किसको कहे कोई अपना- भाग 1- सुधा के साथ क्यों नही था उसका परिवार

सुधा बहुत दिनों से राजेश्वर में एक प्यारा सा बदलाव देख रही थी. धीरगंभीर राजेश्वर आजकल अनायास मुसकराने लगते, कपड़ों पर भी वे विशेष ध्यान देते हैं. पहले तो एक ड्रैस को वे 2 व 3 दिनों तक औफिस में चला लेते थे, पर अब रोज नई ड्रैस पहनते हैं. हमेशा अखबार या टीवी की खबरों में डूबे रहने वाले राजेश्वर अब बेटे द्वारा गिफ्ट किया सारेगामा का कारवां में पुराने गाने सुनने लगे थे.

सुधा भी सारी जिम्मेदारियां खत्म होने पर राहत महसूस कर रही थी. वह सोच रही थी राजेश्वर में भी बदलाव का यही कारण था. सुधा को एक ही दुख था कि राजेश्वर उस से रूठेरूठे रहते हैं. वह जानती थी कि इस में सारी गलती पति की नहीं है पर वह भी तो उस समय पूरे घर की जिम्मेदारियों में डूब कर राजेश्वर के मीठे प्रस्तावों को अनदेखा कर दिया करती थी.

राजेश्वर के औफिस जाने के बाद सुधा चाय का कप लिए सोफे पर आ बैठी. काम वाली बाई को 11 बजे आना था. चाय पीतेपीते सुधा अतीत की लंबी गलियों में निकल पड़ी.

20 साल की उम्र में म्यूजिक विषय के साथ बीए किया था. वह कालेज की लता मंगेशकर कहलाती थी. वह बहुत भोली, नम्र भी थी. संगीत विषय में एमए करना चाहती थी. पर मातापिता विवाह के लिए पात्र देखने लगे. ऐसे में राजेश्वर का रिश्ता आ गया. वे सरकारी नौकरी में उच्च अधिकारी थे. पिता नहीं थे. विरासत में

2 हवेलियां मिली थीं. एक भाई, 2 बहनें, मां, भरापूरा परिवार. वे बस, घरेलू लड़की जो घरपरिवार को संभालने और बांध के रखने में सक्षम हो, चाहते थे. दानदहेज की कोई डिमांड नहीं थी.

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सुधा के परिवार को रिश्ता भा गया. बस, 20 साल की उम्र में सुधा दुलहन बन राजेश्वर की बड़ी हवेली में आ गई. पायल की रुनझुन और चूडि़यों की खनखनाहट से राजेश्वर का दिल धड़क उठा. सब ने अनुरोध कर के 4 दिनों के लिए दोनों को मसूरी घूमने भेजा. बस, उस के बाद सुधा के सिर पर जिम्मेदारियों का भारी ताज पहना दिया गया.

अब पारिवारिक जिम्मेदारी और सब को खुश रखना, बस ये 2 बातें ही सुधा के जेहन में रह गईं, बाकी सब भूल गई. पूरे घर का काम उस के नाजुक कंधों पर आ गया. सास, गठिया वात की मरीज, देवर और ननदों पर पढ़ाई का जोर. बस, सुधा ही सारा दिन नाचती रहती. कभीकभी ननदों का सहयोग मिल जाता, तो कुछ आराम मिल जाता.

रिश्तेदारों के सामने जब घर वाले सुधा की खुल कर तारीफ करते तो सुधा फूली न समाती. सास की बहूबहू, ननदों और देवर की भाभीजीभाभीजी और राजेश्वर की सुधासुधा की आवाजों से हवेली मुखरित रहती. सुधा तो ससुराल में ऐसी रम गई कि अपनेआप को ही भुला बैठी.

राजेश्वर रात को बड़ी बेताबी से सुधा की राह देखते पर सुधा को तो 11 बजे तक बरतन धोने, अगले दिन के खानेनाश्ते के मेनू बनाने, दही जमाने से फुरसत न मिलती. खीझ कर राजेश्वर सो जाते. वे भी औफिस से थक कर आते थे.

कभी 11 या 12 बजे तक सुधा को फुरसत मिल भी जाए तो वह मसाले और हींग की बास मारते कपड़े पहने राजेश्वर की बगल में जा लेटती. गुस्से में भरे वे या तो सोफे पर जा लेटते या मुंह फेर कर सो जाते. भोली और सीधी सुधा कभी यह न समझ पाई कि अपनी ससुराल की कश्ती खेतेखेते वह अपनी सोेने सी गृहस्थी को डुबोती जा रही है. इसी दौरान बेटा भी हो गया.

मुश्किल से 40 दिन आराम कर के फिर कोल्हू के बैल जैसी जुट गई. धीरेधीरे जिम्मेदारियां बढ़ती गईं. ननदों और देवर की शादियों की सारी जिम्मेदारी सुधा और राजेश्वर पर थी. वे अकेले कमाने वाले थे. अब देवर की नौकरी लग गई तो उस की भी शादी कर दी. सास का देहांत हो चुका था.

देवरानी के चाव भी सुधा को पूरे करने पड़े. वह नए जमाने की लड़की थी. सुधा जैसा ठहराव उस में न था. घरपरिवार के कामों में न तो रुचि और न ही बहू होने के कर्तव्य का एहसास था. सुधा चुपचाप लगी रहती. देवरानी बहाना बना किचन से निकल जाती. सुधा घर की बड़ी बहू के एहसास में दबी कुछ न कहती.

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ननदों और उन की ससुराल से आने वालों की कैसे खातिरदारी करनी है, क्या लेनादेना है, सारी सिरदर्दी सुधा की थी. देवरानी तो सजधज के मेहमानों से बतियाने में चतुर थी.

देवर ने बड़ी होशयारी से बड़े भाई राजेश्वर को खुद के छोटी हवेली में जाने को मना लिया. देवरदेवरानी छोटी हवेली में शिफ्ट हो गए. बेटा अतुल 12वीं कर इंजीनियरिंग कालेज चला गया था. अचानक फोन की आवाज से सुधा वर्तमान में लौट आई. उस की भतीजी अंजू का फोन था. वह वकील थी और इसी शहर में रहती थी.

इतनी दौड़भाग में सुधा समय से पहले ही बुजुर्ग लगने लगी. एक दिन राजेश्वर के किसी खास मित्र के घर में पार्टी थी. सुधा को आग्रह कर आने को कहा था. सुधा अपनी ओर से बहुत सलीके से तैयार हो कर गई थी, पर चेहरा आभाहीन था, बालों में सफेदी झांकने लगी थी. वहां जा कर सब के बीच उसे बड़ा अटपटा लगने लगा. राजेश्वर के सुदर्शन व्यक्तित्व के सामने वह बहुत ही फीकी दिख रही थी. सभी लोगों की निगाहें उस पर थीं, आखिर सुधा उन के बौस की पत्नी थी. कुछ महिलाओं ने तो यह कह दिया कि मैडम, आप अपना ध्यान नहीं रखतीं, इतनी छोटी उम्र में बुजुर्ग लगने लगी हो. यह सुन वह झेंप गई. राजेश्वर भी खिसियाने से हो गए.

राजेश्वर उस से खिंचेखिंचे से रहने लगे थे. भोली सुधा सोचती, मैं तो उन के घरपरिवार की सेवा ही करती रही, फिर भी मुझ से अलगाव क्यों? समय का पहिया आगे बढ़ गया था. अतुल की पढ़ाई खत्म हो गई थी. मुंबई की एक कंपनी में नौकरी भी लग गई थी.

औफिस की 4 दिनों की छुट्टी थी. सुधा का मन हुआ कि अब बेटा भी नौकरी कर आत्मनिर्भर हो गया है. उस की ओर से बेफिक्री हो गई है. कहीं घूमने का प्लान करते हैं. शायद राजेश्वर को भी थोड़ा बदलाव चाहिए. बेचारे घरपरिवार के कारण जीवन के वो लुत्फ न उठा पाए जो उन्हें मिलने चाहिए थे. देर न करते हुए उस ने शाम की चाय के बाद इन छुट्टियों में अपने दोनों की घूमने की प्लानिंग बताई. राजेश्वर कुछ देर चुप रहे, फिर ठंडे स्वर में बोले, ‘‘शुक्र है तुम्हें घरपरिवार से हट कर कुछ सूझा तो सही, पर माफ करना मैं बताना भूल गया, मेरा कुछ दोस्तों के साथ गोवा जाने का प्रोग्राम बन चुका है. कल सवेरे मुझे निकलना है.’’ यह सुन सुधा चुप रह गई.

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राजेश्वर गोवा के लिए निकल गए. सुधा को एकाएक घर बहुत सूना लगने लगा. वह औटो कर छोटी हवेली देवरानी के घर चली गई. छोटी हवेली की साजसज्जा देख हैरान रह गई. उसे अपने घर की याद आई, बाबा आदम के जमाने का सोफा जो सास के समय से चला आ रहा था. पुराने समय की सजावट जिसे ठीक करने का सुधा और राजेश्वर के सिर पर जिम्मेदारियों के बोझ के रहते न तो समय मिला, न पैसा था जो कुछ कर पाते.

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Family Story In Hindi: मान मर्दन

Family Story In Hindi: मनपसंद- मेघा ने परिवार के प्रति कौनसा निभाया था फर्ज

पिता का जाना मतलब घर का छतविहीन होना. बारिश और तूफान में अचानक छाते का उड़ जाना. जिस दीवार का सहारा लिए बैठे हों उसी का भरभरा कर ढह जाना. या फिर, ऐसा ही कुछ और… मेघा सही स्थिति का आकलन कर पाने की स्थिति में नहीं है. मां को देखती है तो कलेजा कट के रह जाता है वहीं रिश्तेदारों की चाशनी में लिपटी बेतुकी सलाहें सुनती है तो कटे कलेजे को सिल कर ढाल बनाने को जी चाहता है उस का.

मेघा के लिए आने वाली परिस्थितियां आसान नहीं होंगी, इस का एहसास उसे बखूबी है. लेकिन इन से पार पाने की कोई रणनीति उस के दिमाग में अभी नहीं आ रही है. उस की मां तो साधारण घरेलू महिला रही हैं, पेट के रास्ते से पति के दिल में उतरने की कवायद से आगे कभी कुछ सोच ही नहीं पाईं. पता नहीं वे खुद नहीं सोच पाई थीं या फिर समाज ने इस से अधिक सोचने का अधिकार उन्हें कभी दिया ही नहीं था. जो कुछ भी हो, अच्छीभली गृहस्थी की गाड़ी लुढ़क रही थी. कोई भी कहां जानता था कि ऊंट कभी इस करवट भी बैठ सकता है. लेकिन अब तो बैठ ही चुका है. और यही सच है.

राहत की बात यह थी कि पिता सरकारी कर्मचारी थे और सरकार की यही अदा सब को लुभाती भी है कि चाहे परिस्थितियां कितनी भी प्रतिकूल हो जाएं लेकिन सरकार अपने सेवारत कर्मचारी और उस के बाद उस के आश्रितों का अंतिम समय तक साथ निभाती है. लिहाजा, परिवार के किसी एक सदस्य को अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिल ही जाएगी. और यही नौकरी उन के आगे की लंगड़ाती राह में लकड़ी की टेक बनेगी.

15 बरस की छुटकी माला और 20 साल की मेघा. मां को चूंकि दुनियादारी की अधिक समझ नहीं थी और माला ने अभी अपनी स्कूली पढ़ाई भी पूरी नहीं की है, इसलिए यह नौकरी मेघा ही करेगी, यह तय ही था लेकिन मेघा जानती थी कि परिवार की जिम्मेदारी लेना बिना पैरों में चप्पल पहने कच्ची सड़क पर चलने से कम नहीं होगा.

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अनुकंपा की नौकरी दोधारी तलवार होती है. एक तो यह एहसास हर वक्त कचोटता है कि यह नौकरी आप को अपनी मेहनत और काबिलीयत की बदौलत नहीं, बल्कि किसी आत्मीय की मृत्यु की कीमत पर मिली है और दूसरे हर समय एक अपराधबोध सा घेरे रहता है कि जाने कर्तव्य ठीक से निभ भी रहे हैं या नहीं. खुद को अपराधबोध न भी हो, तो कुछ नातेरिश्तेदार होते ही इसलिए हैं. उन का परम कर्तव्य होता है कि समयसमय पर सूखने की कोशिश करते घाव को कुरेद कर उसे हरा बनाए रखें. और वे अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाते हैं.

6 महीने बीततेबीतते उतरती हुई गाड़ी फिर से पटरी पर आने लगी थी. एक परिवार ने अपने मुखिया के बिना जीने की कोशिशें शुरू कर दी थीं. मेघा को भी पिता की जगह उन के औफिस में नौकरी मिल गई. जिंदगी ने ढर्रा पकड़ लिया.

फ़िल्मी और किताबी बातों से परे मेघा बहुत ही व्यावहारिक लड़की है. भविष्य को ले कर उस का दृष्टिकोण बिलकुल स्पष्ट था. वह भलीभांति जानती थी कि माला और मां उस की जिम्मेदारी हैं लेकिन इन जिम्मेदारियों के बीच भी वह खुद अपने लिए भी जीने की चाह पाले हुए थी. बीस की हवाई उम्र में उस के भी कुछ निजी सपने थे जिन्हें पूरा करने के लिए वह बरसों इंतजार नहीं करना चाहती थी. उसे पता था कि उम्र निकलने के बाद सपनों का कोई मोल नहीं रहता.

नौकरी के दरमियान ही मंगल उस की जिंदगी में आया जिसे मेघा ने आदर्शों का रोना रोते हुए जाने नहीं दिया बल्कि खुलेदिल से उस का स्वागत किया. मंगल उस का सहकर्मी. मंगल की एकएक खूबी का विस्तार से बखान करने के बजाय मेघा एक ही शब्द में कहती थी- ‘मनपसंद.’ मनपसंद यानी इस एक विशेषण के बाद उस की शेष सभी कमियां नजरअंदाज की जा सकती हैं.

इधर लोगों ने फिल्में और टैलीविजन के धारावाहिक देखदेख कर मेघा की भी त्याग की मूर्ति वाली तसवीर बना ली थी और वे उसे उसी सांचे में फिट देखने की लालसा भी रखते थे. त्याग की मूर्ति यानी पहले छुटकी को पढ़ाएलिखाए. उस का कैरियर बनाए. उस का घर बसाए. तब कहीं जा कर अपने लिए कुछ सोचे. इन सब के बीच मां की देखभाल करना तो उस का कर्त्तव्य है ही. लोगों का दिल ही टूट गया जब उस ने मंगल से शादी करने की इच्छा जताई.

“अभी कहां वह बूढी हो रही थी. पहले छोटी का बंदोबस्त कर देती, फिर अपना सोचती. अब देखना तुम, पैसेपैसे की मुहताज न हो जाओ तो कहना.” यह कह कर कइयों ने मां को भड़काया भी. मां तो नहीं भड़कीं लेकिन मेघा जरूर भड़क गई.

“आप अपना बंदोबस्त देख लीजिए, हमारा हम खुद देख लेंगे,” यह कहने के साथ ही मेघा ने हर कहने वाले मुंह को बंद कर दिया. लेकिन इस के साथ मेघा को बदतमीज और मुंहफट का तमगा मिल गया.

इस तरह की बातें बिना पंख ही उड़ती हैं. मेघा की मुंहजोरी की बातें मंगल के घर तक पहुंचीं तो मंगल की मम्मी सतर्क हुई. मंगल को तुरंत लाइनहाजिर किया गया और मेघा के स्वभाव के बारे में पूछताछ की गई. अपनी संतुष्टि के लिए मंगल की मां ने सालभर का समय मांगा ताकि वह मंगल की जीवनसंगिनी बनने के लिए मेघा की उम्मीदवारी को परख सके.

कौन जाने इस बीच मंगल के लिए कोई बेहतर रिश्ता ही मिल जाए. या, हो सकता है कि दोनों के बीच खटास ही आ जाए. मां इसी आस पर सालभर निकाल देना चाहती थी. लेकिन कहते हैं न कि करम तो जहां फूटने को लिखे हैं वहीं फूटते हैं. सालभर बाद भी न तो मंगल को कोई मिली और न ही मेघा को.

सालभर बाद दोनों इस सहमति और शर्त के साथ एक बंधन में बंध गए कि मेघा अपने परिवार की जिम्मेदारी पहले की तरह ही उठाती रहेगी और अपनी तनख्वाह भी पूर्ववत उसी परिवार पर खर्च करती रहेगी. लेकिन मनपसंद साथी का नशा किसी भी अन्य नशे से किसी भी प्रकार कम नहीं होता. मेघा भी प्रेम के नशे में आकंठ डूब गई. वह अपनी तनख्वाह बेशक अपनी मां और बहन पर खर्च करती थी लेकिन अब उस के पास उन पर खर्च करने के लिए समय कम पड़ने लगा था. छुट्टी वाले दिन किसी तरह भागती सी मायके जाती और जाते ही वापसी के लिए घड़ी देखने लगती. साल बीततेबीतते नन्हा गोदी में आ गया तो बचेखुचे समय पर उस का कब्जा हो गया.

इधर माला स्कूल खत्म कर के कालेज में आ गई थी. कालेज का खुलापन, घर में पिता के कठोर अनुशासन की कमी और बहन का बिना जरूरत पैसों से पर्स भरते रहना… किशोर लड़की के राह भटकने के लिए इतने कारण काफी होते हैं.

किसी तरह गिरतेपड़ते माला अपना कालेज कर रही थी. एक दिन पता चला कि माला के पांव गलत पगडंडी पर मुड़ गए. मां ने मेघा और मंगल को बुला कर चर्चा की. सब ने ठंडे दिमाग से सोच कर तय किया कि कालेज खत्म होते ही माला की शादी कर दी जाए.

लेकिन कालेज तो 6 महीने में खत्म हो जाएगा और इतनी जल्दी अच्छा लड़का कहां से तलाश किया जाए. दोतीन महीने खोजने के बाद भी बात बनती दिखाई नहीं दी तो मेघा को अपने देवर सोम का खयाल आया. उस ने मंगल के सामने अपनी बात रखी. मंगल उस का प्रस्ताव सुनते ही उखड़ गया.

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“दिमाग खराब हो गया क्या तुम्हारा? जिंदा मक्खी निगलने के लिए तुम्हें सोम ही दिखाई दिया,” मंगल ने गुस्से से कहा.

“बच्चों से गलतियां हो जाती हैं. हम बड़े हैं, हमें ही समझदारी दिखानी होगी. तुम ने मुझ से जिम्मेदारी बांटने का वादा नहीं किया था? तुम्हारी अपनी बहन होती तब भी क्या तुम ऐसे ही तेवर दिखाते?” जैसे कई प्रश्नों के साथ मेघा ने पति पर पलटवार किया.

“हां, तो कर रहे हैं न प्रयास. मिल जाएगा कोई न कोई लड़का. इन सब में सोम को सूली पर टांगने की कहां जरूरत है?” मंगल ने प्रतिरोध किया. लेकिन स्त्री के हठ से भला कौन जीत सका है जो आज मंगल जीत पाता. मेघा के प्रयास रंग लाए और मंगल की नापसंदगी तथा खुद माला की लाख नानुकुर के बाद भी माला सोम के साथ विवाह वचनों से बंधी अपनी बड़ी बहन की देवरानी बन गई.

समय में बहुत शक्ति होती है. बड़े से बड़े घाव भी समय के साथ भर जाते हैं. खरोचों के निशान हलके पड़तेपड़ते एक दिन अदृश्य हो जाते हैं. माला के साथ भी यही हुआ. जवानी के उफनते झरने पर सोम के प्रेम का बांध बनते ही वह शांत नदी सी बहने लगी. अब उसे गृहस्थी में रस आने लगा था. मेघा खुश थी कि उस ने बिगड़ती बात को संभाल लिया था. बहन के घर आने से अब बच्चे की देखभाल के लिए उसे हलकान नहीं होना पड़ता. चौकाचूल्हा भी माला देख लेती है.

थके शरीर को बिस्तर मिलते ही व्यक्ति पहले जरा आराम से लेटता है, फिर आंखें बंद कर दिमाग को शांत करता है और आखिरकार सो जाता है. माला के आने के बाद भी यही हुआ. धीरेधीरे घर की सारी जिम्मेदारी माला पर डाल कर मेघा निश्चिंत हो गई. माला भी खुश थी. दोनों बहनें बारीबारी से मां और सासससुर दोनों की देखभाल कर रही थीं. अपने वादे के अनुसार मेघा आज भी अपनी तनख्वाह का तीसरा हिस्सा ही अपने पास रखती है. शेष 2 हिस्से मां और माला को देती है. इस एक हिस्से से माला और सोम का जेबखर्च निकल आता है. बाकी के खर्चे मंगल और ससुरजी देखते ही हैं.

मेघा ने इतनी तरल जिंदगी की तो कल्पना भी नहीं की थी लेकिन हकीकत को भी भला कैसे झुठलाया जा सकता है. शायद जिंदगी अपनी पिछली गलतियों का पश्चात्ताप कर रही थी. इतने कांटों के बाद कुछ फूलों पर भी हक़ तो बनता ही है.

देखते ही देखते दो हजार बीस का साल आ गया. यह बरस तो मनहूसियत के साथ ही अवतरित हुआ था. चारों तरफ कोरोनाकोरोना का ही तांडव मच रहा था. हर कोई डर के साए में जी रहा था. कौन जाने मौत का अगला शिकार कौन हो. एकएक दिन भारी बीत रहा था.

‘आज तो ठीक है, कल पता नहीं क्या हो.’ हर स्वस्थ व्यक्ति यही सोच रहा था. किसी को जरा सी भी छींक या खांसी आने पर लोग उसे संदिग्ध दृष्टि से देखने लगते. कोई अपना मास्क सही करने लगता तो कोई दो फुट दूर सरक लेता. व्यक्ति से व्यक्ति के बीच अविश्वास की खाई बन गई.

मेघा भी अपने परिवार की सुरक्षा के लिए पूरी तरह सतर्क थी और फिलहाल अभी तक इस महामारी की चपेट में आने से सभी बचे हुए थे.

साल बीतने को आया. मेघा को लगने लगा था कि इस अदृश्य दुश्मन पर अब जीत हासिल हो ही गई है. लेकिन कांटों के झाड़ से लहंगा बचा कर रखने के तमाम प्रयासों के बावजूद भी यह अनहोनी हो ही गई. किसी शायर के कहे अनुसार, यह नाव भी किनारे आ कर ही डूबी.

अब जबकि वैक्सीन के आने की सुगबुगाहट के बीच लोग जरा बेफिक्र हुए ही थे और कोरोना शायद इसी लापरवाही का इंतजार कर रहा था. एक दिन अचानक सोम को हलका बुखार आया और अगले दिन उसे खांसी शुरू हो गई. टैस्ट करवाया तो कोरोना पौजिटिव आया. हालांकि अब मृत्युदर काफी कम थी लेकिन फिर भी खतरा तो था ही. आखिर जिस का डर था, वही हुआ. इंफैक्शन बढ़ने के बाद सोम हौस्पिटल गया तो फिर बौडी के रूप में ही वापस आया.

सबकुछ बहुत ही आकस्मिक रहा. महज 3 साल के वैवाहिक जीवन के बाद ही माला की रंगीन साड़ी सफेद हो गई. मां पर तो मानो वज्रपात ही हुआ था. मेघा को भी लगा जैसे कि जिंदगी ट्रेडमिल पर ही चल रही थी. चले तो खूब लेकिन पहुंचे कहीं भी नहीं.

मन बदलने के लिए मेघा ने माला को कुछ दिनों के लिए मां के पास भेज दिया. इस के बाद भी माला अकसर मां के पास ही रहने लगी. मेघा और मंगल उस के भविष्य के लिए फिर से फिक्रमंद होने लगे.

इधर अचानक कुछ दिनों से माला बुझीबुझी सी लग रही थी. सोम की यादों को कारण मान कर मेघा ने उस पर अधिक ध्यान नहीं दिया. मेघा ने महसूस तो किया कि आजकल माला अपने जीजा मंगल से भी कुछ खिंचीखिंची सी रहती है लेकिन यह भी कोई अधिक गौर करने वाली बात नहीं थी. मन खराब हो, तो कुछ भी अच्छा कहां लगता है.

माला पिछले एक माह से मां के पास ही है. आज लंच के बाद मेघा ने भी मां से मिलने का सोचा और स्कूटर ले कर उधर ही चल दी. तभी खयाल आया कि इस समय तो मां सो रही होंगी.

‘कोई बात नहीं, माला तो है न. यों उस से मन की दो बात किए हुए भी समय बीत गया. बेचारी, अभी कुछ भी तो नहीं देखा जिंदगी में, मन ही मन यह सोच कर व्यथित होती मेघा बढ़ी चली जा रही थी. घर के बाहर खड़ी मंगल की मोटरसाइकिल देख कर मेघा चौंक गई.

‘इन्हें तो इस समय औफिस में होना चाहिए. यहां किस कारण से हैं,’ सोचती हुई मेघा घर के मुख्य दरवाजे तक आ गई. दरवाजे पर लगी डोरबैबेल बजातेबजाते अचानक उस के हाथ रुक गए. अंदर से आते हैरान करने वाले वार्त्तालाप ने उसे रुकने को मजबूर कर दिया. “र्मैं ने कह दिया न, मैं यह सब नहीं करने वाली. आप नहीं मानेंगे तो मजबूरन मुझे दीदी को बताना पड़ेगा,” माला की आवाज थी जो गुस्से में लग रही थी.

“यह भी कर के देख लो. लेकिन सोच लेना, कहीं उसे भी तुम्हारी तरह मायके आ कर रहना न पड़ जाए,” मंगल के बेशर्मीभरे इस स्वर की धमकी ने मेघा के सामने सारी स्थिति खोल कर रख दी. उसे माला के उखड़े मन का कारण समझ में आ गया. वह यकीन नहीं कर पा रही थी कि मंगल इतनी कमीनी हरकत कर सकता है. मेघा बिना आहट के ही वहां से लौट आई.

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मंगल घर लौटा तो सबकुछ सामान्य था. नन्हा अपने दाद के पास खेल रहा था. मां टीवी देख रही थी. मेघा रसोई में थी. मेघा ने चाय बना कर सासससुर को थमाई और अपना कप ले कर मंगल के पास आ गई. दोनों साथसाथ पीने लगे.

“मैं कुछ दिनों के लिए मां के पास जा रही हूं,” मेघा ने कहा.

“और यहां कौन देखेगा?” मंगल के स्वर में इनकार सा था.

“सोम के बिना भी तो सब चल रहा है न. कुछ दिन मेरे बिना भी चल जाएगा,” मेघा पति के इनकार को खारिज करते हुए मायके जाने की तैयारी करने लगी. बेटी को यों अचानक आया देख कर मां हैरान तो हुईं लेकिन खुश भी थीं. घर में रौनक हो गई.

“मंगल तुझ से क्या चाह रहा है?” एक दिन एकांत में मेघा ने माला से पूछा. माला बहन का प्रश्न सुन कर अचकचा गई. फिर धीरेधीरे सब विस्तार से बताती गई.

“जीजाजी चाहते हैं कि मैं उन्हें सोम की जगह दे दूं. यदि मैं ने ऐसा नहीं किया तो वे तुम्हें छोड़ देने की धमकी देते हैं.” इस के आगे माला ने जो बताया उसे सुन कर मेघा सफेद हो गई. फिर मन ही मन एक निश्चय कर लिया.

“देख माला, अभी तुम्हारी उम्र कुछ भी नहीं है. स्नातक तो तुम हो ही, किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करो. मन लगा कर करोगी तो तुम्हें विधवा कोटे में नौकरी मिल ही जाएगी. एक बार जिंदगी सही रास्ते पर चल पड़ेगी तो मंजिल मिलने में देर नहीं होगी,” मेघा ने समझाया.

“लेकिन मेरा आधा दिमाग तो जीजाजी ने खराब कर रखा है. हर तीसरे दिन धमक जाते हैं. उन से बचने के लिए ही तो मैं यहां मां के पास रहती हूं. यहां भी चैन से नहीं रहने देते. मेरी जिंदगी को तो आम रास्ता समझ लिया है. कहते हैं कि सोम से पहले भी तो किसी की हो चुकी हो, अब क्या डर है. ऐसे में तैयारी क्या खाक करूंगी,” माला निराश थी.

“तू फिक्र मत कर. तू यहां से दूर जा कर किसी इंस्टिट्यूट में तैयारी कर. मंगल को मैं संभाल लूंगी,” मेघा के सुझाव में दम था.

माला राजी हो गई. माला को दिल्ली के एक बहुत अच्छे इंस्टिट्यूट में बैंकपीओ की तैयारी करने के लिए एडमिशन दिला दिया गया. माला वहीँ होस्टल में रहने चली गई. मंगल को पता चला, तो उस ने बहुत बवाल मचाया.

“इतना बड़ा फैसला अकेले ही कर लिया? पति हूं तुम्हारा. और उस का जीजा भी व जेठ भी. क्या मुझ से पूछना भी जरूरी नहीं लगा तुम्हें?” मंगल ने चिल्लाते हुए कहा. मंगल जाल में फंसने से पहले ही चिड़िया के उड़ने से खिन्न था.

“तुम ने कौन सा जीजा और जेठ की जिम्मेदारी निभाई है. मेरा मुंह न खुले, इसी में तुम्हारी इज्जत है. खुल गया तो पत्नी से भी हाथ धो बैठोगे,” मेघा ने दांत चबा कर पति की आंखों में आंखें डाल कर कहा.

शब्दों की तल्खी से मंगल जान गया था कि मेघा को सब पता चल गया है. वह उन आंखों का सामना नहीं कर सका और तुरंत मेघा के सामने से हट गया.

मेघा को लग रहा था मानो आज उस ने बहन, मां और परिवार के प्रति अपना एक और कर्तव्य निभाया है.

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Family Story In Hindi: मान मर्दन- भाग 3- अर्पणा ने कैसे दिया मां को जीवनदान

उस दिन मैं मां के कमरे में न जा कर सीधे भैया के कमरे में चली गई थी. भैया अकेले कमरे में बैठे गजलें सुन रहे थे. अपर्णा मां को जूस पिला रही थी. दोनों को अनदेखा कर के मैं भैया के पास जा कर तीखे स्वर में बोली, ‘क्या आप गलत गाड़ी में सिर्र्फ इसलिए सवार रहेंगे कि पहले आप गलती से उस पर चढ़ गए थे और अब सामान समेटने और नया टिकट कटवाने के झंझट से डर रहे हैं?’

भैया शायद मेरा आशय समझ नहीं पाए थे. मैं ने दोबारा कहा, ‘अब भी वक्त है. अपर्णा से तलाक ले लीजिए और दोबारा शादी कर लीजिए.’

कुछ देर तक चुप्पी छाई रही.

‘भैया, विश्वास कीजिए. अपर्णा की मां के छल को मैं समझ नहीं पाई, वरना वह कभी मेरी भाभी नहीं बनती.’

‘कारण जाने बिना तुम भी परिणाम तक पहुंच गईं,’ वह फीकी हंसी हंस दिए,  ‘अपर्णा बहुत अच्छी है. सच बात तो यह है कि वह ब्याह करना ही नहीं चाहती थी पर मां के आगे उस की चली नहीं.’

‘झूठ की बुनियाद पर क्या इमारत खड़ी हो सकती है?’ मेरा मन अब भी अशांत था.

‘झूठ उस ने नहीं, उस की मां ने बोला था, वैसे उन का निर्णय भी गलत  कहां था? हर मां की तरह उस की मां के मन में भी अपनी बेटी को सुखी गृहस्थ जीवन देने की कामना रही होगी. तुम्हारे ब्याह के समय भी मां कितनी चिंतित थीं.’

भैया पुन: बोले, ‘अपर्णा की मां की दशा भी कुछ वैसी ही रही होगी. मानसी, कितना अजीब है हमारे समाज का चलन. बेटी की इच्छाअनिच्छा जाने बिना ब्याह की चिंता शुरू हो जाती है. अधिकांश विवाह लड़की की अनुमति के बिना होते हैं. अपर्णा ने भी विरोध किया था पर उस की एक नहीं चली और अब अपर्णा मेरी पत्नी है. उस का हर सुखदुख मेरा है.’

मैं विस्मित सी अपने भाई का चेहरा निहारती रह गई.

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उस दिन के बाद मैं ने उस चौखट पर कदम नहीं रखा. स्वप्निल ने कई बार समझाया, ‘रिश्ते, संयोगवश बनते हैं. तुम्हारे भैया का ब्याह अपर्णा के साथ ही होना लिखा था. इस संबंध में व्यर्थ की चिंता करने से क्या लाभ? जरा सोचो, यही बीमारी उसे ब्याह के बाद होती तब क्या करतीं? और फिर यह रोग, असाध्य नहीं है.’

मैं चिढ़ कर जवाब देती, ‘तब की बात और थी. देखभाल कर कोई मक्खी निगलता है क्या?’

मां अकसर फोन पर अपर्णा की तबीयत के विषय में बताती रहती थीं. एक दिन बोलीं, ‘कल अपर्णा फिर बेहोश हो गई थी. उस की तबीयत देख कर घबराहट होती है. डाक्टरों ने जल्द आपरेशन करवाने की सलाह दी है.’

‘भेज दो उसे मायके. जिस तरह उन लोगों ने हमारे साथ खेल खेला है तुम भी चालाकी से काम लो,’ क्रोध से मेरी कनपटियां बजने लगीं.

‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भेजी हैं पर अपर्णा खुद ही नहीं जाना चाहती. सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है इस बच्ची में,’ मां ने कहा था.

‘तो, करती रहो सेवा.’

मां निरुत्तर हो जातीं. उन्हें कुछ कहने का मौका ही मैं कब देती थी.

मुझे बारबार मम्मीपापा और भैया पर क्रोध आ रहा था. इस नए युग में एक बीमार बहू के प्रति इतनी आत्मीयता और सहृदयता दिखाने की क्या जरूरत थी.

मेरे मनोभावों से बेखबर स्वप्निल ने मुझे आगाह किया, ‘मानसी, कल अपर्णा को अस्पताल में भरती किया जा रहा है. वैलूर से एक विशेषज्ञ सीमाराम अस्पताल आ रहे हैं. वह आपरेशन करेंगे.’

मैं ने एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा, बल्कि पीहर फोन ही नहीं किया. अपर्णा के प्रति मेरे मन में छिपा तिरस्कार स्वप्निल बखूबी पहचान रहे थे. एक दिन बुरी तरह झल्लाए मुझ पर, ‘हद होती है रूखे व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उस का चेहरा भी देखना नहीं चाहतीं.’

स्वप्निल का मन रखने के लिए मैं एक बार अस्पताल हो आई थी. नाक में आक्सीजन, मुंह में नली, एक बांह में ग्लूकोज, दूसरी बांह में दवाओं की नलिकाएं लगी थीं. मां का सेवाभाव, पापा का दुलार और भैया की आत्मीयता देखते ही बनती थी. एक पल के लिए मुझे तरस भी आया पर अगले ही पल वह भाव घृणा में बदल गया, ‘कितना अच्छा हो अगर अपर्णा की आपरेशन टेबल पर ही मृत्यु हो जाए. कम से कम भैया को तो छुटकारा मिलेगा इस रोगिणी पत्नी से.’

पर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था. कुछ ही दिनों में वह बिलकुल ठीक हो गई. अब वह भैया के साथ गाड़ी में बैठ कर दफ्तर भी जाने लगी थी. पापा अब वृद्ध हो गए थे. वह फैक्टरी कम ही जाते थे. भैया बाहर आर्डर लेने जाते तो अपर्णा घर और फैक्टरी अच्छी तरह संभाल लेती थी. मां को अब भी अस्वस्थता घेरे रहती. बहू से कई बार उन्होंने कहा भी कि एक बार बोट्सवाना घूम आओ पर वह हर बार यही कहती, ‘एक बार आप अच्छी तरह से ठीक हो जाएं, तभी जाऊंगी.’

एक सुबह वह मेरे घर आई. मेरी बिटिया को तेज बुखार था. डाक्टर ने टायफायड बताया था. मैं पूरी रात जाग कर उस के माथे पर बर्फ की पट्टियां रखती रही थी. एक ओर बिटिया की तबीयत को ले कर मैं बुरी तरह तनावग्रस्त थी, दूसरी ओर थकावट की वजह से बुरा हाल था मेरा. उस ने चौके में जा कर पूरा नाश्ता तैयार किया. फिर दोपहर की दालसब्जी तैयार कर के हमारे पास आ कर बैठी तो स्वप्निल दफ्तर की कुछ उलझनें ले कर बैठ गए. अपर्णा चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. उस के सुझावों से स्वप्निल को काफी लाभ हुआ था.

मां का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिरता जा रहा था. बैठेबैठे सांस फूलने लगती, थकावट महसूस होती, छाती में दर्द उठता. मुझे ये खबरें स्वप्निल से मिलती रहती थीं. वह अकसर मम्मीपापा से मिलने मेरे घर जाया करते थे.

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उस दिन रविवार था. स्वप्निल समय से पहले ही तैयार हो गए थे.

‘कहीं बाहर जा रहे हो?’ नाश्ते की प्लेट डाइनिंग टेबल पर रखते हुए मैं ने पूछा.

‘नहीं,’ उन्होंने रूखे स्वर में उत्तर दिया. फिर चौके में जा कर उन्होंने दूध गरम कर के थरमस में उडे़ला और 4 डबलरोटी के स्लाइस पर मक्खन लगा कर पैक करने लगे. मैं ने अपना प्रश्न फिर दोहराया, ‘कहीं जा रहे हो?’

‘हां, अस्पताल.’

‘क्यों, अब कौन बीमार है? कहीं अपर्णा, फिर तो अस्पताल नहीं चली गई?’ मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी नहीं थी.

‘तुम, इतनी कठोर और अहंकारी हो, मैं नहीं जानता था.’

मैं अवाक् उन का चेहरा निहारने लगी.

‘कम से कम, इनसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं?’

‘क्या हुआ मां को?’ मैं बुरी तरह चौंक उठी थी.

‘2 दिन से अस्पताल में हैं.’

‘क्या तुम जानते थे?’

‘हां.’

‘तो फिर बताया क्यों नहीं?’

‘इसलिए क्योंकि तुम्हारे जैसी पत्थरदिल औरत कभी पसीज ही नहीं सकती. एक इनसान अगर बुरा है तो बुरा है, अच्छा तो वह हो ही नहीं सकता. एक ग्रंथि पाल ली तुम ने अपर्णा के विरुद्ध और इतनी दुश्मनी पाल ली कि मायके से नाता ही तोड़ लिया. कम से कम बूढ़े मातापिता की तो खबर ली होती. जानती हो, तुम्हारी मां का आपरेशन हुआ है और उन्हें खून की जरूरत थी. वह खून अपर्णा ने दिया है. अपर्णा की दशा चिंताजनक बता रहे हैं डाक्टर,’ इतना कह कर स्वप्निल बाहर निकल गए.

कितना गिरा हुआ समझ रही थी मैं खुद को उस पल? बीमार, कमजोर, पराए घर की बेटी, मां की सेवा करती रही, स्नेह बरसाती रही और मैं उन की अपनी बेटी बेखबर बैठी रही.

आज अपने खून का एक कतरा दे कर भी मां की जान बचा सकूं तो खुद को धन्य समझूं, यह सोचती हुई मैं अस्पताल पहुंची. बाहर कोरिडोर में भैया और पापा खड़े थे. स्वप्निल डाक्टरों से परामर्श कर रहे थे. मुझे देखते ही भैया फूटफूट कर रो पड़े.

‘मां कैसी हैं?’ मैं ने उन्हें धीरज बंधा कर आत्मीयता से पूछा.

‘खतरे से बाहर हैं.’

‘और अपर्णा?’ पहली बार मुझे अपर्णा के प्रति चिंतित देख कर सभी के चेहरों पर ताज्जुब मगर संतुष्टि के भाव मुखर हो उठे थे.

‘रक्तचाप गिर गया है बेहोश है,’ पापा अब भी चिंतित थे.

‘उसे क्यों खून देने दिया? ब्लड बैंक से ले लेते.’

‘कहा तो था पर अपर्णा नहीं मानी. बोली, जब उस का खून मैच कर रहा है तो ब्लड बैंक से खून ले कर बीमारियों का खतरा क्यों मोल लिया जाए?’ सभी सन्नाटे में थे. भैया निढाल से बैंच पर बैठे थे. मैं देख रही थी इन लोगों का अपर्णा के साथ बंधन अटूट है. वह वास्तव में इस घर की बहू नहीं बेटी है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था….

बाहर किसी शोर से अचानक मेरे विचारों का सिलसिला टूटा. जल्दीजल्दी तैयार हो कर मैं अकेली ही अस्पताल पहुंची.

उसी समय डाक्टर ने बाहर आ कर  बताया, ‘‘अपर्णा स्वस्थ है. आप लोग उस से मिल सकते हैं.’’

सब के चेहरे पर संतुष्टि के भाव तिर आए थे. अगर अपर्णा को कुछ हो जाता तो कोई भी खुद को माफ नहीं कर पाता. सब से ज्यादा मैं खुद को दोषी समझती.

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भाग कर मैं अपर्णा के बिस्तर पर पहुंच गई और उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी. सभी अचरज से मुझे देख रहे थे. शायद किसी को भी विश्वास नहीं हो रहा था कि मेरे हृदय के इर्दगिर्द उगा खरपतवार यों एकाएक कैसे छंट गया. आंसुओं से विगलित तीव्र वेदना की धार मुख से निकली, ‘‘अपर्णा, तुम ने मां को जीवनदान दिया है.’’

‘‘नहीं दीदी, जीवनदान तो आप सब ने मुझे दिया है. मैं ने तो केवल अपना कर्तव्य निभाया है.’’

मेरी आंखों की कोर से ढुलके आंसू कब अपर्णा के आंसुओं से मिल गए, मैं नहीं जानती.

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मां इस जानकारी से संतुष्ट हो गई थीं. कंप्यूटर के इस युग में फोटो का आदानप्रदान कुछ ही घंटों में हो गया था. शीघ्र ही संबंध को स्वीकृति दे दी गई. प्रोजेक्ट समाप्त होते ही मैं स्वप्निल के साथ लखनऊ पहुंच गई थी. मम्मीपापा का विश्वास देखते ही बनता था. बारबार कहते, हमारे घर लक्ष्मी आ रही है. एकएक दिन यहां पर सब के लिए एक युग के समान प्रतीत हो रहा था. आकांक्षाएं, उम्मीदें आसमान छू रही थीं. कब वह दिन आए और मम्मीपापा बहू का मुंह देखें.

भैया की जिज्ञासा उन की बातों से स्पष्ट थी. प्रत्यक्षत: कुछ नहीं पूछते थे पर जब भी अपर्णा का प्रसंग छिड़ता, उन की आंखों में चमक उभर आती. बारबार कहते, ‘जाओ, बाजार से खरीदारी कर के आओ.’

अपर्णा के गोरे रंग पर क्या फबेगा, यह सोच कर साडि़यां ली जातीं. हीरेमोती के सेट लेते हुए मुझे भी कीमती साड़ी व जड़ाऊ सेट पापा ने दिलवाया था.

ब्याह से ठीक एक माह पूर्व भारद्वाज परिवार ने लखनऊ पहुंचने की सूचना दी थी. हवाई अड्डे पहुंचने से पहले मां का फोन आया. बोलीं, ‘मैं, अपनी बहू को पहचानूंगी कैसे?’

‘हवाई जहाज से जो सब से सुंदर लड़की उतरेगी, समझ लेना वही तुम्हारी बहू है.’

अपर्णा और उस के परिवारजनों से मिल कर मां धन्य हो उठी थीं. ब्याह की काफी तैयारियां तो पहले ही हो चुकी थीं. रहीसही कसर अपर्णा के परिजनों से मिल कर पूरी हो गई.

घर लौट कर मैं ने भैया को टटोला था, ‘कैसी लगी हमारी अपर्णा?’

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चेहरे पर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ कर उन्होंने शांत भाव से सहमति प्रदान की तो हम सब संतुष्ट हो गए थे.

ब्याह धूमधाम से हुआ. भारद्वाज दंपती ने बरात का स्वागत और दानदहेज देने में कोई कसर नहीं रखी. हीरेमोती कुंदन के सैट, कलर टीवी, वाशिंग मशीन और इंपोर्टेड फर्नीचर दे कर उन्होंने पूरा घर भर दिया था. मम्मीपापा की साध पूरी हुई, मुझे प्यारी भाभी मिली और भैया को स्नेहमयी पत्नी.

ब्याह से अगले दिन नए जोड़े ने हनीमून के लिए गोवा प्रस्थान किया तो मां बिखरा घर समेटने में जुट गई थीं. मैं भी मां की सहायता के लिए कुछ दिन वहीं ठहर गई थी.

पूरा घर व्यवस्थित कर के मां निश्ंिचत हुईं तो दरवाजे की घंटी बजी. पापा घर पर ही थे. दरवाजा स्वप्निल ने ही खोला था. भैया दरवाजे पर थे. पीछे अपर्णा खड़ी थी.

नवब्याहता जोड़े को यों अचानक वापस आया देख कर सभी हैरान रह गए थे.

कहीं झगड़ा तो नहीं हो गया, यह सोच मां चिंतित हो उठी थीं.

अपर्णा कमरे में अपना बैग खोलने में व्यस्त हो गई और भैया हमारे पास ही टेबल पर बैठ गए. मां ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘यों अचानक कैसे लौट आए? तुम लोग तो 15 दिन बाद आने वाले थे.’

‘मां, अपर्णा की तबीयत अचानक खराब हो गई थी. सिरदर्द और उलटियां शुरू हो गईं, इसीलिए लौटना पड़ा.’

पहाड़ी क्षेत्रों में चढ़ाई उतरनेचढ़ने से अकसर उलटियां हो जाती हैं. यही सोच कर मां ने कहा, ‘तो किसी डाक्टर से मशविरा कर के दवा दिलवा देते.’

‘कहा था मैं ने, पर अपर्णा नहीं मानी. बोली घर चलना है,’ भैया अब भी चिंतित थे.

हमेशा हंसनेखिलखिलाने वाली अपर्णा का चेहरा बेहद फीका और बेजान सा दिखा था उस पल.

‘चलो, कोई बात नहीं. अगली बार किसी और जगह हो आना,’ कह कर मां ने मीटिंग बर्खास्त कर दी थी.

यों घर में काम करने के लिए नौकरचाकर थे पर चौके का काम मां ही संभालती थीं. अपर्णा ने अगले दिन से ही उन्हें इस कार्यभार से मुक्त कर दिया. सब की पसंद का भोजन पकाने और खिलाने में उसे विशिष्ट आनंद की अनुभूति होती थी. कोई भी काम, अपने हाथ में ले कर, जब तक दौड़भाग कर पूरी तन्मयता से संपूर्ण नहीं करती, उसे चैन नहीं मिलता था.

एक दिन मां अपर्णा को अपने पास बुला कर बोलीं, ‘तुम ने एम.बी.ए. किया है. यों घरगृहस्थी के कामों में उलझ कर तो तुम्हारी सारी शिक्षा व्यर्थ चली जाएगी. तुम्हें घर से बाहर निकल कर कुछ करना चाहिए.’

‘पर घर का कामकाज…’ अपर्णा मां के इस अचानक आए प्रस्ताव से घबरा गई थी.

‘वह तो पहले भी होता था और आगे भी होता रहेगा. अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करो, बेटी,’ मां की मुसकराहट और विश्वास उसे धीरे से सहला गया था.

अगले ही दिन पापा और भैया के साथ जा कर फैक्टरी का वित्तीय कार्यभार उस ने अपने जिम्मे ले लिया था.

पूरी तन्मयता के साथ काम करने लगी थी अपर्णा. परिणाम अच्छे घोषित हुए. मुनाफे में वृद्धि हुई. हर किसी की प्रशंसा की पात्र बनी अपर्णा कभीकभी खुशी के उन लम्हों में भी बेहद उदास हो जाती. उस की यों असमय चुप्पी का कारण कई बार हम ने जानने का प्रयास भी किया पर वह कभी किसी से कुछ कहती नहीं थी.

कुछ ही दिन बीते थे. उसे फिर से भयानक दर्द हुआ. इस बार दर्द की तीव्रता पहले से भी ज्यादा थी. चेहरा काला पड़ गया था. होंठ टेढ़े हो गए थे.

पापा और मां सोच रहे थे उस की यह दशा तनाव की वजह से है, पर मैं उस के स्वास्थ्य को ले कर बेहद चिंतित थी. कहीं ऐसा तो नहीं कि अपर्णा इस घर में खुश नहीं? अपर्णा का ब्याह मैं ने ही करवाया था. ‘अगर उसे किसी बात से परेशानी है तो उस का समाधान भी मैं ही करूंगी,’ मैं ने सोचा.

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इसी निश्चय के साथ मैं उस के कमरे में चली गई. अपर्णा आरामकुरसी पर बैठी कुछ सोच रही थी. मैं ने पूछा, ‘अपर्णा, कहां खोई हो? कुछ कहोगी नहीं?’ मेरे अंदर समुद्रमंथन जैसी हलचल मची हुई थी.

वह आंखें नीचे किए फर्श को निहार रही थी.

‘तुम्हें सिरदर्द क्यों हो रहा है? किसी चीज की कमी है या तुम किसी बात से असंतुष्ट हो? मुझे बताओ, शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं.’

अजगर की तरह पसरा सन्नाटा जैसे अंधियारे को लील रहा था. निराशा के पल में प्यार का स्नेहिल स्पर्श और आश्वासन पाते ही उस की आंखों में आंसू छलक उठे.

‘यह सिरदर्द नया नहीं पुराना है. मुझे बे्रन ट्यूमर है.’

‘क्या… ब्रेन ट्यूमर?’ मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई थी.

‘चाची ये सब जानती थीं?’ मेरे अंतर्मन की पीड़ा पके फोडे़ सी लहकने लगी थी.

‘हां, उन दिनों मैं एम.बी.ए. फाइनल में थी, जब मुझे पहली बार सिरदर्द उठा. मां ने मुझे दर्द निवारक गोली दी और नियमित रूप से बादाम का दूध देने लगीं. सभी सोच रहे थे कि यह सिरदर्द कमजोरी और तनाव की वजह से है. आंखों का भी टेस्ट हुआ. सबकुछ सामान्य निकला. उस के बाद जब दर्द फिर हुआ तो पापा मुझे विशेषज्ञ के पास ले गए. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मुझे ब्रेन ट्यूमर है, जिस का एकमात्र इलाज आपरेशन ही है. एक दिन पापा ने एक मशहूर डाक्टर से मेरे आपरेशन की बात की. अपाइंटमेंट भी ले लिया, पर मां नहीं मानी थीं. बोलीं, ‘ब्याह योग्य बेटी के दिमाग की चीड़फाड़ करवाएंगे? अपर्णा को कुछ हो गया तो रिश्ता करना मुश्किल हो जाएगा.’ इस पर पापाजी बोले थे, ‘तुम्हें इस के रिश्ते की चिंता है. मैं तो उस के स्वास्थ्य को ले कर परेशान हूं. इसे कुछ हो गया तो मैं जीतेजी मर जाऊंगा.’

अपर्णा की बीमारी के बारे में धीरेधीरे सब को पता चल गया.

पापा संज्ञाशून्य से हो गए थे. भैया गंभीरता का मुखौटा ओढ़े कभी पत्नी को निहारते और कभी हम सब को. अपनी जीवनसंगिनी को इस रूप में देख कर उन की आकांक्षाओं पर तुषारापात हुआ था. मां गश खा कर गिर पड़ी थीं.

भैया दौड़ कर डाक्टर को बुला लाए थे. पूरी जांच के बाद पता चला, उन्हें हलका हार्टअटैक हुआ है. अचानक रक्तचाप इतना बढ़ गया कि उन्हें तुरंत अस्पताल में भरती कराना पड़ा था.

जिस दिन उन्हें थोड़ा स्वास्थ्य लाभ हुआ मैं घर लौट आई थी. इतना रोई कि  शायद दीवारें भी पसीज गई होंगी.

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मैं सोच रही थी कि कितने प्रसन्न और सुखी थे मेरे पीहर के लोग. मगर अब मेरे भाई का जीवन अंधकारमय हो गया है. अब तो पूरे परिवार का जीवन ही दुख से भर गया है. मूकदर्शिका सी बनी, परिवार की खुशियों को लुटते देख रही थी मैं. अपने भाई की खुशियों को आग में जलता देख कर कौन सी बहन का दिल रो नहीं पड़ेगा. अपर्णा के रोग का एक ही इलाज था आपरेशन. सफल हुआ तो ठीक, नहीं तो अपर्णा अपंग भी हो सकती है. फिर मेरे भैया उस अपंग पत्नी के साथ कैसे जीएंगे? उम्र भर अपर्णा की सेवा में ही जुटे रहेंगे. अब क्या मां के दिन हैं सेवा करने के? पर जो कुछ भी था उस सब के लिए मैं खुद को दोषी मान रही थी.

पहली बार मेरे मन के एक चोर कोने में विचार आया. यदि इस पूरे परिदृश्य से अपर्णा को ही हटा दिया जाए तो सब सही हो जाएगा. आजकल तो लोग बातबेबात तलाक ले लेते हैं और दूसरा ब्याह भी कर लेते हैं, अगर भैया भी ऐसा ही करें तो?

आगे पढ़ें- उस दिन मैं मां के कमरे में न जा कर सीधे…

Family Story In Hindi: मान मर्दन- भाग 1- अर्पणा ने कैसे दिया मां को जीवनदान

अपर्णा को मानसी ने अपने भाई अविनाश के लिए पसंद किया था. शादी के बाद उस के ब्रेन ट्यूमर की खबर ने सब को चौंका दिया. परंतु सकुशल आपरेशन के पश्चात उस के स्वस्थ होने पर भी मानसी के मन में उस के प्रति नफरत का बीज पनपने लगा लेकिन अपर्णा ने कुछ ऐसा किया कि पत्थर दिल मानसी सहित पूरे परिवार का दिल जीत लिया…

कुत्ता जोरजोर से भौंक रहा था. बाहर गली में चौकीदार के जूतों की चपरचपर और लाठी की ठकठक की आवाज से स्पष्ट था कि अभी सुबह नहीं हुई थी.

एक नजर स्वप्निल पर डाली. गहरी नींद में भी उन के चेहरे पर पसीने की 2-4 बूंदें उभर आई थीं. पूरा दिन दौड़भाग करने के बाद रात 12 बजे तो लौटे थे. मुझ से तो किसी प्रकार की सहानुभूति या अपनत्व की अपेक्षा नहीं करते ये लोग. किंतु आज मेरे मन को एक पल के लिए भी चैन नहीं था. मां और अपर्णा का रुग्ण चेहरा बारबार मेरी आंखों के आगे घूम जाता था. क्या मनोस्थिति होगी पापा और भैया की? डाक्टरों ने बताया था कि यदि आज की रात निकल गई तो दोनों खतरे से बाहर होंगी, वरना…

मां परिवार की केंद्र हैं तो अपर्णा परिधि. यदि दोनों में से किसी को भी कुछ हो गया तो पूरा परिवार बिखर जाएगा. किस तरह जोड़ लिया था मां ने बहू को अपने साथ. बहू नहीं बेटी थी वह उस घर की. घर का कोई भी काम, कोई भी सलाह उस के बिना अधूरी थी.

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लेकिन इतना सब देने के बाद मां को बदले में क्या मिला? तीमारदारी? मैं ने कई बार अपर्णा को तिरस्कृत करने के लिए मां से कहा भी था, ‘बहुएं दानदहेज के साथ डिगरियां लाती हैं लेकिन तुम्हारी बहू तो अपने साथ मेडिकल रिपोर्ट, एमआरआई और एक्सरे रिपोर्ट से भरी फाइलें लाई है.’

यह सुनते ही मां हंस देतीं, ‘संस्कारों की अनमोल धरोहर भी तो लाई है अपने साथ.’

मां कमरा छोड़ कर चली जातीं. जाहिर था, उन्हें अपर्णा के प्रति मेरे द्वारा कहे गए कठोर शब्दों से दुख पहुंचता था पर मैं भी क्या करती? मन था कि लाख प्रयासों के बाद भी नियंत्रित नहीं होता था.

सुबह के 5 बजे थे. कुछ देर पहले ही स्वप्निल अस्पताल के लिए निकल चुके थे. फोन की घंटी बज रही थी. कहीं कोई अप्रिय समाचार न हो? कांपते मन से फोन का चोंगा उठाया. पापा थे, बोले, ‘रुक्मिणी की तबीयत ठीक है लेकिन बहू की हालत चिंताजनक है.’

मन आत्मग्लानि से भर उठा. क्यों पापा और भैया के कहने पर मैं लौट आई? इस समय तो भैया और उन दोनों को सहानुभूति की आवश्यकता होगी. स्वप्निल भी तो बिना कुछ कहे चले गए. एक बार कहते तो मैं भी चली जाती उन के साथ. कुछ पल ठहर कर मैं कम से कम उन का मनोबल तो बढ़ा सकती थी. लेकिन उन्हें क्या पता, अपर्णा के प्रति मेरे मन में अब किसी प्रकार का मलाल नहीं.

अपर्णा से मेरा परिचय बोट्सवाना में हुआ था. उन दिनों मैं स्वप्निल के साथ एक ‘असाइनमेंट’ पर बोट्सवाना आई थी. चारों तरफ हरियाली, पेड़पौधे और वादियां और उन के बीच बसी वह छोटी सी कालोनी. कुल मिला कर वहां 10-12 ही घर थे और एक घर से दूसरे घर का फासला इतना कम था कि मौकेबेमौके आसानी से लोग एकदूसरे के यहां आतेजाते थे. यों तो अन्य परिवार भी थे वहां पर अपर्णा के परिवार से कुछ ही दिनों में हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी. उस के पिता स्वप्निल की कंपनी में ही वरिष्ठ पद पर थे. दूसरे, वह हमारी ही तरह ब्राह्मण थे और लखनऊ के मूल निवासी भी. रीतिरिवाज और बोलचाल में समानता होने की वजह से कुछ ही दिनों में हमारी दोस्ती घनिष्ठता में बदल गई और हम हर दिन मिलने लगे.

कभी घर पर, कभी क्लब में. बातचीत का सिलसिला इधर- उधर की बातों  से घूमता फिरता लखनऊ की नफासत नजा- कत, खानपान या फिर चौड़ीसंकरी गलियों से होता हुआ एकदूसरे के रीतिरिवाजों और तीजत्योहारों के मनाने के ढंग पर अटक जाता.

मुझे गोरी, लंबी, छरहरी, काली आंखों और घने बालों वाली अपर्णा का व्यक्तित्व हर समय आकर्षित करता था. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. लगभग हर विषय पर अपने विचार खुल कर व्यक्त कर सकती थी. कालिज के बाद वह अकसर मेरे घर आ जाती और किसी न किसी विषय पर  बहस छेड़ देती.

अपर्णा की मां भी एक शिष्ट, व्यावहारिक और सुलझी हुई महिला थीं. 2 बहुओं की सास और 4 पोतेपोतियों की दादी होने के बाद भी उन के व्यवहार में बचपना ही झलकता था. उम्र में वह मुझ से काफी बड़ी थीं, फिर भी उन का सान्निध्य मुझे भला लगता था.

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एक शाम मैं उन के घर गई तो मुझे ऐसा लगा जैसे वह मेरी ही बाट जोह रही हों. मुझे पास बिठा कर बोलीं, ‘मानसी, अपर्णा तेरी हर बात मानती है. तू ही इसे समझा. ब्याह की बात करो तो रोनाधोना शुरू हो जाता है इस का.’

‘मुझे ब्याह नहीं करना है,’ उस की आंखें सूजी हुई थीं. ऐसा लगा जैसे रो कर आई हो.

‘क्यों? ब्याह तो सभी लड़कियां करती हैं,’ जवानी की दहलीज पर खड़ी सुनहरे, रुपहले सपनों को देखने की उम्र में अपर्णा का वह वाक्य मुझे अचरज में डाल गया था.

‘कब तक बिठा कर रखूंगी तुझे? जब तक मांबाप हैं तब तक ठीक, उस के बाद भाईभौजाई नहीं पूछेंगे.’

‘मुझे किसी का सहारा नहीं चाहिए, पढ़ीलिखी हूं, नौकरी कर के अपनी देखभाल स्वयं कर लूंगी.’

‘औरत को जीने के लिए किसी का तो अवलंबन चाहिए. ब्याह, परिवार और बच्चे इन्हीं सब में उलझ कर तो स्त्री का जीवन सार्थक बनता है.’

‘और अगर ब्याह के बाद भी यही एकाकीपन हाथ आया तो?’ अपर्णा के शब्दों में छिपी निराशा देख मन विचलित हो उठा था. शायद हर दिन तलाक, टूटन और बिखराव की खबरें पढ़तेपढ़ते उस ने सफल, सुखद, वैवाहिक जीवन की उम्मीद ही छोड़ दी थी.

‘ऐसा कुछ नहीं होगा,’ मैं ने दृढ़ता से कहा तो वह मेरा चेहरा देखने लगी.

‘अपर्णा के लिए मेरी नजर में एक रिश्ता है. अगर आप चाहें तो…’

‘हांहां क्यों नहीं,’ अपर्णा की मां ने अति उत्साह से मेरी बात बीच में ही काट दी.

‘मैं अपने भाई अविनाश के लिए, अपर्णा का हाथ आप से मांग रही हूं. वहां आप की अपर्णा को बहू नहीं बेटी का प्यार मिलेगा.’

किसी विशेष परिचय के मुहताज नहीं थे अविनाश भैया. दिल्ली आईआईटी से इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने लंदन से एम.बी.ए. किया था. भारत लौट कर जब से उन्होंने पापा की फैक्टरी संभाली, मेरे मन में भाभी की इच्छा प्रबल हो उठी थी. जब भी मां से भैया के ब्याह की बात करती तो वह हंस कर टाल जातीं.

‘पहले तुझे ब्याहेंगे, फिर बहू आएगी इस घर में.’

‘कुछ दिन मैं भी तो भाभी के  साथ हंसबोल लूं.’

‘दूर थोड़े ही भेजेंगे तुझे. इसी शहर में ब्याहेंगे. जब मरजी हो चली आना और भाभी के साथ रह कर हंसबोल लेना,’ मां ने कहा था.

धूमधाम से ब्याह दी गई थी मैं लखनऊ में ही. स्वप्निल साफ्टवेयर कंपनी में इंजीनियर थे. सासससुर, देवरानीजेठानी का परिवार था मेरा. मां से अकसर फोन पर बात होती रहती थी. मेरा जब जी चाहता, स्वप्निल मुझे मम्मीपापा से मिलवाने ले जाते. मां, मेरी पसंद के  पकवान पकातीं लाड़ जतातीं. भैया और पापा मेरे इर्दगिर्द ही घूमते रहते. मन खुशियों से भरा रहता था. लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल पाया यह सब. 2 माह बाद ही स्वप्निल को बोट्सवाना का प्रोजेक्ट मिला और हम दोनों यहां चले आए.

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अपर्णा की मां से स्वीकृति पाते ही मैं ने लखनऊ फोन मिला कर मां से बात की. अपर्णा के विषय में सारी जानकारी दे कर मैं ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘मां, लड़की स्वभाव से सुशील और सुंदर है और सब से बड़ी बात, एम.बी.ए. भी है. भैया और पापा को बिजनेस में भी मदद करेगी.’

‘विदेश में पलीबढ़ी लड़की हमारे यहां तारतम्य बिठा पाएगी? हमारे और वहां के रहनसहन और तौरतरीकों में बहुत अंतर है,’ मां को चिंता ने घेर लिया था.

‘आप नहीं जानतीं अपर्णा

का स्वभाव. वह बेहद सरल और सादगीपसंद है. हमारे परिवार के लिए सुशील बहू और भैया के लिए आदर्श पत्नी साबित होगी वह. उन के और हमारे परिवार के वातावरण में कोई अंतर थोड़े ही है.’

‘विवाह संबंधों में पूरे परिवार का लेखाजोखा लिया जाता है,’ मां ने कहा था.

‘भारद्वाज साहब हमारी कंपनी में मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. पिछले 20 वर्षों से बोट्सवाना में हैं. अगले वर्ष रिटायर होने वाले हैं. 2 बेटे, 2 बहुएं, बच्चे सब लखनऊ में ही हैं. हजरतगंज के पास 500 गज की कोठी है.’

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किसको कहे कोई अपना- भाग 2- सुधा के साथ क्यों नही था उसका परिवार

देवरानी किसी महारानी की तरह सजधज कर मैगजीन पढ़ रही थी. सुधा अपनी मामूली सी साड़ी की सिलवटें ठीक करने लगी. एक कृत्रिम मुसकराहट के साथ देवरानी गले लग गई. देवर बाहर गए थे. औपचारिक बातचीत होती रही. लंच के समय देवर भी आ गए. भाभी को अभिवादन कर भाई के बारे में पूछने लगे. सुधा ने जब दोस्तों के साथ गोवा जाने की बात कही, तो हैरान हो गए, बोले, ‘‘मैं तो भैया के सारे दोस्तों को जानता हूं. वे सब तो यहीं शहर में हैं. अभीअभी तो बाजार में ही मिले थे. पता नहीं कौन से दोस्त साथ गए हैं?’’

तभी खाना लग गया. घर में एक स्थायी मेड रखी थी. वह सारा काम देखती थी. उस ने कई तरह के व्यंजन टेबल पर सजा दिए. सुधा हैरान रह गई. शाम को देवर सुधा को कार से घर छोड़ने जाने लगा तो सुधा के मन में एक टीस सी उठी, वह घर पर अकेली थी, एक बार भी रात को रुकने को नहीं कहा. निराश सी कार में बैठ गई. जिस देवर को छोटे भाई की तरह रखा, वह समय के साथ कैसे बदल गया. इन लोगों के लिए मैं ने अपना जीवन कुरबान कर दिया. कोई मेरा न हुआ.

घर आ कर चाय बना कर बैठी ही थी कि मुंबई से बेटे अतुल का फोन आ गया. कुछ नाराज सी आवाज में बोला, ‘‘मम्मी, पापा क्या गोवा गए हैं?’’ सुधा ने हामी भरी तो वह बोला, ‘‘पापा ने मुझे एक फोन तक नहीं किया, मिलना तो दूर. और मां, वे किस के साथ गए हैं? मेरा दोस्त मनीष, पापा को जानता है. वह कह रहा था कि उन के साथ कोई महिला थी. जब उस ने पापा को दूर से अभिवादन किया तो वे उठ कर बाहर चले गए.’’

सुधा बोली, ‘‘किसी दोस्त की बीवी होगी या टेबल शेयर किया होगा.’’

बेटे के फोन से सुधा तनावग्रस्त हो गई. रातभर सोचती रही. दिन काटे नहीं कट रहे थे. 2 बार राजेश्वर को फोन लगाया पर फोन स्विचऔफ था. अगले दिन शहर में रहने वाली भतीजी को बुला लिया. वह वकील थी, फिर भी दोपहर बाद अपना लैपटौप ले कर आ गई. यहीं से काम करती रही, बूआ से बातचीत भी करती रही.

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सुधा ने अपने मन की दुविधा अंजू को कह सुनाई. अंजू बोली, ‘‘बूआजी, फूफाजी ऐसा कुछ करेंगे, लगता तो नहीं पर आजकल कोर्ट में ऐसेऐसे केस आ रहे हैं कि कभीकभी शादी जैसे पवित्र बंधन पर प्रश्नचिह्न लग जाते हैं. आप अपनी किसी हौबी को फिर से शुरू करो. इस प्रकार खाली रहने से मन आशंकाओं से घिर जाता है. फिर भी कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद करना. मैं शहर में ही हूं.’’

सुधा का मन कुछ शांत हुआ. बूआभतीजी मिल कर बाजार गईं, चाटपकौड़ी खाई. सुधा ने अपना सालों पुराना हारमोनियम ठीक करवाया. सालों बाद सुर लगाने की कोशिश करने लगी. पर सुर ठीक नहीं लग पा रहे थे. सुधा मायूस हो गई. भतीजी अंजू ने समझाया, ‘‘बूआ, कोईर् भी हुनर हो, सालोंसाल छोड़ दो तो यही होता है. मन शांत कर अभ्यास करिए, सब हो जाएगा.’’

अगले दिन सवेरे अंजू चली गई. शाम तक राजेश्वर आ पहुंचे. सुधा भरी बैठी थी. चाय दे कर मौके की तलाश में बैठ गई. चाय पी कर राजेश्वर सुस्ताने बैठे ही थे कि सुधा का रोष फूट पड़ा, बोली, ‘‘क्या मैं पूछ सकती हूं आप किन दोस्तों के साथ गोवा गए थे.’’

अचानक राजेश्वर बौखला गए, बोले, ‘‘क्यों? मेरे हर दोस्त को तुम जानती हो जो बताऊं?’’ अपना पक्ष मजबूत करते हुए आगे बोले, ‘‘तुम्हें सारे दिन किचन में रहना अच्छा लगता, तो मैं भी घर में कैद हो जाऊं?’’

सुधा आक्रोश से भर उठी, ‘‘आप के दोस्त तो सारे यहीं थे, आप किस के साथ गए थे? अतुल के दोस्त ने आप को किसी महिला के साथ देखा था, वह कौन थी?’’

पोल खुलती देख स्वर को ऊंचा कर के राजेश्वर बोले, ‘‘रही न कुएं की मेढक, तुम जैसी औरतों से तो बस दालसब्जियों के मोलभाव करवा लो, बाहर की दुनिया क्या जानो. एक मित्र मिल गया था, उस की पत्नी थी वह, समझीं.’’ वे आगे बोले, ‘‘मेरी जासूसी करने से अच्छा है कुछ रहनेसहने व पहनेओढ़ने के तौरतरीके सीख लेतीं तो पढ़ीलिखी महिलाओं के बीच खड़ी होने योग्य हो जातीं.’’ यह कह कर राजेश्वर बाहर निकल गए.

सुधा के स्वाभिमान पर गहरी चोट लगी थी, बेबसी पर आंसू छलक आए. आहत सी वह डिनर बनाने लग गई. रात के 12 बज गए. पति का अतापता नहीं था. सुधा समझ गईर्, दाल में कुछ काला है. थोड़ी देर में राजेश्वर आ गए. कपड़े बदल, तकिया उठा दूसरे बैडरूम में चले गए.

सुधा रातभर अपने बैडरूम में लेटी सोचती रही, समय के साथ मैं ही न बदली, सब बदल कर उस से दूर हो गए. अब अपने को बदल के खुद को पति के मुकाबले का बनाऊंगी. पूरी रात सुधा ने रोते हुए काटी. सवेरे उठ किचन में लग गई. राजेश्वर बड़े बेमन से नाश्ता कर औफिस निकल गए.

सुधा ने पति की अटैची खोली. कपड़े धोने के लिए निकालने लगी. अचानक रामेश्वर के टौवल में से एक पीला सिल्क का ब्लाउज गिरा. सुधा ने ब्लाउज को अपनी अलमारी में रख दिया.

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शाम को जब चाय पी कर राजेश्वर टीवी देखने लगे तो सुधा भी वहीं आ गई. वह बोली, ‘‘आप को जो दोस्त की पत्नी वहां मिली थी वह क्या अपना ब्लाउज भी आप की अटैची में डाल गई थी.’’ यह कह उस ने ब्लाउज उन के आगे रख दिया.

ब्लाउज देख राजेश्वर शर्मिंदा हो गए पर ऊंची आवाज से सुधा को डांटने लगे. लेकिन जब बदले में सुधा ने खरीखोटी सुनाई तो स्वर बदल कर बोले, ‘‘देखो सुधा, तुम मेरे योग्य न कभी थीं. न भविष्य में होगी. तुम ने सारी जिंदगी किचन में गुजार दी. अब मैं अपने अनुसार जीना चाहता हूं. मैं तुम्हें घर से जाने को नहीं कहता. जैसे पहले रहती थीं, रहती रहो. पर मुझे मेरे अनुसार जीने दो.’’ यह कह कर उठ खड़े हुए.

सुधा बोली, ‘‘लेकिन मैं ने तो अपना सारा जीवन आप के परिवार पर कुरबान कर दिया.’’ इस पर राजेश्वर बोले, ‘‘यह करने को मैं ने तुम्हें मजबूर नहीं किया था. गरिमा मेरी पुरानी मित्र हैं. उन्होंने शादी नहीं की थी. वे और मैं बचपन से एकसाथ पढ़े और बड़े हुए. पिताजी ने मेरी मंशा जाने बिना न जाने क्यों तुम से मेरा रिश्ता तय कर दिया. अब मैं गरिमा का साथ चाहता हूं.’’

यह सुनते ही सुधा के दिल में सैकड़ों तीर एकसाथ घुस गए, बेहोशी सी आने लगी, किसी तरह लड़खड़ाती बिस्तर तक पहुंची और कटे पेड़ सी गिर पड़ी.

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क्यों, आखिर क्यों : भाग 1- मां की ममता सिर्फ बच्चे को देखती है

आज लगातार 7वें दिन भी जब मालती काम पर नहीं आई तो मेरा गुस्सा सातवां आसमान छू गया, खुद से बड़बड़ाती हुई बोली, ‘क्या समझती है वह अपनेआप को? उसे नौकरानी नहीं, घर की सदस्य समझा है. शायद इसीलिए वह मुझे नजरअंदाज कर रही है…आने दो उसे…इस बार मैं फैसला कर के ही रहूंगी…यदि वह काम करना चाहे तो सही ढंग से करे वरना…’ अधिक गुस्से के चलते मैं सही ढंग से सोच भी नहीं पा रही थी.

मालती बेहद विश्वासपात्र औरत है. उस के भरोसे घर छोड़ कर आंख मूंद कर मैं कहीं भी आजा सकती हूं. मेरी बच्चियों का अपनी औलाद की तरह ही वह खयाल रखती है. फिर यह सोच कर मेरा हृदय उस के प्रति थोड़ा पसीजा कि कोई न कोई उस की मजबूरी जरूर रही होगी वरना इस से पहले उस ने बिना सूचित किए कभी लंबी छुट्टी नहीं ली.

मेरे मन ने मुझे उलाहना दिया, ‘राधिका, ज्यादा उदार मत बन. तू भी तो नौकरी करती है. घर और दफ्तर के कार्यों के बीच सामंजस्य बनाए रखने की हरसंभव कोशिश करती है. कई बार मजबूरियां तेरे भी पांव में बेडि़यां डाल कर तेरे कर्तव्य की राह को रोकती हैं…पर तू तो अपनी मजबूरियों की दुहाई दे कर दफ्तर के कार्य की अवहेलना कभी नहीं करती?’

दफ्तर से याद आया कि मालती के कारण मेरी भी 7 दिन की छुट्टी हो गई है. बौस क्या सोचेंगे? पहले 2 दिन, फिर 4 और अब 7 दिन के अवकाश की अरजी भेज कर क्या मैं अपनी निर्णय न ले पाने की कमजोरी जाहिर नहीं कर रही हूं?

तभी धड़ाम की आवाज के साथ ऋचा की चीख सुन कर मैं चौंक गई. मैं बेडरूम की ओर भागी. डेढ़ साल की ऋचा बिस्तर से औंधेमुंह जमीन पर गिर पड़ी थी. मैं ने जल्दीजल्दी उसे बांहों में उठाया और डे्रसिंग टेबल की ओर लपकी. जमीन से टकरा कर ऋचा के माथे की कोमल त्वचा पर गुमड़ उभर आया था. दर्द से रो रही ऋचा के घाव पर मरहम लगाया और उसे चुप कराने के लिए अपनी छाती से लगा लिया. मां की ममता के रसपान से सराबोर हो कर धीरेधीरे वह नींद के आगोश में समा गई.

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फिर मुझे मालती की याद आ गई जिस की सीख की वजह से ही तो मैं अपनी दोनों बेटियों को स्तनपान का अधिकार दे पाई थी वरना मैं ने तो अपना फिगर बनाए रखने की दीवानगी में बच्चियों को अपनी छाती से लगाया ही न होता…सोच कर मेरी आंखों से 2 बूंदें कब फिसल पड़ीं, मैं जान न पाई.

ऋचा को बिस्तर पर लिटा कर मैं अपने काम में उलझ गई. हाथों के बीच तालमेल बनाती हुई मेरी विचारधारा भी तेजी से आगे बढ़ने लगी.

मां से ही जाना था कि जब मेरा जन्म हुआ था तब मां के सिर पर कहर टूट पड़ा था. रंग से तनिक सांवली थीं. अत: दादीजी को जब पता चला कि बेटी पैदा हुई है तो यह कह कर देखने नहीं गईं कि लड़की भी अपनी मां जैसी काली होगी, उसे क्या देखना? चाचीजी ने जा कर दादी को बताया, ‘मांजी, बच्ची एकदम गोरीचिट्टी, बहुत ही सुंदर है, बिलकुल आप पर गई है…सच…आप उसे देखेंगी तो अपनेआप को भूल जाएंगी.’

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‘फिर भी वह है तो लड़की की जात…घर आएगी तब देख लूंगी,’ दादी ने घोषणा की थी.

मेरे भैया उम्र में मुझ से 3 साल बड़े थे…सांवले थे तो क्या? आगे चल कर वंश का नाम बढ़ाने वाले थे…अत: उन का सांवला होना क्षम्य था.

ज्योंज्यों मैं बड़ी होती गई, त्योंत्यों मेरी और भैया की परवरिश में भेदभाव किया जाने लगा. उन के लिए दूध, फल, मेवा, मिठाई सबकुछ और मेरे लिए सिर्फ दालचावल. यह दादी की सख्त हिदायत थी. वह मानती थीं कि लड़कियां बड़ी सख्त जान होती हैं, ऐसे ही बड़ी हो जाती हैं. लड़के नाजुक होते हैं, उन की परवरिश में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. आखिर वही हमारे परिवार की शान में चार चांद लगाते हैं. बेटियां तो पराया धन होती हैं… कितना भी खिलाओपिलाओ, पढ़ाओ- लिखाओ…दूसरे घर की शोभा और वंश को आगे बढ़ाती हैं.

मम्मी और चाचीजी दोनों ही गांव की उच्चतर माध्यमिक पाठशाला में शिक्षिका थीं. वे सुबह 11 बजे जातीं और शाम साढ़े 6 बजे लौटतीं. मेरी देखभाल के लिए कल्याणी को नियुक्त किया गया था, लेकिन दादी उस से घर का काम करवातीं. बहुत छोटी थी तब भी मुझे एक कोने में पड़ा रहने दिया जाता. कई बार कपड़े गीले होते…पर कल्याणी को काम से इतनी फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह मेरे गीले कपड़े बदल दे. एक बार इसी वजह से मैं गंभीर रूप से बीमार भी हो गई थी. बुखार का दिमाग पर असर हो गया था. मौत के मुंह से मुश्किल से बहार आई थी.

इस हादसे की बदौलत ही मम्मी को पता चला था कि दादी के राज में मेरे साथ क्या अन्याय किया जा रहा था. तब मां दादी से नजरें बचा कर एक कोने में छिप कर खूब रोई थीं…पापा 1 महीने के दौरे पर से जब लौटे तब मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया. अपनी बच्ची के प्रति मां द्वारा किए गए अन्याय ने उन्हें बहुत दुख पहुंचाया था किंतु मम्मीपापा के संस्कारों ने उन्हें दादी के खिलाफ कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी.

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कुछ समय बाद पता चला कि मां ने सूरत के केंद्रीय विद्यालय में अर्जी दी थी. साक्षात्कार के बाद उन का चयन हो जाने पर पापा ने भी अपना तबादला सूरत करवा लिया. मैं मम्मी के साथ उन के स्कूल जाने लगी और भैया अन्य स्कूल में.

दादी मां द्वारा खींची गई बेटेबेटी की भेद रेखा ने मुझे इतना विद्रोही बना दिया था कि मैं अपने को लड़का ही समझने लगी थी. शहर में आ कर मैं ने मर्दाना पहनावा अपना लिया. मेरी मित्रता भी लड़कों से अधिक रही.

मम्मी कहतीं, ‘बेटी, तुम लड़की बन कर इस संसार में पैदा हुई हो और चाह कर भी इस हकीकत को झुठला नहीं सकतीं. मेरी बच्ची, इस भ्रम से बाहर आओ और दुनिया को एक औरत की नजर से देखो. तुम्हें पता चल जाएगा कि दुनिया कितनी सुंदर है. सच, दादी की उस एक गलती की सजा तुम अपनेआप को न दो, अभी तो ठीक है, लेकिन शादी के बाद तुम्हारे यही रंगढंग रहे तो मुझे डर है कि पुन: तुम्हें कहीं मायका न अपनाना पड़े.’

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Family Story In Hindi: अनोखा रिश्ता

‘‘बायमां, मैं निकल रही हूं… और हां भूलना मत,

दोपहर के खाने से पहले दवा जरूर खा लेना,’’ कह पल्लवी औफिस जाने लगी.

तभी ललिता ने उसे रोक कहा, ‘‘यह पकड़ो टिफिन. रोज भूल जाती हो और हां, पहुंचते ही फोन जरूर कर देना.’’

‘‘मैं भूल भी जाऊं तो क्या आप भूलने देती हो मां? पकड़ा ही देती हो खाने का टिफिन,’’ लाड़ दिखाते हुए पल्लवी ने कहा, तो ललिता भी प्यार के साथ नसीहतें देने लगीं कि वह कैंटीन में कुछ न खाए.

‘‘हांहां, नहीं खाऊंगी मेरी मां… वैसे याद है न शाम को 5 बजे… आप तैयार रहना मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगी,’’ यह बात पल्लवी ने इशारों में कही, तो ललिता ने भी इशारों में ही जवाब दिया कि वे तैयार रहेंगी.

‘‘क्या इशारे हो रहे हैं दोनों के बीच?’’ ललिता और पल्लवी को इशारों में बात करते देख विपुल ने कहा, ‘‘देख लो पापा, जरूर यहां सासबहू और साजिश चल रही है.’’

विपुल की बातें सुन शंभुजी भी हंसे बिना नहीं रह पाए. मगर विपुल तो अपनी मां के पीछे ही पड़ गया, यह जानने के लिए कि इशारों में पल्लवी ने उन से क्या कहा.

‘‘यह हम सासबहू के बीच की बात है,’’ प्यार से बेटे का कान खींचते हुए ललिता बोलीं.

बेचारा विपुल बिना बात को जाने ही औफिस चला गया. दोनों को

औफिस भेज कर ललिता 2 कप चाय बना लाईं और फिर इतमीनान से शंभूजी की बगल में बैठ गईं.

चाय पीते हुए शंभूजी एकटक ललिता को देखदेख कर मुसकराए जा रहे थे.

‘‘इतना क्यों मुसकरा रहे हो? क्या गम है जिसे छिपा रहे हो…?’’ ललिता ने शायराना अंदाज में पूछा, तो उन की हंसी छूट गई.

कहने लगे, ‘‘मुसकरा इसलिए रहा हूं कि तुम भी न अजीब हो. अरे, बता देती बेचारे को कि तुम सासबहू का क्या प्रोग्राम है. लेकिन जो भी हो तुम सासबहू की बौडिंग देख कर मन को बड़ा सुकून मिलता है वरना तो मेरा सासबहू के झगड़े सुनसुन कर दिमाग घूम जाता है. हाल ही में मैं ने अखबार में एक खबर पढ़ी, जिस में लिखा था सास से तंग आ कर एक बहू 12वीं मंजिल से कूद गई और जानती हो पहले उस ने अपने ढाई साल के बेटे को फेंका और फिर खुद कूद गई, जिस से दोनों की मौत हो गई. सच कह रहा हूं ललिता यह पढ़ कर मेरा तो दिल बैठ गया था.’’

शंभूजी की बातें सुन कर ललिता का भी दिल दहल गया.

‘‘सोचा जरा उस इंसान पर क्या बीतती होगी जिसे न तो मां समझ पाती हैं और न पत्नी. पिसता रहता है बेचारा मां और पत्नी के बीच.’’

‘‘हूं, सही कह रहे हैं आप. हमारे समाज में जब एक लड़की शादी के बाद अपना मायका छोड़ कर जहां उस ने लगभग अपनी आधी जिंदगी पूरे हक के साथ गुजारी होती है, ससुराल में कदम रखते ही उस के दिल में घबराहट सी होने लगती है कि यहां सब उसे दिल से तो अपनाएंगे न? अपने परिवार का हिस्सा समझेंगे न? ज्यादातर घरों में यही होता है कि बहू को आए अभी कुछ दिन हुए नहीं कि जिम्मेदारी की टोकरी उसे पकड़ा दी जाती है. उसे यह तो समझा दिया जाता है कि सासससुर के साथसाथ ननददेवर और नातेरिश्तेदारों को भी सम्मान देना होगा, लेकिन यह नहीं समझाया जाता कि आज से यह घर उस का भी है और ससुराल में उस की राय भी उतनी ही मान्य होगी जितनी घर के बाकी सदस्यों की.

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‘‘क्या एक बहू का यह अधिकार नहीं कि घर के हित के लिए जो भी फैसले लिए जाएं उन में उस की भी राय शामिल हो? क्यों सास को लगने लगता है कि बहू आते ही उस से उस के बेटे को छीन लेगी? अगर ऐसा ही है, तो फिर न करें वे अपने बेटे की शादी. रखें अपने आंचल में ही छिपा कर. अगर शादी के बाद बेटा अपने परिवार को कुछ बोल जाए, तो सब को यही लगने लगता है कि बीवी ने ही सिखाया होगा

उसे ऐसा बोलने के लिए और यही झगड़े की जड़ है. हर बात के लिए बहू को ही दोषी ठहराया जाने लगता है. और तो और उस के मायके को भी नहीं छोड़ते लोग,’’ कहते हुए ललिता की आंखें गीली हो गईं, जो शंभूजी से भी छिपी न रह पाईं.

वे समझ रहे थे कि आज ललिता के मन का गुब्बार निकल रहा है और वह वही सब बोल रही है जो उस के साथ हुआ है. उन्हें भी तो याद है… कभी उन की मां ने ललिता को चैन से जीने नहीं दिया. बातबात पर तानेउलाहने, गालीगलौच यहां तक कि थप्पड़ भी चला देती थीं वे ललिता पर और बेचारी रो कर रह जाती. लेकिन क्या कोई भी लड़की अपने मायके की बेइज्जती सहन कर सकती है भला? जब ललिता की सास उस के मायके के खिलाफ कुछ बोल देतीं, तो उस से सहन नहीं होता और वह पलट कर जवाब दे देती. यह बात उन की मां की बरदाश्त के बाहर चली जाती. गरजते हुए कहतीं कि अगर फिर कभी ललिता ने कैंची की तरह जबान चलाई तो वे उसे हमेशा के लिए उस के मायके भेज देगी, क्योंकि उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी नहीं है.

बेचारे शंभूजी भी क्या करते? खून का घूंट पी कर रह जाते पर अपनी मां से कुछ कह न पाते. अगर कुछ बोलते तो जोरू का गुलाम कहलाते और पहले के जमाने में कहां बेटे को इतना हक होता था कि वह पत्नी की तरफदारी में कुछ बोल सके.

‘‘मैं ने तो पहले ही सोच लिया था शंभूजी कि जब मेरी बहू का गृहप्रवेश होगा, तो उसे सिर्फ कर्तव्यों, दायित्वों, जिम्मेदारियों और फर्ज की टोकरी ही नहीं थमाऊंगी वरन उसे उस के हक और अधिकारों का गुलदस्ता भी दूंगी, क्योंकि आखिर वह भी तो अपनी ससुराल में कुछ उम्मीदें ले कर आएगी.’’

‘‘और अगर तुम्हारी बहू ही अच्छे विचारों वाली नहीं आती तब? तब कैसे निभाती उस से?’’ शंभूजी ने पूछा.

अपने पति की बातों पर वे हंसीं और फिर कहने लगीं, ‘‘मैं ने यह भी सोचा था

कि शायद मेरी बहू मेरे मनमुताबिक न आए, लेकिन फिर भी मैं उस से निभाऊंगी. उसे इतना प्यार दूंगी कि वह भी मेरे रंग में रंग जाएगी. जानते हैं शंभूजी, अगर एक औरत चाहे तो फिर चाहे वह सास हो या बहू, अपने रिश्ते को बिगाड़ भी सकती है और चाहे तो अपनी सूझबूझ से रिश्ते को कभी न टूटने वाले पक्के धागे में पिरो कर भी रख सकती है. हर लड़की चाहती है कि वह एक अच्छी बहू बने, पर इस के लिए सास को भी तो अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी न. अगर घर के किसी फैसले में बहू की सहमति न लें, उसे पराई समझें, तो वह हमें कितना अपना पाएगी, बोलिए? उफ, बातोंबातों में समय का पता  ही नहीं चला,’’ घड़ी की तरफ देखते हुए ललिता ने कहा, ‘‘आज आप को दुकान पर नहीं जाना क्या?’’

‘‘सोच रहा हूं आज न जाऊं. वैसे भी लेट हो गया और मंदी के कारण वैसे भी ग्राहक कम ही आते हैं,’’ शंभूजी ने कहा. उन का अपना कपड़े का व्यापार था.

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‘‘पर यह तो बताओ कि तुम सासबहू ने क्या प्रोग्राम बनाया है? मुझे तो बता दो,’’ वे बोले.

शंभूजी के पूछने पर पहले तो ललिता झूठेसच्चे बहाने बनाने लगीं, पर जब उन्होंने जोर दिया, तो बोलीं, ‘‘आज हम सासबहू फिल्म देखने जा रही हैं.’’

‘‘अच्छा, कौन सी?’’ पूछते हुए शंभूजी की आंखें चमक उठीं.

‘‘अरे, वह करीना कपूर और सोनम कपूर की कोई नई फिल्म आई है न… क्या नाम है उस का… हां, याद आया, ‘वीरे दी वैडिंग.’ वही देखने जा रही हैं. आज आप घर पर ही हैं, तो ध्यान रखना घर का.’’

‘‘अच्छा, तो अब तुम सासबहू फिल्म देखो और हम बापबेटा खाना पकाएं, यही कहना चाहती हो न?’’

‘‘हां, सही तो है,’’ हंसते हुए ललिता बोलीं और फिर किचन की तरफ बढ़ गईं.

‘‘अच्छा ठीक है, खाना हम बना लेंगे, पर

1 कप चाय और पिला दो,’’ शंभूजी ने कहा तो ललिता भुनभुनाईं यह कह कर कि घर में रहते हैं, तो बारबार चाय बनवा कर परेशान कर देते हैं.

जो भी हो पतिपत्नी अपने जीवन में बहुत खुश थे और हों भी क्यों न, जब पल्लवी जैसी बहू हो. शादी के 4 साल हो गए, पर कभी उस ने ललिता को यह एहसास नहीं दिलवाया कि वह उन की बहू है. पासपड़ोस, नातेरिश्तेदार इन दोनों के रिश्ते को देख कर आश्चर्य करते और कहते कि क्या सासबहू भी कभी ऐसे एकसाथ इतनी खुश रह सकती हैं? लगता ही नहीं है कि दोनों सासबहू हैं.

पल्लवी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी कर रही थी और वहीं उस की मुलाकात विपुल से हुई, जो जानपहचान के बाद दोस्ती और फिर प्यार में बदल गई. 2 साल तक बेरोकटोक उन का प्यार चलता रहा और फिर दोनों परिवारों की सहमति से विवाह के बंधन में बंध गए. वैसे तो बचपन से ही पल्लवी को सास नाम के प्राणी से डर लगता था, क्योंकि उस के जेहन में एक हौआ सा बैठ गया था कि सास और बहू में कभी नहीं पटती, क्योंकि अपने घर में भी तो उस ने आएदिन अपनी मां और दादी को लड़तेझगड़ते ही देखा था.

ज्योंज्यों वह बड़ी होती गई दादी और मां में लड़ाइयां भी बढ़ती चली गईं. उसे याद है जब उस की मांदादी में झगड़ा होता और उस के पापा किसी एक की तरफदारी करते, तो दूसरी का मुंह फूल जाता. हालत यह हो गई कि फिर उन्होंने बोलना ही छोड़ दिया. जब भी दोनों में झगड़ा होता, पल्लवी के पापा घर से बाहर निकल जाते. नातेरिश्तेदारों और पासपड़ोस में भी तो आएदिन सासबहू के झगड़े सुनतेदेखते वह घबरा सी जाती.

उसे याद है जब पड़ोस की शकुंतला चाची की बहू ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली थी. तब यह सुन कर पल्लवी की रूह कांप उठी थी. वैसे हल्ला तो यही हुआ था कि उस की सास ने ही उसे जला कर मार डाला, मगर कोई सुबूत न मिलने के कारण वह कुछ सजा पा कर ही बच गई थी. मगर मारा तो उसे उस की सास ने ही था, क्योंकि उस की बहू तो गाय समान सीधी थी. ऐसा पल्लवी की दादी कहा करती थीं. पल्लवी की दादी भी किसी सांपनाथ से कम नहीं थीं और मां तो नागनाथ थीं ही, क्योंकि दादी एक सुनातीं, तो मां हजार सुना डालतीं.

खैर, एक दिन पल्लवी की दादी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं. लेकिन आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब दादी की 13वीं पर महल्ले की औरतों के सामने घडि़याली आंसू बहाते हुए पल्लवी की मां शांति कहने लगीं कि उन की सास, सास नहीं मां थीं उन की. जाने अब वे उन के बगैर कैसे जी पाएंगी.

मन तो हुआ पल्लवी का कि कह दे कि क्यों झूठे आंसू बहा रही हो मां? कब तुम ने दादी को मां माना? मगर वह चुप रही. मन ही मन सोचने लगी कि बस नाम ही शांति है उस की मां का, काम तो सारे अशांति वाले ही करती हैं.

सासबहू के झगड़े सुनदेख कर पल्लवी का तो शादी पर से विश्वास ही उठ गया था. जब भी उस की शादी की बात चलती, वह सिहर जाती. सोचती, जाने कैसी ससुराल मिलेगी. कहीं उस की सास भी शकुंतला चाची जैसी निकली तो या कहीं उस में भी उस की मां का गुण आ गया तो? ऐसे कई सवाल उस के मन को डराते रहते.

अपने मन का डर उस ने विपुल को भी बताया, जिसे सुन उस की हंसी रुक नहीं रही थी. किसी तरह अपनी हंसी रोक वह कहने लगा, ‘‘हां, मेरी मां सच में ललिता पवार हैं. सोच लो अब भी समय है. कहीं ऐसा न हो तुम्हें बाद में पछताना पड़े? पागल, मेरी मां पुराने जमाने की सास नहीं हैं. तुम्हें उन से मिलने के बाद खुद ही पता चल जाएगा.’’

विपुल की बातों ने उस का डर जरा कम तो कर दिया, पर पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया. अब भी सास को ले कर दिल के किसी कोने में डर तो था ही.

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बिदाई के वक्त बड़े प्यार से शांति ने भी अपनी बेटी के कान फूंकते हुए समझाया था, ‘‘देख बिटिया, सास को कभी मां समझने की भूल न करना, क्योंकि सास चुड़ैल का दूसरा रूप होती है. देखा नहीं अपनी दादी को? मांजीमांजी कह कर उसे सिर पर मत बैठा लेना. पैरों में तेल मालिशवालिश की आदत तो डालना ही मत नहीं तो मरते दम तक तुम से सेवा करवाती रहेगी… सब से बड़ी बात पति को अपनी मुट्ठी में रखना और उस के कमाए पैसों को भी. अपनी कमाई तो उसे छूने भी मत देना. एक बार मुंह को खून लग जाए, तो आदत पड़ जाती है. समझ रही हो न मेरे कहने का मतलब?’’

अपनी मां की कुछ बातों को उस ने आत्मसात कर लिया तो कुछ को नहीं.

ससुराल में जब पल्लवी ने पहला कदम रखा, तो सब से पहले उस का

सामना ललिता यानी अपनी सास से ही हुआ. उन का भरा हुआ रोबीला चेहरा, लंबा चरबी से लदा शरीर देख कर ही वह डर गई. लगा जैसा नाम वैसा ही रूप. और जिस तरह से वे आत्मविश्वास से भरी आवाज में बातें करतीं, पल्लवी कांप जाती. वह समझ गई कि उस का हाल वही होने वाला है जो और बेचारी बहुओं का होता आया है.

मगर हफ्ता 10 दिन में ही जान लिया पल्लवी ने कि यथा नाम तथा गुण वाली कहावत ललिता पर कहीं से भी लागू नहीं होती है. तेजतर्रार, कैंची की तरह जबान और सासों वाला रोब जरा भी नहीं था उन के पास.

एक रोज जब वह अपनी मां को याद कर रोने लगी, तो उस की सास ने उसे सीने से लगा लिया और कहा कि वह उसे सास नहीं मां समझे और जब मन हो जा कर अपनी मां से मिल आए. किसी बात की रोकटोक नहीं है यहां उस पर, क्योंकि यह उस का भी घर है. जैसे उन के लिए उन की बेटी है वैसे ही बहू भी… और सिर्फ कहा ही नहीं ललिता ने कर के भी दिखाया, क्योंकि पल्लवी को नए माहौल में ढलने और वहां के लोगों की पसंदनापसंद को समझने के लिए उसे पर्याप्त समय दिया.

अगर पल्लवी से कोई गलती हो जाती, तो एक मां की  तरह बड़े प्यार से उसे

सिखाने का प्रयास करतीं. पाककला में तो उस की सास ने ही उसे माहिर किया था वरना एक मैगी और अंडा उबालने के सिवा और कुछ कहां बनाना आता था उसे. लेकिन कभी ललिता ने उसे इस बात के लिए तानाउलाहना नहीं मारा, बल्कि बोलने वालों का भी यह कह कर मुंह चुप करा देतीं कि आज की लड़कियां चांद पर पहुंच चुकी हैं, पर अफसोस कि हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है. क्यों हमें बहू सर्वगुण संपन्न चाहिए? क्या हम सासें भी हैं सर्वगुण संपन्न और यही उम्मीद हम अपनी बेटियों से क्यों नहीं लगाते? फिर क्या मजाल जो कोई पल्लवी के बारे में कुछ बोल भी दे.

उस दिन ललिता की बातें सुन कर दिल से पल्लवी ने अपनी सास को मां समझा और सोच लिया कि वह कैसा रिश्ता निभाएगी अपनी सास से.

कभी ललिता ने यह नहीं जताया कि विपुल उन का बेटा है तो विपुल पर पहला अधिकार भी उन का ही है और न ही कभी पल्लवी ने ऐसा जताया कि अब उस के पति पर सिर्फ उस का अधिकार है. जब कभी बेटेबहू में किसी बात को ले कर बहस छिड़ जाती, तो ललिता बहू का ही साथ देतीं. इस से पल्लवी के मन में ललिता के प्रति और सम्मान बढ़ता गया. धीरेधीरे वह अपनी सास के और करीब आने लगी. पूरी तरह से खुलने लगी उन के साथ. कोई भी काम होता वह ललिता से पूछ कर ही करती. उस का जो भय था सास को ले कर वह दूर हो चुका था.

लोग कहते हैं अच्छी बहू बनना और सूर्य पर जाना एक ही बात है. लेकिन अगर मैं एक अच्छी बेटी हूं, तो अच्छी बहू क्यों नहीं बन सकती? मांदादी को मैं ने हमेशा लड़तेझगड़ते देखा है, लेकिन गलती सिर्फ दादी की ही नहीं होती थी. मां चाहतीं तो सासबहू के रिश्ते को संवार सकती थीं, पर उन्होंने और बिगाड़ा रिश्ते को. मुझे भी उन्होंने वही सब सिखाया सास के प्रति, पर मैं उन की एक भी बात में नहीं आई, क्योंकि मैं जानती थी कि सामने वाले मुझे वही देंगे, जो मैं उन्हें दूंगी और ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. शादी के बाद एक लड़की का रिश्ता सिर्फ अपने पति से ही नहीं जुड़ता, बल्कि ससुराल के बाकी सदस्यों से भी खास रिश्ता बन जाता है, यह बात क्यों नहीं समझती लड़कियां? अगर अपने घर का माहौल हमेशा अच्छा और खुशी भरा रखना है, तो मुझे अपनी मां की बातें भूलनी होंगी और फिर सिर्फ पतिपत्नी में ही 7 वचन क्यों? सासबहू भी क्यों न कुछ वचनों में बंध जाएं ताकि जीवन सुखमय बीत सके, अपनेआप से ही कहती पल्लवी.

उसी दिन ठान लिया पल्लवी ने कि वे सासबहू भी कुछ वचनों में बंधेंगी और अपने रिश्ते को एक नया नाम देंगी-अनोखा रिश्ता. अब पल्लवी अपनी सास की हर पसंदनापसंद को जाननेसमझने लगी थी. चाहे शौपिंग पर जाना हो, फिल्म देखने जाना हो या घर में बैठ कर सासबहू सीरियल देखना हो, दोनों साथ देखतीं.

अब तो पल्लवी ने ललिता को व्हाट्सऐप, फेसबुक, लैपटौप यहां तक कि कार चलाना भी सिखा दिया था. सब के औफिस चले जाने के बाद ललिता घर में बोर न हों, इसलिए उस ने जबरदस्ती उन्हें किट्टी भी जौइन करवा दी.

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शुरूशुरू में ललिता को अजीब लगा था, पर फिर मजा आने लगा. अब वे भी अपनी बहू के साथ जा कर और औरतों की तरह स्टाइलिश कपड़े खरीद लातीं. वजन भी बहुत कम कर लिया था. आखिर दोनों सासबहू रोज वाक पर जो जाती थीं. अपने हलके शरीर को देख बहुत खुश होतीं ललिता और उस का सारा श्रेय देतीं अपनी बहू को, जिस के कारण उन में इतना बदलाव आया था वरना तो 5 गज की साड़ी में ही लिपटी उन की जिंदगी गुजर रही थी.

एक दिन चुटकी लेते हुए शंभूजी ने कहा भी, ‘‘कहीं तुम ललिता पवार से 0 फिगर साइज वाली करीना न बन जाओ. फिर मेरा क्या होगा मेरी जान?’’

‘‘हां, बनूंगी ही, आप को क्यों जलन हो रही है?’’ ललिता बोलीं.

‘‘अरे, मैं क्यों जलने लगा भई. अच्छा है बन जाओ करीना की तरह. मेरे लिए तो और अच्छा ही है न वरना तो ट्रक के साथ आधी से ज्यादा उम्र बीत ही गई मेरी,’’ कह कर शंभूजी हंस पड़े पर ललिता बड़बड़ा उठीं.

दोनों की इस तरह की नोकझोंक देख पल्लवी और विपुल हंस पड़ते.

एक दिन जब पल्लवी ने अपने लिए जींस और टीशर्ट खरीदी, तो ललिता के लिए भी खरीद लाई. वैसे विपुल ने मना किया था कि मत खरीदो, मां नहीं पहनेगी, पर वह ले ही आई.

‘‘अरे, यह क्या ले आई बहू? नहींनहीं मैं ये सब नहीं पहनूंगी. लोग क्या कहेंगे और मेरी उम्र तो देखो,’’ जींस व टीशर्ट एक तरफ रखते हुए ललिता ने कहा.

‘‘उम्र क्यों नहीं है? अभी आप की उम्र ही क्या हुई है मां? लगता है आप 50 की हैं? लोगों की परवाह छोडि़ए, बस वही पहनिए जो आप को अच्छा लगता है और मुझे पता है आप का जींस पहनने का मन है. आप यह जरूर पहनेंगी,’’ हुक्म सुना कर पल्लवी फ्रैश होने चली गई. ललिता उसे जाते देखते हुए सोचने लगीं कि यह कैसा अनोखा रिश्ता है उन का.

नासमझी की आंधी: दीपा से ऐसी क्या गलती हो गयी थी

सुबहसुबह रमेश की साली मीता का फोन आया. रमेश ने फोन पर जैसे ही  ‘हैलो’ कहा तो उस की आवाज सुनते ही मीता झट से बोली, ‘‘जीजाजी, आप फौरन घर आ जाइए. बहुत जरूरी बात करनी है.’’

रमेश ने कारण जानना चाहा पर तब तक फोन कट चुका था. मीता का घर उन के घर से 15-20 कदम की दूरी पर ही था. रमेश को आज अपनी साली की आवाज कुछ घबराई हुई सी लगी. अनहोनी की आशंका से वे किसी से बिना कुछ बोले फौरन उस के घर पहुंच गए. जब वे उस के घर पहुंचे, तो देखा उन दोनों पतिपत्नी के अलावा मीता का देवर भी बैठा हुआ था. रमेश के घर में दाखिल होते ही मीता ने घर का दरवाजा बंद कर दिया. यह स्थिति उन के लिए बड़ी अजीब सी थी. रमेश ने सवालिया नजरों से सब की तरफ देखा और बोले, ‘‘क्या बात है? ऐसी क्या बात हो गई जो इतनी सुबहसुबह बुलाया?’’

मीता कुछ कहती, उस से पहले ही उस के पति ने अपना मोबाइल रमेश के आगे रख दिया और बोला, ‘‘जरा यह तो देखिए.’’

इस पर चिढ़ते हुए रमेश ने कहा, ‘‘यह क्या बेहूदा मजाक है?  क्या वीडियो देखने के लिए बुलाया है?’’

मीता बोली, ‘‘नाराज न होएं. आप एक बार देखिए तो सही, आप को सब समझ आ जाएगा.’’

जैसे ही रमेश ने वह वीडियो देखा उस का पूरा जिस्म गुस्से से कांपने लगा और वह ज्यादा देर वहां रुक नहीं सका. बाहर आते ही रमेश ने दामिनी (सलेहज) को फोन लगाया.

दामिनी की आवाज सुनते ही रमेश की आवाज भर्रा गई, ‘‘तुम सही थी. मैं एक अच्छा पिता नहीं बन पाया. ननद तो तुम्हारी इस लायक थी ही नहीं. जिन बातों पर एक मां को गौर करना चाहिए था, पर तुम ने एक पल में ही गौर कर लिया. तुम ने तो मुझे होशियार भी किया और हम सबकुछ नहीं समझे. यहीं नहीं, दीपा पर अंधा विश्वास किया. मुझे अफसोस है कि मैं ने उस दिन तुम्हें इतने कड़वे शब्द कहे.’’

‘‘अरे जीजाजी, आप यह क्या बोले जा रहे हैं? मैं ने आप की किसी बात का बुरा नहीं माना था. अब आप बात बताएंगे या यों ही बेतुकी बातें करते रहेंगे. आखिर हुआ क्या है?’’

रमेश ने पूरी बात बताई और कहा, ‘‘अब आप ही बताओ मैं क्या करूं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.’’ और रमेश की आवाज भर्रा गई.

‘‘आप परेशान मत होइए. जो होना था हो गया. अब यह सोचने की जरूरत है कि आगे क्या करना है? ऐसा करिए आप सब से पहले घर पहुंचिए और दीपा को स्कूल जाने से रोकिए.’’

‘‘पर इस से क्या होगा?’’

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‘‘क्यों नहीं होगा? आप ही बताओ, इस एकडेढ़ साल में आप ने क्या किसी भी दिन दीपा को कहते हुए सुना कि वह स्कूल नहीं जाना चाहती? चाहे घर में कितना ही जरूरी काम था या तबीयत खराब हुई, लेकिन वह स्कूल गई. मतलब कोई न कोई रहस्य तो है. स्कूल जाने का कुछ तो संबंध हैं इस बात से. वैसे भी यदि आप सीधासीदा सवाल करेंगे तो वह आप को कुछ नहीं बताएगी. देखना आप, स्कूल न जाने की बात से वह बिफर जाएगी और फिर आप से जाने की जिद करेगी. तब मौका होगा उस से सही सवाल करने का.’’

‘‘क्या आप मेरा साथ दोगी? आप आ सकती हो उस से बात करने के लिए?’’ रमेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मेरे आने से कोई फायदा नहीं. दीदी को भी आप जानते हैं. उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. इस बात के लिए मेरा बीच में पड़ना सही नहीं होगा. आप मीता को ही बुला लीजिए.’’

घर जा कर रमेश ने मीता को फोन कर के घर बुला लिया और दीपा को स्कूल जाने से रोका,’’ आज तुम स्कूल नहीं जाओगी.’’

लेकिन उम्मीद के मुताबिक दीपा स्कूल जाने की जिद करने लगी,’’ आज मेरा प्रैक्टिकल है. आज तो जाना जरूरी है.’’

इस पर रमेश ने कहा,’’ वह मैं तुम्हारे स्कूल में जा कर बात कर लूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, मैं रुक नहीं सकती आज, इट्स अर्जेंट.’’

‘‘एक बार में सुनाई नहीं देता क्या? कह दिया ना नहीं जाना.’’ पर दीपा बारबार जिद करती रही. इस बात पर रमेश को गुस्सा आ गया और उन्होंने दीपा के गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया. हालांकि? दीपा पर हाथ उठा कर वे मन ही मन दुखी हुए, क्योंकि उन्होंने आज तक दीपा पर हाथ नहीं उठाया था. वह उन की लाड़ली बेटी थी.

तब तक मीता अपने पति के साथ वहां पहुंच गई और स्थिति को संभालने के लिए दीपा को उस के कमरे में ले कर चली गई. वह दीपा से बोली, ‘‘यह सब क्या चल रहा है, दीपा? सचसच बता, क्या है यह सब फोटोज, यह एमएमएस?’’

दीपा उन फोटोज और एमएमएस को देख कर चौंक गई, ‘‘ये…य…यह सब क…क…ब  …कै…से?’’ शब्द उस के गले में ही अटकने लगे. उसे खुद नहीं पता था इस एमएमएस के बारे में, वह घबरा कर रोने लगी.

इस पर मीता उस की पीठ सहलाती हुई बोली, ‘‘देख, सब बात खुल कर बता. जो हो गया सो हो गया. अगर अब भी नहीं समझी तो बहुत देर हो जाएगी. हां, यह तू ने सही नहीं किया. एक बार भी नहीं खयाल आया तुझे अपने बूढ़े अम्माबाबा का? यह कदम उठाने से पहले एक बार तो सोचा होता कि तेरे पापा को तुझ से कितना प्यार है. उन के विश्वास का खून कर दिया तू ने. तेरी इस करतूत की सजा पता है तेरे भाईबहनों को भुगतनी पड़ेगी. तेरा क्या गया?’’

अब दीपा पूरी तरह से टूट चुकी थी. ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं ने जो भी किया, अपने प्यार के लिए,  उस को पाने के लिए किया. मुझे नहीं मालूम यह एमएमएस कैसे बना? किस ने बनाया?’’

‘‘सारी बात शुरू से बता. कुछ छिपाने की जरूरत नहीं वरना हम कुछ नहीं कर पाएंगे. जिसे तू प्यार बोल रही है वह सिर्फ धोखा था तेरे साथ, तेरे शरीर के साथ, बेवकूफ लड़की.’’

दीपा सुबकते हुए बोली, ’’राहुल घर के सामने ही रहता है. मैं उस से प्यार करती हूं. हम लोग कई महीनों से मिल रहे थे पर राहुल मुझे भाव ही नहीं देता था. उस पर कई और लड़कियां मरती हैं और वे सब चटखारे लेले कर बताती थीं कि राहुल उन के लिए कैसे मरता है. बहुत जलन होती थी मुझे. मैं उस से अकेले में मिलने की जिद करती थी कि सिर्फ एक बार मिल लो.’’

‘‘लेकिन छोटा शहर होने की वजह से मैं उस से खुलेआम मिलने से बचती थी. वही, वह कहता था, ‘मिल तो लूं पर अकेले में. कैंटीन में मिलना कोई मिलना थोड़े ही होता है.’

‘‘एकदिन मम्मीपापा किसी काम से शहर से बाहर जा रहे थे तो मौके का फायदा उठा कर मैं ने राहुल को घर आ कर मिलने को कह दिया, क्योंकि मुझे मालूम था कि वे लोग रात तक ही वापस आ पाएंगे. घर में सिर्फ दादी थी और बाबा तो शाम तक अपने औफिस में रहेंगे. दादी घुटनों की वजह से सीढि़यां भी नहीं चढ़ सकतीं तो इस से अच्छा मौका नहीं मिलेगा.

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‘‘आप को भी मालूम होगा कि हमारे घर के 2 दरवाजे हैं, बस, क्या था, मैं ने पीछे वाला दरवाजा खोल दिया. उस दरवाजे के खुलते ही छत पर बने कमरे में सीधा पहुंचा जा सकता है और ऐसा ही हुआ. मौके का फायदा उठा कर राहुल कमरे में था. और मैं ने दादी से कहा, ‘अम्मा मैं ऊपर कमरे में काम कर रही हूं. अगर मुझ से कोई काम हो तो आवाज लगा देना.’

‘‘इस पर उन्होंने कहा, ‘कैसा काम कर रही है, आज?’ तो मैं ने कहा, ‘अलमारी काफी उलटपुलट हो रही है. आज उसी को ठीक करूंगी.’

‘‘सबकुछ मेरी सोच के अनुसार चल रहा था. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि अभी 3 घंटे तक कोई नौकर भी नहीं आने वाला. जब मैं कमरे में गई तो अंदर से कमरा बंद कर लिया और राहुल की तरफ देख कर मुसकराई.

‘‘मुझे यकीन था कि राहुल खुश होगा. फिर भी पूछ बैठी, ‘अब तो खुश हो न? चलो, आज तुम्हारी सारी शिकायत दूर हो गई होगी. हमेशा मेरे प्यार पर उंगली उठाते थे.’ अब खुद ही सोचो, क्या ऐसी कोई जगह है. यहां हम दोनों आराम से बैठ कर एकदो घंटे बात कर सकते हैं. खैर, आज इतनी मुश्किल से मौका मिला है तो आराम से जीभर कर बातें करते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं. मैं क्या सिर्फ बात करने के लिए इतना जोखिम उठा कर आया हूं. बातें तो हम फोन पर भी कर लेते हैं. तुम तो अब भी मुझ से दूर हो.’’ मुझे बहुत कुठा…औरतों के साथ तो वह जम कर…था.

‘‘मैं ने कहा, ‘फिर क्या चाहते हो?’

‘‘राहुल बोला, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए एक उपहार लाया हूं, इसे अभी पहन कर दिखाओ.’

‘‘मैं ने चौंक कर वह पैकेट लिया और खोल कर देखा. उस में एक गाउन था. उस ने कहा, ‘इसे पहनो.’

‘पर…र…?’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘‘परवर कुछ नहीं. मना मत करना,’ उस ने मुझ पर जोर डाला. ‘अगर कोई आ गया तो…’ मैं ने डरते हुए कहा तो उस ने कहा, ‘तुम को मालूम है, ऐसा कुछ नहीं होने वाला. अगर मेरा मन नहीं रख सकती हो, तो मैं चला जाता हूं. लेकिन फिर कभी मुझ से कोई बात या मिलने की कोशिश मत करना,’ वह गुस्से में बोला.

‘‘मैं किसी भी हालत में उसे नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं ने उस की बात मान ली. और जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी.’’ बोलतेबोलते दीपा चुप हो गई और पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगी.

‘‘आगे बता क्या हुआ?  चुप क्यों हो गई?  बताते हुए शर्म आ रही है पर तब यह सब करते हुए शर्म नहीं आई?’’ मीता ने कहा.

पर दीपा नीची निगाह किए बैठी रही.

‘‘आगे बता रही है या तेरे पापा को बुलाऊं? अगर वे आए तो आज कुछ अनहोनी घट सकती है,’’ मीता ने डांटते हुए कहा.

पापा का नाम सुनते ही दीपा जोरजोर से रोने लगी. वह जानती थी कि आज उस के पापा के सिर पर खून सवार है. ‘‘बता रही हूं.’’ सुबकते हुए बोली, ‘‘जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी, तो राहुल ने मुझे अपनी तरफ खींच लिया.

‘‘मैं ने घबरा कर  उस को धकेला और कहा, ‘यह क्या कर रहे हो? यह सही नहीं है.’ इस पर उस ने कहा, ‘सही नहीं है, तुम कह रही हो? क्या इस तरह से बुलाना सही है? देखो, आज मुझे मत रोको. अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो.’

‘‘‘तो क्या?’

‘‘‘देखो, मैं यह जहर खा लूंगा’, और यह कहते हुए उस ने जेब से एक पुडि़या निकाल कर इशारा किया. मैं डर गई कि कहीं यहीं इसे कुछ हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. और फिर उस ने वह सब किया, जो कहा था. उस की बातों में आ कर मैं अपनी सारी सीमाएं लांघ चुकी थी. पर कहीं न कहीं मन में तसल्ली थी कि अब राहुल को मुझ से कोई शिकायत नहीं रही. पहले की तरह फिर पूछा, ‘राहुल अब तो खुश हो न?’

‘‘‘नहीं, अभी मन नहीं भरा. यह एक सपना सा लग रहा है. कुछ यादें भी तो होनी चाहिए’, उस ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘यादें, कैसी यादें’, मैं ने सवालिया नजर डाली. ‘अरे, वही कि जब चाहूं तुम्हें देख सकूं,’ उस से राहुल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘पता नही क्यों अपना सबकुछ लुट जाने के बाद भी, मैं मूर्ख उस की चालाकी को प्यार समझ रही थी. मैं ने उस की यह ख्वाहिश भी पूरी कर देनी चाही और पूछा, ‘वह कैसे?’

‘‘‘ऐसे,’ कहते हुए उस ने अपनी अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर झट से मेरी एक फोटो ले ली. फिर, ‘मजा नहीं आ रहा,’ कहते कहते, एकदम से मेरा गाउन उतार फेंका और कुछ तसवीरें जल्दजल्दी खींच लीं.

‘‘यह सब इतना अचानक से हुआ कि मैं उस की चाल नहीं समझ पाई. समय भी हो गया था और मम्मीपापा के आने से पहले सबकुछ पहले जैसा ठीक भी करना था. कुछ देर बाद राहुल वापस चला गया और मैं नीचे आ गई. किसी को कुछ नहीं पता लगा.

‘‘पर कुछ दिनों बाद एक दिन दामिनी मामी घर पर आई. उन की नजरें मेरे गाल पर पड़े निशान पर अटक गईं. वे पूछ बैठीं, ‘क्या हो गया तेरे गाल पर?’ मैं ने उन से कहा, ‘कुछ नहीं मामी, गिर गई थी.’

‘‘पर पता नहीं क्यों मामी की नजरें सच भांप चुकी थीं. उन्होंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘गिरने पर इस तरह का निशान कैसे हो गया? यह तो ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने जोर से चुंबन लिया हो. सब ठीक तो है न दीपा?’

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‘‘मैं ने नजरें चुराते हुए थोड़े गुस्से के लहजे में कहा, ‘पागल हो गई हो क्या? कुछ सोच कर तो बोलो.’ और मैं गुस्से से वहां से उठ कर चली गई. ‘‘लंच के बाद सब लोग बैठे हुए हंसीमजाक कर रहे थे. मामी मुझे समझाने के मकसद से आईं तो उन्होंने मुझे खिड़की के पास खड़े हो कर, राहुल को इशारा करते हुए देख लिया. हालांकि मैं उन के कदमों की आहट से संभल चुकी थी पर अनुभवी नजरें सब भांप गई थीं. मामी ने मम्मी से कहा, ‘दीदी, अब आप की लड़की बड़ी हो गई है. कुछ तो ध्यान रखो. कैसी मां हो? आप को तो अपने घूमनेफिरने और किटीपार्टी से ही फुरसत नहीं है.’

‘‘पर मम्मी ने उलटा उन को ही डांट दिया. फिर मामी ने चुटकी लेते हुए मुझ से कहा, ‘क्या बात है दीपू? हम तो तुम से इतनी दूर मिलने आए हैं और तुम हो कि बात ही नहीं कर रहीं. अरे भई, कहीं इश्कविश्क का तो मामला नहीं है? बता दो, कुछ हैल्प कर दूंगी.’

‘‘‘आप भी न कुछ भी कहती रहती हो. ऐसा कुछ नहीं है,’ मैं ने अकड़ते हुए कहा. लेकिन मामी को दाल में कुछ काला महसूस हो रहा था. उन का दिल कह रहा था कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है और वे यह भी जानती थीं की ननद से कहने का कोई फायदा नहीं, वे बात की गहराई तो समझेंगी नहीं. इसलिए उन को पापा से ही कहना ठीक लगा, ‘बुरा मत मानिएगा जीजाजी, अब दीपा बच्ची नहीं रही. हो सकता है मैं गलत सोच रही हूं. पर मैं ने उसे इशारों से किसी से बात करते हुए देखा है.’

‘‘पापा ने इस बात को कोई खास तवज्जुह नहीं दी, सिर्फ ‘अच्छा’ कह कर  बात टाल दी. जब मामीजी ने दोबारा कहा तो पापा ने कहा, ‘मुझे विश्वास है उस पर. ऐसा कुछ नहीं. मैं अपनेआप देख लूंगा.’

‘‘मैं मन ही मन बहुत खुश थी, लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी. अब राहुल उन फोटोज को दिखा कर मुझे धमकाने लगा. रोज मिलने की जिद करता और मना करने पर मुझ से कहता, ‘अगर आज नहीं मिलीं तो ये फोटोज तेरे घर वालों को दिखा दूंगा.’

‘‘पहले तो समझ नहीं आया क्या करूं? कैसे मिलूं? पर बाद में रोज स्कूल से वापस आते हुए मैं राहुल से मिलने जाने लगी.’’

‘‘पर कहां पर? कहां मिलती थी तू उस से,’’ मीता ने जानना चाहा.

‘‘बसस्टैंड के पास उस का एक छोटा सा स्टूडियो है. वहीं मिलता था और मना करने के बाद भी मुझ से जबरदस्ती संबंध बनाता. एक बार तो गर्भ ठहर गया था.’’

‘‘क्या? तब भी घर में किसी को पता नहीं चला?’’ मीता चौंकी.

‘‘नहीं, राहुल ने एक दवा दे दी थी. जिस को खाते ही काफी तबीयत खराब हो गई थी और मैं बेहोश भी हो गई थी.’’

‘‘अच्छा, हां, याद आया. ऐसा कुछ हुआ तो था. और उस के बाद भी तू किसी को ले कर डाक्टर के पास नहीं गई. अकेले जा कर ही दिखा आई थी. दाद देनी पड़ेगी तेरी हिम्मत की. कहां से आ गई इतनी अक्ल सब को उल्लू बनाने की. वाकई तू ने सब को बहुत धोखा दिया. यह सही नहीं हुआ. वहां राहुल के अलावा और कौनकौन होता था?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’ लेकिन मुझे इतनी बात समझ में आ गई थी कि राहुल मुझे ब्लैकमेल कर मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहा है. और मैं तब से जो भी कर रही थी, अपने घर वालों से इस बात को छिपाने के लिए मजबूरी में कर रही थी. मुझे माफ कर दो. मुझे नहीं पता था कि उस ने मेरा एमएमएस बना लिया है. मैं नहीं जानती कि उस ने यह वीडियो कब बनाया. उस ने मुझे कभी एहसास नहीं होने दिया कि हम दोनों के अलावा वहां पर कोई तीसरा भी है, जो यह वीडियो बना रहा है…’’ और वह बोलतेबोलते  रोने लगी.

मीता को सारा माजरा समझ आ चुका था. वह बस, इतना ही कह पाई,’’ बेवकूफ लड़की अब कौन करेगा यकीन तुझ पर? कच्ची उम्र का प्यार तुझे बरबाद कर के चला गया. इस नासमझी की आंधी ने सब तहसनहस कर दिया.’’

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उस ने रमेश को सब बताया. तो, एक बार को तो रमेश को लगा कि सबकुछ खत्म हो गया है. पर सब के समझाने पर उस ने सब से पहले थानेदार से मिल कर वायरल हुए वीडियो को डिलीट करवाया. अपने शहर के एक रसूखदार आदमी होने की वजह से, उन के एक इशारे पर पुलिस वालों ने राहुल को जेल में बंद कर दिया. उस के बाद पूरे परिवार को बदनामी से बचाने के लिए सभी लोकल अखबारों के रिपोर्टर्स को न छापने की शर्त पर रुपए खिलाए. दीपा को फौरन शहर से बहुत दूर पढ़ने भेज दिया, क्योंकि कहीं न कहीं रमेश के मन में उस लड़के से खतरा बना हुआ था. हालांकि, बाद में वह लड़का कहां गया, उस के साथ क्या हुआ?  यह किसी को पता नहीं चला.

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