कविता: क्यों विभाष ने की अपनी पत्नी कि हत्या

विभाष ने पक्का निश्चय कर लिया कि भले ही उसे नौकरी छोड़नी पड़े, लेकिन अब वह दिल्ली में बिलकुल नहीं रहेगा. संयोग अच्छा था कि उसे नौकरी नहीं छोड़नी पड़ी. मैनेजमेंट ने खुद ही उस का लखनऊ स्थित ब्रांच में ट्रांसफर कर दिया.

विभाष के लिए यह दोहरी खुशी इसलिए थी, क्योंकि उस की पत्नी लखनऊ में ही रहती थी. ट्रांसफर का और्डर मिलते ही विभाष जाने की तैयारी में जुट गया, उस ने पैकिंग शुरू कर दी. वह एकएक कर के सामान बैग में रख रहा था. उस के पास एक दरजन से भी ज्यादा शर्ट थीं. उन्हें रखते हुए उसे अंदाजा हो गया कि उस के पास लगभग हर रंग की शर्ट है. लेकिन उन में नीले रंग की शर्टें कुछ अधिक ही थीं. क्योंकि अवी यानी अवनी को नीला रंग ज्यादा अच्छा लगता था.

शुरूशुरू में जब वह अवनी से मिलने जाता था, हमेशा नई शर्ट पहन कर जाता था. अवनी उस के सिर के बालों में अंगुलियां फेरते हुए कहती थी, ‘‘विभाष, नीली शर्ट में तुम बहुत स्मार्ट लगते हो.’’

अवनी के बारबार कहने की वजह से ही नीला रंग उस की पसंद बन गया था. शर्टों को देखतेदेखते उस ने अपना हाथ सिर पर फेरा तो उसे अजीब सा लगा. वह अपना घर खाली कर रहा था, वह रसोई का सारा सामान समेट चुका था. फ्रीज में रखा जूस और ब्रेड भी खत्म हो गई थी. डाइनिंग टेबल पर रखी फलों की टोकरी भी खाली थी.

सब चीजों को खाली देख कर उस से अपने भरे हुए बैग की ओर देखा. उस के मन में आया कि घर खाली करने में वह जितना समय लगाएगा, उसे उतनी ही देर होगी. अभी उस के बहुत काम बाकी था, जिस के लिए उसे काफी दौड़भाग करनी थी.

अभी उस ने बैंक का अपना खाता भी बंद नहीं कराया था. लेकिन इस के लिए वह परेशान भी नहीं था. क्योंकि उस में कोई ज्यादा रकम नहीं थी. थोड़े पैसे पडे़ थे. लेकिन एक बार बैंक मैनेजर से मिलने का उस का मन हो रहा था. बैंक मैनेजर से ही नहीं, अवनी से भी. दिल्ली आ कर उस ने नोएडा में अपनी नौकरी जौइन की थी. तब फाइनेंस मैनेजर गुप्ताजी ने उसे बैंक के खासखास कामों की जिम्मेदारी सौंप दी थी, जो उस ने बखूबी निभाई थी.

विभाष की कार्यकुशलता देख कर ही उसे बैंक के बड़े काम सौंपे गए थे. बैंक मैनेजर मि. शर्मा से उस की अच्छी पटती थी. शर्माजी ने ही उस का परिचय अवनी से कराया था. इस के बाद बैंक के कामों को ले कर उस की अवनी से अकसर मुलाकात होने लगी, जो धीरेधीरे बढ़ती गई.

विभाष और बैंक अधिकारी अवनी की ये मुलाकातें जल्दी ही दोस्ती में बदल गईं. कभीकभी दोनों बैंक के बाहर भी मिलने लगे. उन की इन मुलाकातों में अवनी की अधिक उम्र, 3 साल के बेटे की मां होना और विधवा होने के साथसाथ लोगों की कानाफूसी भी आड़े नहीं आई. उन की दोस्ती और प्यार गंगा में तैरते दीए की तरह टिमटिमाता रहा.

मजे की बात यह थी कि दोनों का एक शौक मेल खाता था, कौफी पीने का. उन्हें जब भी मौका मिलता, अट्टा मार्केट स्थित कौफीहाउस में कौफी पीने पहुंच जाते. कौफी पीते हुए दोनों न जाने कितनी बातें कर डालते. उन में मनीष की यादें भी होती थीं. मनीष यानी अवनी का पति.

ध्रुव की मस्ती का खजाना भी कौफी की सुगंध में समाया होता था. मनीष के साथ शादी और उस की छोटीछोटी आदतों का विश्लेषण भी कौफी की मेज पर होता था. कभीकभी दोनों चुपचाप एकदूसरे को ताकते हुए कौफी की चुस्की लेते रहते.

उस समय दोनों के बीच भले ही मौन छाया रहता, लेकिन दिल कोई मधुर गीत गाता रहता. अवनी के गालों पर आने वाली लटों को विभाष एकटक ताकता रहता. उन लटों से वह कब खेलने लगा उसे पता ही नहीं चला.

मनीष की बातें करते हुए अवनी के चेहरे पर जो भाव आते, वे विभाष को बहुत अच्छे लगते थे. ऐसे में एक दिन उस ने कहा भी था, ‘‘अवनी, तुम्हारी बातों और आंखों में बसे मनीष को मैं अच्छी तरह पहचान गया हूं. लेकिन अब तुम्हारे जीवन में विभाष धड़कने लगा है.’’

यह सुन कर अवनी की आंखों में अनोखी चमक आ गई थी. उस ने कहा था, ‘‘विभाष, मेरी और मनीष की शादी घर वालों की मरजी से हुई थी. पर हमारे प्यार के लय में लैला मजनूं जैसी धड़कनें थीं.’’ यह कहतेकहते उस की आवाज गंभीर हो गई थी. उस ने आगे कहा था, ‘‘मेरा ध्रुव मेरे लिए मनीष के प्यार की भेंट है. अब वही मेरे जीवन का आधार है.’’

विभाष की शादी कुछ दिनों पहले ही हुई थी. उस की पत्नी लखनऊ यूनिवर्सिटी से बीएड कर रही थी. इसलिए वह विभाष के साथ दिल्ली नहीं आ सकी थी. वैसे भी यहां विभाष की नईनई नौकरी थी. वह यहां अच्छी तरह जम कर, अपना फ्लैट ले कर पत्नी को लाना चाहता था.

अब उसे पत्नी के बिना एक पल भी रहना मुश्किल लगने लगा था. एक दिन अवनी ने उस से पूछा भी था, ‘‘तुम यहां से पत्नी के लिए क्या ले जाओगे?’’

जवाब देने के बजाए विभाष अवनी को एकटक ताकता रहा. उसे इस तरह ताकते देख अवनी खिलखिला कर हंसते हुए बोली, ‘‘अरे मेरे बुद्धू राम, तुम यहां से जा रहे हो तो पत्नी के लिए कुछ तो ले जाओगे. उसे क्या पसंद है?’’

‘‘उसे रसगुल्ला बहुत पसंद है.’’ विभाष ने कहा.

अवनी और जोर से हंसी, किसी तरह हंसी को रोक कर उस ने कहा, ‘‘अरे रसगुल्ला तो पेट में जा कर हजम हो जाएगा. तुम्हें नहीं लगता कि कोई ऐसी चीज ले जानी चाहिए, जो महिलाओं को अच्छी लगती हो.’’

विभाष को असमंजस में फंसा देख कर अवनी मुसकरा कर रह गई. कुछ दिनों बाद अवनी ने एक बढि़या सी हरे रंग की साड़ी ला कर विभाष को देते हुए कहा, ‘‘इसे अपनी पत्नी के लिए ले जाइए, उन्हें बहुत अच्छी लगेगी.’’

विभाष कुछ देर तक उस साड़ी को हैरानी से देखता रहा. उस के बाद अवनी पर नजरें जमा कर पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता चला कि यह रंग मेरी पत्नी को बहुत पसंद है?’’

‘‘तुम्हारी बातों से.’’ अवनी ने सहज भाव से कहा.

थोड़ी देर तक विभाष कभी साड़ी को तो कभी अवनी को देखता रहा. वह अवनी की दी गई भेंट को लेने से मना नहीं कर सकता था, इसलिए साड़ी ले कर अपने औफिस बैग में रख ली. धीरेधीरे दोनों में नजदीकियां बढ़ती गईं. यह नजदीकी कोई और रूप लेती, उस के पहले ही विभाष ने वह समाचार ‘प्रेमिका के लिए पत्नी की हत्या’ पढ़ा. ऐसे में उस का घर ही नहीं जिंदगी भी बिखर सकती थी.

वह भूल गया था कि यहां रह कर वह अवनी से दूर नहीं रह सकता. इसीलिए उस ने वापस जाने का निर्णय लिया था. उस के बौस उस के काम से खुश थे. इसलिए उसे अपने लखनऊ स्थित औफिस में शिफ्ट कर दिया था. इस तरह उस की नौकरी भी बची रहती और वह अपनी पत्नी के पास भी पहुंच जाता.

उस ने अलमारी से अवनी द्वारा दी गई साड़ी निकाली. कुछ देर तक साड़ी को देखने के बाद उस ने जैसे ही बैग में रखी, डोरबेल बजी. कौन हो सकता है. उस ने सब के पैसे तो दे दिए थे. अपने जाने की बात भी बता दी थी.

उस ने दरवाजा खोला तो सामने अवनी को खड़ा देख हैरान रह गया. वह इस वक्त आ सकती है, उसे जरा भी उम्मीद नहीं थी, इसीलिए वह उसे अंदर आने के लिए भी नहीं कह सका. अवनी उस का हाथ पकड़ कर अंदर ले आई. विभाष उसे देखने के अलावा कुछ कह नहीं सका.

अवनी के अंदर आते ही जैसे एक तरह की सुगंध ने उसे घेर लिया. उस सुगंध ने उस के मन को ही नहीं, बल्कि देह को. खास कर आंखें को घेर लिया था. उस का मन अभी भी मानने को तैयार नहीं था कि अवनी उस के कमरे में उस के साथ मौजूद है. जबकि अवनी उस का हाथ थामे उस के समने खड़ी थी.

सुगंध उस की आंखों में भरी थी, जो मन को लुभा रही थी. क्योंकि अवनी एक मस्ती भरे झोंके की तरह थी. वह कब खुश हो जाए और कब नाराज, अंदाजा लगाना मुश्किल था. तभी उसे कुछ दिनों पहले की बात याद आ गई.

अचानक एक दिन अवनी ने कौफी पीने जाने से मना कर दिया था. ऐसा क्यों हुआ, विभाष अंदाजा भी नहीं लगा सका. उस ने भी अवनी से कौफी पीने चलने का आग्रह नहीं किया. कुछ कहे बगैर वह वहां से चला गया. जहां वह हमेशा कौफी पीता था, वहीं गया.

अवनी ने कौफी पीने से मना कर दिया था, इसलिए कौफी पीने का उस का भी मन नहीं हुआ. आखिर में बगैर कौैफी पिए ही वह घर लौट आया. विभाष इतना ही सोच पाया था कि अवनी रसोई के पास आ कर बोली, ‘‘कौफी है या वो भी खत्म कर दी?’’

अब तक विभाष को घेरने वाली मनपसंद सुगंध हट गई थी. उस ने आंखें झपकाते हुए कहा, ‘‘नहीं…नहीं, कौफी की शीशी अपनी जगह पर रखी है.’’

कहता हुआ विभाष अवनी के पीछेपीछे किचन में आ गया. उस ने किचन की छोटी सी अलमारी से सारा सामान समेट लिया था.

लेकिन कौफी की शीशी और चीनी रखी थी. उस में से कौफी की शीशी निकाल कर अवनी के हाथ में रख दी. अवनी कौफी बनाने लगी तो वह बाहर आ गया. अवनी कौफी के कप ले कर कमरे में आई तो विभाष वहां नहीं था. उसे कौफी की सुगंध बहुत पसंद थी. वह वहां से चला गया, यह सोचते हुए अवनी कौफी से निकलती भाप को देखती रही.

पलभर बाद विभाष हांफता आया तो उस के हाथों में मोनेको और मेरी गोल्ड बिस्किट के पैकेट थे. अवनी ने कहा, ‘‘आज तो बिना बिस्किट के भी चल जाता.’’

‘‘जो आदत है, वह है. उस के बिना कैसे चलेगा?’’ विभाष ने कहा.

‘‘तुम्हारे बिना तो अब चलाना ही पड़ेगा.’’ अवनी ने कहा.

इसी के साथ दोनों की नजरें मिलीं, जैसे बिना गिरे कोई चीज व्यवस्थित हो जाए. उसी तरह उन की नजरें व्यवस्थित हो गई थीं. अवनी ने पूछा, ‘‘अभी तुम्हारी कितनी पैकिंग बाकी है?’’

‘‘लगभग हो ही गई है.’’

‘‘तो आज आखिरी बार साथ बैठ कर कौफी पी लेते हैं.’’ कहते हुए अवनी कौफी के दोनों कप ले कर बालकनी में आ गई. वहां पड़ी प्लास्टिक की कुरसी पर बैठते हुए अवनी ने कहा, ‘‘तुम्हें यहां आए कितने दिन हुए?’’

विभाष ने कौफी की चुस्की लेते हुए कहा, ‘‘करीब 1 साल.’’

‘‘मुझे अच्छी तरह याद है. तुम्हें यहां आए 11 महीने 10 दिन हुए हैं.’’ अवनी ने कहा.

विभाष ने कोई जवाब नहीं दिया. क्योंकि वह जानता था कि बैंक अधिकारी अवनी का जोड़नाघटाना गलत नहीं हो सकता. अवनी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘‘तुम जब भी आए, अपनी जानपहचान को गिनो तो एक लंबा अरसा हो गया, लेकिन देखा जाए तो यह कोई बहुत लंबा अरसा भी नहीं है.

‘‘तुम्हारे आने से जिंदगी जीने के लिए मुझे एक साथी मिल गया था. मैं मनीष की यादों के साथ जी रही थी और आज भी जी रही हूं. पर तुम से दोस्ती होने के बाद हमारी यानी मेरी और मनीष की यादों का बुढापा जाता रहा. हम कितनी बार कौफी हाउस में साथसाथ बैठे, ध्रुव को ले कर पार्क में बैठे. वहां बैठ कर डूबते सूरज को साथसाथ देखते रहे. कितने मनपसंद काम साथसाथ किए.’’

‘‘अवनी, तुम यह बातें इस तरह बता रही हो, जैसे कविता पढ़ रही हो.’’ विभाष ने कहा. उसे अवनी के मुंह से यह सब कहना अच्छा लग रहा था.

‘‘अपनी दोस्ती भी तो एक कविता की ही तरह है.’’ अवनी ने आंख बंद कर के कहा.

‘‘मुझे लगता है कि अपनी इस दोस्ती को कविता की ही तरह रखना है तो हमारा अलग हो जाना ही ठीक है.’’

इतना कह कर अवनी खड़ी हो गई. विभाष ने उस का हाथ थाम कर कहा, ‘‘मैं तुम्हारी बात को ठीक से समझ नहीं सका. जरा अपनी बात को इस तरह कहो कि समझ में आ जाए.’’

‘‘विभाष, तुम ने मुझे जितने भी दिन दिए, वे मेरे लिए यादगार रहेंगे. मैं ने तुम्हें अपने मन मंजूषा में संभाल कर रख लिया है. यह थोड़ा मनपसंद समय और लंबा खिंचता तो उसे समय की नजर लग सकती थी. उस में न जाने कितनी झूठी सच्ची बातों और घटनाओं का टकराव होता. तुम्हारी शादी अनीशा से हुई है. तुम सुख से उस के साथ अपना जीवन व्यतीत करो. मैं अपनी जिंदगी मनीष की यादों और ध्रुव को पालने- पोसने में बिता लूंगी.

‘‘वादा करो कि तुम मुझे कभी ईमेल नहीं करोगे. जब कभी मेरी याद आए, अनीशा का हाथ पकड़ कर अस्त होते सूर्य को देखना और प्यार की छोटीछोटी कविताएं पढ़ कर सुनाना. अपना जीवन सुखमय बनाना.’’ इतना कह कर अवनी ने विभाष के गाल पर हल्के से चुंबन करते हुए कहा, ‘‘विभाष, मुझे तो प्यार की मीठी कविता होना है, महाकाव्य नहीं.’’

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पथभ्रष्ठा- भाग 3: बसु न क्यों की आत्महत्या

1 वर्ष बाद शुभेंदु ने दिल्ली पहुंचते ही कई प्रतिष्ठित कंपनियों में अपना आवेदनपत्र भेजना शुरू कर दिया. साक्षात्कार के लिए उन्हें बुलाया भी गया. शुभेंदु की शिक्षा और खाड़ी देश के अनुभव को देखते हुए कंपनियां उन्हें मोटी पगार के साथ, दुबई जैसी सारी सुविधाएं भी देने को तैयार थीं, किंतु बसु नोएडा स्थित बुटीक को छोटे से कारखाने में बदल कर रेडीमेड कपड़ों के आयातनिर्यात का काम शुरू करने की योजना बना चुकी थी.

निर्यात किए गए माल की देखभाल करने के लिए बसु ने दुबई में एक औफिस खोलने की बात पर जोर दिया तो शुभेंदु घबरा गए. बोले, ‘‘पेशे से इंजीनियर हूं. मैं ने बिजनैस कभी नहीं किया है. मैं ने जो कुछ कमाया है. कहीं ऐक्सपोर्ट और दुबई औफिस के चक्कर में उसे भी न गंवा दूं.’’

लेकिन बसु को ठहराव से नफरत थी. उसे तो आंधीतूफान की तरह बहना और उड़ना ही रुचिकर लगता था. अपने रूपजाल से शुभेंदु को ऐसा दिग्भ्रमित किया कि वे भी मान गए.

नोएडा, में कारखाने के नियंत्रण और संचालन का कार्यभार रवि ने अपने ऊपर ले लिया था. वह स्मार्ट तो था ही, चतुर भी था. पुलिस से ले कर, राजनेताओं तक उस की पहुंच थी, शुभेंदु को भी उस ने आश्वस्त किया कि जब तक बसु बिजनैस संभालने में पूर्णरूप से सक्षम नहीं हो जाती वह तब तक बसु के साथ रहेगा.

शुभेंदु निश्चिंत हो कर दुबई चले गए. अपना व्यवसाय आगे बढ़ाने के लिए बसु ने अपनी चालढाल बदली, वेशभूषा बदली, अंगरेजी बोलना सीखा. रवि हमेशा, साए की तरह उस के साथ रहता. उसे, अपनी कार में बैठा कर ले जाता. शाम ढलने के बाद छोड़ जाता. कभीकभी रात में भी वह उस के घर ठहर जाता था. जब तक रवि घर से बाहर नहीं निकलता था. महल्ले वालों की निगाहें बसु के घर पर ही चिपकी रहती थीं. महिलाएं बसु के विरुद्ध खूब विष उगलतीं, ‘‘कैसी बेहया औरत है? अपने मर्द को विदेश भेज कर दूसरे मर्द के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है.’’

लोगों की आलोचनाएं मां को दंश सी पीड़ा देतीं. बेटी मानती थीं वे बसु को. उदास मन से कहतीं, ‘‘इस का यह बिजनैस प्रेम इसे कहीं का नहीं छोड़ेगा.’’

भैया शुरू से ही इस लाइन में थे. अत: मां को दिलासा देते, ‘‘बिजनैस बढ़ाने के लिए लोगों से मेलजोल बढ़ाना ही पड़ता है न. बुरे खयाल मन से निकाल दीजिए.’’

मां फिर भी परेशान दिखतीं, ‘‘मजबूत पांव उड़ान भरने के लिए लालायित रहते हैं. यह तो मैं भी समझती हूं, लेकिन परिंदे को इतना ध्यान तो रखना ही पड़ता है कि थक जाने पर पांव टिकाने लायक जमीन को न तरस जाए.’’

भाभी भी मां का समर्थन करतीं, ‘‘समाज का डर न सही. फिर भी, क्या यह सब खुद अपने लिए ठीक है? पति है, बेटे हैं… रवि भी तो शादीशुदा है… बसु 1 नहीं, 2 गृहस्थियां बरबाद कर रही है.’’

‘‘तेरी तो मित्र है बसु. तू क्यों नहीं समझाती उसे?’’ मां ने मुझ से कहा, तो मैं संकोच से घिर गई किसी के निजी जीवन में हस्तक्षेप करने का अधिकार मुझे नहीं है. किंतु मां और भाभी के बारबार उकसाने पर मैं ने यह प्रसंग बसु के सामने छेड़ दिया था.

सुनते ही बसु सुलग उठी थी, ‘‘तू भी आ गई लोगों की बातों में.’’

‘‘बसु, समझने की कोशिश कर. यह इस जमाने की सोने की लंका है. जिस पर सोने का मुलम्मा चढ़ा होता है. पर यह मुलम्मा उतरता है तो पीतल ही निकलता है.’’

लेकिन मेरी बात उस के सिर के ऊपर से निकल गई थी. उस ने तो हिमपात में घोंसला बनाने का संकल्प ले लिया था.

कुछमहीनों बाद शुभेंदु दिल्ली लौटे, ढेर सारे उपहार लिए. जितने दिन दिल्ली रहे रवि कम आता था. उन दिनों बसु भी अनमनी सी रहती थी. ऐसा लगता जैसे वह बेसब्री से उन के लौटने की राह देख रही हो. शुभेंदु जितना उस के करीब आने की कोशिश करते बसु उन से उतनी ही दूर रहती थी. सहृदय, सरल स्वभाव वाले शुभेंदु एक पल के लिए भी समझ नहीं पाए थे कि कुछ अनर्थ घटने वाला है. बसु ने अपनी वाक्पटुता से बच्चों को भी होस्टल भेज दिया था.

3 हफ्ते रह कर शुभेंदु दुबई लौट गए. धीरेधीरे उन का बिजनैस पूरे दुबई में फैलता जा रहा था. शुभेंदु का दिल्ली बहुत कम आना हो पाता था. अब महीनों  बसु का चेहरा भी दिखाई नहीं देता था. मां ने मेरे विवाह के बहाने उस से अपना मकान खाली करवा लिया था. वे नहीं चाहती थीं कि मेरी भावी ससुराल में किसी को इस बात की भनक भी लगे कि हमारा उठनाबैठना बसु जैसी महिला के साथ है.

बिजनैस के सिलसिले में जमती कौकटेल पार्टियां और कौकटेल के बीच उठते ठहाके… समय चुपचाप रिसता चला गया. चौंकी तो वह तब थी जब रवि का अंश उस की कोख में पलने लगा था.

हमारी शादी को अभी कुछ महीने ही हुए थे कि अतुल को 1 माह के टूर पर चैन्नई जाना पड़ा. मैं उस समय गर्भवती थी. कमरे में झांक कर देखा तो मां के पास बसु बैठी थी. मांग में सिंदूर, हाथों में लाल चूडि़यां, माथे पर लाल बिंदी. सभी सुहागचिह्नों से सजी बसु ने जैसे ही रवि के साथ अपने ब्याह और गर्भवती होने की सूचना दी मैं जड़ हो गई. उस के चेहरे पर कुतूहल था. मां ने बसु को घूरा, फिर मुझे निहारा. उस के सामने अब मेरा ठहरना उन के लिए असुविधाजनक हो गया था, जिसे बसु जैसी व्यवहारकुशल स्त्री भांप चुकी थी. अत: चुपचाप वहां से चली गई.

‘‘न जाने क्यों चली आती है? महल्ले भर में इस की चर्चा है. इसीलिए तो मैं ने इसे तेरे ब्याह पर भी नहीं बुलाया था. कलंकिनी ने अपने पति को ही नहीं, अपने पितृकुल और ससुरकुल तक को कीचड़ में घसीट दिया,’’ मां की बड़बड़ाहट शुरू हो गई.

मैं अपने कमरे में आ गई. शुभेंदु का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ गया. तिनकातिनका कर के उन्होंने घोंसला बनाया. प्यार और विश्वास से सींचा और यह मृगमरीचिका सी चिडि़या फुर्र से उड़ गई. सम्मान, गौरव, आभिजात्य, कोई भी बंधन इसे रोक नहीं पाया. जब सब कुछ मिल जाए तो उस की अवमानना में ही सुख मिलता है. इन्हीं विचारों की गुत्थियों में उलझतेसुलझते मैं ने पूरी रात काट दी.

एक दिन मैं मां और भाभी के साथ लौनमें बैठी सुबह की चाय का आनंद ले रही थी. भैया अपने लैपटौप पर काम कर रहे थे कि तभी चीखपुकार, मारपीट के स्वर सुनाई दिए. नजर सामने के जंग खाए फाटक के भीतर चली गई जहां टूटेफूटे पीले मकान में तमाम आलोचनाओं की केंद्र बसु अपने दूसरे पति के साथ रह रही थी.

मैं ने मां से उस के विषय में पूछा तो वे गहरी सांस भर कर बोलीं, ‘‘यह सब तो रोज का काम है. पाप पेट में पलता है तो उस की यही परिणति होती है. बस यह समझ ले कारावास की सजा भुगत रही है.’’

कुछ समय बाद भैया दफ्तर के लिए निकले ही थे कि तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो द्वार पर बसु की कामवाली घबराई हुई खड़ी थी. साथ में छोटी सी बच्ची भी थी. मांबेटी के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं.

जब मैं ने पूछा कि क्या हुआ तो कांपते स्वर में बाई ने बताया, ‘‘बसु सीढि़यों से गिर पड़ी है.’’

तभी उस की बच्ची बोल पड़ी, ‘‘झूठ मत बोलो मां, बाबूजी ने धक्का दिया है. पीठ पर भी मारा है.’’

पथभ्रष्ठा- भाग 2: बसु न क्यों की आत्महत्या

मुझे यों अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के अपने घर पर देख कर शुभेंदु अचरज में पड़ गए. राजेश और महेश अपनीअपनी पत्नी को ले कर काम पर निकल गए थे. इसीलिए मुझे अपने मन की बात कहने के लिए विशेष भूमिका नहीं बांधनी पड़ी. बातचीत को लंबा न खींच कर मैं ने शुभेंदु से मुसकान के बारे में प्रश्न किया, तो उन्होंने मुझे बताया कि मुसकान उन की गोद ली हुई बेटी है. यह बात तो मैं भी जानती थी, पर किस की बेटी है. मैं यह जानना चाह रही थी.

‘‘मुसकान, बसु की बेटी है… बसु और रवि…’’ उन्होंने नजरें नीची कर के बताया. तो ऐसा लगा, मानो एकसाथ कई हथौड़ों ने मेरे सिर पर प्रहार कर दिया हो. सब कुछ तो सामने था. उजली धूप सा. कुछ देर के लिए हम दोनों के बीच मौन सा छा गया.

शुभेंदु ने धीमे स्वर में अपनी बात कही, ‘‘तुम जानती हो, बसु ने रवि की हत्या कर के खुद भी नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या कर ली थी… इस बच्ची को पुलिस अपने साथ ले गई और नारी सेवा सदन में डाल दिया. ऐसे बच्चों का आश्रय स्थल ये अनाथाश्रम ही तो होते हैं. समझ में नहीं आता इस पूरी वारदात में मुसकान का क्या दोष था. मैं अनाथाश्रम संचालक से बातचीत कर के मुसकान को अपने घर ले आया. थोड़ी देर चुप रहने के बाद फिर शुभेंदु ने मुझे आश्वस्त किया. चारु मुसकान की रगों में मेरा खून प्रवाहित नहीं हो रहा है. पर उस में मेरे ही संस्कार हैं. वह मेरी देखरेख में पली है. उस के अंदर तुम्हें अंगरेजी और हिंदू संस्कृति का सम्मिश्रण मिलेगा. संभव और मुसकान का विवाह 2 संस्कृतियों, 2 विचारधाराओं का सम्मिश्रण होगा. मुझे पूरा विश्वास है, मुसकान एक आदर्श बहू और पत्नी साबित होगी.’’

मैं ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘मुसकान को यह सब मालूम है?’’

‘‘नहीं. शुरू में मुसकान हर समय डरीसहमी रहती थी. उस ने अपनी आंखों के सामने हत्या और अगले ही दिन मां की मौत देखी थी. वह कई बार रात में भी चिल्लाने लगती थी. उस के मन से उस भयानक दृश्य को मिटाने में मुझे काफी परिश्रम करना पड़ा था. इसीलिए पहले मैं ने शहर छोड़ा और फिर देश. लंदन में आ कर बस गया. नन्हे बच्चों का दिल स्लेट सा होता है. जरा सो पोंछ दो तो सब कुछ मिट जाता है.’’

उस के बाद वे नन्ही मुसकान की कई तसवीरें ले आए जिन से स्पष्ट हो गया कि मुसकान बसु की ही बेटी है. घटनाएं यों क्रम बदलेंगी, किस ने सोचा था?

उस रात मैं सो नहीं पाई थी. मन परत दर परत अतीत में विचर रहा था. बसु मेरी आंखों के सामने उपस्थित हो गई थी. जिस के साथ मेरा संबंध सगी बहन से भी बढ़ कर था.

30 वर्ष पूर्व बसु मां के पास मकान किराए पर लेने आई थी. साथ में शुभेंदु भी थे. वह सुंदर थी, स्मार्ट थी. मृदुभाषिणी इतनी कि किसी को भी अपना बना ले. शुभेंदु सिविल इंजीनियर थे. स्वभाव से सहज सरल थे और सलीकेदार भी थे. थोड़ीबहुत बातचीत के बाद पुरानी जानपहचान भी निकल आई तो मां पूरी तरह आश्वस्त हो गई थीं और मकान का पिछला हिस्सा उन्होंने किराए पर दे दिया था.

शुभेंदु सुबह 8 बजे दफ्तर के लिए निकलते तो शाम 8 बजे से पहले नहीं लौटते थे. बसु अपने दोनों बेटों को स्कूल भेज कर हमारे घर आ जाती थी. मां से पाक कला के गुर सीखती. नएनए डिजाइन के स्वैटर बनाना सीखती. बसु कुछ ही दिनों में हमारे परिवार की सदस्य जैसी बन गई थी. मां उसे बेटी की तरह प्यार करतीं. मुझे भी उस के सान्निध्य में कभी बहन की कमी महसूस नहीं होती थी.

कुछ ही दिनों के परिचय में मैं इतना जान गई थी कि बसु बेहद महत्त्वाकांक्षी है. उस में आसमान को छूने की ललक है. जो कुछ अब तक जीवन में नहीं मिला था, उसे वह अब किसी भी कीमत पर हासिल करना चाहती थी. चाहे इस के लिए उसे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.

एक दिन बसु बहुत खुश थी. पूछने पर उस ने बताया कि शुभेंदु को दुबई में नौकरी मिल रही है. 50 हजार प्रतिमाह तनख्वाह मकान, गाड़ी, बोनस सब अलग. लेकिन शुभेंदु जाना नहीं चाहते. कह रहे हैं कि कभी तो यहां भी नहीं है. अच्छी गुजरबसर हो ही रही है.

‘‘सिर ढको तो पैर उघड़ जाते हैं और पैर ढको तो सिर उघड़ जाता है,’’ बसु ठठा कर हंस दी थी, ‘‘बच्चे बड़े हो रहे हैं. धीरेधीरे खर्चे भी बढ़ेंगे. इस मुट्ठी भर तनख्वाह से क्या होगा?’’ फिर गंभीर स्वर में से मां बोली, ‘‘चाची आप ही समझाइए इन्हें. ऐसे मौके जिंदगी में बारबार नहीं मिलते.’’

‘‘तुम भी जाओगी शुभेंदु के साथ?’’ मां के चेहरे पर चिंता के भाव दिखाई दिए थे.

‘‘नहीं, सब के जाने से खर्च ज्यादा होगा… बचत कहां हो पाएगी?’’ यह सुन मां के मन का कच्चापन सख्त हो उठा. बोलीं, ‘‘भरी जवानी में पति को अकेले विदेश भेजना कहां की समझदारी है?’’

लेकिन बसु अपनी ही बात पर अटल थी, ‘‘जवानी में ही तो इंसान चार पैसे जोड़ सकता है. एक बार आमदनी बढ़ी तो जीवन स्तर भी बढ़ेगा. सुखसुविधा के सारे साधन जुटा सकेंगे हम… छोटीछोटी चीजों के लिए तरसना नहीं पड़ेगा.’’

