मेहनत रंग लाई: क्या शर्मिंदगी को गर्व में बदल पाया दिवाकर

ठाणे के विधायक दिवाकर की कार में ड्राइवर के अलावा पिछली सीट पर दिवाकर उन की पत्नी मालिनी थीं. पीछे वाली कार में उन के दोनों युवा बच्चे पर्व और सुरभि और दिवाकर का सहायक विकास थे. आज दिवाकर को एक स्कूल का उद्घाटन करने जाना था.

दिवाकर का अपने क्षेत्र में बड़ा नाम था. पर्व और सुरभि अकसर उन के साथ ऐसे उद्घाटनों में जा कर बोर होते थे, इसलिए बहुत कम ही जाते थे. पर कारमेल स्कूल की काफी चर्चा हो रही थी, काफी बड़ा स्कूल बना था, सो आज फिर दोनों बच्चे आ ही गए. वैसे, उद्घाटन तो किसी न किसी जगह का दिवाकर करते ही रहते थे. पर स्कूल का उद्घाटन पहली बार करने गए थे.

विकास ने भाषण तैयार कर लिया था. मीडिया थी ही वहां. मालिनी भी उन के साथ कम ही आती थी, पर आज बच्चे उसे भी जबरदस्ती ले आए थे. वैसे भी स्कूल की प्रबंध कमेटी ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए बारबार आग्रह किया था. विकास का भी यही कहना था ‘सर, ऐसे संपर्क बढ़ेंगे तो पार्टी के लिए ठीक रहेगा. टीचर्स होंगे, अभिभावक होंगे, आप का सपरिवार जाना काफी प्रभाव डालेगा.’

कार से उतरते ही दिवाकर और बाकी सब का स्वागत जोरशोर से हुआ. स्कूल की पिं्रसिपल विभा पारिख, मैनेजर सुदीप राठी और प्रबंधन समिति के अन्य सदस्य सब का स्वागत करते हुए उन्हें गेट पर लगे लाल रिबन तक ले गए. दिवाकर ने उसे काटा तो तालियों की आवाज से एक उत्साहपूर्ण माहौल बन गया. दिवाकर स्टेज पर चले गए. दर्शकों की पंक्ति में सब से आगे रखे गए सोफे पर मालिनी विकास और बच्चों के साथ बैठ गई.

विभा पारिख ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए धन्यवाद देते हुए एक बुके दे कर उन का अभिनंदन किया. फिर उन्होंने अपने स्कूल के बारे में काफीकुछ बताया. अभिभावकगण बड़ी संख्या में थे. स्कूल की बिल्ंिडग वाकई बहुत शानदार थी. कैमरों की लाइट चमकती रही. दिवाकर से भी दो शब्द बोलने का आग्रह किया गया.

दिवाकर माइक पर खड़े हुए. शिक्षा के महत्त्व शिक्षा के विकास, नए बने स्कूल की तारीफ कर के भाषण खत्म कर ही रहे थे कि एक मीडियाकर्मी ने पूछ लिया, ‘‘सर, आप ने शिक्षा के संदर्भ में बहुत अच्छी बातें कहीं, आप प्लीज अपनी शिक्षा के बारे में भी आज बताना पसंद करेंगे?’’

शर्मिंदगी का एक साया दिवाकर के चेहरे पर आ कर लहराया. उन की नजरें मालिनी और अपने बच्चों से मिलीं तो उन की आंखों में भी अपने लिए शर्मिंदगी सी दिखी. नपेतुले, सपाट शब्दों में उन्होंने कहा, ‘‘अपने बारे में फिर कभी बात करूंगा, आज इस नए स्कूल के लिए, इस के सुनहरे भविष्य के लिए मैं शुभकामनाएं देता हूं. बच्चे यहां ज्ञान अर्जित करें, सफलता पाएं.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से सभा समाप्त हुई पर शर्मिंदगी का जो एक कांटा आज दिवाकर के गले में अटका था, लौटते समय कुछ बोल ही नहीं पाए, चुप ही रहे. मालिनी को घर छोड़ा और विकास के साथ अपने औफिस निकल गए. विकास दिवाकर के साथ सालों से काम कर रहा था. दोनों के बीच आत्मीय संबंध थे. दिवाकर के तनाव का पूरा अंदाजा विकास को था. वह सम झ रहा था कि अपनी शिक्षा पर उसे सवाल दिवाकर को शर्मिंदा कर गए हैं. पूरे रास्ते दिवाकर गंभीर विचारों में डूबे रहे, विकास भी चुप ही रहा.

औफिस पहुंचते ही विकास ने उन के लिए जब कौफी मंगवाई इतनी देर में वे पहली बार हलके से मुसकराए. कहा, ‘‘तुम्हें सब पता है, मु झे कब क्या चाहिए,’’ विकास भी हंस दिया, ‘‘चलो सर, आप ने कम से कम कुछ बोला तो. आप इतने परेशान न हों. खोदखोद कर सवाल पूछना मीडिया का काम ही है. और यह पहली बार तो हुआ नहीं है. पर आज आप इतने सीरियस क्यों हो गए? एक ठंडी सांस ली दिवाकर ने. ‘‘बहुत कुछ सोच रहा था, विकास मु झे तुम्हारी हैल्प चाहिए.’’

‘‘हुक्म दीजिए सर.’’‘‘तुम तो जानते हो, बहुत गरीबी में पलाबढ़ा हूं. गांव से काम की तलाश में यहां आया था और अपने ही प्रदेश के यहां के विधायक के लिए काम करता था. उन की मृत्यु के बाद बड़ी मेहनत से यहां पहुंचा हूं. आज लोगों की नजरों में अपने लिए उस समय एक उपहास सा देखा तो बड़ा दुख हुआ. अपने परिवार की नजरों में भी अपने लिए एक शर्मिंदगी सी देखी, तो मन बड़ा आहत हुआ. सच तो यही है कि इतने बड़े स्कूल के उद्घाटन में जा कर स्वयं कम शिक्षित रह कर शिक्षा के महत्त्व और विकास पर बड़ीबड़ी बातें करना खुद को ही एक खोखलेपन से भरता चला जाता है. आज मैं ने सोच लिया है कि मैं किसी दूसरे राज्य से पत्राचार के जरिए आगे पढ़ाई करूंगा. यहां किसी को बताऊंगा ही नहीं, मालिनी और बच्चों तक को नहीं.’’

विकास को जैसे एक करंट लगा, ‘‘सर, यह क्या कह रहे हैं? यह तो बहुत ज्यादा मुश्किल है, असंभव सा है.’’‘‘कुछ भी असंभव नहीं है. मैं आगे पढ़ूंगा, तुम इस में मेरी मदद करोगे और किसी को भी इस बात की खबर नहीं होनी चाहिए.’’

‘‘सर, कैसे होगा? पढ़ाई कहां होगी? बुक्स, कालेज?’’‘‘आज तुम यही सब पता करो. मु झे अगर अपने क्षेत्र में सिर उठा कर लोगों से शिक्षा के महत्त्व पर बात करनी है तो उस से पहले मु झे स्वयं को सुशिक्षित करना होगा. जाओ फौरन काम शुरू कर दो.’’

विकास ‘हां’ में सिर हिलाता हुआ उन के रूम से निकल गया, दिवाकर से मिलने कुछ और लोग आए हुए थे. वे उन के साथ व्यस्त हो गए. वे सब चले गए तो दिवाकर कुछ पेपर्स देख रहे थे. विकास उत्साहपूर्वक अंदर आया. उसे देखते ही बोले, ‘‘क्या पता किया? बैठो.’’

‘‘सर सब हो जाएगा, आप सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी से अपना फौर्म भर दें. इस की परीक्षाओं के कई सैंटर हैं. आप भोपाल चुन लें. वहां औनलाइन परीक्षाएं होती हैं. वहां आप को कोई पहचानेगा भी नहीं. आप अपना कोर्स, अपने विषय बता दें. मैं और भी डिटेल्स देख लूंगा.’’

‘‘वाह, शाबाश, कहते हुए दिवाकर अपनी चेयर से उठे और विकास का कंधा थपथपाते हुए उसे गले लगा लिया, ‘‘आओ, अभी फाइनल कर लेते हैं. ध्यान रखना, तुम्हारे अलावा यह सब किसी को पता नहीं चलना चाहिए.’’

‘‘निश्चित रहिए, सर.’’

विकास को दिवाकर ने हमेशा अपना छोटा भाई ही सम झा था. उस की पत्नी और एक बच्चा ठाणे में ही रहते थे. दिवाकर विकास का हर तरह से खयाल रखते थे तो विकास भी दिवाकर का बहुत निष्ठावान सहायक था. एक विधायक और एक सहायक के साथसाथ दोनों दोस्त, भाई जैसा व्यवहार भी रखते थे. दोनों ने बैठ कर औनलाइन बहुतकुछ देखा, विषय चुने और सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी में पत्राचार से ग्रेजुएशन करने के लिए फौर्म भर दिया गया. सब ठीक रहा, औफिस में ही बुक्स भी आ गईं.

दिवाकर ने नई बुक्स को हाथ में ले कर बच्चे की तरह सहलाया, आंखें भीग गईं, उन्हें कभी पढ़ने का शौक था पर साधन नहीं थे. फिर कुछ नया करने की चाह उन्हें मुंबई ले आई थी. अब उन के सामने एक नई राह थी, शिक्षा की राह, जिस पर उन्होंने अपने कदम उत्साहपूर्वक बढ़ा दिए थे. व्यस्त वे पहले भी रहते थे. सो, मालिनी और बच्चों को उन्हें व्यस्त देखने की आदत थी ही. अब वे औफिस में बैठ कर पढ़ने भी लगे थे. कभी पढ़ते कभी नोट्स बनाते. उन्हें अपने जीवन में आए इस मोड़ पर बड़ा आनंद आ रहा था. जीवन एक नई उमंग, उत्साह से भर उठा था. विकास उन के इस मिशन में हर पल उन के साथ था. उन की सेहत का, उन के खानेपीने का पूरा खयाल रखता था.

परीक्षाओं का समय आया तो वह दिवाकर के साथ भोपाल भी गया. परीक्षाकाल में दोनों होटल में ही रहे. अब परीक्षाफल के इंतजार में दिवाकर बेचैन होते तो विकास हंस पड़ता. अपने क्षेत्र की समस्याओं के साथ जब दिवाकर अपनी पढ़ाई भी विकास के साथ डिस्कस करने लगे, तो विकास मुसकराता हुआ उन का उत्साह देखता रहता. दिवाकर का जब रिजल्ट आया तो वे उस समय घर में ही थे. विकास रिजल्ट देखने के बाद उन के घर पहुंच गया. मिठाई का डब्बा मालिनी को देते हुए बोला, ‘‘मैडम, मुंह मीठा कीजिए.’’

दिवाकर भी वहीं बैठे थे, बोले, ‘‘क्या हुआ भई?’’

‘‘एक दोस्त का रिजल्ट निकला है सर, वह पास हो गया,’’ कहतेकहते विकास ने उन की तरफ जिस तरह से देखा, दिवाकर उत्साहपूर्वक खड़े हो गए. विकास को  झटके से गले लगा लिया. मालिनी हैरान हुई, ‘‘अरे, विकास, यह कौन सा दोस्त है तुम्हारा?’’

‘‘है एक पढ़ रहा है आजकल मैडम, बहुत मेहनती है.’’

‘‘बढि़या, इस उम्र में? क्या पढ़ रहा है?’’

‘‘ग्रेजुएशन किया है, और शिक्षा प्राप्त करने की तो कोई उम्र नहीं होती है न.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है.’’

दिवाकर ने कहा, ‘‘तुम रुको, मैं तैयार होता हूं मु झे भी जाना है कुछ जरूरी काम है. घर से निकलते ही दिवाकर ने कहा, ‘‘थैक्यू विकास.’’

‘‘आप को बधाई हो सर, आप की मेहनत, लगन रंग लाई है.’’

‘‘चलो, अब, एमए भी करूंगा.’’

‘‘क्या?’’ विकास चौंका.

‘‘हां, चलो, औफिस, पौलिटिकल साइंस में अब एमए करूंगा. देखो, क्या, कैसे करना है सब.’’

विकास उन का मुंह देखता रह गया. फिर एमए का फौर्म भी भर दिया गया और फिर अपनी बाकी व्यस्तताओं के साथसाथ रातदिन से अपनी पढ़ाई का थोड़ाथोड़ा समय निकाल कर एमए की परीक्षाएं भी दे दीं. इस बार पढ़ाई ज्यादा की गई थी क्योंकि दिवाकर को और पढ़ना था, शिक्षा प्राप्त करने का नशा गहराता जो जा रहा था. आगे एमफिल करने के लिए एमए में 55 प्रतिशत अंक प्राप्त करने जरूरी थे. कहीं समय की कमी से पढ़ाई प्रभावित न हो, इस के लिए दिवाकर ने अपने आराम, नींद के घंटे कम कर दिए थे. पार्टी के कामों के बाद बेकार की गप्पों, निरर्थक बातों में बीतने वाला समय वहां से जल्दी उठ कर औफिस में बैठ कर खुद को किताबों में डुबो कर बिताया था. खूब नोट्स बना बना कर पढ़ाई की गई थी.

एमए में 60 प्रतिशत अंक पा कर दिवाकर की खुशी का ठिकाना न रहा. विकास को ले कर ‘कोर्टयार्ड’ गए. एक कोने में चल रहे गजलों के लाइव प्रोग्राम का आनंद लेते हुए विकास को शानदार दावत दी. उन के चेहरे की खुशी देखने लायक थी. विकास ने कहा, ‘‘सर, अब बस न? और तो नहीं पढ़ना है न?’’

दिवाकर हंस पड़े कहा, ‘‘एमफिल.’’

