Hindi Stories Online : बस एक सनम चाहिए

Hindi Stories Online : ‘‘सांसों की जरूरत है जैसे जिंदगी के लिए, बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए…’’ एफएम पर बजते ‘आशिकी’ फिल्म के इस गाने ने मुझे बरबस ही तनु की याद दिला दी.

cookery

वह जब भी किसी नए रिश्ते में पड़ती थी, तो यह गाना गुनगुनाती थी.मनचली… तितली… फुलझड़ी… और भी न जाने किनकिन नामों से बुलाया करते थे लोग उसे…मगर वह तो जैसे चिकना घड़ा थी. किसी भी कमैंट का कोई असर नहीं पड़ता था उस पर. अपनी शर्तों पर, अपने मनमुताबिक जीने वाली तनु लोगों को रहस्यमयी लगती थी. मगर मैं जानती थी कि वह एक खुली किताब की तरह है. बस उसे पढ़ने और समझने के लिए थोड़े धीरज की जरूरत है.

वह कहते हैं न कि अच्छे दोस्त और अच्छी किताबें जरा देर से समझ में आते हैं…तनु के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि वह जरा देर से समझ आती है.

तनु मेरी बचपन की सहेली थी. स्कूल से ले कर कालेज और उस के बाद उस के जौब करने तक… मैं उस के हर राज की हमराज थी. पता नहीं कितनी चाहतें, कितने अरमान भरे थे उस के दिल के छोटे से आसमान में कि हर बार अपनी ही उड़ान से ऊपर उड़ने की ख्वाहिशें पलती रहती थीं उस के भीतर. वह जिस मुकाम को हासिल कर लेती थी वह तुच्छ हो जाता था उस के लिए. कभीकभी तो मैं भी नहीं समझ पाती थी कि आखिर यह लड़की क्या पाना चाहती है. इस की मंजिल आखिर कहां है?

8वीं क्लास में जब पहली बार उस ने मुझे बताया कि उसे हमारे क्लासमेट रवि से प्यार हो गया है तो मेरी समझ ही नहीं आया था कि मैं कैसे रिएक्ट करूं. तनु ने बताया कि रवि के साथ बातें करना, खेलना, मस्ती करना उसे बहुत भाता है. तब तो हम शायद प्यार के माने भी ठीक ढंग से नहीं जानते थे. फिर भी न जाने किस तलाश में वह पागल लड़की उस अनजान रास्ते पर आगे बढ़ती ही जा रही थी.

एक दिन रवि का लिखा एक लव लैटर उस ने मुझे दिखाया तो मैं डर गई. बोली, ‘‘फाड़ कर फेंक दे इसे…कहीं सर के हाथ लग गया तो तुम दोनों की खैर नहीं,’’ मैं ने उसे समझाते हुए उस की सहेली होने का अपना फर्ज निभाया.

‘‘अरे, कुछ नहीं यार… लाइफ में एक जिगरी यार तो होना ही चाहिए न. बस एक सनम चाहिए. आशिकी के लिए…’’ उस ने गुनगुनाते हुए कहा.

‘‘तो क्या मैं तुम्हारी जिगरी नहीं?’’ मैं ने तुनक कर पूछा.

‘‘तुम समझी नहीं. जिगरी यार से मेरा मतलब एक ऐसे दोस्त से है जो मुझे बहुत प्यार करे. सिर्फ प्यार… तुम तो सहेली हो. यार नहीं…’’ तनु ने मुझ नासमझ को समझाया.

फिर एक दिन तैश में आते हुए बोली, ‘‘आई हेट रवि.’’

मैं ने कारण पूछा तो उस ने बताया कि आज सुबह गेम्स पीरियड में बैडमिंटन कोर्ट में रवि ने उसे किस करने की कोशिश की.

मैं ने कहा, ‘‘तुम ही तो प्यार करने वाला जिगरी यार चाहती थी न?’’

सुनते ही बिफर गई तनु. बोली, ‘‘हां, चाहती थी प्यार करने वाला. मगर तभी जब उस में मेरी मरजी शामिल हो. बिना मेरी सहमती के कोई मुझे छू नहीं सकता.’’ कहते हुए उस ने रवि के लिखे सारे लव लैटर्स फाड़ कर डस्टबिन के हवाले कर दिए और लापरवाही से हाथ झटक लिए.

‘‘उम्र मात्र 14 वर्ष और ये तेवर?’’ मैं डर गई थी.

9वीं क्लास में हम दोनों ने कोऐजुकेशन छोड़ कर गर्ल्स स्कूल में ऐडमिशन ले लिया. स्कूल हमारे घर से ज्यादा दूर नहीं था, इसलिए हम सब सहेलियां साइकिल से स्कूल जाती थीं. 10वीं कक्षा तक आतेआते एक दिन उस ने मुझ से कहा, ‘‘स्कूल जाते समय रास्ते में अकसर एक लड़का हमें क्रौस करता है और वह मुझे बहुत अच्छा लगता है. लगता है मुझे फिर से प्यार हो गया…’’

मैं ने उसे एक बार फिर आग से न खेलने की सलाह दी. मगर वह अपने दिल के सिवा कहां किसी और की सुनती थी जो मेरी सुनती. अब तो स्कूल आतेजाते अनायास ही मेरा ध्यान भी उस लड़के की तरफ जाने लगा.

मैं ने नोटिस किया कि आमनेसामने क्रौस करते समय तनु उस लड़के की तरफ भरपूर निगाहों से देखती है. वह लड़का भी प्यार भरी नजरें उस पर डालता है. स्कूल के मेन गेट में घुसने से पहले एक आखिरी बार तनु पीछे मुड़ कर देखती थी और फिर वह लड़का वहां से चला जाता था.

साल भर तक तो उन का यह आंखों वाला प्यार चला

और फिर धीरेधीरे दोनों में प्रेम पत्रों का आदानप्रदान होने लगा. 1-2 बार छोटेमोटे गिफ्ट भी दिए थे दोनों ने एकदूसरे को. कई बार स्कूल के बाद कुछ देर रुक कर दोनों बातें भी कर लेते थे. तनु पहले की तरह ही मुझे अपने सारे राज बताती थी. अब तक हम दोनों 12वीं क्लास में आ गए थे. मैं ने एक दिन तनु से चुटकी ली, ‘‘कब तक चलेगा तुम्हारा यह प्यार?’’

तनु मुसकरा कर बोली, ‘‘जब तक प्यार सिर्फ प्यार रहेगा. जिस दिन इस की निगाहें मेरे शरीर को टटोलने लगेंगी, वही हमारे रिश्ते का आखिरी दिन होगा.’’

‘‘अरे यार, आशिकों का क्या है? रिकशों की तरह होते हैं. एक बुलाओ तो कई आ जाते हैं,’’ तनु ने बेहद लापरवाही से कहा.

मैं उस की बोल्डनैस देख कर हैरान थी. मैं ने पूछा, ‘‘तनु, तुम्हें ये सब करते हुए डर नहीं लगता?’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है? अगर ऐसा कर के मेरा मन खुश रहता है तो मुझे खुश होने का पूरा हक है. और हां, ये लड़के लोग भी कहां डरते हैं? फिर मैं क्यों डरूं? क्या लड़की हूं सिर्फ इसलिए?’’ तनु थोड़ा सा गरमा गई. मेरे पास उस के तर्कों के जवाब नहीं थे.

उस दिन हमारी स्कूल की फेयरवैल पार्टी थी. हम सब को स्कूल के नियमानुसार साड़ी पहन कर आना था. तनु लाल बौर्डर की औफ व्हाइट साड़ी में बहुत ही खूबसूरत लग रही थी. हम लोग हमेशा की तरह साइकिलों पर नहीं, बल्कि टैक्सी से स्कूल गए थे. शाम को घर लौटते समय तनु ने मेरे कान में कहा, ‘‘मैं ने आज अपना रिश्ता खत्म कर लिया.’’

‘‘मगर तुम तो हर वक्त मेरे साथ ही थी. फिर कब, कहां और कैसे उस से मिली? कब तुम ने ये सब किया?’’ मैं ने आश्चर्य के साथ प्रश्नों की झड़ी लगा दी.

‘‘शांतशांतशांत…जरा धीरे बोलो.’’ तनु ने मुझे चुप रहने का इशारा किया और फिर बताने लगी, ‘‘टैक्सी से उतर के जब तुम सब स्कूल के अंदर जाने लगी थीं उसी वक्त मेरी साड़ी चप्पल में अटक गई थी, याद करो…’’

‘‘हांहां… तुम पीछे रह गई थी,’’ मैं ने याद करते हुए कहा.

‘‘जनाब वहीं खड़े थे. टैक्सी की आड़ में, पहले तो मुझे जी भर के निहारा, फिर हाथ थामा और बिना मेरी इजाजत की परवाह किए मुझे बांहों में भर लिया. किस करने ही वाला था कि मैं ने कस कर एक लगा दिया. पांचों उंगलियां छप गई होंगी गाल पर…’’ तनु ने फुफकारते हुए कहा.

‘‘अब तुम ओवर रिएक्ट कर रही हो.. अरे, इतना तो हक बनता है उस का…’’ मैं ने उसे समझाने की कोशिश की.

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं. मेरे शरीर पर सिर्फ मेरा अधिकार है,’’ तनु अब भी गुस्से में थी.

उस के बाद परीक्षा. फिर छुट्टियां और रिजल्ट के बाद नया कालेज. वह स्कूल वाला लड़का कुछ दिन तो कालेज के रास्ते में दिखाई दिया मगर तनु ने कोई रिस्पौंस नहीं दिया तो उस ने भी अपना रास्ता बदल लिया. पता नहीं कैसी जनूनी थी तनु. उसे प्यार तो चाहिए मगर उस में वासना का तनिक भी

समावेश नहीं होना चाहिए. कालेज के 3 साल के सफर में उस ने 3 दोस्त बनाए. हर साल एक नया दोस्त. मैं कई बार उसे समझाया करती थी कि किसी एक को ले कर सीरियस क्यों नहीं हो जाती? क्यों फूलों पर तितली की तरह मंडराती हो?

‘‘फूलों पर मंडराना क्या सिर्फ भौंरो का ही अधिकार है? तितलियों को भी उतना ही हक है अपनी पसंद के फूल का रस पीने का…’’ तनु ताव में आ जाती.

तनु में एक खास बात थी कि वह किसी रिश्ते में तब तक ही रहती थी जब तक सामने वाला अपनी मर्यादा में रहता. जहां उस ने अपनी सीमा लांघी, वहीं वह तनु की नजरों से उतर जाता. तनु उस से किनारा करने में जरा भी वक्त नहीं लगाती. वह अकसर मुझ से कहती थी, ‘‘अपनी मरजी से चाहे मैं अपना सब कुछ किसी को सौंप दूं, मगर मैं अपनी मरजी के खिलाफ किसी को अपना हाथ भी नहीं पकड़ने दूंगी.’’

‘‘कालेज के बाद जौब भी लग गई. तनु अब तो अपनेआप को ले कर सीरियस हो जाओ. कोई अच्छा सा लड़का देखो और सैटल हो जाओ,’’ मैं ने एक दिन उस से कहा जब उस ने मुझे बताया कि आजकल उस का अपने बौस के साथ सीन चल रहा है.

‘‘मेरी भोली दोस्त तुम नहीं जानती इन लड़कों को. उंगली पकड़ाओ तो कलाई पकड़ने लगते हैं. जरा सा गले लगाओ तो सीधे बिस्तर तक घुसने की कोशिश करते हैं. जिस दिन मुझे ऐसा लड़का मिलेगा जो मेरी हां के बावजूद खुद पर कंट्रोल रखेगा, उसी दिन मैं शादी के बारे में सोचूंगी,’’ तनु ने कहा.

‘‘तो फिर रहना जिंदगी भर कुंआरी ही. ऐसा लड़का इस दुनिया में तो मिलने से रहा.’’

इस के बाद कुछ ही महीनों में मेरी शादी हो गई. तनु ने भी जयपुर की अपनी पुरानी जौब छोड़ कर मुंबई की कंपनी जौइन कर ली. कुछ समय तो हम एकदूसरे के संपर्क में रहे फिर धीरेधीरे मैं अपनी गृहस्थी और बच्चे में बिजी होती चली गई और तनु दिल के किसी कोने में एक याद सी बन कर रह गई.

आज इस गाने ने बरबस ही तनु की याद दिला दी. उस से बात करने को मन तड़पने लगा. ‘पता नहीं उसे सनम मिला या नहीं…’ सोचते

हुए मैं ने पुरानी फोन डायरी से उस का नंबर देख कर डायल किया, लेकिन फोन स्विच औफ आ रहा था.

‘क्या करूं? कहां ढूंढ़ूं तनु को इतनी बड़ी दुनिया में,’ सोचतेसोचते अचानक मेरे दिमाग की बत्ती जल गई और मैं ने तुरंत लैपटौप पर फेस बुक लौग इन किया. सर्च में ‘तनु’ लिखते ही अनगिनत तनु नाम की आईडी नजर आने लगीं. उन्हीं में एक जानीपहचानी शक्ल नजर आई. आईडी खंगाली तो मेरी ही तनु निकली. मैं ने उसे फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी.

2 दिन तक कोई रिस्पौंस नहीं आया, मगर तीसरे दिन इनबौक्स में उस का मैसेज देखते ही मैं झूम उठी. उस ने अपना मोबाइल नंबर लिख कर रात 8 बजे से पहले बात करने को कहा था. लगभग 7 बजे मैं ने फोन किया. वह भी शायद मेरे ही फोन का इंतजार कर रही थी.

फोन उठाते ही अपनी चिरपरिचित शैली में चहक कर बोली, ‘‘हाय फ्रैंडी, कैसी हो? आज अचानक मेरी याद कैसे आ गई? बच्चे और जीजाजी से फुरसत मिल गई क्या?’’

‘‘अरे बाप रे, एकसाथ इतने सवाल? जरा सांस तो ले ले,’’ मैं ने हंसते हुए कहा. फिर उसे उस गाने की याद दिलाई जिसे वह अकसर गुनगुनाया करती थी.

सुन कर तनु जोर से खिलखिला उठी. कहने लगी, ‘‘क्या करूं यार, मैं शायद ऐसी ही हूं… बिना आशिकी के रह ही नहीं सकती.’’

‘‘क्या अब तक आशिक ही बदल रही है? तेरे मनमुताबिक कोई परमानैंट साथी नहीं मिला क्या?’’ मैं ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘अरे, तुझे बताया नहीं क्या कभी? मैं ने राजीव से शादी कर ली थी,’’ तनु ने नए राज का खुलासा किया.

‘‘हम मिले ही कब थे जो तुम मुझे बताती? पर मैं बहुत खुश हूं. आखिर मेरी मेनका को विश्वामित्र मिल ही गया,’’ मैं ने अपनी खुशी जाहिर की.

‘‘हां यार. 2 साल तक हम दोनों का रिश्ता रहा. मैं ने उसे अपनी कसौटी पर खूब परखा. इस के लिए मैं ने अपनी सीमाएं लांघ कर उसे फुसलाने की बहुत कोशिश की, मगर वह नहीं फिसला. एक बार तो मुझे शक भी हुआ था कि यह पुरुष है भी या नहीं. कोई लड़की इतनी लिफ्ट दे रही है और ये महाशय ब्रह्मचारी बने बैठे हैं.’’ तनु के शब्दों की गाड़ी चल पड़ी थी. मेरी भी दिलचस्पी अब उस की बातों में बढ़ने लगी थी.

‘‘अच्छा, फिर आगे क्या हुआ?’’ मैं ने पूछा.

‘‘लगता है राजीव आ गया. बाकी बातें कल करेंगे,’’ कह कर तनु ने मुझ अचंभित छोड़ कर फोन काट दिया.

दूसरे दिन शाम 7 बजे तनु का फोन आया.  उस ने कल के लिए सौरी बोला और कहा, ‘‘फोन काटने के लिए सौरी. मगर हम दोनों ने डिसाइड कर रखा है कि घर आने के बाद अपना सारा समय सिर्फ एकदूसरे को ही देंगे.’’

‘‘यह तो बहुत प्यारी बौंडिंग है तुम दोनों के बीच. खैर सौरीवौरी छोड़, तू तो आगे की स्टोरी बता,’’ मैं ने उसे याद दिलाया.

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए तनु कहने लगी, ‘‘राजीव यों तो मुझ से बहुत प्यार जताता था, मगर जब भी मैं उसे लिफ्ट देती थी वह मुझ से कहता था कि दोस्ती तो ठीक है, मगर वह बिना शादी के जिस्मानी संबंध के पक्ष में नहीं है. वह ऐसे संबंध को अपनी होने वाली पत्नी के साथ विश्वासघात समझता है,’’ तनु ने कहा.

‘‘वैरी गुड. तुम्हें ऐसे ही साथी की लाश थी,’’ मैं ने खुश होते हुए कहा.

‘‘हां, और फिर हम ने शादी कर ली.’’

‘‘यानी हैप्पी ऐंडिंग,’’ मैं उस के लिए खुश हो गई.

‘‘नहीं, असली कहानी तो उस के बाद शुरू हुई,’’ तनु थोड़ी झिझकी.

‘‘अब क्या हुआ. क्या राजीव सचमुच पुरुष नहीं था?’’ मेरा मन घबरा उठा.

‘‘वह पक्का पुरुष ही था,’’ तनु ने कहा.

‘‘वह कैसे?’’ मैं ने आशंकित हो कर पूछा.

‘‘हुआ यों कि शादी के साल भर बाद ही मुझे बेचैनी होने लगी. आदतन मेरा मन किसी के प्यार के लिए तड़पने लगा. विवेक जो मेरे विभाग में नया आया था, मेरा मन उस की तरफ खिंचने लगा. उस का केयरिंग नेचर मुझे लुभाने लगा. यह बात भला एक पति और वह भी राजीव जैसे पुरुष को कैसे सहन हो सकती थी,’’ तनु बोली.

‘‘मगर क्यों? क्या राजीव के प्यार में कोई कमी थी?’’ मैं ने आशंकित हो कर पूछा.

‘‘अरे यार समझा कर, जब हम दोस्त को पति बना लेते हैं तो एक अच्छा दोस्त खो देते हैं. बहुत सी बातें ऐसी भी होती हैं जो हम पति से नहीं बल्कि एक दोस्त से ही कह सकते हैं. मेरे साथ भी यही हुआ. पता नहीं ये लड़के लोग शादी करने के बाद इतने पजैसिव क्यों हो जाते हैं,’’ तनु धीरेधीरे खुल रही थी.

‘‘अच्छा, फिर क्या हुआ’’ मैं ने आदतन जिज्ञासा से पूछा.

‘‘होना क्या था, हमारे बीच दूरियां बढ़ने लगीं. विवेक का जिक्र आते ही जैसे राजीव के चेहरे की रौनक गायब हो जाती थी. उसे मेरा विवेक से मिलना, हंसना, बोलना जरा भी पसंद नहीं था. शादी के बाद गैरमर्द से दोस्ती रखना उस के हिसाब से चरित्रहीनता थी, मगर मैं भी अपने दिल के हाथों मजबूर थी. मैं बिना प्यार के रह ही नहीं सकती.’’ तनु ने कहा.

‘‘फिर?’’

‘‘फिर क्या? एक दिन मैं ने राजीव का हाथ अपने हाथ में ले कर उस से पूछा कि दिल पर हाथ रख कर बताओ कि जब हम दोस्त थे तब वह मेरे चरित्र के बारे में क्या सोचता था? उस ने कहा कि उस ने मुझ जैसे मजबूत इरादों वाली लड़की नहीं देखी और वह मेरी इसी खूबी पर मरमिटा था. बस फिर क्या था. मैं ने उसे समझाया कि शादी से पहले जब मैं इतने लड़कों के साथ दोस्ती कर के भी वर्जिन रही तो अब वह कैसे सोच सकता है कि मेरी दोस्ती में पवित्र भावना नहीं होगी.’’

‘‘फिर क्या कहा राजीव ने?’’ मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी.

‘‘मैं ने उसे यकीन दिलाया कि जिस वक्त मेरे किसी दोस्त का हाथ मेरे कंधे से नीचे सरकने लगेगा मैं उसी क्षण हाथ झटक दूंगी. मेरे तन और मन पर सिर्फ और सिर्फ उसी का हक है. बस मेरे खुश होने की शर्त शायद यही है कि एक जिगरी दोस्त मेरी जिंदगी में होना ही चाहिए,’’ तनु ने अपनी बात पूरी की.

‘‘फिर?’’

‘‘बस, बात राजीव की समझ में आ गई कि मैं दोस्त के बिना खुश नहीं रह

सकती और अगर मैं खुश नहीं रहूंगी तो उसे खुश कैसे रखूंगी,’’ तनु आगे बोली.

‘‘अच्छा.’’ सुन कर मैं उछल पड़ी.

‘‘इस के बाद उस ने मुझे विवेक से दोस्ती रखने से नहीं रोका और मैं ने भी उस से वादा किया कि जब वह मेरे साथ होगा तब मेरे वक्त पर सिर्फ उसी का अधिकार होगा,’’ तनु ने अपनी बात खत्म की.

हम ने आगे भी टच में रहने का वादा करते हुए फोन पर विदा ली. तनु का फोन तो कट गया, मगर मैं अभी भी मोबाइल को कान पर लगाए सोच रही थी कि कितनी साहसी है तनु. सच ही तो कहती है कि कम से कम एक आशिक तो हमारी जिंदगी में ऐसा होना ही

चाहिए जो हमें सिर्फ प्यार करे. हमारी हर बुराई के साथ हमें स्वीकार करे. जिस से हम अपनी सारी अच्छीबुरी बातें शेयर कर सकें. पति से जुड़े राज भी. जिसे हम खुल कर अपनी कमियां बता सकें.

हम औरतें जिंदगी भर अपने पति में एक दोस्त ढूंढ़ती रहती हैं, मगर पति पति ही रहता है. वह दोस्त नहीं बन सकता.’’

Hindi Moral Tales : मजनू की मलामत

Hindi Moral Tales : उन दिनों मैं इंटर में पढ़ता था. कालेज में सहशिक्षा थी, लेकिन भारतीय खासतौर पर कसबाई समाज आज की तरह खुला हुआ नहीं था. लड़के लड़की के बीच सामान्य बातचीत को भी संदेह की नजरों से देखा जाता था. प्यारमुहब्बत होते तो थे पर बहुत ही गोपनीयता के साथ. बात का बतंगड़ बनते देर नहीं लगती थी. हमारे कालेज में लड़कियां पढ़ती थीं लेकिन खामोशी के साथ सिर झुकाए आतीजाती थीं. वे कालेज परिसर में बिना कारण घूमतीफिरती भी नहीं थीं. ज्यादातर कौमन रूम में रहती थीं. क्लास शुरू होने के कुछ मिनट पहले आतीं और लड़कों से अलग एक ओर खड़ी रहतीं. शिक्षक के आने के बाद ही क्लास में प्रवेश करतीं और अगली बैंचों पर बैठ जातीं फिर शिक्षक के साथ ही निकलतीं.

cookery

उन्हीं दिनों मेरी क्लास में सरिता नामक एक अत्याधुनिक लड़की ने दाखिला लिया. वह बहुत ही खूबसूरत थी और लाल, पीले, नीले जैसे चटकदार रंगों की ड्रैसें पहन कर आती, जो उस पर खूब फबती भी थीं. कालेज के शिक्षकों से ले कर छात्रों तक में उसे ले कर उत्सुकता थी. कई लड़के तो उस का पीछा करते हुए उस का घर तक देख आए थे, लेकिन उस जमाने में छिछोरापन कम था इसलिए उस के साथ कोई छेड़खानी या अभद्रता नहीं हुई. उन दिनों मेरा एक मित्र था जो पढ़ता तो दूसरे सैक्शन में था, लेकिन अकसर मुझ से मिलताजुलता रहता था. सरिता के कालेज में दाखिले के बाद मुझ से उस की मित्रता कुछ ज्यादा ही प्रगाढ़ होती जा रही थी. वह प्राय: हमारी क्लास शुरू होने के वक्त हमारे पास आ जाता और गप्पें मारने लगता. मैं ने कई दिन तक नोटिस करने के बाद महसूस किया कि वह बात तो हम लोगों से करता था, लेकिन उस की नजर सरिता पर टिकी रहती थी. एकाध बार उसे सरिता का पीछा करते हुए भी देखा गया. उस की कदकाठी अच्छी थी, लेकिन देखने में कुरूप था. मुझे लगा कि इसे सबक सिखाना चाहिए.

अगले दिन जब वह मेरे होस्टल में आया तो मैं ने कहा कि भाई अनिमेष, सरिता पूछ रही थी कि आप के साथ जो सांवले से, लंबे, स्मार्ट नौजवान रहते हैं वे कौन हैं व कहां रहते हैं? अनिमेष का चेहरा खिल उठा, ‘‘अच्छा, वाकई में… कब पूछा उस ने?’’

‘‘प्रैक्टिकल रूम में 2-3 बार पूछ चुकी है. तुम उस से दोस्ती क्यों नहीं कर लेते,’’ मैं ने कहा. ’’ लेकिन कैसे?’’

‘‘तुम ऐसा करो कि शाम को 5 बजे मेरे पास आओ. फिर बताता हूं.’’ कालेज से लौट कर शाम के वक्त वह मेरे कमरे में आया. इस बीच मैं ने अपने कुछ मित्रों को अपनी योजना बता दी थी और उन्हें अभियान में शामिल कर लिया था. हम सब ने उस की प्रशंसा कर उसे फुला दिया.

‘‘करना क्या है?’’ उस ने मासूमियत से पूछा. ‘‘सब से पहले तो तुम्हारा हुलिया बदलना पड़ेगा, चलो.’’

हम ने पूरे होस्टल में घूम कर किसी का सूट, किसी का हैट, किसी का जूता इकट्ठा किया और उसे एक कार्टून की तरह मेकअप कर के तैयार कर दिया. इस के बाद उसे सरिता के घर की तरफ ले कर चले . हम ने रास्ते में उसे समझाया कि तुम्हें उसे बुलवाना है और उस से फिजिक्स की कौपी यह कह कर मांगनी है कि तुम नोट कर के लौटा दोगे. इस तरह आपस में बातचीत की शुरुआत होगी. साथ ही हड़काया भी कि अगर तुम ने कहे मुताबिक नहीं किया तो हम सब तुम्हारी पिटाई कर देंगे.

सरिता के घर के पास पहुंच कर हम सभी ऐसी जगह छिप गए जहां से उन की गतिविधियां देख सकते थे, बातें सुन सकते थे लेकिन उन की नजर में नहीं आ सकते थे. वह सहमता, सकुचाता हुआ सरिता के घर के दरवाजे पर पहुंचा, दस्तक दी. सरिता की मौसी बाहर निकलीं और बोलीं, ’’क्या बात है, किस से मिलना है?’’

’’जी…जी…जी… सरिता से काम है… मैं उस की क्लास में पढ़ता हूं.’’ मौसी ने सरिता को आवाज दी और खुद अंदर चली गईं.

’’यस, क्या बात है. आप कौन हैं? मुझ से क्या काम है?’’ सरिता ने आते ही पूछा. ’’जी…जी… 2-3 दिन के लिए… आ… आ… आप की फिजिक्स की कौपी चाहिए, फिर लौटा दूंगा.’’

’’तुम तो मेरी क्लास में नहीं पढ़ते. मेरी कौपी क्यों चाहिए. खूब समझती हूं, तुम जैसे लड़कों को. चुपचाप चलते बनो, नहीं तो चप्पल से पिटाई कर दूंगी. भागो यहां से.’’ ’’जी…जी… आप गलत समझ रही हैं…’’

’’तुम जाते हो कि सब को बुलाऊं…’’ सरिता ने चिल्ला कर कहा. ’’ज…ज…जाता हूं… जाता हूं,’’ और वह चुपचाप वापस लौट आया.

हम ने इशारे से आगे आने को कहा. उस के घर से कुछ दूर पहुंचने के बाद पूछा, ’’अब बताओ कैसी रही?’’ ’’बहुत बढि़या… उस ने कहा कि कौपी एकदो रोज बाद ले लीजिएगा… फिर चाय पीने के लिए अंदर आने को कहा लेकिन मैं ने क्षमा मांग ली कि फिर कभी.’’

हम एकदूसरे को देख मुसकराए, फिर उस की पीठ ठोंकते हुए कहा, ’’चलो, इसी बात पर पार्टी हो जाए.’’ उसे मजबूरन पार्टी देनी पड़ी. इस के बाद वह हम से कतराने लगा. हम में से किसी को देखता तो तुरंत बहाना बना कर दूसरी ओर निकल जाता.

3-4 दिन बाद वह पकड़ में आया तो हम ने पूछा, ’’कहो, भाई अनिमेष, सरिता से मिलने के बाद हमें भूल गए क्या, मत भूलो कि तुम्हारे काम हम ही आएंगे.’’ वह खिसियानी हंसी हंस कर रह गया. हम उसे पकड़ कर होस्टल ले आए और कहा कि आज तुम्हें फिर से सरिता के घर चलना है.

वह आनाकानी करता रहा लेकिन खुल कर बोल नहीं पाया कि उस दिन क्या हुआ था. हम ने फिर उसे धमका कर तैयार किया और उसे मजबूरन सरिता के घर जाना पड़ा. इस बार सरिता ने दरवाजा खोलते ही उसे फटकार लगाई, ’’तुम फिर आ गए. लगता है, तुम बातों के देवता नहीं हो. बिना लात खाए नहीं मानोगे.’’

म…म…माफ कर दीजिए. कुछ मजबूरी थी, आना पड़ा. जा रहा हूं,’’ और वह पलट कर भागा. हम ने थोड़ी दूर पर उसे लपक कर पकड़ा और पूछा, ’’क्या हुआ… बहुत जल्दी लौट आए?’’

’’हां… उस के घर वालों को शक हो गया है. अब वह मुझ से नहीं मिल सकेगी.’’ ’’यह क्या बात हुई… शुरू होने के पहले ही खत्म हो गया अफसाना,’’ मैं ने कहा.

’’जाने दो भाई. कुछ मजबूरी होगी.. इस किस्से को अब खत्म करो…’’ उस ने पीछा छुड़ाने हेतु मासूमियत से कहा, ’’चलो, ठीक है. कल क्लास में मिलोगे न?’’

’’देखेंगे…’’ इस के बाद अनिमेष हमें पूरब में देखता तो पश्चिम की ओर रुख कर लेता. मेरी क्लास के वक्त आना भी उस ने छोड़ दिया था. हमारी योजना सफल रही.

Latest Hindi Stories : मैं नहीं हारी – मीनाक्षी को कैसे हुआ एक मर्द की कमी का एहसास?

Latest Hindi Stories : ‘’छोड़ दीजिए मुझे,‘‘ आखिर मीनाक्षी गिड़गिड़ाती हुई बोली. ‘‘छोड़ दूंगा, जरूर छोड़ दूंगा,’’ उस मोटे पिलपिले खूंख्वार चेहरे वाले व्यक्ति ने कहा, ‘‘मेरा काम हो जाए फिर छोड़ दूंगा.’’

cookery

वह व्यक्ति मीनाक्षी को कार में बैठा कर ले जा रहा था जब वह सहेली के यहां से रात 11 बजे पार्टी से निबट कर अकेली अपने घर जाने के लिए सुनसान सड़क पर औटो की प्रतीक्षा कर रही थी तभी काले शीशे वाली एक कार न जाने कब उस के पास आ कर खड़ी हो गई. वह संभले तब तक कार का दरवाजा खुला और उसे खींच कर कार में बैठा लिया गया. कार अपनी गति से दौड़ रही थी. यह सब अचानक उस के साथ हुआ. जब वह सहेली के यहां से निकली थी, तो उस ने अपने पति धर्मेंद्र को फोन किया था, ‘‘मैं निकल रही हूं,‘‘ तब धर्मेंद्र ने कहा था, ‘‘मैं आ रहा हूं तुम्हें लेने. तुम वहीं रुकना.’’ उस ने इनकार करते हुए कहा था, ‘‘नहीं धर्मेंद्र, मत आना लेने. मैं आ जाऊंगी. औरत को भी खुद पर निर्भर रहने दो. मैं औटो कर के आ जाऊंगी.‘‘

सच, अकेली औरत का रात को घर से बाहर निकलना खतरे को न्योता देना था. इस संदर्भ में कई बार वह धर्मेंद्र को कहती थी कि औरत को अकेली रहने दो. मगर आज उस के जोश की हवा निकल गई थी. उस को किडनैप कर लिया गया था. वह व्यक्ति उस के साथ क्या करेगा? वह उस व्यक्ति से गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे छोड़ दीजिए, मैं आप के हाथ जोड़ती हूं.’’ ‘‘मैं तुम्हें छोड़ दूंगा. यह बताओ तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘मीनाक्षी.’’ ‘‘पति का नाम?’’

‘‘धर्मेंद्र.’’ ‘‘क्या करता है, वह?’’

‘‘नगर निगम में लेखाधिकारी हैं.’’ ‘‘उस सुनसान सड़क पर क्या कर रही थी?’’

‘‘सहेली के यहां पार्टी में गई थी. औटो का इंतजार कर रही थी.’’ ‘‘झूठ बोल रही है, एक सभ्य औरत रात को अकेली नहीं घूमती. यदि घूमती भी है तो साथ में कोई पुरुष होता है. यह क्यों नहीं कहती कि ग्राहक ढूंढ़ रही थी. निश्चित ही तू वेश्यावृत्ति करती है.’’

‘‘नहींनहीं… मैं वेश्यावृत्ति नहीं करती. मैं सभ्य घराने की महिला हूं.’’ ‘‘बकवास बंद कर, यदि सभ्य घराने की होती तो रात को अकेली यों सड़क पर न घूमती. तुझ जैसी सभ्य घराने की औरतें पैसों के लिए आजकल चुपचाप वेश्यावृत्ति करती हैं,’’ उस व्यक्ति ने यह कह कर उसे वेश्या घोषित कर दिया.

वह पछता रही थी कि अकेली रात को क्यों बाहर निकली. फिर भी साहस कर के वह बोली, ‘‘अब आप को कैसे समझाऊं?’’ ‘‘मुझे समझाने की कोई जरूरत नहीं. मैं तुझ जैसी औरतों को अच्छी तरह जानता हूं. तुम अपने पति को धोखा दे कर धंधा करती हो. पति को कह दिया, सहेली के यहां जा रही हूं. आज मैं तुम्हारा ग्राहक हूं, समझी,’’ कह कर उस ने कस कर मीनाक्षी का हाथ पकड़ लिया.

अब इस के चंगुल से वह कैसे निकले. कैसे कार से बाहर निकले. उस के भीतर द्वंद्व चलने लगा. इस समय उस के पांव पूरी तरह खुले थे. बस, पांवों का ही इस्तेमाल कर सकती है. उस ने चौराहे के पहले स्पीडब्रेकर को देख उस की जांघों के बीच जम कर लात दे मारी. खिड़की से टकरा कर उस का हाथ छूट गया. तत्काल उस ने दरवाजा खोला और कूद पड़ी. जिस सड़क पर वह गिरी वहां 3-4 लोग खड़े थे. इस तरह फिल्मी दृश्य देख कर वे हतप्रभ रह गए. वे दौड़ कर उस के पास आए. उसे चोट तो जरूर लगी, मगर वह सुरक्षित थी. उन में से एक व्यक्ति बोला, ‘‘उस कार वाले ने गिराया.’’

‘‘नहीं,’’ वह हांफती हुई बोली. ‘‘क्या खुद गिरी?’’ दूसरे व्यक्ति ने पूछा.

‘‘हां,’’ कह कर उस ने केवल सिर हिलाया. ‘‘मगर क्यों गिरी?’’ तीसरे ने पूछा.

‘‘उस व्यक्ति ने मेरा किडनैप किया था.’’ ‘‘कहां से किया?’’ चौथे व्यक्ति ने पूछा.

‘‘आजाद चौक से,’’ उस ने उत्तर दे कर सड़क की तरफ उस ओर देखा कि कहीं कार पलट कर तो नहीं आ रही है. उसे तसल्ली हो गई कि कार चली गई है तब उस ने राहत की सांस ली. ‘‘मगर उस व्यक्ति ने तुम्हारा किडनैप क्यों किया?’’ पहले व्यक्ति ने उस की तरफ शरारत भरी नजरों से देखा. उस की आंखों में वासना झलक रही थी.

‘‘उस्ताद, यह भी कोई पूछने की बात है कि इस परी का किडनैप क्यों किया होगा.’’ दूसरा व्यक्ति लार टपकाते हुए बोला, ‘‘भला हो, उस कार वाले का, जो इसे यहां पटक गया.’’

सड़क पर सन्नाटा था. इक्कादुक्का दौड़ते वाहन सड़क पर पसरे सन्नाटे को तोड़ रहे थे. उस ने देखा कि वह उन चारों के बीच घिर गई है, ‘इन की नीयत भी ठीक नहीं लगती. यदि इन्होंने भी वही हरकत की तो…’ सोच कर वह सिहर उठी. ‘‘कहां रहती हो?’’ तीसरे व्यक्ति ने पूछा.

‘‘अरे बेवकूफ, कार वाले ने हमारे लिए फेंका है और तू पूछ रहा है कहां रहती हो,’’ चौथे ने तीसरे को डांटते हुए कहा, ‘‘अरे, यह तो हम चारों की द्रौपदी है. चलो, ले चलो.‘‘ वह समझ गई, उन की नीयत में खोट है. एक गुंडे से उस ने पिंड छुड़ाया. अब 4 गुंडों के बीच फंस गई है. यहां से निकलना मुश्किल है. वह एक औरत है. उसे यहां भी बहादुरी दिखानी है. उसे इस जगह अब झांसी की रानी बनना है. इन गुंडों को सबक सिखाना है. वे चारों गुंडे उसे देख कर लार टपका रहे थे. ‘मीनाक्षी असली परीक्षा की घड़ी तो अब है. यदि इन से बच गई तो समझ लो जीत गई. गुंडों से लड़ना पड़ेगा. इन्होंने औरत को अबला समझ रखा है. बन जा सबला.’ वे चारों गुंडे कुछ करें इस के पहले ही वह बोली, ‘‘खबरदार, जो मुझे हाथ लगाया?’’

‘‘हम तुझे हाथ कहां लगाएंगे? हम तो 4 पांडव हैं. तू तो खुद हमें समर्पण करेगी?‘‘

वह व्यक्ति आगे बढ़ा तो वह पीछे हटी. और उस ने रास्ते की धूल उठा कर उस की आंखों में फेंकी और भाग ली. वे चारों उस के पीछेपीछे थे. वह हांफती हुई दौड़ रही थी. उस में गजब की ताकत आ गई थी. अगर आदमी में हौसला है तो सबकुछ पा सकता है. मीनाक्षी ने देखा, सामने से एक औटो आ रहा है. उसे हाथ से रोकती हुई बोली, ‘‘भैया, रुको.’’ औटो वाला जब तक रुके तब तक वे बहुत पास आ चुके थे. मगर तब तक वह भी औटो में बैठ चुकी थी. औटो वाले ने भी मौके की नजाकत देखते हुए तेज रफ्तार से औटो बढ़ा दिया. एक मिनट यदि औटो लेट हो जाता तो वे गुंडे उसे पकड़ चुके होते. वे थोड़ी देर तक औटो के साथ दौड़ते रहे, मगर थक कर चूर हो गए. अब औटो उन की पहुंच से दूर हो चुका था. उस ने राहत की सांस ली. औटो वाला बोला, ‘‘किधर जाना है?’’

‘‘आजाद चौक तक, बहुतबहुत धन्यवाद भैया, आप ने मेरी जान बचा ली.’’ ‘‘लेकिन वे लोग कौन थे?‘‘

‘‘मुझे नहीं मालूम कौन लोग थे वे सब,’’ घबराती हुई मीनाक्षी कहतकहते चुप हो गई. उस ने सोचा औटो वाला कहीं और न ले जाए. आगे मीनाक्षी असलियत बता कर अपने को गिराना नहीं चाहती थी. औटो सड़क पर दौड़ रहा था. अब उन के बीच सन्नाटा पसरा हुआ था. वह उस की हर गतिविधि पर नजर रखे हुए थी. उस के भीतर एक दहशत भी थी. औटो में अकेली बैठी है. एकएक मिनट एकएक घंटे के बराबर लग रहा था. चेहरे पर भय की रेखाएं थीं. मगर, वह उसे बाहर ला कर अपने को कमजोर नहीं दिखाना चाहती थी. अंतत: उस का बंगला आ गया. उस ने औटो रुकवाया. ड्राइवर से किराया पूछा. ’’50 रुपए,’’ ड्राइवर के कहने के साथ ही उस ने पर्स में से 50 का नोट निकाल कर दे दिया. फिर उसे धन्यवाद दिया और भाग कर भीतर पहुंच गई.

धर्मेंद्र बोले, ‘‘बहुत देर कर दी, मीनाक्षी?’’ ‘‘हां, धर्मेंद्र आज गुंडों के बीच मैं बुरी तरह से फंस गई थी, मगर उन का सामना किया, लेकिन मैं हारी नहीं,’’ यह कहते समय उस के चेहरे पर संतोष के भाव थे.

धर्मेंद्र घबरा गए और बिना रुके एकदम बोल पड़े, ‘‘झूठ बोल रही हो, तुम. गुंडों से क्या मुकाबला करोगी, इतनी ताकत है एक औरत में.’’ ‘‘ताकत थी तभी तो सामना किया,’’ कह कर उस ने संक्षिप्त में सारी कहानी धर्मेंद्र को सुना दी. धर्मेंद्र आश्वस्त हो गए और उसे अपनी बांहों में भर लिया.

Best Hindi Stories : रिश्तेदार – क्या हुआ अपनों की तलाश करती सौम्या के साथ?

Best Hindi Stories : सौम्या बाहर बालकनी में खड़ी आसमान की तरफ देख रही थी. आज सुबह से ही नीले आसमान को कालेकाले शोख बादलों ने अपने आगोश में ले रखा था. बारिश की नन्हीनन्ही बूंदों के बाद अब मोटीमोटी बूंदें गिरने लगीं थीं. सावन के महीने की यही खासियत होती है. पूरी प्रकृति बारिश में नहा कर खिल उठती है. सौम्या का मनमयूर भी नाचने को विकल था. इस सुहाने मौसम में वह भी पति की बांहों में सिमट जाना चाहती थी. मगर क्या करती उस का पति अनुराग तो अपने कमरे में कंप्यूटर से चिपका बैठा था.

सौम्या दो बार उस के पास जा कर उसे उठाने की कोशिश कर चुकी थी. एक बार फिर वह अनुराग के कमरे में दाखिल होती हुई बोली,‘‘ प्लीज, चलो न. बाहर बारिश बंद हो जाएगी और तुम काम ही करते रह जाओगे.‘‘

‘‘बोला न सौम्या, मुझे जरूरी काम है. तुम चाहती क्या हो ? बाहर जा कर क्या करूंगा मैं ? तुम भूल क्यों जाती हो कि अब हम प्रौढ़ हो चुके हैं. तुम्हारी नवयुवतियों वाली हरकतें अच्छी नहीं लगतीं.‘‘

सौम्या ने तुनकते हुए कहा,‘‘ मैं कौन सा तुम से रेन डांस करने को कह रही हूं? बस बाहर बरामदे में बैठ कर सुहाने मौसम का आनंद लेने के लिए ही तो कह रही हूं. गरमागरम चाय और पकौड़े खाते हुए जीवन के खट्टेमीठे पल ही तो याद करने को कह रही हूं.‘‘

‘‘देखो सौम्या, मेरे पास इतना फालतू वक्त नहीं कि बाहर बैठ कर प्रकृति निहारूं और खट्टेमीठे पल याद करूं. मुझे चैन से काम करने दो. तुम अपने लिए कोई सहेली या रिश्तेदार ढूंढ़ लो, जो हरदम तुम्हारा मन लगाए रखे और हर काम में साथ दे,‘‘ कह कर अनुराग फिर से काम में लग गया और मुंह बनाती हुई सौम्या किचन में घुस गई.

वह इस शहर में तकरीबन 4 साल पहले आई थी. अनुराग का ट्रांसफर हुआ तो पुराना शहर छोड़ना पड़ा. पुरानी सहेलियां और पुरानी यादें भी पीछे छूट गईं.

इस शहर में अभी किसी से ज्यादा परिचय नहीं था उस का. वैसे भी यहां लोग अपनेअपने घरों में कैद रहते हैं. बगल के घर में मिस्टर गुप्ता अपनी मिसेज के साथ रहते हैं. 60 साल के करीब के ये दंपती दरवाजा खोलने में बहुत आलसी हैं. दूसरी तरफ मिस्टर भटनागर हैं, जो 2 बेटों के साथ रहते हैं. उन की पत्नी का देहांत हो चुका है.

खुद सौम्या के दोनों बच्चे अब ऊंची कक्षाओं में आ चुके हैं. इसलिए हमेशा किताबें या लैपटौप खोल कर बैठे रहते हैं. बड़ा बेटा इंजीनियरिंग एंट्रेंस टेस्ट की तैयारी कर रहा है, जबकि बिटिया बोर्ड परीक्षा की तैयारी में जुटी हुई है.

पूरे घर में सौम्या ही है, जो व्यस्त नहीं है. घर के काम निबटा कर उसे इतना वक्त आराम से मिल जाता है कि वह अपने दिल के काम कर सके. कभी किताबें पढ़ना, कभी पेंटिंग करना और कभी यों ही प्रकृति को निहारना उस का मनपसंद टाइमपास है. इन सब के बाद भी कई बार उस का टाइम पास नहीं होता, तो वह उदास हो जाती है. इस शहर में उस का कोई रिश्तेदार भी नहीं.

वैसे भी वह घर की इकलौती बिटिया थी. पिता की मौत के बाद मां ने ही उसे संभाला था. अभी भी सौम्या दिल से मां के बहुत करीब है. मां खुद बहुत व्यस्त रहती हैं. वैसे भी वह दूसरे शहर में सरकारी नौकरी में हैं. सौम्या की एकदो सहेलियां हैं, मगर फोन पर कितनी बात की जाए.

सौम्या का मन आज बहुत उदास था. शाम तक उसे कहीं सुकून नहीं मिला. रात में बिस्तर पर लेटेलेटे उस ने एक प्लान बनाया. अगले दिन सुबहसुबह पति और बच्चों के साथ वह भी तैयार होने लगी.

बेटी ने जब सौम्या को कहीं जाने के लिए तैयार होते देखा, तो पूछ बैठी, ‘‘ममा, आप कहां जा रहे हो?‘‘

‘‘फिल्म देखने,‘‘ इठलाती हुई सौम्या बोली.

बेटी ने फिर से सवाल किया, ‘‘मगर, किस के साथ?‘‘

‘‘खुद के साथ.‘‘

‘‘यह क्या कह रहे हो आप? भला फिल्म भी खुद के साथ देखी जाती है? अकेली क्यों जा रही हो आप? कितना अजीब लगेगा.‘‘

‘‘तो फिर क्या करूं, बता दो जरा. तुम चलोगी मेरे साथ? तुम्हारे पापा चलेंगे? नहीं न. कोई रिश्तेदारी या सहेली है इस शहर में मेरी? नहीं न. बताओ, फिर क्या करूं? अजीब लगेगा यह सोच कर अपने मन को मारती रहूं? मगर कब तक…? कभी तो हिम्मत करनी पड़ेगी न मुझे अकेले चलने की. सब के होते हुए भी मैं अकेली जो हूं.‘‘

सौम्या की बात सुन कर घर के सभी सदस्य की नजरें सौम्या पर जा टिकीं, मगर कोई कुछ बोल न सका. सौम्या बैग उठा कर और सैंडल पहन कर घर से निकल गई.

वैसे अजीब तो उसे वाकई लग रहा था. कभी भी अकेली वह फिल्म देखने जो नहीं गई थी. बाहर आ कर उस ने बैटरीरिकशा लिया और सब से नजदीकी सिनेमाहाल पहुंच गई, जो एक छोटे मौल में था. वैसे, यहां अधिक भीड़ नहीं रहा करती थी, मगर फिल्म अच्छी होने की वजह से कई जोड़े युवकयुवतियां काउंटर के बाहर मंडराते हुए नजर आए. जैसे ही काउंटर खुला, लंबी लाइन लग गई. 15 मिनट लाइन में लग कर आखिरकार उस ने भी टिकट हासिल कर ली.

सिक्योरिटी चेक के बाद अंदर दाखिल हुई तो देखा कि बहुत से लड़केलड़कियां बैठ कर शो शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं. सब आपस में बातें कर रहे थे. उसे कुछ अजीब सा लग रहा था. मगर वह अपना आत्मविश्वास खोना नहीं चाहती थी. मोबाइल पर सहेली को फोन लगा कर बातें करने लगी. कुछ ही देर में शो शुरू होने का समय हो गया. टिकट चेकिंग के बाद एकएक कर सब को अंदर भेजा जाने लगा. वह भी अंदर जा कर अपनी सीट पर बैठ गई. बगल की सीट पर एक लड़की को देख उसे तसल्ली हुई. वह भी अकेली बैठी हुई थी. सौम्या ने उस से हलकीफुलकी बातचीत आरंभ की. तब तक उस लड़की का बौयफ्रैंड आ गया और दोनों आपस में मशगूल हो गए.

सौम्या चैन से फिल्म देखने लगी. इंटरवल के समय जब लड़का पौपकौर्न वगैरह लेने जाने लगा, तो सौम्या ने उस के द्वारा अपने लिए भी स्नैक्स मंगा लिए. इंटरवल में सौम्या ने उस लड़की से काफी बातें कीं. वह लड़की काफी चुलबुली और प्यारी सी थी. लड़का भी अच्छा लग रहा था. फिल्म खत्म होने पर तीनों साथसाथ बाहर निकले.
सौम्या को यह जान कर आश्चर्य हुआ कि दोनों उसी के महल्ले के थे. सौम्या ने उन दोनों को घर चलने का निमंत्रण दिया. दोनों तैयार हो गए.

सौम्या दोनों के साथ घर पहुंची. उस वक्त अनुराग औफिस में और बच्चे स्कूल में थे. सौम्या ने फटाफट चाय और पकौड़े बनाए और दोनों को मन से खिलाया. लड़की का नाम नेहा और लड़के का नितिन था. एक घंटे बातचीत करने के बाद दोनों चले गए.

सौम्या का मन आज बहुत खुश था. उस का पूरा दिन बहुत खूबसूरत जो गुजरा था. अब तो वह अकसर नितिन और नेहा को घर पर बुलाने लगी. कभी नितिन व्यस्त होता तो नेहा अकेली आ जाती. दोनों मिल कर शौपिंग करने जाते, तो कभी कहीं घूमने निकल जाते.

सौम्या को नितिन और नेहा के रूप में मनचाहे साथी या कहिए कि रिश्तेदार मिल गए थे. वहीं नितिन और नेहा के लिए सौम्या दोस्त, बहन, मां, दादी, गाइड और दोस्त जैसे किरदार निभा रही थी. वे सौम्या से दोस्त की तरह अपनी हर बात शेयर करते. सौम्या कभी बहन की तरह प्यार लुटाती तो कभी मां की तरह उन की फिक्र करती. कभी दादी की तरह आज्ञा देती तो कभी गाइड की तरह सही रास्ता दिखाती. उन दोनों को कोई भी समस्या आती तो वे बेखटके सौम्या के पास पहुंच जाते. सौम्या उन के लिए हमेशा तैयार रहती. वैसे भी वह पूरे दिन घर में अकेली होती थी. सो, इन दोनों के साथ खुल कर समय बिताती.

एक दिन दोपहर के समय नेहा सौम्या के घर आई. दरवाजा खुलते ही वह सौम्या के सीने से लग कर रोने लगी. सौम्या घबड़ा गई. उसे बैठा कर वह पानी ले आई. नेहा की आंखें सूजी हुई थीं. वह अब भी रोए जा रही थी.

नेहा का कंधा थपथपाते हुए सौम्या ने कारण पूछा, तो नेहा ने बताया, ‘‘सौम्या दीदी, मैं अब नितिन से कभी बात नहीं करूंगी.‘‘

‘‘अरे, ऐसा क्या हो गया?‘‘ चैंकते हुए सौम्या ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं दीदी, वह मुझ से सच्चा प्यार नहीं करता. उसे तो कोई भी लड़की चलती है.‘‘

‘‘यह कैसी बकवास कर रही है तू?‘‘ डांटते हुए सौम्या ने कहा, तो वह फूट पड़ी, ‘‘दीदी, आज मुझे कालेज जाने में थोड़ी देर हो गई थी. दोपहर 12 बजे के करीब मैं वहां पहुंची तो पता है कि मैं ने क्या देखा?‘‘

‘‘क्या देखा…?‘‘

‘‘मैं ने देखा कि नितिन एक नई लड़की के साथ कैंटीन में बैठा कौफी पी रहा है. यह दृश्य देखते ही मैं अपसेट हो गई और बाहर लौन में आ कर एक बेंच पर बैठ गई. जानती हैं, फिर क्या हुआ?‘‘

‘‘क्या हुआ?‘‘

‘‘फिर, नितिन उस लड़की का बैग उठाए लौन में आया और दोनों ही एक बेंच पर बैठ कर बातें करने लगे. नितिन ने तो मुझे देखा तकफ़ नहीं था. उस का ध्यान तो पूरी तरह उस लड़की पर था. जाने कितनी देर दोनों एकदूसरे की आंखों में देखते हुए बातें करते रहे. मेरा दिल जल उठा और मैं वहां से उठ कर चली आई. क्लास में जाने का भी दिल नहीं हुआ,‘‘ नेहा की आंखें फिर से भर आई थीं.

सौम्या हंसती हुई बोली, ‘‘बस इतनी सी बात है?‘‘

‘‘दीदी, यह इतनी सी बात नहीं. आज नितिन ने दिखा दिया कि वह जरा भी लौयल नहीं है.‘‘

‘‘पागल है तू, ऐसा कुछ नहीं.‘‘ सौम्या ने नेहा को समझाना चाहा कि तब तक सौम्या की बेटी आरुषि घर में दाखिल हुई.

‘‘अरे, क्या हुआ बेटे, आप जल्दी आ गए?‘‘

‘‘हां मम्मा, तबीयत ठीक नहीं थी. फीवर है.‘‘

‘‘ओह, रुक मैं आती हूं…‘‘

तब तक नेहा उठ खड़ी हुई, ‘‘दीदी, आप आरुषि को संभालो. मैं अभी चलती हूं, फिर आऊंगी.‘‘

‘‘ठीक है नेहा, पर इस बात को सीरियसली मत लेना. हो सकता है कि वह लड़की नितिन की जानपहचान की हो.‘‘

‘‘जी दीदी, मैं अभी चलती हूं,‘‘ कह कर नेहा चली गई और सौम्या आरुषि की देखभाल में लग गई.

अगले 3-4 दिन तक सौम्या आरुषि की देखभाल में ही लगी रही, क्योंकि उसे तेज बुखार था. चैथे दिन जब वह थोड़ी ठीक हुई, तो उसे नेहा का खयाल आया. उस ने नेहा को फोन किया, तो उस ने उठाया नहीं. घबरा कर सौम्या ने नितिन को फोन लगाया और नितिन से नेहा के बारे में पूछा. नितिन ने उदास स्वर में कहा, ‘‘हमारा ब्रेकअप हो गया है दीदी. 3 दिन हो गए, मेरी नेहा से कोई बात नहीं हुई.‘‘

‘‘पर, ऐसा क्यों?‘‘

‘‘दीदी, नेहा बहुत शक्की है. वह अजीब तरह से रिएक्ट करती है. मैं अब उस से कभी बात नहीं करूंगा.‘‘

‘‘पागल हो क्या? ऐसे नहीं करते. कल तुम मेरे पास आओ. मुझे मिलना है तुम से.‘‘

‘‘ ठीक है, दीदी. कल मैं दोपहर 3 बजे आता हूं.‘‘

अगले दिन सौम्या ने नेहा को फिर से फोन लगाया. उस ने उदास लहजे में हैलो कहा, तो सौम्या ने उसे दोपहर 3 बजे घर आने को कहा.

फिर दोपहर 3 बजे के करीब नितिन और नेहा दोनों ही सौम्या के घर पहुंचे. एकदूसरे को देखते ही उन्होंने मुंह बनाया और खामोशी से बैठ गए.

सौम्या ने कमान संभाली और नेहा से पूछा,‘‘ नेहा, तुम्हारी क्या शिकायत है?‘‘

नेहा ने ठंडा सा जवाब दिया, ‘‘यह दूसरी लड़कियों के साथ घूमता है.‘‘

नितिन ने घूर कर नेहा को देखा और नजरें फेर लीं. सौम्या ने अब नितिन से पूछा, ‘‘तुम्हें क्या कहना है इस बारे में नितिन?‘‘

‘‘दीदी, इस ने मुझ से इतने रूखे तरीके से बात की, जो मैं आप को बता भी नहीं सकता. 2 दिन तो मेमसाहब मुझ से मिलीं नहीं और न ही फोन उठाया. जब तीसरे दिन जबरदस्ती मैं ने बात करनी चाही और इस रवैए का कारण पूछा, तो मुझ पर सीधा इलजाम लगाती हुई बोली कि तुम्हें दूसरी लड़कियों के साथ गुलछर्रे उड़ाना पसंद है न, तो ठीक है करो जो करना है. पर मुझ से बात मत करना…
‘‘अब आप ही बताइए दीदी कि मुझे कैसा लगेगा?‘‘ नितिन फूट पड़ा था.

सौम्या ने उसे शांत करते हुए पूछा, ‘‘नितिन वह लड़की कौन थी?‘‘

‘‘दीदी, वह मेरे शहर की थी और उस के सब्जैक्ट भी मेरे वाले ही थे. वह हमारी बिंदु मैडम की भतीजी थी. उन्होंने ही मुझे उस का खयाल रखने और गाइड करने को कहा था. बस वही कर रहा था और इस ने पता नहीं क्याक्या समझ लिया.‘‘

सौम्या ने हंस कर कहा,‘‘ नेहा, मुझे नहीं लगता कि नितिन की कोई गलती है. तुम्हें इस तरह रिएक्ट नहीं करना चाहिए था. जिस से आप प्यार करते हैं, उस पर पूरा भरोसा रखना चाहिए. नितिन तुम्हें भी नेहा की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए था. जहां प्यार होता है, वहां जलन और शक होना स्वभाविक है. नेहा ने जलन की वजह से ही ऐसा बरताव किया. अब तुम दोनों एकदूसरे को सौरी कहो और मेरे सामने एकदूसरे के गले लगो.‘‘

नेहा और नितिन मुसकरा पड़े. एकदूसरे को सौरी बोलते हुए वे सौम्या के गले लग गए. सौम्या का दिल खिल उठा था. नितिन और नेहा में उसे अपने बच्चे नजर आने लगे थे. सब ने मिल कर शाम तक बातें कीं और साथ मिल कर चायनाश्ते का आनंद लिया.

दिन इसी तरह बीतने लगे. समय के साथ सौम्या नितिन और नेहा के और भी करीब आती गई. इस बीच नितिन की जौब लग गई और नेहा एक ट्रेनिंग में बिजी हो गई.

इधर, नितिन और नेहा के घर में उन की शादी की बातें भी चलने लगी थीं. सौम्या के कहने पर उन्होंने अपने घर वालों से एकदूसरे के बारे में बताया और अपने प्यार की जानकारी दी.

नेहा के घर वाले तो थोड़े नानुकुर के बाद तैयार हो गए, मगर नितिन के मातापिता ने दूसरी जाति की लड़की को बहू बनाने से साफ इनकार कर दिया.

नितिन ने नेहा को सारी बात बताते हुए भाग कर शादी करने का औप्शन दिया. तब नेहा ने एक बार सौम्या से सलाह लेने की बात की. नितिन तैयार हो गया और दोनों एक बार फिर अपनी परेशानी ले कर सौम्या के पास पहुंचे.

सौम्या ने सारी बातें सुनीं और थोड़ी देर सोचती रही. भाग कर शादी करने की बात सिरे से नकारते हुए सौम्या ने मन ही मन एक प्लान बनाया.

सौम्या ने नितिन से अपनी मां का नंबर देने को कहा और उस के रिश्तेदारों के बारे में भी जानकारी ली.

फिर नंबर ले कर सौम्या ने नितिन की मां को फोन लगाया. उधर से हैलो की आवाज सुनते ही सौम्या बोली,‘‘ बहनजी, मैं सौम्या बोल रही हूं. आप का नंबर मुझे अपने पति से मिला है. मेरे पति आप के एक रिश्तेदार के साथ औफिस में काम करते हैं. असल में बहनजी हम भी आप की ही बिरादरी के हैं. आप के रिश्तेदार ने बताया कि आप का बेटा शादीलायक है. बहुत जहीन और प्यारा बच्चा है. तो बस मुझे लगा कि मैं अपनी बिटिया की शादी की बात चलाऊं. हम भी राजपूत हैं और हमारी बिटिया बहुत संस्कारशील और खूबसूरत बच्ची है. आप को जरूर पसंद आएगी.‘‘

‘हांजी, आप मिल लीजिए हम से.‘‘

‘‘मैं तो कहती हूं बहनजी, आप ही आ जाओ हमारे घर. बिटिया को तबीयत से देख लेना आप. मैं एड्रेस भेजती हूं.‘‘

अगले ही दिन नितिन की मां नेहा को देखने सौम्या के घर आ गईं. नेहा पहले से ही वहां तैयार हो कर पहुंच चुकी थी. नेहा का बातव्यवहार, उस की पढ़ाईलिखाई और खूबसूरती नितिन की मां को काफी पसंद आई. हर तरह से नेहा को परखने के बाद उन्होंने सौम्या से इस रिश्ते की सहमति देते हुए जल्द सगाई करने का वादा भी किया. एक बार वे नेहा को अपने पति और नितिन से भी मिलाना चाहती थीं.

सौम्या ने तुरंत बाजी अपने हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं समधिनजी, 1-2 दिनों में मैं खुद ही अपनी बच्ची को आप के यहां भेज दूंगी. अब तो यह आप की बच्ची भी है. नितिन से मिलवा दीजिएगा. आप चाहें, तो नितिन और उस के पापा यहां आ कर भी बच्ची को देख सकते हैं.‘‘

‘‘जी जरूर,‘‘ खुश होते हुए नितिन की मां ने कहा.

इस बीच नितिन की मां ने यह कह कर नितिन को सौम्या के यहां भेजा कि अपनी आंखों से लड़की देख ले. नितिन और नेहा उस दिन सुबह से शाम तक सौम्या के यहां ही थे और जी भर कर इस बात का मजा ले रहे थे.

घर जा कर नितिन ने औपचारिक रूप से लड़की के लिए अपनी सहमति दे दी. अब तो नेहा 4-6 दिन में एक बार नितिन के यहां हो ही आती थी. इधर उन की सगाई का दिन एक महीने बाद का तय कर दिया गया था. नितिन चाहता था कि सगाई से पहले वह मां को हर बात सचसच बता दे. पर, सौम्या ने उसे फिलहाल खामोश रहने की सलाह दी.

इस घटना के करीब 20-22 दिन बाद की बात है. उस दिन नितिन औफिस के काम से शहर के बाहर था. अचानक शाम के समय औफिस से लौटते ही नितिन के पिता के सीने में तेज दर्द होने लगा.

यह देख कर नितिन की मां के हाथपैर फूल गए. उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि अब क्या करें. वे बहुत घबरा गई थीं. रोतेरोते उन्होंने नितिन को फोन किया. नितिन ने तुरंत नेहा से अपने घर पहुंचने की गुजारिश की. नेहा दौड़ीदौड़ी नितिन के घर पहुंची. रास्ते में ही उस ने एंबुलेंस वाले को फोन कर दिया था.

घर पहुंच कर उस ने एक तरफ नितिन की मां को संभाला, तो दूसरी तरफ पिता को. उस ने पिता के टाइट कपड़े ढीले कर उन्हें आराम से बिस्तर पर लिटा दिया. पैर नीचे की तरफ और सिर थोड़ा ऊपर की ओर उठा कर रखा, ताकि ब्लड की सप्लाई हार्ट तक होती रहे.

तब तक एंबुलेंस पहुंच गई. वह तुरंत उन्हें एंबुलेंस में ले कर अस्पताल पहुंची और आईसीयू में एडमिट करवाया. उन्हें हार्ट अटैक आया था. नेहा सब से सीनियर डाक्टर से आग्रह करने लगी कि वे ही इस केस को हैंडल करें. आननफानन में सारे इंतजाम हो गए.

नितिन की मां एक कोने में बैठी नेहा की दौड़भाग देखती रही. नेहा नितिन के पिता की केयर अपने पिता जैसी कर रही थी. यह सब देख कर नितिन की मां की आंखें भर आईं.

नेहा रातभर जाग कर नितिन के पिता का ध्यान रखती रही. हर तरह की दौड़भाग करती रही. अगले दिन उन की सर्जरी की बात उठी. नेहा ने रुपयों का इंतजाम किया. कुछ नितिन की मां से लिया और कुछ अपनी तरफ से मिला कर फटाफट रुपए जमा करा दिए. आपरेशन कामयाब रहा. शाम तक नितिन भी आ गया.

2 दिन बाद जब नितिन के पिता थोड़े नौर्मल हुए, तो उन्होंने रुंधे गले से नेहा की तारीफ की. उसे बेटी कह कर गले लगा लिया. 4-6 दिन में उन्हें छुट्टी दे दी गई. वे घर आ गए. अब तक सगाई का दिन भी नजदीक आ गया था. सगाई से 2 दिन पहले नितिन ने अपने पेरेंट्स को सचाई बताने की सोची.

नितिन ने कांपती जबान से कहा, ‘‘पापामम्मी, मैं आप लोगों से झूठ बोल कर शादी नहीं कर सकता. दरअसल, नेहा हमारी जाति की नहीं है और वह सौम्या दीदी की बेटी भी नहीं है. नेहा तो वही लड़की है, जिसे मैं… प्यार करता था.‘‘

नितिन ने सच बता कर निगाहें झुका लीं. वह डर रहा था कि शायद अब उस के पापामम्मी नाराज हो उठेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. दोनों मुसकरा रहे थे.

नितिन के पिता ने कहा, ‘‘बेटा, इस बात का एहसास हमें हो गया था. जिस प्यार और अपनेपन से नेहा हमारी देखभाल कर रही थी और फिक्रमंद थी, उसी से पता चल रहा था कि वह तुम से कितना प्यार करती है. तुम दोनों के इस प्यार के बीच हम कतई नहीं आ सकते. वैसे भी नेहा किसी भी जाति की हो, उसे हम ने बेटी तो मान ही लिया है न.‘‘

नितिन की आंखें खुशी से भर उठीं. उस की मां ने स्नेह से कहा,‘‘ बेटे, तुम दोनों की जोड़ी बहुत खूबसूरत है और इस खूबसूरत रिश्ते को जोड़ने में मदद करने वाली सौम्याजी भी हमारी रिश्तेदार हैं. कल हम सब उन के घर मिठाई ले कर चलेंगे.‘‘

अगले दिन सौम्या का घर हंसीठहाकों से गूंज रहा था. खिलेखिले चेहरों के बीच बैठी सौम्या के पास अब रिश्तेदारों की कोई कमी नहीं थी.

Hindi Love Stories : तलाक के बाद शादी – देव और साधना की प्रेम कहानी

Hindi Love Stories : न्यायाधीश ने चौथी पेशी में अपना फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘आप दोनों का तलाक मंजूर किया जाता है.’’ देव और साधना अलग हो चुके थे. इस अलगाव में अहम भूमिका दोनों पक्षों के मातापिता, जीजा की थी.

cookery

दोनों के मातापिता इस विवाह से खफा थे. दोनों अपने बच्चों को कोसते रहे विवाह की खबर मिलने से तलाक के पहले तक. दूसरी जाति में शादी. घरपरिवार, समाज, रिश्तेदारों में नाक कटा कर रख दी. कितने लाड़प्यार से पालपोस कर बड़ा किया था. कितने सपने संजोए थे. लेकिन प्रेम में पगलाए कहां सुनते हैं किसी की. देव और साधना दोनों बालिग थे और एक अच्छी कंपनी में नौकरी करते थे साथसाथ. एकदूसरे से मिलते, एकदूसरे को देखते कब प्रेम हो गया, उन्हें पता ही न चला.

फिर दोनों छिपछिप कर मिलने लगे. प्रेम बढ़ा और बढ़ता ही गया. बात यहां तक आ गई कि एकदूसरे के बिना जीना मुश्किल होने लगा.

वे जानते थे कि मध्यवर्गीय परिवार में दूसरी जाति में विवाह निषेध है. बहुत सोचसमझ कर दोनों ने कोर्टमैरिज करने का फैसला किया और अपने कुछेक दोस्तों को बतौर गवाह ले कर रजिस्ट्रार औफिस पहुंच गए. शादीशुदा दोस्त तो बदला लेने के लिए सहायता करते हैं और कुंआरे दोस्त यह सोच कर मदद करते हैं मानो कोई भलाई का कार्य कर रहे हों. ठीक एक माह बाद विवाह हो गया. उन दोनों के वकील ने पतिपत्नी और गवाहों को अपना कार्ड देते हुए कहा, ‘यह मेरा कार्ड. कभी जरूरत पड़े तो याद कीजिए.’

‘क्यों?’ देव ने पूछा था.

वकील ने हंसते हुए कहा था, ‘नहीं, अकसर पड़ती है कुंआरों को भी और शादीशुदा को भी. मैं शादी और तलाक दोनों का स्पैशलिस्ट हूं.’

वकील की बात सुन कर खूब हंसे थे दोनों. लेकिन उन्हें क्या पता था कि वकील अनुभवी है. कुछ दिन हंसतेगाते बीते. फिर शुरू हुई असली शादी., जिस में एकदूसरे को एकदूसरे की जलीकटी बातें सुननी पड़ती हैं. सहना पड़ता है. एकदूसरे की कमियों की अनदेखी करनी पड़ती है. दुनिया भुला कर जैसे प्रेम किया जाता है वैसे ही विवाह को तपोभूमि मान कर पूरी निष्ठा के साथ एकदूसरे में एकाकार होना पड़ता है. प्रेम करना और बात है. लेकिन प्रेम निभाने को शादी कहते हैं. प्रेम तो कोई भी कर लेता है. लेकिन प्रेम निभाना जिम्मेदारीभरा काम है.

दोनों ने प्रेम किया. शादी की. लेकिन शादी निभा नहीं पाए. छोटीछोटी बातों को ले कर दोनों में तकरार होने लगी. साधना गुस्से में कह रही थी, ‘शादी के पहले तो चांदसितारों की सैर कराने की बात करते थे, अब बाजार से जरूरी सामान लाना तक भूल जाते हो. शादी हुई या कैद. दिनभर औफिस में खटते रहो और औफिस के बाद घर के कामों में लगे रहो. यह नहीं कि कोई मदद ही कर दो. साहब घर आते ही बिस्तर पर फैल कर टीवी देखने बैठ जाते हैं और हुक्म देना शुरू पानी लाओ, चाय लाओ, भूख लगी है. जल्दी खाना बनाओ वगैरा.’

देव प्रतिउत्तर में कहता, ‘मैं भी तो औफिस से आ रहा हूं. घर का काम करना पत्नी की जिम्मेदारी है. तुम्हें तकलीफ हो तो नौकरी छोड़ दो.’

‘लोगों को मुश्किल से नौकरी मिलती है और मैं लगीलगाई नौकरी छोड़ दूं?’

‘तो फिर घर के कामों का रोना मुझे मत सुनाया करो.’

‘इतना भी नहीं होता कि छुट्टी के दिन कहीं घुमाने ले जाएं. सिनेमा, पार्टी, पिकनिक सब बंद हो गया है. ऐसी शादी से तो कुंआरे ही अच्छे थे.’

‘तो तलाक ले लो,’ देव के मुंह से आवेश में निकल तो गया लेकिन अपनी फिसलती जबान को कोस कर चुप हो गया.

तलाक का शब्द सुनते ही साधना को रोना आ गया. अचानक से मां का फोन और अपनी रुलाई रोकने की कोशिश करते हुए बात करने से मां भांप गईं कि बेटी सुखी नहीं है. साधना की मां दूसरे ही दिन बेटी के पास पहुंच गई. मां के आने से साधना ने अवकाश ले लिया. देव काम पर चला गया. मां ने कहा, ‘मैं तुम्हारी मां हूं. फोन पर आवाज से ही समझ गई थी. अपने हाथ से अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी है तुम ने. अगर दुखी है तो अपने घर चल. अभी मातापिता जिंदा हैं तुम्हारे. दिखने में सुंदर हो, खुद कमाती हो. लड़कों की कोई कमी नहीं है जातसमाज में. अपनी बड़ी बहन को देखो, कितनी सुखी है. पति साल में 4 बार मायके ले कर आता है और आगेपीछे घूमता है. एक तुम हो. तुम्हें परिवार से अलग कर के शादी के नाम पर सिवा दुख के क्या मिला.’

पति की बेरुखी और तलाक शब्द से दुखी पत्नी को जब मां की सांत्वना मिली तो वह फूटफूट कर रोने लगी. मां ने उसे सीने से लगा कर कहा, ‘2 वर्ष से अपना मायका नहीं देखा. अपने पिता और बहन से नहीं मिली. चलो, घर चलने की तैयारी करो.’

साधना ने कहा, ‘मां, लेकिन देव को बताए बिना कैसे आ सकती हूं. शाम को जब मैं घर पर नहीं मिलूंगी तो वे क्या सोचेंगे.’

मां ने गुस्से में कहा, ‘जिस आदमी ने कभी तुम्हारी खुशी के बारे में नहीं सोचा उस के बारे में अब भी इतना सोच रही हो. पत्नी हो, गुलाम नहीं. फोन कर के बता देना.’ साधना अपनी मां के साथ मायके आ गई.

शाम को जब देव औफिस से लौटा तो घर पर ताला लगा पाया. दूसरी चाबी उस के पास रहती थी. ताला खोल कर फोन लगाया तो पता चला कि साधना अपने मायके से बोल रही है.

देव ने गुस्से में कहा, ‘ तुम बिना बताए चली गई. तुम ने बताना भी जरूरी नहीं समझा.’

‘मां के कहने पर अचानक प्रोग्राम बन गया,’ साधना ने कहा.

देव ने गुस्से में न जाने क्याक्या कह दिया. उसे खुद ही समझ नहीं आया कहते वक्त. बस, क्रोध में बोलता गया. ‘ठीक है. वहीं रहना. अब यहां आने की जरूरत नहीं. मेरा तुम्हारा रिश्ता खत्म. आज से तुम मेरे लिए मर…’

उधर से रोते हुए साधना की आवाज आई, ‘अपने मायके ही तो आई हूं. वह भी मां के साथ. उस में…’ तभी साधना की मां ने उस से फोन झपटते हुए कहा, ‘बहुत रुला लिया मेरी लड़की को. यह मत समझना कि मेरी बेटी अकेली है. अभी उस के मातापिता जिंदा हैं. एक रिपोर्ट में सारी अकड़ भूल जाओगे.’

देव ने गुस्से में फोन पटक दिया और उदास हो कर सोचने लगा, ‘जिस लड़की के प्यार में अपने मातापिता, भाईबहन, समाज, रिश्तेदार सब छोड़ दिए, आज वही मुझे बिना बताए चली गई. उस पर उस की मां कोर्टकचहरी की धमकी दे रही है. अगर उस का परिवार है तो मैं भी तो कोई अकेला नहीं हूं.’

देव भी अपने घर चला गया. उस के परिवार के लोगों ने भी यही कहा, ‘तुम ने गैरजात की लड़की से शादी कर के जीवन की सब से बड़ी भूल की है. तलाक लो. फुरसत पाओ. हम समाज की किसी अच्छी लड़की से शादी करवा देंगे. शादी 2 परिवारों का मिलन है. जो गलती हो गई उसे भूल जाओ. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? अच्छे दिखते हो. अच्छी कमाई है. अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा, सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते. अच्छा हुआ कि कोई बालबच्चा नहीं हुआ वरना फंस गए थे बुरी तरह. पूरा जीवन बरबाद हो जाता. फिर तुम्हारे बच्चों की शादी किस जात में होती.’

प्रेम तभी सार्थक है जब वह निभ जाए. यदि बीच में टूट जाए तो उसे अपने पराए सब गलती कहते हैं. यदि यही शादी जाति में होती तो मातापिता समझाबुझा कर बच्चों को सलाह देते. विवाह कोई मजाक नहीं है. थोड़ाबहुत सुनना पड़ता है. स्त्री का धर्म है कि जहां से डोली उठे, वहीं से जनाजा. फिर दामादजी से क्षमायाचना की जाती है. बहू को भी प्रेम से समझाबुझा कर लाने की सलाह दी जाती है. लेकिन मातापिता की मरजी के विरुद्ध अंतरजातीय विवाह में तो जैसे दोनों पक्षों के परिवार वाले इस प्रयास में ही रहते हैं.

यह शादी ही नहीं थी, धोखा था. लड़केलड़की को बहलाफुसला कर प्रेम जाल में फंसा लिया गया था. उन की बेटाबेटी तो सीधासादा था. अब तलाक ही एकमात्र विकल्प है. यह शादी टूट जाए तो ही सब का भला है. ऐसे में जीजा नाम के प्राणी को घर का सम्मानित व्यक्ति समझ सलाह ली जाती है और जीजा वही कहता है जो सासससुर, समाज कहता है. इस गठबंधन के बंध तोड़ने का काम जीजा को आगे बढ़ा कर किया जाता है.

जब देव साधना से और साधना देव से बात करना चाहते तो दोनों तरफ से माता या पिता फोन उठा कर खरीखोटी सुना कर तलाक की बात पर अड़ जाते और बच्चों के कान में उलटेसीधे मंत्र फूंक कर एकदूसरे के खिलाफ घृणा भरते.

तलाक की पहली पेशी में भी पतिपत्नी आपस में बात न कर पाए इस उद्देश्य से घर से समझाबुझा कर लाया गया था कोर्ट में और साथ में मातापिता, जीजा हरदम बने रहते कि कहीं कोई बात न हो जाए. इस बीच साधना औफिस नहीं गई. उस ने भोपाल तबादला करवा लिया या कहें करवा दिया गया.

मजिस्ट्रेट के पूछने पर दोनों पक्षों ने तलाक के लिए रजामंदी दिखाई. फिर दूसरी पेशी में उन के वकीलों ने दलीलें दीं. तीसरी पेशी में पत्नी और पति को साथ में थोड़े समय के लिए छोड़ा गया. कुछ झिझक, कुछ गुस्सा, कुछ दबाव के चलते कोई निर्णय नहीं हो पाया. चौथी पेशी में तलाक मंजूर कर लिया गया.

इस बीच 3 वर्ष गुजर गए. जिस जोरशोर से परिवार के लोगों ने दोनों का तलाक करवाया था, उसी तरह विवाह की कोशिश भी की, लेकिन जो उत्तर उन्हें मिलते उन उत्तरों से खीज कर वे अपने बच्चों को ही दोषी ठहराते.

तलाकशुदा से कौन शादी करेगा? 30 साल बड़ा 2 बच्चों का पिता चलेगा जो विधुर है.

घर से भाग कर पराई जात के लड़के से शादी, फिर तलाक. एक व्यक्ति है तो लेकिन अपाहिज है. एक और है लेकिन सजायाफ्ता है लड़की से जबरदस्ती के केस में.

मां ने गुस्से में कह दिया, ‘‘बेटी, तुम भाग कर शादी करने की गलती न करती तो मजाल थी ऐसे रिश्ते लाने वालों की. समाज माफ नहीं करता.’’ फिर मां ने समझाते हुए कहा, ‘‘ऐसी बहुत सी लड़कियां हैं जो बिना शादी के ही परिवार की देखरेख में जीवन गुजार देती हैं. तुम भोपाल में भाईभाभी के साथ रहो. अपने भतीजेभतीजियों की बूआ बन कर उन की देखरेख करो.’’

साधना ने भाभी को भी धीरे से भैया से कहते सुन लिया था कि दीदी की अच्छी तनख्वाह है, हमारे बच्चों को सपोर्ट हो जाएगा. मन मार कर वह भाईभाभी के साथ रहने लगी. भाभी के हाथ में किचन था. भैया ड्राइंगरूम में अपने दोस्तों के साथ गपें लड़ाते, टीवी देखते रहते और वह दिनभर थकीहारी औफिस से आती तो दोनों भतीजे उसे पढ़ाने या उस के साथ खेलने की जिद करते उस के कमरे में आ कर.

कुछ ऐसा ही देव के साथ हुआ तलाक के बाद. शादी की जहां भी बात चलती तो लड़का तलाकशुदा है. कोई गरीब ही अपनी लड़की मजबूरी में दे सकता है. कौन जाने कोई बच्चा भी हो. फिर तलाश की गई लड़की की उम्र बहुत कम होती या उसे बिलकुल पसंद न आती.

पिता गुस्से में कहते, ‘‘दामन पर दाग लगा है, फिर भी पसंदनापसंद बता रहे हो. फिर भी तुम्हारे जीवन को सुखी बनाने के लिए कर रहे हैं तो दस कमियां निकाल रहे हैं जनाब. पढ़ीलिखी नहीं है. बहुत कम उम्र की है. दिखने में ठीकठाक नहीं है.’’

परिवार के व्यंग्य से तंग आ कर देव ने कई बार तबादला कराने की सोची. लेकिन सफलता नहीं मिली. इन 3 वर्षों में वह सब सुनता रहा और एक दिन उसे प्रमोशन मिल गया और उस का तबादला भोपाल हो गया. उसे मंगलवार तक औफिस जौइन करना था. रविवार को उस ने कंपनी से मिले नौकर की मदद से कंपनी के क्वार्टर में सारी सामग्री जुटा ली. सोमवार को उस ने बाकी छोटामोटा घरेलू उपयोग का समान लिया और मन बहलाने के लिए 6 बजे के शो का टिकट ले कर पिक्चर देखने चला गया. ठीक 9 बजे फिल्म छूटी. वह एमपी नगर से हो कर निकला जहां उस का औफिस था. सोचा, औफिस देख लूं ताकि कल आने में आसानी हो. एमपी नगर से औफिस पर नजर डालते हुए वह अंदर की गलियों से मुख्य रोड पर पहुंचने का रास्ता तलाश रहा था.

दिसंबर की ठंड भरी रात. गलियां सुनसान थीं. उसे अपने से थोड़ी दूर एक महिला आगे की ओर तेज कदमों से जाती हुई दिखाई पड़ी. देव को लगा, शायद यह किसी दफ्तर से काम कर के मुख्य रोड पर जा रही हो, जहां से आटो, टैक्सी या सिटीबस मिलती हैं. वह उस के पीछे हो लिया. तभी उस महिला के पीछे 3 मवाली जैसे लड़कों ने चल कर भद्दे इशारे, व्यंग्य करने शुरू कर दिए.

‘‘ओ मैडम, इतनी रात को कहां? घर छोड़ दें या कहीं और?’’

फिर तीनों ने उसे घेर कर उस का रास्ता रोक लिया. महिला चीखी. देव तब तक और नजदीक आ चुका था. एक मवाली ने उसे थप्पड़ मार कर चुप रहने को कहा. महिला फिर चीखी. उसे चीख जानीपहचानी लगी. उस के दिल में कुछ हुआ. पास आया तो वह उस महिला को देख कर आश्चर्य में पड़ गया. यह तो साधना है. वह चीखा, ‘‘क्या हो रहा है, शर्म नहीं आती?’’

एक मवाली हंस कर बोला, ‘‘लो, हीरो भी आ गया.’’ उस ने चाकू निकाल लिया. साधना भी देव को पहचान कर उन बदमाशों से छूट कर दौड़ कर देव से लिपट गई. वह डर के मारे कांप रही थी. देव उसे तसल्ली दे रहा था, ‘‘कुछ नहीं होगा, मैं हूं न.’’

इस से पहले मवाली आगे बढ़ता, तभी पुलिस की एक जीप रुकी सायरन के साथ. पुलिस ने तीनों को घेर लिया. पुलिस अधिकारी ने पूछा, ‘‘आप लोग इतनी रात यहां कैसे?’’

‘‘जी, औफिस में लेट हो गई थी.’’

‘‘और आप?’’

‘‘मैं भी इसी औफिस में हूं. थोड़ा आगेपीछे हो गए थे.’’

साधना जिस तरह देव के साथ सिमटी थी, उसे देख कर पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘‘आप पतिपत्नी को साथसाथ चलना चाहिए.’’

तभी 3 में से 1 मवाली ने कहा, ‘‘वही तो साब, अकेली औरत, सुनसान सड़क. हम ने सोचा कि…’’

इस से पहले कि उस की बात पूरी हो पाती, थानेदार ने एक थप्पड़ जड़ते हुए कहा, ‘‘कहां लिखा है कानून में कि अकेली औरत, सुनसान सड़क और रात में नहीं घूम सकती है. और घूमती दिखाई दे तो क्या तुम्हें जोरजबरदस्ती का अधिकार मिल जाता है.’’

थानेदार ने कहा, ‘‘आप लोग जाइए. ये हवालात की हवा खाएंगे.’’

‘‘तुम यहां कैसे?’’ साधना ने पूछा.

‘‘प्रमोशन पर,’’ देव ने कहा.

‘‘और परिवार,’’ साधना ने पूछा.

‘‘अकेला हूं. तुम्हारा परिवार?’’

‘‘अकेली हूं. भाईभाभी के साथ रहती हूं.’’

‘‘शादी नहीं की?’’

‘‘हुई नहीं.’’

‘‘और तुम ने?’’

‘‘ऐसा ही मेरे साथ समझ लो.’’

‘‘औफिस में तो दिखे नहीं?’’

‘‘कल से जौइन करना है.’’

फिर थोड़ी चुप्पी छाई रही. देव ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘खुश हो तलाक ले कर?’’ वह चुप रही और फिर उस ने पूछा, ‘‘और तुम?’’

‘‘दूर रहने पर ही अपनों की जरूरत का एहसास होता है. उन की कमी खलती है. याद आती है.’’

‘‘लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है.’’

‘‘क्यों, क्या हम दोनों में से कोई मर गया है जो देर हो

चुकी है?’’

साधना ने देव के मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन.’’

उ न दोनों ने पास के एक शानदार  रैस्टोरैंट में खाना खाया. ‘‘घर चलोगी मेरे साथ? कंपनी का क्वार्टर है.’’

‘‘अब हम पतिपत्नी नहीं रहे कानून की दृष्टि में.’’

‘‘और दिल की नजर में? क्या कहता है तुम्हारा दिल.’’

‘‘शादी करोगे?’’

‘‘फिर से?’’

‘‘कानून, समाज के लिए.’’

‘‘शादी ही करनी थी तो छोड़ कर क्यों गई थी,’’ देव ने कहा.

‘‘औरत की यही कमजोरी है जहां स्नेह, प्यार मिलता है, खिंची चली जाती है. तुम्हारी बेरुखी और मां की प्रेमभरी बातों में चली गई थी.’’

‘‘कुछ मेरी भी गलती थी, मुझे तुम्हारा ध्यान रखना चाहिए था, लेकिन अब फिर कभी झगड़ा हुआ तो छोड़ कर तो नहीं चली जाओगी?’’ देव ने पूछा.

‘‘तोबातोबा, एक गलती एक बार. काफी सह लिया. बाहर वालों की सुनने से अच्छा है पतिपत्नी आपस में लड़ लें, सुन लें. एकदूसरे की.’’

अगले दिन औफिस के बाद वे दोनों एक वकील के पास बैठे थे. वकील दोस्त था देव का. वह अचरज में था,

‘‘यार, मैं ने कई शादियां करवाईं है और तलाक भी. लेकिन यह पहली शादी होगी जिस से तलाक हुआ उसी से फिर शादी. जल्दी हो तो आर्य समाज में शादी करवा देते हैं?’’

‘‘वैसे भी बहुत देर हो चुकी है, अब और देर क्या करनी. आर्य समाज से ही करवा दो.’’

‘‘कल ही करवा देता हूं,’’ वकील ने कहा.

शादी संपन्न हुई. इस बात की साधना ने अपनी मां को पहले खबर दी.

मां ने कहा, ‘‘हम लोग ध्यान नहीं रख रहे थे क्या?’’

साधना ने कहा, ‘‘मां, लड़की प्रेमविवाह करे या परिवार की मरजी से, पति का घर ही असली घर है स्त्री के लिए.’’

देव ने अपने पिता को सूचना दी. उन्होंने कहा, ‘‘शादी दिल तय करता है अन्यथा तलाक के बाद उसी लड़की से शादी कहां हो पाती है. सदा खुश रहो.’’

और इस तरह शादी, फिर तलाक और फिर शादी.

Hindi Moral Tales : ई. एम. आई – क्या लोन चुका पाए सोम और समिधा?

Hindi Moral Tales :  रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म की एक बेंच पर सोम और समिधा बैठे हुए अम्मां बाबूजी की गाड़ी के आने का इंतजार कर रहे थे. कुहरे के कारण गाड़ी 4 घंटे लेट थी. सोम गहरे सोच में था.

वह मन ही मन बढ़ने वाले खर्च को सोच कर गुणाभाग में लगा हुआ था.

‘‘समिधा, इस ई.एम.आई. के कारण हम लोगों के हाथ हमेशा बंधे रहते हैं.’’

cookery

‘‘तुम भी सोम न जाने क्याक्या सोचते रहते हो. इसी के जरिए तो हम लोगों ने सुखसुविधा की चीजें जोड़ ली हैं, नहीं तो भला क्या मुमकिन था?’’

‘‘समिधा, अम्मांबाबूजी पहली बार अपने घर आ रहे हैं. ध्यान रखना, अम्मां नाराज न होने पाएं.’’

‘‘सोम, तुम यह बात कम से कम 15 बार कह चुके हो. तुम्हारी अम्मां तुनकमिजाज हैं, यह मुझे अच्छी तरह मालूम है.’’

सोम चुप हो कर बैठ गया.

उस के मन में डर था कि अम्मां और समिधा की कैसे निभेगी, क्योंकि अम्मां को उस के हर काम में मीनमेख निकालने की आदत है. समिधा भी बहुत जिद्दी है. सोम उसे 2 साल तक मां न बनने की बात कह रहा था, लेकिन उस ने चुपचाप अपनी मनमानी कर ली. यह राज तो तब खुला जब एक दिन उस ने समिधा से कहा कि उस का प्रमोशन हुआ है, उस की तनख्वाह भी बढ़ जाएगी. तभी हंस कर बोली थी वह, ‘‘आप का एक प्रमोशन और हुआ है.

‘‘वह क्या?’’ पूछने पर समिधा शरमाते हुए बोली थी, ‘‘आप पापा बनने वाले हैं.’’

सुन कर वह घबरा गया था, ‘‘नहींनहीं, अभी यह सब नहीं. अभी मेरे लिए तुम्हारी नौकरी बहुत जरूरी है. तुम औफिस जाओगी तो बच्चे को कौन रखेगा?’’

निश्चिंत हो कर वह बोली थी, ‘‘मैं ने अम्मां से बात कर ली है, वे अब यहीं रहेंगी. बच्चे को वे ही संभालेंगी.’’

दोनों में अच्छीखासी बहस हो गई थी. सोम का कहना था कि उस की और अम्मां की पटेगी नहीं.

समिधा का कहना था कि वह अम्मां को अच्छी तरह समझती है, वे उसे अकेला छोड़ कर गांव कभी नहीं जाएंगी.

सोम गंभीर हो कर अपनी और समिधा की मुलाकात और शादी के बारे में सोचने लगा. उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे कल की ही बात हो.

समिधा सोम के औफिस में ही काम करती थी. वह गोरे रंग एवं तीखे नैननक्श वाली लड़की थी. काम के सिलसिले में उसे सोम के पास बारबार जाना पड़ता था. दोनों ही साधारण परिवार से थे. मिलतेजुलते कब एकदूसरे के आकर्षण में बंध गए, उन्हें पता ही नहीं लगा.

समिधा का पहले शरमाना, फिर मुसकराना, फिर साथ में कौफी पीना और फिर बाइक पर लिफ्ट… चूंकि दोनों की पृष्ठभूमि लगभग एक सी थी, अत: प्यार परवान चढ़ने लगा. औफिस में दोनों के बारे में चर्चा होने लगी थी. कुछ दिन बाद अचानक समिधा ने औफिस आना बंद कर दिया, तो सोम परेशान हो उठा. उस ने समिधा के घर का पता लगाया और बेचैन हालत में उस के घर पहुंच गया. वह एक कालोनी में अपनी बूआ के साथ रहती थी. उस के मांबाप बचपन में ही गुजर गए थे. बूआ ने ही उसे पढ़ाया लिखाया था. बूआ एक प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका थीं. समिधा और बूआ दोनों एकदूसरे का सहारा थीं. मेवा मिठाई, पकवान तो उन के पास नहीं था, परंतु दाल रोटी अच्छी तरह से चल रही थी.

सोम को देखते ही समिधा की बूआ सरिताजी की त्योरियां चढ़ गई थीं. छूटते ही उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी थी कि कहां रहते हो? घर पर कौनकौन है? समिधा से क्यों मिलने आए हो? तुम्हारी तनख्वाह कितनी है? आदिआदि.

सोम के माथे पर पसीना आ गया था. वह उस घड़ी को कोसने लगा था, जब उस ने समिधा के घर की ओर रुख किया था. परंतु वह अपनी अम्मां के ऐसे तेवरों से वाकिफ था, इसलिए उस ने धैर्यपूर्वक उन्हें उत्तर दिए.

जब सरिताजी थोड़ी आश्वस्त हुईं तो बोलीं, ‘‘इसे तो 1 हफ्ते से बुखार आ रहा था. इसीलिए औफिस नहीं जा रही थी. अब बुखार ठीक हो गया है, इसलिए कल से यह औफिस जाएगी,’’ फिर चेतावनी भरे स्वर में बोलीं, ‘‘मुझे लड़के लड़कियों की दोस्ती पसंद नहीं है. लड़के कुछ दिन तो लड़कियों से प्यार का नाटक करते हैं, फिर जब दूसरी पर दिल आ जाता है तो पहले वाली की ओर मुड़ कर भी नहीं देखते.’’

सोम की तो स्पष्टवादी सरिताजी के सामने बोलती ही बंद हो गई थी. सरिताजी उठ कर अंदर चली गईं तब समिधा ने फुसफुसा कर उस से कहा, ‘‘आप को यहां आने की क्या जरूरत थी? बूआ ने इतनी बातें कह डालीं आप से, मैं उन की ओर से क्षमा मांगती हूं.’’

सोम ने दबे स्वर में कहा, ‘‘तुम्हारा मोबाइल बंद था, इसलिए मैं घबरा गया था. अच्छा अब मैं चलता हूं.’’ वह खड़ा ही हुआ था कि तभी बूआ चायनाश्ता ले कर आ गईं. बोलीं, ‘‘क्यों बेटा, तुम मेरी बात का बुरा मान गए क्या? मेरी जवान बेटी है, सुंदर भी है इसलिए डरती हूं, कहीं किसी गलत लड़के के चक्कर में न पड़ जाए. लंबाचौड़ा दहेज देने की हैसियत तो मेरी है नहीं कि यह राजकुमार का ख्वाब देखे. कोई पढ़ालिखा, खाताकमाता लड़का मिल जाए, जो इस का ध्यान रखे, इस को इज्जत दे, बस यही चाहती हूं मैं. पढ़ालिखा कर काबिल बना दिया है मैं ने इसे, अपने पैरों पर खड़ी हो गई है यह.’’

सोम ने उन लोगों से विदा ली. सरिताजी की स्पष्टवादिता से वह उन का कायल हो गया. एक मां के दर्द को उस ने गहराई से अनुभव किया था. उसी क्षण उस ने मन ही मन समिधा से शादी का निर्णय कर लिया था. अम्मांबाबूजी से आज्ञा लेना तो मात्र औपचारिकता थी.

अगले दिन वह औफिस गई तो सोम से आंखें मिलाने में सकुचा रही थी, परंतु वह उस को देखते ही खुश हो गया. लंच के समय समिधा ने पुन: उस से बूआ की बातों के लिए माफी मांगी, परंतु सोम ने तो उस के समक्ष शादी का प्रस्ताव ही रख दिया. वह खुशी से झूम उठी, उसे अपने पर विश्वास नहीं हो रहा था.

एक हफ्ते बाद ही सोम छुट्टी ले कर अपने गांव गया. वहां उस ने अम्मांबाबूजी को उस का फोटो दिखा कर पूछा, ‘‘यह लड़की कैसी है?’’ दोनों ने फोटो देखा फिर एकसाथ बोल पड़े, ‘‘दहेज कितना मिलेगा?’’

वह बोला, ‘‘दहेज. लेकिन मैं तो बिना दहेज लिए ही शादी करूंगा.’’

बाबूजी भड़क उठे, ‘‘तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है. मेरे पास क्या रकम गड़ी है, जो मैं शादी में खर्च करूंगा? अभी तक सुनंदा के विवाह का कर्ज चुका रहा हूं. ब्याज बढ़ता जा रहा है. मुझे नहीं चाहिए तुम्हारा रुपया. तुम्हें जो नकद मिले उस से तुम शहर में अपने लिए घर ले लेना.’’

‘‘आप मेरे घर की चिंता न करें. किस्तों में फ्लैट मैं ले चुका हूं. आप दहेज की बात करते हैं, वह तो नौकरी कर रही है, सारी जिंदगी कमा कर दहेज देती रहेगी.’’

बाबूजी चीखते हुए बोले, ‘‘जब तुम ने सब तय कर लिया है, तो मुझ से हामी भरवाने की क्या जरूरत है. भाड़ में जाओ, जो चाहे वह करो.’’

सोम ने अगली सुबह की ट्रेन पकड़ी और दिल्ली लौट आया. उस के बाद 3-4 बार वह जल्दीजल्दी फिर गांव गया. अम्मां बाबूजी को तरहतरह से समझाने का प्रयास करता रहा, परंतु हठी बाबूजी का मन नहीं पसीजा.

बाबूजी और सोम में बोलचाल बंद हो गई थी. वह उन के सामने भी नहीं पड़ता था. धीरेधीरे लगभग 1 साल बीत गया. एक बार अम्मां की ममता जाग उठी. बोलीं, ‘‘लल्ला, तुम उस छोरी से चुपचाप कचहरी में लिखापढ़ी से ब्याह कर लो. तुम्हारे बाबूजी गांव भर में पंडिताई करते हैं, इसलिए अपनी बदनामी से डरते हैं. तुम बाद में बहू को ले कर आ जाना. हम सब संभाल लेंगे.’’

दिल्ली लौट कर सोम ने कोर्ट में शादी के लिए अर्जी दे दी और नियत तिथि को उदास मन से शादी कर ली. शादी में कोई धूमधाम न होने से दोनों के मन में बड़ा मलाल था.

समिधा ने सोम की उदासी परखते हुए कुछ दिन बाद उस के गांव चलने का प्रस्ताव रखा. सोम अम्मांबाबूजी के स्वभाव से परिचित था. उस ने उसे समझाया, ‘‘तुम उन के क्रोध को नहीं जानती हो. वे न जाने कैसी प्रतिक्रिया करेंगे.’’

वैसे वह भी समिधा को सब से मिलवाना चाहता था. नए जीवन की शुरुआत पर अम्मां बाबूजी का आशीर्वाद लेना चाहता था. उस ने अम्मां को फोन किया, ‘‘अम्मां, आप के कहे अनुसार हम ने कचहरी में शादी कर ली है, अब हम दोनों आप लोगों का आशीर्वाद चाहते हैं.’’

अम्मां जैसे इंतजार ही कर रही थीं. तुरंत बोलीं, ‘‘आ जाओ, हम भी तो तुम्हारी परकटी परी को अपनी आंखों से देखें, जिस ने हमारे लल्ला को फंसा लिया है.’’

समिधा के बाल कटे हुए थे. आज्ञा पाते ही सोम खुशी से उछल पड़ा. वह बाजार जा कर बाबूजी के लिए सिल्क का कुरता, धोती और ऊनी दोशाला लाया. अम्मां के लिए सुंदर सी साड़ी और शाल लाया. सरिताजी ने भी अपनी ओर से उन के लिए उपहार दिए.

सोम के मन में रास्ते भर उमड़घुमड़ मची रही. वह घर रात के अंधेरे में पहुंचा. संयोगवश दरवाजा बाबूजी ने ही खोला. सोम को देखते ही वे मुंह फेर ही रहे थे कि समिधा उन के पैरों पर गिर पड़ी. बाबूजी थोड़ा सकपकाए, परंतु तुरंत ही सब समझ गए. फिर अप्रत्याशित रूप से आशीर्वाद देते हुए बोले, ‘‘सदा प्रसन्न रहो.’’

सोम का दिल बल्लियों उछल रहा था, परंतु यह क्या? बाबूजी ने अम्मां को आवाज दी, ‘‘उठो, तुम्हारा लाड़ला बहू ले कर आया है. न ढोल न नगाड़ा बस बेटे का ब्याह हो गया.’’ अम्मां ने आ कर दोनों को गले से लगा लिया. आंसुओं की धारा में सारा कलुष बह गया. बाबूजी भी चुपचाप अपने आंसू पोंछते रहे.

अगली सुबह ही अम्मां ने आदमी भेज कर अपनी बेटी सुनंदा को बुला लिया. वह सपरिवार आ गई. घर में खूब रौनक हो गई. बाबूजी ने कोई कसर न छोड़ी. गांव वालों को दावत दी. अम्मां ने समिधा को अपना हार पहना दिया.

सोम बहुत खुश था. उस ने स्वप्न में भी बाबूजी द्वारा ऐसे स्वागत के बारे में नहीं सोचा था. दोनों की गृहस्थी की गाड़ी रफ्तार से चल निकली थी. एक की पूरी तनख्वाह ई.एम.आई.  चुकाने में चली जाती थी, एक की तनख्वाह से घर चलता था. सोम अम्मांबाबूजी को हर महीने कुछ पैसा भेजता था, साथ ही सुनंदाजी की भी कुछ न कुछ मदद करता रहता था, इसलिए उस का हाथ हमेशा तंग रहता था.

‘‘सोम, कहां खो गए हो?’’

समिधा की आवाज से उस की विचार तंद्रा भंग हो गई. ट्रेन के आने की घोषणा हो गई थी. वह वर्तमान में लौट आया था. वह तेजी से अम्मांबाबूजी के डब्बे की ओर चल पड़ा.

‘‘प्लीज, अम्मां का ध्यान रखना,’’ सोम कहना नहीं भूला. उस ने लोन पर गाड़ी भी खरीद ली थी. उन लोगों को वह अपनी गाड़ी में दिल्ली घुमाने ले जाएगा, यह उस की चाहत थी.

सोम की अम्मां 65 वर्ष की बुजुर्ग महिला थीं. उन का पूरा जीवन गांव में गरीबी में बीता था. पहली बार वे दिल्ली आई थीं. प्लेटफार्म की भीड़ देख कर वे हैरान थीं. सड़कों पर लोगों की आवाजाही और गाडि़यों की कतार उन के लिए नई चीज थी. ऊंचीऊंची अट्टालिकाओं की भव्यता से वे हतप्रभ थीं. रोशनी की जगमग देख वे बोल उठीं, ‘‘का हो लल्ला, कोई मेला है क्या?’’

‘‘नहीं अम्मां, लोग काम से आतेजाते रहते हैं. यह देश की राजधानी दिल्ली है.’’

लिफ्ट से ऊपरी मंजिल पर चढ़ना भी उन के लिए अनोखा अनुभव था. सोम का फ्लैट छठी मंजिल पर था. सोम के ड्राइंगरूम में सोफासैट आदि सामान देख कर उन की आंखें फटी की फटी रह गईं.

‘‘सोम, इतने सामान में तो बहुत रुपया लगा होगा?’’

‘‘नहीं अम्मां, हम लोगों ने एकएक कर के पुरानी चीजें खरीद ली हैं.’’

सोम के 70 वर्षीय पिता दमा के मरीज थे. वे अकसर खांसते रहते थे. उस की दिली इच्छा थी कि वह बाबूजी का अच्छी तरह से इलाज कराए. वह उन्हें एक बड़े अस्पताल में दिखाने के लिए ले गया. उन की दवा और खानेपीने का पूरा खयाल रखा. बाबूजी उस से बहुत खुश थे. परंतु सोम का बजट थोड़ा गड़बड़ाने लगा था. फिर भी बाबूजी की सेवा कर के वह बहुत खुश था.

दवा के बड़े लिफाफे को देख कर अम्मां एक दिन बोलीं, ‘‘बुढ़ऊ की तो सारी उमर खांसत बीत गई, अब काहे को इन के लिए डाक्टरों की जेब में रुपया भर रहे हो. बहुत ज्यादा है तो बहन सुनंदा को कुछ भेज दो, उसे सहारा हो जाएगा.’’

उसे अच्छा नहीं लगा. ‘‘अम्मां, आप तो बस कुछ भी बोलती रहती हैं,’’ उस ने कहा, फिर बात बढ़ न जाए, यह सोच वह उठ कर अपने कमरे में चला गया. जब से अम्मां ने सोम का घर और रहनसहन देखा है, तब से उन्हें सुनंदा की याद बारबार आ रही थी.

समिधा समय से अम्मांबाबूजी को चायनाश्ता देती थी, खाना बना कर ही औफिस जाती थी, फिर भी अम्मां उसे पसंद नहीं करती थीं. हालांकि वह ज्यादा कुछ नहीं बोलती थीं, लेकिन उन के चेहरे के हावभाव व आंखें बहुत कुछ कह देती थीं.

एक दिन बोलीं, ‘‘बहू, अब औफिस जाना बंद करो. ऐसी हालत में घर से निकलना ठीक नहीं है. अगर कुछ उलटासीधा हो गया तो सब हाथ मलते रह जाएंगे.’’

उस ने धीरे से कहा, ‘‘अम्मां, बाद में भी छुट्टी लेनी है, इसलिए ज्यादा छुट्टी ले लेंगे तो तनख्वाह कट जाएगी.’’

एकदम बिगड़ कर वे बोलीं, ‘‘तुम तो ऐसे कह रही हो, जैसे मेरा सोम ढफली बजाता है, तुम्हीं रोटी चलाती हो.’’

इसी तरह कुछ न कुछ रोज होता रहता. समिधा तनाव से ग्रस्त हो जाती, परंतु उस ने मर्यादा का सदा ध्यान रखा. सोम व समिधा बच्चे को ले कर नित्य नई कल्पनाएं करते. समिधा ने पहले से ही छोटे बच्चे के लिए कपड़े, स्वैटर, मोजे आदि बना रखे थे. अम्मां भी दादी बनने की कल्पना से अत्यंत खुश थीं. वह मन से कोमल थीं, केवल जबान की तीखी थीं.

इंतजार की घडि़यां पूरी हुईं. समिधा ने प्यारे से बेटे को जन्म दिया. अम्मांबाबूजी तो खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. पूरे वार्ड में घूमघूम कर उन्होंने लड्डू बांटे. प्यार से समिधा के सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया. अम्मां बच्चे के ऊपर रुपए निछावर कर के आया को दे आईं. समिधा और सोम भी प्यारे से गोलू को पा कर निहाल हो उठे थे.

वह घर आ गई थी. अम्मां अपने साथ गांव से घी लाई थीं. उन्होंने प्यार से उस के लिए हलवा, सोंठ के लड्डू और गोंद की बरफी बनाई. बचपन से मां के अभाव में पलीबढ़ी वह सास के लाड़प्यार से अभिभूत हो उठी थी. उन की प्यार भरी देखभाल से उस की सेहत और रूप निखर उठा था. इतना सब करने के बाद भी अम्मां की दिखावे की आदत ने घर में कलुषता घोल दी.

एक दिन वे बोलीं, ‘‘सोम, तुम्हारे बेटा हुआ है, बहन सुनंदा को क्या दोगे?’’

‘‘अम्मां अभी तो अस्पताल वगैरह में बहुत रुपए खर्च हो गए हैं, इसलिए बाद में आप जो कहिएगा वह दे देंगे.’’

अम्मां सुनते ही बिफर पड़ीं, ‘‘तुम दोनों का तो हिसाब ही नहीं समझ आता है. दोनों सुबह के गए रात में घर घुसते हो. दोनों हाथ से कमा रहे हो, फिर भी बहन को देने के नाम पर कुछ है ही नहीं.’’

अम्मां का पारा गरम हो गया था. उन की आदत थी कि जब उन के मन का काम नहीं होता था, वे मुंह फुला कर बैठ जाती थीं. उन की चुप्पी उन के गुस्से की द्योतक थी. चेहरे के हावभाव बिगड़ेबिगड़े थे. समिधा समझ रही थी कि स्थिति नाजुक है. उस ने समझदारी से गोलू को उन की गोद में दे दिया. गोलू को देख कर वे थोड़ी सामान्य हुईं.

एक दिन अम्मां कोने में खड़ी हो कर सुनंदा जीजी से फोन पर धीरेधीरे बातें कर रही थीं. समिधा वहां से गुजरी तो उसे सुनाई पड़ा कि सुनंदा तुम छोटी हो, तुम्हें भाईभाभी को कुछ भी देने की जरूरत नहीं है. वे तुम से बड़े हैं. तुम अपने पैसे मत खर्च करना. बस जब आना तो गोलू के लिए एक जोड़ी कपड़े ले आना. सोम के पास तो तुम्हें देने के लिए कुछ है ही नहीं. समिधा चुप्पी है, लेकिन है पूरी घाघ. वही सोम को भरती रहती है.

इन बातों को सुन कर समिधा का दिल टूट गया. वह अम्मां को कैसे समझाए कि वह किस तरह से ई.एम.आई. के शिकंजे में फंसी हुई है. अम्मां को तो इस घर की ऊपरी चमकदमक दिख रही है, परंतु इस के अंदर की कहानी का उन्हें क्या पता?

गोलू 3 महीने का होने वाला था. समिधा की छुट्टियां समाप्त होने वाली थीं. अभी तक तो वह घर में रह कर सब कुछ अच्छी तरह संभाल रही थी. कल से उसे औफिस जाना है. उस ने सुबह जल्दी उठ कर जल्दीजल्दी नाश्ता और खाना बना दिया, फिर अपना और सोम का टिफिन भी तैयार कर लिया, लेकिन गोलू को छोड़ कर जाते समय उस की आंखें भर आईं. सोम से बोली, ‘‘मुझ से गोलू को छोड़ कर नौकरी नहीं हो पाएगी.’’

वह नाराज हो उठा, ‘‘मैं समझता हूं कि तुम्हें परेशानी हो रही है, लेकिन क्या करूं. तुम्हारी नौकरी मेरी मजबूरी है. इसीलिए मैं अभी बच्चे के लिए मना कर रहा था.’’

औफिस में उस का बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था. अम्मां के लिए भी दिन भर गोलू को रखना भारी पड़ रहा था. अत: अम्मां की परेशानी को समझ कर उन की सहायता के लिए आया सुशीला को रख दिया. 2-4 दिन तो अम्मां सुशीला के साथ खुश रहीं, फिर शुरू हो गईं उन की शिकायतें. वह औफिस से आती तो गोलू और सुशीला दोनों की शिकायतों का लंबा पुलिंदा अम्मां की जबान पर तैयार रहता.

सुशीला के लिए अम्मां का कहना था कि सारे काम तो वे खुद करती हैं, यह तो बैठे रहने का पैसा लेती है. समिधा ने उन्हें कई बार समझाया कि आप इस को लगाए रखें, नहीं तो आप परेशान हो जाएंगी.

सुशीला 15-16 वर्ष की लड़की थी. उस में बचपना था. वह फटाफट काम कर के टीवी देखने लग जाती, जो अम्मां को नागवार गुजरता था. समिधा ने अम्मां को खुश करने के लिहाज से कई बार सुशीला को जोरदार डांट पिलाई, परंतु अम्मां जिस से चिढ़ जाएं उन्हें उस की शक्ल से भी नफरत हो जाती थी.

आखिर एक दिन उन्होंने उसे भगा दिया. वह औफिस से आई तो उस से बोलीं, ‘‘समिधा तुम नौकरी छोड़ दो, तुम्हारी नौकरी के कारण मैं भी यहां परेशान रहती हूं और यह नन्हा गोलू भी. तुम घर में रहोगी तभी मैं यहां रह पाऊंगी, नहीं तो मैं गांव चली जाऊंगी.’’

समिधा सन्न रह गई. उस की सारी छुट्टियां समाप्त हो चुकी थीं. वह तो स्वयं गोलू के बिना औफिस में कैसे समय बिताती है वही जानती है, परंतु वह क्या करे? नौकरी तो उस की मजबूरी है. वह गोलू को अपने से चिपटा कर सिसक उठी. वह बारबार गोलू को चूमती जा रही थी. तभी सोम आ गया.

‘‘समिधा क्या बात है?’’

वह आंसू पोंछती हुई बोली, ‘‘अम्मां मुझ से नौकरी छोड़ने को कह रही हैं, नहीं तो वे गांव चली जाएंगी.’’

वह घबरा कर बोला, ‘‘मैं ने तुम से पहले ही कहा था, अभी बच्चे के चक्कर में मत पड़ो, लेकिन तुम ने माना नहीं. अब क्या होगा? मैं तो जानता था वे यहां नहीं टिक सकतीं.’’

अम्मां जल्दीजल्दी बड़बड़ाती हुए सामान समेटने में लगी थीं. ‘बच्चा रोए तो रोए, सुबहसुबह सजधज कर घर से निकल जाना. नौकरी तो बहाना है. हम सब समझते हैं. सोम सीधा है, इसलिए जो जी में आता है वह करती है. उसे तो उंगली पर नचाती है. क्या हमारा सोम कमाता नहीं है?’ अनापशनाप बोलती जा रही थीं वे.

इन अनर्गल बातों को सुन कर सोम अपना आपा खो बैठा, ‘‘अम्मां सुनो, आप को जाना है तो जाइए, लेकिन जाने से पहले मेरी बात सुन लीजिए. आप को मेरे कमरे का सोफासैट, टीवी, फ्रिज दिखाई पड़ रहा है और मेरी गाड़ी भी दिख रही है. ये सब हम लोगों ने लोन से खरीदा है. इन चीजों के लिए हम लोग दिनरात मेहनत करते हैं. ओवरटाइम कर के आधीआधी रात में घर लौटते हैं ताकि ई.एम.आई. चुका सकें. जैसे आप लोग गांव में साहूकार से कर्ज ले कर अपना काम चलाते हैं, वैसे ही हम लोग यहां बैंक से कर्ज लेते हैं, उस का ब्याज और किस्त हमारी तनख्वाह से कटता रहता है. ब्याज चुकाने के बाद जो रुपए बचते हैं, हमें उन्हीं से गुजरबसर करना पड़ता है.

‘‘समिधा की तनख्वाह तो मुझ से ज्यादा है. यदि नौकरी छोड़नी है तो मैं छोड़ूं, क्योंकि मेरी कमाई कम है. पहले तो आप उस से कहती रहीं, तुम मां बन जाओ, हम लोग तुम्हारे पास रह कर बच्चे की देखभाल करेंगे. अब आप हमें मझधार में छोड़ कर गांव जाने को तैयार हैं. सब गड़बड़ समिधा की जिद के कारण हुआ है. हर समय आप सुनंदा को ले कर रोती रहती हैं, लेकिन सुनंदा की परेशानी का कारण आप हैं. जल्दबाजी में छोटी उम्र में उस का विवाह अनपढ़ लड़के से कर दिया. कच्ची उम्र और नासमझी में आज वह 4 बच्चों की मां है. जीजाजी को शराब की लत लग गई है. आमदनी अठन्नी है और खर्चा रुपया. हम से जितना बनता है हर महीने उन की मदद

कर देते हैं. आप क्या समझती हैं? समिधा नौकरी छोड़ देगी तो समझ लीजिए खाने के लाले पड़ जाएंगे.’’

‘‘बस करिए सोम,’’ समिधा बीच में आ गई और उसे पकड़ कर अपने कमरे में ले गई. घर में सन्नाटा छा गया था.

वह मन ही मन सोचने लगी, क्या जिंदगी है, हर क्षण संघर्ष, पलपल नई लड़ाई. किस तरह सोम से छल कर के इस प्यारे गोलू को मैं पाने में कामयाब हो पाई हूं, तो अब उस को पालने का संकट. क्या हम मध्यवर्गीय परिवार के जीवन की यही कहानी है.

आसू पोंछती हुई वह हिम्मत कर के अम्मां के पास आई और बोली, ‘‘अम्मां, मैं तो बचपन से ही अनाथ थी. बूआ ने पालपोस कर बड़ा किया, फिर वह भी इस दुनिया से चली गईं. मेरी झोली दोबारा खुशियों से भर गई, जो आप जैसे अम्मांबाबूजी मिल गए. पहले आप की एक बेटी थी, अब आप की 2 बेटियां हैं. नौकरी तो मेरी मजबूरी है. आप मेरे दर्द और मजबूरी को समझिए. मुझे भी गोलू को छोड़ कर जाने में तकलीफ होती है, लेकिन क्या करूं?’’ वह फूटफूट कर रो पड़ी.

अम्मां का दिल पिघल उठा. वे समिधा को गले से लगा कर बोलीं, ‘‘मत रो बेटी, मैं गांव की अनपढ़ यह सब क्या जानूं. तुम ने मेरी आंखें खोल दीं. सच, मुझे तो बहुत खुश होना चाहिए, जो मुझे तुम जैसी समझदार बेटी मिली. सुशीला को फोन कर दो, कहना अम्मां कह रही हैं चुपचाप कल से आ जाए और तुम निश्चिंत हो कर अपना कर्जा अमाई, क्या कहते हैं.

Best Hindi Stories : तितलियां – मौके की तलाश करती अनु ने जब सिखाया पति को सबक

Best Hindi Stories : अनु ने आखिरी बार सरसरी निगाहें अपने समान पर डालीं. एक सूटकेस में उस के और सुभाष के कपड़े थे. एक छोटी सी डलिया में खानेपीने का समान था. सब कुछ अनु ने अपने हाथों से बनाया था.

एक छोटा सा लाल रंग का बैग था, जिस में अनु ने अपने साटन के इनर वियर और नाईटी रखी हुई थी.

तभी सुभाष अंदर आया और बोला,”अनु, तैयार हो तुम?”

cookery

अनु ने जल्दीजल्दी अपने होंठों पर लिपस्टिक का टचअप किया और बालों में कंघी कर बाहर आ गई. सुभाष समान को बस के अंदर ठीक से रखवा रहा था.

अनु बस में बैठ कर बोली,”अब पहले कहां जाना है?”

सुभाष बोला,”पहले गाजियाबाद से पूर्णिमा और सिद्धार्थ को ले लेंगे फिर नोएडा से अपेक्षा और साकेत को, मेरठ से अजय और पल्लवी को लेते हुए बिनसर चले जाएंगे.”

अनु बोली,”देखो, किसी के घर बैठ कर गप्पें मत मारने लग जाना.”

सुभाष हंसते हुए बोला,”अनु, तुम्हारी तरह ही सब को जल्दी है उन वादियों में जाने की.”

सुभाष को अच्छे से मालूम था कि अनु न जाने क्यों पूर्णिमा से खार खाए रहती है.

अनु स्थानीय डिग्री कालेज में गणित की प्रोफैसर है और सुभाष सरकारी अस्पताल में सीनियर डाक्टर. उन का
एक बेटा भी है जो फिलहाल बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाई कर रहा है.

अनु के भूरे घुंघराले बाल इधरउधर हवा में लहरा रहे थे. अपनी काली आंखों को उस ने काजल से बांध रखा
था. अनु खूबसूरत तो नहीं पर आकर्षक और बिंदास थी और अपने घर व कालेज में लेडी सिंघम के नाम
से मशहूर भी.

सड़क पर जाम को देख कर अनु का पारा चढ़ गया और वह उठ कर ड्राइवर को खरीखोटी सुनाने लगी. सुभाष ने बहुत मुश्किल से उसे चुप कराया. यह अनु की सब से बड़ी कमी थी जिस के कारण उस का अपना बेटा भी उस से दूर छिटकता था.

जैसे ही बस गाजियाबाद के कविनगर में रुकी तो पूर्णिमा को देख कर एकाएक अनु के मुंह से निकल
गया,”यह क्या? इतना सजधज कर यात्रा करेगी?”

सुभाष ने अनु की तरफ आंखें तरेरीं तो अनु चुप हो गई.

जैसे ही पूर्णिमा बस में चढ़ी, अनु बोल पड़ी,”पूर्णिमा शादी में से आ रही हो क्या?”

पूर्णिमा कट कर रह गई पर मुसकराते हुए बोली,”मैं टीशर्ट में अपने पेट के टायर दिखाने से बेहतर कुरता पहनना
पसंद करती हूं.”

यह कह कर वह बड़ी अदा के साथ अपने बालों को झटक कर पीछे की ओर कर ली.अनु ने कनखियों से देखा और मन ही मन सोचा कि गजब
की खूबसूरत लग रही है पूर्णिमा. दिनरात पार्लर में रहने का कुछ तो फायदा होगा.

पूर्णिमा मंझोले कद की नीली आंखों की खूबसूरत महिला थी जो स्थानीय इंजिनीरिंग कालेज में पढ़ाती थी. उस के पति सिद्धार्थ का हार्डवेयर का बिजनैस था.

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि पूर्णिमा अपनी खूबसूरती के बल पर ही नौकरी पर टिकी हुई है और अपनी
खूबसूरती के बल पर ही वह इधरउधर बड़ेबड़े शोरूम से गहने, कपड़े ऐसे ही ले आती है.

वाहन तेजी से नोएडा की सड़कों पर दौड़ रहा था. बस सोसाइटी के सामने रुक गई. अपेक्षा और साकेत अपनेअपने सूटकेस के साथ तेजी से बस की तरफ चले आ रहे थे.

अपेक्षा का गेरुआ कुरता देख कर अनु फिर बोल पड़ी,”अपेक्षा कम से कम गुरुजी को आज तो छोड़ दिया होता.”

अपेक्षा बिना कुछ बोले कानों में हेडफोन लगा कर ध्यानमग्न हो गई थी.

अपेक्षा का पति साकेत ही अनु से
बोला,”यह उस के ध्यान का समय है, इसलिए 1 घंटे तक अपेक्षा किसी से बात नहीं करेगी.”

अपेक्षा को साकेत की इस मित्रमंडली से बेहद चिढ़ थी. अपेक्षा को डर था कि अगर साकेत ऐसे ही इन तितलियों के करीब रहेगा तो वह कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाएगी. जब भी साकेत अपने दोस्तों के यहां जाता या वे लोग अपेक्षा के घर आते एक ही टौपिक होता था गुरुजी का मजाक. अपेक्षा खून के घूंट पी कर रह जाती थी. अपेक्षा हमेशा से इन लोगों के साथ असहज रहती थी. जो खुशी उसे अपने गुरुजी के आश्रम में मिलती है वह कोई भी दर्शनीय स्थल में नहीं मिल सकती है. पर इन दौलत और वासना के फूलों पर मंडराने वाली तितलियों से कैसे अपना पीछा छुङाए?

सुभाष साकेत और सिद्धार्थ जहां गपशप में मशगूल थे, वहीं पूर्णिमा धीरेधीरे किसी से मोबाइल पर बात कर रही थी. अनु भी अपने मोबाइल पर ही लगी हुई थी पर उस का सारा ध्यान पूर्णिमा पर ही लगा हुआ था.

मन ही मन अनु सोच रही थी कि सिद्धार्थ तो मिट्टी का माधो है. उसे तो पता भी नहीं कि पूर्णिमा किस राह पर चल रही है.

जैसे ही बस मेरठ के शास्त्रीनगर में घुसी तो सब दोस्तों ने तय कर लिया था कि अजय के घर चाय पी कर फिर
आगे बढ़ेंगे.

जब सारा लावालश्कर अजय के घर पहुंचा तो उस की पत्नी पल्लवी ने सारी तैयारी कर रखी थी. चाय क्या पूरा नाश्ते का प्रबंध था. ढोकला, घेवर, मटर समोसा, कालाजामुन, ब्रैडकटलैट से मेज सजी हुई थी.

सुभाष ने कहा,”भाभी आपने तो कमाल कर दिया है.”

पल्लवी मुसकराते हुए बोली,”अरे आप लोग क्या रोजरोज आते हो?”

पल्लवी का कद छोटा था और रंग बेहद गोरा. उस के आंख, नाक हर समय बातों के लिए फड़कते रहते
थे. पल्लवी घर के काम में जितनी तेज थी, अपने लिए उतनी ही ढीली थी. पांवो की फटी हुई बिवाई इस की गवाह थी.

अभी भी फूहड़ों की तरह पल्लवी ने ढीली सी जींस के ऊपर लबादे जैसा कुरता पहना हुआ था.

1 घंटा बीत गया तो अनु ने ही कहा,”बिनसर आज पहुंचना है या कल?”

बस में बैठेते ही सब लोग नींद के आगोश में चले गए. करीब शाम के 5 बजे नैनीताल में यह मंडली रुकी ताकि थोड़ाबहुत नाश्ता कर चला जाए. आगे की यात्रा में तीखी चढ़ाई थी. करीब साढ़े 7 बजे उन की
मिनी बस कसार जंगल के रिसोर्ट पहुंच गई थी.

इस में 4 छोटीछोटी कौटेज अजय ने बुक करा रखी थी. बैरों ने आ कर समान ले लिया और सब लोग अपनीअपनी कौटेज में दुबक गए. तय हुआ था रात 9 बजे सारे युगल डाइनिंग एरिया में मिलेंगे और फिर रात का कार्यक्रम तय करेंगे.

रात के 9 बजे सब से पहले साकेत और अपेक्षा पहुंचे. अपेक्षा सफेद कुरती और गेरुए स्कर्ट में बहुत सौम्य लग रही थी. उस के गले मे रुद्राक्ष की माला थी और कानों में भी रुद्राक्ष के ही टौप्स थे. माथे पर चंदन की बिंदी लगी हुई थी.

किसी को वहां न देख कर अपेक्षा बोली,”साकेत, गुरुजी से मेरी जूम मीटिंग है रात 10 बजे और मैं उस मीटिंग को टाल नहीं सकती हूं.”

साकेत कुछ तल्खी के साथ बोला,”अपेक्षा, कम से कम छुट्टियों में तो यह गुरुजी का राग मत अलापो.”

अपेक्षा बोली,”तुम्हें पता तो है न कि तुम्हारी नौकरी और हमारा पुश्तैनी व्यपार सब गुरुजी के कारण ही चल रहा है.”

इस से पहले कि साकेत कुछ बोलता, अनु और सुभाष भी वहां पहुंच गए. डैनिम शौर्ट्स और टीशर्ट में अनु एकदम बिंदास बाला लग रही थी. 38 की उम्र में भी वह 28 की लग रही थी.

तभी पूर्णिमा और सिद्धार्थ भी आ गए. पूर्णिमा ने एक लंबा गाउन पहना हुआ था जिस की एक तरफ स्लिट थी, गाउन का गला भी अपेक्षाकृत काफी खुला हुआ था. पूर्णिमा के डाइनिंग एरिया में प्रवेश करते ही सभी पुरूष उसी की ओर ही देख रहे थे.

पूर्णिमा का गुलाबी गाउन, गुलाबी लिपस्टिक जहां पुरुषों को लुभा रही थी, वहीं अनु जैसी महिलाओं को
आग की तरह जला भी रही थी.

पल्लवी और अजय सब से आखिर में करीब 9:30 बजे आए. पल्लवी ने एक सादा सा कौटन का सूट पहन रखा था. अजय जींस और व्हाइट शर्ट में बहुत ही स्मार्ट लग रहा था. पल्लवी का जहां अपनी ओर बिलकुल भी ध्यान नहीं था, वहीं अजय खुद को ले कर कुछ अधिक ही सजग था.

अगर सरल शब्दों में कहें तो जहां अजय इस मित्रमंडली का बेताज बादशाह था तो, वहीं पूर्णिमा भी इस समूह की महारानी थी.

खाने के पश्चात अपेक्षा अपनी कौटेज की तरफ चली गई, वहीं बाकी सभी जोड़े सुभाष के कौटेज में चले गए. इस मित्रमंडली में जहां सुभाष का बहुत अधिक सम्मान था, वहीं अनु से सभी कटते थे. पर सुभाष की बात को कोई भी नहीं काटता था.

1 घंटे तक सिनेमा, राजनीति और क्रिकेट की हलकीफुलकी बातें होती रहीं. फिर बातचीत की दिशा बच्चों की ओर मुड़ गई.

तभी खटाक से दरवाजा खुला और अपेक्षा ने प्रवेशा किया. अनु अपनी आदत अनुसार बोल पड़ी,”अपेक्षा,
तुम्हारे गुरुजी ने आखिर तुम्हें छोड़ ही दिया. अब यह बोलो कि वे तुम्हें मां कब बनाएंगे?”

यह वाक्य सुनते ही वहां सन्नाटा छा गया.

सुभाष गुस्से में बोला,”अनु, होश में तो हो न?”

अपेक्षा बोली,”नहीं सुभाषजी, अनुजी को सारे लोग अपने कालेज के विद्यार्थी लगते हैं. इसलिए यह घटिया जोक्स मारती रहती हैं.”

अनु बोली,”अरे, अपेक्षा मेरा मतलब आशीर्वाद से था. अब तुम्हारा दिमाग ही उस दिशा में दौड़ रहा है तो मैं क्या कर सकती हूं डार्लिंग.”

यह सुनते ही पूर्णिमा और पल्लवी के चेहरों पर एक अजीब सी मुसकान थिरक उठी जो अपेक्षा से छिपी न रही.

अपेक्षा किसी भी तरह से साकेत का इस मित्रमंडली से पीछा छुङाना चाहती थी. सारा दिन वे लोग साकेत के कान गुरुजी के खिलाफ भरते रहते थे. पर इस बार अपेक्षा निर्णय ले कर आई थी कि वह इस बार उन्हें सटीक
जवाब जरूर देगी.

अपेक्षा भी बोली,”हां अनु, हरकोई तो तुम्हारी तरह भाग्यशाली नहीं होता कि साम, दाम, ढंड, भेद से दौलत को
हथिया ले.”

यह सुनते ही अनु का चेहरा सफेद पड़ गया क्योंकि यह हरकोई जानता था कि किस तरह चालाकी से अनु ने अपनी मां के ₹40 लाख अपने नाम करवा लिए थे और फिर उन्हें अपने बड़े भाई के पास चलता कर दिया था.

तभी अजय ने म्यूजिक चला दिया.अचानक से अजय ने पूर्णिमा को डांस के लिए उठा दिया और दोनों धीरेधीरे एक युगल की तरह डांस करने लगे.

1 बजे तक माहौल बेहद हलका और रूमानी हो गया था. किशोरावस्था के प्रेम प्रकरण, शादी के रूमानी पल सब छनछन कर बाहर निकल रहे थे. कड़वाहट एक भाप की तरह वहां से उड़ गई थी. रात के लगभग 1:30 बजे महफिल खत्म हुई और सुबह 10 बजे मिलने का कार्यक्रम तय हो गया था.

पूरा दिन बिनसर के दर्शनीय स्थल देखने में बीत गया था. मौसम इतना अच्छा था कि पूरा दिन घूमने के बाद
भी ताजगी बरकरार थी.

आज फिर सुभाष की काटेज में महफिल जमने का कार्यक्रम तय हो गया था. सब लोग समय से पहले ही आ गए. अजय ताश के पत्ते फेंटने लगा और साकेत पैग बनाने लगा. पूर्णिमा कनखियों से अजय की ओर देख रही थी और अजय रहरह कर आखों में इशारे कर रहा था.

ताश की बाजी के साथ सब लोगों का जोश ऊपरनीचे हो रहा था. रमी की पहली ही बाजी में पूर्णिमा आउट हो
गई थी. फिर अजय भी बाहर निकल गया था.

थोड़ी देर बाद पूर्णिमा सिद्धार्थ के कानों में फुसफुसा कर चली गई थी. कुछ देर बाद अजय बोला,”मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है. कुछ देर बाहर टहल कर आता हूं.”

बाकी सभी लोग ताश में मशगूल थे इसलिए किसी ने अधिक ध्यान नहीं दिया था.

करीब 45 मिनट बाद अजय गुनगुनाते हुए वापस आ गया था और पल्लवी से लाड़ लड़ाने लगा था.

अनु बोली,”यार, तुम सब लोग भी कुछ सीखो अपने दोस्त से. कितने रोमांटिक हैं अभी भी.”

सुभाष , सिद्धार्थ और साकेत हंसने लगे और बोले,”यार, अजय क्यों हम लोगों की सुखी गृहस्थी में आग लगा रहा है?”

अपेक्षा अचानक से ध्यान को बीच में छोड़ कर बोली,”या ऐसा भी हो सकता है कि अपने घर मे लगी आग को अजय औरों के घर में भी लगाना चाह रहा हो?”

अजय बोला,”क्या मतलब?”

साकेत व्यंग्य करते हुए बोला,”कुछ नहीं, अपेक्षा ने आज अधिक ध्यान लगा लिया है.”

चारों युगल अपनेअपने कमरों में जा कर बहुत देर तक एकदूसरे की बखिया उधेड़ते रहे और फिर न जाने किस पहर सब की आंखें लग गई थीं.

अचानक से साकेत को दरवाजे पर धङधङ की आवाज सुनाई दी. आंखे मलते हुए साकेत उठा तो देखा सुभाष बदहवास सा वहां खड़ा था.

“साकेत… यार, गजब हो गया हैं. पूर्णिमा के गहने गायब हो गए हैं.”

तभी अपेक्षा भी उठ कर आ गई और बोली,”क्याक्या खोया है? जरूर किसी स्टाफ का ही काम होगा. पुलिस में रिपोर्ट करनी चाहिए. फिर सब मिल जाएगा.”

तीनों सिद्धार्थ की काटेज में पहुंचे. वहां जा कर देखा कि रिसोर्ट का मैनेजर और अन्य स्टाफ खड़ा हुआ था.

पूर्णिमा का रोरो कर बुरा हाल था,”कानों की बालियां और सौलिटेयर रिंग गायब हैं. दोनों की कीमत लगभग ₹30 लाख हैं.”

तबतक अजय और अनु भी आ गए थे. अजय बोला,”मेरी कोई न कोई जानपहचान निकल जाएगी. पुलिस में रिपोर्ट करनी है क्या?”

अनु फट से बोली,”क्या बेवकूफों वाली बात कर रहे हो? रिपोर्ट तो करनी ही होगी.”

सिद्धार्थ बोला,”नहीं, इन का बिल भी नही है. ये मैं ने कैश में लिए थे. और फिर मेरी सालाना इनकम कागजों में ₹5 लाख हैं, तो मैं कैसे रिपोर्ट करूं?”

अनु को पता था यह जरूर पूर्णिमा के किसी दोस्त की सौगात रही होगी. तभी न बिल है और न ही कुछ
और प्रूफ.

अजय बोला,”मैं स्टाफ की खबर लेता हूं.”

रिसोर्ट में करीब 10 कौटेज थी. 3 खाली थी और 4 में ये लोग ही रह रहे थे. बैरों से पूछताछ की जाने
लगी. सब ने एक ही जवाब दिया कि उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता है.

अजय का दोस्त मैनेजर की जानपहचान का था. उस के कहने पर मैनेजर ने सुपरवाइजर से कह कर पूरे
स्टाफ के कमरों और समान की तलाशी करवाई थी. लेकिन कहीं कुछ भी नहीं निकला.

अचानक से गुस्से में एक बैरा बोल पड़ा,”साहबजी हम गरीबों की ही तलाशी क्यों करवाई हैं? खोट तो किसी की नीयत में भी हो सकता है?”

अनु बोली,”बात तो तुम्हारी सही है भैया. अजय, हम सब के कमरों की भी तलाशी करवा लो. जब तक तलाशी चलेगी हम सब बाहर ही रहेंगे.”

अपेक्षा गुस्से में बोली,”मैं कोई चोर नही हूं जो तलाशी करवाऊंगी.”

पूर्णिमा चुप बैठी थी. पल्लवी बोली,”अरे, अपेक्षा इस में चोर की कोई बात नही है, क्या पता गलती से किसी की कौटेज में रह गए हों.”

अपेक्षा बोली,”फिर तो अनु की कौटेज से शुरुआत करते हैं, क्योंकि वहीं पर ही तो हम सब का जमावड़ा रहता था और ऐसा हो सकता है कि यहां से जा कर फिर से अनु
एकाएक ₹30 लाख की मालकिन बन जाए…”

अनु बोली,”अरे, अपेक्षा तुम्हारे गुरुजी जितनी सिद्धि मेरे पास कहां है? वे तो तुम्हारी हर तरह से सहायता करते हैं.
क्या मैं जानती नही हूं कि तुम्हारी और गुरुजी के बीच क्या रासलीला चलती रहती है.”

साकेत एकाएक अपनी पत्नी पर यह आरोप सुन कर आप खो बैठा और बोल उठा,”अनु जबान संभाल कर बात करो…”

इस से पहले कि बात और बढ़ती अजय बीच में आ गया और बोला,”क्यों बात को बढ़ा रहे हो?”

सुभाष और अनु के कमरे में कुछ नहीं मिला.

जब साकेत और पूर्णिमा के कमरे से भी कुछ न मिला तो सिद्धार्थ
बोला,”यार यह तमाशा बंद करो. ऐसा भी तो हो सकता है कि बाहर गिर गए हों.”

अपेक्षा फट पड़ी,”यह क्या बात हुई?”

अजय बोला,”अरे भई सिद्धार्थ चुप करो.”

अचानक से अजय के कमरे से शोर की आवाज सुनाई दी. पता चला कि पूर्णिमा के दोनों गहने अजय के कुरते और तकिए के नीचे पाए गए हैं.
अजय हक्काबक्का रहा गया तो पूर्णिमा का चेहरा सफेद पड़ गया.बात संभालते हुए पूर्णिमा बोली,”अरे यह वेटर झूठ बोल रहा है. जरूर इस ने ही चुराया होगा और अब जब पता चला दाल नहीं गलेगी तो यह कहानी गढ़ रहा है.”

अजय भी एकाएक आगबबूला हो उठा,”मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि यहां पर ऐसे चोर काम करते हैं.”

वेटर ने लाख बोला पर किसी ने उस की बात नहीं सुनी थी.
सब को पता था कि वेटर सच बोल रहा था पर अपनी इज्जत बचाने के लिए एक गरीब की बलि दे दी गई थी.

किसी के भी गले यह बात नहीं उतर रही थी कि अगर वेटर को झूठ ही बोलना था तो गहने अजय के कुरते और तकिए के नीचे ही उस ने क्यों बताए?

सुभाष तो बस इस बात पर चैन की सांस ले रहा था कि अनु का मुंह बंद था.

अजय के पास पल्लवी के सवालों का कोई जवाब नहीं था. उधर सिद्धार्थ भी पूरी रात करवटें बदलता रहा
था. उसे पता था कि उस की तितलीनुमा बीबी बस एक डाल पर नहीं रह सकती है. पर उस ने यह कतई नहीं सोचा था कि उस के जिगरी दोस्त के साथ भी उस की बीबी के संबंध हो सकते हैं.

उधर पूर्णिमा को समझ नहीं आ रहा था कि कैसे वह इतनी बड़ी बेवकूफी कर गई थी. अब पल्लवी से वह कैसे
नजरें मिला पाएगी?

सुबह नाश्ता कर के सब को वापस निकलना था. आज यह मंडली पूरी तरह से शांत थी. हर सदस्य अपनेअपने प्रश्नों में उलझा हुआ था.

जहां अजय और पूर्णिमा आगे की कहानी का तानाबाना बुन रहे थे, वहीं पल्लवी और सिद्धार्थ फिर से अपने
जख्मों पर झूठ का मलहम लगाने में व्यस्त थे.

अनु को रहरह कर वेटर के लिए बुरा लग रहा था. सुभाष और साकेत को समझ नहीं आ रहा था कि आगे
भी यह दोस्ती बरकरार रह पाएगी या नहीं?

उधर अपेक्षा मन ही मन बेहद खुश थी. इन सब लोगों ने बहुत बार उस की भक्ति का, उस के ध्यान का मजाक उड़ाया है. अब सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी.

अब कोई भी उस के और उस की गुरुभक्ति के बीच नहीं आ पाएगा. उसे कुछ करना भी नहीं पड़ा और अपनेआप ही ये सभी कांटे उस के रास्ते से हट गए.

Moral Stories in Hindi : कफन – अपने पर लगा ठप्पा क्या हटा पाए रफीक मियां

Moral Stories in Hindi : ‘‘आजकल कितने कफन सी लेते हो?’’ रहमत अली ने रफीक मियां से पूछा. ‘‘आजकल धंधा काफी मंदा है,’’ रफीक मियां ने ठहरे स्वर में कहा.

‘‘क्यों, लोग मरते नहीं हैं क्या?’’ इस बेवकूफाना सवाल का जवाब वह भला रहमत अली को क्या दे सकता था. मौतें तो आमतौर पर होती ही रहती हैं. मगर सब लोग अपनी आई मौत ही मर रहे थे. आतंकवादियों द्वारा कत्लेआम का सिलसिला पिछले कई महीनों से कम सा हो गया था.

कश्मीर घाटी में अमनचैन की हवा फिर से बहने लगी थी. हर समय दहशत, गोलीबारी, बम विस्फोट भला कौन चाहता है. बीच में भारी भूकंप आ गया था. हजारों आदमी एकदम से मुर्दों में बदल गए थे. सरकारी सप्लाई के महकमे में रफीक का नाम भी बतौर सप्लायर रजिस्टर्ड था. एकदम से बड़ा आर्डर आ गया था. दर्जनों अस्थायी दर्जियों का इंतजाम कर उसे आर्डर पूरा करना पड़ा था.

आर्डर से कहीं ज्यादा बड़े बिल और वाउचर पर उस को अपनी फर्म की नामपते वाली मुहर लगा कर दस्तखत करने पड़े थे. खुशी का मौका हो या गम का, सरकारी अमला सरकार को चूना लगाने से नहीं चूकता. रफीक पुश्तैनी दर्जी था. उस के पिता, दादा, परदादा सभी दर्जी थे. कफन सीना दोयम दर्जे का काम था. कभी सिलाई मशीन का चलन नहीं था. हाथ से कपड़े सीए जाते थे. दर्जी का काम कपड़े सीना मात्र था. कफन कपड़े में नहीं गिना जाता था. कपड़े जिंदा आदमी या औरतें पहनती हैं न कि मुर्दे.

घर में मौत हो जाने पर संस्कार या जनाजे के समय ही कफन सीआ जाता था. कोई भी दुकानदार या व्यापारी सिलासिलाया कफन नहीं बेचता था और न ही तैयार कफन बेचने के लिए रखता था. मगर बदलते जमाने के साथ आदमी ज्यादा पैदा होने लगे और ज्यादा मरने भी लगे. लिहाजा, तैयारशुदा कफनों की जरूरत भी पड़ने लगी थी. मगर अभी तक कफन सीने का काम बहुत बड़े व्यवसाय का रूप धारण नहीं कर पाया था.

फिर आतंकवाद का काला साया घाटी और आसपास के इलाकों पर छा गया तो अमनचैन की फिजा मौत की फिजा में बदल गई थी. कामधंधा और व्यापार सब चौपट हो गया था. सैलानियों के आने के सीजन में भी बाजार, गलियां, चौक सब में सन्नाटा छा गया था. कभी कश्मीरी फैंसी डे्रसें, चोंगे, चूड़ीदार पायजामा, अचकन, लहंगा चोली, फैंसी जाकेट, शेरवानी, कुरतापायजामा, गरम कोट सीने वाले दर्जी व कारीगर सभी खाली हो भुखमरी का शिकार हो गए थे.

फिर जिस कफन को हिकारत या मजबूरी की वस्तु समझा जाता था वही सब से ज्यादा मांग वाली चीज बन गई थी. यानी थोक में कफनों की मांग बढ़ने लगी थी. ढेरों आतंकी या दहशतगर्द मारे जाने लगे थे. उतने ही फौजी भी. आम आदमियों की कितनी तादाद थी कोई अंदाजा नहीं था. बस, इतना अंदाजा था कि कफन सिलाई का धंधा एक कमाई का धंधा बन गया था.

सफेद कपड़े से पायजामाकुरता भी बनता था. रजाइयों के खोल भी बनते थे और कभीकभार कफन भी बनता था. कपड़े की मांग तो बराबर पहले जैसी थी. मगर कपड़ा अब जिंदों के बजाय मुर्दों के काम ज्यादा आने लगा था. आखिर खुदा के घर भेजने से पहले मुर्दे को कपड़े से ढांकना भी जरूरी था. नंगा होने का लिहाज हर जगह करना ही पड़ता है…चाहे लोक हो या परलोक. विडंबना की बात थी, आदमी नंगा ही पैदा होता है. दुनिया में कदम रखते ही उस को चंद मिनटों में ही कपड़े से ढांप दिया जाता और मरने के बाद भी कपड़े से ही ढका जाता है.

जिंदों के बजाय मुर्दों के कपड़ों का काम करना या सीना हिकारत का काम था. मगर रोजीरोटी के लिए सब करना पड़ता है. वक्त का क्या पता, कैसे हालात से सामना करा दे? अलगअलग तरह के कपड़ों के लिए अलगअलग माप लेना पड़ता था. डिजाइन बनाने पड़ते थे. मोटा और बारीक दोनों तरह का काम करना पड़ता था. मगर, कफन का कपड़ा काटना और सीना बिना झंझट का काम था. लट््ठे के कपड़ों की तह तरतीब से जमा कर उस पर गत्ते का बना पैटर्न रख निशान लगा वह बड़ी कैंची से कपड़ा काट लेता था. फिर वह खुद और उस के लड़के सिलाई कर के सैकड़ों कफन एक दिन में सी डालते थे.

आतंकवाद के जनून के दौरान मरने वाले काफी होते थे. लिहाजा, धंधा अच्छा चल निकला था. दहशतगर्दी ने जहां साफसुथरा सिलाई का धंधा चौपट कर दिया था वहीं कफन सीने का काम दिला उस जैसे पुश्तैनी कारीगरों को काम से मालामाल भी कर दिया था.

जैसेजैसे काम बढ़ता गया वैसेवैसे मशीनों की और कारीगरों की तादाद भी बढ़ती गई. मगर जैसा काम होता है वैसा ही मानसिक संतुलन बनता है. सिलाई का बारीक और डिजाइनदार काम करने वाले कारीगरों का दिमाग जहां नएनए डिजाइनों, खूबसूरत नक्काशियों और अन्य कल्पनाओं में विचरता था वहां सारा दिन कफन सीने वाले कारीगरों का दिमाग और मिजाज हर समय उदासीन और बुझाबुझा सा रहता था. उन्हें ऐसा महसूस होता था मानो वे भी मौत के सौदागरों के साथी हों और हर मुर्दा उन के सीए कफन में लपेटे जाते समय कोई मूक सवाल कर रहा हो.

दर्जीखाने का माहौल भी सारा दिन गमजदा और अनजाने अपराध से भरा रहता था. सभी कारीगरों को लगता था कि इतनी ज्यादा तादाद में रोजाना कफन सी कर क्या वे सब मौत के सौदागरों का साथ नहीं दे रहे. क्या वे सब भी गुनाहगार नहीं हैं? दर्जीखाने में कोई भी खातापीता नहीं था. दोपहर का खाना हो या जलपान, सब बाहर ही जाते थे. रफीक के पास रुपया तो काफी आ गया था मगर वह भी खोयाखोया सा ही रहता था. कफन आखिर कफन ही था.

जैसे बुरे वक्त का दौर शुरू हुआ था वैसे ही अच्छे वक्त का दौर भी आने लगा. हुकूमत और आवाम ने दहशतगर्दी के खिलाफ कमर कस ली थी. हालात काबू में आने लगे थे. फिर मौत का सिलसिला थम सा गया तो कफन की मांग कम हो गई. एक मशीन बंद हुई, एक कारीगर चला गया, फिर दूसरी, तीसरी और अगली मशीन बंद हो गई, फिर पहले के समान दुकान में 2 ही मशीनें चालू रह पाईं. बाकी सब बंद हो गईं.

उन बंद पड़ी मशीनों को कोई औनेपौने में भी खरीदने को तैयार नहीं था क्योंकि हर किसी को लगता था, कफन सीने में इस्तेमाल हुई मशीनों से मुर्दों की झलक आती है. तंग आ कर रफीक ने सभी मशीनों को कबाड़ी को बेच दिया. कफन सीना कम हो गया या कहें लगभग बंद हो गया मगर थोड़े समय तक किया गया हिकारत वाला काम रफीक के माथे पर ठप्पा सा लगा गया. उस को सभी ‘कफन सीने वाला दर्जी’ कहने लगे.

धरती का स्वर्ग कही जाने वाली घाटी में दहशतगर्दी खत्म होते ही सैलानियों का आना फिर से शुरू हो गया था. ‘मौत की घाटी’ फिर से ‘धरती का स्वर्ग’ कहलाने लगी थी. मगर रफीक फिर से आम कपड़े का दर्जी या आम कपड़े सीने वाला दर्जी न कहला कर ‘कफन सीने वाला दर्जी’ ही कहलाया जा रहा था.

इस ‘ठप्पे’ का दंश अब रफीक को ‘चुभ’ रहा था. सारा रुपया जो उस ने दहशतगर्दी के दौरान कमाया था बेकार, बेमानी लगने लगा था. उस का मकान कभी पुराने ढंग का साधारण सा था मगर किसी को चुभता न था. आम आदमी के आम मकान जैसा दिखता था. मगर अंधाधुंध कमाई से बना कोठी जैसा मकान अब एक ऐसे आलीशान ‘मकबरे’ के समान नजर आता था जिस के आधे हिस्से में कब्रिस्तान होता है. मगर जिस में कोई भी संजीदा इनसान रहने को राजी नहीं हो सकता.

रफीक मियां और उस के कुनबे को इस हालात में आने से पहले हर पड़ोसी, जानपहचान वाला, ग्राहक सभी अपने जैसा ही समझते थे. सभी उस से बतियाते थे. मिलतेजुलते थे. मगर एक दफा कफन सीने वाला दर्जी मशहूर हो जाने के बाद सभी उस से ऐसे कतराते थे मानो वह अछूत हो. पिछली कई पीढि़यों से दर्जी चले आ रहे खानदानी दर्जी के कई पीढि़यों के खानदानी ग्राहक भी थे. कफन सीने का काम थोक में करने के कारण या मोटी रकम आने के कारण रफीक उन की तरफ कम देखने या कम ध्यान देने लगा था. धीरेधीरे वे भी उस को छोड़ गए थे.

दहशतगर्दी खत्म हो जाने के बाद हालात आम हो चले थे. मगर रफीक के पुराने और पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे ग्राहक वापस नहीं लौटे थे. कफन सीना बंद हो चला था, लिहाजा, कमाई बंद हो गई थी. सैलानियों से काम ले कर देने वाले या सैलानियों को आम कश्मीरी पोशाकें, कढ़ाईदार कपड़े बेचने वाले दुकानदारों ने उस पर लगे ठप्पे की वजह से उसे काम नहीं दिया था.

जिस तरह झंझावात, अंधड़, आंधी या मूसलाधार बरसात में कुछ नहीं सूझता उसी तरह दहशतगर्दी की आंधी में बहते आ रहे आवाम को वास्तविक जिंदगी का एहसास माहौल शांत होने पर ही होता था. यही हालात अब रफीक के थे. आतंकवाद से पहले इलाके में दोनों समुदाय के लोग थे. एक समुदाय थोड़ा बड़ा था दूसरा थोड़ा छोटा. जान की खैर के लिए एक समुदाय बड़ी तादाद में पलायन कर गया था.

अब घाटी में मुसलमान ही थे. हिंदू बराबर मात्रा में होते और वे भी काम न देते तो रफीक को मलाल न होता मगर अब जब सारी घाटी में मुसलमान ही मुसलमान थे और जब उसी के भाईबंदों ने उसे काम नहीं दिया तो महसूस होना ही था. कफन सिर्फ कफन होता है. उस को हिंदू, मुसलमान, सिख या अन्य श्रेणी में नहीं रखा जा सकता मगर उस को आम हालात में कौन छूना पसंद करता है?

एक कारीगर दर्जी से कफन सीने वाला दर्जी कहलाने पर रफीक को महसूस होना स्वाभाविक था. उसी तरह क्या उस की कौम भी दुनिया की नजरों में आने वाले समय या इतिहास में दहशतगर्दी फैलाने या मौत की सौदागरी करने वाली कहलाएगी?

रफीक से भी ज्यादा मलाल उस के परिवार की महिला सदस्यों को होता था कि उन का अपना ही मुसलिम समाज उन को अछूत मानने लगा था. रफीक को खानापीना नहीं सुहाता. शरीर सूखने लगा था. हरदम चेहरे पर शर्मिंदगी छाई रहती थी.

शुक्रवार की नमाज का दिन था. जुम्मा होने की वजह से आज छुट्टी भी थी. नमाज पढ़ी जा चुकी थी. वह मसजिद के दालान में अभी तक बैठा था तभी वहां बड़े मौलवी साहब आ पहुंचे. दुआसलाम हुई. ‘‘क्या हाल है, रफीक मियां? क्या तबीयत नासाज है?’’

‘‘नहीं जनाब, तबीयत तो ठीक है मगर…’’ रफीक से आगे बोला न गया. ‘‘क्या कोई परेशानी है?’’ मौलवी साहब उस के समीप आ कर बैठ गए.

‘‘आजकल काम ही नहीं आता.’’ ‘‘क्यों…अब तो माहौल ठीक हो चुका है. सैलानी तफरीह करने खूब आ रहे हैं. बाजारों में रश है.’’

‘‘मगर मुझ पर हकीर काम करने वाले का ठप्पा लग गया है.’’ ‘‘तो क्या?’’

रफीक की समस्या सुन कर मौलवी साहब भी सोच में पड़ गए. क्या कल की तारीख या इतिहास में उन की कौम भी आतंकवादियों का समुदाय कहलाएगी? रफीक की परेशानी तो फौरी ही थी. काम आ ही जाएगा, नहीं आया तो पेशा बदल लेगा. मगर जिस पर उस का अपना समुदाय चलता आ रहा था उस का नतीजा क्या होगा?

‘‘अब्बाजान, हमारा धंधा अब नहीं जम सकता. क्यों न कोई और काम कर लें?’’ बड़े लड़के अहमद मियां ने कहा. रफीक खामोश था. पीढि़यों से सिलाई की थी. अब क्या नया धंधा करें?

‘‘क्या काम करें?’’ ‘‘अब्बाजान, दर्जी के काम के सिवा क्या कोई और काम नहीं है?’’

‘‘वह तो ठीक है, मगर कुछ तो तजवीज करो कि क्या नया काम करें?’’ रफीक के इस सीधे सवाल का जवाब बेटे के पास नहीं था. वह खामोश हो गया. रफीक दुकान पर काम हो न हो बदस्तूर बैठता था. दुकान की सफाई भी नियमित होती थी. बेटा अपने दोस्तों में चला गया था. पेट भरा हो तो भला काम करने की क्या जरूरत थी? बाप की कमाई काफी थी. खाली बातें करने या बोलने में क्या जाता था?

हुक्के का कश लगा कर रफीक कुनकुनी धूप में सुस्ता रहा था कि उस की दुकान के बाहर पुलिस की जीप आ कर रुकी. पुलिस? पुलिस क्या करने आई थी? रफीक हुक्का छोड़ उठ खड़ा हुआ. तभी उस का चेहरा अपने पुराने ग्राहक सिन्हा साहब को देख कर चमक उठा.

एक दशक पहले 3 सितारे वाले सदर थाने में एस.एच.ओ. होते थे. अब शायद बड़े अफसर बन गए थे.

‘‘आदाब अर्ज है, साहब,’’ रफीक ने तनिक झुक कर सलाम किया. ‘‘क्या हाल है, रफीक मियां?’’ पुलिस कप्तान सिन्हा साहब ने पूछा.

‘‘सब खैरियत है, साहब.’’ ‘‘क्या बात है, बाहर बैठे हो…क्या आजकल काम मंदा है?’’

‘‘बस हुजूर, थोड़ा हालात का असर है.’’ ‘‘ओह, समझा, जरा हमारी नई वरदी सी दोगे?’’

‘‘क्यों नहीं, हुजूर, हमारा काम ही सिलाई करना है.’’ एस.एच.ओ. साहब एस.पी. बन गए थे. कई साल वहां रहे थे. ट्रांसफर हो कर कई जगह रहे थे. अब यहां बड़े अफसर बन कर आए थे.

रफीक मियां की उदासी, निरुत्साह सब काफूर हो गया था. वह आग्रहपूर्वक कप्तान साहब को पिस्तेबादाम वाली बरफी खिला रहा था, साथ ही मसाले वाली चाय लाने का आर्डर दे रहा था. आखिर उस के माथे से कफन सीने वाले दर्जी का लेबल हट रहा था. कप्तान साहब नाप और कपड़ा दे कर चले गए थे. रफीक मियां जवानी के जोश के समान उन की वरदी तैयार करने में जुट गए थे.

कप्तान साहब की भी वही हालत थी जो रफीक की थी. 2 परेशान जने हाथ मिला कर चलें तो सफर आसान हो जाता है.

Latest Hindi Stories : जिंदगी कभी अधूरी नहीं होती

 Latest Hindi Stories : ‘‘खुशी…’’चिल्लाते हुए खुशमन बोला, ‘‘मेरे सामने बोलने की हिम्मत भी न करना. मैं कभी सहन नहीं कर पाऊंगा कि कोई मेरे सामने मुंह भी खोले और तुम जैसी का तो कभी भी नहीं.’’

पता नहीं और क्याक्या बोला खुशमन ने. ‘तुम जैसी को तो कभी भी सहन नहीं कर सकता,’ यह वाक्य तो खुशमन ने पता नहीं इन 5 वर्षों में कितनी बार दोहराया होगा. पर मैं पता नहीं क्यों फिर भी वहीं की वहीं थी. वैसे की वैसी… जिस पर जितना मरजी पानी फेंको, ठोकरें मारो कोई फर्क नहीं पड़ता था या फिर मेरा वजूद भी खत्म हो गया था.

शादी को 5 साल हो गए थे. पता नहीं क्याक्या बदल गया था? जब याद करती हूं कि यह वही खुशमन है जिसे मैं आज से 5 साल पहले मिली थी तो खुद को कितनी खुशहाल समझी थी. वह लड़की जिस से दोस्ती के लिए भी हाथ बढ़ाने को सब तरसते थे और वह खुशमन के पीछे चलती हुई न जाने कब उस की जीवनसंगिनी बन गई थी.

मांबाप की इकलौती संतान थी खुशी. बड़े नाजों से, लाड़प्यार से पाला था उस के मांबाप ने. पापा शहर के जानेमाने बिल्डर थे. इमारतें बना कर बेचना बड़ा काम था उन का. खुशी के जन्म के बाद तो उन का व्यवसाय इतना बढ़ा कि उन्होंने इस का श्रेय उसे दे दिया. खुशी के मुंह से निकली कोई इच्छा खाली नहीं जाती थी. शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ने के बाद खुशी ने अपने ही शहर के सब से अच्छे कालेज में बीएससी साइंस में दाखिला ले लिया. पढ़ाई में तो होशियार थी ही, साथ ही साथ खूबसूरत भी थी.

कालेज में पहले ही दिन उस के कई दोस्त बन गए. खुशी कालेज के प्रत्येक समारोह में भाग लेती. पढ़ाई में भी प्रथम स्थान पर रहती. इसी कारण वह अध्यापकों की भी चहेती बन गई थी. हर कोई उस की प्रशंसा करता न थकता. इतने गुण होने के बावजूद भी खुशी में घमंड बिलकुल नहीं था. घर में भी सब से मिल कर रहना और मातापिता का पूरा ध्यान उस के द्वारा रखा जाता था.

एक बार पापा को दिल का दौरा पड़ा तो खुशी ने ऐसे संभाला कि एक बेटा भी ऐसा न कर पाता. एक दिन पापा जैसे ही शाम को घर पहुंचे तो खुशी रोज की तरह पापा को पानी देने आई तो पापा को सोफे पर गिरा पड़ा पाया. खुशी ने हिलाया, पर पापा के शरीर में कोई हलचल न थी. नौकरों और मां की सहायता से कार से तुरंत अस्पताल ले गई और पापा को बचा लिया. तब से मातापिता का उस पर मान और भी बढ़ गया था. तब पापा ने कहा भी था कि लड़की भी लड़का बन सकती है. जरूरी नहीं कि लड़का ही जिंदगी को खुशहाल बनाता है. तब खुशी को महसूस हुआ कि उन के परिवार में कुछ भी अधूरा नहीं है.

बीएससी करने के बाद खुशी ने एमएससी में दाखिला लेना चाहा पर मां की इच्छा थी कि अब उस की शादी हो जाए, क्योंकि पापा को अपने व्यवसाय को संभालने के लिए सहारा चाहिए था. लड़का तो कोई था नहीं. इसलिए उन का विचार था कि खुशी का पति उन के साथ व्यवसाय संभाल लेगा. मगर खुशी चाहती थी कि वह आगे पढ़े. अत: मातापिता ने उस की जिद मान ली.

एमएससी खुशी के शहर के कालेज में नहीं थी. इस के लिए उसे दूसरे शहर के कालेज में दाखिला लेना पड़ता था. इस के लिए भी पापा ने अपनी हरी झंडी दिखा दी. खुशी ने दाखिला ले लिया. रोजाना बस से ही कालेज जातीआती थी. पापा ने यह देख कर उसे कार ले दी. अब वह कार से कालेज जाने लगी. उस की सहेलियां भी उस के साथ ही जाने लगीं. समय पर कालेज पहुंचती, पूरे पीरियड अटैंड करती, यहां पर भी खुशी की कई सहेलियां बन गईं. होनकार विद्यार्थी होने के कारण अध्यापकों की भी चहेली बन गई.

कालेज जौइन कर समय का पता ही नहीं चला कि कब 4 महीने बीत गए. खुशी को कई बार महसूस होता कि कोई उसे चुपके से देखता है, उस का पीछा करता है, परंतु कई बार इसे वहम समझ लेती. मगर यह सच था और वह शख्स धीरेधीरे उस के सामने आ रहा था.

रोजाना की तरह उस दिन भी खुशी कक्षा खत्म होने के बाद लाइब्रेरी चली गई. वह वहां किताबें देख ही रही थी कि कोई पास आ कर उसी अलमारी में से पुस्तकें देखने लगा. खुशी घबरा कर पीछे हो गई. जब पलट कर देखा तो यह वही था जो उस के आसपास ही रहता था. उस ने खुशी की तरफ मुसकरा कर देखा, पर खुशी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और चली गई. अब तो वह खुशी को रोजाना नजर आने लगा. वह कहीं न कहीं खुशी को मिल ही जाता.

एक दिन खुशी लाइब्रेरी में बैठ कर एक पुस्तक पढ़ रही थी. उस की एक ही कापी लाइब्रेरी में थी जिस कारण उसे इश्यू नहीं किया गया था. तभी अचानक वह वहीं खुशी के पास आ कर बैठ गया और फिर कहने लगा, ‘‘इस पुस्तक को तो मैं कब से ढूंढ़ रहा था और यह आप के पास है.’’

खुशी घबरा गई. ‘‘अरे, घबराएं नहीं. मैं भी आप की ही तरह इसी विद्यालय का छात्र हूं. खुशमन नाम है मेरा और आप का?

‘‘खुशी, मेरा नाम खुशी है,’’ कह कर खुशी बाहर आ गई.

खुशमन भी साथ ही आ गया और फिर चला गया. अब रोज मिलते. हायहैलो हो जाती. धीरेधीरे कालेज की कैंटीन में समय बिताना शुरू कर दिया. खुशमन ने अपने परिवार के बारे में काफी बातें बतानी शुरू कर दीं. काफी होशियार था वह पढ़ने में. कालेज का जानामाना छात्र था. उस के मातापिता नहीं थे. एक भाई था, जो पिता का व्यवसाय संभालता था. पैसे की कमी न थी. खुशमन शुरू से ही होस्टल में पढ़ा था, इसलिए घर से लगाव भी कम ही था. शहर में कालेज होने पर भी होस्टल में ही रहता था. भाई ने शादी कर ली थी, परंतु खुशमन अभी पढ़ना चाहता था. इंजीनियरिंग का बड़ा ही होशियार छात्र था. उसे कई कंपनियों से नौकरी के औफर थे. बड़ीबड़ी कंपनियां उसे लेने के लिए खड़ी थीं. खुशी का अब काफी समय उस के साथ बीतने लगा. पता ही नहीं चला कि कब 1 साल बीत गया और कब उन की दोस्ती प्यार में बदल गई.

खुशी के पापा का व्यवसाय काफी अच्छा चल रहा था, परंतु अब वे ज्यादा बोझ नहीं उठा पाते थे, क्योंकि अब उन की उम्र और दूसरा शायद बेटा न होने की चिंता. मगर उन्होंने यह खुशी को पता नहीं चलने दिया.

एक दिन खुशी सहेलियों के साथ कालेज पहुंची ही थी कि घर से फोन आ गया

कि पापा की तबीयत ठीक नहीं है. वह तुरंत घर चल दी. पापा को फिर दिल का दौरा पड़ा था. वह उन्हें अस्पताल ले गई. पापा दूसरी बार दिल के दौरे को सहन नहीं कर पाए. डाक्टरों ने जवाब दे दिया. उन की तो जैसे दुनिया ही खत्म हो गई. मां खुशी को संभालती और खुशी मां को. मां के अलावा अब खुशी का कोई नहीं था. पापा के जाने के बाद घर वीरान हो गया था. पापा का व्यवसाय उन के कारण ही था. अब वह खत्म हो गया था.

खुशी 1 महीना कालेज नहीं गई. सारे दोस्त पता लेने आए. खुशमन भी. सभी ने समझाया कि अपनी पढ़ाई पूरी कर लो, पर खुशी का मन ही नहीं मान रहा था. जब मां ने देखा कि सभी दोस्त खुशी को संभाल रहे हैं तो उन्होंने भी कहा कि तुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए. 1 ही साल तो रह गया अब. पापा ने 2 फ्लैट बना कर किराए पर दिए थे. इस कारण पैसे की कोई समस्या न आई. धीरेधीरे खुशी ने कालेज जाना शुरू कर दिया. पढ़ाई का दूसरा साल था. प्रथम वर्ष उस ने अच्छे अंकों से पास किया था. इस बार भी वह अच्छे अंक ले कर अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहती थी. खुशमन की तो पढ़ाई खत्म ही थी. उस ने 2 महीने के बाद एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी जौइन कर लेनी थी. बस कुछ दिन ही रह गए थे उस के. उस दिन खुशी के पास आया था. खुशी कालेज की कैंटीन में बैठी थी, उस के हाथ में छोटा सा गिफ्ट था. उसे खुशी को देते हुए बोली, ‘‘खुशी, इसे खोलो जरा.’’

उस में अंगूठी थी. उसे देख खुशी ने पूछा, ‘‘यह क्या है खुशमन?’’

‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी?’’ खुशमन बोला खुशी ने हां कर दी. जब खुशी ने मां से बात की तो उन्होंने भी हां कर दी, क्योंकि खुशी के सिवाए कोई था ही नहीं उन का. खुशी की खुशी में ही उन की खुशी थी.

खुशी की पढ़ाई खत्म हुई. कालेज में टौप किया था. अध्यापकों ने कालेज में ही नौकरी जौइन करने को कहा. खुशमन से पूछा तो उस ने मना कर दिया. पढ़ाई खत्म होने के बाद खुशी और खुशमन की शादी हो गई. अपने ही शहर में उस की नौकरी थी. काफी बड़ा फ्लैट था उस का. खुशी को लगा उस की जिंदगी ही बदल गई. और खुशी के पापा ने एक फ्लैट इस शहर में भी खरीदा था. उसे किराएदारों से खाली करवा कर खुशी को यहीं ले आई. घर को किराए पर दे दिया. अब मां इसी शहर में थीं.

किसी की अच्छाइयों तथा बुराइयों का पता धीरेधीरे ही लगता है. ऐसा ही कुछ खुशी को खुशमन का अनुभव मिल रहा था. कालेज के समय कभीकभी खुशमन जब अपनी उपलब्धियों को बताता था तो उन्हें सुन कर खुशी खुश होती थी कि वह उस के सामने अपनी उपलब्धियों, अच्छाइयों को प्रकट करता है. मगर वह उस का घमंड था जो अब खुशी के सामने आ रहा था. शादी हुए 4-5 महीने ही गुजरे होंगे. प्रत्येक काम में उस का नुक्स निकालना जरूरी होता था. जैसे उस जैसा निपुण कोई और है ही नहीं. खुशी अगर कोई जवाब देती तो सुनने से पहले ही चिल्ला पड़ता था. खाना खुशी ने कभी बनाया ही नहीं था, परंतु अब तक काफी कुछ सीख गई थी. पर खुशमन को खुश न कर पाई. नौकरानी के सामने भी खामियां निकाल देता, ‘‘अरे, तुम तो नौकरानी से भी गंदा खाना बनाती हो?’’

टूट जाती थी अंदर से खुशी. ऐसे ही जिंदगी के 5 साल बीत गए. मां को भी अब खुशी का दुख नजर आने लगा था. पर कुछ कह नहीं पाती थीं, क्योंकि खुशमन खुशी का ही चुनाव था.

इधर खुशमन का व्यवहार, उधर मां की चिंता. मां बहुत अकेली पड़ गई थीं. खुशी ने कई बार मां से कहा कि उस के पास आ कर रहो, पर वे नहीं मानती थीं. खुशी ने यह अपनी तरफ से कोशिश करनी चाही थी. अभी खुशमन से बात नहीं की थी इस बारे में.

एक दिन खुशमन का मूड देख कर बात की, ‘‘खुशमन मां बहुत अकेली पड़ गई हैं.’’

पूरी बात सुनने से पहले ही खुशमन बोल पड़ा, ‘‘कोई बात नहीं खुशी. उन के लिए एक केयर टेकर रख देते हैं. सारा समय उन के पास रहा करेगी. पैसे मैं दे दूंगा,’’ कह खुशमन कमरे में चला गया.

खुशी अपनी जगह खड़ी रह गई. खुशमन को क्या पता कि मातापिता का प्यार क्या होता है? क्या होता है परिवार? शुरू से ही तो होस्टल में रहा. ऊपर से उस के दिमाग में घमंड भरा हुआ था. इन्हीं कारणों से अपना भी परिवार भी नहीं बढ़ा रहा था.

एक दिन तो हद हो गई. मां काफी बीमार थीं. केयर टेकर ने फोन किया. खुशी ने जाना चाहा, तो खुशमन ने वहीं रोक दिया. बोला, ‘‘आज मेरी छुट्टी है, मैं नहीं चाहता कि तुम घर से बाहर जाओ… कम से कम छुट्टी वाले दिन तो घर रहा करो…’’ मां की तबीयत की बात है तो केयर टेकर को बोल दो कि उन्हें दवा दे दे.

खुशी चाह कर भी न जा पाई.

मां की तबीयत काफी बिगड़ रही थी. कुछ खापी भी नहीं रही थीं? खुशी ने साहस कर के खुशमन से बात की, ‘‘मां की तबीयत बहुत खराब है. उन्हें मेरी जरूरत है… तो क्या मैं मां को यहां ले आऊं?’’

खुशमन चिल्ला कर बोला, ‘‘क्यों? क्या मैं ने तुम्हारे खानदान का ठेका ले रखा है? तुम्हें पाल रहा हूं क्या यही कम है, जो तुम्हारी मां को भी उठा लाऊं? तुम से भी मैं ने शादी इसलिए की थी कि समाज में रहने के लिए एक सुंदर पत्नी चाहिए थी और घर को संभालने के लिए एक औरत न कि तुम्हारी खूबियां देख कर. वैसे भी खूबी तो कोई है नहीं तुम में, जिस का मैं वर्णन कर सकूं और फिर तुम्हारी मां के अब दिन ही कितने रह गए हैं. केयर टेकर है संभाल लेगी उसे,’’ कह कर खुशमन चला गया.

सारा दिन खुशी यही सोचती रही कि क्या उस का कोई वजूद नहीं? सिर्फ उस की शक्ल देख कर खुशमन ने इसलिए शादी की थी कि उस की एक सुंदर पत्नी है, यह समाज में दिखा सके?

सारी रात खुशी इन गुजरे सालों के बारे में सोचती रही. खाना भी नहीं खाया और न ही खुशमन ने पूछा. वह तो शायद खुशमन के लिए कठपुतली थी. मगर आज तो पानी सिर के ऊपर से गुजर गया था. आज खुशमन ने उसे उस का स्थान दिखा दिया था. पहले भी 2-3 बार वह बेइज्जत हो कर मां के पास गई थी, परंतु फिर खुशमन के कहने पर लौट आई थी. अब उस ने लौट कर न आने का सोची थी. खुशमन के जाने के बाद खुशी ने अपना समान समेटा, चाबी नौकरानी को पकड़ाई और मां के पास चली गई. आज उस की उन्हें जरूरत थी. उस मां को जिस ने उस के इतना काबिल तो बनाया था कि वह अपनी जिंदगी खुद जी सके न कि खुद को अधूरा समझे.

मां ने देखा तो खुश हो कर बोली, ‘‘खुशमन छोड़ कर गया है?’’

‘‘नहीं मां, खुशी को आने के लिए किसी की मंजूरी या साथ की जरूरत थोड़े होती है. वह कब आ जाए पता ही नहीं चलता,’’ खुशी हंसते हुए बोली.

‘‘यह क्या बोले जा रही है?’’ मां बोली, ‘‘कुछ नहीं मां, तुम्हें मेरी जरूरत थी तो मैं आ गई बस.’’ खुशी ने मां का काफी ध्यान रखा. अब मां काफी ठीक हो गई थीं. काफी संभल भी गई थीं. कितना खुदगर्ज था खुशमन. एक बार भी फोन कर के नहीं पूछा.

मां ने एक दिन खुशमन के बारे में पूछा तो खुशी ने भी सच बता दिया. यह भी कह दिया कि अब वह वापस नहीं जाएगी.

एक दिन सुबह नाश्ता कर के बैठी ही थी कि खुशमन आ गया. बोला, ‘‘क्या नजारे हैं महारानी के…एक तो बिन बताए निकलना और फिर कितनेकितने दिनों तक घर न लौटना…चलो घर… ले जाने को आया हूं. बाहर कार में इंतजार कर रहा हूं…सामान ले कर आ जाओ,’’ एक ही सांस में सब बोल गया. मां की तबीयत के बारे में कुछ नहीं पूछा.

जैसे ही खुशमन बाहर जाने लगा, खुशी जोर से बोली, ‘‘ठहरिए, खुशमन… आप क्या समझते हो आप जब चाहोगे कुछ भी बोल दोगे… जब चाहोगे घर से निकाल दोगे, जब चाहोगे लेने आ जाएंगे…क्या समझा है आप न मुझे? मैं न तो कोई वस्तु हूं और न ही कोई कठपुतली. मैं एक नारी हूं, जिस का अपना वजूद होता है. वह अपना जीवन जी सकती है. वह कभी अधूरी नहीं होती. उसे अधूरा बनाया जाता है. क्या नहीं कर सकती वह? मैं बताती हूं क्याक्या कर सकती है वह… मांबाप को संभाल सकती है, कमा सकती है, घर संभाल सकती है, इसलिए कभी अधूरा न समझना मुझे. जिंदगी कभी अधूरी नहीं होती. खुशी भी न कभी अधूरी थी, न है, न रहेगी. इसलिए अब मैं आप के साथ नहीं जाना चाहती और आगे से खुशी के घर में कदम भी मत रखना.’’

खुशमन हैरान हो गया था. उस ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि खुशी ने दरवाजा बंद कर दिया. खुशमन बंद दरवाजा देख कर वहां से धीमेधीमे कदमों से चला गया.

Hindi Stories Online : वो नीली आंखों वाला – वरुण को देखकर क्यों चौंक गई मालिनी

Hindi Stories Online : मधुमास के बाद लंबी प्रतीक्षा और सावनराजा के धरती पर कदम रखते ही हर जर्रा सोंधी सी सुगंध में सराबोर हो रहा है… मानो सब को सुंदर बूंदों की चुनरिया बना कर ओढ़ा दी हो. लेकिन अंबर के सीने से खुशी की फुलझड़ियां छूट रही हैं… जैसे वह अपने हृदय में उमड़ते अपार खुशी के सागर को आज ही धरती से जा आलिंगन करना चाहता है. बरखा रानी हवाई घोड़े पर सवार हैं, रुकने का नाम ही नहीं ले रही हैं. ऐसे बरस रही हैं, जैसे अब के बाद फिर कभी उसे धरती का सीना तरबतर करने और समस्त धरा को अपने स्नेह का कोमल स्पर्श करने आना ही नहीं है. हर पत्ता, हर डाली, हर फूल खुद को वैजयंती माल समझ इतरा रहा हो और इस धरती के रैंप पर मानो कैटवाक कर रहा हो….

घर की दुछत्ती यह सारा मंजर आंखें फाड़फाड़ कर देख रही है मानो ईर्ष्या से दरार पड़ गई हो, और उस का रुदन मालिनी के दिल को भी छलनी कर रहा है, जैसे एक बहन दूसरे के दुख में पसीज रही हो.

ऐसी बारिश जबजब पड़ी, उस ने मालिनी को हर बार उन बीती यादों की सुरंग में पीछे ले जा कर धकेल दिया.

उन यादों के खूबसूरत झूलों के झोटे तनमन में स्पंदन पैदा कर देते हैं.

वह खूबसूरत सा दिखने वाला, नीलीनीली आंखों वाला, लंबा स्मार्ट (कामदेव की ट्रू कौपी) वो 12वीं क्लास वाला लड़का आंखों के आगे घूम ही जाता.

मालिनी ने जब 9वीं कक्षा में स्कूल बदला तो वहां सिर्फ एक वही था, उन सभी अजनबियों के बीच… जिस ने उस की झिझक को समझा कि किस प्रकार एक लड़की को नए वातावरण में एडजस्ट होने में वक्त तो लगता ही है. पर साथ ही साथ किसी अच्छे साथी के साथ की भी आवश्यकता होती है. उस ने हिंदी मीडियम से अंगरेजी मीडियम में प्रवेश जो लिया था, इसी कारण सारी लड़कियां मालिनी को बैकवर्ड और लो क्लास समझ भाव ही नहीं देती थीं.
वह जबजब इंटरवल या असेंबली में वरुण को दिख जाती, वही उस की खोजखबर लेता रहता.

“और बताओ… ‘छोटी’,
कोई परेशानी तो नहीं…?”
उस ने कभी मालिनी का नाम जानने की कोशिश ही नहीं की.

एक तो वह जूनियर थी और ऊपर से कद में भी छोटी और सुंदर.

वो उसे प्यार से छोटी ही पुकारता और उस के अंदर हमेशा “मैं हूं ना” कह कर उसे आतेजाते शुक्ल पक्ष के चतुर्थी के चांद सी, छोटी सी मुसकराहट से सराबोर कर जाता. मालिनी का हृदय इस मुसकराहट से तीव्र गति से स्पंदित होने लगता… लेकिन ना जाने क्यों…?

उस को वरुण का हर समय हिफाजत भरी नजरों से देखना… कुछकुछ महसूस कराने लगा था. किंतु क्या…?

वह यह समझ ही नहीं पा रही थी. क्या यही प्रेम की पराकाष्ठा थी? या किसी बहुत करीबी के द्वारा मिलने वाला स्नेह और दुलार था…?

किंतु इस सुखद अनुभूति में लिप्त मालिनी भी अब नि:संकोच हो कर मन लगा कर पढ़ने लगी. उसे जब भी कोई समस्या होती, उसी नीली आंखों वाले लड़के से साझा करती. हालांकि इतनी कम उम्र में लड़केलड़कियों में अट्रैक्शन तो आपस में रहता ही है, चाहे वह किसी भी रूप में हो…

सिर्फ दोस्त या सिर्फ प्रेमी या एक भाई जैसा संबोधन…

शायद भाई कहना गलत होगा, क्योंकि इस रिश्ते का सहारा ज्यादातर लड़केलड़कियां स्वयं को मर्यादित रखने के चक्कर में लेते हैं.

मालिनी अति रूढ़िवादी परिवार में जनमी घर की दूसरे नंबर की बेटी थी. उस के 2 भाई और 2 बहनें थीं. वह देखने में अति सुंदर गोरी और पतली. सहज ही किसी का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की काबिलीयत रखती थी.

एक दिन मालिनी स्कूल से लौटते वक्त बस स्टाप पर चुपचाप खड़ी थी. बस के आने में अभी टाइम था. खंभे से सट कर वह खड़ी हो गई, तभी वरुण वहां से साइकिल पर अपने घर जा रहा था कि उस की नजर मालिनी पर पड़ी और पास आ कर बोला, “छोटी, अभी बस नहीं आई…”

“नहीं…”

“चलो, मैं तुम्हारे साथ वेट करता हूं… बस के आने का..”

वह चुप ही रही. उस के मुंह से एक शब्द न फूटा.

सर्दियों की शाम में 4 बजे बाद ही ठंडक बढ़ने लगती है. आज बस शायद कुछ लेट थी. वह बारबार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी को देखता, तो कभी बस के इंतजार में आंखें फैला देता.

पर, इतनी देर वह चुपचाप वहीं खड़ी रही जैसे उस के मुंह में दही जम रहा हो… टस से मस नहीं हुई…
दूर से आती बस को देख वह खुश हुआ. बोला, “चलो आ गई तुम्हारी बस. मैं भी निकलता हूं, ट्यूशन के लिए लेट हो रहा हूं.”

स्टाप पर आ कर बसरुक जाती है और सभी लड़कियां चढ़ जाती हैं, किंतु मालिनी वहीं की वहीं…

यह देख वरुण आश्चर्यचकित हो अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगता है. बस आगे बढ़ जाती है.

वरुण थोड़ी देर सोचने के बाद… फौरन अपना स्वेटर उतार कर मालिनी को दे देता है. वह कहता है, “यह लो छोटी… इसे कमर पर बांध लो…”

“और…”

“पर, आप… यह क्यों…”

“ज्यादा चूंचपड़ मत करो…
मैं समझ सकता हूं तुम्हारी परेशानी…”

“पर, आप कैसे…?”

“मेरे घर में 2 बड़ी बहनें हैं. जब वे इस दौर से गुजरी, तभी मेरी मां ने उन दोनों को इस बारे में शिक्षित करने के साथसाथ मुझे भी इस बारे में पूरी तरह निर्देशित किया… जैसे गुलाब के साथ कांटों को भी हिदायत दी जाती है कि कभी उन्हें चुभना नहीं…

“क्योंकि मेरी मां का मानना था कि तुम्हारी बहनों को ऐसे समय में कोई लड़का छेड़ने के बजाय मदद करे,
तो क्यों न इस की शुरुआत अपने घर से ही करूं…

“तो मुझे तुम्हारी स्थिति देख कर समझ आ गया था. चलो, अब जल्दी करो…
और घर पहुंचो. तुम्हारी मां तुम्हारा इंतजार कर रही होंगी.”

मालिनी उस वक्त धन्यवाद के दो शब्द भी ना बोल पाई. उन्हें गले में अटका कर ही वहां से तेज कदमों से घर की ओर रवाना हुई.

फिर उसे अगले स्टाप पर घर जाने वाली दूसरी बस मिल गई.

उस के घर में दाखिल होते ही उस का हुलिया देख मां ऊपर वाले का लाखलाख धन्यवाद देने लगती है कि जिस बंदे ने आज मेरी बच्ची की यों मदद की है, उस की झोली खुशियों से भर दे. जरूर ही उस की मां देवी का रूप होगी.

इतना ही नहीं, वरुण ने स्कूल में होने वाली रैगिंग से भी कई बार मालिनी को बचाया. और तो और रैगिंग को स्कूल से खत्म ही करवा दिया, क्योंकि वह हैडब्वौय था और उस के एक प्रार्थनापत्र ने प्रधानाचार्य को उस की बात स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया, क्योंकि बात काफी हद तक सभी विद्यार्थियों के हितार्थ की थी.

अगले दिन मालिनी उस नीली आंखों वाले लड़के का स्वेटर स्कूल में लौटाती है, किंतु हिचक के कारण वही दो शब्द गले में फांस से अटके रह जाते हैं, जिस की टीस उस के मन में बनी रहती है.

शीघ्र ही स्कूल में बोर्ड के पेपर शुरू होने वाले हैं. सभी का ध्यान पूरी तरह से पढ़ाई पर केंद्रित हो जाता है, क्योंकि अच्छे अंक प्राप्त करना हर विद्यार्थी का लक्ष्य होता है.

बस मालिनी की वह वरुण से आखिरी मुलाकात बन कर रह गई, क्योंकि 9वीं और 11वीं के पेपर खत्म होते ही उन की छुट्टी कर दी गई थी, क्योंकि पूरे विद्यालय में 10वीं व 12वीं की बोर्ड परीक्षाओं के लिए उचित व्यवस्था की जा रही थी.

फिर मालिनी चाह कर भी वरुण से नहीं मिल पाई, क्योंकि वह विद्यालय 12वीं तक ही था, जिस के बाद वरुण ने कहीं और दाखिला ले लिया होगा.

समय के साथसाथ मालिनी भी आगे की पढ़ाई में व्यस्त होती चली गई और वह 12वीं क्लास वाला लड़का उस के मन में एक सम्मानित व्यक्ति की छाप छोड़ कर जा चुका था.

धीरेधीरे मालिनी का ग्रेजुएशन पूरा हो गया और उस के पापा ने बड़े ही भले घर में उस का रिश्ता तय कर दिया. बड़े ही सफल बिजनेसमैन मिस्टर गुप्ता, उन्हीं के बेटे शशांक के साथ बात पक्की हो जाती है और आज अपनी खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के 20 बरस बिता चुकी है. उस के 2 बेटे और एक प्यारी सी बेटी भी है.

“अरे मालिनी, कहां हो… जल्दी इधर आओ…” तब मालिनी की तंद्रा टूटती है, जो घंटों से खिड़की के पास खड़ेखड़े 20 बरस से हो रही हृदय की बारिश संग उन पुराने पलों को याद कर सराबोर हो रही होती है.

“हां, आती हूं. अरे, आप…
इतना कहां भीग गए…?”

“आज कार रास्ते में ही बंद हो गई. बस, फिर वहां से पैदल ही…”

“आप भी बच्चों की तरह जिद करते हैं… फोन कर के औफिस से दूसरी कार या टैक्सी ले लेते.”

“अरे भई, हम बड़ों को भी तो कभीकभी नादानी कर अपने बचपन से मुलाकात कर लेनी चाहिए. वो मिट्टी की सोंधी सी सुगंध, महका रही थी मेरा तन और मन… याद आ रही थीं वो कागज की नावें…”

मालिनी शशांक को चुटकी काटते हुए बोली, “हरसिंगार सी महक उठ रही है…”

“अरे मैडम, आप का आशिक यों ही थोड़ी देर और ऐसे ही खड़ा रहा, तो सच मानिए आप का मरीज हो जाएगा…”

“आप को तो बस हर पल इमरान हाशमी (रोमांस) सूझता है. बच्चे बड़े हो गए हैं…”

“तो क्या हम बूढ़े हो गए हैं… हा… हा… हा…
कभी नहीं मालिनी…
मेरा शरीर बूढ़ा भले ही हो जाए, पर दिल हमेशा जवान रहेगा… देख लेना… उम्र पचपन की और दिल बचपन का…”

“अब बातें ही होंगी …मेम साहब या गरमागरम चायपकौड़ी भी…”

“बस, अभी लाई…”

“लीजिए हाजिर है… आप के पसंदीदा प्याज के पकौड़े.”

“वाह… मालिनी वाह… मजा आ गया. आज बहुत दिनों बाद ऐसी बारिश हुई और मैं जम कर भीगा…”

वह मन ही मन बोली, ” मैं भी…”

“अरे, एक बात तो तुम्हें बताना ही भूल गया कि कल हमारे औफिस की न्यू ब्रांच का उद्घाटन है, तो हमें सुबह 10 बजे वहां पहुंचना है. काफी चीफ गेस्ट आ रहे हैं. मैं ने खासतौर पर एक बहुत बड़े उद्योगपति हैं, मिस्टर शर्मा… उन्हें आमंत्रित किया है…

“देखो, वे आते भी हैं या नहीं.. बहुत बड़े आदमी हैं…”

मालिनी चेहरे पर प्यारी सी मुसकान लिए शशांक को अपनी बांहों का बधाईरूपी हार पहना देती है.

मालिनी को बांहों में भरते हुए शशांक भी अपना हाल ए दिल बयां करने से पीछे नहीं रहता. वह कहता है, “यह सब तुम्हारे शुभ कदमों का ही प्रताप है.

“मैं बुलंदी की कितनी ही सीढ़ियां हर पल चढ़ता चला गया… न जाने कितनी ख्वाहिशों को होम होना पड़ा. मैं चलता चला चुनौती भरी डगर पर… पाने को आसमां अपना, पूरी उम्मीद के साथ मिलेगा साथ अपनों का, ख्वाब आंखों में संजोए कि किसी दिन उन बिजनेस टायकून के साथ होगा नाम अपना…

“सच अगर तुम मेरी जिंदगी में ना होती, तो मेरा क्या होता…”

मालिनी हंसते हुए बोली, “हुजूर, वही जो मंजूरे खुदा होता…”

“हा… हा… हा.. हा… हाय, मैं मर जावा…”

अगली सुनहरी सुबह मालिनी और शशांक की राह में पलकें बिछाए खड़ी थी. वह कह रहा था, “कमाल लग रही हो… लगता है, सारी कायनात आज मेरी ही नजरों में समाने को आतुर है.
इस लाल सिल्क की कांजीवरम साड़ी में तो तुम नई दुलहन को भी फीका कर दो…”

“चलिए… अब बस भी कीजिए… बच्चे सुन लेंगे…”

“अरे ,सुनने दो… सुनेंगे नहीं तो सीखेंगे कैसे…”

“चलें अब..?”

“वाह, जी वाह, अपना तो सज लीं. अब जरा इस नाचीज पर भी थोड़ा रहम फरमाइए और यह टाई लगाने में हमारी मदद कीजिए.”

“जी, जरूर…”

“सच कहूं मालिनी, आज तुम्हारी आंखों में देख कर फिर मुझे वही 20 साल पुरानी बातें याद आ रही हैं…

“किस तरह मैं ने तुम्हें घुटने के बल बैठ कर गुलाब के साथ प्रपोज किया था…”

“जनाब, अब ख्वाबों की दुनिया से बाहर निकलिए… कहीं आप के चीफ गेस्ट आप के इंतजार में वहीं सूख कर कांटा ना हो जाए…”

“तो आइए, मोहतरमा तशरीफ लाइए…”

शशांक और मालिनी उद्घाटन समारोह के लिए निकलते हैं. वहां पहुंच कर दोनों अपने मुख्य अतिथि मिस्टर शर्मा का स्वागत करने के लिए गेट पर ही पलकें बिछाए खड़े रहते हैं.
जैसे ही मि. शर्मा गाड़ी से उतरते हैं, उन्हें देखते ही मालिनी तो जैसे जड़ सी हो जाती है…

उधर मिस्टर शर्मा भी…

“आइएआइए मिस्टर वरुण शर्मा… आप ने आज यहां आ कर हमारा सम्मान बढ़ा दिया.”

“अरे नहीं, आप बेतकल्लुफ हो रहे हैं…”

“बाय द वे माय वाइफ मालिनी…”

मालिनी तो सिर्फ उन्हें देख कर ही 20 बरस पीछे लौट गई. नाम तो सुनने की उसे आवश्यकता ही नहीं रही.

“आप… आप हैं …मिस्टर वरुण शर्मा.”

वरुण बोला, “इफ आई एम नोट रौंग, यू आर छुटकी.”

“एंड… आप वो नीली आंखों वाले लड़के…”

यह बोलतेबोलते मालिनी की जबान पर ताला सा लग गया… उस की आंखों के नीले समुंदर में, वो फिर से ना खो जाए,

“हां, हां…”

मालिनी उन्हें पुष्पगुच्छ दे कर उन का स्वागत करने के साथसाथ दिल की गहराइयों से मन ही मन धन्यवाद ज्ञापन करती है, जो इतने बरसों में ना कर सकी.

जैसे आज भगवान उस पर मेहरबान हो गए हो और कोई बरसों पुराना काम आज पूरा हो गया हो.

आज उस के दिल से उस नीली आंखों वाले लड़के को धन्यवाद ना कर पाने का अपराधबोध समाप्त हो चुका था.

“क्या आप एकदूसरे को जानते हैं…?” शशांक ने पूछा.

“जी… मालिनी जी मेरी जूनियर थीं…”

आज मालिनी का “समय पर किसी का अधिकार नहीं, किंतु समय की दयालुता पर विश्वास” पेड़ की जड़ों की तरह गहरा हो गया था.

“ओह दैट्स ग्रेट…” इतना कह कर मिस्टर शशांक दूसरे कामों में व्यस्त हो गए, जैसे उन्होंने मन ही मन स्वीकार कर लिया था कि अब उन के मेहमान मालिनी के भी हैं, तो वह उन की बढ़िया आवभगत कर लेगी.

मालिनी और वरुण की आंखों में न जाने कितने मूक संवाद तैर रहे थे, जिन में अनेकों प्रश्न, उत्तर की नोक पर भटक रहे थे. जैसे नदी का बांध खोल देने पर सबकुछ प्रवाहित होने लगता है.

दोनों इतने वर्षों बाद भी औपचारिक बातों के अलावा और कुछ नहीं कह पा रहे थे. शायद वह माहौल उन के अंतर्मन में उठते प्रश्नों के जवाब के लिए उपयुक्त ना था, किंतु वर्षों बाद वरुण के मन की तपती बंजर भूमि पर आज मालिनी से मिलन एक बरखा समान बरस रहा था और साथ ही वरुण इस के विपरीत भाव मालिनी के चेहरे पर पढ़ रहा था.

पूरे कार्यक्रम के दौरान वरुण ने अनेकों बार चोर निगाहों से मालिनी को निहारा. उस के दिल का वायलिन जोरजोर से बज रहा था, किंतु उस की भनक सिर्फ शशांक को ही महसूस हो रही थी.

कार्यक्रम के उपरांत सभी ने रात्रिभोज एकसाथ किया और तभी बारिश होने लगी. वरुण की फ्लाइट खराब मौसम के कारण कुछ घंटों के लिए स्थगित कर दी गई.

मिस्टर वरुण शशांक से एयरपोर्ट के लिए विदा लेने लगे, तो शशांक ने उन्हें कुछ देर घर पर ही चल कर आराम करने को कहा.

वरुण तो जैसे अपने प्रश्नों के जवाब हासिल करने को बेताब हुआ जा रहा था और ऐसे में शशांक के घर पर रुकने का न्योता…

पर, इस बात से मालिनी कुछ असहज सी होने लगी, जिसे वरुण ने भांप लिया.

खैर, सभी घर पहुंचे और वरुण को मेहमानों के कमरे में शशांक ही पहुंचा कर आया और यह भी कहा कि इसे अपना ही घर समझें. कुछ चीज की आवश्यकता हो तो मुझे या मालिनी को अवश्य बताएं.

“जी, जरूर… आप बेतकल्लुफ हो रहे हैं.”

शशांक अपने कमरे में आते ही मालिनी से कहता है कि आज मैं सब देख रहा था…

“जी, क्या?”

“वही…”

“क्या..?”

“ज्यादा भोली न बनो. मिस्टर वरुण तुम्हें टुकुरटुकुर निहार रहे थे.
पर, मैं तो नहीं…”

“क्या इस का अंदाजा तुम्हें नहीं कि वह तुम्हें…”

“छी:.. छी:, कैसी बात करते हैं आप? मेरे जीवन में आप के सिवा कोई दूसरा नहीं.”

“अरे, मैं ने कब कहा ऐसा… मैं तो पहले की बात कर रहा हूं.”

मालिनी गुस्से से तमतमाते हुए…. “नहीं, हमारे बीच पहले भी कभी ऐसी कोई बात नहीं हुई.”

“तो फिर मिस्टर वरुण की आंखों में मैं ने जो देखा, वह क्या…?”

शशांक की इन बातों ने मालिनी के दिल में नश्तर चुभो दिए और वह चुपचाप जा कर सो गई.

वह सुबह उठी, तो मिस्टर वरुण जा चुके थे और शशांक अपने औफिस.
तभी हरिया चाय के साथ मालिनी के कमरे में दाखिल होता है.

“बीवीजी… वह साहब जो रात को यहां ठहरे थे, आप के लिए यह चिट्ठी छोड़ गए हैं. बोले, मैं आप को दे दूं…”

मालिनी की आंखों में छाई सुस्ती क्षणभर के लिए जिज्ञासा में परिवर्तित हो गई कि क्या है इस में… ऐसा क्या लिखा है…” मालिनी ने कांपते हाथों से वह चिट्ठी खोली और पढ़ने लगी.

‘प्रिय छुटकी,

‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे मन में अनगिनत सवाल उमड़ रहे होंगे कि मैं तुम्हें कभी कालेज के बाद क्यों नहीं मिला?

‘क्यों तुम से कभी अपने दिल की बात नहीं कही. जबकि मैं ने कई बार महसूस किया कि तुम मुझ से कुछ कहना चाहती थी.

‘किंतु वह शब्द हमेशा तुम्हारे गले में ही अटके रहे. उन्हें कभी जबान का स्पर्श नसीब नहीं हुआ. मैं वह सुनना चाहता था, किंतु मेरी किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. मैं आशा करता हूं कि मेरे इस पत्र में तुम्हें अपने सभी सवालों के जवाब के साथसाथ मेरे दिल का हाल भी पता लग जाएगा.

‘मालिनी, मैं तुम्हारे काबिल ही नहीं था, इसलिए तुम से बाद में चाह कर भी नहीं मिला, क्योंकि मैं तुम्हें वह सारी खुशियां देने में शारीरिक रूप से पूर्ण नहीं था. मेरे साथ तुम तो क्या कोई भी लड़की खुश नहीं रह सकती.’

पढ़तेपढ़ते मालिनी की आंखों से गिरते आंसू इन अक्षरों को अपने साथ बहाव नहीं दे पा रहे थे. वह फिर पढ़ने लगी.

‘मेरी उस कमी ने मुझे तुम से दूर कर दिया, किंतु तुम आज भी मेरे मनमंदिर में विराजमान हो. तुम्हारे अलावा आज तक उस का स्थान कोई और नहीं पा सका है.

‘बचपन में क्रिकेट खेलते वक्त गेंद इतनी तेजी से मेरे अंग में लगी, जिस ने मेरे पौरूष को जबरदस्त चोट पहुंचाई और मेरे आत्मविश्वास को भी… किंतु मेरा तुम से वादा है कि मैं तुम्हें यों ही बेइंतहा चाहता रहूंगा और एक दिन तुम्हें भी अपने प्यार का एहसास करा कर रहूंगा….

‘तुम्हारा ना हो सका
वरुण.’

मालिनी कुछ पछताते हुए सोचने लगी, “तुम ने मुझ से कहा तो होता… क्या सैक्स ही एक खुशहाल जिंदगी की नींव होता है? क्या एकदूसरे का साथ और असीम प्यार जीवन के सफर को सुहाना नहीं बना सकता?”

आज फिर से वह सवालों के घेरे में खुद को खड़ा महसूस कर रही है.

मालिनी की नजर बगीचे में पड़ी तो देखा…

अनगिनत टेसू के फूल झड़े पड़े थे और संपूर्ण वातावरण केसरिया नजर रहा था.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें