सफेद सियार: भाग 1- क्या अंशिका बनवारी के चंगुल से छूट पाई?

लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

अंशिका पानी ले आई थी. खांसी थोड़ी शांत हुई, तो पत्नी कुमुद ने गिलास मधुसूदन के होंठों में फंसा कर जैसेतैसे पानी पिलाया.

पानी पीने के बाद थोड़ी राहत मिली तो वे बोले, “कुमुद, अपना मकान मालिक बनवारी रास्ते में मिल गया था. मुझे जबरदस्ती उस कैंप में ले गया, जहां वरिष्ठ नागरिकों को वैक्सीन की पहली डोज लग रही थी.”

“तो पापा, आप टीका लगवा आए,” अंशिका खुश होते हुए बोली.

“नहीं बेटी, तुम्हारे बनवारी अंकल तो सारे दंदफंद जानते हैं. मेरा आधारकार्ड मेरे पास होता तो मुझे भी लग जाता, लेकिन मैं अपना आधारकार्ड नहीं ले गया था.”

“ओह, कोई बात नहीं. आलोक कल धनबाद से इंटरव्यू दे कर लौट आए, तब हम दोनों साथ जा कर लगवा आएंगे,” कहते हुए कुमुद अंशिका से बोली, “तू अपने पापा के पास बैठ. मैं इन के लिए काढ़ा बना कर लाती हूं.”

कुमुद काढ़ा बनाने चली गई, तो मधुसूदन ने अंशिका से कहा, “तेरी पढ़ाई तो पूरी हो ही चुकी है. अब ये लौकडाउन और कोरोना का हौआ खत्म हो तो अच्छा सा लड़का ढूंढ कर तेरी शादी करा दूं, वरना बैंक में जमा सारे रुपए मेरी बीमारी ही खा जाएगी.

“अब देख न, एकमात्र 10 लाख रुपए की एफडी मेरे हार्ट के आपरेशन में ही तुड़वानी पड़ी, जिस में से 4 लाख रुपए तो इलाज में ही खर्च हो गए. बाकी बची रकम से जैसेतैसे काम चल रहा है.”

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“उधर, प्लाट खरीदने के लिए जिस बिल्डर को 3 लाख रुपए एडवांस दिए थे, वह भी पिछले साल के शुरू तक तो बहलाता रहा, फिर तालीथाली बजाने के बाद जब कोरोना महामारी के चलते कंप्लीट लौकडाउन लगा कर पूरे देश को घरों में कैद कर दिया गया, तब सारा आवागमन ठप हो गया. इस का फायदा उठा कर वह ऐसा गायब हुआ कि न तो अब उस का फोन लगता है और न ही वह साइट पर दिखता है…”

“अरे, इन सब बातों को अंशिका को बताने से क्या फायदा मिलेगा…? आलोक कह तो रहा था कि पापा बेकार ही चिंता करते रहते हैं. परिस्थितियां सामान्य होते ही मैं उस हरामखोर बिल्डर को पाताल से भी ढूंढ़ निकालूंगा,” कुमुद बीमार मधुसूदन के हाथों में काढ़े का मग पकड़ाती हुई बोलीं.

लेकिन जब परिस्थितियां सामान्य हुईं, तो स्टेट टूरिज्म डिपार्टमेंट में आलोक द्वारा औनलाइन किए हुए आवेदन के फलस्वरूप चयन प्रक्रिया के लिए उसे सिंदरी से धनबाद जाना पड़ गया. इस बीच वह इंटरव्यू की तैयारी में भी जुटा रहा.

उसे गए हुए 2 दिन हो गए थे. आज तीसरा दिन था. सब्जी, फल और इक्कादुक्का बहुत जरूरी घरेलू चीजें पास के ही बाजार से लाने के लिए कुमुद ने मधुसूदन को थैला दे कर भेज दिया था. आपरेशन के बाद से सवेरे वे सामने वाले पार्क में थोड़ी देर टहलने जाते ही थे.

कुमुद के हाथ का बना घरेलू काढ़ा पीने के लिए वे उठ कर बैठ गए, तभी आलोक का फोन आ गया.

अंशिका ने फोन उठाया और स्पीकर औन कर दिया, ताकि सभी आलोक की आवाज सुन सकें.

आलोक कह रह था, ”पापा, आज लिस्ट निकल आई है. मैं सेलेक्ट हो गया हूं. अपौइंटमेंट लेटर घर पहुंचेगा. आज रात वाली बस से चल कर कल सवेरे मैं सिंदरी पहुंच जाऊंगा.”

“सुन कर बहुत खुशी हुई बेटा. मुझे पता था कि मेरा बेटा जरूर सेलेक्ट होगा. अब तू जल्दी से आ जा, ताकि कल चल कर तेरे पापा को डाक्टर को दिखा दें,” ये कुमुद की आवाज थी.

“क्या हुआ पापा को?” उधर से आलोक ने पूछा.

“उन की तबीयत ठीक नहीं लग रही है.”

“ठीक है मां, मैं कल सुबह तक पहुंचता हूं, तब तक आप पापा का खयाल रखना,” कहते हुए आलोक ने फोन काट दिया.

सवेरे जिस समय आलोक घर पहुंचा, मधुसूदन की तबियत बहुत बिगड़ चुकी थी. सांस लेने में दिक्कत, तेज बुखार, गला जैसे चोक हो गया हो. वे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे.

आलोक ने तुरंत एम्बुलेंस की व्यवस्था की और पहले उस प्राइवेट अस्पताल ले गया, जहां उन का हार्ट का आपरेशन हुआ था. उन्होंने देखते ही आलोक से कहा, “ये तो कोविड केस है. तुम इन्हें कोविड केयर सेंटर ले जाओ.”

सरकारी कोविड केयर सेंटर की भीड़ और अव्यवस्था देख कर आलोक हैरान रह गया. उस ने पास के ही एक प्राइवेट अस्पताल में ले जाना उचित समझा. भीड़ तो वहां पर भी थी.

वहां पहले तो मधुसूदन के साथसाथ उस का भी कोविड टेस्ट हुआ. नाक और मुंह में पतली नली डाल कर स्वाब के सैंपल ले कर जांच के लिए भेज दिए गए. वहां व्यवस्था देख रहे एक वार्ड बौय ने आलोक से कहा, “चलो, तुम्हारे पिता को स्ट्रेचर से उतार कर बेंच खाली करा कर बैठा देते हैं.”

सुनते ही आलोक भड़क गया. वह मास्क मुंह से हटा कर चिल्लाया, ”अरे, मेरे पिता की इतनी गंभीर हालत हो रही है और उन्हें एडमिट करवाने की जगह तुम उन्हें बैठाने की बात कर रहे हो. तुम तो मुझे डाक्टर से मिलवा दो.”

दोनों की बहस होती देख वहां से गुजरती एक सीनियर नर्स बोली, “यहां सारे कोविड वार्ड संक्रमितों से भरे हुए हैं. प्राइवेट और जनरल वार्ड में एक भी बेड खाली नहीं है.

“देख रहे हो न, मरीज फर्श पर पड़े हैं. तुम चाहो तो इन्हें किसी दूसरे कोविड अस्पताल ले जा सकते हो.

“और सुनो, यहां अस्पताल में मास्क चढ़ाए रहो तो अच्छा है.”

आलोक ने मास्क तो चढ़ा लिया, लेकिन गिड़गिड़ाता सा बोला, ”प्लीज सिस्टर, कुछ करो. ये इमर्जेंसी केस है. देख रही हो, लगातार इन की हालत बिगड़ती जा रही है.”

पता नहीं, आलोक की बात सुन कर सिस्टर और वार्ड बौय के बीच आंखों ही आंखों में क्या इशारा हुआ कि वार्ड बौय बोल पड़ा, “तुम लोग कुछ समझना ही नहीं चाहते हो. हमें स्ट्रेचर दूसरे मरीजों के लिए भी तो चाहिए होता है…

“चलो, तुम मेरे साथ रिसेप्शन पर चलो. अगर कोई बेड खाली हुआ होगा, तो तुम्हारे लिए जुगाड़ बैठाते हैं. तुम्हें तकरीबन 50,000 रुपए एडवांस जमा करने होंगे.”

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एम्बुलेंस के 5,000 रुपए देने के बाद आलोक ने अनुमान लगाया कि घर में इमर्जेंसी आने की स्थिति के लिए पापा और मम्मी के संयुक्त बचत खाते में जो रुपए पड़े थे, उन्हीं में से 50,000 रुपए कुमुद ने घर ला कर रख लिए थे, अस्पताल जाते समय आलोक को पकड़ा दिए. उन्हीं की गुणागणित बैठाता हुआ आलोक बोला, “अभी तो इतना जेब में नहीं है. तकरीबन 25-30 हजार रुपए होगा.”

वार्ड बौय ने कुछ सोचा, फिर बोला, “तुम 2 मिनट यहीं रुको. मैं हेड सिस्टर से बात कर के आता हूं,” कहते हुए वह जा कर उसी रूम में घुस गया, जिस में कुछ देर पहले उस से बात करने वाली सिस्टर गई थी.

कुछ देर बाद वार्ड बौय लौटा तो स्ट्रेचर को रिसेप्शन की तरफ धकेलता हुआ साथ चलते हुए आलोक से बोला, ”अभीअभी इमर्जेंसी वार्ड में एक बेड खाली हुआ है. तुम जितना है, उतना जमा करा दो. लेकिन कल सवेरे आ कर बाकी रकम पूरी कर देना.”

आलोक का मन अस्पताल के अंदरबाहर कराहते, तड़पते, झुंझलाते और संक्रमित होने के बाद इलाज के दौरान मर जाने वाली लाशों को प्लास्टिक की किट में लपेट कर श्मशान ले जाते देख घबरा उठा.

उस ने अर्धबेहोशी की हालत में स्ट्रेचर पर पड़े लाचार पिता की तरफ देखा. जेब से निकाल कर 25,000 रुपए रिसेप्शन काउंटर पर जमा कराए.1,500 रुपए वार्ड बौय ने अपनी बख्शीश मांग ली.

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गली आगे मुड़ती है : क्या विवाह के प्रति उन का नजरिया बदल सका

गली आगे मुड़ती है : भाग 3- क्या विवाह के प्रति उन का नजरिया बदल सका

संजना हतप्रभ सी नयना को देखती रह गई. उस की आंखों में, उस के चेहरे पर असुरक्षा के भाव थे, भविष्य की चिंता थी. लेकिन क्यों? नयना खुद इतने ऊंचे पद पर कार्यरत थी, इस आजाद खयाल जीवन की हिमायती नयना के मन में भी पवन के खो जाने का डर है, जीवन में अकेले रह जाने का डर है. पवन के बाद दूसरा साथी बनाएगी फिर तीसरा…फिर चौथा…और उस के बाद जैसे एक विराट प्रश्नचिह्न संजना के सामने आ कर टंग गया था. वह तो अपनी नौकरी के अलावा कभी किसी बारे में सोचती ही नहीं. बस, नितिन का अपने से कम योग्य होना ही उसे खलता रहता है और इस बात से वह दुखी होती रहती है.

‘‘पवन कहीं नहीं जाएगा, नयना, आ जाएगा रात तक. तुम्हारा भ्रम है यह…’’ वह नयना को दिलासा देती हुई बोली. और दिन भर के लिए उस के पास रुक गई. शाम को जब वह घर पहुंची तो घर पर रोली को अपना इंतजार करते पाया.

‘‘अरे, रोली इस समय तुम कैसे आ गईं.’’

‘‘तुझ से बात करने का मन हो रहा था. सो, आ गई. नितिनजी ने बताया कि तू नयना के घर गई है, आने वाली होगी. मुझे इंतजार करने को कह कर वह कुछ सामान लेने चले गए.’’

एक पल चुप रहने के बाद रोली बोली, ‘‘नितिन बता रहे थे कि नयना की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, क्या हुआ है उसे?’’

‘‘कुछ नहीं, वह अपने और पवन के रिश्तों को ले कर कुछ अपसेट सी है,’’ संजना सोफे पर बैठती हुई बोली, ‘‘नयना को पवन पर भरोसा नहीं रहा. उसे लग रहा है कि उस की जिंदगी में कोई और है तभी वह उस से दूर जा रहा है.’’

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‘‘लेकिन नयना उस से पूछती क्यों नहीं?’’ रोली रोष में आ कर बोली.

‘‘किस बिना पर, रोली. आखिर लिव इन रिलेशन का यही तो मतलब है कि जब तक बनी तब तक साथ रहे वरना अलग होने में वैवाहिक रिश्तों जैसा कोई झंझट नहीं.’’

‘‘और तू सुना, कैसी है,’’ थोड़ी देर बाद संजना बोली.

‘‘बस, ऐसे ही, कल से बहुत परेशान सी थी. घर में रिश्ते की बात चल रही है. एक अच्छा रिश्ता आया है. सब बातें तो ठीक हैं पर लड़का मुंबई में कार्यरत है? मुझे नौकरी छोड़नी पड़ेगी. इसी बात पर घर में हंगामा मचा हुआ था. पापा चाहते थे कि मुझे चाहे नौकरी छोड़नी पड़े पर मैं उस रिश्ते के लिए हां कर दूं. इसी विवाद से परेशान हो कर मैं थोड़ी देर के लिए तेरे पास आ गई.’’

‘‘तो क्या सोचा है तू ने?’’ संजना बोली.

‘‘सोचा तो था कि मना कर दूंगी,’’ रोली खिसक कर संजना के पास बैठती हुई बोली, ‘‘लेकिन नयना के बारे में जानने के बाद अब सोचती हूं कि हां कर दूं. आज की पीढ़ी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में उलझी हुई विवाह और विवाह के बाद की जिम्मेदारियों से दूर भाग रही है लेकिन जैसेजैसे उम्र आगे बढ़ती है पीछे मुड़ कर देखने का मन करता है. अगर 10 साल बाद कोई समझौता करना है तो आज क्यों नहीं?’’ पल भर के लिए दोनों सहेलियां चुप हो गईं.

‘‘तू ने सही और समय से निर्णय लिया, संजना. सभी को कुछ न कुछ समझौता तो करना ही पड़ता है. मुझे अपनी नौकरी छोड़नी पड़ रही है और नयना को भविष्य की सुरक्षा, लेकिन तेरे पास सबकुछ है. नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन अयोग्य तो नहीं है. पहले लड़कियां इतनी योग्य भी नहीं होती थीं तो उन्हें अपने से अधिक योग्य लड़के मिल जाते थे लेकिन अब जमाना बदल रहा है. लड़कियां इतनी तरक्की कर रही हैं कि यदि अपने से अधिक योग्य लड़के के इंतजार में बैठी रहेंगी तो या तो नौकरी ही कर पाएंगी या शादी ही.

‘‘ऐसे लड़के का चुनाव करना जिस के साथ घरेलू जीवन चल सके, बच्चों की परवरिश हो सके, बड़ेबुजुर्गों की देखभाल हो सके, अपने से लड़का कुछ कम योग्य भी हो तो इस में कुछ भी गलत नहीं है. समय के साथ यह बदलाव आना ही चाहिए. आखिर पहले पत्नी घर देखती थी आज ऊंचे ओहदों पर कार्य कर रही है तो पति के पास घर की देखभाल करने का समय हो तो इस में कुछ गलत है क्या?’’ यह कह कर रोली उठ खड़ी हुई.

संजना जब रोली को बाहर तक छोड़ कर अंदर आई तो ध्यान आया कि नितिन को बाजार गए हुए काफी देर हो गई और अभी तक वह आए नहीं. आज नितिन के लिए संजना के मन में अंदर से चिंता हो रही थी. तभी कौलबेल बज उठी, सामान से लदाफदा नितिन दरवाजे पर खड़ा था.

‘‘अरे, आप इतना सारा सामान ले आए,’’ संजना सामान के कुछ पैकेट उस के हाथ से पकड़ते हुए बोली, ‘‘बहुत देर हो गई, मैं इंतजार कर रही थी.’’

संजना के स्वर की कोमलता से नितिन चौंक गया. बिना कुछ बोले वह अपने हाथ का सामान किचन में रख कर बेडरूम में चला गया. संजना भी उस के पीछेपीछे आ गई.

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‘‘नितिन,’’ पीछे से उस के गले में बांहें डालती हुई संजना बोली, ‘‘चलो, आज का डिनर बाहर करेंगे, फिर कोई फिल्म देखेंगे. आया को रोक लेते हैं. वह मुन्ने को देख लेगी.’’

उस के इस प्रस्ताव व हरकत से नितिन हैरत से पलट कर उस की ओर देखने लगा.

‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ संजना इठलाती हुई बोली, ‘‘हर समय गुस्से में रहते हो, यह नहीं की कभी बीवी को कहीं घुमा लाओ, फिल्म दिखा लाओ.’’

आम घरेलू औरतों की तरह संजना बोली तो उस की इस हरकत पर नितिन खिलखिला कर हंस पड़ा.

संजना उस के गले में बांहें डाल कर उस से लिपट गई, ‘‘मुझे माफ कर दो, नितिन.’’

‘‘संजना, इस में माफी की क्या बात है? मेरे लिए तुम, तुम्हारी योग्यता, तुम्हारी काम में व्यस्तता, तुम्हारा रुतबा सभी कुछ गर्व का विषय है लेकिन जब तुम मुझे ही अपनी जिंदगी से दरकिनार कर देती हो तो दुख होता है.’’

‘‘अब ऐसा नहीं होगा. मेरे लिए आप से अधिक महत्त्वपूर्ण जीवन में दूसरा कुछ भी नहीं है. आप में और मुझ में कोई फर्क नहीं, हमारा कुछ भी, चाहे वह नौकरी हो या समाज, जिंदगी भर नहीं रहेगा…लेकिन हम दोनों मरते दम तक साथ रहेंगे.’’

मानअभिमान की सारी दीवारें तोड़ कर संजना नितिन से लिपट गई. नितिन ने भी एक पति के आत्मविश्वास से संजना को अपनी बांहों में समेट लिया.

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गली आगे मुड़ती है : भाग 1- क्या विवाह के प्रति उन का नजरिया बदल सका

‘‘पि  छले एक हफ्ते से बहुत थक गई हूं,’’ संजना ने कौफी का आर्डर देते हुए रोली से कहा, ‘‘इतना काम…कभीकभी दिल करता है कि नौकरी छोड़ कर घर बैठ जाऊं.’’

‘‘हां यार, मेरे घर वाले भी शादी करने के लिए जोर डाल रहे हैं,’’ रोली बोली, ‘‘लेकिन नौकरी की व्यस्तता में कुछ सोच नहीं पा रही हूं…नयना का ठीक है. शादी का झंझट ही नहीं पाला, साथ रहो, साथ रहने का मजा लो और शादी के बाद के झंझट से मुक्त रहो.’’

‘‘मुझे तो लिव इन रिलेशन शादी से अधिक भाया है,’’ नयना ने कहा, ‘‘शादी करो, बच्चे पैदा करो, बच्चे पालो और नौकरी को हाशिए पर रख दो. अरे, इतनी मेहनत कर के इंजीनियरिंग की है क्या सिर्फ घर चलाने और बच्चे पालने के लिए?’’

‘‘कैसा चल रहा है तेरा पवन के साथ?’’ रोली ने पूछा.

‘‘बहुत बढि़या, जरूरत पर एक दूसरे का साथ भी है लेकिन बंधन कोई नहीं. मैं तो कहती हूं, तू भी एक अच्छा सा पार्टनर ढूंढ़ ले,’’ नयना बोली.

‘‘कौन कहता है कि शादी बंधन है,’’ संजना कौफी के कप में चम्मच चलाती हुई बोली, ‘‘बस, कामयाब औरत को समय के अनुसार सही साथी तलाश करने की जरूरत है.’’

‘‘हां, जैसे तू ने तलाश किया,’’ नयना खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘आई.आई.टी. इंजीनियर और आई.आई.एम. लखनऊ से एम.बी.ए. हो कर एक लेक्चरर से शादी कर ली, इतनी कामयाब बीवी को वह कितने दिन पचा पाएगा.’’

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जवाब में संजना मुसकराने लगी, ‘‘क्यों नहीं पचा पाएगा. जब एक पत्नी अपने से कामयाब पति को पचा सकती है तो एक पति अपने से अधिक कामयाब पत्नी को क्यों नहीं पचा सकता है. आज के समय की यही जरूरत है,’’ कह कर कौफी का प्याला मेज पर रख कर संजना उठ खड़ी हुई. साथ ही रोली और नयना भी खिलखिलाते हुए उठीं और अपनी- अपनी राह चल पड़ीं.

तीनों सहेलियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों में बड़ेबड़े ओहदों पर थीं. फुरसत के समय तीनों एकदूसरे से मिलती रहती थीं. तीनों सहेलियों की उम्र 32 पार कर चुकी थी. रोली अभी तक अविवाहित थी. नयना एक युवक पवन के साथ लिव इन रिलेशन व्यतीत कर रही थी और संजना ने एक लेक्चरर से 3 साल पहले विवाह किया था. उस का साल भर का एक बेटा भी था. वैसे तो तीनों सहेलियां अपनीअपनी वर्तमान स्थितियों से संतुष्ट थीं लेकिन सबकुछ है पर कुछ कमी सी है की तर्ज पर हर एक को कुछ न कुछ खटकता रहता था.

रोली जब घर पहुंची तो 9 बज रहे थे. मां खाने की मेज पर बैठी उस का इंतजार कर रही थीं. उसे आया देख कर मां बोलीं, ‘‘बेटी, आज बहुत देर कर दी, आ जा, जल्दी से खाना खा ले.’’

9 बजना बड़े शहरों में कोई बहुत अधिक समय नहीं था, पर किसी ने भी उस का खाने के लिए इंतजार करना ठीक नहीं समझा. भाई अगर देर से आएं तो उन के लिए सारा परिवार ठहरता है. आखिर, वह अपनी सारी तनख्वाह इसी घर में तो खर्च करती है.

मां की तरफ बिना देखे रोली अंदर चली गई. बाथरूम से फ्रेश हो कर निकली तो मां प्लेट में खाना डाल रही थीं. उस ने किसी तरह थोड़ा खाना खाया. इस दौरान मां की बातों का वह हां, ना में जवाब देती रही और फिर अपने कमरे में बत्ती बुझा कर लेट गई. दिन भर के काम से शरीर क्लांत था लेकिन हृदय के अंदर समुद्री तूफान था. लंबेचौड़े पलंग ने जैसे उस का अस्तित्व शून्य बना दिया था.

रिश्ते तो कई आते हैं पर तय हो ही नहीं पाते क्योंकि या तो उसे अपनी वर्तमान नौकरी छोड़नी पड़ती या फिर लड़के का रुतबा उस के बराबर का नहीं होता और दोनों ही स्थितियां रोली को स्वीकार नहीं थीं. इसी कारण शादी टलती जा रही थी. वह हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहती थी. उस के संस्कार उसे नयना जैसा जीवन जीने की प्रेरणा नहीं देते थे और उस का रुतबा व स्वाभिमान उसे अपने से कम योग्य लड़के से शादी करने से रोकते थे.

नयना अपने फ्लैट पर पहुंची तो फ्लैट में अंधेरा था. पर्स से चाबी निकाल कर दरवाजा खोला और अंदर आ गई. ‘पवन कहां होगा’ यह सोच कर उस ने पवन के मोबाइल पर फोन लगाया और बोली, ‘‘पवन, कहां हो तुम?’’

‘‘नयना, मैं आज कुछ दोस्तों के साथ एक फार्म हाउस पर हूं. सौरी डार्लिंग, मैं आज रात वापस नहीं आ पाऊंगा. कल रविवार है, कल मिलते हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.

पवन साथ हो या न हो, एक असुरक्षा का भाव जाने क्यों हमेशा उस के जेहन में तैरता रहता है. यों उन का लिव इन रिलेशन अच्छा चल रहा था फिर भी वह अपनेआप को कुछ लुटा हुआ, ठगा हुआ सा महसूस करती थी. विवाह की अहमियत दिल में सिर उठा ही लेती. वैवाहिक संबंधों पर पारिवारिक, सामाजिक व बच्चों का दबाव होता है इसलिए निभाने ही पड़ते हैं लेकिन उन के संबंधों की बुनियाद खोखली है, कभी भी टूट सकते हैं…उस के बाद…यह सोचने से भी नयना घबराती थी.

नयना ने 2 टोस्ट पर मक्खन लगाया, थोड़ा दूध पिया और कपड़े बदल कर बिस्तर पर निढाल सी पड़ गई. पवन लिव इन रिलेशन के लिए तो तैयार है पर विवाह के लिए नहीं. कहता है कि अभी उस ने विवाह के बारे में सोचा नहीं है. सच तो यह है कि पवन यदि विवाह के लिए कहे भी तो शायद वह तैयार न हो पाए. विवाह के बाद की जिम्मेदारियां, बच्चे, घरगृहस्थी, वह कैसे निभा पाएगी. लेकिन जब अपने दिल से पूछती है तो एहसास होता है कि विवाह की अहमियत वह समझती है.

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स्थायी संबंध, भावनात्मक और शारीरिक सुरक्षा विवाह से ही मिलती है. लाख उस के पवन के साथ मधुर संबंध हैं लेकिन उसे वह अधिकार तो नहीं जो एक पत्नी का अपने पति पर होता है. यह सबकुछ सोचतेसोचते नयना गुदगुदे तकिए में मुंह गड़ा कर सोने का असफल प्रयास करने लगी.

संजना घर पहुंची तो नितिन बेटे को कंधे से चिपकाए लौन में टहल रहा था. उसे अंदर आते देख कर उस की तरफ चला आया और बोला, ‘‘बहुत देर हो गई.’’

‘‘हां, नयना और रोली के साथ कौफी पीने रुक गई थी.’’

‘‘तो एक फोन तो कर देतीं,’’ नितिन नाराजगी से बोला.

दोनों अंदर आ गए. नितिन बेटे को बिस्तर पर लिटा कर थपकियां देने लगा. वह बाथरूम में चली गई. नहाधो कर निकली तो मेज पर खाना लगा हुआ था.

‘‘चलो, खाना खा लो,’’ संजना बोली तो नितिन मेज पर आ कर बैठ गया.

डोंगे का ढक्कन हटाती हुई संजना बोली, ‘‘कुछ भी कहो, खाना महाराजिन बहुत अच्छा बनाती है.’’

नितिन चुपचाप खाना खाता रहा. संजना उस की नाराजगी समझ रही थी. आज शनिवार की शाम नितिन का आउटिंग का प्रोग्राम रहा होगा, जो उस की वजह से खराब हो गया. एक बार मन किया कि मानमनुहार करे लेकिन वह इतनी थकी हुई थी कि नितिन से उलझने का उस का मन नहीं हुआ.

आगे पढ़ें- वैसे नितिन उस का स्वयं का चुनाव था. जब…

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गली आगे मुड़ती है : भाग 2- क्या विवाह के प्रति उन का नजरिया बदल सका

खाना खत्म कर के उस ने बचा हुआ खाना फ्रिज में रखा और बिस्तर पर आ कर लेट गई. नितिन सो गया था. आंखों को कोहनी से ढके संजना का मन कर रहा था कि वह नितिन को मना ले, लेकिन पता नहीं कौन सी दीवार थी जो उसे उस के साथ सहज होने से रोकती थी.

वैसे नितिन उस का स्वयं का चुनाव था. जब उस के लिए रिश्ते आ रहे थे उस समय उस की बूआ ने अपने रिश्ते के एक लेक्चरर लड़के का रिश्ता उस के लिए सुझाया था. घर में सभी खिलखिला कर हंस पड़े थे. कहां संजना बहुराष्ट्रीय कंपनी में प्रबंधक और कहां लेक्चरर.

तब उस की छोटी बहन मजाक में बोली थी, ‘वैसे दीदी, एक लेक्चरर से आप का आइडियल मैच रहेगा. आखिर पतिपत्नी में से किसी एक को तो घर संभालने की फुरसत होनी ही चाहिए. वरना घर कैसे चलेगा. आप पति बन कर राज करना वह पत्नी बन कर घर संभालेगा.’ और बहन की मजाक में कही हुई बात संजना के जेहन में आ कर अटक गई थी.

पहले तो उस के जैसी योग्य लड़की के लिए रिश्ते मिलने ही मुश्किल हो रहे थे. एक तो इस लड़के की नौकरी स्थानीय थी और दूसरे, आने वाले समय में बच्चे होंगे तो उन की देखभाल करने का उस के पास पर्याप्त समय होगा तो वह अपनी नौकरी पर पूरा ध्यान दे सकती है. यह सोच कर उस का निर्णय पुख्ता हो गया. उस के इस क्रांतिकारी निर्णय में पिता ने उस का साथ दिया था. उन की नजर में आज के समय में पति या पत्नी में से किसी का भी कम या ज्यादा योग्य होना कोई माने नहीं रखता है. और इस तरह से नितिन से उस का विवाह हो गया था.

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शुरुआत में तो सब ठीक चला लेकिन धीरेधीरे उन के रिश्तों में ख्ंिचाव आने लगा. उस की तनखाह, ओहदा, उस का दायरा, उस की व्यस्तताएं सभी कुछ नितिन के मुकाबले ऊंचा व अलग था. और यह बात संजना के हावभाव से जाहिर हो जाती थी. नितिन उस के सामने खुद को बौना महसूस करता था. संजना सोच रही थी कि काश, उस ने विवाह करने में जल्दबाजी न की होती तो आज उस की यह स्थिति नहीं होती. उस से तो अच्छा रोली और नयना का जीवन है जो खुश तो हैं. नितिन उस की परेशानियां समझ ही नहीं पाता. वह चाहता है कि पत्नी की तरह मैं उस के अहं को संतुष्ट करूं. यही सोचतेसोचते संजना सो गई.

दूसरे दिन रविवार था. वह देर से सो कर उठी. जब वह उठी तो महाराजिन, धोबन, महरी सब काम कर के जा चुके थे और आया मोनू की मालिश कर रही थी. वह बाहर निकली, किचन में जा कर चाय बनाई. एक कप नितिन को दी और खुद भी बैठ कर चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगी.

तभी उस का फोन बज उठा. उस ने फोन उठाया, नयना थी, ‘‘हैलो नयना…’’ संजना चाय पीते हुए नयना से बात करने लगी.

‘‘संजना, क्या तुम थोड़ी देर के लिए मेरे घर आ सकती हो?’’ नयना की आवाज उदासी में डूबी हुई थी.

‘‘क्यों, क्या हो गया, नयना?’’ संजना चिंतित स्वर में बोली.

‘‘बस, घर पर अकेली हूं, रात भर नींद नहीं आई, बेचैनी सी हो रही है.’’

‘‘मैं अभी आती हूं,’’ कह कर संजना उठ खड़ी हुई. नितिन सबकुछ सुन रहा था. उस का तना हुआ चेहरा और भी तन गया.

वह तैयार हुई और नितिन से ‘अभी आती हूं’ कह कर बाहर निकल गई. नयना के फ्लैट में संजना पहुंची तो वह उस का ही इंतजार कर रही थी. बाहर से ही अस्तव्यस्त घर के दर्शन हो गए. वह अंदर बेडरूम में गई तो देखा नयना सिर पर कपड़ा बांधे बिस्तर पर लेटी हुई थी. कमरे में कुरसियों पर हफ्ते भर के उतारे हुए मैले कपड़ों का ढेर पड़ा हुआ था. कहने को पवन और नयना दोनों ऊंचे ओहदों पर कार्यरत थे पर उन के घर को देख कर जरा भी नहीं लगता था कि यह 2 समान विचारों वाले इनसानों का घर है.

‘‘क्या हुआ, नयना,’’ संजना उस के सिर पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘पवन कहां है?’’

‘‘वह अपने दोस्तों के साथ शहर से दूर किसी फार्म हाउस पर गया हुआ है और मेरी तबीयत रात से ही खराब है. दिल बारबार बेचैन हो उठता है, सिर में तेज दर्द है,’’ इतना बताते हुए नयना की आवाज भर्रा गई.

संजना के दिल में कुछ कसक सा गया. यहां नयना इसलिए दुखी है कि पवन कल से लौटा नहीं और उस के पास नितिन के लिए समय नहीं है.

‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है. रात तक पवन लौट आएगा,’’ संजना बोली, ‘‘चल, तुझे डाक्टर को दिखा लाती हूं. उस के  बाद मेरे घर चलना.’’

‘‘बात रात तक आने की नहीं है, संजना,’’ नयना बोली, ‘‘पवन का व्यवहार कुछ बदल रहा है. वह अकसर ही मुझे बिना बताए अपने दोस्तों के साथ चला जाता है. कौन जाने उन दोस्तों में कोई लड़की हो?’’ बोलते- बोलते नयना की रुलाई फूट पड़ी.

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‘‘लेकिन तू ने कभी कहा नहीं…’’

‘‘क्या कहती…’’ नयना थोड़ी देर चुप रही, ‘‘वह मेरा पति तो नहीं है जिस पर कोई दबाव डाला जाए. वह अपने फैसले के लिए आजाद है, संजना,’’ और संजना की बांह पकड़ कर नयना बोली, ‘‘तू ने अपने जीवन में सब से सही निर्णय लिया है. तेरे पास सबकुछ है. सुकून भरा घर, बेटा और तुझे मानसम्मान देने वाला पति पर मेरे और पवन के रिश्तों का क्या है, कौन सा आधार है जो वह मुझ से बंधा रहे? आखिर इन रिश्तों का और इस जीवन का क्या भविष्य है? एक उम्र निकल जाएगी तो मैं किस के सहारे जीऊंगी?

‘‘जीवन सिर्फ जवानी की सीधी सड़क ही नहीं है, संजना. इस सीधी, सपाट सड़क के बाद एक संकरी गली भी आती है…अधेड़ावस्था की…और जब यह गली मुड़ती है न…तो एक भयानक खाई आती है…बुढ़ापे की…और जीवन का वही सब से भयानक मोड़ है, तब मैं क्या करूंगी…’’ कह कर नयना रोने लगी.

‘‘नितिन तुझ से कुछ कम योग्य सही लेकिन तेरे जीवन की निश्ंिचतता उसी की वजह से है. उसे खोने का तुझे डर नहीं, घर की तुझे चिंता नहीं…बेटे के लालनपालन में तुझे कोई परेशानी नहीं…’’ रोतेरोते नयना बोली, ‘‘मेरे पास क्या है? पवन का मन होगा तब तक वह मेरे साथ रहेगा, फिर उस के बाद…’’

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मोह का जाल: क्यों लड़खड़ाने लगा तनु के पैर

‘‘तनु बेटा, जा कर तैयार हो जा. वे लोग आते ही होंगे,’’ मां ने प्यारभरी आवाज में मनुहार करते हुए कहा. ‘‘मां, मैं कितनी बार कह चुकी हूं कि मैं विवाह नहीं करूंगी. मुझे पसंद नहीं है यह देखने व दिखाने की औपचारिकता. मां, मान भी लो कि यह रिश्ता हो गया, तो क्या मैं सुखी वैवाहिक जीवन बिता पाऊंगी? जब भी उन्हें पता चलेगा कि मैं एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त हूं तो क्या वे मुझे…’’ मैं आवेश में कांपती आवाज में बोली.

‘‘बेटा, तू ने मन में भ्रम पाल लिया है कि तुझे गंभीर बीमारी है. प्रदूषण के कारण आज हर 10 में से एक व्यक्ति इस बीमारी से पीडि़त है. दमा रोग आज असाध्य नहीं है. उचित खानपान, रहनसहन व उचित दवाइयों के प्रयोग से रोग पर काबू पाया जा सकता है. अनेक कुशल व सफल व्यक्ति भी इस रोग से ग्रस्त पाए गए हैं. ज्यादा तनाव, क्रोध इस रोग की तीव्रता को बढ़ा देते हैं. हमारे खानदान में तो यह रोग किसी को नहीं है, फिर तू क्यों हीनभावना से ग्रस्त है?’’ मां ने समझाते हुए कहा.

‘‘तुम इस बीमारी के विषय में उन लोगों को बता क्यों नहीं देतीं,’’ मैं ने सहज होने का प्रयत्न करते हुए कहा.

‘‘तू नहीं जानती है, बेटी, तेरे डैडी ने 1-2 जगह इस बात का जिक्र किया था, किंतु बीमारी का सुन कर लड़के वालों ने कोई न कोई बहाना बना कर चलती बात को बीच में ही रोक दिया,’’ असहाय मुद्रा में मां बोलीं.

‘‘लेकिन मां, यह तो धोखा होगा उन के साथ.’’

‘‘बेटा, जीवन में कभीकभी कुछ समझौते करने पड़ते हैं, जिन्हें करने का हम प्रयास कर रहे हैं.’’ लंबी सांस से ले कर मां फिर बोलीं, ‘‘इतनी बड़ी जिंदगी किस के सहारे काटेगी? जब तक हम लोग हैं तब तक तो ठीक है, भाई कब तक सहारा देेंगे? अपने लिए नहीं तो मेरे और अपने डैडी की खातिर हमारे साथ सहयोग कर बेटा. जा, जा कर तैयार हो जा,’’ मां ने डबडबाई आंखों से कहा.

कुछ कहने के लिए मैं ने मुंह खोला किंतु मां की आंखों में आंसू देख कर होंठों से निकलते शब्द होंठों पर ही चिपक गए. अनिच्छा से मैं तैयार हुई. मन कह रहा था कि किसी को धोखा देना अपराध है. मन की बात मन में ही रह गई. भाई रंजन ने आ कर बताया कि वे लोग आ गए हैं. मां और डैडी स्वागत के लिए दौड़े. 2 घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला. मनुज अत्यंत आकर्षक, हंसमुख व मिलनसार लगा. लग ही नहीं रहा था कि हम पहली बार मिल रहे हैं. पहली बार मन में किसी को जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हुई.

वे लोग चले गए, किंतु मेरे मन में उथलपुथल मच गई. क्या वे मुझे स्वीकार करेंगे? यदि स्वीकार कर भी लिया तो कच्ची डोर से बंधा बंधन कब तक ठहर पाएगा?

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2 दिनों बाद फोन पर रिश्ते को स्वीकार करने की सूचना मिली तो बिना त्योहार के ही घर में त्योहार जैसी खुशियां छा गईं. डैडी बोले, ‘‘मैं जानता था रिश्ता यहीं तय होगा. कितना भला व सुशील लड़का है मनुज.’’

किंतु मैं खुश नहीं थी. जनमजनम के इस रिश्ते में पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है, सो, पता प्राप्त कर चुपके से एक पत्र मनुज के नाम लिख कर डाल दिया. धड़कते दिल से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी.

एक हफ्ता बीता, 2 हफ्ते बीते, यहां तक तीसरा भी बीत गया. उस के पत्र का कोई उत्तर नहीं आया. मनुज का विशाल व्यक्तित्व खोखला लगने लगा था. स्वप्न धराशायी होने लगे थे कि एक दिन कालेज से लौटी तो दरवाजे की कुंडी में 3-4 पत्रों के साथ एक गुलाबी लिफाफा था. उस का भविष्य इसी लिफाफे में कैद था. जीवन में खुशियां आने वाली हैं या अंधेरा, एक छोटा सा कागज का टुकड़ा निर्णय कर देगा. पत्र खोल कर पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी.

‘प्यारी तनु,मां आज किटी पार्टी में गई थीं. सो, बैग से चाबी निकाल कर ताला खोला. कड़कड़ाती ठंड में भी माथे पर पसीने  कीबूंदें झलक आई थीं. स्वयं को संयत करते हुए पत्र खोला. लिखा था :

तुम्हें जीवनसाथी के रूप में प्राप्त  कर मेरा जीवन धन्य हो जाएगा. तुम बिलकुल वैसी ही हो जैसी मैं ने कल्पना की थी.’

मन में अचानक अनेक प्रकार के फूल खिल उठे, सावन के बिना ही जीवन में बहार आ गई. चारों ओर सतरंगी रंग छितर कर तनमन को रंगीन बनाने लगे. मैं ने भी उन के पत्र का उत्तर दे दिया था.

2 महीने के अंदर ही वैदिक मंत्रों के मध्य अग्नि को साक्षी मान कर मेरा मनुज से विवाह हो गया. दुखसुख में जीवनभर साथ निभाने के कसमेवादों के साथ जीवन के अंतहीन पथ पर चल पड़ी. विदाई के समय मां का रोरो कर बुरा हाल था. चलते समय मनुज से बोली थीं, ‘‘बेटा, नाजुक सी छुईमुई कली है मेरी बेटी, कोई गलती हो जाए तो छोटा समझ कर माफ कर देना.’’

मेरी आंखें रो रही थीं किंतु मन नवीन आकांक्षाओं के साथ नए पथ पर छलांग मारने को आतुर था. कानपुर से फैजाबाद आते समय मनुज ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था तथा धीरेधीरे सहला रहे थे, और मैं चाह कर भी नजरों से नजरें मिलाने में असमर्थ थी. कैसा है यह बंधन… अनजान सफर में अनजान राही के साथ अचानक तनमन का एकाकार हो जाना, प्रेम और अपनत्व नहीं, तो और क्या है.

ससुराल में खूब स्वागत हुआ. सास सौतेली थीं, किंतु उन का स्वभाव अत्यंत मोहक व मृदु लगा. कुछ ने कहा कि कमाऊ बेटा है इसीलिए उस की बहू का इतना सत्कार कर रही हैं. यह सुन कर सौम्य स्वभाव, मृदुभाषिणी सास के चेहरे पर दुख की लकीरें अवश्य आईं, किंतु क्षण भर पश्चात ही निर्विकार मूर्ति के सदृश प्रत्येक आएगए व्यक्ति की देखभाल में जुट जातीं.

ननद स्नेहा भी दिनभर भाभीभाभी कहते हुए आगेपीछे ही घूमती. कभी नाश्ते के लिए आग्रह करती तो कभी खाने के लिए. प्रत्येक आनेजाने वाले से भी परिचय करवाती. मनुज भी किसी न किसी काम के बहाने कमरे में ही ज्यादा वक्त गुजारते. मित्र कहते, ‘‘वह तो गया काम से. अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ मन चाहने लगा था, काश, वक्त ठहर जाए, और इसी तरह हंसीखुशी से सदा मेरा आंचल भरा रहे.

पूरे हफ्ते घूमनाफिरना लगा रहा. 2 दिनों बाद ऊटी जाने का कार्यक्रम था. देर रात्रि मनुज के अभिन्न मित्र के घर से हम खाना खा कर आए. पता नहीं ठंड लग गई या खानेपीने की अनियमितता के कारण सुबह उठी तो सांस बेहद फूलने लगी.

‘‘क्या बात है? तुम्हारी सांस कैसे फूलने लगी? क्या पहले भी ऐसा होता था?’’ मुझे तकलीफ में देख कर हैरानपरेशान मनुज ने पूछा.

‘‘मैं ने अपनी बीमारी के बारे में आप को पत्र लिखा था,’’ प्रश्न का समाधान करते हुए मैं ने कहा.

‘‘पत्र, कौन सा पत्र? तुम्हारे पत्र में बीमारी के बारे में तो जिक्र ही नहीं था.’’

लगा, पृथ्वी घूम रही है. क्या इन को मेरा पत्र नहीं मिला? मैं तो इन का पत्र प्राप्त कर यही समझती रही कि मेरी कमी के साथ ही इन्होंने मुझे स्वीकारा है. तनाव व चिंता के कारण घबराहट होने लगी थी. पर्स खोल कर दवा ली, लेकिन जानती थी रोग की तीव्रता 2-3 दिन के बाद ही कम होगी. दवा के रूप में प्रयुक्त होने वाला इनहेलर शरम व झिझक के कारण नहीं लाई थी. यदि किसी ने देख लिया और पूछ बैठा तो क्या उत्तर दूंगी.

बीमारी को ले कर इन्होंने घर सिर पर उठा लिया. इन का रौद्ररूप देख कर मैं दहल गई थी. आखिर गलती हमारी ओर से हुई थी. बीमारी को छिपाना ही भयंकर सिद्ध हुआ था. मेरा लिखा पत्र डाक एवं तार विभाग की गड़बड़ी के कारण इन तक नहीं पहुंच पाया था.

‘‘बेटा, आजकल के समय में कोई भी रोग असाध्य नहीं है. हम बहू का इलाज करवाएंगे. तुम क्यों चिंता करते हो?’’ मनुज को समझाते हुए सासससुर बोले.

‘‘पिताजी, मैं इस के साथ नहीं रह सकता. मैं ने एक सर्वगुणसंपन्न व स्वस्थ जीवनसाथी की तलाश की थी न कि रोगी की. क्या मैं इस की लाश को जीवनभर ढोता रहूंगा? अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ कड़कती मुद्रा में ये बोले.

‘‘पापा, भैया ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ स्नेहा, मेरी ननद ने भाई का समर्थन करते हुए कहा.

‘‘तुम चुप रहो. अभी छोटी हो, शादीविवाह कोई बच्चों का खेल नहीं है जो तोड़ दिया जाए,’’ पितासमान ससुरजी ने स्नेहा को डांटते हुए कहा.

‘‘मैं कल ही अपने काम पर लौट रहा हूं.’’ कुछ कहने को आतुर अपने पिता को चुप कराते हुए, मनुज घर से चले गए.

मनुज की बातों से व्याकुल सास मेरे पास आईं. मेरी आंखों से बहते आंसुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए बोलीं, ‘‘बेटी घबरा मत, सब ठीक हो जाएगा. बेवकूफ लड़का है, इतना भी नहीं समझता कि बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है. इस की वजह से विवाह जैसे पवित्र संबंध को तोड़ा नहीं जा सकता. हां, इतना अवश्य है कि राजेंद्र भाईसाहब को बीमारी के संबंध में छिपाना नहीं चाहिए था.’’

‘‘मांजी, मम्मीपापा ने छिपाया अवश्य था, किंतु मैं ने इन्हें सबकुछ सचसच लिख दिया था. इन का पत्र प्राप्त कर मैं समझी थी कि इन्होंने मेरी बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया है, वरना मैं विवाह ही नहीं करती,’’ कहतेकहते आंचल में मुंह छिपा कर मैं रो पड़ी थी.

डाक्टर भी आ गए थे. रोग की तीव्रता को देख कर इंजैक्शन दिया तथा दवा भी लिखी. रोग की तीव्रता कम होने लगी थी, किंतु इन के जाने की बात सुन कर मन अजीब सा हो गया था. सारी शरम छोड़ कर सासूजी से कहा, ‘‘मम्मी, क्या ये एक बार, सिर्फ एक बार मुझ से बात नहीं कर सकते?’’

सासुमां ने मनुज से आग्रह भी किया, किंतु कोई भी परिणाम न निकला. जाते समय मैं भी सब के साथ बाहर आई. इन्होंने मां और पिताजी के पैर छुए, बहन को प्यार किया और मेरी ओर उपेक्षित दृष्टि डाल कर चले गए. सासुमां ने दिलासा देते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैं विह्वल स्वर में बोल उठी, ‘‘मां, मेरा क्या होगा?’’

आदमी इतना तटस्थ हो सकता है, मैं ने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था. विगत एक हफ्ते में हम ने कुछ अंतरंग क्षण व्यतीत किए थे, कुछ सपने बुने थे, सुखदुख में साथ रहने की कसमें खाई थीं, क्या वह सब झूठ था?

डैडी को पता चला तो वे भी आए. उन के उदास चेहरे पर मैं नजर भी न डाल सकी. कितने प्रयत्न, कितनी खुशी से संबंध तय किया था, क्या सिर्फ एक हफ्ते के लिए?

‘‘दिवाकरजी, आप मनुज को समझा कर देखिए. यह रोग भयंकर रोग तो है नहीं, मैं सच कहता हूं, हमारे यहां न मेरी तरफ और न ही इस की मां की तरफ किसी को यह रोग है. सो, यदि प्रयास किया जाए तो ठीक हो सकता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए डैडी बोले.

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‘‘भाईसाहब, अपनी तरफ से तो मैं पूर्ण प्रयास करूंगा पर नई पीढ़ी को तो आप जानते ही हैं, यह सदा अपने मन की ही करती है,’’ मेरे ससुरजी डैडी को दिलासा देते हुए बोले.

मैं डैडी के साथ अपने घर वापस लौट आई. इस तरह एक हफ्ते में सारे सुख और दुख मेरे आंचल में आ गिरे थे. इस जीवन का क्या होगा? यह प्रश्न बारबार जेहन में उभर रहा था. मां मेरे लौट आने के बाद गुमसुम हो गई थीं. डैडी अब देर से घर लौटते थे. शायद कोई भी एकदूसरे से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था.

मैं विश्वविद्यालय की पढ़ाई करना नहीं चाहती थी. 2 बार प्रीमैडिकल परीक्षा में असफल होने के पश्चात एक बार फिर प्रीमैडिकल परीक्षा में सम्मिलित होने का निर्णय सुनाया तो सभी ने स्वागत किया. परीक्षा का फौर्म भरते समय नाम के आगे कुमारी शब्द देख कर मम्मी व डैडी बिगड़ उठे, किंतु, भाई रंजन ने मेरे समर्थन में आवाज उठाई, बोले, ‘‘ठीक ही तो है. उस संबंध को लाश की तरह उठाए कब तक फिरेगी?’’

एक महीने पश्चात मनुज ने अपने वकील के माध्यम से तलाक के लिए नोटिस भिजवाया. मांपिताजी ने हस्ताक्षर करने से मना किया, किंतु मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘पतिपत्नी का संबंध मन व आत्मा से होता है. यदि मन ही एकाकार नहीं हुए तो टूटी डोर में गांठ बांधने से क्या फायदा,’’ और कागज पर हस्ताक्षर कर दिए.

जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया. परीक्षा हुई और परिणाम निकला. सफल प्रतियोगियों में मैं अपना नाम देख कर खुशी से झूम उठी.

मम्मीडैडी के उदास चेहरों पर एक बार फिर खुशी झलकने लगी थी और मुझे मेरी मंजिल मिल गई थी.

5 वर्ष की पढ़ाई पूरी हुई. मैं लड़कियों में प्रथम रही थी. योग्यता के कारण सरकारी सेवा में नियुक्ति हो गई. पूरे दिन रोगियों की सेवा करती तो अलग तरह के आनंद की प्राप्ति होती. कभीकभी लगता वह जीवन क्षणमात्र के लिए था. मेरा जन्म तो इसी के लिए हुआ है. कभी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से अपनी तुलना करती तो कभी जौन औफ आर्क से, मन में छाया कुहासा पलभर में दूर हो जाता और कर्तव्यपथ पर कदम स्वयं बढ़ने लगते.

एक दिन अस्पताल में बैठी रोगियों को देख रही थी कि एक युगल ने कमरे में प्रवेश किया. मैं उस जोड़े को देख कर चौंक गई, किंतु चेहरे पर आए परिवर्तन पर यथासंभव अंकुश लगा लिया.

‘‘कहिए, क्या तकलीफ है आप को?’’ मैं ने सामान्य होते हुए पूछा.

‘‘आप इन का चैकअप कर लीजिए. चलनेफिरने में तकलीफ होती है, पैरों में सूजन भी है,’’ युवक ने कहा.

‘‘चलिए,’’ उठते हुए मैं ने कहा व बगल के कमरे में ले जा कर युवती का पूरा चैकअप किया और फिर बताया, ‘‘कोई परेशानी की बात नहीं है, इन्हें उच्च रक्तचाप है. इसी कारण पैरों में सूजन है. दवा लिख रही हूं, समय पर देते रहिएगा. बच्चा होने तक लगातार हर 15 दिन बाद चैकअप करवाते रहिएगा.’’

‘‘जी, डाक्टर.’’

‘‘नाम?’’ दवाई का परचा लिखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘ऋचा शर्मा,’’ उत्तर युवती ने दिया.

परचे पर नाम लिखते समय न जाने क्यों हाथ कांप गया था. कुछ दवाएं व टौनिक लिख कर दिए. साथ में कुछ हिदायतें भी. वे दोनों उठ कर चले गए, किंतु दिल में हलचल मचा गए. उस दिन, दिनभर व्यग्र रही. बारबार अतीत आ कर कुरेदने लगा. जो चीज मैं पीछे छोड़ आई थी, वह क्यों फिर से मुझे बेचैन करने लगी थी. मैं ने अलमारी से वह फोटो निकाली जो विवाह के दूसरे दिन जा कर खिंचवाई थी. देख कर मैं बुदबुदा उठी थी, ‘तुम क्यों मेरे शांत जीवन में हलचल मचाने आ गए. मैं ने तुम से कुछ नहीं मांगा. तुम ने साथ चलने से इनकार कर दिया तो मैं ने अपनी राह स्वयं बना ली. तुम इस राह में फिर क्यों आ गए. कितना त्याग और बलिदान चाहते हो?’ रात अशांति में, बेचैनी में गुजरी. सुबह उठी तो रातभर जागने के कारण आंखें बोछिल थीं. अस्पताल जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, किंतु फिर भी यह सोच कर तैयार हुई कि कार्य में व्यस्त रहने पर मन शांत रहता है.

अस्पताल में कमरे के बाहर मनुज को प्रतीक्षारत पाया तो कदम लड़खड़ा गए. किंतु सहज बनने का अभिनय करते हुए उन्हें अनदेखा कर अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. मनुज भी मेरे पीछेपीछे आए थे.

‘‘माफ कीजिएगा, आप तनुजा हैं न?’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, आप को कुछ शक है क्या?’’ तेज निगाहों से देखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार व अन्याय किया है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया. कल तुम्हें देखने के बाद से ही मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा हूं. मुझे माफ कर दो, तनु.’’

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा कहिए और बाहर आप मेरे नाम की तख्ती देख लीजिए,’’ निर्विकार मुद्रा में बोली थी मैं. ‘‘आप की पत्नी की तबीयत अब कैसी है? उन का खयाल रखिएगा और हो सके तो प्रत्येक 15 दिन बाद परीक्षण करवाते रहिएगा,’’ कह कर मैं ने घंटी बजा दी, ‘‘मरीजों को अंदर भेज दो,’’ चपरासी को निर्देश देती हुई बोली.

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं, तनु,’’ मनुज ने मेरी ओर आग्रहपूर्वक देखते हुए कहा.

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा,’’ मैं ने कुमारी शब्द पर थोड़ा जोर देते हुए तीव्र स्वर में कहा. और लड़खड़ाते कदमों से मनुज चले गए.

मैं देखती रह गई. क्या यह वही व्यक्ति है जिस ने मुझे मझधार में डूबने के लिए छोड़ दिया था. किंतु यह इस समय इतना निरीह क्यों? इतना दयनीय क्यों? क्या यह सिर्फ मेरे पद के कारण है या इस के जीवन में कोई अभाव है? मुझे स्वयं पर हंसी आने लगी थी. इसे क्या अभाव होगा, जिस की इतनी प्यारी पत्नी है, पद है, मानसम्मान है.

तब तक मरीजों ने आ कर मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया और मैं कार्य में व्यस्त हो गई.

अतीत ने मुझे कुरेदा जरूर था किंतु अनजाने सुख भी दे गया था, क्योंकि वह व्यक्ति जिस ने मुझे अपमानित किया था, मानसिक पीड़ा दी थी, वह मेरे सामने निरीह व दयनीय बन कर खड़ा था. इस से अधिक सुख क्या हो सकता था? मेरे जीवन में एक और परिवर्तन आ गया था, वह तसवीर जिसे शादी के दूसरे दिन दोनों ने बड़े प्रेम से खिंचवाया था उसे देखे बिना मुझे नींद नहीं आती थी. उस तसवीर में उस का निरीह चेहरा मेरे आत्मसम्मान को सुख पहुंचाता था. इसलिए, अब वह तसवीर मेरे बेडरूम में लग गई थी.

ऋचा हर 15 दिन पश्चात आती रही, किंतु उस के साथ वह चेहरा देखने को नहीं मिला. 2 माह पश्चात लड़का हुआ. उस ने आ कर आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था, ‘‘तनुजाजी, मैं आप का गुनाहगार हूं. किंतु, आप ने बेटे के रूप में उपहार दे कर अनिर्वचनीय आनंद प्रदान किया है. शायद, आप नहीं जानती कि यह मेरी और ऋचा की तीसरी संतान है. अन्य 2 जन्म से पूर्व ही काल के गाल में समा गईं.’’

मनुज चला गया, किंतु हृदय में सुलगते दावानल को मेरे सामने प्रकट कर गया. शायद वह अपनी पूर्व 2 संतानों की असमय ही मौत का कारण तनु के साथ पूर्व में किए गए अपने गलत व्यवहार को ही समझ बैठा था, तभी इतना निरीह व कातर लगने लगा है.

कुछ दिन पश्चात ही मेरा वहां से स्थानांतरण हो गया. अतीत से संबंध कट गया. किंतु कभीकभी मेरा दिल अपने ही हाथों से मात खा जाता था. तब तड़प उठती थी, क्या मेरे जीवन में यही एकाकीपन लिखा है? मम्मीपापा का देहांत हो गया था. भाई अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त था.

कितने वर्ष यों ही बीत गए. अपने को बेसहारा पा कर मैं ने एक अनाथ बेसहारा लड़की को गोद ले लिया ताकि जीवन की शून्यता को भर सकूं. लड़की पढ़ने में तेज थी. डाक्टरी पढ़ कर अनाथ बेसहाराजनों की सेवा करना चाहती थी.

करीब 5 वर्ष पूर्व न्यूमोनिया बीमारी से पीडि़त हो कर अस्पताल में भरती हुई थी. उस की मासूम नीली आंखों में न जाने क्या था कि मन उसे अपनाने को मचल उठा था. अनाथाश्रम से उठा कर घर लाई तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. पिछले वर्ष ही मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में उस का चयन हुआ और पढ़ाई के लिए उसे इलाहाबाद जाना पड़ा और मैं फिर एक बार अकेली हो गई थी.

जीवन मेरे साथ आंखमिचौली खेल रहा था. सुखदुख एक ही सिक्के के 2 पहलू हो चले थे. एक दिन अपने कमरे में बैठी अपने संस्मरण लिख रही थी कि नौकर ने आ कर बताया कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है. मैं बाहर निकल कर आई तो वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, शर्मा साहब का लड़का बेहद बीमार है. आप शीघ्र चलिए.’’

अपना बैग उठाया तथा कार में उस अनजान आदमी को बैठा कर चल पड़ी. ऐसे अवसरों पर अनजान व्यक्ति के साथ जाते समय मन में बेहद उथलपुथल होती थी, किंतु यह सोच कर चल पड़ती कि हर आदमी बुरा नहीं होता, फिर किसी पर अविश्वास क्यों और किसलिए, इंसान को अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए. हमारा कर्तव्य हमारे साथ, उस का कर्तव्य उस के साथ. यही तो मेरी विचारधारा थी, जीवनदर्शन था.

कार के पहुंचते ही एक आदमी तेजी से उधर से बाहर आया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप को तकलीफ हुई होगी, लेकिन मजबूर था. प्रतीक्षित को 104 डिगरी बुखार है.’’

‘‘चलिए,’’ तब तक हम रोशनी में पहुंच चुके थे.

‘‘अरे तनु, तुम. ओह, माफ कीजिएगा तनुजाजी, मुझ से गलती हो गई,’’ मनुज एकदम हड़बड़ा कर बोले.

मैं भी एकदम चौंक उठी थी. इस जिंदगी में यह दोबारा अप्रत्याशित मिलन किसलिए? सोच ही नहीं पा रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘प्रतीक्षित कहां है?’’

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अंदर गए तो देखा वह बुखार में तप रहा था. आंखें बंद थीं, किंतु मुंह से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे. नब्ज देखी तो टायफायड के लक्षण नजर आए. ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए दवा बैग से निकाल कर खिला दी. अन्य दवाइयां परचे पर लिख कर देते हुए बोली, ‘‘ये दवाएं बाजार से मंगवा लीजिए तथा ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखिए और हाथ, पैर व तलवे की भी मालिश कीजिए.’’

मनुज उस के हाथों को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगे तथा चिंतित व घबराए स्वर में बोले, ‘‘डाक्टर साहब, मेरा प्रतीक्षित बच जाएगा न? यही मेरा जीवन है. मेरे जीवन की एकमात्र पूंजी.’’

लगभग एक घंटे पश्चात बंद पलकों में हलचल हुई तथा होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘प…पानी… पानी…’’

मनुज ने तत्काल उठ कर उस के मुंह में चम्मच से पानी डाला. दवा के असर के कारण वह पानी पी कर फिर सो गया.

‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए. आवश्यकता पड़ने पर बुला लीजिएगा,’’ घड़ी पर निगाह डालते हुए मैं ने कहा.

‘‘चलिए, मैं आप को छोड़ आता हूं,’’ मनुज ने मेरा बैग उठाते हुए कहा.

रातभर बेचैन रही. प्रतीक्षित के लिए न जाने क्यों अनजाने ही लगाव हो गया था. मैं जितना ही उस की भोली व मासूम सूरत से भागने का प्रयास करती वह उतनी ही और करीब आती जाती. ऋचा नजर नहीं आ रही थी, लेकिन पूछने का साहस भी नहीं कर पाई.

सुबह अस्पताल जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट की तो न जाने कैसे स्टियरिंग मनुज के घर की ओर मुड़ गया. जब वहां जा कर कार खड़ी हुई तब होश आया कि अनजाने में कहां से कहां आ गई. वह कैसी स्थिति थी, मैं नहीं जानती. दिल पर अंकुश रख कर गाड़ी बैक करने ही वाली थी कि नौकर दौड़ादौड़ा आया, ‘‘डाक्टर साहब, आप की कृपा से प्रतीक्षित भैया होश में आ गए हैं. साहब आप को ही याद कर रहे हैं.’’

न चाहते हुए भी उतरना पड़ा. मुझे वहां उपस्थित देख कर मनुज आश्चर्यचकित रह गए. उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं बिना बुलाए उन के बेटे का हालचाल पूछने आऊंगी.

‘‘प्रतीक्षित कैसा है? कल उस के ज्वर की तीव्रता देख कर मैं भी घबरा गई थी. सो, उसे देखने चली आई,’’ मनुज के चेहरे पर अंकित प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए मैं बोली.

मनुज ने प्रतीक्षित से मेरा परिचय करवाया तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मैं ठीक हो जाऊंगा न, तो खूब पढ़ूंगा और आप की तरह ही डाक्टर बनूंगा. फिर आप की तरह ही सफेद कोट पहन कर, स्टेथोस्कोप लगा कर बीमार व्यक्तियों को देखूंगा.’’

‘‘अच्छा बेटा, पहले ठीक हो जा, ज्यादा बातें मत करना, आराम करना. समय पर दवा खाना. मुझ से पूछे बिना कुछ खानापीना मत. अच्छा, मैं चलती हूं.’’

‘‘आंटी, आप फिर आइएगा, आप को देखे बिना मुझे नींद ही नहीं आती है.’’

‘‘बड़ा शैतान हो गया है, बारबार आप को तंग करता रहता है,’’ मनुज खिसियानी आवाज में बोले.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चा है,’’ मैं कहती, पर अप्रत्यक्ष में मन कह उठता, ‘तुम से तो कम है. तुम ने तो जीवनभर का दंश दे दिया है.’

मैं जानती थी कि मेरा वहां बारबार जाना उचित नहीं है. कहीं मनुज कोई गलत अर्थ न लगा लें. मनुज की आंखों में मेरे लिए चाह उभरती नजर आई थी. किंतु मेरी अत्यधिक तटस्थता उन्हें सदैव अपराधबोध से दंशित करती रहती. प्रतीक्षित के ठीक होने पर मैं ने जाना बंद कर दिया. वैसे भी प्रतीक्षित के साथ मेरा रिश्ता ही क्या था? सिर्फ एक डाक्टर व मरीज का. जब बीमारी ही नहीं रही तो डाक्टर का क्या औचित्य.

एक दिन शाम को टीवी पर अपनी मनपसंद पिक्चर ‘बंदिनी’ देख रही थी. नायिका की पीड़ा मानो मेरी अपनी पीड़ा हो, पुरानी भावुक पिक्चरों से मुझे लगाव था. जब फुरसत मिलती, देख लेती थी. तभी नौकर ने आ कर सूचना दी कि कोई आया है. मरीजों का चैकअप करने वाले कमरे में बैठने का निर्देश दे कर मैं गई, सामने मनुज और प्रतीक्षित को बैठा देख कर चौंक गई.

‘‘कैसे हो, बेटा? अब तो स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा?’’ मैं स्वर को यथासंभव मुलायम बनाते हुए बोली.

‘‘हां, स्कूल तो जाना प्रारंभ कर दिया है किंतु आप से मिलने की बहुत इच्छा कर रही थी. इसलिए जिद कर के डैडी के साथ आ गया. आप क्यों नहीं आतीं डाक्टर आंटी अब हमारे घर?’’

‘‘बेटा, तुम्हारे जैसे और भी कई बीमार बच्चों की देखभाल में समय ही नहीं मिल पाता.’’

‘‘यदि आप नहीं आ सकतीं तो क्या मैं शाम को या छुट्टी के दिन आप के घर मिलने आ सकता हूं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उत्तर तो दे दिया था, किंतु क्या मनुज पसंद करेंगे.

‘‘घर में भी सदैव आप की बात करता है, डाक्टर आंटी ऐसी हैं, डाक्टर आंटी वैसी हैं,’’ फिर थोड़ा रुक कर मनुज बोले, ‘‘आप ने मेरे पुत्र को जीवनदान दे कर मुझे ऋणी बना दिया है. मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा.’’

‘‘वह तो मेरा कर्तव्य था,’’ मेरे मुख से संक्षिप्त उत्तर सुन कर मनुज कुछ और कहने का साहस न जुटा सके, जबकि लग रहा था कि वे कुछ कहने आए हैं. और मैं चाह कर भी ऋचा के बारे में न पूछ सकी. प्रतीक्षित इतने दिन बीमार रहा. वह क्यों नहीं आई, क्यों उस की खबर नहीं ली.

उस दिन के पश्चात प्रतीक्षित लगभग रोज ही मेरे पास आने लगा. मेरा काफी समय उस के साथ बीतने लगा. एक दिन बातोंबातों में मैं ने उस से उस की मां के बारे में पूछा, तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मां याद तो नहीं हैं, सिर्फ तसवीर देखी है, लेकिन डैडी कहते हैं कि जब मैं 3 साल का था, तभी मां की मौत हो गई थी.’’

मन हाहाकार कर उठा था. एक को तो उस ने स्वयं ठुकरा दिया और दूसरी स्वयं उसे छोड़ कर चली गई. प्रकृति ने उसे उस के अमानवीय व अमानुषिक कृत्य के लिए दंड दे दिया था. अब मुझे भी प्रतीक्षित के आने की प्रतीक्षा रहती. उस की स्मरणशक्ति व बुद्धि काफी तीव्र थी. जो एक बार बता देती, भूलता नहीं था. किसी भी नई चीज, नई वस्तु को देख कर उस के उपयोग के बारे में बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता तथा मैं भी यभासंभव उस के प्रश्नों का समाधान करती.

स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी थी. मेरी सहायता से प्रतीक्षित ने मौडल बनाया. मौडल देख कर वह अत्यंत प्रसन्न था.

प्रदर्शनी के पश्चात वह सीधा मेरे घर आया. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैं अपने शयनकक्ष में लेटी आराम कर रही थी. दौड़ता हुआ आया व खुशी से चिल्लाता हुआ बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, आप कहां हो? देखो, मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है. और आंटी, गवर्नर ने हमारी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया था और उन्होंने ही पुरस्कार दिया. आप को मालूम है, उन के साथ मेरी फोटो भी खिंची है. उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की,’’ पलंग पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप की तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘लगता है थोड़ा बुखार हो गया है. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘आप सब की देखभाल करती हैं किंतु अपनी नहीं,’’ तभी उस की नजर स्टूल पर रखे फोटो पर गई. हाथ में उठा कर बोला, ‘‘आंटी, यह तसवीर तो पापा की है, साथ में आप भी हैं. इस में आप दोनों जवान लग रहे हैं. यह तसवीर आप ने कब और क्यों खिंचवाई?’’

जिस का मुझे डर था वही हुआ, इसीलिए कभी उसे शयनकक्ष में नहीं लाती थी. वह फोटो मेरी अहम संतुष्टि का साधन बनी थी, सो, चाह कर भी अंदर नहीं रख पाई थी. मेरा अब कोई संबंध भी नहीं था मनुज से, लेकिन यदि तथ्य को छिपाने का प्रयत्न करती तो वह कभी संतुष्ट न हो पाता तथा कालांतर में मेरी उजली छवि में दाग लग सकता था. सो, सबकुछ सचसच बताना पड़ा.

वस्तुस्थिति जान कर वह उबल पड़ा था कि यह डैडी ने अच्छा नहीं किया. मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि डैडी ऐसा भी कर सकते हैं. मैं अभी डैडी से जा कर इस का उत्तर मांगता हूं कि उन्होंने आप के साथ ऐसा क्यों किया? मैं बीमार हो जाऊं तो क्या वे मुझे भी छोड़ देंगे? वह जाने को उद्यत हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटा, मैं ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा. जीवनपथ पर जैसे भी चली जा रही हूं, चलने दो, अब आखिरी पड़ाव पर मेरी भावनाओं, मेरे विश्वास, मेरे झूठे आत्मसम्मान को ठेस मत पहुंचाना तथा किसी से कुछ न कहना,’’ कहतेकहते एक बार फिर उस के सम्मुख आंसू टपक पड़े.

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‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, मां, किंतु आप को न्याय दिलाने का प्रयत्न अवश्य करूंगा,’’ दृढ़ निश्चय व दृढ़ कदमों से वह कमरे से बाहर चला गया था.

किंतु उस के मुखमंडल से निकला, ‘मां’ शब्द उस के जाने के पश्चात भी वातावरण में गूंज कर उस की उपस्थिति का एहसास करा रहा था, कैसा था वह संबोधन… वह आवाज, उस की सारी चेतना…संपूर्ण अस्तित्व सिर्फ एक शब्द में खो गया था. जिस मोह के जाल को वर्षों पूर्व तोड़ आई थी, अनायास ही उस में फंसती जा रही थी…कैसा है यह बंधन? कैसे हैं ये रिश्ते? अनुत्तरित प्रश्न बारबार अंत:स्थल में प्रहार करने लगे थे.

सक्सेसर: भाग 3- पति के जाने के बाद क्या हुआ निभा के साथ

महराज तो कोविड और लौकडाउन की वजह से आ नहीं रहे थे. निशा प्रैग्नैंट थी. वह कंप्लीट बैडरेस्ट पर थी और मम्मी जी को गठिया के कारण परेशानी थी.

सुबह के समय निशीथ निभा के कमरे में आ कर बोले, “भाभी, आप के हाथ के मूली के परांठे खाए बहुत दिन हो गए. आज बना दीजिए. निशा का बहुत मन हो रहा है.“

वह खुशीखुशी बनाने में जुट गई थी.

“वाह भाभी, यू आर ग्रेट.”

वह इन तारीफों के जाल में उलझ कर खुशीखुशी रोज नएनए पकवान बनाने में उलझती गई. मम्मी जी बोलीं, “निभा के खाना बनाने की वजह से सब को बढिया खाना मिल जाता है और उस का समय भी अच्छी तरह बीत जाता है.“

मम्मी जी निशा की सेवा में लगी रहतीं क्योंकि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इस खानदान का वारिस आने वाला है. उसे बैड से नीचे पैर न रखने देतीं, जबकि वह ‘डाक्टर के यहां जा रही हूं’ कह कर घंटों के लिए घर से बाहर रहा करती.

कोविड की लहर उतार पर थी. निशा के बेबी शावर की तैयारी धूमधाम से करने के लिए रोज बैठकें हो रही थीं, जिन में निभा का प्रवेश निषेध था क्योंकि वह विधवा थी. उस की बुरी नजर से कुछ अशगुन हो जाता तो… निशा के मायके वाले और मम्मी जी और निशीथ सब बैठ कर प्रोग्राम को शानदार व यादगार बनाने के लिए प्लानिंग करते रहते.

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तभी एक दिन निभा के मोबाइल की घंटी बजी. उधर उस के पुराने ज्वैलर थे, कह रहे थे कि, ”मैडम, जो आप ने डायमंड सैट का और्डर दिया था वह बन कर आ गया है. उस को आप के घर पर पहुंचा दें या फिर यहां आकर देखेंगी.”

अब तो उस का दिमाग चकरा उठा था. परदे के पीछे चल क्या रहा है?

उस के साथ मीठीमीठी बातें बना कर उसे खाना बनाने वाली बना कर रख छोड़ा है… निभा, तुम्हारे हाथ का खाना खा कर मन खुश हो जाता है, सब को स्वाद वाला बढिया खाना मिल जाया करता है…

पहले तो वह कुछ समझ नहीं पाई थी और घरेलू कामों में ही उलझती चली गई. वह अपने मन का दर्द कहे तो किस से कहे.

ज्वैलर के फोन से मानो उस की आंखें खुल गईं. उस को ऐसा लगा मानो निश्चल कह रहे हों, घरेलू कामों में उलझ कर क्यों नौकरानी की तरह काम करती रहती हो.

अगली सुबह जब वह तैयार हो कर घर से निकलने लगी तो मम्मी जी नाराजगीभरे स्वर में बोलीं, “हाय, कुछ तो शरम करो. अभी निश्चल को गए साल भी पूरा नहीं हुआ है और तुम सजधज कर निकल पड़ीं. हायहाय, मेरा तो समय ही फूटा है. बेटा तो चला ही गया और तुम घर की इज्जत सरेआम बाजार में नीलाम करने में लगी हो. लोग क्या कहेंगे. बिरादरी वालों को क्या जवाब देंगे.“ वे यह कह कर झूठमूठ रोने का नाटक करने लगीं.

असमंजस में उस के कदम क्षणभर के लिए ठिठक कर रुक गए थे. परंतु फिर उस ने अपने मन को पक्का किया और बोली, “मम्मी जी, रामदीन नहीं दिखाई पड़ रहे हैं?”

“निशीथ ने रामदीन को हटा दिया. आखिर कब तक उसे बैठेबैठे की तनख्वाह दी जाती,” वे रोतीबिसूरती हुई बोलीं, “निश्चल तो अब लौट कर आने वाला नहीं.” निभा को दिखाने के लिए वे अपने आंसू पोंछने का नाटक करने लगी थीं.

तभी उस का मोबाइल बज उठा था. निशीथ का फोन था, ”भाभी, मैं गाड़ी भेज रहा हूं, आप को कहां जाना है?”

“नहीं, निशीथ भैया, मैं ने ओला बुक कर ली है. वह आने ही वाली है.”

‘ओला’ शब्द सुनते ही सब के कान खड़े हो गए थे.

“ठहरो भाभी, मैं खुद ही आ रहा हूं.”

“नहीं भैया, मैं अपनी फ्रैंड से मिलने जा रही हूं.” तब तक मम्मी जी तेजी से दौड़ती हुई आईं, “निभा, तुम अकेले मत जाओ, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं.”

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वह अनसुना करती हुई टैक्सी में बैठ गई थी और सीधा ज्वैलर्स के शोरूम पर पहुंची तो वहां मालूम हुआ कि निशीथ और निशा ने इन दिनों में काफी सारी ज्वैलरी खरीदी है. डायमंड सैट देख कर उस की आंखें चुंधिया गई थीं.

अब वह सीधा औफिस पहुंची थी. निशीथ उस को औफिस में देखते ही घबरा उठा था.

निश्चल का केबिन और उस की कुरसी अब निशीथ की हो चुकी थी. हां, निश्चल की फोटो जरूर दीवार पर टंगी थी और उस पर माला देख उस की आंखें नम हो उठी थीं.

उस ने जाकर पति की फोटो को नमन किया और मन ही मन उन से मार्ग प्रशस्त करते रहने के लिए विनती की.

“भाभी, आप को औफिस आने की क्या जरूरत पड़ गई. आप तो जानती हैं कि भैया को तो आप का औफिस आना बिलकुल भी पसंद नहीं था. लोग यह कहेंगे कि मैं आप की सही से देखभाल नहीं कर रहा हूं.”

“ऐसा कुछ नहीं है. लोगों का तो काम ही है कुछ कहना. अब मैं रोज औफिस आया करूंगी और तुम्हारी मदद किया करूंगी. इस समय निशा को तुम्हारी जरूरत है और तुम सारा दिन औफिस के कामों में उलझे रहते हो.“

निशीथ के चेहरे के हावभाव से उस का आक्रोश साफ दिखाई पड़ रहा था. लेकिन समय की नाजुकता देख कर वह वहां सब के सामने बोला, “भाभी के लिए कौफी लाओ.“ और निभा को अपनी कुरसी पर बिठा दिया था.

मैडम निभा आज औफिस आईं हैं, यह खबर हवा की तरह पूरे औफिस में पहुंच गई थी और लोग मिलने के लिए आने लगे थे. निश्चल के प्रति उन लोगों का प्यार देख उस की आंखें छलक उठी थीं.

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सक्सेसर: भाग 4- पति के जाने के बाद क्या हुआ निभा के साथ

निशीथ जल्दी ही उसे अपनी गाड़ी में बिठा कर घर ले आए थे. वह समझ रही थी कि निशीथ को उस का औफिस आना बिलकुल भी पसंद नहीं आएगा लेकिन अब वह घर से निकल कर निश्चल के अधूरे काम को पूरा करने की कोशिश करेगी.

घर आते ही वह बोला, “आप को औफिस आने की क्या जरूरत पड़ गई? आखिर आप को क्या कमी है जो आप आज औफिस पहुंच गईं. सब को दिखाना चाहती हैं कि मैं आप की देखभाल सही से नहीं कर रहा हूं? और तो और, सीधा ज्वैलर्स के पास पहुंच गईं. आखिर आप चाहती क्या हैं, क्या मैं कंगाल हूं कि अपनी बीवी के लिए एक सैट नहीं खरीद कर दे सकता?” मम्मी जी और निशा वहां खड़ी हो कर जलती निगाहों से उसे घूर रहीं थीं और उस की हां में हां भी मिला रही थीं.
“क्या कंपनी में मेरे शेयर नहीं हैं? भैया का ‘सक्सेसर’ तो मैं ही हूं. आप को क्या पता कि कंपनी को कैसे चलाते हैं? कुछ समझ है क्या? चुपचाप घर में बैठिए जैसे इतने दिनों से रह रही थीं. ज्यादा हाथपैर मारने की जरूरत नहीं है.”

अपना गुस्सा निकालने के बाद अब वह आराम से बोला, “मुझे भूख लग रही है, कुछ खाने को दीजिए, ज्यादा पंख फड़फड़ाने की जरूरत नहीं है.”

वह डर कर चुप हो गई थी और फिर निशीथ और मम्मी जी के हाथ की कठपुतली बन कर रह गई थी. वह मन ही मन सोचा करती कि निश्चल उसे अपनी पलकों पर बिठा कर रखते थे, आज उस की स्थिति कोने में रखे कचरे की तरह हो गई है.

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निश्चल को इस दुनिया से विदा हुए एक वर्ष हो गया था. सब को दिखाने के लिए निशीथ ने एक प्रार्थना सभा का आयोजन किया था. वहां पर निभा की मुलाकात अखिल भैया से हुई. उन्होंने और निश्चल ने मिल कर यह कंपनी बनाई थी. फिर उन की पत्नी कोरोना की शिकार हो गई थीं. वे उन्हें अकेला कर गई थीं. इन्हीं परेशानियों से घिरे रहने के कारण काफी दिनों से उन्हें ज्यादाकुछ मालूम नहीं था परंतु उन की अनुभवी आंखों ने एक नजर में सबकुछ समझ लिया था.

निशीथ और मम्मी जी ने होशियारी से सभी पुराने नौकरों को हटा कर नए रख लिए थे जो केवल निशा और निशीथ को ही मालिक समझते थे. मम्मी जी अपना स्वार्थ देख कर निशीथ और निशा का साथ दे रही थीं.

निभा साधारण परिवार से थी. मम्मी जी का सोचना था कि उस ने निश्चल को अपने प्रेमपाश में बांध कर उसे शादी करने के लिए मजबूर कर दिया जिस के कारण उसे लवमैरिज करनी पड़ी थी. सोने पर सुहागा था कि उस के जल्दीजल्दी 2 बेटियां भी हो गईं, जिस की वजह से वह उन की आंख की किरकिरी हमेशा से थी. लेकिन निश्चल के सामने उस की ओर उंगली उठाने की किसी की हिम्मत न होती थी. अब उस के जाते ही दोनों ने मिल कर उसे घर और कंपनी दोनों से किनारे करने की ठान ली थी.

एक दिन निशीथ फोन पर किसी से कह रहे थे कि ‘पावर औफ एटौर्नी’ तो मेरे पास है, वह भला क्या कर सकती है. इस एक वाक्य ने उस के ज्ञानचक्षु जागृत कर दिए थे. वह पावर औफ एटौर्नी कैंसिल करवाएगी और अपना हक हासिल करेगी.

उस ने गूगल पर सर्च किया और सोचने लगी कि शायद ये लोग नहीं जानते कि निभा किस मिट्टी की बनी है. उस ने जीवन की जंग जीती है तो यह कौन बड़ी बात है. उस ने प्यार से अपनी दोनों बेटियों को अपने गले से लगा कर उन के माथे पर प्यार किया और फिर, ओला बुक कर के वह रजिस्ट्रार औफिस में जा कर अपनी पावर औफ एटौर्नी कैंसिल करवाने के काम में जुट गई.

इस तरह के काम करने का उस का पहला अवसर था, इसलिए वह थोड़ी नर्वस थी लेकिन यदि इरादे बुलंद हों तो सबकुछ संभव है. वहां पर वह लोगों से पूछताछ कर रही थी, तभी वहां पर उस का पुराना क्लासफैलो चंदन वर्मा दिखाई पड़ा था.

वह रजिस्ट्रार औफिस में उसे अकेले उस के श्रंगारविहीन और कांतिहीन चेहरे को देख कर चौंक उठा, बोल पड़ा, “निभा कैसी हो?”

“बस, कोरोना की मार झेल रही हूं.”

“तुम ने तो निश्चल के साथ लवमैरिज की थी.”

“हां चंदन, निश्चल को कोरोना ने निगल लिया,” उस की आंखें बरस पड़ी थीं.

“रजिस्ट्रार औफिस में कैसे आना हुआ?”

“चंदन, तुम ने तो लौ किया था न.’’

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“हां, हां, लेकिन अभी भी बेकार सा घूम रहा हूं. छोटेमोटे कामों से बस किसी तरह गुजर हो पा रहा है.”

“तुम ने तो अपने बैच में टौप किया था न?”

“जिंदगी में तो कछुए की तरह रेंग रहा हूं.“

“मेरी कुछ हैल्प करोगे?”

“यह पूछने की बात है.”

“आओ सामने रैस्टोरैंट में कौफी पीते हैं, वहीं बैठ कर बातें होंगी.“

चंदन शुरू से क्लास में पढ़ने में बहुत होशियार था लेकिन वह गरीब और अनुसूचित जाति के कोटे से आता था, इसलिए क्लास में कोई उस को भाव नहीं देता था. वह अलगअलग सा रहता, डरासहमा सा रहता कि कब कोई उस का मजाक न बना दे. फिर वह लौ करने लगा और उस ने एमए किया तो लगभग मिलनाजुलना बंद सा हो गया.

उस ने लगभग सकुचाते हुए अपनी लिखी हुई एप्लिकेशन दिखाई, जो पावर औफ एटौर्नी कैंसिल करवाने के लिए थी. चंदन ने एप्लिकेशन में कुछ सुधार किया और बोला, “पावर औफ एटौर्नी तो मैं एक दिन में कैंसिल करवा दूंगा लेकिन यह समझ लो यदि तुम्हारे देवर की नीयत खराब है तो वह खुद ही कंपनी का मैनेजिंग डाइरैक्टर बन जाने की कोशिश कर रहा होगा या फिर वह तुम्हारी कंपनी को अपने नाम पर करवाने की कोशिश में लगा होगा. इसलिए “पावर औफ एटौर्ऩी कैंसिल करवाने के बाद यह पता लगाने की कोशिश करो कि कंपनी में निश्चल जी के कितने फीसदी शेयर थे. वे सब शेयर अपनेआप तुम्हारे नाम ट्रांसफर हो जाएंगे क्योंकि तुम निश्चल जी की पत्नी और उन की सक्सेसर हो.“

“लेकिन निश्चल ने तो मुझे कभी कुछ बताया ही नहीं,” वह रोंआसी हो उठी थी.

“कोई बात नहीं, निभा. तुम घबराओ मत. मैं तुम्हारा हक तुम्हें अवश्य दिलवाऊंगा. रो कर कमजोर मत बनो बल्कि हिम्मत रखो.”

“चंदन, यदि तुम मुझे मेरा हक दिलवा दोगे तो मैं तुम्हें मुंहमांगे 20 लाख रुपए या उस से कहीं ज्यादा रकम दूंगी. यदि तुम यह केस मुझे जिता दोगे तो तुम्हारा नाम हो जाएगा. और फिर तुम्हें बहुत सारे केस मिलने लगेंगे. लेकिन इस समय तो बस तुम्हें जरूरी खर्च वाले पैसे ही दे पाऊंगी.“

“निभा, तुम बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स में निश्चल के किसी विश्वासी मित्र को जानती हो… तो तुम्हारा काम आसान हो जाएगा.“

“हां, अखिल भैया और निश्चल ने मिल कर यह कंपनी बनाई थी.

“लेकिन मुझे लगता है कि अब निशीथ खुद डाइरैक्टर बनना चाहता होगा.“

वह भोलेपन से बोली थी, “फिर कौन बनेगा?”

“तुम बनोगी, अपने पति की सक्सेसर हो तुम.”

“मुझे तो कुछ समझ नहीं आता, कैसे हो पाएगा?“

“सब काम मैनेजर और टीम करती है. धीरेधीरे सब समझ में आने लगेगा. ठीक है निभा, तुम मेरे संपर्क में रहना. इस विषय पर दूसरे केसेज को स्टडी करूंगा. उन के फैसले और डीटेल्स समझूंगा. तब आगे क्या करना होगा, मैं तुम्हें बताऊंगा.”

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“एक बात ध्यान रखना, घर में इन बातों की किसी से भी चर्चा मत करना क्योंकि इस समय तुम्हारा देवर तुम्हारी कंपनी पर अपना कब्जा कर के तुम्हारे अधिकार को छीन कर, तुम्हें घर से बाहर कर देने की कोशिश में लगे होंगे. मुझे पक्का विश्वास है कि निशीथ ने कंपनी कोर्ट या लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी अपने नाम करने के लिए एप्लिकेशन डाल रखी होगी. हो सकता है कि वह तुम्हारा फोन ट्रैक कर रहा हो. इसलिए तुम्हें बहुत होशियार रहना होगा. यदि तुम्हारे फोन में अखिल का नंबर हो तो मुझे दे दो. मैं सबकुछ तुम्हारे हक में करवा कर ही चैन लूंगा.“

आगे पढ़ें- चंदन का अनुमान सही निकला था…

सक्सेसर: भाग 5- पति के जाने के बाद क्या हुआ निभा के साथ

जो चंदन उस की नजरों में गंवार और ऐं वैं ही था, आज उस की बातों से अत्यंत सुलझा हुआ व समझदार दिखाई पड़ रहा था. उस के बात करने के ढंग और उस की मदद के लिए उठे हुए उस के हाथ को देख कर वह गदगद हो उठी थी. उस के व्यवहार ने उस के दिल को छू लिया था.

चंदन का अनुमान सही निकला था…निशीथ ने लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी का नाम बदल कर अपने नाम कर लेने की एप्लीकेशन लगा रखी थी और निश्चल के शेयर्स पर अपना कब्जा करने के लिए बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स को अपनी तरफ मिलाने के लिए उन को तरहतरह का प्रलोभन देने में लगा हुआ था.

पावर औफ एटौर्नी के कैंसिल होते ही निशीथ के कान खड़े हो गए थे और अब उस के सुर बदलने लगे. लेकिन वह अंदर ही अंदर बोर्ड मैंबर्स से मिल रहा था और अपने को निश्चल का सक्सेर बता रहा था. निश्चल की जगह वह खुद मैनेजिंग डाइरैक्टर बनने के लिए गुटबंदी की कोशिश में लगा हुआ था. लोगों के सामने निभा को अयोग्य बता कर समय बिताने के प्रयास में लगा हुआ वह चाह रहा था कि किसी तरह लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी उस के नाम रजिस्टर हो जाए. फिर एकएक को वह देख लेगा…

इधर, घर में निभा को अपनी तरफ मिलाने के लिए उस की चापलूसी करता रहता. अब भैया तो लौट कर आएंगें नहीं. अब सबकुछ उसे ही करना है.

वह सब से कहता फिर रहा था कि निभा भाभी तो एक घरेलू महिला हैं, वे भला कंपनी की एबीसीडी क्या जानें. इसीलिए तो उन्होंने पावर औफ एटौर्नी मुझे दे रखी है.

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‘…मैं तो भाभी का सेवक हूं. भैया की अमानत संभाल रहा हूं. रिनी और मिनी को तो विदेश में पढ़ने के लिए भेजूंगा. हर समय यही सोचता रहता हूं और यही चाहता हूं कि मेरी भाभी को भैया की कमी न महसूस होने पाए. अब वह उन दोनों के लिए कभी कुछ तो कभी कुछ खिलौना या कपड़ा ले कर आया करता. लेकिन निभा अब उस की नीयत को अच्छी तरह समझ चुकी थी, इसलिए उस के भुलावे में आने का सवाल ही न था.

अखिल दास ने बोर्ड मैंबर्स की मीटिंग बुला ली जिस में नए मैनेजिंग डाइरैक्टर को भी चुना जाना था. बड़ी गहमागहमी थी. चंदन और अखिल दास के सहयोग से वह अब कंपनी के कामकाज को अच्छी तरह समझ चुकी थी. लेकिन निशीथ आसानी से कंपनी अपने हाथ से जाने नहीं दे सकता था, इसलिए उस ने एक कागज पर निश्चल के दस्तखत के साथ बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स के सामने रखा, जिस के अनुसार, निश्चल के 51 फीसदी शेयर्स और कंपनी निशीथ की हो जाएगी और वे चाहते थे कि कंपनी के मैनेजिंग डाइरैक्टर निशीथ ही बने. विल के अनुसार, निश्चल के शेयर्स, जमीनजायदाद और कंपनी का मालिक निशीथ ही होगा. बैठक बहुत हंगामेदार हुई और केस लौ ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया.

बोर्ड मैंबर्स निभा को निश्चल की उत्तराधिकारी मानते हुए उसे ही डाइरैक्टर चुनना चाहते थे लेकिन कानूनी दांवपेच में उलझ कर मामला लौ ट्रिब्यूनल से कोर्ट में पहुंच गया और विल की सचाई सिद्ध करने के लिए सिविल कोर्ट पहुंच गया था. परंतु चंदन के अकाट्य तर्कों के आगे निशीथ के वकील कहीं नहीं टिक पाए थे और लगभग 3 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद निभा के हक में फैसला हुआ.

निभा ने खुशी के मारे अपनी गर्म हथेलियां चंदन के हाथों पर रख दीं, “चंदन, तुम्हें धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मैं आजीवन तुम्हारी एहसानमंद रहूंगी.”

“निभा, आज पहले दिन औफिस जा रही हो. लो, दहीशक्कर से मुंह मीठा कर के जाओ.“ वह आश्चर्य से भर उठी थी…ये रिश्ते भी कितने स्वार्थी होते हैं. वह औफिस आई तो गेट को फूलों से सजा हुआ देख, उसे अच्छा लगा था. उस के लिए रेड कार्पेट बिछाई गई थी. फूलों की वर्षा के साथ वैलकम सौंग गाया गया. केबिन के बाहर नेमप्लेट पर ‘निभा सिंह’ और नीचे मैनेजिंग डाइरैक्टर देख उस की आंखें नम हो गई थीं.

वह फाइल पर साइन करती जा रही थी परंतु उस का मन चंदन में ही उलझा हुआ था. उस ने ईमानदारी से चैक साइन कर के जब उसे दिया तो उस ने उस का हाथ पकड़ लिया था, ”निभा प्लीज, यह एक दोस्त की तरफ से भेंट समझ लो.”

वह उसे एकटक निहारती रह गई थी, “चंदन, तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?”

“बस, दिल में कोई बसा है.”

“तो उस से अपने दिल की बात कह दो.”

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“हिम्मत नहीं जुटा पाता, यदि उस ने ना कर दी तो…”

चंदन का जादू उस के सिर पर चढ़ता जा रहा था. वह हर पल उस की आंखों में अपने लिए प्यार ढूंढा करती लेकिन उस की सूनी आंखों में सिवा उदासी और खालीपन के कुछ न दिखता.

वह रात में लेटी, तो उस का मन चंदन की बातों में उलझा था. चंदन…चंदन…चंदन. उसे क्या होता जा रहा है… वह मन ही मन मुसकरा उठी थी. उस ने चंदन को अपना हमसफर बनाने का निश्चय कर लिया था. उस ने चंदन को फोन किया, “कल शाम को डिनर पर आ सकते हो?”

“आप बुलाएं और हम न आएं, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता.”

अगले दिन… “मैडम नहीं, केवल निभा कहो चंदन.”

“मैं तो कब से इस पल का इंतजार कर रहा था.”

चंदन ने सब के सामने उस की हथेलियों को हमेशा के लिए अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था.

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