. यह तो हट्टीकट्टी, जिंदा है. तो क्या ससुराल में नाटक कर रही थी?’ कर्कश स्वर से निकले मुकीम के विषैले शब्दों ने हम सब का सीना चीर दिया. जी चाहा, उसे धक्के मार कर दरवाजे के बाहर ढकेल दूं मगर पतिपत्नी के रिश्ते की नजाकत ने मेरे गुस्से के उफान को दबा दिया. अम्मी व अब्बू की तिलतिल घुलती काया और ब्याह लायक दोनों छोटी बहनों के चेहरे पर उभरती उदासी की छटपटाहट ने मु झे रोक दिया और मुकीम के साथ वापस ससुराल जाने के लिए मजबूर कर दिया.

म झले देवर की शादी मेरी गैरहाजिरी में हो गई थी. सास और शौहर ने बड़ी बहू के अस्तित्व को नकारते हुए मु झे अपने घर में सिर्फ एक गैरजरूरी चीज की तरह चुप रह कर दिन काटने के लिए मजबूर कर दिया था.

‘पढ़ीलिखी, मगर नाकारा लड़की को बहू बना लिया तुम ने, असगरी. कम से कम नौकरी कर के घर की खस्ता हालत को सुधारने में मदद करने वाली बहू ब्याह लाती? बुजुर्ग ठीक ही कहते हैं, सयाना कौवा अकसर मैले पर ही बैठता है,’ मामी सास के तंज ने मेरा रहासहा हौसला भी पस्त कर दिया.

‘बीएड करूंगी मैं.’ एक दिन हिम्मत कर के मैं बोली.

‘तेरे बाप ने हुंडा दे रखा है क्या?’ मुकीम की तीखी आवाज का तमाचा गाल पर पड़ा. कान  झन झना कर रह गए.

‘जेवर बेच दीजिए मेरे.’

‘उसी को तो बैंक में रख कर मैं ने लोन लिया है.’

‘क्या?’ जैसे आसमान से गिर पड़ी मैं.

म झली बहन की शादी की तैयारियों में अब्बू की टूटती कमर का मु झे शिद्दत से एहसास था. फिर मेरे लिए कहां से लाएंगे वे पैसे.

अगले भाग में पढ़ें- वह सिर के जख्म की वजह से 3 दिनों तक स्कूल नहीं जा सकी.6.- 

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अपराधिनी: भाग 3- क्या था उसका शैली के लिए उसका अपराध

लेखिका-  रेणु खत्री

‘‘उन्होंने मुझे घर में रखने से इनकार कर दिया. मैं मायके आ गई. मेरा दुख मां से सहन नहीं हुआ और वे बीमार पड़ गईं व 2 माह के भीतर ही वे भी मुझे छोड़ गईं.

‘‘पापा के किसी मित्र ने मेरे लिए दूसरा रिश्ता खोजा. पर मुझ में अब समय से लड़ने की और ताकत न थी. मैं ने दूसरे विवाह से मना कर दिया. पापा भी मेरी तरफ से परेशान रहने लगे. सो, मैं ने खुद को व्यस्त रखना शुरू किया. पहलेपहल तो मैं किताबों में उलझी रहती थी, उन्हें ही पढ़ती थी. फिर एक दिन किसी ने मुझे समाजसेवी संस्था से जुड़ने का सुझाव दिया. मुझे यह बहुत पसंद आया. अगले ही दिन मैं उस संस्था से जुड़ गई और मेरे जीवन को एक नई दिशा मिल गई. पापा अपने पैतृक गांव चले गए. वहीं चाचाजी, ताऊजी के परिवार के साथ उन का वक्त भी आसानी से कट जाता है और मुझे खुश देख कर उन्हें संतुष्टि भी होती है,’’ यह कह कर वह मुसकरा दी.

अब मेरे नयन बरसने लगे. मैं ने अपने हाथ जोड़ उस से क्षमा मांगी अपने उन शब्दों के लिए जो मैं ने 20 वर्षों पहले गुस्से में उस से कहे थे. पर वह तो मानो विनम्रता, सहनशीलता और प्रेम की साक्षात रूप थी. मुझे गले से लगा कर बोली, ‘‘याद है तुम्हें, दादी ने क्या कहा था? सब समय से मिलता है. मेरा समय मुझे मिल गया. जो हुआ, अच्छा हुआ. अब तो मेरी अपनी पहचान है.’’ वह फिर मुसकरा दी.

मेरी आंखें पोंछ कर उस ने मुझे पानी पिलाया और बड़ी ही फुरती से उठी. दौड़ कर मेरे मनपसंद समोसे ले कर आई, ‘‘इन्हें खाओ, मैं ने खुद बनाए हैं,’’ कह कर प्लेट मेरे हाथ में दी. फिर हंसते हुए बोली, ‘‘आया न मां के हाथ के बने समोसे वाला स्वाद. उन्हीं से सीखे थे मैं ने.’’ मेरी आंखें फिर बरसने लगीं. माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए वह जोर से हंसी और बोली, ‘‘अरे यार, इतनी मिर्च तो नहीं है इस में जो तुम्हारी आंखों में पानी आ रहा है.’’ कह कर उस ने बर्फी का एक बड़ा टुकड़ा मेरे मुंह में ठूंस दिया और मैं खिलखिला कर हंस पड़ी.

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बहुत देर तक हम बातें करते रहे. इस बीच, उस की संस्था से उस के पास कई फोन आए. सभी प्रश्नों के वह संतोषजनक उत्तर देती और फिर हम वापस पुरानी यादों में खो जाते.

वहां से वापस लौटते समय बड़े ही भय के साथ मैं ने वो उपहार उसे देने चाहे, पर साहस ही नहीं जुटा पा रही थी. शायद उस ने मेरा मन पढ़ लिया था, तभी वह चहक कर बोली, ‘‘तुम इतने सालों में मिली हो, मेरे लिए कोई तोहफा तो जरूर लाई होगी. इसे दो न मुझे.’’ बच्चों की तरह मुझे झकझोर कर कहने लगी, ‘‘तुम से तोहफा लिए बिना तो तुम्हें यहां से जाने ही नहीं दूंगी,’’ वह फिर मुसकराई.

अब मैं ने उस की बात मानते हुए उन उपहारों को उसे भेंट किया. मेरे नयन अभी भी सजल थे. उपहार लेते समय वह खुशी से मानो उछल पड़ी हो. ‘‘मेरे तो बहुत सारे बच्चे हैं. ये उपहार पा कर वे बहुत खुश होेंगे. इसे तो मैं ड्राइंगरूम में सजाऊंगी,’’ ऐसा कह कर उस ने मेरा और मेरे लाए हुए उपहारों का बहुत मान रखा.

