सफेद सियार: भाग 4- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका जो बड़े ध्यान से अब तक जुगल की बातें सुन रही थी, अचानक पूछ बैठी, “अच्छा जुगल, एक बात बताओ. तुम इतने उदास और गंभीर क्यों रहते हो?”

“इन सब के पीछे लंबी दास्तान है. शोषण, स्वार्थ और सफेदपोश दिखने वाले लोगों से मैं जितनी नफरत करता था, आज उन्हीं के बीच मजबूरी में ये नौकरी कर रहा हूं. मैं ही नहीं मेरा भाई शिवम, जो उन के औफिस या यों कहो कि पर्सनल सिक्योरिटी में रातदिन लगा रहता है. वह तो इन की काली करतूतें देख कर खून का घूंट पी कर रह जाता है.”

“काली करतूतें…? मैं कुछ समझी नहीं.”

“आप न ही समझिए तो अच्छा है. हम तो मजबूर हैं, इसलिए जमे हुए हैं. जिस दिन स्थितियां अनुकूल होंगी और फैक्टरियां खुल जाएंगी, उसी दिन ऐसी नौकरी को हम लात मार कर चले जाएंगे.”

अंशिका ने आगे पूछा, “तुम्हारे इस संस्थान में कुछ लड़कियां भी काम करती हैं क्या?”

“हां, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का काम 3 लड़कियां करती हैं और एक मजबूर शादीशुदा लड़की को उन्होंने अभी कोई एक महीना पहले उस के पति की कोरोना से मौत हो जाने के बाद रखा है.”

“इन दिनों तो इस संस्थान ने हेल्थ वर्कर्स को अपौइंटमेंट कर के अस्पतालों में ड्यूटी पर भेजने का भी ठेका ले रखा है.”

जुगल के जाने के बाद अंशिका सोचने लगी, कंप्यूटर में डाटा एंट्री का कोर्स तो उस ने भी किया हुआ है और मैं यह काम अच्छे से कर भी सकती हूं. लेकिन, बनवारी अंकल की वो गंदी नीयत…

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कई बार उस का मन हुआ कि वह उन्हें फोन लगा कर पूछे, ‘अंकल, क्या मैं भी आप के संस्थान वाले औफिस में डाटा एंट्री औपरेटर के रूप में जौब पा कर कुछ इनकम कर सकती हूं?’

वह जानती थी कि कुछ महीनों पहले तक जो उसे देखने, छूने के बहाने प्यार करने के लिए बेचैन हो जाता था, वह उस की इतनी बात तो मान ही लेगा.

कुमुद की मनोदशा को समझते हुए उस ने इस विषय में अब तक कोई बात नहीं की थी. लेकिन, इस महीने के अंतिम दिन जब बनवारी का फोन अंशिका के पास आया, तो उस ने स्पीकर औन कर के मां को फोन पकड़ाते हुए धीरे से कहा, “बनवारी अंकल का फोन है. लो, बात कर लो.”

उधर से बनवारी की आवाज सुनाई दी, “भाभीजी, आप सोच रही होंगी कि मधुसूदन का ये कैसा दोस्त है, जिस ने उन के और बेटे के कोरोना के कारण जान गंवाने के बाद घर आ कर सुध तक नहीं ली. लेकिन, ऐसा नहीं है. मेरे समाजसेवी संस्थान के वर्कर्स लगातार अंशिका के संपर्क में थे. मैं ने 2-3 बार आप को फोन भी मिलाया, पर शायद अंशी ने काट दिया.”

उधर से इतना सुनते ही अंशिका ने फोन अपने हाथ में ले कर कहा, ”अंकल, मां वैसे ही इतने सदमे में थी. बड़ी मुश्किल से मैं उन्हें संभाले हुए थी. और आप की आवाज सुन कर वह फिर बीते हुए समय में चली जातीं, तब उन्हें संभालना और भी मुश्किल हो जाता, इसलिए मैं ने फोन…”

बात खत्म होने से पहले ही उधर से बनवारी की आवाज सुनाई दी, “मैं समझ सकता हूं अंशी. तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है. कल से लौकडाउन खत्म हो रहा है. मैं कल तुम्हारे घर आ रहा हूं. बोलो, तुम्हारे लिए क्या लेता आऊं. जलेबी या गरमागरम समोसे…”

“जो भी आप को अच्छा लगे ले आइए अंकल,” अपनी आवाज में पूरी मिठास घोलते हुए अंशिका ने कहा. इस समय तो उस ने बनवारी लाल के संस्थान में नौकरी करने का पक्का मन बना लिया था.

बनवारी लाल भला क्यों न आता. वह आया झक सफेद पठान सूट में. काले रंगे हुए बाल और मूंछ, सुनहरी मूठ वाली छड़ी.

आते ही बनवारी ने जलेबी और समोसे मुसकराते हुए अंशिका को पकड़ाए. पैकेट पकड़ाते समय अंशिका ने अपनी गुदाज हथेली पर बनवारी के उस रेशमी स्पर्श से मिलने वाले प्यार के संकेत को भांप लिया था. परंतु ना जाने क्यों उसे बुरा न लगा. अब कोई किसी को कुछ देगा तो ऐसा स्पर्श स्वाभाविक भी हो सकता है. उस ने अपने मन को समझाया.

इतना तो बनवारी रूपी सफेद सियार के लिए बहुत था कि वह अंशिका रूपी जिस बिल्ली पर कई सालों से घात लगाए बैठा था, वह खुद उस के करीब आने वाली है. इसलिए बनवारी को अपने सामने देख जब कुमुद मधुसूदन को याद कर के विलाप करने लगी, तो वह अपनापन दिखाते हुए बड़े मीठे शब्दों में बोला, “अब देखो न भाभी, होनी कितनी बलवान होती है. उस दिन मधुसूदन को वैक्सीन का पहला टीका लग जाता तो ये सब न हुआ होता. अब जो होना था हो गया. अब मुझे आदेश दो कि मैं तुम्हारी और क्या सहायता कर सकता हूं.”

कुमुद कुछ कहती, इस से पहले ही ट्रे में चाय और प्लेटों में बनवारी द्वारा लाए समोसे, जलेबी सामने वाली मेज पर रखती हुई अंशिका बोली, “अंकल, आप तो बस इतना कर दो कि मुझे अपनी संस्था वाले औफिस में डाटा एंट्री आपरेटर के रूप में नौकरी पर रख लो.”

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“बस इतनी सी बात… मेरे रहते तू डाटा एंट्री आपरेटर की नौकरी करेगी. अरे, तेरे लिए मैं औफिस इंचार्ज की पोस्ट क्रिएट कर के वहां बैठा दूंगा. बस तुझे अपने सारे सर्टिफिकेट ले कर कल शाम तक इंटरव्यू के लिए आना होगा. अब संस्था में नौकरी के लिए फोरमैलिटी तो पूरी करनी ही पड़ेगी.”

“अंकल, मेरा इंटरव्यू तो आप ही लोगे ना?”

“तुझे इतना सब सोचने की जरूरत नही है,” कहते हुए बनवारी ने समोसा खाने के बाद चाय का घूंट भरते हुए कहा, “देख रही हो भाभी, मुझे यह अंकल भी कहती है और डरती भी है, जबकि सेलेक्शन मुझे ही करना है.”

“बेटी, जब अंकल कह रहे हैं तो डरना कैसा…? मेरे लिए तो इस से अच्छी कोई बात हो ही नहीं सकती कि जानपहचान वाली जगह पर तू नौकरी करेगी, तो मैं भी बेफिक्र रहूंगी और घर में खर्चे के लिए कुछ रुपए भी आने लगेंगे. वैसे भी इस महीने का किराया भी तेरे अंकल को देना है.”

“भाभी, वह तो तुम पेटीएम कर देना. अब मैं चलता हूं. कल ड्राइवर को कार के साथ भेजूंगा. वह अंशी को घर से पिकअप कर लेगा और औफिस के इंटरव्यू रूम तक पहुंचा देगा.”

आगे पढ़ें- आज उसे न जाने क्यों बनवारी…

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भाई का  बदला: भाग 2- क्या हुआ था रीता के साथ

इधर अमन और उस के पिता समझ चुके थे कि रमन का मन पढ़ाई में नहीं लग रहा है.  वह दिनभर फोन और कंप्यूटर पर लगा रहता है  हालांकि रीता के बारे में उन्हें कुछ पता न था.  सेठ ने  दोनों बेटों को बुला कर कहा, “मैं सोच रहा हूं, तुम दोनों की शादी पक्की कर दूं.  सेठ जमुनालाल ने अपनी इकलौती बेटी दिया के लिए रमन में दिलचस्पी दिखाई है. हालांकि, दिया  ट्वेल्फ्थ ड्रौपआउट  है पर उस में अन्य सराहनीय गुण हैं. मैं देख रहा हूं कि   रमन का जी पढ़ाई में नहीं लग रहा है.   अमन के लिए भी एक लड़की है मेरी नजर में, कल ही उस के पिता से बात करता हूं. उसे तुम भी जानते हो, शालू, जो कुछ साल तुम्हारे ही स्कूल में पढ़ी थी.  वह बहुत अच्छी लड़की है, मुझे तो पसंद है.“

अमन बोला, “हां, मैं शालू को जानता हूं पर  पापा मेरी पढ़ाई अगले साल पूरी हो रही है, इसलिए तब तक  मैं शादी नहीं करूंगा.“

“मैं ने शालू के पिता को भरोसा दिया है कि अमन मेरी बात नहीं टालेगा. उन्हें इनकार कर मुझे बहुत दुख होगा.“

“पापा, आप का भरोसा मैं नहीं टूटने दूंगा, न ही आप उन्हें इनकार करेंगे. बस, आप उन से कहिए कि चाहें तो सगाई अभी कर सकते हैं और शादी मेरे फाइनल एग्जाम के बाद होगी.”

“बहुत  अच्छी बात कही है तुम ने बेटा, सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे वाली बात हुई. ठीक है, मैं उन्हें बता दूंगा.“

“ठीक है, शादी अगले साल ही होगी.  इसी साल किसी अच्छे मुहूर्त देख कर तुम दोनों भाइयों की सगाई कर देता हूं.“

“ओके पापा.“

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एक महीने के अंदर दोनों भाइयों  की सगाई होने वाली थी.  रमन ने यह सूचना अपनी फेसबुक फ्रैंड रीता को बता दी.  रीता ने उसे बधाई  दी.  अगले दिन से रीता के अकाउंट्स से रमन को धमकियां  मिलने लगीं- “तुम ने एक नाबालिग लड़की से फेसबुक पर अश्लील हरकतें की हैं.  मैं तुम्हारे सारे फोटो तुम्हारी मंगेतर, तुम्हारे पापामम्मी और सारे फ्रैंड्स व रिश्तेदारों  को फौरवर्ड कर दूंगी  और साथ ही, सोशल मीडिया पर भी.“

“तुम कैसी फ्रैंड हो…  मैं ने तुम्हारी मदद की और अब तुम मुझे बेइज्जत करने की सोच रही हो?“ रमन ने कहा.

“मैं कुछ नहीं जानती, एक नाबालिग लड़की से ऐसी गंदी हरकतें करने के पहले तुम्हें सोचना चाहिए था.  अगर तुम अपने परिवार को बेइज्जती और बदनामी से बचाना चाहते हो तो  तुम को मुझे 10 लाख रुपए देने होंगे.  सेठ रोशनलाल के बेटे  हो और सेठ जमुनालाल के इकलौते दामाद बनने जा रहे हो. इतनी रकम जुटाना कोई बड़ी बात नहीं है.“

“इतनी बड़ी रकम मैं नहीं दे सकता.“

“अगर तुम नहीं मानते,  तब मुझे भी मजबूर हो कर सख्त कदम उठाना होगा. सभी को तुम्हारी गंदी और अश्लील हरकतों की जानकारी देनी होगी. दोनों परिवारों की बदनामी तो होगी ही और तुम दोनों भाइयों की शादी का क्या होगा, वह तुम समझ सकते हो.“

कुछ दिनों तक दोनों के बीच ऐसा ही चलता रहा.  रमन बहुत परेशान और दुखी रहने लगा.  घरवालों के पूछने पर कुछ बताता भी नहीं था.  अब  सगाई में मात्र 10 दिन रह गए थे.  रीता ने रमन से कहा, “ब मैं और इंतजार नहीं कर सकती.  तुम्हें, बस, 3  दिन का समय दे रही हूं.  तुम रुपए ले कर जहां कहूं वहां आ जाना. कब और कहां, मैं थोड़ी देर में  बता दूंगी.  वरना, अंजाम तुम समझ सकते हो.“

एक रात अमन  छोटे भाई रमन  के कमरे के सामने से गुजर रहा था. रमन का कमरा अधखुला था.  उस ने रमन को  कमरे में तकिए में मुंह छिपा कर सिसकते देखा. वह  रमन के पास गया  और उस से रोने का कारण पूछा. रमन अपने भाई के गले लग कर रोने लगा. अमन ने उसे चुप कराया और  कहा, “अपने भाई से अपने दुख का कारण शेयर करो. अगर  मैं तुम्हारा दुख कम नहीं कर सका, तब भी शेयर करने से  कम से कम मन का बोझ कम हो सकता है.  चुप हो जाओ और अब  शेयर करो अपनी बात.“

रमन ने रोते हुए अपने  और रीता के बीच हुई सारी बातें बताईं. रमन की बातें सुन कर अमन बोला, “बस, इतनी सी बात है. तुम अब इस की चिंता छोड़ दो. हम दोनों मिल कर उस रीता की बच्ची को छठी के  दूध की याद दिला देंगे. इतना ही नहीं, हम दोनों की भावी पत्नियां भी रीता को सबक सिखाने में हमारी मदद करेंगी.“

“पर क्या शालू भाभी और दिया को यह बताना सही होगा?“

“अगर सही नहीं है तो इस में कुछ गलत भी नहीं है. तुम्हारी गलती इतनी है कि तुम अपनी  नादानी और बेवकूफी के कारण  रीता के ब्लैकमेल के जाल  में फंस चुके हो. तुम्हें शायद पता नहीं है कि शालू को आईटी की अच्छी जानकारी है. दिया तुम्हारी भावी पत्नी है, उसे तुम सचाई बता सकते हो. इतना ही नहीं, दिया ताइक्वांडो में ब्लैक बेल्ट ले चुकी है. इन दोनों को अपने जैसा कमजोर न समझो. हम चारों मिल कर इस स्थिति से निबटने का कोई  उपाय निकाल लेंगे.  तुम दिया को कौन्फिडैंस में लो और रीता से बात करते रहो कि पैसों  का इंतजाम कर रहा हूं, कुछ समय दो.“

“क्या हमें पुलिस की मदद लेनी होगी?“  रमन ने पूछा.

“नहीं, अगर लेनी भी पड़ी तो  रीता को पकड़ने के बाद. आखिर तुम्हारी तसवीरें तो उस के मोबाइल या अन्य सिस्टम में स्टोर हैं और वह तुम्हें गलत साबित कर सकती है.”

दोनों भाई और उन की भावी पत्नियों ने मिल कर रीता से निबटने का प्लान बनाया. रमन ने रीता को फोन कर कहा, “देखो 10 लाख रुपए का इंतजाम तो मैं नहीं कर सकता, 5 लाख रुपए तो तैयार ही समझो. इतने से  तुम्हारा काम हो जाना चाहिए.“

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फोन की बातें अमन, दिया और शालू भी सुन रहे थे. रीता ने कहा, “नहीं, 5 लाख से काम नहीं चलेगा.“

रमन बोला, “तब ठीक है, कल के पेपर में मेरे सुसाइड करने की खबर पढ़ कर तुम्हारा काम हो  जाना चाहिए.“

“अरे नहीं यार, मैं उतनी जालिम नहीं हूं. तुम्हारे मरने से मुझे क्या हासिल होगा. ऐसा करो, 2 लाख और दे देना. बस, फुल एंड फाइनल,“ रीता बोली.

आगे पढ़ें- अगले दिन रीता ने फोन कर रुपयों के साथ..

सफेद सियार: भाग 3- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका ने कार के पीछे वाले कांच पर पेंट से लिखा हुआ प्रचार विज्ञापन पढ़ा, “कोरोना विपदा की इस घड़ी में आप का सच्चा साथी ‘जागृति सेवा संस्थान’. उस के नीचे ब्रैकेट के अंदर छोटे अक्षरों में लिखा था, “आप भी इस संस्था को कोई भी राशि दान कर सकते हैं. आप का छोटा सा सहयोग इस आपदा की घड़ी में गरीबों और जरूरतमंदों के काम आ सकता है.”

उन के जाते ही बाहरी दरवाजा बंद कर के अंदर आ कर अंशिका ने सामान एक तरफ रखा. कमरे में झांक कर मां को देखा. वे अभी भी सो ही रही थीं.

पूरे घर में उदास सा सन्नाटा पसरा था. फ्रेश होने के लिए बाथरूम की तरफ कदम बढ़ाने से पहले अंशिका ने हाथ में पकड़े कार्ड पर नजर डाली और संस्था के संस्थापक और संचालक का नाम पढ़ कर चौंक पड़ी, ‘बनवारी लाल’.

फ्रेश होने के बाद वह चाय का थर्मस और 2 कप लिए हुए गहरी नींद में सो रही मां के पलंग के पास पड़ी कुरसी पर आ कर बैठ गई. उस ने एक बार और कार्ड को फिर से उलटपुलट कर देखा और सोचने लगी कि बनवारी अंकल तो बहुत बड़ी समाजसेवा में जुटे हैं. उन के प्रति अब तक तो वह बहुत गलत धारणा पाले हुए थी.

उस की नजरों मे वो दृश्य घूम गया, जब 4 साल पहले वह अपने मातापिता और भैया के साथ बनवारी अंकल की कार में बैठ कर उन का ये घर देखने आई थी. उसी साल उस के पिता फर्टिलाइजर फैक्टरी के स्टोर इंचार्ज पद से रिटायर हुए थे. पेंशन न के बराबर थी. फंड का जो पैसा मिला था, उस में से कुछ रकम उन्होंने एफडी में डाल दी थी और कुछ रुपया जमीन खरीदने में फंसा दिया था.

मधुसूदन सोचते थे कि जमीन मिलते ही रजिस्ट्री करवा कर अंशिका की शादी के लिए जब वह उसे बेचेंगे तो अच्छी रकम हाथ आ जाएगी, इसलिए वह निश्चिंत थे.

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मधुसूदन के रिटायरमेंट से कुछ महीने पहले आलोक का ग्रेजुएशन पूरा हो चुका था. उस की रुचि टूर ऐंड ट्रेवल्स के क्षेत्र में जाने की ज्यादा थी, इसलिए उस ने मास्टर इन टूरिज्म का डिप्लोमा करने के बाद कई जगह एप्लाई करना शुरू कर दिया था. दिन बीत रहे थे, लेकिन कोरोना ने सारी प्लानिंग चौपट कर दी थी.
हालांकि तब तक वे सब इस घर में आ चुके थे.

इस से पहले जिस घर में पिछले कई सालों से वे किराए पर रहते थे, वह काफी पुराना और कई तरह की सुविधाओं से वंचित था. धूप तो आती ही नहीं थी. पानी की भी हमेशा किल्लत बनी रहती थी.

फिर जब एक दिन मधुसूदन ने घर आ कर बताया कि कभी उन के साथ ही स्टोर का कार्यभार संभालने वाला बनवारी लाल, जो बीच में ही नौकरी छोड़ कर क्षेत्रीय राजनीति में घुस कर ठेकेदारी करने लगा था, उस का धनबाद में एक नया बना मकान खाली पड़ा है और वो हमें किराए पर देने को तैयार है.

उन सब को अपनी कार में ले कर जब वह इस घर में आया, तो मकान दिखाते समय बनवारी ने कई बार अंशिका के कंधों पर, पीठ पर या फिर सिर पर प्यार भरे हाथ फेरते हुए उसे अंशिका की जगह अंशी कहते हुए पूछा, “क्यों अंशी, कैसा लगा मकान?”

बनवारी का स्पर्श तभी होता था, जब सब का ध्यान मकान में बनी सुविधाएं देखने में लगा होता.

जब अंशिका उन की तरफ देखती, तो उसे अंकल की नीयत में खोट लगती. वह दौड़ कर मां या भाई के पास पहुंच कर खड़ी हो जाती.

मधुसूदन, कुमुद और आलोक के साथ मकान तो अंशिका को भी पसंद आ गया था, परंतु उसे बनवारी अंकल की नीयत समझ में नहीं आई थी. उस ने अपने मन को समझाया, ”अरे, कौन सा मुझे यहां अकेले रहना है…? पापा, भैया और मम्मी सभी तो साथ रहेंगे.”

मधुसूदन और उस का पूरा परिवार बनवारी के इस मकान में किराए पर रहने लगा. बनवारी 1 से 7 तारीख के बीच मिलने आ जाता. एक मकसद तो किराया लेना होता था और दूसरा अंशिका पर अपना प्रभाव डालना.

इस के लिए बनवारी कभी जलेबी, तो कभी गरमागरम समोसे, गुलाब जामुन या फिर खस्ता कचौड़ी अवश्य ले आता और तब खाता, जब पापा या मम्मी द्वारा अंशिका को सामने बुला कर बैठा न लेता…

मधुसूदन के हार्ट के आपरेशन के बाद जब कुमुद अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में देखरेख के लिए वहीं रहती और आलोक घर से अस्पताल की दौड़भाग में लगा होता, तो बनवारी मौका ताड़ कर अंशिका से मिलने चला आता.

हाथ में पकड़े हुए गरम समोसे और जलेबी के पैकेट अंशिका को पकड़ाते हुए कहता, “तुम्हारे पापा को देख कर अस्पताल से लौट रहा था, तो मन हुआ कि अपनी अंशी के लिए लेता चलूं और उस के हाथ की चाय पीता जाऊं.”

अंशिका को समझ में नहीं आता कि वह करे तो क्या करे. वह उन के लिए जल्दी चाय बना लाती, ताकि जल्द ही वह घर से चला जाए. बनवारी की नीयत वह खूब समझती थी.

एक दिन अंशिका ने हिम्मत कर के टोक ही दिया, ”अंकल, अब मुझे न समोसे पसंद आते हैं और न ही जलेबी. आप को ये सब लाने की कोई जरूरत नहीं है.”

“तो तुझे और क्या पसंद है, मुझे बता. मैं वही चीज ले आया करूंगा.”

“मुझे एकांत और अकेले में रहना पसंद है. मैं चाहती हूं कि कोई मुझे डिस्टर्ब न करे.”

उस के बाद बनवारी के आने वाले समय पर अंशिका घर में ताला लगा कर अड़ोसपड़ोस की किसी सहेली के यहां चली जाती और वहीं से भाई आलोक को फोन कर के बता देती कि लौटते समय वह उसे ले ले.

मधुसूदन के अस्पताल से वापस आने तक यही चलता रहा. फिर सब सामान्य हो गया.

बनवारी मधुसूदन से किराया लेने तो आता, पर उसे लगता कि अंशिका ने अपनी मां को कहीं सब बता न दिया हो, क्योंकि वह एक अज्ञात डर से कुमुद से बहुत देर तक आंख मिला कर बात नहीं करता.

एक बार कुमुद ने टोक दिया, “क्यों बनवारी भैया, अब तुम हमें समोसे ला कर नहीं खिलाते.”

इतना सुनते ही वह चौंक गया, फिर बात बनाते हुए बोला, “अरे भाभी, अब मेरा उधर जाना नहीं होता. और फिर मुझे अब समोसेजलेबी अच्छे भी नहीं लगते,” कहते हुए वह किराया ले कर तुरंत मधुसूदन के पास से उठ जाता, लेकिन उस की चोर निगाहें अंशिका को आसपास खोजतीं जरूर.

समय ऐसे ही बीत रहा था.

वह तो भला हो कि पिछला पूरा साल लौकडाउन में बीता और बनवारी लाल का इस घर में आनाजाना न के बराबर हो गया. शायद उसे डर था कि कहीं वह भी कोरोना वायरस की चपेट में न आ जाए.

आलोक ने अपनी मां कुमुद के मोबाइल पर पेटीएम अकाउंट बना दिया था. महीने का किराया उसी से बनवारी के पेटीएम अकाउंट में जमा हो जाता था.

अचानक अंशिका विचारों से बाहर निकल आई. कुमुद की आंख खुल गई थी. हड़बड़ा कर वह उठ कर पलंग के नीचे पैर लटका कर बैठ गई.

कुछ देर बाद जैसे ही उस के मस्तिष्क ने कल रात के घटनाक्रम को आज के समय से जोड़ा, तो वह फिर जोरों से कराह उठी, रोने और सिसकने लगी.

अंशिका ने कुरसी से उठ कर मां से सट कर बैठते हुए बड़ों की तरह समझाया, “मां, अब हमें धैर्य और हिम्मत से काम लेना होगा. रोनेधोने से कोई भी वापस आने वाला नहीं. तुम उठो, फ्रेश हो, हाथमुंह धो लो, कुल्लामंजन करो, फिर मैं तुम्हें गरमागरम चाय बना कर पिलाती हूं.”

“अरे, चाय तू ने कब बनाना सीख ली. तुझे तो पता है कि घर में किसी की डेथ हो जाने के बाद 5 दिन तक चूल्हा नहीं जलता है… और तू…”

“लेकिन मां, मैं ने चूल्हा नहीं जलाया. हां, यदि समाजसेवी संस्था वाले इस थर्मस में चाय और दोनों वक्त का खाना न दे जाते तो मैं गैस जला कर चाय और खाना जरूर बनाती. आप को भूखा थोड़े ही रहने देती और न खुद रहती.”

“लेकिन, अभी दाह संस्कार और शुद्धि हवन तक नहीं हुआ है और…”

“सब हो गया मां. समाजसेवी संस्था के जो लोग आए थे, उन्होंने पापा और भैया का दाह संस्कार भी कर दिया और शुद्धि हवन भी वही करवा देंगे.”

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“लेकिन बेटी…?”

“मां प्लीज अब सामने जो सच है, उसे स्वीकार करो. और सोच लो कि अब हमें और तुम्हें ही अपना जीवन चलाना है. तुम ने ही नहीं, मैं ने भी अपनों को खोया है, लेकिन ये निराशा भरी और पुरानी सोच वाली बातें भूल जाओ, पहले फ्रेश हो कर आओ.”

कुमुद यंत्रवत सी उठी. लौटी तो अंशिका ने उन्हें चाय पिलाई.

देखते ही देखते ये हफ्ता, इस से अगला हफ्ता भी बीत गया. लौकडाउन की अवधि 1-1 हफ्ते के हिसाब से राज्य सरकार द्वारा बढ़ाई जाती रही.

‘जागृति सेवा संस्थान’ के लड़के अदलबदल कर हालचाल लेने और आवश्यक घरेलू सामान पहुंचाने आते रहे. उन्हीं में से एक लड़का इधर लगातार आ रहा था, जो देखने मे हैंडसम और पहनावे से कुछ पढ़ालिखा और किसी अच्छे परिवार का लग रहा था, लेकिन कम बोलता था. चेहरे से हमेशा गंभीर बना रहता था. उस से अंशिका ने एक दिन पूछ लिया, ”क्या नाम है तुम्हारा?”

“जुगल किशोर.”

“इस संस्था में कब से जुड़े हो?”

“पिछले 5 महीने से. मोटर के स्पेयर पार्ट बनाने वाली फैक्टरी पिछले लौकडाउन में ही बंद हो गई थी और हमारे जैसे सभी टेक्निकल सर्टिफिकेट कोर्स करे हुए मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया गया था.

“अब घर में सब का पेट तो भरना ही है, इसलिए बनवारी लाल के सेवा संस्थान में ड्राइवर की नौकरी कर ली. उन की परमिट मिली गाड़ी ले कर संस्थान के काम से इधरउधर जाता रहता हूं.

“मेरा शादीशुदा चचेरा भाई भी बेरोजगार हो कर परेशान था. उसे भी मैं ने इस संस्थान के औफिस में सिक्योरिटी गार्ड की ड्यूटी पर लगवा दिया है.”

आगे पढ़ें- अंशिका ने आगे पूछा..

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सफेद सियार: भाग 2- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

आईसीयू के गहरे नीले रंग के कांच के बाहर उसे रोक कर वार्ड बौय ने स्ट्रेचर पर पड़े पिता को अंदर ले जा कर एडमिट करा दिया.

अंदर से आईसीयू की नर्स ने बाहर निकल कर आलोक से कुछ कागजों पर आवश्यक डिटेल भरवाई, फिर कई जगह आलोक के दस्तखत ले कर कहा, “मिस्टर आलोक, आज तो मजबूरी थी, वरना कोविड के आईसीयू वार्ड के आसपास किसी का भी आनाजाना वर्जित है. कल से आप को नीचे रिसेप्शन लौबी में कुछ देर के लिए प्रवेश मिलेगा और वहीं से संबंधित रोगी का स्वास्थ्य स्टेटस भी मिल जाएगा. अब आप जा सकते हैं.”

कांच के बाहर से ही आलोक ने एक असहाय सी नजर से आईसीयू के बेड पर लिटा दिए गए बेहोश पिता को देखने का प्रयास किया. उन के चेहरे पर औक्सीजन मास्क चढ़ा दिया गया था. स्लाइन और दवाएं भी हथेली की नसों के द्वारा शरीर में जानी शुरू हो गई थीं.

आलोक का वहां से हटने का मन नहीं हो रहा था. वह कुछ देर और वहीं खड़ा रहना चाहता था, तभी आईसीयू की सिक्योरिटी में लगे गार्ड ने आलोक के साथ वहां इक्कादुक्का और भी फालतू खड़े लोगों को बाहर निकाल दिया.

उस दिन आलोक घर तो आ गया. मां को सब हाल बता कर संतुष्ट भी कर दिया, पर भीतर ही भीतर बहुत बेचैन था. ये कैसी महामारी है, जिस ने सब का पिछला साल भी खराब कर दिया और इस साल भी भयंकर रूप से फैले चली जा रही है.

उस के बाद अगले 26 दिनों तक वह घर से अस्पताल लौकडाउन की सारी बाधाओं को दूर कर अस्पताल तो पहुंच जाता, जबकि उसे पता चल गया था कि उस की रिपोर्ट भी पोजिटिव आई है, लेकिन अगर उस ने बता दिया और कहीं उसे भी एडमिट कर लिया गया तो मां और अंशिका का क्या होगा. कौन दौड़भाग करेगा, इसलिए उस ने इस बात को अपने भीतर ही छुपा लिया.

अब तक बैंक के बचत खाते में जमापूंजी भी तेजी से घटती जा रही थी. उसे याद आया कि उस ने पापा और मम्मी के लिए ‘आयुष्मान भारत’ कार्ड के औनलाइन आवेदन के बाद कितनी दौड़भाग की थी, लेकिन स्वास्थ्य विभाग को सारी जानकारी उपलब्ध कराने के बाद भी उन का कार्ड नहीं बन पाया था.

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हालत और बिगड़ने पर मधुसूदन को वेंटिलेटर पर रख दिया गया था. रोज महंगा रेमडेसिविर इंजेक्शन, औक्सीजन के सिलेंडर का खर्चा. वह तो उस वार्ड बौय की मदद से उसे थोड़ा महंगे दामों में ही सही, लेकिन उपलब्ध हो जाता था वरना कुछ लोग तो उस इंजेक्शन को खरीदने के लिए अस्पताल की फार्मेसी के बाहर लगी लाइन में खड़े ही रह जाते थे.

रुपया पानी की तरह बहता चला जा रहा था. आलोक रोज अस्पताल तो आ जाता, पर पिता के दर्शन न हो पाते. बस इतना पता चलता कि उन की काफी देखभाल की जा रही है. हालत स्थिर बनी हुई है.

कोई 26-27 दिन के इलाज के बाद जब अगले दिन आलोक अस्पताल के वेटिंग लाउंज मे पहुंचा, तो उस का शरीर पसीने से नहा उठा, सांस घुटने सी लगी और औक्सीजन लेवल एकदम से गिर गया. पसलियों में उठने वाली असीम पीड़ा से कराहता हुआ वह धड़ाम से वहीं फर्श पर गिर गया. जब तक उसे उठा कर इमर्जेंसी वार्ड तक ले जाया जाता, उस के प्राण पखेरू उड़ चुके थे.

उसी समय वेटिंग लाउंज में लगे टीवी पर कल रात कोविड संक्रमण से मरने वालों के जो नाम लिए गए थे, उन में एक नाम मधुसूदन का भी था.

एक रात के इंतजार के बाद और लाशों के साथ मधुसूदन और आलोक की लाशों को भी प्लास्टिक में लपेट कर अस्पताल की खचाखच लाशों से भरी मोर्चरी में अंतिम संस्कार के लिए ले जाने के क्रम में रख दिया गया.

पूरी रात और अगली दोपहर तक जब आलोक घर नहीं पहुंचा, तो कुमुद का मन कई सारी आशंकाओं से घिर कर बेचैन हो उठा. वह अंशिका से बोली, “बेटी, मुझे बहुत घबराहट हो रही है. तू मुझे अस्पताल ले चल.”

“अरे मम्मी, आप परेशान मत हो. हो सकता है कि पापा ठीक हो गए हों. भैया पापा को ले कर आते हों.”

कुमुद कुछ देर के लिए तो शांत हो गई, लेकिन फिर से उस का मन किसी अज्ञात आशंका से घबरा उठा. लौकडाउन की अवधि लगातार बढ़ती जा रही थी. परिस्थितियां सामान्य होतीं, तो वह मधुसूदन की देखरेख के लिए अस्पताल में ही होती.

2 साल पहले प्राइवेट अस्पताल में उन के हार्ट के आपरेशन के समय कुमुद किस तरह उन के पास ही रही थी. लेकिन इन दिनों कोविड संक्रमण और लौकडाउन के भय ने सब को बांध कर रख दिया था.

लोग अपने रिश्ते और कर्तव्य निभाने में भी असमर्थ थे. यहां तक कि अपनों की मौत के बाद लोग कंधा देने को तरस रहे थे.

सोचतेसोचते अचानक कुमुद को कुछ खयाल आया. उस ने अंशिका से कहा, “तू बनवारी अंकल को फोन लगा. वही कुछ पता लगा कर बता सकते हैं.”

अंशिका ने बनवारी को फोन लगा कर सारी स्थिति से अवगत कराया, तो उन्होंने कहा, “बेटी, मैं संक्रमित होने के डर से चूंकि घर से बाहर झांक तक नहीं रहा हूं, इसलिए अस्पताल जा तो सकता नहीं. हां, वहां की एक हेल्थ वर्कर मेरी परिचित है. मैं उस से पता कर के कुछ देर में तुम्हें फोन करता हूं. अपनी मां से कहो कि वह परेशान न हों.”

कुछ ही देर बाद उधर से बनवारी ने जो सूचना दी, तो कुमुद तो दहाड़े मारमार कर छाती पीटने लगी और अंशिका किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गई.

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बनवारी ने उसी मोबाइल पर व्हाट्सएप मैसेज में वो फोटो भी फोरवर्ड कर दी थी, जिस में पौलीथिन में लिपटे, केवल चेहरा खुले मृतक मधुसूदन और आलोक के शव थे, जिन्हें देख कर कुमुद का रुदन और तेज हो गया. वह बाहरी दरवाजे की ओर पागलों सी चिल्लाती भागने को हुई. अंशिका ने पूरी ताकत लगा कर अपनी मां को दोनों बांहों में कस कर जकड़ लिया और बोली, “कहां जाना चाह रही हो मां? तुम अस्पताल पहुंच भी गईं तो कौन मिलेगा वहां? उन के दाह संस्कार के लिए हमें बौडी तो मिलने से रही… फिर उन दोनों की मौत कोरोना से हुई है. कहीं तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा?”

कुमुद के शरीर में थोड़ी शिथिलता आई, लेकिन रोना जारी था. अंशिका ने उन्हें वापस ला कर बिठाया. वह भी खूब चीखचीख कर रोना चाह रही थी, परंतु अपने को संभाले हुए कुमुद के सीने से लिपट उन के घायल दिल से निकलने वाले शब्द सुनते हुए सिसक रही थी.

“अरे, ये क्या हो गया… अब हमारा और इस बच्ची का क्या होगा… हायहाय, हम दोनों को भी कोरोना क्यों नहीं हो गया… अब हम किस के लिए और कैसे जिएंगे…”

“मम्मी, तुम्हें मेरे लिए जीना होगा और मुझे तुम्हारे लिए.”

वह रात मातम मनाते हुए, रोते हुए ही कटी. ऐसे में चीखपुकार और रोना सुन कर भी अड़ोसपड़ोस से कोई नहीं आया.

अगले दिन भोर के समय दोनों की आंख लगी. जब धूप चढ़ आई, कोई 10 बजे का समय रहा होगा. बाहरी दरवाजे पर किसी ने जोरों से दस्तक दी. अच्छा हुआ कि अंशिका की आंख पहले खुली. उस ने जा कर दरवाजा खोला. चेहरे पर मास्क लगाए 2 युवक थे.

अंशिका को देखते ही उन में से एक युवक बोला, “हम ‘जागृति सेवा संस्थान’ के कार्यकर्ता हैं. आज सवेरे ही बनवारीजी ने हमें आप के पिता और भाई की कोरोना से हुई मृत्यु का समाचार दिया था और सहायता करने को कहा था.”

तभी दूसरे युवक ने बताया, “अभी हम आप के पिता और भाई का दाह संस्कार करवा कर आ रहे हैं. इस तरह की सेवा के अलावा प्रभावित घरों तक भोजन और राशनपानी की व्यवस्था करना आदि ऐसे ही और संबंधित काम हमारी संस्था हम से करवाती है…

“हम आप के लिए थर्मस में गरम चाय और पैकेट में दोनों वक्त के हिसाब से खाना ले आए हैं,” कहते हुए उन में से एक युवक ने लाया हुआ सामान अंशिका की तरफ बढ़ा दिया और दूसरा संस्था का छपा हुआ विजिटिंग कार्ड और साथ में 2 मास्क उसे देते हुए बोला, “ये हमारा कार्ड है. इस में सारे फोन नंबर भी दिए हैं. रातबिरात कोई जरूरत हो, तो फोन कर दीजिएगा. हम नहीं तो हमारा कोई ना कोई सेवक उपस्थित हो जाएगा,” इतना कह कर वे दोनों युवक जिस कार से आए थे, उसी से वापस चले गए.

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छली: ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

 

 

छली: भाग 4- ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

अमित निरूत्तरित था. उस रोज किसी तरह वह मंजरी के सवालों से बच कर निकल आया. घर में उस का मन विचलित था. मंजरी की मनोदशा देख वह अंदर ही अंदर भयभीत था. उसे सपने में भी भान नहीं था कि मंजरी शादी को ले कर इतना संजीदा है. वह तो अब तक इस रिश्ते को ले कर सहज था. मंजरी तनहा थी. उसे एक पुरुष साथी की जरूरत थी. उस की कमी उस ने पूरी की. इसी का नतीजा था, जो उस के फूल से मुरझाए चेहरे पर ताजगी आई. उस की वीरान जिंदगी में बहार की रंगत बिखरी, वरना अब तक उस ने बेहद उदास वक्त गुजारा. आज मंजरी की हालत ऐसी हो गई थी कि वह उस की गैरमौजूदगी की कल्पना से ही डर जाती. वह भरसक चाहती कि जितनी जल्दी उन दोनों की शादी हो जाए, ताकि असुरक्षित जिंदगी से छुटकारा मिल सके. एक अकेली स्त्री के लिए जीवन काटना इतना आसान नहीं होता. उस पर एक बेटी की मां. जिस की सुरक्षा उसे हर वक्त चिंतित किए रहती. पति का साया मिलेगा तो लोगों को तरहतरह की बातें बनाने का मौका नहीं मिलेगा.

2 दिन तक अमित उस के पास नहीं आया. मंजरी को लगा कि वह उस से नाराज है. जब उस का गुस्सा शांत हुआ तो उसे इस बात के लिए बेहद अफसोस हुआ कि क्यों बिना वजह अमित पर तोहमत लगाई. हो सकता है कि वह जो कह रहा है सही हो.

उस ने अमित को फोन लगा कर माफी मांगनी चाही. मगर, उस ने उठाया नहीं. बारबार स्विच औफ के संकेत मिल रहे थे. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. तो क्या अमित उस से अपने अपमान का बदला ले रहा है? सोच कर वह सिहर गई. मन आशंकाओं से घिर गया. वह अपनेआप को दोषी मानने लगी.

बिना वजह अमित पर शक किया और इतना कुछ सुना दिया. मगर अगले ही पल यथार्थ के धरातल पर आई तो लगा जो कहा सही कहा. जिंदगी भावनाओं से नहीं चलती. इनसान को कड़े फैसले लेने पड़ते हैं. ऐसा कब तक चलेगा? क्या उस के पास इतना वक्त है. समय निकलता जा रहा है. कल शालिनी परिपक्व हो जाएगी, तब भी क्या इस रिश्ते को उसी रूप में लेगी जैसी लेती आई है. परिपक्वता आएगी तो निश्चय ही उसे यही लगेगा कि मैं चरित्रहीन हूं. फिर तो मैं अपनी बेटी की नजरों से भी गिर जाऊंगी.

मंजरी ने कई बार फोन लगाने की कोशिश की, मगर हर बार उसे नाकामी हाथ लगी. उस की आकुलता बढ़ती ही जा रही थी. रातों को नींद नहीं आती. कम से कम फोन से हाय, हैलो तो कर सकता था. क्या इतना कहने की भी उस के पास फुरसत नहीं? ऐसे तो हर रोज किसी न किसी बहाने उस से मिलने आ जाता था. अब कौन सी व्यस्तता आ गई?

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काफी सोचविचार कर उस ने उस के क्वार्टर पर जाने का फैसला लिया. 3 साल में वह पहली बार उस के क्वार्टर जाएगी. न अमित ने कहा, न ही उस ने कभी जाने का दबाव डाला.

क्वार्टर पर ताला लगा हुआ था. पड़ोस की महिला से पूछा तो बताया कि वह अपने घर मुंबई गए हैं.

“क्यों…?” के सवाल पर वह बोली, ‘‘आप को पता नहीं कि उन की पत्नी की तबीयत एकाएक खराब हो गई है,’’ सन्न रह गई मंजरी यह सुन कर. एक चरित्रहीन पत्नी के लिए आज भी इतना लगाव? जो मुझ से बिना बताए चला गया. यह छल नहीं है तो क्या है?

जब तक वह मेरे पल्लू से बंधा था, सिवाय उस की बुराई के उसे कुछ नहीं सूझता था और आज एकाएक उस की बीमारी की खबर सुनते ही मुंबई भाग गया.

सोच कर मंजरी से न रोते बन रहा था और न ही हंसते. किसी तरह भारी कदमों से चल कर वह अपने घर आई. आते ही वह बिस्तर पर पड़ गई. रहरह कर उस के सामने अमित का चेहरा आ जाता. उस ने उसे पहचानने में कितनी बड़ी भूल की? वह अमित से ज्यादा खुद को कुसूरवार मानने लगी. क्या जरूरत थी अमित पर इतना भरोसा करने की? अमित से उस की जानपहचान कितने दिनों की थी? मात्र एकाध हफ्ते की. इतने कम समय में किसी के मूल चरित्र को समझ पाना संभव है? जाहिर है नहीं. तिस पर वह भावनाओं पर नियंत्रण न रख सकी. अमित पर भरोसा कर के उसे सबकुछ सौंप दिया. उस का मन कचोटने लगा. क्या वह कभी अपनेआप को माफ कर पाएगी? एकाध बार उस की अबोध बेटी ने उसे अमित को अपनी बांहों में भरते हुए देखा भी था. जिस के लिए उसे आत्मग्लानि भी हुई. मगर बाद में यह सोच कर खुद को मना लिया कि कल को अमित उस का पति हो जाएगा तो सबकुछ ठीक हो जाएगा. अब कौन सा मुंह ले कर अपनी बेटी के सामने जाएगी? जो मां खुद को रास्ता नहीं दिखा सकी, वह भटकती हुई बेटी को क्या दिखाएगी?

हो सकता है कि बाद में वह यह भी कह सकती है कि तुम अपना देखो, तुम ने क्या किया था. दुश्चिंताओं में डूबी थी मंजरी कि तभी मोबाइल की घंटी बजी. फोन अमित ने किया था. यह आग में घी से कम नहीं था मंजरी के लिए.

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‘‘फोन क्यों किया?’’

‘‘तुम्हारा मिस काल आया था?’’

‘‘पत्नी कैसी है?’’ मंजरी ने तंज कसा.

‘‘मैं कुछ समझा नहीं?’’

‘‘बनने की कोशिश मत करो. मुझे सब पता चल चुका है.’’

‘‘मैं ने तुम्हें इसलिए फोन किया है कि मेरा ट्रांसफर हो चुका है. और हां, यह सच है कि मेरी अपनी पत्नी के साथ तलाक का मुकदमा चल रहा है, मगर मेरी भरसक कोशिश यही है कि सबकुछ सामान्य हो जाए. कोई अपने बसेबसाए घर को तबाह होते नहीं देख सकता. मेरा एक बड़ा बेटा है. अब क्या मैं उसे खोना चाहूंगा?’’ जैसे ही वह फोन रखने जा रहा था, मंजरी ने रोका, “मेरी भी सुनते जाओ. यह मत समझना कि मुझ से छल कर तुम चैन से जी लोगे. तुम ने दोदो जिंदगियां बरबाद की हैं. एक मेरी, दूसरी मेरी बेटी की. पर, याद रखना कि मैं कमजोर नहीं हूं. मैं अपनी पहचान के साथ जीऊंगी. नहीं जरूरत है मुझे तुम जैसे कायर जीवनसाथी की. अच्छा हुआ जो तुम ने पहले ही अपनी असलियत बता दी, वरना मैं अपनेआप को कभी माफ न कर पाती,’’ कहतेकहते मंजरी की आंखें छलछला आईं.

अमित ने फोन काट दिया. तभी मंजरी की नजर सामने खड़ी शालिनी पर गई. ऐसा लगा, वह दोनों की बातें सुन रही थी. शालिनी स्कूल से कब आई? अभी इसी उधेड़बुन में थी कि वह अपनी मां के करीब आई. उस के आंसू पोंछते हुए बोली, ‘‘मां, तुम रोओ मत. ऐसे गंदे आदमी की मुझे भी जरूरत नहीं.’’

इतनी समझदारी की बात करने वाली 11 वर्षीय बेटी को उस ने गोद में भर लिया और फूटफूट कर रोने लगी.

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छली: भाग 3- ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

अब अमित को जब इच्छा होती, मंजरी के पास चला आता. उस की बच्ची के लिए वह परिवार का सदस्य हो गया था. वैसे भी वह अबोध थी. अमित के लिए मंजरी का घर अनजाना नहीं रहा. जब भी वह आता, मंजरी और उस की बच्ची की जरूरतों के हिसाब से घरगृहस्थी का सामान खरीदते हुए आता.

मंजरी मना करती तो कहता, ’’क्या मैं तुम्हारे लिए गैर हूं?’’

इस के आगे मंजरी को कोई जवाब नहीं सूझता.

अमित शालिनी के साथ खूब मस्ती करता. यह देख कर मंजरी आह्लादित थी. मंजरी को पूरा विश्वास था कि अमित से शादी हो जाएगी, तो शालिनी को उसे पिता के रूप में अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. यही तो सब से बड़ी समस्या थी, जिस की वजह से वह शादी से कतराती थी. पिता के न रहने पर शालिनी कितने सवाल करती थी.

मंजरी को समझ में नहीं आता कि कैसे उसे रास्ते पर लाए. ऐसे में अमित का आना मांबेटी के लिए किसी वरदान से कम नहीं था.

आहिस्ताआहिस्ता एक साल गुजर गया. दोनों के संबंध पतिपत्नी की तरह बन गए थे. एक रोज फ्लैट की एक पड़ोसन ने अमित के बारे में मंजरी से सवाल किया, जिसे सुन कर उसे अच्छा न लगा.

उस रात जब वे दोनों हमबिस्तर थे, तब मंजरी ने इस घटना की चर्चा की.

‘‘तुम बेकार लोगों की बातों पर गौर करती हो? जैसे ही तलाक मिलेगा, मैं तुम से शादी कर के इन लोगों के मुंह पर तमाचा मार दूंगा.’’

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मंजरी को तत्काल राहत मिली, मगर मन में उठने वाली सामाजिक रुसवाइयों को ले कर उस की बेचैनी कम नहीं हुई. वह जल्द से जल्द शादी कर के इस रुसवाई से मुक्ति चाहती थी.

देखते ही देखते 3 साल गुजर गए. इस बीच अमित जब कभी मुंबई अपनी पत्नी के पास जाता, तो उस का एक ही जवाब होता, ’’तलाक के सिलसिले में जा रहा हूं. तारीख पड़ी हैैैे.’’

एक दिन मंजरी से रहा न गया. वह तल्ख लहजे में बोली, ‘‘वह आखिर चाहती क्या है?’’

‘‘उस ने 30 लाख रुपयों की डिमांड की है. साथ में हर माह 50 हजार घरखर्च. कहां से इतना रुपया ला कर दूं?’’ अमित झल्लाया. उस के गरम तेवर देख मंजरी ने खुद को संयत किया.

‘‘तुम्हें इतना देने में दिक्कत क्यों हो रही है? अगर तुम नहीं दे सकते, तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. अगर वह तुम्हारी तनख्वाह का आधा ले भी लेती है तो दे कर मुक्ति पाओ. मेै खुद सरकारी नौकरी में हूं. आराम से रह लेंगे.’’

मंजरी को लगा कि इसे सुन कर अमित का सारा तनाव खत्म हो जाएगा. मगर, ऐसा हुआ नहीं.

‘‘जैसा तुम समझती हो वैसा कुछ नहीं है. वह एक नबंर की धूर्त है. आज 30 मांगी है, कल 40 मांगेगी. इसलिए सोचता हूं कि कोर्ट जो फैसला लेगी वही ठीक रहेगा,’’अमित ने कहा.

‘‘भले ही सारी जिंदगी निकल जाए,’’ मंजरी चिढ़ी.

अमित को मंजरी के बात करने का तरीका अच्छा न लगा. क्षणांश विचारप्रक्रिया से गुजरने के बाद मंजरी बोली, “तुम मुझे अपनी पत्नी का मोबाइल नंबर दो. मैं उस से बात करूंगी.’’

‘‘तुम ऐसा कभी नहीं करोगी,’’ अमित एकाएक घबरा गया. वह बोला, ’’यह हमारा आपसी मामला है.”

‘‘समय निकलता जा रहा है. शालिनी बड़ी होती जा रही है. पता नहीं आगे वह इस रिश्ते के लिए तैयार होगी भी या नहीं. अभी तुम से घुलीमिली है,’’ मंजरी हताश थी.

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“तुम व्यर्थ परेशान होती हो. सब ठीक हो जाएगा,’’ उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए अमित यों बोला मानो कुछ हुआ ही न हो. उस की निश्चिंतता मंजरी को बेचैन करती. उस की स्थिति परकटे परिंदे की तरह हो गई थी. न उड़ सकती थी और न दूर तक चल सकती थी. सभी दोनों के रिश्ते को जान चुके थे. यहां तक कि वह अपने पिता से भी इस रिश्ते का जिक्र कर चुकी थी. पिता की रजामंदी थी. वह बेटी की खुशी में ही अपनी खुशी देख रहे थे. जिंदगी का क्या ठिकाना, कल रहे या न रहे. इस से पहले वे मंजरी का घर बसा हुआ देखना चाहते थे.

एकाएक मंजरी ने अपना हाथ खींच लिया. अमित को अटपटा लगा. मंजरी भरे गले से बोली, ‘‘अमित, तुम्हें कुछ न कुछ फैसला लेना ही होगा.’’

अमित के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं. कल तक वह सहज थी, मगर आज बेहद गंभीर और निर्णायक मूड में थी. अचानक ऐसा क्या हो गया? उस ने मंजरी को फिर से सामान्य स्थिति में लाने के लिए उसे बांहों में भर लिया.

‘‘डार्लिंग, इतना परेशान क्यों होती हो? अभी 3 साल ही तो गुजरे हैं. कुछ महीेने की बात है. वकील ने कहा है कि अब फैसला होने में देर नहीं होगी.’’

’’इस में नई बात क्या हैे,’’ उस की पकड़ से दूर होती हुई मंजरी बोली, ’’सालभर के लिए कहा था, अब 3 साल हो रहे हैं. तलाक में समस्या क्या आ रही है, उस का खुलासा भी नहीं करते. क्यों तुम मुझ से कुुछ छुपा रहे हो?’’

‘‘मैं कुछ छुपा नहीं रहा हूं,’’ अपनी कोशिश नाकाम होते देख अमित सोफे पर बैठ गया. मंजरी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.

‘‘इस में टेसुए बहाने की क्या जरूरत है? हम ने जो किया आपसी सहमति से किया.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो?’’

‘‘यही कि अगर तुम इस रिश्ते को आगे नहीं ले जाना चाहती तो मेरी तरफ से आजाद हो.’’

‘‘अमित,” मंजरी चीखी.

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“3 साल पतिपत्नी की तरह रहे हम दोनों… और आज कह रहे हो कि मैं तुम्हें आजाद करता हूं. जिस्मानी संबंध बनाते हुए तुम ने मुझे क्या आश्वासन दिया था? मैं कोई वेश्या हूं, जो तुम से अपनी जिस्मानी जरूरतें पूरी करने के लिए जुड़ी.’’

‘‘हां, कह दिया था कि जैसे ही तलाक हो जाएगा, मैं तुम से शादी कर लूंगा,’’ अमित बोला, ’’मगर, तलाक हो तब ना.’’

‘‘कब तक होगा…?’’ मंजरी के इस सवाल का उस के पास कोई जवाब नहीं था. वह उसे संभालने की नीयत से बोला, ’’मंजरी, इतना गुस्सा मत हो. मैं तुम्हारी जिंदगी से जाने वाला नहीं. बस थोड़ा इंतजार करो. जैसे ही तलाक हो जाएगा, मैं तुम से शादी कर लूंगा.’’

‘‘तुम कभी नहीं करोगे?’’ मंजरी ने मानो उस के मन की बात पकड़ ली हो. वह आगे बोली,‘‘मुझे तुम दोहरे चरित्र के लगते हो? मुझे तो यह भी शक है कि तुम्हारा मुकदमा चल भी रहा है या नहीं.’’

आगे पढ़ें- 2 दिन तक अमित उस के पास…

छली: भाग 2- ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

शालिनी 8 साल की हो चुकी थी. तभी मंजरी की जिंदगी में अमित ने आ कर हलचल पैदा कर दी.

अमित, जिसे वह लगभग भूल चुकी थी, एक मौल में खरीदारी करते हुए दिखा. वह काफी हैंडसम लग रहा था. दोनों का आमनासामना हुआ.

‘‘मंजरी,’’ वह मुसकराया.

‘पहचान लिया,’’ मंजरी हंसी.

‘‘क्यों नहीं पहचानूंगा. हम दोनों ने एकसाथ कैंप में 10 दिन जो गुजारे हैं. मुझे आज भी याद है, जब तुम ने अपने हाथों से मेरे लिए सैंडविच बनाया था,’’ अमित बोला.

‘‘जानते हो, मुझे तब सिवाय चाय बनाने के कुछ नहीं आता था. पता नहीं, कैसा बना था?’’ मंजरी का चेहरा बन गया.

‘‘बहुत अच्छा बना था,’’ उस ने आसपास नजरें घुमाईं.

’’तुम्हारे पति नहीं दिख रहे. यह प्यारी सी बेटी तुम्हारी है?” उस ने नजरें झुका कर उस बच्ची के गालों पर हाथ फेरा.

‘‘हां, मेरी ही बेटी है, शालिनी,’’ कह कर मंजरी का चेहरा कुछ पल के लिए उदास हो गया. अमित ने उस के चेहरे को पढ़ लिया.

‘‘चलो… पास के किसी रेस्टोरेंट में चलते हैं, वहीं बैठ कर बातें करेंगे?’’

अमित का यह प्रस्ताव उसे अच्छा लगा.

‘‘पति एक दुर्घटना में चल बसे. यही एकमात्र संतान है मेरी. इसे पालपोस कर एक अच्छा इनसान बनाना है.’’

‘‘दूसरी शादी का खयाल नहीं आया?”

‘‘आया था, मगर कोई मिले तब ना… अब तो मैं ने आस भी छोड़ दी है. नियति जहां ले जाएगी वही चली जाऊंगी,’’ मंजरी ने उसांस ली.

‘‘तुम यहां क्या कर रहे हो?’’ मंजरी निराशा से उबरी.

‘‘मैं एयर फोर्स में हूं. यहीं पोस्टिंग मिली है.’’

‘‘पत्नी, बच्चे?’’ मंजरी के इस सवाल पर उस के चेहरे पर फीकी मुसकान तिर गई.

“तलाक का केस चल रहा है.’’

शाम गहराने को थी. सो, बातचीत का सिलसिला यहीं खत्म कर दोनों अपनेअपने घर लोेैट आए.

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एक हफ्ते बाद अमित मंजरी से मिलने उस के घर आया. उसे देखते ही वह भावविह्वल हो गई. अमित उस का पहला प्यार था, जिस की चिंगारी वक्त की राख में कहीं दब गई थी. आज फिर से उभरने लगी थी. उस का जी किया कि अमित के गले लग कर खूब रोए. पर किस हक से? उस ने अपने जज्बात पर नियंत्रण रखा.

कौफी की चुसकियों के बीच अमित ने उस की निजी जिंदगी को कुरेदा. उस ने कुछ नहीं छुपाया. एकएक कर अपने अतीत के सारे पन्ने खोल कर रख दिए. अमित को उस से सहानुभूति थी. बातोंबातों में उस ने मंजरी से पूछा, ’’क्या अकेलापन काटने के लिए नहीं दौड़ता?’’

यह सुन कर वह मुसकराई. उस की मुसकराहट में एक गहरी वेदना का एहसास था. वह वेदना जो जीवनसाथी के न रहने पर एक अकेली स्त्री को झेलनी पड़ती है. तभी अमित के फोन की घंटी बजी. वह मोबाइल ले कर एक तरफ चला गया. लोैटा तो उस के चेहरे पर निराशा थी. मंजरी को जिज्ञासा हुई.

‘‘क्या बात है? बड़े परेशान लग रहे हो?’’ पहले तो उस ने नानुकुर किया. पर जब उसे लगा कि मंजरी कुछ ज्यादा ही पसेसिव हो रही है तो बोला, ‘‘मेरी पत्नी का फोन था.’’

मंजरी ने आगे कुछ भी पूछना उचित नहीं समझा. हां, इतना जरूर था कि उस का दिल पहले की तरह सामान्य नहीं रहा. क्यों? यही तो मंजरी को समझना था. आखिर किस हक से वह अमित पर इतना भरोसा कर रही है? वह शादीशुदा आदमी है. उस का अपना परिवार है. क्या वह अपनी मर्यादा नहीं तोड़ रही? बहरहाल, इस समय यह सब सोचने का वक्त नहीं था. वह तो बस अमित के रूप में पिछला प्यार लौट आने की खुशी से लबरेज थी. वह इस पल को जी लेना चाहती थी. लंबे समय से पुरुष संसर्ग से वंचित मंजरी के लिए यह एक भावानुभूति पल था.

‘‘तुम कुछ परेशान से दिख रहे हो?” मंजरी ने पूछा.

‘‘मेरी जिंदगी भी तुम्हारी ही तरह विडंबनाओं से भरी हुई है,’’ अमित भरे मन से बोला.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं,” मंजरी असमंजस में थी. अमित ने एकएक कर अपने अतीत के सारे पन्ने खोल कर रख दिए.

मंजरी को जान कर अच्छा न लगा. इतना होनहार, काबिल, हैंडसम पति की पत्नी इस तरह हो सकती है? कैसे उस का दिल किसी और के साथ गुलछर्रे उड़ाने को करता है? वह भी बिना तलाक के. अमित ऐसा शरीफ कि कभी अपनी पत्नी से जोरजबरदस्ती नहीं की. दूसरा मर्द होता तो एक मिनट में ऐसी निर्लज्ज पत्नी को ठीक कर देता. सोच कर मंजरी का मन तिक्त हो गया.

‘‘तुम ने तलाक की अर्जी दी?’’ मंजरी ने पूछा.

‘‘हां, पर क्या तलाक होना इतना आसान होता हेै?काफी रुपयों की डिमांड करती है, जो मेरे लिए संभव नहीं है.’’

‘‘तब क्या करोगे…?’’

‘‘यही सोचसोच कर परेशान रहता हूं. आएदिन फोन कर के मुझे ब्लैकमेल करती है. मैं ठहरा सरकारी मुलाजिम. जरा सी ऊंचनीच हो गई तो कहीं का नहीं रहूंगा.’’

‘‘रहती कहां है?’’

‘‘मेरे ही फ्लैट में. मेरा एक बेटा भी है. घरखर्च भेजता हूं सो अलग.’’

“बंद कर दो. अक्ल ठिकाने लग जाएगी,’’ मंजरी तैश में बोली.

‘‘ऐसे कैसे कर दूं. जब तक तलाक नहीं हो जाता, वह मेरी पत्नी है.’’

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मंजरी सोचने लगी. कैसी औरत है, जो अपना गृहस्थ जीवन ठीक से नहीं रख सकती? उस के दिल में अमित के प्रति सहानुभूति और बढ़ गई. कहीं यह सहानुभूति प्रेम का प्रथम पायदान तो नहीं. कुछकुछ मंजरी को ऐसा ही लगा.

उस रोज अमित के जाने के बाद मंजरी की दिनचर्या में एक बदलाव आया. कल तक जो जिंदगी उस के लिए बोझ थी, आज एकाएक खूबसूरत लगने लगी. उस की ख्वाहिशों के पंख लग गए. वह अमित के साथ जिंदगी गुजारने के ख्वाब देखने लगी. जब भी वह शाम को खाली होती, अमित के साथ मोबाइल पर बैठ जाती. दोनों ही घंटोें बातें करते.

मंजरी का यह हाल था, मानो वह प्रेम का ककहरा सीख रही हो अमित से.

‘‘जब तलाक हो जाएगा, तब हम दोनों शादी कर लेंगे. तलाक जल्द से जल्द हो जाए तो अच्छा है. शालिनी भी तुम को पिता के रूप में देखने लगी है. उस रोज तुम्हारे साथ कितना घुलमिल गई थी. ऐसा लगा मानो सालों का रिश्ता हो?’’ मोबाइल पर यही सब बात होती रहती.

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छली: भाग 1- ससुराल से लौटी मंजरी के साथ अमित ने क्या किया छल

मंजरी की अमित से मुलाकात एक एजूकेशनल कैंप में हुई थी, जो अंतर्विश्वविद्यालय की तरफ से लगाया गया था, जहां दोनों एकदूसरे के करीब आए. फिर हमेशा के लिए जुदा हो गए.

इस सीमित समय में दोनों एकदूसरे को चाहने लगे थे, मगर दिल की बात दिल में ही रह गई. समय गुजरता गया. आहिस्ताआहिस्ता दोनों एकदूसरे को भूल गए.

मंजरी की जिंदगी में सुधीर आया. सुधीर के पिता बहुत बड़े अधिकारी थे. काफी संपन्न परिवार था, जबकि मंजरी का मीडिल क्लास परिवार उस के आगे कहीं नहीं टिकता था. इस के बाद भी दोनों का प्यार परवान चढ़ा. जिस की परिणति शादी पर जा कर खत्म हुई.

मामूली से क्वार्टर में रहने वाली मंजरी के लिए ससुराल किसी महल से कम नहीं था. नौकरचाकर, कार, रुतबा, सबकुछ उसे एकाएक मिल गया. अगर नहीं मिला तो वह सम्मान, जिस की वह हकदार थी.
सास उसे हमेशा हिकारत भरी नजरों से देखती थी. इस का बहुत बड़ा कारण था मंजरी का उस की अपेक्षा निम्न स्तर का होना. पढ़ाईलिखाई, रंगरूप, सब में वह बीस थी, तिस पर सास का रवैया उस के लिए भारी पड़ रहा था. वे उसे अपने रसोईघर तक में घुसने नहीं देती थीं.

आजिज आ कर मंजरी ने अपनी रसोई दूसरी जगह कर ली. इस के बावजूद उन के रवेेैए में कोई खास बदलाव नहीं आया.

एक दिन तंग आ कर मंजरी ने सुधीर से कहा, ’’मेरा यहां दम घुटता है. मम्मी मुझे किसी भी चीज में हाथ लगाने नहीं देतीं. जबतब ताने देती हैं कि मैं ने तुम्हें फांस लिया.’’

‘‘धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा,’’ सुधीर ने टाला.

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“कुछ नहीं ठीक होगा. 6 महीने हो गए. आज भी उन के तेवर जस के तस हैं. क्या तुम ने शादी उन की मरजी के खिलाफ की है?’’ सुन कर सुधीर को अटपटा लगा. जो चीज गुजर गई, उस के बारे में सवाल उठाने का क्या तुक? माना कि उन की मरजी के खिलाफ शादी की तो भी क्या अब तलाक ले लें.

सुधीर के पिता को इस शादी पर कोई एतराज नहीं था. मगर उस की मां इस रिश्ते के लिए तैयार न थी. सुधीर की जिद थी. सोे, बेमन से इस शादी में शरीक हुईं. सुधीर को भरोसा था कि एक दिन मां मंजरी के गुणों से प्रभावित हो कर उसे अपना लेंगी.

‘‘क्या सोच रहे हो?’’ मंजरी ने उस की तंद्रा तोड़ी.

‘‘आखिर तुम चाहती क्या हो?’’

‘‘क्या हम अलग घर ले कर नहीं रह सकते?‘‘ जाहिर है, सुधीर को अच्छा नहीं लगा, मगर संयत रहा.

‘‘एक ही शहर में अलगअलग रहेंगे तो लोग क्या कहेंगे? मम्मी से नहीं निभ रही. मगर पापा, वे तो हमेशा मेरे साथ खड़े रहे. उन पर क्या बीतेगी, जब उन्हें पता चलेगा कि उन का बेटा उन्हें छोड़ कर दूसरी जगह रहने जा रहा है.’’

मंजरी पर सुधीर की बातों का कोई असर नहीं हुआ. वह आखिरकार अपने मैके में आ कर रहने लगी.

मैके आ कर उस ने एक स्कूल जौइन कर लिया. इस बीच सुधीर उस से मिलने आता रहा. जब भी वह आता, उसे उस के फैसले पर पुनः विचार करने का दबाव बनाता. मगर वह अपने फैसले पर अडिग रहती.

सुधीर को मंजरी की कमी हमेशा खलती. ऐसा ही हाल मंजरी का भी था. खुश थी तो उस की सास. अच्छा हुआ जो चली गई. इसी बहाने छुट्टी मिली.

सुधीर के पिता से सुधीर की मनोदशा छिपी न थी. उन्हें यह सब देख कर तकलीफ होती.

एक दिन सब खाने की मेज पर थे, तो सुधीर के पिता ने मंजरी का प्रसंग छेड़ा. सुनते ही मां बिफर गईं, ‘‘आप को उस के जाने का ज्यादा कष्ट है? ऐसा है तो आप ही उस के पास जा कर रहिए.’’ वह तुनकते हुए आगे बोली, ‘‘मैं सुधीर की दूसरी शादी करूंगी.’’

‘‘मूर्खतापूर्ण बातें मत करो. यह कोई गुड्डेगुड्डी का खेल नही,’’ सुधीर के पिता बिगड़े. दोनों में बहसबाजी शुरू हो गई. सुधीर से रहा न गया. वह बोला, ‘‘मम्मी, आप ने जरा सी समझदारी दिखाई होती तो मंजरी घर छोड़ कर नहीं जाती.’’

‘‘तुझे मंजरी की इतनी ही फिक्र है तो चला जा उस के पास,’’ वे रोंआसी हो गईं.

‘‘चला जाएगा. शादी की है तो निभानी पड़ेगी,’’ सुधीर के पिता बोले. मां उठ कर जाने लगी. उन्हें सुधीर के पिता की बात नागवार लगी.

अगले दिन सुधीर अपने पिता की बात मान कर मंजरी के साथ अलग रहने लगा. 5 साल गुजर गए. इस बीच वह एक बच्ची की मां बनी. बच्ची का नाम शालिनी रखा. बच्ची 3 साल की हो गई. तभी एक दुर्घटना घटी. सुधीर कार एक्सीडेंट में चल बसा. दोनों परिवारों पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा.

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एक दिन सुधीर के पिता से रहा न गया. वे सुधीर की मां से बोले, ‘‘हमें बेटे का सुख नहीं मिला. क्या बहूपोती का भी नहीं मिलेगा?’’ सुन कर वह सुबकने लगी. उसे अपने किए पर पछतावा था. दोनों की रजामंदी से सुधीर के पिता ने मंजरी को ससुराल में रखने का मन बनाया, जिसे मंजरी ने ठुकरा दिया. वह बोली, “जब पति ही नहीं रहा तो कैसा ससुराल?”

सुधीर की मां चिढ़ गई. उसे इस में मंजरी का अहंकार नजर आया.

मंजरी ने सरकारी स्कूल में आवेदन दिया. जल्द ही उसे नौकरी मिल गई. उस की पहली पोस्टिंग लखनऊ में हुई. स्कूल शहर से 10 किलोमीटर दूर एक गांव में था. उस ने अपना ठिकाना शहर में ही बनाया. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. जिंदगी में कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें भुला पाना आसान नहीं होता.

जब भी वह अकेले होती अतीत में डूब जाती. अतीत एकएक कर चलचित्र की भांति उस की निगाहों के सामने घूमने लगता.

ऐसे ही भावुक पल में जब सुधीर की तसवीर आती, तो वह खुद पर नियंत्रण न कर पाती. आंख के दोनों कोर भीग जाते, जिसे जल्द ही वह पोंछ डालती. वह अपनी बच्ची के सामने खुद को कमजोर नहीं होने देना चाहती थी.

मंजरी के पिता गांव में खेतीबाड़ी करते थे. उन की नजर में एक दुहाजू लड़का था, जो सरकारी विभाग में क्लर्क था. मगर मंजरी ने उसे इनकार कर दिया. लडका कहीं से भी उस के लायक नहीं लगा. फिर कौन दूसरे के जनमे बच्चे को पालेगा? एक तरह से मंजरी ने शादी न करने का फैसला कर लिया.

आगे पढ़ें- अमित, जिसे वह लगभग भूल चुकी थी…

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भाई का  बदला: भाग 1- क्या हुआ था रीता के साथ

रोशनलाल का बंगला रंगबिरंगी रोशनी से जगमगा रहा था. उन के घर में उन के जुड़वे बच्चों का जन्मोत्सव था. बंगले की बाउंड्री वाल के अंदर शामियाना लगा था जिस के मध्य में उन की पत्नी जानकी देवी सजीधजी दोनों बेटों को गोद में लिए बैठी थीं. उन की चारों तरफ गेस्ट्स कुरसियों पर बैठे थे. कुछ औरतें गीत गा रही थीं. गेट के बाहर हिजड़ों का झुंड था, मानो पटना शहर के सारे हिजड़े वहीँ जुट गए थे. उन में कुछ ढोल बजा रहे थे और कुछ तालियां. सभी मिल कर सोहर गा रहे थे- “ यशोदा के घर आज कन्हैया आ गए…”

रोशनलाल के किसी गेस्ट ने उन से कहा, “अरे यार, इन हिजड़ों को कुछ दे कर भगाओ.”

“भगाना क्यों? आज ख़ुशी का माहौल है, मैं देखता हूं.” रोशनलाल लाल ने कहा, फिर बाहर आ कर उन्होंने कहा, “अरे भाई लोग, कुछ फ़िल्मी धुन वाले सोहर गाओ.”

हिजड़ों ने गाना शुरू किया- “सज रही गली मेरी मां सुनहर गोटे में… अम्मा तेरे मुन्ने की गजब है बात, चंदा जैसा मुखड़ा किरण जैसे हाथ…“

किसी गेस्ट ने कहा, “जुड़वां बेटे हैं, एक और हो जाए.“

हिजड़ों ने दूसरा गीत गाया- “गोरेगोरे हाथों में मेहंदी रचा के, नैनों में कजरा डाल के,

चली जच्चा रानी जलवा पूजन को, छोटा सा घूंघट निकाल के…“

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रोशनलाल ख़ुशी से झूम उठे और 500 रुपए के 2 नोट उन के लीडर को दिया. उस ने नोट लेने से इनकार किया और कहा, “लालाजी, जुड़वां लल्ला हुए हैं, इतने से नहीं चलेगा.“

रोशनलाल ने 2,000 रुपए का एक नोट उसे देते हुए कहा, “अच्छा भाई, लो आपस में बांट लेना. अब तो खुश.“

उस ने ख़ुशीख़ुशी नोट लिया और वे सभी दुआएं दे कर चले गए.

रोशनलाल को पैसे की कमी न थी. अच्छाख़ासा बिजनैस था. पतिपत्नी दोनों अपने जुड़वां बेटों अमन और रमन का पालनपोषण अच्छे से कर रहे थे. खानपान, पहनावा या पढ़ाईलिखाई किसी चीज में कंजूसी का सवाल ही न था. अमन मात्र 15 मिनट पहले दुनिया में आया, इसीलिए रोशनलाल उसे बड़ा बेटा कहते थे.

अमन और रमन दोनों के चेहरे हूबहू एकदूसरे से मिलते थे, इतना कि कभी मातापिता भी दुविधा में पड़ जाते. अमन की गरदन के पीछे एक बड़ा सा तिल था, असमंजस की स्थिति में उसी से पहचान होती थी. दोनों समय के साथ बड़े होते गए. अमन सिर्फ 15 मिनट ही बड़ा था, फिर भी दोनों के स्वभाव में काफी अंतर था. अमन शांत और मैच्योर दिखता और उस का ज्यादा ध्यान पढ़ाईलिखाई पर होता था. इस के विपरीत, रमन चंचल था और पढ़ाईलिखाई में औसत से भी बहुत पीछे था.

फिलहाल दोनों प्लस टू पूरा कर कालेज में पढ़ रहे थे. अमन के मार्क्स काफी अच्छे थे और उसे पटना साइंस कालेज में एडमिशन मिल गया. रमन किसी तरह पास हुआ था. उसे एक प्राइवेट इवनिंग कालेज में आर्ट्स में एडमिशन मिला.

रमन फोन और टेबलेट या लैपटौप पर ज्यादा समय देता और फेसबुक पर नएनए लड़केलड़कियों से दोस्ती करता. अकसर नएनए पोज, अंदाज और ड्रैस में अपने फोटो पोस्ट करता. रमन को इवनिंग कालेज जाना होता था. दिन में अमन कालेज और पिता अपने बिजनैस पर जाते, इसलिए रमन दिनभर घर में अकेले रहता था. वह अपने फेसबुक दोस्तों से चैट करता और फोटो आदि शेयर करता. पढ़ाई में उस की दिलचस्पी न थी. देखतेदेखते दोनों भाई फाइनल ईयर में पहुंच गए.

इधर कुछ महीनों से रमन को फेसबुक पर एक नई दोस्त मिली थी. उस ने अपना नाम रीता बताया था. वे दोनों काफी घुलमिल गए थे और फ्री और फ्रैंक चैटिंग होती थी. एक दिन वह बोली, “मैं बायोलौजी पढ़ रही हूं. मुझे पुरुष के सभी अंगों को देखना और समझना है. इस से मुझे पढ़ाई और प्रैक्टिकल में मदद मिलेगी. तुम मेरी मदद करोगे?“

“हां क्यों नहीं. मुझे क्या करना होगा?“

“तुम अपने न्यूड फोटो पोस्ट करते रहना.“

कुछ शर्माते हुए रमन बोला, “नहीं, क्या यह ठीक रहेगा?“
“मेरी पढ़ाई का मामला है, जरूरी है और मेरे नजदीकी दोस्त हो, इसीलिए तुम से कहा था. खैर, छोड़ो, मैं कोई प्रैशर नहीं दे रही हूं. तुम से नहीं होगा तो मैं किसी और से कहती हूं,“ कुछ बिगड़ने के अंदाज़ में रीता ने कहा.

“ठीक है, मुझे सोचने के लिए कुछ समय दो.“

कुछ दिन और बीत गए. इसी बीच अमन और रमन के ग्रेजुएशन का रिजल्ट आया. अमन फर्स्ट क्लास से पास हुआ पर रमन फेल कर गया. रोशनलाल ने अपने दोनों बेटों को बुला कर कहा, “मैं सोच रहा था कि तुम दोनों अब मेरा बिजनैस संभालो. इस के लिए मुझे तुम्हारी डिग्री की जरूरत नहीं है. अगर तुम दोनों चाहो तो मैं अभी से बंटवारा भी कर सकता हूं.“

अमन बोला, “नो पापा, अभी बंटवारे का कोई सवाल नहीं है. मैं मैनेजमैंट पढ़ूंगा, उस के बाद आप जो कहेंगे वही करूंगा. रमन चाहे तो बिजनैस में आप के साथ रह कर कुछ काम सीख ले.“
रमन ने कहा, “अभी मैं ग्रेजुएशन के लिए कम से कम एक और प्रयास करूंगा.“

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अमन मैनेजमैंट की पढ़ाई करने गया. रमन का फेसबुक पर वही सिलसिला चल रहा था. उस की फेसबुक फ्रेंड रीता ने कहा, “अब तुम ने क्या फैसला किया है? जैसा कहा था, मेरी मदद करोगे या मैं दूसरे से कहूं? मेरे एग्जाम निकट हैं.“

“नहीं, मैं तुम्हारे कहने के अनुसार करूंगा. पर तुम ने तो अपने प्रोफ़ाइल में अपना कोई फोटो नहीं डाला है.“
“तुम लड़के हो न और मैं लड़की. मैं ने अपना फोटो जानबूझ कर नहीं डाला है. लड़कियों को लोग जल्द बदनाम कर देते हैं. तुम बिहार की राजधानी से हो और मैं ओडिशा के एक छोटे कसबे से हूं.“
रमन ने अपने कुछ न्यूड फोटो रीता को पोस्ट किए. रीता ने फिर उस से कुछ और फोटो भेजने को कहा तब रमन ने भी उस से कहा, “तुम भी तो अपना कोई फोटो भेजो. मैं न्यूड फोटो नहीं मांग रहा हूं.“
रीता ने कहा, “फोटो तो मैं नहीं पोस्ट कर सकती पर जल्द ही मेरे पटना आने की उम्मीद है. पापा सैंट्रल गवर्नमैंट में हैं, उन का प्रमोशन के साथ ओडिशा के बाहर दूसरे राज्य में तबादला हो रहा है और पापा ने पटना का चौइस दिया है. वैसे भी, अकसर हर 3 साल पर पापा का ट्रांसफर होता रहता है. इस बार प्रमोशन के साथ दूसरे स्टेट में ट्रांसफर की शर्त है, अब तुम्हारे शहर में मैं जल्द ही आ रही हूं.“

“मतलब, हम लोग जल्द ही मिलने वाले हैं?“

“हां, कुछ दिन और धीरज रखो.“

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