सौत से सहेली: क्या शिखा अपनी गृहस्थी बचा पाई

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इसी को कहते हैं जीना: क्या सही था नेहा का तरीका

‘‘ने हा, क्या तुम ने कभी यह सोचा है कि तुम अकेली क्यों हो? हर इनसान तुम से दूर क्यों भागता है?’’

नेहा चुपचाप मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘किसी भी रिश्ते को निभाने में तुम्हारा कितना योगदान होता है, क्या तुम ने कभी महसूस किया है? जहां कहीं भी तुम्हारी दोस्ती होती है वहां तुम्हारा समावेश उतना ही होता है जितना तुम पसंद करती हो. कोई तुम्हारे काम आता है तो उसे तुम अपना अधिकार ही मान कर चलने लगती हो. जिन से तुम दोस्ती करती हो उन्हें अपनी जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करती हो और काम हो जाने के बाद धन्यवाद बोलना भी जरूरी नहीं समझती हो…लोग तुम्हारे काम आएं पर तुम किसी के काम आओ यह तुम्हें पसंद नहीं है, क्योंकि तुम्हें लोगों से ज्यादा मिलनाजुलना पसंद नहीं है. जो तुम्हारे काम आते हैं उन से तुम हफ्तों नहीं मिलतीं तो सिर्फ इसलिए कि स्कूल के बाद तुम्हें अपने घर को साफ करवाना जरूरी होता है.

‘‘अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे घर में कितने लोग हैं जो रोज इतनी साफसफाई करवाती हो. साफ घर हर रोज इस तरह साफ करती हो मानो दीवाली आने वाली हो. आता कौन है तुम्हारे घर पर? न तुम्हारे मांबाप आते हैं न सासससुर…पति न जाने किस के साथ कहां चला गया, तुम खुद भी नहीं जानतीं.’’

आंखें और भी फैल गईं नेहा की.

‘‘जरा सोचो, नेहा, तुम कब किसी के काम आती हो. कब तुम अपने कीमती समय में से समय निकाल कर किसी का सुखदुख पूछती हो…कितना बनावटी आचरण है तुम्हारा. मुंह पर जिस की तारीफ करती हो पीठ पीछे उसी की बुराई करने लगती हो. क्या तुम्हें प्रकृति से डर नहीं लगता? सोने से पहले क्या कभी यह सोचती हो कि आज रात अगर तुम मर जाओ तो क्या तुम कोई कर्ज साथ नहीं ले जाओगी?’’

‘‘किस का कर्ज है मेरे सिर पर? मुझे तो किसी का कोई रुपयापैसा नहीं देना है.’’

‘‘रुपएपैसे के आगे भी कुछ होता है, जो कर्ज की श्रेणी में आता है.

‘‘रुपएपैसे के एहसान को तो इनसान पैसे से चुका सकता है मगर उन लोगोें का बदला कैसे चुकाया जा सकता है जहां  लगाव, हमदर्दी और अपनत्व का कर्ज हो. जिस ने मुसीबत में तुम्हें सहारा दिया उस का कभी हालचाल भी नहीं पूछती हो तुम.’’

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘इस का मतलब तुम पर किस के एहसान का कर्ज है यह भी तुम्हें याद नहीं.’’

मैं नेहा का मित्र हूं और हमारी मित्रता का कोई भी भविष्य मुझे अब नजर नहीं आ रहा. मित्रता तो एक तरह का निवेश है. प्यार दो तो प्यार मिलेगा. आज तुम किसी के काम आओ तो कल कोई तुम्हारे काम आएगा. नेहा तो सूखी रेत है जिस पर चाहो तो मन भर पानी बरसा दो वह फिर भी गीली नहीं हो सकती.

अफसोस हो रहा है मुझे खुद पर और नेहा पर भी. खुद पर इसलिए कि मैं  नेहा का मित्र हूं और नेहा पर इसलिए कि क्या उसे कोई किनारा मिल पाएगा कभी? क्या वह रिश्ता निभाना सीख पाएगी कभी?

नेहा से मेरी जानपहचान शर्माजी के घर हुई थी. शर्माजी हमारे विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं और बड़े सज्जन पुरुष हैं. शर्माजी की पत्नी ललिताजी भी बड़ी मिलनसार और ममतामयी महिला हैं. मैं कुछ फाइलें उन्हें दिखाने उन के घर गया था, क्योंकि वह कुछ दिन से बीमार चल रहे थे.

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हम दोनों के सामने चाय रख कर ललिताजी जल्दी से निकल गई थीं. टिफिन था उन के हाथ में.

‘‘भाभीजी बच्चों को टिफिन देने गई हैं क्या?’’

‘‘अरे, बच्चे कहां हैं यहां हमारे,’’ शर्माजी बोले, ‘‘दोनों बेटे अपनीअपनी नौकरी पर बाहर हैं. यहां तो हम बुड्ढाबुढि़या ही हैं. तुम्हें क्या हमारी उम्र इतनी छोटी लग रही है कि हमारे बच्चे स्कूल जाते होंगे.

‘‘मेरी पत्नी समाज सेवा में भी विश्वास करती है. यहां 2 घर छोड़ कर कोई बीमार है…उसी को खाना देने गई है. अकेली लड़की है. बीमार है, बस, उसी की देखभाल करती रहती है. क्या करे बेचारी? अपने बच्चे तो दूर हैं न. उन की ममता उसी पर लुटा कर खुश हो लेती है.’’

तब पहली बार नेहा के बारे में जाना था. स्कूल में टीचर है और पति कुछ समय पहले कहीं चला गया था. शादी को 2-3 साल हो चुके हैं. कोई बच्चा नहीं है. अकेली रहती है, इसलिए ललिताजी उस से दोस्ती कर के उस की मदद करती रहती हैं और समय का सदुपयोग भी.

अभी हम फाइलें देख ही रहे थे कि ललिताजी वापस चली आईं और अपने साथ नेहा को भी लेती आई थीं.

‘‘बहुत तेज बुखार है इसे. मैं साथ ही ले आई हूं. बारबार उधर भी तो नहीं न जाया जाता.’’

ललिताजी नेहा को दूसरे कमरे में सुला आई थीं और अब शर्माजी को समझा रही थीं,  ‘‘देखिए न, अकेली बच्ची वहां पड़ी रहती तो कौन देखता इसे. बेचारी के मांबाप भी दूर हैं न…’’

‘‘दूर कहां हैं…हम हैं न उस के मांबाप…हर शहर में हमारी कम से कम एक औलाद तो है ही ऐसी जिसे तुम ने गोद ले रखा है. इस शहर में नहीं थी सो वह कमी भी दूर हो गई.’’

‘‘नाराज क्यों हो रहे हैं…जैसे ही बुखार उतर जाएगा वह चली जाएगी. आप भी तो बीमार हैं न…आप का खानापीना भी देखना है. 2-2 जगह मैं कै से देखूं.’’

मैं ने भी उसी पल उन्हें ध्यान से देखा था. बहुत ममतामयी लगी थीं वह मुझे. बहुत प्यारी भी थीं.

लगभग 4 घंटे उस दिन मैं शर्माजी के घर पर रहा था और उन 4 घंटों में शर्मा दंपती का चरित्र पूरी तरह मेरे सामने चला आया था. बहुत प्यारी सी जोड़ी है उन की.  ललिताजी तो ऐसी ममतामयी कि मानो पल भर में किसी की भी मदद करने को तैयार. शर्माजी पत्नी की इस आदत पर ज्यादातर खुश ही रहते.

मेरे साथ भी मां जैसा नाता बांध लिया था ललिताजी ने. सचमुच कुछ लोग इतने सीधेसरल होते हैं कि बरबस प्यार आने लगता है उन पर.

‘‘देखो बेटा, मनुष्य को सदा इस  भावना के साथ जीना चाहिए कि मेरा नाम कहीं लेने वालों की श्रेणी में तो नहीं आ रहा.’’

‘‘मांजी, मैं समझा नहीं.’’

‘‘मतलब यह कि मुझे किसी का कुछ देना तो नहीं है न, कोई ऐसा तो नहीं जिस का कर्ज मेरे सिर पर है, रात को जब बिस्तर पर लेटो तब यह जरूर याद कर लिया करो. किसी से कुछ लेने की आस कभी मत करो. जब भी हाथ उठें देने के लिए उठें.’’

मंत्रमुग्ध सा देखता रहता मैं  ललिताजी को. जब भी उन से मिलता था कुछ नया ही सीखता था. और उस से भी ज्यादा मैं यह सीखने लगा था कि नेहा के करीब कैसे पहुंचा जाए. नेहा अपना कोई न कोई काम लिए ललिताजी के पास आ जाती और मैं उस के लिए कुछ सोचने लगता.

‘‘बहुत अच्छी लड़की है, पढ़ीलिखी है, मेरा जी चाहता है उस का घर पुन: बस जाए.’’

‘‘मांजी, उस का पति वापस आ गया तो. ऐसी कोई तलाक जैसी प्रक्रिया तो नहीं गुजरी न दोनों में. पुन: शादी के बारे में कैसे सोचा जा सकता है.’’

शर्माजी के घर से शुरू हुई हमारी जानपहचान उन के घर के बाहर भी जारी रही और धीरेधीरे हम अच्छे दोस्त बन गए.

ललिताजी से मिलना कम हो गया और हर शाम मैं और नेहा साथसाथ रहने लगे. मार्च का महीना था जिस वजह से आयकर रिटर्न का काम भी नेहा ने मुझे सौंप दिया. कभी नया राशन कार्ड बनाना होता और कभी पैन कार्ड का चक्कर. उस के घर की किस्तें भी हर महीने मेरे जिम्मे पड़ने लगीं. 2-3 महीने में नेहा के सारे काम हो गए. कभीकभी मुझे लगता, मैं तो उस का नौकर ही बन गया हूं.

कुछ दिन और बीते. एक दिन पता चला कि ललिताजी को भारी रक्तस्राव की वजह से आधी रात को अस्पताल में भरती कराना पड़ा. शर्माजी छुट्टी पर चले गए. उन के  बच्चे दूर थे इसलिए उन्हें परेशान न कर वह पतिपत्नी सारी तकलीफ खुद ही झेल रहे थे.

मेरा परिवार भी दूर था सो कार्यालय के बाद मैं भी अस्पताल चला आता था, उन के पास.

नेहा अस्पताल में नहीं दिखी तो सोचा, हो सकता है वह ललिताजी का घर संभाल रही हो. ललिताजी का आपरेशन हो गया. मैं छुट्टी ले कर उन के आसपास ही रहा. नेहा कहीं नजर नहीं आई. एक दिन शर्माजी से पूछा तो वह हंस पड़े और बताने लगे :

‘‘जब से तुम उस के काम कर रहे हो तब से वह मुझ से या ललिता से मिली कब है, हमें तो अपनी सूरत भी दिखाए उसे महीना बीत गया है. बड़ी रूखी सी है वह लड़की.’’

मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच नेहा अब इन दोनों से मिलती- जुलती नहीं. हैरानी के साथसाथ अफसोस भी होने लगा था मुझे.

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ललिताजी अभी बेहोशी में थीं और शर्माजी उन का हाथ पकड़े बैठे थे.

‘‘ललिता का तो स्वभाव ही है. कोई एक कदम इस की तरफ बढ़ाए तो यह 10 कदम आगे बढ़ कर उस का साथ देती है. हम नएनए इस शहर में आए थे. यह लड़की एक शाम फोन करने आई थी. उस का फोन काम नहीं कर रहा था… गलती तो ललिता की ही थी… किसी की भी तरफ बहुत जल्दी झुक जाती है.’’

स्तब्ध था मैं. अगर मुझ से भी नहीं मिलती तो किस से मिलती है आजकल?

4 दिन और बीत गए. मैं आफिस के बाद हर शाम अस्पताल चला जाता. मुझे देखते ही ललिताजी का चेहरा खिल जाता. एक बार तो ठिठोली भी की उन्होंने.

‘‘बेचारा बच्चा फंस गया हम बूढ़ों के चक्कर में.’’

‘‘आप मेरी मां जैसी हैं. घर पर होता और मां बीमार होतीं तो क्या उन के पास नहीं जाता मैं?’’

‘‘नेहा से कब मिलते हो तुम? हर शाम तो यहां चले आते हो?’’

‘‘वह मिलती ही नहीं.’’

‘‘कोई काम नहीं होगा न. काम पड़ेगा तो दौड़ी चली आएगी,’’ ललिताजी ने ही उत्तर दिया.

शर्माजी कुछ समय के लिए घर गए तब ललिताजी ने इशारे से पास बुलाया और कहने लगीं, ‘‘मुझे माफ कर देना बेटा, मेरी वजह से ही तुम नेहा के करीब आए. वह अच्छी लड़की है लेकिन बेहद स्वार्थी है. मोहममता जरा भी नहीं है उस में. हम इनसान हैं बेटा, सामाजिक जीव हैं हम… अकेले नहीं जी सकते. एकदूसरे की मदद करनी पड़ती है हमें. शायद यही वजह है, नेहा अकेली है. किसी की पीड़ा से उसे कोई मतलब नहीं है.’’

‘‘वह आप से मिलने एक बार भी नहीं आई?’’

‘‘उसे पता ही नहीं होगा. पता होता तो शायद आती…और पता वह कभी लेती ही नहीं. जरूरत ही नहीं समझती वह. तुम मिलना चाहो तो जाओ उस के घर, इच्छा होगी तो बात करेगी वरना नहीं करेगी… दोस्ती तक ही रखना तुम अपना रिश्ता, उस से आगे मत जाना. इस तरह के लोग रिश्तों में बंधने लायक नहीं होते, क्योंकि रिश्ते तो बहुत कुछ मांगते हैं न. प्यार भी, स्नेह भी, अपनापन भी और ये सब उस के पास हैं ही नहीं.’’

शर्माजी आए तो ललिताजी चुप हो गईं. शायद उन के सामने वह अपने स्नेह, अपने ममत्व को ठगा जाना स्वीकार नहीं करना चाहती थीं या अपनी पीड़ा दर्शाना नहीं चाहती थीं.

3-4 दिन और बीत गए. ललिताजी घर आ चुकी थीं. नेहा एक बार भी उन से मिलने नहीं आई. लगभग 3 दिन बाद वह लंच में मुझ से मिलने मेरे आफिस चली आई. बड़े प्यार से मिली.

‘‘कहां रहीं तुम इतने दिन? मेरी याद नहीं आई तुम्हें?’’ जरा सा गिला किया था मैं ने.

‘‘जरा व्यस्त थी मैं. घर की सफाई करवा रही थी.’’

‘‘10 दिन से तुम्हारे घर की सफाई ही चल रही है. ऐसी कौन सी सफाई है भई.’’

मन में सोच रहा था कि देखते हैं आज कौन सा काम पड़ गया है इसे, जो जबान में मिठास घुल रही है.

‘‘क्या लोगी खाने में, क्या मंगवाऊं?’’

खाने का आर्डर दिया मैं ने. इस से पहले भी जब हम मिलते थे खाना मैं ही मंगवाता था. अपनी पसंद का खाना मंगवा लिया नेहा ने. खाने के दौरान कभी मेरी कमीज की तारीफ करती तो कभी मेरी.

‘‘शर्माजी और ललिताजी कैसी हैं? शर्माजी छुट्टी पर हैं न, कहीं बाहर गए हैं क्या?’’

‘‘पता नहीं, मैं ने बहुत दिन से उन्हें देखा नहीं.’’

‘‘अरे भई, तुम इस देश की प्रधानमंत्री हो क्या जो इतना काम रहता है तुम्हें. 2 घर छोड़ कर तो रहते हैं वह…और तुम्हारा इतना खयाल भी रखते हैं. 10 दिन से वह तुम से मिले नहीं.’’

‘‘मेरे पास इतना समय नहीं होता. 2 बजे तो स्कूल से आती हूं. 4 बजे बच्चे ट्यूशन पढ़ने आ जाते हैं. 7 बजे तक उस में व्यस्त रहती हूं. इस बीच काम वाली बाई भी आ जाती है…’’

‘‘किसी का हालचाल पूछने के लिए आखिर कितना समय चाहिए नेहा. एक फोन काल या 4-5 मिनट में जा कर भी इनसान वापस आ जाता है. उन के और तुम्हारे घर में आखिर दूरी ही कितनी है.’’

‘‘मुझे बेकार इधरउधर जाना अच्छा नहीं लगता और फिर ललिताजी तो हर पल खाली रहती हैं. उन के साथ बैठ कर गपशप लगाने का समय नहीं होता मेरे पास.’’

नेहा बड़ी तल्खी में जवाब दे रही थी. खाना समाप्त हुआ और वह अपने मुद्दे पर आ गई. अपने पर्स से राशन कार्ड और पैन कार्ड निकाल उस ने मेरे सामने रख दिए.

‘‘यह देखो, इन दोनों में मेरी जन्मतिथि सही नहीं लिखी है. 7 की जगह पर 1 लिखी गई है. जरा इसे ठीक करवा दो.’’

हंस पड़ा मैं. इतनी हंसी आई मुझे कि स्वयं पर काबू पाना ही मुश्किल सा हो गया. किसी तरह संभला मैं.

‘‘तुम ने क्या सोचा था कि तुम्हारा काम हो गया और अब कभी किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी. मत भूलो नेहा कि जब तक इनसान जिंदा है उसे किसी न किसी की जरूरत पड़ती है. जिंदा ही क्यों उसे तो मरने के बाद भी 4 आदमी चाहिए, जो उठा कर श्मशान तक ले जाएं. राशन कार्ड और पैन कार्ड जब तक नहीं बना था तुम्हारा मुझ से मिलना चलता रहा. 10 दिन से तुम मिलीं नहीं, क्योंकि तुम्हें मेरी जरूरत नहीं थी. आज तुम्हें पता चला इन में तुम्हारी जन्मतिथि सही नहीं तो मेरी याद आ गई …फार्म तुम ने भरा था न, जन्मतिथि तुम ने भरी थी…उस में मैं क्या कर सकता हूं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो तुम?’’ अवाक्  तो रहना ही था नेहा को.

‘‘अंधे को अंधा कैसे कहूं…उसे बुरा लग सकता है न.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब साफ है…’’

उसी शाम ललिताजी से मिलने गया. उन्हें हलका बुखार था. शर्माजी भी थकेथके से लग रहे थे. वह बाजार जाने वाले थे, दवाइयां और फल लाने. जिद कर के मैं ही चला गया बाजार. वापस आया और आतेआते खाना भी लेता आया. ललिताजी के लिए तो रोज उबला खाना बनता था जिसे शर्माजी बनाते भी थे और खाते भी थे. उस दिन मेरे साथ उन्होंने तीखा खाना खाया तो लगा बरसों के भूखे हों.

‘‘मैं कहती थी न अपने लिए अलग बनाया करें. उबला खाना खाया तो जाता नहीं, उस पर भूखे रह कर कमजोर भी हो गए हैं.’’

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ललिताजी ने पहली बार भेद खोला. दूसरे दिन से मैं रोज ही अपना और शर्माजी का खाना पैक करा कर ले जाने लगा. नेहा की हिम्मत अब भी नहीं हुई कि वह एक बार हम से आ कर मिल जाती. हिम्मत कर के मैं ने सारी आपबीती उन्हें सुना दी. दोनों मेरी कथा सुनने के बाद चुप थे. कुछ देर बाद शर्माजी कहने लगे, ‘‘सोचा था, प्यारी सी बच्ची का साथ रहेगा तो अच्छा लगेगा. उसे हमारा सहारा रहेगा हमें उस का.’’

‘‘सहारा दिया है न हमें प्रकृति ने. बच्ची का सहारा तो सिर्फ हम ही थे… बदले में सहारा देने वाला मिला है हमें… यह बच्चा मिला है न.’’

ललिताजी की आंखें नम थीं, मेरी बांह थपथपा रही थीं वह. मेरा मन भी परिवार के साथ रहने को होता था पर घर दूर था. मुझे भी तो परिवार मिल गया था परदेस में. कौन किस का सहारा था, मैं समझ नहीं पा रहा था. दोनों मुझे मेरे मातापिता जैसे ही लग रहे थे. वे मुझे सहारा मान रहे थे और मैं उन्हें अपना सहारा मान रहा था, क्योंकि शाम होते ही मन होता भाग कर दोनों के पास चला जाऊं.

क्या कहूं मैं? अपनाअपना तरीका है जीने का. कुदरत ने लाखों, करोड़ों जीव बनाए हैं, जो आपस में कभी मिलते हैं और कभी नहीं भी मिलते. नेहा का जीने का अपना तरीका है जिस में वह भी किसी तरह जी ही लेगी. बस, इतना मान सकते हैं हम तीनों कि हम जैसे लोग नेहा जैसों के लिए नहीं बने, सो कैसा अफसोस? सोच सकते हैं कि हमारा चुनाव ही गलत था. कल फिर समय आएगा…कल फिर से कुछ नया तलाश करेंगे, यही तो जीवन है, इसी को तो कहते हैं जीना.

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हरिराम: क्या बच पाई शशांक की गहस्थी?

लेखक- डा. कृष्ण कांत

शशांक अपने आफिस में काम कर रहा था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘साहब, आप को बनर्जी बाबू याद कर रहे हैं.’’

उत्पल बनर्जी कंपनी के निदेशक थे. पीठ पीछे उन्हें सभी बंगाली बाबू कह कर संबोधित करते थे. कंपनी विद्युत संयंत्रों की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का काम करती थी. कंपनी के अलगअलग प्रांतों में विद्युत निगमों के साथ प्रोजेक्ट थे. शशांक इस कंपनी में मैनेजर था.

‘‘यस सर,’’ शशांक ने बनर्जी साहब के कमरे में जा कर कहा.

‘‘आओ शशांक,’’ इतना कह कर उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया.

शशांक के दिमाग में खतरे की घंटी बज उठी. उसे लगा कि उस की हालत उस बकरे जैसी है जिसे पूरी तरह सजासंवार दिया गया है और बस, गर्दन काटने के लिए ले जाना बाकी है. शशांक ने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया और चुपचाप कुरसी पर बैठ गया.

‘‘तुम्हारा फरीदाबाद का प्रोजेक्ट कैसा चल रहा है?’’

‘‘सर, बहुत अच्छा चल रहा है. निर्धारित समय पर काम हो रहा है और भुगतान भी ठीक समय से हो रहा है.’’

‘‘बहुत अच्छा है. मुझे तुम से यही उम्मीद थी, पर मैं तुम्हें ऐसा काम देना चाहता हूं जो सिर्फ तुम ही कर सकते हो.’’

शशांक चुपचाप बैठा अपने निदेशक मि. बनर्जी को देखता रहा. उसे लगा कि बस, गर्दन पर तलवार गिरने वाली है.

‘‘शशांक, तुम्हें तो पता है कि लखनऊ वाले प्रोजेक्ट में कंपनी की बदनामी हो रही है. भुगतान बंद हो चुका है. हमें पैसा वापस करने का नोटिस भी मिल चुका है. मैं चाहता हूं कि तुम वह काम देखो.’’

‘‘लेकिन वह काम तो जतिन गांगुली देख रहे हैं,’’ शशांक ने कहा.

‘‘मैं ने फैसला किया है कि अब कंपनी के हित में लखनऊ का प्रोजेक्ट तुम देखोगे और जतिन गांगुली फरीदाबाद का प्रोजेक्ट संभालेगा.’’

शशांक की इच्छा हुई कि कह दे कि उस के साथ इसलिए ज्यादती हो रही है क्योंकि वह बंगाली नहीं है. उस ने सोचा कि कंपनी अध्यक्ष से जा कर मिले पर उसे याद आया कि कंपनी अध्यक्ष सेनगुप्ता साहब भी बंगाली हैं. वह भी बंगाली का ही साथ देंगे.

शशांक अपने केबिन में जाने से पहले अपनी सहकर्मी वंदना के केबिन पर रुका.

‘‘वंदना, चलो काफी पीते हैं. मुझे तुम से कुछ पर्सनल बात करनी है.’’

काफी पीतेपीते शशांक ने उसे सारी बात बता दी.

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‘‘अगले 3 माह में प्रमोशन के लिए निर्णय लिए जाएंगे. यह मामला जतिन गांगुली के प्रमोशन का है. लखनऊ प्रोजेक्ट की जो उस ने हालत की है, उस से प्रमोशन तो दूर उसे कंपनी से निकाल देना चाहिए,’’ वंदना ने कहा.

‘‘क्या मैं सेनगुप्ता साहब से मिलूं?’’

‘‘नहीं, उस से फायदा नहीं होगा. तुम्हें लखनऊ जाना पडे़गा पर फरीदाबाद प्रोजेक्ट की फाइलों की सूची बना कर, आज की स्थिति की रिपोर्र्ट बना कर तुम जतिन गांगुली के दस्तखत ले लेना और उस की कापी सेनगुप्ता साहब को भेज देना. प्रोजेक्ट में गड़बड़ होने पर वे लोग तुम्हें दोष दे सकते हैं,’’ वंदना ने सुझाव दिया.

कुछ समय तक दोनों के बीच खामोशी छाई रही.

‘‘शशांक, तुम से एक बात पूछना चाहती हूं. मुझे दोस्त समझ कर सचसच बताना,’’ वंदना बोली.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी सरिता के बीच तनाव तो नहीं?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘पिछले हफ्ते तुम फरीदाबाद प्रोजेक्ट की मीटिंग में थे तब शाम को 8 बजे सरिता का फोन मेरे घर पर आया था. तुम्हारे बारे में पूछ रही थी.’’

शशांक को अपनी पत्नी पर क्रोध आ गया. पर उस ने कहा, ‘‘उस दिन मैं उसे बताना भूल गया था. इसलिए वह परेशान होगी.’’

‘‘शशांक, प्रोजेक्ट और प्रमोशन के बीच में अपने परिवार को मत भूलो,’’ वंदना ने गंभीरता से कहा.

‘‘आज कोई मीटिंग नहीं थी क्या? जल्दी आ गए,’’ सरिता ने शशांक के घर पहुंचने पर व्यंग्य भरे लहजे में पूछा.

शशांक के मन में क्रोध भरा हुआ था. वह बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया.

‘‘मुझे लखनऊ वाले प्रोजेक्ट पर काम दिया गया है. कल ही मैं 1 सप्ताह के लिए लखनऊ जा रहा  हूं,’’ उस     ने रात को खाना खाते हुए सरिता से कहा.

‘‘अकेले जा रहे हो? क्या तुम्हारी प्यारी दोस्त वंदना नहीं जा रही है?’’

शशांक को लगा कि उस के संयम की सीमा पार हो चुकी है और वह अभी सरिता के गाल पर तमाचा लगा देगा. पर वह आग्नेय नेत्रों से सरिता को देख कर आधा खाना खा कर ही उठ गया.

दूसरे दिन लखनऊ पहुंच कर शशांक कंपनी के अतिथिगृह में ठहरा, जहां उस की  मुलाकात अतिथिगृह के प्रभारी हरिराम से हुई.

‘‘नमस्ते साहब,’’ हरिराम ने हाथ जोड़ कर कहा.

शशांक ने अनुमान लगाया कि हरिराम की उम्र करीब 50-55 की होगी. हट्टाकट्टा शरीर पर साफ कुरता- पायजामा, ठीक  से संवारे गए सफेद बाल, दाढ़ीमूंछ साफ, करीब 5 फुट 8 इंच ऊंचाई लिए हरिराम आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक लग रहा था.

कमरे में जा कर शशांक ने लखनऊ पहुंचने पर सरिता को फोन किया.

रात को खाना खातेखाते शशांक ने हरिराम से उस के बारे में पूछा.

‘‘साहब, मेरे पिता इस अतिथिगृह में थे. मैं बचपन से उन की सहायता करता था. बीच में 10 साल के लिए मुंबई गया था, एक कारखाने में काम करने. पिता की अचानक मृत्यु हो गई. मां अकेली थीं, इसलिए मुंबई छोड़ कर लखनऊ आना पड़ा. पिछले 10 साल से इसी अतिथिगृह में आप सब की सेवा कर रहा हूं.’’

‘‘तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘बस, मैं अकेला हूं,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया. शायद वह इस बारे में बात नहीं करना चाहता था.

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दूसरे दिन शशांक प्रोेजेक्ट आफिस गया तो उसे चारों ओर से अपनी कंपनी की आलोचना ही सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगाई कि पैसा वापस करो और दफा हो जाओ यहां से. उस की कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी नदारद थे.

लज्जित शशांक गुस्से से भरा शाम को अतिथिगृह वापस लौटा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति से कैसे निबटा जाए. उसे कुछ समय के लिए सब से विरक्ति सी हुई. उस का मन किया कि कंपनी को त्यागपत्र भेज कर, दूर पहाड़ों में चला जाए.

खाना खा कर वह टहलने के लिए निकल पड़ा. 1 घंटे के बाद वापस आ कर सोने की तैयारी करने लगा. एकाएक उसे खयाल आया कि उस का पर्स जिस में करीब 5 हजार रुपए थे, गायब है. उस ने अपनी पैंट की जेब, बाथरूम आदि में ढूंढ़ा पर पर्स नहीं मिला.

उस ने सोचा कि कहीं यह करामात हरिराम ने तो नहीं कर दिखाई.

शशांक ने हरिराम को बुला कर बहुत डांटा, धमकाया और पर्स वापस करने के लिए कहा.

हरिराम चुपचाप खड़ा रहा. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोला.

‘‘मैं तुम्हें सुबह तक का समय देता हूं. यदि तुम ने मेरा पर्स वापस नहीं किया तो मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

शशांक रात को अपने कमरे में बैठा काफी देर तक सोचता रहा कि इस नई समस्या से कैसे निबटा जाए. सोने के लिए लेटा तो उसे तकिया टेढ़ामेढ़ा लगा. तकिया उठाया तो उस के नीचे पर्र्स था. शशांक को याद आया कि उस ने इस डर से पर्स तकिए के नीचे छिपा दिया था कि कहीं हरिराम उसे चुरा न ले.

शशांक को खुद पर शर्म महसूस हुई. वह हरिराम के कमरे में गया और उसे अपने कमरे में बुला कर लाया. शशांक ने हरिराम को बताया कि वह किस परेशानी में यहां आया था. किस तरह वह क्षेत्रवाद, भाषावाद का शिकार हो रहा है. इसी परेशानी में उस से यह अपराध हो गया, जिस के लिए वह शर्मिंदा है.

‘‘साहब, यह बडे़ दुख की बात है कि हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बंगाली, मराठी आदि हैं और बाद में भारतीय. इस सोच ने हमारे देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा डाली हुई है.’’

शशांक को किसी हिंदू से बाबरी मसजिद के बारे में यह विचार सुन कर आश्चर्य हुआ. उसे लगा कि उस के सामने एक सच्चा भारतीय खड़ा है.

‘‘पर क्या किया जा सकता है, हरिराम?’’ उस के मुंह से निकला.

‘‘क्या आप कर्म पर विश्वास करते हैं?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’

‘‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि इस लखनऊ वाले प्रोजेक्ट ने आप को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का अवसर दिया है? उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारी हमारी कंपनी के शत्रु नहीं हैं. आप को उन की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.’’

‘‘हरिराम, तुम ठीक कहते हो. अब रात बहुत हो गई है, थोड़ा सो लेते हैं.’’

अगले दिन शशांक ने अपनी कंपनी के कर्मचारियों से मिल कर भविष्य की कार्यप्रणाली तय की. इस के बाद उस ने उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अध्यक्ष से मिल कर 3 महीने का समय मांग लिया और उन्हें यह आश्वासन भी दिया कि वह लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.

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शशांक सुबह नाश्ते के बाद प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए रवाना हो जाता था और रात को काफी देर के बाद वापस आता था. इस से कंपनी के कर्मचारियों में नई जान आ गई.

एक दिन शशांक रात को आया तो अतिथिगृह में ताला लगा था. वह पास के बगीचे में टहलने के लिए चला गया. वहीं उसे हरिराम अकेले एक बैंच पर सिर झुकाए बैठा मिल गया.

‘‘हरिराम, तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

हरिराम ने उसे देखा और फिर यह कहते हुए कि आओ, शशांक बाबू, बैठो, उस ने शशांक का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा दिया.

शशांक ने हरिराम के मुंह से शराब की गंध महसूस की.

‘‘जानते हो यह कौन है?’’ हरिराम ने शशांक को एक तसवीर दिखाते हुए कहा.

शशांक ने देखा, तसवीर में एक महिला, 4-5 साल के बच्चे के साथ थी.

‘‘यह सीता है, मेरी पत्नी और यह रमेश है, मेरा बेटा. मैं मुंबई में काम करता था. अपनी सीता पर शक करता था. रोज उसे पीटता था. वह बेचारी कब तक जुल्म सहती. एक दिन मुझे छोड़ कर बेटे के साथ कहीं चली गई,’’ कह कर हरिराम ने सिर झुका लिया.

‘‘तुम ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा पर कहीं पता नहीं चला. आज आप की मेमसाहब का फोन आया था. परिवार के बिना जिंदगी गुजारना बहुत कठिन है साहब. इस का दर्द मैं जानता हूं,’’ कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा.

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के समय हरिराम ने संकोच के साथ कहा, ‘‘साहब, कल नशे में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो माफ कीजिएगा.’’

दिन भर शशांक, हरिराम और अपनी जिंदगी के बारे में सोचता रहा. उस का और सरिता का कालिज का 3 साल तक प्यार, एक परिवार का सपना, विवाह, उस का काम में व्यस्त होना, कंपनी में प्रमोशन के लिए भागदौड़, सरिता की शिकायतें, अहं का टकराव फिर लड़ाई, उस का तंग आ कर सरिता पर हाथ उठाना, सरिता की आत्महत्या की धमकी, हमेशा एक तनाव भरी जिंदगी जीना.

‘नहीं, हमारी पे्रम कहानी का यह अंत नहीं होना चाहिए,’ शशांक के अंतर्मन से यह आवाज निकली और शाम को उस ने सरिता को फोन किया.

‘‘हेलो,’’ फोन सरिता ने उठाया था.

‘‘हेलो, क्या कर रही हो?’’ शशांक ने नम्र स्वर में पूछा.

‘‘यों ही बैठी हूं.’’

‘‘सरिता, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. मैं यहां लखनऊ में तुम्हारे बिना बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं.’’

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एक क्षण को सरिता के मन में आया कि बोले वंदना को बुला लो, पर दूसरे क्षण उस का अपनेआप पर नियंत्रण न रहा और वह फूटफूट कर रो पड़ी.

शशांक की आंखों में भी आंसू आ गए.

‘‘सरु, क्या तुम यहां आ सकती हो?’’

‘‘मैं कल ही पहुंच रही हूं, शशांक,’’ सरिता ने रोतेरोते कहा.

शशांक दूसरे दिन शाम को कमरे में दाखिल हुआ तो सरिता उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘शशांक, मुझे माफ कर दो.’’

शशांक ने सरिता को गले से लगा लिया.

‘‘गलती मेरी ज्यादा है. मैं काम के जनून में तुम्हें नजरअंदाज करने लगा था. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न सरू ?’’

रात को खाना खाने के बाद हरिराम ने सरिता से कहा, ‘‘मेमसाहब, आप के आने से साहब बहुत खुश हैं. इन्होंने आज 2 रोटियां ज्यादा खाई हैं,’’ फिर उस ने शशांक से कहा, ‘‘साहब, कल छुट्टी है. आप मेमसाहब को बड़ा इमामबाड़ा, बारादरी, गोमती नदी का किनारा आदि जगह घुमा कर लाइए. हां, शाम को अमीनाबाद से इन के लिए चिकन की साड़ी खरीदना मत भूलिएगा.’’

दूसरे दिन इमामबाड़ा की भूलभुलैया में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर रास्ता खोजते रहे. शशांक और सरिता को लगा कि उन के कालिज के दिन लौट आए हैं.

शाम को गोमती के किनारे बने पार्क में बैठेबैठे सरिता ने शशांक के कंधे पर सिर रख दिया और आंखें बंद कर लीं.

‘‘सरू, तुम्हें पता है, मुझ में आए इस बदलाव का जिम्मेदार कौन है…इस का जिम्मेदार हरिराम है,’’ उस ने सरिता के बालों को सहलाते हुए उस शाम की घटना बता दी.

शशांक दूसरे दिन प्रोजेक्ट पर पहुंचा तो वह खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. उस ने पाया कि उस में कुछ कर दिखाने की इच्छाशक्ति पहले से दोगुनी हो गई है.

इधर सरिता ने हरिराम के कमरे में जा कर कहा, ‘‘काका, आप के कारण मेरी खोई हुई गृहस्थी, मेरा परिवार मुझे वापस मिला है. मैं आप की जिंदगी भर ऋणी रहूंगी. मैं अब आप को काका कह कर बुलाऊंगी.’’

हरिराम ने भावुक हो कर सरिता के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘काका, अब मैं यहीं रहूंगी और खाना मैं बनाऊंगी आप आराम करना.’’

‘‘नहीं बिटिया, मेरा काम मत छीनो. हां, अपनेआप को व्यस्त रखो और कुछ नया करना सीखो.’’

सरिता ने चित्रकला सीखनी शुरू कर दी. शशांक के प्रयासों से लखनऊ प्रोजेक्ट में पहले धीमी और फिर तेज प्रगति होने लगी. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने कंपनी को भुगतान शुरू कर दिया. यही नहीं, उस प्रोजेक्ट के विस्तार का काम भी उस की कंपनी को मिल गया.

1 माह के बाद सरिता ने हरिराम से कहा, ‘‘काका, आप के कारण मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मैं दिल्ली में बिलकुल खाली रहती थी. इस कारण मेरा दिमाग गलत विचारों का कारखाना बन गया था. बजाय शशांक की परेशानी समझने के मैं अपने पति पर शक करने लगी थी.’’

हरिराम के लाख मना करने पर भी सरिता ने उस का एक बड़ा चित्र बनाया.

इधर दिल्ली में कंपनी अध्यक्ष      मि. सेनगुप्ता के सामने निदेशक मि. उत्पल बनर्जी पसीनापसीना हो रहे थे.

‘‘मि. बनर्जी, आप को पता है कि हरियाणा विद्युत निगम ने कंपनी को फरीदाबाद प्रोजेक्ट के लिए कोर्ट का नोटिस भेजा है?’’

‘‘सर, शशांक बहुत गड़बड़ कर के गया है. उस ने कोई कागज न गांगुली को और न मुझे दिया है. बिना कागज के तो….’’

‘‘मि. बनर्जी, आप मुझे क्या बेवकूफ समझते हैं?’’

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‘‘नहीं सर, आप तो…’’

‘‘मि. बनर्जी, सारी गड़बड़ आप के दिमाग में है. आप आदमी का मूल्यांकन उस के काम से नहीं बल्कि उस के बंगाली होने या न होने से करते हैं.’’

‘‘मेरे पास उन फाइलों और रिपोर्टों की पूरी सूची है जो शशांक, जतिन गांगुली को दे कर गया है.’’

‘‘यस सर.’’

‘‘आप और गांगुली 1 सप्ताह के अंदर फरीदाबाद वाले प्रोजेक्ट को रास्ते पर लाइए या अपना त्यागपत्र दीजिए.’’

‘‘सर, 1 सप्ताह में…’’

‘‘आप जा सकते हैं.’’

1 सप्ताह के बाद मि. उत्पल बनर्जी और मि. गांगुली कंपनी से निकाले जा चुके थे. मि. सेनगुप्ता ने शशांक को फोन कर के कंपनी की इज्जत की खातिर फरीदाबाद प्रोजेक्ट का अतिरिक्त भार लेने को कहा.

‘‘हरिराम, तुम ने ठीक कहा था. ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर हर व्यक्ति की प्रतिभा का मूल्यांकन होता है,’’ शशांक दिल्ली के लिए विदा लेते समय बोला.

‘‘काका, आप की बहुत याद आएगी,’’ सरिता बोली.

1 माह बाद फरीदाबाद प्रोजेक्ट भी ठीक हो गया और शशांक को दोहरा प्रमोशन दे कर कंपनी का जनरल मैनेजर बना दिया गया. उस ने हरिराम को अपने प्रमोशन की खबर देने के लिए फोन किया तो पता चला कि हरिराम नौकरी छोड़ कर कहीं चला गया है.

शाम को शशांक ने हरिराम के बारे में सरिता को बताया तो वह गंभीर हो गई, फिर बोली, ‘‘हरिराम काका शायद अपने बिछुड़े  परिवार की तलाश में गए होंगे या शांति की तलाश में.’’

आज 3 साल बाद शशांक कंपनी में निदेशक है. सरिता ने चित्रकला का स्कूल खोला है. उन की बैठक में हरिराम का सरिता द्वारा बनाया हुआ चित्र लगा है.

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कमाऊ बीवी: आखिर क्यों वसंत ने की बीवी की तारीफ?

व्यंग्य- वसंतकुमार भट्ट

प्राय: कमाऊ बीवी का पति होना बड़ी अच्छी बात समझी जाती है. हम भी इसी गलतफहमी में रहते अगर अपने पड़ोसी प्रदीप की पत्नी को एक दफ्तर में नौकरी न मिली होती. हमारे तथा प्रदीप के घर के बीच केवल पतली लकड़ी की दीवार है. वह भी न होने के बराबर है. इधर बजने वाला अलार्म उन्हें जगा देता है और उन के मुन्ने की चीखपुकार हमारी नींद हराम कर देती है.

हमें याद है, जिस दिन प्रदीप की पत्नी सुनीता के नाम नियुक्तिपत्र आया था प्रदीप और उन के तीनों बच्चे महल्ले के हर घर में यह शुभ समाचार देने दौड़ पड़े थे. यह भी अच्छी तरह याद है कि मिठाई का स्वाद महल्ले भर की ईर्ष्या के कसैलेपन को दबा नहीं पाया था.

सुनीता का दफ्तर घर से काफी दूर पड़ता था. इसलिए उसे समय से दफ्तर पहुंचने के लिए 9 बजते ही घर से निकलना पड़ता था. जिस दिन पहली बार वह दफ्तर के लिए बनठन कर घर से निकली तो पूरे महल्ले की छाती पर सांप लोट गए थे. रसोई में उलझी हुई अपनी पत्नी को जब हम ने सुनीता

के दफ्तरगमन का यह दृश्य दिखलाया तो अनजाने ही हमारी मुद्रा में यह भाव तैर आया कि ‘कितने खुशनसीब हैं आप के पड़ोसी जिन्हें इतनी सुघड़, सुंदर और कमाऊ पत्नी मिली है.’ हमारी पत्नी ने शायद हमारी मुद्रा पढ़ ली थी. एक फीकी मुसकान हम पर डाल कर वह फिर से अपने काम में जुट गई.

नईनई नौकरी के उत्साह में कुछ दिन सब ठीकठाक चलता रहा और पूरे महल्ले के पेट में दर्द होता रहा कि दोनों की नौकरी के साथसाथ आखिर गृहस्थी के काम कैसे ठीकठाक चल रहे हैं? हम खुद यह रहस्य जानने के लिए बेताब थे कि सुबह का खाना निबटा कर और तीनों बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के दोनों किस तरह समय से दफ्तर रवाना हो जाते हैं.

पर अभी एक महीना भी न बीता था कि लकड़ी की दीवार के दूसरी ओर का तनाव अनायास ही प्रकट होने लगा.

सुबह के 9 बजे थे. अचानक प्रदीप का तेज स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘सुनीता, देखो बबली ने अपना फ्राक गंदा कर डाला है. जरा इस का फ्राक बदलती जाना.’’

‘‘मुझे आज वैसे ही देर हो रही है. आप ही बदल लीजिएगा,’’ सुनीता का स्वर सुनाई पड़ा.

‘‘भई, अच्छी मुसीबत है. मुझे भी तो समय से दफ्तर पहुंचना होता है. बरतनों की सफाई और बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेजने के चक्कर में हर दिन दफ्तर देर से पहुंच रहा हूं. दिन चढ़ते ही सजनेसंवरने लग जाती हो, इस के बजाय, तुम्हें घर के काम निबटाने की फिक्र करनी चाहिए,’’ प्रदीप का स्वर आक्रोश और व्यंग्य में डूबा हुआ था.

‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि मैं घर के ही कपड़ों में बिना हाथमुंह धोए दफ्तर निकल जाऊं? घर के काम के लिए तो आप को महरी लगानी ही पड़ेगी. और फिर मैं क्या अपने शौक या शान के लिए नौकरी कर रही हूं? यह सबकुछ तो आप को मुझे नौकरी के लिए भेजने से पहले सोचना चाहिए था,’’ सुनीता शायद रोआंसी हो उठी थी.

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इस के बाद के संवाद स्पष्ट नहीं सुने जा सके, पर हम ने देखा कि अगले ही दिन से प्रदीप के घर सुबह ही सुबह एक महरी आने लगी थी.

प्रदीप के परिवार की आर्थिक स्थिति भले ही दृढ़ हो गई हो पर कुछ समय पूर्व सुनाई पड़ने वाले कहकहे अब बंद हो चले थे. बच्चे अब डांट ज्यादा खाने लगे थे और खाली समय में इधरउधर डोलते दिखाई पड़ने लगे थे.

प्रदीप की तबीयत खराब हुई. वह दफ्तर से 3-4 दिन की छुट्टी ले कर घर पर आराम करने लगे. मिजाजपुर्सी के लिए हम ने उन के घर के भीतर कदम रखा तो घर की अव्यवस्था देख कर हैरान हो गए. बच्चों के फाड़े हुए कागज सारे घर में बिखरे हुए थे. एक ओर मैले कपड़ों का ढेर लगा हुआ था. हर कोने में जूठे बरतन बिखरे हुए थे. प्रदीप लिहाफ ओढ़े हुए थे. उस लिहाफ का गिलाफ शायद पिछले कई महीनों से धुला नहीं था.

हमारे सूक्ष्म निरीक्षण को ताड़ कर प्रदीप कुछ शर्मिंदगी के साथ बोला, ‘‘इधर 2-1 दिन से महरी भी बीमार है. सबकुछ अस्तव्यस्त पड़ा है और फिर आप जानते ही हैं कि सुनीता भी…’’

‘‘जी हां, जी हां, जहां पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हों वहां घर की देखभाल में कमी आ जाती है,’’ हम ने कह तो दिया पर लगा कि ऐसा नहीं कहना चाहिए था. इसलिए तुरंत हम ने जोड़ा, ‘‘फिर भी ऐसी कोई खास अस्तव्यस्तता तो दिखाई नहीं देती. बच्चे तो हर घर में ऐसा ही किया करते हैं.’’

प्रदीप के मुंह पर एक फीकी मुसकान आ गई. तकिया पीठ के पीछे लगा कर, पलंग पर बैठते हुए बोला, ‘‘आप को भले ही न दिखाई देता हो पर सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया है, मेरे भाई. जब से सुनीता ने नौकरी शुरू की है, यह घर घर न रह कर सराय बन गया है. सराय की भी अपनी एक व्यवस्था होती है. अब यही देखिए, आप मेरा हाल पूछने आए हैं, पर मैं आप को एक कप चाय भी नहीं पिलवा सकता.’’

हमें लगा कि शायद प्रदीप अस्वस्थता के कारण भावुक हुए जा रहे हैं. क्या पता चाय पीने का ही मन हो. हम कह बैठे, ‘‘इतनी सी बात के लिए आप परेशान न हों. अभी चाय ले कर आता हूं. कुछ खिचड़ी या दलिया वगैरह लेना चाहें तो बनवा लाऊं?’’

पर प्रदीप ने हमारा हाथ पकड़ कर हमें उठ कर जाने से रोक लिया. वह खुद किन्हीं विचारों में खो गए. कुछ देर की चुप्पी के बाद करुण स्वर में वह अपनी बीमारी का रहस्य हमें बताने लगे, ‘‘मैं बीमारवीमार कुछ नहीं हूं. हलका  सा जुकाम था. मैं 3 दिन की छुट्टी ले कर लेट गया.’’

वह चुप हो गए और हम प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगे.

उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो महज यही देखना चाहता था कि सुनीता मेरी बीमारी और अपनी नौकरी में से किसे अधिक महत्त्वपूर्ण समझती है? पर उस के लिए नौकरी ही सबकुछ बन गई है. मेरी कोई परवा ही नहीं.’’

प्रदीप का मर्ज हमारी पकड़ में आ चुका था. पुरुष होने का खोखला अहंकार उन्हें पीडि़त किए हुए था. वह पत्नी की नौकरी का आर्थिक लाभ भी उठाना चाहते थे और उस की नौकरी को शौक से ज्यादा महत्त्व देने को भी तैयार नहीं थे.

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‘‘तो क्या आप चाहते थे कि आप की पत्नी अपने दफ्तर से छुट्टी ले कर घर पर आप की तीमारदारी करे?’’ हम ने सवाल कर डाला.

‘‘हां, इतनी सी तो बात थी. आखिर, इस में उस की नौकरी तो न चली जाती. मुझे भी संतोष हो जाता कि…’’ प्रदीप ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया.

‘‘कि सुनीता को अपनी नौकरी से ज्यादा फिक्र आप की है,’’ हम ने वाक्य पूरा करते हुए एक सवाल और पूछ लिया, ‘‘अच्छा प्रदीप, एक बात का ईमानदारी से जवाब देना. आप की जगह सुनीता घर पर लेटी होती तो क्या आप दफ्तर से छुट्टी ले कर बैठ गए होते?’’

‘‘जी हां, जी, मैं शायद…’’ प्रदीप को शायद जवाब नहीं सूझ रहा था.

‘‘हां, हां, कहिए. आप शायद…’’ हम मुसकरा रहे थे.

‘‘मैं शायद…’’ कहतेकहते  ही प्रदीप भी मुसकरा उठे और लिहाफ छोड़ पलंग से उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों, अब आप कहां चल दिए?’’ उन्हें रसोईघर की तरफ बढ़ते देख हम ने पूछा.

‘‘भई, 5 बज चुके हैं न. दफ्तर से थकी हुई सुनीता आती ही होगी. गैस पर चाय का पानी रख दूं. तीनों इकट्ठे चाय पीएंगे,’’ कहते हुए वह रसोईघर में घुस गए.

अचानक हमारा मन बड़ी जोर से ठहाका लगाने को हुआ, पर दरवाजे पर नजर पड़ते ही हम ने खुद को रोक लिया. दरवाजे पर सुनीता अपने थके हुए चेहरे पर मुसकान लाने की कोशिश में क्षणभर के लिए ठिठक गई थी.

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बुआजी : क्या बुआजी पैसे से खुशियां शांति या औलाद खरीद पायी

जगजीत सिंह, चित्रा सिंह की गजल टेप पर चल रही थी ‘…अपनी सूरत लगी पराई सी, जब कभी हम ने आईना देखा…’ मैं ने जैसे ही ड्राइंगरूम का दरवाजा खोला तो देखा कि सामने बूआजी टेबल पर छोटा शीशा लिए बैठी हैं. शायद वे अपने सिर के तीनचौथाई सफेद बालों को देख रही थीं या फिर शीशे पर जमी वर्षों की परत को हटा कर अपनी जवानी में झांकना चाह रही थीं. तभी गली में से फल वाले की आवाज पर वे अतीत से वर्तमान में आती हुई बोलीं, ‘‘अरे फल वाले, जरा रुकना. पपीता है क्या?’’ फल वाला शायद रोज ही आता होगा. वह तुरंत बोला, ‘‘बूआजी, आज पपीता छोटा नहीं है. सब बड़े साइज के हैं और आप बड़ा लेंगी नहीं,’’ कहता हुआ वह जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही चलता रहा.

यह सुन कर बूआजी अपनेआप से ही कहने लगीं, ‘अरे भई, क्या करूं, एक समय था कि घर में टोकरों के हिसाब से फल आया करते थे. अब न खाने वाले हैं और न ही वह वक्त रहा.’ मैं सफदरजंग कालोनी, दिल्ली में बूआजी के फ्लैट के ऊपर वाले फ्लैट में रहती थी. मैं ने फल वाले को रोका और नीचे उतर आई. मैं जब भी किसी काम से नीचे उतरती तो अकसर बूआजी से बोल लेती थी, क्योंकि दिल्ली जैसे महानगर में किसी से थोड़ी सी आत्मीयता व ममतामयी संरक्षण का मिल पाना अपनेआप में बहुत बड़ी बात थी. पहली बार बूआजी की और मेरी मुलाकात इसी फल वाले की रेहड़ी पर हुई थी. एक बार जब मैं अपने मायके से लौटी तो देखा कि आज यह कोई नया चेहरा दिखाई पड़ रहा है. चेहरे पर अनुभवी परछाईं के साथसाथ कष्टों के चक्रव्यूह में आत्मविश्वास भी नजर आ रहा था. संपन्नता की छाप भी स्पष्ट नजर आ रही थी, क्योंकि घर आधुनिक सुखसुविधाओं व विदेशी सामान से सुसज्जित था. बस, घर में कमी थी तो केवल इंसानों व बच्चों की किलकारियों की. उम्र 60-65 के बीच थी. तब इन्होंने पूछा था, ‘बेटी, क्या आप लोग यहां नए आए हो?’

इस पर मैं ने कहा था, ‘नमस्ते बूआजी, मैं तो यहां पर कई दिनों से रह रही हूं. कुछ दिनों के लिए मायके गई थी. कल ही मायके से आई हूं.’ मायके में 15 दिन मैं ने अपनी बूआजी के साथ गुजारे थे. इन की शक्लसूरत मेरी बूआ से मिलती थी, इसीलिए तो मेरे मुंह से अनायास ‘बूआजी’ निकल गया था. इस के बाद तो ये सब्जी वाले, फल वाले, नौकर, आसपास के फ्लैट वालों सभी के लिए जगत कुमारी से बूआजी बन गईं. बहुत जल्द ही उन के साथ हम सभी के घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गए. मेरे पति व दोनों बच्चे भी उन्हें बूआजी कहने लगे. स्कूल से आतेजाते बच्चों से बूआजी बड़े प्यार से बतियाती थीं. उन से मिलना मेरी भी दिनचर्या में शामिल हो गया था. मेरे पति भी आतेजाते फूफाजी को देख आते थे और कामकाज के लिए भी पूछ आते थे. बूआजी बड़ी व्यवहारकुशल व खुले दिमाग की औरत थीं. बूआजी में आत्मविश्वास को बनाए रखने की प्रबल इच्छाशक्ति थी. परंतु फिर भी दिल के एक कोने में अकेलेपन का एहसास व आंसुओं का सागर उमड़ ही आता था. इसी अकेलेपन के एहसास के कारण वे अपने भविष्य को इतना असुरक्षित पाती थीं. फूफाजी को भी असुरक्षित भविष्य की भयावह कल्पना ने ही इतना मानसिक तनाव से ग्रसित कर दिया था कि वे पिछले 2 साल से पक्षाघात का शिकार बन, अपनी जिंदगी का बोझ ढो रहे थे. बूआजी भी कहां स्वस्थ थीं. वे भी दमे की मरीज थीं, दिन में दोचार बार ‘पफ’ लेती थीं. उन का रक्तचाप भी कम ही रहता था.

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वह कभीकभी दोपहर की चाय के लिए मुझे अपने पास बुला लिया करती थीं. मैं उस समय सभी कामों से निवृत्त होती थी. सो, साथसाथ बैठ कर चाय पी लेती थी. एक दिन मैं ने उन से कहा, ‘बूआजी, आप 24 घंटे का एक नौकर रख लीजिए न.’ मेरी बात सुन बूआजी बोलीं, ‘अरे बेटा, ये जो काम करने वाली हैं न, इन से मेरा काम तो चल ही जाता है. और रही बात तेरे फूफाजी की, तो उन की देखभाल के लिए स्वास्थ्य केंद्र से 90 रुपए रोज पर श्याम आता ही है. सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक यह फूफाजी का सारा काम देखता है. सुबह का नाश्ता, खाना, नहलाना, कसरत, दवा आदि सभी तो कराता है. रही बात रात की, तो रात को मैं स्वयं देख लेती हूं. हमें श्याम का डर नहीं क्योंकि स्वास्थ्य केंद्र में इस का नामपता सब दर्ज है. बेटी, आजकल वैसे भी नौकर रखना इतना आसान नहीं है. आएदिन घरेलू नौकरों द्वारा की गई चोरीडकैती की घटनाएं सुनने को मिलती रहती हैं. दिल्ली में वैसे भी ऐसी वारदातें होती रहती हैं. अरे भई, ऐसे ही कट जाएगी जिंदगी, पता नहीं, कब हम दो में से एक रह जाएं.’

बातें करतेकरते अकसर उन का गला भर आता व आंखों में आंसू आ जाते. पर पलकों की जैसे इन आंसुओं को सोखने की आदत सी हो गई हो. तभी फोन की घंटी बज उठी. बूआजी के बात करने से लगता था जैसे पुरानी मित्रता हो. वे बोलीं, ‘‘इन का क्या ठीक होना, वही हाल है,’’ फिर रुक कर बोलीं, ‘‘अरे, क्या करना है, अभी तो यहां भी 2 कमरे तो बंद ही रहते हैं, कोई आ जाए तो खुल जाते हैं,’’ कहतेकहते उन का गला भर आया. फोन पर बातचीत चालू थी. बूआजी बोलीं, ‘‘अरे अपने लिए तो वही डिफैंस कालोनी है जहां दो आदमियों की शक्ल नजर आ जाए, कोई दो घड़ी बोल ले. फल, सब्जी, डाक्टर, टैक्सी सब यहां फोन पर उपलब्ध हैं. मुझे उस कोठी को छोड़ कर इस फ्लैट में आने का कोई गम नहीं है. मुझे यहां बड़ा आराम है.’’ फिर मेरी तरफ देख कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘और मुझे यहां एक अपनी बेटी, प्यारेप्यारे बच्चे और बेटे जैसे दामाद का सहारा जो मिल गया है.’’ लगता था आज उन की बातें लंबी चलेंगी, सो मैं उन्हें फिर आने का इशारा करते हुए उठ कर चली गई. मैं घर आ कर सोचने लगी कि शायद बूआजी डिफैंस कालोनी में कोठी बेच कर इस छोटे से फ्लैट में आई हैं. मगर फिर भी कितनी खुश नजर आती हैं. किसी ने सच ही कहा है कि ‘पैसा जवानी की जरूरत और बुढ़ापे की ताकत होता है.’ उन के आत्मविश्वास के पीछे यह ताकत तो थी ही, पर क्या वे पैसे की ताकत से खुशियां, शांति या औलाद का प्यार खरीद पाईं? हम जैसे गैरों से अगर वे चुटकी भर खुशी का एहसास कर पाईं तो वह केवल अपनी व्यवहारकुशलता से. तभी अचानक बेटी के जाग जाने से मेरे विचारों के क्रम में बदलाव आ गया. मैं उसे प्यार से सहलाते हुए दूध गरम करने के लिए उठ गई.

रात को खाना खाते समय सोमेश (पति) ने पूछा, ‘‘फूफाजी की तबीयत कैसी है? 3-4 दिन से मेरी उन से बात नहीं हो पाई है.’’ इस पर मैं बोली, ‘‘फूफाजी की तबीयत का क्या ठीक, क्या खराब. कोई खास फर्क नहीं…वैसे बूआजी ने इमरजैंसी के लिए कोर्डलैस घंटी तो लगा ही रखी है.’’ वैसे तो इस महानगर के कोलाहल में हर आवाज दब कर रह जाती है, पर बूआजी से कुछ लगाव होने की वजह से हम उन की आवाजों का ध्यान भी रखते थे. वे बारबार श्याम को आवाजें लगाती थीं, ‘श्याम, फूफाजी को मंजन करा दो… श्याम, फूफाजी को चाय पिला दो… फूफाजी को कसरत करानी है…अब फूफाजी को दवा दे दो, अब उन्हें सुला कर खाना खा आओ,’ उन के इन संवादों से हमें फूफाजी की उपस्थिति का भान होता रहता था. तभी लंबी घंटी ने हमें चौंका दिया. मेरे पति जल्दीजल्दी दोदो सीढि़यां एकसाथ उतर कर नीचे पहुंचे. मैं भी घर बंद कर के नीचे पहुंची. घड़ी पर नजर पड़ी, तो देखा, साढ़े 8 बज रहे थे. श्याम भी जा चुका था. हम ने बूआजी का इतना घबराया चेहरा पहली बार देखा, उन की सांस फूल रही थी. हमारे पूछने पर वे बोलीं, ‘‘बेटी, आज मुझे इन की हालत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मैं ने डाक्टर को भी फोन कर दिया है. मन में अजीब सा डर लग रहा है, इसीलिए तुम लोगों को बुला लिया.’’

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इस पर हम दोनों बोले, ‘‘यह क्या कह रही हैं आप. यदि हमें नहीं बुलाएंगी तो और किसे बुलाएंगी?’’ तभी घंटी बजी. दरवाजा खोला तो देखा सामने डाक्टर साहब खड़े थे. उन्होंने फूफाजी को देखा व बोले, ‘‘श्रीमती जगत, मैं आज भी वही कहूंगा जो हर बार कहता आया हूं. इस बीमारी का कोई भी इलाज नहीं, न ही मरीज की गिरती व सुधरती हालत पर कोई टिप्पणी की जा सकती है. निकल जाए तो 6 महीने, न निकले तो 6 घंटे भी नहीं. आप हिम्मत रखो, मैं आप का दर्द समझता हूं,’’ कह कर डाक्टर चले गए. डाक्टर के जाने के बाद मैं ने कहा, ‘‘बूआजी, यदि आप कहें तो मैं आप के साथ नीचे ही सो जाऊं?’’ इस पर उन की आंखें फिर भर आईं और बोलीं, ‘‘हां बेटी, आज तुम नीचे ही सो जाओ. न जाने आज क्यों मेरा दिल घबरा रहा है.’’ मैं अपने पति को बच्चों के पास भेज कर स्वयं बूआजी के साथ फूफाजी के कमरे में ही लेट गई. वे बड़े प्यार से फूफाजी के सिर पर हाथ फेर कर उन्हें सहलाती रहीं. फूफाजी देखने में आज भी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. डाक्टर फूफाजी को नींद की दवा भी दे गए थे. फूफाजी साफ नहीं बोलते थे, बस ‘अऽऽ’ कर के चिल्लाते थे और रात की शांति में तो उन की आवाज बहुत तेज सुनाई पड़ती थी. थोड़ी देर बाद जब फूफाजी की आंख लग गई तो बूआजी आ कर मेरे पास जमीन पर लेट गईं, पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. छत के पंखे से टकटकी लगाए जैसे अपने अतीत के एकएक पल को अपने में समेट लेना चाहती थीं.

मुझे लगने लगा कि आज बूआजी अपनी जिंदगी के बीते एकएक पल को मेरे साथ बांटना चाहती हैं. तभी वे बोलीं, ‘‘बेटी, मैं शुरू से इस तरह अकेली नहीं थी. शादी हुई तो तेरे फूफाजी जैसे सुंदर तन व मन वाले व्यक्ति को पति के रूप में पा कर अपनेआप को धन्य समझने लगी. सासससुर के अलावा एक छोटी ननद थी. घर में संपन्नता की न आज कमी है न उस समय थी. हमारी पीतल की फैक्टरी थी जो मानो सोना उगलती थी. तेरे फूफाजी अपने पिता के इकलौते बेटे होने के कारण उन के बहुत लाड़ले थे. इन्हें घूमनेफिरने का बहुत शौक था. 2 साल में ही पूरे भारत की सैर कर ली. मैं इन के प्यार में इस कदर डूब गई थी कि मुझे कभी अपने मायके की याद नहीं आती थी. ममतामयी सासससुर ने मेरे सिर किसी भी तरह की गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं डाली थी. घर में इतने नौकरचाकर थे कि कभी खाना खा कर थाली उठाने की भी नौबत नहीं आई. डिफैंस कालोनी में 600 गज में कोठी बनी थी. 2 साल बाद एक सुंदर सी बिटिया ने जन्म लिया. घर में उन किलकारियों का बेसब्री से इंतजार था.

‘‘तुम्हारे फूफाजी की खुशियों का तो ठिकाना ही न रहा था. हम ने बेटी का नाम मंजुला रखा. उस की दादी ने उस की देखभाल के लिए एक आया और रख दी थी. 2 साल कैसे निकले, पता ही नहीं चला कि बेटे अनुराग का पदार्पण हो गया. अब तो घर की खुशियों में चारचांद लग गए थे. दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. दादी अनुराग का 10वां जन्मदिन मना कर रात को खुशीखुशी ऐसी सोईं कि फिर वापस कभी न उठ पाईं. गृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर आ पड़ा. सास को गए अभी 2 ही साल हुए थे कि दिल का दौरा पड़ने से ससुर भी कभी न जागने वाली नींद सो गए. अब इन पर ही फैक्टरी की पूरी जिम्मेदारी आ गई.’’ शायद बूआजी आज अपनी बातों को विराम नहीं देना चाहती थीं. मुझे भी उन की बातें सुन कर जैसे अनुभव का अनमोल खजाना मिल रहा था. वे आगे बोलीं, ‘‘दोनों बच्चे पढ़लिख कर बड़े हो गए. बेटी विवाह लायक हो गई थी. सो, मैं उसे जल्दी ही प्रणयसूत्र में बांधना चाहती थी. एक दिन घरबैठे ही बंगलौर से एक अच्छा रिश्ता आ गया व कुछ ही दिनों में हम ने उस की शादी कर दी. अनुराग का मन था कि वह आगे की शिक्षा अमेरिका से प्राप्त करे तो तुम्हारे फूफाजी ने उस का भी प्रबंध कर दिया. बेटी अपनी सुखसंपन्न गृहस्थी में लीन एक बेटे की मां बन गई और अनुराग 3 साल के लिए अमेरिका चला गया,’’ कहतेकहते बूआजी का जैसे बरसों से रुका आंसुओं का सैलाब न जाने क्यों आज ही बह जाना चाहता था. रोतेरोते उन की सिसकियां बंध गईं.

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थोड़ी देर रुक कर वे फिर भारी मन से बोलीं, ‘‘बेटी, मैं व तेरे फूफाजी अनुराग के आने के दिन गिन रहे थे कि एक दिन अचानक उस का पत्र आया जिस में उस ने लिखा था कि वर्ल्ड बैंक में नौकरी लग जाने की वजह से वह सालभर और घर नहीं आ सकता. इसलिए पिताजी से कहना कि वे फैक्टरी का काम कम कर दें. समझदार को इशारा ही काफी होता है. तेरे फूफाजी ने जब अनुराग का पत्र पढ़ा तो जैसे उन्हें कोई करंट सा लगा हो. धड़ाम से पलंग पर लेट गए. उस दिन के बाद कई बार मुझे उन की बातों से लगने लगा कि जैसे ये अपने बुढ़ापे के बारे में अपनेआप को काफी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं. ‘‘हर दोचार महीने में मंजुला व दामाद आ जाया करते थे. एक दिन अनुराग का फिर पत्र आया जिस में उस ने लिखा था कि ‘मेरे साथ नैना नामक लड़की काम करती है और मैं भारत आ कर आप लोगों की आज्ञा से उस से शादी करना चाहता हूं. मैं 2 महीने की छुट्टी पर घर आ रहा हूं. नैना का भी घर लखनऊ में है.’

‘‘तुम्हारे फूफाजी को व मुझे कोई एतराज नहीं था, सोचा, चलो अच्छा हुआ कि लड़की भारतीय तो है. अब हम बड़े उत्साह से उस की शादी की तैयारियों में जुट गए थे. हम ने मंजुला को भी बुला लिया था. हम ने बड़ी धूमधाम से शादी की. तुम्हारे फूफाजी और मैं बहुत खुश थे. शादी के बाद एक महीना कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. अनुराग व नैना के वापस जाने की तारीख भी नजदीक आ रही थी. केवल 7 दिन बचे थे. फिर आखिरकार उन के जाने का दिन भी आ ही गया. हम दोनों अनुराग व नैना को विदा कर घर लौटे कि उसी दिन से घर में नीरवता छा गई. तुम्हारे फूफाजी ने खाट पकड़ ली. ‘‘मैं ने वकील के साथ मिल कर फैक्टरी बेच दी, साथ ही कोठी को भी बेच दिया और इस फ्लैट में आ गई. एक बार बेटेबहू ने कहा भी कि आप लोग अमेरिका ही आ जाओ पर मैं ने कहा कि हम वहां एअरकंडीशनर की कैद में नहीं रह सकते. तुम दोनों तो काम पर चले जाया करोगे, सो मुझ से इन की देखभाल अकेले नहीं होगी. और अपने जीतेजी मैं इन्हें किसी भी नर्सिंगहोम में नहीं छोड़ूंगी, मेरे बाद तुम्हारी जो मरजी हो सो करना. ‘‘दोनों साल में एकाध बार आ जाते हैं. उन के एक बेटी है. बहू को तो दुनियाभर का भ्रमण करना पड़ता है, श्रीलंका, जापान, जरमनी, स्वीडन वगैरावगैरा. अब तो उन्होंने अमेरिकी नागरिकता भी स्वीकार कर ली है. पूरी तरह से वहीं बस गए हैं.’’

बातों ही बातों में मैं ने घड़ी देखी तो पाया कि सुबह के 5 बज गए हैं. तभी फूफाजी ने जोर से एक हिचकी ली और शांत हो गए. बूआजी ने उठ कर देखा और हिम्मत के साथ उन की आंखें बंद कर मुंह पर कपड़ा ढक दिया और बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘फूफाजी नहीं रहे.’’ मैं ने ऊपर से इन्हें बुलाया व सभी रिश्तेदारों को फोन से सूचना करवा दी. बूआजी मेरे पति से बोलीं, ‘‘सोमेश बेटे, 11 बजे तक इंतजार कर लो, यदि लोग पहुंच जाएं तो ठीक अन्यथा गाड़ी बुला कर विद्युत शव दाहगृह में ले जा कर अंतिम संस्कार कर आना.’’ शायद बूआजी को अपने बेटे अनुराग के पहुंच पाने की कोई उम्मीद न थी. तभी अचानक उन को कुछ याद आ गया. वे कुछ तेज कदमों से चलती हुई मेरे पति के पास पहुंचीं. फिर उन्होंने पति के कान में कुछ कहा तो वे तुरंत फोन की तरफ लपक कर कहीं फोन मिलाने लगे. उन के फोन मिलाने के थोड़ी देर बाद ही एक गाड़ी घर के दरवाजे पर आ कर रुकी. उस में से उतर कर डाक्टर साहब ने घर में प्रवेश किया. इस तरह फूफाजी के नेत्रदान की अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए मानो बूआजी की बहती अविरल अश्रुधारा कह रही हो कि ये अनुभवी, प्यार बरसाने वाले नेत्र तो जिंदा रहेंगे. दुनिया पर प्यार लुटाने वाली बूआजी का स्वयं का प्यार का स्रोत लुट चुका था. बूआजी की टेप पर चलती गजल मुझे फिर याद आ गई मानो वह उन्हीं के लिए ही गाई गई हो, ‘अपनी सूरत भी लगने लगी पराई सी, जो आईना देखा…’

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पुनर्मरण: क्या अपराधिनी का दाग हटा पाई संध्या

कुछ सजा ऐसी भी होती है जो बगैर किसी अपराध के ही तय कर दी जाती है. उस दिन अपने परिवार के सामने मैं भी बिना किसी किए अपराध की सजा के रूप में अपराधिनी बनी खड़ी थी. हर किसी की जलती निगाहें मुझे घूर रही थीं, मानो मुझ से बहुत बड़ा अपराध हो गया हो.

मांजी की चलती तो शायद मुझे घर से निकाल दिया होता. मेरे दोनों बेटे त्रिशंक और आदित्य आंगन में अपनी दादी के साथ खड़े थे. पंडितजी कुरसी पर बैठे थे और मांजी को समझा रहे थे कि जो हुआ अच्छा नहीं हुआ. अब विभु की आत्मा की शांति के लिए उन्हें हवन- पूजा करनी होगी.. भारी दान देना होगा, क्योंकि आप की बहू के हाथों भारी पाप हो गया है.

मेरा अपना बड़ा बेटा त्रिशंक मुझे हिकारत से देखते हुए क्रोध में बोला, ‘‘मेरा अधिकार आप का कैसे हो गया, मां? यह आप ने अच्छा नहीं किया.’’

‘‘परिस्थितियां ऐसी थीं जिन में एक के अधिकार के लिए दूसरे के शरीर की दुर्गति तो मैं नहीं कर सकती थी, बेटे,’’ भीगी आंखों से बेटे को देखते हुए मैं ने कहा.

‘‘मजबूरी का नाम दे कर अपनी गलती पर परदा मत डालिए, मां.’’

तभी मांजी गरजीं, ‘‘बड़ी आंदोलनकारी बनती है. अरे, इस से पूछ त्रिशंक कि विभु के कुछ अवशेष भी साथ लाई है या सब वहीं गंगा में बहा आई.’’

‘‘बोलो न मां, चुप क्यों हो? दो जवाब दादी की बातों का.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो भैया, आखिर पापा पर पहला हक तो मां का ही था न?’’

‘‘चुप बेसऊर,’’ मांजी फिर गरजीं, ‘‘पति की मौत पर पत्नी को होश ही कहां होता है जो वह उस का अंतिम संस्कार करे, इसे तो कोई दुख ही न हुआ होगा, आजाद जो हो गई. अब करेगी समाज सेवा जम कर.’’

‘‘चुप रहिए,’’ मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई और मैं गरज पड़ी, ‘‘मेरा कुसूर क्या है? किस बात की सजा दे रहे हैं आप सब मुझे. यही न कि मैं ने अपने पति का उन की मौत के बाद अंतिम संस्कार क्यों कर दिया, तो सुनिए, वह मेरी मजबूरी थी. क्षतविक्षत खून से सनी लाश को मैं 2 दिन तक कैसे संभालती. कटरा से कोलकाता की दूरी कितनी है, क्या आप सब नहीं जानते? मेरे पास कोई साधन नहीं था. कैसे ले कर आती उन्हें यहां तक? फिर अपने पति का, जो मेरे जीवनसाथी थे, हर दुखसुख के भागीदार थे, अंतिम संस्कार कर के मैं ने क्या गलत कर दिया?’’

मेरी आवाज भर्रा गई और मैं ऊपर अपने कमरे में आ गई. मेरी दोनों बहुएं रेवती और रौबिंका भी मेरे पीछेपीछे ऊपर आ गईं. मेरी छोटी बहू रशियन थी. उस की समझ में जब कुछ नहीं आया तो वह अंगरेजी में बस यही कहती रही, ‘‘पापा की आत्मा के लिए प्रार्थना करो, वही ज्यादा जरूरी है, यह कलह क्यों हो रही है.’’

मैं उसे क्या समझाती कि यहां हर धार्मिक अनुष्ठान शोरगुल और चिल्लाहट से ही शुरू होता है. कहीं पढ़ा था कि झूठ को जोर से बोलो तो वह सच बन जाता है. यही पूजापाठ का मंत्र भी है, जो पुजारी जितनी जोर से मंत्र पढे़गा, वह उतना ही बड़ा पंडित माना जाएगा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए जो मेरे गालों पर बह निकले. विभु की मौत हो गई है. मेरा सबकुछ चला गया, मैं इस का शोक भी शांति से नहीं मना पा रही हूं. कमरे की खिड़की का परदा जरा सा खिसका हुआ था. दूर गगन में देखते हुए मैं अतीत में चली गई.

बचपन से ही मैं दबंग स्वभाव की थी. मम्मी और पापा दोनों ही नौकरी में थे. घर पर मैं और मुझ से छोटा भाई बस, हम दोनों ही रहते. मां ने यही सिखाया था कि कभी अन्याय न करना और न सहना. हमेशा सच का साथ देना. मेरा पूरा परिवार खुले विचारों का था. मेरी परवरिश इस तरह के माहौल में हुई तो जाहिर है मैं रूढि़यों को न मानने वाली और हमेशा सही का साथ देने वाली बन गई.

बी. एड. में मैं ने प्रवेश लिया था. पहला साल था कि विभु के घर से विवाह के लिए रिश्ता आ गया. मैं शादी से कतरा रही थी पर मां ने समझाया, ‘शुचि, विभु प्रवक्ता है. यानी एक पढ़ालिखा इनसान. तेरा भी पढ़ाई में रुझान ज्यादा है. शादी कर ले, वह तुझे अच्छी तरह समझेगा और जितना पढ़ना चाहेगी पढ़ाएगा भी.’

शादी के बाद जब मैं विभु के घर पहुंची तो यह देख कर आश्चर्य में पड़ गई कि विभु बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे. विभु ने शादी की रात में ही मुझ से कह दिया था, ‘शुचि, मैं पूजापाठ करता हूं, पर तुम से इतना वादा करता हूं कि तुम्हें यह सब करने के लिए मैं कभी बाध्य नहीं करूंगा. हां, जहां जरूरत होगी वहां साथ जरूर रखूंगा.’

उन दिनों मेरी बी. एड. की परीक्षा चल रही थी, नवरात्र का समय था. सुबह विभु उठ कर शंख, घंटी से पूजा करते. मेरी आदत सुबहसुबह उठ कर पढ़ने की थी. इस शोर से मैं पढ़ नहीं पाती. आखिर मैं ने विभु से कह दिया. उस दिन से विभु मौन पूजा करने लगे. बल्कि मां को भी सुबह जोर से मंत्रोच्चारण करने को मना कर दिया.

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हमारा जीवन एक खुशहाल जीवन कहा जा सकता है. शादी के शुरुआती दिनों में हम जहां भी घूमने जाते वहां के मंदिरों में जरूर जाते. मैं तटस्थ ही रहती थी, कभी भी विभु को इस के लिए मना नहीं करती. आखिर अपनीअपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का सभी को हक है. जब मैं अपना खाली समय पत्रिकाओं को पढ़ने में बिताती तो विभु भी नहीं बोलते. हमारे प्यार के बीच एक आपसी समझौता हम दोनों ने कर रखा था.

4 वर्ष बाद त्रिशंक पैदा हुआ. बी.एड. के बाद मैं नौकरी करने लगी थी. त्रिशंक दादी के पास रहता और उस का बचपन दादी की परी, बेताल और धार्मिक किस्सेकहानियों में बीता. इसी कारण वह बचपन से धर्म के मामले में संकीर्ण हो गया.

आदित्य के समय तक मैं ने नौकरी छोड़ दी. अपना पूरा समय मैं बच्चों और परिवार में बिताती. बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे. एक ने कंप्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग की, दूसरा अमेरिकन बैंक में लग गया. दोनों ही विदेश चले गए. बड़े ने मेरी देखी हुई लड़की से शादी की परंतु छोटे ने विदेश मेें अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह कर लिया. उस के विवाह में हम सब गए थे. मांजी खूब बड़बड़ाई थीं पर विभु नाराज नहीं हुए थे.

विभु का रिटायरमेंट करीब था. मेरे पास भी समय था. बच्चों के बाहर बसने से मेरे लिए कुछ करने को रह ही नहीं गया था, सो मैं समाजसेवा से जुड़ गई.

एक दिन बैठेबैठे यों ही विभु के मुंह से निकल गया, ‘शुचि, हमारी सारी जिम्मेदारियां पूरी हो गई हैं. चलो, तीर्थ कर आएं.’

मैं हंस दी तो वह भी हंस दिए. बोले, ‘मैं जानता हूं शुचि, तुम पूजापाठ में विश्वास नहीं रखती हो. पर मैं मजबूर हूं. बचपन से ही मां ने मेरे अंदर यह भावना बिठा दी है कि भगवान ही सबकुछ है. जो कुछ भी करो उसे सपर्पित कर के करो. बस, मैं यही कर रहा हूं.’

मैं ने अनायास ही पूछ लिया, ‘आप ने ईश्वर देखा है क्या?’

‘नहीं, पर मैं मानता हूं कि यह धरती, आकाश, परिंदे और वृक्षों को बनाने वाला ईश्वर है.’

विभु थोड़ी देर शांत बैठे रहे, फिर बाहर टहलने चले गए. उन के ध्यान और योग को मैं अच्छा मानती थी. इन दोनों चीजों से व्यक्ति का मस्तिष्क और शरीर दोनों ही स्वस्थ होते हैं.

जुलाई का महीना था. अपने तय कार्यक्रम के अनुसार हम हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक नजारों को देखते धार्मिक स्थानों पर घूमते हुए कटरा पहुंचे थे ताकि वैष्णोदेवी का स्थान देख कर दर्शन कर सकें. कई दिनों की लगातार थकावट से बदन का पोरपोर दुख रहा था. विभु को तभी सांस की तकलीफ होने लगी थी. बाणगंगा पर ही मैं ने जिद कर के उन के लिए घोड़ा करवा दिया ताकि उन की सांस की तकलीफ और न बढ़े.

घोड़े पर बैठ कर जब हम चले तो मुझे डर भी लग रहा था. यह घोड़े अजीब होते हैं. कितनी भी जगह हो पर चलेंगे एकदम किनारे. गजब की सधी हुई चाल होती है इन की. नीचे झांको तो कलेजा मुंह को आ जाए, गहरीगहरी खाइयां.

सवारी की वजह से हम जल्दी ही मंदिर देख कर नीचे वापस आ गए. हमारी इस यात्रा में पटना का एक परिवार भी शामिल हो गया. मेरा थकावट से बुरा हाल था. रात हो गई थी. लौटतेलौटते भूख भी लग रही थी और विश्राम करने की इच्छा भी हो रही थी.

पटना वालों ने बताया कि नीचे बाणगंगा के पास लंगर चलता है, चल कर वहीं भोजन करते हैं. घोड़े वाले ने कहा कि भोजन कर के चले चलिए तो रात में ही होटल पहुंच जाएंगे. फिर वहां आराम करिएगा.

लंगर में लोग खाने के लिए लाइन लगाए खड़े थे. सब तरफ हलवा बांटा जा रहा था. मैं ने गौर किया कि थालियां ठीक से धुली नहीं थीं फिर भी उन में खाना परोस दिया जा रहा था. थालियां ऐसे बांटी जा रही थीं मानो हाथ नहीं मशीन हो. मैं विभु के साथ हाथमुंह धो कर बैठ गई.

‘चलो, दर्शन हो गए, अब घर चल कर एक हवन करा लेंगे.’

मैं होंठ दबा कर हंसी तो विभु ने मुंह दूसरी तरफ फेर लिया. हवन का आशय मेरी समझ से दूसरा था. पिताजी ने ही एक बार समझाया था कि हवन के धुएं से पूरा घर साफ हो जाता है. कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं.

भोजन की लाइन में बैठ विभु उस समय काफी तरोताजा लग रहे थे. चारों तरफ गहमागहमी थी. लंगर की यह विशेषता मुझे अच्छी लगती है, जहां एक ही कतार में सेठ भी खाते हैं और उन के मातहत भी. यहां कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है.

अचानक मुझे जोर की उबकाई आई. मैं उठ कर बाहर भागी. शायद कुछ न खाने की वजह से पेट में गैस बन गई थी. मैं मुंह धो कर हटी ही थी कि एक जोर का धमाका हुआ और  सारा वातावरण धुएं और धूल से भर गया. लोग जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगे, एकदूसरे पर गिरने लगे. विभु का ध्यान आते ही मैं पागलों की तरह उधर भागी पर वहां धुएं की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. 10 मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक और जोरदार धमाका हुआ. आतंकवादियों ने कहीं से गोले फेंके थे. मेरे पेट में जोर की ऐंठन हुई और लाख न चाहने के बावजूद मैं अचेत हो कर वहीं गिर पड़ी.

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मुझे जब होश आया, भगदड़ कुछ थम गई थी. मैं जमीन पर एक तरफ पड़ी थी. प्रेस वाले और पुलिस वाले वहां मौजूद थे. मैं ने हिम्मत कर के उठने की कोशिश की. मैं जानना चाहती थी कि विभु कहां हैं. पर किस से पूछती, हर कोई अपने साथ वाले के लिए बेचैन था. लोग आपस में बात कर रहे थे कि आतंकवादियों ने कहीं से बम फेंका है जिस में लगभग 7 लोगों की जान चली गई है. कई गंभीर अवस्था में घायल पड़े हैं जिन्हें कटरा अस्पताल ले जाया जा रहा है.

मैं अपने पांवों को घसीटते हुए उधर गई जहां बैठ कर विभु भोजन कर रहे थे. देखा, वहां चावल, रोटी के बीच खून की धारें बह रही थीं. शरीर के चिथड़े बिखरे पड़े थे. इस विस्फोट ने माता के कई भक्तों की जानें ले ली थीं. मुझे विभु कहीं नजर नहीं आए. मैं जिसे देखती उसी से पूछती, ‘क्या आप ने विभु को देखा है?’ पर मेरे विभु को वहां जानता ही कौन था. कौन बताता भला.

घायलों की तरफ मैं गई तो विभु वहां भी नहीं थे. तभी मेरा कलेजा मुंह को आ गया. पांव बुरी तरह कांपने लगे. थोड़ी दूर पर विभु का क्षतविक्षत शव पड़ा हुआ था. मैं बदहवास सी उन के ऊपर गिर पड़ी. मैं चीख रही थी, ‘कोई इन्हें बचा लो…यह जिंदा हैं, मरे नहीं हैं.’

मेरी चीख से एक पुलिस वाला वहां आया. विभु का निरीक्षण किया और सिर हिला कर चला गया. मैं चीखतीचिल्लाती रही, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता, मेरा विभु मर नहीं सकता.’ सहानुभूति से भरी कई निगाहें मेरी तरफ उठीं पर मेरी सहायता को कोई नहीं आया.

इस आतंकवादी हमले के बाद जो भगदड़ मची उस में मेरा पर्स, मोबाइल सभी जाने कहां खो गए. मैं खाली हाथ खड़ी थी. किसे अपनी सहायता के लिए बुलाऊं. विभु को ले कर कोलकाता तक का सफर कैसे करूंगी?

मैं ने हिम्मत की. विभु को एक तरफ लिटा कर मैं गाड़ी की व्यवस्था में लग गई. पर मुझे विभु को ले जाने से मना कर दिया गया. पुलिस का कहना था कि लाशें एकसाथ पोस्टमार्टम के लिए जाएंगी. मैं विभु को यों नहीं जाने देना चाहती थी पर पुलिस व्यवस्था के आगे मजबूर थी.

मेरा मन क्षोभ से भर गया, धर्म के नाम पर यह आतंकवादी हमले जाने कब रुकेंगे. क्यों करते हैं लोग ऐसा? मैं सोचने लगी, मेरे पति की तरह कितने ही लोग 24 घंटे के भीतर मर गए हैं. क्या गुजर रही होगी उन परिवारों पर. मैं खुद अनजान जगह पर विवश और परेशान खड़ी थी.

विभु का शव मिलने में पूरा दिन लग गया. मेरे पास पैसा भी नहीं था. एक आदमी मोबाइल लिए घूम रहा था, मैं ने उस से विनती कर के अपने घर फोन मिलाया. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. मांजी शायद मंदिर गई होंगी. फिर मैं ने बड़े बेटे का नंबर लगाया तो वह सुन कर फोन पर ही रोने लगा, ‘मां, हम जल्दी ही पहुंचने की कोशिश करेंगे पर फिर भी आने में 3 दिन तो लग ही जाएंगे. आप कोलकाता पहुंचिए. हम वहीं पहुंचेंगे.’

विभु का मृत शरीर मेरे पास था. कोई भी गाड़ी वाला लाश को कोलकाता ले जाने को तैयार नहीं हुआ. मैं परेशान, क्या करूं. उधर दूसरे दिन ही विभु का शरीर ऐंठने लगा था. कुछ लोगों ने सलाह दी कि इन का अंतिम संस्कार यहीं कर दीजिए. आप अकेली इन्हें ले कर इतनी दूर कैसे जाएंगी?

विभु जीवन भर पूजापाठ करते रहे. क्या इसी मौत के लिए विभु भगवान को पूजते रहे?

विभु के बेजान शरीर की और छीछालेदर मुझ से सही नहीं गई. मैं ने सोचा, यहीं गंगा के किनारे उन का अंतिम संस्कार कर दूं. कुछ लोगों की सहायता से मैं ने यही किया. विभु का पार्थिव शरीर अनंत में विलीन हो गया. मेरे आंसू सूख चुके थे. मेरे आंसुओं को पोंछने वाला हाथ और सहारा देने वाला संबल दोनों ही छूट गए थे.

मेरी तंद्रा किसी के स्पर्श से टूटी. जाने कितनी देर से मैं बिस्तर पर इसी हाल में पड़ी रह गई थी. दोनों बहुएं मेरे अगलबगल बैठी थीं और छोटी बहू का हाथ मेरे केशों को सहला रहा था.

‘‘उठिए, मां.’’

मैं ने धीमे से अपनी आंखें खोलीं. दोनों बहुएं आंखों में प्यार, सहानुभूति लिए मुझे देख रही थीं. छोटी बहू की आंखों में प्रेम के साथ कौतूहल भी था. वह बेचारी क्या समझ पाती कि यहां क्या कहानी गढ़ी जा रही है. वह बस टुकुरटुकुर मुझे निहारती रहती.

‘‘नीचे चलिए, मां, पंडितजी आ गए हैं और कुछ पूजाहवन करवा रहे हैं,’’ बड़ी बहू रेवती बोली.

‘‘शायद मेरी उपस्थिति मांजी को अच्छी न लगे. तुम लोग जाओ. मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘पिताजी के किसी भी संस्कार में शामिल होने का आप को पूरा अधिकार है, मां. आप चलिए,’’ बड़ी बहू ने मुझ से कहा.

भारी कदमों से मैं नीचे उतरी तो वहां का दृश्य देख कर मन भारी हो गया. मांजी त्रिशंक से कह रही थीं, ‘‘बेटा, पंडितजी आ गए हैं. यह जैसा कहें वैसा कर, यह ऐसी पूजा करवा देंगे जिस से विभु का अंतिम संस्कार तेरे हाथों से हुआ माना जाएगा.’’

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अपने को बिना किसी अपराध के अपराधिनी समझ बैठी हूं मैं. एक मरे इनसान की अनदेखी आत्मा की शांति के लिए जो अनुष्ठान किया जा रहा था वह मेरी सोच के बाहर का था. इस क्रिया से क्या विभु की आत्मा प्रसन्न हो जाएगी? यदि मांजी यह सब करतीं तो शायद मुझे इतना दुख न लगता जितना अपने बड़े बेटे को इस पूजा में शामिल होते देख कर मुझे हो रहा था.

पंडितजी जोरजोर से कोई मंत्र पढ़ रहे थे. त्रिशंक सिर पर रूमाल रखे हाथ जोड़ कर बैठा था. एक ऊंचे आसन पर विभु का शाल रख दिया गया था. मांजी रोते हुए यह सब करवा रही थीं. काश, आज विभु यह सब देख पाते कि उन के संस्कारों ने किस तरह उन के बेटे में प्रवेश कर लिया है. गलत परंपरा की नींव त्रिशंक और मांजी मिल कर डाल रहे हैं. मैं भीगी आंखों से अपने पति को एक बार फिर मरते हुए देख रही थी.

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ऐसा कैसे होगा: क्या सवाल का जवाब ढूंढ पाई आभा

लेखक- विष्णु विराट चतुर्वेदी

बड़े बाबू के पूछने पर मैं ने अपनी उम्र 38 वर्ष बताई, सहज रूप में ही कह दिया था, ‘38…’

हालांकि बड़े बाबू अच्छी तरह जानते थे कि मेरी जन्मतिथि क्या है, शायद उन्होंने उस पर इतना ध्यान भी नहीं दिया. लेकिन तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी उम्र कम बता रही हूं. यह बात शायद बड़े बाबू जान गए थे और अपनी नाक पर टिके चश्मे से ऊपर आंखें चमका कर मुझे उपहासभरी दृष्टि से देख रहे थे. वैसे मैं 39 वर्ष 7 महीने 11 दिन की हो गई हूं. सामान्यरूप से इसे 40 वर्ष की उम्र कहा जा सकता है. किंतु मैं 40 वर्ष की कैसे हो सकती हूं? 40 वर्ष तक तो व्यक्ति प्रौढ़ हो जाता है. लेकिन मैं तो अभी जवान हूं, सुंदर हूं, आकर्षक हूं.

नौजवान सहयोगी हसरतभरी निगाहों से मुझे देखते हैं. लोगों की आंखों को मैं पढ़ सकती हूं, भले ही उन में वासना के कलुषित डोरे रहते हैं, कामातुर विकारों से ग्रस्त रहती हैं उन की आंखें, फिर भी मुझे अच्छा लगता है. मुझ से बातें करने की उन की ललक, मेरी यों ही अनावश्यक तारीफ, मेरे कपड़ों के रंग, मेरा मुसकराना, बोलने का लहजा, काम करने का तरीका आदि अनेक चीजें हैं, जो काबिलेतारीफ कही जाती हैं. दूसरों की आंखों में आंखें डाल कर बात करने का मेरा सलीका लोगों को प्रभावित करता है. ये बातें मैं उन तमाम निकटस्थ सहयोगियों के क्रियाकलापों से जान जाती हूं.

मेरा मन चाहता है कि लोग मुझे घूरें, मेरे मांसल शरीर के ईदगिर्द अपनी निगाहें डालें, मेरा सामीप्य पाने के लिए बहाने ढूंढ़ें, मुझ से बातें करें व प्रेम करने की हद तक भाव प्रदर्शित करें. किंतु मैं 40 वर्ष की कैसे हो सकती हूं? अभी तो मैं ने कौमार्यवय की अठखेलियों में भाग ही नहीं लिया, जवानी के उफनते वेग में पागल भी नहीं हुई. किसी के प्रणय में मदांध होना तो दूर, स्वच्छंद रतिविलासों का अनुभव भी नहीं किया. किसी के लौह बंधन में बंध कर चरमरा कर बिखर जाने की कामना अभी पूरी कहां हुई है? नारीत्व के समर्पित सुख का अनुभव कहां लिया है? मैं अभी 40 वर्ष की प्रौढ़ा कैसे हो सकती हूं?

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मैं ने जब से इस बढ़ती उम्र के गणित को सोचना प्रारंभ किया है, घबरा गई हूं, मन बेचैन सा हो गया है. शरीर में अचानक शिथिलता आ गई है. गालों पर कसी हुई त्वचा जैसे अपने कसाव कम कर रही है. ऐसा लग रहा है जैसे नदी उतर रही है, उस में आई बाढ़ जैसे घट रही है. आंखों के नीचे हलके निशान उभर आए हैं. हलकी सी श्यामलता चेहरे पर छा रही है.

लेकिन यह कैसे हो सकता है? बाबूजी की मृत्यु को 4 बरस हो गए. छोटू का इस बार एमबीबीएस कोर्स पूरा हो जाएगा, लेकिन उसे एमडी बनना है, 2-3 साल अभी लगेंगे. विभा इस वर्ष स्नातिका हो जाएगी. मामाजी ने उस के लिए एक रिश्ते की बात की है. अगले मार्च में उस की शादी कर देंगे. छोटू का भी कुछ प्रेमप्रसंग जोरशोर से चल रहा है, लड़की पंजाबी है साथ पढ़ती है, इस में बुराई भी क्या है. लेकिन, मैं अब क्या करूंगी? सोचती थी कि इन 4 सालों में विभा की पढ़ाई पूरी हो जाएगी और छोटू घर संभाल लेगा, तब मैं आजाद हो जाऊंगी. मेरे चाहने वाले बहुत हैं, ढेर सारे उम्मीदवार हैं, तब अपने विषय में सोचूंगी एकदम निश्चिंत हो कर. लेकिन, इस अवधि में मैं 40 वर्ष की प्रौढ़ा कैसे हो सकती हूं?

घर वालों से मुझे कोई शिकायत नहीं है. बाबूजी कई रिश्ते लाए थे. जातिबिरादरी के, ऊंचे खानदान वाले, बड़ीबड़ी मांगों, दहेज की आकांक्षा वाले लोग. बाबूजी मेरा विवाह कर भी सकते थे. लेकिन तब छोटू एमबीबीएस न कर पाता, विभा बीए की पढ़ाई भी न कर पाती. सारी जमा पूंजी समाप्त हो जाती. मैं बड़ी बेटी हूं न, सारी समस्याएं जानती हूं. शादी का नाम लेते ही मैं चिढ़ जाती थी, काटने दौड़ती थी. लोग मेरे सामने शादी की बात करने से डरते थे. वे मेरी आलोचना भी करते थे. भलाबुरा भी कहते थे.

कोई कहता, ‘गोल्ड मैडलिस्ट है न, इसीलिए दिमाग आसमान पर चढ़ा है.’ दूसरा कहता, ‘रूपगर्विता है, अपने सौंदर्य का बड़ा अभिमान है.’

शादी के नाम पर जैसे मुझे सचमुच चिढ़ थी. किसी की ताबेदारी में रहना मुझे स्वीकार न था. अच्छी कंपनी में इज्जत की नौकरी है, अच्छीखासी तनख्वाह है, प्रतिष्ठा है. औफिस में रोबदाब है, घर में भी लोग डरते हैं. छोटू और विभा भी सामने आने से कतराते हैं. मां भी जैसे खुशामद सी करती हैं. सबकुछ असहज और अस्वाभाविक लगता है. मन करता है कि विभा मेरे गले में बांहें डाल कर लिपट जाए, छोटू मेरी चोटी खींच कर भाग जाए. मां मुझे डांटें, धमकाएं, लेकिन वह सब कतई बंद है. मां की बीमारी बढ़ गई है, उन्हें अस्पताल में भरती कराना ही पड़ेगा. डाक्टर ने साफ कह दिया है कि अब ज्यादा दिन नहीं जिएंगी. अंतिम अवस्था है.

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लकिन मेरी अंतिम अवस्था नहीं है. मैं घुलघुल कर नहीं मरूंगी, अपने वजूद को बचा कर रखूंगी. मुझे अभी प्रौढ़ा नहीं बनना है. अपना राजपाल है न, मुझ पर जान देता है. हमउम्र और हमपेशा भी है. बेचारा विधुर है, 10 साल से एकाकी है. मेरे खयाल से उस से मिलना चाहिए. वह वासना और प्रेम का अंतर जानता है, उस में गहरी समझदारी है. एक बार समझदारी के साथ ही उस ने शादी का अप्रत्यक्ष प्रस्ताव भी रखा था और मैं उस के प्रस्ताव से प्रभावित भी थी. वह बोला था, ‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम दोनों इस मुद्दे पर एक लंबी वार्त्ता करें, जिस में अनेक सत्र हों, जो दिनों, महीनों, वर्षों तक चले. अब हमारेतुम्हारे पास विषय तो बहुत से हैं न, उन सभी विषयों पर सलीके से बातें करें. उन पर सोचें, व्यवहार करें, तुम मेरे विचारों की प्रयोगशाला बन जाओ और मैं तुम्हारे खयालों की ठोस जमीन. हम दोनों एकदूसरे से अपने प्रश्नों का समाधान कराएं. क्या तुम अपनी बकाया जिंदगी मेरे ऊलजलूल प्रश्नों को सुलझाने के लिए मेरे नाम कर सकती हो? क्या मैं तुम्हें समझने की कोशिश में तमाम उम्र बिता सकता हूं? सच कहता हूं, मैं तुम्हारी अनंत जिज्ञासाओं का एकमात्र समाधान हूं. मेरे अंतर्मन के पृष्ठों को पलट कर तो देखो.’

मैं कई दिनों से राजपाल के विषय में ही सोच रही हूं. वह एक परिपक्व व्यक्तित्व की गरिमा से युक्त है, संवेदनशील है. उस में कोई छिछोरापन नहीं है. प्रणय प्रस्ताव रखने में भी समझदारी से काम लेता है. एक दिन कहने लगा, ‘आभा, तुम्हारे होंठों पर लगी लिपस्टिक और मेरे पैन की स्याही एकजैसी है, हलकी मैरून. यह रंग मन की अनुराग भावना को व्यक्त करता है, क्यों?’ मैं ने हलकी सी मुसकराहट फेंकी और आगे बढ़ गई. उस की बात बहुत दिनों तक मेरा पीछा करती रही. वह एक सभ्य और जिम्मेदार अफसर है. उस के साथ उठाबैठा जा सकता है.

कल मां को अस्पताल में भरती करा दूंगी. छोटू को स्कौलरशिप मिलती है. विभा की शादी के लिए बाबू की एफडी तो है. मामाजी सब संभाल लेंगे. मैं आज शाम को राजपाल के बंगले पर जाऊंगी, साफसाफ बात करूंगी और आजकल में ही निर्णय ले लूंगी. मुझे अभी 40 साल की प्रौढ़ा नहीं बनना. 40 साल में अभी 5 महीने बाकी हैं. इन 5 महीनों में मैं अपना कौमार्य अनुभव करूंगी, नाचूंगी, गाऊंगी, आकाश में उड़ूंगी, सितारों से बातें करूंगी, चांद को छू कर देखूंगी. अभी मुझे 40 साल की नहीं होना, सबकुछ व्यवस्थित हो गया है, सबकुछ ठीकठाक है. स्नान करने के बाद मैं ने हलका सा मेकअप किया व नीली साड़ी पहनी. होंठों पर हलके मैरून रंग की लिपस्टिक लगाई. फिर विदेशी इत्र की सुगंध से सराबोर हो कर चल दी अपना अंतिम निर्णय लेने, अपने निश्चित गंतव्य के लिए.

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पछतावा: क्या सही थी लालपरी की गलती

लेखिका- मंजू सिन्हा

सब को चाय पिला कर मैं ने जूठी प्यालियां टेª में समेट लीं. घडी़ सुबह के 7 बजा रही थी. मैं ने टीवी खोल दिया. समाचार देखने सारा परिवार ड्राइंगरूम में आ गया. यह तो रोज का रुटीन है. समाचार देखने के समय मैं चाकू ले कर सब्जियां काटने बैठती हूं. पतिदेव सोफे पर आराम से बैठ कर सेंटर टेबिल पर आईना रख कर शेव करने बैठते हैं. पिकी और मीनी एकदूसरे को चिढा़ती, मुंह बिचकाती, जीभ दिखाती टीवी देखती रहती हैं.

फ्भई, आज सेकंड राउंड चाय नहीं हो रही है? इन्होंने दाढी़ बनाते हुए पूछा.

फ्आज लालपरी नहीं आई है. मुझे आटा गूंधना है, मसाला पीसना है. बच्चों का टिफिन, आप का खाना, नाश्ता—

फ्समझ गया सरकार, लालपरी होती है तब तो आप कहती हैं, ‘निकम्मी है यह, सारा काम मुझे ही संभालना पड़ता है,’ और एक दिन नहीं आई तो–. बीच में ही बात रोक कर उन्होंने मेरी नकल उतारी और हंसने लगे.

फ्लालपरी अभी किशोरी है. उसे ऐसे नहीं कहूंगी तो वह काम में तेजी कैसे लाएगी. काम तो करती ही है बेचारी. मूर्ख पति मिला है उस बदनसीब को, मैं ने ठंडी आह भरी.

साढे़ 9 बजतेबजते घर खाली सा हो गया. बच्चे स्कूल और पतिदेव आफिस जा चुके थे. मैं ने घर के बाकी काम समेटने शुरू किए. झाड़न्न् लगाना आसान था, पर पाेंछा लगाने में तो कमर ही जैसे टूट गई, ‘कोई होता तो लालपरी के घर भेज कर उस का हाल पुछवा लेती. क्या करूं, अभी तो खैर कालिज बंद हैं पर जिस रपतार से यह नागा करने लगी है उस से तो काम नहीं चलेगा. लगता है किसी और को रखना होगा. आने दो, मैं स्वयं बात करती हूं इस सिलसिले में,’ मैं ने मन ही मन सोचा.

शाम को लालपरी आई. आते ही नजरें नीची किए बंगले के पिछवाडे़ जाने लगी. मेरी सास के जमाने से यह सिलसिला चला आ रहा है कि मुख्यद्वार से दाईं ओर नौकर अंदर नहीं जाते. रसोई के पीछे नल है, वहां साबुन, तौलिया रखा रहता है, आने पर हाथपैर साबुन से अच्छी तरह धोकर ही रसोई में घुसना होता है. लालपरी अपनी मां के साथ आती थी. मां जब सोहन रिकशे वाले के साथ भाग गई तब मैं ने इसे ‘सहारा’ दिया या इस ने मुझे ‘सहारा’ दिया, कहना मुश्किल है. 14 साल की नन्ही उम्र में बाप ने इस की शादी कर दी इसी टोले में. अब यह अपने पति के साथ रहती है.

Short Story: आखिर कहां तक?

फ्लालपरी, जरा इधर आना, मैं ने आवाज दी.

फ्जी, भाभीजी, कह कर वह सामने आ कर खडी़ हो गई.

मैं ने उस के चेहरे पर नजरें जमा दीं. बाप रे, उस का चेहरा बुरी तरह सूजा हुआ था. आंखें लाललाल अंगारों की तरह दहक रही थीं. नाक की कील गायब थी और उस जगह कटे का ताजाताजा सा निशान चीखचीख कर हाल बयान कर रहा था.

फ्क्या हुआ तुझे? राजदेव ने तुझे फिर मारा है? तेरा चेहरा तो सूज कर पुआ बन गया री, मेरे शब्द डगमगा गए. इस युवती को 3 साल की छोटी उम्र से मैं ने लगभग पाला ही तो है. मां कपडे़ धोती और यह रोने लगती तब मैं कभी इसे बिस्कुट देती, कभी टाफी, कभी खाली डब्बे, क्रीम की खाली बोतलें, पुरानी कंघी जैसे बेकार पडे़ घरेलू सामान देती और जरा सा पुचकारती, यह झट से मुसकरा देती.घ्और इस की मासूम मुसकान से बंगले का कोनाकोना महक उठता. उन दिनों घर की मालकिन मेरी अम्मांजी थीं इसलिए नौकरचाकर, धोबी, दूध वाला, पेपर वाला सब मुझे ‘भाभीजी’ कहते. ससुराल में इस से सुंदर, सरस भला और क्या संबोधन हो सकता है. मां से सुनसुन कर यह भी ‘भाभीजी’ ही कहने लगी थी.

मैं ने लालपरी की ठोडी़ ऊपर उठाई, मेरे हाथों को पकड़ कर वह फफकफफक कर रो पडी़. उस की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली. मैं ने उसे हाथ पकड़ कर बिठाया. टेबिल पर रखी बोतल में से एक गिलास पानी दिया और कहा, फ्मैं तेरी मां जैसी हूं, मुझे अपना दुख नहीं बताएगी क्या.

पानी के 4-6 घूंट पी कर वह थोडी़ शांत हुई थी. उस ने नजरें नीची किए ही कहा, फ्वह बोलता है मैं बांझ हूं. आज अमावस्या है न, आज इमलीचौक वाले मठ पर विलसवा की देह पर भूत आता है, उसी से झड़वानेफुंकवाने ले जाना चाह रहा था. मैं ने मना कर दिया, बस, वह फिर रोने लगी.

फ्अरी, तो चली जाती, राजदेव का मन ही रखने के लिए. इतनी मार से तो बच जाती नादान लड़की.

फ्कैसे चली जाती भाभीजी. विलसवा की आंखों में, उस की बातों में गंदगी दिखाई देती है हमें. वह कई बार हमें इंद्रासन का सुख दिखाने की बात कह चुका है. मूछड़ हमें देख कर आंख मारता है और इस हरामी मरद को वह ‘परमात्मा का अवतार’ लगता है.

लालपरी गुस्से और उत्तेजना से कांप रही थी. मैं ने कहा, फ्तुम ने राजदेव से विलास की हरकतों के बारे में बातें कीं कभी. कौन पति ऐसा होगा जो किसी कामुक, हवस के भूखे के पास अपनी बीवी को भेज देगा.

फ्मूर्ख है, जाहिल है, भेजे में भूसा भरा हुआ है उस के. कहता है, ‘ओझा की आंखों में भूतप्रेत बसते हैं, तू उन में झांकती क्यों है री छिनाल,’ उस की इसी गाली पर हम ने कहा, ‘तू जान ले ले पर बदचलनी का दोष मत लगा हमारे चरित्र पर. बस, इसी बात पर लातघूंसों से टूट पडा़ वह हमारे ऊपर. मुंह पर मारता रहा और चिल्लाता रहा, ‘तू जबान चलाती है साली’—

लालपरी अपने पति की दी गालियों को एक सांस में दोहरा गई और उस के बाद फिर वही लावा जो भीतर कैद था, आंसुओं के रूप में बाहर आने लगा. और कोई रास्ता न देख मैं ने कहा, फ्ऐ लालपरी, ऐ सब्जपरी, तू रोती क्यों है री. भाभीजी को चाय नहीं पिलाएगी क्या?

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जैसे नींद से जाग गई लालपरी. उस ने मेरी ओर देख कर कहा, फ्अभी तुरंत हाजिर करती हूं. आप हमें अभी भी बच्चा समझती हैं, लालपरी, सब्जपरी कह कर तो आप बचपन में हमें चुप कराती थीं, कहती हुई 20 साल की युवती, जिस के रगरग से यौवन, सरलता, सरसता, प्राकृतिक, अनुपम सौंदर्य छलक रहा था, अंदर चली गई.

रात में इन से लालपरी का जिक्र किया, उस की सारी परेशानियां बयान कीं. सुन कर ये उदास हो गए और थोडी़ देर चुप रहने के बाद बोले, फ्राजदेव पागल हो गया है क्या. उसे कल दोपहर में किसी बहाने बुलाना, मैं बात करूंगा उस से. लालपरी इस घर के सदस्य की तरह है. जब इस महल्ले में मेरे दादाजी ने यह बंगला बनवाया था तब गांव से ही इस के दादादादी को ले आए थे. दादी बताती थीं कि इस का खानदान पूरे इलाके में अपने चरित्र की उज्ज्वलता के लिए ‘वफादारईमानदार’ की उपाधि से संबोधित किया जाता था. यह लड़की कष्ट सहे, यह तो पुरखों का अपमान है…

फ्राजदेव अर्थ का अनर्थ समझ लेगा तो, मैं ने आशंका जताई.

फ्उस के बाप का राज है क्या. बिना डाक्टरी जांच कराए उस ने इसे ‘बांझ’ घोषित कर दिया है. तुम इसे ले कर अपनी सहेली डाक्टर के पास चली जाना ताकि सचाई मालूम हो सके. उन के सुझाव पर जो भी उचित होगा, दवा या आपरेशन, हम करवाएंगे. इसे यों ही नहीं छोड़ सकते न.

दूसरे दिन अचानक गांव से रामू लौट आया. वह हर साल 2 माह की छुट्टी ले कर गांव जाता है. धान रोप आता है, गेहूं तैयार कर घर में रख आता है.घ्आते समय मालदा आम की 2 बोरियां ठेले पर ले आता है. मैं ने खुश हो कर कहा, फ्रामू, 8 दिन पहले आ गए तुम.

फ्बरसात समय पर हो गई. आप के खेतों में धानरोपाई हो गई, आम बेच दिया. काम खत्म हो गया तो अम्मां ने कहा, ‘चला जा. यहां बुधनी तो है ही, उस के बच्चे भी आ गए हैं, खूब चहलपहल है.’

फ्तेरी बीवी कैसी है? मैं ने पूछा.

फ्अच्छी है, भाभीजी, उसे फिर लड़का हुआ है, कह कर रामू शरमा गया.

फ्अरे, लड्डू बांटने की जगह शरमा रहे हो तुम. बहुतबहुत बधाई हो रामू. तुम 2 बेटों के बाप बन गए 3 साल में ही, मैं स्वयं ही यह कह कर मुसकराने लगी.

फ्अम्मां ने कहा है इस साल आप मेरा आपरेशन करवा दें, रामू गमछे से मुंह पोंछने का बहाना कर शरमाता हुआ अंदर चला गया. 25-26 साल का रामू मन से 10 साल का बालक है. बिलकुल भोलाभाला, सीधासादा.

रामू को भेज कर राजदेव को बुलवाया. वह आ गया तो इन्होंने कहा, फ्राजदेव, क्या हालचाल हैं?

फ्ठीक हैं, वकील साहब, उस ने कहा.

फ्आजकल आतेजाते नहीं हो, क्या बात है, उन्होंने कहा.

फ्रामू की तरह बेटों का बाप हूं क्या जो खुशियां मनाता फिरूं, उसने कहा.

फ्तुम्हारी और लालपरी की अभी उम्र ही क्या है. प्रेम और शांति से रहो, इसी में गृहस्थी का सुख है. जब मन सुखी होगा तभी तो मांबाप बनता है कोई, धीरज रखो.

फ्वह छिनाल बांझ है, उस पर नखरा यह कि ओझा विलास के पास नहीं जाती, उस ने कहा.

फ्गालियां क्यों दे रहे हो, वह तुम्हारी पत्नी है. अपनी पत्नी की इज्जत तुम स्वयं नहीं करोगे तो दूसरे कैसे करेंगे. बच्चा चाहिए तो डाक्टर के पास जाओ, ओझा क्या करेगा. विलास तो एक नंबर का गंजेडी़ है. कल तक स्मगलरों का मुखबिर था. आज ओझा कैसे हो गया?

फ्यह हमारा घरेलू मामला है. इस में आप बडे़ लोग न बोलें तो ही ठीक है. ओझा को हम मानते हैं, बस.

फ्ठीक है, तुम उसे चाहे जो मानो परंतु लालपरी मेरी बहन जैसी है. उस पर इस तरह हाथलात मत उठाया करो.

फ्क्या कर लेंगे आप. वह मेरी बीवी है कि आप की बहन जैसी है, हूं. मैं सब समझता हूं, आप चाहते ही नहीं कि लालपरी को औलाद हो. आप के बरतन कौन घिसेगा इतने चाव से, वह जाने लगा.

फ्पागल मत बनो. दुनिया में कानून भी कोई चीज है या नहीं. जिस दिन हवालात पहुंच जाओगे, सारी अकड़ निकल जाएगी, समझे. लालपरी पर हाथ उठाने से पहले हजार बार सोच लेना. जाओ, दफा हो जाओ, इन के स्वर में क्रोध साफ झलक रहा था.

रामू पर घरद्वार, रसोई छोड़ कर मैं लालपरी को ले कर शहर में डाक्टर केघ्पास आ गई. डाक्टर शोभनाजी क्लीनिक में ही मिल गईं. सारी बात जाननेपूछने के बाद उन्होंने लालपरी की जांच की. कुछ टेस्ट कराए और मेरे पास आ कर बैठती हुई बोलीं, फ्सीता दीदी, आप बेफिक्र रहें. इस लड़की में कोई कमी नहीं है. टेस्ट की रिपोर्ट भी कल तक आ जाएगी. वैसे इस का पति भी टेस्ट करवा लेता तो इलाज में सुविधा होती.

फ्वह नहीं आएगा, मैं ने कहा.

शोभना ने हंस कर कहा, फ्लालपरी समझा कर, प्यार से कहेगी तो मान जाएगा, क्यों लालपरी.

शोभना के साथ हम दोनों भी हंसने लगीं. थोडी़ देर इधरउधर की बात कर के हम दोनों वापस आ गए.

कुछ दिनों तक राजदेव शांत रहा. शांत क्या, बल्कि मुंह फुलाए रहा. लालपरी रोज उस का किस्सा सुनाती और खूब खिल- खिलाती. रामू शोभना के यहां से रिपोर्ट ले आया था. लालपरी ने जब राजदेव से कहा, फ्हम में कोई खराबी नहीं है, हमतुम जिस दिन चाहेंगे बच्चा होगा पर तुम एक बार डाक्टरनी के पति से दिखा लेते तो…

फ्ऐ, कहना क्या चाहती है तू. मैं नामर्दघ्हूं, बोल, मैं नपुंसक हूं, वह चिल्लाने लगा.

फ्चिल्लाओ मत, हम में खराबी नहीं है, तुम में खराबी नहीं है तो इंतजार करो. ओझागुणी का चक्कर छोडो़, लालपरी ने कहा.

रात में राजदेव विलास को बुला लाया. लालपरी से कहा, फ्बढि़या सी कलेजी भून दे, एक लोटा ठंडा पानी, 2 खाली गिलास रख यहां और भाभीजी के यहां से बर्फ ले आ जा कर.

फ्तुम भैयाजी से झगडा़ करते रहो और हम बर्फ—, उस ने बच्चों की तरह ठुनक कर कहा.

फ्अरे, वो तो नशे में बोल गया था. उन का 20 हजार रुपया लगा है हमारी बीमारी में, कौन देता बिना सूद के इतने पैसे? तेरे तो वह सगे भाई थे पिछले जन्म के. जा, जा कर बर्फघ्ले आ.

लालपरी ने आ कर मुझ से सारा किस्सा कहा और अपनी स्वाभाविक हंसी हंसने लगी. मैं ने कहा, फ्तू बहुत प्यार करती है राजदेव से, है न.

फ्हां, भाभीजी. हम यह भी जानते हैं कि वह कभी बाप नहीं बन पाएगा. बचपन में ताड़ के पेड़ से गिर गया था न, कल उस की बडी़ बहन मीठनपुरा बाजार में मिली थी, बता कर रोने लगी. बोली, ‘डाक्टर टी.के. झा ने कहा था, राजदेव कभी बाप नहीं बनेगा.’ पर हम हर हाल में उस के साथ खुश हैं भाभीजी. बच्चा नहीं हुआ तो क्या, आप के बच्चे हैं, मेरी ननद के बच्चे हैं, उस का स्वर छलछला उठा.

फ्बर्फ के साथ थोडा़ प्याज, टमाटर, नीबू भी लेती जाना, राजदेव अकसर मंगवाता था. आज झिझक से नहीं बोला होगा, मैं ने लालपरी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

सामान ले कर लालपरी चली गई. सुबह आई तो सुस्तसुस्त सी लगी. मैं ने सोचा थकी होगी. बेचारी बरतन घिसने बैठी तो थोडी़ देर बार सिर पकड़ कर बोली, फ्रामू भैया, एक प्याली चाय पिला दो, सिर बहुत भारी है.

फ्क्या सिरदर्द है? मैं ने पूछा.

फ्न, ऐसे ही, उस के शब्द लड़खडा़ रहे थे. मुझे बडा़ अजीब लगा. लालपरी जरूर कुछ छिपा रही है. मैं ने रामू से कहा, फ्रामू, तुम बरतन धो लो और उसे चाय पीने के बाद मेरे पास भेज दो.

10 मिनट बाद लालपरी आ कर कमरे में खडी़ हुई. मैं ने कहा, फ्क्या बात है, आंखें आज फिर लाल हैं, क्या फिर मारा राजदेव ने?

फ्मारता तो दुख नहीं होता पर मुझे धोखे से नशा करवा कर जाने क्या किया- कराया है उस ने.

फ्क्या किया है? खुल कर बताओ तभी तो समझूंगी.

फ्भाभीजी, भैयाजी का शरीर, उन के शरीर की गंध, उन के प्यार करने का तरीका सब आप को मालूम है न. आंखें बंद हों या खुली उन्हें तो आप कैसे भी पहचान ही लेंगी न? लालपरी ने सवाल के बदले सवाल किया.

फ्हां, बिलकुल, अपने पति को तो अंधी स्त्री भी पहचानती है.

फ्बस, यही हमारा दुख है भाभीजी. हमें लगता है रात में मेरे साथ वह खुद नहीं विलसवा सोया था, पर वह बोलता है यह हमारा भ्रम है, शक है, सचाई नहीं. पर हमें पूरा विश्वास है भाभीजी, रात में हमारी इज्जत, हमारी आबरू इस हरामी ने बेच दी एक किलो कलेजी और एक बोतल शराब के वास्ते. हम तो अपनी नजर में ही गिर गए हैं भाभीजी, लालपरी बिलखबिलख कर रोने लगी.

मैं ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, फ्देख लालपरी, कत्ल भी अनजाने में, बेहोशी में या पागलपन में होता है तो कानून उसे कत्ल नहीं मानता, फांसी नहीं देता. जब तू ठीकठीक जानती ही नहीं कि क्या हुआ, कैसे हुआ तो इतना विलाप क्या उचित है? तूने तो धर्म नहीं छोडा़ न, तू तो नहीं गई किसी के पास, फिर अपने को अपराधी क्यों मानती है?

मैं ने समझाबुझा कर उसे सामान्य बनाने की पूरी कोशिश की और वह जाते समय तक सामान्य दिखने भी लगी थी.

2 दिन यों ही बीत गए. इस घटना की चर्चा मैं ने लालपरी का वहम समझ कर किसी से नहीं की. पता नहीं क्यों, मेरा मन इसे सत्य मानने को तैयार नहीं था, राजदेव इतना पतित नहीं हो सकता. यह बेचारी जाए तो कहां जाए. बाप 2 साल पहले ही मर चुका है. एक भाई है जो 7-8 साल से बाहर है. कौन जाने जीवित भी है या नहीं. मां जो भागी तो आज तक पता नहीं चला वह पृथ्वी के किस कोने में समा गई. सोहना का भी ठिकाना नहीं.

सुबहसुबह रामू ने कहा, फ्रात दुसाध टोले से लालपरी के चीखनेचिल्लाने की आवाज आ रही थी, जरा जा कर देख आता हूं.

आया तो कुछ उदास, परेशान सा था. बोला, फ्लालपरी थोडी़ देर बाद खुद आएगी पर उस के घर का हाल बेहाल था. कल राजदेव का सिर फोड़ दिया है लालपरी ने. लालपरी के घुटने एवं गरदन में बहुत चोट है.

लालपरी दोपहर में आई और उस ने बिना किसी भूमिका के कहा, हमारा शक सही था भाभीजी. कल रात भूत झाड़ने का बहाना कर उस ने विलास को बुलवाया. मुझे जो ‘दवा’ दी उसे मैं ने नजरें बचा कर नीचे गिरा दिया. 2 दिन मैं इस पापी की ‘दवा’ के शक में जी चुकी थी. मैं ने सोचा तीसरी बार बेहोशी में इज्जत नहीं लुटाऊंगी. जो होगा जान लूं, समझ लूं. इस ने विलास से कहा, ‘हम पर लगा कलंक धो दे यार. बस, 1 बच्चा पैदा कर दे ताकि मैं भी मरद बन कर जी सकूं.’ मुझे गुस्सा आया, मैं ने उस के सिर पर बेलन दे मारा. उस ने भी मुझे खूब मारा होता मगर विलास ने कहा,  ‘औरत को मार कर मरद नहीं बना जाता,’ बस, हम ने भी ठान ली और कहा, ‘विलास, तुझ में हिम्मत है तो आ, मुझे ले कर कहीं भाग चल, गृहस्थी बसा कर लौटेंगे,’ फिर वह बिना बोले चला गया.

मुझे लगा, लालपरी गुस्से  में बोल रही है, पर वह सही थी. दूसरे दिन राजदेव रोता हुआ आ कर इन के पैरों में गिर गया, फ्मालिक, लालपरी को हम ने ही गलत रास्ता दिखा दिया. वह विलसवा के साथ भाग गई, जेवर कपडा़ ले कर. मैं तो पछता रहा हूं.

इन्होंने ठंडी सांस ले कर कहा, फ्पछतावे का भी एक समय होता है अब क्या लाभ?

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