यों ही सुकून का एहसास दिलाती, सधी हुई बातों से, वर्तमान लमहों को पूरे मन से जीने का कौशल सिखलाती, उत्साह से भरपूर वह मुझे बाहर तक विदा करने आई इस वादे के साथ कि कल रविवार को शशांक के साथ फिर मिलने आना है.

मैं वहां से चल दी. गाड़ी में बैठे पूरे रास्ते मेरे मन में एक अजीब सी उलझन हिचकोले खाती रही. अपनी जिंदगी, अपने सपने, मात्र अपना ही भला चाहने के स्वार्थ में मैं ने उस बेकुसूर को न जाने क्याक्या कह दिया था. फिर भी, उस के नयनों में स्नेह, हृदय में प्यार और अपनापन देख कर मैं स्वयं को बहुत बड़ी अपराधिन महसूस कर रही थी.

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दादी की जिस सीख को मैं ने अपनाना तो दूर, कभी उसे तवज्जुह भी नहीं दी, आज फिर याद आई. वही दादी, जो कहती थीं, ‘सबकुछ नियति तय करती है. हम सभी उस नियति के मोहरे मात्र हैं. कभी भी किसी से आहत करने वाले शब्द मत बोलो कि उस के घाव कभी भर न पाएं और वे नासूर बन जाएं.’

अब लगता है शायद नियति ने ही ऐसा तय कर रखा था कि मेरे स्थान पर शैली आ गई. उस ने भी मित्रता का क्या खूब फर्ज निभाया, मेरे जीवन में आने वाले बुरे समय को उस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. वह भले ही सबकुछ भुला कर मुझे माफ कर दे, पर मैं अपनी ही नजरों में ताउम्र उस की अपराधिनी रहूंगी.

बकरा: भाग 1- क्या हुआ था डिंपल और कांता के साथ

लेखक- कृष्ण चंद्र महादेविया

‘‘कांता, ये गुर, चेला और मौहता जैसे लोग आज भी इनसान को इनसान से बांटे हुए हैं, ताकि इन का दबदबा बना रहे और इन की रोजीरोटी मुफ्त में चलती रहे. ये पाखंडी लोग औरतों को हमेशा इस्तेमाल की चीज बनाए रखना चाहते हैं.’’

‘‘सब से खास बात तो यह है कि ये लोग गरीबों और औरतों का शोषण करने के लिए देवीदेवता के गुस्से और कसमों के इतनी चालाकी से बहाने गढ़ते हैं कि लोगों में समाया देवीदेवता का डर उन के मरने तक भी कभी दूर नहीं होता,’’ डिंपल ने कहा.

‘‘हां डिंपल, तुम्हारा कहना एकदम सही है. ये राजनीति के मंजे खिलाड़ी आदमी को आदमी से बांटे ही रखना चाहते हैं. इन्होंने तो बड़ी होशियारी से रास्ते तक बांट दिए हैं, ताकि इन की चालाक सोच इन्हें मालामाल करती रहे,’’ कांता बोली.

‘‘बिलकुल सही कहा तुम ने कांता. इस पहाड़ी समाज को अंधेरे में रखने वाले इन भेडि़यों को सबक सिखाने के लिए हमें अपनी भूमिका अच्छे से निभानी होगी.

‘‘देवीदेवता के नाम पर ठगने वाले इन पाखंडियों की असलियत लोगों के सामने लाने के लिए हमें कुछ न कुछ करना ही होगा,’’ डिंपल ने गंभीर आवाज में कांता से कहा.

‘‘हां, यह बहुत जरूरी है डिंपल. मैं जीजान से तुम्हारे साथ हूं. जान दे कर भी दोस्ती निभाऊंगी,’’ कांता बोली.

इस के बाद उन दोनों ने एकदूसरे को प्यार से देखा और गले मिल गईं.

‘‘तुम मेरी सच्ची दोस्त हो कांता. देखो, आजादी के इतने साल बाद भी इस गांव के लोग अंधविश्वास में फंसे हुए हैं. इन्हें जगाने के लिए हम दोनों मिल कर काम करेंगी,’’ डिंपल ने अपनी बात रखी.

‘‘जरूर डिंपल, यही एकमात्र रास्ता है,’’ कांता ने कहा. डिंपल और कांता ने योजना बनाई और लटूरी देवता के मेले में मिलने की बात पक्की कर के तेजी से अपने घरों की ओर चल दीं.

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डिंपल लोहारों की, तो कांता खशों की बेटी थी. कांता ने 23-24 साल की उम्र में ही घाटघाट का पानी पी रखा था. यह तो डिंपल की दोस्ती का असर था कि वह राह भटकने से बच गई थी. हमउम्र वे दोनों चानणा गांव की रहने वाली थीं.

नैशनल हाईवे से मीलों दूर पहाड़जंगल, नदीनालों के उस पार कच्ची सड़क से पहुंचते थे. वह कच्ची सड़क लंबा डग नदी तक जाती थी. नदी तट से 2 मील ऊपर नकटे पहाड़ पर सीधी चढ़ाई के बाद चानणा गांव तक पहुंचते थे.

वहां ऊंचाई की ओर खशों और निचली ओर लोहारों की बस्ती थी. खशों को ऊंची जाति और लोहारों को निचली जाति का दर्जा मिला हुआ था. वहां चलने के लिए ऊंची और छोटी जाति के अलगअलग रास्ते थे.

लोहारों को खशों के रास्ते चलने की इजाजत न थी. वे उन के घरआंगन तक को छू नहीं सकते थे, जबकि खशों को लोहारों के रास्ते चलने का पूरा हक था. वे उन के घरआंगन में बिना डरे कभी भी आजा सकते थे. यहां तक कि उन के चूल्हों में बीड़ीसिगरेट तक भी सुलगा आते थे.

पर गलती से भी कोई लोहार खशों के रास्ते या घरआंगन से छू गया, तो उस की शामत आ जाती थी. इस से गांव का देवता नाराज हो जाता था और उन्हें दंड में देवता को बकरे की बलि देनी पड़ती थी. मजाल है कि कोई इस प्रथा के खिलाफ एक शब्द भी कह सके. लोहारों और खशों की बस्तियों के बीच तकरीबन 4-5 एकड़ का मैदान था, जहां बीच में लटूरी देवता का लकड़ी का मंदिर और गढ़ की तरह भंडारगृह था. देवता के गुर का नाम खालटू था. गुर में प्रवेश कर देवता अपनी इच्छा बताता था.

लटूरी देवता गुर के जरीए ही शुभ और अशुभ, बारिश, सूखा, तूफान की बात कहता था. गांव और आसपास शादीब्याह, मेलाउत्सव, पर्वत्योहार सब देवता की इच्छा पर तय होते थे. यहां तक कि फसल बोना, घास काटना भी देवता की इच्छा पर तय था. गुर खालटू को सभी पूजते थे. उसे खूब इज्जत मिलती थी. एक खास बात और थी कि देवता का बजंतरी दल भी था, जो देव रथ के आगेआगे चलता था. इन में ढोलनगाड़े, शहनाई तो लोहार बजाते थे, पर तुरही, करनाल वगैरह खश बजाते थे. देवता का रथ भी खश उठाते थे, लोहारों को तो छूने की इजाजत तक न थी.

लोहारों के रास्ते चलते गुर खालटू, चेला छांगू और मौहता भागू जैसे ही माधो लोहार के घर के पास पहुंचे, उस का मोटातगड़ा बकरा और जवान बेटी देख कर वे एकदम रुक गए.

गुर खालटू के मुंह में आई लार को छांगू और भागू ने देख लिया था. चेला छांगू तो 3 साल से माधो की बेटी डिंपल पर नजर गड़ाए था, पर वह उस के हाथ न लगी थी. तीनों की नजरें बारबार बकरे से फिसलती थीं और माधो की बेटी पर अटक जाती थीं. ‘‘ऐ माधो की लड़की, कहां है तेरा बापू?’’ गुर खालटू ने पूछा.

‘‘वे मेले में ढोल बजाने गए हैं,’’ तीनों को नमस्ते कर के डिंपल ने कहा.

‘‘आजकल कहां रहती हो? दिखाई नहीं देती हो?’’

डिंपल ने चेले छांगू की बात का कोई जवाब नहीं दिया, बल्कि बकरे से बतियाते हुए उसे घासपत्ते खिलाती रही, जैसे उस ने कुछ सुना ही न हो.

‘‘बकरा बेचना तो होगा न माधो को?’’

‘‘नहीं मौहताजी, छोटे से बच्चे को दूध पिलापिला कर बच्चे की तरह पालपोस कर बड़ा किया है. इसे हम नहीं बेचेंगे,’’ नजरें झुकाए डिंपल ने कहा और बकरे को पत्ते दिखाती दूसरी ओर ले गई. उस ने तीनों को बैठने तक को न बोला. तीनों बेशर्मी से दांत निकालते हुए मेले की ओर चल दिए. माधो लोहार को सभी लोग पसंद करते थे. एक तो उस के घराट का आटा सभी को भाता था, दूसरे नगाड़ा बजाने में माहिर उस जैसा पूरे इलाके में कोई दूसरा न था.

डिंपल माधो की एकलौती औलाद थी. गांव में पढ़ने के बाद वह शहर में बीएससी फाइनल के इम्तिहान दे कर आई थी. वह खेलों में भी कई मैडल जीत चुकी थी. गुर, चेला, कारदार चानणा गांव के साथ आसपास के अनेक गांव में अपना डंका जैसेतैसे बजाए हुए थे. देवता के खासमखास कहे जाने वाले वे देव यात्रा के नाम पर शराबमांस की धामें करवाते और औरतों का रातरात भर नाच करवाते थे. गांव में खश व लोहार पूरे लकीर के फकीर थे और देवता पर उन्हें अंधश्रद्धा थी. यह श्रद्धा बढ़ाने का क्रेडिट गुर व चेला जैसे लोगों को ही जाता था. लटूरी देवता का मेला भरने लगा था. गुर खालटू के पहुंचते ही प्रधान रातकू और गांव वालों ने उन की खूब आवभगत की.

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गुर ने मंदिर से लटूरी देवता की पिंडी निकाली. पिंडी को स्नान करा कर धूपदीप व चावल से पूजाअर्चना कर के भेड़ू और मुरगे की बलि दिलाई गई. फिर देवता का रथ निकाल कर पूरे मेले में घुमाया गया. इस के बाद गुर खालटू ने लोगों को मेले में गाने का आदेश दिया. ढोलनगाड़े, शहनाईरणसींगे बजने लगे और मर्दऔरत लाइनों में गोलगोल नाचने लगे.

गुर के आदेश पर प्रधान रातकू खशों द्वारा धाम भी इस मैदान पर दी जानी थी. केवल लोहारों को मैदान से हट कर निचले खेत में खिलानेपिलाने का इंतजाम था. शाम ढलने तक नाच और बाजे बंद हो गए थे. शराब का दौर शुरू हो गया था, जिस में मर्दऔरत बराबर शामिल थे. जिसे जितनी पीनी थी पीए, कोई रोक नहीं थी. नशे में झूमते लोगों में मांसभात की धाम कोईकोई ही खा पाया था. वहां से लोग झूमतेगाते आधी रात तक अपनेअपने घर पहुंचते थे. नाचगानों और प्रधान रातकू की धाम के साथ हलके अंधेरे में लोगों से दूर एकांत में घटी एक घटना बड़ी ही दिलचस्प थी, जिस का 3 के सिवाय चौथे को पता न चला था. हुआ यों था कि डिंपल अपनी सहेली कांता के साथ मेले में घूमने आई थी. मेले की जगड़ से कुछ दूर एक पेड़ के नीचे खड़ी हो कर वे आपस में बातें करने लगी थीं.

आगे पढें- उस ने चेले को बड़ी मीठी आवाज में…

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मोहमोह के धागे: भाग 1- मानसिक यंत्रणा झेल रही रेवती की कहानी

वीर प्रताप के घर के सामने रिश्तेदार, पड़ोसियों और दूरदराज के सभी जानने वालों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी. दुखद सन्नाटा पसरा था. लोग सिर  झुकाए खड़े थे. बीचबीच में महिलाओं के दिल दहलाने वाली रोने की आवाजें बाहर तक आ जाती थीं. दरअसल, कल ही वीर प्रताप का बड़ा बेटा रणवीर, जम्मू के पास कुछ आतंकवादियों के साथ होने वाली मुठभेड़ में शहीद हो गया था. खबर मिलते ही लोग जमा होने लगे.

जब रणवीर का पार्थिव शरीर ले कर घर पहुंचे तो हाहाकार मच गया. एक ओर शहीद रणवीर की जयजयकार से आसपास का सारा इलाका गुंजित हो रहा था, दूसरी ओर उस के पार्थिव शरीर को देखते ही घर में रुदन, चीखपुकार का दृश्य दिल दहला रहा था. शाम होतेहोते पूरे राजकीय सम्मान के साथ रणवीर का अंतिम संस्कार हो गया.

घर में गहरी उदासी छाई थी. रणवीर की मां को अभी तक यकीन नहीं हो रहा था कि उस का लाड़ला दुनिया से विदा हो चुका है. वे रो नहीं रही थीं बल्कि विस्फारित आंखों से देख रही थीं. कुछ महिलाएं उन्हें रुलाने की असफल कोशिश कर रही थीं.

सब से दयनीय हालत शहीद रणवीर की पत्नी रेवती की थी. रेवती सिर्फ 3 वर्षों पहले इस घर में सजीले रणवीर की बहू बन कर आई थी. राजपूती कदकाठी, चेहरे पर नूर, आंखों में अथाह मस्तीभरी थी. इन्हीं गुणों को देख रणवीर ने पहली बार देखने पर ही विवाह की हामी भर दी थी. दानदहेज न मिलने की आशंका पहले से ही थी. रेवती पितृविहीन थी. घर में मां और छोटा भाई था. रेवती के बहू बन कर आते ही घर में उजाला सा हो गया. रणवीर 2 महीने की छुट्टी पर आता. घर में रौनक हो जाती थी.

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दोनों भाई मिल कर रेवती से हंसीमजाक करते थे. रेवती हाजिरजवाब थी. उस के खुशमिजाज स्वभाव से सारा घर गुलजार रहता. वही रेवती आज पति की मृत्यु के गहरे आघात से बेहोश पड़ी थी. विवाह के 2 महीने बाद ही रणवीर चला गया था. रेवती ने ससुराल में बड़ी बहू की जिम्मेदारी को बड़ी कुशलता से संभाल लिया था. रणवीर साल में एक या दो बार आता. परिवार को साथ नहीं रख सकता था. इसलिए रेवती ससुराल में ही रही.

जिस रेवती के रूपशृंगार से सारा घर दमकता था, उसी शृंगार को उजाड़ने के लिए रूढि़वाद समाज डट कर खड़ा हो गया. रिश्तेनाते, पड़ोस की महिलाएं बेहोश रेवती को पानी डालडाल कर होश में ला रही थीं. उन में से कुछ बड़ी बेदर्दी से उस की चूडि़यां तोड़ने, मांग का सिंदूर, बिंदी मिटाने, मंगलसूत्र, पायल, और बिछुए जैसी सुहाग की निशानियां उतारने के लिए बड़ी तत्परता से जुटी थीं. रेवती के ऊपर अमानवीय अत्याचार इस पढ़ेलिखे समाज के सामने होते रहे. परंतु कहीं से कोई विरोध का स्वर नहीं उठा.

देखतेदेखते चौथे की बैठक भी हो गई. थोड़ी सी जयजयकार करवा कर बेचारा रणवीर पत्नी को निसंतान छोड़ कर दुनिया से चला गया. पीछे अनेक ज्वलंत समस्याएं रह गईं जो अभी पत्नी और परिवार वालों को सुल झानी शेष थीं.

हर साल देश में आतंकवाद के नाम पर, नक्सलवादियों के हमलों में निर्दोष जवान शहीद होते हैं. चंद दिनों की जयजयकार कर समाज उन्हें भुला देता है और उन के परिवारों को  असहाय हाल में छोड़ दिया जाता है. उन को किनकिन संकटों से गुजरना पड़ता है, यह तो उन की विधवाएं या परिवार ही जानते हैं. परिवार वाले क्याक्या कुर्बानियां देते हैं, यह कोई नहीं जानता.

रेवती के इस उजड़े रूप को देखना सभी के लिए मुश्किल था. सहसा देख कर विश्वास नहीं होता कि यह वही रेवती है जो राजस्थान की परंपरागत पोशाक लहंगाचुनर, जो चटकीले रंगों के होते हैं, लाख की चूडि़यां, माथे पर बोरला, पैरों में पायल पहने छमछम करती घर में घूमा करती थी.

अभी 2 महीने पहले ही तो रणवीर के छोटे भाई राजवीर की शादी में कितना नाची थी. सारे रिश्तेदार देखते ही रह गए. कभी घूमरघूमर कर पद्मावती की तरह नाचती, तो कभी ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात में…’ गाने की धुन पर नाचती. रणवीर को भी पकड़ कर साथ नाचने के लिए बाध्य करती. रोशनी से नहाई कोठी आज रणवीर की शहादत के बाद अंधेरे में डूबी सी उदास खड़ी थी.

कुछ दिनों बाद दुनिया पहले की तरह चलने लगी. राजवीर का औफिस उसी शहर में था. उस ने औफिस जाना शुरू कर दिया. देवरानी भी एक स्कूल में लग गई. रेवती को कुछ समय के लिए मायके भेज दिया गया. मायके में मां और भाईभाभी ही थे. मायके में जा कर रेवती का मन और व्यथित हो गया. रणवीर के साथ, या राखी, भाईदूज पर जब वह आती तो मां, भाईभाभी मानो बिछबिछ जाते. पूरे सजधज में जब वह आती तो महल्ले के लोग भी उस को देख रश्क करते. मां बचाई जमापूंजी से अच्छी से अच्छी खातिर करने की कोशिश करतीं. रेवती सब के लिए उपहार और मिठाई ले कर जाती. इस बार हालात बदल चुके थे.

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रेवती का ऐसा उजड़ा रूप, मुख पर गहरी उदासी देखी नहीं जा रही थी. उस के मायके में पहुंचते ही एक बार फिर रुदनविलाप के स्वर गूंजे. बहुत नजदीकी पड़ोस वाले भी आ कर जमा हो गए. कुछ महिलाएं आत्मीयता और सहानुभूति दिखाने के लिए स्वर में स्वर मिला रोेने लगीं. कुछ पड़ोसिनें तो बजाय रेवती को दिलासा देने के, उस के बुरे समय के किस्से कहने लगीं. कुछ देर बाद मातमपुरसी को आई महिलाओं को हाथ जोड़ते हुए विदा किया गया. रेवती एक मूर्ति की तरह अंदर सिर  झुका कर बैठ गई.

मायके में कुछ दिन निकल गए. पर अब रेवती को अपने प्रति सब का बदला हुआ व्यवहार महसूस होने लगा. मां की डोर भी भाईभाभी के हाथ में थी. विधवा बेटी के लिए कुछ नहीं कर पातीं. उधर, भाभी का फुसफुसाते हुए उस के बारे में बातें करना वह कितनी बार सुन चुकी थी. जब भाभी तैयार हो कर घूमने या किसी आयोजन में जातीं, तो रेवती से छिप कर निकलतीं. मां भी इशारोंइशारों में रेवती को संकेत दे चुकी थीं कि शुभ अवसरों पर कमरे के अंदर ही बैठना.

रेवती का मन अब मायके से उचाट हो गया था. जाए तो कहां जाए? जब तक ससुराल से कोई बुलाए नहीं, वहां भी तो नहीं जा सकती. एक दिन अचानक देवर लेने आ गया. उसे कुछ तसल्ली हो गई. दरअसल, रणवीर के औफिस में कुछ जरूरी कागजात पर साइन करने के लिए रेवती को बुलाया गया था. रेवती उसी दिन ससुराल के लिए लौट गई. मां या भाईभाभी किसी ने भी उसे दोबारा आने को नहीं कहा. रेवती का दिल अंदर ही अंदर टुकड़ेटुकड़े हो गया. इसी मायके के लिए वह कैसी उतावली रहा करती थी.

ससुराल में भी जा कर मन को शांति न मिली. 3-4 दिन ससुर के साथ रणवीर के औफिस जाने में बीत गए. जो पैसा मिला, उस की रेवती के नाम की एफडी बनवा दी गई. पहले सास और बहू मिल कर घर के काम पूरे कर लिया करती थीं. शाम को देवरानी भी साथ देती थी. अब सास एकदम कमजोर हो गई थीं. बातचीत भी कम ही करतीं. ससुर सारा दिन अखबार या टीवी देख समय बिताते. देवरदेवरानी सुबह से गए, शाम को घर आते.

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देवरानी रसोई में आ कर रेवती का हाथ बंटाती. वह अपनी स्कूल की दिनचर्या, सहकर्मियों के साथ की गई बातचीत, बच्चों की मासूम शरारतों के बारे में बताती रहती. रेवती के पास तो कुछ भी नहीं होता बताने को. वह मन मसोस कर काम में लगी रहती. सोचती, एक बच्चा ही होता तो जिंदगी कट जाती. अब सास तो शारीरिक कमजोरी की वजह से कहीं आतीजाती न थीं. घर में ही सोच में पड़ी रहतीं. किसी विशेष दिन या त्योहार पर रेवती ही परिवार की ओर से मंदिर में चढ़ावा, दान आदि देने जाने लगी.

एक दिन रेवती ने सुना कि मंदिर में एक बहुत पहुंचे हुए साधु महाराज

10 दिन के लिए आने वाले हैं. वह कई सालों में से किसी घने अरण्य में तपस्या में लीन थे. उन्हें सिद्धि प्राप्त हो गई है. अब वे मानव कल्याण हेतु विभिन्न मंदिरों में जा कर प्रवचन देंगे और भक्तों की समस्याओं का निदान करेंगे. यह सुन रेवती को मानो राह मिल गई. उस ने सोचा, साधुमहाराज से अपने कष्टों के निवारण के लिए उपाय पूछेगी.

अगले दिन रेवती ने जल्दी ही घर के काम निबटा लिए. वह मंदिर में जा कर साधुमहाराज के दर्शन के लिए खड़ी हो गई. कुछ ही देर में एक फूलों से सजी जीप में अपने अनुयायियों के साथ एक युवा साधु उतरे. उन के उतरते ही वहां खड़ी भीड़ ने फूलों की वर्षा के साथ गगनभेदी जयजयकार से पूरा इलाका गुंजित कर दिया. मंदिर के अन्य सेवकजनों ने उन्हें बड़े सम्मान से अंदर ले जा कर एक ऊंची गद्दी पर विराजमान कर दिया.

अगले भाग में पढ़ें- रणवीर की शहादत के बाद वह अवसाद की ओर चली गई थी.

वक्त की अदालत में: भाग 6- मेहर ने शौहर मुकीम के खिलाफ क्या फैसला लिया

नया परिवेश, नए लोग, नए मौसम के बीच तालमेल बैठाने की पुरजोर कोशिश में लगी हुई थी. एक दिन प्राचार्य ने स्कूल के बाद मिलने के लिए कहा. अतीत के नुकीले पत्थर पर पड़ कर फिर से कहीं पैर लहुलूहान न हो जाए, अटकलों, ऊहापोहों ने इंटरवल के बाद के 4 पीरियड में पेट में हौल पैदा कर दी. समय की काली छाया मेरा पीछा करते इस नितांत अनजान टापू में तो नहीं घुस आई. ‘यह किसी अब्दुल मुकीम का लैटर मेरे नाम आया है. आप के कैरेक्टर के बारे में बड़ी एब्यूज लैंग्वेज और बैड इन्फौर्मेशन लिखी है. डू यू नो हिम?’

‘यस सर, ही इज माई हसबैंड,’ मैं ने सिर  झुका लिया.

‘ओह, आय सी. तभी तो आप को 2 छोटेछोटे बच्चों के साथ मीलों का सफर अकेले तय कर के नए माहौल में आने की वजह ढूंढ़ता रहा मैं.’

दुखती नस पर किसी ने हाथ रख दिया. दर्द से बिलबिला गई. आंखों में सावन की  झड़ी लग गई.

‘डोंट वरी, आई विल टैकल दिस मैटर. यू जस्ट कन्सैन्ट्रेट अपौन योर ड्यूटी ऐंड योर चिल्ड्रन.’

‘सर, प्लीज स्टाफ में किसी से…’ मेरे होंठ थरथराए.

‘नो मैडम, कीप फेथ औन मी. आई विल सेव योर रिस्पैक्ट ऐंड औनर.’

घसीटते कदमों ने घर तो पहुंचा दिया मगर कमरे की निस्तब्धता ने कस कर बाहों में बांध लिया. तेज रुलाई फूटी. देर तक निढाल फर्श पर बैठी रही.

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पतझड़ सावन में, सावन बंसत में तबदील होते रहे. गरमी की छुट्टियों में बच्चों के साथ कभी समुद्री जहाज से, कभी फ्लाईट से अब्बूअम्मी के पास आती रही. केसों की हियरिंग पर अपनी बरबादी की, मूकदर्शक बनी सड़कों की खाक छानना मेरी मजबूरी बन गई. सहेलियों, रिश्तेदारों से मुकीम की नईनई खबरें मिलती रहीं. मेरे घर से निकलने के 6 महीने बाद ही उस की मां मर गईं. शराब की लत और शक्की स्वभाव ने कोर्ट में मिली औरत को जल्द ही उकता दिया और वह एक रात उस की पूरी तनख्वाह ले कर घर से भाग गई.

16 महीने मुकीम ने नई जोड़ीदार की पुरजोर तलाश की. मुसलिम समाज में मर्द कपड़ों की तरह औरत बदलता है तो बेवा और तलाकशुदा औरतें 2 रोटी और एक छत के लिए किसी भी कमाऊ के साथ निकाह करने के लिए मजबूर हो जाती हैं. समाज का यह लिजलिजा विकृत रूप उस की खोखली व्यवस्था की चूलें हिला कर रख देता है. बीमार मानसिकता, आघातप्रतिघात, दोषारोपण की खरपतवार आने वाली फसल को कमजोर बनाती जा रही है. अशिक्षित मुसलिम समाज भारत की प्रगति में कंधे से कंधे मिलाना तो दूर, मजहबी संकीर्णता की खोह में लिपटा कुलबुलाकुलबुला कर ही दम तोड़ देता है.

एक साल के बाद ही मुकीम ने एक बच्चे की बेवा मां का सिरमौर बनने का फख्र हासिल कर लिया.  उस ने एक साल बाद मुकीम को एक लड़की का पिता बना दिया. मुकीम सीना ताने घूमता, ‘अभी और 10 बच्चे पैदा करने की ताकत रखता हूं. औरतें मेरे लिए नहीं, मैं औरतों का उद्धार करने के लिए पैदा हुआ हूं, वरना 200 रुपयों में तो कितनी औरतें बिछबिछ जाएं.’

पुलिस केस से बचने के लिए उस ने सरकारी वकील को खरीद लिया. मेरा स्लम एरिया का मकान मात्र 17 हजार रुपए में बेच दिया. 10 साल के बेटे ने जज के सामने बाप की दरिंदगी का एकएक सफा खोल कर रख दिया. केस का फैसला मेरे हक में हो गया.

मुकीम की म झले भाई के साथ घर के मेंटिनैंस और बिजलीपानी के खर्च को ले कर होने वाली तकरारों ने म झले को रेलवे क्वार्टर लेने के लिए मजबूर कर दिया. पूरे घर पर अब मुकीम का एकछत्र अधिकार. लेकिन जीने की लकड़ी की सीढि़यां बुरी तरह हिलने लगी थीं. छत की दीवारों का रंग और प्लास्टर उधड़ने लगा. शराब, जुए की लत उसे घुन की तरह चाट कर कंगाल बनाने लगी. कर्जदारों की फेहरिस्त बढ़ने लगी.

मेरे दोनों बच्चों ने 10वीं, 12वीं के बोर्ड इम्तिहान में आशातीत सफलता हासिल कर के स्पोर्ट्स में भी अच्छी जगह बना ली. बेहतरीन इंग्लिश, हिंदी, मिश्रित उर्दू के कारण वे आकाशवाणी के बालजगत कार्यक्रम की एंकरिंग करने लगे. स्वस्थ मानसिकता, तरक्की और कामयाबी की बुनियाद बन गई.

बाद मैं ख्वाबों के खूनी शहर पहुंची तो मालूम हुआ कि मुकीम अपनी तीसरी बीवी के सौतले बेटे की फूटती मूंछों के नीचे से निकली अपने प्रति भर्त्सना बरदाश्त नहीं कर पाया. ‘निकालो साले को यहां से वरना जान से मार डालूंगा. मेरा ही खा कर मु झ पर ही गुर्राता है.’

उस की आएदिन की चिंघाड़ और रौद्र रूप को बेटे के प्रति आसक्त मां बरदाश्त नहीं कर पाई. 6 साल की बेटी को सामान लाने के बहाने बाहर भेज कर मिट्टी तेल छिड़क लिया. धूधू कर के एक बार फिर वही घर जला जिस की बुनियाद केवल देह के सुख और नितांत पुरुषस्वार्थ पर रखी गई थी. 90 प्रतिशत जली तीसरी बीवी ने अपनी मासूम, अबोध के गले पर मुकीम का निरंतर कसता पंजा देख कर सारा दोष खुद पर ले लिया. एक बार फिर अमानुष के गले में फांसी का फंदा पड़ने से पहले ही कमजोर और शिथिल पड़ गया. अदालत को तो चश्मदीद गवाह और ठोस सुबूत चाहिए न.

8 माह बाद कमसिन बच्ची की परवरिश का हवाला दे कर मुकीम की बहन फिर उस के लिए एक अदद हड्डी गोश्त का जिंदा लोथड़ा ढूंढ़ने लगी. 65 वर्ष की तलाकशुदा औरत ने मुकीम से निकाह मंजूर कर लिया जो पिछले 10 सालों से भाभी के घर के सभी सदस्यों की आंखों में कांटे की तरह चुभती रही थी. निकाह के वक्त मुकीम रिटायर हो चुका था. मेरे दोनों बच्चे कौंपिटीटिव एग्जाम में अच्छी रैंक हासिल कर के नेवी और इंजीनियरिंग की पढ़ाई में व्यस्त हो गए. खुद मैं अपनी काबिलीयत और मेहनत के बल पर 2 प्रमोशन हासिल कर के सीनियर टीचर बन गई. मेरा शांत स्वभाव कभी भी मु झे बहुसंख्यकों के बीच अपना विरोधी पैदा करने नहीं देता.

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दर्दीले अतीत की भयावहता से खुद को बचाने के लिए बचपन के 2 अधूरे शौकों को पूरा करने का प्रयास करने लगी. गले का माधुर्य मु झे संगीत के करीब ले जाना चाहता रहा, लेकिन इसलाम में संगीत हराम माना जाता है.  दकियानूसी और अपरिपक्व सोच ने 55 साल की उम्र में गले को साधने की कोशिश को एक बार फिर नाकाम कर दिया. पूरी तवज्जुह सिलाई और मशीन की कशीदाकारी के फन पर आ कर सिमट गई.

बेहतरीन सूट, चादरें, मैक्सी के लुभावने आकर्षक धागे और डिजाइन मेरे कलाकार मन को दिनभर खिलाखिला रखते. वर्तमान शिक्षा पद्धति के साथ खुद को भी अपडेट करने के शगल ने मेरे छोटे बेटे से मु झे कंप्यूटर सिखला दिया. गुनाहों और बदकारियों से दामन बचाने वाली मैं प्रकृति का शुक्रिया अदा करती रहती हूं. बच्चे अपने अब्बू के जल्लादी, जाहिल वजूद की यादों को अपने जेहन से खुरचखुरच कर फेंक चुके थे.

आज नवीन भैया की दी गई खबर ने ठहरे समंदर में तूफान उठा दिया. कई दिनों तक खुद को संतुलित नहीं कर पाई. हार कर नवीन भैया का नंबर डायल कर ही दिया.

‘‘हैलो दीदी, आप ठीक हैं न?’’

‘‘मैं ठीक हूं भैया, लेकिन आप से एक गुजारिश है.’’

‘‘कैसी बातें कर रही हैं, दीदी. आप के ही स्नेह से मेरे घर में दोदो बेटियों ने जन्म लिया है, वरना हम तो उम्मीद ही छोड़ बैठे थे. आप ने प्रोत्साहित किया, बहू को अपने घर रख कर इलाज करवाया. आप का एहसान…’’ गला भर गया उन का, ‘‘आप तो बस हुक्म कीजिए.’’

‘‘भैया, जिस दिन अब्दुल मुकीम की बेटी के केस की तारीख हो, मैं उस दिन सैशन कोर्ट में केस की कार्रवाई सुनना चाहती हूं.’’

‘‘ठीक है, दीदी.’’ मेरे अंतस में उठते हाहाकर की गर्जन साफ सुनाई दे रही थी तजरबेकार कोर्ट सुपरिटैंडैंट को. ‘‘मगर दीदी, अपने किए की सजा तो इस कलियुग में जीतेजी ही भुगतनी पड़ती है. आप क्यों अपने जख्म हरे करना चाहती हैं. भुगतने दो उस को. दूसरे की बेटी की जिंदगी बरबाद की, तो उस की बेटी के साथ.’’

‘‘भैया, जुर्म की सजा कानून भले ही नहीं देता लेकिन वक्त गिनगिन कर सजा देता है. निलोफर के बलात्कारी को कानून तो सजा देगा लेकिन असली कुसूरवार तो मुकीम है जो बारबार मांबाप की लाड़ली बेटियों को अपनी क्रूरता का शिकार बना कर अपनी चालाकी, धूर्तता से कानून की गिरफ्त में आने से खुद  को बचाता रहा. अब जब अपनी बेटी पर जुल्म हुआ तब क्या वह चुप रहेगा? खुद को कचोटेगा, पछताएगा.

‘‘मैं सिर्फ एक बार उस के चेहरे पर दर्दोमलाल की सिलवटें देखना चाहती हूं. उस की आंखों में पस्तहाल शबनम की बूंदें देखना चाहती हूं. उस का मर्दाना दंभ, उस का अभिमानी सिर असमर्थता और बेबसीलाचारी के हथौड़े से कुचलते हुए देखना चाहती हूं. उस की आंखों में दहशत के बवंडर और माथे पर पश्चात्ताप की शिकन देखना चाहती हूं. गुस्से से उबलती उस की मक्कार आंखों में लोहे से पिघलते आंसू देखना चाहती हूं,’’ कहतेकहते मैं हांफने लगी थी.

‘‘दीदी, अगले महीने की 14 तारीख को केस की सुनवाई है. मैं जज से स्पैशली आप के बैठने की इजाजत ले लूंगा. दीदी, अब सो जाओ, बहुत रात हो गई है. कल बात करूंगा. गुड नाइट,’’ कह कर नवीन भैया ने फोन काट दिया. मेरी आंखों में 20-22 वर्षीया लड़की का अक्स उतर आया. निलोफर का आंसुओंभरा चेहरा, पुलिस मर्द की वासना का शिकार, कौन करेगा भोग्या का उद्धार. नहीं, उसे तो उम्रभर की वस्तु सम झ कर मर्द समाज की दूसरी पौध इस्तेमाल करने के जाने कौनकौन से घिनौने मंसूबे बनाएगी. उस के मासूम सपने, घर, पतिबच्चे, प्यारखुशियां, सम्मान, सबकुछ सामाजिक अपमान, तिरस्कार, घृणा की बलिवेदी पर चढ़ गया. कैसे वह अपने भीतर आत्मविश्वास और जीवित रहने की अदम्य इच्छा की दीपशिखा को प्रज्वलित रख पाएगी.

एक अकेले मुकीम ने अपने निर्दयी व्यवहार के कारण 7 लोगों को अर्थहीन, दिशाहीन और पीड़ायुक्त जीवन जीने के लिए मजबूर किया. चिंदीचिंदी कर के रख दिया उन के ख्वाबों, खुशियों और संकल्पों को. हाड़मांस की औरतों के सम्मान, अधिकारों को अपनी मर्दाना ताकत की ज्वाला में नेस्तनाबूद करने वाला शख्स अपनी एक अदद बेटी की अस्मत की सुरक्षा नहीं कर पाया. छि, धिक्कार है ऐसे मर्द पर. लेकिन रहती दुनिया तक ऐसे लाखों हिंदुस्तानी मर्द सिर ऊंचा कर के अपनी पूरी अकड़ और ऐंठ के साथ जिंदा रहेंगे.

मुकीम अपनी तमाम वहशियाना फितरत, मक्कारियों, चालबाजियों के साथ शरीर के हड्डी का ढांचा होने तक, आंखों के फूट जाने तक, अपने गरूर के साथ जिंदा रहेगा. लेकिन जब उस का थरथराता, कंपकंपाता शरीर मौत मांगेगा, रहम की भीख मांगेगा, तब दुनिया उस की फटी छाती की चीत्कार सुन कर भी अनसुना कर देगी. घसीटघसीट कर बुरी मौत मरेगा वह. यही उस वक्त की अदालत का फैसला होगा.

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विद्रोह: भाग 1- घर को छोड़ने को विवश क्यों हो गई कुसुम

लेखिका- निर्मला सिंह

वैसे तो रवि आएदिन मां को मारता रहता है लेकिन उस रात पता नहीं उसे क्या हो गया कि इतनी जोर का घूंसा मारा कि दांत तक टूट गया. बीच में आई पत्नी को भी खूब मारा. पड़ोसी लोग घबरा गए, उन्हें लगा कि कहीं विस्फोट हुआ और उस की किरचें जमीन को भेद रही हैं. खिड़कियां खोल कर वे बाहर झांकने लगे. लेकिन किसी की भी हिम्मत नहीं हुई कि रवि के घर का दरवाजा खटखटा कर शोर मचने का कारण पूछ ले. मार तो क्या एक थप्पड़ तक कुसुम के पति ने उस की रेशमी देह पर नहीं मारा था, बेटा तो एकदम कसाई हो गया है. हर वक्त सजीधजी रहने वाली, हीरोइन सी लगने वाली कुसुम अब तो अर्धविक्षिप्त सी हो गई है. फटेगंदे कपड़े, सूखामुरझाया चेहरा, गहरी, हजारों अनसुलझे प्रश्नों की भीड़ वाली आंखें, कुछ कहने को लालायित सूखे होंठ, सबकुछ उस की दयनीय जिंदगी को व्यक्त करने लगे.

