नाज पर नाज: क्या ससुर को हुआ गलती का एहसास

लेखक-   नीरज कुमार मिश्रा

अशरफ काफी समय से बीमार रहता था. वह तकरीबन सभी तरह के इलाज करा चुका था, पर कोई फायदा नहीं हुआ. अगर थोड़ाबहुत फायदा होता भी सिर्फ वक्ती तौर पर ही होता और बीमारी बदस्तूर जारी रहती.

अम्मीअब्बा के बहुत जिद करने पर अशरफ ने इस बार शहर जा कर एक नामी डाक्टर को दिखाया. उस डाक्टर ने तमाम जांचें करवाईं, ऐक्सरे भी करवाए और बाद में जो रिपोर्ट आई, उस ने सब के होश उड़ा दिए.

रिपोर्ट में पता चला कि अशरफ की दोनों किडनी पूरी तरह खराब हो चुकी थीं.

डाक्टर साहब ने भी सिर हिलाते हुए कह दिया, ‘‘अब ले जाइए इन्हें. जितनी भी सेवा करनी है कीजिए, बाकी दवाएं चलने दीजिए. आप लोग इन को ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की कोशिश कीजिए.’’

अशरफ को ले कर उस के अब्बा ऐसे घर लौट आए, जैसे कोई जुए में अपना सबकुछ हार कर लौट जाता है.

कुछ दिन बीते. अब घर के लोगों ने एकदूसरे से थोड़ाबहुत बोलना शुरू किया. शायद घर के माहौल को खुशनुमा बनाने की एक नाकाम कोशिश.

अशरफ के अब्बू घर के बाहर ही लकड़ी की टाल पर बैठते थे. अब अशरफ भी उन का हाथ बंटाने लगा मानो उस पर अपनी तबीयत का कोई असर ही नहीं हुआ हो.

किसी ने सच ही कहा है कि जब दर्द हद से गुजर जाता है तो दवा बन जाता है. अब यही दर्द अशरफ के लिए दवा बनने वाला था.

एक दिन अब्बू ने घर के सभी लोगों को अपने कमरे में ठीक 8 बजे इकट्ठा होने को कहा. परिवार में अम्मी के अलावा अशरफ और उस का छोटा भाई आदिल थे. एक बहन सबा थी, जिस का निकाह पहले ही हो चुका था.

शाम को ठीक 8 बजे अशरफ, अम्मी और आदिल अब्बू के कमरे में पहुंचे चुके थे.

थोड़ी देर बाद अब्बू भी कमरे में आ गए, पर आज उन की चाल में एक अलग तरह की खामोशी थी.

‘‘देखो अशरफ और आदिल, तुम दोनों मु झे अपनी जिंदगी में सब से प्यारे हो.  तुम दोनों काबिल हो. सबा जैसी प्यारी बेटी है, जो अब अपने ससुराल को रोशन कर रही है. खैर…’’ अब्बू ने एक गहरी सांस छोड़ी और फिर बोलना शुरू किया. इस बार उन के लहजे में थोड़ी सख्ती भी थी, ‘‘जैसा कि तुम लोगों को पता है कि अशरफ बीमार है और डाक्टरों ने बताया है कि हमें उस को हर हाल में खुश रखना है…’’

अशरफ की पीठ पर हाथ फेरते हुए अब्बू ने कहा, ‘‘कभीकभी जिंदगी हम से कुछ ऐसे फैसले कराती है, जो वक्ती तौर पर तो ठीक नहीं लगते, पर धीरेधीरे सही साबित होने लगते हैं. आज हम ऐसा ही फैसला लेने जा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- पड़ोसिन: क्या थी सीमा की कहानी

‘‘दरअसल, डाक्टर ने हम से कहा है कि हो सके तो अशरफ की शादी जल्द से जल्द करा दी जाए, तो इस की तबीयत में सुधार हो सकता है,’’ अब्बू ने एक सांस में कह कर मानो अपना बो झ हलका कर दिया था.

अब्बू का फैसला सुन कर अम्मी तो बुत बनी बैठी रहीं, पर छोटे बेटे आदिल को यह बात कुछ नागवार सी लगी, क्योंकि अशरफ की बीमारी की बात आदिल भी जानता था और वह यह भी जानता था कि अशरफ भाईजान एक या 2 साल के ही मेहमान हैं, क्योंकि जिस आदमी की दोनों किडनी खराब हो चुकी हों, उस की सांसें कभी भी थम सकती हैं और ऐसे में उस का निकाह करा देना, मतलब एक और बेगुनाह की जिंदगी तबाह कर देना था.

इस फैसले का विरोध तो सब से ज्यादा अशरफ की ओर से आना था, पर वह तो खामोश सा बैठा हुआ सब सुन रहा था. तो क्या यह माना जाए कि अशरफ भी मरने से पहले अपनी जिंदगी पूरी तरह से जी लेना चाहता था या फिर यों कह लें कि मरने से पहले वह किसी औरत के जिस्म को पूरी तरह सम झ लेना चाहता था?

बहरहाल, इस समय अशरफ के चेहरे पर बेबसी के साथ एक चमक भी थी, जिसे वह बखूबी सब से छुपा ले रहा था.

‘‘आप लोग जैसा सही सम झें वैसा करें,’’ कह कर आदिल अपने कमरे में आ गया.

आखिरकार आननफानन अशरफ का निकाह तय हो गया. लड़की गरीब घर की थी, पर बेहद खूबसूरत थी.

पूरे घर में निकाह की खुशियां थीं, पर आदिल का मन भारी था. उस का जी चाह रहा था कि वह जाए और लड़की वालों को रिपोर्ट के सारे कागज दिखा कर सबकुछ सच बता दे या फिर अशरफ के पास जा कर खूब खरीखोटी सुनाए, पर यह मुद्दा इतना संजीदा था कि आदिल ने अपनी जबान सिल ली और आंखों पर पट्टी बांध ली.

निकाह हो चुका था. अब्बू और अम्मी के चेहरे पर खुशियां चमक रही थीं, पर इस के पीछे जो काली बदली थी, उस से सब अनजान थे या अनजान होने का दिखावा कर रहे थे.

अशरफ और नाज की शादी को एक साल पूरा हो गया और नाज उम्मीद से थी यानी वह मां बनने वाली थी.

घर में सब खुश थे, पर हमेशा अंदर ही अंदर डरे हुए और फिर वह स्याह दिन भी आ गया, जिस को कोई बुलाना नहीं चाहता था.

अशरफ की तबीयत अचानक बिगड़ गई. पीरफकीर,  झाड़फूंक कोई कसर नहीं छोड़ी गई, पर सब बेमानी साबित हुआ.

नाज अब बेवा हो चुकी थी. उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा था. सभी का सम झानाबु झाना बेकार साबित हुआ. वह तो रोरो कर हलकान हुए जाती थी. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

कहते हैं कि वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है और इस मरहम ने इस परिवार पर भी अपना असर दिखाया. अब रोनापीटना तो नहीं था, पर नाज की उदासी और उस के कमरे से आती सिसकियों का जवाब किसी के पास नहीं था और होता भी कैसे. अगर नाज के बेवा होने में कोई जिम्मेदार था, तो यही सब लोग थे.

अशरफ को गुजरे 6 महीने हो गए. तब अब्बू ने अपने घर में महल्ले के एक बड़े बुजुर्ग, शहर के काजी और नाज के अब्बा को बुलाया.

तय समय पर सभी लोग इकट्ठा हुए, आंगन में कुरसियां डाल दी गईं.

शरबतपानी के बाद अब्बू ने बोलना शुरू किया, ‘‘आप मेरे बुलावे पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं, इस का मैं शुक्रिया अदा करता हूं और जैसा कि आप लोगों को मालूम है कि मेरा बड़ा बेटा अशरफ अब नहीं रहा. घर में उस की बेवा है और वह बच्चे की मां भी बनने वाली है. उस की आगे की जिंदगी बेहतरी से गुजरे और हमारे घर की इज्जत घर में ही रहे, इस के लिए हम चाहते हैं कि हमारी बहू को हमारा छोटा बेटा आदिल सहारा दे और नाज से निकाह कर ले, जिस से नाज को सहारा भी मिल जाएगा और उस के आने वाले बच्चे को अपने अब्बा का नाम भी मिल जाएगा.

‘‘अगर मेरी बात से किसी को भी एतराज हो तो बे िझ झक अपनी बात कह सकता है,’’ कह कर अब्बू चुप हो गए.

ये भी पढ़ें- सीक्रेट: रौकी और शोमा के बीच क्या था रिश्ता

अब्बू की बात का हर शब्द आदिल के कानों में चुभता चला गया.

‘आज अब्बू क्या करना चाहते हैं. पहले तो बीमार अशरफ का निकाह करा दिया और अब उस की बेवा से मेरी शादी कराना चाहते हैं. ठीक है नाज भाभी को सहारे की जरूरत है, पर मेरे भी ख्वाब हैं, मेरे भी अरमान हैं,’ आदिल सोचता चला गया.

महल्ले के बुजुर्ग, काजी किसी को कोई दिक्कत नहीं थी.

इतने लोगों के सामने आदिल की भी कुछ बोलने की हिम्मत न हुई और सभी के राजीनामे के बाद आदिल और नाज के निकाह का ऐलान किया जाने वाला था कि तभी परदे के पीछे से नाज की धीमी मगर सख्त लहजे वाली आवाज आई, ‘‘आप सब बड़े काबिल लोगों के सामने मु झे यों बोलना नहीं चाहिए और मैं इस गलती के लिए आप सब से माफी मांगती हूं, पर यहां बात 3 जिंदगियों की है, इसलिए मु झे बोलना ही पड़ रहा है.

‘‘सब से पहले अब्बू मैं आप से कहना चाहती हूं कि आप तो मु झे अपनी बेटी बना कर लाए थे. सबा के ससुराल जाने के बाद इस घर की बेटी की कमी मैं ने ही पूरी की थी न, फिर आज अचानक मैं आप को गैर लगने लगी. क्या मेरा और आप का रिश्ता सिर्फ इन तक ही था और इन के जाते ही मैं आप को बो झ लगने लगी?

‘‘और आप सब हजरात ऐसा क्यों सम झ रहे हैं कि एक बेवा को हमेशा ही किसी मर्द के सहारे की जरूरत होती है? क्या इतना काफी नहीं है कि वह अपने पति की यादों के सहारे जिंदगी काट दे? क्या दोबारा निकाह कराना मेरी रूह पर चोट पहुंचाने जैसा नहीं होगा? जिस जिस्म और रूह पर मैं उन का नाम लिख चुकी हूं, उस पर किसी और को हक कैसे दे सकती हूं?

‘‘और जहां तक आदिल की बात है, वह तो अभी पढ़ रहा है और उस की अभी शादी की उम्र भी नहीं है. उस की अपनी एक अलहदा जिंदगी है, जिसे वह अपने अंदाज से जीना चाहेगा. जहां तक मेरी बात है तो मेरे लिए किसी को परेशान होने की जरूरत नहीं है. मैं अपना गुजारा खुद कर सकती हूं. मैं ने बीए तक पढ़ाई की है. मैं बच्चों को ट्यूशन पढ़ा सकती हूं. मु झे सिलाई का काम भी आता है. मैं घर बैठे सिलाई कर सकती हूं. मु झे बाकी कुछ नहीं चाहिए.

‘‘अब्बू और अम्मी, आप लोगों को भी मेरे हाल पर अफसोस करने की जरूरत नहीं है. शादी की पहली ही रात में उन्होंने मु झे अपनी बीमारी के बारे में सबकुछ सचसच बता दिया था और अपनी सारी रिपोर्टें मु झे दिखा दी थीं. उन्होंने यह बता दिया था कि वे कभी भी मेरा साथ छोड़ कर जा सकते हैं.

‘‘उन्होंने यह बात मु झे इसलिए बताई, क्योंकि वे चाहते थे कि उन के जाने के बाद मैं उन्हें धोखेबाज न कहूं और न ही उन के सीने पर कोई भी बो झ रहे. उन्होंने यह सब बताने के बाद मु झ से कहा था कि अब मैं चाहूं तो उन को तलाक दे सकती हूं, पर मैं ने उन को तलाक देने से ज्यादा उन की बेवा बनना ठीक सम झा, क्योंकि मान लीजिए कि उन्हें कोई बीमारी न होती और फिर भी वे किसी हादसे का शिकार हो जाते तो ऐसे में कोई क्या कर लेता.

‘‘उन की निशानी मेरे अंदर पल रही है. मैं उन की यादों के सहारे ही बाकी जिंदगी काट सकती हूं. अब उन की निशानी बेटे के रूप में आए या बेटी के रूप में, रगों में उन का ही खून दौड़ेगा न,’’ इतना कह कर नाज पल्लू से अपनी गीली आंखें पोंछने लगी.

अब्बू परदा हटा कर अंदर आए और नाज को गले से लगा लिया. वे बोले, ‘‘नाज बेटी, तुम्हारा नाम तुम्हारे मायके वालों ने सही रखा है. आज उन की नाज पर हम सब को भी नाज है.’’

सभी लोगों की आंखें ससुरबहू के इस प्यार पर बारबार भर आती थीं.

ये भी पढ़ें- तरकीब: पति की पूर्व प्रेमिका ने कैसे की नेहा की मदद

मौत का कारण : क्या हुआ था वरुण के साथ

मेरा 5 वर्षीय बेटा वरुण उन दिनों बहुत गुमसुम रहने लगा था. जब से उस की दादी की मृत्यु हुई तभी से उस का यह हाल था. मांजी की अचानक मृत्यु ने हमें भी हतप्रभ कर दिया था, पर वरुण पर तो यह दुख मानो पहाड़ बन कर टूट पड़ा था. मुझे आज भी याद है, हमें रोते देख कर किस तरह वरुण भी अपनी दादी की मृतदेह पर गिर कर पछाड़ें खाखा कर रो रहा था. उस की हालत देख कर मैं ने अपनेआप को संभाला और उसे वहां से उठा कर भीतर वाले कमरे में ले गई थी. मेरे साथ मेरा देवर प्रवीर भी भीतर आ गया था.

‘दादी हिलडुल क्यों नहीं रहीं?’ उस ने सिसकियों के बीच पूछा.

‘वे अब इस दुनिया में नहीं हैं,’ प्रवीर बोला.

‘पर वे तो यहीं हैं. बाहर लेटी हैं. आप लोगों ने उन्हें जमीन पर क्यों लिटा रखा है?’

‘उन की मृत्यु हो चुकी है,’ प्रवीर दुखी स्वर में बोला.

‘मृत्यु, क्या मतलब?’

उस ने पूछा तो मैं एक क्षण के लिए चुप हो गई फिर उसे डांटते हुए कहा, ‘बेकार सवाल नहीं पूछते.’ मगर वह मेरी डांट से अप्रभावित फिर अपना सवाल दोहराने लगा. इस बार प्रवीर ने शांत स्वर में उसे समझाया कि उस की दादी अब उसे कभी नजर नहीं आएंगी. न वे उसे कहानियां सुनाएंगी, न उस से स्कूल की बातें सुनेंगी.

‘ये सब तुम क्यों बता रहे हो उस नन्ही जान को?’ मैं ने भर्राए कंठ से पूछा.

‘बताना जरूरी है भाभी, आजकल के बच्चों को बहलाया नहीं जा सकता. सचसच बता देना ही ठीक रहता है,’ प्रवीर की आवाज नम हो आई थी.

इधर वरुण यह सुन कर जोर से रो पड़ा. उस का करुण रुदन सन्नाटे को चीर कर हर एक के हृदय में उतर गया. वरुण अपनी दादी से बेहद प्यार करता था और वे भी अपने इस इकलौते पोते पर अपना सर्वस्व लुटाती थीं. सुबह जैसे ही वरुण की नींद खुलती, वे उस समय बिस्तर पर बैठी माला फेर रही होती थीं. वरुण धम से उन की गोद में बैठ जाता और दादीपोत का वार्त्तालाप शुरू हो जाता.

‘दादी, आप कितने साल की हैं?’

‘65 साल की.’

‘यानी मेरे पिताजी से भी बड़ीं,’ वरुण अपनी दोनों बांहें फैला कर आश्चर्य प्रकट करता.

‘हां, तेरे पिताजी से भी बड़ी,’ मांजी उस के भोलेपन पर हंस पड़तीं.

‘पर आप तो पिताजी से छोटी हैं?’ वरुण का इशारा उन के लंबे कद की ओर होता.

ये भी पढ़ें- असंभव: क्या पति को छोड़ने वाली सुप्रिया को मिला परिवार का साथ

कद से छोटे होने पर भी उम्र में बड़ा हुआ जा सकता है, यह बात मांजी उसे उदाहरण सहित समझातीं कि उस की बूआ उस के पिताजी से उम्र में बड़ी हैं इसलिए उस के पिताजी उन्हें दीदी कहते हैं लेकिन कद में वे उन से छोटी हैं. इस बात को सुन कर वरुण कुछ क्षण सोच में डूब जाता, फिर कुछ समझने की मुद्रा में आंखें झपका कर कहता, ‘इस का मतलब यह हुआ कि मां भी पिताजी से बड़ी हैं.’ उस की नादानी पर मांजी हंसतेहंसते दोहरी हो जातीं. हर 2-3 दिन बाद इस तरह के संवाद दोनों दादीपोते के बीच अवश्य होते. फिर उस की अविराम चलती बातों पर रोक लगाती हुई वे कहतीं, ‘अब बस भी कर. मैं तुझे गरमागरम हलवा बना कर खिलाती हूं.’ ‘सुबह का नाश्ता ताकत देने वाला होना चाहिए, हलवा या मक्खन व परांठा, फुसफुसी डबलरोटी नहीं,’ वे कहतीं. लेकिन अपने मतों को वे हम पर कभी थोपती नहीं थीं. मेरी समझ से यही गुण उन्हें उन की उम्र के अन्य बुजुर्गों से अलग करता था. मनुष्य की दूसरों पर शासन करने की इच्छा सदा से रही है. रिश्तों के दायरे में बड़ों द्वारा छोटों पर शासन करने की छूट ने ही हमारे पारिवारिक संबंधों में कड़वाहट घोल दी है. वरुण की दादी में यह बात नहीं थी. सास होने के नाते वे मुझ पर अधिकार जताने के बजाय स्नेह लुटाती थीं. यह उन्हीं के व्यवहार की विशेषता थी कि वे मुझे सदा मां से भी अधिक अपनी लगीं.

उन की मृत्यु को 15 दिन हो गए थे. एकएक कर के सभी रिश्तेदार विदा हो गए. प्रवीर भी कलकत्ता लौट गया. उस की नईनई नौकरी थी, ज्यादा छुट्टी लेना संभव नहीं था. जब व्यस्तता से उबरने का मौका मिला तब मेरा ध्यान अचानक वरुण की

अस्वाभाविक गंभीरता पर गया. निरंतर बोलते रहने वाला वरुण एकदम गुमसुम  हो गया था. उस का जबतब मांजी की तसवीर को एकटक देखते रहना, उन की अलमारी खोल कर  उन की साडि़यों पर हाथ फेरना, सब कुछ बड़ा अजीब लग रहा था. ‘‘कल से तुम्हें स्कूल जाना है, पुस्तकें बैग में ठीक से रख लो,’’ मैं ने वरुण को  याद दिलाते हुए कहा मगर वह वैसे ही भावमुद्रा लिए बैठा रहा, जैसे मैं ने  उस से नहीं, किसी और से कहा हो.

‘‘कल स्केचपैन भी ले जाना बैग में रख कर,’’ मुझे उम्मीद थी कि स्केचपैन  स्कूल में ले जाने के मेरे प्रस्ताव से वह अवश्य खुश होगा, मगर इस बार भी वह उसी तरह निर्लिप्त बैठा रहा. मुझे उस की चुप्पी से अब भय लगने लगा. मगर कुछ क्षण बाद वह स्वयं ही अपनी चुप्पी तोड़ कर बोला, ‘‘मां, दादी की मौत कैसे हुई? उन्हें किस ने मारा?’’ उस का यह सवाल मुझे उस की चुप्पी से भी डरावना लगा. मैं अवाक् रह गई.

वह फिर कुछ सोचता हुआ बोला, ‘‘हमारे घर पुलिस क्यों नहीं आई? दादी के कहीं खून भी नहीं बहा, ऐसा क्यों?’’

‘‘दादी की मौत अपनेआप हुई,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘हमारी छाती में बाईं ओर दिल होता है. वह घड़ी की तरह लगातार चलता रहता है. जब वह रुक जाता है तब मौत हो जाती है.’’

‘‘नहीं, आप गलत कह रही हैं. मौत चाकू, पिस्तौल, तलवार से होती है या फिर जल जाने से और जहर खाने से होती है,’’ वह फौरन बोल पड़ा. मैं अब समझी कि वह क्या कहना चाहता था. मौत का उस का ज्ञान और अनुभव टीवी पर दिखाई जाने वाली फिल्मों तक सीमित था. अतएव उसे फिल्मों में अकसर दिखाए जाने वाले मौत के कारणों  में से एक भी कारण नहीं मिल रहा था जो उस की दादी की मौत के लिए जिम्मेदार हो. ‘‘मेरी दादी सो रही थीं. आप लोगों ने जबरदस्ती उन्हें ले जा कर जला दिया,’’ उस ने अपने अनुभवों के तरकश से एक और तीर चलाया. यह जानते हुए भी कि उस की बातें उस की नादानी के फलस्वरूप उपजी हैं, मेरी रुलाई फूट पड़ी, ‘‘नहीं बेटे, हम ऐसा क्यों करने लगे?’’

‘‘क्योंकि आप उन की बहू हैं और सासबहू एकदूसरे की दुश्मन होती हैं.’’

‘‘यह भी सच नहीं है,’’ मैं ने सिसकियां भरते हुए कहा, पर वरुण मेरे रोने से भी नहीं पिघला. अपने दिल का गुबार निकाल कर वह आराम से पलंग पर लेट गया और थोड़ी ही देर में उसे नींद आ गई. पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी. इस छोटे से मस्तिष्क में न जाने कितनी बातें समाई थीं, ‘उफ, ये सीरियल और फिल्में बनाने वाले कोई ढंग की चीज नहीं दिखा सकते.’ मैं मन ही मन उन्हें बुरी तरह कोसने लगी, उस के बाद मैं खुद को कोसने लगी कि हम लोगों ने ही उसे टीवी पर फालतू सीरियल देखने से रोका होता. पर छोटे बच्चों को ज्यादा रोकाटोेका भी तो नहीं जा सकता. मेरी विचारशृंखला तब तक चलती रही, जब तक ये घर नहीं आ गए.

‘‘जब देखो तब इतनी देर लगा कर आते हो? थोड़ा जल्दी नहीं आ सकते?’’ मेरी चिंता क्रोध बन कर इन पर बरस पड़ी.

‘‘बात क्या है, दफ्तर से लौटने में तो मुझे रोज ही इतनी देर हो जाती है,’’ ये नरमी से बोले तो मुझे अपनी तल्खी पर सचमुच शरम हो आई कि थोड़ी देर तो मुझे सब्र करना ही चाहिए था. दिनभर के थकेहारे इन के सामने आते ही शिकायतों का अध्याय थोड़े ही खोलना चाहिए था.

ये भी पढ़ें- एक थी मालती: 15 साल बाद कौनसा खुला राज

मैं ने वरुण से हुए संवाद के बारे में उन्हें बताया. ‘‘तो ये वजह है तुम्हारी चिंता की,’’ मेरी बात सुन कर ये हंसतेहंसते बोले, ‘‘बच्चा है, उस की बात का क्या बुरा मानना.’’ ‘‘बुरा मानने की बात नहीं है. मगर जरा सोचो, उस के विचार कितने दिग्भ्रमित हैं, उस का दृष्टिकोण कितना नकारात्मक है. जो बच्चा मृत्यु को सहज रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहा है वह जीवन को भी न जाने किस विकृत रूप में ग्रहण करे.’’ ‘‘इतना ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है, कुछ दिनों में वह सबकुछ भूल जाएगा. मां के सब से करीब वही था. और यह उस के छोटे से जीवन का पहला हादसा है. इसलिए ऊलजलूल बातें उस के दिमाग में आ रही हैं. इसे अधिक तूल मत दो.’’

‘‘यही सच हो,’’ मैं ने भी आंखें मूंद लीं और सोने की कोशिश करने लगी. 10-15 दिन शांति से गुजरे. वरुण ने उस के बाद फिर इस तरह की कोई बात नहीं की थी. पहले जैसा ही था, पर मांजी की तसवीर के सामने खड़े होना, उसे एकटक घूरते रहना कुछ कम हो गया था. मैं भी कुछकुछ निश्ंिचत होती जा रही थी, वरुण पहले जितना बातूनी तो अभी भी नहीं था परंतु बेसिरपैर की बातें बोलने से तो न बोलना अच्छा. यह सोच कर मैं ने इस बात को अधिक महत्त्व नहीं दिया था. एक दिन सब्जी खरीद कर लौटते वक्त मेरी मुलाकात वरुण की कक्षा अध्यापिका नेहा से हुई.

‘‘अच्छा हुआ, आप से यहीं मुलाकात हो गई वरना मैं आप को स्कूल में बुलाने वाली थी.’’

‘‘क्यों, क्या वरुण ने कुछ…’’ मेरा कलेजा जोरजोर से धड़कने लगा.

‘‘क्या आप ने महसूस नहीं किया कि वह आजकल बेहद गुमसुम और गंभीर होता जा रहा है?’’

‘‘दरअसल, जब से उस की दादी की मृत्यु हुई है…’’

‘‘उस की दादी की मृत्यु कैसे हुई?’’ उन्होंने बिना लागलपेट के सीधे पूछा.

वरुण से यह सवाल सुनसुन कर मैं तंग आ चुकी थी. अब यही सवाल उन से सुन कर मैं गुस्से से भरभरा कर बोली, ‘‘भला और कैसे होगी. बुढ़ापा था, हार्टअटैक से मृत्यु हो गई, इस में इतना पूछने की क्या बात है?’’ मेरी तल्खी से शायद उन्हें कुछकुछ मेरी बेचैनी का एहसास हुआ. अतएव वे मेरा हाथ अपने हाथों में ले कर बोलीं, ‘‘आप कृपया अन्यथा न लें. दरअसल 2-3 दिन पहले मैं ने कक्षा में महात्मा गांधी की कहानी सुनाई थी. सुन कर वरुण दोनों हाथों में मुंह छिपा कर रोने लगा. मेरे द्वारा रोने का कारण पूछे जाने पर वह बोला कि गांधीजी की मृत्यु गोली मारने से हुई और उस की दादी की मृत्यु जलाए जाने से हुई.’’

‘‘नहीं, यह सच नहीं है…’’ मैं लगभग चीखती हुई बोली, ‘‘वरुण की ऐसी बातें सुन कर लोग न जाने हमारे बारे में क्याक्या धारणा बनाएंगे.’’

‘‘मैं भी जानती हूं कि यह सच नहीं है, पर वरुण को फिल्में देखदेख कर यही पता चला है कि मौत किसी अस्वाभाविक कारण से ही होती है. उसे सुनीसुनाई बातों से अधिक देखी हुई चीजों पर विश्वास है. यह ठीक भी है. वरुण अपनी दादी से बहुत प्यार करता था, इसलिए उन की मृत्यु उस के लिए एक भयंकर हादसा है. उस का बालमन उन की मृत्यु को स्वाभाविक रूप में स्वीकार नहीं कर पा रहा है, इसीलिए मृत्यु के कारणों की तलाश में है,’’ वे कुछ क्षण रुक कर बोलीं, ‘‘उसे उस की रुचि के किसी काम में व्यस्त कर दें जिस से वह इस बारे में ज्यादा न सोच सके. साथ ही उसे टीवी पर भी सिर्फ मनोरंजन और बच्चों के लिए उपयुक्त कार्यक्रम ही देखने दें. हंसतेखिलखिलाते बच्चे का एकाएक गुमसुम हो जाना उस के मानसिक रोगी बनने की निशानी है. अतएव उस पर गंभीरता से ध्यान दें.’’ उस की कक्षा अध्यापिका ने ठीक ही कहा था. उन्होंने वरुण का कितने अपनत्व से निरीक्षण किया और मेरे क्रोध की परवा किए बिना मुझे समझाया, सुझाव दिया. मेरा मन आदर से झुक गया.

‘ओह, मांजी आप इतनी जल्दी क्यों चली गईं. आप के न रहने के दुख के अलावा हमें और न जाने कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा,’ मैं मन ही मन बुदबुदाई. घर लौटने पर वरुण को नौकरानी सुशीला से गपशप करते देख कर जान में जान आई. मैं ने कपड़े बदले और सुशीला को छुट्टी दे दी. फिर वरुण को ममता से अंक में भर लिया. पर उस के मुखड़े पर मुसकान की एक क्षीण रेखा भी नहीं उभरी.

‘‘वरुण, सब को एक न एक दिन मरना पड़ता है,’’ मैं ने स्वयं ही अप्रिय विषय छेड़ दिया.

‘‘जानता हूं,’’ वरुण की आंखों में उदासी झलकने लगी.

‘‘सब लोग छोटे से बड़े होते हैं और बड़े से बूढे़, बूढ़े हो कर सब अपनेआप मर जाते हैं. कोई किसी को नहीं मारता.’’

‘‘पर गांधीजी तो बूढ़े थे, फिर भी गोली से…’’

‘‘ऐसी एकाध घटना होती है. अधिकतर सभी की मौत अपनेआप होती है.’’

‘‘आप और पिताजी की मौत भी बूढ़े हो कर होगी. फिर मैं अकेला कैसे रहूंगा? दादी भी चली गईं.’’

उस का नन्हा मस्तिष्क हमारे बूढ़े होने के साथसाथ स्वयं के बड़े होने की कल्पना नहीं कर पा रहा था.

‘‘हम बूढ़े होंगे तब तुम भी तो बहुत बड़े हो चुके होगे.’’

‘‘पिताजी के बराबर?’’ उस ने पूछा और शायद आश्वस्त भी हो गया क्योंकि पिताजी को दादी की मृत्यु का सदमा शांति से झेलते हुए उस ने देखा था. उस को मेरी बात पर कुछकुछ विश्वास हो चला था. उस की कक्षा अध्यापिका ने कहा कि उसे किसी न किसी हौबी में उलझा कर रखना बेहद जरूरी है. मगर ऐसा कौन सा काम हो सकता है. पेंटिंग? उसे अच्छी तो लगती है पर ज्यादा देर बैठ कर नहीं कर पाएगा. कहानियां सुनना? पर मेरे पास कहानियों का इतना स्टौक कहां? फिर अचानक दिमाग में खयाल कौंधा, ‘बागबानी.’ सुबहशाम सुशीला ही हमारी छोटी सी बगिया में पानी देती थी. मैं ने सोचा अब से बागबानी की पूरी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लूं और वरुण को भी अपने साथ  व्यस्त रखूं. मैं जितना अधिक समय बगीचे  में लगाऊंगी, वह उतना ही दर्शनीय  होता जाएगा. हां, इस के लिए मुझे अपने कढ़ाईबुनाई के शौक को थोड़ा कम करना होगा, पर वरुण की समस्या शायद सुलझ जाए. शायद नित्य उगती, बढ़ती हरियाली ही वरुण की सोच को आशावादी और सकारात्मक बना सके.

ये भी पढ़ें- सूरजमुखी सी वह: क्यों बहक गई थी मनाली

मेरा योजना सचमुच सफल होती दिखाई दे रही थी. वरुण भी बगीचे में कूदताफांदता छोटेमोटे काम करता. नए बीज बोने और नन्हे पौधे सींचने में भी वह मेरी मदद करता. उस का बचपन लौटता जा रहा था, लाल गुलाब को वह लालू कहता और हरीहरी घास को हरिया. लगता था पौधों, फूलों से उस की गहरी दोस्ती हो गई, यह भी तो एक समस्या ही थी कि पासपड़ोस में उस का हमउम्र कोई नहीं था वरना शायद बात इतनी बढ़ती भी नहीं. बाग की गंदगी साफ करतेकरते मैं उस के मन में भी जानेअनजाने पनपी अवांछित समस्याओं का निराकरण करने लगी. सचमुच, अच्छे संस्कार डालना कितना मुश्किल है. ठीक इस लौन की घास की तरह. एक भी जंगली घास गलती से उग जाए तो वह आननफानन फैल कर पूरे लौन की कोमल घास को ढक देती है, यदि उसे समय पर उखाड़ा न जाए. वरुण की दिनचर्या में अब ठहराव आता गया. स्कूल से लौट कर खाना खाना, फिर कुछ देर सोना, उठ कर होमवर्क करना, शाम को मेरे साथ बागबानी, फिर हम दोनों कुछ दूर तक टहलने निकल जाते.

इधर बगीचा भी फलताफूलता जा रहा था, उधर वरुण भी अपनी दादी की मौत की बात कुछकुछ भूलता जा रहा था. इन्होंने वरुण के बदलाव को लक्ष्य किया और मेरी सफलता पर मेरी पीठ ठोंकी. बागबानी धीरेधीरे मेरा पहला शौक बनता जा रहा था. एक दिन यों ही जब बगीचे में पानी दे रही थी, वरुण ने पूछा, ‘‘मां, पेड़पौधों में भी  जान होती है न?’’

‘‘हां, तभी तो हम उन्हें पानी पिलाते हैं और वे बढ़ते भी हैं.’’

‘‘वे बूढ़े भी होते हैं?’’ उस का अगला सवाल था.

मैं उस के इस सवाल पर कुछ चौकन्नी हो गई. उस के बाद बम की तरह उस का हमेशा का सवाल भी आ धमका, ‘‘क्या वे मर भी जाते हैं?’’

‘‘हां, बूढ़े होने के बाद मर जाते हैं,’’ मैं ने संयत स्वर में कहा.

‘‘मैं ने तो कभी पेड़ों को अपनेआप मरते हुए नहीं देखा.’’

‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो न, तुम ने अभी बहुतकुछ नहीं देखा.’’

‘‘नहीं, मैं ने बहुतकुछ देखा है,’’ वरुण दृढ़ स्वर में बोला, ‘‘हमारी कालोनी में लगे हुए पेड़ों को लोग कुल्हाड़ी से काट रहे थे, काटने से वे मर गए. कल उन्हें होली में जलाया जाएगा जिस तरह दादी को…’’

उस के शब्द मेरे मस्तिष्क में हथौड़े की भांति पड़ रहे थे. वरुण का बचपन भी शायद असमय घटी घटनाएं देखसुन कर दम तोड़ देना चाहता था. मेरा दिमाग सुन्न हो गया और हाथ से पानी का पाइप फिसल कर गिर गया. मैं ने देखा, वह पानी कच्ची मिट्टी के बजाय पक्के आंगन की ओर निष्फल, निरुद्देश्य बह रहा था, मेरे प्रयत्नों की तरह.

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special: भला सा अंत- रानी के दिल को समझ पाया काली

भविष्यफल : किस जाल में फंस गई थी मुग्धा

मुग्धा ने बेचैनी से घड़ी की ओर देखा. अरे, साढ़े 6 बज गए. अभी तक अखबार नहीं आया. आमतौर पर तो 6 बजतेबजते ही आ जाया करता है वह छोकरा. आज ही के दिन देर, उफ. बालकनी से सामने की मेन रोड दोनों ओर दूर तक दिखाई पड़ती थी. मुग्धा ने गरदन ऊंची कर के रोड के दोनों ओर निहारा. उस को अखबार देने वाला हौकर, जो लगभग 17-18 साल का नई उम्र का लड़का था, साइकिल पर अखबार लादे हुए आता दिखाई दिया.

यों तो मुग्धा को अखबार का इंतजार रोज ही बेचैनी से रहा करता पर इतवार वाले अखबार का इंतजार एक किस्म की सनक में बदल जाता. इतवार को वह 6 बजे ही बालकनी में आ बैठती. उस दिन अखबार के लिए इंतजार के वे कुछ पल ठीक उसी तरह बेसब्री से बीतते, जिस तरह किसी प्रियतमा के अपने प्रियतम के इंतजार में बीतते हैं.

दरअसल, इस अखबार के रविवारीय अंक में साप्ताहिक राशिफल का विस्तार से विवरण प्रकाशित होता था. हर राशि के सातों दिनों के भविष्यफल की विस्तृत व्याख्या उस में छपती थी. व्याख्या के लिए पूरे 2 पृष्ठ निर्धारित रहते. व्याख्याकार थे शहर के जानेमाने ज्योतिषाचार्य डा. अनिल नारियलवाला, जिन के बारे में किंवदंती थी कि उन की भविष्यवाणी कभी भी गलत नहीं होती. बात बिलकुल सही भी थी. मुग्धा को इस बात का एहसास कई बार हो चुका था. उसे डा. नारियलवाला के विश्लेषण पर पूरी आस्था रहती.

मुग्धा स्थानीय गर्ल्स कालेज में राजनीति विज्ञान की व्याख्याता थी. मार्क्स, लेनिन, एंजिल्स वगैरह के साहित्य का खूब अध्ययन किया था. मार्क्स का भौतिक द्वंद्ववाद और वर्ग संघर्ष का सिद्धांत वर्तमान आर्थिक परिप्रेक्ष्य में उसे सर्वाधिक तार्किक सिद्धांत लगता. वह प्रगतिशील विचारधारा की पोषक थी. स्त्री विमर्श और स्वाधीनता, दलित विमर्श और आरक्षण जैसे मुद्दों पर वह ओजपूर्ण वक्तव्य दे सकती थी. इन सब के बावजूद मन ही मन परंपरावादी भी थी.

भारतीय संस्कृति और धार्मिक कर्मकांड के प्रति सम्मोहन व आदर उसे विरासत में जो मिला था. मार्क्स का धर्म को अफीम कहना उसे हास्यास्पद लगता. धर्म तो सरासर आस्था व विश्वास की चीज है. वह हर माह की पूर्णिमा को सत्यनारायण कथा करवाती और व्रत रखती.

परंपरा व धार्मिक अनुष्ठानों के प्रति आस्था की वजह से ही ज्योतिषशास्त्र के प्रति भी उस की अगाध श्रद्धा थी. डा. नारियलवाला उस के प्रिय ज्योतिषी थे. इस अखबार की ग्राहक होने का मुख्य  कारण भी यही था कि इस में डा. नारियलवाला रविवारीय परिशिष्ट में हर राशि का साप्ताहिक भविष्यफल विस्तार से लिखते थे.

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special: गलतफहमी- क्या टूट गया रिया का रिश्ता

डा. नारियलवाला से वह व्यक्तिगत तौर पर कई बार मुलाकात कर चुकी है और उन के निर्देशानुसार अपनी उंगलियों में 5 तरह के रत्न भी धारण किए हुए थी. इन रत्नों को पहनने के बाद उस के जीवन में कई सकारात्मक परिवर्तन आए और रत्न धारण करते ही उसे कालेज में विभागाध्यक्ष का पद मिल गया था. उस के बाद काफी दिनों से लंबित पड़ी उस की थीसिस भी पूरी हो गई और वह पीएचडी की उपाधि पा गई थी. उसे अप्रत्याशित प्रमोशन भी मिल गया था.

ज्योतिष के प्रति इस कदर सनक की हद तक आस्था के कारण उसे अकसर सहकर्मियों के संग तार्किक वादविवाद में भी उल?ा जाना पड़ता था. एक बार प्रोफैसर पांडेजी चाय पर उस के घर आमंत्रित थे. उस समय टीवी पर समाचार चल रहे थे. तभी एक समाचार ने उन का ध्यान आकर्षित किया, ‘अभिषेक और ऐश्वर्या पर ग्रहों की वक्र दृष्टि. ऐश्वर्या की कुंडली में मांगलिक दोष. दोष बना उन के विवाह के मार्ग की बाधा.’

समाचार सुन कर पांडेजी भड़क उठे, ‘ज्योतिषफ्योतिष सब बकवास है. भोलीभाली जनता को अंधविश्वास और रूढि़यों का भय दिखा कर लूटने का कुचक्र. ज्योतिष का न तो कोई वैज्ञानिक सिद्धांत है और न ही तार्किक आधार.’ ‘नहीं पांडेजी,’ मुग्धा ने तिलमिला कर प्रतिवाद जताया, ‘वैदिक सूत्रों पर आधारित भरेपूरे ज्योतिष को इस तरह आसानी से खारिज कैसे कर सकते हैं आप? ज्योतिष विज्ञान तो विज्ञान से भी ज्यादा आस्था की चीज है जो मस्तिष्क से नहीं, हृदय से संचालित हुआ करती है.’

‘अरे मैडम, जिसे आप आस्था का नाम दे रही हैं, दरअसल वही तो अंधविश्वास है. मैं तो बस इतना ही जानता हूं कि ज्योतिष में अगर भविष्य जान लेने की इतनी ही क्षमता है तो क्यों नहीं देश में घटित होने वाली भयानक दुर्घटनाओं व हादसों का पूर्वानुमान कर लिया करता है वह? लातूर का कुछ अरसे पहले का और गंगटोक का हाल का हृदयविदारक भूकंप, अंडमान की विनाशकारी सुनामी और 26/11 की आतंकवादी घटना. इन सब के बारे में भविष्यवाणी कर के राष्ट्र को जान और माल की सुरक्षा के प्रति सचेत किया जा सकता था. पर ज्योतिष में ऐसी क्षमता हो तब न?

यहां तो हर समस्या का बस एक ही समाधान है कि इस या उस तरह के नगीने धारण कर लें. हुंह, पत्थर पहनने से ही भाग्य बदलता हो तो मैं हाथों की ही नहीं, पैरों की उंगलियों में भी उन्हें धारण करने को तैयार हूं, सफलता की गारंटी देने वाला कोई महारथी सामने आए तो?’ पांडेजी खिलखिला कर अट्टहास कर उठे.

मुग्धा का तनबदन क्रोध से सुलग उठा. उसे अफसोस हुआ, कैसेकैसे असभ्य सहकर्मियों को वह घर पर बुला लेती है. प्रकट क्रोध को जज्ब करते हुए बोली, ‘नास्तिक व्यक्ति ज्योतिष के महत्त्व को कभी नहीं समझ पाएगा, पांडेजी. ज्योतिष गणना धार्मिक और वैदिक परंपरा का आध्यात्मिक विस्तार है. मैक्समूलर जैसे विद्वान ने यों ही नहीं कहा कि आधुनिक विज्ञान जहां खत्म होता है वहीं से ज्योतिष शुरू होता है.’ पांडेजी फिर भी खीखी कर के हंसते रहे, ‘आप कोई भी तर्क क्यों न दें, मेरी समझ से ज्योतिष आप जैसी धर्मभीरु को भाग्यवादी तो बनाता ही है, उस की संवेदनशीलता का नाश भी करता है.’

इस लगभग 1 माह बाद वह डा. नारियलवाला से एक समस्या के सिलसिले में मिलने गई तो वहां पांडेजी को सपत्नीक प्रतीक्षालय में अपनी बारी का इंतजार करते पाया. मुग्धा की आंखों में विस्मय भर गया. ज्योतिष के कट्टर आलोचक डा. नारियलवाला की शरण में? अद्भुत. बाद में पता चला कि पांडेजी को एक के बाद एक 3 पुत्रियां हासिल हो गई थीं. इस बार जैसे ही मिसेज पांडे के गर्भ में चौथे भ्रूण का अंकुरण हुआ, प्रोफैसर पांडे डा. नारियलवाला के पास ज्योतिषीय मुक्ति की तलाश में गए थे कि अब की बार उन्हें सिर्फ और सिर्फ पुत्ररत्न की ही प्राप्ति हो.

ये भी पढ़ें- सौतेली: क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

अचानक ‘धप्प’ की आवाज से मुग्धा की तंद्रा टूट गई.
प्रतीक्षित अखबार की प्रति मिसाइल की तरह नीचे से उड़ान भरती हुई बालकनी में सीधे उस के पास आ कर गिरी थी. मुग्धा की बाछें खिल उठीं. तेजी से अखबार उठा कर बैडरूम में आ गई. नजरें साप्ताहिक भविष्यफल वाले पृष्ठ को तलाशने लगीं. भीतर के पूरे 2 पृष्ठों पर सभी 12 राशियों का भविष्यफल फैला हुआ था. हर राशि के सातों दिनों का विशद विश्लेषण. उस की राशि ‘सिंह’ थी. सिंह राशि का भविष्यफल पढ़ते हुए आंखों में चमक भरती चली गई. 6 दिनों का भविष्यफल कमोबेश सामान्य ही था, परंतु आज इतवार के लिए एक अद्भुत भविष्यवाणी थी, ‘आज आप को अप्रत्याशित स्रोत से आकस्मिक धन प्राप्ति का प्रबल योग है. कहीं से भी किसी भी स्रोत से चल कर आप के घर में लक्ष्मी का आगमन निश्चित है.’

भविष्यफल पढ़ कर वह रोमांच से भर उठी. आकस्मिक धन प्राप्ति का योग. ओह, खुशी के मारे पलकें ढलक गईं. मन ही मन वह आगत धन के संभावित स्रोतों का अनुमान लगाने लगी. कहां से चल कर आ सकता है पैसा? वह लौटरी टिकट कभी नहीं खरीदती कि उस पर पुरस्कार की घोषणा हो जाए. किसी सहयोगी या पड़ोसी को भी उधार पैसा दिया हो, याद नहीं आ रहा. मम्मीपापा के भी उस के पास मिलने आने की संभावना नहीं है कि वे ही सौगात के बतौर उसे कुछ रुपए दे दें. फिर?

लेकिन उस का मन डा. नारियलवाला के भविष्यफल को ले कर किसी भी तरह की दुविधा में न था. जब उन्होंने भविष्यवाणी की है कि आज धन प्राप्ति का प्रबल योग है तो बेशक धन आएगा ही आएगा. कहीं से भी आए. उन का कहा आज तक मिथ्या नहीं हुआ.

समय अपनी रफ्तार से दौड़ रहा था. देखतेदेखते दोपहर के 2 बज गए. आदित्य औफिस के काम से टूर पर गया था. कल सुबह 11 बजे वाली ट्रेन से लौटेगा. कालेज की छुट्टी थी ही. दोपहर के भोजनादि से निबट कर मुग्धा बिस्तर पर आ लेटी. कुछ देर टीवी देखा, फिर ?ापकी आ गई.

कौलबैल की मधुर आवाज से नींद खुली तो घड़ी की ओर नजरें चली गईं. 5 बजे थे. कौन हो सकता है दरवाजे पर? हाथों में उस को देने के लिए कड़क नोट थामे कोई देवदूत? धड़कते दिल से दरवाजा खोला. सामने काम वाली बाई खड़ी थी. उत्तेजना की रौ में महरी की दैनिक समय की बात दिमाग से काफूर हो गई थी. वह मन ही मन मुसकरा कर रह गई.

बिना किसी स्रोत के रुपए कहां से आएंगे भला? तीनचौथाई दिन तो बीत गया. शेष बचे कुछ घंटे भी मुट्ठी में रेत की तरह फिसल जाएंगे. डा. नारियलवाला के भविष्यफल को ले कर पहली बार मन शंका से भर उठा. देह शिथिल होने लगी. पर मन के एक कोने में क्षीण सी आशा की लौ अभी भी टिमटिमा रही थी. अभी भी दिन को बीतने में कुछ घंटे शेष हैं. चमत्कार घटने के लिए तो एक ही पल काफी होता है.

पिछले दिनों ही मार्खेज का उपन्यास ‘हंड्रैड ईयर्स औफ सौलिच्यूड’ खरीदा था. व्यस्तता की वजह से पढ़ नहीं सकी थी. उपन्यास ले कर पढ़ने के लिए पलंग पर आ लेटी. उपन्यास इतना रोचक था कि शेष होने के बाद ही छूटा. अरे, 7 बज गए. यानी कि पहली बार गुरुजी का भविष्यफल गलत साबित होने जा रहा है. मन बेचैनी से भरने लगा तो बेचैनी को दूर करने के लिए उस ने सोचा, चौक तक की एक छोटी सी सैर ही कर ली जाए.

‘झंडा चौक’ घर से 1 किलोमीटर की दूरी पर ही था. फ्लैट में ताला लगा कर नीचे आ गई. बाजार की रौनक धीरेधीरे सिमटने के क्रम में थी. दुकानप्रतिष्ठान बंद होने लगे थे. पर चौक पर अभी भी खासी चहलपहल थी. बड़ेबड़े शोरूम अभी खुले हुए थे. बाईं ओर के लैंप पोस्ट तले एक गोलगप्पे वाला खोमचा लगाए खड़ा था. भीतर की निराशा को तिरोहित करने के लिए वह उस के पास आ गई. फिर एक के बाद एक, पूरे 10 गोलगप्पे, इमली का तीखा मसालेदार पानी उदर के भीतर गया तो मन रूई की तरह हलका हो गया.

गोलगप्पे वाले के बगल में ही रामखेलावन का फलों का ठेला था. वह रामखेलावन की स्थायी ग्राहक थी. रामखेलावन उसे देखते ही चहका, ‘क्या तौल दें, मेम साहब?’
मुग्धा ने एक नजर ठेले पर रखे फलों पर डाली. आदित्य को अंगूर खूब पसंद हैं. उस ने एक किलो अंगूर तौल देने को कहा.
‘कितने पैसे, भैया?’
‘90 रुपए, मेमसाहब.’

मुग्धा ने उस की ओर 100 का नोट बढ़ा दिया. तभी 2-3 ग्राहक और आ गए और रामखेलावन उन्हें तत्परता से सौदा देने में लग गया. उन के चले जाने के बाद वह एक क्षण को चिंतन की मुद्रा में आया और फिर बंडी की भीतरी जेब से 100-100 के 4 नोट निकाल कर उन में 10 का नोट मिलाया, फिर मुग्धा की ओर बढ़ा दिए, ‘ये रहे आप के बाकी पैसे.’

410 रुपए देख कर मुग्धा सकपका गई.

‘भैया, हिसाब ठीक से देख लिया न?’ रुपए थामते हुए वह हकला उठी.

‘लो, कर लो बात…’ रामखेलावन ने दांत निपोर दिए. उस के होंठों पर निश्छल हंसी खिल आई, ‘हिसाबकिताब के मामले में इतना भी कमजोर नहीं है मेम साहब. अरे, 500 में 90 गया तो कितना बचा? 410 ही न?’

ये भी पढ़ें- मुझे तो कुछ नहीं चाहिए: क्या हुआ था उसके साथ

मुग्धा के जेहन में डा. नारियलवाला का भविष्यफल कौंध गया, ‘अप्रत्याशित स्रोत से आकस्मिक धन प्राप्ति का निश्चित योग.’ ओह, दिन के आखिरी चरण में गुरुजी की भविष्यवाणी आखिरकार सत्य साबित हो ही गई न. वह मूर्ख तो बेकार ही विचलित हो रही थी. गुरुजी महान हैं.

नोट पर्स में डालते हुए उस के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे.

सुबह 6 बजे ही नींद खुल गई. आज भी कालेज बंद था. आदित्य 11 बजे से पहले लौटने वाला नहीं था. वह बेसब्री से उस का इंतजार कर रही थी. इस अप्रत्याशित धन के मिल जाने की खुशी उस से बांटना चाहती थी. फिर आज के दिन को शानदार तरीके से सैलिब्रेट करने की योजना भी बनाने वाली थी.

ब्रश में पेस्ट लगा कर मुंह में डालती मुग्धा बालकनी में चली आई. बालकनी के सामने पक्की सड़क दोनों ओर दूर तक किसी लंबे अजगर की तरह पसरी हुई थी. दिन का उजाला अभी पूरी तरह खिला नहीं था और वातावरण में हलकी धुंध छाई हुई थी. रोड पर आवाजाही ज्यादा नहीं थी.

अचानक उस की नजर बाईं ओर से आते एक व्यक्ति पर चली गई. अरे, यह तो रामखेलावन लग रहा है. लग क्या रहा है, रामखेलावन ही है. तेजतेज लंबेलंबे डग भरता उसी की ओर चला आ रहा था वह. मुग्धा का कलेजा धक से रह गया.

संभावित अपमानजनक और जलालत की स्थिति की आशंका से पूरा बदन सूखे पत्ते की तरह कांप गया. निश्चित रूप से रामखेलावन को रात में हिसाब मिलाने के क्रम में भूल का एहसास हो गया होगा. रात भर सो नहीं पाया होगा. अपनी रकम लेने के लिए अल्लसुबह ही दौड़ा हुआ उस के फ्लैट पर आ पहुंचा है. उफ, एक क्षण को मुग्धा की पलकें भय से ढलक गईं. जेहन में एक कोलाज कौंध गया कि रामखेलावन हवा में हाथ नचा कर उसे खरीखोटी सुना रहा है, ‘वाह मेमसाहब, वाह, अरे, हम तो ठहरे गंवारजाहिल. आप तो कालेज की मास्टराइन हो. बच्चों को ईमानदारी और सचाई का पाठ पढ़ाती हो. जरा सी रकम पर नीयत खराब कर बैठीं? यह भी नहीं सोचा कि एक गरीब फेरी वाला इतनी बड़ी चोट कैसे बरदाश्त करेगा. हमारी तो कमर ही टूट जाएगी…’

उस के मुंह से आवाज नहीं निकल रही है. उस का दिमाग तेजी से किसी उत्तर के विकल्प को ढूंढ़ रहा है. इस के पहले कि रामखेलावन उस पर हावी हो जाए, उसे अपने व्यक्तित्व का रौब गांठ देना होगा, ‘इतना फनफनाने की क्या जरूरत है, भैया? भूल तुम ने की है. मैं ने तो नहीं कहा कि 10 की जगह 410 लौटाओ. जितना निकलता है तुम्हारा, ले लो न. बस.’

‘वह तो लेंगे ही, मेमसाहब,’ रामखेलावन अभी भी तैश में बोलते ही जा रहा है, ‘पर ताज्जुब हो रहा है कि ज्ञानविज्ञान की दुनियाभर में मशहूर किताबों को पढ़ कर भी आप को ईमानदारी और नैतिकता का महत्त्व सम?ा में नहीं आया?

दरअसल, दोष आप का नहीं. आंख मूंद कर जब आप जैसा पढ़ालिखा इंसान भी तथाकथित ज्योतिषीय भविष्यफल पर विश्वास करने लगता है तो उस के भीतर का सारा उच्च संस्कार कपूर की तरह हवा में उड़ कर घुलेगा ही. याद है, पांडे साहब ने एक बार आप के घर पर चाय पीते हुए कहा था कि ज्योतिष धर्मभीरु व्यक्ति को भाग्यवादी तो बनाता ही है, उस की संवेदनशीलता और तार्किकता का भी नाश करता है. कहा था न? आज वह बात बिलकुल सही साबित हो कर रही.’

‘शट अप, यू स्टुपिड, ज्यादा बकवास करने की जरूरत नहीं. ये लो अपने रुपए और दफा हो जाओ…’ मुग्धा पर्स से 410 रुपए के नोट निकाल कर रामखेलावन के मुंह पर दे मारती है.

कोलाज का सम्मोहन टूट गया. मुग्धा क्रोध और आवेश में थरथर कांप रही थी. बड़ी मुश्किल से उस ने स्वयं को संयत किया, पर उसे खूब सम?ा आ रहा था कि उस के सारे तर्क बेहद खोखले थे.

तभी कौलबैल बज उठी. रामखेलावन दरवाजे तक आ पहुंचा था. चेहरे पर दृढ़ता और निर्दोषपन की कलई लगाते हुए उस ने दरवाजा खोला. हड़बड़ाती हुई अनजान बनने का नाटक करते हुए बड़बड़ाई, ‘अरे रामखेलावन, तुम? इस वक्त? इतनी सुबह?’

‘हां मेमसाहब.’ रामखेलावन के होंठों पर ढकीछिपी मुसकान थिरक रही थी, ‘हम से बहुत बड़ा भूल हो गया है. रातभर सो नहीं सके हम.’

मुग्धा ने उस के आरोप को सुनने के पहले ही उस पर हावी हो जाने का प्रयास किया, ‘भूल हुई है तो फिर से हिसाब कर लो न, भैया. इतना तनतनाने की बात क्या है? हम कब इनकार कर रहे हैं?’

‘कैसा हिसाब, मेमसाहब?’ रामखेलावन एक क्षण के लिए हकबका गया कि मेमसाहब किस हिसाब की बात कर रही हैं. फिर बोला, ‘उफ, आप ने तो हम को डरा ही दिया. हिसाब नहीं, हम तो आप को कुछ देने आए हैं.’

आननफानन बंडी की भीतरी जेब से एक अंगूठी निकाल कर रामखेलावन मुग्धा की ओर बढ़ाते हुए हंसा, ‘यह आप की ही है न?’

अंगूठी पर नजर जाते ही मुग्धा एकदम से दहल गई. त्वरित गति से बाईं अनामिका का मुआयना किया. अंगूठी नदारद थी. पिछले माह ही डा. नारियलवाला के सु?ाव पर सोने की अंगूठी में हीरा जड़वा कर धारण किया था. रत्न समेत अंगूठी की कीमत तकरीबन 30 हजार रुपए थी. उंगली से कब निकल कर कहां गिर पड़ी, उसे तनिक भी आभास न हो सका.

ये भी पढ़ें- स्नेह के सहारे: पति के जाने के बाद सरला का कौन बना सहारा

‘रात को जब दुकान समेट रहे थे, हमारी नजर अंगूर की टोकरी के भीतर चली गई. वहीं ढेरी तले गुड़ीमुड़ी सी छिपी हुई थी ससुरी. देखते ही पहचान गए कि यह आप की ही है. आप जब हमारे ठेले पर फल छांट रही होती हैं तो अकसर आप की अंगूठी पर मेरी नजर चली जाया करती थी. रातभर सो नहीं पाए. कच्ची कोठरियां, कोई चोरउचक्का ले उड़ा तो क्या मुंह दिखाते आप को?’

मुग्धा ने अंगूठी थाम तो ली पर मुंह से एक बोल भी नहीं फूटा. कुछ पलों तक पथराई सी खड़ी रामखेलावन को निहारती रही. रामखेलावन हंस पड़ा, ‘ऐसे क्या देख रही हो, आप? अब तनिक खुश हो कर मुसकरा न दीजिए. अच्छा जी, नमस्ते.’

रामखेलावन जाने को मुड़ गया. मुग्धा तेजतेज चल कर बैडरूम की ड्रैसिंगटेबल के आदमकद शीशे के सामने आ खड़ी हुई. बिना किसी मेकअप के भी हर समय दिपदिपाता उस का गौर वर्ण चेहरा न जाने क्यों शीशे के भीतर धीरेधीरे स्याह होता दिख रहा था.

प्रकाश स्तंभ: क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

family story in hindi

मुझे तो कुछ नहीं चाहिए: क्या हुआ था उसके साथ

लेखिका- स्मिता जैन

मार्च का महीना था. तब न तो पूरी तरह सर्दी समाप्त होती है और न पूरी तरह गरमी ही शुरू होती है. समय बडा़ बेचैनी में गुजरता है. न धूप सुहाती है न पंखे. तनमन में भी अजीब सी बेचैनी रहती है. ऐसे  ही समय एक दिन सोचा कि बच्चों के लिए गरमियों के कपडे़ सिल लूं. सिलाई का काम शुरू किया, पर मन नहीं लगा. सोचा, थोडा़ बाहर ही घूम लूं. फिर फ्रेश हो कर काम शुरू करूंगी. घर से बाहर निकली तो वहां भी 1-2 वाहनों के अलावा कुछ नजर नहीं आया. एक तो पहाडों में जिस स्थान पर हम रह रहे थे वहां वैसे भी आबादी ज्यादा नहीं थी. बस, 4-5 मकान आसपास थे. कुछ थोडी़थोडी़ ऊंचाई वाले स्थान पर थे, इसलिए बहुत अकेलापन महसूस होता था. हां, शाम को बच्चे जरूर खेलते, शोर मचाते थे या काम पर गए वापस लौटते आदमी जरूर नजर आते थे. ऐसे में दिन के 11-12 बजे से ही सन्नाटा छा जाता था.

लेकिन उस दिन वह सन्नाटा कुछ टूटा सा लगा. इधरउधर ध्यान से देखा तो लगा कि आवाज बराबर वाले मकान से आ रही थी. जिज्ञासा से कुछ आगे बढ़ कर पडो़स के बरामदे की ओर देखा तो पडो़सिन किसी ग्रामीण महिला से बात करती नजर आईं. उन्हें बात करते देख मैं वापस आने को हुई तो उन्होंने वहीं से आवाज लगाई, फ्अरे, कहां चलीं, आओ, तुम भी बैठो.

यह पडो़सिन एक शांत सरल स्वभाव की मोटे शरीर वाली महिला थीं. मोटापे के कारण वह आसानी से कहीं आजा नहीं सकती थीं. साथ ही उन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप आदि अनेक बीमारियां भी थीं. शक्करचीनी से कोसों दूर रहने पर भी उन की जबान की मिठास किसी को भी पल भर में अपना बना लेती थी. मैं भी उन के प्यार से वंचित नहीं थी. मैं उन्हें प्यार और आदर से भाभी कहती थी.

उन की आवाज सुन कर मैं ने उन्हें नमस्ते की. घर में काफी काम था. सोचा, वहां बैठने से सारा समय बातों में ही निकल जाएगा लेकिन तब तक वह ग्रामीण महिला भी पूरी तरह नजर आ गई. मुझे देख कर वह भी मुसकराई.

मैं तो उसे देखती ही रह गई. निराला व्यक्तित्त्व  था उस ग्रामीण महिला का. स्याह काली, लेकिन तीखे नैननक्श, काले रंग का घेरदार घाघरा जिस पर कई रंगों का पेचवर्क हो रहा था. साथ ही कलात्मक कढा़ई के बीच चमकते सितारों से गोल, तिकोने शीशे  थे.घ्घाघरे के ऊपर जरी के काम की लाल कुरती, किरन लगा काला दुपट्टा, हाथपैरों में चांदी के भारीभारी कडे़, कान में चांदी के बडे़बडे़ झाले, जिन की लडों़ ने उस के बालों को भी सजा रखा था. गले में सतलडा़ हार और नाक में नथुनों से भी बडे़ आकार का पीतल का चमकता फूल. लंबेलंबे बालों की अनगिनत चोटियां, जिन को नीचे इकट्ठा कर के रंगबिरंगे चुटीले गूंध रखे थे.

उस के साथ ही बहती नाक वाला, मैलेकुचैले कपडे़ पहने, नंगे पैर एक 10-11 साल का लड़का बैठा था जो उस महिला के सामने उस का नौकर सा लगता था, लेकिन शायद वह उस का बेटा था, जो मां की तरफ से उपेक्षित छोड़ दिया गया था.

ये भी पढ़ें- दर्द: जोया ने क्यों किया रिश्ते से इनकार

भाभी के प्रेम भरे आमंत्रण को शायद मैं विनम्रता से टाल भी देती, लेकिन उस महिला के प्रति जिज्ञासा ने मुझे वहां जाने को विवश किया. उस की अस्पष्ट आवाजें मेरे घर तक आ रही थीं.

जब तक मैं दरवाजा बंद कर वहां पहुंचती, वह महिला अपनी बात शुरू कर चुकी थी. वहां पहुंचने पर मैं ने सुना, फ्देख बीबी, तेरे से एक पैसा नहीं मांगती. जब ठीक हो जाए तो जो इच्छा हो दे देना. तू नुसखा लिख ले. तुझे 4 दिन में फर्क न पडे़ तो कहना. बीबी, इस से पहले एक धेला नहीं लूंगी. इस नुसखे के इस्तेमाल से तेरी सारी चरबी ऐसे छंट जाएगी कि तू खुद को नहीं पहचानेगी.

उस की बातों से मैं समझ गई थी कि यह कोई जडी़बूटीनुमा देशी इलाज या झाड़फूंक करने वाली है. मेरे आने से पहले उस ने मुश्किल से कदम उठा कर रखने वाली भाभी की चालढाल देख कर उन की कमजोर नस पकड़ ली थी और अब तो उन्हें अपने शीशे में उतारने के चक्कर में थी.

मैं ने पूछा, फ्तुम कहां की हो? कहां से आई हो?

फ्बीबी, हैं तो लखीमपुर के, पर दूरदूर तक घूमते हैं और जडी़बूटियां खोजते हैं, उस से लोेगों का इलाज करते हैं. उन का भला करते हैं, वह बडे़ नाज से बोली.

उस का बोलने का अंदाज देख कर मुझे हंसी आ गई. मैं ने कहा, फ्इतनी दूर लखीमपुर की हो तो यहां गढ़वाल में क्या कर रही हो?

फ्ऐ लो बीबी, सारी जडी़बूटियां तो यहीं से ले जाते हैं. तुम्हें नहीं पता कि तुम्हारे पहाडों़ में कितनी बूटियां हैं. तुम तो पहाडों पर रह रही हो, वह व्यंग्य से बोली.

मुझे फिर हंसी आ गई, फ्अरे, तो क्या हम यहां जडी़बूटी खोदने आए हैं. भई, हम नौकरीपेशा लोग हैं. जहां सरकार ने भेज दिया, चले गए. अब यह तो पता है कि पहाडों़ में जडी़बूटियों  का खजाना है, लेकिन ये क्या जानें कि कौन सी घास, फूलपत्ती जडी़बूटी है.

फ्लो बीबी, खुद ही देख लो, कह कर उस ने 3-4 लकडी़  के टुकडे़ अपने गंदे थैले में से निकाले और एक टुकडा़ मेरी ओर बढा़या, फ्इस में कील या पेचकस डालते ही तेल निकलने लगेगा.

मैं ने उस टुकडे़ को नाखून से दबाया तो तेल सा चमका, फिर उस में पेचकस डाल कर घुमाया तो तेल की बूंद सी टपकी. वह फिर बोल उठी, फ्तेल में इन जडी़बूटियों को डाल दूंगी, फिर ये तेल अच्छी तरह से दिन में 2 बार जोडों़ पर मलना. एक नुसखा बताती हूं. उस की राख बना कर तेल में मिला कर लगाना. बीबी, फायदा न हो तो एक पैसा न देना. अभी तुम से कुछ नहीं मांगती. तुम अपना इलाज शुरू कर दो.

इतना कह कर उस ने लौंग, जायफल, पहाडी़ गुच्छी, कपूर, चंदन का तेल जैसी 10-12 चीजों के नाम लिखाए. भाभी ने पूछा, फ्यह सामान कहां मिलेगा?

फ्सब बाजार में मिल जाएगा. अपने नौकर को भेज कर मंगवा लेना. इसे जला कर राख बना लेना और फिर राख को तेल में मिला कर सारे शरीर पर मालिश करना, देखना कुछ ही दिन में असर होने लगेगा और तुम दौड़ने लगोगी. सारे जोड़ खुल जाएंगे.

भाभी बोलीं, फ्क्या यह सामान ऐसे ही जला लेना है?

वह बोली, फ्हां, हां, यहीं आंगन के कोने में जला लेना.

मुझे फिर भी उस की बात पर विश्वास नहीं था, सो उस से कह बैठी, फ्यह सब तो कर ही लेंगे पर यह तो बताओ कि तुम फिर कब आओगी? तुम्हें कैसे पता चलेगा कि इलाज हो पा रहा है या नहीं?

फ्लो बीबी, तुम तो शक कर रही हो हम पर. ऐसेवैसे नहीं हैं हम.घ्यह देखो हमारा पहचान पत्र. हमें तो पूरी ट्रेनिग दी गई है, कह कर उस ने गंदे कपडे़ में लिपटा, अपना फोटो लगा पहचानपत्र दिखाया, जिस में एक बडे़ शहर की आयुर्वेद कंपनी का प्रमाणपत्र व फोन नंबर आदि थे. वह फिर भाभी से बोली, फ्अपने लिए एक पैसा नहीं मांग रही. ठीक होने पर जो मरजी हो दे देना. एक बार इलाज तो शुरू करो फिर खुद को ही नहीं पहचान पाओगी. ला, मंगा एक कटोरा तेल.

भाभी ने अपनी लड़की से तेल मंगाया तो वह सिर पकड़ कर बैठ गई, फ्अरे बिटिया, कोई ले थोडे़ ही जाएंगे हम. कम से कम डेढ़ पाव तेल ला. फिर उस तेल में जडी़बूटी के कुछ टुकडे़ तोड़ कर मिलाए और भाभी के हाथ पैर व कमर पर मालिश कर के 5 मिनट बाद बोली, फ्कुछ आराम मिला जोडों़ में?

भाभी खुश थीं, फ्हां, आराम तो मिला.

शायद बरसों बाद उन्हें किसी से मालिश करवाने का मौका मिला था.

अब उस महिला ने एकएक कर भाभी की लड़की से हलदी, लकडी़ का पटरा, 2 रंगों का धागा मंगाया. मुझ से रुका नहीं गया और मैं कह उठी, फ्भई, जो कुछ मंगाना है एकसाथ क्यों नहीं मंगवाती हो? मैं देख रही थी कि भाभी की बेटी को इन सब बातों में बकवास नजर आ रही थी और वह सामान लाने पर हर बार मुंह बना रही थी.

ये भी पढ़ें- स्वयं के साथ एक दिन: खुद को अकेला क्यों महसूस कर रही थी वह

तब तक बाजार से भाभी का बेटा भी आ गया था जो बी-एससी- में पढ़ रहा था. उस के सामने उस महिला ने फिर से सारी बातें दोहराईं. बेटे ने उस की बात मजाक में लेने की कोशिश की तो वह बोली, फ्मैं क्या तेरे से कुछ मांग रही हूं. तेरी मां के भले के लिए  बता  रही हूं यह नुसखा. ठीक हो जाए तो कुछ भी दे देना.

बेटा बोला, फ्चल, तुझे 200 रुपए दूंगा और 200 रुपए क्या, तुझे दिल्ली ले चलता हूं. वहां ऐसे बहुत से मरीज हैं, उन्हें ठीक कर देना. मैं तेरा चेला बन जाऊंगा फिर अपना क्लीनिक खोल कर ठाठ करूंगा.

ग्रामीण महिला ने तिरछी नजर से उसे देखा. शायद वह उस के मजाक को समझ गई थी, पर धैर्य का परिचय देते हुए फिर भाभी की ओर देखती हुई बोली, फ्देख, तेरे यहां कच्ची मिट्टी की जगह है, यहीं भस्म बना लेना.

मुझे यकीन नहीं आ रहा था कि मुपत में नुसखा बेचने का आखिर इसे क्या लाभ है. कहीं यह सीधीसरल भाभी को ठगने के चक्कर में तो नहीं है. कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. इसीलिए मैं उस से फिर पूछ बैठी, फ्यह भस्म तुम्हारे पास नहीं है. जो सामान तुम ने बताया है, पता नहीं यहां मिले या नहीं? अब बाजार के सामान का क्या भरोसा? बाद में तुम कहोगी, यह ठीक नहीं था, वह ठीक नहीं था, इसलिए फायदा नहीं हुआ.

फ्अब बीबी, यह तो पैसे की चीज है, बाजार से मंगा लो. मुझे क्या देना, फिर कहोगी कि पैसा मांगती है.

यह बात 3-4 बार आई और उस ने हर बार फिर वही बात दोहराई. लेकिन अब मुझे लगने लगा था कि मेरी उपस्थिति उसे अखरने लगी है, क्योंकि मैं उस से तरहतरह  के सवाल पूछ रही थी. शायद वह समझ रही थी कि मैं उस की कोई बात पकड़ने की कोशिश में हूं जबकि भाभी ने उस से कुछ भी नहीं पूछा था. इस के बाद जब भी मैं ने उस से कोई बात पूछी, उस ने बात का रुख भाभी को नुसखा समझाने में मोड़ दिया.

इस बीच उस ने पटरे पर आटे और हलदी से ‘रंगोली’ आदि बना कर भाभी को उस पर बिठाया. फिर उस ने 2-3 मीटर धागे को भाभी के हाथपैर से नाप कर 15-20 बार लपेट कर रस्सी जैसा बनाया और उसे भाभी के शरीर से छुआ कर 11 गांठें लगाईं. कुछ मंत्र पढे़ और धागा भाभी को दे कर बोली, फ्इसे ध्यान से रख लो. जैसेजैसे तुम ठीक होगी, गांठें अपनेआप खुल जाएंगी.

वहां मौजूद सभी लोगों को हैरानी में डालते हुए उस ने माचिस की डब्बी में धागा रख दिया. अब मुझे यकीन हो गया था कि जरूर कोई धोखा है. आयुर्वेदिक इलाज में टोनेटोटके का क्या काम. लेकिन मैं चुप रही, क्योंकि मुझे लग रहा था कि भाभी उस की बातों से काफी प्रभावित हो गई थीं. खासतौर पर इस बात से कि वह इस काम के अभी कोई पैसे नहीं मांग रही. विधि भी आसान थी, उस के द्वारा जडी़बूटी डाले गए तेल में सामान की राख मिला कर मलना ही तो था और फिर देखो दवा का कमाल.

मैं किसी काम के बहाने उठ कर आ गई और सोचने लगी कि ऐसी बातों में सिर खपाना बेकार है. लेकिन जिज्ञासा से उस की आगे की काररवाई देखने के लिए मैं फिर वहीं जा कर खडी़ हो गई. वापस गई तो वह आटे की छलनी में कुुुछ घुमा रही थी. मैं दूर खडी़ यह सब देखने लगी तो वह महिला बोली, फ्आजा री, तू घबरा क्यों रही है? तुझ पर कुछ टोटका नहीं करूंगी. मेरे भी बाल बच्चे हैं. मैं यदि गलत बोलूं या गलत करूं तो मेरे बच्चे मरें.

मैं ने उसे टोका, फ्बच्चों को क्यों ला रही है बीच में. तुझे जो करना है, कर. मैं इन बातों में यकीन नहीं रखती.

अब महिला ने कहा, फ्बेटी, इस में कुछ सफेद खाने की सामग्री ले आ.

बेटी एक छलनी चावल ले आई.

महिला माथा पकड़ कर बैठ गई, फ्ले बेटी, यह क्या मैं ले जाऊंगी. कम से कम 3 छलनी भर ला.

बेटी ने चावल ला कर थैली में डाले तो कुछ चावल बिखर गए. भाभी बोलीं, फ्चलो, कोई बात नहीं, चावल ही तो गिरे हैं- हमारे पहाड़ में इसे शुभ मानते हैं- अब तो महिला ने भाभी की शुभअशुभ में जबरदस्त आस्था की दूसरी कमजोर नस पकड़ ली, फ्बेटी, जब तेरी मां ठीक हो जाए तो इन्हें पका कर कन्याओं को खिला देना. अब  बताओ, यह सही है या गलत? अच्छा, जा, जरा एक कटोरी चीनी और ले आ.

मुझे फिर किसी काम से वहां से उठना पडा़. फिर वापस पहुंची तो हैरान रह गई. वह महिला एक टूटी सी कटोरी में नुसखे का सारा सामान दिखा रही थी, फ्देखो बीबी, इतना सामान है.

ये भी पढ़ें- Valentine’s Day: परिंदा- क्या भाग्या का उठाया कदम सही था

मुझे हंसी आ गई. अभी तक तो यही कह रही थी कि मेरे पास सामान कहां है. अब उस ने भाभी के बेटे और नौकर को पास बुलाया, फ्भैया, अब तू भी जान ले विधि, भस्म बनाने की. 2 हाथ गहरा गड्ढा खोद कर 3 किलो उपले और कोयला नीचे रखना. फिर मिट्टी की हंडिया में नुसखे का सारा सामान रख कर मिट्टी के ढक्कन को  आटे से चिपका कर मुुंह बंद कर देना. ऊपर से बाकी उपलाकोयला डाल कर मिट्टी से गड्ढे का मुंह बंद कर देना. 5-6 घंटे बाद खोलना तो हंडिया में सफेद राख मिलेगी. देखो, इस में रखे सामान या आग में फूंक न मारना, पूजा का होता है यह.घ्नहीं तो सब बेकार हो जाएगा.

फ्अरे, इतना सब कैसे होगा? अभी तक तो लग रहा था कि सारी सामग्री कहीं भी रख कर जला कर भस्म बन जाएगी. अब कोयला, उपले कहां से आएंगे. गहरा गड्ढा कैसे खुदेगा. पहाडों़ पर बने घरों में जरा सा खोदने पर ही पत्थर की शिला निकल आई तो? इन बातों पर विचारविमर्श शुरू ही हुआ था कि वह महिला बीच में ही बोल उठी, फ्और देख भैया, यह सामान ठीक से न जले, काला या गीला रह जाए तो इस्तेमाल मत करना. फिर से भस्म बनाना.

अब भाभी भी कुछ झुंझला गईं. मुझ से बोलीं, फ्इतना झमेला कैसे होगा? इस के पास होती तो वही ले लेते, कितना झंझट है इसे बनाने में.

तभी वह महिला झोले में से शीशी निकाल कर बोली, फ्देखो, ऐसा सफेद पाउडर बनना चाहिए.

पाउडर देखकर चौंकते हुए भाभी बोलीं, फ्है तो तुम्हारे पास, यही दे दो न?

फ्बीबी, मैं तो दिखा रही थी खाली, पैसे की चीज है. बाजार से ला कर खुद बना लेना. वैसे 260 रुपए का है यह, वह बोली.

फ्कुछ ज्यादा ही कह रही हो तुम. 260 रुपए का क्या हिसाब हुआ? भाभी बोलीं.

फ्बीबी, नौकर भेज बाजार में पुछवा लो. यहीं बैठी हूं मैं. फिर हमारी मेहनत भी तो है. नहीं तो तुम खुद बना लेना. मरीज बनाम ग्राहक को अपनी पैनी नजर से तौलती वह पूरी निश्चितता के साथ पैर फैला कर बैठ गई. उस के अनुभव ने उसे लगभग आश्वस्त कर दिया था कि पंछी जाल में फंस गया है.

मेरे बच्चों के स्कूल से आने का समय हो गया था. इसलिए उन के मोलतोल में शामिल न हो कर मैं घर आ गई. अगले दिन भाभी से पूछा तो पता चला कि वह भस्म उन्होंने ले ली है. वह महिला न तो आधे पैसे एक सप्ताह बाद लेने को तैयार हुई न एक भी पैसा कम किया उस ने. उस समय परिस्थितिवश भाभी ने तमाम रेजगारी तक गिन डाली थी, लेकिन वह महिला टस से मस नहीं हुई. आखिर भाभी ने किसी से पैसे ले कर उस को दिए.

मैं सोचती रह गई कि कितनी जबरदस्त मनोवैज्ञानिक थी वह. पहले उस ने पूरी कालोनी में घूम कर भाभी को चुना और उन की बीमारी की कमजोर नस पकडी़. फिर यह विश्वास दिलाया कि वह पैसों के लिए यह सब नहीं कर रही. वह तो उन का भला करना चाहती है, जो बहुत सरलता से हो जाएगा. फिर नुसखा बनाने की विधि की जटिलता पर आई और जब उसे विश्वास हो गया कि लोहा गरम है तो अपने पास से बना पाउडर दिखा कर उसे बेच कर 260 रुपए की चपत लगा गई.

पाठको, शायद आप जानना चाहेंगे कि फिर उस पाउडर का क्या असर रहा, जो उस ने 3 घंटे की माथापच्ची के बाद अपने झोले से निकाला था.

अगले दिन मैं ने भाभी से पूछा कि आप ने तेल लगाया, तो बोलीं, फ्हां, कल मालिश की तो जोड़ कुछ खुले तो. मैं ने कई साल बाद पहली बार खडे़ हो कर खाना बनाया. कुछ दिन बाद फिर पूछा तो बोलीं, फ्तेल खुद लगा नहीं पाती और मालिश करने वाली मिली नहीं. और फिर कुछ दिन बाद बात आई तो मैं हैरान रह गई जवाब सुन कर. उन्होंने कहीं अखबार में पढा़ था कि कुछ विदेशी एजेंट भारत में हींग, दवा आदि बेचने वालों के जरिए महामारी फैलाने की कोशिश में हैं. अतः उन्होंने उस महिला को विदेशी एजेंट मानते हुए सारा तेल व अन्य सामान फेंक दिया था. देरसवेर किसी न किसी बहाने से शायद उस का यही हश्र होना था.

ये भी पढ़ें- ढाई आखर प्रेम का: क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

स्नेह के सहारे: पति के जाने के बाद सरला का कौन बना सहारा

लेखिका- प्रमिला नानिवडेकर

रोज की तरह नहा कर माताजी बगीचे में पहुंचीं. वहां से उन की नजर पडो़सी के बगीचे में पडी़. वहां कोई वृद्ध व्यक्ति बड़े ध्यान से काम कर रहा था.

‘शायद इन को माली मिल गया है,’ माताजी बुदबुदाईं. फिर उन्होंने सोचा, ‘पर माली इतनी जल्दी उठ कर काम कर रहा है. फिर उस केघ्कपडे़ भी तो एकदम साफ हैं. ऊंह, होगा कोई उन का रिश्तेदार.’

उन्होंने अपने मन को उधर से हटाने का प्रयास किया. लेकिन उन का ध्यान बारबार पडो़स केघ्बगीचे की ओर ही चला जाता था. वह सोचने लगीं, ‘कौन होगा वह वृú सज्जन?’

कई दिनों के बाद उन के मन को कुछ सोचने लायक मसाला मिला था. कुछ वर्षों से वह अपनी बेटी सरला के साथ रह रही थीं. पहले जब सरला के पिता थे तब चेन्नई के नजदीक के एक छोटे से गांव में वह उन के साथ अपने घर में रहती थीं. पति के रिटायर होने के बाद भी उन्होंने अपने पति के साथ इस तरह का रोज का कार्यक्रम बना लिया था कि उन्हें समय बीतने का पता ही नहीं चलता था. साल में एक बार सरला अपने बच्चों के साथ आती थी. तब कुछ दिनों के लिए उस वृú दंपती का जीवन बच्चों केघ्शोरगुल से भर जाता था. उन्हें यह शोरगुल अच्छा लगता था, लेकिन सरला की वापसी केघ्बाद घर में छाने वाली शांति भी उन्हें बेहद अच्छी लगती थी.

पति के देहांत केघ्बाद उन्हें सरला केघ्पास ही रहना पडा़. सरला के पति सांबशिवन वायुसेना में अफसर थे. वह ही माताजी को समझा कर ले आए थे.

फ्अकेली गांव में क्या करोगी मांजी? फिर हम लोगों को भी आप की चिता लगी रहेगी. इस से अच्छा है कि घर बेचबाच कर पैसे बैंक में जमा करा दो और बुढा़पा हमारे साथ आराम से गुजारो, सांबशिवन ने कहा था.

माताजी ने घर बेचा तो नहीं था, पर किराए पर चढा़ दिया था. पति केघ्बीमे के पैसे भी बैंक में जमा करवा दिए थे. उस के ब्याज का भी कुछ आ ही जाता था. वैसे खानेपीने की सरला केघ्घर में भी कमी नहीं थी, पर सिर्फ शरीर की जरूरतें पूरी होने से ही क्या इनसान खुश रहता है?

वायुसेना के कैंप में बूढों़ की कमी थी. शहर से दूर, अंगरेजी बोलचाल, रहनसहन का अलग तरीका, आधुनिक विचारों वाले बच्चे. माताजी का दम पहलेपहल तो उस वातावरण में घुटता रहता था. पर अब उन्हें इस जीवन की आदत हो गई थी. अब वह आराम से बैठी रहती थीं और मन को इधरउधर बगीचे में लगाने की कोशिश करती थीं.

फ्सरला, बच्चों ने ब्रश भी नहीं किया और नाश्ता खा रहे हैं. तुम ने सिर चढा़ रखा है इन को, शुरू में वह कहती थीं तो सरला हंस देती थी. बच्चे नानी को ‘ओल्ड फैशन’ यानी पुराने रिवाजों वाली कह कर चिढा़ते थे. कभी वह नौकरानी के गंदे काम पर बरस पड़ती थीं तो सरला नौकरानी केघ्जाने के बाद समझाती थी, फ्अम्मां, आजकल नौकर मिलते ही नहीं हैं. अब तुम्हारे वाला पुराना जमाना गया. यह नौकरानी चली गई तो स्वयं काम करना पडे़गा.

ये भी पढ़ें- असंभव: क्या पति को छोड़ने वाली सुप्रिया को मिला परिवार का साथ

फ्तो कर लेंगे, वह गुस्से में बोलतीं.

फ्अम्मां, तुम्हें तो बस, किचन, घर और धर्म के सिवा दूसरा कुछ सूझता ही नहीं है. मेरे पास दूसरे हजारों काम हैं. बच्चों को पढा़ना, सिलाई, बुनाई, लेडीज क्लब, सामाजिक जीवन आदि. इसलिए मेरा काम नौकर के बिना नहीं चल सकता.

माताजी को पता चल गया था कि यहां लोग दिखावे के बल पर ही ऊंचे स्तर के माने जाते हैं. यहां बैठक की सजावट, कालीन, परदे और पेंटिग को देखा और सराहा जाता है. चौके में गंदे हाथों वाली आया, बिना नहाए, बिना सब्जी या चावल धोए खाना बनाती है, यह कोई नहीं देखता. बच्चे मन चाहे, तब नहाते हैं, मन चाहे जो पढ़ते हैं. खूब फिल्म देखते हैं और अनुशासन के नाम से नाकभौं चढा़ते हैं. पर इस की यहां कोई परवा नहीं करता. यह सब देखदेख कर अम्मां कुढ़ती रहतीं, लेकिन कर कुछ नहीं पातीं. अपना घर छोड़ने के साथ उन केघ्अधिकार भी भूतकाल में गल गए थे. कभीकभार धीरज छोड़ कर वह कुछ कहतीं तो सरला समझाती, फ्अम्मां, तुम क्यों चिता करती हो? आराम से रहो. दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है, तुम्हें क्या मालूम? सच, मुझे अगर तुम्हारे जितना आराम मिले तो मैं तो इधर की दुनिया उधर कर दूं. इस उम्र में घर के झंझट में दोबारा क्यों पड़ती हो?

लेकिन माताजी जानती थीं कि आराम भी एक हद तक ही किया जा सकता है. ज्यादा आराम व्यक्ति केघ्उत्साह को खत्म कर देता है.

माताजी पडो़स में आए वृú सज्जन के बारे में जानने केघ्लिए बहुत ही उत्सुक थीं. आखिर उन्होंने आया से पूछ ही लिया, फ्कौन हैं रे, वह बूढे़ बाबा?

फ्वह तो महंती साहब के चाचा हैं. अकेले हैं तो यहां रहने आ गए हैं, आया के पास पूरी जानकारी थी.

फ्पहले कहां थे?

फ्इन्हीं चाचाजी ने साहब को बडा़ किया, पढा़यालिखाया. पहले यह साहब के दूसरे भाईबहनों के साथ रहते थे. शादी नहीं की. भाई की मृत्यु के बाद भाई के परिवार के लिए ही इन्होंने अपनी जिदगी काट दी, आया ने पूरी बात बता दी. और माताजी उस से पूछती रहीं. हालांकि वह जानती थीं कि उन का आया से बतियाना भी सरला को पसंद नहीं.

अब माताजी  अकसर पडो़स के बगीचे की तरफ देखती रहतीं. कुछ ही समय में बगीचे में निखार आ गया था. रंगबिरंगे फूल क्यारियों में खिलने लगे थे. उन की देखादेखी माताजी भी थोेडा़बहुत अपना बगीचा संवारने लगीं.

एक दिन अचानक ही उन के कानों में आवाज आई, फ्लगता है, आप को भी बागबानी का शौक है.

माताजी ने चौंक कर देखा तो सामने वही वृú खडे़ थे. उन्होंने हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दी. माताजी ने भी उत्तर में मुसकरा कर हाथ जोड़ दिए.

फिर इस के बाद उन की दोस्ती बढ़ती गई. दोनों बातें कर के समय गुजारने लगे और भाषा, जातपांत के कूडे़कचरे को नजरअंदाज करती हुई उन की मित्रता बढ़ती गई. अब वे घंटों बगीचे में खडे़ हो कर बातें करते. शाम को दोनों सब्जी लाने उत्साह से चल पड़ते. माताजी का चिड़चिडा़पन धीरेधीरे गुनगुनाहट में डूबता गया. चाचाजी भी अपने पास की दुनिया को मुसकान भरी आंखों से देखने लगे.

आया के जरिए माताजी को पता चल गया था कि बहू और भतीजे में चाचाजी के खर्चे को ले कर खटपट हो जाया करती है. एक आदमी के आने से उन का महीने का बजट चौपट हो गया था. बच्चों की फीस, शराब का खर्च, पत्नी की रमी और पति केघ्ब्रिज के अड्डों में अब कुछ अड़चनें सी आने लगी थीं.

फ्उन्हें भेज क्यों नहीं देते जेठजी के घर? श्रीमती महंती अपने पति से पूछतीं.

फ्वहां भी तो यही हाल है. उन्हें हम लोगों को छोड़ कर दूसरे किसी का सहारा नहीं है मालू. अगर हम चारों भाईबहन में से कोईघ्भी उन्हें नहीं रखेगा तो—

फ्तब उन्हें वृúाश्रम में भेज दो.

फ्क्या? तुम्हारी जबान इतनी चल कैसे गई? जिस ने हमारे लिए अपना घर नहीं बसाया, उसे मैं वृúाश्रम में छोड़ दूं? महंती चीखने लगे.

ये भी पढ़ें- एक थी मालती: 15 साल बाद कौनसा खुला राज

फ्मुझ से तो यह झंझट नहीं होगा. कभी चावल ज्यादा खिलाया तो गैस की तकलीफ, कभी रोटी ज्यादा खा गए तो पेट में गड़बड़.

फ्मालू, जरा तो खयाल करो. बुढा़पे पर उन का क्या बस चल सकता है.

फ्जब वह उस मद्रासी बुड्ढी के साथ हंसहंस कर बतियाते हैं तो बुढा़पा कहां गुम हो जाता है, श्रीमती महंती पूछतीं.

इधर सरला ने भी एक दिन झिझकते हुए माताजी से कह दिया, फ्अम्मां, चाचाजी से इतनी दोस्ती इस उम्र में अच्छी नहीं लगती. लोग मजाक उडा़ते हैं.

माताजी बिफर गईं. बोलीं, फ्अच्छे हैं तुम्हारे लोगबाग. पेड़ को सूखते हुए देख कर लोटा भर पानी तो देेंगे नहीं, अगर दूसरा कोई दे भी रहा हो तो जलेंगे भी. क्या हम लोगों को किसी बात करने वाले साथी की जरूरत नहीं है?

फ्मैं ने मना कब किया है? लेकिन— उसे आगे के शब्द नहीं सूझ रहे थे.

फ्हां, तुम्हारी सोसाइटी में स्त्रियां

औरों केघ्साथ खुलेआम नाच  तो सकती हैं, अविवाहित लड़केलड़कियां डेटिग तो कर सकते हैं लेकिन 2 बूढे़, जिन से कोई बात करने वाला नहीं, आपस में भी बातें नहीं कर सकते. यही सोसाइटी है तुम्हारी. वाहवाह.

एक दिन चाचाजी ने भतीजे से कहा,  फ्बेटे, मैं सोचता हूं कि मैं किसी आश्रम में जा कर अपना समय बिता दूं. तुम सभी भाई थोडे़थोडे़ पैसे भेजते रहोगे तो मेरा खर्च तो… मुझे पता है बेटे कि तुम्हारी तनख्वाह तुम्हारे लिए ही पर्याप्त नहीं, पर मैं—मेरा तोे कुछ है ही नहीं. बोझ बनना पड़ रहा है तुम सब पर—

महंती ने उन के पांव पकड़ लिए, फ्चाचाजी, हमें शमिरंा््दा न करें. मालू तो मूर्ख है. मैं उसे समझा दूंगा.

फ्नहीं बेटे, वह मूर्ख नहीं है. मूर्ख मैं हूं जो स्वावलंबी नहीं हूं. नौकरी सरकारी नहीं थी तो पेंशन कहां से मिलती. फिर भी, काश, मैं कुछ बचा कर रखता.

चाचाजी के इस सुझाव के बारे में जब माताजी को पता चला तो उन की आंखें भर आईं. मौका मिलते ही उन्होंने चाचाजी से कहा, फ्तुम मेरे साथ चलो, मेरा एक छोटा सा घर है गांव में. हां, भाषा तुम्हारी नहीं, पर मैं हूं वहां. मेरे साथ रहो. मैं भी तो नितांत अकेली हूं.

चाचाजी अवाक देखते रहे. फिर बोले, फ्लोग क्या कहेंगे, इस उम्र में हमारी दोस्ती लोगों की नजर में पवित्र नहीं हो सकती.

फ्तो हम शादी कर लेंगे. सच, मैं इस भरी दुनिया की तनहाई से तंग आ गई हूं. उस छोटे गांव में, अपने घर में शांति से रहना चाहती हूं. तुम भी चलो. दोनों के बाकी दिन कट जाएंगे, स्नेह केघ्सहारे.

फ्लेकिन लोग—लोग क्या कहेंगे? इतने बुढा़पे में शादी? फिर मैं तो—

फ्मुझे पता है कि तुम निर्धन हो, लेकिन तुम्हारे पास छलकते स्नेह और त्याग की जो दौलत है, उस की कोई कीमत नहीं है. और हां, उन लोगों की क्या परवा करनी जो तुम्हारी इस दौलत की कीमत नहीं जानते. फिर अब हमें कहां अपने बच्चे ब्याहने जाना है? वह हंस पडीं़.

फिर एक दिन उस फूलों से लदे बगीचे के पास एक टैक्सी आ कर रुकी. उस में से फूलों के हार पहने चाचाजी व माताजी उतरे. दोनों ने शादी कर ली थी. उसी टैक्सी में अपनाअपना सामान लदवा कर माताजी और चाचाजी गांव जाने के लिए स्टेशन चले गए.

ये भी पढ़ें- सूरजमुखी सी वह: क्यों बहक गई थी मनाली

इस के बाद सारे कैंप में ‘बूढी़ घोडी़, लाल लगाम’ के नारे, लतीफे और कहकहे कई दिनों तक गूंजते रहे. महंती और सांबशिवन का परिवार शरम के मारे कई दिनों तक मुंह छिपाए घर में बैठा रहा. घर से बाहर आने पर दोनों परिवारों ने गैरों से भी बढ़ कर अपने उन बूढों को गालियां दीं.

लेकिन उन बूढों के कानों तक यह सबकुछ कभी नहीं पहुंचा. वे दोनों आदमी स्नेह केघ्सहारे लंबी लगने वाली जिदगी को मजे से जीते रहे. अब वे अकेले जो नहीं रह गए थे.

असंभव: क्या पति को छोड़ने वाली सुप्रिया को मिला परिवार का साथ

सुप्रिया की शादी बुरी तरह असफल रही. पति बेहद नशेड़ी, उसे बहुत मारतापीटता था. मातापिता के घर के दरवाजे उस के लिए एक प्रकार से बंद थे इसीलिए पति से तंग आ कर घर छोड़ अकेली रहने लगी.

उसी के दफ्तर में काम करने वाले हेमंत से धीरेधीरे सुप्रिया की नजदीकियां बढ़ने लगीं. शादीशुदा हेमंत की पत्नी अत्यंत शंकालु थी. उस पर पत्नी का आतंक छाया रहता था. हेमंत के सुप्रिया के घर आनेजाने से महल्ले वाले सुप्रिया को अच्छी नजरों से नहीं देखते थे. उस को लगा वह कीचड़ से निकल कर दलदल में आ गई है.

बहुत सोचसमझ कर हेमंत से सारे संबंध समाप्त कर वह दूसरे महल्ले में आ जाती है. तनाव से मुक्ति पाने के लिए रोजसुबह सैर को जाती है. एक रोज उस का परिचय तनय नामके व्यक्तिसे होता है. वह योग शिक्षक तथा 2 बच्चों का पिता था. दार्शनिकलहजे में बातें करता तनय सुप्रिया को साफ दिल का इनसान लगता है.

यह सुन कर सुप्रिया एकाएक गंभीर हो गई. आदमी हमेशा अपनी पत्नी को ही क्यों दोषी ठहराता है जबकि दोष पतियों का भी कम नहीं होता.

‘‘हर इनसान सिर्फ अपने ही तर्कों से सहमत हुआ करता है मैडम…’’ तनय बोले तो वह मुसकरा दी, ‘‘अपना परिचय आप को दे दूं. मेरा नाम सुप्रिया है. मैं इस कालोनी के फ्लैट नंबर 13 में रहती हूं. लोगों के लिए फ्लैट का नंबर मनहूस था इसलिए मुझे आसानी से मिल गया. फ्लैट लेते समय मुझे लगा कि आदमी को जिस जगह रहते हुए सब से ज्यादा डर लगे, सब से ज्यादा खतरा महसूस हो, वहां जरूर रहना चाहिए. जिंदगी का असली थ्रिल, असली जोखिम शायद इसी में हो.’’

इस पर तनय ने हंसते हुए कहा, ‘‘और आप उस फ्लैट में अकेली रहती हैं क्योंकि पति से आप ने अलग रहने का फैसला कर लिया है. एक और विवाहित व्यक्ति के चक्कर में आप ने अपने को उस महल्ले में खासा बदनाम कर लिया जिस में आप पहले रहती थीं. अब आप उस सारे अतीत से पीछा छुड़ाने के लिए इस नए महल्ले के नए फ्लैट नंबर 13 में आ गई हैं, और यहां सुबह घूम कर ताजा हवा में अपने गम गलत करने का प्रयत्न कर रही हैं.’’

‘‘आप को यह सबकुछ कैसे पता?’’ चौंक गई सुप्रिया.

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special: कढ़ा हुआ रूमाल- शिवानी के निस्वार्थ प्यार की कहानी

‘‘चौंकिए मत. मेरी इस सारी जानकारी से आप को कोई नुकसान नहीं होने वाला क्योंकि मैं कभी किसी के जीवन की बातें इधर से उधर नहीं करता. आप से यह बातें कह दीं क्योंकि आप को यह बताना चाहता था कि मैं आप के बारे में बहुत कुछ जानता हूं. असल में हेमंतजी मेरी योग कक्षा के छात्र रहे हैं. एक बार उन्होंने अपने तनावों के बारे में सब बताया था, वे दो नावों पर सवार थे, डूबना तो था ही. उन्हें पता है कि आप यहां फ्लैट नंबर 13 में रहती हैं पर मैं ने उन से कह दिया है कि अपना भला चाहते हो तो आप का पीछा न करें.’’

‘‘लेकिन आदमी बहुत स्वार्थी होता है, सर, वह हर काम अपने स्वार्थ के वशीभूत हो कर करता है. क्या आप के समझाने से उस की समझ में आया होगा?’’

‘‘मेरा फर्ज था उन्हें समझाना. समझ जाएंगे तो उन के हित में रहेगा, वरना अपने किए कर्मों का दंड वह जरूर भोगेंगे.’’

‘‘आप सचमुच बहुत समझदार और भले व्यक्ति हैं,’’ सुप्रिया ने ऊपर से नीचे तक देखते हुए तनय की मुक्तकंठ से प्रशंसा की.

अब सुबह की सैर के समय तनयजी से हर रोज सुप्रिया की मुलाकात होने लगी. ढेरों बातें, हंसी, ठहाके, खुश रहना, बातचीत करना, फिर उस ने अनुभव किया कि जिस दिन वह नहीं जा पाती या तनय से मुलाकात नहीं हो पाती उस दिन उसे लगता था जैसे जिंदगी में कुछ है जो छूट गया है. वह अपनी इस मानसिक स्थिति के बारे में बहुत सोचती थी पर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती.

सुप्रिया को अपना जन्मदिन याद नहीं था, पर उस दिन उसे अचरज हुआ जब ताजे गुलाबों का एक गुलदस्ता ले कर तनय उस के फ्लैट पर आ कर जन्मदिन की मुबारकबाद देते हुए बोले, ‘‘तुम ने तो नहीं बुलाया पर मुझे लगा कि मुझे तुम्हारे पास आज के दिन आना ही चाहिए.’’

‘‘धन्यवाद, सर,’’ खिल सी गई सुप्रिया, ‘‘दरअसल जिंदगी की उलझनों में मैं अपने जन्मदिन को ही याद नहीं रख पाई. आप गुलाबों के साथ आए तो याद  आया कि आज के दिन मैं पैदा हुई थी.

‘‘भीतर आइए न, सर, दरवाजे पर तो अजनबी खड़े रहते हैं. आप अब मेरे लिए अपरिचित और अजनबी नहीं हैं.’’

‘‘अपना मार्कट्वेन का वाक्य तुम भूल गईं क्या?’’ और ठहाका लगा कर हंसे तनयजी. फिर संभल कर बोले, ‘‘मैं यहां बैठने नहीं, आप को आमंत्रित करने आया हूं. मैं चाहता हूं कि आप आज मेरे घर चलें और मेरी पाक कला का जायजा व जायका लें.’’

अपना फ्लैट बंद कर जब सुप्रिया तनयजी के साथ बाहर निकली तो शाम पूरी तरह घिर आई थी. सड़क पर बत्तियां जल गई थीं.

रास्ते में तनयजी खामोशी को तोड़ते हुए बोले, ‘‘जानती हो सुप्रिया, प्रेम के अनेक रूप होते हैं. आदमी ऐसी हजार चीजें गिना सकता है जिन के बारे में वह कह सकता है कि यह प्यार नहीं है पर प्यार किसे कहते हैं, ऐसी वह एक भी बात नहीं गिना सकता.’’

सुप्रिया ने एक बार भर नजर तनयजी की तरफ देखा और सोचने लगी, क्या हर आदमी औरत से सिर्फ एक ही मतलब साधने की फिराक में रहता है? संदेह के कैक्टस उस की आंखों में शायद तनय ने साफ देख लिए थे. अत: गंभीर ही बने रहे.

‘‘आप मेरे बारे में कतई गलत सोच रही हैं. मैं ने आप को पहले ही बताया था कि मैं लोगों के चेहरे के भाव पढ़ने में माहिर हूं. असल में हर अकेला आदमी दूसरे लोगों में अपनी जगह तलाशता है पर मैं इस तरह अपने अकेलेपन को भरने का प्रयत्न करता रहता हूं. इसीलिए मैं ने कहा था कि प्रेम और मनुष्य के अनेक रूप होते हैं.’’

‘‘माफ करें मुझे,’’ सुप्रिया ने क्षमा मांगी, ‘‘असल में दूध का जला व्यक्ति छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है. एक बार ठगी गई औरत दोबारा नहीं ठगी जाना चाहती.’’

ये भी पढ़ें- समय सीमा: क्या हुआ था नमिता के साथ

‘‘जानती हो सुप्रिया, प्रेम का एक और रूप है. दूसरों के जीवन में अपनेआप को खोजना, अपने महत्त्व को तलाशना, मुझे नहीं पता कि मैं तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण हो पाया हूं या नहीं पर मेरे लिए तुम एक महत्त्वपूर्ण महिला हो. इसलिए कि मुझे सुबह तुम से मिल कर अच्छा लगता है, बातें करने का मन होता है क्योंकि तुम अच्छी तरह सोचतीसमझती हो, शायद इसलिए कि अपनी इस छोटी सी जिंदगी में तुम ने बहुत कुछ सहा है.

‘‘जिंदगी की तकलीफें इनसान को सब से ज्यादा शिक्षित करती हैं और उसे सब से ज्यादा सीख भी देती हैं. शायद इसीलिए तुम समझदार हो और समझदार से समझदार को बातचीत करना हमेशा अच्छा लगता है.’’

‘‘क्या करते हैं हम ऐसी कोशिश. क्या बता सकते हैं आप?’’ अपने सवाल का भी वह शायद उत्तर तलाशने लगी थी तनय के तर्कों में.

‘‘क्योंकि हर व्यक्ति की जिंदगी में कुछ न कुछ गड़बड़, अभाव, कमी और अनचाहा होता रहता है जिसे वह दूसरों की सहायता से भरना चाहता है.’’

‘‘पर आप को नहीं लगता कि ऐसी कोशिशें बेकार जाती हैं,’’ सुप्रिया बोली, ‘‘यह सब असंभव होता है, दूसरे उस अभाव को, उस कमी को, उस गड़बड़ी को कभी ठीक नहीं कर सकते, न भर सकते हैं.’’

आगे कुछ न कह सकी वह क्योंकि तनय अपने फ्लैट का फाटक खोल कर उसे अंदर चलने का इशारा कर रहे थे. भीतर घर में दोनों बच्चों को खाने की मेज पर उन की प्रतीक्षा करते पाया तो सुप्रिया को अच्छा लगा. बेटे रोमेश ने कुरसी से उठ कर सुप्रिया का स्वागत किया और अपना नाम एवं कक्षा बताई पर बेटी रूपाली खड़ी नहीं हुई, उस का चेहरा तना हुआ था और आंखों

में संदेह व आक्रोश का मिलाजुला

भाव था.

‘‘हैलो, रूपाली,’’ सुप्रिया ने अपना हाथ उस की ओर बढ़ाया पर उस ने हाथ नहीं मिलाया. वह तनी बैठी रही. तनय ने उस की ओर कठोर नजरों से देखा, पर कहा कुछ नहीं.

जिस हंसीखुशी के मूड में वे लोग यहां पहुंचे थे वैसा खुशनुमा वातावरण वहां नहीं था, फिर भी औपचारिक बातों के बीच उन लोगों ने खाना

खाया था. विस्तृत परिचय हुआ था. सुप्रिया ने भी अपने फ्लैट का नंबर आदि बता दिया था और यह भी कहा था, ‘‘आप लोग जब चाहें, शाम को आ सकते हैं. मैं अकेली रहती हूं. आप लोगों को अपने फ्लैट में पा कर प्रसन्न होऊंगी.’’

रूपाली शायद कहना चाहती थी, क्यों? क्यों होंगी आप प्रसन्न? क्या हम दूसरों के मनोरंजन के साधन हैं? उस ने यह बात कही तो नहीं, पर उस के चेहरे के तनाव से सुप्रिया को यही लगा.

दरवाजे की घंटी बजी तो सुप्रिया ने सोचा, शायद तनयजी होंगे. दरवाजा खोला तो अपने सामने रूपाली को खड़ा देखा. चेहरा उसी तरह तना हुआ. आंखों में वही नफरत के भाव.

‘‘आप मेरे घर क्यों आई थीं, मैं यह अच्छी तरह से जान गई हूं,’’ वह उसी तरह गुस्से में बोली.

‘‘आप मुझ से सिर्फ यही कहने नहीं आई हैं,’’ सुप्रिया संभल कर मुसकराई, ‘‘पहले गुस्सा थूको और आराम से मेरे कमरे में बैठो. फिर पूछो कि क्यों आई थी मैं आप के घर…’’

‘‘मुझे ऐसी हर औरत पर गुस्सा आता है जो मेरे पापा पर कब्जा करना चाहती है. एक आंटीजी पहले भी थीं, मैं ने उन्हें अपमानित और जलील कर भगा दिया. हालांकि पापा मेरे इस व्यवहार से मुझ से नाराज हुए थे पर मुझे कतई अच्छा नहीं लगता कि

कोई औरत मेरे पापा की जिंदगी में दखल दे.’’

ये भी पढ़ें- Top 10 Best Crime Story In Hindi: धोखे और जुर्म की टॉप 10 बेस्ट क्राइम की कहानियां हिन्दी में

‘‘तुम ने यह कैसे मान लिया कि

मैं तुम्हारे पापा और तुम्हारी जिंदगी में दखल देने आ रही हूं?’’ रूपाली का हाथ पकड़ कर सुप्रिया उसे भीतर ले गई. कुरसी पर बैठाया. ठंडा पानी पीने को दिया, फिर पूछा, ‘‘क्या लेना चाहोगी. ठंडा या गरम?’’

‘‘कुछ नहीं. मैं सिर्फ आप से लड़ने आई हूं,’’ रूपाली सख्त स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, हम लोग लड़ भी लेंगे, पहले कुछ खापी लें, फिर लड़ाई अच्छी तरह लड़ी जा सकेगी,’’ हंसती रही सुप्रिया.

सुप्रिया किचन से वापस लौटी तो उस के हाथ में एक टे्र थी और उस में कौफी व अन्य चीजें.

‘‘आप को कैसे पता कि मैं सिर्फ कौफी पीना पसंद करती हूं?’’

‘‘मुझे तो यह भी पता है कि एक लड़का है अरुण जो तुम्हारा दोस्त है और तुम से मिलने तब आता है जब तुम्हारे पापा घर पर नहीं होते. भाई स्कूल गया हुआ होता है. तुम स्कूल गोल कर के उस लड़के के साथ फ्लैट में अकेली होती हो.’’

एकदम सन्नाटे में आ गई रूपाली और सकपका कर बोली, ‘‘क्या पापा को भी पता है?’’

‘‘अभी तक तो नहीं पता है पर ऐसी बातें महल्ले में बहुत दिन तक लोगों की नजरों से छिपती नहीं हैं. आज नहीं तो कल लोग जान ही जाएंगे और घूमफिर कर यह बातें तुम्हारे पापा तक पहुंच ही जाएंगी.’’

‘‘आप ने तो पापा को कुछ नहीं बताया?’’ उस ने पूछा.

‘‘और बताऊंगी भी नहीं पर यह जरूर चाहूंगी कि स्कूल गोल कर किसी लड़के के साथ अपने खाली फ्लैट में रहना कोई अच्छी बात नहीं है. इस से तुम्हारी पढ़ाई बाधित होगी और ध्यान बंटेगा.’’

चुपचाप कौफी पीती रही रूपाली, फिर बोली, ‘‘असल में मैं नहीं चाहती कि कोई औरत मेरे पापा की जिंदगी में आए और मेरी मां बन बैठे. खासकर आप की उम्र की औरत जिस की उम्र मुझ से कुछ बहुत ज्यादा नहीं है. आप को पता है, पापा की उम्र क्या है?’’

‘‘हां, शायद 50-52 के आसपास,’’ सुप्रिया ने कहा, ‘‘और मुझे यह भी पता है कि उन की पत्नी… यानी आप लोगों की मां की मृत्यु एक कार दुर्घटना में हुई थी.’’

‘‘दुर्घटना के समय उन के साथ कौन था, शायद आप को यह भी पता है?’’ रूपाली ने पूछा.

‘‘हां, वह अपने प्रेमी के साथ थीं और वह प्रेमी शायद उन से पीछा छुड़ाना चाहता था. इसीलिए गाड़ी से उसे धक्का दिया था पर धक्का देने में स्टियरिंग गड़बड़ा गया और कार एक गहरे खड्ड में जा गिरी जिस से दोनों की ही मृत्यु हो गई.’’

‘‘आप को नहीं लगता कि हर औरत बेवफा होती है और हर आदमी विश्वसनीय?’’

‘‘अगर हम यही सच मान कर जिंदगी जिएं तो क्या तुम एक लड़के पर भरोसा कर के उस एकांत फ्लैट में मिलती हो, यह ठीक करती हो? और क्या यही राय तुम अपने बारे में रखती हो कि तुम उस के साथ बेवफाई करोगी? वह भी तुम्हें आगे चल कर धोखा देगा? जिंदगी क्या अविश्वासों के सहारे चल सकती है, रूपाली?’’

ये भी पढ़ें- न्यूजर्सी की गोरी काली बहुएं : क्या खत्म हुई श्रीकांत की दोहरी मानसिकता

चुप हो गई रूपाली. उसे लगा कि वह सुप्रिया को जितना गलत समझ रही थी वह उतनी गलत नहीं थी. वह एक अदद काफी समझदार औरत लगी रूपाली को. अपनी मां से एकदम भिन्न, सहज, और सुहृदय.

‘‘आज के बाद मैं अरुण से कभी अपने फ्लैट के एकांत में नहीं मिलूंगी. पर प्लीज, पापा को मत बताना.’’

‘‘तुम न भी कहतीं तो भी मैं खुद ही तुम्हें किसी दिन इस के लिए टोकती. तुम्हारे पापा से तब भी नहीं कहती. मर्द ऐसी बातों को दूसरे रूप में लेते हैं,’’ सुप्रिया बोली, ‘‘मैं तुम्हारी उम्र से गुजर चुकी हूं, यह सब भली प्रकार समझती हूं.’’

‘‘अब आप मेरे घर कब आएंगी?’’ रूपाली मुसकरा दी.

‘‘अभी तो हमें लड़ना है एकदूसरे से,’’ कह कर हंस दी सुप्रिया, ‘‘क्या अपने घर बुला कर लड़ना चाहती हो मुझ से?’’

रूपाली उठते हुए बोली, ‘‘आंटी, आप घर आएं और पापा की जिंदगी का सूनापन अगर संभव हो सके तो दूर करें. हालांकि जो घाव पापा को मम्मी ने दिया है वह भर पाना असंभव है. पर मैं चाहती हूं, वह घाव भरे और पापा एक सुखी संतुष्ट जीवन जिएं. करेंगी आप इस में मदद…?’’ देर तक उत्तर नहीं दे सकी सुप्रिया.

नए रिश्ते: भाग 3- क्या हुआ था रानो के साथ

लेखिका- शशि जैन

नंदा हंसी, ‘‘यह तो अदालत नहीं है. अदालत रानो को खुशियां नहीं दे सकी. तुम्हारी जिद थी, पूरी हो गई. अब तुम्हें स्वयं लग रहा है कि रानो तुम्हारे विवाह में बाधा है या विवाह के बाद वह सुखी नहीं रह सकेगी. रानो को मुझे देने के बाद इस का भय न रहेगा, तुम सुख से रहना.’’

‘‘रानो को तुम्हें दे कर सुख से रहूं? तुम क्या अच्छी तरह उसे रख पाओगी?’’ प्रदीप का स्वर तेज हो गया था.

‘‘मैं उस की मां हूं. बड़े कष्ट से उसे जन्म दिया है. मैं उसे ठीक से नहीं रख पाऊंगी? कम से कम विमाता से तो अच्छी तरह ही रखूंगी.’’

‘‘नहीं, नंदा, रानो का भला मेरे पास रहने में ही है. तुम्हारा जिम्मेदारी का काम तुम्हें समय ही कम देगा. फिर तुम्हारे पास रह कर उसे वह शिक्षा कहां से मिलेगी, जो अच्छे बच्चे को मिलनी चाहिए. ऐश और आराम का जीवन बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा नहीं है.’’

‘‘अच्छा, मैं चलती हूं. बेकार की बातें सुन कर मन और खराब होता है. यह विडंबना ही है कि रानो मेरे और तुम्हारे संयोग से पैदा हुई. मातापिता की गलती का परिणाम बच्चों को भुगतना पड़ता है. इस बात का इस से बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है,’’ नंदा उठ कर जाने लगी.

‘‘वह बात तो तुम से कही ही नहीं जिसे कहने को तुम्हें बुलाया था. तुम रानो से मत मिला करो. वह तुम से मिल कर अस्थिर हो जाती है, टूट जाती है, जीवन से जुड़तेजुड़ते कट सी जाती है. फिर उसे सामान्य करना कठिन हो जाता है.’’

‘‘कैसी विडंबना है कि मां के होते हुए बेटी मातृहीना की तरह पल रही है,’’ नंदा की आंखों से मोटेमोटे आंसू गिरने लगे. उस ने उन्हें पोंछने का कोई उपक्रम नहीं किया. आतेजाते और बैठे लोग उसी की तरफ देखने लगे थे.

प्रदीप स्थिति से काफी त्रस्त हो उठा. अपनी बात दोबारा कहने या बढ़ाने का मौका नहीं था. वह जल्दी से बिल दे कर उठ खड़ा हुआ. नंदा वहीं मेज पर कोहनी टिका कर, सिर छिपा कर फफकने लगी.

उस ने नंदा को बांह का सहारा दे कर उठाया. नंदा रूमाल से मुंह पोंछती उस का सहारा ले कर लड़खड़ाती सी चलने लगी.

दोनों बाहर आ कर कार में बैठ गए. प्रदीप का हाथ नंदा को घेरे रहा.

ये भी पढ़े-ं टेलीफोन: अकेली कृष्णा के साथ गेस्ट हाउस में कौनसी घटना घटी?

प्रदीप के अंदर घुमड़ता क्षोभ हर क्षण गलता जा रहा था. वर्षों पहले हुए झगड़े उसे नाटक से लग रहे थे. उन नाटकों का अंत हुआ था अदालत में संबंधविच्छेद के रूप में.

उसे महसूस हुआ कि अपनीअपनी राह जाने के प्रयास के बाद भी वे एक राह के ही राही बने रहे थे. नंदा प्रदीप को भूल सकी, पर रानो को नहीं भूल सकी थी. प्रदीप भी नंदा को भूलने की कोशिश करता रहा, पर रानो का हितअहित उस के जीवन का प्रथम प्रश्न बना रहा, जो उस का रक्त अंश थी, नंदा के शरीर में पली थी.

रानो उन दोनों के मध्य हमेशा ही बनी रही है, बनी रहेगी. चाहे वह और नंदा दुनिया के अलगअलग कोनों पर कितने ही दूर चले जाएं, पर रानो के माध्यम से एक धागा उन दोनों को परस्पर बांधे ही रहेगा.

प्रदीप को लगा वह और नंदा अपनी निर्धारित भूमिका को छोड़ कर किसी और की ही भूमिका अदा कर रहे थे. वे दोनों ही अपने रास्ते से हट गए थे. पतिपत्नी का रिश्ता झुठलाना कठिन नहीं, किंतु मांबेटी का और पितापुत्री का रिश्ता कोई शक्ति झुठला नहीं सकती. बूआ जो कहती हैं, वह शायद ठीक ही है.

उस ने कार स्टार्ट कर दी और घर की तरफ मोड़ दी. नंदा चिरपरिचित रास्ते को पहचान रही थी. वह सीधी हो कर बैठ गई.

‘‘वहां नहीं, रानो को देख कर मेरा कठिनाई से सहेजा हुआ दिल फिर छिन्नभिन्न हो जाएगा. जिस रास्ते को पीछे छोड़ आई हूं उस पर यदि चल ही नहीं सकती तो चाहे जैसे भी हो उस का मोह तो छोड़ना ही होगा.’’

रानो को फिर से देखने की, छाती से चिपटाने की अदम्य इच्छा उस के कलेजे में घुमड़ने लगी.

‘‘क्या तुम रानो से नहीं मिलोगी? वह तुम्हें याद करती, रोतेरोते सो गई है. जागने पर तुम्हें देखेगी तो कितनी खुश होगी.’’

‘‘तुम्हीं तो कह रहे थे कि मुझ से मिल कर वह टूट सी जाती है. दिल से और छलावा करने से क्या लाभ? उसे अब इस टूटे रिश्ते को स्वीकार करना सीख ही लेना चाहिए.’’

नंदा की आंखें रहरह कर भर आ रही थीं. जिस रानो को उस ने जन्म दिया था, दिनरात गोदी में झुलाया था, उस से क्या सचमुच ही उस का रिश्ता टूट गया है? नाता तो उस ने प्रदीप से तोड़ा था. रानो से कब, क्यों और किस तरह उस का नाता टूट गया?

प्रदीप चुपचाप कार चलाता रहा. कार रुकते ही नंदा पागलों की तरह अंदर भागी. रानो अब भी सो रही थी. उस का दिल हुआ वह उसे उठा कर सीने से चिपटा ले, पर वह उस के सिरहाने बैठी उसे देखती रही. आंखों से वात्सल्य छलकाती रही.

उस ने देखा कि प्रदीप की बूआ कमरे में आ रही हैं. उस ने उठ कर उन के पैर छुए. सरला ने नंदा को छाती से लगा लिया. नंदा का अपने पर रहासहा नियंत्रण भी समाप्त हो गया. वह बच्चों की तरह फूट पड़ी. सरला रानो की तरह नंदा को सहलाने लगी.

‘‘नंदा, मैं सब जानती हूं. बस, एक ही बात पूछना चाहती हूं कि तुम और प्रदीप आपस में झगड़ कर अपनीअपनी राह पर चल दिए. आपस में बनी नहीं, संबंध तोड़ दिया. ठीक ही किया, पर रानो को अकेला क्यों छोड़ दिया? तुम दोनों इतनी बड़ी दुनिया में रह भी लोगे, खुशियां भी ढूंढ़ लोगे, अपनेअपने घर भी बसा लोगे, पर क्या रानो का टूटा जीवन कभी साबुत हो सकेगा? कोई भी कुसूर न होने पर भी सब से ज्यादा सजा रानो को ही मिल रही है. बोलो क्यों? ऐसा क्यों हो रहा है?’’

प्रदीप भी कमरे में आ गया था.

सरला का प्रवाह रुक नहीं रहा था. वर्षों से मन में दबे प्रश्न अपना जवाब मांग रहे थे

‘‘मैं तो अविवाहिता निपूती हूं. पति और संतान की चाहना क्या होती है, यह मुझ से ज्यादा कोई नहीं जानता. तुम लोग रुपएपैसों को संभाल कर बटुए और तिजोरी में रखते हो, पर एक अमूल्य जीवन को पैरों तले रौंद रहे हो. रानो अभी एक अविकसित, मुरझाई कली है, बड़ी होने पर वह सिर्फ एक अविकसित मुरझाया फूल बन कर रह जाएगी.

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special: यह कैसा प्यार- रमा और विजय के प्यार का क्या हुआ

‘‘तुम लोगों ने अपने मानअपमान और अहंपूर्ति के चक्कर में रानो के जीवन को मिलते प्रकाश और हवा के रास्ते क्यों बंद कर दिए? क्यों उस नन्हे से जीवन को दम घोट कर मार रहे हो? यदि तुम दोनों, जो वयस्क और समझदार हो, परस्पर समझौता नहीं कर सकते तो नासमझ रानो की जिंदगी से किस स्तर पर समझौता करने की अपेक्षा करते हो?’’

प्रदीप और नंदा दोनों अपराधी से सिर झुकाए खड़े थे.

‘‘प्रदीप, क्या तू अपनी जिद नहीं छोड़ सकता? बहू, तुम ही क्या अपने मानअपमान के प्रश्न को नहीं पी सकतीं? तुम लोग जो अपना जीवन जी चुके हो, रानो के जीवन और खुशियों की बलि क्यों ले रहे हो? क्या तुम उसे जीने का मौका नहीं दे सकते?’’

सरला को लगा कि वह सहसा बहुत थक चुकी है और अपनी बात उन तक पहुंचाने में असमर्थ है.

उन्होंने अंतिम प्रयास किया, ‘‘प्रदीप और बहू, क्या तुम लोग फिर से एकसाथ नया जीवन नहीं शुरू कर सकते? पुरानी गलतियों को भूल कर नए तरीके से अपने लिए न सही, रानो के लिए क्या यह टूटा घर फिर से साबुत नहीं बनाया जा सकता? ऐसा घर जहां रानो प्रसन्न रह सके, संपूर्ण जीवन जी सके?’’

सरला धीरेधीरे कमरे से बाहर चली गई. प्रदीप और नंदा सोती हुई रानो को देख रहे थे. उन्हें महसूस हुआ कि एक अदृश्य धागा अपने में लपेट कर नए रिश्तों में बांध रहा है- प्रदीप को, नंदा को और रानो को. सहसा लगा कि नन्ही रानो के जीवन का प्रश्न बहुत बड़ा है और उन दोनों के आपसी रिश्ते उस के आगे बिलकुल तुच्छ, नगण्य हो कर रह गए हैं.

ये भी पढ़ें- मौत का कारण : क्या हुआ था वरुण के साथ

अपनी-अपनी जिम्मेदारियां: आशिकमिजाज पति को क्या संभाल पाई आभा

family story in hindi

औक्टोपस कैद में: सुभांगी ने क्या लिया था फैसला

लेखक- मुकेश नौटियाल

ज्यों ही वंदना से उस का सामना हुआ, वह अपना आपा खो बैठी. उस ने वंदना को धिक्कारते हुए कहा, ‘‘तुम ने तो अपनी इमेज खराब कर ली, लेकिन तुम ने मेरे बारे में यह कैसे सोच लिया कि मैं भी तुम्हारे रास्ते चल पडं़ूगी.’’

‘‘क्यों… क्या हो गया?’’ वंदना ने ऐसे पूछा, जैसे वह कुछ जानती ही न हो.

‘‘वही हुआ, जो तुम ने सोचा था. मैं भी तुम्हारी तरह लालची और डरपोक होती तो शायद बच कर नहीं निकल पाती…’’ सुभांगी ने अपनी उफनती सांसों पर काबू पाते हुए कहा.

वंदना सम झ गई कि सुभांगी उस की सचाई को जान गई है. उस ने पैतरा बदलते हुए कहा, ‘‘देखो सुभांगी, अगर तुम को आगे बढ़ना है, तो कई जगह सम झौते करने पड़ेंगे. फिर क्या हर्ज है कि किसी एक पहुंच वाले आदमी के आगे  झुक लिया जाए. मु झे देखो, आज मैं मंत्रीजी की वजह से ही इस मुकाम तक पहुंची हूं…’’

वंदना मंत्री से अपने संबंधों के चलते ही ब्लौक प्रमुख बनी थी. पहली बार जब वह आंगनबाड़ी में नौकरी करने की गरज से मंत्री के पास गई थी, तो उस का सामना एक भयंकर दुर्घटना से हुआ था.

उस की मजबूरी को भुनाते हुए मंत्री ने भरी दोपहरी में उस की इज्जत लूटी थी. एक बार तो उस को ऐसा सदमा लगा कि खुदकुशी का विचार उस के मन में आ गया था, लेकिन मंत्री ने उस के गालों को सहलाते हुए कहा था, ‘नौकरी कर के क्या करोगी… मु झे कभीकभार यों ही खुश कर दिया करो. बदले में मैं तुम्हें वह पहचान और पैसा दिलवा दूंगा, जिस की तुम ने कभी कल्पना भी न की हो.’

उस समय वंदना भी मंत्री के मुंह पर थूक कर भाग आई थी, लेकिन घर पहुंचने पर उस के मन में कई तरह के खयाल आए थे. कभी उस को लगता था कि फौरन जा कर पुलिस को सूचित करे और मंत्री के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दे, लेकिन अगले ही पल उसे लगा कि मंत्री के खिलाफ लड़ने का अंजाम आखिरकार उस को ही भुगतना पड़ेगा.

जिन दिनों वंदना मंत्री के कारनामे से आहत हो कर घर में गुमसुम बैठी थी, उन्हीं दिनों उस की मुलाकात अर्चना से हुई थी. अर्चना कहने को तो टीचर थी, लेकिन उस के कारनामे बस्ती में काफी मशहूर थे.

ये भी पढ़ें- ढाई आखर प्रेम का: क्या अनुज्ञा की सास की सोच बदल पाई

अर्चना ने वंदना को सम झाया था, ‘औरत को तो हर जगह  झुकना ही होता है बहन. कुछ लोग मजे ले कर चले जाते हैं और कुछ एहसान का बदला चुकाते हैं. मंत्रीजी ने जो किया, वह बेशक गलत था, लेकिन अब वे अपने किए का मुआवजा भी तो तुम को दे रहे हैं.  झगड़ा मोल लोगी तो पछताओगी और अगर सम झौता करोगी, तो आगे बढ़ती चली जाओगी.’

अर्चना ने वंदना को इतने हसीन सपने दिखाए थे कि उस से मना करते हुए नहीं बना. उस के साथ वह राजधानी पहुंची और कई दिनों तक मंत्री के लिए  मनोरंजन का साधन बनी रही.

अब वंदना को पता चला कि मंत्री की एक रखैल अर्चना भी है. अर्चना की सेवा से खुश हो कर मंत्री ने उसे उसी स्कूल का प्रिंसिपल बना दिया, जिस में कभी मंत्री की मेहरबानी से वह टीचर बनी थी.

वंदना सत्ता के सपनीले गलियारों में कुछ यों उल झी कि उस को अपने पति से खिलाफत करते हुए भी  िझ झक नहीं हुई.

मंत्री के कारनामों से उस के पति अनजान नहीं थे. नौकरी के सिलसिले में वे अकसर घर से बाहर ही रहते थे, लेकिन अपनी बीवी की हर चाल से

वे वाकिफ थे. पानी जब सिर से ऊपर गुजरने लगा, तो उन्होंने वंदना को रोकने की कोशिश की.

बच्चों का हवाला देते हुए उन्होंने वंदना से कहा था, ‘तुम 2 बच्चों की मां हो. बच्चों की पढ़ाई और परवरिश के लिए मैं जो कमाता हूं, वह काफी है. इज्जत की कमाई थोड़ी ही सही, लेकिन अच्छी लगती है.

‘‘ईमान और इज्जत बेच कर कोई लाखों रुपए भी कमा ले, तो दुनिया की थूथू से बच नहीं सकता. अभी देर नहीं हुई, मैं तुम्हारे अब तक के सारे गुनाह माफ करने को तैयार हूं, बशर्ते तुम इस गलत रास्ते से वापस लौट आओ…’

वंदना अब इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि उस का किसी से कोई वास्ता नहीं रहा था. उस ने पति को दोटूक शब्दों में कह दिया था, ‘मैं जिंदगीभर तुम्हारी दासी बन कर नहीं रह सकती. अब तक मैं ने जो चुपचाप सहा, वह मेरी भूल थी. अब मु झे अपने रास्ते चलने दो.’

यह सुन कर वंदना का पति चुप हो गया था. उस को लगा कि वंदना को रोकना अब खतरनाक हो सकता है. उस की वजह से घर में क्लेश बढ़ सकता था. उस ने दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाने का फैसला किया और वंदना को उसी के हाल पर छोड़ दिया.

वंदना ने भी पति के फैसले में कोई दखल नहीं दिया. अब उस के ऊपर बच्चों की देखरेख करने का जिम्मा भी नहीं रहा.

तमाम जिम्मेदारियों से छूट कर वंदना अब मंत्री की सेवा में खुद को पूरी तरह सौंप चुकी थी. बाहुबली मंत्री ने पंचायत चुनावों में अपने आपराधिक संपर्कों का इस्तेमाल कर वंदना को ब्लौक प्रमुख बना दिया. मंत्री से अपने संबंधों को उस ने जम कर भुनाया.

वंदना अपने दबदबे का इस्तेमाल जनता की भलाई के लिए करती तो लोगों का समर्थन हासिल करती, लेकिन लालच में अंधी हो कर उस ने मंत्री के दलाल की भूमिका निभानी शुरू कर दी.

ये भी पढ़ें- रिवाजों का दलदल: श्री के दिल में क्यों रह गई थी टीस

अफसरों से पैसा वसूलना और अपने गुरगों को ठेके दिलवाने के अलावा अब वह आसपास के गांवों की भोलीभाली लड़कियों को नौकरी का लालच दे कर अपने आका के बैडरूम तक पहुंचाने लगी थी.

सुभांगी उस इलाके में अपनी स्वयंसेवी संस्था चलाती थी. वह पढ़ीलिखी और जु झारू थी. अपनी संस्था के जरीए वह औरतों और बच्चों को पढ़ाने की मुहिम चला रही थी.

वंदना और सुभांगी की मुलाकात एक सरकारी कार्यक्रम में हुई. शातिर वंदना की नजर सुभांगी पर लग चुकी थी. उस ने सुभांगी से दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.

एक दिन मौका पा कर वंदना ने सुभांगी से पूछा, ‘तुम इतनी मेहनत करती हो. चंदा जुटा कर औरतों और बच्चों को पढ़ाती हो. ऐसे कामों के लिए सरकार अनुदान देती है. तुम खुद क्यों नहीं इस दिशा में कोशिश करती?’

‘सरकारी मदद लेने के लिए तो आंकड़े चाहिए और मेरी समस्या यह है कि मैं जमीन पर रह कर यह काम करती हूं, लेकिन फर्जी आंकड़े नहीं जुटा सकती…’ सुभांगी ने जवाब दिया.

‘तुम को फर्जी आंकड़े जुटाने की क्या जरूरत है? तुम्हारे पास तो ढेर सारे आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं. तुम कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं. इस इलाके के विधायक सरकार में मंत्री हैं और उन से मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं,’ वंदना ने अपना जाल बिछाते हुए कहा.

सुभांगी को वंदना के असली कारनामों की जानकारी नहीं थी. वह उस की बातों में आ गई. उस ने सोचा कि चंदा वसूल कर अगर वह इतनी बड़ी मुहिम चला सकती है, तो सरकारी मदद मिलने पर इस को और भी सही ढंग से चला सकेगी.

उस शाम वंदना सुभांगी को ले कर मंत्री के घर पहुंची. उस का परिचय कराने के बाद वह तो कमरे से बाहर आ गई, लेकिन सुभांगी को वहीं छोड़ गई.

सुभांगी ने मंत्री की तरफ अपनी फाइल बढ़ाते हुए कहा, ‘इस में मेरे अब तक के काम का पूरा ब्योरा है. काम तो मैं यों भी कर ही रही हूं, लेकिन सरकार मदद दे दे तो मैं और भी बेहतर काम कर पाऊंगी.’

‘चिंता न करो, हम तुम को अच्छा अनुदान देंगे…’ मंत्री के मुंह से शराब की बदबू का भभका आया, तो सुभांगी के कान खड़े हो गए. वह फौरन कुरसी से उठी और बोली, ‘आप मेरी फाइल देख लीजिए… अभी मैं चलती हूं.’

सुभांगी दरवाजे की ओर मुड़ी ही थी कि नशे में धुत्त मंत्री ने उस को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘फाइल से पहले मैं तुम को तो देख लूं मेरी रानी…’

मंत्री ने सुभांगी को अपनी बांहों में मजबूती से जकड़ लिया. सुभांगी उस की गिरफ्त से बचने के लिए ऐसे छटपटाने लगी, जैसे कोई मजबूर मछली औक्टोपस की कैद से निकलने के लिए छटपटाती है.

देर तक सुभांगी मंत्री के चंगुल से निकलने के लिए छटपटाती रही और जब उस की ताकत जवाब दे गई, तो वह निढाल हो कर फर्श पर गिर पड़ी.

इस से पहले कि वह खूंख्वार शैतान उस की देह पर बिछता, उस ने चालाकी से अपने जूड़े में फंसी पिन मंत्री के मोटे गाल में घोंप दी. मंत्री की चीख निकल गई और वह एक किनारे हो गया. इस बीच सुभांगी बच कर भाग निकली.

मंत्री के कमरे से निकलते ही सुभांगी का सामना वंदना से हुआ. वह वंदना की सचाई सम झ चुकी थी. उस को डपट कर वह पुलिस थाने पहुंची.

एक जवान लड़की को यों बदहवास भागते देख कर लोग सकते में आ गए. मीडिया को भी खबर लग गई. देखते ही देखते थाने में भीड़ जुट गई. दबाव में आ कर पुलिस ने न चाहते हुए भी रिपोर्ट दर्ज कर ली.

ये भी पढ़ें- डैबिट कार्ड: क्या पत्नी सौम्या का हक समझ पाया विवेक

अगले दिन मंत्री के कारनामों की खबरें अखबारों में हैडलाइन बन कर छपीं. विपक्षी पार्टियों के दबाव में आ कर मंत्री को गिरफ्तार किया गया.

पुलिस जांच में पता चला कि सुभांगी के अलावा मंत्री ने कई मजबूर लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाया और इस की सूत्रधार थी वंदना. वंदना को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

आज वंदना जेल की कोठरी में कैद है. उस की सारी इच्छाएं खत्म हो चुकी हैं. अब उस को अपना अतीत याद आता है, जब उस के पति ने उस को बारबार सम झाया था कि गलत रास्ता छोड़ दे, लेकिन उस समय उस की आंखों पर पट्टी बंधी थी. वह खुद को सबकुछ सम झ बैठी थी. सुभांगी की तरह उस ने भी हिम्मत कर मंत्री को सबक सिखाया होता, तो आज यह दिन न देखना पड़ता.

वंदना अब घुटघुट कर जी रही है. उस के पास अपनी करनी पर पछतावा करने के अलावा कोई और चारा नहीं है. उस को अब अपने बच्चों की याद सताती है. पति से अपने गुनाहों के लिए माफी मांगने के लिए वह छटपटाती रहती है, लेकिन उस का कोई अपना उस से मिलने को तैयार नहीं है.

दूसरी तरफ सुभांगी के हिम्मत की चारों ओर तारीफ हो रही है. राजधानी के नागरिक सुरक्षा मंच ने उस को सम्मानित ही नहीं किया, बल्कि अपनी महिला शाखा का प्रधान भी बना दिया.

आज सुभांगी को तमाम सम्मानों से उतनी खुशी नहीं मिलती, जितनी कि इस बात से कि उस के एक हिम्मती कारनामे ने उस दुष्ट औक्टोपस को कैद करवा दिया, जो सालों से मजबूर लड़कियों को जकड़ता चला आ रहा था.

उस को खुशी है तो इस बात की कि न तो उस ने वंदना और अर्चना की तरह सम झौता किया और न ही उस ने हार मानी. उस ने हिम्मत से उस भयंकर औक्टोपस का सामना किया, जो तमाम मछलियों पर घात लगाए बैठा था.

ये भी पढे़ं- Valentine’s Special: अनोखी- प्रख्यात से मिलकर कैसा था निष्ठा का हाल

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें