अंतर्दाह

लेखिका- कृतिका गुप्ता

अलका यानी श्रीमती रंजीत चौधरी से मेरा परिचय सिर्फ एक साल पुराना है, पर उन के प्रति मैं जो अपनापन महसूस करता हूं, वह इस परिचय को पुराना कर देता है. आज अलकाजी जा रही हैं. उन के पति रंजीत चौधरी नौकरी से रिटायर हो गए हैं इसलिए अब वह सपरिवार अपने शहर इलाहाबाद वापस जा रहे हैं.

मैं उदास हूं, उन से आखिरी बार मिलना चाहता हूं पर हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हूं. उन्हें जाते हुए देखना मेरे लिए कठिन होगा फिर भी मिलना तो है ही. यही सोच कर मेरे कदम उन के घर की ओर उठ गए.

मैं जितने कदम आगे को बढ़ाता था मेरा अतीत मुझे उतना ही पीछे ले जाता था. आखिर मेरे सामने वह दिन आ ही गया जब मैं पहली बार चौधरी साहब के  घर गया था. वैसे मेरा श्रीमती चौधरी से सीधे कोई परिचय नहीं था, मेरा परिचय तो उन के घर रह कर पढ़ने वाले उन के भतीजे प्रभात से था.

मैं स्कूल में अध्यापक था, अत: प्रभात ने मुझे अपनी चाची के बच्चों को पढ़ाने के काम में लगा दिया था. इसी सिलसिले में मैं उन के घर पहली बार गया था. दरवाजा प्रभात के चाचा यानी चौधरी साहब ने खोला था.

सामान्य कद, गोरा रंग, उम्र कोई 55 साल, सिर पर बचे आधे बाल जोकि सफेद थे और आंखें ऐसी मानो मन के भीतर जा कर आप का एक्सरे उतार रही हों. प्रभात से अकसर उस की चाची की जो तारीफ मैं ने सुनी थी उस से अंदाजा लगाया था कि उस की चाची बहुत प्यारी और ममतामयी महिला होंगी.

चौधरी साहब ने प्रभात के साथसाथ अपने बच्चों गौरवसौरभ को भी बुलाया, साथ में आई एक बहुत ही खूबसूरत महिला.

प्रभात ने बताया कि यह उस की चाची हैं. मैं चौंक पड़ा. मैं ने उन्हें ध्यान से देखा. लंबा कद, गोरा रंग, छरहरा बदन, आकर्षक चेहरे पर स्मित मुसकान और उम्र रही होगी कोई 30-32 साल. अगर प्रभात मुझे पहले न बताता तो मैं उन्हें चौधरी साहब की बेटी ही समझता.

पहली बार उन्हें देख कर उन के प्रति एक अजीब सी दया और सहानुभूति का भाव मेरे मन में उमड़ आया था. और उमड़ भी क्यों न आता, 30 साल की खूबसूरत महिला को 55 साल के आदमी की पत्नी के रूप में देखना, इस के अलावा और क्या भाव ला सकता था.

मुझे उन के बच्चों को पढ़ाने का काम मिल गया. मैं हर दोपहर, स्कूल के बाद उन्हें पढ़ाने के लिए जाने लगा था. उस समय चौधरी साहब आफिस गए होते थे और प्रभात कालिज.

ये भी पढ़ें- आत्मबोध: क्या हुआ था सुनिधि के साथ

बच्चों को पढ़ाते समय वह अकसर मेरे लिए चायनाश्ता दे जाया करती थीं. पहली बार मैं ने मना किया तो वह बोली थीं, ‘कालिज से सीधे यहां पढ़ाने आ जाते हो, भूख तो लग ही आती होगी. थोड़ा खा लोगे तो तुम्हारा भी मन पढ़ाने में ठीक से लगने लगेगा.’

मैं ने फिर कभी उन का चायनाश्ते के लिए प्रतिवाद नहीं किया था.

श्रीमती चौधरी बहुत ही स्नेही और लोकप्रिय महिला थीं. मुझे उन के घर अकसर उन की कोई न कोई पड़ोसिन बैठी मिलती थी, कभी किसी व्यंजन की रेसिपी लिखती तो कभी कोई नया व्यंजन चखती.

एक बार उन्होंने मुझ से कहा था, ‘तुम मुझे बारबार श्रीमती चौधरी कह कर यह न याद दिलाया करो कि मैं रंजीत चौधरी की पत्नी हूं. तुम मुझे अलका कह कर बुला सकते हो.’ तब से मैं उन्हें अलकाजी ही कहने लगा था.

एक रोज मैं ने उन से पूछा, ‘अलकाजी, आप की शादी आप से दोगुने उम्र के इनसान से क्यों हुई?’ मेरे इस सवाल के जवाब में उन्होंने जो कुछ कहा उसे सुन कर मैं झेंप सा गया था. वह बोली थीं, ‘यह शर्मिंदा होने की बात नहीं है, जो सच है वह सच है. मैं एक छोटे से गांव की रहने वाली हूं. मैं तब बहुत छोटी थी, जब मेरे मांबाप गुजर गए थे. मेरे चाचाचाची ने मुझे पालापोसा था. उन्होंने ही मेरी शादी चौधरी साहब से तय की थी. उन्होंने यह तो देखा कि लड़का अच्छी नौकरी में है, अच्छा घर है पर यह नहीं देखा कि वह मुझ से उम्र में कितना बड़ा है और तब मैं इतनी समझ भी नहीं रखती थी कि इस का विरोध कर सकूं.

‘तुम यह भी कह सकते हो कि मुझ में विरोध कर सकने की हिम्मत ही नहीं थी. अपनी किस्मत समझ कर मैं ने इसे स्वीकार कर लिया था. फिर जब मेरे जीवन में गौरवसौरभ आ गए तो लगा कि मुझे फिर से जीने का मकसद मिल गया है और अब तो इतना समय बीत गया है कि मुझे लोगों की घूरती निगाहों, पीठपीछे की कानाफूसी, इस सब की आदत हो गई है.

‘हां, बुरा तब लगता है जब लोग मेरे और प्रभात के रिश्ते पर उंगलियां उठाते हैं. तुम्हीं कहो, अनुपम, क्या मैं इतनी गिरी हुई लगती हूं कि अपने रिश्ते के बेटे के साथ…छी, मुझे तो सोच कर भी शरम आती है. फिर लोग कहते हुए क्यों नहीं झिझकते? तो क्या उन का चरित्र मुझ से भी गयाबीता नहीं है? प्रभात को मैं ने सदा अपना बड़ा बेटा, गौरवसौरभ का बड़ा भाई समझ कर ही स्नेह दिया है.’

इतना कहते हुए उन की आंखों में छलक आई दो बूंदों को मैं ने देख लिया था, जिसे वह जल्दी से छिपा गई थीं. मैं जानता था कि उन के महल्ले में श्रीमती चौधरी और प्रभात को ले कर तरहतरह की बातें कही जाती थीं. कोई कहता कि उन का रिश्ता चाचीभतीजे से बढ़ कर है, कोई कहता, प्रभात उन का पे्रमी है. जितने मुंह उतनी बातें होती थीं.

लोग मुझ से भी पूछते थे, ‘तुम से श्रीमती चौधरी कैसा व्यवहार करती हैं?’ मैं झुंझला जाता था. कभी तो इतना गुस्सा आता था कि जी करता एकएक को पीट डालूं. पर कभीकभी मैं खुद इन्हीं बातों को सोचने के लिए मजबूर हो जाता था.

श्रीमती चौधरी, प्रभात को बहुत महत्त्व देती थीं. हर एक बात पर उस की राय लेती थीं, कभीकभी तो चौधरी साहब की बात को भी काट कर वह प्रभात की ही बात मानती थीं.

कभीकभी मैं सोचने लगता कि यह कैसा रिश्ता है उन दोनों का? पर फिर मुझे लगता कि अगर अलका चौधरी 30 साल की न हो कर 50 साल की होतीं और प्रभात से ऐसा ही बरताव करतीं तो शायद सब उन्हें ममतामयी मां कहते. पर आज वह किसी और ही संबोधन से जानी जाती थीं.

आज मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए थे. मैं ने अलकाजी से कहा, ‘मैं आज तक आप को सिर्फ पसंद करता था, पर अब मैं आप का आदर भी करने लगा हूं. जो आप ने किया वह करना सच में सब के बस की बात नहीं है.’

ये भी पढ़ें- नास्तिक बहू: नैंसी के प्रति क्या बदली लोगों की सोच

उस दिन मैं ने एक नई अलका को जाना था, जो अकारण ही मुझे बहुत अच्छी लगने लगी थीं. मैं उन के आकर्षण में खोने लगा था, जिसे मैं चाह कर भी रोक नहीं पा रहा था. मैं जानता था कि वह शादीशुदा हैं और 2 बच्चों की मां हैं, पर इस से मेरी भावनाओं के आवेगों में कोई कमी नहीं आ रही थी. वह मुझ से उम्र में 4-5 साल बड़ी थीं फिर भी मैं अपनेआप को उन के बहुत करीब पाता था.

वह भी मेरा बहुत खयाल रखती थीं. कभीकभी तो मुझे लगता था कि वह भी मुझे पसंद करती हैं. फिर अपनी ही सोच पर मुझे हंसी आ जाती और मैं इस विचार को अपने मन से परे धकेल देता.

वक्त अपनी गति से बीत रहा था. शरद ऋतु के बाद अचानक ही कड़ाके की ठंड पड़ने लगी थी. मैं बैठा बच्चों को पढ़ा रहा था. उस दिन चौधरीजी भी घर पर ही थे. अलकाजी मुझे नाश्ता देने आईं तो मैं ने पाया कि उन के बालों से पानी टपक रहा था, वह शायद नहा कर आई थीं. भरी ठंड में शाम ढले उन का नहाना मुझे विचलित कर गया. मैं कुछ सोचता उस से पहले ही मेरे कानों में चौधरीजी की आवाज पड़ी, ‘इतनी ठंड में नहाई क्यों?’

अलकाजी ने जवाब दिया, ‘जो आग बुझा नहीं सकते उसे भड़काते ही क्यों हैं? इस जलन को पानी से न बुझाऊं तो क्या करूं?’

चौधरीजी ने क्या जवाब दिया मैं सुन नहीं पाया, शायद उन्होंने टेलीविजन चला दिया था. अगले दिन जब मैं उन के घर पहुंचा तो गौरवसौरभ पड़ोस के घर खेलने गए हुए थे. वह मुझ से बोलीं, ‘तुम बैठो, मैं तुम्हारे लिए चाय लाती हूं.’

वह जाने को मुड़ीं तो मैं ने उन का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘आप बैठो जरा.’

फिर मैं ने उन्हें बिठा कर पानी का गिलास थमाया, जिसे वह एक ही सांस में पी गईं. मैं ने उन से पूछा, ‘आप ठीक तो हैं, अलकाजी? आप की आंखें इतनी लाल क्यों हैं? और यह आप के चेहरे पर चोट का निशान कैसा है?’

मेरी बात सुनते ही वह फफक कर रो पड़ीं. मैं इस के लिए तैयार नहीं था. समझ नहीं पाया कि क्या करूं, उन्हें रोने दूं या चुप कराऊं? फिर कुछ पल रो लेने के बाद उन की आंखों से बरसाती बादल खुद ही तितरबितर हो गए. वह कुछ संयत हो कर बोलीं, ‘परेशान कर दिया न तुम्हें?’

‘कैसी बातें कर रही हैं?’ मैं ने कहा, ‘आप बताएं, आप परेशान क्यों हैं?’ वह बुझे स्वर में बोलीं, ‘तुम नहीं समझ पाओगे, अनुपम?’ मैं ने थोड़ा रुक कर कहा, ‘अलकाजी मैं ने कल आप की और चौधरीजी की सारी बातें सुन ली थीं.’

अलकाजी ने मुझे चौंक कर ऐसे देखा मानो मैं ने उन्हें चोरी करते रंगेहाथों पकड़ लिया हो. वह एक बार फिर सिसक उठीं.

मैं ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा, ‘अलकाजी, परेशान या दुखी होने की जरूरत नहीं. आप मुझ पर भरोसा कर सकती हैं. अगर चाहें तो मुझ से बात कर सकती हैं, इस से आप का मन हलका हो जाएगा. पर आप ने बताया नहीं, यह चोट…क्या आप को किसी ने मारा है?’

अलकाजी ने व्यंग्य से होंठ टेढ़े करते हुए कहा, ‘चौधरी साहब को लगता है कि पड़ोस में रहने वाले श्रीवास्तवजी से मेरा कुछ…’

उन की बात सुन मैं ने सिहर कर पूछा, ‘वह ऐसा कैसे सोच सकते हैं?’