उस रात कुसुम बरामदे में ही पड़ी एक कंबल में ठिठुरती रही. टांगों में इतनी शक्ति भी नहीं बची कि वह अपने छोटे से कमरे में, जो पहले स्टोर था, चली जाए. केवल एक ही वाक्य कहा था कुसुम ने अपनी बहू से : ‘पल्लवी, तुम ने यह साड़ी मुझ से बिना पूछे क्यों पहन ली, यह तो मेरी शादी की सिल्वर जुबली की थी.’

बस, बेटा मां को रुई की तरह धुनने लगा और बकने लगा, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि मेरी बीवी से साड़ी के लिए पूछती है.’’

कुसुम बेचारी चुप हो गई, जैसे उसे सांप सूंघ गया, फिर भी बेटे ने मारा. पहले थप्पड़ों से, फिर घूंसों से.

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ठंडी हवा का तेज झोंका उस की घायल देह से छू रहा था. उस का अंगअंग दर्द करने लगा था. वह कराह उठी थी. आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. चलचित्र की तरह घटनाएं, बीते दिन सूनी आंखों के आगे घूमने लगे.

‘इस साड़ी में कुसुम तू बहुत सुंदर लगती है और आज तो गजब ही ढा रही है. आज रात को…’ पति पराग ने कहा था.

‘धत्’ कह कर कुसुम शरमा गई थी नई दुलहन सी, फिर रात को उस के साथ उस के पति एक स्वर एक ताल एक लय हुए थे. खिड़की से झांकता हुआ चांद भी उन दोनों को देख कर शरमा गया था. वह पल याद कर के उस का दिल पानी से बाहर निकली मछली सा तड़पने लगा. जब भी खाने की किसी चीज की कुसुम फरमाइश करती थी तुरंत उस के पति ला कर दे देते थे. बातबात पर कुसुम से कहते थे, ‘तू चिंता मत कर. मैं ने तो यह घर तेरे नाम ही लिया है और बैंक में 5 लाख रुपए फिक्स्ड डिपौजिट भी तेरे नाम से कर दिया है. अगर मुझे कुछ हो भी जाएगा तब भी तू ठाट से रहेगी.’

हंस देती थी कुसुम. बहुत खुश थी कि उसे इतना अच्छा पति और लायक बेटी, बेटा दिए हैं. अपने इसी बेटे को उस ने बेटी से सौ गुना ज्यादा प्यार दिया, लेकिन यह क्या हो गया…एकदम से उस की चलती नाव में कैसे छेद हो गया. पानी भरने लगा और नाव डूबने लगी. सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की जिंदगी कगार पर पड़ी चट्टान सी हो जाएगी कि पता नहीं कब उस चट्टान को समुद्र निगल ले.

वह बीते पलों को याद कर पिंजड़े में कैद पंछी सी फड़फड़ाने लगी. उस रात वह सो नहीं पाई.

सुबह उठते ही धीरेधीरे मरियल चूहे सी चल कर दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर, अपने लिए एक कप चाय बना कर, अपनी कोठरी में ले आई और पड़ोसिन के दिए हुए बिस्कुट के पैकेट में से बिस्कुट ले कर खाने लगी. बिस्कुट खाते हुए दिमाग में विचार आकाश में उड़ती पतंग से उड़ने लगे.

‘इस कू्रर, निर्दयी बेटेबहू से तो पड़ोसिनें ही अच्छी हैं जो गाहेबगाहे खानेपीने की चीजें चोरी से दे जाती हैं. तो क्यों न उन की सहायता ले कर अपनी इस मुसीबत से छुटकारा पा लूं.’ एक बार एक और विचार बिजली सा कौंधा.

‘क्यों न अपनी बेटी को सबकुछ बता दूं और वह मेरी मदद करे, लेकिन वह लालची दामाद कभी भी बेटी को मेरी मदद नहीं करने देगा. बेटी को तो फोन भी नहीं कर सकती, हमेशा लौक रहता है. घर से भाग भी नहीं सकती, दोनों पतिपत्नी ताला लगा कर नौकरी पर जाते हैं.’

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बस, इन्हीं सब विचारों की पगडंडी पर चलते हुए ही कुसुम ने कराहते हुए स्नान कर लिया और दर्द से तड़पते हुए हाथों से ही उलटीसीधी चोटी गूंथ ली. बेटेबहू की हंसीमजाक, ठिठोली की आवाजें गरम पिघलते शीशे सी कानों में पड़ रही थीं. कहां वह सजेसजाए, साफसुथरे, कालीन बिछे बैडरूम में सोती थी और कहां अब बदबूदार स्टोर में फोल्ंिडग चारपाई पर? छि:छि: इतना सफेद हो जाएगा रवि का खून, उस ने कभी सोचा न था. महंगे से महंगा कपड़ा पहनाया उसे, बढि़या से बढि़या खाने की चीजें खिलाईं. हर जिद, हर चाहत रवि की कुसुम और पराग ने पूरी की. शहर के महंगे इंगलिश कौन्वेंट स्कूल से, फिर विश्वविद्यालय से रवि ने शिक्षा ग्रहण की.

कितनी मेहनत से, कितनी लगन से पराग ने इसे बैंक की नौकरी की परीक्षाएं दिलवाईं. जब यह पास हो गया तो दोनों खुशी के मारे फूले नहीं समाए, खोजबीन कर के जानपहचान निकाली तब जा कर इस की नौकरी लगी.

और पराग के मरने के बाद यह सबकुछ भूल गया. काश, यह जन्म ही न लेता. मैं निपूती ही सुखी थी. इस के जन्म लेने के बाद मेरे मना करने पर भी 150 लोगों की पार्टी पराग ने खूब धूमधाम से की थी. बड़ा शरीफ, सीधासादा और संस्कारों वाला लड़का था यह. लेकिन पता नहीं इस ने क्या खा लिया, इस की बुद्धि भ्रष्ट हो गई, जो राक्षसों जैसा बरताव करता है. अब तो इस के पंख निकल आए हैं. प्यार, त्याग, दया, मान, सम्मान की भावनाएं तो इस के दिल से गायब ही हो गई हैं, जैसे अंधेरे में से परछाईं.

रसोई से आ रही मीठीमीठी सुगंध से कुसुम बच्ची सी मनचली हो गई. हिम्मत की सीढ़ी चढ़ कर धीरेधीरे बहू के पास आई, ‘‘बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है, बेटी क्या बनाया है?’’ पता नहीं कैसे दुनिया का नया आश्चर्य लगा कुसुम को बहू के उत्तर देने के ढंग से, ‘‘मांजी, गाजर का हलवा बनाया है. खाएंगी? आइए, बैठिए.’’

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