शुभेंदु चुपचाप पत्नी की बातें सुनते रहे. बसु की धनलोलुपता के कारण अकसर उन के आपसी संबंधों में कड़वाहट आ जाती थी. शुभेंदु तीव्र विरोध करते. अपनी सीमित आय का हवाला देते. पर बसु निरंतर उन पर दबाव बनाए रखती थी.

आखिर शुभेंदु दफ्तर से इस्तीफा दे कर दुबई चले गए. उन का फोन हमेशा ही घर आता था. उन की बातों में ऐसा लगता था जैसे दुबई में उन का मन नहीं लग रहा है.

बसु उन्हें समझाती, दिलासा देती, ‘‘अपने परिवार से दूर, नए लोगों के साथ तालमेल स्थापित करने में कुछ समय तो लगता ही है. 1 साल का ही तो प्रोजैक्ट है. देखते ही देखते समय बीत जाएगा.’’

शभेंदु नियमित पैसा भेजने और बसु बड़ी ही समझदारी से उस पैसे को विनियोजित करती. कुछ ही दिनों में उन की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई. नोएडा में उन्होंने 200 गज का एक प्लाट भी खरीद लिया.

एक दिन अचानक बसु निर्णयात्मक स्वर में बोली, ‘‘पूरा दिन बोर होती रहती हूं. सोच रही हूं, आधे प्लाट पर शेड डाल कर एक छोटा सा बुटीक खोल लूं.’’

‘‘बच्चे बहुत छोटे हैं बसु. उन्हें छोड़ कर इतनी दूर कैसे संभाल पाओगी बुटीक? आनेजाने में ही अच्छाखासा समय निकल जाएगा,’’ मां ने अपने अनुभव से उसे सलाह दी.

‘‘मैं तो हफ्ते में 2-3 दिन ही जाऊंगी. बाकी दिन काम रवि संभाल लेंगे?’’

‘‘कौन रवि,’’ मां की भृकुटियां तन गईं, माथे पर बल पड़ गए.

‘‘मेरे राखी भाई. दरअसल, उन्हीं के प्रोत्साहन से मैं ने यह काम शुरू करने की योजना बनाई है?’’

‘‘शुभेंदु से अनुमति ले ली है?’’ मां ने पूछा.

मां शुरू से ही शंकालु स्वभाव की थीं. उन्हें इन राखी भाइयों पर विश्वास नहीं था. बसु ने मां को आश्वस्त किया था, ‘‘चाची, आप क्यों घबरा रही हैं? रवि शुभेंदु के भी परिचित हैं और शादीशुदा भी… मैं जानती हूं इस काम के लिए कभी मना नहीं करेंगे.’’

जाल: अनस के साथ क्या हुआ था

लल्लन मियां ने बहुत मेहनत से यह गैराज बनाया था और आज उन का यह काम इतना बढ़ गया था कि लल्लन मियां के सभी बेटे भी इसी काम में लग गए थे.

पर आजकल गैराज के काम में भी कंपीटिशन बहुत बढ़ गया था. ग्राहक भी यहांवहां बंट गए थे, जिस के चलते धंधा थोड़ा मंदा हो गया था. इस से लल्लन मियां थोड़ा परेशान भी रहते थे. उन की परेशानी की वजह थी कि उन का मकान अभी पूरी तरह से बन नहीं पाया था.  2 कमरे और एक रसोईघर ही थी.

लल्लन मियां के 3 बेटे थे, जिन में से 2 बेटों की शादी हो चुकी थी और तीसरा बेटा अनस अभी तक कुंआरा था.

दोनों बहुओं का दोनों कमरों पर कब्जा हो गया. अम्मीअब्बू बरामदे में सो जाते और अनस आंगन में.

पता नहीं क्यों, पर जब भी अनस के अब्बू उस से रिश्ते की बात करते, तो वह उन की बात सिरे से ही खारिज कर देता.

‘‘अब अनस से क्या कहूं…? तुम्हीं बताओ अनस की अम्मी कि वह अब  25 बरस का हो चुका है… शादी करने की सही उम्र है और फिर फरजाना जैसी अच्छी लड़की भी तो न मिलेगी… पर यह मानता ही नहीं,’’ लल्लन मियां अनस की अम्मी से मशवरा कर रहे थे.

‘‘अजी, आप इतनी गरमी से बात मत करो… जवान लड़का है… क्या पता, कहीं उस के दिमाग में किसी और लड़की का खयाल बसा हो…? मैं अपने हिसाब से पता लगाती हूं,’’ अनस की अम्मी ने शक जाहिर करते हुए कहा.

जुम्मे वाली रात को अम्मी ने अनस को अपने पास बिठाया और पीठ पर हाथ फेरते हुए कहने लगीं, ‘‘देख अनस, तेरे अब्बू ने बड़ी मेहनत से इस परिवार की खुशियों को संजोया है. यह छोटा सा मकान बनवा कर उन्होंने अपने सपनों में सुनहरे रंग भरे हैं और अब हम दोनों ही यह चाहते हैं कि तेरी शादी अपनी इन आंखों से देख लें.’’

‘‘पर अम्मी, मैं तो अभी निकाह करना ही नहीं चाहता,’’ अनस बोला.

‘‘देख बेटा, हर चीज की एक उम्र होती है और तेरी शादी कर लेने की उम्र हो गई है. हां, अगर कोई लड़की खुद  के लिए पसंद कर रखी हो, तो मुझे बेफिक्र हो कर बता सकता है. मैं किसी से नहीं कहूंगी.’’

‘‘नहीं अम्मी, ऐसी तो कोई बात नहीं है,’’ इतना कह कर अनस चला गया.

अगले दिन ही अनस ने शमा से मुलाकात की.

‘‘सब लोग मेरे पीछे पड़े हैं…  शादी कर लो, शादी कर लो,’’ अनस परेशान हालत में कह रहा था.

‘‘तो कर लो शादी… इस में हर्ज ही क्या है?’’ शमा ने हंसते हुए कहा.

‘‘तुम अच्छी तरह से जानती हो शमा कि अब्बू ने बड़ी मुश्किल से 2 कमरे का मकान बनवाया है. उन दोनों कमरों में दोनों बड़े भाई रह रहे हैं. अब तुम ही बताओ कि मैं शादी कर के भला क्या तुम्हें आंगन में बिठा दूं…’’ अनस काफी गुस्से में था.

‘‘अब तो ऐसे में हमारे सामने सिर्फ 2 ही रास्ते हैं… पहला रास्ता यह है कि हम शादी कर लें और उसी घर में जैसेतैसे गुजारा करें. दूसरा रास्ता यह है कि हमतुम पैसे जमा करें और जो छोटीमोटी रकम जमा हो सके, उस  से एक छोटा सा कमरा बनवा लें,’’ शमा ने कहा.

दरअसल, अनस ने अपनी जिंदगी में एक वह समय भी देखा था, जब अब्बू ने प्लाट खरीदने के बाद दीवारें तो खड़ी कर ली थीं, पर पैसों की तंगी के चलते कमरे बनवा पाना उन के बस में नहीं रह गया था.

इस से अनस के दोनों बड़े भाइयों कमर और जफर को दिक्कत हुई, क्योंकि दोनों शादीशुदा थे और दिनभर के काम के बाद अपनी बीवियों के साथ रात गुजारें भी तो कैसे?

हालात कुछ ऐसे बने कि दोनों भाइयों की चारपाई अलग और उन की बीवियों की चारपाई अलग पड़ने लगी.

पर भला ऐसा कब तक चलता? उन सभी की जिस्मानी जरूरत उन लोगों को एकसाथ रात गुजारने को कहती थी, पर हालात के चलते ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं लग रहा था.

अपनी जिस्मानी जरूरत और रात गुजारने की मुहिम की शुरुआत करने में पहला कदम बड़े भाई कमर ने उठाया. बड़े ही करीने से कमर ने अपनी चारपाई को दीवार से सटा कर डाल दिया और उस के ऊपर आड़ेतिरछे बांस अड़ा कर एक खाका बनाया और उस के ऊपर से एक बेहतरीन टाट का परदा डाल दिया. अब यह जगह ही कमर और बीवी का ड्राइंगरूम थी और यही जगह उन का बैडरूम भी.

छोटे भाई जफर को यह सब थोड़ा अजीब भले ही लगा हो, पर उस ने कभी हावभाव से कुछ जाहिर नहीं होने दिया. अलबत्ता, कुछ दिनों के बाद उस ने भी दूसरी दीवार के पास अपनी चारपाई डाल कर उसे भी टाट से कवर कर के अपना बैडरूम बना लिया.

कमर और जफर और उन की बीवियां तो अब टाट के परदे के अंदर सोते और बाकी सब लोग आंगन में,

अनस के दोनों बड़े भाई बेफिक्री से रात में अपनी शादीशुदा जिंदगी का मजा लूटते, पर उन लोगों की चारपाई की चूंचूं की आवाज अनस की नींद खराब करने को काफी होती. भाभियों की खनकती चूडि़यां अनस को बिना कुछ देखे ही टाट के अंदर का सीन दिखा जातीं.

कुंआरा अनस आंगन में लेटेलेटे ही बेचैन हो उठता. कुछ समय तक एक खास अंदाज में चारपाई की चूंचूं होती और उस के बाद एक खामोशी छा जाती. कहने को तो हर काम परदे में हो रहा था, पर हर चीज बेपरदा हो रही थी.

अगर किसी रात में कमर की चारपाई पर खामोशी रहती, तो जफर की चारपाई पर आवाजें शुरू हो जातीं. अनस अकसर सोचता कि भला ये आवाजें अम्मीअब्बू को सुनाई नहीं देती होंगी क्या? क्या वे लोग जानबूझ कर इन आवाजों को अनसुना कर देते हैं?

रात में होने वाली इन आवाजों से अनस परेशान हो जाता. उस के भी कुंआरे मन में कई उमंगें जोर मारने लगतीं और वह कभीकभार तो अपने बिस्तर पर ही उठ कर बैठ जाता और जब सुबह के समय गैराज में नींद न पूरी होने के चलते काम में उस का मन नहीं लगता, तब अब्बू और उस के बड़े भाई उसे डांटते.

ये सारी परेशानियां कम जगह और पैसे की तंगी के चलते ही तो थीं. अनस हमेशा ही एक अलादीन के चिराग की खोज में रहता, जिस से उस की सारी माली तंगी दूर हो जाती.

हालांकि वक्त हमेशा एकजैसा नहीं रहता. कमर और जफर ने खूब मेहनत कर के पैसा इकट्ठा किया और छोटेछोटे 2 कमरे बनवा लिए, जिन्हें दोनों शादीशुदा भाइयों ने आपस में बांट लिया.

पर, अनस और अम्मीअब्बू के लिए अब भी कमरा नहीं था. वे सब अब भी बाहर बरामदे में ही सोते थे.

पैसे और जगह की तंगी के चलते ही अनस ने अपने मन में यह फैसला ले लिया था कि जब तक घर में रहने के लिए एक कमरा नहीं बनवा लेगा, तब तक वह शादी के लिए हामी नहीं भरेगा और इसीलिए अनस ने अब तक शादी के लिए हामी नहीं भरी थी.

उस दिन पता नहीं क्यों शमा फोन पर बहुत घबराई हुई थी, ‘हां अनस… आज ही तुम से मिलना जरूरी है… बताओ, कहां और कितनी देर में मिल सकोगे?’

‘‘हां… मिल तो लूंगा… पर सब खैरियत तो है?’’

पर उस की इस बात का शमा ने कोई जवाब नहीं दिया. फोन काटा जा चुका था.

दोपहर को 2 बजे शमा और अनस उसी पार्क में एकसाथ थे, जहां वे अकसर मिला करते थे.

‘‘अब्बू मेरा निकाह कहीं और करने जा रहे हैं… अगर मुझ से निकाह  नहीं करना है तो कोई बात नहीं,’’ शमा ने कहा.

‘‘अरे, ऐसी कोई बात नहीं है. पर जब तक मैं अपने घर में एक कमरा न बनवा लूंगा, तब तक कैसे निकाह कर लूं, तुम्हीं बताओ?’’ अनस ने अपनी परेशानी जाहिर की.

‘‘हां… मैं तुम्हारे घर की परेशानी समझती हूं, पर एक कमरा न सही तो क्या हुआ, जहां दिलों में गुंजाइश होती है वहां सबकुछ हो जाता है… और फिर मेरे हाथों में भी हुनर है. शादी के बाद मैं भी कशीदाकारी का काम करूंगी और हम दोनों मिल कर पैसे कमाएंगे तो हम एक कमरा बहुत जल्दी ही बनवा लेंगे,’’ शमा ने राह सुझाई.

अनस बेचारा दोराहे पर फंस गया था. अगर वह शमा से निकाह करता है, तो उस के घर में कमरे की परेशानी है. और अगर यह बात सोच कर वह शादी नहीं करता है, तो शमा ही उस की जिंदगी से चली जाएगी… क्या करे और क्या न करे?

इसी ऊहापोह में अनस गैराज में आ कर काम करने लगा, पर उस का मन काम में न लगता था. बारबार उस की आंखों के सामने शमा का चेहरा घूम जाता था और वह खुद को एक हारा हुआ खिलाड़ी महसूस करने लगता था.

एक दिन जब अनस को और कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उस ने अपनी और शमा की मुहब्बत के बारे में अम्मी को सबकुछ बता दिया.

अम्मी को अनस की यह साफगोई पसंद आई और उन्होंने भी अब्बू से बात कर के शमा के घर पैगाम भिजवा दिया.

शमा के घर वाले भी सुलझे हुए लोग थे. उन्होंने भी रिश्ता पक्का करने में कोई देरी नहीं की और अनस का निकाह शमा के साथ कर दिया गया.

घर के दोनों कमरों में बड़े भाईभाभियों का कब्जा था. लिहाजा, अपनी शादी की पहली रात में अनस को भी एक दीवार का ही सहारा लेना पड़ा. उस ने अपनी चारपाई एक दीवार के सहारे लगा कर उस पर एक सुनहरे रंग का परदा लगा दिया.

‘‘नई दुलहन के लिए कोई भाभी अपना कमरा 2-4 दिन के लिए खाली नहीं कर सकती थी क्या? पर नहीं… यहां तो बूढ़ों के भी रंगीन ख्वाब हैं,’’ भनभना रहा था अनस.

पूरी रात अनस ने शमा को हाथ भी नहीं लगाया, क्योंकि वह चारपाई से निकलने वाली आवाजों से अनजान न था. अपने मन को कड़ा किए वह चारपाई के एक कोने में बैठा रहा, जबकि शमा दूसरी तरफ. 2 दिल कितने पास थे, पर उन के जिस्म एकदूसरे से कितनी दूर.

अगले दिन से ही अनस को पैसे कमाने की धुन लग गई थी. वह जल्दी से जल्दी पैसे कमा कर अपने और शमा के लिए एक कमरा बनवा लेना चाहता था, इसीलिए गैराज में 12-12 घंटे काम करने लगा था.

एक दिन की बात है, अनस जब गैराज में काम कर रहा था, तभी एक बड़े आदमी की गाड़ी वहां आ कर रुकी. उस गाड़ी के एयरकंडीशनर की गैस निकल जाने के चलते एयरकंडीशनर नहीं चल रहा था और उस में बैठा हुआ आदमी बेहाल हुआ जा रहा था.

अनस ने उस की परेशानी समझी और फटाफट काम में लग गया. तकरीबन आधा घंटे में उस की गाड़ी का एयरकंडीशनर ठीक कर दिया.

‘‘बड़े मेहनती लगते हो… मुझे मेरे काम में भी तुम्हारे जैसे जवान और मेहनती लोगों की जरूरत रहती है… अगर तुम चाहो, तो मेरे साथ जुड़ सकते हो. मैं तुम्हें तुम्हारे काम की अच्छी कीमत दूंगा.’’

‘‘पर, मुझे क्या करना होगा?’’

‘‘एक गाड़ी वाले से गाड़ी का ही काम तो लूंगा न… उस की चिंता मत करो… अगर मन करे, तो मेरे इस पते  पर आ जाना,’’ इतना कह कर वह सेठ चला गया.

यह एजाज खान का कार्ड था, जो दवाओं का होलसेलर था.

अनस पैसे के लिए परेशान तो था ही, इसलिए एक दिन एजाज खान के पते पर जा पहुंचा और काम मांगा.

‘‘ठीक है, तुम्हें काम मिलेगा… पर, मैं तुम से कुछ छिपाऊंगा नहीं. मुझे तुम्हारे जैसे तेज ड्राइवर की जरूरत है, जो रात में ही इस गाड़ी को शहर के बाहर ले जा सके और सुबह होने से पहले वापस भी आ सके.’’

शहर के बाहर वाले पैट्रोल पंप पर एक आदमी तुम्हारे पास आएगा, जिसे तुम्हें ये दोनों डब्बे देने होंगे और वापस यहीं आना होगा.’’

‘‘पर, इन डब्बों में क्या है?’’

‘‘इन डब्बों में ड्रग्स हैं… मैं ड्रग्स का काम करता हूं और इस के शौकीन लोगों को इस की डिलीवरी करवाना मेरी जिम्मेदारी है.’’

अनस अच्छी तरह समझ गया था कि एजाज खान उस से गैरकानूनी काम कराना चाहता?है, पर अपनी शादीशुदा जिंदगी में रंग घोलने के लिए अनस को भी पैसे की जरूरत थी.

अनस को यह काम करने में थोड़ी हिचक तो हुई, पर उस ने इसे करना मंजूर कर लिया. उस ने एजाज खान की गाड़ी शहर से बाहर ले जा कर पैट्रोल पंप पर खड़ी कर के वे डब्बे एक शख्स को दे दिए और वापस आ गया.

एजाज खान ने उसे इस जरा से काम के 25,000 रुपए दिए, तो अनस बहुत खुश हुआ.

‘‘बस शमा… अब देर नहीं है… ये देखो 25,000 रुपए… मुझे एक नया काम मिल गया?है, जिस के जरीए मैं खूब सारे पैसे कमा लूंगा और फिर अपना एक अलग कमरा होगा, जिस में हम दोनों खूब प्यार कर सकेंगे,’’ घर आ कर अनस ने शमा के हाथ को हलके से दबाते हुए कहा. यह सुन कर एक अच्छे भविष्य की कल्पना से शमा की आंखें भी छलछला आईं. 2 दिन बाद अनस के मोबाइल  पर एजाज खान का फोन आया, जिस  में उस ने एक बार और गाड़ी से दवा  की डिलीवरी करने के लिए अनस  को बुलाया.

हालांकि इस बार दवाओं के डब्बों की मात्रा ज्यादा थी, लेकिन पिछली बार की तरह अनस इस बार भी आराम से दवाएं डिलीवर कर आया था और इस के बदले में एजाज खान ने उसे 40,000 रुपए दिए.

अनस से ज्यादा खुश आज कोई नहीं था. वह पैसे ले कर सीधा बाजार पहुंचा और वहां से एक मिस्त्री की सलाह से ईंट, सीमेंट और मौरंग का और्डर कर दिया. वह जल्द से जल्द अपना कमरा बनवा लेना चाहता था.

अनस बिस्तर पर लेटा हुआ था. उस के नथुने में सीमेंट और मौरंग की महक रचबस जाती थी. वह सोच रहा था कि जिंदगी में सारी तकलीफें पैसे की कमी से आती?हैं, पर आज अनस के पास पैसा भी था और मन ही मन में ये सुकून भी था कि अब उसे और शमा को टाट के साए में नहीं सोना पड़ेगा.

रात के 11 बजे होंगे कि अचानक अनस का मोबाइल बजा, उधर से  एजाज खान बोल रहा था, ‘तुम अभी  मेरे पास चले आओ और एक गाड़ी दवा की ले कर तुम्हें शहर के बाहर जाना  है. वहां पर एक आदमी तुम से माल  ले लेगा.’

‘‘पर, अभी तो आधी रात हो रही है. और फिर मैं सोया भी नहीं हूं… मैं कैसे जा सकता हूं.’’

‘ज्यादा चूंचपड़ मत करो और चले आओ… पिछली बार से दोगुना दाम दूंगा… और वैसे भी हमारे धंधे में आने का रास्ता तो है, पर जाने का कोई रास्ता नहीं,’

कह कर एजाज खान ने फोन  काट दिया.

‘‘इतनी रात गए जाना पड़ेगा…?’’ शमा ने पूछना चाहा.

‘‘बस मैं यों गया और यों आया.’’

एजाज खान से गाड़ी ले कर अनस चल पड़ा. हाईवे पर उस की कार तेजी से भागी जा रही थी. अचानक अनस चौंक पड़ा था. सामने पुलिस की

2 जीपें रोड के बीचोंबीच खड़ी थीं. न चाह कर भी अनस को अपनी कार रोकनी पड़ी.

‘‘हमें तुम्हारी गाड़ी चैक करनी है… पीछे का दरवाजा खोलो,’’ एक पुलिस वाले ने कहा.

अनस के माथे पर पसीना आ गया, ‘‘पीछे कुछ नहीं है सर… दवाओं के डब्बे हैं. बस इन्हें ही पहुंचाने जा रहा हूं,’’ अनस ने कहा.

‘‘हां तो ठीक है… जरा हम भी तो देखें कि कौन सी दवाएं हैं, जिन्हें तू इतनी रात को ले जा रहा हैं,’’ पुलिस वाला बोला.

अनस को अब भी उम्मीद थी कि वह बच जाएगा, पर शायद ऐसा नहीं था. पुलिस ने दवा के डब्बे में छिपी हुई चरस बरामद कर ली थी. अनस को गिरफ्तार कर लिया गया.

अनस के हाथपैर फूल गए थे.

अगले दिन खुद पुलिस वालों ने अनस के मोबाइल से उस के घर वालों को सारी सूचना दी. शमा यह खबर सुन कर बेहोश हो गई.

अब अनस को किसी कमरे की जरूरत नहीं थी. उस की बाकी की जिंदगी के लिए तो जेल का ही कमरा काफी था, क्योंकि ड्रग्स के जाल में वह फंस चुका था.

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पथभ्रष्ठा- भाग 4: बसु न क्यों की आत्महत्या

अब बाई भी सच पर उतर आई थी, ‘‘इंसान की शक्ल में भेडि़या है भेडि़या. दिनरात गाली बकता है, दारू पीता है.’’

‘‘बसु कहां है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अस्पताल में है. बिटिया हुई है.’’

मैं ने बाई की बात सुन कर मां को बताया और फिर औटो कर के हम अस्पताल पहुंच गईं.

बसु सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर अकेली लेटी थी. मैं ने जैसे ही उस के सिर पर हाथ फेरा. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. पता नहीं ये आत्मग्लानि के आंसू थे या पश्चात्ताप के… पास ही झूले में लेटी उस की बिटिया को गोद में उठा कर मैं ने बसु से पूछा, ‘‘रवि कहां हैं?’’

‘‘व्यस्त होंगे वरना जरूर आते,’’ उस ने बिना मेरी ओर देखे अपना मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया.

बसु मुझे धोखे में रखना चाह रही थी या खुद धोखा खा रही थी. पता नहीं, क्योंकि जिस रात बसु प्रसव पीड़ा से छटपटा रही थी उस रात रवि अपनी पत्नी के साथ था.

एक बार बसु ने बताया था कि अपने दोनों बेटों के प्रसव के समय शुभेंदु पूरी रात अस्पताल के कौरिडोर में दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में चहलकदमी करते रहे थे. अपनी पत्नी या बच्चों की जरा सी भी पीड़ा वे बरदाश्त नहीं कर पाते थे. आज बसु खुद को कितना अकेला महसूस कर रही होगी. उधर रेगिस्तान में लू के थपेड़ों के बीच शुभेंदु ने भी कितने अनदेखे दंश खाए होंगे. यहां भी उन के लिए मरुभूमि के अतिरिक्त क्या था?

औरत विधवा हो या परित्यक्ता, पुनर्विवाह करने पर बरसों अपने पूर्व पति को भुला नहीं पाती. यादें कोई स्लेट पर लिखी लकीरें तो नहीं होतीं कि जरा सा पोंछने पर ही मिट जाएं. सहज नहीं होता एक नीड़ को तोड़ कर, दूसरे नीड़ की रचना करना. बसु ने कैसे भुलाया होगा शुभेंदु को? अपने बच्चों की नोकझोंक, उठतेबैठते शुभेंदु की बसुबसु की गुहार क्या उसे पुराने परिवेश में लौट जाने के लिए बाध्य नहीं करती होगी या फिर जानबूझ कर शुभेंदु को भुलाने का नाटक कर रही है?

2 वर्ष का अंतराल चुपचाप दरक गया. उन दिनों अतुल की अंशकालिक पोस्टिंग देहरादून हो गई. मैं नन्हे संभव को ले कर थोड़ाबहुत जरूरत का सामान ले कर देहरादून पहुंच गई थी. 6 महीने के लिए अतुल को देहरादून के अतिरिक्त मसूरी और सहारनपुर का भी अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया था. काम की व्यस्तता उन्हें हर समय घेरे रहती. ऐसे में घरगृहस्थी के हर छोटेबड़े काम को निबटाने का दायित्व मुझ पर आ गया था.

एक दिन मैं अतुल के साथ फिल्म देख कर लौट रही थी तभी सामने एक गाड़ी से एक स्मार्ट, आकर्षक व्यक्तित्व के व्यक्ति को उतरते देखा. हालांकि मैं उन्हें काफी समय बाद देख रही थी, फिर भी मैं ने उन्हें तुरंत पहचान लिया. वे शुभेंदु थे. मन में संशय जगा कि शुभेंदु यहां कैसे? क्या दुबई का बिजनैस समेट दिया या मन भर गया वहां की चकाचौंध और पैसा कमाने की लालसा से? फिर मन ही मन सोचा कि उकसाने वाली पत्नी ही साथ छोड़ गई तो क्यों भटकते फिरते उस रेगिस्तान में? चलो देर से ही सही अपनी आत्मशक्ति और पौरुष का इजहार तो किया उन्होंने वरना तो सारी जिंदगी बसु के ही हाथों की कठपुतली बने रहे थे.

अगली सुबह अतुल दफ्तर के लिए निकल ही रहे थे कि शुभेंदु का फोन आ गया. मैं अचरज में पड़ गई. इन्हें मेरा नंबर कहां से मिला? शायद टैलीफोन डाइरैक्टरी से ढूंढ़ निकाला हो.

तभी उन का हताश स्वर सुनाई दिया, ‘‘चारु मैं तुम से मिलना चाहता हूं.’’

‘‘मैं कुछ देर बाद आप को फोन करती हूं,’’ मैं ने टालने की गरज से कहा और फिर फोन काट दिया.

अतुल मेरे पास आ कर खड़े हो गए थे. सब कुछ जानने के बाद उन्होंने मुझे समझाया. ‘‘चारु, किसी की निजी जिंदगी से हमें क्या लेनादेना? मिल लो उन से.’’

दफ्तर पहुंच कर अतुल ने अपनी गाड़ी मेरे पास भेज दी. मैं ने संभव को आया के पास छोड़ा और कुछ ही देर में शुभेंदु के मसूरी रोड स्थित भव्य बंगले पर पहुंच गई.

शुभेंदु बेहद गर्मजोशी से मिले. बेशकीमती सामान से सजे उस बंगले को देख कर मेरी आंखें चौंधिया गईं. द्वार पर दरबान, माली और घर के अंदर दौड़ते नौकर, रसोइए. सामने वाली दीवार पर उन्होंने अपने परिवार का बड़ा सा चित्र टांगा हुआ था. साइड स्टूल, शोकेस पर हर जगह बसु के ही फोटो रखे थे. हंसतीखिलखिलाती बसु, राजेशमहेश को गोद में उठाए बसु, शुभेंदु के कंधों पर झूलती बसु, विदेशी पहनावा पहने हुए कैरियर वूमन बसु. घर के चप्पेचप्पे पर बसु का आधिपत्य था. शुभेंदु ने उस की अनुपस्थिति में भी उस की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखा था. खिड़कियों पर आसमानी रंग के परदे, गमलों में सजे मनीप्लांट. जैसे किसी भी पल बसु आएगी और कहेगी कि शुभेंदु देखो मैं उस दरिंदे को छोड़ कर तुम्हारे पास लौट आई.

‘‘बसु कैसी है?’’ शुभेंदु का स्वर मुझे कल्पना लोक से यथार्थ में लौटा गया था. नजरें उन के उदास चेहरे पर अटक गईं. क्षण भर के लिए मुझे बसु के प्रति रवि का बर्बरतापूर्ण व्यवहार याद आ गया था. कदमकदम पर बेइज्जती, तानेउलाहने, गालीगलौज, मारपीट… क्या शुभेंदु कायर हैं, जो अभी भी उस की यादों को सीने से चिपकाए बैठे हैं? मानसम्मान, सब कुछ तो ले डूबी यह औरत. क्षमाप्रार्थी तो वह कदापि नहीं थी.

क्या उत्तर देती शुभेंदु के प्रश्न का? बस इतना ही कहा था मैं ने, ‘‘बस यह समझ लीजिए अपने किए की सजा भुगत रही है… इंसान जो बोता है वही काटता है.’’

6 माह की अवधि समाप्त हुई और हम दिल्ली लौट आए. न अब बसु से मेरा या मेरे परिवार का कोई संबंध रह गया था. मां और भैयाभाभी सभी लखनऊ चले गए थे. शुभेंदु अकसर फोन करते रहते थे. हर बार बसु के विषय में पूछते, लेकिन मैं सहजता से टाल जाती. क्या जवाब थे मेरे पास उन के प्रश्नों के?

एक दिन अचानक बसु मेरे घर आ गई. गोद में मुसकान थी. मन में प्रश्नों के नाग फन उठा कर खड़े हो गए कि क्यों आई है बसु यहां? कहीं रवि ने भी तो इसे नहीं निकाल दिया? हमेशा ही तो अश्लील भाषा में बात करता था इस से. प्रकृति का नियम है कि जीवन में हम जिन लोगों से दूर भागना चाहते हैं, वे हमें उतना ही अपने पास खींचते हैं. बसु के साथ मेरा रिश्ता भी तो ऐसा था… कुछ प्यार का, कुछ नफरत का, कुछ सहानुभूति का.

मैं ने उस की खूब आवभगत की. कटाक्ष भी किए. अपने सुखद गृहस्थ जीवन का रेखाचित्र खींचते हुए मैं उसे जताना चाह रही थी कि इंसान यदि अपनी इच्छाओं और कामनाओं पर नियंत्रण रखे तो जिंदगी सुख से कट जाती है. महत्त्वाकांक्षी होना बुरा नहीं, लेकिन उस के लिए रिश्तों को दांव पर लगाना सही नहीं. रिश्तों की चादर ओढ़ कर भी सपनों को सच किया जा सकता है.

बसु मेरी बातें चुपचाप सुनती रही. जैसे शतरंज का खिलाड़ी अपनी ढेर सारी चालों के बावजूद यकायक विपक्षी की एक ही चाल से मात खा कर उठ जाता है कुछ ऐसा ही भाव लिए वह मुझे घूरती रही.

मेरी जीवनसाथी- भाग 2: नवीन का क्या था सच

नवीन ने मुझे प्यार से देखा था. फिर बाबूजी को और मुझे लिवा कर अंदर आ गए थे. गुजरते हुए चंदन के मित्रों ने मु झे देखा तो चंदन की भी नजर घूम गई. अवाक् और हतप्रभ सा वह मु झे देखता ही रह गया.

जाने क्यों उस का या उस के दोस्तों का यों देखना मुझे बुरा नहीं लगा. आज पहली बार मेरे सौंदर्य ने लोगों को ही नहीं, मुझे भी अभिभूत किया हुआ था. फिर पूरी पार्टी के बीच किसी न किसी बहाने से चंदन मेरे आसपास मंडराता रहा. मु झे स्वयं उस का सामीप्य बहुत अच्छा लग रहा था.

वह उम्र थी भी तो ऐसी जो किसी के बस में नहीं होती. न कालेज, न स्कूल, न सखीसहेलियां. दिल का हाल सुनाती भी तो किसे? सबकुछ तो उस पुराने शहर में छूट गया था.

रातभर करवटें बदलते हुए मैं ने चंदन के ही सपने देखे. जागते हुए सपने, उस का नीला सूट, गोरा रंग, मुसकराहट और आंखों का चुंबकीय आकर्षण…बारबार मुझे विभोर कर देते.

नवीन के प्रति मेरे मन में श्रद्धा थी, जिसे देख कर मन में शीतलता उत्पन्न होती थी. मगर चंदन को देखते ही गले में कुछ फंसने लगता था. पूरा शरीर रोमांचित और गरम हो उठता. शायद यह प्रथम प्रेम का आकर्षण था.

उस दिन हलकी घटा छाई हुई थी. शाम का समय था. बच्चे भी पढ़ने नहीं आए थे. बाबूजी प्रैस गए हुए थे और मां अचारबडि़यों का हिसाब करने दुकानदार के पास.

मैं अकेली कमरे में लेटी चंदन के ही सपने में खोई थी. पता नहीं, मैं गलत थी या सही. पर चंदन को भुला पाना अब मेरे बस में नहीं था. इधर चंदन एकाध बार किसी न किसी बहाने घर आ चुका था. तब मां या बाबूजी होते.

तभी दरवाजा खटका. अम्मा जल्दी आ गईं, सोचते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने चंदन खड़ा था. उस के शरीर से खुशबू का एक  झोंका आया जो मेरे संपूर्ण अस्तित्व को भिगो गया.

‘अंदर आ सकता हूं?’ मुसकरा कर उस ने पूछा.

‘हां, आइए.’

मैं चाय बनाने के लिए उठी तो चंदन ने मुझे रोक लिया, ‘मैं तुम से मिलने आया हूं, चाय पीने नहीं. सोचा था, आज मां होंगी तो साफसाफ बात कर के भैया से कह कर तुम्हें मांग लूंगा.’

मैं आश्चर्य एवं लज्जा से लाल पड़ गई थी. मेरी मुराद इतनी शीघ्र पूरी हो जाएगी, ऐसा तो सोचा भी न था.

चंदन ने मेरी ठोड़ी उठा कर मेरी आंखों में  झांका, ‘भैया से तुम लोगों के विषय में सबकुछ जान चुका हूं. तुम बताओ, मैं तुम्हें पसंद हूं?’

मैं क्या कहती. मेरा तो अंगअंग उस के प्रेम में आकंठ डूबा जा रहा था. चंदन मुझे मिल जाए, इस की तो सिर्फ कल्पना की थी, सपना देखा था. मगर वह सपना हकीकत में तबदील हो जाएगा, नहीं जानती थी.

तभी जोरों से बिजली कड़की और पानी बरसना शुरू हो गया. मां के आने की संभावना जाती रही. चंदन ने उस पल मेरी कमजोरी और अवसर का फायदा उठाया. मेरे प्रथम एवं अछूते प्रेम को उस ने अपनी मादक सांसों से उभारा. मेरा पूरा शरीर पत्ते सा कांपने लगा. उस अल्हड़ उम्र में प्रथम बार किसी पुरुष ने, वह भी जो मेरे सपनों का बादशाह था, मेरे शरीर को सहलाया. मैं लता की तरह लिपटती चली गई.

मैं भूल गई कि वह सबकुछ क्षणिक सुख विनाश का रास्ता है, सुखद भविष्य का उजाला नहीं. उस समय तो चंदन की प्यारीप्यारी मीठी बातें ही मुझे बस याद थीं…उस के वादे, कसमें और बांहों का कसता घेरा.

2 दिन सबकुछ सामान्य रहा लेकिन चंदन नहीं आया. मेरा अंगअंग टूटा जा रहा था. चंदन के आने की आस और शरीर का टूटना मुझे चिंतित कर रहा था. तीसरे दिन नवीन हमारे घर आए. बाबूजी भी जल्दी ही आ गए थे.

नवीन आए तो मैं सिर नीचा किए रसोई में चली गई. उसी प्यार से उन्होंने मु झे देखा. फिर थोड़ी देर बाद मां की आवाज आई थी, ‘आप यह क्या कह रहे हैं? कहां आप, कहां हम?’

‘मैं छोटेबड़े की बात नहीं, रिश्ते की बात करने आया हूं. मोहित के सिवा मेरा कोई नहीं. वह भी बाहर रहता है. चाहता हूं, मेरा घर फिर से बस जाए.’

‘पर इतनी जल्दी? चंदन भैया भी तो कल चले गए?’ यह बाबूजी का स्वर था.

‘चंदन मेरा सगा भाई नहीं है. बचपन में पिताजी ने उसे पाला था, पढ़ायालिखाया. उन के बाद उस की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई थी. उसे डाक्टर बनाना मेरा लक्ष्य था, वह पूरा हो गया.

‘मंत्री की बेटी से उस का ब्याह हो चुका है जिस का पूरा परिवार अमेरिका में है. लड़की तो वहां की नागरिकता भी ले चुकी है. पढ़ाई के कारण चंदन यहां रुका था, सो वह भी कल चला गया.’

ब्याह…पत्नी…मेरे सिर पर मानो किसी ने हथौड़े बरसाए हों. चंदन और शादीशुदा? इतना बड़ा  झूठ? इतना बड़ा फरेब? मेरे शरीर से अपनी हवस प्यार के  झूठे बोल बोल कर बु झाने वाला व्यक्ति विवाहित? नहींनहीं. मैं बेहोश हो कर वहीं गिर पड़ी.

होश आया तो पूरा घर खुशी में डूबा था. अम्माबाबूजी ने तो सोचा भी न था कि अचानक उन की बेटी को इतना बड़ा घरवर मिल जाएगा. थोड़ी ज्यादा उम्र और एक बेटे का बाप हुआ तो क्या. 11वीं तक पढ़ी शरणार्थी परिवार की गरीब कन्या को कौन ब्याहता. फिर नवीन के हम पर इतने सारे एहसान जो थे.

लेकिन मैं एक भले और आदर्श व्यक्ति को धोखा नहीं देना चाहती थी. चंदन की बेवफाई ने एक ही पल में मु झे परिपक्व बना दिया था. इसलिए मैं नवीन से मिल कर उन्हें सबकुछ बता देना चाहती थी. नवीन की पत्नी बन कर मैं उन के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहती थी.

अस्पताल में नवीन उस समय किसी आपरेशन में व्यस्त थे. मुझे वहां लोग जानते थे. मैं उन के कक्ष में बैठी प्रतीक्षा करने लगी. कुछ देर बाद कक्ष का दरवाजा खुला और नवीन ने प्रवेश किया. मु झे वहां बैठा देख कर एक पल वे रुके, फिर हंसते हुए अपनी कुरसी पर बैठ गए.

‘चाय लोगी?’

‘नहीं,’ मैं ने साहस बटोर कर कहा, ‘मैं आप से कुछ कहना चाहती हूं.’

‘बोलो… हां, शाम को खाली हो तो चलो, थोड़ी खरीदारी कर ली जाए. भई, मेरेतुम्हारे बीच उम्र में बहुत अंतर है. फिर लड़कियों की खरीदारी मुझे आती नहीं,’ नवीन बड़े हलके मूड में थे.

‘मैं आप से…’ मेरे शब्द गले में ही अटक कर बाहर आने से इनकार करते रहे.

‘देखो,’ नवीन उठ कर मेरे पास आए और मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर बोले, ‘यदि तुम मेरी ज्यादा उम्र या एक बच्चे के कारण परेशान हो तो चिंता मत करो. मोहित छात्रावास में रहता है, वहीं रह कर पढ़ता रहेगा. मैं तुम्हारा हमउम्र दोस्त बनने का पूरा प्रयास करूंगा.’

उस वक्त मैं नवीन की हथेली में मुंह छिपा कर रो पड़ी. नवीन का इतना विश्वास और प्यार मेरी आंखों से छिपा क्यों रहा? चंदन की  झूठी खुशबू में मैं नवीन के सच्चे प्यार को क्यों न देख सकी? जो व्यक्ति पलपल मार्गदर्शन करता रहा, सहारा देता रहा, उस की उपेक्षा कर क्षणभर के एक कथित प्रेमी के प्रेम में मैं कैसे फिसल गई?

उस क्षण नवीन ने मु झे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. घर पर बाबूजी की बीमारी और मां की आंखों की चमक ने मुझे होंठ सी लेने पर मजबूर कर दिया था.

हमारी शादी सादगी से हो गई. नवीन मुझे ले कर कुछ दिनों के लिए नैनीताल जाना चाहते थे, लेकिन मैं ने उन्हें शिमला चलने की राय दी. मोहित के साथ कुछ पल गुजार कर मैं उसे अपना ममत्व देना चाहती थी. हरीभरी वादियों में मैं अपने सीने पर रखे बो झ को हलका करना चाहती थी.

पथभ्रष्ठा- भाग 1: बसु न क्यों की आत्महत्या

हीथ्रोहवाई अड्डे पर अपने इकलौते बेटे संभव के साथ एक भारतीय लड़की को देख कर मैं चौंक गई. कौन होगी यह लड़की? संभव की सहकर्मी या उस की मंगेतर. जिस का जिक्र वह मुझ से ईमेल या फोन पर अकसर किया करता था? यहां पर भी तो कई भारतीय परिवार बसे हैं. मेरी उत्सुकता संभव की नजरों से छिप नहीं पाई थी. उस लड़की से हमारा परिचय करवाते हुए उस ने सिर्फ इतना ही बताया कि उस का नाम मुसकान है. संभव की फर्म में ही कंप्यूटर इंजीनियर है.

मुसकान का चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा. गोरा रंग, तीखे नैननक्श, लंबी छरहरी काया. बेहद सादे लिबास में भी गजब की आकर्षक लग रही थी.

सामान आदि कार में रखवा कर संभव दफ्तर के लिए निकल गया. दफ्तर में उस की महत्त्वपूर्ण मीटिंग थी, जिस में उस की मौजूदगी अनिवार्य थी. मुसकान ने हमें संभव की कार में बैठाया. हवाईअड्डे से घर तक जितने भी दर्शनीय स्थल थे उन से वह हमारा परिचय करवाती जा रही थी. मैं उस के हावभाव, बात करने के अंदाज को तोल रही थी. अतुल भी शायद यही सब आंक रहे थे.

घर पहुंच कर, मुसकान ने चाय व नाश्ता बनाया. ऐसा लगा, वह यहां, यदाकदा आती रहती है. तभी तो उस के व्यवहार में जरा सा भी अजनबीपन नहीं झलक रहा था. उस के बाद उस ने खाना बनाया. आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित रसोई में खाना बनाना कोई बड़ी बात नहीं थी. बड़ी बात थी हमारी पसंद का भोजन. उस के हाथों का बना शुद्ध भारतीय भोजन खा कर मन प्रसन्न हो उठा.

मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटी, तुम्हारा जन्म यहीं हुआ है या कुछ समय पहले ही यहां आई हो?’’

‘‘जी नहीं, मेरा बचपन यहीं बीता है. यहीं पढ़ीलिखी हूं.’’

‘‘तो फिर यह पाक कला मां ने सिखाई होगी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘जी नहीं, मुझे यह सब संभव ने सिखाया है. उन्होंने ही मुझे भारतीय मानमर्यादा व संस्कारों से परिचित कराया है.’’

संभव का नाम लेते ही उस के कपोलों पर रक्तिम आभा फैल गई. हमें यह समझते देर नहीं लगी कि मुसकान ही हमारी होने वाली बहू है. उस के बाद कितनी देर तक वह हम से भारतीय संस्कृति और पंरपराओं के बारे में पूछती रही. कुछ देर तक औपचारिक से प्रसंग छिड़ते रहे. उस के बाद उस ने जाने की अनुमति ली, क्योंकि उसे भी दफ्तर जाना था.

मुसकान के जाने के बाद कितनी देर तक मैं और अतुल उसी के विषय में बातें करते रहे. पिछले 1 वर्ष से मैं और अतुल लगातार संभव को विवाह करने के लिए विवश करते आ रहे थे. कई संपन्न घरों के प्रस्ताव हमें ठुकारने पड़े थे. हजारों मील दूर अकेले, संभव के विषय में मैं जब भी सोचती परेशान हो उठती. ऐसा लगता, एक बार उस का घर बस जाए फिर हम चैन से रह सकेंगे. अब, विवाह न करने का कोई कारण भी तो नहीं था. उस ने बंगले से ले कर मोटरगाड़ी तक सभी सुखसुविधाओं के साधन जुटा लिए थे. हजारों डौलर का बैंक बैलेंस था. पिछली बार जब संभव ने अपनी मंगेतर का जिक्र मुझ से किया था तो ऐसा महसूस हुआ था, जैसे बहुत भारी दायित्व हमारे ऊपर से उतर गया है. अतुल को भी मैं ने मना लिया था कि चाहे संभव की प्रेमिका ब्रिटेन मूल की ही हो, हम इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार कर लेंगे.

मैं जानती थी संभव अंतर्मुखी है. अपने मन की बात खुल कर कहने में उसे समय लगता है. फिर भी उस के हावभाव से यह तो स्पष्ट हो ही गया था कि वह और मुसकान एकदूसरे को जीजान से चाहते हैं.

शाम को संभव के पहुंचते ही मैं ने उसे आड़े हाथों लिया. हम मांबेटे की चुहल में अतुल को भी खासा आनंद आ रहा था. मैं बारबार उस के मुंह से मुसकान का नाम सुनने का प्रयास कर रही थी. पर संभव शरमा कर बात का रुख बदल देता था.

अपने 3 माह के प्रवास में हम संभव की शादी शीघ्रातिशीघ्र करवा कर कुछ समय बहू के साथ गुजारना चाह रहे थे. इस के लिए हमारा मुसकान के मातापिता से मिलना जरूरी था.

संभव ने बताया था मुसकान की मां नहीं है. उस के पिता अपने दोनों बेटों के साथ यहां से लगभग 200 किलोमीटर दूर कंट्रीसाइड पर रहते हैं. वहां से रोज दफ्तर आनाजाना मुश्किल होता है. इसीलिए मुसकान, पीजी बन कर इलफोर्ड में रहती है.

सप्ताहांत पर हम मुसकान के घर गए. घर क्या था एक छोटा सा विला था, जो चारों ओर से रंगबिरंगे फूलों और हरेभरे लौन से घिरा था. फुहारों से पानी झर रहा था. बीच में छोटा सा जलाशय था. कुछ ही देर में हम मुसकान के सुसज्जित ड्राइंगरूम में पहुंच गए. तभी किसी ने मुझे पुकारा, ‘‘चारु.’’

मंद हास्य से युक्त उस प्रभावशाली व्यक्तित्व को काफी देर तक निहारती रह गई. नमस्कार जैसी औपचारिकता तक भूल गई. अतुल ने पहले उन की फिर मेरी ओर देखा तो उन का परिचय मैं ने अतुल से करवाया.

शुभेंदु जिसे मैं देख रही थी. कुछ भी तो नहीं बदला था इस अंतराल में. हां कहींकहीं केशों में दिखती सफेदी उम्र का एहसास अवश्य करा रही थी.

‘‘कैसी हो?’’ वही पुराना संबोधन. कितना अपना सा लगा था मुझे? मैं मुसकान के साथ शुभेंदु के संबंध को टटोलने लगी कि कहीं शुभेंदु मुसकान के परिवार के मित्र, पड़ोसी या निकट संबंधी तो नहीं? मुसकान की मां नहीं हैं, इसलिए हो सकता है शादी के विषय में बातचीत करने के लिए मुसकान के परिवार वालों ने शुभेंदु को बुला लिया हो. लेकिन जब मुसकान ने उन का परिचय अपने पिता के रूप में करवाया तो मैं जड़ हो गई कि तो क्या बसु की मृत्यु के बाद शुभेंदु ने दूसरा विवाह कर लिया और मुसकान उन की दूसरी पत्नी से है, क्योंकि शुभेंदु के बसु से 2 ही बेटे थे. राजेश और महेश.

वातावरण बोझिल न हो, इसलिए मैं ने ही बात छेड़ी, ‘‘कब आए देहरादून से?’’

‘‘करीब 20 वर्ष हो गए. उस समय मुसकान 2 वर्ष की थी. अपना पूरा तामझाम समेट कर मैं इन तीनों बच्चों को ले कर लंदन आ गया,’’ शुभेंद्र ने कुछ याद करते हुए बताया. तब अतुल ने पूछा, ‘‘नई जगह, नए लोगों से तालमेल बैठाने में बड़ी परेशानी हुई होगी? नए परिवेश में खुद को ढालना और वह भी बड़ी उम्र में काफी मुश्किल होता है.’’

थोड़ा वक्त तो लगा. लेकिन धीरेधीरे सब सहज होता गया. दोनों बहुओं और बेटों ने मिल कर हमारी काफी आवभगत की. पूरा परिवार माला के मोतियों सा आपस में गुंथा था. अब भारत में जब एकल परिवार प्रथा का प्रचलन जोरों पर है, शुभेंदु परिवार, संयुक्त परिवार प्रथा का जीताजागता उदाहरण था.

इधरउधर की बातों के बीच यह तय किया गया कि विवाह बेहद सादे तरीके और भारतीय परंपरा के अनुसार ही होगा. विवाह की तारीख अगले सप्ताह तय की गई. फिर हम सब घर लौट आए.

घर पहुंच कर अतुल और संभव बहुत खुश थे. अतुल को मनचाहे समधी मिले थे और संभव को मनपसंद जीवनसाथी. दोनों के मन की मुराद पूरी हो गई थी. लेकिन मुसकान मेरे लिए एक पहेली सी बन गई थी. ऐसा लग रहा था जैसे पुराने संबंधों पर नए रिश्तों की जिल्द चढ़ने वाली हो. पर उन संबंधों का संपर्कसूत्र हाथ नहीं आ रहा था. उस गुत्थी को सुलझाने के लिए मेरा शुभेंदु से मिलना बेहद जरूरी था. पर कहीं कोई अप्रासंगिक तथ्य सामने न आ जाए, इसलिए अगले दिन मैं अकेली ही उन के घर पहुंच गई.

बलात्कार: क्या हुआ कर्नल साहब की वाइफ के साथ

लेखक- राघवेंद्र सैनी

मैं जब पीटी के लिए ग्राउंड पर पहुंचा तो वहां पीटी न हो कर सभी जवान और अधिकारी एक स्थान पर इकट्ठे खड़े थे. मैं ने सोचा, पीटी के लिए अभी समय है, इसलिए ऐसा है. मैं अपना स्कूटर पार्क कर के हटा ही था कि स्टोरकीपर प्लाटून का प्लाटून हवलदार, सतनाम सिंह मेरे पास भागाभागा आया और बोला, ‘‘सर, गजब हो गया.’’

मैं स्टोरकीपर प्लाटून का प्लाटून कमांडर था, इसलिए उस का इस तरह भाग कर आना मुझे आश्चर्यजनक नहीं लगा. किसी नई घटना की मुझे सूचना देना उस की ड्यूटी में था. मैं ने उस की बात को बड़े हलके से लिया और पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘सर, जो नया सिपाही रमेश पोस्ंिटग पर आया है न, उस की रात को अफसर मैस में ड्यूटी थी, उस ने कर्नल साहब की वाइफ का बलात्कार कर दिया.’’

‘‘क्या…क्या बकते हो? वह ऐसा कैसे कर सकता है? इस समय वह कहां है?’’ मैं एकाएक सतनाम सिंह की बात पर विश्वास नहीं कर पाया, इसलिए उस पर प्रश्नों की बौछार कर दी.

‘‘सर, वह क्वार्टरगार्ड (फौजी जेल) में बंद है. प्रशासनिक अफसर, कंपनी कमांडर और दूसरे अधिकारी वहीं पर हैं.’’

‘‘ठीक है, तुम यहीं रुको, मैं देखता हूं,’’ मैं ने सतनाम सिंह से कहा और सीधा क्वार्टरगार्ड की ओर बढ़ा. मुझे अपनी ओर आते देख कर कंपनी कमांडर साहब मेरी ओर बढ़े. ‘‘साहब, आप की प्लाटून के सिपाही रमेश ने तो गजब कर दिया. कर्नल साहब की वाइफ का रेप कर दिया.’’

‘‘सर, वह ऐसा कैसे कर सकता है. उस की यह हिम्मत? सर, आप ने उस से बात की?’’

‘‘बात करने की कोशिश की थी लेकिन वह कुछ नहीं बता रहा. केवल रोए जा रहा है.’’

‘‘ठीक है, सर. यह किस ने बताया कि उस ने रेप किया है? और कर्नल साहब उस समय कहां थे?’’

‘‘कर्नल साहब की वाइफ ने फोन कर के खुद बताया. ड्यूटी पर खड़े दूसरे गार्ड ने उसे ऐसा करते देखा. कर्नल साहब तो पीटी के लिए आ गए थे.’’

‘‘हूं, ठीक है, सर मैं देखता हूं, वह क्या कहता है.’’ मैं क्वार्टरगार्ड के पास पहुंचा तो कर्नल साहब दिखाई दिए. उन्होंने मेरी ओर निराशा से देखा, परंतु कहा कुछ नहीं. वे सकते में थे. ऐसी स्थिति में कोई कह भी क्या सकता है.

क्वार्टरगार्ड के जिस कमरे में रमेश बंद था, उस के बाहर प्रशासनिक अफसर, सूबेदार, मेजर और हवलदारमेजर खड़े थे. मुझे देखते ही मेरी ओर लपके. सभी ने एकसाथ कहा, ‘‘देखा साहब, इस लड़के ने क्या किया? ऊपर से रोए जा रहा है. कुछ बता भी नहीं रहा.’’

‘‘कोई बात नहीं, मैं देखता हूं. आप कृपया जरा बाहर चलें. मैं उस से अकेले में बात करना चाहता हूं. मैं समझता हूं, वह इस समय घबराया हुआ है और दबाव में है इसलिए रोए जा रहा है. मैं उस से प्यार से बात करूंगा तो वह अवश्य बताएगा कि वास्तव में हुआ क्या था.’’

‘‘ठीक है साहब, आप देख लें और जो कुछ बताए, हमें बताएं, तब तक मैं कंपनी कमांडर से बोल कर कोर्ट औफ इन्क्वायरी का और्डर करता हूं,’’ यह कह कर प्रशासनिक अफसर बाहर चले गए. उन के पीछे दूसरे अधिकारी भी चले गए. केवल क्वार्टरगार्ड का गार्ड कमांडर खड़ा रहा. मैं ने उसे घूरा, तो वह भी खिसक लिया.

मैं सिपाही रमेश के पास गया. वहां रखे जग में से एक गिलास पानी ले कर उसे दिया, ‘‘लो, पानी पियो.’’ उस ने मेरे हाथ से पानी ले कर थोड़ा पिया और थोड़े से अपना मुंह धो लिया. मुंह पोंछने के लिए मैं ने उसे अपना रूमाल दिया. उस ने मेरी ओर देखा. मैं ने अनुभव किया, वह पहले से कहीं अधिक स्वस्थ लग रहा था. यही समय है उस से बात करने का. मैं ने कहा, ‘‘देखो रमेश, मैं तुम्हारा प्लाटून कमांडर हूं. तुम मुझे पहचानते हो न?’’ मेरे स्वर में बड़ी आत्मीयता थी. उस ने हां में सिर हिलाया. ‘‘गुड, देखो, जो हुआ सो हुआ. अगर तुम मुझे सच बता दोगे तो मैं वचन देता हूं कि मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा.’’

रमेश की आंखें छलछला आई थीं, ‘‘सर, मैं गरीब आदमी हूं. मेरे वेतन पर पूरे घर का खर्चा चलता है. मुझ से गलती हुई. मुझे बचा लीजिएगा. मेरा पूरा कैरियर बरबाद हो जाएगा, सर. प्लीज, सर.’’ वह फिर रोने लगा.

‘‘तुम चिंता मत करो. तुम मुझे सचसच बताओगे, तभी मैं तुम्हारी मदद कर पाऊंगा.’’

‘‘सर, मुझ से गलती हुई पर मेरा ऐसा करने का कोईर् इरादा नहीं था. कर्नल साहब पीटी के लिए निकले तो मैं रूटीन में उन के क्वार्टर का चक्कर लगाने गया. कमरे की खिड़की खुली हुई थी. अचानक अंदर नजर गईर् तो मेमसाहब को अर्धनग्न अवस्था में देखा. गोरीगोरी सुंदर टांगें आकर्षित करने लगीं. जैसे न्योता दे रही हों कि आ जाओ. और सच मानें, सर मैं रह नहीं पाया. मेमसाहब ने भी कुछ नहीं कहा. उन्होंने भी शोर तब मचाया जब दूसरे गार्ड ने उन्हें ऐसा करते देख लिया. बस इतना ही, साहब.’’ वह फिर सुबकने लगा.

मेरे मन के भीतर एकाएक विचार आया, कहीं मेमसाहब भी तो ऐसा नहीं चाहती थीं, तभी उन्होंने शोर नहीं मचाया. उन्होंने शोर तब मचाया जब दूसरे गार्ड ने उन्हें देख लिया. मुझे किसी भी सम्माननीय नारी के प्रति ऐसा सोचने का अधिकार नहीं था. मेमसाहब के प्रति तो बिलकुल नहीं. वे सब के प्रति स्नेहशील थीं.

‘‘रमेश, तुम्हें इतना भी खयाल नहीं रहा कि मेमसाहब कमांडैंट साहब की वाइफ हैं. सब के लिए सम्मानीय. वे जवानों से कितना स्नेह और प्यार करती हैं. तुम्हें उन के साथ ऐसा कृत करते हुए शर्म नहीं आई. तुम्हारा तो कोर्टमार्शल होना चाहिए. डिसमिस फ्रौम सर्विस.’’

वह कुछ नहीं बोला. सिर्फ पहले की तरह रोता रहा. मैं फिर विचारों में खोने लगा. मानव मतिष्क में कब शैतान घुस आए, कोई भरोसा नहीं. इस में उम्र की कोई सीमा नहीं होती. यह तो युवा और कुंआरा है. ऐसी स्थिति में किसी का मन भी भटक सकता था. इस का भटकना आश्चर्य का विषय नहीं है, चाहे, यह सरासर गलत था. गलत है.

मैं ने कुछ क्षण सोचा, फिर फैसला कर लिया, ‘‘तुम जानते हो रमेश, कोर्ट औफ इन्क्वायरी चलेगी. तरहतरह के प्रश्न पूछे जाएंगे. अलगअलग ढंग से तुम्हें लताड़ा जाएगा. तुम पर बहुत दबाव होगा. सब से अधिक दबाव मैं डालूंगा. परंतु तुम्हें मेरी बात पर कायम रहना होगा चाहे मैं तुम्हें बाहर ले जा कर थप्पड़ भी मारूं. अब मैं जो कह रहा हूं, उस से तुम मुकरना नहीं.

‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो, कहना, कर्नल साहब पीटी पर गए तो मेमसाहब ने मुझे बुलाया और ऐसा करने को कहा. कोई जितना मरजी दबाव डाले, तुम्हें यही कहना है. कोई अधिक जोर दे तो केवल यह जोड़ना है कि मेरी क्या हिम्मत कि मैं एक  कर्नल साहब की वाइफ के साथ ऐसा करूं. बस, इतना ही. एक शब्द भी इधरउधर नहीं. तुम्हें कुछ नहीं होगा.’’

मैं उसे उसी स्थिति में छोड़ कर क्वार्टरगार्ड से बाहर आ गया. मुझे देखते ही प्रशासनिक अफसर और कंपनी कमांडर साहब मेरी ओर आए. दोनों ने एकसाथ पूछा, ‘‘कुछ बताया, साहब?’’

‘‘जी साहब, वह तो उलटापुलटा कह रहा है. कह रहा है, कर्नल साहब के जाने के बाद मेमसाहब ने उसे बुलाया और ऐसा करने को कहा.’’

‘‘क्या? बदमाश है, बकवास करता है. कर्नल साहब की वाइफ ऐसा कैसे कह सकती हैं? क्यों कहेंगी?’’ प्रशासनिक अफसर ने कहा.

‘‘हां सर, झूठ बोल रहा है. कर्नल साहब की वाइफ ऐसा कह ही नहीं सकतीं. उन को मैं ही नहीं, पूरी यूनिट अच्छी तरह जानती है,’’ कंपनी कमांडर ने कहा.

‘‘मैं ने भी उस से यही कहा था. मैं तो उसे थप्पड़ मारने को भी हुआ परंतु वह बारबार यही कहता रहा, भला, उस की क्या हिम्मत कर्नल साहब की वाइफ के साथ ऐसा करे या ऐसा करता.’’

‘‘हूं, कोर्ट औफ इन्क्वायरी में सब पता चल जाएगा,’’ प्रशासनिक अफसर ने कहा और चलने लगे.

‘‘सर, सिपाही रमेश और कर्नल साहब की वाइफ का मैडिकल करवाना आवश्यक है,’’ कंपनी कमांडर ने कहा.

‘‘कर्नल साहब से बात कर के मैं इस का प्रबंध करता हूं,’’ कह कर प्रशासनिक अफसर चले गए. उन के पीछेपीछे कंपनी कमांडर साहब भी. मैं भी वहां से लौट आया.

पिछले एक सप्ताह से सिपाही रमेश के विरुद्ध कोर्ट औफ इन्क्वायरी चल रही है. इस से पहले उस का और कर्नल साहब की वाइफ का मैडिकल हुआ था जिस में बलात्कार साबित हो गया था. इन्क्वायरी के अध्यक्ष मेजर विमल थे. कैप्टन सविता और सूबेदारमेजर विजय सिंह मैंबर थे. प्लाटून कमांडर होने के नाते आज मेरी स्टेटमैंट रिकौर्ड होनी थी. मैं मन ही मन इस के लिए खुद को तैयार करने लगा. मुझे इस बात की सूचना मिल गई थी कि सिपाही रमेश ने वही स्टेटमैंट दी थी जैसा मैं ने कहा था. अधिक जोर देने पर भी उस ने वही बात कही थी जिस के लिए मैं ने उसे हिदायत दी थी. मेरी स्टेटमैंट पर भी बहुतकुछ निर्भर था.

मैं जब कोर्ट औफ इन्क्वायरी के समक्ष पहुंचा तो सभी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. सुबह के 10 बज चुके थे. मेरे लिए इसी समय पहुंचने का आदेश था. मैं ने मेजर साहब को सैल्यूट किया और निश्चित कुरसी पर बैठ गया. कुछ समय चुप्पी छाई रही. फिर मेजर साहब ने प्रश्न करने शुरू किए.

‘‘आप कब से स्टोरकीपर प्लाटून के प्लाटून कमांडर हैं?’’

‘‘सर, पिछले वर्ष जनवरी से.’’

‘‘आप सिपाही रमेश को कब से जानते हैं?’’

‘‘एक सप्ताह पहले से, जब से वह पोस्ंिटग पर आया है.’’

‘‘आप को पता है, वह कहां से पोस्ंिटग पर आया है?’’

‘‘जी, मैटीरियल मैनजमैंट कालेज, जबलपुर से.’’

‘‘यानी, बिलकुल नया है. स्टोरकीपर की ट्रेनिंग के बाद वह सीधे यहीं आया है?’’

‘‘जी, सर.’’

‘‘आप जवानों के बीच से अफसर बने हैं. आप उन की मानसिकता को बड़ी अच्छी तरह समझते हैं, जानते हैं. क्या आप को लगता है, सिपाही रमेश बलात्कार जैसा अपराध कर सकता है?’’

‘‘मैं जानता हूं, सर सिपाही रमेश मेरे लिए नया है. मैं उसे अधिक नहीं जानता परंतु मैं यह अवश्य जानता हूं कि ट्रेनिंग सैंटरों से आए जवान अधिक अनुशासनप्रिय होते हैं, वे ऐसे अपराध कर ही नहीं सकते.’’

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं, रमेश आप की प्लाटून का जवान है, ऐसा कह कर आप उसे बचाना चाहते हैं?’’

‘‘नहीं, सर ऐसा नहीं है. मैं जवान से अफसर बना हूं. मैं 10 वर्षों तक उन के बीच रहा हूं. मैं उन की सोच, उन की मानसिकता को बड़े करीब से जानता हूं. वे बहुत ही गरीब परिवारों से आते हैं. जिन की दालरोटी उन के वेतनों से चलती है. वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? उन के लिए तो एक सीनियर सिपाही और लांस नायक एक बहुत बड़ा अफसर है. उन के समक्ष वे सावधान हो कर बात करते हैं. वे ऐसे जवानों के प्रति कोई अपराध की बात नहीं सोचते तो कर्नल साहब के प्रति सोचना तो बहुत दूर की बात है.’’

‘‘अपराध तो हुआ है. मैडिकल रिपोर्ट में बलात्कार साबित हो चुका है. क्या आप को लगता है, इस में कर्नल साहब की वाइफ भी कहीं दोषी हैं? सिपाही रमेश ने भी अपने बयान में कहा है कि उन्होंने उसे बुलाया और ऐसा करने को कहा. आप के ऊपर दिए बयान से भी कहीं न कहीं यह झलकता है कि इस में कर्नल साहब की वाइफ भी दोषी हैं?’’

प्रश्न का उत्तर देना बड़ा कठिन था. किसी को भी भ्रमित कर सकता था. मेजर साहब कहीं न कहीं मेरे मुख से इस के प्रति सुनना चाहते थे, परंतु मैं जानता था, मुझे क्या कहना है. मेरी थोड़ी सी गलती सिपाही रमेश का कोर्टमार्शल करवा सकती थी. मैं ने मन में ठान ली कि मुझे गोलमोल उत्तर देना है.

‘‘सर, मैं ने यह नहीं कहा कि कर्नल साहब की वाइफ दोषी हैं. मुझे नहीं पता, वास्तव में वहां हुआ क्या था. मैं ने तो आप के प्रश्न के उत्तर में जवानों की गरीबी, अनुशासनप्रियता और उन की मानसिकता को आप के समक्ष रखा है और यह कहने की कोशिश की है कि विकट परिस्थितियों में भी ऐसे अपराधों से जवान खुद को दूर रखने का प्रयत्न करते हैं. जम्मूकश्मीर में भी ऐसे कई केसेस आए जिन में जवान बेगुनाह साबित हुए. जहां तक कर्नल साहब की वाइफ का प्रश्न है, वे बहुत ही सम्मानीय नारी हैं. मैं उन को कलंकित होते नहीं देख सकता.’’

पर कहीं न कहीं मेरे मन के भीतर यह प्रश्न भी अपने विकराल रूप में रेंग रहा था कि कर्नल साहब खुद एक चरित्रहीन व्यक्ति हैं, कहीं उन के चरित्र से प्रभावित हो कर मेमसाहब ने ऐसा तो नहीं किया?

विडंबना देखिए, सेना में जहां औरतें पहले उपलब्ध नहीं हुआ करती थीं, अधिकारी अपने जूनियर या सीनियर अधिकारियों की पत्नियों से संबंध बनाने की कोशिश किया करते थे. खुद कई पत्नियां भी इस में पीछे नहीं रहती थीं, परंतु यह सब छिपछिप कर होता था. सेना में अब महिला अफसर आने से यह छिपाव खत्म हो गया है.

महिला अफसर सदा अपने सीनियर अफसरों के प्रभाव में रहती हैं और वे अधिकारी इस का पूरा फायदा उठाते हैं. मैं समझता हूं, शायद कर्नल साहब की चरित्रहीनता ने मेमसाहब को ऐसा करने को प्रेरित किया हो कि वे ऐसा कर सकते हैं तो वह क्यों नहीं. निश्चिय ही इसी का प्रभाव रहा होगा, परंतु मैं अपनी इस सोच को शाब्दिक प्रस्तुत नहीं कर पाया.

मैं चुप हो गया था. मेजर साहब भी सोच में डूब गए. उन को महत्त्वपूर्ण निर्णय करना था. एक तरफ जहां नारी का सम्मान दांव पर था, वहीं एक जवान का भविष्य भी जुड़ा था. थोड़ी सी गलती रमेश का कैरियर बरबाद कर सकती थी.

वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे. फिर उन्होंने अपनी गरदन को झटका दिया, जैसे किसी निर्णय पर पहुंच गए हों, स्पष्ट कहा, ‘‘पिछले एक सप्ताह से, जब से कोर्ट औफ इनक्वायरी चली है, मैं इसी पर सोचता आ रहा हूं. अपराध तो हुआ है, मैं मानता हूं. मैं यह भी जानता हूं किसी नारी के चरित्र पर बिना देखे लांछन लगाना, उस से बड़ा अपराध है. मैं जवानों की मानसिकता को भी बड़े करीब से जानता हूं. चाहे मैं ने सेना में सीधे कमीशन लिया है. मैं ने दूसरे अफसरों से भी बात की है. वे भी यही कहते हैं. मैं नहीं समझता इस में सिपाही रमेश अधिक दोषी है. यह सहमति सैक्स का मामला बनता है. बनता ही नहीं, बल्कि है.’’

मेजर साहब ने कोर्ट औफ इन्क्वायरी के दूसरे सदस्यों की ओर गहरी नजरों से देखा. वे चुप थे, जिस का मतलब यह भी था कि वे उन की बात से सहमत हैं.

कोर्ट औफ इन्क्वायरी का कंक्ल्यूजन लिख लिया गया जो सिपाही रमेश के फेवर में था. कर्नल साहब को इस का आभास हो गया था कि इन्क्वायरी का कंक्ल्यूजन उन के फेवर में नहीं है.

एक सप्ताह के भीतर ही उन्होंने अपना ट्रांसफर करवा लिया और चले गए. वे बात को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे. अगर आगे बढ़ाते तो जहां उन की बदनामी होती वहीं इंक्वायरी का कंक्ल्यूजन आड़े आता. मुझे सिपाही रमेश को बचा पाने की खुशी थी, वहीं कर्नल साहब की वाइफ के लिए हमदर्दी थी. मैं मन की गहराइयों से इस बात का फैसला नहीं कर पाया कि यह गलत हुआ या सही.

हवेली: क्या पूरे हुए गीता के सपने

‘साड्डा चिडि़यां दा चंबा वे… बाबुल, असां उड़ जाना…’ यानी हे पिता, हम लड़कियों का अपने पिता के घर में रहना चिडि़यों के घोंसले में पल रहे नन्हे चूजों के समान होता है, जो जल्द ही बड़े हो कर उड़ जाते हैं. हे पिता, हमें तो बिछुड़ जाना है.

लोग कहते हैं कि हमारे लोकगीतों में जिंदगी के दुखदर्द की सचाई बयान होती है, मगर गीता के लिए इस लोकगीत का मतलब गलत साबित हुआ था. आसपास की सभी लड़कियां ससुराल जा कर अपनेअपने परिवार में रम गई थीं, मगर गीता ने यों ही सारी जिंदगी निकाल दी. इस तनहा जिंदगी का बोझ ढोतेढोते गीता के सारे एहसास मर चुके थे. कोई अरमान नहीं था. अपनी अधेड़ उम्र तक उसे अपने सपनों के राजकुमार का इंतजार रहा, मगर अब तो उस के बालों में पूरी सफेदी उतर चुकी थी. आसपड़ोस के लोगों के सहारे ही अब उस के दिन कट रहे थे.

एक वक्त था, जब इसी हवेली में गीता का हंसताखेलता भरापूरा परिवार था. अब तो यहां केवल गीता है और उस की पकी हुई गम से भरी जवानी व लगातार खंडहर होती जा रही यह पुरानी हवेली. गीता की कहानी इसी खस्ताहाल हवेली से शुरू होती है और उस का खात्मा भी यहीं होना तय है.

‘साड्डी लंबी उडारी वे… बाबुल, असां उड़ जाना…’ यानी हमारी उड़ान बहुत लंबी है. ससुराल का घर बहुत दूर लगता है, चाहे वह कुछ कोस की दूरी पर ही क्यों न हो. हे पिता, हमें बिछुड़ जाना है.

गीता की शादी बहुत धूमधाम से हुई थी. बड़ेबड़े पंडाल लगाए गए थे. हजारों की तादाद में घराती और बराती इकट्ठा हुए थे. ऐसेऐसे पकवान बनाए गए थे, जो फाइवस्टार होटलों में भी कभी न बने हों. 10 किस्म के पुलाव थे, 5 किस्म के चिकन, बेहिसाब फलजूस, विलायती शराब की हजारों बोतलें पीपी कर लोग सारी रात झूमते रहे थे.

एक हफ्ते तक समारोह चलता रहा था. दनादन फोटो और वीडियो रीलें बनी थीं, जिन में गर्व से इतराते जवान दूल्हे और शरमाई दुलहन के साथ सभी रिश्तेदार खुशी से चिपक कर खड़े थे. गीता को तब पता नहीं था कि एक साल के अंदर ही उस की बदनामी होने वाली है.

‘कित्ती रोरो तैयारी वे… बाबुल, असां उड़ जाना…’ यानी शादी होने के बाद मैं ने बिलखबिलख कर ससुराल जाने की तैयारी कर ली है. हर किसी की आंखों में आंसू हैं. हे पिता, हमें बिछुड़ जाना है.

गीता का चेहरा शर्म से लाल सुर्ख हुआ जा रहा था और वह अंदर से इतनी ज्यादा खुश थी कि एक बहुत बड़े रईस परिवार से अब जुड़ गई थी. 2 महीने बाद उसे अपने पति के साथ लंदन जाना था. लड़के के परिवार वाले भी बेहद खुश दिख रहे थे. दूल्हा बड़ी शान से एक सजे हुए विशाल हाथी पर बैठ कर आया था. फूलों से लदी एक काली सुंदर चमचमाती लंबी लिमोजिन कार गीता की डोली ले जाने के लिए सजीसंवरी उस के पीछेपीछे आई थी.

लड़के का पिता अपने इलाके का बहुत बड़ा जमींदार था. उस ने भारी रोबदार लहजे में गीता के पिता से कहा था, ‘मेरे लिए कोई खास माने नहीं रखता कि तुम अपनी बेटी को दहेज में क्या देते हो. हमारे पास सबकुछ है. हमारी बरात का स्वागत कुछ ऐसे तरीके से कीजिएगा कि सदियों तक लोग याद रखें कि चौधरी धर्मदेव के बेटे की शादी में गए थे.’ लोग तो उस शानदार शादी को आसानी से भूल गए थे. आजकल तकरीबन सभी शादियां ऐसी ही सजधज से होती हैं. पर गीता को कुछ नहीं भूला था. उस के दूल्हे ने पहली रात को उसे हजारों सब्जबाग दिखाए थे.

शादी के बाद एक महीना कैसे बीता, पता ही नहीं चला. गीता के तो पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे. वह पगलाई सी उस रस के लोभी भंवरे के साथ भारत के हर हिल स्टेशन पर घूमती रही, शादी को बिना रजिस्टर कराए. गीता के पति को एक दिन अचानक लंदन जाना पड़ा. कुछ महीनों बाद तक यह सारा माजरा गीता के परिवार वालों की समझ में नहीं आया. गीता तो कुछ ज्यादा ही हवा में थी कि विदेश जा कर यह कोर्स करेगी, वह काम करेगी.

कुछ दिनों तक गीता मायके में रही. ससुराल से कोई खोजखबर नहीं मिल पा रही थी. गीता का पति जो फोन नंबर उसे दे गया था, वह फर्जी था. लोगों को दो और दो जोड़ कर पांच बनाते देर नहीं लगती. अखबारों को भनक लगी, तो उन्होंने मिर्चमसाला लगा कर गीता के नाम पर बहुत कीचड़ उछाला. पत्रकारों को भी मौका मिल गया था अपनी भड़ास निकालने का. कहने लगे कि लालच के मारे ये

मिडिल क्लास लोग बिना कोई पूछताछ किए विदेशी दूल्हों के साथ अपनी लड़कियां बांध देते हैं. ये एनआरआई रईस 2-3 महीने जवान लड़की का जिस्मानी शोषण कर के फुर्र हो जाते हैं, फिर सारी उम्र ये लड़कियां विधवाओं से भी गईगुजरी जिंदगी बसर करती हैं. आने वाले समय में जिंदगी ने जो कड़वे अनुभव गीता को दिए थे, वे उस के लिए पलपल मौत की तरफ ले जाने वाले कदम थे. उस के मातापिता ने शादी में 25 लाख रुपए खर्च कर दिए थे और क्याकुछ नहीं दिया था. एक बड़ी कार भी उसे दहेज में दी थी.

खैर, 2-3 महीने बाद एक नया नाटक सामने आया. गीता के बैंक खाते में पति ने कुछ पैसे जमा किए. अब वह उसे हर महीने कुछ रुपए भेजने लगा था, ताकि पैसे के लिए ही सही गीता उस के खिलाफ कोई होहल्ला न करे. गीता के पिता ने कुछ रिश्तेदारों को साथ ले कर उस की ससुराल जा कर खोजबीन की.

पता चला कि लड़का तो लंदन में पहले से ही शादीशुदा है. यह बात उस ने अपने मांबाप से भी छिपाई थी. कुछ अरसा पहले उस ने अपनी मकान मालकिन से ही शादी कर ली थी, ताकि वहां का परमानैंट वीजा लग जाए. बाद में उस से पीछा छुड़वा कर वह गीता से शादी करने से 7 महीने पहले एक और रूसी गोरी मेम से कोर्ट में शादी रचा चुका था. गीता के साथ तो उस ने अपने मांबाप को खुश रखने के लिए शादी की थी, ताकि वह सारी उम्र उन की ही सेवा में लगी रहे.

इस मामले में गीता के घर वाले उस की ससुराल वालों को फंसा सकते थे, मगर यह इतना आसान नहीं था. गीता के मांबाप ने उस के ससुराल पक्ष पर सामाजिक दबाव बढ़ाना शुरू किया और अदालत का डर दिखाया, तो वे 5 लाख रुपए दे कर गीता से पीछा छुड़ाने का औफर ले कर आ गए. गीता की शादी भारत में रजिस्टर नहीं हुई थी और इंगलैंड में उस की कोई कानूनी मंजूरी नहीं थी, इसलिए गीता के घर वाले उस के पति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे, जिस ने गीता के साथ यह घिनौना मजाक किया था.

गीता के ससुराल वाले चाहते थे कि एक महीने तक उन के बेटे को जो गीता ने सैक्स सर्विस दी थी, उस का बिल 5 लाख रुपए बनता है. वह ले कर गीता दूसरी शादी करने को आजाद थी. वे बाकायदा तलाक दिलाने का वादा कर रहे थे. अब गीता का पति उन के हाथ आने वाला नहीं था.

तब गीता की ससुराल वालों ने उस के परिवार को एक दूसरी योजना बताई. गीता का देवर अभी कुंआरा ही था. उन्होंने सुझाया कि गीता चाहे तो उस के साथ शादी कर सकती है. ऐसा खासतौर पर तब किया जाता है, जब पति की मौत हो जाए. गीता की मरजी के बिना ही उस की जिंदगी को ले कर अजीबअजीब किस्म के करार किए जा रहे थे और वह हर बार मना कर देती. कोई उस के दिल के भीतर टटोल कर नहीं देख रहा था कि उसे क्या चाहिए.

फिर कुछ महीनों बाद गीता की ससुराल वालों का यह प्रस्ताव आया कि गीता के परिवार वाले 10 लाख रुपए का इंतजाम करें और गीता को उस के पति के पास लंदन भेज दें. शायद गीता के पति का मन अपनी विदेशी मेम से भर चुका था और वह गीता को बीवी बना कर रखने को तैयार हो गया था. गीता के सामने हर बार इतने अटपटे प्रस्ताव रखे जाते थे कि उस का खून खौल उठता था. शुरू में तो गीता को लगता था कि उस के परिवार वाले उस के लिए कितने चिंतित हैं और वे उस की पटरी से उतरी हुई गाड़ी को ठीक चढ़ा ही देंगे, मगर फिर उन की पिछड़ी सोच पर गीता को खीज भरी झुंझलाहट होने लगी थी.

गीता अपने दुखों का पक्का इलाज चाहती थी. समझौते वाली जिंदगी उसे पसंद नहीं थी. वह हाड़मांस की बनी एक औरत थी और इस तरह का कोई समझौता उस की खराब शादी को ठीक नहीं कर सकता था. अब गीता के मांबाप के पास इतना पैसा नहीं था कि वे उसे लंदन भेज सकें, ताकि गीता उस आदमी को पा सके. मगर पिछले 3 साल से वह भारत नहीं आया था और ऐसा कोई कानून नहीं था कि गीता के परिवार वाले उसे कोई कानूनी नोटिस भिजवा सकें.

गीता के मांबाप ने कोर्ट में केस दायर कर दिया था. वे अपने 25 लाख रुपए वापस चाहते थे, जो उन्होंने गीता की शादी में खर्च किए थे. गीता के लिए तो यह सब एक खौफनाक सपने की तरह था. वह पैसा नहीं चाहती थी. वह अपने बेवफा पति को भी वापस नहीं चाहती थी.

गीता क्या चाहती थी, यह उस की कच्ची समझ में तब नहीं आ रहा था. हर कोई अपनी लड़ाई लड़ने में मसरूफ था. किसी ने यह नहीं सोचा था कि गीता की उम्र निकलती जा रही है, उस के मांबाप बूढ़े होते जा रहे हैं. कोई सगा भाई भी नहीं है, जो बुढ़ापे में गीता की देखभाल करेगा.

अदालत के केस में फंसे गीता के पिता की सारी जमापूंजी खत्म हो गई. गीता की ससुराल वालों के पास खूब पैसा था. केस लटकता जा रहा था और एक दिन गीता के पिता ने तंग आ कर खेत में पेड़ से लटक कर जान दे दी. मां ने 3-4 साल तक गीता के साथ कचहरी की तारीखें भुगतीं, मगर एक दिन वे भी नहीं रहीं.

अब अपनी लड़ाई लड़ने को अकेली रह गई थी अधेड़ गीता. खेतों से जो पैदावार आती थी, वह इतनी ज्यादा नहीं थी कि लालची वकीलों को मोटी फीस दी जा सके. थकहार कर गीता ने कचहरी जाना ही छोड़ दिया. वह अपनी ससुराल वालों की दी गई हर पेशकश या समझौते को मना करती रही. एकएक कर के गीता के साथ के सभी लोग मरखप गए.

हवेली का रंगरूप बिगड़ता गया. अब इस कसबे में नए बाशिंदे आ कर बसने लगे थे. सरकार ने जब इस क्षेत्र को स्पैशल इकोनौमिक जोन बनाया, तो आसपास के खेतों में कारखाने खुलने लगे. उन में काम करने वालों के लिए गीता की हवेली सब से सस्ती जगह थी. गीता किराए के सहारे ही हवेली का थोड़ाबहुत रखरखाव कर रही थी. अपने बारे में तो उस ने कब से सोचना छोड़ दिया था.

ऐसा लग रहा था कि गीता और हवेली में एक प्रतियोगिता चल रही थी कि कौन पहले मिट्टी में मिलेगी.

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अपराध: नीलकंठ को क्या हुआ गलती का एहसास

ऐलिस का साथ पाने के लिए नीलकंठ ने अपनी दम तोड़ती पत्नी सुरमा को बचाने की कोई कोशिश नहीं की.

एंबुलैंस का सायरन बज रहा था. लोग घबरा कर इधरउधर भाग रहे थे. छुट्टी का दिन होने से अस्पताल का आपातकालीन सेवा विभाग ही खुला था, शोरशराबे से डाक्टर नीलकंठ की तंद्रा भंग हो गई.

घड़ी पर निगाह डाली, रात के 10 बज कर 20 मिनट हो रहे थे. उसे ऐलिस के लिए चिंता हो रही थी और उस पर क्रोध भी आ रहा था. 9 बजे वह उस के लिए कौफी बना कर लाती थी. वैसे, उस ने फोन पर बताया था कि वह 1-2 घंटे देर से आएगी.

‘‘सर,’’ वार्ड बौय ने आ कर कहा, ‘‘एक गंभीर केस है, औपरेशन थिएटर में पहुंचा दिया है.’’

‘‘आदमी है या औरत?’’ नीलकंठ ने खड़े होते हुए पूछा.

‘‘औरत है,’’ वार्ड बौय ने उत्तर दिया, ‘‘कहते हैं कि आत्महत्या का मामला है.’’

‘‘पुलिस को बुलाना होगा,’’ नीलकंठ ने पूछा, ‘‘साथ में कौन है?’’

‘‘2-3 पड़ोसी हैं.’’

‘‘ठीक है,’’ औपरेशन की तैयारी करने को कहो. मैं आ रहा हूं. और हां, सिस्टर ऐलिस आई हैं?’’

‘‘जी, अभीअभी आई हैं. उस घायल औरत के साथ ही ओटी में हैं,’’ वार्ड बौय ने जाते हुए कहा.

राहत की सांस लेते हुए नीलकंठ ने कहा, ‘‘तब तो ठीक है.’’

वह जल्दी से ओटी की ओर चल पड़ा. दरअसल, मन में ऐलिस से मिलने की जल्दी थी, घायल की ओर ध्यान कम ही था.

ऐलिस को देखते ही वह बोला, ‘‘इतनी देर कहां लगा दी? मैं तो चिंता में पड़ गया था.’’

‘‘सर, जल्दी कीजिए,’’ ऐलिस ने उत्तर दिया, ‘‘मरीज की हालत बहुत खराब है. और…’’

‘‘और क्या?’’ नीलकंठ ने एप्रन पहनते हुए पूछा, ‘‘सारी तैयारी कर दी है न?’’

‘‘जी, सब तैयार है,’’ ऐलिस ने गंभीरता से कहा, ‘‘घायल औरत और कोई नहीं, आप की पत्नी सुरमा है.’’

‘‘सुरमा,’’ वह लगभग चीख उठा.

सुबह ही नीलकंठ का सुरमा से खूब झगड़ा हुआ था. झगड़े का कारण ऐलिस थी. नीलकंठ और ऐलिस का प्रणय प्रसंग उन के विवाहित जीवन में विष घोल रहा था. सुबह सुरमा बहुत अधिक तनाव में थी, क्योंकि नीलकंठ के कोट पर 2-4 सुनहरे बाल चमक रहे थे और रूमाल पर लिपस्टिक का रंग लगा था. सुरमा को पूरा विश्वास था कि ये दोनों चिह्न ऐलिस के ही हैं. कुछ कहने को रह ही क्या गया था? पूरी कहानी परदे पर चलती फिल्म की तरह साफ थी.

झुंझला कर क्रोध से पैर पटकता हुआ नीलकंठ बाहर निकल गया.

जातेजाते सुरमा के चीखते शब्द कानों में पड़े, ‘आज तुम मेरा मरा मुंह देखोगे.’

ऐसी धमकियां सुरमा कई बार दे

चुकी थी. एक बार नीलकंठ ने

उसे ताना भी दिया था, ‘जानेमन, जीना जितना आसान है, मरना उतना ही मुश्किल है. मरने के लिए बहुत बड़ा दिल और हिम्मत चाहिए.’

‘मर कर भी दिखा दूंगी,’ सुरमा ने तड़प कर कहा था, ‘तुम्हारी तरह नाटकबाज नहीं हूं.’

‘देख लूंगा, देख लूंगा,’ नीलकंठ ने विषैली मुसकराहट के साथ कहा था, ‘वह शुभ घड़ी आने तो दो.’

आखिर सुरमा ने अपनी धमकी को हकीकत में बदल दिया था. उन का घर 5वीं मंजिल पर था. वह बालकनी से नीचे कूद पड़ी थी. इतनी ऊंचाई से गिर कर बचना बहुत मुश्किल था. नीचे हरीहरी घास का लौन था. उस दिन घास की कटाई हो रही थी. सो, कटी घास के ढेर लगे थे. सुरमा उसी एक ढेर पर जा कर गिरी. उस समय मरी तो नहीं, पर चोट बहुत गहरी आई थी.

शोर मचते ही कुछ लोग जमा हो गए, उन्होंने सुरमा को पहचाना और यही ठीक समझा कि उसे नीलकंठ के पास उसी के अस्पताल में पहुंचा दिया जाए.

काफी खून बह चुका था. नब्ज बड़ी मुश्किल से पकड़ में आ रही थी. शरीर का रंग फीका पड़ रहा था. नीलकंठ के मन में कई प्रश्न उठ रहे थे, ‘सुरमा से पीछा छुड़ाने का बहुत अच्छा अवसर है. इस के साथ जीवन काटना बहुत दूभर हो रहा है. हमेशा की किटकिट से परेशान हो चुका हूं. एक डाक्टर को समझना हर औरत के वश की बात नहीं, कितना तनावपूर्ण जीवन होता है. अगर चंद पल किसी के साथ मन बहला लिया तो क्या हुआ? पत्नी को इतना तो समझना ही चाहिए कि हर पेशे का अपनाअपना अंदाज होता है.’

सहसा चलतेचलते नीलकंठ रुक गया.

‘‘क्या हुआ, सर?’’ ऐलिस ने चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘मैं यह औपरेशन नहीं कर सकता,’’ नीलकंठ ने लड़खड़ाते स्वर में कहा, ‘‘कोई डाक्टर अपनी पत्नी या सगेसंबंधी का औपरेशन नहीं करता, क्योंकि वह उन से भावनात्मक रूप से जुड़ा होता है. उस के हाथ कांपने लगते हैं.’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं?’’ ऐलिस ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘जल्दी से डाक्टर जतिन को बुला लो,’’ नीलकंठ ने वापस मुड़ते हुए कहा. वह सोच रहा था कि औपरेशन में जितनी देर लगेगी, उतनी जल्दी ही सुरमा इस दुनिया से दूर चली जाएगी.

‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ ऐलिस ने तनिक ऊंचे स्वर में कहा, ‘‘डाक्टर जतिन को आतेआते एक घंटा तो लगेगा ही. लेकिन इतना समय कहां है? मैं मानती हूं कि आप के लिए पत्नी को इस दशा में देखना बड़ा कठिन होगा और औपरेशन करना उस से भी अधिक मुश्किल, पर यह तो आपातस्थिति है.’’

‘‘नहीं,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘यह डाक्टरी नियमों के विरुद्ध होगा और यह बात तुम अच्छी तरह जानती हो.’’

‘‘ठीक है, कम से कम आप कुछ देखभाल तो करें,’’ ऐलिस ने कहा, ‘‘मैं अभी डाक्टर जतिन को संदेश भेजती हूं.’’

डाक्टर नीलकंठ जब ओटी में घुसा तो आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था, कितने ही उद्गार मन में उठते और फिर बादलों की तरह गायब हो जाते थे.

सामने सुरमा का खून से लथपथ शरीर पड़ा था, जिस से कभी उस ने प्यार किया था. वे क्षण कितने मधुर थे. इस समय सुरमा की आंखें बंद थीं, एकदम बेहोश और दीनदुनिया से बेखबर. इतना बड़ा कदम उठाने से पहले उस के मन में कितना तूफान उठा होगा? एक क्षण अपराधभावना से नीलकंठ का हृदय कांप उठा, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उस के शरीर को झंझोड़ रही हो.

नीलकंठ ने कांपते हाथों से सुरमा के बदन से खून साफ किया. उस का सिर फट गया था. वह कितने ही ऐसे घायल व्यक्ति देख चुका था, पर कभी मन इतना विचलित नहीं हुआ था. वह सोचने लगा, क्या सुरमा की जान बचा सकना उस के वश में है?

लेकिन डाक्टर जतिन के आने से पहले ही सुरमा मर चुकी थी. नीलकंठ सूनी आंखों से उसे देख रहा था, वह जड़वत खड़ा था.

जतिन ने शव की परीक्षा की और धीरे से नीलकंठ के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘मुझे दुख है, सुरमा अब इस दुनिया में नहीं है. ऐलिस, नीलकंठ को केबिन में ले जाओ, इसे कौफी की जरूरत है.’’

ऐलिस ने आहिस्ता से नीलकंठ का हाथ पकड़ा और लगभग खींचते हुए ओटी से बाहर ले गई. कमरे में ले जा कर उसे कुरसी पर बैठाया.

‘‘सर, मुझे दुख है,’’ ऐलिस ने आहत स्वर में कहा, ‘‘सुरमा के ऐसे अंत की मैं ने कभी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी. मैं अपने को कभी माफ नहीं कर सकूंगी.’’

नीलकंठ ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘तुम्हारा कोई दोष नहीं, कुसूर मेरा है.’’

नीलकंठ आंखें बंद किए सोच रहा था, ‘शायद सुरमा को बचा पाना मेरे वश से बाहर था, पर कोशिश तो कर ही सकता था. लेकिन मैं टालता रहा, क्योंकि सुरमा से छुटकारा पाने का यह सुनहरा अवसर था. मैं कलह से मुक्ति पाना चाहता था. अब शायद ऐलिस मेरे और करीब आ जाएगी.’

ऐलिस सामने कौफी का प्याला लिए खड़ी थी. वह आकर्षक लग रही थी.

पुलिस सूचना पा कर आ गई थी. औपचारिक रूप से पूछताछ की गई. यह स्पष्ट था कि दुर्घटना के पीछे पतिपत्नी के बिगड़ते संबंध थे, परंतु नीलकंठ का इस दुर्घटना में कोईर् हाथ नहीं था. नैतिक जिम्मेदारी रही हो, पर कानूनी निगाह से वह निर्दोष था. पोस्टमार्टम के बाद शव नीलकंठ को सौंप दिया गया. दोनों ओर के रिश्तेदार सांत्वना देने और घर संभालने आ गए थे. दाहसंस्कार के बाद सब के चले जाने पर एक सूनापन सा छा गया.

नीलकंठ को सामान्य होने में सहायता दी तो केवल ऐलिस ने. अस्पताल में ड्यूटी के समय तो वह उस की देखभाल करती ही थी, पर समय पा कर अपनी छोटी बहन अनीषा के साथ उस के घर भी चली जाती थी. चाय, नाश्ता, भोजन, जैसा भी समय हो, अपने हाथों से बना कर देती थी. धीरेधीरे नीलकंठ के जीवन में शून्य का स्थान एक प्रश्न ने ले लिया.

कई महीनों के बाद नीलकंठ ने एक दिन ऐलिस से कहा, ‘‘मैं तुम्हारे जैसी पत्नी ही पाना चाहता था. तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिलीं. यह सोच कर कभीकभी आश्चर्य होता है.’’

‘‘सर,’’ ऐलिस बोली, ‘‘सर.’’

नीलकंठ ने टोकते हुए कहा, ‘‘मैं ने कितनी बार कहा है कि मुझे ‘सर’ मत कहा करो. अब तो हम दोनों अच्छे दोस्त हैं. यह औपचारिकता मुझे अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘क्या करूं,’’ ऐलिस हंस पड़ी, ‘‘सर, आदत सी पड़ गई है, वैसे कोशिश करूंगी.’’

‘‘तुम मुझे नील कहा करो,’’ उस ने ऐलिस की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मुझे अच्छा लगेगा.’’

ऐलिस हंस पड़ी, ‘‘कोशिश करूंगी, वैसे है जरा मुश्किल.’’

‘‘कोई मुश्किल नहीं,’’ नीलकंठ हंसा, ‘‘आखिर मैं भी तो तुम्हें ऐलिस कह कर बुलाता हूं.’’

‘‘आप की बात और है,’’ ऐलिस ने कहा, ‘‘आप किसी भी संबंध से मुझे मेरे नाम से पुकार सकते हैं.’’

‘‘तो फिर किस संबंध से तुम मेरा नाम ले कर मुझे बुलाओगी?’’ नीलकंठ के स्वर में शरारत थी.

‘‘पता नहीं,’’ ऐलिस ने निगाहें फेर लीं.

‘‘तुम जानती हो, मेरे मन में तुम्हारे लिए क्या भावना है,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘मैं चाहता हूं कि तुम मेरे सूने जीवन में बहार बन कर प्रवेश करो.’’

‘‘यह तो अभी मुमकिन नहीं,’’ ऐलिस ने छत की ओर देखा.

‘‘अभी नहीं तो कोई बात नहीं,’’ नीलकंठ ने कहा, ‘‘पर वादा तो कर सकती हो?’’ नीलकंठ को विश्वास था कि ऐलिस इनकार नहीं करेगी, शक की कोई गुंजाइश नहीं थी.

‘‘यह कहना भी मुश्किल है,’’ ऐलिस ने मेज पर पड़े चम्मच से खेलते हुए कहा.

‘‘क्यों?’’ नीलकंठ ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘आखिर हम अच्छे दोस्त हैं?’’

‘‘बस, दोस्त ही बने रहें तो अच्छा है,’’ ऐलिस ने कहा.

‘‘क्या मतलब?’’ नीलकंठ ने खड़े होते हुए पूछा, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’

‘‘यही कि अगर शादी कर ली तो इस बात की क्या गारंटी है,’’ ऐलिस ने एकएक शब्द तोलते हुए कहा, ‘‘कि मेरा भी वही हश्र नहीं होगा, जो सुरमा का हुआ? आखिर दुर्घटना तो सभी के साथ घट सकती है?’’

यह सुनते ही नीलकंठ को मानो सांप सूंघ गया. उस ने कुछ कहना चाहा, पर जबान पर मानो ताला पड़ गया था. ऐलिस ने साथ देने से इनकार जो कर दिया था.

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