आज सारा घर कांप रहा था. सुबह से ही किसी का मन स्थिर नहीं था. कारण यह था कि आज नारायणी का उपवास था. कुछ दिन पहले ही उस ने करवाचौथ का व्रत रखा था. उस की याद आते ही सब के रोंगटे खड़े हो जाते हैं. आननफानन में अहोई अष्टमी का दिन आ गया.
नारायणी का नाम उस की दादी ने रखा था. वह चौबीसों घंटे नारायणनारायण जपती रहती थीं. जब दादी का देहांत हुआ तो यह रट उस की मां ने अपना ली. ऐसा लगता था कि साल में 365 दिनों में 365 त्योहारों के अलावा और कुछ काम ही नहीं है. मतलब यह है कि जैसे ही नारायणी ब्याह कर ससुराल पहुंची, उस ने मौका देखते ही पूजाघर का उद्घाटन कर डाला. वह स्वयं बन गई पुजारिन. इतने वर्ष गुजर गए, 3-3 बच्चों की मां बन गई, पर मजाल है कि एक ब्योरा भी भूली हो.
देवीलाल की नींद खुल गई थी, पर वह अलसाए से बिस्तर पर पड़े थे. सोच रहे थे कि उठ कर कुल्लामंजन किया जाए तो चाय का जुगाड़ बैठे.
एकाएक नारायणी का कर्कश स्वर कान में पड़ा, ‘‘अरे, सुना, आज अहोई अष्टमी का व्रत है. सारे दिन निर्जल और निराहार रहना है. बड़ा कष्ट होगा, सो मैं अभी से कहे देती हूं कि मुझ से दिन भर कोई खटपट मत करना.’’
देवीलाल की आंखें फटी की फटी रह गईं. बोले, ‘‘नारायणी, अभीअभी तो नींद से उठा हूं. चाय भी नहीं पी. कोई बात तक नहीं की और तुम मुझ से ऐसी बात करने लगी हो. अरे, खटपट तो खुद तुम ने ही चालू कर दी और इलजाम थोप रही हो मेरे सिर पर.’’
नारायणी ने ऊंची आवाज में कहा, ‘‘बस, कर दिया न दिन खराब. अरे, कम से कम व्रतउपवास के दिन तो शांति रखा करो. आखिर व्रत कोई अपने लिए तो रख नहीं रही हूं. बालबच्चों की उम्र बनी रहे, उसी के मारे इतना कठिन उपवास करती हूं.’’
देवीलाल को चाय की तलब लग रही थी, सो आगे बात न बढ़ा कर कुल्लामंजन करने चले गए.
अभी 4 दिन पहले की बात है. नारायणी ने करवाचौथ का व्रत रखा था, पति की उम्र लंबी होने की कामना करते हुए. पर पहला ही वाक्य जो मुंह से निकला था उस ने उन की उम्र 10 वर्ष कम कर दी थी.
‘सुनते हो?’ देवीलाल के कानों में गूंज रहा था, ‘आज करवाचौथ है. सुबह ही बोल देती हूं कि अपनी बकझक से दिन कड़वा मत कर देना.’
देवीलाल ने छटपटा कर उत्तर दिया था, ‘अरे, अब तो तुम ने कड़वा ही कर दिया. कसर क्या रही अब? लग रहा है आज हर साल की तरह से फिर करवाचौथ आ गया.’
नारायणी ने माथा पीट कर कहा, ‘हाय, कौन से खोटे करम किए थे मैं ने, जो तुम्हारे जैसा पति मिला. न जाने कौन से जन्मों का फल भुगत रही हूं. हे भगवान, अगर तू बहरा नहीं है तो मुझे इसी दम इस धरती से उठा ले.’
देवीलाल ने क्रोध में कहा, ‘तुम्हारा भगवान अगर बहरा नहीं है तो वह इस चीखपुकार को सुन कर अवश्य बहरा हो जाएगा. कितनी बार कहा है कि व्रत मत रखा करो. तुम तो यही चाहती हो न कि मेरी जितनी लंबी उम्र होगी उतने ही अधिक दिनों तक तुम मुझे सता सकोगी?’
नारायणी की आंखों से गंगाजमुना बह निकली. उस ने सिसकसिसक कर कहा, ‘हाय, किस नरक में आ गई. सुबहसुबह अपने पति से गालियां सुनने को मिल रही हैं. जिस पति की मंगलकामना के लिए व्रत रख रही हूं, वही मुझे जलाजला कर मार रहा है. क्या इस दुनिया में न्याय नाम की कोई चीज नहीं है?’
देवीलाल से पत्नी का रोनापीटना बरदाश्त नहीं हुआ. वह चिल्ला कर बोले, ‘न्याय तो इस दुनिया से उसी दिन उठ गया जिस दिन से तुम्हारे जैसा ढोल मेरे गले में डाल दिया गया.’
नारायणी जरा मोटी थी. उसे ढोल की संज्ञा से बड़ी चिढ़ थी. जोरजोर से रोने लगी और फिर हिचकियां ले कर बिसूरने लगी. जब किसी ने ध्यान न दिया तो औंधे मुंह बिस्तर पर पड़ गई.
बच्चे सब सकते में आ गए थे. वे समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हो गया. वैसे अकसर उन के मांबाप का झगड़ा चलता रहता था, परंतु झगड़े का कारण कभी उन के पल्ले नहीं पड़ता था.
बड़ी बेटी निर्मला ने साहस कर के रसोई में जा कर जल्दी से पिता के लिए चाय बनाई. देवीलाल आंखें बंद कर के आरामकुरसी पर लेट गए थे. उन्हें झगड़े से चिढ़ थी. वह अकसर चुप रहते थे, पर कभीकभी बरदाश्त से बाहर हो जाता था. उन्हें अकसर खांसी का दौरा पड़ जाया करता था. खांसी का कारण दमा नहीं था. डाक्टरों के हिसाब से यह एक एलर्जी थी जो मानसिक तनाव से होती थी. जैसे ही गले में कुछ खुजली सी हुई, देवीलाल ने समझ लिया कि अब खांसी शुरू ही होने वाली है. ठीक होतेहोते 2 घंटे लग जाते. बड़ी मुश्किल से चाय पी कर प्याला नीचे रखा ही था कि खांसी ने जोर पकड़ लिया.
वह खांसते जाते थे और घड़ीघड़ी उठ कर बलगम थूकने जाते थे. सांसें भर्राने लगी थीं और लगता था जैसे अब दम निकल जाएगा.
नारायणी ने आवाज लगाई, ‘ओ निर्मला, जा कर थोड़ी सौंफ ले आ. उसे खाने से खांसी कुछ दब जाएगी. कितनी बार कहा है कि सिगरेट मत फूंका करो, पर मानें तब न.’
देवीलाल ने पिछले 7 दिनों से एक भी सिगरेट नहीं पी थी. जो कारण था उसे वह खुद समझ रहे थे, पर नारायणी को कैसे समझाएं? चुपचाप बच्चे की तरह निर्मला के हाथ से सौंफ ले कर मुंह में डाल ली. फिर भी थोड़ीथोड़ी देर में खांसते रहे.
नारायणी ने फिर आवाज लगाई, ‘अरे, निम्मो, जा कर नमक की डली ले आ. एक डली मुंह में डाल लेंगे तो आराम मिलेगा.’
निर्मला ने दौड़ कर मां की आज्ञा का पालन किया. देवीलाल जानते थे कि अब दौरा कम हो रहा है. एकआध घंटे में सामान्य हो जाएगा. फिर भी नमक की डली मुंह में रख कर चूसने लगे.
‘अरे, चाय दी आप ने पिताजी को?’ कमरे से नारायणी की आवाज आई.
‘जी, अम्मां.’
निर्मला जाने क्यों सदा से मां को अम्मां ही कहती आई है. कुछ लोगों ने उसे टोका भी था. पर उसे आदत सी पड़ गई थी और अब कोई कुछ नहीं कहता था.
‘जा, एक प्याला और बना दे. अदरक डाल कर पानी खौला लेना,’ फिर नारायणी बड़बड़ाई, ‘कितनी बार कहा है कि तुलसी का पेड़ लगा लो, पर समझ में आए तब न.’
दिन चढ़ने लगा था. देवीलाल की खांसी दब गई थी. नारायणी उठ कर बाहर आ गई थी. वह आ कर देवीलाल को सामान गिनाने लगी जो उसे उपवास के लिए चाहिए था. उस की सूची सदा खोए की मिठाई और फलों से शुरू होती थी. व्रतों में फलाहार का प्रमुख स्थान है, पर आज उस की सूची में ऐसा कुछ नहीं था.
व्यंग्य से देवीलाल ने कहा, ‘क्या बात है, फलाहार नहीं होगा क्या?’
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