दाग का सच : क्या था ललिया के कपड़ों में दाग का सच

पूरे एक हफ्ते बाद आज शाम को सुनील घर लौटा. डरतेडरते डोरबैल बजाई. बीवी ललिया ने दरवाजा खोला और पूछा, ‘‘हो गई फुरसत तुम्हें?’’

‘‘हां… मुझे दूसरे राज्य में जाना पड़ा था न, सो…’’ ‘‘चलिए, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

ललिया के रसोईघर में जाते ही सुनील ने चैन की सांस ली. पहले तो जब सुनील को लौटने में कुछ दिन लग जाते थे तो ललिया का गुस्सा देखने लायक होता था मानो कोई समझ ही नहीं कि आखिर ट्रांसपोर्टर का काम ही ऐसा. वह किसी ड्राइवर को रख तो ले, पर क्या भरोसा कि वह कैसे चलाएगा? क्या करेगा?

और कौन सा सुनील बाकी ट्रक वालों की तरह बाहर जा कर धंधे वालियों के अड्डे पर मुंह मारता है. चाहे जितने दिन हो जाएं, घर से ललिया के होंठों का रस पी कर जो निकलता तो दोबारा फिर घर में ही आ कर रसपान करता, लेकिन कौन समझाए ललिया को. वह तो इधर 2-4 बार से इस की आदत कुछकुछ सुधरी हुई है. तुनकती तो है, लेकिन प्यार दिखाते हुए.

चाय पीते समय भी सुनील को घबराहट हो रही थी. क्या पता, कब माथा सनक उठे. माहौल को हलका बनाने के लिए सुनील ने पूछा, ‘‘आज खाने में क्या बना रही हो?’’

‘‘लिट्टीचोखा.’’ ‘‘अरे वाह, लिट्टीचोखा… बहुत बढि़या तब तो…’’

‘‘हां, तुम्हारा मनपसंद जो है…’’ ‘‘अरे हां, लेकिन इस से भी ज्यादा मनपसंद तो…’’ सुनील ने शरारत से ललिया को आंख मारी.

‘‘हांहां, वह तो मेरा भी,’’ ललिया ने भी इठलाते हुए कहा और रसोईघर में चली गई. खाना खाते समय भी बारबार सुनील की नजर ललिया की छाती पर चली जाती. रहरह कर ललिया के हिस्से से जूठी लिट्टी के टुकड़े उठा लेता जबकि दोनों एक ही थाली में खा रहे थे.

‘‘अरे, तुम्हारी तरफ इतना सारा रखा हुआ है तो मेरा वाला क्यों ले रहे हो?’’ ‘‘तुम ने दांतों से काट कर इस को और चटपटा जो बना दिया है.’’

‘‘हटो, खाना खाओ पहले अपना ठीक से. बहुत मेहनत करनी है आगे,’’ ललिया भी पूरे जोश में थी. दोनों ने भरपेट खाना खाया. ललिया बरतन रखने चली गई और सुनील पिछवाड़े जा कर टहलने लगा. तभी उस ने देखा कि किसी की चप्पलें पड़ी हुई थीं.

‘‘ये कुत्ते भी क्याक्या उठा कर ले आते हैं,’’ सुनील ने झल्ला कर उन्हें लात मार कर दूर किया और घर में घुस कर दरवाजा बंद कर लिया. सुनील बैडरूम में पहुंचा तो ललिया टैलीविजन देखती मिली. वह मच्छरदानी लगाने लगा.

‘‘दूध पीएंगे?’’ ललिया ने पूछा. ‘‘तो और क्या बिना पीए ही रह जाएंगे,’’ सुनील भी तपाक से बोला.

ललिया ने सुनील का भाव समझ कर उसे एक चपत लगाई और बोली, ‘‘मैं भैंस के दूध की बात कर रही हूं.’’

‘‘न… न, वह नहीं. मेरा पेट लिट्टीचोखा से ही भर गया है,’’ सुनील ने कहा. ‘‘चलो तो फिर सोया जाए.’’

ललिया टैलीविजन बंद कर मच्छरदानी में आ गई. बत्ती तक बुझाने का किसी को होश नहीं रहा. कमरे का दरवाजा भी खुला रह गया जैसे उन को देखदेख कर शरमा रहा था. वैसे भी घर में उन दोनों के अलावा कोई रहता नहीं था.

सुबह 7 बजे सुनील की आंखें खुलीं तो देखा कि ललिया बिस्तर के पास खड़ी कपड़े पहन रही थी. ‘‘एक बार गले तो लग जाओ,’’ सुनील ने नींद भरी आवाज में कहा.

‘‘बाद में लग लेना, जरा जल्दी है मुझे बाथरूम जाने की…’’ कहते हुए ललिया जैसेतैसे अपने बालों का जूड़ा बांधते हुए वहां से भाग गई. सुनील ने करवट बदली तो ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर हाथ पड़ गया.

ललिया के अंदरूनी कपड़ों की महक सुनील को मदमस्त कर रही थी.

सुनील ललिया के लौटने का इंतजार करने लगा, तभी उस की नजर ललिया की पैंटी पर बने किसी दाग पर गई. उस का माथा अचानक से ठनक उठा. ‘‘यह दाग तो…’’

सुनील की सारी नींद झटके में गायब हो चुकी थी. वह हड़बड़ा कर उठा और ध्यान से देखने लगा. पूरी पैंटी पर कई जगह वैसे निशान थे. ब्रा का मुआयना किया तो उस का भी वही हाल था. ‘‘कल रात तो मैं ने इन का कोई इस्तेमाल नहीं किया. जो भी करना था सब तौलिए से… फिर ये…’’

सुनील का मन खट्टा होने लगा. क्या उस के पीछे ललिया के पास कोई…? क्या यही वजह है कि अब ललिया उस के कई दिनों बाद घर आने पर झगड़ा नहीं करती? नहींनहीं, ऐसे ही अपनी प्यारी बीवी पर शक करना सही नहीं है. पहले जांच करा ली जाए कि ये दाग हैं किस चीज के. सुनील ने पैंटी को अपने बैग में छिपा दिया, तभी ललिया आ गई, ‘‘आप उठ गए… मुझे देर लग गई थोड़ी.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर सुनील बाथरूम में चला गया. जब वह लौटा तो देखा कि ललिया कुछ ढूंढ़ रही थी.

‘‘क्या देख रही हो?’’ ‘‘मेरी पैंटी न जाने कहां गायब हो गईं. ब्रा तो पहन ली है मैं ने.’’

‘‘चूहा ले गया होगा. चलो, नाश्ता बनाओ. मुझे आज जल्दी जाना है,’’ सुनील ने उस को टालने के अंदाज में कहा. ललिया भी मुसकरा उठी. नाश्ता कर सुनील सीधा अपने दोस्त मुकेश के पास पहुंचा. उस की पैथोलौजी की लैब थी.

सुनील ने मुकेश को सारी बात बताई. उस की सांसें घबराहट के मारे तेज होती जा रही थीं. ‘‘अरे, अपना हार्टफेल करा के अब तू मर मत… मैं चैक करता हूं.’’

सुनील ने मुकेश को पैंटी दे दी. ‘‘शाम को आना. बता दूंगा कि दाग किस चीज का है,’’ मुकेश ने कहा.

सुनील ने रजामंदी में सिर हिलाया और वहां से निकल गया. दिनभर पागलों की तरह घूमतेघूमते शाम हो गई. न खाने का होश, न पीने का. वह धड़कते दिल से मुकेश के पास पहुंचा.

‘‘क्या रिपोर्ट आई?’’ मुकेश ने भरे मन से जवाब दिया, ‘‘यार, दाग तो वही है जो तू सोच रहा है, लेकिन… अब इस से किसी फैसले पर तो…’’

सुनील जस का तस खड़ा रह गया. मुकेश उसे समझाने के लिए कुछकुछ बोले जा रहा था, लेकिन उस का माथा तो जैसे सुन्न हो चुका था. सुनील घर पहुंचा तो ललिया दरवाजे पर ही खड़ी मिली.

‘‘कहां गायब थे दिनभर?’’ ललिया परेशान होते हुए बोली. ‘‘किसी से कुछ काम था,’’ कहता हुआ सुनील सिर पकड़ कर पलंग पर बैठ गया.

‘‘तबीयत तो ठीक है न आप की?’’ ललिया ने सुनील के पास बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रखा. ‘‘सिर में बहुत तेज दर्द हो रहा है.’’

‘‘बैठिए, मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए ललिया रसोईघर में चली गई. सुनील ने ललिया की पैंटी को गद्दे के नीचे दबा दिया.

चाय पी कर वह बिस्तर पर लेट गया. रात को ललिया खाना ले कर आई और बोली, ‘‘अजी, अब आप मुझे भी मार देंगे. बताओ तो सही, क्या हुआ? ज्यादा दिक्कत है, तो चलो डाक्टर के पास ले चलती हूं.’’

‘‘कुछ बात नहीं, बस एक बहुत बड़े नुकसान का डर सता रहा है,’’ कह कर सुनील खाना खाने लगा. ‘‘अपना खयाल रखो,’’ कहते हुए ललिया सुनील के पास आ कर बैठ गई.

सुनील सोच रहा था कि ललिया का जो रूप अभी उस के सामने है, वह उस की सचाई या जो आज पता चली वह है. खाना खत्म कर वह छत पर चला गया. ललिया नीचे खाना खाते हुए आंगन में बैठी उस को ही देख रही थी.

सुनील का ध्यान अब कल रात पिछवाड़े में पड़ी चप्पलों पर जा रहा था. वह सोचने लगा, ‘लगता है वे चप्पलें भी इसी के यार की… नहीं, बिलकुल नहीं. ललिया ऐसी नहीं है…’ रात को सुनील ने नींद की एक गोली खा ली, पर नींद की गोली भी कम ताकत वाली निकली.

सुनील को खीज सी होने लगी. पास में देखा तो ललिया सोई हुई थी. यह देख कर सुनील को गुस्सा आने लगा, ‘मैं जान देदे कर इस के सुख के लिए पागलों की तरह मेहनत करता हूं और यह अपना जिस्म किसी और को…’ कह कर वह उस पर चढ़ गया.

ललिया की नींद तब खुली जब उस को अपने बदन के निचले हिस्से पर जोर महसूस होने लगा. ‘‘अरे, जगा देते मुझे,’’ ललिया ने उठते ही उस को सहयोग करना शुरू किया, लेकिन सुनील तो अपनी ही धुन में था. कुछ ही देर में दोनों एकदूसरे के बगल में बेसुध लेटे हुए थे.

ललिया ने अपनी समीज उठा कर ओढ़ ली. सुनील ने जैसे ही उस को ऐसा करते देखा मानो उस पर भूत सा सवार हो गया. वह झटके से उठा और समीज को खींच कर बिस्तर के नीचे फेंक दिया और फिर से उस के ऊपर आ गया.

‘‘ओहहो, सारी टैंशन मुझ पर ही उतारेंगे क्या?’’ ललिया आहें भरते हुए बोली. सुनील के मन में पल रही नाइंसाफी की भावना ने गुस्से का रूप ले लिया था.

ललिया को छुटकारा तब मिला जब सुनील थक कर चूर हो गया. गला तो ललिया का भी सूखने लगा था, लेकिन वह जानती थी कि उस का पति किसी बात से परेशान है.

ललिया ने अपनेआप को संभाला और उठ कर थोड़ा पानी पीने के बाद उसी की चिंता करतेकरते कब उस को दोबारा नींद आ गई, कुछ पता न चला. ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए. हंसनेहंसाने वाला सुनील अब बहुत गुमसुम रहने लगा था और रात को तो ललिया की एक न सुनना मानो उस की आदत बनती जा रही थी.

ललिया का दिल किसी अनहोनी बात से कांपने लगा था. वह सोचने लगी थी कि इन के मांपिताजी को बुला लेती हूं. वे ही समझा सकते हैं कुछ. एक दिन ललिया बाजार गई हुई थी. सुनील छत पर टहल रहा था. शाम होने को थी. बादल घिर आए थे. मन में आया कि फोन लगा कर ललिया से कहे कि जल्दी घर लौट आए, लेकिन फिर मन उचट गया.

थोड़ी देर बाद ही सुनील ने सोचा, ‘कपड़े ही ले आता हूं छत से. सूख गए होंगे.’ सुनील छत पर गया ही था कि देखा पड़ोसी बीरबल बाबू के किराएदार का लड़का रंगवा जो कि 18-19 साल का होगा, दबे पैर उस की छत से ललिया के अंदरूनी कपड़े ले कर अपनी छत पर कूद गया. शायद उसे पता नहीं था कि घर में कोई है, क्योंकि ललिया उस के सामने बाहर गई थी.

यह देख कर सुनील चौंक गया. उस ने पूरी बात का पता लगाने का निश्चय किया. वह भी धीरे से उस की छत पर उतरा और सीढि़यों से नीचे आया. नीचे आते ही उस को एक कमरे से कुछ आवाजें सुनाई दीं.

सुनील ने झांक कर देखा तो रंगवा अपने हमउम्र ही किसी गुंडे से दिखने वाले लड़के से कुछ बातें कर रहा था. ‘‘अबे रंगवा, तेरी पड़ोसन तो बहुत अच्छा माल है रे…’’

‘‘हां, तभी तो उस की ब्रापैंटी के लिए भटकता हूं,’’ कह कर वह हंसने लगा. इस के बाद सुनील ने जो कुछ देखा, उसे देख कर उस की आंखें फटी रह गईं. दोनों ने ललिया के अंदरूनी कपड़ों पर अपना जोश निकाला और रंगवा बोला, ‘‘अब मैं वापस उस की छत पर रख आता हूं… वह लौटने वाली होगी.’’

‘‘अबे, कब तक ऐसे ही करते रहेंगे? कभी असली में उस को…’’ ‘‘मिलेगीमिलेगी, लेकिन उस पर तो पतिव्रता होने का फुतूर है. वह किसी से बात तक नहीं करती. पति के बाहर जाते ही घर में झाड़ू भी लगाने का होश नहीं रहता उसे, न ही बाल संवारती है वह. कभी दबोचेंगे रात में उसे,’’ रंगवा कहते हुए कमरे के बाहर आने लगा.

सुनील जल्दी से वापस भागा और अपनी छत पर कूद के छिप गया. रंगवा भी पीछे से आया और उन गंदे किए कपड़ों को वापस तार पर डाल कर भाग गया.

सुनील को अब सारा मामला समझ आ गया था. रंगवा इलाके में आएदिन अपनी घटिया हरकतों के चलते थाने में अंदरबाहर होता रहता था. उस के बुरे संग से उस के मांबाप भी परेशान थे. सुनील को ऐसा लग रहा था जैसे कोई अंदर से उस के सिर पर बर्फ रगड़ रहा है. उस का मन तेजी से पिछली चिंता से तो हटने लगा, लेकिन ललिया की हिफाजत की नई चुनौती ने फिर से उस के माथे पर बल ला दिया. उस ने तत्काल यह जगह छोड़ने का निश्चय कर लिया.

ललिया भी तब तक लौट आई. आते ही वह बोली, ‘‘सुनिए, आप की मां को फोन कर देती हूं. वे समझाएंगी अब आप को.’’ सुनील ने उस को सीने से कस कर चिपका लिया, ‘‘तुम साथ हो न, सब ठीक है और रहेगा…’’

‘‘अरे, लेकिन आप की यह उदासी मुझ से देखी नहीं जाती है अब…’’ ‘‘आज के बाद यह उदासी नहीं दिखेगी… खुश?’’

‘‘मेरी जान ले कर ही मानेंगे आप,’’ बोलतेबोलते ललिया को रोना आ गया.

यह देख कर सुनील की आंखों से भी आंसू छलकने लगे थे. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘अब मैं ड्राइवर रख लूंगा और खुद तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा समय…’’ प्यार उन के चारों ओर मानो नाच करता फिर से मुसकराने लगा था.

विश्वासघात: जूही ने कैसे छीना नीता का पति

नीला आसमान अचानक ही स्याह हो चला था. बारिश की छोटीछोटी बूंदें अंबर से टपकने लगी थीं. तूफान जोरों पर था. दरवाजों के टकराने की आवाज सुन कर जूही बाहर आई. अंधेरा देख कर अतीत की स्मृतियां ताजा हो गईं…

कुछ ऐसा ही तूफानी मंजर था आज से 1 साल पहले का. उस दिन उस ने जीन्स पर टौप पहना था. अपने रेशमी केशों की पोनीटेल बनाई थी. वह बहुत खूबसूरत लग रही थी. उस ने आंखों पर सनग्लासेज चढ़ाए और ड्राइविंग सीट पर बैठ गई.

कुछ ही देर में वह बैंक में थी. मैनेजर के कमरे की तरफ बढ़ते हुए उसे कुछ संशय सा था कि उस का लोन स्वीकृत होगा भी या नहीं, पर मैनेजर की मधुर मुसकान ने उस के संदेह को विराम दे दिया. उस का लोन स्वीकृत हो गया था और अब वह अपना बुटीक खोल सकती थी. आननफानन उस ने मिठाई मंगवा कर बैंक स्टाफ को खिलाई और प्रसन्नतापूर्वक घर लौट आई.

शुरू से ही वह काफी महत्त्वाकांक्षी रही थी. फैशन डिजाइनिंग का कोर्स करते ही उस ने लोन के लिए आवेदन कर दिया था. पड़ोस के कसबे में रहने वाली जूही इस शहर में किराए पर अकेली रहती थी और अपना कैरियर गारमैंट्स के व्यापार से शुरू करना चाहती थी.

अगले दिन उस ने सोचा कि मैनेजर को धन्यवाद दे आए. आखिर उसी की सक्रियता से लोन इतनी जल्दी मिलना संभव हुआ था. मैनेजर बेहद स्मार्ट, हंसमुख और प्रतिभावान था. जूही उस से बेहद प्रभावित हुई और उस की मंगाई कौफी के लिए मना नहीं कर पाई. बातोंबातों में उसे पता चला कि वह शहर में नया आया है. उस का नाम नीरज है और शहर से दूर बने अपार्टमैंट्स में उस का निवास है.

धीरेधीरे मुलाकातें बढ़ीं तो जूही ने पाया कि दोनों की रुचियां काफी मिलती है. दोनों को एकदूसरे का साथ काफी अच्छा लगने लगा. लगातार मुलाकातों में जूही कब नीरज से प्यार कर बैठी, पता ही न चला. नीरज भी जूही की सुंदरता का कायल था.

बिजली तो उस दिन गिरी जब बुटीक की ओपनिंग सेरेमनी पर नीरज ने अपनी पत्नी नीता से जूही को मिलवाया. नीरज के विवाहित होने का जूही को इतना दुख नहीं हुआ, जितना नीता को उस की पत्नी के रूप में पा कर. नीता जूही की सहपाठी रही थी और हर बात में जूही से उन्नीस थी. उस के अनुसार नीता जैसी साधारण स्त्री नीरज जैसे पति को डिजर्व ही नहीं करती थी.

सहेली पर विजय की भावना जूही को नीरज की तरफ खींचती गई और नीता से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के चक्कर में जूही का नीरज से मिलनाजुलना बढ़ता गया. नीता खुश थी. अकेले शहर में जूही का साथ उसे बहुत अच्छा लगता था. वह हमेशा उस से कुछ सीखने की कोशिश करती, पर इन लगातार मुलाकातों से जूही और नीरज को कई बार एकांत मिलने लगा.

दोनों बहक गए और अब एकदूसरे के साथ रहने के बहाने खोजने लगे. नीता को अपनी सहेली पर रंच मात्र भी शक न था और नीरज पर तो वह आंख मूंद कर विश्वास करती थी. विश्वास का प्याला तो उस दिन छलका, जब पिताजी की बीमारी के चलते नीता को महीने भर के लिए पीहर जाना पड़ा.

सरप्राइज देने की सोच में जब वह अचानक घर आई, तो उस ने नीरज और जूही को आपत्तिजनक हालत में पाया. इस सदमे से आहत नीता बिना कुछ बोले नीरज को छोड़ कर चली गई.

जूही अब नीरज के साथ आ कर रहने लगी. कहते हैं न कि प्यार अंधा होता है, पर जब ‘एवरीथिंग इज फेयर इन लव ऐंड वार’ का इरादा हो तो शायद वह विवेकरहित भी हो जाता है.

समय अपनी गति से चलता रहा. जूही और नीरज मानो एकदूसरे के लिए ही बने थे. जीवन मस्ती में कट रहा था. कुछ समय बाद जूही को सब कुछ होते हुए भी एक कमी सी खलने लगी.

आंगन में नन्ही किलकारी खेले, वह चाहती थी, पर नीरज इस के लिए तैयार नहीं था. उस का कहना था कि ‘लिव इन रिलेशन’ की कानूनी मान्यता विवादास्पद है, इसलिए वह बच्चे का भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहता. जूही इस तर्क के आगे निरुत्तर थी.

जूही का बुटीक अच्छा चल रहा था. नाम व  कमाई दोनों ही थे. एक दिन अचानक ही एक आमंत्रणपत्र देख कर वह सकते में आ गई. पत्र नीरज की पर्सनल फाइल में था. आमंत्रणपत्र महक रहा था. वह था तो किसी पार्लर के उद्घाटन का, पर शब्दावली शायराना व व्यक्तिगत सी थी. मुख्य अतिथि नीरज ही थे.

जूही ने नीरज को मोबाइल लगाना चाहा पर वह लगातार ‘आउट औफ रीच’ आता रहा. दिन भर जूही का मन काम में नहीं लगा. बुटीक छोड़ कर वह जा नहीं सकती थी. रात को नीरज के आते ही उस ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

कुछ देर तो नीरज बात संभालने की कोशिश करता रहा पर तर्कविहीन उत्तरों से जब जूही संतुष्ट नहीं हुई, तो दोनों का झगड़ा हो गया. नीरज पुन: किसी अन्य स्त्री की ओर आकृष्ट था. संभवत: पत्नी के रहते जूही के साथ संबंध बनाने ने उसे इतनी हिम्मत दे दी थी.

मौजूदा दौर में स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता ने उस के वजूद को बल दिया है. इतना कि कई बार वह समाज के विरुद्ध जा कर अपनी पसंद के कार्य करने लगती है. नीरज जैसे पुरुष इसी बात का फायदा उठाते हैं.

उन्होंने पढ़ीलिखी, बराबर कमाने वाली स्त्री को अपने समान नहीं माना, बल्कि उपभोग की वस्तु समझ कर उस का उपयोग किया. अपने स्वार्थ के लिए जब चाहा उन्हें समान दरजा दे दिया और जब चाहा तब सामाजिक रूढि़यों के बंधन तोड़ दिए. विवाह उन के लिए सुविधा का खेल हो गया.

इस आकस्मिक घटनाक्रम के लिए जूही तैयार नहीं थी. उस ने तो नीरज को संपूर्ण रूप से चाहा व अपनाया था. नीरज को अपनी नई महिला मित्र ताजा हवा के झोंके जैसी दिख रही थी. उस के तन व मन दोनों ही बदलाव के लिए आतुर थे.

जूही को अपनी भलाई व स्वाभिमान नीरज का घर छोड़ने में ही लगे. कुछ महीनों का मधुमास इतनी जल्दी व इतनी बेकद्री से खत्म हो जाएगा, उस ने सोचा न था. नीरज ने उस को रोकने का थोड़ा सा भी प्रयास नहीं किया.

शायद जूही ने इस कटु सत्य को जान लिया था कि पुरुष के लिए स्त्री कभी हमकदम नहीं बनती. वह या तो उसे देवी बना कर उसे नैसर्गिक अधिकारों से दूर कर देता है या दासी बना कर उस के अधिकारों को छीन लेता है. उसे पुरुषों से चिढ़ सी हो गई थी.

नीरज के बारे में फिर कभी जानने की उस ने कोशिश नहीं की, न ही नीरज ने उस से संपर्क साधा.

आज बादलों के इस झुरमुट में पिछली यादों के जख्मों को सहलाते हुए वह यही सोच रही थी कि विश्वासघात किस ने किस के साथ किया था?

 

Family Story : कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज रिश्ता

लेखिका- मीनाक्षी सिंह

Family Story: 2 साल तक रोहिणी की शादी के लिए लड़का तलाश करने के बाद जब नमित के पापा ने मनचाहा दहेज देने के लिए रोहिणी के पापा द्वारा हामी भरे जाने पर शादी के लिए हां की, तो एक बेटी के मजबूर पिता के रूप में रोहिणी के पिता रमेश बेहद खुश हुए.

अपनी समझदार व खुद्दार बेटी रोहिणी की शादी नमित के साथ कर के रमेश अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री समझ कर पत्नी के साथ गंगा स्नान को निकल गए इन सब बातों से बेखबर कि उधर ससुराल में उन की लाड़ली को लोगों की कैसी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ रहा है.

शादी में चेहरेमोहरे पर लोगों द्वारा छींटाकशी तो आम बात है, लेकिन जब पति भी अपनी पत्नी के रंगरूप से संतुष्ट न हो, तो पत्नी के लिए लोगों के शब्दबाणों का सामना करना बड़ा मुश्किल हो जाता है.

रोहिणी सोच से बेहद मजबूत किस्म की लड़की थी. तानोंउलाहनों को धीरेधीरे नजरअंदाज करते हुए उस ने घर की जिम्मेदारी बखूबी संभाल ली थी.

कुछ महीने बाद, शादी के पहले, शिक्षक के लिए दी गई प्रतियोगिता परीक्षा का रिजल्ट आया, जिस में रोहिणी का चयन हुआ और रोहिणी एक शिक्षक बनने की दिशा में आगे बढ़ गई.

इस खुशखबरी और रोहिणी के अच्छे व्यवहार से उस के प्रति घर वालों का नजरिया बदलने लगा था. नमित भी अब रोहिणी से खुश रहने लगा था. पैसा अपने अंदर किसी के प्रति किसी का नजरिया बदलवाने का खूबसूरत माद्दा रखता है. यही अब उस घर में दृष्टिगोचर हो रहा था.

शादी के 5 साल पूरे होने को थे और रोहिणी की गोद अभी तक सूनी थी. यह बात अब आसपास और परिवार के लोगों को खटकने लगी थी, तो नमित तक भी यह खटकन पहुंचनी ही थी.

शुरू में नमित ने मां को समझाने की कोशिश की, पर दादी शब्द सुनने की उम्मीद ने एक बेटे के समझाते हुए शब्दों के सामने अपना पलड़ा भारी रखा और नमित की मां इस जिद पर अड़ी रहीं कि अब तो उन्हें एक पोता चाहिए ही चाहिए.

कहते हैं कि अगर किसी बात को बारबार सुनाया जाए, तो वही बात हमारे लिए सचाई सी बन जाती है, ठीक उसी तरह लोगों द्वारा रोहिणी के मां न बनने की बात सुनतेसुनते नमित को लगने लगा कि अब रोहिणी को मां बनना ही चाहिए और उस के दिमाग पर भी पिता बनने की ख्वाहिश गहराई से हावी होने लगी. उस ने रोहिणी से बात की और उसे चैकअप के लिए ले गया.

रोहिणी की रिपोर्ट नौर्मल आई, इस के बावजूद काफी कोशिश के बाद भी वह पिता नहीं बन सका. अब रोहिणी भी नमित पर दबाव डालने लगी कि उस की सभी रिपोर्ट नौर्मल हैं, तो एक बार उसे भी चैकअप करवा लेना चाहिए, लेकिन नमित ने उस की बात नहीं मानी. वह अपना चैकअप नहीं करवाना चाहता था, क्योंकि उस के अनुसार उस में कोई कमी हो ही नहीं सकती थी.

मां चाहती थीं कि नमित रोहिणी को तलाक दे कर दूसरी शादी कर ले. वह खुल कर तो मां की बात का समर्थन नहीं कर रहा था, पर उस के अंतर्मन को कहीं न कहीं अपनी मां का कहना सही लग रहा था. एक पति पर पिता बनने की ख्वाहिश पूरी तरह हावी हो चुकी थी.

धीरेधीरे उम्मीद की किरण लुप्त सी होने लगी थी. अब उस घर में सब चुपचुप से रहने लगे थे. खासकर रोहिणी के प्रति सभी का व्यवहार कटाकटा सा था. घर वालों के रूखे व्यवहार ने रोहिणी को भी काफी चिड़चिड़ा बना दिया था.

एक दिन नमित ने रोहिणी को समझाने की कोशिश की, ‘‘देखो रोहिणी, वंश चलाने के लिए एक वारिस की जरूरत होती है और मुझे नहीं लगता कि अब तुम इस घर को कोई वारिस दे पाओगी. इसलिए तुम तलाक के कागजात पर साइन कर दो.

‘‘और यकीन रखो, तलाक के बाद भी हमारा रिश्ता पहले जैसा ही रहेगा. हमारा रिश्ता कागज के चंद टुकड़ों का मुहताज कभी नहीं होगा. भले ही हम कानूनी रूप से पतिपत्नी नहीं रहेंगे, पर मेरे दिल में हमेशा तुम ही रहोगी.’

‘‘नाम के लिए कागज पर मेरी पत्नी, मेरे साथ काम कर रही रोजी होगी, परंतु उस से शादी का मेरा मकसद बस औलाद प्राप्ति होगा. तुम्हें बिना तलाक दिए भी मैं उस से शादी कर सकता हूं, पर तुम तो जानती हो कि हम दोनों की सरकारी नौकरी है और बिना तलाक शादी करना मुझे परेशानी में डाल कर मेरी नौकरी को खतरे में डाल सकता है.’’

‘‘तुम अपना चैकअप क्यों नहीं करवाते हो, नमित. मुझे लगता है कि कमी तुम में ही है. एक बात कहूं, तुम निहायत ही दोगले इंसान हो, शरीफ बने इस चेहरे के पीछे एक बेहद घटिया और कायर इंसान छिपा है.

‘‘कान खोल कर सुन लो, मैं तुम्हें किसी शर्त पर तलाक नहीं दूंगी. तुम्हें जो करना हो, कर लो. सारी परेशानियों को सहते हुए मैं इसी परिवार में रह

कर तुम सब के दिए कष्टों को सह

कर तुम्हारे ही साथ अपने बैडरूम

में रहूंगी.’’

‘‘नहीं, मुझ में कोई कमी नहीं हो सकती, और तलाक तो तुम्हें देना ही होगा. मुझे इस खानदान के लिए वारिस चाहिए, चाहे वह तुम से मिले या किसी और से.

‘‘अगर तुम सीधेसीधे तलाक के पेपर पर हस्ताक्षर नहीं करती हो, तो मैं तुम पर मेरे परिवार वालों को परेशान करने और बदचलनी का आरोप लगाऊंगा,’’ नमित के शब्दों का अंदाज बदल चुका था.

कुछ दिनों बाद नमित ने कोर्ट में रोहिणी पर इलजाम लगाते हुए तलाक की अर्जी दाखिल कर दी.

अब रोहिणी बिलकुल चुप सी रहने लगी थी, लेकिन तलाक मिलने तक अपने बैडरूम पर कब्जा नहीं छोड़ने के अपने फैसले पर अडिग थी.

2 महीने बाद ही उसे पता चला कि वह मां बनने वाली है. यह खबर मिलते ही नमित ने तलाक की दी हुई अर्जी वापस ले ली.

उस के अगले ही दिन रोहिणी अपना बैग पैक कर के मायके चली गई. सारी बातें सुन कर मातापिता ने समझाने की कोशिश की कि जब सबकुछ ठीक

हो रहा है, तो इस तरह की जिद सही नहीं है.

‘‘अगर आप लोगों को मेरा आप के साथ रहना पसंद नहीं है, तो मैं जल्दी ही कहीं और रूम ले कर रहने चली जाऊंगी. आप लोगों पर ज्यादा दिन बोझ बन कर नहीं रहूंगी.’’

बेटी से इस तरह की बातें सुन कर दोनों चुप हो गए.

अगले दिन शाम को घंटी बजने पर रोहिणी ने दरवाजा खोला सामने नमित था. बिना जवाब की प्रतीक्षा किए वह अंदर आ कर सोफे पर बैठ गया, तब तक रोहिणी के मातापिता भी आ चुके थे.

बात की शुरुआत नमित ने की, ‘‘रोहिणी हमारी गोद में जल्दी ही एक खूबसूरत संतान आने वाली है, तो तुम अब यह सब क्यों कर रही हो.

‘‘जब मैं ने तुम्हें तलाक देना चाहा था, तब तो तुम किसी भी शर्त पर तलाक देने को तैयार नहीं थीं, फिर अब क्या हुआ. अब जब सबकुछ सही हो रहा है, सब ठीक होने जा रहा है, तो इस तरह की जिद का क्या औचित्य?’’

‘‘नमित, तुम्हें क्या लगता है, यह बच्चा तुम्हारा है? तो मैं तुम्हें यह साफसाफ बता दूं कि यह बच्चा तुम्हारा नहीं, मेरे कलीग सुभाष का है, जो इस तलाक के बाद जल्दी ही मुझ से शादी करने वाला है.

‘‘तुम ने मुझ पर चरित्रहीनता के झूठे आरोप लगाए थे न, मैं ने तुम्हारे लगाए हर उस आरोप को सच कर के दिखा दिया. और साथ ही, यह भी दिखा दिया कि मुझ में कोई कमी नहीं, कमी तुम में है. तुम एक अधूरे मर्द हो जो अपनी कमी से पनपी कुंठा अब तक अपनी पत्नी पर उड़ेलते रहे. विश्वास न हो तो जा कर अपना चैकअप करवाओ और फिर जितनी चाहे उतनी शादियां करो.

‘‘तुम्हारे घर में तुम्हारी मां और बहन द्वारा दिए गए उन सारे जख्मों को मैं भुला देती, अगर बस तुम ने मेरा साथ दिया होता. औरत को बच्चे पैदा करने की मशीन मानने वाले तुम जैसे मर्द, मेरे तलाक नहीं देने के उस फैसले को मेरी एक अदद छत पाने की लालसा समझते रहे और मैं उसी छत के नीचे रह कर अपने ऊपर होते अत्याचारों की आंच पर तपती चली गई, अंदर से मजबूत होती चली गई. ऐसे में मुझे सहारा मिला सुभाष के कंधों का और उस ने एक सच्चा मर्द बन कर, सही मानो में मुझे औरत बनने का मौका दिया.

‘‘अब तुम्हारे द्वारा लगाए गए उन झूठे आरोपों को मैं सच्चा साबित कर के तुम से तलाक लूंगी और तुम्हें मुक्त करूंगी इस अनचाहे रिश्ते से, तुम्हें अपनी मरजी से शादी करने के लिए, जो तुम्हारे खानदान को तुम से वारिस दे सके जो मैं तुम्हें नहीं दे पाई.

‘‘अब तुम जा सकते हो. कोर्ट में मिलेंगे,’’ बिना नमित के उत्तर की प्रतीक्षा किए रोहिणी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

लकीर मत पीटो: क्या बहु बेटी बन पाई

मेरी जांच करने आए डाक्टर अमन ने कोमल स्वर में कहा, ‘‘अनु, बेहोश हो जाने से पहले तुम ने जो भी महसूस किया था, उसे अपने शब्दों में मुझए बताओ.’’

डाक्टर अमन के अलावा मेरे पलंग के इर्दगिर्द मेरे सासससुर, ननद नेहा और मेरे पति नीरज खड़े थे. इन सभी के चेहरों पर जबरदस्त टैंशन के भाव पढ़ कर मेरे लिए गंभीरता का मुखौटा ओढ़े रखना आसान हो गया.

‘‘सर, मम्मीजी मुझे किचन में कुछ समझ रही थीं. बस, अचानक मेरा मन घबराने लगा. मैं ने खुद को संभालने की बहुत कोशिश करी पर तबीयत खराब होती चली गई. फिर मेरी आंखों के आगे अंधेरा सा छाया. इस के बाद मुझे अपने और हाथ में पकड़ी ट्रे के गिरने तक की बात ही याद है,’’ मरियल सी आवाज में मैं ने डाक्टर को जानकारी दी.

‘‘तुम ने सुबह से कुछ खाया था?’’

‘‘जी, नाश्ता किया था.’’

‘‘पहले कभी इस तरह से चक्कर आया है.’’

‘‘जी, नहीं.’’

उन्होंने कई सवाल पूछे पर मेरे चक्कर खा कर गिरने का कोई उचित कारण नहीं समझ सके. मेरे ससुर से बस उन्हें यह काम की बात जरूर पता चली कि मेरी सास उस वक्त मुझे कुछ समझने  के बजाय बहुत जोर से डांट रही थीं.

‘‘इसे गरम दूध पिलाइए. कुछ देर आराम करने से इस की तबीयत बेहतर हो जाएगी. ब्लड प्रैशर कुछ बढ़ा हुआ है. अब ऐसी कोई बात न करें जिस से इस का मन दुखी या परेशान हो,’’  ऐसी हिदायते दे कर डाक्टर साहब चले गए.

उन्हें बाहर तक छोड़ कर आने के बाद मेरे ससुरजी कमरे मे लौटे और मेरी सास से नाराजगीभरे अंदाज में बोले, ‘‘बहू के साथ डांटडपट जरा कम किया करो. उस के पीछे पड़ना नहीं छोड़ोगी तो यह बिस्तर से लग जाएगी. कुछ ऊंचनीच हो गई तो देख लेना सब कहीं के नहीं रहेगे.’’

‘‘इन से फालतू बात करने की जरूरत नहीं है, जी. घर में गलत काम होते देख कर मैं तो चुप नहीं रह सकती हूं और मैं ने ऐसा कुछ कहा भी नहीं था इसे जो यह गश खा कर गिर पड़े. इसे किसी दूसरे डाक्टर को दिखाओ,’’ मेरी सास ससुर पर गुर्रा पड़ीं.

ससुरजी के कमरे से जाने के बाद नीरज मेरा सिर दबाने लगे. साथ ही साथ मुझे टैंशन न लेने के लिए समझते भी जा रहे थे.

मन ही मन उन के हाथों के स्पर्श का आनंद लेती हुई मैं कुछ देर पहले घटी घटना के बारे में सोचने लगी…

मुझे इस घर में बहू बन कर आए हुए अभी दूसरा महीना भी पूरा नहीं हुआ है. शादी से पहले ही मुझे बहुत से लोगों ने बता दिया था कि मेरी सास स्वभाव की बहुत तेज हैं. तभी मेरी जेठानी उन से तंग आ कर अपनी शादी के 6 महीने बाद ही घर से अलग हो कर किराए के मकान में रहने चली गई थी.

मैं ने सोच लिया था कि सासससुर को छोड़ कर नहीं जाऊंगी क्योंकि हम दोनोें के प्रेमविवाह में बहुत सी अड़चनें आई थीं. पंडितों ने मेरी कुंडली में हजार दोष निकाल दिए थे और मातापिता फालतू में पैसे दे कर दोष निवारण करते रहे थे.

मेरी सास ने तो एक ही वाक्य बोला था, ‘‘नीरज को पसंद है तो और क्या देखना. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

तब तो मुझे बाकी में संभाल लूंगी का मतलब समझ नहीं आया था पर अब समझ आने लगा था.

मेरी सास ने पहले दिन से ही मुझ पर अपना रोब जमाने का अभियान छेड़ दिया था. मेरे पहननेओढ़ने, उठनेबैठने और हंसनेबोलने के ढंग में उन्हें कोई न कोई कमी जरूर नजर आ जाती थी.

उन की अब तक की टोकाटाकी को मैं किसी तरह बरदाश्त करती रही पर आज तो अति हो गई.

‘‘इस की मां ने इसे कुछ नहीं सिखाया. हमारे पल्ले कैसी फूहड़ बहू पड़ी है. इस की सुंदर शक्लसूरत को अब क्या हम चाटें. यह नीरज भी न जाने कैसे इसे पसंद कर बैठा,’’ मेरी सास मुझे और मेरे मायके वालों को लगातार बेइज्जत किए जा रही थीं और नीरज को भी कोसती जा रही थीं.

मेरी गलती बहुत बड़ी नहीं थी. आलूगोभी की सब्जी आंच पर रख कर मैं नहाने चली गई थी. मुझे ध्यान नहीं रहा और नहा कर आने के बाद में मोबाइल पर लग गई. तब तब सब्जी जल गई.

सासूजी ने वौक से लौटते ही मौके का फायदा उठाया और मुझे व मेरे मातापिता को जम कर कहना शुरू कर दिया.

मैं डाइनिंगटेबल से टे्र में कपप्लेट रख कर ला रही थी जब मेरे सब्र का बांध टूटा तो मारे गुस्से से मेरे हाथपैर कांपने लगे. क्रोध से उबलता खून हाथ में पकड़ी ट्रे को दीवार पर दे मारने के लिए मेरे मन को उकसा रहा था.

अपने गुस्से को काबू में रखने के लिए मुझे पूरी ताकत लगानी पड़ रही थी. मेरे अंदर चल रहे तूफान से अनजान सासूजी लगातार बोले जा रही थीं.

मैं ने अपनी नजरों को फर्श पर गड़ा लिया. अगर मैं उन की तरफ देखने लगती तो फिर कुछ भी अनहोनी घट सकती थी.

यह मेरी मजबूरी थी कि मैं अपनी सास को उलट कर जवाब नहीं दे सकती थी. उन के कड़वे, तीखे शब्द सुनते हुए अचानक मेरा सिर बुरी तरह से भन्नाया और मैं ने ट्रे जानबूझ कर हाथों से छोड़ दी.

कपप्लेट टूटने की आवाज ने मेरे मन में उठ रहे हिंसा के तूफान को कुछ कम किया. अगर मैं ऐसा न करती तो मुझे लग रहा था कि तेज गुस्से को दबाने के चक्कर में मेरे दिमाग की कोई नस जरूर फट जाएगी.

‘‘क्या हुआ. क्या हुआ?’’ ऐसा शोर मचाते मेरे ससुर, नेहा और नीरज भागते हुए रसोई में पहुंच गए.

मेरी सास की समझ में कुछ नहीं आया. वे हक्कीबक्की सी मेरी तरफ देख रही थीं. टूटे कपप्लेट देख कर मुझे भी अब घबराहट हो रही थी. इस कठिन समय में कालेज के दिनों में एक नाटक में किया अभिनय मेरे काम आया.

उस नाटक के एक दृश्य में मुझे बेहोश होने का अभिनय करना था. मैं ने उसी सीन को याद किया और आंखें मूंदने के बाद फर्श पर गिर पड़ी. सासूजी के जहरीले शब्दों की मार से बचने का मुझे उस वक्त यही रास्ता सूझ था.

मेरे घर वालों, रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच मेरी छवि ऐसी तेजतर्रार लड़की की है जो गलत और अन्यायपूर्ण बात को बिलकुल बरदाश्त नहीं करती. मुझे नाजायज दबाने की कोशिश इन सब को बड़ी महंगी पड़ती थी. फिर मैं अपनी सास के अन्याय को चुपचाप सहने को क्यों मजबूर हूं, इस के पीछे भी एक कहानी है.

गुस्से में किसी से भी भिड़ जाने की मेरी आदत से परेशान मेरी मां मुझे हमेशा समझती थीं, ‘‘अनु, दफ्तर में जा कर शांत रहियो. तेरी नई बौस खड़ूस है. तेरी सहेली ही कह रही थी. तू उस से बिलकुल मत उलझना. वह कुछ भी कहे पर तू पलट कर जवाब देना ही मत.’’

जब शादी की बात हुई और मैं नीरज को बुला कर लाई तो मां ने कदम हां कर दी और फिर सब हमारे घर आए थे. वहीं मां को पता चला कि नीरज के मांबाप पहले उसी बिल्डिंग में रहते थे जहां मेरी मौसी रहती हैं. मां ने मौसी से पता किया तो पता चला कि नीरज की मां जरूर थोड़ी तेजतर्रार हैं पर न उन्हें रीतिरिवाजों के ढकोसलों से मतलब है, न दहेज से.

मां ने कहां भी था, ‘‘तेरी सास भी तेरी बौस की तरह गुस्से वाली है.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां क्या मेरी बौस से कोई लड़ाई हुई है? यहां भी संभाल लूंगी.

‘‘मां, तुम मेरी इतनी फिक्र मत करो. मैं सब संभाल लूंगी. अगर मेरी सास सेर हैं तो मैं सवा सेर हूं. नाजायज दबाया जाना मैं न यहां बरदाश्त करती हूं, न वहां करूंगी,’’ मैं निडर, लापरवाह अंदाज में ऐसा जवाब देती तो मां की आंखों में गहरी चिंता के भाव उभर आते.

मगर मेरी शादी से महीनाभर पहले उन्हें दिल के हलके से दौरे का शिकार बना दिया. इस अवसर का पूरा फायदा उठाते हुए मां ने आईसीयू में पलंग पर लेटे हुए मुझ से एक बचन ले लिया था, ‘‘अनु, तेरी मुझे बहुत चिंता है. मैं चाहती हूं कि शादी के बाद तू अपनी ससुराल मेें बहुत सुखी रहे. बेटी, मेरे मन की शांति के लिए मुझे बचन दे कि तू अपनी सास को कभी पलट कर जवाब नहीं देगी. उन के सामने कभी अपनी आवाज ऊंची नहीं करेगी.’’

मां के स्वास्थ्य को ले कर उस वक्त मैं बहुत भावुक हो रही थी. बिना सोचेसमझे मैं ने मां को अपनी भावी सास के साथ कभी सीधे न टकराने का वचन दे दिया.

इंसान गलत बात का विरोध न कर सके तो ज्यादा परेशान रहता है. सासूजी की सहीगलत डांटफटकार को मां को दिए बचन के कारण मजबूरन खामोश रह कर सहना मुझे भी बहुत परेशान और दुखी कर रहा था.

यह बात गलत है कि चुप रहने से टेढ़ी सास का उस के साथ दुर्व्यवहार कम हो जाता है पर मेरी खामोशी ने मेरी सास को मुझे और मेरे मातापिता का अपमान करने की खुली छूट दे दी.

आज की घटना हम सब के लिए नई थी. मैं मानसिक तनाव के कारण बेहोश हो गई, इस गलत सोच के चलते सारा दिन सब ने मेरा बहुत ध्यान रखा. सासूजी ने मुझ पूरा दिन पलंग से उतरने नहीं दिया. ससुरजी मेरी कमजोरी दूर करने के लिए बाजार से 2 डब्बे जूस ले कर आए. नीरज लगातार मेरे पास बैठे मुझे प्यार से निहारते रहे थे.

कोई इंसान आसानी से अपना मूलभूत स्वभाव बदल नहीं सकता है. कोई 3-4 दिन सब ठीकठाक चला पर फिर मेरी सास ने अपने पुराने रंग में लौटना शुरू कर दिया.

कुछ दिन तक उन्होंने हिचकिचाते से अंदाज में मेरे साथ पुराने अंदाज में टोकाटाकी शुरू कर दी. जब उन्होंने देखा कि मैं सहीसलामत हूं तो उन्होंने गियर बदला और मेरे साथ उन का व्यवहार फिर पहले जैसा खराब और गलत होने लगा.

मुझे खासकर तब बहुत गुस्सा आता जब वे मौका मिलते ही मेरी पुरानी गलतियों का रोना शुरू कर देतीं. पता नहीं मुझे बातबेबात शर्मिंदा और बेइज्जत करने में उन्हें क्या मजा आता था.

मां को दिए वचन ने एक तरफ मेरा मुंह सिला हुआ था और दूसरी तरफ सासूजी के जहरीले शब्दों ने मेरी सुखशांति नष्ट कर रखी थी. तब बहुत तंग हो कर मैं ने एक रात अपनेआप से कहा कि अनु, ऐसे काम नहीं चलेगा. चींटी को दबाओ तो वह भी काट लेती है. तूने अपना बचाव नहीं किया तो पागल हो जाएगी.

अगले दिन ड्राइंगरूम और रसोई की साफसफाई को ले कर सासूजी ने मुझे शाम को डांटना शुरू किया. कुछ देर तक मैं चुपचाप सब सुनती रही, फिर चाय की ट्रे पकड़े हुए मैं ने ड्राइंगरूम में प्रवेश किया और अचानक झटके से रुक पत्थर की मूर्ति की तरह अपनी जगह खड़ी की खड़ी रह गई.

मेरी नजरें फर्श की तरफ झुकी थीं पूरे बदन में हलका सा कंपन होता दिख रहा था. इस कारण ट्रे में रखे कपप्लेट आपस में टकरा कर आवाज करने लगे.

उस वक्त वहां घर के सारे सदस्य मौजूद थे. मेरी अजीब सी मुद्रा देख कर उन सभी को मेरे अचानक बेहोश हो जाने वाली घटना जरूर याद आ गई होगी. तभी नेहा ने भाग कर मेरे हाथ से ट्रे ले ली और ससुरजी ने जोर से डांट कर मेरी सास को चुप करा दिया.

नीरज ने मुझे सहारा दे कर सोफे पर बैठाया. मैं सिर ?ाकाए गुमसुम सी बैठी रही.

‘‘कैसा महसूस कर रही हो?’’ मेरी सास को छोड़ कर हर व्यक्ति मुझ से बारबार यही सवाल पूछे जा रहा था.

मेरे ससुरजी ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ रख कर पूछा, ‘‘बहू चक्कर तो नहीं आ रहा है? क्या डाक्टर को बुलाएं?’’

मैं ने इनकार में सिर हिलाया और बड़े दुखी और अफसोस भरे लहजे में बोली, ‘‘पापा, मैं मम्मी को बहुत दुख देती हूं. मैं बहुत फूहड़ हूं. मुझे कुछ नहीं आता है.’’

‘‘नहींनहीं, तुम बिलकुल फूहड़ नहीं हो. अरे, धीरेधीरे तुम सब सीख जाओगी. अपने मन में किसी तरह की टैंशन मत रखो,’’ ससुरजी ने मुझे कोमल स्वर में सम?ाया.

मैं ने सासूजी की तरफ देखते हुए भावुक अंदाज में डायलौग बोलने चालू रखे, ‘‘मैं आप से

सबकुछ सीखना चाहती हूं मम्मीजी, पर मैं जब गलत काम कर रही होती हूं, जब मेरा काम आप को अधूरा लगता है, तब उसी वक्त आप मेरा मार्गदर्शन क्यों नहीं करती हैं?

‘‘सांप के निकल जाने के बाद आप जब लकीर पीटते हुए मुझ पर गुस्सा होती हैं तो मुझ बहुत दुख और अफसोस होता है. अपनेआप से नफरत सी होने लगती है.

‘‘फिर मुझ अपना सिर घूमता लगता है. जोर से चक्कर आने शुरू हो जाते हैं. आप मुझे तब कितना भी डांट लो जब मैं काम गलत ढंग से कर रही होती हूं पर बाद में डांट खाना…’’ रोआंसी सी हो कर मैं झटके से चुप हो गई. फिर मैं ने अपने हाथ फैलाए तो मेरी सासूजी को आगे बढ़ कर मुझे अपने बदन से लिपटाना पड़ा.

‘‘बहू बिलकुल ठीक कह रही है,’’ मेरे ससुरजी एकदम जोश से भर उठे, ‘‘सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटना बेवकूफी है. आगे से इस घर में कोईर् भी अगर किसी को कुछ समझाए या डांटे तो यह काम उसी वक्त हो जब काम चल रहा हो. बाद में गड़े मुरदे उखाड़ते हुए घर का माहौल खराब करने की किसी को कोई जरूरत नहीं है.’’

ससूरजी के विरोध में आवाज उठाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई. मेरी आंखों में नजर आ रहे आंसुओं को देख कर मेरी सास का मन भी पसीजा और वे मुझे देर तक प्यार करती रहीं.

‘सांप के निकल जाने के बाद लकीर मत पीटो’ उस दिन के बाद से घर के अंदर यह वाक्य बहुत ज्यादा बोला जाने लगा.

कोई भी पुरानी बात उठा कर किसी से उलझने की कोशिश करता तो उसे फौरन यही वाक्य सुना कर चुप करा दिया जाता. मुझे इन शब्दों को बोलने की जरूरत नहीं पड़ती थी. मेरा तो पत्थर की मूर्ति वाली मुद्रा बना लेना ही काफी रहता और मेरी सास फौरन नारजगी भरे अंदाज में खामोश हो जाती थीं.

एक शाम उन्होंने मुझे सुबह देर से उठ कर आने के लिए डांटना चालू ही रखा तो उन्हें ससुरजी से जोरदार डांट पड़ गई.

‘‘मेरी इस घर में जो कोई इज्जत नहीं रह गई है उस के लिए सिर्फ आप जिम्मेदार हो,’’ सासूजी ने अपने पति से नाराजगी जाहिर करते हुए अचानक रोना शुरू कर दिया, ‘‘जिंदगीभर मुझ से यह इंसान कभी ढंग से नहीं बोला. कभी मुझे प्यार नहीं दिया.’’

‘‘यह शिकायत तब करना जब प्यार लेनेदेने का मौका सामने हो. मैं ने तुम्हारे सारे गिलेशिकवे दूर न कर दिए तो कहना. अरे, सांप के निकल जाने के बाद लकीर पीटने की यह आदत तू न जाने कब छोड़ेगी.’’

ससुरजी के इस मजाक पर जब हम सब ठहाका मार कर हंसे तो मैं ने अपनी सासूजी का चेहरा पहली बार लाजशर्म से गुलाबी होते देखा.

‘‘बहू आ गई है घर में पर इन से ये घटिया मजाक नहीं छूटे,’’ सासूजी ने बुरा सा मुंह बनाया और फिर मेरे पीछे मुंह छिपा कर खूब हंसीं.

उस दिन के बाद से मेरी सास मेरी सहेली भी बन गई हैं. इस में कोई शक नहीं कि लकीर न पीटने के फौर्मूले ने हम सब के आपसी रिश्तों को मधुर बना कर घर के अंदर सुखशांति और हंसीखुशी को बढ़ा दिया है.

टेढ़ीमेढ़ी डगर: सुमोना ने कैसे सिखाया पति को सबक

लेखिका- नीलम राकेश

सुमोना रोरो कर अब शांत हो चुकी थी. आज फिर विक्रांत ने उस पर हाथ उठाया था और फिर धक्का दे कर व बुरीबुरी गालियां देता हुआ घर से बाहर चला गया था. 5 वर्षीय पिंकी और 4 वर्षीय पंकज हिचकियों के साथ रोते हुए उस से चिपके हुए थे. तीनों के आंसू मिल कर एक हो रहे थे. अब यह सब आएदिन की बात हो गई थी.

सुमोना सोच रही थी कि कौन कहेगा कि वे दोनों पढ़ेलिखे संपन्न परिवारों से हैं. दोनों के ही परिवार आर्थिक और सामाजिक रूप से समाज में अच्छी हैसियत रखते थे. कहने को तो उन का प्रेम विवाह था. सजातीय होने के कारण और शायद परिजनों के खुले हुए विचारों का होने के कारण भी उन्हें विवाह में कोई अड़चन नहीं आई थी. सभी की रजामंदी से, बहुत धूमधड़ाके के साथ उन दोनों का विवाह संपन्न हुआ था. दोनों के ही मातापिता ने किसी तरह की कोई कमी नहीं छोड़ी थी. बल्कि अगर यह कहें कि कुछ जरूरत से ज्यादा ही दिखावा किया गया था तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

शादी के थोड़े दिनों बाद ही विक्रांत का यह रूप उस के सामने आ गया था. सुमोना चौंकी जरूर थी. दोनों ने एकसाथ एमबीए किया था. सुमोना अपने बैच की टौपर थी. पूरा जोर लगाने के बाद भी विक्रांत कक्षा में दूसरे स्थान पर ही रहता था. दोनों के बीच एक स्वस्थ स्पर्धा रहती थी.

विक्रांत का दोस्त अंगद अकसर कहता था, “अच्छा है तुम दोनों एकदूसरे को डेट नहीं कर रहे हो. नहीं तो एकदूसरे का सिर ही फोड़ देते.”

पल्लवी हंसते हुए उस में जोड़ती, “और कहीं यह दोनों शादी कर लेते तो एकदूसरे का गला ही दबा देते,” सब खिलखिला कर हंस पड़ते और बात हवा में उड़ जाती.

पता नहीं साथियों के कहने का असर था या क्या, धीरेधीरे दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षण महसूस करने लगे और जब विक्रांत पर प्रेम का भूत चढ़ा तो वह इतना अधिक रोमांटिक हो गया कि खुद सुमोना को ही विश्वास नहीं होता कि यह वही अकड़ू, गुस्सैल विक्रांत है. सहेलियां भी सुमोना से जलने लगीं. विक्रांत हर दिन सुमोना के लिए कुछ न कुछ सरप्राइज प्लान करता और सब देखते रह जाते. विक्रांत कभी भी कुछ छिपा कर नहीं करता सबकुछ सब के सामने खुलाखुला.

दोस्त कहते, “शादी के बाद विक्रांत तो जोरू का गुलाम बन जाएगा,”
विक्रांत हंस कर जवाब देता, “हां भाई बन जाऊंगा. तुम्हारे पेट में क्यों दर्द होता है? तुम भी बन जाना पर अपनी बीवी के मेरी नहीं,” और चारों ओर जलन भरी खिलखिलाहट बिखर जाती.

सुमोना को खुद भी विक्रांत का यह रूप बहुत भाता था. वह तो खुशियों के सतरंगे आकाश में विचरण कर रही थी मगर कहां जानती थी कि कुदरत उसे अंधेरे की गहरी खाई की ओर ले जा रहा है.

पहला झटका सुमोना को शादी के बाद दूसरे महीने में ही लगा था. मात्र 15 दिनों के हनीमून ट्रिप से जब दोनों लौटे थे, 1 हफ्ता तो घर से बाहर ही नहीं निकले और विक्रांत तो जैसे चकोर की तरह उसे निहारता ही रहता था.

जौइंट फैमिली थी. घर में सासससुर के साथ जेठजेठानी भी थे पर जैसे विक्रांत को कोई फर्क ही नहीं पड़ता था. जेठानी जरूर इस बात पर ताना मारती रहती थी. वह एकांत में विक्रांत को समझाती तो वह कहता, “जो जलता है, उसे जलने दो.”

उस रात नई बहू के स्वागत में विक्रांत के चाचा ने पूरे परिवार को खाने पर बुलाया था. बहुत चाव से सजधज कर जब वह तैयार हुई और विक्रांत के सामने आई तो विक्रांत के चेहरे पर बल पड़ गया, “यह क्या पहना है तुम ने?”

“क्यों क्या हुआ? अच्छा तो है,” शीशे में खुद को निहारते हुए उस ने पूछा.

“ब्लाउज का इतना गहरा गला किस को दिखाना चाहती हो?”

आहत हुई थी सुमोना, पर खुद को संभाल कर बोली, “अच्छा तो जनाब इनसिक्योर हो रहे हैं.”

“बदल कर नीचे आओ, मैं मां के पास इंतजार कर रहा हूं,” कहता हुआ विक्रांत कमरे से बाहर चला गया.

सुमोना का उखड़ा हुआ मूड, चाचा के घर में सब के स्नेहिल व्यवहार से फिर से खिल उठा था. खाना खा कर सब बैठक में बैठे हंसीमजाक कर रहे थे. बहुत ही खुशनुमा माहौल था. सब उस के रूप और व्यवहार की तारीफ कर रहे थे. थोड़ा हंसीमजाक भी चल रहा था. किसी बात पर सब के साथसाथ वह भी खिलखिला कर हंसी तो विक्रांत तेजी से चीखा, “क्या घोड़े की तरह हिनहिना रही हो… कायदे से हंस भी नहीं सकती हो क्या?”

सब चुप हो गए और उसी असहनीय शांति के बीच वापस घर चले आए. कोई कुछ नहीं बोला. कमरे में आ कर वह बहुत रोई. विक्रांत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वह करवट बदल कर आराम से सो गया. सुबह भी घर में इस बारे में कोई बात नहीं हुई. न ही किसी ने उस से कुछ कहा, न ही विक्रांत को कुछ समझाया. जेठानी के चेहरे पर जरूर व्यंग्य भरी मुसकान पूरे दिन तैरती रही.

कुछ ही दिनों बाद विक्रांत के किसी दोस्त की ऐनिवर्सरी की पार्टी थी. विक्रांत ने उसे शाम के लिए तैयार होने के साथसाथ यह भी हिदायत दी की देखो, यह मेरे दोस्त की पार्टी है, शराफत वाले कपड़े ही पहनना. बल्कि ऐसा करो की मुझे दिखा दो कि तुम क्या पहनने वाली हो. यह तो बस शुरुआत थी. उस के पहनने, बोलने पर टिप्पणी करना, टोकाटाकी करना, व्यंग्य करना अब अंगद के लिए आम बात हो गई थी.

उस दिन पार्टी पूरे शबाब पर थी. सब संगीत की लहरों पर थिरक रहे थे. संगीत वैसे भी सुमोना की कमजोरी थी. वह भी पूरी तरह से संगीत में डूबी हुई थिरक रही थी. अचानक अंगद चिल्लाया, “क्या नचनिया की तरह ठुमके लगाए जा रही हो? अब पिछली बातें भूल जाओ, शरीफ घर की बहू बन गई हो तो शरीफों की तरह रहना सीखो.”

इस अपमान को वह सह नहीं पाई और रोते हुए बाहर की ओर भागी. विक्रांत भी उस के पीछेपीछे आया. घर पहुंचते ही उस ने अपनी सासूमां को पूरी बात बताई पर उन की प्रतिक्रिया से वह चकित रह गईं,”देख बहू, पतिपत्नी के बीच में ऐसी छोटीमोटी बातें होती रहती हैं. इन्हें तूल नहीं देना चाहिए. जाओ जा कर आराम करो,” कहते हुए उन्होंने उस की पीठ थपथपाई और अपने कमरे में चली गईं.

रात उस ने आंखों में ही काटी. सुबह होते ही वह अपने मायके चली आई. अपने मातापिता की प्रतिक्रिया से तो वह बुरी तरह आहत ही हो गई. पिता ने ठहरे हुए शब्दों में उसे समझाया, “देखो सुमोना, हर दंपति के बीच में ऐसे मौके आते ही हैं. बात को बिगाड़ने से कोई लाभ नहीं है. पुरुष कभीकभार कुछ ऊंचानीचा बोल ही देते हैं. छोटीछोटी बातों को पकड़ कर बैठोगी तो खुद भी दुखी रहोगी और हमें भी दुखी करती रहोगी. अब बड़ी हो गई हो, अपनी जिम्मेदारियों को समझो. हमारी परवरिश पर उंगली उठाने का मौका उन लोगों को मत देना. बस, इतनी सी अपेक्षा है तुम से.“

पिता तो अपनी बात कह कर अपने कमरे में चले गए, उस ने आशा भरी नजरों से मां की ओर देखा. कुछ देर शांत रहने के बाद मां बोलीं, “तुम अगर यह सारी बातें अपना मन हलका करने के लिए हमारे साथ साझा कर रही हो, तो ठीक है. पर अगर तुम को लगता है कि हम लोग दामादजी से इस बारे में कोई बात करेंगे तो ऐसा नहीं होगा.”

“मां…”

बात बीच में काट कर मां बोलीं, “सुमी, हम ने तुम्हें बेटे की तरह पाला है. इस का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि तुम लड़का बन जाओ. लड़की हो, लड़की की तरह रहना सीखो. लड़कियों को थोड़ा दबना पड़ता है, सहना पड़ता है. गृहस्थी की गाड़ी तभी पटरी पर चलती है.”

“मां, मुझे इस तरह अपमानित करने का अधिकार विक्रांत को नहीं है. ”

“सुमी, तुम ने तो खुद देखा है, तुम्हारे पापा कितनी बार मुझे क्या कुछ नहीं कह देते हैं. तो क्या मैं उन की शिकायत ले कर अपने मायके जाती हूं? नहीं न?”

“मां, पर मैं यह अपमान बरदाश्त नहीं कर सकती.”

“सुमी, यह शादी तुम्हारी पसंद से, तुम्हारी खुशी के लिए करी गई है. इसे निभाना तुम्हारी जिम्मेदारी है. अभी हमें तुम्हारी दोनों छोटी बहनों की शादी भी करनी है. अगर बड़ी बहन का डाइवोर्स हो गया तो दोनों बहनों की शादी में बहुत दिक्कत आएगी. 2-4 चार दिन रहो आराम से मायके में और फिर अपने घर चली जाना. रात बहुत हो गई है, जाओ सो जाओ.”

शाम को औफिस से लौटते हुए विक्रांत उस के मायके चला आया. बिना कुछ कहेसुने वह विक्रांत के साथ अपने ससुराल चली आई. अपमानित होने का एक अनवरत सिलसिला आरंभ हो गया था. अब उसे अपने जीवन की सब से बड़ी भूल का एहसास हो रहा था. भावना में बह कर उस ने हनीमून पर से ही अपनी लगीलगाई नौकरी को इस्तीफा दे दिया था क्योंकि विक्रांत ने कहा था, “जानेमन, तुम दूसरे शहर में नौकरी करोगी तो मैं तो वियोग में ही मर जाऊंगा. 1-2 साल साथ में जी लेते हैं फिर तुम भी नौकरी कर लेना. तुम तो टौपर हो, तुम्हें तो कभी भी नौकरी मिल जाएगी.”

जाने उसे कब नींद आई. अगले दिन जब सुबह सो कर उठी तो उसे चक्कर आ रहे थे. उसे लगा कि उसे तनाव की वजह से ऐसा हो रहा है. पर सासूमां की अनुभवी आंखें शायद समझ गई थीं. उन्होंने डाक्टर के पास ले जा कर जांच करवाई और खुशी से झूमती हुई घर वापस आईं. सालभर के भीतर ही पिंकी उस की गोद में खेलने लगी थी और लगभग 1 साल बाद ही उस ने बेटे को जन्म दिया था. 2 बेटियों की मां, उस की जेठानी जलभुन गई थीं. अब वे भी उसे बातबात पर कुछ न कुछ बोलती रहतीं पर बेटा पा कर सास अब उस का ही पक्ष लेतीं पर बच्चों की मां को नौकरी करने की अनुमति इस घर में नहीं थी.

धीरेधीरे विक्रांत शराब पीने लगा. सब के बीच उस का अपमान करना अब रोज की बात थी. कमरे में अगर वे कुछ समझाने की कोशिश करतीं भी तो विक्रांत उस पर हाथ उठा देता. बच्चे सहम जाते.

कालेज में विक्रांत के परम मित्र थे अंगद. एक ही शहर में होने के कारण उन की दोस्ती अभी भी कायम थी . अगर उन के सामने कुछ भी घटित होता तो वे कभी विक्रांत को समझाते और कभी उसे. पर यह बात न तो विक्रांत को अच्छी लगती न ही परिजनों को इसलिए उन्होंने विक्रांत के घर आना कम कर दिया पर मोबाइल से वे सुमोना से संपर्क में रहते. सुमोना भी जब भी परेशान होती एकांत पा कर अंगदजी को ही फोन लगा लेती. अंगद हमेशा उस का हौसला बढ़ाते. अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह देते.

उस दिन भी अंगद घर आए थे. जब विक्रांत ने सुमोना को गाली दी तो अंगद बच्चों का वास्ता दे कर उसे समझाने लगे पर विक्रांत तो जैसे अपना आपा ही खो चुका था. उस ने उन दोनों के रिश्ते पर ही उंगली उठा दी. अपमान से तिलमिलाए हुए अंगद उठ कर चले गए और अंगद का सारा गुस्सा विक्रांत ने उस पर ही उतार दिया.

आज जिस तरह से विक्रांत ने उसे पीटा था, उसे देख कर पंकज सहम गया था और उस घटना के बाद घंटे भर तक पिंकी डर कर कांपती रही थी और उस के आंसू रुके ही नहीं थे. सुमोना को लगा ये मेरे बच्चे हैं उन्हें डर और उलझी हुई जिंदगी नहीं दे सकती हूं. अब अपने बच्चों के लिए मुझे ही कुछ करना होगा. यह निर्णय लेने के बाद सुमोना स्वयं को भविष्य में आने वाले कठिन समय के लिए मानसिक रूप से तैयार करने लगी. अब उसे पता था कि यह लड़ाई उस की अकेले की है. इस युद्ध में कोई उस के साथ नहीं खड़ा होगा. पर फिर भी सुमोना हलका महसूस कर रही थी.

अगले दिन विक्रांत के जाने के बाद सुमोना लैपटौप ले कर बैठ गई और कई जगह नौकरी के लिए आवेदन भेज कर ही अपने कमरे से बाहर आई. 2 दिनों तक कहीं से कोई जवाब नहीं आया. पर वह निराश नहीं हुई, जानती थी कोर्स करने के बाद 5 साल का लंबा अंतराल लिया था उस ने, तो थोड़ी मुश्किल से तो नौकरी मिलेगी ही. पर उसे विश्वास था कि उस की योग्यता को देखते हुए उसे नौकरी जरूर मिलेगी.

मगर हमेशा अपना सोचा कहां होता है. इस से पहले कि सुमोना की नौकरी लगती विक्रांत ने उस के हाथ में तलाक के कागज थमा दिए. दूसरा विस्फोट यह था कि विक्रांत ने कोर्ट से अपने बच्चों की कस्टडी मांगी थी, क्योंकि सुमोना बेरोजगार थी. सुमोना के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई थी. पर सुमोना ने रोनेचिल्लाने की बजाय आगे की रणनीति पर विचार करना आरंभ किया. उसे किसी से किसी सहारे की उम्मीद नहीं थी. एक ही व्यक्ति था जिस से वह कोई मदद मांग सकती थी. तो उस ने अंगद को फोन मिलाया. पूरी स्थिति बता कर उस ने किराए का मकान ढूंढ़ने का अनुरोध किया.

विक्रांत के आने से पहले ही सुमोना अपने दोनों बच्चों को ले कर एक अटैची के साथ घर से चली गई. अंगद उस के विश्वास पर खरा उतरा और उस ने अपने किसी परिचित के यहां उसे पेइंगगेस्ट बनवा दिया. अंगद ने उसे मायके जाने की भी सलाह दी पर सुमोना ने यह कह कर मना कर दिया कि यह मेरी लडाई है मैं इस में उन लोगों को परेशान नहीं करना चाहती.

रात में जब विक्रांत लौटा तो इस नए घटनाक्रम से बुरी तरह बौखला गया,
“आप लोगों ने उसे रोका क्यों नहीं? वह इस तरह से मेरे बच्चों को ले कर नहीं जा सकती.”

“हम लोगों को लगा कि आप लोगों की आपस में बात हो गई होगी,” भाभी मुंह बना कर बोलीं.

विक्रांत अपने कमरे में चला गया. उस के जीवन में इतना बड़ा भूचाल आया था और परिवार का कोई सदस्य उस के पास हमदर्दी दिखाने भी नहीं आया. समझ नहीं पा रहा था कि जिन परिजनों पर सुमोना जान छिड़कती थी, उस के जाने का किसी को कोई दुख नहीं था. आधी रात को विक्रांत को भूख लगी. उठ कर बाहर आया, डाइनिंग टेबल पर 2 रोटी और सब्जी ढकी रखी थी, वही खा कर वापस जा कर सो गया.

सुमोना होती तो गरम कर, मानमनुहार से सलाद, अचार के साथ उसे खिलाती. अगली सुबह भी सब कुछ सामान्य ढंग से होता रहा. जब वह बाहर निकलने लगा तब मां ने पूछा, “सुमोना से कुछ बात हुई क्या?”

“नहीं, खुद गई है तो खुद वापस आएगी. किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है,” गुस्से में विक्रांत बोला.

“और वह तलाकनामा?” भाभी ने पूछा.

“उसी से उस की अक्ल ठिकाने आएगी आप देख लीजिएगा,” कहता हुआ विक्रांत बाहर चला गया.

समय के तो जैसे पंख होते हैं, तेजी से खिसकने लगा. दिन, महीना और फिर साल बीत गया. न सुमोना आई, न उस का कोई फोन आया. विक्रांत ने भी अपनी अकड़ में कोई फोन नहीं किया था पर इस दौरान विक्रांत ने सुमोना की कमी को शिद्दत से महसूस किया. अपनी उलझनों के कारण उस का काम में मन नहीं लगता था. प्राइवेट कंपनी उस को क्यों रखती अतः उसे नौकरी से निकाल दिया गया. बेरोजगार देवर अब भाभी पर अब बोझ था. वही भाभी जो उस के साथ मिल कर सुमोना को ताने सुनाया करती थीं, अब उसे ताने देती थीं, “जो अपनी पत्नी और बच्चों का नहीं हुआ वह किसी और का कैसे होगा.“

अपने ही घर में उस की स्थिति अनचाहे मेहमान जैसी हो गई थी. अब विक्रांत को अपने जीवन में सुमोना का महत्त्व समझ में आ रहा था. वह खुद को सुमोना से मिलने के लिए मानसिक रूप से तैयार कर रहा था कि तभी उस के ताबूत में आखिरी कील के रूप में हस्ताक्षर किया हुआ तलाकनामा रजिस्टर्ड डाक से उस के पास आ गया. साथ ही सुमोना ने कोर्ट के पास अपने बच्चों की कस्टडी का दावा भी ठोका था क्योंकि अब वह बेरोजगार नहीं थी बल्कि एक बड़ी कंपनी की एचआर हैड थी.

रंग जीवन में नया आयो रे: क्यों परिवार की जिम्मेदारियों में उलझी थी टुलकी

घंटी की आवाज से मैं एकदम चौंक उठी. सोचा, बेवक्त कौन आया है नींद में खलल डालने. उठ कर देखा तो डाकिया बंद दरवाजे के नीचे से एक लिफाफा खिसका गया था.

झुंझलाई सी मैं लिफाफा ले कर वहीं सोफे पर बैठ गई. जम्हाई लेते हुए मैं ने सरसरी नजर से देखा, ‘यह तो किसी के विवाह का कार्ड है. अरे, यह तो टुलकी की शादी का निमंत्रणपत्र है.’

सारा आलस, सारी नींद पता नहीं कहां फुर्र हो गई. टुलकी के विवाह के निमंत्रणपत्र के साथ उस का हस्तलिखित पत्र भी था. बड़े आग्रह से उस ने मुझे विवाह में बुलाया था. मेरे खयालों के घेरे में 12 वर्षीया टुलकी की छवि अंकित हो आई.

लगभग 8 वर्ष पूर्व मैं उदयपुर अस्पताल में कार्यरत थी. टुलकी मेरे मकानमालिक की 4 बेटियों में सब से बड़ी थी. छोटी सी टुलकी को घर के सारे काम करने पड़ते थे. भोर में उठ कर वह किसी सुघड़ गृहिणी की भांति घर के कामकाज में जुट जाती. वह पानी भरती, मां के लिए चाय बनाती. फिर आटा गूंधती और उस के अभ्यस्त नन्हेनन्हे हाथ दो परांठे सेंक देते. इस तरह टुलकी तैयार कर देती अपनी मां का भोजन.

टुलकी की मां पंचायत समिति में अध्यापिका थीं. चूंकि स्कूल शहर के पास एक गांव में था, इसलिए उस को साढ़े 6 बजे तक आटो स्टैंड पहुंचना होता था. जल्दबाजी में वह अकसर अपना टिफिन ले जाना भूल जाती. ऐसे में टुलकी सरपट दौड़ पड़ती आटो स्टैंड की ओर और मां को टिफिन थमा आती.

लगभग यही समय होता जब मैं अपनी रात की ड्यूटी पूरी कर घर लौट रही होती. आटो स्टैंड से ही टुलकी वापस मेरे साथ घर की ओर चल पड़ती.

‘आज तुम्हारी मां फिर टिफिन भूल गईं क्या?’ मेरे पूछते ही टुलकी ‘हां’ में गरदन हिला देती. मैं देखती रह जाती उस के मासूम चेहरे को और सोचती, ‘दोनों में मां कौन है और बेटी कौन?’

घर पहुंचते ही टुलकी पूछती, ‘सिस्टर, आप के लिए चाय बना दूं?’

‘नहीं, रहने दे. अभी थोड़ी देर सोऊंगी. रातभर की थकी हूं,’ कहती हुई मैं अपने बालों को जूड़े के बंधन से मुक्त कर देती. मेरे काले घने, लंबे बालों को टुलकी अपलक देखती रह जाती. पर यह मैं ने तब महसूस किया जब एक दिन वह बर्फ लेने आई. उस के कटे बालों को देख मैं हैरानी से पूछ बैठी, ‘बाल क्यों कटवा लिए, टुलकी?’

उस की पहले से सजल मिचमिची आंखों से आंसू बहने लगे. मेरे पुचकारने पर उस के सब्र का बांध टूट गया. भावावेश में वह मेरे सीने से लिपट गई. मेरे अंदर कुछ पिघलने लगा. उस के रूखे बालों में हाथ घुमाते हुए मैं ने पुचकारा, ‘रो मत बेटी, रो मत. क्या हुआ, क्या बात हुई, मुझे बता?’

सिसकियों के बीच उभरते शब्दों से मैं ने जाना कि टुलकी के लंबे बालों में जुएं पड़ गई थीं. मां से सारसंभाल न हो पाई. इसलिए उस के बाल जबरदस्ती कटवा दिए गए.

‘सिस्टर, मुझे आप जैसे लंबे बाल…’ उस ने दुखी स्वर में मुझ से कहा, ‘देखो न सिस्टर, मैं सारे घर का काम करती हूं, मां का इतना ध्यान रखती हूं…क्या हुआ जो मेरे बालों में जुएं पड़ गईं. इस का मतलब यह तो नहीं कि मेरे बाल…’ और उस की रुलाई फिर से फूट पड़ी.

मैं उसे दिलासा देते हुए बोली, ‘चुप हो जा मेरी अच्छी गुडि़या. अरे, बालों का क्या है, ये तो फिर बढ़ जाएंगे, जब तू मेरे जितनी बड़ी हो जाएगी तब बढ़ा लेना इतने लंबे बाल.’

हमेशा चुप रहने वाली आज्ञाकारिणी टुलकी मेरी ममता की हलकी सी आंच मिलते ही पिघल गई थी. पहली बार मुझे महसूस हुआ कि इस अबोध बच्ची ने कितना लावा अपने अंदर छिपा रखा है.

टुलकी की मां उस को जोरजोर से आवाजें देती हुई कोसने लगी, ‘पता नहीं कहां मर गई यह लड़की. एक काम भी ठीक से नहीं करती. बर्फ क्या लेने गई, वहीं चिपक गई.’

मां की चिल्लाहट सुन कर बर्फ लिए वह दौड़ पड़ी. उस दिन के बाद वह हमेशा स्नेह की छाया पाने के लिए मेरे पास चली आती.

एक दिन जब टुलकी अपनी मां के सिर की मालिश कर रही थी तो मैं अपनेआप को रोक नहीं पाई, ‘क्या जिंदगी है, इस लड़की की. खानेखेलने की उम्र में पूरी गृहस्थिन बन गई है. इसे थोड़ा समय खेलने के लिए भी दिया करो, भाभी. तुम इस की सही मां हो, तुम्हें जरा खयाल नहीं आता कि…’

‘क्या करूं, सिस्टर, आज सिर में बहुत दर्द था,’ टुलकी की मां ने अपराधभाव से अपनी नजर नीची करते हुए कहा.

मैं ने टुलकी को उंगली से गुदगुदाते हुए उठने का इशारा किया तो उस ने हर्षमिश्रित आंखों से मुझे देखा और आंखों ही आंखों में कुछ कहा. फिर वह बाहर भाग गई. मुझे लगा, जैसे मैं ने किसी बंद पंछी को मुक्त कर दिया है.

‘आज आटो के इंतजार में सड़क पर 2 घंटे तक खड़ा रहना पड़ा. शायद तेज धूप के कारण सिर में दर्द होने लगा है. सोचा, थोड़ी मालिश करवा लूं, ठीक हो जाएगा,’ टुलकी की मां सफाई देती हुई बोलीं.

शायद कुछ दर्द के कारण या फिर अपनी बेबसी के कारण टुलकी की मां की आंखें नम हो आई थीं. यह देख मैं इस समय ग्लानि से भर गई.