विकास कुछ न बोला, सिर्फ मुसकरा दिया. थोड़ी देर बाद कहा, ‘‘लगता है आप सुरभि और पर्व से भी ज्यादा शिक्षा हासिल कर लेंगे.’’

‘‘उन्हें तो मु झे बहुत पढ़ाना है ताकि उन्हें किसी भी उम्र में जा कर कम पढ़ने का अफसोस कभी न हो. अब तुम एमफिल के डिटेल्स देख लो.’’

‘‘ठीक है, सर.’’

दिवाकर के जीवन का एक सार्थक उद्देश्य था अब, मन ही मन उस पल का शुक्रिया अदा करते जब कारमेल के उद्घाटन के लिए गए थे और अपनी कम शिक्षा पर शर्मिंदगी हुई थी. अब किताबों के साहित्य में जीवन जैसे एक नई दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था. दिवाकर की छवि एक मेहनती और सहृदय नेता की थी. अब जब वे सुशिक्षित होते जा रहे थे कई बातें और स्पष्ट होती जा रही थीं. अपना समय शिक्षा के प्रचारप्रसार में लगाने लगे थे.

विकास ने आ कर उन्हें आगे की जानकारी देते हुए कहा, ‘‘सर, आप इग्नू से एमफिल के लिए फौर्म भर दें. पर इस में ऐडमिशन के लिए लिखित परीक्षा होगी. फिर इंटरव्यू होगा. तब एडमिशन होगा. काफी तैयारी करनी पड़ेगी. सर, पत्राचार से 18 महीने का कोर्स है.’’

पलभर सोचते रहे दिवाकर, फिर बोले, ‘‘हां, काफी समय निकालना पड़ेगा, लिखित परीक्षा, इंटरव्यू. हां, ठीक है. भर दो मेरा फौर्म.’’

विकास उन्हें गर्वभरी नजरों से देखता रहा. फिर दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. दिवाकर देर रात तक औफिस में बैठ कर पढ़ते. बहुत व्यस्त पहले भी रहते थे. अब बहुत रात होने लगी तो मालिनी ने टोका भी, ‘‘आजकल कुछ ज्यादा ही देर से आ रहे हो? पहले तो इतनी रात कभी नहीं हुई,’’ बच्चों ने भी संडे को कहा, ‘‘पापा पहले तो संडे को आराम करते थे, अब संडे को भी औफिस?’’

सब को देख कर मुसकराते हुए दिवाकर ने जवाब दिया, ‘‘एक प्रोजैक्ट पर काम कर रहा हूं.’’

‘‘कितना टाइम लगेगा?’’

‘‘लगभग 2 साल, शायद बीचबीच में दिल्ली भी जाना पड़े.’’

सब ने पार्टी का काम सम झ कर ही संतोष कर लिया. दिवाकर को कोई बुरी आदत तो थी नहीं, हमेशा घरगृहस्थी के प्रति भी जिम्मेदार रहे थे. सब ने इसे राजनीतिक व्यस्तता सम झ कर यह विषय यहीं रोक दिया.

दिवाकर ने लिखित परीक्षा भी पास कर ली, दिल्ली जा कर इंटरव्यू भी दे आए. विकास हर कदम पर उन के साथ था. उन का चयन हो गया. दिवाकर एमफिल की पढ़ाई में जुट गए. जहां कभी कुछ अटकते, विकास गूगल पर खोजबीन कर उन की मदद करता. इग्नू में कुछ संपर्क निकाल कर विकास कुछ प्रोफैसर्स के फोन नंबर भी ले आया था. उन्होंने यथासंभव दिवाकर की मदद करने का आश्वासन भी दिया था और वे मदद कर भी रहे थे. और एमफिल भी हो गया. अपनी डिग्री हाथ में लेने पर दिवाकर की आंखों से आंसू बह निकले. विकास की आंखें भी भीग गईं. गर्व हुआ इतने मेहनती नेता का सहयोगी है वह. ठाणे लौटते हुए घर जाने से पहले उन्होंने सब के लिए उपहार लिए. एक बड़ी धनराशि लिफाफे में रख कर विकास को देते हुए कहा, ‘‘जो तुम ने मेरे लिए किया, उस का मूल्य हो ही नहीं सकता. वह अनमोल है. यह सिर्फ तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिए मेरा खुशी का उपहार है.’’

विकास हंसता हुआ बोला, ‘‘सर, आप ने कई सालों से किसी स्कूल का उद्घाटन नहीं किया, मना कर दिया. 2 दिनों बाद ही एक नए स्कूल के उद्घाटन के लिए बारबार आग्रह किया जा रहा है, चलें? मजा आएगा इस बार.’’

‘‘देखते हैं.’’

‘‘सौरी सर, मैं ने आप की तरफ से हां कर दी है, आप की सफलता के लिए मैं सुनिश्चित था. अब की बार मीडिया को जो पूछना हो, पूछ ले, मजा आएगा.’’

खुल कर हंस पड़े दिवाकर, ‘‘अच्छा ठीक है.’’

घर आ कर सब को उपहार दिए, उन्हें बातबात पर मुसकराता, हंसता, चहकता देख मालिनी और बच्चे हैरान थे. दिवाकर ने कहा, ‘‘प्रोजैक्ट पूरा हो गया.’’

‘‘अब तो बता दो, कौन सा प्रोजैक्ट?’’

‘नीलकंठ हाइट्स’ में बने अपने बंगले के गार्डन में बने  झूले पर बैठते हुए दिवाकर बोले, ‘‘2 दिनों बाद एक स्कूल का उद्घाटन करूंगा, वहीं बताऊंगा. तीनों साथ चलना,’’ मालिनी और बच्चों ने एकदूसरे पर नजर डाली, जाने की बात पर संकोच हुआ, मालिनी ने कह ही दिया, ‘‘तुम ही चले जाना हम क्या करेंगे.’’

‘‘हां, पापा, हमें भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘इस बार अच्छा लगेगा, इस की गारंटी देता हूं,’’ तय समय पर सब नए स्कूल की बिल्ंिडग की तरफ चल दिए. वही तरीके, वही स्वागत, वही मीडिया, जब उन्हें 2 शब्द कहने के लिए मंच पर बुलाया गया, इस बार कदमों का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. पूरे व्यक्तित्व में कुछ खास नजर आ रहा था. स्कूल, शिक्षा का महत्त्व बता कर बात खत्म की.

आज फिर उन की शिक्षा के बारे में भी पूछ लिया गया तो जवाब देने से पहले वे मुसकराए. विकास से नजरें मिलीं तो वह हंस दिया. फिर उन्होंने मालिनी और बच्चों पर नजर डालते हुए कहा, ‘‘मैं ने एमफिल किया है,’’ मालिनी और बच्चों के चेहरे का रंग उड़ गया, स्टेज पर खड़े हो कर दिवाकर इतना बड़ा  झूठ बोल रहे हैं. यह मीडिया उन की क्या गत बनाएगा, कितना अपमान होगा.

दिवाकर कह रहे थे, ‘‘कुछ साल पहले मु झे शिक्षा का महत्त्व सम झ आया. मैं ने पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया. शिक्षा प्राप्त करने में जो आनंद मिला, वह सब सुखों से बढ़ कर लगने लगा. पहले बीए, फिर राजनीति विज्ञान में एमए और 2 दिन पहले ही दिल्ली के इग्नू से एमफिल की डिग्री ले कर लौटा हूं. पढ़ाई हो गई. अब अपने क्षेत्र, देश के विकास, कल्याण पर ध्यान देना है. बच्चे को समुचित शिक्षा मिले, इस पर काम करना है.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल का प्रांगण गूंज उठा था. उन की नजरें मालिनी और बच्चों की नजरों से मिलीं, तीनों के आंसू बहे चले जा रहे थे. गर्वमिश्रित खुशी के आंसू. विकास तो तालियां बजाते हुए खड़ा ही हो गया था. कई लोग वाहवाह कर उठे थे. समाज को आज ऐसे ही मेहनती नेता की तो तलाश थी. दिवाकर के दिल को मालिनी, बच्चों और वहां उपस्थित लोगों के दिलों में अपने लिए जो भाव दिखे, उन्हें महसूस कर असीम शांति मिली थी. सालों की मेहनत रंग लाई थी. आज किसी की नजरों में अपने लिए अपमान, शर्मिंदगी का नामोनिशान नहीं था. अब वे शिक्षा, किताबों और ज्ञान की दुनिया की सैर से जो लौटे थे, तनमन पुलकित हो उठा था.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 1: क्या वापस लौटी खुशियां

दिल्ली की ऐसी पौश आवासीय सोसाइटी जहां लोग एकदूसरे से ज्यादा मतलब नहीं रखते. पड़ोसियों का कभी एकदूसरे से सामना हो जाता है तो आधुनिकता का लबादा ओढ़े लेडीज, ‘हाय, हाऊ आर यू’ कहती हुई आगे निकल जाती हैं. जैंट्स को तो वैसे भी आसपड़ोस से ज्यादा कुछ लेनादेना नहीं होता. सुबह घर से काम के लिए निकलते हैं तो शाम तक, यदि बिजनैसमैन हुए तो रात तक, घर लौटते हैं. घर की जिम्मेदारी उन की पत्नियां उठाती हैं. मतलब, घर उन्हीं की देखरेख में चल रहा होता है.

10 साल बीत चुके थे स्मिता को शादी कर दिल्ली की इस हाई सोसाइटी में रहते हुए. आज सुबह से सोसाइटी में सुगबुगाहट थी. सोसाइटी के व्हाट्सऐप ग्रुप में स्मिता के पति सुमित की मौत की खबर सब को मिल चुकी थी. ज्यादातर लोग सुमित और स्मिता को जानते थे.
वक्त की किताब के पन्ने उलटें, तो अभी की बात लगती है.

स्मार्ट, पढ़ीलिखी, सुंदर स्मिता चंड़ीगढ़ में पैदा हुई. वहीं उस ने अपनी पढ़ाई पूरी की. फैशन के मामले में चंड़ीगढ़ की लड़कियां दिल्ली की लड़कियों से पीछे नहीं हैं. छोटे शहरों में लड़कियां खूब स्कूटी चलाती हैं क्योंकि वहां दिल्ली की तरह यातायात के साधन खास नहीं होते. एक तरह से वे पूरी तरह सैल्फ इंडिपैंडैंट होती हैं, इतनी तो दिल्ली की लड़कियां भी तेज नहीं होतीं. मतलब इस सब का यही है कि स्मिता आत्मविश्वास से भरी, लोगों से मेलमिलाप रखने वाली, खुशमिजाज लड़की थी जब उस की शादी सुमित से हुई थी.

सुमित तो जैसे दीवाना ही हो गया था स्मिता को देख कर जब पहली बार उन की मुलाकात हुई थी. हुआ यों था कि सुमित के दोस्तों के ग्रुप में उदय की शादी सब से पहले तय हुई थी. सब के लिए बरात में जाने, डांस करने, मस्ती मारने का अच्छा मौका था. और बरात जा रही थी चंड़ीगढ़.

एकदूसरे से सुमित और स्मिता वहीं मिले थे. शीना स्मिता की बैस्ट फ्रैंड थी. शीना ने स्मिता से पहले ही बोल दिया था कि शादी के एक हफ्ते पहले ही वह अपना ताम झाम ले कर उस के घर आ जाएगी और शादी होने के बाद ही घर वापस जाएगी. स्मिता भी कम उत्साहित नहीं थी शीना के विवाह को ले कर. स्मिता शीना का पूरा हाथ बंटा रही थी शादी की खरीदारी करने में. शीना की बात मानते हुए वह एक हफ्ते पहले ही शीना के घर रहने आ गई थी. दोनों सहेलियां रात में शादी के बाद हनीमून और उदय को ले कर खूब मस्ती, छेड़छाड़भरी बातें करतीं.

वह दिन भी आ गया जब बरात द्वार पर खड़ी थी. स्मिता कई सहेलियों के साथ द्वार पर दूल्हे से रिबन कटवाने के लिए खड़ी थी.

‘जीजाजी, इतनी भी क्या जल्दी है, फटाफट से 10 हजार रुपए का नेग दीजिए, रिबन काटिए, और फिर अंदर आइए. और हां, शीना से मिलने की इतनी जल्दी है तो नेग डबल कर दीजिए. हम हैं न, शौर्टकट से सब मामला सैट कर देंगे.’
‘उस की कोई जरूरत नहीं, वो देखिए, सामने से अंकलआंटी और सब आ रहे हैं. खुद ही हमें प्यार से अंदर ले जाएंगे,’ उस तरफ से सुमित बोला.
और वाकई अंकलआंटी ने आते ही कहा, ‘अरे बेटा, क्यों रोक रखा है दूल्हेराजा को?’
‘अंकलजी, बिना नेग लिए ये अंदर कैसे आ सकते हैं?’ स्मिता इठलाते हुए बोली.
‘बेटा, नेग क्या कहीं भागा जा रहा है. पहले ही बहुत देर हो गई. सब को आने दो. चलो, सब साइड हो जाओ. तुम्हारी आंटी को दूल्हे का तिलक करना है.’
दूल्हा और उस के दोस्त बड़ी शान से अंदर आए और सुमित ने साइड में खड़ी स्मिता को आंख मार दी. इस से स्मिता और भी  झल्ला गई.
इस के बाद तो पूरी शादी और विदाई होने तक स्मिता और सुमित की नोक झोंक चलती रही. बरात दुलहन को ले कर वापस दिल्ली लौट रही थी, तो सारे दोस्त सुमित को छेड़ रहे थे, ‘भई, लगता है जल्दी ही दोबारा चंड़ीगढ़ बराती बन कर आना पड़ेगा.’

वाकई सुमित अपना दिल चंड़ीगढ़ में स्मिता के पास ही छोड़ आया था. मम्मी के पीछे पड़ कर उस ने स्मिता से शादी के लिए इतना जोर दिया कि एक महीने बाद स्मिता दुलहन बन कर सुमित के घर आ गई थी.
‘चट मंगनी पट ब्याह, मैं तो इसी में विश्वास रखता हूं,’ हनीमून पर सुमित स्मिता से अकसर यह बात कह उसे अपने प्यार की दीवानगी दिखाता रहा था.
खुशी के दिन पंख लगा कर उड़ जाते हैं और बुरे दिन कुछ ही दिनों के लिए आते हैं लेकिन लगता है हम मानो वर्षों से उसी में जी रहे हैं.
स्मिता 2 बच्चों की मां बन चुकी थी. जिंदगी का हर लमहा खुशगवार गुजर रहा था. कोई चिंता नहीं थी उसे. सुमित का अच्छाखासा बिजनैस था. पैसे की कमी का सवाल ही नहीं था.

सोमा काकी बरसों से उन के घर पर काम कर रही थीं. एक तरह से वे घर में खानेपीने की व्यवस्था, रखरखाव, घर में आनेजाने वालों पर अपनी पूरी नजर रखती थीं. इसलिए, स्मिता घर की तरफ से बेफिक्र थी और घर के ड्राइवर शामू काका ने तो अपनी पूरी जवानी ही इस घर में गुजार दी थी. सुमित के पापा के समय के ड्राइवर थे शामू काका. पापा के गुजर जाने के बाद भी पूरी निष्ठा से इस घर की सेवा की. मम्मी को शामू पर पूरा भरोसा था. रातबेरात कहीं आनाजाना हो तो शामू के साथ कार में जाने में उन्हें पूरी तरह सुरक्षित महसूस होता था. सुमित ने बचपन से शामू काका को देखा था. स्कूल से लाना ले जाना, ट्यूशन से घर ले जाना, घर का सारा राशनपानी लाना, यहां तक कि फैक्ट्री के सामान को पूरी तरह से सुरक्षित रूप से क्लाइंट तक पहुंचाने का काम भी शामू काका बहुत निपुणता से करते.

स्मिता बहुत खुश थी अपनी जिंदगी से. शायद अपनी खुशियों पर उस की खुद की नजर लग गई थी. सुबह के 8 बज गए थे, लेकिन मम्मीजी के कमरे का दरवाजा अभी तक बंद था. ऐसा तो कभी नहीं होता. बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के जब वह ऊपर अपने बैडरूम से नीचे आती थी तो मम्मीजी अकसर गार्डन में चेयर पर बैठी अखबार पढ़ती दिखतीं या फिर गार्डन में चहलकदमी करती बच्चों को बायबाय कर उन्हें प्यार से निहारती थीं. लेकिन आज क्या हुआ. बच्चों को शामू काका के साथ कार में बैठा कर स्मिता ने अंदर मम्मी के कमरे का दरवाजा धकेला तो वह खुल गया. सामने बैड पर मम्मी औंधेमुंह लेटी थीं और हाथ नीचे लटका हुआ था. यह देख कर स्मिता की घुटी चीख निकल गई.
‘सुमित….सुमित…,’ चिल्लाने लगी, ‘सुमित, देखो मम्मीजी को क्या हो गया.’
रात में मम्मीजी को दिल का दौरा पड़ा था. उठने की कोशिश की होगी शायद लेकिन औंधेमुंह पलंग पर गिर गईं.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 2: क्या वापस लौटी खुशियां

मम्मीजी की जीवनडोर टूट चुकी थी. उन का इस तरह अचानक से चले जाना स्मिता और सुमित के लिए  झटके से कम नहीं था. सुमित तो जैसे पूरी तरह से टूट गया था. मां से बहुत ज्यादा लगाव था. वैसे भी, जब वह 10वीं में गया ही था, पापा की ब्रेन हैमरेज से मौत हो गई थी. मम्मीजी ने अकेले उसे पालापोसा था, फैक्ट्री का काम संभाला था और इतने बड़े घर को संजो कर रखा था.

एक तरह से आज वह जो भी था, मम्मी के हाथों गड़ा मजबूत व्यक्तित्व था. उन के जाने से वह भीतर से टूट गया था.

फैक्ट्री का काम तो उस ने बीबीए की पढ़ाई के बाद ही संभाल लिया था लेकिन मम्मी के होते बिजनैस की ओर से वह ब्रेफिक्र था क्योंकि इंपौर्टेंट डिसीजन तो वही लेती थीं.

खैर, वक्त के साथसाथ सब सामान्य हो जाएगा, यह सोच कर स्मिता सुमित को हर तरह से खुश रखने की कोशिश करती. सुमित एक शाम फैक्ट्री से आया तो हलका बुखार महसूस कर रहा था.

स्मिता घबरा सी गई. पिछले महीने से पूरे देश में मंडराती कोरोना वायरस की महामारी ने सभी को दहशत में डाल दिया था.

सरकार द्वारा लोगों को पूरी एहतियात बरतने की सलाह दी जा रही थी. टीवी चैनलों में यही न्यूज छाई हुई थी. मानव से मानव में होने वाली इस बीमारी की चपेट में पूरा विश्व आ गया था.

बच्चों के स्कूल तो बंद हो गए थे. स्मिता ने सुमित को फैक्ट्री जाने से मना किया था. लेकिन सुमित का कहना था कि हो सकता है देशभर में लौकडाउन की स्थिति बन जाए, इसलिए वह फैक्ट्री का काम काफी हद तक समेटना चाहता है ताकि आगे दिक्कत न हो, लेकिन इंसान अपनेआप को कितना ही बचा ले, प्रकृति के आगे उस की एक नहीं चलती.

दिल्ली में जैसे ही लौकडाउन का ऐलान हुआ, उस से एक दिन पहले सुमित कोरोना वायरस की चपेट में आ चुका था.

स्मिता ने बच्चों को ऊपर के फ्लोर में ही रहने की हिदायत दे दी थी. सोमा काकी थीं, तो स्मिता को बच्चों की फिक्र करने की जरूरत नहीं थी. सुमित की बिगड़ती हालत देखते हुए उसे अस्पताल में भरती करा दिया गया.

अस्पताल जाने से पहले सुमित बोला था, ‘सुमि, लगता है अब तुम्हें, बच्चों को, इस घर को दोबारा नहीं देख पाऊंगा. सुमि, मैं तुम से, बच्चों से, इस घर से बहुत प्यार करता हूं. मु झे मरना नहीं है, प्लीज, मु झे बचा लो. मैं तुम सब को छोड़ कर जाना नहीं चाहता. सुमि, मु झे लग रहा है मौत मु झे बुला रही है. नहीं सुमि, नहीं, मु झे नहीं छोड़ना तुम्हारा साथ.’

स्मिता का रोरो कर बुरा हाल था. सुमित की यह हालत उस से भी नहीं देखी जा रही थी. लेकिन करती भी क्या वह, उस के हाथ में हो तो अपनी जिंदगी उस के नाम लिख देती.

अस्पताल में एक बार मरीज को भरती कराने के बाद उस से मिलना मुश्किल था. सुमित के साथ वहां अस्पताल में क्या हो रहा है, कुछ दिनों तक तो पता ही नहीं चला. टीवी पर अस्पताल के बुरे हालात, मरीज के साथ बरती जाने वाली लापरवाही और मरीजों की मौत के बाद उन के शरीर के साथ अमानवीयता देख स्मिता सिहर उठती थी. फोन की हर घंटी किसी आशंका का संकेत देती थी और वाकई उस की आशंका सच में बदल गई. सुमित नहीं बच पाया था.
यह सुनते ही स्मिता जैसे पत्थर हो गई थी. सोमा काकी न होतीं तो शायद आज वह भी जिंदा न होती.

मम्मीजी की मौत को 2 महीने भी नहीं हुए थे, और सुमित का उसे यों अचानक छोड़ कर चले जाना. ऊपर से लौकडाउन की वजह से कोई घर नहीं आ सकता था. कोई पास आ कर उसे गले नहीं लगा सकता था. कोई पास नहीं था कि वह उस के कंधे पर सिर रख कर रो सके. बस, एक सोमा चाची थीं जिन की गोद में वह सिर रख सकती थी. वे ममता की मूरत बन स्मिता को संभाले हुए थीं. बच्चे तो कुछ सम झ नहीं पा रहे थे कि सब क्या हो रहा है. 8 साल का अवि कुछकुछ सम झ रहा था लेकिन 2 साल की परी तो अभी नादान थी.
अस्पताल से सुमित के पार्थिव शरीर को ले कर अंतिम संस्कार करना था. शामू काका स्मिता के साथ थे, वरना अभी तक तो स्मिता की हिम्मत टूट चुकी थी. कोई अपना सगासंबंधी नहीं था. लौकडाउन की हालत में चंड़ीगढ़ से किसी का आना मुश्किल था. अड़ोसीपड़ोसी फोन पर ही अफसोस जता रहे थे. सुमित का दोस्त उदय जरूर काफी मदद कर रहा था. सुमित उस का बचपन का दोस्त था, वह स्मिता को क्या दिलासा देता, उस के भी आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.
स्मिता असहाय महसूस कर रही थी अपने को. सामान्य दाहसंस्कार तो दूर की बात थी, स्मिता सुमित के शरीर को छू भी नहीं सकती थी, वह सुमित जिस के बिना वह जीने की कल्पना नहीं कर सकती थी. कितनी बेबस थी वह, चीखचीख कर रोना चाहती थी, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था.
किसी तरह शवदाहगृह में क्रियाकर्म हुआ. अचानक सब क्या हो गया था. स्मिता की तो दुनिया ही बदल गई थी.
3 महीने गुजर गए थे सुमित को गुजरे हुए लेकिन स्मिता सदमे से उबरी नहीं थी. अवि और परी उस के पास आते और कहते, ‘मम्मी, खेलो न हमारे साथ,’ तो स्मिता खोईखोई आंखों से, बस, उन्हें देख कर सिर पर हाथ फेर फिर न जाने कहां खो जाती.
कोशिश कर रही वह खुद को संभालने की, लेकिन हो नहीं पा रहा था. ऐसे में सोमा काकी ही एक मां की तरह उसे संभाल रही थीं. गांव से तो उन का नाता कब का टूट गया था. पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने उन्हें एक तरह से घर से निकाल दिया था. आस न आलौद. शहर आईं तो इस घर में उन्हें ऐसा आसरा मिला, कि यहीं की हो कर रह गईं.

रोज चंड़ीगढ़ से मम्मीपापा का फोन आता था. मम्मी रोतीं उसे तसल्ली देतीं. मम्मी के पैरों में दर्द रहता था और पापा की हार्टसर्जरी हो चुकी थी, इसलिए स्मिता ने उन्हें सख्त मना कर दिया कि कोई जरूरत नहीं दिल्ली आने की. अपनी सेहत का खयाल रखो. आ कर भी अब क्या हो जाएगा, सुमित वापस तो नहीं आ जाएगा.

स्मिता ने अब कभीकभी फैक्ट्री जाना शुरू कर दिया था. अनलौक की प्रक्रिया काफी हद तक शुरू हो गई थी. उन का टेप का बिजनैस था. छोटी से ले कर बड़ी हर तरह की टेप बनती थी उन की फैक्ट्री में. कोरोनाकाल में पीपीई किट के लिए टेप का इस्तेमाल होता है. फैक्टी का मैनेजर विशाल बिजनैस माइंडेड इंसान था.

टेप तो फैक्ट्री में बन ही रही है क्यों न पीपीई किट खुद ही अपनी फैक्ट्री में बनाई जाए. बस, काम चल पड़ा था. विशाल ने स्मिता को सजेशन दिया कि मार्केटिंग के लिए कोई नया व्यक्ति चुन लिया जाए, क्योंकि यह काम पहले सुमित देखता था.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 3: क्या वापस लौटी खुशियां

स्मिता ने यह काम विशाल को सौंप दिया और सबकुछ देखभाल कर रजत को मार्केटिंग हैड नियुक्त किया गया. रजत ने काफी अच्छी तरह से काम संभाल लिया था. स्मिता कभीकभी फैक्ट्री जाती थी पैसों का हिसाबकिताब देखने. स्मिता ने कौमर्स पढ़ा था इसलिए अकाउंट्स वह देख लेती थी.
स्मिता नोट कर रही थी कि जब भी वह फैक्ट्री जाती रजत किसी न किसी बहाने से उस के नजदीक आने की कोशिश करता. वैसे रजत बुरा इंसान नहीं था लेकिन इस का ऐसा बरताव स्मिता को कुछ अटपटा लगता.

रात के 8 बज रहे थे. दरवाजे की घंटी बजी तो सोमा काकी ने दरवाजा खोला.
‘‘स्मिता मैडम हैं?’’ रजत 2-3 फाइल हाथ में पकड़े खड़ा था.
‘‘हां, लेकिन आप?’’ सोमा काकी ने पूछा.

‘‘मैं रजत, फैक्ट्री का न्यू मार्केटिंग हैड’’ रजत अपना परिचय दे ही रहा था तब तक स्मिता दरवाजे तक आ गई.
‘‘आप, इस वक्त, क्या बात है?’’ स्मिता ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘मैडम, जरूरी कागज पर साइन चाहिए थे. क्लाइंट से बात हो चुकी है. बस आप के अप्रूवल की जरूरत थी.’’

‘‘आइए, बैठिए, लाइए पेपर दीजिए,’’ स्मिता ने रजत से पेपर ले लिए.
रजत की आंखें घर का मुआयना कर  रही थीं. साइड टेबल पर फ्रेम में अवि और परी की फोटो देख कर बोला, ‘‘बहुत प्यारे बच्चे हैं आप के मैडम.’’

‘‘हूं,’’ स्मिता बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी. पेपर साइन कर के रजत की ओर बढ़ा दिए.

सोमा काकी को रजत की आंखों में लालच नजर आया था. शामू काका से सोमा काकी को पता तो चला था कि फैक्ट्री में नया आदमी आया है और काफी अच्छा काम कर रहा है. आज देख भी लिया, लेकिन रजत सोमा को कुछ ठीक सा नहीं लगा. इंसान को देख कर पहचान लेती थीं वे. जिंदगी ने इतनी ठोकरें दी थीं कि अच्छेबुरे की पहचान कर सकती थीं.

‘‘नहींनहीं, स्मिता बिटिया को इस से बचाना होगा,’’ सोमा काकी के दिमाग में एक उपाय सू झा.
घर के पीछे बने गैराज में गईं. शामू काका वहीं रहते थे. खानापीना, नहानाधोना सब इंतजाम कर रखे थे उन के लिए.
‘‘क्या बात है, इस वक्त यहां?’’ शामू काका दूध गरम कर रहे थे. खाना तो उन्हें घर से मिल ही जाता था.
‘‘शामू, तु झे फैक्ट्री में आए नए आदमी… क्या नाम है… हां, रजत उस पर नजर रखनी है. मु झे उस के इरादे ठीक नहीं लग रहे.’’

‘‘हूं… कभीकभी मु झे भी ऐसा लगता है. जिस तरह से वह स्मिता बिटिया को देखता है मु झे बुरा लगता है. फैक्ट्री में कितने आदमी हैं लेकिन यह बिटिया के आसपास मंडराता रहता है.’’
अगले दिन जब रजत फैक्ट्री से निकला, शामू काका ने गाड़ी उस के गाड़ी के पीछे लगा दी. उस ने गाड़ी मौल की पार्किंग में खड़ी कर दी. शामू काका भी गाड़ी पार्क कर उस के पीछे हो लिए. शामू काका ने अपना हुलिया बदला हुआ था. रजत उन्हें आसानी से पहचान नहीं सकता था.
रजत मौल के फूड कोर्ट में पहुंचा. वहां कोने की टेबल पर एक लड़की उस का इंतजार कर रही थी.
‘‘मिल आए अपनी स्मिता मैडम से?’’ लड़की ने ताना देते हुए कहा.
‘‘यार, तुम भी न. सब अपने और तुम्हारे लिए तो कर रहा हूं. हाथ में आ गई तो वारेन्यारे हो जाएंगे. तुम बस मेरा कमाल देखती जाओ.’’
शामू काका एक टेबल छोड़ कर बैठे थे. लेकिन उन के कान पीछे लगे थे. अब रजत की असलियत सामने थी.
शामू ने सोमा के सामने घर पहुंचते ही रजत का फरेब सामने रख दिया.
सोमा काकी ने भी स्मिता को रजत का कमीनापन बताने में देर नहीं लगाई.
स्मिता को रजत की हरकतों पर पहले ही शक था. शामू काका की बात पर यकीन न करने का सवाल ही नहीं उठता था.

अगले ही दिन स्मिता ने मैनेजर विशाल से बात कर के एक प्लान के तहत रजत का फैक्ट्री से हिसाब ऐसे किया कि उसे यह पता नहीं चला कि स्मिता को उस की सचाई पता चल चुकी है.
स्मिता जान चुकी थी कि अब उसे कदमकदम पर फरेब करने वाले,  झूठी हमदर्दी दिखा कर अपनेपन का दिखावा करने वाले और प्यार करने का दावा करने वाले लोग मिलेंगे. उसे हर कदम फूंकफूंक कर उठाना है.

शामू काका और सोमा काकी ने भी यह ठान लिया था कि स्मिता की, इस घर की और बच्चों की हर हाल में रखवाली करेंगे. खून का न सही, दिल का रिश्ता जुड़ा था उन का इन सब से.

रजत की तरह ही स्मिता को काम के सिलसिले में ऐसे लोग मिल जाते थे जिन्हें स्मिता की धनदौलत से बेशक मतलब न था लेकिन उस जैसी सुंदर, स्मार्ट, अकेली औरत को देख कर उसे पाने की उन्होंने कोशिशें कीं कि शायद दांव लग जाए. लेकिन स्मिता ने अपने दिल में सुमित को बैठा रखा था. कोई दूसरा उस में घुस नहीं सकता था.

स्मिता की मम्मी का आएदिन फोन आता और दबी जबान में उन की यही ख्वाहिश होती थी कि बेटी अपनी जिंदगी के बारे में एक बार फिर से सोचे. अभी उम्र ही क्या थी उस की. महज 34 साल की थी. लेकिन स्मिता बात को दूसरी तरफ मोड़ देती थी.

स्मिता के पीछे पड़ने वाले भौंरों की कमी न थी. एक बड़े होलसेल डीलर, जो लाखों का और्डर देते थे, स्मिता से मिलने के बाद 2 करोड़ रुपए के माल खरीदने का और्डर दे गए और कच्चा माल उधार में दिलवा दिया अलग. वे अब हर दूसरेतीसरे दिन आने लगे, तो शामू काका को शक हुआ. उन्होंने बाहर खड़ी डीलर की गाड़ी के ड्राइवर को बुला कर चाय पिलाना शुरू कर दिया. ड्राइवर ने बताया कि साहब की पत्नी कई साल से अलग रह रही है क्योंकि ये इधरउधर मुंह मारते रहते हैं.

एक बार फिर शामू काका ने स्मिता को संकट से निकाला. शामू काका ने कहा था कि बड़े मालिक ने उन्हें 10 साल की उम्र से रखा हुआ है और अब भी उन का अपना कोई नहीं है. वे बचपन में कब अनाथ हो गए थे, उन्हें नहीं मालूम. बस, इतना मालूम है कि उन के गांव के चाचा बड़े मालिक के पास किसी पुराने कर्मचारी की सिफारिश पर छोड़ गए थे.

सोमा काकी अकसर स्मिता को अकेले में बैठी आंसू बहाते देखती थीं. वे भी चाहती थीं कि स्मिता को अपने जीवन की खुशियां मिलें, लेकिन वे क्या कर सकती थीं अपनी इस बिटिया के लिए.

‘‘मम्मी, संडे को मेरी क्लास में चिराग का बर्थडे है. उस के पापा ने पार्टी रखी है. उस ने मु झे भी इन्वाइट किया है,’’ अवि बोला.
‘‘ठीक है, शामू काका तुम्हें ले जाएंगे.’’

संडे को अवि तैयार हो कर शामू काका के साथ चिराग के घर चला गया. उसे कार में बैठा स्मिता जब घर के अंदर आई तो टीवी खोल कर बैठ गई. अचानक साइड टेबल पर नजर गई तो गिफ्ट तो वहीं रखा हुआ था. वैसे तो शामू काका को फोन कर के वापस बुला सकती थी लेकिन काफी देर हो चुकी थी और वह नहीं चाहती कि शामू काका अवि को वहां अकेला छोड़ कर आएं.

स्मिता ने सोचा, क्यों न वह ही दे आए, लौटते हुए बुटीक से अपने कपड़े भी लेती आएगी. कई बार फोन आ चुका था कि उस के सूट सिल कर रेडी हैं.

स्मिता ने फटाफट कपड़े बदले और दूसरी गाड़ी निकाल कर चिराग के घर पहुंच गई. चिराग के घर का पता उस ने शामू काका को लिख कर दिया था, इसलिए उसे याद था.

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बैकुंठ- भाग 1: क्या हुआ था श्यामचरण के साथ

दुनियाभर को जतातेफिरते श्यामाचरण के लिए आज मालती ने भी व्रत रखा है, इस से उन की इज्जत बढ़ जाती. अपने से ढेर सारे फलफलाहारी, फेनीवेनी, पूजासामग्री, उपहार, साड़ी, चूड़ी, आल्ता, बिंदी सब ले आते. सरगई का इंतजाम करना जैसे उन्हीं की जिम्मेदारी हो.

‘‘लो ब्लडप्रैशर रहता है न तुम्हारा, व्रत का क्या मतलब,’’ रैमचो भैया ने मालती को समझाया.

चेहरा

20 वर्ष की आयु में व्यक्ति का जो चेहरा रहता है, वह प्रकृति के उतारचढ़ाव की देन है लेकिन 50 वर्ष की आयु का चहेरा व्यक्ति की अपनी कमाई है.

सरिता बाथरूम में नहाते हुए लगातार श्यामाचरण की कंपकंपाती स्वरलहरी गूंज रही थी. उन की पत्नी मालती उन के कोर्ट जाने की तैयारी में जुटी कभी इधर तो कभी उधर आजा रही थी. श्यामाचरण अपनी दीवानी कचहरी में भगत वकील नाम से मशहूर थे. मालती ने पूजा के बरतन धोपोंछ कर आसन के पास रख दिए, प्रैस किए कपड़े बैड पर रख दिए, टेबल पर जल्दीजल्दी नाश्ता लगा रही थी. मंत्रपाठ खत्म होते ही श्यामाचरण का, ‘देर हो रही है’ का चिल्लाना शुरू हो जाता. मुहूर्त पर ही उन्हें कोर्ट भी निकलना होता. आज 9 बज कर 36 मिनट का मुहूर्त पंडितजी ने बतलाया था. श्यामाचरण जब तक कोर्ट नहीं जाते, घर में तब तक अफरातफरी मची रहती. लौटने पर वे पंडित की बतलाई घड़ी पर ही घर में कदम रखते.

बड़ा बेटा क्षितिज और बहू पल्लवी, बेटी सोनम और छोटा बेटा दक्ष सभी उन की इस पुरानी दकियानूसी आदत से परेशान रहते, पर उन का यह मानना था कि वे ऐसा कर के बैकुंठधाम जाने के लिए अपने सारे दरवाजे खोलते जा

रहे हैं.

यों तो श्यामाचरण चारों धाम की यात्रा भी कर आए थे और आसपास के सारे मंदिरों के दर्शन भी कर चुके थे, फिर भी सारे काम ठीकठाक होते रहें और कहीं कोई अनर्थ न हो जाए, इस आशंका से वे हर कदम फूंकफूंक कर रखते और घर वालों को भी डांटतेडपटते रहते कि वे भी उन के जैसे विधिविधानों का पालन किया करें.

‘‘अम्मा, अब तो हद ही हो गई, आज भी पापाजी की वजह से मेरा पेपर छूटतेछूटते बचा. अब से मैं उन के साथ नहीं जाऊंगा, बड़ी मुश्किल से मुझे परीक्षा में बैठने दिया गया, पिं्रसिपल से माफी मांगनी पड़ी कि आगे से ऐसा कभी नहीं होगा,’’ दक्ष पैंसिलबौक्स बिस्तर पर पटक कर गुस्से में जूते के फीते खोलने लगा और बोलता रहा, ‘‘फिर मुझे राधे महाराज वाले मंदिर ले गए, शुभमुहूर्त के चक्कर में उन्होंने जबरदस्ती 10 मिनट तक मुझे बिठाए रखा कि परीक्षा अच्छी होगी. जब परीक्षा ही नहीं दे पाता तो क्या खाक अच्छी होती. उस राधे महाराज का तो किसी दिन, दोस्तों से घेर कर बैंड बजा दूंगा.’’

‘‘ऐसा नहीं कहते दक्ष,’’ मालती ने उसे रोका, उसे दक्ष के कहने के ढंग पर हंसी भी आ रही थी. श्यामाचरण के अंधभक्ति आचरण और पंडित राधे महाराज की लोलुप पंडिताई ने, जो थोड़ीबहुत पूजा वह पहले करती थी, उस से भी उसे विमुख कर दिया. लेकिन चूंकि पत्नी थी, इसलिए वह उन का सीधा विरोध नहीं कर पा रही थी. मन तो बच्चों के साथ उस का भी कुछ यही करता इस महाराज के लिए जो बस अपना उल्लू सीधा कर पैसे बटोरे जा रहा है.

सोनाक्षी, क्षितिज और पल्लवी सब अपनीअपनी जगह इन मुहूर्त व कर्मकांड के ढकोसलों से परेशान थे. सोनाक्षी को महाराज के कहने पर अच्छा वर पाने के लिए जबरदस्ती 72 सोमवार के व्रत रखने पड़ रहे थे. पता नहीं कौन सा ग्रहदोष बता कर पूजा व उपवास करवाए जा रहे थे. सोमवार के दिन कालेज में उस की अच्छी खिंचाई होती.

‘अरे भई, सोनाक्षी को पढ़ाई के लिए अब क्यों मेहनत करनी है, इस की लाइफ तो इस के व्रतों को सैट करनी है. पढ़लिख कर भी क्या करना है, बढि़या मुंडा मिलेगा इसे. अपन लोगों का तो कोई चांस ही नहीं,’ सब ठिठोली करते, ठठा कर हंस पड़ते.

बड़ा बेटा क्षितिज भी धार्मिक ढकोसलों से परेशान था. एक दिन उस ने छत की टंकी में गिरी बिल्ली को जब तक निकाला तब तक वह मर ही गई. श्यामाचरण ने सारा घर सिर पर उठा लिया, ‘‘अनर्थ, घोर अनर्थ, बड़ा पाप हो गया. नरक में जाएंगे सब इस के कारण,’’ उन्होंने फौरन राधे महाराज को फोन खड़खड़ा दिया. राधे पंडित को तो लूटने का मौका मिलना चाहिए, वे तुरंत सेवा में हाजिर हो गए.

‘‘मैं यह क्या सुन रहा हूं. यजमान से ऐसा पाप कैसे हो गया, मंदिर में अब कम से कम सवा किलो चांदी की बिल्ली चढ़ानी पड़ेगी. 12 पंडितों को बुला कर 7 दिनों तक लगातार मंत्रोच्चारहवन तथा भोजन कराना पड़ेगा, फिर घर के सभी सदस्य गंगास्नान कर के आएंगे, तभी जा कर शुद्धि हो पाएगी. बैकुंठ धाम जाना है तो यजमान, यह सब करना ही पड़ेगा,’’ राधे महाराज ने पूजाहवन के लिए सामग्री की अपनी लंबी लिस्ट थमा दी. उस में सारे पंडितों को वे कपड़ेलत्ते शामिल करने से भी नहीं चूके थे. क्षितिज को बड़ा क्रोध आ रहा था. एक तो पैसे की बरबादी, उस पर औफिस से जबरदस्ती छुट्टी लेने का चक्कर. औफिस में कारण बताए भी तो क्या. जिस को बताएगा, वह मजाक बनाएगा.

‘‘मैं तो इतनी छुट्टी नहीं ले सकता. आज रविवार है, फिर पूरा एक हफ्ते का चक्कर. हवन के बाद सब के साथ एक दिन भले ही चांदी की बिल्ली मंदिर में चढ़ा कर गंगास्नान कर आऊं, वह भी सवा किलो की नहीं, केवल नाम की, पापाजी की तसल्ली के लिए,’’ क्षितिज खीझ कर बोला.

‘‘पापाजी इस के लिए मानेंगे कैसे? सब की बोलती तो उन के सामने बंद हो जाती है. अम्माजी ही चाहें तो कुछ कर सकती हैं,’’ पल्लवी अपने बेटे किशमिश को साबुन लगाती हुई बोली. 4 साल का शरारती किशमिश श्यामाचरण की नकल करते हुए खुश हो, कूदकूद कर अपने ऊपर पानी डालने लगा.

‘‘तिपतिप, हलहल दंदे…हलहल दंदे,’’ वह उछलकूद मचा रहा था, पल्लवी भी गीली हो गई.

‘‘ठहर जा बदमाश, दादाजी की नकल करता है, अम्माजी देखो, आप ही नहला सकती हो इसे,’’ पल्लवी ने आवाज लगाई.

‘‘अम्माजी, आप ही इस शैतान को नहला सकती हैं और इन के पापा की समस्या भी आप ही सुलझा सकेंगी, देखिए, कल से मुंह लटकाए खड़े हैं,’’ मालती के आने पर पल्लवी मुसकराई और कार्यभार उन्हें सौंप कर अलग

हट गई.

‘‘सीधी सी बात है, पंडित पैसों के लालच में यह सब पाखंड करते हैं. कुछ पैसे उन्हें अलग से थमा दो, कुछ नए उपाय ये झट निकाल लेंगे. न तुम्हें छुट्टी लेनी पड़ेगी, न कुछ. तुम्हारी जगह तुम्हारे रूमाल से भी वे काम चला लेंगे. इतने लालची होते हैं ये पंडित.

मैं सब जानती हूं पर सवा किलो की चांदी की बिल्ली की तो बात पापाजी के मन में बचपन से ही धंसी है, मानेंगे नहीं, दान करेंगे ही वरना उन के लिए बैकुंठ धाम के कपाट बंद नहीं हो जाएंगे?’’ वह हंसी, फिर बोली, ‘‘मैं तो 30 सालों से इन का फुतूर देख रही हूं. मांजी थीं, सो पहले वे कुछ जोर न दे सकीं वरना उस वक्त की मैं संस्कृत में एमए हूं, क्या इतना भी नहीं जानती थी कि ये पंडित क्या और कितना सही मंत्र पढ़ते हैं, अर्थ का अनर्थ और अर्थ भी क्या, देवताओं के काल्पनिक रूप, शक्ति, कार्यों का गुणगान. फिर हमें यह दे दो, वह दे दो. हमारा कल्याण करो. बस, खुद कुछ न करो. खाली ईश्वर से डिमांड. बस, यही सब बकवास. अच्छा हुआ जो संस्कृत पढ़ ली, आंखें खुल गईं मेरी, वरना धर्म से डर कर इन व्यर्थ के ढकोसलों में ही पड़ी रहती,’’ मालती किशमिश को नहला कर उसे तौलिये से पोंछती मुसकरा रही थी.

बैकुंठ- भाग 3: क्या हुआ था श्यामचरण के साथ

श्यामाचरण उठे तो सरगई को वैसे ही पड़ा देख कर बड़बड़ाए थे. खाया नहीं महारानी ने, बेहोश होंगी तो यही होगा, मैं ने ही जबरदस्ती व्रत रखवाया है. भैया तो मुझे छोड़ेंगे नहीं. जब तक यहां थे, मालती की  हिमायत, वकालत करते थे हमेशा. मांबाबूजी और दादी से कई बार बहस होती रहती धर्म संस्कारों, रीतिरिवाजों को ले कर कि आप लोग तो आगे बढ़ना ही नहीं चाहते. तभी तो एक दिन अपने परिवार को ले कर भाग लिए आस्टे्रलिया, वहीं बस गए और रामचरण से रैमचो बन गए. अपनी धरती, अपने परिवार को छोड़ कर, उन के बारे में सोचते हुए श्यामाचरण नहाधो कर जल्दीजल्दी नित्य पूजा समाप्त करने में जुट गए.

सुबहसुबह खाली सड़क मिलने की

वजह से रैमचो की टैक्सी घंटे से

पहले ही घर पहुंच गई. रैमचो गाड़ी से उतरे, साथ में उन का छोटा बेटा संकल्प उर्फ सैम भी था. मालती ने दरवाजा खोला था.

‘‘अरे भैया, बताया नहीं कि सैम भी साथ है,’’ वह पैर छूने को झुकी.

‘‘नीचे झुक सैम, तेरे सिर तक तो चाची का हाथ भी नहीं जा रहा, कितना लंबा हो गया तू, दाढ़ीमूंछ वाला, चाची के बगैर शादी भी कर डाली. हिंदी समझ आ रही है कि भूल गया. फोर्थ स्टैंडर्ड में था जब तू विदेश गया था.’’ रैमचो की मुसकराते हुए बात सुनती हुई मालती प्यार से उन्हें अंदर ले आई.

‘‘कहां है श्याम, अभी सो ही रहा है?’’ तभी पूजा की घंटी सुनाई दी, ‘‘ओह, तो यह अभी तक बिलकुल वैसा ही है. सुबहशाम डेढ़ घंटे पूजापाठ, जरा भी नहीं बदला,’’ वे सोफे पर आराम से बैठ गए. सैम भी उन के पास ही बैठ कर अचरज से घर में जगहजगह सजे देवीदेवताओं के पोस्टर, कलैंडर देख रहा था.

‘‘स्टें्रज पा, आई रिमैंबर अ लिटिल सैम एज बिफोर,’’ संकल्प बोला.

‘‘वाह भैया, इतने सालों बाद दर्शन दिए,’’ श्यामाचरण पैर छूने को झुके तो रैमचो ने उन्हें बीच में ही रोक लिया, ‘‘इतनी पूजापाठ के बाद आया है, कहांकहां से घूम कर आ रहे इन जूतों को हाथ लगा कर तू अपवित्र नहीं हो जाएगा,’’ कह कर वे मुसकराए.

‘‘बदल जा श्याम, अपना जीवन तो यों ही पूजापाठ में निकाल दिया, अब बच्चों की तो सोच, उन्हें जमाने के साथ बढ़ने दे. इतने सालों बाद भी न घर में कोई चेंज देख रहा हूं न तुझ में,’’ उन्होंने उस के पीले कुरते व पीले टीके की ओर इशारा किया, ‘‘इन सब में दिमाग व समय खपाने से अच्छा है अपने काम में दिमाग लगा और किताबें पढ़, नौलेज बढ़ा. आज की टैक्नोलौजी समझ, सिविल कोर्ट का लौयर है तो हाईकोर्ट का लौयर बनने की सोच. कैसे रहता है तू, मेरा तो दम घुटता है यहां.’’

भतीजे संकल्प के गले लग कर श्यामाचरण नीची निगाहें किए हुए बैठ गए. चुपचाप बड़े भाई की बातें सुनने के अलावा उन के पास चारा न था. संकल्प अंदर सब देखता, याद करता. सब को सोता देख, उठ कर चाची के पास किचन में पहुंच गया और उन के साथ नाश्ता उठा कर बाहर

ले आया.

‘‘अरे, बच्चों को उठा दिया होता. क्षितिज और पल्लवी तो उठ गए होंगे. बहू को इतना तो होश रहना चाहिए कि घर में कोई आया हुआ है, यह क्या तरीका है,’’ पांचों उंगलियों में अंगूठी पहने हाथ को सोफे पर मारा था श्यामाचरण ने.

‘‘और तुम्हारा क्या तरीका है, बेटी या बहू के लिए कोई सभ्य व्यक्ति ऐसे बात करता है?’’ उन्होंने चाय का कप उठाते, श्याम को देखते हुए पूछा. आज बड़े दिनों बाद बडे़ भैया श्याम की क्लास ले रहे थे, मालती मन ही मन मुसकराईर्.

‘‘कोई नहीं, अभी संकल्प ने ही सब को उठा दिया और सब से मिल भी लिया, सभी आ ही रहे हैं, रात को देर में सोए थे. उन को मालूम कहां भैया लोगों के आने का. उठ गए हैं, आते ही होंगे, सब को जाना भी है,’’ मालती ने बताया.

रैमचो को 2 बजे कौन्फ्रैंस में पहुंचना था. सो, सब के साथ मनपसंद नाश्ता करने लगे, ‘‘अब तुम भी आ जाओ, मालती बेटा.’’

‘‘आप लोग नाश्ता कीजिए, भैया, मेरा तो आज करवाचौथ का व्रत है,’’ वह भैया की लाई पेस्ट्री प्लेट में लगा कर ले आई थी.

‘‘लो बीपी रहता है न तुम्हारा, व्रत का क्या मतलब? पहले भी मना कर चुका हूं, जो हालत इस ने तुम्हारी कर रखी है, इस से पहले चली जाओगी.’’ दक्ष, मम्मी के लिए प्लेट ला…श्याम, घबरा मत, तेरी हैल्थ की केयर रखना इस का काम है और वह बखूबी करती है. तू खुद अपना भी खयाल रख और इस का भी. शशि ने तो व्रत कभी नहीं रखा, फिर भी सुहागन मरी न, मैं जिंदा हूं अभी भी. दुनिया कहां से कहां पहुंच गई है, तू वहीं अटका हुआ है और सब को अटका रखा है. भगवान को मानता है तो कुछ उस पर भी छोड़ दे. अपनी कारगुजारी क्यों करने लगता है.’’

दक्ष प्लेट ले आया तो रैमचो ने खुद

लगा कर प्लेट मालती को थमा

दी. ‘‘जी भैया,’’ उस ने श्याम को देखा जो सिर झुकाए अच्छे बच्चे की तरह चुपचाप खाए जा रहे थे. भैया को टालने का साहस उस में भी न था, वह खाने लगी.

‘‘पेस्ट्री कैसी लगी बच्चो? श्याम तू तो लेगा नहीं, धर्म भ्रष्ट हो जाएगा तेरा, पर सोनाक्षीपल्लवी तुम लोग तो लो या फिर तुम्हारा भी धर्म…कौन सी पढ़ाई की है. आज के जमाने में. चलो, उठाओ जल्दीजल्दी. इन सब बातों से कुछ नहीं होता. गूगल कैसे यूज करते हो तुम सब, मैडिसन कैसेकैसे बनती हैं, कभी पढ़ा है? कुछ करना है अपने भगवान के लिए तो अच्छे आदमी बनो जो अपने साथ दूसरों का भी भला करें, बिना लौजिक के ढकोसले वाले हिपोक्रेट पाखंडी नहीं. अब जल्दी सब अपनी प्लेट खत्म करो, फिर तुम्हारे गिफ्ट दिखाता हूं,’’ वे मुसकराए.

‘‘मेरे लिए क्या लाए, बड़े पापा,’’ दक्ष ने अपनी प्लेट सब से पहले साफ कर संकल्प से धीरे से पूछा था, तो उस ने भी मुसकरा कर धीरे से कहा, ‘‘सरप्राइज.’’

नाश्ते के बाद रैमचो ने अपना बैग खोला, सब के लिए कोई न कोई गिफ्ट था. ‘‘श्याम इस बार अपना यह पुराना टाइपराइटर मेरे सामने फेंकेगा, लैपटौप तेरे लिए है. अब की बार किसी और को नहीं देगा. दक्ष बेटे के लिए टैबलेट. सोनाक्षी बेटा, इधर आओ, तुम्हारे लिए यह नोटबुक. पल्लवी और मालती के लिए स्मार्टफोन हैं. अब बच गया क्षितिज, तो यह लेटैस्ट म्यूजिकप्लेयर विद वायरलैस हैडफोन फौर यू, माय बौय.’’

‘‘अरे, ग्रेट बड़े पापा, मैं सोच ही रहा था नया लेने की, थैंक्यू.’’

‘‘थैंक्यूवैंक्यू छोड़ो, अब लैपटौप को कैसे इस्तेमाल करना है, यह पापा को सिखाना तुम्हारी जिम्मेदारी है. श्याम, अभी संकल्प तुम्हें सब बता देगा, बैठो उस के साथ, देखो, कितना ईजी है. और हां, अब तुम लोग अपनेअपने काम

पर जाने की तैयारी करो, शाम को

फिर मिलेंगे.’’

सुबह की पूजा जल्दी के मारे अधूरी रह गई तो श्यामाचरण ने राधे महाराज को शुद्धि का उपाय करने के लिए बुलाया. रैमचो ने यह सब सुन लिया था. महाराज का चक्कर अभी भी चल रहा है, अगली जेनरेशन में भी सुपर्स्टिशन का वायरस डालेगा, कुछ करता हूं. उस ने ठान लिया.

10 बजे राधे महाराज आ गए.

‘‘नमस्ते महाराज, पहचाना,’’ रैमचो ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘काहे नहीं, बड़े यजमान, कई वर्षों बाद देख रहा हूं.’’

‘‘यह बताइए कि लोगों को बेवकूफ बना कर कब तक अपना परिवार पालोगे. अपने बच्चों को यही सब सिखाएंगे तो वे औरों की तरह कैसे आगे बढ़ेंगे, पढ़ेंगे? क्या आप नहीं चाहते कि वे बढ़ें?’’  रैमचो ने स्पष्टतौर पर कह दिया.

पंडितजी सकपका गए, ‘‘मतबल?’’

‘‘महाराजजी, मतलब तो सही बोल नहीं रहे. मंत्र कितना सही बोलते होंगे. कुछ मंत्रों के अर्थ मैं मालती बहू से पहले ही जान चुका हूं. आप जानते हैं, जो हम ऐसे कह सकते हैं उस से क्या अलग है मंत्रों में? पुण्य मिलते बैकुंठ जाते आप में से या आप के पूर्वजों में से किसी ने किसी को देखा है या बस, सुना ही सुना है?’’

‘‘नहीं, यजमान, पुरखों से सुनते आ रहे हैं. पूजा, हवन, दोष निवारण की हम तो बस परिपाटी चलाए जा रहे हैं. सच कहूं तो यजमानों के डर और खुशी का लाभ उठाते हैं हम पंडित लोग. बुरा लगता है, भगवान से क्षमा भी मांगते हैं इस के लिए. परिवार का पेट भी तो पालना है, यजमान. हम और कुछ तो जानते नहीं, और ज्यादा पढ़ेलिखे भी नहीं.’’ राधे महाराज यह सब बोलने के बाद पछताने लगे कि गलती से मुंह से सच ?निकल गया.

बैकुंठ- भाग 2: क्या हुआ था श्यामचरण के साथ

पल्लवी मालती को बड़े ध्यान से सुन रही थी. सोच रही थी कि आज की पीढ़ी का होने पर भी अपने धर्म के विरोध में कुछ कहने का इतना साहस उस में नहीं था जितना अम्माजी बेधड़क कह गईं. मैं ने एमबीए किया हुआ है, जौब भी करती हूं पर धर्म का एक डर मेरे अंदर भी कहीं बैठा हुआ है. सोनाक्षी भी कालेज में है. उस ने 72 सोमवार के व्रत केवल पापाजी के डर से नहीं रखे, बल्कि खुद अपने भविष्य के डर से भी, अपने विश्वास से रखे हैं.

‘‘अम्मा, आप ही राधे महाराज से बात कर लीजिए,’’ क्षितिज बोला.

‘‘मैं करूंगी तो उन्हें शर्म आएगी लेने में, उन से उम्र में मैं काफी बड़ी हूं. क्षितिज, तुम ही अपनी तरफ से बात कर लेना, यही ठीक रहेगा.’’

‘‘ठीक है अम्मा, आज ही शाम को बात कर लूंगा वरना हफ्तेभर की छुट्टी की अरजी दी तो औफिस वाले मुझे सीधा ही बैकुंठ भेज देंगे,’’ कह कर क्षितिज मुसकराया.

एक नहीं, ऐसी अनेक घटनाएं व पूजा आएदिन घर में होती रहतीं, जिन में श्यामाचरण के अनुसार राधे महाराज की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती. राधे महाराज से पहले उन के पिता किशन महाराज, श्यामाचरण के पिता विद्याचरण के जमाने से घर के पुरोहित हुआ करते थे. जरा भी कहीं धर्म के कामों में ऊंचनीच न हो जाए, विवाह, बच्चे का जन्म, अन्नप्राशन, मुंडन कुछ भी हो, वे ही संपन्न करवाते, आशीष देते और थैले भरभर कर दक्षिणा ले जाते.

इधर, राधे महाराज ने शुभमुहूर्त और शुभघड़ी के चक्कर में श्यामाचरण को कुछ ज्यादा ही उलझा लिया था. कारण मालती को साफ पता था, बढ़ते खर्च के साथ बढ़ता उन का लालच, जिसे श्यामाचरण अंधभक्ति में देख नहीं पाते. कभी समझाने का प्रयत्न भी करती तो यही जवाब मिलता, ‘‘तुम तो निरी नास्तिक हो मालती, नरक में भी जगह नहीं मिलेगी तुम को, मैं कहे दे रहा हूं. पूजापाठ कुछ करना नहीं, न व्रतउपवास, न नियमधरम से मंदिरों में दर्शन करना. घर में जो मुसीबत आती है वह तुम्हारी वजह से. चार अक्षर ज्यादा पढ़लिख गई तो धर्मकर्म को कुछ समझना ही नहीं.

‘‘तुम्हारी देखादेखी बच्चे भी उलटापुलटा सीख गए. घबराओ मत, बैकुंठ कभी नहीं मिलेगा तुम्हें. घर की सेवा, समाजसेवा करने का स्वांग बेकार है. अपने से ईश्वर की सेवा करते मैं ने तुम्हें कभी देखा नहीं, कड़ाहे में तली जाओगी, तब पता चलेगा,’’ कहते हुए आधे दर्जन कलावे वाले हाथ से गुरुवार हुआ तो गुरुवार के पीले कपड़ों में सजेधजे श्यामाचरण, हलदीचंदन का टीका माथे पर सजा लेते. उन के हर दिन का नियम से पालन उन के कपड़ों और टीके के रंग में झलकता.

‘‘नरक भी नहीं मिलेगा, कभी कहते हो कड़ाहे में तली जाऊंगी, कभी बैकुंठ नहीं मिलेगा, फिर पाताल लोेक में जाऊंगी क्या? जहां सीता मैया समा गई थीं. अब मेरे लिए वही बचा रह गया…’’ उस की हंसी छूट जाती. मुंह में आंचल दबा कर वह हंसी रोकने की कोशिश करती. कभीकभी उसे गुस्सा भी आता कि दिमाग है तो तर्क के साथ क्यों नहीं मानते कुछ भी. कौआ कान ले गया, सब दौड़ पडे़, अपने कानों को किसी ने हाथ ही नहीं लगा कर देखना चाहा, वही वाली बात हो गई. अब कुछ तो करना चाहिए कि यह सब बंद हो सके. पर कैसे?

वह सोचने लगी कि क्षितिज का सीडीएस का इंटरव्यू भी तो उन के इसी शुभमुहूर्त के चक्कर में छूट गया था. उस की बरात ले कर ट्रेन से पटना के लिए निकलने वाले थे हम सब, तब भी घर से मुहूर्त के कारण इतनी देर से स्टेशन पहुंचे कि गाड़ी ही छूट गई. किस तरह फिर बस का इंतजाम किया गया था. सब उसी में लदेफंदे हाईस्पीड में समय से पटना पहुंचे थे, पर श्यामजी की तो लीला निराली है, तब भी यही समझ आया कि सही मुहूर्त में चले थे, इसलिए कोई हादसा होने से बच गया. फिर पूजा भी इस के लिए करवाई, कमाल है.

नया केस लेंगे तो पूजा, जीते तो सत्यनारायण कथा, हारे तो दोष निवारण, शांतिपाठ हवन. पता नहीं वह कौन सी आस्था है. या तो सब अपने उस देवता पर छोड़ दो या फिर सपोर्ट ही करना है उसे, तो धार्मिक कर्मकांडों की चमचागीरी से नहीं, बल्कि उसे ध्यान में रख कर अपने प्रयास से कर सकते हो. तो वही क्यों न करो. पर अब कौन समझाए इन्हें कितनी बार तो कह चुकी.

करवाचौथ की पूजा के लिए मेरी जगह वे उत्साहित रहते हैं. मांजी के कारण यह व्रत रखे जा रही हूं. पिछले वर्ष ही तो उन का निधन हो गया, पर श्यामजी को कैसे समझाऊं कि मुझे इस में भी विश्वास नहीं. कह दूं तो बहुत बुरा मान जाएंगे. औरत के व्रत से आदमी की उम्र का क्या संबंध? हां, स्वादिष्ठ, पौष्टिक व संतुलित भोजन खिलाने, साफसफाई रखने और घर को व्यवस्थित व खुशहाल रखने से अवश्य हो सकता है, जिस का मैं जीजान से खयाल रखती हूं. बस, अंधविश्वास में उन का साथ दे कर खुश नहीं कर पाती, न स्वयं खुश हो पाती.

‘‘चलो, कोई तो पूजा करती हो अपने से, साल में एक बार. घर की औरत के पूजाव्रत से पूरे घर को पुण्य मिलता है, सुहागन मरोगी तो सीधा बैकुंठ जाओगी.’’ दुनियाभर को जतातेफिरते श्यामाचरण के लिए आज मालती ने भी व्रत रखा है, उन की इज्जत बढ़ जाती. अपने से ढेर सारे फलफलाहारी, फेनीवेनी, पूजासामग्री, उपहार, साड़ी, चूड़ी, आल्ता, बिंदी सब ले आते. सरगई का इंतजाम करना जैसे उन्हीं की जिम्मेदारी हो, इस समझ का मैं क्या करूं? रात की पूजा करवाने के लिए राधे पंडित को खास निमंत्रण भी दे आए होंगे.

सरगई के लिए 3 बजे उठा दिया श्यामाचरण ने.

‘‘खापी लो अच्छी तरह से मालती, पूजा से पहले व्रत भंग नहीं होना चाहिए.’’ वह सोते से अनमनी सी घबरा कर उठ बैठी थी कि क्या हो गया. उस ने देखा श्यामजी उसे जगा कर, फिर चैन से खर्राटे भरने लगे. यह प्यार है या बैकुंठ का डर? पागलों की तरह इतनी सुबह तो मुझ से कभी खाया न गया, भूखा रहना है तो पूरे दिन का खाना मिस करो न.

हिंदुओं का करवा, मुसलमानों का रोजा सब यही कि दो समय का भोजन एकसाथ ही ठूंस लो कि फिर पूजा से पहले न भूख लगेगी न प्यास, यह भी क्या बात हुई अकलमंदी की. नींद तो उचट चुकी थी, वह सोचे जा रही थी. तभी फोन की घंटी बजी. इस समय कौन हो सकता है? श्यामजी की नाक अभी भी बज रही थी, सो, फोन उसी ने उठा लिया.

‘‘हैलो, कौन?’’

‘‘ओ मालती, मैं रैमचो, तुम्हारा डाक्टर भैया, अभी आस्ट्रेलिया से इंडिया पहुंचा हूं.’’

‘‘नमस्ते भैया, इतने सालों बाद, अचानक,’’ मालती खुशी से बोली, ससुराल में यही जेठ थे जिन से उन के विचार मेल खाते थे.

‘‘हां, कौन्फ्रैंस है यहां, सब से मिलना भी हो जाएगा और सब ठीक हैं न?

1 घंटे में घर पहुंच रहा हूं.’’

‘आज 5 सालों बाद डाक्टर भैया घर आ रहे हैं. अम्मा के निधन पर भी नहीं आ सके थे. भाभी का लास्ट स्टेज का कैंसर ट्रीटमैंट चल रहा था, उसी में वे चल भी बसीं. 3 लड़के ही हैं भैया के, तीनों शादीशुदा, वैल सैटल्ड. कोई चिंता नहीं अब, डाक्टरी और समाजसेवा में ही अपना जीवन समर्पित कर रखा है उन्होंने. वह बच्चों को प्रेरणा के लिए उन का अकसर उदाहरण देती है,’ यह सब सोचते हुए मालती फटाफट नहाधो कर आई. फिर श्यामजी को उठा कर भैया के आने के बारे में बताया.

‘‘रामचरण भैया, अचानक…’’

‘‘नहीं, रैमचो भैया. मैं उन की पसंद का नाश्ता तैयार करने जा रही हूं, आप भी जल्दी से तैयार हो जाओ,’’ उस ने हंसते हुए कहा और किचन की ओर बढ़ गई.

पानी मिलता रिश्ता- भाग 2: क्या परिवार को मना पाई दीप्ति

धीरेधीरे एकदूसरे की तरफ 1-1 पांव चलते वे दोनों अब काफी नजदीक आ चुके थे. बस, इस रिश्ते को स्वीकार करने की औपचारिकता भर शेष थी. वह भी पिछले वैलेंटाइन पर कदम ने पूरी कर दी थी.

प्यार के इजहार के बाद अब दीप्ति कदम के फ्लैट पर भी बेरोकटोक जाने लगी थी. हालांकि कदम उदयपुर का ही मूल निवासी था लेकिन उस का परिवार गुलाबपुरा में रहता था इसलिए दीप्ति के लिए कभी भी बिना समय देखे कदम के फ्लैट पर जाना बहुत आसान था.

एकांत और मनपसंद साथी का साथ… ये दोनों परिस्थियां किसी को भी बहकाने के लिए पर्याप्त होती हैं तिस पर यदि साथी का अपना बनना निश्चित हो तो फिर यह परिस्थिति किसी भी प्रतिक्रिया में उत्प्रेरक का काम करती है. ऐसी ही परिस्थिति आज दीप्ति और कदम के बीच बन गई थी.

मार्च महीने के पहले शनिवार यानी वीकेंड की गुलाबी सी दोपहरी और लंच के बाद का अलसाया सा समय… भारी खाने के बाद कदम बिस्तर पर लेट गया. दीप्ति भी वहीं पसर गई. ऐसी कि ठंडी हवा ने जल्दी ही दोनों की पलकों को अपने कब्जे में ले लिया. नींद के किसी पल में दीप्ति की बांह कदम के सीने पर आ लगी और उस का मुंह उस की कांख में. कदम की आंखें खुलीं और उस ने अंगङाई लेते हुए अपनी बांहें दीप्ति के इर्दगिर्द लपेट लीं. अभी उस के होंठ दीप्ति के चेहरे की तरफ बढ़े ही थे कि वह कसमसाई.

“प्लीज कदम, शादी तक रुको,” दीप्ति ने उसे रोका लेकिन हवाएं एक बार चल निकलें तो फिर आंधी बनते देर कहां लगती है. कदम के तन और मन में भावनाओं की आंधी उठने लगी थी.

“वह तो हो जाएगी. हमतुम राजी… तो जीतेंगे बाजी…” कदम दीप्ति के कान में फुसफुसाया. शरमाई सी दीप्ति उस की बांहों में सिमट गई और इस से पहले कि वह कुछ और कहती, कदम ने अपने भीतर उठते तूफान को आजाद कर दिया. तूफान तो थम गया किंतु कदम अभी भी दीप्ति पर झुका हुआ ही था. अचानक जैसे उसे कुछ याद आया.

“क्या तुम्हारे घर वाले मुझे स्वीकार कर लेंगे?” कदम ने असमंजस से पूछा.

“क्यों नहीं करेंगे? वैसे भी मेरे मांपापा ने मुझे अपना जीवनसाथी खुद चुनने की आजादी दी है. बशर्ते कि वह पानी मिलता हो,” दीप्ति कदम के बालों में अपनी उंगलियां घुमाते हुए हंसी.

“इसलिए तो मैं पूछ रहा हूं,” कदम ने चिंतित होते हुए कहा तो दीप्ति चौंकी.
“क्या मतलब? हमें राजपूतों से कोई समस्या नहीं. मम्मी ने सिर्फ 2-3 कास्ट ही बताई थी जिन को वे नहीं स्वीकारेंगी,” कहते हुए दीप्ति ने उन जातियों के नाम गिना दिए जो उस की मां के अनुसार पानी मिलते नहीं थे. जैसे ही दीप्ति की बात समाप्त हुई, कदम के माथे की लकीरें और भी अधिक गहरी हो गईं.

“मुझे इसी बात का डर था. मैं जानता था कि दुनिया चाहे चांद पर ही क्यों न चली जाए, हम कभी भी सवर्णों के बराबर नहीं बैठ सकते,” कहते हुए जहां कदम रुआंसा हो गया, वहीं दीप्ति का चेहरा भय से जर्द हो गया.

“लेकिन तुम तो चौहान… उपनाम सरनेम लगते हो न?” दीप्ति ने पूछा.

“हां, यह सरनेम हमारी जाति के भी कुछ लोग लगाते हैं,” कदम ने धीरे से कहा.

सहसा दीप्ति को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन हकीकत समझ में आतेआते वह समझ चुकी थी कि वह एक बड़ी मुश्किल की गिरफ्त में आ चुकी है. एकाएक कोई निर्णय न ले पाने की स्थिति ने उसे और भी अधिक बेचैन कर दिया. दीप्ति ने अपने कपड़े और बाल ठीक किए और बिना कुछ कहे कमरे से बाहर निकल आई. कदम की भी हिम्मत नहीं हुई कि जाते हुए प्यार को हाथ बढ़ा कर रोक ले.

अगला दिन रविवार था. दीप्ति अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकली. एक ही रात ने उसे ऐसा निश्तेज कर दिया मानों बरसों की बीमार हो. कभी उसे मां की नसीहतें याद आ रही थीं तो कभी कदम का प्रेम… इस परेशान घड़ी में वह मां के आंचल में छिप जाना चाहती थी लेकिन वह जाती किस मुंह से? उन की दी गई आजादी का मान कहां रख पाई थी वह? रश्मि गिल्ट से भरी जा रही थी लेकिन कदम को किसी भी हाल दोषी नहीं ठहरा पा रही थी.

“सारी गलती मेरी ही है. मुझे ही प्यार का बुखार चढ़ा था. ऐसा भी क्या उतावलापन? सामने वाले की जातबिरादरी तो पता करनी चाहिए थी न?” दीप्ति अपनेआप पर झुंझला रही थी. कई बार तो लगा मानों यह सब वह खुद नहीं सोच रही बल्कि मां उस के भीतर आ बसी है. अनजाने ही वह परिस्थितियों को मां की निगाहों से देखने लगी थी.

इस सारे घटनाक्रम में वह कदम का दोष बिलकुल भी नहीं मान रही थी लेकिन यह भी सच था कि उस के किसी भी फैसले का सब से अधिक असर कदम पर ही पड़ने वाला था. हो सकता है कि बिना किसी गलती के ही उसे कई सारे अपराधों को करने के बराबर सजा मिले. दीप्ति का दिल और दिमाग कोलंबस की तरह झूल रहा था. उसे रहरह कर कदम का व्यवहार याद आ रहा था. उस में वह हर खूबी थी जो कोई भी लड़की अपने जीवनसाथी में देखना चाहती है. कदम ने कभी भी उस की मरजी के खिलाफ उसे नहीं छुआ था. जब भी वह उस के साथ होती थी, अपनेआप को संपूर्ण महसूस करती थी. सिर्फ उस के साथ ही नहीं बल्कि कदम का व्यवहार सभी महिलाओं के प्रति सम्मानजनक होता था और यही बात उसे सब से अलग और विशेष भी बनाती थी.

2 दिन की उधेड़बुन के बाद भी दीप्ति किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाई तो 3 दिन की छुट्टी ले कर घर चली गई. पापा तो उसे यों अचानक आया देख कर खुशी से उछल पड़े लेकिन मां की पारखी निगाहें उस में सेंध लगा रही थीं. अपनेआप को सामान्य करते हुए दीप्ति कमरे में चली गई.

“पड़ोस वाले मिश्राजी के लड़के मनीष ने अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली,” दोपहर के खाने पर मां ने उसे टटोलने की गरज से कहा. जवान लड़कियों की मांएं बेहतर जानती हैं कि कौन सी खबर उन से कब साझा करनी चाहिए.

“अच्छा है न, कम से कम उसे जिंदगी भर यह मलाल तो नहीं रहेगा कि यदि खुद उस ने लड़की खोजी होती तो पता नहीं क्या ढूंढ़ कर लाता. अब ले आया है तो सारी अच्छीबुरी जिम्मेदारी उसी की हो गई,” दीप्ति ने मनीष का पक्ष लेते हुए कहा.

“अरे, लानी ही थी तो कम से कम पानी मिलती तो लाता. अब जिस जाति के छुए गिलास हम रसोई में नहीं रखते, उस जाति की लड़की को रसोई में प्रवेश कैसे करने दें?” बेटी के जवाब पर मां का झुंझलाना स्वाभाविक था.

दीप्ति कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद कर रही थी. दीप्ति ने मनीष की जगह खुद को रख कर देखा तो घबरा गई,’क्या परिवार के इतने विरोध के बीच वह कदम के पक्ष में फैसला ले पाएगी? यदि मांपापा ने दिल को कठोर कर के, बेटी की खुशी के लिए कदम को अपना भी लिया तो क्या वे उसे वह सम्मान दे पाएंगे जो घर के दामाद को मिलना चाहिए? यदि वह मांपापा की नाराजगी को झेलते हुए कदम का साथ दे तो क्या वह मम्मीपापा को भूल पाएगी? क्या उन के 25 बरस के प्यार के सामने कदम के 25 महीने के प्यार को उसे वरीयता देनी चाहिए? माना कि मांबाप हमेशा साथ नहीं रहते लेकिन क्या यह स्वार्थ नहीं कहा जाएगा कि मैं अपनी खुशी के लिए उन्हें जिंदगीभर का गम दे दूं?’ सोचतेविचारते आखिर दीप्ति की छुट्टियां भी समाप्त होने को आईं लेकिन वह अपने सवालों के घेरे से बाहर नहीं निकल पा रही थी. कभी कदम का पलड़ा भारी होता तो कभी मां का. कभी दिल कदम की तरफ झुकता तो कभी घर वालों का स्नेह दिमाग पर हावी हो जाता.

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पानी मिलता रिश्ता- भाग 3: क्या परिवार को मना पाई दीप्ति

कल सुबह उसे उदयपुर के लिए निकलना है. वह असमंजस में थी कि कदम का सामना कैसे करेगी. अनमनी सी दीप्ति अपना सामान जमा रही थी कि तभी मनीष की मां की आवाज सुन कर बाहर आई,
“अरे दीप्ति बेटा, कैसी है तू? कब आई? तेरी मां ने तो तुझे बता ही दिया होगा कि मनीष ने क्या कांड किया है,” मनीष की मम्मी ने अपना दुखड़ा रोया. दीप्ति क्या कहती, फीकी सी हंसी हंस दी.

“मनीष की पत्नी लाख भली होगी लेकिन अपने संस्कारों का क्या करूं? चाहे यह छुआछूत आज के जमाने में न होता होगा लेकिन संस्कारों के बीज तो सदियों पुराने हैं न… कैसे एकदम से उखाड़ कर फेंक दूं? जब भी मेरे सामने आती है, आशीर्वाद देने का मन होते हुए भी मैं उसे आशीर्वाद नहीं दे पाती. तू ही बता, मैं क्या करूं?” अपनी सफाई देतेदेते अचानक मनीष की मम्मी ने दीप्ति से प्रश्न किया. वह अचकचा गई. एकाएक कोई जवाब नहीं सूझा तो काम का बहाना कर के वहां से खिसक ली.

मन ही मन एक फैसला ले कर वह उदयपुर आ गई. कदम को देखा तो लगा मानों 3 दिन में ही मुरझा गया है. लग रहा था कि उस की गैरमौजूदगी में उस ने शेव तक नहीं बनाई होगी. दीप्ति को देखते ही कदम उस की तरफ लपका, “यों अचानक बिना बताए क्यों चली गई थी? कोई परेशानी थी तो हम मिलबैठ कर सुलझा सकते थे न…” कदम ने बेचैन होते हुए कहा.

“कुछ परेशानियां अकेले ही भुगतनी होती हैं,” दीप्ति ने सहजता से मुसकराते हुए कहा.

“तो क्या फैसला है तुम्हारा?” कदम अधीर हो रहा था.

“न चाहते हुए भी कुछ फैसले हमें अपने विरुद्ध लेने पड़ते हैं क्योंकि हम पर केवल हमारा ही अधिकार तो नहीं होता न?” दीप्ति ने कहा. कदम कुछ समझा नहीं. वह मुंह खोले उस की बात पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहा था.

“यदि हम एकदूसरे को चुनते हैं तो अपनेअपने परिवार और समाज में एकदूसरे को इज्जत दिलवाना हमारी अपनी निजी जिम्मेदारी हो जाती है. और मुझे लगता है कि मैं तुम्हारे लिए यह नहीं कर पाऊंगी. यदि मैं तुम्हें अपने परिवार में तुम्हारा सही स्थान नहीं दिला पाती तो मुझे कोई अधिकार नहीं है कि हर सामाजिक कार्यक्रम में तुम्हें नीचा देखने की स्थिति में लाऊं. मैं तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूं और समाज में उसे बरकरार रखना चाहती हूं. फिर चाहे मुझे न चाहते हुए भी समाज के बकवास नियम मानने ही क्यों न पड़ें,” दीप्ति ने आंखों की नमी छिपाते हुए कहा.

“मैं जानता हूं कि एक पल में कुछ भी नहीं बदलेगा. न लोग और न ही उन की मान्यताएं… लेकिन आज यदि हमने एकदूसरे के हाथ नहीं थामे तो फिर वक्त हमें दूसरा मौका नहीं देगा और उस मलाल के सामने जिंदगी का हर हासिल कम रह जाएगा,” कदम लगभग गिड़गिड़ा ही उठा.

आंखें तो दीप्ति की भी भर आई थीं लेकिन वह सिर झुकाए चुपचाप खड़ी रही. कदम उस की मन की स्थिति भलीभांति समझ रहा था लेकिन मजबूर था. उस ने दीप्ति के कंधे थपथपाए और उस के निर्णय का सम्मान करता हुआ अपने केबिन में चला गया. उस ने तय कर लिया था कि वह इंतजार करेगा. मगर किस का? दीप्ति के मन को बदलने का या समाज की धारणा को बदलने का? जो भी हो… दोनों में ही वक्त लगने वाला था.

कदम ने हालांकि अपना मन बहुत कड़ा कर लिया था लेकिन मन अपने बस में रहता कहां है? रातभर दीप्ति और उस का निर्णय ही उस के दिमाग में हलचल मचाए हुए था. ऐसा ही कुछ हाल दीप्ति का भी था. उस के सामने भी रहरह कर कदम का निराशहताश चेहरा घूम रहा था. अपने घर पर उस ने जो फैसला किया था वह कदम की बेगुनाह मोहब्बत के सामने कमजोर पड़ता नजर आ रहा था. लेकिन दीप्ति इतनी जल्दी कमजोर नहीं पड़ना चाहती थी. आखिरकार उस ने अपने मन को कठोर कर लिया.

दूसरे दिन दीप्ति औफिस नहीं गई. उस ने कदम को व्हाट्सऐप पर मैसेज भेजा,”मिलना है तुम से. घर आ जाओ,” कदम ने मैसेज को देखा लेकिन कोई जवाब नहीं दिया.

