सावधानी हटी दुर्घटना घटी

कहने को तो आजकल मोबाइल पर सारी दुनिया के तथ्य है और इस से कुछ भी खरीदा जा सकता है, कुछ भी बेचा जा सकता है और बैठेबिठाए कुछ भी सेवा ली जा सकती है, पर मोबाइल बेइमानी और आप की निजी ङ्क्षजदगी का पर्दाफाश करने का सब से बड़ा जरिया बन रहा है, जो भी आप के मोबाइल पर है, जो लिख रहे हैं, जो कह रहे हैं, जो पिक्चर ले रहे हैं, जो देख रहे हैं सब की सब दुनिया के हर उस जने को मालूम हो सकती है जो आप को लूटना चाहता है.

औरतों के लिए यह ब्लैक मोल, झगड़े, तूतूमैंमैं, गोपनीय बातों के खुलने का सब से बड़ा जरिया बन गया है. आमतौर पर पता नहीं चलता क्योंकि एक आम आदमी या औरत में किसी की रूचि नहीं होती पर अगर वक्त पडऩे पर आप ने क्या कहा था खोजना था तो आसान है. आप का मोबाइल अब हर समय औन रहता है, रात को कितना सोए क्या साथी को कहा यह सब किसीकिसी तरह रिकार्ड हो सकता है.

मोबाइल को हथियार बना कर आजकल सस्ता कर्ज दे फुसलाने का धंधा चल पड़ा है. दिल्ली पुलिस ने 3000 करोड़ की लूट पकड़ी है. आप आप का कौंटैक्ट किसी दुकान, हलवाई, उबर एप, स्वीगी एप, मेडिकल एप से ले कर आप को निशाना बना कर 5000 से 5 लाख तक का कर्ज दिया जाने का प्रलोभन दे सकते हैं. शिकार के फोन वालों, क्रेडिट कार्डों की गतिविधियों से भाप कर आज कम्प्यूटर उन लोगों को छांट सकते हैं जो पैसा चाह रहे हैं, उन्हें फोन कर के लच्छेदार बातों से लोग औफर किया जाता है. एक एप में जानकारी दें, पैन कार्ड, बैंक अकाउंड नंबर दें, ओटीपी लिखें, परमीशनें दे और पैसा मिल गया. कोई कागज नहीं, कोई चक्कर नहीं पर यह फंसना है.

इस के बाद शुरू होती है उगाई. 50 हजार के लोन पर इंट्रस्ट जोडज़ोड़ पर 4-5 लाख तक मांगे जाने लगते हैं. कर्ज लेने वाले के सारे रिश्तेदारों और संपर्कों के कौटैक्ट इन का एप ले चुका होता है इसलिए पब्लिक को जलील करना शुरू कर दिया जाता है.  हार कर कर्ज लेने वाले को फैसला करना पड़ता है, सब औनलाइन, रोज बदलते मोबाइल नंबरों के जरिए जो रातदिन कभी भी खडक़ उठ सकते हैं.

कोलकाता की एक टीचर को वाइस चांसलर ने नौकरी से निकलवा दिया क्योंकि उस के इंस्टाग्राम पर स्वीमिंग सूट में कुछ तस्वीरें थीं. 21 साल की युवती का स्वीमिंग सूट पहनना कोई बड़ी बात नहीं है पर चूंकि यह गोपनीय रहना जगजाहिर हो गया तो ऐसा लगने लगा कि मानो उस टीचर ने गुनाह कर लिया.

किसी भी जाने अनजाने के साथ कहीं भी खींची गई एक सैल्फी आज आफत बन सकती है, 4 दिन बाद या 4 साल बाद.

आज गलीगली में लगे कैमरे चोरों से तो शायद नागरिकों को बचा रहे हों पर एक आम नागरिक को हर समय ऐसे रख रहे हो मानो हैडमास्टर सिर पर सवार हो. किस घर के आपसी झगड़े का क्लिप सामने वाले यार के कैमरे में कैद हो जाए और फिर जगजाहिर हो जाए कह नहीं सकते. व्हाट्सएप, टिï्वटर, इंस्टाग्राम या पौर्न साइटों तक यह निजी मामले पूरी दुनिया में फैलाए जा सकते हैं.

अपने को सुरक्षित चाहते हो तो स्मार्ट फोन, सब से सस्ता केवल बात करने वाला फोन लें. इस से कठिनाई होगी, बहुत जानकारी सुलभ नहीं होगी पर आप की जिंदगी आप की मुट्ठी में होगी, चीन, अमेरिका में बंद सर्वरों में नहीं.

सिरफिरे आशिक के पागलपन की शिकार मासूम अंकिता

झारखंड के दुमका में रह रही अंकिता 12 वीं कक्षा की छात्रा थी. अंकिता का लक्ष्य पुलिस अधिकारी बनना था. उसकी उम्मीदें उस दुर्भाग्यपूर्ण रात में धराशायी हो गईं जब 23 अगस्त को उसके कथित शिकारी, जिसे शाहरुख के रूप में पहचाना गया है, ने उसे आग लगा कर मारने की कोशिश की. इसी के कारण घायल ने रविवार, 28 अगस्त को दम तोड़ दिया.

उन्नीस वर्षीय अंकिता एक गर्ल्स स्कूल की छात्रा थी. बचपन में कैंसर के कारण अपनी मां को खोने के बाद, अंकिता के परिवार को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा. सूत्रों ने पुष्टि की कि उसके पिता की आय प्रति दिन २०० रुपये थी और इस स्थिति के कारण, अंकिता छात्रों को ट्यूशन भी पढ़ाती थीं.

आखिर ऐसा क्या हुआ अंकिता के साथ की उसको ये सब सहना पड़ा?

अंकिता ने अपनी मौत के कुछ घंटे पहले पुलिस को बताया कि आरोपी शाहरुख ने करीब 10 दिन पहले उसको फोन किया था और उसे अपना दोस्त बनने के लिए उकसाया था.

“उसने मुझे सोमवार (22 अगस्त) को रात 8 बजे फिर से फोन किया और मुझसे कहा कि अगर मैंने उससे बात नहीं की तो वह मुझे मार डालेगा. मैंने अपने पिता को धमकी के बारे में बताया, जिसके बाद पिताजी ने मुझे आश्वासन दिया कि वह उस लड़के से अगले दिन सुबह बात करेंगे”

“रात का खाना खाने के बाद, हम सो गए. मैं दूसरे कमरे में सो रहा थी. मंगलवार की सुबह, मुझे अपनी पीठ में दर्द महसूस हुआ और कुछ जलने की गंध आ रही थी. जब मैंने अपनी आँखें खोली तो मैंने उसे भागते हुए देखा. मैं दर्द से चिल्लाई और मेरे पिताजी के कमरे में चली गई. मेरे पिता ने आग बुझाई और मुझे अस्पताल ले आए.”

शाहरुख को झारखंड पुलिस ने हिरासत में ले लिया है और हैरानी की बात तो यह है कि सामने आईं कुछ तस्वीरों में शाहरुख पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद मुस्कुराता हुआ नज़र आ रहा है. सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे वीडियो को देखकर ऐसा लग रहा है कि कातिल को अपनी हरकत पर कोई पछतावा नहीं है. उसके चेहरे पर न तो कोई शिकन है और न ही अफसोस.

आरोपी की यह हरकत यही दर्शाती है कि वह कितना असंवेदनशील है और पुरुष महिलाओं के प्रति कितने असंवेदनशील रहे हैं. गहरे पक्ष में, ऋग्वेद के समय से ही हमारे देश में पितृसत्तात्मक व्यवस्था जारी है‌ जहां पुरुषों द्वारा पुरुषों के पक्ष में रीति-रिवाज और मूल्य बनाए गए थे. महिलाएं तो बस इस भेदभाव को चुपचाप सहती रहीं हैं और ऐसी परिस्थितियों में शिकार बनती रही हैं.

बड़े धोखे हैं इस राह में

यौन संबंधों को ले कर बने कानूनों का लाभ उठाने के लिए अपराधियों ने एक नया व्यवसाय खड़ा कर लिया है- हनी ट्रैप का. इस में बड़ी आसानी से सैक्स के भूखे पुरुषों को फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप आदि से पहले दोस्ती की जाती है और फिर फोन नंबर ले कर मिलने का न्योता दिया जाता है.

यहां तक बात स्वाभाविक और 2 व्यस्कों का मामला है. हर पुरुष की चाहत होती है कि पत्नी हो या न हो, उस की गर्लफ्रैंड जरूर हो जिस से वह अपने सुखदुख बांट सके और संभव हो तो सैक्स संबंध बना सके. सिर्फ सैक्स संबंध बनाने के लिए यों तो वेश्याओं का बड़ा बाजार है पर उस में जोखिम बहुत है और लोग वहां जाने से कतराते हैं. हनी ट्रैप में वे फंसते हैं जो कोई  झमेला नहीं चाहते और केवल बदलाव, उत्सुकता या क्षणिक आनंद की खातिर कुछ रोमांचक करने को तैयार हो जाते हैं.

हनी ट्रैप में आने पर लड़की पुरुष के साथ अपनी सैक्सी अदाएं दिखाती है और कभी सैल्फी से तो कभी छिपे कैमरे से फोटो खींच लिया जाता है. कई बार ऐन क्रिटिकल समय पर दरवाजा खोल कर

3-4 लोग घुस जाते हैं जो लड़की के साथी होते हैं और जो ब्लैकमेल, लूट, मारपीट करने लगते हैं.

हाल के बने कानूनों ने हनी ट्रैप बिजनैस को खूब बढ़ावा दिया है. आजकल महिलाएं हनी ट्रैप के शातिर पुरुष पर किसी भी तरह का आरोप लगा सकती हैं और अगर मामला पुलिस में चला जाए तो न केवल पुरुष की जगहंसाई, जग प्रताड़ना होती है बल्कि घर में भीषण गृहयुद्ध भी छिड़ जाता है, जेल भी हो सकती है. यदि पुरुष इस जिद पर अड़ जाए कि जो हुआ वह सहमति से हुआ और अपराध नहीं हुआ तो भी पुलिस और अदालत उसे पहले जेल भेज देगी और सफाई देने का मौका महीनों बाद मिलेगा और लंबी अदालती लड़ाई के बाद ही छुटकारा मिलेगा. यही ब्लैकमेल का अवसर पैदा करता है.

स्त्रीपुरुष संबंध व्यस्क संबंध हैं और इन पर बनाए गए कानून असल में स्त्री को अधिकार नहीं देते, उसे और गुलामी की जंजीरों में बांध रहे हैं. जैसे जून में दिल्ली के एक मामले में हुआ जिस में 3 पुरुषों और 1 युवती ने 1 पुरुष को फंसाया.

उस पुरुष को लूटा तो गया पर वह पुलिस में चला गया और जो पता लगा उस से यह स्पष्ट है कि यह युवती जो अपराधियों के साथ है, खुद एक पीडि़ता ही है. वह इस तरह के अपराध में किसी लालच या भय के कारण शामिल हुई होगी. उसे जबरन चुग्गा बना कर फेंका गया. जो कानून उसे बचाने के लिए बनाया गया था, उसी कानून के अनुसार वह सिर्फ एक अपराध का हथियार थी.

वेश्यावृत्ति समाप्त करने वाले ज्यादातर कानूनों में वेश्याओं को अपराधी नहीं माना गया पर पुलिस उन्हीं को सब से ज्यादा लूटती है. इन कानूनों के बावजूद कोठों में रह रहीं या स्वतंत्र रूप से देह बेचने वालीं समाज व पुरुषों की शिकार हैं और कानूनों ने उन्हें और जकड़ दिया है.

कार्यक्षेत्र में यौन प्रताड़न कानून ने औरतों की आजादी छीन ली है. वे पुरुषों की तरह हंसबोल भी नहीं सकतीं क्योंकि पुरुष उन से डरते रहते हैं. उन्हें जोखिम के काम नहीं दिए जाते. उन की युवावस्था की अपील पर कोई विवाद न खड़ा हो जाए इसलिए कंपनियां उन्हें जिम्मेदारी वाले पद देने से कतराती हैं. जो कंपनियां उन्हें आगे रखने का जोखिम लेती हैं, वे उन का केवल सजावटी उपयोग करती हैं और सब कोशिश करते हैं कि उन्हें दूरदूर रखा जाए. अच्छे से अच्छे दफ्तर या कारखाने में औरतों के अलग गुट बन जाते हैं. जिन कानूनों से अपेक्षा थी कि वे लिंगभेद समाप्त कर के बराबर के अवसर देंगे, वे अब फिर उन्हें औरतों के अलग पुरातन बाड़ों में बंद कर रहे हैं.

औरतों के नहीं, समाज के विकास के लिए जरूरी है कि औरत का इस्तेमाल पुरुष के क्षणिक सुख के लिए नहीं हो, उसे समाज की बराबर की यूनिट सम झा जाए. जो एकतरफा कानून बने हैं, वे लिंगभेद को पहले से स्पष्ट कर देते हैं और औरतों के विकास के रास्ते बंद कर देते हैं. औरत साथी को पुरुष साथी की तरह सहजता से लिया जाए, यह भावना वहीं से पैदा नहीं करते.

मामला एमजे अकबर और तरुण तेजपाल जैसे पत्रकार का हो या जौनी डैप और ऐंकर हर्स्ट का हो सैक्सटौर्शन के मामलों में औरतें विक्टिम ही बनी रहती हैं. ये मामले दिखाते हैं कि औरतें आज भी वीकर सैक्स हैं और नए कानूनों या नई कानूनी परिभाषाओं ने वीकर सैक्स को बल देने के नाम पर उन के पैरों में बे्रसस बांध दिए हैं जो उन्हें कमजोर ही दर्शाते हैं.

पतिपत्नी और कानूनी बंधन

आजकल बिना शादी किए एक छत के नीचे एक लडक़ेलडक़ी का साथसाथ रहना कम से कम बड़े शहरों में सहज स्वीकार होने लगा है और चाहे मकान किराए पर मिलने में कठिनाई हो पर ऐसे उदार मकान मालिकों की कमी नहीं है जो कहते हैं कि हमारी बला से कि तुम दोनों में किस तरह का रिश्ता है, हमें किराए से मतलब है. लेकिन लिवइन रिलेशनशिप में कठिनाई जब आती है जब दोनों में से कोई एक शादीशुदा हो या दोनों शादीशुदा और उन के विवाहित शादी लडऩेमरने को आ जाए.

राजस्थान उच्च न्यायालय ने एक ऐसे जोड़े को पुलिस प्रोटेक्शन दिलवाने से इंकार कर दिया क्योंकि जज साहब की दृष्टि में यह अनैतिक है. विवाहित लोगों को अपनेअपने साथी के साथ ही रहने का हक है. यह संदेश उन्होंने छिपे शब्दों में दे दिया.

कामकाजी औरतों के युग में विवाहित पुरुष का दूसरे की बीवी के साथ एक साथ रहने लगना अब अजीब नहीं रह गया है. विवाहित पुरुष तो सदियों से दूसरी अविवाहित लड़कियों के साथ रहते रहते हैं और उन की पत्नियां इसे अपने भाग्य समझ कर घर में फटेहाल पड़ी रहती थीं पर अब जब 2 जोड़ों में चारों कमाऊ हो तो पतिपत्नी के अलावा जोड़ा बन जाए तो कानून कहां आता है, यह सवाल तब उठता है जब कोई अपराधिक घटना हो जाए.

समाज ही नहीं घरपरिवार के लोग भी इस तरह के जोड़े को संदेह की दृष्टि से देखते हैं और छोड़े गए पति व पत्नी सब की निगाहों में सिंपैथी तो पा ही लेते हैं.

यह तो पक्का है कि विवाह का आधार चाहे धाॢमक हो या न हो, यह कानूनी तो अवश्य बन चुका है. विरासत के कानून में, गोद लेने के कानून में, ङ्क्षहसा के मामलों में जो अधिकार कानूनी पत्नी को हैं, वे लिवइन में रह रहा ‘पत्नी’ को नहीं है. अगर वह अपने कानूनी पति को छोड़ कर किसी और के साथ रह रही है, तो उस से कोई भी हमदर्दी नहीं रखता न ही उसे किसी तरह की प्रोटेक्शन मिलती है. गैर शादीशुदा लडक़ी को तो फिर भी कुछ बच्चा समझ कर कुछ सपोर्ट मिल जाती है पर शादीशुदा पत्नी जब किसी और के साथ रहे तो आफत ही रहती है.

पहले तो इंडियन पीनल कोर्ड की धारा 497 मेंं पत्नी के साथ किसी और से संबंध हो तो पति पर अपराधिक मामला दर्ज कराने का हक था पर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को रद्ध कर दिया. फिर भी इसे सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली है. समस्या तब आती है जब मारपीट आपस में या किसी बाहर वाले से हो जाए. समस्या तब भी आती है जब बच्चा होने लगे तो किस का नाम दिया जाए. कानून अविवाहित युवती को बिना पिता के नाम से बर्थ सॢटफिकेट तो दे रहा है पर जहां युवती का कानूनी पति ङ्क्षजदा है वहां पिता के तौर पर बायलौजिकल लिवइन पिता का नाम देना टेढ़ी खीर है.

हमारे यहां यह समस्या उग्र इसलिए हो रही है कि यहां तलाक आसानी से नहीं मिलता. यदि  शादीशुदा आदमी और औरत अपनेअपने कानूनी साथी से तलाक ले कर शादी करना चाहें तो प्रक्रिया वर्षों तक चलती है और इस दौरान उन्हें लिवइन रिलेशनशिप में रहना पड़ता है.

एक पतिपत्नी कानूनी बंधन के कारण साथ जबरन पड़े, यह नितांत गलत है. साथी का व्यवहार, संबंधी, जरूरतें, आकाशाएं, अलग हो सकती हैं और उन्हें इसी तरह अलग रहने का हक होना चाहिए जो शादी करने के समय था. अफसोस यह है कि चाहे यह समस्या बड़ी हो, राजनीतिक दल इस जलती छड़ को पकडऩे को तैयार नहीं हैं. उन का सहमति के बिना कानूनों में बदलाव भी संभव नहीं है.

मजबूती के दावे और सरकार

देश में एक पार्टी मजबूत हो रही है, एक ध्धमर्म मजबूत हो रहा है. संस्कार मजबूत हो रहे हैं. मंदिरों के खंबे मजबूत हो रहे हैं. सरकार की जनता पर पकड़ मजबूत हो रही है. पुलिस के पंजे मजबूत हो रहे हैं. कानून मजबूत हो रहा है. जो चीख सकते हैं, नारे लगा सकते हैं, मजबूत हो रहे हैं.