‘वह कुछ भी सोच सकते हैं अनुपम. किसी 56 साल के पुरुष की पत्नी अगर जवान हो तो वह उस के बारे में कुछ भी सोच सकता है.’ श्रीवास्तवजी तो फिर भी ठीक हैं, वह तो दूध वाले तक के लिए मुझ पर शक करते हैं.’

अलकाजी की बातें सुन कर मैं चौधरीजी के प्रति घृणा से भर उठा, ‘आप उन्हें समझाती क्यों नहीं?’ वह झुंझला कर बोलीं, ‘क्या समझाऊं और कब तक समझाऊं? हमारी शादी को 9 साल हो गए हैं. 2 बच्चे हैं हमारे, फिर भी वह मुझ पर शक करते हैं. मैं ही क्यों बारबार अपनी पवित्रता का सुबूत दूं, क्यों मैं ही अग्निपरीक्षा से गुजरूं? क्या मेरा कोई आत्मसम्मान नहीं है?’

उन की बातों ने मुझे झकझोर डाला था. मैं अब तक यही समझता था कि वह एक सुखी गृहस्थी की मालकिन हैं पर आज जब मैं ने उन की हंसती हुई दुनिया का रोता हुआ सच देखा तो जाना कि वह कितनी अकेली और परेशान हैं.

देखतेदेखते एक साल बीत गया. गौरवसौरभ की परीक्षाएं हो चुकी थीं और अब उन्हें मेरी जरूरत न थी. फिर भी मैं किसी न किसी बहाने अलकाजी से मिलने चला ही जाता था. जब कभी प्रभात से मुलाकात होती तो वह कहता, ‘आप को चाचीजी पूछ रही थीं.’

ये भी पढ़ें- परिवार: क्या हुआ था सत्यदेव के साथ

बस, इतनी सी बात का सूत्र पकड़ कर मैं उन के घर पहुंच जाता. पर मन में कहीं एक डर भी था कि कहीं मेरा अधिक आनाजाना अलकाजी के लिए किसी परेशानी का कारण न बन जाए.

फिर एक दिन मुझे प्रभात मिला. उस ने मुझे बताया कि हम सब यह शहर छोड़ कर हमेशाहमेशा के लिए अपने शहर इलाहाबाद जा रहे हैं. मैं चौंक पड़ा, यह खबर मेरे लिए बहुत ही अप्रत्याशित और तकलीफदेह थी.

अतीत की पगडंडियों पर चलतेचलते मैं अलकाजी के दरवाजे तक पहुंच चुका था. हिम्मत कर मैं ने दरवाजा खट- खटाया, दरवाजा अलकाजी ने ही खोला. मुझे देख कर उन की आंखों में एक अनोखी सी खुशी तैर गई थी जिसे छिपाती हुई वह बोलीं, ‘‘अनुपम, आओआओ? मिल गई फुरसत आने की?’’

मैं ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘यह शिकायत किसलिए? शिकायत तो मुझे करनी चाहिए थी कि आप जा रही हैं मुझे छोड़ कर…मेरा मतलब हमारा शहर छोड़ कर?’’ अंदर घुसते ही मैं ने देखा, बैठक का सारा सामान खाली हो चुका था, सिर्फ दीवान पड़ा था. मैं ने बैठते हुए कहा, ‘सामान से खाली घर कैसा लगता है न?’

ठीक वैसा ही जैसा भावनाओं और संवेदनाओं से खाली मन लगता है,’’ अलकाजी ने अर्थ भरे नयनों से देखते हुए कहा. बात की गंभीरता को कम करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘सब लोग कहां हैं?’’

‘‘प्रभात, बच्चों को ले कर आज ही गया है. थोड़ी पैकिंग बाकी है, जिसे पूरा कर के मैं और चौधरीजी भी कल निकल जाएंगे,’’ अलकाजी ने बताया. फिर कुछ रुक कर अपने पैर के अंगूठे से फर्श कुरेदती हुई बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ अनुपम, जो तुम आज आ गए. बहुत इच्छा थी आखिरी बार तुम से मिलने की.’’

मैं ने उत्सुक हो कर पूछा, ‘‘क्यों, कोई खास काम था क्या मुझ से?’’

‘‘काम…काम तो कुछ नहीं था, पर कुछ है जो तुम्हें बताना शेष रह गया था. न बताऊंगी तो जीवन भर मन ही मन उन्हीं बातों से घुटती रहूंगी.

‘‘तुम जानना चाहते हो कि मैं यहां से क्यों जा रही हूं? डरती हूं कि जिस आग को अब तक अपने मन में दबा कर रखा था वह मुझे ही न जला डाले. अनुपम, मैं यह तो जानती हूं कि तुम मुझ से प्यार करते हो पर शायद तुम नहीं जानते कि मैं भी तुम से प्यार करने लगी हूं.’’

उन की यह बात सुन कर मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा था. अपने प्यार की स्वीकृति मिलते ही मेरा मन अचानक उन्हें अपनी बांहों में लेने को मचल उठा. मैं ने तरल निगाहों से उन की ओर देखा, अलका के होंठ खामोश थे पर उन में उठता कंपन बता रहा था कि वे प्रतीक्षित हैं.

मैं अपनी जगह से उठ कर उन की ओर बढ़ा ही था कि उन्होंने कहा, ‘‘अब तक तो चौधरीजी को शक ही था पर डरती हूं कि मेरे मन में फूट आई तुम्हारे प्यार की कोंपल, उन का शक यकीन में न बदल दे, इसीलिए यहां से पलायन कर रही हूं क्योंकि यहां रहते हुए मैं खुद को तुम से मिलने से रोक नहीं पाऊंगी. और अगर ऐसा हुआ तो मेरी अब तक की सारी तपस्या और आत्मसम्मान मिट्टी में मिल जाएगा. तुम्हें यह सब बताना जरूरी भी था क्योंकि इस अनकहे प्यार का अंतर्दाह अब मुझ से और सहन नहीं हो रहा था.’’

इतना कह कर वह चुप हो मेरी ओर देखने लगीं. उन की बातें सुन कर मैं उन के पास गया और उन का चेहरा अपने हाथों में ले कर माथा चूम कर बोला, ‘‘आप का आत्मसम्मान और प्यार दोनों ही मेरे लिए सहेजने और पूजा करने के योग्य हैं. आप से दूर होना मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा है, पर शायद यही सही है. यह अंतर्दाह हमारी नियति है.’’

ये भी पढ़ें- रोशनी की आड़ में: क्या हुआ था रागिनी की चाची के साथ

उसी दहलीज पर बार-बार: क्या था रोहित का असली चेहरा

family story in hindi

जेल में है रत्ना: प्रखर की शादी के बाद क्या हुआ मां का

समाचार को जब विस्तार से पढ़ा तो मेरे पांव के नीचे से जमीन खिसक गई. डा. रत्ना गुप्ता ने अपनी बहू डा. निकिता को जहर दे कर मारने की कोशिश की क्योंकि वह कम दहेज लाई थी और समाचार लिखे जाने तक निकिता नर्सिंग होम में भरती थी. मेरी रत्ना जेल में, ऐसी तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी. उच्च शिक्षित और डिगरी कालिज की प्रवक्ता बहू, खुद रत्ना मेडिकल कालिज में गायनियोलोजिस्ट है और बेटा अभी 3 साल पहले चेकोस्लोवाकिया विश्वविद्यालय में हेड आफ डिपार्टमेंट हो कर गया है. एक साधनसंपन्न घर में जितना कुछ होना चाहिए वह सबकुछ तो है. फिर दोनों तरफ का परिवार पढ़ालिखा सभ्य व प्रतिष्ठित है. ऐसे में दहेज के लिए हत्या करने का प्रयास करने की रत्ना को क्या जरूरत थी.

हां, इतना तो मुझे भी पता था कि बेटे के विवाह के बाद वह काफी बीमार रही थी और उसे कई महीने छुट्टी पर रहना पड़ा था. लेकिन अब तो सबकुछ ठीक था.

मेरे मुंह से अनायास निकल गया, ‘बड़ी बदनसीब है तू रत्ना,’ ‘‘10 साल पहले एक कार दुर्घटना में पति का देहांत हो गया था. तब भी वह बड़ी मुश्किल से संभल पाई थी. मैं बच्चों के भविष्य की दुहाई देदे कर किसी प्रकार इस हादसे से उसे उबार सकी थी.

बेटी गरिमा को कंप्यूटर इंजीनियर बनाया और एक इंजीनियर लड़के से विवाह किया. अकेले ही सारी जिम्मेदारियां निभाती रही वह. ससुराल में था ही कौन? पति के 2 भाई थे. एक की मौत हो गई और दूसरा कब का विदेश में बस चुका था. बेटी गरिमा के विवाह में बतौर मेहमान आया था.

चाचा की शह पर ही प्रखर को भी विदेश जाने की धुन सवार हो गई. अपने सुख में वह यह भी भूल गया कि अकेली मां यहां किस के सहारे रहेगी. प्रखर के विवाह के बाद तो रत्ना के जीवन में जैसे ठहराव सा आ गया. अब किस के लिए क्या करना है?

समय काटने के लिए कोई न कोई बहाना तो चाहिए ही. घर में कब तक बंद रहा जा सकता है? रत्ना ने क्लब ज्वाइन कर लिया. शामें वहीं बीतने लगीं. बेटी की तरफ से बेफिक्र, लेकिन अब तो बेटी गरिमा और बेटे प्रखर के नाम भी वारंट थे जो घटना के समय दूसरे मुल्कों में बैठे थे.

ये भी पढ़ें- झूठा सच: पत्नी आशा से क्यों नफरत कर बैठा ओम

किस से बात करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था. अपनी असहायता और सखी की मुसीबत पर रोने के अलावा और कुछ भी नहीं बचा था. उस के बारे में तरहतरह की कल्पना कर मेरी बुद्धि भी मारे घबराहट के कुंठित हो चली थी. भूल गई कि बचपन की सहेली है तो मायके से ही पता कर लूं.

स्मृतिपटल पर बचपन की ढेरों बातें घूम गईं. साथसाथ पढ़ना, खेलना, खाना, झगड़ना, रूठना, मनाना और बड़ी क्लास में आने पर एकदूसरे से अधिक अंक लाने की होड़ में लाइब्रेरी में बैठ कर किताबों को चाटना.

ज्योंज्यों हम आगे बढ़ते गए हमारे रास्ते अलग होते गए. इंटर के बाद हम ने सी.पी.एम.टी. की परीक्षा दी. रत्ना उत्तीर्ण हुई और मैं अनुत्तीर्ण. मैं ने बी.एससी. में दाखिला ले लिया और वह पढ़ने बाहर चली गई. मैं ने बी.एससी. के बाद बी.एड. किया और फिर शादी हुई तो घरेलू औरत बन गई. रत्ना डा. रत्ना बनने के बाद अपने एक सहयोगी डाक्टर के साथ ही विवाह बंधन में बंध गई.

इस सब से दोनों सखियों की अंतरंगता में कोई अंतर नहीं आया. जब भी हम मिलते बीते समय की जुगाली करते रहते. वह अपने मरीजों को भूल जाती और मैं अपने घरपरिवार के दायित्वों को. यह बात हमारे पति भी जानते थे. इसीलिए हमारी बातचीत में कोई व्यवधान न डाल वे हमारे उत्तरदायित्वों को खुद संभाल लेते थे.

ऐसे ही हंसीखुशी समय गुजरता रहा और हम उम्र की सीढि़यां चढ़ते दादीनानी सभी बन बैठे. जब भी मिलते एकदूसरे से पूछते कि दादीनानी बन कर कैसा लग रहा है? इस सवाल पर रत्ना कहती, ‘यार, मुझे तो लगता ही नहीं कि मैं इतनी बड़ी हो गई हूं. मेरे मन में तो आज भी कालिज की मौजमस्ती घूमती रहती है.’

‘हाल तो मेरा भी यही है, रत्ना. जब बच्चे अम्मांजी और नानीमां कहते हैं तो लगता है जबरदस्ती किसी सुरंग में घसीटा जा रहा है.’

अपनी अंतरंग सहेली के परिवार में गुपचुप ऐसा क्या घुन लग गया कि उसे जेल तक ले पहुंचा. अब पूछूं भी तो किस से? ध्यान आया कि रत्ना के भाई से पूछूं और डायरी में उन का फोन नंबर ढूंढ़ कर उन्हीं से जेल का पता ले मिलने जेल जा पहुंची.

पहले तो हम गले मिल कर खूब रोईं फिर मैं ने शिकायत की, ‘‘तू ने मुझे इस लायक समझना बंद कर दिया है कि अपना सुखदुख भी बांट सके और अकेले यहां तक पहुंच गई. क्या हुआ कुछ तो बता?’’

‘‘कुछ हुआ हो तो बताऊं? बहूबेटे के ईगो की लड़ाई है. प्रखर अपना विदेश जाने का अवसर छोड़ना नहीं चाहता था और बहू अपनी स्थायी नौकरी छोड़ कर साथ जाना नहीं चाहती थी. उस का कहना था कि मैं तुम्हारे लिए अपनी नौकरी क्यों छोड़ूं, तुम्हीं मेरे लिए विदेश का आफर ठुकरा दो.’’

पिछले 1 साल से मायके में रह रही है. पढ़ीलिखी समझदार है. अपना भलाबुरा समझती है. इतना तो मांबाप भी समझा सकते थे. प्रखर ने तो निकिता का वीजा भी बनवा लिया था. अब नहीं जाना चाहती तो मैं क्या कर सकती हूं. इसी खीज में उन्होंने प्रखर पर दूसरी शादी का आरोप लगाया है. दोनों की ईगो में मैं मारी गई क्योंकि प्रखर मेरा बेटा है और मैं ही उन्हें आसानी से उपलब्ध भी हूं.

ये भी पढ़ें- श्रद्धांजलि: क्या था निकिता का फैसला

‘‘पता नहीं निकिता के मन में क्या है? कई बार समझाना चाहा. जब भी बात करती उस का उत्तर होता. ‘मम्मीजी, आप हमारे बीच में न ही बोलें तो अच्छा होगा.’

‘‘‘क्या तुम दोनों मेरे कुछ लगते नहीं? क्या इस ईगो की लड़ाई के लिए ही शादी की थी? यह तो तुम्हें शादी से पहले ही सोचना चाहिए था? तुम दोनों अलगअलग रहते हो तो क्या मुझे दुख नहीं होता?’

‘‘‘दुख होता तो आप प्रखर को समझातीं. सोचने और समझौता करने का काम क्या सिर्फ इसलिए मेरा है कि मैं पत्नी हूं.’

‘‘वह फिर मुझे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने की कोेशिश करती.

‘‘‘प्रखर के विदेश जाने पर यहां आप का है ही कौन? आप अकेले किस के सहारे रहेंगी?’

‘‘‘तुम मेरी चिंता छोड़ो. मैं तो अपना वक्त काट लूंगी…इतने समय से नौकरी की है रिटायर हो कर ही निकलूंगी.’

‘‘‘जब आप को अपनी नौकरी से इतना मोह है तो मुझे भी तो है,’ और वह पैर पटकती उठ कर चली जाती.

‘‘उस के पापा भी बेटी को समझाने के बजाय उस का पक्ष लेते हैं और कहते हैं, ‘प्रखर को यदि निकिता को अपने साथ नहीं रखना था तो विवाह ही क्यों किया.’

‘‘‘आप ऐसा कैसे समझते हैं?’

‘‘‘और क्या समझूं? लोग तो अपनी पत्नियों के लिए जाने क्याक्या करते हैं? वह विदेश से लौट कर यहां नहीं आ सकता? उस के आने से आप को भी सहारा होगा.’

‘‘‘बात मेरे सहारे की नहीं उस के कैरियर की है.’

‘‘‘तो बनाता रहे वह अपना कैरियर. मैं भी बताऊंगा उसे कि मैं क्या हूं. मेरी बेटी  का जीवन बरबाद कर के आप का बेटा सुखी नहीं रह सकता.’

‘‘मैं ने उन की धमकी पर ध्यान नहीं दिया. महज गीदड़ भभकी समझा. बस, यहीं गलती की मैं ने. यदि यह सारी बातें गंभीरता से ली होतीं और एक पत्र एस.एस.पी. के यहां लगा दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता.’’

सुन कर दुख हुआ मुझे कि किस प्रकार लोग कानून का दुरुपयोग कर रहे हैं. वकील, डाक्टर सब नोटों के सामने कैसेकैसे हाथकंडे अपनाकर बेकुसूरों को फंसाते हैं.

‘‘क्या करूं मैं तेरे लिए जो तू बाहर आ सके,’’ उस के कंधे पर हाथ रख कर शब्दों में अपनापन समेट कर मैं ने कहा.

‘‘निकिता के पापा ऊंची पहुंच वाले आदमी हैं. सोचते हैं कि एक अकेली विधवा औरत उन का क्या बिगाड़ सकती है. उन्हीं की वजह से जमानत नहीं हो पा रही है, अब तो शायद हाईकोर्ट से ही होगी.’’

‘‘और प्रखर?’’

‘‘इस कांड का पता प्रखर को चल गया है. वह आना भी चाहता है पर आने से क्या फायदा? आते ही गिरफ्तार हो जाएगा. मैं ने ही उसे मना कर दिया है कि वह बाहर रह कर ही अपनी और मेरी जमानत का प्रयास करे.’’

‘‘अच्छा, मुझे बता, मेरी कहां जरूरत है?’’

‘‘अभी तेरी जरूरत कहीं नहीं है. वकील सब देख रहा है.’’

आश्वस्त हुई सुन कर और मिल कर. हर रोज मैं जेल जाती रही. कभी फल, कभी बिस्कुट और कभी खाना ले कर. मुझे देख कर रत्ना की आंखें भर आतीं, ‘‘कितना कष्ट दे रही हूं तुझे.’’

‘‘सचमुच तेरी दशा देख कर मुझे कष्ट होता है. क्या अब ऐसा ही समय आ गया है कि बहूबेटे के झगड़े में बेचारी सास को जेल जाना पड़ेगा.’’

‘‘हां, मैं ने सोचसमझ कर यही निष्कर्ष निकाला है कि विवाह के बाद बेटाबहू को अलग रहने दो. कम से कम उन के मनमुटाव में मां को जेल तो नहीं जाना पड़ेगा.’’

‘‘अभी क्या है? जब तू जेल से बाहर आएगी, लोग तुझे ऐसे देखेंगे जैसे तू ने कत्ल किया है? सास की छवि इतनी खराब कर दी गई है कि एक मां बेटे का विवाह करते ही चुड़ैल बन जाती है.’’

‘‘मैं भी क्या करूंगी यह समझ में नहीं आ रहा. अब क्या नौकरी कर पाऊंगी? स्टाफ के बीच तरहतरह की चर्चाएं होंगी. लोग जाने क्याक्या कह रहे होेंगे,’’ रो पड़ी थी रत्ना.

इस तरह की जाने कितनी बातें जेल में होती रहीं. 20 दिन लग गए रिहाई में. आज रत्ना को साथ ले कर लौटी हूं. जम कर सोऊंगी और रत्ना आगे की योजना बनाती सारी रात जाग कर काट देगी क्योंकि उस की यातनाओं का अभी अंत नहीं हुआ है.

आंखों से नींद कोसों दूर हो गई है. दोनों सोने का बहाना किए छत्तीस का आंकड़ा बनी लेटी हैं. वह अपना भविष्य देख रही है और मैं उस का. कई साल लग गए फैसला होने में. रत्ना ने समय से पहले ही रिटायरमेंट ले ली. तारीखें पड़ती रहीं और वह अब मरीज देख कर दवाई की पर्ची लिखने की जगह वकील से कानूनी दांवपेंच पर विचारविमर्श करती रहती. ज्यादा तनाव होे जाता तो रात को नींद की गोली खा लेती. बननासंवरना सब छूट गया. जब भी मिलती मैं हमेशा टोकती, ‘‘स्वयं को संभाल रत्ना. तू खुद को दोषी क्यों समझती है? तू तो बिना किए अपराध की सजा पा रही है.’’

ये भी पढ़ें- दबी हुई परतें : क्यों दीदी से मिलकर हैरान रह गई वह

‘‘यही तो दुख है और दुख का भार अब सहा नहीं जाता. प्रखर की तरफ देखती हूं तो दुख और बढ़ जाता है.’’

मैं ने कस कर रत्ना का हाथ थाम लिया. देखा प्रखर को भी है, सारे बाल पक गए हैं. चेहरे पर एक अजीब सी उदासी छा गई है.  विदेश की नौकरी छोड़ दी है. रत्ना के साथ केस डिसकस करता रहता है. फैसला होने तक वह दूसरे विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता. उस दिन केस का फैसला होना था. तलाक के 3 अक्षरों पर हस्ताक्षर होने और रत्ना को बाइज्जत बरी होने में 10 साल लग गए. फैसले के बाद पुत्र प्रखर के साथ रत्ना एक तरफ बढ़ गई और निकिता अपने पापा के साथ दूसरी ओर.

कचहरी के मुख्य दरवाजे से दोनों साथसाथ बाहर निकले. पल भर को ठिठकी निकिता, फिर धीरेधीरे रत्ना और प्रखर के पास आ कर खड़ी हो गई. रत्ना की आंखें आग उगलना ही चाहती थीं कि निकिता बोली, ‘‘आई एम सौरी मम्मी, सौरी प्रखर.’’

इन 10 सालों में जीवन की दिशा ही बदल गई. सबकुछ बिखर गया और आज यह लड़की कह रही है आई एम सौरी.

‘‘सौरी, निकिता,’’ कह कर प्रखर आगे बढ़ गया. ठगी सी खड़ी देखती रह गई रत्ना. क्या नियति अभी कुछ और दिखाना चाहती है. कुछ कदम चल कर निकिता गिर कर बेहोश हो गई. प्रखर के आगे बढ़ते कदम रुक गए. उस ने निकिता को गोद में उठाया, गाड़ी में लिटाया और गाड़ी हवा से बातें करने लगी. भूल गया कि मां और मौसी साथ आई हैं.

अचानक रत्ना को फिर जेल की चारदीवारी स्मरण हो आई. लगा वह बाइज्जत बरी नहीं हुई है बल्कि आजीवन  कारावास की सजा उसे मिली है. जेल में सलाखों के पीछे सीमेंट के फर्श पर बैठी है, लोग उस पर हंस रहे हैं और उस का मजाक उड़ा रहे हैं.

ये भी पढ़ें- सही वसीयत: हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

असली पहचान

लेखक- बबिता श्रीवास्तव

वह मेरी पड़ोसिन की बूआ का बेटा था. मेरे परिवार के लोग राजेश को टपोरी समझते थे पर उसी टपोरी ने वह कर दिखाया था जिस के बारे में न तो मैं ने कभी सोचा था न मेरे परिवार में किसी को उम्मीद थी.

आज जब राजेश का फोन आया कि नीलू मां बनने वाली है तो मेरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. मां और बाबूजी के साथ मेरे देवर भी तरहतरह के मनसूबे बनाने लगे और मैं सोचने लगी कि इस दुनिया में कितने ऐसे लोग हैं जो जैसे दिखते हैं वैसे अंदर से होते नहीं और जो बाहर से भोलेभाले दिखते हैं स्वभाव से भी वैसे हों यह जरूरी नहीं.

नीलू मेरी सब से छोटी ननद है. मेरी आंखों के सामने उस की बचपन की तसवीर घूमने लगी और मेरा मन 15 साल पीछे की बातों को याद करने लगा.

मैं इस घर में बहू बन कर जब आई थी तब मेरे दोनों देवर व ननद छोटेछोटे थे. मेरे पति सब से बड़े थे. उन में व बाकी बहनभाइयों में उम्र का काफी फासला था. हमारी शादी के दूसरे दिन ही बूआ सास ने मजाक में कहा था, ‘बहू, तुम्हें पता है कि तुम्हारे पति व अन्य बहनभाइयों में उम्र का इतना अंतर क्यों है? तुम्हारे पति के जन्म के बाद मेरी भाभी ने सोचा थोड़ा आराम कर लिया जाए…’ और इतना कह कर वह जोर का ठहाका मार का हंस पड़ी थीं.

नईनई भाभी पा कर मेरे छोटेछोटे देवर तो मेरे आगेपीछे चक्कर काटते और मेरा आंचल पकड़ कर घूमते रहते थे. पर मैं ने गौर किया कि मेरी सब से छोटी ननद नीलू जो लगभग 6-7 साल की थी, मेरे सामने आने से कतराती थी. यदि वह कभी हिम्मत कर के पास आती भी थी तो उस के भाई उसे झिड़क देते थे. यहां तक कि मांजी भी हमेशा उसे अपने कमरे में जाने को बोलतीं. नीलू मुझे सहमी सी नजर आती.

शादी के कुछ दिन बाद घर मेहमानों से खाली हो गया था. कोई काम नहीं था तो सोचा कमरे में पेंटिंग ही लगा दूं. मैं अपने कमरे में पेंटिंग लगा रही थी कि देखा, नीलू चुपचाप मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई है. मुझे इस तरह उस का चुपचाप आना अच्छा लगा.

‘आओ नीलू, तुम अपनी भाभी के पास नहीं बैठोगी? तुम मुझ से बातें क्यों नहीं करतीं.’

ये भी पढ़ें- पतंग: जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

मैं उस से प्यार से अभी पूछ ही रही थी कि मेरा बड़ा देवर संजय आ गया और नीलू की ओर देख कर बोला, ‘अरे, भाभी, यह क्या बातें करेगी…इतनी बड़ी हो गई पर इसे तो ठीक से बोलना तक नहीं आता.’

संजय ने बड़ी आसानी से यह बात कह दी. मैं ने देखा कि नीलू का खिला चेहरा बुझ सा गया. मैं ने सोचा कि इस बारे में संजय को कुछ नसीहत दूं. पर तभी मांजी मेरे कमरे में आ गईं और आते ही उन्होंने भी नीलू को डांटते हुए कहा, ‘तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है. जा, जा कर पढ़ाई कर.’

नीलू अपने मन के सारे अरमान लिए चुपचाप वापस अपने कमरे में चली गई.

उस के जाने के बाद मांजी बोलीं, ‘देखो बहू, मैं ने तुम्हारे लिए यह सूट खरीदा है,’ और वह मुझे सूट दिखाने लगीं, पर मेरा मन नीलू पर ही लगा रहा.

शाम को जब यह घर आए तो चायनाश्ते के समय मैं ने इन से पूछा, ‘आप एक बात बताइए कि यह नीलू इतनी डरीसहमी सी क्यों रहती है?’

यह गौर से मुझे देखते हुए बताने लगे कि वह साफसाफ बोल नहीं पाती. दरअसल, नीलू ने बोलना ही देर से शुरू किया और 6 साल की होने के बावजूद हकलाहकला कर बोलती है.

‘आजकल तो कितनी मेडिकल सुविधाएं हैं. आप नीलू को किसी स्पीच थेरेपिस्ट को क्यों नहीं दिखाते?’

उस समय उन्होंने मेरी बात हवा में उड़ा दी पर मैं ने मन ही मन सोचा कि मैं खुद नीलू को दिखाने के लिए किसी स्पीच थेरेपिस्ट के पास जाऊंगी. इस बारे में जब मैं ने बाबूजी से बात की तो उन्होंने भी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई लेकिन उन्होंने सीधे मना भी नहीं किया.

अगले हफ्ते मैं नीलू को शहर की एक लोकप्रिय महिला स्पीच थेरेपिस्ट के पास ले गई.

थोड़ी देर बाद जब थेरेपिस्ट नीलू का विश्लेषण कर के बाहर आईं तो बोलीं, ‘इस का हकला कर बोलना उतनी परेशानी की बात नहीं है जितना इस के व्यक्तित्व का दबा होना. इसे लोगों के सामने आने में घबराहट होती है क्योंकि लोग इस के हकलाने का मजाक उड़ाते हैं. इसी से यह खुल कर नहीं रहती और न ही बोल पाती है.’

मैं नीलू को ले कर घर चली आई. मैं ने निश्चय किया कि नीलू को ले कर मैं बाहर निकला करूंगी, उसे अपने साथ घुमाने ले जाया करूंगी और उस दिन से मैं नीलू पर और ज्यादा ध्यान देने लगी.

मैं ने नीलू के व्यक्तित्व को निखारने की जैसे कसम खा ली थी. इस के नतीजे जल्दी ही हम सब के सामने आने लगे. उस दिन तो घर में खुशी की लहर ही दौड़ गई जब नीलू अपने स्कूल में कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार ले कर घर आई थी.

समय पंख लगा कर कितनी तेजी से उड़ गया, पता ही नहीं चला. मेरे सभी देवरों की शादी हो गई. अब घर में बस, नीलू ही थी. उस ने भी एम.ए. कर लिया था. हम लोग उस की शादी के लिए लड़का देख रहे थे. जल्द ही लड़का भी मिल गया जो डाक्टर था. परिवार के लोगों ने बड़ी धूमधाम से नीलू की शादी की.

शादी के बाद के कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीकठाक चलता रहा. धीरेधीरे मैं ने महसूस किया कि नीलू की आवाज में खुशी नहीं झलकती. मैं ने पूछा भी पर उस ने कुछ बताया नहीं और शादी के केवल 2 साल बाद ही नीलू अकेले मायके वापस आ गई.

उस के बुझे चेहरे को देख कर हम सभी परेशान रहते थे. मैं ने सोचा भी कि कुछ दिन बीत जाएं तो उस के ससुराल फोन करूं. क्या पता पतिपत्नी में खटपट हुई हो.

15 दिन बाद जब मैं ने नीलू के ससुराल फोन किया तो उस की सास व पति के जवाब सुन कर सन्न रह गई.

‘मेरा तो एक ही बेटा है, आप ने हम से झूठ बोल कर शादी की और अपनी तोतली बेटी हमें दे दी. उस पर वह बांझ भी है. मैं तो सीधे तलाक के पेपर भिजवाऊंगी,’ इतना कह कर नीलू की सास ने फोन काट दिया.

घर में सन्नाटा छा गया. मांजी ने मुझे भी कोसना शुरू कर दिया, ‘मैं कहती थी कि यह कभी ठीक नहीं होगी. तुम्हारे उस ‘स्पीच थेरेपी’ जैसे चोंचलों से कुछ होने वाला नहीं है. लो, देखो, अब रखो अपनी छाती पर इसे जिंदगी भर.’

मुझे नीलू की सास की बात सुन कर उतना दुख नहीं हुआ जितना कि अपनी सास की बातों से हुआ. दरअसल, नीलू एकदम ठीक हो गई थी पर नए माहौल में एकाध शब्द पर थोड़ा अटकती थी जोकि पता नहीं चलता था. पर उस के ससुराल वालों ने उसे कैसे बांझ करार दे दिया यह बात मेरी समझ में नहीं आई. क्या 2 साल ही पर्याप्त होते हैं किसी स्त्री की मातृत्व क्षमता को नापने के लिए?

खैर, बात काफी आगे बढ़ चुकी थी. आखिर तलाक हो ही गया. इस के बाद नीलू एकदम चुप सी रहने लगी. जैसे कि मेरी शादी के समय थी. बंद कमरे में रहना, किसी से बातें न करना.

एक दिन मैं ने जिद कर के नीलू को अपने साथ बाहर चलने के लिए यह सोच कर कहा कि घर से बाहर निकलेगी तो थोड़ा बदलाव महसूस करेगी. रास्ते में ही पड़ोस की बूआ का बेटा राजेश मिल गया. उस ने मुझे रोक कर नमस्कार किया और बोला, ‘भाभी, मुझे मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई है और कंपनी वालों ने रहने के लिए फ्लैट दिया है. किसी दिन मम्मी से मिलने के लिए आप मेरे घर आइए न.’

‘ठीक है भैया, किसी दिन मौका मिला तो आप के घर जरूर आऊंगी,’ इतना कह कर मैं नीलू के साथ बाजार चली गई.

एक दिन मैं बूआ के घर गई. उन का घरपरिवार अच्छा था. अपना खुद का कारोबार था. मैं ने बातों ही बातों में बूआ से नीलू का जिक्र किया तो वह बोल पड़ीं, ‘अरे, उस बच्ची की अभी उम्र ही क्या है? कहीं दूसरी शादी करा दें तो ठीक हो जाएगी.’

‘लेकिन बूआ, कौन थामेगा उस का हाथ? अब तो उस पर बांझ होने का ठप्पा भी लग गया है. यद्यपि मैं ने उस के तमाम मेडिकल चेकअप कराए हैं पर उस में कहीं कोई कमी नहीं है,’ इतना कहते- कहते मेरा गला जैसे भर्रा गया.

‘मैं कैसा हूं आप के घर का दामाद बनने के लिए?’ राजेश बोला तो मैं ने उसे डांट दिया कि यह मजाक का वक्त नहीं है.

ये भी पढ़ें- यथार्थ: सरला ने क्यों किया था शादी के लिए मना

‘भाभी, मैं मजाक नहीं सच कह रहा हूं. मैं नीलू का हाथ थामने को तैयार हूं बशर्ते आप लोगों को यह रिश्ता मंजूर हो.’

मेरा मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. आश्चर्य से मैं बूआ की ओर पलटी तो मुझे लगा कि उन्हें भी राजेश से यह उम्मीद नहीं थी.

थोड़ी देर रुक कर वह बोलीं, ‘मैं घूमघूम कर समाजसेवा करती हूं और जब अपने घर की बारी आई तो पीछे क्यों हटूं? फिर जब राजेश को कोई एतराज नहीं है तो मुझे क्यों होगा?’

राजेश मेरी ओर मुड़ कर बोला, ‘भाभी, जहां तक बच्चे की बात है तो इस दुनिया में सैकड़ों बच्चे अनाथ पड़े हैं. उन्हीं में से किसी को अपने घर ले आएंगे और उसे अपना बच्चा बना कर पालेंगे.’

राजेश के मुंह से ऐसी बातें सुन कर मुझे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. जिस की पहचान हम उस के पहनावे से करते रहे वह तो बिलकुल अलग ही निकला और जो सूटटाई के साथ ‘जेंटलमैन’ बने घूमते थे वह कितने खोखले निकले.

मेरे मन से राजेश के लिए सैकड़ों दुआएं निकल पड़ीं. मेरा रोमरोम पुलकित हो उठा था. मुझे टपोरी ड्रेस में भी राजेश किसी राजकुमार की तरह लग रहा था.

घर आ कर मैं ने यह बात परिवार के दूसरे लोगों को बताई तो सब इस के लिए तैयार हो गए और फिर जल्दी ही नीलू की शादी राजेश के साथ कर दी गई. शादी के साल भर बाद ही वे दोनों अनाथ आश्रम जा कर एक बच्चा ले आए और आज जब नीलू खुद मां बनने वाली है तो मेरा मन खुशी से झूम उठा है.

मैं ने राजेश से फोन पर बात की और उसे बधाई दी तो वह कहने लगा कि भाभी, हम मांबाप तो पहले ही बन चुके थे पर बच्चों से परिवार पूरा होता है न. बेटी तो हमारे पास पहले से ही है अब जो भी होगा उसे ले कर कोई गिलाशिकवा नहीं रहेगा, क्योंकि वह हमारा ही अंश होगा.

राजेश के मुंह से यह सुन कर सचमुच मन भीग सा गया. राजेश ने मानवता की जो मिसाल कायम की है, यदि ऐसे ही सब हो जाएं तो समाज में कोई परेशानी आए ही न. यह सोच कर मेरी आंखों में राजेश व उसके परिवार के प्रति कृतज्ञता के आंसू आ गए.

ये भी पढ़ें- पिपासा: कैसे हुई थी कमल की मौत

पतंग: जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

family story in hindi

क्या यही प्यार है

लेखक- आदर्श मलगूरिया

‘‘इस धुंध में बाहर निकलना भी मुसीबत है. कपड़े, बाल सब सीलन से भर कर चिपकने से लगते हैं.’’

‘‘और बलराम मियां, कहीं वह भी तो…’’ मैं ने चुटकी ली.

सुधा ने मुझे मुक्का दिखा दिया.

‘‘मैं ने ऐसा क्या कहा? अपने स्वीट हार्ट के साथ खुद ही घूमफिर आई, हम से मिलवाया भी नहीं…’’ मैं ने रूठने का अभिनय करते हुए मुंह फुला लिया.

‘‘अच्छा बाबा, नाराज क्यों होती है? कल तुम सब की पार्टी पक्की रही.’’

सुधा मेरे कमरे में मेरे साथ ही रहती थी. यों वह मुझ से 7-8 साल बड़ी थी. वह बड़ी कक्षा की अध्यापिका थी. फिर भी हम दोनों में गहरी छनती थी. हम रात के 11-12 बजे तक बतियाते रहते.

गरीब घर की लड़की, छात्रवृत्ति के बल पर ही पढ़ती रही थी. घर में एक छोटा भाई और मां थी. हर महीने मां व भाई के लिए खर्चा भेजती थी. भाई इसी साल इंजीनियंिंरग कालिज में दाखिल हुआ था.

और भी एक व्यक्ति था सुधा के जीवन में, फ्लाइट लेफ्टिनेंट बलराज, जो कभीकभी हवाई जहाज ले कर स्कूल के ऊपर भी आता था. चर्च की मीनारों के ऐन ऊपर आ कर वह हवाई जहाज को नीचे ले आता तो सुधा का चेहरा जर्द पड़ जाता था. पर कुशल उड़ाक शोर मचाता, घाटी को गुंजाता हुआ पल भर में नीलेकाले पहाड़ों की सीमा लांघ जाता. वह कभीकभार सुधा से मिलने भी आता. लंबा, बांका, आंखें हरदम जीने की उमंग से चमकतीं मचलतीं.

सुधा और वह बचपन से ही एकसाथ खेलकूद कर बड़े हुए थे. एकसाथ गरीबी के अंधड़ों से गुजरे थे. फिर बलराज अनाथ हो गया. एक सांप्रदायिक दंगे में उस के मांबाप मारे गए. तभी करीब की हवेली के सेठजी ने उस की पढ़ाईलिखाई का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया था. पढ़ाई समाप्त कर बलराज वायुसेना में चला गया था.

जीवन के दुखभरे रास्तों को दोनों ने एकदूसरे की आंखों के प्रेमभरे आश्वासनों को भांपते हुए पार किया था. अब मंजिल करीब थी. सुधा के भाई के इंजीनियर बनते ही दोनों की शादी की बात पक्की थी.

इस बीच मेरी सगाई भी हो गई. नवंबर में स्कूल बंद हुए तो सुधा से मैं ने शादी में आने का वादा ले लिया. उस ने भी अपनी बात रखी. शादी से एक सप्ताह पहले ही वह आ पहुंची. फिर नैनीताल से दिल्ली की दूरी ही कितनी थी? मां सुधा के सिर पर शापिंग, कपड़े, गोटे तिल्ले का भार डाल कर निश्चिंत हो गईं. रिश्तेदार औरतों को इस काम में लगातीं तो सौ मीनमेख निकलते और पचास सलाह देने वाले जुट जाते.

ये भी पढ़ें- श्रद्धांजलि: क्या था निकिता का फैसला

डोली चलते समय मुझे लगा जैसे सगी बहन का साथ छूट रहा हो. पर फिर भी मालूम था कि स्नेह का बंधन अटूट है.

शादी के बाद भी सुधा के पत्र आते रहे. एकडेढ़ साल बीत चला था, पर उस की शादी का कार्ड नहीं आया, जिस की मुझे प्रतीक्षा थी.

इधर मेरे अपने घर में अनेक झमेले थे. संयुक्त परिवार, देवर, ननदों का भार सिर पर. मैं 3 भाइयों की लाड़ली बहन, गुस्सा नाक पर बैठा रहता. मुझ में कहां ताब कि एक तो दैनिक दिनचर्या के एकरस काम निबटाऊं, साथ ही सब की धौंस सहूं और फिर अपने पति की झल्लाहट भी झेलूं. अब अगर दफ्तर जाते समय कमीज का बटन टूटा है तो साहबजादे मुझ पर चिल्लाने की बजाय स्वयं भी तो लगा सकते हैं. पर नहीं, मैं रसोई में भी जूझूं, यह सब नखरे भी सहूं. अब सास तो सिर पर है नहीं कि घर की देखभाल करें.

छोटीछोटी बातों पर झगड़ा होता और बात का बतंगड़ बन जाता. मैं रूठ कर मायके आ जाती. उस भरेपूरे परिवार में मानमनोअल का अवसर भी कहां मिलता? एक बार इसी तरह रूठ कर गरमियों में मैं दिल्ली आई हुई थी. मन में क्या आया कि गरमियां बिताने भैया और माया भाभी के साथ नैनीताल आ गई. मन में सुधा से मिलने की दबी इच्छा भी थी और विवेक को थोड़ी और उपेक्षा दिखा कर तड़पाने की आकांक्षा भी. पता नहीं सुधा वहां है या नहीं. वैसे शादी तो अब तक हुई नहीं होगी वरना मुझे कार्ड तो अवश्य आता.

सुधा वहीं थी, उसी होस्टल में हम दोनों टूट कर गले मिलीं. पिछली स्मृतियों के पिटारे खुल गए. मैं ने तो साफ पूछ लिया, ‘‘बलराज की क्या खबर है? अभी तक हवा में ही कुलांचें भर रहे हैं क्या?’’

‘‘बस, इस साल के अंत तक ही…’’ सुधा का सिंदूरी रंग लज्जा से लाल पड़ गया. वह मेरे हालचाल पूछने लगी.

विवेक का नाम आते ही मेरा मुख कसैला सा हो आया, ‘‘मैं वह चिकचिक भरा जहन्नुम छोड़ आई हूं, अब वापस जाने वाली नहीं.’’

‘‘क्या पागलों जैसी बातें कर रही है,’’ सुधा ने मुझे लगभग झिंझोड़ सा दिया.

मेरे असंतुष्ट मन ने भरभरा कर अपना गुबार निकाला और वह बड़ीबूढ़ी की तरह मुझे नसीहतें देती रही, ‘‘तुम स्वयं को उन के घर की बांदी का दरजा दे रही हो, पर वह बेचारा भी तो तुम्हारे प्यार का गुलाम है. गृहस्थी की गाड़ी इसी आधार पर तो चलती है.’’

सुधा ने मुझे समझाना चाहा, पर मैं इस विषय में कोई बात नहीं करना चाहती थी.

2 महीने बीत चले थे. मेरा मन धीरेधीरे उदास हो उठा. भैया की नईनई शादी हुई थी. वह और भाभी बाहर घूमने जाते तो कोई न कोई बहाना बना कर मैं पीछे रह जाती. वे भी मुझ से साथ चलने का आग्रह न करते थे. आखिर मैं कब से मायके में आई हुई थी. अब मेहमान तो थी नहीं.

कई बार मन में आया कि स्कूल जा कर पिं्रसिपल से नौकरी के लिए कहूं पर अभी तो स्टाफ पूरा था. इसी संस्था में गृहविज्ञान की कक्षा में हमें आदर्श, निपुण गृहिणी बनने की शिक्षा दी गई थी. वही ब्रिटिश नन, अब नीली आंखों की तीखी दृष्टि से ताक कर घरबार छोड़ नौकरी ढूंढ़ने पर मुझ से जवाब तलब करेगी, व्यावहारिक जीवन की पहली ही परीक्षा में फेल हो जाने की सचाई स्वीकार कर सकूं, इतना साहस मुझ में नहीं था.

नैनीताल के एक सिनेमाघर में ‘गौन विद दी विंड’ फिल्म लगी हुई थी. थी तो वर्षों पुरानी पर सदाबहार. मैं पुलक उठी, कालिज के दिनों में एक बार देखी थी, फिर देखने का मन हो आया. पर दोपहर को भैया आए तो 2 ही टिकट ले कर.

‘‘तुम ने देख रखी है न यह फिल्म, मैं ने सोचा माया को दिखा दूं.’’

और वे दोनों चले गए. मैं काटेज में अकेली रह गई, अपनी उदासी से घिरी.

रसोइया पूछ रहा था, ‘‘बीबीजी, रात के खाने में क्या बनेगा?’’

‘‘मेरा सिर,’’ मैं झल्ला उठी.

सर्दी के बावजूद, बाहर लोहे की ठंडी रेलिंग से टिकी जाने कब तक खड़ी रही.

दिन भर का जलता सूरज क्षितिज पर बचीखुची आग बिखरा कर अंधेरे की चादर ओढ़ पहाडि़यों की ओट में उतर गया था. तभी काले भालू सा दिखता, गंदे बोरों व रस्सियों में लिपटा, गंधाता पहाड़ी कुली परिचित सा नीला सूटकेस उठाए आता दिखाई दिया. मैं सोचने लगी, यह कौन पगडंडी के पेड़ों के पीछे छिपता- दिखता ढलान उतर रहा है? शायद भैया का कोई दोस्त एकाध सप्ताह काटने आया हो. आगंतुक के अंतिम मोड़ पार कर पलटते ही मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी. यह तो विवेक था. न कोई चिट्ठी, न तार. अचानक कैसे? पल भर को मैं अपना सारा गुस्सा भूल कर हुलस उठी.

अगले ही पल उस की बांहों में लिपटी मैं पूछ रही थी, ‘‘अब याद आई हमारी?’’

फिर हमें कुली का ध्यान आया.  अवसर भांप उस ने भी तगड़ी मजदूरी मांगी और चलता बना. विवेक जम्हाई लेता हुआ बोला, ‘‘चलो, कुछ चायवाय पिलवाओ, डीलक्स बस में भी चूलें हिल गईं हड्डियों की.’’

मैं हैरान भी थी और खुश भी. कुछ अभिमान भी हो आया. मैं ने तो एक चिट्ठी भी नहीं लिखी. आए न दौडे़ स्वयं मनाने. भला मेरे बगैर रह सकते हैं कभी?

विवेक कह रहा था, ‘‘सच मानो, तुम्हारे बिना बहुत उदास रहा. घर में सब तुम्हें याद करते हैं.’’

‘‘छोड़ो, तुम्हें कहां परवा मेरी, अब बडे़ देवदास बन कर दिखा रहे हो,’’ मैं तिनकी.

‘‘तुम भी तो पारो सी, उदासी की प्रतिमूर्ति बनी हुई थीं.’’

‘‘पर तुम्हें मेरा ध्यान आया कैसे, अभिमानी वीर पुरुष?’’ मैं ने छेड़ा.

‘‘वह जो तुम्हारी पुरानी सहेली है न सुधा, जिस ने शादी में कलीचढ़ी के लिए मेरी फजीहत की थी, उसी ने चिट्ठी लिख कर मुझे यहां आने की कसम दी थी. और मैं भी तो आने का बहाना ढूंढ़ रहा था,’’ विवेक ने स्वीकार किया.

ये भी पढ़ें- दबी हुई परतें : क्यों दीदी से मिलकर हैरान रह गई वह

मुझे सुधा के इस कार्य से प्रसन्नता ही हुई. शायद वह समझ गई थी कि अपनेअपने आत्मसम्मान व अहं की रक्षा करते हुए हम अपनी कच्ची गृहस्थी ही छितरा रहे थे. पर हमारे मानअभिमान के बीच रेशम की डोर का फासला था. एक के जरा आगे बढ़ते ही दूसरा स्वयं दौड़ आया था.

अगले सप्ताह विवेक के साथ मैं वापस आ गई. सुधा ने जिन नसीहतों का पाठ पढ़ा कर मुझे भेजा था, उन्हीं के बल पर मैं अपने घोंसले के तिनके संभाले रही.

2 साल बीतने को आए पर सुधा की शादी के विषय में कुछ निर्णय न हो पाया था. इस बार सर्दियों में मैं ने उसे जिद कर के अपने पास बुला लिया. उस में न पहले सी रंगत रही थी, न कुंआरे सपनों की महक. मैं ने बलराज के विषय में पूछा तो वह दुख के गहरे भंवर में डूब सी गई. हिचकियों के बीच उस ने जो कहानी सुनाई, उस से यही निष्कर्ष निकला कि जिन सेठजी ने बलराज को पाला था, उन की अचानक मृत्यु हो गई थी. अपनी इकलौती कुरूप बेटी के गम में सेठजी के प्राण गले में आ अटके. कातर हो कर उन्होंने बलराज से ही भिक्षा मांगी कि वह उन के बाद उन की बेटी और फैक्टरी को संभाले.

मौत के मुंह में जाते व्यक्ति का आग्रह ठुकरा सके, इतना पत्थर दिल बलराज नहीं था.

‘‘वह साहब तो शहीद हो कर फैक्टरी के मालिक बन बैठे. घरघर में उन की नजफगढ़ रोड वाली फैक्टरी की बनी ट्यूबें व बल्ब जलते हैं पर तुझे क्या मिला? वर्षों का प्यार क्या एक हलके झोंके से ही उड़ गया? अच्छा तगड़ा दहेज दे कर क्या बलराज सेठजी की बेटी की शादी नहीं करवा सकता था कहीं?’’ मैं गुस्से से उफन पड़ी.

‘‘वह मेरे पास आया था, इस विषय में बात करने, कर्तव्य व प्रेम के दो पाटों में पिसता वह चूरचूर हो रहा था. मैं ने ही उसे मुक्त कर दिया. आखिर अपने उपकारक मरणासन्न व्यक्ति को दिए वचन का भी तो कुछ मूल्य होता है,’’ सुधा ने बलराज का ही पक्ष लिया.

‘‘हां…हां, एक वही तो रह गए थे सूली पर चढ़ने को,’’ मैं ने तीखे स्वर में कहा.

‘‘जब मैं कुछ नहीं बोल रही तो तू क्यों इतना उबल रही है?’’ सुधा मुझ पर ही झल्ला पड़ी.

‘‘तो फिर आंखों में नमी क्यों भर आ रही है बारबार?’’

मैं ने उस की आंखें पोंछ दीं. सुधा के जीवन में अब बलराज वाला अध्याय समाप्त हो चुका था.

मैं ने और विवेक ने कितनी कोशिश की उस की शादी के लिए, पर उस ने  तो शादी न करने की कसम खा ली थी. जिस प्रेम की जड़ें बचपन तक फैली हुई थीं उसे उखाड़ फेंकना शायद उस के वश का न था. फिर उस की मां की मृत्यु हो गई. इंजीनियर भाई को घरजामाता बना कर धनी ससुर अमेरिका ले गया.

वह नितांत अकेली रह गई. बालों में सफेदी झांकने लगी थी. पर हम ने अब भी कोशिश नहीं छोड़ी. हमारे सिवा उस का था ही कौन? अब उस की सर्दियों की 3 महीने की छुट्टियां मेरे बच्चों के साथ खेलते बीततीं या वह लड़कियों का दल ले कर उन्हें कहीं घुमाने ले जाती. एक बार तो वह सिंगापुर तक हो आई थी और अपनी एक महीने की तनख्वाह हमारे लिए महंगे उपहार खरीदने में फूंक आई थी.

इस वर्ष दिलीप बदली हो कर विवेक के दफ्तर में आया. मुझे लगा शायद उसे सुधा के लिए ही भेजा गया है. साधारण घर का, अच्छी नौकरी पर लगा बेटा. सारी जवानी छोटे भाईबहनों को पढ़ाते- लिखाते, ठिकाने लगाते बीत गई. अब अपने लिए अधिक आयु की, सुलझे विचारों वाली पत्नी चाहता था.

मैं ने उसे सुधा की फोटो दिखाई नापसंद करने का सवाल ही कहां था. हम चाहते थे कि दोनों एकदूसरे को मिल कर देखपरख लें. इसीलिए मैं ने सुधा को चिट्ठी लिख दी और विवेक को छुट्टी मिलते ही हम लोग कार ले कर नैनीताल के लिए निकल पड़े, यह निश्चय कर के कि इस बार जैसे भी हो, सुधा को मनाना ही है.

पर उस के होस्टल के काटेज में एक और आश्चर्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा था. लान में सुधा एक 15-16 साल के लड़के के साथ बैठी थी. बिना परिचय कराए ही मैं समझ गई कि वह बलराज का बेटा है, एकदम कार्बन कापी.

ऐसे में उस से दिलीप का परिचय कराना व्यर्थ था. दूसरे दिन मैं ने उसे पकड़ा, ‘‘यह क्या तमाशा लगा रखा है? पंछी भी शाम ढले घरों को लौटते हैं. तुम क्या जीवन भर इस होस्टल में काट दोगी?’’ मैं उस पर बरस ही तो पड़ी.

‘‘अब मैं अकेली कहां हूं? रवि जो है मेरे पास,’’ वह मुसकरा कर बोली.

‘‘पागल हुई हो? पराए बेटे को अपना कह रही हो?’’

‘‘अब वह मेरा ही बेटा है,’’ सुधा गंभीर हो उठी. उस ने मुझे बताया कि बलराज से फैक्टरी तो चली नहीं, घाटे में चलातेचलाते कर्ज चुकाने में बिक गई. शराब पी कर पतिपत्नी में झगड़ा होता. पत्नी सुधा का नाम ले कर बलराज को कोसती. इसी चिल्लपों में रवि सुधा के विषय में जान गया. एक रेल दुर्घटना में बलराज की मृत्यु हो गई. पत्नी पागलखाने में भरती कर दी गई, क्योंकि उसे दौरे पड़ने लगे थे. अनाथ बच्चे की जिम्मेदारी कौन ले? रिश्तेदार भी पल्ला झाड़ गए. अब रवि अंतिम सहारा समझ उसी के पास आया था.

मैं अवाक् बैठी थी. सुधा गर्व से बता रही थी, ‘‘सीनियर सेकंडरी की परीक्षा दी है रवि ने. मेडिकल में जाने का विचार है.’’

ये भी पढ़ें- सही वसीयत: हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

‘‘और उस की पढ़ाई का खर्चा तुम दोगी?’’ मैं ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘अब कौन बैठा है उस का सरपरस्त?’’ सुधा बोली.

‘‘ओफ्फोह, तुम कभी समझोगी भी? तुम ने भाई को पढ़ायालिखाया, लेकिन कभी उस ने इस ओर झांका भी कि तुम जिंदा हो या मर गईं?’’ मैं बड़बड़ाती हुई उसे कोसती रही.

‘‘दिलीप बाबू से मेरी ओर से माफी मांग लेना. मैं मजबूर हूं,’’ वह इतना ही बोली. मैं पैर पटकती वापस आ गई. वापसी पर भी मेरा मूड उखड़ा रहा. विवेक कार चला रहा था, सो तीखी ढलान के मोड़ों पर दृष्टि गड़ाए बैठा था. मैं भुनभुनाती दिलीप को सुना रही थी, ‘‘कुछ कमबख्त होते ही हैं अपना शोषण करवाने को. चाहे सारी दुनिया उन्हें रौंद कर आगे बढ़ जाए, उन के कानों पर जूं नहीं रेंगेगी.’’

दिलीप ने मेरे गुस्से पर पानी डाला, ‘‘छोडि़ए, भाभीजी, हम आप जैसे दुनिया के पचड़ों में फंसे सांसारिक जीव इसे नहीं समझ पाएंगे. पर शायद यही प्यार है.’’

‘‘जो अच्छेभले को अंधा कर दे, उस प्यार का क्या लाभ?’’ मैं बड़बड़ाई.

‘‘देखूं, शायद इसे कभी जीत पाऊं,’’ गहरी सांस ले कर दिलीप ने कहा और मैं अपना गुस्सा भूल आश्चर्य से उसे देखने लगी.

सही वसीयत: हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

family story in hindi

मोहभंग : मायके में क्या हुआ था सीमा के साथ

लेखक- कृष्णा गर्ग

बारबार मुझे अपनेआप पर ही क्रोध आ रहा है कि क्यों गई थी मैं वहां. यह कोई एक बार की तो बात है नहीं, हर बार यही होता है. पर हर बार चली जाती हूं. आखिर मायके का मोह जो होता है, पर इस बार जैसा मोहभंग हुआ है, वह मुझे कुछ निर्णय लेने के लिए जरूर मजबूर करेगा.

मैं उठ कर बैठ जाती हूं. थर्मस से पानी निकाल कर पीती हूं.

‘‘कौन सा स्टेशन है?’’ मैं सामने बैठी महिला से पूछती हूं.

‘‘बरेली है शायद. कहां जा रही हैं आप?’’

‘‘दिल्ली,’’ मैं सपाट सा उत्तर देती हूं.

‘‘किस के घर जा रही हैं?’’ फिर प्रश्न दगा.

‘‘अपने घर.’’

एक पल की खामोशी के बाद वह महिला पुन: पूछती है, ‘‘कानपुर में कौन रहता है आप का?’’

‘‘मायका है,’’ मैं संक्षिप्त सा उत्तर देती हूं.

‘‘कोई काम था क्या?’’

‘‘हां, शादी थी भाई की?’’ कह कर मैं मुंह फेर लेती हूं.

‘‘तब तो बहुत मजे रहे होंगे,’’ वह बातों का सिलसिला पुन: जोड़ती है.

मेरा मन आगे बातें करने का बिलकुल नहीं था. बहुत सिरदर्द हो रहा था.

‘‘आप के पास कोई दर्द की गोली है? सिरदर्द हो रहा है,’’ मैं उस से पूछती हूं.

‘‘नहीं, बाम है. लीजिएगा?’’

‘‘हूं. दीजिए.’’

‘‘शादीविवाह में अनावश्यक शोरगुल से सिरदर्द हो ही जाता है. मैं पिछले साल बहन की शादी में गई थी. सिर तो सिर, मेरा तो पेट भी खराब हो गया था,’’ वह अपने थैले में से बाम निकाल कर देती है.

ये भी पढ़ें- परिचय: वंदना को क्यों मिला था भरोसे के बदले धोखा

मैं उसे धन्यवाद दे बाम लगा कर चुपचाप सो जाती हूं.

उन बातों को याद कर के मेरा सिर फिर से दर्द करने लगता है. भुलाना चाह कर भी नहीं भूल पाती. बारबार वही दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते हैं.

‘यहीं की दी हुई तो साड़ी पहनती हो तुम. क्या जीजाजी कभी तुम्हें साड़ी नहीं दिलाते?’ छोटी बहन रेणु कहती है.

‘सुनो जीजी, मामी के आगे यह मत बताना कि जीजाजी लेखापाल ही हैं. हम ने उन्हें शाखा प्रबंधक बता रखा है, समझीं.’

‘क्यों? झूठ क्यों बोला?’ मैं चिहुंक कर पूछती हूं.

‘अरे, तुम्हारी तो कोई इज्जत नहीं, पर हमारी तो है न. पिताजी ने सभी को यही बता रखा है,’ मुझ से 5 वर्ष छोटी रेणु एक ही वाक्य में समझा गई कि अब मेरी इस घर में क्या इज्जत है.

मेरे मन में कहीं कुछ चटक सा जाता है. वैसे यह चटकन तो हर वर्ष मायके आने पर होती है, पर इस बार इतने रिश्तेदार जुटे हैं कि इन के सामने इतनी बेइज्जती सहन नहीं होती मुझ से. मैं उठ कर ऊपर चली जाती हूं.

ऊपर की सीढि़यों पर ताई मिल जाती हैं, ‘क्यों बेटी, अकेली ही आई है इस बार. छोटे से मुन्ने को भी छोड़ आई? न तेरा दूल्हा ही आया है. क्या बात है, बेटी?’

‘कुछ नहीं, ताईजी, बस, दफ्तर का काम था कुछ. फिर मुन्ना उन के बगैर रहता ही नहीं है. छमाही परीक्षा भी है, इसीलिए छोड़ आई,’ मैं पिंड छुड़ा कर भागती हूं.

छोटी बहन रेणु यहां भी आ धमकती है, ‘अरे, तुम यहां बैठी हो. तैयार नहीं हुईं अभी तक? तुम्हें तो आरती करनी है. देखो, 4 बज गए. औरतें आने लगी हैं.’

‘चल रही हूं. चिल्ला मत,’ मैं उसे डांट देती हूं.

‘हूं. पता नहीं क्या समझती हो अपने को. कुछ काम नहीं होता. शादी के बाद एकदम बौड़म हो गई हो तुम तो.’

‘तुम से होता है? बातें बनाने के अलावा कोई काम है तेरे पास?’ मैं बिफर पड़ती हूं.

वह बड़बड़ करती हुई नीचे उतर जाती है. न जाने मां को क्याक्या भड़काती है.

‘क्या बात है सीमा, 4 बज रहे हैं, घुड़चढ़ी का समय हो रहा है. तुम से अभी थाल भी नहीं सजाया गया आरती के लिए? किसी भी काम का होश नहीं रहता इसे,’ मां औरतों के सामने डांटती हैं.

‘क्यों सीमा, जमाई बाबू नहीं आए?’ बड़ी मामी पूछती हैं.

मां व्यंग्य से मुसकरा कर मुंह पीछे कर लेती हैं. मैं चुपचाप बिना कुछ उत्तर दिए थाल उठा कर भीतर कमरे में आ जाती हूं.

सारा काम हो चुका था. बरात लड़की वालों के यहां जा चुकी थी. मैं निढाल हो कर धम से चारपाई पर लेट जाती हूं कि रेणु की आवाज सुनाई पड़ती है, ‘हाय जीजी, तुम अभी से सो गईं क्या? कितना काम पड़ा है.’

‘मुझे नींद आ रही है, रेणु. कुछ तू ही कर ले बहन. मेरा सिर फटा जा रहा है.’

वह बड़बड़ करती चली गई. यद्यपि यह मेरा मायका था, जहां मैं ने जिंदगी के 19 वर्ष काटे थे. फिर भी न जाने क्यों आज इतना पराया लग रहा था. सुबह से न किसी ने खाने के लिए पूछा, न मैं ने खाया ही. यही घर है वह जहां मैं हर समय फ्रिज में से कुछ न कुछ निकाल कर खाती रहती थी. मुझे लगता है कि मैं ने सच ही यहां आ कर गलती की है. राकेश नहीं आए, ठीक ही हुआ.

ये भी पढ़ें- संपत्ति के लिए साजिश: क्या हुआ था बख्शो की बहू के साथ

‘जरा उधर खिसक सीमा, मुन्ने को सुला दूं. इसे ओढ़ा ले. देख, हलकीहलकी सर्दी पड़ने लगी है और तू कैसे लेट गई? कुछ खायापिया भी नहीं है,’ दीदी के करुण स्वर से मैं पिघल गई. मुझ में और दीदी में सिर्फ ढाई वर्ष का ही अंतर है. दीदी की शादी कोलकाता में हुई है. जीजाजी का रेशमी साडि़यों का काफी बड़ा व्यापार है.

दीदी ने मुझ से दोबारा कहा, ‘सीमा, तू कुछ खा ले बहन. और तेरे पति क्यों नहीं आए?’

‘जानबूझ कर क्यों पूछती हो, दीदी. तुम्हें लेने तो बड़े भैया गए थे. मुझे लेने कौन गया? सिर्फ कार्ड डाल दिया. यह तो कहो, मैं आ गई. तुम्हारे सामने मेरी क्या कीमत है?’ मैं ने कहा.

‘हां, सीमा, मेरे साथ भी पहले कुछ ऐसा ही व्यवहार किया जाता था. शादी से पहले मुझे मां कितना डांटती थीं, पर  अब सब उलटा हो गया है.’

‘तुम बड़े घर जो ब्याही हो, भई. मेरे पति बैंक में सिर्फ लेखापाल हैं. तुम्हारे पति की मासिक आय 20 हजार है, तो मेरे पति की सिर्फ 2 हजार. अंतर नहीं है क्या?’

‘नहीं सीमा, रो मत. राकेश कितना सुशील है, तुझे पता नहीं है. तेरे जीजाजी एक तो मुझ से 10 वर्ष बड़े हैं, रुचियों में कितना अंतर है. हर समय इन्हें पैसा ही पैसा चाहिए. न घर की चिंता और न बच्चों की. घर में हर समय बड़ेबड़े व्यापारी आते रहते हैं. नौकरों के बावजूद पूरे दिन रसोई में घुसी रहती हूं. यह भी कोई जिंदगी है? तू तो हर शाम राकेश के साथ घूमने चली जाती है. मुझे तो महीने बाद घर से निकलना होता है इन के साथ. देख, शादी में आए हैं, पर दिन भर पड़े सोते रहते हैं. अभी राकेश होता, तो दौड़दौड़ कर काम करता, मजमा लगा देता. कुछ नहीं तो हमें घुमा ही लाता. कुंआरे में मुझे घूमने की कितनी हसरत थी, पर सब धरी रह गई.’

कुछ देर रुक कर दीदी फिर बोलीं, ‘मैं पिछले वर्ष दिल्ली आई थी तेरे घर. 2 दिन रही. सच, राकेश ने कितना आदर दिया, इधर घुमाया, उधर घुमाया, खूब हंसाहंसा कर मन लगा दिया. तुम तो मियांबीवी हो और एक बच्चा. एक हम हैं कि पूरी गृहस्थी है, 2 छोटी ननदें, देवर, सास सभी की जिम्मेदारी है. कैसी बंध गई हूं मैं? पैसा होगा तेरे जीजाजी के पास बैंक में, पर मैं तो देख, पूरी चौधराइन बन गई. तू मुझ से केवल ढाई वर्ष छोटी है, पर नायिका जैसी लगती है अब भी,’ दीदी मेरी ओर निहारने लगीं.

‘ले देख, यह साड़ी पहन ले. तेरे ऊपर बहुत खिलेगी,’ कहते हुए दीदी ने गुलाबी रेशमी साड़ी मुझे दी.

‘मैं इतनी भारी साड़ी का क्या करूंगी?’ मैं झिझकी.

‘यह क्या हो रहा है?’ अचानक मां की आवाज सुन कर मैं ठिठक गई.

‘सीमा, तू यहां क्या कर रही है? इतना काम पड़ा है. कौन निबटाएगा. उठ, जा जल्दी से कर, फिर बैठियो. और यह साड़ी किस की है?’

‘जीजी की है. मुझे दे रही हैं,’ मैं ने उठते हुए उत्तर दिया.

‘अरे, इतनी भारी साड़ी का सीमा क्या करेगी? तू ही रख ले. तेरे यहां तो रिश्तेदारी काफी बड़ी है. आनाजाना लगा रहता है. क्यों दे रही है इसे?’ मां ने दीदी को समझाया.

मेरा मुंह तमतमा गया, पर चुपचाप काम में लग गई. सारा काम निबटा कर मैं फिर से लेट गई. विवाह की थकान से मेरा बदन चूरचूर हो रहा था.

दूसरे दिन बहू भी आ गई थी. उधर राकेश का फोन भी आ चुका था कि सीमा को भेजो. यद्यपि काम के कारण अम्मां मुझे रोकना चाहती थीं, पर मैं नहीं रुकी. मां ने बड़ी दीदी को विदा कर दिया था. जीजाजी को जल्दी थी. जीजाजी के चलने पर मां ने पूछा, ‘अब कब दर्शन देंगे?’

‘बस जी, अब क्या दर्शन देंगे? एक बार के दर्शन में हमारा लाखों का नुकसान हो जाता है,’ जीजाजी ने चांदी की डिबिया से पान निकाल कर खाते हुए कहा, ‘दर्शन देने वाले तो राकेश बाबू थे. बारबार दर्शन देते थे. जाने अब कहां लोप हो गए.’

मैं जीजाजी का कटाक्ष अच्छी तरह समझ चुकी थी. जीजी ने डांटते हुए कहा, ‘क्यों तंग करते हो उसे?’

जीजाजी के जाने के बाद मेरी भी जाने की बारी थी. शाम की गाड़ी से मुझे भी जाना था. मेरा सामान बंध चुका था. पिताजी ने पूछा, ‘अब राकेश की तरक्की कब होगी?’

‘पता नहीं,’ मैं ने धीरे से उत्तर दिया.

‘पता रखा कर. कुछ लोगों से मिलोजुलो. रेखा को देख. तेरे साथ ही विवाह हुआ था. बैंक में ही था. अफसर हो गया. कोशिश ही नहीं करते तुम लोग.’

मां ने ताना मारा, ‘रीमा को देख कितनी सुखी है. कितना पैसा, कोठी सभी कुछ है.’

‘मां, हमें क्या कमी है. हम भी तो मजे में हैं.’

‘वो मजे हमें दीख रहे हैं,’ मां ने कटाक्ष किया.

मैं नहीं जानती थी कि यह मां की सहानुभूति है या उन की गरिमा आहत होती है मेरे आने से. उन्हें मैं मखमल में टाट का पैबंद सा लगती हूं. जबतब राकेश को ले कर मुझे जलील करना शुरू कर देती हैं. बड़े भैयाभाभी सदा राकेश को ही पसंद करते हैं, पर मां को स्वभाव से क्या मतलब? जीजाजी चाहे कितनी बेइज्जती करें मां की, वे उन से ही खुश रहती हैं. पैसा जो है, उन के पास.

ये भी पढ़ें- हयात: रेहान ने क्यों थामा उसका हाथ

भैया मुझे छोड़ने स्टेशन आए थे. मैं मां की बातें याद कर के रोने लगी थी.

‘देख सीमा, मां और पिताजी की बातों का बुरा न मानना. पत्र जरूर डालना. राकेश क्यों नहीं आए, मुझे पता है. मैं जब दिल्ली आऊंगा तब मिलूंगा,’ भैया गाड़ी में बिठा कर चले गए थे.

अचानक एक सहानुभूति भरा स्वर मेरे कानों में पड़ा. मैं एकदम से वर्तमान में लौट आई.

‘‘अब आप का सिरदर्द कैसा है? चाय पिएंगी क्या?’’ थर्मस से चाय निकालते हुए सामने बैठी महिला बोली.

‘‘ठीक हूं,’’ मैं उठ बैठती हूं. उस के हाथ से शीशे के गिलास में चाय ले कर पूछती हूं, ‘‘कौन सा स्टेशन है?’’

‘‘बस, 1 घंटे का रास्ता और है. दिल्ली आ रही है. पूरी रात आप बेचैन सी रहीं.’’

‘‘हूं, तबीयत ठीक नहीं थी न,’’ मैं मुसकराने का प्रयास करती हूं.

‘‘कितने बच्चे हैं आप के?’’ वह पूछती है.

‘‘जी, सिर्फ एक.’’

‘‘उसे क्यों छोड़ आईं. लगता है दादादादी का प्यारा होगा,’’ वह मेरी ओर मुसकरा कर देखती है.

‘‘हूं. अब नहीं छोड़ूंगी कभी,’’ राकेश और मुन्ने की शक्ल बारबार मेरी आंखों के सामने तैरने लगती है. रहरह कर मुन्ने की याद आने लगती है. जाने कैसा होगा वह, राकेश ने कैसे रखा होगा उसे? बस, घंटे भर की तो बात है.

मैं उतावली हो जाती हूं उन दोनों से मिलने के लिए.

आखिर मैं उन को छोड़ कर क्यों गई थी? मायके का मोह छोड़ना होगा मुझे. इस से पहले कि मुझे वे घटनाएं फिर याद आएं, मैं नीचे से टोकरी खींच शादी की मिठाई निकाल कर सामने वाली महिला को देती हूं और सबकुछ बिसरा कर उन से बातों में लीन हो जाती हूं.

ये भी पढ़ें- रूठी रानी उमादे: क्यों संसार में अमर हो गई जैसलमेर की रानी

अभियुक्त: भाग 3- सुमि ने क्या देखा था

शैलेंद्र का चेहरा सफेद पड़ गया, ‘‘चाचीजी, बड़ा मुश्किल सवाल किया आप ने.’’

‘‘मुश्किल होगा तेरे लिए. मैं तो इस का जवाब जानती हूं. तभी तो कहती हूं तेरे संस्कार सदियों पुराने हैं. औरतें तो हों सीता जैसी जो अग्निपरीक्षा भी पास कर लें और आदमी हो रावण जैसे जो दूसरों की औरतों को उठा लाएं.’’

शैलेंद्र चाचीजी की बात पर हंस दिया, ‘‘चाचीजी, इतनी बार आप ने मुझे माफ किया है, इस बार भी कर दो. सुमि को समझाना अब आप की जिम्मेदारी है.’’

चाचीजी का चेहरा गंभीर हो गया. भोली सी बच्ची शैलेंद्र की नादानी का सदमा ले बैठी थी. चाचीजी सुमि से पूछपूछ कर उस की पसंद के व्यंजन बनातीं तो वह उन्हें अभिभूत हो कर देखती रहती. सीधे पल्ले की सूती साड़ी, गोरा, गोल, आनंददीप्त चेहरा. सिर से पांव तक चाचीजी ममता की मूर्ति थीं. मां जैसी वह उस की देखभाल करतीं. अधिकारपूर्ण वाणी में उसे आदेश देतीं. कभी बड़ी बहन बन कर उस के रूखे बालों में तेल मलतीं, कभी सहेली बन कर गांव, खेतखलिहान की सैकड़ों बातें करतीं.

सुमि की चुप्पी धीरेधीरे टूटने लगी. चाचीजी को ले कर एक भय था मन में, जो कब का खत्म हो गया. अब तो उसे लगता कि बस, चाचीजी यहीं रह जाएं.

‘‘सुमि,’’ चाचीजी उस दिन उस के लिए खीर बना रही थीं, ‘‘गांव में अपना सबकुछ है. दूध, मक्खन, घी, कितना वैभव है. यहां पनियल दूध की खीर बनाना बहुत तकलीफ दे रहा है. दूध औटा कर आधा कर लिया फिर भी ऐसे उबल रहा है जैसे पानी.’’

सुमि मुसकरा दी, ‘‘अब इस से गाढ़ी यह नहीं हो पाएगी,’’ उस ने गैस बंद कर दी.

‘‘चलो, बेटी, दो घड़ी आराम कर लें फिर खाना खाएंगे.’’

‘‘जी,’’ सुमि उन के साथ शयनकक्ष तक चली आई.

‘‘चाचीजी,’’ सुमि लाड़ से उन का आंचल अपनी उंगली में लपेटते हुए बोली.

‘‘आप सचमुच आदर्श हैं. शैलेंद्र आप की तारीफ अकसर किया करते थे. शादी के बाद मैं 4 दिन आप के पास रही पर अब लगता है काश, वहीं रहती.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ चाचीजी उसे अंक में भर कर बोलीं, ‘‘फिर मेरे शैलेंद्र का खयाल कौन रखता. शादी के शुरुआती दिनों में पतिपत्नी को एकदूसरे के पास ही रहना चाहिए. गांव वालों ने मुझ से कितना कहा कि बहू को कम से कम 1 महीना अपने पास ही रखो पर मैं ने किसी की नहीं सुनी.’’

‘‘चाचीजी, आप तो अंतर्यामी हैं. निपट देहात में रह कर आप इतनी आधुनिक बातें कैसे समझ लेती हैं? शैलेंद्र कहते हैं, आप बहुत बड़ी मनोवैज्ञानिक हैं.’’

चाचीजी सकुचा गईं फिर बोलीं, ‘‘बसबस, अब चने के झाड़ पर मत चढ़ा. और तू जिसे मनोविज्ञान कहती है वह मेरे लिए कड़वेमीठे अनुभवों का निचोड़ भर है. 21 साल की उम्र में पति और जेठजेठानी की मृत्यु. बूढ़ी सास की जहर उगलती जबान, मुझे मनहूस समझ कर पड़ोसियों का सुबह से छिपना. एकएक अनुभव हृदय पर अमिट परिभाषाएं लिखता रहा. मानव के अबूझ व्यवहार की, धर्म के नाम पर किए जाने वाले ढकोसलों की, झूठे चरित्र की…’’

‘‘चाचीजी…’’ बीच में टोकते हुए सुमि की आवाज कांप गई.

‘‘ठीक कह रही हूं, सुमि, एक परीक्षा से गुजरते ही दूसरी सामने खड़ी हो जाती. अनगिनत परीक्षाएं दीं मैं ने. पर एक बात सोलह आने सच है कि समाज के सामने ताल ठोंक कर खड़े हो जाना फिर भी आसान था. लेकिन अपनेआप से लड़ना बहुत ही मुश्किल.’’

चाचीजी ने एक गहरी सांस ली. फिर कहने लगीं, ‘‘मेरा धर्म मुझे संयम सिखाता रहा, संस्कार गलत काम करने से रोकते रहे लेकिन 25 साल की उम्र और विवाह के सुखभरे 2 साल…खेत में हिसाब- किताब देखने वाला मोहनलाल उन दिनों मेरे संयम की मजबूत चट्टान को हिला रहा था. लाख रामनाम जपा. रामायणगीता पढ़ी पर सब बेकार…और एक रात जब वह मुझे हिसाब के रुपए देने आया उस ने…नहीं, यह कहना गलत होगा, बल्कि मैं ने ही उसे मौका दे दिया. मन मुझे पीछे धकेल रहा था पर शरीर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था. पता नहीं उस दिन कैसे इतनी कमजोर पड़ गई थी मैं. सुबह उठ कर इतनी शरम आई कि मुंह अंधेरे बावड़ी की ओर चल दी.

लेकिन कूदने से पहले शैलेंद्र की याद ने मेरे पैरों में बेडि़यां डाल दीं. मैं मर जाती तो वह बेचारा जीतेजी मर जाता. माना कि मेरी गलती बहुत बड़ी थी पर सजा तो शैलेंद्र को ही भुगतनी पड़ती न. मैं तो अपनी बदकिस्मती से पल भर में मुक्त हो जाती पर उस की भी किस्मत के दरवाजे बंद कर जाती. अबोध शैलेंद्र क्या पता उसे यह जमीनजायदाद मिलती भी या चालाकी से ये मुलाजिम ही सब डकार जाते.’’

सुमि शांत मन से चाची द्वारा कहे एकएक शब्द को सुन रही थी.

‘‘बहुत नफरत हो रही है न मुझ से?’’ चाचीजी ने उसे टटोला.

‘‘नफरत,’’ सुमि को सोचना पड़ा. कम उम्र में आवेश को नकारना सहज नहीं होता. उसे मानना ही पड़ा.

‘‘उस कमजोरी को यदि मैं ताकत में न बदलती तो इस घटना की मुझे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती. मोहनलाल को मैं ने नौकरी से हटा दिया. अपना आचरण संयमित कर लिया और मन ममतामय. कोशिश की कि कोई भी मुझे भोग्या न समझे बल्कि मां की तरह आदरणीय समझे.’’

कुछ देर रुक कर चाचीजी ने गहरी सांस ली, ‘‘सुमि, राह चलते पैरों में कीचड़ लग जाए तो कोई पांव काट कर नहीं फेंक देता. पवित्रता का महत्त्व जरूर है पर जीवन की कीमत पर नहीं.’’

‘‘चाचीजी,’’ सुमि उन के कंधे से लग कर फूटफूट कर रोने लगी.

‘‘शैलेंद्र से भी गलती हुई है. लेकिन वह तुम से बहुत प्यार करता है. उस गलती के लिए तुम 3 जिंदगियां दांव पर लगाने की गलती मत करो. तुम, वह और यह नन्ही सी जान, सब बिखर जाएंगे. वह तो तुम से माफी मांग ही चुका है, उस की ओर से आंचल फैला कर मैं भी तुम से विनती करती हूं.’’

‘‘नहीं, चाचीजी, आप बड़ी हैं. आप का आदेश ही मेरे लिए काफी है. लेकिन क्या शैलेंद्र ने आप को सबकुछ बता दिया?’’

‘‘तो क्या गलत किया? उस ने मुझ से आज तक कुछ नहीं छिपाया. इस बार भी…’’

सुमि को हंसी आ गई. उस की घुंघरू जैसी रुनझुन हंसी की अनुगूंज पूरे घर को आनंद से सराबोर कर रही थी. अभीअभी आया, दरवाजे पर ठिठका शैलेंद्र समझ गया था कि इस बार भी चाचीजी ने उस की समस्या चुटकियों में सुलझा दी है. अभियुक्त की बाकी सजा माफ हो गई है.

पक्षाघात: भाग 3- क्या टूट गया विजय का परिवार

लेखिका- प्रतिभा सक्सेना

यह परिवर्तन बाबूजी के लिए सुखद था. अब तक सुमि कहां थी? अब उन का मन लगने लगा. धीरेधीरे उन में जीने की इच्छा जागने लगी. गों गों का स्वर धीरेधीरे अस्फुट शब्दों में परिवर्तित होने लगा. उंगलियों में हरकत होने लगी. सभी तो खुश लग रहे थे इस सुधार से.

सुमि के वापस जाने का समय नजदीक आ रहा था. एक दिन जब सुमि और बच्चे बाबूजी के पास बैठे थे कि मुकुल व मुकेश अपनीअपनी पत्नियों के साथ आ गए. बच्चों को बाहर भेज दिया गया. बाबूजी का दिल बैठने लगा. ऐसी क्या बात है जो बच्चों के सामने नहीं हो सकती?

बड़े बेटे मुकुल ने, अटकते हुए कहना शुरू किया, ‘‘बाबूजी, हमें आप को कुछ बताना है.’’

सुमि बोली, ‘‘क्या बात है, मुकुल?’’

मुकुल बोला, ‘‘दीदी, यह बड़ी अच्छी बात है कि आप के आने से बाबूजी की स्थिति में सुधार आ रहा है, पर…’’

‘‘हां, पर क्या, बोलो?’’

मुकुल थूक निगलते हुए बोला, ‘‘दीदी, बाबूजी की बीमारी के कारण अब हम दोनों की स्थिति ठीक नहीं है.’’

वह आगे कुछ कहता कि सुमि ने आंखें तरेरीं और चुप रहने का इशारा किया पर दोनों भाई तो ठान कर आए थे, सो चुप कैसे रहते, ‘‘बाबूजी, मुकेश आप की बीमारी का कुछ भी खर्चा उठाने को तैयार नहीं है. अभी तक मैं अकेला ही सब खर्चे का बोझ उठा रहा हूं.’’

मुकेश जो अब तक चुप था बोला, ‘‘बाबूजी, आप तो जानते ही हैं कि मेरी इस के जितनी तनख्वाह नहीं है.’’

‘‘तो मैं क्या करूं, अगर आप की तनख्वाह कम है,’’ मुकुल बोला, ‘‘आखिर मुझे भी तो अपने परिवार के भविष्य का खयाल रखना है.’’

‘‘तुम्हारा अपना परिवार? लेकिन मैं तो समझती थी कि यह पूरा परिवार एक ही है, नहीं है क्या?’’ सुमि ने कहा.

‘‘दीदी, किस जमाने की बातें कर रही हो आप. अब वह जमाना नहीं है जब सब एकसाथ हंसीखुशी रहते थे. देखना कुछ सालों बाद आप का यह लाड़ला मुझ से अपना हिस्सा मांगेगा. तो जो कल होना है वह आज अम्मांबाबूजी के सामने क्यों न हो जाए?’’

‘‘कुछ तो शर्म करो तुम दोनों, बाबूजी को ठीक तो होने देते, बेशर्मी करने से पहले,’’ सुमि ने डपटा, ‘‘और अब तो बाबूजी ठीक भी हो रहे हैं. कुछ दिन और सह लो, फिर बंटवारे की जरूरत ही नहीं रहेगी. बाबूजी स्वस्थ हो जाएं तो वह भी कुछ न कुछ कर लेंगे.’’

‘‘नहीं दीदी, आप नहीं समझ रही हैं. बात खर्चे की नहीं है, नीयत की है. मुकेश की नीयत ठीक नहीं,’’ मुकुल बोल पड़ा.

‘‘सोचसमझ कर बोलिए भैया, मेरी नीयत में कोई भी खोट नहीं, यह कहिए कि आप ही निबाहना नहीं चाहते,’’ मुकेश ने बात काटी. दोनों एकदूसरे को खूनी नजरों से घूर रहे थे.

‘‘चुप रहो दोनों. बाबूजी को ठीक होने दो फिर कर लेना जो दिल में आए.’’

‘‘देखिए दीदी, आप बाबूजी की बीमारी के बारे में जानने के बाद अब 1 वर्ष बाद आ पाई हैं. अब बुलाने पर तो आप आएंगी नहीं. यह बात आप के सामने हो तो बेहतर होगा. वरना बाद में आप ने कुछ आपत्ति उठाई तो?’’ मुकेश बोला.

‘‘मुकेश,’’ सुमि चीखी, ‘‘मैं तुम दोनों की तरह बेशर्म नहीं हूं, जो ऐसी बातें करूंगी और सुन लो, मुझे अपने अम्मांबाबूजी की खुशी के अलावा कुछ नहीं चाहिए. और हां, बंटवारे के बाद अम्मांबाबूजी कहां रहेंगे, बताओ तो जरा?’’

‘‘क्यों, मुकेश के पास. वही अम्मां का लाड़ला छोटा बेटा है,’’ मुकुल ने झट कहा.

‘‘मेरे पास क्यों? आप बड़े हैं. आप की जिम्मेदारी है,’’ मुकेश ने नहले पर दहला मारा.

विजयजी की आंखों की कोरों से 2 बूंद आंसू लुढ़क गए. उन के दोनों स्तंभ बड़े कमजोर निकले. उन का अभेद्य किला आज ध्वस्त हो गया था, जाने कब से अंदर ही अंदर यह ज्वालामुखी धधक रहा था. ललिता ने भी मुझे कुछ भनक नहीं लगने दी. अंदर का ज्वालामुखी मन में दबाए मेरे आगे हमेशा हंसती रही. उन की नजरें ललिता को खोजने लगीं. वह उन्हें दरवाजे की ओट में से भीतर झांकती दिखीं. बेहद डरीसहमी हुई. दोनों बहुएं भी वहीं थीं. शायद वे भी यह सब चाहती थीं, पर उन के चेहरों पर ऐसा कुछ भी नहीं था. उन की निगाहें झुकी हुई थीं, चुप थीं दोनों.

सुमि फिर दहाड़ी, ‘‘इतना सबकुछ तय कर लिया अपनेआप, यह भी बताओ, बंटवारा कैसे करना है, यह भी तो सोच ही लिया होगा? आखिर बाबूजी तो लाचार हैं, कुछ बोल नहीं सकेंगे, तो?’’

‘‘इतना बड़ा घर है. बीच से एक दीवार डाल देंगे, जो आंगन को भी बराबरबराबर बांट दे. रसोई काफी बड़ी है, आंगन के बीचोंबीच. उस में भी दीवार डाल देंगे,’’ मुकुल ने कहा.

‘‘और अम्मांबाबूजी के बारे में भी तो तुम दोनों ने सोच ही लिया होगा. उन का क्या होगा, क्या सोचा है?’’ सुमि का चेहरा लाल हो रहा था.

‘‘दीदी, आप अमेरिका में रह कर ऐसी नादानी भरी बातें करेंगी, आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी. वहां बूढ़े और अपाहिज मातापिता का क्या करते हैं यह आप से बेहतर कोई क्या जानेगा?’’ मुकुल फुसफुसाया जो सब ने सुन लिया.

‘‘हां, भैया ठीक कह रहे हैं. आजकल यहां भारत में भी ऐसा इंतजाम है. यहां भी कई वृद्धाश्रम खुल गए हैं,’’ मुकेश ने कहा तो सुमि को लगा कि दोनों भाई कम से कम इस बारे में एकमत थे.

दोनों अपना फैसला सुना कर बाहर चल दिए. अम्मां दरवाजे के पास घुटनों में सिर दे कर बैठ गईं, सिसकते हुए अपने दिवंगत सासससुर को याद करने लगीं, ‘‘अब कहां हो अम्मांजी, बापूजी? हम तो एक बेटे एक बेटी में खुश थे. आप ही को 2-2 पोते चाहिए थे. अगर एक ही होता तो आज यह नौबत न आती.’’

सुमि दोनों हथेलियों में सिर थामे निर्जीव सी कुरसी पर ढह गई. जीजाजी, जो अब तक चुप थे, ने चुप ही रहने में अपनी भलाई समझी. कहीं यह न हो कि दोनों सालों को डांटें तो वह यह न कह दें कि जीजाजी, आप को क्या कमी है, आप क्यों नहीं ले जाते अपने साथ?

विजयजी बेबस परेशान अपने दिए संस्कारों में गलतियां खोज रहे थे. जिस भरोसे से उन्होंने अपने अटूट परिवार की नींव डाली थी, वह भरोसा ही खंडखंड हो गया था. सबकुछ तो उन के तय किए हुए खाके पर चल रहा था, शायद ऐसे ही चलता रहता, अगर उन पर इस पक्षाघात का कहर न टूट पड़ता.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें