हैदराबाद डिलाइट: प्रज्ञा और मनीष के साथ कौनसी घटना घटी

‘‘मनीष ने आज औफिस में ठीक से लंच भी नहीं किया था. बस 2 कौफी और 1 सैंडविच पर पूरा दिन गुजर गया था. रास्ते में भयंकर ट्रैफिक जाम था. घर पहुंचतेपहुंचते 8 बज गए थे.

मनीष ने घर पहुंचते ही कपड़े बदले और अपनी पत्नी भावना से बोला, ‘‘जल्दी खाना लगायो यार, कस कर भूख लगी है.’’

भावना मुंह बनाते हुए बोली, ‘‘इतना क्यों चिल्ला रहे हो, गुगु अभी सोई है. रसोई में खाना लगा हुआ है, ले लो.’’

खाने को देखते ही मनीष की भूख गायब हो गई. पानीदार तरी में कुछ तोरी के टुकड़े तैर रहे थे और सूखे आलुओं में कहींकहीं काला जीरा दिख रहा था. मनीष का मन हुआ थाली फेंक दे. बिना स्वाद किसी तरह से मनीष ने निवाले गटके और बाहर जाने के लिए जैसे ही चप्पलें पहन रहा था कि भावना दनदनाते हुएआ गई और बोली, ‘‘अब फिर से कहां जा रहे हो?’’

मनीष खीजते हुए बोला, ‘‘इतने स्वादिष्ठ खाने के बाद पान खाने जा रहा हूं.’’

भावना ने भी मानो आज लड़ाई करने की ठान रखी थी. बोली, ‘‘हां मालूम है साहब कुछ और करने जा रहे हैं. बच्चे क्या अकेले मेरे हैं? सारा दिन बच्चे देखो, रसोई में पकवान बनाओ और फिर इन के नखरे.’’

मनीष की कार न चाहते हुए भी हैदराबाद डिलाइट के सामने खड़ी थी. वहां की चिकन बिरयानी उसे बेहद पसंद थी. अंदर बेहद भीड़ थी. बस एक टेबल खाली थी जहां पर पहले से एक लड़की बैठे हुए बिरयानी ही खा रही थी.

मनीष लड़की के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?’’

लड़की बोली, ‘‘जरूर, आज यहां बेहद भीड़ है.’’

मनीष ने बिरयानी और कोल्ड ड्रिंक और्डर करी और मोबाइल में गेम खेलने लगा. तभी मनीष के फोन की घंटी बजी.

मनीष जल्दबाजी में यह बात भूल गया था कि फोन स्पीकर पर है. जैसे ही उस ने फोन लिया, उधर से भावना के चिल्लाने की आवाज आने लगी, ‘‘मैं क्या तुम्हारी नौकरानी हूं… कहां हो? अगर फौरन वापस न आए तो पूरी रात बाहर रहना.’’

मनीष एकाएक शर्म से पानीपानी हो गया. तभी सामने बैठी हुई लड़की खिलखिलाते हंसते हुए बोली, ‘‘अगर तुम्हारी मैडम ने वाकई दरवाजा नहीं खोला तो क्या करोगे?’’

मनीष झेंप गया और बोला, ‘‘लगता है तुम भी अपने पति के साथ ऐसा कुछ करती हो.’’

लड़की बोली, ‘‘हम तो भई इस पतिपत्नी के खेल से आजाद हैं.’’

इसी बीच मनीष की बिरयानी भी आ गई थी और उस लड़की की फिरनी. लड़की ने खुद ही पहल करते हुए अपना नाम बताया. लड़की का नाम प्रज्ञा था और वह एक स्थानीय कंपनी में इंजीनियर थी. दोनों कुछ देर तक हैदराबाद डिलाइट की बिरयानी की तारीफ करते रहे.

प्रज्ञा ने फिर मनीष को फिरनी भी ट्राई करने के लिए कहा. मनीष बिल चुकाते हुए बोला, ‘‘अब अगर कुछ देर और रुका तो वाकई बाहर ही रुकना पड़ेगा.’’

घर आ कर मनीष के ऊपर भावना की बातों का कोई असर नहीं हो रहा था.चिकन बिरयानी खा कर उस का मन तृप्त हो चुका था, मगर भावना के सामने उसे ?ाठ ही बोलना पड़ा कि वह बाहर टहलने निकला था. मनीष का कितना मन करता था कि वह भावना के साथ अपने मन का खाना खा सके. मगर भावना तो अंडे पर भी नाकभौं सिकोड़ती थी. हर समय कभी एकादशी, कभी पूर्णमासी तो कभी अमावस्या का व्रत चलता रहता था.

मनीष को शादी के बाद ऐसे लगने लगा था कि वह घर में नहीं किसी होस्टल में रह रहा है. भावना को मनीष की लहसुन खाने से ले कर  चिकन खाने तक से प्रौब्लम थी. उसे लगता था कि ब्राह्मण हो कर भी मनीष का ये सब खानापीना उसे शोभा नहीं देता. मगर मनीष को लगता, भावना जो मांसमछली से परहेज करती है पर क्या यह काफी है उस के करीब जाने के लिए.

भावना का हर छोटीबड़ी बात पर काम वाली पर जाहिलों की तरह चिल्लाना, हर महीने छोटीछोटी बातों पर उस की तनख्वाह काट लेना, मंदिर में कीर्तन के समय बुराई करना क्या ये सब करने से ब्राह्मण ब्राह्मण कहलाता है?

रविवार की सुबह मनीष उठने के बाद भी बिस्तर पर यों ही अलसाया से लेटे रहना चाहता था. तभी भावना जलती नजरों से उस के सामने आई और हैदराबाद डिलाइट का बिल फेंकते हुए बोली, ‘‘शर्म नहीं आती तुम्हें ?ाठ बोलते हुए? कैसे ब्राह्मण हो कर झूठ बोलते

हो? चिकन खाते हो? तुम ने कल मेरा व्रत भंग कर दिया.’’ मनीष को समझ नहीं आया उस के चिकन बिरयानी खाने से भावना का व्रत कैसे भंग हो गया.

पूरे 2 घंटे तक चाय की प्रतीक्षा करने के बाद मनीष ने खुद ही अपनी और भावना की चाय बनाई और भावना को चाय पकड़ाते हुए बोला, ‘‘भावना, मैं क्या करूं यार मुझ से यह घासफूस नहीं खाया जाता है.’’

भावना आंखों से अंगारे बरसाते हुए बोली, ‘‘हां ये सब तो मैं अपने लिए कर रही हूं. शादी से पहले मेरे घर वालों ने साफसाफ बता दिया था कि मैं विशुद्ध शाकाहारी हूं. मगर तुम्हारे घर वालों ने कहा था कि लड़का कभीकभी औफिस पार्टी में नौनवेज खा लेता है. रोज खाएगा यह भी नहीं बताया था.’’

घर के तनाव से मुक्त होने के लिए मनीष दोनों बच्चों को कार में बैठा कर पार्क ले गया. तभी पीछे से किसी महिला की आवाज सुनाई दी. पलट कर देखा तो प्रज्ञा खड़ी थी.

‘‘आप भी इस पार्क में आते हैं अपने बालगोपाल को ले कर?’’ मनीष मुसकराते हुए बोला, ‘‘ताकि इन की मम्मी नाश्ता बना सके.’’

रात के अंधेरे में जो प्रज्ञा मनीष को लड़की लग रही थी, मगर दिन के उजाले में प्रज्ञा मनीष को अपनी हमउम्र ही लग रही थी. प्रज्ञा कुछ देर तक गुगू और आर्य के साथ बात करती रही और फिर मनीष से बोली, ‘‘चलो आप

लोगों को आज रुस्तम के बड़े सांभर का स्वाद चखाया जाए.’’

जब तक मनीष और बच्चों ने बड़ा सांभर खाया तब तक भावना का फोन आ गया. भावना ने नाश्ते में दलिया परोस दिया. मनीष ने मन ही मन प्रज्ञा को धन्यवाद किया वरना यह बेस्वाद दलिया मनीष को चिढ़ाने के लिए काफी था.

आज संडे था. मनीष को लगा शायद भावना लंच में कुछ अच्छा सा बना दे, मगर भावना का आज घर की सुखशांति के लिए एकादशी का व्रत था.

मनीष की शादी की यह एक ऐसी समस्या थी जिसे शायद कोई समस्या भी नहीं मानता था. मनीष की मम्मी के अनुसार मनीष की जीभ बहुत चटोरी है. अगर भावना मनीष की सेहत को ध्यान में रख कर उसे हैल्दी खाना देती है तो इस में क्या गलत है?’’

मनीष कैसे बताए कि उस के मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है. अपने ही घर में वह अपनी पसंद का खाना नहीं खा सकता है.

मनीष को आज भी याद है, जब शादी के बाद पहली बार भावना और मनीष ने हैदराबाद में नई गृहस्थी शुरू करी थी. अगले दिन प्यार में मनीष ने नाश्ता बनाया था.उसे मालूम था कि भावना वैजिटेरियन है इसलिए उस ने भावना के लिए वेज सैंडविच और अपने लिए आमलेट बनाया था. मगर भावना ने इतना शोर मचाया कि ऐसा लगा कि मनीष ने कोई अपराध कर दिया हो.

‘‘तुम ने रसोई में अंडा कैसे पका लिया. पूरे घर का शुद्धिकरण करना होगा.’’ मनीष को समझ ही नहीं आता था कि पढ़लिख कर भी भावना की सोच ऐसी कैसे है.

मनीष ने कभी भावना को किसी भी बात के लिए फोर्स नहीं किया था. मगर भावना ने मनीष के खानपान पर पहरे लगा रखे थे. नतीजा यह हुआ कि मनीष अधिकतर खाना चिढ़ कर बाहर ही खाता. इस कारण उस का कोलैस्ट्रौल और तनाव दोनों ही बढ़ रहे थे.

भावना को जब भी पता चलता मनीष बाहर से नौनवेज खा कर आया, वह न तो उसे करीब आने देती और न ही उस से बोलती. नतीजा यह हुआ अब मनीष और भावना के रिश्ते में झूठ भी पांव पसारने लगा था.

कभीकभी मनीष को लगता कि उन के रिश्ते के कारण बच्चों के साथ अन्याय हो रहा है, मगर भावना जरा भी बदलना नहीं चाहती थी. उसे मनीष के बाहर भी नौनवेज खाने से समस्या थी.

करीब 10 दिन बाद ऐसे ही एक झगड़े के बाद मनीष ने हैदराबाद डिलाइट का रुख किया. वहां पर आज भी प्रज्ञा बैठी थी.

मनीष प्रज्ञा के सामने बैठते हुए बोला, ‘‘तुम क्या यहां पर ही डिनर करती हो?’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘और अगर मैं तुम से पूछूं तो?’’

मनीष ने कहा, ‘‘चलो आज मैं तुम्हें ट्रीट देता हूं.’’

प्रज्ञा बोली, ‘‘आज यहां चिकन की कोई आइटम नहीं है. मैं तो बिरयानी का पार्सल लेने आई हूं, तुम घर चलो मैं ने मसाला अंडा बना रखा है.’’

मनीष बोला, ‘‘इस समय?’’

‘‘चिंता न करो, घर पर मैं ही अपना परिवार हूं.’’

न जाने क्यों मनीष बिना किसी जानपहचान के भी प्रज्ञा के साथ चला गया. प्रज्ञा का घर मनीष के घर से न ज्यादा दूर था और न ही एकदम करीब. प्रज्ञा का घर छोटा मगर खूबसूरत था. बड़े ही नफासत से प्रज्ञा ने बिरयानी, मसाला अंडा, पापड़, रायता सजा दिया था. खाना बेहद ही लजीज था और उस से भी अधिक लजीज थी प्रज्ञा की बातें और सब से बड़ी बात वो आजादी जो उसे आज पहली बार खाते हुए महसूस हुई थी.

न कभी मनीष ने प्रज्ञा की निजी जिंदगी के बारे में कुछ पूछा और न ही कभी प्रज्ञा ने मनीष की निजी जिंदगी में दखल दिया. एक मौन अनुबंध था दोनों के बीच और इस मौन अनुबंध के भावों का गवाह हैदराबाद डिलाइट था. कभी हर हफ्ते तो कभी महीने में 2 बार जिसे जैसे सुविधा होती दोनों हैदराबाद डिलाइट में मिल लेते थे. बहुत बार मनीष को लगता क्या अपनी पसंद का आजादी से खाना खाना इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसी कारण वह प्रज्ञा के करीब जा रहा है. उधर प्रज्ञा के लिए भी मनीष के साथ अपनी दोस्ती एक पहेली सी लगती जो खानपान पर आधारित है.

धीरेधीरे हैदराबाद डिलाइट प्रज्ञा और मनीष की जिंदगी का वह जायका बन गया जिस ने दोनों की फीकी जिंदगी में स्वाद भर दिया.

सांझ का भूला: आखिर हुआ क्या था सीता के साथ

सीता ने अपने नए फ्लैट का दरवाजा खोला. कुली ट्रक से सामान उतार कर सीता के निर्देश पर उन्हें यथास्थान रख गया. कुली के जाने के बाद सीता ने अपना रसोईघर काफी मेहनत से सजाया. सारा दिन घर में सामान को संवारने में ही निकल गया. शाम को सीता जब आराम से सोफे पर बैठी तो उसे अजीब सी खुशी महसूस हुई. बरसों की घुटन कम होती हुई सी लगी.

सीता को खुद के फैसले पर विश्वास नहीं हो रहा था. 50 वर्ष की उम्र में वह घर की देहरी पार कर अकेली निकल आई है. यह कैसे संभव हुआ? वैसे आचारशील परिवार की नवविवाहिता संयुक्त परिवार से अलग हो कर अपनी गृहस्थी अलग बसा ले तो कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा चलन तो आजकल आम है. लेकिन घर की बुजुर्ग महिला गृह त्याग दे और अलग जीने लगे तो यह सामान्य बात नहीं है. सीता के दिमाग में सारी अप्रिय घटनाएं एक बार फिर घूमने लगीं.

सीता कर्नाटक संगीत के शिक्षक शिवरामकृष्णन की तीसरी बेटी थी. पिताजी अच्छे गायक थे, पर दुनियादारी नहीं जानते थे. अपने छोटे से गांव अरिमलम को छोड़ कर वे कहीं जाना नहीं चाहते थे. उन का गांव तिरुच्ची के पास ही था. गांव के परंपरावादी आचारशील परिवार, जहां कर्नाटक संगीत को महत्त्व दिया जाता था, शहर की ओर चले गए. गांव में कुल 3 मंदिर थे.

आमंत्रण के उत्सवों और शादीब्याह में गाने का आमंत्रण शिवरामकृष्णन को मिलता था. उन के कुछ शिष्य घर आ कर संगीत सीखते थे. सीता की मां बीमार रहती थीं और सीता ही उन की देखभाल करती थी. पिताजी ने किसी तरह दोनों बहनों की शादी कर दी थी. एक छोटा भाई भी था, जो स्कूल में पढ़ रहा था. सीता अपनी मां का गौर वर्ण और सुंदर नयननक्श ले कर आई थी.

घने काले बाल, छरहरा बदन और शांत चेहरा बड़ा आकर्षक था. एक उत्सव में तिरुच्ची से आए रामकृष्णन के परिवार के लोगों ने सीता को देखा और उसी दिन शाम को रामकृष्णन ने अपने बेटे रविचंद्रन के साथ सीता की सगाई पक्की कर ली. सीता के पिता ने भी झटपट बेटी का ब्याह रचा दिया.

सीता का ससुराल जनधन से वैभवपूर्ण था. उस का पति कुशल बांसुरीवादक था. वह जब बांसुरीवादन का अभ्यास करता तो राह चलते लोग खड़े हो कर सुनने लगते थे, लेकिन सीता को कुछ ही समय में पता लगा कि उस का पति बुरी संगति के कारण शराबी बन गया है और अपनी इसी लत के कारण वह कहीं टिक कर काम नहीं कर पाता.

कुल 4 वर्षों की गृहस्थी ही सीता की तकदीर में लिखी थी. रविचंद्रन फेफड़े के रोग का शिकार बन कर खांसते हुए सीता को छोड़ कर चल बसा. सासससुर पुत्र शोक से बुझ कर गांव चले गए. जेठ ने सीता को मायके जाने को कह दिया.

सीता अपने दोनों नन्हे पुत्रों को ले कर अपनी दीदी के यहां चेन्नई में रहने लगी. उस ने अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से शुरू कर दी. दीदी के घर का पूरा काम अपने कंधे पर उठाए सीता गुस्सैल जीजा के क्रोध का सामना करती. उस ने किसी तरह संगीत में एम.ए. तक की शिक्षा पूरी की और शहर के प्रसिद्ध महिला कालिज में प्रवक्ता के पद पर काम करने लगी.

सीता के दोनों बेटे 2 अलग दिशाओं में प्रगति करने लगे. बड़ा बेटा जगन्नाथ पिता की तरह संगीतकार बना. वह फिल्मों में सहायक संगीत निर्देशक के रूप में काम करने लगा. अपनी संगीत टीम की एक विजातीय गायिका मोनिका को जगन्नाथ घर ले कर आया तो सीता ने पूरी बिरादरी का विरोध सहन करते हुए जगन्नाथ और मोनिका का विवाह रचाया था. दूसरा बेटा बालकृष्णन ग्रेनेट व्यापार में लग गया. अपनी कंपनी के मालिक ईश्वरन की पुत्री के साथ उस का विवाह हो गया.

सीता ने दोनों बेटों का पालनपोषण काफी मेहनत से किया था. वह उन पर कड़ा अनुशासन रखती थी. मां का संघर्ष, परिवार में मिले कटु अनुभवों ने दोनों बेटों की हंसी छीन ली थी. विवाह के बाद ही दोनों बेटे हंसनेबोलने लगे थे. सैरसपाटे पर जाना, दोस्तों को घर बुलाना, होटल में खाना दोनों को ही अच्छा लगने लगा. कुछ समय तक सीता का घर खुशहाल रहा, लेकिन सीता के जीवन में फिर आंधी आई.

भाग्यलक्ष्मी के पिता काफी संपन्न थे. इसलिए उस के पास ढेर सारे गहने और कांचीपुरम की कीमती रेशमी साडि़यां थीं. उस पर हर 2-3 दिन के बाद वह मायके जाती और वापसी पर फलमिठाइयां भरभर कर लाती थी. मोनिका यह सब देख कर जलभुन जाती थी. सीता दोनों बहुओं को किसी तरह संभालती थी. दोनों के मनमुटाव के बीच फंस कर घर का सारा काम सीता को ही करना पड़ता था.

पोंगल के त्योहार के समय बहुओं को उन के मायके से एक सप्ताह पहले ही नेग आ जाता. भाग्यलक्ष्मी के मातापिता अपनी बेटी, दामाद और सास के कपड़े आदि ले कर आ गए. भाग्यलक्ष्मी काफी खुश थी. पोंगल के पर्व के दिन सीता ने बहुओं को मेहंदी रचाने के लिए बुलाया. भाग्यलक्ष्मी ने मेहंदी रचा ली तो मोनिका का क्रोध फूट पड़ा, ‘बड़ी बहू को पहले न बुला कर छोटी बहू को पहले मेहंदी लगा दी, मुझे नीचा दिखाना चाहती हैं न आप?’

मोनिका के कठोर व्यवहार के कारण घर में कलह शुरू हो गई. बालकृष्णन का व्यापार भाग्यलक्ष्मी के परिवार से जुड़ा था. वह पत्नी का रोनाधोना देख नहीं पा रहा था. वही हुआ जिस का सीता को डर था. बालकृष्णन अपने ससुर के यहां रहने चला गया. कुछ समय तक वह सीता से मिलने आताजाता रहा पर धीरेधीरे उस का आना कम हो गया. मोनिका अपने पति के साथ संगीत के कार्यक्रमों में जुड़ी रहती थी. घर के कामों में उस की कभी रुचि रही ही नहीं. यहां तक कि सवेरे स्नान कर रसोईघर में आने के रिवाज का भी वह पालन नहीं करती थी.

मोनिका को जाने क्यों कभी सीता के साथ लगाव रहा ही नहीं. सीता बहू को प्रसन्न रखने के लिए काफी प्रयास करती थी. इस के बाद भी मोनिका का कटु व्यवहार बढ़ता ही जाता था. यहां तक कि वह अपने बेटे मोहन को उस की दादी सीता से हमेशा दूर रखने का यत्न करती थी. सीता अंदर से टूटती रही, अकेले में रोती रही और अंत में अलग फ्लैट ले कर रहने का कष्टपूर्ण निर्णय उस ने लिया था.

आदतवश सीता सुबह 4 बजे ही जग गई. आंख खुलते ही घर की नीरवता का भान हुआ तो झट से अपना मन घर के कामकाज में लगा लिया. रसोईघर में खड़ी सीता फिर एक बार चौंकी. भरेपूरे मायके और ससुराल में हमेशा वह 5-7 लोगों के लिए रसोई बनाती थी. आज पहली बार उसे सिर्फ अपने लिए भोजन तैयार करना है. लंबी सांस लेती हुई वह काम में जुटी रही.

मन में खयाल आया कि बहू मोनिका नन्हे चंचल मोहन को संभालते हुए नाश्ता और भोजन अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? जगन्नाथ को प्रतिदिन नाश्ता में इडलीडोसा ही चाहिए. इडली बिलकुल नरम हो, सांभर के साथ नारियल की चटनी भी हो, यह जरूरी है. दोपहर के भोजन में भी उसे सांभर, पोरियल (भुनी सब्जी), कूट्टू (तरी वाली सब्जी), दही, आचार के साथ चावल चाहिए. इतना कुछ मोनिका अकेले कैसे तैयार कर पाएगी? सीता ने अपना लंच बौक्स बैग में रख लिया. उसे अकेले बैठ कर नाश्ता करने की इच्छा नहीं हुई. केवल कौफी पी कर वह कालिज चल पड़ी. कालिज में उसे अपने इस नए घर का पता कार्यालय में नोट कराना था. मैनेजर रामलक्ष्मी ने तनिक आश्चर्य से पूछा, ‘‘आप का अपना मकान टी. नगर में है न? फिर आप उतने अच्छे इलाके को छोड़ कर यहां विरुगंबाकम में क्यों आ गईं?’’

सीता फीकी हंसी हंस कर बात टाल गई. कालिज में कुछ ही समय में बात फैल गई कि सीता बेटेबहू से लड़ कर अलग रहने लगी है. ‘जाने इस उम्र में भी लोग कैसे परिपक्व नहीं होते, छोटों से लड़तेझगड़ते हैं. जब बड़ेबूढ़े ही घर छोड़ कर भागने लगेंगे तो समाज का क्या हाल होगा?’ इस तरह के कई ताने सुन सीता खून का घूंट पी कर रह जाती थी. सीता को अकेला, स्वतंत्र जीवन अच्छा भी लग रहा था.

रोजरोज की खींचातानी, तूतू, मैंमैं से तो छुटकारा मिल गया. घर को सुचारु रूप से चलाने के लिए वह कितना काम करती थी फिर भी मोनिका ताने देती रहती थी. सीता ने अपने वैधव्य का सारा दुख अपने दोनों बेटों के चेहरों को निहारते हुए ही झेला था पर आज स्थिति बदल गई है. आज बेटे भी मां को भार समझने लगे हैं.

बहुओं की हर बात मानने वाले दोनों बेटे अपनी मां के दिल में झांक कर क्यों नहीं देखना चाहते हैं? बहुओं का अभद्र व्यवहार सहन करते हुए क्या सीता को ही घुटघुट कर जीना होगा. सीता ने जब परिवार से अलग रहने का निर्णय लिया तब दोनों बेटे चुप ही रहे थे. सीता की आंखों में आंसू भर आए. सीता के पति रविचंद्रन का श्राद्ध था.

सीता अपने बेटेबहुओं व पोतों के साथ गांव में ही जा कर श्राद्ध कार्य संपन्न कराती थी. गांव में ही सीता के सासससुर, बूआ और अन्य परिजन रहते हैं. जगन्नाथ ही सब के लिए टिकट लिया करता था. गांव में पत्र भेज कर पंडितजी और ब्राह्मणों से सारी तैयारी करवा कर रखता था. श्राद्ध में कुल 8 दिन बाकी हैं और अब तक सीता को किसी ने कोई खबर नहीं दी. क्या दोनों बेटे उसे बिना बुलाए ही गांव चले जाएंगे? सीता अकेले गांव पहुंचेगी तो बिरादरी में होहल्ला हो जाएगा.

अभी तक तो उस के अलग रहने की बात शहर तक ही है. सीता का मन घबराने लगा. अपने अलग फ्लैट में रहने की बात वह अपने सासससुर से क्या मुंह ले कर कह पाएगी. उस के वयोवृद्ध सासससुर आज भी संयुक्त परिवार में ही जी रहे हैं. ससुर की विधवा बहन, विधुर भाई, भाई के 2 लड़के, दूर रिश्ते की एक अनाथ पोती सब परिवार में साथ रहते हैं. उन्होंने सीता को भी गांव में आ कर रहने को कहा था, पर वह ही नहीं आई थी. क्या इतने लोगों के बीच मनमुटाव नहीं रहता होगा? क्या आर्थिक परेशानियां नहीं होंगी? पता नहीं ससुरजी कैसे इस उम्र में सबकुछ संभालते हैं?

सीता ने मन मार कर जगन्नाथ को फोन किया. मोनिका ने ही फोन उठाया. जगन्नाथ किसी फिल्म की रिकार्डिंग के सिलसिले में सिंगापुर गया हुआ था. सीता गांव जाने के बारे में मोनिका से कुछ भी पूछ नहीं पाई. बालकृष्णन भी बंगलुरु गया हुआ था. भाग्यलक्ष्मी ने भी गांव जाने के बारे में कुछ नहीं कहा.

सीता को पहली बार घर त्यागने का दर्द महसूस हुआ. क्या करे वह? टे्रन से अपने अकेले का आरक्षण करा ले? पर यह भी तो पता नहीं कि लड़कों ने गांव में श्राद्ध करने की व्यवस्था की है या नहीं? उसे अपने दोनों बेटों पर क्रोध आ रहा था. क्या मां से बातचीत नहीं कर सकते हैं? लेकिन सीता अपने बेटों से न्यायपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा कैसे कर सकती है? उस ने स्वयं परिवार त्याग कर बेटों से दूरी बना ली है. अब कौन किसे दोष दे? सीता ने अंत में गांव जाने के लिए अपना टिकट बनवा लिया और कालिज में भी छुट्टी की अर्जी दे दी.

सीता विचारों के झंझावात से घिरी गांव पहुंची थी. उस के पहुंचने के बाद ही जगन्नाथ, मोनिका, बालकृष्णन, भाग्यलक्ष्मी, मोहन और कुमार पहुंचे. सीता ने जैसेतैसे बात संभाल ली. श्राद्ध अच्छी तरह संपन्न हुआ. सीता की वृद्ध सास और बूआ उस के परिवार के बीच में अलगाव को देख रही थीं. मोहन अपनी दादी सीता के गले लग कर बारबार पूछ रहा था, ‘‘ ‘पाटी’ (दादी), आप घर कब आएंगी? आप हम से झगड़ कर चली गई हैं न? मैं भी अम्मां से झगड़ने पर घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

‘‘अरे, नहीं, ऐसा नहीं बोलते, जाओ, कुमार के साथ खेलो,’’ सीता ने मुश्किल से उसे चुप कराया. शहर वापसी के लिए जब सब लोग तैयार हो गए तब सीता के ससुर ने अपने दोनों पोतों को बुला कर पूछा, ‘‘तुम दोनों अपनी मां का ध्यान रखते हो कि नहीं? तुम्हारी मां काफी दुबली और कमजोर लगती है. जीवन में बहुत दुख पाया है उस ने. अब कम से कम उसे सुखी रखो.’’

जगन्नाथ और बालकृष्णन चुपचाप दादा की बात सुनते रहे. उन्हें साष्टांग प्रणाम कर सब लोग चेन्नई लौट गए थे. गांव से वापस आने के बाद सीता और भी अधिक बुझ गई थी. कितने महीनों बाद उस ने अपने दोनों बेटों का मुंह देखा था. दोनों प्यारे पोतों का आलिंगन उसे गद्गद कर गया था. बहू मोनिका भी काम के बोझ से कुछ थकीथकी लग रही थी पर उस की तीखी जबान तो पहले जैसे ही चलती रही थी. जगन्नाथ काफी खांस रहा था. वह कुछ बीमार रहा होगा.

बालकृष्णन अपने चंचल बेटे कुमार के पीछे दौड़तेदौड़ते ऊब रहा था. भाग्यलक्ष्मी बालकृष्णन का ज्यादा ध्यान नहीं रख रही थी. खैर, मुझे क्या? चलाएं अपनीअपनी गृहस्थी. मेरी जरूरत तो किसी को भी नहीं है. सब अपना घर संभाल रहे हैं. मैं भी अपना जीवन किसी तरह जी लूंगी. सीता के कालिज में सांस्कृतिक कार्यक्रम था. अध्यापकगण अपने परिवार के साथ आए थे. अपने साथियों को परिवार के साथ हंसताबोलता देख कर सीता के मन में कसैलापन भर गया. उसे अपने परिवार की याद सताने लगी. हर वर्ष उस के दोनों बेटे इस कार्यक्रम में आते थे. सीता इस कार्यक्रम में गीत गाती थी. मां के सुरीले कंठ से गीत की स्वरलहरी सुन दोनों बेटे काफी खुश होते थे. आज सांस्कृतिक कार्यक्रम में अकेली बैठी सीता का मन व्यथित था.

सीता को इधर कुछ दिनों से अपनी एकांत जिंदगी नीरस लगने लगी थी. न कोई तीजत्योहार ढंग से मना पाती और न ही किसी सांस्कृतिक आयोजन में जा पाती. कहीं चली भी गई तो लोग उस से उस के परिवार के बारे में प्रश्न अवश्य पूछते थे. पड़ोसी भी उस से दूरी बनाए रखते थे.

एक दिन सीता ने अपने 2 पड़ोसियों की बातें सुन ली थीं : ‘‘मीना, तुम अपने यहां मत बुलाना. हमारे सुखी परिवार को उस की नजर लग जाएगी. पता नहीं, इतने बड़े फ्लैट में वह अकेली कैसे रहती है. जरूर इस में कोई खोट होगा, तभी तो इसे पूछने कोई नहीं आता है.’’

सीता यह संवाद सुन कर पसीना- पसीना हो गई थी. दरवाजे की घंटी लगातार बज रही थी. सीता हड़बड़ा कर उठी. रात भर नींद नहीं आने के कारण शायद भोर में आंख लग गई. सीता की नौकरानी सुब्बम्मा आ गई थी. सुब्बम्मा जल्दीजल्दी सफाई का काम करने लगी. सीता ने दोनों के लिए कौफी बनाई.

‘‘अम्मां, मुझे बेटे के लिए एक पुरानी साइकिल लेनी है. बेचारा हर दिन बस से आताजाता है. बस में बड़ी भीड़ रहती है. तुम मुझे 600 रुपए उधार दे दो. मैं हर महीने 100-100 रुपए कर के चुका दूंगी,’’ सुब्बम्मा बरतन मलतेमलते कह रही थी. ‘‘लेकिन सुब्बम्मा, तुम्हारा बेटा तो तुम्हारी बात नहीं सुनता है. तुम्हें रोज 10 गालियां देता है. कमाई का एक पैसा भी तुम्हें नहीं देता…रोज तुम उस की सैकड़ों शिकायतें करती हो और अब उस के लिए कर्ज लेना चाहती हो,’’ सीता कौफी पीते हुए आश्चर्य से पूछ रही थी.

‘‘अरे, अम्मां, अपनों से ही तो हम कहासुनी कर सकते हैं. बेचारा बदनसीब मेरी कोख में जन्मा इसीलिए तो गरीबी का सारा दुख झेल रहा है. अच्छा खानाकपड़ा कुछ भी तो मैं उसे नहीं दे पाती हूं. बेटे के आराम के लिए थोड़ा कर्ज ले कर उसे साइकिल दे सकूं तो मुझे संतोष होगा. फिर मांबेटे में क्या दुश्मनी टिकती है भला…अब आप खुद का ही हाल देखो न. इन 7-8 महीनों में ही आप कितनी कमजोर हो गई हैं. अकेले में आराम तो खूब मिलता है पर मन को शांति कहां मिलती है?’’ सुब्बम्मा कपड़ा निचोड़ती हुई बोले जा रही थी. ‘‘सुब्बम्मा, तुम आजकल बहुत बकबक करने लगी हो. चुपचाप अपना काम करो,’’ सीता को कड़वा सच शायद चुभ रहा था.

‘‘अम्मां, कुछ गलत बोल गई हूं तो माफ करना. मैं आप का दुख देख रही हूं. इसी कारण कुछ मुंह से निकल गया. अम्मां, मुझे रुपए कलपरसों देंगी तो अच्छा रहेगा. एक पुरानी साइकिल मैं ने देख रखी है. दुकानदार रुपए के लिए जल्दी कर रहा है,’’ सुब्बम्मा ने अनुनय भरे स्वर में कहा. ‘‘सुब्बम्मा, रुपए आज ही ले जाना. चलो, जल्दी काम पूरा करो. देर हो रही है,’’ सीता रसोईघर में चली गई.

सीता का मन विचलित होने लगा. ‘ठीक ही तो कहती है सुब्बम्मा. जगन्नाथ और बालकृष्णन को देखे बिना उसे कितना दुख होता है. पासपड़ोस में बेटेबहू की निंदा भी तो होती होगी. सास को घर से निकालने का दोष बहुओं पर ही तो लगाया जाता है. अपने पोतों से दूर रहना कितना दर्दनाक है. कुमार और मोहन दादी से बहुत प्यार करते हैं. आखिर परिवार से दूर रह कर अकेले जीवन बिताने में उसे क्या सुख मिल रहा है? ‘सुब्बम्मा जैसी साधारण महिला भी परिवार के बंधनों का मूल्य जानती है. परिवार से अलग होना क्या कर्तव्यच्युत होना नहीं है? परिवार में यदि हर सदस्य अपने अहं को ही महत्त्व देता रहे तो सहयोगपूर्ण वातावरण कैसे बनेगा?

‘बहू उस के वंश को आगे ले जाने वाली वाहिका है. बहू का व्यवहार चाहे जैसा हो, परिवार को विघटन से बचाने के लिए उसे सहन करना ही होगा. उस की भी मां, दादी, सास, सब ने परिवार के लिए जाने कितने समझौते किए हैं. मां को घर से निकलते देख कर जगन्नाथ को कितना दुख हुआ होगा?’ सीता रात भर करवट बदलती रही.

सुबह होते ही उस ने दृढ़ निश्चय के साथ जगन्नाथ को फोन लगाया और अपने वापस घर आने की सूचना दी. सीता को मालूम था कि उसे बहू मोनिका के सौ ताने सुनने होंगे. अपने पुत्र जगन्नाथ का मौन क्रोध सहन करना पड़ेगा. बालकृष्णन और भाग्यलक्ष्मी भी उसे ऊंचनीच कहेंगे. सीता ने मन ही मन कहा, ‘सांझ का भूला सुबह को घर लौट आए तो वह भूला नहीं कहलाता.’

प्यार है नाम तुम्हारा: क्या हुआ था स्नेहा मां के साथ

“हैलो, कौन?” “पहचानो…””कौन है?””अरे यार, भुला दिया हमें?” और एक खिलखिलाती हुई हंसी फोन पर सुनाई पड़ी. “अरे स्नेहा, तुम, इतने दिनों बाद, कैसी हो?” नेहा  पहचान कर खुशी ज़ाहिर करते हुए बोली.

“नेहा, यार, तुम तो मेरी पक्की सहेली हो, तुम से कैसे दूर रह सकती थी. ऐसे भी दोस्ती निभाने में हम तो नंबर वन हैं. बहुत सारी बातें करनी है मुझे तुम से. अच्छा, मेरा फोन नंबर लिख लो. अभी मुझे हौस्पिटल जाना है, कल बात करते है,” और स्नेहा ने फ़ोन रख दिया.

“हौस्पिटल…” बात अधूरी रह गई.  नेहा कुछ चिंतित हो उठी, ‘आख़िर, उसे हौस्पिटल क्यों जाना था…’ नेहा बुदबुदा रही थी.

नेहा के मन में स्नेहा की स्मृतियां चलचित्र की तरह तैर गईं… कालेज में फौर्म भरने की लाइन में नेहा खड़ी थी लाल रंग के पोल्का डौट का सूट पहने और उसी लाइन मे स्नेहा काले रंग के पोल्का डौट का सूट पहने खड़ी थी. उन दिनों पोल्का डौट का फैशन चल रहा था.

“गम है किसी के पास,” स्नेहा ज़ोर से बोली. स्नेहा को फौर्म पर फोटो चिपकानी थी.”हां है, देती हूं,” नेहा ने मुसकराते हुए गम की छोटी सी शीशी स्नेहा को थमा दी. बदले में स्नेहा ने मुसकान बिखेर दी.

फौर्म जमा कर बाहर निकलते हुए स्नेहा चपल मुसकान के साथ नेहा की ओर मुखातिब हुई, “थैंक्यू सो मच, फौर्म से मेरी फोटो निकल गई थी, मैं तो घबरा गई थी कि क्या होगा अब…”

“थैंक्यू कैसा, चलो आओ, उधर सीढ़ियों पर थोड़ी देर बैठते हैं,” नेहा बीच में ही बोल पड़ी.नेहा, स्नेहा दोनों वहां अकेली थीं. दोनों को, शायद, इसीलिए एकदूसरे का साथ मिल गया था.”अच्छा, तुम्हारा नाम क्या है?”

“स्नेहा ढोले.”“और तुम्हारा?””नेहा खरे. अरे वाह, हम दोनों के नाम कितने मिलते हैं… और हमारी ड्रैसेस भी,” नेहा आश्चर्यमिश्रित खुशी के साथ बोली, वैसे, ढोले…क्या?”

“हम गढ़वाल के हैं,” स्नेहा ने उत्तर दिया.नेहा गौर से स्नेहा को निहार रही थी. बड़ीबड़ी आंखें, तीखी नाक, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, दमकता हुआ रंग मतलब सुंदरता के पैमाने पर तराशा हुआ चेहरा थी स्नेहा और पहाड़ी निश्च्छलता से सराबोर उस का व्यक्तित्व.

“क्या हुआ?”, स्नेहा ने टोका.”न…न…नहीं, बस, ऐसे ही,” नेहा मुसकरा कर रह गई.”तुम कितने भाईबहन हो? स्नेहा ने पूछा.”एक भाईबहन.”“हम भी एक भाईबहन हैं. कितना कुछ मिलता है हम में  न,” स्नेहा ज़ोर से खिलखिलाते हुए बोल पड़ी.

“हां, सच में,” नेहा भी आश्चर्य से भर गई थी.”तो आज से हम दोनों दोस्त हुए,” दोनों ने एकसाथ हाथ पकड़ कर हंसते हुए कहा था.

लखनऊ अमीनाबाद कालेज से निकल कर दोनों ने पाकीज़ा जूस सैंटर पर ताज़ाताज़ा मौसमी का जूस पिया. दोनों को ही मौसमी का जूस बहुत पसंद था और इस तरह शुरू हुई दोनों की दोस्ती.

लोग कहते हैं, दोस्त हम चुनते हैं. पर नेहा का मानना है कि दोस्ती भी हो जाती है जैसे उस दिन स्नेहा से उस की दोस्ती हो गई थी.

नेहा स्नेहा की यादों को एक सिरे से समेट रही थी. उस ने पुराने अलबम निकाले. एक फोटो थी एनसीसी कैंप की, जिस में वह खुद और स्नेहा पैरासीलिंग कर रही थीं. नेहा को कैंप की याद आई…’यार, वह लड़का कितना हैंडसम है. बस, एक नज़र देख ले,’ स्नेहा ने चुहलबाज़ी करते नेहा से कहा था.

‘क्या स्नेहा, हर समय लड़कों को देखती रहती हो,’ नेहा गंभीरता ओढ़ कर बोली थी.‘अरे यार, एनसीसी में हमारे कैंप लड़कों से अलग हो जाते हैं, तो नैनसुख तो ले ही सकते हैं न,” स्नेहा बोलतेबोलते ज़ोर से हंस पड़ी थी.

नेहा और स्नेहा दोनों  ने ही ग्रेजुएशन में एनसीसी ली थी और पहली बार दोनों घर से दूर कैंप गई थीं. साथसाथ खाना, साथसाथ रहना, साथसाथ परेड करना…लगभग सारे काम साथ. उन की दोस्ती गहरी होती जा रही थी.

‘कितने गंदे पैर ले कर  आई हो,’  स्नेहा ने डांटते हुए कहा था.‘अरे यार, आज मेरी सफाई की ड्यूटी थी, सो पैर में कीचड़ लग गया,” नेहा ने गुस्साते हुए कहा था.‘ह्म्म्म्मम, कैंप की सफाई कर खुद को गंदा कर लिया,’ स्नेहा बड़बड़ाती जा रही थी.

स्नेहा तुरंत उठी और एक तौलिया ले कर नेहा का पैर बड़ी ही तन्मयता के साथ साफ करने लगी. नेहा स्नेहा का यह रूप देख कर हैरान थी. स्नेहा को उस का पैर साफ करने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ. एक मातृवत भाव के साथ वह यह सब कर रही थी. कहां से आई उस के अंदर यह भावना, शायद उस की परिस्थितियां…, नेहा सोच में मे पड़ गई थी.

एक दिन पाकीज़ा जूस सैंटर पर जूस पीतेपीते नेहा ने कहा, ‘स्नेहा, आज चलो मेरे घर, मेरे मांपापा से मिलो.’ स्नेहा उस दिन नेहा के घर गई. उसे नेहा के यहां बहुत अच्छा लगा. ‘कितने अच्छे हैं तुम्हारे मांपापा और तुम्हारी प्यारी सी दादी. मां ने कितने अच्छे पकौड़े बनाए,’ स्नेहा बिना रुके बोले जा रही थी, अचानक मुसकराई, ‘और तुम्हारा भाई भी बहुत अच्छा है.’ शरारत के साथ आंखें मटकाते अपने चिरपरिचित अंदाज़ में स्नेहा बोली थी.

स्नेहा के इस अंदाज़ को नेहा बखूबी समझ चुकी थी, वह भी हंस पड़ी.‘अब मुझे भी अपने घर ले चलो,’ नेहा ने स्नेहा से कहा. ‘मेरे घर…,’ स्नेहा कुछ हिचकिचा गई‘ले चल स्नेहा, तुम्हारा घर तो सीतापुर रोड पर खेतखलिहानों के पास है, बहुत मज़ा आएगा.”‘ह्म्म्म्म, अच्छा, कल चलना,’ स्नेहा  का स्वर कुछ धीमा पड़ गया था.

‘कितनी सुंदर जगह है तुम्हारा घर, हरेभरे खेतों के बीच,’ नेहा, स्नेहा का घर देख कर खुशी से झूमी जा रही थी. स्नेहा का घर कच्चे रास्तों से गुज़रता था. घर पहुंचते ही स्नेहा ने अपनी दादीमां से मिलवाया, ये हैं मेरी सब से प्यारी दादी तुम्हारी दादी की तरह. और दादी, यह है मेरी पक्की वाली दोस्त नेहा.” स्नेहा ने फिर गरमागरम छोलेचावल खिलाए.

‘स्नेहा, छोले तो बहुत टैस्टी हैं, आंटी ने बनाए होंगे,’ नेहा खातेखाते बो ‘नहीं, मैं ने बनाए हैं,” स्नेहा कुछ गंभीर हो गई थी. ‘तुम ने! यार स्नेहा, यू आर  ग्रेट कुक. वैसे आंटी कहां हैं?’ नेहा ने पूछा. ‘मम्मी…’ स्नेहा की बात अधूरी रह गई. पीछे वाले कमरे से सांवली, साधारण सी बिखरे बालों के साथ एक महिला वहां आ गई. नेहा कुछ आश्चर्य से उन्हें देखने लगी. फिर ‘मेरी मम्मी’ कह स्नेहा ने उस महिला का परिचय कराया.

नेहा सोच में पड़ गई. स्नेहा तो कितनी सुंदर और उस की मम्मी साधारण सी, बिखरे बाल, दांत भी कुछ टूटे हुए… यह कैसे? कई सारे सवालों से नेहा घिर गई थी. स्नेहा की मम्मी कुछ अलग सी मुसकान के साथ अंदर चली गई.

‘नेहा, तुम्हें आश्चर्य हो रहा होगा न. मेरी मम्मी ऐसी… दरअसल, मम्मी पहले बहुत अच्छी दिखती थीं लेकिन जब मेरा भाई किडनैप हुआ तब से मम्मी की हालत ऐसी हो गई. भाई तो वापस मिला लेकिन मम्मी तब तक मैंटल पेशेंट हो चुकी थीं,’ स्नेहा धीरेधीरे बोल रही थी.

‘उफ्फ़…’ नेहा ने एक लंबी सांस भरी. कितना दुख है जीवन में. मां होते हुए भी मां का प्यारदुलार न मिले. स्नेहा तो अपनी मां से कोई ज़िद भी न कर पाती होगी. नेहा का मन भरा जा रहा था.

“चलो नेहा, मैं तुम्हें अपना स्कूल दिखाती हूं.  हमारा स्कूल कोएजुकेशन था, एक से एक स्मार्ट लड़के पढ़ते थे. अब तो हम गर्ल्स कालेज में आ गए,’ स्नेहा ने शायद नेहा के माथे पर पड़ी सलवटों को देख लिया था और वह माहौल को कुछ हलका करना चाहती थी.

‘स्नेहा, तुम भी न,” नेहा ने यह कह कर हंसी तो स्नेहा भी खिलखिला पड़ी थी.नेहा उस अलबम की हर फोटो को बड़े  गौर से देख रही थी. वेलकम पार्टी, टीचर्स डे, फेयरवैल, ऐनुअल फंक्शन… हर फोटो में नेहा और स्नेहा छाई हुई थीं. दिन हंसतेगाते, पाकीज़ा जूस सैंटर का जूस पीते हुए बीत  रहे थे. पर दिन हमेशा एक से नहीं रहते. ग्रेजुएशन के फाइनल ईयर के आख़िरी दिनों में स्नेहा कालेज में लगातार गैरहाजिर हो रही थी. नेहा चिंतित थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आ रही है स्नेहा? पता चला, स्नेहा बहुत दिनों से हौस्पिटल में एडमिट है. स्नेहा को क्या हो गया, नेहा परेशान हो उठी.

नेहा हौस्पिटल पहुंची जहां स्नेहा एडमिट थी. स्नेहा का चेहरा स्याह पड़ चुका था, आंखें गड्ढे में चली गई थीं, चेहरा फीकाफीका सा लग रहा था, देह जैसे हड्डी का ढांचा. नेहा को स्नेहा का वह पहले वाला दमकता सौंदर्य याद आ गया. और अब…

‘आओ नेहा,’ एक कमज़ोर सी आवाज़ और फीकी मुसकान के साथ स्नेहा बोली. नेहा उस के पास रखे स्टूल पर बैठ गई. नेहा ने स्नेहा का हाथ पकड़ते हुए पूछा, ‘क्या  हो गया स्नेहा? किसी को कुछ बताया भी नहीं, अकेलेअकेले ही सारे दुख़ झेलती रही?’

नहीं, नहीं नेहा, कुछ पता ही नहीं चला. पहले फीवर और हलकी कमज़ोरी थी, फीवर की दवा ले लेती थी, पर घर का काम भी रहता था और वीकनैस बढ़ने लगी.  और एक दिन खून की बहुत सारी उलटियां हुईं. मेरे पापा तो बहुत घबरा गए. यहां हौस्पिटल में एडमिट करा दिया,’ स्नेहा धीरेधीरे सारी बातें नेहा को बताती जा रही थी.

‘और तुम्हारी मम्मी?’ नेहा ने तुरंत ही पूछा.‘मम्मी को तो कुछ पता ही नहीं चलता. वे तो…’ बोलतेबोलते स्नेहा रुक गई और एक गहरी सांस अंदर खींच कर रह गई.

‘पर खून की उलटियां क्यों हुईं तुम्हें?’ नेहा अगले प्रश्न के साथ तैयार थी. ‘दरअसल, मुझे सीवियर  ट्यूबरकुलोसिस है. पूरे लंग्स में इन्फैक्शन है. थोड़ा मुझ से दूर ही रहो,’ स्नेहा पहले तो कुछ गंभीर थी, फिर हंस दी.

‘पर स्नेहा, तुम्हारा इलाज तो सही हो रहा है न, यहां के डाक्टर्स अच्छे हैं न? नेहा ने चिंतित स्वर में पूछा.  स्नेहा के चेहरे पर शरारत टपक गई, बोली, ‘अरे यार नेहा, डाक्टर्स तो अच्छे हैं, एक नहीं दोदो अच्छे हैं, एक सीनियर डाक्टर और एक जूनियर डाक्टर. सीनियर वाला न, मेरे गढ़वाल का ही है. पर, सूरत जूनियर वाले की ज़्यादा अच्छी है.’  ‘स्नेहा, तुम नहीं सुधरोगी, इतनी बीमार हो, फिर भी…’ नेहा हंसते हुए उस का गाल सहलाते हुए बोली.

नेहा, तो क्या रोती रहूं हर समय. अब तुम ने ही पूछा कि डाक्टर्स कैसे हैं तो मैं ने बताया,’ स्नेहा हलके गुस्से से बोली. इतने में एक साधारण नयननक्श  का सांवला डाक्टर आया, उसे एग्जामिन किया और पूछा, ‘स्नेहा जी, अब वौमिटिंग बंद हुई, फीलिंग बेटर नाउ?’

‘हां डाक्टर,’ स्नेहा ने धीमे से जवाब दिया. पीछे एक हैंडसम सा जूनियर डाक्टर साथ था. उस ने स्नेहा को कुछ दवाएं दी और मुसकराते हुए चला गया. ‘देखा स्नेहा, दोनों डाक्टर अच्छे हैं न,’ स्नेहा चहक कर बोली. नेहा प्यार से स्नेहा को सहलाने लगी और बोली, ‘स्नेहा, जल्दी से ठीक हो जाओ, परीक्षाएं पास आ रही हैं, मैं तुम्हें नोट्स दे दूंगी, ओके.’

स्नेहा ने भी नेहा का दूसरा हाथ अपने हाथों से कस के पकड़ लिया और अंसुओं की दो बूंदें उस की आंखों से ढ़ुलक गईं. नेहा अपनी आंखों को छलकने से बचाने के लिए तेज़ आवाज़ में बोली, ‘माय डियर, गेट वैल सून.’ नेहा भीगी पलकों के साथ वहां से चली आई.

परीक्षाएं पास आ गई थीं. स्नेहा की तबीयत पूरी तरह ठीक नहीं हो पाई थी. वह फाइनल एग्ज़ाम नहीं दे सकी. स्नेहा हौस्पिटल से डिस्चार्ज हो कर अपनी दादी के साथ पहाड़ चली गई. इधर नेहा आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली चली गई. वहीं होस्टल ले कर पोस्टग्रेजुएशन करने लगी और साथ में सिविल सर्विसेज़  की भी तैयारी कर रही थी. उसे बिलकुल भी फुरसत न मिलती. मोबाइल उन दिनों था नहीं जो हर समय दोस्तों से वह बात कर सके.

लखनऊ घर बात करने के लिए हफ्ते में एक बार होस्टल के पीसीओ  जा पाती  थी. नेहा स्नेहा को याद करती, पर बात नहीं हो पाती. ‘पता नहीं स्नेहा कैसी होगी, उस की तबीयत… उस की मां का क्या हाल होगा…’ एक लंबी सांस खींच कर नेहा किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाती.

स्नेहा से मिले हुए नेहा को 10-11 महीने हो रहे थे. नेहा दिल्ली से  छुट्टियों में अपने घर आई हुई थी. कहते हैं, किसी को शिद्दत से याद करो तो वह मिल ही जाता है. उस दिन भी ऐसा ही कुछ हुआ. स्नेहा ने नेहा को अचानक ही फ़ोन लगा दिया था.

अब नेहा दूसरे दिन स्नेहा के फ़ोन का इंतज़ार कर रही थी और साथ ही चिंतित भी थी क्योंकि स्नेहा ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. कुछ देर बाद फ़ोन की घंटी बजी. नेहा ने पहली घंटी बजते ही रिसीवर  उठा लिया.

“हैलो, स्नेहा?” “हां नेहा, मैं स्नेहा बोल रही हूं.”

“स्नेहा, कल तुम ने हौस्पिटल जाने की बात कह कर फ़ोन काट दिया था. क्या तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं हुई?” नेहा ने कुछ घबराते हुए पूछा. “नेहा, मुझे कल जाना था हौस्पिटल डाक्टर से मिलने.”

“वही तो मैं पूछ रही हूं स्नेहा. डाक्टर से मिलने तुम्हें क्यों जाना था”? नेहा लगभग झुंझला कर  बोली.”नेहा, जब तुम मुझ से मिलने हौस्पिटल आई थीं, तो याद है तुम्हें 2 डाक्टर्स मुझे एग्ज़ामिन करने आए थे.”

“हांहां, याद है मुझे. एक तो तुम्हारे पहाड़ के थे और दूसरे एक जूनियर डाक्टर थे.””हां, पहाड़ वाले डाक्टर स्वप्निल जोशी. उन्होंने मुझे बुलाया था,” स्नेहा बताने लगी, “नेहा, तुम्हें याद है न, मेरी तबीयत कितनी खराब थी, खून की उलटियां हो रही थीं, मेरा चेहरा कैसा स्याह पड़ चुका था. मम्मी की हालत तो तुम जानती ही हो. जब मुझे हौस्पिटल में एडमिट कराया तो मेरी हालत बहुत खराब थी. ऐसे में डा. स्वप्निल ने ही मुझे एग्ज़ामिन किया. उन की ही दवाओं से मेरी उलटियां रुकीं. थोड़ी तबीयत हलकी हुई. अब जब भी डा. स्वप्निल मेरा चैकअप करने आते, मुझे आदतन हंसी आ जाती. तुम्हें तो पता है, मुझ से ज़्यादा देर सीरियस नहीं रहा जाता. उस दिन भी डा. स्वप्निल को देख मैं यों ही हंस पड़ी. डा. ने पूछा, “हैलो स्नेहा, फीलिंग बेटर नाऊ?”

“या डाक्टर,” मैं ने मुसकराते हुए उत्तर दिया. “पूरा आराम कीजिए स्नेहा आप और मेडिसिन्स टाइम से लीजिए पूरे 6 महीने का कोर्स है.”जी डाक्टर,” मैं फिर मुसकरा उठी. डा. स्वप्निल भी मुसकरा पड़े.

एक दिन मैं ने शीशे में में अपना चेहरा गौर से देखा तो मैं खुद घबरा गई. आंखें धंसी, चेहरा पीला, सारी रंगत चली गई थी. बस. नहीं कुछ गया था तो वह थी मेरी हंसी.  मम्मी की चिंता, पापा की चिंता, दादी भी बूढ़ी हो चली हैं…कैसे क्या होगा? और मेरी भी तबीयत…भाई भी छोटा है… क्या ज़रूरत थी कुदरत को मुझे इस तरह बीमार करने की. बहुत गुस्सा आता मुझे. पर इन सब के बीच ज़िंदगी से नफ़रत नहीं कर  पाती. कुछ भी अच्छा एहसास होता, तो बरबस ही होंठों पर मुसकान आ जाती. सो, डा. स्वप्निल का एहसास भी कुछ अच्छा सा था. डा. स्वप्निल से मैं धीरेधीरे खुलने लगी. उन्हें अपने घर के बारे में, मम्मी के विषय में बताया. डा. स्वप्निल गंभीरता से मेरी बातें सुनते. मुझे भी उन से बातें करना अच्छा लगता. उस दिन 25 अगस्त को मेरा बर्थडे था. डा.

स्वप्निल मुझे चैक करने आए तो स्टेथोस्कोप के साथ उन के हाथों में लाल गुलाब के फूलों का बुके भी था. उन्होंने बुके पकड़ाते हुए कहा, “हैप्पी बर्थडे स्नेहा.” “पर आप को कैसे पता चला?” मैं ने चौंकते हुए पूछा.

“ह्म्म्म्म, स्नेहा, वह दरअसल, मैं ने तुम्हारी फ़ाइल देखी थी. उस में बर्थडे की एंट्री थी. वहीं से पता चला,” डा. स्वप्निल मुसकराते हुए बोले”अच्छा, तो डाक्टर साहब मरीज़ की सारी अनोट्मी देखते हैं,” मैं ने भवें तिरछी कर हंसते हुए कहा.

डा. स्वप्निल कुछ औकवर्ड फील करने लगे, फिर कुछ सीरियस हो कर मेरी ओर मुखातिब हुए, “स्नेहा, आज तुम्हारा बर्थडे है, उपहार तो मुझे देना चाहिए. पर एक उपहार मैं तुम से मांगना चाहता हूं.”  “क्या, क्या?” मैं ने हैरानी और आशंका से प्रश्न किया.डा. स्वप्निल बिना एक पल की देरी किए हुए कह उठे, “स्नेहा, मुझ से शादी करोगी?”

मैं आश्चर्य में पड़ गई. समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूं. मेरे कानों से ऐसा लगा मानो गरम हवा निकल रही हो. दिल बैठा जा रहा था. सुन्न सी हालत हो गई थी मेरी.

मैं ने लड़खड़ाती ज़बान से कहा, “पर डाक्टर, मेरी बीमारी…मेरी मां की हालत… आप कैसे…” आवाज़ मानो घुट कर गले में ही अटक गई.

डा. स्वप्निल ने मेरा हाथ पकड़ लिया और कहने लगे, “स्नेहा, तुम्हारी बीमारी ठीक हो जाएगी, मुझ पर विश्वास करो. मैं तुम्हारे घर की स्थिति को जानता हूं. ये सब जानते हुए भी मुझे तुम्हारा ही हाथ थामना है. पता है क्यों, क्योंकि तुम से मिल कर मेरी दवाओं, इंजैक्शन, औपरेशन से भारी रूखी ज़िंदगी में मुसकराहट आ जाती है. मेरी सीरियसनैस में चंचलता आ जाती है. तुम से मिल कर ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. मेरा ख़ालीपन भरने लगता है. बोलो स्नेहा, मेरा साथ तुम्हें पसंद है.”

डा. स्वप्निल इतना कह कर नम आंखों से मुझे देखने लगे. मेरी पलकें अनायास ही झुक गईं. डा. स्वप्निल की बातों में,  उन के हाथों के स्पर्श में भरोसे की खुशबू को मैं ने खूब महसूस किया  और…”

“और, फिर क्या हुआ?” नेहा ने उछलते हुए पूछा. “फिर क्या हुआ?? हुआ यह कि इस संडे को मेरी एंग़ेज़मैंट है डा. स्वप्निल के साथ और उस दिन मुझे उन्होंने रिंग पसंद करवाने के लिए हौस्पिटल बुलाया था. तुम्हें ज़रूर आना है, ” स्नेहा बोलते हुए अपनी स्वाभाविक हंसी के साथ हंस पड़ी.

नेहा  बड़ी गर्मजोशी  से बोली,  “ओह स्नेहा, तुम ने अपनी हंसी में डाक्टर को फंसा ही लिया. सच, मैं बहुत खुश हूं तुम्हारे लिए. वैसे, डाक्टर साहब ने ठीक ही कहा कि तुम से मिल कर वीरान ज़िंदगी में बहार आ जाती है, बोरिंग ज़िंदगी रंगीन लगने लगती है और ज़िंदगी से प्यार होने लगता है. आख़िर प्यार है नाम तुम्हारा, स्नेहा डियर.”

“और तुम्हारा भी,” स्नेहा खनकती आवाज़ में बोल  पड़ी. दोनों सहेलियां एकदूसरे को फोन पर ही मनभर कर महसूस करती हुईं ज़ोर से खिलखिला पड़ीं.

 

तीसरा बलिदान: क्या कभी खुश रह पाई अन्नया

अनन्या और सार्थक एक ही औफिस में पिछले 2 साल से काम कर रहे हैं. सार्थक इसी औफिस में 10 साल से काम कर रहा था, जबकि अनन्या 2 साल पहले ही बदली हो कर यहां आई थी.

3 दिन पहले ही अनन्या ने अहमदाबाद वाले औफिस में बदली हो कर ज्वाइन किया था. औफिस में 3 दिन बाद उस ने अपने कालेज के क्लासमेट सार्थक को देखा, तो खुशी से चिल्ला पड़ी, “अरे सार्थक, तुम यहां…“

“हां, मैं इसी औफिस में काम करता हूं. आप को पहचाना नहीं?” सार्थक को आश्चर्य हुआ कि तुम जैसे अपनेपन वाला शब्द बोलने वाली यह खूबसूरत महिला कौन है? वहीं साथ में काम करने वाले आसपास के कर्मचारी दोनों को हैरानी से देख रहे थे कि कहीं अनन्या को गलतफहमी तो नहीं हुई है.

“सार्थक, मैं अनन्या हूं… जोधपुर में हम एक ही कालेज में साथ में पढ़ते थे.”

अनन्या को आश्चर्य हुआ कि सार्थक ने उसे पहचाना नहीं और थोड़ी झेंप हुई, क्योंकि आसपास सभी सहकर्मी उन दोनों को देख रहे थे कि अनन्या कोई भूल तो नहीं कर रही है.

“ओह सौरी अनन्या, मैं ने तुम्हें पहचाना नहीं. शायद हमें कालेज छोड़े हुए तकरीबन 10 साल से ज्यादा हो गए हैं. अब याददाश्त भी कम हो रही है, उम्र के साथसाथ.”

हालांकि 35 साल की उम्र ज्यादा बड़ी नहीं होती है, इस में क्या याददाश्त कम होगी. सार्थक ने बात बनाने की कोशिश की.

सार्थक ने अनन्या को ध्यान से देखा, उस समय कालेज में अनन्या की चोटी हुआ करती थी, पर अभी उस के बाल बौयकट जैसे थे और साथ में आंखों का नंबर का चश्मा भी था. पर यह बात अनन्या को सब के सामने बता नहीं सकता था.

“अरे, कब ज्वाइन की ड्यूटी आप ने यहां?” सार्थक ने औपचारिकतावश पूछा, क्योंकि 3 दिनों से वह छुट्टी पर था. उस का बच्चा बीमार था.

“3 दिन पहले ही,” अनन्या ने बेमन से बताया. अनन्या को उस का आप का औपचारिक संबोधन अच्छा नहीं लगा. यह सही बात थी कि अनन्या व सार्थक साथसाथ कालेज में एक ही क्लास में पढ़ते थे, पर बहुत अच्छे दोस्त नहीं थे तो भी कालेज में साथसाथ बैठते थे और दोनों का ग्रुप भी एक था. आपस में अनजान भी नहीं थे.

अनन्या का मूड जो सार्थक को इतने साल बाद अपनी नई अनजान औफिस में अपनों को देख कर उत्साहित था, एकदम ठंडा पड़ गया. हालांकि सार्थक का शरीर भर गया था. उस ने मूंछें भी रख दी थी, तो भी उस ने इतने साल बाद एकदम से उसे पहचान लिया.

औफिस वाले अनन्या का उत्साह देख कर जोरदार कालेज स्टोरी होने का अनुमान लगा रहे थे.
लंच समय में अनन्या का मूड खराब देख कर सार्थक को लगा कि उस के हाथ से कुछ कच्चा कट गया है.

“सौरी अनन्या, मैं पहचान नहीं सका,” कान पर हाथ रख कर कालेज के दोस्त वाली दोस्ती की भाषा में बोला, तो अनन्या मुसकराते हुए बोली, “हां, मेरे बाल की स्टाइल व चोटी न देख कर मैं समझ गई कि तुम मुझे पहचान नहीं पाए.”

“हां, कालेज में तुम्हारे लंबे काले बालों वाली चोटी बहुत प्रसिद्ध थी. उस कारण तुम्हें एक बार मिस कालेज का खिताब भी मिला था,” सार्थक उस की चोटी याद कर के बोला, जिस पर कालेज के कई छात्र मजनू बन गए थे.

“क्या करूं? सुबह की भागमभाग में चोटी बनती नहीं है, इसलिए जो लंबे काले बाल थे कालेज के समय में वह मैं ने कटवा दिए,” किसी भी भारतीय स्त्री को काले घने लंबे बालों से बहुत ही प्रेम होता है, इसलिए अनन्या के शब्दों में अफसोस था.

हम जब कालेज में या शहर में एकसाथ होते हैं, तो भले ही हमारे संबंध बहुत ज्यादा घनिष्ठ नहीं हो, पर जब हम अलग शहर में और बहुत समय बाद मिलते हैं, तो ऐसा लगता है कि हम बहुत ही करीब थे और बिछुड़ कर मिले हो, ऐसा लगता है. यह सब सार्थक व अनन्या के साथ भी हुआ.

”मतलब…?” सार्थक समझ न सका कि कोई अपना घर, घर के कारण छोड़ता है.
अनन्या ने देखा कि सार्थक की औफिस की महिला सहकर्मियों के साथ सिर्फ बहुत ही जरूरी बातें होती हैं वह भी काम की, वह भी हां हूं में. हालांकि सार्थक की दूसरे पुरुष कर्मचारियों के साथ ऐसी बात नहीं थी और वह बहुत ही मिलनसार और सहयोगी प्रकृति का था. पर वह औफिस शाम 6 बजे छुट्टी होते ही निकल जाता था, एक मिनट की देरी किए बिना.

बहुत दिनों बाद जब इस का कारण उस को पता चला, तब उसे बहुत ही दुख हुआ और सार्थक के साथ सहानुभूति हुई.

सार्थक की पत्नी का निधन दो साल पहले ही कैंसर के कारण हो गया था और उस का एक छोटा सा 5 साल का बच्चा है. उस कारण सार्थक ने दूसरी शादी नहीं की, क्योंकि सार्थक को लगता था सौतेली मां क्या होती है, यह सोच कर उसे डर लगता था अपने बेटे की भविष्य के बारे में.

उसे सार्थक पर गर्व हुआ कि इतनी मानसिक व शारीरिक तकलीफों के बाद भी वह सिर्फ अपने बेटे के भविष्य का सब से पहले सोच रहा है, इस कारण वह महिला कर्मचारी से बात तक नहीं करता है.

“अरे अनन्या, तुम ने जोधपुर जैसी जगह से अपनी बदली यहां करवा दी. वहां तो तुम्हारा अपना घर भी है,” कैंटीन में एक दिन दोपहर का खाना खाते हुए उस ने औपचारिकतावश पूछा.

“इसलिए, क्योंकि वहां घर है,” टिफिन पैक करते हुए अनन्या ने जवाब दिया.

“मतलब…?” सार्थक समझ ना सका कि कोई अपना घर, घर के कारण छोड़ता है.

“मैं अपने घर में सब भाईबहनों में सब से बड़ी थी. मेरे पापा के अचानक गुजर जाने के बाद कोई कमाने वाला नहीं रहा. भाईबहन पढ़ रहे थे, मुझे पापा की जगह नौकरी मिल गई. इस कारण घर अच्छी तरह चलने लगा. आर्थिक स्थिति खराब होने से पहले ही बच गई और भाईबहन की पढ़ाई वैसे ही चलने लगी. अब मैं शादी नहीं कर सकती थी. यदि शादी कर दी तो घर की आर्थिक स्थिति खराब हो जाती और भाईबहन का कैरियर और दूसरी तकलीफें उत्पन्न होतीं.

एक बार एक अच्छा परिवार देखने आया, तो मैं ने हिम्मत कर के उन्हें शादी के लिए यह शर्त रखी कि मेरी सैलरी का कुछ हिस्सा घरवालों को दूंगी, शादी के बाद. तो बात वहीं की वहीं खत्म हो गई. फिर किसी के सामने यह शर्त रखने की हिम्मत ही नहीं हुई. मेरे लिए, मेरे भाईबहन और घर महत्वपूर्ण था. वे लोग मुझे आशाभरी नजरों से देखते थे और मुझे भगवान जैसा समझते थे. मैं भी अपनी इस जिंदगी से खुश और आत्मसंतुष्ट थी. भाई को अच्छी शिक्षा देने के बाद अपनी कसम दे कर भाई व बहन की शादी धूमधाम से की. मां भी यह सब देख कर चल बसी. पापा के बिना उस की जीने की इच्छा ही खत्म हो गई थी, वह सिर्फ भाईबहन को देख कर चल रही थी.

भाई की शादी के बाद मेरी समस्याएं शुरू हुईं. भाभी को मेरी सैलेरी पसंद थी, पर मेरा घर पर रहना पसंद नहीं था और ना ही मेरा भाई का मेरी हर बात पर सलाह लेना.

दोनों के बीच मेरे कारण तनाव रहने लगा. इस कारण भाई भी मुझ से धीरेधीरे कटने लगा. मुझे लगा कि अब समय आ गया है अपने बलिदान व त्याग का क्रेडिट लेने की जगह और महानता की आत्मप्रशंसा की जगह, जगह ही बदलना समयोचित है. मैं ने मेरे विभाग में बदली के लिए अर्जी दी और बदली का सही कारण भी बताया. मेरा ट्रैक रिकौर्ड अच्छा होने कारण मुझे अहमदाबाद में बदली मिल गई. यहां आ कर मुझे सच में मानसिक शांति मिली और यहां आ कर तुम्हें देखा तो मुझे बहुत ही अच्छा महसूस हुआ और कालेज के दिनों वाली ताजगी महसूस होने लगी.

“अनन्या, तुम सच में महान हो. अपने परिवार के लिए खुद का बलिदान दिया. वह भी एक बार नहीं, दोदो बार. पहली बार अपने घर वालों के लिए शादी नहीं की और दूसरी बार अपने घर वालों के लिए घर ही छोड़ दिया. जो तुम्हारी सब से प्रिय जगह थी,” सार्थक ने सिर झुका कर आदरभाव से कहा. सार्थक को अच्छा लगा कि उस की क्लासमेट ने अपने परिवार के हित के लिए बलिदान दिया. उस के मन में अनन्या के लिए प्यार व आदरभाव पैदा हुआ.

“क्या तुम्हें कभी प्यार हुआ है?” एक अच्छे दोस्त की तरह सार्थक ने पूछा.

“पता नहीं, मेरे लिए जवाबदारी इतनी बड़ी थी कि प्यार की गरमाहट मैं ने कभी महसूस ही नहीं की,” अनन्या ऐसे बोली, जैसे कि उस के मन में प्यार की कसक अभी बाकी है.

“अब तो कोई जवाबदारी नहीं है. अब क्यों नहीं शादी कर रही हो?” सार्थक ने अपनेपन से पूछा.

“सच बताऊं, एक तो उम्र हो गई है और दूसरा कोई ढूंढ़ने वाला भी तो चाहिए,” अनन्या ने हताशा से फीकी हंसी के साथ कहा.

“32-35 साल की उम्र कोई उम्र नहीं होती है.”

“देखते हैं, जिंदगी किस मोड़ ले जाती है,” मुसकरा कर बात खत्म करने के इरादे से वह बोली.

“और तुम्हारी भी उम्र मेरी जितनी है, फिर तुम क्यों नहीं शादी कर रहे हो?”

“बेटे के कारण. उसे मां का प्यार नहीं मिला तो क्या मैं उसे पिता का प्यार भी नहीं दूं. ना जाने कैसी होगी उस की सौतेली मां? ऊपर से उस के बच्चे हो गए तो क्यों मेरे बेटे का ध्यान रखेगी? बस डरता हूं मैं इस बात से,” सार्थक ने स्पष्ट रुप से कहा.

“बेटा कालेज जाने लायक होगा, तब कर लूंगा दूसरी शादी,” हंसते हुए सार्थक बोला, तो सार्थक की बात सुन कर अनन्या हंसने लगी.

दो साल से ज्यादा हो गए, अब दोनों न सिर्फ अच्छे दोस्त हो गए थे, बल्कि कई बार साथ में बाहर भी जाते थे. यहां तक कि कई बार साथ में 5 साल का बेटा चिंटू भी उन के साथ होता था. वह काफी घुलमिल गया था अनन्या के साथ. उसे प्यार से आंटी कहता था.

दोनों के प्यार व साथ में रहने की चर्चा औफिस में होती थी और सब यह दिल से चाहते थे कि दोनों शादी कर लें. दोनों के चेहरे की चमक भी दो साल में बदल गई थी और दोनों के मन में, दिल में जिंदगी में कुछ आशाएं जलने लगी थीं – जगमगाने लगी थीं.

“सार्थक कब शादी कर रहे हो अनन्या के साथ?” औफिस में औफिस का सहकर्मी आशीष, जो सार्थक का अच्छा दोस्त भी था, ने संजीदगी से पूछा.

उस दिन औफिस में उन दोनों के अलावा कोई नहीं था. सभी औफिसकर्मी के बच्चे की शादी में गए थे. अनन्या पर्स टेबल पर भूल गई थी, इसलिए लेने आई थी. उस ने अपना नाम सुना, तो दीवार के पीछे दोनों की बातें सुनने लगी.

“मैं अनन्या को पसंद करता हूं. अनन्या बहुत अच्छी लड़की है, पर आज भले उसे मेरा बेटा अच्छा लग रहा है, पर जब उस के बच्चे होगें, तब शायद ही चिंटू अच्छा लगने लगे. मैं कोई जिंदगी में रिस्क नहीं लेना चाहता अपने बेटे के लिए,” सार्थक हताशा से स्पष्ट शब्दों में बोला, तो यह सुनने के बाद और कुछ सुनने की हिम्मत अनन्या में नहीं थी. वह बिना पर्स लिए पार्टी में चली गई.

3-4 दिन से अनन्या औफिस नहीं आई थी और उस का मोबाइल भी स्विच औफ आ रहा था. सार्थक बेचैन हो गया था. दो साल में पहली बार वह इतनी दूर था कि उस से उस को लगा कि उस के बिना शायद ही जिंदगी गुजार पाएगा?

औफिस के सभी लोग उस की बेचैनी को स्पष्ट रूप से देख रहे थे और समझ भी रहे थे. 5 दिन बाद शाम को एक टैक्सी सार्थक के घर के आगे रुकी. उस में अनन्या उतरी और कमजोर जैसे कई दिनों की बीमार होती है, सीधे जैसे अस्पताल से आ रही हो, ऐसी दिख रही थी.

”अरे अनन्या 5 दिन से कहां थीं तुम?” इतने दिन बाद उसे सामने देखा तो सार्थक आश्चर्य से बोला.

”यह लो तुम्हारी मनपसंद चौकलेट व गेम,” चिंटू के हाथ मे गिफ्ट हैंपर देते हुए गाल पर प्यार से हाथ फेरते हुए उस ने कहा.

”थैंक यू आंटी,” चिंटू हमेशा की तरह अनन्या से चिपक कर बोला.

”बताया नहीं, क्या हुआ था तुम्हें,” उसे सोफे पर बिठाने के बाद बेसब्री व चिंता से सार्थक ने पूछा.

अनन्या ने गहरी सांस ली और एक फाइल से सर्टिफिकेट निकाल कर कहा, ”यह लो.” सर्टिफिकेट देते हुए अनन्या बोली.

सर्टिफिकेट लेते हुए सार्थक हैरानगी व असमजंस से बोला, ”कैसा सर्टिफिकेट?” वह गंभीरता से बोला.

“क्या… यह क्या किया तुम ने अनन्या. तुम ने अपना नसबंदी का औपरेशन करा दिया वह भी शादी से पहले,” सरकारी अस्पताल का नसबंदी सर्टिफिकेट देखते हुए सार्थक तेज आवाज में बोला.

”तुम मुझ से शादी इसलिए नहीं कर रहे थे कि तुम डर रहे हो कि हमारे बच्चे होने के बाद मैं तुम्हारे चिंटू को प्यार नहीं दूंगी और ध्यान नहीं रखूंगी. मैं ने यह विश्वास दिलाने के लिए ही कि चिंटू ही मेरा प्रथम व आखिरी बच्चा है, इसलिए भविष्य में मेरे कभी बच्चे ही नहीं हो, इसलिए मैं ने यह प्रश्न ही खत्म करने के लिए, बच्चा ना होने का औपरेशन ही करा दिया. सार्थक, मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती हूं,” अनन्या भावपूर्ण स्वर में बोली.

तो सार्थक बोला, ”अनन्या तुम ने एक बार फिर, तीसरी बार अपना बलिदान दे दिया अपनों के लिए. मेरे पास तुम्हारी महानता के लिए शब्द नहीं है,” प्यार से गले लगाते हुए सार्थक रो पड़ा.

महाभारत: माता-पिता को क्या बदल पाए बच्चे

दरवाजा बंद था लेकिन ऊंचे स्वर में होते वाक्युद्ध से लगता था किसी भी क्षण हाथापाई शुरू हो जाएगी. जब अधिक बर्दाश्त नहीं हुआ तो कजरी दरवाजे पर दस्तक देने के लिए उठी पर विवेक ने उसे पीछे खींच लिया, फिर समझाते हुए कहा, ‘‘एक तो यह रोज की बात है, दूसरे, यह पतिपत्नी का आपसी मामला है. तुम्हारे हस्तक्षेप करने से बात बिगड़ सकती है.’’

‘‘लेकिन विवेक, यह कब तक चलेगा?’’ कजरी ने हताश हो कर कहा.

‘‘पता नहीं,’’ विवेक ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘थोड़े दिन और देखते हैं, अगर नहीं समझे तो उन्हें वापस कानपुर भेज देंगे. बड़े भैया अपनेआप झेलेंगे.’’

‘‘कितनी आशा से हम ने मम्मीडैडी को अपने पास रहने के लिए बुलाया था,’’ कजरी ने गहरी सांस ली, ‘‘सोचा था उन का भी थोड़ा घूमनाफिरना हो जाएगा और हमें भी अच्छा लगेगा.’’

‘‘मम्मीडैडी में झगड़ा तो अकसर होता था,’’ विवेक ने कटुता से कहा, ‘‘लेकिन आपसी संबंध इतने बिगड़ जाएंगे यह नहीं सोचा था.’’

मम्मीडैडी में किसी न किसी बात पर रोज घमासान होता था. मम्मी की जलीकटी बातों का उत्तर डैडी गाली दे कर देते थे.

विवेक ने कजरी से कहा, ‘‘गरमागरम कौफी बना लाओ. पी कर कम से कम मेरा मूड तो ठीक होगा.’’

कजरी कौफी लाई तो विवेक ने दरवाजे पर दस्तक दी.

लगभग एक मिनट के बाद डैडी ने दरवाजा खोला और घूर कर देखा.

‘‘लीजिए डैडी, गरमागरम कौफी. आप शांति से पीजिए,’’ विवेक ने मम्मी से कहा, ‘‘आगे का प्रोग्राम ब्रेक के बाद.’’

विवेक अकसर मम्मीडैडी को बतौर मनोरंजन कुछ न कुछ कह कर हंसाता रहता था, लेकिन आज दोनों बहुत गंभीर थे. तनी भृकुटी पर कोई असर नहीं हुआ.

एक दिन मामला बहुत गरम हो गया. मम्मीडैडी का स्वर बाहर तक सुनाई पड़ रहा था.

‘‘मैं एक मिनट इस घर में नहीं रह सकती,’’ मम्मी ने ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘मैं हमेशा के लिए छोड़ कर चली जाऊंगी.’’

‘‘मैं तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं,’’ डैडी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरा पीछा छोड़ दो.’’

‘‘मुझे कौन साथ रहने का शौक है,’’ मम्मी ने भी क्रोध से कहा. लड़ाई चरम सीमा पर पहुंच गई थी. कजरी और विवेक माथा पकड़ कर बैठ गए.

‘‘मैं भैया को फोन करता हूं,’’ विवेक ने दृढ़ता से कहा, ‘‘आएं और तुरंत ले जाएं.’’

‘‘नहीं, विवेक, उन्हें क्यों परेशान करते हो.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो,’’ विवेक ने सोच कर कहा, ‘‘एक कोशिश और करते हैं. मम्मीडैडी के लिए मनोरंजन का कोई और रास्ता ढूंढ़ना होगा. शायद बात बन जाए.’’

कजरी ने सहमति में सिर हिलाया और हंस पड़ी.

‘‘मम्मी,’’ विवेक ने कहा, ‘‘आप तो कभी बहुत पिक्चर देखती थीं. अब क्या हो गया?’’

मम्मी ने गहरी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘कोई साथ हो तब न.’’

‘‘मैं 2 टिकट ले आया हूं. तैयार हो जाओ. डैडी को भी बोल कर आता हूं.’’

मम्मी को पिक्चर देखने का बहुत शौक था. पिक्चरहाल ज्यादा दूर नहीं था फिर भी विवेक ने रिकशा कर के दोनों को उस पर बैठा दिया.

थोड़ी देर में मम्मीडैडी सिनेमा देखने जा चुके थे.

उन के जाने के बाद विवेक ने पूछा, ‘‘हम कौन सी पार्टी में जा रहे हैं?’’

‘‘कोई पार्टी नहीं है तो क्या हुआ,’’ कजरी ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब चले चलते हैं. तुम ने कहा था न एक बार कि कैलीफोर्निया में चाइनीज खाना बहुत अच्छा मिलता है.’’

कैलीफोर्निया अभीअभी एक नया रेस्तरां खुला था और अपने स्वादिष्ठ खाने की वजह से जल्द ही बहुत मशहूर हो गया था.

जब मम्मीडैडी घर आए तो बहुत प्रसन्न थे. आदत के अनुसार मम्मी फिल्म की कहानी सुनाने लगीं और डैडी अपनी टिप्पणी दे रहे थे. विवेक और कजरी ने राहत की सांस ली.

अब तो विवेक हर 10-15 दिन में किसी नई फिल्म के 2 टिकट ले आता था. मम्मीडैडी जितना खुश हो कर जाते थे उस से अधिक प्रसन्न हो कर लौटते थे.

एक दिन विवेक के एक दोस्त ने नेशनल स्कूल आफ ड्रामा के एक बहुचर्चित नाटक के 2 टिकट ला कर दिए. वे टिकट विवेक ने मम्मीडैडी को दे दिए.

दोनों बहुत प्रसन्न थे. कोई नाटक देखे उन्हें वर्षों बीत गए थे.

मम्मीडैडी के आने की प्रतीक्षा में कजरी और विवेक बैठ कर सासबहू वाला धारावाहिक देख रहे थे. आज कहानी ने एक दिलचस्प मोड़ लिया था. अचानक फोन की घंटी ने ध्यान भंग कर दिया, ‘‘देखो, किस का फोन है,’’ विवेक नेकहा.

‘‘तुम देखो,’’ कजरी बोली. विवेक अनिच्छा से उठा.

‘‘हैलो,’’ विवेक ने सूखे कंठ से कहा.

‘‘जानेमन, कैसे हो?’’ उधर से आवाज आई.

‘‘कस्तूरी, तुम?’’ विवेक ने आश्चर्य से चौंक कर पूछा, ‘‘कैसे याद किया?’’

‘‘परसों तुम दोनों मेरे यहां खाने पर आओ,’’ कस्तूरी ने कहा.

‘‘किस खुशी में?’’

‘‘मेरा जन्मदिन है,’’ कस्तूरी खिलखिला पड़ी, ‘‘साल में कितने जन्मदिन मनाती हो?’’ विवेक ने हंस कर पूछा.

‘‘अपनी डायरी में देखो, कहीं लिखा होगा,’’ कस्तूरी ने कहा, ‘‘सच ही मेरा जन्मदिन है और तुम दोनों को जरूर आना है.’’ इस से पहले कि विवेक कुछ कहता कस्तूरी ने फोन रख दिया था. विवेक उलझन में पड़ा फोन हाथ में लिए खड़ा था. क्या करे इस कस्तूरी का. जब भी फोन करती है घर में कलह हो ही जाती है.

कजरी ने तीखे स्वर में पूछा, ‘‘क्या कह रही थी, कस्तूरी?’’

‘‘खाने पर बुला रही है. जन्मदिन की पार्टी कर रही है,’’ विवेक ने खुलासाकिया.

‘‘माना, किसी जमाने में कस्तूरी तुम्हारी गर्लफ्रैंड थी, लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि उसे खुलेआम तुम्हारे से फ्लर्ट करने का लाइसेंस मिल गया,’’ कजरी ने क्रोध से कहा, ‘‘जब भी मिलती है ऐसे चिपक कर बैठती है जैसे पत्नी वह है और मैं ‘वो’ हूं.’’

‘‘तुम जानती तो हो कि मैं उसे ऐसा करने की दावत नहीं देता,’’ विवेक ने हाथ हिलाते हुए कहा, ‘‘वह है ही ऐसी.’’

‘‘ताली एक हाथ से नहीं बजती,’’ कजरी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘तुम मौका देते हो तभी तो उस की ऐसा करने की हिम्मत होती है.’’

‘‘मैं मौका देता हूं?’’ विवेक ने ऊंचे स्वर में कहा, फिर पूछा, ‘‘तुम्हें उस की पार्टी में चलना है या नहीं?’’

दोनों एक-दूसरे को इस तरह घूर रहे थे मानो खा ही जाएंगे.

पार्टी में तो कोई नहीं गया लेकिन दोनों के बीच शीतयुद्ध जारी रहा. सारा काम इशारों से चल रहा था या मम्मीडैडी से कह कर.

आज छुट्टी का दिन था लेकिन माहौल मनहूसियत से भरा हुआ था. नाश्ते के बाद डैडी बाहर चले गए.

‘‘विवेक,’’ थोड़ी देर बाद डैडी ने अंदर आते हुए आवाज लगाई, ‘‘बहू, तुम भी आओ. देखो, क्या लाया हूं मैं.’’

दोनों आ कर आश्चर्य से देखने लगे.

‘‘ये लो,’’ डैडी ने एक लिफाफा पकड़ाया.

‘‘इस में क्या है?’’ दोनों ने एकसाथ पूछा.

‘‘बेटा, हनीमून हाल के टिकट हैं. मैं तुम दोनों के लिए फिल्म ‘देवदास’ के टिकट ले आया हूं. इतने दिनों से तुम्हें ‘देवदास’ बना देख रहा हूं. सोचा क्यों न फिल्म ही दिखा दूं.’’

मम्मीडैडी दोनों हंस रहे थे. कु छ क्षणों तक कजरी और विवेक ने आश्चर्य से देखा और फिर हंसी न रोक सके. डैडी ने उन का फार्मूला उन्हीं पर आजमा दिया था.

Hindi Story : एहसासों के झुले पर रिश्ते की अर्थी

आज एक बार फिर चल पड़ी थी उसी रास्ते पर, जिसे 10 साल पहले पीछे छोड़ते हुए. हर सुखसुविधा पा लेने की इच्छा की कैदी बन कर संदीप संग फेरे लेने को तैयार हो गई थी.

रोहन आवाज देता ही रह गया, ‘‘श्वेता, मुझे कुछ वक्त और दो… मैं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते ही तुम्हारे संग अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करूंगा.’’

‘‘मगर मैं अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकती रोहन. संदीप एक स्थापित डाक्टर है और मेरे पेरैंट्स की पसंद है. पापामम्मी से अब मैं इस शादी को कैंसिल करने को नहीं कह पाऊंगी. संदीप और उस के पेरैंट्स मु?ा से मिल चुके हैं और दोनों पक्षों की रजामंदी के बाद ही यह शादी तय हुई है. अब इसे रोका नहीं जा सकता.’’

‘‘रुक जाओ श्वेता, प्लीज… मेरी खातिर,’’ पहली बार उस ने रोहन की आंखों में आंसू देखे थे. उस के भीतर अब उन आंसुओं का सामना करने की ताकत नहीं थी और वह वहां से अपने अगले सफर की ओर बढ़ गई.

1 महीने बाद डाक्टर संदीप संग फेरे ले कर एक बैंक क्लर्क की बेटी कई नौकरोंचाकरों वाले बंगले में आ गई.

आर्थिक संपन्नता का खुला आकाश मन को एकसाथ ढेरों पंख लगा देता है और इंसान उन पंखों को फैला कर उड़ते वक्त यह भूल जाता है कि जिंदगी जीने के लिए ठोस धरातल का भी अपना महत्त्व है.

जब तक इस अनिवार्यता का उसे भान होता है, तब तक वह वक्त काफी पीछे खिसक चुका होता है और अगर कभी जिंदगी मेहरबान हो कर कोई चांस दे भी दे… तो हवा भरे अतीत पर टिका वर्तमान वाला रिश्ता, इस मानवीय जिंदगी को जी पाने के लिए एक बहाने के प्रयोग सा बन कर रह जाता है.

श्वेता ने भी शुरुआती दिनों में पंख फैला कर खूब उड़ान भरी, 20 दिनों का हनीमून और उस के बाद का कुछ महीनों का सफर ख्वाबों के पूरा होते यथार्थ के मखमली गद्दे पर बीता.

किसी राजमहल की रानी सी श्वेता कई नौकरोंचाकरों, सासससुर और हैंडसम डाक्टर पति के साथ जीवन के मजे ले रही थी.

समय के साथ खुशियों के खुमार को भी यथार्थ के धरातल का सामना करना ही पड़ता है. संदीप अपने क्लीनिक में व्यस्त रहने लगे, समयसमय पर असिस्टैंट के भरोसे क्लीनिक छोड़ कर कईकई दिनों के लिए उन्हें शहर से बाहर भी जाना पड़ता था. ऐसे वक्त में श्वेता बेहद अकेलापन महसूस करने लगी थी.

शहर में रहते हुए भी संदीप व्यस्त ही रहा करते थे. श्वेता का दिन कैसे बीता, इस से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता, पर रातें. उन के बिस्तर पर पहुंचते ही श्वेता को अपनी दिनचर्या निबटा कर कमरे में मौजूद रहना होता था वरना अगले कुछ दिन भारी मानसिक तनाव में बीतने तय थे.

सोने के बंद पिंजरे में कैद पक्षी की भी खुले आकाश में उड़ने की इच्छा खत्म नहीं हो पाती, यह तो एक इंसान का मन था. एक औरत का मन जो अपनी जिंदगी के काफी पल अपने उस प्रेमी के भावों संग जी चुकी थी जो उस की एक चाहत पर मैचिंग दुपट्टा तक के लिए अपना सारा काम छोड़ कर खुशीखुशी कईकई दुकानों के चक्कर लगाया करता था.

दूसरी तरफ उसे हर ऐशोआराम देने वाला पति था, जिस की मरजी के बिना श्वेता की जिंदगी का एक पत्ता तक नहीं हिलता था. इसी यथार्थ वाली पटरी पर श्वेता की जिंदगी की गाड़ी खिसकती जा रही थी. आगे भी इसी तरह की सरकती हुई बढ़ती रहती अगर उस शाम सासूजी

ने घर आए मेहमान दंपती से मिलवाने के लिए उसे बुलाने हेतु नौकर को उस के कमरे में नहीं भेजा होता.

सीढि़यों से उतरते वक्त जैसे ही श्वेता की नजर मेहमान पर पड़ी, उसी पल चौंकने की स्थिति में वह सीढि़यों के आखिरी स्टैप पर पैर रखना चूक गई और गिरती हुई श्वेता को बेहद फुरती से उठ कर उस मेहमान ने संभाल लिया, ‘‘भाभीजी, जरा संभल कर आप को मोच आ गई तो मेरे भैया और मौसीमौसाजी को भी तकलीफ होगी… अपना खयाल रखिए,’’ मुसकराते हुए वह अपनी जगह जा कर बैठ गया.

‘‘बहू, यह रोहन है… मेरी बहन का बेटा, संदीप की शादी में नहीं आ पाया था. कुछ महीने पहले ही इस ने अपने साथ जौब कर रही इस प्यारी सी जूही से शादी की है. अब इस का यहीं फरीदाबाद में तबादला हुआ है. इसी बहाने अब रोहन कुछ वक्त हमारे लिए भी निकाला करेगा. क्यों जूही बहू, आने तो दोगी न हमारे रोहन को हम से मिलने?’’ जूही की तरफ मुसकरा कर देखते हुए दमयंतीजी ने कहा.

‘‘क्यों नहीं मौसीजी… बड़ों का सानिध्य तो छोटों के लिए आशीर्वाद होता है. आप कहें तो मैं रोज रोहन को ले कर आप लोगों से मिलने आ जाया करूंगी,’’ कहते हुए जूही दमयंती के गले लग गई.

जूही के इतनी जल्दी मिक्सअप होने के हुनर पर श्वेता को आश्चर्य हुआ क्योंकि वह आज तक अपनी सास से इस कदर बेतकल्लुफ नहीं हो पाई थी, जबकि दमयंतीजी बेशक एक अच्छी सास कही जा सकती थीं.

रात का खाना खा कर रोहन और जूही अपने घर चले गए परंतु जातेजाते श्वेता की ऊपर से शांत दिख रही जिंदगी में एक बड़ा सा पत्थर मार गए.

उस रात संदीप संग नितांत निजी पलों में श्वेता की सोच पर रोहन छा चुका था.

सीढि़यों से फिसलते वक्त रोहन का उसे थाम लेना, उन पुराने भावों को पुनर्जीवित करने के लिए काफी था. एक रात का यह सिलसिला कई रातों के साथ अपना याराना बढ़ाते हुए श्वेता की जिंदगी पर अपना वर्चस्व कायम करता जा रहा था.

यह समाज की सोच भी बड़ी अजीब है, जिस में शुचिता का मानक बस शरीर हुआ करता है और उन नितांत निजी पलों में मानसिक समर्पण का कोई मानदंड नहीं बन सका है आज तक. श्वेता भी बिना मानक वाले उसी सफर पर आगे बढ़ती जा रही थी और जीवन अपना रास्ता तय करता जा रहा था.

कुछ समय बाद पता चला कि जूही अपने भाई की शादी में 10 दिनों के लिए लुधियाना जा रही है और इतने दिनों की छुट्टी नहीं मिलने की वजह से रोहन शादी के दिन ही वहां पहुंचेगा.

‘‘रोहन इस बीच तुम खाना यहीं आ कर खा लिया करना,’’ यह दमयंतीजी का फरमान था.

‘‘नहीं मौसी, मेरा लंच औफिस कैंटीन में होगा और डिनर के लिए जूही मेड को बोल कर जा रही है. वह शाम को डिनर तैयार कर के चली जाएगी. वैसे भी दिनभर का थकाहारा आने पर यहां आने की हिम्मत नहीं होगी. एक संडे मिलेगा, उस दिन मेड को भी छुट्टी दे कर खुद अपनी पसंद का खाना बनाऊंगा,’’ रोहन ने मुसकरा कर कहा.

समय का अनवरत चलना उस की नियति है. वह संडे भी आया जब डोरबैल की आवाज पर रोहन ने दरवाजा खोला, ‘‘11 बज रहे हैं और तुम अभी तक सोए हो? चलो, जल्दी से फ्रैश हो कर आ जाओ.’’

‘‘तुम्हारे लिए आज का खाना मैं बनाऊंगी, तुम्हारी पसंद की हर चीज,’’ श्वेता ने रोहन के हाथों को ले कर चूमते हुए बड़े प्यार से कहा.

‘‘यह क्या कर रही हैं आप… भाभीजी,

आप मेरे बड़े भाई की ब्याहता हैं, एक संभ्रांत खानदान की प्रतिष्ठा का महत्त्वपूर्ण पिलर हैं आप… उसे मटियामेट करने की कोशिश मत कीजिए.’’

‘‘रोहन,’’ श्वेता की आवाज में एक टीसता सा दर्द था, ‘‘भले ही आज मैं तुम्हारी भाभी हूं पर इस से हमारी वह फीलिंग खत्म तो नहीं हो जाती जो हम ने साथ में जी थी.’’

‘‘उस वक्त आप की इस फीलिंग का क्या हुआ था जब आप मेरी गुहार को लात मारते हुए आगे बढ़ गई थी?’’

‘‘अब भूल जाओ न उन बातों को तुम… सदा जूही के ही बन कर रहना, परंतु

इस तरह अपमानित तो मत करो मुझे.’’

‘‘मैं आप को अपमानित नहीं कर रहा, आप की वास्तविकता से अवगत करा रहा हूं कि आप एक ब्याहता हैं और एक शादीशुदा मर्द के साथ अकेले उस के घर में मौजूद हैं, यह जानते हुए कि उस की पत्नी अभी घर में नहीं है. वैसे क्या मैं जान सकता हूं कि आप घर से क्या झूठ बोल कर आई हैं? क्या बहाने बना कर निकली हैं आप अपने घर से?’’

‘‘रोहन, एक अच्छे दोस्त बन कर तो रह ही सकते हैं न हम?’’

‘‘नहीं, अब मुझे आप पर भरोसा नहीं रहा. जो महिला एक कमाऊ पति के लालच में अपने प्रेमी को छोड़ सकती है, जो अपने ससुराल में बिना बताए अपने प्रेमी से मिलने जा सकती है, उस की पत्नी की गैरहाजिरी में मैं ऐसी औरत पर विश्वास नहीं कर सकता.’’

‘‘रोहन, प्लीज चुप हो जाओ… इस तरह से शब्दों के नश्तर मत चुभाओ और यह आप कहना बंद करो.’’

‘‘सच इतना ही कड़वा लग रहा है तो आप इसी वक्त यहां से चले जाइए, शायद आप को सम?ा नहीं आए, इस के बावजूद आप को बता दूं कि मेरे लिए शादी एक परंपरा से इतर और भी बहुत कुछ है जो 2 इंसान के साथसाथ 2 परिवारों को भी एक ऐसे प्रेमिल धागे में बांधती है, जिस के भाव से लबरेज हो कर हम इंसान अगले

7 जन्मों के लिए उसी जीवनसाथी को पाने की बातें करने लगते हैं.

‘‘विश्वास पर टिके इस रिश्ते को भावना और कर्तव्य नामक मोतियों से गूंथा जाता है. यह एक ऐसा रिश्ता है, जिस में दिल से ज्यादा दिमाग की सुननी चाहिए, कानूनी मान्यता मिले इस रिश्ते में दुख और सुख दोनों का सामना मिल कर करने से जिंदगी कैसे गुजर जाती है, पता ही नहीं चलता और इस सफर में अब जूही मेरी हमकदम है आप नहीं.’’

श्वेता रोहन की बातें सुनते हुए अपमानित सी हो कर पत्थर की बुत सी बन चुकी थी.

रोहन ने आगे कहना शुरू किया, ‘‘मैं ने शादी के पहले ही जूही को अपने और तुम्हारे रिश्ते के बारे में बता दिया था और सबकुछ जानने के बाद उस ने शादी के लिए हामी भरी थी. मुझे नहीं लगता कि तुम ने संदीप भैया को अपने पूर्व संबंध की बात बताई होगी.

‘‘अपने मन के चोर को पुरुष मानसिकता द्वारा नहीं स्वीकार किए जाने वाले खोखले तर्क से ढकने की कोशिश मत करना क्योंकि मुझे लगता है कि सच की बुनियाद पर खड़े रिश्ते तुलनात्मक रूप से बेहद मजबूत होते हैं. अगर कोई पुरुष अपनी होने वाली पत्नी के पूर्व संबंध को सहज स्वीकार नहीं कर पाए तो वह रिश्ता जोड़ने से पहले ही टूटना बेहतर पर तुम्हें तो डाक्टर संदीप से शादी करनी थी और तुम अपने पूर्व प्रेमी की बात बता कर इस रिश्ते को खोने का खतरा मोल लेने वालों में से नहीं हो, इतना तो मैं तुम्हें सम?ाता ही हूं.

‘‘और हां, अब एक आखिरी बात… मैं ने और जूही दोनों ने एकदूसरे के पूर्व प्यार को जानते हुए इस रिश्ते को स्वीकार किया है और इस में अब किसी तीसरे का प्रवेश वर्जित है. क्या अब भी तुम कुछ कहना चाहती हो?’’

‘‘नहीं रोहन, अब मुझे कुछ नहीं कहना… तुम दोनों एकदूसरे का साथ भरपूर जीयो, बस यही कहना है.’’

डबडबाई हुई आंखों से श्वेता अपने उस प्रेम को अंतिम विदाई देते हुए, अपमान के इस ताप को जज्ब किए. एक संबंध को खत्म करने की कोशिश में दरवाजे से बाहर तो निकल गई परंतु क्या सच में किसी संबंध को खत्म कर पाना इतना आसान हो पाता है?

श्वेता के दरवाजे से निकलते ही रोहन ने अपनी डबडबा चुकी आंखें पोंछीं और सोफे पर निढाल सा पसर कर बुदबुदाया, ‘‘श्वेता, काश तुम ने उस वक्त अपनी राहें नहीं बदली होतीं. मैं ने इस रिश्ते को तो मार दिया परंतु अपने उन एहसासों को कैसे मारूं जो बस तुम से जुड़े हुए हैं. एहसासों के झुले पर सवार इस रिश्ते की अर्थी को ताउम्र कैसे ढो पाऊंगा मैं?’’ कहते हुए रोहन दोनों हाथों से अपना चेहरा ढक कर फूटफूट कर रो पड़ा.

खोया हुआ सुख : उस रात सुलेखा के साथ क्या हुआ?

अमित जब अपने कैबिन से निकला तब तक दफ्तर लगभग खाली हो चुका था. वह जानबूझ कर कुछ देर से उठता था. इधर कई दिनों से उस का मन बेहद उद्विग्न था. वह चाहता था कि कोईर् उस से बात न करे. कम से कम उस की गृहस्थी या निजी जिंदगी को ले कर तो हरगिज नहीं. जब से अमित ने ज्योति से पुनर्विवाह किया है, तब से वह अजीब सी कुंठाओं में जी रहा था. लोग उसे ले कर तरहतरह की बातें करते. इन सब के कारण वह बेहद चिड़चिड़ा हो गया था.

सुषमा की कैंसर से अकाल मृत्यु ने अमित की गृहस्थी डांवांडोल कर दी थी. बच्चे भी तब बेहद छोटे थे, मुन्नू 4 ही साल का था और सुलेखा 6 की. परिवार में सिर्फ बड़े भैया और भाभी थीं, पर  उन्हें भी इतनी फुरसत कहां थी कि वे अमित के साथ रह कर उस के बच्चों को संभालतीं.

1 महीने बाद उन्होंने अमित से कहा, ‘‘देखो भैया, मरने वाले के साथ तो मरा नहीं जाता. सुषमा तुम्हारे लिए ही क्या, हम सब के लिए एक खालीपन छोड़ गई है. बच्चों की तरफ देखो, ये कैसे रहेंगे? अब इन के लिए और दुनियादारी निभाने के लिए तुम्हें दूसरा विवाह तो करना ही पड़ेगा.’’

भाभी की बात सुन कर वह फूटफूट कर रो पड़ा. ऐसे दिनों की तो उस ने कल्पना तक नहीं की थी. उसे विमाता की उपेक्षा से भरी दास्तानें याद आने लगी थीं. अब इन बच्चों को भी क्या वही सब सहना होगा? वह दृढ़ शब्दों में भाभी से बोला, ‘‘अब मेरी शादी की इच्छा नहीं है. रही बात बच्चों की तो ये किसी तरह संभल ही जाएंगे.’’

चलते समय भाभी ने ठंडी सांस भर कर आंसू पोंछे. फिर बोलीं, ‘‘अमित, जहां हमारे 4 बच्चे रहते हैं, वहां ये 2 भी रह लेंगे, कुछ संभल जाएं तो ले आना. अभी अपना दफ्तर देखोगे या इन मासूमों को?’’

अमित चुप रह गया और दोनों बच्चे भाभी के साथ चले गए. उन सब को छोड़ कर एयरपोर्ट स्टेशन से घर आने के लिए उस के पांव उठ ही नहीं रहे थे. उत्तेजना के कारण निचला होंठ बारबार कांप रहा था. रुलाई फूट पड़ने को तैयार थी. वह अपने मन पर काबू पाने के लिए एक पार्क में चला गया.

किसी तरह अपने को संयत कर वह दफ्तर जाने लगा. कुछ दिनों तक तो सब सहयोगी उस के साथ सहानुभूतिपूर्ण तथा सहयोग भरा व्यवहार करते रहे. फिर सब पूर्ववत हो गया.

कुछ महीनों तक अमित को पता ही नहीं चला कि समय कैसे बीत गया. उस का कोई न कोई सहयोगी दफ्तर से निकलते समय उसे अधिकारपूर्वक अपने घर ले जाता. वह वहां से रात का भोजन कर केवल रात गुजारने के लिए ही घर आता.

मगर जल्द ही अमित ने यह महसूस किया कि  वह जिन घरों में भोजन करने या समय गुजारने के लिए जाता है, वहां सब ने अब उस के सामने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रिश्ते की बात रखनी शुरू कर दी थी. सब उस के ऊपर अपना पूरा अधिकार जताते और आत्मीयता का हवाला देते हुए उस से ‘हां’ कहलवाने की भरसक कोशिश कर रहे थे. अमित सम?ा नहीं पा रहा था कि वह इस विषम परिस्थिति का कैसे सामना करे? उसे यह भी दिखने लगा था कि दोस्तों की पत्नियां कुछ न कुछ बहाना बना कर ड्राइंगरूम से खिसक लेतीं. उसे एक अधूरी चीज समझ जाने लगा था.

नतीजा था, अब अमित अपने सहयोगी मित्रों से कतराने लगा था. जो लोग उस से रिश्ते की आशा लगाए बैठे थे, उन्हें देखते ही वह रास्ता बदल लेता था. तलाकशुदा या देर तक शादी न हो पाई लड़कियों को उस से मिलवाया जाता था जो खुद बुझीबुझी रहती थीं. अब अगर दफ्तर से चलते समय कोई उसे अपने घर ले जाना चाहता तो वह घर के किसी आवश्यक कार्य का बहाना बना कर जल्दी से खिसक जाता.

एक दिन तो अमरजी ने हद कर दी. वे उस की मेज पर बैठ कर मुंह में पान दबाए उस से बोले, ‘‘बरखुरदार, काम खत्म हो गया? रह गया हो तो कर लेना. आज हमारी मेम साहिबा सुनयना ने तुम्हें साधिकार घर बुलवाया है. कहा है कि ले कर ही आना.’’

अमित मुसकरा कर बोला, ‘‘कोई खास बात है क्या?’’

वे आंखें फैला कर बोले, ‘‘खास ही समझे, अंबाला वाले उन के भाई केदार अपनी बेटी को ले कर आ गए हैं. उस की तसवीर तो तुम ने देख कर पसंद कर ही ली थी. अब जरा पूरी बात कर लो.’’

अमर की बात सुन कर वह हैरान रह गया. बोला, ‘‘आप किस की बात कर रहे हैं? मैं ने भला कौन सी तसवीर पसंद की थी?’’

वे हंस कर बोले, ‘‘अरे, भूल भी गए. उस दिन सुनयना ने अपने मोबाइल से निकाल कर फोटो नहीं  दिखाया था?’’

अमित अचकचा कर बोला, ‘‘अरे, उस दिन सुनयना ने अपने मोबाइल से निकाल कर एक गु्रप फोटो दिखाते हुए सहमति मांगी थी कि अच्छी है न और मैं ने भी कह दिया था अच्छी है और कोई बात तो नहीं हुई थी?’’

वे चिढ़ कर बोले, ‘‘यह लो, अच्छा बेवकूफ बनाया तुम ने तो… खैर…’’ और वे जोर से कैबिन का दरवाजा बंद कर के चले गए.

अमित कितनी ही देर तक अकेला बैठा रहा. आंखों में उस गु्रप फोटो फैशनपरस्त सी युवती की तसवीर घूम रही थी. वह सुषमा की जगह हरगिज नहीं ले सकती, सोचता हुआ वह उठ खड़ा हुआ.

अगले दिन से ही अमर ने उसे कोसने और मुफ्तखोर पेटू की उपाधि दे कर बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

भाभी का उस के मोबाइल पर फोन आया कि सुलेखा बीमार चल रही है. जान कर अमित का कलेजा दो टूक हो गया. वह हर तरफ से परेशान था. सुषमा के होते वह कितना निश्चिंत था. सुषमा की याद आते ही उस का निचला होंठ उत्तेजना के कारण कांपने लगा. आखिर वह हफ्तेभर की छुट्टी ले कर आगरा एक टैक्सी कर के चला गया.

जब अमित वहां पहुंचा, सुलेखा अचेत सी पलंग पर पड़ी थी. मुन्नू गंदे कपड़ों में नंगे पांव, धूलधूसरित सा बच्चों के साथ कंचे खेल रहा था. सारे घर के कामकाज संभालती भाभी बेदम हुई जा रही थीं. उस के आने से राहत महसूस करती हुई बोलीं, ‘‘बड़ा अच्छा किया, भैया जो तुम आ गए. बच्चे भी बहुत याद कर रहे थे. सुलेखा के इलाज में भी सुविधा रहेगी. मुझे तो कई बार दवा देने की भी याद नहीं रहती.’’

बच्चों की यह हालत देख कर अमित सचमुच बौखला गया. उस ने पहले इस बात की कल्पना भी नहीं की थी. देर तक वह सुलेखा के सिरहाने बैठ उस के सिर पर हाथ फिराता रहा. बच्चों की दशा देख कर उसे महसूस हो रहा था कि उस ने कितनी मूल्यवान निधि गंवा दी है.

कई दिन आगरा में रहने पर सब बच्चे उस से फिर से घुलमिल गए. सुलेखा भी काफी स्वस्थ हो गई थी. एक दिन आंगन में कपड़े धो कर तार पर डालते हुए भाभी बोलीं, ‘‘अब इतना भी बच्चों के साथ मत घुलमिल जाओ. 2-4 दिन में तुम चले जाओगे तो फिर वे पापा के लिए रोएंगे.’’

अमित चुपचाप फूलों की क्यारियां देखता रहा.

‘‘देख, बच्चों को अपने साथ ले जाना हो तो पहले विवाह कर ले. फिर पूरी गृहस्थी के साथ हंसीखुशी यहां से जाना.’’

अमित कुछ नहीं बोला, उस की तरफ से कोई नकारात्मक जवाब न पा कर भाभी का हौसला कुछ और बढ़ा. वह उसे समझती हुई बोलीं, ‘‘देख अमित, चाहे तू मुंह से कुछ न बोल पर यह तो मानेगा कि दुनियादारी निभाना कितना मुश्किल काम है.’’

