Mother’s Day 2024- अधूरी मां- भाग 2: क्या खुश थी संविधा

संविधा भी पहले नौकरी करती थी. उसे भी 6 अंकों में वेतन मिलता था. इस तरह पतिपत्नी अच्छी कमाई कर रहे थे. लेकिन संविधा को इस में संतोष नहीं था. वह चाहती थी कि भाई की तरह उस का भी आपना कारोबार हो, क्योंकि नौकरी और अपने कारोबार में बड़ा अंतर होता है. अपना कारोबार अपना ही होता है.

नौकरी कितनी भी बड़ी क्यों न हो, कितना भी वेतन मिलता हो, नौकरी करने वाला नौकर ही होता है. इसीलिए संविधा भाई की तरह अपना कारोबार करना चाहती थी. वह फ्लैट में भी नहीं, कोठी में रहना चाहती थी. अपनी बड़ी सी गाड़ी और ड्राइवर चाहती थी. यही सोच कर उस ने सात्विक को प्रेरित किया, जिस से उस ने अपना कारोबार शुरू किया, जो चल निकला. कारोबार शुरू करने में राजन के ससुर ने काफी मदद की थी.

संविधा ने सात्विक को अपनी प्रैगनैंसी के बारे में बताया तो वह बहुत खुश

हुआ, जबकि संविधा अभी बच्चा नहीं चाहती थी. वह अपने कारोबार को और बढ़ाना चाहती भी. अभी वह अपना जो काम बाहर कराती थी, उस के लिए एक और फैक्टरी लगाना चाहती थी. इस के लिए वह काफी मेहनत कर रही थी. इसी वजह से अभी बच्चा नहीं चाहती थी, क्योंकि बच्चा होने पर कम से कम उस का 1 साल तो बरबाद होता ही. अभी वह इतना समय गंवाना नहीं चाहती थी.

सात्विक संविधा को बहुत प्यार करता था. उस की हर बात मानता था, पर इस तरह अपने बच्चे की हत्या के लिए वह तैयार नहीं था. वह चाहता था कि संविधा उस के बच्चे को जन्म दे. पहले उस ने खुद संविधा को समझाया, पर जब वह उस की बात नहीं मानी तो उस ने अपनी सास से उसे मनाने को कहा. रमा बेटी को मनाने की कोशिश कर रही थीं, पर वह जिद पर अड़ी थी. रमा ने उसे मनाने के लिए अपनी बहू ऋता को बुलाया था. लेकिन वह अभी तक आई नहीं थी. वह क्यों नहीं आई, यह जानने के लिए रमा देवी फोन करने जा ही रही थीं कि तभी डोरबैल बजी.

ऋता अकेली आई थी. राजन किसी जरूरी काम से बाहर गया था. संविधा भैयाभाभी की बात जल्दी नहीं टालती थी. वह अपनी भाभी को बहुत प्यार करती थी. ऋता भी उसे छोटी बहन की तरह मानती थी.

संविधा ने भाभी को देखा तो दौड़ कर गले लग गई. बोली, ‘‘भाभी, आप ही मम्मी को समझाएं, अभी मुझे कितने काम करने हैं, जबकि ये लोग मुझ पर बच्चे की जिम्मेदारी डालना चाहते हैं.’’

ऋता ने उस का हाथ पकड़ कर पास बैठाया और फिर गर्भपात न कराने के लिए समझाने लगी.

‘‘यह क्या भाभी, मैं ने तो सोचा था, आप मेरा साथ देंगी, पर आप भी मम्मी की हां में हां मिलाने लगीं,’’ संविधा ने ताना मारा.

‘‘खैर, तुम अपनी भाभी के लिए एक काम कर सकती हो?’’

‘‘कहो, लेकिन आप को मुझे इस बच्चे से छुटकारा दिलाने में मदद करनी होगी.’’

‘‘संविधा, तुम एक काम करो, अपना यह बच्चा मुझे दे दो.’’

‘‘ऋता…’’ रमा देवी चौंकीं.

‘‘हां मम्मी, इस में हम दोनों की समस्या का समाधान हो जाएगा. पराया बच्चा लेने से मेरी मम्मी मना करती हैं, जबकि संविधा के बच्चे को लेने से मना नहीं करेंगी. इस से संविधा की भी समस्या हल हो जाएगी और मेरी भी.’’

संविधा भाभी के इस प्रस्ताव पर खुश हो गई. उसे ऋता का यह प्रस्ताव स्वीकार था. रमा देवी भी खुश थीं. लेकिन उन्हें संदेह था तो सात्विक पर कि पता नहीं, वह मानेगा या नहीं?

संविधा ने आश्वासन दिया कि सात्विक की चिंता करने की जरूरत नहीं है, उसे वह मना लेगी. इस तरह यह मामला सुलझ गया. संविधा ने वादा करने के लिए हाथ बढ़ाया तो ऋता ने उस के हाथ पर हाथ रख कर गरदन हिलाई. इस के बाद संविधा उस के गले लग कर बोली, ‘‘लव यू भाभी.’’

‘‘पर बच्चे के जन्म तक इस बात की जानकारी किसी को नहीं होनी चाहिए,’’ ऋता

ने कहा.

ठीक समय पर संविधा ने बेटे को जन्म दिया. सात्विक बहुत खुश था. बेटे के

जन्म के बाद संविधा मम्मी के यहां रह रही थी. इसी बीच ऋता ने अपने लीगल एडवाइजर से लीगल दस्तावेज तैयार करा लिए थे. ऋता ने संविधा के बच्चे को लेने के लिए अपनी मम्मी और पापा को राजी कर लिया था. उन्हें भी ऐतराज नहीं था. राजन के ऐतराज का सवाल ही नहीं था. लीगल दस्तावेजों पर संविधा ने दस्तखत कर दिए. अब सात्विक को दस्तखत करने थे. सात्विक से दस्तखत करने को कहा गया तो वह बिगड़ गया.

रमा उसे अलग कमरे में ले जा कर कहने लगी, ‘‘बेटा, मैं ने और ऋता ने संविधा को समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह मानी ही नहीं. उस के बाद यह रास्ता निकाला गया. तुम्हारा बेटा किसी पराए घर तो जा नहीं रहा है. इस तरह तुम्हारा बेटा जिंदा भी है और तुम्हारी वजह से ऋता और राजन को बच्चा भी मिल रहा है.’’

रमा की बातों में निवेदन था. थोड़ा सात्विक को सोचने का मौका दे कर रमा देवी ने आगे कहा, ‘‘रही बच्चे की बात तो संविधा का जब मन होगा, उसे बच्चा हो ही जाएगा.’’

रमा देवी सात्विक को प्रेम से समझा तो रही थीं, लेकिन मन में आशंका थी कि पता नहीं, सात्विक मानेगा भी या नहीं.

सात्विक को लगा, जो हो रहा है, गलत कतई नहीं है. अगर संविधा ने बिना बताए ही गर्भपात करा लिया होता तो? ऐसे में कम से कम बच्चे ने जन्म तो ले लिया. ये सब सोच कर सात्विक ने कहा, ‘‘मम्मी, आप ठीक ही कह रही हैं… चलिए, मैं दस्तखत कर देता हूं.’’

सात्विक ने दस्तखत कर दिए. संविधा खुश थी, क्योंकि सात्विक को मनाना आसान नहीं था. लेकिन रमा देवी ने बड़ी आसानी से मना लिया था.

समय बीतने लगा. संविधा जो चाहती थी, वह हो गया था. 2 महीने आराम कर के संविधा औफिस जाने लगी थी. काफी दिनों बाद आने से औफिस में काम कुछ ज्यादा था. फिर बड़ा और्डर आने से संविधा काम में कुछ इस तरह व्यस्त हो गई कि ऋता के यहां आनाजाना तो दूर वह उस से फोन पर भी बातें नहीं कर पाती.

एक दिन ऋता ने फोन किया तो संविधा बोली, ‘‘भाभी, लगता है आप बच्चे में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हो गई हैं, फोन भी नहीं करतीं.’’

‘‘आप व्यस्त रहती हैं, इसलिए फोन नहीं किया. दिनभर औफिस की व्यस्तता, शाम को थकीमांदी घर पहुंचती हैं. सोचती हूं, फोन कर के क्यों बेकार परेशान करूं.’’

‘‘भाभी, इस में परेशान करने वाली क्या बात हुई? अरे, आप कभी भी फोन कर सकती हैं. भाभी, आप औफिस टाइम में भी फोन करेंगी, तब भी कोई परेशानी नहीं होगी. आप के लिए तो मैं हमेशा फ्री रहती हूं.’’

संविधा ने कहा, ‘‘बताओ, दिव्य कैसा है?’’

‘‘दिव्य तो बहुत अच्छा है. तुम्हारा धन्यवाद कैसे अदा करूं, मेरी समझ में नहीं आता. इस के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मम्मीपापा बहुत खुश रहते हैं. पूरा दिन उसी के साथ खेलते रहते हैं.

जिंदगी की धूप- भाग 2 : मौली के मां बनने के लिए क्यों राजी नहीं था डेविड

कमबख्त, घंटी बजती जा रही थी और वौइस मैसेज पर जा कर थम जाती, तो वह  झल्ला कर फोन काट देती. पता नहीं, डेविड फोन क्यों नहीं उठा रहा है, कुछ सोच कर उस ने फोन रख दिया. अपने दफ्तर के बालकनी में वह इधरउधर घूमने लगी. फिर सोचा, क्यों न मम्मीपापा को फोन करूं? रिंग जाने लगी लेकिन वहां भी कोई फोन नहीं उठा रहा था.

वह मन में सोचने लगी. यह क्या बात है, मैं इतनी बड़ी खबर बताना चाहती हूं और कोई फोन उठा ही नहीं रहा है. जब कोई बात नहीं होती तो घंटों बिना मतलब की बातें करते हैं और बारबार कहते हैं, ‘‘और बताओ क्या चल रहा है?’’

आज जब बात है तो कोई सुनने वाला नहीं है.

तभी जैनेटर कूड़ा उठाने के लिए आई और एक मुसकान के साथ में बोली, ‘‘हाउ आर यू?’’ अब तो मौली के पेट में गुड़गुड़ होने लगी और पेट में दबी बात बाहर आने के लिए छटपटाने लगी. आखिर में उस ने अपने को रोका और सिर्फ इतना ही बोल पाई, ‘‘गुड, ऐंड यू?’’ उस ने जवाब में अंगूठे और तर्जनी को मिलाया और एक वी शेप बनाते हुए अपने ठीकठाक होने का संकेत देते हुए ‘हैव ए नाइस डे…’ का रटारटाया संवाद कह कर चलती बनी.

उस ने सोचा कि अच्छा ही हुआ जो उसे कुछ नहीं बताया. नहीं तो सारा मजा किरकिरा हो जाता. वह अपनी मशीनी मुसकान के साथ मुबारकबाद देती और चली जाती. अपनी खास बात वह सब से पहले उन लोगों को बताना चाहती थी जो इसे उसी की तरह महसूस कर सकें.

उस का मन हुआ फोन पर मैसेज भेज दूं लेकिन फिर वह रुक गई क्योंकि वह उस ऐक्साइटमैंट को नहीं सुन पाएगी जो वह शब्दों से सुनना चाह रही थी. तभी फोन की घंटी घनघना उठी.

उस ने थोड़ा गुस्सा दिखाते हुए कहा, ‘‘कहां थे? इतनी देर से फोन मिला रही थी?’’

‘‘कहां हो सकता हूं? जेलर हूं. राउंड पर तो जाना ही पड़ता है,’’ डेविड की आवाज में थोड़ी  झुं झलाहट थी.

‘‘अच्छा तो यहां भी एक राउंड लगाने आ जाओ,’’ आवाज में मधु घोलते हुए उस ने कहा.

‘‘क्या बात है आज तो बड़ी रोमांटिक हो रही हो?’’

‘‘क्या लंच पर मिलें. ब्राइटस्ट्रीट पर?’’

‘‘नहीं यार, आज बहुत काम है.’’

देख लो, मु झे तुम्हें कुछ बताना है. बहुत खास बात है.’’

उस की आवाज की गुदगुदी और खुशी को महसूस करते हुए वह बोला, ‘‘अच्छा  ठीक है चलो मिलते हैं 12 बजे.’’

फिर दोनों अपनेअपने काम में मशगूल हो गए. मौली अपनी मीटिंग जल्दीजल्दी निबटाने लगी और बराबर घड़ी भी देखती जाती. जैसे

12 बज जाएंगे और उसे पता नहीं चलेगा. उस ने काम इतनी रफ्तार से खत्म किया कि पौने 12 बजे ही लंच पर पहुंच गई और बैठते ही एक लैमनेड और्डर कर दिया. करने को कुछ नहीं था तो अपने मोबाइल से डेविड को संदेश पर संदेश भेजने लगी.

‘‘कहां हो? जल्दी आओ यार.’’

जब वह आया तो उस ने पूछा, ‘‘भई, ऐसी क्या बेताबी थी कि तुम ने यहां मिलने के लिए बुला लिया?’’

‘‘पति महोदय, इतनी आसानी से तो मैं नहीं बता दूंगी,’’ मौली मुसकराती हुई बोली.

‘‘तुम्हें प्रमोशन मिला है क्या?’’

‘‘उस ने ‘न’ में सिर हिला दिया.’’

‘‘अच्छा पहले बताओ. दफ्तर की खबर है या घर की?’’

‘‘घर की.’’

‘‘अच्छा…’’

‘‘तुम ने नया सोफा और्डर कर दिया है जिस के बारे में तुम बोल रही थीं?’’

‘‘उफ, तुम भी कितने बोरिंग हो. नए सोफे के लिए कौन इतना ऐक्साइटेड होता है?’’

‘‘क्या तुम्हारी बहन आ रही है?’’

