विनय सर की बात सुन कर सासससुर को तो जैसे सांप सूंघ गया. उन्होंने ऐसी चुप्पी लगाई कि आधे घंटे तक इंतजार के बाद भी विनय सर कोई उत्तर न पा सके और चुपचाप उठ कर चले गए. उस के बाद घर का माहौल अजीब सा हो गया. सासससुर ने उस से बातचीत करनी बंद कर दी. एक दिन जब ग्रीष्मा स्कूल से लौटी तो सासससुर का आपसी वार्त्तालाप उस के कानों में पड़ा. ‘‘देखो तो हम ने हमेशा इसे अपनी बेटी समझा और आज इस ने हमें ही बेसहारा करने की ठान ली. बेटे के जाते ही इस ने रंगरलियां मनानी शुरू कर दीं और ऊपर से लड़का भी छोटी जाति का. हम ब्राह्मण. क्या इज्जत रह जाएगी समाज में हमारी? कैसे सब को मुंह दिखाएंगे? इस ने तो हमें कहीं का नहीं छोड़ा..सही ही कहा जाता है कि बहू कभी अपनी नहीं हो सकती,’’ कहते हुए सास ससुर के सामने रो रही थीं.
सासससुर की यह मनोदशा देख ग्रीष्मा का मन जारजार रोने को हो चला. वह सोचने लगी कि यह क्या तूफान ला दिया सर ने उस की जिंदगी में. सासससुर शायद अपने भविष्य को ले कर चिंतित हो उठे थे. सच भी है वृद्धावस्था में असुरक्षा की भावना के कारण इंसान अपनी वास्तविक उम्र से अधिक का दिखने लगता है. वहीं बेटेबहू और नातीपोतों के भरेपूरे परिवार में रहने वाला इंसान अपनी उम्र से कम का ही लगता है.
किसी तरह रात काट कर वह स्कूल पहुंची. बिना कुछ सोचे सीधी सर के कैबिन में पहुंची और बोली, ‘‘कभीकभी इंसान अच्छा करने चलता है और कर उस का बुरा देता है. वही आप ने मेरे साथ किया है.’’
‘‘क्या हुआ?’’ सर ने उत्सुकतावश पूछा. ‘‘सब गड़गड़ हो गया है. शाम को आप कौफी हाउस में मिलिए. वहां बताती हूं.’’
स्कूल की छुट्टी के बाद कौफी हाउस में उस ने सारी बात सर को बता दी. सर कुछ देर गंभीरतापूर्वक सोचते रहे फिर बोले, ‘‘मैं शाम को घर आता हूं.’’
‘‘आप आएंगे तो वे और अधिक क्रोधित हो जाएंगे…उन्हें आप की जाति से भी तो समस्या है…’’ ‘‘अरे कुछ नहीं होगा, मुझ पर भरोसा रखो, अभी तुम जाओ.’’
लगभग 7 बजे विनय सर घर आए तो हमेशा हंस कर उन का स्वागतसत्कार करने वाले सासससुर आज उन के साथ अजनबियों सा व्यवहार कर रहे थे जैसे वे कोई बहुत बड़े अपराधी हों. पर विनय सर ने सदा की भांति उन के पांव छुए और कुछ औपचारिक बातचीत के बाद बाबूजी का हाथ अपने हाथ में ले कर बोले, ‘‘बाबूजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं बन सकता? यदि आप अपनी बहू को बेटी बना कर इतना प्यार दे सकते हो कि वह अपने से पहले आप के बारे में सोचे, तो क्या मैं जिंदगी भर के लिए आप की बेटी का सहयोगी नहीं बन सकता? मैं मानता हूं कि मेरी जाति आप की जाति से भिन्न है, परंतु क्या जाति ही सब कुछ है बाबूजी? मैं और आप की बहू मिल कर इस घर की सारी जिम्मेदारियां उठाएंगे.’’ ‘‘वह अपनी मरजी की मालिक है. हम ने उसे कब रोका है? उस की जिंदगी उसे कैसे बितानी है, इस का निर्णय लेने के लिए वह पूरी तरह स्वतंत्र है,’’ ससुर ने अपनी बात रखते हुए कठोर स्वर में कहा और कमरे में चल गए.
‘‘बहू और कुणाल के जाने से हम तो बिलकुल अकेले हो जाएंगे. इस बुढ़ापे में हमारा क्या होगा? बेटा तो पहले ही साथ छोड़ गया और अब बहू भी…’’ कह कर सासूमां तो सर के सामने ही फूटफूट कर रोने लगीं. विनय सर मां के पास जा कर बोले, ‘‘मां आप ने यह कैसे सोच लिया कि मैं आप की बहू और पोते को ले कर अलग रहूंगा. मैं तो यहीं आप सब के साथ इसी घर में रहूंगा. आप की बहू ने तो सर्वप्रथम यही शर्त रखी थी कि मांबाबूजी उस की जिम्मेदारी हैं और वह उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकती. मैं तो आप सब के जीवन का हिस्सा भर बनना चाहता हूं.
‘‘मैं सिर्फ आप की बेटी की जिम्मेदारियों में उस का हाथ बंटाना चाहता हूं. मुझ पर भरोसा रखिए. आजीवन आप को निराश नहीं करूंगा. यदि आप मुझे अपनाते हैं तो मुझे एकसाथ कई रिश्ते जीने को मिलेंगे. मेरा भी एक भरापूरा पूरिवार होगा. मेरा इस संसार में कोई नहीं है. कभीकभी अकेलापन काटने को दौड़ता है. मैं तो आप का बेटा बन कर रहना चाहता हूं. आप के जीवन की समस्त परेशानियों को अपने ऊपर ले कर आप का जीवन खुशियों से भर देना चाहता हूं. परंतु यह सब होगा तभी जब आप और बाबूजी की अनुमति होगी,’’ कह कर विनय सर बाहर चले गए. कुछ विचार करते हुए ससुर विश्वनाथ अपनी पत्नी से बोले, ‘‘मुझे लगता है हमें इन दोनों की शादी करा देनी चाहिए.’’
‘‘कैसी बातें करते हो? हम ब्राह्मण और वह नीची जाति का… नहीं, मुझे तो कुछ ठीक नहीं लग रहा,’’ सास कुछ उत्तेजित स्वर में बोलीं.
‘‘जाति को खुद से चिपका कर क्या मिलेगा हमें? ऊंचीनीची जाति से क्या फर्क पड़ता है हमें? हमारा तो बुढ़ापा अच्छा कटना चाहिए. बेचारी बहू कब तक दे पाएगी हमारा साथ. दोनों कमाएंगे और मिल कर जिम्मेदारियां उठाएंगे तभी तो हम चैन से रह पाएंगे.’’
‘‘यह बात तो आप की सही है… हमें जाति से क्या करना. इंसान तो विनय अच्छा ही है. हमें मातापिता सा मान भी देता है,’’ सास ने भी अपने पति के सुर में सुर मिलाते हुए कहा. अगले दिन रविवार था, सुबहसुबह ही विश्वनाथ ने विनय को फोन कर के बुला लिया. जैसे ही विनय आए औपचारिक वार्त्तालाप के बाद वे बोले, ‘‘बेटा, हम ने तुम्हें गलत समझा. शायद हम स्वार्थी हो गए थे. क्या करें बेटा बुढ़ापा ऐसी चीज है जो आदमी को स्वार्थी बना देती है.
‘‘वृद्ध सब से पहले अपनी सुरक्षा और हितों के बारे में सोचने लगते हैं. हम ने भी अपनी बेटे जैसी बहू के भविष्य के बारे में न सोच कर सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में ही सोचा, जबकि उस ने सदा पहले हमारे बारे में सोचा. कौन कहता है कि बहू कभी बेटी नहीं हो सकती? मेरी बहू तो मिसाल है उन लोगों के लिए जो बहू और बेटी में फर्क करते हैं. ‘‘इस घर की बहू होने के बाद भी उस ने सदा बेटे की ही भांति सारे फर्ज निभाए हैं.
आज तक उस ने बस दुख ही दुख देखा है और आज जब तुम उस की झोली में खुशियां डालना चाहते हो, उस की जिम्मेदारियां बांटना चाहते हो, तो हम उस के मातापिता ही उस के बैरी हो गए. बस मेरी बेटी को सदा खुश रखना,’’ कह कर विश्वनाथ जी ने विनय सर के आगे हाथ जोड़ दिए.
परदे की ओट में खड़ी ग्रीष्मा सासससुर का यह बदला रूप देख कर हैरान थी. पर अंत भला तो सब भला सोच दौड़ कर अपने सासससुर के गले लग गई. ‘‘हम आप को कभी निराश नहीं करेंगे,’’ कह कर विनय सर और ग्रीष्मा ने झुक कर दोनों के जब पैर छुए तो विश्वनाथ और उन की पत्नी ने खुश हो कर अपने आशीष भरे हाथ उन की पीठ पर रख दिए.