अमित ने सिर नीचे कर लिया. सच ही तो कह रही है भाभी. अपनेअपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही तो दफ्तर के सहयोगी और मित्र जो लड़की नहीं दिखाते थे वे उस पर एहसान करते दिखते और 2-4 दिन में मुआवजा पाने की आस में कोई ऐप्लिकेशन ले कर खड़े हो जाते थे. दोस्त उसे रोज अपने घर भोजन पर बुलाते रहे थे. बाद में अपनी इच्छा पूरी न होने पर वे उसे मुफ्तखोर या पेटू कहने से भी नहीं चूके.

बच्चे रात का भोजन कर चुके थे. बड़े भैया के साथ अमित चौके में पहुंचा तो घरेलू खाने की सुगंध उस के नथनों में भर गई. कितने दिन हो गए हैं ऐसा खाना खाए हुए.

भाभी भोजन परोसती हुई बोलीं, ‘‘अमित, तेरी शादी के लिए रिश्ते तो बहुत आ रहे हैं पर सोचती हूं कि तेरी शादी उसी लड़की से करूंगी जो तेरी तरह जीवन डगर पर बीच में ही जीवनसाथी को खो बैठी हो.’’

अमित प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगा.

अमित को अपनी तरफ देखते हुए पा कर वे हंस कर बोलीं, ‘‘अरे ऐसे क्या देख रहा है? कुंआरी लड़कियों को कुंआरों के लिए रहने दे. जरा सोच, कुंआरी लड़कियां तेरे साथ सच्चे दिल से निभा पाएंगी? टूटे दिल को टूटा दिल ही समझ सकता है.’’

अब तक अमित को ऐसी ही लड़कियां दिखाई गई थीं पर किसी ने इतने साफ शब्दों में समझाया नहीं था.

अमित रातभर करवटें बदलता रहा. भाभी की बात उस के मनमस्तिष्क में गूंजती रही. उसे भी नजर आ रहा था कि इस तरह उस की गाड़ी नहीं चलेगी. दफ्तर में हिकारत भरी नजरों का सामना, किसी महिला से बात करते सशंकित निगाहों का आगेपीछे घूमना, बच्चों की दुर्दशा इन सब का निस्तार तो करना ही पड़ेगा. उस ने भाभी के आगे हथियार डाल दिए.

और फिर 3 माह में ही बिना किसी आडंबर से मैट्रीमोनियल साइट से मिली ज्योति के साथ उस का विवाह हो गया. 2-4 रोज में ही उस ने अपनी गृहस्थी का बोझ अपने सिर पर ले लिया. बच्चे भी उस से घुलनेमिलने लगे. अमित सोचने लगा कि भाभी ने गलत नहीं कहा था. कुंआरी लड़की इतनी सहृदयता से सब को नहीं अपना सकती थी जितनी अच्छी तरह अपने घर का सपना संजोने वाली ज्योति ने कर दिखाया.

भोपाल आते ही ज्योति ने घरगृहस्थी अच्छी तरह संभाल ली. बच्चों का स्कूल में दाखला हो गया. हर सुबह वह बच्चों को प्रेम से नाश्ता करा कर अपनेअपने स्कूल भेजने लगी. अमित का खोया हुआ आत्मविश्वास दोबारा लौट आया. सच ही है कि पुरुष को जीवन में सफलता पाने के लिए नारी का प्रेम आवश्यक है. यह केवल नारी ही है जो पुरुष के व्यक्तित्व की अंतरिम गहराइयों का पोषण करती है, उसे समग्रता प्रदान करती है और भटकाव से रोकती है.

अमित की घरगृहस्थी सुचारू रूप से चलने लगी थी. वह ज्योति के साथ खुश था. ज्योति का व्यक्तित्व कहींकहीं सुषमा से उन्नीस था, तो कहीं इक्कीस. अमित जब कभी सुषमा को ले कर उदास होता तो न जाने कैसे ज्योति पलभर में सब जान कर उसे उदासी के जाल से मुक्त कर हंसा देती. पर जब कभी वह अनमनी हो जाती तब अमित न जाने क्यों उद्विग्न हो जाता. शायद इसलिए कि पुरुष में उतनी सहनशक्ति नहीं होती. वह पत्नी को पूरी तरह अपने में ही बांध कर रखना चाहता है.

अमित शाम को दफ्तर से सीधा घर आता. दोनों बच्चे साफसुथरे कपड़ों में लौन में खेलते हुए मिलते. स्वयं ज्योति भी व्यवस्थित ढंग से रहती और उसी तरह बच्चों को रखती. ज्योति का चेहरा भी इतना गंभीर और प्रभावशाली था कि देखने वाले को एक बार बरबस अपनी तरफ आकर्षित करता था. घर में वह सुखशांति थी जो किसी आदर्श परिवार में होनी चाहिए.

अमित की सुखी गृहस्थी देख कर उस के दफ्तर के सहयोगी न जाने क्यों एक अनजानी ईर्ष्या से जलने लगे. घरगृहस्थी उजड़ जाने के कारण अमित जहां पहले उन की कृपा और संवेदना का पात्र बन गया था, वहीं अब वह उन की ईर्ष्या का पात्र बन गया था. सहयोगी मित्रों की यह ईर्ष्या अमित को अप्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देखनेसुनने को मिलती थी. अकसर उसे सुनाई पड़ता था कि जूठी पत्तल चाटने में भला क्या आनंद?

ज्योति को ले कर तो उसे अकसर अश्लील वाक्य सुनने पड़ते कि ज्यादा दिन नहीं रहेगी, तरहतरह का स्वाद चखने की आदत जो पड़ गई है या फिर भला एक बार मांग में सिंदूर पुंछ जाने पर दोबारा कहां सुहाता है?

अमित चुपचाप सब सुन लेता था. पलट कर कुछ कहना उस के स्वभाव में नहीं था. पर एक चिड़चिड़ाहट उस के स्वभाव में घुलती जा रही थी. घर मेें ज्योति के कुछ पूछने पर वह चिल्ला कर जवाब देता था. बच्चों में भी एक अजीब सी असुरक्षा घर करती जा रही थी. पढ़ाई में भी वे पिछड़ रहे थे.

कई बार ज्योति दबी जबान से उसे भोपाल से अपना तबादला कहीं और करवा लेने की बात कहती. वह सारी परिस्थितियों को देखते हुए अमित की मनोदशा जान गई थी. पर अमित भोपाल में जमीजमाई गृहस्थी नहीं उजाड़ना चाहता था.

दीपावली के त्योहार में अभी कई दिन बाकी थे. ज्योति के बड़े भैया अपने किसी काम से भोपाल आए थे. वह घर की असामान्य स्थिति को भांपते हुए अमित से बोले, ‘‘अगर आप को कोई असुविधा नहीं हो तो ज्योति और बच्चों को कुछ दिन के लिए आगरा ले जाऊं?’’

बहन को मायके ले जाने के पीछे भाई की कोई दुर्भावना नहीं थी. स्वयं ज्योति भी कई बार दबे शब्दों में घर जाने की इच्छा प्रकट कर चुकी थी. पर अमित का पारा न जाने क्यों चढ़ गया. वह रूखे स्वर में बोला, ‘‘बच्चे वहां जा कर क्या करेंगे? अभी स्कूल भी खुले हुए हैं, इसलिए आप केवल ज्योति को ले जाइए.’’

चलते समय ज्योति का मन बेहद उदास था. वह पूरे परिवार के साथ मायके जाना चाहती थी. अकेले जाना उसे कचोट रहा था. पर अमित सहज नहीं था. उस से कुछ भी कहना विस्फोटक स्थिति को बुलावा देना था.

अब अमित का घर के किसी काम में मन नहीं लगता था. बच्चे उस से डरे तथा सहमे रहते थे. वह रसोई में जैसेतैसे नाश्ता बना कर बच्चों को चिल्ला कर बुलाता तो वे दोनों एकदूसरे को देखते हुए, डरते हुए खाने की मेज पर बैठ जाते. खाना तो क्या, निगलना ही होता था.

दफ्तर में पहले की तरह असहयोग भरा वातावरण चल रहा था. घर में भी प्रेम के दो बोल बोलने वाला कोई नहीं था. ज्योति का कोई पत्र भी नहीं आया था.

उस दिन दफ्तर से निकलते ही उसे अपना पुराना मित्र अरविंद मिल गया. दीपावली नजदीक आ रही थी. वह अपनी पत्नी को अचानक भेंट देने के लिए ड्रैस खरीदने की जल्दी में था. उस ने हंस कर अमित से कहा, ‘‘क्यों यार, नई भाभी के लिए तो खूब ड्रैस खरीदता होगा. आज जरा एक ड्रैस रश्मि के लिए भी खरीदवा दे. तुझे तो खूब दुकानदारी आ गई होगी. ज्योति भाभी अपनेआप बहुत स्मार्ट है और समझदार भी. तुझ पर असर जरूर पड़ा होगा.’’

उस की बात सुन कर अमित को सहसा याद आया कि उस ने तो कभी ज्योति के लिए कुछ खरीदा ही नहीं है. अच्छा हुआ जो अरविंद उस दिन उस के साथ घर नहीं आया, वरना इस भुतहे घर को देख कर वह पता नहीं क्या सोचता?

पासपड़ोस में दीपावली की तैयारियां पूरे जोर पर थीं. मुन्नू और सुलेखा अपने घर बालकनी पर ही खड़े रहते थे. उन के साथ भी खेलने वाले बच्चे कभी अपनी मां और पिताजी के साथ कपड़े खरीदने जा रहे होते तो कभी खिलौने और मिठाइयां लेने. रोज शाम होते ही बच्चे अपने पिता के साथ फुलझाडि़यां व पटाखे छुड़ाने में व्यस्त हो जाते. मुन्नू और सुलेखा के साथ खेलने के लिए उन के पास फालतू समय ही नहीं था.

एक रोज एकाकीपन से ऊब कर मुन्नू ने उस से पूछा, ‘‘पिताजी, हमारी मां कब आएंगी?’’

अमित यह प्रश्न सुन कर चुप बना रहा. उसे कोई जवाब नहीं सूझ रहा था. सुलेखा डबडबाई आंखों से भाई की तरफ देख रही थी. अमित घर की सफाई करने में लगा था. दोनों बच्चे भी उस के साथ यथासंभव हाथ बंटा रहे थे.

अचानक सुलेखा को कुछ याद आया. वह अमित की उंगली पकड़ कर दिखाते हुए बोली, ‘‘पिताजी, हमारी मां इस में हमारे लिए सुंदर कपड़े रख कर गई हैं.’’

मुन्नू नए कपड़ों का नाम सुन कर आंखों में चमक भर कर बोला, ‘‘अच्छा.’’ अमित ने बच्चों की जिज्ञासा दूर करने के लिए सब ट्रंक उतार कर नीचे रखे और वह ट्रंक खोला. वह यह देख कर हैरान रह गया कि सब के लिए अलगअलग डब्बे में नए कपड़े करीने से रखे हैं. मुन्नू की कमीज, सुलेखा का शराराकुरता तथा अमित के लिए पैंटकमीज रखी थी. और यह नीचे वाली डिबिया में क्या है? कुतूहलवश उस ने डिबिया उठा कर खोली. यह देख कर हैरान रह गया कि अरे, सुलेखा के लिए नन्ही सोने की बालियां और उस के लिए पुखराज की अंगूठी. अमित ने नीचे तक ट्रंक देख डाला, पर स्वयं ज्योति के लिए कुछ नहीं था.

अमित हतप्रभ रह गया. कैसी है यह ज्योति? सब के लिए इतना कुछ खरीदने के लिए उस ने इतनी बचत कैसे की होगी?

उसी रात मुन्नू और सुलेखा के साथ अमित ज्योति को लिवाने के लिए भोपाल से आगरा के लिए रवाना हो गया.

ज्योति के बड़े भैया बाहर ही मिल गए. वे अमित से खुशी से गले मिले. बाबूजी ने भी कुशलक्षेम पूछ कर आदर से दामाद को बैठाया.

ज्योति को कल ही लिवा ले जान की बात सुन कर वे बोले, ‘‘दीपावली में अब 3-4 दिन ही तो रह गए हैं. त्योहार मना कर ही जाना.’’

नाना की बात सुन कर बच्चे बोले, ‘‘पर हमारे सब दोस्त तो वहां पटाखे छुड़ाएंगे. हम भी वहीं दीपावली मनाएंगे.’’

बच्चों की बात का समर्थन करते हुए अमित बोला, ‘‘आप इजाजत दें तो यह पहली दीपावली हम भोपाल में ही मनाना चाहेंगे.’’

अगले दिन वे भोपाल जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठ गए. आगरा पीछे छूट रहा था. ज्योति सिर झुकाए मोबाइल में आंखें गढ़ाए बैठी थी. अमित के पहले व्यवहार के बारे में सोच कर वह उस की तरफ देख भी नहीं पा रही थी. बच्चे ऊंघने लगे थे. मुन्नू उस की गोद में सिर रख कर सो गया था. अमित को आज ज्योति के माथे की बिंदिया ममता में डूबी हुई जान पड़ रही थी.

दीपावली की रात को दोनों बच्चे ज्योति के साथ दीए जलाने की तैयारी कर रहे थे. बच्चों ने नए कपड़े पहने थे. सुलेखा नन्ही बालियां हिलाती हुई बेहद सुंदर लग पड़ रही थी. अमित अभी बाजार से नहीं लौटा था. ज्योति थाल में दीए सजा कर तेल भर रही थी.

ज्योति की तरफ साड़ी का डब्बा बढ़ाते हुए अमित ने कहा, ‘‘अब जरा जल्दी से साड़ी पहन कर हमें भी एक प्रेम का उपहार दे दो,’’ शरारत से उस ने अपने होंठों पर उंगली रखी.

ज्योति लजा कर साड़ी का डब्बा लिए अंदर जाने लगी. उस का रास्ता रोक कर अमित ने कहा, ‘‘देखो, मना मत कर देना, आज दीपावली है.’’

घूंघट में घोटाला: दुल्हन का चेहरा देख रामसागर को क्यों लगा झटका

रामसागर बड़ा खुश था. उसका दिल बल्लियों उछल रहा था. बात खुशी की ही थी, उसकी शादी जो तय हो गयी थी. आखिरकार इतनी दुआओं और मन्नतों के बाद जीवन में यह शुभ अवसर आया था. वरना उसने तो अब शादी के विषय में सोचना ही छोड़ दिया था. मां-बाप जल्दी गुजर गये थे. रामसागर घर में सबसे बड़ा था. उसके बाद दो बहनें और दो भाई थे, जिनकी पूरी जिम्मेदारी उस अकेले के कंधे पर थी. थोड़ी खेतीबाड़ी थी और एक किराने की दुकान भी.

अट्ठारह बरस की उम्र रही होगी जब मां-बाप साथ छोड़ गये. रामसागर ने बड़ी मेहनत की. चारों भाई-बहनों की देखभाल और उनकी शादी-ब्याह की जिम्मेदारी उसने मां-बाप बन कर उठाये. अब उसकी बयालीस बरस की उम्र हो आयी थी. इस उम्र के उसके दोस्त अपने बच्चों की शादी की चिन्ता में मग्न थे और वो अभी तक छुट्टे बैल की तरह घूम रहा था…! छोटे भाई-बहनों की नय्या पार लगाते-लगाते कब रामसागर के बालों में सफेदी झलकने लगी थी, उसे पता ही नहीं चला. सबका घर बसाने के चक्कर में उसका अपना घर अब तक नहीं बस पाया था.

चलो देर आये दुरुस्त आये. रिश्ते की बुआ ने आखिरकार उसकी सगाई तय करा ही दी. उसका मन बुआ को दुआएं देते नहीं थक रहा था. लड़की पास के गांव की थी. छह बहनों में तीसरे नंबर की. रामसागर अपनी बुआ के साथ लड़की देखने पहुंचा तो शर्म के मारे गर्दन ही नहीं उठ रही थी. लड़की चाय की ट्रे लिए सामने खड़ी थी. रामसागर नजरें नीचे किए बस उसके कोमल पैरों को निहार रहा था. गोरे-गोरे पैर पतली पट्टी की सस्ती सी सैंडिल में चमक रहे थे. नाखूनों पर लाल रंग की नेलपौलिश चढ़ी थी. रामसागर तो उसके पैरों को देखकर ही रीझ गया. बुआ ने कोहनी मारी, ‘जरा नजर उठा कर निहार ले… बाद में न कहना कि कैसी लड़की से ब्याह करवा दिया.’

रामसागर ने बमुश्किल नजरें उठायीं. लड़की के सिर पर गुलाबी पल्ला था. आधा चेहरा ही रामसागर को नजर आया. चांद सा. बिल्कुल गोरा-गोरा. रामसागर ने धीरे से गर्दन हिला कर अपनी रजामंदी जाहिर कर दी. शादी की तारीख महीने भर बाद की तय हुई थी. रामसागर घर की एक-एक चीज साफ करने में जुटा था. घर में उसके सिवा कोई था ही कहां, जो सब संवारे-बुहारे. सब उसे ही करना था. बहनें ब्याह कर अपने घरों की हो गई थीं. दोनों भाई रोजगार के चक्कर में दिल्ली गये तो वहीं के होकर रह गये. एक-एक करके अपनी पत्नियों और बच्चों को भी ले गये कि वहां बच्चों की अच्छी परवरिश और पढ़ाई हो सकेगी. पीछे रह गया रामसागर. अकेला.

एक महीने में रामसागर ने घर का कायाकल्प कर डाला. अपनी पत्नी के स्वागत में वह जो कुछ भी कर सकता था उसने किया. आखिरकार शादी का दिन भी आ पहुंचा. घोड़ी पर सवार रामसागर कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों से घिरा गाजे-बाजे के साथ धड़कते दिल से अपनी होने वाली ससुराल पहुंचा. लड़की वालों ने स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी. जयमाल, फेरे सब हो गये. रामसागर बस एक नजर अपनी पत्नी के चेहरे को देख लेना चाहता था. मगर चांद पर लंबा घूंघट पड़ा था. आगे पीछे उसकी बहनें, सहेलियां और रिश्ते की बहुएं. सुबह विदाई के वक्त भी लंबा सा घूंघट. विदा की बेला आ गयी. रामसागर घूंघट में जार-जार रोती अपनी दुल्हन को लेकर अपने गांव पहुंच गया. सारा दिन रीति रिवाज निभाते बीत गये. दुल्हन भीतर कमरे में औरतों के बीच दुबकी बैठी रही और वह बाहर मर्दों में. आखिरकार सुहागरात की बेला आ गयी. औरतों ने आकर रामसागर को पुकारा और धक्का देकर कमरे के भीतर धकेल दिया.

चांद पर अब भी घूंघट पड़ा था. रामसागर झिझकते हुए पलंग पर बैठा तो उसका चांद और ज्यादा सिमट गया. काफी देर खामोशी छाई रही. आखिर हिम्मत जुटा कर रामसागर ने घूंघट के पट खोले तो जैसे उसको सांप सूंघ गया. घूंघट का चांद वो चांद नहीं था जो उस दिन नजर आया था. ये तो कुछ फीका-फीका सा था.  बेसाख्ता उसके मुख से निकला, ‘तुम कौन हो?’ वह धीरे से बोली, ‘अनीता’. रामसागर ने कहा, ‘मगर मेरी शादी तो सुनीता से तय हुई थी.’

अनीता ने गर्दन झुका ली. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सकते में डूबे रामसागर ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने बुआ खड़ी थी. वह झपट कर अंदर आयीं और दरवाजा बंद करके पलंग पर बैठ गयीं. रामसागर हैरानी से उनकी ओर देख रहा था. कुछ पूछना ही चाहता था कि बुआ बोल पड़ी, ‘रामसागर ये अनीता है. सुनीता की बड़ी बहन. तेरी शादी सुनीता से तय हुई थी, मगर वह किसी और से प्रेम करती थी. उसके साथ भाग गयी. वह उम्र में भी तुझसे काफी छोटी थी. चंचल थी. तू उसे संभाल नहीं पाता. इसके पिता तो बड़े दुखी थे. मुझे बुला कर सब सच-सच बता दिये थे. माफी मांगते थे. मिन्नतें करते थे. फिर मैंने तेरे लिए अनीता को पसन्द कर लिया. सब विधि का विधान है. यह भी शायद तेरे लिए ही अब तक कुंवारी बैठी थी. छोटी बहनों की शादियां पहले हो गयीं. देख रामसागर, अनीता रूप में भले सुनीता से थोड़ी दबी हो, मगर गुणों की खान है. अपना पूरा घर इसी ने अकेले संभाल रखा था. इसको अपना ले. तेरा ब्याह इसी के साथ हुआ है. अब यही तेरी पत्नी है.’ बुआ रामसागर पर दबाव बनाते हुए बोली.

रामसागर सिर पकड़े नीचे बैठ गया. बुआ और अनीता एकटक उसका चेहरा देख रही थीं कि पता नहीं इस खुलासे का क्या अंजाम सामने आये. चंद सेकेंड बाद रामसागर ने सिर उठाया और बोला, ‘बुआ, घूंघट में घोटाला हो गया… मगर कोई बात नहीं… नुकसान ज्यादा न हुआ.’

बुआ हंस पड़ी, साथ में रामसागर भी ठठा पड़ा और चांद के चेहरे पर भी मुस्कुराहट तैर गयी.

अंतिम स्तंभ: बहू के बाद सास बनने पर भी क्यों नहीं बदली सुमेधा की जिंदगी

‘‘तू यह बात किसी को मत बताना’’, वह मेरे हाथों को अपने हाथ में ले कर चिरौरी सी कर रही थी, ‘‘मेरी इतनी बात मान लेना.’’

मेरा मुंह उतर गया. ‘‘क्या रे, तू तो मेरा दिमाग ही खराब कर रही है. मैं तो तेरी दी यह साड़ी पहन कर दुनियाभर में मटकती फिरती हूं कि देखोदेखो सब लोग, मेरी प्यारी सहेली ने कितनी सुंदर साड़ी दी है. और तू कह रही है कि किसी को मत बताना.’’

‘‘तू मेरा नाम मत बताना, बस.’’

‘‘वाह, यह तो कोईर् भी पूछेगा कि इतनी सुंदर साड़ी किस सहेली ने दी, किस खुशी में दी.’’

‘‘तू तो जानती है रे, कितनी मुसीबत हो जाएगी मेरी.’’

‘‘जिंदगीभर मुसीबत ही रही तेरी तो…’’

मेरा मन सच में खराब हो गया. असल में मुझे याद आ गया. 35 बरस पहले भी सुमेधा ने मुझे साड़ी दी थी. ऐसे ही छिपा कर. ऐसे ही कहा था,  ‘किसी को मत बताना.’ अवसर था इस की पहली संतान, ‘पुत्र’ के जन्म का. सासससुर, जेठजेठानी, देवरदेवरानी, ढेर सारे रिश्तेदारों व अतिथियों से भरा घर. पूरे घर में आनंदोत्सव की धूम. वह मुझे अपने कमरे में ले गई थी. अपनी अलमारी खोल एक साड़ी निकाल कर मुझे पकड़ाते हुए बोली, ‘जल्दी से इसे अपने पर्स के भीतर डाल ले. अपने पैसे से खरीद कर लाई हूं. गुलाबी रंग तुझ पर बहुत खिलता है. जरूर पहनना इसे.’

‘तेरे पास पैसा ही कितना बचता है. सारी तनख्वाह तो तू अपनी सासुमां को देती है. अगर साड़ी देने का इतना ही मन था तो आज तो तोहफे में तुझे ढेरों साडि़यां मिली हैं. उन्हीं में से कोई मुझे दे देती.’

‘वे सब साडि़यां, तोहफे तो सासुमां को मिले हैं.’

‘बेटा तेरा हुआ है. लोगों ने तोहफे तुझे दिए हैं?’

और आज, आज गृहप्रवेश का शुभ अवसर है. उसी बेटे ने बनवाया है शानदार मकान. मकान क्या है, शानदार शाही बंगला है. जाने कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर लाया है एक से एक बेशकीमती साजोसामान. भीतर से बाहर, हर ओर जगमगाते टाइल्स वाले फर्श. दमकती दीवारें. सामने अहाते में रंगबिरंगे फूलों से महकता बगीचा. पोर्टिको में खड़ी नईनवेली चमचमाती कार. बाजू में 2 दमदार दुपहिया वाहन दोनों पतिपत्नी के. रोबदार अलसेशियन कुत्ता. वैभव ही वैभव.

और मुझे याद आ रहा है उस का वह छोटा सा घर. ससुराल का संयुक्त परिवार वाला घर छूटने के बाद पति की नौकरी में जब वह घर बसाने आईर् थी, तो उसे यही घर मिला था. 2 छोटेछोटे कमरे, एक किचन. छोटा सा बरामदा. उसी से लगा निहायत छोटा सा बाथरूमटौयलेट. बरतन मांजने की जगह नहीं. न ही कपड़े सुखाने की.

हम सभी सहेलियों के वे दिन बड़ी भागदौड़ वाले थे. अपनी गृहस्थी से किसी तरह समय निकाल कर दोचार बार गई थी मैं उस के घर. एकदम अकबका जाती थी. इतने बड़े घर की लड़की, कैसे रहती है इस दड़बे जैसे छोटे से फ्लैट में. मगर वह खुश नजर आती.

तड़के सुबह से रात गए फुरसत ही नहीं उसे तो. मुंहअंधरे ही अपने नित्यकर्म से निबट, नाश्ता तैयार करना, चाय बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना. पति की तैयारी में मदद करना, रूमाल, पेन, डायरी रखना, सब के बैग में टिफिन रखना. सब से अंत में अपने पर्स में टिफिन बौक्स डाल मामूली सी साड़ी लपेट चप्पल फटकारती स्कूल भागना. शाम ढेर सारी कौपियों व सब्जीभाजी के थैलों से लदीफंदी जल्दीजल्दी घर लौटना.

पति, बच्चे सब उस का ही इंतजार करते बारबार दरवाजे पर आ रहे हैं. बाहर निकल कर ताक रहे हैं. उस की छाती खुशी से भर जाती. बच्चों को छाती से लगा झट से काम में जुट जाती. चायनाश्ता खाना. बीचबीच में बरतन साफ करना, पोंछा लगाते जाना. जिस पर सब की अलगअलग फरमाइशें. किसी को पकौड़े चाहिए, किसी को गुलगुले. सब की फरमाइशें पूरी करती सुख सागर में मगन.

ऐसे में कभी कोई सहेली, कोई रिश्तेदार, अतिथि आ जाए तो क्या पूछना. पति उस के भारी मजाकिया. छका डालते अपने मजाकों से सब को. नहले पर दहले भी पड़ते उन पर. वह देखदेख कर विभोर होती.

गृहस्थी का आनंददायक सुख. सुखों से भरे दिन बीतते गए. बच्चे बड़े होते गए. स्कूल, कालेज, नौकरीचाकरी, कामधंधे, शादीब्याह निबटते गए. नातीपोते भी आते गए.

व्यस्तताओं के इस दौर में हमारा संपर्क लंबे अरसे तक नहीं हो पाया. बरसों बाद उसे अपने ही शहर में, अपने ही दरवाजे पर देख कर मेरी तो चीख निकल गई. भरपूर गले मिल कर हम रो लिए. आंसू पोंछ कर मैं पूछने लगी, ‘कैसे आ गई तू अचानक यहां?’

‘मैं तो पिछले कई महीनों से यहां हूं. तेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी.’

‘मेरा घर नहीं ढूंढ़ पा रही थी? तेरा तो बचपन ही इन्हीं गलियों में बीता है. इसी सामने वाले घर में तो रहते थे तुम लोग.’

‘वह घर तो मेरे नानाजी का था न. शुरू में हम लोग नानाजी के घर में ही रहते थे. बाद में पिताजी भी नौकरी के साथ जगह बदलते रहे. नानाजी की मृत्यु के बाद यह घर बेच दिया गया. हमारा यहां आना भी छूट गया. एकदो बार तुम्हारे ही घर के शादीब्याह के कार्यक्रम में आए थे, तो तुम्हारे ही घर ठहरे थे.

‘अब तो पूरी गली बदल गई है. बिल्ंिडग ही बिल्ंिडग नजर आती हैं. पूरा शहर ही बदल गया है. मुझे तो अपनी गली ही पकड़ में नहीं आ रही थी. एक बुजुर्ग सज्जन से तेरे पिताजी का नाम ले कर पूछा तो वे बेचारे तेरे दरवाजे तक पहुंचा गए. यह भी बता गए कि यह घर तो एक अरसे से सूना पड़ा था, अब उन की लड़की आ कर रहने लगी है. अच्छा किया जो पति का साथ छूटने के बाद यहां आ गई. पिता के उजाड़ सूने घर में दिया जला दिया तूने तो. मगर यहां पुरानी यादें तो सताती होंगी.’

‘खूब. मगर तू बता रही थी कि तू पिछले कई महीने से यहां है. कहां ठहरी है?’

‘खैरागढ़ रोड पर. एक फ्लैट किराए पर लिया है. मेरा लड़का अब उसी तरफ मकान भी बनवा रहा है.’

‘मकान बनवा रहा है? इस शहर में, क्यों?’

‘बहू यहीं शिक्षाकर्मी हो गई है.’

‘और बेटा?’

‘बेटे का काम तो भागमभाग का है. बहू यहीं रहेगी. वह आताजाता रहेगा, यह सोच कर यहीं मकान बनवा रहा है.’

‘करता क्या है लड़का?’

‘कंप्यूटर से संबंधित कुछ काम करता है. मैं आजकल के कामधंधे ठीक से समझती नहीं. महीने में 25 दिन तो दौरे पर रहता है. कभी कोलकाता, कभी लखनऊ, कभी धनबाद. जाने कहांकहां. घर आता है तो इतना थका रहता है कि मुझ से तो दो बोल भी नहीं बतिया पाता. अब मकान बनाने में भिड़ गया है तो और दम मारने की फुरसत नहीं.’

फिर वह मेरे घर अकसर ही आने लगी. हम बातें करते रहते. बचपन की, कालेज के दिनों की, अपनीअपनी गृहस्थी की. उस के पति अवकाशप्राप्ति के बाद ही सिधार गए थे. बताने लगी, ‘कह गए थे कि उन के भविष्य निधि वगैरह का पैसा दोनों बेटियों में बांट दिया जाए. मगर लड़के ने उन पैसों से मकान के लिए प्लौट खरीद लिया. कह दिया, बहनों को बाद में कमा कर दे देगा सारा पैसा. युद्ध स्तर पर चल रहा है मकान का काम. सारा पैसा उसी में झोंक रहा है. मुझ से स्पष्ट कह दिया, घर का खर्च तो अभी तुम्हें ही चलाना है, मां. वह नहीं कहता तो भी तो मैं करती ही थी अपनी खुशी से. महीनेभर का राशन, शाकसब्जियां, बच्चों की फरमाइशें, अभी तो पूरी पैंशन इसी सब में जा रही है.’

‘और बहू का पैसा?’

‘बाप रे, मैं उन पैसों के बारे में मुंह से नहीं बोल सकती. जाने क्या सोच कर बेटे ने जमीन का प्लौट भी उसी के नाम लिया है. सोचा होगा कुछ.’

और मैं गृहप्रवेश पर उस के घर गई तो दंग रह गई. यह तो राजामहाराजाओं का शाही बंगला लगता है. आखिर इतना पैसा इस के पास आया कहां से.

मगर वह गदगद थी, बोली, ‘‘बच्चा मेरा जिंदगीभर छोटे से दड़बे में रहा है न. सो, अपने सपनों का महल बनाया है. मेरे लिए इस से बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है. आज मेरा बहुत मन हो रहा है कि तुझे तेरी पसंद की साड़ी पहनाऊं.’’

मैं ने फिर वही बात कही कि तेरा इतना ही मन है तो जो इतनी साडि़यां तोहफे में आई हैं, मैं उन्हीं में से एक पसंद कर लेती हूं.

‘‘वे सब तो बहू को तोहफे  में मिली हैं. घर बहू का है. मैं तुझे अपनी तरफ से देना चाहती हूं. अपने पैसों से.’’

अगली शाम वह मुझे जिद कर दुकान ले गई. उस का मन रखने के लिए मैं ने एक साड़ी पसंद कर ली. अब वह कहने लगी कि, ‘‘किसी को बताना मत.’’

उस की इस बात से मेरा मन खराब हो गया. इधर जब से वह वहां आई थी, उस की स्थिति देख कर मेरा मन खराब ही हो जाता था. उस का घर मेरे घर से काफी दूर था. उस तरफ रिकशा या कोई सवारी मिलती ही न थी. घर में 2 दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती. पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती. मेरे घर में बैठेबैठे घंटों हो जाते, न कोई उसे लेने आता, न खोजखबर लेता. बेटा घर में हो, तब भी नहीं. उलटे, मां को व्यंग्य करता, ‘तुम ही दौड़दौड़ कर सहेली के घर जाती हो. तुम्हारी सहेली तो कभी दर्शन ही नहीं देती.’

मुझे सच में उन के घर जाना सुखद न लगता. मेरे जाते ही पोतेपोती अपना वीडियो गेम छोड़ कर आ कर जम जाते दादी के कमरे में. कान लगाए सुनते रहते हमारी बातें. बच्चों की आंखों में कहीं बालसुलभ मासूमभाव नहीं. अजीब उपेक्षा और हिकारतभरा भाव होता. दादी के कंधे पर चढ़ रहे हैं… ‘दादी, चलो, हम को होमवर्क कराओ.’ दादी की हिम्मत नहीं कि झिड़क सकें, ‘जाओ, बाहर खेलो,’ उन के शातिरपने का किस्सा भी सुन चुकी हूं मैं.

कुछ दिनों पहले सहेली की छोटी बेटी की लड़की हुई थी. मैं घर आई तो बोली, ‘‘बच्ची की छठी में जाना है. छोटी सी सोने की चेन देने का मन है. किसी अच्छे ज्वैलर की दुकान से दिलवा दे.’’ मैं उसे अपने परिचित ज्वैलर की दुकान में ले गई. उस ने एक चेन पसंद की. मगर जैसा लौकेट वह चाहती थी, वैसा दुकान में था नहीं. दुकानदार ने कहा, ‘‘4 दिनों में वह वैसा लौकेट बनवा देगा.’’

4 दिनों बाद वह दुकान में गई, अकेले ही. लौकेट लिया. घर लौटी. बेटाबहू, बच्चे सामने अहाते में ही कुरसियां डाले बैठे थे. बेटा बोला, ‘कहां गई थी मां?’

उस ने मेरा नाम बता दिया.

10 वर्षीय पोता आंखें तरेर कर बोला, ‘‘इतना झूठ क्यों बोलती हो, दादी. तुम तो ज्वैलर की दुकान से लौकेट ले कर आ रही हो.’’

सहेली का चेहरा फक पड़ गया, ‘‘कैसे कह रहा है तू यह?’’

‘‘मैं गया था न तुम्हारे पीछेपीछे. जब तुम लौकेट पसंद कर रही थीं, मैं तुम्हारे ही तो पीछे बैठा था सोफे पर.’’

सारा किस्सा सुन कर मैं अवाक रह गई, ‘‘उस लड़के को यह कैसे पता चला कि तू ज्वैलर की दुकान जा रही है?’’

‘‘मैं मोबाइल पर ज्वैलर से पूछ रही थी, क्या लौकेट बन कर आ गया? लड़के ने सुन लिया होगा. उस ने मां को बताया होगा. और मां ने बेटे को मेरे पीछे लगा दिया होगा.’’

यह मोबाइल का किस्सा भी अजीब है. वह अपने जमाने की अच्छी पढ़ीलिखी अध्यापिका, मगर अब जैसे एकदम पिछड़ी हुई, मूर्खगंवार. मोबाइल में फोन करना तक नहीं आता था उसे. जब मैं उस से कहूं, ‘तू इतनी दूर से मेरे घर आती है पैदल, तो मुझे फोन कर दिया कर, ताकि मैं घर पर ही रहूं.’ तो बोली, ‘मुझे तो फोन करना ही नहीं आता. बड़ी बेटी अपना पुराना मोबाइल छोड़ गईर् है. जिस से मैं किसी का फोन आए तो बात कर लेती हूं, बस.’

फोन करना उसे किसी ने नहीं सिखाया, न बेटे ने, न बेटी ने. न उन नातीपोतों ने जिन की मोबाइल पर महारत देखदेख कर वह चमत्कृत होती रहती है.

मैं ने उसे फोन करना, रिचार्ज करना सब सिखा दिया. वह गदगद होने लगी, ‘‘तू ने मुझ पर बड़ी कृपा की. अब मैं खुद भी अपनी बेटियों से बात कर सकती हूं.’’

अब वह जब भी फोन करे, पोतापोती कहीं भी हों, आ कर डट जाते.

उस के पोतापोती के सामने तो बात करना भी मुश्किल. सो, मैं ऐसे समय उस के घर जाती, जब बच्चेबहू सब स्कूल में हों. शहर से दूर उस एकांत शाही बंगले में वह अकेली और उन का भयानक कुत्ता. फाटक पर मुझे देखते ही उन का भयानक कुत्ता भूंकना शुरू कर देता. वह पगली सी फाटक पर आती और मुझे अंक में भर कर भीतर ले जाती.

मैं कहती, शांति से बैठ कर गपशप कर, मगर वह पगलाई सी जल्दीजल्दी नाश्ता बनाने लगती, हलवा, पकौड़े, चीले, जो सूझता वही. फिर बारबार कहने लगती…खा न रे, गरमगरम. देख, मैं नाश्ता भूली तो नहीं हूं.

चायनाश्ता खत्म होते ही फौरन सारे बरतन मांजधो कर चिकन में पूर्ववत सजा कर अपार संतुष्टि से बैठ जाती. मेरा मन और खराब होने लगता. याद आ जाता. ठीक ऐसा ही वह तब भी करती थी जब अपनी सासुमां के साथ रहती थी. हम उस से मिलने गए और अगर सासुमां घर में न हों तो उस की चपलता देखते ही बनती थी. फटाफट नाश्ता तैयार कर लेती. जल्दीजल्दी खाने के लिए चिरौरी करने लगती. खाना खत्म होते ही बरतन मांजधो कर सजा कर रख देती.

तब सासुमां का आतंक था. अब बहू का. तब ननददेवर की जासूसी अब पोतेपोती की. आतंक से भीतर ही भीतर आक्रांत. मगर उन्हीं लोगों की सेवा में तत्पर, मगन.

अजब समानता दिखती मुझे 35 साल पहले देखी उस सास में और अब शानदार पोशाक में सजी, काला चश्मा लगाए खुले केश उड़ाती धड़ल्ले से बाइक दौड़ाती इस आधुनिक बहू में. सास का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता, यह हमेशा मिमियाती ही दिखती. अब बहू का चेहरा हमेशा चढ़ा ही दिखता है. यह मिमियाती ही दिखती है.

सबकुछ जानतेसमझते हुए भी इधर शायद मुझ से ही कुछ बेवकूफी हो गई. हुआ यह कि मेरे घर अचानक हमारी कुछ पुरानी सहेलियां आ गईं. मैं ने उसे फोन किया कि तू मिलने आ सकती है क्या. वह एकदम तड़प गई, ‘घर में कोई है नहीं. बहू और बच्चे स्कूल में, बेटा दौरे पर. घर सूना छोड़ कर कैसे आऊं?’

मैं सहेलियों को ले कर उस के घर ही पहुंच गई. हमें देखते ही वह मारे खुशी के बेहाल. खूब गले मिलना, रोनाधोना हुआ. सब को अपने कमरे में बैठा वह दौड़ी किचन की ओर. सहेलियां चिल्लाईं, ‘बैठ न रे. बोलबतिया. नाश्ता बनाने में समय बरबाद मत कर. कितनी मुश्किल से तो हम लोग आ पाए हैं. वह बैठ गई. ढाई बजतेबजते बच्चे आ गए. वह बच्चों को खाना देने के लिए किचन को दौड़ी. हम आपस में बतियाने लगे.

काफी देर हो गई. हार कर मैं किचन में गई. देखा, उस ने बच्चों के लिए ताजा भात बनाया था और अब रोटियां सेंक रही थी. नवाब बच्चे डब्बे में रखी सुबह की रोटी नहीं खा सकते थे. सहेलियों को देख कर और चिढ़ गए, ‘‘दादी, ये कैसी रोटियां दे रही हो. फूलीफूली दो.’’ मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘ताजी रोटियां हैं, चुपचाप खाओ.’’ उस ने फौरन मेरे मुंह पर हाथ रख दिया ओर बच्चों को पुचकारने लगी, ‘‘लो, आज दादी को माफ कर दो. कर दोगे न?’’

बच्चों को खिला कर जैसे ही उस ने चाय का पानी चूल्हे पर चढ़ाया, मैं ने मना कर दिया, ‘‘सहेलियां जल्दी मचा रही हैं, अब चाय बनाने में समय बरबाद मत कर.’’ मन मार कर वह सहेलियों के बीच आ कर बैठ गई. बातचीत में अब वह रस नहीं आ रहा था. मन ही मन सब को कुछ कचोट रहा था. सहेलियों को उस की स्थिति और उसे सहेलियों का ठीक से स्वागत न कर पाने की विवशता. तिस पर दोनों शातिर जासूस हमारे ही बीच आ कर खड़े हो गए, ‘‘दादी, मेरा रैकेट कहां है? मेरा कलरबौक्स कहां है?’’

तभी बहू भी आ गई. तीखी नजरों से सास के कमरे को देखती बाथरूम की ओर चली गई. वहां से लौटी तो उस के ट्यूशन वाले लड़के आ गए. ट्यूशन पढ़ाना यानी पैसे बनाना. सो, लड़कों को देखते ही वह सामने बैठक में ही पढ़ाने बैठ गई.

सहेली की स्थिति अतिथियों के बीच अत्यंत दयनीय. आती हूं, कह कर गई और शायद बहू से चिरौरी की कि मेरी कुछ सहेलियां आ गई हैं, कुछ चायनाश्ता बना दो. बहू तमतमाई हुई किचन की ओर जाती दिखी. काफी देर हो गई. मगर न चाय आई, न नाश्ता. वह इतनी देर से सहेलियों को चायनाश्ते के लिए रोके हुए थी.

हार कर वह किचन की ओर गई. उस के पीछे मैं भी. बहू ने एक भारीभरकम भगोने में कनस्तर का सारा बेसन उड़ेल कर घोल बना लिया था और तेवर में तनी धड़ाधड़ पकौड़े छाने जा रही थी. बड़ी सी परात में पकौड़ों का पहाड़ लगा हुआ था.

दुख और क्षोभ में भरी सहेली कुछ पल खामोश खड़ी देखती रही. आंखों में पानी उतर आया. आंखें पोंछ कर प्लेटों में पकौड़े डाले. चटनी निकाली. ले जा कर सहेलियों को परोसा और हाथ जोड़ कर आग्रह किया, ‘‘यही स्वागत कर पा रही हूं तुम लोगों का.’’ फिर किचन में जा कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘कृपा कर के अब बनाना बंद करो. माफी चाहती हूं मैं ने तुम्हें डिस्टर्ब किया.’’

सहेलियां तो दुखी मन से उस की चर्चा करते शाम की ट्रेन से चली गईं अपनेअपने शहर, पर मैं परेशान ही रही. अगली शाम को वह खुद आ गई मेरे घर. वैसे ही जर्जर शरीर ढोते, हांफतेहांफते. बोली, ‘बच्चे स्कूल से आ गए, बहू भी. तब आ पाई हूं. चाय पिला.’

मैं ने जल्दी से चाय बनाई. नाश्ता बनाने के लिए चूल्हे पर कढ़ाई चढ़ाई कि वह बोली, ‘‘बनाना छोड़, घर में कुछ हो तो वही दे दे.’’

मुझे संकोच हो आया, ‘‘सवेरे मेथी के परांठे बनाए थे. जल्दी काम निबटाने के चक्कर में आखिरी लोइयों को मसल कर 2 मोटेमोटे परांठे बना लिए थे. वही हैं. तू दो मिनट रुक न. मैं बढि़या सा कुछ बनाती हूं.’’

एकदम अधीर सी वह कहने लगी, ‘‘मुझे मेथी के मोटे परांठे ही अच्छे लगते हैं. तू दे तो सही.’’

उस की बेताबी देख मैं ने वही मोटेमोटे परांठे परोस दिए. चटनी थी. वह धड़ल्ले से खाने लगी. खा कर चाय पीने लगी तो मैं ने पूछा, ‘‘तू भूखी थी क्या?’’

उस की आंख में पानी उतर आया, बोली, ‘‘हां.’’

‘‘हो क्या गया?’’

उस का गला भर आया. कुछ रुक कर बोली, ‘‘कांड ही हो गया था. मेरे हाथ जोड़ कर माफी मांगने के बाद बहू अपने कमरे में जा कर मुंह लपेट कर औधेमुंह पलंग पर पड़ गई. मैं ने जा कर चौका समेटा. बचे हुए ढेर सारे घोल में से कुछ फ्रिज में रखा. बाकी कामवाली को दे दिया. पकौड़ों में से भी कुछ रखा, बाकी कामवाली को दिया. रात का खाना बना कर बच्चों को खिलाया.

‘‘उसे खाने के लिए बुलाया तो भड़क गई, ‘मुझे चैन से जीने देना है कि नहीं. नम्रता का आवरण ओढ़े मुझे टौर्चर करती रहती है धूर्त बुढि़या.’ मैं भी पगला गई, ‘तुम चाहती हो कि मैं मर जाऊं. मौत आएगी तभी न मरूंगी.’

‘‘अपनी दयनीय विवशता पर मैं रोती जाऊं और लड़ती जाऊं. वह भी रोती जाए और लड़ती जाए. उस का मुख्य आरोप था कि मैं पाखंडी हूं. अपने को श्रेष्ठ समझती हूं और उसे हमेशा नीचा दिखाने के चक्कर में रहती हूं. दुख से मेरा कलेजा फटा जा रहा था. मैं भी अपने कमरे में जा कर बिस्तर में रोती पड़ी रही. रातभर नींद नहीं आई. मुझ से कहां गलती होती है, यही समझ में नहीं आया.

‘‘आधी रात के करीब बेटा आया. सीधे अपने कमरे में गया. मैं सहमीसटकी आहट लेती रही, क्या खाना परोसने जाऊं. मगर कुछ देर बाद बेटा खुद कमरे में आ गया, बोला, ‘मां, तुम लोग मुझे जीने दोगी कि नहीं. मैं तुम से कितनी बार कह चुका हूं कि उस में सहनशक्ति नहीं है. उसे डिस्टर्ब मत किया करो. वह भूखीप्यासी स्कूल से आई कि लड़के चले आए. किसी तरह लड़कों को पढ़ा रही थी कि तुम ने अपनी सहेलियों के लिए नाश्ता बनाने का फरमान सुना दिया. मां, आखिर तुम चाहती क्या हो? तुम हम को छोड़ कर तो रह नहीं सकतीं, तुम खुद जानती हो. तुम समय से पिछड़ चुकी हो. तुम्हें तो एटीएम से पैसा निकालना तक नहीं आता.’

‘‘तुझे एटीएम से पैसा निकालना नहीं आता सुमेधा?’’ मैं हैरान हो गई.

‘‘मैं कभी गई ही नहीं. तेरे जीजाजी के बाद से बैंक वगैरह के सारे कागजात बेटे के पास ही रहते हैं. मुझ से सिर्फ दस्तखत लेता रहा है. एटीएम से पैसा निकाल कर वही देता रहा है. वह न हो, तो बहू ला देती है.’’

‘‘तुझे पता है वे कितना निकालते हैं, तुझे कितनी पैंशन मिलती है?’’

‘‘वे मेरे हाथ में वही रकम थमा देते हैं, जो मुझे शुरू में मिलती थी.’’

मैं सिर पकड़ कर बैठ गई, बोली, ‘‘वह सब मैं तुझे सिखा दूं. मगर यह बता, क्या तू इन को छोड़ कर कहीं अलग सच में नहीं रह सकती?’’

‘‘फायदा क्या है. यहां मैं बेटे की सूरत तो देख सकती हूं. पोतेपोती से बोलबतिया तो लेती हूं. मैं जानती हूं, ये लोग मुझे मूर्ख, गंवार और अवांछित प्राणी समझ कर अपमानित करते रहते हैं. कुत्ता भी इन का अपना है, दुलारा है. मगर मैं नहीं. मैं क्या करूं. मुझ में इन के लिए ही प्रेम उमड़ता है. फिर बीचबीच में बेटियां आ जाती हैं. दामाद और बच्चे भी. मेरी छाती भर आती है. बेहद सुख लगता है. कभी देवरजेठभतीजेभतीजी वगैरह भी आ जाते हैं.

‘‘बहू अपने मायके वालों के अतिरिक्त किसी का आना पसंद नहीं करती. कई बार अपने कमरे से बाहर भी नहीं निकलती. मगर ये लोग बहुत समझदार हैं. उस के कमरे में जा कर खुद बोलबतिया लेते हैं. बेटियां तो अकसर भाभी के लिए तोहफे ले कर आती हैं. भरेपूरे मायके में आने से उन का भी तो ससुराल में मान बढ़ता है. इन्हीं सब से इस परिवार की प्रतिष्ठा बनी हुई है.

‘‘बहू को तो परिवार की प्रतिष्ठा की समझ नहीं है. शायद आजकल की अधिकतर युवतियों को ही नहीं है. अपना पति, अपने बच्चे, अपनी शानशौकत से भरी जिंदगी, अपना अधिकार, अपनी सत्ता. इन सब के लिए चाहिए पैसा. बटोर सको तो बटोरो. इसी में चौंधियाई हुई हैं. प्रतिष्ठा की फिक्र तो हम जैसों को होती है. सच तो यह है, मुझे जितना प्रेम अपने बेटेबेटी, नातीपोते से है, उतना ही परिवार की प्रतिष्ठा से है. बल्कि कुछ ज्यादा ही. अपने जीतेजी तो मैं इस प्रतिष्ठा को बचाए ही रखूंगी.’’

उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

परिवार की प्रतिष्ठा. अच्छे से जानती हूं कि यह तो उस की घुट्टी में रही है. याद आया, कालेज के दूसरे साल में थी कि वह पड़ोस के एक लड़के से प्रेम कर बैठी थी. लड़का एमए का छात्र था. यह कुछकुछ पूछने उस के पास जाती थी. भीतर ही भीतर प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था. मगर बातें हो पातीं सिर्फ पढ़ाई की. मुझ से कहने लगी, ‘तू उस से पूछ न, क्या वह मुझे चाहता है.’

लड़का पहले ही मुझे अपने जज्बात बता चुका था, मैं बोली, ‘अगर वह ‘हां’ में जवाब दे तो क्या तू उस से शादी कर सकेगी?’ वह एकदम खामोश हो गई. फिर बोली, ‘मैं ऐसा नहीं कर सकती. वह दूसरी बिरादरी का है. बाबूजी को बहुत दुख होगा. समाज में हमारे परिवार की बदनामी होगी.’ उस की आंखें छलछलाने लगी थीं, आगे बोली, ‘मैं इस दारुण दुख को चुपचाप पी लूंगी, मगर परिवार की प्रतिष्ठा कलंकित नहीं कर सकती.’

और आज…?

आज भी उस की आंखों में पानी छलछला आया था, ‘‘जाने मेरी मौत के बाद इस परिवार की प्रतिष्ठा का क्या होगा?’’

भीगे नेत्रों से देखती रह गई मैं. परिवार की प्रतिष्ठा का भारी बोझ उठाए उस जर्जर अंतिम स्तंभ को. घर में दुपहिया वाहन और एक नईनवेली कार थी. मगर वह मेरे घर पैदल ही आती, पोते, पोती और बहू के स्कूल से लौटने के बाद. उस की ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. बुढ़ापे पर पहुंचा जर्जर शरीर. मेरे घर पहुंचते ही पस्त पड़ जाती.

यह भी खूब रही. मेरे बेटे का मित्र आशीष, दिल्ली के इंदिरागांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर यूरोप के एक देश की एयरलाइंस कार्यालय में नौकरी करता है. यह एयरलाइंस अपने कर्मचारियों को अपने देश में घूमने के लिए डिस्काउंट टिकट और होटल में ठहरने की सुविधा भी देती है.

इसी सुविधा के अंतर्गत जब वह पहली बार यूरोप में उन के देश घूमने गया तो होटल के कमरे में अपना समान रख कर बालकनी की तरफ लगे शीशे के दरवाजे के हैंडल को नीचे की ओर शीघ्रता से घुमा कर खोलने लगा तो ऊपर की ओर से पूरा का पूरा दरवाजा दोनों ओर से खुल गया और उस के ऊपर गिरने लगा. उस ने दरवाजे को कई बार टिकाना चाहा लेकिन जैसे ही वह उसे छोड़ने का प्रयास करता वह तेजी से उस के ऊपर गिरने लगता.

अपने दोनों हाथों से उस ने दरवाजों को संभाल रखा था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे, तभी किसी ने मुख्य दरवाजे की घंटी बजाई. आशीष ने जोर से चिल्लाते हुए उसे अंदर आने को कहा. जैसे ही दरवाजा खुला तो होटल का वह कर्मचारी भीतर का दृश्य देख कर चौंक गया. वह कर्मचारी उस के पास आया और उस ने आशीष का हाथ पकड़ कर उसे वहां से हटाया और उसे दरवाजे की तकनीक समझाई.

नया व्यक्ति, जो इस तकनीक को नहीं जानता है, वह आम दरवाजे जैसे ही हैंडल नीचे की ओर कर, दरवाजे को खोलने की कोशिश करता है, तो उसे पूरा का पूरा दरवाजा खुल कर नीचे गिरने जैसा लगता है. आज भी यूरोप घूमने जाने पर ऐसे दरवाजेखिड़कियां खोलते ही यह वाकेआ ताजा हो जाता है और सब आशीष का नाम ले कर खूब ठहाके लगाते हैं.

मेरे एक बहुत ही घनिष्ठ मित्र हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं. उन का क्लिनिक घर के पास ही है. उन की नईनई शादी हुई थी. कुछ दिनों बाद उन की पत्नी की मौसी उन के यहां आईं. जब भी वे मरीजों के प्लास्टर चढ़ाते तो घर पास में होने के कारण घर आ जाते और स्नान वगैरह करते. जब वे घर आते तो उन के कपड़े चूने से सने होते थे. उन्हें ऐसी हालत में मौसी रोज देखतीं.

लौट कर मौसी अपनी बहन के घर जा कर बोलीं, ‘‘तुम तो कहती हो कि लड़का डाक्टर है, पर मुझे तो लगता है वह सफेदी करने वाला है. घर में जब भी आता है, सारे कपड़े चूने से सने रहते हैं.’’

आज भी डाक्टर साहब इस बात को याद कर के हंस पड़ते हैं.

Top 10 Best Family Story In Hindi : पढ़ें रिश्तों से जुड़ी दिल को छूने वाली बैस्ट स्टोरीज

Top 10 Best Family Story In Hindi : परिवार हमारी लाइफ का सबसे जरूरी हिस्सा है, जो हर सुखदुख में आपका सपोर्ट सिस्टम बनकर साथ खड़ा रहता है. इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आए हैं, रिश्तों से जुड़ी दिलचस्प कहानियां, जो आपके दिल को छू लेगी.  इन Family Story से आपको कई तरह की सीख मिलेगी. जो आपके रिश्ते को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आप भी हैं कहानियां पढ़ने के शौकीन, तो गृहशोभा की Top 10 Best Family Story In Hindi जरूर पढ़ें…

 

1. सातवें आसमान की जमीन

ड्राइंगरूम में हो रहे शोर से परेशान हो कर किचन में काम कर रही बड़ी दी वहीं से चिल्लाईं, ‘‘अरे तुम लोगों को यह क्या हो गया है. थोड़ी देर शांति से नहीं रह सकते? और यह नंदा, यह तो पागल हो गई है.’’

‘‘अरे दीदी मौका ही ऐसा है. इस मौके पर हम भला कैसे शांत रह सकते हैं. सुप्रिया दीदी टीवी पर आने वाली हैं, वह भी अपने मनपसंद हीरो के साथ, मात्र उन्हीं की पसंद के क्यों. अरे सभी के मनपसंद हीरो के साथ. अब भी आप शांत रहने के लिए कहेंगी.’’ नंदा ने कहा.

सब के सब नंदा को ताकने लगे. किसी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सुप्रिया को ऐसा क्या मिल गया और कौन सा हीरो इस के लिए निमंत्रण कार्ड ले कर आया है, यह सब पता लगाना घर वालों के लिए आसान नहीं था. और नंदा तो इस तरह उत्साह में थी कि घर वालों को कुछ बताने के बजाए इस अजीबोगरीब खबर को फोन से दोस्तों को बताने में लगी थी.

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2. श्यामा आंटी: सुगंधा की चापलूसी क्यों काम नहीं आई?

फोनकी घंटी बजी. विदिशा ने फोन उठाया था. उधर वाचमैन था, ‘‘मैडम, आप को कामवाली की जरूरत है क्या? एक लेडी आई है. कह रही है कि आप ने उसे बुलाया है.’’

‘‘भेज दो.’’

विदिशा की कामवाली गांव गई हुई थी.

1 महीने से वे खाना बनाबना कर परेशान थीं. इसलिए वे अकसर सब से कहती रहती थीं कि कोई कामवाली बताओ. वे सोच रही थीं कि जो भी होगी, उसे वह रख लेंगी, बाद में देखा जाएगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी, ‘‘दीदी, जय बंसी वाले की…’’

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3. रोशन गलियों का अंधेरा: नानी किस सोच में खो गई

“अरी ओ चंचल… सुन क्यों नहीं रही हो? कब से गला फाड़े जा रही हूं मैं और तुम हो कि चुप बैठी हो. आ कर खा लो न…” 60 साल की रमा अपनी 10 साल की नातिन चंचल को कब से खाने के लिए आवाज लगा रही थीं, लेकिन चंचल है कि जिद ठान कर बैठ गई है, नहीं खाना है तो बस नहीं खाना है.
“ऐ बिटिया, अब इस बुढ़ापे में मुझे क्यों सता रही हो? चल न… खा लें हम दोनों,” दरवाजे पर आम के पेड़ के नीचे मुंह फुला कर बैठी चंचल के पास आ कर नानी ने खुशामद की.
“नहीं, मुझे भूख नहीं है. तुम खा लो नानी,” कह कर चंचल ने मुंह फेर लिया.
“ऐसा भी हुआ है कभी? तुम भूखी रहो और मैं खा लूं?” कहते हुए नानी ने उसे पुचकारा.
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4.पश्चात्ताप की आग: निशा को कौनसा था पछतावा

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बरसों पहले वह अपने दोनों बेटों रौनक और रौशन व पति नरेश को ले कर भारत से अमेरिका चली गई थी. नरेश पास ही बैठे धीरेधीरे निशा के हाथों को सहला रहे थे. सीट से सिर टिका कर निशा ने आंखें बंद कर लीं. जेहन में बादलों की तरह यह सवाल उमड़घुमड़ रहा था कि आखिर क्यों पलट कर वह वापस भारत जा रही थी. जिस ममत्व, प्यार, अपनेपन को वह महज दिखावा व ढकोसला मानती थी, उन्हीं मानवीय भावनाओं की कद्र अब उसे क्यों महसूस हुई? वह भी तब, जब वह अमेरिका के एक प्रतिष्ठित फर्म में जनसंपर्क अधिकारी के पद पर थी. साल के लाखों डालर, आलीशान बंगला, चमचमाती कार, स्वतंत्र जिंदगी, यानी जो कुछ वह चाहती थी वह सबकुछ तो उसे मिला हुआ था, फिर यह विरक्ति क्यों? जिस के लिए निशा ससुराल को छोड़ कर आत्मविश्वास और उत्साह से भर कर सात समंदर पार गई थी, वही निशा लुटेपिटे कदमों से मन के किसी कोने में पछतावे का भाव लिए अपने देश लौट रही थी.

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5. ईगल के पंख : आखिर वह बच्ची अपनी मां से क्यों नफरत करती थी?

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नवंबर का महीना. हलकी ठंड और ऊपर से झामाझम बारिश. नवंबर के महीने में उस ने अपनी याद में कभी ऐसी बारिश नहीं देखी थी. खिड़की से बाहर दूर अक्षरधाम मंदिर रोशनी में नहाया हुआ शांत खड़ा था. रात के 11 बजने वाले थे और यह शायद आखिरी मैट्रो अक्षरधाम स्टेशन से अभीअभी गुजरी थी.

‘‘अंकल… अंकल… प्लीज आज आप यहीं रुक जाओ मेरे पास,’’ रूही की आवाज सुन कर उस का ध्यान भंग हुआ.

बर्थडे पार्टी खत्म हो चुकी थी. पड़ोस के बच्चे सब खापी कर, मस्ती कर अपनेअपने घर चले गए थे. अब कमरे में केवल वे 3 ही लोग थे. समीरा, 6 साल की बेटी रूही और प्रशांत.

‘‘मम्मा? आप अंकल को रुकने के लिए बोलो,’’ रूही ने प्रशांत का लाया गिफ्ट पैकेट खोलते हुए कहा.

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6.तीसरी कौन: क्या था दिशा का फैसला

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पलंग के सामने वाली खिड़की से बारिश में भीगी ठंडी हवाओं ने दिशा को पैर चादर में करने को मजबूर कर दिया. वह पत्रिका में एक कहानी पढ़ रही थी. इस सुहावने मौसम में बिस्तर में दुबक कर कहानी का आनंद उठाना चाह रही थी, पर खिड़की से आती ठंडी हवा के कारण चादर से मुंह ढक कर लेट गई. मन ही मन कहानी के रस में डूबनेउतराने लगी…

तभी कमरे में किसी की आहट ने उस का ध्यान भंग कर दिया. चूडि़यों की खनक से वह समझ गई कि ये अपरा दीदी हैं. वह मन ही मन मुसकराई कि वे मुझे गोलू समझेंगी. उसी के बिस्तर पर जो लेटी हूं. मगर अपरा अपने कमरे की साफसफाई में व्यस्त हो गईं. यह एक बड़ा हौल था, जिस के एक हिस्से में अपरा ने अपना बैड व दूसरे सिरे पर गोलू का बैड लगा रखा है. बीच में सोफे डाल कर टीवी देखने की व्यवस्था कर रखी है.

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7.  एक ही छत के नीचे : बहन की शादीशुदा जिंदगी बचाने के लिए क्या फैसला लिया उसने?

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परसों ही मेरी बड़ी बहन 10 दिन रहने को कह कर आई थीं और अभी कुछ ही देर पहले चली गई हैं. मुझ से नाराज हो कर अपना सामान बांधा और चल दीं. गुस्से में अपना सामान भी ठीक तरह से नहीं संभाल पाईं. इधरउधर पड़ी रह गई चीजें इस बात का प्रमाण हैं कि वे इस घर से जल्दी से जल्दी जाना चाहती थीं. कितनी दुखी हूं मैं उन के इस तरह अचानक चले जाने से. उन्हें समझा कर हार गई लेकिन दीदी ने कभी किसी को सोचनेसमझाने का प्रयत्न ही कहां किया है? उन का स्वभाव मैं अच्छी तरह जानती हूं. बचपन से ही झगड़ालू किस्म की रही हैं. क्या घर में, क्या स्कूलकालेज में, क्या पासपड़ोस में, मजाल है उन्हें जरा भी कोई कुछ कह जाए. हर बात का जवाब दे देना उन की आदत है.

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8. देर आए दुरुस्त आए

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‘‘अरे-रे, यह क्या हो गया मेरी बच्ची को. सुनिए, जल्दी यहां आइए.’’

बुरी तरह घबराई अनीता जोर से चिल्ला रही थी. उस की चीखें सुन कर कमरे में लेटा पलाश घबरा कर अपनी बेटी के कमरे की ओर भाग जहां से अनीता की आवाजें आ रही थीं.

कमरे का दृश्य देखते ही उस के होश उड़ गए. ईशा कमरे के फर्श पर बेहोश पड़ी थी और अनीता उस पर झुकी उसे हिलाहिला कर होश में लाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘क्या हुआ, यह बेहोश कैसे हो गई?’’

‘‘पता नहीं, सुबह कई बार बुलाने पर भी जब ईशा बाहर नहीं आई तो मैं ने यहां आ कर देखा, यह फर्श पर पड़ी हुई थी. मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा. मैं ने इस के मुंह पर पानी भी छिड़का लेकिन इसे तो होश ही नहीं आ रहा.’’

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9. जब मैं छोटा था: क्या कहना चाहता था केशव

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अंगद मूर्खों की तरह मांबाप को देख रहा था. उस के मन में विद्रोह की आग सुलग रही थी. बड़ी बहन मानिनी जब भी कुछ मांगती थी तो उसे तुरंत मिल जाता था. एक वही है इस घर में दलित वर्ग का शोषित प्राणी. केशव ने घूर कर अपने बेटे अंगद को देखा. वह सहम गया और सोचने लगा कि उस ने ऐसा क्या कह दिया जो उस के पिता को खल गया. अगर उसे कुछ चाहिए तो वह अपने पिता से नहीं मांगेगा तो और किस से मांगेगा. रानी बेटे की बात समझती है पर वह केवल उस की सिफारिश ही तो कर सकती है. निर्णय तो इस परिवार में केशव ही लेता है.

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10. एहसान: क्या हुआ था रुक्मिणी और गोविंद के बीच

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अंधेरा हो चला था. रुक्मिणी ने सब से पहले तो बैलगाड़ी जोती और अनाज के 2 बोरे गाड़ी में रख अपने गांव की तरफ चल दी. अंधेरे को देखते हुए रुक्मिणी ने लालटेन जला कर लटका ली थी. इस बार फसल थोड़ी अच्छी हो गई थी, इसलिए वह खुश थी. खेत से निकल कर रुक्मिणी की गाड़ी रास्ते पर आ गई थी. अभी वह थोड़ा ही आगे बढ़ी थी कि उसे पेड़ से टकराई हुई मोटरसाइकिल दिखी. उस को चलाने वाला वहीं खून से लथपथ पड़ा था. रुक्मिणी ने गाड़ी रोकी और लालटेन निकाल कर उस के चेहरे के पास ले गई. उस आदमी की नब्ज टटोली, जो अभी चल रही थी. इस के बाद उस का चेहरा देख कर एक पल के लिए तो रुक्मिणी का भी सिर घूम गया. वह सरपंच का बेटा मंगल सिंह था.

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