Serial Story: नया अध्याय (भाग-2)

लेखिका- सुधा थपलियाल

थोड़ी देर में एक दरवाजा खुलने की आवाज आई. एक लंबी, गौरवर्ण, सुंदर सी लड़की अस्तव्यस्त सी गाउन को पहने हुए बाहर निकली.

‘मम्मी, यह कैसा शोर हो रहा है? मैम, आप?’ प्राची को देखते ही उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं.

नफरत की निगाहों से रीना को घूरती हुई प्राची उस कमरे की ओर जाने लगी जहां से रीना निकली थी. घबराई सी रीना ने उसे रोकने की असफल कोशिश की. प्राची ने एक ओर उसे धक्का दे कर कमरे में घुस गई. मनीष बिस्तर पर आराम से निर्वस्त्र बेखबर सो रहा था. चादर एक ओर सरकी हुई थी.

‘मनीष,’ पूरी ताकत से प्राची चिल्लाई.

आंखें मलता हुआ मनीष उठा. प्राची को देख कर वह निहायत ही आश्चर्य से भर गया. सकपकाते हुए अपने को ढकने की कोशिश करने लगा.

‘नंगे तो तुम हो ही चुके हो, ढकने के लिए बचा ही क्या है?’ शर्ट उस की तरफ फेंकती हुई हिकारत से प्राची बोली और कमरे से बाहर आ गई.

रीना सिटपिटाई सी खड़ी हुई थी. थोड़ी देर में मनीष भी कपड़े पहन कर बाहर आ कर प्राची का हाथ पकड़ कर बाहर जाने के लिए मुड़ा. प्राची ने गुस्से से अपना हाथ झटक दिया. जातेजाते रीना की मां से प्राची बोली, ‘शर्म नहीं आती तुम्हें, तुम्हारे ही सामने, तुम्हारी बेटी किसी पराए आदमी के साथ सो रही है.’

‘हमारे बारे में क्या बक रही है, अपने आदमी से पूछ,’ बेशर्मी से उस औरत ने जवाब दिया.

‘तो… यह है तुम्हारा स्तर,’ मनीष की ओर देखती व्यंग्य से प्राची कह एक झटके में बाहर निकल गई.

‘प्राची, प्राची,’ मनीष बोलता ही रह गया.

रात की निस्तब्धता और कालिमा कैब में बैठी प्राची के अंतर्मन को भेद कर उस को तारतार कर रही थी. एक आंधी सी उस के अंदर उठ रही थी. जिस में उड़ा चला जा रहा था उस का मानसम्मान, प्रेम और विश्वास. दर्द घनीभूत हो सैलाब बन कर उस की आंखों से बह निकला.

‘मैम,’ ड्राइवर ने कहा.

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‘ओह,’ भारी आवाज में प्राची ने कहा और पेमेंट कर थके कदमों से घर में प्रवेश किया. आज अपना ही घर कितना पराया सा लग रहा था. थोड़ी देर में मनीष भी पहुंच गया. उस की हिम्मत नहीं हुई प्राची से कुछ बोलने की. वह सीधे बैडरूम में चला गया. प्राची वहीं सोफे पर ढह गई. मस्तिष्क में उठा बवंडर रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. मन कर रहा था कि अभी जा कर मनीष को झकझोर कर पूछे ‘क्यों किया मेरे साथ ऐसा’. फिर अनिता का खयाल आते ही खामोश हो गई. आहत मन सोने नहीं दे रहा था. समय बहुत भारी लग रहा था. घड़ी में देखा सुबह के 5 बज रहे थे. दिल, दिमाग से टूटे शरीर को कब नींद ने अपनी आगोश में ले लिया, पता ही न चला.

‘मम्मा,’ पीहू अपने नन्हेंनन्हें हाथों से उसे उठा रही थी. प्राची एकदम से उठी. घड़ी सुबह के 10 बजा रही थी. समय देख कर प्राची हड़बड़ा गई. मनीष नर्सिंग होम जा चुका था. रात की बात याद कर एक बार लगा शायद कोई बुरा सपना देखा. अगले ही पल सचाई का एहसास होते ही पीहू को गोदी में उठा कर अपनी आगोश में भर कर जोरजोर से रोने लगी. किचन में पीहू के लिए कुछ बना रही अनिता एकदम से घबरा गई. पीहू भी ‘मम्मा…मम्मा’ कहते रोने लगी.

‘क्या हुआ मैडम,’ असमंजस से भरी अनिता बोली.

‘कुछ नही,’ आंसूओं को पोंछ्ती हुई प्राची बोली.

अचानक याद आया प्राची को कि 12 बजे औफिस में मीटिंग थी. तुरंत फोन पर सूचित किया कि वह औफिस नहीं आ पाएगी. पीहू को ले कर वह बैडरूम में चली गई. जिस घर में वह औफिस से आने के लिए बेचैन रहती थी, आज वही घर उस को काटने को आ रहा था. मन कर रहा था कि पीहू को ले कर भाग जाए यहां से. मनीष के प्रति मन घृणा से भर गया. मन कर रहा था कि कभी उस की शक्ल न देखे. किस को बताए, मां को… वह तो हार्ट की पेशेंट है. अपने सासससुर को, हां, यह ठीक रहेगा. रोतेरोते प्राची ने उन्हें सारी बातें बता दीं. सासससुर दोनों सन्न रह गए. अपने बेटे को धिक्कारते हुए और स्वयं अपने बेटे के इस कुकृत्य के लिए प्राची से माफी मांगने लगे.

शाम को मनीष जब नर्सिंग होम से वापस आया तो प्राची से माफी मांगने लगा.

‘क्यों किया तुम ने मेरे साथ विश्वासघात?’ मनीष का हाथ पकड़ कर प्राची चीख उठी.

‘तुम तो अपने जौब में इतनी व्यस्त रहती थीं, मेरे लिए तुम्हारे पास समय ही नहीं था,’ बेशर्मी से मनीष बोला.

‘किस के लिए व्यस्त रहती थी, अपने परिवार के लिए. तुम्हारा ही तो सपना था नर्सिंग होम का,’ मनीष के तर्कों से हैरान हो प्राची बोली.

मनीष अपने बचाव में जितना गिरता जा रहा था, प्राची उतना ही आहत होती जा रही थी. दोनों को लड़ते देख पीहू जोरजोर से रोने लगी. फिर तपाक से मनीष उठा और इंसानियत, प्यार, विश्वास सब का गला घोंट कर भड़ाक से दरवाजा खोल कर बाहर चला गया.

उस के बाद तो कुछ भी सामान्य नहीं रहा. अभी वह सोच ही रही थी कि क्या करे कि पता चला कि रीना मां बनने वाली है.

‘निकलो यहां से, मुझे तुम से कोई रिश्ता नहीं रखना,’ प्राची अपना आपा खो चुकी थी.

‘यह मेरा भी घर है,’ मनीष ने भी ऊंची आवाज में कहा.

‘मत भूलना यह गाड़ी और फ्लैट मेरे नाम हैं, और मैं, इन की किस्तें भर रही हूं,’ क्रोध से कांपती हुई प्राची बोली.

मनीष ने बिना वक्त गंवाए अपना सामान पैक किया और बाहर निकल गया. उस के बाद तो मनीष जैसे घर को भूल ही गया. मनीष की बातों से आहत, आक्रोशित प्राची एक घुटन सी महसूस कर रही थी, जो उस को अंदर ही अंदर से तोड़ रही थी. आखिर, उस ने अपनी मां, सासससुर, दीदीजीजा सब को बुला कर अपना निर्णय सुना दिया तलाक लेने का. सब ने बोलना शुरू कर दिया…इतना आसान नहीं यह सब. कैसे रहेगी अकेले. पीहू का क्या होगा? हम समझाएंगे मनीष को…

लेकिन रीना के मोहजाल में फंसा मनीष तो जैसे तलाक लेने के लिए पहले से ही तैयार बैठा था. किसी के समझाने का उस पर कोई असर न प‌ड़ा. आपसी सहमति से तलाक मिलने में ज्यादा समय न लगा. सारे परिजन बेबसी से दर्शक बने खड़े रह गए. वह दिन अच्छे से याद है प्राची को जब कोर्ट ने उन के तलाक पर मुहर लगाई थी. उस दिन रीना भी मौजूद थी. उस के चेहरे पर खिंची विद्रूप विजयी मुसकान आज भी प्राची के दिल को छलनी कर देती है. मनीष उस के पास आया और पीहू को गोदी में उठाने की कोशिश की. प्राची ने एकदम से पीहू को अपनी बांहों में जकड़ कर कठोर शब्दों में बोली, ‘मेरी बेटी को छूने की भी हिम्मत मत करना.’ और तेज कदमों से पीहू को ले कर चली गई. मनीष देखता ही रह गया.

एकएक कर के सब घर वाले प्राची को तसल्ली दे कर चले गए मां को छोड़ कर. मां भी कब तक रहती, एक दिन वह भी चली गई. फिर एक दिन मनीष आया, अपना बाकी सामान, कपड़े बगैरह लेने. प्राची ने अपने को और पीहू को गैस्टरूम में बंद कर लिया. मनीष ‘पीहूपीहू’ बोलता ही रह गया. प्राची को मनीष का पीहू के लिए तड़पना सुकून सा दे रहा था. मनीष ने जो उस के साथ विश्वासघात किया था, बिना उस की किसी गलती के उस को जो वेदना दी थी, उस की यह सजा तो उस को मिलनी ही चाहिए.

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चमत्कार: क्या पूरा हो पाया नेहा और मनीष का प्यार

ड्राइंगरूम में बैठे पापा अखबार पढ़ रहे थे और उन के पास बैठी मम्मी टीवी देख रही थीं. मैं ने जरा ऊंची आवाज में दोनों को बताया, ‘‘आप दोनों से मिलने मनीष 2 घंटे के बाद आ रहा है.’’

‘‘किसलिए?’’ पापा ने आदतन फौरन माथे पर बल डाल लिए.

‘‘शादी की बात करने.’’

‘‘शादी की बात करने वह हमारे यहां क्यों आ रहा है?’’

‘‘क्या बेकार का सवाल पूछ रहे हैं आप?’’ मम्मी ने भी आदतन तीखे लहजे में पापा को झिड़का और फिर उत्तेजित लहजे में मुझ से पूछा, ‘‘क्या तुम दोनों ने शादी करने का फैसला कर लिया है?’’

‘‘हां, मम्मी.’’

‘‘गुड…वेरी गुड,’’ मम्मी खुशी से उछल पड़ीं.

‘‘बट आई डोंट लाइक दैट बौय,’’ पापा ने चिढ़े लहजे में अपनी राय जाहिर की तो मम्मी फौरन उन से भिड़ने को तैयार हो गईं.

‘‘मनीष क्यों आप को पसंद नहीं है? क्या कमी है उस में?’’ मम्मी का लहजा फौरन आक्रामक हो उठा.

‘‘हमारी नेहा के सामने उस का व्यक्तित्व कुछ भी नहीं है. जंचता नहीं है वह हमारी बेटी के साथ.’’

‘‘मनीष कंप्यूटर इंजीनियर है. उस के पिताजी आप से कहीं ज्यादा ऊंची पोस्ट पर हैं. वह फ्लैट नहीं बल्कि कोठी में रहता है. मुझे तो वह हर तरह से नेहा के लिए उपयुक्त जीवनसाथी नजर आता है.’’

‘‘तुझे तो वह जंचेगा ही,’’ पापा गुस्से में बोले, ‘‘क्योंकि मैं जो उसे पसंद नहीं कर रहा हूं. मेरे खिलाफ बोलते हुए ही तो तू ने सारी जिंदगी गुजारी है.’’

‘‘पापा, आई लव मनीष. मुझे अपना जीवनसाथी चुनने…’’

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मम्मी ने मुझे अपनी बात पूरी नहीं कहने दी और पापा से भिड़ना जारी रखा, ‘‘मैं ने आप के साथ जिंदगी गुजारी नहीं, बल्कि बरबाद की है. रातदिन की कलह, टोकाटाकी और बेइज्जती के सिवा कुछ नहीं मिला है मुझे पिछले 25 साल में.’’

‘‘इनसान जिस लायक होता है उसे वही मिलता है. बुद्धिहीन इनसान को जिंदगी भर जूते ही खाने को मिलेंगे.’’

‘‘आप के पास भी जहरीली जबान ही है, दिमाग नहीं. क्या यह समझदारी का लक्षण है कि बेटी शादी करने की अपनी इच्छा बता रही है और आप क्लेश करने पर उतारू हैं.’’

‘‘मैं अपनी बेटी के लिए मनीष से कहीं ज्यादा बेहतर लड़का ढूंढ़ सकता हूं.’’

‘‘पहली बात तो यह कि आज तक आप ने नेहा के लिए एक भी रिश्ता नहीं ढूंढ़ा है. दूसरी बात कि जब नेहा मनीष से प्रेम करती है तो शादी भी उसी से करेगी या नहीं?’’

‘‘यह प्रेमव्रेम कुछ नहीं होता. जो फैसला बड़े सोचसमझ और ऊंचनीच देख कर करते हैं, वही बेहतर होता है.’’

‘‘प्रेम के ऊपर आप नहीं तो और कौन लेक्चर देगा?’’ मम्मी ने तीखा व्यंग्य किया, ‘‘शादी के बाद भी आप प्रेम के क्षेत्र में रिसर्च जो करते रहे हैं.’’

