दूरी- भाग 2 : समाज और परस्थितियों से क्यों अनजान थी वह

लेखक- भावना सक्सेना

वह समझ नहीं पाती थी कि मां उस से इतनी नफरत क्यों करती है. वह जो भी करती है, मां के सामने गलत क्यों हो जाता है. उस ने तो सोचा था मां को आश्चर्यचकित करेगी. दरअसल, उस के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता हुई थी और वह प्रथम आई थी. अगले दिन एक जलसे में प्रमाणपत्र और मैडल मिलने वाले थे. बड़ी मुश्किल से यह बात अपने तक रखी थी.

सोचा था कि प्रमाणपत्र और मैडल ला कर मां के हाथों में रखेगी तो मां बहुत खुश हो जाएगी. उसे सीने से लगा लेगी. लेकिन ऐसा हो न पाया था. मां की पड़ोस की सहेली नीरा आंटी की बेटी ऋतु उसी की कक्षा में पढ़ती थी. वह भूल गई थी कि उस रोज वीरवार था. हर वीरवार को उन की कालोनी के बाहर वीर बाजार लगता था और मां नीरा आंटी के साथ वीर बाजार जाया करती थीं.

शाम को जब मां नीरा आंटी को बुलाने उन के घर गई तो ऋतु ने उन्हें सब बता दिया था. मां तमतमाई हुई वापस आई थीं और आते ही उस के चेहरे पर एक तमाचा रसीद किया था, ‘अब हमें तुम्हारी बातें बाहर से पता चलेंगी?’

‘मां, मैं कल बताने वाली थी मैडल ला कर.’

‘क्यों, आज क्यों नहीं बताया, जाने क्याक्या छिपा कर रखती है,’ बड़ी हिकारत से मां ने कहा था.

वह अपनी बात तो मां को न समझा सकी थी लेकिन 13 बरस के किशोर मन में एक प्रश्न बारबार उठ रहा था- मां मेरे प्रथम आने पर खुश क्यों नहीं हुई, क्या सरप्राइज देना कोई बुरी बात है? छोटा रवि तो सांत्वना पुरस्कार लाया था तब भी मां ने उसे बहुत प्यार किया था. फिर अगले दिन तो मैडल ला कर भी उस ने कुछ नहीं कहा था. और कल तो हद ही हो गई थी.

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स्कूल में रसायन विज्ञान की कक्षा में छात्रछात्राएं प्रैक्टिकल पूरा नहीं कर सके थे तो अध्यापिका ने कहा था, ‘अपनाअपना लवण (सौल्ट) संभाल कर रख लेना, कल यही प्रयोग दोबारा दोहराएंगे.’ सफेद पाउडर की वह पुडि़या बस्ते के आगे की जेब में संभाल कर रख ली थी उस ने. कल फिर अलगअलग द्रव्यों में मिला कर प्रतिक्रिया के अनुसार उस लवण का नाम खोजना था और विभिन्न द्रव्यों के साथ उस की प्रतिक्रिया को विस्तार से लिखना था. विज्ञान के ये प्रयोग उसे बड़े रोचक लगते थे.

स्कूल में वापस पहुंच कर, खाना खा कर, होमवर्क किया था और रोजाना की तरह, ऋतु के बुलाने पर दीदी के साथ शाम को पार्क की सैर करने चली गई थी. वापस लौटी तो मां क्रोध से तमतमाई उस के बस्ते के पास खड़ी थी. दोनों छोटे भाई उसे अजीब से देख रहे थे. मां को देख कर और मां के हाथ में लवण की पुडि़या देख कर वह जड़ हो गई थी, और उस के शब्द सुन कर पत्थर- ‘यह जहर कहां से लाई हो? खा कर हम सब को जेल भेजना चाहती हो?’ ‘मां, वह…वह कैमिस्ट्री प्रैक्टिकल का सौल्ट है.’ वह नहीं समझ पाई कि मां को क्यों लगा कि वह जहर है, और है भी तो वह उसे क्यों खाएगी. उस ने कभी मरने की सोची न थी. उसे समझ न आया कि सच के अलावा और क्या कहे जिस से मां को उस पर विश्वास हो जाए. ‘मां…’ उस ने कुछ कहना चाहा था लेकिन मां चिल्लाए जा रही थी, ‘घर पर क्यों लाई हो?’ मां की फुफकार के आगे उस की बोलती फिर बंद हो गई थी.

वह फिर नहीं समझा सकी थी, वह कभी भी अपना पक्ष सामने नहीं रख पाती. मां उस की बात सुनती क्यों नहीं, फिर एक प्रश्न परेशान करने लगा था- मां उस के बस्ते की तलाशी क्यों ले रही थी, क्या रोज ऐसा करती हैं. उसे लगा छोटे भाइयों के आगे उसे निर्वस्त्र कर दिया गया हो. मां उस पर बिलकुल विश्वास नहीं करती. वह बचपन से नानी के घर रही, तो उस की क्या गलती है, अपने मन से तो नहीं गई थी.

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13 बरस की होने पर उसे यह तो समझ आता है कि घरेलू परिस्थितियों के कारण मां का नौकरी करना जरूरी रहा होगा लेकिन वह यह नहीं समझ पाती कि 4 भाईबहनों में से नानी के घर में सिर्फ उसे भेजना ही जरूरी क्यों हो गया था. जिस तरह मां ने परिवार को आर्थिक संबल प्रदान किया, वह उस पर गर्व करती है.

पुराने स्कूल में वह सब को बड़े गर्व से बताती थी कि उस की मां एक कामकाजी महिला है. लेकिन सिर्फ उस की बारी में उसे अलग करना नौकरी की कौन सी जरूरत थी, वह नहीं समझ पाती थी और यदि उस के लालनपालन का इतना बड़ा प्रश्न था तो मां इतनी जल्दी एक और बेबी क्यों लाई थी और लाई भी तो उसे भी नानी के पास क्यों नहीं छोड़ा. काश, मां उसे अपने साथ ले जाती और बेबी को नानी के पास छोड़ जाती. शायद नानी का कहना सही था, बेबी तो लड़का था, मां उसे ही अपने पास रखेगी, भोला मन नहीं जान पाता था कि लड़का होने में क्या खास बात है.

वह चाहती थी नानी कहें कि इसे ले जा, अब यह अपना सब काम कर लेती है, बेबी को यहां छोड़ दे, पर न नानी ने कहा और न मां ने सोचा. छोटा बेबी मां के पास रहा और वह नानी के पास जब तक कि नानी के गांव में आगे की पढ़ाई का साधन न रहा. पिता हमेशा से उसे अच्छे स्कूल में भेजना चाहते थे और भेजा भी था.

वह 5 बरस की थी, जब पापा ने उसे दिल्ली लाने की बात कही थी. किंतु नानानानी का कहना था कि वह उन के घर की रौनक है, उस के बिना उन का दिल न लगेगा. मामामामी भी उसे बहुत लाड़ करते थे. मामी के तब तक कोई संतान न थी. उन के विवाह को कई वर्ष हो गए थे. मामी की ममता का वास्ता दे कर नानी ने उसे वहीं रोक लिया था. पापा उसे वहां नए खुले कौन्वैंट स्कूल में दाखिल करा आए थे. उसे कोई तकलीफ न थी. लाड़प्यार की तो इफरात थी. उसे किसी चीज के लिए मुंह खोलना न पड़ता था. लेकिन फिर भी वह दिन पर दिन संजीदा होती जा रही थी. एक अजीब सा खिंचाव मां और मामी के बीच अनुभव करती थी.

ज्योंज्यों बड़ी हो रही थी, मां से दूर होती जा रही थी. मां के आने या उस के दिल्ली जाने पर भी वह अपने दूसरे भाईबहनों के समान मां की गोद में सिर नहीं रख पाती थी, हठ नहीं कर पाती थी. मां तक हर राह नानी से गुजर कर जाती थी. गरमी की छुट्टियों में मांपापा उसे दिल्ली आने को कहते थे. वह नानी से साथ चलने की जिद करती. नानी कुछ दिन रह कर लौट आती और फिर सबकुछ असहज हो जाता. उस ने ‘दो कलियां’ फिल्म देखी थी. उस का गीत, ‘मैं ने मां को देखा है, मां का प्यार नहीं देखा…’ उस के जेहन में गूंजता रहता था. नानी के जाने के बाद वह बालकनी के कोने में खड़ी हो कर गुनगुनाती, ‘चाहे मेरी जान जाए चाहे मेरा दिल जाए नानी मुझे मिल जाए.’

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…न जाने कब आंख लग गई थी, भोर की किरण फूटते ही पूनम ने उसे जगा दिया था. शायद, अजनबी से जल्दी से जल्दी छुटकारा पाना चाहती थी. ब्रैड को तवे पर सेंक, उस पर मक्खन लगा कर चाय के साथ परोस दिया था और 4 स्लाइस ब्रैड साथ ले जाने के लिए ब्रैड के कागज में लपेट कर, उसे पकड़ा दिए थे. ‘‘न जाने कब घर पहुंचेगी, रास्ते में खा लेना.’’ पूनम ने एक छोटा सा थैला और पानी की बोतल भी उस के लिए सहेज दी थी. उस की कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि नम हो आई थी, अजनबी कितने दयालु हो जाते हैं और अपने कितने निष्ठुर.

जागते हुए कसबे में सड़क बुहारने की आवाजों और दिन की तैयारी के छिटपुट संकेतों के बीच एक रिकशा फिर उन्हें बसअड्डे तक ले आया था. उस अजनबी, जिस का वह अभी तक नाम भी नहीं जानती थी, ने मथुरा की टिकट ले, उसे बस में बिठा दिया था. कृतज्ञ व नम आंखों से उसे देखती वह बोली थी, ‘‘शुक्रिया, क्या आप का नाम जान सकती हूं?’’ मुसकान के साथ उत्तर मिला था, ‘‘भाई ही कह लो.’’

‘‘आप के पैसे?’’

‘‘लौटाने की जरूरत नहीं है, कभी किसी की मदद कर देना.’’

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अंतिम स्तंभ- भाग 1 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

‘‘तू यह बात किसी को मत बताना’’, वह मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर चिरौरी सी कर रही थी, ‘‘मेरी इतनी बात मान लेना.’’

मेरा मुंह उतर गया. ‘‘क्या रे, तू तो मेरा दिमाग ही खराब कर रही है. मैं तो तेरी दी यह साड़ी पहन कर दुनियाभर में मटकती फिरती हूं कि देखोदेखो सब लोग, मेरी प्यारी सहेली ने कितनी सुंदर साड़ी दी है. और तू कह रही है कि किसी को मत बताना.’’

‘‘तू मेरा नाम मत बताना, बस.’’

‘‘वाह, यह तो कोईर् भी पूछेगा कि इतनी सुंदर साड़ी किस सहेली ने दी, किस खुशी में दी.’’

‘‘तू तो जानती है रे, कितनी मुसीबत हो जाएगी मेरी.’’

‘‘जिंदगीभर मुसीबत ही रही तेरी तो…’’

मेरा मन सच में खराब हो गया. असल में मुझे याद आ गया. 35 बरस पहले भी सुमेधा ने मुझे साड़ी दी थी. ऐसे ही छिपा कर. ऐसे ही कहा था,  ‘किसी को मत बताना.’ अवसर था इस की पहली संतान, ‘पुत्र’ के जन्म का. सासससुर, जेठजेठानी, देवरदेवरानी, ढेर सारे रिश्तेदारों व अतिथियों से भरा घर. पूरे घर में आनंदोत्सव की धूम. वह मुझे अपने कमरे में ले गई थी. अपनी अलमारी खोल एक साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘जल्दी से इसे अपने पर्स के भीतर डाल ले. अपने पैसे से खरीद कर लाई हूं. गुलाबी रंग तुझ पर बहुत खिलता है. जरूर पहनना इसे.’

‘तेरे पास पैसा ही कितना बचता है. सारी तनख्वाह तो तू अपनी सासुमां को देती है. अगर साड़ी देने का इतना ही मन था तो आज तो तोहफे में तुझे ढेरों साडि़यां मिली हैं. उन्हीं में से कोई मुझे दे देती.’

‘वे सब साडि़यां, तोहफे तो सासुमां को मिले हैं.’

‘बेटा तेरा हुआ है. लोगों ने तोहफे तुझे दिए हैं?’

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और आज, आज गृहप्रवेश का शुभ अवसर है. उसी बेटे ने बनवाया है शानदार मकान. मकान क्या है, शानदार शाही बंगला है. जाने कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर लाया है एक से एक बेशकीमती साजोसामान. भीतर से बाहर, हर ओर जगमगाते टाइल्स वाले फर्श. दमकती दीवारें. सामने अहाते में रंगबिरंगे फूलों से महकता बगीचा. पोर्टिको में खड़ी नईनवेली चमचमाती कार. बाजू में 2 दमदार दुपहिया वाहन दोनों पतिपत्नी के. रोबदार अलसेशियन कुत्ता. वैभव ही वैभव.

और मुझे याद आ रहा है उस का वह छोटा सा घर. ससुराल का संयुक्त परिवार वाला घर छूटने के बाद पति की नौकरी में जब वह घर बसाने आईर् थी, तो उसे यही घर मिला था. 2 छोटेछोटे कमरे, एक किचन. छोटा सा बरामदा. उसी से लगा निहायत छोटा सा बाथरूमटौयलेट. बरतन मांजने की जगह नहीं. न ही कपड़े सुखाने की.

हम सभी सहेलियों के वे दिन बड़ी भागदौड़ वाले थे. अपनी गृहस्थी से किसी तरह समय निकाल कर दोचार बार गई थी मैं उस के घर. एकदम अकबका जाती थी. इतने बड़े घर की लड़की, कैसे रहती है इस दड़बे जैसे छोटे से फ्लैट में. मगर वह खुश नजर आती.

तड़के सुबह से रात गए फुरसत ही नहीं उसे तो. मुंहअंधरे ही अपने नित्यकर्म से निबट, नाश्ता तैयार करना, चाय बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना. पति की तैयारी में मदद करना, रूमाल, पेन, डायरी रखना, सब के बैग में टिफिन रखना. सब से अंत में अपने पर्स में टिफिन बौक्स डाल मामूली सी साड़ी लपेट चप्पल फटकारती स्कूल भागना. शाम ढेर सारी कौपियों व सब्जीभाजी के थैलों से लदीफंदी जल्दीजल्दी घर लौटना.

पति, बच्चे सब उस का ही इंतजार करते बारबार दरवाजे पर आ रहे हैं. बाहर निकल कर ताक रहे हैं. उस की छाती खुशी से भर जाती. बच्चों को छाती से लगा झट से काम में जुट जाती. चायनाश्ता खाना. बीचबीच में बरतन साफ करना, पोंछा लगाते जाना. जिस पर सब की अलगअलग फरमाइशें. किसी को पकौड़े चाहिए, किसी को गुलगुले. सब की फरमाइशें पूरी करती सुख सागर में मगन.

ऐसे में कभी कोई सहेली, कोई रिश्तेदार, अतिथि आ जाए तो क्या पूछना. पति उस के भारी मजाकिया. छका डालते अपने मजाकों से सब को. नहले पर दहले भी पड़ते उन पर. वह देखदेख कर विभोर होती.

गृहस्थी का आनंददायक सुख. सुखों से भरे दिन बीतते गए. बच्चे बड़े होते गए. स्कूल, कालेज, नौकरीचाकरी, कामधंधे, शादीब्याह निबटते गए. नातीपोते भी आते गए.

व्यस्तताओं के इस दौर में हमारा संपर्क लंबे अरसे तक नहीं हो पाया. बरसों बाद उसे अपने ही शहर में, अपने ही दरवाजे पर देख कर मेरी तो चीख निकल गई. भरपूर गले मिल कर हम रो लिए. आंसू पोंछ कर मैं पूछने लगी, ‘कैसे आ गई तू अचानक यहां?’

‘मैं तो पिछले कई महीनों से यहां हूं. तेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी.’

‘मेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी? तेरा तो बचपन ही इन्हीं गलियों में बीता है. इसी सामने वाले घर में तो रहते थे तुम लोग.’

‘वह घर तो मेरे नानाजी का था न. शुरू में हम लोग नानाजी के घर में ही रहते थे. बाद में पिताजी भी नौकरी के साथ जगह बदलते रहे. नानाजी की मृत्यु के बाद यह घर बेच दिया गया. हमारा यहां आना भी छूट गया. एकदो बार तुम्हारे ही घर के शादीब्याह के कार्यक्रम में आए थे, तो तुम्हारे ही घर ठहरे थे.

‘अब तो पूरी गली बदल गई है. बिल्ंिडग ही बिल्ंिडग नजर आती हैं. पूरा शहर ही बदल गया है. मुझे तो अपनी गली ही पकड़ में नहीं आ रही थी. एक बुजुर्ग सज्जन से तेरे पिताजी का नाम ले कर पूछा तो वे बेचारे तेरे दरवाजे तक पहुंचा गए. यह भी बता गए कि यह घर तो एक अरसे से सूना पड़ा था, अब उन की लड़की आ कर रहने लगी है. अच्छा किया जो पति का साथ छूटने के बाद यहां आ गई. पिता के उजाड़ सूने घर में दिया जला दिया तूने तो. मगर यहां पुरानी यादें तो सताती होंगी.’

‘खूब. मगर तू बता रही थी कि तू पिछले कई महीने से यहां है. कहां ठहरी है?’

‘खैरागढ़ रोड पर. एक फ्लैट किराए पर लिया है. मेरा लड़का अब उसी तरफ मकान भी बनवा रहा है.’

‘मकान बनवा रहा है? इस शहर में, क्यों?’

‘बहू यहीं शिक्षाकर्मी हो गई है.’

‘और बेटा?’

‘बेटे का काम तो भागमभाग का है. बहू यहीं रहेगी. वह आताजाता रहेगा, यह सोच कर यहीं मकान बनवा रहा है.’

‘करता क्या है लड़का?’

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‘कंप्यूटर से संबंधित कुछ काम करता है. मैं आजकल के कामधंधे ठीक से समझती नहीं. महीने में 25 दिन तो दौरे पर रहता है. कभी कोलकाता, कभी लखनऊ, कभी धनबाद. जाने कहांकहां. घर आता है तो इतना थका रहता है कि मुझ से तो दो बोल भी नहीं बतिया पाता. अब मकान बनाने में भिड़ गया है तो और दम मारने की फुरसत नहीं.’

फिर वह मेरे घर अकसर ही आने लगी. हम बातें करते रहते. बचपन की, कालेज के दिनों की, अपनीअपनी गृहस्थी की. उस के पति अवकाशप्राप्ति के बाद ही सिधार गए थे. बताने लगी, ‘कह गए थे कि उन के भविष्य निधि वगैरह का पैसा दोनों बेटियों में बांट दिया जाए. मगर लड़के ने उन पैसों से मकान के लिए प्लौट खरीद लिया. कह दिया, बहनों को बाद में कमा कर दे देगा सारा पैसा. युद्ध स्तर पर चल रहा है मकान का काम. सारा पैसा उसी में झोंक रहा है. मुझ से स्पष्ट कह दिया, घर का खर्च तो अभी तुम्हें ही चलाना है, मां. वह नहीं कहता तो भी तो मैं करती ही थी अपनी खुशी से. महीनेभर का राशन, शाकसब्जियां, बच्चों की फरमाइशें, अभी तो पूरी पैंशन इसी सब में जा रही है.’

‘और बहू का पैसा?’

‘बाप रे, मैं उन पैसों के बारे में मुंह से नहीं बोल सकती. जाने क्या सोच कर बेटे ने जमीन का प्लौट भी उसी के नाम लिया है. सोचा होगा कुछ.’

और मैं गृहप्रवेश पर उस के घर गई तो दंग रह गई. यह तो राजामहाराजाओं का शाही बंगला लगता है. आखिर इतना पैसा इस के पास आया कहां से.

मगर वह गदगद थी, बोली, ‘‘बच्चा मेरा जिंदगीभर छोटे से दड़बे में रहा है न. सो, अपने सपनों का महल बनाया है. मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है. आज मेरा बहुत मन हो रहा है कि तुझे तेरी पसंद की साड़ी पहनाऊं.’’

मैं ने फिर वही बात कही कि तेरा इतना ही मन है तो जो इतनी साडि़यां तोहफे में आई हैं, मैं उन्हीं में से एक पसंद कर लेती हूं.

‘‘वे सब तो बहू को तोहफे  में मिली हैं. घर बहू का है. मैं तुझे अपनी तरफ से देना चाहती हूं. अपने पैसों से.’’

अगली शाम वह मुझे जिद कर दुकान ले गई. उस का मन रखने के लिए मैं ने एक साड़ी पसंद कर ली. अब वह कहने लगी कि, ‘‘किसी को बताना मत.’’

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उस की इस बात से मेरा मन खराब हो गया. इधर जब से वह वहां आई थी, उस की स्थिति देख कर मेरा मन खराब ही हो जाता था. उस का घर मेरे घर से काफी दूर था. उस तरफ रिकशा या कोई सवारी मिलती ही न थी. घर में 2 दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती. पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती. मेरे घर में बैठेबैठे घंटों हो जाते, न कोई उसे लेने आता, न खोजखबर लेता. बेटा घर में हो, तब भी नहीं. उलटे, मां को व्यंग्य करता, ‘तुम ही दौड़दौड़ कर सहेली के घर जाती हो. तुम्हारी सहेली तो कभी दर्शन ही नहीं देती.’

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अपनी ही दुश्मन- भाग 3 : कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

अब उस के पुराने आशिकों ने आना कम कर दिया था. एक अखिलेंद्र ही ऐसा था, जो अभी तक उस की जरूरतों को पूरा कर रहा था. लेकिन वह भी अब कम ही आता था. फोन पर जरूर बराबर बातें करता रहता था. अलबत्ता इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि वह कब तक साथ निभाएगा.

इस बीच कविता की सहेली सुनीता अपनी दोनों बेटियों को ले कर मुंबई शिफ्ट हो गई थी. वह अपनी बेटियों को मौडलिंग के क्षेत्र में उतारना चाहती थी. उस ने अपना मकान 75 लाख में बेच दिया था.

