प्यार को प्यार ही रहने दो : भाग-2

कालेज का आखरी साल आ गया.  ‘‘अगर अभी नहीं बोली तो कब बोलेगी?‘‘ निरंजना की अंतरात्मा उसे धिक्कारती. उस के प्रति उत्तर में सब से पहले निरंजना ने अपनी सीट बदली, और उस के ठीक पीछे वाली सीट पर बैठने लगी.

उस दिन शुक्रवार था. दोपहर की क्लास के बाद वह अपने सहपाठी से बोला, ‘‘नमाज पढ़ कर आता हूं.‘‘

इतना कह कर वह चला गया. निरंजना ने जो सुना, उस के बाद डर के मारे उस की घिग्घी बंध गई. दिमाग में हजारों विचारों के घोड़े दौड़ने लगे. कभी मां कहतीं, ‘जल्दी से जल्दी इस की शादी कर दो,‘ तो कभी पिता धर्म का वास्ता दे कर कहते, ‘कोई और नहीं मिला था तुझे?‘

लेकिन, इस बीच अपने अंतर्मुखी चोले को उतार निरंजना खुद कहती, ‘मैं नहीं मानती धर्म और जाति को. यह तो इनसानों की बनाई हुई बेड़ियां हैं. मैं केवल अपने दिल की बात सुनूंगी. मैं पीछे नहीं हटूंगी.‘

सपनों में इतना कहना है तो जब असल जिंदगी में बात बाहर आएगी, तब क्या होगा.

खैर, निरंजना केवल सपनों से डरना नहीं चाहती थी. धर्म की इस मोटी मजबूत दीवार के बावजूद उस ने नसीम से मित्रता कर ली.

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नसीम के अनेक दोस्तों में अब निरंजना का भी नाम जुड़ चुका था. अब निरंजना का उद्देश्य था कि नसीम के मन में अपने लिए प्यार की लौ जलाना.

जो भावना वह नसीम के लिए रखती थी, उसी का सिला यदि दूसरी तरफ से नहीं मिला तो मिलन पूरा कैसे होगा?

आजकल निरंजना इसी उधेड़बुन में रहने लगी थी. नसीम के मन में प्यार जब हिलोरे लेगा तब लेगा, लेकिन निरंजना का मन उसे देख कर ही बागबाग हो उठता. उस के दिल ने भविष्य को ले कर न जाने कितने सुनहरे सपने सजा लिए, जिन में वह थी और उस का नसीम था.

पहले प्यार को दिल कभी नहीं भूलता. संभवतः उसे याद करते रहने में भी कोई बुराई नहीं है. सच्चा प्यार ना कभी कम होता है और ना मरता है. वह तो बस समय की गर्त में नीचे, कहीं नीचे, दिल की सतहों में दफन हो कर रह जाता है. लेकिन वह बंधन, जो पहले प्यार का दिल से होता है, उस गिरह को खोल पाना शायद मुमकिन नहीं.

पहले प्यार की याद आती है, लेकिन एक प्रसन्नता भरी लहर की तरह, न कि मायूसी भरी तरंग बन कर. पहले प्यार की याद में यदि मिलन की आशा नहीं, तो छूट जाने की निराशा भी नहीं. वह अपनेआप में पर्याप्त है दिल में खुशियां भर देने के लिए. तभी तो आज निरंजना के दिल में मीठी यादें एक बार फिर अंगड़ाई ले रही थीं. उन्हीं यादों को सीने से लगाए निरंजना नींद की आगोश में समा गई.

‘‘आज मीटिंग है दफ्तर में, इसलिए थोड़ा जल्दी निकलूंगा,‘‘ कहते हुए रजत अखबार की सुर्खियों में खो गया.

‘‘ठीक है, जल्दी नाश्ता तैयार कर देती हूं,‘‘ निरंजना किचन की ओर बढ़ गई. दोनों की गृहस्थी में वह सब था, जो एक आदर्श युगल जोड़े में होना चाहिए – एकदूसरे के प्रति प्यार, सम्मान व विश्वास.

रजत और निरंजना की शादी को पांच साल बीत चुके हैं और इन पांच सालों में दोनों ने एकदूसरे को अच्छी तरह समझ लिया है और एकदूसरे की खूबियों व कमियों के साथ स्वीकार लिया है. तभी तो दोनों इतने खुश रहते हैं. दोनों की ही माताएं अब अपनी गोद में एक नन्हे को खिलाने की चाह प्रकट करती रहती हैं, लेकिन यह इन दोनों की समझदारी है कि यह अपनी जिंदगी के निर्णय अपने हिसाब से करते हैं.

शादी के समय ही इन्होंने यह सोच लिया था कि परिवार आगे तभी बढ़ाएंगे जब हम चाहेंगे, ना कि जब सामाजिक दबाव पड़ने लगेगा.

आज निरंजना ने नाश्ते में ब्रेड पकोड़े बनाए. नसीम को ब्रेड पकोड़े बहुत पसंद थे. जब कभी उस का दिल नसीम को याद करता है, वह उस की पसंद का खाना बना कर रजत को खिलाती है. और उस की आंखें रजत के रूप में नसीम को बैठा पाती हैं.

निरंजना का मन इस भावना को किसी बेवफाई के रूप में नहीं देखता. वह तो पूरी तरह रजत की है. बस, दिल का एक टुकड़ा है, जो अभी भी नसीम के नाम पर धड़कता है. उस ने कई बार स्वयं से यह प्रश्न भी किया कि ऐसा क्यों?

पहला प्यार शायद इसलिए भी नहीं भूलता, क्योंकि यही वह इनसान है जिस ने आप के दिल के कोरे कागज पर पहला हर्फ लिखा. उस के बाद तो इस दिल के कागज पर जो भी कुछ लिखा गया, उस ने कहानी को आगे ही बढ़ाया, शुरुआत नहीं की. दिल का जो टुकड़ा पहले प्यार में पड़ा वह मासूम था, अनजाना था, अनभिज्ञ था. भविष्य में यह दिल जिस के भी पास जाए, उस पर एक छाप लग चुकी होती है.

पहला प्यार, पहला स्पर्श, पहला चुंबन… वह तारों को गिनना, वो सपनों में मुसकराना, वह प्रीतम की याद आने पर आंखों का स्वतः आर्द्र हो उठना… दिल पर पहली दस्तक की बात ही कुछ और है. उस के बाद तो जो हुआ, वह एक अनुभवी दिल पर गुजरने वाले तजरबे की तरह है.

रजत के औफिस चले जाने के बाद निरंजना ने घर का कामकाज निबटाया, फिर नहाधो कर हाथों में क्रीम लगाते हुए जब वह ड्रेसिंग टेबल के आईने में खुद को निहार रही थी, तो अचानक उस की उंगलियां शादी की अंगूठियों में घूमने लगीं.

कुछ याद करते हुए वह फौरन अपनी अलमारी की ओर लपकी. अपने लौकर में से उस ने एक चांदी का छल्ला निकाला, जिस पर हरा पत्थर बखूबी खिल रहा था. अनायास ही वह यह धुन गुनगुनाने लगी, ‘‘मैं ता कोल तेरे रहना… ‘‘

यही वह अंगूठी थी, जो नसीम ने निरंजना को अपने प्यार का इजहार करते हुए दी थी. उस दिन निरंजना के पैर जमीन पर नहीं पड़े थे. शायद उड़ ही रही थी वह.

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इस बार जब वह होस्टल की छुट्टियों में घर जाएगी, तो अपने मम्मीपापा से नसीम के बारे में बात करेगी. यही वादा नसीम ने भी उसे दिया था. दोनों साथसाथ समय गुजारते और भविष्य के सपने संजोते. कभी यह सोचते कि किस शहर में अपना घर बनाएंगे, तो कभी यह सोचते कि बच्चों के नाम क्या होंगे.

आगे पढ़ें- दोनों ने अपनेअपने धर्मों को निभाते हुए…

जरा सी आजादी: भाग-3

पैनी नजर रखी शुभा ने क्योंकि रसोई में चाकू भी थे. तेज धार चाकू उस ने उठा कर छिपा दिए थे जिस पर नेहा ने आवाज दी. ‘‘दीदी, आप का चाकू आलू तक तो काटता नहीं है, आप इस से काम कैसे करती हैं?’’

‘‘आज बाजार चलेंगे, नेहा. कुछ सामान लाना है. चाकू भी लाने वाले हैं.’’

आधे घंटे के बाद नेहा ने नाश्ता मेज पर सजा कर रख दिया. आलूटमाटर की सब्जी और पूरी. खातेखाते नेहा ने कहा, ‘‘दीदी, आप का घर कितना खुलाखुला है. ऐसा लगता है सांस आती भी है और जाती भी है. मेरे घर में सामान ही इतना है कि…’’

‘‘पुराना सामान निकाल देते हैं. थोड़ा सा बदलाव करते हैं. तुम्हारा घर भी खुलाखुला हो जाएगा. आज बाजार चलते हैं न. चलो, अभी चलें. दोपहर का लंच बाहर ही करेंगे.’’

‘‘कुछ रुपए दिए हैं ब्रजेश ने. अपने लिए जो चाहूं खरीदने को कहा है.’’

‘‘कोई बात नहीं, मेरे पास भी कुछ रुपए हैं. जरूरत पड़ी तो बैंक से निकाल लेंगे. तुम जो चाहो, ले लेना.’’

‘‘अरे नहीं बाबा, मुझे क्या ताजमहल खरीदना है जो इतने रुपए चाहिए. न सोना चाहिए न महंगी साड़ी. कुछ भी भारीभरकम नहीं चाहिए. कुछ हलकाफुलका चाहिए जिस का मेरी छाती पर कोई बोझ न हो.’’

अभियान शुरू किया नेहा की रसोई से. दुनियाजहान के पुराने बरतन, जिन्हें कभी अपना घर बनाने पर निकाल देंगे, पुराना फ्रिज, पुराना टीवी, रेडियो, पुरानी प्रैस, पुराना लोहा, पुरानीपुरानी किताबें, पुराना फर्नीचर, पुराने परदे, पुराने कपड़े, पुरानी तसवीरें, पुरानी साडि़यां, और भी बहुतकुछ था जिसे बदलने की आवश्यकता थी.

‘‘कल जब अपना घर होगा तब ले लेना नया सब.’’

‘‘अपना घर होगा जब रिटायरमैंट होगा और उस में अभी 4 साल पड़े हैं. तब तक तो मन भी मर जाएगा. कल का इंतजार कब तक, दीदी?’’

‘‘कल का इंतजार तुम अपने हाथों समाप्त कर लो, नेहा.’’

‘‘ब्रजेश औफिस के काम से बाहर जाने वाले हैं इस सोमवार, कह रहे हैं मुझे साथ लेते जाएंगे.’’

‘‘तुम वहां क्या करोगी?’’

‘‘क्या करूंगी, होटल में सड़ूंगी और क्या.’’

‘‘तो मत जाओ. मैं कागजकलम देती हूं, सामान की लिस्ट बनाओ जिसे बदलना चाहती हो. वे बाहर रहेंगे तो हम आराम से सफाई अभियान पूरा कर लेंगे.’’

‘‘घर में तांडव हो जाएगा. मेरी इतनी औकात कहां.’’

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‘‘तुम घर की मालकिन हो न. अपनी इच्छा का मान भी करना सीखो. घर के बरतन बदलने में भी तुम ब्रजेशजी का मुंह देखती हो. उन्हें उन के औफिस तक ही रहने दो न.’’

‘‘नहीं रहते न औफिस तक. रसोई के चम्मच तक में उन की मरजी होती है. घर में ऐसा कुहराम मचेगा कि मुझे सांस तक लेना मुश्किल हो जाएगा,’’ खीज पड़ी थी नेहा, ‘‘कल मेरी सास की मरजी थी, अब पति की है. कल बहू की होगी, मेरी मरजी शायद अगले जन्म में होगी.’’

‘‘अगला जन्म किस ने देखा है, पगली. कल क्या होगा कौन जानता है. आज देखो. ब्रजेश को मैं और विजय समझा लेंगे. आज भी शायद विजय ने समझाया होगा.’’

‘‘तो क्या इसीलिए आज बारबार मुझ से कह रहे थे कि मेरा जो जी चाहे मैं करूं, वे मना नहीं करेंगे. कुछ अजीबअजीब सी बातें कर तो रहे थे.’’

‘‘तुम्हारी मरजी की बात अजीबअजीब सी लगी तुम्हें?’’

‘‘जो कभी नहीं हुआ वह एक दिन होने लगे तो अजीब ही लगेगा न.’’

नेहा की बातों में शुभा दिलचस्पी ले रही थी.

‘‘मेरी मरजी, मेरी इच्छा, मेरी सोच, अजीब तो है ही. मेरा घर कहीं नहीं है, दीदी. शादी से पहले अपना घर सजाने का प्रयास करती थी तो मां कहती थीं, अभी पढ़ोलिखो. सजा लेना अपना घर जब अपने घर जाओगी. शादी कर के आई तो ब्रजेश ने ढेर सारी जिम्मेदारियां दिखा दीं. एक बेटी की इच्छा थी, वह भी पूरी नहीं होने दी ब्रजेश ने. पिता की बेटियों को निभातेनिभाते अपनी बेटी के लिए कुछ बचा ही नहीं. अब इस उम्र में कुछ बचा ही नहीं है जिसे कहूं, यह मेरा शौक है. मेरा घर तो सब का घर ही सजाने में कहीं खो गया. बच गया है कबाड़खाना, जिसे हर 3 साल के बाद ब्रजेश ढो कर एक शहर से दूसरे शहर ले जाते हैं.’’

मन भर आया शुभा का.

‘‘मन भर गया है, दीदी. अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘चलो, पहले इस कागज पर लिखो तो सही, क्या बदलना चाहती हो. ब्रजेश ने मुझे कहा है न कि मैं तुम्हारी सहायता करूं. वे कुछ कहेंगे तो मुझे बताना. इल्जाम मुझ पर लगा देना, कहना कि मैं ने कहा था बदलने को.’’

सोमवार को ब्रजेश 3 दिन के लिए बाहर गए और सचमुच नेहा को साथ नहीं ले गए. शुभा ने वास्तव में नेहा का घर बदल दिया.

पुराने सारे बरतन निकाल दिए और थोड़े से पैसे और डाल कर रसोई चमचमा गई. 10 हजार रुपए का लोहाकबाड़ बिक गया जिस में नया गैस चूल्हा, माइक्रोवेव आ गया. रद्दी सामान और पुराना फर्नीचर निकाला जिस में छोटा सा कालीन नए परदे और 2 नई चादरें आ गईं.

3 दिन से दोनों रोज बाजार आजा रही थीं और इस बीच शुभा बड़ी गहराई से नेहा में धीरेधीरे जागता उत्साह देख रही थी. उस ने चुनचुन कर अपने घर का सामान खरीदा, कटोरियां, प्लेटें, गिलास, चम्मच, दालों के डब्बे, मसालों की डब्बियां, रंगीन परदे, लुभावना कालीन, सुंदर चादरें, चार चूल्हों वाली गैस, सुंदर फूलों की झालरें, छोटा सा माइक्रोवेव, सुंदर तोरण और बंदनवार.

हर रात या तो शुभा उस के घर सोती थी या उसे अपने घर पर सुलाती थी. घर सज गया नेहा का. बुझीबुझी सी रहने वाली नेहा अब कहीं नहीं थी. मुसकराती, अपना घर सजा कर बारबार खुश होती नेहा थी जिस की दबी हुई छोटीछोटी खुशियां पता नहीं कहांकहां से सिर उठा रही थीं. बहुत छोटीछोटी सी थीं नेहा की खुशियां. बाहर बालकनी में चिडि़यों का घर और उन के खानेपीने के लिए मिट्टी के बरतन, बालकनी में बैठ कर चाय पीने के लिए 4 प्लास्टिक की कुरसियां और मेज.

‘‘दीदी, वे नाराज तो नहीं होंगे न?’’

‘‘उन के लिए भी कुछ ले लो न. कोई शर्ट या टीशर्ट या पाजामाकुरता. कुछ बहू के लिए भी तो लो. बेटी की इच्छा पूरी तो हो चुकी है तुम्हारी. वह तुम्हारी बच्ची है न. उसे भी अच्छा लगेगा जब तुम उस के लिए कुछ लोगी. तुम्हें शौक पूरे करने को कुछ नहीं मिला क्योंकि जिम्मेदारियां थीं. तुम बहू का शौक तो पूरा कर दो. अब क्या जिम्मेदारी है? जो तुम्हें नहीं मिला कम से कम वह अपनी बहू को तो दे दो.’’

‘‘उसे पसंद आएगा, जो मैं लाऊंगी?’’

‘‘क्यों नहीं आएगा. मेरे पास कुछ रुपए हैं. मुझ से ले लो.’’

‘‘अपने हाथ से इतने रुपए मैं ने कभी खर्च ही नहीं किए. अजीब सा लग रहा है. पता नहीं, क्याक्या सुनना पड़ेगा जब ब्रजेश आएंगे. दीदी, आप पास ही रहना जब वे आएंगे.’’

‘‘कितने पैसे खर्च किए हैं तुम ने? कबाड़खाने से ही तो सारे पैसे निकल आए हैं. जो रुपए ब्रजेश दे कर गए थे उस से ब्रजेश के लिए और बच्चों के लिए कुछ ले लो. टीशर्ट और शर्ट खरीद लो, बहू के लिए कुरती ले लो, आजकल लड़कियां जींस के साथ वही तो पहनती हैं.’’

बुधवार की शाम ब्रजेश आने वाले थे. बड़े उत्साह से घर सजाया नेहा ने. चाय के साथ पकौड़ों का सामान तैयार रखा. रात के लिए मटरपनीर और दालमखनी भी रसोई में ढकी रखी थी. शुभा के लिए भी एक प्रयोग था जिस का न जाने क्या नतीजा हो. पराई आग में जलना उस का स्वभाव है. आज पराया सुख उसे सुख देगा या नहीं, इस पर भी वह कहीं न कहीं आश्वस्त नहीं थी. पुरानी आदतें इतनी जल्दी साथ नहीं छोड़तीं, पत्नी को दी गई आजादी कौन जाने ब्रजेश सह पाते हैं या नहीं?

द्वारघंटी बजी और शुभा ने ही दरवाजा खोला. ब्रजेश के साथ शायद बेटा और बहू भी थे. बड़े प्यारे बच्चे थे दोनों. उसे देख दोनों मुसकराए और झट से पैर छूने लगे.

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‘‘आप शुभा आंटी हैं न. पापा ने बताया सब. मम्मी खुश हैं न?’’ बहुत धीरे से बुदबुदाया वह लड़का.

एक ही प्रश्न में ढेर सारे प्रश्न और आंखों में भी बेबसी और डर. कुछ खो देने का डर. मंदमंद मुसकरा पड़ी शुभा. ब्रजेश आंखें फाड़फाड़ कर अपना सुंदर सजा घर देख रहे थे. आभार था जुड़े हाथों में, भीग उठी पलकों में, शायद आत्मग्लानि की पीड़ा थी. ऐसा क्या ताजमहल या कारूं का खजाना मांगा था नेहा ने. छोटीछोटी सी खुशियां ही तो और कुछ अपनी इच्छा से कर पाने की आजादी.

‘‘नेहा, देखो तुम्हारी बेटी आई है,’’ शुभा ने आवाज दी.

पलभर में सारा परिवार एकसाथ हो गया. नेहा भागभाग कर उन के लिए संजोए उपहार ला रही थी. बेटे का सामान, बहू का सामान, ब्रजेश का सामान.

‘‘मम्मी, आप ने घर कितना सुंदर सजाया है. परदे और कालीन दोनों के रंग बहुत प्यारे हैं. अरे, बाहर चिडि़या का घर देखो, पापा. पापा, चाय बाहर बालकनी में पिएंगे. बड़ी अच्छी हवा चल रही है बाहर. पूरा घर कितना खुलाखुला लग रहा है.’’

नेहा की बहू जल्दी से कुरती पहन भी आई, ‘‘मम्मी, देखो कैसी है?’’

‘‘बहुत सुंदर है बच्चे. तुम्हें पसंद आई न?’’

धन्यवाद देने हेतु बहू ने कस कर नेहा के गाल चूम लिए. ब्रजेश मंत्रमुग्ध से खड़े थे. अति स्नेह से उस के सिर पर हाथ रख पूछा, ‘‘अपने लिए क्या लिया तुम ने, नेहा?’’

‘‘अपने लिए?’’ कुछ याद करना चाहा. क्या याद आता, उस ने तो बस घर सजाया था, अपने लिए अलग कुछ लेती तो याद आता न. बस, गरदन हिला कर बता दिया कि अपने लिए कुछ नहीं लिया.

‘‘देखो, मैं लाया हूं.’’

बैग से एक सूती साड़ी निकाली ब्रजेश ने. तांत की क्रीम साड़ी और उस का खूब चौड़ा लाल सुनहरा बौर्डर.

शुभा को याद आया ब्रजेश को सूती साड़ी पहनना पसंद नहीं जबकि नेहा की पहली पसंद है कलफ लगी सूती साड़ी. खुशी से रोने लगी नेहा. ब्रजेश जानबूझ कर 3 दिन के लिए आगरा बेटे के पास चले गए थे. पलपल की खबर विजय और शुभा से ले रहे थे. शुभा की तरफ देख आभार व्यक्त करने को फिर हाथ जोड़ दिए. अफसोस हो रहा था उन्हें. क्यों नहीं समझ पाए वे, खुशी भारी साड़ी या भारी गहने में नहीं, खुशी तो है खुल कर सांस लेने में. छोटीछोटी खुशियां जो वे नेहा को नहीं दे पाए.

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एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-1

उस ने उसे देखा तो बस देखता ही रह गया. कितने दिनों बाद किसी की आंखों में डूब जाने का मन हुआ था उस का. ऐसा लग रहा था जैसे इतने दिन इस पूरे चांद की आस में ही अधूरी चांदनी रातें गुजारी थीं उस ने. कनिष्क मैट्रो में सामने बैठी उस लड़की को पिछले कुछ मिनटों से देख रहा था, कभी पलकें झुकाता तो कभी उठाता. उस लड़की के चेहरे पर मास्क लगा हुआ था. आखिर लगा क्यों न होता, लगभग सभी ने मास्क पहना हुआ था, कोरोना का डर अभी तक गया जो नहीं था. कनिष्क का मास्क से दम घुटने लगा था और इसीलिए उस ने अपना मास्क उतार लिया था. उस ने अपने बगल में दाएंबाएं देखा तो बगल में बैठे दोनों ही लड़के अपने फोन की स्क्रीन में घुसे हुए थे. उस ने अपने हाथों में पकड़े फोन का कैमरा खोला और उस लड़की की फोटो खींचने लगा.

उस लड़की के हाथ में किताब थी. उस की नजरें अपनी किताब से हर आने वाले स्टेशन पर उठतीं और सामने खिड़की से बाहर देखने लगतीं. शायद उसे लगता हो कि उस का स्टेशन किताब के चक्कर में छूट न जाए. जब वह सामने की ओर देखती तो कनिष्क को लगता जैसे उसे देख रही हो. वह खुश हो जाता. अचानक उस लड़की के सामने एक वृद्ध अंकल आ कर खड़े हुए तो कनिष्क की ताकाझांकी में खलल पड़ गया. वह मन ही मन उन अंकल को दोतीन अपशब्द कहता, उस से पहले ही वह लड़की अपनी सीट से उठ गई और अंकल उसे थैंक्यू कहते हुए उस की सीट पर बैठ गए. कनिष्क को एक पल लगा कि उठ कर उस लड़की को अपनी सीट दे दे, लेकिन वह सोच में पड़ गया कि उठे या नहीं. वह लड़की जब खड़ी हुई तो राजेंद्र प्लेस आ चुका था. जैसे ही अगला स्टेशन करोल बाग आने वाला था, कनिष्क के बगल की सीट पर बैठा लड़का उठ खड़ा हुआ और वह कनिष्क के बगल में आ कर बैठ गई.

कनिष्क के मन में तो जैसे प्रेमगीत

गुनगुनाने लगे थे. वह उस लड़की के इतना करीब बैठा था लेकिन उस से कुछ कहने की उस की हिम्मत नहीं हुई. होती भी कैसे? आखिर उस लड़की को बुरा लग गया और उस ने मैट्रो में कोई तमाशा कर दिया तो? कनिष्क अपने सुंदर से चेहरे को उस लड़की के हाथों थप्पड़ खा कर लाल नहीं कराना चाहता था. वह लड़की अपनी किताब में खोई हुई थी कि अचानक उस के बैग में रखे फोन से नोटिफिकेशन की आवाज सुनाई दी. उस लड़की ने बैग से फोन निकाला. कनिष्क की नजरें भी उस के फोन पर जा अटकीं. स्क्रीन पर लिखा था, ‘नीतिका हैज मेंशंड इन अ स्टोरी’. यह इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन था जिस पर उस लड़की ने झट इंस्टाग्राम खोल लिया. उस का इंस्टाग्राम खुला और कनिष्क की नजर सब से ऊपर कोने में दिख रहे उस के यूजरनेम पर गई. यूजरनेम था ‘टोस्का’. कनिष्क ने यह शब्द ही पहली बार सुना था तो झट अपना इंस्टाग्राम खोल टोस्का टाइप कर उस लड़की  को ढूंढ़ने लगा कि तभी अनाउंसमैंट हुआ कि अगला स्टेशन राजीव चौक है. लड़की  झट उठी और बैग में किताब डालते हुए गेट पर जा खड़ी हुई. कनिष्क के देखते ही देखते गेट खुला और वह लड़की भी भीड़ में कहीं ओझल हो गई.

टोस्का….टोस्का…टोस्का….कनिष्क अपनी क्लास में बैठ अब भी उसी लड़की के बारे में सोच रहा था. लौकडाउन के बाद कालेज खुलने का यह तीसरा दिन ही था और सभी अपने क्वारंटाइन के दिनों की बातें करने में बिजी थे. कनिष्क बीएससी जूलोजी का सैकंड ईयर का स्टूडैंट था. तेजतर्रार डिबेटिंग सोसाइटी का मैंबर, वुमैन डेवलपमैंट सोसाइटी, बोटानिकल सोसाइटी, स्पिक मेके, लगभग हर करीकुलर एक्टिविटी से वह जुड़ा हुआ था.

वह स्कूलटाइम से ही कई रिलेशनशिप्स में रहा था. लेकिन कोई भी बहुत सीरियस कभी नहीं हुई थी और कालेज में पिछले एक साल में उस ने एकदो लड़कियों को डेट किया ही था. आज जब उस लड़की को देखा तो उसे लगा जैसे उसे कुछ महसूस हुआ है, कुछ नौर्मल से हट कर. हर मिनट वह इंस्टाग्राम पर चैक करता कि उस ने अब तक उस की फौलोरिक्वैस्ट एक्सैप्ट की है या नहीं. उस लड़की की प्रोफाइल प्राइवेट थी यानी डिस्प्ले पिक्चर के अलावा कनिष्क को कुछ भी नहीं दिख रहा था. डिस्प्ले पिक्चर में भी उस का चेहरा साफ नहीं था, उस ने अपने मुंह पर हाथ रखा हुआ था. कनिष्क बेताब हुआ जा रहा था उन हाथों के पीछे छिपे उस के खूबसूरत चेहरे को देखने के लिए. कनिष्क को इस तरह कशमकश में देख उस का दोस्त सुमित उस के बगल में आ कर बैठ गया.

‘‘कुछ बात है क्या,’’ सुमित ने सवाल किया.

‘‘नहीं, कुछ खास नहीं,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘ठीक है,’’ कह कर सुमित उठ ही रहा था कि कनिष्क बोल पड़ा, ‘‘कभी ऐसा हुआ है कि तू ने कोई लड़की देखी हो मैट्रो में और तुझे उस पर क्रश टाइप कुछ आ गया हो?’’

‘‘रोज ही आता है नया क्रश तो,’’ सुमित ने कहा और ठहाका मार हंसा.

‘‘फिर आगे? तू बात करता है उस से जा कर या कभी इंस्टाग्राम या फेसबुक पर मिली वह?’’

‘‘पागल है क्या? मैट्रो में देख कर उस का नाम थोड़ी पता चल जाता है. और वैसे भी, आजकल हर लड़की का बौयफ्रैंड होता ही है. सो, बिना जाने उसे अप्रोच करने का कोई फायदा नहीं है,’’ सुमित ने कहा.

‘‘ओह.’’

‘‘तुझे कौन पसंद आ गई?’’

‘‘नहीं, कोई नहीं,’’ कनिष्क ने बताया.

‘‘अब बता भी.’’

‘‘यार, एक लड़की दिखी थी आज मैट्रो में मास्क पहने हुए. महरून टौप, ब्लू जींस, लंबेघने बाल, स्पोर्टशूज पहने हुए थी. उस की आंखें इतनी सुंदर थीं कि क्या बताऊं. उस ने हैंडबैग ले रखा था और किताब पढ़ रही थी मुराकामी की, मतलब समझदार किस्म की थी. एक तो इतनी पतली थी, ऊपर से पर्सनैलिटी इतनी अच्छी, उठनेबैठने का तरीका इतना अच्छा था. देख, मैं ने उस की फोटो भी ली थी. चेहरा नहीं दिख रहा लेकिन पर्सनैलिटी देख यार,’’ कहते हुए कनिष्क सुमित को उस लड़की की तसवीर दिखाने लगा.

‘‘तो तू ने बात नहीं की?’’ सुमित बोल उठा.

‘‘नहीं न, यही तो प्रौब्लम है. लेकिन मैं ने उस का इंस्टा यूजरनेम देखा था और उसे रिक्वैस्ट भी भेज दी. अब वह एक्सैप्ट कर ले, तो कुछ बात बने.’’

‘‘हम्म, लेट्स सी.’’

आगे पढ़ें- कनिष्क पूरा दिन इंतजार करता रहा. लेकिन…

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा: भाग-3

वह कालेज पहुंचा और अपनी कैंटीन में जा कर बैठ गया. उस का अब क्लास में जाने का भी मन नहीं था. कुछ मिनटों बाद ही सुमित वहां आ गया.

‘‘यार, बड़ी गड़बड़ हो गई,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘क्या हो गया?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘वह लड़की याद है कल वाली, उस से मिला आज मैं.’’

‘‘ओहहो, यह कैसे हो गया, कैसा रहा सब. नाम क्या है उस का? नंबर लिया या नहीं?’’ सुमित एक के बाद एक सवाल करने लगा.

‘‘रीतिका नाम है उस का और नंबर मांगता मैं आज लेकिन… यार उस का चेहरा… यह देख,’’ कनिष्क ने फोन खोल रीतिका की इंस्टा पर जितनी तसवीरें थीं सुमित को दिखाईं.

तसवीरें देख कर सुमित का मुंह भी खुला का खुला रह गया. उस के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा, ‘‘भाईसाहब यह क्या है, कैसे, क्यों, मतलब यह कैसे हुआ?’’

‘‘यार, मुझे क्या पता. मैं बस उस की शक्ल नहीं देख पा रहा अब. मुझे कल ही उस की शक्ल दिख जाती तो ऐसा नहीं होता न.’’

‘‘तो कल तू ने शक्ल कैसे नहीं देखी? इंस्टाग्राम पर तो तुझे कल भी शक्ल दिख ही गई होगी.’’

‘‘उस ने मुझे फंसाया है,’’ कनिष्क बोल उठा.

‘‘क्या मतलब?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘पहले तो उस ने मेरी रिक्वैस्ट एक्सैप्ट नहीं की ताकि मैं उस की शक्ल न देख पाऊं, फिर इतनी मीठीमीठी बातें कीं मुझ से, लेकिन यह नहीं बताया कि उस की शक्ल ऐसी है. अब तो मुझे लग रहा है कल मेरे बगल में भी वह जानबूझ कर ही बैठी होगी और अपना यूजरनेम भी जान कर ही दिखाया होगा. आजकल की लड़कियां इतनी चालाक हैं न कि क्या बताऊं…’’ कनिष्क लगातार बोले ही जा रहा था कि उस के फोन पर इंस्टाग्राम का नोटिफिकेशन आ गया.

उस ने फोन खोला तो देखा रीतिका का मैसेज था, ‘‘हाय, मुझे तुम्हें देख कर लगा था तुम अलग हो पर तुम भी सब की तरह ही निकले. सौरी, मुझे तुम से बात करने से पहले अपनी शक्ल दिखा देनी चाहिए थी ताकि आज सुबह जो हुआ वह न होता. मेरी शक्ल के आगे तुम मेरी सारी खूबियां भूल गए होगे, है न? तुम पहले नहीं हो जिस ने ऐसा किया है. मेरा चेहरा बचपन से ही ऐसा है और यकीन मानो, मेरे लिए भी इसे देखना एक वक्त पर बहुत मुश्किल था, लेकिन अब नहीं है. तुम्हें मुझ से बात करने की या मुझे आगे जाननेसमझने की कोई जरूरत नहीं है, एक दिन में कौन सा तुम और मैं एकदूसरे को इतना जानते ही हैं जो किसी तरह की कोई मुश्किल होगी. चिल्ल करो.’’

कनिष्क और सुमित दोनों ने ही यह मैसेज पढ़ा. कनिष्क ने मैसेज पढ़ कर रिप्लाई किए बिना ही फोन बंद कर दिया.

‘‘तू रिप्लाई नहीं करेगा?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ कनिष्क बोला.

‘‘पर क्यों नहीं?’’ सुमित हैरान था.

‘‘तू ने देखा नहीं? एक तो इस की शक्ल इतनी बुरी है ऊपर से इतना घमंड, इतना एटीट्यूड, किस बात का? पहले खुद मुझे फंसाने की कोशिश की अब मुझे इमोशनल करने की कोशिश कर रही है अपना दुखड़ा सुना कर. ‘मुझे लगा तुम अलग हो’ इस का क्या मतलब है. खुद की शक्ल ऐसी है तो मैं क्या करूं. मुझे न इस से कोई बात करनी है न इस को देखना है. पता नहीं कौन सी घड़ी में मुझे यह अच्छी लग गई,’’ कनिष्क जिस मुंह से कल तक फूल गिरा रहा था, आज जहर उगल रहा था.

‘‘तू यह बोल क्या रहा है, कुछ सोच भी रहा है? तू उस के पीछे था, तू ने उसे सामने से अप्रोच किया, अब तू कह रहा है कि उस में सैल्फरिस्पैक्ट तक नहीं होनी चाहिए क्योंकि उस की शक्ल बुरी है. तू ही था न जिस ने पिछले साल एसिड अटैक पर भाषण दिया था स्टेज पर और कहा था कि खूबसूरती सीरत में होती है सूरत में नहीं, अब अपनी बात से ऐसे कैसे पलट रहा है.’’

‘‘यार, तू मेरा दोस्त है या उस का?’’ कनिष्क ने चिढ़ते हुए कहा.

‘‘हूं तो तेरा ही पर अब लग रहा है कि क्यों हूं. तेरी सारी खूबियां तेरी घटिया सोच के आगे फीकी पड़ गई हैं और यकीन मान, तू परफैक्ट नमूना है इस बात का कि लोग शक्ल से सुंदर हों तो जरूरी नहीं मन से भी हों.’’

‘‘मुझ से इस तरह बात करने की कोई जरूरत नहीं है सुमित,’’ कनिष्क ने कहा.

‘‘मेरे आगे किसी के बारे में इस तरह की बात करने की तुझे भी कोई जरूरत नहीं है. मैं तेरा दोस्त हूं, इस का मतलब यह नहीं तेरी हर गलतसलत बातें सुनूंगा. और पता है, मैं खुश हूं कि वह लड़की  बच गई. क्या कौन्फिडैंस है उस में. तुझ जैसे लड़के की गर्लफ्रैंड बनती तो आत्मग्लानि और इंसिक्योरिटी से भर जाती.’’ सुमित अपनी बात कह कर चला गया और कनिष्क गुस्से से भर गया. उस ने फोन उठाया और इंस्टाग्राम से रीतिका को ब्लौक कर दिया.

उस शाम कनिष्क न चाहते हुए भी बारबार रीतिका के बारे में ही सोच रहा था. उसे सुमित की कही बातें भी याद आ रही थीं. कनिष्क ने फोन उठाया और रीतिका को अनब्लौक कर मैसेज टाइप किया, ‘सौरी, मैं ने इतनी बुरी तरह बिहेव किया.’ कनिष्क के मैसेज भेजने के कुछ ही सैकंड्स में उसे रीतिका का रिप्लाई आया, ‘कोई बात नहीं.’

कनिष्क के चेहरे पर एक बार फिर मुसकराहट लौट आई थी. एक बार फिर उन दोनों की बातों का सिलसिला चल पड़ा था.

‘अपना नंबर ही दे दो, मुझ से इंस्टाग्राम पर बात करना बहुत बोरिंग लगता है,’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका ने उसे अपना नंबर दे दिया. उन दोनों ने फिर कभी उस सुबह की बात नहीं की लेकिन फिर कभी मैं और तुम से हम होने का खयाल भी दोनों के जेहन में नहीं आया. कनिष्क इस बारे में बात नहीं करना चाहता था और रीतिका की अब हिम्मत नहीं थी इस बारे में कुछ कहने की. वह चाहे जितनी भी मजबूत थी लेकिन रिजैक्शन सहने का डर उस में अंदर तक घर कर चुका था. खैर, दोनों को ही एक नया दोस्त मिल चुका था. कभीकभी दोनों साथ मैट्रो से राजीव चौक तक जाते तो ढेरों बातें किया करते, उस के बाद अपनेअपने कालेज के रूट पर निकल जाया करते.

‘‘तू ने वह सीरीज देखी जो मैं ने रात में बताई थी?’’ कनिष्क मैट्रो में रीतिका से पूछने लगा.

‘‘हां, उस लड़की  का कैरेक्टर कितना मजबूत था न, मैं तो इंप्रैस हो गई उस से,’’ रीतिका उत्सुकता से भर कर कहने लगी.

‘‘तू भी तो वैसी ही है, मजबूत और नकचढ़ी,’’ कनिष्क कह कर हंसने लगा.

‘‘नकचढ़ी और मैं? तू न, जलता है मुझ से, बस, आया बड़ा,’’ रीतिका झूठा गुस्सा दिखाने लगी.

‘‘तुझ से जलूंगा मैं, हाहा, रहने दे सुबहसुबह हंसा मत.’’

‘‘चल जा न, तंग मत कर मुझे अब.’’

‘‘तुझे तंग नहीं करूंगा तो दिन कैसे कटेगा मेरा,’’ कनिष्क ने कहा तो रीतिका और वह दोनों ही हंस पड़े.

‘‘मैं आज राइटिंग कंपीटिशन में जा रही हूं. जीत गई तो तेरी पार्टी पक्की.’’

‘‘पिज्जा से कम कुछ नहीं चलेगा, पहले ही बता रहा हूं.’’

‘‘हां भुक्खड़, खा लियो पिज्जा.’’

आगे पढ़ें- रीतिका और कनिष्क की दोस्ती हर बीतते दिन के साथ गहरी होती…

शह और मात: भाग-2

पल्लवी बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली गई. वहां रुक कर करती भी क्या, संजीव को शराब पीने के बाद होश ही कहां रहता था. वैसे भी अब तो उस की इच्छा पूरी हो गई थी. उस के हाथ में रुपए पहुंच गए थे. इसलिए वह कम से कम 2-4 दिन तो शांति से जी सकती थी.

कुछ देर बाद रसोई में खाना पकाते समय पल्लवी अपनी नियति के बारे में सोच रही थी. उसे वह दिन याद आ रहा था जब उस के परिवार वालों को उस के और पड़ोस में रहने वाले संजीव के रिश्ते के बारे में पता चला था. घर में कुहराम मच गया था. एक तो संजीव उस समय बेरोजगार था, ऊपर से पल्लवी के मातापिता और भाई की नजरों में उस की छवि कुछ खास अच्छी नहीं थी. उस समय पल्लवी की हालत चक्की के 2 पाटों के बीच पिसते गेहूं की तरह हो गई थी. एक तरफ पापा ने साफ कह दिया था कि वह अपनी बेटी का हाथ संजीव के हाथों में कभी नहीं देंगे. दूसरी तरफ संजीव उस पर शादी करने का दबाव बना रहा था.

पल्लवी समझासमझा कर‌ थक गई थी, मगर पापा और संजीव में से कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं हुआ. दोनों ने पल्लवी को जल्दी ही कोई निर्णय लेने के लिए कहा था.

इसलिए पल्लवी ने निर्णय ले लिया. उस ने अपने मातापिता और परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर संजीव का हाथ थाम लिया. उसे संजीव पर इतना भरोसा था कि वह बिना कुछ सोचेसमझे अपना घर छोड़ कर उस के साथ चली आई. उस के मातापिता ने उसी समय उस से रिश्ता तोड़ लिया था. मां ने जातेजाते उस से कहा था कि एक दिन वह अपने इस फैसले पर जरूर पछताएगी.

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घर छोड़ने के बाद दोनों दिल्ली आ गए जहां उन्होंने शादी कर ली. संजीव को नौकरी भी मिल गई थी. शादी के बाद कुछ दिनों तक तो सब ठीक रहा. पल्लवी अपने प्यार को पा कर बहुत खुश थी. लेकिन जैसेजैसे उस के सिर से नई शादी का खुमार उतरना शुरू हुआ, उसे संजीव का असली चेहरा नजर आने लगा. संजीव को शराब की लत थी. वह अकसर शराब के नशे में उस पर हाथ भी उठाने लगा था. सिर्फ यही नहीं, वह पैसे कमाने के लिए उलटेसीधे काम करने से भी बाज नहीं आता था. उस ने बहुत लोगों को चूना लगाया था. इन्हीं आदतों के चलते उस की नौकरी भी चली गई थी.

एक बार काम से निकाले जाने के बाद संजीव ने नौकरी ढूंढ़ने की जहमत नहीं उठाई.

तब घर चलाने के लिए पल्लवी ने एक औफिस में नौकरी कर ली. उसे सारी तनख्वाह ला कर संजीव के हाथों पर रखनी पड़ती. लेकिन उस से भी संजीव का पेट नहीं भरता. वह आएदिन उस से रुपए मांगता और जब पल्लवी उस की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाती तो वह उसे रूई की तरह धुन देता. अगले दिन वह उस से माफी मांग लेता और‌ पल्लवी उसे माफ भी कर देती. वह किसी भी कीमत पर संजीव से अलग नहीं होना चाहती थी. वापस लौट कर मांपिता के घर भी तो नहीं जा सकती थी.

जिंदगी इसी तरह ऊबड़खाबड़ रास्तों पर चल रही थी. समय के साथ संजीव की फरमाइशें बढ़ती जा रही थीं. जब उस के लिए पल्लवी की तनख्वाह कम पड़ने लगी तो उस ने एक रास्ता निकाला. वह चाहता था कि पल्लवी किसी आदमी को अपने प्रेमजाल में फंसा कर उस से ठगी करे. पल्लवी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. उसे हैरानी हो रही थी कि कोई पति अपनी पत्नी से ऐसा करने के लिए भी कह सकता है. लेकिन उसे कुछ ही दिनों में अपना फैसला बदलना पड़ा.

एक दिन जब संजीव लहूलुहान हालत में घर आया, तब उसे पता चला कि उस ने शराब और जुए के लिए कुछ गलत लोगों से बहुत मोटा कर्ज ले रखा है और वे लोग अपना पैसा वापस लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. जब उन लोगों से बचने और‌ उन का कर्ज चुकाने का और कोई रास्ता नजर नहीं आया, तो पल्लवी ने मजबूरन वही किया जो संजीव ने उसे करने के लिए कहा था.

पल्लवी का एक सहकर्मी दिनेश उसे पसंद करता था और यह बात उस से छिपी नहीं थी. पल्लवी ने पहले उस से दोस्ती की और फिर उसे अपनी दुखभरी दास्तान सुना कर धीरेधीरे उस के साथ नजदीकियां बढ़ाने लगी.

थोड़े ही दिनों में दिनेश उस की खातिर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हो गया. यहां से झूठीसच्ची कहानियां सुना कर पैसे ऐंठने का सिलसिला शुरू हो गया. दिनेश उस के झूठों को सच मान कर उस पर विश्वास करता गया. इस तरह कुछ महीनों में संजीव का सारा कर्ज उतर गया. लेकिन पल्लवी के लिए दिनेश को संभालना मुश्किल होता जा रहा था. वह उस से शादी करना चाहता था और कई बार उस के घर तक पहुंच गया था. अगर उसे सचाई पता चल जाती तो उन के लिए बड़ी मुसीबत हो जाती. पल्लवी उस के लाखों रुपए कहां से लौटाती.

अपनी पोल खुलने से बचाने के लिए संजीव और पल्लवी ने रातोरात शहर बदल लिया. शहर बदलने के बाद भी संजीव में कोई बदलाव नहीं आया. पल्लवी ने यहां भी नौकरी कर ली थी. वह संजीव से भी नौकरी ढूंढ़ने के लिए कहती‌ थी. लेकिन संजीव के दिमाग में तो कोई और ही खिचड़ी पक रही थी. कुछ ही दिनों में वह फिर से कर्ज में डूब गया था और उस ने पल्लवी पर दोबारा वही खेल खेलने का‌ दबाव बनाना शुरू कर दिया था. पल्लवी ने फिर से उस की बात मान ली.

बस इसी तरह शहर बदलबदल कर लोगों के साथ ठगी करना उन का पेशा बन गया था. लेकिन इस पेशे के भी कुछ नियम थे जो संजीव ने बनाए थे. उसे हर वक्त यह शक होता कि कहीं पल्लवी अपने शिकार के ज्यादा नजदीक तो नहीं जा रही है. और इस बात की झुंझलाहट वह उस पर हाथ उठा कर निकालता. कभीकभी पल्लवी को लगता था कि वह एक अंधे कुएं में गिरती जा रही है. वह जब भी संजीव से ऐसा करने के लिए मना करती, वह उस से वादा करता कि बस यह आखिरी बार है. इस के बाद वह खुद को पूरी तरह से बदल लेगा और वे दोनों एक नई जिंदगी की शुरुआत करेंगे.

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पल्लवी न चाहते हुए भी उस पर भरोसा कर बैठती थी. उसे लगता था कि संजीव पर भरोसा करने के अलावा उस के पास विकल्प भी क्या था? अपने सारे रिश्तेनाते तो वह खुद ही पैरों तले रौंद आई थी.

कुछ महीने पहले इंदौर आने के बाद भी संजीव ने उस से वादा किया था कि वह अब सुधर जाएगा. लेकिन हुआ क्या, अब वह पैसों के लिए शरद जैसे शरीफ और अच्छे आदमी को बेवकूफ बना रही थी. इस बार भी संजीव ने वादा किया था कि यह उन की आखिरी ठगी है, क्योंकि नई जिंदगी शुरू करने के लिए रुपयों की जरूरत तो पड़ेगी ही.

उसे अकसर यह महसूस होता था कि वे पुरुष मूर्ख नहीं हैं जिन्हें उस ने ठगा है, असल में वह खुद मूर्ख है जो बारबार संजीव की बात मान लेती है.

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शह और मात: भाग-4

अपने इनकार का खामियाजा पल्लवी को कई बार भुगतना पड़ा. संजीव बातबात में राई का पहाड़ बना कर उस पर हाथ उठाने लगा. उसे शक था कि पल्लवी उसे धोखा दे रही है. जब शरद ने उस के जिस्म पर पड़े निशानों को देखा तो वह अपने आपे से बाहर हो गया.

“आज मैं संजीव को‌ छोड़ूंगा नहीं. उसे ऐसा सबक सिखाऊंगा कि वह जिंदगी भर याद रखेगा,” शरद ने गुस्से मैं दांत पीसते हुए कहा और बाहर जाने लगा.

“नहीं शरद, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे,” पल्लवी ने उसे रोका.

“इतना कुछ होने के बाद भी उस आदमी की तरफदारी कर रही हो?” शरद ने आश्चर्य से पूछा.

“मैं किसी की तरफदारी नहीं कर रही हूं शरद. मैं बस इतना चाहती हूं कि तुम संजीव से दूर रहो. तुम नहीं जानते हो कि वह कितना घटिया आदमी है. कैसेकैसे लोगों के साथ उस का उठनाबैठना है,” पल्लवी ने उसे समझाया.

“मैं किसी से डरता नहीं हूं पल्लवी,” शरद जोश में आ गया था.

“लेकिन मैं तो डरती हूं. अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं क्या करूंगी,” पल्लवी ने सिर झुका कर कहा तो शरद ने उसे सीने से लगा लिया, “ओह पल्लवी, मैं तुम्हें इस हाल में नहीं देख सकता. तुम संजीव को छोड़ क्यों नहीं देतीं ? मैं ने पहले भी कहा था पल्लवी, मैं हमेशा तुम्हारा खयाल रखूंगा, बस एक बार मेरा हाथ थाम लो.”

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“संजीव मेरी जान ले लेगा, मगर मुझे तलाक नहीं देगा. मैं ने देखा है कि वह किस हद तक‌ जा सकता है. शरद मैं चाह कर भी उसे नहीं छोड़ सकती हूं,” पल्लवी की आंखों से आंसू टपक पड़े.

“क्या तुम मुझ से प्यार करती हो?”

“हां शरद. मैं तुम से बहुत प्यार करती हूं.”

“तो फिर मेरे साथ भाग चलो.”

“शरद, यह तुम क्या कह रहे हो? यह मजाक का वक्त नहीं है,” पल्लवी हैरान हो गई.

“मेरी आंखों में देखो पल्लवी, क्या तुम्हें लगता है कि मैं मजाक कर रहा हूं? मुझ पर भरोसा करो, बस एक बार हां कह दो. फिर हम दोनों यहां से बहुत दूर चले जाएंगे, जहां तुम पर उस संजीव का साया तक नहीं पड़ेगा,” शरद ने पल्लवी की आंखों में झांकते हुए कहा.

शरद की आंखों में अपने लिए प्यार की गहराई देख कर पल्लवी सिहर उठी. उस से कुछ कहते नहीं बना. उस ने शरद से सोचने के लिए कुछ वक्त मांगा और घर चली आई.

कुछ दिन बीत जाने के बाद भी पल्लवी ने शरद को जवाब नहीं दिया था. संजीव ने उसे जलील करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी. एक रात जब उस के कोप का भाजन बनने के बाद पल्लवी बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी, उस वक्त उस के कानों में शरद की कही बातें गूंज रही थीं. सालों पहले उस ने अपने मातापिता की बात न मान कर जो गलती की थी, उस की कीमत वह आज तक चुका रही थी. संजीव पर भरोसा कर के उस ने अपनी जिंदगी की सब से बड़ी गलती की थी इसलिए आज वह शरद पर भरोसा करने से भी डर रही थी. हालांकि उस ने शरद की आंखों में अपने लिए जितना प्यार देखा था, उस का आधा भी उसे संजीव की आंखों में कभी नजर नहीं आया था. मगर अब वह कोई भी कदम उठाने से पहले पूरी तरह निश्चिंत हो जाना चाहती थी.

वह जानती थी कि इस तरह संजीव को धोखा दे कर शरद के साथ भागना गलत होगा. लेकिन अगर वह संजीव से अलग होने या तलाक लेने की कोशिश करेगी तो शरद के सामने उन की सारी असलियत आ जाएगी. शरद को पता चल जाएगा कि पल्लवी उसे किस तरह मूर्ख बना कर उस से पैसा ऐंठती रही और वह उस से नफरत करने लगेगा. नहीं, वह किसी भी कीमत पर शरद को खोना नहीं चाहती थी. आज तक उस ने गलत काम के लिए झूठ और धोखे का सहारा लिया, तो अब एक आखिरी बार अपने प्यार को पाने के लिए ही सही.

पल्लवी के दिल से डर खत्म हो गया था. वह शरद को पाने की खातिर किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थी. वह कई सालों से जिस पिंजरे में कैद थी, अब वह उसे तोड़ कर उड़ जाना चाहती थी.

पल्लवी ने धीरे से मोबाइल उठा कर शरद का नंबर डायल किया और उस के फोन उठाने पर बस इतना कहा, “मैं तैयार हूं.”

अगले दिन पल्लवी शरद की बताई जगह पर उस से मिलने गई. शरद ने उसे पूरी योजना बताई. पल्लवी ने अपनी सहमति दे दी और घर वापस आकर सामान्य व्यवहार करने लगी जिस से संजीव को उस के ऊपर जरा भी शक न हो.

3 दिन बाद शरद के कहे अनुसार पल्लवी ने अपने कपड़े, कुछ जरूरी कागजात और कुछ रुपए एक बैग में रख लिए. उस ने बैग को पलंग के नीचे छिपा कर रख दिया. उस रात भी संजीव रोज की तरह नशे में धुत्त हो कर घर आया. पल्लवी ने कुछ मीठे बोल बोल कर उसे थोड़ी और शराब पिला दी. थोड़ी ही देर बाद संजीव बेसुध हो गया. पल्लवी ने धीरे से अपना बैग निकाला और घर के बाहर चली आई. बाहर आ कर वह रेलवे स्टेशन के लिए टैक्सी में बैठ गई. कुछ दूर तक वह बारबार पीछे मुड़ कर देखती रही. उसे डर था कि कहीं संजीव उस का पीछा तो नहीं कर रहा है. रेलवे स्टेशन पहुंच कर उस की जान में जान आई.

उस ने अंदर जा कर देखा तो पाया कि शरद पहले से ही वहां उस का इंतजार कर रहा था. उस ने अगली ट्रेन की 2 टिकटें भी ले ली थीं.

“तुम ठीक हो न?” शरद ने पूछा.

“मैं ठीक हूं शरद. हम कहां जा रहे हैं?”

“बस कुछ ही मिनटों में जम्मू जाने वाली ट्रेन आती होगी. मैं ने उसी की 2 टिकटें ले ली हैं. कुछ दिन वहीं रहेंगे, बाद में कोई और इंतजाम कर लूंगा. तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं है न?”

“शरद हम दोनों साथ हैं, बस मुझे और कुछ नहीं चाहिए.”

तभी ट्रेन भी आ गई. पल्लवी और शरद ट्रेन में चढ़ कर एक खाली बर्थ पर बैठ गए.

“तुम सो जाओ पल्लवी. जब सुबह तुम्हारी आंखें खुलेंगी तो एक नया सवेरा तुम्हारा इंतजार कर रहा होगा,” शरद‌ ने मुसकराते हुए कहा.

पल्लवी ने उस के कंधे पर सिर टिका कर आंखें बंद कर लीं. वह कुछ ही देर में नींद के आगोश में समा गई.

सुबह जब पल्लवी की आंख खुली तो ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी हुई थी और शरद उस के पास नहीं था. उसे लगा कि वह शायद स्टेशन से कुछ लाने के लिए उठा होगा. लेकिन जब कुछ मिनटों के बाद भी शरद वापस नहीं आया तो पल्लवी घबरा गई. उस ने पूरे डिब्बे में देख लिया, लेकिन शरद वहां नहीं था.

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“शरद…शरद…” वह खिड़की से बाहर झांक कर उसे पुकारने लगी. उस ने पर्स से मोबाइल निकाल कर शरद का नंबर डायल किया तो उस का फोन बंद आ रहा था.

पल्लवी बुरी तरह से घबरा गई. वह घबरा कर इधरउधर देख ही रही थी कि उस की नजर सीट पर रखे अपने बैग के नीचे दबे एक कागज पर पड़ी.

पल्लवी ने कांपते हाथों से कागज उठाया और खोल कर पढ़ना शुरू किया. वह उसके नाम शरद का पत्र था. उस में लिखा था-

‘पल्लवी,

जब तक तुम्हारी आंखें खुलेंगी, मैं तुम से बहुत दूर जा चुका होऊंगा. हां, तुम्हारा डर बिलकुल सही है. मैं ने तुम्हें धोखा दिया है. तुम्हें सुंदर भविष्य के सपने दिखा कर बीच रास्ते में तुम्हारा साथ छोड़ दिया है. मगर यह धोखा उस धोखे के आगे कुछ भी नहीं है जो तुम ने मुझे दिया. अब तुम सोच रही होगी कि मुझे तुम्हारी असलियत के बारे में कैसे पता चला? पल्लवी, जिस दिन मैं ने तुम्हें ₹1 लाख दिए थे, उस दिन तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारी बहुत फिक्र हो रही थी. मुझे डर था कि कहीं संजीव तुम से वे रुपए न छीन ले जो तुम्हारी मां की जान बचा सकते हैं. लेकिन तुम्हारे घर के बाहर आ कर मुझे कुछ और ही सचाई नजर आई. उस दिन मैं ने तुम्हारी और संजीव की सारी बातें सुन ली थीं. मुझे पता चल गया था कि किस तरह तुम दोनों पतिपत्नी मुझे पैसों के लिए बेवकूफ बना रहे हो. सिर्फ मुझे ही नहीं तुम ने न जाने कितने लोगों को अपने प्यार के जाल में फंसा कर लूटा होगा.

‘पल्लवी, मैं तुम से बहुत प्यार करता था. लेकिन तुम ने मेरे साथ क्या किया? तुम ने मेरे जज्बातों के साथ खिलवाड़ किया. मेरे प्यार का मजाक बनाकर रख दिया. मैं ने सोच लिया था कि मैं तुम्हें सबक जरूर सिखाऊंगा, इसलिए मैं ने तुम से अपने साथ भाग चलने के लिए कहा ताकि तुम्हें पता चले कि दिल टूटने पर कितना दर्द होता है. अब जिंदगी भर सोचना कि तुम ने कितने लोगों के साथ कितना गलत किया. और हां, घर वापस जाने के बारे में मत सोचना. मैं ने संजीव को चिट्ठी लिख कर उसे सब बता दिया है. अब तुम्हारे लिए उस घर में भी कोई जगह नहीं है.

‘मैं तुम से सच्चा प्यार करता था पल्लवी. मैं तुम्हारे लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार था. लेकिन शुक्र है कि सही समय पर मेरी आंखें खुल गईं. तुम्हें लोगों को शतरंज के मुहरे बना कर उन के साथ खेल खेलने का बहुत शौक था न पल्लवी. आज मैं ने तुम्हें तुम्हारे ही खेल में अपने दांव से मात दे दी है. हो सके तो जो तुम ने मेरे साथ किया वह आइंदा किसी के साथ मत करना…

शरद’

पल्लवी की आंखों से आंसू टपकटपक कर चिट्ठी पर गिर रहे थे. झूठ और धोखे का सहारा ले कर वह आज कहीं की भी नहीं रही थी. वह भूल गई थी कि छल के सहारे शतरंज की चाल भले ही जीती जा सकती थी, किसी का प्यार नहीं.

उस के मुंह से हौले से वे शब्द निकले जो शरद चिट्ठी के आखिर में लिखना भूल गया था,’शह और मात’.

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जीवन की नई शुरुआत: भाग-2

दिनभर का थकाहारा रघु मुन्नी को देखते ही उत्साह से भर उठता और मुन्नी भी रघु को देखते बौरा जाती. भूल जाती  दिनभर के काम को और अपनी मां की डांट को भी.  एकदूसरे को देखते ही दोनों सुकून से भर उठते थे.

18 साल की मुन्नी और 22 साल के रघु के बीच कब और कैसे प्यार पनप गया, उन्हें पता ही नहीं चला. इश्क परवान चढ़ा तो दोनों कहीं अकेले मिलने का रास्ता तलाशने लगे. दोनों बस्ती के बाहर कहीं गुपचुप मिलने लगे. मोहब्बत की कहानी गूंजने लगी, तो बात मुन्नी के मातापिता तक भी पहुंची और मुन्नी के प्रति उन का नजरिया सख्त होने लगा, क्योंकि मुन्नी के लिए तो उन्होंने किसी और को पसंद कर रखा था.

इसी बस्ती का रहने वाला मोहन से मुन्नी के मातापिता उस का ब्याह कर देना चाहते थे और वह मोहन भी तो मुन्नी पर गिद्ध जैसी नजर रखता था. वह तो किसी तरह उसे अपना बना लेना चाहता था और इसलिए वह वक्तबेवक्त मुन्नी के मांबाप की पैसों से मदद करता रहता था.

मोहन रघु से ज्यादा कमाता तो था ही, उस ने यहां अपना दो कमरे का घर भी बना लिया था. और सब से बड़ी बात कि वह भी नेपाल से ही था, तो और क्या चाहिए था मुन्नी के मांबाप को? मोहन बहुत सालों से यहां रह रहा था तो यहां उस की काफी लोगों से पहचान भी बन गई थी. काफी धाक थी इस बस्ती में उस की. इसलिए तो वह रघु को हमेशा दबाने की कोशिश करता था. मगर रघु कहां किसी से डरने वाला था.  अकसर दोनों आपस में भिड़ जाते थे. लेकिन उन की लड़ाई का कारण मुन्नी ही होती थी.

मोहन को जरा भी पसंद नहीं था कि मुन्नी उस रघु से बात भी करे. दोनों को साथ देख कर वह बुरी तरह जलकुढ़ जाता.

मुन्नी के कच्चे अंगूर से गोरे रंग, मैदे की तरह नरम, मुलायम शरीर, बड़ीबड़ी आंखें, पतले लाललाल होंठ और उस के सुनहरे बाल पर जब मोहन की नजर पड़ती, तो वह उसे खा जाने वाली नजरों से घूरता.

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मुन्नी भी उस के गलत इरादों से अच्छी तरह वाकिफ थी, तभी तो वह उसे जरा भी नहीं भाता था. उसे देखते ही वह दूर छिटक जाती. और वैसे भी कहां मुन्नी और कहां वह मोहन, कोई मेल था क्या दोनों का? कालाकलूटा नाटाभुट्टा वह मोहन मुन्नी से कम से कम 14-15 साल बड़ा था. उस की पत्नी प्रसव के समय सालभर पहले ही चल बसी थी. एक छोटा बेटा है, उस के ऊपर पांचेक साल की एक बेटी भी है, जो दादी के पास रहती है.  वही दोनों बच्चों की अब मां है.

वैसे भी पीनेखाने वाले मोहन की पत्नी मरी या उस ने खुद ही उसे मार दिया क्या पता? क्योंकि आएदिन तो वह अपनी पत्नी को मारतापीटता ही रहता था. राक्षस है एक नंबर का. अब जाने सचाई क्या है, मगर मुन्नी को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था.

उसे देखते ही मुन्नी को घिन आने लगती थी. मगर उस के मांबाप जाने उस में क्या देख रहे थे, जो अपनी बेटी की शादी उस से करने को आतुर थे? शायद पैसा, जो उस ने अच्छाखासा कमा कर रखा हुआ था.

लेकिन मुन्नी का प्यार तो रघु था. उस के साथ ही वह अपने आगे के जीवन का सपना देख रही थी और उधर रघु भी जितनी जल्दी हो सके उसे अपनी दुलहन बनाने को व्याकुल था. अपनी मां से भी उस ने मुन्नी के बारे में बात कर ली थी.  मोबाइल से उस का फोटो भी भेजा था, जो उस की मां को बहुत पसंद आया था. कई बार फोन के जरीए मुन्नी से उन की बात भी हुई थी और अपने बेटे के लिए मुन्नी उन्हें एकदम सही लगी थी.

एक शाम… मुन्नी की कोमलकोमल उंगलियों को अपनी उंगलियों के बीच फंसाते हुए रघु बोला था, “मुन्नी, छोड़ दे न लोगों के घरों में काम करना. मुझे अच्छा नहीं लगता.”

“छोड़ दूंगी, ब्याह कर ले जा मुझे,” मुन्नी ने कहा था.

“हां, ब्याह कर ले जाऊंगा एक दिन. और देखना, रानी बना कर रखूंगा तुम्हें. मेरा बस चले न मुन्नी तो मैं आकाश की दहलीज पर बनी सात रंगों की इंद्रधनुषी अल्पना से सजी तेरे लिए महल खड़ा कर दूं,” कह कर मुसकराते हुए रघु ने मुन्नी के गालों को चूम लिया था.  लेकिन उन के बीच तो जातपांत और पैसों की दीवार आ खड़ी हुई थी. तभी तो मुन्नी के घर से बाहर निकलने पर पहरे गहराने लगे थे. जब वह घर से बाहर जाती तो किसी को साथ लगा दिया जाता था, ताकि वह रघु से मिल ना सके, उस से बात ना कर सके. लेकिन हवा और प्यार को भी कभी किसी ने रोक पाया है? किसी ना किसी वजह से दोनों मिल ही लेते.

इधर मुन्नी के मांबाप जितनी जल्दी हो सके, अपनी बेटी का ब्याह उस मोहन से कर देना चाहते थे. वह मोहन तो वैसे भी शादी के लिए उतावला हो रहा था. उसे तो लग रहा था शादी कल हो, जो आज ही हो जाए.

इधर रघु जल्द से जल्द बहुत ज्यादा पैसे कमा लेना चाहता था, ताकि मुन्नी के मांबाप से उस का हाथ मांग सके. और इस के लिए वह दिनरात मेहनत भी कर रहा था. दिन में वह  मिस्त्री का काम करता, तो रात में होटल में जा कर प्लेटें धोता था.

लेकिन अचानक से कोरोना ने ऐसी तबाही मचाई कि रघु का कामधंधा सब छूट गया. कुछ दिन तो रखे धरे पैसे से चलता रहा. इस बीच वह काम भी तलाशता रहा, लेकिन सब बेकार. अब तो दानेदाने को मोहताज होने लगा वह.  कर्जा भी कितना लेता भला. भाड़ा न भरने के कारण मकान मालिक ने भी कोठरी से निकल जाने का हुक्म सुना दिया.

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इधर, उस मोहन का मुन्नी के घर आनाजाना कुछ ज्यादा ही बढ़ने लग गया, जिसे मुन्नी चाह कर भी रोक नहीं पा रही थी. आ कर ऐसे पसर जाता खटिया पर, जैसे इस घर का जमाई बन ही गया हो. चिढ़ उठती मुन्नी, पर कुछ कर नहीं सकती थी. लेकिन मन तो करता उस का मुंह नोच ले उस मोहन के बच्चे का या दोचार गुंडे से इतना पिटवा दे कि महीनाभर बिछावन पर से उठ ही न पाए.

दर्द एक हो तो कहा जाए. यहां तो दर्द ही दर्द था दोनों के जीवन में. जिस दुकान से रघु राशन लेता था, उस दुकानदार ने भी उधार में राशन देने से मना कर दिया.

उधर गांव से खबर आई कि रघु की चिंता में उस की मां की तबीयत बिगड़ने लगी है, जाने बच भी पाए या नहीं. मकान मालिक ने कोरोना के डर से जबरदस्ती कमरा खाली करवा दिया. अब क्या करे यहां रह कर और रहे भी तो कहां? इसलिए साथी मजदूरों के साथ रघु ने भी अपने घर जाने का फैसला कर लिया.

रघु के गांव जाने की बात सुन कर मुन्नी सहम उठी और उस से लिपट कर बिलख पड़ी यह कह कर कि ‘मुझे छोड़ कर मत जाओ रघु, मैं घुटघुट कर मर जाऊंगी. मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती. मुझे मंझदार में छोड़ कर मत जाओ.’

मुन्नी की आंखों से बहते अविरल आंसुओं को देख, रघु की भी आंखें भीग गईं, क्योंकि वह जानता था, मुन्नी और उस का साथ हमेशा के लिए छूट रहा है. उस के जाते ही मुन्नी के मांबाप मोहन से उस का ब्याह कर देंगे. लेकिन फिर भी कुछ क्षण उस के बालों में उंगलियां घुमाते हुए आहिस्ता से रघु ने कहा था, वह जल्द ही लौट आएगा.

मुन्नी जानती थी कि रघु झूठ बोल रहा है, वह अब वापस नहीं आएगा. लेकिन यह भी सच था कि वह रघु की है और उस की ही हो कर रहेगी, नहीं तो जहर खा कर अपनी जान खत्म कर लेगी. लेकिन उस अधेड़ उम्र के दुष्ट मोहन से कभी ब्याह नहीं करेगी.

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जीवन की नई शुरुआत: भाग-3

मुन्नी के मांबाप ने जब उस दिन मोहन से उस की शादी का फरमान सुना दिया था, तब मुन्नी ने दोटूक भाषा में अपना फैसला दे दिया था कि वह किसी मोहनफोहन से ब्याह नहीं करेगी, वह तो रघु से ही ब्याह करेगी, नहीं तो मर जाएगी.

उस के मरने की बात पर मांबाप पलभर को सकपकाए थे, लेकिन फिर आक्रामक हो उठे थे. ‘उस रघु से ब्याह करेगी, जिस का ना तो कमानेखाने का ठिकाना है और ना ही रहने का. क्या खिलाएगा और कहां रखेगा वह तुम्हें ?’

मां ने भी दहाड़ा था कि ‘कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो हमें मुंह छिपाने के लिए जगह भी नहीं मिलेगी. और बाकी चार बेटियों का कैसे बेड़ा पार लगेगा ?

‘लड़की की लाज मिट्टी का सकोरा होत है, समझ बेटियां तू’ मगर मुन्नी को कुछ समझनाबुझाना नहीं था.
दांत भींच लिए थे उस ने यह कह कर, “अगर तुम लोगों ने जबरदस्ती की तो मैं अपनी जान दे दूंगी सच कहती हूं,” और अपनी कोठरी में सिटकिनी लगा कर फूटफूट कर रो पड़ी थी.

मुन्नी की मां का तो मन कर रहा था बेटी का टेंटुवा ही दबा दे, ताकि सारा किस्सा ही खत्म हो जाए. ‘हां, क्यों नहीं चाहेगी, आखिर बेटियों से प्यार ही कब था इसे. हम बेटियां तो बोझ हैं इन के लिए’ अंदर से ही बुदबुदाई थी मुन्नी. ‘देखो इस कुलच्छिनी को, कैसे हमारी इज्जत की मिट्टी पलीद कर देना चाहती है. यह सब चाबी तो उस रघु की घुमाई हुई है, वरना इस की इतनी हिम्मत कहां थी. अरे नासपीटी, भले हैं तेरे बाप… कोई और होता तो दुरमुट से कूट के रख देता. मेरे भाग्य फूटे थे जो मैं ने तुझे पैदा होते ही नमक न चटा दिया’

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खूब आग उगली थी उस रात मुन्नी की मां. उगले भी क्यों न, आखिर उसे अपने हाथ से तोते जो उड़ते नजर आने लगे थे. एक तो कमाऊ बेटी, ऊपर से पैसे वाला दामाद, जो हाथ से सरकता दिखाई देने लगा था. सोचा था, बाकी बेटियों का ब्याह भी मोहन के भरोसे कर लेगी, मगर यहां तो… ऊंचा बोलबोल कर आवाज फट चुकी थी मुन्नी की मां की, मगर फिर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ा था. उस की जिद तो अभी भी यही थी कि वह रघु की है और उस की ही रहेगी.

रात में सब के सो जाने के बाद रघु को फोन लगा कर कितना रोई थी वह. उस के जाने के बाद उस के साथ क्याक्या हुआ, सब बताया और यह भी कि अगर वह उस की नहीं हो सकी, तो किसी की भी नहीं हो सकेगी. फिर कई बार रघु ने फोन लगाया, पर बंद ही आ रहा था.

कहते हैं, सारी मुसीबत एक बार आ धमकती है इनसान की जिंदगी में और यह बात आज रघु को सही प्रतीत पड़ रही थी.

कोरोना महामारी के कारण एक तो कामकाज और शहर छूटा, फिर पता चला कि वहां मां बीमार है और अब यह सब… कहीं मुन्नी ने कुछ कर लिया तो… सोच कर ही रघु का खून सूखा जा रहा था. लेकिन क्या करे वह भी? यहां से भाग भी तो नहीं सकता है? इसलिए उस ने भी अपनी जान खत्म करने की सोच ली थी. ना जिएगा, ना इतनी मुसीबत झेलनी पड़ेगी.

आज उसे मुन्नी का वह उदास चेहरा और थकी आंखें याद आ रही थीं. मन कर रहा था, करीब होती तो उस के अधरों पर अपने होंठ रख सारी उदासी सोख लेता.

मुसकरा भी पड़ा था वह दिन याद कर के, जब पहली बार मुन्नी को आलिंगन में भर कर उस के अधरों को चूम लिया था और लजा कर वह रघु के सीने में सिमट गई थी. जीवन में पुरुष के साथ उस का यह पहला भरपूर आलिंगन था. मुन्नी की रीढ़ में हलकी सी झुरझुरी दौड़ गई थी. दोनों को एकदूसरे की छूती हुई परस्पर आकर्षण की हिलोरें का एहसास था, तभी तो दोनों एकदूसरे के करीब आते चले गए थे बिना जमाने की परवाह किए. लतावितान के भीतर यह अनुभूति गहराई थी, जब रघु ने उस के होठों पर तप्त दबाव बढ़ाया था. योवन वेग के अनेक स्पंदन अचानक देह में चमक उठे थे. इस आलिंगन और चुंबन की अवधि दिनप्रतिदिन बढ़ती ही चली गई थी. लेकिन जमाने ने और कुछ इस कोरोना ने उन्हें जुदा करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

रघु की कहानी सुन कर जिलाधिकारी मनोज को उस पर दया आ गई कि एक गरीब इनसान को प्यार करने का भी हक नहीं होता? बुझीबुझी सी उम्मीदों पर कोरोना का खौफ सब की आंखों में साफ दिखाई दे रहा था. ख्वाहिशों व उम्मीदों को समेटे लोग खुश हो कर दूसरे शहरों में कमानेखाने गए थे? लेकिन एक वायरस ने इन का सबकुछ छीन लिया. इन गरीब मजदूरों ने जिस शहर को सजायासंवारा, उसी ने इन्हें गैर बना दिया. अब तो बस दर्द ही याद है’ अपने मन में ही सोच मनोज को उन मजदूरों  पर दया आ गई कि आखिर गरीब लोग ही हमेशा क्यों मारे जाते हैं? वे ही क्यों दरदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं? सब से ज्यादा तो उन्हें रघु पर दया आ रहा था कि उस का प्यार भी छिन गया. लेकिन उन्होंने भी सोच लिया कि जहां तक हो सकेगा, वह इन मजदूरों की सहायता जरूर करेंगे.

इधर मोहन से शादी के जोर पड़ने पर मुन्नी धीरेधीरे टूटने लगी थी. कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, कैसे इस शादी को रोके? मन तो कर रहा था कि धतूरे का बीज खा कर अपनी जान खत्म कर ले. लेकिन ऐसा भी वह नहीं कर सकती थी. क्योंकि मरना तो कायरता है. किसी चीज को हासिल करने के लिए लड़ना पड़ता है और वह लड़ेगी अपने मांबाप से भी और इस जमाने से भी. सोच लिया उस ने और अपने मन में ही एक फैसला ले लिया. रात में सोने से पहले उस ने तकिए में मुंह छिपा कर रघु का नाम लिया. उस का चुंबन याद आया और वह पुरानी सिहरन शरीर में झनझना गई.

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अपने प्लान के अनुसार, सुबह मुंहअंधेरे ही वह घर से निकल गई और पैदल चल रहे मजदूरों के संग हो ली. जानती थी पैदल चल कर रघु से मिलना इतना आसान नहीं होगा. पर अपने प्यार के लिए वह कुछ भी करेगी. हजारों क्या, लाखों किलोमीटर चलना पड़े तो चल कर अपने प्यार को पा कर रहेगी. यह भी जानती थी कि उसे घर में ना पा कर गुस्से से सब बौखला जाएंगे. जहां तक होगा, उसे ढूंढ़ने की कोशिश की जाएगी. लेकिन कोई फायदा नहीं, क्योंकि तब तक वह काफी दूर निकल चुकी होगी. रघु के गांवघर का पता तो उसे मालूम ही था, फिर डर किस बात का था.

5 दिन बाद थकेहारे कदमों से, मगर विजयी मुसकान के साथ वह अपने रघु के सामने खड़ी थी. रघु को तो अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हो रहा था.  उसे तो लग रहा था, जैसे वह कोई सपना देख रहा हो. मगर यह सच था, मुन्नी उस के सामने खड़ी थी. दोनों बालिग थे, इसलिए उन की शादी में रुकावट की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. क्वारंटीन अवधि पूरी होते ही जिलाधिकारी मनोज ने अपनी देखरेख में दोनों की शादी ही नहीं करवाई, बल्कि एक भाई की तरह मुन्नी को विदा भी किया. रघु को उन्होंने रोजगार दिलाने में भी मदद की, ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके और अपनी जिंदगी अपने अनुसार जिए.

इस कोरोना काल में रघु ने बहुत मुसीबतें झेलीं, पर कहते हैं न, अंत भला तो सब भला.  रघु और मुन्नी के जीवन की नई शुरुआत हो चुकी थी.

देहरी के भीतर: भाग-2

लेखिका: नीलम राकेश

परिवार का हर सदस्य किसी न किसी बहाने से मुझे ऊपर की मंजिल दिखाने से कतरा जाता था. ऐसा मुझे लग रहा था. मैं भी बारबार नहीं कह पा रही थी. पर मेरा डर और जिज्ञासा दोनों ही बढ़ती जा रही थी.
उस दिन सुबहसुबह मैं बीच के दालान में आई तो पहली मंजिल पर रहने वाली लीना मिल गई.
“भाभी, मैं आप को ही बुलाने आ रही थी. आज आप लंच मेरे साथ करिएगा तो मुझे खुशी होगी. जब से

आप की शादी हुई है मैं आप को बुलाना चाह रही थी.”
“मैं मां से…”
मेरी बात बीच में काट कर लीना बोली, “आंटीजी से व तारा से मेरी बात हो गई है. मैं आप की प्रतीक्षा करूंगी. मैं ने आप के लिए कुछ खास बनाया है.”
“ठीक है‌.” मैं मुसकराई.

हम तीनों गपशप के साथ पिज्जा का आनंद ले रहे थे कि कमरे का दरवाजा अचानक धीरे से खुला और एक हाथ जिस में एक डब्बा और फूलों का गुलदस्ता था दिखाई दिया. मेरी तो सांस ही अटक गई. लीना और तारा ने एकदूसरे की ओर देखा. तब तक उस हाथ से जुड़ा शरीर भी सामने आ गया और लीना व तारा दोनों एक साथ बोलीं, “ओह तुम हो. डरा ही दिया था.”
सौम्य, जो कि इसी मंजिल पर दूसरी ओर रहता था हड़बड़ाया सा खड़ा था.
“यह…मैं…” वह कुछ बोल नहीं पा रहा था.
“हां, हां, सौम्य लाओ. भाभी यह गुलदस्ता मैं ने आप के लिए मंगाया था. आप पहली बार आई हैं न.” लीना ने बात संभाली और आगे बढ़ कर सौम्य से सामान ले लिया.
“ये…इमरती…” अटकता हुआ सौम्य बोला.
दोनों की हड़बड़ाहट छिपाए नहीं छिप रही थी.

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“आओ बैठो सौम्य.” तारा बोली.
“भाभी, यहां की इमरती मशहूर है. इसलिए खास आप के लिए मंगवाई है.” कहते हुए लीना ने दोनों चीजें मुझे पकड़ा दीं.
हम चारों थोड़ी देर बातें करते रहे. पर सौम्य सामान्य नहीं हो पा रहा था . उस की नजर मेरे पास रखे गुलदस्ते पर बारबार जा कर अटक रही थी. चलती हुई जब मैं ने गुलदस्ता उठाया तो उस से लटकता हुआ छोटा सा कार्ड उन की चुगली कर गया, जिसे मैंने धीरे से निकाल लिया और लीना को गले लगा कर धीरे से सब की नजर बचा कर उस के हाथ में पकड़ा कर बोली, “यह तुम्हारे लिए है.”
कार्ड पर लिखा था, फौर माई लव.”

धीरेधीरे तीनों किराएदार मुझ से खुलने लगे थे. लीना और सौम्य तो अपनेअपने हिस्से में अकेले ही रहते थे और उन के बीच पक रही खिचड़ी अब मेरे सामने थी. दूसरी मंजिल पर ही एक बड़े हिस्से में मोहन रहता था जो किसी बैंक में काम करता था. उस के साथ उस की माताजी रहती थीं.
दिन के खाली समय में मैं अब अकसर उन के पास थोड़ी देर के लिए चली जाती. सासूमां आजाद खयाल की थीं. ज्यादा टोकाटाकी नहीं करती थीं. बस अपने काम से काम . राजसी ठसक में ही रहती थीं. घर में भी जेवरों से लदी रहती थीं. तारा कालेज चली जाती और मांजी आराम करने तो मैं ऊपर वाली माताजी के पास जा धमकती. उन के पास ढेरों किस्से थे.
“बहु तुम तीसरी मंजिल पर गईं कभी?” एक दिन अचानक उन्होंने पूछा.
“नहीं माताजी. कोई ले ही नहीं जाता मुझे.” मेरा लहजा शिकायती भरा था.
“जाना भी मत बहू.”
“ऐसा क्या है वहां?” मैं ने पूछा तो वे अजीब निगाहों से मुझे देखने लगीं.
“बताइए न,” मैं ने जोर दिया.
“फिर कभी बताऊंगी बहू, अभी तो मुझे आराम करना है.”
मैं चली तो आई पर मुझे ऊपरी मंजिल का रहस्य जानने का रास्ता मिल गया था.

मेरे बारबार कुरेदने पर उस दिन माताजी बोलीं, “देखो बहू, किसी से कहोगी नहीं तो तुम्हें बताऊं.”
“नहीं माताजी, आप की बात मैं किसी को क्यों बताने लगी भला.” मैं उत्साहित थी.
“जानती हो ऊपर की मंजिल पर न, रात में कुछ लोग आते हैं.”
“कौन लोग? और क्यों आते हैं माताजी?”
“पता नहीं पर आते तो हैं.” माताजी बोलीं.
“आप ने देखा है?’ मैं सीधे माताजी की आंखों में देख रही थी.
“और क्या, यहां सब ने देखा है. तुम्हें  भी दिख जाएंगे जल्दी ही.” माताजी के स्वर में विश्वास था.
उसी समय लीला के कमरे की खुलने की आवाज आई.
“सुन बहू, यह लीना तुम्हें कैसी लगती है?”
“बहुत मस्त लड़की है. मुझे अच्छी लगती है.”
“बता तो जरा मेरे मोहन के लिए कैसी रहेगी?” अब माताजी मेरी आंखों में देख रही थीं.
“माता जी, आजकल शादीब्याह में बच्चों की पसंद का ध्यान रखना चाहिए. उन से ही पूछना चाहिए. आप मोहन से बात करिए. क्या पता उसे कोई लड़की पसंद हो.”
“पसंद है, तभी तो तुम से पूछ रही हूं.” माता जी बोलीं.

“मतलब, मोहन ने आप को बताया है कि उसे लीना पसंद है? उन दोनों के बीच कुछ चल रहा है?” मैं ने आश्चर्य से पूछा.
“नहीं, ऐसे कौन बताता है. मां हूं न. उस का मन पढ़ सकती हूं.” स्नेह उन की आंखों में तैर रहा था.
“फिर…?”
“तुम तो अभी बच्ची हो. पता है मोहन को हमेशा लीना की फिक्र रहती है. कुछ भी फलवल लाता है तो लीना को देने को कहता है. और यह जो दूसरा लड़का रहता है न, मुझे तो फूटी आंख नहीं भाता. जाने क्या नाम है.”
“सौम्य…”
“हां, जो भी है.” रोष स्पष्ट था.
मैं उठने लगी तो माताजी बोलीं, “सुनो, अपनी सास से कह कर इस सौम्य को निकलवा दो. मैं न बहुत अच्छा किराएदार दिलवा दूंगी. किराया भी मोटी देगा. तुम बात करो उन से.”
“अरे मैं क्या कहूंगी?” मैं चकित थी.
“कहना क्या है. कह देना तारा को गलत नजर से देखता है. तुरंत हटा देंगी.”

“पर यह सच नहीं है. बरसों से तारा से राखी बंधवाता है. बहुत मानता है उसे. सुना भी है और देखा भी है मैं ने.” मैं ने स्पष्ट किया.
“अरे तो तुम झूठ कहां बोलेगी. बस लीना की जगह तारा का नाम बदल देना.” माताजी फिर से बोलीं.
“नहींनहीं यह मुझ से नहीं होगा. मैं चलती हूं.” मैं झटके से उठ भागी और हड़बड़ाहट में सामने से आ रहे पतिदेव से टकरा गई. पूरी बात सुन कर वे बोले, “अच्छा चलो तुम्हें तीसरी मंजिल दिखाता हूं.”
मैं काफी डरीडरी ऊपर पहुंची. मेरा चेहरा देख कर पतिदेव खिलखिलाए, “इतना डरती हो, तो देखने की जिद क्यों?”
“सच बताइए इस में भूत है क्या?”
“नहीं यार, सब बकवास है. भूत होता तो मैं तुम्हें यहां लाता? भूतवूत कुछ नहीं होता…” कहते हुए उन्होंने कमरे के विशाल दरवाजे को धक्का दिया. दरवाजा आवाज के साथ खुल गया. घबराहट में मैं ने पति की कमीज पीछे से पकड़ ली. वे मुसकराए और मेरा हाथ थाम कर अंदर बढ़े. अंदर आते ही आश्चर्य से मेरा मुंह खुला का खुला रह गया. मैं एक बड़ी लाइब्रेरी के अंदर खड़ी थी. लकड़ी की नक्काशीदार अलमारियों के ऊपर खूबसूरत फ्रेम में महान क्रांतिकारियों की अनेक फोटो लगी थीं. कुछ को मैं पहचान रही थी और ज्यादातर को नहीं. एक किनारे पर मोटा गद्दा बिछा था जिस पर खूबसूरत कालीन बिछी थी और कई तकिए रखे हुए थे. मैं कल्पना कर सकती थी कि यहीं पर सब बैठते और बातचीत करते होंगे. आगे बढ़ कर पतिदेव ने एक अलमारी का दरवाजा खोल दिया. अंदर किताबें भरी पड़ी थीं.

“यह हमारे परिवार का गौरवपूर्ण इतिहास का पन्ना है जिस पर हम सब को गर्व है. यह वह स्थान है जहां नेहरू, गांधी, पटेल सरीखे महान नेता आते थे और आजादी की योजना बनाते थे. हमारे पर बाबा आजादी की लड़ाई के एक सैनिक थे. इस कमरे में कैद उन की यादें हमारी बेशकीमती धरोहर हैं.”
“और यह भूत वाली बात?”
“सब बकवास है. पहले सामने वाले भाग में दूसरे किराएदार थे.  बहुत पुराने. पर उन की नियत में खोट आ गया था. लोगों को डराने के लिए वही ऐसी अनर्गल बातें फैलाते रहते थे कि सफेद धोतीकुरते में कुछ लोग रात में तीसरी मंजिल पर आते हैं. जब पानी सिर के ऊपर हो गया तब हम ने उन्हें निकाल दिया. जब से लीना और सौम्य आए हैं सब ठीक है.”
“पर माता जी…” मैं ने बात अधूरी छोड़ दी.

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“हां माताजी थोड़ा इधरउधर की बातें करती हैं. पर उन का ज्यादा किसी से मिलनाजुलना नहीं है और उन का बेटा मोहन बहुत नेक इंसान है. सब की मदद को हमेशा तैयार रहता है. और उस के पिता, बाबूजी के अच्छे मित्र थे इसलिए…”
मैं सबकुछ ध्यान से सुन रही थी.
“अच्छा श्रीमतीजी, आप का डर और भ्रम दूर हुआ या फिर भूत को बुलाऊं?” हंसते हुए वे बोले.
“मैं यहां से किताबें ले कर पढ़ सकती हूं न?” अपनी झेंप छिपाते हुए मैं ने पूछा.
“हांहां, तुम मालकिन हो यहां की. सुना था तुम्हें पढ़ने का शौक है. खूब पढ़ो. चाहो तो यहां की सफाई करा के यहीं बैठ कर पढ़ो.”
“नहीं,अपने कमरे में ही पढ़ूंगी. यहां ज्यादा एकांत है.”
“ठीक है. हां एक बात याद रखना. यह सौम्य, लीना और मोहन की प्रेम कहानी उन्हें ही सुलझाने देना, तुम बीच में मत पड़ना.”
और हम एकदूसरे के हाथ में हाथ डाले नीचे की ओर चल दिए, डर का भूत भाग गया था.

Serial Story: फैसला (भाग-3)

लेखक- सुशील कुमार भटनागर

ब्याह के बाद रंजना और निखिल शिमला चले गए थे घूमने. वहां से लौटने के बाद रंजना अपने पति निखिल के साथ ही आई थी अजमेर. निखिल का चेहरा मुरझाया हुआ था. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उसे अपने विवाह की कतई खुशी नहीं है. सुबह नाश्ते के बाद अनायास ही मुझ से वह पूछ बैठा था, ‘पापाजी, यदि आप बुरा न मानें तो एक बात पूछ सकता हूं आप से?’

‘हां बेटा, क्या बात है, पूछो?’

‘पापाजी, मुझे ऐसा लगता है जैसे रंजना मेरे साथ खुश नहीं है.’

‘नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है बेटा. रंजना ने तो खुद ही तुम्हें पसंद किया है?’ रीना बीच में ही बोल पड़ी थी.

‘नहीं, मम्मीजी, रंजना का कहना है कि वह किसी और से प्यार करती है. उस की शादी मेरे साथ उस की इच्छा के विपरीत जबरदस्ती कराई गई है.’

निखिल की बात सुन कर हम दोनों के चेहरे उतर गए थे.

‘अरे बेटा, रंजना कालेज में नाटकों में भाग लिया करती थी सो मजाक करती होगी तुम से. वैसे भी बड़ी ही चंचल और मजाकिया स्वभाव की है हमारी रंजना. उस की किसी भी बात को कभी अन्यथा मत लेना. बड़े लाड़प्यार में पली है न, सो शोखी और नजाकत उस की आदतों में शुमार हो गई है,’ रंजना की मां ने बड़ी सफाई से बात टाल दी थी.

‘पर मम्मीजी, अभी हमारी शादी को 1 महीना ही तो हुआ है. रंजना जबतब मुझ से जिद करती रहती है कि मैं उसे उस के फ्रैंड से मिलवा दूं जिस से वह प्यार करती है, नहीं तो वह आत्महत्या कर लेगी. कभी यह कहती है कि आप क्यों मेरे साथ नाहक अपना जीवन बरबाद कर रहे हो, क्यों नहीं मुझे तलाक दे कर दूसरा ब्याह कर लेते? यह सब सुनसुन कर तो मेरे होशोहवास गुम हो जाते हैं.’

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‘बहुत बुरी बात है बेटा, मैं उसे समझा दूंगी. तुम थके होगे, आराम कर लो कुछ देर,’ कहती हुई रंजना की मां कांपते कदमों से रसोई की ओर बढ़ गई थीं. मौके की नजाकत भांपते हुए मैं भी बाहर आंगन में आ कर अखबार खोल कर बैठ गया था.

रंजना निखिल के साथ ससुराल जाने को अब कतई तैयार नहीं थी. रीना और मैं ने उसे खूब समझाया था. रंजना की मां यह कहते हुए रो पड़ी थीं, ‘अब क्यों अपने मांबाप की लाशें देखना चाहती है तू? क्यों जान लेने पर तुली है हमारी? तू यही चाहती है न कि तेरी करतूतें जगजाहिर हों और हम कहीं के न रहें, बिरादरी में नाक कट जाए हमारी. अपनी इज्जत की खातिर जहर खा कर मर जाएं हम.’

‘बेटी, तेरी शादी हो गई, तेरा घर बस गया. इतना अच्छा, सुंदर, समझदार पति और इज्जतदार ससुराल मिली है तुझे, उस के बाद भी ऐसी बेवकूफी करने पर तुली है तू. जरा अक्ल से काम ले, अपना जीवन देख, अपना भविष्य देख, अपनी गृहस्थी देख. क्यों मूर्खताभरी बातें करती है? जो संभव नहीं है उस के लिए क्यों सोचती है? हम तेरे भले के लिए कह रहे हैं, और इसी में सीमा की भी भलाई है. तू अब यह फिल्मी प्यारमोहब्बत का चक्कर छोड़ और अपना घर व अपनी मानमर्यादा देख.

‘सीमा तेरी सगी बड़ी बहन है. अभी तक उसे कुछ भी पता नहीं चला है. तू ही सोच जब उसे पता चलेगा इन सब बातों का तो उस का क्या हाल होगा? भूचाल सा आ जाएगा उस की हंसतीखेलती जिंदगी में,’ मैं गिड़गिड़ाते हुए रो पड़ा था.

हमारे समझाने पर रंजना अपनी ससुराल चली गई थी पर 5वें दिन ही निखिल का पत्र मिला. लिखा था, ‘पापाजी, रंजना का फिर वही हाल है. कहती है, मैं बंधुआ मजदूर हूं आप की, दासी हूं आप की, नौकरानी हूं आप की पर पत्नी किसी और की हूं. छोड़ दो मुझे और मुक्त हो जाओ वरना मैं घर से किसी दिन भाग जाऊंगी या आत्महत्या कर लूंगी, फिर तुम सब लोग कोर्टकचहरी के चक्कर में फंस जाओगे. हम सब बहुत तनाव में हैं, आप पत्र मिलते ही फौरन चले आइए.’

हम निखिल के पत्र पर कोई कदम उठा पाते इस के पहले ही हमें खबर मिल गई थी कि रंजना ने अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली थी. जब तक हम जयपुर पहुंचे तब तक सारा खेल खत्म हो चुका था. वह जल कर मर चुकी थी.

रंजना की पार्थिव देह देख कर मन हुंकार कर उठा था. ऐसा जी चाह रहा था कि नरेंद्र की जान ले लूं. यह सब नरेंद्र की वजह से ही हुआ था. पर मैं मजबूर था, ऐसा नहीं कर सकता था. एक तरफ रंजना की पार्थिव देह थी तो दूसरी तरफ नरेंद्र, मेरी बड़ी बेटी सीमा का सुहाग था. और फिर जिस राज को जान कर सीमा का घर बरबाद न हो, यह सोच कर छिपाए बैठे थे हम, उसे यों ही आवेश में आ कर उजागर कर देना मूर्खता ही होती.

‘नहीं, नहीं, यह राज दफन कर दूंगा मैं अपने सीने में,’ मैं बुदबुदा उठा था.

पुलिस केस बना था रंजना की मौत पर. पुलिस ने मुझ से, रंजन से और रंजना की मां से भी पूछताछ की थी पर हम ने स्पष्ट कह दिया था कि हमें कुछ भी पता नहीं कि रंजना की मौत किन परिस्थितियों में हुई है. अभी हम कुछ भी बता पाने की स्थिति में नहीं हैं. और फिर रंजना के दाहसंस्कार के बाद हम अजमेर चले आए थे. उस के बाद क्या हुआ, कुछ पता नहीं. साले साहब से इतना जरूर पता चला था कि पुलिस ने दहेज हत्या का केस बना कर गिरफ्तार कर लिया था रमानाथजी के पूरे परिवार को. उस के बाद क्या हुआ हम ने कभी जानने की कोशिश भी नहीं की थी. रंजना की यादें उस पुराने मकान में सताती थीं इसलिए हम ने उस मकान से दूर नया मकान खरीद लिया था और नए मकान में आ गए थे.

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प्रकरण की सुनवाई हेतु हमें कोर्ट से भी कोई नोटिस नहीं मिला था. पर आज आरती को इस हाल में देख कर अपराधबोध हुआ था मुझे और मैं सिहर उठा था किसी अनजाने भय से.

दीवारघड़ी ने रात के 2 बजने की सूचना दी तो मेरी तंद्रा भंग हो गई. अपनी उंगलियों में फंसी हुई समाप्तप्राय सिगरेट को खिड़की से बाहर उछाल दिया और पलट कर पुन: पलंग पर लेट कर अपनी आंखें मूंद लीं मैं ने.

‘‘जीजाजी, दरवाजा खोलिए, चाय लाई हूं मैं,’’ सलहज साहिबा ने दरवाजा खटखटाया तो मेरी आंख खुल गई. मैं ने नजर उठा कर दीवारघड़ी की ओर देखा, सुबह के 6 बज रहे थे. रीना भी जाग गई थी दरवाजे पर थाप की आवाज सुन कर. मैं ने दरवाजा खोला तो सलहज साहिबा मेरा चेहरा देख कर बोलीं, ‘‘लगता है जीजाजी रात भर सोए नहीं.’’

‘‘हां, आज रात जाग कर एक बहुत महत्त्वपूर्ण फैसला किया है मैं ने.’’

‘‘क्या?’’ वह आश्चर्य से मेरे चेहरे पर अपनी नजरें टिकाते हुए पूछ बैठी.

‘‘यही कि रिश्ते के नाम पर कलंक हूं मैं. जब मेरी गरज थी, रंजना को ब्याहना था तब तो रमानाथजी के हाथ जोड़े फिरता था मैं, और जब रंजना ने गलत कदम उठा कर अपनी ससुराल में आत्मदाह कर लिया तो उन निर्दोष लोगों की सुध तक नहीं ली कभी मैं ने. मैं अपने फर्ज से, अपने कर्तव्य से विमुख हो गया. क्या रंजना के मरने से रिश्ता भी मर गया? नहीं, रिश्ते तो प्रीत की डोर के पक्के बंधन होते हैं, ये यों ही नहीं टूट जाया करते.

आज आएदिन अखबारों में दहेज और दहेज हत्याओं के प्रकरण प्रकाशित होते रहते हैं. मैं यह तो नहीं कह सकता कि उन में से कितने सही होते हैं पर इतना जरूर कह सकता हूं कि उन में से ज्यादातर मामले में मेरे जैसे कायर पिता और आजकल की रंजना जैसी नादान और बेवकूफ लड़कियां होती हैं जो विवाह पूर्व के प्रेमप्रसंग, स्वतंत्र और उन्मुक्त जीवन की चाह में अपनी ससुराल में अपने संबंध बिगाड़ लेती हैं.

इस तरह पैदा हुई कलह पर अपना पूरा जोर दिखाने के लिए दहेज विरोधी कानून का सहारा ले कर अपने जीवन को या तो तलाक के कगार तक पहुंचा देती हैं या जीवनभर के लिए अपने पति और ससुराल वालों से रिश्तों में विष घोल लेती हैं और या फिर रंजना की तरह ही आत्महत्या कर लेती हैं.

पर अब मैं चुप नहीं रहूंगा. मैं अगर अब भी चुप रहा तो चैन से मर भी न सकूंगा. यह बोझ अब और नहीं ढो पाऊंगा. जो इस समाज के डर से, अपनी इज्जत के डर से अब तक ढोता आ रहा हूं. पर अब मैं कोर्ट में अपना बयान दूंगा. जज साहब को रंजना की मौत के सभी सत्य तथ्यों से अवगत करा दूंगा और निखिल का वह पत्र भी अजमेर से ला कर सौंप दूंगा जो उस ने मुझे रंजना के आत्मदाह से पूर्व लिखा था. हम अब रमानाथजी और उन के परिवार को रंजना का हत्यारा होने के गलत आरोप से बचाएंगे. यह हमारा फर्ज है, और अटल फैसला भी.’’

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