Serial Story: फैसला (भाग-1)

लेखक- सुशील कुमार भटनागर

ब्लौक शिक्षा अधिकारी के पद पर पदोन्नति के साथ ही मेरा तबादला अजमेर से जयपुर की आमेर पंचायत समिति में हो गया था. मेरे साले साहब जयपुर में रहते हैं. वे यहां के एक बड़े अस्पताल में डाक्टर हैं. पिछले माह मेरे बेटे रंजन को भी उदयपुर से एमबीबीएस करने के बाद चिकित्साधिकारी के पद पर आमेर के ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर प्रथम नियुक्ति मिली थी इसलिए जयपुर में अपने मामा के पास ही रह रहा था वह. मेरे रिटायरमैंट में अभी 2 साल बाकी थे. सोचा, चलो मन को तसल्ली तो रहेगी कि 32 साल सरकार की सेवा करने के बाद कम से कम अधिकारी पद से तो सेवानिवृत्त हुए. मन के किसी कोने में अधिकारी बनने का सपना भी था.

बड़ी बेटी सीमा के पैदा होने के 2 साल बाद रंजन और रंजना जुड़वां बच्चे हुए थे. 6 माह पहले बेटी रंजना के अपनी ससुराल में आत्मदाह कर लेने के बाद दिल और दिमाग को कुछ ऐसा झटका लगा कि शरीर घुल सा गया था मेरा. पत्नी रीना तभी से मेरे पीछे पड़ी थी कि अब मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लूं. बीमार शरीर को क्यों और बीमार बना रहा हूं. घर में रहूंगा तो आराम मिलेगा और स्वास्थ्य में भी कुछ सुधार ही होगा पर मैं हमेशा यह कह कर टाल देता था कि चलताफिरता रहूंगा तो ठीक रहूंगा और अगर घर में बैठ गया तो रहासहा शरीर भी बेकार हो जाएगा और जल्दी ही प्राण खो बैठूंगा. वह मेरे इस जवाब से चिढ़ जाती थी.

रीना के साथ अपनी कार से जयपुर पहुंचने पर साले साहब को बहुत खुशी हुई थी. रंजन तो पहले से यहां था ही, अब मैं और रीना भी आ गए थे उन के आलीशान बंगले में. साले साहब के 2 ही लड़के थे. बड़ा बेटा शादी कर अमेरिका में सैटल हो गया था और छोटा बेटा एमबीए कर दिल्ली की किसी प्रतिष्ठित कंपनी में मैनेजर हो गया था. घर में बस ये 2 ही प्राणी थे, साले साहब और सलहज साहिबा.

हमें आया देख सलहज साहिबा तो खुशी के मारे जैसे पागल ही हुई जा रही थीं. कार से उतरते ही मेरे हाथ से सूटकेस झपट कर नौकर को पकड़ाते हुए बोली थीं, ‘‘जीजाजी, सच पूछिए तो आप लोगों के आने से मेरा तो जैसे सेरों खून बढ़ गया है. आप लोगों के साथ मेरा मन भी लगा रहेगा. इन्हें और रंजन को तो अपने मरीजों और अस्पताल से ही फुर्सत नहीं मिलती. मैं अकेली पड़ीपड़ी सड़ती रहती हूं घर में. भला अखबार, पत्रिकाओं, टीवी और इंटरनैट से कब तक जी बहलाऊं? मैं तो बोर हो गई इन सब से. अब आप लोग आ गए हैं तो देखना कैसी चहलपहल और रौनक हो जाएगी घर में. खाने और पकाने में भी अब मजा आएगा,’’ कहते हुए वे तेज कदमों से ड्राइंगरूम की ओर बढ़ गईं. यह रात का खाना खा कर मैं सो गया और रीना अपने भैयाभाभी के साथ गपशप में व्यस्त हो गई.

ये भी पढ़ें- Short Story: उधार का रिश्ता- लिव इन रिलेशन के सपने देख रही सरिता के साथ क्या हुआ?

दूसरे दिन सुबह औफिस बड़े हर्षोल्लास से जौइन किया मैं ने. अभी अपने स्टाफ से मेरा परिचय का सिलसिला चल ही रहा था कि सहसा  मेरी मृत बेटी रंजना की विधवा ननद आरती को देख कर मैं सकपका गया.

आरती किसी मूर्ति की भांति नजरें झुकाए औफिस में आई, हाजिरी रजिस्टर खोल कर अपने हस्ताक्षर किए, एक क्षण अपनी पलकें उठा कर निरीह दृष्टि से मुझे देखा जैसे कह रही हो, ‘किस जुर्म की सजा दे रहे हो हम सब को. हमारा हंसताखेलता घरसंसार उजाड़ दिया तुम ने. आग लगा दी हमारे चमन में. जीतेजी मार डाला हम सब को.’ और फिर सिर झुकाए चुपचाप वहां से चली गई.

उस के जाने के बाद बड़े बाबू ने बताया, ‘‘सर, इस का नाम आरती है. यहीं औफिस के पीछे ही किराए का एक कमरा ले कर रह रही है. बड़ी अभागी है बेचारी. शादी होने के सालभर बाद ही विधवा हो गई. विधवा कोटे में तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद पर 2 वर्ष पहले नियुक्त हुई थी.

‘‘कोई 6 महीने पहले इस की भाभी ने दहेज की मांग, पति और ससुराल वालों की मारपिटाई से तंग आ कर अपने ऊपर मिट्टी का तेल डाल कर आग लगा ली थी और फिर अस्पताल ले जाते समय ही उस ने अपने प्राण त्याग दिए थे. पुलिस केस बन गया था. पुलिस इस के भाई और बूढ़े मातापिता को गिरफ्तार कर ले गई थी.

‘‘आरती अपनी भाभी की मौत का वीभत्स दृश्य नहीं देख सकी थी और बेहोश हो गई थी. 3 दिन बाद तबीयत कुछ सामान्य हुई और अस्पताल से छुट्टी मिली तो पुलिस ने इसे भी गिरफ्तार कर लिया था. आरती के स्कूल स्टाफ ने अच्छा वकील किया और जैसेतैसे कोर्ट से इस की जमानत करवा ली पर आरती के भाई और बूढ़े मातापिता की जमानत की अरजी  दहेज हत्या के गंभीर मामले को देखते हुए जज ने खारिज कर दी. अपने बचाव में बेचारे कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं. आज तक इस के घर वाले जेल की सलाखों के पीछे कैद हैं. आरती भी पुलिस हिरासत में 10 दिन रहने और पुलिस केस होने के कारण सस्पैंड चल रही है. आरती का कहना है कि पुलिस ने झूठा केस बनाया है.

‘‘वैसे सर, आरती के आचरण को देख कर लगता तो नहीं कि ये लोग ऐसा कर सकते हैं. लोगबाग इस के परिवार को भी बड़ा अच्छा समझते हैं. फिर ये सब. न जाने असलियत क्या है?

पुलिस, कोर्ट- कचहरी के चक्करों में कौन पड़ता है नाहक, इसीलिए कोई इन की मदद को भी आगे नहीं आता, बदनामी अलग.’’

बड़े बाबू की बात ने मुझे भीतर तक झकझोर डाला था. अधिकारी पद का मेरा पहला दिन ही मन में इतनी कड़वाहट घोल देगा, मैं ने कभी सोचा भी न था.

शाम को औफिस से निकल कर मैं अपनी कार से मुख्य सड़क पर पहुंचा ही था कि बीच रास्ते में भीड़ देख कर मैं रुक गया. कार से उतर कर भीड़ को चीर कर देखा तो सन्न रह गया. जर्जर और कमजोर आरती बीच सड़क पर बेहोश पड़ी थी. उस के कपड़े अस्तव्यस्त हो गए थे. एक ओर सब्जी का थैला लुढ़का पड़ा था जिस में से कुछ भाजी लुढ़क कर सड़क पर बिखर गई थी.

एक क्षण गौर से आरती के चेहरे पर नजर डाल कर मैं मन ही मन बुदबुदा उठा, ‘क्या हाल हो गया है आरती का? सालभर में ही हड्डियों का ढांचा भर रह गई है. हाथों में नीली नसें उभर आई हैं. चेहरा निस्तेज हो गया है. रंजना के ब्याह के समय विधवा होने के बावजूद कैसी चिडि़या सी चहकती, फुदकती रहती थी.’

सच पूछा जाए तो रंजना की शादी अपने बड़े भाई निखिल से शीघ्र करवाने में आरती की ही अहम भूमिका रही थी, फिर निखिल के वृद्ध मातापिता ने भी सोचा था कि घर में विधवा बेटी की हमउम्र बहू आ जाएगी तो उस के साथ आरती का थोड़ा मन बहल जाया करेगा.

‘‘भाई साहब, जरा मदद करेंगे आप. ये बहनजी हमारे बच्चों को पढ़ाती हैं, बड़ी अच्छी हैं. प्लीज, अपनी कार में इन्हें यहीं पास के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचा दीजिए, आप की बड़ी मेहरबानी होगी,’’ पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखते हुए कहा.

ये भी पढ़ें- Short Story: हिजड़ा- क्या हुआ था गुलशन चाचा को?

‘‘हां, हां, क्यों नहीं. वहां मेरा बेटा डाक्टर है, आप घबराओ मत, वह सब संभाल लेगा. पर मैं नया हूं यहां, मुझे रास्ता पता नहीं है, तुम बताते जाना,’’ मैं बोला.

उस आदमी ने सड़क पर बेहोश पड़ी आरती को अपनी गोद में उठाया और कार की पिछली सीट पर लिटा दिया. फिर उस ने सड़क पर बिखरी हुई सब्जी आरती के थैले में भरी और कार की पिछली सीट पर रखी और आरती का सिर अपनी गोद में बड़े प्यार से रख कर बैठ गया.

आगे पढ़ें- मैं ने कार आगे बढ़ा दी. मेरे…

Serial Story: फैसला (भाग-2)

लेखक- सुशील कुमार भटनागर

मैं ने कार आगे बढ़ा दी. मेरे विचारों की शृंखला सक्रिय हो गई, ‘मैं गुनाहगार हूं इस के परिवार का. आरती, निखिल, उस के पिता रमानाथ और उस की मां गीता का. मेरी कायरता की ही सजा भुगत रहे हैं आज ये सब लोग. सच कहने से डर गया, समाज के सामने अपनी जबान खोलने से भयभीत हो गया, मैं ने रंजना की मौत का राज पुलिस के सामने खोल दिया होता तो आज मेरे मन पर इतना भारी बोझ न होता. मैं ने तबाह कर दिया इन निर्दोष, भोलेभाले और शरीफ लोगों को. इन के सर्वनाश का कारण मैं हूं.’

रात गहरा गई थी. ठंड भी बढ़ गई थी. सारा शहर नींद के आगोश में समाया हुआ था पर मेरी आंखों से तो नींद कोसों दूर जा चुकी थी. बाहर रहरह कर कुत्ते अपना बेसुरा राग अलाप रहे थे. आरती को मैं रंजन की देखरेख में स्वास्थ्य केंद्र छोड़ आया था.

मैं हौले से बिस्तर से उठा और खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. पलट कर मैं ने रीमा पर एक नजर डाली, वह ख्वाबों की दुनिया में बेसुध खोई हुई थी. मैं ने टेबल पर पड़ी सिगरेट की डब्बी उठाई और सिगरेट सुलगा कर धुएं के छल्ले खिड़की से बाहर हवा में उछालने लगा. रहरह कर बस एक ही सवाल किसी भारी हथौड़े की भांति मेरे दिलोदिमाग पर पड़ रहा था, ‘क्यों चुप्पी साध रखी है मैं ने? क्यों नहीं मैं अपने समधी रमानाथजी और उन के परिवार को उन की बहू रंजना की दहेज हत्या के आरोप से मुक्त करा देता? मेरा शरीर भी अब साथ नहीं देता, अगर मुझे कुछ हो गया तो कब तक अपनी बहू की हत्या का कलंक अपने माथे पर लगाए जेल की सलाखों के पीछे सड़ते रहेंगे ये लोग? समाज की वर्जनाओं और मर्यादा का उल्लंघन तो मेरी बेटी रंजना ने किया है, फिर उस के किए की सजा ये निर्दोष क्यों भुगतें? वह तो मर कर चली गई पर जीतेजी मार गई इन सब को.’

ये भी पढ़ें- Short Story: हिकमत- क्या गरीब परिवार की माया ने दिया शादी के लिए दहेज?

मैं अतीत में खो गया. उस रात रंजना की मां ने मेरे कान में फुसफुसा कर जो रहस्योद्घाटन किया था, उसे सुन कर चक्कर सा आ गया था मुझे. मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा उठा था और फिर वहीं मैं अपना सिर पकड़ कर धम से बैठ गया था. रंजना को उलटियां हो रही थीं. रंजना गर्भवती थी. रंजना के गर्भ में उस की बड़ी बहन सीमा के पति नरेंद्र का बच्चा पल रहा था. यह सब कैसे हो गया अचानक? सीधासादा और भोला सा दिखने वाला मेरा दामाद नरेंद्र अपने जमीर से इतना नीचे गिर जाएगा, अपनी साली रंजना के साथ ही ऐसा कुकर्म कर बैठेगा वह, मैं ने तो कभी सपने में भी न सोचा था.

जीजासाली में अकसर मीठी छेड़छाड़ तो चलती रहती थी पर यह छेड़छाड़ ऐसा गुल खिलाएगी, मैं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. अभी 2 महीने पहले रंजना अपनी बड़ी बहन सीमा की डिलीवरी के समय महीना भर को वहां रह कर आई थी. शायद तब से ही रंजना और नरेंद्र के बीच यह दुश्चक्र शुरू हो गया था.

यह सब सोच कर खून खौल उठा था मेरा. एक झटके से उठ कर मैं सीधा रंजना के कमरे में गया था और एक जोरदार थप्पड़ उस के मुंह पर मारा था. रंजना की नाक से खून की धार फूट पड़ी थी. ‘कमीनी, करमजली, बेहया, शर्म नहीं आई तुझे. अपने बाप की, अपने खानदान की सब की नाक कटा दी तू ने. क्या इसीलिए जन्म लिया था तू ने हमारे घर में, कलंकिनी?’

मेरे सामने कभी मुंह नहीं खोलने वाली रंजना किसी शेरनी की भांति गरज उठी थी उस दिन, ‘मैं ने प्यार किया है नरेंद्र से. आप चाहें तो मुझे जान से मार दें. मेरी बोटीबोटी काट डालें पर मैं मर कर भी उन्हें नहीं भूल सकती. दीदी चाहे मुझे अपने घर में रखें या न रखें, मैं कहीं भी रह कर अपना गुजारा कर लूंगी पर उन्हें नहीं छोड़ सकती.’

‘अरे नालायक, सारा जहां छोड़ कर अपनी बहन का घर उजाड़ने की सूझी तुझे? सारे जहां के और लड़के मर गए थे क्या? इतना ही प्यार का भूत सवार था तेरे ऊपर तो कम से कम अपनी बहन का घर छोड़ देती. नरेंद्र के बजाय तू जिस के साथ कहती हम उसी के साथ तेरा ब्याह रचा देते, पर तू ने तो अपनी ही बहन के घर में आग लगा दी, नागिन बन कर अपनी ही बहन को डस लिया तू ने.’

मेरा रोमरोम गुस्से की आग में जल उठा था. कमरे में दरवाजे के पीछे रखा डंडा उठा कर मैं उस की ओर बढ़ा ही था कि रंजना की मां झूल गई थी मेरे हाथों से लिपट कर, ‘नहीं, मैं आप के पांव पड़ती हूं. मर जाएगी यह, कुछ तो सोचो रंजना के बापू. यह समय मारपिटाई का नहीं है, सोचने का है, संयम से काम लेने का है. मामला अपने ही घर का है, बात फैली तो दुनिया तमाशा देखेगी. सीमा का घर, उस की गृहस्थी उजड़ कर रह जाएगी. सीमा कभी माफ नहीं करेगी नरेंद्र को और बदनामी के मारे हमारे आगे तो जहर खा कर अपनी जान देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं रह जाएगा. इस तरह तो गुस्से की आग दोनों घरों को जला डालेगी,’ उस की आंखों से आंसू ढुलक आए.

रंजना को उस के कमरे में ही रोता छोड़ और जोर से उस के सामने डंडा पटक कर मैं अपने कमरे में पांव पटकता आ गया. मेरे पीछे ही रीना भी अपने आंसू पोंछती चली आई. मुझे इस अप्रत्याशित, अमर्यादित और घिनौनी घटना के बाद कुछ सूझ ही नहीं रहा कि अब किया क्या जाए? रंजन उदयपुर में इंटर्नशिप कर रहा था उस वक्त, उसे इन सब बातों का कुछ पता न था.

‘आप कहें तो मैं भैया से जयपुर फोन पर बात करूं, वे डाक्टर हैं, रंजना का गर्भ तो गिराना ही पड़ेगा. भैया के यहां ही यह काम हो तो किसी को खबर भी नहीं होगी,’ रीना बोली थी.

‘ठीक है, तुम फोन पर बात कर लो,’ मैं ने तमक कर कहा. रीना ने शायद उचित ही सलाह दी थी. रीना अपने भाई को फोन मिलाने लगी थी और मैं बाहर आ कर सिगरेट सुलगाने लगा था. दूसरे दिन सुबह रंजना को ले कर हम जयपुर आ गए थे. रंजना गर्भ गिराने को कतई तैयार नहीं थी पर अपने मामाजी, मामीजी और हम सब के दबाव में आ कर ज्यादा प्रतिवाद नहीं कर सकी.

रंजना का गर्भ समापन हो जाने के बाद हम मातापिता उसे दुश्मन से लगने लगे थे. रंजना ने अब घर में बात करना भी बंद कर दिया था. उदास, गुमसुम रंजना को देख कर मन ही मन हम भी बेहद दुखी थे.

ये भी पढ़ें- नानी का प्रेत: क्या था नानी से जुड़ा रहस्य?

कोई 3 माह बाद ही दौड़धूप कर मैं ने रंजना की शादी जयपुर में ही निखिल से तय कर दी थी. बहुत अच्छी ससुराल मिली थी रंजना को. बहुत छोटा और इज्जतदार परिवार था रंजना के ससुर रमानाथजी का. यह एक इत्तेफाक ही था कि रमानाथजी हमारे पैतृक गांव के निकले. मैं ने और रमानाथजी ने गांव में एकसाथ ही मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी. उस के बाद उन के घर वाले गांव छोड़ कर शहर आ गए थे. उस के बाद रंजना के रिश्ते के सिलसिले में ही रमानाथजी से मुलाकात हुई थी और रमानाथजी ने अपने बेटे निखिल के लिए रंजना का रिश्ता तुरंत ही स्वीकार कर लिया था. रमानाथजी के निखिल और आरती, बस 2 ही बच्चे थे.

रमानाथजी सरकारी स्कूल में संस्कृत के लेक्चरर थे. अभी 4 वर्ष और थे उन के रिटायरमैंट में. निखिल कनिष्ठ लेखाकार के पद पर कलक्टरी में कार्यरत था और निखिल की बहन आरती अपने पति की दुर्घटना में मृत्यु के बाद से मायके में ही रह रही थी. रमानाथजी ने जैसेतैसे कोशिश कर के उसे विधवा कोटे में सरकारी स्कूल में तृतीय श्रेणी अध्यापिका के पद पर नियुक्त करवा दिया था.

आगे पढ़ें- ब्याह के बाद रंजना और निखिल शिमला चले गए थे घूमने…

Mother’s Day 2020: मां मां होती है

Mother’s Day Special: मुक्ति-भाग 1

टनटनटन मोबाइल की घंटी बजी और सुनील के फोन उठाने के पहले ही बंद भी हो गई. लगता है यह फोन भारत से आया होगा. भारत क्या, रांची से, शिवानी का. शिवानी, वह मुंहबोली भांजी, जिस के यहां वह अपनी मां को अमेरिका से ले जा कर छोड़ आया था. वहां से आए फोन के साथ ऐसा ही होता रहता है. घंटी बजती है और बंद हो जाती है, थोड़ी देर बाद फिर घंटी बज उठती है.

सुनील मोबाइल पर घंटी के फिर से बजने की प्रतीक्षा करने लगा है. इस के साथ ही उस के मन में एक दहशत सी पैदा हो जाती है. न जाने क्या खबर होगी? फोन तो रांची से ही आया होगा. बात यह थी कि उस की 90 वर्षीया मां गिर गई थीं और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था. सुनील को पता था कि मां इस चोट से उबर नहीं पाएंगी, इलाज पर चाहे कितना भी खर्च क्यों न किया जाए और पैसा वसूलने के लिए हड्डी वाले डाक्टर कितनी भी दिलासा क्यों न दिलाएं. मां के सुकून के लिए और खासकर दुनिया व समाज को दिखाने के लिए भी इलाज तो कराना ही था, वह भी विदेश में काम कर के डौलर कमाने वाले इकलौते पुत्र की हैसियत के मुताबिक.

वैसे उस की पत्नी चेतावनी दे चुकी थी कि इस तरह हम अपने पैसे बरबाद ही कर रहे हैं. मां की बीमारी के नाम पर जितने भी पैसे वहां भेजे जा रहे हैं उन सब का क्या हो रहा है, इस का लेखाजोखा तो है नहीं? शिवानी का घर जरूर भर रहा है. आएदिन पैसे की मांग रखी जाती है. हालांकि यह सब को पता था कि इस उम्र में गिर कर कमर तोड़ लेना और बिस्तर पकड़ लेना मौत को बुलावा ही देना था.

ये भी पढे़ं- Mother’s Day Special: पुनरागमन-मां की ये हरकतें उसके बचपन का पुनरागमन ही तो हैं

शिवानी ने सुनील की मां की देखभाल के नाम पर दिनरात के लिए एक नर्स रख ली थी और उन्हीं के नाम पर घर में काफी सुविधाएं भी इकट्ठी कर ली थीं, फर्नीचर से ले कर फ्रिज, टीवी और एयरकंडीशनर तक. डाक्टर, दवा, फिजियोथेरैपिस्ट और बारबार टैक्सी पर अस्पताल का चक्कर लगाना तो जायज बात थी.

सुनील की पत्नी को इन सब दिखावे से चिढ़ थी. वह कहती  थी कि एक गाड़ी की मांग रह गई है, वह भी शिवानी मां के जिंदा रहते पूरा कर ही लेगी. कमर टूटने के बाद हवाखोरी के लिए मां के नाम पर गाड़ी तो चाहिए ही थी. सुनील चुप रह जाता. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता था कि शिवानी की मांगें बढ़ी हुई लगती थीं किंतु उन्हें नाजायज नहीं कहा जा सकता था.

शिवानी अपनी हैसियत के मुताबिक जो भी करती वह उस की मां के लिए काफी नहीं होता. मां के लिए गांवों में चलने वाली खाटें तो नहीं चल सकती थीं, घर में सीमित रहने पर मन बहलाने के लिए टीवी रखना जरूरी था, फिर वहां की गरमी से बचनेबचाने को एक एनआरआई की मां के लिए फ्रिज और एसी को फुजूलखर्ची नहीं कहा जा सकता था.

अब यह कहां तक संभव या उचित था कि जब ये चीजें मां के नाम पर आई हों तो घर का दूसरा व्यक्ति उन का उपयोग ही न करे? पैसा बचा कर अगर शिवानी ने एक के बदले 2 एसी खरीद लिए तो इस के लिए उसे कुसूरवार क्यों ठहराया जाए? फ्रिज भी बड़ा लिया गया तो क्या हुआ, क्या मां भर का खाना रखने के लिए ही फ्रिज लेना चाहिए था?

ये भी पढ़ें- Short Story: बड़ी लकीर छोटी लकीर

आखिर मां की जो सेवा करता है उसे भी इतनी सुविधा तो मिलनी ही चाहिए थी. पर उस की पत्नी को यह सब गलत लगता था. सामान तो आ ही गया था, अब यह बात थोड़े थी कि मां के मरने के बाद कोई उन सब को उस से वापस मांगने जाता?

सुनील के मन के किसी कोने में यह भाव चोर की तरह छिपा था कि यह फोन शिवानी का न हो तो अच्छा है, क्योंकि वहां से फोन आने का मतलब था किसी न किसी नई समस्या का उठ खड़ा होना. साथ ही, हर बार शिवानी से बात कर के उसे अपने में एक छोटापन महसूस हुआ करता था.

अपनी बात के लहजे से वह उसे बराबर महसूस कराती रहती थी कि वह अपनी मां के प्रति अपने कर्तव्य का ठीक से पालन नहीं कर रहा. केवल पैसा भेज देने से ही वह अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता था, भारतीय संस्कृति में पैसा ही सबकुछ नहीं होता, उस की उपस्थिति ही अधिक कारगर हो सकती थी. और यहीं पर सुनील का अपराधबोध हृदय के अंतराल में एक और गांठ की परत बना देता. इस से वह बचना चाहता था और शायद यही वह मर्मस्थल भी था जिसे शिवानी बारबार कुरेदती रहती थी.

शिवानी का कहना था कि उसे तथा उस के पति को डाक्टर डांट कर भगा देते थे, जबकि सुनील की बात वे सुनते थे. सुनील का नाम तथा उस का पता जान कर ही लोग ज्यादा प्रभावित होते थे, न कि मात्र पैसा देने से. आजकल भारत में भी पैसे देने वाले कितने हैं, पर क्या अस्पताल के अधिकारी उन लोगों की बात सुनते भी हैं? सुनील फोन पर ही उन लोगों से जितनी बात कर लेता था वही वहां के अधिकारियों पर बहुत प्रभाव डाल देती थी.

इस के अतिरिक्त उस का खुद का भारत आना अधिक माने रखता था, मां की तसल्ली के लिए ही सही. थोड़ी हरारत भी आने पर मां सुनील का ही नाम जपना शुरू कर देती थीं.

शिवानी को लगता कि वह अपना शरीर खटा कर दिनरात उन की सेवा करती रहती है, जबकि उसे पैसे के लालच में काम करने वाली में शुमार कर के मां ही नहीं, परोक्ष रूप से सुनील भी उस के प्रति बहुत बड़ा अन्याय कर रहे हैं. यह खीझ शिवानी मां पर ही नहीं, बल्कि किसी न किसी तरह सुनील पर भी उतार लेती थी.

ये भी पढ़ें- Short Story: हमारी सासूमां महान

कुछ ही महीने पहले की बात थी. जिस दिन मां की कमर की हड्डी टूटी थी, अस्पताल में जब तक इमरजैंसी में मां को छोड़ कर शिवानी और उस के पति डाक्टर के लिए इधरउधर भागदौड़ कर रहे थे कि फोन पर इस दुर्घटना की खबर मिलने पर सुनील ने अमेरिका में बैठेबैठे न जाने किसकिस डाक्टर के फोन नंबर का ही पता नहीं लगा लिया बल्कि डाक्टर को तुरंत मां के पास भेज भी दिया. ऐसा क्या वहां किसी अन्य के किए पर हो सकता था?

आगे पढ़ें- सुनील फोन पर लगातार…

Mother’s Day 2020: मां-सुख की खातिर गुड्डी ममता का गला क्यों घोटना चाहती हैं?

रात के 10 बजे थे. सुमनलता पत्रकारों के साथ मीटिंग में व्यस्त थीं. तभी फोन की घंटी बज उठी…

‘‘मम्मीजी, पिंकू केक काटने के लिए कब से आप का इंतजार कर रहा है.’’

बहू दीप्ति का फोन था.

‘‘दीप्ति, ऐसा करो…तुम पिंकू से मेरी बात करा दो.’’

‘‘जी अच्छा,’’ उधर से आवाज सुनाई दी.

‘‘हैलो,’’ स्वर को थोड़ा धीमा रखते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘पिंकू बेटे, मैं अभी यहां व्यस्त हूं. तुम्हारे सारे दोस्त तो आ गए होंगे. तुम केक काट लो. कल का पूरा दिन तुम्हारे नाम है…अच्छे बच्चे जिद नहीं करते. अच्छा, हैप्पी बर्थ डे, खूब खुश रहो,’’ अपने पोते को बहलाते हुए सुमनलता ने फोन रख दिया.

दोनों पत्रकार ध्यान से उन की बातें सुन रहे थे.

‘‘बड़ा कठिन दायित्व है आप का. यहां ‘मानसायन’ की सारी जिम्मेदारी संभालें तो घर छूटता है…’’

‘‘और घर संभालें तो आफिस,’’ अखिलेश की बात दूसरे पत्रकार रमेश ने पूरी की.

‘‘हां, पर आप लोग कहां मेरी परेशानियां समझ पा रहे हैं. चलिए, पहले चाय पीजिए…’’ सुमनलता ने हंस कर कहा था.

नौकरानी जमुना तब तक चाय की ट्रे रख गई थी.

‘‘अब तो आप लोग समझ गए होंगे कि कल रात को उन दोनों बुजुर्गों को क्यों मैं ने यहां वृद्धाश्रम में रहने से मना किया था. मैं ने उन से सिर्फ यही कहा था कि बाबा, यहां हौल में बीड़ी पीने की मनाही है, क्योंकि दूसरे कई वृद्ध अस्थमा के रोगी हैं, उन्हें परेशानी होती है. अगर आप को  इतनी ही तलब है तो बाहर जा कर पिएं. बस, इसी बात पर वे दोनों यहां से चल दिए और आप लोगों से पता नहीं क्या कहा कि आप के अखबार ने छाप दिया कि आधी रात को कड़कती सर्दी में 2 वृद्धों को ‘मानसायन’ से बाहर निकाल दिया गया.’’

‘‘नहीं, नहीं…अब हम आप की परेशानी समझ गए हैं,’’ अखिलेशजी यह कहते हुए उठ खडे़ हुए.

‘‘मैडम, अब आप भी घर जाइए, घर पर आप का इंतजार हो रहा है,’’ राकेश ने कहा.

सुमनलता उठ खड़ी हुईं और जमुना से बोलीं, ‘‘ये फाइलें अब मैं कल देखूंगी, इन्हें अलमारी में रखवा देना और हां, ड्राइवर से गाड़ी निकालने को कहना…’’

तभी चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया था.

‘‘मम्मीजी, बाहर गेट पर कोई औरत आप से मिलने को खड़ी है…’’

‘‘जमुना, देख तो कौन है,’’ यह कहते हुए सुमनलता बाहर जाने को निकलीं.

ये  भी पढ़ें- Short Story: धड़कनें तेरी मेरी- क्या अपना प्यार वापस पा पाई पाखी?

गेट पर कोई 24-25 साल की युवती खड़ी थी. मलिन कपडे़ और बिखरे बालों से उस की गरीबी झांक रही थी. उस के साथ एक ढाई साल की बच्ची थी, जिस का हाथ उस ने थाम रखा था और दूसरा छोटा बच्चा गोदी में था.

सुमनलता को देखते ही वह औरत रोती हुई बोली, ‘‘मम्मीजी, मैं गुड्डी हूं, गरीब और बेसहारा, मेरी खुद की रोटी का जुगाड़ नहीं तो बच्चों को क्या खिलाऊं. दया कर के आप इन दोनों बच्चों को अपने आश्रम में रख लो मम्मीजी, इतना रहम कर दो मुझ पर.’’

बच्चों को थामे ही गुड्डी, सुमनलता के पैर पकड़ने के लिए आगे बढ़ी थी तो यह कहते हुए सुमनलता ने उसे रोका, ‘‘अरे, क्या कर रही है, बच्चों को संभाल, गिर जाएंगे…’’

‘‘मम्मीजी, इन बच्चों का बाप तो चोरी के आरोप में जेल में है, घर में अब दानापानी का जुगाड़ नहीं, मैं अबला औरत…’’

उस की बात बीच में काटते हुए सुमनलता बोलीं, ‘‘कोई अबला नहीं हो तुम, काम कर सकती हो, मेहनत करो, बच्चोें को पालो…समझीं…’’ और सुमनलता बाहर जाने के लिए आगे बढ़ी थीं.

‘‘नहीं…नहीं, मम्मीजी, आप रहम कर देंगी तो कई जिंदगियां संवर जाएंगी, आप इन बच्चों को रख लो, एक ट्रक ड्राइवर मुझ से शादी करने को तैयार है, पर बच्चों को नहीं रखना चाहता.’’

‘‘कैसी मां है तू…अपने सुख की खातिर बच्चों को छोड़ रही है,’’ सुमनलता हैरान हो कर बोलीं.

‘‘नहीं, मम्मीजी, अपने सुख की खातिर नहीं, इन बच्चों के भविष्य की खातिर मैं इन्हें यहां छोड़ रही हूं. आप के पास पढ़लिख जाएंगे, नहीं तो अपने बाप की तरह चोरीचकारी करेंगे. मुझ अबला की अगर उस ड्राइवर से शादी हो गई तो मैं इज्जत के साथ किसी के घर में महफूज रहूंगी…मम्मीजी, आप तो खुद औरत हैं, औरत का दर्द जानती हैं…’’ इतना कह गुड्डी जोरजोर से रोने लगी थी.

‘‘क्यों नाटक किए जा रही है, जाने दे मम्मीजी को, देर हो रही है…’’ जमुना ने आगे बढ़ कर उसे फटकार लगाई.

‘‘ऐसा कर, बच्चों के साथ तू भी यहां रह ले. तुझे भी काम मिल जाएगा और बच्चे भी पल जाएंगे,’’ सुमनलता ने कहा.

‘‘मैं कहां आप लोगों पर बोझ बन कर रहूं, मम्मीजी. काम भी जानती नहीं और मुझ अकेली का क्या, कहीं भी दो रोटी का जुगाड़ हो जाएगा. अब आप तो इन बच्चों का भविष्य बना दो.’’

‘‘अच्छा, तो तू उस ट्रक ड्राइवर से शादी करने के लिए अपने बच्चों से पीछा छुड़ाना चाह रही है,’’ सुमनलता की आवाज तेज हो गई, ‘‘देख, या तो तू इन बच्चोें के साथ यहां पर रह, तुझे मैं नौकरी दे दूंगी या बच्चों को छोड़ जा पर शर्त यह है कि तू फिर कभी इन बच्चों से मिलने नहीं आएगी.’’

सुमनलता ने सोचा कि यह शर्त एक मां कभी नहीं मानेगी पर आशा के विपरीत गुड्डी बोली, ‘‘ठीक है, मम्मीजी, आप की शरण में हैं तो मुझे क्या फिक्र, आप ने तो मुझ पर एहसान कर दिया…’’

आंसू पोंछती हुई वह जमुना को दोनों बच्चे थमा कर तेजी से अंधेरे में विलीन हो गई थी.

‘‘अब मैं कैसे संभालूं इतने छोटे बच्चों को,’’ हैरान जमुना बोली.

गोदी का बच्चा तो अब जोरजोर से रोने लगा था और बच्ची कोने में सहमी खड़ी थी.

कुछ देर सोच में पड़ी रहीं सुमनलता फिर बोलीं, ‘‘देखो, ऐसा है, अंदर थोड़ा दूध होगा. छोटे बच्चे को दूध पिला कर पालने में सुला देना. बच्ची को भी कुछ खिलापिला देना. बाकी सुबह आ कर देखूंगी.’’

‘‘ठीक है, मम्मीजी,’’ कह कर जमुना बच्चों को ले कर अंदर चली गई. सुमनलता बाहर खड़ी गाड़ी में बैठ गईं. उन के मन में एक अजीब अंतर्द्वंद्व शुरू हो गया कि क्या ऐसी भी मां होती है जो जानबूझ कर दूध पीते बच्चों को छोड़ गई.

‘‘अरे, इतनी देर कैसे लग गई, पता है तुम्हारा इंतजार करतेकरते पिंकू सो भी गया,’’ कहते हुए पति सुबोध ने दरवाजा खोला था.

‘‘हां, पता है पर क्या करूं, कभीकभी काम ही ऐसा आ जाता है कि मजबूर हो जाती हूं.’’

तब तक बहू दीप्ति भी अंदर से उठ कर आ गई.

‘‘मां, खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, तुम भी आराम करो, मैं कुछ थोड़ाबहुत खुद ही निकाल कर खा लूंगी.’’

ड्राइंगरूम में गुब्बारे, खिलौने सब बिखरे पडे़ थे. उन्हें देख कर सुमनलता का मन भर आया कि पोते ने उन का कितना इंतजार किया होगा.

सुमनलता ने थोड़ाबहुत खाया पर मन का अंतर्द्वंद्व अभी भी खत्म नहीं हुआ था, इसलिए उन्हें देर रात तक नींद नहीं आई थी.

सुमनलता बारबार गुड्डी के ही व्यवहार के बारे में सोच रही थीं जिस ने मन को झकझोर दिया था.

मां की ममता…मां का त्याग आदि कितने ही नाम से जानी जाती है मां…पर क्या यह सब झूठ है? क्या एक स्वार्थ की खातिर मां कहलाना भी छोड़ देती है मां…शायद….

सुबोध को तो सुबह ही कहीं जाना था सो उठते ही जाने की तैयारी में लग गए.

पिंकू अभी भी अपनी दादी से नाराज था. सुमनलता ने अपने हाथ से उसे मिठाई खिला कर प्रसन्न किया, फिर मनपसंद खिलौना दिलाने का वादा भी किया. पिंकू अपने जन्मदिन की पार्टी की बातें करता रहा था.

दोपहर 12 बजे वह आश्रम गईं, तो आते ही सारे कमरों का मुआयना शुरू कर दिया.

शिशु गृह में छोटे बच्चे थे, उन के लिए 2 आया नियुक्त थीं. एक दिन में रहती थी तो दूसरी रात में. पर कल रात तो जमुना भी रुकी थी. उस ने दोनों बच्चों को नहलाधुला कर साफ कपडे़ पहना दिए थे. छोटा पालने में सो रहा था और जमुना बच्ची के बालों में कंघी कर रही थी.

‘‘मम्मीजी, मैं ने इन दोनों बच्चों के नाम भी रख दिए हैं. इस छोटे बच्चे का नाम रघु और बच्ची का नाम राधा…हैं न दोनों प्यारे नाम,’’ जमुना ने अब तक अपना अपनत्व भी उन बच्चों पर उडे़ल दिया था.

सुमनलता ने अब बच्चों को ध्यान से देखा. सचमुच दोनों बच्चे गोरे और सुंदर थे. बच्ची की आंखें नीली और बाल भूरे थे.

अब तक दूसरे छोटे बच्चे भी मम्मीजीमम्मीजी कहते हुए सुमनलता के इर्दगिर्द जमा हो गए थे.

ये भी पढ़ें- Mother’s Day 2020: मेरी मां के नाम

सब बच्चों के लिए आज वह पिंकू के जन्मदिन की टाफियां लाई थीं, वही थमा दीं. फिर आगे जहां कुछ बडे़ बच्चे थे उन के कमरे में जा कर उन की पढ़ाईलिखाई व पुस्तकों की बाबत बात की.

इस तरह आश्रम में आते ही बस, कामों का अंबार लगना शुरू हो जाता था. कार्यों के प्रति सुमनलता के उत्साह और लगन के कारण ही आश्रम के काम सुचारु रूप से चल रहे थे.

3 माह बाद एक दिन चौकीदार ने आ कर खबर दी, ‘‘मम्मीजी, वह औरत जो उस रात बच्चों को छोड़ गई थी, आई है और आप से मिलना चाहती है.’’

‘‘कौन, वह गुड्डी? अब क्या करने आई है? ठीक है, भेज दो.’’

मेज की फाइलें एक ओर सरका कर सुमनलता ने अखबार उठाया.

‘‘मम्मीजी…’’ आवाज की तरफ नजर उठी तो दरवाजे पर खड़ी गुड्डी को देखते ही वह चौंक गईं. आज तो जैसे वह पहचान में ही नहीं आ रही है. 3 महीने में ही शरीर भर गया था, रंगरूप और निखर गया था. कानोें में लंबेलंबे चांदी के झुमके, शरीर पर काला चमकीला सूट, गले में बड़ी सी मोतियों की माला…होंठों पर गहरी लिपस्टिक लगाई थी. और किसी सस्ते परफ्यूम की महक भी वातावरण में फैल रही थी.

‘‘मम्मीजी, बच्चों को देखने आई हूं.’’

‘‘बच्चों को…’’ यह कहते हुए सुमनलता की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘मैं ने तुम से कहा तो था कि तुम अब बच्चों से कभी नहीं मिलोगी और तुम ने मान भी लिया था.’’

‘‘अरे, वाह…एक मां से आप यह कैसे कह सकती हैं कि वह बच्चों से नहीं मिले. मेरा हक है यह तो, बुलवाइए बच्चों को,’’ गुड्डी अकड़ कर बोली.

‘‘ठीक है, अधिकार है तो ले जाओ अपने बच्चों को. उन्हें यहां क्यों छोड़ गई थीं तुम,’’ सुमनलता को भी अब गुस्सा आ गया था.

‘‘हां, छोड़ रखा है क्योंकि आप का यह आश्रम है ही गरीब और निराश्रित बच्चों के लिए.’’

‘‘नहीं, यह तुम जैसों के बच्चों के लिए नहीं है, समझीं. अब या तो बच्चों को ले जाओ या वापस जाओ,’’ सुमनलता ने भन्ना कर कहा था.

‘‘अरे वाह, इतनी हेकड़ी, आप सीधे से मेरे बच्चों को दिखाइए, उन्हें देखे बिना मैं यहां से नहीं जाने वाली. चौकीदार, मेरे बच्चों को लाओ.’’

‘‘कहा न, बच्चे यहां नहीं आएंगे. चौकीदार, बाहर करो इसे,’’ सुमनलता का तेज स्वर सुन कर गुड्डी और भड़क गई.

‘‘अच्छा, तो आप मुझे धमकी दे रही हैं. देख लूंगी, अखबार में छपवा दूंगी कि आप ने मेरे बच्चे छीन लिए, क्या दादागीरी मचा रखी है, आश्रम बंद करा दूंगी.’’

चौकीदार ने गुड्डी को धमकाया और गेट के बाहर कर दिया.

सुमनलता का और खून खौल गया था. क्याक्या रूप बदल लेती हैं ये औरतें. उधर होहल्ला सुन कर जमुना भी आ गई थी.

‘‘मम्मीजी, आप को इस औरत को उसी दिन भगा देना था. आप ने इस के बच्चे रखे ही क्यों…अब कहीं अखबार में…’’

‘‘अरे, कुछ नहीं होगा, तुम लोग भी अपनाअपना काम करो.’’

सुमनलता ने जैसेतैसे बात खत्म की, पर उन का सिरदर्द शुरू हो गया था.

पिछली घटना को अभी महीना भर भी नहीं बीता होगा कि गुड्डी फिर आ गई. इस बार पहले की अपेक्षा कुछ शांत थी. चौकीदार से ही धीरे से पूछा था उस ने कि मम्मीजी के पास कौन है.

‘‘पापाजी आए हुए हैं,’’ चौकीदार ने दूर से ही सुबोध को देख कर कहा था.

गुड्डी कुछ देर तो चुप रही फिर कुछ अनुनय भरे स्वर में बोली, ‘‘चौकीदार, मुझे बच्चे देखने हैं.’’

‘‘कहा था कि तू मम्मीजी से बिना पूछे नहीं देख सकती बच्चे, फिर क्यों आ गई.’’

‘‘तुम मुझे मम्मीजी के पास ही ले चलो या जा कर उन से कह दो कि गुड्डी आई है…’’

कुछ सोच कर चौकीदार ने सुमनलता के पास जा कर धीरे से कहा, ‘‘मम्मीजी, गुड्डी फिर आ गई है. कह रही है कि बच्चे देखने हैं.’’

