हादसे को न्योता देती भक्तों की भीड़

ठीक इसी जगह पर 29 जुलाई, 2021 को भी बादल फटा था, लेकिन तब न कोई मरा था, न कोई भगदड़ मची थी और न ही न्यूज चैनल वालों ने मजमा लगाया था. लेकिन बीती 8 जुलाई को जो कहर इसी जगह पर बादल ने बरपाया तो नजारा बेहद बदला हुआ और दहला देने वाला था. मीडिया वाले वहां टूटे पड़ रहे थे. चारों तरफ दहशत थी, मौतें थीं, रुदनकं्रदन था और भुखमरी के से हालात बन रहे थे. सेना के हजारों जवान अपनी जान जोखिम में डाल कर अमरनाथ तीर्थ यात्रियों की जिंदगी बचाने में जुटे थे और देशभर के आम लोग जीवन की क्षणभंगुरता की चर्चा करते आदत के मुताबिक टिप्स दे रहे थे कि इतनी भीड़ वहां नहीं लगने देनी चाहिए थी.

इस हादसे जिस में 20 के लगभग लोग मरे 50 से ज्यादा घायल हुए और 40 से भी ज्यादा लापता हुए का जिम्मेदार भगवान को मानने में धार्मिक आस्था और पूर्वाग्रह आड़े आ रहे थे, इसलिए ठीकरा बड़ी बेशर्मी से श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड के सिर फोड़ दिया गया कि उस की लापरवाही से यह हादसा हुआ.

मगर किसी ने यह नहीं कहा कि असल गलती तो लोगों की थी जो दुर्गम पहाड़ पर इकट्ठा हुए. क्या इन्होंने मौसम विभाग की बारबार दी गई चेतावनी नहीं सुनी थी कि इस वक्त वहां जाना एक तरह से आत्महत्या करने जैसा काम है? अगर बोर्ड यात्रा रोकता तो यकीन माने देशभर के हिंदू हल्ला मचाते कि देखो हमारी पवित्र यात्रा मौसम का बहाना ले कर रोकने की साजिश रची जा रही है.

30 जून से अमरनाथ यात्रा शुरू हुई थी तो हर साल की तरह 2 आशंकाएं खासतौर से जताई जा रही थीं. पहली- आतंकी हमले की और दूसरी खराब मौसम की. पहली आशंका से आश्वस्त करने के लिए तो सरकार ने सुरक्षा के लिए

1 लाख से भी ज्यादा जवान तैनात कर दिए थे, लेकिन खराब मौसम की बाबत वह कुछ करने में असमर्थ थी, इसलिए भक्तों को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया था. कोरोना के कहर के 2 साल बाद हो रही इस यात्रा को ले कर लोगों में जबरजस्त जोश था, जिस के चलते लाखों लोगों ने रजिस्ट्रेशन करा लिया था.

भीड़ और हादसा

अमरनाथ गुफा से 2 किलोमीटर दूर काली माता स्थान के पास हादसे के दिन शाम जब 5 बजे  के लगभग बादल फटा तब वहां 25 टैंटों में करीब 15 हजार लोग मौजूद थे. पानी बेकाबू हो कर बहा और टैंट सिटी के कई टैंटों को बहा ले गया, साथ में कुछ भक्त भी लकड़ी की तरह बहे. ये टैंट महानगरों की ?ाग्गियों की तरह एकदूसरे से सटे हुए थे जिन के आसपास लगे 3 लंगर भी वह गए.

तबाही का तांडव घंटों चला. घुप्प अंधेरे में कैद यात्री अपने भगवान को याद करते रह गए क्योंकि करंट फैलने के डर से बिजली भी काट दी गई थी.

इस मिनी प्रलय का कहर इतना था कि चट्टानें तो चट्टानें मिट्टी भी निकल कर बहने लगी थी. एक संकरी जगह में हजारों लोगों का होना जानमाल के बड़े नुकसान की वजह बना.

पिछले साल जब बदल फटा था तो एक आदमी भी नहीं मरा था क्योंकि वहां कोई था ही नहीं. साफ  है भीड़ थी इसलिए हादसा हुआ जिसे कुदरती कहने के बजाय मानवीय कहना ज्यादा बेहतर है. भीड़ क्यों थी इस सवाल के कोई खास माने नहीं हैं. माने इस बात के हैं भीड़ न होती तो किसी का कुछ नहीं बिगड़ता.

जिद की भारी कीमत

देशभर में हल्ला मचा, अलर्ट घोषित कर दिया गया, लेकिन यात्रा हैरत की बात है रद्द नहीं की गई बल्कि मौसम साफ होने तक स्थगित कर दी गई और 3 दिन बाद फिर शुरू कर दी गई जबकि मौसम के मिजाज में कोई तबदीली नहीं आई थी. शुरू होने के बाद खराब मौसम के चलते यह यात्रा कई बार रोकी गई थी, लेकिन भीड़ को इस से कोई सरोकार ही नहीं था.

उसे तो बस पवित्र गुफा तक किसी भी हाल में, किसी भी कीमत पर पहुंचना था. इस जिद की भारी कीमत कुछ लोगों ने जान दे कर चुकाई, लेकिन यात्रियों को अक्ल फिर भी नहीं आई.

महंगी पड़ी यात्रा

4 दिन बाद कुछ लोगों को अक्ल आई जब टैंट का किराया डेढ़ सौ रुपए से बढ़ा कर 6 हजार रुपए कर दिया गया. 20 रुपए कीमत वाली पानी की बोतल 100 रुपए में भी मुश्किल से मिली. लंगरों में राशनपानी खत्म हो गया तो मैगी और बिस्कुट के दाम भी 50 गुना बढ़ गए, जिन के पास पैसा खत्म हो चला था उन्होंने परिचितों और रिश्तेदारों से ट्रांसफर कराया.

मध्य प्रदेश के एक तीर्थ यात्री सचिन वारुडे बताते हैं कि मेरा परिवार गुफा से 200 मीटर दूर था. बादलों की गड़गड़ाहट से हम सब घबरा उठे थे. वहां के टैंट और लोग तेजी से बह रहे थे हरकोई भयभीत और लाचार था. बादल छंटने पर सचिन अपने बूढ़े मांबाप और ससुर को ले कर पंचतरणी की तरफ भागा तब तक इन तीनों की सांस फूल चुकी थी.

लूट सको तो लूट

दुश्वारियां यहीं खत्म नहीं हुई. पंचतरणी जाने के लिए उन्होंने जब घोड़े बालों से बात की तो उन्होंने 6 हजार रुपए मांगे जबकि तयशुदा किराया डेढ़ हजार रुपए है. इस तरह 3 घोड़ों के उन्हें 18 हजार रुपए देने पड़े. जिस यात्रा के लिए उन का बजट 20-25 हजार रुपए का था वह 50 हजार रुपए पार कर गया था.

साथ के तीनों बुजुर्गों की तबीयत भी बिगड़ गई थी और खानेपीने का भी कोई ठिकाना नहीं था. यह यात्रा उन्हें ढाई गुना से भी ज्यादा महंगी पड़ी और ब्याज में परेशानियां भुगतीं सो अलग. अब सचिन ने पहाड़ों की यात्रा से तोबा कर ली है.

चार धाम यात्रा भी अछूती नहीं

बात अकेले अमरनाथ यात्रा की नहीं बल्कि हिंदुओं की सब से अहम चार धाम यात्रा की भी है, जिस के लिए देशभर के करीब 22 लाख लोगों ने रजिस्ट्रेशन कराया था. यह यात्रा और भी ज्यादा दुर्गम और खतरनाक मानी जाती है. इस के बाद भी लोग यहां भी मधुमक्खियों की तरह उमड़ रहे थे.

लोग यहां बादल फटने से कम स्वास्थ कारणों से ज्यादा मरे. शुरुआती 23 दिनों में ही करीब 100 लोग अपनी जान गंवा चुके थे.

मृतकों की लगातार बढ़ रही संख्या से हरकोई चिंतित था, लेकिन उन्हें बचाने का उपाय किसी के पास नहीं था. यह कहने की भी हिम्मत कोई नहीं कर पाया कि इतनी बड़ी तादाद में लोगों को यहां नहीं आना चाहिए खासतौर से बीमार और बुजुर्गों को तो यहां आने की सोचनी भी नहीं चाहिए. हालत तो यह थी कि उत्तराखंड की स्वास्थ्य महानिदेशक शैलजा भट्ट को यह कहना पड़ा कि हम तीर्थयात्रियों की मौतें रोकने की हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं जिन में से अधिकतर बुजुर्ग हैं.

कोई घोषित शोध तो चार धाम के यात्रियों की मौतों पर नहीं हुआ, लेकिन सिक्स सिग्मा हैल्थ केयर के मुखिया प्रदीप भारद्वाज के मुताबिक जिन वजहों के चलते मौतें हुईं उन में प्रमुख कारण अनुकूल तंत्र की अनुपस्थिति, तीर्थयात्रियों की कमजोर इम्यूनिटी और अनिश्चित मौसम है. असल में पहाड़ों के मौसम का अपना अलग मिजाज होता है जहां कभी तेज धूप निकल आती है तो कभी अचानक बारिश होने या फिर ठंड पड़ने लगती है. अभ्यस्त न होने से इस बदलाब को यात्री यानी बाहरी लोग बरदाश्त नहीं कर पाते. चार धाम के पहाड़ पर स्थित मंदिर 1200 फुट की ऊंचाई तक है जहां चढ़ने के लोग ट्रेंड नहीं होते. वहां जलवायु भी एकदम बदलती है और ठंड भी कड़ाके की पड़ती है.

दम तोड़ना आम बात

केदारनाथ के रास्ते में ज्यादातर मौतें हायपोथर्मिया से हुईं जोकि अत्यधिक ठंड के चलते होता है. इस के बाद हार्टअटैक या कार्डियक अरेस्ट से ज्यादा लोग पहाड़ों पर दम तोड़ते हैं- हवा का कम दबाव अल्ट्रावायलेट किरणें और औक्सीजन की कमी से भी लोग या तो मर जाते हैं या फिर बीमार पड़ जाते हैं. डायबिटीज और ब्लडप्रेशर के मरीजों के सिर पर भी मौत मंडराती रहती है. चार धाम यात्रा में हर साल सैकड़ों लोगों का दम तोडना आम बात है.

औफ सीजन पहाड़ों का रोमांच किसी सुबूत का मुहताज नहीं जहां लोग खुली हवा, सुकून और एकांत में आराम करने ज्यादा जाते हैं, लेकिन इस के लिए इंतजार तीर्थ यात्राओं के सीजन का करते हैं जिस में लैंड स्लाइडिंग, तेज बारिश और हवाएं, आसमानी बिजली गिरने और बादल फटने का खतरा बना ही रहता है. एक खास वक्त में जाने से भीड़ बड़ती है और हादसे के अलावा बीमारियों से भी मौतें होती हैं.

अमरनाथ और चार धाम की यात्रा करने वाले सरकारी शैड्यूल और धार्मिक मुहूर्तों के गुलाम हो कर रह जाते हैं. वे चाह कर भी आराम नहीं कर पाते जबकि पहाड़ों की यात्रा रुकरुक कर की जाए तो तमाम तरह के जोखिम कम हो जाते हैं और यात्रा का पूरा लुत्फ  भी उठाया जा सकता है.

टूट रहा मिथक

सबक दूसरे पहाड़ी स्थलों कुल्लू, मनाली, शिमला, कश्मीर और नैनीताल से लिया जा सकता है. इन जगहों पर गरमियों में ही जाने का मिथक भी अब टूट रहा है. बारिश के 2-3 महीने छोड़ सैलानी सालभर खासतौर से ठंड के दिनों में इन जगहों पर बड़ी संख्या से जाने लगे हैं.

भीड़भाड़ से बचने के अलावा औफ सीजन पहाड़ी यात्रा के और भी फायदे हैं मसलन, ठहरने के लिए होटल सस्ते मिल जाते हैं, खानापीना भी किफायती दाम में मिल जाता है और अवागमन के साधनों का किराया भी कम हो जाता है. मंदिर और दूसरे दर्शनीय स्थल भी खाली पड़े रहते हैं.

दिल्ली से अकसर बद्रीनाथ केदारनाथ जाने वाले कश्मीरी गेट के एक युवा टैक्सी ड्राइवर परमवीर सिंह के मुताबिक तीर्थ यात्रा के सीजन में टैक्सियों का किराया भीड़ के मुताबिक 5 रुपए से 10 रुपए प्रति किलोमीटर तक बढ़ जाता है. अगर कोई दिल्ली से बद्रीनाथ जाने के लिए टैक्सी लेता है तो उसे एक तरफ के लगभग 5 हजार रुपए तक ज्यादा चुकाने पड़ते हैं. यही हाल होटलों और धर्मशालाओं का होता है जिन का किराया सीजन में दोगुना, चारगुना तक हो जाता है.

बात अकेले पैसे की नहीं है बल्कि बेशकीमती जिंदगी की भी है जो सलामत रहे तो एक बार और उस से भी ज्यादा पहाड़ी यात्राएं की जा सकती हैं. चार धाम और अमरनाथ में जान गंवाने वालों का न तो पुण्य कमाने का मकसद पूरा हुआ और न ही वे पहाड़ों का आनंद ले सके.

उन के घर वाले भी मुद्दत तक दुखी रहेंगे सो अलग और मुमकिन है उस घड़ी को कोस रहे हों जब जोखिम भरी यात्रा के फैसले में उन्होंने अपनी सहमति दी थी.

इन बातों पर ध्यान दें

– मौसम विभाग की भविष्यवाणी सुन कर ही यात्रा तय करें. अमरनाथ यात्रियों ने इस

की अनदेखी की थी जिस की सजा भी उन्होंने भुगती.

– दिल की, अस्थमा की, शुगर की या ब्लडप्रैशर या फिर कोई दूसरी गंभीर बीमारी हो तो पहाड़ों की यात्रा से बचें और जाएं तो अपने डाक्टर से सलाह ले कर ही जाएं बीमारी की दवा समुचित मात्रा में ले जाएं.

– तीर्थ यात्रा के दौरान पहाड़ों के बेस कैंप में मैडिकल चैकअप करवाएं. अगर डाक्टर यात्रा करने से मना करें तो रिस्क न लें.

– पर्याप्त ऊनी व गरम कपड़ों के अलावा स्कार्फ, दस्ताने और मफलर भी साथ रखें. चार धाम यात्रा में कई यात्रियों ने कम कपडे़ ले जाने की गलती की थी.

– मोबाइल फोन की बैटरी फुल रखें और चार्जिंग के लिए सोलर बेटरी ले जाएं ताकि बाहरी दुनिया और अपनों से संपर्क बना रहे.

– लगातार यात्रा न करें. एक दिन आराम कर दूसरे दिन की यात्रा शुरू करें. चढ़ाई ज्यादा हो तो बजाय जोश के होश से काम लें. जब थक जाएं तो रुक कर आराम करें.

– पहाड़ों की ठंड का सामना करने के लिए पानी पीते रहना जरूरी है, इसलिए पर्याप्त मात्रा में पानी साथ रखें.

– इस के बाद भी स्वास्थ संबंधी कोई परेशानी महसूस हो तो तुरंत यात्रा रोक दें और सुरक्षित स्थान पर लौट कर डाक्टर से संपर्क करें.

– सब से अहम बात भीड़ का हिस्सा बनने से बचें. किसी भी आपदा से बचने के लिए भीड़ के पीछे होने के बजाय सुरक्षित ठिकाना ढूंढ़ कर वहीं रुक जाएं. पहाड़ों की जोखिम भरी यात्राओं से बचाने में भगवान और सरकार दोनों कुछ नहीं कर सकते, इसलिए अपना ध्यान और खयाल खुद ही रखें.

पिछले साल जब बदल फटा था तो एक आदमी भी नहीं मरा था क्योंकि वहां कोई था ही नहीं. साफ  है भीड़ थी इसलिए हादसा हुआ जिसे कुदरती कहने के बजाय मानवीय कहना ज्यादा बेहतर है. भीड़ क्यों थी इस सवाल के कोई खास माने नहीं हैं. माने इस बात के हैं भीड़ न होती तो किसी का कुछ नहीं बिगड़ता.

15 अगस्त स्पेशल: किस पायदान पर 76 सालों की स्वतंत्रता के बाद कानून

15 अगस्त 1947, पूरे देश द्वारा मनाया जाने वाला एक दिन और एक संघर्ष के अंत का प्रतीक नहीं था, बल्कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था, कानून व्यवस्था, गरीबी का उन्मूलन, आदिके पुनर्निर्माण की शुरुआत थी. इस वर्ष एक स्वतंत्र राष्ट्र होने के 75 गौरवशाली वर्षों को पूरा कर रहे हैं.वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता उसके आर्थिक इतिहास का सबसे बड़ा मोड़ था. अंग्रेजों द्वारा किए गए विभिन्न हमलों और डीमोनिटाईजेशन के कारण, देश बुरी तरह से गरीब और आर्थिक रूप से ध्वस्त हो गया था. ऐसे में आजाद देश कई समस्याओं से गुजर रहा था, क्या अभी भी उन समस्याओं से देश के नागरिक निजात पा चुके है? क्या कानून व्यवस्था आज भी सर्वोपरि है? आइये जानें,मुंबई हाईकोर्ट के पूर्व जज जस्टिस विद्यासागर कनाडे से हुई बातचीत के कुछ खास अंश.

विश्वास बनाए रखना है कानून पर

इस बारें में मुंबई हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस विद्यासागर कनाडे कहते है कि 75 सालों बाद भी ये गनीमत है कि देश की जनता का विश्वास कानून से हटा नहीं है. मसलन अयोध्या का केस कई सालों तक पड़ा रहा. हाई कोर्ट के जजमेंट के समय पूरे देश में कर्फ्यू लगा था, शिक्षा संस्थान बंद थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ. न तो सार्वजनिक संपत्ति नष्ट हुई और न ही तोड़-फोड़ हुई. दोनों पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही थी. लोगों को इतना विश्वास कानून तंत्र पर था कि कुछ समस्या नहीं आई और एक बीच का रास्ता निकाला गया. आज भी किसी प्रकार के न्याय के परिणाम में देर होती है, तारीख पर तारीख पड़ते रहते है. समय पर न्याय नहीं मिलता, लेकिन मुझे लगता है कि न्याय तंत्र में कुछ सुधार लाना जरुरी है. ताकि जनता का विश्वास जारी रहे. इसमें सबसे पहले अपॉइंटमेंट में देर होती है, जो केंद्र सरकार और गठबंधन साथ में करती है.

जज दोषी नहीं

इसके आगे वे कहते है कि न्याय में देरी की वजह केवल जज को देना उचित नहीं. वकील को किसी केस को तैयार करने में लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है, जिसमे तर्क, लोगों की बातें आदि में समय लगता है. आर्गुमेंट को अगर एक से दो घंटे का समय दिया जाय, तो बार काउंसिल धरने पर जाती है. वैसा अमेरिका और इंग्लैंड में नहीं है, कितना भी बड़ा केस हो एक से दो घंटे का समय आर्गुमेंट के लिए दिया जाता है, महीने-महीने बहस चलती है और एक अंतिम निर्णय तक पहुंचा जा सकता है, जो जल्दी भी होती है.

दूसरी अहम बात है कॉस्ट अधिक हो जाता है, क्योंकि पहले लोग PIL का पास करते है. इसमें अगर कोई दावा दाखिल नहीं हुआ फिर भी डिफेन्स करते है, क्योंकि उन्हें अधिक मूल्य नहीं देना पड़ता. ब्रिटेन और अमेरिका में जितना कॉस्ट है पूरा एक साथ देना पड़ता है. उसमे सुधार लाने की जरुरत है, ताकि विशेषाधिकार मुकदमा (प्रिविलेज लिटिगेशन) कम हो जाय. इससे पेंडिंग पड़े फाइल की संख्या कम हो जायेगी, क्योंकि आज भी बिना किसी न्याय के सालों साल फ़ाइलें पड़ी रहती है. जबकि अमेरिका और ब्रिटेन में लोग आपस में सेटल कर लेते है, क्योंकि उन्हें पता होता है कि केस न जीतने पर उनके लिए ये महंगा साबित होगा. इस प्रोसेस को प्री लिटिगेशन सेटलमेंट कहा जाता है. ये होने पर पेंडिंग की समस्या कम हो जाएगी. करीब 60 प्रतिशत लिटिगेशन सरकार की होती है, जिसमे भूमि अधिग्रहण, अवार्ड देने के बाद रेफ़रेंस आदि सुप्रीमकोर्ट तक चलता रहता है. इनकम टैक्स की प्रक्रियां में राज्य सरकार की करीब 70 प्रतिशत लिटिगेशन के केसेज होती है, उन्हें लिटिगेटिंग नेचर को कम करना जरुरी है.

काम है चुनौतीपूर्ण

जज बनने के बाद खास काम के बारें में पूछने पर जस्टिस कनाडे कहते है कि मैं 16 साल जज था, उस दौरान मैंने 34,000 केसेज को अंजाम तक पहुँचाया था. स्पेशल टाटा स्कैम में मैंने 2000 मैटर्स को मैंने बाहर निकला. लोगों को लगता है कि जज अपना काम निष्ठा से नहीं कर रहे है. जबकि कई पोस्ट जजों के खाली पड़े है. 4 जज का काम एक जज अब कर रहा है. यहाँ 8 बजे तक कोर्ट चलते है. जो काम जज करता है, उससे पहले वकील के रूप में वह जितना कमा पाता है, उसके हिसाब से बहुत कम वेतन है. न्याय का यह काम एक तरीके का त्याग है, लेकिन वे इमानदारी से काम करते है. इसके अलावा जज हमेशा सही न्याय करता है, लेकिन भ्रष्टाचार के जो आरोप जज को लगते है, उसे इग्नोर करना पड़ता है, क्योंकि अगर व्यक्ति केस जित जाता है, तो जज का न्याय उसे ठीक लगता है, अगर हार जाता है, तो जज भ्रष्टाचारी कहा जाता है. बिक गया है, ये इमेज वकीलों के समूह तैयार करते है, लेकिन मेरी नजर में काम ईमानदारी से ही होता है.

आम आदमी के लिए कानून

आम जनता में कानून की कम जानकारी के बारें में उनका कहना है कि CPC में दिए गए बातों को कड़ाई से पालन करना चाहिए, ताकि न्याय पाने में देर न हो. महिलाओं को कानून की जानकारी कम होने की वजह उनका किसी विषय पर जागरूक न होना है. आजकल किसी भी जानकारी को इन्टरनेट के जरिये जाना जा सकता है. ये सही है, साधारण इंसान कानून कम जानते है, इसके लिए विदेशों की तरह कानून की सीरीज बननी चाहिए. खासकर शिक्षा में इसे सरल भाषा में किताबों में लिखी गई हो और सरकार की तरफ से सारे कानून को संक्षेप में स्थानीय भाषा में लिखकर किसी कमिटी के द्वारा पब्लिश कर इसे आम इंसान को देने से उसका फायदा उन्हें मिलेगा, क्योंकि ब्रिटिश चले जाने के बाद आज भी सभी काम अंग्रेजी में किया जाता है, जो गलत है. इसके अलावा किसी भी लॉ कमिशन को लाने के बाद लेजिस्लेचर को सलाह देते है. साधारण लोगों के लिए भारत सरकार को लेखकों की एक समूह बनाना जरुरी है, जिसमे एक्सपर्ट वकील भी शामिल हो और जो स्टैंडर्ड टेक्स्ट बना सकें,जिसमे सरल भाषा में इंडियन पीनल कोड,सीआरपीसी,बेल बांड के प्रोविजन आदि को संक्षिप्त में लिखकर देना चाहिए, ताकि आम नागरिक को समझने में आसानी हो. इसे सेक्शन वाइज न देकर चैप्टर वाइज कॉमन इंसान को देना चाहिये.

हुए कई अलग अनुभव

कार्यकाल में अपने अनुभव के बारें में जस्टिस कनाडे कहते है कि एक ग्रैंड मदर जो दूसरी पत्नी थी और उसकी दूसरेपति की भी मृत्यु हो गई, उनके सौतेले पोते-पोती थे, जबकि सौतेले बेटी का इस बूढी महिला के साथ प्रॉपर्टी को लेकर डिस्प्यूट चल रहा था. बेटी ने स्टेप मदर को जेल में और उनके पोती पोते को चाइल्ड होम में डाला. मैंने बच्चों को कोर्ट में लाने की आदेश दिया, दादी भीकोर्ट में लायी गयी और मैंने तुरंत दादी को पोते पोती से मिलवाया. इसके अलावा एक केस में एक विधवा का लड़का स्कूल जाता था, लेकिन उस महिला के पास बच्चे को पढ़ाने का पैसा नहीं था. मैंने इंस्टिट्यूशन को बुलाकार उनकी समस्या जानी और बच्चे को फ्री में शिक्षा देने की बात कही थी, उन्होंने नहीं माना और मैंने खुद उसे पढ़ने की बात सोची थी, पर इंस्टिट्यूशन ने उसकी फीस माफ़ कर दिया. ऐसे निर्णय देने के बाद खुद को संतुष्टि मिलती है.

सम्हाले नागरिक देश को

75वीं देश की आज़ादी को मना रहे देश की नागरिकों के लिए जस्टिस कनाडे का सन्देश है कि देश के लिए ही काम कीजिये, बाकी सब बेकार है. सभी नगरिक को देश को अहमियत देना है, ताकि भारत भी विकसित देशों की लिस्ट में शामिल हो सकें.

निहत्थों पर वार करना कायरता है

पिछले कुछ सालों से कश्मीर एक बार फिर देश के सैलानियों के लिए एक स्पौट बन रहा था, खासतौर पर सर्दियों में जब गुलमर्ग पर पूरी तरह बर्फ पड़ जाती थी और स्कीइंग और एलैजिंग का मजा लूटा जा सकता था. अब लगता है कि एक बार फिर कश्मीर हिंदूमुसलिम विवाद में फंस रहा है.

भारत सरकार ने बड़ी आनबानशान से कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश घोषित करते हुए उसे उपराज्यपाल के अंतर्गत डाल दिया और संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित करते हुए ऐलान कर डाला कि कश्मीर अब पूरी  तरह भारत का हिस्सा हो गया. पर मईजून माह में ताबड़तोड़ आतंकवादी हमलों ने फिर उन पुराने दहशत भरे दिनों को वापस ला दिया जब देश के बाहरी इलाकों के लोग कश्मीर में व्यापार तक करने जाने से घबराते थे.

आतंकवादी चुनचुन कर देश के बाहरी इलाकों से आए लोगों को मार रहे हैं. एक महिला टीचर और एक युवा नवविवाहित बैंक मैनेजर की मौत ने फिर से कश्मीर को पराया बना डाला है. जो सरकार समर्थक पहले व्हाट्सऐप, फेसबुक, ट्विटर पर कश्मीर में प्लौट खरीदने की बातें कर रहे थे अब न जाने कौन से कुओं में छिप गए हैं.

किसी प्रदेश, किसी जाति, किसी धर्म को दुश्मन मान कर चलने वाली नीति असल में बेहद खतरनाक है. आज के शहरी जीवन में सब लोगों को एकदूसरे के साथ रहने की आदत डालनी होगी क्योंकि शहरी अर्थव्यवस्था सैकड़ों तरह के लोगों के सम्मिलित कामों का परिणाम होती है.

हर महल्ले में, हर सोसाइटी में, हर गली में हर तरह के लोग रहें, शांति से रहें और मिलजुल कर रहें तो ही यह भरोसा रह सकता है कि चाहे कश्मीर में हों या नागालैंड में, आप के साथ भेदभाव नहीं होगा. यहां तो सरकार की शह पर हर गली में जाति और धर्म की लाइनें खींची जा रही हैं ताकि लोग आपस में विभाजित रह कर या तो सरकार के जूते धोएं या अपने लोगों से संरक्षण मांगने के लिए अपनी अलग बस्तियां बनाएं.

जब हम दिल्ली के जाकिर नगर और शाहीन बाग को पराया मानने लगेंगे तो कश्मीर को कैसे अपनाएंगे?

सैलानी अलगअलग इलाकों को एकसाथ जोड़ने का बड़ा काम करते हैं. वे ही एक देश की अखंडता के सब से बड़े सूत्र हैं, सरकार की ब्यूरोक्रेसी या पुलिस व फौज नहीं.

कश्मीरी आतंकवादी इस बात को समझते हैं और इसलिए इस बार निशाने पर बाहर से आए लोगों को ले रहे हैं और परिणाम है कि घर और परिवार सरकारी नीतियों के शिकार हो रहे हैं. निहत्थों पर वार करना कायरता है और उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार अपने देश की जनता से किए वादे को पूरा करेगी और पृथ्वी पर बसे स्वर्ग को हर भारतीय के लिए खोले रखेगी.

टैक्सों का मकड़जाल

स्टांप ड्यूटी किसी जमाने में संपत्ति के रजिस्ट्रेशन के खर्च के लिए हुआ करती थी. ब्रिटिश सरकार ने संपत्ति के मालिकों को एक दस्तावेज देने और लेनदेन को पक्का करने के लिए स्टांप ड्यूटी का प्रावधान बनाया था पर धीरेधीरे देशभर की सरकारें अब इसे टैक्स का एक रूप मानती हैं और मान न मान मैं तेरा मेहमान की तरह किसी भी खरीद में बीच में टपक पड़ती हैं और कीमत का

8% से 12% तक हड़प जाती हैं. कुछ राज्यों में घर में ही संपत्ति हस्तांतरण में भारी स्टांप ड्यूटी लगने लगी और इस से घबरा कर लोग पावर औफ ऊटौर्नी पर ब्रिकी करने लगे.

अब बहुत हल्ले के बाद कुछ राज्यों को यह समझ आया है कि यह माफियागीरी कुछ ज्यादा हो गई है. महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में अब संपत्ति का हस्तांतरण अगर परिवार के सदस्यों में ही हो रहा हो तो नाममात्र का शुल्क रखा गया है ताकि पारिवारिक संपत्ति का बंटवारा कागजों पर सही ढंग से हो सके और विवाद न खड़े हों.

संपत्ति की खरीदबेच असल में तो किसी भी सामान की खरीदबेच की तरह होनी चाहिए. हर लेनदेन पर मोटा टैक्स उलटा पड़ता है. लोग इस खर्च को तरहतरह से बचाने की कोशिश करते हैं. ब्लैक का चलन आय कर न देने की इच्छा से तो है ही, स्टांप ड्यूटी न देने की इच्छा भी इस में है क्योंकि लोग नहीं चाहते कि फालतू में पैसे दिए जाएं.

संपत्ति की ब्रिकी तो तभी होती है जब बेचने वाला संकट में हो और तब वह 1-1 पैसे को बचाना चाहता है. सरकार ने खुद ही कानूनों, नियमों और टैक्सों का ऐसा मकड़जाल बनाया हुआ है कि लोग पानी में पैर रखना भी नहीं चाहते जहां मगरमच्छ भरे हुए हैं.

सरकार का खजाना तभी बढ़ेगा जब लोग आसानी से संपत्ति को खरीदबेच सकें क्योंकि तब वे कपड़ों की तरह खरीदबेच करेंगे और अपनी जरूरत की संपत्ति रखेंगे और जरूरत की खरीदेंगे.

घरों में संपत्ति का बंटवारा बहुत मुश्किल होता है क्योंकि स्टांप ड्यूटी का निरर्थक खर्च सामने आ खड़ा होता है. बुजुर्ग अकसर अब चाहने लगे हैं कि वे जीतेजी अपने बच्चों में अचल संपत्ति बांट जाएं पर स्टांप ड्यूटी का पैसा न होने की वजह से टालते रहते हैं.

किसी के मरने के बाद पहले तो किस का कितना हिस्सा है, यह विवाद खड़ा होता है और हल होने पर किस के नाम कैसे करें, यह सवाल स्टांप ड्यूटी के मगरमच्छ की तरह खाने को दौड़ता है. अगर स्टांप ड्यूटी व्यावहारिक हो तो परिवारों में आपसी मतभेद में एक किरकिरी तो कम होगी.

श्रीजा के संघर्ष और हौसले को सलाम

मां की मौत के बाद पिता भी मुंह मोड़ ले तो बच्चों का वर्तमान और भविष्य खराब हो जाना निश्चित ही है पर बिहार की श्रीजा ने 10वीं कक्षा में 99.8′ अंक ला कर मां और बाप दोनों के अभावों में मामा के घर रह कर न केवल जीना सीखा. उसे चैलेंज के रूप में ला कर दिखाया. आमतौर पर सोच यही है कि मां और बाप दोनों के जाने के बाद चाचाताऊ या मामामौसी के यहां पले बच्चे घर में नौकरों की तरह के रह जाते हैं पर सिर्फ किसान चाचा और साधारण से मामा के बल पर श्रीजा बिहार की टौपर बन गई.

श्रीजा सिर्फ 4 साल की थी जब मां की मृत्यु हो गई और कुछ समय बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली और श्रीजा व उस की छोटी बहन को नानानानी के पास छोड़ कर कभी देखभाल तक नहीं की. मामाओं ने ही उसे पाला और पढऩे के मौके दिए.

एक युग था जब सौतेले या पराए बच्चे घरों में ऐसे ही पलबढ़ जाते थे क्योंकि बहुत से बच्चे होते थे और घर भरापूरा होता था. आज जरूरतें बढ़ गईं और कम बच्चे घर में होने की वजह से हर बच्चा पूरी अटैंशन चाहता है. आज मांबाप की ज्यादा ङ्क्षजदगी छोटे बच्चों के चारों ओर घूमती है. ऐसे में जिन के मां या बाप या दोनों न हों, वे बेहद कुंठा में रहते हैं और दूसरों के मिलते प्यार को देख कर उन्हें अपने अभाव कचोटते हैं.

आज बच्चों की जरूरतें बढ़ गई हैं. हैंड मी डाउन यानी उतारे हुए कपड़े पहनने की परंपरा समाप्त होने लगी है. मोबाइल, बदलती किताबें, कोङ्क्षचग, ट्यूटर, पीटीए मीङ्क्षटगों, पिकनिकें, स्कूल ट्रिप, फिल्म, रेस्ट्रा आदि मौजूद नहीं हैं आकर्षक हैं और हरेक को अट्रैक्ट करते हैं. ऐसे में जो उन घरों में पल रहे हैं जहां अगर छत और खाना मिल भी रहा हो तो प्यार और मनुहार का हक न मिले तो बहुत खलता है.

गनीमत है श्रीजा के मामा चंदन और उनके भाई ने श्रीजा और उस की बहन को ढंग से रखा और आज उन का स्थान समाज में ऊंचा है.

असल में पराए बच्चों को अपनाना और उन को पूरा प्यार देना, लाखों करोड़ों के दान से ज्यादा है पर हमारी संस्कृति में भाग्य में लिखा हुआ है कि मान्यता इतनी है कि सगेसंबंधी भी प्यार व सहारे के मारों की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते हैं यह सोच कर कि चाहे अबोध बच्चे ही क्यों न हों, अगर मां और बाप न हों तो वे पिछले जन्मों के कर्मों का फल भोग रहे हैं. उन की जिम्मेदारी नहीं है.

पराए बच्चों को पालना एक अजीब सुख देता है. अपने बच्चों के साथ जब दूसरे भी हों और खुश हो तो ही जीवन संपूर्ण होता है. इसीलिए आज दुनियाभर में गोद लेने वालोंं  की कतारें लगी हैं और लोग बच्चों को गरीब इलाकों से गोद ले रहे हैं चाहे उन की शक्ल, रंग, कद अलग क्यों न हो. ये बच्चे अपने पालने वाले मांबाप से खुश रहते हैं. नाराज तो पादरी पंडे होते हैं जिन्हें लगता है कि इन बच्चों पर उन का अधिकार है और अगर वे…….., मदरसों और चर्चों में होती तो सेवा करते और उन के नाम पर भक्तों का बहका कर पैसे वसूल किया जाता. अनाथालय सदियों से अपनी क्रूरता के लिए जाने जाते हैं. सरकारों द्वार चलाए जा रहे बालगृहों में बेहद लापरवाही और सैक्सुअल शोषण होता है. मामाचाचा के हाथों फिर भी जीवन सुरक्षित है और श्रीजा ने साबित किया है कि ऐसे तनाव में प्रतिभा निखर कर आती है.

धर्म की पोल खोलना मना है

दिल्ली में एक पति ने अपनी पत्नी की हत्या इसलिए कर दी कि उस ने कह डाला कि चाय नहीं बन सकती क्योंकि दूध नहीं है. ‘जा कर दूध ले आओ’ कहने पर पति ने एक खिडक़ी का शीशा तोड़ा और टूटे शीशे से पत्नी पर हमला कर दिया और उसे बचाने आई एक बेटी घायल हो गई व उस की मौत हो गई. वह शख्स 3 बड़ी बेटियों का पिता है जिस की बड़ी बेटी नौकरी कर घर चला रही है और सब से छोटी 12वीं में है. उसे मालूम था कि उस के पास पत्नी पर हमला करने का हक है.

पत्नियों से इस तरह की हिंसा विश्वव्यापी है और सामाज उसे मर्दानगी की श्रेणी में रखता है. पंजाब केसरी समाचार पत्र एक लेख में बताता है कि वेदव्यास ने स्त्रियों के लिए मन, बचन और कर्म से पति सेवा की सब कुछ माना है. गायत्री परिवार जिस के काफी समर्थक देश भर में फैले हैं, अपनी पुस्तकों से कहलवाते हैं.

पतिव्रत धर्म का अर्थ है -पत्नी द्वारा पति के आस्तित्व में संपूर्ण आत्म समर्पण. पतिव्रत में निष्ठा रखने वाली नारी योगियों की तरह जीवन मुक्त हो जाती है. वह पति में भगवत भक्ति का पुण्य तथा आनंद पाती है. अपने अराध्य के प्रति आत्मोत्सर्ग कर देने से एक अनिवार्य आनंद होता है. पतिव्रत का विशेष लक्षण है उस का स्वतंत्र मास्तित्व न रहना, न स्वतंत्र रहने की इच्छा रखना, न भावना.

आस्थावान पत्नियां सेवा व प्रेम से वेश्यागायी व शराबी पति को बदल देती है. स्त्रियों के पुरुषों के मास्तिष्क में किसी प्रकार की िचता पैदा करने का प्रयास नहीं करना चाहिए. आदि आदि.

यह बातें सोशल मीडिया से ली गई हैं यानी आज भी प्रचालित ही नहीं है. जम कर प्रचारित की जा रही हैं. ऐसे में शराब का लती एक पति अगर पत्नी को चाय बना कर देने के लिए धमकाए और दूध लाने को कहने पर हत्या कर दे तो बरगलाने का दोषी कौन है? क्या ये पाठ पढ़ाने वाले नहीं जो सैंकड़ों व्हाट्सएप मैसेजों, फेसबुक पोस्टों, औन लाइन बलौगों, साइटों से रातदिन पत्नीव्रत समझाते रहते हैं.

धर्म सत्ता पर आगाध निष्ठा के पीछे औरततों का शोषण है. धर्म औरतों के साथ पिछड़ों और दलितों का शोषण करने का लाइसेंस दे रहा है और इसीलिए िहदूिहदू का शोर मचा रहा है और जो भी धर्म की पोल खोलता है उस का मुंह बंद करने की कोशिश की जाती है कि धाॢमक भावनाएं आहत हो रही हैं.

असल में जो आहत हो रहा है वह है वह व्यवस्था जिस में कुछ पुरुष औरतों पर जुल्म कर सकते हैं. इस निकम्मे पति की इतनी हिम्मत थी कि वह दूध तक बाजार से लाने को तैयार नहीं था. ऐसी मानसिकता क्यों? क्योंकि वह जानता है धर्म द्वारा बनाई गई व्यवस्था में औरत नीरीह है, कमजोर है, अकेली है. तलाकशुदा, अविवाहित, विधवाएं, परित्यगताएं समाज से कह जाती है. कितने ही त्यौहार ऐसे हैं जो औरतों को रूसवा रहने को महिमामंडित करते हैं और अकेले रहने पर अपमानित करते हैं. यह हत्या उसी का एक प्रमाण व परिधर्म है.

गुस्से में छोटीछोटी बातों पर हत्याएं होती है पर पत्नियों और बेटियों की नहीं. सोच समझ कर की गर्ई हत्या की बात दूसरी होती है. दुर्घटनावश हुई हत्या भी एक गलती मानी जा सकती है. पर पहले खिडक़ी का शीशा तोडऩा और फिर शीशे के एक टुकड़े से मां के साथ बचाने भाई, बेटी पर भी हमले करते रहना एक बीमारी का चलन है जो केवल धर्म देता है, समाज उसे पालता है, कानून उस की रक्षा करता है, यह 21वीं सदी का विश्वगुरू भारत की राजधानी दिल्ली की एक छोटी सी झलक है.

पत्नियों की सफलता पर विवाद

वैवाहिक विवादों में पति क्याक्या आर्गूमैंट पत्नी का कैरेक्टर खराब दिखाने के लिए ले सकते हैं इस का एक उदाहरण अहमदाबाद में किया. 2008 में जोड़े का विवाह हुआ पर 2010 में पत्नी अपने मायके चली गई. बाद में पति दुबई में जा कर काम करने लगा. पत्नी ने जब डोमेस्टिक वौयलैंस और मैंनटेनैंस का मुकदमा किया तो और बहुत सी बातों में पति ने यह चार्ज भी लगाया कि उस की अब रूठी पत्नी के पौलिटिशयनों से संबंध है और वह लूज कैरेक्टर की है. सुबूत के तौर पर उस ने फेसबुक पर पत्नी और भाजपा के एक विधायक के फोटो दर्शाए.

कोर्ट ने पति की औब्जैक्शन को नकार दिया और 10000 मासिक का खर्च देने का आदेश दिया पर यह मामला दिखाता है कि कैसे पुरुष छोड़ी पत्नी पर भी अंकुश रखना चाहते हैं और उस के किसी जाने चले जाने के साथ फोटो को उस का लूज कैरेक्टर बना सकते हैं.

पत्नियों की सफलता किसी भी फील्ड में हो, पतियों को बहुत जलाती है क्योंकि सदियों से उन के दिमाग में ठूंसठूंस कर भरा हुआ है कि पत्नी तो पैर की जूती है. कितनी ही पत्नियां आज भी कमा कर भी लाती हैं और पति से पिटती भी हैं. ऐसे पतियों की कमी नहीं है जो यह सोच कर कि पत्नी आखिर जाएगी कहां, उस से गुलामों का सा व्यवहार करते हैं. जो पत्नी काम करने की इजाजत दे देते हैं, उन में से अधिकांश पत्नी का लाया पैसा अपने कब्जे में कर लेते हैं.

यह ठीक है कि आज के अमीर घरों की पत्नियों के पास खर्चने को बड़ा पैसा है, वे नईनई ड्रेसें, साडिय़ां, जेवर खरीदती हैं, किट्टी पाॢटयों में पैसा उड़ाती हैं पर यह सब पति बहलाने के लिए करने देते हैं ताकि पत्नी पूरी तरह उन की गुलाम रहे. ऐशो आराम की हैविट पड़ जाए तो पति की लाख जबरदस्ती सुननी पड़ती है.

गनीमत बस यही है कि आजकल लड़कियों के मातापिता जब तक संभव होता है, शादी के बाद भी बेटी पर नजर रखते हैं, उसे सपोर्ट करते हैं, पैसा देते हैं, पति की अति से बचाते है. यहां पिता ज्याद जिम्मेदार होते हैं मां के मुकाबले. मांएं साधारण या अमीर घरों में गई बेटियों को एडजस्ट करने और सहने की ही सलाह देती है.

पति को आमतौर पर कोई हक नहीं चाहिए कि वह अपनी पत्नी के कैरेक्टर पर उंगली भी उठाए, खासतौर पर जब पत्नी घर छोड़ चुकी हो और पति देश. पति ने अगर 10000 रुपए मासिक की मामूली रकम दे दी तो कोई महान काम नहीं किया.

’ महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना है जरूरी’- स्मिता मिश्रा, शिक्षाविद्

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से जिले देवरिया की रहने वाली स्मिता मिश्रा के पिता पेशे से टीचर थे. वह चाहते थे कि उनकी बेटी पढलिख कर आगे बढे. स्मिता बचपन से ही बेहद समझदार थी. उन्हें बचपन से ही ज़रूरतमंद और बेसहारा लोगों की सहायता करना अच्छा लगता है. बचपन में जो भी पैसा मिलता था उसे गुल्लक में रखती थी और दीपावली के त्यौहार मॆ इकट्ठा किए गए पैसों को गरीब बच्चों में बांट देती थी. 12 वीं की पढाई के बाद स्मिता मिश्रा ने वाराणसी और इलाहाबाद से आगे की पढाई पूरी की. वह अपने पिता की तरह ही टीचर बनकर समाज की सेवा करना चाहती थी. अपनी शिक्षा पूर्ण कर प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से उच्च शिक्षा में अर्थशास्त्र विषय मे असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में चयनित होकर वर्तमान में आजमगढ जिले के श्री अग्रसेन महिला महाविद्यालय में लडकियों को पढाने का काम कर रही है. लडकियों की शिक्षा और समाज की हालत पर पेश  है स्मिता मिश्रा के साथ एक खास बातचीत:-

सवाल- आमतौर पर लडकियां अर्थशास्त्र जैसे विषय में पढाई कम ही करती है. आपको यह शौक़ कैसे हुआ ?

0 – मेरे पिता टीचर से रिटायर हुये है. उनका मेरे जीवन पर बहुत प्रभाव रहा है. उनका मानना था कि लडकियों को अपनी शिक्षा पूरी करने के साथ ही साथ आत्मनिर्भर होना चाहिये. लडकियां जब खुद आत्मनिर्भर होगी तो उनको कोई आगे बढने से रोक नहीं पायेगा. वह अपने पसंद के फैसले खुद कर सकती है।मेरा भी यही मानना है.हर लड़की को शिक्षित होने के साथ-साथ आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना बहुत आवश्यक है.

सवाल- लड़कियों को अर्थशास्त्र विषय पढ़ने के क्या फ़ायदे हैं ?

0 – लड़कियाँ बीए (ऑनर्स) इकनॉमिक्स के बाद इसी विषय में मास्टर्स भी करती हैं तो बैंकिंग, फाइनैंशल और इन्वेस्टमेंट सेक्टर, इंश्योरेंस, टीचिंग, मैनेजमेंट, आदि क्षेत्रों में जॉब के अवसर हो सकते हैं। इसके अलावा

घर को चलाने का सबसे बडा जिम्मा महिलाओं पर ही होता है. बैंक के काम हो या होम लोन या और भी जरूरी काम. जब फाइनेंस में महिलाओं की रूचि होगी तो वह बेहतर तरह से अपनी जिम्मेदारी संभाल सकती है. इससे पति की भी मदद हो सकेगी. गणित विषय में रूचि कम होने के कारण महिलाओं को फाइनेंस और अर्थशास्त्र जैसे विषय पसंद नहीं आते है. पर महिलाओं को इनमें रूचि लेनी चाहिये।

सवाल- गांव और पिछडे जिलों में लडकियों की शिक्षा की क्या स्थिति है ?

0 – पहले के मुकाबले आज लडकियों की शिक्षा काफी बेहतर हालत में है.लेकिन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में हायर एजूकेशन में लडकियां पीछे है. इसके लिये सरकार बेहतर प्रयास कर रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार में लडकियों की पढाई को प्रोत्साहित करने के लिये अनेकों योजनाएँ चलाई हैं.लडकियों को टैबलेट, स्मार्टफोन और लैपटाप देने का काम किया है ताकि उन्हें ऑनलाइन पढ़ाई करने में मदद मिल सके. उन्हें कॉलेज आने में किसी तरह की परेशानी न हो इसके लिये कानून व्यवस्था का मजबूत किया गया है. इसका प्रभाव दिख रहा है. स्कूल कालेज में लडकियों की तादाद बढती दिखने लगी है.

सवाल- सोशल मीडिया का लडकियों पर क्या प्रभाव पड रहा है ?

0 – सोशल मीडिया ने लडकियो को आजादी दी है. इसके जरीये वह तमाम जानकारियां घर बैठे हासिल कर सकती है. जो उनके कैरियर को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है. साथ ही वह अपने हुनर को लोगो तक पहुँचा सकती है

जिन लडकियां की रूचि गाना और डांस में होती है उनको भी सोशल मीडिया से मदद मिलती है. जरूरी यह है कि लडकियां इसका सही तरह से प्रयोग करें.

सवाल- – आपकी हौबीज क्या है ?

0 – मुझे गाडर्निग, फ़ोटोग्राफ़ी , गजल सुनने और किताबे पढने का शौक है. मैं लडकियों से कहती हॅू कि वह अपने कोर्स की किताबों के साथ ही साथ समाचारपत्र और पत्रिकाएं ज़रूर पढे.बाग़वानी करें.

सवाल- आप कालेज में पढाती है, दो छोटे बच्चे है एक साथ घर परिवार सब कैसे मैनेज कर लेती है. ?

0 – पौजिटिव सोच और टाइम मैनेजमेंट के जरीये ही यह सब मैनेज हो रहा है. मेरा मानना है कि महिलाएँ अत्यंत क्षमतावान एवं ऊर्जावान होती हैं जिसका सदुपयोग करके वह कठिन से कठिन राह को भी सरल बना सकतीं हैं.

घरेलू हिंसा: आखिर कब रुकेगा यह सिलसिला

हौलीवुड इंडस्ट्री में इन दिनों ऐक्टर जौनी डेप और उन की एक्स वाइफ एंबर हर्ड का वैवाहिक विवाद आए दिन नई खबरों के साथ सुर्खियों में है. जौनी डेप और एंबर हर्ड की तरफ से एकदूसरे पर कई आरोप लग चुके हैं. एंबर हर्ड ने जहां डेप पर घरेलू हिंसा का केस दर्ज कराया है, वहीं जौनी डेप ने एंबर हर्ड पर मानहानि का केस किया है.

एंबर हर्ड की तरफ से हाल ही में उन की डाक्टर डौन ह्यूज कोर्ट में पेश हुई थीं और जौनी डेप पर गंभीर आरोप लगाए थे. डौन ह्यूज का कहना था कि जौनी डेप एंबर हर्ड से जबरन सैक्स करते थे और हिंसक हो जाते थे. जॉनी डेप हमेशा नशे में रहते थे और एक दिन भंयकर नशे में एंबर हर्ड को बेड पर पटक कर उन का गाउन फाड़ दिया फिर उन के साथ जबरन सैक्स करने की कोशिश की.

जब एंबर हर्ड ने इस का विरोध किया तो जौनी डेप ने उन के साथ मारपीट की. यही नहीं जौनी डेप जब भी गुस्से में होते थे तो वे एंबर हर्ड को जबरन ओरल सैक्स करने पर मजबूर करते थे. डेप नहीं चाहते थे कि एंबर हर्ड फिल्मों में बोल्ड सीन करें.

एंबर ने यह भी खुलासा किया कि जौनी ने शराब की बोतल से उन का यौन उत्पीड़न किया था. शादी के तुरंत बाद उन्हें मारने की धमकी भी दी थी. कोर्ट में पेश किए गए दस्तावेजों के अनुसार 2013 में जौनी डेप ने एंबर हर्ड के साथ मारपीट की और फिर उन की चीजों को भी जलाया था. इस के अलावा 2014 में उन्होंने एंबर हर्ड के साथ प्लेन में भी बुरा बरताव किया था, जबकि डेप के वकील की दलील थी कि एंबर हर्ड को हिंसा और टकराव की आदत और जरूरत थी. एंबर अकसर डेप के खिलाफ अपमानजनक, चुभने वाली, टौक्सिक और हिंसात्मक बातें करती थीं.

हाल ही में जौनी ने अपनी ऐक्स वाइफ पर मानहानि का मामला दर्ज कराया है, जिस की सुनवाई अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में 11 अप्रैल से चल रही है. जौनी डेप ने एंबर पर 50 मिलियन डौलर का मुकदमा दायर किया है. जौनी ने दावा किया है कि एंबर ने वाशिंगटन पोस्ट के लिए 2018 के एक औप एड में उन्हें बदनाम करने के लिए लेख लिखा था. उन का दावा है कि इस लेख ने उन के फिल्मी कैरियर और प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया. अभिनेता को ‘फैंटास्टिक बीस्ट्स’ फिल्म फ्रैंचाइजी से हटा दिया गया. वहीं एंबर के वकीलों का कहना है कि यह जौनी के लिए नहीं लिखा गया था.

क्या है पूरा मामला

58 साल के जौनी डेप ने अपनी पूर्व पत्नी और अभिनेत्री एंबर हर्ड पर मुकदमा किया है. ‘पाइरेट्स औफ कैरिबियन’ फिल्म और एक सीरीज में काम कर चुके अभिनेता जौनी डेप 3 बार औस्कर अवार्ड के लिए नामांकित हो चुके हैं और गोल्डन ग्लोब अवार्ड जीत चुके हैं. जौनी डेप और एंबर हर्ड 2011 में फिल्म ‘द रम डायरी’ के सैट पर मिले थे जो प्यूर्टो रिको में शूट हुई थी.

कुछ साल बाद दोनों दोबारा फिल्म की पब्लिसिटी के दौरान मिले और वहीं से दोनों का रिश्ता शुरू हुआ. इस के बाद दोनों एकदूसरे को डेट करने लगे और फरवरी, 2015 में शादी कर ली. लेकिन दोनों ज्यादा दिनों तक साथ नहीं रहे. 2016 में ही दोनों ने तलाक की अर्जी दे दी. जौनी डेप ने तलाक के बाद एंबर को 7 मिलियन डौलर दिए जिस पर एंबर ने कहा कि वे इस राशि का दान करना चाहती हैं.

बाद में 2018 में एंबर ने वाशिंगटन पोस्ट अखबार में एक लंबाचौड़ा लेख लिखा था कि वे घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं. हालांकि उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया था. लेकिन जौनी डेप ने कहा कि यह लेख उन की मानहानि करता है और इस से उन के कैरियर पर असर पड़ा है. इसी के बाद जौनी डेप ने अपनी पूर्व पत्नी पर 50 मिलियन डौलर का मुकदमा दायर कर दिया. बदले में एंबर ने भी 100 मिलियन डौलर का केस किया है.

जब पूनम पांडे ने खो दी सूंघने की क्षमता

बोल्ड और बिंदास पूनम पांडे ने हाल ही में रिऐलिटी शो ‘लौकअप’ में अपनी पर्सनल लाइफ को ले कर बड़ा खुलासा किया. पूनम ने बताया कैसे उन के ऐक्स हसबैंड सैम बौंबे उन के साथ मारपीट करते थे. इस वजह से पूनम को ब्रेन हैमरेज तक हो गया था और इस से उन की सूंघने की क्षमता चली गई.

पूनम पांडे ने 2020 में सैम बौंबे से शादी की थी. दोनों लंबे वक्त से एकदूसरे को डेट कर रहे थे. पूनम पांडे और सैम बौंबे की शादी होने के साथ ही विवादों में आ गई थी. गोवा में हनीमून के दौरान ऐक्ट्रैस ने सैम को मारपीट, प्रताड़ना के आरोप में जेल भिजवा दिया था. बाद में दोनों का पैचअप हो गया. लेकिन कुछ वक्त बाद पूनम और सैम के बीच फिर से लड़ाई?ागड़े होने लगे. पूनम ने सैम बौंबे को घरेलू हिंसा के आरोप में दोबारा जेल भिजवाया. इस बार पूनम को गंभीर चोट की वजह से अस्पताल में भरती होना पड़ा था. अब दोनों अलग हो चुके हैं.

पूनम का आरोप था कि सैम उन्हें डौमिनेट करते थे. घर में पूनम को एक से दूसरे कमरे तक में जाने की इजाजत नहीं थी. सैम जिस रूम में होते थे वे पूनम को भी उसी रूप में चाहते थे. अपने खुद के घर में अपना फोन छूने की इजाजत नहीं थी जबकि सैम पूनम के सभी आरोपों को गलत बताते हैं.

ग्लैमर की दुनिया से अकसर ऐसी घरेलू हिंसा की खबरें आती रहती हैं:

करिश्मा कपूर संजय कपूर

हिंदी सिनेमा जगत के सब से पावरफुल फैमिली से ताअल्लुक रखने वाली करिश्मा कपूर खानदान की पहली फीमेल सुपरस्टार रहीं. 2003 में करिश्मा ने बिजनैसमैन संजय कपूर से शादी कर ली. जिस वक्त करिश्मा ने शादी की तब वे अपने कैरियर के पीक पर थीं. 11 साल की शादी से दोनों के 2 बच्चे भी हैं. लेकिन 2014 में जब अभिनेत्री ने तलाक की अर्जी दी तब सचाई सामने आई कि वे घरेलू हिंसा का शिकार रह चुकी हैं. करिश्मा ने पति संजय कपूर और उन के घर वालों पर घरेलू हिंसा करने की बात कही तो वहीं संजय ने भी करिश्मा पर कई आरोप लगाए. करिश्मा संजय की दूसरी पत्नी थीं.

बकौल करिश्मा संजय उन से शादी के बाद भी पहली पत्नी के संपर्क में थे. यहां तक कि जब वे अपने हनीमून पर थीं तो संजय ने उन्हें अपने दोस्त के साथ शारीरिक संबंध बनाने को कहा. न कहने पर मारपीट की गई.

पूजा भट्ट रणवीर शौरी

पूजा भट्ट की गिनती बौलीवुड की बोल्ड अभिनेत्रियों में होती थी. एक समय वे अभिनेता रणवीर शौरी के साथ लिव इन में रहती थीं. लेकिन फिर एक दिन दोनों का ब्रेकअप हो गया. पूजा के अनुसार, रणवीर बहुत ही ज्यादा वायलैंट थे. शराब पर उन का कोई कंट्रोल नहीं था और जब भी पूजा इन सब बातों पर रणवीर को रोकती थीं तो दोनों के बीच बहस होती. तब रणवीर उन के साथ मारपीट भी करते.

प्रीति जिंटा नेस वाडिया

डिंपल गर्ल के नाम से मशहूर प्रीति जिंटा ने बिना किसी फिल्मी बैकग्राउंड के बाद भी बौलीवुड में ऐक्टिंग की छाप छोड़ी. वे इतनी बोल्ड और मुखर थीं कि कैरियर के शुरुआती दिनों में ही अंडरवर्ल्ड से पंगा ले लिया. प्रीति ने छोटा शकील के खिलाफ कोर्ट में गवाही दी थी. 2005 में वे बौंबे डाइंग के उत्तराधिकारी नेस वाडिया के साथ रिश्ते में आईं. लंबे समय तक रिश्ते में रहने के बाद फिर एक दिन दोनों के ब्रेकअप की खबर सामने आ गई. 13 जून, 2014 को प्रीति ने अपने ऐक्स बौयफ्रैंड नेस वाडिया पर अपने साथ छेड़छाड़ करने, गालियां देने और आईपीएल मैच के दौरान धमकी देने के आरोप लगाए थे.

युक्ता मुखी प्रिंस तुली

युक्ता मुखी ने 1999 में मिस इंडिया और मिस वर्ल्ड का खिताब जीता. फिर वहां से उन के लिए बौलीवुड का दरवाजा खुला. हालांकि वे बौलीवुड में सफलता हासिल नहीं कर पाईं. 2008 में युक्ता ने न्यूयौर्क बेस्ड बिजनैसमैन प्रिंस तुली से शादी कर ली. लेकिन दोनों की शादी 5 साल से ज्यादा नहीं टिकी. 2013 में युक्ता ने मुंबई में पति प्रिंस तुली के खिलाफ घरेलू हिंसा का केस दर्ज कराया. एफआईआर में मारपीट, दहेज प्रताड़ना, अननैचुरल सैक्स जैसी बातें कही गईं. बात कोर्ट तक पहुंची. फिर दोनों ने सहमति से तलाक ले लिया. दोनों का 1 बेटा है जिस की कस्टडी युक्ता के पास ही है.

सोचने वाली बात है कि यदि बोल्ड और ग्लैमरस ऐक्ट्रैसेस को इस का शिकार होना पड़ता है तो फिर सामान्य घरेलू या कामकाजी महिलाओं के साथ क्या होता होगा.

‘नैशनल फैमिली हैल्थ रिपोर्ट’ के मुताबिक हर 3 में से 1 महिला घरेलू हिंसा की शिकार है. रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में महिलाओं पर घरेलू हिंसा के केस बढ़े हैं. भारत में 59% महिलाओं को बाजार, हौस्पिटल या गांव से बाहर जाने की इजाजत नहीं मिलती है. 79% महिलाएं पति के जुल्म चुपचाप सहती हैं.

देश में महिलाओं की उम्र बढ़ने के साथ ही उन पर घरेलू हिंसा भी बढ़ती जाती है. 18-19 साल की 17% महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हैं, जबकि 40 से 49 साल की 32% महिलाओं को यह दंश ?ोलना पड़ रहा है. एनएफएचएस जेड की रिपोर्ट के अनुसार, 79.4% महिलाएं कभी अपने पति के जुल्मों की शिकायत नहीं करतीं.

सैक्सुअल हिंसा के केस में तो 99.5% महिलाएं चुप्पी साध लेती हैं. जिन के पति अकसर शराब पीते हैं ऐसी 70% महिलाओं हिंसा झेलती है. 23% महिलाएं ऐसी भी हैं जिन के पति शराब नहीं पीते फिर भी हिंसा का शिकार होती हैं. शहरों के मुकाबले गांवों में घरेलू हिंसा ज्यादा होती है.

देश के 22 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामलों में सब से बुरा हाल कर्नाटक, असम, मिजोरम, तेलंगाना और बिहार का है, जहां 30% से अधिक महिलाओं को अपने पति द्वारा शारीरिक और यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है.

मगर गौर करने की बात यह है कि भारत में वैवाहिक हिंसा की शिकार सिर्फ पत्नियां ही नहीं हैं, 10% पति भी हिंसा के शिकार हो रहे हैं. एनएफएचएस सर्वे से यह खुलासा हुआ है.

एनएफएचएस के सर्वे में यह भी खुलासा हुआ है कि देश की 45% महिलाएं मानती हैं कि अगर पत्नियां अपने कर्तव्य ठीक से नहीं निभाती हैं तो उन पर घरेलू हिंसा जायज है, जबकि 44% पुरुष इस से सहमत दिखे. सैक्स सो से मना करने पर भी महिलाएं ही सब से अधिक महिलाओं की पिटाई के पक्ष में हैं.

घरेलू हिंसा के कारण

घरेलू हिंसा अकसर उसी के साथ होती है जो कमजोर है या जिसे सहने की आदत हो. महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा का मुख्य कारण यह मानसिकता है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में शारीरिक और भावनात्मक रूप से कमजोर होती हैं. सामान्यतया महिला का आर्थिक रूप से पति या परिवार पर निर्भर होना इस की मुख्य वजह बनता है.

घरेलू हिंसा के मामलों के बारे में जानकारी न होना भी इस का एक बड़ा कारण है. इसी वजह से सही मेल न होने का नतीजा यह होता है कि कभी दहेज के नाम पर तो कभी शक के आधार पर पति उस पर हाथ उठाने लगते हैं. घर वाले भी उस के कामों में कमियां गिनाते हुए उसे टौर्चर करने लगते हैं.

मायके से पैसे मंगवाने से इनकार करने, पति के साथ बहस करने, उस के साथ यौन संबंध बनाने से इनकार करने, बच्चों की उपेक्षा करने, पति को बताए बिना दोस्त से मिलने के लिए घर से बाहर जाने, स्वादिष्ठ खाना न बनाने जैसी तोहमतें लगा कर उस के साथ मारपीट की जाती है. कभीकभी विवाहेतर संबंध होना, ससुराल वालों की देखभाल न करना या बां?ापन भी परिवार के सदस्यों द्वारा उस पर हमले का कारण बनता है. अगर कामकाजी है तो उस की तरक्की भी इस की वजह बन सकती है.

घरेलू हिंसा का एक बड़ा कारण शराब भी है. एक व्यक्ति जब नशे की हालत में होता है तो उसे पता नहीं होता कि वह क्या कर रहा है. अगर लोग शराब पीना छोड़ दें तो घरेलू हिंसा बहुत कम हो सकती है. तालमेल का अभाव भी घरेलू रिश्ते में दरार बढ़ाता है. इस के लिए आपसी भरोसा होना आवश्यक है, जो रिश्ते में मजबूत स्तंभ का काम करता है.

ज्यादातर औरतों को लगता है कि पुरुषों से पिटना औरतों की नियति है. यही वजह है कि घरेलू हिंसा के मामले अधिकतर तो रिपोर्ट ही नहीं होते. इस हिंसा के वही मामले रिपोर्ट होते हैं जिन में हिंसा गंभीर किस्म की होती है. पत्नी के साथ घर में मारपीट, प्रताड़ना और समान रूप से व्यवहार नहीं होना घरेलू हिंसा है. लेकिन इसे रिपोर्ट नहीं किया जाता. ऐसे मामले मैट्रो शहरों में तो सामने आ जाते हैं, लेकिन छोटे शहरों, कसबों और गांवों से इस तरह के मामले रिपोर्ट नहीं होते.

समाज का रवैया भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है. पति या परिवार की शिकायत ले कर पुलिस में जाने वाली महिला को समाज में अच्छी नजरों से नहीं देख जाता. फिर भी वह शिकायत करती है तो अकसर उसे कोई समर्थन नहीं मिलता और वह अकेली पड़ जाती है. इस के बाद उस के पास सम?ाता करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता.

महिलाओं के खिलाफ अपराधों में दंड दिए जाने की दर महज 23.7% है. वहीं इस तरह के मामलों के लंबित होने का प्रतिशत 91.2 है. इस का कारण विशेष अदालतों की कमी, पुलिस जांच में ढिलाई, गवाहों का सामने नहीं आना, समाज का नकारात्मक रुख और अदालतों का दूर होना है.

घरेलू हिंसा कानून में कहा गया है कि

3 दिनों के अंदर मामले की सुनवाई होगी और

60 दिनों के अंदर अंतिम आदेश आएगा. लेकिन असल में तो पहली सुनवाई के लिए ही महीनों लग जाते हैं. अंतिम आदेश आने में सालों निकल जाते हैं. मुकदमे लंबे चलते हैं, इसलिए वे थक कर पीछे हट जाती हैं.

महिलाओं को मैडिकल टैस्ट की जानकारी नहीं होती. वे समय रहते टैस्ट नहीं कराती हैं, जिस से हिंसा के सुबूत ही नहीं मिल पाते हैं.

घरेलू हिंसा के प्रभाव

यदि किसी महिला ने अपने जीवन में घरेलू हिंसा का सामना किया है तो उस के लिए इस डर से बाहर आ पाना अत्यधिक कठिन होता है. लगातार काफी समय तक घरेलू हिंसा का शिकार होने के बाद व्यक्ति की सोच में नकारात्मकता हावी हो जाती है. इस से पीडि़त व्यक्ति अकसर या तो अपना मानसिक संतुलन खो बैठता है या फिर अवसाद का शिकार हो जाता है.

जिन लोगों पर हम इतना भरोसा करते हैं और जिन के साथ रहते हैं जब वही हमें इस तरह का दुख देते हैं तो व्यक्ति का रिश्तों पर से विश्वास उठ जाता है और वह स्वयं को अकेला कर लेता है. कई बार इस स्थिति में लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं.

जिस घर में घरेलू हिंसा होती है या जिन बच्चों के साथ ऐसा होता है वे अपने पिता से गुस्सैल व आक्रामक व्यवहार सीखते हैं. ऐसे बच्चों को अन्य कमजोर बच्चों व जानवरों के साथ हिंसा करते हुए देखा जा सकता है. वहीं बेटियां दब्बू, चुपचुप रहने वाली या परिस्थितियों से दूर भागने वाली बन जाती हैं.

समाधान के उपाय

हमारे समाज में जिस तरह लड़कों में बचपन से मर्दानगी की भावना भरी जाती है और उसी के ओट में वे अपनी पत्नियों पर हाथ आजमाते हैं, यह निहायत ही निंदनीय मानसिकता है. अब समय आ गया है कि लड़कों को रुलाने वाला न बना कर सुरक्षा देने वाला पिलर बनाया जाए. उन के मन में बचपन से उदारता और औरतों के लिए इज्जत की भावना विकसित की जाए ताकि बड़ा हो कर वे पत्नियों को इज्जत दे सकें.

कुरीतियों को खत्म करें

घरेलू हिंसा पर रोक लगाने के लिए महिलाओं को शिक्षित करना एक उपाय हो सकता है. इस के साथसाथ हमें उस पुरुषप्रधान सत्ता का भी अंत करना होगा जो सदियों से चली आ रही है. हमें समाज की उन कुरीतियों को दूर करना होगा जो घरेलू हिंसा को बढ़ाती हैं जैसे पुत्र न होने पर महिला की उपेक्षा की जाती है, मासिकधर्म के दौरान उस से दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है. दहेज के नाम पर टौर्चर किया जाता है. समाज में लैंगिक समानता की सोच विकसित करना आवश्यक है.

शीघ्र न्याय जरूरी

महिलाओं की सुरक्षा व संरक्षण के लिए बने कानूनों का सफल क्रियान्वयन जरूरी है. किसी महिला का शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक या यौन शोषण किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाना जिस के साथ महिला के पारिवारिक संबंध हैं घरेलू हिंसा में शामिल है. घरेलू हिंसा पर तभी रोक लगाई जा सकती है जब अन्याय का शिकार होती महिलाओं को शीघ्र न्याय मिले.

नारी स्वावलंबन जरूरी 

जो नारियां घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं उन्हें स्वावलंबी बनाया जाए. इस से उन में आत्मविश्वास बढ़ेगा जिस से वे किसी भी घरेलू हिंसा का मुकाबला कर सकेंगी. शिक्षित, स्वावलंबी नारी ही समाज को शक्तिशाली बना सकती है. जब लड़की अपने पैरों पर खड़ा होने लायक हो तभी उस का विवाह किया जाना चाहिए.

जनता का बेड़ा पार तो रामजी करेंगे

जब घर में आग लगी हो तो क्या आप को यह देखने की फुरसत होती है कि पड़ोसिन की बेटी ने आज स्लीवलैस टौप और शौर्ट क्यों पहने हैं या आप अमरनाथ यात्रा के लिए बैंक में जा कर बचाखुचा पैसा निकालने दौड़ती हैं? नहीं न. पर भारत सरकार को इसी की चिंता है. जब देश महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहा हो, भारत सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी के मुख्य काम क्या हैं- मंदिर बनवाना, मुहम्मद साहब का इतिहास खोजना, मसजिदों में खुदाई कर के शिवलिंग ढूंढ़ना, ईडी से छापे मरवाना ताकि विपक्ष का सफाया हो सके. दूसरे दलों में सेंध लगाना कि राज्यसभा की 4 सीटें ज्यादा मिल जाएं बगैरा.

ऐसा लगता ही नहीं है कि सरकार चलाने वाले प्रधानमंत्री या किसी और नाम के बने मंत्री को देश की बढ़ती महंगाई की कोई चिंता है. ठीक है, कुछ रुपए डीजल और पैट्रोल पर कम कर दिए पर उस से ज्यादा तो अनाज और खानेपीने की चीजों के दाम बढ़ने से जेब से निकल गए. जिन्हें हम ने चुना था वे सफाई नहीं दे रहे, रिजर्व बैंक के गवर्नर दे रहे हैं जो सिर्फ अफसरी करते रहे हैं.

देशभर में हिंदूमुसलिम अलगाव को फैलाने की कोशिशें जारी हैं, भड़काऊ भाषणों से अखबारों के पन्ने और चैनलों की सुर्खियां भरी पड़ी हैं. आम औरत किस तरह अपना पेट काट कर गुजारा कर रही है, इस का कोई खयाल नहीं रख रहा.

सरकार का कोई विभाग अपने खर्चे में कटौती नहीं कर रहा. पुलिस पर बेहद खर्च किया जा रहा है पर आप के घर को सुरक्षित करने के लिए नहीं, आप के पड़ोस के मंदिर को या मुसलमानों को पकड़नेधकड़ने में. चप्पेचप्पे पर पुलिस का जो पहरा है वह मुफ्त नहीं होता. उस पर जनता का टैक्स लगता है, यह नहीं बचाया जा रहा.

उत्तर प्रदेश में वाराणसी पर गंगा की दूसरी तरफ सड़क बन रही है ताकि आरतियां देखी जा सकें जो थोक में हो रही हैं और जिन पर अरबों बरबाद होंगे. दिल्ली में नया संसद भवन बन रहा है जिस पर सैकड़ों करोड़ बेबात में खर्च होंगे. गौशालाओं के लिए सरकार के पास पैसे हैं पर स्कूलों को, किताबों को मुफ्त करने के लिए नहीं. अस्पताल सरकार नहीं खोलेगी, निजी क्षेत्र खोलेगा जो एक इंजैक्शन लगाने के क्व1,000 झटक लेगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 जून को अस्पतालों में पैसा लगाने वालों से कहा कि अगला साल उन के लिए अच्छा होगा. शायद इसलिए कि सरकार अपनी जनता के प्रति सरकारी अस्पताल खोलने की ड्यूटी में और ढीलढाल करेगी.

महंगाई से निबटने के लिए सरकार को अपने सरकारी ढांचे का क्या करना चाहिए, जनता व सिर पर बैठे इंस्पैक्टरों को क्या करना चाहिए? बेकार के कानूनों को लागू करने में लगने वाले पैसे को बचाना चाहिए. मंत्रियों और नेताओं को सुरक्षा के नाम पर मिल रही फौज में कटौती करनी चाहिए, सरकारी कर्मचारियों के वेतन काटने चाहिए, सरकारी स्कूल ठीक करने चाहिए ताकि लोग अपने बच्चों को महंगे प्राइवेट स्कूलों में न भेजें. सरकार यह सबकुछ न कर के सिर्फ  जय राम, जय राम कर रही है. यह भगवान को चाहे खुश करता हो, भगवानों के दुकानदारों को ज्यादा दक्षिणा दिलाता हो, आम घरवाली की आफतों में कमी नहीं करता.

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