सतरंगी रोशनी: निर्वेद को क्या मिला उपहार

दीवाली का त्योहार पास ही था, इसलिए कभीकभी पटाखों की आवाज सुनाई दे जाती थी. मौसम काफी सुहाना था. अपने शानदार कमरे में आदविक आराम से सो रहा था. तभी उस के फोन की घंटी बजी. नींद में ही जरा सी आंख खोल कर उस ने समय देखा. रात के 2 बज रहे थे. इस वक्त किस का फोन आ गया.

सोच वह बड़बड़ाया और फिर हाथ बढ़ा कर साइड टेबल से फोन उठाया बोला, ‘‘हैलो.’’

‘‘जी क्या आप आदविक बोल रहे हैं?’’

‘‘जी आदविक बोल रहा हूं आप कौन?’’

आदविकजी मैं सिटी हौस्पिटल से बोल रहा हूं, क्या आप निर्वेद को जानते हैं? हमें आप का नंबर उन के इमरजैंसी कौंटैक्ट से मिला है.’’

‘‘जी निर्वेद मेरा दोस्त है. क्या हुआ उस को?’’ बैड से उठते हुए आदविक घबरा कर बोला.

‘‘आदविकजी आप के दोस्त को हार्टअटैक हुआ है.’’

‘‘कैसा है वह?’’

‘‘वह अब ठीक है… खतरे से बाहर है…

‘‘मैं अभी आता हूं.’’

‘‘नहीं, अभी आने की जरूरत नहीं है. हम ने उन्हें नींद का इंजैक्शन दे दिया है. वे सुबह से पहले नहीं उठेंगे. आप सुबह 11 बजे तक आ जाइएगा. उस वक्त तक डाक्टर भी आ जाएंगे. आप की उन से बात भी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर आदविक ने फोन रख दिया और बैड पर लेट कर सोने की कोशिश करने लगा, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. उस का मन बेचैन हो गया था. वह आंखें बंद कर के एक बार फिर सोने की कोशिश करने लगा. मगर नींद की जगह उस की आंखों में आ बसे थे 20 साल पुराने कालेज के वे दिन जब आदविक इंजीनियरिंग करने गया था. मध्यवर्गीय परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते आदविक से उस के परिवार को बहुत उम्मीदें थीं और वह भी जल्द से जल्द अपने पैरों पर खड़ा हो कर अपने भाईबहनों की पढ़ाई में मातापिता की मदद करना चाहता था.

कालेज में आ कर पहली बार आदविक का पाला उस तबके के छात्रों से

पछ़ा, जिन्हें कुदरत ने दौलत की नेमत से नवाजा था. उन छात्रों में से एक था निर्वेद, लंबा कद, गोरा रंग और घुंघराले घने बालों से घिरा खूबसूरत चेहरा. निर्वेद जहां एक ओर आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था वहीं दूसरी ओर पढ़ाईलिखाई में भी अव्वल था. अमीर मातापिता की सब से छोटी संतान होने के नाते दौलत का सुख और परिवार का प्यार हमेशा ही उसे मिला. हर प्रकार की कला के प्रति उस की पारखी नजर उस के व्यक्तित्व को एक अलग ही निखार देती थी.

अपनी तमाम खूबियों के कारण निर्वेद लड़कियों में पौपुलर था. कालेज की सब से सुंदर और स्मार्ट लड़की एक डिफैंस औफिसर की बेटी अधीरा थी और कालेज के शुरू के दिनों से ही निर्वेद को बहुत पसंद करती थी.

निर्वेद को देख कर कभीकभी सामान्य रंगरूप वाले आदविक को ईर्ष्या होती थी. उसे लगता था कि जैसे कुदरत ने सबकुछ निर्वेद की ही  झोली में डाल दिया है. दोनों में कहीं कोई समानता नहीं थी. कहां आदविक एक मध्यवर्गीय परिवार का बड़ा बेटा तो निर्वेद एक अमीर परिवार का छोटा बेटा. दोनों में कहीं कोई समानता नहीं थी.

फिर भी इन दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई थी. पहले साल दोनों रूममेट्स थे क्योंकि फर्स्ट ईयर में रूम शेयर करना होता है. उन्हीं दिनों इन दोनों की दोस्ती इतनी गहरी हो गई कि बाकी के 3 साल अगलबगल के कमरों में ही रहे. दोनों की दोस्ती बड़ी अनोखी थी. एक अगर सोता रह तामा तो मैस बंद होने से पहले दूसरा उस का खाना रूम तक पहुंचा देता.

एक का प्रोजैक्ट अधूरा देख कर दूसरा उसे बिना कहे ही पूरा कर देता था. दोनों एकदूसरे को सपोर्ट करते. अगर एक पढ़ाई में ढीला पड़ता तो दूसरा उसे पुश करता. कभी कोई  झगड़ा नहीं, कोई गलतफहमी नहीं. उन के सितारे कालेज के शुरू के दिनों से ही कुछ ऐसे अलाइन हुए थे कि दोनों के बीच आर्थिक, सामाजिक, रंगरूप जैसी कोई भी असमानता कभी नहीं आई. दोनों अपने बाकी मित्रों के साथ भी समय बिताते, घूमतेफिरते, लेकिन आदविक निर्वेद की दोस्ती कुछ अलग ही थी.

कभी दोनों एकदूसरे के साथ घंटों बैठे रहते और एक शब्द भी न बोलते तो कभी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं. एक को दूसरे की कब जरूरत है यह कभी बताना नहीं पड़ता था.

एक बार छुट्टियों में आदविक को निर्वेद के घर जाने का अवसर मिला. पहली बार उस के परिवार से मिलने का मौका मिला था. उस के मातापिता और 2 बड़े भाइयों के साथ 2 दिन तक आदविक एक पारिवारिक सदस्य की तरह रहा. खूब मजा किया और पहली बार पता चला कि समाज के इतने खास लोगों का व्यवहार इतना सामान्य भी हो सकता है. आदविक ने देखा कि इतना पैसा होने के बाद भी निर्वेद के परिवार वालों के पैर जमीन पर ही टिके थे. उस की दोस्ती निर्वेद के साथ क्यों फूलफल रही थी यह बात उसे अब सम झ में आ गई थी. वापस आने के बाद भी आदविक उस के परिवार के साथ खासकर उस की मां के साथ फोन पर जुड़ा रहा.

एक बार सैमैस्टर की फाइनल परीक्षा आने वाली थी. हर छात्र मस्ती भूल कर पढ़ाई में डूबा था. आदविक पढ़तेपढ़ते निर्वेद के कमरे से कोई किताब उठाने गया तो देखा कि वह बेहोश पड़ा था. माथा छुआ तो पता चला कि वह तो बुखार में तप रहा है. आदविक ने बिना वक्त गंवाए तुरंत दोस्तों की मदद से उसे अस्पताल पहुंचाया. वहां डाक्टर ने जाते ही इंजैक्शन दिया और कहा कि अभी इन्हें एडमिट करना पड़ेगा. बुखार काफी तेज है, इसलिए एक रात अंडर औब्जर्वेशन में रखना होगा. सुबह तक हर घंटे में बुखार चैक करना होगा.

‘‘मैं इस का ध्यान रखूंगा और जरूरत पड़ने पर डाक्टर को भी बुला लूंगा. अब तुम लोग जा सकते हो,’’ आदविक ने दोस्तों से कहा तो सभी दोस्त हौस्टल चले गए.

सुबह जब निर्वेद की आंख खुली तो देखा कि आदविक भी वहीं बराबर वाले बैड पर सो रहा था, ‘‘अरे तू यहां क्या कर रहा है? तु झे तो रातभर पढ़ना था न,’’ निर्वेद ने हैरानी से पूछा.

‘‘अरे नहीं यार, सोना ही तो था सो गया.’’

तभी नर्स और डाक्टर दोनों साथ कमरे में दाखिल हुए. नर्स डाक्टर से बोली, ‘‘सौरी डाक्टर रात को नींद लग गई तो हर घंटे बुखार चैक नहीं कर सकी, लेकिन मैं ने इंजैक्शन दे दिया था.’’

डाक्टर ने निर्वेद के पीछे से चार्ट उठाते हुए कहा, ‘‘लेकिन चार्ट में तो हर घंटे की रीडिंग है.’’

इस के साथ ही निर्वेद की निगाहें आदविक की ओर घूमीं तो वह आंखें मीच कर

मुसकरा दिया. थोड़ी देर में निर्वेद की मां का फोन आया, ‘‘बेटा अब कैसी तबीयत है?’’

‘‘ठीक है मां, लेकिन आप को कैसे पता चला?’’

‘‘आदविक का फोन आया था… बहुत ही प्यारा लड़का है. आज मैं तु झे भी बोल रही हूं हमेशा उस का भी ध्यान रखना, उसे कभी भी परेशानी में अकेला मत छोड़ना,’’ मां ने कहा.

वक्त की रफ्तार कालेज में कुछ ज्यादा ही तेज होती है. 4 साल पलक  झपकते ही बीत गए. कालेज के इन 4 सालों में सभी को इंजीनियरिंग की डिगरी दे कर उन के पंखों को नई उड़ान के लिए मजबूत कर दिया था और इस एक नए आकाश पर अपने नाम लिखने के लिए छोड़

दिया था.

निर्वेद और अधीरा की खूबसूरत जोड़ी के प्यार का पौधा भी अब तक एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था. हरकोई अपने कैरियर के चलते कहांकहां जा बसा, बता पाना मुश्किल हो गया. धीरेधीरे सब की शादियां होने लगीं.

आदविक की शादी एक मध्यवर्गीय परिवार की पढ़ीलिखी लड़की खनक से हो गई. दोनों की अच्छी निभ रही थी. एक साल बाद खनक ने बेटे को जन्म दिया तो ऐसा लगा कि घर खुशियों से भर गया. उधर निर्वेद और अधीरा दोनों को भी अच्छी नौकरी मिल गई थी, लेकिन दोनों अभी शादी नहीं करना चाहते थे. कुछ और दिन अपनी बैचलर लाइफ ऐंजौय करना चाहते थे.

उधर आदविक अपनी घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां निभा रहा था. लेकिन अपने प्यारे से बेटे को गोद में ले कर जब आदविक उसे प्यार करता तो उस के सामने दुनिया की हर नेमत

छोटी लगती. अगले साल बड़ी धूमधाम से निर्वेद और अधीरा की भी शादी हो गई. शादी के कुछ दिनों बाद निर्वेद को किसी असाइनमैंट के लिए विदेश जाना पड़ा. फिर पता नहीं क्यों और कैसे, लेकिन वापस आते ही अधीरा ने उस के सामने तलाक की मांग रख दी. निर्वेद का प्यार आज तक उस की किसी मांग को नकार नहीं सका था, लिहाजा इस मांग को भी उस की खुशी मान कर न नहीं कर पाया. यह शादी उतने दिन भी नहीं चली जितने दिन उस की तैयारियां चली थीं. गलती किस की थी, क्या थी इन सब बातों की फैसले के बाद कोई अहमियत नहीं रह जाती. तलाक हो गया.

निर्वेद का तलाक हुए काफी वक्त बीत चुका था. सभी के सम झानेबु झाने के

बाद भी निर्वेद का मन किसी की ओर नहीं  झुका. अधीरा से टूटे हुए रिश्ते ने उस को इस कदर तोड़ दिया था कि फिर वह किसी से जुड़ ही नहीं सका. निर्वेद की उम्र पैसा कमाने और दोस्तों से मिलने में ही बीत रही थी.

निर्वेद का मिलनसार व्यवहार और गाने का शौक हर महफिल में जान डाल देता था. अपने हर दोस्त के घर उस का स्वागत प्यार से होता था. अपने कलात्मक सु झाव और मस्तमौला अंदाज के कारण वह दोस्तों के परिवार के बीच भी उतना ही पौपुलर था जितना दोस्तों के बीच. दुनिया के न जाने कितने देशों में अपने काम के सिलसिले में निर्वेद का जाना हुआ लेकिन आज भी वह अपने आलीशान मकान में अकेला रह रहा था. सारी रात आदविक इन्हीं यादों में डूबता तैरता रहा.

सुबह की पहली किरण के साथ जब आदविक की पत्नी खनक की आंख खुली तो उस ने आदविक को खिड़की के पास खड़ा पाया जो बाहर देख रहा था. जल्दी उठने का कारण पूछने पर आदविक ने पूरी कहानी खनक को बता दी फिर जल्दी तैयार हो कर वक्त के कुछ पहले ही वह अस्पताल पहुंच गया और आईसीयू की विंडो से निर्वेद को देखता रहा. डाक्टर से बात कर के उसे पता चला कि करीब रात एक बजे उसे अस्पताल लाया गया था. हार्ट अटैक सीवियर था, लेकिन समय पर सहायता मिल गई. अब स्थिति काबू में है. बता कर डाक्टर चला गया. आदविक पूछता ही रह गया कि डाक्टर उसे अस्पताल लाया कौन था?

तभी आदविक ने देखा कि एक औरत उसी डाक्टर को आवाज लगाती हुई आई और उस से निर्वेद के बारे में पूछताछ करने लगी. आदविक हैरानी से उस की ओर देख रहा था. वह करीब 39-40 साल की खूबसूरत औरत थी जो भारतीय नहीं थी. उस का फ्रैच जैसा अंगरेजी बोलना यह बता रहा था कि वह इंग्लिश स्पीकिंग देश से भी नहीं है. नैननक्श से अरबी लग रही थी. आदविक खुद भी काम के सिलसिले में कई देशों में रह चुका था, इसलिए वह पहचान गया.

तभी नर्स ने आ कर कहा कि आप रोगी से मिल सकते हैं. उन्हें रूम में शिफ्ट कर दिया गया है. आदविक रूम में पहुंचा तो वह महिला पहले से ही निर्वेद के बैड के पास कुरसी पर बैठी थी. उस की हालत ठीक लग रही थी.

निर्वेद ने उस से मिलवाते हुए कहा, ‘‘आदविक, यह मेरी दोस्त आबरू है और आबरू यह मेरा दोस्त आदविक.’’

आबरू की आंखों में निर्वेद के लिए  झलकते चिंता के भाव काफी कुछ

कह रहे थे. निर्वेद की तबीयत अब ठीक लग रही थी, आदविक उन दोनों को अकेला छोड़ कर डाक्टर से बात करने के बहाने वहां से चला गया और बाहर बैंच पर बैठ गया. आदविक की कल्पना की उड़ान इस कहानी के सिरे ढूंढ़ने लगी. उसे यह तो पता था कि निर्वेद करीब 4 साल पहले किसी फौरेन असाइनमैंट के लिए इजिप्ट गया था और वहां वह 2 साल रहा था पर यह आबरू की क्या कहानी है?

तभी डाक्टर को सामने से आता देख आदविक उन से निर्वेद के अपडेट्स लेने लगा. डाक्टर ने दवाइयों और इंस्ट्रक्शंस की लिस्ट के साथ घर ले जाने की आज्ञा दे दी.

कमरे में आ कर आदविक ने सब बताते हुए निर्वेद से कहा, ‘‘तू मेरे घर चल, मैं तु झे अकेले नहीं छोड़ूंगा.’’

निर्वेद ने सवालिया निगाहों से आबरू की तरफ देखा तो वे अपनी फ्रैंच इंग्लिश में बोली, ‘‘आदविक आप निर्वेद की चिंता बिलकुल न करें मैं उस का ध्यान रखूंगी. कोई जरूरत हुई तो आप को बता दूंगी.’’

आदविक ने हैरानी और परेशानी से निर्वेद की ओर देखा, ‘‘यार यह कैसे संभालेगी? न तो यह यहां की भाषा जानती है न ही इसे यहां का सिस्टम सम झ आएगा.’’

आबरू उन की हिंदी में हो रही बातचीत को न सम झ पाने के कारण कुछ असमंजस में थी सो बोली, ‘‘आप यहां बैठो मैं तब तक डाक्टर से मिल कर आती हूं.’’

उस के जाते ही आदविक ने अपने प्रश्नों भरी निगाहें निर्वेद की तरफ मोड़ीं.

निर्वेद अपनी सफाई देते हुए बोला, ‘‘तु झे पता है मैं कुछ साल पहले इजिप्ट गया था और वहां 2 साल रहा था. आबरू वहीं मेरी ही कंपनी में काम करती थी. यह वहां के एक जानेमाने परिवार की है. इस का उसी दौरान तलाक हुआ था. इसीलिए इस का नौकरी से भी मन उचट गया था और काफी परेशान रहने लगी थी. फिर इस ने नौकरी छोड़ दी.

‘‘तो फिर अब क्या करती है?’’

‘‘इसे कला और कलाकृतियों की काफी अच्छी परख है और यही उस का शौक भी था. तु झे तो पता ही है कि मु झे भी कला से काफी लगाव है. तो बस इस के नौकरी छोड़ने के बाद भी हमारे शौक समान होने के कारण हमारी दोस्ती बरकरार रही. फिर मेरी सलाह पर इस ने भारतीय कलाकृतियां भी रखनी शुरू कर दीं.’’

‘‘पर तु झे तो आए 2 साल हो गए, फिर अब यह यहां कैसे?’’

‘‘यहां से भारतीय कलाकृतियां को ले जाने के लिए यहां आई हुई है. अभी उस का काम पूरा नहीं हुआ है इसलिए यहीं है. लेकिन जैसा तू सम झ रहा है वैसा कुछ भी नहीं है,’’ निर्वेद ने नजरें  झुका कर कहा.

निर्वेद और आबरू निर्वेद के घर लौट गए, 1-2 बार आदविक उस से मिलने निर्वेद के घर भी गया और उस के चेहरे की लौटती रौनक देख कर आबरू द्वारा की जा रही देखभाल से आश्वस्त हो कर लौट आया.

आज छोटी दीवाली का दिन था. आदविक के पास सुबहसुबह निर्वेद का फोन

आया, ‘‘क्या तू कल सुबह 9 बजे मेरे घर आ सकता है… मु झे अस्पताल जाना है.’’

‘‘क्या हुआ, सब ठीक तो है न?’’

‘‘हांहां सब ठीक है. चैकअप के लिए बुलाया है.’’

‘‘ठीक है.’’

जब आदविक अगले दिन उस के घर पहुंचा तो उसे निर्वेद और आबरू दोनों कुछ ज्यादा ही अच्छे से तैयार लगे. वह सम झ न पाया कि अस्पताल जाने के लिए भला इतना तैयार होने की क्या जरूरत है. फिर सोचा छोड़ो यार जैसी इन की मरजी. बाहर निकले तो निर्वेद बोला, ‘‘गाड़ी मैं चलाऊंगा.’’

‘‘अरे लेकिन मैं हूं न.’’

‘‘नहीं मैं ही चलाऊंगा. अब तो मैं ठीक हूं,’’ वह जिद करने लगा.

हार कर आदविक ने उसे गाड़ी की चाबी देते हुए कहा, ‘‘ओके, यह ले.’’

मगर थोड़ी देर में गाड़ी को अस्पताल की तरफ न मुड़ते देख आदविक बोला, ‘‘अरे यार अस्पताल का कट तो पीछे रह गया तेरा ध्यान कहां है?’’

निर्वेद मुसकराते हुए बोला, ‘‘ध्यान सीधा मंजिल पर है.’’

‘‘मंजिल कौन सी…’’ आदविक का वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि उस ने देखा गाड़ी मैरिज रजिस्टरार के औफिस के सामने जा रुकी.

‘‘निर्वेद यार यहां क्यों, कैसे…’’

‘‘अरे यार मैरिज के लिए और कहां जाते हैं,’’ निर्वेद ने गाड़ी से निकलते हुए ठहाका लगाया.

‘‘मैरिज किस की, कैसे?’’

गाड़ी से निकल कर निर्वेद और आबरू ने एकदूसरे की बांहों में बांहें डालते हुए हाथ पकड़ कर एकसाथ कहा, ‘‘ऐसे और हमारी,’’ और दोनों खिलखिला उठे.

आदविक ने आबरू की ओर देखा तो उस के शर्म से लाल चेहरे से नईनवेली दुलहन  झलक रही थी?

‘‘अच्छा तो यह बात है तो फिर यह भी बता दो कि इस बेचारे गरीब की दौड़ क्यों लगवाई सुबहसुबह?’’

‘‘तो क्या गवाह हम खुद ही बन जाते?’’ मुसकराते हुए निर्वेद ने अपने उसी अंदाज में कहा.

आदविक सोचने पर मजबूर हो गया कि जिस की जिंदगी जीने की किरण भी बु झ गई

थी, जिस की किश्ती किनारे पर डूब गई थी उसे पार भी लगाया तो उजाले के साथ, दीयों के साथ, ऊपर से उसे दीवाली की सतरंगी रोशनी से लबरेज भी कर दिया. यह सतरंगी रोशनी वाली प्यार की दुनिया तु झे बहुतबहुत मुबारक हो मेरे दोस्त. दीवाली के पटाखों की आवाजें चारों तरफ से आ रही थीं सभी प्रसन्न थे. निर्वेद भी दीवाली के उपहार के रूप में आबरू को पा कर प्रसन्न था.

ललित की लतिका: क्या वापस लौटा प्यार का एहसास

एहसासकब सम झते हैं कि उम्र ढलने को है. उम्र काया की कोमलता तो ढाल सकती है पर एहसास को ढलने नहीं देती. आईना देख एक बिखरी लट को कान के पीछे अटकाते हुए लतिका आज भी शरमा सी जाती है. आज भी हर बात, हर सपना, हर उम्मीद वैसे की वैसे कायम है. उम्र ढलने

को है पर जज्बातों को कहां एहसास होता है इस का. वही गीत आज भी गुनगुनाते हैं लब, वही सपने आज भी नम कर जाते हैं पलकों को.

अपनी ही धुन में जीतेजीते न जाने कब ढल गए इतने बरस.

25 साल होने को आए पर लतिका आज भी उस एक नजर को तरसती है, आज भी हर सुबह एक नई किरण ले कर आती है, आज भी हवा का एक  झोंका उस के नजदीक होने का एहसास दिलाता है, जो नजदीक हो कर भी नजदीक नहीं है कहीं.

‘‘लतिका, लतिका… कहां हो?’’

लतिका को सपनों की दुनिया से हककीत में ले आने वाली यह आवाज थी उस के पति के बौस की बीवी की.

‘‘मैं यहां हूं, आई… बहुत दिनों में आईं आप, आप तो इधर आती ही नहीं,’’ लतिका आशा जीजी को देख हैरान हो बोली.

‘‘लतिका, चलो मेरे साथ, जल्दी चलो,’’ आशा जीजी लतिका का हाथ पकड़ खींचते

हुए बोली.

‘‘पर कहां जाना है जीजी, कुछ बताओ

तो? हवा के घोड़े पर सवार हो कर आई हो, बैठो तो… मैं शरबत लाती हूं, फिर बातें करते हैं,’’ लतिका बोली.

‘‘नहीं, बैठो मत चलो मेरे साथ, जल्दी है, गाड़ी में बैठो,’’ जीजी बोली.

‘‘पर क्या हुआ है? कहां जाना है? जीजी तुम तो मु झे डरा रही हो?’’ लतिका  झुं झलाते

हुए बोली.

‘‘लतिका, सिटी हौस्पिटल जाना है, चलो,’’ जीजी बोली.

‘‘सब ठीक है न?’’ लतिका कुछ सम झ नहीं पा रही थी.

‘‘लतिका जल्दी चलो, वे लोग ललित को सिटी हौस्पिटल ले गए हैं… उस का ऐक्सीडैंट हो गया है, बहुत चोट आई है.’’

‘‘क्या हुआ ललित को, जीजी? ऐक्सीडैंट कैसे हुआ, कब हुआ?’’

लतिका के सवालों के जवाब नहीं मिले, बस वह जीजी के साथ हौस्पिटल कब पहुंच गई पता ही न चला.

डाक्टर आईसीयू से बहार आया तो सब

उसे देख खड़े हो गए, लतिका चेहरा नीचे कर एक ओर बैठी थी और सोच नहीं पा रही थी कि क्या सोचे.

डाक्टर बोला, ‘‘लतिकाजी, ललित को बहुत चोट आई है, पर घबराने की कोई बात नहीं है. बस कुछ महीनों का आराम और सब ठीक हो जाएगा, पर उस के चेहरे पर बहुत घाव आएं हैं… ठीक तो हो जाएंगे पर समय लगेगा. तब तक वह बोल भी नहीं पाएगा. आप को उस का बहुत ध्यान रखना होगा. आप चाहें तो मैं नर्स का बंदोबस्त कर देता हूं.’’

लतिका सम झ नहीं पा रही थी कि क्या प्रतिक्रिया दे. फिर बोली, ‘‘नहीं, नर्स नहीं चाहिए, मैं हूं न.’’

ललित पूरे एक हफ्ते बाद घर वापस आ कर आराम कर रहा था. लतिका वहीं उस के पास बैठी बस उसे ही देखे जा रही थी.

‘तुम ने कितनी कोशिश की मु झ से दूर भागने की, पर आखिर आज तुम मेरे पास हो और अगले कई दिनों तक तुम मेरे ही रहोगे… 25 साल मैं ने वही किया जो तुम ने चाहा या कहा पर अब कुछ दिन तुम मेरे हो बस मेरे ही हो,’ सोचतेसोचते कब आंख लग गई लतिका को याद नहीं रहा.

कब सुबह हुई पता ही न चला. लतिका आज कुछ सजधज कर ललित के लिए चाय और नाश्ता बना लाई. ललित आंखें खोले बस लतिका को ही देख रहा था.

‘‘सुनो जानते हो आज से बस मैं बोलूंगी और तुम सुनोगे, बस सुनोगे,’’ हलकी सी हंसी लब पर लाते हुए लतिका ललित को सहलाने लगी, ‘‘क्या तुम्हें पता है जब पहली बार तुम देखा था तो लगा कि बस जिंदगी प्रेम और प्यार में बीत जाएगी. पर तुम्हें तो बड़े खड़ूस निकले. कभी प्यार भरी नजर भी नहीं डाली.’’

ललित नाश्ता करते हुए बस लतिका को ही देखे जा रहा था. नाश्ते के बाद लतिका ललित के चेहरे को साफ करते हुए सहलाने लगी. न जाने क्यों आज उसे ललित वही ललित लगा जो उसे देखने आया था और लतिका को अनगिनत सपने दे कर चला गया था. लतिका के लब न जाने कब ललित की ओर बढ़ गए और लतिका ने वही किया जो वह कब से करना चाहती थी… ललित के चेहरे की हर चोट को वह अपने लबों से पोंछ देना चाहती थी.

हलकी सी हंसी और थोड़ी सी शर्म चेहरे पर लिए लतिका गुनगुनाने लगी, ‘‘क्या तुम को गाना पसंद नहीं है क्या?’’

ललित आंखें  झपकते हुए दूसरी ओर देखने लग गया.

‘‘देखो, अब मुंह न फेरो, अब यहां बस मैं और तुम हैं. मेरी तरफ देखो, प्यार से न सही, पर मुंह न फेरो. अच्छा, यह बतातो खाओगे क्या?’’

लतिका ने देखा ललित की आंखें में पानी भरा हुआ था. लतिका ने अपनी साड़ी के पल्लू से ललित के चेहरा साफ करा और फिर गुनगुनाती वहां से चली गई.

दोपहर ढलने को थी. बाहर हलकीहलकी बारिश हो रही थी. ललित की न

जाने कब आंख लग गईर् थी, बरसात की आवाज से उस की नींद खुल गई, आंखें खोलीं तो लतिका उस के पास बैठी उसे ही देखे जा रही थी.

‘‘सुनो, यह जो तुम्हारे चेहरे पर हलकी सी हंसी होती है सोते हुए वह जागने पर कहां चली जाती है? चलो खाने का वक्त हो गया है, फिर दवा भी तो लेनी है. ठीक होना है न… जल्दी से ठीक हो जाओ, एक ही दिन में तुम्हारे न बोलने की कमी सी महसूस होने लगी है.’’

न जाने दिन कब बीत गए. लतिका रोज नएनए कपड़े पहन ललित का और सारे घर का काम करती रहती और बाकी वक्त बस ललित से बातें करती और गुनगुनाती रहती.

‘‘लतिका, ओ लतिका, कहां हो? लतिका.’’

आशा जीजी की आवाज सुन लतिका ने किवाड़ खोल दिए.

‘‘चलो बई, डाक्टर के पास जाना है. ललित उठ गया क्या. अब कैसा महसूस करता है?’’

‘आज डाक्टर के पास जाना है,’ इसी सोच से लतिका का दिल बहुत घबरा रहा था. अब ललित ठीक हो गया तो, तो वह उस से फिर दूर हो जाएगा. बस इसी सोच से लतिका का मन बहुत घबरा रहा था.

‘‘अरे बहुत बढि़या, तुम अब बहुत बेहतर लग रहे हो, लतिका ने कोई कमी नहीं छोड़ी देखभाल में,’’ डाक्टर ने जांच के बाद लतिका और बाकी सब को बताया कि ललित की सेहत बहुत बेहतर लग रही है. फिर डाक्टर ने कहा कि वह हैरान हैं कि अब तक ललित ने बात करना क्यों नहीं शुरू किया.

लतिका घर लौटते ही सब के लिए चाय बनाने चली गई. वह आज ललित के सामने भी नहीं गई. सुबह कपड़े बदलते और नाश्ते के समय भी उस ने ललित की ओर एक बार भी न देखा. ललिता के दिमाग में बस वही ललित आ रहा था, जो खड़ूस सा था. चायनाश्ता दे वह बिना किसी से बात किए खाना बनाने चली गई.

‘फिर वही दिन आ जाएंगे क्या,’ सोच लतिका का मन बहुत घबरा रहा था.

‘ये सब हंसी पल वह कभी भुला नहीं पाएगी. ललित और वह, वह और ललित, कितने खुशी के पल थे, ललित को गले लगाना, उसे सहलाना, कितने बरस उस ने इन पलों के बारे में बस सोचा या कहानियों में ही पढ़ा था. हसीन पलों में जीना एक ख्बाब है और ख्बाब बस आंखें खुलते ही हवा हो जाते हैं. लतिका की आंखों के आसूं रुकने को ही नहीं आ रहे थे. बस कुछ और दिन मिल जाते तो वह सारी उम्र जी लेती और आने वाले पलों के लिए बहुत सी यादें बटोर लेती.’

‘बस एक और दिन मिल जाए तो वह ललित को ठीक से देख ले, एकदम करीब से, अपनी निगाहों में बस, उस की हर अदा बसा ले. बस एक दिन और मिल जाए, तो वह ललित को करीब से देख ले, इतने करीब से ही हर सांस उस की बस ललित के बदन की महक से भर जाए, उस का हर एहसास ललित की महक से भर जाए. एक बार बस, एक और मौका मिल जाए तो वह हमेशा के लिए ललित की छवि को मन में बसा उस की बांहों में दम तोड़ दे.’

‘‘ललिता, ललिता, ओ ललिता,’’ आशा जीजी जोरजोर से आवाज लगा रही थी.

आशा जीजी की आवाज ने लतिका के सपनों और सोच की दुनिया से निकले पर मजबूर कर दिया. लतिका भागती हुई बैठक में पहुंच गई.

‘‘लतिका, ललित तुम्हें बुला रहा है,’’ ललित चाय पिलाने को कह रहा है, लो.’’

लतिका ने आशा जीजी के हाथ से चाय की प्याली ले ली और ललित की ओर बढ़ने लगी. ललित मंद सी आवाज में अभी भी लतिका को बुला रहा था.

लतिका भरी हुई आंखों से ललित को चाय पिलाने लग गई. दोनों की निगाहें बस एकदूसरे पर ही टिकीं. चाय खत्म होने पर जैसे ही लतिका प्याली रखने के लिए उठने लगी तो उसे एहसास हुआ कि ललित की उंगलियां उस की उंगलियों को जकड़े हुई हैं. लतिका की आंखों का पानी जमाने को अपनी हस्ती का एहसास दिलाना चाहता था, पर लतिका हर एहसास को अपना ही रहने देना चाहती थी, हर एहसास को जमाने के साथ सा झा करने से, एहसास अपना नहीं रहता.

‘‘चलो भई सब ठीक हो गया, अब हम चलते हैं, तुम लोग भी आराम करो. लतिका, कोई जरूरत हो तो बता देना, चलो फिर मिलते हैं.’’

लतिका आशा जीजी को रुख्सत करने उन के पीछे चल दी.

आशा जीजी ने लतिका को गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘बस आज इन

आंसुओं को रोकना मत, पर आज के बाद इन्हें भूल जाना बस, और अपना और ललित का खयाल रखना लतिका… वक्त ही नहीं कभीकभी लोग भी बदलते हैं.’’

आशा जीजी तो चली गईं, पर अब वह क्या करे… धरती अपना सीना खोल दे और वह बस उस की गोद में समा जाए, पर वह सीता नहीं है, लतिका है लतिका, बस लतिका है.

लतिका को लगा जैसे हवा का हर  झोंका लतिका, लतिका बोल रहा हैं,

धीमीधीमी हवा लतिकालतिका कर रही हो, पर स्टील का गिलास गिरने की आवाज ने बताया कि हवा नहीं, बल्कि ललित उसे बुला रहा था.

लतिका वहां से भाग जाना चाहती थी,

पर कैसे जाए, ललित बारबार उस का नाम ले

रहा था. लतिका घबराती हुई ललित के कमरे

में दाखिल हुई तो देखा ललिल पलंग से उठने

की कोशिश कर रहा था. लतिका ने भाग कर

उसे सहारा दिया और ललित वहीं पलंग पर

बैठ गया.

‘‘देखो डाक्टर ने कहा है अभी कुछ वक्त लगेगा, कुछ दिन और बस, फिर जहां जाना हो चले जाना,’’ लतिका में बिना ललित की ओर देखे सब एक सांस में बोल दिया.

‘‘क्या तुम मु झ से दूर जा पाओगी?’’

लतिका के आंसू अब अपनी हर हद को तोड़ देना चाहते थे और उस की आंखों को छोड़ कर ललित के सीने को भिगो देना चाहते थे और वह इस पल में समा जाना चाहती थी.

‘‘बोलो, क्या तुम मु झे अपने से दूर कर

देना चाहती हो? इतना प्यार और ये सब एहसास कैसे छिपा लेती थी? बोलो ललिता क्या है. ये सब, बोलो,’’ और अगले ही पल ललित ने ललिता को अपनी बांहों में भर लिया. ललिता अपने आंसुओं से ललित को अपने हर एहसास का एहसास दिला देना चाहती थी.

दूर कहीं फिर वही गीत बजने लगा, ‘तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा नहीं… और फिर वही एहसास दिल पर दस्तक देने लगे.

आग और धुआं- भाग 3: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

अमित कहते कि मैं अपने शक को छोड़ दूं, तो वे फौरन लेने आ जाएंगे. मैं चाहती थी कि वे निशा से संबंध तोड़ लें. हम दोनों अपनी जिद पर अड़े रहे, तो इस विषय पर हमारा वार्तालाप होना ही बंद हो गया. बड़े औपचारिक रूप में हम फोन पर एकदूसरे से सतही सा वार्तालाप करते. वे रात को कभी रुकने आते,

तो भी हमारे बीच खिंचाव सा बना रहता. बैडरूम में भी इस का प्रभाव नजर आता. दिल से एकदूसरे को प्रेम किए हमें महीनों बीत गए थे. मैं उन से खूब लड़झगड़ कर समस्या नहीं सुलझा पाई. मौन नाराजगी का फिर लंबा दौर चला, पर निशा का मामला हल नहीं हुआ. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी इस उलझन का अंत कैसे करूं. अमित से दूर रह कर मैं दुखी थी और निशा के कारण उन के पास जाने को भी मन नहीं करता था.

एक दिन मैं ने वर्माजी के घर के पिछले हिस्से से धुआं उठते देखा. उन का घर हमारे घर के बिलकुल सामने है. यह घटना रात के साढ़े 11 बजे के करीब घटी.

‘‘आग, आग… मम्मीपापा, सामने वाले वर्माजी के घर में आग लग गई है,’’ मैं ने बालकनी में से कदमों कर अपने छोटे भाई, मम्मीपापा व अमित को अपने पास बुला लिया.

गहरे काले धुएं को आकाश की तरफ उठता देख वे एकदम से घबरा उठे. अमित और मेरे भाई भी तेज चाल से उस तरफ चल पड़े.

चंद मिनटों में 8-10 पड़ोसी वर्माजी के गेट के सामने इकट्ठे हो गए. सभी उन्हें आग लगने की चेतावनी देते हुए बहुत ऊंची आवाज में पुकार रहे थे. एक के बाद एक महल्ले के घरों में रोशनी होती चली गई.

जब तक वर्माजी बदहवास सी हालत में बाहर आए तब तक 15-20 पड़ोसी उन के गेट के सामने मौजूद थे. उन्होंने लोगों की आकाश की तरफ उठी उंगलियों की दिशा में देखा और काले धुएं पर नजर पड़ते ही बुरी तरह चौंक पड़े.

अपनी पत्नी, बेटे और बहू को पुकारते हुए वर्माजी घर में भागते हुए वापस घुसे. उन के पीछेपीछे जो कई लोग अंदर घुसे उन में अमित और मेरा भाई सब से आगे थे.

बाकी लोग गेट के पास खड़े रह कर आग लगने के कारण और स्थान के बारे में चिंतित घबराए अंदाज में चर्चा करने लगे. जो वहां मौजूद नहीं थे, वे अपने घर की बालकनी से घटनास्थल पर नजर रखे थे.

घर के भीतरी भाग से सब से पहले मेरा भाई बाहर आया. उसे मुसकराता देख हम सभी की जान में जान आई.

‘‘सब कुछ ठीक है अंदर,’’ उस ने ऊंची अवाज में सब से कहा, ‘‘पिछले बरामदे में रखी अखबारों की रद्दी पर एक चिनगारी से आग लग गई थी. धुआं घर के अंदर नहीं, बल्कि बाहर बरामदे में लगी आग से उठ रहा था.’’

लोग जाग गए थे, इसलिए जल्दी से वापस घरों में नहीं घुसे. बाहर सड़क पर खड़े हो कर उन के बीच दुनिया भर के विषयों पर बातें चलती रही.

अमित करीब डेढ़ घंटे बाद शयनकक्ष में आया. मुझे पलंग पर सीधा बैठा देख

उस ने कहा, ‘‘अब जल्दी उत्तेजना के कारण नींद नहीं आएगी. बेकार ही सब परेशान हुए.’’

‘‘काले, गाढ़े धुएं को देख कर मैं ने यही अंदाजा लगाया था कि आग घर में लगी होगी. कितना गलता निकला मेरा अंदाजा,’’ बोलते हुए मुझे ऐसा लगा मानो मैं खुद से बात कर ही रही हूं.

कुछ देर सोच में डूबे रहने के बाद अमित ने पूछा, ‘‘असलियत में क्या इस वक्त तुम कुछ और कहना चाह रही हो, प्रिया?’’

‘‘हां, मेरे मन में कुछ देर पहले अचानक दिलोदिमाग को झटका देने वाला एक विचार उभरा था. तब से मैं उसी के बारे में सोच रही हूं.’’

‘‘अपनी मन की बात मुझ से भी कहो.’’

‘‘अमित, अगर हम तुम्हारे व निशा के अवैध प्रेम संबंध…’’

‘‘उस के और मेरे बीच कोई अवैध संबंध नहीं है,’’ अमित ने नाराजगी भरे अंदाज में मुझे टोका.

‘‘मेरी पूरी बात जरा धीरज से सुनो, प्लीज.’’

‘‘अच्छा, कहो.’’

‘‘अमित, कहीं से उठता हुआ धुआं देख कर यह अंदाजा लगाना क्या गलत होता है कि वहां आग का केंद्र जरूर होगा?’’

‘‘अरे, आग होगी, तभी तो धुआं पैदा होगा.’’

‘‘लेकिन मानवीय संबंधों में, खासकर स्त्रीपुरुष के प्रेम संबंधों में… उस में भी अवैध प्रेम संबंध की अगर बात करें, तो धुआं आग के बिना और आग के कारण दोनों तरह से पैदा हो सकता है.’’

‘‘मुझे तुम्हारी बात समझ में नहीं आई’’ अमित उलझन का शिकार बने नजर आए.

‘‘देखो, निशा और तुम्हारे बीच अगर अवैध प्रेम संबंध हैं तो वह आग का केंद्र हुआ. लोग तुम्हारे अवैध प्रेम संबंध की जो चर्चा करते हैं, उसे हम उस आग से उठता धुआं कहेंगे.’’

‘‘अब तक मैं अच्छी तरह समझ रहा हूं तुम्हारी बात,’’ अमित का पूरा ध्यान मुझ पर केंद्रित था.

‘‘तुम कहते हो, तुम्हारा निशा से गलत संबंध नहीं है और दुनिया इस बारे में भिन्न राय रखती है. इस मामले में धुआं तो मौजूद है, पर आग के बारे में मतभेद है.’’

‘‘मैं कहता हूं कि आग मौजूद नहीं है,’’ अमित ने एकदम शब्द पर जोर दिया.

‘‘आज मैं तुम्हारे कहे पर पूरी तरह विश्वास करूंगी, अमित, क्योंकि मैं ने अपनी आंखों से कभी ऐसा कुछ नहीं देखा जिसे मैं आग की लपट कहूं… और न ही मुझे कोई व्यक्ति ऐसा मिला है जो कहे कि उस ने आग को… यानी निशा और तुम्हें गलत ढंग से कुछ कहतेकरते अपनी आंखों से देखा या कानों से सुना हो. सब धुएं की चर्चा करते हैं और…’’

‘‘और क्या?’’ अमित मेरे पास आ कर बैठ गए.

‘‘और मुझे धुएं पर विश्वास कर के आग की मौजूदगी नहीं मान लेनी चाहिए थी. मैं ने ख्वाहमख्वाह अपनी आंखों से धुएं के कारण आंसू बहाए. मैं अपनी गलती मानती हूं,’’

मैं ने झुक कर अमित के हाथों को कई बार चूम लिया.

‘‘निशा सदा मेरी बहुत अच्छी दोस्त रही है और इस संबंध की पवित्रता व ताजगी को नष्ट करने की मेरे दिल में कोई चाह नहीं है. मेरे दिल में सिर्फ तुम्हारा राज था, है और रहेगा, प्रिया,’’ अमित ने बारीबारी से मेरी आंखों को चूमा, तो मेरे पूरे जिस्म में सुखद करंट सा दौड़ गया.

‘‘देखो, कभी किसी दूसरी स्त्री के साथ आग का केंद्र पैदा न होने देना, नहीं तो हमारी खुशियों और सुखशांति को जला डालेगी. धुएं की चिंता मैं आगे कभी नहीं करूंगी, पर आग का केंद्र मुझे दिखा तो मैं अपनी जान…’’

‘‘ऐसा कभी नहीं होगा पगली,’’ अमित ने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया.

निशा को ले कर मेरे दिलोदिमाग पर महीनों से बना भारी बोझ एकदम उतर गया था. अमित की मजबूत बांहों के घेरे में कैद हो कर मुझे उतना ही आनंद मिला जितना जब मैं नईनेवली दुलहन बनी थी, तब मिला था.

आग और धुआं- भाग 1: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

करीब 2 साल तक अमित और मेरा रोमांस चला और फिर हम ने शादी कर ली. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए दोनों तरफ के परिवारजनों ने अपने आशीर्वाद हमें खुश हो कर दिए.

जिंदगी में रोमांस करने का अपना मजा है. बहुत खूबसूरत थे वे दिन जब हम घंटों घूम कर ढेर सारी बातें करते. भविष्य के रंगीन सपने तब हमारे मन को रातदिन गुदगुदाते थे.

‘‘मैं तुम्हें बहुत खुश और सुखी रखूंगा, प्रिया. कितनी प्यारी, कितनी सुंदर और समझदार हो तुम,’’ अमित की ऐसी बातें सुन कर मैं हवा में उड़ने लगती.

‘‘जिंदगी के सफर में तुम हर कदम पर मेरे साथ बने रहोगे, तो मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए,’’ दिल की गहराइयों से ऐसे शब्द मेरे होंठों तक आते.

शादी के बाद मैं ने रंगीन सपनों को सचाई बनते देखा. अमित की मजबूत बांहों के घेरे में मैं ने आनंद और मस्ती की असीम ऊंचाइयों को छुआ. मेरे रात और दिन महक उठे. मैं उन के साथ चलती तो प्रतीत होता मानो नाच रही हूं. उन्हें छू कर, निहार कर भी दिल नहीं भरता.

‘‘शादी से पहले मुझे कभी अंदाजा तक नहीं हुआ कि तुम जादूगर भी हो,

अमित. मुझे पूरी तरह से वश में कर के दिल जीत लिया है तुम ने,’’ मैं ने अपने दिल की यह बात मनाली में बिताए 10 दिनों के हनीमून के दौरान शायद 100 से ज्यादा बार अमित से कही होगी.

शादी के करीब 2 महीने बाद ससुराल छोड़ कर दिल्ली से हम नोएडा के छोटे से किराए के फ्लैट में रहने चले आए. ट्रैफिक जाम के कारण अमित को घर से आफिस तक आनेजाने में बहुत ज्यादा वक्त लगता था. उन्हें थकावट और चिड़चिड़ेपन से बचाने के लिए सब बड़ों की सलाह पर हम ने यह कदम उठाया था.

नोएडा में बिताए पहले 2 महीनों में मेरी वैवाहिक जिंदगी के सारे सुख और खुशियां धीरेधीरे तबाह होती चली गईं. मेरी जिंदगी में तबाही मचाने वाला यह तूफान निशा के रूप में आया.

निशा अमित के साथ काम करती थी. हमारे फ्लैट में अकसर अमित के सहयोगी दोस्त छुट्टी वाले दिन इकट्ठे हो कर मौजमस्ती करते थे. निशा ऐसे मौकों पर हमेशा उपस्थित रहती. निशा के मातापिता सहारनपुर में रहते थे. नौकरी के लिए उसे नोएडा आना पड़ा तो आरंभ में वह अपने एक रिश्तेदार के घर में रही.

कुछ दिनों में आपसी अनबन के कारण उसे वह जगह छोड़नी पड़ी. अब वह अपनी एक सहेली के साथ आफिस के पास ही हमारे जैसा फ्लैट किराए पर ले कर रह रही थी. घर  पासपास होने की वजह से वह अकसर मार्केट जाते समय फ्लैट के सामने से गुजरती तो बस हाय, हैलो ही हो पाती.

मुझे उस का व्यक्तित्व से बड़ा दिलचस्प लगता. उस का कद लंबा और फिगर बड़ी जानदार थी. मैं ने उसे हमेशा टाइट जींस और टीशर्ट पहने देखा. साधारण नैननक्श होने के बावजूद वह खूब खुल कर सब से हंसनेबोलने वाले दोस्ताना स्वभाव के कारण काफी आकर्षक नजर आती.

विवाह के तोहफे के रूप में उस ने हमें सैल से चलने वाला एक सुंदर शोपीस दिया. उस में एक प्रेमीप्रेमिका बालरूम डांस की मुद्रा में सट कर खड़े थे. ‘औन’ करने पर वे गोलगोल घूमने लगते और हलके कर्णप्रिय संगीत की लहरें हर तरफ बिखर जातीं.

‘‘प्रिया, तुम कितनी सुंदर हो. काश, मैं भी तुम जैसी होती तो कोई अमित मुझे भी अपने दिल की रानी बना लेता,’’ मेरी यों प्रशंसा कर के निशा ने पहली मुलाकात में ही मेरा दिल जीत लिया.

उस के पास वक्त की कमी नहीं थी. कार्य दिवसों मेें भी वह शाम को घूमते हुए हमारे घर पर दूसरेतीसरे दिन चली आती. कुछ दिनों में हम अच्छी सहेलियां बन गईं. किसी भी विषय पर अगर अमित और मेरे नजरिए में अंतर होता तो वह हमेशा मेरा पक्ष लेती. हम दोनों मिल कर अमित की खूब टांग खींचते.

हमारे बीच दोस्ती की जडें मजबूत हो जातीं, उस से पहले ही मुझे उस के असली रूप व मकसद की जानकारी मिल गई.

अमित के एक सहयोगी ने अपने प्रमोशन की पार्टी बैंक्वेट हाल में दी. इसी पार्टी के दौरान कविता और शिखा ने मुझे निशा के प्रति खबरदार किया. ये दोनों अमित के आफिस में ही काम करती थीं और हम पहले भी कई बार मिल चुके थे.

‘‘मैं ने सुना है कि निशा तुम्हारे घर खूब आतीजाती है,’’ कविता ने जब यह चर्चा की तब हमारे आसपास ऐसा कोई न था जो हमारी बातें सुन सके.

‘‘उस के साथ हमारा समय अच्छा गुजर जाता है,’’ मैं ने मुसकराते हुए जवाब दिया.

‘‘प्रिया, जो तुम्हारे वैवाहिक जीवन की खुशियों को उजाड़ने पर तुली है, उस लड़की को तुम्हें अपने घर में कदम नहीं रखने देना चाहिए,’’ शिखा की आंखों में चिंता व गुस्से के मिलेजुले भावों को पढ़ कर मैं बेचैन हो उठी.

‘‘ऐसा क्यों कह रही हैं आप?’’ मैं ने परेशान लहजे में पूछा.

‘‘सारा आफिस जानता है कि अमित उस के चक्कर में फंसा हुआ है. उस का

तो शौक है दूसरों के पतियों पर डोरे डालने का. तुम बहुत भोली हो और तभी हम ने आज तुम्हें आगाह करने का फैसला किया.’’

‘‘मैं ने तो आज तक अमित के साथ उसे कुछ गलत ढंग से व्यवहार करते कभी नहीं देखा,’’ मैं ने अपने पति व निशा का पक्ष लिया.

‘‘तुम्हारे सामने उन्हें कुछ करने की जरूरत ही क्या है, यार. अरे, निशा का फ्लैट है न और तुम्हारा अमित शादी के बाद भी उस से मिलने वहां जाता रहता है, प्रिया.’’

‘‘मुझे अमित ने बताया है कि कभीकभी आफिस समाप्त होने के बाद वह उस के फ्लैट पर चाय पीने निशा के साथ चले जाते हैं, लेकिन ऐसा करने में बुराई क्या है?’’

मेरे इस सवाल के जवाब में वे दोनों कुछ ऐसे अंदाज में हंसी कि अमित पर मेरा विश्वास एकदम डगमगा गया. अचानक ही मेरे मन में असुरक्षा और डर के भाव पैदा हो गए.

‘‘प्रिया, इस निशा ने जो सुंदर गोल्ड के टौप्स पहन रखे हैं, ये कुछ महीने पहले अमित ने उसे उस के जन्मदिन पर दिए थे. अब तुम ही बताओ कि कोई युवक क्या अपनी सहयोगी युवती को सोने के टौप्स उपहार में देता है?’’

‘‘निशा ने जो शोपीस तुम्हें दिया है, उस में जो लड़का है, वह अमित है, पर लड़की तुम नहीं हो. निशा सब को बताती फिरती है कि वह खुद ही वह लड़की है, क्योंकि तुम्हारा कद उस शोपीस वाली लड़की की तरह लंबा नहीं है. अमित उस शोपीस को देख कर उसे याद करता रहे, इसलिए दिया है उस ने वह उपहार.’’

कविता और शिखा की इन बातों को सुन कर मेरे मन की सुखशांति उसी वक्त खो गई. उन के जाने के बाद मैं ने अमित को ढूंढ़ने के लिए अपनी दृष्टि हाल में चारों तरफ घुमाई. अमित जिस समूह में खड़ा हो कर बातें कर रहा था, उस में निशा भी उपस्थित थी. मेरे देखते वे सब लोग अचानक किसी बात पर हंस पड़े. शायद निशा की टांग खींची थी अमित ने, क्योंकि मैं ने उसे अपने पति की पीठ पर नकली नाराजगी के साथ हलकी ताकत से घूंसे मारते देखा. उस की इस हरकत पर एक और सामूहिक ठहाका सब ने लगाया.

ओट 2 हाथों की- भाग 1: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

‘‘मेरे मन में इस बच्चे के लिए प्यार उमड़ता ही नहीं’’, कहा था उस ने. पर यह बात तो शुरू के दिनों की है. बाद में असहाय वेदना, बढ़ता रक्तचाप तथा अत्यधिक तनाव के बीच भी उस ने अपने गर्भस्थ शिशु के लिए कोमल भावनाएं जरूर पाली होंगी. उस के आने से सभी विपदाएं दूर हो जाएंगी, यह कामना भी की होगी. 8 वर्षीय बेटी से प्रसव के कारण 2-3 महीने दूर रहने की कल्पना ने उसे और भी दुखी किया होगा. बच्ची तो छोटा भाई या बहन मिलने के बहलावे से बहल भी गई होगी, मगर वह खुद बेटी से दूर रह कर एक दिन भी शांति से नहीं रह पाई होगी.

फिर वही हुआ जिस का अंदेशा कमोबेश सभी को था. समय से पहले मरे हुए बच्चे का जन्म, गला हुआ माथा, मुड़े हाथपांव… और अविकसित भू्रण… 8 महीने से जगी संभावना का अंत.

मैं आजकल बड़ी ढीठ हो गई हूं. जानती हैं दीदी, कल सास ने तनु से पुछवाया, ‘‘मम्मी से पूछ भुट्टा खाएगी क्या?’’

भूख से कुलबुलाते मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

तो वह बोलीं, ‘‘बोल, जा कर ले आए.’’

अंदर सोई थी मैं, बाहर दादीपोती की आवाजें आ रही थीं. मैं ने तनु से कहा, ‘‘मेरी कमर में बहुत दर्द है. मैं अभी नहीं ला सकती.’’

सास बोलीं, ‘‘ला नहीं सकती तो खाएगी क्या?’’ तनु अंदरबाहर आ जा कर बातचीत जारी रखे थी. फिर भुट्टे आए भी और मैं ने बेशर्मी से खाए भी. आप सोच सकती हैं, दीदी. मैं कभी ऐसी हो जाऊंगी?

3-4 दिन तक मेरे जेहन में उस की ही बातें घूमती रहीं. उस से जब भी फोन पर बात होती, वह अपने अंदर का भरा सारा गुबार उड़ेल देती. कई बातें ऐसी भी होतीं, जो आमनेसामने उसे कहने

और मुझे सुनने में संकोच हो सकता था. आखिर वह मुझ से काफी छोटी है. फोन पर न मैं उस का शर्मसार चेहरा देख सकती थी न वह मेरा.

रिया रीना की छोटी बहन है और रीना मेरे बचपन की सहेली. रिया मेरे सामने बड़ी हुई. बहनों में सब से छोटी. उस के जन्म के बाद भाई के जन्म के कारण परिवार की वह लाडली बन गई.

रूप, गुण, आभिजात्य, संस्कार, शिक्षा, खानदान व पैसा ये 7 गुण ही तो देखते हैं लड़की में और रिया इन सातों गुणों में श्रेष्ठ नहीं सर्वश्रेष्ठ कही जा सकती है. लड़कों में तो गुण देखने का चलन ही नहीं है. अगर होता तो अजय के सातों खाने खाली.

लड़की सुंदर हो फिर सामान्य से भी कम दिखने वाला पति मिले तो समस्या खड़ी हो सकती है. शायद यह किसी ने नहीं सोचा. फिर न उस का काम के प्रति कोई लगाव, न महत्त्वाकांक्षा और स्वभाव, संस्कार, शिक्षा की तो बात करना ही बेमानी. उस का क्रोध ऐसा कि तीसों दिन घर में आंतक छाया रहता. कभी मम्मीपापा के साथ तो कभी बहनों के साथ तो कभी नौकरों या पड़ोसियों के साथ. रिया के आने के बाद सारा कहर उस पर बरसने लगा.

मैं अकसर सोचती रिया के घर वालों को अजय में क्या खूबी दिखी? संपन्न घर का इकलौता बेटा, घर, गाड़ी अर्थात भविष्य सुरक्षित. मगर रिया जैसी लड़की को क्या इन सब की कभी कमी हो सकती थी?

अजय के स्वभाव से परेशान उस के मम्मीपापा ने सोचा था कि समझदार, सुंदर लड़की आ कर उसे सही रास्ते पर ले आएगी, परंतु शादी के बाद स्थिति इतनी विकट हो जाएगी, इस का अनुमान तक वे नहीं लगा सके थे. अब अजय के जुल्मोसितम का निशाना थी वह पराई लड़की, जो शादी के इतने वर्षों बाद भी किसी की भी अपनी नहीं हो सकी थी. हां, विगत 8-9 वर्षों के वैवाहिक जीवन में उस के खाते में छोटी उम्र में उच्च रक्तचाप जैसा रोग और 8 वर्ष की प्यारी सी बेटी ‘तनु’ ये 2 ही जुड़ पाए थे.

इतने वर्षों बाद अनचाहे ही सही, फिर गर्भ का अंदेशा हुआ तो घबरा गई थी रिया. खुद को सामान्य करने में उसे बहुत वक्त लगा था. बड़ी मुश्किल से बीते थे वे 8 महीने… और उस का अंत भी क्या कम जानलेवा था? प्रसव के लिए दिल्ली अपने मायके चली गई थी.

डाक्टर मम्मीपापा पर बरस पड़ी थीं, ‘‘इस बार लड़की बच गई है. चाहते हैं कि वह स्वस्थ हो सके, तो कृपया उस की समस्याएं सुलझाएं, नहीं तो मर जाएगी वह.’’

इतना हाई ब्लडप्रैशर छोटी उम्र में, कभी भी कुछ भी हो सकता है. उस के मम्मीपापा कांप उठे थे.

रिया ससुराल से दिल्ली आती तब उस का उदास चेहरा सूनी आंखें व अजय के फोन आते ही कांप उठना. पर उस से इतना भर जाना कि अजय क्रोधी स्वभाव का है और मानसिक रोगी भी है. कई कुंठाएं पाल रखी हैं उस ने.

डाक्टर कहती हैं कि उस की समस्या सुलझाएं. रिया की तकलीफों का निवारण अलगाव से हो सकता है. अजय से अलगाव का अर्थ है रिया व नन्ही तनु का भविष्य, अकेलापन, लोगों की उठती उंगलियां, उस से उपजा नया तनाव.

रिया के मम्मीपापा अपनी बेटी के दुख में घुलते जा रहे थे. उस की पूरी त्रासदी के लिए स्वयं को दोषी ठहरा रहे थे. परंतु कोई आरपार का कदम उठा लेने जैसा निर्णय नहीं कर पाते थे. मेरी रीना से इस बारे में अकसर बहस होती.

उस के पापा का अपने परिवार तथा व्यवसाय क्षेत्र में बहुत नाम था पर रिया का प्रकरण न सुलझा पाने के पीछे यह बात भी रही हो कि उन के बेदाग घराने पर एक दाग लग जाएगा कि एक बेटी वापस आ गई ससुराल से… कमोबेश ऐसे ही आदर्शवादी और परंपरावादी संस्कारों के परिवेश में रिया पली थी. तभी वह सह रही थी. शुरू में उस ने अजय को समझाने की, वश में करने की बड़ी कोशिशें कीं. मगर नाकाम रही और फिर हताश हो गई.

पिछली बार मैं दिल्ली गई तो उस के पापा ने मुझे फोन कर के बुलाया था. वे रिया के बारे में मुझ से बात करना चाहते थे. मैं रीना से मिलने कई बार उस के घर गई थी पर अंकलआंटी से बस औपचारिक नमस्ते ही होता था.

रिया के जीवन से परिचित होने पर मुझे भी उन पर एक खिज सी थी, अंदर ही अंदर अच्छीभली लड़की को डुबा देने की बात कौंधती थी.

‘‘अनिता, तुम्हारी रिया से अकसर बात होती है. आखिर अजय चाहता क्या है? क्यों नहीं पटती दोनों में, तुम्हें क्या लगता है?’’ अंकल ने पूछा.

‘‘अंकल, यह सवाल ही गलत है कि अजय चाहता क्या है. एक बिगड़ा बच्चा जो चाहे उसे देते चले जाना कि बवाल न मचाए क्या ठीक है? अजय चाहता क्या है यह तो स्वयं अजय को खुद नहीं पता. न उस के मातापिता को. जहां तक रिया से न पटने की बात है, तो इस के कई मनोवैज्ञानिक कारण हैं. मुझे कहने में संकोच होता है.’’

‘‘नहीं तुम खुल कर कहो बेटी?’’

ओट 2 हाथों की- भाग 2: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

‘‘अंकल, जब रिया शादी के बाद पहली बार मुंबई गई तो दोनों के रूपरंग के अंतर को देख हर व्यक्ति चौंकता था कि ऐसे लंगूर के हाथ हूर कैसे लग गई? अजय को लगा कि लोग उस का अपमान कर रहे हैं फिर हीनता का बोध होते ही वह जबतब अन्य लोगों के सामने बेवजह रिया को फटकारने का कोई मौका नहीं चूकता. वह उसे पांव की नोक पर रखता. रिया उस की एक धमक से थरथर कांप जाती. अपने पुरुष अहम को तृप्त करने के लिए चीखतेचिल्लाते हुए यह भूल ही जाता है कि पतिपत्नी के रिश्ते की सारी आर्द्रता वह सोखता जा रहा है. 2 मिनट उस से बात करते ही, उस की मानसिक अस्थिरता का जायजा मिल जाता है. न जाने आप को कैसे… माफ कीजिएगा मुझे यह नहीं कहना चाहिए.’’

‘‘नहीं बेटी, तुम ठीक कह रही हो. उस वक्त सोचा हम ने भी था कि वह रूपरंग, व्यक्तित्व में रिया की जोड़ी का नहीं है. परंतु स्वभाव ऐसा होगा. यह कैसे मालूम होता.’’

‘‘नहीं अंकल. कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन के चेहरे पर ही लिखा होता है कि वे क्या हैं. अजय उन में से एक है. आप उसे किस तरह नहीं समझ पाए? यह ठीक है कि रूपरंग विशेष अर्थ नहीं रखते. मगर वह एक मानसिक रोगी है. उसे किसी अच्छे मनोचिकित्सक की जरूरत है. हो सकता है

कि वह ठीक भी हो जाए, परंतु इस के लिए जरूरी है कि पहले वह खुद और उस के मातापिता यह जानें कि तकलीफ क्या है और कहां है?’’

‘‘हम ने तो रिया को हमेशा शांत रहने व समझौता करने की ही सीख दी है, अनिता. ताकि बात ज्यादा न बढ़े.’’

‘‘यही गलत कर रहे हैं आप. समझौता और सहने की घुट्टी पिलापिला कर लोग लड़कियों को नकारा बना डालते हैं. उन्हें स्वयं अपनी काबिलीयत पर भरोसा नहीं

रहता. प्रत्येक जायजनाजायज बात पर शांत रहने व समझौता करते जाने के नतीजे देखे आप ने? अजय और उग्र होता गया और रिया बीमार…

‘‘दरअसल, रिया मुझे छोटी बहन जैसी है इसलिए जानती हूं, क्षमा करें मुझे न चाहते हुए भी अप्रिय कहना पड़ा.’’

‘‘नहीं, अनिता. ऐसा मत सोचो. हम ने खुद तुम से सलाह मांगी है. समस्या सुलझाने

के लिए क्या किया जा सकता है, इस पर तुम क्या सोचती हो, क्या खुल कर कह सकती हो.

भूल तो हम से ही हुई है. इतना तो हम भी जानते हैं, बेटी.’’

‘‘अंकल रिया की समस्या बड़ी बारीकी से मैं ने समझा है. उस के कई कारण हो सकते हैं. किंतु समाधान सिर्फ 2 हैं. पहला अजय का इलाज करवाना जिस की संभावना कम से कम मुझे तो दूरदूर तक नजर नहीं आती. दूसरा है रिया के जीवन के बारे में कोई ठोस कदम उठाना.

‘‘पहला उपाय अजय और उस के मातापिता के पास है. दूसरा आप के पास. वे अपने बेटेबहू का सुखी दांपत्य चाहते होते,

तो यह काम बहुत पहले हो चुका होता. परोक्ष रूप से ही सही उन्होंने स्थिति को सुलझाने की जगह उसे और जटिल बनाया है. दूसरा उपाय करने के लिए बहुत सा साहस और दृढ़ निश्चय चाहिए.’’

‘‘अनिता, तुम अपनी सी न लगती तो क्या हम तुम से सलाह करते? हां परसों रीना बेंगलूरु से आ रही है. तब जरूर आना बेटी.’’

‘‘रीना के आते ही आप फोन कर दीजिएगा.’’

रीना आते ही मुझ से मिलने आ पहुंची. वहां उस ने अपना अधूरा फैशन डिजाइनिंग का कोर्स पूरा कर के एक छोटा सा बुटिक खोल लिया था, जो खूब चलने लगा था. सफलता का नूर उस के चेहरे को दमका रहा था.

‘‘अनि, कैसी हो भई. अच्छा हुआ, जो दिल्ली में मिल गई वरना तुम से मिलने मुंबई आना पड़ता.’’

‘‘कितनी बार आई मुंबई? बता तो जरा.’’

‘‘सच, इस बार मन बना लिया था कि जाना ही है. खैर, सुना हमारी रिया के क्या हाल हैं? इस हादसे के बाद अजय साहब का फुफकारना कम हुआ या नहीं. कुछ सबक लिया या वैसे ही हैं. खुद को कुसूरवार मान कर कुछ तो पछता रहे होंगे.’’

‘‘तुम भी, रीना. आशावादी होना ठीक है, मगर किसी चमत्कार की आशा लगा लेना मूर्खता है. मैं ने तो पिछली बार ही बताया था कि वहां स्थिति के बदलाव की गुंजाइश नहीं है. फिर भी तुम लोग किस भ्रम में हो अब तक?’’

ओह, चहकती रीना बुझ सी गई. अभी 3 महीने पहले ही तो रिया ने मृत बच्चे को जन्म दिया था.

‘‘रीना, यहां आने से 2 दिन पहले ही मेरी रिया से बात हुई थी.

उसे मैं ने नहीं बताया कि मैं दिल्ली जा रही हूं. तो शायद ही वह मुझ से कुछ बताती. वह भी कहां चाहती है कि उस की तपिश की आंच यहां तक पहुंचे.’’

‘‘क्या कह रही थी?’’ रीना की आंखें डबडबा गईं.

‘‘कह रही थी, दीदी, जिस आदमी से लेशमात्र भी प्यार न हो उस के साथ पूरा जीवन काटना कितनी बड़ी सजा है.’’

‘‘मैं ने भी उस से यही पूछा कि बच्चे की मौत से अजय को कुछ धक्का लगा क्या? तो बोली कि पता नहीं पर रंगढंग वही के वही हैं. घर में पैर रखते ही मेरे तो हाथपैर फूल जाते हैं. धड़कनें तेज हो जाती हैं. कभी हाथ से कुछ गिरता है कभी कुछ. दीदी, क्या करूं औरतें शाम को पति के आने का इंतजार करती हैं और सच कहूं तो मैं सुबह उस के जाने का. जब तक वह घर में रहता है मुझ पर दहशत छाई रहती है. कोई काम ढंग से नहीं कर पाती.’’

रीना के कपोलों पर भी आंसू बह चले. वह फिर बोली, ‘‘तनु के क्या हालचाल हैं, अनि?’’

‘‘रिया ही कह रही थी कि तनु सब समझने लगी है. पापा से थरथर कांपती है. बहुत अंतर्मुखी होती जा रही है. पिछले दिनों अजय दहाड़ते हुए रिया पर हाथ उठाने को आगे बढ़ा, तो वह एकदम सिटपिटा गई. बाद में पूछा था कि ममा. हसबैंड लोग ऐसे होते हैं क्या? अनजाने ही मासूम बच्ची अपनी मां के हिस्से की पीड़ा भुगत रही हैं कच्ची उम्र में.’’

‘‘अनि, बहुत पहले हम सभी भाईबहनों की जन्मकुंडलियां पापा ने किसी पंडित को दिखाई थी. जानती हो, रिया के लिए वह क्या बोला था कि यह लड़की कभी जमीन पर पांव नहीं रखेगी. रानी बन कर राज करेगी. फिर अजय की कुंडली के साथ रिया की कुंडली उसी से मिलाते वक्त कहा था कि ऐसा संयोग कम देखने को मिलता है. तभी मम्मीपापा का इस रिश्ते को करने का पूरा मन बन गया था जबकि पहले अजय कम ही अच्छा लगा था.’’

‘‘अच्छा तो यह बात थी. चौंकने की बारी अब मेरी थी, तभी आज तक मैं यह गुत्थी नहीं सुलझा पा रही थी कि यह रिश्ता हुआ कैसे… क्यों हुआ? अच्छी राजरानी बना के रखा है, उस ने रिया को और राजपाट भी कैसा कि एक पैसा कभी मन से खर्च नहीं किया होगा. बोलने तक की तो इजाजत है नहीं.

‘‘पंडित हाथ की रेखा को ठीक से पढ़ना नहीं जानता था, न मिलाना जानता था, जन्मकुंडलियों के ग्रह गोचरों को. पर चेहरे पढ़ना जरूर जानता होगा तभी रिया के रूप और उस के पापा के आभिजात्य को देख राजरानी बनने की भविष्यवाणी कर दी थी. संभावना भी वही थी. कोई भी सामान्य ज्ञान रखने वाला पाखंडी पंडित वही कहता. उस में अनहोनी क्या थी? अनहोनी तो यह थी, जो घट रही है.

‘‘अजय को उस के रूपरंग, कामधंधे, स्वभाव, संस्कार की कसौटी पर परखा जाता, तो वह धुंध साफ हो सकती थी, मगर पंडित के दिखाए भविष्य के सतरंगे सपने ने ऐसा भ्रमित किया कि जो बेनूर बदरंग रंग सामने थे वे भी नजर नहीं आए.’’

ओट 2 हाथों की- भाग 3: जब रिया की जिंदगी में नकुल ने भरे रंग

ल्ली में रीना से इस मुलाकात के बाद मैं 3 साल से अधिक हुए उस से नहीं मिल पाई. मुंबई पहुंचते ही राकेश की फर्म ने मुझे आस्ट्रेलिया भेज दिया. हम उधर चले गए. रिया से जाते वक्त फोन पर बात की, तो उसे बड़ी हताशा हुई. इस शहर में एक मैं ही थी, जिस के आगे कभीकभार वह अपने भारी मन को कहसुन कर हलका कर लिया करती थी. मैं जब दिल्ली लौटी तो पता चला कि रीना और रिया यही हैं. भाई की शादी पर आई हुई हैं. तो नकुल इतना बड़ा हो गया… शादी हो रही है उस की.

दोपहर को रीना और रिया मुझे लेने आ पहुंचीं. यह रिया थी. कायाकल्प हो गया था उस का. चहक रही थी. आवाज में भरपूर आत्मविश्वास उस की सुंदरता को बढ़ा रहा था. पर आंखों के कोनों में पसरा हलका सूनापन मुझ से छिपा नहीं रहा. इस पर भी उस का पूरा व्यक्तित्व बदला सा था, स्वस्थ, स्मार्ट. मैं हैरत से उसे ही देखे जा रही थी, बिना कुछ बोले. आगे बढ़ कर मेरा हाथ दबाते वही बोली, ‘‘दीदी, रिया के इस रूप को देख कर चौंक गई न. मैं ने अपना दुखड़ा आप के सामने खूब रोया. क्या अब बाकी की कहानी नहीं सुनना चाहेंगी?’’

‘‘ओह रिया, जरूर सुनूंगी बल्कि सच कहूं तो तुम्हें देख कर आश्चर्य तो हो रहा है साथ ही इतनी खुशी हो रही है, जिसे मैं बयान नहीं कर सकती.’’

‘‘मैं समझ सकती हूं, दीदी. आप ने उन दिनों मुझे कितना सहारा दिया. मैं इसे क्या भूल सकती हूं?’’

‘‘हट पगली. दीदी भी कहती है और…’’

‘‘तो चल, अनि, आज जी भर कर बातें करेंगे. कल से शादी की गहमागहमी में, रिश्तेदारों की भीड़ में एकांत नहीं मिल पाएगा,’’ रीना बोली.

जो रिया ने बताया सच में वह किसी नाटक जैसा था.

दीदी नकुल मुंबई आया था अपने किसी काम से. फोन खराब होने के कारण उस के आने की सूचना नहीं मिली थी. अचानक पहुंचा… घर का दरवाजा भी अंदर से बंद नहीं था. अंदर कदम रखते ही उस के मुंह पर अजय द्वारा फेंका गया तनु का ड्रैस पड़ा और कानों में पड़ी उस की फुफकार…

इस तरह की खुली स्लीवलैस डै्रस तनु को पहनाओगी. पूरे कंधे, पीठ खुली… समझती क्या हो अपनेआप को… कुछ शऊर है…कहा किस ने था उस के कपड़े लाने को… इतने तो पड़े हैं.

एक ही बात को लगभग दहाड़ते हुए दोहरा रहा था. चेहरा गुस्से में लाल पड़ गया था. सामने रिया मूर्ति बनी भावहीन खड़ी थी. तनु कांप रही थी. धृतराष्ट्र और गांधारी बने सासससुर घर को कुरुक्षेत्र बना देख, अनदेखा करते अपने कमरे में बैठे थे. उन के लिए यह हमेशा का जानापहचाना दृश्य था.

नकुल को देख एक बारगी अजय सकते में आ गया, ‘‘क्या हुआ?’’ उस का इतना पूछना भर था कि अजय दोगुने वेग से गरजने लगा.

अपनी इस बेवकूफ बहन से पूछो. कोई काम ढंग से नहीं करती. इस को मना किया हुआ है फिर भी ऐसा बेहुदा डै्रस लाई है. कहने को उस के पास क्या था. तिल को ताड़ बना देने की आदत के पीछे चोट उस के अहमग्रस्त वजूद पर इतनी सी बात से लग गई कि रिया अपने मन से एक कपड़ा भी बेटी के लिए क्यों ले आई. 8 साल की बच्ची के लिए स्लीवलैस कपड़े में उसे क्या बुराई नजर आ गई. तनु के हाथ से झपट कर डै्रस को रिया के मुंह पर मारा था, बीच में आ गया नकुल. सालेसाहब का इस तरह स्वागतसत्कार हुआ.

युवा नकुल का इस से खून गरम होना लाजमी था. अपनी प्यारी बहन को बेवकूफ और न जाने किनकिन शब्दों से नवाजा जाना सहन नहीं कर पाया. उस समय वह ज्यादा कुछ नहीं बोला. पर नीचे जा कर अपने पापा को फोन किया, ‘‘पापा मैं रिया दीदी को अपने साथ ला रहा हूं.’’

‘‘क्या बात हो गई. वह ठीक तो है न?’’

‘‘वह सब बातें वहीं आ कर होंगी पापा.’’

‘‘बेटा, आखिर कुछ कहो भी. हुआ क्या आखिर?’’

‘‘क्या कहूं. जीजाजी का जो रंग मैं ने यहां देखा… बस, कैसे बताऊं…’’

‘‘सुनो नकुल, मैं रात की फ्लाइट से आ रहा हूं. तब तक कुछ मत कहना.’’

वापस ऊपर बहन के पास आया तब तक अजय जा चुका था. रिया के ससुर नकुल के पास बैठे सामान्य दिखने की कोशिश कर रहे थे. शर्मिंदगी का स्याह रंग पुता था उन

के चेहरे पर. संभ्रांत परदे के पीछे छिपा बदरंग रूप सामने आ चुका था. इतना होने

पर भी रिया ने भाई की पसंद का खाना बनाया. पास बैठ कर मनुहार कर खिलाया. यह वही रिया थी, जिस से कोई ऊंची आवाज में कोई कुछ कह देता, तो रूठ जाती. खाना नहीं खाती थी. सहतेसहते शायद… संवेदना शून्य हो गई थी.

पापा शाम को आ कर होटल में रुके और फोन कर नकुल को बुलाया. उस ने जो कुछ हुआ सब बताया.

‘‘पापा, सुनने में मामूली बात लगेगी किंतु उस वक्त जीजाजी का जो रूप मैं ने देखा. मैं तो डर गया दीदी कैसे सहती होगी,’’ अनायास ही हाथ सूजे चेहरे पर चला गया. पापा ने भी देखा, सहलाया, फिर गंभीर हो गए.

दूसरे दिन नकुल रिया को घुमाने के बहाने होटल में ले आया. पापा को देख कर चौंकी थी रिया. पापा का उदास खिला चेहरा देख ग्लानि से भर उठी. उफ, उस दिन दरवाजा बंद होता, तो कम से कम यह सब न होता. किसी को कुछ पता नहीं चलता.

फिर नकुल की जिद के कारण पापा रिया के ससुर से और अजय से मिलने पहुंचे. इतने वर्षों में कभी किसी तरह का उलाहना न देने वाले और हमेशा बेहद विनम्रता व शालीनता से पेश आने वाले समधी ने जब नकुल के साथ औफिस में प्रवेश किया, तो दोनों बापबेटे सिटपिटा गए.

गंभीर व दृढ़ शब्दों में रिया के पापा ने 2 बातें सामने रखीं कि या तो रिया को यहां किसी काम में लगा कर व्यस्त रखा जाए या फिर वे उसे साथ दिल्ली ले जा कर कुछ करवाएंगे. वे नहीं चाहते कि लगातार के तनाव से उन की बेटी बिस्तर पकड़ ले.

न अजय का कोई दोष बताया न समधी को कोई उलाहना दिया. उन के ठहरे हुए शब्दों की गूंज ऐसी थी कि दोनों बापबेटे के पास एक विकल्प चुनने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं बचा था.

तब स्नातक के बाद की गई रिया की मौंटेसरी टै्रनिंग की ए.एम.आई. की डिगरी काम आई. नकुल और पापा ने जगह लेने से ले कर उसे व्यवस्थित करने, रजिस्टे्रशन करवाने, विज्ञापन देने, फर्नीचर बनवाने और अनेक छोटेबड़े काम वहीं रह कर अपनी देखरेख में पूरे करवाए. दोनों ने तय कर लिया था कि चाहे कितना भी समय लगे, रिया का स्कूल शुरू करवा कर ही जाएंगे.

‘‘दीदी, जानती हैं स्कूल का सारा खर्च मेरे ससुर ने दिया. अभी मेरे पास 150 बच्चे

हैं. सुबह 10 से 2 बजे तक मैं स्कूल में रहती हूं. घर की पूरी जिम्मेदारी निभाते हुए, मजे से स्कूल चला रही हूं. बच्चों के भोले चेहरे देख कर, उन की प्यारी बातें सुन कर मेरा सारा तनाव दूर हो जाता है.’’

‘‘अजय भी अब पहले की तरह नहीं चीखतेचिल्लाते. मेरे किसी काम में अब दखलंदाजी भी नहीं करते. एक मूक समझौता हो गया है. बस, ठहराव आ गया है, दीदी.’’

यानी कि आपसी प्रेम के बिना भी व्यस्तता व अपने होने की सार्थकता ने रिया को संयत कर दिया था. अलगाव या दूसरे रास्ते नए तरह का तनाव पैदा कर सकते थे. वैसे सभी के हिस्से में सारे सुख कहां होते हैं. जो नहीं बदल सकता था नहीं बदला.

मन पर लगे घाव बारबार चोट खा कर नासूर बन रहे थे. उन पर खूरंट आ गए थे. निशान तो थे ही, जो बीत गया वह लौट नहीं सकता था. बस, जो समय बचा था

उसे संवारा था उस ने, पर यह भी तब हुआ था, जब कांपती लौ को 2 हाथों की ओट

मिली थी. वरना झंझावतों के थपेड़ों से लौ बुझ ही जाती.

ये भी पढ़ें- तौबा- सुमित ने इश्क लड़ाने की आदत से कैसे की तौबा?

आग और धुआं- भाग 2: क्या दूर हो पाई प्रिया की गलतफहमी

उस पल मुझे निशा को अपने पति को छूना अच्छा नहीं लगा. सच तो यह है कि मुझे निशा ही अच्छी लगना बंद हो गई. पार्टी में मेरा उस से कई बार आमनासामना हुआ, पर मैं उस से सहज और सामान्य हो कर बातें नहीं कर पाई.

निशा को ले कर मेरे मन में पैदा हुआ मैल अमित की नजरों से ज्यादा दिन नहीं छिपा रहा. इस विषय पर एक शाम उन्होंने चर्चा छेड़ी, तो मैं ने कई दिनों से अपने मन में इकट्ठा हो रहे गुस्से व शिकायतों का जहर उगल दिया.

‘‘शादी हो जाने के बाद समझदार इनसान अपनी पुरानी सहेलियों से किनारा कर लेते हैं. अब आफिस में अलग से इश्क लड़ाने का चक्कर तुम खत्म करो, नहीं तो ठीक नहीं होगा,’’ मुझे बहुत गुस्सा आ गया था.

‘‘तुम मुझ पर शक कर रही हो,’’ अमित ने जबरदस्त सदमा लगने का नाटक किया.

‘‘मैं ही नहीं, इस बात का सच तुम्हारा पूरा आफिस जानता है.’’

‘‘प्रिया, तुम लोगों की बकवास पर ध्यान दे कर अपना और मेरा दिमाग खराब मत करो.’’

‘‘मेरे मन की सुखशांति के लिए तुम्हें निशा से किसी भी तरह का संबंध नहीं

रखना होगा.’’

‘‘तुम्हारे आधारहीन शक के कारण मैं अपने ढंग से जीने की अपनी स्वतंत्रता को खोने के लिए तैयार नहीं हूं.’’

‘‘निशा का आज से मेरे घर में घुसना बंद है और अगर तुम ने कभी उस के फ्लैट में कदम रखा, तो मैं यहां नहीं रहूंगी.’’

‘‘मुझे बेकार की धमकी मत दो, प्रिया. अगर तुम ने निशा के साथ कभी भी जरा सी बदतमीजी की तो मुझ से बुरा कोई न होगा.’’

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि तुम्हें निशा की ज्यादा और मेरी भावनाओं की चिंता कम है.’’

‘‘तुम यों आंसू बहा कर मुझे ब्लैकमेल नहीं कर सकती हो. इस विषय पर और आगे बहस नहीं होगी हमारे बीच. मैं तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा हूं.’’

‘‘मुझे अपने दिल की रानी मानते हो तो निशा से संबध तोड़ लो.’’

‘‘तुम्हारे जैसी बेवकूफ औरत से कौन मगज मारे,’’ गुस्से से आगबबूला हो कर अमित घर से बाहर चले गए.

मेरी इच्छा व भावना की कद्र करते हुए मेरे एक बार कहने पर अमित फौरन निशा से दूर हो जाएंगे, मेरी इस सोच को उन्होंने उस दिन गलत साबित किया. उन की जिंदगी में कोई दूसरी लड़की हो, यह बात मेरे लिए असहनीय थी. उन के दिल पर सिर्फ मेरा हक था. निशा के साथ संबंध समाप्त करने से इनकार कर के उन्होंने मुझे जबरदस्त झटका दिया था.

निशा का हमारे घर आना जारी रहा. मैं उस की उपस्थिति में नाराजगी भरा मौन साध लेती. उन का आपस में हंसनाबोलना असहनीय हो जाता तो सिरदर्द का बहना बना कर अपने शयनकक्ष में जा लेटती.

निशा का मेरे घर में अब स्वागत नहीं है, यह बात अपने हावभाव से स्पष्ट करने में मैं ने कोई कसर नहीं छोड़ी.

निशा पर तो मेरे इस मौन विरोध का खास प्रभाव नहीं पड़ा, पर अमित बुरी तरह से तिलमिला गए. निशा को ले कर हमारे बीच रोज लड़ाईझगड़ा होने लगा.

मुझे इस बात का सख्त अफसोस था कि इन झगड़ों से या मेरे आंसू बहा कर रोने से अमित अप्रभावित रहे. उन का अडि़यल रुख मेरी दृष्टि में उन के मन में चोर होने का सुबूत था. क्रोध और ईर्ष्या की आग में सुलगते हुए मैं रातदिन अपना खून जलाने लगी.

हमारे बीच जबरदस्त टकराव का यह खराब दौर करीब 2 महीनों तक चला. फिर अचानक मेरे मन को उदासी और निराशा के कोहरे ने घेर लिया.

मैं अपनेआप में सिमट कर जीने लगी. मशीनी अंदाज में घर का काम करती. अमित कुछ समझाने की कोशिश करते, तो मेरी समझ में कुछ न आता. तब या तो मैं थकेहारे से अंदाज में उठ कर घर के किसी अन्य हिस्से में चली जाती या मेरी आंखों से टपटप आंसू गिरने लगते. वे कभीकभी मुझे डांटते भी, पर मैं किसी भी तरह की प्रतिक्रिया दर्शाने की शक्ति अपने अंदर महसूस नहीं करती. सच तो यह है कि अमित का सान्निध्य ही मुझे अच्छा नहीं लगता.

मेरा स्वास्थ्य निरंतर गिरता देख मेरे मायके व ससुराल वाले बहुत चिंतित हो उठे. हमारे दांपत्य संबंध किसी निशा नाम की लड़की के कारण बिगड़े हुए हैं, इस तथ्य से वे पहले ही परिचित थे.

जब अमित को वे सब निशा से बिलकुल कट जाने की बात डांटफटकार के साथ समझाते तो मुझे बड़ा सुकून व सहारा मिलता.

मेरे ‘डिप्रैशन’ ने सब को हिला कर रख दिया. अमित पर निशा से दूर हो जाने के लिए जबदस्त दबाव बना. पहले की तरह वे किसी से बहस या झगड़े में तो नहीं उलझे, पर उन्होंने अपने को बेकुसूर कहना जारी रखा. निशा से वे सब संबंध समाप्त कर लेंगे, ऐसा आश्वासन भी कोई उन के मुंह से नहीं निकाल सका. उदासी के कोहरे को चीर कर यह तथ्य मेरे दिलोदिमाग में कांटे की तरह अकसर चुभता.

‘‘प्रिया को कुछ दिन के लिए हम घर ले जा रहे हैं,’’ मेरे मातापिता के इस प्रस्ताव का अमित ने एक बार भी विरोध नहीं किया.

‘‘मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा खराब वक्त कभी हमारे वैवाहिक जीवन में आएगा, प्रिया. तुम वह लड़की नहीं रहीं जिसे मैं ने हमेशा दिलोजान से ज्यादा चाहा. अपने मन में बैठे शक के बीज को जब तुम सदा के लिए जला कर राख करने को तैयार हो जाओ, तब मैं तुम्हें लेने चला आऊंगा. अपना ध्यान रखना,’’ विदा करते वक्त अमित की आंखों में मैं ने आंसू तो देखे, पर उन्होंने निशा से दूर होने का वादा मुंह से नहीं निकाला.

शादी के सिर्फ 4 महीने बाद मैं निराशा, दुखी और उदास हाल में अमित से दूर मायके रहने आ गई. मेरे घर वालों के साथसाथ जो भी मुझे से मिलने आता अमित को बुरा कहता. उन सब के सहानुभूति भरे शब्द मुझे बारबार रुलाते. यह भी सच है कि मेरी समस्या को हल करने का सार्थक सुझाव किसी के भी पास नहीं था.

अमित फोन पर मेरा हालचाल लगभग रोज ही पूछते. मैं अधिकतर खामोश रह कर उन की बातें सुनती. उन्होंने निशा के मामले में अपने को बेकुसूर कहना जारी रखा. उस से संबंध तोड़ने को वे अभी भी तैयार नहीं थे. ऐसी स्थिति में उन्हें समझाने के सारे प्रयास निरर्थक साबित होने ही थे.

मेरा डिप्रैशन धीरेधीरे दूर होने लगा. भूख खुली और नींद ठीक हुई, तो स्वास्थ्य भी सुधरा. मेरी संवेदनशीलता लौटी तो निशा को ले कर मन फिर से टैंशन का शिकार हो गया.

सफर की हमसफर: प्रिया की कहानी

romantic story in hindi

दूरियां: राहुल ने क्यों मांगी माफी

रविवार का दिन था. घंटी बजने की आवाज सुन कर मैं ने दरवाजा खोला. सामने समीर खड़ा था. वह पापा से मिलने आया था. आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका जा रहा था. पापा से बातचीत करने के बाद वह चला गया. यह बेहद खुशी की बात थी, पर पता नहीं मैं क्यों नहीं खुश हो रही थी. मैं नहीं चाहती थी कि समीर अमेरिका
जाए. वैसे तो समीर और मैं एकदूसरे को जानते थे और वह मुझे बहुत अच्छा भी लगता था. सब से खुशी की बात यह थी कि हम एक ही कालेज में पढ़ते थे. वह इस साल फाइनल ईयर का टौपर भी था. पापा भी उसी कालेज में प्रिंसिपल थे.

अमेरिका जाने से पहले समीर से एक बार मुलाकात हुई थी. वह बहुत खुश था. मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. मुझे ऐसा लग रहा था कि वह समझ जाए, पर वह नहीं समझा. पता नहीं, शायद समझ कर भी नासमझी दिखाई थी उस ने लेकिन प्यार कहां कुछ मांगता है, प्यार तो बस प्यार होता है.

वह बोल रहा था,”अरे नेहा, नाराज हो क्या?” मैं ने कहा,”नहीं,” तो उस ने अपने अंदाज में कहा,”अरे, मैं गया और अभी 2 साल में वापस आया. तब तक तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो.”

मैं ने कहा,”मुझे भूलोगे तो नहीं न?”

वह बोला,”क्या बात करती हो नेहा, तुम भी कोई भूलने की चीज हो. तुम मुझे हमेशा याद आओगी. पहले मैं उस लायक बन जाऊं कि सर से तुम्हारा हाथ मांग सकूं,” समीर की यही बातें मेरी उम्मीद को और पक्का कर गईं. एक उम्मीद ही तो होती है जो इंसान को जीने का हौसला देती है और जिस के बल पर वह बरसों जी सकता है.

एक नए जोश के साथ मैं फिर से पढ़ाई में बिजी हो गई. मेरा सैकंड ईयर पूरा हुआ. फिर फाइनल ईयर पूरा हुआ. मैं और पढ़ना चाहती थी. एक से एक अच्छे रिश्ते आ रहे थे पर मुझे शादी नहीं करनी थी. मैं पढ़ना चाहती थी. मुझे किसी तरह से समीर के आने तक का समय निकालना था. मैं मम्मी को बारबार बोल रही थी कि मुझे शादी नहीं करनी है. लेकिन पापा और सारे रिश्तेदारों का कहना था कि शादी समय पर हो जानी चाहिए, नहीं तो अच्छेअच्छे रिश्ते हाथ से चले जाते हैं. दादी उधर राग अलाप रही थीं,”बेटा, मेरे जाने से पहले शादी कर दे. नेहा को दुलहन बना देखना चाहती हूं फिर सुकून से जा सकूंगी.”

मैं ने कहा,”दादी, तुम्हें कुछ नहीं होगा, 2 साल मुझे और पढ़ लेने दो फिर तुम जिस से कहोगी उस से शादी कर लूंगी. मगर कोई मानने को ही तैयार नहीं था और न कोई मेरा सुनने वाला. मां मेरी बात को समझ सकती थीं पर उन की भी किसी ने नहीं सुनी.

मैं ने मम्मी से कहा,”मैं समीर से शादी करना चाहती हूं, तो मम्मी ने उलटा मुझे ही समझाया कि बेटा, वह अगर नहीं लौटा तो हम क्या करेंगे? उस ने वहां पर ही किसी से शादी कर ली तो तुम क्या करोगी? तुम इतने इंतजार के बाद क्या करोगी? मैं ने कहा कि ऐसा नहीं होगा और अगर ऐसा कुछ होता है तो मैं शादी हीं नहीं करूंगी. क्या लड़कियां अकेली नहीं रह सकतीं? अगर कोई लड़की पढ़ीलिखी हो, अपने पैरों पर खड़ी हो तो अकेली भी इस समाज से लड़ सकती है.

मां ने कहा,”नेहा, ऐसा नहीं है. समाज को क्या मुंह दिखाएंगे? हमारा समाज हजारों प्रश्न खड़ा करेगा. किसकिस को उत्तर देंगे और पापा और दादी तो सुनेंगे ही नहीं. उचित यही है कि तुम पापा और दादी की बात मान लो.”

फिर मैं ने पापा को मनाने की कोशिश की और कहा,”पापा, मैं 2 साल शादी नहीं करूंगी. मुझे पीजी कर लेने दो फिर मैं शादी करूंगी,” मैं ने किसी तरह से अपनी शादी 2 साल न करने के लिए पापा को राजी कर लिया. अपनी पढ़ाई पूरी की. बीचबीच में समीर से बातें होती रहती थीं. मैं ने पूछा कि कब आओगे समीर? तो उस ने अभी और 2 साल का वक्त मांगा. इतने दिन और रुकना असंभव था क्योंकि पापा रुकने वाले नहीं थे. उन्होंने अच्छा रिश्ता देख कर मेरी शादी तय कर दी. राहुल बहुत नेक इंसान थे. पढ़ेलिखे थे. मुझे शादी करनी पड़ी.

राहुल एक जानेमाने डाक्टर थे. उन को कई बार औपरेशन के लिए बाहर जाना पड़ता था. कभी दिल्ली, कभी मुंबई. वे रिसर्च के काम में भी व्यस्त रहते थे. मैं घर में अकेली बोर हो जाती थी. फिर मैं ने भी जौब करने का निर्णय ले लिया. धीरेधीरे 2 साल कब बीत गए पता भी नहीं चला. मैं जौब में मस्त रहने लगी और राहुल अपने काम में खूब बिजी रहते. कितनेकितने दिनों तक तो हम लोग मिलते भी नहीं थे. इस तरह हमारे आपस की दूरियां बढ़ती गईं. उसी समय समीर भी भारत लौटा था. मैं बहुत खुश थी. हम लोग आएदिन मिला करते थे. वह यहां एक कंपनी खोलना चाहता था. वह हर बात में मेरी राय लेता. कभीकभी मैं जब बहुत उदास हो जाती तो समीर को फोन करती. वह प्यार से मेरी बात सुनता और मुझे बोलता कि ज्यादा टैंशन मत लो. जो हुआ सो हुआ. हम अब एक अच्छे दोस्त तो बन कर रह ही सकते हैं न…

लेकिन पता नहीं मैं क्यों उस के दोस्ती को दोस्ती नहीं बना कर रखना चाहती थी. वह तो मेरा ख्वाब था. समीर को अपने पति के रूप में देखना चाहती थी. वह कभी भी मुझ से नाराज नहीं होता. मेरी बात को अच्छे से सुनता और मेरी फीलिंग्स भी समझता.

अब मैं ज्यादा खुश रहने लगी थी. मुझे औफिस के बाद उस का साथ बहुत अच्छा लगता था. शायद वह भी मेरे साथ अच्छा महसूस करता था. मेरा इंतजार शायद खत्म हुआ था, पर यह भी सच था कि मैं अब वह नेहा नहीं थी जिस पर समीर का पूरा अधिकार हो, फिर भी ऐसा कौन सा हमारे बीच में एक रिश्ता था जो हमें जुदा होने से रोकता था. मेरा भी एक घर था. मैं भी अपने दायरे को नहीं लांघ सकती थी. फिर भी समीर से अलग होना बहुत तकलीफ देता. समीर भी मेरा साथ चाहता था.

राहुल कभीकभी तो 2-3 दिनों के बाद घर लौटते थे. हां, उन का काम था, उन की प्रसिद्धि थी पर इन सब के बीच मैं भी तो थी. शायद इतने सब टैंशन के बीच वे मुझे समय ही नहीं दे पाते थे. उन्हें इस बात का दुख भी था लेकिन वे अपने काम के आगे कुछ भी सोच नहीं पाते थे. मैं भी कुछ पल उन के साथ बिताना चाहती थी. कुछ अपने मन की बात उन्हें बोलना चाहती थी लेकिन वे सुनना ही नहीं चाहते थे. फिर दिनोंदिन दूरियां बढ़ती गईं. मैं ने जौब छोड़ दिया था और समीर के साथ ही काम करने लगी थी. समीर के साथ बिताए लम्हों को याद कर के बस उस में ही खोई रहती.

कई बार जब राहुल घर में रहते थे तब वे मेरा साथ चाहते थे लेकिन मैं अपने काम में व्यस्त रहती थी. मेरी और समीर की दोस्ती का उन को पता चल गया था. वे नहीं चाहते थे कि मैं समीर के साथ काम करूं. मैं सोचती थी कि राहुल खुद डाक्टर हैं लेकिन घर में रहने वाले मरीज को ही नहीं देख पाए कि उस की बीमारी क्या है? अब वे मेरा साथ चाहते थे, मुझे खुशियों से भर देना चाहते थे. मगर जिंदगी एक ऐसे मोड़ पर खड़ी थी कि मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं और क्या नहीं…

समीर से मिलनाजुलना अब राहुल को पसंद नहीं था. एक दिन समीर अमेरिका चला गया. मैं समझ नहीं पाई कि उस ने ऐसा क्यों किया. उस का मैसेज आया था, जिस में उस ने लिखा था,’नेहा, जब कभी जिंदगी में किसी चीज का सल्यूशन नजर न आए तब शायद दूरियां बनाना ही उचित होता है. दुख तो बहुत होता
है, लेकिन जो भी होता है सब के लिए अच्छा होता है और हम को जो रास्ता दिखता है वह सही जगह पहुंचाता है. इसलिए कभीकभी दूरियां भी बहुत कुछ दे जाती हैं…’

मैं मायूस हो कर रास्ते से घर लौट रही थी. तभी राहुल का फोन आया,”तुम जल्दी घर आ जाओ. मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं.”

घर जा कर देखा तो उन्होंने मेरे लिए एक नईनवेली दुलहन जैसा घर सजा रखा था. मुझे देखते ही अपने आगोश में ले कर कहने लगे,”नेहा, मुझे अपने रिसर्च के लिए बैस्ट अवार्ड मिला है और सब तुम्हारी ही वजह से है. तुम नहीं होतीं, तो शायद मैं यह नहीं कर सकता था. यह अवार्ड तुम्हारे लिए है…”

मैं मन ही मन सोच रही थी कि यह मैं क्या कर रही थी? समीर मेरा अतीत था मगर राहुल मेरा वर्तमान. उस दिन उन्होंने मुझे रानी की तरह रखा. जब हम सोने के लिए गए तो हमारे बीच में एक अलग ही रिश्ता था. पता नहीं, कौन किस का गुनहगार था. राहुल ने कहा,” नेहा, मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया. प्लीज, मुझे माफ कर दो. यह सब तुम्हारे लिए ही था. आज से हमारी नई जिंदगी होगी और हर खुशी तुम्हारी होगी और सच, उस दिन हम दोनों सही रीती से एकदूसरे के हो गए. अब तो जिंदगी में खुशियां ही खुशियां थीं. जल्दी ही घर में फूल खिलने वाला था जो हमारी खुशियों को और चार चांद लगाने वाला था. कभीकभी समीर का फोन आता था. लेकिन अब हम एक दोस्त की तरह थे. उस ने अच्छी दोस्ती निभाई थी और एक अच्छे दोस्त की तरह मुझे संभाला और सही रास्ता दिखाया था. अब मैं अपनी जिंदगी से खुश थी. समीर को ले कर कभीकभी सोचती हूं कि कुछ लोग जिंदगी में आते हैं और सही राह दिखा जाते हैं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें