नई कालोनी: जब महरी को दिखा तेंदुआ

आधुनिक स्कूलों की जाती एसी बसों में भारी बस्ते लिए बच्चे चढ़ रहे थे. उन की मौडर्न मांएं कैपरीटीशर्ट के ऊपर लिए दुपट्टे को संभालती हुई बायबाय कर रही थीं. कारें दफ्तरों, कारोबारों की तरफ रवाना हो रही थीं. पिछली सीट पर अपने सैलफोन में व्यस्त साहब लोग गार्ड्स के सलाम ठोकने को आंख उठा कर नहीं देखते. 11, 13 और 15 बरस की महरियां काम पर आ रही थीं और कालोनी के सुरक्षा गार्ड्स उन्हें छेड़ रहे थे.

पौश कालोनी के सामने हाईवे सड़क की झडि़यों पर फूल सी कोमल धूप खिल ही रही थी. उस में आज फिर धूल के तेज गुबार आआ कर मिल उठ गए थे. उस पार कलोनाइजर की मशीनी फौज उधर के बचे जंगल को मैदान में बदल रही थी. हाईवे सड़क के आरपार 2 ऊंचे बोर्ड थे. निर्माणाधीन नील जंगल सिटी, नवनिर्मित नील झरना सिटी.

कालोनी द्वार के सजीले पाम वृक्षों की चिडि़यां न जाने क्यों अचानक चुप लगा गई थीं. बाकी सब ठीक चल रहा था. दूसरी कतार के तीसरे बंगले में रहने वाली गृहिणी अपने दोनों बच्चों को स्कूल बस में और पति को कार में विदा कर ऊपरी बैडरूम में कांच के सजीले जग में पानी रख चुकी थी. अब दोनों जरमन शेफर्ड कुत्तों को खाने में उबला मीट दे रही थी. वह चुप और उदास दिख रही थी. हिंदुस्तानियों को ऐसी स्त्रियां हमेशा ही बहुत पसंद रही हैं जो अलसुबह उठ कर सब के जाने की तैयारी, जाने के बाद उन के जूठे बरतन और बिस्तर पर छूटे गीले तौलिए, कपड़े समेटना, आने पर सब का सत्कार और गैरमौजूदगी में घर की सुव्यवस्था आदि करती हैं. परिचित पड़ोसी, नातेरिश्तेदार कौन नहीं जो इस गृहिणी की मिसाल अपनी स्त्रियों को न देता हो.

कवर्ड कैंपस कालोनी के बीचोंबीच के गार्डन पार्क, स्याह रेशम सड़कों के किनारों के फूलों वाले बौने पेड़ों और कुल जमा प्राकृतिक माहौल ने न जाने क्यों एकाएक दम साध लिया. बाकी सब अच्छा चल रहा है. पहली कतार के पहले ही बंगले में रहने वाले अतिवृद्ध दंपती अपनी बालकली में बैठे थे. वे नए प्राप्त स्मार्टफोन पर, इतनी ऊंची आवाज में, अपने बेटों से बतिया रहे थे जैसे बिना फोन के भी वे उन की बात सुन लेंगे आस्टे्रलिया या नौर्वे या फिर लंदन में.

तभी अचानक पर्षियन बिल्ली पता नहीं क्यों रो उठी है जबकि उस की बूढ़ी,

एकाकी, रिटायर्ड मालकिन उस के पास ही पार्क में फ्लाश के 2 पेड़ों तले जौगिंग कर रही थी, ये पेड़ अपने टेढ़मेढे़पन की कलात्मकता के कारण कभी बख्श दिए गए थे.

पूरा जीवन अपनी पसंद की सर्वोच्चता के साथ बिताने के बाद अब सफल स्त्री के पास बात करने को सिर्फ यह पर्षियन बिल्ली ही बची थी. अपने शरीर की अतिस्थूलता से थकती व्यायाम करने बैठी थी और सोच रही थी कि बिल्ली को आज डाक्टर के पास ले जाएगी.

एक डुपलैक्स के बाहर से हवा की तरह गुजर गए किसी को, किसी ने नहीं देखा. इस घर में बड़ी व्यस्तता है. परसों ब्याही गई दुलहन बेटी पगफेरे के लिए मायके लौटेगी आज. बेटी से ज्यादा दामाद के स्वागत की तैयारियां चल रही थीं. पिता अलसुबह ही निकल गए थे फूल लाने के लिए. मां कितने ही पकवान बनाते नहीं थक रही थीं और छोटा भाई पटाखों की पेटी लिए आ रहा था. उस ने दीदी से कभी नहीं कहा कि वह उन से मम्मी जितना ही प्यार करता है.

दूसरी कतार के दूसरे बंगले वाली कामकाजी युवा मां आज फिर लेट हो गई थी औफिस जाने को. आया को आने में देर हो गई आज भी. टिफिन, लैपटौप, फाइलें साधतीसमेटती वह दौड़ कर कार तक आई. अपनी अतिव्यस्तता में आज भी वह पलट कर बाय करना भूल गई आया की गोद में से उसे देख रही 10 माह की बेटी से. लिव इन रिश्ते से पैदा इस संतान की बेहतर परवरिश के लिए ही युवा मां ने कभी शादी न करने का निर्णय लिया था और उसे अपनेआप में लगता था कि यों इस संतान की अकेले परवरिश एक महान पथ है जिस पर वह चल पड़ी है.

जैसे कोई है, कोई जो इंसानी ताकतों से बेखौफ रहता है, कुछ घटित होने वाला है, ईको चुप हो कर चीख रहा है जैसे और तो सब, हर दिन की तरह बढि़या चल रहा है कालोनी में. अड़ोसीपड़ोसी दोनों लड़के वार्षिकोत्सव के बहाने स्कूली छुट्टी होने से, सेलफोन में डूब कर औनलाइन गेम खेल रहे हैं, नाश्ता ले कर, मां को भी उन्होंने कमरे के दरवाजे से ही लौटा दिया है… निजता का आग्रह इतना प्रबल है कि मातापिता भी मौका देख कर ही सलाह देते हैं.

यहां का जीवन अपनी तात्कालिकताओं में इतना खपा हुआ कि छठी इंद्री की प्राकृतिक शक्ति सुन्न हो चुकी थी. कुछ भांपा नहीं जा सका था. सुरक्षा के भ्रम में बेपरवाह लोग दैनिक कामों की बावत आवाजाही कर रहे थे. कालोनी के मुख्यद्वार पर एक जानेपहचाने से आगंतुक की लंबी कार की ओर सलाम करते गार्ड्स आज भी बंद होंठों में मुसकरा रहे हैं. हर दिन की तरह पौश कालोनी अपने ऐश्वर्य में व्यस्त दिखाई दे रही थी.

अब एक डुपलैक्स के सजीले ड्राइंगरूम में 11 साल की महरी वैक्यूमक्लीनर चला रही थी. सोफे के कोने में भूसा भरी हिरन देह सजी थी. ऐन उस के पीछे बैठे तेंदुए पर उस की नजर पड़ी. चलता वैक्यूमक्लीनर उस की ओर बढ़ाने से पहले एक पल को उस का मन उस से खेलने को हुआ मालिक दंपती के बेटों ने अब की जो सजावटी सामान डिलिवर करवाया था, नन्ही महरी का मन उस से खेलने को हुआ या पर मां ने सम?ाया कि किसी तरह के लालच में न आना काम वाले घर में.

‘‘अरे. यह तो एकदम सचमुच का लग रहा है,’’ वेक्यूमक्लीनर लिए वह उस की तरफ अभी बढ़ी ही थी कि उसे तेंदुआ और ज्यादा सचमुच का लगने लगा और देखते ही देखते उस खिलौने ने आक्रमण की मुद्रा बना ली. तब जा कर बच्ची महरी को पता लगा कि यह तो सचमुच का तेंदुआ है. फिर जान बचा कर बाहर को भागी.

‘‘तेंदुआतेंदुआ… कोई बचाओ. घर में तेंदुआ घुस आया है,’’ मां ने सिखाया था कि किसी मुसीबत में फंस जाओ तो भागने की कोशिश करना, चीखने की कोशिश करना.

बच्ची महरी की चीखों से एलीटमौन वाली कालोनी गूंज गई.

‘‘तेंदुआ है, अंदर तेंदुआ है, तेंदुआ है.’’

सुस्ताते लोग हड़बड़ा कर इधरउधर भागने लगे. हर हाथ में फोन था, पर सू?ा किसी को नहीं कि उस का इस्तेमाल करना है. वे सब उसी ओर भागे जिधर तेंदुए की खबर थी.

बच्ची महरी भाग खड़ी हुई. भीड़ डुपलैक्स के बाहर इकट्ठी हो रही थी और अति

वृद्ध दंपती ऊपरी मंजिल पर ही रह गए थे. निचली मंजिल में तेंदुआ होगा. दूर खड़े लोग मदद पर विचारविमर्श कर रहे थे.

‘‘कोई सौ नंबर डायल करो.’’

‘‘नहीं पुलिस नहीं, वन विभाग को फोन करो.’’

‘‘कोई इन के बच्चों को फोन करो.’’

‘‘लंदन?’’

‘‘नहीं, नौर्वे.’’

वृद्ध दंपती कांपते हाथों से नया फोन एकदूसरे को बारबार लेदे रहे हैं. उन्हें सम?ा नहीं आ रहा था कि अपने किस बेटे को फोन करें इस घड़ी में. 3 बहुत सफल पुत्रों के मातापिता से इसी घबराहट में फोन छूटा और बालकनी से नीचे गिर कर टूट गया.

ऊपरी बालकनी में अति वृद्ध दंपती और निचली मंजिल में मौजूद तेंदुआ ही इस समय का सच था.

8-10 मिनट हो चुके लोगों को आए पर तेंदुए को किसी ने देखा नहीं था. सो अब तक

वह सब के लिए कम यकीन की चीज होता जा रहा था. कोई तो बच्ची महरी के लिए यह भी कह रहा था कि ये गरीब लोग अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने के लिए किसी की हत्या भी कर सकते हैं.

बहरहाल, गार्ड्स को आगे किया गया. तीनों ने हौसला कर दरवाजे से झंका. तेंदुआ कहीं दिखाई नहीं दिया.

‘‘हम अंदर नहीं जाएंगे.’’

‘‘तब तुम लोग हो किसलिए?’’

‘‘सलाम ठोकने, भिखारी रोकनेटोकने को बोला था बिल्डर साहब ने. तेंदुआ पकड़ने की नौकरी थोड़े है,’’ कह कर पिछले ही महीने शहर आया अप्रशिक्षित तरुण गार्ड पीछे हट गया.

‘‘तुम लोगों के नाम पर हम कितनी ज्यादा सोसायटी मैंटेनैंस देते हैं.’’

‘‘साहब, हमारी बंदूकें असली नहीं

एअरगनें हैं.’’

‘‘क्या?’’

लोग चौंके कि इन अप्रशिक्षित, चिडि़यामार बंदूकचियों के हाथों उन के जानमाल की हिफाजत रही है अब तक.

दुलहन के छोटे भाई ने पटाखों की एक सुलगती लड़ी उस ड्राइंगरूम में उछाल दी थी.

जब तेंदुआ भीतर से निकला लोगों में हड़कंप मच गया.

असल तेंदुए को अपने बीच पा कर लोगों के होश उड़ गए. वह भीतर से दौड़ कर भीड़ की तरफ उछला. चीखते खौफजदा लोग हड़बड़ाते हुए एकदूसरे पर गिरने लगे. एक आदमी के सिर पर पंजा रख तेंदुआ

निकला तो गंजे सिर पर पंजे से गहरी खरोचें बन गईं. तेंदुआ दूसरी तरफ दौड़ा तो उस से आगे दौड़ते अति स्थूलधारी को अस्थमा का दौरा पड़ गया.

कोई हड़बड़ाहट में भागती हुई तेंदुए से ही टकरा गई. इस से तेंदुआ और भी बदहवास हो उठा. किसी ने उठा कर एक गमला मारा तब तेंदुए के मुंह से उस की गरदन छूटी.

सब कामों के लिए बहुत व्यवस्थित लोगों ने मौत से साक्षात्कार के बारे में कभी सोचा ही नहीं था. बदहवास एकाकी मालकिन अपनी पर्शियन बिल्ली को खोज रही थी. बिल्ली दिखाई नहीं दे रही थी.

तेंदुआ बदहवास सा कभी इधर तो भी उधर दौड़ रहा था. फिर वह एक खुले डुपलैक्स में जा घुसा.

‘‘ बेबी अंदर है… बेबी अंदर है,’’ आया चीख रही थी. बाहर शोर सुन कर वह बिना दरवाजा बंद किए चली आई थी. 10 माह की बच्ची भीतर पालने में सो रही थी.

बेहद घबराई आया बारबार फोन लगा रही थी. सिंगलपेरैंट युवा मां अपनी कंपनी के बहुराष्ट्रीय क्लाइंट्स के सामने खड़ी प्रस्तुतीकरण दे रही थी, अपनी पूरी प्रतिभा और योग्यता ?ांक कर. पानी पीने के बहाने आधे पल को उसने फोन में देखा. घर के सीसीटीवी कैमरों में बेटी सुकून से सोई दिखाई दी. आया की कौल उस ने फिर से काट दी.

13 साल का लड़का दोस्त को अपना स्मार्टफोन दे कर, दौड़ता हुआ डुपलैक्स में घुस गया. सोशल मीडिया पर लाइव बहादुरी दिखा कर हीरो बन जाने का इस से अच्छा अवसर भला क्या होगा. 3 मिनट बाद बच्ची को गोद में उठाए वह बाहर आ गया. लोग तालियां बजाने लगे.

अब दोस्त उस से पूछ रहा था, ‘‘क्या वहां तुम्हारा सामना उस तेंदुए से हुआ?’’

‘‘क्या अंदर तेंदुआ था? मुझे तो लगा बच्ची आग में फंसी होगी,’’ और दोस्त ने लाइव वीडियो बंद कर दिया.

सब तेंदुए से इधर फूलों के छोटे गमलों के पीछे एकाकी मालकिन को अपनी पर्शियन बिल्ली मिल गई. मालकिन उसे सीने से चिपटाए वहीं बैठ गई.

किसी ने दौड़ कर डुपलैक्स का दरवाजा बंद कर दिया. कुछ देर बाद तेंदुआ ऊपरी बालकनी से पास की दूसरी बालकनी में कूद गया.

तेंदुआ एकदम फ्लैट में बैठे जोड़े के सामने जा पड़ा. एक पल को तो जोड़े की दशा ऐसी हो गई जैसे गृहिणी का पति सामने आ खड़ा हुआ हो. तेंदुए से ज्यादा फिक्र नीचे से आती सामूहिक आवाजों की थी, लोग शायद इधर ही को इकट्ठा हो चले थे.

कुछ समय पहले तक प्रेमिका जिस की बांहों में खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी, अब उस की उपस्थिति ही तेंदुए से अधिक असुरक्षित कर रही थी. अब न तो भागा जा सकता था और न ही कपड़े पहन पाने का समय था. इस से पहले कि तेंदुआ कुछ कर पाता गृहिणी ने इधरउधर देखा और फिर पानी से भरा कांच का जग उठा कर दे मारा.

तेंदुआ हड़बड़ा कर बालकनी से नीचे गिर गया बाउंड्री में खुले 2 जरमन शेफर्ड के बीच. तगड़े भेडि़ए सरीखे कुत्ते अब तक के अपने जीवन में किसी से न डरे थे. वे खतरनाक प्रशिक्षण पाए और केवल गोश्त पर पले हैं और सामने जंगल का तेंदुआ था.

दोनों शिकारी कुत्तों ने एकसाथ हमला बोला, जंगल के उस शानदार शिकारी पर जो इस समय अपने दुरुस्त हाल में नहीं था. एक ओर सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षित जोड़ी है तो दूसरी तरफ जंगल में पली प्रतिभा. वह प्रतिभा जोकि मां द्वारा छोड़ दिए गए अबोधों में जंगल तराशती है किसी क्रूरतम पिता की तरह.

उन तीनों में खूनी संघर्ष शुरू हो चुका था. दूर खड़ी भीड़ में बहुतेरे ऐसे हैं जिन्होंने डब्ल्यूडब्ल्यूई और ऐनीमल चैनल्स से बाहर सच्ची हिंसा आज पहली बार देखी है. कुछेक अपनी चरम उत्तेजना में, फायर ब्रिगेड, पुलिस, वन विभाग, टीवी चैनल जिसे जो नंबर याद आ रहा था, कौल लगा रहे थे. लोग मदद को पुकार रहे थे. बच्चे जो चले आए थे उन्हें खींच कर वापस ले जाने को उन की मांएं दौड़ी चली आ रही थीं.

5वें डुपलैक्स वाली को आता देख बहुतों का ध्यान तेंदुए से हट गया. वह जो सब से ग्लैमरस चेहरा है इस कालोनी का और सब से फैशनेबल भी ओह, बिना साजशृंगार, घरेलू कपड़ों में वह कितनी साधारण दिख रही थी और कुछ उम्रदराज भी.

कुछ देर के भीषण संघर्ष के बाद खून से लथपथ तेंदुआ खड़ा हुआ किसी विश्व विजेता रैस्लर की तरह. दोनों शिकारी कुत्तों को मरणासन्न छोड़ कर कूदा और कवर्ड कैंपस के बीचोंबीच बौने फूलों के बीच से गुजरता गार्डन की अेमरिकन दूब पर जा बैठा.

लोग तेंदुआ पकड़ने के लिए आ रही रैस्क्यू टीम को फोन लगालगा कर हलकान हुए जा रहे थे.

यों हाईवे सड़क के धूलगुबारों से गुजर कर पाम वृक्षों की चिडि़यों को भयभीत करता, पर्षियन बिल्ली को अपनी मौजूदगी से आक्रांत करता, कुल प्राकृतिक माहौल को सजग करता, हवा की तरह दौड़ता और ईको में अपनी उपस्थिति महसूस करवाता वह जो यहां तक चला आया, वह तेंदुआ अब शांत बैठा था. उस की देह की खरोचों से रिस्ते खून को दूब तले की जमीन सोख रही थी.

यही जमीन जिस पर कभी एक तन्वी नदी ‘नील ?ारना’ बहती थी. उस वक्त की निशानी अब बस पलाश के ये 2 पेड़ बचे हैं और तेंदुए को लौटने की एकदम सही राह याद आ गई नदी में पानी पी कर इन पेड़ों तले से, जंगल लौट जाने की राह.

तेंदुआ कूदताफांदता, कालोनी, भव्यद्वार, हाईवे सड़क पार करता, नील जंगल के पेड़ों को मार डालती मशीनी फौज के बीच से गुजरता बचेखुचे जंगल में जा कर ओ?ाल हो गया.

इधर कालोनी में एक कोलाहल उठ कर शांत हो गया और उधर जंगल में क्या हुआ किसे पता.

रिश्ते की अहमियत:क्या निकिता और देवेश एक हो पाए

सुबहके समय जब मेड आती और घंटी बजाती तो  निकिता नींद से जागती थी पर आज मेड के छुट्टी होने के कारण सुबह उस की नींद देर से खुली.

उनींदीं आंखों से सामने दीवार घड़ी में समय देखा 8 बज गए थे. निकिता हबड़बड़ी में उठी कि मेड आने पर तो 7 बजे उठना ही पड़ता था, सारे काम आराम से निबट जाते थे, लेकिन अब सब कैसे मैनेज होगा? झाड़ूपोंछा, बरतन उस पर देवेश के लिए लंच भी बनाना है.

बेटे मयंक की औनलाइन क्लास का भी समय हो रहा है. उसे नाश्ता भी देना है. लंच में तो आज उसे पिज्जा खाना था. मैं तो कैंटीन से ले कर कुछ खा लूंगी, लेकिन देवेश का क्या करूं. उन्हें तो घर का खाना ही चाहिए. मन में सोचा, देवेश को बोलती हूं कि आज लंच के समय औफिस की कैंटीन से कुछ ले कर खा लेंगे.

यही सोचतेसोचते निकिता ने देवेश को आवाज लगाई, लेकिन रिस्पौंस नहीं मिला. सोचा शायद सुना नहीं होगा. निकिता ने फिर आवाज लगाई. नो रिस्पौंस.

निकिता को गुस्सा आ गया कि सारा काम  पड़ा है और ये जनाब हैं कि सुन ही नहीं रहे हैं जैसे कानों में रूई ठुंसी हो.

वह लिविंगरूम की ओर गई. अंदर जाने पर देखा यह क्या? सारा कमरा ही अस्तव्यस्त है, लिविंगरूम के वार्डरोब से आधे कपड़े अंदर और आधे बाहर बिखरे पड़े हैं और देवेश फोन पर किसी से बात कर रहे हैं.

यह सब देख निकिता ने हाथ झटक तलखी में बोला, ‘‘देवेश यह सब क्या है?’’

देवेश ने निकिता की ओर ध्यान नहीं दिया और फोन पर ही बात करते रहे. जवाब नहीं मिल ने पर निकिता ने फिर बोला, लेकिन देवेश फोन पर ही लगे रहे.

फिर तो निकिता भड़क गई और कहा,

‘‘मैं कब से बोले जा रही हूं और आप हैं कि

फोन पर लगे हैं. अरे, हूंहां कुछ तो बोलो,’’ निकिता ने गुस्से से देवेश के हाथ से फोन छीन लिया.

देवेश को यह अच्छा नहीं लगा. गुस्से में बोला, ‘‘यह क्या बतमीजी है?’’

‘‘अच्छा यह बतमीजी है और मैं जो इतनी देर से भुंके जा रही हूं उस का जवाब देने का मतलब नहीं? वह तहजीब है? मुझ से कह रहे हैं यह क्या बतमीजी है?’’

‘‘मैं फोन पर बात कर रहा था. दिख नहीं रहा था तुम्हें? इतनी भी तसल्ली नहीं रही तुम में?’’

‘‘दिख रहा था, लेकिन हूंहां तो.’’

‘‘बोलो इतनी भी क्या आफत आ गई?’’

‘‘बोलूं क्या? बात तो लंच के लिए करनी थी, लेकिन पहले वार्डरोब और रूम की हालत देखो. अभी 2 दिन पहले ही तो ठीक किया था सब. फिर तुम ने कपड़े इधरउधर फेंक दिए.

‘‘अरे कोई तो काम ढंग से कर लिया करो.’’

देवेश ने फोन म्यूट कर दिया था. उस की फोन पर मीटिंग चल रही थी. उसे औफिस भी जल्दी जाना था.

देवेश को निकिता से ऐसे लहजे की उम्मीद नहीं थी. उसे इस तरह बोलने पर

देवेश भी भड़क गया और बोला, ‘‘यह बात आराम से भी तो की जा सकती थी?’’

‘‘हां, की जा सकती थी, लेकिन सुना जाए तब न.’’

‘‘खबरदार जो कल से मेरी अलमारी को हाथ भी लगाया तो. कर लूंगा अपनेआप सब. सम?ाती क्या हो अपने को,’’ देवेश बोला.

‘‘अजी कल से क्या आज ही से और

अभी से. हाथ नचाते हुए मैं भी तो देखूं,’’

निकिता बोली.

‘‘पता नहीं आज इसे क्या हो गया जो सुबहसुबह ही लड़ने बैठ गई. देखो निकिता अब बहुत हो गया. मेरी जरूरी मीटिंग है और मुझे औफिस जाना है, मेरा मूड मत खराब करो.’’

‘‘तो जाओ न किस ने रोका है. मुझे तो

जैसे औफिस जाना ही नहीं. एक तुम ही हो औफिस वाले.’’

‘‘देखो निकिता मैं एक बार फिर तुम्हें समझ रहा हूं ये जो तुम्हारे मुंह के बोल हैं न

वही दूरियां पैदा कर रहे हैं. अपने बोले गए शब्दों को सुधारो. इन शब्दों का ही हमारे जीवन में ‘अहम’ किरदार है समझ. तुम्हें इतनी सी

बात समझ में क्यों नहीं आती? जहां तक नौकरी की बात है? मैं ने नहीं कहा कि तुम नौकरी करो? यह तुम्हारा अपना शौक था. मैं ने तो तुम्हें सपोर्ट किया और हमेशा से करता आया हूं.’’

इसे सपोर्ट करना कहते हैं जनाब. कपड़े बिखरे पड़े हैं, अखबार कहीं पड़ा है. और तो और बैड पर तौलिया भी पड़ा है. ये सपोर्ट है?’’

देवेश गुस्से से बोला, ‘‘जब देखो डंडा

लिए फिरेगी.’’

‘‘हां मैं तो डंडा लिए फिरती हूं. अभी तक तो लिया नहीं, अब देखना कल से डंडा लिए

ही फिरूंगी.’’

‘‘मैं उस डंडे की बात नहीं कर रहा, अरे मुंह ही तेरा डंडा है.’’

निकिता के तनबदन में आग लग गई, ‘‘क्या कहा तुम ने मुंह ही डंडा

है? तो गूंगी ले आते. देवेश मुझे क्या पागल

कुत्ते ने काटा है? कोई कसर नहीं छोड़ती नीचा दिखाने में.’’

‘‘निकिता पता नहीं मां ने क्या देख कर मेरी शादी तुम से कर दी.’’

‘‘मां को दोष मत दो, तुम्हारी रजामंदी भी थी. तब ही यह रिश्ता हुआ था.’’

‘‘अरे मैं ही निभा रहा हूं तुम जैसी को.’’

‘‘क्या कहा तुम जैसी?’’

‘‘हांहां तुम जैसी?’’

‘‘अच्छा तो अब मैं जनाब के लिए तुम

जैसी हो गई. मेरी तारीफ करते तो मुंह नहीं सूखता था जनाब का. अब इतनी कड़वाहट? चलो कोई बात नहीं, देखना ‘यह तुम जैसी’ क्याक्या कर सकती है. लगता है मुझे भी आज तो औफिस ड्रौप करना पड़ेगा.’’

देवेश ने भी घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘ऊफ, औफिस को देर हो गई,’’ और फिर बार्डरोब से कमीज निकाल कर प्रैस करने लगा कि तभी लाइट चली गई.

‘‘ऊफ, लाइट को भी अभी जाना था,’’ कह कर दूसरी कमीज निकाली तो उस का बटन टूटा था. सूईधागा ढूंढ़ कर बटन लगाया. बटन टांकने के बाद जूते पौलिश किए.

यह सब देख निकिता मन ही मन कुढ़ रही थी. गरदन झटकते हुए बोली कि चलो

कोई बात नहीं करने दो बच्चू को पता तो चले यह ‘तुम जैसी’ क्याक्या कर सकती है.

देवेश के नहाने जाने पर अपनी चिढ़न उतारने के लिए निकिता ने एक ब्लेड ला कर जो बटन देवेश ने टांका था, उस बटन के धागे पर कट लगा दिया और फिर जूतों पर कौलगेट फेर कर मन ही मन हंसने लगी.

देवेश ने बाथरूम से निकल कर शर्ट पहन कर बटन चढ़ाया तो वह हाथ में आ गया. वह बड़बड़ाया कि अरे यह क्या अभी तो मैं ने लगाया था. शायद ठीक से लगा नहीं होगा. और यह

जूतों को क्या हुआ. अभी तो पौलिश किए थे. कहीं यह निकिता ने तो नहीं किया… अच्छा अब समझ में आया.

खैर छोड़ो बेकार में झगड़ा और बढ़ेगा. अब ऐसा करता हूं औफिस फोन कर देता हूं कि आज नहीं आऊंगा मीटिंग रवि अटैंड करेगा.

यह देख निकिता को बहुत मजा आ रहा था. मन ही मन कह रही थी कि बच्चू मेरे संग पंगा लिया तो ऐसे ही होगा. यह ‘तुम जैसी’ बहुत कुछ कर सकती है. मान लो गलती वरना पछताओगे.

बेटे मयंक की औनलाइन क्लास चल रही थी. अंदर से बहुत शोर आ रहा था. वह पढ़ नहीं पा रहा था. मयंक को गुस्सा आ गया. वह गुस्से से बाहर आया और चीखता हुआ सा बोला, ‘‘फिर झगड़ा, बिना झगड़े आप लोगों का दिन नहीं गुजरता, आप दोनों कब समझेंगें? मैं परेशान हो गया हूं मौमडैड. मेरे फ्रैंड्स के पेरैंट्स को देखो कितने प्यार से रहते हैं. मैं गिल्टी फील करने लगा हूं. यह बात मैं आप दोनों को पहले भी बता चुका हूं. आप दोनों की झगड़ते झगड़ते रात होती है और झगड़ते झगड़ते सुबह. कब तक चलेगा ये सब. मेरी पढ़ाई सफर कर रही है मेरे मार्क्स कम आने लगे हैं. आप दोनों को मेरी और मेरी पढ़ाई की चिंता नहीं. कब सोचेंगे मेरे बारे में बोलो,’’ मयंक एक सांस बोलता चला गया.

निकिता ने गुस्से से एक थप्पड़ जड़ दिया, और कहा, ‘‘यह तरीका है पेरैंट्स से बात करने का?’’

मयंक रोंआसा बोला, ‘‘मौम, तरीके की बात तो आप रहने ही दो,’’ और फिर डैड की ओर मुखातिब हो बोला, ‘‘डैड, मैं जानना चाहता हूं आखिर अब क्या हुआ?’’

‘‘बेटे, अपनी मौम से बात करो इस बारे में.’’

‘‘मौम कहती हैं डैड से बात करो, डैड कहते हैं मौम से बात करो. मैं क्या पागल हूं? मौम कुछ बता रही हो या नहीं?’’

‘‘क्यों डैड के मुंह में दही जम गया? कहने में तो कोई कसर नहीं छोड़ी उन्होंने. अंदर जा कर देख कमरे की हालत,’’ कह कर निकिता ने मंयक का झटके से हाथ खींचा और कमरे की ओर ले गई, फिर कहा, ‘‘देख.’’

‘‘ऊफ मौम यह भी कोई तरीका है? मेरे हाथ में भी दर्द कर दिया. मौम, यह बात आराम से भी तो की जा सकती थी. इस बात पर इतना बड़ा हंगामा? वैसे मैं आप को बता दूं कि यह सब मैं ने किया था. मु?ो देर हो रही थी. मैं पहले ही पढ़ाई में पिछड़ रहा हूं, कपड़े नहीं मिल रहे थे, इसलिए यह सब हुआ इस के लिए सौरी. बेचारे पापा गाज उन पर गिरी.’’

‘‘हांहां 2 ही तो बेचारे हैं- एक तुम और एक तुम्हारे पापा.’’

देवेश बोल पड़ा, ‘‘पानी तो आग की गरमी पा कर ही गरम होता है उस का अपना स्वभाव तो ठंडा होता है.’’

‘‘बड़े आए ठंडे स्वभाव वाले. खड़ूस कही के.’’

‘‘मौम, डैड अब बस भी करो. बहुत हो गया. कब तक चलेगा,’’ मयंक सिर पकड़ते

हुए गुस्से से बोला, ‘‘मैं जा रहा हूं मैं अपने

दोस्त स्पर्श के घर. यहां मेरी पढ़ाई हो ही नहीं सकती और न ही मैं इस माहौल में अपने फ्रैंड्स को बुला सकता,’’ और वह आननफानन में हाथ झटकता, पैर पटकता बैग और लैपटौप ले कर चला गया.

देवेश ने आवाज लगाई, ‘‘मयंक बेटा ऐसा मत करो,’’ मगर अब तक मयंक सीढि़यां उतर चुका था.

यह देख निकिता बिना चप्पलें पहने मयंक को आवाज लगाते हुए भागी. उसे पकड़ने की कोशिश भी की, लेकिन वह हार गई.

देवेश को ऐसी उम्मीद नहीं थी. वह छटपटा कर रह गया. समझ नहीं पाया कि क्या करूं. कमरे में जा कर तकिए से मुंह ढांप कर रोने लगा. फिर बेचैनी में न्यूज पेपर पढ़ने लगा. पेपर पढ़ने में दिल नहीं लगा. ध्यान दिया तो देखा पेपर ही उलटा पकड़ा हुआ था.

सोचने लगा कि यह क्या होता जा रहा है. बेकार में झगड़ा बढ़ गया. पहले झगड़े होते थे, लेकिन इतने नहीं. इन 10 सालों में हमारी जिंदगी नर्क बन कर रह गई. दिन पर दिन झगड़े बढ़ते ही जा रहे हैं. नहींनहीं हम अपने उलझे हुए रिश्तों को और नहीं उलझने देंगे. हमारा बेटा सफर कर रहा है.

फिर सोचने लगा कि निकिता भी कहां गलत थी. ठीक ही तो कह रही थी. घर में कितने काम होते हैं. उस पर मेड भी छुट्टी पर थी. उस को भी जौब पर जाना था, बेटे मंयक को भी देखना होता है.

उधर निकिता भी मयंक को जाने से नहीं रोक पाई थी. खीजीखीजी बिस्तर पर जा कर लेट गई और सोचने लगी, यह तो रोज की ही बातें थीं, सबकुछ मुझे ही मैनेज करना होता था. देवेश तो शुरू से ही ऐसे थे. उन्हें घर के काम में हाथ बंटाने की आदत ही कहां थी, फिर आज मुझे इतना गुस्सा क्यों आया? पता नहीं कभीकभी मुझे इतना गुस्सा क्यों आता है.

निकिता को मां के कहे शब्द याद आ गए. मां की दी सीख आज फिर से ताजा हो गई कि बेटी तुम पराए घर जाओगी, बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, हिम्मत मत हारना. मैं जानती हूं, तुम हर हाल में अपनेआप को ऐडजस्ट कर लोगी, धैर्य रखना. एकदूसरे को माफ करना ही, दांपत्य के लिए अच्छा है. अगर कोई बात हो भी जाती है, तो एक बार को चुप रहना, बाद में दिमाग ठंडा होने पर अपनी बात रखोगी तो अच्छा रहेगा. दोनों बोलोगे तो बात बढ़ती जाएगी. ऐडजस्टमैंट बहुत जरूरी है. अपनी प्रौब्लम शेयर करोगी तो दिल जीत लोगी वरना दूरियां बढ़ेंगी. काले बादल कितने भी घने क्यों न हों उन्हें छंटना ही पड़ता है बेटी. हां, लेकिन गलत को बरदाश्त मत करना, वहां कमजोर मत पड़ना.

उस पर मैं ने कहा था कि अरे मां चिंता मत करो, अभी तो मैं तुम्हारे पास ही हूं. मां, मैं तेरी शिक्षा हमेशा याद रखूंगी. फिर निकिता ने अपने से सवाल किया कि मैं मां की दी शिक्षा कैसे भूल गई?

फिर सोचने लगी कि नहींनहीं हम अपने उलझे हुए रिश्ते को और नहीं उल?ाएंगे. एक के बाद एक तसवीरें उस के मानसपटल पर घूम गईं…

हमारे पड़ोस में नए किराएदार आए थे. उन के बेटे थे देवेश. धीरेधीरे पड़ोसियों से घनिष्ठता बढ़ी और आनाजाना शुरू हो गया था. बातोंबातों में पता चला था कि देवेश इंजीनियर थे. वे एमएनसी में एक अच्छी पोस्ट पर थे. अपने मातापिता की अकेली औलाद थे.

उन के पिता बैंक में मैनेजर की पोस्ट पर थे. वे ट्रांसफर हो कर हमारे पड़ोस में आ बसे थे. देवेश बहुत केयरिंग थे. एक बार मेरी मां के बीमार होने पर देवेश ने रातदिन एक कर दिया था. तभी से मेरी मां देवेश को पसंद करने लगी थी. सोचती थी, मेरे लिए देवेश से अच्छा कोई और लड़का हो ही

नहीं सकता. उसी के बाद से मां मुझे शिक्षा देती रहती. मैं भी मन ही मन देवेश को पसंद करने लगी थी.

देवेश के पेरैंट्स भी मुझे पसंद करने लगे थे. बातोंबातों में अंकलआंटी ने मेरे बारे में सारी जानकारी ले कर मेरा मन टटोलना चाहा और कहा कि देवेश ने होस्टल में रह कर पढ़ाई की है बेटी, बाहर रह कर भी उसे काम करने की आदत नहीं पड़ी. वह जब चाहे कपड़े इधरउधर छोड़ देता है.

उस का कहना है कि हम होस्टल में ऐसे ही रहते हैं. वह घर में आ कर 1 गिलास पानी ले कर भी नहीं पीता है. क्या तुम उस के साथ ऐडजस्ट कर पाओगी? नौकरी के साथ घर की जिम्मेदारी निभा पाओगी?

उस समय मेरी हया कुछ कह न पाई और होंठों पर हलकी सी मुसकान तैर गई थी. वह मुसकान ‘हां’ का सबब बनी.

बेकार में इतना सबकुछ हो गया. देवेश को घर के काम करने की आदत ही कहां थी. बस अब और नहीं, बेटा हम से दूर हो रहा है. उस को भी गुस्सा बहुत आने लगा है.

फिर निकिता ने सोचा कि हम अपनी जिंदगी की नई शुरुआत करेंगे. देखा देवेश कमरा बंद किए हैं.

उधर देवेश के हृदय में अनेक सवाल उठ रहे थे, जो भी हुआ ठीक नहीं हुआ. वह उठा दरवाजा खोला. देखा दरवाजे के बाहर खड़ी निकिता आंसू बहा रही थी. दोनों की आंखें चार हुईं. निकिता आगे बढ़ी और देवेश को दोनों बांहों में भर कर रोने लगी, ‘‘अब और नहीं देवेश हमारा बेटा नाराज हो कर चला गया. देवेश चलो मयंक को ले आएं.’’

देवेश ने निकिता की गिरफ्त से अपनेआप को हटाया और कहा, ‘‘उस से पहले

मैं तुम से बात करना चाहता हूं. देखो निकिता, पतिपत्नी का रिश्ता एक धागे की तरह होता है. धागा टूटा तो सम?ा लो गांठ पड़ते देर नहीं लगेगी. अभी भी वक्त है, हमारी समझदारी इसी में है कि हम अपने रिश्ते को बचाएं और अपने रिश्ते की अहमियत को समझें.

‘‘कहते हैं कि त्याग और समर्पण से ही आपसी प्यार बढ़ता है. हम यह भूल गए और लड़ाईझगड़े करने लगे. अब जब रिश्ता टूटने की कगार पर हुआ तब हमें समझ आया. हमारी कड़वाहट भी अपनी चरम सीमा तक पहुंच गई. इस में अकेली तुम दोषी नहीं हो. मैं भी उतना ही दोषी हूं. पता नहीं कहां कमी रह गई.’’

निकिता ने देवेश के होंठों पर हाथ रखा  और कहा, ‘‘हम कोशिश करेंगे देवेश, अपने बेजान रिश्ते में जान डालने की. चलो आज फिर से हम एक नई शुरुआत करते हैं. सब बातों को भूल आज से और अभी से अपने परिवार को नए ढंग से सजाते हैं. चलो देवेश हम अपने बेटे मयंक को ले आएं.

उपहार: डिंपल ने पुष्पाजी को क्या दिया?

कैलेंडर देख कर विशाल चौंक उठा. बोला, ‘‘अरे, मुझे तो याद ही नहीं था कि कल 20 फरवरी है. कल मां का जन्मदिन है. कल हम लोग अपनी मां का बर्थडे मनाएंगे,’’ पल भर में ही उस ने शोर मचा दिया.

पुष्पाजी झेंप गईं कि क्या वे बच्ची हैं, जो उन का जन्मदिन मनाया जाए. फिर इस से पहले कभी जन्मदिन मनाया भी तो नहीं था, जो वे खुश होतीं.

अगली सुबह भी और दिनों की तरह ही थी. कुमार साहब सुबह की सैर के लिए निकल गए. पुष्पाजी आंगन में आ कर महरी और दूध वाले के इंतजार में टहलने लगीं. तभी विशाल की पत्नी डिंपल ने पुकारा, ‘‘मां, चाय.’’

आज के भौतिकवादी युग में सुबहसवेरे कमरे में बहू चाय दे जाए, इस से बड़ा सुख और कौन सा होगा? पुष्पाजी, बहू का मुसकराता चेहरा निहारती रह गईं. सुबह इतमीनान से आंगन में बैठ कर चाय पीना उन का एकमात्र शौक था. पहले स्वयं बनानी पड़ती थी, लेकिन जब से डिंपल आई है, बनीबनाई चाय मिल जाती है. अपने पति विशाल के माध्यम से उस ने पुष्पाजी की पसंदनापसंद की पूरी जानकारी प्राप्त कर ली थी.

बड़ी बहू अंजू सौफ्टवेयर इंजीनियर है. सुबह कपिल और अंजू दोनों एकसाथ दफ्तर के लिए निकलते हैं, इसलिए दोनों के लिए सुविधाएं जुटाना पुष्पाजी अपना कर्तव्य समझती थीं.

छोटे बेटे विशाल ने एम.बी.ए. कर लिया तो पुष्पाजी को पूरी उम्मीद थी कि उस ने भी कपिल की तरह अपने साथ पढ़ने वाली कोई लड़की पसंद कर ली होगी. इस जमाने का यही तो प्रचलन है. एकसाथ पढ़ने या काम करने वाले युवकयुवतियां प्रेमविवाह कर के अपने मातापिता को ‘मैच’ ढूंढ़ने की जिम्मेदारी से खुद ही मुक्त कर देते हैं.

लेकिन जब विशाल ने उन्हें वधू ढूंढ़ लाने के लिए कहा तो वे दंग रह गई थीं. कैसे कर पाएंगी यह सब? एक जमाना था जब मित्रगण या सगेसंबंधी मध्यस्थ की भूमिका निभा कर रिश्ता तय करवा देते थे. योग्य लड़का और प्रतिष्ठित घराना देख कर रिश्तों की लाइन लग जाती थी. अब तो कोई बीच में पड़ना ही नहीं चाहता. समाचारपत्र या इंटरनैट पर फोटो के साथ बायोडाटा डाल दिया जाता है. आजकल के बच्चों की विचारधारा भी तो पुरानी पीढ़ी की सोच से सर्वथा भिन्न है. कपिल, अंजू को देख कर पुष्पाजी मन ही मन खुश रहतीं कि दोनों की सोच तो आपस में मिलती ही है, उन्हें भी पूरापूरा मानसम्मान मिलता है.

अखबार में विज्ञापन के साथसाथ इंटरनैट पर भी विशाल का बायोडाटा डाल दिया था. कई प्रस्ताव आए. पुष्पाजी की नजर एक बायोडाटा को पढ़ते हुए उस पर ठहर गई. लड़की का जन्मस्थान उन्हें जानापहचाना सा लगा. शैक्षणिक योग्यता बी.ए. थी. कालेज का नाम बालिका विद्यालय, बिलासपुर देख कर वे चौंक उठी थीं. कई यादें जुड़ी हुई थीं उन की इस कालेज से. वे स्वयं भी तो इसी कालेज की छात्रा रह चुकी थीं.

उसी कालेज में जब वे सितारवादन का पुरस्कार पा रही थीं तब समारोह के बाद कुमारजी ने उन का हाथ मांगा, तो उन के मातापिता ने तुरंत हामी भर दी थी. स्वयं पुष्पाजी भी बेहद खुश थीं. ऐसे संगीतप्रेमी और कला पारखी कुमार साहब के साथ उन की संगीत कला परवान चढ़ेगी, इसी विश्वास के साथ उन्होंने अपनी ससुराल की चौखट पर कदम रखा था.

हर क्षेत्र में अव्वल रहने वाली पुष्पाजी के लिए घरगृहस्थी की बागडोर संभालना सहज नहीं था. जब शादी के 4-5 माह बाद उन्होंने अपना सितार और तबला घर से मंगवाया था तो कुमारजी के पापा देखते ही फट पड़े थे, ‘‘यह तुम्हारे नाचनेगाने की उम्र है क्या?’’

उन की निगाहें चुभ सी रही थीं. भय से पुष्पाजी का शरीर कांपने लगा था. लेकिन मामला ऐसा था कि वे अपनी बात रखने से खुद को रोक न सकी थीं, ‘‘पापा, आप की बातें सही हैं, लेकिन यह भी सच है कि संगीत मेरी पहली और आखिरी ख्वाहिश है.’’

‘‘देखो बहू, इस खानदान की परंपरा और प्रतिष्ठा के समक्ष व्यक्तिगत रुचियों और इच्छाओं का कोई महत्त्व नहीं है. तुम्हें स्वयं को बदलना ही होगा,’’ कह कर पापा चले गए थे.

पुष्पाजी घंटों बैठी रही थीं. सूझ नहीं रहा था कि क्या करें, क्या नहीं. शायद कुमारजी कुछ मदद करें, मन में जब यह खयाल आया तो कुछ तसल्ली हुई थी. उस दिन वे काफी देर से घर लौटे थे.

तनिक रूठी हुई भावमुद्रा में पुष्पाजी ने कहा, ‘‘जानते हैं, आज क्या हुआ?’’

‘‘हूं, पापा बता रहे थे.’’

‘‘तो उन्हें समझाइए न.’’

‘‘पुष्पा, यहां कहां सितार बजाओगी. बाबूजी न जाने क्या कहेंगे. जब कभी मेरा तबादला इस शहर से होगा, तब मैं तुम्हें सितार खरीद दूंगा. तब खूब बजाना,’’ कह कुमारजी तेजी से कमरे से बाहर निकल गए.

आखिर उन का तबादला भोपाल हो ही गया. कुमारजी को मनचाहा कार्य मिल गया. जब घर पूरी तरह से व्यवस्थित हो गया और एक पटरी पर चलने लगा तो एक दिन पुष्पाजी ने दबी आवाज में सितार की बात छेड़ी.

कुमारजी हंस दिए, ‘‘अब तो तुम्हारे घर दूसरा ही सितार आने वाला है. पहले उसेपालोपोसो. उस का संगीत सुनो.’’

कपिल गोद में आया तो पुष्पाजी उस के संगीत में लीन हो गईं. जब वह स्कूल जाने लगा तब फिर सितार की याद आई उन्हें. पति से कहने की सोच ही रही थीं कि फिर उलटियां होने लगीं. विशाल के गोद में आ जाने के बाद तो वे और व्यस्त हो गईं. 2-2 बच्चों का काम. अवकाश के क्षण तो कभी मिलते ही नहीं थे. विशाल भी जब स्कूल जाने लगा, तो थोड़ी राहत मिली.

एक दिन रेडियो पर सितारवादन चल रहा था. पुष्पाजी तन्मय हो कर सुन रही थीं. पति चाय पी रहे थे. बोले, ‘‘अच्छा लगता है न सितारवादन?’’

‘‘हां.’’

‘‘ऐसा बजा सकती हो?’’

‘‘ऐसा कैसे बजा सकूंगी? अभ्यास ही नहीं है. अब तो थोड़ी फुरसत मिलने लगी है. सितार ला दोगे तो अभ्यास शुरू कर दूंगी. पिछला सीखा हुआ फिर से याद आ जाएगा.’’

‘‘अभी फालतू पैसे बरबाद नहीं करेंगे. मकान बनवाना है न.’’

मकान बनवाने में वर्षों लग गए. तब तक बच्चे भी सयाने हो गए. उन्हें पढ़ानेलिखाने में अच्छा समय बीत जाता था.

डिंपल का बायोडाटा और फोटो सामने आ गया तो उस ने फिर से उन्हें अपने अतीत की याद दिला दी थी.

लड़की की मां का नाम मीरा जानापहचाना सा था. डिंपल से मिलते ही उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी थी. सभी आश्चर्य में पड़ गए. विशाल जैसे होनहार एम.बी.ए. के लिए डिंपल जैसी मात्र बी.ए. पास लड़की?

पुष्पाजी ने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ. डिंपल अच्छी बहू सिद्ध हुई. घर का कामकाज निबटा कर वह उन के साथ बैठ कर कविता पाठ करती, साहित्य और संगीत से जुड़ी बारीकियों पर विचारविमर्श करती तो पुष्पाजी को अपने कालेज के दिन याद आ जाते.

आज भी पुष्पाजी रोज की तरह अपने काम में लग गईं. सभी तैयार हो कर अपनेअपने काम पर चले गए. किसी ने भी उन के जन्मदिन के विषय में कोई प्रसंग नहीं छेड़ा. पुष्पाजी के मन में आशंका जागी कि कहीं ये लोग उन का जन्मदिन मनाने की बात भूल तो नहीं गए? हो सकता है, सब ने यह बात हंसीमजाक में की हो और अब भूल गए हों. तभी तो किसी ने चर्चा तक नहीं की.

शाम ढलने को थी. डिंपल पास ही खड़ी थी, हाथ बंटाने के लिए. दहीबड़े, मटरपनीर, गाजर का हलवा और पूरीकचौड़ी बनाए गए. दाल छौंकने भर का काम उस ने पुष्पाजी पर छोड़ दिया था. पूरी तैयारी हो गई. हाथ धो कर थोड़ा निश्चिंत हुईं कि तभी कपिल और अंजू कमरे में मुसकराते हुए दाखिल हुए. पुष्पाजी ने अपने हाथ से पकाए स्वादिष्ठ व्यंजन डोंगे में पलटे, तो डिंपल ने मेज पोंछ दी. तभी शोर मचाता हुआ विशाल कमरे में घुसा. हाथ में बड़ा सा केक का डब्बा था. आते ही उस ने म्यूजिक सिस्टम चला दिया और मां के गले में बांहें डाल कर बोला, ‘‘मां, जन्मदिन मुबारक.’’

पुष्पाजी का मन हर्ष से भर उठा कि इस का मतलब विशाल को याद था.

मेज पर केक सजा था. साथ में मोमबत्तियां भी जल रही थीं, कपिल और अंजू के हाथों में खूबसूरत गिफ्ट पैक थे. यही नहीं, एक फूलों का बुके भी था. पुष्पाजी अनमनी सी आ कर सब के बीच बैठ गईं. उन की पोती कृति ने कूदतेफांदते सारे पैकेट खोल डाले थे.

‘‘यह देखिए मां, मैं आप के लिए क्या ले कर आई हूं. यह नौनस्टिक कुकवेयर सैट है. इस में कम घीतेल में कुछ भी पका सकती हैं आप.’’

अंजू ने दूसरा पैकेट खोला, फिर बेहद विनम्र स्वर में बोली, ‘‘और यह है जूसर अटैचमैंट. मिक्सी तो हमारे पास है ही. इस अटैचमैंट से आप को बेहद सुविधा हो जाएगी.’’

कुमारजी बोले, ‘‘क्या बात है पुष्पा, बेटेबहू ने इतने महंगे उपहार दिए, तुम्हें तो खुश होना चाहिए.’’

पति की बात सुन कर पुष्पाजी की आंखें नम हो गईं. ये उपहार एक गृहिणी के लिए हो सकते हैं, मां के लिए हो सकते हैं, पर पुष्पाजी के लिए नहीं हो सकते. आंसुओं को मुश्किल से रोक कर वे वहीं बैठी रहीं. मन की गहराइयों में स्तब्धता छाती जा रही थी. सामने रखे उपहार उन्हें अपने नहीं लग रहे थे. मन में आया कि चीख कर कहें कि अपने उपहार वापस ले जाओ. नहीं चाहिए मुझे ये सब.

रात होतेहोते पुष्पाजी को अपना सिर भारी लगने लगा. हलकाहलका सिरदर्द भी महसूस होने लगा था. कुमारजी रात का खाना खाने के बाद बाहर टहलने चले गए. बच्चे अपनेअपने कमरे में टीवी देख रहे थे. आसमान में धुंधला सा चांद निकल आया था. उस की रोशनी पुष्पाजी को हौले से स्पर्श कर गई. वे उठ कर अपने कमरे में आ कर आरामकुरसी पर बैठ गईं. आंखें बंद कर के अपनेआप को एकाग्र करने का प्रयत्न कर रही थीं, तभी किसी ने माथे पर हलके से स्पर्श किया और मीठे स्वर में पुकारा, ‘‘मां.’’

चौंक कर पुष्पाजी ने आंखें खोलीं तो सामने डिंपल को खड़ा पाया.

‘‘यहां अकेली क्यों बैठी हैं?’’

‘‘बस यों ही,’’ धीमे से पुष्पाजी ने उत्तर दिया.

डिंपल थोड़ा संकोच से बोली, ‘‘मैं आप के लिए कुछ लाई हूं मां. सभी ने आप को इतने सुंदरसुंदर उपहार दिए. आप मां हैं सब की, परंतु यह उपहार मैं मां के लिए नहीं, पुष्पाजी के लिए लाई हूं, जो कभी प्रसिद्ध सितारवादक रह चुकी हैं.’’

वे कुछ बोलीं नहीं. हैरान सी डिंपल का चेहरा निहारती रह गईं.

डिंपल ने साहस बटोर कर पूछा, ‘‘मां, पसंद आया मेरा यह छोटा सा उपहार?’’

चिहुंक उठी थीं पुष्पाजी. उन के इस धीरगंभीर, अंतर्मुखी रूप को देख कर कोई यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि कभी वे सितार भी बजाया करती थीं, सुंदर कविताएं और कहानियां लिखा करती थीं. उन की योग्यता का मानदंड तो रसोई में खाना पकाने, घरगृहस्थी को सुचारु रूप से चलाने तक ही सीमित रह गया था. फिर डिंपल को इस विषय की जानकारी कहां से मिली? इस ने उन के मन में क्या उमड़घुमड़ रहा है, कैसे जान लिया?

‘‘हां, मुझे मालूम है कि आप एक अच्छी सितारवादक हैं. लिखना, चित्रकारी करना आप का शौक है.’’

पुष्पाजी सोच में पड़ गई थीं कि जिस पुष्पाजी की बात डिंपल कर रही है, उस पुष्पा को तो वे खुद भी भूल चुकी हैं. अब तो खाना पकाना, घर को सुव्यवस्थित रखना, बच्चों के टिफिन तैयार करना, बस यही काम उन की दिनचर्या के अभिन्न अंग बन गए हैं. डिग्री धूल चाटने लगी है. फिर बोलीं, ‘‘तुम्हें कैसे मालूम ये सब?’’

‘‘मालूम कैसे नहीं होगा, बचपन से ही तो सुनती आई हूं. मेरी मां, जो आप के साथ पढ़ती थीं कभी, बहुत प्रशंसा करती थीं आप की.’’

‘‘कौन मीरा?’’ पुष्पाजी ने अपनी याद्दाश्त पर जोर दिया. यही नाम तो लिखा था बायोडाटा में. बचपन में दोनों एकसाथ पढ़ीं. एकसाथ ही ग्रेजुएशन भी किया. पुष्पाजी की शादी पहले हो गई थी, इसलिए मीरा के विवाह में नहीं जा पाई थीं. फिर घरगृहस्थी के दायित्वों के निर्वहन में ऐसी उलझीं कि उलझती ही चली गईं. धीरेधीरे बचपन की यादें धूमिल पड़ती चली गईं. डिंपल के बायोडाटा पर मीरा का नाम देख कर उन्होंने तो यही सोचा था कि होगी कोई दूसरी मीरा. कहां जानती थी कि डिंपल उन की घनिष्ठ मित्र मीरा की बेटी है. बरात में भी गई नहीं थीं. जातीं तो थोड़ीबहुत जानकारी जरूर मिल जाती उन्हें. बस, इतना जान पाई थीं कि पिछले माह, कैंसर रोग से मीरा की मृत्यु हो गई थी.

डिंपल अब भी कह रही थी, ‘‘ठीक ही तो कहती थीं मां कि हमारे साथ पुष्पा नाम की एक लड़की पढ़ती थी. वह जितनी सुंदर उतनी ही होनहार और प्रतिभाशाली भी थी. मैं चाहती हूं, तुम भी बिलकुल वैसी ही बनो. मेरी सहेली पुष्पा जैसी.’’

पुष्पाजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. ऐसा लग रहा था, उन की नहीं, किसी दूसरी ही पुष्पा की प्रशंसा की जा रही है, लेकिन सच को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता. कानों में डिंपल के शब्द अब भी गूंज रहे थे. तो वह पुष्पा, अभी भी खोई नहीं है. कहीं न कहीं उस का वजूद अब भी है.

पुष्पाजी का मन भर आया. शायद उन का अचेतन मन यही उपहार चाहता था. फिर भी तसल्ली के लिए पूछ लिया था उन्होंने, ‘‘और क्या कहती थीं तुम्हारी मां?’’

‘‘यही कि तुझे गर्व होना चाहिए जो तुझे पुष्पा जैसी सास मिली. तुझे बहुत अच्छी ससुराल मिली है. तू बहुत खुश रहेगी. मां, सच कहूं तो मुझे विशाल से पहले आप से मिलने की उत्सुकता थी.’’

‘‘पहले क्यों नहीं बताया?’’ डिंपल की आंखों में झांक कर पुष्पाजी ने हंस कर पूछा.

‘‘कैसे बताती? मैं तो आप के इस धीरगंभीर रूप में उस चंचल, हंसमुख पुष्पा को ही ढूंढ़ती रही इतने दिन.’’

‘‘वह पुष्पा कहां रही अब डिंपल. कब की पीछे छूट गई. सारा जीवन यों ही बीत गया, निरर्थक. न कोई चित्र बनाया, न ही कोई धुन बजाई. धुन बजाना तो दूर, सितार के तारों को छेड़ा तक नहीं मैं ने.’’

‘‘कौन कहता है आप का जीवन यों ही बीत गया मां?’’ डिंपल ने प्यार से पुष्पाजी का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा, ‘‘आप का यह सजीव घरसंसार, किसी भी धुन से ज्यादा सुंदर है, मुखर है, जीवंत है.’’

‘‘घरर तो सभी का होता है,’’ पुष्पाजी धीरे से बोलीं, ‘‘इस में मेरा क्या योगदान है?’’

‘‘आप का ही तो योगदान है, मां. इस परिवार की बुलंद इमारत आप ही के त्याग और बलिदान की नींव पर टिकी है.’’

अभिभूत हो गईं पुष्पाजी. मंत्रमुग्ध हो गईं कि कौन कहता है भावुकता में निर्णय नहीं लेना चाहिए? उन्हें तो उन की भावुकता ने ही

डिंपल जैसा दुर्लभ रत्न थमा दिया. यदि डिंपल न होती, तो क्या बरसों पहले छूट गई

पुष्पा को फिर से पा सकती थीं? उस के दिए सितार को उन्होंने ममता से सहलाया जैसे बचपन के किसी संगीसाथी को सहला रही हों. उन्हें लगा कि आज सही अर्थों में उन का जन्मदिन है. बड़े प्रेम से उन्होंने दोनों हाथों में सितार उठाया और सितार के तार एक बार

फिर बरसों बाद झंकार से भर उठे. लग रहा था जैसे पुष्पाजी की उंगलियां तो कभी सितार को भूली ही नहीं थीं.

नथनी: क्या खत्म हुई जेनी की सेरोगेट मदर की तलाश

विजया: क्या हुआ जब सालों बाद विजय को मिला उसका धोखेबाज प्यार?

विजयकी समझ में नहीं आ रहा था कि  जया ने उस के साथ ऐसा क्यों किया? इतना बड़ा धोखा, इतनी गलत सोच, इतना बड़ा विश्वासघात, कोई कैसे कर सकता है? क्या दुनिया से इंसानियत और विश्वास जैसी चीजें बिलकुल उठ चुकी हैं? वह जितना सोचता उतना ही उलझ कर रह जाता. जया से विजय की मुलाकात लगभग 2 वर्ष पूर्व हुई थी. एक व्यावसायिक सेमिनार में, जोकि स्थानीय व्यापार संघ द्वारा बुलाया गया था. जया अपनी कंपनी का प्रतिनिधित्व कर रही थी, जबकि विजय खुद की कंपनी का, जिस का वह मालिक था और जिसे वह 5 वर्षों से चला रहा था. विजय की कंपनी यद्यपि छोटी थी, लेकिन अपने परिश्रम से उस ने थोड़े समय में ही एक अच्छा मुकाम हासिल कर लिया था और स्थानीय व्यापारी समुदाय में उस की अच्छी प्रतिष्ठा थी, जबकि जया एक प्रतिष्ठित कंपनी में सहायक मैनेजिंग डाइरैक्टर के पद पर थी. जया का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि विजय उस के प्रति आकर्षित होता चला गया. उस के बाद दोनों अकसर एकदूसरे से मिलने लगे.

इसे संयोग ही कहा जाए कि अभी तक दोनों अविवाहित थे और उन के जीवन में किसी और का पदार्पण नहीं हुआ था. जया के पिता का देहांत उस के बचपन में ही हो गया था और उस के बाद उस की मां ने ही उसे पालपोस कर बड़ा किया था और ऐसे संस्कार दिए जिन से बचपन से ही अपनी पढ़ाई के अतिरिक्त किसी अन्य चीज की ओर उस का ध्यान नहीं गया. उस ने देश के एक बड़े संस्थान से मैनेजमैंट की डिगरी हासिल की और उस के बाद एक अच्छी कंपनी में उसे जौब मिल गई. जया अपने परिश्रम, लगन और योग्यता के द्वारा वह उसी कंपनी में सहायक मैनेजिंग डाइरैक्टर के रूप में कार्यरत थी.

बढ़ती उम्र के साथ जया की मां को उस की शादी की चिंता सताने लगी थी,

परंतु जया ने इस दिशा में ज्यादा नहीं सोचा था या यों कहें कि कार्य की व्यस्तता में ज्यादा सोचने का अवसर ही नहीं मिला. अपने कार्य में इतना मशगूल थी कि उस ने कभी इस बात की चिंता नहीं की और शायद यही उस की सफलता का राज भी था. ऐसा नहीं था कि किसी ने उस से मिलने या निकट आने की कोशिश नहीं की हो, लेकिन जया ने किसी भी को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया. वह एक आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी थी, उस से जो भी मिलता उस के निकट आने का प्रयास करता, परंतु जया हमेशा एक दूरी बना कर रखती.

दूसरी ओर विजय एक अच्छे और संपन्न परिवार से संबंध रखता था. उस के पिता एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे. एक ऐक्सीडैंट में उस ने अपने मातापिता दोनों को खो दिया था. एक छोटी बहन है जो अभी कालेज में पढ़ रही है. विजय एक हंसमुख स्वभाव का, लेकिन गंभीर युवक था. पिता के देहांत के बाद उस ने खुद की अपनी कंपनी बनाई जिस का वह खुद सर्वेसर्वा था. कई लड़कियों ने उस से निकटता स्थापित करने की कोशिश की, परंतु वह अपनी कंपनी के काम में इतना व्यस्त रहता था कि किसी को अवसर ही नहीं मिला. कोई दोस्त या रिश्तेदार उस से शादी की बात करना भी चाहता तो उस का छोटा सा उत्तर होता कि पहले बहन रमा की शादी, फिर अपने बारे में सोचूंगा.

विजय और जया पहली मुलाकात के बाद अकसर मिलने लगे थे और उन्हें अंदरहीअंदर यह एहसास होने लगा था कि वे एकदूसरे की दोस्ती को शादी के बंधन में बदल देंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं, शायद नियति को कुछ और ही मंजूर था. दोनों प्राय: एक ही रैस्टोरैंट में नियत समय पर मिलते थे.

लगभग 1 वर्ष पूर्व की बात है. एक दिन जब जया मिलने आई तो वह कुछ परेशान सी लग रही थी. दोनों की निकटता कुछ ऐसी थी कि विजय को समझते देर नहीं लगी. उस ने जानने का प्रयास किया, लेकिन जया ने कुछ बताया नहीं. विजय से जया की उदासी देखी नहीं जा रही थी. बहुत दबाव देने पर जया ने बताया कि वह नई कंपनी खोलने की सोच रही थी. कुछ रुपए उस के पास थे और लगभग 20 लाख रुपए कम पड़ रहे थे.

जया ने बताया कि उस ने बैंक से लोन लेने का प्रयास किया, परंतु बिना सिक्यूरिटी के बैंक ने लोन देने से मना कर दिया था. विजय ने उस की परेशानी जान कर यह सलाह दी कि जो रुपए कम पड़ रहे हैं, उन्हें वह विजय से ले ले, परंतु जया तैयार नहीं हो रही थी. विजय के बहुत समझाने और जोर देने पर कि वह उधार समझ कर ले ले और बाद में ब्याज सहित लौटा दे. इस बात पर जया मान गई और विजय ने उसे 20 लाख रुपए दे दिए.

वास्तविक परेशानी तो रुपए लेने के बाद शुरू हुई. रुपए लेने के बाद जया अपनी कंपनी के काम में लग गई. दोनों का मिलनाजुलना भी थोड़ा कम हो गया. कई दिन बाद भी जब जया मिलने नहीं आई तो विजय ने उसे फोन लगाया, परंतु उस का मोबाइल बंद था. विजय ने सोचा शायद वह अपने काम में ज्यादा व्यस्त होगी, क्योंकि नईर् कंपनी खोलना और उसे चलाना आसान काम नहीं था, विजय को इस चीज का अनुभव था. उस ने 2-3 दिन बाद पुन: जया को फोन करने का प्रयास किया, परंतु उस का फोन बंद ही मिला. उस ने जया की कंपनी में संपर्क किया तो पता चला कि वह कंपनी से त्यागपत्र दे कर वहां से जा चुकी है. कहां गई, यह किसी को नहीं पता.

विजय जब जया के घर गया तो पड़ोसियों ने बतया कि वह किसी और शहर में चली गई है, लेकिन कहां किसी को नहीं मालूम था. किराए का मकान था, अत: किसी ने ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था.

विजय बहुत दुखी था. उसे रुपयों की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी जया की. उसे जया से इस व्यवहार की उम्मीद बिलकुल नहीं थी. जितना भी वह जया के विषय में सोचता, उतना ही बेचैन और दुखी हो जाता. दिन बीतते रहे और उस की बेचैनी बढ़ती गई. इसी बेचैनी में वह शराब भी पीने लगा था. व्यापार अलग से खराब हो रहा था. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह जया को कहां ढूंढ़े.

लेकिन विजय का व्यक्तित्व इतना कमजोर भी नहीं था कि वह टूट जाए. उस ने फिर से अपने व्यवसाय पर ध्यान देना शुरू किया और उसे पुन: वापस पटरी पर ले आया. परंतु शराब की लत उसे पड़ चुकी थी और वह रोज शाम को उसी रैस्टोरैंट में पहुंच जाता. जया को भूलना उस के लिए मुश्किल था. वह रोज शाम को शराब पीता और घर जाता. उस की छोटी बहन रमा उस से पूछती, परंतु वह कोई उचित जवाब नहीं दे पाता. रमा भी कई बार जया से मिल चुकी थी, बल्कि उस ने तो जया को मन ही मन अपनी होने वाली भाभी के रूप में स्वीकार भी कर लिया था.

रमा को जया स्वभाव से अच्छी लगी थी. उसे भी जया से ऐसे व्यवहार की कतई उम्मीद नहीं थी. उस ने कई बार भाई को समझाने की कोशिश भी की. उस ने कहा भी कि जया की जरूर कोई मजबूरी होगी, किंतु विजय पर कोई असर नहीं पड़ा.

इस बात को लगभग 1 वर्ष हो चुका था, परंतु विजय की दिनचर्या नहीं बदली. वह अभी भी रोज शाम को उस रैस्टोरैंट में जरूर जाता, जैसे उसे लगता कि आज जया कहीं से वहां आ जाएगी.

एक दिन वह जब अंदर बैठ कर रोज की भांति कुछ खापी रहा था, तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि जया उस रैस्टोरैट के द्वार पर खड़ी हो. वह तुरंत उठा और बाहर निकला. उस ने इधरउधर देखा, परंतु जया उसे कहीं नहीं दिखी. परेशान हो कर वापस लौटा और बाहर खड़े गार्ड से पूछा, ‘‘क्या कोई मैडम यहां आई थी?’’

गार्ड ने बताया, ‘‘एक मैडम टैक्सी रुकवा कर अंदर आई और फिर तुरंत बाहर निकल कर उसी टैक्सी से चली गई.’’

विजय सोच में पड़ गया कि अगर वह जया थी तो क्या करने आई थी और क्यों उस से बिना मिले, बिना कुछ कहे चली गई? गार्ड ने यह भी बताया था कि मैडम उस के बारे में पूछ रही थी कि क्या साहब रोज शाम को यहां आते हैं? गार्ड की बात सुन कर विजय ने अनुमान लगा लिया था कि वह निश्चित रूप से जया ही थी.

उस की समझ में यह नहीं आ रहा था कि जया वहां क्या करने आई थी, शायद यह

देखने आई थी कि मैं जिंदा भी हूं या नहीं. उस का मन कड़वाहट से भर गया, उस के मुंह से निकला कि विश्वासघाती, धोखाबाज. यह सामान्य मानव स्वभाव है कि जब वह किसी के बारे में जैसा सोचता है, उस के संबंध में वैसी ही धारणा भी बन जाती है.

यही सब सोचते हुए वह घर पहुंच गया. प्राय: वह बाहर से शराब पी कर ही घर लौटता था, रमा उसे खाना दे कर चुपचाप अपने रूम में चली जाती थी. मगर आज रमा ने विजय को कुछ अधिक ही परेशान देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है भैया, आप इतने परेशान क्यों हो?’’

न चाहते हुए भी विजय ने गुस्से में जया को बुराभला कहते हुए सारी बात रमा को बता दी.

उस की बात और गुस्से को देख कर रमा सिर्फ इतना ही बोली, ‘‘भैया, जया भाभी ऐसी नहीं है… जरूर कोई मजबूरी होगी.’’

‘‘मत कहो उसे भाभी, उस के लिए मेरे मन में कोई जगह नहीं है,’’ विजय गुस्से से बोला. फिर कुछ सोच कर उस ने जया को फोन लगाया. उस का मोबाइल आज बंद नहीं था, परंतु जया ने फोन उठाया नहीं. विजय ने कई बार किया, परंतु उस ने फोन उठाया नहीं. विजय गहरी सोच में डूब गया.

अगले दिन पुन: अपनी रोज की तरह वह फिर उसी रैस्टोरैंट में जाने को तैयार था. आज तो वह अपने औफिस भी नहीं गया था, जब वह घर से निकलने लगा तो रमा भी साथ चलने की जिद करने लगी, परंतु उस ने मना कर दिया, भला वह उस के सामने कैसे शराब पी सकता था. पता नहीं रोज शाम को उस के कदम स्वत: ही उस रैस्टोरैंट की ओर उठ जाते और वह यंत्रचालित सा वहां पहुंच जाता.

रैस्टोरैंट पहुंच कर वह अपनी निर्धारित टेबल पर पहुंचा ही कि सुखद

आश्चर्य से भर उठा, क्योंकि वहां पहले से ही सामने वाली कुरसी पर जया विराजमान थी. खुशी, दुख, अवसाद, घृणा और आश्चर्य जैसी भावनाएं जब एकसाथ किसी मनुष्य के अंदर उत्पन्न होती हैं तो सहसा वह कुछ भी नहीं बोल पाता. बस वह जया को एकटक घूरे जा रहा था. उस ने महसूस किया कि जया पहले से थोड़ी कमजोर हो गई है, परंतु उस की सुंदरता, चेहरे के आकर्षण और व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं आई थी.

जया ने ही पहल की, ‘‘कैसे हो विजय?’’

विजय कुछ नहीं बोल पाया. इस बीच वेटर रोज की तरह विजय का खानेपीने का सामान ला कर रख गया था, जिसे देख कर जया बोली, ‘‘सुनो, इसे हटाओ और 2 कोल्ड ड्रिंक ले कर आओ और सुनो आज से ये सब बंद.’’

वेटर चुपचाप सब उठा कर ले गया. विजय अभी भी भरीभरी आंखों से जया को घूरे जा रहा था.

जया ही फिर बोली, ‘‘कुछ तो बोलो विजय, कैसे हो.’’

विजय अब भी चुप ही था.

‘‘अच्छा पहले यह अपनी अमानत वापस ले लो, पूरे 20 लाख ही हैं,’’ और एक बैग विजय की ओर बढ़ा दिया.

‘‘रुपए किस ने मांग थे?’’ विजय भर्राए गले से बोला, ‘‘तुम इतने दिन कहां थीं, कैसी थीं?’’ वह इतना ही बोल पाया.

‘‘विजय,’’ जया एक गहरी सांस भर कर बोली. उस के चेहरे पर दर्द की वेदना साफ दिखाई पड़ रही थी,’’ सुनो विजय मैं तुम्हारी अपराधी अवश्य हूं, परंतु मैं ने आज तक किसी को कुछ नहीं बताया कि मैं कहां थी, क्यों थी?’’

जया थोड़ी देर के लिए रुकी, फिर बोलना शुरू किया, ‘‘वास्तव में मुझे तुम्हें पहले ही बता देना चाहिए था, लेकिन तुम से रुपए लेने के बाद मैं इस स्थिति में नहीं थी कि तुम से कुछ कहूं. तुम से पैसे लेने के बाद मैं ने अपनी कंपनी का काम शुरू किया, काम अभी प्रारंभिक अवस्था में ही था कि अचानक मां की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई. मैं कंपनी का काम भी ठीक से नहीं कर पा रही थी. अंत में मुझे कंपनी का काम बीच में ही छोड़ना पड़ा. मां के इलाज में तुम से लिए रुपए और मेरे खुद के रुपए खर्च हो गए, काफी रुपए नई कंपनी के प्रयास में पहले ही खर्च हो चुके थे, परंतु खुशी सिर्फ इस बात की है कि मैं ने मां को बचा लिया.’’

विजय बोला, ‘‘तुम इतनी परेशान थीं, तो तुम ने मुझे क्यों याद नहीं किया? क्या तुम मुझे अपना नहीं समझती हो या तुम्हें मेरी याद ही नहीं आई? मांजी तो अब ठीक हैं न?’’

जया बोली, ‘‘हां अब ठीक हैं और रही तुम्हारी याद आने की बात, तो याद नहीं आती तो मैं आज यहां क्यों होती. रुपए खत्म हो रहे थे, परंतु जिंदगी तो चलानी ही थी. मैं ने यहां से दूर दूसरे बड़े शहर में नौकरी के लिए आवेदन किया. मेरे पुराने रिकौर्ड को देख कर मुझे नई कंपनी में सहायक डाइरैक्टर की जौब मिल गई. लगभग 1 वर्ष के कठिन परिश्रम के द्वारा ये रुपए एकत्र करने के बाद मैं तुम से मिलने का साहस जुटा पाई हूं. इन के बिना मेरा जमीर तुम से मिलने की इजाजत नहीं दे रहा था.’’

‘‘जया तुम ने इतना कुछ अकेले क्यों सहा? क्या तुम्हें मेरे ऊपर विश्वास नहीं था या तुम मुझे अपना ही नहीं समझती हो?’’ विजय का गला भर्रा गया था और उस ने जया का हाथ थाम लिया था.

जया की आंखें भी भर आई थीं. बोली, ‘‘अपना न समझती तो यहां होती?’’

तभी विजय बोला, ‘‘अच्छा बताओ मांजी कहां हैं?’’

‘‘मैं यहीं एक होटल में मांजी के साथ रुकी हूं,’’ जया ने जवाब दिया, ‘‘थोड़ी कमजोर हैं, लेकिन अब स्वस्थ हैं.’’

‘‘बताओ घर होते हुए भी मांजी को होटल में रखा है. बताओ यह कहां का अपनापन है?’’ विजय उलाहना भरे स्वर में बोला.

‘‘कुछ सोच कर मैं ने तुम्हें नहीं बताया… मन में बहुत सारी उलझनें थीं,’’ जया मुसकरा कर बोली.

‘‘क्या उलझनें थीं? शायद तुम सोच रही थीं कि अगर मैं ने शादी कर ली होगी तो? अगर तुम नहीं मिलतीं तो मैं ने सोच लिया था कि मैं शादी ही नहीं करूंगा,’’ विजय बोला.

‘‘मुझे माफ कर दो विजय, मैं तुम्हारी गुनहगार हूं, मैं ने तुम्हें बहुत कष्ट पहुंचाया है,’’ कह कर जया ने विजय के कंधे पर अपना सिर रख दिया.

विजय ने धीरे से उस का सिर सहलाया, दोनों की आंखें भर आई थीं. कुछ

देर मूर्तिवत खड़े रहे. फिर अचानक विजय ने जया को अलग किया, ‘‘अरे, यह तो बताओ कि मेरी अमानत तो वापस ले आई हो, परंतु उस का ब्याज कौन देगा?’’

‘‘अरे भैया ब्याज में तो भाभी खुद आ गई हैं,’’ अचानक रमा की आवाज सुन कर दोनों चौंक पड़े. पता नहीं कब वह भी वहां आ गई थी. दोनों एकदूसरे से बातचीत में इस कदर खोए हुए थे कि उन का ध्यान उधर गया ही नहीं.

जया ने आगे बढ़ कर रमा को गले लगा लिया.

‘‘अच्छा जया बहुत हुआ, अब तुम अपने घर चलो, अब तुम्हें नौकरी के लिए कहीं नहीं जाना. पहले हम लोग होटल चलेंगे… मांजी को साथ लाएंगे, फिर घर तुम्हारा, कंपनी तुम्हारी और यह परिवार हमारा,’’ विजय बोला.

विजय की बात सुन कर तीनों हंस पड़े और फिर रमा की खुशियों से परिपूर्ण आवाज गूंज उठी, ‘‘आज से विजय भैया और जया भाभी अलग नहीं रहेंगे, अब दोनों साथसाथ विजया बन कर रहेंगे, क्यों भाभी है न?’’

रमा की बात पर तीनों हंस पड़े.

सैयद साहब की हवेली

गांव हालांकि छोटा था, लेकिन थोड़ीबहुत तरक्की कर रहा था. पहले 70-100 मकान थे, पर अब गांव के बाहर भी घर बनने लगे थे. सरकारी जमीन पर भी, जहां ढोरमवेशी चराए जाने के लिए जगह छोड़ी गई थी, निचली जाति के लोगों ने उस पर कब्जे कर लिए थे. झोंपड़ों के मकड़जाल की यह खबर हवेली तक भी पहुंच गई. हवेली में सैयद फैयाज मियां हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे और उन के पैरों को हज्जाम घासी मियां सहला रहे थे. उन्होंने ही धीमी रफ्तार से पूरे गांव की सब खबरें सुनानी शुरू कर दी थीं. गांव में मुसलिमों के एक दर्जन से कम घर थे, लेकिन बड़ी हवेली सैयद साहब की ही थी. सब से ज्यादा जमीन, नौकरचाकर भी उन्हीं की हवेली में थे.

1-2 भिश्ती और पिंजारों के परिवार के लोग भी उन की खिदमत के लिए आ कर बस गए थे. पूरे गांव में उन की मालगुजारी होने से दबदबा भी बहुत था, लेकिन कोई उन के गांव में आ कर बस जाए और उन्हें खबर भी न करे या बस जाने की इजाजत लेने की जहमत भी न उठाए, यह कैसे हो सकता था. जब इतनी जमीन, इतनी बड़ी हवेली और इतने लोग थे, तो कुछ पहलवान भी थे, जो पहलवान कम गुंडे ज्यादा थे. उन का पलनारहना भी लाजिमी था. जैसे कोई भी बस्ती कहीं भी बस जाए बिना चाहे, बिना बुलाए दोचार कुत्ते आ ही जाते हैं, उसी तरह ये गुंडे भी हवेली के टुकड़ों पर पल रहे थे. कोई आता तो लट्ठ ले कर उसे अंदर लाते थे और कभीकभी कुटाई भी कर देते थे. थाने से ले कर साहब लोगों तक सैयद साहब की खूब पकड़ थी. सैयद साहब का एक बाड़ा था, जहां उन के जन्नतनशीं हो चुके रिश्तेदार कयामत के इंतजार में कब्र में पड़े थे. उसी बाड़े से लगा एक और कब्रिस्तान था, जो 7-10 घरों के भिश्ती मेहतरों के लिए था.

जब हज्जाम मियां ने गांव में बस रहे झोंपड़ों की जानकारी दी, तो सैयद साहब के माथे पर बल पड़ गए थे. वे जानते थे कि ये छोटी जाति के लोग आने वाले वक्त में गांव के बाशिंदे बन कर वोट बैंक को बिगाड़ देंगे. आज की तारीख में तो सरपंच से ले कर विधायक तक हवेली में सलाम करने आते हैं, उस के बाद जीतहार तय होती है. तकरीबन 200-250 वोट एकतरफा पड़ते हैं, फिर आसपास के गांवों में उन के पाले हुए गुंडे सब संभाल लेते हैं. पूरा गांव ही नहीं, आसपास के गांव वाले भी जानते थे कि सैयद साहब से दुश्मनी लेना यानी हुक्कापानी बंद. फिर किसी दूसरे गांव में किसी ने पनाह दे भी दी, तो समझो कि उस बंदे की खैर नहीं. सैयद साहब की थोड़ी उम्र भी हो चली थी. दाढ़ी के बाल पकने लगे थे, लेकिन उमंगें आज भी जवान थीं. उन की 2 बेटियां, एक बेटा भी था, जो धीरेधीरे जवानी में कदम रख रहे थे.

बेटे में भी सारे गुण अपने अब्बा के ही थे. नौकरों से बदतमीजी से बात करना, स्कूल न जाना, दिनभर आवारागर्दी करना और तालाब पर मछली मारने के लिए घंटों बैठे रहना. पूरे गांव के लोग उसे सलाम करते थे. वह भी अपने साथ 3-4 लड़कों को रखता था, लेकिन उस ने कभी भी गांव की किसी लड़की की ओर आंख उठा कर भी नहीं देखा. इस का मतलब यह नहीं था कि उस की उमंगें कम थीं. जोकुछ वह सोचता, खानदान की इज्जत की खातिर सपने में पूरी कर लेता था. इसी छोटी बस्ती में हसन कुम्हार ने आ कर झोंपड़ा तान लिया था. एक तो मुसलिम, ऊपर से बड़ी हवेली सैयद की. बस, इसी वजह से उस के आसपास के लोग उस से डर कर रहते थे. वह भी न जाने कौन सी जगह से आ कर बस गया था, लेकिन सलाम करने वह हवेली नहीं पहुंचा था.

हज्जाम मियां ने उस की शिकायत भी कर दी थी. सैयद साहब ने सोचा, ‘अपनी जाति वाले से शुरू करें, तो यकीनन दूसरे हिंदू तो डर ही जाएंगे.’ उन का पहलवान हसन मियां को बुला लाया. हसन मियां दुबलापतला चुंगी दाढ़ी वाला था, लेकिन साथ में जो उस का बेटा आया था, वह गबरू जवान था. सलाम कर के हसन मियां वहां बड़े ही अदब से खड़े हो गए. सैयद साहब दीवान पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. 1-2 पहलवान लट्ठ लिए खड़े थे. हसन मियां इंतजार कर रहा था कि सैयद साहब कुछ सवाल करें, लेकिन सैयद साहब तो अपने में मगन हो कर कुछ गुनगुना रहे थे. थोड़ी देर बाद हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, इजाजत हो, तो मैं चला जाऊं?’’

सैयद साहब चौंके, फिर कह उठे, ‘‘अरे हां… क्यों रे, क्या नाम है तेरा?’’

‘‘हसन.’’

‘‘और… यह कौन है?’’

‘‘हुजूर, मेरा बेटा है.’’

‘‘काम क्या करते हो?’’

‘‘हुजूर, मिट्टी का काम है.’’

‘‘मतलब.’’

‘‘हुजूर, पहले जिस गांव में था, वहां कब्रें खोदता था, लेकिन कुछ कमाई कम थी, इस वजह से काम बदल लिया.’’

‘‘अब क्या करते हो’’

‘‘हुजूर, अब मिट्टी के बरतन बनाने का काम करता हूं.’’

‘‘और यह तेरा बेटा क्या करता है?’’

‘‘हुजूर, मदद करता है.’’

‘‘गूंगा है?’’

‘‘नहीं हुजूर… सैयद साहब के हाथ चूम कर आओ बेटा.’’ हसन मियां का बेटा आगे बढ़ा और बड़े अदब से हाथ को सिरमाथे लगा कर हाथ चूम कर खड़ा हो गया.

‘‘यहां बसने से पहले तुम इजाजत लेने क्यों नहीं आए?’’

‘‘हुजूर, सोचा था कि झोंपड़ा तन जाए, तब पूरे खानदान के साथ सलाम करने आते, लेकिन आप का बुलावा तो पहले ही आ गया,’’ बहुत ही नरमी से हसन मियां जवाब दे रहा था. वह जानता था कि एक बात भी जबान से कुछ फिसली तो सैयद साहब और उन के पले कुत्ते उन्हें छोड़ेंगे नहीं, फिर इस गांव को छोड़ कर कहीं और जगह ढूंढ़नी होगी.

‘‘क्यों रे, यहां कुछ काम करेगा?’’

‘‘कैसा काम?’’

‘‘यहां भी मुसलिम रहते हैं… कोई गमी हो गई, तो कब्र खोद देगा?’’

‘‘क्यों नहीं हुजूर.’’

‘‘कितने रुपए लेता है?’’

‘‘हुजूर, महंगाई है… सोचसमझ कर दिलवा देना.’’

‘‘चल, ठीक है, 2 सौ रुपए मिलेंगे… मंजूर है?’’

‘‘आप का दिया सिरआंखों पर.’’

‘‘तो खयाल रखना कि आज के बाद गांव में किसी के यहां गमी हुई, तो तुझे खबर मिल जाएगी. तू और तेरा यह लड़का कब्र खोदने का काम करेगा. कोई दिक्कत तो नहीं है?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ हसन मियां ने खुश होने का ढोंग किया. दरअसल, हसन की बीवी और उस के इस बेटे को कब्र खोदने का काम बिलकुल पसंद नहीं था. बीवी चाहती थी कि उन का बेटा आदिल पढ़लिख कर इस गंदे काम से पार हो जाए. आदिल भी जानता था कि उन के घर का दानापानी मरने वालों से ही चलता है. एकदो मर गए, तो 3-4 सौ रुपए मिल जाते थे, वरना एकएक हफ्ता निकल जाता था. बड़ी अजीब सी दलदली, गंदी जिंदगी हो गई थी. उधर कब्र खोदने के काम को छोड़ने का मन बना कर इस गांव में आए और यहां भी सैयद साहब यह काम करवाने पर तुले हैं, लेकिन डर के मारे उस ने कुछ कहा नहीं. सैयद साहब ने जाने का इशारा किया, तो वे सलाम कर के लौट गए.

अगले कुछ दिनों में हवेली में छोटी जाति के तमाम लोगों का बुलावा हो गया. सब अपनी दुम टांगों में दबा कर आए और ‘जो आने वाले वक्त में मालिक कहेंगे’. इस बात पर सहमत हो गए. किसी की हिम्मत नहीं थी कि इतनी बड़ी हवेली के खिलाफ कुछ कहें या दिल में सोचें. अभी हसन मियां सो कर भी नहीं उठे थे कि हवेली से खबर आ गई कि कब्र खोदने के लिए बुलाया है. हसन मियां की तबीयत ठीक नहीं थी. उस ने आदिल से कहा, ‘‘इस काम को निबटा कर आ जाए.’’ आदिल बगैर इच्छा के कंधे पर गमछा रख कर चला गया. हवेली का पूरा माहौल गमगीन था. सैयद साहब की बेटी कमरे में रो रही थी. बेटा बहुत उदास बैठा था. सैयद साहब कमरे से बाहर आए और पहलवान को इशारा किया. वह आदिल को बाड़े से लगे कब्रिस्तान में ले गया, जहां दूसरी मुसलमान जाति के लोगों को दफन किया जाता था. एक जगह देख कर पहलवान ने कहा, ‘‘यहीं कब्र खोद लो. कम से कम 2 फुट चौड़ी और 5 फुट गहरी.’’

‘‘जनाब, कोई बच्चा खत्म हो गया क्या?’’ आदिल ने बहुत अदब से पूछा.

‘‘जितना कहा है, उतना सुन लो.’’

आदिल कब्र खोदने लगा. पूरी कब्र खोद कर उस ने माथे का पसीना पोंछा ही था कि तभी हज्जाम मियां आए और उसे बुला कर हवेली में ले गए और एक ओर पड़ी कुत्ते की लाश को बता कर कहा, ‘‘इसे उठा कर दफन कर आओ.’’

‘‘इस कुत्ते की लाश को?’’ हैरत से आदिल ने पूछा. उस को जवाब मिलता, उस के पहले  ही एक पहलवान ने आदिल की कमर पर एक लात रसीद कर दी.

‘‘सैयद साहब की औलाद थी वह और तू उसे जानवर कहता है.’’ आदिल झुका, उस जानवर तक हाथ बढ़ाया, फिर उस ने कहा, ‘‘लेकिन, यह काम हमारा नहीं है…’’ उस की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि एक लात उस के पुट्ठे पर पड़ी और आदिल कुत्ते पर जा गिरा. ‘वह कुत्ता था. जानवर था, मर गया था. उसे कोई भी एहसास नहीं था, इसलिए वह धूप में पड़ा था. लेकिन मैं तो जिंदा हूं. मुझे तो लातों का दर्द, बेइज्जती का एहसास हो रहा है. ‘‘अगर मैं जिंदा हूं, तो मुझे जिंदा होने का सुबूत देना होगा,’ यह सोच कर आदिल बेदिली से उठा. उस ने देखा कि कमरे के बाहर दीवान पर सैयद साहब बैठ गए थे. उस ने बड़े दरवाजे पर नजर डाली. वह खुला हुआ था. उस ने  हिम्मत बटोरी और एक पल में ही दौड़ कर बाहर भाग गया.

पहलवान और सैयद साहब भौंचक्के रह गए थे कि आखिर हो क्या गया?

आदिल अपने झोंपड़े में नहीं गया. वह जानता था कि उसे पकड़ लिया जाएगा. वह दूसरी दिशा में भाग खड़ा हुआ था. पहलवान हसन मियां के घर पहुंचे. आदिल तो मिला नहीं. वे हसन मियां को पकड़ लाए. उसे भी 2-3 लातें मारीं और उस ने मरे जानवर को उठा कर कब्र में दफन किया. तबीयत भी ठीक नहीं थी. घर आ कर बिस्तर पर लेट गया. आदिल जब घर लौटा, तो अब्बा की हालत उस से छिपी नहीं रही. आदिल ने मुट्ठी भींची और पुलिस थाने चला गया. थाना शहर के पास था. आदिल अपनी चोटों के साथ, धूल सने कपड़ों के साथ थाने में पहुंचा. वहां रिपोर्ट लिखने वाला कोई सिपाही बैठा था. उसी की बगल में कोई न्यूज रिपोर्टर भी बैठ कर चाय पी रहा था. आदिल ने रोते हुए सारी बातें बताईं और कहा, ‘‘मेरे अब्बा को मारा, उन से मरा जानवर उठवाया, दफन करवाया, एक रुपया भी मेहनताना नहीं दिया, बेइज्जती अलग से की.’’

न्यूज रिपोर्टर एक अच्छी स्टोरी के चक्कर में था. उस ने भी सैयद साहब की हवेली के बहुत से किस्से सुन रखे थे. उस ने रिपोर्ट लिखने वाले सिपाही से कहा, ‘‘यार, यह देश की नौजवान पीढ़ी है. इसे इंसाफ मिलना चाहिए.’’

‘‘यार, तुम संभाल लेना,’’ सिपाही झिझकते हुए बोला.

‘‘आप चिंता मत करो, लेकिन इस की रिपोर्ट लिख लो.’’

उस ने रजिस्टर उठाया, उस की बात को लिखा, फिर एफआईआर काटी और एक पुलिस वाले को भेज कर उस का मैडिकल करने भेज दिया. देखते ही देखते लोकल चैनल पर सैयद साहब की हवेली, मारपीट, उन की हिंसा के जोरदार किस्से टुकड़ोंटुकड़ों में बयां होने लगे. सैयद साहब को भी खबर लग गई. उन का पारा सातवें आसमान पर था. एक मजदूर की औलाद की इतनी हिम्मत? तुरंत हसन मियां को बुलाने पहलवान भेज दिए. हसन मियां को 2 पहलवान पकड़ कर ले आए. उसे भी उड़तीउड़ती खबर लग गई थी कि आदिल ने मामला गड़बड़ कर दिया है. जब हवेली में वह हाजिर हुआ, रात हो गई थी. सुबह की बेइज्जती का दर्द दिल पर से अभी पूरी तरह से हटा नहीं था.

‘‘हसन, तू जानता है कि तुझे क्यों बुलाया है?’’

‘‘हुजूर,’’ घबराते हुए इतना ही मुंह से निकला.

‘‘तेरी औलाद ने हमारी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया है.’’

‘‘हुजूर…’’

‘‘उसे अभी बुला और अपनी रिपोर्ट वापस लेने को कह. समझा कि नहीं?’’ सैयद साहब ने चीख कर कहा. पूरी हवेली उन की आवाज से कांप गई थी. हसन मियां भी ठान कर आया था कि वह तो मजदूर है, कहीं भी कमाखा लेगा. उस ने कहा, ‘‘हुजूर, बेटा तो अभी तक लौटा नहीं है.’’

‘‘कहां है वह?’’

‘‘शहर में ही है.’’

‘‘जा कर ले आ, वरना इस गांव में रह नहीं पाएगा,’’ सैयद साहब ने गुस्से से कांपते हुए कहा.

हसन मियां ने कहा, ‘‘हुजूर, रातभर की बात है, सुबह हम गांव छोड़ देंगे.’’

‘‘मुंह चलाता है…’’ सैयद साहब चीखे. उसी के साथ 2-3 लातघूंसे हसन मियां के मुंह पर पड़ गए. वह गिर पड़ा. रोते हुए वह बाहर आया. वह अपने झोंपड़े की ओर बढ़ा, तो देखा कि सैयद साहब के गुंडे उस के झोंपड़े को आग लगा रहे थे. सैयद साहब एक ओर जीप में बैठे थे. आदिल की अम्मी झोंपड़े के बाहर खड़ी रो रही थी. तभी एक मोटरसाइकिल पर आदिल उस रिपोर्टर के साथ आया. उस ने अपने कैमरे से सब शूट करना शुरू कर दिया. सैयद साहब भी उस शूट में दिखाई दे रहे थे. तुरंत वह न्यूज भी दिखाई जाने लगी. सुबह पुलिस आदिल की अम्मी, अब्बू को ले गई. रिपोर्ट लिखवाई और दोपहर होतेहोते हवेली में पुलिस अंदर घुस गई. पूरे गांव में हल्ला मच गया था. दोपहर में पुलिस पहलवानों और सैयद साहब को पकड़ कर ले गई. आदिल गांव में आया. अब्बा के साथ अपना झोंपड़ा दोबारा बनाया और मेहनतमजदूरी में जुट गया. बड़ेबड़े वकीलों ने सैयद साहब की जमानत कराई. पूरे एक महीने तक जेल में रह कर वे वापस लौटे. सैयद साहब के चेहरे की रौनक चली गई थी. बापदादाओं की इज्जत पर पानी फिर गया था. हसन मियां को भी मालूम पड़ गया था कि सैयद साहब आ गए हैं. अब तो उन्हें बहुत होशियारी से रहना होगा. सैयद साहब को बेइज्जती का ऐसा धक्का लगा कि उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया और पूरा एक महीना भी नहीं गुजरा कि इस दुनिया से चले गए. जैसे ही हसन मियां को मालूम हुआ, वह आदिल के साथ ईमानदारी के साथ कब्र खोदने जा पहुंचा. कब्र खोदतेखोदते आदिल ने अपने अब्बा को देखा, तो अब्बा ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या बात हुई?’’

‘‘अब्बा, जो कुछ हुआ, उस पर किसी का जोर नहीं है, लेकिन एक बात तो है…’’

‘‘क्या?’’

‘‘कोई कितना भी बड़ा आदमी मरे, कब्र तो मजदूर ही खोदता है. देखो न, हम ने सैयद साहब की कब्र खोद दी.’’ हसन मियां फटी आंखों से आदिल का चेहरा देख रहा था.

सीख- क्या सुधीर को कभी अपनी गलती का एहसास हो पाया?

सासें भांति भांति की

विविधता से परिपूर्ण हमारे देश में भांतिभांति के अजूबे पाए जाते हैं. हमारी हर बात निराली होती है. लेकिन हमारे देश की संस्कृति में एक अजूबा चरित्र ऐसा भी है, जो भारत की विविधताओं में एकता का गुरुतर भार अपने कंधों पर सदियों से ढोता आ रहा है.

कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक संपूर्ण भारतवर्ष में यह जीव सर्वत्र नजर आता है. इस अद्भुत चरित्र का नाम है सास. प्रादेशिक भाषाओं में इसे सासू, सास, सासूमां अथवा अन्य किसी संबोधन से पुकारा जाता है, लेकिन इस का मुख्य अर्थ है पति की माताश्री, जिन्हें आदर के साथ सास कहा जाता है. वैसे पत्नी की माताश्री भी जंवाई राजा की सास कहलाती है, लेकिन वह सास का गौणरूप है.

सास का मुख्य और अहम स्वरूप पति की माता के रूप में अधिक वर्णनीय है. यह चरित्र सरल भी है, खासा जटिल भी. जलेबी की तरह सीधा भी है तो करेले की तरह मीठा भी, यह नमक की तरह खारा भी है तो स्वाद का राजा भी.

यदि दुनिया की गूढ़ पहेलियों की बात की जाए तो सास की पहेली सब से ज्यादा जटिल नजर आती है. बीजगणित के जटिल समीकरण आसानी से हल हो सकते हैं, लेकिन सासबहू के समीकरण को समझना और हल करना हम जैसे तुच्छ प्राणी के वश की बात नजर नहीं आती है. हमें उम्मीद नहीं लगती कि कभी कोई विद्वान 36 के ऐसे आंकड़े के रहस्य से परदा उठा पाएगा. सासबहू के विवाद का हर गृहस्थी को सामना करना पड़ता है.

सास शब्द की उत्पत्ति पर विचार करना भी कठिन है. यदि व्याकरण के नियमों और सिद्धांतों को ताक पर रख कर हम थोड़े व्यावहारिक दृष्टिकोण से चिंतन करें तो प्रतीत होता है जैसे सृष्टि को नियंत्रित करने के लिए ही इस जीव विशेष की रचना हुई होगी. सास शब्द निश्चय ही श्वास से जुड़ा होगा. हमारे अनुसार सास की सरल परिभाषा अथवा भावार्थ यह हो सकता है कि सास वह होती है, जो सांसों को नियंत्रित करने का जिम्मा उठाती है. सासबहू के संबंध गृहस्थी की नींव होते हैं, इसलिए एक गृहस्थ की सांसें इस नींव पर ही टिकी रहती हैं. सासें विभिन्न प्रकार की हो सकती हैं. इन के गुणधर्म और आचारव्यवहार के आधार पर हम ने इन्हें विभिन्न श्रेणियों में विभाजित कर के समझने का प्रयास किया है.

उपयोगिता की दृष्टि से सकारात्मक सोच वाली सासें अपनी बहू के लिए एक आदर्श और मजबूत संबल होती हैं, तो नकारात्मक भूमिका वाली सासें गृहस्थी का बंटाढार करने के लिए जगतप्रसिद्ध हैं. सासें चाहें तो घर की बागडोर को अच्छी तरह हैंडल कर सकती हैं तथा नईनवेली बहुओं के लिए आदर्श प्रशिक्षिका भी साबित हो सकती हैं, जिस में सारे परिवार का उद्धार निहित है.

पहली श्रेणी उन सासों की है, जो अकसर बड़बड़ करती रहती हैं. इस श्रेणी की सासों को ‘बकबक सासें’ कहा जा सकता है. उन का पहला और आखिरी काम होता है बहुओं के क्रियाकलापों पर टीकाटिप्पणी करना. ऐसी सासें जब चाहें तब तिल का पहाड़ बना कर विस्फोट करा सकती हैं. उन का खून गरम होता है, अत: तापमान को ज्वलनशीलता की ओर अग्रसर करना उन के बाएं हाथ का खेल होता है. बहुओं की छोटी से छोटी बात पर भी पैनी नजर रखना उन की सामान्य आदत होती है. मीनमेख निकालने की कला में वे दक्ष होती हैं. संभवत: इसी क्रिया द्वारा उन का भोजन पचता है. साधारणतया इस श्रेणी की सासों के वार्तालाप का मुख्य विषय भी बहू पर ही केंद्रित होता है. ऐसी सासें अपनी बहुओं के दोषों का बखान करते कभी नहीं थकतीं. उन की अपनी बहुओं से हमेशा तनातनी चलती रहती है. ऐसी सासें सब से ज्यादा संख्या में पाई जाती हैं.

दूसरे प्रकार की सासों को ‘सौम्य सासें’ कहा जा सकता है. वे गऊछाप सासें होती हैं, इसलिए उन की प्रकृति बहुओं पर दोष मढ़ने की नहीं होती, बल्कि उन्हें प्यार से समझा कर उन की गलतियों को सुधारने की होती है. लेकिन ऐसी सासों का अकसर अकाल ही रहता है. ऐसी सासों  का पाला अगर ‘हू हू’ किस्म की यानी डरावनी बहू से पड़ जाए तो वे दहेज के झूठे इलजाम में हवालात की गौशाला में भी बंधी नजर आ सकती हैं.

तीसरी श्रेणी की सासें ‘पहलवान टाइप’ होती हैं. वे अपने बाहुबल के प्रदर्शन का अवसर कभी नहीं चूकती हैं. मौका मिलते ही थप्पड़ जड़ना उन का शगल होता है. लेकिन वरीयता क्रम में पिछड़ी इन सासों की लोकप्रियता आधुनिक युग में बड़ी तेजी के साथ घटती जा रही है. वर्तमान कानून और प्रतिबंध उन की वंशवृद्धि में बड़ी रुकावट पैदा कर रहे हैं. ऐसी सासों को शास्त्रीय अथवा क्लासिकल सासें कहना भी उचित होगा.

एक जमाना था जब ऐसी सासों ने बौलीवुड की फिल्मों में धाक जमाई हुई थी. ललिता पवार को ऐसी सास के अभिनय ने लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुंचा दिया था. ऐसी सासों से बहूबेटे ही नहीं बल्कि पूरा महल्ला डरा करता था. लेकिन अब ऐसे रोबदाब वाली सासों के दिन लद गए हैं. उन का स्वर्ण युग इतिहास के पन्नों तक सिमट कर रह गया है. अलबत्ता दहेज कानूनों ने इस ब्रैंड की बहुओं की फौज जरूर खड़ी कर दी है.

चौथी श्रेणी में ‘चुगलबाज सासों’ को रखा जा सकता है. उन का प्रिय शौक चुगलबाजी करना होता है. अत: अपने घरपरिवार की बातें मीडिया की तरह जनसाधारण तक पहुंचाने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता है. उन की रिपोर्टिंग के आगे इलैक्ट्रौनिक अथवा प्रिंट मीडिया भी फेल साबित होता है. आज बहू कब सो कर उठी अथवा सब्जी में नमक ज्यादा था या कम जैसी महत्त्वपूर्ण खबरें हजारों मील दूर बैठे रिश्तेदारों को सहज ही पता चल जाती हैं.

5वीं श्रेणी ‘फरमाइशी सासों’ की है. कारण, उन की फरमाइशें कभी पूरी नहीं होती हैं. बहुओं से उन की फरमाइशें हमेशा चलती रहती हैं. ऐसी सासें दहेज से कभी संतुष्ट नहीं दिखतीं. उन्हें पूंजीवादी सासें भी कहा जा सकता है, क्योंकि उन की सारी चिंता पूंजी पर केंद्रित रहती है.

छठे वर्ग की सासों को ‘समाजवादी सासें’ कहना उचित होगा. उन्हें हमेशा समाज की चिंता सताती रहती है. उन्हें हमेशा डर रहता है कि पता नहीं बहू कब उन की प्रतिष्ठा की नाक समाज में कटवा डाले, किसी ने देख लिया तो लोग क्या कहेंगे जैसे जुमले उन के मुंह पर हमेशा चढ़े रहते हैं. ऐसी सासें हमेशा अपनी बहुओं के कृत्यों और उन के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकनविश्लेषण करती प्रतीत होती हैं.

7वीं श्रेणी में ‘शिकायतप्रधान सासें’ आती हैं. वे मुंह पर थप्पड़ की तरह अपनी शिकायतें दागती रहती हैं. ऐसी सासों को झेलने के लिए जरूरी है कि बहुएं अपने कानों में हमेशा रुई ठूंस कर रखें अथवा सास की बात को एक कान से सुनें और दूसरे से निकाल दें.

8वीं श्रेणी ‘भक्तिप्रधान सासों’ की है. उन का ज्यादातर समय बहू पुराण पर बतियाते हुए पूजापाठ करने, माला जपने या भजनकीर्तन करने में व्यतीत होता है. उन के शरीर में कभीकभी सास की ओरिजनल फौर्म भी अवतरित होती रहती है. बहू के कारनामों के टर्निंग पौइंट से वे भी मुक्त नहीं होतीं. माला घुमाते वे बहू को हुक्म देने के विस्फोटक बीज मंत्रों का उच्चारण भी करती रहती हैं.

लेकिन यह तथ्य भी बेहद महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान समय में आधुनिकता के दौर में सासों की दशा बेहद खराब है. हम दो हमारे दो के फैशन में एकल परिवारों में सासससुर अवांछित सदस्य समझे जाने लगे हैं.

अतीत के आक्रामक रूप से पिछड़ कर अब सास सुरक्षात्मक भूमिका तक सीमित हो गई है. अब वह जमाना भी कहां रहा जब सास की झिड़कियों को प्रसाद समझ कर बहुएं उन पर अमल करती थीं. सासों को सर्वत्र आदरसम्मान प्राप्त था. वर्तमान तो ‘जैसे को तैसा’ का युग है, इसलिए बदले जमाने में तो सासों का शास्त्रीय रूप दुर्लभ होता जा रहा है.

यह भी सत्य है कि सासबहू की खटपट कभी खत्म नहीं होती, उन का कोल्ड वार जारी रहता है. बहू हो या जंवाई राजा, उन्हें अपनीअपनी सासूमां की अंतहीन शिकायतें सुननी ही पड़ती हैं. शीत युद्ध लड़ना उन की विवशता होती है, वे चाहे मीठीं हों या कड़वी. समाज का तानाबाना ही ऐसा बुना गया है कि आमतौर पर उन्हें नाराज करने का रिस्क कोई नहीं लेता.

फिलहाल सासों की शोचनीय हालत से लगता है कि उन्हें सरकारी संरक्षण की जरूरत पड़ने वाली है. ‘सेव टाइगर’ की तरह ‘सेव मदर इन ला’ की योजना सरकार को लांच करनी पड़ेगी, क्योंकि यदि यही हाल रहा तो सास धीरेधीरे अपना मूल स्वरूप खो कर अतीत की धरोहर मात्र रह जाएगी.

नथनी: भाग 3- क्या खत्म हुई जेनी की सेरोगेट मदर की तलाश

50 हजार रुपए के लिए दोनों मियांबीवी तमाम योजनाएं बना ही रहे थे कि तभी किसी साथी ने कमल को आवाज लगाई. कमल बाहर गया तो उस ने साथ चलने को कहा. कमल ने बिना कुछ सोचेसमझे उस के साथ जाने से मना कर दिया और साथ में यह भी साफ कर दिया कि अब वह अपने पैसों से नया धंधा शुरू करने जा रहा है.

इस बात की भनक लगते ही उस के साथियों में खलबली मच गई कि कहीं कमल उन लोगों के बारे में पुलिस को न बतला दे. वे लोग उसे धमकी दे कर चले गए. उस ने सब से पहले 40 हजार रुपए की एक जर्मन पिस्तौल खरीद डाली और 5 हजार की एक बढि़या सी सोने की नथनी.

यह बात जब उस के गैंग वालों को पता चली तो उन्होंने खतरे को भांपते हुए कमल से मिल कर यह आश्वासन लेना चाहा कि वह धंधा छोड़ दे तो कोई बात नहीं, पर उन के राज किसी और को न बताए, वरना अंजाम सभी के लिए खराब होगा. कमल राजी हो गया. चलतेचलते किसी ने पलट कर यह कह दिया, ‘‘तुझ को अपनी बीवी सलमा का वास्ता है.’’

‘‘तुम सब को मालूम है कि मैं सलमा को कितना प्यार करता हूं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मैं तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊंगा, पर यह याद रखना कि तुम भी मेरा राज कभी किसी से नहीं खोलोगे,’’ कहते हुए कमल ने खुशीखुशी सब को विदा कर दिया पर पिस्तौल तो वह खरीद ही चुका था.

सलमा ने सोचा था कि उस पैसे से वह कमल को कोई धंधा करा देगी, पर यह सब जान कर उस को एक सदमा लगा और वह चुप रह गई.

सलमा अब उस नर्सिंग होम के संरक्षण में आ चुकी थी. उस के पेट में जेनी का बच्चा आ चुका था. उस के खानेपीने व दवाओं का बढि़या इंतजाम हो गया था. एक नर्स उस की दोनों बेटियों की देखरेख के लिए भी रख दी गई थी. पर कमल नहीं बदला.

5वें महीने जेनी ने खुशी से झूमते हुए डेविड को बताया, ‘‘मैं ने सलमा के पेट में अपने बच्चे के दिल की धड़कनें सुन ली हैं. मैं बता नहीं सकती, मैं कैसा महसूस कर रही हूं.’’

यह सुन कर डेविड से भी नहीं रहा गया. उन्होंने भी उन धड़कनों को सुनने की इच्छा जाहिर कर दी.

जेनी ने सलमा से पूछा, ‘‘अगर तुम्हें एतराज न हो तो डेविड भी अपने बच्चे के दिल की धड़कनें सुन लें.’’

सलमा पसोपेश में पड़ गई कि कहीं उस के इजाजत दे देने पर कमल बुरा न मान जाए. पर जेनी और डेविड को रोतेगिड़गिड़ाते देख वह भावुक हो उठी. उसे वह दिन याद आ गया जब कमल ने भी पहली बार अपने बच्चे की धड़कनें सुनने के लिए उस के पेट पर अपने कान लगा दिए थे. काफी देर इंतजार के बाद भी जब कमल नहीं आया तो वे दोनों काफी उदास हो गए और प्रस्ताव रखा कि इस इजाजत के वे 25 हजार रुपए और देंगे. सलमा लालच की गिरफ्त में आ गई और इजाजत दे दी.

सलमा की खूबसूरती देख डेविड दंग रह गए. फिर उन्होंने जैसे ही सलमा के पेट पर कान लगाए वैसे ही वहां कमल आ पहुंचा और यह नजारा देख कर वह आगबबूला हो गया. उस के मुंह से बरबस निकल पड़ा, ‘‘तो यह राज है इतने पैसे मिलने का. जो अपने मांबाप की न हुई, आदमी की क्या होगी?’’

मारे गुस्से के कमल का हाथ भरी पिस्तौल तक पहुंच गया और उस ने एक गोली डेविड पर दाग दी. डेविड को गिरते देख, कमल भाग लिया. गोली की आवाज सुन कर बगल के कमरे में बैठी नर्स कमरे की तरफ दौड़ी और उन्हें संभालने की कोशिश की. नर्सिंग होम को फोन किया गया. डेविड को वहां पहुंचाया गया.

सभी की गोटियां एकदूसरे से ऐसी फंसी थीं कि कोई भी कुछ करने से पहले काफी सोचसमझ लेना चाहता था. पुलिस केस होने पर कमल फंस रहा था, जिस का सीधा असर सलमा पर पड़ता और घुमाफिरा कर उस का असर होने वाले बच्चे पर पड़ता.

जेनी को वह शर्त याद आई कि सलमा को सिर्फ जेनी ही देखेगी, डेविड नहीं. यों पुलिस रिपोर्ट में डेविड भी फंस रहे थे. नर्सिंग होम वालों को इतना पैसा मिला कि उन्होंने इलाज तो चुपचाप शुरू कर दिया था पर फिर भी घबराए हुए थे. डेविड को खतरे से बाहर बताए जाने के बाद ही सारे लोगों की सांस में सांस आई.

सारा खुशी का माहौल गमगीन और तनावपूर्ण हो चुका था. कमल के आरोप पर सलमा तड़प उठी थी. उस ने ही खामोशी तोड़ी, ‘‘मुझे आप लोगों से कोई पैसेवैसे नहीं चाहिए, मुझे मेरा आदमी वापस चाहिए. मैं तो इस के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी,’’ कहतेकहते वह रो पड़ी.

इस पर जेनी ने डेविड की आंखों में कुछ झांका और फिर सलमा से कहा, ‘‘डेविड कमल का दर्द समझते हैं. उन के दिल में बदले की कोई भावना नहीं है. कमल को किसी भी कीमत पर वापस लाया जाएगा.’’

तभी नर्सिंग होम से एक फोन आया, ‘‘देखिए, यह मामला कहीं से लीक हो चुका है, पुलिस केस होने जा रहा है, सतर्क रहें.’’

इस बात से सामान्य होता वातावरण फिर गरम हो उठा. खैर, जेनी की आंखों में काफी संतोष दिख रहा था, शायद वह हिंदुस्तान के बारे में सबकुछ जान गई थी कि यहां पैसे से सबकुछ मुमकिन हो जाता है. लिहाजा, सलमा को धीरज बंधाया और खुद अपने डाक्टर के साथ नर्सिंग होम जा पहुंची.

क ाफी पैसे खर्च करने के बावजूद मामला रफादफा करने में कई दिन लग गए पर जेनी को इस से बड़ा धक्का तब लगा जब उसे यह पता चला कि कमल चोरी की पिस्तौल खरीदने के मामले में कहीं पकड़ा जा चुका था. यह सभी के लिए बहुत खराब खबर थी. फिर भी जेनी ने सलमा को धीरज बंधाया कि उस के पास पैसों की कोई कमी नहीं है. वह किसी भी हद तक और कितना भी पैसा खर्च करने को तैयार था.

लेदे कर वह भी मामला निबटाया गया, तब जा कर सलमा सामान्य हो पाई. कमल की जमानत की काररवाई पूरी की गई. उसे जमानत पर छुड़वा कर लाया गया पर इस दौरान उसे पुलिस वालों को अपने पुराने साथियों के नाम बताने पड़े. उस के जमीर को इस से काफी धक्का लगा था. उसे एक बार तो यह लगा जैसे वह सलमा को खोने जा रहा हो.

लाख न चाहते हुए सलमा को इस कांड का काफी सदमा लगा था पर वह और डेविड दोनों ही अच्छे इलाज की बदौलत तेजी से सुधार की ओर अग्रसर थे. इस से भी बड़ी तसल्ली की बात यह थी कि कमल ने डेविड को अपनी मनोस्थिति बताते हुए माफी मांग ली थी.

समय कितनी तेजी से बीता, पता ही नहीं चला. जेनी और डेविड को, जिस सुखद घड़ी का बेसब्री से इंतजार था, वह आ ही गई. पर सलमा के लिए यह एक बड़े दुख का सबब था, क्योंकि उसे जो सुविधाएं, डेविड ने इस दौरान मुहैया कराई थीं, सब खत्म होने जा रही थीं. कमल पर चोरी की पिस्तौल के अलावा भी 2 मुकदमे दायर हो चुके थे. वह फिर बहुत उदास रहने लगी थी. भविष्य में आने वाली मुसीबतों के बारे में सोचसोच कर वह सहम सी उठती थी. उस का दिल बैठा जाता था.

अत: तमाम मेडिकल सुविधाओं के बावजूद आखिरी दिनों में उस का ब्लडप्रेशर काफी नीचे रहने लगा. प्रसव के समय वह काफी घबराई हुई सी लगी. बच्चे को जन्म देने के 12 घंटे बाद ही उस ने दम तोड़ दिया.

जेनी और डेविड जो एक तरफ बेहद खुश थे, दूसरी तरफ सलमा की मौत से इतने दुखी हुए कि अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए, बरबस रो पड़े. उन का मन था कि बच्चे की पहले 1 माह की परवरिश के लिए उसे सलमा के साथ ही रहने दिया जाता, पर नर्स ने उन्हें यह कह कर तसल्ली दिलानी चाही कि फिर मोह के कारण सलमा से उसे छुड़ाना अधिक दुखद हो जाता.

नर्सिंग होम से कमल जब सलमा का निष्प्राण शरीर ले कर निकला तो उस के परिवार के अलावा सलमा के परिवार के लोग भी आ चुके थे. पिता के कहने पर लाश को कमल अपने पिता के घर ले गया. इस दुखद और अकाल मौत पर जो सुनता दौड़ पड़ता. अंतिम संस्कार के लिए श्मशान तक जाने वाली विकराल भीड़ में जेनी और डेविड सब से आगे थे. कमल की छोटी बेटी तो नर्सिंग होम में नर्स के ही पास थी. बड़ी बेटी को कमल अपने सीने से चिपकाए दहाड़ें मारमार कर रोए जा रहा था.

जिन धर्म के ठेकेदारों ने इन की शादी के चक्कर में पड़ना उचित नहीं समझा था वे इस भीड़ को कैश कराने की गरज से वहां पहुंच चुके थे. सलमा की लाश पर राजनीति शुरू कर दी कि वह मुसलमान थी, इसलिए दफनाया जाना चाहिए. विरोधियों का कहना था कि वह हिंदू से शादी कर के हिंदू हो चुकी थी इसलिए जलाया जाना चाहिए. एक मत और उभर रहा था कि ईसाई बच्चे को जन्म देने के कारण उस को ईसाइयों के रीतिरिवाज से दफनाया जाए.

आखिरी फैसला यह हुआ कि हिंदू रीति ही अपनाई जाए. इस फैसले पर हिंदू पंडों की बाछें खिल उठीं. भीड़ देख कर उन के भाव बढ़ गए. मुखाग्नि के वक्त बोले, ‘‘बिना स्वर्ण दान के आत्मा नहीं तरती है.’’ कमल ने वह नथनी जो सलमा को देने के लिए बहुत संभाल कर रखी हुई थी, आखिरकार उसे दे दी.

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