‘‘नहीं, बाबा.’’

‘‘फिर तुम्हारे घर से कोई और आ रहा है क्या?’’

‘‘नहीं, जी,’’ मौली इतराते हुए बोली, ‘‘अच्छा, मैं हार गया अब बताओ.’’

मौली से अब और नहीं रोका जा रहा था, ‘‘हम पेरैंट्स बनने वाले हैं,’’ उस ने लगभग चीखते हुए कहा.

आसपास के लोग उन की तरफ देखने लगे और कुछ लोगों ने तो बाकायदा ताली बजाते हुए मुबारकबाद भी दे दी.

लजाते हुए गुलाबी हो आए गालों पर हाथ रखते हुए उस ने सब को ‘शुक्रिया’ कहा.

डेविड सामने की सीट से उठ कर उस के पास आ गया और उसे गले से लगा लिया.

फिर उस के हाथ सरकते हुए मौली के पेट पर आ कर रुक गए.

देर तक डेविड मौली की आंखों में देखता रहा उस की आंखें गीली हो गईं. उसे लगा वह रो देगा. मौली की आंखों में भी नमी थी.

उस ने कहा, ‘‘मु झे लग रहा था कि यही बात है.’’

‘‘तो पहले क्यों नहीं बताया, बुद्धू.’’

‘‘मु झे लगा कि अगर यह सच नहीं हुआ तो तुम परेशान हो जाओगी,’’ डेविड ने मौली के होंठों को चूमते हुए कहा.

तभी वहां वेटर आया और दोनों ने फलाफल और सैंडविच और्डर किया और अपने इन खुशी के पलों को बारबार जीने की कोशिश करने लगे. आज दोनों बहुत खुश हैं मानो जिंदगी में सबकुछ मिल गया हो.

मौली ने कहा, ‘‘देखो, अभी सितंबर का महीना है तो हमारा बच्चा जून में होगा. जून में तो हमारी छुट्टियां भी होती हैं और मेरी मां के स्कूल भी बंद होते हैं, वे भी हमारे पास रहने आ सकती हैं. कितना अच्छा होगा कि हमारे बच्चे को नानी का साथ मिलेगा. क्या जिंदगी में कुछ इतना परफैक्ट होता है? कुदरत ने हमें सबकुछ कितना सोचसम झ कर दिया है.’’

डेविड ने मुसकरा कर उस की बात का समर्थन किया. डेविड मौली की किसी भी बात को नहीं काटना चाहता था जो वह कहती उसे खुशी से स्वीकृति दे देता. उसे मालूम है कि मौली के लिए उस की स्वीकृति कितनी जरूरी है.

क्रिसमस को डेविड की मां भी जरमनी से आ गईं. मौली उन को ज्यादा पसंद नहीं करती थी. उसे लगता था कि वे उन की जिंदगी में बहुत दखल देती हैं. भई, सभी लोग अपनी जिंदगी अपने ढंग से जीना चाहते हैं.

मौली ने डेविड से साफ कह दिया था कि तुम्हारी मां बहुत कड़क स्वभाव वाली हैं और उन का हुक्म बजाना मु झ से नहीं हो पाएगा. तब से डेविड कोशिश करता था कि मौली और मां को दूर रखा जाए लेकिन बच्चे की खबर सुन कर उस की मां मिलने चली आईं और इस अवसर पर उन्हें रोकना डेविड को उचित भी नहीं लगा था.

वे आईं तो उन्होंने मौली का खूब ध्यान रखा और उसे खानेपीने की पौष्टिक चीजें खिलाती रहीं.

इस बार मौली और मां में खूब बन रही थी. दोनों जब भी साथ होतीं तो खिलखिलाती  रहतीं. अभी टीवी पर खबर आ रही थी कि चीन में नोवल कोरोना वायरस पाया गया है. इसलिए पूरे वुहान शहर को ही बंद कर दिया गया है. दोनों खबर देख कर पेट पकड़ कर हंसने लगीं कि भला किसी शहर को यों भी लौकडाउन किया जा सकता है. कितने बेवकूफ हैं?

मौली बोली, ‘‘अगर यहां ऐसा हो तो मैं तो मर ही जाऊं.’’

मां ने कहा, ‘‘जाने कैसेकैसे लोग हैं, चमगादड़ तक को नहीं छोड़ते.’’

‘‘कुत्ते और बिल्ली कम पड़ गए होंगे,’’ कह कर दोनों देर तक हंसती रहीं.

फिर एक दिन जब मौली ने कहा कि उस की मां एक बेबी शौवर रखना चाहती हैं तो उन्होंने कहा, ‘‘जरमन में लोग कहते हैं पहले बच्चे में बेबी शौवर नहीं करना चाहिए.’’

मौली को यह बात नागवार गुजरी. अब वह किस संस्कृति के तौर तरीके अपनाए अमेरिकी या जरमनी? हालांकि मौली का पेट दिखने लगा था और अब तो 5 महीने गुजर चुके थे और सब को बताना सेफ था. जाने क्या सोच कर उस ने सास की बात रख ली और बेबी शावर नहीं रखा, बस फोन पर अपने खास जानने वालों को खबर कर दी.

सर्दी में मौली अपना खास ध्यान रखने लगी और जाने कितने ही लेख और किताबें गर्भावस्था पर पढ़ डालीं. अपने पहले बच्चे के लिए जितनी तैयारी कर सकती थी कर ली. लेकिन कोरोना के कहर के बारे में रोज सुनसुन के उस के कान पक गए थे. क्या है यह कोरोना और कैसे फैलता है किसी को ठीक से नहीं मालूम था.

जल्दी ही नर्सिंगहोम में सब को एक ज्ञापन मिला कि सभी कर्मचारियों के लिए मास्क पहनना अनिवार्य है, तो मौली को यह सम झने में बहुत मुश्किल आई कि क्यों जरूरी है? वह तो नर्सिंगहोम में एक फाइनैंशियल औफिसर है और उस का डाक्टर और नर्स से इतना वास्ता भी नहीं पड़ता. उसे ज्यादातर इंश्योरैंस कंपनी के साथ ही बातचीत करनी होती थी या मरीजों के क्लेम फाइल करने होते थे जिसे वह नर्सिंगहोम में ही बने हुए अपने एक अंडरग्राउंड दफ्तर में बैठ कर करती थी जिस में उस के साथ 3 और लोग भी थे.

अब इस कोरोना की मुसीबत की वजह से उसे पूरे दिन मास्क लगाके और बारबार  हैंड सैनिटाइजर से हाथ रगड़ने पड़ते थे. हर 1 घंटे में वह दफ्तर के बाहर आ बैठती और एक पेड़ के नीचे मास्क हटा कर लंबीलंबी सांस लेती. उस की सांसें वैसे भी बहुत फूलती हैं लंबेचौड़े कद और भरेभरे बदन वाली तो वह पहले से ही थी.

Mother’s Day Special: पुनरागमन- भाग 2- क्या मां को समझ पाई वह

‘‘अब बताओ, हुआ क्या है, इतनी परेशान क्यों हो?’’

‘‘मैं ने मांजी से बारबार कहा कि कपड़े गंदे न करें, जरूरत पड़ने पर मुझे बताएं. सुबह मैं ने उन से बाथरूम चलने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया और दो मिनट बाद ही बिस्तर गंदा कर दिया. मैं ने उन की सफाई के साथ ही साथ उन से नहाने के लिए भी कहा तो वे बोलीं, ‘पानी कमरे में ही ले आओ, मैं कमरे में ही नहाऊंगी.’ बहुत समझाने पर भी जब मांजी नहीं मानीं तो मैं पानी कमरे में ले आई. वैसे भी अकेले मेरे लिए मांजी को उठाना मुश्किल था. मैं ने सोचा था कि गीले कपड़े से पोंछ दूंगी, फिर खाना खिला दूंगी. पर मांजी ने तो गुस्से में पैर से पानी की पूरी बालटी ही उलट दी और खाने की थाली उठा कर नीचे फेंक दी. मैं तो दिनभर कमरा साफ करकर के थक जाती हूं.’’

नीरू ने मां के कमरे में पैर रखा तो उस का दिल घबरा गया. पूरे कमरे में पानी ही पानी भरा था. खाने की थाली एक ओर पड़ी थी और कटोरियां दूसरी तरफ. रोटी, दाल, चावल सब जमीन पर फैले थे. मां मुंह फुलाए बिस्तर पर बैठी थीं.

नीरू ने मां के पास जा कर पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, खाना क्यों नहीं खाया? तुम ने कल रात को भी खाना नहीं खाया. इस तरह तो तुम कमजोर हो जाओगी.’’

मैं आया के हाथ का खाना नहीं खाऊंगी, आया गंदी है. उसे भगा दो. मुझ से कहती है कि मेरी शिकायत तुम से करेगी, फिर तुम मुझे डांटोगी. तुम डांटोगी मुझे?’’ मां ने किसी छोटे बच्चे की तरह भोलेपन से पूछा तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने मां के गले में हाथ डाल कर प्यार किया और कहा, ‘‘मैं अपनी प्यारी मां को अपने हाथों से खाना खिलाऊंगी. बोलो, क्या खाओगी?’’

‘‘मिठाई दोगी?’’ मां ने आशंकित हो कर कहा.

‘‘मिठाई? पर मिठाई तो खाना खाने के बाद खाते हैं. पहले खाना खा लो, फिर मिठाई खा लेना.’’

‘‘नहीं, पहले मिठाई दो.’’

‘‘नहीं, पहले खाना, फिर मिठाई.’’ नीरू ने मां की नकल उतार कर कहा तो मां ताली बजा कर खूब हंसीं और बोलीं, ‘‘बुद्धू बना रही हो, खाना खा लूंगी तो मिठाई नहीं दोगी. पहले मिठाई लाओ.’’

नीरू ने मिठाई ला कर सामने रख दी तो मां खुश हो कर बोलीं, ‘‘पहले एक पीस मिठाई, फिर खाना.’’

‘‘अच्छा, ठीक है, लड्डू लोगी या रसगुल्ला?’’

‘‘रसगुल्ला,’’ मां ने खुश हो कर कहा.

नीरू ने एक रसगुल्ला कटोरी में रख कर उन्हें दिया और उन के लिए थाली में खाना निकालने लगी. दो कौर खाने के बाद ही मां फिर खाना खाने में आनाकानी करने लगीं. ‘‘पेट गरम हो गया, अब और नहीं खाऊंगी,’’ मां ने मुंह बना कर कहा.

‘‘अच्छा, एक कौर मेरे लिए, मां. देखो, तुम ने कल भी कुछ नहीं खाया था, अभी दवाई भी खानी है और दवाई खाने से पहले खाना खाना जरूरी है वरना तबीयत बिगड़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मैं नहीं खा सकती. अब एक कौर भी नहीं.’’ तुम तो दारोगा की तरह पीछे लग जाती हो. मुझे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मेरी अम्मा बनने चली हो. अब पेट में जगह नहीं है तो क्या करूं, पेट बड़ा कर लूं,’’ कहते हुए मां ने पेट फुला लिया तो नीरू को हंसी आ गई. उस ने हंसते हुए थाली की ओर हाथ बढ़ाया तो मां ने समझा कि नीरू फिर उस से खाने के लिए कहेगी. सो, अपनी आंखें बंद कर के लेट गईं. तभी फोन की घंटी बजी तो नीरू फोन पर बात करने लगी. बात करतेकरते नीरू ने देखा कि मां ने धीरे से आंखें खोल कर देखा और रसगुल्ले की ओर हाथ बढ़ाया पर नीरू को अपनी ओर आते देखा तो झट से बोलीं, ‘‘हम रसगुल्ला थोड़े उठा रहे थे, हम तो उस पर बैठा मच्छर भगा रहे थे.’’

‘‘तुम्हें एक रसगुल्ला और खाना है?’’ नीरू ने हंस कर पूछा.

‘‘हां, मुझे रसगुल्ला बहुत अच्छा लगता है.’’

‘‘तो पहले रोटी खाओ, फिर रसगुल्ला भी खा लेना.’’

‘रसगुल्ला, कचौड़ी, कचौड़ी फिर रसगुल्ला, फिर कचौड़ी…’ मां मुंह ही मुंह में बुदबुदा रही थीं. नीरू ने सुना तो उसे हंसी आ गई.

‘‘शाम को मेहमान आने वाले हैं. तब तुम्हारी पसंद की कचौड़ी बनाऊंगी,’’ नीरू ने मां को मनाने के लिए कहा तो मां प्रसन्न हो कर बोलीं, ‘‘हींग वाली कचौड़ी?’’

‘‘हां, हींग वाली. लो, अब एक रोटी खा लो, फिर शाम को कचौड़ी खाना.’’

‘‘तो मैं शाम को रोटी नहीं खाऊंगी, हां. मुझे पेटभर कचौड़ी देना.’’

‘‘अच्छा बाबा. मैं तो इसलिए रोकती हूं कि मीठा और तलाभुना खाने से तुम्हारी शुगर बढ़ जाती है. आज शाम को जो तुम कहोगी मैं तुम्हें वही खिलाऊंगी पर अभी एक रोटी खाओ.’’

नीरू ने मां को रोटी खाने के लिए मना ही लिया. शाम को मां अपने कमरे में अकेली बैठी कसमसा रही थीं. बाहर के कमरे से लगातार बातों के साथसाथ हंसने की भी आवाजें आ रही थीं. ‘क्या करूं, नीरू को बुलाने के लिए आवाज दूं क्या? नहींनहीं, नीरू गुस्सा करेगी. तो फिर? मन भी तो नहीं लग रहा है. मैं भी उसी कमरे में चली जाऊं तो? ये मेहमान भी चले क्यों नहीं जाते. 2 घंटे से चिपके हैं. अभी न जाने कितनी देर तक जमे रहेंगे. मैं पूरे दिन नीरू का इंतजार करती हूं कि शाम को नीरू के साथ बातें करूंगी वरना इस कमरे में अकेले पड़ेपड़े कितना जी घबराता है, किसी को क्या पता?’

अचानक मां के कमरे से ‘हाय मर गई. हे प्रकृति, तू मुझे उठा क्यों नहीं लेती,’ की आवाज आने लगी तो सब का ध्यान मां के कमरे की ओर गया. सब दौड़ते हुए कमरे में पहुंचे तो देखा मां अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही हैं. नीरू ने मां से पूछा, ‘‘क्या हुआ मां, कराह क्यों रही हो?’’

‘‘मेरा पेट गरम हो रहा है. देखो, और गरम होता जा रहा है. गरमी बढ़ती जा रही है. खड़ीखड़ी क्या कर रही हो? मेरे पेट की आग से पूरा घर जल जाएगा. सब जल जाएंगे.’’

मां की बात सुन कर नीरू ने कहा, ‘‘चलो, अस्पताल चलते हैं.’’ फिर नीरू ने मेहमानों से कहा, ‘‘आप आराम से बैठें, मैं मां को डाक्टर को दिखा कर आती हूं.’’

समय की नजाकत को भांपते हुए मेहमानों ने भी कहा, ‘‘आप मां को अस्पताल ले जाएं, हम फिर कभी आ जाएंगे.’’

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सूना गला: शादी के बाद कैसी हो गई थी उसकी जिंदगी

उस की मां थी ही निर्मल, निश्छल, जैसी बाहर वैसी अंदर. छल, प्रपंच, घृणा और लालच से कोसों दूर, सब के सुख से सुखी, सब के दुख से दुखी. कभीकभी सौरभ अपनी मां के स्वभाव की सादगी देख अचंभित रह जाता कि आज के प्रपंची युग में भी उस की मां जैसे लोग हैं, विश्वास नहीं होता था उसे.

बचपन से ही सौरभ देखता आ रहा था कि मां हर हाल में संतुष्ट रहतीं. पापा जो भी कमा कर उन के हाथ में थमा देते बिना किसी शिकवाशिकायत के उसी में जोड़तोड़ बिठा कर वह अपना घर चलातीं, कभी अपने अभावों का पोटला किसी के सामने नहीं खोलतीं.

तभी मां की नजर उस पर पड़ गई थी, ‘‘अरे, तू कब जग गया. और ऐसे क्या टुकुरटुकुर देखे जा रहा है.’’

मां की स्निग्ध हंसी ने उसे ममता से सराबोर कर दिया.

‘‘बस, यों ही…आप को अलमारी ठीक करते देख रहा था.’’

वह कैसे कह देता कि कमरे में बैठा उन के निश्छल स्वभाव और संघर्षपूर्ण, त्यागमय जीवन का लेखाजोखा कर रहा था. उन के अपने परिवार के लिए किए गए समर्पण और संघर्ष का, उस सूने गले का जो कभी भारीभरकम सोने की जंजीर और मीनाकारी वाले कर्णफूल से सजासंवरा उन की संपन्नता का प्रतीक था. पिछले 6 वर्षों से उस के नौकरी करने के बाद भी मां का गला सूना ही पड़ा था.

मां को खुद महसूस हो या न हो लेकिन जब भी उस की नजर मां के सूने गले पर पड़ती, मन में एक हूक सी उठती. उसे लगता जैसे उन के जीवन का सारा सूनापन उन के खाली गले और कानों पर सिमट आया हो. इतनी श्रीहीन तो वह तब भी नहीं लगती थीं जब पापा की मृत्यु के बाद उन की दुनिया ही उजड़ गई थी.

सौरभ ने होश संभालने के बाद से ही मां के गले में एक मोटी सी जंजीर और कानों में मीनाकारी वाले कर्णफूल ही देखे थे. तब मां कितनी खुश रहती थीं. हरदम हंसती, गुनगुनाती उस की मां का चेहरा बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के ही दमकता रहता था.

फिर मां की खुशियों और बेफिक्र जिंदगी पर तब पहाड़ टूट कर आ गिरा जब अचानक एक सड़क दुर्घटना में उस के पापा की मौत हो गई. इस असमय आई मुसीबत ने मां को तो पूरी तरह तोड़ ही दिया. वह सूनीसूनी निगाहों से दीवार को देखती बेजान सी महीनों पड़ी रहीं. लेकिन जल्दी ही मां अपने बच्चों के बदहवासी और सदमे से रोते, सहमे चेहरे देख अपनी व्यथा दिल में ही दबा उन्हें संभालने में जुट गई थीं. एक नई जिम्मेदारी के एहसास ने उन्हें फिर से जीवन की मुख्य धारा से जोड़ दिया था.

पति के न रहने से एकाएक ढेरों कठिनाइयां उन के सामने आ खड़ी हुई थीं. पैसों की कमी, जानकारीयों का अभाव, कदमकदम पर जिंदगी उन की परीक्षा ले रही थी. उन का खुद का बनाया संसार उन की ही आंखों के सामने नष्ट होने लगा था लेकिन मां ने धैर्य का पल्लू कस कर थामे रखा.

बचपन में पिता और बाद में पति के संरक्षण में रहने के कारण मां का कभी दुनियादारी और उस के छलप्रपंच से आमनासामना हुआ ही नहीं. अब हर कदम पर उन का सामना वैसे ही लोगों से हो रहा था. लेकिन कहते हैं न कि समय और अभाव आदमी को सबकुछ सिखा देता है, मां भी दुनियादारी सीखने लगी थीं.

मां अपने टूटते आत्मबल और अपनी सारी अंतर्वेदनाओं को अपने अंतस में छिपाए सामान्य बने रहने की कोशिश करतीं लेकिन उन की तमाम कोशिशों के बावजूद सौरभ से कुछ भी छिपा नहीं था. वही एकमात्र गवाह था मां के कतराकतरा टूटने और जुड़ने का. कितनी बार ही उस ने देखा था मां को रात में अपने बच्चों से छिप कर रोते, पापा को याद कर तड़पते. तब उस के दिल में तड़प सी उठती कि कैसे क्या करे जो मां के सारे दुख हर ले.

वह चाह कर भी मां के लिए कुछ नहीं कर पाया, जबकि मां ने उन दोनों भाईबहनों का जीवन संवारने के लिए जो कर दिखाया, सभी के लिए आशातीत था. क्या नहीं किया मां ने, पोस्टआफिस की एजेंसी, स्कूल की नौकरी, ट्यूशन, कपड़ों की सिलाई यानी एकएक पैसे के लिए संघर्ष करतीं.

जब भी वह मां के संघर्ष से विचलित हो कर अपने लिए काम ढूंढ़ता, मां उसे काम करने की इजाजत ही नहीं देतीं. बस, उन्हें एक ही धुन थी कि किसी तरह उन का बेटा पढ़लिख कर सरकारी नौकरी में ऊंचा पद प्राप्त कर ले.

पापा के साथ जब वह भयंकर दुर्घटना हुई थी तब सौरभ 10वीं में पढ़ता था. मांबेटा दोनों ही व्यापार में पूरी तरह कोरे थे जिस का फायदा व्यापार में उस के पिता के साथ काम कर रहे दूसरे लोगों ने उठाया और व्यापार में लगा उस के पापा का करीबकरीब सारा पैसा डूब गया. थोड़ाबहुत जो भी पैसा बचा था, नेहा दीदी की शादी का खयाल कर मां ने बैंक में जमा करवा दिया.

नेहा दीदी की शादी में सारी जमापूंजी के साथसाथ मां के करीबकरीब सारे गहने निकल गए थे, फिर भी मां बेहद खुश थीं. नेहा को सुंदर, संस्कारी और विवेकशील पति के साथसाथ ससुराल में संपन्नता भरा परिवार जो मिला था.

नेहा दीदी की शादी के बाद 4 वर्ष बड़े ही संघर्षपूर्ण रहे. स्नातक करने के बाद सौरभ नौकरी प्राप्त करने के अभियान में जुट गया. जल्दी ही उसे सफलता भी मिली. एक बैंक अधिकारी के पद पर उस की नियुक्ति हो गई. इस दौरान जगहजगह इतने फार्म भरने पडे़ कि गहनों के नाम पर मां के गले में बची एकमात्र जंजीर भी उतर गई.

मां की साड़ी पर भी जगहजगह पैबंद नजर आने लगे थे. इतनी विकट परिस्थिति में भी मां ने हिम्मत नहीं हारी, न ही किसी रिश्तेदार के घर आर्थिक तंगी का रोना रोने या सहायता मांगने गईं. परिस्थिति ने उन्हें धरती सा सहिष्णु बना दिया था.

नौकरी मिलने के बाद जब उस ने पहली पगार मां को सौंपी थी तब खुशी के आंसू पोंछती मां ने उसे गले से लगा लिया था, ‘अरे, पगले…मां भला इन रुपयों का क्या करेगी? अब तो सारी जिम्मेदारियां तू ही संभाल, मैं तो बस, बैठेबैठे आराम करूंगी.’

इस के बाद भी सौरभ हर महीने तनख्वाह का सारा पैसा ला कर मां के हाथों में देता रहा और मां पूर्ववत घर चलाती रहीं.

शादी के लिए आए कई प्रस्तावों में से मां को निधि की सुंदरता ने इस कदर प्रभावित किया कि बिना ज्यादा खोजबीन किए वे निधि से उस की शादी करने के लिए तैयार हो गईं. जब दहेज की बात आई तो उन्होंने शादी में किसी तरह का दहेज लेने से साफ मना कर दिया. ऐसा कर शायद वह अपने पति के उन आदर्शों को कायम रखना चाहती थीं जो उन्होंने खुद की शादी में दहेज न ले कर लोगों और समाज के सामने कायम किया था. जितना भी उन के पास पैसा था उसी से उन्होंने शादी की सारी व्यवस्था की.

मां के आदर्शों और भावनाओं को समझने के बदले अमीर घर की निधि की नजरों में दहेज न लेना बेवकूफी भरी आदर्शवादिता थी. हमेशा अपनी आधुनिका मां की तुलना में वह अपनी सास के साधारण से रहनसहन को उन का देहातीपन समझ मजाक उड़ाती रहती और जबतब अपनी जबान की कैंची से उसे कतरती रहती. ऐसे मौके पर उस का दिल चाहता कि निधि से पूछे कि सभ्यता का यह कौन सा सड़ागला रूप है जिस में ससुराल के बुजुर्गों की नहीं, सिर्फ मायके के बुजुर्गों की इज्जत करना सिखाई जाती है, लेकिन वह चुप ही रहता.

 

ऐसा नहीं था कि वह निधि से डरता था, कहीं मां पर निधि की असलियत जाहिर न हो जाए, इसी भय से भयभीत रहता था. जिंदगी के इस सुखद मोड़ पर वह नहीं चाहता था कि निधि की किसी बात से मां आहत हों और वर्षों से उन के दिल में जो बहू की तसवीर पल रही थी वह धुंधली हो जाए.

निधि समझे या न समझे वह जानता था, मां निधि को बेहद प्यार करती थीं.

निधि ने घर में आते ही मां के सीधेसादे स्वभाव को परख कर बड़ी होशियारी से उन के बेटे, पैसे और घर पर अपना अधिकार कर, उन के अधिकारों को इस तरह सीमित कर दिया कि वह अपने ही घर में पराई बन कर रह गई थीं.

वह हर बार सोचता, इस महीने जरूर मां के लिए सोने की जंजीर ले आएगा, लेकिन कोई न कोई खर्च हर महीने निकल आता और वह चाह कर भी जंजीर नहीं खरीद पाता. वैसे भी शादी के बाद से घर के खर्च काफी बढ़ गए थे. अब तक साधारण ढंग से चलने वाले घर का रहनसहन काफी ऊंचे स्तर का हो गया था. एक नौकर भी आ गया था जो निधि के हुक्म का गुलाम था.

तभी सौरभ की तंद्रा मां की आवाज से टूट गई थी.

‘‘कब से पुकारे जा रही हूं, कहां खोया बैठा है. चाय बना दूं?’’

मां को यों सामने पा कर जाने क्यों सौरभ की आंखें भर आई थीं. इनकार में सिर हिला, अपने आंसू छिपाता वह बाथरूम में जा घुसा था.

उसी दिन आफिस जाने के बाद सौरभ अपनी एक फिक्स्ड डिपोजिट तोड़ कर मां के लिए एक जंजीर और मीनाकारी वाला कर्णफूल खरीद लाया था. यह सोच कर कि एक हफ्ते बाद मां के आने वाले जन्मदिन पर उन्हें देगा, उस ने गहनों का डब्बा अपनी अलमारी में संभाल कर रख दिया.

रात को उस ने अपने इस ‘सरप्राइज गिफ्ट’ की बात जैसे ही निधि को बताई, उस के तो तनबदन में आग लग गई. अब तक शब्दों पर चढ़ा मुलम्मा उतार, मां के सारे बलिदानों पर पानी फेरते हुए वह बिफर पड़ी थी, ‘‘यह तुम्हें क्या सूझी है, बुढ़ापे में अब वह इतने भारी गहनों को ले कर क्या करेंगी? अब तो उन के नातीपोते खिलाने के दिन हैं फिर भी उन की तो जैसे गहनों में ही जान अटकी पड़ी है.’’

पूरा हफ्ता उस चेन को ले कर निधि के साथ उस का शीतयुद्ध चलता रहा, फिर भी वह डटा रहा. अभी वह इतना गयागुजरा नहीं था कि उस की बातों में आ कर मां के प्रति अपने प्यार और फर्ज को भूल जाता.

एक सप्ताह बाद जब मां का जन्मदिन आया, सुबहसुबह मां को जन्मदिन की मुबारकबाद दे कर उस ने जतन से पैक किया गया गहनों का डब्बा उन के हाथों में थमा दिया था.

‘‘अरे, बेटा, यह क्या ले आया तू? अब क्या मेरी उम्र है उपहार लेने की. अच्छा, देखूं तो मेरे लिए तू क्या ले आया है.’’

डब्बा खोलते ही मां जड़ सी हो गई थीं. जाने कब तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो यों ही खड़ी रहतीं, अगर सौरभ उन्हें गहनों को पहनने की याद नहीं दिलाता. सौरभ की आवाज में जाने कैसी कशिश थी कि जंजीर पहनतेपहनते उन की आंखें छलछला आई थीं. फिर कुछ सोच सौरभ का गाल थपथपा कर निधि को बुलाने लगीं.

कमरे में कदम रखते ही निधि की नजर मां के गले में पड़ी जंजीर पर गई, जिसे देखते ही चोट खाई नागिन सी उस की आंखों से लपट सी उठी थी, जो सौरभ से छिपी नहीं रही, पर उस की सीधीसादी मां को उस का आभास तक नहीं हुआ. तभी अपने गले से जंजीर निकाल कर निधि के गले में डालते हुए मां बोलीं, ‘‘बहू, इसे तुम मेरी तरफ से रख लो. जाने कितने अरमान थे मेरे दिल में अपनी बहू के लिए. जब सौरभ छोटा था तभी से अपने कितने ही गहने तुम्हारे नाम रख छोडे़ थे. सोचती थी एक ही तो बहू होगी मेरी, सजा दूंगी गहनों से, लेकिन परिस्थितियां ऐसी पलटीं कि सारे अरमान दिल में ही दफन हो गए.’’

सौरभ अभी कुछ बोलना चाह ही रहा था कि मां जाने कैसे समझ गईं.

‘‘न…तू कुछ नहीं बोलेगा. यह मेरे और बहू के बीच की बातें हैं. वैसे भी इस उम्र में मैं गहनों का क्या करूंगी.’’

मां के इस अप्रत्याशित फैसले ने निधि को भौचक कर दिया था. अपने छोटेपन का आभास होते ही वह सौरभ से नजरें नहीं मिला पा रही थी. उस की सारी कुटिलताएं मां के सीधेपन के सामने धराशायी हो चुकी थीं. जिस जंजीर के लिए उस ने अपने पति का जीना हराम कर रखा था, इतनी आसानी से मां उसे सौंप चुकी थीं.

निधि की नजरों में आज पहली बार सास के लिए सच्ची श्रद्धा उत्पन्न हुई थी. साथ ही यह बात शिद्दत से उसे शूल की तरह चुभ रही थी कि जिस सास को मां की तुलना में वह हमेशा गंवार और बेवकूफ समझती थी और अपनी ससुराल वालों की तुलना में अपने मायके वालों को श्रेष्ठ और आधुनिक दिखाने की कोशिश करती थी, उस की उसी सास के सरल, सादे और ऊंचे संस्कारों के सामने अब उसे अपनी गर्वोक्ति व्यर्थ का प्रलाप लगने लगी थी.

दूसरे दिन सौरभ को यह देख कर सुखद आश्चर्य हो रहा था कि निधि एक सोने की जंजीर मां को जबरदस्ती पहना रही थी. मां के बारबार मना करने पर भी वह जिद पर उतर आई थी.

‘‘मांजी, मैं ने बडे़ प्यार से इसे आप के लिए खरीदा है और अगर आप ने लेने से इनकार कर दिया तो मुझे लगेगा कि आप ने कभी मुझे बेटी माना ही नहीं.’’

इस के बाद मां इनकार नहीं कर सकी थीं. सदा से ही कम बोलने वाली मां की आंखों में अपनी बहू के लिए ढेर सारा प्यार और अपनापन उमड़ पड़ा था. मां की खुशी देख सौरभ ने नजरों से ही निधि के प्रति अपनी कृतज्ञता जता दी थी, जिसे संभालना निधि के लिए मुश्किल हो रहा था. वह नजरें चुराती, यहांवहां काम में व्यस्त होने का नाटक करने लगी.

आज पहली बार अपनी गलतियों का एहसास निधि को बुरी तरह कचोट रहा था. सास के सच्चे प्रेम और अपनेपन ने उस की आत्मा को झकझोर दिया था. बारीबारी वे बातें याद आ रही थीं जिस का समय रहते उस ने कभी कोई मूल्य नहीं समझा था. वह बीमार पड़ती तो सास उस की देखभाल बडे़ प्यार और लगन से अपने बच्चों की तरह करतीं. इतने प्यार और लगन से तो कभी उस की अपनी मां ने भी उस की सेवा नहीं की थी.

जिस सास ने अपना बेटा, घर, संपत्ति सबकुछ उसे सौंप, अपना विश्वास, प्यार और सम्मान दिया, उसी सास को महज अपना वर्चस्व साबित करने के लिए उस ने घरपरिवार से भी बेगाना कर रखा था. शादी के बाद से आज यह पहला अवसर था जब सौरभ उस के किसी काम से इतना खुश और संतुष्ट नजर आ रहा था. अपने लिए उस की नजरों से छलकता प्यार और कृतज्ञता देख निधि को बारबार नानी की नसीहतें याद आ रही थीं.

उस की नानी के पास जब भी उस की मां अपनी सास की शिकायतों की पोटली खोलतीं, नानी उन्हें समझातीं, ‘देख…नंदनी, एक बात तू गांठ बांध ले कि पति के बचपन का पहला प्यार उस की मां ही होती है, जिस का तिरस्कार वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाता है. अगर पति का सच्चा प्यार और घर का सुख प्राप्त करना है तो उस से ज्यादा उस की मां को अहमियत देना सीख. उन की सेवा कर, उन का खयाल रख तो कुछ ही दिनों बाद उसी सास में तुम्हें अपनी मां भी दिखेगी, साथ ही तुम्हें पति को भी अपनी अहमियत जताने की जरूरत नहीं पडे़गी. वह खुद ही प्यार के अटूट बंधन में बंधा ताउम्र तुम्हारे ही चक्कर लगाएगा.’

मां हमेशा नानी की नसीहत को मजाक में उड़ा, अपनी मनमानी करतीं, नतीजतन, अपने सारे रिश्तों से मां अलग तो हुईं ही, पापा के साथ रहते हुए भी जीवन की इस संध्या बेला में काफी अकेली हो गई थीं.

एकांत पाते ही निधि अपने सारे मानअपमान और स्वाभिमान को भूल कर सौरभ के पास आ गई थी. शर्मिंदगी के भाव से भरी उस की आंखों से अविरल आंसू बह निकले.

बिना कुछ कहे पति की शांत और मुग्ध दृष्टि से आश्वस्त हो कर निधि उस की बांहों में समा गई थी. निधि को अपनी बांहों में समेटते हुए सौरभ को लगा जैसे कई दिनों की बारिश के बाद काले बादल छंट गए हैं और आकाश में खिल आई धूप ने मौसम को काफी सुहावना बना दिया है.

 

तलाक के बाद- भाग 4: क्या स्मिता को मिला जीवनसाथी

मुकदमा चलता रहा. इस बीच न जाने कितने जज आए और चले गए, लेकिन मुकदमा अपनी जगह से एक इंच भी नहीं हिला था. तलाक के प्रति अब उस का मोहभंग हो गया था.

कुछ और साल निकल गए. ढाक के वही तीन पात, कहीं कोई ओरछोर नजर नहीं आ रहा था.

जब उस का शरीर सूख गया, आंखों की चमक धूमिल हो गई, सौंदर्य ने साथ छोड़ दिया, बाल चांदी हो गए, तब एक दिन जज ने उस की तरफ देखते हुए पूछा, ‘क्या अभी भी आप तलाक चाहती हैं?’

उस की सूनी आंखें राजीव की तरफ मुड़ गई थीं. वह सिर झुकाए बैठा था. उस की तरफ कभी नहीं देखता था. स्मिता भी नहीं देखती थी. आज पहली बार देखा था. दोनों की आंखें चार होतीं तो बहुत सारे गिलेशिकवे दूर हो जाते. अब तक 10 साल बीत चुके थे और वह अच्छी तरह समझ गई थी कि अब उस के लिए तलाक के कोई माने नहीं थे.

वह चुप रही तो उस के वकील ने कहा, ‘हुजूर, हम पहले ही कह चुके हैं कि वादी प्रतिवादी के साथ जीवन नहीं गुजार सकती.’

स्मिता का मन हुआ था कि वह चीखचीख कर कहे, ‘नहीं…नहीं… नहीं….’ लेकिन उस समय जैसे किसी ने उस का गला दबा दिया था. वह कुछ नहीं कह पाई थी और तब कोर्ट ने निर्देश दिया, ‘कुछ दिन और साथ रह कर देखो.’ लेकिन दोनों कभी साथ नहीं रहे. दोनों ही पक्ष इस बात को कोर्टज़्से छिपा रहे थे. वह इसलिए इस तथ्य को छिपा रही थी कि कोर्ट उस के आदेश की अवहेलना मान कर उस के खिलाफ कोई कार्यवाही न कर दे. राजीव पता नहीं क्यों इस तथ्य को छिपा रहा था. संभवतया वह स्मिता की भावनाओं के कारण इस बात को कोर्टज़्से छिपा रहा था.

सब के अपनेअपने अहं थे, अपनेअपने कारण थे. कोर्ट की अपनी रफ्तार थी. वह किसी की निजी जिंदगी

से प्रभावित नहीं हो रही थी, लेकिन

2 जिंदगियां अदालती कार्यवाही में फंस कर पिस रही थीं.

सोचसोच कर उस ने अपने को जिंदा लाश बना लिया था. एक दिन वकील का उस के पास फोन आया कि अगली पेशी पर कोर्टज़्का आदेश आएगा. राजीव ने लिख कर दे दिया है कि वह उस को तलाक देना चाहता था. सुन कर स्मिता के दिल में एक बड़ा पहाड़ टूट कर गिर गया. वह अंदर से रो रही थी, परंतु बाहर उस के आंसू सूख गए थे. वह एक सूखी झील के समान थी, जिस में गहराई तो थी, लेकिन संवेदना और जीवन के जल की एक बूंद भी न थी.

राजीव के लिख कर देने के बाद ही शायद वर्तमान जज को यह भान हुआ होगा कि इतने सालों बाद भी अगर पतिपत्नी सामंजस्य नहीं बिठा पाए तो उन्हें तलाक दे देना ही बेहतर होगा. अगली पेशी पर वह कोर्ट गई, राजीव भी आया था. वह भी उस की तरह बूढ़ा हो गया था. दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा था. राजीव की आंखों में गहन पीड़ा का भाव था. वह आहत था, लेकिन अपनी पीड़ा किसी को बयान नहीं कर सकता था. वे दोनों विपरीत दिशा में खड़े हो कर फैसले का इंतजार करने लगे.

और आखिरकार कोर्टज़्का फैसला आ गया था. उसे तलाक मिल गया था, लेकिन वह खुश नहीं थी. 11 साल बहुत लंबा वक्त होता है. इतने सालों के बाद अब तलाक ले कर उस के मन में किस तरह के जीवन की अभिलाषा बची थी.

अब आगे क्या…एक बार फिर से वही प्रश्न उस के सामने था.

अंधेरा घिर आया था. चारों तरफ बत्तियां जल गई थीं. लेकिन उस के अंदर असीम अंधेरा था. उस का दिल डूब रहा था, उस का सारा सौंदर्य खत्म हो गया था. सौंदर्यज़्के जाते ही उस का घमंड भी न जाने कहां गायब हो गया था. अब उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे? कोई भी तो उस का नहीं था इस दुनिया में? भाईभाभी पहले ही उस से विमुख हो गए थे. पति से तलाक मिल गया. अब उस का कौन था? आधी उम्र बीत जाने के बाद वह किस के सहारे जीवन बिताएगी. दूसरा विवाह कर सकती थी. बुढ़ापे तक लोग एकदूसरे का सहारा ढूंढ़ लेते हैं.

उस का मन बैचेन था और वह भाग कर कहीं चली जाना चाहती थी. आज उस का अहं चकनाचूर हो गया था.

मन में एक संकल्प लेने के बाद वह एक तय दिशा में चल पड़ी. गली बड़ी सुनसान थी. चारों ओर अंधेरा था. केवल घरों का प्रकाश खिड़कियों से छन कर गली में आ रहा था. ऐसे में गली में सबकुछ साफसाफ नहीं दिखाई दे रहा था, लेकिन स्मिता के मन के अंदर एक अनोखा प्रकाश व्याप्त हो गया था, जिस में वह सबकुछ साफसाफ देख रही थी. अब उस के मन में कोई दुविधा नहीं थी.

घर के अंदर भी सन्नाटा था. उस ने धीरे से घंटी दबाई, अंदर से घंटी की आवाज सुनाई दी. फिर 2 मिनट बाद दरवाजा खुला. उस के सामने मुदर्नी चेहरा लिए राजीव खड़ा था. मूक, अंदर का प्रकाश स्मिता के चेहरे पर पड़ रहा था. वह पहचान गया था, लेकिन तुरंत उस के मुंह से आवाज नहीं निकली. स्मिता का दिमाग स्थिर था, मन शांत था. दिल में बस एक गुबार था, जो बाहर निकलने के लिए बेताब हो रहा था.

‘‘राजीव,’’ उस ने भीगे स्वर में कहा. राजीव कुछ कहना चाहता था, लेकिन स्मिता ने उसे लगभग धकेलते हुए कहा, ‘‘मैं बहुत थक चुकी हूं, राजीव, कुछ देर बैठना चाहती हूं.’’ राजीव ने उसे अंदर आने का रास्ता दिया. वह अंदर आ कर धड़ाम से सोफे पर गिर गई और लंबीलंबी सांसें लेने लगी. राजीव दौड़ कर एक गिलास पानी ले आया और उस के हाथ में थमा कर बोला, ‘‘लो, पी लो.’’