पर इस चक्कर में सामाजिक बंधन तारतार हो रहे हैं. सपने टूट रहे हैं. कल के भविष्य की आशाएं धूमिल हो रही हैं. चाहे घरों में बच्चे कम हो रहे हैं फिर भी उन्हें पढ़ाई कर के सुखी देखने की आशा टूट रह है. घरों की दीवारों का रंग फीका हो रहा है. ममहीन, सुखद, गारंटेड फ्यूचर की नींव कमजोर हो रही है.

जब देश में हर समय खबरें सिर्फ छापों, रेडों और पाॢटयों को तोडऩे की हो रही हो तो जोडऩे की बातें कहां होंगी. एक समाज तब बनता है जब पड़ोसी से, एक गली का दूसरी गली से जुड़ाव हो, एक ईलाके की मिसाल दूसरे इलाकों से हो, देश के निवासी अपने को व्यापक भीड़ में सुरक्षित समझें न कि भगदड़ का अंदेशा हो, ट्रैफिक जाम का डर हो, लंबी लाइनों का भय हो.

आंकड़ों में देश में सब कुछ अच्छा हो रहा है पर किसी के भी व्हाट्सएप गु्रप, ट्विटर अकाउंट, इंस्टाग्राम, फेसबुक के पेजों को देख लें, एक भय का साया दिख जाएगा. इस काले साए का रंग हर घर पड़ रहा है, पतिपत्नी संबंधों पर पड़ रहा है, भाईबहन पर पड़ रहा है.

सरकार जनता से इतनी भयभीत है कि हर चौराहे पर 4-5 कैमरें लगे हैं. हर मील में 2 जगह बैरीयर रखे हैं, सरकार हर समय आप का आधार नंबर, पैन नंबर, पासवर्ड, यूजर नेम पूछ रही है. हर समय डर लगता है कि बैंक अकाउंट केवाईसी के चक्कर में बंद न हो जाए, क्रेडिट कार्ड की पेमेंट डिक्लाइन न हो जाए, बिजली का बड़ा बिल न आ जाए. पैट्रोल गैस का दाम फिर न बढ़ जाएं. यह डर हर संबंध को दीमक और घुन की तरह खाता है.

पतिपत्नी का जोड़ा साथ रहते हुए भी भरोसा नहीं करता. भाईभाई, भाईबहन अपनेअपने भविष्य के लिए दूसरे के हकों को तो रौंद नहीं रहे, यह डर रहता है. कोई ऐसी बिमारी न आ जाए जिस का इलाज मुश्किल हो या इलाज इतना मंहगा हो कि अफोर्ड नहीं कर सकते. छुट्टी में डर लगता है कि लौंड स्लाइड न हो जाए, लहरें मौत न जाए. नदी का पानी बिमार न कर दे.

देश की सारी मजबूती के दावे असलियत की धरती पर बेमानी हो चुके हैं. कल अच्छा हो या न हो, आज शाम व रात तक सब अच्छा रहे, यही डर सता रहा है और इस के आगे वादे, नारे, दावे सब निरर्थक हैं.

हिंदी फिल्मों में महिलाएं, पिक्चर अभी बाकी क्यों

भारत ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पहला कदम 1913 में रखा था. पहली मूक और ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्म बनी- ‘राजा हरिशचंद्र.’ भारतीय सिनेमा ने शुरुआत से ही परदे पर भारतीय नारी को बड़ा निरीह, कोमल, रोनेधोने वाली, अपने दुखों को ले कर ईश्वर के आगे सिर पटकने वाली, भक्तिभजनों में डूबी, पूजापाठ में रमी, सास के हाथों पिटती, अपमानित होती और पति की घरगृहस्थी बच्चों को संभालती औरत के रूप में दिखाया, जबकि उन दिनों भी ऐसी बहुत सी स्त्रियां थीं जो आजादी की लड़ाई में मर्दों से भी 2 कदम आगे बढ़ कर काम कर रही थीं.

रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरतमहल, सावित्रीबाई फुले, कस्तूरबा गांधी, विजया लक्ष्मी पंडित, कमला नेहरू, दुर्गा बाई देशमुख, सुचेता कृपलानी, अरुणा आसफ, सरोजिनी नायडू उन्हीं में शामिल हैं, जिन के संघर्षमय जीवन को, उन की वीरता को रंगीन परदे पर आना चाहिए था ताकि देश उन वीर नारियों के बारे में जान पाता, मगर ऐसा हुआ नहीं.

बेगम हजरतमहल तो 1857 की क्रांति में भाग लेने वाली पहली महिला थीं, जिन्होंने पूरे अवध को अंगरेजों से मुक्त करा लिया था, मगर उन पर भी आज तक कोई फिल्म नहीं बनी. रानी लक्ष्मी बाई पर भी देश की आजादी के 7 दशक बाद जा कर एक फिल्म बनी- ‘मणिकर्णिका.’

बदतर थी औरतों की हालत

यह बात ठीक है कि जब फिल्में बननी शुरू हुईं तो भारत की अधिकांश जनता गरीबी, भुखमरी और प्रताड़ना का शिकार थी. औरतों की हालत बदतर थी. आम औरतों का जीवन चूल्हेचौके, खेतखलिहान में खप जाता था. वे साहूकारों और जमींदारों के जुल्मों का शिकार भी बनती थीं. तब की ज्यादातर पारिवारिक फिल्मों में आम औरत का यही हाल दिखाया गया.

फिल्म ‘मदर इंडिया’ से नई शुरुआत

1957 में ‘मदर इंडिया’ फिल्म में औरत के जज्बे, उस की मेहनत और आक्रोश को दिखाया गया. ‘मदर इंडिया’ भारतीय सिनेमा के शुरुआती और क्लासिक दौर की फिल्म थी. यह उस समय नई राह दिखाने वाली फिल्म थी. इस फिल्म में अभिनेत्री नरगिस ने एक गरीब किसान राधा का किरदार निभाया था. राधा अपने 2 बेटों को बड़ा करने के लिए पूरी दुनिया से लड़ जाती है. गांव वाले उसे न्याय और सत्य की देवी की तरह देखते हैं. यहां तक कि अपने सिद्धांतों पर अडिग रहते हुए वह अपने विद्रोही बेटे को गोली तक मार देती है.

‘मदर इंडिया’ ने औरत की अबला नारी वाली छवि तोड़ कर अन्याय और अत्याचार के खिलाफ उस के मुखर रूप को दर्शाया. यह फिल्म आज भी देखने वालों के रोंगटे खड़े कर देती है. हालांकि नरगिस को फिल्म में सफल होते दिखाया है पर अंत में यही दिखाया है कि औरतों को कैसे भी वर्ण व्यवस्था को मजबूत रखना होगा और उस के लिए बेटे की जान ले ले तो महान है.

नारी के संघर्ष को दिखाया गया

1993 में स्त्रीप्रधान फिल्म आई थी ‘दामिनी.’ फिल्म ‘दामिनी’ में मुख्य भूमिका मीनाक्षी शेषाद्रि ने निभाई थी. इस फिल्म में ऐसी नारी के संघर्ष को दिखाया गया है, जिस की शादी बेहद संपन्न परिवार में होती है. दामिनी इस फिल्म में अपने देवर को घर की नौकरानी का रेप करते हुए देख लेती है. दामिनी उस महिला को इंसाफ दिलाने और अपराधी को सजा दिलवाने की ठान लेती है.

दामिनी का पूरा परिवार उस के खिलाफ हो जाता है. लेकिन इस के बावजूद वह अपने निश्चय पर टिकी रहती है और घर छोड़ देती है. हालांकि बलात्कार की शिकार महिला की अस्पताल में मौत हो जाती है, मगर एक वकील की मदद से दामिनी अंतत: अपराधी को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने में कामयाब होती है.

औरत की अबला और मासूम छवि को तोड़ने वाली एक अन्य फिल्म थी ‘बैंडिट क्वीन,’ जो 1994 में आई थी. फिल्म एक महिला डकैत फूलन देवी की जिंदगी पर आधारित है. इस फिल्म में फूलन देवी का किरदार सीमा बिस्वास ने निभाया है. इस फिल्म में सीमा बिस्वास ने काफी बोल्ड सीन दिए. पहली बार परदे पर दर्शकों ने भारतीय औरत को जम कर गालीगलौज करते और बंदूक चलाते देखा.

टुटी और बिखरी महिला की कहानी

‘द डर्टी पिक्चर’ में विद्या बालन ने अपने अस्तित्व के लिए जूझती एक अभिनेत्री सिल्क स्मिता के निजी जीवन और उस के संघर्ष को बखूबी दर्शाया. फिल्मी दुनिया में औरतों की कामयाबी और नाकामयाबी, समझतों और धोखों की कहानी पर आधारित इस फिल्म में विद्या ने सिल्क की फर्श से अर्श तक पहुंचने और फिर टूट कर खत्म हो जाने की कहानी को परदे पर जीया. यह फिल्म स्त्रीप्रधान तो जरूर है, मगर एक हताश, टूटी और बिखरी हुई महिला की कहानी है. अधिकांश महिलाप्रधान फिल्मों में नायिका को अंत में दुखी या हताश ही दिखाया गया है चाहे पूरी फिल्म में वह सफलता के झंडे गाड़ रही हो.

विद्या बालन ने दूसरी फिल्म ‘बौबी जासूस’ में महिला जासूस का किरदार निभाया. एक महिला सिर्फ शादी कर के पति का घर और बच्चे संभालने के बजाय अपने जासूसी के हुनर की बदौलत नाम और पैसा कमाने घर से बाहर निकलती है. महिला जासूस पर केंद्रित शायद यह पहली हिंदी फिल्म थी, मगर कहानी ढीली होने के चलते विद्या की यह फिल्म ज्यादा नहीं चली.

उपेक्षित रही महिलाएं

बौलीवुड में बनी महिलाओं के संघर्षों पर आधारित फिल्में उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं. अबला का चोला उतार कर, रूढि़वादी परंपराओं को ठुकरा कर और सामाजिक बंधनों को तोड़ कर अपने दम पर कुछ कर गुजरने वाली औरतों की कुछ कहानियां जो हाल के दशक में परदे पर आईं, उन्हें काफी पसंद किया गया और औरतों के लिए ये फिल्में काफी प्रेरणादाई भी रहीं.

महिला रैसलर पर आधारित फिल्म ‘दंगल’ में 2 खिलाडि़यों और उन के पिता के संघर्ष को दिखाया गया. यह फिल्म गीता फोगाट और उन की बहन बबीता फोगाट के जीवन पर आधारित थी. फिल्म में गीता फोगाट और बबीता फोगाट का किरदार ऐक्ट्रैस फातिमा सना शेख और सान्या मल्होत्रा ने निभाया. वहीं आमिर खान उन के पिता और गुरु के रूप में परदे पर नजर आए.

बाधाओं से पार करने की कहानी

फिल्म ‘शेरनी’ 18 जून, 2021 को ओटीटी प्लेटफौर्म अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई. विद्या बालन इस में लीड रोल में हैं. अमित मसुरकर द्वारा निर्देशित यह फिल्म मानवपशु संघर्ष पर आधारित है. इस में विद्या एक वन अधिकारी की भूमिका निभाती हैं जिस के आगे एक आदमखोर शेरनी को पकड़ने की चुनौती है. उस आदमखोर शेरनी ने आसपास के गांवों में कई लोगों को अपना शिकार बनाया. बावजूद इस के विद्या उस को मारने के पक्ष में नहीं बल्कि जिंदा पकड़ने के पक्ष में होती हैं और एक प्लान तैयार करती हैं.

वे कहती हैं कि कोई भी शेरनी आदमखोर नहीं, भूखी होती है. एक वन्य अधिकारी होने के नाते उन का मानना है कि कोई भी जानवर आदमखोर नहीं होता, लेकिन जब भूख सहन नहीं होती तो वह पेट भरने के लिए इंसान पर भी हमला करता है. अगर जानवरों से उन के जंगल न छीने जाएं तो जानवर भी सुरक्षित रहें और इंसान भी.

इस फिल्म में विद्या ने एक महिला वन अधिकारी की भूमिका बेहतरीन तरीके से निभाई है. वे शिकारियों, गांव की राजनीति, विभागीय राजनीति, पितृसत्ता सोच के साथ लगातार लड़ती हैं. वे अंतर्मुखी हैं, लेकिन कमजोर नहीं हैं. वे कुछकुछ जंगल की शेरनी जैसी हैं. शेरनी को अपना रास्ता मालूम है, लेकिन मनुष्यों द्वारा निर्मित बाधाएं हैं. वहीं, विद्या के सामने सामाजिक बाधाएं हैं. क्या ‘शेरनी’ इन बाधाओं से पार जा पाएगी? इसी के इर्दगिर्द फिल्म की पूरी कहानी घूमती है.

सपनों को पूरा करने की कहानी

कंगना रनौत द्वारा अभिनीत फिल्म ‘थलाइवी’ तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे. जयललिता के जीवन पर बनी फिल्म है, जिस में उन के संघर्ष को कंगना ने बखूबी परदे पर उतारा है. यह फिल्म हमें दिवंगत नेता के जीवन के सभी उतारचढ़ावों से रूबरू कराती है और राजनीति में औरत के संघर्ष को दिखाती है.

फिल्म ‘साइना’ बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल के जीवन पर आधारित है, जो 2021 में आई. इस फिल्म में उन का किरदार परिणीति चोपड़ा ने निभाया. साइना नेहवाल पद्मश्री, अर्जुन अवार्ड, राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित होने वाली विश्व रैंकिंग में शीर्ष तक पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं.

वहीं ऐसिड अटैक की पीडि़त महिलाओं की जिंदगी पर बनी फिल्म ‘छपाक’ 2020 में आई, जिस में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने ऐसिड अटैक विक्टिम लक्ष्मी के संघर्ष को परदे पर दिखाया. 15 साल की लक्ष्मी के चेहरे और शरीर पर एक युवक ने तब तेजाब फेंक दिया जब उस ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया. घटना के बाद अस्पताल में लक्ष्मी लंबे समय तक मृत्यु से जंग लड़ती रही. अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद जले हुए भयावह चेहरे के साथ जीवन की जंग और अदालत से न्याय पाने की उस की जंग को दीपिका ने परदे पर बखूबी चित्रित किया. यह कहानी उस स्त्री की कहानी है जिस की हिम्मत और अदालतों में लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने का नतीजा यह हुआ कि देश में बाजार में खुले तेजाब बेचने पर बैन लग गया.

2020 में लैफ्टिनैंट गुंजन सक्सेना पर फिल्म बनी- ‘गुंजन सक्सेना.’ गुंजन एक भारतीय वायु सेना औफिसर और पूर्व हैलिकाप्टर पायलट है. सक्सेना को कारगिल गर्ल के नाम से भी जाना जाता है. सक्सेना 1994 में इंडियन एयर फोर्स में शामिल हुई थी और 1999 के कारगिल युद्ध में जाने वाली वह एकमात्र महिला थी. इस फिल्म में जाह्नवी कपूर ने गुंजन सक्सेना का किरदार निभाया है.

फिल्में जिन से प्रेरणा मिलती हैं

5 बार की वर्ल्ड चैंपियन रहीं बौक्सर एम. सी. मैरी कौम के जीवन पर आधारित फिल्म ‘मैरी कौम’ में उन का किरदार प्रियंका चोपड़ा ने निभाया. इस फिल्म के जरीए खेल के क्षेत्र में संघर्ष कर रही महिलाओं की सफलताओं को बखूबी दर्शाया गया. खेल जगत का जानामाना नाम मैरी कौम को कई अवार्ड्स से सम्मानित किया जा चुका है, जिन में ‘पद्मभूषण,’ ‘अर्जुन अवार्ड,’ ‘पद्मश्री’ और ‘खेलरत्न’ शामिल हैं.

बीती एक शताब्दी में महिलाओं के संघर्ष ने समाज को उन के प्रति अपनी सोच बदलने के लिए बाध्य किया है. महिलाओं के बुलंद इरादों ने अनेक क्षेत्रों में अपने झंडे गाड़े हैं, मगर उन की कामयाबी अखबारों के भीतरी पन्नों पर कुछ लाइनों की खबर बन कर सिमट जाती है. उन की सफलताओं को अगर रंगीन परदे पर भी प्रदर्शित किया जाता रहता तो देश की अनेकानेक औरतों को इन फिल्मों से प्रेरणा मिलती.

आज औरतें जब परिवार के साथ फिल्म देखने थिएटर जाती हैं तो उन के सामने रोनेधोने वाली पारिवारिक फिल्में या पुरुषप्रधान मारधाड़ वाली ऐक्शन फिल्में ही ज्यादा होती हैं. कभीकभी बनने वाली स्त्रीप्रधान फिल्मों में कुछ तो चलती हैं, लेकिन ज्यादातर कम बजट, प्रचार की कमी, लचर कहानी आदि के कारण पिट जाती हैं.

महिलाओं के संघर्ष को परदे पर न दिखा कर ज्यादातर फिल्मों में उन को रोमांटिक और पारिवारिक दृश्यों तक सीमित रखने का एक बड़ा कारण यह भी है कि बौलीवुड में महिला फिल्म राइटर, प्रोड्यूसर और निर्देशक न के बराबर हैं. पुरुष लेखकनिर्देशकप्रोड्यूसर पुरुषप्रधान और पितृसत्ता को मजबूती देनी वाली फिल्में ही बनाते हैं और ऐसी फिल्मों में औरत अबला ही बनी रहती है.

75 सालों में कितना बदला महिलाओं का जीवन

हाल ही में मेक इन इंडिया के तहत बनी नौका तारिणी में सवार हो कर 6 महिला अफसरों ने एक साहसिक अभियान को अंजाम दिया. वह 19 सितंबर, 2017 का दिन था जब ऐश्वर्या, एस विजया, वर्तिका जोशी, प्रतिभा जम्वाल, पी स्वाति और पायल गुप्ता ने आईएनएस तारिणी पर अपना सफर शुरू किया. 19 मई, 2018 को वे 21,600 नाटिकल माइल्स यानी 216 हजार समुद्री मील की दूरी तय कर के वापस आई थीं. इस अभियान में लगभग 254 दिनों का समय लगा और इसी के साथ ही इन 6 नेवी महिला अफसरों ने अपने नाम को इतिहास के पन्नों में भी दर्ज करा लिया.

21 मई, 2018 को वे आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, पोलैंड और साउथ अफ्रीका होते हुए गोवा पहुंचीं. उन के सामने भी उतनी ही चुनौतियां थीं जितनी पुरुषों के सामने आती हैं, लेकिन उन्होंने उस का डट कर मुकाबला किया और सफलता पाई.

ये है आज की नारी की बदली हुई छवि यानी खुद आगे बढ़ कर जोखिमों का सामना करने वाली महिलाएं. यह प्रगति चाहे 1947 की आजादी की देन है या विश्व में होते हुए बदलाव की, बहुत सुखद है और इसे 75वें साल की सालगिरह पर याद करना एक अच्छी बात है.

भारत को आजाद हुए 75 वर्ष हो गए हैं. आजादी के 7 से ज्यादा दशकों के सफर में देश की महिलाओं का जीवन काफी बदला है. उन की स्थिति में सुधार हुआ है. उन्हें कई अधिकार मिले हैं, उन्होंने कई बंधनों से मुक्ति पाई है, कई तरह के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है, कई जगह सफलता के परचम लहराए हैं और कई क्षेत्रों में पुरुषों से बाजी मारी है. मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कई मानों में उन की जिंदगी आज भी पारंपरिक यातनाओं का दंश ?ोल रही है. आज भी उन्हें दोयम दर्जा प्राप्त है, आज भी उन का शारीरिक शोषण हो रहा है और आज भी उन की मुट्ठी खाली ही है.

आइए, देखते हैं इन 75 सालों में महिलाओं की जिंदगी में किस तरह के बदलाव आए हैं.

भारत के अंगरेज शासकों ने समाज सुधारों और आम सुधारों पर कम ध्यान दिया था. आजादी के बाद संविधान बना जिस में औरतों को हर जगह बराबर के अवसर मिले. हिंदू कानूनों में 1956 तक कई परिवर्तन हुए जिन से बहु विवाह प्रथा समाप्त हुई. शिक्षा के क्षेत्र में कांग्रेस सरकारों ने बहुत नए स्कूल खोले जिन में लड़कियों को भी प्रवेश मिला. आजादी से पहले इस सब के बारे में सोचने की गवर्नर जनरल इन काउंसिल को कभी फुरसत नहीं रही.

समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति में धीरेधीरे ही सही पर बहुत से सकारात्मक परिवर्तन आ रहे हैं.

शिक्षित हुई है नारी

अपने वजूद को पहचानने और अपनी काबिलीयत का लोहा मनवाने के लिए जरूरी है कि एक स्त्री शिक्षित हो. वह अपने हकों को जाने, कर्तव्यों को पहचाने और आगे बढ़ने से घबराए नहीं. महिलाओं के विकास में शिक्षा का सब से बड़ा रोल रहा है. आजादी के बाद महिलाओं को बराबर अधिकार मिले जिस से उन्हें पढ़नेलिखने का अवसर मिला. यहीं से आधी आबादी की दुनिया बदलनी शुरू हुई.

शिक्षा के कारण महिलाओं की चेतना जाग्रत हुई. वे परंपरागत और पुरातनपंथी सोच से बाहर आईं और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुईं. जब वे शिक्षित हुईं तो नौकरी के लिए घर से बाहर निकलीं, पुरुषों के इस समाज में अपनी जगह सुनिश्चित की और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनीं.

महिलाएं अब महज हाउसवाइफ की भूमिका में नहीं हैं बल्कि वे अब होममेकर बन चुकी हैं. घरपरिवार चलाने में आर्थिक सहयोग दे रही हैं. इस से उन के अंदर आत्मविश्वास पैदा हुआ है. ऐसी महिलाएं किसी पर निर्भर रहने के बजाय घरपरिवार, मातापिता और पति को आर्थिक रूप से सहयोग करने लगी हैं. जो महिलाएं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं वे भी अपनी बेटियों को अच्छी शिक्षा दे कर कुछ बनाना चाहती हैं और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती हैं. यह एक सकारात्मक रुझन है.

पिछले 7 दशकों में महिलाओं की नौकरी करने की दर में अच्छाखासा इजाफा हुआ है. आज बहुत सी महिलाएं कंपनी की सीईओ और मैनेजिंग डाइरैक्टर बन रही हैं, ऊंचे से ऊंचे ओहदे पर बैठ रही हैं. वे न सिर्फ पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं बल्कि इन सभी बदलावों के कारण उन का आत्मविश्वास भी बढ़ा है.

वे अपनी बात सब के सामने रख पाती हैं. अपने अधिकारों को पाने के लिए तत्पर नजर आती हैं. अब वे सोशल मीडिया के जरीए भी अपनी बात रखने लगी हैं. महिलाओं से जुड़े कई कैंपेन भी इस माध्यम के जरीए चलाए जा रहे हैं, जिन के सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बड़ी है. शिक्षण संस्थानों तक लड़कियों की पहुंच लगातार बढ़ रही है. 1 दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1% थी जो अब बढ़ कर 68.4% तक पहुंच गई है. यानी इस क्षेत्र में 13% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है.

आधुनिक तकनीक भी महिलाओं की जिंदगी में शिक्षा का जरीया बनी है. गांव की लड़कियां बड़ेबड़े स्कूलकालेजों से घर बैठे अपनी पढ़ाई कर रही हैं. बड़ी औनलाइन कंपनियों से जुड़ कर उत्पाद बेच रही हैं. अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं.

मन से भी स्वतंत्र हुई हैं महिलाएं

महिलाएं अब अपने मन की बात सुनती हैं और उस पर विचार भी करती हैं. सही फैसले लेने से हिचकिचाती नहीं हैं. यानी वे अब मन से भी स्वतंत्र हो रही हैं. वे अगर कुछ करने की ठान लेती हैं तो कर के गुजरती हैं.

मन में कुछ साहसिक और दुष्कर कर दिखाने की बात ठान लेना और सफलतापूर्वक कर के दिखाना आज की महिलाओं ने सीख लिया है. ऐसा 10-20 साल पहले तक महिलाएं सोच भी नहीं सकती थीं. पर अब उन के पास रास्ते हैं और जज्बा भी है. महिलाएं एकदूसरे से भी प्रेरित हो रही हैं. यही आजाद भारत की महिलाओं की उभरती नई छवि है.

खुद को साबित किया है

किसी देश का विकास उस के मानव संसाधन पर निर्भर होता है. इस में महिला और पुरुष दोनों का ही स्थान आता है. आजाद होने के बाद हमारे देश में भी हर नागरिक को समान अधिकार मिले जिस से उन के विकास की राह खुली. महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी क्षमता और प्रतिभा को साबित किया है. खेल का क्षेत्र हो या विज्ञान का, राजनीति हो या कौरपोरेट वर्ल्ड, अदाकारी हो या सैन्य क्षेत्र, डाक्टरी हो या इंजीनियरिंग महिलाएं हर जगह अपनी काबिलीयत दिखा रही हैं.

आज विदेश और रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारियां महिलाओं पर हैं और वे बखूबी इस काम को कर रही हैं. वे देश के सर्वोच्च पदों पर पहुंच रही हैं. फाइटर पायलट बन कर देश की रक्षा दायित्व भी निभाने के लिए तैयार हैं. ये सभी बदलाव बहुत ही सकारात्मक हैं. अब घर का पुरुष चाहे पिता हो, भाई हो या पति सब महिलाओं के योगदान को महत्त्व दे रहे हैं और उन को सहयोग भी कर रहे हैं.

अपनी मरजी से जीना

खासकर मुंबई और दिल्ली जैसे भारत के महानगरों और अन्य बड़े शहरों में बसने वाली लड़कियों और महिलाओं की स्थिति में काफी बदलाव आए हैं. आज उन्हें शारीरिक पोषण और मानसिक विकास के समान अवसर मिल रहे हैं. सड़कों पर जरूरी काम से देर रात भी निकलना चाहें तो निकल सकती हैं. बेखौफ हो कर अपनी पसंद के कपड़े पहनती हैं.

अपने दिल और मरजी की थाप पर एक साथ गुनगुनाती है. अपनी मरजी से अपना साथी चुनने का अधिकार भी मिलने लगा है. दिल चाहे तो वह बुरका पहनती है और मन करे तो बिकिनी भी. उस की मरजी हो तब लिपस्टिक लगाने का अधिकार है और मरजी हो तो बिना मेकअप घूमनेफिरने का हक. शादी करने या न करने का फैसला भी ले सकती है.

वह अपनी मरजी से अकेली भी रहती है तो कोई उस पर ताने नहीं कसता. अपनी मरजी की जौब कर आत्मनिर्भर जिंदगी जीने के मौके भी उस के पास हैं. हां इतना दुख जरूर है कि यह क्रांति अभी बड़े शहरों तक सीमित है. छोटे शहरों और गांवों में आज भी पंचायत, समाज और खापों की चल रही है. कई जगह नए कपड़े पहनने तक पर पाबंदी है.

घर में सम्मान

शिक्षा और जागरूकता का असर घरेलू हिंसा पर भी पड़ा है. अब इस तरह के मामले पहले से कम हुए हैं. रिपोर्ट के अनुसार वैवाहिक जीवन में हिंसा ?ोल रही महिलाओं का प्रतिशत 37.2 से घट कर 28.8% रह गया है. सर्वे में यह भी पता चला कि गर्भावस्था के दौरान केवल 3.3% को ही हिंसा का सामना करना पड़ा.

एक सर्वेक्षण से यह भी सामने आया है कि 15 से 49 साल की उम्र में 84% विवाहित महिलाएं घरेलू फैसलों में हिस्सा ले रही हैं. इस से पहले 2005-06 में यह आंकड़ा 76% था. ताजा आंकड़ों के अनुसार लगभग 38% महिलाएं अकेली या किसी के साथ संयुक्त रूप से घर या जमीन की मालकिन हैं.

आज के बदलते परिवेश में जिस तरह नारी पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिला कर प्रगति की ओर अग्रसर हो रही है वह समाज के लिए एक गर्व और सराहना की बात है. आज राजनीति, टैक्नोलौजी, सुरक्षा समेत हर क्षेत्र में जहांजहां महिलाओं ने हाथ आजमाया उन्हें कामयाबी ही मिली. अब तो ऐसी कोई जगह नहीं है जहां आज की नारी अपनी उपस्थिति दर्ज न करा रही हो. इतना सब होने के बाद भी वह एक होममेकर के रूप में भी अपना स्थान बनाए हुए है.

हाल ही में भारत ने महिला सशक्तीकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाते हुए देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में एकतिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की. वैसे एक सच यह भी है कि महिला आरक्षण का मात्र वही महिलाएं फायदा उठा सकती हैं जो शिक्षित या योग्य हैं. आज भी जो महिलाएं परदे के पीछे रहती हैं उन की स्थिति वही की वही है.

ज्यादा प्रयास की जरूरत

सिक्के का दूसरा पहलू भी विचारणीय है जहां आज भी महिलाओं को घर के बाहर न निकलने की हिदायत दी जाती है. रेप या बलात्कार होने पर हमारा समाज एक औरत को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देता है. यही नहीं कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनाएं महिलाओं के विकास में अवरोध पैदा कर रही हैं.

आज भी महिलाओं को उतना आगे नहीं आने दिया जा रहा है जितना जरूरत है और इस की सब से बड़ी वजह है हमारे समाज का पुरुषप्रधान होना. हालात ऐसे हैं कि नारी पुरुषों के लिए भोगविलास की वस्तु मानी जाती है. विज्ञापनों, फिल्मों जैसे क्षेत्रों में उन्हें अश्लील रूप में प्रदर्शित किया जाता है.

अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो पाएंगे कि अब भी हमारे देश को महिलाओं की स्थिति सुधारने की जरूरत है. शिक्षा को निचले स्तर तक पहुंचा कर हम नारियों को सशक्त करने का प्रयास कर सकते हैं.

महिला सशक्तीकरण की दिशा में देश में प्रगति हुई है, लेकिन बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां और प्रयासों की जरूरत है. लिंगानुपात के मोरचे पर देश ज्यादा प्रगति नहीं कर पाया है.

शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हुआ है, इसलिए प्रसूति मौतों के मामलों में कमी आई है. हालांकि गांवों की स्थिति अभी ज्यादा नहीं बदली है. यूनिसेफ के अनुसार भारत में प्रसव के दौरान होने वाली मौतें पहले से घटी हैं, लेकिन ये अब भी बहुत ज्यादा हैं. देश में हर साल लगभग 45 हजार महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है.

वेतन संबंधी असमानता

चैरिटी संगठनों के एक अंतर्राष्ट्रीय परिसंघ औक्सफैम के अनुसार भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन असमानता दुनिया में सब से खराब है. मान्स्टर सैलरी इंडैक्स के अनुसार पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा एक ही प्रकार के काम के लिए भारतीय पुरुष महिलाओं की तुलना में 25 रुपए अधिक कमाते हैं.

भारतीय समाज में महिलाओं के ऊपर हिंसा एक प्रमुख मुद्दा है. महिलाओं की सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों को ‘सही ढंग से व्यवहार करना’ सिखाने की तुलना में पुरुषों को ‘सभी महिलाओं का सम्मान’  करना सिखाना अधिक आवश्यक है.

देश की पितृसत्तात्मक संरचना के कारण भारत में घरेलू दुर्व्यवहार अभी भी सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य है. भारत में युवा पुरुषों और महिलाओं के एक सर्वेक्षण के अनुसार 57% लड़के और 53% लड़कियों का मानना है कि महिलाओं को उन के पति द्वारा पीटा जाना उचित है.

2015 और 2016 के बीच किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 80% कामकाजी महिलाओं को अपने जीवनसाथी के हाथों घरेलू शोषण का सामना करना पड़ता है.

सेना में भारतीय महिलाओं की भागीदारी बेहद कम है और हाल ही के वर्षों में इस में गिरावट आई है. पुरुष से महिला अनुपात सिर्फ 0.36 है.

महिलाओं को नहीं मिली इन चीजों से आजादी

स्वतंत्रता दिवस हर भारतीय के लिए खास है क्योंकि इसी दिन हम अंगरेजों की गुलामी की जंजीरें तोड़ आजाद हुए थे. मगर बात अगर महिलाओं की स्थिति की करें तो आज भी कई ऐसी चीजें हैं जिन से उन्हें आजादी नहीं मिली. महिलाएं जो देश की 49% आबादी का गठन करती हैं अभी भी सुरक्षा, गतिशीलता, आर्थिक स्वतंत्रता, पूर्वाग्रह और पितृसत्ता जैसे मुद्दों से जूझ रही हैं.

फैसले का हक नहीं

हमारे जैसा पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों को निर्णय लेने की शक्ति देता है, लेकिन लड़कियों को नहीं. ज्यादातर लड़कियां अपनी इच्छा से पढ़ नहीं सकतीं, खेल प्रतिस्पर्धा में भाग नहीं ले सकतीं, कैरियर नहीं बना सकतीं यहां तक कि जीवनसाथी चुनने का हक भी उन्हें नहीं मिलता. पढ़ने या काम करने के विकल्प से ले कर आर्थिक फैसले और कमाई के इस्तेमाल जैसे अहम मुद्दों पर अकसर महिलाओं को पुरुषों की बात माननी पड़ती है. पितृसत्ता वाले इस समाज का नतीजा है कि भारत में कन्या भू्रण हत्या की घटनाएं इतनी ज्यादा होती हैं. उन्हें दहेज के नाम पर जला दिया जाता है और उन की जिंदगी चौकेचूल्हे तक सीमित कर दी जाती है.

हिंसा, दुर्व्यवहार और शोषण से मुक्ति नहीं

भारत में महिलाओं को हर दिन एहसास करवाया जाता है कि वे अपने घर, औफिस और पब्लिक प्लेस में कितनी असुरक्षित हैं. घर में दुर्व्यवहार, पति की मारपीट और सास के ताने, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न या मानसिक दबाव, सोशल मीडिया पर भद्दे कमैंट, सड़क पर छेड़खानी और रेप, मोबाइल पर ब्लैंक कौल्स जैसी घटनाओं से महिलाओं को हर दिन गुजरना पड़ता है. पति से ज्यादा कमाने वाली 27% पत्नियां शारीरिक हिंसा की शिकार हैं तो 11% को इमोशनल ब्लैकमेलिंग ?ोलनी पड़ती है.

शादी के बाद काम करने की आजादी

भारत में बहुत सी महिलाएं आज भी हाउसवाइफ की तरह अपनी जिंदगी व्यतीत कर रही हैं. उन में से बहुत सी औरतें तो घर के काम से खुश हैं, लेकिन कुछ मजबूरी के चलते बाहर काम नहीं करतीं. चूंकि आज भी कई जगहों पर महिलाओं को शादी के बाद काम करने की आजादी नहीं है. कुछ पुरुष आज भी पत्नी के काम को अपना अपमान समझते हैं.

मनचाहे कपड़े पहनने की आजादी

कुछ समय पहले उत्तराखंड के सीएम तीरथ सिंह रावत ने महिलाओं की फटी जींस को ले कर बयान देते हुए कहा था कि आजकल महिलाएं फटी जींस पहनती हैं. उन के घुटने दिखते हैं. ये कैसे संस्कार हैं? ये संस्कार कहां से आ रहे हैं? इस से बच्चे क्या सीख रहे हैं और महिलाएं आखिर समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं? अकसर इस तरह के बयान नेताओं या देश के तथाकथित हितचिंतकों की जबानी सुनने को मिल जाते हैं. अब जिस देश को संभालने वालों की ही ऐसी सोच हो तो वहां महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी भला कैसे मिलेगी?

महिलाओं ने अब तक जो हासिल किया भी है वह स्वयं के अनुभव, आत्मविश्वास और मेहनत के आधार पर किया है. मगर पुरुष समाज लैंगिक सोच के दायरे से बाहर नहीं निकला है. स्त्री को देह मानने की मानसिकता अब भी है. खाप पंचायतों की महिलाओं को ले कर हुए तुगलकी फरमान किसी से छिपे नहीं हैं. इसी समाज में रोजाना बुलंदशहर जैसी घटनाएं भी हमारे प्रगतिशील समाज के मुंह पर कालिख पोतती हैं. दलित, निर्धन और अशिक्षित महिलाओं की सुध लेने की बात तो दूर की है जब शहरी आबादी ही बुरी तरह सामाजिक परंपराओं के बोझ ढोने को विवश हो.

विश्वभर की संसदों में महिलाओं की संख्या के हिसाब से भारत आज भी 103वें स्थान पर है, जबकि नेपाल, बंगलादेश और पाकिस्तान की संसद में महिला सांसदों की संख्या कहीं अधिक है, जिन्हें हम अपने से भी ज्यादा पिछड़ा हुआ मानते हैं.

मंजिल अभी दूर

कुल मिला कर आज आजादी के 75 सालों बाद भी भारत में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती. आधुनिकता के विस्तार के साथसाथ देश में दिनप्रतिदिन बढ़ते महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या के आंकड़े चौकाने वाले हैं. उन्हें आज भी कई प्रकार के धार्मिक रीतिरिवाजों, कुत्सित रूढि़ मान्यताओं, यौन अपराधों, लैंगिक भेदभावों, घरेलू हिंसा, निम्न स्तरीय जीवनशैली, अशिक्षा, कुपोषण, दहेज उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या, सामाजिक असुरक्षा, तथा उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है.

हालांकि कुछ महिलाएं इन सभी चुनौतियों से पार पाकर विभिन्न क्षेत्रों में देश के सम्माननीय स्तरों तक भी पहुंची हैं जिन में श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, अमृता प्रीतम, महाश्वेता देवी, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान, अल्का याज्ञनिक, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, मेधा पाटकर, अरुंधती राय, चंदा कोचर, पी.टी. ऊषा, ?साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, साक्षी मलिक, पी. वी. सिंधू, हिमा दास, झलन गोस्वामी, स्मृति मंधाना, मिताली राज, हरमनप्रीत कौर, गीता फोगाट, मैरी काम और हाल ही में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदि नाम उल्लेखनीय हैं.

भारत जैसे पुरुषप्रधान देश में 70 के दशक से महिला सशक्तीकरण तथा फैमिनिज्म शब्द प्रकाश में आए. गैरसरकारी संगठनों ने भी महिलाओं को जाग्रत कर उन में अपने अधिकारों के प्रति चेतना विकसित करने तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि में कन्या भ्रूण हत्या को रोक कर लिंग अनुपात के घटते स्तर को संतुलित करने तथा शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयास में केंद्र सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना चलाई जा रही है.

आजादी के बाद के वर्षों में महिलाओं के लिए समान अधिकार, अवसरों की समानता, समान कार्य के लिए समान वेतन, अपमानजनक प्रथाओं पर रोक आदि के लिए कई प्रावधान भारतीय संविधान में किए गए. इन के अतिरिक्त दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुंब न्यायालय अधिनियम 1984, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (प्रतिषेध) अधिनियम 2013 आदि भारतीय महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने तथा उन की आर्थिक एवं सामाजिक दशा में सुधार करने के लिए बनाए गए प्रमुख कानूनी प्रावधान हैं. कई राज्यों की ग्राम व नगर पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान भी किया गया है.

स्त्री सुरक्षा और समता

स्त्री सुरक्षा और समता में उठाया गया हमारा प्रत्येक कदम किसी न किसी हद तक स्त्रियों की दशा सुधारने में कारगर साबित हो रहा है इस में कोई दोराय नहीं. किंतु सामाजिक सुधार की गति इतनी धीमी है कि इस के यथोचित परिणाम स्पष्ट रूप से सामने नहीं आ पाते. हमें और भी तेजी से इस क्षेत्र में जनजागृति और शिक्षा पहुंचाने का कार्य करने की आवश्यकता है.

हमें यह समझना होगा कि विकास और महिला उत्थान 2 अलग चीजें नहीं हैं. इन्हें 2 अलग नजरिए से देखने पर सिर्फ नाकामी ही हाथ लगेगी. महिलाओं को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रयास किए जाएं ताकि वे आत्मनिर्भर और जागरूक हो सकें.

आज किसी भी बड़े मौल में चले जाएं, सब से चमकदार दुकानों में औरतों का सामान बिक रहा है. सुपर मार्केटों में ज्यादा खरीदारी औरतें कर रही हैं. व्हाइट गुड्स जैसे फ्रिज, एयरकंडीशनर, गैस के चूल्हे, नई मौड्यूल, किचन आदि पर फैसला औरतें कर रही हैं. इंटीरियर डैकोरेशन पर औरतों की राय ली जा रही है और वे धड़ाधड़ नए डिजाइन के बैड, वार्डरोब, नए पेंट, पौलिश बाजार में छा रहे हैं जिन की ग्राहक औरतें हैं.

औरतें हर देश के सकल उत्पादन यानी जीडीपी की वृद्धि में अब बड़ा योगदान कर रही हैं और भारत में भी वे उत्पादन में भी लगी हैं और कंज्यूमर भी हैं.

योग: नए दौर का धार्मिक कर्मकांड

अगर कोईर् यह कहे कि योग कोई धार्मिक कृत्य नहीं है, तो उस की नादानी पर या तो हंसा जा सकता है या फिर बेहिचक यह कहा जा सकता है कि वह नए दौर के पनपते धार्मिक पाखंडों के साजिशकर्ताओं में से एक है. हर साल सरकार अरबों रुपए खर्च कर के देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनवाती है. इसे मोदी सरकार की सफलता के बजाय इस नए नजरिए से देखा जाना मौजूं है कि यह जनता पर गैरजरूरी बोझ है. आखिरकार योग के प्रचारप्रसार और इसे सरकारी स्तर पर मनाने के लिए हमारे योगाचार्यों को अब खूब पैसा मिल रहा है, कुछ सरकार से तो कुछ अंधभक्तों से.

वजह सिर्फ इतनी है कि ‘भारत माता की जय’ बोलने के टोटके के बाद योग ऐसा धार्मिक कृत्य है जो ऊपरी तौर पर कर्मकांड से मुक्त है यानी एक ऐसा काम है जिस के एवज में आप को पंडों को सीधे कोई भुगतान नहीं करना पड़ता. सरकार बताना यही चाह रही है कि कर्मकांडों से इतर भी हिंदू धर्म है जिसे अब गैर शुद्ध दुकानदार भी बेच कर अपनी रोजीरोटी चला सकते हैं.

योग की आड़ में बिजनैस

यहां यह जानना बेहद दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पटरी उन बाबाओं से नहीं बैठती, जो पूजापाठ, यज्ञ, हवन वगैरह को पूर्णकालिक रोजगार या उद्योग बना चुके हैं, बल्कि उन की पटरी उस किस्म के बाबाओं से बैठती है, जो धर्म के कारोबार में नएनए आइडिए लाते हैं, वे भी ऐसे कि ग्राहक हिंदुत्व से मुंह न मोड़े. इन में रामदेव भी शामिल हैं जिन का प्रचार 2014 में मोदी के खूब काम आया और अब पतंजलि के उद्योग में पनप रहा है.

खुशियां बेचने वाले ‘आर्ट औफ लिविंग’ के प्रणेता श्रीश्री रविशंकर और योग की आड़ में अब हेयर रिमूवर छोड़ कर सबकुछ बेचने बाले योग गुरु के खिताब से ख्वाहमख्वाह नवाज दिए गए बाबा रामदेव बेवजह मोदी की पसंद नहीं हैं, जो गैरहिंदुओं से भी सूर्य पूजा करवाने और ओम भी कहलवाने की कूबत रखते हैं. विश्वभर में योग का प्रचार किया गया जबकि जो व्यायाम योग के नाम किए जाते हैं उन का तो पुराणों में जिक्र ही नहीं है.

धर्म के माने संकुचित क्यों

बात सही है कि धर्म के माने इतने संकुचित भी नहीं होने चाहिए कि वे अगरबत्ती के धुएं और 5-10 रुपए की भगवान की तसवीर में गुंथ कर रहे जाएं. धर्म की व्यापकता दिखाने के लिए सरकार योग के रैपर को भी एक प्रोडक्ट की तरह ले आई है, जिस का बाकायदा पिछले सालों से शुद्धिकारण किया जा रहा है और उम्मीद की जानी चाहिए कि योग पैसे वाले होते जा रहे अमीर हिंदुओं में इफरात से बिकेगा.

अभी करो योग रहो निरोग का दावा ठीक एक चमत्कार के रूप में किया जा रहा है जैसे कभी यह कहा जाता था कि हनुमान का नाम लेने भर से प्रेतात्माएं नजदीक नहीं फटकतीं. इस पर अंधविश्वासी लोगों ने सहज ही भूतप्रेतों के वजूद पर भरोसा कर लिया था. आज भी ये बुरी और भटकती आत्माएं गांवदेहातों के पीपल और पुराने पेड़ों पर लटकती मिल जाएंगी, जिन से बचाने का ठेका पंडितों ने दक्षिणा के एवज में ले रखा है.

धार्मिक लालसा

योग से बीमारियां दूर होती हैं इसीलिए कोविड-19 के दौरान रामदेव ने अपनी दवा जारी की. और कोई करता तो ड्रग कंट्रोलर उसे जेल में डलवा देता. अभिजात्य और शिक्षित हो चले नव हिंदुओं की धार्मिक लालसा को पकड़े मोदीजी यह दावा किए जा रहे हैं कि यह लालसा मुक्ति और मोक्ष की है जो योग से ही संभव है, स्वास्थ्य तो शुरुआती प्रलोभन भर है.

आप खुद योग करेंगे तो देरसवेर सीधे भगवान से कनैक्ट हो जाएंगे, फिर जीवन में कोई मोह या वासना नहीं रह जाएगी. आप देह से एक प्रकाशपुंज में परिवर्तित हो जाएंगे, जो कभी भी देह का धारण और त्याग इच्छा से कर सकता है यानी अतिमानव या ईश्वर बनने के लिए अब किसी को हिमालय की तरफ जाने की जरूरत नहीं रहेगी.

योगासनों को बेचने के लिए डाक्टरों और विचारकों की भी एक फौज तैयार की गई है. विदेशों में जो ईसा की मूर्ति के सामने बैठ कर अपने दुखों को दूर करने की कामना करते हैं, वे योग को भी ऐसे ही लपक रहे हैं जैसे संडे को चर्च में जाना. साधारण व्यायाम ज्यादा कारगर हैं तभी फिजियोथेरैपी और जिम चलाए जाते हैं जो शरीर विज्ञान के अनुसार चलते हैं.

75वीं आजादी और सफाई

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री ने डिक्लेयर कर दिया कि देश से ओपन डिफेकेशन यानी खुल में शौच खत्म हो गया तो खत्म हो गया. जैसे 75वीं आजादी की वर्षगांठ अमृत महोत्सव बन गई और घरघर तिरंगा फहराने लगा वैसे ही एयरकंडीशंड कमरों में अटैच्ड बाथरूम वाले ने भक्तों ने कह दिया कि 8 साल में हर घर का शौचालय है तो है.

यह बात दूसरी कि दिल्ली का हिस्सा बन चुके गुडगांव के साथ रहने वाली एक 12 साल की लडक़ी का रेप कर मर्डर कर दिया गया क्योंकि उस के स्लम में कोई शौचालय नहीं है और उसे रेलकी पटरी पर हर रोज शौच के लिए जाना होता था.

हरेक के लिए शौचालय बनाना और उसे सीवर से जोडऩा आज के युग में असभव नहीं है क्योंकि आज टैक्नोलौजी के जरिए जब हर हाथ में जिंदा मोबाइल दिए जा सकते हैं तो पानी, सीवर और शौचालय की तकनीक तो सैंकड़ों साल पुरानी हो चुकी है. असल में मोबाइल, सीसीटीवी कैमरों से हरेक घर नजर रख जा रही है, हरेक को काबू में रखा जा पा रहा है और शौचालय बनाने से न कंट्रोल मिलता है, न नियमित मुनाफा होता है.

ऐसा नहीं है कि अमीर घरों के गरीबों के शौचालयों के न होने से फर्क नहीं पड़ता हो. पड़ता है पर दिखता नहीं, अगर इन स्लमों में रहने वालों के हाथ व बदन मार्क न होंगे तो कितना ही मैनेटाइजर लगा लो, अच्छों के घरों में बदबू रहेगी.

देश के अगर गंदगी, बदबूदार, फैले हुई सडक़ों पर चलना पड़ रहा है तो इसीलिए कि हमारा गरीबों को थोड़ीबहुत सुविधाएं देने में भी मुसीबत लगती है. हमारी सारी ताकत मंदिर बनाने में लगी है, कांवड़ ढोने में लगी है, फर्राटेदार गाडिय़ां दौड़ सकें. ऐसी सडक़ें बनाने में लग गई है. यह ठीक है पर इस की नींव तभी मजबूत होगी जब इन के बनाने वालों के पास ठीकठाक छत, बिजली के 2 बल्व और शौचालय हो.

लालकिले पर खड़े हो कर कह देने से कि ‘शौचालय मंत्र’ और शौचालय हो गए एक नितांत असंभव कल्पना है. अगर मंदिर, सडक़े, नया संसद भवन, नया प्रधानमंत्री कार्यालय, नए आलीशान हवाई जहाज बने हैं तो कड़ी योजना और जनता के टैक्स से बने हैं पर यह प्रायरोरिटी नहीं हैं क्योंकि देश का विकास सेहतमंद जनता के बलबूते पर हो सकता है. गरीब, दलित 12 साल की लडक़ी का रेप और मर्डर इस देश में आम है पर तभी भ्रष्टाचार, निक्मापन, हर काम में देरी, ट्रैफिक जाम, बारिश में जलभराव आम है.

कुछ लोग टैक्नोलौजी से भरे महलों में रहेंगे और बाकी बेसिक फैसिलिटी को तरसेंगे तो देश हवाई तरक्की ही करेगा.

गर्भपात और सुप्रीम कोर्ट का फैसला

जुलाई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के मामले में एक महत्वपूर्ण जजमैंट दिया कि शादी होना या न होना एक गर्भवती के अधिकारों को कमबढ़ती नहीं करता अगर वह गर्भपात कराना चाहे गर्भवती का गर्भपात कराना न जाने क्यों आज भी सरकारों के हाथों में है, मरीजों और डाक्टरों के हाथों में नहीं. मेडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैगनैंसी एक्ट और इस के अंतर्गत बने रूल्स गर्भवती को दरदर ठोकरें खाने को मजबूर करते हैं और कितनी बार गर्भवती को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ता है जहां उस की इज्जत भी तारतार होती है और जमापूंजी स्वाह होती है.

सैक्स करना मौलिक व मूलभूत प्राक्रतिक अध्धिककार है और जो सरकार, समाज, घर, रीतिरिवाज इस के बीच में आड़े आता है वह अपने को प्रकृति के ऊपर खुद को काल्पनिक भगवान का सा दर्जा देता है. दुनिया के कितने ही देशों में, जिस मेंं  वैज्ञानिक सोच के लिए जाना जाने वाला अमेरिका भी शामिल है, औरतों के इस हक पर खुलेआम डाका डालते हैं.

शादी अपनेआप में एक लीगल फिक्शन. है, यानी समाज व सरकार के कानूनों द्वारा दिया नकली प्रमाणपत्र है कि अब 2 जने सैक्स कर सकते हैं. यह बदलाव नया नहीं है पर सदियों से इस की गाज आदमी पर नहीं औरतों पर ज्यादा पड़ती रही हैं. सदियों से तलाकशुदा, विधवा, कुआंरियों के सैक्स संबंधों पर समाज सिर्फ इसलिए नाकमौं चढ़ाता रहा है कि उन्होंने सैक्स का सामाजिक, कानूनी, धार्मिक लाइसेंस नहीं लिया. सैक्स की वजह से गर्भ हो जाए तो सजा औरतों को मिलती है आदमियों को नहीं.

पहले गर्भपात का अठलन तरीकों में कूएं में कूदना, नदी में बह जाना या रस्सी गले में बांध कर लटक जाना था. आज सेफ एबोर्शन मिल रहा है. यह चिकित्सा जगत का औरतों को उपहार है पर जैसे पंडेपादरी हर खुशी के मौके पर टांग अड़ाते हैं, इस खुशी में भी टांग अड़ाने आ गए. अमेरिका में प्रेमनाटक मूवमैंट चर्च जीवन रहा है और वह काफी अफैक्टिव है. औरतों को चर्च की शरण में जाना पड़ रहा है और इस मूवमैंट से चर्च को डोनेशन भी बढ़ गई है.

भारत में कानून लगातार लिबरल और लचीला हो रहा है और यह खुशी की बात है. इस फैसले से कि अविवाहित गर्भवती को भी शादीशुदा गर्भावती जैसे राइट्स हैं. एक राहत की बात है. इस में आपत्ति बस यही है कि एक भी वजह हो तो बताएं कि मेडिकल टॢमनेशन औफ प्रैगनैंसी एक्ट है क्यों? यह हक हर औरत का प्राकृतिक है कि वह सैक्स करे और अगर गर्भ ठहर जाए तो वह डाक्टर की सलाह पर उसे गिरा दे.

अगर अनैतिक काम हो रहा है तो वह पुरुष कर रहा है. कानून तो बनना चाहिए इम्प्रैग्नैंट प्रोहीबिशन एक्ट जिस में वह पुरुष दोषी हो जिस ने औरत को प्रैग्नैंट किया. यह कानून नहीं बनेगा. यह रेप कानून से अलग होगा क्योंकि यह सिर्फ सैक्स के बारे में नहीं गर्भ ठहरने पर लागू होगा. दरदर ठोकरे पुरुष खाए. उस ने प्रैग्नैंट किया है तो आप से ज्यादा दोष उस का है, यह पति पर भी लागू होगा, प्रेमी होगा, लिव इन पार्टनर पर भी, शिकायत लेने का काम पुरुष का है. प्यार में भी पुरुष का काम है देखना कि उस के पैनट्रेशन से प्रैग्नैंसी तो नहीं होगी.

कानून चाहे संसद का बना हो या धर्म का या समाज का, अब औरतों के बराबर समझे. सदियों से औरतों को जो बच्चे पैदा करने की और खाना बनाने की गुलामी औरतें सह रही हैं, उस के खिलाफ विद्रोह करें. आधुनिक तर्क, वह तकनीक व तथ्य औरतों को पूरी तरह बराबर का हक देते हैं, वही हक जो प्रकृति में हर अन्य प्रजाति का मादा का है.

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