जो परिवार कविता का पड़ौसी बन कर सुनीता के मकान में आया, उस में मुकुल का ही हमउम्र लड़का सौम्य और उस से एक साल छोटी बेटी सांभवी थी. परिवार के मुखिया सूरज बेहद व्यवहारकुशल थे. उन की पत्नी सरला भी बहुत सौम्य स्वभाव की थीं. पतिपत्नी में तालमेल भी खूब बैठता था. सूरज सरकारी नौकरी में अच्छे पद पर तैनात थे.

पतिपत्नी ने अपने बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी. उन के घर रिश्तेदारों, मित्रों और परिचितों का आनाजाना लगा रहता था. सरला सब की आवभगत करती थी. अब उस घर में खूब रौनक रहने लगी थी. घर में खूब ठहाके गूंजते थे.

कविता कभीकभी मन ही मन अपनी तुलना सरला से करती तो उसे अपने हाथ खाली और जिंदगी सुनसान नजर आती. उसे लगता कि वह जिंदगी भर अंधी दौड़ में दौड़ती रही, लेकिन मिला क्या? सुरेश के साथ रहती तो बेटे को भी पिता का साया मिल जाता और उस की जिंदगी भी आराम से कट जाती.

वह सोचती कितना अभागा है मुकुल, जो पिता के संसार में होते हुए भी उस से दूर है. यह तक नहीं जानता कि उस के पिता कौन हैं और कहां हैं? वह तो सब से यही कहती आई थी कि मुकुल के पिता हमें छोड़ कर विदेश चले गऐ हैं और वहीं बस गए हैं. वह अखिलेंद्र को ही मुकुल का पिता साबित करने की कोशिश करती, क्योंकि वह ज्यादातर विदेश में ही रहता था और साल में एकदो बार आया करता था.

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कालोनी में किसी को भी कविता का सच मालूम नहीं था. कोई जानना भी नहीं चाहता था. देखतेदेखते 2 साल और बीत गए. पड़ोसन की बिटिया की शादी थी. तमाम मेहमान आए हुए थे. सरला विशेष आग्रह कर के कविता को सभी रस्मों में शामिल होने का निमंत्रण दे गई. कविता इस बात को ले कर बेचैन थी. वह खुद को सब के बीच जाने लायक नहीं समझ रही थी. इसलिए चुपचाप लेटी रही.

अखिलेंद्र विदेश से आ रहा था. एयरपोर्ट से उसे सीधे उसी के घर आना था. मुकुल उसे लेने एयरपोर्ट गया हुआ था.

पड़ोस में मंगल गीत गाए जा रहे थे, बड़े ही हृदयस्पर्शी. सुन कर कविता की आंखें भर आईं. उस की शादी भी भला कोई शादी थी. सच तो यह था कि शादी के नाम पर उसे उस की गलतियों की सजा सुनाई गई थी. जिस सुरेश को कभी वह मोतीचूर का लड्डू समझ रही थी, उस के हिसाब से वह गुड़ की ढेली भर नहीं निकला था.

‘‘मां कहां हो तुम, देखो हम आ गए.’’ मुकुल की आवाज सुन कर वह चौंकी. मुकुल अखिलेंद्र को एयरपोर्ट से ले आया था. कैसा अभागा लड़का था यह, लोगों के सामने अखिलेंद्र को न पापा कह सकता था, न अंकल. हां, उस के समझाने पर घर में वह जरूर उन्हें पापा कह कर पुकार लेता था.

कविता अनायास आंखों में उतर आए आंसू पोंछ कर अखिलेंद्र के सामने आ बैठी. ऐसा पहली बार हुआ था, जब वह अखिलेंद्र को देख कर खुश नहीं हुई थी. अखिलेंद्र और कविता की उम्र में काफी बड़ा अंतर था. फिर भी सालों से साथ निभता रहा था.

‘‘क्या बात है, बीमार हो क्या कविता?’’ अखिलेंद्र ने पूछा तो कविता धीरे से बोली, ‘‘नहीं, बीमार तो नहीं हूं, टूट जरूर गई हूं भीतर से. ये झूठी दोहरी जिंदगी अब जी नहीं पा रही हूं. सोचती हूं, हम दोनों के संबंध भी कब तक चल पाएंगे.’’

‘‘हूं, तो ये बात है.’’ अखिलेंद्र ने गहरी सांस ली.

कविता अपनी धुन में कहे जा रही थी, ‘‘मैं भी औरतों के बीच बैठ कर मंगल गीत गाना चाहती हूं. अपने पति के बारे में दूसरी औरतों को बताना चाहती हूं. चाहती हूं कि कोई मेरे बेटे का मार्गदर्शन करे, उसे सही राह दिखाए. पर हम दोनों की किस्मत ही खोटी है.’’

‘‘और…?’’

‘‘एक दिन उस का भी घर बनेगा. कोई तो आएगी उस की जिंदगी में. फिर मैं रह जाऊंगी अकेली. क्या किस्मत है मेरी, लेकिन इस सब में दोष तो मेरा ही है.’’

तब तक मुकुल चाय बना लाया था. ट्रे से चाय के कप रख कर वह जाने लगा तो अखिलेंद्र ने उसे टोका, ‘‘यहीं बैठो बेटा, तुम्हारी मां और तुम से कुछ बातें करनी हैं. पहले मेरी बात सुनो, फिर जवाब देना.’’

कविता और मुकुल चाय पीते हुए अखिलेंद्र के चेहरे को गौर से देखने लगे. अखिलेंद्र ने कहना शुरू किया, ‘‘मेरी पत्नी पिछले 15 सालों से कैंसर से जूझ रही थी. मैं उसे भी संभालता था, बिजनैस को भी और दोनों बच्चों को भी. भागमभाग की इस नीरस जिंदगी में कविता का साथ मिला. सुकून की तलाश में मैं यहां आने लगा. मेरी वजह से मुकुल के सिर से पिता का साया छिन गया और कविता का पति. मैं जब भी आता, मुझे तुम दोनों की आंखों में दरजनों सवाल तैरते नजर आते, जो लंदन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते. इसीलिए मैं बीचबीच में फोन कर के तुम लोगों के हालचाल लेता रहता था.’’

अखिलेंद्र चाय खत्म कर के प्याला एक ओर रखते हुए बोला, ‘‘6 महीने पहले मेरी पत्नी का देहांत हो गया. उस के बाद मैं ने धीरेधीरे सारा बिजनैस दोनों बेटों को सौंप दिया. दोनों की शादियां पहले ही हो गई थीं और दोनों अलगअलग रहते थे. धीरेधीरे उन का मेरे घर आनाजाना भी बंद हो गया. फिर एक दिन मैं ने उन्हें अपना फैसला सुना दिया, जिसे उन्होंने खुशीखुशी मान भी लिया.’’

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‘‘कैसा फैसला?’’ कविता और मुकुल ने एक साथ पूछा.

‘‘यही कि मैं तुम से शादी कर के अब यहीं रहूंगा.’’ अखिलेंद्र ने कविता की ओर देख कर एक झटके में कह दिया.

मुकुल का मुंह खुला का खुला रह गया. उसे लगा कि मां के दोस्त के रूप में जो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी थी, अब वह सिर पर आ बैठेगी. पक्की बात है कि अगर अखिलेंद्र घर में रहेगा तो मां को और मर्दों से नहीं मिलने देगा और उन लोगों से जो पैसा मिलता था, वह भी मिलना बंद हो जाएगा.

मुकुल को नेतागिरी में आड़ेटेढे़ हाथ आजमाने आ गए थे. वह रसोई से लंबे फल का चाकू उठा लाया और पीछे से अखिलेंद्र की गरदन पर जोरों से वार कर दिया. जरा सी देर में खून का फव्वारा फूट निकला और वह वहीं ढेर हो गया. कविता आंखें फाड़े देखती रह गई. जब उसे होश आया तो देखा, मुकुल लाश को उठा कर बाहर ले जा रहा था.

मुकुल ने पता नहीं ऐसा क्या किया कि वह तो बच गया, लेकिन कविता फंस गई. पुलिस ने मुकुल से पूछताछ की और घर की तलाशी भी ली, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. मुकुल के प्रयासों से 4-5 महीने बाद कविता को जमानत मिल गई. कविता और मुकुल फिर से एक छत के नीचे रहने लगे, लेकिन दोनों ही एकदूसरे को दोषी मानते रहे?

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बंदिनी: रेखा ने कौनसी कीमत चुकाई थी कीमत

शरशय्या- भाग 3 : त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

लेखक- ज्योत्स्ना प्रवाह

‘‘दूसरा रिश्ता पति का था, वह भी सतही. जब अपना दिल खोल कर तुम्हारे सामने रखना चाहती तो तुम भी नहीं समझते थे क्योंकि शायद तुम गहरे में उतरने से डरते थे क्योंकि मेरे दिल के आईने में तुम्हें अपना ही अक्स नजर आता जो तुम देखना नहीं चाहते थे और मुझे समझने में भूल करते रहे…’’

‘‘देखो, तुम्हारी सांस फूल रही है. तुम आराम करो, इला.’’

‘‘वह नवंबर का महीना था शायद, रात को मेरी नींद खुली तो तुम बिस्तर पर नहीं थे, सारे घर में तुम्हें देखा. नीचे से धीमीधीमी बात करने की आवाज सुनाई दी. मैं ने आवाज भी दी मगर तब फुसफुसाहट बंद हो गई. मैं वापस बैडरूम में आई तो तुम बिस्तर पर थे. मेरे पूछने पर तुम ने बहाना बनाया कि नीचे लाइट बंद करने गया था.’’ ‘‘अच्छा अब बहुत हो गया. तुम इतनी बीमार हो, इसीलिए मैं तुम्हें कुछ कहना नहीं चाहता. वैसे, कह तो मैं पूरी जिंदगी कुछ नहीं पाया. लेकिन प्लीज, अब तो मुझे बख्श दो,’’ खीज और बेबसी से मेरा गला भर आया. उस के अंतिम दिनों को ले कर मैं दुखी हूं और यह है कि न जाने कहांकहां के गड़े मुर्दे उखाड़ रही है. उस घटना को ले कर भी उस ने कम जांचपड़ताल नहीं की थी. विभा ने भी सफाई दी थी कि वह अपने नन्हे शिशु को दुलार रही थी लेकिन उस की किसी दलील का इला पर कोई असर नहीं हुआ. उसे निकाल बाहर किया, पता नहीं वह कैसे सच सूंघ लेती थी.

‘‘उस दिन मैं कपड़े धो रही थी, तुम मेरे पीछे बैठे थे और वह मुझ से छिपा कर तुम्हें कोई इशारा कर रही थी. और जब मैं ने उसे ध्यान से देखा तो वह वहां से खिसक ली थी. मैं ने पहली नजर में ही समझ लिया था कि यह औरत खूब खेलीखाई है, पचास बार तो पल्ला ढलकता है इस का, तुम को तो खैर दुनिया की कोई भी औरत अपने पल्लू में बांध सकती है. याद है, मैं ने तुम से पूछा भी था पर तुम ने कोई जवाब नहीं दिया था, बल्कि मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि वह तुम से डरती है, तुम्हारी इज्जत करती है.’’

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तब शिखा ने टोका भी था, ‘मां, तुम्हारा ध्यान बस इन्हीं चीजों की तरफ जाता है, मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता.’

मां की इन ठेठ औरताना बातों से शिखा चिढ़ जाती थी, ‘कौन कहेगा कि मेरी मां इतने खुले विचारों वाली है, पढ़ीलिखी है?’ उन दिनों मेरे दफ्तर की सहकर्मी चित्रा को ले कर जब उस ने कोसना शुरू किया तो भी शिखा बहुत चिढ़ गई थी, ‘मेरे पापा हैं ही इतने डीसैंट और स्मार्ट कि कोई भी महिला उन से बात करना चाहेगी और कोई बात करेगा तो मुसकरा कर, चेहरे की तरफ देख कर ही करेगा न?’ बेटी ने मेरी तरफदारी तो की लेकिन उस के सामने इला की कोसने वाली बातें सुन कर मेरा खून खौलने लगा था. मुझे इला के सामने जाने से भी डर लगने लगा था. मन हुआ कि शिखा को एक बार फिर वापस बुला लूं, लेकिन उस की भी नौकरी, पति, बच्चे सब मैनेज करना कितना मुश्किल है. दोपहर में खाना खिला कर इला को लिटाया तो उस ने फिर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘तुम ने मुझे बताया नहीं. देखो, अब तो मेरा आखिरी समय आ गया है, अब तो मुझे धोखे में मत रखो, सचसच बता दो.’’

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है, पूरी जिंदगी बीत गई है. अब तक तो तुम ने इतनी जिरह नहीं की, इतना दबाव नहीं डाला मुझ पर, अब क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं स्वयं को धोखे में रखना चाहती थी. अगर तुम ने दबाव में आ कर कभी स्वीकार कर लिया होता तो मुझे तुम से नफरत हो जाती. लेकिन मैं तुम्हें प्रेम करना चाहती थी, तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मैं तुम्हारे बच्चों की मां थी, तुम्हारे साथ अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहती थी. तुम्हारे गुस्से को, तुम्हारी अवहेलना को मैं ने अपने प्रेम का हिस्सा बना लिया था, इसीलिए मैं ने कभी सच जानने के लिए इतना दबाव नहीं डाला.

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‘‘फिर यह भी समझ गई कि प्रेम यदि किसी से होता है तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर धोखे का यह बोझ ले कर क्यों जाऊं? मरना है तो हलकी हो कर मरूं. तुम्हें मुक्त कर के जा रही हूं तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए न? अभी तो मैं तुम्हें माफ भी कर सकती हूं, जो शायद पहले बिलकुल न कर पाती.’’ ओफ्फ, राहत का एक लंबा गहरा उच्छ्वास…तो इन सब के लिए अब ये मुझे माफ कर सकती है. वह अकसर गर्व से कहती थी कि उस की छठी इंद्रिय बहुत शक्तिशाली है. खोजी कुत्ते की तरह वह अपराधी का पता लगा ही लेती है. लेकिन ढलती उम्र और बीमारी की वजह से उस ने अपनी छठी इंद्रिय को आस्था और विश्वास का एनेस्थिसिया दे कर बेहोश कर दिया था या कहीं बूढ़े शेर को घास खाते हुए देख लिया होगा. इसी से मैं आज बच गया

सच और विश्वास की रेशमी चादर में इत्मीनान से लिपटी जब वह अपने बच्चों की दुनिया में मां और नानी की भूमिका में आकंठ डूबी हुई थी, उन्हीं दिनों मेरी जिंदगी के कई राज ऐसे थे जिन के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं. अब इस मुकाम पर मैं उस से कैसे कहता कि मुझे लगता है यह दुनिया 2 हिस्सों में बंटी हुई है. एक, त्याग की दुनिया है और दूसरी धोखे की. जितनी देर किसी में हिम्मत होती है वह धोखा दिए जाता है और धोखा खाए जाता है और जब हिम्मत चुक जाती है तो वह सबकुछ त्याग कर एक तरफ हट कर खड़ा हो जाता है. मिलता उस तरफ भी कुछ नहीं है, मिलता इस तरफ भी कुछ नहीं है. मेरी स्थिति ठीक उसी बरगद की तरह थी जो अपनी अनेक जड़ों से जमीन से जुड़ा रहता है, अपनी जगह अटल, अचल. कैसे कभीकभी एक अनाम रिश्ता इतना धारदार हो जाता है कि वह बरसों से पल रहे नामधारी रिश्ते को लहूलुहान कर जाता है. यह बात मेरी समझ से परे थी.

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बंदिनी- भाग 1 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

जेल की एक कोठरी में बंद रेखा रोशनदान से आती सुबह की पहली किरण की छुअन से मूक हो जाया करती थी. अपनी जिन यादों को उस ने अमानवीय दुस्साहस से दबा रखा था, वे सब इसी घड़ी जीवंत हो उठती थीं.

पहली बार जब रेखा ने सुना था कि उसे जेल की सजा हुई है, तो उस ने बहुत चाहा था कि जेलखाने में घुसते ही उस के गले में फांसी लगा दी जाए. उसे कहां मालूम था कि सरकारी जेल में महिला कैदियों की कोई कमी नहीं है, और कोर्ट में अपनी सुनवाई के इंतजार में ही वे कितनी बूढ़ी हो गई हैं. फीमेल वार्ड में घुसते ही रेखा आश्चर्यचकित हो गई थी. अनगिनत स्त्रियां थीं वहां. बूढ़ी से ले कर बच्चियां तक.

देखसुन कर रेखा ने साड़ी से फांसी लगा कर मरने का विचार भी त्याग दिया था. सोचा, बड़ी अदालत को उस के लिए समय निकालतेनिकालते ही कितने साल पार हो जाएंगे. और वही हुआ था. देखते ही देखते दिनरात, महीने गुजरते चले गए और 4 वर्ष बीत गए थे. बीच में एकदो बार जमानत का प्रयास हुआ था, परंतु विफल ही रहा था. एनजीओ कार्यकर्ता आरती दीदी ने अभी भी प्रयास जारी रखा था, परंतु रिहाई की आशा धूमिल ही थी.

‘‘रेखा, रोज सुबह तुझे इस रोशनदान में क्या दिख जाता है?’’

शीला के इस प्रश्न पर रेखा थोड़ी सहज हो गई थी. पिछले 2 वर्षों से दोनों एकसाथ जेल की इस कोठरी में कैद थीं. शीला ने अपने शराबी पति के अत्याचारों से तंग आ कर उस की हत्या कर दी थी. उस ने अपना अपराध न्यायाधीश के सामने स्वीकार कर लिया था. किंतु किसी ने उसे छुड़ाने का प्रयास नहीं किया था. उसे उम्रकैद हुई थी.

तभी से वह और अधिक चिड़चिड़ी हो गई थी. वह रेखा की इस नित्यक्रिया से अवगत थी और इस क्रिया का प्रभाव भी देख चुकी थी. आज वह खुद को रोक नहीं पाई थी और रेखा से वह प्रश्न पूछ बैठी थी. शीला के प्रश्न पर रेखा ने एक हलकी मुसकान के साथ उत्तर दिया था.

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‘‘रोज एक नई सुबह.’’

‘‘हमारे जीवन में क्या बदलाव लाएगी सुबह, हमारे लिए तो हर सुबह एकसमान है,’’ शीला ने ठंडी आह भरी.

‘‘यहां तुम गलत हो, स्वतंत्र मनुष्य रोज एक नई सृजन के बारे में सोच सकता है,’’ रेखा के चेहरे पर हलकी सी लुनाई छा गई थी.

शीला का चेहरा और आंखें सख्त हो आईं, बोली, ‘‘तुम एक बंदिनी हो, याद है या भूल गईं, तुम क्या स्वतंत्र हो?’’

रेखा इस सवाल का जवाब ठीक से न दे सकी, ‘‘शायद अभी पूरी तरह से नहीं, परंतु उम्मीद है…’’

‘‘यह हत्यारिनों का वार्ड है. यहां से रिहाई तो बस मृत्यु दिला सकती है. चिरबंदिनियां यहां निवास करती हैं,’’ रेखा की बात को बीच में काट कर ही शीला लगभग चिल्लाते हुए बोली थी.

रेखा बोली, ‘‘स्वतंत्र प्रतीत होता मनुष्य भी बंदी हो सकता है, उस यंत्रणा की तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं.’’

दोनों के बीच बातचीत चल ही रही थी कि घंटी की तेज आवाज सुनाई पड़ी थी. बंदिनियों के लिए तय काम का समय हो चुका था. सभी कैदी वार्ड से बाहर निकलने लगी थीं. रेखा और शीला भी बाहर की तरफ चल दी थीं.

आज जिस अपराध की दोषी बन रेखा इस जेल की चारदीवारों में कैद थी उस अपराध की नींव वर्षों पूर्व ही रख दी गई थी. उस के बंदीगृह तक का यह सफर उसी दिन शुरू हो गया था जब वह सपरिवार ओडिशा से शिवपुरी आई थी.

शिवपुरी, मध्य प्रदेश का एक शहर है. यह एक पर्यटन नगरी है. यहां का सौंदर्य अनुपम है. यहीं के एक छोटे से गांव में रेखा अपने परिवार के साथ आई थी.

ओडिशा के एक छोटे से गांव मल्कुपुरु में रेखा का गरीब परिवार रहा करता था. पिछले कई सालों से उस के मामा अपने परिवार समेत शिवपुरी के इसी गांव में आ कर बस गए थे. उन की आर्थिक स्थिति में आए प्रत्याशित बदलाव ने रेखा के पिता को इस गांव में आने के लिए प्रोत्साहित किया था.

4 भाईबहनों में रमेश सब से बड़ा था और विवाहित भी. सतीश उस से छोेटा था परंतु अधिक चतुर था. वह अभी अविवाहित ही था. उन के बाद कल्पना और रेखा थीं. सब से छोटी होने के कारण रेखा थोड़ी चंचल थी. आरंभ में रेखा और उस की बड़ी बहन कल्पना इस बदलाव से खुश नहीं थीं, परंतु मामा के घर की अच्छी स्थिति ने उन के भीतर भी आशा की लौ रोशन कर दी थी. यह उन्हें मालूम नहीं था कि यह लौ ही उन्हें और उन के सपनों को जला कर भस्म कर देगी.

गांव में आने के कुछ दिनों बाद ही कल्पना के विवाह की झूठी खबर उस के पिता और मामा ने उड़ा दी थी. मां का विरोध सिक्कों की झनकार में दब गया था. कल्पना अपने सुखद भविष्य की कल्पना में खो गई थी और रेखा इस खुशी का आनंद लेने में. परन्तु दोनों ही बहनें सचाई से अनजान थीं. जब तक दोनों को हकीकत का पता चला तब तक देर हो चुकी थी.

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प्रथा के नाम पर स्त्री के साथ अत्याचारों की तो एक लंबी सूची तैयार की जा सकती है. इस गांव में भी कई सालों से एक विषैली प्रथा ने अपनी जड़ें फैला ली थीं. स्थानीय भाषा में इस प्रथा का नाम ‘धड़ीचा’ था, जिस के तहत लड़कियों को एक साल या ज्यादा के लिए कोई भी पुरुष अपने साथ रख सकता था, अपनी बीवी बना कर. इस के एवज में वह लड़की की एक कीमत उस के घर वालों  या संबंधित व्यक्ति को देता था. लड़की को बीवी बना कर एक साल के लिए ले जाने वाला पुरुष कोई गड़बड़ी न करे, अनुबंध में रहे, इस के लिए 10 रुपए से ले कर 100 रुपए के स्टांपपेपर पर लिखापढ़ी होती थी. एक बार अनुबंध से निकली लड़की को दोबारा अनुबंधित कर के बेच दिया जाता था.

इस दौरान जन्म लिए गए संतानों की भी एक अलग कहानी थी. उन्हें यदि पिता का परिवार नहीं अपनाता था तो वे मां के साथ ही लौट आते थे. अगला खरीदार यदि उन्हें साथ ले जाने को तैयार नहीं होता तो लड़की को उसे अपने परिवार के पास छोड़ना पड़ता था.

पुत्रमोह के लालच में कन्याभू्रण की हत्या करते गए, और जब स्त्रियों का अनुपात कम होता गया तो उन का ही क्रयविक्रय करने लगे. परंतु बात इतनी भी आसान नहीं थी. हकीकत में पैसे वाले पुरुषों को अपनी शारीरिक भूख मिटाने के लिए रोज एक नया खिलौना प्राप्त करना ही इस प्रथा का प्रयोजन मात्र था.

भारत में इन दिनों नारीवाद और नारी सशक्तीकरण का झंडा बुलंद है. परंतु महानगरों में बैठे लोगों को इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि देश के गांवकूचों में महिलाओं की हालत किस कदर बदतर हो चुकी है.

कल्पना को भी 10 रुपए के स्टांपपेपर पर एक साल के लिए 65 साल के एक बुजुर्ग के हवाले कर दिया गया था. हालांकि उस की पहली पत्नी जीवित थी, परंतु वह वृद्ध थी. और पुरुष कहां वृद्ध होते हैं. कल्पना के दूसरे खरीदार का भी चयन हो रखा था. वह उसी बुजुर्ग का भतीजा था और उस की पत्नी का देहांत पिछले वर्ष ही हुआ था. कल्पना का पट्टा देना तय करने के बाद वे रेखा को ले कर अपने महत्त्वाकांक्षी विचार बुनने लगे थे.

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अपनी ही दुश्मन- भाग 2 : कविता के वैवाहिक जीवन में जल्दबाजी कैसे बनी मुसीबत

बड़े लोगों से संपर्क बने तो वह पार्टियों में भी जाने लगी. मोनू की वजह से उसे नाइट पार्टियों में जाने में परेशानी होती थी, इसलिए उसे संभालने के लिए उस ने एक नौकर रख लिया.

कविता का सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन उस की जिंदगी में खलल तब पड़ा, जब सुरेश एक दिन दोपहर में आ गया. दरअसल उस दिन मंगलवार था और लखनऊ में उसे एक दोस्त की शादी में शामिल होना था. वैसे भी उस दिन कोई छुट्टी नहीं थी. उस ने सोचा था कि अचानक पहुंच कर कविता को सरप्राइज देगा. लेकिन दांव उलटा पड़ गया. ड्राइंगरूम में खुलने वाला दरवाजा खुला हुआ था. ड्राइंगरूम में खिलौने बिखरे पड़े थे. उन्हें देख कर लग रहा था कि मोनू खेल से बोर हो कर कहीं बाहर चला गया है. यह भी संभव हो कि वह मां के पास अंदर हो.

अंदर बैडरूम का दरवाजा वैसे ही भिड़ा हुआ था. अंदर से हंसनेखिलखिलाने की आवाजें आ रही थीं. सुरेश ने दरवाजे को थोड़ा सा खोल कर अंदर झांका. भीतर का दृश्य देख कर वह सन्न रह गया. बेशर्मी, बेहयाई और बेवफाई की मूरत बनी नग्न कविता परपुरुष की बांहों में अमरबेल की तरह लिपटी हुई पड़ी थी. पत्नी को इस हाल में देख कर सुरेश की आंखों में खून उतर आया. उस का मन कर रहा था कि वहीं पड़ा बैट उठा कर दोनों के सिर फोड़ दे.

‘‘पापा, पापा आ गए.’’ बाहर से आती मोनू की आवाज उस के कानों में पड़ी. कुछ नहीं सूझा तो उस ने झट से बैडरूम का दरवाजा बंद कर दिया. उसी वक्त अंदर से कुंडी लगाने की आवाज आई. यह काम शायद कविता ने किया होगा. सुरेश धीरे से बड़बड़ाया, ‘‘कमबख्त को बच्चे का भी लिहाज नहीं.’’

‘‘पापा, खेलने चलें.’’ मोनू ने सुरेश के पैर पकड़ कर इस तरह खींचते हुए कहा, जैसे उसे मम्मी से कोई मतलब ही न हो.

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अब सुरेश की समझ में आ रहा था कि कविता उसे बौड़म क्यों कहती थी. सब कुछ उस की नाक के नीचे चलता रहा और वह उस पर विश्वास किए बैठा रहा. सचमुच बौड़म ही था वह. किराए का ही सही, महंगा घर, शानदार परदे, उच्च क्वालिटी की क्रौकरी, ब्रांडेड कपड़े, मोनू का महंगा स्कूल. सब कुछ कैसे मैनेज करती होगी कविता, उस ने कभी सोचा ही नहीं. यहां तक कि अभी अंदर आते वक्त उस ने दीवार के साथ खड़ी लाल रंग की आलीशान कार देखी थी, उस पर भी ध्यान नहीं दिया था उस ने. सुरेश सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया.

‘‘पापा, पापा खेलने चलें.’’ कहते हुए मोनू ने उस की टांगें हिलाईं. लेकिन वह जड़वत बैठा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे. अब तो उस के मन में यह सवाल भी उठ रहा था कि वह मोनू का पिता है या नहीं?

‘‘तुम खेलने जाओ, मैं अभी आता हूं.’’ दुखी मन से कहते हुए उस ने मोनू को बाहर भेज दिया.

सुरेश ने घड़ी देखी तो शाम के 4 बज रहे थे. सोचविचार कर उस ने कविता को उस के हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ने का फैसला कर लिया. उस ने 4 लाइनों का पत्र लिखा, ‘मैं ने तुम्हारा असली चेहरा देख लिया है. तुम्हारे खून से हाथ रंग कर मुझे क्या मिलेगा? मुझे यह भी नहीं पता कि मोनू मेरा बेटा है या किसी और का? लेकिन तुम्हें अब कोई सफाई देने की जरूरत नहीं है. क्योंकि मैं तुम्हें अपनी जिंदगी से निकाल कर खुली हवा में सांस लेना चाहता हूं’

सुरेश ने अपना बैग उठाया और वापस लौट गया. कभी वापस न लौटने के लिए. उस दिन से सुरेश कविता की जिंदगी से निकल गया और उस की जगह दरजनों मर्द आ गए. कविता को सुरेश के जाने का कोई गम नहीं हुआ. उस ने चैन की सांस ली. अब वह आजाद पंछी की तरह थी.

आजकल वह जिस आखिलेंद्र से पेंच लड़ा रही थी, वह व्यवसायी था और उस का पूरा परिवार लंदन में रहता था. वहां भी उन का बड़ा बिजनैस था. परिवार के कुछ लोग जरूर लखनऊ में पुश्तैनी घर में रहते थे. अखिलेंद्र उन से चोरीछिपे कविता के पास जाता था. उस के रहते उसे सुरेश की कोई चिंता नहीं थी.

धीरेधीरे कविता ने गोमतीनगर जैसे महंगे इलाके में घर ले लिया और कार भी. उस ने ड्राइविंग भी सीख ली. अखिलेंद्र चूंकि कभीकभी ही आता था और उस का लंदन आनाजाना भी लगा रहता था, इसलिए कविता ने कुछ और चाहने वाले ढूंढ लिए थे. स्कूल में वह प्रधानाध्यापक नवलकिशोर के सामने अपने सिंगल पैरेंट्स होने का रोना रोती रहती थी. कितनी ही बार वह आधे दिन की छुट्टी ले कर स्कूल से निकल जाती थी. तब तक मोनू 10 साल का हो गया था.

उस दिन कविता ने बेटे की बीमारी का रोना रो कर नवलकिशोर को 2 दिनों की आकस्मिक छुट्टी की अरजी दी थी. लेकिन अचानक ही उन्होंने उस के बेटे को देखने की इच्छा जाहिर करते हुए उस के घर चलने की इच्छा जाहिर कर दी. कविता किस मुंह से मना करती. उस ने हां कर दी. नवलकिशोर की नजर काफी दिनों से कविता पर जमी थी. वह उन्मुक्त पक्षी जैसी लगती थी, इसीलिए वह उस की हकीकत जानने को उत्सुक थे.

नवलकिशोर कविता के घर पहुंचे तो मोनू स्कूल से आ कर जूते बस्ता और बोतल इधरउधर फेंक कर टीवी पर कार्टून नेटवर्क देख रहा था. मां के साथ एक अजनबी को आया देख कर वह चौंका. कविता ने जल्दबाजी में सामान समेटा और उसे खिलापिला कर खेलने के लिए बाहर भेज दिया. अब कमरे में कविता और नवलकिशोर ही रह गए थे.

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कविता उठ कर गई और फ्रिज से कोल्डड्रिंक की बोतलें और स्नैक्स ले आई. नवलकिशोर यह सब देख कर हैरान रह गए. बहरहाल दोनों साथसाथ खानेपीने लगे. जल्दी ही यह स्थिति आ गई कि दोनों ने ड्राइंगरूम की पूरी दूरी नाप ली. एक बार शुरुआत हुई तो सिलसिला चल निकला. स्कूल में भी कविता की पदवी बढ़ गई.

यह सब करीब एक साल तक चला. किसी तरह इस बात की भनक नवलकिशोर की पत्नी सुनीता को लग गई. वह तेज औरत थी. शोरशराबा मचाने के बजाए उस ने चोरीछिपे पति पर नजर रखनी शुरू कर दी. नतीजा यह निकला कि एक दिन वह सीधे कविता के घर जा पहुंची और दोनों को रंगेहाथों पकड़ लिया.

उस दिन जो कहासुनी हुई, उस में कविता की पड़ोसन ने कविता का साथ दिया. उस का कहना था कि कविता शरीफ औरत है. नवलकिशोर उस के अकेलेपन का फायदा उठाने के लिए वहां आता था.

इस का नतीजा यह निकला कि उस दिन के बाद नवलकिशोर का कविता के घर आनाजाना बंद हो गया. कविता और उस की पड़ोसन एक ही थैली के चट्टेबट्टे थे. जल्द ही दोनों ने मिल कर नया अड्डा ढूंढ लिया. सीतापुर रोड पर एक फार्महाउस था. दोनों अपने खास लोगों के साथ बारीबारी से वहां जाने लगीं. एक जाती तो दूसरी दोनों के बच्चों को संभालती.

कालोनी में कोई भी दोनों पर ज्यादा ध्यान नहीं देता था. समय गुजरता गया. गुजरते समय के साथ मोनू यानी मुकुल 20 साल का हो गया. कविता भी अब 40 पार कर चुकी थी. मुकुल का मन पढ़ाई में कम और कालेज की नेतागिरी में ज्यादा लगता था. धीरेधीरे उस का उठनाबैठना बड़े नेताओं के चमचों के साथ होने लगा. उन लोगों ने उसे उकसाया, ‘‘तुम कालेज का चुनाव जीत कर दिखा दो, हम तुम्हें पार्टी में कोई न कोई जिम्मेदारी दिला देंगे. फिर बैठेबैठे चांदी काटना.’’

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शरशय्या- भाग 2 : त्याग और धोखे के बीच फंसी एक अनाम रिश्ते की कहानी

लेखक- ज्योत्स्ना प्रवाह

उस की नींद बहुत कम हो गई थी, उस के सिर पर हाथ रखा तो उस ने झट से पलकें खोल दीं. दोनों कोरों से दो बूंद आंसू छलक पड़े.

‘‘शिबू के लिए काजू की बरफी खरीदी थी?’’

‘‘हां भई, मठरियां भी रखवा दी थीं.’’ मैं ने उस का सिर सहलाते हुए कहा तो वह आश्वस्त हो गई.

‘‘नर्स के आने में अभी काफी समय है न?’’ उस की नजरें मुझ पर ठहरी थीं.

‘‘हां, क्यों? कोई जरूरत हो तो मुझे बताओ, मैं हूं न.’’

‘‘नहीं, जरूरत नहीं है. बस, जरा दरवाजा बंद कर के तुम मेरे सिरहाने आ कर बैठो,’’ उस ने मेरा हाथ अपने सिर पर रख लिया, ‘‘मरने वाले के सिर पर हाथ रख कर झूठ नहीं बोलते. सच बताओ, रानी भाभी से तुम्हारे संबंध कहां तक थे?’’ मुझे करंट लगा. सिर से हाथ खींच लिया. सोते हुए ज्वालामुखी में प्रवेश करने से पहले उस के ताप को नापने और उस की विनाशक शक्ति का अंदाज लगाने की सही प्रतिभा हर किसी में नहीं होती, ‘‘पागल हो गई हो क्या? अब इस समय तुम्हें ये सब क्या सूझ रहा है?’’

‘‘जब नाखून बढ़ जाते हैं तो नाखून ही काटे जाते हैं, उंगलियां नहीं. सो, अगर रिश्ते में दरार आए तो दरार को मिटाओ, न कि रिश्ते को. यही सोच कर चुप थी अभी तक, पर अब सच जानना चाहती हूं. सूझ तो बरसों से रहा है बल्कि सुलग रहा है, लेकिन अभी तक मैं ने खुद को भ्रम का हवाला दे कर बहलाए रखा. बस, अब जातेजाते सच जानना चाहती हूं.’’

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‘‘जब अभी तक बहलाया है तो थोड़े दिन और बहलाओ. वहां ऊपर पहुंच कर सब सचझूठ का हिसाब कर लेना,’’ मैं ने छत की तरफ उंगली दिखा कर कहा. मेरी खीज का उस पर कोई असर नहीं था.

‘‘और वह विभा, जिसे तुम ने कथित रूप से घर के नीचे वाले कमरे में शरण दी थी, उस से क्या तुम्हारा देह का भी रिश्ता था?’’

‘‘छि:, तुम सठिया गई हो क्या? ये क्या अनापशनाप बक रही हो? कोई जरूरत हो तो बताओ वरना मैं चला.’’ मैं उन आंखों का सामना नहीं करना चाहता था. क्षोभ और अपमान से तिलमिला कर मैं अपने कमरे में आ गया. शिबू ने जातेजाते कहा था, मां को एक पल के लिए भी अकेला मत छोडि़एगा. ऐसा नहीं है कि ये सब बातें मैं ने पहली बार उस की जबान से सुनी हैं, पहले भी ऐसा सुना है. मुझे लगा था कि वह अब सब भूलभाल गई होगी. इतने लंबे अंतराल में बेहद संजीदगी से घरगृहस्थी के प्रति समर्पित इला ने कभी इशारे से भी कुछ जाहिर नहीं किया. हद हो गई, ऐसी बीमारी और तकलीफ में भी खुराफाती दिमाग कितना तेज काम कर रहा था. मेरे मन के सघन आकाश से विगत जीवन की स्मृतियों की वर्षा अनेक धाराओं में होने लगी. कभीकभी तो ये ऐसी मूसलाधार होती हैं कि उस के निरंतर आघातों से मेरा शरीर कहीं छलनीछलनी न हो जाए, ऐसा संदेह मुझ को होने लगता है. परंतु मन विचित्र होता है, उसे जितना बांधने का प्रयत्न किया जाए वह उतना ही स्वच्छंद होता जाता है. जो वक्त बीत गया वह मुंह से निकले हुए शब्द की तरह कभी लौट कर वापस नहीं आता लेकिन उस की स्मृतियां मन पर ज्यों की त्यों अंकित रह जाती हैं.

रानी भाभी की नाजोअदा का जादू मेरे ही सिर चढ़ा था. 17-18 की अल्हड़ और नाजुक उम्र में मैं उन के रूप का गुलाम बन गया था. भैया की अनुपस्थिति में भाभी के दिल लगाए रखने का जिम्मा मेरा था. बड़े घर की लड़की के लिए इस घर में एक मैं ही था जिस से वे अपने दिल का हाल कहतीं. भाभी थीं त्रियाचरित्र की खूब मंजी खिलाड़ी, अम्मा तो कई बार भाभी पर खूब नाराज भी हुई थीं, मुझे भी कस कर लताड़ा तो मैं भी अपराधबोध से भर उठा था. कालेज में ऐडमिशन लेने के बाद तो मैं पक्का ढीठ हो गया. अकसर भाभी के साथ रिश्ते का फायदा उठाते हुए पिक्चर और घूमना चलता रहा. इला जब ब्याह कर घर आई तो पासपड़ोस की तमाम महिलाओं ने उसे गुपचुप कुछ खबरदार कर दिया था. साधारण रूपरंग वाली इला भाभी के भड़कीले सौंदर्य पर भड़की थी या सुनीसुनाई बातों पर, काफी दिन तो मुझे अपनी कैफियत देते ही बीते, फिर वह आश्चर्यजनक रूप से बड़ी आसानी से आश्वस्त हो गई थी. वह अपने वैवाहिक जीवन का शुभारंभ बड़ी सकारात्मक सोच के साथ करना चाहती थी या कोई और वजह थी, पता नहीं.

भाभी जब भी घर आतीं तो इला एकदम चौकन्नी रहती. उम्र की ढलान पर पहुंच रही भाभी के लटकेझटके अभी भी एकदम यौवन जैसे ही थे. रंभाउर्वशी के जींस ले कर अवतरित हुई थीं वे या उन के तलवों में साक्षात पद्मिनी के लक्षण थे, पता नहीं? उन की मत्स्यगंधा देह में एक ऐसा नशा था जो किसी भी योगी का तप भंग कर सकता था. फिर मैं तो कुछ ज्यादा ही अदना सा इंसान था. दूसरे दिन नर्स के जाते ही वह फिर आहऊह कर के बैठने की कोशिश करने लगी. मैं ने तकिया पीछे लगा दिया.

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‘‘कोई तुम्हारी पसंद की सीडी लगा दूं? अच्छा लगेगा,’’ मैं सीडी निकालने लगा.

‘‘रहने दो, अब तो कुछ दिनों के बाद सब अच्छा और शांति ही शांति है, परम शांति. तुम यहां आओ, मेरे पास आ कर बैठो,’’ वह फिर से मुझे कठघरे में खड़ा होने का शाही फरमान सुना रही थी.

‘‘ठीक है, मैं यहीं बैठा हूं. बोलो, कुछ चाहिए?’’

‘‘हां, सचसच बताओ, जब तुम विभा को दुखियारी समझ कर घर ले कर आए थे और नीचे बेसमैंट में उस के रहनेखाने की व्यवस्था की थी, उस से तुम्हारा संबंध कब बन गया था और कहां तक था?’’

‘‘फिर वही बात? आखिरी समय में इंसान बीती बातों को भूल जाता है और तुम.’’

‘‘मैं ने तो पूरी जिंदगी भुलाने में ही बिताई है,’’ वह आंखें बंद कर के हांफने लगी. फिर वह जैसे खुद से ही बात करने लगी थी, ‘‘समझौता. कितना मामूली शब्द है मगर कितना बड़ा तीर है जो जीवन को चुभ जाता है तो फांस का अनदेखा घाव सा टीसता है. अब थक चुकी हूं जीवन जीने से और जीवन जीने के समझौते से भी. जिन रिश्तों में सब से ज्यादा गहराई होती है वही रिश्ते मुझे सतही मिले. जिस तरह समुद्र की अथाह गहराई में तमाम रत्न छिपे होते हैं, साथ में कई जीवजंतु भी रहते हैं, उसी तरह मेरे भीतर भी भावनाओं के बेशकीमती मोती थे तो कुछ बुराइयों जैसे जीवजंतु भी. कोई ऐसा गोताखोर नहीं था जो उन जीवजंतुओं से लड़ता, बचताबचाता उन मोतियों को देखता, उन की कद्र करता. सब से गहरा रिश्ता मांबाप का होता है. मां अपने बच्चे के दिल की गहराइयों में उतर कर सब देख लेती है लेकिन मेरे पास में तो वह मां भी नहीं थी जो मुझे थोड़ा भी समझ पाती.

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अंतिम स्तंभ- भाग 3 : बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

दुख और क्षोभ में भरी सहेली कुछ पल खामोश खड़ी देखती रही. आंखों में पानी उतर आया. आंखें पोंछ कर प्लेटों में पकौड़े डाले. चटनी निकाली. ले जा कर सहेलियों को परोसा और हाथ जोड़ कर आग्रह किया, ‘‘यही स्वागत कर पा रही हूं तुम लोगों का.’’ फिर किचन में जा कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘कृपा कर के अब बनाना बंद करो. माफी चाहती हूं मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब किया.’’

सहेलियां तो दुखी मन से उस की चर्चा करते शाम की ट्रेन से चली गईं अपनेअपने शहर, पर मैं परेशान ही रही. अगली शाम को वह खुद आ गई मेरे घर. वैसे ही जर्जर शरीर ढोते, हांफतेहांफते. बोली, ‘बच्चे स्कूल से आ गए, बहू भी. तब आ पाई हूं. चाय पिला.’

मैं ने जल्दी से चाय बनाई. नाश्ता बनाने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई कि वह बोली, ‘‘बनाना छोड़, घर में कुछ हो तो वही दे दे.’’

मुझे संकोच हो आया, ‘‘सवेरे मेथी के परांठे बनाए थे. जल्दी काम निबटाने के चक्कर में आखिरी लोइयों को मसल कर 2 मोटेमोटे परांठे बना लिए थे. वही हैं. तू दो मिनट रुक न. मैं बढि़या सा कुछ बनाती हूं.’’

एकदम अधीर सी वह कहने लगी, ‘‘मुझे मेथी के मोटे परांठे ही अच्छे लगते हैं. तू दे तो सही.’’

उस की बेताबी देख मैं ने वही मोटेमोटे परांठे परोस दिए. चटनी थी. वह धड़ल्ले से खाने लगी. खा कर चाय पीने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘तू भूखी थी क्या?’’

उस की आंख में पानी उतर आया, बोली, ‘‘हां.’’

‘‘हो क्या गया?’’

उस का गला भर आया. कुछ रुक कर बोली, ‘‘कांड ही हो गया था. मेरे हाथ जोड़ कर माफी मांगने के बाद बहू अपने कमरे में जा कर मुंह लपेट कर औधेमुंह पलंग पर पड़ गई. मैं ने जा कर चौका समेटा. बचे हुए ढेर सारे घोल में से कुछ फ्रिज में रखा. बाकी कामवाली को दे दिया. पकौड़ों में से भी कुछ रखा, बाकी कामवाली को दिया. रात का खाना बना कर बच्चों को खिलाया.

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‘‘उसे खाने के लिए बुलाया तो भड़क गई, ‘मुझे चैन से जीने देना है कि नहीं. नम्रता का आवरण ओढ़े मुझे टौर्चर करती रहती है धूर्त बुढि़या.’ मैं भी पगला गई, ‘तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊं. मौत आएगी तभी न मरूंगी.’

‘‘अपनी दयनीय विवशता पर मैं रोती जाऊं और लड़ती जाऊं. वह भी रोती जाए और लड़ती जाए. उस का मुख्य आरोप था कि मैं पाखंडी हूं. अपने को श्रेष्ठ समझती हूं और उसे हमेशा नीचा दिखाने के चक्कर में रहती हूं. दुख से मेरा कलेजा फटा जा रहा था. मैं भी अपने कमरे में जा कर बिस्तर में रोती पड़ी रही. रातभर नींद नहीं आई. मुझ से कहां गलती होती है, यही समझ में नहीं आया.

‘‘आधी रात के करीब बेटा आया. सीधे अपने कमरे में गया. मैं सहमीसटकी आहट लेती रही, क्या खाना परोसने जाऊं. मगर कुछ देर बाद बेटा खुद कमरे में आ गया, बोला, ‘मां, तुम लोग मुझे जीने दोगी कि नहीं. मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि उस में सहनशक्ति नहीं है. उसे डिस्टर्ब मत किया करो. वह भूखीप्यासी स्कूल से आई कि लड़के चले आए. किसी तरह लड़कों को पढ़ा रही थी कि तुम ने अपनी सहेलियों के लिए नाश्ता बनाने का फरमान सुना दिया. मां, आखिर तुम चाहती क्या हो? तुम हम को छोड़ कर तो रह नहीं सकतीं, तुम खुद जानती हो. तुम समय से पिछड़ चुकी हो. तुम्हें तो एटीएम से पैसा निकालना तक नहीं आता.’

‘‘तुझे एटीएम से पैसा निकालना नहीं आता सुमेधा?’’ मैं हैरान हो गई.

‘‘मैं कभी गई ही नहीं. तेरे जीजाजी के बाद से बैंक वगैरह के सारे कागजात बेटे के पास ही रहते हैं. मुझ से सिर्फ दस्तखत लेता रहा है. एटीएम से पैसा निकाल कर वही देता रहा है. वह न हो, तो बहू ला देती है.’’

‘‘तुझे पता है वे कितना निकालते हैं, तुझे कितनी पैंशन मिलती है?’’

‘‘वे मेरे हाथ में वही रकम थमा देते हैं, जो मुझे शुरू में मिलती थी.’’

मैं सिर पकड़ कर बैठ गई, बोली, ‘‘वह सब मैं तुझे सिखा दूं. मगर यह बता, क्या तू इन को छोड़ कर कहीं अलग सच में नहीं रह सकती?’’

‘‘फायदा क्या है. यहां मैं बेटे की सूरत तो देख सकती हूं. पोतेपोती से बोलबतिया तो लेती हूं. मैं जानती हूं, ये लोग मुझे मूर्ख, गंवार और अवांछित प्राणी समझ कर अपमानित करते रहते हैं. कुत्ता भी इन का अपना है, दुलारा है. मगर मैं नहीं. मैं क्या करूं. मुझ में इन के लिए ही प्रेम उमड़ता है. फिर बीचबीच में बेटियां आ जाती हैं. दामाद और बच्चे भी. मेरी छाती भर आती है. बेहद सुख लगता है. कभी देवरजेठभतीजेभतीजी वगैरह भी आ जाते हैं.

‘‘बहू अपने मायके वालों के अतिरिक्त किसी का आना पसंद नहीं करती. कई बार अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलती. मगर ये लोग बहुत समझदार हैं. उस के कमरे में जा कर खुद बोलबतिया लेते हैं. बेटियां तो अकसर भाभी के लिए तोहफे ले कर आती हैं. भरेपूरे मायके में आने से उन का भी तो ससुराल में मान बढ़ता है. इन्हीं सब से इस परिवार की प्रतिष्ठा बनी हुई है.

‘‘बहू को तो परिवार की प्रतिष्ठा की समझ नहीं है. शायद आजकल की अधिकतर युवतियों को ही नहीं है. अपना पति, अपने बच्चे, अपनी शानशौकत से भरी जिंदगी, अपना अधिकार, अपनी सत्ता. इन सब के लिए चाहिए पैसा. बटोर सको तो बटोरो. इसी में चौंधियाई हुई हैं. प्रतिष्ठा की फिक्र तो हम जैसों को होती है. सच तो यह है, मुझे जितना प्रेम अपने बेटेबेटी, नातीपोते से है, उतना ही परिवार की प्रतिष्ठा से है. बल्कि कुछ ज्यादा ही. अपने जीतेजी तो मैं इस प्रतिष्ठा को बचाए ही रखूंगी.’’

उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

परिवार की प्रतिष्ठा. अच्छे से जानती हूं कि यह तो उस की घुट्टी में रही है. याद आया, कालेज के दूसरे साल में थी कि वह पड़ोस के एक लड़के से प्रेम कर बैठी थी. लड़का एमए का छात्र था. यह कुछकुछ पूछने उस के पास जाती थी. भीतर ही भीतर प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था. मगर बातें हो पातीं सिर्फ पढ़ाई की. मुझ से कहने लगी, ‘तू उस से पूछ न, क्या वह मुझे चाहता है.’

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लड़का पहले ही मुझे अपने जज्बात बता चुका था, मैं बोली, ‘अगर वह ‘हां’ में जवाब दे तो क्या तू उस से शादी कर सकेगी?’ वह एकदम खामोश हो गई. फिर बोली, ‘मैं ऐसा नहीं कर सकती. वह दूसरी बिरादरी का है. बाबूजी को बहुत दुख होगा. समाज में हमारे परिवार की बदनामी होगी.’ उस की आंखें छलछलाने लगी थीं, आगे बोली, ‘मैं इस दारुण दुख को चुपचाप पी लूंगी, मगर परिवार की प्रतिष्ठा कलंकित नहीं कर सकती.’

और आज…?

आज भी उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

भीगे नेत्रों से देखती रह गई मैं. परिवार की प्रतिष्ठा का भारी बोझ उठाए उस जर्जर अंतिम स्तंभ को. घर में दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती, पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती.

यह भी खूब रही. मेरे बेटे का मित्र आशीष, दिल्ली के इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर यूरोप के एक देश की एयरलाइंस कार्यालय में नौकरी करता है. यह एयरलाइंस अपने कर्मचारियों को अपने देश में घूमने के लिए डिस्काउंट टिकट और होटल में ठहरने की सुविधा भी देती है.

इसी सुविधा के अंतर्गत जब वह पहली बार यूरोप में उन के देश घूमने गया तो होटल के कमरे में अपना समान रख कर बालकनी की तरफ लगे शीशे के दरवाजे के हैंडल को नीचे की ओर शीघ्रता से घुमा कर खोलने लगा तो ऊपर की ओर से पूरा का पूरा दरवाजा दोनों ओर से खुल गया और उस के ऊपर गिरने लगा. उस ने दरवाजे को कई बार टिकाना चाहा लेकिन जैसे ही वह उसे छोड़ने का प्रयास करता वह तेजी से उस के ऊपर गिरने लगता.

अपने दोनों हाथों से उस ने दरवाजों को संभाल रखा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी किसी ने मुख्य दरवाजे की घंटी बजाई. आशीष ने जोर से चिल्लाते हुए उसे अंदर आने को कहा. जैसे ही दरवाजा खुला तो होटल का वह कर्मचारी भीतर का दृश्य देख कर चौंक गया. वह कर्मचारी उस के पास आया और उस ने आशीष का हाथ पकड़ कर उसे वहां से हटाया और उसे दरवाजे की तकनीक समझाई.

नया व्यक्ति, जो इस तकनीक को नहीं जानता है, वह आम दरवाजे जैसे ही हैंडल नीचे की ओर कर, दरवाजे को खोलने की कोशिश करता है, तो उसे पूरा का पूरा दरवाजा खुल कर नीचे गिरने जैसा लगता है. आज भी यूरोप घूमने जाने पर ऐसे दरवाजेखिड़कियां खोलते ही यह वाकेआ ताजा हो जाता है और सब आशीष का नाम ले कर खूब ठहाके लगाते हैं.

मेरे एक बहुत ही घनिष्ठ मित्र हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं. उन का क्लिनिक घर के पास ही है. उन की नईनई शादी हुई थी. कुछ दिनों बाद उन की पत्नी की मौसी उन के यहां आईं. जब भी वे मरीजों के प्लास्टर चढ़ाते तो घर पास में होने के कारण घर आ जाते और स्नान वगैरह करते. जब वे घर आते तो उन के कपड़े चूने से सने होते थे. उन्हें ऐसी हालत में मौसी रोज देखतीं.

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लौट कर मौसी अपनी बहन के घर जा कर बोलीं, ‘‘तुम तो कहती हो कि लड़का डाक्टर है, पर मुझे तो लगता है वह सफेदी करने वाला है. घर में जब भी आता है, सारे कपड़े चूने से सने रहते हैं.’’

आज भी डाक्टर साहब इस बात को याद कर के हंस पड़ते हैं.

लड़की- भाग 1 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

मुंबई स्थित जसलोक अस्पताल के आईसीयू में वीणा बिस्तर पर  निस्पंद पड़ी थी. उसे इस हालत में देख कर उस की मां अहल्या का कलेजा मुंह को आ रहा था. उस के कंठ में रुलाई उमड़ रही थी. उस ने सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे एक दिन ऐसे दुखदायी दृश्य का सामना करना पड़ेगा.

वह वीणा के पास बैठ कर उस के सिर पर हाथ फेरने लगी. ‘मेरी बेटी,’ वह बुदबुदाई, ‘तू एक बार आंखें खोल दे, तू होश में आ जा तो मैं तुझे बता सकूं कि मैं तुझे कितना चाहती हूं, तू मेरे दिल के कितने करीब है. तू मुझे छोड़ कर न जा मेरी लाड़ो. तेरे बिना मेरा संसार सूना हो जाएगा.’

बेटी को खो देने की आशंका से वह परेशान थी. वह व्यग्रता से डाक्टर और नर्सों का आनाजाना ताक रही थी, उन से वीणा की हालत के बारे में जानना चाह रही थी, पर हर कोई उसे किसी तरह का संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ था.

जैसे ही उसे वीणा के बारे में सूचना मिली वह पागलों की तरह बदहवास अस्पताल दौड़ी थी. वीणा को बेसुध देख कर वह चीख पड़ी थी. ‘यह सब कैसे हुआ, क्यों हुआ?’ उस के होंठों पर हजारों सवाल आए थे.

‘‘मैं आप को सारी बात बाद में विस्तार से बताऊंगा,’’ उस के दामाद भास्कर ने कहा था, ‘‘आप को तो पता ही है कि वीणा ड्रग्स की आदी थी. लगता है कि इस बार उस ने ओवरडोज ले ली और बेहोश हो गई. कामवाली बाई की नजर उस पर पड़ी तो उस ने दफ्तर में फोन किया. मैं दौड़ा आया, उसे अस्पताल लाया और आप को खबर कर दी.’’

‘‘हायहाय, वीणा ठीक तो हो जाएगी न?’’ अहल्या ने चिंतित हो कर सवाल किया.

‘‘डाक्टर्स पूरी कोशिश कर रहे हैं,’’  भास्कर ने उम्मीद जताई.

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भास्कर से कोई आश्वासन न पा कर अहल्या ने चुप्पी साध ली. और वह कर भी क्या सकती थी? उस ने अपने को इतना लाचार कभी महसूस नहीं किया था. वह जानती थी कि वीणा ड्रग्स लेती थी. ड्रग्स की यह आदत उसे अमेरिका में ही पड़ चुकी थी. मानसिक तनाव के चलते वह कभीकभी गोलियां फांक लेती थी. उस ने ओवरडोज गलती से ली या आत्महत्या करने का प्रयत्न किया था?

उस का मन एकबारगी अतीत में जा पहुंचा. उसे वह दिन याद आया जब वीणा पैदा हुई थी. लड़की के जन्म से घर में किसी प्रकार की हलचल नहीं हुई थी. कोई उत्साहित नहीं हुआ था.

अहल्या व उस का पति सुधाकर ऐसे परिवेश में पलेबढ़े थे जहां लड़कों को प्रश्रय दिया जाता था. लड़कियों की कोई अहमियत नहीं थी. लड़कों के जन्म पर थालियां बजाई जातीं, लड्डू बांटे जाते, खुशियां मनाई जाती थीं. बेटी हुई तो सब के मुंह लटक जाते.

बेटी सिर का बोझ थी. वह घाटे का सौदा थी. एक बड़ी जिम्मेदारी थी. उसे पालपोस कर, बड़ा कर दूसरे को सौंप देना होता था. उस के लिए वर खोज कर, दानदहेज दे कर उस की शादी करने की प्रक्रिया में उस के मांबाप हलकान हो जाते और अकसर आकंठ कर्ज में डूब जाते थे.

अहल्या और सुधाकर भी अपनी संकीर्ण मानसिकता व पिछड़ी विचारधारा को ले कर जी रहे थे. वे समाज के घिसेपिटे नियमों का हूबहू पालन कर रहे थे. वे हद दर्जे के पुरातनपंथी थे, लकीर के फकीर.

देश में बदलाव की बयार आई थी, औरतें अपने हकों के लिए संघर्ष कर रही थीं, स्त्री सशक्तीकरण की मांग कर रही थीं. पर अहल्या और उस के पति को इस से कोई फर्क नहीं पड़ा था.

अहल्या को याद आया कि बच्ची को देख कर उस की सास ने कहा था, ‘बच्ची जरा दुबलीपतली और मरियल सी है. रंग भी थोड़ा सांवला है, पर कोई बात नहीं.

2-2 बेटों के जन्म के बाद इस परिवार में एक बेटी की कमी थी, सो वह भी पूरी हो गई.’

जब भी अहल्या को उस की सास अपनी बेटी को ममता के वशीभूत हो कर गोद में लेते या उसे प्यार करते देखतीं तो उसे टोके बिना न रहतीं, ‘अरी, लड़कियां पराया धन होती हैं, दूसरे के घर की शोभा. इन से ज्यादा मोह मत बढ़ा. तेरी असली पूंजी तो तेरे बेटे हैं. वही तेरी नैया पार लगाएंगे. तेरे वंश की बेल वही आगे बढ़ाएंगे. तेरे बुढ़ापे का सहारा वही तो बनेंगे.’

सासूमां जबतब हिदायत देती रहतीं, ‘अरी बहू, बेटी को ज्यादा सिर पे मत चढ़ाओ. इस की आदतें न बिगाड़ो. एक दिन इसे पराए घर जाना है. पता नहीं कैसी ससुराल मिलेगी. कैसे लोगों से पाला पड़ेगा. कैसे निभेगी. बेटियों को विनम्र रहना चाहिए. दब कर रहना चाहिए. सहनशील बनना चाहिए. इन्हें अपनी हद में रहना चाहिए.’

देखते ही देखते वीणा बड़ी हो गई. एक दिन अहल्या के पति सुधाकर ने आ कर कहा, ‘वीणा के लिए एक बड़ा अच्छा रिश्ता आया है.’

‘अरे,’ अहल्या अचकचाई, ‘अभी तो वह केवल 18 साल की है.’

‘तो क्या हुआ. शादी की उम्र तो हो गई है उस की, जितनी जल्दी अपने सिर से बोझ उतरे उतना ही अच्छा है. लड़के ने खुद आगे बढ़ कर उस का हाथ मांगा है. लड़का भी ऐसावैसा नहीं है. प्रशासनिक अधिकारी है. ऊंची तनख्वाह पाता है. ठाठ से रहता है हमारी बेटी राज करेगी.’

‘लेकिन उस की पढ़ाई…’

‘ओहो, पढ़ाई का क्या है, उस के पति की मरजी हुई तो बाद में भी प्राइवेट पढ़ सकती है. जरा सोचो, हमारी हैसियत एक आईएएस दामाद पाने की थी क्या? घराना भी अमीर है. यों समझो कि प्रकृति ने छप्पर फाड़ कर धन बरसा दिया हम पर. ‘लेकिन अगर उस के मातापिता ने दहेज के लिए मुंह फाड़ा तो…’

‘तो कह देंगे कि हम आप के द्वारे लड़का मांगने नहीं गए थे. वही हमारी बेटी पर लार टपकाए हुए हैं…’

जब वीणा को पता चला कि उस के ब्याह की बात चल रही है तो वह बहुत रोईधोई. ‘मेरी शादी की इतनी जल्दी क्या है, मां. अभी तो मैं और पढ़ना चाहती हूं. कालेज लाइफ एंजौय करना चाहती हूं. कुछ दिन बेफिक्री से रहना चाहती हूं. फिर थोड़े दिन नौकरी भी करना चाहती हूं.’

पर उस की किसी ने नहीं सुनी. उस का कालेज छुड़ा दिया गया. शादी की जोरशोर से तैयारियां होने लगीं.

वर के मातापिता ने एक अडं़गा लगाया, ‘‘हमारे बेटे के लिए एक से बढ़ कर एक रिश्ते आ रहे हैं. लाखों का दहेज मिल रहा है. माना कि हमारा बेटा आप की बेटी से ब्याह करने पर तुला हुआ है पर इस का यह मतलब तो नहीं कि आप हमें सस्ते में टरका दें. नकद न सही, उस की हैसियत के अनुसार एक कार, फर्नीचर, फ्रिज, एसी वगैरह देना ही होगा.’’

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सुधाकर सिर थाम कर बैठ गए. ‘मैं अपनेआप को बेच दूं तो भी इतना सबकुछ जुटा नहीं सकता,’ वे हताश स्वर में बोले.

‘मैं कहती थी न कि वरपक्ष वाले दहेज के लिए मुंह फाड़ेंगे. आखिर, बात दहेज के मुद्दे पर आ कर अटक गई न,’ अहल्या ने उलाहना दिया.

‘आंटीजी, आप लोग फिक्र न करें,’ उन के भावी दामाद उदय ने उन्हें दिलासा दिया, ‘मैं सब संभाल लूंगा. मैं अपने मांबाप को समझा लूंगा. आखिर मैं उन का इकलौता पुत्र हूं वे मेरी बात टाल नहीं सकेंगे.’ पर उस के मातापिता भी अड़ कर बैठे थे. दोनों में तनातनी थी.

आखिर, उदय के मांबाप की ही चली. वे शादी के मंडप से उदय को जबरन उठा कर ले गए और सुधाकर व अहल्या कुछ न कर सके. देखते ही देखते शादी का माहौल मातम में बदल गया. घराती व बराती चुपचाप खिसक लिए. अहल्या और वीणा ने रोरो कर घर में कुहराम मचा दिया.

‘अब इस तरह मातम मनाने से क्या हासिल होगा?’ सुधाकर ने लताड़ा, ‘इतना निराश होने की जरूरत नहीं है. हमारी लायक बेटी के लिए बहुतेरे वर जुट जाएंगे.’

वीणा मन ही मन आहत हुई पर उस ने इस अप्रिय घटना को भूल कर पढ़ाई में अपना मन लगाया. वह पढ़ने में तेज थी. उस ने परीक्षा अच्छे नंबरों से पास की. इधर, उस के मांबाप भी निठल्ले नहीं बैठे थे. वे जीजान से एक अच्छे वर की तलाश कर रहे थे. तभी वीणा ने एक दिन अपनी मां को बताया कि वह अपने एक सहपाठी से प्यार करती है और उसी से शादी करना चाहती है.

जब अहल्या ने यह बात पति को बताई तो उन्होंने नाकभौं सिकोड़ कर कहा, ‘बहुत खूब. यह लड़की कालेज पढ़ने जाती थी या कुछ और ही गुल खिला रही थी? कौन लड़का है, किस जाति का है, कैसा खानदान है कुछ पता तो चले?’

और जब उन्हें पता चला कि प्रवीण दलित है तो उन की भृकुटी तन गई, ‘यह लड़की जो भी काम करेगी वह अनोखा होगा. अपनी बिरादरी में योग्य लड़कों की कमी है क्या? भई, हम से तो जानबूझ कर मक्खी निगली नहीं जाएगी. समाज में क्या मुंह दिखाएंगे? हमें किसी तरह से इस लड़के से पीछा छुड़ाना होगा. तुम वीणा को समझाओ.’

‘मैं उसे समझा कर हार चुकी हूं पर वह जिद पकड़े हुए है. कुछ सुनने को तैयार नहीं है.’

‘पागल है वह, नादान है. हमें कोई तरकीब भिड़ानी होगी.’

सुधाकर ने एक तरीका खोज  निकाला. वे वीणा को एक  ज्योतिषी के पास ले गए.

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