प्रैगनैंसी टालें पर एक सीमा तक

आज कई महिलाएं अपना कैरियर बनाने और अपनी फिगर मैंटेन रखने के चलते प्रैगनैंसी को टालती रहती हैं. और जब प्रैगनैंट होना चाहती हैं, तो कई तरह की परेशानियां उन के प्रैगनैंट होने में बाधक बन जाती हैं.

‘‘अनुज, आखिर क्यों यह निर्णय हम ने पहले नहीं लिया? कैरियर और पैसा कमाने के चक्कर में आज मैं मां बनने के लिए तरस रही हूं,’’ एक वर्किंग वूमन ने अपने पति से कहा.

‘‘नेहा, तुम चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा,’’ पति ने उसे सांत्वना दी.

‘‘लेकिन कैसे अनुज? कितने ही डाक्टरों को दिखाया पर सब का वही जवाब कि आप चिंता मत कीजिए. पर हमारी शादी को 6 वर्ष बीत गए. काश, यह फैसला हम ने पहले लिया होता,’’ अब नेहा को अपने फैसले पर अफसोस था.

यदि उम्र ज्यादा हो जाए तो कंसीविंग में काफी अड़चनें आ जाती हैं. इस के पीछे स्त्री रोग विशेषज्ञा डा. नूपुर पगौड़े ने कुछ कारण बताए:

प्रैगनैंसी टालने के कारण

– आजकल इस समस्या में ज्यादा बढ़ोतरी देखी जा रही है. इस का कारण है, देर से शादी याशादी के बाद ऐंजौयमैंट को प्राथमिकता देते हुए बच्चा पैदा न करना.

– कैरियर बनाने, सही मुकाम पाने, सफलता पाने के चक्कर में जल्दी बच्चा पैदा न करने की जिद.

– अच्छा घर, लग्जरी कार, घर में हर आरामदायक वस्तु का होना. सुविधा की वस्तुएं होंगी तभी तो लाइफस्टाइल अच्छा होगा, स्टेटस बनेगा. इस होड़ में बच्चे से पहले इन वस्तुओं को प्राथमिकता दी जाती है.

– फिगर खराब न हो जाए, इस के चलते भी प्रैगनैंसी को टाला जाता है.

– औफिस में क्या इंप्रेशन पड़ेगा, यदि इतनी जल्दी बच्चा हो जाएगा. यह सोच कर भी जल्दी बच्चे का होना टाला जाता है.

– कई लड़कियां अपने औफिस में अपनी शादी छिपाती हैं, इसलिए भी जल्दी बच्चा पैदा करने से कतराती हैं.

– इस के अलावा कुछ शारीरिक परेशानियों के चलते भी प्रैगनैंसी टाली जाती है. जैसे किसी को टीबी है या कोई अन्य बीमारी है तो डाक्टर ही जल्दी बच्चे पैदा न करने की सलाह देते हैं.

– अंडाणु का न बन पाना, फैलोपियन ट्यूब खराब होना और शुक्राणु के विकार के कारण भी प्रैगनैंसी में बाधा आती है.

– कुपोषण, तनाव, प्रदूषण, मोटापा जैसी समस्याएं भी कुछ हद तक प्रैगनैंसी में बाधा उत्पन्न करती हैं.

गर्भधारण की सही उम्र

इन्हीं कारणों की वजह से महिलाएं गर्भधारण करने से या तो बचती हैं या मजबूरी में नहीं कर पातीं, जिस की वजह से एक उम्र के बाद गर्भधारण में बहुत सी मुश्किलें आने लगती हैं.

सामान्य रूप से गर्भधारण की सही उम्र अमूमन 30-32 से पहले ही मानी जाती है. लेकिन कैरियर बनाने या अन्य कारणों के चलते 30-32 साल की उम्र तो यों ही बीत जाती है और जब महिलाएं प्रैगनैंट होना चाहती हैं तो काफी दिक्कतें आती हैं.

आज की युवा पीढ़ी बंधन नहीं चाहती. नए दंपती अपनीअपनी जिंदगी जीने में विश्वास रखते हैं. ऐसे में बच्चा एक आफत लगता है. और जब मां बनने की सुध आती है, तब तक या तो देर हो चुकी होती है या किसी अन्य कारण से गर्भधारण में परेशानी आती है.

इस तरह सभी को या तो बच्चा होने से पहले या बच्चा होने के बाद किसी न किसी तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है. लेकिन यदि देखा जाए तो दोनों ही हालात में पतिपत्नी को ज्यादा समझदारी दिखाने की जरूरत होती है.

खाने में शामिल करें ग्रीन डाइट

आज की व्यस्त जिंदगी में खुद को फिट रखना बेहद जरूरी है. लेकिन क्या सचमुच हम फिट रहने के लिए कोई उपाय करते हैं? शायद नहीं. भारत में महिलाओं की सेहत की बात की जाए तो आंकड़े बताते हैं कि बेहद कम महिलाएं सचमुच हैल्थ या फिटनैस जैसे मुद्दों को ले कर संजीदा हैं. अगर भारत में महिलाओं के मोटापे के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो इस वक्त लगभग 16% महिलाएं मोटापे से पीडि़त हैं.

भारतीय परिवेश में महिलाएं, चाहे गृहिणी हों या कामकाजी खाने पर बहुत कम ध्यान देती हैं. इस का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि वे खाने की अनदेखी करती हैं, बल्कि वे खाने के गुणों को अनदेखा करती हैं. दिन भर में जो मिला, जैसा मिला वे खा लेती हैं. इस से होता यह है कि मोटापा और शरीर से जुड़ी दूसरी समस्याएं उन्हें घेरे रहती हैं.

भारत में लगभग 50% महिलाएं जरूरी पोषक तत्त्वों की कमी से दोचार हो रही हैं, जिस की एकमात्र वजह है रोजाना के खाने में संतुलित आहार का न होना.

फिर होता यह है कि मोटापे और दूसरी बीमारियों से निबटने के लिए महिलाएं डाइटिंग करने लगती हैं. आज फिटनैस सैंटर या हैल्थ क्लब खूब चांदी काट रहे हैं. लेकिन यहां एक सवाल, जो सब से अहम है कि क्या डाइटिंग या कम खाना फिटनैस के लिए काफी है? असल मुद्दा यह नहीं है कि आप कितना खा रहे हैं, बल्कि यह है कि आप क्या खा रहे हैं.

आज हर जगह शाकाहार या ग्रीनडाइट पर जोर दिया जा रहा है. देशीविदेशी सैलिब्रिटीज भी अब मांसाहार छोड़ कर शाकाहार अपनाने लगे हैं. डाक्टर भी मानते हैं कि हरी सब्जियों को अलगअलग रूपों में इस्तेमाल में लाया जाता है. इस में सलाद से ले कर फूड आइटम्स तक में कई तरह से इन्हें खाया जाता है. वहीं भारत में खाने में अनाज का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है.

लेकिन रिसर्च बताती है कि पत्तेदार और हरी सब्जियों की डाइट महिलाओं के लिए काफी असरदार साबित होती है. जानीमानी न्यूट्रिशनिस्ट डा. शिखा शर्मा कहती हैं कि अगर महिलाएं सचमुच फिट रहना चाहती हैं तो हरी सब्जियों पर ज्यादा ध्यान दें. उन के पास जो महिलाएं आती हैं वे केवल बाहरी खूबसूरती पर ही ध्यान देती हैं. कोई भी अंदरूनी तौर पर फिट होने या हैल्दी लिविंग की बात नहीं करती. महिलाएं रोजाना के खाने में कमी लाने को या कहें कि डाइटिंग को ही हैल्दी होने का जरिया मान लेती हैं. जबकि यह धारणा बिलकुल गलत है. सिर्फ पतला दिखना ही फिटनैस की श्रेणी में नहीं आता, बल्कि इंटरनल फिटनैस भी बेहद जरूरी है.

सलाद का सेवन जरूरी

अगर ग्रीनडाइटिंग की बात करें तो यह डाइटिंग से ज्यादा असरदार और अच्छा औप्शन है. इस में आप के पास काफी ऐसे फूड आइटम्स हैं, जिन्हें इस्तेमाल कर के आप रोजाना के खाने को हैल्दी और मजेदार बना सकती हैं. सब्जियों में पत्तागोभी, ब्रोकली, गाजर, टमाटर, स्टीम्ड हरे मटर, पालक आदि का इस्तेमाल किया जा सकता है. अगर सुबह से शुरू करें तो आप नाश्ते के वक्त सब्जियों का जूस ले सकती हैं. इन में टमाटर, चुकंदर, गाजर, अदरक का जूस खासतौर पर लिया जा सकता है. इस में नमक, कालानमक या अजवाइन को भी स्वाद बढ़ाने के लिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है.

दोपहर के वक्त सूप के तौर पर या सलाद की तरह सब्जियों को खाया जा सकता है. अगर सूप ले रही हैं तो कौर्न, पालक, टमाटर या मिक्स वैजिटेबल सूप काफी पौष्टिक और स्वादिष्ठ होते हैं. ये धीरेधीरे वजन कम करने में भी मदद करते हैं.

अगर सलाद की तरह हरी सब्जियों को इस्तेमाल में लाना चाहती हैं, तो कई तरह की सब्जियों को मिला कर सलाद बना सकती हैं. इन में ब्रोकली, पालक, टमाटर, प्याज, हरा प्याज, बंदगोभी, धनिया, शिमलामिर्च जैसी सब्जियों का इस्तेमाल किया जा सकता है. सलाद में औलिव औयल, क्रीम, सिरका या मस्टर्ड सौस का इस्तेमाल स्वाद बढ़ाने के लिए किया जा सकता है.

अकसर सुनने को मिलता है कि सब्जियों को कच्चा खाना चाहिए. उन्हें उबालने से उन के पौष्टिक तत्त्व खत्म हो जाते हैं. अगर सब्जियों को कच्चा ही खाना चाहती हैं, तो उन्हें पानी से अच्छी तरह साफ जरूर कर लें ताकि वे बैक्टीरिया मुक्त हो जाएं. हरी सब्जियों की डाइट न सिर्फ आप को फिट रखने में मदद करेगी, बल्कि इन के इस्तेमाल से कई बीमारियों से भी लड़ा जा सकता है.

डा. शिखा बताती हैं कि फाइबर शरीर के लिए बहुत जरूरी है. हर रोज 10 से 15 ग्राम फाइबर की मात्रा शरीर को जरूर मिलनी चाहिए. हरी सब्जियों में फाइबर भरपूर मात्रा में होता है. इस की सही खुराक कैंसर से भी बचाव कर सकती है. इस सब के अलावा हरी सब्जियों में कई तरह के विटामिन भी मौजूद होते हैं. यह भी साबित हुआ है कि हरी सब्जियों से फौलिक ऐसिड मिलता है, जो डिप्रैशन जैसे खतरों से नजात दिलाता है.

हरी सब्जियों से हैल्दी लाइफ

जानेमाने हार्ट स्पैशलिस्ट, डा. के.के. अग्रवाल बताते हैं कि सभी तरह की हरी और रेशेदार सब्जियां रोजाना इस्तेमाल में लाने से शरीर में ताजगी बनी रहती है. साथ ही यह डाइटिंग का अच्छा विकल्प है. महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए यह बहुत जरूरी है. ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा जुटाए आंकड़े भी कहते हैं कि रोजाना हरी सब्जियों को खाने में इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के चेहरे में गुलाबीपन और चमक में इजाफा होता है. यही नहीं इस से वे ज्यादा आकर्षक भी दिखती हैं.

साथ ही हरी सब्जियां ऐंटीऔक्सीडैंट का एक अच्छा स्रोत भी हैं. ऐंटीऔक्सीडैंट हमारे शरीर को रोगों से लड़ने की ताकत देते हैं. ग्रीनडाइट की खासीयत होती है कि इस से न तो वसा यानी फैट बढ़ता है और न ही कोलैस्ट्रौल. इन दोनों के कंट्रोल में रहने से मोटापा कोसों दूर रहता है और दिल की बीमारी भी नहीं होती.

इस सब के अलावा हरी सब्जियों के रोजाना इस्तेमाल से महिलाओं में कैल्सियम की कमी को भी दूर किया जा सकता है. हरी पत्तेदार सब्जियों के इस्तेमाल से बोनफ्रैक्चर होने की आशंका 45% तक कम की जा सकती है. यही नहीं, ग्रीनडाइट से स्किन और बालों को भी भरपूर पोषण मिलता है.

जो महिलाएं किसी तरह की डाइट प्लान या जिम रूटीन फौलो नहीं कर सकतीं उन के लिए डा. शिखा बताती हैं कि खाने में हरी सब्जियों के ज्यादा इस्तेमाल से भी हैल्दी लाइफ मिल सकती है. उन के लिए सब से जरूरी है खाने में चीनी की मात्रा को कम करना और तली हुई चीजों को ज्यादा न खाना. इस के अलावा महिलाओं को थोड़ेथोड़े वक्त में कुछ न कुछ जरूर खाते रहना चाहिए. लेकिन इस में वे हैल्दी चीजें ही लें, होता यह है कि जब आप लंबे समय तक भूखे रहते हैं, तो खाते वक्त एकसाथबहुत ज्यादा खा लेते हैं, जिस से शरीर में मोटापे के लिए रास्ता तैयार होने लगता है. इस सब के अलावा महिलाओं को योग के व्यायाम भी जरूर करने चाहिए. इस से उन के शरीर में बीमारी पनपने की आशंका कम हो जाती है.

डा. के.के. अग्रवाल का कहना है कि चीनी, चावल और मैदा से बनी चीजों से परहेज करें. अपनी जीवनशैली में बदलाव लाएं और जंक फूड बिलकुल न लें. रोजाना लगभग 80 मिनट पैदल चलें और सप्ताह में एक दिन अनाज न खाएं. डा. शिखा भी मानती हैं कि अगर आप सुंदर दिखना चाहती हैं तो ग्रीनडाइट को फौलो करें, क्योंकि ग्रीनईटिंग को रोजाना की जिंदगी में लागू करने से आसानी से सेहत और सुंदरता दोनों को हासिल किया जा सकता है.

मैदा है एक धीमा ज़हर

अक्‍सर जो लोग वजन कम करने का प्रयास करते हैं, वे मैदे से बनी हुई चीज़ें नहीं खाते. मैदा हर किसी के किचन में पाया जाता है जो, जिससे बहुत से खाद्य पदार्थ बनाए जाते हैं. लेकिन क्‍या मैदा आपके स्‍वास्‍थ्‍य के लिये अच्‍छा है?

मैदा या रिफाइंड आटे को अगर आप रोज़ अपने आहार में शामिल करेंगे तो यह आपको तुरंत नुकसान नहीं करेगा. मैदे के कई साइड इफेक्‍ट होते हैं, जो लंबे समय तक प्रयोग करने के बाद ही पता चलता है.

मैदा एक परिष्कृत गेहूं का आटा है, जिसमें से फाइबर समाप्‍त कर दिया जाता है. फिर इसके बाद इसे benzoyl peroxide ब्‍लीच किया जाता है जिससे इसको साफ और सफेद रंग और टेक्‍सचर दिया जाता है.

चाइना और यूरोपियन देशों में benzoyl peroxide को बैंन कर दिया जा चुका है क्‍योंकि इससे स्‍किन कैंसर हो सकता है.

मैदा खाने का नुकसान जानिये –

1- मोटापा बढ़ाए

बहुत ज्‍यादा मैदा खाने से शरीर का वजन बढ़ना शुरु हो जाता है और आप ओबीज़ होने लगते हैं. यही नहीं इससे कोलेस्‍ट्रॉल का लेवल और खून में ट्राइग्‍लीसराइड भी बढ़ता है. यदि आपको वजन कम करना है तो अपने खाने से मैदे को हमेशा के लिये हटा दें.

2- पेट के लिये खराब

मैदा पेट के लिये इसलिए खराब होता है क्‍योंकि इसमें बिल्‍कुल भी फाइबर नहीं होता, जिससे कब्‍ज होने की शिकायत होती है.

3- फूड एलर्जी होती है

मैदे में ग्‍लूटन होता है, जो फूड एलर्जी को पैदा करता है. मैदे में भारी मात्रा में ग्‍लूटन पाया जाता है जो खाने को लचीला बना कर उसको मुलायम टेक्‍सचर देता है. वहीं गेंहू के आटे में ढेर सारा फाइबर और प्रोटीन पाया जाता है.

4- हड्डियां हो जाती हैं कमजोर

मैदा बनाते वक्‍त इसमें से प्रोटीन निकल जाता है और यह एसिडिक बन जाता है जो हड्डियों से कैल्‍शियम को खींच लेता है. इससे हड्डियां कमजोर हो जाती हैं.

5- रोग होने की संभावना बढ जाती है

मैदे को नियमित खाने से शरीर का इम्‍यून सिस्‍टम कमजोर हो जाता है और बार बार बीमार होने की संभावना बढ़ने लगती है.

6- डायबिटीज का खतरा

इसे खाने से शुगर लेवल तुरंत ही बढ़ जाता है क्‍योंकि इसमें बहुत ज्‍यादा हाई ग्लाइसेमिक इंडेक्‍स होता है. तो अगर आप बहुत ज्‍यादा मैदे का सेवन करते हैं, तो अग्न्याशय की फिक्र करना शुरु कर दें क्‍योंकि यह एक बार तो इंसुलिन का उत्पादन ठीक से कर देगा मगर बार बार महनत पड़ने पर इसका काम धीमा पड़ जाएगा, जिससे शरीर में कम इंसुलिन का उत्‍पादन होगा और आप मधुमेह की चपेट में आ जाएंगे.

7- गठिया और हार्ट की बीमारी

जब ब्‍लड शुगर बढ़ता है तो खून में ग्‍लूकोज़ जमने लगता है, फिर इससे शरीर में केमिकल रिएक्‍शन होता है, जिससे कैटरैक्‍ट से ले कर गठिया और हार्ट की बीमारियां होने लगती हैं.

स्तन कैंसर: निदान संभव है

भारत में 40 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं में स्तन कैंसर सबसे अधिक प्रचलित कैंसर है. ऐसे मामले विश्व स्तर पर हर साल लगभग 2% की दर से बढ़ रहे हैं. यह महिलाओं में कैंसर संबंधित मौतों का सबसे आम कारण भी है.

आज हमारे पास स्तन कैंसर से होने वाली मौतों को कम करने का मौका है. स्तन कैंसर को जल्दी पकड़ा जा सकता है ओर हारमोन थेरेपी, इम्यूनो थेरेपी और टारगेटेड थेरेपी जैसी नई विकसित के जरीए पहले की तुलना में अधिक विश्वास के साथ इसका इलाज किया जा सकता है.

सेल्फ एग्जामिनेशन

यदि प्रारंभिक चरण में कैंसर का पता लग जाता है तो उपचार अधिक प्रभावी ढंग से हो सकता है. इस अवस्था में कैंसर छोटा और स्तन तक सीमित होता है.

शुरुआत में एक छोटी गांठ की उपस्थिति या स्तन के आकार में बदलाव के अलावा कोई कथित लक्षण नहीं होता है, जिसे रोगियों द्वारा आसानी से अनदेखा किया जा सकता है. यही वह समय है जब स्क्रीनिंग जरूरी है. स्क्रीनिंग टेस्ट से स्तन कैंसर के बारे में जल्दी पता लगाने में मदद मिलती है. ऐसे में जब कोई खास लक्षण दिखाई नहीं देते तब भी स्क्रीनिंग के द्वारा हमें इस बीमारी का पता चल सकता है. स्क्रीनिंग के लिए नियमित रूप से डाक्टर के पास जाना चाहिए ताकि रोगी महिला के स्तन की पूरी तरह से जांच कर सकें. डाक्टर अकसर इस के जरीए ब्रेस्ट में छोटीछोटी गांठ या बदलाव का पता लगा लेते हैं. वे महिलाओं को सेल्फ एग्जामिनेशन करना भी सिखा सकते हैं ताकि महिलाएं खुद भी इन परिवर्तनों को पकड़ सकें.

हालांकि मैमोग्राफी स्तन कैंसर की जांच का मुख्य आधार है. यह एक एक्स-रे एग्जामिनेशन है और गांठ दिखने से पहले ही स्तनों में संदिग्ध कैंसर से जुड़े परिवर्तनों का पता लगाने में मदद करता है.

पहला मैमोग्राम कराने और इसके बाद भी कितनी बार मैमोग्राम कराना है. यह इस पर निर्भर करता है कि उस महिला को ब्रेस्ट कैंसर होने का रिसक कितना है. जिन महिलाओं के रक्त संबंधी स्तन कैंसर या ओवेरियन कैंसर से पीडि़त हैं और जिनको पहले भी स्तनों से जुड़ी कुछ असामान्यताओं जैसे स्तनों में गांठ, दर्द या डिस्चार्ज आदि का सामना करना पड़ा है उन्हें जोखिम ज्यादा रहता है. ऐसी महिलाओं को 30 साल की उम्र के बाद हर साल मैमोग्राफ कराना चाहिए. दूसरों को 40 साल की उम्र के बाद हर साल या हर 2 साल में जांच करवानी चाहिए.

टेस्टिंग

अगर मैमोग्राम में कैंसर का कोई संदिग लक्षण दिखता है तो पक्के तौर पर कैंसर है या नहीं इसका पता लगाने के लिए बायोप्सी की जाती है. इस प्रक्रिया में संदिग्ध क्षेत्र से स्तन ऊतक के छोटे हिस्से को निकाल लिया जाता है और कैंसर सेल्स का पता लगाने के लिए प्रयोगशाला में विश्लेषण किया जाता है.

उच्च जोखिम वाल महिलाओं के लिए, बीआरसीए म्युटेशन जैसी जेनेटिक असामान्यताओं का पता लगाने के लिए जेनेटिक टेस्टिंग की भी सिफारिश की जाती है. ‘बीआरसीए’ दरअसल ब्रेस्ट कैंसर जीन का संक्षिप्त नाम है. क्चक्त्रष्ट्न१ और क्चक्त्रष्ट्न२ दो अलगअलग जीन हैं तो किसी व्यक्ति के स्तन कैंसर के विकास की संभावनाओं को प्रभावित करते हैं. जिन महिलाओं में ये असामान्यताएं होती हैं उन सभी को स्तन कैंसर हो ऐसा जरूरी नहीं, मगर उनमें से 50% को यह जिंदगी में कभी न कभी जरूर होता है.

वीआरसीए जीन असामान्यता वाली महिलाओं को अतिरिक्त सतर्क रहना चाहिए और नियमित रूप से वार्षिक मैमोग्राम कराने से चूकता नहीं चाहिए. जो महिलाएं नियमित रूप से जांच नहीं कराती हैं उनके लिए यह संभावना बढ़ जाती है कि उनके स्तन कैंसर का पता लेटर स्टेज या एडवांस स्टेज पर लगेगा. इस स्तर पर कैंसर संभावित रूप से स्तन या शरीर के कुछ दूसरे हिस्सों में फैल सकता है. ऐसे में इलाज एक चुनौती बन जाती है, लेकिन जब डाइग्रोसिस शुरुआती स्टेज में हो जाती है तब इलाज के कई तरह के विकल्प मौजूद होते हैं जो कैंसर का सफलतापूर्वक कर पाते हैं और इसके फिर से होने की संभावना पर भी रोक लगाते हैं.

आपके लिए कौन सा इलाज अच्छा

होगा यह प्रत्येक कैंसर की प्रोटीन असामान्यताओं पर निर्भर करता है, जिसका पता कुछ खास जांच द्वारा लगाया जाता है. एडवांस्ड थैरेपीज जिसे इम्मुनोथेरेपी, टार्गेटेड थेरेपी और हारमोनल थेरेपी इन विशेष अब्नोर्मिलिटीज पर काम करती है और बेहतर परिणाम देती हैं.

कुछ रोगियों के लिए ये उपचार पारंपरिक कीमोथेरेपी की जगह भी ले सकते हैं. कुछ उपचार जो कैंसर दोबारा होने से रोकते हैं उन्हें गोलियों के रूप में मौखिक रूप से भी लिया जा सकता है. यह अर्ली स्टेज के स्तन कैंसर की मरीज को भी एक अच्छी जिंदगी जीने को संभव बनाते हैं.

प्रारंभिक अवस्था में स्तन कैंसर डायग्नोज होने वाली महिलाओं में से 90% से अधिक इलाज के बाद लंबे समय तक रोग मुक्त जिंदगी जी सकती हैं. लेकिन भारत में स्तन कैंसर से पीडि़त महिलाओं की 5 साल तक जीवित रहने की दर महज 42-60% है. ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग आधे रोगियों का पता केवल अंतिम चरण में चलता है.

हम इसे बदल सकते हैं. यदि महिलाएं अपने थर्टीज में स्तन कैंसर की जांच की योजना बनाती हैं और लक्षणों के प्रकट होने की प्रतीक्षा नहीं करती हैं.

स्तन कैंसर का डायग्नोज होना अब मौत की सजा की तरह नहीं होना चहिए क्योंकि हम कैंसर का जल्द पता लगा सकते हैं और हमारे पास इसके सफल उपचार के लिए इफेक्टिव थेरेपीज हैं.

स्तन कैंसर: निदान संभव है

भारत में 40 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं में स्तन कैंसर सबसे अधिक प्रचलित कैंसर है. ऐसे मामले विश्व स्तर पर हर साल लगभग 2% की दर से बढ़ रहे हैं. यह महिलाओं में कैंसर संबंधित मौतों का सबसे आम कारण भी है.

आज हमारे पास स्तन कैंसर से होने वाली मौतों को कम करने का मौका है. स्तन कैंसर को जल्दी पकड़ा जा सकता है ओर हारमोन थेरेपी, इम्यूनो थेरेपी और टारगेटेड थेरेपी जैसी नई विकसित के जरीए पहले की तुलना में अधिक विश्वास के साथ इसका इलाज किया जा सकता है.

सेल्फ एग्जामिनेशन

यदि प्रारंभिक चरण में कैंसर का पता लग जाता है तो उपचार अधिक प्रभावी ढंग से हो सकता है. इस अवस्था में कैंसर छोटा और स्तन तक सीमित होता है.

शुरुआत में एक छोटी गांठ की उपस्थिति या स्तन के आकार में बदलाव के अलावा कोई कथित लक्षण नहीं होता है, जिसे रोगियों द्वारा आसानी से अनदेखा किया जा सकता है. यही वह समय है जब स्क्रीनिंग जरूरी है. स्क्रीनिंग टेस्ट से स्तन कैंसर के बारे में जल्दी पता लगाने में मदद मिलती है. ऐसे में जब कोई खास लक्षण दिखाई नहीं देते तब भी स्क्रीनिंग के द्वारा हमें इस बीमारी का पता चल सकता है. स्क्रीनिंग के लिए नियमित रूप से डाक्टर के पास जाना चाहिए ताकि रोगी महिला के स्तन की पूरी तरह से जांच कर सकें. डाक्टर अकसर इस के जरीए ब्रेस्ट में छोटीछोटी गांठ या बदलाव का पता लगा लेते हैं. वे महिलाओं को सेल्फ एग्जामिनेशन करना भी सिखा सकते हैं ताकि महिलाएं खुद भी इन परिवर्तनों को पकड़ सकें.

हालांकि मैमोग्राफी स्तन कैंसर की जांच का मुख्य आधार है. यह एक एक्स-रे एग्जामिनेशन है और गांठ दिखने से पहले ही स्तनों में संदिग्ध कैंसर से जुड़े परिवर्तनों का पता लगाने में मदद करता है.

पहला मैमोग्राम कराने और इसके बाद भी कितनी बार मैमोग्राम कराना है. यह इस पर निर्भर करता है कि उस महिला को ब्रेस्ट कैंसर होने का रिसक कितना है. जिन महिलाओं के रक्त संबंधी स्तन कैंसर या ओवेरियन कैंसर से पीडि़त हैं और जिनको पहले भी स्तनों से जुड़ी कुछ असामान्यताओं जैसे स्तनों में गांठ, दर्द या डिस्चार्ज आदि का सामना करना पड़ा है उन्हें जोखिम ज्यादा रहता है. ऐसी महिलाओं को 30 साल की उम्र के बाद हर साल मैमोग्राफ कराना चाहिए. दूसरों को 40 साल की उम्र के बाद हर साल या हर 2 साल में जांच करवानी चाहिए.

टेस्टिंग

अगर मैमोग्राम में कैंसर का कोई संदिग लक्षण दिखता है तो पक्के तौर पर कैंसर है या नहीं इसका पता लगाने के लिए बायोप्सी की जाती है. इस प्रक्रिया में संदिग्ध क्षेत्र से स्तन ऊतक के छोटे हिस्से को निकाल लिया जाता है और कैंसर सेल्स का पता लगाने के लिए प्रयोगशाला में विश्लेषण किया जाता है.

उच्च जोखिम वाल महिलाओं के लिए, बीआरसीए म्युटेशन जैसी जेनेटिक असामान्यताओं का पता लगाने के लिए जेनेटिक टेस्टिंग की भी सिफारिश की जाती है. ‘बीआरसीए’ दरअसल ब्रेस्ट कैंसर जीन का संक्षिप्त नाम है. क्चक्त्रष्ट्न१ और क्चक्त्रष्ट्न२ दो अलगअलग जीन हैं तो किसी व्यक्ति के स्तन कैंसर के विकास की संभावनाओं को प्रभावित करते हैं. जिन महिलाओं में ये असामान्यताएं होती हैं उन सभी को स्तन कैंसर हो ऐसा जरूरी नहीं, मगर उनमें से 50% को यह जिंदगी में कभी न कभी जरूर होता है.

वीआरसीए जीन असामान्यता वाली महिलाओं को अतिरिक्त सतर्क रहना चाहिए और नियमित रूप से वार्षिक मैमोग्राम कराने से चूकता नहीं चाहिए. जो महिलाएं नियमित रूप से जांच नहीं कराती हैं उनके लिए यह संभावना बढ़ जाती है कि उनके स्तन कैंसर का पता लेटर स्टेज या एडवांस स्टेज पर लगेगा. इस स्तर पर कैंसर संभावित रूप से स्तन या शरीर के कुछ दूसरे हिस्सों में फैल सकता है. ऐसे में इलाज एक चुनौती बन जाती है, लेकिन जब डाइग्रोसिस शुरुआती स्टेज में हो जाती है तब इलाज के कई तरह के विकल्प मौजूद होते हैं जो कैंसर का सफलतापूर्वक कर पाते हैं और इसके फिर से होने की संभावना पर भी रोक लगाते हैं.

आपके लिए कौन सा इलाज अच्छा

होगा यह प्रत्येक कैंसर की प्रोटीन असामान्यताओं पर निर्भर करता है, जिसका पता कुछ खास जांच द्वारा लगाया जाता है. एडवांस्ड थैरेपीज जिसे इम्मुनोथेरेपी, टार्गेटेड थेरेपी और हारमोनल थेरेपी इन विशेष अब्नोर्मिलिटीज पर काम करती है और बेहतर परिणाम देती हैं.

कुछ रोगियों के लिए ये उपचार पारंपरिक कीमोथेरेपी की जगह भी ले सकते हैं. कुछ उपचार जो कैंसर दोबारा होने से रोकते हैं उन्हें गोलियों के रूप में मौखिक रूप से भी लिया जा सकता है. यह अर्ली स्टेज के स्तन कैंसर की मरीज को भी एक अच्छी जिंदगी जीने को संभव बनाते हैं.

प्रारंभिक अवस्था में स्तन कैंसर डायग्नोज होने वाली महिलाओं में से 90% से अधिक इलाज के बाद लंबे समय तक रोग मुक्त जिंदगी जी सकती हैं. लेकिन भारत में स्तन कैंसर से पीडि़त महिलाओं की 5 साल तक जीवित रहने की दर महज 42-60% है. ऐसा इसलिए है क्योंकि लगभग आधे रोगियों का पता केवल अंतिम चरण में चलता है.

हम इसे बदल सकते हैं. यदि महिलाएं अपने थर्टीज में स्तन कैंसर की जांच की योजना बनाती हैं और लक्षणों के प्रकट होने की प्रतीक्षा नहीं करती हैं.

स्तन कैंसर का डायग्नोज होना अब मौत की सजा की तरह नहीं होना चहिए क्योंकि हम कैंसर का जल्द पता लगा सकते हैं और हमारे पास इसके सफल उपचार के लिए इफेक्टिव थेरेपीज हैं.

-डा. सुरेश एच. आडवाणी द्वारा एमडी, (एफआईसीपी, एफएनएएमएस, कंसल्टेंट आन्कोलौजिस्ट)

 

शहद में छिपा है हैल्थ का राज

बदलते मौसम में सेहत का खास ध्यान रखने की भी जरूरत होती है क्योंकि बदलता मौसम न सिर्फ आपको सर्दीजुखाम व बुखार की चपेट में जकड़ सकता है बल्कि कई बार इसकी वजह से जान पर भी जोखिम बन जाता है. ऐसे में जरूरी है कि आप अपनी सेहत का ध्यान रखने के लिए खानपान पर विशेष ध्यान देने की, ताकि आपका शरीर अंदर व बाहर दोनों जगह से फिट रह सके. इसके लिए जरूरी है आप अपने खान-पान में या फिर अपने रूटीन में हमदर्द हनी को शामिल करें क्योंकि इसमें हैं ढेरों गुण, जो आपको सर्दियों में अंदर से वार्म रखने के साथ-साथ आपकी हैल्थ का भी खास ध्यान रखता है. तो आइए जानते हैं क्यों है यह खास:

हमदर्द हनी ही क्यों

ये एक नेचुरल स्वीट पदार्थ होता है, जो मधुमक्खियों द्वारा फूलों के रस या पौधों के स्राव द्वारा बनाया जाता है. जब इसका अच्छे से निरीक्षण किया जाता है तो देखा जाता है कि ये शहद किसी भी बाहरी तत्त्व जैसे मोल्ड, गंदगी, मैल, मधुमक्खियों के टुकड़ों इत्यादि से पूरी तरह से मुक्त होना चाहिए. इस बात का निरीक्षण में खास ध्यान रखा जाता है. इसका रंग लाइट टू डार्क ब्राउन तक हो सकता है. इस ब्रांड को सभी 1906 से पसंद कर रहे हैं. जो शुद्धता व गुणवत्ता से किसी भी तरह का कोई समझौता करना पसंद नहीं करता?है. तभी तो सर्दियों में हमदर्द हनी पर भरोसा करते हैं हम.

क्या हैं हैल्थ बेनिफिट्स

1- इम्यून सिस्टम को बूस्ट करे:

अगर हमारी इम्यूनिटी स्ट्रोंग होती है, तभी हम बीमारियों से लड़ने में सक्षम बन पाते हैं. बता दें कि शहद एंटीओक्सिडेंट्स से भरपूर होने के साथ इसमें बैक्टीरिया से लड़ने की क्षमता होती है, जिससे ये आपको मौसमी बीमारियों से बचाने का काम करता है. यहां तक कि ये आपके शरीर को डिटोक्स करने का काम करता है. तभी तो एक्सपर्ट्स भी हर रोज इसे अपनी डाइट में शामिल करने की सलाह देते हैं, ताकि इम्यूनिटी बूस्ट होने के साथसाथ आपके शरीर को पूरे दिन काम करने के लिए एनर्जी भी मिल सके.

2- नेचुरल प्रोबायोटिक:

हनी नेचुरल प्राबायोटिक का काम करता है. जो आंतों में गुड बैक्टीरिया का पोषण करने का काम करता है. जो आपके हैल्दी पाचनतंत्र के लिए बहुत जरूरी माना जाता है. क्योंकि ये एक लैक्सेटिव है, जो पाचन में मदद करने के साथ प्रतिरक्षा प्रणाली को बेहतर बनाता है. बता दें कि इसका इस्तेमाल करने से ये आंतों में फंगस से पैदा हुए माइक्रोटोक्सिन के बेषीले प्रभावों को कम करता है. तो हुआ न नेचुरल प्रोबायोटिक.

3- वजन को कम करने में मददगार:

अगर आप भी हैल्थ कौन्सियस हैं और वजन कम कर रहे हैं या फिर करने के बारे में सोच रहे हैं तो आप अपने मोर्निंग और नाइट रूटीन में शहद को जरूर शामिल करें. क्योंकि एक तो ये न्यूट्रिएंट्स से भरपूर होने के कारण आपके शरीर की जरूरतों को पूरा करने का काम करता है और दूसरा इसमें नेचुरल शुगर होने के कारण ये आपके कैलोरी काउंट को भी कंट्रोल में रखता है. इसलिए हर सुबह खाली पेट गरम पानी में शहद का सेवन करें और रात को सोते समय. जिससे ये आपके मेटाबोलिज्म को बूस्ट करके आपके वजन को तेजी से कम कर सके. रिसर्च में यह देखा गया है कि जिन लोगों का मेटाबोलिज्म स्लो होता है, उनका वजन तेजी से बढ़ता है. इसलिए अगर आप वेट वाचर हैं तो अपने रूटीन में हनी को जरूर शामिल करें.

4- स्लीप क्वालिटी को इंपू्रव करे:

शहद आपके मस्तिष्क को मेलाटोनिन रिलीज करने में मदद करता है. बता दें कि ये वो हारमोन होता है, जिसका उपयोग आपका शरीर नींद के दौरान खुद को बहाल करने के लिए करता है. क्या आप जानते हैं कि जब आप सोते हैं तो आपका मस्तिष्क सक्रिय होता है और इस समय उसे ऊर्जा की जरूरत होती है. तब आपका मस्तिष्क स्लीप एनर्जी के लिए लिवर में ग्लाइकोजन भंडार का इस्तेमाल करता है. ऐसे में सोने से पहले हनी के सेवन से ये सुनिश्चित हो जाता है कि आपके पास अच्छी नींद के लए ग्लाइकोजन भंडार है. जो आपको क्वालिटी स्लीप देने में मदद करता है.

5- घावों को तेजी से भरे:

शहद में एंटीबैक्टीरियल, एंटीफंगल और एंटीओक्सिडेंट्स प्रोपर्टीज होती हैं. जो घावों को तेजी से भरने का काम करती है. जब स्किन में कोई घाव होता है, तो बैक्टीरिया उसके अंदर जाकर स्किन में इंफेक्शन कर सकता है. जबकि शहद उस बैक्टीरिया को ढूंढ़ कर उसे मारने का काम करता है.

6- डैंड्रफ का खात्मा करे:

हनी नेचुरल तरीके से डैंड्रफ का खात्मा करने का काम करता है. क्योंकि इसमें है एंटीबैक्टीरियल प्रोपर्टीज, जो डैंड्रफ को कंट्रोल करके स्कैल्प हैल्थ का खास ध्यान रखता है. साथ ही ये स्कैल्प से डैंड्रफ व गंदगी को रिमूव करता है, जो हेयर फोलिकल्स के जमने का कारण बनता है. ये न सिर्फ ड्राई हेयर को नरिश करता है, बल्कि बालों को सोफ्ट व स्मूद बनाने का काम भी करता है. यानि नेचुरल तरीके से डैंड्रफ का खात्मा करने की शक्ति.

7- स्किन को नरिश करे:

इसमें मॉइस्चराइजिंग और नरिशिंग प्रोपर्टीज होने के कारण ये नेचुरल मॉइस्चराइजर का काम करता है. इसके लिए आप शहद की कुछ बूंदों को सीधे भी चेहरे पर अप्लाई कर सकते हैं या फिर इसके मास्क को भी. ये स्किन पर मैजिक इफेक्ट देने का काम करता है. तो फिर हनी से खुद को रखें हैल्दी.

ब्रैस्ट फीडिंग मां और बच्चे के लिए क्यों है सही

इन दिनों कितने ही आधुनिक कपल्‍स अपने-अपने पेशेवर जीवन में इतने व्‍यस्‍त होते हैं कि वे पैरेंट्स बनने का फैसला लंबे समय तक टालते रहते हैं लेकिन आखिरकार जब वे ऐसा करने के लिए तैयार होते हैं तो बढ़ती उम्र एक बड़ी बाधा के रूप में उनकी चुनौतियां बढ़ाती है।

वर्ल्‍ड हैल्‍थ ऑर्गेनाइज़ेशन के अनुसार, भारत में करीब 3.9 से 16.8 प्रतिशत कपल्‍स को प्राइमरी इन्‍फर्टिलिटी की समस्‍या पेश आती है। नतीजा यह होता कि ये आधुनिक कपल्‍स जब गर्भधारण की ओर बढ़ते हैं, तो उनकी परेशानियों के समाधान के लिए कई नई तकनीकें और आधुनिक फर्टिलिटी इलाज पद्धतियां जैसे कि आईवीएफ, आईयूआई, एम्‍ब्रयो फ्रीज़‍िंग और ऍग फ्रीज़‍िंग वगैरह उनके सामने विकल्‍प के तौर पर उपलब्‍ध होते हैं। ये उपचार उन कपल्‍स के लिए जोखिम-मुक्‍त विकल्‍प साबित होते हैं जो देरी से पैरेंटहुड की तरफ कदम बढ़ाना चाहते हैं।

डॉ रम्‍या मिश्रा, सीनियर कंसल्‍टैंट – इन्‍फर्टिलिटी एवं आईवीएफ, अपोलो फर्टिलिटी (लाजपत नगर, नई दिल्‍ली) का कहना है-

हाल के समय में ऍग फ्रीज़ करवाने का विकल्‍प काफी लोकप्रिय हो चुका है। अब कई महिलाएं उम्र के उस मोड़ पर ही अपने ऍग्‍स फ्रीज़ करवाना पसंद करती हैं जब वे रिप्रोडक्टिव उम्र में होती हैं और गर्भधारण का फैसला बाद के लिए छोड़ देती हैं ताकि वे तब उसे चुन सकें जब वे इसके लिए तैयार हों। लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि सामाजिक कारणों की वजह से बहुत सी महिलाएं अपने ऍग फ्रीज़ नहीं करवा पाती हैं, कुछ ऐसा मेडिकल कारणों के चलते करती हैं। कई बार कैंसर के उपचार के लिए इस्‍तेमाल होने वाली कुछ थेरेपी जैसे कि कीमोथेरेपी और रेडिएशन वगैरह महिलाओं के डिंबों को नुकसान पहुंचा सकती हैं। इसलिए भविष्‍य में गर्भधारण को आसान बनाने के लिए महिलाओं को कैंसर उपचार शुरू करने से पहले ही भविष्‍य के लिए अपने डिंबों को सुरक्षित करवाने की सलाह दी जाती है।

क्‍या हैं डिंब सुरक्षित (फ्रीज़) करवाने के लाभ 

महिलाओं के शरीर में बनने वाले संभावित डिंबों की संख्‍या जिन्‍हें फॉलिक्‍स कहा जाता है, सीमित होती है, और यह एक से दो मिलियन के बीच होती है। जैसे-जैसे महिलाओं की उम्र बढ़ती है, उनकी डिंब कोशिकाओं की संख्‍या घटती है, और इस वजह से गर्भधारण अधिक चुनौतीपूर्ण होता है। लेकिन यदि किसी महिला ने अपने प्रजननकाल में समय से डिंबों को सुरक्षित (फ्रीज़) करवाया होता है तो वे उम्र के बाद के पड़ाव में भी आसानी से गर्भधारण कर सकती हैं।

डिंब सुरक्षित करवाने की प्रक्रिया में डिंबग्रंथियों (ओवरीज़) को होर्मोनों से उत्‍प्रेरित किया जाता है ताकि वे एक बाद में काफी अधिक संख्‍या में डिंबों का निर्माण करें, और इन डिंबों को डिंबग्रंथियों से निकालकर लैब में भेजा जाता है जहां इन्‍हें शून्‍य से कम तापमान पर सुरक्षित तरीके से स्‍टोर किया जाता है। इस प्रकार इन फ्रीज़ किए गए डिंबों को बाद में, जबकि महिला गर्भधारण के लिए तैयार हो, इस्‍तेमाल किया जा सकता है।

क्‍या है डिंब फ्रीज़ (ऍग फ्रीज़ींग) करवाने की सही उम्र 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि जैसे-जैसे महिलाओं और पुरुषों की उम्र बढ़ती है, उनकी फर्टिलिटी भी उसी हिसाब से कम होने लगती है। वे 20 से 30 की उम्र में सर्वाधिक उर्वर/प्रजननयोग्‍य (फर्टाइल) होते हैं लेकिन उम्र के तीसवें वसंत के बाद उनकी प्रजनन क्षमता प्रभावित होने लगती हैं और यही कारण है कि उसके बाद गर्भधारण में अधिक जटिलताएं और दिक्‍कतें पेश आती हैं।

आधुनिक दौर में कपल्‍स की जरूरतों के मद्देनज़र, कई तरह के फर्टिलिटी ट्रीटमेंट्स सामने आ चुके हैं। ऍग फ्रीज़ करवाना ऐसा ही एक तरीका है जिसमें महिलाएं अपने डिंबों को सुरक्षित रखवती हैं और बाद में जब वे तैयार होती हैं तो उनकी मदद से गर्भधारण करती हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि ऍग फ्रीज़‍िग की सही उम्र और भविष्‍य में गर्भधारण की कामयाबी के बीच सीधा संबंध है। किसी भी महिला के लिए ऐसा करवाने की आदर्श उम्र उसके रिप्रोडक्टिव वर्ष होते हैं। आमतौर पर, उम्र के तीसरे दशक के शुरुआती वर्षों को इस लिहाज़ से आदर्श माना जाता है जबकि महिलाएं आमतौर से सबसे अधिक उर्वर होती हैं और जैसे-जैसे वे उम्र के चौथे दशक के अंतिम चरण में पहुंचती हैं, उनकी फर्टिलिटी कमज़ोर पड़ने लगती है और तब उनकी डिंबग्रंथि में बनने वाले डिंबों की संख्‍या और गुणवत्‍ता दोनों प्रभावित हो चुके होते हैं। लेकिन अधिक उम्र में भी प्रेगनेंसी के लिए, अक्‍सर तीस साल की उम्र से पहले डिंबों को सुरक्षित करवाने की सलाह दी जाती है।

डिंबों को फ्रीज़ करवाना:

अधिक उम्र होने पर गर्भधारण का अधिक सेहतमंद विकल्‍प
आज के दौर में, इन्‍फर्टिलिटी एक दर्दनाक सच्‍चाई बन चुकी है जिससे कई आधुनिक कपल्‍स गुजरते हैं। लेकिन टैक्‍नोलॉजी के क्षेत्र में प्रगति होने से कई नए रिप्रोडक्टिव ट्रीटमेंट्स उपलब्‍ध हो चुके हैं, जो इन्‍फर्टिलिटी की चुनौती से उबारते हैं। ऐसा ही एक जोखिमरहित तरीका है डिंबों को फ्रीज़ करवाना जिससे अधिक उम्र में हैल्‍दी प्रेगनेंसी संभव होती है। महिलाएं अपनी व्‍यस्‍त जीवनशैली के मद्देनज़र, रिप्रोडक्टिव उम्र में अपने डिंबों को सुरक्षित (फ्रीज़) करवा सकती हैं और बाद में जब भी वे अपना परिवार शुरू करना चाहें, तब इनका इस्‍तेमाल किया जा सकता है। इस विकल्‍प्‍ के बारे में और जानकारी के लिए अपने फर्टिलिटी एक्‍सपर्ट से मिलें और ऍग-फ्रीज़‍िंग की प्‍लानिंग करें.

जोड़ों के दर्द को न करें नजरअंदाज, हो सकता है गठिया बाय

हम सभी अपने जीवन में कभी न कभी जोड़ों के दर्द से पीडि़त होते हैं. हालांकि सभी जोड़ों के दर्द का मतलब यह नहीं है कि हम आर्थराइटिस से पीडि़त हैं. लेकिन 1 से अधिक जोड़ों में लगातार होने वाले दर्द को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. जोड़ों के दर्द को नजरअंदाज करने से जोड़ों में खराबी आ सकती है और परिणामस्वरूप उनमें विकृति आ सकती है. इसलिए चिकित्सीय सहायता जरूरी है.

इसके अलावा आर्थराइटिस के 200 विभिन्न प्रकार हैं. विभिन्न प्रकार के आर्थराइटिस में गंभीरता के विभिन्न स्तर होते हैं. आर्थराइटिस के विभिन्न प्रकारों में, गठिया बाय भारत में आर्थराइटिस का दूसरा सब से आम प्रकार है. गठिया बाय आर्थराइटिस का गंभीर प्रकार है क्योंकि यह सिर्फ जोड़ों का रोग नहीं है बल्कि यह त्वचा, आंखें, हृदय, फेफड़े और गुर्दे जैसे अन्य महत्वपूर्ण अंगों को भी प्रभावित करता है. गठिया बाय एक ऑटोइम्यून रोग है जिसका अर्थ है कि प्रतिरक्षा प्रणाली में कुछ समस्या है. गठिया बाय में रोगी की प्रतिरक्षा प्रणाली शरीर के स्वस्थ ऊतकों पर हमला करना शुरू कर देती है और दर्द और अन्य लक्षण जैसे सूजन और जकड़न का कारण बनती है. इससे शुरुआत में छोटे जोड़ प्रभावित होते हैं लेकिन बाद में शरीर के अन्य अंग भी प्रभावित हो सकते हैं.

गठिया बाय बहुत तेजी से आगे बढ़ता है और इसलिए शरीर के अन्य भागों में विकृति और जटिलताओं को रोकने के लिए प्रारंभिक अवस्था में गठिया बाय का निदान और उपचार करना आवश्यक है.

यहां कुछ लक्षण दिए गए हैं जो गठिया बाय को पहचानने और अपने डॉक्टर से परामर्श करने में मदद कर सकते हैं.

6 सप्ताह से अधिक समय से जोड़ों का दर्द

6 सप्ताह से अधिक समय से जोड़ों का दर्द जो आराम करने से कम नहीं हो रहा है और दिनों दिन बढ़ रहा है. एक से अधिक जोड़ों में दर्द हाथ, कोहनी और कंधे आदि के जोड़. आपके हाथों की उंगलियों के जोड़ और पैरों के तलवों में सूजन इसकी वजह से मुट्ठी बांधना और वस्तुओं को पकड़ना मुश्किल हो जाता है और लोगों से हाथ मिलाते समय भी दर्द होता है.

सुबह 1 घंटे से अधिक समय तक जोड़ों में अकड़न सुबह के समय जोड़ों में अकड़न होना जिस से बिस्तर से उठना और दैनिक कार्य करना मुश्किल हो जाता है.

परिवार में किसी भी व्यक्ति को गठिया बाय होना गठिया बाय वंशानुगत हो सकता है. यदि आपके किसी निकट संबंधी को गठिया बाय है तो संभावना है कि आपको भी यह हो सकता है.

थकान और हल्का बुखार

आप थकान का अनुभव करते हैं जो आराम करने से भी कम नहीं होता है और हल्का बुखार रहता है.

जोड़ों के दर्द के लिए दर्द निवारक दवा लेने की जरूरत है 

आपको दर्द नाशक दवाएं लेनी पड़ती हैं क्योंकि घरेलू उपचार से दर्द कम नहीं हो रहा है. दर्द नाशक दवाएं केवल लक्षणों में आराम देते हैं. इसमें खुद से दवा लेना उपयोगी नहीं होता है. यह समय है जब आप अपने डॉक्टर से परामर्श लें. डॉक्टर इसका सही निदान और उपचार करने में आपकी सहायता करेंगे.

6 सप्ताह से अधिक समय से जोड़ों का दर्द.

6 सप्ताह से अधिक समय से जोड़ों का दर्द जो आराम करने से कम नहीं हो रहा है और दिनों दिन बढ़ रहा है. एक से अधिक जोड़ों में दर्द हाथ, कोहनी और कंधे आदि के जोड़.

आपके हाथों की उंगलियों के जोड़ और पैरों के तलवों में सूजन इसकी वजह से मुट्ठी बांधना और वस्तुओं को पकड़ना मुश्किल हो जाता है और लोगों से हाथ मिलाते समय भी दर्द होता है.

सुबह 1 घंटे से अधिक समय तक जोड़ों में अकड़न सुबह के समय जोड़ों में अकड़न होना जिस से बिस्तर से उठना और दैनिक कार्य करना मुश्किल हो जाता है.

परिवार में किसी भी व्यक्ति को गठिया बाय होना गठिया बाय वंशानुगत हो सकता है. यदि आपके किसी निकट संबंधी को गठिया बाय है तो संभावना है कि आपको भी यह हो सकता है.

थकान और हल्का बुखार

आप थकान का अनुभव करते हैं जो आराम करने से भी कम नहीं होता है और हल्का बुखार रहता है.

जोड़ों के दर्द के लिए दर्द निवारक दवा लेने की जरूरत है

आपको दर्द नाशक दवाएं लेनी पड़ती हैं क्योंकि घरेलू उपचार से दर्द कम नहीं हो रहा है. दर्द नाशक दवाएं केवल लक्षणों में आराम देते हैं. इसमें खुद से दवा लेना उपयोगी नहीं होता है. यह समय है जब आप अपने डॉक्टर से परामर्श लें. डॉक्टर इसका सही निदान और उपचार करने में आपकी सहायता करेंगे.

क्या प्रैग्नेंसी के दौरान सैक्स करना सेफ रहेगा?

सवाल-

मैं 2 महीने से प्रैगनैंट हूं. क्या इस समय सैक्स करना सेफ रहेगा?

जवाब-

प्रैगनैंसी के पहले 3 महीने या पहली तिमाही तक इंटरकोर्स या सैक्स करना सेफ नहीं होता है. इस से गर्भपात होने की संभावना रहती है. लेकिन दूसरी तिमाही में सैक्स कर सकते हैं. इंटरकोर्स करते समय इस बात का ध्यान रहे कि उस में प्यार और फोरप्ले का समावेश ज्यादा हो यानी पार्टनर से जबरदस्ती बिलकुल नहीं करनी चाहिए. सैक्स करने से दोनों पार्टनर एकदूसरे से ज्यादा कनैक्ट हो पाते हैं. दूसरी तिमाही के बाद सैक्स करने के बाद गर्भाशय में संकुचन महसूस होगा, औक्सीटोन नाम का लव हारमोन भी रिलीज होगा जो मातापिता और बच्चे के बीच के बंधन को मजबूत करता है. इसलिए सैक्स करने की बात को ले कर घबराएं नहीं. इस से नौर्मल डिलिवरी होने की संभावना और बढ़ जाती है. सैक्स करते वक्त बस हाइजीन मैंटेन करें और कंडोम का इस्तेमाल करना न भूलें. याद रखें, ऐंजौय सैक्स, सेफ सैक्स तो डिलिवरी भी सेफ होगी.

ये भा पढ़ें- 

बिना सैक्स के आदमी और औरत का संबंध अधूरा है.कुछ लोग चाहे जितना गुणगान कर लें कि सैक्स गंदा है, असल में आदमीऔरत में पूरा प्यार या लगाव सैक्स से ही होता है. यह बात दूसरी है कि कुछ मामलों में यह प्यार व लगाव कुछ मिनटों तक सिमट कर रह जाता है और शारीरिक प्रक्रिया पूरी होते ही दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त हो जाते हैं. सैक्स के बराबर ही पेट भरना जरूरी है. शायद सैक्स से ज्यादा दूसरे मनोरंजन भी भारी पड़ते हैं.

एक संस्थान जो लगातार अमेरिकी लोगों पर शोध कर रही है ने पता किया है कि अमेरिकियों में भी सैक्स की चाहत कम हो रही है और वे सैक्स की जगह वीडियो गेम्स या अपने कैरियरों पर समय और शक्ति अधिक लगाने लगे हैं. युवा लड़कियों में 18% और युवा लड़कों में 23% ने कहा कि उन्हें पिछले 1 साल में एक बार भी सैक्स सुख नहीं मिला. 60 वर्ष की आयु से अधिक के 50% लोग सैक्स से दूर रहते हैं.

बिना सैक्स के जीवन की बहुत महिमा गाई जाती है पर यह है गलत. आदमी-औरत का संबंध प्राकृतिक है, चाहे प्रकृति ने इस में आनंद डाला था या नहीं, कहा नहीं जा सकता. सभ्य समाज सैक्स पर आधारित है, क्योंकि सुरक्षित सैक्स और पार्टनर की ग्रांटेड मौजूदगी ने ही विवाह संस्था को जन्म दिया है. विवाह है तो घर है, घर है तो गांव है, गांव है तो शहर है, शहर है तो देश है. बिना सैक्स के लोग अकेले पड़ जाएंगे और जीवन के प्रति उन का नजरिया ही बदल जाएगा.

यौन अक्षमता से पीड़ित महिलाएं

अगर आपका पार्टनर लम्‍बे समय से सेक्‍स के लिए न कह रही हैतो यह चिंता का विषय हो सकता है. ये भी संभव है कि आपकी पार्टनर सेक्‍स के प्रति रुझान न होने की समस्‍या से जूझ रही है. इसे महिला यौन अक्षमता भी कहा जाता है. इस शब्द का उपयोग किसी ऐसे व्यक्ति को परिभाषित करने के लिए किया जाता है जो अपने साथी को सेक्‍स के दौरान सहयोग नहीं करता. महिलाओं में एफएसडी यानी फीमेल सेक्सुअल डिसफंक्शन होने के कई कारण हो सकते हैं जैसे सेक्स के दौरान दर्द या मनोवैज्ञानिक कारण. ज्यादातर मामलों मेंहालांकिएफएसडी को मनोवैज्ञानिक कारणों के लिए जिम्मेदार माना जाता है. इस परिदृश्य मेंमहिलाओं के लिए किसी पेशेवर से मदद लेना महत्वपूर्ण होता है.

इस समस्या के मुख्य कारण हैं ;

1. मनोवैज्ञानिक कारण

पुरुषों के लिए सेक्‍स एक शारीरिक मुद्दा हो सकता हैलेकिन महिलाओं के लिए यह एक भावनात्मक मुद्दा है. पिछले बुरे अनुभवों के कारण कुछ महिलाएं भावनात्मक रूप से टूट जाती हैं. वर्तमान में बुरे अनुभवों के कारण मनोवैज्ञानिक मुद्दे या फिर अवसाद इसका कारण हो सकता है.

2. और्गेज्‍म तक न पहुंच पाना

एफएसडी का दूसरा भाग एनोर्गस्मिया कहलाता है. यह स्थिति तब होती है जब व्‍यक्ति को या तो कभी और्गेज्‍म नहीं होता या वह कभी इस तक पहुंच ही नहीं पाता. ऑर्गेज्‍म तक पहुंचने में असमर्थता भी एक मेडिकल कंडीशन है. सेक्स में रुचि की कमी और और्गेज्‍म तक पहुंचने में असमर्थता दोनों ही स्थिति गंभीर हैं. यह मुख्य रूप से इसलिए होता है क्योंकि महिलाएं अधिक फोरप्ले पसंद करती हैं. अगर ऐसा नहीं हो रहा तो और्गेज्‍म तक पहुंचना मुश्किल है. इसका मनोचिकित्सा के माध्यम से इलाज किया जा सकता है. महिलाओं को अपने रिश्ते में सेक्स के साथ समस्याएं होती हैं. यदि आपको ऐसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा हैतो आपको अपने एंड्रोलौजिस्ट को जल्द से जल्द दिखाना चाहिए ताकि समस्या संबंधों को प्रभावित न करे.

3.  फीमेल सेक्सुअल डिसफंक्शन का इलाज और उपचार

जहां तक घरेलू उपचार का सवाल हैएफएसडी के इलाज में वास्तव में यह बहुत प्रभावी नहीं होते. बाजार में कई तरह के महिला वियाग्रा मौजूद हैं लेकिन ये आमतौर पर अपेक्षित नतीजे नहीं दे पाते. महिलाएं लेजर के साथ योनि कायाकल्प ट्राई कर सकती हैं. आप चाहें तो प्लेटलेट रिच प्लाज़्मा (पी आर पी ) थेरेपी भी अपना सकती हैं. इस क्षेत्र में ब्लड सर्कुलेशन में सुधार करने के लिए योनि के पास इंजेक्शन दिया जाता है. इसे ओ-शौट के रूप में जाना जाता है.

यदि आप यौन संबंध का आनंद नहीं ले रहे हैं तो डाक्टर को दिखाना जरूरी है। उसके बाद डाक्टर जांच करेगा. दोनों भागीदारों के लिए यौन परामर्श उपयोगी हो सकता है. दिनचर्या बदलने और अलग-अलग पदों की कोशिश करके इसे और अधिक रोचक बनाने की कोशिश करना उपयोगी हो सकता है. योनि क्रीम या स्नेहक की कोशिश की जा सकती है. ज्यादातर महिलाओं कोविशेष रूप से जब वे बूढी हो जाती हैं तो संभोग शुरू करने से पहले अधिक उत्तेजना और फोरप्ले की आवश्यकता होती है. योनि प्रवेश के साथ ज्यादातर महिलाओं को संभोग के दौरान संतुष्टि नहीं होती है. उन्हें अपने साथी द्वारा अपने निप्पलस और क्लिटोरिस को संभोग करने में सक्षम होने के लिए चूमने, छूने इत्यादि की आवश्यकता हो सकती है. हस्तमैथुन या मौखिक सेक्स जैसी अन्य यौन गतिविधियों की कोशिश की जा सकती है.

डा. अनूप धीर अपोलो हॉस्पिटल नई दिल्ली

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