Valentine’s Special : एक थी इवा

Valentine’s Special :  फ्रांस का बीच टाउन नीस, फ्रैंच रिवेरिया की राजधानी है, जहां रोचक संग्रहालय हैं, खूबसूरत चर्च हैं, रशियन और्थोडौक्स कैथिड्रल है, वहीं पास स्थित होटल नीग्रेस्को के कैफेटेरिया में बैठे इवा और जावेद कौफी पी रहे थे. इवा ने चिंतित स्वर में कहा, ‘‘जावेद, तुम मुझ से प्रौमिस करो कि तुम कोई भी गलत कदम नहीं उठाओगे.’’

‘‘इवा, मैं बहुत परेशान हो गया हूं… मेरे अंदर एक आग सी लगी रहती है. मैं ने अपना बहुत अपमान सहा है. ये लोग मुझे ऐसी नजरों से देखते हैं जैसे मैं बहुत छोटी चीज हूं. मैं अब बहुत आगे बढ़ चुका हूं… मेरे कदम अब पीछे नहीं लौट सकते.’’

‘‘नहीं जावेद, तुम जानते हो न… मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती… तुम अगर कभी पकड़े गए तो पता है न क्या हश्र होगा तुम्हारा? तुम्हें उसी पल भून दिया जाएगा.’’

‘‘हां, ठीक है… मुझे मंजूर है. क्यों ये लोग मुझे मेरी शक्लसूरत के कारण नीचे नजरों से देखते हैं?’’

इवा ने जावेद को समझाने की बहुत कोशिश की, अपने प्यार का, अपने साथ भविष्य में देखे गए सुनहरे सपनों का वास्ता दिया पर जावेद आतंक की राह पर बहुत आगे निकल चुका था.

जावेद ने घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘इवा, मुझे जाना है, एक जरूरी मीटिंग है, मुझे पहली बार कोई काम दिया गया है जिसे मुझे हर हाल में पूरा करना है… शाम को मौका मिला तो मिलूंगा,’’ औरवोर (बाय), कह कर जावेद उस के गाल पर किस कर के निकल गया.

इवा ने ठंडी सांस लेते हुए जाते हुए जावेद को भीगी आंखों से देखा. उस की सुंदर आंखें आंसुओं की नमी से धुंधली हो गई थीं.

इवा होटल नीग्रेस्को में ही हौस्पिटैलिटी इंचार्ज थी. जावेद की बातों से उदास हो कर उस का मन फिर अपनी ड्यूटी में नहीं लग रहा था. वह अपनी दोस्त केरा को बता कर थोड़ी देर के लिए बाहर आ गई. उसे घुटन सी हो रही थी. फार्मूला वन का एक बहुत अच्छा सर्र्किट नीस है, जो होटल के बिलकुल पीछे से जाता है. उस रास्ते से वह बीच पर पहुंच गई. क्वैदे एतादयूनिस बीच पर एक किनारे बैठ कर वह वहां खेलते बच्चों को देखने लगी. बच्चे अपनी दुनिया में मस्त थे. कभी गुब्बारों के पीछे दौड़ रहे थे, तो कभी रेत में लेट रहे थे.

इवा जावेद के बारे में सोच रही थी. उसे जावेद से अपनी पहली मुलाकात याद आई…

2 साल पहले वह एलियांज रिवेरिया स्टेडियम में फुटबौल का मैच देखते हुए जावेद से मिली थी. दोनों पासपास बैठे थे. दोनों ही लिवरपूल टीम के फैन थे. दोनों ही अपनी टीम को चीयर कर रहे थे. हर गोल पर दोनों जम कर खुश हो रहे थे. जब भी दोनों की आंखें मिलतीं, दोनों मुसकरा देते थे और जब उन की टीम जीत गई तो दोनों खुशी और उत्साह से एकदूसरे के गले लग गए. दोनों को अपनी इस हरकत पर हंसी आ गई. पल भर में ही दोस्ती हो गई. फिर प्यार हो गया. दोनों जैसे एकदूसरे के लिए बने थे.

जावेद बंगलादेश से एमबीए करने आया था. जावेद को फुटबौल मैच देखने का नशा था. वह कई बार हंस कर इवा से कहता था, ‘‘मैं यहां पढ़ने थोड़े ही आया हूं, मैं तो मैच देखने आया हूं.’’

अपने स्कूल और फिर कालेज की टीम का कैप्टन रहा था जावेद. पढ़ने में होशियार, सभ्य, आकर्षक व्यक्तित्व वाले जावेद को इवा दिलोजान से चाहने लगी थी. जावेद की पढ़ाई के बाद नौकरी मिलने पर वे दोनों विवाह का मन भी बना चुके थे.

जावेद ने बताया था, ‘‘मेरे परिवार वाले बहुत कट्टर हैं… एक फ्रैंच लड़की को कभी बहू नहीं बनाएंगे, पर मैं तुम्हारे प्यार के लिए उन की नाराजगी सहन कर लूंगा.’’

यह बात सुन कर इवा ने उसे चूम लिया था. दोनों शारीरिक रूप से भी एकदूसरे के बहुत करीब आ चुके थे. जावेद फ्रैंच क्लास में अच्छी तरह फ्रैंच सीख चुका था. इवा ने जावेद से हिंदी में कुछ बातें करना सीख लिया था. प्यार वैसे भी कोई देश, भाषा, जाति, रंग नहीं जानता. हो गया तो बस प्यार ही रहता है और कुछ नहीं. एकदूसरे की भाषा, सभ्यता अपना कर दोनों प्यार में आगे बढ़ते जा रहे थे पर अब जावेद के अंदर आया परिवर्तन इवा को चिंतित किए जा रहा था. वह बहुत परेशान थी. किसी को अपनी चिंता बता भी नहीं सकती थी. वह वैसे ही दुनिया में अकेली थी. जो उस की दोस्त थीं, यह परेशानी वह उन्हें भी नहीं बता सकती थी.

कालेज में कई बार रेसिज्म का शिकार होने पर जावेद के अंदर एक विद्रोह की भावना पनपने लगी थी, जो इवा के समझाने पर भी समय के साथ कम न हो कर बढ़ती ही जा रही थी. आज इवा को जावेद की 1-1 बात याद आ रही थी. जावेद सीधासादा, शांतिप्रिय, अपने काम से काम रखने वाला लड़का था. वह यहां कुछ बनने ही आया था. अच्छा भविष्य और फुटबौल, बस इन्हीं 2 चीजों में रुचि थी उस की, पर जातिवाद की 1-2 घटनाओं ने उस के अंदर दुख सा भर दिया था. कालेज में कोच मार्टिन ने हमेशा उस के खेलने की बहुत तारीफ की थी, पर जब कालेज टीम के चुनाव का समय आया तो जावेद का कहीं नाम ही नहीं था. उस ने कारण पूछा तो जवाब वहां उपस्थित लड़कों ने दिया, ‘‘तुम हमारी टीम में खेलने का सपना भी कैसे देख सकते हो?’’

इस बात पर सब की समवेत हंसी उस का दिल तोड़ती चली गई थी. उस के बाद कई बार कालेज में किसी भी गतिविधि में अपने विचार देने पर उस का मजाक उड़ाया जाने लगा था कि अब बंगलादेश से आए स्टूडैंट्स हमें अपने विचार बताएंगे.

वह धीरेधीरे रेसिज्म का शिकार होता जा रहा था. अब वह फेसबुक पर सीरियस स्टेटस डालने लगा था. जैसे लाइफ इज नौट ईजी या यहां आप की पहचान आप के गुणों से नहीं, आप की जाति से होती है या मैं थकने लगा हूं. इसी तरह के कई स्टेटस जिन्हें पढ़ कर साफसाफ समझ आ जाता था कि उस के अंदर दुख भरे विद्रोह की भावना पनपने लगी है.

ऐसे ही कभी इस तरह का स्टेटस पढ़ कर कुछ लोगों ने उस से संपर्क स्थापित कर लिया और वह धीरेधीरे आतंक की उस दुनिया में घुसता चला गया जहां से निकलना असंभव था.

इवा उस की हर बात जानती थी, उसे डर लगने लगा था. उस ने एक दिन जावेद से कहा था, ‘‘जावेद, मुझे बस तुम्हारे साथ रहना है. अगर तुम यहां कंफर्टेबल नहीं हो तो हम तुम्हारे गांव चलेंगे. मैं वहां तुम्हारे परिवार के साथ रहने के लिए तैयार हूं. मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती.’’

‘‘नहीं इवा, मेरा परिवार तुम्हें नहीं अपनाएगा. मैं तुम्हें दुखी नहीं देख पाऊंगा… मुझे अब यहीं अच्छा लगता है.’’

‘‘पर जावेद, तुम्हें गलत रास्ते पर जाते देख दुखी तो मैं यहां भी हूं?’’

‘‘यह गलत रास्ता नहीं है… ये लोग मेरी जाति के लिए मुझे नीचा नहीं दिखाते, इन के लिए कुछ करूंगा तो इज्जत मिलेगी.’’

‘‘इस रास्ते पर चल कर तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा जावेद. हम खत्म हो जाएंगे. अभी तो हमारा जीवन शुरू भी नहीं हुआ… अभी तो हमें बहुत प्यार करना है… घर बसाना है, कितने मैच एकसाथ देखने हैं, जीवन जीना है, अभी तो हम ने कुछ भी नहीं किया.’’

पर इवा की सारी बातों को नजरअंदाज कर पूरी तरह से जावेद का ब्रेनवाश हो चुका दिलोदिमाग अब एक ही बात समझता था- आतंक और बरबादी की बात. वह बात जिस से न कभी किसी का भला हुआ है, न होगा. वह अब ऐसी दुनिया का इनसान था जहां सिर्फ चीखें थीं, खून था, लाशें थीं.

जावेद जब शाम को इवा से मिलने आया तो इवा घबरा कर जावेद की बांहों में सिमट कर जोरजोर से रोने लगी. इवा का मन अनिष्ट की आशंका से कांप रहा था.

जावेद ने कहा, ‘‘इवा, मुझे गुडलक बोलो, आज पहले काम पर जा रहा हूं.’’

‘‘कौन सा काम? कहां?’’

‘‘आज बेस्टिल डे की परेड में एक ट्रक ले कर जाना है.’’

‘‘क्यों? क्या करना है?’’

‘‘कुछ नहीं, बस भीड़ में चलते चले जाना है.’’

रो पड़ी इवा, ‘‘जावेद, पागल हो गए हो क्या? किसी की जान चली गई तो? नहीं, तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे.’’

वैसे इवा को विश्वास नहीं था कि जावेद ऐसा कुछ करेगा. वह पहले भी कई बार मरने की धमकी दे चुका था. कभी कहता कि वह आत्मघाती बन जाएगा. कभी कि गोली से खुद को मार लेगा. पर अगले दिन सामान्य हो जाता.

‘‘सौरी इवा, जिंदा रहा तो जरूर मिलेंगे.’’

‘‘नहीं जावेद, मत जाओ. ज्यादा नाटक मत करो.’’

इवा के होंठों पर किस कर के जावेद ने उसे गले लगाया. साथ बिताए कितने ही पल

दोनों की आंखों के आगे घूम गए. फिर एक झटके में इवा को अलग कर जावेद तेज कदमों से चला गया.

इवा आवाज देती रह गई, ‘‘जावेद, रुक जाओ, जावेद, रात को कमरे में इंतजार करूंगी.’’

जावेद चला गया.

इवा का इस बार बुरा हाल था. वह रो रही थी. फिर अगले ही पल अपने को संभाल सोचने लगी कि जावेद को रोकना होगा. क्या वह मेरे प्यार के आगे किसी की जान ले सकता है? नहीं मैं ऐसे नहीं बैठ सकती. कुछ करना होगा. मेरा प्यार इतना कमजोर नहीं कि जावेद को बरबादी के रास्ते से वापस न ला सके… वह मुझे मार कर आगे नहीं बढ़ पाएगा… वह वहां से भागी. जावेद का कहना था कि वह एक ट्रक भीड़ में ले कर घुस जाएगा.

अगले दिन 14 जुलाई को बैस्टिल डे, फ्रैंच नैशनल डे मनाया जाता है. इस दिन यूरोप में सब से बड़ी मिलिटरी परेड होती है. सड़कें भीड़ से भरी थीं, जवान, बूढ़े, बच्चे सब आतिशबाजी देख रहे थे.

रात को जावेद इवा के पास नहीं आया था. इवा की हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह

पुलिस को बताए. यह पक्का था कि बताने पर उसे खुद भी महीनों जेल में रहना पड़ेगा. शायद जावेद डरा रहा है. करेगा कुछ नहीं. फिर भी इवा जावेद की बताई जगह पहुंच गई. जावेद का फोन बंद था. इवा को उम्मीद थी कि शायद वह भीड़ में मिल जाए.

तभी भीड़ की तरफ बढ़ते ट्रक को देख कर एक बाइक सवार ने जावेद को रोकने की कोशिश की, लेकिन ट्रक नहीं रुका. इवा ने देख लिया कि ट्रक को जावेद चला रहा है. उसे और कुछ नहीं सूझा तो स्वयं ट्रक के आगे खड़ी हो गई.

जावेद के हाथ तब एक बार कांप गए जब उस ने इवा को ट्रक के आगे हाथ फैलाए खड़ी देखा. इवा रो रही थी. उस की टांगें कांप रही थीं, पर जावेद पर इतना जनून सवार था कि उस ने ट्रक की स्पीड कम न की. ट्रक इवा को कुचलता हुआ, साथ ही अनगिनत लोगों को भी कुचलता हुआ आगे बढ़ रहा था. पल भर में ही पुलिस की गोलियों ने जावेद को भून डाला. चारों तरफ चीखपुकार, सड़क पर पड़ी खून में डूबी लाशें, छोटे बच्चों को गोद में उठा कर इधरउधर भागते मातापिता, गिरतेपड़ते लोग, हर तरफ अफरातफरी का माहौल था.

इवा और जावेद दोनों इस दुनिया से जा चुके थे. एक बार फिर प्यार हार गया था, आतंक के खूनी खेल में. हर तरफ बिखरे सपने, टूटती सांसें, तड़पती जिंदगियां थीं, मातम था, खौफ था. अपने प्यार पर टूटा भरोसा लिए इवा जा चुकी थी और आतंक के रास्ते पर चलने के अंजाम के रूप में जावेद का रक्तरंजित शव पड़ा था.

Hindi Kahani : क्या हुआ फूड इंस्पैक्टर की रिश्वतखोरी का जब लालाजी ने किया विरोध?

Hindi Kahani :  ‘‘मेरे यहां न तो कोई गलत माल बनता है न ही मैं मिलावट करता हूं. मैं किस बात का महीना दूं?’’ लाला कुंदन लाल ने रोष भरे स्वर में कहा.

‘‘लालाजी, बात अकेली मिलावट की नहीं है…अब पुराने नियम और तरीके सब बदल चुके हैं. मिलावट के साथसाथ अब सफाई, रंग और कैलोरी आदि की भी जांच की जाती है,’’ स्वास्थ्य विभाग के चपरासी श्यामलाल ने धीमे स्वर में कहा.

‘‘मगर मेरे यहां सफाई का स्तर ठीक है. आप सारे रेस्तरां में कहीं भी गंदगी दिखाएं, किचन में सबकुछ स्टैंडर्ड का है.’’

‘‘ये सब बातें कहने की हैं. अफसर लोग नहीं मानते.’’

‘‘मांग जायज हो तो मानें. पिछले 3 साल से महीने की दर बढ़तेबढ़ते 10 गुनी हो गई है…यह तो सरासर लूट है.’’

‘‘महीना सब का बढ़ाया है, अकेले आप ही का नहीं.’’

‘‘मगर मैं इतना नहीं दे सकता.’’

‘‘सोचविचार कर लीजिए. खामख्वाह पंगा पड़ जाएगा,’’ एक तरह से धमकी देता श्यामलाल चला गया.

चपरासी के जाते दोनों बेटे सुरेश और अशोक भी पिता के पास आ गए. कहां तो 100 रुपए महीना था, अब 3 हजार रुपए महीना मांगा जा रहा है. पहले मिलावट के मामले में सजा अधिकतम 6 महीने से 1 साल तक थी साथ में 1 से 2 हजार रुपए तक जुर्माना था.

नए प्रावधानों में अब न्यूनतम सजा 3 साल की तथा जुर्माना 25 हजार से 3 लाख रुपए तक हो गया था. जैसे ही कानून सख्त हुआ था वैसे ही रिश्वत की दर भी आसमान पर पहुंच गई. सफाई या हाईजिन स्तर के नाम पर किसी प्रतिष्ठान, दुकान को बंद करवाने का अधिकार भी खाद्य निरीक्षक को मिल गया था. इस से भी अब लूट बढ़ गई थी.

लालजी की गोलहट्टी के नाम से खानेपीने की दुकान सारे शहर में मशहूर थी. माल का स्तर शुरू से काफी अच्छा था. मिलावट वाली कोई वस्तु नहीं थी.  मिलावट तो नहीं थी मगर प्रयोग- शालाओं में कई अन्य आधारों पर नमूना फेल हो जाता था. नमूने को कभी स्तरहीन या अखाद्य या ‘एक्सपायर्ड’ भी करार दे दिया जाता था, जिस से मुकदमा दर्ज हो जाता था या फिर दुकान बंद हो जाती.

जितने ज्यादा नए कानून बनते उतने नए अपराधी बनते. जितना सख्त कानून होता उतना ज्यादा रिश्वत का रेट होता. अपराध तो कम नहीं होते थे, भ्रष्टाचार जरूर बढ़ जाता था.  लाला कुंदन लाल ने जीवनभर मिलावट नहीं की थी. वे ऐसा करना पसंद नहीं करते थे. ग्राहकों को साफसुथरा खाना देना अपना कर्तव्य समझते थे. किसी जमाने में मिलावट का नाम भी नहीं था. मिलावट क्या होती है…कोई नहीं जानता था.  तब खाद्य निरीक्षक का पद भी नहीं था. नगर परिषद का सैनेटरी इंस्पैक्टर कभीकभार बाजार का चक्कर लगा लेता था. किसीकिसी का सैंपल या नमूना ले कर प्रयोगशाला को भेज दिया करता था. सैंपल फेल कम आते थे. सैंपल फेल आने पर जुर्माना होता था जो 50 रुपए से 400-500 रुपए तक था. मगर ऐसा कम ही होता था. कोई सजा का मामला नहीं था.

अब वक्त बदल चुका था. आबादी बहुत बढ़ गई थी. साथ ही कानून और अपराधी भी. अब सैंपल या नमूना फेल ज्यादा आते थे, पास कम होते थे. गेहूं के साथ घुन भी पिसता है, के समान मिलावट न करने वाले भी फंस जाते थे.

लाला कुंदन लाल के साथ दोनों बेटे भी विचारमग्न थे. क्या करें? कभी रिश्वत मात्र 100  रुपए महीना थी अब 3 हजार रुपए मांगे जा रहे थे. कल को या भविष्य में 30 हजार रुपए महीना भी मांगे जा सकते थे. वे मिलावट नहीं करते थे मगर हर जगह बेईमानी थी. प्रयोगशालाओं में नमूने फेल, पास करवाए जाते थे.  अपने विरोधी या प्रतिद्वंद्वी को फंसाने के लिए कई व्यापारी उस का नमूना प्रयोगशाला में फेल करवा देते थे. बदले समय के साथ अब व्यापार में भी घटियापन बढ़ गया था.

‘‘फूड इंस्पैक्टर 3 हजार रुपए महीना मांग रहा है,’’ लालाजी ने दोनों बेटों को बताया.

‘‘पिताजी, दे दीजिए. सैंपल भर लिया, फेल करवा दिया तब परेशानी बढ़ जाएगी,’’ छोटे बेटे अशोक ने कहा.

‘‘मगर इन की मांग सुरसा के मुंह के समान बढ़ती जा रही है. कभी 100 रुपए महीना था. अब 3 हजार रुपए मांग रहे हैं, साथ ही आधा दर्जन लोग खाने आ जाते हैं,’’ लालाजी ने रोष भरे स्वर में कहा.

इस पर दोनों बेटे खामोश हो गए. क्या करें? पुराना फूड इंस्पैक्टर शरीफ था. 100 रुपए महीना लेने पर भी विनम्रता से पेश आता था. नए जमाने का खाद्य निरीक्षक 3 हजार ले कर भी रूखे और रोबीले अंदाज में बात करता था.  लालाजी मिलावट पहले नहीं करते थे, अब भी नहीं करते. बात सिर्फ इंसाफ की थी. इंसाफ कहां था? प्रयोगशालाओं में निष्पक्षता न थी यही सब से बड़ी समस्या थी.  2 दिन बाद, चपरासी श्यामलाल दोबारा आया.

‘‘लालाजी, क्या इरादा है?’’

‘‘मैं ने पहले भी कहा है, मैं मिलावट नहीं करता. मैं महीना किस बात का दूं?’’ दोटूक स्वर में लालाजी ने कहा.

‘‘लालाजी, सोच लीजिए,’’ यह बोल कर गुस्से से तमतमाता चपरासी वापस चला गया.

‘‘पिताजी, आप ने यह क्या किया? अब यह हमारा सैंपल भरवा देगा?’’ दोनों बेटों ने पिताजी के पास आ कर कहा.

‘‘जो होगा देखेंगे. जोरजबरदस्ती की भी एक सीमा है. जब हम मिलावट ही नहीं करते तब महीना किस बात का दें.’’

‘‘पिताजी, वे प्रयोगशाला से नमूना फेल करवा देंगे.’’

‘‘जो होगा देखेंगे. अब मैं 60 साल का हूं. मुकदमा हो भी जाता है तो भी परवा नहीं है,’’ लालाजी के स्वर में एक निश्चय और चेहरे पर आभा थी.

शाम से पहले एक बड़ी स्टेशनवैगन गोलहट्टी के सामने आ कर रुकी. चिरपरिचित खाद्य निरीक्षक सोम कुमार और स्वास्थ्य अधिकारी मैडम शकुंतला उतर कर दुकान में प्रवेश कर गए.

‘‘दुकान का मालिक कौन है?’’ फूड इंस्पैक्टर ने रौब से पूछा.  लालाजी सब माजरा समझ रहे थे. दर्जनों बार परिवार सहित खापी कर जाने वाला पूछ रहा है कि दुकान का मालिक कौन है.

‘‘मैं हूं जी, बात क्या है?’’

इस दबंग जवाब की उम्मीद फूड इंस्पैक्टर को न थी.

‘‘क्याक्या बनाते हैं आप?’’

‘‘सामने काउंटर में रखा है, देख लीजिए.’’

‘‘आप के पास इस काम का लाइसैंस है?’’

‘‘हां, है जी. यह देखिए,’’ लालाजी ने शीशे से मढ़ी तसवीर के समान फ्रेम में जड़ी म्यूनिसिपैलिटी के लाइसैंस की कापी सामने रखते हुए कहा.

‘‘आप के खिलाफ स्तरहीन खाद्य- पदार्थ बनाने और बेचने की शिकायत है, आप का नमूना भरना है.’’

‘‘जरूर भरिए, किस चीज का नमूना दें?’’

इस बेबाक जवाब पर खाद्य निरीक्षक सकपका गया. काउंटर वातानुकूलित था. माल सब साफ था. दुकान में मक्खी, कीट, मच्छर का नामोनिशान तक न था. दुकान में सर्वत्र साफसफाई थी. रसोईघर साफसुथरा था.  गुलाबजामुन और रसगुल्लों का नमूना ले लिया. पहले कभी आने पर लालाजी ड्राईफू्रट से आवभगत करते थे मगर इस बार जानबूझ कर पानी भी नहीं पूछा. इस से इंस्पैक्टर चिढ़ गया.

नमूना ले सब चले गए.  ‘‘पिताजी, अगर नमूना फेल हो गया तो?’’ दोनों बेटों ने कहा, ‘‘पड़ोसी कहता है वह एक दलाल को जानता है जो प्रयोगशाला से नमूना पास करवा सकता है.’’

‘‘मगर हम तो मिलावट करते नहीं हैं, हौसला रखो, जो होगा देखेंगे.’’  शाम को चपरासी फिर आया. लालाजी ने प्रश्नवाचक निगाहों से घूरते हुए उस की तरफ देखा.

‘‘फूड इंस्पैक्टर कहता है अगर आप को मामला निबटाना है तो निबट सकता है.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘आप चाहें तो नमूना यहीं खत्म कर देते हैं. प्रयोगशाला में नहीं भेजेंगे और आप चाहें तो नमूना प्रयोगशाला से पास भी करवा सकते हैं. हमारे पास दोनों इंतजाम हैं.’’

‘‘जब मैं मिलावट नहीं करता तब कैसा भी इंतजाम क्यों करूं?’’

चपरासी चुपचाप चला गया. डेढ़ माह बाद नतीजा आया. दोनों नमूने पास हो गए. लालाजी का मनोबल ऊंचा हो गया. दुकान की साख बढ़ गई. 2 माह गुजर गए.  दोपहर को स्वास्थ्य विभाग की वही पहली वाली जीप दुकान के सामने आ कर रुकी.

‘‘आप के खिलाफ शिकायत है. किसी ग्राहक को आप के यहां नाश्ता करने के बाद पेट में दर्द हुआ था,’’ फूड इंस्पैक्टर ने कहा.

‘‘वह कौन है?’’

‘‘प्रमुख चिकित्सा अधिकारी के पास लिखित शिकायत आई थी. आप का नमूना भरना है.’’

‘‘जरूर भरिए.’’

लालाजी के स्वर की दृढ़ता से स्वास्थ्य अधिकारी भी थोड़ा विचलित था. खाद्य निरीक्षक ने दुकान में नजर दौड़ाई. दुकान छोटीमोटी रेस्तरां थी. 4-5 मिठाइयां जैसे रसगुल्ले, गुलाबजामुन, रसमलाई, मिल्ककेक, पिस्ता बर्फी और पुलावचावल के साथ राजमा और छोलेभठूरे आदि प्लेट और पीस रेट के हिसाब से बेचे जाते थे.  दीवार पर रेट लिस्ट लगी थी. साथ  ही लिखा था, ‘यहां गाय का दूध प्रयोग होता है.’, ‘मिल्क नौट फौर सेल’, ‘दूध बेचने के लिए नहीं है.’  प्रावधानों के अनुसार जो वस्तु बेचने के लिए न हो उस का नमूना नहीं लिया जा सकता था. मिठाई का सैंपल पास हो चुका था. चावल, पुलाव, राजमा, छोलेभठूरे में क्या मिलावट हो सकती थी?

‘‘जरा छोले दिखाइए.’’

लालाजी के इशारे पर कारीगर ने एक कटोरी में गैस पर रखे गरम छोले डाल कर दे दिए. नाक के समीप ला उस को सूंघते हुए फूड इंस्पैक्टर ने कहा, ‘‘मसाले की गंध कुछ अजीब सी है. आप इस का नमूना दे दीजिए.’’  मसालाचना, राजमा व छोले की तरी का नमूना अलग से ले टीम चली गई. इस बार चपरासी ‘इंतजाम’ की बात करने नहीं आया. बेटों के सामने भी ‘दलाल’ की मार्फत नमूना पास करवाने की बात नहीं उठाई.  डेढ़ महीने बाद नतीजा आया. राजमा, मसालाचना का नमूना पास हो गया था. छोलेतरी का नमूना निर्धारित मात्रा से ज्यादा मसाला मिलाने पर तकनीकी आधार पर फेल हो गया था.  रजिस्टर्ड डाक से लालाजी को नोटिस मिला. ‘आप का नमूना प्रयोगशाला द्वारा फेल घोषित किया गया है. आप इस तारीख को मुख्य दंडाधिकारी के न्यायालय में हाजिर हों. यदि आप राज्य प्रयोगशाला की रिपोर्ट से असहमत हैं तो केंद्रीय प्रयोगशाला में नमूने को दोबारा परीक्षण हेतु 10 दिन के अंदरअंदर भिजवा सकते हैं.’

लालाजी नोटिस की प्रति ले कर अपने परिचित वकील के पास पहुंचे.  ‘‘अरे, भाई, इस मामले को निचले स्तर पर निबटा देना था. जो मांग रहे थे दे देते,’’ वकील साहब ने नोटिस पढ़ कर कहा.

‘‘मांग जायज होती तो पूरी कर भी देता. कभी 100-200 रुपए महीना मांगते थे अब 3 हजार रुपए और ऊपर से कभी भी खानेपीने को आ जाते. साथ में रौब अलग से.’’  ‘‘मगर मुकदमा कई साल चल सकता है. पेशियों की परेशानी है. नमूना तकनीकी आधार पर फेल है इसलिए सजा का मामला नहीं है. सजा मिलावट के मामले में होती है,’’ वकील साहब ने कहा.  ‘‘और अगर इसे केंद्रीय प्रयोगशाला में दोबारा परीक्षण के लिए भेज दूं तो?’’

‘‘तब कई पहलू हैं. केंद्रीय प्रयोगशाला इसे पास कर सकती है. राज्य प्रयोगशाला की रिपोर्ट के समान ही रिपोर्ट दे सकती है. विभिन्न रिपोर्ट दे सकती है. मिलावट घोषित कर सकती है.’’

‘‘यह तो एक किस्म का जुआ है. ठीक है, हम नमूना दोबारा परीक्षण के लिए केंद्रीय प्रयोगशाला में भेज देते हैं.’’  निर्धारित तिथि को लालाजी, एक पड़ोसी दुकानदार को बतौर जमानती, एक पूर्व नगर पार्षद को बतौर शिनाख्ती और नमूना दोबारा भिजवाने के लिए लकड़ी का खाली डब्बा, रुई का बंडल, सफेद कपड़े का टुकड़ा ले अदालत पहुंच गए.  पहले जमानत हुई. फिर नमूना भेजने की तारीख पड़ी. तारीख वाले दिन नमूना दोबारा सील कर केंद्रीय प्रयोगशाला में रजिस्टर्ड पार्सल द्वारा भेज दिया गया.  चपरासी अब फिर आया.

‘‘लालाजी, हमारे पास केंद्रीय प्रयोगशाला में इंतजाम है.’’

‘‘नहीं भाई, मुझे इंतजाम नहीं करवाना. नमूना फेल भी आ जाता है तो भी कोई बात नहीं. जब तक अदालत फैसला सुनाएगी मैं इस दुनिया से बहुत दूर जा चुका होऊंगा.’’  लालाजी के इस बेबाक जवाब पर चपरासी चला गया. दुकान में खापी रहे ग्राहक खिलखिला कर हंस पड़े.

2 महीने बाद नतीजा आया. नमूना मिलावटी नहीं था. मसाले की मात्रा निर्धारित स्तर से कम थी जबकि राज्य प्रयोगशाला ने मसाले की मात्रा निर्धारित स्तर से ज्यादा बताई थी.  चार्ज की पेशी पर बहस हुई. माननीय न्यायाधीश ने दोनों प्रयोगशालाओं द्वारा दी गई अलगअलग परीक्षण रिपोर्टों के आधार पर लालाजी को संदेह का लाभ देते हुए दोषमुक्त कर दिया.  सारे सिलसिले में 7-8 महीने का समय लगा? और 12 हजार रुपए खर्च हुए. थोड़ी परेशानी तो हुई मगर लालाजी के नैतिक साहस और बेबाकी की सारे दुकानदारों और पड़ोसियों में चर्चा और प्रशंसा हुई.

Hindi Kahani : संबंधों का कातिल

Hindi Kahani :   ‘‘माफ करना भाई, तुम्हें तो बात भी करना नहीं आता,’’ इतना बोल कर सुबोध ने अपने हाथ जोड़ लिए तो मानव खीज कर रह गया.

अचानक बात करतेकरते दोनों को ऐसा करता देख मैं भी घबरा गया. कमरे में झगड़ा हो और नकारात्मक माहौल बन जाए तो बड़ी घुटन होती है. मैं तनाव में नहीं जी सकता. पता नहीं कैसाकैसा लगने लगता है. ऐसा लगता है जैसे किसी ने नाक तक मुझे पानी में डुबो दिया हो.

‘‘शांत रहो भाई, तुम दोनों को क्या हो गया है?’’

‘‘कुछ नहीं, मैं भूल गया था कि कुपात्र को सीख नहीं देनी चाहिए. जिसे कुछ लेने की चाह ही न हो उसे कुछ कैसे दिया जा सकता है. बरतन सीधे मुंह रखा हो तभी उस में कोई चीज डाली जा सकती है, उलटे बरतन में कुछ नहीं डाला जा सकता. चाहे पूरी की पूरी सावन की बदली बरस कर चली जाए पर उलटे पात्र में एक बूंद तक नहीं डाली जा सकती. जिस चरित्र का यह मालिक है उस चरित्र पर तो किसी की अच्छी सलाह काम ही नहीं कर सकती. ऐसे लोग कभी किसी के हो कर नहीं रहते.’’

मानव चेहरे पर विचित्र भाव लिए कभी मेरा मुंह देख रहा था और कभी सुबोध का…जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो, जैसे उस का कोई परदा उठा दिया हो किसी ने. अभी कुछ दिन पहले ही तो सुबोध हमारे साथ रहने आया है. हम तीनों एक ही कमरा शेयर करते हैं. हमारे पेशे अलगअलग हैं लेकिन रहने को छत एक ही है जिस के नीचे हमारी रात और सुबह बीतती है.

‘‘चरित्र से…क्या मतलब है तुम्हारा?’’

‘‘क्या इस का मतलब तुम्हें नहीं पता? इतने तो नासमझ नहीं हो तुम, जो तुम्हें चरित्र का मतलब पता ही न हो. पढ़ेलिखे हो, अच्छी कंपनी में काम करते हो, हर महीने अच्छाखासा वेतन पाते हो, जूता तक तो तुम्हारा ब्रांडेड होता है. कंपनी में ऊपर तक जाने की जितनी तीव्र इच्छा  तुम्हें है उस के लिए अनैतिकता के कितने गहरे गड्ढे में धंस चुके हो, तुम्हें खुद ही नहीं पता…तुम कहां से हो और कहां जा रहे हो तुम्हें जरा सी भी समझ है? क्या जानते भी हो, कहां जा रहे हो…और कहां तक जाना चाहते हो उस की कोई तो सीमा होगी?’’

‘‘सीमा…सीमा कौन? किस की बात कर रहे हो?’’

‘‘मैं तुम्हारी पत्नी सीमा की बात नहीं कर रहा हूं. मैं तो उस सीमा की बात कर रहा हूं जिसे हद भी कहा जाता है. हद यानी एक वह सूक्ष्म सी रेखा जिस के पार जाने से पहले मनुष्य को लाख बार सोचना चाहिए.’’

मैं आश्चर्यचकित रह गया. सीमा नाम की लड़की मानव की पत्नी है लेकिन मानव ने तो कहा था कि वह अविवाहित है और अपनी ही कंपनी में साथ काम कर रही एक सहयोगी के साथ उस के संबंध बहुत गहराई तक जुड़े हैं, सब जानते हैं. तो क्या मानव सब के साथ झूठ बोल रहा है? हाथ का काम छोड़ मैं सुबोध के समीप चला आया. मानव की शक्ल से तो लग रहा था जैसे काटो तो खून का कतरा भी न निकले. एक निश्छल सी मुसकान थी सुबोध के होंठों पर. बेदाग चरित्र है उस का. पहले ही दिन जब मिला था बहुत प्यारा सा लगा था. बड़े मस्त भाव से दाढ़ी बनाता जा रहा था.

‘‘हर इच्छा की सीमा होती है, कितनी भूख है तुम्हें पैसे की? सोचा जाए तो मात्र पैसे की ही नहीं, तुम्हें तो हर शह की भूख है. इतनी भूख से पेट फट जाएगा मानव, बदहजमी हो जाती है. प्रकृति ने इंसानों का हाजमा इतना मजबूत नहीं बनाया कि पत्थर या शीशा खा सके. हम अनाज या ज्यादा से ज्यादा जानवर खा सकते हैं.’’

यह कह कर मुंह धोने चला गया सुबोध और मानव मेरे सामने बुत बना यों खड़ा था मानो उसे बीच चौराहे पर किसी ने नंगा कर दिया हो.

‘‘तुम ये कैसी बातें कर रहे हो, सुबोध?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्या हुआ? जी मिचलाने लगा क्या? मानव का जी तो नहीं मिचलाता. पूछो, इसे इंसान का गोश्त कितना स्वाद लगता है. पिछले 4 साल से यह इंसान का गोश्त ही तो खा रहा है…अपने मांबाप का गोश्त, उस के बाद अपनी पत्नी और उस के पिता का गोश्त, यह तो एक बच्चे का पिता भी होता यदि पत्नी का गर्भपात न हो जाता. एक तरह से अपने बच्चे का गोश्त भी खा चुका है यह इंसान.’’

‘‘बकवास बंद करो सुबोध,’’ मानव ने चिढ़ कर कहा.

‘‘मेरी क्या मजाल है जो मैं बकवास करूं. उस का ठेका तो तुम ने ले रखा है. साल भर पहले घर गए थे तुम, सोचो, तब वहां क्या बकवास कर के आए थे? पत्नी को छोड़ना चाहते थे इसलिए उस पर चरित्रहीनता का आरोप लगा दिया.

‘‘एमबीए करने के लिए अपनी पत्नी के पिता से 8 लाख रुपए ले लिए. उन की बेटी का घरसंसार समृद्धि से भर जाएगा, उन को तुम ने ऐसा आश्वासन दिया था. पत्नी बेचारी घर पर इस के मातापिता की सेवा करती रही, इसी उम्मीद पर कि उस का पति बड़ा आदमी बन कर लौटेगा.

‘‘अजन्मा बच्चा अपने पिता का दोषारोपण सुनते ही चलता बना. मुड़ कर कभी नहीं देखता पीछे क्याक्या छूट गया. किसकिस के सिर पर पैर रख कर यहां तक पहुंचे हो, मानव. क्या जरा सा भी एहसास है?

‘‘अब क्या उस नेहा नाम की लड़की के कंधे पर पैर नहीं हैं तुम्हारे, जिस का भाई तुम्हें अमेरिका ले जाने वाला है? अमेरिका पहुंच कर नेहा को भी छोड़ देना. मानव नहीं हो तुम तो दानव बन गए हो. क्या तुम्हारे अंदर सारी की सारी संवेदनाएं मर गई हैं? पता है न तुम्हें कि कौनकौन कोस रहा है तुम्हें. तुम्हारे मातापिता, तुम्हारे ससुर…जिन की भविष्यनिधि भी तुम खा गए और उन की बेटी का घर भी नहीं बस पाया.’’

मानव की अवस्था विचित्र सी हो गई. बारबार कुछ कहने को वह मुंह खोलता तो सुबोध उस पर नया वार कर देता. प्याज के छिलकों की तरह परतदरपरत उस के भूतकाल की परतें उतारता जा रहा था. सफाई दे भी तो कैसे दे और शुरू कहां से करे, उस का तो आदि से अंत सब ही विश्वास और अपनत्व से शून्य था. जो इंसान अपने मांबाप का सगा न हुआ, अपनी पत्नी के प्रति वफादार न हुआ वह किसी और का भी क्या होगा? सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. अपनी संतान के प्रति भी जिस ने कोई जिम्मेदारी न समझी, वह कहांकहां से पलायन कर रहा है समझा जा सकता है.

‘‘सुबोध, तुम यह सब कैसे जानते हो. जरा बताओ तो?’’ मैं ने सुबोध का हाथ पकड़ कर पूछा था. शांत रहने वाला सुबोध इस पल जरा आवेश में था.

‘‘तुम मुझ से क्यों पूछ रहे हो कि मैं यह सब कैसे जानता हूं. तुम इस नाशुक्रे इंसान से सिर्फ यह पूछो कि जो कुछ भी मैं ने इस के लिए कहा है वह सच है या नहीं. मैं कैसे जानता हूं कैसे नहीं, इस से क्या फर्क पड़ता है. पूछो इस से कि इस के मातापिता आजकल कहां हैं? जिंदा भी हैं या मर गए? तलाक के बाद इस की पत्नी और उस के पिता का क्या हुआ? क्या यह जानता है? अपने ससुर के 8 लाख रुपए यह कब लौटाने वाला है जो अब सूद मिला कर 10-12 लाख रुपए तो होने ही चाहिए.’’

‘‘सीमा ने अभी मुझे तलाक दिया कहां है…’’ पहली बार मानव ने अपने होंठ खोले, ‘‘और क्या सुबूत है उस के पास कि वे रुपए उस के पिता ने ही दिए थे.’’

‘‘जिस दिन अदालत का नोटिस तुम्हारे औफिस पहुंच जाएगा, उस दिन अपनेआप पता चल जाएगा किस के पास कितने और कैसे सुबूत हैं…इतना लाचार और बेवकूफ किसे समझ रहे हो तुम?’’

सुबोध इतना सब कह कर अपने कपड़े बदलने लगा.

‘‘आजकल मुंह छिपा कर भागना आसान कहां है. इंसान मोबाइल नंबर से पकड़ा जाता है, जिस कंपनी में काम करो वहां से छोड़ कर कहीं और भी चले जाओ तो भी सिरा हाथ में आ जाता है. यह दुनिया इतनी बड़ी कहां रह गई है कि इंसान पकड़ में ही न आए. जल्दी ही नेहा को भी पता चल जाएगा तुम्हारा कच्चा चिट्ठा. यह मत सोचो कि तुम सारी दुनिया को बेवकूफ बना लोगे.’’

बदहवास सा होने लगा मानव. 15 दिन पहले ही तो सुबोध हमारे साथ रहने आया है. उस ने कहा था जम्मू से है, मानव भी जम्मू से है, तब मुझे क्षण भर को लगा भी था कि मानव जम्मू का नाम सुन कर जरा सा परेशान हो गया था, बड़ी गहराई से परख रहा था कि वह किस हिस्से से है, किस कोने से है.

‘‘अगर इंसान जिंदा है और अच्छी नौकरी में है तो छिप नहीं सकता और मुझे पूरा विश्वास है तुम अभी जिंदा हो.’’

धड़ाम से वहीं बैठ गया मानव. सुबोध जल्दीजल्दी तैयार होने लगा. उस ने अपना नाश्ता किया और जातेजाते मानव का कंधा थपथपा दिया.

‘‘अभी भी देर नहीं हुई. मर जाओ या जिंदा रहो, अपने ही काम आते हैं. रोते भी अपने ही हैं, ऐसा दुनिया कहती है. अपना घरपरिवार संभालो, अपनों के साथ छल मत करो वरना वह दिन दूर नहीं जब यही छल घूमफिर कर तुम्हारे ही सामने परोसा जाएगा…अपने घर जाओ मानव, तुम्हारी मां बहुत बीमार हैं.’’

‘‘क्या?’’ मानव के होंठों से पहली बार यह शब्द अपनेआप ही निकला था.

‘‘अपनी मां तो याद हैं न. जाओ उन के पास. नेहा जैसी कल बहुत मिल जाएंगी. आज मां हाथ से निकल गईं तो पूरी उम्र जमीन से जुड़ने को ही तरस जाओगे. पत्नी को छोड़ा है, जाहिर है वह भी मर तो नहीं जाएगी. वह तो कल अपना रास्ता स्वयं ढूंढ़ लेगी, लेकिन आज जो छूट जाएगा वह कभी हाथ नहीं आएगा. अच्छे इंसान बनो मानव…मांबाप ने इतना अच्छा नाम रखा था…कुछ तो उसे सार्थक करो.’’

सुबोध चला गया. कहां से बात शुरू हुई थी और कहां आ पहुंची थी. हैरान हूं मानव के बारे में इतना सब जानते हुए वह 15 दिन से चुप क्यों था. और मानव का चरित्र भी कैसा था, जिस ने साल भर में कभी मांबाप का जिक्र तक नहीं किया. घर में पालतू जानवर पाल लो तो उस का भी नाम कभीकभार इंसान ले ही लेता है.

सुबोध ने बताया था कि उस के कई मित्र मानव के गांव से हैं. हो सकता है उन्हीं से उसे सारी कहानी पता चली हो. मैं तो कितना अच्छा दोस्त समझ रहा था मानव को. अब लग रहा है अपनी समझ को अभी मुझे और परिपक्व करना पड़ेगा. इंसान को परखना अभी मुझे नहीं आया.

मैं सोचने लगा हूं…मानव, जो अच्छा इंसान ही नहीं है वह अच्छा मित्र कैसे होगा. प्यार पाने के लिए तो प्यार बोना पड़ता है और विश्वास पाने के लिए विश्वास. मानव के तो दोनों हाथ खाली हैं, यह क्या लेगा जब कभी दिया ही नहीं. इस के हिस्से तो मात्र खालीपन और अकेलापन ही है.

मानव बुत बना चुपचाप बैठा रहा.

Story In Hindi : ब्रह्मपिशाच – क्या था ओझा का सच?

Story In Hindi : शारदा बाबू एक बैंक के कर्मचारी थे. शहर से थोड़ी दूर पर उन का गांव था. उन की पत्नी ज्यादातर अपने गांव में ही रहती थी. उन की बेटी पुनीता करीब 16 या 17 साल की रही होगी. प्राइवेट हाईस्कूल की परीक्षा दे रही थी.

शारदा बाबू के 4 बेटे थे. सब से बड़ा राजेंद्र कादीपुर ब्लाक में विकास अधिकारी था. शारदा बाबू के मकान की छत से लगी हुई मेरी भी छत थी. मैं भी बैंक में ही टाइपिस्ट थी.

एक दिन पुनीता खुशखुश मेरे पास आई, ‘‘भाभीजी, भैया की शादी तय हो गई है. सुना है कि भाभी का स्वभाव बहुत ही अच्छा है. कल हम सब लोग शादी में गांव जा रहे हैं. आप भी चलिए न.’’

‘‘तू जा, बेटी. मेरी छुट्टियां थोड़े ही हैं,’’ कह कर मैं ने उसे टाल दिया.

सब से छोटी और इकलौती बेटी होने के कारण पुनीता अपने मांबाप और भाइयों की बहुत दुलारी थी. बड़ा भाई राजेंद्र उसे बहुत प्यार करता था.

जब भी वह गांव से आता, भाभी लाने की बात चलने पर वह उसे बड़े प्यार से थपथपा कर कहता, ‘‘बहुत जल्दी आएगी तेरी भाभी. आते ही पहले ही दिन उस को समझा दूंगा मैं, ‘देखो भई, पुनीता मेरी प्यारी बहन है. इसे एक शब्द भी कभी कड़ा मत कहना. मेरे बच्चे की तरह है यह.’’’

पुनीता यह सुन कर खुशी से नाच उठती. यही कारण था कि भाभी के आने की बात सुन कर उस का तनमन खुशी से नाच उठा था. पुनीता को कई बार टाइफाइड हो चुका था. उस का मस्तिष्क बीमारी के कारण कुछ कमजोर हो चला था. यही कारण था कि शारदा बाबू परेशान हो कर स्कूल में कई बार फेल होने पर उस को प्राइवेट परीक्षा ही दिला रहे थे.

तीसरे दिन गांव से लौट कर पुनीता अपने स्वभाव के अनुसार मेरे पास आई तो उस के गुलाबी हंसमुख चेहरे पर परेशानी झलक रही थी. आंखें ऐसी लग रही थीं जैसे रात भर कोई भयानक स्वप्न देखा हो. उस के खूबसूरत चेहरे पर पीड़ा फैली हुई थी.

‘‘कैसी है तेरी भाभी? खूब मजा आया होगा न? मेरे लिए मिठाई लाई है?’’ मैं ने प्यार से पूछा.

‘‘मिठाई?…कभी नहीं. नई भाभी जो आ गई है. अब मिठाई कभी नहीं मिलेगी. भाभीजी ने मुझे बहुत डांटा. मुझ से दाल में ज्यादा हो गया था…अरे हां, नमक ज्यादा हो गया था. तब भी भैया और भाभी को ऐसा नहीं करना चाहिए था. आप ही बताइए, अब मैं क्या करूं? क्या नदी में कूद पड़ूं?’’ कह कर उस ने मुझे झिंझोड़ दिया.

‘‘पुनीता, तू क्या कह रही है? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है. किसी भी छोटी सी बात का इतना बुरा नहीं मानते. तेरी तबीयत ठीक नहीं मालूम देती. अरे, तुझे तो तेज बुखार भी है. जा कर आराम कर.’’

मेरे कहने पर पुनीता चली गई

और मैं अपने काम में व्यस्त हो गई.

शाम को मैं दफ्तर से लौट कर कमरे में आई ही थी कि शारदा बाबू के घर

से चीखें और फिर बहुत शोरगुल सुनाई देने लगा.

मैं चाय पीना भूल कर उन की छत से लगी मुंडेर पर जा खड़ी हुई. शारदा बाबू की छत का दृश्य बहुत ही बुरा था. तिमंजिले की छत के किनारे पर बैठी पुनीता पागलों की तरह चीखचीख कर नीचे कूदने का प्रयास कर रही थी.

वह कभी हंसती, कभी रोती, अपना सिर झटकझटक कर कह रही थी, ‘‘मुझे छोड़ दो. नीचे वही बुला

रहा है…मैं नहीं कूदूंगी तो वह मुझे

खा जाएगा… वह हिंदुस्तान का राजा है. मुझे बहुत चाहता है, छोड़ दो मुझे, ह…ह…ह…’’

पुनीता को एक तरफ उस के पिताजी और दूसरी तरफ उस का छोटा भाई सुरेंद्र पकड़े हुए थे.

पुनीता की आंखें लाल सुर्ख और फूली हुई थीं. शायद उसे अब भी तेज बुखार था. उस के बाल खुले थे और चेहरे पर पूरे पागलपन के लक्षण थे.

उस को किसी प्रकार खींच कर शारदा बाबू नीचे ले गए और कमरे में बंद कर दिया.

पुनीता की मां जारजार रोती हुई बोलीं, ‘‘बहनजी, सुबह से यह कुछ बहकीबहकी बातें कर रही थी. मैं ने सोचा गांव में किसी से किसी बात पर नाराज हो कर बड़बड़ा रही होगी. लेकिन दोपहर के 12 बजतेबजते यह खूब जोर- जोर से रोने और बाहर भागने लगी. दरवाजे पर ताला लगा दिया तो सीढ़ी से चढ़ कर तिमंजिले पर भागी.

‘‘इस के पिताजी ने किसी काम के कारण छुट्टी ले रखी थी, नहीं तो अनर्थ हो जाता. पुनीता कूद कर आत्महत्या कर लेती. लड़की की जाति, अब मैं क्या करूं, बहनजी? कुछ भी समझ में नहीं  आ रहा है. आप ही बताइए न कोई उपाय…’’

यह कह कर पुनीता की मां दीनहीन सी बिलख पड़ीं. स्वाभाविक ही था

कि खूबसूरत जवान लड़की देखते ही देखते न जाने क्यों अपना संतुलन खो बैठी थी.

‘‘आप घबराइए नहीं. मुझे तो लगता है कि इसे किसी बात का धक्का पहुंचा है. कुछ दिमाग कमजोर तो है

ही इस का. बरदाश्त नहीं कर पाई और अपने दिमाग का संतुलन खो बैठी.

इस को जल्दी ही इलाहाबाद या लखनऊ ले जा कर किसी मानसिक इलाज

करने वाले डाक्टर को दिखाइए, नहीं तो इस की हालत खराब हो जाएगी. इस की जिंदगी आप को बचानी है तो जल्दी ही किसी बड़े डाक्टर के पास ले जाइए…’’

अभी मैं पुनीता की मां को सुझाव दे ही रही थी कि सामने रहने वाले नए किराएदार पंडितजी, हांफतेहांफते आ पहुंचे, ‘‘भाभीजी, काम हो गया, ओझा महाराज मिल गए. जरा सी देर में ही पुनीता ठीक हो जाएगी.’’

पंडितजी अपने शब्दों में करुणा भर कर बोल रहे थे, किंतु उन के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान खेल रही थी. एक क्षण चुप रह कर वह अपनी आंख के कोरों को पोंछने लगे, ‘‘भाभीजी, अब देर मत कीजिए. दानदक्षिणा, जो कुछ भी ओझा महाराज मांगें, वह सब पूरा कर के अपनी बिटिया के प्राण लौटा लीजिए. इतनी खूबसूरत इकलौती बेटी है आप की. इस के लिए तो लाखों न्योछावर किया जा सकता है. इस की हालत देख कर तो मेरा कलेजा फटा जा रहा है…’’

कह कर अपनी लंबी चोटी ऐंठते हुए पंडितजी मुंह पोंछ कर धीरे से मुसकरा उठे, जिसे मेरे सिवा और कोई न देख सका.

पंडितजी के हृदय में बेटी के लिए इतनी करुणा देख कर पुनीता की मां को विश्वास हो गया कि ओझा महाराज अवश्य उस की बेटी के अंदर का भूतपिशाच अपनी मुट्ठी में कर के उस की बेटी को स्वस्थ कर देंगे.

पंडितजी सब को ले कर नीचे

उतर गए. मैं ने उन्हें रोक कर समझाना चाहा, किंतु इस समय तो उन लोगों पर पंडित और ओझा महाराज का पूरा विश्वास जम चुका था. जिज्ञासावश मैं भी छत पर से ही उन के आंगन का नजारा देखने लगी.

खद्दर का कुरताधोती, सिर पर पीली पगड़ी, एक फुट लंबी तोंद, कंधे पर लाल अंगोछा और बड़ा सा लटकता  झोला, ऐंठी सी खिचड़ी मूंछें और एक आंख पत्थर की. ऐसे थे ओझा महाराज.

उन की मनहूस सी सूरत देख कर पहले शारदा बाबू ने पत्नी को आंख के इशारे से मना किया, किंतु उन पर तो जैसे कोई जादू डाल दिया गया हो. ऐसी दृष्टि से उन्होंने शारदा बाबू को घूरा, जैसे कह रही हों, ‘चुप रहो, पैदा तो मैं ने किया है. फिर भला तुम क्या जानो संतान का दर्द?’

मरता क्या न करता. बेचारे शारदा बाबू चुप हो गए. अब ओझा महाराज ने अपना काम आरंभ किया.

उन्होंने एक थाली में फूल रख कर ढेर सारा गुग्गुल और लोबान सुलगा दिया. चारों तरफ धुआं फैलने लगा.

अब पुनीता को, जो कमरे में बंद थी, खोला गया. ओझा महाराज के सामने कई लोग उसे पकड़ कर बैठ गए. वह अपने को छुड़ाने के लिए हाथपैर मारने लगी और वहीं पास में रखे ओझा महाराज के डंडे को उठा कर उन्हीं की पीठ पर दे मारा.

अचानक इस मार से ओझा महाराज बिलबिला उठे, ‘‘देखा आप लोगों ने? यह कोई छोटामोटा भूतपिशाच नहीं है. पिशाचों में वरिष्ठ ब्रह्मपिशाच है. किसी निरपराध ब्राह्मण की हत्या होने पर उस की आत्मा ही ब्रह्मपिशाच बन जाती है. चलते समय ही मैं ने यह समझ लिया था कि यही होगा और एक मंत्र पढ़ कर मैं ने उस पर चोट कर दी थी. इसीलिए इस ने मुझे मारा है. अभी क्या, अभी तो यह ऐसी छलांग लगाएगी कि छत पर कूद जाएगी. जिस को यह पिशाच पकड़ता है, उस में हाथी की शक्ति आ जाती है. अरे बाबूजी, यह पिशाच कोई छोटीमोटी शक्ति नहीं है. चुटकी बजाते प्राण हर लेता है यह.’’

‘‘धन्य हैं, महाराज, आप बिलकुल ठीक बात कह रहे हैं. अभी यह छत से नीचे कूद रही थी…’’ पुनीता की मां अंतर्यामी ओझा महाराज पर पूरी तरह से न्योछावर होती हुई बोलीं.

वही नहीं, इस बात से वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्य से एकदूसरे का मुंह देखने लगे, सिर्फ पंडितजी मंदमंद मुसकरा रहे थे.

शारदा बाबू भी प्रभावित होते हुए बोले, ‘‘आप सच कह रहे हैं. इस के अंदर हाथी की ही शक्ति आ गई है. मुझे 2 जगह यह दांत भी काट चुकी है. जिस कमरे में यह बंद थी उस कमरे की सारी चीजों को तोड़फोड़ डाला है. कपड़ा देखिए, इस ने दांतों से फाड़फाड़ कर चिथड़ा कर दिया है. अब तो बेटी के प्राण आप ही बचा सकते हैं महाराज. अपनी मंत्र विद्या से जल्दी ही ब्रह्मपिशाच को अपनी मुट्ठी में कीजिए…’’ कहते- कहते शारदा बाबू भी रो पड़े.

‘‘आप चिंता न कीजिए, अभी मंत्र मार कर मैं इस की शक्ति अपनी मुट्ठी में जकड़ लेता हूं. हां, आप लोग इस को संभाल नहीं पाएंगे इसलिए चारपाई पर लिटा कर रस्सी से इस के हाथपैर इतने जकड़ दीजिए कि यह तनिक भी न हिलनेडुलने पाए. अगर ऐसा नहीं करेंगे तो यह एकाध को घायल भी कर देगी.’’

‘‘नहीं…’’ पुनीता आंखें निकाल कर जोर से चीखी, लेकिन तभी ओझा महाराज का इतनी जोर का झापड़ उस के गाल पर पड़ा कि पांचों उंगलियों के निशान उभर आए.

पुनीता चीखती रही, किंतु ओझा महाराज की जादुई गिरफ्त में आने वाले लोग भला अब कहां कुछ भी सुन सकते थे? एक लड़की 4 मर्दों से भला कैसे अपने को छुड़ा पाती? नतीजा यह कि वह चीखती रही और लोग बेरहमी से उसे चारपाई में बांधते रहे. उस के दोनों पैर चारपाई तथा हाथ खिड़की की छड़ से बांध दिए गए.

अब ओझा महाराज अपने झोले में से एक दोना निकाल कर शारदा बाबू को देते हुए बोले, ‘‘लीजिए, यही मेरा प्रसाद है. इस में 5 बताशे हैं. इसे मैं घर से ही अभिमंत्रित कर के लाया हूं. बस, यही दवा है. इस में से 2 अभी, 2 कल सुबह और 1 परसों सुबह…’’

अब बताशा खिला कर ओझा महाराज पुनीता पर धीरेधीरे अपना मंत्र पढ़पढ़ कर फूंक मारने लगे.

और लोगों ने आश्चर्य से देखा कि ओझा के फूंक मारते ही बस 5 मिनट में पुनीता ने धीरेधीरे चुप हो कर अपनी आंखें बंद कर लीं.

पुनीता के शांत हो जाने पर ओझा महाराज मुसकराए और मूंछों पर ताव देते हुए बोले, ‘‘देखा आप ने, मंत्र ने काम करना शुरू कर दिया. ब्रह्मपिशाच शांत हो गया. लेकिन कम से कम 3 दिन इसी तरह इसे रखना होगा. मैं घर जा कर 3 दिन, 3 रात उपवास रख कर इस की पूजा करूंगा, तब जा कर इसे उतार पाऊंगा. जरा सी भूलचूक हुई तो यह मेरे ही प्राण हर लेगा.

‘‘अच्छा, अब चलूं बाबूजी. हां, 1 हजार रुपए पूजा के लिए चाहिए या मैं जो सामान कहूं, वह मंगवा दीजिए. बात ऐसी है कि अब 3 दिन ब्रह्मपिशाच के साथियों, बरातियों को न्योता खिलाना पड़ेगा, तब कहीं जा कर छोड़ेगा यह…अरे हां, हर चीज बिलकुल पवित्र होनी चाहिए.

‘‘जो भी खाना यह खाना चाहे, चम्मच से इस के मुंह में डाल दीजिए. जरूरी काम होने पर रस्सी खोल कर फिर इसी तरह बांध दी जाए. तीसरे दिन मैं ही आ कर इसे पूरी तरह खोलूंगा. किसी डाक्टर की दवा न खिलाएंपिलाएं, नहीं तो यह ब्रह्मपिशाच इसी को ही नहीं, सारे कुटुंब को निगल जाएगा,’’ कहतेकहते ओझा महाराज ने ऐसा भयंकर मुंह बनाया कि सारा परिवार भय से थरथर कांप उठा.

भयभीत शारदा बाबू उसी दिन रुपए के लिए बैंक जाने लगे तो मैं ने उन्हें रोका, ‘‘शारदा बाबू, पढ़ेलिखे इनसान हो कर भी आप इन ओझा और मौलवियों के चक्कर में पड़ रहे हैं. मेरी बात मानिए तो पुनीता को जल्दी ही टैक्सी से लखनऊ ले जाइए.’’

मेरी बात अनसुनी कर के शारदा बाबू ने कहा, ‘‘जिस पर मुसीबत आती है वही उस का दर्द जानता है, दूसरा नहीं,’’ और वह तेजी से ओझा महाराज के साथ बैंक की तरफ चल दिए.

शाम को दफ्तर से लौटी तो लोगों ने बताया कि पुनीता तब से बराबर आंखें बंद किए बड़बड़ा रही है. खायापिया कुछ भी नहीं, किंतु चीखीचिल्लाई भी नहीं. ओझा महाराज का प्रताप है कि उन्होंने अपने मंत्र के बल से ब्रह्मपिशाच को शांत कर दिया. 1,001 रुपए ही तो लिए बेचारे ने. बेटी के प्राण तो बचा दिए.

सुन कर विश्वास तो नहीं हुआ, लेकिन करती क्या? चुपचाप अपने काम में व्यस्त हो गई.

दूसरे दिन शनिवार की शाम को दफ्तर से लौट कर अपने घर लखनऊ जाने के लिए मैं अपनी अटैची ठीक कर रही थी कि शारदा बाबू का बड़ा बेटा राजेंद्र रोतासिसकता आ खड़ा हुआ.

‘‘बहनजी, पुनीता अब नहीं बचेगी.’’

‘‘क्या बात है? वह तो अब ठीक हो रही थी,’’ मैं चौंक पड़ी.

‘‘अरे, वह साला फरेबी, जालसाज निकला. उसी को बुलाने तो मैं गया था.’’

‘‘तब?’’

‘‘पता चला कि वहां इस नाम का कोई आदमी नहीं रहता.’’

‘‘और पंडित?’’

‘‘वह भी कल से गायब है. मकान में एक ही महीने तो रहा वह. आधा किराया पेशगी दिया था, बाकी आधा किराया भी मार कर भाग गया. धोखा देने के लिए कोठरी में एक सड़ा सा ताला डाल गया.’’

‘‘अच्छा, मैं तो पहले ही समझ रही थी कि ये सब जरूर जालसाज हैं. अरे हां, अब पुनीता का क्या हाल है? क्या पुनीता उसी तरह बंधी पड़ी है?’’

‘‘नहीं, बहनजी, अब उसे खोल दिया गया है. लेकिन जगहजगह रस्सियों से उस के हाथपैर में नीले निशान पड़ गए हैं. उस का रंग काला हो गया है और शक्तिहीन सी आंखें बंद किए वह पड़ी है. न कुछ बोलती है और न कुछ खाती- पीती है. माताजी खूब रो रही हैं. पिताजी ने आप के पास मुझे भेजा है. आप का परिचय लखनऊ मेडिकल कालिज में जरूर होगा…’’

राजेंद्र ने ऐसी याचनाभरी दृष्टि से मुझे देखा कि मैं अंदर तक करुणा से भर उठी. नतीजा यह हुआ कि उसी वक्त हम लोग पुनीता को ले कर लखनऊ चल दिए.

वहां एक मनोचिकित्सा के विशेषज्ञ मेरे परिचित निकल आए. उन्होंने फौरन पुनीता को देखाभाला. उन्होंने बताया कि पुनीता को ओझा ने बताशा किसी ऐसी नशीली चीज में डुबो कर दिया था जिस से उसे नींद आ रही है. ब्रह्मपिशाच नहीं, इसे किसी बात का गहरा आघात लगा है. जो लोग दिमाग से कमजोर होते हैं, आघात खा कर अपना संतुलन खो बैठते हैं. आप लोगों की आंखें समय से खुल गईं, नहीं तो ओझा के चक्कर में आप की बेटी के प्राण निकल जाते और आप बस, हाथ मलते रह जाते.’’

1 माह तक उस डाक्टर की दवा करने से पुनीता बिलकुल ठीक हो गई. अब वह बाकायदा अपनी परीक्षा दे रही है. तब से उस के परिवार वालों ने कान पकड़ लिया है कि वे किसी ओझा और पंडित का विश्वास नहीं करेंगे.

कहानी- डा. माया शबनम

Short Story : जो बोया सो काटा

Short Story : बच्चों के साथ रहने के मामले में मनीषा व निरंजन के सुनेसुनाए अनुभव अच्छे नहीं थे. अपने दोस्तों व सगेसंबंधियों के कई अनुभवों से वे अवगत थे कि बच्चों के पास जा कर जिंदगी कितनी बेगानी हो जाती है, लेकिन अब मजबूरी थी कि उन्हें बच्चों के पास जाना ही था क्योंकि वे शारीरिक व मानसिक रूप से लाचार हो गए थे.

उम्र अधिक हो जाने से शरीर कमजोर हो गया था. निरंजन के लिए अब बाहर के छोटेछोटे काम निबटाना भी भारी पड़ रहा था. कार चलाने में दिक्कत होती थी. मनीषा वैसे तो घर का काम कर लेती थीं लेकिन अकेले ही पूरी जिम्मेदारी संभालना मुश्किल हो जाता था. नौकरचाकरों का कोई भरोसा नहीं, काम वाली थी, कभी आई कभी नहीं.

छुट््टियां न मिलने की वजह से बेटा अनुज भी कम ही आ पाता था. इसलिए उन्हें अब मानसिक अकेलापन भी खलने लगा था. अकेले रहने में अपनी बीमारियों से भी निरंजनजी डरते थे.

यही सब सोचतेविचारते अपने अनुभवों से डरतेडराते आखिर उन्होंने भी लड़के के साथ रहने का फैसला ले ही लिया.

इस बारे में उन्होंने पहले बेटे को चिट्ठी लिखना ठीक समझा ताकि बेटे और बहू के मूड का थोड़ाबहुत पहले से ही पता

चल जाए.

हफ्ते भर के अंदर ही बेटे का फोन आ गया कि पापा, आज ही आप की चिट्ठी मिली है. आप मेरे पास आना चाह रहे हैं, यह हम सब के लिए बहुत खुशी की बात है. बच्चे और नीता तो इतने खुश हैं कि अभी से आप के आने का इंतजार करने लगे हैं. आप बताइए, कब आ रहे हैं? मैं लेने आ जाऊं या फिर आप खुद ही आ जाएंगे?

फोन पर बेटे की बातें सुन कर निरंजन की आंखें भर आईं. प्रत्युत्तर में बोले, ‘‘हम खुद ही आ जाएंगे, बेटे… परसों सुबह यहां से टैक्सी से चलेंगे और शाम 7 बजे के आसपास वहां पहुंच जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, पापा,’’ कह कर बेटे ने फोन रख दिया.

‘‘अनुज हमारे आने की बात सुन कर बहुत खुश है,’’ निरंजन बोले.

‘‘अभी तो खुश है पर पता नहीं हमेशा साथ रहने में कैसा रुख हो,’’ मनीषा अपनी शंका जाहिर करती हुई बोलीं.

‘‘सब अच्छा होगा, मनीषा,’’ निरंजन दिलासा देते हुए बोले.

शाम के 7 बजे जब निरंजन और मनीषा बेटे के घर पर पहुंचे तो बेटेबहू और बच्चे उन के इंतजार में बैठे थे. दरवाजे पर टैक्सी रुकने की आवाज सुन कर चारों घर से बाहर निकल पड़े.

दादाजी…दादाजी कहते हुए दोनों बच्चे पैर छूते हुए उन से चिपक गए. बेटेबहू ने भी पैर छुए. सब ने एकएक सामान उठा लिया. यहां तक कि बच्चों ने भी छोटा सामान उठाया और सब एकसाथ अंदर आ गए.

मन में शंका थी कि थोड़े दिन रहने की बात अलग थी पर हमेशा के लिए रहना…न जाने कैसा हो.

नीता चायनाश्ता बना कर ले आई. सभी बैठ कर गपशप करने लगे.

‘‘मम्मीपापा, आप फ्रेश हो लीजिए,’’ बहू नीता बोली, ‘‘इस कमरे में आप का सामान रख दिया है. आज से यह कमरा आप का है.’’

‘‘यह हमारा कमरा…पर यह तो बच्चों का कमरा है…’’

‘‘बच्चे  छोटे वाले कमरे में शिफ्ट हो गए हैं.’’

‘‘लेकिन तुम ने बच्चों का कमरा क्यों बदला, बहू…उन की पढ़ाईलिखाई डिस्टर्ब होगी. फिर उस छोटे से कमरे में दोनों कैसे रहेंगे?’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी आप, घर के सब से बड़े क्या सब से छोटे कमरे में रहेंगे. बच्चों की पढ़ाई और सामान वगैरह के लिए अलग कमरा चाहिए…रात में तो दोनों आप के साथ ही घुस कर सोने वाले हैं,’’ नीता हंसते हुए बोली.

मनीषा को सुखद एहसास हुआ. बेटा तो अपना ही है लेकिन बहू के मुंह से ऐसे शब्द सुन कर जैसे दिल की शंकाओं का कठोर दरवाजा थोड़ा सा खुल गया.

सुबह बहुत देर से नींद खुली. निरंजन उठ कर बाथरूम हो आए. अंदर खटरपटर की आवाज सुन कर नीता ने चाय बना दी. उस दिन रविवार था.  बच्चे व अनुज भी घर पर थे.

चाय की टे्र ले कर नीता दरवाजे पर खटखट कर बोली, ‘‘मम्मीजी, चाय.’’

‘‘आजा…आजा बेटी…अंदर आजा,’’ निरंजन बोले.

‘‘नींद ठीक से आई, पापा,’’ नीता चाय की ट्रे मेज पर रखती हुई बोली.

‘‘हां, बेटी, बहुत अच्छी नींद आई. बच्चे और अनुज कहां हैं?’’ मनीषा ने पूछा.

‘‘सब उठ गए हैं. बच्चों ने तो अभी तक दूध भी नहीं पिया है. कह रहे थे कि जब दादाजी उठ जाएंगे तो वे चाय पीएंगे और हम दूध.’’

‘‘तुम ने भी अभी तक चाय नहीं पी,’’ मनीषा ट्रे में चाय के 4 कप देख कर बोलीं.

‘‘मम्मीजी, हम एक बार की चाय तो पी चुके हैं, दूसरी बार की चाय आप के साथ बैठ कर पीएंगे.’’

तभी बच्चे व अनुज कमरे में घुस गए और दादादादी के बीच में बैठ गए.

‘‘दादाजी, पापा कहते हैं कि वह आप से बहुत डरते थे. आप जब आफिस से आते थे तो वह एकदम पढ़ने बैठ जाते थे, सच्ची…’’ पोता बोला.

‘‘पापा यह भी कहते हैं कि वह बचपन में बहुत शैतान थे और दादी को बहुत तंग करते थे. है न दादी?’’ पोती बोली थी.

दोनों बच्चों की बातें सुन कर निरंजन व  मनीषा हंसने लगे.

‘‘सभी बच्चे बचपन में अपनी मम्मी को तंग करते हैं और अपने पापा से डरते हैं,’’ निरंजन बच्चों को प्यार करते हुए बोले.

‘‘हां, और मम्मी कहती हैं कि सभी मम्मीपापा अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं…जैसे दादादादी मम्मीपापा को प्यार करते हैं और मम्मीपापा हमें.’’

पोती की बात सुन कर मनीषा व निरंजन की नजरें नीता के चेहरे पर उठ गईं. नीता का खुशनुमा चेहरा दिल में उतर गया. दोनों ने मन में सोचा, एक अच्छी मां ही बच्चों को अच्छे संस्कार दे सकती है.

दोपहर के खाने में नीता ने कमलककड़ी के कोफ्ते और कढ़ी बना रखी थी.

‘‘पापा, आप यह कोफ्ते खाइए. ये बताते हैं कि आप को कमलककड़ी के कोफ्ते बहुत पसंद हैं,’’ नीता कोफ्ते प्लेट में रखती हुई बोली.

‘‘और मम्मी को कढ़ी बहुत पसंद है. है न मम्मी?’’ अनुज बोला, ‘‘याद है मैं कढ़ी और कमलककड़ी के कोफ्ते बिलकुल भी पसंद नहीं करता था. और मेरे कारण आप अपनी पसंद का खाना कभी भी नहीं बनाती थीं. अब आप की पसंद का खाना ही बनेगा और हम भी खाएंगे.’’

बेटा बोला तो मनीषा को अपने भावों पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो गया. आंखों के कोर भीग गए.

‘‘नहीं बेटा, खाना तो बच्चों की पसंद का ही बनता है, जो बच्चों को पसंद हो वही बनाया करो.’’

रात को पोते व पोती में ‘बीच में कौन सोएगा’ इस को ले कर होड़ हो गई. आखिर दोनों बीच में सो गए.

थोड़ी देर बाद नीता आ गई.

‘‘चलो, बच्चो, अपने कमरे में चलो.’’

‘‘नहीं, हम यहीं सोएंगे,’’ दोनों चिल्लाए.

‘‘नहीं, दादादादी को आराम चाहिए, तुम अपने कमरे में सोओ.’’

‘‘रहने दे, बेटी,’’ निरंजन बोले, ‘‘2-4 दिन यहीं सोने दे. जब मन भर जाएगा तो खुद ही अपने कमरे में सोने लगेंगे.’’

दोनों बच्चे उस रात दादादादी से चिपक कर सो गए.

दिन बीतने लगे. नीता हर समय उन की छोटीछोटी बातों का खयाल रखती. बेटा भी आफिस से आ कर उन के पास जरूर बैठता.

एक दिन मनीषा शाम को कमरे से बाहर निकली तो नीता फोन पर कह रही थी, ‘‘मैं नहीं आ सकती… मम्मीपापा आए हुए हैं. यदि मैं आ गई तो वे दोनों अकेले रह जाएंगे. उन को खराब लगेगा,’’ कह कर उस ने बात खत्म कर दी.

‘‘कहां जाने की बात हो रही थी, बेटी?’’

‘‘कुछ नहीं, मम्मीजी, ऐसे ही, मेरी सहेली बुला रही थी कि बहुत दिनों से नहीं आई.’’

‘‘तो क्यों नहीं जा रही हो. हम अकेले कहां हैं, और फिर थोड़ी देर अकेले भी रहना पड़े तो क्या हो गया. देखो बेटी, तुम अगर नहीं जाओगी तो मैं बुरा मान जाऊंगी.’’

नीता कुछ न बोली और दुविधा में खड़ी रही.

मनीषा नीता के कंधे पर हाथ रख कर बोलीं, ‘‘बेटी, मम्मीपापा आ गए हैं इसलिए अगर तुम ने अपनी दिनचर्या में बंधन लगाए तो हम यहां कैसे रह पाएंगे. यह अब कोई 2-4 दिन की बात थोड़े न है, अब तो हम यहीं हैं.’’

‘‘कैसी बात कर रही हैं, मम्मीजी. आप का रहना हमारे सिरआंखों पर. मैं बंधन थोड़े न लगा रही हूं… और थोड़ाबहुत बंधन रहे भी तो क्या, बच्चों के कारण मांबाप बंधन में नहीं रहते हैं. फिर बच्चों को भी मांबाप के कारण बंधना पड़े तो कौन सी बड़ी बात है.’’

नीता की बात सुन कर मनीषा ने चाहा कि उस को गले लगा कर खूब प्यार करें.

मनीषा ने नीता को जबरन भेज दिया. धीरेधीरे मनीषा की कोशिश से नीता भी अपनी स्वाभाविक दिनचर्या में रहने लगी. उस ने 1-2 किटी भी डाली हुई थीं तो मनीषा ने उसे वहां भी जबरदस्ती भेजा.

उस की सहेलियां जब घर आतीं तो मनीषा चाय बना देतीं. नाश्ते की प्लेट सजा देतीं. नीता के मना करने पर प्यार से कहतीं, ‘‘तुम जो हमारे लिए इतना करती हो, थोड़ा सा मैं ने भी कर दिया तो कौन सी बड़ी बात कर दी.’’

अनुज व नीता को अब कई बातों की सुविधा हो गई थी. कहीं जाना होता तो दादादादी के होने से बच्चों की तरफ से दोनों ही निश्ंिचत रहते.

महीना खत्म हुआ. निरंजन को पेंशन मिली. उन्होंने अपना पैसा बहू को देने की पेशकश की तो अनुज व नीता दोनों नाराज हो गए.

‘‘पापा, आप कैसी बातें कर रहे हैं. पैसे दे कर ही रहना है तो आप कहीं भी रह सकते हैं. आप ने हमारे लिए जीवन भर इतना किया, पढ़ायालिखाया और मुझे इस लायक बनाया कि मैं आप की देखभाल कर सकूं,’’ अनुज बोला.

‘‘लेकिन बेटा, मेरे पास हैं इसलिए दे रहा हूं.’’

‘‘नहीं, पापा, पैसा दे कर तो आप मेरा दिल दुखा रहे हैं… जब दादीजी और दादाजी आप के पास रहने आए थे तो उन के पास देने के लिए कुछ भी नहीं था तो क्या आप ने उन की देखभाल नहीं की थी. जितना आप से  बन सकता था आप ने उन के लिए किया और आप के पास पैसा है तो आप हम से हमारा सेवा करने का अधिकार क्यों छीनना चाहते हैं.’’

निरंजन निरुत्तर हो गए. मनीषा आश्चर्य से अपने उस लापरवाह बेटे को देख रही थीं जो आज इतना समझदार हो गया है.

अनुज ने जब पैसे लेने से साफ मना कर दिया तो निरंजन ने पोते और पोती के नाम से बैंक में खाता खोल दिया और जो भी पेंशन का पैसा मिलता उस में डालते रहते. बेटे ने उन का मान रखा था और वे बेटे का मान रख रहे थे.

एक दिन निरंजन सुबह उठे तो बदन टूट रहा था और कुछ हरारत सी महसूस कर रहे थे. मनीषा ने उन का उतरा चेहरा देखा तो पूछ बैठीं, ‘‘क्या हुआ…तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘हां, कुछ बुखार सा लग रहा है.’’

‘‘बुखार है,’’ मनीषा घबरा कर माथा छूती हुई बोली,  ‘‘अनुज कोे बुलाती हूं.’’

‘‘नहीं, मनीषा, उसे परेशान मत करो…शाम तक देख लेते हैं…शायद ठीक हो जाए.’’

मनीषा चुप हो गई.

लेकिन शाम होतेहोते बुखार बहुत तेज हो गया. दोपहर के बाद निरंजन लेटे तो उठे ही नहीं. शाम को आफिस से आ कर अनुज पापा के साथ ही चाय पीता था.

निरंजन जब बाहर नहीं आए तो नीता कमरे में चली गई. मनीषा निरंजन का सिर दबा रही थीं.

‘‘पापा को क्या हुआ, मम्मीजी?’’

‘‘तेरे पापा को बुखार है.’’

‘‘बुखार है…’’ कहती हुई नीता ने बहू की सारी औपचारिकताएं त्याग कर निरंजन के माथे पर हाथ रख दिया.

‘‘पापा को तो बहुत तेज बुखार है, तभी पापा आज सुबह से ही सुस्त लग रहे थे. आप ने बताया भी नहीं. मैं अनुज को बुलाती हूं,’’ इतना कह कर नीता अनुज को बुला लाई.

अनुज जल्दी ही आ गया और मम्मीपापा को तकलीफ न बताने के लिए एक प्यार भरी डांट लगाई, फिर डाक्टर को बुलाने चला गया. डाक्टर ने जांच कर के दवाइयां लिख दीं.

‘‘मौसमी बुखार है, 3-4 दिन में ठीक हो जाएंगे,’’ डाक्टर बोला.

बेटाबहू, पोता और पोती सब निरंजन को घेर कर बैठ गए. नीता ने जब पढ़ाई के लिए डांट लगाई तब बच्चे पढ़ने गए.

‘‘खाने में क्या बना दूं?’’ नीता ने पूछा.

निरंजन बोले,’’ तुम जो बना देती हो वही स्वादिष्ठ लगता है.’’

‘‘नहीं, पापा, बुखार में आप का जो खाने का मन है वही बनाऊंगी.’’

‘‘तो फिर थोड़ी सी खिचड़ी बना दो.’’

‘‘थोड़ा सा सूप भी बना देना नीता, पापा को सूप बहुत पसंद है,’’ अनुज बोला.

निरंजन को अटपटा लग रहा था कि अनुज उन के लिए इतना कुछ कर रहा है. उन की हिचकिचाहट देख कर अनुज बोला, ‘‘मैं कुछ नया नहीं कर रहा. आप दोनों ने दादा व दादी की जितनी सेवा की उतनी तो हम आप की कभी कर भी नहीं पाएंगे. पापा, मैं तब छोटा था. आज जो कुछ भी हम करेंगे हमारे बच्चे वही सीखेंगे. बड़ों का तिरस्कार कर हम अपने बच्चों से प्यार और आदर की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. यह कोई एहसान नहीं है. अब आप आराम कीजिए.’’

‘‘हमारा बेटा औरों जैसा नहीं है न…’’ मनीषा भर्राई आवाज में बोलीं.

‘‘हां, मनीषा, वह बुरा कैसे हो सकता है. तुम ने सुना नहीं, उस ने क्या कहा.’’

‘‘हां, बच्चों में संस्कार उपदेश देने से नहीं आते, घर के वातावरण से आते हैं. जिस घर में बड़ों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है उस घर में बच्चे बड़ों को आदर देना सीखते हैं और जिस घर में बड़ों का तिरस्कार होता है उस घर के बच्चे भी तो वही सीखेंगे.’’

एक पल रुक कर मनीषा फिर बोली, ‘‘हम दोनों ने अपने मातापिता की सेवा व उचित देखभाल की. हमारी गृहस्थी में उन का स्थान हमेशा ही महत्त्वपूर्ण रहा, वही हमारे बच्चों ने सीखा. लेकिन अधिकतर लोग अपने बच्चों से तो सेवा व आदर की उम्मीद करते हैं, लेकिन वे अपने जीवन में अपने बड़ों की मौजूदगी को भुला चुके होते हैं.’’

मनीषा के मन से आज सारे संशय खत्म हो चुके थे.

उन के सगेसंबंधियों, दोस्तों ने उन्हें अपने अनुभव बता कर उन के मन में बेटेबहू के प्रति डर व नकारात्मक विचार पैदा किए, अब वे अपने अनुभव बता कर दूसरों के मन में बेटेबहू के प्रति प्यार व सकारात्मक विचार भरेंगे.

निरंजन ने संतोष से आंखें मूंद लीं और मनीषा कमरे की लाइट बंद कर बहू की सहायता करने के लिए रसोई में चली गईं. आखिर इनसान जो अपनी जिंदगी में बोएगा वही तो काटेगा. कांटे बो कर फूलों की उम्मीद करना तो मूर्खता है.

Social Story : धंधा अपना अपना

Social Story : ‘‘भक्तजनो,यह शरीर नश्वर है. इस के अंदर निवास करने वाली आत्मा का परमात्मा से मिलन ही परमानंद है. किंतु काम, क्रोध, लोभ नामक बेड़ियां इस मिलन में सब से बड़ी बाधा हैं. जिस दिन तुम इन बेड़ियों को तोड़ दोगे उस दिन तुम मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो जाओगे,’’ स्वामी दिव्यानंद की ओजस्वी वाणी गूंज रही थी.

महानगर के सब से वातानुकूलित हाल में एक ऊंचे मंच पर स्वामीजी विराजमान थे. गेरुए रंग के रेशमी वस्त्र, गले में रुद्राक्ष की माला, माथे पर चंदन का तिलक और उंगलियों में जगमगा रही पुखराज की अंगूठियां उन के व्यक्तित्व को अनोखी गरिमा प्रदान कर रही थीं.

प्रचार करा गया था कि स्वामीजी को सिद्धि  प्राप्त है. जिस पर उन की कृपादृष्टि हो जाए उस के कष्ट दूर होते देर नहीं लगती. पूरे शहर में स्वामीजी के बड़ेबड़े पोस्टर लगे थे. दूरदूर के इलाकों से आए भक्तजन स्वामीजी की महिमा का बखान करते रहते. जन सैलाब उन के दर्शन करने के लिए उमड़ा पड़ा था.

सुबह, दोपहर, शाम स्वामीजी दिन में 3 बार भक्तों को दर्शन और प्रवचन देते थे. इस समय उन का अंतिम व्याख्यान चल रहा था. पूरा हाल रंगबिरंगे बल्बों की रोशनी से जगमगा रहा था. मंच की सज्जा गुलाब के ताजे फूलों से की गई थी, जिन की खुशबू पूरे हाल में बिखरी थी.

स्वामीजी के चरणों में शीश झुका कर आशीर्वाद लेने वालों का तांता लगा था. आश्रम के स्वयंसेवक भी श्रद्धालुओं को अधिकाधिक चढ़ावा चढ़ा कर आशीर्वाद लेने के लिए प्रेरित कर रहे थे.

रात 9 बजे स्वामीजी का प्रवचन समाप्त हुआ. उन्होंने हाथ उठा कर भक्तों को आशीर्वाद दिया तो उन के जयघोष से पूरा हाल गुंजायमान हो उठा. मंदमंद मुसकराते हुए स्वामीजी उठे और आशीर्वाद की वर्षा करते हुए मंच के पीछे चले गए. उन के जाने के बाद धीरेधीरे हाल खाली हो गया. स्वामीजी के विश्वासपात्र शिष्यों श्रद्धानंदजी महाराज और सत्यानंदजी महाराज ने स्वयंसेवकों को भी बाहर निकालने के बाद हाल का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

‘‘चलो भाई, आज की मजदूरी बटोरी जाए’’ श्रद्धानंदजी महाराज ने अपने गेरुए कुरते की बांहें चढ़ाते हुए कहा.

‘‘दिन भर इन बेवकूफों का स्वागतसत्कार करतेकरते यह नश्वर शरीर थक कर चूरचूर हो गया है. अब इसे तत्काल उत्तम किस्म के विश्राम की आवश्यकता है. इसलिए सारी गिनती शीघ्र पूरी कर ली जाए,’’ सत्यानंदजी महाराज ने अंगड़ाई लेते हुए सहमति जताई.

‘‘जो आज्ञा महाराज, श्रद्धानंदजी महाराज ने मुसकराते हुए मंच के सामने लगे फूलों के ढेर को फर्श पर बिखरा दिया. फूलों के साथ भक्तजनों ने दिल खोल कर दक्षिणा भी अर्पित की थी. दोनों तेजी से उसे बटोरने लगे, किंतु उन की आंखों से लग रहा था कि उन्हें किसी और चीज की तलाश है.

श्रद्धानंदजी महाराज ने फूलों के ढेर को एक बार फिर उलटापुलटा तो उन की आंखें चमक उठीं. वे खुशी से चिल्लाए, ‘‘वह देखो मिल गया.’’

सामने लाल रंग के रेशमी कपड़े में लिपटी कोई वस्तु पड़ी थी. सत्यानंदजी महाराज ने लपक कर उसे उठा लिया. शीघ्रता से उन्होंने उस वस्त्र को खोला तो उस के भीतर 1 लाख रुपए की नई गड्डी चमक रही थी.

‘‘महाराज, आज फिर वह 1 लाख की गड्डी चढ़ा गया है,’’ सत्यानंदजी गड्डी ले कर दिव्यानंदजी के कक्ष की ओर लपके. श्रद्धानंदजी महाराज भी उन के पीछेपीछे दौड़े.

स्वामी दिव्यानंद शानदार महाराजा बैड पर लेटे हुए थे. आवाज सुनते ही वे उठ बैठे. उन्होंने एक लाख की गड्डी को ले कर उलटपुलट कर देखा. उस के असली होने का विश्वास होने पर उन्होंने पूछा, ‘‘कुछ पता चला कौन था वह?’’

‘‘स्वामीजी, हम ने बहुत कोशिश की, लेकिन पता ही नहीं चल पाया कि वह गड्डी कब और कौन चढ़ा गया,’’ सत्यानंद महाराज ने कहा.

‘‘तुम दोनों माल खाखा कर मुटा गए हो. एक आदमी 5 दिनों से रोज 1 लाख की गड्डी चढ़ा जाता है और तुम दोनों उस का पता नहीं लगा पा रहे हो,’’ स्वामीजी की आंखें लाल हो उठीं.

‘‘क्षमा करें महाराज, हम ने पूरी कोशिश की…’’

‘‘क्या खाक कोशिश की,’’ स्वामीजी उस की बात काटते हुए गरजे, ‘‘तुम दोनों से कुछ नहीं होगा. अब हमें ही कुछ करना होगा,’’ इतना कह कर उन्होंने अपना मोबाइल निकाला और एक नंबर मिलाते हुए बोले, ‘‘हैलो निर्मलजी, मैं जिस मंच पर बैठता हूं उस के ऊपर आज रात में ही सीसी टीवी कैमरा लग जाना चाहिए.’’

‘‘लेकिन स्वामीजी, आप ही ने तो वहां कैमरा लगाने से मना किया था. बाकी सभी जगहों पर कैमरे लगे हुए हैं और उन की चकाचक रिकौर्डिंग हो रही है,’’ निर्मलजी की आवाज आई.

‘‘वत्स, यह सृष्टि परिवर्तनशील है. यहां कुछ भी स्थाई नहीं होता है,’’ स्वामीजी हलका सा हंसे फिर बोले, ‘‘तुम तो जानते हो कि मेरे निर्णय समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं. इसी कारण सफलता सदैव मेरे कदम चूमती है. तुम तो बस इतना बतलाओ कि यह काम कितनी देर में पूरा हो जाएगा. काम तुम्हारा और पैसा हमारा.’’

‘‘सूर्योदय से पहले आप की आज्ञा का पालन हो जाएगा,’’ निर्मलजी ने आश्वासन दिया. फिर झिझकते हुए बोले, ‘‘स्वामीजी कुछ जरूरी काम आ पड़ा है. अगर कुछ पैसे मिल जाते तो कृपा होती.’’

‘‘1 पैसे का भी भरोसा नहीं करते हो मुझ पर,’’ स्वामीजी ने कहा और फिर श्रद्धानंद की ओर मुड़ते हुए बोले, ‘‘निर्मलजी को अभी पैसे पहुंचा दो वरना उन्हें कोई दूसरा जरूरी काम याद आ जाएगा.’’

‘‘जो आज्ञा महाराज,’’ कह श्रद्धानंदजी महाराज सिर नवा कर चले गए.

निर्मलजी ने वादा निभाया. सूर्योदय से पहले स्वामीजी के मंच के ऊपर सीसी टीवी कैमरा लग गया. उधर उस भक्त ने भी अपनी रीति निभाई. आज फिर वह लाल वस्त्र में लिपटी 1 लाख की गड्डी स्वामीजी के चरणों में अर्पित कर गया था. श्रद्धानंद और दिव्यानंद आज भी उस भक्त का पता नहीं लगा पाए.

रात के 11 बजे स्वामीजी बड़ी तल्लीनता के साथ सीसी टीवी की रिकौर्डिंग देख रहे थे. अचानक एक दृश्य को देखते ही वे बोले, ‘‘इसे रिवाइंड करो.’’

श्रद्धानंद ने रिकौर्डिंग को रिवाइंड कर के चला दिया. स्वामीजी ने 2 बार और रिवाइंड करवाया. श्रद्धानंद को उस में कोई खास बात नजर नहीं आ रही थी, लेकिन स्वामीजी की आज्ञा का पालन जरूरी था.

‘‘रोकोरोको, यहीं पर रोको,’’ अचानक स्वामीजी चीखे, श्रद्धानंद ने रिकौर्डिंग तुरंत रोक दी.

‘‘जूम करो इसे,’’ स्वामीजी ने आज्ञा दी तो श्रद्धानंद ने जूम कर दिया.

‘‘यह रहा मेरा शिकार,’’ स्वामीजी ने सोफे से उठ कर स्क्रीन पर एक जगह उंगली रख दी. फिर बोले, ‘‘हलका सा रिवाइंड कर स्लो मोशन में चलाओ इसे.’’

श्रद्धानंद ने स्लो मोशन में रिकार्डिंग चला दी. रिकौर्डिंग में करीब 45 साल का एक व्यक्ति हाथों में फूलों का दोना लिए स्वामीजी के करीब आता दिखाई पड़ा. करीब आ कर उस ने फूलों को स्वामीजी के चरणों में अर्पित करने के बाद अपना शीश भी उन के चरणों में रख दिया. इसी के साथ उस ने अत्यंत शीघ्रता के साथ अपनी जेब से लाल रंग के वस्त्र में लिपटी गड्डी निकाली और फूलों के नीचे सरका दी. एक बार फिर शीश नवाने के बाद वह उठ कर तेजी से बाहर चला गया.

‘‘यह कोई तगड़ा आसामी मालूम पड़ता है. इस का चेहरा तुम दोनों ध्यान से देख लो. मुझे यह आदमी चाहिए… हर हालत में चाहिए,’’ स्वामीजी की आंखों में अनोखी चमक उभर आई.

‘‘आप चिंता मत करिए. कल हम लोग इसे हर हालत में पकड़ लाएंगे,’’ सत्यानंद ने आश्वस्त किया.

‘‘नहीं वत्स,’’ स्वामीजी अपना दायां हाथ उठा कर शांत स्वर में बोले, ‘‘वह मेरा अनन्य भक्त है. उसे पकड़ कर नहीं, बल्कि पूर्ण सम्मान के साथ लाना. स्मरण रहे कि उसे कोई कष्ट न होने पाए.’’

‘‘जो आज्ञा,’’ श्रद्धानंद और सत्यानंद ने शीश नवाया और कक्ष से बाहर चले गए.

अगले दिन उन दोनों की दृष्टि हर आनेजाने वाले भक्त के चेहरे पर टिकी थी. रात के करीब 8 बजे जब शरीर थक कर चूर होने लगा तब वह व्यक्ति आता दिखाई पड़ा.

‘‘देखो वह आ गया,’’ श्रद्धानंद ने सत्यानंद को कुहनी मारी.

‘‘लग तो यही रहा है. चलो उसे उधर ले कर चलते हैं,’’ सत्यानंद ने कहा.

‘‘अभी नहीं. पहले उसे गड्डी चढ़ा लेने दो ताकि सुनिश्चित हो जाए कि यह वही है जिस की हमें तलाश है,’’ श्रद्धानंद फुसफुसाए.

पिछले कल की तरह वह व्यक्ति आज भी मंच के करीब आया. फूल अर्पित करने के बाद उस ने स्वामीजी के चरणों में शीश नवाया, लाल रंग में लिपटी नोटों की गड्डी को चढ़ाने के बाद वह तेजी से उठ कर बाहर चल दिया.

‘‘मान्यवर, कृपया इधर आइए,’’ श्रद्धानंदजी महाराज ने उस के करीब आ कर सम्मानित स्वर में कहा.

‘‘क्यों?’’

‘‘स्वामीजी आप से भेंट करना चाहते हैं,’’ सत्यानंदजी महाराज ने बताया.

‘‘मुझ से? किसलिए?’’ वह व्यक्ति घबरा उठा.

‘‘वे आप की भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हैं. इसलिए आप को साक्षात दर्शन दे कर आशीर्वाद देना चाहते हैं,’’ श्रद्धानंदजी महाराज ने बताया, ‘‘बड़ेबड़े मंत्री और अफसर स्वामीजी के दर्शनों के लिए लाइन लगा कर खड़े होते हैं. आप अत्यंत सौभाग्यशाली हैं, जो स्वामीजी ने आप को स्वयं मिलने के लिए बुलाया है. अब आप का भाग्योदय निश्चित है.’’

यह सुन उस व्यक्ति के चेहरे पर राहत के चिह्न उभर आए. श्रद्धानंदजी महाराज और सत्यानंद महाराज ने उसे एक खूबसूरत कक्ष में बैठा दिया.

करीब आधा घंटे बाद स्वामीजी उस कक्ष में आए और अत्यंत शांत स्वर में बोले, ‘‘वत्स, तुम्हारे ललाट की रेखाएं बता रही हैं कि तुम्हें जीवन में बहुत बड़ी सफलता मिलने वाली है.’’

स्वामीजी की वाणी सुन वह व्यक्ति उन के चरणों में लेट गया. उस की आंखों से श्रद्धा सुमन बह निकले. स्वामीजी ने उसे अपने हाथों से पकड़ कर उठाया और फिर स्नेह भरे स्वर में बोले, ‘‘उठो वत्स, अश्रु बहाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि एक नया सवेरा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है.’’

‘‘स्वामीजी, आप के दर्शन पा कर मेरा जीवन धन्य हो गया,’’ वह व्यक्ति हाथ जोड़ कर बोला. भावातिरेक में उस की वाणी अवरुद्ध हो रही थी.

स्वामीजी ने उसे अपने साथ सोफे पर बैठाया और फिर बोले, ‘‘वत्स, एक प्रश्न पूछूं तो क्या उस का उत्तर सचसच दोगे?’’

‘‘आप आज्ञा करें तो उत्तर तो क्या आप के लिए प्राण भी देने के लिए तैयार हूं,’’ उस व्यक्ति ने कहा.

स्वामीजी ने अपनी दिव्यदृष्टि उस के चेहरे पर टिका दी फिर सीधे उस की आंखों में झांकते हुए बोले, ‘‘तुम प्रतिदिन 1 लाख रुपयों की गड्डी मेरे चरणों में क्यों चढ़ा रहे हो?’’

यह सुन उस व्यक्ति ने अपनी आंखें बंद कर लीं. उस के चेहरे पर छाए भावों को देख कर लग रहा था कि उस के भीतर भारी संघर्ष चल रहा है. चंद पलों बाद उस ने अपनी आंखें खोलीं और बोला, ‘‘स्वामीजी, मैं एक अरबपति आदमी था, लेकिन व्यापार में घाटा हो जाने के कारण मैं पूरी तरह बरबाद हो गया. सभी रिश्तेदारों और परिचितों ने मुझ से मुंह मोड़ लिया था. एक दिन मुझे पता चला कि यूरोप में एक बंद फैक्टरी कौड़ियों के भाव बिक रही है. मेरी पत्नी आप की अनन्य भक्त है. उस की सलाह पर मैं ने अपना मकान और पत्नी के गहने बेच कर वह फैक्टरी खरीद ली. आप को उस फैक्टरी में 20% का साझेदार बना कर मैं ने उस फैक्टरी को दोबारा चलाना शुरू कर दिया. शुरुआती दिनों में काफी परेशानियां हुईं लेकिन आप के आशीर्वाद से पिछले सप्ताह से वह फैक्टरी फायदे में आ गई. इस समय उस से 5 लाख रुपये रोज का फायदा हो रहा है. इसलिए 20% के हिसाब से मैं रोज 1 लाख रुपए आप के चरणों में अर्पित कर देता हूं.’’

‘‘लेकिन तुम ने यह बात गुप्त क्यों रखी?’’ मुझे बता भी तो सकते थे? स्वामीजी ने पूछा.

‘‘मैं ने सुना है कि आप मोहमाया और लोभ से काफी ऊपर हैं. इसलिए आप को बता कर आप की साधना में विध्न डालने का साहस मैं नहीं कर सका.’’

‘‘वत्स, धन्य हो तुम. तुम जैसे ईमानदार व्यक्तियों के बल पर ही यह दुनिया चल रही है वरना अब तक अपने पाप के बोझ से यह रसातल में समा चुकी होती,’’ स्वामीजी ने गंभीर स्वर में सांस भरी फिर आशीर्वाद की मुद्रा में आते हुए बोले, ‘‘ईश्वर की कृपा दृष्टि तुम पर पड़ चुकी है. जल्द ही तुम्हें 5 लाख रुपए नहीं, बल्कि 5 करोड़ रोज का मुनाफा होने वाला है.’’

‘‘सत्य वचन महाराज,’’ उस व्यक्ति ने श्रद्धा से शीश झुकाया फिर बोला, ‘‘यूरोप में ही एक और बंद पड़ी खान का पता लगा है, मैं ने हिसाब लगाया है कि अगर उसे ठीक से चलाया जाए तो 5 करोड़ रुपए रोज तो नहीं लेकिन 5 करोड़ रुपए महीने का फायदा जरूर हो सकता है.’’

‘‘तो उस फैक्टरी को खरीद क्यों नहीं लेते?’’

‘‘खरीद तो लेता, लेकिन उस के लिए करीब 20 करोड़ रुपए चाहिए. मैं ने काफी भागदौड़ की, लेकिन फंड का इंतजाम नहीं हो पा रहा है. एक बार मुझे व्यापार में घाटा हो चुका है, इसलिए फाइनैंसर मुझ पर दांव लगाने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं,’’ उस व्यक्ति के स्वर में निराशा झलक उठी.

‘‘वत्स, फंड की चिंता मत करो. ऊपर वाले ने तुम्हें मेरी शरण में भेज दिया है, इसलिए अब सारी व्यवस्थाएं हो जाएंगी,’’ स्वामीजी मुसकराए.

‘‘वह कैसे?’’

‘‘तुम जैसे व्यक्तियों का दिया मेरे पास बहुत कुछ है. वह मेरे किसी काम का नहीं है. तुम उसे ले जाओ और फैक्टरी खरीद लो,’’ स्वामीजी ने कहा.

‘‘आप मुझे इतना रुपया दे देंगे?’’ उस व्यक्ति की आंखें आश्चर्य से फैल गईं.

‘‘अकारण नहीं दूंगा,’’ स्वामीजी मुसकराए, ‘‘मुझे अपने भक्तों के कल्याण के लिए बहुत सारे कार्य करने हैं. इस सब के लिए बहुत पैसा चाहिए. इसलिए इस पैसे से तुम फैक्टरी खरीद लो, लेकिन उस में 51 प्रतिशत शेयर मेरे होंगे.’’

‘‘आप धन्य हैं महाराज,’’ वह व्यक्ति एक बार फिर स्वामीजी के चरणों में लोट गया.

‘‘श्रद्धा और सत्या, तुम दोनों अभी इन के साथ इन के निवास पर जाओ.

साझेदारी के कागजात तुरंत बना लो ताकि फैक्टरी को जल्द से जल्दी खरीद लिया जाए,’’ स्वामीजी ने आज्ञा दी.

अगले ही दिन साझेदारी के कागजात तैयार हो गए. स्वामीजी ने हजारों भक्तों की चढ़ाई की कमाई अपने अनन्य भक्त को सौंप दी. वह भक्त फैक्टरी खरीदने यूरोप चला गया.

स्वामीजी की आंखों में सुनहरे भविष्य के सपने जगमगा रहे थे. किंतु जब 1 महीने तक उस भक्त का कोई संदेश नहीं आया तो उन्होंने श्रद्धानंद और सत्यानंद को उस के निवास पर भेजा. वहां उपस्थिति गार्ड ने उन दोनों को देखते ही बताया, ‘‘उन साहब ने तो 2 महीने के लिए यह कोठी किराए पर ली थी, किंतु आप लोगों के आने के 2 दिनों बाद वे अचानक ही इसे खाली कर के चले गए थे. किंतु जाने से पहले वे आप लोगों के लिए एक लिफाफा दे गए थे. कह रहे थे कि आप लोग एक न एक दिन उन से मिलने यहां जरूर आएंगे.’’

इतना कह कर गार्ड अपनी कोठरी के भीतर से एक लिफाफा ले आया. डगमगाते कदमों से वे दोनों स्वामी दिव्यानंद के पास लौट आए और लिफाफा उन्हें पकड़ा दिया.

स्वामीजी ने लिफाफा फाड़ा तो उस के भीतर से एक पत्र निकला, जिस में लिखा था:

‘‘आदरणीय स्वामी जी,

सादर चरण स्पर्श. अब तो आप को विश्वास हो गया होगा कि यह शरीर नश्वर है. इस के अंदर निवास करने वाली आत्मा का परमात्मा से मिलन ही परमानंद है. किंतु काम, क्रोध, लोभ नामक बेड़ियां इस मिलन में सब से बड़ी बाधा हैं. जिस दिन कोई व्यक्ति इन बेड़ियों को तोड़ देगा उस दिन वह मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो जाएगा. आप ने अपने भक्तों की बेड़ियां तोड़ने का कार्य किया है और मैं ने आप की इन बेड़ियों को तोड़ने की छोटी सी चेष्टा की है. आप इसे ‘धंधा अपना अपना’ भी कह सकते हैं.

आप का एक सेवक.

स्वामीजी उस पत्र को अपलक निहारे जा रहे थे और श्रद्धा और सत्या उन के चेहरे को.

Valentine’s Day Special : प्यार का रंग

Valentine’s Day Special : ‘‘आज शाम को 5 बजे कनाट प्लेस के कौफी शौप में मिल सकते हो?’’ निराली ने आदित्य से फोन पर पूछा.

‘‘समथिंग स्पैशल. बहुत एक्साइटेड लग रही हो? आज क्या तुम मुझे प्रपोज करने वाली हो?’’ आदित्य ने निराली से शरारती अंदाज में पूछा.

‘‘डोंट बी फनी औल द टाइम. मैं नहीं तुम मुझे प्रपोज करोगे आज मिलने के बाद. न्यूज ही कुछ ऐसी है. बस, टाइम पर मिल जाना,’’ निराली अपनी रौ में बोलती जा रही थी.

‘‘लगता है, अवश्य ही कोई खास समाचार है, नहीं तो तुम मुझे काम छोड़ कर आने के लिए नहीं कहतीं. चलो, मिलते हैं.’’

निराली सचमुच बहुत एक्साइटेड थी और उस वक्त उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस के साथ अपनी इस खुशी को बांटे. उस का बस चलता तो तुरंत ही आदित्य को आने को कह देती, पर जानती थी कि लंच के बाद उस की कोई मीटिंग थी, इसलिए वह नहीं आ पाएगा. उसे लग रहा था कि काश, समय के पंख होते तो वह जल्दी से उड़ कर बीत जाता. हालांकि निराली जैसी बुद्धिमान लड़की के लिए यह खबर कोई हैरानी की बात नहीं थी, पर फिर भी वह बहुत उत्साहित थी.

आदित्य और निराली स्कूल के साथी थे. कालेज की पढ़ाई और अपने प्रोफैशनल कोर्स भी उन्होंने अलगअलग जगह से किए थे. हालांकि उन के विषय और अध्ययन के क्षेत्र लगभग समान ही थे. इस के बावजूद स्कूल की वह दोस्ती आज तक कायम थी और इतना वक्त एकदूसरे के साथ गुजारने, एकदूसरे को अच्छी तरह समझने और अपनी हर बात एकदूसरे के साथ शेयर करने के कारण यह तो तय था कि वे आगे भी साथ ही रहेंगे. निराली के मातापिता भी इस ओर से निश्चिंत थे कि आदित्य जैसा लड़का उन की बेटी ने चुना है.

हालांकि दोनों ने कभी शादी के विषय पर डिसकस नहीं किया था, पर आंखों की मुखरता मानो जैसे स्वीकृति दे चुकी थी. वैसे भी उन दोनों के रिश्ते में किसी तरह की औपचारिकता तो थी ही नहीं.

‘‘अब बता भी दो निराली,’’ कौफी का सिप लेते हुए आदित्य ने उस की ओर सैंडविच बढ़ाते हुए कहा.

‘‘तुम तो मुझे इतनी अच्छी तरह समझते हो. कुछ अनुमान लगाओ कि क्या बात हो सकती है?’’ निराली बढ़ते सस्पेंस का आनंद ले रही थी. वैसे भी ग्रिल सैंडविच उसे इतने पसंद थे कि कुछ पल के लिए उस ने अपनी एक्साइटमैंट पर काबू पा लिया था.

‘‘लगता है कि तुम्हारी शादी तय हो गई है. कौन है वह बदनसीब?’’ आदित्य ने चुटकी ली.

‘‘अपनी इस मजाक करने की आदत से बाज आ जाओ, वरना मैं तुम से बात नहीं करूंगी,’’ निराली ने ऐसा चेहरा बनाया मानो वह उस से रूठ गई है.

‘‘ओके बाबा, गलती हो गई, लेकिन अब बता भी दो,’’ आदित्य ने उसे सैंडविच खिलाते हुए कहा.

‘‘मुझे एक इंटरनैशनल ब्रांड, जो भारत में अपने और आउटलेट्स खोलना चाहता है, उस में रिटेल मैनेजर की जौब मिल गई है. बढि़या पैकेज है और ग्रो करने की संभावनाएं भी बहुत हैं. अगर यहां के आउटलेट्स का रिजल्ट मैं 100 प्रतिशत देने में कामयाब हो गई तो विजुअल मर्केंडाइजर का पद भी मिल सकता है. है न कमाल की खबर?’’

निराली की खुशी उस के अंगअंग से टपक रही थी. उसे लग रहा था कि अभी आदित्य उसे बधाई देगा और उस की प्रशंसा करेगा.

‘‘बहुत एक्सीलेंट खबर है, यानी कि तुम्हें लटकेझटके दिखा कर मनपसंद जौब मिल ही गई. कितने समय से तुम इस बात को ले कर परेशान थीं कि मनचाही जौब नहीं मिल पा रही है और वह भी इसी शहर में.’’

‘‘लटकेझटके दिखाने से तुम्हारा क्या मतलब है आदित्य? यानी तुम्हें लगता है कि मैं इस जौब के काबिल नहीं हूं? तुम्हारा इस तरह से मेरे बारे में सोचना साफ बता रहा है कि तुम मुझ से जलते हो. मेरी कामयाबी तुम्हें हीनता का एहसास दिला रही है, वरना मुझे इतने लंबे समय से जानने के बावजूद तुम मेरे बारे में इस तरह न कहते,’’ निराली क्रोध और अपमान से कांपने लगी थी.

‘‘अरे, तुम तो नाराज हो गई. मैं तो बस, ऐसे ही कह रहा था. डौंट टेक मी रौंग,’’ आदित्य उसे कुछ समझा पाता, उस से पहले ही निराली कौफी हाउस से बाहर निकल चुकी थी. उस के लिए अपने आंसुओं को रोकना मुश्किल हो रहा था. उसे यह बात तीर की तरह चुभ रही थी कि स्कूल के समय से उसे जानने वाला आदित्य उस के बारे में इतनी घटिया सोच रखता है. उस से तो मैं ने कोई भी बात कभी छिपाई नहीं. और इसी आदित्य के साथ वह सारी जिंदगी बिताने की सोच रही थी.

निराली को अब अपने पर ही झुंझलाहट होने लगी थी. आखिर वह कैसे आदित्य को समझने में चूक गई. हमेशा उस से आगे रहने वाली निराली शायद अब तक समझ ही नहीं पाई थी कि उस के अंदर एक हीनभावना भी पनप सकती है.

उस के बाद आदित्य ने जब भी निराली को फोन किया या उस से मिलने की कोशिश की, वह नाकामयाब ही रहा. निराली उस के इस मजाक को ले कर इतनी टची हो जाएगी, उस ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी. उसे इस बात का दुख हो रहा था कि निराली उस के प्यार को अनदेखा कर रही है और उस की इस बात को पकड़ कर बैठ गई है. वह एक बार बात कर लेती तो शायद उस के मन में पड़ी गांठ को खोल पाता.

निराली के लिए इस नौकरी को पाना किसी चुनौती से कम नहीं था, इसलिए वह जीजान से अपने काम में जुट गई. उस ने सोच लिया था कि आदित्य नामक अध्याय उस के जीवन में बंद हो चुका है, इसलिए वह उस के साथ न होने से पैदा हुई रिक्तता को भरने के लिए पूरी तरह से काम के प्रति समर्पित हो गई. रिटेल मैनेजर का काम आउटलेट के लिए प्लान तैयार करने से ले कर कोऔर्डिशन तथा औपरेशन आदि होता है. लेआउट के मर्केंडाइज, रिटेल और्डर तथा स्टौक की मौनिटरिंग, कार्यरत लोगों की रिपोर्ट तैयार करना भी उस के विभाग के अंतर्गत आने वाले काम थे.

उस औफिस में अपने प्रति लोगों का व्यवहार देख पहले तो उसे आश्चर्य हुआ था कि लोग कितना इनडिफरेंट एटीट्यूड रखते हैं, लेकिन एक महीने बाद फिर पता चला कि एक खास व्यक्ति सारे काम पर नजर रखने के लिए नियुक्त किया गया है. जो सीधे तो नहीं, पर उस के सीनियर के माध्यम से उस के काम की रिपोर्ट लेगा. उन से मिलने की उत्सुकता निराली के मन में जागी, पर कभी मिलने का मौका नहीं मिला, क्योंकि एक तो वह कहीं  और बैठते थे और उन को ले कर एक गोपनीयता भी रखी गई थी. बाकी लोगों का भी सहयोग उसे मिलने लगा.

आउटलेट का प्लान तैयार हो गया था. प्रेजेंटेशन देने के बाद वह अपने केबिन में आ गई थी. अगले दिन उस के सीनियर उस के केबिन में आए और बोले, प्लान तो अच्छा है, पर अगर तुम इस में रेखांकित जगहों पर संशोधन और सुधार कर सको तो इसे अप्रूवल मिल जाएगा. निराली को थोड़ा आश्चर्य हुआ था, यह देख कर, वरना अकसर सीनियर तो अपने मातहतों को नीचा दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं और यहां उस की कमियों को छिपाया जा रहा था.

आउटलेट खुल जाने के बाद अपने ब्रांड को इस तरह बाजार में उतारना था कि भारतीय मार्केट पर भी उस का कब्जा हो जाए. इस के लिए निराली ने जितने भी प्रपोजल दिए, वे पसंद किए गए. हालांकि हमेशा उस के सीनियर ने उस से पहले कहींकहीं सुधार करवाया और बाद में सब के सामने प्रशंसा भी की. उन की प्रोडक्ट सर्विस भी लाजवाब रही.

उन की कंपनी को लगातार और्डर मिलने लगे. ब्रांड प्रमोशन के लिए वह हमेशा नई योजनाएं बनाती रहती. उसे इस बात की भी हैरानी होती थी कि पहले तो उस के प्रपोजल इतनी आसानी से अप्रूव नहीं होते थे, थोड़ी कमी होने पर ही दोबारा प्लान तैयार करने के आदेश दिए जाते थे, लेकिन अब उसे सुझाव मिलते रहते हैं, ताकि वह उन के अनुसार चीजों को सुधार व अपडेट कर सके.

अब निराली को समयसमय पर अपने काम का क्रेडिट मिलने लगा, पर न जाने क्यों उसे लगता था कि उस की गलतियों या कमियों को उस तरह से उजागर नहीं किया जाता है जैसेकि बाकी सहयोगियों की. लोग दबी जबान कहते भी थे कि उस के साथ फेवर हो रहा है, पर क्यों? वह जितना सोचती उतना उलझती जाती. एक बार अपने सीनियर से उस ने इस विषय पर बात करनी चाही तो वह कहने लगे, यह सब तुम्हारी काबिलियत का फल है. अपने को अंडरएस्टिमेट मत करो.

आदित्य से मिले निराली को 6 महीने हो चुके थे. पहले तो उस ने भी निराली को मिलने की कोशिश की थी, लेकिन बाद में वह भी खामोश हो गया था. उसे तो पता भी नहीं था कि आजकल आदित्य कहां है. यह तो उसे पता लगा था कि वह अपनी नौकरी छोड़ चुका है. अब किसी और जगह काम कर रहा है, पर कहां?

अकेले में अकसर उसे आदित्य की याद आती, पर उस की बात याद आते ही वह अपने दिलोदिमाग पर उसे हावी होने से रोक देती. उसे बस यही अफसोस था कि किसी लड़की को आगे बढ़ते देख उस के बारे में ऐसा सोचा जाता है. क्या कोई लड़की अपनी काबिलियत से आगे नहीं बढ़ सकती है? कमियां तो सभी में होती हैं, फिर लड़कियों पर ही क्यों फिकरे कसे जाते हैं?

अपने ब्रांड के पसंद किए जाने और अपने आउटलेट्स की बढ़ती बिक्री से केवल निराली ही नहीं, कंपनी भी बहुत खुश थी. कंपनी को यकीन हो गया था कि भारत के और शहरों में भी आउटलेट्स खोले जा सकते हैं. निराली को यह काम सौंपने की बात चल रही थी.

‘‘हमारे बौस इस पर बात करने के लिए तुम से मिलना चाहते हैं,’’ उस के सीनियर ने उसे सूचना दी तो पल भर को वह अवाक रह गई कि आज तक उन के माध्यम से संपर्क रखने वाले बौस उस से क्यों मिलना चाहते हैं? लेकिन अपने अंदर उन से मिलने की उत्सुकता उसे बेकाबू कर रही थी.

एक आलीशान औफिस के विशालकाय केबिन में जब उस ने प्रवेश किया तो बौस की पीठ उस की तरफ थी.

‘‘तुम्हारे परफौर्मेंस और काबिलियत से कंपनी बहुत खुश है, इसलिए वह तुम्हें प्रमोट करना चाहती है,’’ आवाज सुन कर निराली सकते में आ गई, फिर अपना वहम समझ कर कुछ कहना ही चाह रही थी कि कुरसी घूमी और एक चेहरा उस के सामने आ गया.

‘‘तुम?’’ आदित्य को अपने सामने देख वह कुरसी से गिरतेगिरते बची. माथे पर एसी चलने के बावजूद पसीने की बूंदें छलक आईं.

‘‘इट्स मी.’’

‘‘तुम ने तो मुझ से मिलने से मना कर दिया था, फिर क्या करता? आखिर पुरानी दोस्ती है हमारी. न तो दोस्ती का रंग फीका पड़ता है और न ही प्यार का. क्यों ठीक कह रहा हूं न? क्या तुम मुझे भुला पाई हो? यू स्टिल लव मी. एक छोटी सी बात का बुरा मान कर बरसों के साथ को नकार रही थीं तुम.’’

‘‘यानी कि तुम मेरी मदद कर रहे थे, पर क्यों? मुझे तुम्हारे सपोर्ट की जरूरत नहीं है.’’ निराली के दिल में तो आग सुलग रही थी, पर आंखों में नमी झलकने लगी थी.

‘‘मदद नहीं, तुम्हारी प्रतिभा को उभारने और लोगों के सामने लाने का मेरा यह छोटा सा प्रयास था. जिसे आप प्यार करते हैं, उस के लिए इतना सा तो किया ही जा सकता है,’’ आदित्य उस के पास आ कर खड़ा हो गया था. निराली के कंधे पर उस ने हाथ रखा तो वह खड़ी हो गई और झट से आदित्य के सीने से लग गई.

‘‘मुझे माफ कर दो, मैं ने तुम्हें समझने में भूल की. एक छोटे से मजाक को सच मान तुम्हारी दोस्ती और प्यार की अवहेलना की. यह समझ ही नहीं पाई कि न दोस्ती का रंग और न ही प्यार का रंग फीका पड़ता है, बल्कि वह तो समय के साथ और गहरा होता जाता है.’’

‘‘अब तुम कोई बेवकूफी करो, उस से पहले ही मैं तुम्हें जीवन भर के लिए अपने से बांध लूंगा,’’ आदित्य घुटनों के बल नीचे बैठ गया और बोला, ‘‘क्या तुम मुझ से शादी करोगी निराली?’’

आदित्य के हाथ में अपना हाथ देते हुए निराली मुसकराई. आंखों की नमी बाहर छलक आई थी, पर खुशी की धारा बन कर.

Family Drama : थैंक्यू अंजलि – क्यों अपनी सास के लिए फिक्रमंद हो गई अंजलि

Family Drama : सुबह-सुबह मीता का फोन आया, “भैया जी, अम्मा को बुखार हो रहा है. कल से कुछ खापी नहीं रहीं हैं.”

“यह क्या कह रही हो मीता? ऐसा था तो कल ही क्यों नहीं बताया? राकेश ने हड़बड़ा कर कहा.

“असल में अम्मां जी ने ही मना किया था.”

“अम्मां ने मना किया और तुम मान गईं? जानती हो आजकल कैसी बीमारी फैली हुई है? कोरोना का कितना डर है? अच्छा रुको मैं आ रहा हूं.”

बदहवास से राकेश निकलने लगे तो मैं ने पीछे से टोका,” सुनो पहले मास्क पहनिए. पाकेट में सैनिटाइजर रखिए और देखिए प्यार में होश खोने की जरूरत नहीं. चेहरे से मास्क बिल्कुल भी मत हटाना. अगर अम्मां जी को कोरोना हुआ तो फिर इस का खतरा आप को भी हो सकता है न. अम्मां को छूने के बाद याद कर के सैनिटाइजर लगाना और हां अम्मां से थोड़ी दूर ही बैठना.”

राकेश ने थोड़ी नाराजगी से मेरी तरफ देखा तो मैं ने सफाई दी,” अपनी या मेरी नहीं तो कम से कम बच्चों की चिंता तो करो.”

“ओके. चलो मैं आता हूं.” कहते हुए राकेश चले गए.

मैं जानती हूं कि राकेश कहीं न कहीं अम्मा के मसले पर मुझ से नाराज रहते हैं. दरअसल मेरा अपनी सास के साथ हमेशा से 36 का आंकड़ा रहा है. वैसे तो अमूमन सभी घरों में सासबहू के बीच इसी तरह का रिश्ता होता है. मगर मेरे साथ कुछ ज्यादा ही था.

मैं जिस दिन से घर में बहू बन कर आई उसी दिन से अपनी सास के खिलाफ मोर्चा खोल लिया था. सास ने मुझे सर पर पल्लू रखने को कहा पर मैं ने उन की नहीं सुनी. सास ने मुझे नॉनवेज से दूर रहने को कहा मगर मैं ने यह बात भी स्वीकार नहीं की क्यों कि मैं अपने घर में अंडा मछली खाती रही हूं. सास पूजापाठ में लिप्त रहतीं और मुझे यह सब अंधविश्वास लगता. सास जरूरत से ज्यादा सफाई पसंद थीं जबकि मैं बेफिक्र सी रहने की आदी थी. मैं खुद को एक प्रगतिशील स्त्री मानती थी जबकि सासू मां एक रूढ़िवादी महिला थीं. इन सब के ऊपर हमारे बीच विवाद की एक वजह राकेश भी थे. हम दोनों ही राकेश से बहुत प्यार करते थे और इसी उलझन में रहते थे कि राकेश किसे अधिक प्यार करते हैं.

मैं मानती हूं कि अम्मां जी ने बचपन से राकेश को पालापोसा और प्यार दिया. इसलिए उन के प्यार पर पहला हक अम्मां का ही है. मगर कहीं न कहीं मेरा यह मानना भी है कि शादी के बाद पति को अपनी मां का पल्लू छोड़ देना चाहिए और उस स्त्री के प्रति अपना दायित्व निभाना चाहिए जो उस के लिए अपना घरपरिवार छोड़ कर आई है.

मुझे सास की हर बात में टोकाटाकी भी पसंद नहीं थी. हमारी शादी के 2 साल बाद मोनू हो गया और फिर गुड्डी. गुड्डी उस वक्त करीब 3 साल की थी जब मैं ने राकेश से अलग घर लेने की जिद की.

राकेश ने बहुत समझाया ,”देखो अंजलि, बड़े भैया बरेली में हैं और छोटे भैया मुंबई में. अम्मां बाबूजी के पास में ही हूं. ऐसे में हमारा इन दोनों को अकेला छोड़ कर जाना उचित नहीं.”

मगर मैं अड़ी रही,” अरे वाह दोनों बड़े भाइयों को अपने मांबाप की नहीं पड़ी. केवल तुम ही श्रवण कुमार बनते फिरते हो. तुम्हारी दोनों भाभियां ऐश कर रही हैं और बीवी घुटघुट कर मरने को विवश है. देखो तुम ने मेरी बात नहीं मानी न तो मैं हमेशा के लिए अपनी मां के घर चली जाऊंगी.  फिर संभालते रहना अपने बच्चों को.”

मेरी धमकी का असर हुआ. राकेश ने पुराने घर के पास ही एक नया घर खरीदा. अम्मां बाबूजी को पुराने घर में छोड़ कर हम यहां शिफ्ट हो गए.

भले ही राकेश ने मेरी बात मान ली मगर हम दोनों के बीच एक अदृश्य दीवार भी खड़ी हो गई थी. राकेश के दिल में मेरे लिए पहले जैसा प्यार नहीं रह गया था. वह केवल पति का दायित्व निभा रहा थे.

इस बात को 4 साल बीत चुके हैं. पिताजी भी दो साल पहले गुजर गये. अब अम्मां उस घर में नौकरानी मीता के साथ अकेली रहती हैं. मुझे इस बात का एहसास है कि अम्मां के लिए अकेले रहना काफी कठिन होता होगा. मगर न मैं ने कभी उन्हें लाने की बात की और न कभी अम्मां ने ही कोई शिकायत की.

राकेश अंदर ही अंदर अम्मां के प्रति खुद को अपराधी महसूस करते हैं पर इस संदर्भ में मुझ से कुछ कहते नहीं.

आज अम्मां की बीमारी के बारे में सुन कर जैसे राकेश ने मुझे भेजती नजरों से देखा था इस से जाहिर था कि वे इन सारी बातों के लिए मुझे ही कसूरवार मान रहे थे.

मैं बेसब्री से राकेश के लौटने का इंतजार कर रही थी. कहीं न कहीं अम्मां को ले कर मुझे भी चिंता होने लगी थी. आखिर वे बुजुर्ग हैं और बुजुर्गों के लिए कोरोना ज्यादा घातक सिद्ध हो रहा था.

मैं ने राकेश को फोन कर अम्मां के बारे में जानना चाहा तो राकेश ने संक्षेप में जवाब दिया,” अम्मां को तेज बुखार है. मैं ने एंबुलेंस वाले को फोन कर दिया है. बस वे आने ही वाले हैं. फिर मैं अम्मा को ले कर हॉस्पिटल निकल जाऊंगा. सारा इंतजाम कर के और कोरोना का टेस्ट करवा कर ही लौटूंगा. मीता ने बताया है कि अम्मां से मिलने शर्मा जी का लड़का आया था जो कुछ दिन पहले विदेश से लौटा था. ”

“ठीक है मगर जरा ध्यान से. प्लीज अपना भी ख्याल रखना.”

“हूं ठीक है.” कह कर राकेश ने फोन काट दिया. मेरे दिल में खलबली मची हुई थी, अम्मां को सच में कोरोना निकला तो? उन्हें कुछ हो गया तो ? राकेश तो मुझे कभी भी माफ नहीं करेंगे. इधर मुझे यह डर भी लग रहा था कि कहीं अम्मां के कारण कहीं राकेश भी बीमारी ले कर घर न आ जाएं.

शाम ढले राकेश वापस लौटे.

“क्या हुआ? अम्मां कैसी हैं और आप ने अपना ध्यान तो रखा? मास्क हटाया तो नहीं ? हाथों में सैनिटाइजर तो लगाते रहे न? अम्मां की रिपोर्ट कब तक आएगी?किस हॉस्पिटल में एडमिट किया है?”

मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी तो वे मुंह बनाते हुए बाथरूम में नहाने चले गए.

मैं ने खुद को शांत किया और फिर एकएक कर के सवाल पूछे. राकेश ने बताया कि रिपोर्ट 36 घंटे में आ जाएगी और तब तक अम्मां एडमिट रहेगीं.

रात में सोते समय राकेश ने मुझ से सवाल किया,”दोतीन महीने पहले तुम ने अम्मां से उन का पुश्तैनी सोने का हार मांगा था?”

सवाल सुन कर मैं सकते में आ गई,” हां मैं ने तो बस सुरक्षा के लिहाज से कहा था. असल में मुझे लगा कि बाबूजी भी नहीं हैं और अम्मा अकेली रहती हैं. ऐसे में कहीं हार चोरी न हो जाए.”

“क्या बात है अंजलि, हार के जाने का डर है तुम्हें पर अम्मां के जाने का कोई डर नहीं? “कह कर राकेश उठ कर दूसरे कमरे में चले गए.

मैं अम्मां को मन ही मन बुराभला कहने लगी, कैसी हैं अम्मा भी? बीमारी में भी मेरे खिलाफ अपने बेटे के कान भरने से बाज नहीं आईं. मैं ने बुरा सा मुंह बनाया और लेट गई.

तब तक राकेश एक ज्वैलरी बॉक्स ले कर अंदर आए,” यह लो अंजलि, अम्मा ने यह हार तुम्हारे बर्थडे के लिए तैयार कराया था. अपने पुश्तैनी हार मेंअपने अब तक के बचाए हुए रुपए लगा कर यह भारी हार बनवाया है तुम्हारे लिए. यह हीरे की अंगूठी मेरे लिए, यह कंगन गुड्डी और यह घड़ी मोनू के लिए.”

कहते कहते राकेश फफकफफक कर रोने लगे थे. मेरी आंखों में भी आंसू छलक आए. तोहफे में हार दे कर अम्मां ने मुझे हरा दिया था.

तभी राकेश ने रुंधे हुए स्वर में फिर कहा,” जानती हो अम्मां ने यह सब देते हुए क्या कहा? वे बोलीं कि बेटा क्या पता मुझे कहीं कोरोना हो और मैं लौट कर न आ सकूं. ऐसे में अंजलि को जन्मदिन पर अपने हाथों से नहीं दे पाऊंगी इसलिए तू ही उसे दे देना. आखिर वह भी है तो मेरी बच्ची ही न.”

मैं निशब्द जमीन को एकटक निहार रही थी. शायद अम्मा के प्रति आज तक के अपने व्यवहार पर शर्मिंदा थी. राकेश सोने चले गए मगर मैं रात भर करवटें बदलती रही. मेरी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. मैं सोचती रही अम्मां मेरा इतना ख्याल रखती हैं और मैं ही हमेशा उन के बारे में गलत सोचती रही हूं. यह बात मुझे अंदर से बेधे जा रही थी.

किसी तरह 36 घंटे बीते. राकेश ने फोन कर के बताया कि अम्मां को कोरोना नहीं है. सिंपल बुखार है जो अब लगभग ठीक हो चुका है.”

मेरी आंखों से खुशी के आंसू बह निकले. मैं ने राकेश से कहा, सुनो अम्मां जैसे ही हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हों तो उन्हें हमारे घर ले कर आना. उन्हें देखभाल की जरूरत है और फिर कोरोना फैल रहा है. वे खुद अपनी सुरक्षा का ख्याल नहीं कर पाएंगी. मैं उन का ख्याल रखना चाहती हूं हमेशा. … वैसे भी आखिर मैं हूं तो उन की बच्ची ही न. ” कहते कहते मैं रो पड़ी थी.

राकेश गदगद स्वर में इतना ही बोल पाए,” थैंक्यू अंजलि.”

Valentine’s Day Special : तुम्हारे ये घुंघराले बाल

Valentine’s Day Special :  ‘‘मैंभी चलूंगी कल से तुम्हारे साथ हौस्पिटल. कोरोना की वजह से मरीजों की तादाद कितनी बढ़ रही है. ऐसे में डाक्टर्स के अलावा नर्सों की भी तो जरूरत है न. जब कर सकती हूं मरीजों की सेवा तो क्यों बैठूं घर पर?’’ फोन पर कुशल के हैलो कहते ही गौरी बोल उठी.

‘‘प्लीज गौरी, बात को समझो. तुम्हारी तबीयत ठीक हुए अभी बहुत समय नहीं बीता है और उस से भी बड़ी बात है कि तुम्हारे पास नर्सिंग की डिग्री भी नहीं है.’’

‘‘तुम्हें तो पता है कि डिग्री क्यों नहीं मिली मुझे. फाइनल इयर के एग्जाम्स ही नहीं दे सकी थी. पढ़ाई तो पूरी कर ही ली थी न मैं ने. अपने साथ कल से मुझे ले जाना ही पड़ेगा तुम्हें.’’

‘‘मुझे पता है गौरी सब. अच्छा बताओ

क्या तुम चाहोगी कि कोई गैरकानूनी काम करें हम? बस तुम रोज एक बार फोन पर बात कर लिया करो मुझे और मैं लगा रहूंगा अपने कर्तव्य पालन में.’’ कुशल के मन की मिठास बातों में घुल रही थी.

‘‘डियर डाक्टर साहब, मैं क्या बेवकूफ लगती हूं तुम्हें? आज ही अपने इंस्टिट्यूट में फोन कर नर्स के रूप में काम करने की परमिशन ले ली है मैं ने. कालेज के मेरे पिछले रिकार्ड्स और समय की मांग को देखते हुए वीसी सर की ओर से स्पैशल परमिशन का मेल मिल गया है. मैं

उस मेल का प्रिंट दिखा कर काम कर सकती हूं. तीन महीने के लिए वैलिड होगी यह परमिशन… कुछ समझे?’’ खिलखिला कर हंसते हुए गौरी

ने बताया.

‘‘अरे वाह… ठीक है कल पिक कर लूंगा घर से तुम्हें.’’ कुशल अभिभूत हो उठा.

अगले दिन जाने की तैयारी कर गौरी सोने चली गई, लेकिन नींद तो आंखों के आसपास थी ही नहीं. कुछ था तो यादों का कारवां, जिस के साथ चलतेचलते गौरी पुराने दिनों में पहुंच गई.

यूपी के एक छोटे से कस्बे में कुशल के साथ खेलतेकूदते बीता था गौरी का बचपन. परिवार के नाम पर वह और मां 2 लोग ही थे. सालभर की गौरी को अपनी पत्नी के पास छोड़ उस के पिता शहर में नौकरी करने क्या गए कि आज तक नहीं लौटे. कुछ लोगों का कहना था

कि उन्होंने दूसरी शादी कर ली. गौरी की मां न

तो पढ़ीलिखी थी और न ही उस के पास इतना पैसा था कि घर की गुजरबसर हो पाए. उस का अपना मायका भी प्रदेश के दूसरे छोर पर पहले ही गरीबी की मार झेल रहा था. ऐसे में वह घर पर ही पापड़ और अचार बनाने का काम करने लगी थी.

कुशल के पिता आर्थिक रूप से संपन्न थे, निकट के एक गांव में बड़ेबड़े खेत और रहने को हवेलीनुमा घर भी. अपने पिता की व्यस्तता और मां के एक जानलेवा बीमारी का शिकार हो दुनिया छोड़ देने के बाद कुशल का अकेलापन गौरी की संगति में कम हो गया था. उसे गौरी के सिवाय किसी और का साथ अच्छा भी नहीं लगता था. गौरी को जब वह अपनी सहेलियों के साथ खेलते देखता तो दूर से ही आवाज लगा कर बुला लेता था. गौरी आश्चर्यचकित हो पूछती कि उस ने इतनी दूर से, इतनी सारी लड़कियों के बीच कैसे पहचान लिया उसे? कुशल हंसते हुए जवाब देता, ‘‘तुम्हारे घुंघराले बाल इतने सुंदर हैं कि दूर से ही चमकते हैं गौरी… बस पहचान लेता हूं बालों से तुम्हें.’’ सचमुच गौरी के रेशमी से सुनहरे घुंघराले बाल बहुत सुंदर थे.

गौरी और कुशल दोनों ही पढ़ने में अव्वल थे. कुशल को अपनी मां का बीमारी से छिन

जाना जबतब पीड़ा दे जाता था. कस्बे में अभी भी कोई बड़ा अस्पताल नहीं था. उस की इच्छा थी कि वह डाक्टर बन कर अपने लोगों की सेवा करे. गौरी चाहती थी कि वह भविष्य में कुशल का साथ दे पाए, डाक्टर बन कर न सही नर्स बन कर ही.

10वीं कक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के बाद कुशल ने कोचिंग सैंटर जाना शुरू कर दिया था. गौरी जानती थी कि किसी अच्छे सरकारी कालेज में जहां फीस कम होगी, नर्सिंग में एडमिशन लेने के लिए उसे भी अपना सारा ध्यान पढ़ने में ही लगाना होगा. खेलनाकूदना कम कर इसलिए ही वह पढ़ाई में जुटी रहती. एक दूसरे के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए खूब परिश्रम कर रहे थे वे रातदिन.

दोनों की इस मेहनत का सुखद परिणाम भी सामने आया. कुशल को मुंबई के एक मैडिकल कालेज ने डाक्टर बनने का अवसर प्रदान कर दिया. गौरी को कुशल के कालेज में प्रवेश तो नहीं मिल सका, लेकिन नर्स बन कर कुशल का साथ निभाने का सपना अवश्य पूरा हो गया. मेरठ के एक इंस्टिट्यूट में नर्सिंग की डिग्री के लिए उस का नाम प्रथम लिस्ट में ही आ गया था. खुशियों को दोनों हाथों से बटोरते हुए वे प्रफुल्लित हुए ही थे कि बिछड़ने का समय भी आ गया.

उस दिन गौरी सामान तैयार कर मेरठ जाने को बस स्टैंड पर खड़ी थी. कुशल घर से निकल ही रहा था कि उस के पिता से मिलने कुछ लोग आ गए. पिता के किसी आवश्यक कार्य में व्यस्त होने के कारण कुशल को उन के साथ बैठना पड़ा. उधर गौरी कुशल की प्रतीक्षा करते हुए व्याकुल हो रही थी. बस से उतर कर नीचे आ वह चारों ओर निगाहें दौड़ाती हुई निराशा से घिरने लगी. कस्बे से मेरठ के लिए बसें लगभग 2 घंटे के अंतराल से चलती थीं.

अगली बस की प्रतीक्षा करती तो मेरठ पहुंचतेपहुंचते देर हो जाती. ‘लगता है जाने से पहले कुशल से मिलना नहीं हो सकेगा… एक तो मां से दूर जाने का दुख, उस पर कुशल से भी बिना मिले जाना होगा क्या मुझे? मां से तो हौस्टल में रहते हुए भी हर महीने मिलने आ सकती हूं. लेकिन कुशल… उस से तो पता नहीं अब कितने दिनों बाद मिलना होगा? वो भी तो अब चला जाएगा बहुत दूर. काश, मैं उस की

बात मान लेती. जिद कर रहा था कि अपने पापा से पैसे ले कर मुझे एक मोबाइल दिला दे, मैं ने क्यों मना कर दिया?’ सोच कर गौरी रुआंसी

हो गई.

कंडक्टर के यात्रियों को पुकारने पर गौरी बस में चढ़ आंखें मूंद कर सीट से सिर टिका कर बैठ गई. सहसा पीछे से किसी ने उस का कंधा थपथपाया. हड़बड़ा कर आंखें खोल गौरी ने पीछे मुड़ कर देखा तो खुशी से चहक उठी, ‘‘अरे, कुशल तुम… कितनी देर कर दी. कब से बाहर खड़ी इंतजार कर रही थी तुम्हारा.’’

‘‘पता है मैं घर से भागता हुआ आ रहा हूं. तुम आज यहां न मिलतीं तो पीछेपीछे तुम्हारे कालेज आ जाता.’’ बिछड़ने से पहले गौरी को हंसते हुए देखना चाहता था कुशल.

‘‘सच्ची? तुम मेरठ तक आ जाते? वैसे… एक बात बताओ मैं तो बस के अंदर आ चुकी थी. तुम्हें कैसे पता लगा कि मैं इस बस में ही हूं? हो सकता था कि मैं अभी घर से निकली ही न होती या पहले ही जा चुकी होती?’’ गौरी ने भौंहें नचाते हुए पूछा.

‘‘हा हा हा… मैं ने कैसे पता लगा लिया कि तुम बस में बैठी हो? तो आज तुम्हें फिर से बता देता हूं कि मुझे दूर से ही दिख जाते हैं तुम्हारे ये रेशमी घुंघराले बाल. पता है, आज भी बस की खिड़की से लहराते हुए दिख रहे थे मुझे. अब कभी मत भूलना कि मैं हमेशा तुम्हें दूर से ही इन बालों से पहचान लेता हूं.’’ कुशल ने बात पूरी की ही थी कि ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी. भारी मन से एकदूसरे से बिछड़ते हुए दोनों का चेहरा निस्तेज हो गया था. नीचे उतर कर कुशल तब तक हाथ हिलाता रहा जब तक कि बस उस की आंखों से ओझल नहीं हो गई.

बुझे मन से घर की ओर जाते हुए चप्पाचप्पा उसे अपनी दोस्त की याद दिला रहा था.

शाम ढलने लगी थी. मन की तरह ही आसपास अंधेरा घिर आया. भारी कदमों से चलते हुए घर पहुंच वह आज गौरी को याद करते हुए महसूस कर रहा था कि मन एक रेशमी सी डोर में बंधा जैसे उड़ कर गौरी के पास चले जाना चाहता है. यह खिंचाव महज दोस्ती तो नहीं कुछ और है… पर क्या नाम दे इसे? इसी उधेड़बुन में उलझते हुए वह अपने जाने की तैयारी करने लगा.

कुछ दिनों बाद वह भी अपने पिता और गांव से दूर मुंबई चला गया.

वहां पहुंच कर कुशल को लगा जैसे किसी और ही लोक में आ गया है. ‘क्या गौरी भी मुझे ऐसे ही याद कर रही होगी?’ अकसर वह सोचता. उधर गौरी को भी मेरठ का माहौल कस्बे से बहुत अलग लग रहा था. कदमकदम पर उसे कुशल के साथ की कमी महसूस होती. कुशल का हाथ थामने की ख्वाहिश बढ़ने के साथ ही उसे बेहद करीब से महसूस करने की तमन्ना भी अब सिर उठाने लगी थी.

छुट्टियों में गौरी तो अकसर मां के पास चली आती थी, लेकिन कुशल के लिए यह संभव नहीं हो पाता था. गौरी से उस की मुलाकात बहुत दिन बीत जाने पर तब हो सकी जब वह पहला समैस्टर पूरा होने पर घर आया.

दोनों मिले तो खुशियां जैसे पंख लगा कर उड़ान भरने लगीं. पूरा दिन अपनी नई दुनिया की बातें करतेकरते बीत जाता था. एक दिन कुशल के घर बैठे हुए दोनों एकदूसरे को कालेज, वहां की कैंटीन, हौस्टल, मित्रों आदि के विषय में बता रहे थे कि कुशल अचानक बोल उठा, ‘‘गौरी, दिन तो वहां पढ़तेपढ़ाते बीत जाता है, लेकिन रात होने पर मुझे यहां की बहुत याद आती है और सब से ज्यादा… तुम्हारी…!’’ अंतिम वाक्य कुशल के मुंह से न चाहते हुए भी निकल गया. गौरी का दिल इतनी तेजी से धड़क उठा जैसे निकल कर बाहर ही आ जाएगा.

‘‘मैं तो नई सहेलियों से तुम्हारी ही बातें करती हूं… कभीकभी वे कह देती हैं कि इतना याद कर रही हो तो उस के पास ही चली जाओ और मैं बस हंस देती हूं.’’

लाज से भरी गौरी की नम आंखों ने चुगली कर ही दी कि उस के मन में भी प्रेम

कर दरिया बह रहा है.

‘‘गौरी, मैं ने एअरपोर्ट से आते समय एक मोबाइल खरीदा था. मुंबई वापस लौटने से पहले उस में अपना नंबर सेव कर दूंगा. तुम से बात कर लिया करूंगा तो शायद चैन आ जाए मुझे.’’

मोबाइल से बातें कर एकदूसरे से जुड़े रहने की चाह में एक बार फिर दूर हो गए दोनों.

गौरी ने कुशल से मोबाइल पर कुछ दिन ही बात की थी. सोच रही थी कि अगली बार जब घर जाएगी तो किसी पड़ोसी का नंबर ले आएगी और कभीकभी मां से बात कर लिया करेगी, लेकिन बिछड़े हुए अपनों से जोड़ने वाला मोबाइल भी उस से जल्दी ही बिछड़ गया. एक दिन जब वह सहेलियों के साथ बाजार से लौट रही थी तो मोबाइल हाथ में लिए उस के बातों में मग्न होने का लाभ उठाते हुए एक मोटरसाइकिल सवार ने मोबाइल छीन लिया. बहुत रोई थी गौरी. अगले दिन क्लास खत्म होने के बाद उस ने कुशल को फोन छिन जाने की बात कहते हुए एक मेल कर दिया. जवाब में कुशल से सांत्वना पा कर गौरी की उदासी कुछ कम तो हुई लेकिन कुशल से यह जानकर कि अति व्यस्तता के कारण अब उस का घर आना और भी कम हो जाएगा, गौरी बेचैन हो उठी.

कुशल गौरी को मन में बसाए कठोर परिश्रम कर रहा था. लैब में रात देर तक काम करते हुए कभीकभी वह बहुत थक जाया करता था. गौरी को याद करते हुए एक दिन वह कुछ ज्यादा ही परेशान था. कुछ दिनों पहले गौरी का एक मेल आया था, जिस में उस ने अपनी तबीयत ठीक न होने की बात लिखी थी. उस के बाद कुशल ने 2-3 मेल किए, लेकिन किसी का उत्तर नहीं मिला. ‘शायद कालेज में कंप्यूटर के पर्सनल यूज पर रोक लगा दी गई हो’ सोच कर वह स्वयं को बहला रहा था.

सहसा कमरे की घंटी बजी. चपरासी कमरे में आया और रजिस्टर पर हस्ताक्षर ले एक और्डर की कौपी उसे थमा दी. और्डर पढ़ते ही कुशल की सारी थकान उड़न छू हो गई. संदेश था कि अगले सप्ताह उसे डाक्टरों के एक दल के साथ दिल्ली भेजा जा रहा है. वहां के एक कैंसर हौस्पिटल में मरीजों की स्थिति देख कर विशेष रिपोर्ट तैयार करने का काम सौंपा गया था. ‘दिल्ली से कुछ घंटों में मेरठ और फिर वहां से गौरी के कालेज… दिल्ली पहुंच तो जाऊं फिर उसे जबरदस्त सरप्राइज दूंगा.’ सोच कर कुशल का मन बल्लियों उछलने लगा.

निश्चित दिन उत्साहित हो वह टीम के

साथ निकल पड़ा. रात के 2 बजे सब दिल्ली पहुंचे. कुछ घंटे आराम करने के बाद सभी

सुबह अस्पताल के लिए चल दिए. वहां टीम

के एक डाक्टर से बात करते हुए कुशल ने

वार्ड में प्रवेश किया तो लगा कि उस के पैर जैसे वहीं जम गए हों. हिम्मत जुटा कर वह बैड के पास पहुंचा, ‘‘गौरी… तुम यहां?… कैसे… क्या… कब हुआ ये?’’ कुशल कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.

गौरी ने कुशल का हाथ कस कर पकड़ लिया, ‘‘पहले बताओ तुम यहां कैसे?’’

‘‘मुझे तो केस स्टडी के लिए टीम के

साथ भेजा गया है… तुम्हारा मेल ही नहीं मिला था, परेशान तो था मैं. लेकिन तुम्हारे साथ ऐसा हुआ… मुझे पता भी नहीं लगा.’’ कुशल भर्राए गले से बोला.

‘‘मैं एग्जाम्स की तैयारी कर रही थी कि एक दिन अचानक चक्कर आ गया, फिर बहुत थकान लगने लगी. मैं ने सोचा कि पढ़ाई के प्रैशर से हो रहा है ऐसा. पर जब हालत ज्यादा खराब होने लगी तो हमारी मैम को कुछ शंका हुई. अस्पताल में दिखाया गया, टैस्ट हुए और पता लगा कि मुझे ब्लड कैंसर है. यह तो अच्छा है कि अभी पहली स्टेज पर है. टीचर ध्यान न देतीं तो जाने क्या होता?’’

‘‘मां जानती हैं इस बारे में?’’

नहीं, पता लगेगा तो तड़प उठेंगी. वे तो मुझे देखने भी नहीं आ सकती यहां. बोलतेबोलते गला रुंध गया गौरी का.

‘‘तुम चिंता मत करो. मैं आ गया हूं न अब. कुछ करता हूं.’’ प्यार से उस के गालों को थपथपाता हुआ कुशल बोला.

मरीजों को देखने के बाद जब सभी डाक्टर एकत्र हुए तो दल के सब से

सीनियर डाक्टर से कुशल ने गौरी के विषय में बात की. उन्होंने कुशल को मुंबई के एक विशेष हौस्पिटल में जाने की सलाह दी और बताया कि वहां पर ऐसे बहुत से मरीज ठीक हो चुके हैं. कुशल ने गौरी को अपने साथ मुंबई ले जाने का निश्चय किया. अपने घर फोन कर उस ने पिता को सारी स्थिति से अवगत करा दिया. गौरी की मां को अपने घर बुलवा कर कुशल के पिता ने गौरी और मां की बात करवा दी. गौरी की बीमारी के विषय में उस की मां को कुछ न बता कर कहा गया कि एक ट्रेनिंग के सिलसिले में गौरी को मुंबई जाना पड़ेगा, लेकिन चिंता की बात नहीं है क्योंकि कुशल उस के साथ होगा.

कुछ दिनों बाद दोनों मुंबई के लिए रवाना हो गए. इलाज शुरू हुआ और गौरी पर उस का असर जल्द ही दिखने लगा. अपनी पढ़ाई के साथसाथ कुशल गौरी का भी पूरा ध्यान रखता था. कीमोथैरेपी के लिए गौरी को जब अंदर ले जाया जाता तो वह बाहर बैठ कर इंतजार करता रहता. गौरी को अस्पताल में टाइम से दवाइयां दी गई या नहीं, गौरी ने ठीक से कुछ खाया या नहीं… इन सब बातों का भी ध्यान रखता था वह. थोड़ेथोड़े दिनों बाद बीमारी का बढ़ना या रुकना देखने के लिए टैस्ट होते तो कुशल पूरी स्थिति अच्छी तरह समझता. लगभग 6-7 महीने बाद गौरी की हालत में काफी सुधार आ गया. अब उसे केवल कुछ दवाइयां ही लेने की आवश्यकता थी.

गौरी को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. कुशल गौरी को साथ ले कर घर छोड़ने आया तो मां को उस ने एकएक घटना विस्तार से बताई. उन्हें किसी प्रकार की चिंता न करने को कह अपने पिता से ले कर उन को कुछ रुपए भी दे दिए. जाने से पहले गौरी को हिदायत दे कर गया कि दवाई के साथसाथ खानेपीने में भी कोई कमी नहीं होनी चाहिए.

इधर गौरी का स्वास्थ्य सुधरने लगा था, उधर अपनी डिग्री पूरी कर कुछ समय बाद कुशल भी लौट आया.

वापस आ कर कुशल ने कस्बे से कुछ दूर स्थित एक हौस्पिटल में कार्य करना शुरू कर दिया. उस का लक्ष्य अपने कस्बे के लोगों की सेवा करना था, इस के लिए पुरानी पुश्तैनी हवेली तुड़वा कर अस्पताल बनवाने पर विचार हो रहा था. गौरी अपनी अधूरी डिग्री जल्द ही पूरी करने को बेताब थी, लेकिन कुशल ने एक डाक्टर के दृष्टिकोण से उसे कुछ दिन और रुक जाने की सलाह दी. गौरी को भी कभीकभी कमजोरी सी महसूस होती, इसलिए मन मार कर प्रतीक्षा करने के सिवाय कोई रास्ता भी नहीं दिखाई देता था. आज जब कोरोना महामारी का तांडव चारों ओर फैला है, ऐसे समय में अपनी सेवाएं देने से गौरी स्वयं को रोक नहीं सकी.

अगले दिन से वह अपने काम में पूरे मन से लग गई. कुशल उस की इस लगन को देख जैसे उन्स पर न्योछावर हुआ जा रहा था. लगातार बढ़ते रोगियों की देखभाल करते हुए उन दोनों को अन्य डाक्टर व नर्सों की तरह ही खानेपीने का समय नहीं मिल पाता था.

एक दिन थकेमांदे जब दोनों कैंटीन में चाय पी रहे थे तो कुशल मुसकराते हुए बोला,

‘‘गौरी तुम ने तो अपनी मनपसंद ड्रैस पहन ही ली यह नर्स की यूनिफौर्म, लेकिन मेरी मनपसंद ड्रैस कब पहनोगी? अब मैं देखना चाहता हूं तुम्हें लाल जोड़े में.’’

गौरी सिर झुका कर निराश स्वर में बोली, ‘‘क्या रखा है कुशल अब इस गौरी में? झड़ गए घुंघराले बाल कीमोथैरेपी से… बहुत अच्छे लगते थे न तुम्हें वो… मेरे घुंघराले बालों को देख कर तुम मुझे दूर से ही पहचान लेते थे. अब कहां रही है गौरी तुम्हारी वो घुंघराले बालों वाली लड़की.’’

कुशल प्यार से उस की ओर देखते हुए बोला, ‘‘गौरी… तुम अपने को नहीं जानती शायद… मुझे गर्व है तुम पर, जो दिनरात लोगों की सेवा में लगी हो… अपनी बीमारी से हुई कमजोरी की हालत में भी तुम ने मेरा साथ देने के लिए काम करने की परमिशन ली. बहुत प्यारा है तुम्हारा यह रूप… इसलिए ही तो घुंघराले बालों से कहीं ज्यादा कीमती है वह हैजमैट सूट जो तुम कोरोना मरीजों की सेवा करते हुए पहनती हो. अब जिस गौरी को मैं जानता हूं उस में इतनी खूबियां हैं कि दूर से क्या उसे आंखें बंद कर के भी पहचान सकता हूं.’’

‘‘आज मेरे प्यार की जीत हुई है, कोरोना को अब हारना ही होगा. फिर हमेशा के लिए कुशल की हो जाएगी घुंघराले बालों वाली लड़की,’’ कुशल के प्यार को पा कर गौर अभिभूत हो उठी.

दोनों प्रेम मन में संजोए इस महामारी से लड़ने के लिए कैंटीन से निकल वार्ड की ओर चल दिए.

Storytelling : महापुरुष – किस एहसान को उतारना चाहते थे प्रोफेसर गौतम

Storytelling : रवि प्रोफेसर गौतम के साथ व्यवसाय प्रबंधन कोर्स का शोधपत्र लिख रहा था. उस का पीएच.डी. करने का विचार था. भारत से 15 महीने पहले उच्च शिक्षा के लिए वह मांट्रियल आया था. उस ने मांट्रियल में मेहनत तो बहुत की थी, परंतु परीक्षाओं में अधिक सफलता नहीं मिली.

मांट्रियल की भीषण सर्दी, भिन्न संस्कृति और रहनसहन का ढंग, मातापिता पर अत्यधिक आर्थिक दबाव का एहसास, इन सब कारणों से रवि यहां अधिक जम नहीं पाया था. वैसे उसे असफल भी नहीं कहा जा सकता, परंतु पीएच.डी. में आर्थिक सहायता के साथ प्रवेश पाने के लिए उस के व्यवसाय प्रबंधन की परीक्षा के परिणाम कुछ कम उतरते थे.

रवि ने प्रोफेसर गौतम से पीएच.डी. के लिए प्रवेश पाने और आर्थिक मदद के लिए जब कहा तो उन्होंने उसे कुछ आशा नहीं बंधाई. वे अपने विश्वविद्यालय और बाकी विश्वविद्यालयों के बारे में काफी जानकारी रखते थे. रवि के पास व्यवसाय प्रबंधन कोर्स समाप्त कर के भारत लौटने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.

रवि प्रोफेसर गौतम से जब भी उन के विभाग में मिलता, वे उस को मुश्किल से आधे घंटे का समय ही दे पाते थे, क्योंकि वे काफी व्यस्त रहते थे. रवि को उन को बारबार परेशान करना अच्छा भी नहीं लगता था. कभीकभी सोचता कि कहीं प्रोफेसर यह न सोच लें कि वह उन के भारतीय होने का अनुचित फायदा उठा रहा है.

एक बार रवि ने हिम्मत कर के उन से कह ही दिया, ‘‘साहब, मुझे किसी भी दिन 2 घंटे का समय दे दीजिए. फिर उस के बाद मैं आप को परेशान नहीं करूंगा.’’

‘‘तुम मुझे परेशान थोड़े ही करते हो. यहां तो विभाग में 2 घंटे का एक बार में समय निकालना कठिन है,’’ उन्होंने अपनी डायरी देख कर कहा, ‘‘परंतु ऐसा करो, इस इतवार को दोपहर खाने के समय मेरे घर आ जाओ. फिर जितना समय चाहो, मैं तुम्हें दे पाऊंगा.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था. आप क्यों परेशान होते हैं,’’ रवि को प्रोफेसर गौतम से यह आशा नहीं थी कि वे उसे अपने निवास स्थान पर आने के लिए कहेंगे. अगले इतवार को 12 बजे पहुंचने के लिए प्रोफेसर गौतम ने उस से कह दिया था.

प्रोफेसर गौतम का फ्लैट विश्व- विद्यालय के उन के विभाग से मुश्किल से एक फर्लांग की दूरी पर ही था. उन्होंने पिछले साल ही उसे खरीदा था. पिछले 22 सालों में उन के देखतेदेखते मांट्रियल शहर कितना बदल गया था, विभाग में व्याख्याता के रूप में आए थे और अब कई वर्षों से प्राध्यापक हो गए थे. उन के विभाग में उन की बहुत साख थी.

सबकुछ बदल गया था, पर प्रोफेसर गौतम की जिंदगी वैसी की वैसी ही स्थिर थी. अकेले आए थे शहर में और 3 साल पहले उन की पत्नी उन्हें अकेला छोड़ गई थी. वह कैंसर की चपेट में आ गई थी. पत्नी की मृत्यु के पश्चात अकेले बड़े घर में रहना उन्हें बहुत खलता था. घर की मालकिन ही जब चली गई, तब क्या करते उस घर को रख कर.

18 साल से ऊपर बिताए थे उन्होंने उस घर में अपनी पत्नी के साथ. सुखदुख के क्षण अकसर याद आते थे उन को. घर में किसी चीज की कभी कोई कमी नहीं रही, पर उस घर ने कभी किसी बच्चे की किलकारी नहीं सुनी. इस का पतिपत्नी को काफी दुख रहा. अपनी संतान को सीने से लगाने में जो आनंद आता है, उस आनंद से सदा ही दोनों वंचित रहे.

पत्नी के देहांत के बाद 1 साल तक तो प्रोफेसर गौतम उस घर में ही रहे. पर उस के बाद उन्होंने घर बेच दिया और साथ में ही कुछ गैरजरूरी सामान भी. आनेजाने की सुविधा का खयाल कर उन्होंने अपना फ्लैट विभाग के पास ही खरीद लिया. अब तो उन के जीवन में विभाग का काम और शोध ही रह गया था. भारत में भाईबहन थे, पर वे अपनी समस्याओं में ही इतने उलझे हुए थे कि उन के बारे में सोचने की किस को फुरसत थी. हां, बहनें रक्षाबंधन और भैयादूज का टीका जब भेजती थीं तो एक पृष्ठ का पत्र लिख देती थीं.

प्रोफेसर गौतम ने रवि के आने के उपलक्ष्य में सोचा कि उसे भारतीय खाना बना कर खिलाया जाए. वे खुद तो दोपहर और शाम का खाना विश्वविद्यालय की कैंटीन में ही खा लेते थे.

शनिवार को प्रोफेसर भारतीय गल्ले की दुकान से कुछ मसाले और सब्जियां ले कर आए. पत्नी की बीमारी के समय तो वे अकसर खाना बनाया करते थे, पर अब उन का मन ही नहीं करता था अपने लिए कुछ भी झंझट करने को. बस, जिए जा रहे थे, केवल इसलिए कि जीवनज्योति अभी बुझी नहीं थी. उन्होंने एक तरकारी और दाल बनाई थी. कुलचे भी खरीदे थे. उन्हें तो बस, गरम ही करना था. चावल तो सोचा कि रवि के आने पर ही बनाएंगे.

रवि ने जब उन के फ्लैट की घंटी बजाई तो 12 बज कर कुछ सेकंड ही हुए थे. प्रोफेसर गौतम को बड़ा अच्छा लगा, यह सोच कर कि रवि समय का कितना पाबंद है. रवि थोड़ा हिचकिचा रहा था.

प्रोफेसर गौतम ने कहा, ‘‘यह विभाग का मेरा दफ्तर नहीं, घर है. यहां तुम मेरे मेहमान हो, विद्यार्थी नहीं. इस को अपना ही घर समझो.’’

रवि अपनी तरफ से कितनी भी कोशिश करता, पर गुरु और शिष्य का रिश्ता कैसे बदल सकता था. वह प्रोफेसर के साथ रसोई में आ गया. प्रोफेसर ने चावल बनने के लिए रख दिए.

‘‘आप इस फ्लैट में अकेले रहते हैं?’’ रवि ने पूछा.

‘‘हां, मेरी पत्नी का कुछ वर्ष पहले देहांत हो गया,’’ उन्होंने धीमे से कहा.

रवि रसोई में खाने की मेज के साथ रखी कुरसी पर बैठ गया. दोनों ही चुप थे. प्रोफेसर गौतम ने पूछा, ‘‘जब तक चावल तैयार होंगे, तब तक कुछ पिओगे? क्या लोगे?’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं लूंगा. हां, अगर हो तो कोई जूस दे दीजिएगा.’’

प्रोफेसर ने रेफ्रिजरेटर से संतरे के रस से भरी एक बोतल और एक बीयर की बोतल निकाली. जूस गिलास में भर कर रवि को दे दिया और बीयर खुद पीने लगे. कुछ देर बाद चावल तैयार हो गए. उन्होंने खाना खाया. कौफी बना कर वे बैठक में आ गए. अब काम करने का समय था.

रवि अपना बैग उठा लाया. उस ने 89 पृष्ठों की रिपोर्ट लिखी थी. प्रोफेसर गौतम रिपोर्ट का कुछ भाग तो पहले ही देख चुके थे, उस में रवि ने जो संशोधन किए थे, वे देखे. रवि उन से अनेक प्रश्न करता जा रहा था. प्रोफेसर जो भी उत्तर दे रहे थे, रवि उन को लिखता जा रहा था.

रवि की रिपोर्ट का जब आखिरी पृष्ठ आ पहुंचा तो उस समय शाम के 5 बज चुके थे. आखिरी पृष्ठ पर रवि ने अपनी रिपोर्ट में प्रयोग में लाए संदर्भ लिख रखे थे. प्रोफेसर को लगा कि रवि ने कुछ संदर्भ छोड़ रखे हैं. वे अपने अध्ययनकक्ष में उन संदर्भों को अपनी किताबों में ढूंढ़ने के लिए गए.

प्रोफेसर को गए हुए 15 मिनट से भी अधिक समय हो गया था. रवि ने सोचा शायद वे भूल गए हैं कि रवि घर में आया हुआ है. वह अध्ययनकक्ष में आ गया. वहां किताबें ही किताबें थीं. एक कंप्यूटर भी रखा था. अध्ययनकक्ष की तुलना में प्रोफेसर के विभाग का दफ्तर कहीं छोटा पड़ता था.

प्रोफेसर ने एक निगाह से रवि को देखा, फिर अपनी खोज में लग गए. दीवार पर प्रोफेसर की डिगरियों के प्रमाणपत्र फ्रेम में लगे थे. प्रोफेसर गौतम ने न्यूयार्क से पीएच.डी. की थी. भारत से उन्होंने एम.एससी. (कानपुर से) की थी.

‘‘साहब, आप ने एम.एससी. कानपुर से की थी? मेरे नानाजी वहीं पर विभागाध्यक्ष थे,’’ रवि ने पूछा.

प्रोफेसर 3-4 किताबें ले कर बैठक में आ गए.

‘‘क्या नाम था तुम्हारे नानाजी का?’’

‘‘रामकुमार,’’ रवि ने कहा.

‘‘उन को तो मैं बहुत अच्छी तरह से जानता हूं. 1 साल मैं ने वहां पढ़ाया भी था.’’

‘‘तब तो शायद आप ने मेरी माताजी को भी देखा होगा,’’ रवि ने पूछा.

‘‘शायद देखा होगा एकाध बार,’’ प्रोफेसर ने बात पलटते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम ये पुस्तकें ले जाओ और देखो कि इन में तुम्हारे मतलब का कुछ है कि नहीं.’’

रवि कुछ मिनट और बैठा रहा. 6 बजने को आ रहे थे. लगभग 6 घंटे से वह प्रोफेसर के फ्लैट में बैठा था. पर इस दौरान उस ने लगभग 1 महीने का काम निबटा लिया था. प्रोफेसर का दिल से धन्यवाद कर उस ने विदा ली.

रवि के जाने के बाद प्रोफेसर को बरसों पुरानी भूलीबिसरी बातें याद आने लगीं. वे रवि के नाना को अच्छी तरह जानते थे. उन्हीं के विभाग में एम.एससी. के पश्चात वे व्याख्याता के पद पर काम करने लगे थे. उन्हें दिल्ली में द्वितीय श्रेणी में प्रवेश नहीं मिल पाया था. इसलिए वे कानपुर पढ़ने आ गए थे. उस समय कानपुर में ही उन के चाचाजी रह रहे थे. 1 साल बाद चाचाजी भी कानपुर छोड़ कर चले गए पर उन्हें कानपुर इतना भा गया कि एम.एससी. भी वहीं से कर ली. उन की इच्छा थी कि किसी भी तरह से विदेश उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाएं. एम.एससी. में भी उन का परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा नहीं था, जिस के बूते पर उन को आर्थिक सहायता मिल पाती. फिर सोचा, एकदो साल तक भारत में अगर पढ़ाने का अनुभव प्राप्त कर लें तो शायद विदेश में आर्थिक सहायता मिल सकेगी.

उन्हीं दिनों कालेज के एक व्याख्याता को विदेश में पढ़ने के लिए मौका मिला था, जिस के कारण गौतम को अस्थायी रूप से कालेज में ही नौकरी मिल गई. वे पैसे जोड़ने की भी कोशिश कर रहे थे. विदेश जाने के लिए मातापिता की तरफ से कम से कम पैसा मांगने का उन का ध्येय था. विभागाध्यक्ष रामकुमार भी उन से काफी प्रसन्न थे. वे उन के भविष्य को संवारने की पूरी कोशिश कर रहे थे. एक दिन रामकुमार ने गौतम को अपने घर शाम की चाय पर बुलाया.

रवि की मां उमा से गौतम की मुलाकात उसी दिन शाम को हुई थी. उमा उन दिनों बी.ए. कर रही थी. देखने में बहुत ही साधारण थी. रामकुमार उमा की शादी की चिंता में थे. उमा विभागाध्यक्ष की बेटी थी, इसलिए गौतम अपनी ओर से उस में पूरी दिलचस्पी ले रहा था. वह बेचारी तो चुप थी, पर अपनी ओर से ही गौतम प्रश्न किए जा रहा था.

कुछ समय पश्चात उमा और उस की मां उठ कर चली गईं. रामकुमार ने तब गौतम से अपने मन की इच्छा जाहिर की. वे उमा का हाथ गौतम के हाथ में थमाने की सोच रहे थे. उन्होंने कहा था कि अगर गौतम चाहे तो वे उस के मातापिता से बात करने के लिए दिल्ली जाने को तैयार थे.

सुन कर गौतम ने बस यही कहा, ‘आप के घर नाता जोड़ कर मैं अपने जीवन को धन्य समझूंगा. पिताजी और माताजी की यही जिद है कि जब तक मेरी छोटी बहन के हाथ पीले नहीं कर देंगे, तब तक मेरी शादी की सोचेंगे भी नहीं,’ उस ने बात को टालने के लिए कहा, ‘वैसे मेरी हार्दिक इच्छा है कि विदेश जा कर ऊंची शिक्षा प्राप्त करूं, पर आप तो जानते ही हैं कि मेरे एम.एससी. में इतने अच्छे अंक तो आए नहीं कि आर्थिक सहायता मिल जाए.’

‘तुम ने कहा क्यों नहीं. मेरा एक जिगरी दोस्त न्यूयार्क में प्रोफेसर है. अगर मैं उस को लिख दूं तो वह मेरी बात टालेगा नहीं,’ रामकुमार ने कहा.

‘आप मुझे उमाजी का फोटो दे दीजिए, मातापिता को भेज दूंगा. उन से मुझे अनुमति तो लेनी ही होगी. पर वे कभी भी न नहीं करेंगे,’ गौतम ने कहा.

रामकुमार खुशीखुशी घर के अंदर गए. लगता था, जैसे वहां खुशी की लहर दौड़ गई थी. कुछ ही देर में वे अपनी पत्नी के साथ उमा का फोटो ले कर आ गए. उमा तो लाजवश कमरे में नहीं आई. उस की मां ने एक डब्बे में कुछ मिठाई गौतम के लिए रख दी. पतिपत्नी अत्यंत स्नेह भरी नजरों से गौतम को देख रहे थे.

अपने कमरे में पहुंचते ही गौतम ने न्यूयार्क के उस विश्वविद्यालय को प्रवेशपत्र और आर्थिक सहायता के लिए फार्म भेजने के लिए लिखा. दिल्ली जाने से पहले वह एक बार और उमा के घर गया. कुछ समय के लिए उन लोगों ने गौतम और उमा को कमरे में अकेला छोड़ दिया था, परंतु दोनों ही शरमाते रहे.

गौतम जब दिल्ली से वापस आया तो रामकुमार ने उसे विभाग में पहुंचते ही अपने कमरे में बुलाया. गौतम ने उन्हें बताया कि मातापिता दोनों ही राजी थे, इस रिश्ते के लिए. परंतु छोटी बहन की शादी से पहले इस बारे में कुछ भी जिक्र नहीं करना चाहते थे.

गौतम के मातापिता की रजामंदी के बाद तो गौतम का उमा के घर आनाजाना और भी बढ़ गया. उस ने जब एक दिन उमा से सिनेमा चलने के लिए कहा तो वह टाल गई. इन्हीं दिनों न्यूयार्क से फार्म आ गया, जो उस ने तुरंत भर कर भेज दिया. रामकुमार ने अपने दोस्त को न्यूयार्क पत्र लिखा और गौतम की अत्यधिक तारीफ और सिफारिश की.

3 महीने प्रतीक्षा करने के पश्चात वह पत्र न्यूयार्क से आया, जिस की गौतम कल्पना किया करता था. उस को पीएच.डी. में प्रवेश और समुचित आर्थिक सहायता मिल गई थी. वह रामकुमार का आभारी था. उन की सिफारिश के बिना उस को यह आर्थिक सहायता कभी न मिल पाती.

गौतम की छोटी बहन का रिश्ता बनारस में हो गया था. शादी 5 महीने बाद तय हुई. गौतम ने उमा को समझाया कि बस 1 साल की ही तो बात है. अगले साल वह शादी करने भारत आएगा और उस को दुलहन बना कर ले जाएगा.

कुछ ही महीने में गौतम न्यूयार्क आ गया. यहां उसे वह विश्वविद्यालय ज्यादा अच्छा न लगा. इधरउधर दौड़धूप कर के उसे न्यूयार्क में ही दूसरे विश्वविद्यालय में प्रवेश व आर्थिक सहायता मिल गई.

उमा के 2-3 पत्र आए थे, पर गौतम व्यस्तता के कारण उत्तर भी न दे पाया. जब पिताजी का पत्र आया तो उमा का चेहरा उस की आंखों के सामने नाचने लगा. पिताजी ने लिखा था कि रामकुमार दिल्ली किसी काम से आए थे तो उन से भी मिलने आ गए. पिताजी को समझ में नहीं आया कि उन की कौन सी बेटी की शादी बनारस में तय हुई थी.

उन्होंने लिखा था कि अपनी शादी का जिक्र करने के लिए उसे इतना शरमाने की क्या आवश्यकता थी.

गौतम ने पिताजी को लिख भेजा कि मैं उमा से शादी करने का कभी इच्छुक नहीं था. आप रामकुमार को साफसाफ लिख दें कि यह रिश्ता आप को बिलकुल भी मंजूर नहीं है. उन के यहां के किसी को भी अमेरिका में मुझ से पत्रव्यवहार करने की कोई आवश्यकता नहीं.

गौतम के पिताजी ने वही किया जो उन के पुत्र ने लिखा था. वे अपने बेटे की चाल समझ गए थे. वे बेचारे करते भी क्या.

उन का बेटा उन के हाथ से निकल चुका था. गौतम के पास उमा की तरफ से 2-3 पत्र और आए. एक पत्र रामकुमार का भी आया. उन पत्रों को बिना पढ़े ही उस ने फाड़ कर फेंक दिया था.

पीएच.डी. करने के बाद गौतम शादी करवाने भारत गया और एक बहुत ही सुंदर लड़की को पत्नी के रूप में पा कर अपना जीवन सफल समझने लगा. उस के बाद उस ने शायद ही कभी रामकुमार और उमा के बारे में सोचा हो. उमा का तो शायद खयाल कभी आया भी हो, पर उस की याद को अतीत के गहरे गर्त में ही दफना देना उस ने उचित समझा था.

उस दिन रवि ने गौतम की पुरानी स्मृतियों को झकझोर दिया था. प्रोफेसर गौतम सारी रात उमा के बारे में सोचते रहे कि उस बेचारी ने उन का क्या बिगाड़ा था. रामकुमार के एहसान का उस ने कैसे बदला चुकाया था. इन्हीं सब बातों में उलझे, प्रोफेसर को नींद ने आ घेरा.

ठक…ठक की आवाज के साथ विभाग की सचिव सिसिल 9 बजे प्रोफेसर के कमरे में ही आई तो उन की निंद्रा टूटी और वे अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गए. प्रोफेसर ने उस को रवि के फ्लैट का फोन नंबर पता करने को कहा.

कुछ ही मिनटों बाद सिसिल ने उन्हें रवि का फोन नंबर ला कर दिया. प्रोफेसर ने रवि को फोन मिलाया. सवेरेसवेरे प्रोफेसर का फोन पा कर रवि चौंक गया, ‘‘मैं तुम्हें इसलिए फोन कर रहा हूं कि तुम यहां पर पीएच.डी. के लिए आर्थिक सहायता की चिंता मत करो. मैं इस विश्वविद्यालय में ही भरसक कोशिश कर के तुम्हें सहायता दिलवा दूंगा.’’

रवि को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह धीरे से बोला, ‘‘धन्यवाद… बहुतबहुत धन्यवाद.’’

‘‘बरसों पहले तुम्हारे नानाजी ने मुझ पर बहुत उपकार किया था. उस का बदला तो मैं इस जीवन में कभी नहीं चुका पाऊंगा पर उस उपकार का बोझ भी इस संसार से नहीं ले जा पाऊंगा. तुम्हारी कुछ मदद कर के मेरा कुछ बोझ हलका हो जाएगा,’’ कहने के बाद प्रोफेसर गौतम ने फोन बंद कर दिया.

रवि कुछ देर तक रिसीवर थामे रहा. फिर पेन और कागज निकाल कर अपनी मां को पत्र लिखने लगा.

आदरणीय माताजी,

आप से कभी सुना था कि इस संसार में महापुरुष भी होते हैं परंतु मुझे विश्वास नहीं होता था.

लेकिन अब मुझे यकीन हो गया है कि दूसरों की निस्वार्थ सहायता करने वाले महापुरुष अब भी इस दुनिया में मौजूद हैं. मेरे लिए प्रोफेसर गौतम एक ऐसे ही महापुरुष की तरह हैं. उन्होंने मुझे आर्थिक सहायता दिलवाने का पूरापूरा विश्वास दिलाया है.

प्रोफेसर गौतम बरसों पहले कानपुर में नानाजी के विभाग में ही काम करते थे. उन दिनों कभी शायद आप की भी उन से मुलाकात हुई होगी

आप का रवि

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें