Serial Story: अहिल्या (भाग-2)

अंकुर बीचबीच में अपनी मां को बता रहा था कि वे लोग कहां तक पहुंचे या कितनी देर में पहुंच जाएंगे.

रास्ते में पहली बार तुहिना अपने ससुरजी से भी इतनी घुलमिल कर बातें करती जा रही थी. उस के ससुरजी काफी लंबे बलिष्ठ कदकाठी के व्यक्ति थे, जिन पर उम्र अपनी छाप नहीं लगा पाई थी अब तक.

जब कार लंबीचैड़ी बाउंड्री वाल को पार करती हुई एक दरवाजे के सामने जा कर रुकी तो तुहिना हैरान रह गई उस दरवाजे को देख कर.

अर्धगोलकार बड़े से उस नक्काशीदार लकड़ी के दरवाजे के ऊपर महीन काष्ठकारी की हुई थी, दरवाजा तो इतना बड़ा था मानो उस में से हाथी निकल जाए. अवश्य इन दरवाजों का प्रयोग हाथी घुसाने के लिए किया जाता होगा, वह अब तक मुंहबाएं दरवाजे को ही देख रही थी कि अंकुर ने कुहनी मारी. सामने उस की सासू मां खड़ी थीं, आरती का थाल ले कर.

गोल सा चेहरा, गेंहुआ रंगत, मझोला कदकाठी, उलटे पल्ले की गुलाबी रेशमी साड़ी पहनी उस की सासू मां ने उसे सिंदूर का टीका लगाया, बेटेबहू दोनों की आरती उतारी और लुटिया में भरे जल को 3 बार उन के ऊपर वार कर अक्षत के साथ ढेर सारे सिक्के हवा में उछाल दिए.

गांव की मुहानी से कार के पीछेपीछे दुलहन देखने को उत्सुक दौड़ते बच्चे झट उन्हें लूटने लगे. यह तो अच्छा हुआ था कि तुहिना ने आज सलवारकुरती और दुपट्टा पहना हुआ था, वरना बड़ी शर्म आती कि सासू मां सिर पर पल्लू लिए हुए हों और बहू जींसटौप में.

अंकुर ने कुछ भी नहीं बताया था, वह पूछती रह गई थी कि वह क्या पहने, कैसे कपड़े ले कर वह गांव चले.

उस की सासू मां उस से सब नई दुलहन वाले नेग करवा रही थी. जब उस ने अंदर प्रवेश किया तो वह चकित रह गई कि घर कितना बड़ा है. उसे घर नहीं हवेली, कोठी या महल ही कहना चाहिए.

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सारी जिंदगी फ्लैट में रहने वाली तुहिना ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की ससुराल का घर इतना विशाल होगा. मुख्य दरवाजे को पार कर बड़ा सा दालान था, उस के बाद एक बहुत बड़ा सा आंगन था. आंगन बीचोंबीच था और उस के चारों तरफ कमरे दिखाई दे रहे थे. आंगन और फिर दालान पार कर दो कोनों पर सीढ़ियां दिखाई दे रही थीं, वहीं तीसरे कोने में एक मंदिर था. एक तरफ जहां उसे सिर नवाने के लिए ले जाया गया, वहां उस ने देखा कि सासू मां बाहर ही रुक गईं और ससुर उन दोनों को देवताघर में ले गए.

घर के अंदर इतना सुंदर सा मंदिर, वहां एक पंडितजी भी बैठे हुए थे, जिन्होंने इन दोनों से कुछ पूजा, कुछ रस्म करवाई. फिर सासू मां तुहिना का हाथ पकड़ सीढ़ियों से ऊपर ले जाने लगीं, अंकुर को भी दुलारते हुए वे ले चलीं. तीसरे तले तक पहुंचतेपहुंचते तुहिना हांफ गई थी.

“दुलहन, ये तुम्हारा कमरा है. अब तुम आराम करो.“

कोई उस का सामान वहां पहले ही पहुंचा चुका था. वह कमरा कहने को था, था तो पूरा हाल. शायद महानगरों के बहुमंजिले इमारतों का एक ‘2 बेडरूम फ्लैट’ इस में समा जाए. कमरे से निकली बालकनी, जिस की रेलिंग पर बहुत सुंदर नक्काशीदार काम था. झरोखेनुमा खिड़कियां अलग मन मोह रही थीं.

तुहिना कमरे का मुआयना कर ही रही थी कि उस ने देखा अंकुर मां की गोदी में सिर रख लेट चुका था. मां उस का सिर सहलाते हुए कह रही थीं, “ये घर आज घर लग रहा है, वरना मैं अकेले एक कोने मे पड़ी रहती हूं. वर्षों से रंगरोगन नहीं हुआ था और न ही मरम्मत. जब शादी की खबर मिली, तो मैं ने झट मरम्मत का काम शुरू करवाया, पर इतना बड़ा घर, काम पूरा ही नहीं हुआ.

“मेरी इच्छा थी कि तेरी बहू को मैं साफसुथरे घर में ही उतारूंगी. उस भूतिया हो चुके घर में नहीं. अभी 2 दिन पहले ही तो मजदूरों ने अपने बांसबल्लियां यहां से हटाए हैं. बहू के आने से आज घर में मानो रौनक आ गई.”

“अच्छा तो ये राज है उस अचानक हनीमून पैकेज का,” तुहिना ने मुसकराते हुए सोचा.
फिर अंकुर की मां ने तुहिना को पास बुला कर चाबियों का गुच्छा थमाते हुए कहा, “लो संभालो अपनी जिम्मेदारी, अब मैं थक चुकी हूं. मैं ने वर्षों इंतजार किया कि कब अंकुर की बहू आएगी, जो ये सब घरगृहस्थी संभालेगी.“

उन के ऐसे बोलते ही तुहिना को मानो बिच्छू ने काट लिया. उस ने बेबसी से अंकुर की तरफ देखा. अंकुर ने उस के भाव समझते हुए कहा, “मां, ये बस आप ही संभाल सकती हैं. तुहिना नौकरी करती है, उसे छोड़ वह कहां इन सब झमेलों में रहने आएगी,” अंकुर ने मां को गुच्छा लौटाते हुए कहा.

“अच्छा, जब तक है तब तक तो संभाले, सबकुछ देखेसमझे,” कहती हुई वे चाबियां वहीं छोड़ कर चली गईं.

उस दिन तो थकान उतारने में ही बीत गया. अगले दिन तुहिना हवेली में घूमघूम कर देखने लगी सबकुछ. कौतूहलवश हर झरोखे से झांकती, हर खंबे के पास खड़ी हो सेल्फी लेती, तो कभी बंद दरवाजे की ही खूबसूरती को अपने मोबाइल कैमरे में कैद करती. चाबी के गुच्छे को भी वह हैरानी से देखती. वैसे तालाचाबी तो अब दिखते भी नहीं. कम से कम तुहिना ने तो नहीं ही देखा था. हर कमरे पर बड़ा सा ताला लटका हुआ था. उस बड़े से ताले को देख उसे किसी लटके चेहरे वाले बूढ़े की याद आ रही थी. दीवाली में अभी 2 दिन और थे, पर घर तो उसी दिन से सजा हुआ था, जिस दिन से वे सब आए थे.

अंकुर देर तक सोता रहता और तुहिना को समझ आ रहा था कि अंकुर घर सिर्फ सोने और खाने ही आता है. शायद उसे भी सभी कमरों की कोई जानकारी नहीं थी.

“अंकुर उठो न… मैं बोर हो रही हूं, सुबह के 11 बजने को आए और तुम अभी भी उठ नहीं रहे,” तुहिना ने अंकुर को हिलाने का असफल प्रयास किया. हार कर वह चौके के दरवाजे को पकड़ कर खड़ी हो गई. वहां मम्मी खाना बनाने में बिजी थीं, सब की पसंद के पकवान बन रहे थे.

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“जब सब घर आते हैं तभी इस रसोई के भाग जागते हैं, वरना मैं उधर अपने कमरे में ही कुछ पका लेती हूं. अब सीढ़ियां भी तो चढ़ी नहीं जाती हैं. न… न बिटिया, तुम रहने दो, अपने घर पर तो करती ही होंगी, कुछ दिन यहां मेरे हाथ के खाने का स्वाद लो.

“जा बिटिया घूमोफिरो, अपने घर को देखोसमझो… अंकुर तो कभी देखता ही नहीं और न ही उस के बाबा. तुम संभाल लो तो मेरी जिम्मेदारी खतम हो,” तुहिना को हाथ बंटाने के लिए आते देख उन्होंने टोक दिया.

“बेटी, तुम किस्मत वाली हो, जो ऐसे सासससुर मिले तुम्हें,” तुहिना की मां फोन पर उसे बोलती.

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Serial Story: अहिल्या (भाग-1)

आज अरमानों के पूरे होने के दिन थे, स्वप्निल गुलाबी पंखड़ियों सा नरम, खूबसूरत और चमकीला भी, तुहिना और अंकुर की शादी का दिन.

ब्यूटीपार्लर में दुलहन बनती तुहिना बीते वक्त को यादों के गलियारों से गुजरती पार करने लगी.

वे दोनों इंजीनियरिंग फाइनल ईयर में दोस्त बने थे, जब उन दोनों की एक ही कंपनी में नौकरी लगी थी कैंपस प्लेसमैंट में. फिर बातें होनी शुरू हुईं, नई जगह जाना, घर खोजना और एक ही औफिस में जौइन करना. दोनों ने ही औफिस के पास ही पीजी खोजा और फिर जीवन की नई पारी शुरू की.

फिर हर दिन मिलना, औफिस की बातें करना, बौस की शिकायत करना वगैरह. कभीकभी शाम को साथ में नाश्ता करना या सड़क पर घूमना.

धीरेधीरे दोस्ती का स्वरूप बदलने लगा था. अब घरपरिवार की पर्सनल बातें भी शेयर होने लगी थीं. दोनों ही अपने परिवार में इकलौते बच्चे थे और दोनों के ही पिता नौकरीपेशा.

हां, तुहिना की मम्मी भी जहां एक कालेज में पढ़ाती थीं, वहीं अंकुर की मम्मी गांव की सीधी, सरल महिला थीं और वे गांव में ही रहती थीं. अंकुर के पिताजी शहर में अकेले ही रहते थे और अंकुर की छुट्टियां होने पर दोनों साथ ही गांव जाते थे. दोनों 4-5 दिनों के लिए ही जाते और फिर शहर लौट आते.

“तुम्हारी मम्मी साथ क्यों नहीं रहतीं?” तुहिना ने एक मासूम सा सवाल पूछा था.

“दरअसल, गांव में हमारी बहुत प्रोपर्टी है. सैकड़ों एकड़ खेत, खलिहान और गौशाला इत्यादि भी. फिर घर भी बहुत बड़ा है, जैसे पीजी में मैं अभी रह रहा हूं, वैसी तो हमारी गौशाला भी नहीं है. मां वहां रह कर सब की देखभाल करती हैं. सालभर तो एक न एक फसल काटने और रोपने की जिम्मेदारी रहती है. उन सब को कौन देखेगा, यदि मां शहर में आ जाएंगी. हमारे घर आने का तो वे बेसब्री से इंतजार करती हैं. आज भी वे छोटे बच्चे की ही तरह मुझे दुलारती हैं,“ अंकुर ने बताया था.

“अच्छा तो तुम खेतिहर बैक ग्राउंड से हो? मैं ने तो कभी गांव देखा नहीं. हां, मैं ने गांव फिल्मों में जरूर देखा है. दादादादी या नानानानी सब शहर में ही रहे हैं और मेरी अब तक की जिंदगी फ्लैट में ही कटी है,” तुहिना ने विस्फारित नयनों से कहा.

“अच्छा, शादी होने दो तो तुम भी गांव देख लेना, वो भी अपना वाला,” अंकुर ने हंसते हुए कहा, तो तुहिना चौंक गई, “शादी…? क्या तुम मुझे प्रपोज कर रहे हो? इस तरह भला कोई पूछता है?”

तुहिना ने आश्चर्यमिश्रित खुशी से चीखते हुए पूछा.

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“अब मैं ठहरा गांव का गंवई आदमी, मुझे इन बातों की ज्यादा समझ नहीं. पर, मैं बाकी जिंदगी तुम्हारे साथ ही रहना चाहूंगा, क्या हम शादी कर लें?” अंकुर ने तुहिना की हथेली को अपने हाथों में लेते हुए कहा.

ब्यूटीपार्लर में बैठी तुहिना के दिमाग में रील की तरह ये सब घूम रहा था. कितनी आननफानन में फिर सारी बातें तय हो गईं. नौकरी के एक साल होतेहोते दोनों शादी के बंधन में बंधने जा रहे हैं, यह सोच कर तुहिना रोमांचित हो रही थी. दोनों के ही घर वालों को कोई आपत्ति नहीं हुई थी.

तुहिना के मम्मीपापा तो यह सुन कर खुश ही हुए थे कि अंकुर की पृष्ठभूमि इतनी मजबूत है. अंकुर के पिताजी जो पटना में एक बैंक में काम करते थे, तुहिना से मिलने बैंगलुरु चले गए और तुहिना के मातापिता भी उसी वक्त बैंगलुरु जा कर उन लोगों से मिल लिए.

ऐसा लगा मानो सबकुछ पहले से तय हो, बस औपचारिकता पूरी करनी रह गई थी. अब बरात दिल्ली, तुहिना के घर कब आएगी, ये सब तय होना था.

तुहिना के मम्मीपापा जहां डरे हुए थे कि न जाने अंकुर के पिता की क्या मांग हो, कितनी दहेज की इच्छा जाहिर करेंगे, पर हुआ इस के ठीक उलट ही. उन्होंने ऐसी कोई भी मांग या विशेष इच्छा जाहिर नहीं की, बल्कि दो महंगे सेट भारीभरकम जड़ाऊ वाले तुहिना को आशीर्वाद में दिए.

तुहिना का मेकअप अब समाप्तप्रायः ही था, तुहिना ने जल्दी से अपना मोबाइल निकाला और 4-5 सेल्फी ली. बरात में गिनेचुने लोग ही आए थे और शादी में अधिक मेहमान तो तुहिना की ही तरफ के थे. महिलाएं तो एक भी नहीं आई थीं, क्योंकि अंकुर के गांव में महिलाएं बरात में नहीं जाती हैं, ऐसा ही कुछ उस के पिताजी ने बताया था.

शादी खूब अच्छी तरह से संपन्न हुई. विदा हो कर तुहिना उसी होटल में गई, जहां अंकुर के पापा ठहरे हुए थे. मोबाइल पर वीडियो काल पर अंकुर ने अपनी मां से उसे मिलवाया. सचमुच बेहद स्नेहिल दिख रही थीं उस की मां, बारबार उन की आंखें छलक रही थीं.

“मां, अब बस… हम तुम्हारे पास ही तो आ रहे हैं, तुम रोओ मत,“ अंकुर ने उन्हें भावविभोर होते देख कर कहा, तभी उस के पापा आ गए और काल समाप्त हो गई.

अंकुर के पापा बेहद खुश दिख रहे थे. उन्होंने बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और एक लिफाफा पकड़ाया.

“लो बच्चो, ये तुम दोनों को मेरी तरफ से शादी का गिफ्ट, यूरोप का 15 दिनों का हनीमून पैकेज. कल सुबह ही निकलना है यहीं दिल्ली से, सो तैयारी कर लो.”

तुहिना और अंकुर आश्चर्यचकित रह गए,

“पर पापा, फिर मां से मिलना कैसे होगा? हम घूमने बाद में भी तो जा सकते हैं,” अंकुर ने आनाकानी करते हुए कहा.

“घूम कर सीधे गांव ही आ जाना. अभी शादी एंजौय करो. गांव में तुम लोग बोर हो जाओगे,” अंकुर के पापा बोले.

इस तरह अंकुर और तुहिना फिर यूरोप टूर पर निकल गए. 15 दिन कैसे गुजर गए, दोनों को पता ही नहीं चला, सबकुछ एक स्वप्न की तरह मानो चल रहा हो. लौट कर दोनों सीधे बैंगलुरु ही चले गए. इस तरह तुहिना अपनी सासू मां से नहीं मिल पाई. तय हुआ कि 2 महीने बाद दीवाली के वक्त गांव चल जाएंगे दोनों.

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2 महीने बाद जब तुहिना पहली बार गांव जा रही थी तो उसे अंदर ही अंदर बहुत घबराहट हो रही थी. जाने कैसी होंगी अंकुर की मां, वहां लोग कैसे होंगे या फिर गांव का घर कैसा होगा. बैंगलुरु से वे लोग पटना पहुंचे और वहां से अंकुर के पापा के साथ वे लोग सड़क मार्ग से गांव की ओर चल दिए. कोई तीन साढ़े तीन घंटों में वे लोग गांव पहुंच गए. रास्ते की हरियाली उस का मन मोह रही थी, बरसात बीत चुकी थी. पेड़पौधे, खेत सब चमकदार हरे परिधान पहन नई दुलहन का मानो स्वागत कर रहे थे.

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Serial Story: पक्की सहेलियां (भाग-3)

इस तरह आपस में हायहैलो होते हुए भी एक अदृश्य सी दीवार खिंच गई थी दोनों में.

2 नारियां, पढ़ीलिखी, लगभग समान उम्र की पर बिलकुल विपरीत सोच और संस्कारों वाली. एक के लिए पति, बच्चा और घरगृहस्थी ही पूरी दुनिया थी तो दूसरी के लिए घर सिर्फ रहने और सोने का स्थान भर.

एक बार विनिता ने पंखुड़ी को पिछले 24 घंटों से कहीं आतेजाते नहीं देखा. पहले

सोचा कि उसे क्या, वह क्यों चिंता करे पंखुड़ी की? उस की चिंता करने वाले तो कई लोग होंगे या फिर आज कहीं जाने के मूड में नहीं होगी स्मार्ट मैडम. पर जब दिल नहीं माना तो बहाना कर के विहान को भेज दिया यह कह कर कि जाओ पंखुड़ी आंटी के साथ थोड़ी देर खेल आओ. मगर कुछ ही देर में विहान दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘मम्मी… मम्मी… मैं कैसे खेल सकता हूं आंटी के साथ, उन्हें तो बुखार है.’’

बुखार का नाम सुनते ही विनिता तुरंत पंखुड़ी के घर पहुंच गई. घंटी बजाई तो अंदर से धीमी आवाज आई, ‘‘दरवाजा खुला है. अंदर आ जाइए.’’

अंदर दाखिल होने पर विनिता ने देखा कि पंखुड़ी कंबल ओढ़े बिस्तर पर बेसुध पड़ी है. छू कर देखा तो तेज बुखार से बदन तप रहा था. चारों तरफ निगाहें दौड़ाईं, सारा घर अस्तव्यस्त दिख रहा था. एक भी सामान अपनी जगह नहीं. तुरंत भाग कर अपने घर आई, थर्मामीटर और ठंडे पानी से भरा कटोरा लिया और वापस पहुंची पंखुड़ी के पास. बुखार नापा, सिर पर ठंडे पानी की पट्टियां रखनी शुरू कीं. थोड़ी देर बाद बुखार कम हुआ और जब पंखुड़ी ने आंखें खोलीं तो विनिता ने पूछा, ‘‘दवाई ली है या नहीं?’’

पंखुड़ी ने न कहा और फिर इशारे से बताया कि दवा कहां रखी है? विनिता ने उसे बिस्कुट खिला दवा खिलाई और फिर देर तक उस का सिर दबाती रही. जब पंखुड़ी को थोड़ा आराम हुआ तो विनिता अपने घर लौट गई. आधे घंटे बाद वह ब्रैड और गरमगरम सूप ले कर पंखुड़ी के पास लौटी. उस के मना करने पर भी उसे बड़े प्यार से खिलाया. इस तरह पंखुड़ी के ठीक होने तक विनिता ने उस का हर तरह से खयाल रखा.

पंखुड़ी विनिता की नि:स्वार्थ सेवा देख शर्मिंदा थी. उसे अपनी इस सोच पर अफसोस हो रहा था कि विनिता जैसी हाउसवाइफ के पास कोई काम नहीं होता सिवा जासूसी करने और खाना पकाने के. अगर विनिता ने समय पर उस का हाल नहीं लिया होता तो पता नहीं उसे कितने दिनों तक बिस्तर पर रहना पड़ता.

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खैर, इस के बाद विनिता के प्रति पंखुड़ी का नजरिया बदल गया. अब जब भी विनिता के घर आती तो निशांत, विहान के साथसाथ विनिता से भी बातें करती. विनिता की संगति में रह कर अब उस ने अपने घर को भी सुव्यवस्थित रखना शुरू कर दिया था.

आजकल निशांत पहले से भी ज्यादा व्यस्त रहने लगा था. फिर एक दिन चहकता हुआ घर आया. चाय पीते हुए निशांत बता रहा था कि उस के काम से खुश हो कंपनी की तरफ से उसे फ्रांस भेजा जा रहा है प्रशिक्षण लेने के लिए. अगर वह अपने प्रशिक्षण में अच्छा करेगा तो अनुभव हासिल करने के लिए परिवार सहित 2 साल तक उसे फ्रांस में रहने का मौका भी मिल सकता है.

पति की इस उपलब्धि पर विनिता बहुत खुश हुई, लेकिन यह सुन कर कि प्रशिक्षण के दौरान निशांत को अकेले ही जाना है, उस का कोमल मन घबरा उठा. निशांत के बिना अकेले कैसे रह पाएगी वह विहान को ले कर? घर में भी कोई ऐसा फ्री नहीं है, जिसे 3 महीनों के लिए बुला सके. विनिता ने निशांत को बधाई दी फिर धीरे से कहा, ‘‘अगर फ्रांस जाना है तो हम दोनों को भी अपने साथ ले चलो वरना मैं तुम्हें अकेले नहीं जाने दूंगी, क्या तुम ने तनिक सोचा है कि तुम्हारे जाने के बाद यहां मैं अकेले विहान के साथ कैसे रह पाऊंगी 3 महीने?’’

भविष्य के सुनहरे ख्वाब देखने में डूबे निशांत को विनिता की यह बात जरा भी नहीं भाई. झल्लाते हुए कहा, ‘‘यह तुम्हारी समस्या है मेरी नहीं. कितनी बार कहा कि समय के साथ खुद को बदलो, नईनई जानकारी हासिल करो. बाहर का काम

निबटाना सीखो पर तुम ने तो इन कामों को भी औरतों और मर्दों के नाम पर बांट रखा है.

‘‘अब दिनरात मेहनत करने के बाद यह अवसर हाथ आया है तो क्या तुम्हारी इन बेवकूफियों के चक्कर में मैं इसे हाथ से गंवा दूं? हरगिज नहीं. अगर तुम अकेली नहीं रह सकती तो अभी चली जाओ विहान को ले कर अपनी मां या मेरी मां के घर. मेरी तो जिंदगी ही बरबाद हो गई ऐसी पिछड़ी मानसिकता वाली बीवी पा कर,’’ और फिर फ्रैश होने चला गया.

विनिता का दिल धक से रह गया. पति के इस कटु व्यवहार से उस की आंखों से आंसू बहने लगे. लगा उस की तो बसीबसाई गृहस्थी उजड़ जाएगी. साथ ही यह भी महसूस होने लगा कि निशांत भी क्या करे बेचारा, उस के कैरियर का सवाल है. दिल ने कहा इस स्थिति की जिम्मेदार भी काफी हद तक वह खुद ही है.

अब यह बात उस की समझ में आ चुकी थी कि वर्तमान समय में हाउसवाइफ को सिर्फ घर के अंदर वाले काम ही नहीं, बल्कि बाहर वाले जरूरी काम भी आने चाहिए. आज पढ़ीलिखी होने के बावजूद अपने को असफल, हीन और असहाय समझ रही थी. कारण घर के बाहर का कोई काम वह करने के लायक नहीं थी. इतनी बड़ी खुशी मिलने पर भी पतिपत्नी में तनाव उत्पन्न हो गया था.

अगले दिन चाय पीते समय पंखुड़ी भी वहां पहुंच गई. आते ही जोश के साथ निशांत को बधाई दी और पार्टी की मांग करने लगी.

निशांत का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ था. उस ने कहा, ‘‘अरे कैसी बधाई और कैसी पार्टी पंखुड़ी? मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा इस जिंदगी में कभी.’’

पंखुड़ी को निशांत की बात कुछ समझ नहीं आई. विनिता ने बात छिपानी चाही कि इस बिंदास लड़की से बताने का क्या फायदा, उलटे कहीं इस ने जान लिया तो खूब हंसी उड़ाएगी मेरी, पर गुस्से में निशांत ने अपनी सारी परेशानी पंखुड़ी को सुना

डाली.

विनिता तो मानो शर्म के मारे धरती के अंदर धंसी जा रही थी. मगर सारी बात ध्यान से सुनने के बाद पंखुड़ी हंसने लगी और फिर हंसतेहंसते ही बोली, ‘‘डौंट वरी निशांत, यह भी कोई परेशानी है भला? इस का समाधान तो कुछ दिनों में ही हो जाएगा. आप अपनी पैकिंग और मेरी पार्टी की तैयारी शुरू कर दीजिए.’’

निशांत हैरान सा पंखुड़ी का मुंह देखने लगा. विनिता की तरफ मुखातिब होते हुए पंखुड़ी ने कहा, ‘‘घबराने की कोई बात नहीं विनिता. अगर कुछ सीखने का पक्का निर्णय कर लिया हो तो आज से ही मैं तुम्हें इंटरनैट का काम सिखाना शुरू कर सकती हूं और निशांत के जाने के पहले धीरेधीरे बाहर के सारे काम भी मैं सिखा दूंगी,’’ और फिर अपना लैपटौप लेने अपने घर चली गई.

विनिता सन्न थी अपनी संकीर्ण सोच पर. जिस पंखुड़ी को वह तेजतर्रार और दूसरों का घर तोड़ने वाली लड़की समझती थी, वह इतनी जिम्मेदार और उसे ले कर इतनी संवेदनशील होगी, इस की तो कल्पना भी विनिता ने नहीं की थी.

मिनटों में पंखुड़ी वापस आ गई. अपना लैपटौप औन करते हुए बोली, ‘‘विनिता मैं तुम्हारी गुरु तो बनूंगी, पर एक शर्त है तुम्हें भी गुरु बनना पड़ेगा मेरी.’’

विनिता के मुंह से निकला, ‘‘भला वह क्यो?’’

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पंखुड़ी ने कहा, ‘‘देखो, तुम्हें देख कर मैं ने भी अपना घर बसाने का फैसला कर लिया है, पर घरगृहस्थी के काम में मैं बिलकुल जीरो हूं. मैं ने महसूस किया है अगर आज के जमाने में हाउसवाइफ के लिए बाहर का काम सीखना जरूरी होता है तो उसी तरह सफल और शांतिपूर्ण घरगृहस्थी चलाने के लिए वर्किंग लेडी को भी घर और किचन का थोड़ाबहुत काम जरूर आना चाहिए. अगर तुम चाहो तो अब हम

दोनों एकदूसरे की टीचर और स्टूडैंट बन कर सीखनेसिखाने का काम कर सकती हैं. मैं तुम्हें बाहर का काम करना सिखाऊंगी और तुम मुझे किचन और घर संभालना.’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं. यह भी कोई पूछने की बात है?’’ खुश हो कर विनिता ने पंखुड़ी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘पर मेरी भी एक शर्त है कि यह सीखनेसिखाने का काम हम दोनों स्टूडैंटटीचर की तरह नहीं, बल्कि पक्की सहेलियां बन कर करेंगी.’’

‘‘मंजूर है,’’ पंखुड़ी बोली.

फिर एक जोरदार ठहाका लगा, जिस में इन दोनों के अलावा निशांत की आवाज भी शामिल थी. माहौल खुशनुमा बन चुका था.

Serial Story: पक्की सहेलियां (भाग-2)

अंकल से बात करते समय विनिता ने सुना कि पंखुड़ी एक मल्टी नैशनल कंपनी में ऐग्जीक्यूटिव पद पर है. वह अंकल से कह रही थी, ‘‘देखिए मेरे वर्किंग आवर्स फिक्स नहीं हैं, शिफ्टों में ड्यूटी करनी पड़ती है. मेरे आनेजाने का समय भी कोई निश्चित नहीं है, कभी देर रात आती हूं तो कभी मुंह अंधेरे निकल जाती हूं. कभीकभी तो टूअर पर भी जाना पड़ता है 2-3 दिनों के लिए. आप को कोई आपत्ति तो नहीं?

‘मैं इस बात को पहले ही पूछ लेना चाहती हूं, क्योंकि अभी जहां मैं रह रही हूं उन्हें इस बात पर आपत्ति है… लोग लड़की के देर रात घर आने को सीधे उस के करैक्टर से जोड़ कर देखते हैं… एकदम घटिया सोच,’’ कह कर वह चुप हो गई.

इस के बाद क्या हुआ, यह पता नहीं. विनिता वहां से अपने घर चली आई. उसे वह लड़की बहुत तेजतर्रार और बिंदास लगी.

उस शाम निशांत काफी देर से घर लौटा. खापी कर तुरंत सो गया. पंखुड़ी के बारे में पूछने का मौका ही नहीं मिला विनिता को. अगले शनिवार की शाम जब देर रात विनिता परिवार सहित शौपिंग कर के लौटी तो देखा खाली पड़े फ्लैट की लाइट जल रही है. शायद कोई नया किराएदार आ गया है. नीचे सीढ़ी का दरवाजा बंद कर के विनिता हैलो करने की नीयत से मिलने गई तो देखा ताला लगा था.

रात करीब 12 बजे घंटी की आवाज से विनिता की नींद खुली. उस ने निशांत को

उठाया और नीचे यह सोच कर भेजा कि अंकलआंटी को कुछ जरूरत तो नहीं?

थोड़ी देर में निशांत वापस आया और सोने लगा तो विनिता ने पूछा, ‘‘कौन था?’’

निशांत ने कहा, ‘‘अंकल की नई किराएदार पंखुड़ी.’’

विनिता ने तुरंत कहा, ‘‘निशांत, तुम कोई घरेलू, समझदार, किराएदार नहीं ढूंढ़ सकते थे अंकल के लिए? वक्तबेवक्त आ जा कर हमें डिस्टर्ब करती रहेगी. अंकल तो चले जाएंगे अपने बच्चों के पास, पर साथ रहना तो हम दोनों को ही है.’’

नींद से भरा निशांत उस समय बात करने के मूड में नहीं था. गुस्से से बोला, ‘‘अरे वह पढ़ीलिखी नौकरी करने वाली लड़की है. वह कब जाए या कब आए इस से हमें क्या फर्क पड़ेगा भला? आज पहला दिन है, अपने साथ सीढ़ी के दरवाजे की चाबी ले जाना भूल गई थी वह,’’ कह कर वह गहरी नींद में सो गया.

विनिता को निशांत का इस तरह बोलना बहुत बुरा लगा. उस दिन पंखुड़ी पर और भी गुस्सा आया. मृदुभाषी और समझदार स्वभाव की विनिता पति की व्यस्तता को समझती थी. उसे इस बात से कोई शिकायत नहीं रहती कि निशांत देर से घर क्यों आता है, बल्कि पति के आने पर मुसकराते हुए वह उसे गरमगरम चाय पिलाती ताकि उस की थकान मिट जाए.

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अगली सुबह सब थोड़ी देर से उठे. चाय बनाने लगी तो विनिता को पंखुड़ी का ध्यान आया. उस ने निशांत से पूछे बगैर उस के लिए भी चाय बना दी और दरवाजा खटखटा कर चाय पहुंचा आई. उनींदी आंखों से पंखुड़ी ने दरवाजा खोल कप ले कर थैंक्स कह झट दरवाजा बंद कर लिया.

विनिता सकपका गई. कोई तमीज नहीं कि 2 मिनट बात ही कर लेती. शायद नींद डिस्टर्ब हो गई थी उस की. सारा दिन घर बंद रहा. सो रही होगी, शाम को सजधज

कर पंखुड़ी चाय का कप वापस करने विनिता के पास आई. वैसे तो वह विनिता से मिलने आई थी, पर सारा समय निशांत और विहान से ही इधरउधर की बातें करती रही.

विनिता के पूछने पर कि चाय बनाऊं तुम्हारे लिए पंखुड़ी ने कहा, ‘‘थैंक्स, मैं चाय नहीं पीती.’’ ‘चाय की जगह जरूर यह कुछ और पीती होगी यानी बोतल वाली चाय’ विनिता ने सोचा. फिर यह पूछने पर कि किचन में खाना बनाना अभी शुरू किया या नहीं. पंखुड़ी तपाक से बोली, ‘‘अरे, किचन का झमेला मैं नहीं रखती. कौन कुकिंग करे? समय की बरबादी है. बाहर ही खाती हूं या पैक्ड खाना मंगवा लेती हूं.’’

थोड़ी देर बाद उस ने अपनी कार निकाली और चली दी कहीं घूमने. जाते वक्त हंसते हुए कहा, ‘‘डौंट वरी निशांत आज मैं चाबी साथ लिए जा रही हूं.’’ इस बात पर निशांत और पंखुड़ी ने एक जोरदार ठहाका लगाया, पर पता नहीं हंसमुख स्वभाव वाली विनिता को हंसी क्यों नहीं आई.

रात को सोते समय विनिता ने निशांत से कहा, ‘‘हाय, कैसी है यह पंखुड़ी… लड़कियों वाले तो लक्षण ही नहीं हैं इस में. सारे काम मर्दों वाले करती है, शादी कर के कैसे घर बसाएगी यह? ऐसी ही लड़कियों की ससुराल और पति से नहीं बनती है. पति दुखी रहता है या तलाक हो जाता है. एक मैं थी कालेज पहुंचतेपहुंचते सिलाईकढ़ाई के अलावा घरगृहस्थी का भी सारा काम सीख लिया था?’’

निशांत ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘वह खाना बनाना नहीं जानती है, यह कौन सी बुराई हुई उस की? देखती नहीं कितनी स्मार्ट, मेहनती, आत्मनिर्भर और औफिस के कामों में दक्ष है वह… दुखी सिर्फ इस जैसी लड़की के पति ही क्यों, दुखी तो उन

घरेलू पत्नियों के पति भी हो सकते हैं, जो इस आधुनिक जमाने में भी खुद को बस घर की चारदीवारी में ही कैद रखना पसंद करती हैं. छोटेमोटे कामों के लिए भी पूर्णतया पिता, पति, भाई या बेटे पर निर्भर… बदलते समय के साथ ये खुद नहीं बदलती हैं उलटे जो बदल रहा है उस में भी कुछ न कुछ खोट निकालती रहती हैं.’’

विनिता ने निशांत का इशारा समझ लिया था कि पूर्णतया निर्भर होने वाली बात किसे इंगित कर के कही जा रही है. इस के अलावा निशांत द्वारा पंखुड़ी की इतनी तारीफ करना उसे जरा भी नहीं सुहाया. दिल ने हौले से कहा कि सावधान विनिता. ऐसी ही लड़कियां दूसरों का घर तोड़ती हैं. आजकल जब देखो निशांत पंखुड़ी की तारीफ करता रहता है.

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कुछ दिनों बाद आंटीअंकल विदेश चले गए. पंखुड़ी अपनी दुनिया में मस्त और विनिता अपनी गृहस्थी में. मगर जानेअनजाने विनिता पंखुड़ी की हर गतिविधि पर ध्यान देने लगी थी कि कब वह आतीजाती है या कौन उसे ले जाने या छोड़ने आता है. ऐसा नहीं था कि पंखुड़ी को इस बात का पता नहीं था. वह सब समझती थी पर जानबूझ कर उसे इगनोर करती, क्योंकि उस के दिमाग में था कि विनिता जैसी हाउसवाइफ के पास कोई काम नहीं होता दिन भर सिवा खाना बनाने और लोगों की जासूसी करने के.

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Serial Story: पक्की सहेलियां (भाग-1)

पति निशांत की प्रमोशन और स्थानांतरण के बाद विनिता अपने 5 वर्षीय बेटे विहान को ले कर हजारीबाग से रांची आ गई. महत्त्वाकांक्षी निशांत को वहां की पौश कालोनी अशोक नगर में कपंनी द्वारा किराए का मकान मिला था, जिस में रांची पहुंचते ही वे शिफ्ट हो गए. मकान बड़ा, हवादार और दोमंजिला था. नीचे मकानमालिक रहते थे और ऊपर विनिता का परिवार.

मकान के पार्श्व में बने बड़े गैरेज के ऊपर भी एक बैडरूम वाला छोटा सा फ्लैट बना था, जो खाली पड़ा था. उस फ्लैट को ऊपरी मंजिल से इस तरह जोड़ा गया था कि दोनों फ्लैटों में रहने वाले आनेजाने के लिए कौमन सीढि़यों का उपयोग कर सकें.

रांची आते ही निशांत ने विहान का ऐडमिशन एक अच्छे स्कूल में करवा कर

औफिस जौइन कर लिया. स्कूल ज्यादा दूर नहीं था पर विनिता को स्कूटी चलाना न आने के कारण निशांत को अपनी कार से औफिस जाते समय विहान को स्कूल छोड़ना और लंच टाइम में आते वक्त उसे वापस लाना पड़ता था. कुछ दिनों तक तो ठीक चला पर नई जगह, नया पद और जिम्मेदारियां, इन सब ने निशांत को धीरेधीरे काफी व्यस्त कर दिया. अब निशांत सुबह 9 बजे निकल जाता और शाम के 7-8 बजे तक ही लौट पाता था, वह भी बिलकुल थका हुआ.

एक दिन निशांत ने विनिता से कहा, ‘‘तुम स्कूटी चलाना क्यों नहीं सीख लेतीं? कम से कम विहान को स्कूल पहुंचाने व लाने का तथा दूसरे छोटेमोटे काम तो कर ही सकती हो.’’

‘‘अरे मुझे क्या जरूरत है स्कूटी सीखने या बाहर के काम करने की. ये काम तो मर्दों के होते हैं, मैं तो घर में ही भली,’’ विनिता बोली.

मजबूरन विहान के लिए निशांत ने औटोरिकशा लगवा दिया. उस के बाद निशांत ने इस संबंध में कोई बात नहीं की. घरेलू और मिलनसार स्वभाव की विनिता खुद को घरगृहस्थी के कामों में ही व्यस्त रखती थी. लगभग डेढ़दो महीने उसे अपने घर को सुव्यवस्थित करने में लग गए. मकानमालकिन की मदद से अच्छी बाई मिल गई, तो विनिता ने चैन की सांस ली. विहान के स्कूल से आने के बाद अब वह उसी के साथ व्यस्त रहती.

घर सैट हो गया तो विनिता ने पासपड़ोस में अपनी पहचान बनानी शुरू करनी चाही पर छोटी जगह से आई विनिता को यह पता नहीं था कि ज्यादातर पौश कालोनी में रहने वाले पड़ोसियों का संबंध सिर्फ हायहैलो और स्माइल तक ही सीमित रहता है. कारण, वे सभी अपनेआप में हर तरह की सुविधा से आत्मनिर्भर होते हैं. 1-2 लोगों के साथ दोस्ती भी हुई पर सिर्फ औपचारिक तौर पर. अत: घर का काम खत्म होने पर जब कभी उसे खाली समय मिलता तो या तो वह टीवी देखती या फिर दिल बहलाने के लिए नीचे मकानमालिक के घर चली जाती.

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मकानमालिक बुजुर्ग दंपती थे, जिन के बच्चे विदेश में बसे थे. वे साल में 6 महीने विदेश में ही रहते थे अपने बच्चों के पास. गृहकार्य में दक्ष विनिता कभी कुछ विशेष खाना बनाती तो नीचे जरूर भेजती. नए किराएदार निशांत और विनीता के व्यवहार से बुजुर्ग दंपती बहुत संतुष्ट थे. उन तीनों को अपने बच्चों की तरह प्यार करने लगे थे. ये दोनों भी उन्हें आंटीअंकल कह कर बुलाने लगे. ज्यादातर संडे को छुट्टी होने के कारण चारों कभी ऊपर तो कभी नीचे एकसाथ चाय पी लिया करते थे.

ऐसे ही एक संडे की शाम को निशांत और विनिता नीचे आंटीअंकल के साथ चाय पी रहे थे. तभी अंकल ने पूछा, ‘‘बेटा, आप दोनों को अभी छुट्टी ले कर घर तो नहीं जाना है?’’

निशांत ने कहा, ‘‘नहीं अंकल, अभी अगले 6-7 महीने तो सोच भी नहीं सकता, क्योंकि औफिस का बहुत सारा काम पूरा करना है मुझे.’’

विनिता से रहा नहीं गया तो उस ने पूछ लिया, ‘‘मगर अंकल आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘वह इसलिए कि हम दोनों निश्चिंत हो कर कुछ महीनों के लिए अपने बच्चों से मिलने विदेश उन के पास जा सकें,’’ आंटी ने कहा तो विनिता मन ही मन घबरा गई.

घर आ कर भी विनिता सोचती रही कि इन दोनों के जाने के बाद तो घर सूना हो जाएगा, वह बिलकुल अकेली हो जाएगी. भले ही वह रोज नहीं मिलती उन से, पर कम से कम उन की आवाजें तो आती रहती हैं उस के कानों में.

सोते समय निशांत ने विनिता को सीरियस देखा तो पूछ लिया, ‘‘क्या बात है,

आंटीअंकल के जाने से तुम परेशान क्यों हो रही हो?’’

विनिता ने अपने दिल की बात बताई तो निशांत को भी एहसास हुआ कि वाकई इतने बड़े घर में विनिता अकेली हो जाएगी.

थोड़ी देर बाद विनिता ने कहा, ‘‘निशांत, क्यों न आंटीअंकल को गैरेज वाले फ्लैट में एक किराएदार रखने की सलाह दी जाए, जिस से उन को इनकम हो जाएगी और हम लोगों का सूनापन दूर हो जाएगा.’’

निशांत को विनिता की बात जंच गई. अगले दिन औफिस जाते वक्त निशांत ने जब अंकल से इस बात की चर्चा की तो उन्होंने न केवल किराएदार रखने वाली उन की बात का स्वागत किया, बल्कि नया किराएदार ढूंढ़ने का जिम्मा भी निशांत को ही सौंप दिया.

3-4 दिनों के बाद शाम के समय विनिता नीचे आंटीअंकल के पास बैठी हुई निशांत का इंतजार कर रही थी. तभी चुस्त कपड़े, हाई हील पहने और बड़ा सा बैग कंधे से लटकाए एक आधुनिक सी दिखने वाली लड़की कार से उतर गेट खोल कर अंदर दाखिल हुई. आते ही उस ने बड़ी संजीदगी से पूछा, ‘‘माफ कीजिएगा, क्या उमेशजी का यही घर है?’’

‘‘जी हां, बताइए क्या काम है? मैं ही हूं उमेश,’’ अंकल बोले.

‘‘गुड ईवनिंग सर, मैं पंखुड़ी,’’ कह कर उस ने अंकल से हाथ मिलाया. फिर कहने लगी, ‘‘आज निशांत से पता चला कि आप के घर में एक फ्लैट खाली है किराए के लिए. मैं उसी सिलसिले में आई हूं.’’

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‘अच्छा तो यह फैशनेबल सी लड़की किराएदार बनने आई है,’ सोच संकोची स्वभाव की विनिता उठ कर ऊपर जाने लगी. तभी अंकल ने अपनी पत्नी और विनिता से उस का परिचय करवाया. पंखुड़ी ने दोनों की तरफ मुखातिब होते हुए ‘हैलो’ कहा. फिर अंकल से बातचीत करने और फ्लैट देखने चली गई. बड़ा अटपटा लगा विनिता को कि उम्र में इतनी छोटी होने पर भी कितने आराम से उस ने सिर्फ हैलो कहा. कम से कम वह उसे न सही आंटी को नमस्ते तो कह सकती थी, उन की उम्र का लिहाज कर के. खैर, उसे क्या. उस ने मन ही मन सोचा.

आगे पढ़ें- अंकल से बात करते समय विनिता ने सुना कि..

Serial Story: संयोग (भाग-2)

पूर्व कथा

सूरजकुंड मेले में उदय शंकर अपने परिवार के साथ घूमने गए तो संयोगवश वहां रूपा बूआ और उन के मुंहबोले जेठ शंभु दयाल का परिवार मिल गया. बातोंबातों में उदयशंकर की बेटी निक्की ने अपनी बहन अर्पिता की शादी का प्रस्ताव शंभु दयाल के लेक्चरर बेटे ओमी के साथ करवाने का प्रस्ताव रख दिया. बात सब को जंच गई और आननफानन में अगले दिन ओमी और अर्पिता का रिश्ता पक्का हो गया क्योंकि उन्हें उसी रात 3 माह के लिए लंदन जाना था. एक दिन अर्पिता अपने सहकर्मी प्रणय के साथ घर आई और सब को कुछ बताने लगी…

अब आगे पढि़ए.

‘‘ड्राइंगरूम में नौकरों के सामने मैं बताना नहीं चाहती थी कि मैं ने और प्रणय ने आज कोर्ट में शादी कर ली है,’’ अर्पिता ने मैरिज सर्टिफिकेट पिता की ओर बढ़ाया.?

अनीता ने हैरानी से बेटी की सूनी मांग को देखा. निक्की भी भौचक्की सी खड़ी थी लेकिन उदय शंकर ने संयत स्वर में कहा, ‘‘चुपचाप कोर्ट मैरिज की क्या जरूरत थी बेटी? हम से कहतीं तो हम धूमधाम से तुम्हारी शादी प्रणय से कर देते…’’

‘‘अगर ओमी वाला ड्रामा होने से पहले कहती तो,’’ अर्पिता ने बात काटी, ‘‘मैं और प्रणय शादी इसलिए टाल रहे थे कि इस का असर हमारे कैरियर पर पड़ेगा. जब सरला ने, जो स्वयं एक सफल सौफ्टवेयर इंजीनियर है और एक बच्चे की मां भी है, बताया कि यदि पतिपत्नी के बीच सही तालमेल हो तो कुछ भी असंभव नहीं है. वह बच्चे को सास और पति के पास छोड़ कर यहां आई हुई थी, तो मुझे बात समझ में आई और फिर यह डर था कि कहीं आप लोग निक्की के शोशे को गंभीरता से न ले लो. सो, मैं ने रात को प्रणय को सब बताया. इस ने कहा कि कल मिलने पर बात करेंगे लेकिन इस से मिलने के पहले ही ‘रोका’ हो गया.’’

‘‘दीदी, यह बात आप को ‘रोके’ की रस्म होने से पहले सब को बता देनी चाहिए थी,’’ निक्की बोली.

‘‘प्रणय से बगैर पूछे मैं कैसे कुछ वादा करती और फिर मौका भी नहीं मिला. ‘रोके’ को रोकने को जोे भी हम कहते थे उसे वे लोग काट देते थे. खैर, मुझे यही सही लगा कि इस बात को गुप्त रखने को कहूं और फिर खारिज करवा दूं. लेकिन आप सब जिस तरह ओमी पर लट्टू हो मुझे नहीं लगा कि आप यह रिश्ता तोड़ना मानोगे, सो हम ने कोर्ट मैरिज कर ली…’’

‘‘सिर्फ कागजी कार्यवाही,’’ अब तक चुप प्रणय बोला, ‘‘सिवा हमारे उन दोस्तों के जिन्हें गवाह बनाना जरूरी था, किसी को इस शादी के बारे में पता नहीं है. आप जब और जिस विधि से शादी करवाना चाहेंगे, हम शादी कर लेंगे और तब तक अर्पिता आप के पास ही रहेगी. बस, आप कहीं और इस की शादी नहीं कर सकेंगे.’’

‘‘उस का तो खैर सवाल ही नहीं उठता,’’ अनीता ने कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारे घरवालों की रजामंदी, प्रणय?’’

‘‘मेरे परिवार में तो सिर्फ भाईभाभी हैं, उन्हें अर्पिता पसंद है. आप जब कहेंगे उन लोगों को बुला लूंगा,’’ प्रणय ने कहा.

‘‘तुम दोनों अपनी छुट्टियों का हिसाबकिताब बताओ उसी के मुताबिक हम तैयारी करेंगे,’’ उदय शंकर ने कहा.

‘‘छुट्टी तो कभी भी एक हफ्ते की नोटिस पर मिल जाएगी.’’

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‘‘तो ठीक है, अपने भाई का फोन नंबर दो, उन से बात करता हूं,’’ उदय शंकर ने कहा. इतनी शांति से सब होता देख कर अर्पिता द्रवित हो उठी.

‘‘लेकिन शंभु दयाल अंकल से कैसे निबटेंगे, पापा. और रूपा बूआ भी बहुत नाराज होंगी.’’

‘‘होती रहें, जब रूपा ने बात छेड़ी थी, मैं ने तभी कह दिया था कि मैं अर्पिता से बात करने के बाद ही बात आगे बढ़ाऊंगा. मेरे लिए सिर्फ मेरी बेटी की खुशी माने रखती है. रिश्तेदारों की नाराजगी नहीं,’’ उदय शंकर ने दृढ़ स्वर में कहा.

शादी धूमधाम से हो गई. रूपा को ‘रोके’ के बारे में कुछ पता नहीं था, सो उस ने इतना ही कहा कि अचानक अर्पिता की शादी तय हो जाने से ऐसा लगता है कि ओमी के जीवन में शादी लिखी ही नहीं है.

‘‘बेचारा,’’ निक्की के मुंह से अचानक ही निकला.

 

शंभु दयाल के विदेश से लौटने से पहले ही अर्पिता और प्रणय हनीमून पर जा चुके थे. उदय शंकर ने शंभु दयाल को पत्र लिख कर रिश्ते का अंत कर दिया था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. एक रविवार की सुबह शंभु दयाल और सुभद्रा को देख कर उदय और अनीता बुरी तरह सकपका गए. शंभु दयाल दंपती ने बड़ी शालीनता से अर्पिता की शादी के लिए उन्हें मुबारकबाद दी, जिस से वे लोग और भी संकुचित हो गए. वातावरण को सहज करने के लिए निक्की उन से उन के लंदन प्रवास के बारे में पूछने लगी. उन्होंने वहां क्या अच्छा लगा और क्या नहीं, विस्तार से बताया, फिर उस की रिसर्च के बारे में बात करतेकरते अचानक पूछा, ‘‘तुझे भी कोई पसंद है शादी के लिए तो अभी से उदय को बता दे.’’

‘‘नहीं, अंकल, इस रिसर्च के चक्कर में कपड़े तक तो पसंद करने का समय नहीं मिलता. थीसिस पूरी कर लूं, फिर आस- पास देखूंगी और कोई पसंद आया तो आप को बता दूंगी.’’

‘‘पक्का…अभी कोई पसंद नहीं है?’’

‘‘शतप्रतिशत, अंकल.’’

‘‘अगर इसे कोई पसंद होता न तो यह कब का ढिंढोरा पीट चुकी होती भाई साहब,’’ अनीता ने कहा, ‘‘यह अर्पिता की तरह धीरगंभीर नहीं है. सच मानिए, प्रणय को हम बरसों से जानते हैं मगर कभी खयाल ही नहीं आया कि उस से रिश्ता जुड़ सकता है वरना हम आप को परेशान नहीं करते.’’

‘‘परेशानी तो अब होगी अनीताजी, जब लंदन वाले सगाई व शादी की तारीख पूछेंगे. क्या बताएंगे उन्हें कि जिस लड़की से रिश्ता कर के हम ने उन के सुझाए रिश्तों को नकारा था, उस की तो कहीं और शादी हो गई,’’ सुभद्रा ने कहा, ‘‘आप चाहें तो हमें इस परेशानी से नजात मिल सकती है. निक्की का रिश्ता ओमी से कर दीजिए.’’

निक्की सिहर उठी. अपने से 9 साल बड़े ओमी से शादी. उस ने तुरंत फैसला किया कि वह अर्पिता की तरह चुप नहीं रहेगी. यह उस की जिंदगी है और वह इस के बारे में शंभु अंकल से खुद बात करेगी.

‘‘आप को शायद मेरी उम्र मालूम नहीं है? मेरी और ओमीजी की उम्र में 9 साल का फर्क है, ऐसी बेमेल जोड़ी बनाने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती,’’ निक्की मम्मीपापा के बोलने से पहले ही बोल पड़ी.

‘‘वर्षों के अंतराल को तो नकारा नहीं जा सकता बेटी,’’ शंभु दयाल ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘लेकिन न तो ओमी 33 वर्ष का लगता है और न ही कुंआरा होने की वजह से उस की सोच भी उम्र के मुताबिक धीरगंभीर है. वह खुशमिजाज और शौकीन है. तुम भी छिछोरी नहीं हो और तुम दोनों का विषय भी एक ही है. सो, खुश रहोगे एकदूसरे के साथ. यह हमारा नहीं ओमी का कहना है.’’

‘‘क्या मतलब? यह प्रस्ताव ओमी का है?’’ अनीता ने चौंक कर पूछा.

‘‘सुझाव कहना बेहतर होगा. असल में मैं यह सोच कर परेशान हो रहा था कि मैं अपने रिश्तेदारों को किस मुंह से रिश्ता तोड़ने की बात बताऊं तो ओमी ने सुझाया कि हम निक्की का हाथ मांग लें, रिश्तेदारों को यह तो नहीं बताया था कि उदय अंकल की बड़ी बेटी से रिश्ता तय किया है या छोटी से. वैसे भी निकिता मुझे पसंद है और फिर हम दोनों पढ़ाते भी एक ही विषय हैं, सो एकदूसरे को सहयोग भी दिया करेंगे यानी खुश रहेंगे एकदूसरे के साथ,’’ शंभु दयाल ने कहा, ‘‘मुझे उस का यह कहना गलत नहीं लगा.’’

‘‘ओमी का कहना बिलकुल सही है,’’ उदय शंकर कहे बिना न रह सके.

‘‘फिर भी इस बार हम आप पर कोई जोरजबरदस्ती नहीं करेंगे. आप लोग आपस में विचारविमर्श कर के हमें बता दीजिएगा,’’ कह कर शंभु दयाल उठ खड़े हुए.

‘‘अरे, ऐसे कैसे बिना चायपानी पीए चले जाएंगे,’’ अनीता ने प्रतिवाद किया.

‘‘आप बैठिए मम्मी, मैं अभी चाय भिजवाती हूं,’’ निकिता ने उठते हुए कहा और नौकर से चाय बनाने को कह कर अपने कमरे में आ गई. मम्मीपापा के रवैए से तो लग रहा था कि वे उसे आसानी से ओमी के सुझाव को नकारने नहीं देंगे. जिस सहृदयता से अर्पिता की खुशी की खातिर उन्होंने रिश्तेदारी की परवा नहीं की थी, उसी रिश्तेदारी के लिए उसे अपने से कहीं बड़े पुरुष से विवाह कर के अपने अरमानों का बलिदान करने को कहा जाएगा.

उस ने अर्पिता को फोन किया, पर उस के शुष्क जवाब ने उस का इरादा दृढ़ कर दिया कि यह उस की निजी समस्या है और उसे अकेले ही सुलझानी होगी. वह ओमी से मिलेगी, अपनी रिसर्च के बारे में उस से जितनी मदद मिल सकेगी, बटोर लेगी और फिर ऐसी बचकानी हरकतें करेगी कि ओमी खुद ही उस से शादी करने को मना कर देगा.

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उदय शंकर और अनीता के पूछने पर उस ने कहा कि कुछ फैसला करने से पहले वह ओमी से मिलना चाहेगी और फिर मुलाकातों और फोन पर बातें करने का सिलसिला शुरू हो गया. उसे लगने लगा कि केवल उन के विषय ही नहीं, शौक और पसंद भी प्राय: एक सी थीं. ओमी परिपक्व था, सो शालीनता व मनोरंजन के बीच सामंजस्य बनाना जानता था. उस के कहने से पहले ही उस की पसंद जान जाता था. उसे वह अच्छा लगने लगा था मगर इतना अच्छा भी नहीं कि उम्र भर के बंधन में बंध जाए.

‘‘तू ने क्या सोचा, निक्की?’’ एक रोज अनीता ने पूछा, ‘‘ओमी को तो तू बहुत पसंद है, वह कहता है कि कमाल की जोड़ी बननी थी, सो उस रोज संयोग से हम दूरदराज रहने वाले लोग सूरजकुंड मेले में चले गए. मुझे भी उस की बातें सही लगती हैं. वरना क्यों तू रूपा को उस के और अर्पिता के बारे में सुझाती और अर्पिता कोर्ट मैरिज करने की हिम्मत करती?’’

‘‘यह तो है मम्मी, है तो सब संयोग ही,’’ निकिता ने स्वीकार किया.

‘‘और इसे नकारना बेवकूफी होगी जो मेरी समझदार बेटी कभी नहीं करेगी,’’ उदय शंकर ने अंदर आते हुए कहा.

निकिता ने शरमा कर सिर झुका लिया. मम्मीपापा उस से बलिदान नहीं मांग रहे थे बल्कि उसे वरदान दे रहे थे.

Serial Story: संयोग (भाग-1)

‘‘सब तेरा ही कियाधरा तो है निक्की, सो तुझे ही भुगतना भी पड़ेगा,’’ अर्पिता ने रुखाई से कह कर फोन रख दिया.

वैसे अर्पिता का कहना था भी सही. निक्की तो उस रोज जिद कर के सब को सूरजकुंड मेला दिखाने ले गई थी. मेले में घूमते हुए अचानक पापा की ममेरी बहन रूपा बूआ मिल गईं. कई वर्ष पहले एक सरकारी आवासीय कालोनी में वे पड़ोस में ही रहती थीं. रातदिन का आनाजाना था. लेखाकार फूफाजी अर्पिता और निक्की को गणित पढ़ाते थे. फिर पापा ने नोएडा में फ्लैट खरीद लिया और फूफाजी ने द्वारका में, धीरेधीरे संपर्क खत्म हो गए. आज मिल कर सब बहुत खुश हुए और गपशप करने के लिए एक रेस्तरां में जा कर बैठ गए.

‘‘अर्पिता तो सौफ्टवेयर इंजीनियर बन गई, तू क्या बनेगी निक्की?’’ फूफाजी ने पूछा.

‘‘आप की दी शिक्षा को सार्थक कर रही हूं फूफाजी, कौमर्स कालेज में लेक्चरर हूं और पीएच.डी. की तैयारी भी कर रही हूं.’’

‘‘बड़ी खुशी हुई यह सुन कर,’’ रूपा बोलीं, ‘‘लेकिन इन के शादीब्याह के बारे में क्या कर रहे हो उदय भैया?’’

‘‘अभी तो कुछ सोचा नहीं. दोनों ही अपनेअपने कैरियर को बनाने में व्यस्त हैं,’’ उदय शंकर ने कहा.

‘‘कैरियर तो उम्र भर बनता रहेगा, लेकिन शादी की एक खास उम्र होती है और अच्छे लड़केलड़कियों के रिश्ते इसी उम्र में हो जाते हैं. अर्पिता 27 साल की हो रही है, जल्दी से इस के लिए लड़का तलाश करो वरना तुम्हें भी शंभु दयालजी वाली परेशानी होगी,’’ रूपा बोलीं.

‘‘शंभु दयाल कौन? वही पंडारा रोड वाले आप के मुंहबोले जेठ?’’ मम्मी ने पूछा, ‘‘कहां हैं वे आजकल?’’

‘‘उन का बेटा ओमी रामजस कालेज में व्याख्याता है न, कालेज के पास ही राजेंद्र नगर में रहते हैं,’’ रूपा बोलीं.

‘‘और उन की परेशानी क्या है?’’ उदय शंकर ने पूछा.

‘‘लड़कियों की शादी को ले कर परेशान होंगे,’’ मम्मी बोलीं, ‘‘4 लड़कियां थीं न उन की.’’

‘‘लड़कियां तो सब ब्याह गईं अनीता भाभी,’’ रूपा उसांस ले कर बोलीं, ‘‘बहनों को ब्याहने और डिगरियां लेने के चक्कर में ओमी कुंआरा रह गया है. सर्वगुण संपन्न लड़का है लेकिन 33 साल की उम्र की वजह से अच्छी लड़की ही नहीं मिल रही. बहुत परेशान हैं सब.’’

‘‘तो आप सब की परेशानी हल कर दो न रूपा बूआ,’’ निक्की ने चुटकी ली, ‘‘27 साल की अर्पिता दीदी और 33 साल के ओमी भाई की शादी करवा कर.’’

‘‘अरे, क्या कमाल का आइडिया दिया है री छोरी तू ने,’’ रूपा बूआ फड़क कर बोलीं.

‘‘और संयोग से वे सब भी यहां आए हुए हैं,’’ फूफाजी चहके, ‘‘शंभु से मोबाइल पर बात करवाता हूं…यह लो… उधर देखो, वह रहे वे लोग, अपनी टेबल पर बुला लेते हैं,’’ फूफाजी के साथ उदय शंकर, अनीता और रूपा भी लपक लीं.

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‘‘यह क्या बदतमीजी है, निक्की?’’ अर्पिता ने आंखें तरेरीं, ‘‘पहले तो खरीदारी के बहाने यहां ला कर शाम खराब की और अब यह शादी का शोशा छोड़ दिया.’’

इस से पहले कि निक्की कुछ बोलती, अर्पिता की नजर अपनी सहेली ओमी की छोटी बहन सरला पर पड़ी और वह लपक कर उस से मिलने चली गई.

2-3 मेजों को जोड़ कर एक लंबी मेज बनाई गई और चायनाश्ते का और्डर कर सब बातों में तल्लीन हो गए. केवल ओमी और निकिता उर्फ निक्की चुप थे. उम्र में फर्क जरूर था लेकिन बचपन की जान- पहचान तो थी ही, सो ओमी ने अपनी कुरसी निकिता के पास सरका ली.

यह सुन कर कि निकिता भी उसी के विषय की लेक्चरर है, ओमी बड़ा प्रभावित लगा. उस ने बातोंबातों में यह बताया कि वह अगले दिन लंदन स्कूल औफ इकोनोमिक्स में हो रहे सेमिनार में भाग लेने जा रहा है. निकिता को इस सेमिनार के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. ओमी ने उसे उन वैबसाइटों के बारे में बताया जिन पर इस तरह की जानकारियां मिलती थीं और ज्ञान को अपडेट किया जा सकता था. निकिता बड़ी दिलचस्पी से ओमी की बातें सुन रही थी और भी बहुत कुछ पूछना चाहती थी लेकिन अर्पिता और सरला उसे अपने साथ शौपिंग के लिए ले गईं, बाकी सब लोग वहीं बैठे रहे.

उन की खरीदारी अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि सरला को ओमी का फोन आ गया कि सब लोग जाने के लिए मेले के गेट के पास उन का इंतजार कर रहे हैं. उन के वहां पहुंचते ही सब ने जल्दीजल्दी विदा ली, निकिता चाह कर भी ओमी से बात नहीं कर सकी. उसे यह तो यकीन था कि पापा ने शंभु अंकल से फोन नंबर लिया होगा लेकिन उस ने पूछना मुनासिब नहीं समझा.

सरला से मिलने के बाद अर्पिता का सुधरा मूड ओमी का नाम सुन कर फिर बिगड़ सकता था. वैसे भी जब अर्पिता गाड़ी चलाती थी तो मम्मीपापा काफी तनाव में रहते थे और आज तो ट्रैफिक भी और दिनों के मुकाबले अधिक था, सो रास्ते भर सब चुप रहे. घर आते ही निक्की तो कंप्यूटर पर ओमी की बताई वैबसाइट देखने में व्यस्त हो गई और अर्पिता मोबाइल पर बात करने में. मम्मीपापा टीवी देखने लगे और मेले में मिले लोगों के बारे में कोई बात नहीं हुई.

रविवार था, इसलिए अगली सुबह सभी रोज के मुकाबले देर से उठे और नाश्ता भी देर से बना.

‘‘तुम दोनों का आज क्या प्रोग्राम है?’’ मां ने नाश्ते के दौरान पूछा.

‘‘मुझे तो लंच के बाद कुछ देर को बाहर जाना है,’’ अर्पिता बोली, ‘‘निक्की तो कंप्यूटर से चिपकी रहेगी शायद.’’

निक्की ने राहत की सांस ली. अर्पिता के जाने के बाद वह पापा से नंबर ले कर ओमी से बात करेगी. उसे अपनी कुछ शंकाओं का निवारण करना था. लेकिन इस से पहले कि वह कुछ बोलती, दरवाजे की घंटी बजी. नौकर ने दरवाजा खोला. सामने शंभु दयाल सपरिवार खड़े थे.

‘‘माफ करना उदय भाई, इस तरह बिना बताए आ धमकने को, लेकिन मजबूरी है. सरला को दोपहर की गाड़ी से लखनऊ वापस जाना है और हम तीनों को लंदन, सो जो बात कल शुरू की थी उसे जाने से पहले पूरी करना चाह रहे हैं,’’ शंभु दयाल सांस लेने को रुके, ‘‘ओमी की रजामंदी तो मैं ने ले ली है, तुम ने अर्पिता से बात कर ली होगी?’’

हतप्रभ से खड़े उदय शंकर ने इनकार में सिर हिलाया, ‘‘अभी तो नहीं…’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ शंभु दयाल ने आराम से सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘अब कर लेंगे. वैसे अर्पिता सरला को बता चुकी है कि शादी तो वह भी करना चाह रही है लेकिन यही सोच कर डरती है कि कहीं  शादी के बाद इतनी मेहनत से बनाए कैरियर का बंटाधार न हो जाए. ओमी से शादी कर के ऐसा नहीं होगा.’’

‘‘मैं इस बात की गारंटी देने को तैयार हूं,’’ ओमी हंसा, ‘‘क्योंकि न तो मैं अवार्ड विनिंग किताबें लिखने का मोह छोड़ सकता हूं और न मम्मी अपनी गृहस्थी की बागडोर का. सो हमें तो अपने कैरियर को सर्वोपरि मानने वाली लड़की ही चाहिए.’’

‘‘इस के बाद कहनेसुनने को कुछ रह ही नहीं जाता,’’ सरला बोली, ‘‘ओमी भैया और परिवार के बारे में तो तुम अच्छी तरह से जानती हो अर्पिता, फिर भी कुछ पूछना है तो पूछ लो. ओमी भैया से यहीं या अकेले में.’’

‘‘यहीं पूछूंगी सब के सामने कि शादी के बाद राजेंद्र नगर से रोज सुबह 9 बजे नोएडा आफिस पहुंचने के लिए कितने बजे घर से निकलना होगा और शाम को 7-8 बजे छूटने के बाद घर कब पहुंचा करूंगी?’’ अर्पिता ने चुनौती के स्वर में पूछा.

‘‘सवाल तो वाजिब है लेकिन उस के जवाब में उलझने के बजाय मैं यह बताना चाहूंगा कि लंदन से लौटने के बाद मैं यह नौकरी छोड़ रहा हूं,’’ ओमी ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मुझे नोएडा में एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान में बेहतर नौकरी मिल चुकी है और मेरे पास 3 महीने का जौइनिंग टाइम है. मैं अपनी अर्जित छुट्टियों का सदुपयोग मांपापा को लंदन दिखाने में करना चाहता हूं, सो लौटने के बाद रामजस कालेज की नौकरी छोड़ूंगा.’’

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‘‘और कोई शंका तो नहीं रही अब?’’ शंभु दयाल ने सब की ओर देखा, ‘‘सो समय व्यर्थ मत करो सुभद्रा, पकड़ाओ बहू को शगुन और पक्का करो रिश्ता.’’

‘‘ठहरिए, भाई साहब,’’ अनीता पहली बार बोलीं, ‘‘ऐसे थोड़े ही रिश्ते पक्के होते हैं, आप तो शगुन ले कर आ गए, मगर हमारे पास तो कोई तैयारी नहीं है.’’

‘‘तो हमारे पास ही कौन सी तैयारी है?’’ सुभद्रा बोलीं, ‘‘हम भी नकद दे रहे हैं, आप भी नकद दे दो. नकद नहीं है तो चैक पकड़ा दो, 2 महीने बाद आ कर कैश करवा लेगा.’’

‘‘तो यह शगुन भी 2 महीने बाद ही कर लें…’’

‘‘नहीं, भाई उदय शंकर,’’ शंभु दयाल ने बात काटी, ‘‘शगुन यानी बात पक्की तो हम अभी कर के ही जाएंगे. अब तुम से क्या छिपाना, तुम्हें तो पता ही है कि मेरे भाई व बहनोई इंगलैंड में रहते हैं, वे जबतब ओमी को वहां बसाने के लिए, उस के लिए वहां की लड़कियों के रिश्ते सुझाते रहते हैं, जो हम नहीं चाहते. अब जब वहां जाने से पहले संयोग से ओमी के उपयुक्त लड़की भी मिल गई है तो क्यों न बात पक्की कर के जाऊं और इस से पहले कि वे कोई लड़की सुझाएं, मैं उन्हें यह खुशखबरी दे दूं कि तुम्हारी बेटी मेरी बहू बन रही है.’’

‘‘यह बात तो सोलह आने सही है,’’ उदय शंकर ने अर्पिता की ओर देखा, ‘‘तू क्या कहती है बेटी?’’

‘‘मैं क्या कहूं पापा?’’ अर्पिता ने असहाय भाव से कहा, ‘‘मेरी बस एक विनती है कि यहां शादी की बात अभी किसी को न बताई जाए.’’

‘‘हमारे पास तो किसी को बताने का समय है नहीं क्योंकि हम तो आज रात को ही लंदन जा रहे हैं,’’ सुभद्रा बोलीं, ‘‘तुम्हारे घर वाले क्या करते हैं, यह तुम जानो.’’

‘‘मम्मी का कैश तो तैयार पड़ा है, आंटीजी. आप को भी जो देना है जल्दी से लाओ ताकि ‘रोके’ की  रस्म करें. मिठाईविठाई के चक्कर में मत पडि़ए, मेज पर अंगूर रखे हैं उन से मुंह मीठा करवा दीजिए सब का,’’ सरला ने कहा, ‘‘चल अर्पि, इधर बैठ सोफे पर, आप भी इधर आ जाओ ओमी भैया.’’

‘‘दीदी को कपड़े तो बदलने दीजिए,’’ निकिता हंसी.

‘‘रहने दे, इस के कपड़े बदलने के चक्कर में मेरी ट्रेन छूट जाएगी. सोच क्या रही हो मम्मी, खोलो अपना बटुआ,’’ सरला ने जल्दी मचाई.

उस के बाद घर में जो था वही जल्दीजल्दी खा कर, 2 महीने बाद मिलने का वादा कर के सब लोग चले गए.

‘‘यह सरला भी न…बिलकुल नहीं बदली, किसी को कुछ सोचने का मौका ही नहीं देती,’’ अनीता ने लंबी सांस ले कर कहा, ‘‘तू क्या कहती है अर्पि, जो हुआ ठीक ही हुआ न?’’

‘‘यह मैं कैसे कह सकती हूं मम्मी, क्योंकि मैं इस परिवार में किसी को इतना नहीं जानती कि उन्हें तुरंत नकार या स्वीकार कर सकूं,’’ अर्पिता के स्वर में तल्खी थी.

‘‘घरवर के अच्छे होने के बारे में तो खैर कोई शक ही नहीं है लेकिन अर्पि जो कह रही है वह भी ठीक है. फिक्र मत कर बेटी, हम अगला फैसला करने से पहले तुझे और ओमी को एकदूसरे को जानने का मौका देंगे,’’ उदय शंकर ने आश्वासन दिया.

‘‘और इस दौरान हम इस बारे में कोई बात नहीं करेंगे,’’ अर्पिता ने धीरे से कहा.

लंच के बाद अर्पिता को बाहर जाते देख कर अनीता ने शंकित स्वर में पूछा, ‘‘कहां जा रही है?’’

‘‘आप को बताया तो था मम्मी कि दोपहर को कुछ देर के लिए बाहर जाऊंगी,’’ कह कर अर्पिता चली गई और जब वह लौट कर आई तो बिलकुल सामान्य लग रही थी.

‘‘घर में जो फल थे मम्मी, वे तो आप के बिनबुलाए मेहमान खा गए. सो मैं फल ले आई हूं,’’ उस ने लिफाफे मेज पर रखते हुए कहा.

‘‘बड़ा अच्छा किया अर्पि, मैं सोच रही थी कि बापबेटियों में से किस से कहूं कि मुझे बाजार ले चलो.’’

‘‘आप को बाजार जाना है तो अभी चलिए, तू भी चल निक्की, कल जो कपड़े लाए हैं, वे टेलर को भी तो देने हैं.’’

इस के बाद जीवन पुरानी गति से चलने लगा. केवल पतिपत्नी अकेले में कितना और क्या खर्च करेंगे, इस पर बातचीत करते थे. शंभु दयाल के परिवार के लौटने से कुछ सप्ताह पहले एक शाम अर्पिता अपने सहकर्मी प्रणय के साथ आई. प्रणय अकेला रहता था, सो अकसर अनीता उसे खाने पर बुला लिया करती थी, उदय शंकर को भी उस के साथ शतरंज खेलना पसंद था.

‘‘पापा आ गए हैं मम्मी?’’ अर्पिता ने उतावली से पूछा.

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‘‘हां, अपनी स्टडी में हैं, बुलाती हूं.’’

‘‘नहीं मम्मी, हम सब वहीं चलते हैं, निक्की आ गई हो तो उसे भी बुला लीजिए, मुझे आप सब को कुछ बताना है,’’ अर्पिता ने पापा के कमरे में जाते हुए कहा.

‘‘ऐसा क्या है जो उन के कमरे में ही बताएगी?’’

Serial Story: अपनी मंजिल (भाग-3)

पूर्व कथा

बदहवास अमिता ट्रेन की जनरल बोगी में चढ़ कर घबरा जाती है. शरीफ टिकट चैकर उसे फर्स्ट क्लास में जगह दिलवा देता है. वहां वह पुरानी बातें याद करती है.

उस के मातापिता का तलाक हो चुका होता है. उस की मां ने दूसरी शादी कर के अलग घर बसा लिया था और वह पिता की कस्टडी में रह कर होस्टल में पलीबढ़ी. एक दिन पापा को सरप्राइज देने वह घर पहुंची तो यह देख कर हैरान रह गई कि उन्होंने भी दूसरी शादी कर ली है. वहां से वह अपनी मां के घर कानपुर चली आती है.

मां का पति सतीश बेहद बदतमीज और गैरसलीकेदार आदमी था. उन के 2 बेटे भी थे जो बिलकुल सतीश पर ही गए थे. मां के घर में अमिता ने देखा कि वह अपने पति का रोब और धौंस चुपचाप सहती है. एक रात गलती से अमिता के कमरे का दरवाजा खुला रह गया तो सतीश उस के कमरे में घुस आया लेकिन ब्लैक बेल्ट अमिता ने उसे धूल चटा दी. मां भी बेबस खड़ी देखती रहीं. उसे मां से भी घृणा हो गई. उन से सारे रिश्ते तोड़ वह बदहवास स्टेशन की ओर भाग ली.

अब आगे…

बुजुर्ग दंपती दोनों से ध्यान हटा तो अमिता के मन में अपनी चिंता ने घर कर लिया. ‘टाटानगर’, हां यहीं तक का टिकट है. उसे वहीं तक जाना पड़ेगा. पर रेलगाड़ी के डब्बे से स्टेशन पर लिखा नाम ही उस ने देखा है बाकी शहर से वह एकदम अनजान है. असल में इधर के जंगलों में 2 बार कैंप लगा था इसलिए वह स्टेशन का नाम जानती है. वहां के स्टेशन पर उतर कर वह कहां जाएगी, क्या करेगी, कुछ पता नहीं. अकेली लड़की हो कर होटल में रहे यह उचित नहीं और इतने पैसे भी नहीं कि महीना भर होटल में रह सके.

पापा से कहेगी तो वे तुरंत पैसे भेज देंगे और एक बार भी नहीं पूछेंगे कि इतने पैसों का क्या करेगी? इतना विश्वास तो पापा के ऊपर अब भी है. पर यह उस का भविष्य नहीं है और न ही समस्या का समाधान. उसे अपने बारे में कुछ तो ठोस सोचना ही पड़ेगा. जब तक पापा के विवाह की बात पता नहीं थी तब तक बात और थी. निसंकोच पैसे मांगती पर अब उन की असलियत को जान लेने के बाद वह भला किस मुंह से पैसे मांगे.

वहां टिस्को और टेल्को में लोग लिए जा रहे हैं पर क्या नौकरी है, कैसी नौकरी है? कुछ भी तो उसे पता नहीं फिर कितने दिन पहले आवेदन लिया गया है, यह भी तो वह नहीं जानती.

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इस शहर का नाम जमशेदपुर है. इस इलाके की धरती के नीचे खनिजों का अपार भंडार है. दूरदर्शी जमशेदजी टाटा ने यह देख कर ही यहां अपना प्लांट लगाया था. बस, इतनी ही जानकारी उसे इस जगह के बारे में है और कुछ नहीं. अब एक ही रास्ता हो सकता है कि उलटे पैर वह दिल्ली लौट जाए. वहां दिल्ली में जानपहचान के कई मित्र हैं, कोई कुछ तो जुगाड़ कर ही देगा. ज्यादा न हो सका तो एक छत और भरपेट खाने का हिसाब बन ही जाएगा. थोड़ा समय लगे तो कोई बात नहीं है. वहां पापा हैं, वे भी कुछ उपाय करेंगे ही. बेटी को सड़क पर तो नहीं छोड़ेंगे. उस ने मन बना लिया कि वह उलटे पैर दिल्ली लौट जाएगी.

दिल्ली लौट जाने का फैसला कर लिया तो उसे कुछ चैन पड़ा. मन भी शांत हो गया. चैन से फैल कर वह बैठ गई.

‘‘बेटी, कहां जाओगी?’’

वह चौंकी, मानो चेतना लौटी, ‘‘जी, टाटानगर.’’

उस के शांत, सौम्य उत्तर से वे दोनों बुजुर्ग पतिपत्नी बहुत प्रभावित हुए. अमिता को ऐसा ही लगा. उन्होंने बात आगे बढ़ानी चाही.

‘‘टाटानगर में कहां रहती हो?’’

अब अमिता को थोड़ा सतर्क हो कर बोलना पड़ा, ‘‘जी, पहले कभी नहीं आई. एक इंटरव्यू है कल.’’

इस बार सज्जन बोले, ‘‘हांहां, टाटा कंपनी में काफी लोग लिए जा रहे हैं. तुम नई हो, कहां रुकोगी?’’

‘‘यहां किसी अच्छे होटल या गैस्ट हाउस का पता है आप के पास?’’

बुजुर्ग सज्जन ने थोड़ा सोचा, फिर बोले, ‘‘बेटी, होटल तो इस शहर में बहुत हैं. अच्छे भी हैं पर तुम अकेली लड़की, सुंदर हो, कम उम्र है. तुम्हारा होटल में रहना ठीक होगा क्या? समय अच्छा नहीं है.’’

वृद्ध महिला ने समर्थन किया, ‘‘नहीं बेटे, एकदम अकेले होटल में रात बिताना…ठीक नहीं होगा.’’

‘‘पर मांजी, मेरी तो यहां कोई जानपहचान भी नहीं है, क्या करूं?’’

‘‘एक काम करो, तुम हमारे घर चलो.’’

‘‘आप के घर?’’

‘‘संकोच की कोई बात नहीं. घर में बस हम 2 बुजुर्ग ही रहते हैं और काम करने वाले. तुम को कोई परेशानी नहीं होगी. कल तुम को इंटरव्यू के लिए हमारा ड्राइवर ले जाएगा.’’

अमिता असमंजस में पड़ गई. देखने में तो पतिपत्नी दोनों ही बहुत सज्जन और अच्छे घर के लगते हैं. परिपक्व आयु के भी हैं. मुख पर निरीह सरलता भी है पर जो झटका खा कर यहां तक वह पहुंची है उस के बाद एकदम किसी पर भरोसा करना मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं. आजकल लड़कियों को फंसा कर बेचने का रैकेट भी सक्रिय है. ऐसे में…? पर उस का सिर तो पहले ही ओखली में फंस चुका है, मूसल की मार पड़े तो पड़ने दो.

अमिता ने निर्णय लिया कि वह इन के घर ही जाएगी. नौकरी तो करनी ही है. ये लोग हावभाव से यहां के खानदानी रईस लगते हैं. अगर इन लोगों का संपर्क प्रभावशाली लोगों से हुआ तो ये कह कर उस की नौकरी भी लगवा सकते हैं. टाटा कंपनी में नौकरी मिल गई तो चांदी ही चांदी. सुना है टाटा की नौकरी शाही नौकरी है.

‘‘आप…लोगों…को…कष्ट…’’

बुजुर्ग महिला हंसी और बोली, ‘‘बेटी, पहले घर तो चलो फिर हमारे कष्ट के लिए सोचना. हां, तुम को संकोच न हो इसलिए बता दूं कि हमारे 3 बेटाबेटी हैं. तीनों का विवाह हो गया है. तीनों के बच्चे स्कूलकालेजों में पढ़ रहे हैं और तीनों पूरी तरह अमेरिका और आस्ट्रेलिया में स्थायी रूप से बसे हैं. यहां हम दोनों और पुराने नौकरचाकर ही हैं.’’

अमिता का मन यह सुन कर भर आया. अपनों ने भटकने के लिए आधी रात रास्ते पर छोड़ दिया. एक बार उस की सुरक्षा की बात तक नहीं सोची और ये? जीवन में पहली बार देखा, कोई रिश्ता नहीं फिर भी वे उस की सुरक्षा के लिए कितने चिंतित हैं.

‘‘ठीक है अम्मा, आप के साथ ही चलती हूं,’’ अम्मा शब्द का संबोधन सुन वे बुजुर्ग महिला गद्गद हो उठीं.

‘‘जीती रहो बेटी, मेरी बड़ी पोती तुम्हारे बराबर ही होगी. तुम मुझे अम्मा ही कहा करो. मातापिता ने बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं.’’

इस बार वास्तव में अमिता को हंसी आ गई. मातापिता, उन का अपना-अपना परिवार, उन के संस्कार लेने योग्य हैं या नहीं, वह नहीं जानती. कम से कम अमिता ने तो उन से कुछ नहीं लिया. यह जो अच्छाई है उस के अंदर, चाहे उसे संस्कार ही समझें, यह सबकुछ उस ने पाया है एक अच्छे परिवेश में, अच्छी संस्था की शिक्षा और अनुशासन से, और इस के लिए वह मन ही मन पिता के प्रति कृतज्ञ है.

उन्होंने दोबारा अपना घर बसा लिया है पर उस के प्रति उन का जो दायित्व और कर्तव्य है, उस से एक कदम भी पीछे नहीं हटे जबकि उस की सगी मां कूड़े की तरह उस को फेंक गईं. उस के बाद एक बार भी पलट कर नहीं देखा कि वह मर गई या जीवित है.

उस का ध्यान भंग हुआ. वे महिला कह रही थीं, ‘‘आजकल देख रही हूं कि बच्चे कितने उद्दंड हैं. छोटेबड़े का लिहाज नहीं करते. शर्म नाम की कोई चीज उन में नहीं है पर करें क्या? झेलना पड़ता है. तुम तो बेटी बहुत ही सभ्य और शालीन हो.’’

‘‘मैं होस्टल में ही बड़ी हुई हूं. वहां बहुत ही अनुशासन था.’’

‘‘तभी, अच्छी शिक्षा पाई है, बेटी.’’

अमिता ने सोचा नहीं था कि इन बुजुर्ग दंपती का घर इतना बड़ा होगा. वह उन का भव्य मकान देख कर चकित रह गई. यह तो एकदम महल जैसा है. कई बीघों में फैला बागबगीचा, लौन और फौआरा, छोटा सा ताल और उस में घूमते बड़ेबड़े सफेद बतखों के जोड़े.

अम्मा हंसी और बोलीं, ‘‘3 साल पहले छोटा बेटा अमेरिका से आया था. 6 साल का पोता गांव का घर देखने गया था, वहां से बतखों का जोड़ा लाया था. देखो न बेटी, 3 साल में उन का परिवार कितना बड़ा हो गया है. सोच रही हूं कि 2 जोड़ों को रख कर बाकी गांव भेज दूंगी. वहां हमारी बहुत बड़ी झील है. उस में मछली पालन भी होता है.’’

‘‘यहां से आप का गांव कितनी दूर है?’’

‘‘बहुत दूर नहीं, यही कोई 40 किलोमीटर होगा. अब तो सड़क अच्छी बन गई है तो वहां जाने में समय कम लगता है.’’

‘‘आप लोग वहां नहीं जाते हैं?’’ अमिता ने पूछा.

‘‘जाना तो पड़ता ही है जब फसल बिकती है, बागों का व झील का ठेका उठता है. 2-4 दिन रह कर हम फिर चले आते हैं. वहां तो इस से बड़ा दोमंजिला घर है,’’ गहरी सांस ली उन्होंने, ‘‘सब वक्त का खेल है. सोचा था कि बच्चे यहां शहर में रहेंगे और हम दोनों गांव में. बच्चे गांव आएंगे, हम भी यहां आतेजाते रहेंगे पर सोचा कहां पूरा होता है.’’

अमिता समझ गई कि अनजाने में उस ने अम्मा की दुखती रग पर हाथ रख दिया है. जल्दी से उस ने बात पलटी, ‘‘आते तो हैं सब आप के पास?’’

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‘‘हां, आते हैं, साथ ले जाने की जिद भी करते हैं पर हम ने साफ कह दिया है, हम अपनी माटी को छोड़ कर कहीं नहीं जाएंगे. तुम्हारी इच्छा हो तो तुम आओ. वे आते हैं पर उन के पास समय बहुत कम है.’’

इस बुजुर्ग दंपती के घर नौकर- नौकरानियों की फौज है और सभी इन दोनों की सेवाटहल अपने सगों जैसा करते हैं. इतने लोगों की जरूरत है ही नहीं पर अम्मा ने ही कहा, ‘‘कहां जाएंगे ये बेचारे. यहां दो समय का खाना तो मिल जाता है. हमारा भी समय इन के साथ कट जाता है. बच्चे कभीकभार आते हैं तो ये उन को हाथोंहाथ रखते हैं. मुझे देखना भी नहीं पड़ता.’’

फिर कुछ सोच कर अम्मा बोलीं, ‘‘बेटी, अभी तक तुम ने अपना नाम नहीं बताया.’’

‘‘जी, मेरा नाम अमिता है.’’

‘‘सुंदर नाम है. पर घर का और कोई छोटा नाम?’’

अमिता के आंसू आ गए. आज तक इतने अपनेपन से किसी ने उस से बात नहीं की. असल में इंसान को किसी भी चीज का मूल्य तब पता चलता है जब वह उस से खो जाती है.

‘‘जी है… बिट्टू.’’

‘‘यही अच्छा है. मैं तुम्हें बिट्टू ही कहूंगी.’’

अमिता मन ही मन हंस पड़ी. ऐसा लग रहा है जैसे इन्होंने समझा है कि वह जीवन भर के लिए उन के पास रहने आई है. वह उठ कर कमरे में आ गई. उस का कमरा, बाथरूम और बरामदा इतना बड़ा है कि दिल्ली में एक कमरे का फ्लैट बन जाएगा.

अमिता को अब समय मिला कि वह अपने लिए कुछ सोचे पर कोई दिशा उस को नहीं मिल रही. उलझन में रहते हुए भी एक निर्णय तो उस ने लिया कि इन लोगों को वह अपनी पूरी सचाई बता देगी और पापा को फोन कर के अपने बारे में खबर देगी. कुछ भी हो उन का सहयोग नहीं होता तो अब तक उस का अस्तित्व ही मिट जाता, मां तो उसे कूड़े की तरह फेंक अपने सुख को खोजने चली गई थीं.

खाने की विशाल मेज पर बस 3 जने बैठ घर की बनी कचौरियों के साथसाथ चाय पी रहे थे. बाबूजी ने कहा, ‘‘मेरे पिता थोड़े एकांतप्रिय थे. हमारा खेत, शहर से कटा हुआ था तो उन्होंने यहां अपनी हवेली बनवा ली पर अब तो शहर फैलतेफैलते यहां तक चला आया है.’’

इसी तरह की छिटपुट बातों के बीच चाय समाप्त हुई.

दोपहर में खाना खाने के बाद अमिता अपने बिस्तर पर लेट कर सोचने लगी कि यहां इस सज्जन दंपती के संरक्षण में वह पूरी तरह सुरक्षित है. जीवन में इतनी स्नेहममता भी उस को कभी नहीं मिली पर यह ठौरठिकाना भी कितने दिन का, यह पता नहीं. अब तक तो उस ने होस्टल का जीवन काटा है. सामान्य जीवन में अभीअभी पैर रख जिन परिस्थितियों का सामना उसे करना पड़ा वह बहुत ही भयानक है.

एक घर में प्रवेश ही नहीं मिला. दूसरे घर में प्रवेश का इतना बड़ा मूल्य मांगा गया कि उस की आत्मा ही कांप उठी. मां संसार में सब से ज्यादा अपनी और अच्छी साथी होती है. यहां तो मां ने ही उसे ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया. पापा फिर भी उस के लिए सोचते हैं पर विवश हैं कुछ कर नहीं पाते. फिर भी पूरी आर्थिक सहायता उन्होंने ही दी है. उन से संबंध न तो तोड़ सकती है और न ही तोड़ेगी.

अमिता सोना चाहती थी पर नींद नहीं आई. एक तो दोपहर में उसे सोने की आदत नहीं थी दूसरी बात कि मन विक्षिप्त है, कुछ समझ नहीं पा रही थी कि अगला कदम कहां रखेगी. यह घर, ये लोग बहुत अच्छे लग रहे हैं, इंसानियत से जो विश्वास उठ गया था इन को देख वह विश्वास फिर से लौट रहा है पर यहां भी वह कब तक टिकेगी. उस की पूरी कहानी सुनने के बाद ये उस को आश्रय देंगे या नहीं यह नहीं समझ पा रही. वैसे तो इन के घर कई आश्रित हैं पर उन में और अमिता में जमीनआसमान का अंतर है.

फै्रश हो कर कमरे से बाहर आते ही देखा कि बरामदे में दोनों पतिपत्नी बैठे हैं. उसे देख हंस दीं अम्मा, ‘‘आओ बेटी, चाय आ रही है. मैं संतो को तुम्हारे पास भेज ही रही थी. बैठो.’’

बेंत की कुरसियां वहां पड़ी थीं. अमिता भी एक कुरसी खींच कर बैठ गई. चाय आ गई. इस बार भी अमिता ने चाय बना कर उन को दी. बाबूजी ने प्याला उठाया और बोले, ‘‘कल तुम्हारा इंटरव्यू है. कितने बजे है?’’

यह सुनते ही अमिता का प्याला छलक गया.

‘‘असल में टेल्को का दफ्तर यहां से दूर है. थोड़ा जल्दी निकलना. मैं ड्राइवर को बोल दूंगा, कल जल्दी आ कर गाड़ी तैयार रखे.’’

अब और नहीं, इन को सचाई बतानी ही पड़ेगी. इतनी चालाकी उस के अंदर नहीं है कि इतनी बड़ी बात छिपा ले. मन और मस्तिष्क पर अपराधबोध का दबाव बढ़ता जा रहा था.

‘‘बाबूजी,’’ अमिता बोली, ‘‘मुझे आप दोनों से कुछ कहना है.’’

‘‘हां…हां. कहो.’’

‘‘अम्मा, मैं ने आप से झूठ बोला है. मेरा यहां कोई इंटरव्यू नहीं है.’’

बुजुर्ग पतिपत्नी चौंके.

‘‘तो…फिर…? इतनी जल्दी क्या थी गाड़ी पकड़ने की.’’

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‘‘मैं उस जीवन से भाग रही थी जहां मेरे सम्मान को भी दांव पर लगा दिया गया था.’’

‘‘किस ने लगाया?’’

‘‘मेरी सगी मां ने.’’

‘‘बेटी, हम कुछ समझ नहीं पा रहे हैं.’’

बचपन से ले कर आज तक की पूरी कहानी अमिता ने उन्हें सुनाई. वे दोनों स्तब्ध हो उस की आपबीती सुन रहे थे. अम्मा के आंसू बह रहे थे. उन्होंने उठ कर उसे अपनी गोद में खींचा.

‘‘इतनी सी उम्र में बेटी तू ने कितना सहा है. पर तू चिंता मत कर. शायद हमारा साथ तुम को मिलना था इसलिए नियति ने हमें उस गाड़ी और उसी डब्बे में भेज दिया. कितनी पढ़ी हो?’’

‘‘बीए फाइनल की परीक्षा दी है. अभी परीक्षाफल नहीं आया है. पास होने के बाद जहां भी नौकरी मिलेगी मैं चली जाऊंगी.’’

बाबूजी ने कहा, ‘‘तुम कहीं नहीं जाओगी. काम की कमी नहीं है यहां. मैं ही तुम्हारी नौकरी का प्रबंध कर दूंगा. हर लड़की को स्वावलंबी बनना चाहिए. पर तुम रहोगी हमारे ही साथ. देखो बेटी, तुम्हारी उम्र बहुत कम है. ऐसे में बड़ों का संरक्षण बहुत जरूरी है. दूसरी बात, हम दोनों भी बहुत अकेले हैं. अपने बच्चे तो बहुत दूर चले गए हैं. मातापिता की खोजखबर भी नहीं लेते. ऐसे में जवान बच्चे का संरक्षण हम को भी चाहिए. यहां इतने काम करने वाले तो हैं पर अपना कोई रहे तो हम को बहुत बल मिलेगा. आराम से रहो तुम.’’

‘‘आप की आज्ञा सिरआंखों पर.’’

‘‘इतना कुछ है,’’ आंसू पोंछ कर अम्मा ने कहा, ‘‘मुझे नएनए व्यंजन बनाने का शौक है, पर खाएगा कौन? तुम रहोगी तो मेरा भी मन लगा रहेगा. चलो, 2-4 दिन में तुम को अपने गांव घुमा कर लाती हूं.’’

बाबूजी हंसे फिर बोले, ‘‘बेटी, तुम को जो भी चाहिए वह बेहिचक हो कर बता देना.’’

अमिता को संकोच तो हुआ फिर भी वह बोली, ‘‘सोच रही थी एक मोबाइल खरीद लूं क्योंकि मेरा जो मोबाइल था वह कानपुर में ही छूट गया.’’

‘‘अरे, आज ही मंगवा कर देती हूं,’’ अम्मा बोलीं, ‘‘कोई जरूरी फोन करना हो तो घर के फोन से कर लो.’’

दूसरे दिन नाश्ते के बाद खुले मन से अमिता अम्मा के साथ बात कर रही थी. बाबूजी के पास व्यापार के सिलसिले में कुछ लोग आए थे.

अम्मा ने कहा, ‘‘आज का समाज इतना स्वार्थी, विकृत, आधुनिक, उद्दंड और असहिष्णु हो गया है कि अपने सारे कर्तव्य, उचितअनुचित और कोमल भावनाओं तक को नजरअंदाज कर बैठा है. तभी तो देखो न, 3 बच्चों के मातापिता हम कितने अकेले पड़े हुए हैं.’’

अमिता ने अम्मा के मन की पीड़ा को समझा. वह अपनी पीढ़ी को बचाने के लिए बोली, ‘‘क्या करें अम्मा, इस देश में काम की कितनी कमी है.’’

‘‘क्यों नहीं कमी होगी. तुम्हीं बताओ, यहां किसी को अपने आनेजाने की रोकटोक, कोई सख्ती कुछ नहीं. पड़ोसी देश इस धरती के सब से बड़े अभिशाप बने हुए हैं. जैसे ही वहां थोड़ी असुविधा हुई सीधे यहां चले आते हैं. फिर भी जिन की रोजीरोटी का प्रश्न है वे देश छोड़ कर चले जाएं तो देश का उपकार हो. कुछ परिवार संपन्नता का मुंह भी देखें पर जिन की यहां जरूरत है वे जब देश छोड़, गांव छोड़, असहाय मातापिता को छोड़ चले जाते हैं तो हमारे लिए दुख की बात तो है ही, देश के लिए भी हानिकारक है. सामर्थ्य रहते भी उन के वृद्ध मातापिता इतने दुखी और हतोत्साहित हो जाते हैं कि उन में कुछ अच्छा, कुछ कल्याणकारी करने की इच्छा ही खत्म हो जाती है.’’

अम्मा का हर शब्द अमिता के मन की गहराई में उतर रहा था. अम्मा की सोच कितनी उन्नत है, उन्होंने गांव का जीवन, गरीबी, लोगों का दुखदर्द अपनी आंखों से देखा, मन से अनुभव किया है, पर चाहते हुए भी अपना हाथ नहीं बढ़ा पातीं. साहस भी नहीं कर पा रहीं क्योंकि उन को भी मजबूत हाथों के सहारे की जरूरत है और पीछे से साधने वाला कोई नहीं. जब तक 2 मजबूत, जवान हाथों का सहारा न हो वे कैसे किसी कल्याणकारी योजना में अपना हाथ डालें. फिर समय ऐसा है कि सचाई भी चिराग ले कर खोजे नहीं मिलती है. अमिता सोचने लगी.

मोबाइल मिलने के बाद अमिता ने शिल्पा, जो उस की घनिष्ठ सहेली थी, को सारी बातें बता कर अनुरोध किया कि रिजल्ट आते ही वह तुरंत सूचना दे. शिल्पा उस के लिए चिंतित हो गई.

‘‘वह तो तू न भी कहती तब भी मैं खबर देती. पर यह बता, अब तू क्या करेगी? नौकरी तो करेगी ही, उस के लिए बेहतर होगा दिल्ली आ जा.’’

‘‘मन इतना विक्षिप्त है कि अभी उधर लौटने की इच्छा नहीं है. रिजल्ट आ जाए तब भविष्य के लिए कुछ सोचूंगी.’’

‘‘ठीक है पर अपने पापा से तू एक बार बात तो कर ले.’’

‘‘पापा से बात की थी. उन्होंने कहा कि मेरी जैसी इच्छा है मैं वही कर सकती हूं. 10 हजार रुपए भी भेज दिए हैं. मुझे उन से कोई शिकायत नहीं है.’’

‘‘चल, तू अच्छे लोगों के साथ सुरक्षित रह रही है, यह मेरे लिए बहुत बड़ी राहत की बात है. फोन करती रहना. मैं भी करूंगी.’’

एक दिन अम्मा, बाबूजी को गांव जाना पड़ा. ‘‘झील में पली मछलियों का ठेका उठने वाला है,’’ अम्मा ने बताया, ‘‘साथ में अगली बार जो मछली का बीज पड़ेगा उस की भी व्यवस्था अभी से करनी होगी.’’

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40 किलोमीटर का रास्ता वे देखते ही देखते डेढ़ घंटे में पार कर आए. परिसर में आ कर गाड़ी रुकते ही अमिता की आंखें फटी की फटी रह गईं. इस में तो जमशेदपुर की 2 हवेली बन जाएंगी. अमिता ने मन ही मन सोचा.

कुछ घंटों में उस की समझ में आ गया कि ये लोग कितने संपन्न हैं. दुख हुआ इन के बच्चों की सोच पर कि वे यहां इतना कुछ छोड़ गए हैं और पराए देश में जा कर चाकरी बजा रहे हैं. अपनी शक्ति और बुद्धि दोनों को विदेशों में जा कर कौडि़यों के मोल बेच रहे हैं.

यहां अपने बुजुर्ग मातापिता के साथ रह कर देश की समृद्धि में हाथ बंटा सकते थे. कितने असहायों को जीने के रास्ते पर ला सकते थे, कितनों को गरीबी रेखा से खींच कर ऊपर उठा सकते थे. पर…

अचानक अमिता के मन में आया कि बाबूजी और अम्मा अभी शरीर से स्वस्थ हैं. बस, थोड़े अकेलापन और डिप्रैशन की लपेट में आ रहे हैं. उन का जीवन भी तो एक तरह से निरर्थक सा हो गया है. उसे जनकल्याण में समर्पित कर के सार्थक बनाया जा सकता है. अरे, नौकरी ही क्यों? करने के लिए कितना कुछ पड़ा है. उस ने फैसला कर लिया कि इन लोगों से बात करेगी.

अमिता का प्रस्ताव सुन दोनों बुजुर्ग सोचने लगे. अम्मा ने कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारी योजना बहुत सुंदर है. देश व समाज का उपकार भी होगा पर बेटी हम डरते हैं. तुम्हारी उम्र अभी कम है. आज न सही पर कल तुम शादी कर के अपने घर चली जाओगी, तब हम दोनों बुजुर्ग लोग क्या करेंगे? कैसे संभालेंगे इतना कुछ.’’

बाबूजी ने कहा, ‘‘हम एक काम करते हैं. तुम्हारी योजना में थोड़ा काटछांट करते हैं. यहां अनाथ और वृद्धों की सेवा हो. उस के साथ तुम ने यह जो महिला कल्याण और लघुउद्योग निशुल्क शिक्षा केंद्र की योजना बनाई है, उसे अभी रहने दो.’’

‘‘नहीं बाबूजी,’’ अमिता बोली, ‘‘हमारा असली काम तो यही है. कहीं मार खाती तो कहीं विदेशों में बिकती असहाय लड़कियों को बचा कर उन को स्वावलंबी बना कर उन्हें उन के पैरों पर खड़ा करना जिस से घर या बाहर कोई आंख उठा कर उन्हें देख न सके और गरीबी से जूझ कर कोई दम न तोड़ दे. अनाथ और वृद्धों की सेवा सहारा तो हो ही जाएगी.’’

अम्मा हंसी और बोलीं, ‘‘उस दिन ट्रेन में तुझे डरीसहमी एक लड़की के रूप में देखा था, आज तुझ में इतनी शक्ति कहां से आ गई?’’

बाबूजी ने मेरा सिर हिलाया और बोले, ‘‘उस दिन अग्नि परीक्षा में तप कर ही तो यह शुद्ध सोना बनी है. इस की सोच बदली, मनोबल बढ़ा और बुद्धि ने जीवन का नया दरवाजा खोला.’’

 

अमिता भी अब इन लोगों से सहज हो गई थी. पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी के मतभेद, सोच में अंतर के झगड़े तो मिटने वाले नहीं हैं. वे चलते रहेंगे. उस से किसी पीढ़ी के जीवन में कोई अंतर नहीं आना चाहिए. नया खून अपने को नहीं बदलेगा, पुराना खून बेवजह मानसिक, शारीरिक कष्ट सहतेसहते उन लोगों का रास्ता देखते हुए फोन का इंतजार न करते हुए उन के कुशल समाचार लेने की प्रतीक्षा न कर के अपने जीवन को अपने ढंग से जीए. सामर्थ्य के अनुसार उन लोगों की दुख- परेशानी को कम करे. देश समाज का भला हो और अपना मन भी खुशी, उत्साह में भराभरा रहे. एकएक पैसा जोड़ कर उन लोगों के लिए जमा करने की मानसिकता समाप्त हो, वह भी उन के लिए जिन्हें उन की, उन के प्यार व ममता की  और न ही उन के जमा किए पैसों की जरूरत है.

दोनों ही अमिता की बातों से मोहित हो गए.

‘‘तुम्हारी सोच कितनी अच्छी है, बेटी.’’

‘‘समय, हालात, मार बहुत कुछ सिखा देता है बाबूजी. अभी कुछ दिन पहले तक मैं कुछ सोचती ही नहीं थी. मैं आप लोगों से मिली, जानपहचान के बाद जा कर सोच ने जन्म लिया. अम्मा, आप डरो नहीं, मैं आप लोगों को छोड़ कर कहीं नहीं जा रही.’’

‘‘तेरी शादी तो मैं जरूर करूंगी.’’

‘‘करिए पर शर्त यही रहेगी कि मैं यहां से कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘ठीक है, उसे ही हम यहां रख लेंगे.’’

इस के साथ ही वातावरण में खुशी की लहर दौड़ गई.

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Serial Story: अपनी मंजिल (भाग-2)

पूर्व कथा

बदहवास सी अमिता ट्रेन की जनरल बोगी में चढ़ कर घबरा जाती है. तभी टिकट चैकर आता है तो वह उस से झूठ बोलती है कि वह इंटरव्यू देने टाटानगर जा रही है. वह उसे फर्स्ट क्लास में जगह दिला देता है. अमिता रात को पुरानी बातें याद करने लगती है.

होस्टल में पलीबढ़ी अमिता के मम्मीपापा का तलाक हो चुका था. हर साल छुट्टियों में वह घर न जा कर कहीं न कहीं कैंप में चली जाती और पापा भी उसे भेजने को राजी हो जाते. हालांकि पापा उसे बहुत प्यार करते थे, पर मां की कमी उसे महसूस होती. इस बार छुट्टियों में आतंकवादी गतिविधियों के कारण उन का कैंप रद्द हो गया तो वह पापा को सरप्राइज देने के लिए अकेली ही दिल्ली चली गई. पापा उसे देख कर पसोपेश में पड़ गए. तभी एक युवती से उस का सामना हुआ. तब उसे पता चला कि उन्होंने तो शादी कर के दुनिया ही बसाई हुई है. वह उलटे पांव वहां से लौट गई. अमिता फिर अपनी मां के पास कानपुर चली गई.

अब आगे…

अमिता के सामने एक पल में सारा संसार सुनहरा हो गया. मां कभी बच्चे से दूर नहीं जा सकती. पापा ने बहुत कुछ किया पर मां संसार में सर्वश्रेष्ठ आश्रय है.

‘इतने दिनों के बाद मेरी याद आई तुझे?’ उन्होंने फिर चूमा उसे.

‘चल…अंदर चल.’

‘बैठ, मैं चाय बनाती हूं.’

बैग को कंधे से उतार कर नीचे रखा और सोफे पर बैठी. घर में पता नहीं कौनकौन हैं? वे लोग उस का आना पता नहीं किसकिस रूप में लेंगे. मम्मी अपनी हैं पर बाकी से तो कोई रिश्ता नहीं, तभी अमिता चौंकी. अंदर कर्कश आवाज में कोई गरजा.

‘8 बज गए, चाय बनी कि नहीं.’

‘बनाती हूं, बिट्टू आई है न इसलिए देर हो गई.’

‘कौन है यह बिट्टू? सुबह किसी के घर आने का यह समय है क्या?’

‘धीरे बोलो, वह सुन लेगी. मेरी बेटी है अमिता,’ मां के स्वर में लाचारी और घबराहट थी.

‘तुम्हारी बेटी, वह होस्टल वाली न. मेरे घर में यह सब नहीं चलेगा. जाने के लिए कह दो.’

‘अरे, मुझ से मिलने आई होगी. 2-4 दिन रहेगी फिर चली जाएगी पर तुम पहले से हल्ला मत करो.’

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मां के शब्दों में अजीब सी याचना और विनती थी. आंखों के सामने उजली सुबह स्याह हो गई. ये उस को नहीं रखेंगे तो अब क्या करेगी? पापा होटल में रख रहे थे वह फिर भी अच्छा था. किसी की दया का पात्र तो नहीं बनती.

परीक्षाफल आने में अभी पूरा एक महीना पड़ा है. उस के बाद ही तो वह कहीं नौकरी तलाश कर सकती है पर तब तक का समय? होस्टल खुला होता तो लौट जाती. वहीं कोई छोटामोटा काम देख लेती पर कानपुर तो नई और अनजान जगह है. कौन नौकरी देगा?

तभी सुनीता ट्रे में रख कर चाय ले आईं. पीछेपीछे एक गैंडे जैसा आदमी चाय पीता हुआ लुंगी और बनियान में आ गया. लाललाल आंखें, मोटे लटके होंठ, डीलडौल मजदूरों जैसा, भद्दा हावभाव. उस की आंखों के सामने सौम्य, भद्र व्यक्तित्व वाले उस के पापा आ गए. मम्मी की रुचि इतनी विकृत हो गई है. छि:.

‘चाय ले, ये सतीशजी हैं मेरे पति.’

मन ही मन अमिता ने सोचा यह आदमी तो पापा के चपरासी के समान भी नहीं है. उस ने बिना कुछ बोले चाय ले ली. गैंडे जैसे व्यक्ति ने स्वर को कोमल करते हुए कहा, ‘अरे, तुम मेरी बेटी जैसी हो. हमारे पास ही रहोगी.’

सुनीता का चेहरा खुशी से खिल उठा.

‘यही तो मैं कह रही थी. तेरे 2 छोटे भाई भी हैं. अच्छा लगेगा तुझे यहां.’

अमिता उस व्यक्ति की आंखों में लालच और भूख देख सिहर उठी. बिना सोचेसमझे वह कहां आ गई. मम्मी खुशी से फूली नहीं समा रहीं.

‘चाय समाप्त कर, चल तेरा कमरा दिखा दूं. साथ में ही बाथरूम है. नहाधो कर फ्रैश हो ले. मैं नाश्ता बनाती हूं. भूख लगी होगी.’

सुनीता बेटी को उस के कमरे में छोड़ आईं. मां के बाहर जाते ही उस ने अंदर से कुंडी लगा ली. उस की छठी इंद्री उसे सावधान कर रही थी कि वह यहां पर सुरक्षित नहीं है. उस का मन पापा का संरक्षण पाने के लिए रो उठा.

नहाधो कर अमिता बाहर आई तो 2 कालेकलूटे, मोटे से लड़के डाइनिंग टेबल पर स्कूल ड्रैस में बैठे थे. अमिता को दोनों एकदम जंगली लगे. सतीश नाश्ता कर रहा था. उसे फिर ललचाई नजरों से देख कर बेटों से बोला, ‘बच्चो, यह तुम्हारी दीदी है. अब हमारे साथ ही रहेगी और तुम लोग इस से पढ़ोगे,’ फिर पत्नी से बोला, ‘सुनो सुनीता, आज से ही टीचर की छुट्टी कर देना.’

‘टीचर की छुट्टी क्यों?’

‘अब इन बच्चों को यह पढ़ाएगी. 500 रुपए महीने के बचेंगे तो इस का कुछ तो खर्चा निकलेगा.’

अमिता ने सिर झुका लिया. सुनीता लज्जित हो गईं.

अमिता ने इस से पहले इतने भद्दे ढंग से बात करते किसी को नहीं देखा था और मम्मी यह सब झेल रही हैं. जबकि यही मम्मी पापा का जरा सा गरम मिजाज नहीं झेल सकीं और इस मूर्ख के आगे नाच रही हैं. उन की जरा सी जिद पर चिढ़ जाती थीं और अब इन दोनों जंगली बच्चों को झेल रही हैं और चेहरे पर शिकन तक नहीं है. यही मम्मी हैं कि आज सतीश को खुश करने में कैसे जीजान से लगी हैं जबकि पापा की नाक में दम कर रखा था.

एक खटारा सी मारुति में दोनों बेटों को ले कर सतीश चला गया. बच्चों को स्कूल छोड़ खुद काम पर चला जाएगा. लंच में आते समय ले आएगा. सुनीता ने फिर 2 कप चाय का पानी चढ़ा दिया.

अमिता को अब मां से बात करना भी अच्छा नहीं लग रहा था. इस समय वह अपने भविष्य को ले कर चिंतित थी.

‘तू तो लंबी छुट्टी में कैंप में जाती थी… इस बार क्या हुआ?’

‘कैंप रद्द हो गया. जहां जाना था वहां माओवादी उपद्रव मचा रहे हैं.’

‘पापा के पास नहीं गई थी?’

अमिता को लगा कि हर समय सही बात कहना भी मूर्खता है. इसलिए वह बोली, ‘नहीं, अभी नहीं गई.’

‘तू ने कब से अपने पापा को नहीं देखा?’

‘क्या मतलब, हर दूसरेतीसरे महीने हम मिलते हैं.’

यह सब जान कर सुनीता बुझ सी गईं.

‘अच्छा, मैं सोच रही थी कि बहुत दिनों से…’

‘होस्टल का खर्चा भी कम नहीं. पापा ने कभी हाथ नहीं खींचा,’ बेटी को अपलक देखती हुई सुनीता कुछ पल को रुक कर बोलीं, ‘अब तो तू अपने पापा के साथ रह सकती है?’

अमिता ने सीधे मां की आंखों में देखा और पूछ बैठी, ‘क्यों?’

सुनीता की नजरें झुक गईं. उन्होंने मुंह नीचा कर मेज से धूल हटाते हुए कहा, ‘मेरा मतलब…अब पढ़ाई तो पूरी हो गई, तुम्हारे लिए रिश्ता देखना चाहिए.’

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अमिता के मन में कई बातें कहने की इच्छा हुई कि तुम तो बच्ची को एक झटके में छोड़ कर चली आई थीं. 12 साल में पलट कर भी नहीं देखा. अब बेटी के रिश्ते की चिंता होने लगी? पर अपने को संभाला. इस समय उस के पैरों के नीचे जमीन नहीं है. आगे के लिए बैठ कर सोचने के लिए एक आश्रय तो चाहिए. अत: वह चुप ही रही. इस के बाद सुनीता ने बातचीत चालू रखने का प्रयास तो किया पर सफल नहीं हो पाईं. बेटी उठ कर अपने कमरे में चली गई.

ठीक 2 बजे सतीश अपनी खटारा गाड़ी में दोनों बच्चों को ले कर वापस आया. अमिता को फिर अपने पापा की याद आई. वह सारा दोष पापा को नहीं देती है. ढलती उम्र में स्त्री अकेली रह लेती है पर आदमी के लिए रहना कठिन है. वह कुछ सीमा तक असहाय हो जाता है. पापा का दोष इतना भर है कि अपनी पत्नी से बेटी की बात छिपाई और बेटी से अपने विवाह की वरना पापा ने पैसों से कभी हाथ नहीं खींचा.

मैं ने 100 रुपए मांगे तो पापा ने 500 दिए. साल में कई बार मिलते रहे. मेरी पढ़ाई की व्यवस्था में कोई कमी नहीं होने दी. उन का व्यवहार अति शालीन है. उन के उठने, बैठने, बोलने में शिक्षा और कुलीनता साफ झलकती है. इस उम्र में भी वे अति सुदर्शन हैं. एक अच्छे परिवार की उन में छाप है और यह भौंडा सा व्यक्ति..छि:…छि:. मां की रुचि के प्रति अमिता को फिर से घृणा होने लगी.

उसे पूरा विश्वास है कि यह व्यक्ति व्यसनी, व्यभिचारी और असभ्य है. किसी अच्छे परिवार का भी नहीं है. उस व्यक्ति का सभ्यता, शालीनता से परिचय ही नहीं है. पहले मजदूर होगा, अब सुपरवाइजर बन गया है. इस आदमी के हावभाव देख कर तो यही लगता है कि यह आदमी मां की पिटाई भी करता होगा जबकि पापा ने कभी मां पर हाथ नहीं उठाया बल्कि मम्मी ही गुस्से में घर में तोड़फोड़ करती थीं. अब इस के सामने सहमीसिमटी रहती हैं. अब इस समय अमिता को मां की हालत पर रत्तीभर भी तरस नहीं आया. जो जैसा करेगा उस को वैसा झेलना पड़ेगा.

रात को सोने से पहले अमिता ने कमरे का दरवाजा अच्छी तरह चैक कर लिया. उसे मां के घर में बहुत ही असुरक्षा का एहसास हो रहा था. मां का व्यवहार भी अजीब सा लग रहा था.

उस ने रात खाने से पहले टैलीविजन खोलना चाहा तो मां ने सिहर कर उस का हाथ पकड़ा और बोलीं, ‘सतीशजी को टैलीविजन का शोर एकदम पसंद नहीं. इसलिए जब तक वे घर में रहते हैं हम टैलीविजन नहीं चलाते. असल में फैक्टरी के शोर में दिनभर काम करतेकरते वे थक जाते हैं.’

अमिता तुरंत समझ गई कि टैलीविजन चलाने के लिए इस घर में सतीश की आज्ञा चाहिए. मन में विराग का सैलाब उमड़ रहा था. यहां आना उस के जीवन की सब से बड़ी भूल है. अब सहीसलामत यहां से निकल सके तो अपने जीवन को धन्य समझेगी, पर वह जाएगी कहां? उसे याद आया कि इसी मां के धारावाहिकों के चक्कर में पापा का मैच छूट जाता था पर मम्मी टैलीविजन के सामने जमी रहती थीं.

इंसान हालात को देख कर अपने को बदलता है, पर इतना? यह समझौता है या पिटाई का आतंक? पूरे दिन मां यही समझाने का प्रयास करती रहीं कि सतीश बहुत अच्छे इंसान हैं. ऊपर से जरा कड़क तो हैं पर अंदर से एकदम मक्खन हैं. उस को चाहिए कि उन से जरा खुल कर मिलेजुले तभी संपर्क बनेगा.

 

अमिता के मन में आया कि कहे मुझे न तो यहां रहना है और न ही अपने को इस परिवार से जोड़ना है. तो फिर क्यों इस के लिए खुशामद करूं.

रात को पता नहीं कैसे चूक हो गई कि खाना खा कर अपने कमरे में आ कर अमिता को कुंडी लगाने का ध्यान नहीं रहा. बाथरूम से निकल कर बिस्तर पर बैठ क्रीम का डब्बा अभी खोला भी नहीं था कि सतीश दरवाजा धकेल कर कमरे में आ गया. अमिता को अपनी गलती पर भारी पछतावा हुआ. इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई पर अब तो भूल हो ही गई थी. उस ने सख्ती से पूछा, ‘कुछ चाहिए था क्या?’

गंदे ढंग से वह हंसा और बोला, ‘बहुत कुछ,’ इतना कह कर वह सीधे बिस्तर पर आ कर बैठ गया, ‘अरे, भई, जब से तुम आई हो हमारा ठीक से परिचय ही नहीं हो पाया. अब समय मिला है तो सोचा जरा बातचीत ही कर लें.’

अमिता को खतरे की घंटी सुनाई दी. दोनों बेटे सोने गए हैं. मम्मी रसोई समेट रही हैं सो उन के इधर आने की संभावना नहीं है. उस के पैरों तले धरती हिल रही है. वह अमिता के नजदीक खिसक आया और उस के हाथ उसे दबोचने को उठे. अमिता की बुद्धि ने उस का साथ नहीं छोड़ा. उस ने यह जान लिया था कि इस घर में चीखना बेकार है. मम्मी दौड़ तो आएंगी पर साथ सतीश का ही देंगी. अमिता को जरा भी आश्चर्य नहीं होगा अगर मम्मी उस के सामने यह समझाने का प्रयास करेंगी कि यह तो प्यार है, उसे बुरा नहीं मानना चाहिए.

सतीश की बांहों का कसाव बढ़ रहा था. वैसे भी उस में मजदूर लोगों जैसी शक्ति है. पर शायद सतीश को यह पता नहीं था कि जिसे मुरगी समझ कर वह दबोचने की कोशिश में है, वह लड़की अभीअभी ब्लैकबैल्ट ले कर आई है. हर दिन कैंप से पहले 10 दिन की ट्रेनिंग खुद के बचाव के लिए होती थी.

अमिता का हाथ उठा और सतीश पल में दीवार से जा टकराया. अमिता उठी, सतीश के उठने से पहले ही उस के पैर  पूरे ताकत से सतीश के शरीर पर बरसने लगे. वह निशब्द थी पर सतीश जान बचाने को चीखने लगा. सुनीता दौड़ कर आईं. वह किसी प्रकार लड़खड़ाता खड़ा ही हुआ था कि अमिता के हाथ के एक भरपूर वार से वह फिर लुढ़क गया.

‘थैंक्यू पापा,’ अमिता के मुंह से अनायास निकला. पैसे की परवा न कर के आप ने मुझे एक अच्छे कालेज में शिक्षा दिलवाई नहीं तो मैं आज अपने को नहीं बचा पाती.’

सुनीता रोतेरोते हाथ जोड़ने लगीं, ‘बस कर बिट्टू. माफ कर दे. इन के मुंह से खून आ रहा है.’

‘मम्मी, ऐसे कुत्तों को जीना ही नहीं चाहिए,’ दांत पीस कर उस ने कहा.

‘बेटी, मेरे 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. माफ कर दे.’

मौका देख सतीश कमरे से भाग गया. सुनीता ने अमिता का हाथ पकड़ कर उसे समझाने का प्रयास किया तो अमिता गरजी, ‘रुको, मुझे छूने की कोशिश मत करना. मेरे पापा का जीना तुम ने मुश्किल कर दिया था. अच्छा हुआ तलाक हो गया क्योंकि तुम उस सुख भरी जगह में रहने के लायक ही नहीं थीं. नाली का कीड़ा नाली में ही रहना चाहता है. आज से मैं तुम्हारे साथ अपने जन्म का रिश्ता तोड़ती हूं.’

‘बिट्टू… मेरी बात तो सुन.’

‘मुझे अब आप की कोई बात नहीं सुननी. मुझे तो अपने शरीर से घिन आ रही है कि तुम्हारे शरीर से मेरा जन्म हुआ है. तुम वास्तव में एक गिरी औरत हो और तुम्हारी जगह यही है.’

दिमाग में ज्वालामुखी फट रहा था. उस ने जल्दीजल्दी सामान समेट बैग में डाला. जो छूट गया वह छूट गया. घर से निकल पड़ी और टैक्सी पकड़ कर सीधे स्टेशन पहुंची. वह इतनी जल्दी और हड़बड़ी में थी कि उस ने यह भी नहीं देखा कि कौन सी गाड़ी है. कहां जा रही है. वह तो भला हो कोच कंडक्टर का जो इस कोच में उसे जगह दे दी.

रात भर अमिता बड़ी चैन की नींद सोई. जब आंख खुली तब धूप निकल आई थी. ब्रश, तौलिया ले वह टायलेट गई. फ्रेश हो कर लौटी. बाल भी संवार लिए थे. ऊपर की दोनों सीट खाली थीं. सामने एक वयोवृद्ध जोड़ा बैठा था. पति समाचारपत्र पढ़ रहे हैं और पत्नी कोई धार्मिक पुस्तक.

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अमिता ने बिस्तर समेट कर ऊपर डाल दिया फिर सीट उठा कर आराम से बैठी. खिड़की का परदा हटा कर बाहर देखा तो खेतखलिहान, बागबगीचे यहां तक कि मिट्टी का रंग तक बदला हुआ था. यह अमिता के लिए नई बात नहीं क्योंकि हर साल वह दूरदूर कैंप में जाती थी, आसाम से जैसलमेर तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक का बदलता रंगढंग उस ने देखा है. राजस्थान  की मिट्टी से मेघालय की तुलना नहीं तो ‘गोआ’ से ‘चंडीगढ़’ की तुलना नहीं.

चाय वाले को बुला कर अमिता ने चाय ली और धीरेधीरे पीने लगी. आराम- दायक बिस्तर और ठंडक से अच्छी नींद आई थी तो शरीर की थकान काफी कम हो गई थी. सामने बैठे वृद्ध दंपती के संपूर्ण व्यक्तित्व से संपन्नता और आभिजात्यपन झलक रहा था. देखने से ही पता चला रहा था कि वे खानदानी अमीर परिवार से हैं. महिला 60 के आसपास होंगी तो पति 65 को छूते.

– क्रमश:

Serial Story: अपनी मंजिल (भाग-1)

अमिता दौड़ती सी जब प्लेटफार्म पर पहुंची तो गाड़ी चलने को तैयार थी. बिना कुछ सोचे जो डब्बा सामने आया उसी में वह घुस गई. अमिता को अभी तक रेल यात्रा करने का कोई अनुभव नहीं था. डब्बे के अंदर की दुर्गंध से उसे मतली आ गई. भीड़ को देखते ही उस के होश उड़ गए.

‘‘आप को कहां जाना है?’’ एक काले कोट वाले व्यक्ति ने उस से पूछा.

चौंक उठी अमिता. काले कोट वाला व्यक्ति रेलवे का टीटीई था जो अमिता को घबराया देख कर उतरतेउतरते रुक गया था. अब वह बुरी तरह घबरा गई. रात का समय और उसे पता नहीं जाएगी कहां? उसे तो यह तक नहीं पता था कि यह गाड़ी जा कहां रही है? वह स्तब्ध सी खड़ी रही. उसे डर लगा कि बिना टिकट के अपराध में यह उसे पुलिस के हाथों न सौंप दे.

‘‘बेटी, यह जनरल बोगी है. इस में तुम क्यों चढ़ गईं?’’ टीटीई ने सहानुभूति से कहा.

‘‘समय नहीं था अंकल, जाना जरूरी था तो मैं बिना सोचेसमझे ही…यह डब्बा सामने था सो चढ़ गई.’’

‘‘समझा, इंटरव्यू देने के लिए जा रही हो?’’

‘‘इंटरव्यू?’’ अमिता को लगा कि यह शब्द इस समय उस के लिए डूबते को तिनके का सहारा के समान है.

‘‘अंकल, जाना जरूरी था, गाड़ी न छूट जाए इसलिए…’’

‘‘गाड़ी छूटने में अभी 10 मिनट का समय है.’’

टीटीई के साथ नीचे उतर कर अमिता ने पहले जोरजोर से सांस ली.

‘‘रिजर्वेशन है?’’

‘रिजर्वेशन?’ मन ही मन अमिता घबराई. यह कैसे कराया जाता है, उसे यही नहीं मालूम तो क्या बताए. पहले कभी रेल का सफर किया ही नहीं. छुट्टी होते ही पापा गाड़ी ले कर आते और दिल्ली ले आते. छुट्टी के बाद अपनी गाड़ी से पापा उसे फिर देहरादून होस्टल पहुंचा आते. जब मम्मी थीं तब वह उन के साथ मसूरी भी जाती तो अपनी ही कार से और पापा 2-4 दिन में घूमघाम कर दिल्ली लौट जाते. मम्मी के बाद पापा अकेले ही कार से उसे लेने आते और छुट्टियां खत्म होने के बाद फिर छोड़ आते. रेल के चक्कर में कभी पड़ी ही नहीं.

12 साल हो गए, मम्मी का आना बंद हो गया, क्योंकि मम्मीपापा दोनों तलाक ले कर अलग हो गए हैं. कोर्ट ने आर्थिक सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए उस की कस्टडी पापा को सौंप दी. वैसे मां ने भी उस को साथ रखने का कोई आग्रह नहीं किया. मां के भेजे ग्रीटिंग कार्ड्स व पत्रों से ही उसे पता चला कि उन्होंने शादी कर ली है और अब कानपुर में हैं.

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आज 12 साल से उस का जीवन एकदम होस्टल का है क्योंकि गरमी की लंबी छुट्टियों में स्कूल की ओर से कैंप की व्यवस्था की जाती है. वह वहीं चली जाती. उसे अच्छा भी लगता क्योंकि दोस्तों के साथ अमिता खूब मौजमस्ती करती. पापा तो 1-2 महीने में आ कर उस से मिल जाते पर मम्मी नहीं. मां के अलग होने के बाद घर का आकर्षण भी नहीं रहा तो कोई समस्या भी नहीं हुई. पर इस बार कुछ अलग सा हो गया.

‘‘क्या हुआ मैडम, रिजर्वेशन नहीं है क्या?’’ यह सुनते ही अमिता अपने खयालों से जागी.

‘‘जी, अंकल इतनी जल्दी थी कि…’’

‘‘क्या कोई इंटरव्यू है?’’

‘‘जी…जी अंकल.’’

‘‘मेरा भतीजा भी गया है,’’ वह टिकट चैकर बोला, ‘‘टाटा कंपनी में उसे इंटरव्यू देना है पर वह तो सुबह की गाड़ी से निकल गया था. तुम को भी उसी से जाना चाहिए था. नई जगह थोड़ा समय मिले तो अच्छा है, पर यह भी ठीक है. इंटरव्यू तो परसों है. जनरल बोगी में तुम नहीं जा पाओगी. सेकंड एसी में 2-3 बर्थ खाली हैं. चलो, वहां तुम को बर्थ दे देता हूं.’’

साफसुथरे ठंडे और भीड़रहित डब्बे में आ कर अमिता ने चैन की सांस ली. नीचे की एक बर्थ दिखा कर टिकट चैकर ने कहा, ‘‘यह 23 नंबर की बर्थ तुम्हारी है. मैं इस का टिकट बना रहा हूं.’’

पैसे ले कर उस ने टिकट बना दिया. 4 बर्थों के कूपे में अपनी बर्थ पर वह फैल कर बैठ गई. तब अमिता के मन को भारी सुकून मिला था.

 

अपनी बर्थ पर कंबल, चादर, तौलिया, तकिया रखा देख उस ने बिस्तर ठीक किया. भूख लगी तो कूपे के दरवाजे पर खड़ी हो कर वैंडर का इंतजार करने लगी. तभी हाथ में बालटी लिए एक वैंडर उधर से निकला तो उस ने एक पानी की बोतल और एक कोल्डडिं्रक खरीदी और बर्थ पर बैठ कर पीने लगी. वैंडर ने ही उसे बताया था कि यह ट्रेन टाटा नगर जा रही है.

आरामदेह बर्थ मिल गई तो अमिता सोचने लगी कि कौन कहता है संसार में निस्वार्थ सेवा, परोपकार, दया, सहानुभूति समाप्त हो गई है? भले ही कम हो गई हो पर इन अच्छी भावनाओं ने अभी दम नहीं तोड़ा है और इसलिए आज भी प्रकृति हरीभरी है, सुंदर है और मनुष्यों पर स्नेह बरसाती है. यदि सभी स्वार्थी, चालाक और गंदे सोच के लोग होते तो धरती पर यह खूबसूरत संसार समाप्त हो जाता.

अमिता कोल्डडिं्रक पी कर लेट गई और चादर ओढ़ कर आंखें बंद कर लीं. इस एक सप्ताह में उस के साथ जो घटित हुआ उस पर विचार करने लगी.

इस बार भी कैंप की पूरी व्यवस्था रांची के जंगलों में थी. कुछ समय ‘हुंडरू’ जलप्रपात के पास और शेष समय ‘सारांडा’ में रहना था. स्कूल की छुट्टियां होने से पहले ही पैसे जमा हो गए थे. उस ने भी अपना बैग लगा लिया था. गरमी की छुट्टियों का मजा लेने को कई छात्र तैयार थे कि अचानक कार्यक्रम निरस्त कर दिया गया, क्योंकि वहां माओवादियों का उपद्रव शुरू हो गया था और वे तमाम टे्रनों को अपना निशाना बना रहे थे. ऐसे में किसी भी पर्यटन पार्टी को सरकार ने जंगल में जाने की इजाजत नहीं दी. अब वह क्या करती. होस्टल बंद हो चुका था और ज्यादातर छात्र अपनेअपने घर जा चुके थे. जो छात्र कैंप में नहीं थे, वे तो पहले ही अपनेअपने घरों को जा चुके थे और अब कैंप वाले भी जा रहे थे.

अमिता ने सोचा दिल्ली पास में ही तो है. देहरादून से हर वक्त बस, टैक्सियां दिल्ली के लिए मिल जाती हैं. इसलिए वह अपनेआप घर जा कर पापा को सरप्राइज देगी. पापा भी यह देख कर खुश होंगे कि बेटी बड़ी व समझदार हो गई है. अब अकेले भी आजा सकती है और फिर पापा भी तो अकेले हैं. इस बार जा कर उन की खूब सेवा करेगी, अच्छीअच्छी चीजें बना कर खिलाएगी. उन को ले कर घूमने जाएगी. उन के लिए अपनी पसंद के अच्छेअच्छे कपड़े सिलवाएगी.

संयोग से सहारनपुर आ कर उस की बस खराब हो गई और ठीक होने में 2 घंटे लग गए. अमिता घर पहुंची तो रात के साढ़े 9 बजे थे. उस ने घंटी बजाई और पुलकित मन से सोच रही थी कि पापा उसे देख कर खुशी में उछल पड़ेंगे. परीक्षा का नतीजा आने में अभी 1 महीना पड़ा है. तब तक मस्ती ही मस्ती.

दरवाजा पापा ने ही खोला. उस ने सोचा था कि पापा उसे देखते ही खुश हो जाएंगे लेकिन उन्हें सहमा हुआ देख कर वह चिंतित हो गई.

‘तू…? तेरा कैंप?’ भौचक पापा ने पूछा.

बैग फेंक कर वह अपने पापा से लिपट गई. पर पापा की प्रतिक्रिया से उसे झटका लगा. चेहरा सफेद पड़ गया था.

‘तू इस तरह अचानक क्यों चली आई?’

अमिता को लगा मानो उस के पापा अंदर ही अंदर उस के आने से कांप रहे हों. उस ने चौंक कर अपना मुंह उठाया और पापा को देखा तो वे उसे कहीं से भी बीमार नहीं लगे. सिल्क के गाउन में वे जंच रहे थे, चेहरे पर स्वस्थ होने की आभा के साथ किसी बात की उलझन थी. अमिता ने बाहर से ही ड्राइंगरूम में नजर दौड़ाई तो वह सजाधजा था. तो क्या उस के घर आने से पापा नाराज हो गए? पर क्यों? वे तो उसे बहुत प्यार करते हैं.

‘पापा, होस्टल बंद हो गया. सारी लड़कियां अपनेअपने घरों को चली गईं. मैं अकेली वहां कैसे रहती? मैस भी बंद था. खाती क्या?’

‘वह तुम्हारा कैंप? पैसे तो जमा कर आया था.’

‘इस बार कैंप रद्द हो गया. जहां जाना था वहां माओवादी उपद्रव मचा रहे हैं.’

‘शिल्पा के घर जा सकती थी. कई बार पहले भी गई हो.’

शिल्पा उस की क्लासमेट के साथ ही रूममेट भी है और गढ़वाल के एक जमींदार की बेटी है.

‘पापा, उस के चले जाने के बाद कैंप रद्द हुआ.’

उस के पापा ने अभी तक उसे अंदर आने को नहीं कहा था. बैग ले कर वह दरवाजे के बाहर ही खड़ी थी. वह खुद ही बैग घसीट कर अंदर चली आई. उसे आज पापा का व्यवहार बड़ा रहस्यमय लग रहा था.

‘बेटी, यहां आने से पहले मुझ से एक बार पूछ तो लेती.’

अमिता ने आश्चर्य के साथ पापा को देखा. क्या बात है? खुश होने की जगह पापा नाराज लग रहे हैं.

‘जब मुझे अपने ही घर आना था तो फोन कर के आप को क्या बताती? आप की बात मैं समझ नहीं पा रही. पापा, क्या मेरे आने से आप खुश नहीं हैं?’

पापा असहाय से बोल उठे, ‘ना…ना… खुश हूं…मैं अगर बाहर होता तो…? इसलिए फोन की बात कही थी.’

पापा दरवाजा बंद कर के अंदर आए. अमिता उन के गले से लग कर बोली, ‘पापा, अब मैं रोज अपने हाथों से खाना बना कर आप को खिलाऊंगी.’

‘क्यों जी, खाना खाने क्यों नहीं आ रहे? बंटी सो जाएगा,’ यह कहते हुए एक युवती परदा हटा कर अंदर पैर रखते ही चौंक कर खड़ी हो गई. लगभग 35 साल की सुंदर महिला, साजशृंगार से और भी सुंदर लग रही थी. भड़कीली मैक्सी पहने थी. पापा जल्दी से हट कर अलग खड़े हो गए.

‘दिव्या, यह…यह मेरी बेटी अमिता है.’

‘बेटी? और इतनी बड़ी? पर तुम ने तो कभी अपनी इस बेटी के बारे में मुझे नहीं बताया.’

पापा हकलाते हुए बोले, ‘बताता…पर मुझे मौका नहीं मिला. यह होस्टल में रहती है. इस साल बीए की परीक्षा दी है.’

‘तो क्या अब इसे अपने साथ रहने को बुला लिया?’

उस महिला के शब्दों से घृणा टपक रही थी. अमिता ने अपने पैरों के नीचे से धरती हिलती हुई अनुभव की.

‘नहीं…नहीं. यह यहां कैसे रहेगी?’

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पापा के चेहरे पर भय, घबराहट देख अमिता को उन पर दया आई. अब तक वह अपने पापा को बहुत बहादुर पुरुष समझा करती थी. पर दिव्या नाम की इस औरत के सामने पापा को मिमियाते देख अमिता को अंदर से भारी कष्ट हो रहा था. उस ने अपना बैग उठाया और दिव्या की तरफ बढ़ कर बोली, ‘सुनिए, मैं इन की बेटी अमिता हूं. पापा ने मुझे साथ रहने के लिए नहीं बुलाया. छुट्टियां थीं तो मैं ही उन को बिना बताए चली आई. असल में मुझे पता नहीं था कि यहां आप मेरी मां के रूप में आ चुकी हैं. आप परेशान न हों, मैं अभी चली जाती हूं.’

पापा छटपटा उठे. मुझे ले कर उन के मन की पीड़ा चेहरे पर झलक आई. बोले, ‘इतनी रात में तू कहां जाएगी. चल, मैं किसी होटल में तुझे छोड़ कर आता हूं.’

‘पापा, आप जा कर खाना खाइए. मैं जाती हूं. गुडनाइट.’

गेट से बाहर निकलते ही खाली आटो मिल गया, जिसे पकड़ कर वह बस अड्डे आ गई जहां से उस ने कानपुर जाने की बस पकड़ ली.

कानपुर तक का टिकट बनवा कर कोच की आरामदायक बर्थ पर बैठी तो अमिता को सोचने का समय मिला कि आगे उसे करना क्या है? उचित क्या है?

अमिता को आज वह दिन याद आ रहा है जब उस ने पापा का हाथ पकड़ कर देहरादून के बोर्डिंग स्कूल में कदम रखा था. फिर पापा जब होस्टल में उसे छोड़ लौटने लगे तो वह कितना रोई थी. उन के हर उठते कदम के साथ उसे आशा होती कि वह दौड़ कर लौट आएंगे और उसे गोद में उठा कर अपने साथ वापस ले जाएंगे. मम्मी भी आएंगी और उसे अपने सीने से लगा लेंगी. पर उन दोनों में से कोई नहीं आया और बढ़ते समय के साथ 6 साल की वह बालिका अब 20 साल की नवयौवना बन गई. मम्मी नहीं आईं पर अब वही उन के पास जा रही है. पता नहीं वहां उस के लिए कैसे हालात प्रतीक्षा कर रहे हैं.

मां साल में 2 बार कार्ड भेजती थीं. इसलिए अमिता को उन का पता पूरी तरह याद था. घर खोजने में उसे कठिनाई नहीं हुई. आटो वाले ने आवासविकास कालोनी के ठीक 52 नंबर घर के सामने ले जा कर आटो रोका. मां का एमआईजी घर ठीकठाक है. सामने छोटा सा लौन भी है. दरवाजे पर चमेली की बेल और पतली सी क्यारी में मौसमी फूल. गेट खोल अंदर पैर रखते ही अमिता के मन में पहला सवाल आया कि क्या मम्मी उसे पहचान पाएंगी? 6 साल की बेटी की कहीं कोई भी झलक क्या इस 20 वर्ष की युवती के शरीर में बची है. पापा तो 1-2 महीनों में मिल भी आते थे. उसे धीरेधीरे बढ़ते भी देखा है पर मम्मी ने तो इन 12 सालों में उसे देखा ही नहीं. अब उस की समझ में बात आई कि अपनी बेटी से मिलने के लिए पापा को औफिस के काम का बहाना क्यों बनाना पड़ता था.

 

उस दिन पापा का हाथ पकड़े एक नन्ही बच्ची फ्राक में सुबक रही थी और आज जींसटौप में वही बच्ची जवान हो कर खड़ी है. मां पहचानेंगी कैसे? वह गेट से बरामदे की सीढि़यों तक आई तभी दरवाजे का परदा हटा कर एक महिला बाहर आई. 12 वर्ष हो गए फिर भी अमिता को पहचानने में देर न लगी. अनजाने में ही उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘म…मम्मी…’’

मां, संसार का सब से निकटतम रिश्ता जिस के शरीर को निचोड़ कर ही उस का यह शरीर बना है.

उस का मन कर रहा था कि मां से लिपट जाए. सुनीता नहीं पहचान पाईं. सहम कर खड़ी हो गई.

‘‘आप?’’

आंसू रोक अमिता रुंधे गले से बोली, ‘‘मम्मा, मैं…मैं…बिट्टू हूं.’’

अपने सामने अपनी प्रतिमूर्ति को देख कर सुनीता सिहर उठीं. फिर दोनों बांहों में भर कर उसे चूमा, ‘‘बिट्टू…मेरी बच्ची… मेरी गुडि़या…मेरी अमिता.’’

– क्रमश:

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