‘क्या करूं सिस्टर, एक लड़के की चाह में मैं ने पढ़ीलिखी, समझदार हो कर भी लड़कियों की लाइन लगा दी. पता नहीं क्याक्या देखना है जिंदगी में…’ कहती हुई वह अपनी बेबसी पर सिसक उठी.

सारा दोष ‘प्रकृति’ पर मढ़ कर वह अपनेआप को तसल्ली देने लगी. मैं सोचने लगी कि इन्होंने तो सारा दोष प्रकृति को दे कर मन को समझा दिया पर टुलकी बेचारी का क्या दोष जो असमय ही उस का बचपन छिन गया.

‘क्या उस का दोष यही है कि वह घर में सब से बड़ी बेटी है?’ मन में बारबार यही प्रश्न घुमड़ रहा था. टुलकी बारबार मेरे मानसपटल पर उभर कर पूछ रही थी, ‘मेरा कुसूर क्या है, सिस्टर?’

उस दिन भी मैं सो रही थी कि एकाएक मुझे लगा कि कोई है. आंखें खोल कर देखा तो टुलकी सामने खड़ी थी. पता नहीं कब आहिस्ता से दरवाजा खोल कर भीतर आ गई थी. वह एकटक मुझे देख रही थी. मैं ने आंखों ही आंखों में सवाल किया, ‘क्या है?’

‘आप को उड़ती हुई पतंग देखना अच्छा लगता है, सिस्टर?’

मैं ने ‘हां’ में गरदन हिलाई और उस को देखती रही कि वह आगे कुछ बोले, पर जब चुप रही तो मैं ने पूछ लिया, ‘क्यों, क्या हुआ?’

वह चुप रही. मन में कुछ तौलती रही कि मुझ से कहे या न कहे. मैं उसे इस स्थिति में देख प्रोत्साहित करते हुए बोली, ‘तुझे पतंग चाहिए?’

उस ने ‘न’ में गरदन हिलाई तो मैं झुंझलाते हुए बोली, ‘तो फिर क्या है?’

वह सहम गई. धीरे से बोली, ‘कुछ नहीं, सिस्टर?’ और जाने को मुड़ी.

‘कुछ कैसे नहीं, कुछ तो है, बता?’ चादर एक तरफ फेंकते हुए मैं उस का हाथ पकड़ कर रोकते हुए बोली.

‘सिस्टर, मैं शाम को छत पर पतंग देख रही थी तो पिताजी ने गुस्से में मेरे बाल खींच लिए. कहने लगे कि नाक कटानी है क्या? लड़की जात है, चल, नीचे उतर. सिस्टर, क्या पतंग देखना बुरी बात है?’

मैं ने बात की तह में जाते हुए पूछ लिया, ‘छत पर तुम्हारे साथ कौन था?’

‘कोई नहीं,’ टुलकी की मासूम आंखें सचाई का प्रमाण दे रही थीं.

‘और पड़ोस की छत पर?’ मैं तहकीकात करते हुए आगे बोली.

‘वहां 2 लड़के थे सिस्टर, पर मैं उन्हें नहीं जानती.’

बस, बात मेरी समझ में आ गई थी कि टुलकी को डांट क्यों पड़ी. सोचने लगी, ‘छोटी सी अबोध बच्ची पर इतनी पाबंदी. पर मैं कर ही क्या सकती हूं?’

टुलकी के पिता पुलिस में सबइंस्पैक्टर थे, सो रोब तो उन के चेहरे व  आवाज में समाया ही रहता था. अपनी बेटियों से भी वह पुलिसिया अंदाज में पेश आते थे. जरा सी भी गलती हुई नहीं कि टुलकी के गालों पर पिताजी की उंगलियों के निशान उभर आते.

एक दिन अचानक टुलकी के पिता की कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘मेरी जान खाने को चारचार बेटियां जन दीं निपूती ने, एक भी बेटा पैदा नहीं किया. सारी उम्र हड्डियां तोड़तोड़ कर दहेज जुटाता रहूंगा और बुढ़ापे में ये सब चल देंगी अपने घर. कोई भी सेवा करने वाला नहीं होगा.’

मारपीट और चीखचिल्लाहट की आवाजें आ रही थीं. मैं अस्पताल जाने के लिए तैयार खड़ी थी पर वह सब सुन कर मुझ से नहीं रहा गया. बाहर निकल कर देखा कि टुलकी भय से थरथर कांपती हुई दीवार से सट कर खड़ी है.

‘इंस्पैक्टर साहब, आप भी क्या बात करते हैं. बेटियां जनी हैं तो इस में नीरा भाभी का क्या दोष?’ एक नजर कलाई पर बंधी घड़ी की ओर फेंकते हुए मैं

ने कहा.

मुझे देख वे जरा संयमित हुए. चेहरे पर छलक आए पसीने को पोंछते हुए बोले, ‘अब आप ही बताओ सिस्टर, चारचार बेटियों का दहेज कहां से जुटा पाऊंगा?’

‘अब कह रहे हैं यह सब. आप को पहले मालूम नहीं था जो चारचार बेटियों की लाइन लगा दी?’

मेरे कहने पर वे थोड़ा झुंझलाए. फिर कुछ कहने ही वाले थे कि मैं फिर घुड़कते हुए बोली, ‘आप अकेले तो नहीं कमा रहे, नीरा भाभी भी तो कमा रही हैं.’

‘कमा रही है तो रोब मार रही है. घर का कुछ खयाल नहीं करती. उस छोटी सी लड़की पर पूरे घर का बोझ डाल दिया है.’

‘नौकरी और घरगृहस्थी ने तो भाभी को निचोड़ ही लिया है. अब उन में जान ही कितनी बची है जो आप उन से और ज्यादा काम की उम्मीद करते हैं.’

वे दुखी स्वर में बोले, ‘सिस्टर, आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं. देखो, टुलकी का प्रगतिपत्र,’ टुलकी का प्रगतिपत्र आगे करते हुए बोले, ‘सब विषयों में फेल है.’

‘इंस्पैक्टर साहब, आप ही थोड़ा जल्दी उठ कर टुलकी को पढ़ा क्यों नहीं देते?’

‘जा री टुलकी, सिस्टर के लिए चाय बना ला,’ वे ऊंचे स्वर में बोले.

‘देखो सिस्टर, सारा दिन ये खुद ही लड़की से काम करवाते रहते हैं और दोष मुझे देते हैं,’ साड़ी के पल्लू से आंखें पोंछते हुए नीरा भाभी रसोई की ओर बढ़ते हुए बोलीं तो मुझे एकाएक ध्यान आया कि इस पूरे प्रकरण में मुझे 10 मिनट की देर हो गई है. मैं उसी क्षण अस्पताल की ओर चल पड़ी.

उस दिन के बाद से इंस्पैक्टर साहब रोज सुबह टुलकी को पढ़ाने लगे पर उस का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था. उस का ध्यान बराबर घर में हो रहे कामकाज व छोटी बहनों पर लगा रहता. उस के पिता उत्तेजित हो जाते और टुलकी सबकुछ भूल जाती और प्रश्नों के उत्तर गलत बता देती.

टुलकी की शिकायतें अकसर स्कूल से भी आती रहती थीं, कभी समय से स्कूल न पहुंचने पर तो कभी गृहकार्य पूरा न करने पर. ऐसे में टुलकी का अध्यापिका द्वारा दंडित होना तो स्वाभाविक था ही, साथ ही अब घर में भी उसे मार पड़ने लगी. मैं सोचती रह जाती, ‘नन्ही सी जान कैसे सह लेती है इतनी मार.’ पर देखती, टुलकी इस से जरा भी विचलित न होती, मानो दंड सहने की आदत पड़ गई हो.

टुलकी की परीक्षाएं नजदीक थीं. सो, नीरा भाभी छुट्टियां ले कर घर रहने लगीं. अब उस की पढ़ाई पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा.

मातापिता के इस एक माह के प्रयास के कारण टुलकी जैसेतैसे पास हो गई.

एक दिन टुलकी के भाई का जन्म हुआ जो उस के लिए बेहद प्रसन्नता का विषय था. इस से पहले मैं ने कभी टुलकी को इस तरह प्रफुल्लित हो कर चौकडि़यां भरते नहीं देखा था.

मुझे मिठाई का डब्बा देते हुए बोली, ‘जब हम सब चली जाएंगी तब भैया ही मातापिता की सेवा करेगा.’

मैं ने ऐसे ही बेखयाली में पूछ लिया था, ‘कहां चली जाओगी?’

‘ससुराल और कहां,’ मुझे अचरज से देखती टुलकी बोली.

उस के छोटे से मुंह से इतनी बड़ी बात सुन कर उस समय तो मुझे बहुत हंसी आई थी पर अब उसी टुलकी के विवाह का कार्ड देखा तो मन की राहों से उस का मासूम, बोझिल बचपन गुजरता चला गया.

फिर शीघ्र ही मेरा वहां से तबादला हो गया था. अस्पताल की भागदौड़ में अनेक अविस्मरणीय घटनाएं अकसर घटती ही रहती हैं. मैं तो टुलकी को

लगभग भूल ही चुकी थी. किंतु जब उस ने मुझे याद किया और इतने मनुहार से पत्र लिखा तो हृदय की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. सोचा, ‘मैं जरूर उस की शादी में जाऊंगी.’

निश्चय करते ही मुझे अस्पताल की थका देने वाली जिंदगी एकाएक उबाऊ व बोझिल लगने लगी. सोच रही थी कि दो दिन पहले ही छुट्टी ले कर चली जाऊं. अपने इस निर्णय पर मैं खुद हैरान थी.

विवाह के 2 दिन पूर्व मैं उदयपुर जा पहुंची. टुलकी ने मुझे दूर से ही देख लिया था. चंचल हिरनी सी कुलांचें मारने वाली वह लड़की हौलेहौले मेरी ओर बढ़ी. कुछ क्षण मैं उसे देख कर ठिठकी और एकटक उसे देखने लगी, ‘यह इतनी सुंदर दिखने लग गई है,’ मैं मन ही मन सोच रही थी कि वह बोली, ‘‘सिस्टर, मुझे पहचाना नहीं?’’ और झट से झुक कर मुझे प्रणाम किया.

मैं उसे बांहों में समेटते हुए बोली, ‘‘टुलकी, तुम तो बहुत बड़ी हो गई हो. बहुत सुंदर भी.’’

मेरे ऐसा कहने पर वह शरमा कर मुसकरा उठी, ‘‘तभी तो शादी हो रही है, सिस्टर.’’

उस से इस तरह के उत्तर की मुझे उम्मीद नहीं थी. सोचने लगी कि इतनी संकोची लड़की कितनी वाचाल हो गई. सचमुच टुलकी में बहुत अंतर आ गया था.

अचानक मेरा ध्यान उस के हाथों की ओर गया, ‘‘यह क्या, टुलकी, तुम ने तो अपने हाथ बहुत खराब कर रखे हैं, जरा भी ध्यान नहीं दिया. बड़ी लापरवाह हो. अरे दुलहन के हाथ तो एकदम मुलायम होने चाहिए. दूल्हे राजा तुम्हारा हाथ अपने हाथ में ले कर क्या सोचेंगे कि क्या किसी लड़की का हाथ है या…?’’ मैं कहे बिना न रह सकी.

मेरी बात बीच में ही काटती हुई टुलकी उदास स्वर में बोल उठी, ‘‘सिस्टर, किसे परवा है मेरे हाथों की, बरतन मांजमांज कर हाथों में ये रेखाएं तो अब पक्की हो गई हैं. आप तो बचपन से ही देख रही हैं. आप से क्या कुछ छिपा है.’’

‘‘अरे, फिर भी क्या हुआ. तुम्हारी मां को अब तुम से कुछ समय तक तो काम नहीं करवाना चाहिए था,’’ मैं ने उलाहना देते हुए कहा.

‘‘मेरा जन्म इस घर में काम करने के लिए ही हुआ है,’’ रुलाई को रोकने का प्रयत्न करती टुलकी को देख मेरे अंदर फिर कुछ पिघलने लगा. मन कर रहा था कि खींच कर उस को अपने सीने में भींच लूं. उसे दुनिया की तमाम कठोरता से बचा लूं. मेरी नम आंखों को देख कर वह मुसकराने का प्रयत्न करते हुए आगे बोली, ‘‘मैं भी आप से कैसी बातें करने लग गई, वह भी यहीं सड़क पर. चलिए, अंदर चलिए, सिस्टर, आप थक गई होंगी,’’ मुझे अंदर की ओर ले जाती टुलकी कह उठी, ‘‘आप के लिए चाय बना लाती हूं.’’

बड़े आग्रह से उस ने मुझे नाश्ता करवाया. मैं देख रही थी कि यों तो टुलकी में बड़ा फर्क आ गया है पर काम तो वह अब भी पहले की तरह उन्हीं जिम्मेदारियों से कर रही है.

मेरे पूछने पर कहने लगी, ‘‘मां तो नौकरी पर रहती हैं, उन्हें थोड़े ही मालूम है कि घर में कहां, क्या पड़ा है. मैं न देखूंगी तो कौन देखेगा. और यह टिन्नू,’’ अपनी छोटी बहन की ओर इशारा करते हुए कहने लगी, ‘‘इसे तो अपने शृंगार से ही फुरसत नहीं है. अब देखो न सिस्टर, जैसे इस की शादी हो रही हो. रोज ब्यूटीपार्लर जाती है.’’

‘‘दीदी, आज आप की पटोला साड़ी मैं पहन लूं?’’ अंदर आती टिन्नू तुनक कर बोली.

‘‘पहन ले, मोपेड पर जरा संभलकर जाना.’’

‘‘पायलें भी दो न, दीदी.’’

‘‘देख, तू ने लगा ली न वही बिंदी. मैं ने तुझे मना किया था कि नहीं?’’

‘‘मैं ने मां से पूछ कर लगाई है,’’ इतराती हुई टिन्नू निडर हो बोली.

‘‘मां क्या जानें कि मैं क्यों लाई?’’

‘‘आप और ले आना, मुझे पसंद आई तो मैं ने लगा ली. इस पटोला पर मैच कर रही है न. अब मुझे जल्दी से पायलें निकाल कर दे दो. देर हो रही है. अभी बहुत से कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘नहीं दूंगी.’’

‘‘तुम नहीं दोगी तो मैं मां से कह कर ले लूंगी,’’ ठुनकती हुई टिन्नू टुलकी को अंगूठा दिखा कर चली गई.

‘‘देखो सिस्टर, मेरा कुछ नहीं है. मैं कुछ नहीं, कोई अहमियत नहीं,’’ भरे गले से टुलकी कह रही थी.

‘‘टुलकी, ओ टुलकी,’’ तभी उस की मां की आवाज सुनाई दी, ‘‘हलवाई बेसन मांग रहा है.’’

‘‘टुलकी, जरा चाकू लेती आना?’’ किसी दूसरी महिला का स्वर सुनाई दिया.

‘‘दीदी, पाउडर का डब्बा कहां रखा है?’’ टुलकी की छोटी बहन ने पूछा.

‘‘क्या झंझट है, एक पल भी चैन नहीं,’’ झुंझलाती हुई वह उठ खड़ी हुई.

मैं बैठी महसूस कर रही थी कि विवाह के इन खुशी से भरपूर क्षणों में भी टुलकी को चैन नहीं.

दिनभर के काम से थकी टुलकी अपने दोनों हाथों से पैर दबाती, उनींदी आंखें लिए ‘गीतों भरी शाम’ में बैठी थी और ऊंघ रही थी. उल्लास से हुलसती उस की बहनें अपने हाथों में मेहंदी रचाए, बालों में वेणी सजाए, गोटा लगे चोलीघाघरे में ढोलक की थाप पर थिरक रही थीं.

सभी बेटियां एक ही घर में एक ही मातापिता की संतान, एक ही वातावरण में पलीबढ़ीं पर फिर भी कितना अंतर था. कुदरत ने टुलकी को ‘बड़ा’ बना कर एक ही सूत्र में मानो जीवन की सारी मधुरता छीन ली थी.

टुलकी के जीवन की वह सुखद घड़ी भी आई जब द्वार पर बरात आई, शहनाई बज उठी और बिजली के नन्हे बल्ब झिलमिला उठे.

मैं ने मजाक करते हुए दुलहन बनी टुलकी को छेड़ दिया, ‘‘अब मंडप में बैठी हो. किसी काम के लिए दौड़ मत पड़ना.’’

धीमी सी हंसी हंसती वह मेरे कान में फुसफुसाई, ‘फिर कभी इधर लौट कर नहीं आऊंगी.’

बचपन से चुप रहने वाली टुलकी के कथन मुझे बारबार चौंका रहे थे. इतना परिवर्तन कैसे आ गया इस लड़की में?

मायके से विदा होते वक्त लड़कियां रोरो कर कैसा बुरा हाल कर लेती हैं पर टुलकी का तो अंगप्रत्यंग थिरक रहा था. मुझे लगा, सच, टुलकी के बोझिल जीवन में मधुमास तो अब आया है. उस के वीरान जीवन में खुशियों के इस झोंके ने उसे तरंगित कर दिया है.

विदा के झ्रसमय टुलकी के मातापिता, भाई और बहनों की आंखों में आंसुओं की झड़ी लगी हुई थी लेकिन टुलकी की आंखें खामोश थीं, उन में कहीं भी नमी दिखाई नहीं दे रही थी. इसलिए वह एकाएक आलोचना व चर्चा का विषय बन गई. महिलाओं में खुसरफुसर होने लगी.

लेकिन मैं खामोश खड़ी देख रही थी बंद पिंजरे को छोड़ती एक मैना की ऊंची उड़ान को. एक नए जीवन का स्वागत वह भला आंसुओं से कैसे कर सकती थी.

शुक्रिया दोस्त: शालू ने क्या किया था

एसएससीकंपीटिशन ऐग्जाम के औनलाइन फार्म में परीक्षा केंद्र चुनने वाला औप्शन कौलम भरते समय शालू ने एक पल को कुछ सोचा और फिर जयपुर पर क्लिक कर दिया. हालांकि उस के  अपने शहर जोधपुर में भी परीक्षा केंद्र प्रस्तावित था, मगर शालू को तो एक बहाना चाहिए था साहिल से मिलने का और वह इस से बेहतर क्या हो सकता था. इस बहाने को तो मांपापा भी नकार नहीं सकते. मन ही मन अपने प्यार से मिलने की सुखद कल्पनाओं में खोई शालू ने फार्म भरने की बाकी प्रक्रिया पूरी की और एक बार फिर परीक्षा केंद्र जयपुर पर नजर डाल कर खुद को आश्वस्त किया और फार्म सबमिट कर दिया.

शालू ने यह बात किसी को नहीं बताई थी, साहिल को भी नहीं. लगभग 1 महीने बाद एसएससी की बैवसाइट पर ऐग्जाम से संबंधित सूचना अपलोड हुई तो वह खुशी से झम उठी. 4 सप्ताह के बाद यह कंपीटीशन होने वाला है और उस का परीक्षा केंद्र जैसाकि उस ने चाहा था, जयपुर ही आया है.

शाम को उस ने पापा को यह खबर दी तो उन्होंने तो कुछ नहीं कहा, मगर मां बोली, ‘‘जोधुपर में इस का सैंटर नहीं था क्या, जयपुर क्यों आया है?’’

शालू को कोई जवाब नहीं सूझ, मगर पापा ने अपने अनुभव के आधार पर कहा, ‘‘हो सकता है, यहां कैडिडेट ज्यादा हो गए हों, इसलिए सैंटर बदल दिया गया हो. कोई बात नहीं. जयपुर भी ज्यादा दूर नहीं है. तुम बस मन लगा कर तैयारी करो. सिर्फ फार्म भरने और परीक्षा देने से ही ऐग्जाम पास नहीं हुआ करते. कुछ बनने के लिए जीजान लगा देनी पड़ती है. दिनरात मेहनत करनी पड़ती है.’’

सुन कर शालू की जान में जान आई. पापा की बातों को उस ने एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया. उसे तो इस ऐग्जाम से नहीं बल्कि जयपुर जाने से मतलब था.

यहां तक तो सबकुछ उस की प्लानिंग के हिसाब से हो गया था. एकांत पाते ही

उस ने साहिल को मैसेज कर दिया कि वह 4 सप्ताह बाद जयपुर आ रही है. सुन कर साहिल भी उस से मिलने के सपने संजोने लगा. अब यह देखना था कि कुछ ऐसा प्लान बनाया जाए कि मांपापा उसे अकेली जयपुर भेजने को तैयार हो जाएं वरना उस की सारी प्लानिंग पर पानी फिर जाएगा. शालू मन ही मन कामना करने लगी

कि अपने प्यार को पाने का यह अवसर उसे अवश्य मिले.

शालू और साहिल दोनों ने एक ही कालेज से एमबीए की डिगरी ली थी. जहां साहिल पढ़ने में बहुत तेज था वहीं शालू बला की खूबसूरत थी. दोनों को ही अपनीअपनी खूबियों का एहसास था और उन पर गुरूर भी. दोनों का ऐटीट्यूड देखते ही बनता था. शुरुआती नोकझेंक के बाद दोनों की दोस्ती हो गई जो साल बीततेबीतते आखिर प्यार में बदल ही गई. कालेज में उन की जोड़ी हिट थी.

शालू की इच्छा थी कि कालेज खत्म होने के बाद वे दोनों शादी के बंधन में बंध जाएं, इसलिए वह बारबार साहिल पर कैंपस इंटरव्यू में जाने और जौब चुनने के लिए दबाव बना रही थी. वहीं साहिल अपने लिए किसी बेहतर मुकाम की तलाश में जुटा था. वह कालेज के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठ कर अपनी मेहनत को आजमाना चाहता था, इसलिए शालू की नाराजगी के बावजूद उस ने जयपुर के एक जानेमाने कोचिंग इंस्टिट्यूट में एडमिशन ले लिया.

‘‘कुछ बनूंगा तभी तो तुम्हें बेहतर कल दे पाऊंगा न,’’ साहिलका अपना तर्क था, जिस ने शालू को चुप करवा दिया और फिर साहिल उसे अपनी यादों के सहारे छोड़ कर जयपुर चला गया.

हालांकि फोन और सोशल मीडिया पर वे लगातार जुड़े हुए थे, मगर शालू को इतने भर से सब्र नहीं होता था. शालू के लिए जब साहिल से दूरी सहन करना मुश्किल होने लगा तो उस ने भी जयपुर जा कर कोचिंग करने की, जिद अपने पापा से की मगर लाख सिर पटकने के बाद भी उस के घर वाले इस बात के लिए राजी नहीं हुए. हां उसे वहीं जोधपुर में ही एक इंस्टिट्यूट में एडमिशन जरूर दिला दिया गया.

अब शालू के पास साहिल से मिलने का कोई और तरीका नहीं था, इसलिए उस ने यह तरकीब लगाई. अगले ही संडे शालू का ऐग्जाम था. शायद कुदरत ने उस की प्रार्थना सुन ली थी. 2 दिन बाद अचानक पापा का बीपी हाई हो

गया और डाक्टर ने उन्हें कंप्लीट बैडरैस्ट की सलाह दी तो मां का भी उन के  पास रुकना जरूरी हो गया.

‘‘रहने दे ऐग्जाम. वैसे भी कोई तैयारी तो तुम ने की नहीं. क्यों बिना मतलब समय और पैसा बरबाद कर रही हो,’’ मां ने कहा तो शालू रोंआसी हो गई.

‘‘अकेली मैनेज कर लोगी सब?’’ पापा थोड़े पिघले.

‘‘हांहां पापा, क्यों नहीं. फिर मेरी सहेली रिया भी तो वहीं जयपुर में ही है. मैं वहां उस

के पास चली जाऊंगी… एक ही दिन की तो बात है. शनिवार की रात को जाऊंगी और सोमवार

को सुबह वापस पहुंच जाऊंगी,’’ शालू अपनी योजना की कामयाबी पर मन ही मन खुश होती हुई बोली.

तय कार्यक्रम के अनुसार शालू रविवार सुबह लगभग 5 बजे जयपुर पहुंच गई. साहिल उसे लेने स्टेशन आया था. उसे देखते ही शालू के सब्र का बांध टूट गया और वह बिना किसी की परवाह किए उस से लिपट गई.

साहिल ने घबरा के इधरउधर देखा और उसे अपने से अलग किया. औटो से दोनों रिया के कमरे पर पहुंचे. रास्ते भर शालू साहिल से चिपक कर बैठी थी. कभी उस के कंधे पर सिर रखती

तो कभी उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाने लगती. साहिल बहुत असहज हो रहा

था. वह शालू को रिया के कमरे पर छोड़ कर

9 बजे वापस आने का वादा कर के अपने हास्टल चला गया.

दोपहर 2 बजे ऐग्जाम खत्म होने पर साहिल और शालू वापस रिया के कमरे पर आ गए. रिया उन की तड़प समझ रही थी इसलिए वह अपने फ्रैंड्स के साथ मूवी देखने का बहाना बना कर बाहर चली गई. अब शालू और साहिल दोनों कमरे में अकेले थे. एकांत पाते ही शालू फिर से साहिल से लिपट गई. अब साहिल का भी अपनेआप से निमंत्रण खत्म हो चुका था और फिर 2 जवान दिलों का 1 होने में वक्त ही कितना लगता है. आज दोनों के बीच की वह दीवार भी ढह गई थी जिसे दोनों ने शादी तक के लिए बचा कर रखा था. दोनों को होश तब आया जब दिन ढलने पर रिया वापस आई.

साहिल ने रात स्टेशन पर आने का वादा कर के शालू से विदा ली.

‘‘सखी, ये आंखें इतनी लाल क्यों हैं?’’ रिया ने उस के जाते ही चुटकी ली.

‘‘थैंक्स रिया. आज तुहारी वजह से मुझे जो खुशी मिली है उसे मैं बयां नहीं कर सकती. तुम ने मुझे जिंदगीभर का कर्जदार बना लिया,’’ शालू ने रिया के हाथ को कस कर थाम लिया.

‘‘दोस्त, किसी पर एहसान नहीं किया करते. वक्त आने पर वसूल लिया करते हैं,’’ रिया हंस दी तो शालू भी मुसकरा दी.

‘‘और सुना क्याक्या गुजरी जब मिल बैठे थे दीवाने?’’ रिया ने फिर शालू को छेड़ा.

‘‘चल यार. तू भी क्या याद रखेगी. यह देख,’’ कहते हुए शालू ने अपने मोबाइल को औन किया और एक वीडियो रिया को दिखाया. देखते ही रिया की आंखें फटी की फटी रह गईं. यह शालू और साहिल के अंतरंग पलों का वीडियो था. रिया ने देखा शालू का चेहरा अब भी शर्म से लाल हो उठा था.

‘‘यह कैसे?’’ रिया के मुंह से शब्द ही नहीं निकल रहे थे.

‘‘मैं ने सामने टेबल पर मोबाइल सैट कर रख दिया था. इसे मैं अपने प्यार की निशानी के रूप में साथ ले जा रही हूं. जब भी साहिल की याद आएगी, मैं इसे देख कर अपनी प्यास बुझ लिया करूंगी,’’ साहिल के प्यार में आंकठ डूबी शालू ने खोईखोई आवाज में कहा.

‘‘सोच लो शालू. कहीं तुम्हारी यह नादानी तुम्हें किसी मुसीबत में न डाल दे,’’ रिया ने उसे चेताया, मगर शालू ने उस पर कान नहीं दिए.

सबकुछ वैसा ही हुआ जैसा शालू ने सोचा था. साहिल से निर्विघ्न

मिल कर वह आसमान में उड़ी जा रही थी. जोधपुर आ कर वह भी अपनी पढ़ाई में जुट गई. एक दिन व्हाट्सऐप पर रिया का भेजा वीडिया देख कर शालू के होश उड़ गए. यह उस का और साहिल का वही वीडियो था जो उस ने रिया को दिखाया था.

‘‘रिया, तुम तो छिपी रूस्तम निकली.

आंखों से यह काजल कब चुराया,’’ शालू ने अपनी आवाज को नौर्मल करते हुए रिया को

फोन लगाया.

‘‘बस तभी जब तुम चेंज करने बाथरूम में गई थी. खैर, ये सब छोड़… सुन मुझे अर्जैंट कुछ रुपयों की जरूरत है. यही कोई 5 हजार. तू प्लीज जल्दी व्यवस्था कर के भिजवा दे,’’ रिया बिना वक्त गंवाए असली मुद्दे पर आ गई थी.

शालू सब समझ गई कि वह ब्लैकमेलिंग का शिकार हो चुकी है. वह उस वक्त को

कोसने लगी जब उस ने यह आत्मघाती कदम उठाया था.

हालांकि जयपुर से लौटने के बाद खुद शालू ने भी कई बार अपनेआप को इस कृत्य के लिए कठघरे में खड़ा किया था. कोसा था उस घड़ी को जब वह अपनेआप पर काबू नहीं रख पाई थी. काश उस ने अपना कौमार्य पहली रात को समर्पित करने के लिए संभाल कर रखा होता. बेशक उस ने साहिल को भावी पति के रूप में देख कर ही यह कदम उठाया था, मगर क्या ही अच्छा होता यदि यह खास तोहफा अपने साहिल को उसी रात दिया होता.

यह तो शुक्र है कि गर्भ ठहरने जैसी किसी आपात स्थिति में नहीं पहुंची वरना क्या करती वह. कैसे अपने घर वालों का सामना करती. हो सकता है वह आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण कदम ही उठा लेती. साहिल के पास भी किस मुंह से जाती, वह खुद भी कहां अपने पैरों पर खड़ा था जो समाज से लड़ लेता.

शालू को यों तो साहिल पर पूरा भरोसा था, मगर खुदा न खास्ता कहीं दगा दे दिया

तो? कहीं समाज और परिवार के दबाव में आ कर उसे कहीं और शादी करनी पड़ी तो? कहीं उस के भावी पति को भनक लग गई कि वह वर्जिन

नहीं है तो? शालू जितना सोचती उतना ही उलझती जा रही थी.

जो किया वह तो क्षणिक ज्वार था, मगर यह वीडियो बनाने की नासमझ वह कैसे कर बैठी. और तो और खुद ही रिया

के सामने वायरल भी कर दिया. उस से बड़ा बेवकूफ शायद ही कोई और हो. यह वीडियो

अब शालू के लिए गले की हड्डी बनने लगा था जिसे न डिलीट करते बन रहा था और न ही मोबाइल में रखते. कहीं किसी और के हाथ लग गया तो… इज्जत का फलूदा बन जाएगा. वह कोई निर्णय ले पाती इस से पहले ही रिया ने उसे एहसास करा दिया कि वह कितनी बड़ी मुसीबत में फंस चुकी है.

शालू को अपनेआप पर बहुत गुस्सा आ रहा था. एक तो उस ने ऐसी बचकानी हरकत की थी तिस पर भी ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत सच कर डाली. अरे, क्या जरूरत थी वह वीडियो रिया को दिखाने की? मगर अब क्या हो सकता है. अब तो तीर कमान से निकल चुका है. कुछ समझदारी से ही काम लेना पड़ेगा वरना यह मुसीबत और भी बढ़ सकती है. शालू के दिमाग में योजनाएं बनतीबिगड़ती जा रही थीं.

शालू ने जैसेतैसे कर के रिया को 5 हजार रुपए दिए, मगर वह जानती थी कि बात यहीं खत्म नहीं हुई है. अब रिया उसे सोने का अंडा देने वाली मुरगी समझने लगेगी. अपने पैरों पर कुल्हाड़ी वह खुद ही मार चुकी है. अब इस

कटे हुए पैर पर इलाज भी खुद ही करना पड़ेगा और वह भी इन्फैक्शन फैलने से पहले. उसे कोई ऐसा ठोस कदम उठाना पड़ेगा जिस से सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. कैसे भी कर के यह वीडियो रिया के मोबाइल से डिलीट करना

ही पड़ेगा.

शालू ने रिया की मां को फोन कर के पता लगाया कि वह इस संडे घर आने वाली हैं. शालू उस से मिलने पहुंच गई.

‘‘अरे शालू तुम? मैं तुम्हें ही याद कर रही थी,’’ उसे देख कर रिया चौंकी. हालांकि उस ने विडियो का कोई जिक्र नहीं किया. शालू भी अनजान बनते हुए उस से गरमजोशी से मिली. शालू ने पानी मांगा तो रिया उठ कर अंदर गई. शालू ने फौरन उस का मोबाइल उठाकर देखा मगर यह क्या? मोबाइल तो पासवर्ड से लौक

था. शालू निराश हो गई. मगर तभी कुछ सोच

कर उस ने मोबाइल से मैमोरी कार्ड निकाल

कर अपने पर्स में रख लिया. अब तक रिया पानी ले कर आ गई थी. शालू ने थोड़ी देर इधरउधर की बातें कीं और चलने को हुई.

‘‘शालू, यार मुझे 3 हजार रुपए और चाहिए. मैं परसों वापस जा रही हूं, तू प्लीज. कल तक इंतजाम कर देना,’’ रिया ने कहा.

‘‘कोशिश करती हूं. कल शाम तू घर आ जाना, रुपए वहीं दे दूंगी,’’ शालू बुझे मन से हामी भर कर बोली.

शालू ने घर जा कर रिया का मैमोरी कार्ड चैक किया, मगर उस में वह वीडियो नहीं था जिस की उसे तलाश थी. इस का मतलब है कि वीडियो उस के मोबाइल की हार्ड डिस्क में है. अगर किसी तरह वह मोबाइल फौर्मेट कर दिया जाए तो बात बन सकती है. शालू ने मन ही मन कुछ सोच लिया.

अगले दिन शाम को रिया तय समय पर शालू के घर पहुंची. शालू उसे अपने कमरे में बैठा कर चाय बनाने रसोई में चली गई. रिया टाइम पास करने के लिए अपने मोबाइल में कोई गेम खेलने लगी.

‘‘रिया, वहां अकेली बोर हो रही हो, यहीं रसोई में आ जाओ,’’ शालू ने आवाज लगाई.

रिया उठ कर शालू के पास चली गई. वह मोबाइल के गेम में इतनी खोई हुई थी कि शालू के पास खड़ीखड़ी भी कीबोर्ड पर उंगलियां ही चला रही थी. शालू ने कनखियों से देखा और अचानक ही रिया को कुहनी मार दी. रिया के हाथ से छिटक कर मोबाइल नीचे गिर गया. शालू अफसोस करते हुए ‘सौरीसौरी’ कहने लगी और लपक कर मोबाइल को चाय के पतीले में खौलते हुए पानी में डाल दिया.

रिया ने तुरंत आंच बंद कर के मोबाइल को पानी से बाहर निकाला, मगर बहुत कोशिश करने पर भी वह औन नहीं हुआ.

‘‘अब इसे ठीक करवाने के चार्जेज भी तुम्हें ही देने होंगे,’’ रिया ने खा जाने वाली नजरों से शालू को घूरा.

‘‘सौरी यार. चल पास ही मोबाइल रिपेयर की शौप है, इसे अभी ठीक करवा लेते हैं,’’ शालू ने सहानुभूति जताते हुए कहा.

वह रिया को ले कर शौप पर गई. मोबाइल को चैक करने के बाद मोबाइल मैकेनिक

ने उन्हें बताया कि उबलते पानी में गिरने के कारण मोबाइल की आईसी खराब हो गई है

और इसे बदलना पड़ेगा. इस के साथ ही इस

के अंदर स्टोर किया हुआ सारा डाटा भी करप्ट

हो गया.

शालू के कान यही तो सुनने के लिए

तरस रहे थे. वहीं रिया के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

‘‘सौरी यार. मेरी वजह से तुम्हारा मोबाइल खराब हो गया. मुझे बहुत बुरा लग रहा है, तुम्हारी सोने का अंडा देने वाली मुरगी मर गई,’’ शालू मुसकराई.

‘‘ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है, वह वीडियो मेरे मैमोरी कार्ड में था, इस में नहीं,’’ रिया ने अपना आखिरी तीर छोड़ा, तो शालू ने पर्स में से मैमोरीकार्ड निकाल कर उस के 2 टुकड़े किए और हवा में उछाल दिए और कहा, ‘‘बेचारा, मैमोरी कार्ड. यह भी गया.’’

रिया देखती रह गई.

‘‘रिया, तुम चाहे जैसी भी हो, मेरी गुरु हो. तुम ने मुझे कई बातें सिखाई हैं जैसेकि ऐसी बेवकूफियां नहीं करनी चाहिए जो यह कि कभी भी किसी पर आंख बंद कर भरोसा नहीं करना चाहिए, यह कि अपने राज अपनेआप से भी छिपा कर रखने चाहिए आदिआदि. शुक्रिया दोस्त,’’ कह कर शालू मुसकरा दी.

फिर शालू ने कुछ पल सोचा और फिर अपने मोबाइल में सेव वह वीडियो भी डिलीट कर के समस्या की जड़ को ही खत्म कर दिया. न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी और रिया को वहीं असमंजस में छोड़ कर शालू चली गई.

रिया अब भी वहीं खड़ी उसे आत्मविश्वास के साथ जाते हुए देख रही थी.

बंटी हुई औरत: लाजो को क्यों कर दिया शेखर व विजय ने दरकिनार

लाजवंती को अपनी पत्नी बना कर शेखर ने सभी रिश्तेदारों के साथसाथ अपने पिता की आशाओं पर भी पानी फेर दिया था, क्योंकि वह तो कब से इस बात की उम्मीद लगाए बैठे थे कि बेटा ज्यों ही प्रशासनिक सेवा में लगेगा उस का विवाह किसी कमिश्नर या सेक्रेटरी की बेटी से कर देंगे. इस से शेखर के साथसाथ सारे परिवार का उद्धार होगा.

दूरदर्शी शेखर के पिता यह भी जानते थे कि बड़े ओहदेदारों से पारिवारिक संबंध बनाना बेटे के भविष्य के लिए भी जरूरी है साथ ही स्थानीय प्रशासन पर भी अच्छा रौबदाब बना रहता है.

उधर भाईबहनों में यह धुन सवार थी कि कब भैया की शादी हो और कब घर को संभालने वाला कोई आए. उन्हें तो यह भी विश्वास था कि भाभी अवश्य ही अलादीन का चिराग ले कर आएंगी.

एक मध्यवर्गीय परिवार के टूटेफूटे स्वप्न…

शेखर जब भी अपनी मौसी या बूआ के घर जाता तो उस का स्वागत एक ही वाक्य से होता, ‘‘बेटे, मैं ने तुम्हारे लिए सर्वगुण संपन्न चांद सी दुलहन ढूंढ़ रखी है. बस, नौकरी ज्वाइन करने का इंतजार है.’’

जीवनसाथी के मामले में शेखर की सोच कुछ और थी. उस ने एक गरीब असहाय लड़की को अपना जीवन- साथी बनाने का निर्णय किया था. चूंकि

लाजवंती उस के सोच के पैमाने पर खरी उतरी थी इसीलिए उस ने उसे अपना जीवनसाथी बनाया. बचपन में ही लाजवंती के पिता का देहांत हो चुका था. घर में एक भाई था और 4 बहनें. अब तक 2 बहनों का विवाह हो चुका था. मां थीं जो ढाल बन कर बच्चों को ऊंचनीच से बचाने के प्रयास में लगी रहतीं. शेखर का विचार था कि दरिद्रता में पली हुई लाजवंती जिंदगी के उतारचढ़ाव से परिचित होगी. भलेबुरे की उसे पहचान होगी.

लाजवंती में ऐसा कुछ भी न था. वह उस गंजी कबूतरी की तरह थी जो महलों में डेरा डाल चुकी हो. शेखर की धारणा गलत साबित हुई. इतना ही नहीं लाजवंती अपने साथ अपना अतीत भी समेट कर लाई थी.

मां के कंधों का बोझ कम करने के लिए 14 वर्ष की आयु में ही लाजवंती को उस की सब से बड़ी बहन ने अपने पास बुला कर स्कूल में दाखिल करा दिया. हर सुबह लाजो सफेद चोली और नीला स्कर्ट पहने अपना बस्ता कंधे पर लटकाए स्कूल जाने लगी. घड़ी की टिकटिक चढ़ती जवानी का अलार्म बन गई.

उधर लाजो के रूप में निखार आने लगा. चाल में लचक पैदा होने लगी. आंखें भी चमकने लगीं और यौवन का प्रभाव उन्नत डरोजों पर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा.

पिता के प्यार की चाहत लिए लाजो अकसर अपने जीजा के सामने बैठ कर अपना पाठ दोहराती या फिर उस की गोद में सिर रख कर एलिस के वंडरलैंड में खो जाती. जीजा लाजो के केशों में अपनी उंगलियां फेरता या फिर उस के मुलायम गालों को सहलाता तो नारी स्पर्श से उस की आंखों में नशा छा जाता.

लाजो भी नासमझी के कारण इस कोमल अनुभूति का आनंद लेने की टोह में लगी रहती. एक दिन पत्नी की गैर- मौजूदगी ने भावनाओं को विवेक पर हावी कर दिया. नदी अपने किनारे तोड़ कर अनियंत्रित हो गई. लाजो को जब होश आया तो बहुत देर हो चुकी थी.

उस घटना के बाद लाजो अपने आप से घृणा करने लगी. वह हर समय खोईखोई रहती. परिणाम की कल्पना से ही भयभीत हो जाती. बहन से कहने में भी उसे डर लगता था इसलिए अंदर ही अंदर घुटती रहती, हालांकि  उस में उस का कोई दोष नहीं था. जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो असहाय मासूम बच्ची क्या कर सकती थी.

मन पर बोझ लिए लाजो को रात भर भयानक सपने आते. अंधेरे जंगलों में वह जान बचाने के लिए भागती, चीखतीचिल्लाती, मगर उस की सहायता के लिए कोई नहीं आता. सपने में देखा चेहरा जाना- पहचाना लगता पर आंख खुलती तो सपने में देखे चेहरे को पहचानने में असफल रहती. इस तरह एक मासूम बच्ची बड़ी अजीब मानसिक स्थिति में जी रही थी.

बहन इतनी पढ़ीलिखी समझदार नहीं थी कि उस के मानसिक द्वंद्व को समझ सकती.

इस के बावजूद लाजो को बारबार उसी दलदल में कूदने की तीव्र इच्छा होती. डर और चाह चोरसिपाही का खेल खेलते. कई महीने के बाद जब उस की बहन को अचानक ही इस संबंध की भनक पड़ी तो उस ने लाजो को वापस मायके भेज दिया.

उस मासूम बच्ची की आत्मा घायल हो चुकी थी. अब हर पुरुष उस को भूखा और खूंखार नजर आने लगा था. फिर भी मुंह से खून लगी शेरनी की तरह उस को मर्दों की बारबार चाह सताती रहती थी. कालिज के यारदोस्तों ने जब घर के दरवाजे खटखटाने शुरू किए तो वह अपनी मां के साथ गांव चली आई. कुनबे के प्रयास से लाजवंती को देखने के लिए शेखर आया और उस ने लाजो को पसंद कर लिया.

लाजवंती ने कभी सपने में भी न सोचा था कि उस को ऐसा जीवनसाथी मिल जाएगा और वह भी किसी मोल- तोल के बिना. वह फूली न समा रही थी.

पहली रात में एक औरत के अंदर सेक्स के प्रति जो झिझक, घबराहट होती है ऐसा कुछ लाजवंती में न पा कर शेखर को उस पर शक होने लगा. उस  पर लाजवंती के व्यवहार ने उस के शक को यकीन में बदल दिया. यद्यपि शेखर ने इस बात को टालने की बहुत कोशिश की मगर उस के दिमाग में अंगारे सुलगते रहे. वह किस को दोषी ठहराता. विवाह के लिए उस ने खुद ही सब की इच्छा के खिलाफ हां की थी. अत: परिस्थितियों से समझौता करना ही उस ने उचित समझा.

लाजवंती अपने अतीत को भूल जाना चाहती थी, मगर अपने द्वारा लूटे जाने की जो पीड़ा उस के मन में घर कर चुकी थी वह अकसर उसे झिंझोड़ती रहती. शेखर ने उस के अतीत को कुरेद कर जानने का कभी प्रयास नहीं किया, शायद यही वजह थी कि लाजवंती खुद ही अपने गुनाहों के बोझ तले दब रही थी. कई बार उस के दिमाग में आया कि जा कर शेखर के सामने अपनी भूल को स्वीकार कर ले. फिर जो भी दंड वह दे उसे हंसीखुशी सह लेगी पर हर बार मां की नसीहत आड़े आ जाती.

अपनी असुरक्षा की भावना को दूर करने के लिए लाजवंती ने अपनी आकर्षक देह का यह सोच कर सहारा लिया कि शेखर की सब से बड़ी कमजोरी औरत है.

अब वह हर रोज नएनए पहनावे व मेकअप में शेखर के सामने अपने आप को पेश करने लगी. वह शेखर को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहती थी. वह अपनी बांहों की जकड़ शेखर के चारों तरफ इतनी मजबूत कर देना चाहती थी कि वह उस में से जीवन भर निकल न सके. इस के लिए लाजवंती ने शेखर के हर कदम पर पहरा लगा दिया. उस के सामाजिक जीवन की डोर भी अपने हाथों में ले ली. वह चाहती थी कि शेखर जहां भी जाए उसी के शरीर की गंध ढूंढ़ता फिरे.

यह पुरुष जाति से लाजवंती के प्रतिशोध का एक अनोखा ढंग था. अकसर ऐसा होता है कि करता कोई है और भरता कोई. लाजवंती शेखर के चारों तरफ अपना शिकंजा कसती रही और वह छटपटाता रहा.

आखिर तनी हुई रस्सी टूट गई. शेखर ने अपने एक नजदीकी दोस्त से परामर्श किया.

‘‘तुम तलाक क्यों नहीं ले लेते?’’ दोस्त ने कहा.

तलाक…शब्द सुनते ही शेखर के चेहरे का रंग उड़ गया. वह बोला, ‘‘शादी के इतने सालों बाद ढलती उम्र में तलाक?’’

‘‘अरे भई, जब तुम दोनों एक छत के नीचे रहते हुए भी एकदूसरे के नहीं हो और तुम्हारी निगाहें हमेशा औरत की तलाश में भटकती रहती हैं. बच्चों को भी तुम लोगों ने भुला दिया है. कभी तुम ने सोचा है कि इस हर रोज के लड़ाईझगड़े से बच्चों पर क्या असर पड़ता होगा.’’

‘‘तो मैं क्या करूं?’’ शेखर बोला, ‘‘वह पढ़ीलिखी औरत है. मैं ने सोचा था कि स्थिति की गंभीरता को समझ कर या तो वह संभल जाएगी या फिर तलाक के लिए सहमत हो जाएगी पर वह है कि जोंक की तरह चिपटी हुई है.’’

‘‘तुम खुद ही तलाक के लिए आवेदन क्यों नहीं कर देते? वैसे भी हमारे देश में औरतें तलाक देने में पहल नहीं करतीं. एक पति को छोड़ कर दूसरे की गोद का आसरा लेने का चलन अभी मध्यवर्गीय परिवारों में आम नहीं है.’’

‘‘मैं ने इस बारे में बहुत सोचविचार किया है. मुसीबत यह है कि इस देश का कानून कुछ ऐसा है कि कोर्ट से तलाक मिलतेमिलते वर्षों बीत जाते हैं. फिर तलाक की शर्तें भी तो कठिन हैं. केवल मानसिक स्तर बेमेल होने भर से तलाक नहीं मिलता. तलाक लेने के लिए मुझे यह साबित करना पड़ेगा कि लाजवंती बदचलन औरत है.

‘‘इस के लिए झूठी गवाही और झूठे सुबूत के सहारे कोर्ट में उस की मिट्टी पलीद करनी पड़ेगी और तुम तो जानते हो कि यह सब मुझ से नहीं हो सकता’’.

‘‘शेखर, जब तुम तलाक नहीं दे सकते तो भाभी के साथ बैठ कर बात कर लो कि वह ही तुम्हें तलाक दे दें.’’

‘‘यही तो रोना है मेरी जिंदगी का. लाजवंती तलाक क्यों देगी? इतने बड़े अधिकारी की बीवी, यह सरकारी ठाटबाट, नौकरचाकर, मकान, गाड़ी, सुविधाओं के नाम पर क्या कुछ नहीं है उस के पास. जिन संबंधियों के सामने आज वह अभिमान से अपना सिर ऊंचा कर के अपनी योग्यता की डींगें मारती है उन्हीं के पास कल वह कौन सा मुंह ले कर जाएगी. ऐसे में वह भला तलाक क्यों देगी?’’

‘‘देखो शेखर, तुम्हारा मामला बहुत उलझा हुआ है, फिर भी मैं तुम्हें यही सलाह दूंगा कि कोर्ट में आवेदन देने में कोई हर्ज नहीं है.’’

‘‘बात तो सही है. अगर तलाक होने में 10 साल भी लग गए तो इस आजीवन कारावास से तो छुटकारा मिल ही सकता है,’’ शेखर अपने दिल की गहराइयों में डूब गया.

उन्हीं दिनों शेखर का तबादला पटना हो गया. वह लाजवंती को अकेला छोड़ कर बच्चों के साथ पटना चला गया. लाजवंती उसी शहर में इसलिए रुक गई क्योंकि एक कालिज में वह लेक्चरर थी.

घर में अब वह पहली सी रौनक न थी. शेखर के जाते ही तमाम सरकारी साधन, नौकरचाकर भी चले गए. सारा घर सूनासूना हो गया. रात के समय तो मकान की दीवारें काटने को दौड़तीं. इस अकेलेपन से वह धीरेधीरे उकता गई और फिर हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष विजयकुमार की शरण में चली गई.

विजयकुमार और लाजवंती के सोचने- समझने का ढंग एक जैसा ही था, रुचियां एक जैसी थीं. यहां तक कि दोनों के मुंह का स्वाद भी एक जैसा ही था. दोपहर में खाने के दौरान लाजवंती अपना डब्बा खोलती तो विजयकुमार भी स्वाद लेने आ जाता.

‘‘तुम बहुत अच्छा खाना बना लेती हो. कहां से सीखी है यह कला,’’ विजय ने पूछा तो लाजवंती उस की आंखों में कुछ टटोलते हुए बोली, ‘‘अपनी मां से सीखी है मैं ने पाक कला.’’

‘‘कभी डिनर पर बुलाओ तब बात बने,’’ विजयकुमार ने लाजवंती को छेड़ते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं, आने वाले रविवार को मेरे साथ ही डिनर कीजिए,’’ लाजवंती को मालूम था कि पुरुष का दिल पेट के रास्ते से ही जीता जा सकता है.

अगले रविवार को विजयकुमार लाजवंती के घर पहुंच गया.

इस तरह एक बार विजयकुमार को घर आने का मौका मिला तो फिर आने- जाने का सिलसिला ही चल पड़ा. अब विजयकुमार न केवल खाने में बल्कि लाजवंती के हर काम में रुचि लेने लगा. उसे तो अब लाजो में एक आदर्श पत्नी का रूप भी दिखाई देने लगा. उस की निकटता में विजय अपनी गर्लफ्रेंड अर्चना को भी भूल गया जिस के प्रेम में वह कई सालों से बंधा था. अब उस के जीवन का एकमात्र लक्ष्य लाजवंती को पाना था और कुछ भी नहीं.

उधर लाजवंती जैसा चल रहा था वैसा ही चलने देना चाहती थी. इस बंटवारे से उस के जीवन के विविध पहलू निखर रहे थे. भौतिक सुख, ऐशोआराम और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए शेखर का सहारा काफी था और मानसिक संतुष्टि के लिए था विजयकुमार. लाजवंती चाहती थी कि बचीखुची जिंदगी इसी तरह व्यतीत हो, मगर विजय इस बंधन को कानूनी रंग देने पर तुला हुआ था.

विजयकुमार की अपेक्षाओं से घबरा कर लाजवंती ने अपनी छोटी बहन अमृता को आगे कर दिया. उस ने अमृता को अपने पास बुलाया, विजयकुमार से परिचय करवाया और फिर स्वयं पीछे हो गई.

लाजो का यह तीर भी निशाने पर लगा. शारीरिक भूख और आपसी निकटता ने दो शरीरों को एक कर दिया. लाजवंती तो इसी मौके की तलाश में थी. उस ने फौरन दोनों की शादी का नगाड़ा बजवा दिया. विवाह के शोर में लाजवंती के चेहरे पर विजय की मुसकान झलक रही थी.

विजयकुमार ने सोचा कि अमृता के साथ रिश्ता जोड़ने पर लाजवंती भी उस के समीप रहेगी मगर वह औरत की फितरत से अपरिचित था. लाजवंती बहन का हाथ पीला करते ही उस के साए से भी दूर हो गई.

विजयकुमार की आंखों से जब लाजवंती के सौंदर्य का परदा हटा तो उसे पता चला कि वह तो लाजो के हाथों ठगा गया है. अत:  उस ने सोचा एक गंवार को जीवन भर ढोने से तो अच्छा है कि उस से तलाक ले कर छुटकारा पाया जाए.

मन में यह फैसला लेने के बाद विजयकुमार अपनी पूर्व प्रेमिका अर्चना के पास पहुंचा. प्रेम का हवाला दिया. अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी. यही नहीं सारा दोष लाजवंती के कंधों पर लाद कर उस ने अर्चना के मन में यह बात बिठा दी कि वह निर्दोष है. अर्चना अपने प्रेमी की आंखों में आंसू देख कर पसीज गई और उस ने विजयकुमार को माफ कर दिया.

एक दिन अदालत परिसर में शेखर की विजयकुमार से भेंट हुई.

‘‘हैलो विजय, आप यहां… अदालत में?’’ शेखर ने विजयकुमार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए कहा.

‘‘आज तारीख पड़ी है,’’ विजय कुमार ने उत्तर दिया.

‘‘कैसी तारीख?’’ शेखर ने फिर पूछा.

‘‘मैं ने अमृता को तलाक देने के लिए कोर्ट में आवेदन किया है,’’ विजयकुमार ने अपनी बात बता कर पूछा बैठा, ‘‘पर शेखर बाबू, आप यहां अदालत में क्या करने आए हैं?’’

‘‘विजय बाबू, आज मेरे भी मुकदमे की तारीख है, मैं भी तो लाजवंती से अलग रह रहा हूं. मैं ने तलाक लेने का मुकदमा दायर कर रखा है,’’ शेखर ने गंभीरता से उत्तर दिया.

फिर 10 साल यों ही बीत गए तारीखें लगती रहीं. काला कोट पहने वकील आते रहे और जाते रहे. फाइलों पर धूल जमती रही और फिर झड़ती रही.

बारबार एक ही नाम दुहराया जाता शेखर सूरी सुपुत्र रामलाल सूरी हाजिर हो… लाजवंती पत्नी शेखर सूरी हाजिर हो…

जेल में है रत्ना: प्रखर की शादी के बाद क्या हुआ मां का

समाचार को जब विस्तार से पढ़ा तो मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई. डा. रत्ना गुप्ता ने अपनी बहू डा. निकिता को जहर दे कर मारने की कोशिश की क्योंकि वह कम दहेज लाई थी और समाचार लिखे जाने तक निकिता नर्सिंग होम में भरती थी. मेरी रत्ना जेल में, ऐसी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. उच्च शिक्षित और डिगरी कालिज की प्रवक्ता बहू, खुद रत्ना मेडिकल कालिज में गायनियोलोजिस्ट है और बेटा अभी 3 साल पहले चेकोस्लोवाकिया विश्वविद्यालय में हेड आफ डिपार्टमेंट हो कर गया है. एक साधनसंपन्न घर में जितना कुछ होना चाहिए वह सबकुछ तो है. फिर दोनों तरफ का परिवार पढ़ालिखा सभ्य व प्रतिष्ठित है. ऐसे में दहेज के लिए हत्या करने का प्रयास करने की रत्ना को क्या जरूरत थी.

हां, इतना तो मुझे भी पता था कि बेटे के विवाह के बाद वह काफी बीमार रही थी और उसे कई महीने छुट्टी पर रहना पड़ा था. लेकिन अब तो सबकुछ ठीक था.

मेरे मुंह से अनायास निकल गया, ‘बड़ी बदनसीब है तू रत्ना,’ ‘‘10 साल पहले एक कार दुर्घटना में पति का देहांत हो गया था. तब भी वह बड़ी मुश्किल से संभल पाई थी. मैं बच्चों के भविष्य की दुहाई देदे कर किसी प्रकार इस हादसे से उसे उबार सकी थी.

बेटी गरिमा को कंप्यूटर इंजीनियर बनाया और एक इंजीनियर लड़के से विवाह किया. अकेले ही सारी जिम्मेदारियां निभाती रही वह. ससुराल में था ही कौन? पति के 2 भाई थे. एक की मौत हो गई और दूसरा कब का विदेश में बस चुका था. बेटी गरिमा के विवाह में बतौर मेहमान आया था.

चाचा की शह पर ही प्रखर को भी विदेश जाने की धुन सवार हो गई. अपने सुख में वह यह भी भूल गया कि अकेली मां यहां किस के सहारे रहेगी. प्रखर के विवाह के बाद तो रत्ना के जीवन में जैसे ठहराव सा आ गया. अब किस के लिए क्या करना है?

समय काटने के लिए कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही. घर में कब तक बंद रहा जा सकता है? रत्ना ने क्लब ज्वाइन कर लिया. शामें वहीं बीतने लगीं. बेटी की तरफ से बेफिक्र, लेकिन अब तो बेटी गरिमा और बेटे प्रखर के नाम भी वारंट थे जो घटना के समय दूसरे मुल्कों में बैठे थे.

किस से बात करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अपनी असहायता और सखी की मुसीबत पर रोने के अलावा और कुछ भी नहीं बचा था. उस के बारे में तरहतरह की कल्पना कर मेरी बुद्धि भी मारे घबराहट के कुंठित हो चली थी. भूल गई कि बचपन की सहेली है तो मायके से ही पता कर लूं.

स्मृतिपटल पर बचपन की ढेरों बातें घूम गईं. साथसाथ पढ़ना, खेलना, खाना, झगड़ना, रूठना, मनाना और बड़ी क्लास में आने पर एकदूसरे से अधिक अंक लाने की होड़ में लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों को चाटना.

ज्योंज्यों हम आगे बढ़ते गए हमारे रास्ते अलग होते गए. इंटर के बाद हम ने सी.पी.एम.टी. की परीक्षा दी. रत्ना उत्तीर्ण हुई और मैं अनुत्तीर्ण. मैं ने बी.एससी. में दाखिला ले लिया और वह पढ़ने बाहर चली गई. मैं ने बी.एससी. के बाद बी.एड. किया और फिर शादी हुई तो घरेलू औरत बन गई. रत्ना डा. रत्ना बनने के बाद अपने एक सहयोगी डाक्टर के साथ ही विवाह बंधन में बंध गई.

इस सब से दोनों सखियों की अंतरंगता में कोई अंतर नहीं आया. जब भी हम मिलते बीते समय की जुगाली करते रहते. वह अपने मरीजों को भूल जाती और मैं अपने घरपरिवार के दायित्वों को. यह बात हमारे पति भी जानते थे. इसीलिए हमारी बातचीत में कोई व्यवधान न डाल वे हमारे उत्तरदायित्वों को खुद संभाल लेते थे.

ऐसे ही हंसीखुशी समय गुजरता रहा और हम उम्र की सीढि़यां चढ़ते दादीनानी सभी बन बैठे. जब भी मिलते एकदूसरे से पूछते कि दादीनानी बन कर कैसा लग रहा है? इस सवाल पर रत्ना कहती, ‘यार, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैं इतनी बड़ी हो गई हूं. मेरे मन में तो आज भी कालिज की मौजमस्ती घूमती रहती है.’

‘हाल तो मेरा भी यही है, रत्ना. जब बच्चे अम्मांजी और नानीमां कहते हैं तो लगता है जबरदस्ती किसी सुरंग में घसीटा जा रहा है.’

अपनी अंतरंग सहेली के परिवार में गुपचुप ऐसा क्या घुन लग गया कि उसे जेल तक ले पहुंचा. अब पूछूं भी तो किस से? ध्यान आया कि रत्ना के भाई से पूछूं और डायरी में उन का फोन नंबर ढूंढ़ कर उन्हीं से जेल का पता ले मिलने जेल जा पहुंची.

पहले तो हम गले मिल कर खूब रोईं फिर मैं ने शिकायत की, ‘‘तू ने मुझे इस लायक समझना बंद कर दिया है कि अपना सुखदुख भी बांट सके और अकेले यहां तक पहुंच गई. क्या हुआ कुछ तो बता?’’

‘‘कुछ हुआ हो तो बताऊं? बहूबेटे के ईगो की लड़ाई है. प्रखर अपना विदेश जाने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता था और बहू अपनी स्थायी नौकरी छोड़ कर साथ जाना नहीं चाहती थी. उस का कहना था कि मैं तुम्हारे लिए अपनी नौकरी क्यों छोड़ूं, तुम्हीं मेरे लिए विदेश का आफर ठुकरा दो.’’

पिछले 1 साल से मायके में रह रही है. पढ़ीलिखी समझदार है. अपना भलाबुरा समझती है. इतना तो मांबाप भी समझा सकते थे. प्रखर ने तो निकिता का वीजा भी बनवा लिया था. अब नहीं जाना चाहती तो मैं क्या कर सकती हूं. इसी खीज में उन्होंने प्रखर पर दूसरी शादी का आरोप लगाया है. दोनों की ईगो में मैं मारी गई क्योंकि प्रखर मेरा बेटा है और मैं ही उन्हें आसानी से उपलब्ध भी हूं.

‘‘पता नहीं निकिता के मन में क्या है? कई बार समझाना चाहा. जब भी बात करती उस का उत्तर होता. ‘मम्मीजी, आप हमारे बीच में न ही बोलें तो अच्छा होगा.’

‘‘‘क्या तुम दोनों मेरे कुछ लगते नहीं? क्या इस ईगो की लड़ाई के लिए ही शादी की थी? यह तो तुम्हें शादी से पहले ही सोचना चाहिए था? तुम दोनों अलगअलग रहते हो तो क्या मुझे दुख नहीं होता?’

‘‘‘दुख होता तो आप प्रखर को समझातीं. सोचने और समझौता करने का काम क्या सिर्फ इसलिए मेरा है कि मैं पत्नी हूं.’

‘‘वह फिर मुझे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की कोेशिश करती.

‘‘‘प्रखर के विदेश जाने पर यहां आप का है ही कौन? आप अकेले किस के सहारे रहेंगी?’

‘‘‘तुम मेरी चिंता छोड़ो. मैं तो अपना वक्त काट लूंगी…इतने समय से नौकरी की है रिटायर हो कर ही निकलूंगी.’

‘‘‘जब आप को अपनी नौकरी से इतना मोह है तो मुझे भी तो है,’ और वह पैर पटकती उठ कर चली जाती.

‘‘उस के पापा भी बेटी को समझाने के बजाय उस का पक्ष लेते हैं और कहते हैं, ‘प्रखर को यदि निकिता को अपने साथ नहीं रखना था तो विवाह ही क्यों किया.’

‘‘‘आप ऐसा कैसे समझते हैं?’

‘‘‘और क्या समझूं? लोग तो अपनी पत्नियों के लिए जाने क्याक्या करते हैं? वह विदेश से लौट कर यहां नहीं आ सकता? उस के आने से आप को भी सहारा होगा.’

‘‘‘बात मेरे सहारे की नहीं उस के कैरियर की है.’

‘‘‘तो बनाता रहे वह अपना कैरियर. मैं भी बताऊंगा उसे कि मैं क्या हूं. मेरी बेटी  का जीवन बरबाद कर के आप का बेटा सुखी नहीं रह सकता.’

‘‘मैं ने उन की धमकी पर ध्यान नहीं दिया. महज गीदड़ भभकी समझा. बस, यहीं गलती की मैं ने. यदि यह सारी बातें गंभीरता से ली होतीं और एक पत्र एस.एस.पी. के यहां लगा दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता.’’

सुन कर दुख हुआ मुझे कि किस प्रकार लोग कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. वकील, डाक्टर सब नोटों के सामने कैसेकैसे हाथकंडे अपनाकर बेकुसूरों को फंसाते हैं.

‘‘क्या करूं मैं तेरे लिए जो तू बाहर आ सके,’’ उस के कंधे पर हाथ रख कर शब्दों में अपनापन समेट कर मैं ने कहा.

‘‘निकिता के पापा ऊंची पहुंच वाले आदमी हैं. सोचते हैं कि एक अकेली विधवा औरत उन का क्या बिगाड़ सकती है. उन्हीं की वजह से जमानत नहीं हो पा रही है, अब तो शायद हाईकोर्ट से ही होगी.’’

‘‘और प्रखर?’’

‘‘इस कांड का पता प्रखर को चल गया है. वह आना भी चाहता है पर आने से क्या फायदा? आते ही गिरफ्तार हो जाएगा. मैं ने ही उसे मना कर दिया है कि वह बाहर रह कर ही अपनी और मेरी जमानत का प्रयास करे.’’

‘‘अच्छा, मुझे बता, मेरी कहां जरूरत है?’’

‘‘अभी तेरी जरूरत कहीं नहीं है. वकील सब देख रहा है.’’

आश्वस्त हुई सुन कर और मिल कर. हर रोज मैं जेल जाती रही. कभी फल, कभी बिस्कुट और कभी खाना ले कर. मुझे देख कर रत्ना की आंखें भर आतीं, ‘‘कितना कष्ट दे रही हूं तुझे.’’

‘‘सचमुच तेरी दशा देख कर मुझे कष्ट होता है. क्या अब ऐसा ही समय आ गया है कि बहूबेटे के झगड़े में बेचारी सास को जेल जाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मैं ने सोचसमझ कर यही निष्कर्ष निकाला है कि विवाह के बाद बेटाबहू को अलग रहने दो. कम से कम उन के मनमुटाव में मां को जेल तो नहीं जाना पड़ेगा.’’

‘‘अभी क्या है? जब तू जेल से बाहर आएगी, लोग तुझे ऐसे देखेंगे जैसे तू ने कत्ल किया है? सास की छवि इतनी खराब कर दी गई है कि एक मां बेटे का विवाह करते ही चुड़ैल बन जाती है.’’

‘‘मैं भी क्या करूंगी यह समझ में नहीं आ रहा. अब क्या नौकरी कर पाऊंगी? स्टाफ के बीच तरहतरह की चर्चाएं होंगी. लोग जाने क्याक्या कह रहे होेंगे,’’ रो पड़ी थी रत्ना.

इस तरह की जाने कितनी बातें जेल में होती रहीं. 20 दिन लग गए रिहाई में. आज रत्ना को साथ ले कर लौटी हूं. जम कर सोऊंगी और रत्ना आगे की योजना बनाती सारी रात जाग कर काट देगी क्योंकि उस की यातनाओं का अभी अंत नहीं हुआ है.

आंखों से नींद कोसों दूर हो गई है. दोनों सोने का बहाना किए छत्तीस का आंकड़ा बनी लेटी हैं. वह अपना भविष्य देख रही है और मैं उस का. कई साल लग गए फैसला होने में. रत्ना ने समय से पहले ही रिटायरमेंट ले ली. तारीखें पड़ती रहीं और वह अब मरीज देख कर दवाई की पर्ची लिखने की जगह वकील से कानूनी दांवपेंच पर विचारविमर्श करती रहती. ज्यादा तनाव होे जाता तो रात को नींद की गोली खा लेती. बननासंवरना सब छूट गया. जब भी मिलती मैं हमेशा टोकती, ‘‘स्वयं को संभाल रत्ना. तू खुद को दोषी क्यों समझती है? तू तो बिना किए अपराध की सजा पा रही है.’’

‘‘यही तो दुख है और दुख का भार अब सहा नहीं जाता. प्रखर की तरफ देखती हूं तो दुख और बढ़ जाता है.’’

मैं ने कस कर रत्ना का हाथ थाम लिया. देखा प्रखर को भी है, सारे बाल पक गए हैं. चेहरे पर एक अजीब सी उदासी छा गई है.  विदेश की नौकरी छोड़ दी है. रत्ना के साथ केस डिसकस करता रहता है. फैसला होने तक वह दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता. उस दिन केस का फैसला होना था. तलाक के 3 अक्षरों पर हस्ताक्षर होने और रत्ना को बाइज्जत बरी होने में 10 साल लग गए. फैसले के बाद पुत्र प्रखर के साथ रत्ना एक तरफ बढ़ गई और निकिता अपने पापा के साथ दूसरी ओर.

कचहरी के मुख्य दरवाजे से दोनों साथसाथ बाहर निकले. पल भर को ठिठकी निकिता, फिर धीरेधीरे रत्ना और प्रखर के पास आ कर खड़ी हो गई. रत्ना की आंखें आग उगलना ही चाहती थीं कि निकिता बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी, सौरी प्रखर.’’

इन 10 सालों में जीवन की दिशा ही बदल गई. सबकुछ बिखर गया और आज यह लड़की कह रही है आई एम सौरी.

‘‘सौरी, निकिता,’’ कह कर प्रखर आगे बढ़ गया. ठगी सी खड़ी देखती रह गई रत्ना. क्या नियति अभी कुछ और दिखाना चाहती है. कुछ कदम चल कर निकिता गिर कर बेहोश हो गई. प्रखर के आगे बढ़ते कदम रुक गए. उस ने निकिता को गोद में उठाया, गाड़ी में लिटाया और गाड़ी हवा से बातें करने लगी. भूल गया कि मां और मौसी साथ आई हैं.

अचानक रत्ना को फिर जेल की चारदीवारी स्मरण हो आई. लगा वह बाइज्जत बरी नहीं हुई है बल्कि आजीवन  कारावास की सजा उसे मिली है. जेल में सलाखों के पीछे सीमेंट के फर्श पर बैठी है, लोग उस पर हंस रहे हैं और उस का मजाक उड़ा रहे हैं.

सलाह लेना जरूरी: क्या पत्नी का मान रख पाया रोहित?

घंटी बजी तो मैं खीज उठी. आज सुबह से कई बार घंटी बज चुकी थी, कभी दरवाजे की तो कभी टेलीफोन की. इस चक्कर में काम निबटातेनिबटाते 12 बज गए. सोचा था टीवी के आगे बैठ कर इतमीनान से नाश्ता करूंगी. बाद में मूड हुआ तो जी भर कर सोऊंगी या फिर रोहिणी को बुला कर उस के साथ गप्पें मारूंगी, मगर लगता है आज आराम नहीं कर पाऊंगी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी को देख मेरी बांछें खिल गईं. रोहिणी मेरी ओर ध्यान दिए बगैर अंदर सोफे पर जा पसरी.

‘‘कुछ परेशान लग रही हो, भाई साहब से झगड़ा हो गया है क्या?’’ उस का उतरा चेहरा देख मैं ने उसे छेड़ा.

‘‘देखा, मैं भी तो यही कहती हूं, मगर इन्हें मेरी परवाह ही कब रही है. मुफ्त की नौकरानी है घर चलाने को और क्या चाहिए? मैं जीऊं या मरूं, उन्हें क्या?’’ रोहिणी की बात का सिरपैर मुझे समझ नहीं आया. कुरेदने पर उसी ने खुलासा किया, ‘‘2 साल की पहचान है, मगर तुम ने देखते ही समझ लिया कि मैं परेशान हूं. एक हमारे पति महोदय हैं, 10 साल से रातदिन का साथ है, फिर भी मेरे मन की बात उन की समझ में नहीं आती.’’

‘‘तो तुम ही बता दो न,’’ मेरे इतना कहते ही रोहिणी ने तुनक कर कहा, ‘‘हर बार मैं ही क्यों बोलूं, उन्हें भी तो कुछ समझना चाहिए. आखिर मैं भी तो उन के मन की बात बिना कहे जान जाती हूं.’’

रोहिणी की फुफकार ने मुझे पैतरा बदलने पर मजबूर कर दिया, ‘‘बात तो सही है, लेकिन इन सब का इलाज क्या है? तुम कहोेगी नहीं, बिना कहे वे समझेंगे नहीं तो फिर समस्या कैसे सुलझेगी?’’

‘‘जब मैं ही नहीं रहूंगी तो समस्या अपनेआप सुलझ जाएगी,’’ वह अब रोने का मूड बनाती नजर आ रही थी.

‘‘तुम कहां जा रही हो?’’ मैं ने उसे टटोलने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘डूब मरूंगी कहीं किसी नदीनाले में. मर जाऊंगी, तभी मेरी अहमियत समझेंगे,’’ उस की आंखों से मोटेमोटे आंसुओं की बरसात होने लगी.

‘‘यह तो कोई समाधान नहीं है और फिर लाश न मिली तो भाई साहब यह भी सोच सकते हैं कि तू किसी के साथ भाग गई. मैं बदनाम महिला की सहेली नहीं कहलाना चाहती.’’

‘‘सोचने दो, जो चाहें सोचें,’’ कहने को तो वह कह गई, मगर फिर संभल कर बोली, ‘‘बात तो सही है. ऐसे तो बड़ी बदनामी हो जाएगी. फांसी लगा लेती हूं. कितने ही लोग फांसी लगा कर मरते हैं.’’

‘‘पर एक मुश्किल है,’’ मैं ने उस का ध्यान खींचा, ‘‘फांसी लगाने पर जीभ और आंखें बाहर निकल आती हैं और चेहरा बड़ा भयानक हो जाता है, सोच लो.’’

बिना मेकअप किए तो रोहिणी काम वाली के सामने भी नहीं आती. ऐसे में चेहरा भयानक हो जाने की कल्पना ने उस के हाथपांव ढीले कर दिए. बोली, ‘‘फांसी के लिए गांठ बनानी तो मुझे आती ही नहीं, कुछ और सोचना पड़ेगा,’’ फिर अचानक चहक कर बोली, ‘‘तेरे पास चूहे मारने वाली दवा है न. सुना है आत्महत्या के लिए बड़ी कारगर दवा है. वही ठीक रहेगी.’’

‘‘वैसे तो तेरी मदद करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर सोच ले. उसे खा कर चूहे कैसे पानी के लिए तड़पते हैं. तू पानी के बिना तो रह लेगी न?’’ उस की सेहत इस बात की गवाह थी कि भूखप्यास को झेल पाना उस के बूते की बात नहीं.

रोहिणी ने कातर दृष्टि से मुझे देखा, मानो पूछ रही हो, ‘‘तो अब क्या करूं?’’

‘‘छत से कूदना या फिर नींद की ढेर सारी गोलियां खा कर सोए रहना भी विकल्प हो सकते हैं,’’ मुश्किल वक्त में मैं रोहिणी की मदद करने से पीछे नहीं हट सकती थी.

‘‘ऊफ, छत से कूद कर हड्डियां तो तुड़वाई जा सकती हैं, पर मरने की कोई गारंटी नहीं और गोली खाते ही मुझे उलटी हो जाती है,’’ रोहिणी हताश हो गई.

हर तरकीब किसी न किसी मुद्दे पर आ कर फेल होती जा रही थी. आत्महत्या करना इतना मुश्किल होता है, यह तो कभी सोचा ही न था. दोपहर के भोजन पर हम ने नए सिरे से आत्महत्या की संभावनाओं पर विचार करना शुरू किया तो हताशा में रोहिणी की आंखें फिर बरस पड़ीं. मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा, परेशान मत हो.’’

रोहिणी ने छक कर खाना खाया. बाद में 2 गुलाबजामुन और आइसक्रीम भी ली वरना उस बेचारी को तो भूख भी नहीं थी. मेरी जिद ने ही उसे खाने पर मेरा साथ देने को मजबूर किया था.

चाय के दूसरे दौर तक पहुंचतेपहुंचते मुझे विश्वास हो गया कि आत्महत्या के प्रचलित तरीकों से रोहिणी का भला नहीं होने वाला. समस्या से निबटने के लिए नवीन दृष्टिकोण की जरूरत थी. बातोंबातों में मैं ने रोहिणी के मन की बात जानने की कोशिश की, जिस को कहेसुने बिना ही उस के पति को समझना चाहिए था.

बहुत टालमटोल के बाद झिझकते हुए उस ने जो बताया उस का सार यह था कि 2 दिन बाद उसे भाई के साले की बेटी की शादी में जाना था और उस के पास लेटैस्ट डिजाइन की कोई साड़ी नहीं थी. इसलिए 4 माह बाद आने वाले अपने जन्मदिन का गिफ्ट उसे ऐडवांस में चाहिए था ताकि शादी में पति की हैसियत के अनुरूप बनसंवर कर जा सके और मायके में बड़े यत्न से बनाई गई पति की इज्जत की साख बचा सके.

मुझे उस के पति पर क्रोध आने लगा. वैसे तो बड़े पत्नीभक्त बने फिरते हैं, पर पत्नी के मन की बात भी नहीं समझ सकते. अरे, शादीब्याह पर तो सभी नए कपड़े पहनते हैं. रोहिणी तो फिर भी अनावश्यक खर्च बचाने के लिए अपने गिफ्ट से ही काम चलाने को तैयार है. लोग तनख्वाह का ऐडवांस मांगते झिझकते हैं, यहां तो गिफ्ट के ऐडवांस का सवाल है. भला एक सभ्य, सुसंस्कृत महिला मुंह खोल कर कैसे कहेगी? पति को ही समझना चाहिए न.

‘‘अगर मैं बातोंबातों में भाई साहब को तेरे मन की बात समझा दूं तो कैसा रहे?’’ अचानक आए इस खयाल से मैं उत्साहित हो उठी. असल में अपनी प्यारी सहेली को उस के पति की लापरवाही के कारण खो देने का डर मुझे भी सता रहा था.

एक पल के लिए खिल कर उस का चेहरा फिर मुरझा गया और बोली, ‘‘उन्हें फिर भी न समझ आई तो?’’

मैं अभी ‘तो’ का जवाब ढूंढ़ ही रही थी कि टेलीफोन घनघना उठा. फोन पर रोहिणी के पति की घबराई हुई आवाज ने मुझे चौंका दिया.

‘‘रोहिणी मेरे पास बैठी है. हां, हां, वह एकदम ठीक है,’’ मैं ने उन की घबराहट दूर करने की कोशिश की.

‘‘मैं तुरंत आ रहा हूं,’’ कह कर उन्होंने फोन काट दिया. कुछ पल भी न बीते थे कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी के पति सामने खड़े थे. रोहित भी आते दिखाई दे गए. इसलिए मैं चाय का पानी चढ़ाने रसोई में चली गई और रोहित हाथमुंह धो कर रोहिणी के पति से बतियाने लगे.

रोहिणी की समस्या के निदान हेतु मैं बातों का रुख सही दिशा में कैसे मोड़ूं, इसी पसोपेश में थी कि रोहिणी ने पति के ब्रीफकेस में से एक पैकेट निकाल कर खोला. कुंदन और जरी के खूबसूरत काम वाली शिफोन की साड़ी को उस ने बड़े प्यार से उठा कर अपने ऊपर लगाया और पूछा, ‘‘कैसी लग रही है? ठीक तो है न?’’

‘‘इस पर तो किसी का भी मन मचल जाए. बहुत ही खूबसूरत है,’’ मेरी निगाहें साड़ी पर ही चिपक गई थीं.

‘‘पूरे ढाई हजार की है. कल शोकेस में लगी देखी थी. इन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली, तभी मुझे बिना बताए खरीद लाए,’’ रोहिणी की चहचहाट में गर्व की झलक साफ थी.

एक यह है, पति को रातदिन उंगलियों पर नचाती है, फिर भी मुंह खोलने से पहले ही पति मनचाही वस्तु दिलवा देते हैं. एक मैं हूं, रातदिन खटती हूं, फिर भी कोई पूछने वाला नहीं. एक तनख्वाह क्या ला कर दे देते हैं, सोचते हैं सारी जिम्मेदारी पूरी हो गई. साड़ी तो क्या कभी एक रूमाल तक ला कर नहीं दिया. तंग आ गई हूं मैं इन की लापरवाहियों से. किसी दिन नदीनाले में कूद कर जान दे दूंगी, तभी अक्ल आएगी, मेरे मन का घड़ा फूट कर आंखों के रास्ते बाहर आने को बेताब हो उठा. लगता है अब अपनी आत्महत्या के लिए रोहिणी से दोबारा सलाहमशवरा करना होगा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें