Family Story In Hindi: अनोखा रिश्ता

‘‘बायमां, मैं निकल रही हूं… और हां भूलना मत,

दोपहर के खाने से पहले दवा जरूर खा लेना,’’ कह पल्लवी औफिस जाने लगी.

तभी ललिता ने उसे रोक कहा, ‘‘यह पकड़ो टिफिन. रोज भूल जाती हो और हां, पहुंचते ही फोन जरूर कर देना.’’

‘‘मैं भूल भी जाऊं तो क्या आप भूलने देती हो मां? पकड़ा ही देती हो खाने का टिफिन,’’ लाड़ दिखाते हुए पल्लवी ने कहा, तो ललिता भी प्यार के साथ नसीहतें देने लगीं कि वह कैंटीन में कुछ न खाए.

‘‘हांहां, नहीं खाऊंगी मेरी मां… वैसे याद है न शाम को 5 बजे… आप तैयार रहना मैं जल्दी आने की कोशिश करूंगी,’’ यह बात पल्लवी ने इशारों में कही, तो ललिता ने भी इशारों में ही जवाब दिया कि वे तैयार रहेंगी.

‘‘क्या इशारे हो रहे हैं दोनों के बीच?’’ ललिता और पल्लवी को इशारों में बात करते देख विपुल ने कहा, ‘‘देख लो पापा, जरूर यहां सासबहू और साजिश चल रही है.’’

विपुल की बातें सुन शंभुजी भी हंसे बिना नहीं रह पाए. मगर विपुल तो अपनी मां के पीछे ही पड़ गया, यह जानने के लिए कि इशारों में पल्लवी ने उन से क्या कहा.

‘‘यह हम सासबहू के बीच की बात है,’’ प्यार से बेटे का कान खींचते हुए ललिता बोलीं.

बेचारा विपुल बिना बात को जाने ही औफिस चला गया. दोनों को

औफिस भेज कर ललिता 2 कप चाय बना लाईं और फिर इतमीनान से शंभूजी की बगल में बैठ गईं.

चाय पीते हुए शंभूजी एकटक ललिता को देखदेख कर मुसकराए जा रहे थे.

‘‘इतना क्यों मुसकरा रहे हो? क्या गम है जिसे छिपा रहे हो…?’’ ललिता ने शायराना अंदाज में पूछा, तो उन की हंसी छूट गई.

कहने लगे, ‘‘मुसकरा इसलिए रहा हूं कि तुम भी न अजीब हो. अरे, बता देती बेचारे को कि तुम सासबहू का क्या प्रोग्राम है. लेकिन जो भी हो तुम सासबहू की बौडिंग देख कर मन को बड़ा सुकून मिलता है वरना तो मेरा सासबहू के झगड़े सुनसुन कर दिमाग घूम जाता है. हाल ही में मैं ने अखबार में एक खबर पढ़ी, जिस में लिखा था सास से तंग आ कर एक बहू 12वीं मंजिल से कूद गई और जानती हो पहले उस ने अपने ढाई साल के बेटे को फेंका और फिर खुद कूद गई, जिस से दोनों की मौत हो गई. सच कह रहा हूं ललिता यह पढ़ कर मेरा तो दिल बैठ गया था.’’

शंभूजी की बातें सुन कर ललिता का भी दिल दहल गया.

‘‘सोचा जरा उस इंसान पर क्या बीतती होगी जिसे न तो मां समझ पाती हैं और न पत्नी. पिसता रहता है बेचारा मां और पत्नी के बीच.’’

‘‘हूं, सही कह रहे हैं आप. हमारे समाज में जब एक लड़की शादी के बाद अपना मायका छोड़ कर जहां उस ने लगभग अपनी आधी जिंदगी पूरे हक के साथ गुजारी होती है, ससुराल में कदम रखते ही उस के दिल में घबराहट सी होने लगती है कि यहां सब उसे दिल से तो अपनाएंगे न? अपने परिवार का हिस्सा समझेंगे न? ज्यादातर घरों में यही होता है कि बहू को आए अभी कुछ दिन हुए नहीं कि जिम्मेदारी की टोकरी उसे पकड़ा दी जाती है. उसे यह तो समझा दिया जाता है कि सासससुर के साथसाथ ननददेवर और नातेरिश्तेदारों को भी सम्मान देना होगा, लेकिन यह नहीं समझाया जाता कि आज से यह घर उस का भी है और ससुराल में उस की राय भी उतनी ही मान्य होगी जितनी घर के बाकी सदस्यों की.

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‘‘क्या एक बहू का यह अधिकार नहीं कि घर के हित के लिए जो भी फैसले लिए जाएं उन में उस की भी राय शामिल हो? क्यों सास को लगने लगता है कि बहू आते ही उस से उस के बेटे को छीन लेगी? अगर ऐसा ही है, तो फिर न करें वे अपने बेटे की शादी. रखें अपने आंचल में ही छिपा कर. अगर शादी के बाद बेटा अपने परिवार को कुछ बोल जाए, तो सब को यही लगने लगता है कि बीवी ने ही सिखाया होगा

उसे ऐसा बोलने के लिए और यही झगड़े की जड़ है. हर बात के लिए बहू को ही दोषी ठहराया जाने लगता है. और तो और उस के मायके को भी नहीं छोड़ते लोग,’’ कहते हुए ललिता की आंखें गीली हो गईं, जो शंभूजी से भी छिपी न रह पाईं.

वे समझ रहे थे कि आज ललिता के मन का गुब्बार निकल रहा है और वह वही सब बोल रही है जो उस के साथ हुआ है. उन्हें भी तो याद है… कभी उन की मां ने ललिता को चैन से जीने नहीं दिया. बातबात पर तानेउलाहने, गालीगलौच यहां तक कि थप्पड़ भी चला देती थीं वे ललिता पर और बेचारी रो कर रह जाती. लेकिन क्या कोई भी लड़की अपने मायके की बेइज्जती सहन कर सकती है भला? जब ललिता की सास उस के मायके के खिलाफ कुछ बोल देतीं, तो उस से सहन नहीं होता और वह पलट कर जवाब दे देती. यह बात उन की मां की बरदाश्त के बाहर चली जाती. गरजते हुए कहतीं कि अगर फिर कभी ललिता ने कैंची की तरह जबान चलाई तो वे उसे हमेशा के लिए उस के मायके भेज देगी, क्योंकि उन के बेटे के लिए लड़कियों की कमी नहीं है.

बेचारे शंभूजी भी क्या करते? खून का घूंट पी कर रह जाते पर अपनी मां से कुछ कह न पाते. अगर कुछ बोलते तो जोरू का गुलाम कहलाते और पहले के जमाने में कहां बेटे को इतना हक होता था कि वह पत्नी की तरफदारी में कुछ बोल सके.

‘‘मैं ने तो पहले ही सोच लिया था शंभूजी कि जब मेरी बहू का गृहप्रवेश होगा, तो उसे सिर्फ कर्तव्यों, दायित्वों, जिम्मेदारियों और फर्ज की टोकरी ही नहीं थमाऊंगी वरन उसे उस के हक और अधिकारों का गुलदस्ता भी दूंगी, क्योंकि आखिर वह भी तो अपनी ससुराल में कुछ उम्मीदें ले कर आएगी.’’

‘‘और अगर तुम्हारी बहू ही अच्छे विचारों वाली नहीं आती तब? तब कैसे निभाती उस से?’’ शंभूजी ने पूछा.

अपने पति की बातों पर वे हंसीं और फिर कहने लगीं, ‘‘मैं ने यह भी सोचा था

कि शायद मेरी बहू मेरे मनमुताबिक न आए, लेकिन फिर भी मैं उस से निभाऊंगी. उसे इतना प्यार दूंगी कि वह भी मेरे रंग में रंग जाएगी. जानते हैं शंभूजी, अगर एक औरत चाहे तो फिर चाहे वह सास हो या बहू, अपने रिश्ते को बिगाड़ भी सकती है और चाहे तो अपनी सूझबूझ से रिश्ते को कभी न टूटने वाले पक्के धागे में पिरो कर भी रख सकती है. हर लड़की चाहती है कि वह एक अच्छी बहू बने, पर इस के लिए सास को भी तो अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी न. अगर घर के किसी फैसले में बहू की सहमति न लें, उसे पराई समझें, तो वह हमें कितना अपना पाएगी, बोलिए? उफ, बातोंबातों में समय का पता  ही नहीं चला,’’ घड़ी की तरफ देखते हुए ललिता ने कहा, ‘‘आज आप को दुकान पर नहीं जाना क्या?’’

‘‘सोच रहा हूं आज न जाऊं. वैसे भी लेट हो गया और मंदी के कारण वैसे भी ग्राहक कम ही आते हैं,’’ शंभूजी ने कहा. उन का अपना कपड़े का व्यापार था.

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‘‘पर यह तो बताओ कि तुम सासबहू ने क्या प्रोग्राम बनाया है? मुझे तो बता दो,’’ वे बोले.

शंभूजी के पूछने पर पहले तो ललिता झूठेसच्चे बहाने बनाने लगीं, पर जब उन्होंने जोर दिया, तो बोलीं, ‘‘आज हम सासबहू फिल्म देखने जा रही हैं.’’

‘‘अच्छा, कौन सी?’’ पूछते हुए शंभूजी की आंखें चमक उठीं.

‘‘अरे, वह करीना कपूर और सोनम कपूर की कोई नई फिल्म आई है न… क्या नाम है उस का… हां, याद आया, ‘वीरे दी वैडिंग.’ वही देखने जा रही हैं. आज आप घर पर ही हैं, तो ध्यान रखना घर का.’’

‘‘अच्छा, तो अब तुम सासबहू फिल्म देखो और हम बापबेटा खाना पकाएं, यही कहना चाहती हो न?’’

‘‘हां, सही तो है,’’ हंसते हुए ललिता बोलीं और फिर किचन की तरफ बढ़ गईं.

‘‘अच्छा ठीक है, खाना हम बना लेंगे, पर

1 कप चाय और पिला दो,’’ शंभूजी ने कहा तो ललिता भुनभुनाईं यह कह कर कि घर में रहते हैं, तो बारबार चाय बनवा कर परेशान कर देते हैं.

जो भी हो पतिपत्नी अपने जीवन में बहुत खुश थे और हों भी क्यों न, जब पल्लवी जैसी बहू हो. शादी के 4 साल हो गए, पर कभी उस ने ललिता को यह एहसास नहीं दिलवाया कि वह उन की बहू है. पासपड़ोस, नातेरिश्तेदार इन दोनों के रिश्ते को देख कर आश्चर्य करते और कहते कि क्या सासबहू भी कभी ऐसे एकसाथ इतनी खुश रह सकती हैं? लगता ही नहीं है कि दोनों सासबहू हैं.

पल्लवी एक मल्टीनैशनल कंपनी में अच्छे पैकेज पर नौकरी कर रही थी और वहीं उस की मुलाकात विपुल से हुई, जो जानपहचान के बाद दोस्ती और फिर प्यार में बदल गई. 2 साल तक बेरोकटोक उन का प्यार चलता रहा और फिर दोनों परिवारों की सहमति से विवाह के बंधन में बंध गए. वैसे तो बचपन से ही पल्लवी को सास नाम के प्राणी से डर लगता था, क्योंकि उस के जेहन में एक हौआ सा बैठ गया था कि सास और बहू में कभी नहीं पटती, क्योंकि अपने घर में भी तो उस ने आएदिन अपनी मां और दादी को लड़तेझगड़ते ही देखा था.

ज्योंज्यों वह बड़ी होती गई दादी और मां में लड़ाइयां भी बढ़ती चली गईं. उसे याद है जब उस की मांदादी में झगड़ा होता और उस के पापा किसी एक की तरफदारी करते, तो दूसरी का मुंह फूल जाता. हालत यह हो गई कि फिर उन्होंने बोलना ही छोड़ दिया. जब भी दोनों में झगड़ा होता, पल्लवी के पापा घर से बाहर निकल जाते. नातेरिश्तेदारों और पासपड़ोस में भी तो आएदिन सासबहू के झगड़े सुनतेदेखते वह घबरा सी जाती.

उसे याद है जब पड़ोस की शकुंतला चाची की बहू ने अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली थी. तब यह सुन कर पल्लवी की रूह कांप उठी थी. वैसे हल्ला तो यही हुआ था कि उस की सास ने ही उसे जला कर मार डाला, मगर कोई सुबूत न मिलने के कारण वह कुछ सजा पा कर ही बच गई थी. मगर मारा तो उसे उस की सास ने ही था, क्योंकि उस की बहू तो गाय समान सीधी थी. ऐसा पल्लवी की दादी कहा करती थीं. पल्लवी की दादी भी किसी सांपनाथ से कम नहीं थीं और मां तो नागनाथ थीं ही, क्योंकि दादी एक सुनातीं, तो मां हजार सुना डालतीं.

खैर, एक दिन पल्लवी की दादी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं. लेकिन आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब दादी की 13वीं पर महल्ले की औरतों के सामने घडि़याली आंसू बहाते हुए पल्लवी की मां शांति कहने लगीं कि उन की सास, सास नहीं मां थीं उन की. जाने अब वे उन के बगैर कैसे जी पाएंगी.

मन तो हुआ पल्लवी का कि कह दे कि क्यों झूठे आंसू बहा रही हो मां? कब तुम ने दादी को मां माना? मगर वह चुप रही. मन ही मन सोचने लगी कि बस नाम ही शांति है उस की मां का, काम तो सारे अशांति वाले ही करती हैं.

सासबहू के झगड़े सुनदेख कर पल्लवी का तो शादी पर से विश्वास ही उठ गया था. जब भी उस की शादी की बात चलती, वह सिहर जाती. सोचती, जाने कैसी ससुराल मिलेगी. कहीं उस की सास भी शकुंतला चाची जैसी निकली तो या कहीं उस में भी उस की मां का गुण आ गया तो? ऐसे कई सवाल उस के मन को डराते रहते.

अपने मन का डर उस ने विपुल को भी बताया, जिसे सुन उस की हंसी रुक नहीं रही थी. किसी तरह अपनी हंसी रोक वह कहने लगा, ‘‘हां, मेरी मां सच में ललिता पवार हैं. सोच लो अब भी समय है. कहीं ऐसा न हो तुम्हें बाद में पछताना पड़े? पागल, मेरी मां पुराने जमाने की सास नहीं हैं. तुम्हें उन से मिलने के बाद खुद ही पता चल जाएगा.’’

विपुल की बातों ने उस का डर जरा कम तो कर दिया, पर पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया. अब भी सास को ले कर दिल के किसी कोने में डर तो था ही.

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बिदाई के वक्त बड़े प्यार से शांति ने भी अपनी बेटी के कान फूंकते हुए समझाया था, ‘‘देख बिटिया, सास को कभी मां समझने की भूल न करना, क्योंकि सास चुड़ैल का दूसरा रूप होती है. देखा नहीं अपनी दादी को? मांजीमांजी कह कर उसे सिर पर मत बैठा लेना. पैरों में तेल मालिशवालिश की आदत तो डालना ही मत नहीं तो मरते दम तक तुम से सेवा करवाती रहेगी… सब से बड़ी बात पति को अपनी मुट्ठी में रखना और उस के कमाए पैसों को भी. अपनी कमाई तो उसे छूने भी मत देना. एक बार मुंह को खून लग जाए, तो आदत पड़ जाती है. समझ रही हो न मेरे कहने का मतलब?’’

अपनी मां की कुछ बातों को उस ने आत्मसात कर लिया तो कुछ को नहीं.

ससुराल में जब पल्लवी ने पहला कदम रखा, तो सब से पहले उस का

सामना ललिता यानी अपनी सास से ही हुआ. उन का भरा हुआ रोबीला चेहरा, लंबा चरबी से लदा शरीर देख कर ही वह डर गई. लगा जैसा नाम वैसा ही रूप. और जिस तरह से वे आत्मविश्वास से भरी आवाज में बातें करतीं, पल्लवी कांप जाती. वह समझ गई कि उस का हाल वही होने वाला है जो और बेचारी बहुओं का होता आया है.

मगर हफ्ता 10 दिन में ही जान लिया पल्लवी ने कि यथा नाम तथा गुण वाली कहावत ललिता पर कहीं से भी लागू नहीं होती है. तेजतर्रार, कैंची की तरह जबान और सासों वाला रोब जरा भी नहीं था उन के पास.

एक रोज जब वह अपनी मां को याद कर रोने लगी, तो उस की सास ने उसे सीने से लगा लिया और कहा कि वह उसे सास नहीं मां समझे और जब मन हो जा कर अपनी मां से मिल आए. किसी बात की रोकटोक नहीं है यहां उस पर, क्योंकि यह उस का भी घर है. जैसे उन के लिए उन की बेटी है वैसे ही बहू भी… और सिर्फ कहा ही नहीं ललिता ने कर के भी दिखाया, क्योंकि पल्लवी को नए माहौल में ढलने और वहां के लोगों की पसंदनापसंद को समझने के लिए उसे पर्याप्त समय दिया.

अगर पल्लवी से कोई गलती हो जाती, तो एक मां की  तरह बड़े प्यार से उसे

सिखाने का प्रयास करतीं. पाककला में तो उस की सास ने ही उसे माहिर किया था वरना एक मैगी और अंडा उबालने के सिवा और कुछ कहां बनाना आता था उसे. लेकिन कभी ललिता ने उसे इस बात के लिए तानाउलाहना नहीं मारा, बल्कि बोलने वालों का भी यह कह कर मुंह चुप करा देतीं कि आज की लड़कियां चांद पर पहुंच चुकी हैं, पर अफसोस कि हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है. क्यों हमें बहू सर्वगुण संपन्न चाहिए? क्या हम सासें भी हैं सर्वगुण संपन्न और यही उम्मीद हम अपनी बेटियों से क्यों नहीं लगाते? फिर क्या मजाल जो कोई पल्लवी के बारे में कुछ बोल भी दे.

उस दिन ललिता की बातें सुन कर दिल से पल्लवी ने अपनी सास को मां समझा और सोच लिया कि वह कैसा रिश्ता निभाएगी अपनी सास से.

कभी ललिता ने यह नहीं जताया कि विपुल उन का बेटा है तो विपुल पर पहला अधिकार भी उन का ही है और न ही कभी पल्लवी ने ऐसा जताया कि अब उस के पति पर सिर्फ उस का अधिकार है. जब कभी बेटेबहू में किसी बात को ले कर बहस छिड़ जाती, तो ललिता बहू का ही साथ देतीं. इस से पल्लवी के मन में ललिता के प्रति और सम्मान बढ़ता गया. धीरेधीरे वह अपनी सास के और करीब आने लगी. पूरी तरह से खुलने लगी उन के साथ. कोई भी काम होता वह ललिता से पूछ कर ही करती. उस का जो भय था सास को ले कर वह दूर हो चुका था.

लोग कहते हैं अच्छी बहू बनना और सूर्य पर जाना एक ही बात है. लेकिन अगर मैं एक अच्छी बेटी हूं, तो अच्छी बहू क्यों नहीं बन सकती? मांदादी को मैं ने हमेशा लड़तेझगड़ते देखा है, लेकिन गलती सिर्फ दादी की ही नहीं होती थी. मां चाहतीं तो सासबहू के रिश्ते को संवार सकती थीं, पर उन्होंने और बिगाड़ा रिश्ते को. मुझे भी उन्होंने वही सब सिखाया सास के प्रति, पर मैं उन की एक भी बात में नहीं आई, क्योंकि मैं जानती थी कि सामने वाले मुझे वही देंगे, जो मैं उन्हें दूंगी और ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती. शादी के बाद एक लड़की का रिश्ता सिर्फ अपने पति से ही नहीं जुड़ता, बल्कि ससुराल के बाकी सदस्यों से भी खास रिश्ता बन जाता है, यह बात क्यों नहीं समझती लड़कियां? अगर अपने घर का माहौल हमेशा अच्छा और खुशी भरा रखना है, तो मुझे अपनी मां की बातें भूलनी होंगी और फिर सिर्फ पतिपत्नी में ही 7 वचन क्यों? सासबहू भी क्यों न कुछ वचनों में बंध जाएं ताकि जीवन सुखमय बीत सके, अपनेआप से ही कहती पल्लवी.

उसी दिन ठान लिया पल्लवी ने कि वे सासबहू भी कुछ वचनों में बंधेंगी और अपने रिश्ते को एक नया नाम देंगी-अनोखा रिश्ता. अब पल्लवी अपनी सास की हर पसंदनापसंद को जाननेसमझने लगी थी. चाहे शौपिंग पर जाना हो, फिल्म देखने जाना हो या घर में बैठ कर सासबहू सीरियल देखना हो, दोनों साथ देखतीं.

अब तो पल्लवी ने ललिता को व्हाट्सऐप, फेसबुक, लैपटौप यहां तक कि कार चलाना भी सिखा दिया था. सब के औफिस चले जाने के बाद ललिता घर में बोर न हों, इसलिए उस ने जबरदस्ती उन्हें किट्टी भी जौइन करवा दी.

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शुरूशुरू में ललिता को अजीब लगा था, पर फिर मजा आने लगा. अब वे भी अपनी बहू के साथ जा कर और औरतों की तरह स्टाइलिश कपड़े खरीद लातीं. वजन भी बहुत कम कर लिया था. आखिर दोनों सासबहू रोज वाक पर जो जाती थीं. अपने हलके शरीर को देख बहुत खुश होतीं ललिता और उस का सारा श्रेय देतीं अपनी बहू को, जिस के कारण उन में इतना बदलाव आया था वरना तो 5 गज की साड़ी में ही लिपटी उन की जिंदगी गुजर रही थी.

एक दिन चुटकी लेते हुए शंभूजी ने कहा भी, ‘‘कहीं तुम ललिता पवार से 0 फिगर साइज वाली करीना न बन जाओ. फिर मेरा क्या होगा मेरी जान?’’

‘‘हां, बनूंगी ही, आप को क्यों जलन हो रही है?’’ ललिता बोलीं.

‘‘अरे, मैं क्यों जलने लगा भई. अच्छा है बन जाओ करीना की तरह. मेरे लिए तो और अच्छा ही है न वरना तो ट्रक के साथ आधी से ज्यादा उम्र बीत ही गई मेरी,’’ कह कर शंभूजी हंस पड़े पर ललिता बड़बड़ा उठीं.

दोनों की इस तरह की नोकझोंक देख पल्लवी और विपुल हंस पड़ते.

एक दिन जब पल्लवी ने अपने लिए जींस और टीशर्ट खरीदी, तो ललिता के लिए भी खरीद लाई. वैसे विपुल ने मना किया था कि मत खरीदो, मां नहीं पहनेगी, पर वह ले ही आई.

‘‘अरे, यह क्या ले आई बहू? नहींनहीं मैं ये सब नहीं पहनूंगी. लोग क्या कहेंगे और मेरी उम्र तो देखो,’’ जींस व टीशर्ट एक तरफ रखते हुए ललिता ने कहा.

‘‘उम्र क्यों नहीं है? अभी आप की उम्र ही क्या हुई है मां? लगता है आप 50 की हैं? लोगों की परवाह छोडि़ए, बस वही पहनिए जो आप को अच्छा लगता है और मुझे पता है आप का जींस पहनने का मन है. आप यह जरूर पहनेंगी,’’ हुक्म सुना कर पल्लवी फ्रैश होने चली गई. ललिता उसे जाते देखते हुए सोचने लगीं कि यह कैसा अनोखा रिश्ता है उन का.

नासमझी की आंधी: दीपा से ऐसी क्या गलती हो गयी थी

सुबहसुबह रमेश की साली मीता का फोन आया. रमेश ने फोन पर जैसे ही  ‘हैलो’ कहा तो उस की आवाज सुनते ही मीता झट से बोली, ‘‘जीजाजी, आप फौरन घर आ जाइए. बहुत जरूरी बात करनी है.’’

रमेश ने कारण जानना चाहा पर तब तक फोन कट चुका था. मीता का घर उन के घर से 15-20 कदम की दूरी पर ही था. रमेश को आज अपनी साली की आवाज कुछ घबराई हुई सी लगी. अनहोनी की आशंका से वे किसी से बिना कुछ बोले फौरन उस के घर पहुंच गए. जब वे उस के घर पहुंचे, तो देखा उन दोनों पतिपत्नी के अलावा मीता का देवर भी बैठा हुआ था. रमेश के घर में दाखिल होते ही मीता ने घर का दरवाजा बंद कर दिया. यह स्थिति उन के लिए बड़ी अजीब सी थी. रमेश ने सवालिया नजरों से सब की तरफ देखा और बोले, ‘‘क्या बात है? ऐसी क्या बात हो गई जो इतनी सुबहसुबह बुलाया?’’

मीता कुछ कहती, उस से पहले ही उस के पति ने अपना मोबाइल रमेश के आगे रख दिया और बोला, ‘‘जरा यह तो देखिए.’’

इस पर चिढ़ते हुए रमेश ने कहा, ‘‘यह क्या बेहूदा मजाक है?  क्या वीडियो देखने के लिए बुलाया है?’’

मीता बोली, ‘‘नाराज न होएं. आप एक बार देखिए तो सही, आप को सब समझ आ जाएगा.’’

जैसे ही रमेश ने वह वीडियो देखा उस का पूरा जिस्म गुस्से से कांपने लगा और वह ज्यादा देर वहां रुक नहीं सका. बाहर आते ही रमेश ने दामिनी (सलेहज) को फोन लगाया.

दामिनी की आवाज सुनते ही रमेश की आवाज भर्रा गई, ‘‘तुम सही थी. मैं एक अच्छा पिता नहीं बन पाया. ननद तो तुम्हारी इस लायक थी ही नहीं. जिन बातों पर एक मां को गौर करना चाहिए था, पर तुम ने एक पल में ही गौर कर लिया. तुम ने तो मुझे होशियार भी किया और हम सबकुछ नहीं समझे. यहीं नहीं, दीपा पर अंधा विश्वास किया. मुझे अफसोस है कि मैं ने उस दिन तुम्हें इतने कड़वे शब्द कहे.’’

‘‘अरे जीजाजी, आप यह क्या बोले जा रहे हैं? मैं ने आप की किसी बात का बुरा नहीं माना था. अब आप बात बताएंगे या यों ही बेतुकी बातें करते रहेंगे. आखिर हुआ क्या है?’’

रमेश ने पूरी बात बताई और कहा, ‘‘अब आप ही बताओ मैं क्या करूं? मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.’’ और रमेश की आवाज भर्रा गई.

‘‘आप परेशान मत होइए. जो होना था हो गया. अब यह सोचने की जरूरत है कि आगे क्या करना है? ऐसा करिए आप सब से पहले घर पहुंचिए और दीपा को स्कूल जाने से रोकिए.’’

‘‘पर इस से क्या होगा?’’

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‘‘क्यों नहीं होगा? आप ही बताओ, इस एकडेढ़ साल में आप ने क्या किसी भी दिन दीपा को कहते हुए सुना कि वह स्कूल नहीं जाना चाहती? चाहे घर में कितना ही जरूरी काम था या तबीयत खराब हुई, लेकिन वह स्कूल गई. मतलब कोई न कोई रहस्य तो है. स्कूल जाने का कुछ तो संबंध हैं इस बात से. वैसे भी यदि आप सीधासीदा सवाल करेंगे तो वह आप को कुछ नहीं बताएगी. देखना आप, स्कूल न जाने की बात से वह बिफर जाएगी और फिर आप से जाने की जिद करेगी. तब मौका होगा उस से सही सवाल करने का.’’

‘‘क्या आप मेरा साथ दोगी? आप आ सकती हो उस से बात करने के लिए?’’ रमेश ने पूछा.

‘‘नहीं, मेरे आने से कोई फायदा नहीं. दीदी को भी आप जानते हैं. उन्हें बिलकुल अच्छा नहीं लगेगा. इस बात के लिए मेरा बीच में पड़ना सही नहीं होगा. आप मीता को ही बुला लीजिए.’’

घर जा कर रमेश ने मीता को फोन कर के घर बुला लिया और दीपा को स्कूल जाने से रोका,’’ आज तुम स्कूल नहीं जाओगी.’’

लेकिन उम्मीद के मुताबिक दीपा स्कूल जाने की जिद करने लगी,’’ आज मेरा प्रैक्टिकल है. आज तो जाना जरूरी है.’’

इस पर रमेश ने कहा,’’ वह मैं तुम्हारे स्कूल में जा कर बात कर लूंगा.’’

‘‘नहीं पापा, मैं रुक नहीं सकती आज, इट्स अर्जेंट.’’

‘‘एक बार में सुनाई नहीं देता क्या? कह दिया ना नहीं जाना.’’ पर दीपा बारबार जिद करती रही. इस बात पर रमेश को गुस्सा आ गया और उन्होंने दीपा के गाल पर थप्पड़ रसीद कर दिया. हालांकि? दीपा पर हाथ उठा कर वे मन ही मन दुखी हुए, क्योंकि उन्होंने आज तक दीपा पर हाथ नहीं उठाया था. वह उन की लाड़ली बेटी थी.

तब तक मीता अपने पति के साथ वहां पहुंच गई और स्थिति को संभालने के लिए दीपा को उस के कमरे में ले कर चली गई. वह दीपा से बोली, ‘‘यह सब क्या चल रहा है, दीपा? सचसच बता, क्या है यह सब फोटोज, यह एमएमएस?’’

दीपा उन फोटोज और एमएमएस को देख कर चौंक गई, ‘‘ये…य…यह सब क…क…ब  …कै…से?’’ शब्द उस के गले में ही अटकने लगे. उसे खुद नहीं पता था इस एमएमएस के बारे में, वह घबरा कर रोने लगी.

इस पर मीता उस की पीठ सहलाती हुई बोली, ‘‘देख, सब बात खुल कर बता. जो हो गया सो हो गया. अगर अब भी नहीं समझी तो बहुत देर हो जाएगी. हां, यह तू ने सही नहीं किया. एक बार भी नहीं खयाल आया तुझे अपने बूढ़े अम्माबाबा का? यह कदम उठाने से पहले एक बार तो सोचा होता कि तेरे पापा को तुझ से कितना प्यार है. उन के विश्वास का खून कर दिया तू ने. तेरी इस करतूत की सजा पता है तेरे भाईबहनों को भुगतनी पड़ेगी. तेरा क्या गया?’’

अब दीपा पूरी तरह से टूट चुकी थी. ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं ने जो भी किया, अपने प्यार के लिए,  उस को पाने के लिए किया. मुझे नहीं मालूम यह एमएमएस कैसे बना? किस ने बनाया?’’

‘‘सारी बात शुरू से बता. कुछ छिपाने की जरूरत नहीं वरना हम कुछ नहीं कर पाएंगे. जिसे तू प्यार बोल रही है वह सिर्फ धोखा था तेरे साथ, तेरे शरीर के साथ, बेवकूफ लड़की.’’

दीपा सुबकते हुए बोली, ’’राहुल घर के सामने ही रहता है. मैं उस से प्यार करती हूं. हम लोग कई महीनों से मिल रहे थे पर राहुल मुझे भाव ही नहीं देता था. उस पर कई और लड़कियां मरती हैं और वे सब चटखारे लेले कर बताती थीं कि राहुल उन के लिए कैसे मरता है. बहुत जलन होती थी मुझे. मैं उस से अकेले में मिलने की जिद करती थी कि सिर्फ एक बार मिल लो.’’

‘‘लेकिन छोटा शहर होने की वजह से मैं उस से खुलेआम मिलने से बचती थी. वही, वह कहता था, ‘मिल तो लूं पर अकेले में. कैंटीन में मिलना कोई मिलना थोड़े ही होता है.’

‘‘एकदिन मम्मीपापा किसी काम से शहर से बाहर जा रहे थे तो मौके का फायदा उठा कर मैं ने राहुल को घर आ कर मिलने को कह दिया, क्योंकि मुझे मालूम था कि वे लोग रात तक ही वापस आ पाएंगे. घर में सिर्फ दादी थी और बाबा तो शाम तक अपने औफिस में रहेंगे. दादी घुटनों की वजह से सीढि़यां भी नहीं चढ़ सकतीं तो इस से अच्छा मौका नहीं मिलेगा.

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‘‘आप को भी मालूम होगा कि हमारे घर के 2 दरवाजे हैं, बस, क्या था, मैं ने पीछे वाला दरवाजा खोल दिया. उस दरवाजे के खुलते ही छत पर बने कमरे में सीधा पहुंचा जा सकता है और ऐसा ही हुआ. मौके का फायदा उठा कर राहुल कमरे में था. और मैं ने दादी से कहा, ‘अम्मा मैं ऊपर कमरे में काम कर रही हूं. अगर मुझ से कोई काम हो तो आवाज लगा देना.’

‘‘इस पर उन्होंने कहा, ‘कैसा काम कर रही है, आज?’ तो मैं ने कहा, ‘अलमारी काफी उलटपुलट हो रही है. आज उसी को ठीक करूंगी.’

‘‘सबकुछ मेरी सोच के अनुसार चल रहा था. मुझे अच्छी तरह मालूम था कि अभी 3 घंटे तक कोई नौकर भी नहीं आने वाला. जब मैं कमरे में गई तो अंदर से कमरा बंद कर लिया और राहुल की तरफ देख कर मुसकराई.

‘‘मुझे यकीन था कि राहुल खुश होगा. फिर भी पूछ बैठी, ‘अब तो खुश हो न? चलो, आज तुम्हारी सारी शिकायत दूर हो गई होगी. हमेशा मेरे प्यार पर उंगली उठाते थे.’ अब खुद ही सोचो, क्या ऐसी कोई जगह है. यहां हम दोनों आराम से बैठ कर एकदो घंटे बात कर सकते हैं. खैर, आज इतनी मुश्किल से मौका मिला है तो आराम से जीभर कर बातें करते हैं.’’

‘‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं. मैं क्या सिर्फ बात करने के लिए इतना जोखिम उठा कर आया हूं. बातें तो हम फोन पर भी कर लेते हैं. तुम तो अब भी मुझ से दूर हो.’’ मुझे बहुत कुठा…औरतों के साथ तो वह जम कर…था.

‘‘मैं ने कहा, ‘फिर क्या चाहते हो?’

‘‘राहुल बोला, ‘देखो, मैं तुम्हारे लिए एक उपहार लाया हूं, इसे अभी पहन कर दिखाओ.’

‘‘मैं ने चौंक कर वह पैकेट लिया और खोल कर देखा. उस में एक गाउन था. उस ने कहा, ‘इसे पहनो.’

‘पर…र…?’ मैं ने अचकचाते हुए कहा.

‘‘‘परवर कुछ नहीं. मना मत करना,’ उस ने मुझ पर जोर डाला. ‘अगर कोई आ गया तो…’ मैं ने डरते हुए कहा तो उस ने कहा, ‘तुम को मालूम है, ऐसा कुछ नहीं होने वाला. अगर मेरा मन नहीं रख सकती हो, तो मैं चला जाता हूं. लेकिन फिर कभी मुझ से कोई बात या मिलने की कोशिश मत करना,’ वह गुस्से में बोला.

‘‘मैं किसी भी हालत में उसे नाराज नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैं ने उस की बात मान ली. और जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी.’’ बोलतेबोलते दीपा चुप हो गई और पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदने लगी.

‘‘आगे बता क्या हुआ?  चुप क्यों हो गई?  बताते हुए शर्म आ रही है पर तब यह सब करते हुए शर्म नहीं आई?’’ मीता ने कहा.

पर दीपा नीची निगाह किए बैठी रही.

‘‘आगे बता रही है या तेरे पापा को बुलाऊं? अगर वे आए तो आज कुछ अनहोनी घट सकती है,’’ मीता ने डांटते हुए कहा.

पापा का नाम सुनते ही दीपा जोरजोर से रोने लगी. वह जानती थी कि आज उस के पापा के सिर पर खून सवार है. ‘‘बता रही हूं.’’ सुबकते हुए बोली, ‘‘जैसे ही मैं ने नाइटी पहनी, तो राहुल ने मुझे अपनी तरफ खींच लिया.

‘‘मैं ने घबरा कर  उस को धकेला और कहा, ‘यह क्या कर रहे हो? यह सही नहीं है.’ इस पर उस ने कहा, ‘सही नहीं है, तुम कह रही हो? क्या इस तरह से बुलाना सही है? देखो, आज मुझे मत रोको. अगर तुम ने मेरी बात नहीं मानी तो.’

‘‘‘तो क्या?’

‘‘‘देखो, मैं यह जहर खा लूंगा’, और यह कहते हुए उस ने जेब से एक पुडि़या निकाल कर इशारा किया. मैं डर गई कि कहीं यहीं इसे कुछ हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे. और फिर उस ने वह सब किया, जो कहा था. उस की बातों में आ कर मैं अपनी सारी सीमाएं लांघ चुकी थी. पर कहीं न कहीं मन में तसल्ली थी कि अब राहुल को मुझ से कोई शिकायत नहीं रही. पहले की तरह फिर पूछा, ‘राहुल अब तो खुश हो न?’

‘‘‘नहीं, अभी मन नहीं भरा. यह एक सपना सा लग रहा है. कुछ यादें भी तो होनी चाहिए’, उस ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘यादें, कैसी यादें’, मैं ने सवालिया नजर डाली. ‘अरे, वही कि जब चाहूं तुम्हें देख सकूं,’ उस से राहुल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘पता नही क्यों अपना सबकुछ लुट जाने के बाद भी, मैं मूर्ख उस की चालाकी को प्यार समझ रही थी. मैं ने उस की यह ख्वाहिश भी पूरी कर देनी चाही और पूछा, ‘वह कैसे?’

‘‘‘ऐसे,’ कहते हुए उस ने अपनी अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर झट से मेरी एक फोटो ले ली. फिर, ‘मजा नहीं आ रहा,’ कहते कहते, एकदम से मेरा गाउन उतार फेंका और कुछ तसवीरें जल्दजल्दी खींच लीं.

‘‘यह सब इतना अचानक से हुआ कि मैं उस की चाल नहीं समझ पाई. समय भी हो गया था और मम्मीपापा के आने से पहले सबकुछ पहले जैसा ठीक भी करना था. कुछ देर बाद राहुल वापस चला गया और मैं नीचे आ गई. किसी को कुछ नहीं पता लगा.

‘‘पर कुछ दिनों बाद एक दिन दामिनी मामी घर पर आई. उन की नजरें मेरे गाल पर पड़े निशान पर अटक गईं. वे पूछ बैठीं, ‘क्या हो गया तेरे गाल पर?’ मैं ने उन से कहा, ‘कुछ नहीं मामी, गिर गई थी.’

‘‘पर पता नहीं क्यों मामी की नजरें सच भांप चुकी थीं. उन्होंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘गिरने पर इस तरह का निशान कैसे हो गया? यह तो ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने जोर से चुंबन लिया हो. सब ठीक तो है न दीपा?’

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‘‘मैं ने नजरें चुराते हुए थोड़े गुस्से के लहजे में कहा, ‘पागल हो गई हो क्या? कुछ सोच कर तो बोलो.’ और मैं गुस्से से वहां से उठ कर चली गई. ‘‘लंच के बाद सब लोग बैठे हुए हंसीमजाक कर रहे थे. मामी मुझे समझाने के मकसद से आईं तो उन्होंने मुझे खिड़की के पास खड़े हो कर, राहुल को इशारा करते हुए देख लिया. हालांकि मैं उन के कदमों की आहट से संभल चुकी थी पर अनुभवी नजरें सब भांप गई थीं. मामी ने मम्मी से कहा, ‘दीदी, अब आप की लड़की बड़ी हो गई है. कुछ तो ध्यान रखो. कैसी मां हो? आप को तो अपने घूमनेफिरने और किटीपार्टी से ही फुरसत नहीं है.’

‘‘पर मम्मी ने उलटा उन को ही डांट दिया. फिर मामी ने चुटकी लेते हुए मुझ से कहा, ‘क्या बात है दीपू? हम तो तुम से इतनी दूर मिलने आए हैं और तुम हो कि बात ही नहीं कर रहीं. अरे भई, कहीं इश्कविश्क का तो मामला नहीं है? बता दो, कुछ हैल्प कर दूंगी.’

‘‘‘आप भी न कुछ भी कहती रहती हो. ऐसा कुछ नहीं है,’ मैं ने अकड़ते हुए कहा. लेकिन मामी को दाल में कुछ काला महसूस हो रहा था. उन का दिल कह रहा था कहीं न कहीं कुछ तो गड़बड़ है और वे यह भी जानती थीं की ननद से कहने का कोई फायदा नहीं, वे बात की गहराई तो समझेंगी नहीं. इसलिए उन को पापा से ही कहना ठीक लगा, ‘बुरा मत मानिएगा जीजाजी, अब दीपा बच्ची नहीं रही. हो सकता है मैं गलत सोच रही हूं. पर मैं ने उसे इशारों से किसी से बात करते हुए देखा है.’

‘‘पापा ने इस बात को कोई खास तवज्जुह नहीं दी, सिर्फ ‘अच्छा’ कह कर  बात टाल दी. जब मामीजी ने दोबारा कहा तो पापा ने कहा, ‘मुझे विश्वास है उस पर. ऐसा कुछ नहीं. मैं अपनेआप देख लूंगा.’

‘‘मैं मन ही मन बहुत खुश थी, लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं टिकी. अब राहुल उन फोटोज को दिखा कर मुझे धमकाने लगा. रोज मिलने की जिद करता और मना करने पर मुझ से कहता, ‘अगर आज नहीं मिलीं तो ये फोटोज तेरे घर वालों को दिखा दूंगा.’

‘‘पहले तो समझ नहीं आया क्या करूं? कैसे मिलूं? पर बाद में रोज स्कूल से वापस आते हुए मैं राहुल से मिलने जाने लगी.’’

‘‘पर कहां पर? कहां मिलती थी तू उस से,’’ मीता ने जानना चाहा.

‘‘बसस्टैंड के पास उस का एक छोटा सा स्टूडियो है. वहीं मिलता था और मना करने के बाद भी मुझ से जबरदस्ती संबंध बनाता. एक बार तो गर्भ ठहर गया था.’’

‘‘क्या? तब भी घर में किसी को पता नहीं चला?’’ मीता चौंकी.

‘‘नहीं, राहुल ने एक दवा दे दी थी. जिस को खाते ही काफी तबीयत खराब हो गई थी और मैं बेहोश भी हो गई थी.’’

‘‘अच्छा, हां, याद आया. ऐसा कुछ हुआ तो था. और उस के बाद भी तू किसी को ले कर डाक्टर के पास नहीं गई. अकेले जा कर ही दिखा आई थी. दाद देनी पड़ेगी तेरी हिम्मत की. कहां से आ गई इतनी अक्ल सब को उल्लू बनाने की. वाकई तू ने सब को बहुत धोखा दिया. यह सही नहीं हुआ. वहां राहुल के अलावा और कौनकौन होता था?’’

‘‘मुझे नहीं मालूम.’’ लेकिन मुझे इतनी बात समझ में आ गई थी कि राहुल मुझे ब्लैकमेल कर मेरी मजबूरी का फायदा उठा रहा है. और मैं तब से जो भी कर रही थी, अपने घर वालों से इस बात को छिपाने के लिए मजबूरी में कर रही थी. मुझे माफ कर दो. मुझे नहीं पता था कि उस ने मेरा एमएमएस बना लिया है. मैं नहीं जानती कि उस ने यह वीडियो कब बनाया. उस ने मुझे कभी एहसास नहीं होने दिया कि हम दोनों के अलावा वहां पर कोई तीसरा भी है, जो यह वीडियो बना रहा है…’’ और वह बोलतेबोलते  रोने लगी.

मीता को सारा माजरा समझ आ चुका था. वह बस, इतना ही कह पाई,’’ बेवकूफ लड़की अब कौन करेगा यकीन तुझ पर? कच्ची उम्र का प्यार तुझे बरबाद कर के चला गया. इस नासमझी की आंधी ने सब तहसनहस कर दिया.’’

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उस ने रमेश को सब बताया. तो, एक बार को तो रमेश को लगा कि सबकुछ खत्म हो गया है. पर सब के समझाने पर उस ने सब से पहले थानेदार से मिल कर वायरल हुए वीडियो को डिलीट करवाया. अपने शहर के एक रसूखदार आदमी होने की वजह से, उन के एक इशारे पर पुलिस वालों ने राहुल को जेल में बंद कर दिया. उस के बाद पूरे परिवार को बदनामी से बचाने के लिए सभी लोकल अखबारों के रिपोर्टर्स को न छापने की शर्त पर रुपए खिलाए. दीपा को फौरन शहर से बहुत दूर पढ़ने भेज दिया, क्योंकि कहीं न कहीं रमेश के मन में उस लड़के से खतरा बना हुआ था. हालांकि, बाद में वह लड़का कहां गया, उस के साथ क्या हुआ?  यह किसी को पता नहीं चला.

किसको कहे कोई अपना- भाग 3- सुधा के साथ क्यों नही था उसका परिवार

2 दिनों बाद रक्षाबंधन था. बड़ी हवेली में ही सब आते और यहीं राखी मनाई जाती. वह बेताबी से रक्षाबंधन का इंतजार करने लगी. उसे पूरा भरोसा था सब उसी का साथ देंगे. उस की सेवा और पूरे परिवार के लिए समर्पण किसी से छिपा न था. बेटा अतुल भी आने वाला था. राजेश्वर की प्रेमकहानी उसी दिन सुनाई जाएगी.

रक्षाबंधन वाले दिन सवेरे उठ कर सुधा ने पकवान और खाना बना कर रख दिया. देखतेदेखते सभी आ गए. राखी बांध कर बहनें नेग के लिए सुधा की ओर देखने लगीं. पर सुधा चुप बैठी रही. उस ने देवरानी को भोजन परोसने को कहा तो सब हैरान रह गए. सौसौ मनुहार से खाना खिलाने वाली सुधा को क्या हो गया? खाने के बाद सुधा ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘आज सब के सामने अपनी एक समस्या बता रही हूं. कृपया, मुझे आज इस का कोई समाधान बताएं.’’ यह कह कर सुधा ने राजेश्वर की सारी प्रेमकहानी आरंभ से अंत तक सुना दी.

इस बीच न जाने कब राजेश्वर उठ कर बाहर चले गए. कुछ देर कमरे में सन्नाटा पसरा रहा. फिर बड़ी ननद बोली, ‘‘भाभी, इस उम्र में आप को भैया पर यही लांछन लगाने को मिला था.’’ छोटी ननद बोली, ‘‘भैया इतने बड़े ओहदे पर हैं आप तो उन के पद की गरिमा भी भूल गई हैं. आप उन के सामने क्या हैं? उन के मुकाबले में कुछ भी नहीं, फिर भी भैया को आप से कोई शिकायत नहीं है.’’

सुधा ननदों की बातें सुन कर हैरान हो रही थी कि देवर बोला, ‘‘भाभी, मेरे राम जैसे भाई पर इलजाम लगाते शर्म न आई.’’ देवरानी मुंह में पल्लू दिए अपनी हंसी को भरसक दबाने की कोशिश कर रही थी. बस, अतुल ही सिर नीचा किए बैठा था.

अब सुधा का धैर्य जवाब दे गया. वह सोचने लगी, ये वही ननदें, देवर और पति हैं जिन की सेवा में मैं ने खुद को भुला दिया. जिन के लिए मैं ने अपने संगीत, रूपरंग की बलि चढ़ा दी. मेरे अस्तित्व और स्वाभिमान पर इतना बड़ा आघात. अपने गहने, कपड़े, सेवाएं दे कर आज तक इन की मांगें पूरी करती आई हूं.

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सब बहाने से उठ कर जाने लगे तो सुधा तिलमिला उठी, बोली, ‘‘तो सुनिए आप के उसी राम सदृश्य भाई ने मेरे साथ विश्वासघात किया है. आज मैं ने भी उन से तलाक ले कर अलग रहने का फैसला लिया है.’’ सुधा को उम्मीद थी कि सब मुझे मनाने आगे आएंगे.

अभी वह यह सोच ही रही रही थी कि राजेश्वर की आवाज आई, ‘‘आज सब राखी का नेग ले कर नहीं जाएंगे?’’ देखतेदेखते राजेश्वर ने 500 रुपए के नोट की गड्डी निकाली. बहनों के साथ छोटी भाभी को भी रुपए दिए. नेग ले कर सब घर जाने को तैयार हो गए. सुधा मूर्ति की तरह बैठी रही.

जातेजाते ननदें सुधा को गीता का ज्ञान देने लगीं, ‘‘भाभी बुजुर्ग हो गई हो, बेतुकी बातें बोलना छोड़ समझदार बनो.’’ देवर भी कहां पीछे रहने वाले थे, बोले, ‘‘इस उम्र में तलाक ले कर पूरे खानदान का नाम रोशन करोगी क्या?’’ और पत्नी का हाथ पकड़ निकल गए.

अतुल ही खिन्न सा बैठा रहा. सब के जाते ही घर में मरघट सा सन्नाटा पसर गया. अतुल भी घर में आने वाले भयंकर तूफान के अंदेशे से बचने के लिए घर से बाहर निकल गया.

अब सुधा और राजेश्वर दोनों ही सांप और नेवले की तरह एकदूसरे पर आक्रमण करने लगे. सुधा अपनी सेवाओं और घर के लिए की कुरबानियों की दुहाई देती रही तो राजेश्वर उस की पत्नी के रूप में नाकाबिलीयत के किस्से सुनाते रहे.

राजेश्वर ने आखिरकार सोचा, सुधा तलाक की गीदड़ भभकी दे रही है. जाएगी कहां? मायके में एक भाईभाभी रह गए थे. वे भी जायदाद बेच कर विदेश जा बसे. पढ़ाईलिखाई में कुछ खास न तो डिगरी ही है, न 46 की उम्र में कोईर् नौकरी के योग्य है. इसलिए सुधा से मुखातिब हो कर बोले, ‘‘जो जी में आए करो. तुम्हारी योग्यता तो बस किचन तक की है. यह तुम भी जानती हो.’’

सुधा तिलमिला कर बोली, ‘‘मैं ग्रेजुएट हूं, संगीत जानती हूं. तुम ने मेरे स्वाभिमान को ललकारा है और कुरबानियों को नकारा है. अब क्या तुम्हें ऐसे ही छोड़ दूंगी, गुजाराभत्ता भी लूंगी और हवेली में हिस्सा भी. मेरा बेटा है अपने दादा की जायदाद पर उस का भी हक है.’’

यह सुन राजेश्वर सन्न रह गए. पैर पटकते घर से बाहर चले गए. सुधा सिर से पैर तक सुलग रही थी. उस ने अंजू को फोन कर बुलवा लिया. अंजू आ गई तो उस ने सारी बातें कह सुनाईं.

अंजू बोली, ‘‘अच्छी तरह सोचसमझ लो बूआ. एक बार तलाक की अर्जी लग गई, फिर लौटने पर किरकिरी होगी.’’

सुधा बोली, ‘‘सब स्वार्थ से मेरे साथ जुड़े थे. स्वार्थ खत्म होते ही दूर हो गए. तुम अर्जी लगा दो.’’

अतुल घर आ गया था. यह सब जान कर बोला, ‘‘मां, अकेले रह लोगी न? मुझे आप से कोई शिकायत नहीं है. आप के साथ अन्याय तो हुआ है पर मैं पापा को भी नहीं छोड़ूंगा. वैसे भी मम्मी, मैं ने अपनी एक सहपाठिन से विवाह करने का मन बना लिया है. आप दोनों के पास आताजाता रहूंगा. शादी कोर्ट में करूंगा.’’

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अतुल की व्यावहारिकता देख सुधा हैरान रह गई. काश, उस के पास भी ऐसी व्यावहारिक बुद्धि होती तो वह समय रहते संभल जाती और अपनों से न छली जाती.

तलाक की अर्जी पर राजेश्वर ने भी साइन कर दिए. वे गरिमा के साथ सुखमय जीवन के सपने देखने लगे. पहली पेशी पर जज द्वारा कारण पूछे जाने में दोनों ने खुल कर एकदूसरे की कमियों का बखान किया. जज ने समझौते के लिए 6 महीने का समय दिया. सुधा को 40 हजार रुपए गुजारे भत्ते और हवेली के पिछले हिस्से में रहने का अधिकार मिला. बाद में विधिवत म्यूचुअल तलाक हो गया. राजेश्वर गरिमा के फ्लैट में शिफ्ट हो गए.

अब सुधा को अपनेपराए की पहचान हो गई. सेवाभाव, परिवार के लिए त्याग, बलिदान की नाकामी का एहसास अच्छी तरह हो गया. सब से बड़ी सीख सुधा को यह मिली कि इस जीवन में उस ने अपने वजूद को, गुणों को, रूपरंग को दांव पर लगा कर जो फैसले किए वे गलत थे. चाहे जितनी सेवा कर लो, परिवार के लिए कुरबानी दे दो पर अपने वजूद को दरकिनार न करो. अब वह अपनी बाकी जिंदगी को संवारने के लिए कटिबद्ध हो गई. 2 कमरे, 4 लड़कियों को किराए पर दे दिए. रौनक भी रहेगी और कुछ आमदनी भी हो जाएगी. कालेज के रिटायर्ड संगीत सर के घर जा नियमित रियाज करना शुरू कर दिया. कुछ ही समय बाद संगीत सम्मेलनों में अपने गुरुजी के साथ जा कर शिरकत भी करने लगी.

समय का पहिया आगे निकल गया था. एक दिन सुधा एक संगीत प्रोग्राम में जजमैंट करने आ रही थी कि उस की कार लालबत्ती पर रुक गई. कार की खिड़की से बाहर देखने पर सड़कपार किसी डाक्टर के क्लिनिक से राजेश्वर एक युवक का सहारा लिए निकल रहे थे. एकदम कमजोर हो चुके थे. आसपास गरिमा या कोई और नहीं था. तभी हरी बत्ती हो गई. गाड़ी बढ़ गई.

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उसके हिस्से के दुख: भाग 2- क्यों मदद नही करना चाहते थे अंजलि के सास-ससुर

उमा बीच में एकाध बार कोमल और शीतल को अंजलि और विनय से मिलवा लाई थी. उमा अंजलि के कपड़ों का बैग भी ले गई थी. अब अंजलि भी लगातार हौस्पिटल में ही थी. विनय सामान्य दिखने की कोशिश तो करते, पर मन ही मन बहुत चिंतित थे.

बारबार अंजलि से कह रहे थे, ‘‘यार, हमेशा हैल्थ का इतना ध्यान रखा और अब कितने दिनों से हौस्पिटल में पड़े हैं.’’

अंदर से खुद भयभीत अंजलि हौसला बढ़ाती, ‘‘कोई बात नहीं, रिपोर्ट ठीक ही होगी. बस, फिर चलेंगे घर,’’ अंजलि विनय को क्या, जैसे खुद को तसल्ली दे रही थी.

रिपोर्ट क्या आई, विनय और अंजलि के जीवन में दुखों का जैसे एक सैलाब  सा आ गया. क्या करें, क्या होगा. किसी को कुछ समझ नहीं आया. विनय को ब्रेन कैंसर था जो इतना फैल चुका था कि औपरेशन असंभव था और लास्ट स्टेज थी. सब के पैरों तले की जमीन खिसक गई. अंजलि को तो लगा कि एक पल में ही उस की दुनिया बदल गईर् है. डाक्टर के सामने ही फूटफूट कर रो दी वह. विनय अवाक थे. राकेश अंजलि को चुप करवाता हुआ खुद भी रो रहा था.

डाक्टर ने अंजलि से कहा, ‘‘आप आइए, आप से कुछ बातें करनी है.’’

विनय को रूम में छोड़ अंजलि और राकेश डाक्टर के कैबिन में गए.

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डाक्टर ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘आप को अब खुद मानसिक रूप से बहुत मजबूत होना है. सब से दुख की बात है कि विनय के पास सिर्फ 2-3 महीने ही हैं.’’

‘‘क्या?’’ अंजलि रो पड़ी.

राकेश ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, ‘‘कोई इलाज तो होगा? आज साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है… क्या हम उन्हें विदेश ले जाने की कोशिश करें, डाक्टर साहब?’’

‘‘उन्हें अब कहीं भी ले जाने से फायदा नहीं है. लास्ट स्टेज है. कीमो और रैडिएशन ट्राई करते हैं, अगर बौडी को सूट कर गया तो थोड़े दिन और बढ़ जाएंगे और आप को बहुत सारी बातें समझनी होंगी. उन्हें बातबात पर चिड़चिड़ाहट हो सकती है, मूड स्विंग्स होंगे, मैमोरी लौस भी हो सकता है. उन के साथ अचानक ये सब हुआ है, वे मानसिक रूप से बहुत अस्थिर होंगे. आप को बहुत धैर्य रखना होगा.’’

टूटेहारे तीनों 10 दिन बाद घर वापस आ गए. घर के पास ही एक बहुत अच्छा हौस्पिटल था. कीमोथैरेपी और रैडिएशन के लिए रोज जाना था. वहीं जाने में सुविधा थी तो वहां डाक्टर को दिखा कर आगे के लिए इलाज शुरू हो गया. सुबह सब का नाश्ता बना कर बेटियों को स्कूल भेज अंजलि 10 बजे विनय के साथ हौस्पिटल जाती. आने में 1-2 बज जाते. आ कर लंच बनाना, विनय को खिलाना, फिर उन्हें आराम करवाना, पर विनय आराम करना कहां जानते थे. हाईपरएक्टिव इंसान थे.

हमेशा कुछ न कुछ करते ही रहते थे अब तक. अब धीरेधीरे स्टैमिना कम हो रहा था. रैडिएशन के साइड इफैक्ट भी बहुत साफ नजर आते थे. काफी कमजोरी रहने लगी थी. जल्दी थकते थे, घर में भी चलनेफिरने में थकते दिखाई दे रहे थे. कार चलाना तो अब बंद ही हो गया था. हौस्पिटल आनेजाने के लिए एक ड्राइवर को बुलाया जाता था. विनय की गिरती सेहत, भविष्य में आने वाली परेशानियों का डर, घर में अनिष्ट की आशंका हर तरफ दिखाई देने लगी थी.

बहुत कम लोगों को ही विनय की बीमारी का पता था. विनय अब अपने सारे बीमे के पेपर्स, सारे फंड्स खोल कर बैठे रहते, 1-1 चीज अंजलि को समझते कि कैसे क्या करना है. वे यह महसूस कर चुके थे कि किसी भी दिन कुछ हो जाएगा.

अब तक विनय को हर बात, हर काम खुद करने की आदत थी. स्वभाव  से वे काफी पजैसिव और डौमिनेटिंग टाइप के इंसान थे. अब हर बात में अंजलि और बच्चों पर निर्भर होना पड़ रहा था तो उन्हें बातबात पर गुस्सा आने लगा था. कभी भी चिढ़ जाते, बहुत गुस्सा करते. अंजलि को दोहरी तकलीफ होती. एक तरफ असाध्य बीमारी, उस पर विनय का गुस्सा और चिड़चिड़ाहट. कभीकभी उसे सजा सी लगने लगती कि उसे क्यों इतना शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलना पड़ रहा है.

एक महीने में ही उस का चार किलोग्राम वजन कम हो गया था. विनय की जगह वह बीमार लगने लगी थी. रातभर उठ कर विनय को देखती रहती कि ठीक तो हैं. वे जब से बेहोश हुए थे, एक रात भी अंजलि चैन से नहीं सो पाई थी.

एक दिन अंजलि जैसे ही दोपहर में थक कर थोड़ा लेटी, विनय ने कहा, ‘‘अरे, याद आया, एक पेपर का फोटोस्टेट करवाना है.’’

‘‘ठीक है, अभी शाम को करवा लाऊंगी या कोमलशीतल स्कूल से आएंगी तो करवा लाऊंगी, आप को अकेले छोड़ कर नहीं निकलूंगी.’’

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‘‘नहीं, अभी चाहिए, मैं थोड़े पेपर्स ठीक कर रहा हूं.’’

‘‘आप भी आराम कर लो, शाम को ले आऊंगी.’’

विनय बुरी तरह चिढ़ गए, ‘‘अब छोटेछोटे कामों के लिए तुम्हें कितनी बार कहना पड़ता है. मेरी मजबूरी है. तुम्हें पता है न, मेरा हर काम समय पर परफैक्ट रहता है. टालना मेरी आदत नहीं है. अब कितनी बार एक ही काम को कहना पड़ता है.’’

थक कर लेटी अंजलि विजय की चिड़चिड़ पर उठ कर बैठ गई, ‘‘अभी जाना जरूरी है? बारिश भी तेज है.’’

‘‘हां, अभी जरूरी है.’’

अंजलि को गुस्से के मारे रोना आ गया. जब से विनय बेहोश हुए थे, एक मिनट भी अंजलि ने विनय को घर में अकेला नहीं छोड़ा था. इतने में बच्चे आ गए तो वह उन्हें खान दे कर तैयार हो कर तेज बारिश में ही घर से निकल गई. जा कर फोटोस्टेट करवाया, फिर रास्ते में खुद को ही समझने लगी कि विनय छोटेछोटे काम हमें कहते हुए मानसिक तनाव झेलते होंगे, इतनी बड़ी बीमारी के आखिरी दिन हैं… उन्हें कैसा लगता होगा. जब यह महसूस होता होगा कि किसी भी दिन वे नहीं रहेंगे, किस मानसिक यंत्रणा में रहते होंगे. फिर विनय के पक्ष में ही सोचती हुई अपना गुस्सा, झंझलाहट भूलने की कोशिश करने लगी.

अचानक अंजलि की परेशानियां तब और बढ़ गईं जब मुंबई में ही इस समय उस के देवर के पास रहने वाले उस के सासससुर महेश और मालती विनय की बीमारी का पता चलने पर उस के पास रहने आ गए. महेश और मालती कुछ महीने विनय के छोटे भाई विजय के पास रहते थे, कुछ महीने यहां. 86 साल के महेश और 80 साल की मालती दोनों शारीरिक रूप से बेहद खराब स्थिति में थे. दोनों बिना सहारे के उठबैठ भी नहीं पाते थे. बस, अंजलि को बातबात पर टोकने, सारा दिन उस की गलतियां बताने की शक्ति उन में आज भी थी. कभीकभी कुछ बुजुर्ग भी तो अपनी शारीरिकमानसिक अवस्था भूल कर किसी भी उम्र में दुर्व्यवहार करना नहीं छोड़ते.

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उसके हिस्से के दुख: भाग 3- क्यों मदद नही करना चाहते थे अंजलि के सास-ससुर

अब सासससुर की सेवा, बीमार पति की देखभाल, दोनों बेटियों की स्कूल की पढ़ाई, घर के काम, अंजलि टूटटूट कर अंदर ही अंदर बिखर रही थी. वह अपना सारा दुख अपनी अभिन्न सहेली रूपा से ही शेयर कर पाती थी जो उसी सोसायटी में रहती थी. रूपा को अपनी इस सहेली का दुख कम करने का कोई रास्ता नहीं सूक्षता आता था. अंजलि के सासससुर जब से आए थे.

अंजलि ने रूपा से कहा था, ‘‘मैं तुम से अब फोन पर ही बात करूंगी, मांपिताजी को मेरी किसी से भी दोस्ती कभी पसंद नहीं आई है और किसी भी तरह का इन्फैक्शन होने के डर से डाक्टर ने भी अब विनय को किसी से मिलनेजुलने के लिए मना कर दिया है.’’

अंजलि घर का कोई सामान लेने बाहर निकलती तो कभीकभी 10-15 मिनट के लिए रूपा के पास चली जाती थी. उस का घर रास्ते में ही पड़ता था. उस समय वह सिर्फ रूपा के गले लग कर रोती ही रहती. कुछ बात भी नहीं कर पाती. अपनी सहेली के दर्द को समझ रूपा कभी उसे बांहों में भर खूब स्नेहपूर्वक दिलासा देती तो कभीकभी साथ में रो ही देती.

रूपा के पति अनिल व्यस्त इंसान थे. अकसर टूर पर रहते थे. उस का देवर सुनील जो अभी पढ़ ही रहा था, उन के साथ ही रहता था. ऐसे ही एक दिन रूपा ने कहा, ‘‘अंजलि, सारे काम खुद पर मत रखना, तेरी तबीयत भी ठीक नहीं लग रही है, कोई भी काम हो, सुनील को बता दिया कर. कालेज से आ कर वह फ्री ही रहता है.’’

‘‘हां, ठीक है,’’ कह कर अंजलि चली गई.

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रूपा फोन पर अंजलि से दिन में एक बार बात जरूर करती थी. अंजलि की  बिल्डिंग में अभी किसी को विजय की बीमारी के बारे में पता नहीं था. स्वभावत: विनय बहुत कम लोगों को पसंद करते थे. उन्होंने हमेशा आसपास रहने वालों से एक दूरी ही बना कर रखी थी. राकेश, उमा से जितना हो सकता था, कर रहे थे. 1 महीने बाद कीमोथेरैपी बंद हो चुकी थी. रैडिएशन थोड़ा बाकी था. कुछ फायदा होता नहीं दिख रहा था. विजय की हालत चिंताजनक थी. उन्हें अब काफी तेज बुखार रहने लगा तो रैडिएशन भी रोकना पड़ा. कमजोरी बढ़ती जा रही थीं.

एक दिन रिपोर्ट्स लानी थी और दवाइयां भी खत्म थीं. जुलाई का महीना था. बारिश बहुत तेज थी. रात के 9 बज रहे थे. अंजलि ने हमेश की तरह होम डिलिवरी के लिए मैडिकल स्टोर फोन किया तो फोन की घंटी बजती रही, किसी ने उठाया नहीं या तो फोन खराब था या मैडिकल स्टोर बंद था. राकेश, उमा भी बाहर थे. कुछ समझ नहीं आया तो अंजलि ने रूपा को फोन कर के यह समस्या बताई.

रूपा ने फौरन कहा, ‘‘दवाई का नाम व्हाट्सऐप पर भेज दे, सुनील दवाई और रिपोर्ट्स सब पहुंचा देगा.’’

अंजलि को बहुत सहारा सा लगा. पहले भी कई बार रूपा के किसी काम से सुनील आताजाता रहा था. वह शरीफ, सभ्य लड़का था पर इस बार आया. विनय की तबीयत पूछी तो विनय ने उसे बहुत रूखे स्वर में जवाब दिया. अंजलि को बहुत बुरा लगा पर कुछ कह नहीं सकती थी. महेश और मालती ने भी सुनील के जाने के बाद बहुत ही मूड खराब कर सुनील के आने के बारे में कमैंट किए तो अंजलि रोंआसी हो गई. क्या करे इन लोगों का, सुनील से तो कोई लेनादेना ही नहीं है. कोई इस समय काम आ गया तो बजाय कृतज्ञ होने के उस के चरित्र पर ही उंगलियां उठने लगीं. क्यों? विनय बीमार है तो वह अब किसी से बात न करें. छोटे भाई जैसे लड़के से भी नहीं? कोई घर आएजाए भी नहीं. पहले भी सुनील घर आया है, विनय ने उसे अच्छी तरह अटैंड भी किया है. अब?

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यह अपमान क्यों? यह रूपा का भी तो अपमान है कि मैं उसे घर आने से  मना करती हूं. उसे. जो हर दुख में मुझे संभाल रही है. यह मेरा भी तो अपमान है. क्या विनय के बीमार होने से अब मेरे चरित्र पर उंगलियां उठाई जाएंगी और वे भी मेरे ही परिवार के द्वारा? क्या अब कोई सद्भाव से मेरी मदद भी करना चाहेगा तो उस का अपमान होगा? रातदिन मैं किस बात की सजा भुगत रही हूं? मैं ने क्या किया है? दिनबदिन तनमन से टूट रही हूं मैं, मेरे पति और मेरे सासससुर के लिए मेरा दर्द समझना इतना मुश्किल है? मैं विजय की स्थिति महसूस कर रातदिन उन की मनोदशा का अंदाजा लगा सकती हूं, बीमार, कर्कश, सासससुर के इशारों पर इस स्थिति में भी नाच सकती हूं, मैं शारीरिक और मानसिक संबल के लिए किसी से कोई आशा क्यों नहीं रख सकती?

बारिश की परेशानी देख कर इस के बाद भी रूपा ने दवाई या कोई काम पूछने सुनील को भेजा तो विनय और सासससुर के चेहरे तन गए, सुनील तो पूछ कर चला गया. पूरा दिन घर में अजीब सा तनाव रहा.

अंजलि हैरान थी कि यह क्या है? क्यों है? मैं कैसे रूपा को सुनील को भेजने के लिए मना करूं? यह कितनी शर्म की बात होगी. मुझे तो कभी भी किसी की भी मदद लेनी पड़ सकती है अब. क्या सब से कट कर अपने में ही हमेशा जी सकता है इंसान?

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सासससुर मुझे हर बात पर ऐसे देखते हैं जैसे मैं ने कोई गुनाह कर दिया हो. विजय का गुस्सा, चिड़चिड़ाहट बढ़ती जा रही है. देवरदेवरानी ने तो मांपिताजी को यहां भेज कर राहत की सांस ली है. 8-10 दिन में एक बार फोन कर पूछ लेते हैं कि कोई काम तो नहीं है? राकेश, उमा को भी विनय ज्यादा पसंद नहीं करते. मैं किसी को अपना दुख बता ही नहीं सकती, बिडंबना से विनय का साथ छूट रहा है. हर पल उन्हें मुझ से दूर करता जा रहा है, रोज सुब यह आंशका रहती है कि आज का दिन ठीक रहेगा या शाम तक कहीं… मेरी हालत तो फांसी का इंतजार कर रहे उस व्यक्ति की सी है जो जानता है गुनाह उस ने किया ही नहीं पर अदालत ने मौत की सजा दे दी. मुझे तो शायद पैरोल पर तभी छोड़ा जाएगा जब विनय… उफ नहीं… नहीं, पर गुनहगार तो तब भी मैं ही मानी जाती रहूंगी, शायद.’’

उसके हिस्से के दुख: भाग 1- क्यों मदद नही करना चाहते थे अंजलि के सास-ससुर

शामके 7 बज रहे थे. विनय ने औफिस से आ कर फ्रैश हो कर पत्नी अंजलि और दोनों बेटियों  कोमल और शीतल के साथ बैठ कर चायनाश्ता किया. आज बीचबीच में विनय कुछ असहज से लग रहे थे.

अंजलि ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘हां, कुछ अनकंफर्टेबल सा हूं, थोड़ी सैर कर के आता हूं.’’

‘‘हां, आप की सारी तबीयत सैर कर के ठीक हो जाती है.’’

‘‘तुम भी चलो न साथ.’’

‘‘नहीं, मुझे डिनर की तैयारी करनी है.’’

‘‘तुम हमेशा बहाने करती रहती हो… तुम्हें डायबिटीज है, डाक्टर ने रोज तुम्हें सैर करने के लिए कहा है और जाता मैं हूं, चलो, साथ में.’’

‘‘अच्छा, कल चलूंगी.’’

‘‘कल भी तुम ने यही कहा था.’’

‘‘कल जरूर चलूंगी,’’ फिटनैस के शौकीन 30 वर्षीय विनय ने स्पोर्ट्स शूज पहने और निकल गए.

बेटियों को होमवर्क करने के लिए कह कर अंजलि किचन में व्यस्त हो गई. काम करते हुए विनय के बारे में ही सोचती रही कि कितना शौक है विनय को फिट रहने का, दोनों समय सैर, टाइम से खानापीना, सोना.

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अंजलि ने कई बार विनय को छेड़ा भी था, ‘‘कितना ध्यान रखते हो अपना, कितना शौक है तुम्हें हैल्दी रहने का… जरा सा जुकाम भी हो जाता है तो भागते हो डाक्टर के पास.’’

‘‘वह इसलिए डियर कि मैं कभी बीमार पड़ना नहीं चाहता, मुझे तुम तीनों की देखभाल भी तो करनी है.’’

वह अपने पर गर्व करने लगती.

विनय सैर से लौटे तो कुछ सुस्त थे. स्वभाव के विपरीत चुपचाप बैठ गए तो अंजलि ने टोका, ‘‘क्या हुआ, आज सैर से फ्रैश नहीं हुए?’’

‘‘नहीं, थोड़ा अनईजी हूं.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘पता नहीं, कुछ तो हो रहा है.’’

डिनर करते हुए भी विनय को चुपचाप, गंभीर देख अंजलि ने फिर पूछा, ‘‘विनय, क्या हुआ?’’

अपनी ठोड़ी पर हाथ रखते हुए विनय ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘‘यहां से ले कर सिर तक बीचबीच में एक ठंडी सी लहर उठ रही है.’’

‘‘अरे, चलो डाक्टर को दिखा लेते हैं,’’ अंजलि ने चिंतित स्वर में कहा. अंजलि विनय के साथ डाक्टर नमन के क्लीनिक के लिए निकल गई. ठाणे की इस ‘हाइलैंड’ सोसायटी के अधिकांश निवासी सोसायटी में स्थित ‘नमन क्लीनिक’ ही जाते थे.

अपना इतना ध्यान रखने के बाद भी विनय को अकसर कुछ न कुछ होता रहता था. विनय दवाइयों की कंपनी में ही काम करते थे तो डाक्टर शर्मा से उन की अच्छी दोस्ती भी थी.

डाक्टर नमन ने कहा, ‘‘ऐसे ही एसिडिटी रहती है न तुम्हें, वही कुछ हो रहा होगा.’’

डाक्टर नमन से अधिकतर लोगों को यह शिकायत रहती थी कि वे मरीज की परेशानी को अकसर हलके में ही लेते थे. कुछ इस बात से खुश रहते थे तो कुछ शिकायत करते थे. एसिडिटी की दवाई ले कर विनय और अंजलि घर आ गए. फिर रोज की तरह 11 बजे सोने चले गए.

रात को 3 बजे के आसपास अंजलि विनय के बाथरूम जाने की आहट पर जागी. विनय  बाथरूम से आए और वापस बैड पर बैठतेबैठते एक तेज आह के साथ लेटते हुए बेहोश हो गए.

अंजलि हैरान सी उन्हें हिलाती हुई आवाज देने लगी, ‘‘विनय, उठो, क्या हुआ है?’’

विनय की बेहोशी बहुत गहरी थी. वे हिले भी नहीं. अंजलि के हाथपैर फूल गए. उन का फ्लैट तीसरे फ्लोर पर था. उसी बिल्डिंग में ही 10वें फ्लोर पर अंजलि का छोटा भाई राकेश, उस की पत्नी उमा और उन के 2 बच्चे रहते थे. अंजलि के मातापिता थे नहीं, दोनों भाईबहन ने एकदूसरे के आसपास रहने के लिए ही एक बिल्डिंग में घर लिए थे.

अंजलि ने इंटरकौम पर राकेश को तुरंत आने के लिए कहा. राकेश, उमा भागे आए, बहुत कोशिश के बाद भी विनय को होश नहीं आ रहा था. उन्हें बेहोश हुए 30 मिनट हो गए थे. राकेश ने अब फोन कर तुरंत ऐंबुलैंस बुलवाई. उमा को बेटियों की जिम्मेदारी सौंप अंजलि राकेश के साथ विनय को ले कर हौस्पिटल पहुंच गई. उन्हें फौरन एडमिट किया गया. गहरी बेहोशी में विनय को देख अंजलि के हौसले पस्त हो रहे थे, राकेश उसे तसल्ली दे रहा था.

विनय को फौरन आईसीयू में एडमिट कर लिया गया. उन्हें काफी देर बाद होश आया तो वे बिलकुल नौर्मल थे. बात कर रहे थे. पूछ रहे थे कि क्या हुआ. उन्हें अपना बेहोश होना बिलकुल याद नहीं था.

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अगले कई दिन टैस्ट्स का सिलसिला चलता रहा. दवाइयों की ही फीलड में काम करने के कारण विनय की कई डाक्टर्स से अच्छी जानपहचान थी. टैस्ट्स होते रहे, रिपोर्ट्स आती रहीं, सब ठीक लग ही रहा था कि ब्रेन की एमआरआई की रिपोर्ट आई तो बात चिंता की थी. ब्रेन में एक धब्बा सा नजर आ रहा था. विनय के ही कहने पर एमआरआई फिर किया गया. रिपोर्ट वही थी.

अब डाक्टर ने कहा, ‘‘बायोप्सी करनी पड़ेगी.’’

घबराहट के कारण अंजलि के आंसू बह चले, ‘‘बायोप्सी?’’

‘‘हां, जरूरी है,’’ एकदम हलचल सी मच गई.

विनय ने कहा, ‘‘राकेश, में ‘हिंदुजा’ में एक बार दिखा लेता हूं, वहां मेरी अच्छी जानपहचान है और हर तरह से वहीं ठीक रहेगा.’’

राकेश, अंजलि ने भी सहमति में सिर हिलाया.

इस हौस्पिटल में भी विनय को एडमिट हुए 10 दिन हो गए थे. राकेश ने औफिस से छुट्टी ली हुई थी. अंजलि मुश्किल से ही घर चक्कर काट पा रही थी. उमा ही शीतल, कोमल को स्कूल भेजती थी. उन्हें अपने पास ऊपर ही रखती थी. इन दस दिनों ने अंजलि को भी बहुत शारीरिक और मानसिक तनाव दिया था. डायबिटीज के कारण उस की हैल्थ भी काफी प्रभावित हो रही थी. इस समय विनय की चिंता ने उस की हालत खराब कर रखी थी.

‘हिंदुजा’ में डाक्टर्स को दिखा कर विनय एडमिट हो गए. बायोप्सी हुई, ब्रेन जैसे शरीर के महत्त्वपूर्ण भाग के साथ छेड़छाड़ होती सोच कर अंजलि मन ही मन बहुत घबराए चली जा रही थी. आंसू रुकने का नाम नहीं लेते थे. रिपोर्ट आने में 10 दिन लगने वाले थे. विनय को बुखार भी था. बाकी टैस्ट्स भी चल रहे थे.

डाक्टर अमन ने कहा, ‘‘आप लोग सोच लें, डिस्चार्ज हो कर घर जाना है या यहीं रहना है. यहां से आप का घर काफी दूर है. 3 दिन बाद सिर की ड्रैसिंग भी करनी है, बारबार आनेजाने में आप को परेशानी होगी.’’

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विनय के सिर के थोड़े से बाल बायोप्सी के लिए शेव किए गए थे. अभी 3 दिन बाद फिर ड्रैसिंग होनी थी. यही ठीक समझ गया कि फिर आनेजाने से अच्छा है कि एडमिट ही रहा जाए. विनय काफी सुस्त भी थे. उन्हें आनेजाने में स्ट्रैस भी हो सकता था, इसलिए डिस्चार्ज नहीं लिया गया.

आगे पढ़ें- बारबार अंजलि से कह रहे थे…

क्या कूल हैं ये: भाग 1- बेटे- बहू से मिलने पहुंचे समर का कैसा था सफर

आज की युवा पीढ़ी वक्त के साथ चलना जानती है, समस्याओं को परे रख जिंदगी का लुत्फ कैसे उठाते हैं, यह मैं बेटेबहू को देख अभिभूत हो रही थी. हम ने भी उन के साथ कदमताल मिला कर जीने का जो सुख लिया, जबां से क्या बयां करूं.

प्लेन लैंडिंग की घोषणा हुई तो मैं ने भी अपनी बैल्ट चैक कर ली. मुसकरा कर समर की तरफ देखा. वे भी उत्सुकता से बाहर देख रहे थे. मैं भी खिड़की से बाहर नजर गड़ा कर प्लेन लैंडिंग का मजा लेने लगी.

एक महीने के लिए बेटेबहू के पास दुबई आए थे. बच्चों से मिलने की उत्सुकता व दुबई दर्शन दोनों ही उत्तेजनाओं से मनमस्तिष्क प्रफुल्लित हो रहा था. एयरपोर्ट की औपचारिकताओं से निबट कर सामान की ट्रौली ले कर बाहर आए तो रिषभ प्रतीक्षारत खड़ा था. बेटे को देख कर मन खुशी से भर उठा. लगभग 6 महीने बाद उसे देख रहे थे. सामान की ट्रौली छोड़, दोनों जा कर बेटे से लिपट गए.

‘‘इशिता कहां है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘वह घर में आप के स्वागत की तैयारी कर रही है,’’ रिषभ मुसकरा कर कार का दरवाजा खोलते हुए बोला.

‘‘स्वागत की तैयारी?’’ समर चौंक कर बोले.

‘‘हां पापा, आज शुक्रवार है न, छुट्टी के दिन क्लीनर आता है, तो इशिता सफाई करवा रही है.’’

‘सफाई करवाने का दिन भी फिक्स होता है बच्चों का यहां,’ मैं कार में बैठ कर सोच रही थी, ‘हफ्ते में एक दिन होती है न. अपने देश की तरह थोड़े ही, रोज घिसघिस कर पोंछा लगाती है आशा.’

थोड़ी देर में रिषभ की कार सड़क पर हवा से बातें कर रही थी. सुंदर चमचमाती 6 से 8 लेन की सड़कें, दोनों तरफ नयनाभिराम दृश्य और कार में बजते मेरे मनपसंद गीत… मैं ने आराम से सिर पीछे सीट पर टिका दिया.

‘‘मम्मी, गाने पसंद आए न आप को. सारे पुराने हैं आप की पसंद के,’’ मैं थोड़ा चौंकी कि यह कब कहा मैं ने कि मु झे सिर्फ पुराने गाने ही पसंद हैं. पर बच्चे अंदाजा लगा लेते हैं. मांबाप हैं, तो थोड़ी पुरानी चीजें ही पसंद करेंगे. मैं मन ही मन मुसकराई.

120-130 की स्पीड से दौड़ती कार आधे घंटे में घर पहुंच गई. डिसकवरी गार्डन में फ्लैट था. दुबई जैसे रेगिस्तान के समुद्र में इतनी हरीभरी कालोनी देख कर मन प्रसन्न हो गया. मात्र 5 मंजिल ऊंचे फ्लैट बहुत बड़े एरिया में कई स्ट्रीट में बंटे हुए थे. मैं सोच रही थी कि इतना सामान ऊपर कैसे जाएगा पर बिल्ंिडग के दूसरे रास्ते से आराम से सामान ड्रैग कर अंदर प्रवेश कर गए हम. वहां सीढि़यों के बजाय स्लोप बना हुआ था. किसी भी अच्छी सोसाइटी की ही तरह वहां भी मुख्य दरवाजे पर बिना एंट्री कार्ड को टच करे बिल्ंिडग के अंदर प्रवेश नहीं कर सकते. जैसे ही अंदर प्रवेश किया, अंधेरे कौरिडोर की लाइट्स जगमगाने लगीं. सभीकुछ औटोमैटिक था.

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फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच कर घंटी बजाने पर इशिता जैसे प्रतीक्षारत ही बैठी थी. क्षणभर में ही दरवाजा खुल गया और हम दोनों उस से भी लिपट गए. जान है हमारी इशिता. उस की भोली सूरत व मीठी बातें सुन कर तो जैसे लुत्फ ही आ जाता है जीने का. चमकता साफसुथरा फ्लैट देख कर दिल खुश हो गया. बच्चों की छोटी, प्यारी सी गृहस्थी उन के सुखी दांपत्य जीवन की कहानी बिना कहे भी बयान कर रही थी. प्रेमविवाह किया था दोनों ने.

दुबई का समय भारतीय समय से  डेढ़ घंटा पीछे है. इसलिए अभी  वहां पर दो ही बज रहे थे. बैडरूम में जा कर, सामान इधरउधर रख कर आराम से बिस्तर पर पसर गए.

‘‘ममा, खाना लगा दूं?’’ इशिता ने पूछा.

‘‘खा लेंगे अभी,’’ मैं ने इशिता को पास खींच लिया.

शुक्रवार और शनिवार दुबई में छुट्टी होती है. इसलिए बच्चे आराम वाले मूड में थे. ‘‘पापा, खाना खा कर थोड़ा रैस्ट कर लीजिए. फिर बाहर चलते हैं,’’ रिषभ बोला.

शाम को हम चारों बाहर गए. चारों तरफ जगमगाती रोशनी में नहाया दुबई, समतल सड़कों पर फिसलती कारें और मेरा मनपसंद संगीत…कार में बैठने का लुत्फ आ जाता है.

‘‘रिषभ, आज तेरी कार में बैठी हूं. याद है न, जब मैं ड्राइव करती थी और तू बैठता था,’’ मैं रिषभ को छेड़ते हुए बोली.

‘‘हां ममा, याद है, बहुत बैठा हूं आप की बगल में. आजकल तो काफी कहानियां छप रही हैं आप की. मेरी रौयल्टी तो अब तक खूब जमा हो गई होगी,’’ रिषभ बचपन वाला लाड़ लड़ाता हुआ बोला.

‘‘हां, हां, इस बार तेरी पूरी रौयल्टी दे कर जाऊंगी,’’ मैं हंसते हुए बोली. रिषभ जब छोटा था तो मेरी हर कहानी के छपने पर 20 रुपए लेता था. उस के बचपन की वह मधुर सी याद जेहन को पुलकित कर गई. आज कितना बड़ा हो गया रिषभ. तब मैं उसे संभालती थी, अब वह हमें संभालने वाला हो गया.

‘‘रिषभ, तु झे याद है, तू मु झे बचपन में मेरे जन्मदिन पर अपनी पौकेटमनी से पेपर और पेन ला कर दिया करता था लिखने के लिए. मु झे तेरी वह आदत अंदर तक छू जाती थी.’’

‘‘हां, याद है. पता नहीं कैसे सोच लेता था उस समय ऐसा कि आप लिखती हैं तो पेपरपेन से ही खुश होंगी,’’ रिषभ ड्राइव करते हुए पुरानी यादों में लौटते हुए बोला.

‘‘और अब बड़े हो कर तू ने ममा को लैपटौप ला कर दे दिया,’’ समर ठहाका मारते हुए बोले.

इशिता भी हंस पड़ी. रिषभ ने हंसते हुए कार धीमी की. हम अपने गंतव्य तक पहुंच गए थे. घूमघाम कर रात पता नहीं कितने बजे तक घर पहुंचे. हमें समय भी पता नहीं चल रहा था. खाने में भी काफी कुछ खा चुके थे, इसलिए डिनर करने का किसी का मन नहीं था. रोशनी से दमकते दुबई ने तो जैसे दिनरात का फर्क ही भुला दिया था.

घर पहुंच कर, चेंज कर मैं लौबी में आ गई. तीनों बैठे थे. मैं बोली, ‘‘खूब थक गए हैं, चाय पीते हैं. इशिता, तू पिएगी?’’

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‘‘ममा, चाय?’’ इशिता चौंक कर अपनी बड़ीबड़ी आंखें  झपकती मेरी तरफ देख कर आश्चर्य से बोली. अब चौंकने की बारी मेरी थी, कुछ गलत बात तो नहीं कह दी.

‘‘अच्छा, अगर आप का पीने का मन है तो मैं बना देती हूं,’’ इशिता उठ कर रसोई की तरफ जाते हुए बोली.

‘‘ममा, पता भी है, क्या टाइम हो रहा है, रात का डेढ़ बज रहा है. और भारत में इस समय 3 बज रहे होंगे. चाय पियोगे आप इस समय,’’ रिषभ हंसता हुआ बोला.

मैं ने घबरा कर मोबाइल देखा. घड़ी तो भारतीय समय बता रही थी. पर मोबाइल दोनों समय बता रहा था. ‘‘ओह, मु झे तो यहां की चकाचौंध भरी रोशनी में दिनरात का फर्क ही नहीं पता चल पा रहा.’’

तीनों को मुसकराते देख, मैं उन्हें घूरती हुई बैडरूम की तरफ भाग गई. इतने घंटे की नींद कम हो गई थी मेरी. सुबह मेरी नींद भारतीय समय के अनुसार खुल गई. लेकिन दुबई का समय डेढ़ घंटा पीछे होने की वजह से बच्चे तो गहन निद्रा में थे. समर भी अलटपलट कर फिर सो रहे थे. दिल कर रहा था खूब खटरपटर कर सब को जगा दूं. पर, मन मसोस कर सोई रही.

खाना बनाने के लिए कुक आता था. विदेशों में वैसे तो काम करने वालों की सुविधा भारत जैसी नहीं रहती, पर दुबई में इतनी दिक्कत नहीं है. वहां पर एशियन देशों से गए कामगार घर में काम करने के लिए मिल जाते हैं. वहां की मूल आबादी तो 12-13 प्रतिशत ही है, बाकी आबादी तो यहां पर दूसरे देशों से आए हुए लोगों की ही है. यहां पर घरों में काम करने वाले स्त्रीपुरुष, अधिकतर हिंदुस्तानी, पाकिस्तानी, बंगलादेशी और श्रीलंका के ही होते हैं. कई अन्य देशों की महिलाएं बच्चों की नैनी के रूप में यहां पर अपनी सेवाएं देती हैं.

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अपने देशों में कुछ भी उपद्रव मचाएं पर यहां सब बहुत ही नियमसंयम से रहते हैं. टूटीफूटी इंग्लिश बोलतेबोलते अच्छी इंग्लिश बोलना सीख जाते हैं. घर में काम करने वाले भी इंग्लिश बोलते हैं पर अपनी भाषा भी बोलते हैं. जो बहुत सालों से रह रहे हैं, वे कोईकोई तो अरबी बोलना भी सीख जाते हैं.

‘‘ममा, यह पूरण है,’’ शाम को बेटे ने कुक से मिलवाया, ‘‘वैसे तो यह हमारे औफिस से आने के बाद आता है पर आजकल जल्दी आ कर खाना बना देगा ताकि औफिस से आ कर हम बाहर जा सकें.’’

क्या कूल हैं ये: भाग 2- बेटे- बहू से मिलने पहुंचे समर का कैसा था सफर

40-45 उम्र का अच्छाखासा आदमी लग रहा था. पहले ही दिन पूरा इतिहास जान लिया मैं ने उस का… भारत में कहां का रहने वाला है, परिवार में 2 बड़े बच्चे हैं और कौनकौन है, वगैरहवगैरह.

बेटा हतप्रभ, ‘‘ममा, इतने वक्त में हमें नहीं पता यह कहां का है और आप ने इतनी जल्दी इस की 7 पुश्तें खंगाल डालीं.’’

‘‘ममा लेखिका जो हैं,’’ समर ने चुटकी ली.

मैं दोनों की चुटकियों को अनसुना कर पूरण को खाना बनाते देख रही थी. ‘‘ऐसे क्या बना रहे हो तुम. ऐसे कोई सब्जी बनती है?’’ कुकिंग का बेहद शौक है मु झे. जैसातैसा नहीं खा सकती. इसलिए कामवालों का बनाया खाना पसंद नहीं आता. भारत में आशा के अलावा आउट हाउस में एक परिवार रहता है. इसलिए आशा और सविता के रहतेकाम करने की जरूरत भले ही न पड़े, पर खाना बनाना मेरा प्रिय शगल था. वह मैं किसी पर नहीं छोड़ती हूं.

‘‘तुम ने गैस बंद क्यों कर दी? अभी तो सब्जी भुनी भी नहीं है, पूरण. ऐसा ही खाना खिलाते हो बच्चों को?’’

‘‘अरे ममा, चलो,’’ बेटा मु झे हंस कर खींचते हुए बोला, ‘‘आप को पूरण का बनाया खाना पसंद नहीं आएगा तो बाहर से और्डर कर दूंगा, यहां भारतीय खाना जितना अच्छा और फ्रैश मिलता है, उतना तो भारत में भी नहीं मिलता.’’

मजबूरी में मैं बेटे के साथ आ गई. लेकिन दिल कर रहा था, अभी के अभी इसे पूरी कुकिंग सिखा दूं कि ऐसा खाना खाते हैं मेरे बच्चे.

लेकिन पूरण का बनाया खाना 4-5 दिनों तक खाने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि शुक्रवार और शनिवार 2 दिन छुट्टी के थे और उस के बाद भी बच्चों ने कुछ दिनों की छुट्टी ले ली थी. घर से एक बार निकले हम चारों, रात एकडेढ़ बजे से पहले घर नहीं आ पाते थे.

जैसे उम्र का और रिश्ते का अंतर ही नहीं रह गया था चारों में. कितनी शिकायतें हैं आज के समय में इस नई पीढ़ी से सब को. पर इस कूल जनरेशन के रंग में रंग जाओ, तो लगता है जैसे अपनी उम्र से कई साल पीछे लौट गए. कुछ भी याद नहीं रह रहा था. उन्हीं के जैसी बातें, मस्ती, कहकहे और ताकत भी… पता नहीं कहां से आ गई थी. न बच्चे सोच रहे थे कि वे हमें सुबह 11 बजे से रात 11 बजे तक चला रहे हैं और न हम सोच रहे थे. न समय का ध्यान था और न डेट याद रह रही थी.

लग रहा था जैसे चारों दोस्त होस्टल में रह रहे हैं. और सब से बढ़ कर तो घर में मुश्किल से 3-4 साल पहले आई हमारी प्यारी बहू इशिता, उस के साथ महसूस ही नहीं हो रहा था कि वह कभी हम से जुदा भी थी. घूमने जाते तो वह कभी एक बड़ा कप आइसक्रीम ला कर सब को बारीबारी से खिलाती रहती तो कभी कोल्डडिं्रक ला कर सब को पिलाती. वह जूठे तक का परहेज न करती हमारे साथ. उसे देख कर लगता जैसे यहीं जन्म लिया हो उस ने. उस के आचरण से उस के संस्कार भी साफ दिखाई देते और महसूस करा देते कि जब मातापिता तबीयत से बेटी का पालनपोषण करते हैं तो बेटियां भी ऐसे ही प्यार से  2 घरों को जोड़ देती हैं.

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छुट्टियां खत्म हो गई थीं और अब कल से बच्चों को औफिस जाना था, इसलिए आज जल्दी वापस आ गए थे. डिनर और्डर कर रहा था रिषभ, मैं बीच में बोल पड़ी, ‘‘चपाती और्डर करने की जरूरत नहीं, रिषभ, मैं बना लूंगी.’’

‘‘क्यों बना लेंगी, ममा. कोई जरूरत नहीं बनाने की,’’ इशिता बोली.

‘‘इसलिए, क्योंकि चपाती तो घरवाली ही अच्छी होती है,’’ मैं किचन की तरफ जाते हुए बोली और बच्चों की बात अनसुना कर चपाती बनाने लगी. डिनर आ गया था. इशिता ने टेबल पर लगा दिया. बच्चे टेबल पर बैठ गए थे और समर वौशरूम में. मैं ने चपाती बना कर बच्चों को दी और फिर गरम चपाती समर की प्लेट में भी रख दी. समर इतनी देर में भी बाहर नहीं आए. मैं तबतक दूसरी गरम चपाती बना कर ले आई थी. समर की प्लेट की चपाती अपनी प्लेट में रख कर मैं ने दूसरी गरम चपाती समर की प्लेट में डाल दी. तब तक समर भी आ गए.

‘‘ये क्या, ममा?’’ रिषभ आश्चर्य से मेरे क्रियाकलाप देखते हुए बोला, ‘‘ऐसा क्यों किया आप ने?’’

‘‘वह वाली थोड़ी ठंडी हो गई थी न,’’ मैं व्यस्त भाव से बोली. रिषभ आश्चर्यचकित हो बोला, ‘‘ठंडी हो गई थी, सिर्फ 2 मिनट में? पापा, वैसे काफी बिगड़ी आदतें हैं आप की.’’ और फिर अर्थपूर्ण मुसकराहट से वह इशिता को देख कर हंसने लगा.

समर खिसिया कर खाना खाने लगे, ‘‘असल में घर में सविता गरमगरम चपाती बना कर लाती है न, तो आदत पड़ गई.’’

पर मेरा मन बल्लियां उछलने को कर रहा था. जो बात वर्षों नहीं बोल पाई थी उस बात को रिषभ ने क्या मजे से कह दिया था. आज के पति कितने कूल हैं. उन्हें फर्क नहीं पड़ता. वे सबकुछ प्लेट में किचन से एकसाथ डाल कर खा लेते हैं. प्लेट न मिलने पर पेपर प्लेट में भी खा लेते हैं. प्रौपर डिनर, लंच न मिले तो बर्गर, मैगी या औमलेटब्रैड से भी पेट भर लेते हैं. ‘सब ठीक है’ के अंदाज में मजे से जीते हैं. खूब कमाते हैं और खूब खर्च करते हैं. पतिपत्नी दोस्तों जैसे रहते हैं. मिलजुल कर कोई भी काम कर लेते हैं.

एक हमारा जमाना था कि मायके तक जाना मुश्किल था. नौकरी करना तो और भी मुश्किल था. ‘खाना कौन बनाएगा?’ जैसी एक अंतर्राष्ट्रीय समस्या थी पतियों की, जिस से पार पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन था बीवियों का. नाश्ते, लंच, डिनर में बाकायदा पूरी टेबल सजती थी. पत्नी का टैलेंट गया बक्से में और आधी जिंदगी किचन में. मैं मन ही मन हंसहंस कर लोटपोट हुई जा रही थी.

बच्चों को बड़ों से कुछ सीखना चाहिए. पर मेरी सम झ से तो आज के समय में पापाओं को अपने बेटों से सही तरीके से पति बनना सीखना चाहिए. समर बहुत गंभीरता से खाना खा रहे थे और इशिता व रिषभ आंखोंआंखों ही में चुहलबाजी में मस्त थे. मैं मन ही मन इस प्यारी जोड़ी का प्यार देख आनंद से सराबोर हो रही थी.

दूसरे दिन दोनों बच्चे औफिस चले गए. जब इशिता जाने लगी तो मैं उसे लिफ्ट तक जाते देखती रही. बेटी नहीं है मेरी और मैं घर से किसी लड़की को पहली बार यों चुस्तदुरुस्त, स्मार्ट ड्रैस में औफिस जाते देख हुलसिक हो रही थी. इन बच्चियों का साथ दो, सपोर्ट दो, उड़ने दो इन्हें खुले गगन में. इन के पंख मत नोचो. बहुतकुछ कर सकती हैं ये. आज परिवार भी तो कितने छोटे हो गए हैं. किचन में 4 रोटियां बनाना ही तो जीवन में सबकुछ नहीं है.

सही कहता है रिषभ, ‘ममा, आज के समय में अगर बीवी घर पर रहेगी तो घर थोड़ा और ज्यादा सुंदर व व्यवस्थित हो जाएगा. लेकिन यह सब एक लड़की के सपने टूटने की कीमत पर ही होगा न,’ कितनी सम झ है उसे. कितनी बड़ी बात कह गया. दोनों मिल कर फटाफट कई काम कर डालते हैं, एकदूसरे की मुंडी से मुंडी मिला कर कई प्रोग्राम बना डालते हैं और ढेर सारी शौपिंग करने में भी हाथ नहीं हिचकिचाते उन के.

ठीक तो है, पतिपत्नी में आपसी सम झ होनी चाहिए. चाहे फिर पत्नी बाहर काम करे या घर में रहे. सोचती हुई मैं किचन की अलमारियां खोलखोल कर देखने लगी. ‘आज सारी की सारी ठीक कर डालूंगी,’ मैं बड़बड़ाई.

‘‘क्या?’’ समर पास से गुजरे, ‘‘जो ठीक करना है, बाद में करना. पहले कुछ भूख शांत कर दो.’’

‘‘क्या कहा?’’ मैं ने त्योरियां चढ़ा लीं.

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‘‘नहींनहीं, पेट की भई. तुम तो हर समय गलत ही सम झ जाती हो.’’ मेरी चढ़ी त्योरियां देख, समर भाग खड़े हुए.

लंच से निबट कर मैं अपने अभियान में जुट गई. एकएक कर सारी अलमारियां व्यवस्थित कर डालीं. फालतू सामान बाहर कर दिया. इन्हीं कामों में शाम हो गई. तब तक रिषभ औफिस से आ गया. मैं किचन में फैले समान के अंबार के बीच बैठी थी.

‘‘यह क्या, ममा, बहुत शौक है आप को काम करने का. यहां भी शुरू हो गईं.’’

‘‘नहीं, देख रही थी कुछ सामान डबल है. कुछ 3-4 डब्बों में रखा है पीछे. शायद, तुम्हें पता नहीं है, वही सब ठीक किया. कुछ खराब भी हो गया, इसलिए बाहर निकाल दिया. अब कुछ खाएगा तू?’’

‘‘नहीं, वह सब मैं खुद कर लूंगा. आप और पापा के लिए भी कुछ बना देता हूं,’’ कह कर रिषभ ने फ्रीजर से कुछ स्नैक्स निकाल कर ओवन में गरम कर के, उन में अपनी कुछ कलाकारी दिखा कर, प्लेट में सजा कर टेबल पर रख दिया. तब तक सबकुछ समेट कर मैं भी आ गई.

तभी घंटी बज गई. इशिता आ गई थी. मैं ने दरवाजा खोला और इशिता को दोनों बांहों में समेट लिया. ‘‘आ गई मेरी गुडि़या.’’ समर ने भी लपेट लिया उसे. इशिता  झूठीमूठी गुमानभरी नजरें रिषभ पर डालती हुई बोली, ‘‘आप को भी किया था ऐसा प्यार? मु झे देखो, कितना प्यार करते हैं ममापापा.’’

‘‘इधर आओ,’’ रिषभ भी हंसता हुआ उसे खींच कर ले गया और अलमारियां दिखाता हुआ बोला, ‘‘जब मैं आया तो ममा यह सब कर रही थीं. मु झे प्यार कहां से करतीं.’’

दोनों ऐसी चुहल कर रहे थे कि हृदय हर्षित हो गया. इशिता बैग एक तरफ रख कर कोल्ड कौफी बना लाई और हम चारों बैठ कर खानेपीने लगे. मैं सोच रही थी कि कितने मजे से लेते हैं ये युवा जिंदगी को. औफिस से आए हैं दोनों, मैं कुछ बना कर देती, उलटा उन्हीं का बनाया हुआ खा रहे हैं. जब हम इस उम्र में थे तो पति लोग औफिस से ऐसे आते थे जैसे पहाड़ तोड़ कर आए हों. ये दोनों ऐसे आए हैं जैसे बैडमिंटन खेल कर आए हों.

हालांकि पता है मुझे कि दोनों पर नौकरियों का तनाव हावी रहता है. पर आजकल के युवा इन तनावों को भूल कर मनोरंजन करना भी खूब जानते हैं. रिश्तेदारों व पड़ोसियों के तानों में उल झ कर, उन की परवाह कर और तनाव नहीं पालना चाहता आज का युवा वर्ग. बस, शायद इसीलिए बदनाम रहता है. जो इन के रंग में रंग गया वह जिंदगी का लुत्फ उठा लेता है. वरना, रुकने का नाम तो जिंदगी नहीं.

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क्या कूल हैं ये: भाग 3- बेटे- बहू से मिलने पहुंचे समर का कैसा था सफर

चारों तैयार हो कर फिर घर से बाहर चले गए. पूरण को आने से मना कर दिया. लेकिन अगले दिन पूरण फिर 4 बजे ही हाजिर था.

‘‘सब्जीदाल बता दीजिए क्या बनानी है,’’ वह बोला. मैं उसे सबकुछ दे कर, चाय बनाने के लिए कह कर टीवी पर न्यूज सुनने लगी. पूरण ने दोनों को चाय ला कर दी. बरतन भी पूरण ही धोता था. चाय खत्म करते हुए मैं सोच रही थी कि आज तो इसे इत्मीनान से कुछ सिखा ही दूंगी. बच्चे भी नहीं हैं, पर जब तक किचन में आई, पूरण की सब्जी कट कर बन भी चुकी थी.

‘‘माताजी, देखिए, आज कितनी बढि़या तोरी की सब्जी बनाई है मैं ने,’’ पूरण उस हरीपानी वाली बिना टमाटर की तोरी की सब्जी में करछी चलाता हुआ बोला. उस भयानक सब्जी से भी अधिक मेरा ध्यान उस के बोलने पर चला गया, ‘माताजी.’ मैं माताजी सुन कर बुरी तरह चौंक गई. क्या मैं माताजी जैसी दिखने लगी हूं? सासूमां की याद आ गई. उन्हें जानपहचान वाले माताजी कह देते थे. पर मैं? अभी तक तो भारत में किसी ने मु झे माताजी कहने की हिमाकत नहीं की थी. महिलाएं तो आंटी बोलने से ही जलभुन जाती हैं और मु झे यहां दुबई में माताजी?

भाग कर शीशे में देखा, हर एंगल से खुद को. अभी तो ठीकठाक सी ही हूं. सीनियर सिटिजन भी नहीं हुई अभी. टिकट में कन्सैशन भी नहीं मिलता है मु झे अभी तो. और इस आदमी की ऐसी जुर्रत. दिल किया खड़ेखड़े निकाल दूं. किचन में वापस आई.

‘‘माताजी,’’ पूरण खीसें निपोरता दोबारा बोला.

‘‘हां बोलो, भाई,’’ कुढ़ कर, हथियार डालते मैं मन ही मन बोली, ‘तुम्हारा माताजी तो मैं पचा लूंगी, पर तुम्हें निकाल कर अपने बच्चों को कष्ट नहीं दे सकती, खुश रहो तुम.’

इसी बीच दीवाली आ गई. 15 लोगों की मित्रमंडली जमा हो रही थी घर पर. हमारे समय में तो इतनों के खाने का मतलब सुबह से तैयारी. पर बच्चे कितने मस्त थे. उन के पास तो इतने बरतन भी नहीं थे. कुछ थोड़ाबहुत घर में तैयारी की. बाकी खाना बाहर से और्डर हुआ. पेपर प्लेट, डिस्पोजेबल गिलास, चम्मच वगैरह कुछ कम थे. दोनों को ही लाने के लिए कह दिया और हो गई मजेदार हंगामे वाली पार्टी.

पार्टी शुरू हुई तो हम बैडरूम में बैठ गए पर बच्चों ने खींच लिया हमें भी. कुछ बच्चे सौफ्टडिं्रक ले रहे थे तो अधिकतर हार्डडिं्रक. इशिता और रिषभ डिं्रक नहीं करते, लेकिन मित्रमंडली के साथ पूरी मस्ती करते हैं बिना पिए ही. साथ में हंसतेखिलखिलाते, लोटपोट होते देख लगता ही नहीं है कि यह सब पी कर हो रहा है या बिन पिए. छोटीछोटी डै्रसेज पहनने वाली लड़कियां आज दीवाली पर स्टाइलिश साड़ी या दूसरे भारतीय परिधान पहने हुए थीं. इतनी मस्ती तो हम ने भारत में न की थी दीवाली पर.

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क्या कूल जनरेशन है. जो समस्याएं हमारे जीवन में थीं, वे तो इन के लिए समस्याएं ही नहीं हैं. दुबई में मेरी स्कूल, कालेज की फ्रैंड सुरभि रहती है. एक दिन वह पूरा दिन मेरे पास बिता गई और एक दिन मु झे उस के पास जाना था, उस के साथ सारा प्रोग्राम फिक्स कर मैं ने डाइनिंग टेबल पर ऐलान कर दिया, ‘‘कल सुरभि के घर जा रही हूं. पूरा दिन बिताने.’’

‘‘किस के साथ?’’ पति महोदय आश्चर्य से बोले.

‘‘अरे ममा, कल क्यों बनाया प्रोग्राम. मैं छोड़ देता आप को किसी दिन. कल तो बहुत बिजी हूं,’’ रिषभ बोला.

‘‘तु झे परेशान होने ही जरूरत नहीं. मैं तो नीचे से टैक्सी ले लूंगी. दुबई तो कितना सेफ है. यहीं जेएलटी में ही तो रहती है वह,’’ मैं इत्मीनान से बोली.

‘‘हांहां, सब को अपने जैसा सम झा है न,’’ समर बड़बड़ाते हुए बोले, ‘‘तुम इतनी सीधीशरीफ हो, अक्ल तो है नहीं तुम में, कोई भी बेवकूफ बना देगा, यहां दुबई में भी.’’

‘‘हां ममा, टैक्सी से तो मैं भी आप को अकेले नहीं जाने दे सकता,’’ रिषभ भी फैसला सुनाता हुआ बोला.

पर पति की बात ने तो भूचाल ला दिया था दिमाग में. शब्द तारीफ में नहीं कहे गए थे. अंदर की लेखिका ने कई पन्ने रंग डाले महिला सशक्तीकरण के पक्ष में. मैं ने सब पर अपनी निगाहें घुमाईं. तीनों मेरे बारे में फैसला कर आराम से खाना खा रहे थे.

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‘‘हां, यह तो है कि बीवियों को 25 में भी, अक्ल नहीं होती और 50 में भी पर पता नहीं पतियों को कैसे 25 में भी अक्ल आ जाती है और 50 में तो होती ही है.’’ बुदबुदाते हुए मैं लंबी सांस खींच कर, रोटी का टुकड़ा मुंह में डाल, गुस्से में जोरजोर से चबाने लगी. तीनों अचानक चौंक कर मेरी तरफ देखने लगे. पति भी अपनी भावुक मिजाज की हरदम प्रसन्नचित्त बीवी का ऐसा करारा जवाब सुन कर हतप्रभ थे और दोनों बच्चे अब तक सबकुछ सम झ कर हंसहंस कर बेहाल हुए जा रहे थे. न चाहते हुए भी समर को भी उन की हंसी में शामिल होना पड़ा और उन सब को हंसता देख मैं भी मुसकराने लगी.

‘‘डोंट वरी ममा. कल जल्दी तैयार हो जाना. मैं छोड़ दूंगा आप को,’’ रिषभ हंसता हुआ बोला.

‘‘हां, कल चली जाओ, तुम,’’ समर भी खाना खत्म कर उठते हुए बोले.

‘‘कोई जरूरत नहीं. बात तो गई मेरी सुरभि से. वह मु झे लेने आएगी 11 बजे.’’

‘‘तो आप हमारा इम्तिहान ले रही थीं,’’ इशिता भी मासूमियत से कुनमुनाई.

‘‘और क्या,’’ मैं ठहाका मारते हुए बोली, ‘‘देखना चाहती थी कि मेरे बंदीगृह की दीवारें और कितनी मजबूत हुई हैं, कितने पहरेदार पैदा हो गए हैं मेरे.’’

‘‘अरे नहीं, ममा,’’ रिषभ लाड़ से मु झ से लिपटता हुआ बोला, ‘‘बहुत प्यार करते हैं आप से, इसलिए फिक्र करते हैं आप की. आप को पता नहीं, कितने इंपौर्टेंट हो आप हमारे लिए. कल लेने मैं आ जाऊंगा आप को. जब आने का मन हो, तब फोन कर देना. तभी निकलूंगा औफिस से.’’

‘‘मु झे मालूम है, बेटा,’’ मैं स्नेह से उस की बांह व चेहरा सहलाते हुए बोली.

ऐसे ही हंसतेहंसाते एक महीना कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. दुबई का वीजा या तो एक महीने का बनता है या 3 महीने का. यदि एक महीने से एक हफ्ता भी ऊपर रहना है तो फिर वीजा

3 महीने का ही बनाना पड़ता है. आने का समय हो गया. कितना कुछ भर दिया था इशिता और रिषभ ने. अटैचियां निर्धारित वजन से ज्यादा हो रही थीं. उस पर भी अच्छाखासा हंगामा हो रहा था कि क्या रखें और क्या छोड़ें. दुबई के एयरपोर्ट पर साथ में आया कोई भी, सामान के चैकइन काउंटर तक छोड़ने जा सकता है. रिषभ ने सामान चैकइन करवा दिया. अब हमें अंदर सिक्योरिटी को पार करना था. बच्चों को यहीं पर अलविदा कहना था.

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दिल तो भावनाओं के ज्वर से उमड़घुमड़ रहा था. पर अपने आंसू सरलता से दिखाने की आदत नहीं है मेरी. इसलिए हंसतेमुसकराते बच्चों से विदा ले रहे थे हम. बच्चे अपनी जगह पर खड़े हाथ हिला रहे थे. और मैं पीछे मुड़मुड़ कर उन की भुवनमोहिनी जोड़ी को मन ही मन अनंत शुभकामनाएं दे रही थी. लेकिन अंदर जाते ही आंखें बरसने लगीं.

मन उदास हो रहा था. पर सोच रही थी बच्चों ने इतने दिन याद न रहने दिया अपनी उम्र को. अपने रंग में रंग दिया हमें. इस युवा पीढ़ी के साथ जिस ने कदमताल कर दिया, उस ने इन का सुख पा लिया. वरना यदि अपने अडि़यल रवैए और अडि़यल विचारों पर अड़ी रहेगी पुरानी पीढ़ी तो यह पीढ़ी इतनी तेज दौड़ रही है कि फासला बढ़ते देर नहीं लगेगी. यह पीढ़ी उन्हीं के लिए कदम धीरे करेगी, जो इन के साथ दौड़ने की कोशिश करेंगे.

यही सब सोचतेसोचते समर और मैं सिक्योरिटी पार कर डिपार्चर लाउंज की तरफ चल दिए.

Family Story In Hindi: लाड़ली

‘‘चा  ची, आप को

तो आना ही पड़ेगा… आप ही तो अकेली घर की बुजुर्ग हैं… और बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना शादीब्याह के कार्यक्रम अपूर्ण ही होते हैं,’’ जेठ के बेटेबहू के इस अपनापन से भरे आग्रह को सावित्री टाल न सकी पर अंदर ही अंदर जिस बात से वह डरती थी वही हुआ. न चाहते हुए भी वहां स्वस्तिका से सावित्री

का सामना हो गया. यद्यपि स्वस्तिका सावित्री की रिश्ते में नातिन थी फिर भी वह उस की आंख की किरकिरी बन

गई थी.

आराधना की मौत हुए अभी साल भर भी पूरा नहीं हुआ था पर स्वस्तिका के चेहरे पर अपनी मां की मौत का तनिक भी अफसोस नहीं था बल्कि वह तो अपने पति की बांहों में बांहें डाले हंसती हुई सावित्री के सामने से निकल गई थी. यह देख कर उन का मन बेचैन हो उठा और तबीयत ठीक न होने का बहाना कर वह घर लौट आई थीं.

सावित्री की जल्दबाजी से प्रकाश और विभा को भी घर लौटना पड़ा. घर पहुंचते ही प्रकाश झल्ला पड़ा, ‘‘मां, तुम भी कमाल करती हो…जब स्वस्तिका से अपना कोई संबंध ही नहीं रहा तो उस के होने न होने से हमें क्या फर्क पड़ता है.’’

विभा ने भी समझाना चाहा, ‘‘मम्मी- जी, कब तक यों स्वयं को कष्ट देंगी आप. जिसे दुखी होना चाहिए वह तो सरेआम हंसतीखिलखिलाती घूमती है…’’

सावित्री बेटेबहू की बातों पर चुप ही रही. क्या कहती? प्रकाश और विभा गलत भी तो नहीं थे.

कपड़े बदल कर वह बिस्तर पर निढाल सी लेट गईं पर अशांत मन चैन नहीं पा रहा था. बारबार स्वस्तिका के चेहरे में झलकती आराधना की तसवीर आंखों में तैर जाती.

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सहसा सावित्री के विचारों में स्वस्तिका की उम्र वाली आराधना याद हो आई. आराधना भी बिलकुल ऐसी ही मस्तमौला थी पर तुनकमिजाज…जिद्दी ऐसी कि 2-2 दिनों तक भूखी रहती थी पर अपनी बात मनवा के दम लेती.

शेखर कहते भी थे कि बेटी को जरूरत से ज्यादा सिर चढ़ाओगी तो पछताओगी, सावित्री. पर कब ध्यान दिया सावित्री ने उन बातों पर. सावित्री के लाड़प्यार की शह में तो आराधना बिगड़ैल बनती गई.

पिताजी का डर था जो थोड़ीबहुत आराधना की लगाम कस के रखता था, वह भी उन की अचानक मौत के बाद जाता रहा. अब वह सुबह से नाश्ता कर कालिज निकल जाती तो बेलगाम हो कर दिन भर सहेलियों के साथ घूमती रहती.

सावित्री कुछ कहती तो आराधना झल्ला पड़ती. उस का समयअसमय आना- जाना जरूरत से ज्यादा बढ़ता जा रहा था.

प्रकाश भी अब किशोर से जवान हो रहा था. उसे दीदी का देर रात तक घूमनाफिरना और रोज अलगअलग पुरुष मित्रों का घर तक छोड़ने आना अटपटा लगता पर क्या कहता वह? कहता तो छोटे मुंह बड़ी बात होती.

1-2 बारप्रकाश ने मां से कहने की कोशिश भी की पर आराधना ने घुड़क दिया, ‘तुम अपना मन पढ़ाई में लगाओ, मेरी चिंता मत करो. मैं कोई नासमझ नहीं हूं, अपना भलाबुरा अच्छी तरह समझती हूं.’

प्रकाश ने मां की ओर देखा पर वह भी बेटी का समर्थन करते हुए बोलीं, ‘प्रकाश, तुम छोटे हो अभी. आराधना बड़ी हो चुकी है, वह जानती है कि उस के लिए क्या सही है क्या गलत.’

सावित्री ने आराधना को नाराज होने से बचाने के लिए प्रकाश को चुप तो कर दिया पर मन ही मन वह भी आराधना की इन हरकतों से चिंतित थीं. फिर भी मन के किसी कोने में यह विश्वास था कि नहीं…मेरी बेटी गलत कदम कभी नहीं उठाएगी.

पर कोरे निराधार विश्वास ज्यादा समय तक कहां टिक पाते हैं? आखिर वही हुआ जिस की आशंका सावित्री को थी.

एक दिन आराधना बदले रूप के साथ घर लौटी. साथ में खड़े व्यक्ति का परिचय कराते हुए बोली, ‘मां, ये हैं डा. मोहन शर्मा.’

आराधना के शरीर पर लाल सुर्ख साड़ी, भरी मांग देख सावित्री को सारा माजरा समझ में आ गया पर घर आए मेहमान के सामने बेटी पर चिल्लाने के बजाय अगले ही पल उलटे कदमों अपने कमरे में आ गईं.

आराधना भी अपनी मां के पीछेपीछे कमरे में आ गई, ‘मां, सुनो तो…’

‘अब क्या सुना रही हो, आराधना?’ सावित्री लगभग रोते हुए बोलीं, ‘तू ने तो एक पल को भी अपनी मां की भावनाओं के बारे में नहीं सोचा. अरे, एक बार कहती तो मुझ से…तेरी खुशी के लिए मैं खुद तैयार हो जाती.’

‘मां, मोहन ने ऐसी जल्दी मचाई कि वक्त ही नहीं मिला.’

आराधना की बात पूरी होने से पहले ही सावित्री के मन को यह बात खटक गई, ‘जल्दी मचाई…क्यों? शादीब्याह के कार्य जल्दबाजी में निबटाने के लिए नहीं होते, आराधना… और यह डा. मोहन कौन है, कहां का है…इस का घरपरिवार, अतापता कुछ जानती भी है तू या नहीं?’

‘मां, डा. मोहन बहुत अच्छे इनसान हैं. बस, मैं तो इतना जानती हूं. मेडिकल कालिज के परिसर में इन का क्वार्टर है, जहां यह अकेले रहते हैं. रही बाकी परिवार की बात तो अब शादी की है तो वह भी पता चल जाएगा. मां, मैं तो एक ही बात जानती हूं, जिस का वर्तमान अच्छा है उस का भविष्य भी अच्छा ही होगा….तुम नाहक चिंता न करो. अब उठो भी, मोहन बैठक में अकेले बैठे हैं.’

यह तो ठीक है कि वर्तमान अच्छा है तो भविष्य भी अच्छा ही होगा है पर इन दोनों का आधार तो अतीत ही होता है न. किसी का पिछला इतिहास जाने बिना इस तरह आंखें मूंद कर विश्वास कर लेना मूर्खता ही तो है. सावित्री चाह कर भी नहीं समझा पाई आराधना को और अब समझाने से लाभ भी क्या था.

सावित्री ने खुद के मन को ही समझा लिया कि चलो, आराधना ने कम से कम ऐरेगैरे से तो विवाह नहीं रचाया. डाक्टर है लड़का. आर्थिक परेशानी की तो बात नहीं रहेगी.

2 वर्ष भी नहीं बीत पाए और एक दिन वही हुआ जिस का डर सावित्री को था. आराधना मोहन द्वारा मार खाने के बाद 6 माह की स्वस्तिका को ले कर मायके आ गई थी.

मोहन पहले से विवाहित, 2 बच्चों का बाप था. आराधना से उस ने विवाह मंदिर में रचाया था जिस का न कोई प्रमाण था न ही कोई प्रत्यक्षदर्शी. बिना पूर्व तलाक के जहां यह विवाह अवैध सिद्ध हो गया वहीं स्वस्तिका का जन्म भी अवैधता की श्रेणी में आ गया.

आज सावित्री को शेखर अक्षरश: सत्य नजर आ रहे थे. उस का अंत:करण स्वयं को धिक्कार उठा, ‘मेरा आवश्यकता से अधिक लाड़, बारबार आराधना की गलतियों पर प्रेमवश परदा डालने का प्रयास, उस की नाजायज जिद का समर्थन वीभत्स रूप में बदल कर ही तो मेरे समक्ष खड़ा हो मुझे मुंह चिढ़ा रहा है.’

आराधना ने नौकरी ढूंढ़ ली. स्वस्तिका को संभालने का जिम्मा अब सावित्री का था.

जो भूल आराधना के साथ की वह स्वस्तिका के साथ नहीं दोहराऊंगी, मन ही मन तय किया था सावित्री ने, पर जैसजैसे स्वस्तिका बड़ी होती जा रही थी आराधना के लाड़प्यार ने उसे बिगाड़ना शुरू कर दिया था. सावित्री कुछ समझाती तो बजाय बात को समझने के आराधना बेटी का पक्ष ले कर अपनी मां से लड़ पड़ती. पिता के प्यार की भरपाई भी आराधना अपनी ओर से कर डालना चाहती थी और इसी प्रयास में वह स्वयं का ही प्रतिरूप तैयार करने की भूल कर बैठी.

आराधना के मामलों में तो सावित्री हरदम प्रकाश की अनसुनी कर दिया करती थी पर अब प्रकाश उन्हें शेखर की तरह ही संजीदा व सही प्रतीत होता.

स्वस्तिका की 10वीं की परीक्षा थी. गणित में कमजोर होने के कारण आराधना एक दिन सतीश नाम के एक ट्यूटर को घर ले आई और बोली, ‘कल से यह स्वस्तिका को गणित पढ़ाने आएगा.’

22 साल का सतीश प्रकाश के मन को खटक गया लेकिन आराधना दीदी के स्वभाव को जानते हुए वह चुप ही रहा.

जब भी सतीश स्वस्तिका को पढ़ाने आता प्रकाश की नजरें उन के क्रियाकलापों का जायजा लेती रहतीं. कान सचेत हो कर उन के बीच हो रही बातचीत पर ही लगे रहते. प्रकाश को भय था कि आराधना दीदी की तरह ही कहीं स्वस्तिका का हश्र न हो.

एक दिन प्रकाश ने स्वस्तिका को सतीश के साथ आपत्तिजनक स्थिति में देखा तो उसे धक्के मार कर घर से बाहर निकाल दिया.

शाम को आराधना के दफ्तर से आते ही स्वस्तिका फफक कर रोने लगी, ‘मम्मी, प्रकाश मामा को समझा दो. हर समय हमारी जासूसी करते हैं. आज जरा सी बात पर सर को धक्का दे कर घर से निकाल दिया.’

‘क्यों प्रकाश? यह किस तरह का बरताव है?’ बिना अपनी लाड़ली की गलती जानेसमझे आराधना अपनी आदत के अनुसार गरज पड़ी.

‘दीदी, वह जरा सी बात क्या है यह अपनी लाड़ली से नहीं पूछोगी?’ प्रकाश भी तमतमा गया.

आराधना ने इसे अहं का विषय बना डाला, ‘ओह, तो अब हम मांबेटी तुम लोगों को भारी पड़ने लगे हैं, लेकिन यह मत भूलो कि कमाती हूं, घर में पैसे भी देती हूं. इसलिए हक से रहती हूं. तुम्हें पसंद नहीं तो हम अलग रह लेंगे, एक मकान लेने की हैसियत है मुझ में.’

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बात बिगड़ती देख सावित्री ने दोनों को समझाना चाहा पर आराधना ठान चुकी थी. हफ्ते भर में नया मकान देख स्वस्तिका को ले कर चली गई. सतीश फिर उसे पढ़ाने आने लगा. न चाहते हुए भी सावित्री व प्रकाश चुप रहे. कहते भी तो सुनता कौन?

उन्हीं दिनों अचानक आराधना का स्वास्थ्य खराब रहने लगा. स्थानीय डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए. मुंबई अथवा दिल्ली के बड़े चिकित्सा संस्थानों में दिखाने के लिए कहा गया. प्रकाश पुराने गिलेशिकवे भुला कर दीदी को मुंबई ले गया. आखिर भाई था वह और उस के सिवा और कोई पुरुष था भी तो नहीं घर में जो आराधना के साथ बड़े शहरों के बड़ेबड़े अस्पतालों में चक्कर काटता.

डाक्टरों ने बताया कि आराधना को कैंसर है जो अंतिम अवस्था तक पहुंच चुका है. जीवन की डोर को केवल 6 माह तक और खींचा जा सकता है. वह भी केवल दवाइयों व इंजेक्शनों के आधार पर.

ऐसे हालात में सावित्री व प्रकाश का आराधना के साथ रहना निहायत जरूरी हो गया था. साथ रहते हुए प्रकाश को स्वस्तिका व सतीश की नाजायज हरकतें पुन: नजर आने लगीं. पर बात का बतंगड़ न बन जाए यह सोच कर वह चुप रहा, केवल मां से ही बात की. मौका देख कर सावित्री ने आराधना को इस बारे में सचेत करना चाहा. इस बार आराधना ने भी हंगामा नहीं मचाया बल्कि स्वस्तिका को बुला कर इस बारे में बात की.

स्वस्तिका शायद अवसर की खोज में ही थी इसलिए साफ शब्दों में उस ने कह दिया कि वह सतीश से प्यार करती है और वह भी उसे चाहता है.

अगले दिन आराधना ने सावित्री व प्रकाश को अपना निर्णय सुना दिया, ‘प्रकाश, तुम पर बड़ी जिम्मेदारी डाल रही हूं. इसी माह स्वस्तिका की शादी सतीश से करनी है. उस के घर वालों से बात कर लो व शादी की तैयारी शुरू कर दो. सुविधा के लिए मैं अपने बैंक खाते को तुम्हारे नाम के साथ संयुक्त कर देती हूं ताकि पैसा निकालने में तुम्हें सुविधा हो. तुम पैसे की चिंता बिलकुल मत करना. मैं चाहती हूं अपने जीतेजी बेटी को ब्याह कर जाऊं.’

शायद यह खुद के विधिविधान से विवाह संस्कार न हो पाने की अधूरी चाह थी जिसे आराधना स्वस्तिका के रूप में देखना चाहती थी.

सब कुछ आराधना की इच्छानुसार हो गया. सतीश के दामाद बनते ही स्वस्तिका ने नए तेवर दिखाना शुरू कर दिए, ‘मम्मी, अब मैं और सतीश तो हैं न तुम्हारी देखभाल करने के लिए….नानी और मामा को वापस अपने घर भेज दो.’

प्रकाश ने सुना तो खुद ही सावित्री को साथ ले कर अपने घर लौट आया. सावित्री घर आ कर बारबार दवाई व इंजेक्शनों के समय पर बेचैन हो जातीं कि पता नहीं स्वस्तिका ठीक समय पर दवाई दे पाती है या नहीं. अभी 2 हफ्ते भी नहीं गुजरे थे कि एक शाम सतीश का फोन आया, ‘नानीजी, जल्दी आ जाइए, मम्मीजी हमें छोड़ कर चली गईं.’

‘क्या?’ सावित्री सुन कर अवाक् रह गईं.

सावित्री को साथ ले कर बदहवास सा प्रकाश आराधना के घर पहुंचा पर तब तक तो सारा खेल खत्म हो चुका था.

सभी अंतिम क्रियाकर्म प्रकाश ने ही पूरा किया. अस्थि कलश के विसर्जन का समय आया तो स्वस्तिका आ गई, ‘मामाजी, पहले उस संयुक्त खाते का हिसाबकिताब साफ कर दीजिए उस के बाद कलश को हाथ लगाइएगा.’

रिश्तेदारों का लिहाज न होता तो स्वस्तिका व सतीश को उन की इस धृष्टता का प्रकाश अच्छा सबक सिखाता पर रिश्तेदारों के सामने कोई तमाशा न हो यह सोच कर अपने क्रोध को किसी तरह दबा लिया और स्वस्तिका की इच्छानुसार कार्य करते हुए अपने सारे कर्तव्य पूरे कर दिए.

सावित्री वापस लौटने वाली थीं. आराधना के कमरे की सफाई करते समय अचानक उन की नजर अलमारी में पड़े दवा के डब्बे पर गई जो स्वस्तिका के विवाह के बाद घर लौटने से पहले प्रकाश ने ला कर रखा था. खोल कर देखा तो सारी दवाइयां व इंजेक्शन उसी तरह पैक ही रखे थे.

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सावित्री का माथा ठनका. तो क्या स्वस्तिका ने पिछले दिनों आराधना को दवाइयां दी ही नहीं? यह सोच कर सावित्री ने स्वस्तिका को आवाज लगाई.

‘क्या है, नानी?’

खुला डब्बा दिखाते हुए सावित्री ने पूछा, ‘स्वस्तिका, तुम ने अपनी मम्मी को दवाइयां नहीं दीं?’

‘हां, नहीं दीं…तो? क्या गलत किया मैं ने? तकलीफ में थीं वह…और आज नहीं तो 4 माह बाद जाने ही वाली थीं न हमें छोड़ कर…तो अभी चली गईं…क्या फर्क पड़ गया?’

‘बेशरम, मेरी बेटी की जान लेने वाली तू डाइन है…पूरी डाइन.’

पसीने से तरबतर सावित्री हड़बड़ा कर बिस्तर से उठ बैठीं…अतीत की वे यादें आज भी उन्हें बेचैन कर देती हैं. न जाने उस दिन कौनकौन सी गालियां दे कर सावित्री ने हमेशा के लिए स्वस्तिका से रिश्ता तोड़ दिया था. सावित्री का सिर भारी हो गया.

सुना तो यही था कि बेटियां मां का दर्द बांटती हैं फिर स्वस्तिका बेटी हो कर भी अपनी मां के प्रति इतनी कठोर कैसे बन गई. शायद आराधना की शिक्षा में ही कोई कसर रह गई थी…आखिर बेटी अपनी मां से ही तो संस्कार पाती है. नहींनहीं…फिर तो पूरी गलती आराधना की भी नहीं है…गलत तो मैं ही थी…आराधना ने तो वही संस्कार स्वस्तिका को दिए जो मुझ से पाए थे.

काश, मैं ने आराधना को सहेज कर रखा होता तो आज उस की संतान में उस कुटिल व्यक्ति का कलुषित खून न होता जो आज उस का पिता न हो कर भी पिता था. काश, मैं ने आराधना की नाजायज बातों पर प्रेमवश परदा डालने के बजाय उसे ऊंचनीच का ज्ञान कराया होता, उस की हर गलत बात पर किए गए मेरे समर्थन का नतीजा ही तो था जो आराधना स्वभाव से अक्खड़ बन गई थी. आराधना ने भी वही सब स्वस्तिका को दिया जो मैं ने परवरिश में उस की झोली में डाला था.

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जब भी स्वस्तिका से सावित्री का सामना होता वह अपने इन्हीं विचारों के अनसुलझे मकड़जाल में फंस कर रह जाती. अपने लाड़ के अतिरेक से ही तो अपनी लाड़ली को खो चुकी थी वह और शायद लाड़ली की लाड़ली को भी.

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