दीप्ति ने आधा घंटा बाद फिर से मेसैज भेजा,”मैं इंतजार कर रही हूं.” कदम ने पढ़ा. और कोई दिन होता तो वह सिर के बल दौड़ा चला जाता लेकिन वह परिस्थितियों को भी समझ रहा था और दीप्ति की मनःस्थितियों को भी. वह दीप्ति की दुविधाएं बढ़ाना नहीं चाहता था लेकिन पांव उस के रोके नहीं रुके और अगले 15 मिनट में वह दीप्ति के फ्लैट की घंटी बजा रहा था. इन 15 मिनट में वह सोच चुका था कि उसे दीप्ति को सांत्वना कैसे देनी है. कैसे उस के टूटे दिल को ढांढस बंधाना है.
घंटी बजने से पहले ही दीप्ति ने दरवाजा खोल दिया मानों खिड़की में बैठी उसी की राह देख रही थी. कदम ने देखा आज दीप्ति ने वही मोरपंखी रंग की साड़ी पहनी थी जो उस ने उसे पिछली दीवाली पर उपहार में दी थी.

कानों में मैचिंग लटकन और हाथों में चूड़ियां भी उसी की लाई हुई ही पहनी थी. हलका मेकअप कर के दीप्ति बहुत खूबसूरत लग रही थी. कदम तड़प कर रह गया.

‘सदमे के कारण बेचारी के दिमाग का संतुलन बिगड़ गया शायद,’ सोचते हुए कदम उस की तरफ बढ़ा लेकिन यह क्या? दीप्ति तो खिलखिलाती हुई उस से लिपट गई. कदम सकपका गया.

“हम शादी करेंगे. क्या तुम तैयार हो? यदि तुम्हारे घर वाले भी राजी न हों तब भी?” दीप्ति ने उस के सीने से सिर हटा कर अपनी आंखें उस के चेहरे पर गड़ा दीं.

“लेकिन कल तक तो माहौल कुछ और ही था. आज अचानक?” कदम ने पूछा. उसे अब भी दीप्ति के प्रस्ताव पर यकीन नहीं हो रहा था.

“बहुत सोचा मैं ने. और मंथन का नतीजा यह निकला,” दीप्ति ने कहा.

“क्या?” कदम ने पूछा.

“मांपापा सारी उम्र तो साथ नहीं रहेंगे न? आखिर तो जीवनसाथी ही काम आता है. यदि वही अपनी पसंद का न हो तो जिंदगी नरक नहीं बन जाएगी? देरसवेर घर वाले भी राजी हो ही जाएंगे. वैसे भी क्या तुम्हारे प्यार की लाश पर मैं अपना आशियाना बना पाऊंगी? और फिर तुम से शादी कर के मैं अपनी भावी संतानों को एक बेहतरीन भविष्य भी तो दे पाऊंगी… उन्हें भी तो आरक्षित श्रेणी के पिता की संतान होने के नाते आरक्षण मिलेगा,” अंतिम बात कहतेकहते दीप्ति के होंठों पर मुसकान थिरक उठी. कदम भी मुसकरा दिया.

“ओहो, तो यह बात है. जो अभी दुनिया में आया भी नहीं उस के भविष्य की चिंता की जा रही है और जो सामने खड़ा है उस के वर्तमान का क्या?” कदम ने शरारत से कहा.

“उस के लिए यह,” कहते हुए दीप्ति ने अपने होंठों से कदम का मुंह बंद कर दिया. पानी मिले या न मिले लेकिन दो दिल मिल चुके थे.

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स्मिता तुम फिक्र मत करो- भाग 4: क्या वापस लौटी खुशियां

चिराग का घर वाकई खूबसूरत था. वह लौन की तरफ गई, जहां सिर्फ 10-12 बच्चे थे. बच्चों को दूरदूर बैठा कर फन एक्टिविटी कराई जा रही थी. वह नजरें घुमा कर अवि को देख रही थी कि पीछे से आवाज आई, ‘‘हैलो, आप शायद अवि की मदर हैं.’’ स्मिता ने पलट कर देखा, लगभग 35-37 वर्षीय पुरुष, जिस का व्यक्तित्व आकर्षक कहा जाए तो गलत न होगा, खड़ा था.

‘‘जी, और आप?’’ स्मिता ने पूछा.

‘‘मैं चिराग का पापा अनुराग. आप को कई बार पेरैंट्स मीटिंग में देखा है अवि के साथ.’’

‘‘अच्छा, तभी सोच रही थी, कैसे मु झे पहचाना. वह क्या है कि अवि चिराग का गिफ्ट घर पर भूल आया था, देने चली आई. इधर कुछ काम भी था, सोचा, वह भी कर लूंगी.’’

‘‘गिफ्ट कोई इतना जरूरी तो नहीं था.’’

‘‘क्यों नहीं, बर्थडे पर बच्चों को अपने गिफ्ट देखने का ही शौक होता है.’’

‘‘यह तो आप सही कह रही हैं. अब आ ही गई हैं तो केक खा कर जाइए.’’ वेटर केक रख कर ले आया था.

‘‘थैंक्स, मैं चलती हूं. अवि अभी यहीं हैं. काफी एंजौय कर रहा है.’’

‘‘लाइफ में एंजौयमैंट बहुत जरूरी है, बच्चों के लिए भी और बड़ों के लिए भी,’’ अनुराग ने कुछ गंभीर हो कर कहा तो स्मिता ने एक बार उस की तरफ देखा. आंखें जैसे कहीं शून्य में खो गई थीं.
‘‘जी?’’

‘‘जी, कुछ नहीं. आइए आप को बाहर तक छोड़ देता हूं.’’

‘‘जी शुक्रिया, आप मेहमानों को देखिए. अच्छा, नमस्ते.’’
‘‘नमस्ते.’’

अवि और चिराग वीडियो कौलिंग करते थे. कभीकभी स्कूल के असाइनमैंट वर्क को ले कर अनुराग स्मिता से बात कर लेता था. अनुराग पेशे से प्रोफैसर था. पत्नी से तलाक हो चुका था. उस की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं थीं जिन्हें पूरा करने के लिए उस ने पति और बेटे को पीछे छोड़ दिया था. चिराग की पूरी देखभाल अनुराग के सिर थी और अनुराग की मां भी चिराग का पूरापूरा खयाल रखती थीं.

एक दिन अनुराग अपने पुत्र चिराग को अवि से मिलवाने के लिए ले कर आया था. स्मिता घर पर ही थी. अनुराग को देख उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई थी जिसे सोमा काकी ने पढ़ लिया था. स्मिता ने अपने भाव छिपाते हुए अनुराग को बैठने के लिए कहा. चिराग और अवि खेलने ऊपर के कमरे में चले गए थे.
‘‘आप के लिए कुछ लाऊं?’’ सोमा काकी के चेहरे पर उत्साह की  झलक थी.
‘‘जी नहीं, मैं ठीक हूं,’’ अनुराग ने जवाब दिया.

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है कि आप बिना कुछ लिए चले जाएं. मैं दोनों के लिए ही चाय बना कर लाती हूं,’’ बीच में ही सोमा काकी बड़े अधिकार से बोलीं और किचन की ओर बढ़ गईं.

‘‘आज काकी को न जाने क्या हो गया है. वे तो किसी को मेरे पास फटकने नहीं देतीं,’’ स्मिता का यह कहनाभर था कि अनुराग के चेहरे पर मुसकान आ गई, जिसे देख स्मिता को अच्छा लगा.
‘‘क्या कर रही हैं आजकल आप, कुछ नया?’’ अनुराग ने प्रश्न किया.
‘‘कुछ खास नहीं, फैक्ट्री का काम अच्छा चल ही रहा है, तो कोई दिक्कत नहीं.’’
‘‘मैं आप के बारे में पूछ रहा था फैक्ट्री के नहीं,’’ अनुराग ने स्मिता की आंखों में देखते हुए कहा.
‘‘मेरे बारे में जानने जैसा कुछ है ही नहीं,’’ स्मिता ने नजरें अनुराग के चेहरे से हटाते हुए कहा.
‘‘मु झे ऐसा नहीं लगता.’’

सोमा काकी चाय ले आईं. सोमा काकी वहीं पास खड़ी थीं और लगातार अनुराग को ताक रही थीं. उन्हें अनुराग के चेहरे पर एक अपनापन नजर आया था जो उन्होंने किसी और पुरुष के चेहरे पर नहीं देखा था. अनुराग का व्यक्तित्व उस के अच्छे इंसान होने की गवाही दे रहा था. सोमा काकी कमरे से बाहर गईं तो शामू काका से अनुराग को ले कर चर्चा करने लगीं.
‘‘प्रोफैसर साहब को ले कर तुम्हारा क्या खयाल है?’’ सोमा काकी ने पूछा.
‘‘अच्छे इंसान मालूम पड़ते हैं,’’ शामू काका ने जवाब दिया.
‘‘मु झे भी. बिटिया का चेहरा कितने दिन बाद इतना खिला हुआ दिख रहा है, है न?’’
‘‘पता नहीं, लेकिन तुम कह रही हो तो ऐसा ही होगा.’’
‘‘हां.’’

अनुराग चिराग को ले कर जाने लगा तो उस के चेहरे पर स्मिता से मिलने की चाह साफ नजर आ रही थी. अनुराग के जाते ही स्मिता सोफे पर बैठी हुई थी जब सोमा काकी उस के पास आ कर बैठ गईं.
‘‘मु झे तो प्रोफैसर साहब अच्छे लगे, और बिटिया तुम्हें?’’
‘‘हां, मु झे भी,’’ कहते ही स्मिता को खयाल आया कि उस ने अचानक क्या कह दिया. ‘‘क्या? ऐसा तो कुछ नहीं है, मेरा मतलब, हां, अच्छे व्यक्ति हैं,’’ कह कर उस ने नजरें दूसरी तरफ कर लीं.
‘‘मेरी तो हां हैं और शामू की भी,’’ कह कर सोमा काकी उठ कर जाने लगीं.
स्मिता उन की बात सुन कर  झेंप गई, बोली, ‘‘कुछ भी कहती हो आप.’’

अवि और चिराग आपस में बात करना चाहते थे तो स्मिता के फोन पर अनुराग का मैसेज आ जाता था. पर अब वह चिराग और अवि की बात कराने के लिए नहीं बल्कि खुद स्मिता से बात करने के लिए मैसेज करने लगा. धीरेधीरे अनुराग ने स्मिता से मोबाइल पर बात करनी शुरू कर दी. दो दुखी दिल, दो तन्हा इंसान ही एकदूसरे की पीड़ा सम झ सकते हैं. अनुराग ने अपनी पत्नी से तलाक के बाद दूसरी शादी के बारे में सोचा तक नहीं था. लेकिन, अपनी तरह ही स्मिता को देख वह उस के प्रति आकर्षित होने लगा था.

स्मिता और अनुराग जब बात करते थे, उन्हें लगता था उन के मन की पीड़ा कम हो गई है. दोनों एकदूसरे के अच्छे दोस्त बन गए थे. अनुराग का यह कहना, ‘स्मिता, तुम फिक्र मत करो. मैं हूं न. सब ठीक हो जाएगा,’ स्मिता की सब पीड़ा हर लेता.

सोमा काकी ने महसूस किया था जब से अनुराग स्मिता की जिंदगी में आया है, स्मिता के जीवन में आया खालीपन भरने लगा था. दोनों अपनीअपनी तकलीफ एकदूसरे से बांट कर जिंदगी की उल झनों को सुल झा रहे थे. बेशक वे एकदूसरे से दूर रहे थे लेकिन मन का जुड़ाव हो चुका था. मन से मन का मिलन कुछ कम तो नहीं होता.

दोनों की अपनीअपनी जिंदगी थी. दोनों पर अपने बच्चों की जिम्मेदारी थी. वे उन्हें अच्छी तरह निभा रहे थे. लेकिन दोनों के पास आज एकदूसरे का मानसिक संबल था जो शारीरिक संबल से भी जरूरी है. वक्त की धारा में दोनों बह रहे थे.

‘‘स्मिता बिटिया, किस सोच में हो, तुम्हारा खूबसूरत भविष्य तुम्हारा इंतजार कर रहा है. शादी के बारे में क्यों नहीं सोचतीं,’’ सोमा काकी ने एक दिन कहा.
‘‘डर लग रहा है काकी. समाज क्या कहेगा, बच्चे क्या सोचेंगे कि उन की मां को शादी की पड़ी है.’’
‘‘बच्चे छोटे हैं स्मिता, वे पिता की कमी महसूस करते हैं जो प्रोफैसर साहब पूरी कर सकते हैं. वे भी तुम से शादी करना चाहते हैं, उन की बातों से, उन की आंखों से साफ  झलकता है.’’
‘‘पूछा था अनुराग ने मु झ से, मैं ने ही मना कर दिया था.’’
शामू काका भी वहां आ चुके थे.

‘‘स्मिता बिटिया, सोमा सही कह रही है, समाज हमारे साथ ऐसा करता ही क्या है जो हम उस के बारे में सोचें, अपने दिल की सुनो बिटिया. बच्चों को पिता भी मिल जाएगा.’’
शामू काका और सोमा काकी के जाने के बाद स्मिता सोच में डूब गई. सुमित को याद करने लगी, अपने वे दिन याद करने लगी जब लोगों की नजरें उसे तारतार करने की कोशिश करती थीं. अनुराग से मिलने से पहले कितना दर्द था उस के दिल में. सब स्मिता की आंखों के आगे नाचने लगा.
स्मिता ने फोन उठाया और अनुराग को कौल किया.
‘‘हैलो, अनुराग.’’
‘‘हां स्मिता, कहो?

‘‘मैं तुम्हारा हाथ थाम कर आगे बढ़ना चाहती हूं. ऐसा लगता है कि हम साथ होंगे तो सब उलझनें सुलझ जाएंगी.’’
‘‘स्मिता, मैं तुम से वादा करता हूं कि तुम्हारी आंखों में आंसू नहीं आने दूंगा कभी.’’ अनुराग के इन शब्दों से स्मिता का रोमरोम पुलकित हो उठा था.

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