राजीव ने सिर झुका कर कहा, ‘‘सबकुछ खत्म हो गया.’’

वह उठ कर सीधी बैठ गई, ‘‘नहीं राजीव, सबकुछ खत्म नहीं हुआ है. जीवन कभी खत्म नहीं होता, आशाएं कभी नहीं मरतीं. अगर कुछ खत्म हुआ है, तो मेरा अज्ञान, मूढ़ता और घमंड. मेरा सौंदर्यज़्भी खत्म हो गया है, लेकिन तुम्हारे लिए प्यार बढ़ गया है.’’

‘‘अब इस का कोई अर्थ नहीं है,’’ राजीव ने मरे स्वर में कहा.

‘‘क्या हम एकदूसरे के पास वापस नहीं आ सकते?’’ उस ने गिड़गिड़ाते स्वर में कहा और उस की बगल में आ कर बैठ गई, ‘‘मैं ने आप को बहुत कष्ट दिया, लेकिन सच मानिए, बहुत पहले ही मेरी समझ में आ गया था कि मैं जो कर रही थी, सही नहीं था.’’

‘‘फिर तभी लौट कर क्यों नहीं आई?’’ राजीव का स्वर थोड़ा खुल गया.

‘‘बस, अविवेक का परदा पूरी तरह से हटा नहीं था. अहं की दीवार तड़क गई थी, लेकिन टूटी नहीं थी. परंतु आप ने क्यों बयान दे दिया कि आप भी तलाक देना चाहते हो?’’

‘‘स्मिता, तुम्हें नहीं पता, अदालतों और वकीलों के चक्कर में न जाने कितने परिवार बरबाद हो गए. पहले मुझे लगता था, दोएक साल तक कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद तुम्हारी अक्ल ठिकाने आ जाएगी और तुम तलाक का मुकदमा वापस ले लोगी. परंतु जब देखा 11 साल निकल गए, जवानी साथ छोड़ती जा रही है. तब मैं ने कोर्ट में अपनी सहमति दे दी, वरना यह कार्यवाही जीवन के अंत तक समाप्त नहीं होती.’’

स्मिता कुछ पल तक उस के चेहरे को देखती बैठी रही, फिर पूछा, ‘‘तो क्या अदालत का फैसला मानोगे या…’’ उस ने जानबूझ कर अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

राजीव के दिल में एक कसक सी उठी. वह कराह उठा, ‘‘मेरे मन में कभी भी तुम्हें ठुकराने की बात नहीं आई, यह तो तुम्हारी जिद के आगे मैं मजबूर हो गया था, तभी…’’

‘‘तो क्या आप को मन का फैसला मंजूर है?’’

राजीव कुछ नहीं बोला, बस, भावपूर्ण आंखों से उस के मलिन चेहरे पर निगाह गड़ा दी. स्मिता समझ गई और धीरे से अपना सिर उस के कंधे पर रख दिया.

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तलाक के बाद- भाग 3: क्या स्मिता को मिला जीवनसाथी

राजीव ने चलतेचलते कहा था, ‘हर बात में जिद अच्छी नहीं होती. इतना ध्यान रखना कि कोर्ट इतनी आसानी से किसी को तलाक नहीं देता, जब तक उस का कोई ठोस आधार न हो.’

स्मिता तब यह बात नहीं समझी थी. खुद को व्यस्त रखने के लिए उस ने एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली थी.

कोर्टज़्ने वादी स्मिता को 6 महीने का समय दिया, ताकि वह अपने फैसले पर दोबारा विचार कर सके. तब भी अगर उसे लगे कि वह अपने पति के साथ गुजारा नहीं कर सकती तो फिर से याचिका पर सुनवाई होगी. इस 6 महीने के दौरान राजीव ने फिर उस से मिलने की कोशिश की. लेकिन वह उस से बात तक करने को तैयार नहीं हुई. उसे पूरा यकीन था कि

6 महीने बाद उसे तलाक मिल जाएगा और तब वह अपनी मरजीज़्से किसी धनवान लड़के के साथ शादी कर लेगी. उस ने अखबारों, पत्रिकाओं और इंटरनैट पर अपने लिए योग्य वर की खोज भी करनी शुरू कर दी थी.

लेकिन उस की आशाओं पर पहली बार पानी तब फिरा, जब 6 महीने बाद सुनवाई शुरू हुई. हर सुनवाई पर तारीख पड़ जाती, कभी जज छुट्टी पर होते, कभी कोई वकील, कभी वकीलों की हड़ताल होती, कभी जज महोदय अन्य मामलों में बिजी होते. राजीव ने अपना जवाब दाखिल कर दिया था. वह स्मिता को तलाक नहीं देना चाहता था, जबकि तलाक की याचिका में स्मिता ने कहा था कि उस का पति उस का भरणपोषण करने में समर्थ नहीं था. राजीव की आय के प्रमाणपत्र मांगे गए थे.

यह सब करतेकरते 2-3 साल और निकल गए. फिर जज बदल गए. नए जज महोदय ने नए सिरे से सुनवाई शुरू की. हर पेशी पर केस की सुनवाई हुए बिना अगली तारीख पड़ जाती. बहुत दिनों बाद एक जज ने खुद स्मिता और राजीव से व्यक्तिगत तौर पर कुछ प्रश्न किए.

उस के बाद अगली तारीख पर फैसला सुनाया, ‘दोनों पक्षों को सुनने के बाद मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि वादी के पास अपने पति से तलाक मांगने का कोई उचित कारण नहीं है. उन के बीच कलह का मात्र एक कारण है कि वादी अपने सासससुर से अलग रहना चाहती है, लेकिन पति ऐसा नहीं चाहता.

‘वादी ने दूसरा कारण यह बताया है कि प्रतिवादी उस का खर्च वहन करने में सक्षम नहीं है. वादी का पति एक शिक्षक है और उस की आय का ब्योरा अदालत में मौजूद है, जिस से यह प्रमाणित होता है कि वह उस का भरणपोषण करने में सक्षम है. वादी के पास प्रतिवादी द्वारा प्रताडि़त करने का कोई प्रमाण भी नहीं है, सो वादी को निर्देश दिया जाता है कि वह पति के साथ रह कर अपना पारिवारिक दायित्य निभाते हुए रिश्तों में सामंजस्य बिठाए. मुझे विश्वास है कि दोनों सुखद दांपत्यजीवन व्यतीत करेंगे. याचिका खारिज की जाती है.’

कोर्ट का आदेश सुन कर स्मिता को गश आ गया था. लगभग 5 वर्षों बाद यह फैसला आया था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब वह किधर जाए. उसे कोर्टज़्के आदेश के ऊपर गुस्सा नहीं आ रहा था. उस का गुस्सा राजीव के ऊपर था. वह अगर सहमति दे देता तो उसे आसानी से तलाक मिल जाता.

पतिपत्नी साथसाथ रिश्तों में तालमेल बिठा कर रहने की कोशिश करेंगे. साथ रहेंगे तो मतभेद अपनेआप दूर हो जाएंगे, लेकिन स्मिता ऐसा नहीं सोचती थी. वह अपने पति के घर नहीं गई तो राजीव उसे मनाने आया था.

‘स्मिता, तुम अपनी जिद में हम दोनों का जीवन बरबाद कर रही हो,’ उस ने कहा था.

‘मेरा जीवन तो तुम बरबाद कर रहे हो. जब मैं तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती तो तुम मुझे तलाक क्यों नहीं दे देते.’

‘पता नहीं तुम कुछ समझने की कोशिश क्यों नहीं करती. शादीब्याह कोई हंसीमजाक नहीं है कि जब चाहा ब्याह कर लिया और जब चाहा तलाक ले लिया. हमारी अदालतें भी इन मामलों को गंभीरता से लेती हैं. वे दांपत्यजीवन को तोड़ने में नहीं, जोड़ने में विश्वास करती हैं. मुझे नहीं लगता, तुम्हें आसानी से तलाक मिल पाएगा.’

‘सबकुछ बहुत आसान है. तुम मुझे छोड़ दो, तो मैं आसानी से दूसरा ब्याह कर सकती हूं.’

‘तुम सुंदर हो, इसलिए तुम्हें लगता है कि तुम आसानी से दूसरा विवाह कर लोगी. हो सकता है, तुम्हें कोई राजकुमार मिल जाए, परंतु इस बात की क्या गारंटी है कि वह तुम्हें सुख से रखेगा,’ राजीव ने ताना मारते हुए कहा था.

‘मैं उसे खुश रखूंगी तो वह मुझे सुख से क्यों नहीं रखेगा?’

‘यही व्यवहार तुम मेरे साथ भी कर सकती हो. तुम अपनी बेवजह की जिद छोड़ दो, तो खुशियां पाने के बहुत सारे रास्ते खुल जाएंगे.’

‘मैं तुम्हारे साथ ऐडजस्ट नहीं कर सकती. तुम्हारे मांबाप मुझे अच्छे नहीं लगते. तुम मुझे छोड़ दो. मैं ने शादी डौटकौम पर अपना प्रोफाइल डाल रखा है, बहुत अच्छेअच्छे प्रपोजल आ रहे हैं.’ उस ने राजीव से इस तरह कहा, जैसे वह अपना अधिकार मांग रही थी. परंतु राजीव ने उस की बात पर ध्यान नहीं दिया. गुस्से से बोला, ‘तुम तो शादी कर लोगी, लेकिन मेरा क्या होगा? मैं दूसरी शादी नहीं कर सकता. पड़ोसी और रिश्तेदार क्या सोचेंगे कि मैं तुम्हारे साथ क्यों नहीं निभा पाया?’

‘किसी गरीब लड़की से शादी कर लो, सुखी रहोगे,’ स्मिता ने मजाक उड़ाते हुए कहा.

राजीव निराश लौट गया था.

अपने ही मांबाप के घर में उसे लगने लगा था कि वह पराई हो गई थी. बड़ा उपेक्षित सा जीवन जी रही थी वह अपने सगों के बीच में. धीरेधीरे उस की समझ में आ रहा था कि एक युवा स्त्री के लिए सही जगह उस की ससुराल ही होती है, मायका नहीं. यह समझने के बावजूद वह राजीव से कोई समझौता करने को तैयार नहीं थी. इंटरनैट पर आने वाले सुंदर प्रस्ताव उसे लुभा रहे थे. कई लड़कों से वह फोन पर बातें भी कर चुकी थी.

कुछ दिनों बाद जब उस के हाथ में कुछ पैसा आया तो उस के मंसूबों को फिर से पंख लग गए.

उस ने फिर वकील से बात की, ‘वकील साहब, आप किसी तरह मुझे मेरे पति से तलाक दिलवा दो.’

‘फिर से अर्जीज़्देनी होगी. इस बार केस में कोई ठोस वजह बतानी पड़ेगी. पहले वाले जज का तबादला हो गया है. अब नए जज आए हैं. कल तुम फीस के पैसे ले कर आ जाओ. परसों अर्जीज़् दाखिल कर देंगे.’

अर्जीज़्फिर से कोर्ट में दाखिल हो गई. कोर्टज़्ने फिर से विचार के लिए 6 महीने का समय दिया. कानून के तहत यह एक निर्धारित प्रक्रिया थी.

स्मिता नहीं जानती थी कि कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी ख्ंिचती है. इस बार भी 3-4 महीने में एक तारीख पड़ती तो उस में सुनवाई न हो पाती. किसी न किसी कारण फिर से अगली तारीख पड़ जाती. अगली तारीख भी 3-4 महीने बाद की होती. पेशियों की तारीखें लंबी पड़ती थीं, लेकिन उम्र के हाशिए छोटे होते जा रहे थे.

एक मन कहता, अहं छोड़ कर वह राजीव के पास चली जाए, लेकिन तत्काल दूसरा मन उस की इस सोच को दबा देता. क्या वह अपनी हार को स्वीकार कर लेगी. लोग क्या कहेंगे, ससुराल पक्ष के लोग ताने मारमार कर उस का जीना हराम नहीं कर देंगे? क्या वह अपने स्वाभिमान को बचा पाएगी? उस के अंदर अहं का नाग फनफना कर अपना सिर उठा लेता और उसे आगे बढ़ने से रोक लेता. जब भी वह लंबे चलने वाले मुकदमे से हताश और निराश होती, तो उस के कदम पीछे हट कर पति से समझौता करने के लिए उकसाते, लेकिन अहं के पहाड़ की सब से ऊंची चोटी पर बैठी स्मिता नीचे उतरने से डर जाती.

एक बार उस ने अपने वकील से मुकदमा वापस लेने की बात की, तो उस ने कहा, ‘अब इतना आगे आ कर पीछे हटने का कोई मतलब नहीं है.’

वह अपनी सुंदर काया को जला कर राख किए दे रही थी. 36 की उम्र में वह 45 साल की लगने लगी थी. उस के सपने टूटटूट कर बिखरने लगे थे, सौंदर्यज़्के रंग फीके पड़ने लगे थे. उस के जीवन की बगिया में न तो भंवरों की गुनगुनाहट थी, न तितलियों के रंग. उस के चारों तरफ सूना आसमान पसर गया था और पैरों के नीचे तपता हुआ रेगिस्तान था, जिस का कोई ओरछोर नहीं था.

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कठपुतली: क्या था अनुष्का का फैसला

तनीषाने बड़ी मुश्किल से टाइट जींस और क्रौप टौप पहना और फिर जल्दीजल्दी मेकअप करने लगी. उधर अनुष्का ने फटाफट अपना असाइनमैंट खत्म करा और हरे रंग का सलवारकुरता पहन लिया. नीचे मम्मी और दादी नाश्ते की टेबल पर बैठी थीं.

मम्मी ने अनुष्का को देख कर भौंहें चढ़ाते हुए कहा, ‘‘यह क्या पहन रखा है? आखिर कब तुम इस बहनजी अवतार से बाहर निकलोगी. तनीषा तुम से बड़ी है, मगर तुम्हारी छोटी बहन लगती है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘मम्मी, मैं इन टाइट और छोटे कपड़ों में बहुत असहज महसूस करती हूं्. मैं बहनजी ही सही, मगर खुश हूं.’’

तभी अनुष्का की दादी बोलीं, ‘‘अरे मेरी बच्ची तो बहुत प्यारी लग रही है बहू… खूबसूरती कपड़ों में नहीं विचारों से झलकती है.’’

मगर अनुष्का की मम्मी अलका बड़बड़ाती रहीं, ‘‘मम्मीजी आजकल स्मार्टनैस का जमाना है. कोई ऐश्वर्य की तरह खूबसूरत भी नही है कि जो भी पहन ले वह अच्छा ही लगे.’’

अनुष्का कोई जवाब दिए बिना दुपट्टे को ठीक करते हुए बाहर निकल गई. उधर तनीषा अपने क्रौप टौप को नीचे की तरफ खींचते हुए बाहर भागी. उसे पता था कि अगर 2 मिनट की भी देरी हुई तो अनुष्का अपनी स्कूटी उड़ा कर चली जाएगी.

तनीषा के बैठते ही स्कूटी हवा से बातें करने लगी. जब अनुष्का स्कूटी मैट्रो स्टेशन पर पार्क कर रही थी तो तनीषा लेडीज वाशरूम की तरफ भागी. अपनी लिपस्टिक ठीक करते हुए तनीषा बोली, ‘‘तुम्हारा पहनावा ठीक है… तुम्हें किसी बात की कोई चिंता नही.’’

‘‘तुम्हें किस ने कहा है ये सब पहनने के लिए?’’ अनुष्का बोली.

तनीषा हंसते हुए बोली, ‘‘अनु मुझे लड़कों का अटैंशन पसंद है. जब लड़के मुझे हसरत भरी नजरों से देखते हैं तो मुझे अच्छा लगता है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘कब तक दी? जैसी हो वैसी ही रहो… कोई पसंद करे तो ऐसे ही.’’

तनीषा अनुष्का की बात को अनसुना करते हुए अपने बौयफ्रैंड साहिल की तरफ चली गई.

कालेज में पहुंचते ही अनुष्का सधे कदमों से लाइब्रेरी की तरफ चली गई. वहां पर पहले से कुछ लड़केलड़कियां बैठे थे. कुछ नजरों में उसे अपने लिए आदरभाव दिखा तो कुछ नजरें उस की खिल्ली उड़ा रही थीं.

अनुष्का को पता था कि कालेज में वह बहनजी के नाम से मशहूर है. लड़के उस के करीब तभी आना चाहते हैं जब उन्हें या तो तनीषा को प्रपोज करना होता या उन्हें अनुष्का से कोई काम होता. मगर अनुष्का को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह जैसी थी और जो थी उस ने अपनेआप को स्वीकार कर लिया था. वह अपनी जिंदगी खूबसूरती की कठपुतली बन कर नहीं गुजारना चाहती थी.

आज इंटर कालेज डिबेट कंपीटिशन था. अनुष्का बेहद अच्छी वक्ता थी. जब

वह बोलती थी तो ऐसा लगता था जैसे बिजली कड़क रही हो. डिबेट इंग्लिश में थी और अनुष्का की सब से आखिर में बारी थी. अनुष्का को स्टेज पर देख कर जो लड़का ऐंकरिंग कर रहा था एक मिनट को रुक गया और फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘यह डिबेट हिंदी में नहीं इंग्लिश में है.’’

‘‘मुझे पता है,’’ अनुष्का बोली.

जब अनुष्का ने आत्मविश्वास के साथ अपनी डिबेट शुरू करी तो पूरा हौल एकदम शांत हो गया था. बहनजी जैसी दिखने वाली लड़की कैसे इतनी अच्छी अंगरेजी बोल सकती है सब यही सोच रहे थे.

जो लड़का ऐंकरिंग कर रहा था उस का नाम उदीक्ष था. न जाने अनुष्का की डिबेट में क्या जादू था कि उदीक्ष अपना दिल हार बैठा. जब अनुष्का स्टेज से उतरी तो उदीक्ष उस के पीछेपीछे आया और फिर उस से हाथ मिलाते हुए बोला, ‘‘अनुष्का आप ने तो कमाल कर दिया. आप के जैसी लड़की मैं ने आज तक नहीं देखी.’’

अनुष्का हंसते हुए बोली, ‘‘हां बहनजी को अच्छी इंग्लिश बोलते देख कर चौंक गए होंगे.’’

उदीक्ष शरमाते हुए बोला, ‘‘नहीं तुम्हारी प्रतिभा देख कर मैं चौंक गया हूं.’’

डिबेट रिजल्ट आ गया था और अनुष्का को प्रथम पुरस्कार मिला था.

उदीक्ष जाते हुए अनुष्का को अपना मोबाइल नंबर दे गया, ‘‘अगर मन करे तो बात कर लेना. मुझे लगता है मेरीतुम्हारी अच्छी जमेगी.’’

तभी तनीषा वहां आ गई. उसे देख कर उदीक्ष बोला, ‘‘अरे क्या अनुष्का तुम्हारी बहन है?’’

तनीषा बोली, ‘‘हां हो गए न तुम भी सरप्राइज?’’

उदीक्ष बोला, ‘‘एक हीरा और दूसरा रंगीन पत्थर.’’

अनुष्का मन ही मन सोचने लगी कि शायद अब उदीक्ष को फोन करने का कोई फायदा नहीं है. सभी लड़के तनीषा को देखते ही अनुष्का को अनदेखा कर देते हैं. मगर अनुष्का को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था.

जब अनुष्का और तनीषा वापस मैट्रो में जा रही थीं तो तनीषा बारबार अपना टौप नीचे कर रही थी.

अनुष्का बोली, ‘‘ऐसा क्यों कर रही हो बारबार? या तो ठीक कपड़े पहना करो या फिर यह खींचतान मत किया करो.’’

तनीषा चिढ़ते हुए बोली, ‘‘ऐसे कपड़े पहनने के लिए एफर्ट लगता है वरना बहनजी की तरह कुरता तो हरकोई पहन सकता है.’’

अनुष्का अपनी बहन की बात सुन कर मुसकरा उठी. जो तनीषा एक स्कूटी तक ड्राइव नहीं कर सकती है वह मौडर्न है और अनुष्का जो कालेज से ले कर घर तक आनेजाने की जिम्मेदारी खुद संभालती है वह बहनजी है क्योंकि वह छोटे कपड़े नहीं पहनती है. मेकअप नहीं करती है, गौसिप उसे पसंद नहीं. उस का कोई बौयफ्रैंड नहीं है. मगर अनुष्का खुश थी क्योंकि वह मानसिक रूप से आजाद है. उस की खुशी किसी लड़के की प्रशंसा की मुहताज नहीं थी.

रात में तनीषा बेचैनी से इधरउधर घूम रही थी. अनुष्का ने पूछा, ‘‘क्या हुआ तनीषा इतनी बेचैन क्यों हो?’’

तनीषा आंखों में पानी भरते हुए बोली, ‘‘यार साहिल मेरा फोन नहीं उठा रहा है.’’

‘‘इस में रोने की क्या बात है?’’ अनुष्का बोली.

‘‘मुझे लगता है अब वह पंखुड़ी के पीछे है… मेरे में क्या कमी है?’’

अनुष्का बोली, ‘‘तुम्हारे अंदर कोई कमी नहीं है… तुम्हारी यह सोच तुम्हारे दुख का कारण है कि तुम्हारी खुशी की बागडोर तुम्हारे बौयफ्रैंड पर निर्भर है.’’

तनीषा बोली, ‘‘मगर अनुष्का मुझे साहिल के बिना बेहद खालीपन लगता है. तुम्हारे जितनी बहादुर नहीं हूं मैं कि भीड़ से अलग दिखूं… बहुत बार मन करता है कि इस तामझम से हट कर तुम्हारी तरह सिंपल जिंदगी व्यतीत करूं.’’

अनुष्का हंसते हुए बोली, ‘‘अरे तो क्या मुश्किल है… दूसरों में नहीं, अपनी खुशी खुद में ढूंढ़ो… अपने हर पल को इस तरह काम से लाद दो कि तुम्हें एक मिनट का भी समय न मिले.’’

रात में जहां तनीषा अपने चेहरे पर निकल आए एक पिंपल को ठीक करने की कोशिश में लगी हुई थी वहीं अनुष्का अपने कालेज के आने वाले इवेंट की तैयारी कर रही थी. तनीषा चाह कर भी अपने को इस जाल से आजाद नहीं कर पा रही थी.

कालेज में पहुंच कर तनीषा बेहद असहज महसूस कर रही थी. बारबार

आईने में खुद को देखती और परेशान हो उठती. तभी तनीषा को सामने से अपना बौयफ्रैंड साहिल आता दिखाई दिया, मगर साहिल ने तनीषा को देख कर भी अनदेखा कर दिया.

तनीषा को लग रहा था कि वह भीड़ में भी अकेली है. वह दुखी ही एक कोने में खड़ी थी कि तभी अनुष्का आई और बोली, ‘‘अरे चलो, मेरे साथ हम लोग नुक्कड़ नाटक की प्रैक्टिस कर रहे हैं.’’

तनीषा ने वहां जा कर देखा कि सब लड़केलड़कियां अपनी ही धुन में व्यस्त हैं. अनुष्का उस ग्रुप की लीडर थी. तनीषा टकटकी लगाए ये सब देख रही थी. पहली बार वह खुद को तुच्छ समझ रही थी.

अनुष्का बिना किसी सौंदर्य प्रसाधन के भी बेहद सलोनी लग रही थी. उस के चेहरे पर आत्मविश्वास का तेज था.

अनुष्का का सौंदर्य ऐसा था जो जितना करीब आता था उतना ही दिल को लुभाता था. अपने गुणों के कारण अनुष्का का सौंदर्य देखने वाले की आंखों को शीतलता प्रदान करता था.

नुक्कड़ नाटक में फिर से अनुष्का का गु्रप प्रथम आया. उदीक्ष फिर से अनुष्का के पास आया और बोला, ‘‘कुछ स्किल्स हम लोगों के लिए भी छोड़ दो. तुम तो फोन करोगी नहीं, मुझे अपना नंबर दे दो.’’

अनुष्का ने उदीक्ष को अपना नंबर दे दिया. धीरेधीरे अनुष्का और उदीक्ष में अच्छी बनने लगी.

तनीषा जब मौका मिलता अनुष्का को छेड़ती, ‘‘अरे अब तो थोड़ी बनठन कर रहा कर… तेरा बौयफ्रैंड इतना हौट है.’’

अनुष्का हंसते हुए बोलती, ‘‘दी अच्छा दिखने में कोई बुराई नहीं है, मगर मेरी पहचान मेरी खूबसूरती से नहीं वरन गुणों से होनी चाहिए.’’

उदीक्ष को अनुष्का का साथ बेहद पसंद था. दोनों बिना किसी वादे के एकदूसरे की जिंदगी का अहम हिस्सा थे.

अनुष्का जहां टीच इंडिया प्रोजैक्ट का हिस्सा बन गई थी वहीं उदीक्ष को एक मीडिया हाउस में अच्छी नौकरी मिल गई थी. अब उदीक्ष अनुष्का को अपने घर ले कर जाना चाहता था, मगर उसे पता था कि उस के परिवार के हिसाब से अनुष्का थोड़ी अलग लगेगी. उदीक्ष की बहन और मम्मी टिपटौप रहना पसंद करती थीं.

उदीक्ष आज अनुष्का के लिए एक छोटा सा वनपीस लाया था. अनुष्का सवालिया निगाहों से उस की तरफ देख कर बोली, ‘‘तुम्हें तो पता है कि मुझे ऐसे कपड़े पसंद नहीं हैं?’’

उदीक्ष चिरौरी करते हुए बोला, ‘‘अरे एक बार मेरी खातिर पहनो तो सही… तुम पर यह ड्रैस बहुत अच्छी लगेगी. और मेरी बात मानो जब हम लोग मेरे घर चलेंगे तो यही पहन लेना. तुम बहुत अच्छी लगोगी.’’

अनुष्का को लेने जब उदीक्ष पहुंचा तो वह बेहद असहज सी नजर आ रही थी. आज अपनी मम्मी के कहने पर अनुष्का ने लाइट मेकअप भी कर लिया था. कुल मिला कर अनुष्का खुद को ही पहचान नहीं पा रही थी.

कार में बैठ कर जब अनुष्का अपनी ड्रैस को खींचने लगी तो उदीक्ष बोला, ‘‘अरे ऐसा

मत करो, खूब हौट लग रही हो.’’

अनुष्का को पूरे रास्ते उदीक्ष अपनी मम्मी और बहन के बारे में बताता रहा. जब अनुष्का उदीक्ष के घर पहुंची तो टिकटिक करती हुई एक लिपीपुती महिला आई और अनुष्का को तोलती हुई निगाहों से देखते बोली, ‘‘तुम हो अनुष्का. उदीक्ष तो तुम्हारी बहुत तारीफ करता है.’’

उदीक्ष की मम्मी की बातों से अनुष्का को ऐसा महसूस हुआ जैसे उदीक्ष की तारीफों से वे सहमत नहीं हैं.

तभी उदीक्ष की छोटी बहन शिप्रा आई और अनुष्का को अपना घर दिखाने लगी. अनुष्का को उदीक्ष का घर बेहद सुंदर मगर एक डैकोरेटिव पीस जैसा लग रहा था. सारी सुखसुविधाएं थीं, मगर कहीं भी प्यार की उष्मा नहीं थी. घर घूमते हुए अनुष्का को ऐसा महसूस हुआ जैसे वह बार्बी डौल का घर घूम रही हो.

शिप्रा पूरे टाइम कपड़ों, मेकअप, पार्टीज और अपने बौयफ्रैंड्स की बातें करती रही.

जब अनुष्का वापस घर आई तो उसे समझ आ चुका था कि उदीक्ष के घर के हिसाब से वह थोड़ी अलग है. मगर उसे यह भी विश्वास था कि उदीक्ष ने उसे जैसी वह है, उसे वैसा ही पसंद किया है. उदीक्ष ने कभी अनुष्का को बदलने का प्रयास नहीं किया.

उदीक्ष और अनुष्का की मंगनी तय हो गई थी. मंगनी में पहनने के लिए अनुष्का को गाउन दिलाया गया था. गाउन का भार अनुष्का के भार से भी अधिक था. अनुष्का ने जब यह बात अपने घर में कही तो अनुष्का की मम्मी बोलीं, ‘‘अरे एक तो तरी सास तेरे लिए इतने प्यार से गाउन लाई है और तुझे ये नखरे सूझ रहे हैं.’’

गाउन का खुला हुआ गला, कपड़ा सबकुछ अनुष्का को असहज कर रहा था, मगर उसे बोलने की अनुमति नहीं थी. अनुष्का को ऐसी मौडर्निटी समझ नहीं आ रही थी जो बस कपड़ों में झलकती थी विचारों में नहीं.

घर की होने वाली बहू को उस की मरजी के कपड़े पहनने की अनुमति नहीं है क्योंकि उस में उस की फूहड़ता और गांवरूपन नजर आता है.

जैसेजैसे मंगनी की तारीख नजदीक आ रही थी उदीक्ष के व्यवहार में भी बदलाव आ रहा था.

उदीक्ष के परिवार को अनुष्का का टीच इंडिया के लिए कार्य करना पसंद नहीं था. अनुष्का की सास के अनुसार, ‘‘आजकल बहनजी ही टीचिंग करती हैं, जो लड़कियां किसी काबिल नहीं होती हैं वे ही मास्टरनी बनती हैं.’’

उदीक्ष ने अनुष्का को यह नौकरी छोड़ने के लिए बोल दिया, ‘‘अरे मेरे मम्मीपापा ने मेरी पसंद स्वीकार कर ली है और वे तुम्हें कोई घर बैठने को थोड़े ही कह रहे हैं. वे तो बस तुम्हें उड़ने के लिए आकाश दे रहे हैं.’’

अनुष्का ने फीकी मुसकान से कहा, ‘‘हां मेरे पंखों को काट कर मुझे उड़ने को बोला जा रहा है.’’

उदीक्ष अनुष्का की यह बात सुन कर

झंझला उठा.

अनुष्का का अपना परिवार भी उस की बातें समझ पाने में असमर्थ था.

मंगनी के रोज उदीक्ष का परिवार समय से पहुंच गया. चारों तरफ हंसीखुशी का माहौल था. उदीक्ष के आधुनिक परिवार को देख कर, उस फंक्शन में उपस्थित सभी लोग अनुष्का की पसंद की सराहना कर रहे थे.

उदीक्ष की नजरें भी अनुष्का को ढूंढ़ रही थीं. तभी अनुष्का बाहर आई. पीच रंग की साड़ी और लाइट मेकअप में वह बेहद सौम्य नजर आ रही थी.

मगर उदीक्ष की छोटी बहन शिप्रा बोली, ‘‘भाभी यह क्या औरतों की तरह तैयार हो कर आई हो? आप ने गाउन क्यों नही पहना?’’

उदीक्ष भी धीमे स्वर में बोला, ‘‘अनुष्का तुम क्यों जिद पकड़ लेती हो. लड़कियां तो आधुनिक कपड़े पहनना चाहती हैं, मगर उन्हें ससुराल में अनुमति नहीं मिलती है और यहां एकदम विपरीत है.’’

अनुष्का की मम्मी बात संभालते हुए बोलीं, ‘‘अरे बेटा तुम परेशान मत हो, मैं अनुष्का को दोबारा तैयार करती हूं…’’

अनुष्का अपनी मम्मी की बात काटते हुए बोली, ‘‘उदीक्ष मैं जैसी हूं वैसी ही रहूंगी… मैं वही कपड़े पहनना पसंद करती हूं जो मुझे कंफर्टेबल लगते हैं.’’

अनुष्का की मम्मी गुस्से में बोलीं, ‘‘कब तक बहनजी बनी रहोगी?’’

अनुष्का की होने वाली सास, ननद सब उसे गुस्से से देख रही थीं.

अनुष्का सयंत स्वर में बोली, ‘‘बात कपड़ों की नहीं मेरी मरजी की है. मैं अगर अपनेआप को ही बदल दूंगी तो फिर मैं ही क्या रह जाऊंगी?’’

उदीक्ष बोला, ‘‘तुम्हें हमारे रिश्ते से अधिक अपनी जिद प्यारी है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘अगर मैं तुम्हें कहूं कि शादी के बाद तुम टैनिस खेलना छोड़ दो, शौर्ट्स पहनना छोड़ दो या फिर अपने परिवार को छोड़ दो तो?’’

उदीक्ष की मम्मी बोलीं, ‘‘उदीक्ष हम तुम्हारी खुशी के लिए तैयार हो गए थे, मगर हमें नहीं लगता यह लड़की तुम से प्यार करती है.’’

अनुष्का बोली, ‘‘आंटी प्यार करती हूं… तभी तो उदीक्ष जैसा है उसे वैसे ही स्वीकार कर रही हूं.’’

उदीक्ष उठते हुए बोला, ‘‘अनुष्का तुम वह नहीं हो जिसे मैं जानता था.’’

पूरे पंडाल में सन्नाटा पसरा हुआ था, मगर अनुष्का को यह मौन बेहद भला लग रहा था. उसे खुद पर फख्र महसूस हो रहा था कि आज उस ने खुद को कठपुतली बनने से बचा लिया.

कठपुतली जिसे सुंदर दिखना होता है, कठपुतली जिसे अपनी देह के उतारचढ़ाव से पति को खींच कर रखना होता है, कठपुतली जिस की खुशी की डोर दूसरों के हाथों में होती है, मगर आज अनुष्का ने उस कठपुतली की डोर को

थोड़ी सी हिम्मत कर के सदा के लिए अपने हाथों में ले लिया.

 

स्वयंसिद्धा: जब स्मिता के पैरों तले खिसकी जमीन

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आंचल की छांव: क्या था कंचन का फैसला

दोपहर के 2 बज रहे थे. रसोई का काम निबटा कर मैं लेटी हुई अपने बेटे राहुल के बारे में सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजा दी. कौन हो सकता है? शायद डाकिया होगा यह सोचते हुए बाहर आई और दरवाजा खोल कर देखा तो सामने एक 22-23 साल की युवती खड़ी थी.

‘‘आंटी, मुझे पहचाना आप ने, मैं कंचन. आप के बगल वाली,’’ वह बोली.

‘‘अरे, कंचन तुम? यहां कैसे और यह क्या हालत बना रखी है तुम ने?’’ एकसाथ ढेरों प्रश्न मेरे मुंह से निकल पड़े. मैं उसे पकड़ कर प्यार से अंदर ले आई.

कंचन बिना किसी प्रश्न का उत्तर दिए एक अबोध बालक की तरह मेरे पीछेपीछे अंदर आ गई.

‘‘बैठो, बेटा,’’ मेरा इशारा पा कर वह यंत्रवत बैठ गई. मैं ने गौर से देखा तो कंचन के नक्श काफी तीखे थे. रंग गोरा था. बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे को और भी आकर्षक बना रही थीं. यौवन की दहलीज पर कदम रख चुकी कंचन का शरीर बस, ये समझिए कि हड्डियों का ढांचा भर था.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, कैसी हो तुम?’’

नजरें झुकाए बेहद धीमी आवाज में कंचन बोली, ‘‘आंटी, मैं ने कितने पत्र आप को लिखे पर आप ने किसी भी पत्र का जवाब नहीं दिया.’’

मैं खामोश एकटक उसे देखते हुए सोचती रही, ‘बेटा, पत्र तो तुम्हारे बराबर आते रहे पर तुम्हारी मां और पापा के डर के कारण जवाब देना उचित नहीं समझा.’

मुझे चुप देख शायद वह मेरा उत्तर समझ गई थी. फिर संकोच भरे शब्दों में बोली, ‘‘आंटी, 2 दिन हो गए, मैं ने कुछ खाया नहीं है. प्लीज, मुझे खाना खिला दो. मैं तंग आ गई हूं अपनी इस जिंदगी से. अब बरदाश्त नहीं होता मां का व्यवहार. रोजरोज की मार और तानों से पीडि़त हो चुकी हूं,’’ यह कह कर कंचन मेरे पैरों पर गिर पड़ी.

मैं ने उसे उठाया और गले से लगाया तो वह फफक पड़ी और मेरा स्पर्श पाते ही उस के धैर्य का बांध टूट गया.

‘‘आंटी, कई बार जी में आया कि आत्महत्या कर लूं. कई बार कहीं भाग जाने को कदम उठे किंतु इस दुनिया की सचाई को जानती हूं. जब मेरे मांबाप ही मुझे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं तो और कौन देगा मुझे अपने आंचल की छांव. बचपन से मां की ममता के लिए तरस रही हूं और आखिर मैं अब उस घर को सदा के लिए छोड़ कर आप के पास आई हूं वह स्पर्श ढूंढ़ने जो एक बच्चे को अपनी मां से मिलता है. प्लीज, आंटी, मना मत करना.’’

उस के मुंह पर हाथ रखते हुए मैं ने कहा, ‘‘ऐसा दोबारा भूल कर भी मत कहना. अब कहीं नहीं जाएगी तू. जब तक मैं हूं, तुझे कुछ भी सोचने की जरूरत नहीं है.’’

उसे मैं ने अपनी छाती से लगा लिया तो एक सुखद एहसास से मेरी आंखें भर आईं. पूरा शरीर रोमांचित हो गया और वह एक बच्ची सी बनी मुझ से चिपकी रही और ऊष्णता पाती रही मेरे बदन से, मेरे स्पर्श से.

मैं रसोई में जब उस के लिए खाना लेने गई तो जी में आ रहा था कि जाने क्याक्या खिला दूं उसे. पूरी थाली को करीने से सजा कर मैं बाहर ले आई तो थाली देख कंचन रो पड़ी. मैं ने उसे चुप कराया और कसम दिलाई कि अब और नहीं रोएगी.

वह धीरेधीरे खाती रही और मैं अतीत में खो गई. बरसों से सहेजी संवेदनाएं प्याज के छिलकों की तरह परत दर परत बाहर निकलने लगीं.

कंचन 2 साल की थी कि काल के क्रूर हाथों ने उस से उस की मां छीन ली. कंचन की मां को लंग्स कैंसर था. बहुत इलाज कराया था कंचन के पापा ने पर वह नहीं बच पाई.

इस सदमे से उबरने में कंचन के पापा को महीनों लग गए. फिर सभी रिश्तेदारों एवं दोस्तों के प्रयासों के बाद उन्होंने दूसरी शादी कर ली. इस शादी के पीछे उन के मन में शायद यह स्वार्थ भी कहीं छिपा था कि कंचन अभी बहुत छोटी है और उस की देखभाल के लिए घर में एक औरत का होना जरूरी है.

शुरुआत के कुछ महीने पलक झपकते बीत गए. इस दौरान सुधा का कंचन के प्रति व्यवहार सामान्य रहा. किंतु ज्यों ही सुधा की कोख में एक नए मेहमान ने दस्तक दी, सौतेली मां का कंचन के प्रति व्यवहार तेजी से असामान्य होने लगा.

सुधा ने जब बेटी को जन्म दिया तो कंचन के पिता को विशेष खुशी नहीं हुई, वह चाह रहे थे कि बेटा हो. पर एक बेटे की उम्मीद में सुधा को 4 बेटियां हो गईं और ज्योंज्यों कंचन की बहनों की संख्या बढ़ती गई त्योंत्यों उस की मुसीबतों का पहाड़ भी बड़ा होता गया.

आएदिन कंचन के शरीर पर उभरे स्याह निशान मां के सौतेलेपन को चीखचीख कर उजागर करते थे. कितनी बेरहम थी सुधा…जब बच्चों के कोमल, नाजुक गालों पर मांबाप के प्यार भरे स्पर्श की जरूरत होती है तब कंचन के मासूम गालों पर उंगलियों के निशान झलकते थे.

सुधा का खुद की पिटाई से जब जी नहीं भरता तो वह उस के पिता से कंचन की शिकायत करती. पहले तो वह इस ओर ध्यान नहीं देते थे पर रोजरोज पत्नी द्वारा कान भरे जाने से तंग आ कर वह भी बड़ी बेरहमी से कंचन को मारते. सच ही तो है, जब मां दूसरी हो तो बाप पहले ही तीसरा हो जाता है.

अब तो उस नन्ही सी जान को मार खाने की आदत सी हो गई थी. मार खाते समय उस के मुंह से उफ तक नहीं निकलती थी. निकलती थीं तो बस, सिसकियां. वह मासूम बच्ची तो खुल कर रो भी नहीं सकती थी क्योंकि वह रोती तो मार और अधिक पड़ती.

खाने को मिलता बहनों का जूठन. कंचन बहनों को जब दूध पीते या फल खाते देखती तो उस का मन ललचा उठता. लेकिन उसे मिलता कभीकभार बहनों द्वारा छोड़ा हुआ दूध और फल. कई बार तो कंचन जब जूठे गिलास धोने को ले जाती तो उसी में थोड़ा सा पानी डाल कर उसे ही पी लेती. गजब का धैर्य और संतोष था उस में.

शुरू में कंचन मेरे घर आ जाया करती थी किंतु अब सुधा ने उसे मेरे यहां आने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. कंचन के साथ इतनी निर्दयता देख दिल कराह उठता था कि आखिर इस मासूम बच्ची का क्या दोष.

उस दिन तो सुधा ने हद ही कर दी, जब कंचन का बिस्तर और सामान बगल में बने गैराज में लगा दिया. मेरी छत से उन का गैराज स्पष्ट दिखाई देता था.

जाड़ों का मौसम था. मैं अपनी छत पर कुरसी डाल कर धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थी. तभी देखा कंचन एक थाली में भाईबहन द्वारा छोड़ा गया खाना ले कर अपने गैराज की तरफ जा रही थी. मेरी नजर उस पर पड़ी तो वह शरम के मारे दौड़ पड़ी. दौड़ने से उस के पैर में पत्थर द्वारा ठोकर लग गई और खाने की थाली गिर पड़ी. आवाज सुन कर सुधा दौड़ीदौड़ी बाहर आई और आव देखा न ताव चटाचट कंचन के भोले चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिए.

‘कुलटा कहीं की, मर क्यों नहीं गई? जब मां मरी थी तो तुझे क्यों नहीं ले गई अपने साथ. छोड़ गई है मेरे खातिर जी का जंजाल. अरे, चलते नहीं बनता क्या? मोटाई चढ़ी है. जहर खा कर मर जा, अब और खाना नहीं है. भूखी मर.’ आवाज के साथसाथ सुधा के हाथ भी तेजी से चल रहे थे.

उस दिन का वह नजारा देख कर तो मैं अवाक् रह गई. काफी सोचविचार के बाद एक दिन मैं ने हिम्मत जुटाई और कंचन को इशारे से बाहर बुला कर पूछा, ‘क्या वह खाना खाएगी?’

पहले तो वह मेरे इशारे को नहीं समझ पाई किंतु शीघ्र ही उस ने इशारे में ही खाने की स्वीकृति दे दी. मैं रसोई में गई और बाकी बचे खाने को पालिथीन में भर एक रस्सी में बांध कर नीचे लटका दिया. कंचन ने बिना किसी औपचारिकता के थैली खोल ली और गैराज में चली गई, वहां बैठ कर खाने लगी.

धीरेधीरे यह एक क्रम सा बन गया कि घर में जो कुछ भी बनता, मैं कंचन के लिए अवश्य रख देती और मौका देख कर उसे दे देती. उसे खिलाने में मुझे एक आत्मसुख सा मिलता था. कुछ ही दिनों में उस से मेरा लगाव बढ़ता गया और एक अजीब बंधन में जकड़ते गए हम दोनों.

मेरे भाई की शादी थी. मैं 10 दिन के लिए मायके चली आई लेकिन कंचन की याद मुझे जबतब परेशान करती. खासकर तब और अधिक उस की याद आती जब मैं खाना खाने बैठती. यद्यपि हमारे बीच कभी कोई बातचीत नहीं होती थी पर इशारों में ही वह सारी बातें कह देती एवं समझ लेती थी.

भाई की शादी से जब वापस घर लौटी तो सीधे छत पर गई. वहां देखा कि ढेर सारे कागज पत्थर में लिपटे हुए पड़े थे. हर कागज पर लिखा था, ‘आंटी आप कहां चली गई हो? कब आओगी? मुझे बहुत तेज भूख लगी है. प्लीज, जल्दी आओ न.’

एक कागज खोला तो उस पर लिखा था, ‘मैं ने कल मां से अच्छा खाना मांगा तो मुझे गरम चिमटे से मारा. मेरा  हाथ जल गया है. अब तो उस में घाव हो गया है.’

मैं कागज के टुकड़ों को उठाउठा कर पढ़ रही थी और आंखों से आंसू बह रहे थे. नीचे झांक कर देखा तो कंचन अपनी कुरसीमेज पर दुबकी सी बैठी पढ़ रही थी. दौड़ कर नीचे गई और मायके से लाई कुछ मिठाइयां और पूरियां ले कर ऊपर आ गई और कंचन को इशारा किया. मुझे देख उस की खुशी का ठिकाना न रहा.

मैं ने खाने का सामान रस्सी से नीचे उतार दिया. कंचन ने झट से डब्बा खोला और बैठ कर खाने लगी, तभी उस की छोटी बहन निधि वहां आ गई और कंचन को मिठाइयां खाते देख जोर से चिल्लाने ही वाली थी कि कंचन ने उस के मुंह पर हाथ रख कर चुप कराया और उस से कहा, ‘तू भी मिठाई खा ले.’

निधि ने मिठाई तो खा ली पर अंदर जा कर अपनी मां को इस बारे में बता दिया. सुधा झट से बाहर आई और कंचन के हाथ से डब्बा छीन कर फेंक दिया. बोली, ‘अरे, भूखी मर रही थी क्या? घर पर खाने को नहीं है जो पड़ोस से भीख मांगती है? चल जा, अंदर बरतन पड़े हैं, उन्हें मांजधो ले. बड़ी आई मिठाई खाने वाली,’ कंचन के साथसाथ सुधा मुझे भी भलाबुरा कहते हुए अंदर चली गई.

इस घटना के बाद कंचन मुझे दिखाई नहीं दी. मैं ने सोचा शायद वह कहीं चली गई है. पर एक दिन जब चने की दाल सुखाने छत पर गई तो एक कागज पत्थर में लिपटा पड़ा था. मुझे समझने में देर नहीं लगी कि यह कंचन ने ही फेंका होगा. दाल को नीचे रख कागज खोल कर पढ़ने लगी. उस में लिखा था :

‘प्यारी आंटी,

होश संभाला है तब से मार खाती आ रही हूं. क्या जिन की मां मर जाती हैं उन का इस दुनिया में कोई नहीं होता? मेरी मां ने मुझे जन्म दे कर क्यों छोड़ दिया इस हाल में? पापा तो मेरे अपने हैं फिर वह भी मुझ से क्यों इतनी नफरत करते हैं, क्या उन के दिल में मेरे प्रति प्यार नहीं है?

खैर, छोडि़ए, शायद मेरा नसीब ही ऐसा है. पापा का ट्रांसफर हो गया है. अब हम लोग यहां से कुछ ही दिनों में चले जाएंगे. फिर किस से कहूंगी अपना दर्द. आप की बहुत याद आएगी. काश, आंटी, आप मेरी मां होतीं, कितना प्यार करतीं मुझ को. तबीयत ठीक नहीं है…अब ज्यादा लिख नहीं पा रही हूं.’

समय धीरेधीरे बीतने लगा. अकसर कंचन के बारे में अपने पति शरद से बातें करती तो वह गंभीर हो जाया करते थे. इसी कारण मैं इस बात को कभी आगे नहीं बढ़ा पाई. कंचन को ले कर मैं काफी ऊहापोह में रहती थी किंतु समय के साथसाथ उस की याद धुंधली पड़ने लगी. अचानक कंचन का एक पत्र आया. फिर तो यदाकदा उस के पत्र आते रहे किंतु एक अज्ञात भय से मैं कभी उसे पत्र नहीं लिख पाई और न ही सहानुभूति दर्शा पाई.

अचानक कटोरी गिरने की आवाज से मैं अतीत की यादों से बाहर निकल आई. देखा, कंचन सामने बैठी है. उस के हाथ कंपकंपा रहे थे. शायद इसी वजह से कटोरी गिरी थी.

मैं ने प्यार से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, बेटा,’’ फिर उसे अंदर वाले कमरे में ले जा कर अपनी साड़ी पहनने को दी. बसंती रंग की साड़ी उस पर खूब फब रही थी. उस के बाल संवारे तो अच्छी लगने लगी. बिस्तर पर लेटेलेटे हम काफी देर तक इधरउधर की बातें करते रहे. इसी बीच कब उसे नींद आ गई पता नहीं चला.

कंचन तो सो गई पर मेरे मन में एक अंतर्द्वंद्व चलता रहा. एक तरफ तो कंचन को अपनाने का पर दूसरी तरफ इस विचार से सिहर उठती कि इस बात को ले कर शरद की प्रतिक्रिया क्या होगी. शायद उन को अच्छा न लगे कंचन का यहां आना. इसी उधेड़बुन में शाम के 7 बज गए.

दरवाजे की घंटी बजी तो जा कर दरवाजा खोला. शरद आफिस से आ चुके थे. पूरे घर में अंधेरा छाया देख पूछ बैठे, ‘‘क्यों, आज तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

कंचन को ले कर मैं इस तरह उलझ गई थी कि घर की बत्तियां जलाना भी भूल गई.

घर की बत्तियां जला कर रोशनी की और रसोई में आ कर शरद के लिए चाय बनाने लगी. विचारों का क्रम लगातार जारी था. बारबार यही सोच रही थी कि कंचन के यहां आने की बात शरद को कैसे बताई जाए. क्या शरद कंचन को स्वीकार कर पाएंगे. सोचसोच कर मेरे हाथपैर ढीले पड़ते जा रहे थे.

शरद मेरी इस मनोदशा को शायद भांप रहे थे. तभी बारबार पूछ रहे थे, ‘‘आज तुम इतनी परेशान क्यों दिख रही हो? इतनी व्यग्र एवं परेशान तो तुम्हें पहले कभी नहीं देखा. क्या बात है, मुझे नहीं बताओगी?’’

मैं शायद इसी पल का इंतजार कर रही थी. उचित मौका देख मैं ने बड़े ही सधे शब्दों में कहा, ‘‘कंचन आई है.’’

मेरा इतना कहना था कि शरद गंभीर हो उठे. घर में एक मौन पसर गया. रात का खाना तीनों ने एकसाथ खाया. कंचन को अलग कमरे में सुला कर मैं अपने कमरे में आ गई. शरद दूसरी तरफ करवट लिए लेटे थे. मैं भी एक ओर लेट गई. दोनों बिस्तर पर दो जिंदा लाशों की तरह लेटे रहे. शरद काफी देर तक करवट बदलते रहे. विचारों की आंधी में नींद दोनों को ही नहीं आ रही थी.

बहुत देर बाद शरद की आवाज ने मेरी विचारशृंखला पर विराम लगाया. बोले, ‘‘देखो, मैं कंचन को उस की मां तो नहीं दे सकता हूं पर सासूमां तो दे ही सकता हूं. मैं कंचन को इस तरह नहीं बल्कि अपने घर में बहू बना कर रखूंगा. तब यह दुनिया और समाज कुछ भी न कह पाएगा, अन्यथा एक पराई लड़की को इस घर में पनाह देंगे तो हमारे सामने अनेक सवाल उठेंगे.’’

शरद ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली थी. कभी सोचा ही नहीं था कि वे इस तरह अपना फैसला सुनाएंगे. मैं चिपक गई शरद के विशाल हृदय से और रो पड़ी. मुझे गर्व महसूस हो रहा था कि मैं कितनी खुशनसीब हूं जो इतने विशाल हृदय वाले इनसान की पत्नी हूं.

जैसा मैं सोच रही थी वैसा ही शरद भी सोच रहे थे कि हमारे इस फैसले को क्या राहुल स्वीकार करेगा?

राहुल समझदार और संस्कारवान तो है पर शादी के बारे में अपना फैसला उस पर थोपना कहीं ज्यादती तो नहीं होगी. आखिर डाक्टर बन गया है, कहीं उस के जीवन में अपना कोई हमसफर तो नहीं? उस की क्या पसंद है? कभी पूछा ही नहीं. एक ओर जहां मन में आशंका के बादल घुमड़ रहे थे वहीं दूसरी ओर दृढ़ विश्वास भी था कि वह कभी हम लोगों की बात टालेगा नहीं.

कई बार मन में विचार आया कि फोन पर बेटे से पूछ लूं पर फिर यह सोच कर कि फोन पर बात करना ठीक नहीं होगा, अत: उस के आने का हम इंतजार करने लगे. इधर जैसेजैसे दिन व्यतीत होते गए कंचन की सेहत सुधरने लगी. रंगत पर निखार आने लगा. सूखी त्वचा स्निग्ध और कांतिमयी हो कर सोने सी दमकने लगी. आंखों में नमी आ गई.

मेरे आंचल की छांव पा कर कंचन में एक नई जान सी आ गई. उसे देख कर लगा जैसे ग्रीष्मऋतु की भीषण गरमी के बाद वर्षा की पहली फुहार पड़ने पर पौधे हरेभरे हो उठते हैं. अब वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ एवं ऊर्जावान दिखाई देने लगी थी. उस ने इस बीच कंप्यूटर और कुकिंग कोर्स भी ज्वाइन कर लिए थे.

और वह दिन भी आ गया जब राहुल दिल्ली से वापस आ गया. बेटे के आने की जितनी खुशी थी उतनी ही खुशी उस का फैसला सुनने की भी थी. 1-2 दिन बीतने के बाद मैं ने अनुभव किया कि वह भी कंचन से प्रभावित है तो अपनी बात उस के सामने रख दी. राहुल सहर्ष तैयार हो गया. मेरी तो मनमांगी मुराद पूरी हो गई. मैं तेजी से दोनों के ब्याह की तैयारी में जुट गई और साथ ही कंचन के पिता को भी इस बात की सूचना भेज दी.

कंचन और राहुल की शादी बड़ी  धूमधाम से संपन्न हो गई. शादी में न तो सुधा आई और न ही कंचन के पिता. कंचन को बहुत इंतजार रहा कि पापा जरूर आएंगे किंतु उन्होंने न आ कर कंचन की रहीसही उम्मीदें भी तोड़ दीं.

अपने नवजीवन में प्रवेश कर कंचन बहुत खुश थी. एक नया घरौंदा जो मिल गया था और उस घरौंदे में मां के आंचल की ठंडी छांव थी.

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