‘‘तुम ने उसे गेट के अंदर आने क्यों दिया…’’ सुमनलता ने तेज स्वर में कहा.

‘‘क्या हुआ? कौन है?’’ सुबोध भी चौंक  कर बोले.

‘‘अरे, एक पागल औरत है. पहले अपने बच्चे यहां छोड़ गई, अब कहती है कि बच्चों को दिखाओ मुझे.’’

‘‘तो दिखा दो, हर्ज क्या है…’’

‘‘नहीं…’’ सुमनलता ने दृढ़ स्वर में कहा फिर चौकीदार से बोलीं, ‘‘उसे बाहर कर दो.’’

सुबोध फिर चुप रह गए थे.

इधर, आश्रम में रहने वाली कुछ युवतियों के लिए एक सामाजिक संस्था कार्य कर रही थी, उसी के अधिकारी आए हुए थे. 3 युवतियों का विवाह संबंध तय हुआ और एक सादे समारोह में विवाह सम्पन्न भी हो गया.

सुमनलता को फिर किसी कार्य के सिलसिले में डेढ़ माह के लिए बाहर जाना पड़ गया था.

लौटीं तो उस दिन सुबोध ही उन्हें छोड़ने आश्रम तक आए हुए थे. अंदर आते ही चौकीदार ने खबर दी.

‘‘मम्मीजी, पिछले 3 दिनों से गुड्डी रोज यहां आ रही है कि बच्चे देखने हैं. आज तो अंदर घुस कर सुबह से ही धरना दिए बैठी है…कि बच्चे देख कर ही जाऊंगी.’’

‘‘अरे, तो तुम लोग हो किसलिए, आने क्यों दिया उसे अंदर,’’ सुमनलता की तेज आवाज सुन कर सुबोध भी पीछेपीछे आए.

बाहर बरामदे में गुड्डी बैठी थी. सुमनलता को देखते ही बोली, ‘‘मम्मीजी, मुझे अपने बच्चे देखने हैं.’’

उस की आवाज को अनसुना करते हुए सुमन तेजी से शिशुगृह में चली गई थीं.

रघु खिलौने से खेल रहा था, राधा एक किताब देख रही थी. सुमनलता ने दोनों बच्चों को दुलराया.

‘‘मम्मीजी, आज तो आप बच्चों को उसे दिखा ही दो,’’ कहते हुए जमुना और चौकीदार भी अंदर आ गए थे, ‘‘ताकि उस का भी मन शांत हो. हम ने उस से कह दिया था कि जब मम्मीजी आएं तब उन से प्रार्थना करना…’’

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं, बाहर करो उसे,’’ सुमनलता बोलीं.

सहम कर चौकीदार बाहर चला गया और पीछेपीछे जमुना भी. बाहर से गुड्डी के रोने और चिल्लाने की आवाजें आ रही थीं. चौकीदार उसे डपट कर फाटक बंद करने में लगा था.

‘‘सुम्मी, बच्चों को दिखा दो न, दिखाने भर को ही तो कह रही है, फिर वह भी एक मां है और एक मां की ममता को तुम से अधिक कौन समझ सकता है…’’

सुबोध कुछ और कहते कि सुमनलता ने ही बात काट दी थी.

‘‘नहीं, उस औरत को बच्चे बिलकुल नहीं दिखाने हैं.’’

आज पहली बार सुबोध ने सुमनलता का इतना कड़ा रुख देखा था. फिर जब सुमनलता की भरी आंखें और उन्हें धीरे से रूमाल निकालते देखा तो सुबोध को और भी विस्मय हुआ.

ये  भी पढ़ें- Mother’s Day 2020: और प्यार जीत गया

‘‘अच्छा चलूं, मैं तो बस, तुम्हें छोड़ने ही आया था,’’ कहते हुए सुबोध चले गए.

सुमनलता उसी तरह कुछ देर सोच में डूबी रहीं फिर मुड़ीं और दूसरे कमरों का मुआयना करने चल दीं.

2 दिन बाद एक दंपती किसी बच्चे को गोद लेने आए थे. उन्हें शिशुगृह में घुमाया जा रहा था. सुमन दूसरे कमरे में एक बीमार महिला का हाल पूछ रही थीं.

तभी गुड्डी एकदम बदहवास सी बरामदे में आई. आज बाहर चौकीदार नहीं था और फाटक खुला था तो सीधी अंदर ही आ गई. जमुना को वहां खड़ा देख कर गिड़गिड़ाते स्वर में बोली थी, ‘‘बाई, मुझे बच्चे देखने हैं…’’

उस की हालत देख कर जमुना को भी कुछ दया आ गई. वह धीरे से बोली, ‘‘देख, अभी मम्मीजी अंदर हैं, तू उस खिड़की के पास खड़ी हो कर बाहर से ही अपने बच्चों को देख ले. बिटिया तो स्लेट पर कुछ लिख रही है और बेटा पालने में सो रहा है.’’

‘‘पर, वहां ये लोग कौन हैं जो मेरे बच्चे के पालने के पास आ कर खडे़ हो गए हैं और कुछ कह रहे हैं?’’

जमुना ने अंदर झांक कर कहा, ‘‘ये बच्चे को गोद लेने आए हैं. शायद तेरा बेटा पसंद आ गया है इन्हें तभी तो उसे उठा रही है वह महिला.’’

‘‘क्या?’’ गुड्डी तो जैसे चीख पड़ी थी, ‘‘मेरा बच्चा…नहीं मैं अपना बेटा किसी को नहीं दूंगी,’’ रोती हुई पागल सी वह जमुना को पीछे धकेलती सीधे अंदर कमरे में घुस गई थी.

सभी अवाक् थे. होहल्ला सुन कर सुमनलता भी उधर आ गईं कि हुआ क्या है.

उधर गुड्डी जोरजोर से चिल्ला रही थी कि यह मेरा बेटा है…मैं इसे किसी को नहीं दूंगी.

झपट कर गुड्डी ने बच्चे को पालने से उठा लिया था. बच्चा रो रहा था. बच्ची भी पास सहमी सी खड़ी थी. गुड्डी ने उसे भी और पास खींच लिया.

‘‘मेरे बच्चे कहीं नहीं जाएंगे. मैं पालूंगी इन्हें…मैं…मैं मां हूं इन की.’’

‘‘मम्मीजी…’’ सुमनलता को देख कर जमुना डर गई.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चे दे दो इसे,’’ सुमनलता ने धीरे से कहा था और उन की आंखें नम हो आई थीं, गला भी कुछ भर्रा गया था.

जमुना चकित थी, एक मां ने शायद आज एक दूसरी मां की सोई हुई ममता को जगा दिया था.

Mother’s Day 2020: मां जल्दी आना

नानी का प्रेत: भाग-2

अकसर बैडरूम और खिड़की के आसपास डस्टिंग करते हुए एक शलवार कमीज पहने लाल बालों वाली एक डैनिश महिला दिखती. हर बार जब वह दिखती, तो सुषमा सोचती अगर इस वक्त कौसर दिखे तो वह उस से यह पूछने में नहीं चूकेगी कि आखिर यह महिला है कौन.

एक दिन कौसर बाहर निकल कर आ भी गई. वह लाल बालों वाली मैडम इस समय भी डस्टिंग में लगी थी. सुषमा ने दुनियाभर की बातें कर डालीं, तब तक डेजी भी आ गई थी. अचानक कौसर बोल उठी, ‘‘वैसे हसबैंड के बजाय आप ने कपड़े कैसे फैलाने शुरू कर दिए?’’

पहले तो सुषमा थोड़ी सहमी, फिर बोली, ‘‘हमारे यहां हर काम बांट कर करते हैं. इस में क्या खराबी है?’’

उस का इतना कहना  था कि डेजी ने फौरन अपना सुर्रा छोड़ दिया, ‘‘हांहां, आप ने हसबैंड का हाथ बंटाया, इस में क्या खराबी हो सकती है?’’ और दोनों औरतें खिलखिला कर हंसने लगीं.

सुषमा को उन का हंसना अच्छा नहीं लगा. उस की नजर एक बार फिर उस लाल बालों वाली महिला पर पड़ी और वह पूछ बैठी, ‘‘आप के कमरे में कौन सफाई कर रही हैं?’’

खिसियाने की अब इन दोनों की बारी थी. किस मुंह से कहतीं, जब ब्याह कर कौसर कोपनहेगन आई थी तो घर में मियां और देवर के अलावा, इन लाल बालों वाली को भी पाया था. डेजी तो चुप रही. अपनी खनकती आवाज में कौसर ने ही जवाब दिया, ‘‘ये तो मेरी आपा हैं.’’

ये भी पढ़ें- मुख्यमंत्री की प्रेमिका: क्या था मीनाक्षी के खूबसूरत यौवन के पीछे का सच?

एक और सबक जो नानी ने सुषमा को सिखाया, वह था कि सुंदर तो तुम हो लेकिन असली सुंदरी वह है जो अंगअंग से सुंदर हो, हर तौर से सुंदर. जो बात बोले, ऐसे जोर दे कर बोले कि सुनने वाले को उस का परम दरजा महसूस हो. नाक उठा कर बोले, जब बोले, ‘मैं लेडी श्रीराम कालेज का माल हूं,’ तो यह लगे कि सामने मिसेज प्रसाद नहीं वरन शंभु नाम के बंदर के साथ खुद लेडी श्रीराम खड़ी हैं.

‘ज्यादा खुश न दिखा करो. थोड़ा चिड़चिड़ाना सीखो,’ नानी ने उस के दिमाग में यह बात भी डालनी शुरू कर दी. वह पूछेगा, ‘अब क्या हुआ जानी.’

तुम उस को जवाब घूर कर देना. ऐसे घूरना कि वह वहीं का वहीं गड़ा रहे. थोड़ा रुक कर ही कहना, ‘दिनभर खुद तो मटरगश्ती करते हो और मैं घर में पड़ेपड़े सड़ती रहती हूं.’

उस ने ऐसा ही किया. शंभु ने इस पर बड़े प्यार से, जानीजानू कह कर उस से कहा, ‘‘तुम यहां की कम्यून द्वारा चलाई गई डैनिश भाषा की क्लासेस में क्यों नहीं जातीं? कुछ यहां की भाषा भी सीख लोगी और नए लोगों से मिलोगी तो मन बहला रहेगा.’’

इस पर सुषमा ने जो जवाब दिया उस पर गौरव महसूस किया नानी ने, ‘‘क्यों, मुफ्त वाली क्लासें क्यों जौइन करूं मैं? क्या मैं किसी गएगुजरे खानदान से आई हूं कि अनपढ़गंवार इमिग्रेंट लोगों के साथ बैठ कर क्लास में जाऊं? याद रखो, मैं लेडी श्रीराम की पढ़ी हूं.’’

शंभु की इतनी हैसियत नहीं थी कि सुषमा को प्राइवेट क्लास के लिए भेज पाता, सो अपना सा मुंह ले कर औफिस चला गया.

सुषमा ने यह पाठ ठीक से सीख लिया था और अकसर ऐसे ही तुनक कर बोलती थी. शंभु पर भी लगता है इस का असर हुआ. बेहतर, ज्यादा कमाई वाला काम ढूंढ़ने में लग गया. अमेरिका में भी काम की खोज शुरू कर दी. इधर बिना कुछ कहे, सुषमा ने कम्यून की क्लासें लेनी शुरू कर दीं. नए दोस्त बने. जिम भी जाने लगी. जीवन में काफी सुधार आ गया. मगर शंभु के साथ तुनकमिजाजी बरकरार रही.

एक बार तो शंभु के साथ अपने नए डैनिश मित्रों के यहां गई. उन के यहां के कुत्ते को बड़े प्यार से पुचकारने लगी, उस को दुलारने लगी. फिर एक नजर शंभु पर डाली. उसे कुत्तों से डर लगता था. दूर, सीधा सा खड़ा था. डैनिश मित्रों ने कहा कि हम कुत्ते को बाहर कर देते हैं तो जोर से सुषमा बोली, ‘‘अरे, क्या बात कर रहे हैं? यह हमारा घर है या कुत्ते का? कुत्ता क्यों बाहर जाएगा? नहीं, इसे बाहर न करिए,’’ फिर शंभु पर नजर फेंक कर जोर से हंसने लगी, ‘‘वह देखिए, कैसे पथरा गया है शंभु?’’

अब शंभु पिटापिटा सा दिखने लगा था. रोज औफिस जाता, ज्यादा काम करने लगा था, देर से वापस आता, चुप सा, डरा सा रहता. सुषमा को बातबात पर उस का मजाक उड़ाने का चसका लग गया. नानी को वह पलपल की खबर देती. नानी को सुकून मिलता कि उस की सुषमा तैयार हो गई.

नानी ने उसे एक और सीख दी कि ‘‘बेटा, जो भी हो, है तो तेरा पति. तू ने पति को अंगूठे के नीचे रखना सीख लिया. अच्छा है. मगर ऐसा न होने देना, मेरी बेबी, कि वह तुझ से नफरत करने लगे. औरत के जीवन में भावों के थान भरे हैं. प्रेम तो सिर्फ एक कतरन है. इस के लत्ते उड़ जाएं, कुछ ज्यादा नुकसान नहीं होता. मगर इस कतरन में एक डोरा है जो काम का है, वह है वासना वाला डोरा. वह गोश्त के उस रेशे की तरह होता है जो महीन होने के बावजूद, दांत से काटो, नहीं कटता. बस, वह वासना वाला डोरा संभाल के रखना.’’

यह बात सुषमा ने ठीक से नहीं सुनी क्योंकि इस बात पर वह जोर से हंस दी.

ये भी पढ़ें- Short Story: एक कागज मैला सा- क्या था मैले कागज का सच?

शंभु पर तो सुषमा ने नानी का फार्मूला आजमाया नहीं पर कहीं और चल गया. शंभु के औफिस जाने के बाद वह देर तक कटोरे में परसे कौर्नफ्लैक्स को देखती और मंदमंद मुसकराती रहती. अब वह बहुत बेचैनी से इंतजार करती कि कब जिम जाने का टाइम हो, कपड़े बदले. जिम के लिए निकलते समय लगता मानो वह उड़ रही हो.

हुआ यह कि एक दिन जिम में बड़ी देर से वह साइकिल चला रही थी. किताब जो अब हरदम साथ रखती है, उसे पढ़ रही थी. तभी जिम सहायक 35-40 साल के एक अंधे आदमी को सहारा देते हुए उस ट्रेडमिल पर ले आया जो सुषमा की साइकिल के बगल में थी. उसे थोड़ी हैरानी हुई, सोचा कि एक अंधा आदमी ट्रेडमिल पर चढ़ेगा? थोड़ी देर उस की गति ही देखती रही. अभी 5 मिनट भी नहीं बीते होंगे उसे शुरू हुए, अचानक वह बोला, ‘‘इतनी अच्छी महक, लगता है आज मेरा लकी डे है. मिस वर्ल्ड के निकट रहने को मिल रहा है.’’

आगे पढ़ें- सुषमा ने सिर हिला दिया. फिर…

नानी का प्रेत: भाग-1

सुषमा की शादी हुई थी और वह पहुंच गई थी मानव लोक के डैनमार्क देश की खूबसूरत कोपनहेगन नगरी में. शुरू में इस गजब के शहर में पहुंच कर वह अपना अहोभाग्य ही मानती रही. चारों तरफ लंबे, सुनहरे बालों वाली जलपरियों समान लड़कियां, लंबेतड़ंगे गबरू जवान, हंसों से लदे तालाबों वाले हरेहरे उपवन, मजबूत खड़े मकान, चौड़ी मगर खाली सड़कें. धूप हो, पानी बरसे या बर्फ गिरे, यहां के लोगों को अपनी साइकिलें ऐसी प्यारी हैं जैसे पुराने जमाने के राजपूतों को अपनेअपने चेतक थे. पता चला कि इतनी आराम की जिंदगी बिताते हैं ये डैनिश लोग कि यहां के हर 10वें आदमी को शराब की लत लगी हुई है और हर दूसरा जोड़ा बिना मनमुटाव के शादी तोड़ देता है. मालूम चला कि यहां शादियां इस वजह से टूटती हैं कि यहां की औरतें अपने जीवनकाल में अन्य आदमी भी आजमाना चाहती हैं.

सुषमा सुंदर तो थी ही, जब उस की शादी उस लड़के से तय हुई जो दूसरे देश में इंजीनियर था तो सब ने खुशी जाहिर की थी. पर कोपनहेगन आ कर उसे कुछ ही दिनों में पता चल गया कि वह ऐसे देश में है जहां की बोली उस के लिए गिटपिट है.

पढ़ीलिखी होने के बावजूद वह न काम कर सकती है न बाहर जा कर लोगों से बातें. पति शंभु और उस के परिवार वालों पर सुषमा को बड़ा गुस्सा आया. सुषमा के लिए कई अच्छे रिश्ते आए थे और दोएक अमेरिका के भी थे. उसे लगने लगा कि उन लोगों ने लड़की ले कर ठग लिया था और जो हुआ था वह घाटे का सौदा था.

सुषमा ने नानी को फोन किया. वे थीं तो पुराने जमाने की पर थीं बहुत ही चतुर. उन्होंने सुषमा के पिता को जीवनभर मां की जीहुजूरी के लिए मजबूर किया. उन्हें कम पढे़लिखे होने के बावजूद जिंदगी का पूरा अनुभव था. सुषमा के नाना उन के इशारों पर नाचते थे और पिता ही नहीं सुषमा के दादादादी भी उन के हाथों नाचते रहे. ऊपर से मौसियां भी, जिन्होंने मां को औरत के सब हथियार सिखाए. नानी ने तय कर लिया कि सुषमा को जरूरत है अपनी जिंदगी को पूरी तरह अपने वश में करने की. सो, उन्होंने सोचा कि अपनी बिटिया को खुद्दारी का पाठ सिखाने का वक्त आ गया है.

ये भी पढें- Short Story: मिसफिट पर्सन- जब एक नवयौवना ने थामा नरोत्तम का हाथ

‘‘वह मर्द है तो क्या हुआ. तेरे पास औरत वाले हथियार हैं. उन का इस्तेमाल कर,’’ नानी ने कहा.

मर्द को नामर्द कैसे बनाते हैं, यह नानी ने सुषमा को सिखाने की ठान ली.

पहली बात जो सिखाई वह यह कि चाहे कुछ हो जाए, अपने पति की तारीफ कभी न कर. यह पाठ उसे घुट्टी में घोल कर ऐसा पिलाया कि जब कोई इन दोनों से मिलने आता तो बात करतेकरते न जाने कैसे बात को घुमा देती और शुरू हो जाती नानी की लाड़ली अपने पापा की तारीफ के पुल बांधने.

‘‘गाड़ी तो मेरे पापा की तरह कोई चला ही नहीं सकता. कैसी नक्शेबाजी से चलाते हैं.’’

और जब शुरू हो जाती तो वह बोलती चली जाती. मेहमान शालीनता से सुनते रहते और जमाईजी का सिर धीरेधीरे झुकता जाता. सूरजमुखी को पानी यदि मिलना कम हो जाए तो उस का फूल झुकता जाता है, फिर वह फूल ऐसी तेज प्यास से तड़पता है कि अचानक लुढ़क जाता है. ठीक वैसे ही दामादजी भी अपने ससुर की तारीफ सुनतेसुनते एकाएक लुढ़क जाते. सिर को वहीं मेहमान के सामने सुषमा की गोद में टिका कर कहते, ‘‘पापा के लिए इतना कुछ और मुझ में तुम्हें तारीफ लायक एक चीज नहीं दिखती?’’

फिर, ‘‘ग्रो अप शंभु,’’ कह कर नानी की चतुर चेली संभाल कर उस का सिर गोद से हटा देती.

एक सबक और दिया नानी ने, उसे याद दिलाया कि तुम औरत हो, यही तुम्हारा सब से बड़ा हथियार है. कह दो कि इतना काम बिना नौकरचाकर के अकेले कैसे होगा.

एक दिन इतने कपड़े इकट्ठे हो गए कि औफिस जाने से पहले शंभु दूसरे कमरे से चिल्लाया, ‘‘सुषमा, मेरी गुलाबी वाली कमीज नहीं मिल रही है…और अगर अंडरवियर मिल जाता तो…’’

उस दिन सुषमा को नानी का सिखाया हुआ बोलने में थोड़ी दिक्कत हुई. वह मात्र इतना बोल पाई कि वे सब चीजें लौंड्री में होंगी. अभी थोड़ी तबीयत खराब है, जब ठीक हो जाएगी तो वह लौंड्री कर लेगी.

शंभु चुपचाप औफिस चला गया. वापस आया तो पूरी लौंड्री की. फिर अगले दिन सुबह जल्दी उठ कर पिछवाड़े में अरगनी पर कपड़े फैला दिए. फिर तो रोज औफिस से लौट कर कपड़े धोना, बाहर फैलाना और सूखने पर उन्हें वापस लाना और तह कर के ड्रैसर में सही जगह रखना उस का काम बन गया. बस, कपड़ों की इस्त्री नहीं करता था, यह बात नानी ने सुषमा के जेहन में डालने की बड़ी कोशिश की, मगर वह ऐसी गाय थी कि वह शंभु से इस्त्री करने को न कह सकी.

खिड़की से अकसर सुषमा नीचे देखती थी कि शंभु जब अरगनी से कपड़े उठाता था, तो पड़ोस की और औरतें भी आ कर कपड़े फैलाने या उठाने में लग जातीं, साथ में उस से बतियाती भी थीं. जल्द ही कांप्लैक्स की कई औरतों के साथ शंभु की खासी दोस्ती हो गई.

ये भी पढ़ें- Short Story: न्यायदंश- क्या दिनदहाड़े हुई सुनंदा की हत्या का कातिल पकड़ा गया?

जुलाई के महीने में एक दिन बड़ी बढि़या धूप खिली थी. शायद कौंप्लैक्स की डैनिश औरतों को इसी दिन का इंतजार था. तितलियों की तरह अपनेअपने फ्लैटों से बाहर पिछवाड़े में निकल आईं और लगीं उतारने ऊपर के अपने सब कपड़े. बदन पर क्रीम मलने के बाद पूरे 2 या 3 घंटे लेटी रहीं, धूप सेंकती रहीं.

शंभु को बड़ा मजा आया खिड़की से यह नजारा देख कर. इस बात पर सुषमा उत्तेजित हो रही थी. गुस्से में नीचे उतरी और सारे कपड़े उठा कर ले आई. उस दिन के बाद से कपड़ों का काम उस ने फिर अपने जिम्मे ले लिया. किसी हाल में वह शंभु को इन औरतों के पास फटकने नहीं देना चाहती थी. समय के साथ ये औरतें भी सुषमा की सहेलियां बन गईं.

नीचे के फ्लैट में 2 पाकिस्तानी भाइयों के परिवार रहते थे. सुषमा की दोनों भाइयों की बीवियों से दोस्ती भी हो गई. कौसर और डेजी नाम थे उन के. अरगनी कौसर के बैडरूम के एकदम सामने थी.

आगे पढ़ें- हर बार जब वह दिखती, तो सुषमा सोचती…

नानी का प्रेत: भाग-3

सुषमा ने किताब से मुंह उठा कर उस आदमी से डैनिश में पूछा,

‘‘क्या आप ने मुझ से कुछ कहा?’’

‘‘वाह, क्या आवाज है? और वह ऐक्सैंट. क्या आप भारत की रहने वाली हैं?’’

सुषमा ने सिर हिला दिया. फिर यह सोच कर कि भला सिर का हिलाना इसे क्या दिखाई देगा, बोली, ‘‘हां, मैं भारत से हूं,’’ कह कर साइकिल का पैडल तेज चलाने लगी.

‘‘आह,’’ बड़ी लंबी आह ली थी उस ने, ‘‘भारत तो मेरा सब से प्रिय देश है. मेरे लिए भारत साल में एक बार जाना जरूरी है. हर साल जाता हूं.’’

‘‘हैं…’’ विश्वास नहीं हुआ सुषमा को. यह हर साल वहां करता क्या है? एक अंधे आदमी के लिए भारत जाना या चीन जाना तो एक ही बात हुई न. दिखता तो कुछ है नहीं इन लोगों को. तो भला क्यों कोई पैसा बरबाद करे इन दूरदराज देशों में जा कर.

सुषमा इस अचंभे में ही थी. उस ने कई सवाल दाग दिए. इतने सवाल सुन कर वह हंस दिया, बोला, ‘‘अगर आप बुरा न मानें तो कहीं बैठ कर बातें करें. आप को अपने सवालों के जवाब मिल जाएंगे, मुझे यह कहने को मिल जाएगा कि आज मैं ने एक भारतीय राजकुमारी के साथ बैठ कर कौफी पी.’’

उस निगोड़े के बस 3 शब्दों से सुषमा की बाछें खिल गईं. एक अनजान आदमी के साथ वह कौफी पीने को तैयार भी हो गई. सुषमा बोली, ‘‘ठहरिए, मैं जरा क्विक शावर ले लूं. आई ऐम स्ंिटकिंग.’’

वह हलका सा हंसा और कहने लगा, ‘‘पता नहीं, आप समझ पाएं या नहीं, लेकिन जैसे अकसर लोग कहते हैं, नैचुरल ब्यूटी इस द रीयल ब्यूटी, उसी तरह हम ब्लाइंड लोग कहते हैं, नैचुरल स्मैल इस द रीयल स्मैल. इसे आप धोइए नहीं, प्लीज.’’

इस वार्त्तालाप को सुन कर सुषमा सिहर उठी.

ये भी पढें- डायरी: मानसी को छोड़ अनुजा से शादी क्यों करना चाहता था विपुल?

वे दोनों उस दिन मिले. खूब बातें कीं. वह स्कूल में टीचर था. सुषमा को हैरानी हुई कि इस देश में आंखों से गए आदमी के लिए भी काम है, मगर सुषमा जैसी पढ़ीलिखी, अच्छीखासी, भले नाकनक्श वाली के लिए कुछ उपलब्ध नहीं.

उस ने सुषमा को बताया कि हर गरमी व जाड़ों की छुट्टियों में वह दुनिया के किसी न किसी कोने में जाता है. वहां की आवाजें, ‘‘उफ वह बछड़ों का मिमियाना, वह हाथियों की चिंघाड़, वह चिडि़यों की चींचीं, मोरों की चीख, वे आवाजें जब मेरे कानों पर पड़ती हैं, तो निकाल लेता हूं मैं अपनी बांसुरी, और मिला देता हूं उस उन्माद में अपने भी राग. मुझे तो तुम्हारे देश की टिड्डों की चरमराहट, गायों की रंभाहट, कबूतरों की गुटरगूं और आदमियों की अजीब फुसफुसाहट, गीत और वार्त्तालाप सुनते ही जैसे कुछ हो जाता है.’’

सुषमा किसी और ही दुनिया में खो चुकी थी जबकि वह अपनी बात जारी रखे था.

‘‘ओह, एअरपोर्ट पर उतरते ही जब फिनौल में सींची हवा मेरी नाक में घुसती है तो मुझे लगता है पूरा हिंदुस्तान मुझे आलिंगन में भर रहा है. फिर बाहर निकल कर प्लास्टिक और कागज जल कर मेरा भरपूर स्वागत करते हैं, मैं खुश हो जाता हूं. रास्ते चलते पेशाब और पसीने की बू के बीच, अचानक चमेली की सुगंध उड़ के आती है और मैं समझ जाता हूं कि एक भारतीय हसीना नजदीक से गुजरी है. कहीं प्याज भुन रहा है, घर की महिला खाना तैयार करने में लगी है, मांस जलने की बू आती है तो मैं गंगाजी का किनारा ढूंढ़ने लगता हूं. अगरबत्ती की महक आते ही तो मैं हाथ जोड़ कर जिसे भारत में भगवान कहा जाता है, नमस्कार कर लेता हूं. साफस्वच्छ जगह ढूंढ़ कर बैठ जाता हूं. नई कविता लिखने लगता हूं. तुम्हारे देश में कितना जादू है, सुषमा.’’

एक शादीशुदा औरत और अंधे आदमी के बीच बातचीत खुशनुमा माहौल में होती रही. बाद में सुषमा ने नानी को बात बताई तो उन्होंने माथा ऐसे पीटा कि सुषमा को फोन पर ही पता चल गया.

महीना बीत गया, दोनों यों ही मिलते रहते हैं. वह सुषमा को दुनियाभर की बातें बताता रहता है. हांहां, उस ने दुनिया जो खूब देख रखी है. और सुषमा चुपचाप उस की वीरान, पोली आंखों में डूबने की कोशिश करती रहती है.

नानी से यह अधर्मी बात नहीं देखी जाती. कितनी शान से नानी ने अपनी बिरादरी का होनहार लड़का ढूंढ़ कर इसे घर से विदा किया था. अब तो शंभु की शक्ल से ही इसे नफरत हो गई है. वैसे ही देर से लौट कर आता है बेचारा, अगर वह सोती हुई न मिले तो मुंह से सुर्रे छोड़ती है, ‘क्या, तुम फिर वापस आ गए?’ बेचारे शंभु का बुरा हाल हो रहा था.

नानी को अब अफसोस हो रहा था. हालांकि सुषमा का सारा घाघपना उन का ही सिखाया हुआ है.

इधर कुछ दिनों से शंभु, जो बहुत ही भोला है, को सुषमा पर शक होने लगा है. मच्छर से भी छोटी एक आवाजभर थी, उसे भी इस लड़की ने अपनी उंगलियों के बीच मसल कर रख दिया. फिलहाल, शंभु ने समझना चाहाभर ही था कि मामला खुदबखुद सामने आ गया. दरअसल, सुषमा के होश ऐसे गुम हुए हैं कि वह खुलेआम उस अंधे के साथ घूमती है, घर भी ले आती है.

एक दिन शंभु औफिस से दोपहर को ही वापस आ गया. घर में पराए मर्द को देख कर बौखला गया. जब वह आदमी चला गया तो शंभु फूटफूट कर रोने लगा, बोला, ‘‘मैं तुम्हारे पापामम्मी को फोन करने जा रहा हूं.’’

सुषमा ने बड़ी क्रूरता से कहा, ‘‘मेरे सामने बिलखने से मन नहीं भरा, अब दुनिया के सामने गिड़गिड़ाने का जी कर रहा है. फोन करना है तो करो, मुझे क्यों बता रहे हो?’’

पता नहीं उस दिन शंभु ने फोन क्यों नहीं किया? करता, तो शायद बात थोड़ी सुधर जाती.

एक दिन हाथ में हाथ डाल कर जा रहे थे ये लैलामजनूं. सामने से कौसर और डेजी आंख चुरा कर निकल गईं, फिर भी उस बेशर्म लड़की ने जोर से उन दोनों को ‘हाय’ कर दिया. पीछे से शायद डेजी से रहा नहीं गया. चिल्ला कर हिंदी में पूछ बैठीं, ‘‘मुझे तो यह समझ नहीं आता कि आप के हसबैंड यह सब बरदाश्त कैसे कर लेते हैं?’’

यह सुनना भी काफी नहीं था सुषमा के लिए, छूटते ही कह दिया, ‘‘मेरे हसबैंड यह सब वैसे ही बरदाश्त कर लेते हैं जैसे आप की कौसर दीदी उन लाल बालों वाली मैडम को बरदाश्त कर लेती हैं.’’

ये भी पढ़ें- Short Story: पतिहंत्री- क्या प्रेमी के लिए पति को मौत के घाट उतार पाई अनामिका?

एक दिन शंभु बड़ा खुश, धड़ल्ले से घर में घुसा. सुषमा सिगरेट फूंक रही थी. फिर भी, वैसे ही हंसतेहंसते उस भले लड़के ने उसे खींच कर उठाया और कहा, ‘‘चलो, सुषमा. हमारी सारी मुश्किलें खत्म हो गईं. यह देखो, टिकट. हम आज ही अमेरिका जा रहे हैं. मुझे वहां बड़ी अच्छी नौकरी मिल गई है. देखना, अब सब ठीक हो जाएगा.’’

सुषमा की आंखों में घृणाभरी थी. धक्का दे कर चिल्लाई, ‘‘तुम मुझ से दूर ही रहो तो अच्छा होगा. मुझे नहीं जाना अमेरिका. मैं तो यहीं रहूंगी. तुम्हें जाना है तो जाओ.’’

फिर पास की दराज खींच कर कागज निकाला और बोली, ‘‘लेकिन जाने से पहले इस पर अपने साइन कर के जाना.’’

वह कागज तलाकनामे का था. उस में लिखा था कि शंभु प्रसाद और सुषमा प्रसाद खुशीखुशी अपनी शादी रद्द करना चाहते हैं.

कागज देख कर शंभु की आंखें भर आईं. मुंह से सिर्फ ‘नहीं’ ही निकल पाया. नजरें उठा कर जब सुषमा को देखा तो शक्ल देख कर कांप गया. एकदम खूंखार लग रही थी. हाथ में पैन पकड़े हुई थी. आंखें फाड़फाड़ कर सिगनल भेज रही थी कि फौरन साइन करो.

शंभु ने अपने हस्ताक्षर उस कागज पर कर दिए और कागज ले कर व पर्स उठा कर वह बाहर निकल गई. शंभु बिस्तर पर लेट कर देर तक रोता रहा.

शाम को जब वह वापस आई तब शंभु एक छोटे से बक्से में अपनी एक गुलाबी और एक पीली कमीज, 4-5 अंडरवियर, एक स्वेटर और जींस रख घर से निकल रहा था. सुषमा ने एक नजर उस पर डाली पर एक शब्द तक नहीं कहा.

हवाई जहाज में वह रास्तेभर सामने की ट्रे पर सिर टिकाए रोए जा रहा था. पास में बैठा यात्री तक शर्मिंदा हो रहा था.

सुषमा ने नानी को फोन कर पूरी बात बता दी. और यह भी कि नानी अब उस के फोन का इंतजार न करें क्योंकि जिस के साथ वह रहने जा रही है, वह आंखों वाला न हो कर भी बहुत कुछ जान लेता है. उसे वह भरपूर तरह से जीना चाहती है, बिना नानी के प्रेत के साथ.

ये भी पढ़ें- Short Story: अब तो जी लें- रिटायरमैंट के बाद जब एक पिता हुआ डिप्रेशन का शिकार

डायरी: भाग-2

कालेज की अन्य सहेलियां मानसी की नजरों में विपुल के प्रति उठ रहे जज्बातों को पढ़ने में सक्षम होने लगी थीं. वे अकसर मानसी को विपुल के नाम से छेड़तीं. कुछ लड़कियां विपुल को मानसी का बौयफ्रेंड तक बुलाने लगी थीं. ऐसी संभावना की कल्पना मात्र से ही मानसी का मन तितली बन उड़ने लगता. चाहती तो वह भी यही थी मगर कहने में शरमाती थीं. सहेलियों को धमका कर चुप करा देती. बस चोरीछिपे मन ही मन फूट रहे लड्डुओं का स्वाद ले लिया करती.

“कल मूवी का कार्यक्रम कैसा रहेगा?”, मानसी के प्रश्न उछालने पर अनुजा इधरउधर झांकने लगी.

विपुल बोला, “कौन सी मूवी चलेंगे? मुझे बहुत ज्यादा शौक नहीं है फिल्म  देखने का.”

“लगता है तुम दोनों पिछले जन्म के भाईबहन हो. अनुजा को भी मूवी का शौक नहीं. उसे तो बस कोई किताबें दे दो, तुम्हारी तरह. लेकिन कभीकभी दोस्तों की खुशी के लिए भी कुछ करना पड़ता है तो इसलिए इस शनिवार हम तीनों फिल्म देखने जाएंगे, मेरी खुशी के लिए”, इठलाते हुए मानसी ने अपनी बात पूरी की.

विपुल के चले जाने के बाद अनुजा, मानसी से बोली, “तुम दोनों ही चले जाना फिल्म देखने. तुम्हारे साथ होती हूं तो लगता है जैसे कबाब में हड्डी बन रही हूं.”

“कैसी बातें करती हो? ऐसी कोई बात नहीं है. हम दोनों सिर्फ अच्छे दोस्त हैं,” मानसी ने उसे हंस कर टाल दिया.

जब तक विपुल के मन की टोह न ले ले, मानसी अपने मन की भावनाएं जाहिर करने के लिए तैयार नहीं थी.

 

“जो कह रही हूं, कुछ सोचसमझ कर कह रही हूं. तेरी आंखों में विपुल के प्रति आकर्षण साफ झलकता है. पता नहीं उसे कैसे नहीं दिखा अभी तक”, अनुजा की इस बात सुन कर मानसी के अंदर प्यार का वह अंकुर जो अब तक संकोचवश उस के दिल की तहों के अंदर दब कर धड़क रहा था, बाहर आने को मचलने लगा.

विपुल को देख कर उसे कुछ कुछ होता था, पर यह बात वह विपुल को कैसे कहे, इसी उधेड़बुन में उस का मन भटकता रहता.

‘अजीब पगला है विपुल. इतने हिंट्स देती हूं उसे पर वह फिर भी कुछ समझ नहीं पाता. क्या मुझे ही शुरुआत करनी पड़ेगी…’, मानसी अकसर सोचा करती.

*आजकल* मानसी का मन प्रेम हिलोरे खाने लगा था. विपुल को देखते ही उस के गालों पर लालिमा छा जाती. अब तो उस का दिल पढ़ाई में बिलकुल भी न लगता. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ प्यारभरी मीठी बातें करे. जब भी वह विपुल से मिलती, चहक उठती. उस का मन करता कि विपुल उस के साथ ही रहे, छोड़ कर न जाए. आजकल वह प्रेमभरे गीत सुनने लगी थी और अपने कमजोर शब्दकोश की सहायता से प्यार में डूबी कविताएं भी लिखने लगी थी. लेकिन यह सारे राज उस ने अपनी निजी डायरी में कैद कर रखे थे. विपुल तो क्या, अनुजा भी इन गतिविधियों से अनजान थी.

ये भी पढ़ें- गहराइयां: बीवी से खफा विवान जब आयुषी के प्यार में पड़ा

*उस* शाम जब अनुजा किसी काम से बाहर गई हुई थी तो विपुल रूम पर आया. मानसी तभी सिर धो कर आई थी और उस के गीले बाल उस के कंधों पर झूल रहे थे. मानसी अकसर अपने बालों को बांध कर रखा करती थी मगर आज उस के सुंदर केश बेहद आकर्षक लग रहे थे.

“आज तुम बहुत सुंदर लग रही हो. अपने बालों को खोल कर क्यों नहीं रखतीं?” विपुल ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मेरे बाल अच्छे लगते हैं, मैं नहीं?”, मानसी ने खुल कर सवाल पूछे तो उत्तर में विपुल शरमा कर हंस पड़ा.

दोनों नोट्स पूरे करने बैठ गए.

“ओह, कितनी सर्दी हो रही है आजकल. यहां बैठना असहज हो रहा है. चलो, अंदर हीटर चला कर बैठते हैं”, कहते हुए मानसी विपुल को बैडरूम में चलने का न्योता देने लगी.

“आर यू श्योर?”, विपुल इस से पहले कभी अंदर नहीं गया था. जब भी आया बस लिविंगरूम में ही बैठा.

“हां.. हां…. चलो अंदर आराम से बैठ कर पढ़ेंगे. फिर मैं तुम्हें गरमगरम कौफी पिलाऊंगी.”

विपुल और मानसी दोनों बिस्तर पर बैठ कर पढ़ने लगे. मानसी ने तह कर रखी रजाई पैरों पर खींच लीं. दोनों सट कर बैठे पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली कड़कने लगी. हलकी सी एक चीख के साथ मानसी विपुल से चिपक गई, “मुझे बिजली से बहुत डर लगता है. जब तक अनुजा वापस नहीं आ जाती प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाना.”

ये भी पढ़ें- रिश्ता और समझौता: अरेंज मैरिज के लिए कैसे मान गई मौर्डन सुमन?

“ठीक है, नहीं जाऊंगा. डरती क्यों हो? मैं हूं न”, विपुल उस की पीठ सहलाते हुए बोला.

फिर एक बात से दूसरी बात होती चली गई. बिना सोचे ही विपुल और मानसी एकदूसरे की आगोश में समाते चले गए. कुछ ही देर में उन्होंने सारी लक्ष्मणरेखाएं लांघ दीं. बेखुदी में दोनों जो कदम उठा चुके थे उस का होश उन्हें कुछ समय बाद आया.

बाहर छिटपुट रोशनी रह गई थी. सूरज ढल चुका था. कमरे में अंधेरा घिर आया. मानसी धीरे से उठी और कमरे से बाहर निकल गई. विपुल भी चुपचाप बाहर आया और कुरसी खींच कर बैठ गया. दोनों एकदूसरे से कुछ कह पाते इस से पहले अनुजा वापस आ गई. उस के आते ही विपुल “देर हो रही है,” कह कर अपने घर चला गया. जो कुछ हुआ वह अनजाने में हुआ था मगर फिर भी मानसी आज बेहद खुश थी. उसे अपने प्यार का सानिध्य प्राप्त हो गया था. आगे आने वाले जीवन के सुनहरे स्वप्न उस की आंखों में नाचने लगे. आज देर रात तक उस की आंखों में नींद नहीं झांकी, केवल होंठों पर मुस्कराहट  तैरती रही.

“क्या बात है, आज बहुत खुश लग रही हो?” अनुजा ने पूछा तो मानसी ने अच्छे मौसम की ओट ले ली.

*अगले* दिन विपुल मानसी के रूम पर उसे पढ़ाने नहीं आया बल्कि कालेज में भी कुछ दूरदूर ही रहा. करीब 4 दिनों के बाद मानसी कालेज कैंटीन में बैठी चाय पी रही थी कि अचानक विपुल आ कर सामने बैठ गया. उसे देखते ही मानसी का चेहरा खिल उठा.

“हाय, कैसे हो?”, मानसी ने धीरे से पूछा.

पर विपुल को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वह पतला हो गया हो.

‘तो क्या विपुल बीमार था, इस वजह से दिखाई नहीं दिया’, मानसी सोचने लगी, ‘और मैं ने इस का हालतक नहीं पूछा. मन ही मन मान लिया कि उस दिन की घटना के कारण शायद विपुल सामना करने में असहज हो रहा हो.’

“मानसी, मैं तुम से कुछ बात करना चाहता हूं. उस शाम हमारे बीच जो कुछ हुआ वह… मैं ने ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था. बस यों ही अकस्मात हालात ऐसे बनते चले गए. प्लीज, हो सके तो मुझे माफ कर दो और इस बात को यहीं भूल जाओ. मैं भी उस शाम को अपनी याददाश्त से मिटा दूंगा.”

‘तो इस कारण विपुल पिछले कुछ दिनों से रूम पर नहीं आया.’ मानसी का शक सही निकला. उस दिन की घटना के कारण ही विपुल मिलने नहीं आ रहा था.

ये भी पढ़ें- Short Story: छठी इंद्रिय- छोटी उम्र के प्रत्यूष के साथ गीत के रिश्ते की कहानी

उस शाम मानसी को विपुल का साथ अच्छा लगा था. वह पहले से ही विपुल की ओर आकर्षित थी. अब यदि उस का और विपुल का रिश्ता आगे बढ़ता है तो मानसी को और क्या चाहिए. वह खुश थी मगर आज विपुल की इस बात पर उस ने ऊपर से केवल यही कहा, “मैं ने बुरा नहीं माना, विपुल. मैं तो उस बात को एक दुर्घटना समझ कर भुला भी चुकी हूं. तुम भी अपने मन पर कोई बोझ मत रखो.”

आगे पढ़ें- मानसी चाहती थी कि अब उसका और विपुल का प्यार…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें