कभी नहीं- भाग 2 : गायत्री को क्या समझ आई मां की अहमियत

किसी तरह भावी सास को विदा तो कर दिया गायत्री ने परंतु मन में भीतर कहीं दूर तक अपराधबोध सालने लगा, कैसी पागल है वह और स्वार्थी भी, जो अपना प्रेमी तलाशती रही उस इंसान में जो अपना विश्वास टूट जाने पर उस के पास आया था.उसे महसूस हो रहा होगा कि उस की मां कहीं खो गई है. तभी तो पहली नजर से जीवनभर जुड़ने के नातों में विश्वास का विषय शुरू किया होगा. कुछ राहत चाही होगी उस से और उस ने उलटा जलीकटी सुना कर भेज दिया. मातापिता और दोनों छोटे भाई समीप सिमट आए. चंद शब्दों में गायत्री ने उन्हें सारी कहानी सुना दी.

‘‘तो इस में घर छोड़ देने वाली क्या बात है? अभी फोन आएगा तो उसे घर ही बुला लेना. हम सब मिल कर समझाएंगे उसे. यही तो दोष है आज की पीढ़ी में. जोश से काम लेंगे और होश का पता ही नहीं,’’ पिताजी गायत्री को समझाने लगे.

फिर आगे बोले, ‘‘कैसा कठोर है यह लड़का. अरे, जब मां ही बन कर पाला है तो नाराजगी कैसी? उसे भूखाप्यासा नहीं रखा न. उसे पढ़ायालिखाया है, अपने बच्चों जैसा ही प्यार दिया है. और देखो न, कैसे उसे ढूंढ़ती हुई यहां भी चली आईं. अरे भई, अपनी मां क्या करती है, यही सब न. अब और क्या करें वे बेचारी?

‘‘यह तो सरासर नाइंसाफी है रवि की. अरे भई, उस के कार्यालय का फोन नंबर है क्या? उस से बात करनी होगी,’’ पिता दफ्तर जाने तक बड़बड़ाते रहे.

छोटा भाई कालेज जाने से पहले धीरे से पूछने लगा, ‘‘क्या मैं रवि भैया के दफ्तर से होता जाऊं? रास्ते में ही तो पड़ता है. उन को घर आने को कह दूंगा.’’

गायत्री की चुप का भाई ने पता नहीं क्या अर्थ लिया होगा, वह दोपहर तक सोचती रही. क्या कहती वह भाई से? इतना आसान होगा क्या अब रवि को मनाना. कितनी बार तो वह उस से मिलने के लिए फोन करता रहा था और वह फोन पटकती रही थी. शाम को पता चला रवि इतने दिनों से अपने कार्यालय भी नहीं गया.

‘क्या हो गया उसे?’ गायत्री का सर्वांग कांप उठा.

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मां और पिताजी भी रवि के घर चले गए पूरा हालचाल जानने. भावी दामाद गायब था, चिंता स्वाभाविक थी. बाद में भाई बोला, ‘‘वे अपने किसी दोस्त के पास रहते हैं आजकल, यहीं पास ही गांधीनगर में. तुम कहो तो पता करूं. मैं ने पहले बताया नहीं. मुझे शक है, तुम उन से नाराज हो. अगर तुम उन्हें पसंद नहीं करतीं तो मैं क्यों ढूंढ़ने जाऊं. मैं ने तुम्हें कई बार फोन पटकते देखा है.’’

‘‘ऐसा नहीं है, अजय,’’ हठात निकल गया होंठों से, ‘‘तुम उन्हें घर ले आओ, जाओ.’’

बहन के शब्दों पर भाई हैरान रह गया. फिर हंस पड़ा, ‘‘3-4 दिन से मैं तुम्हारा फोन पटकना देख रहा हूं. वह सब क्या था? अब उन की इतनी चिंता क्यों होने लगी? पहले समझाओ मुझे. देखो गायत्री, मैं तुम्हें समझौता नहीं करने दूंगा. ऐसा क्या था जिस वजह से तुम दोनों में अबोला हो गया?’’

‘‘नहीं अजय, उन में कोई दोष नहीं है.’’

‘‘तो फिर वह सब?’’

‘‘वह सब मेरी ही भूल थी. मुझे ही ऐसा नहीं करना चाहिए था. तुम पता कर के उन्हें घर ले आओ,’’ रो पड़ी गायत्री भाई के सामने अनुनयविनय करते हुए.

‘‘मगर बात क्या हुई थी, यह तो बताओ?’’

‘‘मैं ने कहा न, कुछ भी बात नहीं थी.’’ अजय भौचक्का रह गया.

‘‘अच्छा, तो मैं पता कर के आता हूं,’’ बहन को उस ने बहला दिया.

मगर लौटा खाली हाथ ही क्योंकि उसे रवि वहां भी नहीं मिला था. बोला, ‘‘पता चला कि सुबह ही वहां से चले गए रवि भैया. उन के पिता उन्हें आ कर साथ ले गए.’’

‘‘अच्छा,’’ गायत्री को तनिक संतोष हो गया.

‘‘उन की मां की तबीयत अच्छी नहीं थी, इसीलिए चले गए. पता चला, वे अस्पताल में हैं.’’चुप रही गायत्री. मां और पिताजी का इंतजार करने लगी. घर में इतनी आजादी और आधुनिकता नहीं थी कि खुल कर भावी पति के विषय में बातें करती रहे. और छोटे भाई से तो कदापि नहीं. जानती थी, भाई उस की परेशानी से अवगत होगा और सचमुच वह बारबार उस से कह भी रहा था, ‘‘उन के घर फोन कर के देखूं? तुम्हारी सास का हालचाल…’’

‘‘रहने दो. अभी मां आएंगी तो पता चल जाएगा.’’

‘‘तुम भी तो रवि भैया के विषय में पूछ लो न.’’

भाई ने छेड़ा या गंभीरता से कहा, वह समझ नहीं पाई. चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चली गई. काफी रात गए मां और पिताजी घर लौटे. उस समय कुछ बात न हुई. परंतु सुबहसुबह मां ने जगा दिया, ‘‘कल रात ही रवि की माताजी को घर लाए, इसीलिए देर हो गई. उन की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. खानापीना सब छोड़ रखा था उन्होंने. रवि मां के सामने आ ही नहीं रहा था. पता नहीं क्या हो गया इस लड़के को. बड़ी मुश्किल से सामने आया.‘‘क्या बताऊं, कैसे बुत बना टुकुरटुकुर देखता रहा. मां को घर तो ले गया है, परंतु कुछ बात नहीं करता. तुम्हें बुलाया है उस की मां ने. आज अजय के साथ चली जाना.’’

‘‘मैं?’’ हैरान रह गई गायत्री.

‘‘कोई बात नहीं. शादी से पहले पति के घर जाने का रिवाज हमारी बिरादरी में नहीं है, पर अब क्या किया जाए. उस घर का सुखदुख अब इस घर का भी तो है न.’’

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गायत्री ने गरदन झुका ली. कालेज जाते हुए भाई उसे उस की ससुराल छोड़ता गया. पहली बार ससुराल की चौखट पर पैर रखा. ससुर सामने पड़ गए. बड़े स्नेह से भीतर ले गए. फिर ननद और देवर ने घेर लिया. रवि की मां तो उस के गले से लग जोरजोर से रोने लगीं. ‘‘बेटी, मैं सोचती थी मैं ने अपना परिवार एक गांठ में बांध कर रखा है. रवि को सगी मां से भी ज्यादा प्यार दिया है. मैं कभी सौतेली नहीं बनी. अब वह क्यों सौतेला हो गया? तुम पूछ कर बताओ. क्या पता तुम से बात करे. हम सब के साथ वह बात नहीं करता. मैं ने उस का क्या बिगाड़ दिया जो मेरे पास नहीं आता. उस से पूछ कर बताओ गायत्री.’’ विचित्र सी व्यथा उभरी हुई थी पूरे परिवार के चेहरे पर. जरा सा सच ऐसी पीड़ादायक अवस्था में ले आएगा, किस ने सोचा होगा.

‘‘भैया अपने कमरे में हैं, भाभी. आइए,’’ ननद ने पुकारा. फिर दौड़ कर कुछ फल ले आई, ‘‘ये उन्हें खिला देना, वे भूखे हैं.’’

गायत्री की आंखें भर आईं. जिस परिवार की जिम्मेदारी शादी के बाद संभालनी थी, उस ने समय से पूर्व ही उसे पुकार लिया था. कमरे का द्वार खोला तो हैरान रह गई. अस्तव्यस्त, बढ़ी दाढ़ी में कैसा लग रहा था रवि. आंखें मींचे चुपचाप पड़ा था. ऐसा प्रतीत हुआ मानो महीनों से बीमार हो. क्या कहे वह उस से? कैसे बात शुरू करे? नाराज हो कर उस का भी अपमान कर दिया तो क्या होगा? बड़ी मुश्किल से समीप बैठी और माथे पर हाथ रखा, ‘‘रवि.’’

आंखें सुर्ख हो गई थीं रवि की. गायत्री ने सोचा, क्या रोता रहता है अकेले में? मां ने कहा था वह पत्थर सा हो गया है.

‘‘रवि यह, यह क्या हो गया है तुम्हें?’’ अपनी भूल का आभास था उसे. बलात होंठों से निकल गया, ‘‘मुझे माफ कर दो. मुझे तुम्हारी बात सुननी चाहिए थी. मुझ से ऐसा क्या हो गया, यह नहीं होना चाहिए था,’’ सहसा स्वर घुट गया गायत्री का. वह रवि, जिस ने कभी उस का हाथ भी नहीं पकड़ा था, अचानक उस की गोद में सिर छिपा कर जोरजोर से रोने लगा. उसे दोनों बांहों में कस के बांध लिया. उसे इस व्यवहार की आशा कहां थी. पुरुष भी कभी इस तरह रोते हैं. गायत्री को बलिष्ठ बांहों का अधिकार निष्प्राण करने लगा. यह क्या हो गया रवि को? स्वयं को छुड़ाए भी तो कैसे? बालक के समान रोता ही जा रहा था.

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‘‘रवि, रवि, बस…’’ हिम्मत कर के उस का चेहरा सामने किया.

‘‘ऐसा लगता है मैं अनाथ हो गया हूं. मेरी मां मर गई हैं गायत्री, मेरी मां मर गई हैं. उन के बिना कैसे जिंदा रहूं, कहां जाऊं, बताओ?’’

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पापा जल्दी आ जाना- भाग 3: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

एक दिन मैं ने पापा को स्कूल की पार्किंग में इंतजार करते पाया. बस से उतरते ही मैं ने उन्हें देख लिया था. मैं उन से लिपट कर बहुत रोई और पापा से कहा कि मैं उन के बिना नहीं रह सकती. मम्मी को पता नहीं कैसे इस बात का पता चल गया. उस दिन के बाद वह ही स्कूल लेने और छोड़ने जातीं. बातोंबातों में मुझे उन्होंने कई बार जतला दिया कि मेरी सुरक्षा को ले कर वह चिंतित रहती हैं. सच यह था कि वह चाहती ही नहीं थीं कि पापा मुझ से मिलें.

मम्मी ने घर पर ही मुझे ट्यूटर लगवा दिया ताकि वह यह सिद्ध कर सकें कि पापा से बिछुड़ने का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. तब भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो मम्मी ने मुझे होस्टल में डालने का फैसला किया.

इस से पहले कि मैं बोर्डिंग स्कूल में जाती, पता चला कि पापा से मिलवाने मम्मी मुझे कोर्ट ले जा रही हैं. मैं नहीं जानती थी कि वहां क्या होने वाला है, पर इतना अवश्य था कि मैं वहां पापा से मिल सकती हूं. मैं बहुत खुश हुई. मैं ने सोचा इस बार पापा से जरूर मम्मी की जी भर कर शिकायत करूंगी. मुझे क्या पता था कि पापा से यह मेरी आखिरी मुलाकात होगी.

मैं पापा को ठीक से देख भी न पाई कि अलग कर दी गई. मेरा छोटा सा हराभरा संसार उजड़ गया और एक बेनाम सा दर्द कलेजे में बर्फ बन कर जम गया. मम्मी के भीतर की मानवता और नैतिकता शायद दोनों ही मर चुकी थीं. इसीलिए वह कानूनन उन से अलग हो गईं.

धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समझा लिया कि पापा अब मुझे कभी नहीं मिलेंगे. उन की यादें समय के साथ धुंधली तो पड़ गईं पर मिटी नहीं. मैं ने महसूस कर लिया कि मैं ने वह वस्तु हमेशा के लिए खो दी है जो मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी. रहरह कर मन में एक टीस सी उठती थी और मैं उसे भीतर ही भीतर दफन कर लेती.

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पढ़ाई समाप्त होने के बाद मैं ने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर ली. वहीं पर मेरी मुलाकात संदीप से हुई, जो जल्दी ही शादी में तबदील हो गई. संदीप मेरे अंत:स्थल में बैठे दुख को जानते थे. उन्होंने मेरे मन पर पड़े भावों को समझने की कोशिश की तथा आश्वासन भी दिया कि जो कुछ भी उन से बन पड़ेगा, करेंगे.

हम दोनों ने पापा को ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया पर उन का कुछ पता न चल सका. मेरे सोचने के सारे रास्ते आगे जा कर बंद हो चुके थे. मैं ने अब सबकुछ समय पर छोड़ दिया था कि शायद ऐसा कोई संयोग हो जाए कि मैं पापा को पुन: इस जन्म में देख सकूं.

घड़ी ने रात के 2 बजाए. मुझे लगा अब मुझे सो जाना चाहिए. मगर आंखों में नींद कहां. मैं ने अलमारी से पापा की तसवीर निकाली जिस में मैं मम्मीपापा के बीच शिमला के एक पार्क में बैठी थी. मेरे पास पापा की यही एक तसवीर थी. मैं ने उन के चेहरे पर अपनी कांपती उंगलियों को फेरा और फफक कर रो पड़ी, ‘पापा तुम कहां हो…जहां भी हो मेरे पास आ जाओ…देखो, तुम्हारी निकी तुम्हें कितना याद करती है.’

एक दिन सुबह संदीप अखबार पढ़तेपढ़ते कहने लगे, ‘जानती हो आज क्या है?’

‘मैं क्या जानूं…अखबार तो आप पढ़ते हैं,’ मैं ने कहा.

‘आज फादर्स डे है. पापा के लिए कोई अच्छा सा कार्ड खरीद लाना. कल भेज दूंगा.’

‘आप खुशनसीब हैं, जिस के सिर पर मांबाप दोनों का साया है,’ कहतेकहते मैं अपने पापा की यादों में खो गई और मायूस हो गई, ‘पता नहीं मेरे पापा जिंदा हैं भी या नहीं.’

‘हे, ऐसे उदास नहीं होते,’ कहतेकहते संदीप मेरे पास आ गए और मुझे अंक में भर कर बोले, ‘तुम अच्छी तरह जानती हो कि हम ने उन्हें कहांकहां नहीं ढूंढ़ा. अखबारों में भी उन का विवरण छपवा दिया पर अब तक कुछ पता नहीं चला.’

मैं रोने लगी तो मेरे आंसू पोंछते हुए संदीप बोले थे, ‘‘अरे, एक बात तो मैं तुम को बताना भूल ही गया. जानती हो आज शाम को टेलीविजन पर एक नया प्रोग्राम शुरू हो रहा है ‘अपनों की तलाश में,’ जिसे एक बहुत प्रसिद्ध अभिनेता होस्ट करेगा. मैं ने पापा का सारा विवरण और कुछ फोटो वहां भेज दिए हैं. देखो, शायद कुछ पता चल सके.’?

‘अब उन्हें ढूंढ़ पाना बहुत मुश्किल है…इतने सालों में हमारी फोटो और उन के चेहरे में बहुत अंतर आ गया होगा. मैं जानती हूं. मुझ पर जिंदगी कभी मेहरबान नहीं हो सकती,’ कह कर मैं वहां से चली गई.

मेरी आशाओं के विपरीत 2 दिन बाद ही मेरे मोबाइल पर फोन आया. फोन धर्मशाला के नजदीक तपोवन के एक आश्रम से था. कहने लगे कि हमारे बताए हुए विवरण से मिलताजुलता एक व्यक्ति उन के आश्रम में रहता है. यदि आप मिलना चाहते हैं तो जल्दी आ जाइए. अगर उन्हें पता चल गया कि कोई उन से मिलने आ रहा है तो फौरन ही वहां से चले जाएंगे. न जाने क्यों असुरक्षा की भावना उन के मन में घर कर गई है. मैं यहां का मैनेजर हूं. सोचा तुम्हें सूचित कर दूं, बेटी.

‘अंकल, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. बहुत एहसान किया मुझ पर आप ने फोन कर के.’

मैं ने उसी समय संदीप को फोन किया और सारी बात बताई. वह कहने लगे कि शाम को आ कर उन से बात करूंगा फिर वहां जाने का कार्यक्रम बनाएंगे.

‘नहीं संदीप, प्लीज मेरा दिल बैठा जा रहा है. क्या हम अभी नहीं चल सकते? मैं शाम तक इंतजार नहीं कर पाऊंगी.’

संदीप फिर कुछ सोचते हुए बोले, ‘ठीक है, आता हूं. तब तक तुम तैयार रहना.’

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कुछ ही देर में हम लोग धर्मशाला के लिए प्रस्थान कर गए. पूरे 6 घंटे का सफर था. गाड़ी मेरे मन की गति के हिसाब से बहुत धीरे चल रही थी. मैं रोती रही और मन ही मन प्रार्थना करती रही कि वही मेरे पापा हों. देर तो बहुत हो गई थी.

हम जब वहां पहुंचे तो एक हालनुमा कमरे में प्रार्थना और भजन चल रहे थे. मैं पीछे जा कर बैठ गई. मैं ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं और उस व्यक्ति को तलाश करने लगी जो मेरे वजूद का निर्माता था, जिस का मैं अंश थी. जिस के कोमल स्पर्श और उदास आंखों की सदा मुझे तलाश रहती थी और जिस को हमेशा मैं ने घुटन भरी जिंदगी जीते देखा था. मैं एकएक? चेहरा देखती रही पर वह चेहरा कहीं नहीं मिला, जो अपना सा हो.

तभी लाठी के सहारे चलता एक व्यक्ति मेरे पास आ कर बैठ गया. मैं ने ध्यान से देखा. वही चेहरा, निस्तेज आंखें, बिखरे हुए बाल, न आकृति बदली न प्रकृति. वजन भी घट गया था. मुझे किसी से पूछने की जरूरत महसूस नहीं हुई. यही थे मेरे पापा. गुजरे कई बरसों की छाप उन के चेहरे पर दिखाई दे रही थी. मैं ने संदीप को इशारा किया. आज पहली बार मेरी आंखों में चमक देख कर उन की आंखों में आंसू आ गए.

भजन समाप्त होते ही हम दोनों ने उन्हें सहारा दे कर उठाया और सामने कुरसी पर बिठा दिया. मैं कैसे बताऊं उस समय मेरे होंठों के शब्द मूक हो गए. मैं ने उन के चेहरे और सूनी आंखों में इस उम्मीद से झांका कि शायद वह मुझे पहचान लें. मैं ने धीरेधीरे उन के हाथ अपने कांपते हाथों में लिए और फफक कर रो पड़ी.

‘पापा, मैं हूं आप की निकी…मुझे पहचानो पापा,’ कहतेकहते मैं ने उन की गर्दन के इर्दगिर्द अपनी बांहें कस दीं, जैसे बचपन में किया करती थी. प्रार्थना कक्ष के सभी व्यक्ति एकदम संज्ञाशून्य हो कर रह गए. वे सब हमारे पास जमा हो गए.

पापा ने धीरे से सिर उठाया और मुझे देखने लगे. उन की सूनी आंखों में जल भरने लगा और गालों पर बहने लगा. मैं ने अपनी साड़ी के कोने से उन के आंसू पोंछे, ‘पापा, मुझे पहचानो, कुछ तो बोलो. तरस गई हूं आप की जबान से अपना नाम सुनने के लिए…कितनी मुश्किलों से मैं ने आप को ढूंढ़ा है.’

‘यह बोल नहीं सकते बेटी, आंखों से भी अब धुंधला नजर आता है. पता नहीं तुम्हें पहचान भी पा रहे हैं या नहीं,’ वहीं पास खड़े एक व्यक्ति ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा.

‘क्या?’ मैं एकदम घबरा गई, ‘अपनी बेटी को नहीं पहचान रहे हैं,’ मैं दहाड़ मार कर रो पड़ी.

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पापा ने अपना हाथ अचानक धीरेधीरे मेरे सिर पर रखा जैसे कह रहे हों, ‘मैं पहचानता हूं तुम को बेटी…मेरी निकी… बस, पिता होने का फर्ज नहीं निभा पाया हूं. मुझे माफ कर दो बेटी.’

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना संतुलन बनाए रखा था. अपार स्नेह देखा मैं ने उन की आंखों में. मैं कस कर उन से लिपट गई और बोली, ‘अब घर चलो पापा. अपने से अलग नहीं होने दूंगी. 15 साल आप के बिना बिताए हैं और अब आप को 15 साल मेरे लिए जीना होगा. मुझ से जैसा बन पड़ेगा मैं करूंगी. चलेंगे न पापा…मेरी खुशी के लिए…अपनी निकी की खुशी के लिए.’

पापा अपनी सूनी आंखों से मुझे एकटक देखते रहे. पापा ने धीरे से सिर हिलाया. संदीप को अपने पास खींच कर बड़ी कातर निगाहों से देखते रहे जैसे धन्यवाद दे रहे हों.

उन्होंने फिर मेरे चेहरे को छुआ. मुझे लगा जैसे मेरा सारा वजूद सिमट कर उन की हथेली में सिमट गया हो. उन की समस्त वेदना आंखों से बह निकली. उन की अतिभावुकता ने मुझे और भी कमजोर बना दिया.

‘आप लाचार नहीं हैं पापा. मैं हूं आप के साथ…आप की माला का ही तो मनका हूं,’ मुझे एकाएक न जाने क्या हुआ कि मैं उन से चिपक गई. आंखें बंद करते ही मुझे एक पुराना भूला बिसरा गीत याद आने लगा :

‘सात समंदर पार से, गुडि़यों के बाजार से, गुडि़या चाहे ना? लाना…पापा जल्दी आ जाना.’

पापा जल्दी आ जाना- भाग 2: क्या पापा से निकी की मुलाकात हो पाई?

मम्मी अंकल की प्लेट में जबरदस्ती खाना डाल कर खाने का आग्रह करतीं और मुसकरा कर बातें भी कर रही थीं. मैं उन दोनों को भेद भरी नजरों से देखती रही तो मम्मी ने मेरी तरफ कठोर निगाहों से देखा. मैं समझ चुकी थी कि मुझे अपना खाना खुद ही परोसना पड़ेगा. मैं ने अपनी प्लेट में खाना डाला और अपने कमरे में जाने लगी. हमारे घर पर जब भी कोई आता था मुझे अपने कमरे में भेज दिया जाता था. मैं टीवी देखतेदेखते खाना खाती रहती थी.

‘वहां नहीं बेटा, अंकल वहां आराम करेंगे.’

‘मम्मी, प्लीज. बस एक कार्टून…’ मैं ने याचना भरी नजर से उन्हें देखा.

‘कहा न, नहीं,’ मम्मी ने डांटते हुए कहा, जो मुझे अच्छा नहीं लगा.

खाने के बाद अंकल उस कमरे में चले गए तथा मैं और मम्मी दूसरे कमरे में. जब मैं सो कर उठी, मम्मी अंकल के पास चाय ले जा रही थीं. अंकल का इस तरह पापा के कमरे में सोना मुझे अच्छा नहीं लगा. जाने से पहले अंकल ने मुझे ढेर सारी मेरी मनपसंद चाकलेट दीं. मेरी पसंद की चाकलेट का अंकल को कैसे पता चला, यह एक भेद था.

वक्त बीतता गया. अंकल का हमारे घर आनाजाना अनवरत जारी रहा. जिस दिन भी अंकल हमारे घर आते मम्मी उन के ज्यादा करीब हो जातीं और मुझ से दूर. मैं अब तक इस बात को जान चुकी थी कि मम्मी और अंकल को मेरा उन के आसपास रहना अच्छा नहीं लगता था.

एक दिन पापा आफिस से जल्दी आ गए. मैं टीवी पर कार्टून देख रही थी. पापा को आफिस के काम से टूर पर जाना था. वह दवा बनाने वाली कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. आते ही उन्होंने पूछा, ‘मम्मी कहां हैं.’

‘बाहर गई हैं, अंकल के साथ… थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

‘कौन अंकल, तुम्हारे मामाजी?’ उत्सुकतावश उन्होंने पूछा.

‘मामाजी नहीं, चाचाजी…’

‘चाचाजी? राहुल आया है क्या?’ पापा ने बाथरूम में फे्रश होते हुए पूछा.

‘नहीं. राहुल चाचाजी नहीं कोई और अंकल हैं…मैं नाम नहीं जानती पर कभी- कभी आते रहते हैं,’ मैं ने भोलेपन से कहा.

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‘अच्छा,’ कह कर पापा चुप हो गए और अपने कमरे में जा कर तैयारी करने लगे. मैं पापा के पास पानी ले कर आ गई. जिस दिन पापा मेरे सामने जाते मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं उन के आसपास घूमती रहती थी.

‘पापा, कहां जा रहे हो,’ मैं उदास हो गई, ‘कब तक आओगे?’

‘कोलकाता जा रहा हूं मेरी गुडि़या. लगभग 10 दिन तो लग ही जाएंगे.’

‘मेरे लिए क्या लाओगे?’ मैं ने पापा के गले में पीछे से बांहें डालते हुए पूछा.

‘क्या चाहिए मेरी निकी को?’ पापा ने पैकिंग छोड़ कर मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा. मैं क्या कहती. फिर उदास हो कर कहा, ‘आप जल्दी आ जाना पापा… रोज फोन करना.’

‘हां, बेटा. मैं रोज फोन करूंगा, तुम उदास नहीं होना,’ कहतेकहते मुझे गोदी में उठा कर वह ड्राइंगरूम में आ गए.

तब तक मम्मी भी आ चुकी थीं. आते ही उन्होंने पूछा, ‘कब आए?’

‘तुम कहां गई थीं?’ पापा ने सीधे सवाल पूछा.

‘क्यों, तुम से पूछे बिना कहीं नहीं जा सकती क्या?’ मम्मी ने तल्ख लहजे में कहा.

‘तुम्हारे साथ और कौन था? निकिता बता रही थी कि कोई चाचाजी आए हैं?’

‘हां, मनोज आया था,’ फिर मेरी तरफ देखती हुई बोलीं, ‘तुम जाओ यहां से,’ कह कर मेरी बांह पकड़ कर कमरे से निकाल दिया जैसे चाचाजी के बारे में बता कर मैं ने उन का कोई भेद खोल दिया हो.

‘कौन मनोज, मैं तो इस को नहीं जानता.’

‘तुम जानोगे भी तो कैसे. घर पर रहो तो तुम्हें पता चले.’

‘कमाल है,’ पापा तुनक कर बोले, ‘मैं ही अपने भाई को नहीं पहचानूंगा…यह मनोज पहले भी यहां आता था क्या? तुम ने तो कभी बताया नहीं.’

‘तुम मेरे सभी दोस्तों और घर वालों को जानते हो क्या?’

‘तुम्हारे घर वाले गुडि़या के चाचाजी कैसे हो गए. शायद चाचाजी कहने से तुम्हारे संबंधों पर आंच नहीं आएगी. निकिता अब बड़ी हो रही है, लोग पूछेंगे तो बात दबी रहेगी…क्यों?’

और तब तक उन के बेडरूम का दरवाजा बंद हो गया. उस दिन अंदर क्याक्या बातें होती रहीं, यह तो पता नहीं पर पापा कोलकाता नहीं गए.

धीरेधीरे उन के संबंध बद से बदतर होते गए. वे एकदूसरे से बात भी नहीं करते थे. मुझे पापा से सहानुभूति थी. पापा को अपने व्यक्तित्व का अपमान बरदाश्त नहीं हुआ और उस दिन के बाद वह तिरस्कार सहतेसहते एकदम अंतर्मुखी हो गए. मम्मी का स्वभाव उन के प्रति और भी ज्यादा अन्यायपूर्ण हो गया. एक अनजान व्यक्ति की तरह वह घर में आते और चले जाते. अपने ही घर में वह उपेक्षित और दयनीय हो कर रह गए थे.

मुझे धीरेधीरे यह समझ में आने लगा कि पापा, मम्मी के तानों से परेशान थे और इन्हीं हालात में वह जीतेमरते रहे. किंतु मम्मी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. उन का पहले की ही तरह किटी पार्टी, फोन पर घंटों बातें, सजसंवर कर आनाजाना बदस्तूर जारी रहा. किंतु शाम को पापा के आते ही माहौल एकदम गंभीर हो जाता.

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एक दिन वही हुआ जिस का मुझे डर था. पापा शाम को दफ्तर से आए. चेहरे से परेशान और थोड़ा गुस्से में थे. पापा ने मुझे अपने कमरे में जाने के लिए कह कर मम्मी से पूछा, ‘तुम बाहर गई थीं क्या…मैं फोन करता रहा था?’

‘इतना परेशान क्यों होते हो. मैं ने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं आजाद विचारों की हूं. मुझे तुम से पूछ कर जाने की जरूरत नहीं है.’

‘तुम मेरी बात का उत्तर दो…’ पापा का स्वर जरूरत से ज्यादा तेज था. पापा के गरम तेवर देख कर मम्मी बोलीं, ‘एक सहेली के साथ घूमने गई थी.’

‘यही है तुम्हारी सहेली,’ कहते हुए पापा ने एक फोटो निकाल कर दिखाया जिस में वह मनोज अंकल के साथ उन का हाथ पकड़े घूम रही थीं. मम्मी फोटो देखते ही बुरी तरह घबरा गईं पर बात बदलने में वह माहिर थीं.

‘तो तुम आफिस जाने के बाद मेरी जासूसी करते रहते हो.’

‘मुझे कोई शौक नहीं है. वह तो मेरा एक दोस्त वहां घूम रहा था. मुझे चिढ़ाने के लिए उस ने तुम्हारा फोटो खींच लिया…बस, यही दिन रह गया था देखने को…मैं साफसाफ कह देता हूं, मैं यह सब नहीं होने दूंगा.’

‘तो क्या कर लोगे तुम…’

‘मैं क्या कर सकता हूं यह बात तुम छोड़ो पर तुम्हारी इन गतिविधियों और आजाद विचारों का निकी पर क्या प्रभाव पड़ेगा कभी इस पर भी सोचा है. तुम्हें यही सब करना है तो कहीं और जा कर रहो, समझीं.’

‘क्यों, मैं क्यों जाऊं. यहां जो कुछ भी है मेरे घर वालों का दिया हुआ है. जाना है तो तुम जाओगे मैं नहीं. यहां रहना है तो ठीक से रहो.’

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और उसी गरमागरमी में पापा ने अपना सूटकेस उठाया और बाहर जाने लगे. मैं पीछेपीछे पापा के पास भागी और धीरे से कहा, ‘पापा.’

वह एक क्षण के लिए रुके. मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरी तरफ देखा. उन की आंखों में आंसू थे. भारी मन और उदास चेहरा लिए वह वहां से चले गए. मैं उन्हें रोकना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव और आंखें देख कर मैं डर गई. मेरे बचपन की शोखी और नटखटपन भी उस दिन उन के साथ ही चला गया. मैं सारा समय उन के वियोग में तड़पती रही और कर भी क्या सकती थी. मेरे अपने पापा मुझ से दूर चले गए.

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कर्मफल: क्या हुआ था मुनीम के साथ

लेखक- अंसारी एम. जाकिर

गांव की एक कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती सूरज की गाड़ी ईंटभट्ठे पर पहुंची. मुनीम उसे दफ्तर में ले आया. कुछ समय तक सूरज ने फाइलें देखीं, फिर मुनीम उसे भट्ठे का मुआयना कराने लगा, ताकि वह भट्ठे के काम को समझ सके और सभी मजदूर भी अपने छोटे ठाकुर से परिचित हो जाएं.

चलतेचलते सूरज और मुनीम एक ओर गए, जहां कई औरतें मिट्टी गूंधने में मसरूफ थीं. सूरज की नजर खूबसूरत चेहरे, गदराए जिस्म, नशीली आंखों और संतरे की फांकों जैसे होंठों वाली एक लड़की पर जा टिकी.

‘‘मुनीमजी, हम पहली बार मिट्टी में गुलाब खिला हुआ देख रहे हैं,’’ सूरज ने उस लड़की के बदन का बारीकी से मुआयना करते हुए कहा.

‘‘हुजूर, यहां हर रोज आप को ऐसे ही गुलाब खिले मिलेंगे…’’ मुनीम ने भी चुटकी ली.

‘‘मुनीमजी, उस लड़की को कितनी तनख्वाह मिलती है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, वह तनख्वाह पर नहीं,

60 रुपए की दिहाड़ी पर काम करती है,’’ मुनीम ने बताया.

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‘‘बस, 60 रुपए हर रोज… आप इतनी कम दिहाड़ी दे कर उस के हुस्न की तौहीन कर रहे हैं,’’ सूरज ने शिकायती अंदाज में कहा.

‘‘सभी मजदूरों की दिहाड़ी दीवाली पर बढ़ाई जाती है. पिछली दीवाली पर उस की दिहाड़ी 50 रुपए से 60 रुपए हो गई थी. अगली दीवाली पर 70 रुपए कर देंगे,’’ मुनीम ने कहा.

‘‘वह लड़की कितने दिनों से यहां काम कर रही है?’’ सूरज ने पूछा.

‘‘हुजूर, तकरीबन 3 साल से,’’ मुनीम ने जवाब दिया.

‘‘3 साल में हर मजदूर को तरक्की मिल जाती है, पर अब तक उस लड़की की तरक्की क्यों नहीं हुई?’’ सूरज ने नाराजगी जताई.

‘‘हुजूर, दीवाली पर उस का प्रमोशन कर देंगे,’’ मुनीम तुरंत बोला.

अगले पड़ाव पर काम में मसरूफ दूसरी लड़कियों पर नजर डालते हुए सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, ईंटों का यह बगीचा खूबसूरत फूलों से भरा पड़ा है.’’

‘‘हुजूर, यह बगीचा आप का ही है. मैं तो सिर्फ माली हूं. इस बगीचे का जो फूल आप के मन को भाया करे, तो गुलाम को हुक्म कर दें. उसे आप की सेवा के लिए हाजिर कर दिया जाएगा,’’ मुनीम बेहिचक बोला.

पहले तो सूरज ने तीखी नजरों से मुनीम को देखा, फिर एक आजाद कहकहा मार कर बोला, ‘‘आप का बड़ा पारखी दिमाग है. इतनी सी देर में आप हमारी इच्छाओं से वाकिफ हो गए.’’

सूरज के मुंह से अपनी तारीफ सुन कर मुनीम के चेहरे पर मुसकान उभर आई.

सूरज बोला, ‘‘मुनीमजी, हम सब से पहले उस लड़की का प्रमोशन करना चाहते हैं, जिस की मदमस्त जवानी ने हमारे अंदर हलचल सी मचा दी है.’’

अगले दिन मुनीम ने उस लड़की को सूरज की हवेली में पहुंचा दिया.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’ सूरज ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘सुमन…’’ उस लड़की ने शरमाते हुए अपना नाम बताया.

‘‘सुमन का मतलब जानती हो?’’ सूरज ने उस की तरफ बारीकी से नजर डालते हुए पूछा.

‘‘फूल…’’ सुमन बोली.

‘‘तुम भी फूल जैसी कोमल, खूबसूरत और महक वाली हो. तुम्हारे रूप के मुताबिक ही तुम्हारा काम होना चाहिए, इसीलिए तुम्हारे काम में बदलाव कर के तुम्हें तरक्की दे दी है. अब तुम भट्ठे पर काम करने के बजाय यहां का काम देखोगी,’’ सूरज ने उस को बताया.

सुमन अपने काम में मसरूफ हो गई और कुछ ही देर में सूरज के लिए कौफी बना लाई. कौफी का प्याला मेज पर रखने के लिए वह झुकी, तो उस के उभार बाहर झांकने लगे.

सुमन जैसे ही सीधी हुई, सूरज ने आ कर उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

‘‘छोटे ठाकुर, यह क्या कर रहे हैं आप? मैं गांव की लड़की हूं और यह सब नहीं करती,’’ सुमन सूरज की पकड़ से निकलने की कोशिश करने लगी.

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सूरज ने बांहों का घेरा कस लिया और बोला, ‘‘शहर में यह सब आम बात है. तुम्हारी जवानी उफनती नदी की तरह है. मैं तुम्हारी जवानी के समंदर में डूब जाना चाहता हूं.’’

अगले ही पल सूरज की उंगलियां सुमन की छाती पर रेंगने लगीं.

‘‘ऐसा मत करो. गुदगुदी होती है,’’ सुमन ने एक अनोखी सी आह भरी. जब सूरज की छुअन से सुमन को मजा आने लगा, तो उस ने खुद को सूरज के हवाले कर दिया.

सूरज सुमन को बिस्तर पर ले गया. अगले ही पल एकएक कर के सुमन की देह से सारे कपड़े अलग होते चले गए. 2 जवान देहों के टकराने से उठा तूफान तब थमा, जब दोनों जिस्म थक कर निढाल पड़ गए.

मुनीम की मदद से सूरज की इन हरकतों को बढ़ावा मिलता रहा.

एक दिन मुनीम के पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई, जब सूरज की नजर उस की जवान बेटी पर रुकी. वह किसी काम के सिलसिले में मुनीम के पास आई थी.

‘‘मुनीमजी, इस भट्ठे पर हम पहली बार इस लड़की को देख रहे हैं. अब तक उसे कहां छिपा कर रखा था?’’ सूरज ने बेहिचक पूछा.

‘‘छोटे ठाकुर, यह मेरी बेटी पुष्पा है,’’ मुनीम के चेहरे का रंग उतर गया.

‘‘मुनीमजी, पुष्पा हो या सुमन, एक ही बात है. दोनों का मतलब एक ही होता है… फूल. और तुम यह बात अच्छी तरह जानते हो कि हम खूबसूरत फूलों के बहुत शौकीन हैं. जो फूल हमें अच्छा लगता है, उसे सूंघते जरूर हैं,’’ सूरज ने कहा.

मुनीम का दिल धक से रह गया. उस ने एक बार फिर से याद कराया, ‘‘छोटे ठाकुर, पुष्पा मेरी बेटी है.’’

‘‘सुमन भी किसी की बेटी थी,’’ सूरज ने ताना कसा.

मुनीम को वहां से खिसकने में देर न लगी. लेकिन उस के कानों में सूरज के बोलने की आवाज आती रही, ‘‘मुनीमजी, मेरी बातों की टैंशन मत लेना. आज मुझे शराब कुछ ज्यादा चढ़ गई है, इसलिए जबान काबू में नहीं है.’’

मुनीम तेज कदमों से अपनी बेटी के साथ दफ्तर से बाहर निकल आया.

एक दिन अनहोनी घटना घट गई. उस दिन मुनीम ईंटभट्ठे से घर लौटा, तो चौंक पड़ा. मुनीम ने सूरज को घर से बाहर निकलते देखा.

मुनीम के चेहरे पर चिंता के भाव उभर आए. उस के कदम घर में घुसने के लिए तेजी से बढ़े.

पुष्पा दीवार से टेक लगाए बैठी सुबक रही थी. यह नागवार नजारा देख कर मुनीम गश खा कर कटे पेड़ की तरह धड़ाम से फर्श पर गिर पड़ा.

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बंदिनी- भाग 4 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

छठी लाश को देख कर प्रशासन और गांव वाले सभी चकित थे. वह लाश बड़े मंदिर के पुजारी और मोहनलाल के सलाहकार गोपाल चतुर्वेदी की थी. वे नीची जाति से बात करना तो दूर, उन की छाया से भी परहेज करते थे. वे ही अनुबंध के बाद मोहनलाल के घर जाने से पहले सभी लड़कियों का शुद्धि हवन करवाते थे. उन्होंने ही पूजा को चुना था. ऐसा धार्मिक पुरुष इन लोगों के घर क्या करने आया था, इस बात ने सब को अचंभे में डाल दिया था. परंतु क्या वो लोग नहीं जानते थे कि दलाल भी रातों में ही काम करते हैं.

कल्पना और उस की बेटी पूजा घर से लापता थीं. पुलिस वाले एक स्वर में कल्पना को ही अपराधी मान रहे थे. प्रथम दृष्टया में हत्या विष दे कर की गई लगती थी.

काफी देर से कोने में खामोश बैठी रेखा अचानक ही बोल पड़ी थी, ‘‘कल्पना पिछली रात ही अपने प्रेमी के साथ भाग गई है. इन सब को मैं ने मारा है.’’

रेखा की आवाज में लेश मात्र भी कंपन नहीं था. ‘‘ऐ लड़की, तुझे पता भी है क्या कह रही है, फांसी भी हो सकती है,’’ एक पुलिस वाली चिल्ला कर बोली.

रेखा ने एक गहरी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘वैसे भी, बस सांस ले रही हूं. मैं एक मुर्दा ही हूं.’’

अपराध स्वीकार कर लेने के कारण रेखा को उसी पल गिरफ्तार कर लिया गया. कोर्ट में भी वह अपने बयान से नहीं पलटी थी. पूरे आत्मविश्वास के साथ जज की आंखों में आंखें डाल कर अपनी हर बात स्पष्ट रूप से सामने रखी थी. चाहे वह प्रथा की बात हो, चाहे वह कल्पना और पूजा को घर से भागने में सहयोग की बात हो या खुद उन सभी के खाने में विष मिलाने की बात हो.

उस का कहना था कि यदि रेखा भी कल्पना के साथ भाग जाती, तो परिवार वाले कुछ न कुछ कर के उन्हें ढूंढ़ ही लाते. इसी कारण से रेखा ने यहां रहने का निश्चय किया था. परंतु कल्पना भी यह नहीं जानती थी कि रेखा के मन में कब इस योजना ने जन्म ले लिया था.

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इस स्वीकारोक्ति के बाद रेखा को जेल हो गई थी. पिछले 4 सालों से रेखा इस जेल में बंद थी. अपने मधुर व्यवहार की बदौलत रेखा ने सभी का दिल जीत लिया था. आरती की पहल पर ही एक समाजसेवी संगठन के तत्त्वावधान में रेखा की पढ़ाई भी शुरू हो गई थी. जेल की सुपरिटैंडैंट एम के गुप्ता रेखा की स्थिति से अवगत थीं, उन्हें उस से लगाव भी हो गया था. उन्हीं की पहल पर रेखा को खाना बनाने वालों की सहायता में लगा दिया गया था.

इधर, रेखा अविचलित अपने जीवन में आगे बढ़ रही थी, उधर आरती निरंतर उस की रिहाई के प्रयत्न में लगी हुई थी. काफी दिनों के अथक परिश्रम के बाद आज रेखा के केस का फैसला आने वाला था. पिछली बार की सुनवाई में आरोप तय हो गए थे, परंतु आरती न जाने किनकिन से मिल कर रेखा की सजा कम कराने को प्रयत्नशील थीं. फैसले वाले दिन रेखा का जाना आवश्यक नहीं था, वह जाना भी नहीं चाहती थी.

रेखा मनयोग से रोटी बेलने में लगी हुई थी कि तभी लेडी कांस्टेबल ने उसे आरती के आने की सूचना दी थी, ‘‘रेखा, चल तुझ से मिलने तेरी आरती दीदी आई हैं.’’

प्रसन्न मुख के साथ रेखा उस लेडी कांस्टेबल के पीछे चल दी थी.

आरती के मुख पर स्याह बादलों को देख लिया था रेखा ने, परंतु जाहिर में कुछ बोली नहीं थी.

‘‘कैसी हो रेखा?’’

आरती की आवाज की पीड़ा को भी रेखा ने भांप लिया था.

‘‘दीदी, आप परेशान न हों. मैं खुश हूं.’’

‘‘हम्म.’’

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद आरती ने दोबारा बोलना शुरू किया, ‘‘कल्पना का पता चल गया है. वो और पूजा रमन के साथ भागी थीं.’’

‘‘दीदी, इतने दिनों में पहली अच्छी खबर सुनी है. वह रमन ही पूजा का बाप है, कल्पना का दूसरा ग्राहक.’’

रेखा के चेहरे पर मुसकान खिल गई थी. परंतु अपने केस के फैसले के बारे में उस की कोई जिज्ञासा न देख कर आरती ने खुद ही पूछ लिया था.‘‘रेखा, अपने केस के फैसले के बारे में नहीं पूछोगी?’’

‘‘वह क्या पूछना है?’’

‘‘तुम कल्पना को बुलाने क्यों नहीं देतीं. वह तो आने…’’

‘‘नहीं दीदी, आप ने मुझ से वादा किया था,’’ रेखा ने आरती का हाथ थाम लिया था.

‘‘हां, तभी तो जब आज कोर्ट में जज फैसला सुना रहा था, मैं चाह कर भी नहीं कह पाई कि उन सभी लोगों को जहर तुम ने नहीं, कल्पना ने दिया था.’’ इस बार आरती की आवाज में रोष स्पष्ट था. पिछले कुछ सालों में रेखा के साथ उस का एक खूबसूरत रिश्ता बन गया था, जो खून से नहीं दिल से जुड़ा हुआ था.

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‘‘नाराज न हों दीदी, अच्छा बताइए क्या फैसला आया है?’’ रेखा ने आरती के हाथों को सहलाते हुए कहा.

‘‘आजीवन कारावास,’’ इतना कह कर आरती ने रेखा के चेहरे की तरफ देखा. किंतु रेखा के चेहरे पर शांति और संतोष के भाव एकसाथ थे. आरती ने आगे कहा, ‘‘पर तू चिंता मत कर. हमारे पास बड़ी अदालत का विकल्प शेष है.’’

आरती जैसे रेखा को नहीं स्वयं को समझाने लगी थी. रेखा के चमकते मुख को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे अकस्मात ही सूर्य के ऊपर से बादलों का जमावड़ा हट गया हो और उस की समस्त किरणों का प्रकाश रेखा के चेहरे पर सिमट आया हो.

उस ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ आरती की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘दीदी, आप अब कहीं अपील नहीं करेंगी. मुझे यह फैसला स्वीकार है.’’

‘‘तू यह क्या…’’

‘‘दीदी, मेरे केस ने शायद देश के सामने इस कुप्रथा को उजागर कर दिया है. परंतु यह प्रथा तब तक नहीं थमेगी जब तक सरकार तक हमारी बात नहीं पहुंचेगी. धर्म और संस्कृति के ठेकेदार इस मार्ग में चुनौती बन कर खड़े हैं. आप से बस इतनी प्रार्थना है, यह लौ, जो जलाई है, बुझने मत देना.’

आरती उसे आश्चर्य से देख रही थी. ‘‘तुम शायद समझीं नहीं. अब तुम आजीवन बंदिनी ही रहोगी,’’ आरती की आवाज में कंपन था.

आरती की आवाज सुन कर दो पल को थम गई थी रेखा, फिर उस के होंठों पर एक मनमोहक मुसकान फैल गई थी. ‘‘मुझे भी ऐसा ही लगा था कि मैं आजीवन बंदिनी ही रह जाऊंगी. परंतु…’’

‘‘परंतु क्या?’’ आरती उस साहसी स्त्री को श्रद्धा के साथ देखते हुए बोली, ‘‘आज का दिन पावन है, आज बंदिनी की रिहाई की खबर आई है.’’

जीवन की मुसकान

मैं बच्चों के साथ उदयपुर (राजस्थान) गया था. वहां हमारा 3-4 दिनों का कार्यक्रम था. मगर पहले ही दिन जब हम घूमफिर कर वापस होटल पहुंचे ही थे कि मेरे भांजे संजय का फोन आया, ‘‘डैडी (मेरे जीजाजी) के हृदय की शल्य चिकित्सा होने वाली है, सो आप को कल ही दिल्ली पहुंचना है.’’

वापसी में हमें रात 12 बजे की बस की पिछली सीट मिली. सुबह घर पहुंच कर रिकशे वाले को पैसे देने के लिए ज्यों ही पौकेट में हाथ डाला, मेरे होश उड़ गए. पर्स गायब था. उलटेपांव उसी रिकशे से मैं वापस बसस्टैंड गया. देखा, बस अड्डे से बाहर निकल रही है. मैं झट बस पर चढ़ गया और पीछे की सीट पर नजर दौड़ाने लगा. इतने में कंडकटर ने पूछा, ‘‘साहब, क्या देख रहे हैं?’’

मैं ने बताया कि रात को इसी बस से हम उदयपुर से आए थे. अंतिम सीट थी. वहां मेरा पर्र्स गिर गया. इतना जान कर कंडक्टर ने अपनी जेब से निकाल कर पर्स मुझे पकड़ा दिया. पर्स पा कर मैं खुशी से झूम उठा. मैं ने कंडक्टर को बख्शिश देनी चाही, मगर उस ने लेने से मना कर दिया, कहा कि आप को अपना सामान मिल गया, इसी में उसे खुशी है.

उस ने कुछ भी लेने से मना कर दिया. मैं ने सोचा कि आज की इस लालची व स्वार्थभरी दुनिया में इतने ईमानदार लोग भी हैं.    राजकुमार जैन

मेरे दोस्त के बेटे की जन्मदिन की पार्र्टी थी. मैं पूरे परिवार के साथ बर्थडे पार्टी में गया था.

हम सब खाना खा रहे थे. मेरे दोस्त ने शराब की भी व्यवस्था कर रखी थी. कुछ लोग शराब पी रहे थे और मुझे

भी पीने के लिए बारबार बोल रहे

थे. मेरे पास ही मेरा बेटा भी खाना खा रहा था.

बेटे ने कहा, ‘‘मेरे पापा शराब नहीं पीते है. पापा कहते हैं, शराब पीने से कैंसर और कई भयानक बीमारियां होती हैं, जो जानलेवा होती हैं. शराब पी कर लोग घर में बीवीबच्चों से गालीगलौज और मारपीट करते हैं, जो बुरी बात है. आप लोग भी शराब मत पीजिए, सेहत के लिए खराब है.’’

वहां बैठे सभी लोगों का सिर शर्म से झुक गया. जहां बेटे की बात दिल को छू गई वहीं इस बात की भी खुशी हुई कि आज का युवावर्ग शराब जैसी गंभीर समस्याओं के प्रति जागरूक है.

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घूंघट में घोटाला: दुल्हन का चेहरा देख रामसागर को क्यों लगा झटका

रामसागर बड़ा खुश था. उसका दिल बल्लियों उछल रहा था. बात खुशी की ही थी, उसकी शादी जो तय हो गयी थी. आखिरकार इतनी दुआओं और मन्नतों के बाद जीवन में यह शुभ अवसर आया था. वरना उसने तो अब शादी के विषय में सोचना ही छोड़ दिया था. मां-बाप जल्दी गुजर गये थे. रामसागर घर में सबसे बड़ा था. उसके बाद दो बहनें और दो भाई थे, जिनकी पूरी जिम्मेदारी उस अकेले के कंधे पर थी. थोड़ी खेतीबाड़ी थी और एक किराने की दुकान भी.

अट्ठारह बरस की उम्र रही होगी जब मां-बाप साथ छोड़ गये. रामसागर ने बड़ी मेहनत की. चारों भाई-बहनों की देखभाल और उनकी शादी-ब्याह की जिम्मेदारी उसने मां-बाप बन कर उठाये. अब उसकी बयालीस बरस की उम्र हो आयी थी. इस उम्र के उसके दोस्त अपने बच्चों की शादी की चिन्ता में मग्न थे और वो अभी तक छुट्टे बैल की तरह घूम रहा था…! छोटे भाई-बहनों की नय्या पार लगाते-लगाते कब रामसागर के बालों में सफेदी झलकने लगी थी, उसे पता ही नहीं चला. सबका घर बसाने के चक्कर में उसका अपना घर अब तक नहीं बस पाया था.

चलो देर आये दुरुस्त आये. रिश्ते की बुआ ने आखिरकार उसकी सगाई तय करा ही दी. उसका मन बुआ को दुआएं देते नहीं थक रहा था. लड़की पास के गांव की थी. छह बहनों में तीसरे नंबर की. रामसागर अपनी बुआ के साथ लड़की देखने पहुंचा तो शर्म के मारे गर्दन ही नहीं उठ रही थी. लड़की चाय की ट्रे लिए सामने खड़ी थी. रामसागर नजरें नीचे किए बस उसके कोमल पैरों को निहार रहा था. गोरे-गोरे पैर पतली पट्टी की सस्ती सी सैंडिल में चमक रहे थे. नाखूनों पर लाल रंग की नेलपौलिश चढ़ी थी. रामसागर तो उसके पैरों को देखकर ही रीझ गया. बुआ ने कोहनी मारी, ‘जरा नजर उठा कर निहार ले… बाद में न कहना कि कैसी लड़की से ब्याह करवा दिया.’

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रामसागर ने बमुश्किल नजरें उठायीं. लड़की के सिर पर गुलाबी पल्ला था. आधा चेहरा ही रामसागर को नजर आया. चांद सा. बिल्कुल गोरा-गोरा. रामसागर ने धीरे से गर्दन हिला कर अपनी रजामंदी जाहिर कर दी. शादी की तारीख महीने भर बाद की तय हुई थी. रामसागर घर की एक-एक चीज साफ करने में जुटा था. घर में उसके सिवा कोई था ही कहां, जो सब संवारे-बुहारे. सब उसे ही करना था. बहनें ब्याह कर अपने घरों की हो गई थीं. दोनों भाई रोजगार के चक्कर में दिल्ली गये तो वहीं के होकर रह गये. एक-एक करके अपनी पत्नियों और बच्चों को भी ले गये कि वहां बच्चों की अच्छी परवरिश और पढ़ाई हो सकेगी. पीछे रह गया रामसागर. अकेला.

एक महीने में रामसागर ने घर का कायाकल्प कर डाला. अपनी पत्नी के स्वागत में वह जो कुछ भी कर सकता था उसने किया. आखिरकार शादी का दिन भी आ पहुंचा. घोड़ी पर सवार रामसागर कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों से घिरा गाजे-बाजे के साथ धड़कते दिल से अपनी होने वाली ससुराल पहुंचा. लड़की वालों ने स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी. जयमाल, फेरे सब हो गये. रामसागर बस एक नजर अपनी पत्नी के चेहरे को देख लेना चाहता था. मगर चांद पर लंबा घूंघट पड़ा था. आगे पीछे उसकी बहनें, सहेलियां और रिश्ते की बहुएं. सुबह विदाई के वक्त भी लंबा सा घूंघट. विदा की बेला आ गयी. रामसागर घूंघट में जार-जार रोती अपनी दुल्हन को लेकर अपने गांव पहुंच गया. सारा दिन रीति रिवाज निभाते बीत गये. दुल्हन भीतर कमरे में औरतों के बीच दुबकी बैठी रही और वह बाहर मर्दों में. आखिरकार सुहागरात की बेला आ गयी. औरतों ने आकर रामसागर को पुकारा और धक्का देकर कमरे के भीतर धकेल दिया.

चांद पर अब भी घूंघट पड़ा था. रामसागर झिझकते हुए पलंग पर बैठा तो उसका चांद और ज्यादा सिमट गया. काफी देर खामोशी छाई रही. आखिर हिम्मत जुटा कर रामसागर ने घूंघट के पट खोले तो जैसे उसको सांप सूंघ गया. घूंघट का चांद वो चांद नहीं था जो उस दिन नजर आया था. ये तो कुछ फीका-फीका सा था.  बेसाख्ता उसके मुख से निकला, ‘तुम कौन हो?’ वह धीरे से बोली, ‘अनीता’. रामसागर ने कहा, ‘मगर मेरी शादी तो सुनीता से तय हुई थी.’

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अनीता ने गर्दन झुका ली. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई. सकते में डूबे रामसागर ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने बुआ खड़ी थी. वह झपट कर अंदर आयीं और दरवाजा बंद करके पलंग पर बैठ गयीं. रामसागर हैरानी से उनकी ओर देख रहा था. कुछ पूछना ही चाहता था कि बुआ बोल पड़ी, ‘रामसागर ये अनीता है. सुनीता की बड़ी बहन. तेरी शादी सुनीता से तय हुई थी, मगर वह किसी और से प्रेम करती थी. उसके साथ भाग गयी. वह उम्र में भी तुझसे काफी छोटी थी. चंचल थी. तू उसे संभाल नहीं पाता. इसके पिता तो बड़े दुखी थे. मुझे बुला कर सब सच-सच बता दिये थे. माफी मांगते थे. मिन्नतें करते थे. फिर मैंने तेरे लिए अनीता को पसन्द कर लिया. सब विधि का विधान है. यह भी शायद तेरे लिए ही अब तक कुंवारी बैठी थी. छोटी बहनों की शादियां पहले हो गयीं. देख रामसागर, अनीता रूप में भले सुनीता से थोड़ी दबी हो, मगर गुणों की खान है. अपना पूरा घर इसी ने अकेले संभाल रखा था. इसको अपना ले. तेरा ब्याह इसी के साथ हुआ है. अब यही तेरी पत्नी है.’ बुआ रामसागर पर दबाव बनाते हुए बोली.

रामसागर सिर पकड़े नीचे बैठ गया. बुआ और अनीता एकटक उसका चेहरा देख रही थीं कि पता नहीं इस खुलासे का क्या अंजाम सामने आये. चंद सेकेंड बाद रामसागर ने सिर उठाया और बोला, ‘बुआ, घूंघट में घोटाला हो गया… मगर कोई बात नहीं… नुकसान ज्यादा न हुआ.’

बुआ हंस पड़ी, साथ में रामसागर भी ठठा पड़ा और चांद के चेहरे पर भी मुस्कुराहट तैर गयी.

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बंदिनी- भाग 3 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

औरतों के लिए कू्ररता करने में स्वयं औरतें पुरुषों से कहीं आगे हैं. वे शायद यह नहीं जानतीं कि इसी वजह से पुरुषों के लिए उन की नाकदरी और उन का शोषण करना इतना आसान हो जाता है. औरतों का शोषण करने के लिए पुरुषों को साथ भी औरतों का ही मिलता है.

रेखा का शारीरिक शोषण घर के पुरुष करते थे, परंतु घर की स्त्रियां भी उस का जीवन नारकीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. वे सभी घर के पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ तो कभी एकजुट नहीं हो पाईं, परंतु एक निरपराधी को सजा देने में एकजुट हो गई थीं. पुरुषों की शारीरिक भूख रात में शांत कर, दिन में उसे घर के बाकी काम भी निबटाने पड़ते थे.

10 वर्षों के अमानुषिक शोषण के बाद एक दिन एकाएक अनुबंध समाप्त होने का हवाला देते हुए रेखा को वापस उस के परिवार के पास छोड़ दिया गया था. इन 10 सालों में उस के 8 गर्भपात भी हुए थे. कारण जो भी बताया गया हो परंतु रेखा शायद अनुबंध समाप्त करने की सही वजह समझ रही थी.

जब रेखा मोहनलाल के घर पर थी, उस समय एक एनजीओ की मैडम ने एकदो बार उस से संपर्क करने का प्रयास किया था. परंतु उन्हें बुरी तरह प्रताडि़त कर निकाल दिया गया था. बड़ी मुश्किलों से अपने प्राण बचा कर निकल पाई थी बेचारी, परंतु जातेजाते भी न जाने कैसे अपना फोन नंबर कागज पर लिख कर फेंक गई थी. 5वीं तक की गई पढ़ाई काम आई थी उस के, रेखा ने नंबर कंठस्थ करने के बाद कागज को जला दिया था.

ग्वालियर एक शहर था और वहां इस के बाद बात का छिपना आसान नहीं था. सो, रेखा को वापस भेज दिया गया था, वैसे भी, अब तक रेखा का पूर्ण इस्तेमाल हो चुका था.

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10 सालों में रेखा का परिवार भी बदल चुका था. उन की आर्थिक स्थिति अच्छी हो गई थी. कल्पना भी अपने 5वें अनुबंध के खत्म होने के बाद घर आ गई थी. उस की अब एक बेटी भी थी, पूजा.

दोनों ही बहनें जानती थीं कि कुछ ही दिनों में उन्हें उन के नए सहचरों के साथ चले जाना होगा. इसलिए अब अपना पूरा समय दोनों पूजा पर मातृत्व लुटाने में व्यतीत करने लगीं थीं. किंतु अति शीघ्र ही रेखा ने आने वाली विपत्तियों को भांप लिया था, जब उस ने अशोक को अपने द्वार पर खड़ा पाया था, ‘‘तुम हो मेरे नए ग्राहक?’’

अशोक ने रेखा की विदाई के कुछ दिनों बाद ही विवाह कर लिया था. सो, आज वह फिर यहां क्यों आया था, यह समझने में रेखा को थोड़ी देर लगी थी.

‘‘मैं यहां तेरे लिए नहीं आया हूं. वैसे भी तेरे पास बचा क्या है,’’ उस ने बड़ी ही हिकारत से उत्तर दिया था.

‘‘फिर किस लिए आए हो?’’

‘‘मैं पूजा के लिए आया हूं.’’

रेखा सब समझ गई थी. प्रतिदिन की वे गोष्ठियां कल्पना और रेखा के लिए नहीं, बल्कि पूजा के लिए हो रही थीं. अशोक से लड़ना मूर्खता थी. वह सीधा अपने भाइयों के पास गई और बड़े भाई की गरदन दबोच ली.

‘‘9 साल की बच्ची है पूजा, मामा है तू उस का. लज्जा न आई तुझे?’’

एक झटके में उस के भाई ने अपनी गरदन से रेखा का हाथ हटा लिया था. लड़खड़ा गई थी रेखा, कल्पना ने संभाला नहीं होता तो गिर ही जाती.

‘‘दोबारा हिम्मत मत करना, वरना हाथ उठाने के लायक नहीं रहेगी.’’

भाई से इंसानियत की अपेक्षा उस की भूल थी. उस ने कल्पना से बात करनी चाही, ‘‘दीदी, तुम ने सुना, ये लोग पूजा के साथ क्या करने वाले हैं?’’

उत्तर में कल्पना ने मात्र सिर झुका दिया था.

हमारे समाज की ज्यादातर स्त्रियां अपनी कमजोरी को मजबूरी का नाम दे देती हैं. बिना कोशिश किए अपनी हार स्वीकार करने की सीख तो उन्हें जैसे घुट्टी में मिला कर पिलाई जाती है. परजीवी की तरह जीवन गुजारती हैं और फिर एक दिन वैसे ही मृत्यु का वरण कर लेती हैं. हमेशा एक चमत्कार की उम्मीद करती रहती हैं, जैसे कोई आएगा और उन के कष्टों का समाधान हो जाएगा. आत्मनिर्भरता तो वे खुद भीतर कभी जागृत नहीं कर पातीं. कल्पना भी अपवाद नहीं थी.

रेखा और कल्पना के विरोध के बावजूद पूजा का विवाह मोहनलाल के छोटे बेटे से तय कर दिया गया था. वह मंदबुद्धि था. किसी महान पंडित ने उन्हें बताया था कि यदि उस का विवाह एक नाबालिग कुंआरी कन्या से हो जाए तो वह बिलकुल स्वस्थ हो जाएगा. शादी जैसे संजीवनी बूटी हो, खाया और एकदम फिट. रेखा यह भी जानती थी कि उस घर के बंद दरवाजों के पीछे कितना भयावह सत्य छिपा था.

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शादी का मुहूर्त 3 महीने बाद का निकला था. इसी बीच रेखा और कल्पना को भी बेचने की तैयारियां चल रही थीं. रेखा जानती थी कि उस के पास समय कम है, जो करना है जल्द ही करना होगा.

परंतु इस बार रेखा किसी भी तरह का विरोध झेलने के लिए मजबूती के साथ तैयार थी. पिछली बार खुद के लिए लड़ी गई जंग वह हार गई थी, परंतु इस बार उस ने अंतिम सांस तक प्रयत्न करने का निश्चय कर लिया था. पुलिस और पंचायत से तो रेखा ने उसी समय उम्मीद छोड़ दी थी जब उसे जबरदस्ती प्रथा के नाम पर बलि चढ़ा दिया गया था. सभी प्रथाओं की लाश स्त्रियों के कंधों पर ही तो ढोई जाती है.

अपने भाइयों की नजर बचा कर उस ने अपने भाई के मोबाइल से आरतीजी को फोन किया. उस की आपबीती सुन कर आरती ने भी मदद ले कर शीघ्र आने का आश्वासन दिया था. परंतु नियति उस की चौखट पर खड़ी अलग ही कहानी रच रही थी.

वह रात पूनम की थी जो उस घर में अमावस ले कर आई थी. जिस प्रथा को छिपा कर रखने के लिए पूरा गांव कुछ भी करने को तैयार था, उस एक घटना ने इस प्रथा की कलई पूरे देश के सामने खोल कर रख दी थी. इस एक घटना से यह प्रथा समाप्त तो नहीं हुई थी, परंतु वह भारत जो ऐसी किसी प्रथा के अस्तित्व के बारे में अनभिज्ञ था, इस के बारे में बात करने लगा था.

उस रात जब रेखा सोने के लिए अपने कमरे में गई थी, सबकुछ स्वाभाविक ही था. परंतु खुद सुप्त ज्वालामुखी को नहीं पता होता कि उस के किसी हिस्से में आग अभी भी बाकी है. असहनीय पीड़ा की परिणति कभीकभी भयावह होती है. ऐसी बात तो सभी करते हैं, परंतु अगली सुबह जब लोगों ने उस घर में 6 लाशें देखीं, तो मान भी गए थे.

रेखा के अलावा घर के सभी लोग मौत की स्याह चादर ओढ़ कर सो गए थे. उन के वजूद की मृत्यु तो बहुत पहले हो चुकी थी, आज शरीर खत्म हुआ था. एकएक कर पुलिस शिनाख्त कर रही थी.

पहली चादर उस मां के चेहरे पर डाली गई जिस ने अपनी बेटियों को जन्म देने की कीमत उन के शरीर की बोली लगा कर वसूल की थी. कल्पना को मारे गए कई थप्पड़ आज जीवंत हो कर उसी के चेहरे को स्याह कर रहे थे.

अगली चादर उस पिता के ऊपर डाली गई जिस ने पिता होने का कर्तव्य तो कभी नहीं निभाया, परंतु पुत्री के शरीर को भेडि़यों के बीच फेंक कर उस की कीमत वसूलने को अपना अधिकार अवश्य माना था.

फिर चादर उन 2 भाइयों के चेहरों पर डाली गई जो खुद अपनी बहनों के दलाल बने घूमते थे.

चादर उस भाभी के चेहरे पर भी डाली गई जो एक स्त्री थी और मां बनने के लिए न जाने कितने तांत्रिकों व पंडितों के चक्कर लगा रही थी. परंतु जब एक छोटी बच्ची की बोली उस का पति लगा रहा था, वह न केवल मौन थी बल्कि आने वाले धन के मधुर स्वप्नों में खोई हुई थी.

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लड़की- भाग 2 : क्या परिवार की मर्जी ने बर्बाद कर दी बेटी वीणा की जिंदगी

लेखक- रमणी मोटाना

सुधाकर पहले ही ज्योतिषी से मिल चुके थे और उस की मुट्ठी गरम कर दी थी. ‘महाराज, कन्या एक गलत सोहबत में पड़ गई है और उस से शादी करने का हठ कर रही है. कुछ ऐसा कीजिए कि उस का मन उस लड़के की ओर से फिर जाए.

‘आप चिंता न करें यजमान,’ ज्योतिषाचार्य ने कहा.

ज्योतिषी ने वीणा की जन्मपत्री देख कर बताया कि उस का विदेश जाना अवश्यंभावी है. ‘तुम्हारी कुंडली अति उत्तम है. तुम पढ़लिख कर अच्छा नाम कमाओगी. रही तुम्हारी शादी की बात, सो, कुंडली के अनुसार तुम मांगलिक हो और यह तुम्हारे भावी पति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. तुम्हारी शादी एक मांगलिक लड़के से ही होनी चाहिए वरना जोड़ी फलेगीफूलेगी नहीं. एक  बात और, तुम्हारे ग्रह बताते हैं कि तुम्हारी एक शादी ऐनवक्त पर टूट गई थी?’

‘जी, हां.’

‘भविष्य में इस तरह की बाधा को टालने के लिए एक अनुष्ठान कराना होगा, ग्रहशांति करानी होगी, तभी कुछ बात बनेगी.’ ज्योतिषी ने अपनी गोलमोल बातों से वीणा के मन में ऐसी दुविधा पैदा कर दी कि वह भारी असमंजस में पड़ गई. वह अपनी शादी के बारे में कोई निर्णय न ले सकी.

शीघ्र ही उसे अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी से वजीफे के साथ वहां दाखिला मिल गया. उसे अमेरिका के लिए रवाना कर के उस के मातापिता ने सुकून की सांस ली.

‘अब सब ठीक हो जाएगा,’ सुधाकर ने कहा, ‘लड़की का पढ़ाई में मन लगेगा और उस की प्रवीण से भी दूरी बन जाएगी. बाद की बाद में देखी जाएगी.’

इत्तफाक से वीणा के दोनों भाई भी अपनेअपने परिवार समेत अमेरिका जा बसे थे और वहीं के हो कर रह गए थे. उन का अपने मातापिता के साथ नाममात्र का संपर्क रह गया था. शुरूशुरू में वे हर हफ्ते फोन कर के मांबाप की खोजखबर लेते रहते थे, लेकिन धीरेधीरे उन का फोन आना कम होता गया. वे दोनों अपने कामकाज और घरसंसार में इतने व्यस्त हो गए कि महीनों बीत जाते, उन का फोन न आता. मांबाप ने उन से जो आस लगाई थी वह धूलधूसरित होती जा रही थी.

समय बीतता रहा. वीणा ने पढ़ाई पूरी कर अमेरिका में ही नौकरी कर ली थी. पूरे 8 वर्षों बाद वह भारत लौट कर आई. उस में भारी परिवर्तन हो गया था. उस का बदन भर गया था. आंखों पर चश्मा लग गया था. बालों में दोचार रुपहले तार झांकने लगे थे. उसे देख कर सुधाकर व अहल्या धक से रह गए. पर कुछ बोल न सके.

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‘अब तुम्हारा क्या करने का इरादा है, बेटी?’ उन्होंने पूछा.

‘मेरा नौकरी कर के जी भर गया है. मैं अब शादी करना चाहती हूं. यदि मेरे लायक कोई लड़का है तो आप लोग बात चलाइए,’ उस ने कहा.

अहल्या और सुधाकर फिर से वर खोजने के काम में लग गए. पर अब स्थिति बदल चुकी थी. वीणा अब उतनी आकर्षक नहीं थी. समय ने उस पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी थी. उस ने समय से पहले ही प्रौढ़ता का जामा ओढ़ लिया था. वह अब नटखट, चुलबुली नहीं, धीरगंभीर हो गई थी.

उस के मातापिता जहां भी बात चलाते, उन्हें मायूसी ही हासिल होती थी. तभी एक दिन एक मित्र ने उन्हें भास्कर के बारे में बताया, ‘है तो वह विधुर. उस की पहली पत्नी की अचानक असमय मृत्यु हो गई. भास्कर नाम है उस का. वह इंजीनियर है. अच्छा कमाता है. खातेपीते घर का है.’

मांबाप ने वीणा पर दबाव डाल कर उसे शादी के लिए मना लिया. नवविवाहिता वीणा की सुप्त भावनाएं जाग उठीं. उस के दिल में हिलोरें उठने लगीं. वह दिवास्वप्नों में खो गई. वह अपने हिस्से की खुशियां बटोरने के लिए लालायित हो गई.

लेकिन भास्कर से उस का जरा भी तालमेल नहीं बैठा. उन में शुरू से ही पटती नहीं थी. दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर था. भास्कर बहुत ही मितभाषी लेकिन हमेशा गुमसुम रहता. अपने में सीमित रहता.

वीणा ने बहुत कोशिश की कि उन में नजदीकियां बढ़ें पर यह इकतरफा प्रयास था. भास्कर का हृदय मानो एक दुर्भेध्य किला था. वह उस के मन की थाह न पा सकी थी. उसे समझ पाना मुश्किल था. पति और पत्नी में जो अंतरंगता व आत्मीयता होनी चाहिए, वह उन दोनों में नहीं थी. दोनों में दैहिक संबंध भी नाममात्र का था. दोनों एक ही घर में रहते पर अजनबियों की तरह. दोनों अपनीअपनी दुनिया में मस्त रहते, अपनीअपनी राह चलते.

दिनोंदिन वीणा और उस के बीच खाई बढ़ती गई. कभीकभी वीणा भविष्य के बारे में सोच कर चिंतित हो उठती. इस शुष्क स्वभाव वाले मनुष्य के साथ सारी जिंदगी कैसे कटेगी. इस ऊबभरे जीवन से वह कैसे नजात पाएगी, यह सोच निरंतर उस के मन को मथते रहती.

एक दिन वह अपने मातापिता के पास जा पहुंची. ‘मांपिताजी, मुझे इस आदमी से छुटकारा चाहिए,’ उस ने दोटूक कहा. अहल्या और सुधाकर स्तंभित रह गए, ‘यह क्या कह रही है तू? अचानक यह कैसा फैसला ले लिया तू ने? आखिर भास्कर में क्या बुराई है. अच्छे चालचलन का है. अच्छा कमाताधमाता है. तुझ से अच्छी तरह पेश आता है. कोई दहेजवहेज का लफड़ा तो नहीं है न?’

‘नहीं. सौ बात की एक बात है, मेरी उन से नहीं पटती. हमारे विचार नहीं मिलते. मैं अब एक दिन भी उन के साथ नहीं बिताना चाहती. हमारा अलग हो जाना ही बेहतर है.’

‘पागल न बन, बेटी. जराजरा सी बातों के लिए क्या शादी के बंधन को तोड़ना उचित है? बेटी शादी में समझौता करना पड़ता है. तालमेल बिठाना पड़ता है. अपने अहं को त्यागना पड़ता है.’

‘वह सब मैं जानती हूं. मैं ने अपनी तरफ से पूरा प्रयत्न कर के देख लिया पर हमेशा नाकाम रही. बस, मैं ने फैसला कर लिया है. आप लोगों को बताना जरूरी समझा, सो बता दिया.’

‘जल्दबाजी में कोई निर्णय न ले, वीणा. मैं तो सोचती हूं कि एक बच्चा हो जाएगा तो तेरी मुश्किलें दूर हो जाएंगी,’ मां अहल्या ने कहा.

वीणा विद्रूपता से हंसी. ‘जहां परस्पर चाहत और आकर्षण न हो, जहां मन न मिले वहां एक बच्चा कैसे पतिपत्नी के बीच की कड़ी बन सकता है? वह कैसे उन दोनों को एकदूसरे के करीब ला सकता है?’

अहल्या और सुधाकर गहरी सोच में पड़ गए. ‘इस लड़की ने तो एक भारी समस्या खड़ी कर दी,’ अहल्या बोली, ‘जरा सोचो, इतनी कोशिश से तो लड़की को पार लगाया. अब यह पति को छोड़छाड़ कर वापस घर आ बैठी, तो हम इसे सारा जीवन कैसे संभाल पाएंगे? हमारी भी तो उम्र हो रही है. इस लड़की ने तो बैठेबिठाए एक मुसीबत खड़ी कर दी.’

‘उसे किसी तरह समझाबुझा कर ऐसा पागलपन करने से रोको. हमारे परिवार में कभी किसी का तलाक नहीं हुआ. यह हमारे लिए डूब मरने की बात होगी. शादीब्याह कोई हंसीखेल है क्या. और फिर इसे यह भी तो सोचना चाहिए कि इस उम्र में एक तलाकशुदा लड़की की दोबारा शादी कैसे हो पाएगी. लड़के क्या सड़कों पर पड़े मिलते हैं? और इस में कौन से सुरखाब के पर लगे हैं जो इसे कोई मांग कर ले जाएगा,’ सुधाकर बोले.

‘देखो, मैं कोशिश कर के देखती हूं. पर मुझे नहीं लगता कि वीणा मानेगी. वह बड़ी जिद्दी होती जा रही है,’ अहल्या ने कहा.

‘‘तभी तो भुगत रही है. हमारा बस चलता तो इस की शादी कभी की हो गई होती. हमारे बेटों ने हमारी पसंद की लड़कियों से शादी की और अपनेअपने घर में खुश हैं, पर इस लड़की के ढंग ही निराले हैं. पहले प्रेमविवाह का खुमार सिर पर सवार हुआ, फिर विदेश जा कर पढ़ने का शौक चर्राया. खैर छोड़ो, जो होना है सो हो कर रहेगा.’’ बूढ़े दंपती ने बेटी को समझाबुझा कर वापस उस के घर भेज दिया.

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एक दिन अचानक हृदयगति रुक जाने से सुधाकर की मौत हो गई. दोनों बेटे विदेश से आए और औपचारिक दुख प्रकट कर वापस चले गए. वे मां को साथ ले जाना चाहते थे पर अहल्या इस के लिए तैयार नहीं हुई.

अहल्या किसी तरह अकेली अपने दिन काट रही थी कि सहसा बेटी के हादसे के बारे में सुन कर उस के हाथों के तोते उड़ गए. वह अपना सिर धुनने लगी. इस लड़की को यह क्या सूझी? अरे, शादी से खुश नहीं थी तो पति को तलाक दे देती और अकेले चैन से रहती. भला अपनी जान देने की क्या जरूरत थी? अब देखो, जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है. अपनी मां को इस बुढ़ापे में ऐसा गम दे दिया.

बंदिनी- भाग 2 : रेखा ने कौनसी चुकाई थी कीमत

लाखों में एक न होने पर भी रेखा के चेहरे का अपना आकर्षण था. लंबी, छरहरी देह, गेहुआं रंग, सुतवां नाक, और ऊंचे उठे कपोल. बड़ी आंखें जिन में चौबीसों घंटे एक उज्ज्वल हंसी चमकती रहती, काले रेशम जैसे बाल और दोनों गालों पर पड़ने वाले गड्ढे जिस में पलभर का पाहुना भी सदा के लिए गिरने स्वयं ही चला आए. अशोक तो पहली नजर में ही दिल हार बैठा था.

अशोक एक व्यापारी मोहनलाल के घर में काम करता था. मोहनलाल ग्वालियर का एक बहुत बड़ा व्यापारी था. गांव में उस की बहुत जमीनें थीं जिन की देखभाल के लिए उस ने अशोक और उस के बड़े भाई को लगा रखा था. वह साल में कई बार गांव आता था. मंडी में आई अकसर हर कुंआरी लड़की का खरीदार वही होता था. शादीशुदा, अधेड़ उम्र का आदमी और 4 बच्चों का पिता, परंतु पुरुष की उम्र और वैवाहिक स्थिति उस की इच्छाओं के आड़े नहीं आती.

समाज के नियम बनाने वालों के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता. जाति से ब्राह्मण और व्यवसाय से बनिया मोहनलाल बहुत ही कामी और धूर्त पुरुष था. वह अपना व्यवसाय तो बदल चुका था परंतु जातीय वर्चस्व का झूठा अहंकार आज भी कायम था. बहुत जल्द ही वह राजनीतिक मंच पर पदार्पण करने वाला था. इसी व्यस्तता के कारण पिछले कुछ वर्षों में उस का गांव आना थोड़ा कम हो गया था.

अशोक इसी बात से निश्ंिचत था. उस ने रेखा को खरीद कर कहीं दूर भाग जाने की साहसी योजना भी बना रखी थी. शुरू में रेखा केवल अशोक के प्रेम से अवगत थी, वह न तो उस के अस्तित्व के बारे में जानती थी और न ही उस की योजना के बारे में. परंतु कल्पना की  विदाई ने उसे वास्तविकता से अवगत करा दिया था. रेखा को यह भी मालूम हो गया था कि उस के धनलोलुप परिवार के मुंह में खून लग चुका है.

शीघ्र ही रेखा को अपने परिवार की नई योजना की भनक भी लग गई थी. अशोक सदा रेखा से किसी बड़े काम के लिए पैसे बचाने की बात करता था. उस समय रेखा को लगा करता था, वह शायद किसी व्यवसाय हेतु बचत कर रहा है. परंतु अब वह इस बचत के पीछे का मतलब समझ गई थी. किंतु अब रेखा के परिवार वालों के पास एक नया और प्रभावशाली ग्राहक आ गया था. इस में कोई शक नहीं था कि वे रेखा का सौदा उस के साथ तय करने वाले थे.

इस प्रथा की बात छिपाने की वजह से रेखा अशोक से नाराज थी, परंतु अशोक ने उसे समझाबुझा कर शांत कर दिया था. रेखा इस गांव से पहले ही भाग जाना चाहती थी, अशोक के तर्कों से हार गई थी. बदली हुई परिस्थितियों ने उसे भयभीत कर दिया था और उस ने अपना गुस्सा अशोक पर जाहिर किया था कि, ‘‘जिस बहुमूल्य को खरीदने के लिए तू इतने महीनों से धन जोड़ रहा था, उस के कई और खरीदार आ गए हैं.’’

एकाएक हुए इस आघात के लिए अशोक तैयार नहीं था, वह लड़खड़ा गया. न जाने कितने महीनों से पाईपाई जोड़ कर उस ने 2 लाख रुपए जमा किए थे. रेखा की यही बोली उस के भाई ने लगाई थी. अशोक जानता था कि रेखा को अपना बनाने के लिए उस का प्रेम थोड़ा कम पड़ेगा, इसलिए वह धन जोड़ रहा था. परंतु आज रेखा के इस खुलासे ने जाहिर कर दिया था कि विक्रेता अपनी वस्तु के दाम में परिस्थिति के अनुसार बदलाव कर सकता है.

थोड़ी देर पहले रेखा को उस पर गुस्सा आ रहा था, परंतु अब अशोक की दशा देख कर उसे दुख हो रहा था. उस ने करीब जा कर अशोक को अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘तूने कैसे भरोसा कर लिया उस भेडि़ए पर. अरे पगले, जो अपनी बहन का व्यापार कर सकता है, वह क्या कभी सौदे में लाभ से परे कुछ सोच सकता है?’’

‘‘जान से मार दूंगा मैं, उन सब को भी और तेरे भाई को भी,’’ रेखा के बाजुओं को जोर से पकड़ कर उसे अपनी ओर खींचते हुए चिल्ला पड़ा था अशोक.

‘‘अच्छा, मोहनलाल को भी?’’ रेखा ने उस की आंखों में झांकते हुए पूछा था.

वह एक ही पल में छिटक कर दूर हो गया,

‘‘क्य्याआआ?’’

एक दर्दभरी मुसकान खिल गई थी रेखा के चेहरे पर, ‘‘बस, प्यार का ज्वार उतर गया लगता है.’’

काफी समय तक दोनों निशब्द बैठे रहे थे. फिर अशोक ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘रेखा, तू अपने भाई की बात मान ले. हां, परंतु मोहनलाल से पहले तू मेरी बन जा.’’

‘‘पागल हो गया है क्या? मैं…’’ रेखा को अपनी बात पूरी भी नहीं करने दी उस ने और दोबारा बोल पड़ा था, ‘‘रेखा, सारा चक्कर तेरे कौमार्य का है. एक बार तेरा कौमार्य भंग हो गया तो तेरा दाम भी कम हो जाएगा. मोहनलाल ज्यादा से ज्यादा तुझे एक साल रखेगा. चल, हो सकता है तेरी सुंदरता के कारण अवधि को एकदो साल के लिए बढ़ा दे परंतु उस के बाद तो तुझे छोड़ ही देगा. फिर तुझे मैं खरीद लूंगा. लेकिन…’’

‘‘लेकिन?’’

‘‘मैं मोहनलाल को जीतने नहीं दूंगा. कुंआरी लड़कियों का कौमार्य उसे आकर्षित करता है न, तू उसे मिलेगी तो जरूर, पर मैली…’’

रेखा अशोक के ऐसे आचरण के लिए तैयार नहीं थी. पुरुष चाहे कितनी ही लड़कियों के साथ संबंध रखे, वह हमेशा पाक, परंतु स्त्री मैली. वह यह भूल जाता है मैला करने वाला स्वयं पाक कैसे हो सकता है. परंतु कोई भी निर्णय लेने से पहले वह कुछ और प्रश्नों का उत्तर चाहती थी, ‘‘यदि मेरा कोई बच्चा हो गया तो?’’

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‘‘न, न. तुझे गर्भवती नहीं होना है. किसी और का पाप मैं नहीं पालूंगा.’’

एक आह निकल गई थी रेखा के मुख से. इस पुरुष की कायरता से ज्यादा उसे स्वयं की मूर्खता पर क्रोध आ रहा था. उस की वासना को प्रेम समझने की भूल उस ने स्वयं की थी. रेखा ने एक थप्पड़ के साथ अशोक के साथ अपने संबंधों पर विराम लगा दिया था. परंतु अब अपने परिवार द्वारा रचित व्यूह में वह अकेली रह गई थी.

चक्रव्यूह की रचना तो हो गई थी, उसे भेदने के लिए महाभारत काल में अभिमन्यु भी अकेला था और आज रेखा भी अकेली ही थी. तब भी केशव नहीं आए थे और आज भी कोई दैवी चमत्कार नहीं हुआ था. पराजित दोनों ही हुए थे.

पराजित रेखा मोहनलाल की रक्षिता बन ग्वालियर चली गई थी. दूर से ही जिस के जिस्म की सुगंध राह चलते को भी मोह कर पलभर को ठिठका देती थी, वही रेखा अब सूखी झाडि़यों के झंकार के समान मोहनलाल के घर में धूल खा रही थी.

केवल शरीर ही नहीं, वजूद भी छलनी हो गया था उस का. मोहनलाल के घर में बीते वो 10 साल अमानुषिक यातनाओं से भरे हुए थे. उस का शरीर जैसे एक लीज पर ली हुई जमीन थी, जिसे लौटाने से पहले मालिक उस का पूरी तरह से दोहन कर लेना चाहता था. कभी मालिक खुद रौंदता था, कभी उस के रिश्तेदार, तो कभी उस के मेहमान. घर की स्त्रियों से भी सहानुभूति की उम्मीद बेकार थी.

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सोने का घाव : मलीहा और अलीना बाजी के बीच क्या थी गलतफहमी

लेखिका- शकीला एस हुसैन

जैसे ही मैं अपने कमरे से बाहर निकली, अन्नामां, जो मम्मी के कमरे में उन्हें नाश्ता करा रही थी, कहने लगी, ‘‘मलीहा बेटी, बीबी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्होंने नाश्ता नहीं किया. बस, चाय पी है.’’

मैं जल्दी से मम्मी के कमरे में गई. कल से कमजोर लग रही थीं, पेट में दर्द बता रही थीं, आज तो ज्यादा ही निढाल लग रही थीं. मैं ने अन्नामां से कहा, ‘‘अम्मी के बाल संवारो, उन्हें जल्द तैयार करो. मैं गाड़ी गेट पर लगाती हूं.’’

मम्मी को ले कर हम दोनों अस्पताल पहुंचे. जांच होने पर पता लगा कि हार्ट अटैक है. उन का इलाज शुरू हो गया. इस खबर ने जैसे मेरी जान ही निकाल दी पर अगर मैं हिम्मत हार जाती तो यह सब कौन संभालता. मैं ने खुद को कंट्रोल किया, अपने आंसू पी लिए. इस वक्त पापा बेहद याद आए.

मेरे पापा बहुत मोहब्बत करने वाले, केयरिंग व्यक्ति थे. उन की मृत्यु एक ऐक्सिडैंट में हो गई थी. मुझ से बड़ी बहन अलीना बाजी, जिन की शादी हैदराबाद में हुई थी, का 3 साल का एक बेटा है. मैं ने उन्हें फोन कर के खबर देना जरूरी समझा.

मैं आईसीयू में गई. डाक्टर ने काफी तसल्ली दी, ‘‘इंजैक्शन लग चुके हैं, इलाज शुरू है, खतरे की कोई बात नहीं है. अभी दवाओं के असर में सो रही हैं, आराम उन के लिए जरूरी है, उन्हें डिस्टर्ब न करें.’’

मैं ने बाहर आ कर अन्नामां को घर भेज दिया और खुद वेटिंगरूम में जा कर एक कोने में बैठ गई. अच्छा था वेटिंगरूम, काफी खाली था. सोफे पर आराम से बैठ कर मैं ने अलीना बाजी को फोन लगाया. मेरी आवाज सुन कर बड़े ही रूखे अंदाज में सलाम का जवाब दिया. मैं ने अपने गम समेटते हुए आंसू पी कर उन्हें मम्मी के बारे में बताया. वे परेशान हो गईं, कहां, ‘‘मैं जल्द पहुंचने की कोशिश करती हूं.’’

बिना मुझे तसल्ली का एक शब्द कहे उन्होंने फोन बंद कर दिया. मेरे दिल को बड़ा सदमा लगा. मेरी यह वही बहन थी जो मुझे बेइंतहा प्यार करती थी. मेरी जरा सी उदासी पर दुनिया के जतन कर डालती थी. इतनी चाहत, इतनी मोहब्बत के बाद यह बेरुखी. मेरी आंखें आंसुओं से भर गईं. मैं अतीत में खो गई.

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पापा की मौत को थोड़ा समय ही गुजरा था कि मुझ पर एक कयामत टूट पड़ी. पापा ने बहुत देखभाल कर एक अच्छे खानदान में मेरी शादी करवाई थी. शादी काफी शानदार हुई थी. मैं बड़े अरमान ले कर ससुराल गई. मैं ने एमबीए किया था और एक अच्छी कंपनी में जौब कर रही थी. शादी के पहले ही जौब करने के बारे में बात हो गईर् थी. उन लोगों को मेरे जौब करने पर एतराज न था. वे लोग भी मिडिल क्लास के थे. उन की 2 बेटियां थीं, जिन की शादी होनी थी. मुझ नौकरी करने वाली बहू का अच्छा स्वागत हुआ.

मेरी सास अच्छे मिजाज की थीं. मुझ से काफी अच्छा व्यवहार करती थीं. ससुर भी स्नेह रखते थे. मेरे पति देखने में सामान्य थे जबकि मैं खूबसूरत थी. कभीकभी उन की बातों में खुद को ले कर हीनभावना झलकती थी.

शादी के 2-3 महीने के बाद पति का असली रंग खुल कर सामने आ गया. मुझे ले कर नएनए शक उन के दिल में पनपने लगे. पूरे वक्त उन्हें लगता कि मैं उन से बेवफाई कर रही हूं. जराजरा सी बात पर नाराज हो जाते, झगड़ना शुरू कर देते. पर इसे मैं उन का कौंपलैक्स समझ कर टालती रही, निबाह करती रही.

मगर एक दिन तो हद कर दी उन्होंने. मुझे मेरे बौस के साथ एक मीटिंग में जाते देख लिया था. शाम को घर आने पर जबरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया. मुझ पर बेवफाई व बदकिरदारी का इलजाम लगाया. कई लोगों के साथ मेरे ताल्लुक जोड़ दिए.

ऐसे वाहियात इलजाम सुन कर मैं गुस्से से पागल हो उठी और फैसला कर लिया कि यहां जिऊंगी तो इज्जत के साथ, वरना जुदाई बेहतर है. मैं ने सख्त लहजे में कहा, ‘नादिर, अगर आप का रवैया ऐसा ही रहा तो मेरा आप के साथ रहना मुश्किल होगा. आप को अपने लगाए इलजामों के सुबूत देने पड़ेंगे. मुझ पर आप ऐसे फालतू इलजाम नहीं लगा सकते.’

सासससुर ने अपने बेटे को समझाने की कोशिश की. लेकिन वे गुस्से से उफनते हुए बोले, ‘मुझे कुछ साबित करने की जरूरत नहीं. मुझे सब पता है. तुम जैसी आवारा औरतों को घर में नहीं रखा जा सकता. मुझे बदलचन औरतों से नफरत है. मैं ऐसी औरत के साथ नहीं रह सकता. मैं तुम्हें तलाक देता हूं, तलाक देता हूं, तलाक देता हूं.’

और सबकुछ पलभर में खत्म हो गया. मैं मम्मी के पास आ गई. उन पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा. मेरे अहं, मेरे चरित्र पर चोट पड़ी थी. मेरे चरित्र पर लांछन लगाए गए थे. मैं ने धीरेधीरे खुद को संभाल लिया क्योंकि मैं कुसूरवार न थी. यह मेरी इज्जत और अस्मिता की लड़ाई थी. 20-25 दिनों की छुट्टी करने के बाद मैं ने जौब पर जाना शुरू कर दिया.

संभल तो गई मैं, पर खामोशी व उदासी मेरे साथी बन गए. मम्मी मेरा बेहद खयाल रखती थीं. बड़ी बहन अलीना भी आ गईं. वे हर तरह से मुझे ढाढ़स बंधातीं. काफी दिन रुकीं. जिंदगी अपने रूटीन पर आ गई. अलीना बाजी ने इस संकट से निकलने में बड़ी मदद दी. मैं काफी हद तक सामान्य हो गई थी.

उस दिन छुट्टी थी. अम्मी ने 2 पुराने गावतकिए (दीवान के गोल तकिए) निकाले और कहा, ‘ये तकिए काफी सख्त हो गए हैं, इन में नई रुई भर देते हैं.’

मैं ने पुरानी रुई निकाल कर नीचे डाल दी. मैं और अलीना बाजी तख्त पर रखी नई रुई साफ कर रहे थे. मम्मी उसी वक्त कमरे से आ कर हमारे पास ही बैठ गईं. उन के हाथ में एक प्यारी सी चांदी की डब्बी थी. मम्मी ने खोल कर दिखाई. उस में बेपनाह खूबसूरत एक जोड़ी जड़ाऊ कर्णफूल थे. जिस पर पन्ना और रूबी की बड़ी खूबसूरत जड़न थी. इतनी चमक और महीन कारीगरी थी कि हम देखते ही रह गए.

अलीना बाजी की आंखें कर्णफूलों की तरह जगमगाने लगीं. उन्होंने बेचैनी से पूछा, ‘मम्मी ये किस के हैं?’ मम्मी बोलीं, बेटा, ये तुम्हारी दादी के हैं. उन्होंने ये कर्णफूल और माथे का जड़ाऊ झूमर मुझे दिया था. माथे का झूमर मैं ने शादी में तुम्हें दे दिया. अब ये कर्णफूल हैं, इन्हें मैं मलीहा को देना चाहती हूं. दादी की यादगार निशानियां तुम दोनों बहनों के पास रहेगीं, ठीक है न.’

अलीना बाजी के चेहरे का रंग फीका पड़ गया. उन्हें जेवरों का जनून की हद तक शौक था, खासकर एंटीक ज्वैलरी की तो जैसे वे दीवानी थीं. जरा सा गुस्से से वे बोलीं, ‘मम्मी, आप ने ज्यादती की, खूबसूरत और बेमिसाल चीज आप ने मलीहा के लिए रख दी. मैं बड़ी हूं, आप को कर्णफूल मुझे देने चाहिए थे.’

मम्मी ने समझाया, ‘बेटी, तुम बड़ी हो, इसलिए कुंदन का सैट तुम्हें अलग से दिया था, साथ में, दादी का झूमर और एक सोने का सैट दिया था. मलीहा को एक सोने का ही सैट दिया था, उसे मैं ने कर्णफूल (टौप्स) भी उस वक्त नहीं दिए थे. अब दे रही हूं. तुम खुद सोच कर बताओ, क्या गलत किया मैं ने.’

अलीना बाजी अपनी ही बात कहती रहीं. मम्मी के बहुत समझाने पर कहने लगीं, ‘अच्छा, मैं दादी वाला झूमर मलीहा को दे दूंगी, तब आप ये कर्णफूल मुझे दे दीजिएगा. अगली बार मैं आऊंगी, तो झूमर ले कर आऊंगी और कर्णफूल ले जाऊंगी.’

मम्मी ने बेबसी से मेरी तरफ देखा. मेरे सामने अजीब दोराहा था. बहन की मोहब्ब्त या कर्णफूल, मैं ने दिल की बात मानी और कहा, ‘ठीक है बाजी, अगली बार झूमर मुझे दे देना और आप ये कर्णफूल ले कर जाना.’

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मम्मी को यह बात पसंद नहीं आई. पर क्या करतीं, चुप रहीं. अभी ये सब बातें चल ही रही थीं कि घंटी बजी. मम्मी ने जल्दी से कर्णफूल और डब्बी तकिए के नीचे रख दी. पड़ोस की आंटी कश्मीरी सूट वाले को ले कर आईर् थीं. हम सब सूट व शौल वगैरह देखने लगे. काफी अच्छे थे, कीमतें भी सही थीं. हम ने 2-3 सूट लिए. उन के जाने के बाद मम्मी ने वह चांदी की डब्बी निकाल कर दी और कहा, ‘मलीहा, इसे संभाल कर अलमारी में रखे दो.’ मैं डब्बी रख कर आई. फिर हम ने जल्दीजल्दी तकिए के खोलों में रुई भर दी. उन्हें सी कर तैयार कर कवर चढ़ा दिए और दीवान पर रख दिए. 3-4 दिनों बाद अलीना बाजी चली गईं. जातेजाते मुझे याद करा गईं, ‘मलीहा, अगली बार मैं कर्णफूल ले कर जाऊंगी, भूलना मत.’

दिन अपने अंदाज में गुजर रहे थे. एक शादी में शामिल होने चाचाचाची, उन के बच्चे आए. 5-6 दिन रहे. घर में खूब रौनक रही. खूब घूमेफिरे. चाची मेरी मम्मी को कम ही पसंद करती थीं क्योंकि मेरी मम्मी दादी की चहेती बहू थीं. दादी ने अपनी खास चीजें भी मम्मी को दी थीं. चाची की दोनों बेटियों से मेरी खूब बनती थी, हम ने खूब एंजौय किया.

नादिर की मम्मी 2-3 बार आईं. बहुत माफी मांगी, बहुत कोशिश की कि इस मसले का कोई हल निकल जाए, पर जब अहं और चरित्र पर चोट पड़ती है तो औरत बरदाश्त नहीं कर पाती. मैं ने किसी भी तरह के समझौते से साफ इनकार कर दिया.

अलीना बाजी के बेटे की सालगिरह फरवरी में थी. उन्होंने फोन कर के कहा कि वे अपने बेटे अशर की सालगिरह नानी के घर में मनाएंगी. मैं और मम्मी बहुत खुश हुए. बड़े उत्साह से पूरे घर को ब्राइट कलर से पेंट करवाया. कुछ नया फर्नीचर भी लिया. एक हफ्ते बाद अलीना बाजी अपने शौहर समर के साथ आ गईं. घर की डैकोरेशन देख कर बहुत खुश हुईं.

सालगिरह के दिन सुबह से ही सारे काम शुरू हो गए. दोस्तोंरिश्तेदारों सब को बुलाया था. मैं और मम्मी नाश्ते के बाद अरेंजमैंट के बारे में बातें करने लगे. खाना और केक बाहर से और्डर पर बनवाया था. उसी वक्त अलीना बाजी आईं, मम्मी से कहने लगीं, ‘मम्मी, लीजिए, आप यह झूमर संभाल कर रख लीजिए और मुझे कर्णफूल दे दीजिए. आज मैं अशर की सालगिरह में पहनूंगी.’ अम्मी ने मुझ से कहा, ‘जाओ मलीहा, वह डब्बी निकाल कर ले आओ.’ मैं ने डब्बी ला कर मम्मी के हाथ पर रख दी. बाजी ने बेसब्री से डब्बी उठा कर खोली. डब्बी खोलते ही वे चीख पड़ीं, ‘मम्मी, कर्णफूल तो इस में नहीं हैं.’

मम्मी ने झपट कर डब्बी उन के हाथ से ली. सच ही, डब्बी खाली पड़ी थी. मम्मी एकदम सन्न रह गईं. मेरे तो जैसे हाथपैरों की जान निकल गई. अलीना बाजी की आंखों में आंसू थे. उन्होंने ऐसी शकभरी नजरों से मुझे देखा कि मुझे लगा, काश, जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊं. बाजी गुस्से में जा कर अपने कमरे में लेट गईं.

मैं ने और मम्मी ने अलमारी का कोनाकोना छान मारा, पर कहीं कर्णफूल न मिलें. अजब पहेली थी. मैं ने अपने हाथ से डब्बी अलमारी में रखी थी. उस के बाद कभी निकाली ही नहीं. फिर कर्णफूल गए कहां?

एक बार खयाल आया, ‘अभी चाचाचाची आए थे. और चाची दादी के जेवर की वजह से मम्मी से बहुत जलती थीं कि सब कीमती चीजें उन्होंने मम्मी को दी थीं. कहीं उन्होंने तो मौका देख कर, हक समझ कर निकाल लिए.’ मैं ने मम्मी से अपने मन की बात कही तो वे कहने लगीं, ‘मैं ऐसा नहीं सोचती कि वे ऐसा कर सकती हैं.’

फिर मेरा ध्यान घर पेंट करने वालों की तरफ गया. उन लोगों ने 3-4 दिनों काम किया था. भूल से कभी अलमारी खुली रह गई हो और उन्हें हाथ साफ करने का मौका मिल गया हो. मम्मी कहने लगीं, ‘नहीं बेटा, बिना देखे, बिना सुबूत के किसी पर इलजाम लगाना गलत है. जो चीज जानी थी वह चली गई. बेवजह किसी पर इलजाम क्यों लगाएं.’

सालगिरह का दिन बेरंग हो गया. किसी का दिलदिमाग ठिकाने न था. अलीना बाजी के हस्बैंड समर भाई ने परिस्थिति संभाली. सब काम ठीकठाक हो गए. दूसरे दिन अलीना बाजी ने जाने की तैयारी शुरू कर दी. मम्मी ने हर तरह से समझाया, कई तरह की दलीलें दीं. समरभाई ने भी समझाया, पर वे रुकने को तैयार न हुईं. मैं ने उन्हें कसम खा कर यकीन दिलाना चाहा, ‘मैं बेकुसूर हूं. कर्णफूल गायब होने में मेरा कोई हाथ नहीं है.’

उन्हें किसी बात पर यकीन न आया. उन के चेहरे पर छले जाने के भाव देखे जा सकते थे. शाम को वे चली गईं. पूरे घर में एक बेबस सी उदासी पसर गई. मेरे दिल पर अजब सा बोझ था. मैं अलीना बाजी से शर्मिंदा थी कि अपना वादा निभा न सकी.

पिछले 2 सालों में अलीना बाजी सिर्फ 2 बार मम्मी से मिलने आईं वह भी 2-3 दिनों के लिए. आने पर मुझ से तो बात ही न करतीं. मैं ने बहन के साथसाथ एक अच्छी दोस्त भी खो दी. बारबार सफाई देना फुजूल था. मैं ने चुप्पी साध ली. मेरी खामोशी ही शायद मेरी बेगुनाही की जबां बन जाए. वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है. शायद यह गम भी मंद पड़ जाए. हलकी सी आहट हुई और मैं अतीत से वर्तमान में आ गई. सिर उठा कर देखा, नर्स खड़ी थी, कहने लगी, ‘‘पेशेंट आप से मिलना चाहती हैं.’’

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मुंह धो कर मैं मम्मी के पास आईसीयू में गई. मम्मी काफी बेहतर थीं. मुझे देख कर उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई. वे मुझे समझाने लगीं, ‘‘बेटी, तुम परेशान न हो. उतारचढ़ाव तो जिंदगी में आते रहते हैं. उन का हिम्मत से मुकाबला कर के ही हराया जा सकता है.’’

मैं ने उन्हें हलका सा नाश्ता कराया. डाक्टर ने कहा, ‘‘उन की हालत काफी ठीक है. आज रूम में शिफ्ट कर देंगे.

2-4 दिनों में छुट्टी कर देगें. पर दवा और परहेज का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. ऐसी कोई बात न हो जिस से उन्हें स्ट्रैस पहुंचे.’’

शाम तक अलीना बाजी आ गईं. मुझ से सिर्फ सलामदुआ हुई. वे मम्मी के पास रुकीं, मैं घर आ गई. 3 दिनों बाद मम्मी भी घर आ गईं. अब उन की तबीयत अच्छी थी. हम उन्हें खुश रखने की ही कोशिश करते. एक हफ्ता तो मम्मी को देखने आने वालों में गुजर गया. मैं ने भी औफिस जौइन कर लिया. मम्मी के बहुत कहने पर बाजी ज्यादा रुकने को राजी हो गईं. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. अब मम्मी भी हलकेफुलके काम कर लेती थीं.

अलीना बाजी और उन के बेटे की वजह से घर में अच्छी रौनक रहती. उस दिन छुट्टी थी, मैं घर की सफाई में जुट गई. मम्मी कहने लगीं, ‘‘बेटा, गावतकिए फिर बहुत सख्त हो गए हैं, एक बार खोल कर रुई तोड़ कर भर दो.’’ अन्नामां तकिए उठा लाईं. उन्हें खोलने लगी. फिर मैं और अन्नामां रुई तोड़ने लगीं. कुछ सख्त सी चीज हाथ को लगी, मैं ने झुक कर नीचे देखा. मेरी सांस जैसे थम गई. दोनों कर्णफूल रुई के ढेर में पड़े थे. होश जरा ठिकाने आए तो मैं ने कहा, ‘देखिए मम्मी, ये रहे कर्णफूल.’’

बाजी ने कर्णफूल उठा लिए और मम्मी के हाथ पर रख दिए. मम्मी का चेहरा खुशी से चमक उठा. जब दिल को यकीन आ गया कि कर्णफूल मिल गए और खुशी थोड़ी कंट्रोल में आई तो बाजी बोलीं, ‘‘ये कर्णफूल यहां कैसे?’’

मम्मी सोच में पड़ गईं, फिर रुक कर कहने लगीं, ‘‘मुझे याद आता है अलीना, उस दिन भी तुम लोग तकिए की रुई तोड़ रही थीं. तभी मैं कर्णफूल निकाल कर लाई थी. हम उन्हें देख रहे थे जब ही घंटी बजी थी. मैं जल्दी से कर्णफूल डब्बी में रखने गई, पर हड़बड़ी में घबरा कर डब्बी के बजाय रुई में रख दिए और डब्बी तकिए के पीछे रख दी थी. कर्णफूल रुई में दब कर छिप गए. कश्मीरी शौल वाले के जाने के बाद डब्बी मैं ने अलमारी में रखवा दी, लेकिन कर्णफूल रुई में दब कर रुई के साथ तकिए के अंदर चले गए और मलीहा ने तकिए सिल कर कवर चढ़ा कर रख दिए. हम समझते रहे, कर्णफूल डब्बी में अलमारी में सेफ रखे हैं.

‘‘जब अशर की सालगिरह के दिन अलीना ने तुम से कर्णफूल मांगे तो पता चला कि उस में कर्णफूल नहीं हैं और अलीना तुम ने सारा इलजाम मलीहा पर लगा दिया.’’ मम्मी ने अपनी बात खत्म कर के एक दुखभरी सांस छोड़ी.

अलीना के चेहरे पर पछतावा था. दुख और शर्मिंदगी से उस की आंखें भर आईं. वे दोनों हाथ जोड़ कर मेरे सामने खड़ी हो गईं. रूंधे गले से कहने लगीं, ‘‘मेरी बहन, मुझे माफ कर दो. बिना सोचेसमझे तुम पर दोष लगा दिया. पूरे 2 साल तुम से नाराजगी में बिता दिए. मेरी गुडि़या मेरी गलती माफ कर दो.’’

मैं तो वैसे भी प्यारमोहब्बत को तरसी हुई थी. जिंदगी के मरूस्थल में खड़ी हुई थी. मेरे लिए चाहत की एक बूंद अमृत के समान थी. मैं बाजी से लिपट कर रो पड़ी. आंसुओं में दिल में फैली नफरत व जलन की गर्द धुल गई. अम्मी कहने लगीं, ‘‘अलीना, मैं ने तुम्हें पहले भी समझाया था कि मलीहा पर शक न करो. वह कभी भी तुम से छीन कर कर्णफूल नहीं लेगी. उस का दिल तुम्हारी चाहत से भरा है. वह कभी तुम से छल नहीं करेगी.’’

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बाजी शर्मिंदगी से बोलीं, ‘‘मम्मी, आप की बात सही है, पर एक मिनट मेरी जगह खुद को रख कर सोचिए, मुझे एंटीक ज्वैलरी का दीवानगी की हद तक शौक है. ये कर्णफूल बेशकीमत एंटीक पीस हैं. मुझे मिलना चाहिए थे पर आप ने मलीहा को दे दिया. मुझे लगा, मेरी इल्तजा सुन कर वह मान गई, फिर उस की नीयत बदल गई. उस की चीज थी, उस ने गायब कर दी. यह माना कि  ऐसा सोचना मेरी खुदगर्जी थी, गलती थी. इस की सजा के तौर पर मैं इन कर्णफूल को मलीहा को ही देती हूं. इन पर मलीहा का ही हक है.’’

मैं जल्दी से बाजी से लिपट गईर् और बोली, ‘‘ये कर्णफूल आप के पहनने से जो खुशी मुझे होगी वह खुद के पहनने से नहीं होगी. ये आप के हैं, आप ही लेंगी.’’

मम्मी ने भी समझाया, ‘‘बेटा, जब मलीहा इतनी मिन्नत कर रही है तो मान जाओ. मोहब्बत के रिश्तों के बीच दीवार नहीं आनी चाहिए.’’

‘‘रिश्ते फूलों की तरह नाजुक होते हैं, नफरत व शक की धूप उन्हें झुलसा देती है. फिर ये टूट कर बिखर जाते हैं,’’ यह कहते हुए मैं ने बाजी के कानों में कर्णफूल पहना दिए.

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