‘‘मैं किसी भी औरत से हंसूंबोलूं, तो तुझे हमेशा चिढ़ ही हुई है. जिस आदमी की पत्नी लड़झगड़ कर महीने में 15 दिन मायके में पड़ी रहती थी वह अपने मनोरंजन के लिए दूसरी औरतों से दोस्ती करेगा ही.’’

‘‘मेरी गोद में नेहा न आ गई होती तो मैं ने आप से तलाक ले लिया होता,’’ अब मम्मी की आंखों में आंसू छलक आए थे.

‘‘बातबात पर पुलिस बुला कर पति को हथकडि़यां लगवा देने वाली पत्नी को तलाक देने की इच्छा किस इनसान के मन में पैदा नहीं होगी? मैं भी इस नेहा के सुखद भविष्य के कारण ही तुम से बंधा रहा, नहीं तो मैं ने तलाक जरूर…’’

‘‘अब आप दोनों चुप भी हो जाओ,’’ मैं इतनी जोर से चिल्लाई कि मम्मी और पापा जोर से चौंक कर सचमुच खामोश हो गए.

‘‘घर में आप का होने वाला दामाद कुछ ही देर में आ रहा है,’’ मैं ने उन दोनों को सख्त स्वर में चेतावनी दी, ‘‘अगर उसे आप दोनों ने आपस में गंदे ढंग से झगड़ने की हलकी सी झलक भी दिखाई, तो मुझ से बुरा कोई न होगा.’’

‘‘मैं बिलकुल चुप रहूंगी, गुडि़या. तू गुस्सा मत हो और अच्छी तरह से तैयार हो जा,’’ मम्मी एकदम से शांत नजर आने लगी थीं.

‘‘मैं भी बाजार से कुछ खानेपीने का सामान लाने को निकलता हूं,’’ नाखुश नजर आ रहे पापा मम्मी को गुस्से से घूरने के बाद बैडरूम की तरफ चले गए.

अपने कमरे में पहुंचने के बाद मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. अपने मातापिता को बचपन से मैं बातबात पर यों ही लड़तेझगड़ते देखती आई हूं. अपनी- अपनी तीखी, कड़वी जबानों से दोनों ही एकदूसरे के दिलों को जख्मी करने का कोई मौका नहीं चूकते हैं.

वे दोनों ही मेरे भविष्य का निर्माण अपनेअपने ढंग से करना चाहते थे. अकसर उन के बीच झड़पें मुझे ले कर ही शुरू होतीं.

मम्मी चाहती थीं कि उन की सुंदर बेटी प्रभावशाली व्यक्तित्व की स्वामिनी बने. उन्होंने मुझे सदा अच्छा पहनाया, मुझे डांस और म्यूजिक की ट्रेनिंग दिलवाई. मेरी हर इच्छा को पूरी करने के लिए वे तैयार रहती थीं. वे खुद कमाती थीं, इसलिए मुझ पर पैसा खर्च करने में उन्हें कभी दिक्कत नहीं हुई.

पापा का जोर सदा इस बात पर रहता कि मेरा कैरियर बड़ा शानदार बने. वे मुझे डाक्टर या आई.ए.एस. अफसर बनाना चाहते थे. मेरे स्वास्थ्य की भी उन्हें फिक्र रहती. मैं खूब जूस और दूध पिऊं और नियमित रूप से व्यायाम करूं, ऐसी बातों पर उन का बड़ा जोर रहता.

वैसे सचाई यही है कि मेरी मम्मी के साथ ज्यादा अच्छी पटती रही क्योंकि पापा को खुश करना मेरे खुद के लिए टेंशन का काम बन जाता था. पापा की डांट से बचाने के लिए मम्मी मेरी ढाल हमेशा बन जाती थीं.

मुझे ले कर उन के बीच सैकड़ों बार झगड़ा हुआ होगा. जब एक बार  दोनों का मूड बिगड़ जाता तो अन्य क्षेत्रों में भी उन के बीच टकराव और तकरार का जन्म हो जाता. मम्मी ने 5-6 साल पहले ऐसे ही एक झगड़े में पुलिस बुला ली थी. मुझे वह सारी घटना अच्छी तरह से याद है. उस दिन डर कर मैं खूब रोई थी.

मैं न होती तो वे दोनों कब के अलग हो गए होते, ऐसी धमकियां मैं ने हजारों बार उन दोनों के मुंह से सुनी थीं. अब मनीष से शादी कर मैं सिंगापुर जाने वाली थी. मेरी गैरमौजूदगी में कहीं इन दोनों के बीच कोई अनहोनी न घट जाए, इस सोच के चलते मेरा मन कांपना शुरू हो गया था.

मनीष आया तो मम्मी ने प्यार से उसे गले लगा कर स्वागत किया था. पापा भी जब उस से मुसकरा कर मिले तो मैं ने मन ही मन बड़ी राहत महसूस की थी.

‘‘हम दोनों अगले हफ्ते शादी करना चाहते हैं क्योंकि 15 दिन बाद मुझे सिंगापुर में नई कंपनी जौइन करनी है. अभी शादी नहीं हुई तो मामला साल भर के लिए टल जाएगा,’’ मनीष ने उन्हें यह जानकारी दी, तो मम्मीपापा दोनों के चेहरों पर टेंशन नजर आने लगा था.

‘‘सप्ताह भर का समय तो बड़ा कम है, मनीष. हम सारी तैयारियां कैसे कर पाएंगे?’’ मम्मी चिंतित हो उठीं.

‘‘आंटी, शादी का फंक्शन छोटा ही करना पड़ेगा.’’

‘‘वह क्यों?’’ पापा के माथे में फौरन बल पड़े तो उन्हें शांत रखने को मैं ने उन का हाथ अपने हाथ में ले कर अर्थपूर्ण अंदाज में दबाया.

‘‘सच बात यह है कि मेरे मम्मीपापा इस रिश्ते से बहुत खुश नहीं हैं. मैं ने इसी वजह से कल रात ही उन्हें नेहा से शादी करने की बात तब बताई जब नई कंपनी से मुझे औफर लैटर मिल गया. उन दोनों की नाखुशी के चलते बड़ा फंक्शन करना संभव नहीं है न, अंकल.’’

‘‘मेरी बेटी लाखों में एक है, मनीष. उन्हें तो इस रिश्ते से खुश होना चाहिए.’’

‘‘आई नो, अंकल, पर वे दोनों आप दोनों जितने समझदार नहीं हैं जो अपनी संतान की खुशी को सब से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानें.’’

मनीष की इस बात को सुन कर मुझे अचानक इतनी जोर से हंसी आई कि मुझे ड्राइंगरूम से उठ कर रसोई में जाना ही उचित लगा था.

उस पूरे सप्ताह खूब भागदौड़ रही. मम्मी व पापा को इस भागदौड़ के दौरान जब भी फुरसत मिलती, वे आपस में जरूर उलझ पड़ते. मैं दोनों पर कई बार गुस्से से चिल्लाई, तो कई बार आंखों से आंसू भी बहाए. जो रिश्तेदार इकट्ठे हुए थे उन्होंने भी बारबार उन्हें लड़ाईझगड़े में ऊर्जा बरबाद न करने को समझाया, पर उन दोनों के कानों पर जूं नहीं रेंगी.

हम ने फंक्शन ज्यादा बड़ा नहीं किया था, पर हर काम ठीक से पूरा हो गया. मेरी ससुराल में मेरे रंगरूप की खूब तारीफ हुई, तो मेरे सासससुर भी खुश नजर आने लगे थे.

हमारा हनीमून 3 दिन का रहा. मनाली के खुशगवार मौसम में अपने अब तक के जीवन के सब से बेहतरीन, मौजमस्ती भरे 3 दिन मनीष के संग बिता कर हम दिल्ली लौट आए.

वापस आने के 2 दिन बाद ही हम ने हवाईजहाज पकड़ा और सिंगापुर चले आए. अपने मम्मीपापा से विदा लेते हुए मैं रो रही थी.

‘‘आप दोनों एकदूसरे का ध्यान रखना, प्लीज. आप का लड़ाईझगड़ा अब भी चलता रहा, तो मेरा मन परदेस में बहुत दुखी रहेगा.’’

मैं ने बारबार उन से ऐसी विनती जरूर की, पर मन में भारी बेचैनी और चिंता समेटे ही मैं ने मम्मीपापा से विदा ली थी.

शुरुआत के दिनों में दिन में 2-2 बार फोन कर के मैं उन दोनों का हालचाल पूछ लेती.

‘‘हम ठीक हैं. तुम अपना हालचाल बताओ,’’ वे दोनों मुझे परेशान न करने के इरादे से यही जवाब देते, पर मेरा मन उन दोनों को ले कर लगातार चिंतित बना रहता था.

मनीष जब भी मुझे इस कारण उदास देखते, तो बेकार की चिंता न करने की सलाह देते. मैं खुद को बहुत समझाती, पर मन चिंता करना छोड़ ही नहीं पाता था.

बीतते समय के साथ मेरा मम्मीपापा को फोन करना सप्ताह में 1-2 बार का हो गया. मनीष की अपने बौस से ज्यादा अच्छी नहीं पट रही थी. इस कारण मुझे जो टेंशन होता, वही मैं फोन पर अपने मम्मीपापा से ज्यादा बांटता था.

मनीष ने कोशिश कर के अपना तबादला बैंकाक में करा लिया. वहां शिफ्ट होने से पहले उन्होंने 1 सप्ताह की छुट्टी ले ली. लगभग 6 महीने बाद इस कारण हमें इंडिया आने का मौका मिल गया था. सारा कार्यक्रम इतनी जल्दी बना कि अपने आने की सूचना मैं ने मम्मीपापा को न दे कर उन्हें ‘सरप्राइज’ देने का फैसला किया था.

मनीष और मैं एअरपोर्ट से टैक्सी ले कर सीधे पहले मेरे घर पहुंचे. 4 दिन बाद मेरे सासससुर की शादी की 30वीं वर्षगांठ थी, इसलिए पहले 3 दिन मुझे मायके में बिताने की स्वीकृति मनीष ने दे दी थी.

मनीष और मुझे अचानक सामने देख कर मेरे मम्मीपापा भौचक्के रह गए. मम्मी की चाल ने मुझे साफ बता दिया कि उन की कमर में तेज दर्द हो रहा है, पर फिर भी उन्होंने उठ कर मुझे गले से लगाया और खूब प्यार किया.

पापा की छाती से लग कर मैं अचानक ही आंसू बहाने लगी थी. उन को प्रसन्न अंदाज में मुसकराते देख मुझे इतनी राहत और खुशी महसूस हुई कि मेरी रुलाई फूट पड़ी थी.

‘‘आप दोनों को क्या हमारे आने की खबर थी?’’ कुछ संयत हो जाने के बाद मैं ने इधरउधर नजरें घुमाते हुए हैरान स्वर में सवाल किया.

‘‘नहीं तो. क्यों नहीं दी तू ने अपने आने की खबर?’’ मम्मी नकली नाराजगी दिखाते हुए मुसकराईं.

‘‘मुझे आप दोनों को ‘सरप्राइज’ देना था. वैसे पहले यह बताओ कि सारा घर फिर किस खुशी में इतना साफसुथरा… इतना सजाधजा नजर आ रहा है?’’

‘‘घर तो अब ऐसा ही रहता है, नेहा. हां, परदे पिछले महीने बदलवाए थे, सो इस कारण ड्राइंगरूम का रंग ज्यादा निखर आया है.’’

‘‘कमाल है, मम्मी. अपनी कमर दर्द की परेशानी के बावजूद आप इतनी मेहनत…’’

‘‘मेरी प्यारी गुडि़या, यह सारी जगमग तेरी मां की मेहनत का नतीजा नहीं है. आजकल साफसफाई का भूत मेरे सिर पर जरा ज्यादा चढ़ा रहता है,’’ पापा ने छाती चौड़ी कर मजाकिया अंदाज में अपनी तारीफ की तो हम तीनों खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘आप और घर की साफसफाई…आई कांट बिलीव यू, पापा.’’

‘‘अरे, अपनी मम्मी से पूछ ले.’’

मैं मम्मी की तरफ घूमी तो उन्होंने हंस कर कहा, ‘‘मैं ने अब इन्हें गृहकार्यों में अच्छी तरह से ट्रेंड कर दिया है, नेहा. कुछ देर में ये हम सब को देखना कितने स्वादिष्ठ गोभी और मूली के परांठे बना कर खिलाएंगे.’’

‘‘गोभी और मूली के परांठे पापा बनाएंगे?’’ मेरा मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘साफसफाई और किचन पापा ने संभाल लिया है, तो घर में आप क्या करती हो?’’ मैं ने आंखें मटकाते हुए मम्मी से सवाल पूछा.

‘‘आजकल जम कर ऐश कर रही हूं,’’ मम्मी ने जब अपने बालों को झटका दे कर बड़ी अदा से पीछे किया तो मैं ने नोट किया कि उन्होंने बाल छोटे करा लिए थे.

‘‘बाल कब कटवाए आप ने? बड़ा सूट कर रहा है आप पर यह नया स्टाइल,’’ मैं ने चारों तरफ घूम कर मम्मी के नए स्टाइल का निरीक्षण किया.

‘‘तेरे पापा को ही मुझे मेम बनाने का शौक चढ़ा और जबरदस्ती मेरे बाल कटवा दिए,’’ मम्मी ने अजीब सी शक्ल बना कर पापा की तरफ बड़े प्यार से देखा था.

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‘‘चल, बाल तो मैं ने कटवा दिए, पर ज्यादा सुंदर दिखने को ब्यूटीपार्लर और जिम के चक्कर तो तुम अपनी इच्छा से ही लगा रही हो न,’’ पापा ने यह नई जानकारी दी, तो मैं ने मम्मी की तरफ और ज्यादा ध्यान से देखा.

उन्होंने अपना वजन सचमुच कम कर लिया था और उन के चेहरे पर भी अच्छाखासा नूर नजर आ रहा था.

‘‘आप दोनों 6 महीने में कितना ज्यादा बदल गए हो. मम्मी, आप सचमुच बहुत सुंदर दिख रही हो,’’ मैं ने प्यार से उन का गाल चूम लिया.

‘‘स्वीटहार्ट, तुम बेकार ही सिंगापुर में मम्मीपापा की चिंता करती रहती थीं. ये दोनों बहुत खुश नजर आ रहे हैं,’’ मनीष की इस बात को सुन कर मैं झेंप उठी थी.

‘‘हमारी फिक्र न किया करो तुम दोनों, परदेस में तुम तो हमारी गुडि़या का पूरापूरा ध्यान रखते हो न, मनीष?’’ पापा ने अपने दामाद के कंधे पर हाथ रख दोस्ताना अंदाज में सवाल पूछा.

‘‘रखता तो हूं… पर शायद उतना अच्छी तरह से नहीं जितना आप मम्मी का रखते हैं,’’ मनीष की यह बात सुन कर हम सब फिर से हंस पड़े.

‘‘कैसे हो गया यह चमत्कार,’’ मेरी हंसी थमी, तो मैं ने पापा और मम्मी का हाथ प्यार से पकड़ कर हैरान सी हो यह सवाल मानो खुद से ही पूछा था.

 

‘‘मुझे कारण पता है,’’ मनीष किसी स्कूली बच्चे की तरह हाथ उठा कर बोले तो हम तीनों बड़े ध्यान से उन का चेहरा ताकने लगे थे.

हमारे ध्यान का केंद्र अच्छी तरह बन जाने के बाद उन्होंने शरारती अंदाज में मुसकरातेशरमाते हुए कहा, ‘‘मेरी समझ से इस घर में दामाद के पैरों का पड़ना शुभ साबित हुआ है.’’

फिर हम चारों के सम्मिलित ठहाके से ड्राइंगरूम गूंज उठा.

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फेसबुक का कारनामा: अंजलि ने अपने पति और बच्चों से कौनसी बात छिपाई थी?

किट्टीपार्टी का थीम इस बार ‘वनपीस’ था. पार्टी निशा के घर थी. निशा ठहरी खूब आधुनिक, स्लिम, स्मार्ट. नएनए थीम उसे ही सूझते थे. पिछली किट्टी पार्टी अमिता के घर थी. वहीं निशा ने कह दिया था, ‘‘मेरी पार्टी का थीम ‘वनपीस’ है.’’

इस पर गोलमटोल नेहा ने तुरंत कहा, ‘‘तेरा दिमाग खराब है क्या? क्यों सोसायटी में हमारा कार्टून बनवाना चाहती है. यह उम्र है क्या हमारी वनपीस पहनने की?’’

अपनी बात पर अड़े रहने वाली, थोड़ी सी जिद्दी निशा ने कहा, ‘‘जो नहीं पहनेगा वह फाइन देगा.’’

नेहा ने घूरा, ‘‘कितना फाइन लेगी? सौ रुपए न? ले लेना.’’

‘‘नहीं, सौ रुपए नहीं. कुछ और पनिशमैंट दूंगी.’’

दोनों की बातें सुनती हुई अंजलि ने प्यार से कहा, ‘‘निशा प्लीज, वनपीस मत रख. कोई और थीम रख ले. क्यों हमारा कार्टून बनवाने पर तुली हो?’’

‘‘नहीं, सब वनपीस पहन कर आएंगे, बस.’’

रेखा, मंजू, दीया, अनीता, सुमन, कविता और नीरा अब अपनाअपना प्रोग्राम बनाने लगीं.

रेखा ने कहा, ‘‘ठीक है, जिद्दी तो तू है ही, पर इतना तो सोच निशा, मेरे सासससुर भी हैं घर पर, पति को तो मैं पटा लूंगी, उन के साथ तो बाहर घूमने जाने पर पहन लेती हूं, सासूमां को कभी पता ही नहीं चला पर उन के सामने घर से ही वनपीस पहन कर कैसे निकलूंगी?’’

‘‘तो ले आना. आ कर मेरे घर तैयार हो जाना. इतना तो कर ही सकती हो न?’’ निशा ने सलाह दी.

‘‘हां, यह ठीक है.’’

मंजू, दीया, अनिता को कोई परेशानी नहीं थी. उन के पास इस तरह की कई ड्रैसेज थीं. वे खुश थीं. अनीता, कविता, सुमन और नीरा ने भी अपनीअपनी मुश्किल बताई थी, ‘‘हमारे पास तो ऐसी ड्रैस है ही नहीं. नई खरीदनी पड़ेगी, निशा.’’

‘‘तो क्या हुआ, खरीद लेना. इस तरह के अपने प्रोग्राम तो चलते ही रहते हैं.’’

वे भी तैयार हो ही गईं.

अंजलि की मनोव्यथा कुछ अलग थी. बोली, ‘‘क्या करूं, मेरे पति अनिल को तो हर मौडर्न ड्रैस भाती है पर मेरे युवा बच्चे कुछ ज्यादा ही रोकटोक करने लगे हैं मेरे पहनावे पर… क्या करूं… वे तो पहनने ही नहीं देंगे.’’

‘‘तो तू भी मेरे घर आ कर तैयार हो जाना.’’

अंजलि ने मन मसोस कर हां तो कर दी थी पर इन सब में सब से ज्यादा परेशान वही थी.

निशा की किट्टी का दिन पास आ रहा था. अंजलि सब के साथ डिनर कर रही थी. वह कुछ चुप सी थी, तो उस की 23 वर्षीय बेटी तन्वी और 21 वर्षीय बेटे पार्थ ने टोका, ‘‘मौम, क्या सोच रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ कह कर अंजलि ने ठंडी सांस भरी.

अनिल ने भी कहा, ‘‘भई, कुछ तो बोलो, हमें कहां इतनी शांति में खाना खाने की आदत है.’’

अंजलि ने घूरा तो तीनों हंस पड़े. अंजलि फिर बोल ही पड़ी, ‘‘अगले हफ्ते निशा के घर हमारी किट्टी पार्टी है.’’

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‘‘वाह,’’ तन्वी चहकी, ‘‘निशा आंटी तो नएनए थीम रखती हैं न मौम… इस बार क्या थीम है?’’

अंजलि ने धीरे से बताया, ‘‘वनपीस ड्रैस.’’

‘‘क्या?’’ पार्थ को जैसे करंट सा लगा. अनिल को भी तेज झूठी खांसी आई.

पार्थ ने कहा, ‘‘नहीं मौम, आप मत पहनना.’’

‘‘क्यों?’’

तन्वी ने कहा, ‘‘हर चीज की एक उम्र होती है न मौम. निशा आंटी पर तो सब कुछ चलता है, आप पर सूट नहीं करेगी और फिर हमें आप को ऐसे कपड़ों में देखने की आदत भी नहीं है न, मौम. आप साड़ी ही पहनना.’’

‘‘नहीं, मैं सोच रही हूं तुम्हारी ब्लैक ड्रैस ट्राई कर ही लूं.’’

पार्थ चिढ़ कर बोला, ‘‘नो मौम, बिलकुल नहीं. वह घुटनों तक की दीदी की ड्रैस आप कैसे पहन सकती हैं? दीदी भी पहनती हैं, तो मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

इस बात पर तन्वी ने उसे बुरी तरह घुड़का, ‘‘छोटे हो, छोटे की तरह बात करो.’’

अनिल मुसकराते हुए डिनर कर रहे थे.

अंजलि ने कहा, ‘‘आप क्यों चुप हैं? आप भी कुछ बोल ही दीजिए.’’

‘‘तुम सब की बातें सुनने में ज्यादा मजा आ रहा है… वनपीस पर कब फैसला होगा, उसी का इंतजार कर रहा हूं,’’ अनिल कह कर हंसे.

काफी देर तक वनपीस थीम पर बहस होती रही. अगले दिन तन्वी और पार्थ कालेज और अनिल औफिस चले गए. मेड के काम कर के जाने के बाद अंजलि अब घर में अकेली थी. उस ने आराम से तन्वी की अलमारी खोली.

बेतरतीब कपड़े रखने की तन्वी की आदत पर अंजलि को हमेशा की तरह गुस्सा आया पर इस समय गुस्सा करने का समय नहीं था. उस ने तन्वी की ब्लैक ड्रैस खोजनी शुरू की. कुछ देर बाद वह उसे मुड़ीतुड़ी हालत में मिली. ड्रैस हाथ में लेते ही वह मुसकराई. उस ने गुनगुनाते हुए उसे प्रैस किया और फिर पहन कर ड्रैसिंग टेबल के शीशे में खुद को निहारा, तो खुशी से चेहरा चमक उठा, घुटनों तक की इस स्लीवलैस ड्रैस में वह बहुत अच्छी लग रही थी. वाह, शरीर भी उतना नहीं फैला है… देख कर उसे खुशी हुई कि बेटी की ड्रैस उसे इस उम्र में बिलकुल फिट आ रही है. यह कितनी खुशी की बात है यह कोई स्त्री ही समझ सकती है. याद आया तन्वी पहनती है तो उस पर थोड़ी ढीली लगती है. यह एकदम फिट थी. वाह, सुबहशाम की सैर का यह फायदा तो हुआ.

अपनेआप से पूरी तरह संतुष्ट हो कर उस का मन खिल उठा था. हां, वह किट्टी में अच्छी लगेगी, थोड़ी टाइट तो हो रही है पर चलेगा, उसे कौन सा रैंप पर चलना है. अपनी सहेलियों के साथ मस्ती कर के लौट आएगी हमेशा की तरह. बेकार में दोनों बच्चे इतना टोक रहे थे. ठीक है, घर में किसी को बताऊंगी ही नहीं. उस ने निशा को फोन किया, ‘‘निशा, मैं भी तुम्हारे घर थोड़ा पहले आ जाऊंगी. वहीं बदल लूंगी कपड़े.’’

‘‘हां, ठीक है. जल्दी आ जाना.’’

किट्टी पार्टी वाले दिन अनिल, पार्थ और तन्वी के साथ नाश्ता करते हुए अंजलि मन ही मन बहुत उत्साहित थी. उस का चेहरा चमक रहा था.

पार्थ ने पूछा, ‘‘मौम, आज आप की किट्टी पार्टी है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘फिर आप क्या पहनोगी?’’

‘‘साड़ी.’’

अनिल ने पूछा, ‘‘कौन सी?’’

‘‘ब्लू वाली, जो पिछले महीने खरीदी थी.’’

‘‘हां मौम, आप साड़ी में अच्छी लगती हैं,’’ तन्वी ने कहा.

पार्थ फिर कहने लगा, ‘‘आप कितनी अच्छी हो मौम, हमारी सारी बातें मान जाती हो. वह वनपीस वाला ड्रामा बाकी आंटियों को करने दो, आप बैस्ट हो, मौम.’’

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अंजलि ने मन ही मन कहा कि हुंह, तुम लोगों के साथ क्या करना चाहिए, पता है मुझे. सारे नियम मेरे लिए ही हैं. मुझ पर ही रोब चलता है सब का. मन ही मन अंजलि मुसकरा कर रह गई.

किट्टी पार्टी का टाइम 4 बजे का रहता था. सब घर वापस साढ़े 6 बजे तक आते थे. अंजलि ने सोचा कि इन लोगों को तो खबर ही नहीं लगेगी कि आज मैं ने क्या पहना. घर से ब्लू साड़ी ही पहन कर जाऊंगी, वापस भी साड़ी में ही आ जाऊंगी.

अंजलि इतनी उत्साहित थी कि वह 3 बजे ही निशा के घर पहुंच गई. वह फटाफट तन्वी की ड्रैस पहन कर तैयार हो गई. निशा तो खुद भी एक स्टाइलिश सी छोटी सी ड्रैस पहन कर तैयार थी. उस पर इस तरह के कपड़े लगते भी बहुत अच्छे थे.

निशा ने अंजलि को ऊपर से नीचे तक देखा, फिर कहा, ‘‘वाह अंजलि, यू आर लुकिंग सो स्मार्ट.’’

अंजलि को अच्छा लगा. बोली, ‘‘पर थोड़ी टाइट है न?’’

‘‘तो क्या हुआ, सब चलता है. अभी सब को देखना, आज बहुत मजा आने वाला है.’’

निशा के घर भी इस समय कोई नहीं था. तभी रेखा भी आ गई. उस ने भी कपड़े वहीं बदले. धीरेधीरे पूरा ग्रुप आ गया. मंजू, दीया और अनिता घर से ही तैयार हो कर आई थीं. सब एकदूसरे की तारीफ करते रहे. फिर जबरदस्त फोटो सैशन हुआ, खूब फोटो खींचे गए, फिर कोल्डड्रिंक्स का दौर शुरू हुआ, गेम्स हुए. फिर सब ने स्नैक्स का आनंद लिया. निशा अच्छी

कुक थी. उस ने खूब सारी चीजें तैयार कर ली थीं. सब ने हमेशा की तरह खूब ऐंजौय किया. पूरा ग्रुप 40 के आसपास की उम्र का था.

साढ़े 6 बज गए तो सब जाने की तैयारी करने लगे. सब ने हंसते हुए घर जाने के कपड़े पहने. इस बात पर खूब हंसीमजाक हुआ.

नीरा ने कहा, ‘‘कोई सोच भी नहीं सकता न कि आज हम ने बच्चों की तरह झूठ बोल कर यहां कपड़े बदले हैं. अब सीधेसच्चे, मासूम सी शक्ल ले कर घर चले जाएंगे.’’

इस बात पर सब खूब हंसीं. सब एक ही सोसायटी में रहती थीं. अंजलि जब घर पहुंची, तीनों आ चुके थे. 7 बज रहे थे. सब के पास घर की 1-1 चाबी रहती थी. अंजलि ने जब डोरबैल बजाई, तो पार्थ ने दरवाजा खोला, ‘‘आप की पार्टी कैसी रही मौम?’’

‘‘बहुत अच्छी,’’ पार्थ मुसकरा रहा था.

तन्वी ने हंसते हुए कहा, ‘‘मौम, आप साड़ी में कितनी अच्छी लग रही हैं.’’

‘‘थैंक्स,’’ अंजलि ने कहा तो सोफे पर

बैठे मुसकराते हुए अनिल ने कहा, ‘‘और कैसी रही पार्टी?’’

‘‘बहुत अच्छी, भूख लगी होगी तुम लोगों को?’’

‘‘नहीं, अभी तन्वी ने चाय पिलाई है. हम तीनों ने कुछ नाश्ता भी कर लिया है. आओ, बैठो न. अच्छी लग रही हो साड़ी में.’’

अनिल मुसकराए तो अंजलि को कुछ महसूस हुआ. सालों का साथ था, इतना तो पति को पहचानती ही थी कि इस मुसकराहट में कुछ तो खास है. फिर उस ने बच्चों पर नजर डाली. उन दोनों के चेहरों पर भी प्यारी शरारत भरी हंसी थी. वे तीनों पासपास ही सोफे पर बैठे थे.

उन के सामने वाले सोफे पर बैठ कर अंजलि ने तीनों को बारीबारी से देखा और फिर पूछा, ‘‘क्या हुआ? तुम लोग हंस क्यों रहे हो?’’

अनिल ने कहा, ‘‘तुम्हें देख कर?’’

‘‘क्यों? मुझे क्या हुआ?’’ तीनों ने हंसते हुए एकदूसरे को देखा. फिर आंखों ही आंखों में कुछ तय करते हुए अनिल ने कहा, ‘‘कैसी लग रही थीं तुम्हारी सहेलियां वनपीस में?’’

‘‘अच्छी लग रही थीं?’’

‘‘तुम भी तो अच्छी लग रही थीं.’’

अंजलि मुसकराई तो अनिल ने आगे कहा, ‘‘वनपीस में, तन्वी की ब्लैक ड्रैस में.’’

अंजलि को झटका लगा, ‘‘क्या? मैं तो साड़ी पहन कर बैठी हूं न तुम्हारे सामने.’’

‘‘हां, पर वहां वनपीस में अच्छी लग रही थीं, पहनती रहना,’’ कह कर अनिल हंसे तो अंजलि को कुछ समझ नहीं आया, क्योंकि वह तो आज अपनी ड्रैस भी वहीं छोड़ कर आई थी कि कहीं कोई देख न ले. बाद में ले आएगी.

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अनिल बोले, ‘‘अपने फोन में जल्दी से फेसबुक देख लो.’’

अंजलि ने पर्स से फोन निकाला, फेसबुक देखा. फेसबुक पर फोटो डालने की शौकीन निशा सब के घर से निकलते ही किट्टी पार्टी के फोटो फेसबुक पर डाल कर अंजलि को टैग कर चुकी थी.

अंजलि के घर आने से पहले ही अनिल, पार्थ और तन्वी जो उस की फ्रैंड्स लिस्ट में थे ही, सब तसवीरें देख चुके थे और लाइक करने के बाद अच्छे कमैंट भी कर चुके थे. इतना कुछ हो चुका था, अब कुछ भी बाकी नहीं था. अंजलि का चेहरा देखने लायक था. वह दोनों हाथों से अपना चेहरा छिपा कर जोरजोर से हंस पड़ी कि फेसबुक ने तो सारी पोल ही खोल दी.

मैं स्वार्थी हो गई थी: बसंती के स्वार्थी मन को पक्की सहेली वसुंधरा ने क्यों धिक्कारा?

Serial Story: मैं स्वार्थी हो गई थी (भाग-2)

लेखिका- रत्ना पांडे

“कहां मर गई थी, यहां वह अकेली पड़ीपड़ी मर जाएगी, किसी को फ़िक्र ही नहीं है, सब को अपनीअपनी पड़ी है”, कहते हुए बसंती ने गुस्से से लाल हुई आंखों से सरोज को देखा.

“जाओ, जल्दी से पड़ोसियों को बुलाओ, ताला तोड़ना पड़ेगा, उसे घर में कैद कर दिया है,” बसंती चिल्ला कर बोली.

“नहींनहीं, बसंती ताई, मेरे पास चाबी है. मैं अभी दरवाज़ा खोलती हूं. मुझे ही थोड़ी देरी हो गई,” कहते हुए सरोज ने दरवाज़ा खोला.

दोनों वसुंधरा की हालत देख कर हैरान रह गईं. तब तक पड़ोस से भी कुछ लोग आ गए. सरोज ने अंजलि को फोन लगाया.

“अंजलि मैडम, जल्दी आइए माईं की तबीयत बहुत खराब है. वे नीचे गिरी हुई हैं. हम क्या करें, समझ नहीं आ रहा.”

अंजलि घबरा गई और तुरंत उस ने अनिल को फोन कर के कहा, “जल्दी घर पहुंचो, मां की तबीयत बिगड़ गई है.”

अनिल अपनी कार से तुरंत निकल गया और अंजलि भी अपनी कार तेजी से चलाती हुई घर पहुंची, साथ ही उस ने डाक्टर को भी फोन कर के बुला लिया था.

डाक्टर के पहुंचते ही अंजलि और अनिल भी पहुंच गए. तब तक वसुंधरा को सब ने मिल कर नीचे से उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया था.

डाक्टर ने वसुंधरा को देख कर तुरंत एंबुलैंस से अस्पताल ले जाने का आदेश दिया. एंबुलैंस आते ही वसुंधरा के साथ ही अंजलि और अनिल भी उस में बैठ गए. एक बार अंजलि की निगाह बसंती से मिली, तो वह उसे घूर रही थी मानो अंजलि बहुत बड़ी गुनाहगार हो. अंजलि ने अपनी आंखों को दूसरी और घुमाते हुए अपनी आंखों के आंसुओं को नीचे गिरने से रोका.

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हिम्मत दिखाती हुई वह वसुंधरा से बोली, “मां, सब ठीक हो जाएगा. आप बिलकुल चिंता नहीं करो, अनिल तुम भी हिम्मत रखो, मां बिलकुल ठीक हो जाएंगी.”

अस्पताल पहुंचते ही वसुंधरा का इलाज शुरू हो गया. पहले उसे आईसीयू में रखा गया. डाक्टर ने उसे देखने के बाद अनिल और अंजलि को सांत्वना दी, “वसुंधरा जल्दी ठीक हो जाएगी, ब्लडप्रैशर बहुत कम होने की वजह से ही उसे चक्कर आ गया था.”

24 घंटे आईसीयू में रखने के बाद उसे प्राइवेट कमरे में शिफ्ट कर दिया गया.

अब वसुंधरा होश में थी, अंजलि और अनिल उस के आसपास ही बैठे थे. गरिमा और वरुण, उस की पोती और पोता भी उस के पास ही खड़े थे. वसुंधरा सब को देख कर बहुत ख़ुश हो रही थी. तभी बसंती और कामिनी भी वसुंधरा को देखने अस्पताल आ गए. अंजलि और अनिल ने खड़े हो कर उन्हें बैठने की जगह दी. अंजलि ने झुक कर बसंती के पैर छुए, किंतु बसंती ने उस की तरफ देखा तक नहीं. कामिनी को बसंती का ऐसा व्यवहार अच्छा नहीं लगा. लेकिन वह कुछ कह न सकी. सब बैठ कर बातें कर ही रहे थे, तभी डाक्टर ने आ कर वसुंधरा को घर ले जाने की अनुमति दे दी.

अंजलि और अनिल ने सारी कार्यवाही पूरी कर दी. सभी लोग अनिल की कार में बैठ कर घर के लिए रवाना हुए. सिर्फ़ कामिनी, अंजलि के साथ उस की कार में बैठी.

कामिनी ने कार में बैठते ही अंजलि से कहा, “मुझे घर छोड़ दोगी, प्लीज. शाम हो रही है, खाना भी पकाना है.”

अंजलि ने कहा, “बिलकुल, पहले तुम्हें छोड़ देती हूं, फिर मैं मां की कुछ दवाइयां लेती हुई घर जाऊंगी, तब तक अनिल और मां भी घर पहुंच जाएंगे.”

रास्ते में अंजलि और कामिनी आपस में बात करने लगीं. तभी कामिनी ने कहा, “अंजलि, मैं मन ही मन घुटती रहती हूं, मुझे भी नौकरी करने का मन होता है, घर तो मैं फिर भी संभाल ही लूंगी. लेकिन मम्मी हमेशा मना कर देती हैं. उन्हें लगता है कि वसुंधरा आंटी हमेशा दुखी रहती हैं, अकेली रहती हैं. मम्मी की वजह से सचिन भी मुझे नौकरी के लिए मना कर देते हैं. दूसरी कोई समस्या नहीं है, मम्मी स्वाभाव से अच्छी हैं, बस, नौकरी को ले कर गलत धारणा बना कर बैठी हैं.

“अंजलि, तुम ही सोचो इस महंगाई के जमाने में एक की कमाई से सारे सुखसुविधा तो हासिल हो ही नहीं सकते न. यदि हम दोनों कमाएं तो बच्चों को कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दें. अंजलि, बहुत दुख होता है जब बच्चे कुछ मांगते हैं तो उन्हें मना करने में. अब तुम ही कोई उपाय बताओ, मम्मी की गलत धारणा को बदलना ही होगा.”

“हां कामिनी, मैं समझ सकती हूं, पर, बसंती आंटी को समझाना बहुत मुश्किल है. इस मामले में तो वे मां की भी नहीं सुनतीं, फ़िर भी यदि कोई उन की मानसिकता बदल सकता है तो वह केवल मां ही हैं.”

इतनी बात करतेकरते कामिनी का घर आ गया. कार से उतर कर अंजलि से बाय कह कर वह चली गई.

अंजलि भी दवाइयां ले कर जल्दी ही अपने घर पहुंच गई. तब तक अनिल भी घर पहुंच चुका था. वसुंधरा को बिस्तर पर लिटा कर सभी उस के पास बैठ गए. अंजलि ने वसुंधरा को दवाइयां दीं और सभी के लिए चाय बना कर लाई. सब ने चाय ले ली किंतु बसंती ने अंजलि की तरफ देख कर मुंह फेर लिया और चाय लेने से इनकार कर दिया. कुछ देर रुकने के बाद बसंती अपने घर चली गई.

धीरेधीरे एक सप्ताह बीत गया. बसंती हर रोज आती थी और वसुंधरा के पास बहुत देर तक बैठी रहती. वसुंधरा को भी उस का आना बहुत अच्छा लगता था.

धीरेधीरे वसुंधरा की तबीयत में काफी सुधार हो गया और फ़िर अंजलि ने औफ़िस जाना भी शुरू कर दिया.

आज जब वसुंधरा से मिलने बसंती आई तब घर में सिर्फ़ वसुंधरा और सरोज ही थे. आते ही बसंती का पहला प्रश्न था, “अरे वसु, अंजलि कहां है? बस, चली गई अपनी नौकरी पर, यहां सास बीमार है और उसे नौकरी की पड़ी है. देखा, मैं कहती थी न, बहू को नौकरी मत करने दे, पर तू ने कभी नहीं सुना, अब भुगत. अब वह कभी नौकरी नहीं छोड़ेगी और तू…”

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“बस कर बसंती, बहुत हो गया. मैं इतने दिनों से तेरा खराब व्यवहार देख रही हूं अंजलि के साथ, क्या तुझे ऐसा करना ठीक लगता है?”

वसुंधरा को इस तरह नाराज़ देख कर बसंती सन्न रह गई.

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Serial Story: मैं स्वार्थी हो गई थी (भाग-1)

लेखिका- रत्ना पांडे

वसुंधरा और बसंती बचपन की पक्की सहेलियां थीं. साथ खेलती, साथ पढ़ती, साथसाथ ही स्कूल जाती थीं. एकदूसरे की पड़ोसिन होने की वजह से काफी वक़्त साथ में गुजारती थीं. दोनों के विचार अलग होने के बावजूद भी दोनों में बेहद गहरी दोस्ती थी. साथ चलतेचलते पता ही नहीं चला, कब बड़ी हो गईं.

दोनों की दोस्ती पूरे महल्ले में मशहूर थी. सब लोगों ने बचपन से उन्हें साथ में देखा था. शायद, प्रकृति भी उन्हें अलग नहीं करना चाहती थी. वसुंधरा और बसंती की शादी एक ही शहर में तय हो गई, दोनों के घर भी कुछ ही दूरी पर थे.

शादी के बाद भी दोनों का मिलनाजुलना, कम ही सही, बंद नहीं हुआ. दोनों अपनेअपने परिवारों में खुश थीं और अपनी ज़िम्मेदारियां निभा रही थीं. वक़्त कभी कहां रुकता है, आगे बढ़ता ही जा रहा था. वसुंधरा और बसंती अब बुजुर्गों की श्रेणी में आ चुकी थीं.

वसुंधरा का एक बेटा था अनिल और बहू अंजलि. वसुंधरा की बहू अंजलि नौकरी करती थी. बेटेबहू के औफ़िस जाने के बाद वसुंधरा अकेली हो जाती थी क्योंकि उस के पति का निधन हो चुका था. उन की पोती गरिमा और पोता वरुण पंचगनी के होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहे थे. दोनों को शुरू से ही अच्छे स्कूल में पढ़ाई करने के लिए वहां भेज दिया गया था. वसुंधरा का स्वास्थ्य भी धीरेधीरे खराब हो रहा था.

बसंती का भी एक ही बेटा था सचिन और बहू कामिनी. बसंती ने कामिनी को कभी नौकरी नहीं करने दी. कई बार कामिनी ने उस से अनुमति मांगी, लेकिन बसंती का निर्णय अटल ही रहा.

कामिनी अधिकतर सचिन से कहती रहती थी, “सचिन यदि मैं भी नौकरी कर लूं तो हमारे बच्चे भी बड़े स्कूल में पढ़ सकते हैं. हम और अच्छी ज़िंदगी जी सकते हैं. बच्चों का भविष्य बेहतर बना सकते हैं.”

किंतु सचिन अपनी मां की वजह से हर बार कामिनी को न में जवाब देता था. इस वजह से कामिनी और सचिन में कई बार झगड़ा भी हो जाता था.

बसंती जब भी वसुंधरा से मिलने उस के घर आती, उसे अकेला देख कर दुखी हो जाती थी. वह हमेशा उस से कहती, ‘वसुंधरा, कितनी बार तुझे समझाया, अपनी बहू को नौकरी मत करने दे. नौकरी करेगी वह और घर का कामकाज, जवाबदारी सब तेरे ऊपर आ जाएगा. लेकिन तू है कि सुनती ही नहीं. हमारी उम्र हो रही है, कभी घुटने दुखते हैं, कभी कमर. कब तक तू अकेली पिसती रहेगी ऐसे ही.’

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‘बसंती, ऐसा नहीं है…’, वसुंधरा कुछ कहने की कोशिश करती, उस से पहले ही बसंती उसे चुप कर देती थी यह कह कर कि ‘मुझे तेरी कोई दलील नहीं सुननी है.

देख, मैं कैसे शान से रहती हूं, दिनभर बहू घर में रहती है. मुझे कोई जवाबदारी नहीं उठानी पड़ती. बच्चे भी स्कूल से वापस आ कर घर में रहते हैं. अभी छोटे हैं, दिनभर उन की हलचलमस्ती देख कर समय कैसे कट जाता है, पता ही नहीं चलता.’

वसुंधरा हमेशा बसंती की बातें एक कान से सुन दूसरे से निकाल दिया करती थी. जब कभी वह बसंती के सामने कुछ सफाई देने की कोशिश करती तो बसंती एक न सुनती थी. अंजलि के साथ बसंती का व्यवहार उखड़ाउखड़ा ही रहता था. अंजलि उस के इस स्वभाव को जानती थी और हमेशा उस के पांव छू कर ही उस से मिलती थी.

अंजलि और कामिनी भी अकसर मिल जाया करती थीं. वसुंधरा और बसंती की दोस्ती के कारण दोनों परिवारों के घनिष्ठ पारिवारिक संबंध थे. कामिनी के दिल की बात अंजलि जानती थी. वह जानती थी कि कामिनी ख़ुश नहीं है. वह जीवन में आगे बढ़ना चाहती है, अपने पति के कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहती है. किंतु बसंती की ज़िद के आगे उस के सपने, सपने ही रह जाते हैं. अंजलि हमेशा उसे समझाती कि वक़्त जरूर बदलेगा तुम भी जीवन में आगे बढ़ पाओगी. किंतु कामिनी जानती थी, ये सब मन को समझाने की बातें हैं.

समय आगे बढ़ता रहा और वसुंधरा ज्यादा बीमार रहने लगी. अंजलि और अनिल ने अपनी मां की देखभाल करने के लिए एक युवती सरोज को रख लिया. वह हर रोज़ 10 बजे आती और शाम 7 बजे तक रुकती थी. अंजलि 10 बजे अपने औफ़िस के लिए निकलती थी जबकि अनिल 9 बजे ही चला जाता था. अंजलि के जाने के आधे घंटे के बाद सरोज आ जाती थी. इतनी देर ही वसुंधरा को अकेले रहना पड़ता था.

वसुंधरा के घुटने काफी खराब हो चुके थे. उसे चलनेफिरने में बहुत तकलीफ़ होती थी. साथ ही ब्लडप्रैशर भी बहुत कम हो जाता था. अंजलि उस की दवाइयों का हमेशा खयाल रखती थी और उसे ख़ुश रखने की कोशिश भी करती थी.

सोमवार का दिन था, अंजलि के जाने के बाद अचानक ही वसुंधरा की तबीयत ज़्यादा बिगड़ गई और वह दर्द से अपने बिस्तर पर लेटेलेटे कराह रही थी. वह सरोज का रास्ता देख रही थी कि सरोज आ जाए तो अच्छा रहेगा. किंतु आज सरोज भी वक़्त पर ना आ पाई. वसुंधरा का पेटदर्द काफी बढ़ रहा था. तभी उस ने सोचा धीरेधीरे बाथरूम जा कर आती हूं, शायद तब दर्द से राहत मिले.

ऐसा सोच कर वह पलंग से उठने लगी, किंतु ब्लडप्रैशर कम हो जाने की वजह से उसे चक्कर आ गया और वह कराहते हुए गिर पड़ी. फिर वह वापस उठ न पाई. वह नीचे पड़ेपड़े कराह रही थी. उसी समय बसंती, वसुंधरा से मिलने आई और बाहर ताला लगा देख कर वह सोच में पड़ गई कि वसुंधरा कहां गई होगी. तभी उसे अंदर से कराहने की आवाज़ आई. बसंती ने पास जा कर सुना, बोल पड़ी, “अरे, यह तो वसुंधरा की आवाज़ है.”

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वह घबरा गई और जोर से बोली, “वसुंधरा, क्या हुआ, बाहर से ताला लगा कर तुम्हें अंदर क्यों बंद कर दिया गया है? तुम डरो नहीं, मैं कुछ करती हूं.”

बसंती को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, पड़ोसियों को बुलाती हूं, ऐसा सोच कर वह जैसे ही पलटी, उस ने देखा, सरोज तेजी से आ रही थी. सरोज को देखते ही बसंती का पारा सातवें आसमान पर था.

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Serial Story: मैं स्वार्थी हो गई थी (भाग-3)

लेखिका- रत्ना पांडे

वह कुछ बोले, उस से पहले वसुंधरा ने ही बोल दिया, “बिलकुल चुप रह बसंती, सालों से तेरी बकबक सुन रही हूं, आज तुझे मेरी पूरी बात सुननी होगी. तुझे क्या लगता है, मेरी बहू खराब है, वह मेरा खयाल नहीं रखती या औफ़िस में आराम करने जाती है. आज उसी की वजह से मैं ठीक हो पाई हूं. नौकरी के साथ ही वह अपने घर की पूरी जिम्मेदारियां उठाती है. मेरा इतना खयाल रखती है कि मुझे कभी बेटी की कमी महसूस ही नहीं होती. आज उस की वजह से बच्चे इतने बड़े स्कूल में पढ़ रहे हैं. घर में हर सुखसुविधा है, दोदो कारें हैं, कामवाली है. यहां तक कि मेरी देखभाल के लिए यह सरोज भी है, जो हर वक़्त मेरे पास रहती है जब तक अंजलि न आ जाए और हां, मुझे सिर्फ़ आधा घंटा ही अकेले रहना पड़ता है. अंजलि के जाने के आधे घंटे के अंदर ही सरोज आ जाती है.”

“सिर्फ़ उसी दिन गड़बड़ हो गई थी. अंजलि की ख़ास मीटिंग थी, इसलिए औफ़िस से वह फोन नहीं कर पाई, वरना जाते ही उस का फोन आ जाता है, मां, सरोज आ गई न. किंतु उस दिन सरोज की साइकिल पंचर हो गई, इसलिए उसे देर हो गई. मेरी भी तबीयत उसी दिन बिगड़ गई. उस दिन मैं ने ही अंजलि से कहा था कि बाहर से ताला लगा दे बेटा, मैं सो रही हूं, सरोज ताला खोल कर ख़ुद ही अंदर आ जाएगी.”

“बसंती, तुझे क्या लगता है, तू ठीक कर रही है कामिनी के साथ. इतनी पढ़ीलिखी, होशियार लड़की ले कर आई है, उसे घर में कैद कर रखा है. तू क्यों उसे उस की जिंदगी जीने नहीं देती? क्यों अपनी इच्छाओं को उस पर लाद रही है? उस के उज्ज्वल भविष्य को क्यों बरबाद कर रही है? तुझे क्या लगता है, कामिनी बहुत खुश है? मैं ने उस की आंखों में हमेशा दर्द देखा है, जो तुझे कभी दिखाई नहीं देता. तुझे हमेशा तू ही सही लगती है, कोई और लड़की होती तो तेरी एक न सुनती, अपनी मरजी से नौकरी ढूंढ कर चली जाती. अरे, आजकल की लड़कियां तो अपने साथ बेटे का तबादला तक करवा लेती है ताकि सासससुर के साथ रहना न पड़े.

“लेकिन, कामिनी वैसी लड़की नहीं है. तू तो समय की बलवान है जो तुझे कामिनी जैसी बहू मिली है. हमें यदि अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए कुछ देर अकेले रहना पड़े, थोड़ाबहुत त्याग करना पड़े, अपने ही घर की जवाबदारी में हाथ बंटाना पड़े, तो उस में गलत क्या है बसंती? बच्चे भी हमारे ही तो हैं, बहू भी हमारी बेटी ही तो है, फ़िर ऐसा भेदभाव क्यों? बसंती, तुझे सोचना होगा कि तू जो कर रही है, वह गलत है.

“एक बार सोच बसंती, हम अपनी ज़िंदगी में कुछ भी नहीं कर सके. हम भी पढ़ेलिखे थे. इस बात का दुख आज भी मन को शूल की तरह चुभता है. लेकिन वह और ज़माना था, आज का दौर कुछ और है. आज हम से कहीं ज्यादा पढ़ीलिखी लड़कियां हैं और समय भी तो बदल गया है न बसंती. आज और कल के फ़र्क को एक अकेले की कमाई से पूरा नहीं किया जा सकता. पतिपत्नी दोनों को कंधे से कंधा मिला कर काम करना पड़ता है. हम अपने स्वार्थ के लिए उन का रास्ता नहीं रोक सकते.”

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वसुंधरा की बातें सुनतेसुनते बसंती की आंखों से आंसू की बूंदें टपटप कर के गिर रही थीं.

वसुंधरा ने उस का हाथ अपने हाथों में ले कर प्यार से कहा, “बसंती, सोच, सही सोच, अभी भी ज़्यादा देर नहीं हुई है, इंसान चाहे तो बिगड़ी बात ज़रूर बन सकती है.”

बसंती ने चश्मा उतार कर अपने आंसू पोंछे और उठ कर खड़ी हो गई, “मैं जा रही हूं वसु, मुझे देर हो रही है,” इतना कह कर बसंती चली गई.

वसुंधरा सोच रही थी, ‘मैं ने कुछ ज़्यादा तो नहीं कह दिया, बसंती को बुरा तो नहीं लग गया होगा.’ इतने में अंजलि भी आ गई. तब वसुंधरा ने अंजलि को सारी बात बताई.

अंजलि ने कहा, “ठीक ही तो है मां, आप ने ठीक किया. बसंती ताई को समझाना बहुत ज़रूरी था. उन्हें समझना ही होगा, तभी कामिनी का जीवन सुखी होगा.”

बसंती घर पहुंचते ही सोफे पर जा कर बैठ गई. उसे देख कर कामिनी तुरंत ही उस के पास आ कर बैठ गई और पूछने लगी, “मम्मी, कैसी हैं वसु आंटी? इतना पूछतेपूछते ही कामिनी ने बसंती की रोई हुई आंखों को पहचान लिया. क्या हुआ मम्मी, आप की आंखें ऐसी क्यों लग रही हैं? वसु आंटी ठीक हैं न?”

बसंती फफकफफक कर रो पड़ी और कामिनी को अपनी बांहों में भर लिया. वह बहुत देर तक रोती रही, कुछ बोल ही नहीं पा रही थी.

कुछ देर में जब वह सामान्य हुई, तब कामिनी से बोली, “बेटा, आज मेरी आंखें खुल गई हैं, सब से पहले तो मैं तुझ से माफ़ी मांगती हूं. मुझे माफ़ कर दे कामिनी बेटा. मैं ने तुम्हारे पांव में ज़ंजीर बांध रखी थी. मैं तुम्हारे भविष्य के आड़े आ गई थी. कुछ देर तो अवश्य ही हो गई है, पर बहुत देर नहीं हुई न कामिनी?”

“मम्मी, आप यह क्या बोल रही हैं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा और मुझ से माफी क्यों मांग रही हैं आप?”

“कामिनी बेटा, मैं चाहती हूं, तुम भी नौकरी करो, तुम भी अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक ही जियो. हमारे बच्चे भी हर सुख उठा सकें और सचिन को भी मदद मिल सके. हमारे घर के सामने भी एक कार खड़ी हो. कामिनी बेटा, मैं स्वार्थी हो गई थी, मैं अपने लिए ही सोचती रही. मैं ने बहुत बड़ी गलती कर दी है, लेकिन आज वसुंधरा ने मेरी आंखें खोल दीं. अब मैं वसु से तभी मिलूंगी जब मिठाई ले कर उस के घर जाऊंगी.”

इतना सुनते ही कामिनी को मानो दुनिया की सब से बड़ी ख़ुशी मिल गई. उस ने झुक कर बसंती के पांव छुए. उस की आंखें अश्कों से भीग गई थीं, किंतु वे दुख के नहीं, ख़ुशी के मोती बनकर टपक रहे थे. कामिनी को बसंती ने सीने से लगा लिया. बसंती के दिमाग से एक गलत धारणा के निकलने से पूरे घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गई.

वसुंधरा रोज़ बसंती की रास्ता देखती रही. वह जानती थी बसंती ज़रूर वापस आएगी, किंतु खाली हाथ नहीं मिठाई और कामिनी की नौकरी की खबर ले कर.

कुछ ही सप्ताह में कामिनी को नौकरी मिल गई. बसंती, सचिन और कामिनी मिठाई ले कर सब से पहले वसुंधरा के घर आए. बसंती के हाथों में मिठाई का डब्बा और कामिनी के चेहरे की ख़ुशी देख कर वसुंधरा बिना सुने ही सबकुछ समझ गई. बसंती ने मिठाई का टुकड़ा निकाल कर अपने हाथों से वसुंधरा को खिलाया और उस के गले लग गई. वसुंधरा ने भी उसे प्यार से अपनी ओर खींच लिया. आज दोनों सहेलियों के इस पुनर्मिलन में न जाने कितनी ख़ुशियां, कितनी समझदारी, कितना त्याग, कितना प्यार और अपने परिवार का कितना हित छिपा हुआ था.

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उस दिन बसंती कुछ न कह पाई थी जब वसुंधरा उसे समझा रही थी. लेकिन आज कुछ ख़ुशी और कुछ बहते हुए आंसुओं के साथ बसंती के मुंह से जो पहला वाक्य निकला, वह था, “वसु, मैं स्वार्थी हो गई थी.”

सीजर: क्या दादाजी की कुत्तों से नफरत कम हो पाई?

कुत्ते का पिल्ला पालने की बात चली तो दादाजी ने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त की, ‘‘पालना ही है तो मिट्ठू पाल लो, मैना पाल लो, खरगोश पाल लो…और कोई सा भी जानवर पाल लो, लेकिन कुत्ता मत पालो.’’

घर की नई पीढ़ी ने घोषणा की, ‘‘नहीं, हम तो कुत्ता ही पालेंगे. अच्छी नस्ल का लाएंगे.’’

दादाजी ने दलील दी, ‘‘भले ही अच्छी नस्ल का हो…मगर होगा तो कुत्ता ही?’’

नई पीढ़ी ने प्रतिप्रश्न किया, ‘‘तो क्या हुआ? कुत्ते में क्या खराबी होती है? वह वफादार होता है. इसीलिए आजकल सभी लोग कुत्ता पालने लगे हैं.’’

दादाजी का मन हुआ कि कहें, ‘हां बेटा, अब गोपाल के बजाय सब श्वानपाल हो गए हैं.’ किंतु इस बात को उन्होंने होंठों से बाहर नहीं निकाला.

कुत्ते की अच्छाईबुराई के विवाद में भी वे नहीं पड़े. व्यावहारिक कठिनाइयां ही बताईं, ‘‘कुत्ते बड़े बंगलों में ही निभते हैं क्योंकि वहां कई कमरे होते हैं, लंबाचौड़ा लौन होता है, खुली जगह होती है. इसलिए वह बड़े मजे से घूमताफिरता है. इस छोटे फ्लैट में बेचारा घुट कर रह जाएगा.’’

नई पीढ़ी ने दलील दी, ‘‘अपने आसपास ही छोटेछोटे फ्लैटों में कई कुत्ते हैं. आप कहें तो नाम गिना दें?’’

दादाजी ने इनकार में हाथ हिलाते हुए दूसरी व्यावहारिक कठिनाई बताई, ‘‘वह घर में गंदगी करेगा, खानेपीने की चीजों में मुंह मारेगा. कहीं पागल हो गया तो घर भर को पेट में बड़ेबड़े 14 इंजैक्शन लगवाने पड़ेंगे.’’

नई पीढ़ी ने इन कठिनाइयों को भी व्यर्थ की आशंकाएं बताते हुए कहा, ‘‘अच्छी नस्ल के कुत्ते समझदार होते हैं. वे देसी कुत्तों जैसे गंदे नहीं होते. प्रशिक्षित करने पर विदेशी नस्ल के कुत्ते सब सीख जाते हैं. सावधानी बरतने पर उन के पागल होने का कोई खतरा नहीं रहता है.’’

दादाजी ने अपनी आदत के अनुसार हथियार डाल दिए. नई पीढ़ी से असहमत होने पर भी वे ज्यादा जिद नहीं करते थे. अपनी राय व्यक्त कर छुट्टी पा लेते थे. इसी नीति से वे कलह से बचे रहते थे. इस मामले में भी उन्होंने यह कह कर छुट्टी पा ली, ‘‘तुम जानो…मेरा काम तो सचेत करना भर है.’’

अलसेशियन पिल्ला घर में आया तो दादाजी ने उस में कोई विशेष रुचि नहीं ली. वे आश्चर्य से उसे देखते रहे. वह अस्पष्ट सी ध्वनि करता हुआ उन के पैर चाटते हुए दुम हिलाने लगा, तब भी वे उस से दूरदूर ही रहे. उन्होंने उसे न उठाया, न सहलाया. हालांकि उस छोटे से मनभावन पिल्ले का पैरों को चाटना व दुम हिलाना उन्हें अच्छा लगा.

नई पीढ़ी ने खेलखेल में कई बार उस पिल्ले को दादाजी की गोद तथा हाथों में रख दिया, तब न चाहते हुए भी उन्हें उस पिल्ले के स्पर्श को सहना पड़ा. यह स्पर्श उन्हें अच्छा लगा. नरमनरम बाल, मांसल शरीर, बालसुलभ चंचलता आदि ने उन के मन को मोहा. घर में कोई छोटा बच्चा न होने से ऐसा स्पर्श सुख उन्हें अपवाद-स्वरूप ही मिलता था. इस पिल्ले के स्पर्श ने उसी सुख की अनुभूति उन्हें करा दी. फिर भी वे पिल्ले को अपने से परे हटाने का नाटक करते रहे. इसलिए नई पीढ़ी को नया खेल मिल गया. वे जब देखो तब दादाजी के पास उस पिल्ले को छोड़ने लगे. दादाजी का उस से कतराना एवं परे हटाने का प्रयास उन्हें प्रसन्नता से भर देता.

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नई पीढ़ी ने अपने चहेते पिल्ले का नाम रखा, सीजर.

दादाजी ने इस नाम का भारतीयकरण कर दिया, सीजरिया.

नई पीढ़ी ने शिकायत की, ‘‘दादाजी, सीजर का नाम मत बिगाडि़ए.’’

दादाजी ने सफाई दी, ‘‘मैं ने तो उसे भारतीय बना दिया.’’

‘‘यह भारतीय नहीं है…अलसेशियन है.’’

‘‘नस्ल भले ही विदेशी हो…मगर है तो यहीं की पैदाइश. इसलिए नाम इस देश के अनुकूल ही रखना चाहिए.’’

‘‘नहीं, इस का नाम सीजर ही रहेगा.’’

‘‘लेकिन हम तो इसे सीजरिया ही कहेंगे.’’

दादाजी को इस छेड़छाड़ में मजा आने लगा. नई पीढ़ी से बदला लेने का उन्हें अच्छा मौका मिल गया. वे लोग सीजर को उन के पास धकेल कर खुश होते रहते थे. दादाजी ने सीजर के नाम को ले कर जवाबी हमला कर दिया. इस हमले के दौरान वे सीजर को अपने दिए नाम से संबोधित करकर के अपने पास बुलाने लगे.

‘सीजरिया’ संबोधित करने पर भी पिल्ला जब ललक कर उन के पास आने लगा तो वे नई पीढ़ी को चिढ़ाने लगे, ‘‘देखा, सीजरिया को यह नाम पसंद है.’’

आएदिन की इस छेड़छाड़ ने दादाजी का सीजर से संपर्क बढ़ा दिया. अब वे उसे अपनी बांहों में भरने लगे, उठाने लगे, सहलाने लगे. नई पीढ़ी की अनुपस्थिति में भी वे उस से खेलने लगे. पलंग पर अपने पास लिटाने लगे. उस की चेष्टाओं पर प्रसन्न होने लगे. उस के स्पर्श से गुदगुदी सी अनुभव करने लगे.

एक दिन घर के लोगों ने दादाजी से प्रश्न किया, ‘‘आप तो इस के खिलाफ थे?’’

‘‘हां, था तो…मगर इस खड़े कान वाले ने मेरे मन में जगह बना ली है,’’ दादाजी ने मुसकराते हुए उत्तर दिया.

सीजर के लिए दादाजी का स्नेह दिनोदिन बढ़ता ही गया क्योंकि अपने खाली समय को भरने का उन्हें यह अच्छा साधन लगा. जब सीजर इस घर में नहीं आया था तब वे खाली समय बातों में, पढ़ने में, टीवी देखने में तथा ऐसे ही अन्य कामों में व्यतीत किया करते थे. बातों के लिए घर के लोग हमेशा सुलभ नहीं रहते थे क्योंकि दिन के समय सभी छोटेबड़े अपनेअपने काम से घर से बाहर चले जाते थे. कोई स्कूल जाता था तो कोई कालेज, कोई बाजार जाता था तो किसी को दफ्तर जाना होता था. खासी भागमभाग मची रहती थी. घर में रहने पर सभी की अपनीअपनी व्यस्तताएं थीं, इसीलिए दादाजी से बातें करने का अवकाश वे कम ही पाते थे.

लेदे कर घर में बस, दादीजी ही थीं, जो दादाजी के लिए थोड़ा समय निकालती थीं. किंतु उन के पास अपनी बीमारी और घर के रोनों के सिवा और कोई बात थी ही नहीं. आसपास भी कोई ऐसा बतरस प्रेमी नहीं था, इसलिए दादाजी बातें करने को तरसते ही रहते थे. कोई मेहमान आ जाता था तो उन की बाछें खिल उठती थीं.

पढ़ने और टीवी देखने में दादाजी की आंखों पर जोर पड़ता था. इसलिए वे अधिक समय तक न तो पढ़ पाते थे, न ही टीवी देख पाते थे. दैनिक समाचारपत्र को ही वे पूरे दिन में किस्तों में पढ़ पाते थे. घर की नई पीढ़ी उन के इस वाचन का मजा लेती रहती थी. सुबह के बाद किसी को यदि अखबार की आवश्यकता होती तो वह मुसकराते हुए दादाजी से पूछता, ‘‘पेपर ले जाऊं दादाजी, आप का वाचन हो गया?’’

सीजर ने उन के इस खाली समय को भरने में बड़ा योगदान दिया. वह जब देखो तब दौड़दौड़ कर उन के पास आने लगा, उन के आसपास मंडराने लगा. दादाजी उसे उठाने और सहलाने लगे तो उस का आवागमन उन के पास और भी बढ़ गया. घर के दूसरे लोगों को उसे पुकारना पड़ता था, तब कहीं वह उन के पास जाता था. दादाजी के पास वह बिना बुलाए ही चला आता था. घर के लोग शिकायत करने लगे, ‘‘दादाजी, आप ने सीजर पर जादू कर दिया है.’’

सीजर जब इस घर में नयानया आया था तब उस का स्पर्श हो जाने पर दादाजी हाथ धोते थे. खानेपीने से पहले तो वे साबुन से हाथ धोए बिना किसी वस्तु को छूते नहीं थे. वही दादाजी अब सारासारा दिन सीजर के स्पर्श में आने लगे. किंतु हाथ धोने की सुध उन्हें अब न रहती. खानेपीने की वस्तुएं उठाते समय भी साबुन से हाथ धोना वे कई बार भूल जाते थे. नई पीढ़ी कटाक्ष करने लगी, ‘‘दादाजी, गंदे हाथ.’’

दादाजी उत्तर देने लगे, ‘‘तुम ने ही भ्रष्ट किया है.’’

सीजर के प्रति यों उदार हो जाने के बावजूद यह भ्रष्ट किए जाने वाली बात दादाजी को फांस की तरह चुभती रहती थी. यह शिकायत उन्हें शुरू से ही बनी हुई थी. सीजर का सारे घर में निर्बाध घूमना, यहांवहां हर चीज में मुंह मारना उन्हें खलता रहता था. रसोईघर में उस का प्रवेश तथा भोजन करते समय उस का स्पर्श वे सहन नहीं कर पाते थे. इसलिए कई बार उन्हें नई पीढ़ी को झिड़कना पड़ा था, ‘‘कुछ तो ध्यान रखा करो…अपने संस्कारों का कुछ तो खयाल करो.’’

इस शिकायत के होते हुए भी सीजर का जन्मदिन जब मनाया गया तो दादाजी ने भी घर भर के स्वर में स्वर मिलाया, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू…’’

सीजर के अगले पंजे से छुरी सटा कर जन्मदिन का केक काटने की रस्म अदा कराई गई तो दादाजी ने भी दूसरों के साथ तालियां बजाईं.

केक का प्रसाद भी दादाजी ने लिया. सीजर के साथ फोटो भी उन्होंने सहर्ष खिंचवाई.

देखते ही देखते जरा से पिल्ले के बजाय सीजर जब ऊंचा, पूरे डीलडौल वाला बनता गया. दादाजी भी घर भर की तरह प्रसन्न हुए. उस में आए इस बदलाव पर वे भी चकित हुए. वह पांवों में लोटने के बजाय अब कंधों पर दोनों पैर उठा कर गले मिलने जैसा कृत्य करने लगा तो दादाजी भी गद्गद कंठ से उसे झिड़कने लगे, ‘‘बस भैया, बस.’’

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यों प्रेम दर्शाते हुए सीजर जब मुंह चाटने को बावला होने लगा तो दादाजी को पिंड छुड़ाना मुश्किल होने लगा. फिर भी उन्होंने उसे पीटा नहीं. हाथ उठा कर पीटने का स्वांग करते हुए वे उसे डराते रहे.

आसपास के बच्चे पत्थर फेंकफेंक कर या और कोई शरारत कर के सीजर को चिढ़ाने की कुचेष्टा करते तो दादाजी फौरन दौड़े जाते थे और उन शरारती बच्चों को झिड़कते थे, ‘‘क्यों रे, उस से शरारत करोगे तो वह मजा चखा देगा…भाग जाओ.’’

रात को जब कभी भी सीजर भूंकता था तो वे फौरन देखते थे कि क्या मामला है. उन से उठते बनता नहीं था, फिर भी वे उठ कर जाते थे. घर भर के लोग उन की इस तत्परता पर मुसकराते तो वे जवाब देते, ‘‘सीजर अकारण नहीं भूंकता है.’’

एक बार 10-12 दिन के लिए दादाजी को दूसरे शहर जाना पड़ा. वे जब लौटे तो बरामदे में ही सीजर उन से लिपट गया. दादाजी उस के सिर को सहलाते हुए बुदबुदाते रहे, ‘बस बेटा, बस…इतना प्रेम अच्छा नहीं है.’

दादाजी की नींद बड़ी नाजुक थी. संकरी जगह में उन्हें नींद नहीं आती थी. किसी अन्य का स्पर्श हो जाने से भी उन की नींद उचट जाती थी. किंतु सीजर ने उन की इन असुविधाओं की कतई परवा नहीं की. वह दादाजी से सट कर या उन के पैरों के पास सोता रहा. दादाजी उसे सहन करते रहे. टांगें समेटते हुए कहते रहे, ‘‘तू जबरदस्त निकला.’’

एक बार सीजर घर से गायब हो गया. पड़ोसियों से पता लगा कि वह घर के सामने की मेहंदी की बाड़ को फलांग कर भागा है. एक बार इस बाड़ में उलझा, फिर दोबारा कोशिश करने पर निकल पाया. बाहर निकल कर गली की कुतिया के पीछे लगा था.

इस जानकारी के प्राप्त होते ही इस घर की नई पीढ़ी सीजर को ढूंढ़ने निकल पड़ी. सभी का यही खयाल था कि वह आसपास ही कहीं मिल जाएगा.

दादाजी भी अपनी लाठी टेकते हुए सीजर को ढूंढ़ने निकले. दादीजी ने टोका, ‘‘तुम क्यों जा रहे हो? सभी लोग उसे ढूंढ़ तो रहे हैं?’’

मगर दादाजी न माने. वे गलीगली में भटकते हुए परिचितअपरिचित से पूछने लगे, ‘‘हमारे सीजर को देखा? अलसेशियन है, लंबा…पूरा…बादामी, काला और सफेद मिलाजुला रंग है. कान उस के खड़े रहते हैं.’’

उन की सांस फूलती रही और वे लोगों से पूछते रहे, ‘‘हमारे सीजर को तो आप पहचानते ही होंगे? उसे बाहर घुमाने हम लाते थे. वह लोगों को देखते ही लपकता था. चेन खींचखींच कर हम उसे काबू में रखते थे. उस ने किसी को काटा नहीं, वह बस लपकता था.’’

काफी भटकने के बाद भी न तो नई पीढ़ी को और न ही दादाजी को सीजर का पता लगा. सारा दिन निकल गया, रात हो  गई, किंतु सीजर लौट कर न आया.

सभी को आश्चर्य हुआ कि वह कहां चला गया. गली की कुतिया के पास भी नहीं मिला. इस महल्ले के सारे रास्ते उस के देखेभाले थे, वह रास्ता भी नहीं भूल सकता था. किसी के रोके वह रुकने वाला नहीं था.

दादाजी ने आशंका व्यक्त की, ‘‘किसी ने बांध लिया होगा…बेचारा कैसे आएगा?’’

नई पीढ़ी ने इस आशंका को व्यर्थ माना, ‘‘उसे बांधना सहज नहीं है. वह बांधने वालों का हुलिया बिगाड़ देगा.’’

‘‘दोचार ने मिल कर बांधा होगा तो वह बेचारा क्या करेगा, असहाय हो जाएगा,’’ दादाजी ने हताश स्वर में कहा.

नई पीढ़ी ने उन की इस चिंता पर भी ध्यान न दिया तो वे बोले, ‘‘नगर निगम वालों ने कहीं न पकड़ लिया हो?’’

दादाजी के पुत्र झल्लाए, ‘‘कैसे पकड़ लेंगे…उस के गले में लाइसैंस का पट्टा है.’’

‘‘फिर भी देख आने में क्या हर्ज है?’’ दादाजी ने झल्लाहट की परवा न करते हुए सलाह दी.

पुत्र ने सहज स्वर में उत्तर दिया, ‘‘देख लेंगे.’’

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दूसरे रोज भी दिन भर सीजर की तलाश होती रही. नई पीढ़ी ने दूरदूर तक उसे खोजा मगर उस का कहीं पता न लगा. वह जैसे जमीन में समा गया था. दादाजी सड़क की ओर आंखें लगाए बाहर बरामदे में ही डटे रहे. हर आहट पर उन्हें यही लगता रहा कि सीजर अब आया, तब आया.

दिन ढलने तक भी सीजर का जब कोई पता नहीं लगा तो दादाजी ने आदेश दिया, ‘‘जाओ, समाचारपत्रों में चित्र सहित इश्तहार निकलवाओ. लिखो कि सीजर को लाने वाले को 100…नहीं, 200 रुपए इनाम देंगे.’’

नई पीढ़ी भी इश्तहार निकलवाने का विचार कर रही थी. किंतु वे लोग यह सोच रहे थे कि एक दिन और रुक जाएं. किंतु दादाजी तकाजे पर तकाजे करने लगे, ‘‘जाओ, नहीं तो सुबह के अखबार में इश्तहार नहीं निकलेगा.’’

दादाजी का बड़ा पोता सीजर का चित्र ले कर चला तो उन्होंने मसौदा बना कर दिया. साफसाफ लिखा, ‘सीजर का पता देने वाले को या उसे लाने वाले को 200 रुपए इनाम में दिए जाएंगे.’

आधी रात के बाद बाहर के बड़े लोहे के फाटक पर ‘खरर…खरर’ की ध्वनि हुई तो बरामदे में सो रहे दादाजी ने चौंक कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

कोई उत्तर नहीं मिला, तो उन्होंने फिर तकिए पर सिर टिका दिया. कुछ देर बाद फिर ‘खरर…खरर’ की आवाज आई. दादाजी ने फिर सिर ऊंचा कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

इस बार खरर…खरर ध्वनि के साथ सीजर का चिरपरिचित स्वर हौले से गूंजा, ‘भू…भू…’

इस स्वर को दादाजी ने फौरन पहचान लिया. वे खुशी में पलंग से उठने का प्रयास करते हुए गद्गद कंठ से बोले, ‘‘सीजरिया, बेटा आ गया तू.’’

गठिया के कारण वे फुरती से उठ नहीं पाए. घुटनों पर हाथ रखते हुए जैसेतैसे उठे. बाहर की बत्ती जलाई, बड़े गेट पर दोनों पंजे टिका कर खड़े सीजर पर नजर पड़ते ही वे बोले, ‘‘आ रहा हूं, बेटा.’’

बरामदे के दरवाजे का ताला खोलते- खोलते उन्होंने भीतर की ओर मुंह कर समाचार सुनाया, ‘‘सीजरिया आ गया… सुना, सीजरिया आ गया है.’’

घर भर के लोग बिस्तर छोड़छोड़ कर लपके. दादाजी ने बड़ा फाटक खोला, तब  तक सभी बाहर आ गए. फाटक खुलते ही सीजर तीर की तरह भीतर आया. दुम हिलाते हुए वह सभी के कंधों पर अगले पंजे रखरख कर खड़ा होने लगा. कभी इस के पास तो कभी उस के पास जाने लगा. मुंह के पास अपना मुंह लाला कर दयनीय मुद्रा बनाने लगा. तरहतरह की अस्पष्ट सी ध्वनियां मुंह से निकालने लगा.

कीचड़ सने सीजर के बदन पर खून के धब्बे तथा जख्म देख कर सभी दुखी थे. दादाजी ने विगलित कंठ से कहा, ‘‘बड़ी दुर्दशा हुई सीजरिया की.’’

नई पीढ़ी ने सीजर को नहलायाधुलाया, उस के जख्मों की मरहमपट्टी की, खिलायापिलाया. दादाजी विलाप करते रहे, ‘‘नालायक को इन्फैक्शन न हो गया हो?’’

देर रात को सीजर आ कर दादाजी के पैरों में सोया तो वे उसे सहलाते हुए बोले, ‘‘बदमाश, बाड़ कूद कर चला गया था.’’

सुबह अखबार में सीजर की तसवीर आई. उस तसवीर को सीजर को दिखाते हुए दादाजी चहके, ‘‘देख, यह कौन है? पहचाना? बेटा, अखबार में फोटो आ गया है तेरा…बड़े ठाट हैं तेरे.’’

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और ‘तोड़’ टूट गई

मैं 3 महीने से उस आफिस का चक्कर लगा रहा था. इस बार इत्तेफाक से मेरे पेपर्स वाली फाइल मेज पर ही रखी दिख गई थी. मेरी आंखों में अजीब किस्म की चमक सी आ गई और मुन्नालालजी की आंखों में भी.

‘‘मान्यवर, मेरे ये ‘बिल’ तो सब तैयार रखे हैं. अब तो सिर्फ ‘चेक’ ही बनना है. कृपया आज बनवा दीजिए. मैं पूरे दिन रुकने के लिए तैयार हूं,’’ मैं ने बड़ी ही विनम्रता से निवेदन किया.

उन्होंने मंदमंद मुसकान के साथ पहले फाइल की तरफ देखा, फिर सिर पर नाच रहे पंखे की ओर और फिर मेरी ओर देख कर बोले, ‘‘आप खाली बिल तो देख रहे हैं पर यह नहीं देख रहे हैं कि पेपर्स उड़े जा रहे हैं. इन पर कुछ ‘वेट’ तो रखिए, नहीं तो ये उड़ कर मालूम नहीं कहां चले जाएं.’’

मैं ‘फोबोफोबिया’ का क्रौनिक पेशेंट ठहरा, इसलिए पास में रखे ‘पेपरवेट’ को उठा कर उन पेपर्स पर रख दिया. इस पर मुन्नालालजी के साथ वहां बैठे अन्य सभी 5 लोग ठहाका लगा कर हंस पड़े. मैं ने अपनी बेचारगी का साथ नहीं छोड़ा.

मुन्नालालजी एकाएक गंभीर हो कर बोले, ‘‘एक बार 3 बजे आ कर देख लीजिएगा. चेक तो मैं अभी बना दूंगा पर इन पर दस्तखत तो तभी हो पाएंगे जब बी.एम. साहब डिवीजन से लौट कर आएंगे.’’

मैं ने उसी आफिस में ढाई घंटे इधरउधर बैठ कर बिता डाले. मुन्नालालजी की सीट के पास से भी कई बार गुजरा पर, न ही मैं ने टोका और न ही उन्होंने कोई प्रतिक्रिया जाहिर की. ठीक 3 बजे मेरा धैर्य जवाब दे गया, ‘‘बी.एम. साहब आ गए क्या?’’

‘‘नहीं और आज आ भी नहीं पाएंगे. आप ऐसा करें, कल सुबह साढ़े 11 बजे आ कर देख लें,’’ उन्होंने दोटूक शब्दों में जवाब दिया.

वैसे तो मैं काफी झल्ला चुका था पर मरता क्या न करता, फिर खून का घूंट पी कर रह गया.

मैं ने वहां से चलते समय बड़े अदब से कहा, ‘‘अच्छा, मुन्नालालजी, सौरी फौर द ट्रबल, एंड थैंक यू.’’ पर मेरा मूड काफी अपसेट हो चुका था इसलिए एक और चाय पीने की गरज से फिर कैंटीन में जा पहुंचा. संयोग ही था कि उस समय कैंटीन में बिलकुल सन्नाटा था. उस का मालिक पैसे गिन रहा था. जैसे ही मैं ने चाय के लिए कहा, वह नौकर को एक चाय के लिए कह कर फिर पैसे गिनने लगा.

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मैं ने सुबह से 3 बार का पढ़ा हुआ अखबार फिर से उठा लिया. अभी इधरउधर पलट ही रहा था कि वह पैसों को गल्ले के हवाले करते हुए मेरे पास आ बैठा, ‘‘माफ कीजिएगा, मुझे आप से यह पूछना तो नहीं चाहिए, पर देख रहा हूं कि आप यहां काफी दिनों से चक्कर लगा रहे हैं, क्या मैं आप के किसी काम आ सकता हूं?’’ कहते हुए उस ने मेरी प्रतिक्रिया जाननी चाही.

‘‘भैया, यहां के एकाउंट सैक्शन से एक चेक बनना है. मुन्नालालजी 3 महीने से चक्कर लगा रहे हैं,’’ मैं ने कहा.

‘‘आप ने कुछ तोड़ नहीं की?’’ उस ने मेरी आंखों में झांका.

‘‘मैं बात समझा नहीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘बसबस, मैं समझ गया कि क्या मामला है,’’ उस ने अनायास ही कह डाला.

‘‘क्या समझ गए? मुझे भी तो समझाइए न,’’ मैं ने सरलता से कहा.

‘‘माफ कीजिएगा, या तो आप जरूरत से ज्यादा सीधे हैं या फिर…’’ वह कुछ कहतेकहते रुक गया.

‘‘मैं आप का मतलब नहीं समझा,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे, ऐसे कामों में कुछ खर्चापानी लगता है जिस को कुछ लोग हक कहते हैं, कुछ लोग सुविधाशुल्क कहते हैं और कुछ लोग ‘डील’ करना कहते हैं. यहां दफ्तर की भाषा में उसे ‘तोड़’ कहा जाता है.’’

‘‘तो इन लोगों को यह बताना तो चाहिए था,’’ मैं ने उलझन भरे स्वर में कहा.

‘‘यह कहा नहीं जाता है, समझा जाता है,’’ उस ने रहस्यात्मक ढंग से बताया.

‘‘ओह, याद आया. आज मुन्नालालजी ने मुझ से पेपर्स पर ‘वेट’ रखने के लिए कहा था. शायद उन का मतलब उसी से रहा होगा,’’ मैं ने उन को बताया.

‘‘देखिए, किसी भी भौतिक वस्तु में जो महत्त्व ‘वेट’ यानी भार का है वही महत्त्व भार में गुरुत्वाकर्षण शक्ति का है. आप गुरुत्वाकर्षण का मतलब समझते हैं?’’ उस ने पूछा.

‘‘हां, बिलकुल, मैं ने बी.एससी. तक फिजिक्स पढ़ी है,’’ मैं ने कहा.

‘‘तो यह रिश्वत यानी वेट यानी डील यानी सुविधाशुल्क उसी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के जैसा काम करता है. बिना इस के वेट नहीं और बिना वेट के पेपर्स उड़ेंगे ही. वैसे आप का कितने का बिल है?’’ वह गुरुत्वाकर्षण का नियम समझाते हुए पूछ बैठा.

‘‘60,400 रुपए का,’ मैं ने झट से बता दिया.

‘‘तो 6 हजार रुपए दे दीजिए, चेक हाथोंहाथ मिल जाएगा,’’ वह बोला.

‘‘पर यह दिए कैसे जाएं और किसे?’’

‘‘मुन्नालालजी को यहां चाय के बहाने लाएं. उन के हाथ में 6 हजार रुपए पकड़ाते हुए कहिए, ‘यह खर्चापानी है.’ फिर देखिए कि चेक 5 मिनट के अंदर मिल जाता है कि नहीं,’’ कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ.

मैं ने उसी बिल्ंिडग में स्थित ए.टी.एम. से जा कर 7 हजार रुपए निकाले. उस में से 1 हजार अपने अंदर वाले पर्स में रखे और बाकी बाईं जेब में रख कर मुन्नालालजी के पास जा पहुंचा तथा जैसे मुझे चाय वाले ने बताया था मैं ने वैसा ही किया. मैं चेक भी पा गया था पर लौटते समय मैं ने उस कैंटीन वाले को शुक्रिया कहना चाहा.

उस ने मुझे देखते ही पूछा, ‘‘चेक मिला कि नहीं?’’

‘‘साले ने 6 हजार रुपए लिए थे. चेक कैसे न देता?’’ मेरे मुंह से निकल गया.

मैं वहां से बाहर आ कर गाड़ी स्टार्ट करने वाला ही था कि एक चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘मांगेरामजी, आप को मुन्नालालजी बुला रहे हैं.’’

पहले मैं ने सोचा कि गाड़ी स्टार्ट कर के अब भाग ही चलूं, पर जब उस ने कहा कि चेक में कुछ कमी रह गई है तो मैं ने अपना फैसला बदल लिया.

जैसे ही मैं मुन्नालालजी के पास पहुंचा वे बोले, ‘‘अभी आप को फिर से चक्कर लगाना पड़ता. उस चेक में एक कमी रह गई है.’’

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मैं ने खुशीखुशी चेक निकाल कर उन को दिया. उन्होंने उसे फिर से दबोच लिया. फिर मेरे दिए हुए 6 हजार निकाल कर मेरी ओर बढ़ा कर बोले, ‘‘ये आप के पैसे आप के पास पहुंच गए और यह मेरा चेक मेरे पास आ गया. अब आप जहां और जिस के पास जाना चाहें जाएं, कोर्ट, कचहरी, विधानसभा, पार्लियामैंट, अखबारों के दफ्तर या अपने क्षेत्र के दादा के पास. तमाम जगहें हैं.’’

हाथ में आई मोटी रकम यों फिसल जाएगी यह सोच कर मैं ने मायूसी व लाचारगी से मुन्नालाल को देखा पर कुछ बोला नहीं. मेरे मन में तोड़ की टूटी कड़ी को फिर से जोड़ने की जुगत चल रही थी.

Serial Story: अहिल्या (भाग-3)

अब तुहिना को वाकई इधरउधर डोलने के सिवा कोई काम नहीं था. सो, वह अब हर कमरे को खोलखोल कर देखने लगी. हवेली के पिछवाड़े में खलिहान था, जहां शायद फसल कटने पर रखी जाती थी. अनाज की कोठरियां थीं और बड़ा सा गौशाला भी, जहां कई मजदूर लोग थे, जो वहां मौजूद दसियों गायों की देखभाल करते थे.

तुहिना ने सब पता किया, दूध हर दिन विशेष गाड़ी से पटना स्थित एक डेरी फार्म में जाता था और अनाज की बोरियां भी ट्रकों में भर मंडियों मे बिकने जाती थीं. अब तक थैली में दूध खरीदने वाली आश्चर्य से अपनी मिल्कीयत देख रही थी.

एक बात उसे अजीब लगती कि उस की सास अपने पति यानी उस के ससुर से परदा करती थी, जबकि तुहिना को कुछ भी मनाही नहीं थी.

एक दिन तुहिना ने सुबहसुबह देखा था, आंगन में ससुरजी कुरसी पर बैठे थे और सास एक बहीनुमा खाते को खोल कर कुछ बता रही थीं. वह ऊपर तले की मुंडेर से नीचे झांक रही थी, पूरे वक्त उस की सास कुछ समझाने का प्रयास कर रही थीं.

उस ने यह भी देखा कि उन्होंने बहुत सारे रुपए एक पोटली में जो बंधे हुए थे, उन के हाथ में दिए. ससुरजी ने न उसे गिना या ठीक से देखा, उसे फिर से बांध सास के ही हाथ में थमा दिए. वे बिलकुल वैसे ही कर रहे थे, जैसे अंकुर से कुछ जबरदस्ती करवाओ तो करता है. वह हावभाव से समझ रही थी ऊपर से.

दीवाली का दिन था. अंकुर दोपहर में खाना खा कर फिर सो गया था. उस के ससुरजी नीचे पूजा वाले कमरे में थे और तुहिना रसोई के बगल वाले स्टोर रूम में घुस कर संदूकों और बक्सों को खोलखोल कर देख रही थी. बहुत पुरानेपुराने कपड़े थे, कई बक्सों में तो सिर्फ साड़ियां भरी हुई थीं. भारीभारी बनारसी साड़ियां थीं ज्यादातर.

एक लकड़ी की सुंदर सी अलमारी थी, उस में बहुत सारी ब्लैक ऐंड व्हाइट तसवीरें थीं. एक संदूक था, जिसे खोलना तुहिना को आ ही नहीं रहा था. वह दीवाल में लगा हुआ था और उस के दरवाजे पर अंदर घुसा कर खोलने वाले ताले थे.

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चर्रमर्र की आवाज से मम्मी भी वहां आ कर खड़ी हो गई थीं. पहले तो तुहिना को भान ही नहीं हुआ, फिर जब देखा कि वे उसे ही मूक हो देख रही हैं, तो तुहिना थोड़ी झेंप सी गई. क्या सोच रही होंगी वे कि कैसी लड़की है सबकुछ मानो देख ही लेगी. तुहिना झट से हाथ में पकड़ी तसवीर को अलमारी में रखने लगी.

“रुको बहू, मैं खुद तुम्हें इस कमरे में लाना चाह रही थी, पर तुम्हारे ससुरजी राजी नहीं हो रहे थे,“ सासू मां ने कहा, तो वह थम गई.

उस के बाद देर तक वे उसे अलमारी के फोटो दिखाती रहीं, बताती रहीं, सुनाती रहीं. संदूक खोल कर उसे दिखाया, जिस में सोनेचांदी, हीरेमोती के गहने भरे पड़े थे.

एक लाल बनारसी साड़ी उस में से निकाल कर उसे पहना दी और गहनों से लाद दिया ऊपर से नीचे तक.

तुहिना किंकर्तव्यविमूढ़ हो सब करती रही. शाम हो चली थी. उसे ले कर वे पूजाघर में पहुंचा आईं और खुद बाहर जा कर बैठ दीयाबाती की तैयारी करने लगीं.

अंकुर भी कुरतापाजामा में सजीला बन पूजाघर में आ बैठा, पापाजी तो थे ही. देर रात तक पूजा चली, फिर सब ने मां के हाथ के पकवानों को चाव से खाया, मम्मी बारबार आंखें पोंछ रही थीं.

दूसरे दिन सुबह तीनों पटना के लिए निकल पड़े. अंकुर मां के गले लग कर रोने वाला इस बार अकेला नहीं था, तुहिना भी उसी व्यग्रता से रो रही थी.

पापाजी कार में पहले ही जा बैठे थे. लौटते वक्त रास्तेभर शायद ही किसी ने आपस में बातें की होंगी मानो सब गमगीन हों. पर तुहिना अब तक सुन रही थी, गुन रही थी, जो उस दोपहरी मम्मी ने उसे बताया था, “दुलहन ई सब संभाल लो, अब मुझ से नहीं होता है. न… न, ई फोटो को नहीं रखो अंदर. पहले इन्हें ध्यान से देखो, प्रणाम करो इन को. ये ही तुम्हारी सास हैं ‘राधा’, अंकुर को जन्म देने वाली. मैं तो राधा दीदी के मायके से आई अनाथ हूं, जो राधा के संग उस के ब्याह के साथ ही आई थी उस की देखभाल करने. क्या जानती थी कि ऐसा हो जाएगा कि सब चले जाएंगे और मैं ही रह जाऊंगी देखभाल करती हुई सबकुछ. सबकुछ है इस घर में, बस रहने वाले आदमी ही नहीं हैं. अंकुर के पिता भी अकेले थे, उस के दादा भी अकेली संतान ही थे.“

फिर उन्होंने तुहिना को वह बात बताई, जिस से अंकुर भी अनजान है, “अंकुर को जन्म देने के बाद से ही राधा दीदी बीमार रहने लगी थीं. अंकुर के 6 महीने का होतेहोते वे चल बसीं. अब इत्ते बड़े घर में रह गए अंकुर के पापा और दादाजी और नन्हा सा अंकुर. मैं कहां जाती. मैं बच्चे को सीने से लगा कर पालने लगी, जब तक अंकुर के दादाजी रहे, वे कोशिश करते रहे कि मेरी शादी हो जाए, पर न मेरी शादी हुई और न अंकुर के पापा ने दूसरी शादी की.

“हम अंकुर के मांबाप जरूर थे, पर पतिपत्नी नहीं. बचपन में अंकुर यहीं गांव के स्कूल में पढ़ता रहा, फिर कुछ बड़ा होने पर ठाकुर साहब पटना में बैंक की नौकरी करने लगे. कारण, यहां गांव में लोग तरहतरह की बातें करने लगे थे हम दोनों को ले कर.

“फिर अंकुर को आगे अच्छी तालीम भी तो देनी थी, इतना बड़ा आदमी अपना सबकुछ मुझ दाई के हाथों सौंप कर एक छोटी सी नौकरी करने लगा. अंकुर की मां बन मैं यहीं इस घर में रह गई, राधा की अमानत समझ संभालती रही. सुनती भी रही जमाने के जहरीले बोल, ठाकुर साहब तो मुझ से हिसाब भी न पूछते, पर मैं कैसे कुछ गलत करती. आखिर सब मेरे बेटे अंकुर का ही तो है. पर अब अकेलापन हावी होने लगा है, ये सब धनदौलत तुम लोगों का ही है, दुलहन अब संभालो अपनी अमानत.

“अंकुर मुझे मां समझता है, बस यही भरम मेरे जीने के लिए बहुत है. उम्मीद है दुलहन, तुम हमेशा उस की मां को जिंदा रखोगी कम से कम जब तक मैं जिंदा हूं. मत तोड़ना ये भरम,” मम्मी हाथ जोड़ कर कहने लगी थीं.

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कार पटना एयरपोर्ट पहुंचने को थी, तुहिना को अपना कहा याद आ रहा था, जिसे उसे जल्दी ही पूरा करना भी है, “मां, अब आप अकेली नहीं हैं. आप यहां जितना होता है समेट दें. बहुत काम कर लिया, अब आप अपने बेटेबहू के संग रहेंगी, बस अगले महीने मैं फिर आ कर आप को ले जाऊंगी.”

तुहिना सोच रही थी कि अचानक ध्यान आया कि मम्मी का नाम तो उस ने पूछा ही नहीं, अवश्य उन का नाम ‘अहिल्या’ ही होगा.

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