नथनी: भाग 2- क्या खत्म हुई जेनी की सेरोगेट मदर की तलाश

शादी का बोझ बढ़ जाने के साथ ही घर से अलग होना कुछ ज्यादा ही महंगा पड़ा. जल्द ही एक नन्ही सी बेटी ने खर्च और बढ़ा दिया. 1-2 बार तो सलमा ने अपने बाप से पैसे मंगवा कर कमल की मदद भी की पर हालात बिगड़ने लगे तो सलमा ने अपनी पड़ोसिन रोमी से किसी काम के लिए राय मांगी तो उस ने सिलाईकढ़ाई का काम भी सिखाया और कमाई का जरिया भी बनवा दिया.

सलमा बहुत खुश थी कि अब वह गृहस्थी का बोझ संभालने में कमल की अच्छीखासी मदद कर सकेगी पर फिर भी ऐसा हो नहीं सका, क्योंकि जैसेजैसे सलमा ने आर्थिक स्थिति मजबूत करनी शुरू की कमल ने दारू पीना शुरू कर दिया.

सलमा ने जल्द ही महसूस किया कि उस ने कमल से शादी कर के बहुत बड़ी भूल कर डाली थी. जो आदमी एक मामूली सी नथनी का वादा पूरा नहीं कर सका वह जिंदगी भर का साथ कैसे निभा पाएगा. बजाय आमदनी बढ़ाने के उस ने दारू पीनी शुरू कर के एक और चिंता बढ़ा दी थी, मायके व ससुराल दोनों के रास्ते पहले ही बंद हो चुके थे.

सलमा का सहारा बनने के बजाय कमल उस पर और अधिक कमाने के लिए दबाव बनाने लगा.

जैसेजैसे कमल पर दारू का नशा तेज होने लगा, सलमा के प्यार का नशा उतरने लगा. वह अधिक से अधिक कमाई करने की होड़ में अपनी सेहत और खूबसूरती खोने लगी. कमल दिन भर इधरउधर मटरगश्ती करता, देर रात आता और सुबह फिर कुछ पैसे ले कर ठेला लगाने का बहाना कर के गायब हो जाता.

पहली बेटी एक साल की मुश्किल से हुई होगी कि एक और हो गई. मुश्किलें और बढ़ गईं. सलमा ने कमल को कई बार विश्वास में ले कर समझाना चाहा पर वह एक ही बात कहता कि वह बड़े धंधे की कोशिश में लगा हुआ है. सलमा चुप हो जाती. फल का ठेला कम ही लग पाता. जो कमाई होती वह दारू के लिए कम पड़ जाती. मकान का किराया चढ़ने लगा. सलमा परेशान रहने लगी.

एक दिन सलमा घर पर बैठी यही सब सोच रही थी कि उस की पड़ोसिन रोमी ने उसे एक अजीब खबर दे कर उस का ध्यान बंटा दिया कि अखबार में ‘सेरोगेट मदर’ की मांग हुई है.

सलमा ने पूछा, ‘‘यह क्या होती है?’’

‘‘इस में किसी मियांबीवी के बच्चे को किसी अन्य औरत को अपने पेट में पालना होता है. बच्चा होने पर उस जोड़े को वह बच्चा देना होता है, इस के एवज में काफी पैसे मिल सकते हैं.’’

सलमा ने हंस कर पूछा, ‘‘रोमी, तू इस के लिए तैयार है?’’

‘‘नहीं, यही तो गम है कि मेरे पति ने मना कर दिया है.’’

‘‘और मेरे पति मान जाएंगे?’’ सलमा ने उलाहना दिया.

‘‘देखो, यह मानने न मानने की बात नहीं है, हालात की बात है. तुम्हारे 2 बच्चे हो चुके हैं, तुम्हारी आर्थिक स्थिति खराब चल रही है. तुम्हारी उम्र भी कम है. अगर तुम तैयार हो जाओ तो वारेन्यारे हो सकते हैं. सारी मुसीबत एक झटके में ठीक हो सकती है.’’

‘‘कितने पैसे मिल सकते हैं कि वारेन्यारे हो जाएंगे?’’

‘‘मामला लाखों का है, 2-3 से बात शुरू होती है, तयतोड़ करने पर अधिक तक पहुंचा जा सकता है.’’

‘‘सच? तू मजाक तो नहीं कर रही है? किसी पराए आदमी के साथ हमबिस्तर तो नहीं होना पड़ता है?’’

‘‘कतई नहीं, ऐसा भी हो सकता है कि तुम उस आदमी को देख भी न पाओ.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘वह ऐसे कि उस जोड़े के साथ एक वकील एक डाक्टर और कुछ नर्सें भी होंगी. डाक्टर तुम्हें सिर्फ एक इंजेक्शन देगा. वकील एक एग्रीमेंट लिखाएगा. उस के बाद 9 महीने तक नर्सें और डाक्टर तुम्हारी जांच करते रहेंगे, तुम्हें अच्छी से अच्छी खुराक और दवाएं भी मिला करेंगी. कुछ रुपए एडवांस भी मिलेंगे. शेष बच्चा उन को सौंपने पर मिलेंगे. एक गोद भरने का संतोष मिलेगा वह अलग से. उस की तो कीमत ही नहीं आंकी जा सकती.’’

सलमा बेसब्री से कमल के आने का इंतजार करने लगी. वह काफी दिनों से उदास भी चल रही थी पर रोमी के इस सुझाव ने उस की आंखों में चमक सी ला दी थी. उस के मन में एक बवंडर सा उठ खड़ा हुआ था. काश, 3 लाख का भी इंतजाम हो जाए तो अपना एक घर हो जाए. कमल को कोई अच्छा सा धंधा शुरू करवा दे, बेटियों के भविष्य के लिए कुछ पैसा जमा कर दे, थोड़ा सा पैसा बाप को भेज दे, क्योंकि उन्होंने भी आड़े वक्त में साथ दिया था.

सुबह राशन लाने को कह कर कमल दिनभर गायब रहा था. देर रात जब कमल आया तो नशे में धुत. उस ने देखा कि सलमा बच्चियों को सुला चुकी थी. उस ने धीरे से दरवाजा खोला, अंदर गया, कपड़े बदले और सलमा की चादर में जा पहुंचा. कमल के हाथ जब सलमा के शरीर पर रेंगने लगे तो वह सकपका कर जाग उठी, ‘‘कमल…खाना खा लिया…’’

‘‘खा के आया हूं, इधर मुंह करो,’’ कमल ने उसे अपनी तरफ करवट लेने के लिए कहा.

‘‘कुछ राशन लाए हो क्या…’’ सलमा ने उस की ओर मुड़ते हुए सवाल दाग दिया.

कमल ने उस के सवाल का कोई जवाब न देते हुए उस की ओर से अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया और चादर से मुंह को पूरी तरह से ढक लिया.

फिर सलमा को रात भर नींद नहीं आई. वह सारी रात अपने और अपनी बेटियों के भविष्य के बारे में सोचती रही.

सुबह सलमा ने जब कमल के लिए चाय बनाई तब वह बिस्तर से उठा. मुंहहाथ धो कर आया तो बजाय चाय पर बैठने के उस ने सलमा को बांहों में भर लिया, ‘‘मेरी प्यारी सलमा…’’

सलमा ने किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, न ही सहमति और न विरोध.

सलमा के इस रुख से कमल आहत हुआ.

‘‘क्या बात है? बहुत गुस्से में दिखाई पड़ रही हो. कहीं मुझे छोड़ने तो नहीं जा रही हो? तुम्हारी कसम…दरिया में कूद कर जान दे दूंगा,’’ कहते हुए कमल ने चाय का कप उठा लिया.

‘‘बात बीच में मत काटना, पूरी सुन लेना तब जो कहोगे मैं मानूंगी,’’ कहते हुए सलमा ने रोमी की बात पूरी विस्तार से कमल को बताई तो उस की आंखों में चमक सी आ गई. उस ने सलमा को बांहों में भरते हुए कहा, ‘‘मेरे खयाल से इस में कोई बुराई नहीं है, बल्कि मैं एक गलत धंधे में पड़ने वाला था. अच्छा हुआ तुम ने मेरी आंखें खोल दीं. पर सुनो, तुम मेरे प्यार में कमी तो नहीं आने दोगी न?’’

‘‘तुम्हारे एक इशारे पर सबकुछ छोड़ दिया. बिना तुम को विश्वास में लिए मैं कोई काम नहीं करूंगी. यह भी तुम अच्छी तरह सोचसमझ लो. अगर मना कर दोगे तो नहीं करूंगी,’’ सलमा की आंखों में कुछ लाल डोरे से दिखाई पड़े.

बात आगे बढ़ी. न्यूजर्सी से चल कर जेनी और डेविड मय अपने वकील के हिंदुस्तान आए. कमल के साथ कई बैठकें हुईं. सारी शर्तें ठीक से समझाई गईं. रोमी उन सब में शामिल रही. तमाम शंकाओं के समाधान के बाद मामला 4 लाख पर तय हुआ. कमल व सलमा ने, समझौते पर अपने दस्तखत किए. वादे के अनुसार 50 हजार रुपए का भुगतान पहले कर दिया गया.

सलमा को केवल जेनी ने ही देखा, डेविड ने नहीं. 3  लाख 50 हजार बाद में देने का करार हुआ. यह 9 महीने के दौरान चेकअप, दवाओं व खुराक के खर्च के अलावा था. शहर के एक बड़े नर्सिंग होम पर यह जिम्मा छोड़ा गया कि वह एक फोन पर सेवाएं मुहैया कराया करेगा. 1 महीने बाद आने को कह कर डेविड और जेनी अमेरिका चले गए.

सफर का शौक: क्या सोनल के सपने हकीकत बन पाए

अपनी सहेलियों आंचल, कावेरी और वंदना के साथ सोनल कालेज के लौन में आ कर बैठी ही थी कि आंचल ने अपने बैग से एक किताब निकाली और सब को दिखाते हुए बोली, ‘‘यह जानेमाने पामिस्ट कीरो की किताब है. इसे मैं ने कुछ दिनों पहले खरीदा था. इस किताब को पढ़ कर मैं भी कीरो से कम नहीं हूं. आप में से कोई अपना हाथ दिखा कर अपना भविष्य जानना चाहता है, तो आज यह सेवा बिलकुल फ्री है.’’

सोनल की सहेलियों ने फौरन अपने हाथ आंचल के सामने बढ़ा दिए.

कावेरी और वंदना की हथेली देखने के बाद आंचल, सोनल की हथेली देख कर बोली, ‘‘तेरी लव मैरिज होगी.’’

लव मैरिज के नाम पर सोनल का अजीब सा मुंह बन गया. वह बोली, ‘‘आंचल, तेरी यह भविष्यवाणी बिलकुल झूठी निकलेगी. तू तो हमारे घर के हालात जानती ही है. मेरे मम्मीपापा मुझे कालेज भेज रहे हैं, तो यह उन की ओर से मेरे लिए बहुत बड़ी आजादी है. देख लेना, जैसे ही मेरी पढ़ाई पूरी होगी वे मेरी शादी कर देंगे.’’

‘‘लेकिन मुझे लगता है कि मेरी यह भविष्यवाणी झूठी नहीं निकलेगी. अपनी

शादी के बाद तू बहुत लंबेलंबे सफर करेगी और ये सफर मामूली न हो कर विदेश से संबंधित होंगे.’’

‘‘वाह, यह की न तू ने दिल को खुश करने वाली बात,’’ सोनल खुशी से झूमते हुए बोली. फिर एकाएक उस का चेहरा बुझ गया. वह मायूस हो कर बोली, ‘‘आंचल, तेरी यह भविष्यवाणी भी झूठी निकलेगी. मैं ने तो अभी अपने दिल्ली शहर को ही पूरी तरह से नहीं देखा है, जबकि तू मेरे विदेशों में घूमने की बात कर रही है.’’

‘‘तू दिल छोटा मत कर. तू बस यह जान ले कि तेरे विदेश घूमने को कोई रोक नहीं सकता.’’

इतने में अगले पीरियड की घंटी बज गई और वह चौकड़ी अपनी क्लास की तरफ बढ़ गई.

फाइनल परीक्षा के बाद वे सब बिछड़ गईं.सोनल ने पढ़ाई छोड़ कर घर की जिम्मेदारी संभाल ली, क्योंकि उस के मातापिता उसे आगे पढ़ाने के हक में नहीं थे. आंचल और वंदना ने आगे पढ़ने के लिए यूनिवर्सिटी जौइन कर ली, जबकि कावेरी की शादी हो गई.

वक्त गुजरता गया, सोनल आंचल की वे बातें, जो उस ने हाथ देख कर बताई थीं, खासतौर पर सफर करने वाली बात न भूली थी. दरअसल, वह ख्वाबोंखयालों की दुनिया में खोई रहने वाली लड़की थी. वह हरदम सपनों के सुनहरे तानेबाने बुनती रहती और हर पल किसी ऐसे शहजादे का इंतजार करती, जो खूब ऊंची पोस्ट पर हो और वह उस के संग हवाओं में उड़े और खूब घूमे.

एक दिन शाम को सोनल अपनी किसी सहेली से मिल कर आई तो उस की छोटी बहन पूजा ने उसे बताया, ‘‘अब आप दुलहन बनने की तैयारी शुरू कर दीजिए. पड़ोस की चाची आप के लिए बहुत अच्छा रिश्ता लाई हैं, जो मम्मीपापा को भी पसंद आ गया है.’’

यह सुनते ही सोनल उमंगों से भर उठी. लेकिन अगले ही पल जब पूजा ने बताया कि उस का होने वाला पति एक सरकारी महकमे में क्लर्क है, तो उस के अरमानों पर जैसे पानी फिर गया हो.

उसे यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं आ रहा था, मगर उस के लाख रोनेपीटने पर भी उस की एक न सुनी गई. उस के मम्मीपापा इतने बेवकूफ नहीं थे कि इतने अच्छे रिश्ते को हाथ से जाने देते. फिर उस की दूसरी बहन भी शादी लायक हो रही थी. उन्हें उस की भी फिक्र थी.

सोनल विवाह के बाद अपनी ससुराल आ गई. शुरूशुरू में उसे लगा कि उस की तमाम ख्वाहिशों का गला घोट दिया गया है पर विनय उस की उम्मीदों के खिलाफ उसे बहुत प्यार करने वाला पति साबित हुआ. बिलकुल ख्वाबों के शहजादे की तरह. फर्क सिर्फ इतना था कि वह उस के साथ सैरसपाटे पर नहीं जा सकता था, क्योंकि हालात उसे इजाजत नहीं देते थे. इधर सोनल ने भी वक्त के साथ समझौता कर लिया.

एक दिन सोनल पड़ोस में रहने वाली मिसेज मेहरा से मिलने गई तो वे उसे बहुत खुश दिखाई दीं.

‘‘मिसेज मेहरा, आज आप बड़ी खुश दिखाई दे रही हैं?’’

‘‘बात ही कुछ ऐसी है सोनल,’’ मिसेज मेहरा खुशी से झूमते हुए बोलीं, ‘‘असल में मेहरा साहब औफिस के काम से पैरिस जा रहे हैं, मैं भी उन के साथ जाऊंगी. कितना मजा आएगा पैरिस घूमने में.’’

‘‘बहुतबहुत मुबारक हो,’’ सोनल ने मिसेज मेहरा को बुझे मन से बधाई दी और उन के लाख रोकने के बाद भी अपने घर आ गई.

शाम को विनय औफिस से घर लौटा, तो वह चुपचुप सी थी.

‘‘क्या बात है सोनल, बड़ी खामोश हो? आज तुम ने मुसकरा कर वैलकम डियर भी नहीं कहा.’’

विनय का इतना ही कहना था कि जो लावा सोनल के दिल में कई दिनों से उबल रहा था, वह एकदम फट पड़ा.

वह बोली, ‘‘आप कोई अच्छी जौब नहीं देख सकते क्या, जिस में घूमनेफिरने के चांस हों?’’

‘‘अरे, इतनी सी बात पर तुम खफा हो गईं,’’ विनय मुसकरा कर बोला, ‘‘असल में मैं कई दिनों से बिजी रहा, इसलिए तुम्हें कहीं घुमाने नहीं ले जा सका. नो प्रौब्लम. तुम तैयार हो जाओ. हम अभी तुम्हारे पसंदीदा हीरो शाहरुख खान की फिल्म देखने चलते हैं.’’

‘‘मुझे फिल्मविल्म देखने नहीं जाना,’’ वह गुस्से से बोली.

‘‘फिर?’’

‘‘विनय, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम किसी सफर पर चलें. एक लंबा सा सफर… फौरेन का न सही, अपने देश का ही सही. पता है, मिसेज मेहरा अपने पति के साथ पैरिस जा रही हैं.’’

‘‘तुम भी क्या बात करती हो. अपने हालात तो तुम अच्छी तरह से जानती हो. मैं मिस्टर मेहरा की तरह ऊंची पोस्ट पर नहीं हूं. हमारे हालात ऐसे खर्चों की इजाजत नहीं देते.’’

‘‘मैं फौरेन टूर पर जाने के लिए नहीं

कह रही.’’

‘‘ऐसी बात है तो मैं कोशिश करूंगा कि कुछ रकम का इंतजाम हो जाए. फिर मैं तुम्हें पूरी दिल्ली घुमा दूंगा. उस के बाद मैं तुम्हें तुम्हारे मायके छोड़ दूंगा, वहां तुम कुछ दिन रह लेना. तुम्हारा दिल भी बहल जाएगा.’’

‘‘नहीं, मुझे दिल्ली नहीं घूमना और न ही मुझे अपने घर जाना.’’

‘‘फिर?’’

‘‘क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम कुछ दिनों के लिए शिमला और कुफरी घूम आएं?’’

‘‘होने को क्या नहीं हो सकता, लेकिन इस के लिए मुझे अलग से मेहनत कर के कुछ पैसों का इंतजाम करना पड़ेगा. अब तुम ने जब घूमने का फैसला कर ही लिया है, तो मैं तुम्हें रोकने वाला कौन होता हूं. तुम कुछ दिन इंतजार करो. 1-2 महीने मैं पार्टटाइम काम कर के पैसों का इंतजाम कर लूंगा. अब तो खुश हो जाओ,’’ कहते हुए विनय ने उस के केश बिखेर दिए.

‘‘सच, तुम कितने अच्छे हो,’’ सोनल उस के कंधे पर सिर टिका कर ख्वाबों की दुनिया में पहुंच गई.

फिर विनय बहुत व्यस्त हो गया. वह सुबह का गया देर रात को घर आता और खाना खा कर बेसुध हो कर सो जाता. सोनल भी घर के खर्चों में कमी की कोशिश करती रहती. कुछ दिनों बाद उन के आंगन में एक फूल खिला और जोड़जोड़ कर जमा की हुई सारी रकम डिलीवरी के खर्चे में खत्म हो गई और सोनल की ख्वाहिश पूरी न हो सकी.

जब कभी उन के पास इतने पैसे हो भी जाते कि वे कहीं घूमफिर आएं और अपनी इस ख्वाहिश को पूरा कर सकें, तो कोई न कोई ऐसा मसला आ खड़ा होता, जिस में जोड़ी रकम खर्च हो जाती और वे कहीं घूमने न जा पाते.

उस दिन वह अपने बेटे अरमान के साथ पास के शौपिंग मौल में गई तो उस का सामना आंचल से हो गया. उसे देखते ही कई पुरानी यादें ताजा हो गईं.

वह आंचल को अपने साथ अपने घर ले आई. बातोंबातों में उस ने उस से पूछा, ‘‘आंचल, याद है कालेज में तू ने एक बार मेरा हाथ देख कर बताया था कि शादी के बाद मैं कई सफर करूंगी. मेरी शादी को 2 साल हो गए, लेकिन मैं आज तक कहीं घूमने नहीं गई. तेरी यह भविष्यवाणी तो गलत निकली.’’

‘‘मेरी भविष्यवाणी को झूठ निकलना ही था,’’ आंचल मुसकरा कर बोली.

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब यही मेरी बिल्लो रानी कि उस दिन मैं ने तुम लोगों से सरासर झूठ बोला था. यह बात सच है कि मैं उन दिनों हाथों की लकीरें देख कर भविष्य बताने वाली किताब जरूर पढ़ रही थी, लेकिन वह सरासर बकवासबाजी थी. भला ऐसा भी कहीं होता है कि आदमी मेहनतमशक्कत न करे और तकदीर उसे बैठेबिठाए सब कुछ दे दे.’’

सोनल को ऐसा महसूस हुआ जैसा आंचल ने यह बात कह कर उस के माथे पर वजनी हथौड़ा दे मारा हो. कई पलों तक तो वह आंचल को फटीफटी निगाहों से देखती रही.

‘‘तो उस दिन तू ने जो कुछ कहा था वह सब अपने मन से कहा था?’’

‘‘और नहीं तो क्या. उस दिन मुझे बेवकूफ बनाने के लिए कोई नहीं मिला था, इसलिए मैं ने तुम लोगों से तुम्हारे हाथ देखने के बहाने सब कुछ झूठ बोला था.’’

बरसों से सफर के बारे में देखे गए उस के सपने ताश के महल की तरह ढह गए. उसे एकएक कर के वे तमाम बातें याद आने लगीं, जो उस ने सफर के लिए सोची थीं. विनय का पार्टटाइम जौब करना. उस का घरेलू खर्चों में कंजूसी की हद तक तंगी करना और दिनरात सफर के सपने देखना.

‘‘आंचल, तू सच में बहुत बुरी है,’’ वह शिकायत भरे स्वर में बोली, ‘‘तू नहीं जानती, तेरे इस झूठ ने मुझे कितनी तकलीफ पहुंचाई है. काश, तू ने मुझ से ऐसा झूठ न बोला होता.’’

‘‘अरे यार, तू मेरे इस झूठ को इतनी संजीदगी से लेगी, मुझे पता न था. वरना मैं ऐसा मजाक तेरे साथ कभी न करती. वैसे एक बात बता दूं कि आदमी को हाथों की लकीरों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए. यह भी हो सकता है कि तेरे लिए अचानक सफर का चांस निकल आए. अभी तू ने अपने जीवन के ज्यादा वसंत थोड़े ही देखे हैं. मेरी बात मान, जब कुदरत को तुझे घुमाना मंजूर होगा, वह अपनेआप तेरे सामने कोई न कोई रास्ता निकाल देगी. तू आज से ही सफर की ख्वाहिश अपने दिल से निकाल फेंक और अच्छी पत्नी की तरह अपने पति की खिदमत और बेटे की अच्छी परवरिश में जुट जा. क्या पता, कल को तेरा बेटा ही तुझे दुनिया भर की सैर करा दे.’’

सोनल को ऐसा महसूस हुआ जैसे उस के हृदय से बोझ हट गया हो. आंचल के जाने के बाद उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा.

‘मैं भी कितनी पागल थी,’ वह सोचने लगी, ‘कभी न पूरी होने वाली ख्वाहिश के पीछे दौड़ती रही. खुशफहमियों के जाल में जकड़ी रही. लेकिन शुक्र है कि अब मैं उस से निकल आई हूं. विनय ने मेरी फुजूल सी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए खुद पर कितना बोझ बढ़ा लिया है.’

शाम को जैसे ही विनय के घर आने का समय हुआ, उस ने कपड़े बदले, केशों की ढीली सी चोटी बनाई, आंखों में काजल लगाया और हलकी सी लिपस्टिक लगा कर आंगन में आ गई. वहां से फूल तोड़ कर केशों में लगा लिया और गुनगुनाती हुई विनय के आने का इंतजार करने लगी.

थोड़ी देर बाद विनय घर आया तो सोनल पर निगाह पड़ते ही वह चहके बिना नहीं रह सका, ‘‘क्या बात है, आज कहां बिजली गिराने का इरादा है?’’

‘‘कहीं नहीं,’’ सोनल मुसकरा कर बोली.

‘‘इस का मतलब यह शृंगार हमारे लिए किया है?’’

‘‘नहीं तो क्या अरमान के लिए किया है,’’ वह शोखी से बोली.

‘‘हो सकता है. वह भी तुम्हें देख कर खुश हो जाए कि आज तो उस की मम्मी बहुत खूबसूरत लग रही हैं. अरे हां, वह शैतान कहां है?’’

‘‘सो रहा है. आप कपड़े बदल लीजिए. मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कहने के साथ ही सोनल किचन की तरफ बढ़ गई.

हाथमुंह धोने के बाद विनय कमरे में आया तो उस ने देखा कि सोनल शाम की चाय के साथ गरमगरम पकौड़े और चटनी सजाए बैठी है.

‘‘क्या बात है,’’ वह खुशदिली से बोला, ‘‘भई, बीवी हो तो तुम जैसी. आज तो पार्टटाइम काम करने में मजा आ जाएगा.’’

‘‘आज से आप का पार्टटाइम काम पर जाना बंद,’’ सोनल ने हिदायत देने वाले अंदाज में कहा.

‘‘क्यों?’’ विनय चौंके बिना नहीं रह सका. वह हैरत भरे स्वर में बोला, ‘‘आज यह इंकलाब कैसा? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?’’

‘‘मेरी तबीयत बिलकुल ठीक है.’’

‘‘फिर पार्टटाइम काम पर जाने पर यह रोक क्यों?’’

‘‘क्योंकि आज मेरी आंखें खुल गई हैं.’’

‘‘आज तुम्हें क्या हो गया है, क्या बोल रही हो तुम?’’

सोनल ने विनय को पूरी बात बताई.

‘‘ओह, तो यह बात है,’’ विनय अपने सिर को हौले से जुंबिश देते हुए बोला, ‘‘वैसे कितनी अजीब बात है. जब तुम सफर के लिए मचलती थीं, तब हमारे सामने कोई रास्ता नहीं था और जब तुम ने अपनी ख्वाहिश खत्म कर दी, तब एक रास्ता खुदबखुद हमारे सामने आ गया है.’’

‘‘क्या मतलब?’’ सोनल हैरानी से बोली.

‘‘हां सोनल, तुम्हारे लिए एक खुशखबरी है. यह खुशखबरी मैं घर आते ही तुम्हें बता देता. लेकिन आज तुम्हारी खूबसूरती में मैं ऐसा उलझा कि खुशखबरी तुम्हें सुनाना भूल गया. असल में तुम्हारे सफर के प्रति बेपनाह शौक को देखते हुए मैं ने एअरइंडिया में नौकरी के लिए आवेदन किया था. वहां मेरी जौब लग

गई है. अब हमें हर साल देशविदेश घूमने के मौके मिलेंगे.’’

‘‘सच,’’ सोनल खुशी से उछल पड़ी.

‘‘हां डियर, मैं सच कह रहा हूं.’’

मारे खुशी के सोनल विनय से लिपट गई. वर्षों बाद उस की ख्वाहिश जो पूरी होने जा रही थी.

नथनी: भाग 1- क्या खत्म हुई जेनी की सेरोगेट मदर की तलाश

उन के मुल्क में जितनी भी सुविधाएं और तकनीकें हासिल थीं, सब पर प्रयास कर डाले गए थे, पर सफलता की कोई भी गुंजाइश न पा कर वहां के सभी डाक्टरों ने डेविड को आखिरी जवाब दे दिया था. डेविड ने भारी मन से यह सचाई जेनी को बताई थी. इस पर उस का भी दुखी होना स्वाभाविक ही था.

डेविड खुद अमेरिका के जानेमाने डाक्टरों में से एक थे. लिहाजा, उन से कोई डाक्टर झूठ बोले, सवाल ही नहीं उठता था. फिर सारी की सारी पैथालाजिकल रिपोट उन के सामने थीं. उन को सचाई का ज्ञान हो चुका था कि कमी किस में है और किस किस्म की है. पर उस का हल जब था ही नहीं तो क्या किया जा सकता था. नाम, सम्मान और आर्थिक रूप से काफी मजबूत होने के बावजूद उन के साथ यह एक ऐसी त्रासदी थी कि दोनों ही दुखी थे.

डेविड जेनी को बहुत ज्यादा प्यार करते थे. जब जेनी बच्चे की लालसा में आंखें नम कर लेती थी, डेविड तड़प उठते थे. पर इस खबर से पहले हमेशा उसे धीरज बंधाते रहते थे कि सही इलाज के बाद उन्हें संतानसुख अवश्य मिलेगा.

यह खबर ऐसी थी कि न तो छिपाई जा सकी और न ही उस के बाद जेनी को रोने से रोका ही जा सका था. वह लगातार रोए चली जा रही थी और डेविड उसे कंधे से लगाए ढाढ़स बंधाए जा रहे थे कि अभी भी एक रास्ता बचा है.

जब जेनी की सिसकियां कुछ थमीं और उस की सवालिया निगाहें उठीं तो डेविड ने कहा, ‘‘एक  ‘सेरोगेट मदर’ की जरूरत  होगी जो यहां अमेरिका में तो नहीं, पर हिंदुस्तान में बहुत आसानी से मिल जाएगी और फिर हम एक बच्चा आसानी से पा सकेंगे.’’

जेनी ने डेविड की आंखों में झांका जो पहले से ही उस के स्वागत में बिछी हुई थीं. जेनी की आंखों में चमक आ गई. उस ने डेविड को अपनी बांहों में कस लिया और कई चुंबन ले डाले.

डेविड ने अपने मुल्क की करेंसी में व हिंदुस्तान की करेंसी में मामूली सी तुलना करने के बाद बताया कि हिंदुस्तान में मात्र 2-3 लाख में ‘सेरोगेट मदर’ आसानी से मिल सकती है, जबकि इस से 10 गुनी कीमत पर भी अमेरिका में नहीं मिल सकती. जेनी पहले हिंदुस्तान को बड़ी हेयदृष्टि से देखा करती थी. उस के बारे में नए सिरे से सोचने को मजबूर हो गई.

अब जेनी ने स्थानीय अखबारों में एक विज्ञापन दे डाला, ‘तुरंत आवश्यकता है एक दुभाषिये की, जिसे अंगरेजी और हिंदी का अच्छा ज्ञान हो’ और प्रत्याशियों का बेसब्री से इंतजार करने लगी. अपने यहां के अखबारों में हिंदुस्तान के बारे में जिन खबरों से खास चिढ़ थी, उन्हें ध्यान से पढ़ने लगी. मन एकाएक हिंदुस्तान के रंग में रंगा नजर आने लगा. जिस मुल्क को वह भिखारी और निरीह देश कहा करती थी, अब फरिश्ता नजर आने लगा था. वहां की सामाजिक व्यवस्था, राजनीति व संस्कृति आदि के बारे में जेनी कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा जान लेने के लिए आतुर हो उठी.

एक अच्छे दुभाषिये के मिल जाने पर जेनी ने उस से पहली ही भेंट में तमाम सवाल कर डाले, ‘उस ने हिंदी क्यों सीखी? क्या वह कभी हिंदुस्तान गया था? क्या उसे हिंदुस्तानी रीतिरिवाजों का कुछ ज्ञान है? क्या वह कहीं से ऐसा साहित्य ला सकता है जो वहां के बारे में अधिक से अधिक जानकारी दिला सके? क्या वह हिंदी के प्रचलित शब्दों और मुहावरों के बारे में जानता है आदि.’

यह सब जानने के बाद जेनी में इतना भी सब्र नहीं बचा कि वह डाक्टर डेविड को घर आने देती…उस ने फोन पर ही दुभाषिये के बारे में तमाम जानकारी उन्हें दे डाली. डेविड उस के दर्द से अच्छी तरह वाकिफ थे, इसलिए किसी प्रकार का एतराज न करते हुए उसे आश्वस्त किया कि वह जल्दी ही हिंदुस्तान चलेंगे.

जेनी की भावनाओं की कद्र करते हुए डेविड ने भी हिंदुस्तानी अखबारों में एक ‘सेरोगेट मदर’ की आवश्यकता वाला विज्ञापन भिजवा दिया और बेताबी से जवाब का इंतजार करने लगे. मियांबीवी में अकसर हिंदुस्तान के बारे में जम कर चर्चाएं होने लगीं. उन लोगों को यहां के वैवाहिक विज्ञापनों पर बड़ा कौतूहल हुआ करता था. वह अकसर प्रणय व परिणय के बारे में अपने मुल्क और हिंदुस्तान के बीच तुलना करने बैठ जाते थे.

जब जेनी यह बताती कि हिंदुओं में लड़की वाले, शादी के लिए लड़के वालों के वहां जाते हैं, डेविड यह बताना नहीं भूलते कि मुसलमानों में लड़के वाले लड़की वालों के घर जाते हैं. मुसलमानों में लड़कियों में शीन काफ यानी नाकनक्श खासकर देखे जाते हैं. अगर किसी लड़की के यहां कोई भी लड़के वाला न आया तो वह आजीवन कुंआरी भी रह सकती है, पर धर्म के मामले में वह इतनी कट्टर होती है कि बगावत करने की हिम्मत कम ही कर पाती है.

सलमा एक ऐसी ही हिंदुस्तानी मुसलमान परिवार की लड़की थी. वह बहुत ही खूबसूरत थी, पर उस की बड़ी बहन मामूली नाकनक्श होने के कारण हीनता की शिकार होती चली जा रही थी. गरीबी के चलते बड़ी तो मदरसे की मजहबी तालीम से आगे नहीं बढ़ पाई थी, हां, छोटी ने 10वीं कर ली थी. बाप सब्जी का ठेला लगाता था. मामूली कमाई में 4 लोगों का गुजारा बड़ी मुश्किल से हो पाता था.

वैसे तो शहर में 20 साल की लड़की होना कोई माने नहीं रखता पर उस की खूबसूरती एक अच्छीखासी मुसीबत बन गई थी. दिन भर तमाम लड़के  उस की गली के चक्कर लगाने  लगे थे. बड़ी बहन के लिए कोई रिश्ता न आने से गाड़ी आगे नहीं बढ़ पा रही थी. मांबाप की राय थी, पहले बड़ी लड़की निबटा दी जाए तब ही छोटी के बारे में सोचा जाए पर छोटी वाली के लिए तमाम नातेरिश्तेदारों के अलावा लोग टूटे पड़ रहे थे.

एक तो उम्र का तकाजा, उस पर गरीबी की मार. आखिर सलमा के कदम बहक ही गए. जिस घर में भरपेट रोटी नसीब न हो रही हो, उस घर की इज्जत क्या और ईमान क्या? सलमा एक हिंदू लड़के को दिल दे बैठी. क्यों का जवाब भी बड़ा अजीब था. वह जब अपनी हमउम्र सहेलियों को साजशृंगार किए देखती तो उस का मन भी ललचा जाता. काश, वह भी आने वाली ईद पर एक सोने की नथनी खरीद सकती.

यह बात कहीं से चल कर एक फल वाले नौजवान कमल तक पहुंच चुकी थी. उस ने सलमा से अकेले मिलने पर सोने की नथनी देने का वादा उस तक पहुंचवा दिया. पहले मिलन में ही कमल ने न जाने कौन सा जादू कर दिया कि दोनों ने न बिछड़ने की कसम ही खा डाली. नथनी की बात तो खैर काफी पीछे छूट गई.

दोनों का मामला धर्म के ठेकेदारों तक पहुंचा. उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि धर्म के ठेकेदार बड़े मामलों में ही हाथ डालते हैं, जिन से शोहरत व उन के निजी स्वार्थ सध सकें. एक मामूली सब्जी वाले की लड़की की इज्जत ही क्या होती है? ‘गरीबों में यह सब चलता है.’ कह कर कुछ लोगों ने टाल दिया, कुछ लोगों ने कुछ दिनों तक इस मुद्दे पर खूब चटखारे लगाए. मात्र एक रात का मातम मना कर मांबाप भी सामान्य हो गए. उन के मुंह से इतना ही निकला, ‘‘एक तरह से ठीक ही हुआ.’’

कमल का चालचलन ठीक न होने के कारण उस के घर वाले इस शादी के लिए तैयार नहीं थे. जब लड़की वाले राजी थे तो उन्होंने मजबूरी में हां कर दी थी पर शादी के बाद बेटे को घर से अलग कर दिया था.

पलभर का सच: भाग 3- क्या था शुभा के वैवाहिक जीवन का कड़वा सच

शादी होते ही उस ने अपनी अलग इंडस्ट्री खोल ली और उस में पूजा को भी बराबर का हिस्सेदार बना दिया है. पूजा को सचिन के साथ काम करते देख कर मुझे बहुत अच्छा लगता है. जब पूजा को आफिस में काम करते देखती हूं तो 10 साल पहले की एक बात मुझे याद आती है.

‘‘10 साल पहले शेखर ने जब अपने आफिस में ‘पर्सनल आफिसर’ के तौर पर कविता की नियुक्ति की थी तब जाने कितने दिनों बाद शेखर से मेरी फिर एक बार जबरदस्त लड़ाई हुई थी.

‘‘वह सिर्फ झगड़ा नहीं था शालो… शेखर मुझे मारने पर भी उतर आया था.’’

यह सबकुछ बताते हुए शुभा की आंखें भर आई थीं और फिर जाने कितनी देर तक आंसू बहाते हुए वह निशब्द सी हो कर बैठ गई थी.

शुभा की सारी बातें सुन लेने के  बाद मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उस से क्या कहूं. मन में बारबार एक ही सवाल उठ रहा था कि शुभा जैसी तेजतर्रार लड़की इतने दिनों तक यों चुप कर दब कर क्यों रह गई.

कुछ न सूझते हुए भी मैं ने अनायास ही शुभा से बेहद सरल सवाल करने शुरू किए थे

‘‘तू इतने दिनों तक चुप क्यों थी? और अगर इतने दिनों तक चुप थी तो अब एकदम ही तलाक लेने की आफत क्यों मोल ले रही है? क्या अपनी खुद्दारी दिखाने का यही एक रास्ता बचा है तेरे पास? अपना विरोध हर कदम पर दिखा कर भी तो तू शेखर के साथ रह सकती है.’’

‘‘नहीं शालो, मेरी खुद्दारी, स्वाभिमान सब खत्म हो चुके हैं. अब मैं सिर्फ शांति से और अपने तरीके से जीना चाहती हूं.’’

‘‘मतलब, क्या करने वाली है तू?’’

‘‘यहां दिल्ली में एक वृद्धाश्रम खुला है. उस के संचालन का काम मुझे मिल गया है. सोचती हूं जरूरतमंद वृद्धों की सेवा करूंगी तो जीवन में कुछ करने की चाह भी पूरी हो सकेगी.’’

‘‘क्या शेखर ने इस की इजाजत दी है?’’

‘‘उस की इजाजत मिलेगी ही नहीं, यह मुझे पता है तभी तो पहले उस से तलाक ले कर अलग होने का फैसला लिया है. फिर अपना काम करूंगी.’’

‘‘क्या सचिन यह सब जानता है?’’

‘‘हां, जानता है और कुछ हद तक मेरी भावनाओं को समझता भी है मगर तुम्हारी तरह वह भी कहता है कि अब यह सब करने की क्या जरूरत है.’’

‘‘तो फिर सच में जरूरत क्या है, शुभा?’’

‘‘जीवन में ‘जरूरत’ शब्द की व्याख्या हर इनसान अपनेअपने मन से करता है और तब ‘जरूरत’ हर किसी की अलग हो सकती है…10 साल पहले शेखर ने जब अपने आफिस में कविता की नियुक्ति की थी तब हमारा आखिरी झगड़ा हुआ था. उस के बाद मैं ने कभी शेखर से झगड़ा नहीं किया…मैं अपनेआप से ही झगड़ती रही हूं…10 साल से शेखर के मुंह से कविता की तारीफ सुनसुन कर मैं ऊब सी गई हूं.

‘‘मैं जानती हूं कि इस में मेरी स्त्रीसुलभ ईर्ष्या भी हो सकती है लेकिन सच तो यह है कि शेखर के मुंह से कविता की तारीफ सुन कर मैं हैरान हो कर सोचती हूं कि एक इनसान इस तरह अलगअलग हिस्सों में अलगअलग बरताव कैसे कर सकता है.’’

‘‘तो क्या तू समझती है कि शेखर और कविता में कुछ चल रहा है?’’ मैं ने बड़े ही संयत स्वरों में पूछा.

कुछ देर तक तो शुभा चुप रही फिर बड़े ही अटपटे से स्वर में बोली, ‘‘मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकती मगर यह सच है कि शेखर का अधिकतर समय अब उस के साथ ही बीतता है. मैं यह भी नहीं कह सकती कि शेखर का मेरी तरफ ध्यान ही नहीं है, वह आज भी मेरी हर जिम्मेदारी को पूरा करता है.

त्योहारों में मुझे गहने व साडि़यां दिलाना, मुझे पार्टियों में ले जाना, यह सब कुछ पहले की तरह ही चल रहा है क्योंकि शेखर के जीवन में मैं आज भी ‘बीवी’ नामक ऐसी चीज हूं जिस पर कानूनन शेखर का ही अधिकार है. लेकिन शालो, अब इस तरह सिर्फ एक कानूनन हकदार चीज बन कर रहना मेरे लिए नामुमकिन हो गया है.’’

‘‘और दोनों बच्चों के बारे में तुम ने क्या सोचा है?’’

‘‘बच्चों का सोचतेसोचते ही तो शेखर के साथ 30 साल गुजारे, शालो, अब बच्चे बच्चे नहीं रहे… उन के जीने के अपनेअपने तरीके हैं, उन्हें अपने तरीके से जीने दें…मुन्ना ने भी अपनी शादी तय कर ली है और उस की शादी होते ही मैं मुक्त हो जाऊंगी… जब भी बच्चों को मेरी जरूरत होगी, मैं उन के पास जरूर हो आऊंगी.’’

‘‘उम्र के इस पड़ाव पर आ कर अचानक इस तरह का निर्णय लेने से तुझे डर नहीं लगा?’’

‘‘नहीं, शालो, अब सच में डर नहीं लगता. जीवन भर मैं ने जो मानसिक यातनाएं भोगी हैं उन्हें अब दोबारा बहूबेटों के सामने भुगतने से डर लगता है और इसी से अब मैं निर्भय हो कर जीना चाहती हूं.’’

शुभा की कहानी सुन कर मैं कुछ देर तक तो निशब्द सी बैठी रही फिर शुभा को गले लगा लिया और बोली, ‘‘तेरे इस निर्भीक फैसले पर मुझे गर्व है, शुभा. तेरे इस अनोखे निर्णय में तेरी यह सहेली हमेशा तेरे साथ रहेगी. जब कभी किसी चीज की जरूरत पड़ेगी तो बेहिचक मेरे पास चली आना, समधन समझ कर नहीं, अपनी प्रिय सहेली समझ कर.’’

इतनी सारी मन की बातें मुझ से कह लेने के बाद मेरे कहने पर ही शुभा बहुत ही सामान्य हो कर 2 दिन तक रह गई थी. लेकिन तीसरे दिन एक अनोखी घटना ने शुभा को और मुझे हिला कर रख दिया था.

एक कार दुर्घटना में शेखर की अचानक मौत हो गई और शुभा का जीवन फिर एक बार शेखर से जुड़ गया था.

शुभा को ले कर तुरंत हम लोग मुंबई पहुंचे थे. तो एक बार फिर वह भूचाल में घिर गई थी.

मुंबई में इतने बड़े इंडस्ट्रीयलिस्ट की मौत का ‘नजारा’ किसी त्योहार से कम नहीं था.

शुभा की शुष्क आंखों ने पति की मौत का राजसी ठाटबाट भी ‘संयत’ मन से सह लिया था.

अब इतने बड़े उद्योगपति की विधवा होने का मानसम्मान भी उस के जीवन को त्याग नहीं सकता था. जिस मुक्ति की कामना वह कर रही थी वह तो अपनेआप ही मिल गई थी मगर किस ढंग से?

जीवन को खदेड़ देने वाले मुझ से कहे हुए उस पल भर के ‘सच’ को क्या वह कभी भूल सकती है? और क्या मैं कभी भुला पाऊंगी?

सच्चाई: क्या सपना सचिन की शादी के लिए घरवलों को राजी कर पाई- भाग 2

‘‘हम ने तो इस संभावना के बारे में सोचा ही नहीं था,’’ सब सुनने के बाद सलिल ने कहा.

‘‘अगर ऐसा कुछ है तो हम उस का इलाज करवा सकते हैं. आजकल कोई रोग असाध्य

नहीं है, लेकिन अभी यह सब सचिन को मत बताना वरना अपने मम्मीपापा से और भी ज्यादा चिढ़ जाएगा.’’

‘‘उन का ऐतराज भी सही है सलिल, किसी व्याधि या पूर्वाग्रस्त लड़की से कौन अभिभावक अपने बेटे का विवाह करना चाहेगा? बगैर सचिन या सिमरन को कुछ बताए हमें बड़ी होशियारी से असलियत का पता लगाना होगा,’’ सपना ने कहा.

‘‘सिमरन के घर जाने के बजाय उस से पहले कहीं मिलना बेहतर रहेगा. ऐसा करो तुम कल लंचब्रेक में सचिन के औफिस चली जाओ. कह देना किसी काम से इधर आई थी, सोचा लंच तुम्हारे साथ कर लूं. वैसे तो वह स्वयं ही सिमरन को बुलाएगा और अगर न बुलाए तो तुम आग्रह कर के बुलवा लेना,’’ सलिल ने सु झाव दिया.

अगले दिन सपना सचिन के औफिस में पहुंची ही थी कि सचिन लिफ्ट से एक लंबी, सांवली मगर आकर्षक युवती के साथ निकलता दिखाई दिया.

‘‘अरे दीदी, आप यहां? खैरियत तो है?’’ सचिन ने चौंक कर पूछा.

‘‘सब ठीक है, इस तरफ किसी काम से आई थी. अत: मिलने चली आई. कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘सिमरन को लंच पर ले जा रहा था. शाम का प्रोग्राम बनाने के लिए…आप भी हमारे साथ लंच के लिए चलिए न दीदी,’’ सचिन बोला.

‘‘चलो, लेकिन किसी अच्छी जगह यानी जहां बैठ कर इतमीनान से बात कर सकें.’’

‘‘तब तो बराबर वाली बिल्डिंग की ‘अंगीठी’ का फैमिलीरूम ठीक रहेगा,’’ सिमरन बोली.

चंद ही मिनट में वे बढि़या रेस्तरां पहुंच गए.

‘‘बहुत बढि़या आइडिया है यहां आने का सिमरन. पार्किंग और आनेजाने में व्यर्थ होने वाला समय बच गया,’’ सपना ने कहा.

‘‘सिमरन के सु झाव हमेशा बढि़या और सटीक होते हैं दीदी.’’

‘‘फिर तो इसे जल्दी से परिवार में लाना पड़ेगा सब का थिंक टैंक बनाने के लिए.’’

सचिन ने मुसकरा कर सिमरन की ओर देखा. सपना को लगा कि मुसकराहट के साथ ही सिमरन के चेहरे पर एक उदासी की लहर भी उभरी जिसे छिपाने के लिए उस ने बात बदल कर सपना से उस के विदेश प्रवास के बारे में पूछना शुरू कर दिया.

‘‘मेरा विदेश वृतांत तो खत्म हुआ, अब तुम अपने बारे में बताओ सिमरन.’’

‘‘मेरे बारे में तो जो भी बताने लायक है वह सचिन ने बता ही दिया होगा दीदी. वैसे भी कुछ खास नहीं है बताने को. सचिन की सहपाठिन थी, अब सहकर्मी हूं और नेहरू नगर में रहती हूं.’’

‘‘अपने पापा के शौक से बनाए घर में जो लाख परेशानियां

आने के बावजूद इस ने बेचा नहीं,’’ सचिन ने जोड़ा, ‘‘अकेली रहती है वहां.’’

‘‘डर नहीं लगता?’’

‘‘नहीं दीदी, डर

तो अपना साथी है,’’ सिमरन हंसी.

‘‘आई सी…इस ने तेरे बचपन के नाम डरपोक को छोटा कर दिया है सचिन.’’

सिमरन खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘नहीं दीदी, इस ने बताया ही नहीं कि इस का नाम डरपोक था. किस से डरता था यह दीदी?’’

‘‘बताने की क्या जरूरत है जब रातदिन इस के साथ रहोगी तो अपनेआप ही पता चल जाएगा,’’ सपना हंसी.

‘‘रातदिन साथ रहने की संभावना तो बहुत कम है, मैं मम्मीजी की भावनाओं को आहत कर के सचिन से शादी नहीं कर सकती,’’ सिमरन की आंखों में उदासी, मगर स्वर में दृढ़ता थी.

सपना ने घड़ी देखी फिर बोली, ‘‘अभी न तो समय है और न ही सही जगह जहां इस विषय पर बहस कर सकें. जब तक मेरा नर्सिंगहोम तैयार नहीं हो जाता, मैं तो फुरसत में ही हूं, तुम्हारे पास जब समय हो तो बताना. तब इतमीनान से इस विषय पर चर्चा करेंगे और कोई हल ढूंढ़ेंगे.’’

‘‘आज शाम को आप और जीजाजी चल रहे हैं न इस के घर?’’ सचिन ने पूछा.

‘‘अभी यहां से मैं नर्सिंगहोम जाऊंगी यह देखने कि काम कैसा चल रहा है, फिर घर जा कर दोबारा बाहर जाने की हिम्मत नहीं होगी और फिर आज मिल तो लिए ही हैं.’’

पलभर का सच: भाग 2- क्या था शुभा के वैवाहिक जीवन का कड़वा सच

पूजा की शादी को साल भर हो चुका था. इस दौरान वह और सचिन अकसर दिल्ली मेरे यहां आया करते थे मगर शुभा पहली बार मेरे यहां बतौर समधन आ रही थी इसलिए भी मैं मन ही मन बहुत खुश हो रही थी. मुझ में बहुत सी पुरानी यादें उमड़ती जा रही थीं और उन मीठी सुहानी यादों की डोर मुझे कभी बचपन में तो कभी जवानी में ले जा कर ‘मायके’ पहुंचा रही थी.

ठीक 11 बजे राजू पूजा और शुभा को घर ले आया. कार से उतरते हुए मैं ने उन दोनों को देखा तो पूजा सिर्फ एक बैग ले कर आई थी मगर शुभा तो 3-4 बैग के साथ आई थी. बैगों को देख कर मेरे चेहरे पर आए अजीबोगरीब भावों को देख कर कुछ झेंपते हुए शुभा बोली, ‘‘मेरा सामान बहुत ज्यादा है न. दरअसल, मैं अब दिल्ली में अपने बेटे मुन्ना के पास रहने के इरादे से आई हूं. मेरा सामान यहीं बाहर ही रहने दो…अभी थोड़ी देर में मुन्ना आ जाएगा तो मैं उस के साथ चली जाऊंगी.’’

‘‘मेरी प्यारी समधन जी, आप हमारे घर अपनी इच्छा से आई हैं, मगर जाएंगी हमारी इच्छा से, समझीं? अब ज्यादा नखरे मत दिखाओ और चुपचाप अंदर चलो.’’

मैं ने शुभा से मजाक करते हुए कहा था तो मेरे बोलने के अंदाज से वह बहुत खुश हो गई और मेरे गले लग कर पहले की तरह हंसनेबोलने लगी थी.

खाना खा लेने के बाद हम सब कुछ देर तक गपशप करते रहे. पूजा अपने डैडी से अपने काम की बातें करती जा रही थी. पूजा की बातों से प्रभावित हो कर राजू भी अपनी छोटी बहन से सवाल पर सवाल पूछता जा रहा था. कुछ देर तक उन तीनों की बातें सुन लेने के बाद मैं शुभा को ले कर अपने कमरे में चली गई थी.

कमरे में जा कर हम दोनों जब पलंग पर लेट गए तो मैं ने सोचा कि हम दोनों एकसाथ होते ही पहले की तरह अनगिनत बातें शुरू कर देंगे और बातें करने को समय कम पड़ जाएगा लेकिन ऐसा हुआ नहीं था.

क्या उम्र के तकाजे ने या बदलते रिश्ते ने हमारे होंठ सिल दिए थे? मैं सोचने लगी कि शुभा बड़े धीरगंभीर और संयत स्वर में अचानक बोली थी, ‘‘मैं तलाक ले रही हूं, शालो.’’

‘‘क…क्याऽऽऽ?’’ कहते हुए मैं पलंग पर उठ कर बैठ गई थी.

‘‘हां, शालो, यह सच है. तुम्हें कहीं बाहर से खबर मिले और फिर तुम लोग परेशान हो जाओ, इस से अच्छा है कि मैं ही बता दे रही हूं…इसीलिए पहले मैं ने पूजा व सचिन की शादी 2 साल बाद करने की बात कही थी… सोचती थी कि बेटे की शादी के बाद यह सब अच्छा नहीं लगेगा… लेकिन अब मुझ से सहा नहीं जा रहा. अब मैं ने अपना मन पक्का कर लिया है.’’

‘‘लेकिन इतने सालों बाद यह फैसला क्यों, शुभा?’’

‘‘वैसे तो बहुत लंबी कहानी है, मगर जिस किसी को सुनाऊं उसे तो यह बहुत ही छोटी सी बात लगती है. कोई क्या जाने कि कभीकभी छोटी सी बात ही दिल में बवंडर बन कर समूचे जीवन को तहसनहस कर देती है.

‘‘तुम तो जानती ही हो कि शेखर मुझ से बेहद प्यार करता था. प्यार तो वह शायद आज भी बहुत करता है लेकिन शादी के बाद ही मैं ने उस के प्यार में बहुत बड़ा अंतर पाया है. शादी के पहले मुझे यह तो पता था कि हमारे यहां शादी सिर्फ पति से ही नहीं उस के पूरे परिवार से होती है. लेकिन शेखर से शादी करने के बाद मुझे लगा कि मेरी शादी शेखर के परिवार से नहीं उस के  परिवार की अजीबोगरीब अमीरी से हुई है.

‘‘शादी के बाद मुझे यह भी पता चला कि अमीरों की भी अलगअलग जातियां होती हैं. शेखर के पिता बड़े अमीर थे जो अपने दोनों बेटों के साथ अपने उद्योग को और बढ़ाना चाहते थे. शेखर की मां का बहुत पहले ही देहांत हो चुका था. घर में हम सिर्फ 4 लोग थे. शेखर के पिता, शेखर का छोटा भाई विशाल, शेखर और मैं. घर के इन 4 लोगों में से मेरी बातचीत सिर्फ शेखर से होती थी. शेखर के पिता ने कभी भी मुझ से आमनेसामने हो कर बात नहीं की थी. जब भी कुछ कहना होता तो शेखर से कह देते कि बहू से कहो…

‘‘विशाल, मेरा छोटा देवर शेखर से सिर्फ 2 साल छोटा था. वह स्वभाव से बेहद शर्मीला था. शुरूशुरू में मैं ने उस से दोस्ती करने के लिए हंसीमजाक करने की कोशिश की तो एक दिन शेखर ने बड़े गंभीर अंदाज में मुझ से कहा था, ‘तुम विशाल से यों हंसीमजाक न किया करो… डैडी को अच्छा नहीं लगता.’

‘‘ ‘तुम्हारे डैडी को तो मैं ही अच्छी नहीं लगती. तभी तो वह सीधे मुंह मुझ से बात ही नहीं करते, जो कहना होता है तुम से कहलवाते हैं और अब विशाल से बात करने क ो भी मना कर रहे हैं.’

‘‘मैं ने गुस्से में तुनक कर कहा था. इस पर शेखर का जो रौद्र रूप उस रात मैं ने पहली बार देखा था वह आजतक नहीं भूल पाई हूं.

‘‘अपने मजबूत हाथों से मुझे पलंग से उठा कर नीचे गिराते हुए एकदम ही राक्षसी अंदाज में शेखर ने कहा था, ‘इस घर में जो डैडी कहेंगे वही होगा, और तुम्हें भी वही करना होगा. अगर तुम्हें यह सब पसंद नहीं है तो तुम इस घर को छोड़ कर जा सकती हो…मगर तब मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगा.’

‘‘और फिर बड़ी बेदर्दी से शेखर बेडरूम छोड़ कर बाहर चला गया था. और मैं रात भर रोती रही थी पर मेरी सिसकियां सुनने वाला वहां कोई नहीं था.

‘‘इस घटना के बाद 15-20 दिनों तक शेखर और मुझ में बोलचाल बिलकुल बंद थी. जाने कितने दिनों तक हम दोनों का यह मौनव्रत चालू रहता मगर एक दिन बात को निरर्थक न बढ़ाने की सोच कर मैं ने ही शेखर से बात करनी शुरू की और फिर शायद मुझे खुश करने के लिए ही वह उस समय मुझे घुमाने स्विट्जरलैंड ले गया था. वह 10-12 दिन जैसे परियों के पंख लगा कर उड़ गए थे. वापसी में मैं ने ही शेखर से कहा था, ‘सोचती हूं, कुछ दिन…मां से मिल आऊं.’

‘‘शेखर ने तब कहा था, ‘चलो, कल ही चले चलते हैं.’

‘‘मां और बाबूजी हम दोनों को देख कर बहुत खुश हो गए थे. मां तो दामाद की सेवा करतेकरते मुझे भूल ही गई थीं. लेकिन जब उन्होंने मुझे कुछ दिन उन के पास छोड़ जाने की बात शेखर से कही तो उस ने तपाक से मना कर दिया और फिर 2 दिन में ही मैं शेखर के साथ अपने घर वापस आ गई थी. उस वक्त भी मेरा मन बहुत खट्टा हो गया था और रात को शेखर से कुछ कहने ही वाली थी कि उस का तमतमाता हुआ चेहरा देख कर डर के मारे चुप ही रह गई थी.

‘‘इस घटना के बाद हर 15-20 दिनों के बाद कुछ न कुछ ऐसा घट जाता जिस से मैं जान गई कि इस घर में मुझे अपने मन की इच्छा पूरी करने की आजादी कभी मिल ही नहीं सकती. यह बात सच थी कि व्यावहारिक दृष्टिकोण से उस घर में सुख ही सुख था. गहने, कपड़े, खानापीना यानी किसी भी चीज की कोई कमी नहीं थी. शेखर मुझ से प्यार तो बहुत करता था मगर उस के प्यार में मेरी अपनी इच्छा की कोई कद्र नहीं होती थी.

‘‘घर में कुछ काम नहीं था तो मैं ने शेखर से आगे की पढ़ाई करने की बात कहीं तो ‘जरूरत क्या है’ कह कर उस ने मना कर दिया.

‘‘कुछ करने की बात छोड़ो, किसी सहेली से मिलने जाने की बात करती तो हर वक्त शेखर के साथ ही जाना होता था और उसी के साथ वापस भी आना होता था… इसी कारण मैं तुम्हारे घर बहुत कम आती थी. वैसे पूजा के डैडी की आंखों में मैं ने रईसी के प्रति नफरत कब की पढ़ ली थी. तभी तो सचिन व पूजा की शादी से मैं डरती थी. लगता था पूजा को मेरा ही इतिहास न दोहराना पड़े मगर सचिन बहुत समझदार है.

पलभर का सच: भाग 1- क्या था शुभा के वैवाहिक जीवन का कड़वा सच

उस दिन रात में लगभग 12 बजे फोन की घंटी बजी तो नींद में हड़बड़ाते हुए ही मैं ने फोन उठाया था और फिर लड़खड़ाते शब्दों में हलो कहा तो दूसरी ओर से मेरे दामाद सचिन की चिरपरिचित आवाज मुझे सुनाई दी: ‘‘मैं सचिन बोल रहा हूं सा मां.’’

मेरी सब से प्रिय सहेली शुभ का बेटा सचिन पहले मुझे ‘आंटी’ कह कर बुलाता था. मगर जब से मेरी बेटी पूजा के साथ उस की शादी हुई है वह मुझे मजाक में ‘सा मां’ यानी सासू मां कह कर बुलाता था. उस रात उस की आवाज सुन कर मैं अनायास ही खुश हो गई थी और बोल पड़ी थी :

‘‘हां, बोलो बेटे…क्या बात है? इतनी रात गए कैसे फोन किया…सब ठीक तो है?’’

‘‘हां हां, सबकुछ ठीक है सा मां… पर आप को एक सरप्राइज दे रहा हूं. पूजा और मम्मी कल राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली आप के पास पहुंच रही हैं.’’

‘‘अरे वाह, क्या दिलखुश करने वाली खबर सुनाई है…और तुम क्यों नहीं आ रहे उन के साथ?’’

‘‘अरे, सा मां…आप को तो पता ही है कि मैं काम छोड़ कर नहीं आ सकता. और इन दोनों का प्रोग्राम तो अचानक ही बन गया. तभी तो प्लेन से नहीं आ रहीं. मैं तो कल से आप का फोन ट्राई कर रहा था. मगर फोन मिल ही नहीं रहा था…तभी तो आप को इतनी रात को तंग करना पड़ा… ये दोनों कल 10 साढ़े 10 बजे निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर उतरेंगी… राजू भैया को लेने के लिए भेज देना.’’

‘‘हां हां, राजू जरूर जाएगा और वह नहीं जा सका तो उस के डैडी जाएंगे… तुम चिंता मत करना.’’

यह कहते हुए मैं ने फोन रख दिया था और खुशी से तुरंत अपने पति को जगाते हुए उन्हें पूजा के आने की खबर सुना दी.

‘‘गुडि़या आ रही है यह तो बहुत अच्छी बात है पर उस के साथ तुम्हारी वह नकचढ़ी सहेली क्यों आ रही है?’’ हमेशा की तरह उन्होंने शुभा से नाराजगी जताते हुए मजाक में कहा.

‘‘अरे, उस का और एक बेटा भी यहां दिल्ली में ही रहता है. उस से मिलने का जी भी तो करता होगा उस का. पूजा को यहां पहुंचा कर शुभा कल चली जाएगी अपने बेटे के पास.’’

शुभा को शुरू से ही जाने क्यों यह पसंद नहीं करते थे जबकि वह मेरी सब से प्रिय सहेली थी. स्कूल और कालिज से ही हमारी अच्छीखासी दोस्ती थी. कालिज में शुभा को मेरी ही कक्षा के एक लड़के शेखर से प्यार हो गया था. उन दोनों के प्यार में मैं ने किसी नाटक के ‘सूत्रधार’ सी भूमिका निभाई थी. मुझे कभी शेखर की चिट्ठी शुभा को पहुंचानी होती तो कभी शुभा की चिट्ठी शेखर को. शुभा अपने प्यार की बातें मुझे सुनाती रहती थी.

खूबसूरत और तेज दिमाग की शुभा अमीर बाप की इकलौती बेटी होने के बावजूद मेरे जैसी सामान्य मिडल क्लास परिवार की लड़की से दोस्ती कैसे रखती है…यह उन दिनों कालिज के हर किसी के मन में सवाल था शायद. दोस्ती में जहां मन मिल जाते हैं वहां कोई कुछ कर सकता है भला?

शुभा का शेखर से प्यार हो जाने के बाद यह दोस्ती और भी पक्की हो गई थी. शेखर के पिता बहुत बड़े उद्योगपति थे. साइंस में इंटर करने के बाद शेखर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने मुंबई चला गया मगर शुभा को वह भूला नहीं था. आखिर कालिज की पढ़ाई पूरी करतेकरते ही शुभा और शेखर का प्रेम विवाह हम सब सहपाठियों के लिए एक यादगार बन कर रह गया था.

शुभा की शादी के साल भर बाद ही मेरी भी शादी हो गई और मैं यह जान कर बेहद खुश थी कि शादी के बाद मैं भी शुभा की ही तरह मुंबई में रहने जा रही थी.

मुंबई में हम जब तक रहे थे दोनों अकसर मिलते रहते थे मगर शुभा और शेखर के रईसी ठाटबाट से मेरे पति शायद कभी अडजस्ट नहीं हो सके थे. इसी से जब भी शुभा से मिलने की बात होती तो ये अकसर टाल देते.

मेरे पहले बेटे राजू के जन्म के बाद मेरे पति ने पहली नौकरी छोड़ कर दूसरी ज्वाइन की तो हम दिल्ली आ गए. यहां आने के 3 साल बाद पूजा का जन्म हुआ और फिर घरगृहस्थी के चक्कर में मैं पूरी तरह फंस गई.

शुभा से मेरी निकटता फिर धीरेधीरे कम होती गई थी. इस बीच शुभा भी 2 बच्चों की मां बन गई थी और दोनों बार लड़के हुए थे. यह सब खबरें तो मुझे मिलती रही थीं, मगर अब हमारी दोस्ती दीवाली, न्यू ईयर या बच्चों के जन्मदिनों पर बधाई भेजने तक ही सिमट कर रह गई थी.

पूजा को मुंबई के एक कालिज में एम.बी.ए. में एडमिशन मिल गया और वहीं उस की मुलाकात सचिन से हो गई.

पहले मुलाकात हुई, फिर दोस्ती हुई और फिर ठीक शुभा और शेखर की ही तरह पूजा और सचिन का प्यार भी परवान चढ़ा था.

मुझे धुंधली सी आज भी याद है… जब शादी तय करने की बारी आई थी तो सब से पहले शुभा ने ही शादी का विरोध किया था. कुछ अजीब से अंदाज में उस ने कहा था, ‘शादी के बारे में हम 2 साल बाद सोचेंगे.’

मैं तो उस के मुंह से यह सुन कर हैरान रह गई थी. शुभा के बात करने के तरीके को देख कर गुस्से में ही मैं ने झट से कहा था, ‘तू ने भी तो कभी लव मैरिज की थी… तो आज अपने बच्चों को क्यों मना कर रही है?’

इस पर बड़े ही शांत स्वर में शुभा बोली थी, ‘तभी तो मुझे पता है कि लव और मैरिज ये 2 अलगअलग चीजें होती हैं.’

‘ये दर्शनशास्त्र की बातें मत झाड़. तू सचसच बता…क्या तुझे पूजा पसंद नहीं? या फिर हमारे परिवारों की आर्थिक असमानताओं के लिए तू मना कर रही है?’

‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है. दरअसल, मैं शादी का विरोध नहीं कर रही हूं. मैं तो सिर्फ यह कह रही हूं कि शादी 2 साल बाद करेंगे.’

‘लेकिन क्यों, शुभा? सचिन तो अब अच्छाखासा कमा रहा है और पूजा की पढ़ाई खत्म हो चुकी है. फिर अब बेकार में 2 साल रुकने की क्या जरूरत है?’

‘यह मैं तुम्हें आज नहीं बता सकती,’ और पता नहीं कभी बता भी पाऊंगी कि नहीं.’

हम सब तो चुप हो गए थे लेकिन सचिन और पूजा दोनों ठहरे आज के आधुनिक विचारों के बच्चे. वे दोनों कहां समझने वाले थे. उन दोनों ने अचानक एक दिन कोर्ट में जा कर शादी कर ली थी और हम सब को हैरान कर दिया था.

शुभा और शेखर ने हालात को समझते हुए एक भव्य फाइव स्टार होटल में शादी की जोरदार पार्टी दी थी और फिर सबकुछ ठीकठाक हो गया था.

मजबूत औरत: उषा को अपनी मां कमजोर क्यों लगने लगी?

ऊषा ने जैसे ही बस में चढ़ कर अपनी सीट पर बैग रखा, मुश्किल से एकदो मिनट लगे और बस रवाना हो गई. चालक के ठीक पीछे वाली सीट पर ऊषा बैठी थी. यह मजेदार खिड़की वाली सीट, अकेली ऊषा और पीहर जाने वाली बस. यों तो इतना ही बहुत था कि उस का मन आनंदित होता रहता पर अचानक उस की गोद में एक फूल आ कर गिरा. खिड़की से फूल यहां कैसे आया, थोड़ा सोचते हुए उस ने गौर से फूल देखा तो बुदबुदाई, ‘ओह, चंपा का फूल’.

उस के पीहर का आंगन और उस में चंपा के पौधे. यह मौसम चंपा का ही है, उसे खयाल आया. तभी, यों ही पीछे मुड़ी तो देखती है कि चंपा की डाली कंधे पर ले कर एक सवारी खड़ी है. ‘ओह, यह फूल यहीं से आ कर गिरा होगा.’ ऊषा ने उस फूल को अपनी हथेली पर ऐसे हिलाया मानो वह चंपा का फूल कोई शिशु है और उस की हथेली के पालने में नवजात झला झल रहा हो.

ऊषा से एक साल बड़ा भाई और पड़ोस के बच्चे मिल कर चंपा के फूल जमा करते और मटकी में भर देते. तब मटकी का पानी ऐसा खुशबूदार हो जाता कि अगले दिन उस पानी को आपस मे बांट कर वे सब खुशबूदार पानी से नहा लेते थे. मां उस की शरारत देख कर उसे न कभी मारती, न कभी फटकारती. जबकि ऊषा की क्लास में कितनी ही लड़कियां बातबेबात पर अपनीअपनी मां की मार खाती थीं. एक ममता थी, वह हमेशा यही कहती कि उस की मां तो उसे लानतें भेजती रहती है. कभी कहती है, ‘ममता, तू इतनी सांवली है कि तेरी तो किसी हलवाई से भी शादी न होगी.’ कभी कहती, ‘ममता, तुझे पढ़ाने में पैसा बरबाद होता है.’ ममता की बातें सुन कर ऊषा को अपनी मां और भी प्यारी लगती थीं.

‘ओह, मेरी मां कैसी होगी?’ उस का मन फूल से हो कर अब सीधा मां के पास चला गया था. ऊषा को पीहर जाने के नाम पर मां का चेहरा ही देखना था. उस के पिता को गुजरे 3 बरस हो गए थे और तब से वह अब मां से मिलने जा रही थी. दरअसल ऊषा को दोनों बच्चों के 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं के कारण पीहर आने का समय न मिला था. बस, 2 घंटे का ही सफर था.

पीहर पहुंच कर ‘ओ मां’ कह कर उस ने मां को गले लगा लिया था. ‘‘कल आप का 72वां जन्मदिन है.’’

‘‘पता है मुझे,’’ कह कर मां ने लंबी सांस ली.

‘‘तो, इसीलिए तो आई आप के पास. यह लो आप के लिए साड़ी और अंगूठी है.’’

‘‘ओह, अच्छा,’’ कह कर मां ने रख लिया. लेकिन ऊषा ने गौर किया कि वह खुश बिलकुल भी नहीं हुईं. अगले ही पल वह बोलीं, ‘‘ऊषा, अगर पैसे देती तो मेरे काम आते, बेटी.’’

‘‘ओह मां, यह क्या कह रही हो?’’

‘‘सही कह रही हूं, बेटी.’’ मां ने ऊषा के सामने दिल खोल दिया, ‘‘बेटी, जब तक तेरे पिता जीवित थे, वे रोज ही सा?ोदारी वाले दवाखाने में जाते थे और रोज ही सौदोसौ रुपए ला कर मुझे देते थे. बेटी, 3 साल से मेरी दशा खराब हो रही है, पता है. अब मैं पाईपाई को तरस गई हूं.’’

‘‘ओह,’’ कह कर ऊषा ने उन का हाथ थाम लिया, ‘‘तो आप कभी फोन पर तो मुझे बता देतीं?’’

‘‘बेटी, दीवार के भी कान होते हैं और तुम कोई खाली बैठी हो जो हर पल अपना ही दुखड़ा बताती रहूं. अगर तुम आज मेरे पास न आतीं तो आज भी न बताती, चुपचाप सह लेती, बेटी. हर रोज सुबह पार्क जाती हूं, ऊषा. मेरा मन होता है कि रास्ते पर मिलने वाले कुत्तों को बिस्कुट खरीद कर खिलाऊं पर मेरा बटुआ खाली,’’ मां ने फिर गहरी सांस भरी.

‘‘तो भैयाभाभी कुछ नहीं देते?’’ ऊषा का मन भारी हो रहा था.

वह बोलीं, ‘‘हां, देते हैं, बेटी पर उतना ही जितने में मेरा काम चल जाए, बस.’’

‘‘अच्छा,’’ ऊषा हैरान थी.

‘‘बेटी, मुझ से मिलने पड़ोस की बेटियां आती हैं. सारे घर के लिए मिठाई लाती हैं. मेरा मन होता है, कुछ नकद उन के हाथ में रखूं पर मेरा तो हाथ…’’

‘‘ओह मां,’’ ऊषा ने अफसोस जाहिर किया.

‘‘मैं अपनी कोई साड़ी या स्वेटर दे देती हूं, खुशीखुशी वे ले जाती हैं. अब मेरी एक सहेली बीमार थी. मैं उसे देखने अस्पताल गई. मगर इतने पैसे नहीं थे कि कोई फल ले जाती. बस, दुआ दे कर आ गई,’’ कह कर मां खामोश हो गईं.

‘‘अच्छा, पर भैयाभाभी इतने कठोर हो गए कि उन्हें आप की हालत दिखती नहीं क्या.’’

‘‘हां बेटी, वे कहते हैं कि आप ने तो एक मकान तक नहीं बनाया. आप ने कुछ किया ही नहीं तो आप का क्या एहसान है, भला.’’

‘‘बेटी, तुम जानती हो, वह किराए का घर, वह आंगन, वे पड़ोसी. मैं तो कभी किसी की चोट तो किसी की बीमारी या किसी की बेटी की शादी… बस ऐसी सहायता में ही रह गई. मैं तो आज की जैसी अपनी खराब दशा की कभी सोच तक नहीं सकती थी,’’ मां बोलतेबोलते रुक गईं.

‘‘ओह, ये लो मां, ये 10 हजार रुपए रख लो.’’

‘‘नहीं ऊषा.’’

‘‘अरे मां, ये मेरे फालतू के हैं. मतलब यह कि 2 दिनों पहले ही मेहंदी लगाने का नेग मिला है. मां, रख लो न आप ये, रखो.’’ ऊषा ने जिद की.

‘‘अरे, अच्छा,’’ कह कर मां ने अपने बक्स से सोने के गहने निकाल कर ऊषा को दिए. ‘‘ऊषा, ये ले लो.’’

‘‘हैं, ये, ये गहने, नहीं मां,’’ ऊषा डर गई कि कहीं भाईभाभी इस कमरे में आ गए तो…

‘‘कोई है ही नहीं घर पर. कोई नहीं आने वाला.’’

‘‘अरे, कहां गए?’’ ऊषा ने पूछ लिया.

मां बोलीं, ‘‘दोनों मेरे जन्मदिन की खरीदारी करने गए हैं. कल 20 परिवारों को खाने पर बुलाया है. समाज का दिखावा तो खूब करना आता है.’’

‘‘अच्छा, चलो कोई नहीं. आप भी खुश हो लेना, मां. पर ये गहने रहने दो न,’’ वह मना करने लगी.

मां बोलीं, ‘‘सुनो ऊषा बेटी, डरो मत. इन का किसी को पता नहीं और ये बस मेरे हैं. अभी जो खजाना तुम ने दिया, तुम जानती नहीं ऊषा. उन के बदले ये कुछ नहीं हैं, बेटी.’’

‘‘ओह, मां ऐसा न कहो,’’ ऊषा के नयन नम हो गए थे पर मां ने तो जिद कर के सोने के कंगन और झुमके ऊषा के बैग में रख ही दिए.

अगले दिन मां के जन्मदिन का जश्न देख कर, भाईभाभी का दिखावा, आडंबर आदि देख कर ऊषा हैरान थी.

‘‘अच्छा मां,’’ विदा ले कर अगले दिन ऊषा वापस लौटी तो घर आ कर अमन को सब सच बता दिया.

‘‘अरे, ये कंगन और ?ामके तो 2 लाख रुपए से अधिक की कीमत के हैं, ऊषा. तुम यह कीमत हौलेहौले अदा कर दो.’’ ऐसा कह कर अमन ने एक अच्छा सुझाव दिया और यह सुन कर ऊषा को अमन पर बहुत गर्व हुआ.

3 महीने बाद ऊषा फिर पीहर आई. भैयाभाभी हैरत में पर उस ने आते ही कहा, ‘‘आप दोनों के लिए ये उपहार और आप को शुभ विवाह वर्षगांठ.’’

यह सुन कर भैयाभाभी खुश और उस के बाद वह मां से जा कर खुल कर मिली. खूब बातें हुईं. इस बार मां खुश थीं, बताती रहीं कि पड़ोस में इसे बीमारी में यह दे आई, उस को मकान के गृहप्रवेश में यह भेंट किया वगैरहवगैरह.

मां का चहकना ऊषा को आनंद से भर गया. सारी बात सुनी. जब मां चुप हुईं तो ऊषा ने उन को फिर से सौंप दिए 10 हजार रुपए.

‘‘ये क्या, ये, बस, दानपुण्य के लिए आप को दिए हैं, मां,’’ कह कर ऊषा ने उन का बटुआ भर दिया.

अगले महीने ऊषा फिर आई. भाभी को जन्मदिन की बधाई देने के बहाने मां का बटुआ भर गई. भाईभाभी बहुत खुश, वे तो ऐसा ही दिखावा पसंद करते थे. और उधर, मां को भी हैरत, ये ऊषा को हो क्या रहा है. ऊषा कहती, ‘अमन ने कहा है’ और मां को चुप कर देती.

अब यह सिलसिला चल पड़ा था. ऊषा हर तीसरे महीने जरूर आती और मां का बटुआ भर जाती. इसी तरह समय बीता और एक साल बाद मां का जन्मदिन फिर से आया.

ऊषा ने इस बार भैयाभाभी को भ्रम में रखने के लिए एक साड़ी भेंट की मगर रुपयों से मां का बटुआ फिर से भर दिया था. मगर, अब मां उसे आशीष ही देती. अब कुछ साड़ी, रूमाल और शौल के सिवा मां के बक्से में कुछ भी न बचा था.

मगर ऊषा तो मां को नहीं, उन के दानपुण्य के स्वभाव के लिए यह रुपया देती थी. ऊषा जानती थी, इसी से मां निरोगी हैं, खुश है, ताकत से भरी हैं.

अब ऊषा हर तीसरे महीने जब पीहर की बस में बैठा करती तबतब यही सोचा करती कि, यही मां, एक समय में कितनी मजबूत हुआ करती थीं. जब कालेज के समय खुद ऊषा का एक गहरा प्रेम प्रसंग चल रहा था और नादानी कर के ऊषा के गर्भ तक ठहर गया था, तब रोती हुई ऊषा को मां ने चुप कराया, उसे सहज होने को कहा और चिकित्सक ने जांच कर के बताया कि केवल 4 सप्ताह का गर्भ है, इसलिए आराम से सब साफ हो जाएगा. रोती हुई ऊषा को, तब भी, मां ही चुपचाप ले गई थीं अस्पताल और उस को इस अनचाहे भार से आजाद किया था.

मां ने एक बार फिर से उसे जीवनदान दिया था. ऊषा का मन दुख से ऐसा भरा था कि उस समय तो वह मर ही जाना चाहती थी. मगर मां ने उसे न मारा, न फटकारा.

मां ने, बस, इतना पूछा कि आगे, तुम दोनों विवाह करोगे, साथ रहोगे. ऊषा ने फूटफूट कर रोते हुए बताया कि गर्भ ठहरने की बात पता लगने के समय से ही उस ने कन्नी काट ली है, वह क्या विवाह करेगा.

‘ओह,’ बस इतना ही कहा था मां ने. उस समय वह मां का लौह महिला का रूप देखती रह गई थी. उस घटना के 2 वर्षों बाद जब ऊषा सामान्य हो गई तब मौका पा कर फिर मां ने ही ऊषा को अमन के बारे में बताया था और अमन की दूसरी पत्नी बनने का सु?ाव दिया.

अमन के 2 बच्चे थे. ऊषा को उस समय मां से बहुत खीझ हुई पर जब मां ने कहा, ‘जोरजबरदस्ती नहीं है, एक बार मिल कर गपशप कर लो. फिर जो चाहो.’

तब वह शांत हुई और उसी शाम अमन घर पर आए थे. ऊषा ने पहली मुलाकात में ही अमन की दूसरी पत्नी बनना सहर्ष स्वीकार कर लिया. अमन की पहली पत्नी फेफड़े की बीमारी से चल बसी थी. अमन एक सुल?ो हुए इंसान थे और औरत को बहुत सम्मान देते थे.

विवाह के दिन से ले कर आज तक ऊषा अमन के साथ बहुत खुश है. अमन के दोनों बच्चे उसे मां ही मानते हैं. इस समय भी, बस में, ऊषा को मजबूत मां बहुत याद आ रही थी और भी बहुत यादे थीं. मां ने विवाह के पहले साल उस को बहुत मानसिक संबल दिया था.

ऊषा को तो काम करने की जिम्मेदारी उठाने की कोई आदत नहीं थी. यों तो, अमन के घर पर एक सहायिका थी मगर 2 बच्चों की मां और अमन की पत्नी बन कर सहज होने में ऊषा को समय लगा. तब मां ने ही उसे ताकत दी थी. यों अमन के प्रेम में कभी कमी नहीं आई और आज तक नहीं.

फिर, 3 साल बाद भैया का विवाह हुआ. मां ने भाभी को भी आजाद और

मस्त रहने दिया. मां को तो सब को हंसता देखना पसंद था. भैयाभाभी का वैवाहिक जीवन बहुत खुशहाल था. ऊषा यही सोचती रहती कि अब मां के राज करने के

दिन आ गए हैं. मगर, फिर, एक दिन अचानक ही पिता चल बसे. एकदम से सब बदलता गया.

और आज की तारीख में सब सही दिखाई दे रहा था लेकिन मां केवल बटुआ खाली होने से भीतर ही भीतर कितनी कमजोर पड़ गई थीं.

यही सबकुछ सोचती हुई ऊषा पीहर पहुंची. मां दिखाई दे गई, वह अपनी छड़ी के सहारे कहीं से लौट रही थीं. ऊषा ने मौका देख कर उन के बटुए में रुपए रखे. तभी भाभी 2 कप चाय ले कर आ गई. ऊषा और मां गपशप तथा चाय में व्यस्त हो गईं.

भाभी जैसे ही उन के पास से गई, मां ने हंसते हुए ऊषा को नकदी लौटा दी.

‘‘अरेअरे, यह क्या मां, ये आप के हैं,’’ वह चौंक गई.

मां बोली, ‘‘अरेअरे, यह देख.’’ मां ने बटुआ खोला और नोट दिखाए.

‘‘ओह, आप ने ये पहले वाले खर्च नहीं किए तो अब दानपुण्य का काम बंद,’’ ऊषा मां को गौर से देख रही थी.

‘‘ऐसा तो हो ही नहीं सकता, यह मेरी एक महीने की कमाई,’’ वह चहक कर बोली.

ऊषा के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘हैं, कमाई, नौकरी, यह कब हुआ. 3 महीने पहले तो तुम नौकरी नहीं करती थीं.’’

‘‘अरे रे, सुन तो सही. हुआ क्या, अपना सुमित है न, मेरी दिवंगत सहेली का छोटा बेटा.’’

‘‘हांहां, मां. मुझे याद है,’’ ऊषा ने किसी चेहरे की कल्पना करते हुए जवाब दिया.

‘‘तो, उस के जुड़वां बेटे हुए. कुछ परेशानी के कारण अस्पताल में 16 दिन रहना था. पुरुष को इजाजत नहीं थी और सुमित को रात को रुकने वाला कोई न मिला. मैं ने कहा, ‘मैं रुक जाती हूं.’ बस, रात को सोना ही तो था. मैं करीब 16 रातें सोने चली गई. अब वह कल आया. मिठाई, फल लाया और 8 हजार रुपए दे गया. मैं ने मना किया तो बोला कि आप ने वैसे ही 20 हजार रुपए की बचत करा दी है. अगर ये न रखे तो आप की बहू मुझ से बात न करेगी.’’ पूरी बात बता कर मां ने सांस ली.

ऊषा बोली, ‘‘ओह, अच्छा, पर ये तो जल्द खत्म हो जाएंगे. तुम अगले महीने के लिए रख लो.’’ ऊषा ने जिद की तो वापस लौटाते हुए मां बोली, ‘‘अरे, आगे तो सुन, पड़ोस में एक टिफिन सैंटर है. रोज के 200 टिफिन जाते हैं नर्सिंग होम में तो मुझे वहां नौकरी मिल गई है.’’

‘‘तो मां, इस उम्र में खाना पकाओगी?’’ अब ऊषा को कुछ गुस्सा आ गया था.

‘‘अरे, पकाना नहीं है. बस, रोज सुबह और शाम जा कर चखना है, कमी बतानी है और इस के 10 हजार रुपए हर महीने मिल रहे हैं,’’ कह कर मां हंसने लगीं.

‘‘अच्छा, मेरी मजबूत मां.’’ इस बार जब ऊषा लौटी तो उसे अपनी मजबूत मां का पुनर्जन्म देख कर बहुत खुशी हो रही थी. मन पुलकित था.

पहचान: पति की मृत्यु के बाद वेदिका कहां चली गई- भाग 2

‘‘तुम अपने पेपर्स मु?ो दे दो…साउथ की एक यूनिवर्सिटी में मैं ने बात कर ली है. वहां तुम्हारा रजिस्ट्रेशन करवा रही हूं…अपनी पढ़ाई पूरी करो. अपना जरूरी सामान एक बैग में रखना. मैं टिकट बुक करवा कर मैसेज करूंगी. तुम यहां से भाग जाना. यहां तुम और तुम्हारा बच्चा दोनों ही सुरक्षित नहीं हैं. चली जाओ यहां से…अपनी पहचान बनाओ ताकि फिर कोई तुम्हारी तरफ आंख भी न उठा सके.’’

वेदिका हतप्रभ सी बैठी सुनती रही. अचानक यह क्या हो गया, वह सम?ा ही नहीं पाई.

‘‘उठो पेपर्स दो मु?ो जल्दी,’’ 2 हाथों ने उसे ?ाक?ोर दिया.

वेदिका हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई. उस ने अपने पेपर्स और फोन नंबर लिख कर दिया. राधिका की 2 आंखों के करुण भाव की पहचान ने उस की हर बात पर विश्वास करवा दिया था, जिस के दम पर वह खुद की पहचान बनाने के लिए उस की हर योजना के लिए तैयार हो गई थी. अगले 10 मिनट में पूरी योजना बन गई.

फिर कमरे में सन्नाटा छा गया. जातेजाते 2 हाथों ने उसे मजबूती से थाम कर दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘आगे की जंग तुम्हें अकेले लड़नी है, लेकिन इन बेगानों के बीच के अकेलेपन से ज्यादा अकेलापन वहां नहीं होगा विश्वास करो. मैं भी लगातार तुम्हारे संपर्क में नहीं रह पाऊंगी वरना मेरे माध्यम से ये लोग तुम तक पहुंच जाएंगे. लेकिन हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगी. अपनी तरफ से तुम्हारी खैरखबर लेती रहूंगी. बस, तुम हिम्मत न हारना.

अपनी पहचान बना कर अपने और अपने बच्चे के हक के लिए लौटना.’’

वेदिका देर तक वैसी ही बैठी रही. आंसू गालों से लुढ़क कर गोद में समाते रहे. खुद की पहचान बनाने के लिए उसे अपनी मौजूदा पहचान से दूर बहुत दूर हो जाना है, एक अनजानी दुनिया में अकेले सिर्फ अपने दम पर ताकि इस घर के लोग उसे ढूंढ़ न सकें. उन के मन के प्रौपर्टी खो देने या उस का हिस्सा होने के डर के सामने उस की कोख में पलती विदित की आखिरी निशानी और वह खुद उन के लिए कोई माने नहीं रखती.

एक अनजान शहर अनजान मंजिल पर जाने के नाम से उस का दिल कांप रहा था. उस का मन हुआ वह वापस अपने घर चली जाए… मम्मीपापा के पैर पकड़ कर माफी मांग ले… मम्मी की गोद में सिर रख कर खूब रोए… लेकिन नकार दिए जाने का डर शायद दुनिया का सब से बड़ा डर होता है, जिस ने उस के इस इरादे और कदमों को कमजोर कर दिया. यह तो तय था कि बिना अपनी पहचान बनाए न तो वह और न ही उस के प्यार की निशानी ही सुरक्षित है, यही खयाल उसे जीने की प्रेरणा देता और बेगाने हो चुके अपनों के सामने अपनी पहचान बनाने का निश्चय दृढ़ होता जाता.

अगले दिन दोपहर में वेदिका चुपके से घर से निकल बैंक पहुंची. उस ने अपना और विदित का अकाउंट बंद करवा कर अपने पुराने नाम वेदिका शर्मा के नाम से नया अकाउंट खुलवाया. आधे पैसों का फिक्स डिपौजिट करवाया. कुछ कैश ले कर घर आ गई. अलमारी से एक बैग निकाल कर कपड़ों के नीचे रुपए छिपा दिए. शादी वाले दिन पहनी साड़ी हाथ में लेते ही यादें नदी की तरह आंखों से बहने लगीं. फिर उसी साड़ी में उस ने विदित और उस की शादी की तसवीर व शादी का सर्टिफिकेट लपेट कर रख दिया. वह कम से कम सामान अपने साथ ले जाना चाहती थी. लेकिन विदित की खुशबू से रचीबसी किसी भी चीज को छोड़ने का मन ही नहीं हुआ.

3 दिन बाद शाम 5 बजे मैसेज आया. रात 2 बजे की गाड़ी का ई टिकट था. कुछ ही देर बाद फिर मैसेज आया. ट्रेन में बैठ कर इस सिम को निकाल देना और फिर कभी इस का इस्तेमाल मत करना.

रात 1 बजे पूरा घर सन्नाटे में डूबा था. वेदिका ने घर से निकल कर स्टेशन की राह ली. ट्रेन आने में 10 मिनट की देरी थी. घबराहट में वह बारबार घड़ी देख रही थी. एक बार पहले भी उस ने घर छोड़ा था, तब विदित उस के साथ था. तब उसे बिलकुल डर नहीं लगा था. आज एक अनजाना डर उसे बेचैन कर रहा था. न जाने वह पकड़े जाने का डर था या फिर अनजान सफर पर जाने का.

शाम 7 बजे वेदिका स्टेशन पर उतरी तो एक आदमी ने उस के पास आ कर उस का नाम पूछा और फिर सामान टैक्सी में रख दिया. एक होस्टल में उस के रहने का इंतजाम था. राधिका ने सारा इंतजाम किया था.

अगले दिन सुबह वार्डन के औफिस में राधिका का फोन आया. औपचारिक बातों के बाद उस ने बताया कि उस के ऐडमिशन के पेपर्स वार्डन के पास हैं. वह कालेज जाना शुरू कर दे. कोई परेशानी हो तो वार्डन आशाजी से कहे. पास ही एक लेडी डाक्टर भी हैं. चैकअप करवाती रहे. घबराना मत. मैं तुम्हारे साथ हूं. यहीं फोन करती रहूंगी, लेकिन ज्यादा नहीं.

राधिका ने ही बताया कि तुम्हारे गायब हो जाने से घर में कुहराम मचा हुआ है. राधिका के जाने के बाद ही वेदिका ने घर छोड़ा था, इसलिए उस के पास कई फोन आ चुके हैं. हो सकता है वे लोग अपने प्रभाव से उस के फोन की निगरानी भी करें, इसलिए वह पब्लिक बूथ से बात कर रही है.

आशाजी अधेड़ उम्र की सहृदय महिला थीं. उन्होंने वेदिका के ऐडमिशन से ले कर डाक्टर से चैकअप करवाने तक हर चीज में मदद की. वेदिका की दुख भरी कहानी ने उन्हें द्रवित कर दिया था. वे जब भी कोई डिश बनातीं, वेदिका के लिए जरूर बचा कर रखतीं. होस्टल में अधिकतर लड़कियां कामकाजी थीं. धीरेधीरे उन के साथ वेदिका का अकेलापन बीतने लगा. जानपहचान से प्यार भरे रिश्ते पनपने लगे. ज्योंज्यों दिन बीतने लगे रिश्ते परवान चढ़ने लगे. कोई बड़ी बहन के अधिकार से तो कोई छोटी बहन के से प्यार से वेदिका को हाथोंहाथ रखता.

पहले सैमैस्टर की परीक्षा हो चुकी थी. वेदिका को विश्वास था कि वह बहुत अच्छे नंबरों से पास होगी. कालेज बंद थे. वेदिका सारा दिन नन्हे से बतियाती. उसे अकसर खयाल आता कि न जाने घर में सब कैसे होंगे… क्या अब भी उसे ढूंढ़ रहे होंगे? क्या उसे खोजते मम्मीपापा के यहां गए होंगे? वहां उसे न पा कर क्या प्रतिक्रिया दी होगी? क्या मम्मीपापा ने भी उसे ढूंढ़ने की कोशिश की होगी? या वे अब तक उस से नाराज हैं? जब इन में से किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता तो वह अपने मन को तसल्ली देने के लिए खुद ही जवाब देती और खुद ही उन्हें नकारती.

उस रात जब वेदिका को दर्द उठा तो पूरा होस्टल जाग गया. रात 2 बजे वह नन्ही कली प्रस्फुटित हुई तो उस की महक से वेदिका का जीवन ही नहीं, पूरा होस्टल भी महक उठा.

हौस्पिटल से आने पर अनुभवी महिलाओं ने उन की देखभाल की जिम्मेदारी ले ली. कालेज की लड़कियों ने उसे नोट्स दे दिए थे.

अपनों के बेगानेपन के घाव बेगानों के अपनेपन ने भर दिए थे. 3 हफ्ते आराम करने के बाद अब वह 2-3 घंटों के लिए कालेज जाने लगी थी. नाइट ड्यूटी वाली लड़कियां नन्ही कली का ध्यान रखतीं.

राधिका ने उसे फोन कर बधाई दी. वेदिका उस से बहुत कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन उस ने जवाब दिया कि तुम किसी की चिंता न करो. अपनी पढ़ाई और सेहत पर ध्यान दो.

कली की कोमल मुसकान अब वेदिका को कुछ और सोचने का मौका नहीं देती थी. आखिरी सैमैस्टर करीब था. वेदिका के पैसे खत्म होने को थे. डायमंड का सैट अभी भी उस के पास था. वह विदित का दिया गिफ्ट था, इसलिए उसे बेचने का मन नहीं बना पा रही थी. कालेज की पढ़ाई और कली की देखभाल के बाद समय ही नहीं बचता था कि वह कोई और काम कर सके. होस्टल की फीस और मेस का बिल भरना था. उसे परेशान देख कर आशाजी ने पूछा कि क्या बात है? उन्होंने सैट देखा. सुनार से उस की जांच करवाई और कहा कि अगर वह चाहे तो सोने की चेन उन के पास रख कर पैसे ले सकती है. फिर जब नौकरी करने लगे तो पैसे चुका कर चेन वापस ले ले.

वेदिका की आंखें भर आईं. एक ओर आशाजी की सहृदयता थी तो दूसरी ओर चेन पहनाते विदित की उंगलियों का गुदगुदा स्पर्श. बहुत सोचने के बाद उस ने टौप्स गिरवी रख कर पैसे ले लिए.

पढ़ाई पूरी होते ही वेदिका को नौकरी मिल गई. कली भी साल भर की हो गई थी. थोड़ा समय होस्टल में और 2-3 घंटे क्रैच में उसे छोड़ने की व्यवस्था की गई. नौकरी मिलने पर राधिका ने उसे बधाई दी. वेदिका ने सब के हालचाल जानने चाहे, तो उस ने इतना ही कहा कि अपने मन को कमजोर न बनाओ. अभीअभी तो नौकरी मिली है. पहले अपने पैर जमाओ, अपनी पहचान बनाओ, फिर एक दिन तुम्हें वहां जाना ही है. वैसे भी वहां कुछ नहीं बदला.

भले ही सारी दुनिया आप की खुशी में शामिल हों, लेकिन जब तक रिश्ते आप के साथ न हों हर खुशी अधूरी और हर सांत्वना सतही ही लगती है.

समय ने गति पकड़ ली. वेदिका को तरक्की मिल गई. कली भी स्कूल जाने लगी. भावनाओं का प्रवाह मंथर हो चला था. वेदिका ने एक छोटा सा फ्लैट ले लिया, कली की किलकारियों और मासूम बातों से उसे सजासंवार लिया था. घर के दरवाजे पर उस के नाम की तख्ती उस की पहचान बता रही थी, बिना किसी और नाम के सहारे के. एक नामी कंपनी की सीईओ थी वह अपने नाम, अपनी पहचान के साथ.

एक दोपहर जब वेदिका लंच के बाद अपने कैबिन में लौटी तो वहां किसी को बैठा देख कर चौंक गई. उस के आने की आहट से जब वे पलटे तो खुशी और आश्चर्य से वेदिका की चीख ही निकल गई.

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