Top 10 Best Family Story in Hindi: टॉप 10 बेस्ट फैमिली कहानियां हिंदी में

Family Story in Hindi: परिवार हमारी लाइफ का सबसे जरुरी हिस्सा है, जो हर सुख-दुख में आपका सपोर्ट सिस्टम बनती है. साथ ही बिना किसी के स्वार्थ के आपका परिवार साथ खड़ा रहता है. इस आर्टिकल में हम आपके लिए लेकर आये हैं गृहशोभा की 10 Best Family Story in Hindi. रिश्तों से जुड़ी दिलचस्प कहानियां, जो आपके दिल को छू लेगी. इन Family Story से आपको कई तरह की सीख मिलेगी. जो आपके रिश्ते को और भी मजबूत करेगी. तो अगर आपको भी है कहानियां पढ़ने के शौक तो पढ़िए Grihshobha की Best Family Story in Hindi 2022.

1. सुबह अभी हुई नहीं थी: आखिर दीदी को क्या बताना चाहती थी मीनल

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अपनी बङी दीदी को मीनल कुछ बताना चाहती थी, मगर फोन में मैसेज लिख चुकने के बाद भी वह सालों से उसे पढ़ तो लेती, पर भेजने का साहस नहीं जुटा पा रही थी. आखिर क्यों…

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2. ध्रुवा: क्या आकाश के माता-पिता को वापस मिला बेटा

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आकाश के मातापिता, जो बेटे को खो कर अपने लिए जीने की वजह खो चुके थे, उस कागज के टुकड़े को पढ़ते ही दौड़ कर बाहर आए. ध्रुवा को घर के अंदर लेते वक्त सभी ने आकाश को अपने आसपास महसूस किया जैसे उन का बेटा लौट आया हो.

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3. हमारे यहां ऐसा नहीं होता: धरा की सास को क्यों रहना पड़ा चुप

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घर में नई बहू धारा ने आ कर परंपरावादी सास सुधा का दिल जीत ही लिया. परंतु बहू में ऐसा कौन सा गुण था, जिस से सास भी अछूती न रह सकी? हर वक्त हमारे यहां तो ऐसा नहीं होता है, पर तुम्हारे यहां… सास की हिदायत सुन बहू धारा तर्क करती तो सास को क्यों चुप रहना पड़

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4. मां का बटुआ: कुछ बातें बाद में ही समझ आती हैं

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कुछ बातें एक उम्र गुजर जाने के बाद ही समझ में आती हैं. मां की हर बात का फलसफा मुझे अब समझ आने लगा है. क्या करूं मां बन कर, सोचना जो आ गया है.

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5. चक्रव्यूह भेदन : वान्या क्यों सोचती थी कि उसकी नौकरी से घर में बरकत थी

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वान्या सोचती थी कि उस की नौकरी से घर में बरकत थी. लेकिन असलियत जान कर उसे अपने निर्णय पर गर्व क्यों हो आया?

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6. वह बेमौत नहीं मरता: एक कठोर मां ने कैसे ले ली बेटे की जान

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बड़बड़ा रही थीं 80 साल की अम्मां. सुबहसुबह उठ कर बड़बड़ करना उन की रोज की आदत है, ‘‘हमारे घर में नहीं बनती यह दाल वाली रोटी, हमारे घर में यह नहीं चलता, हमारे घर में वह नहीं किया जाता.’’ सुबह 4 बजे उठ जाती हैं अम्मां, पूजापाठ, हवनमंत्र, सब के खाने में रोकटोक, सोनेजागने पर रोकटोक, सब के जीने के स्तर पर रोकटोक. पड़ोस में रहती हूं न मैं, और मेरी खिड़की उन के आंगन में खुलती है, इसलिए न चाहते हुए भी सारी की सारी बातें मेरे कान में पड़ती रहती हैं….

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7. सहारा: कौन बना अर्चना के बुढ़ापे क सहारा

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रजनीश सिगरेट फूंकता हुआ फुटपाथ पर खड़ा नजरें इधरउधर दौड़ा रहा था कि अचानक एक महिला को एक दुकान से निकलता देख चौंक पड़ा, ‘अर्चना?’ हां, यह अर्चना ही तो है. वही चेहरामोहरा, वही चालढाल…’ वह खुद से बुदबुदाया और अनायास ही उस की ओर बढ़ गया.

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8. मेरा घर: बेटे आरव को लेकर रंगोली क्यों भटक रही थी

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पति का घर पति का होता है, मम्मीपापा का घर मम्मीपापा का. रंगोली का तो कोई घर ही नहीं. पुत्र आरव को ले कर वह कहां रहे? सहेली अतिका ने एक सुझाव दिया जिस को मान उस ने फैसला कर लिया.

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9. आखिरी प्यादा: क्या थी मुग्धा की कहानी

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सायरन बजाती हुई एक एम्बुलेंस अस्पताल की ओर दौड़ पड़ी. वहां की औपचारिकताएं पूरी करने में दोतीन घंटे लग गए थे. सारी कार्यवाही कर जब वे वापस आए तब घर में केवल राघव और मैं थे. राघव और ‘मैं’ यानी पड़ोसी कह लीजिए या दोस्त, हम दोनों का व्यवसाय एक था और पारिवारिक रिश्ते भी काफी अच्छे थे. हम सब मित्रों की संवेदनाएं राघव के साथ थीं कि इस उम्र में पत्नी मुग्धा जी मानसिक असंतुलन खो बैठी हैं और उन्हें अस्पताल में भरती करवाना पड़ा था.

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10.संबंध : भैया-भाभी के लिए क्या रीना की सोच बदल पाई?

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जिस भाभी के लिए रीना के मन के किसी कोने से अस्फुट सी एक आवाज उठती थी कि वे इस दुनिया से चली जाएं और भैया का जीवन बंधनों से मुक्त हो जाए…

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अभियुक्त: भाग 2- सुमि ने क्या देखा था

डाक्टर ने जब उसे बताया कि वह मां बनने वाली है तो वह जैसे आसमान से गिरी. जिस बात की खबर औरत को सब से पहले हो जाती है उस बात का पता उसे 3 महीने बाद चला. कितने तनाव में थी वह. यह खबर उसे और भी उदास कर गई. ऐसे दुश्चरित्र व्यक्ति की संतान की मां बनना कोई सुखद अनुभव थोड़े ही था.

शैलेंद्र की खुशी का ठिकाना नहीं था, ‘‘जानती हो सुमि, इस बात ने मेरे अंदर कितना उत्साह भर दिया है. दुनिया में कितने ही लोग आज तक बाप बन चुके हैं पर मुझे लग रहा है कि कुदरत ने यह स्वर्णिम उपहार सिर्फ  मुझे ही दिया है. क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता, सुमि?’’

सुमि की आंखें छलछला आईं. ‘‘मुझे लगता है कुदरत ने ऐसा क्रूर मजाक मेरे साथ क्यों किया? अब तो मैं इस से नजात भी नहीं पा सकती.’’

‘‘सुमि,’’ शैलेंद्र का स्वर गंभीर हो गया, ‘‘तुम्हें नफरत है न मुझ से? मैं समझ सकता हूं. लेकिन आज मैं तुम्हें सारी बातें बता कर अपराधबोध से मुक्त होना चाहता हूं.’’

कुछ क्षण रुक कर शैलेंद्र एकएक शब्द तौलते हुए कहने लगा, ‘‘मैं और शिरीन एकदूसरे से प्यार करते थे. चाचीजी हमारी शादी के लिए राजी नहीं थीं क्योंकि वह दूसरी जाति और धर्म की थी? तुम तो जानती हो कि चाचीजी मेरे जीवन में कितना बड़ा स्थान रखती हैं. उन की इच्छा और आज्ञा मेरे लिए मेरे प्यार से बढ़ कर थी. चाचीजी ने मुझ से एक वचन और लिया था कि मैं अपने विवाह को शतप्रतिशत निभाऊंगा. मैं ने कोशिश भी की लेकिन न जाने उस में कैसे कमी रह गई.

‘‘उस दिन लंच लेने के लिए मैं घर आया तभी न जाने कैसे शिरीन भी वहां आई. उस ने समझदारी से हमारे संबंधों की इतिश्री कर ली थी. वह मुझे अपनी शादी की सूचना देने और हमारी पुरानी तसवीरें लौटाने आई थी. यह सोच कर कि वह अब हमेशा के लिए बिछड़ने वाली है मैं अपनेआप को काबू में न रख सका. लेकिन मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मैं ने मर्यादा की सीमारेखा लांघने की कभी कोशिश नहीं की. गलती इतनी सी है कि मैं जिन संबंधों को समाप्त समझ रहा था दरअसल उस के तार अभी पूरी तरह टूटे नहीं थे. क्या तुम हमारे बच्चे की जिंदगी के लिए मुझे माफ नहीं कर सकोगी?’’

शैलेंद्र ने सुमि का हाथ अपने हाथों में थाम लिया. उस के पश्चात्ताप विगलित स्वर और आंखों के अनुरोध भरे भावों की वह उपेक्षा नहीं कर सकी. कुछ क्षण बाद उठ कर दूसरे कमरे में चली गई. लगता था उस के भीतर जो चट्टान की तरह जमा है, उसे वह पिघलने देना नहीं चाहती.

शैलेंद्र उस के लिए फल और मिठाइयां ले आया. घर के काम में भी वह उस का हाथ बंटाता. उस के प्यार, उस की भलमनसाहत से वह अभिभूत तो थी पर वह दृश्य याद आते ही उस की कोमल भावनाएं कठोर आवरण तले दब जातीं.

उस दिन चाचीजी का फोन आया कि तीज के पूजन के लिए उन्होंने बहू को गांव बुलाया था. शैलेंद्र ने शरमाते, झिझकते हुए बताया कि वह नहीं आ पाएगी.

कारण सुनते ही चाचीजी उबल पड़ीं, ‘‘हद है, बहू को 4 माह चढ़ गए हैं और तू मुझे अब सूचना दे रहा है. मैं कल ही निकल रही हूं.’’

यहां आ कर वह एक ही दिन में भांप गईं कि पतिपत्नी के संबंध सामान्य नहीं, नाटकीयता से भरे हैं.

छोटे से गांव में चाचीजी की पूरी जिंदगी गुजरी थी. शैलेंद्र को उन्होंने छाती से लगा कर पाला था. शैलेेंद्र के मातापिता और चाचा एकसाथ ही एक बस दुर्घटना में गुजर गए. शोक संतप्त चाची के आंचल में यह अनाथ भतीजा एक अमानत बन कर समा गया. लगभग 6 साल के शैलेंद्र के आंसू पोंछतेपोंछते वह अपना दुख भी भूल गई. शैलेंद्र उन के एकाकी  जीवन का मकसद बन गया. वह भी उन का बहुत सम्मान करता था. गांव में 8वीं जमात तक पढ़ने के बाद उन्होंने उसे शहर पढ़ने भेजा. होस्टल में रखा. सदा ऊंचनीच समझाती रहीं. होस्टल से लौट कर आंचल में दुबक कर सो जाता. चाचीजी उस के सिर पर वात्सल्य से भरी थपकियां देती रहतीं.

उस भयंकर बस दुर्घटना के बाद 2 साल की ब्याहता और फिर विधवा हुई चाचीजी उस का सबकुछ थीं. छोटीछोटी समस्याएं वह उन के पास ले जाता और वह उन्हें क्षण भर में सुलझा देतीं. कभी किसी ने उस की पतंग चुरा ली. उस की गणित की कापी की नकल की. नन्हे से जीवन की अनगिनत खट्टीमीठी लड़ाइयां, हवा भरे बुलबुलों की तरह अस्थायी फिर भी चाचीजी की प्यार भरी समझ से उस का बालमन आश्वस्त हो जाता.

लेकिन अब वह किशोर उम्र का था. मन में अजीबअजीब से खयाल उमड़ते- घुमड़ते रहते. दोस्तों की बातें बड़ी रहस्यमय लगतीं. लड़कियों से बात करते समय जीभ तालू से चिपक जाती लेकिन रात को सपने में वही लड़कियां, छि:, कितनी शरम की बात है. एक तरफ उस की पढ़ाई है, एक तरफ अबूझ आकर्षण. मन की इस चंचल स्थिति के बारे में किस से कहे.

पड़ोस की नीलू अब कटोरदान में दाल या सब्जी रख कर चाचीजी को देने आती तो वह बचपन वाले शैलेंद्र को नहीं  पाती. नीलू भी तो कितनी बड़ी हो गई. अचानक कब? कैसे? पता ही नहीं चला.

उस दिन चाचीजी ने उसे नीलू से बात करते हुए देख लिया और न जाने कैसे उस का अंतर्द्वंद्व भांप लिया. उसे कलेजे से लगा कर उस रात वह कितना कुछ समझाती रहीं. स्पष्ट, बेलाग शब्दों में, बेझिझक. फिर बोलीं, ‘बेटे, यह सब मैं तुझे अभी से इसलिए बता रही हूं क्योंकि तू अकेला रहता है. कल तेरे साथी तुझ से कोई गलत बात न कहें. तू किसी बहकावे में न आए. हर बात की एक निश्चित उम्र होती है. इस समय तेरी उम्र है अपना चरित्र साफ रख कर अपना जीवन बनाने की, पढ़नेलिखने की.’

चाचीजी की यह सीख शैलेंद्र ने गांठ बांध ली थी. पढ़ने में खूब मन लगाया. मन स्थिर हो गया. स्कूल खत्म कर के इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला ले लिया. अगर उस दिन चाचीजी उसे सबकुछ नहीं बतातीं तो क्या वह इतना कुछ कर पाता.

ऐसी चाचीजी के लिए शैलेंद्र और सुमि के बीच खिंची अदृश्य अलगाव रेखा का पता लगाना भला कौन सा मुश्किल काम था.

शैलेंद्र के साथ घर के सामने लौन पर टहलते हुए ही उन्होंने उस से सबकुछ उगलवा लिया. दीर्घ निश्वास के साथ वह बोलीं, ‘‘हूं, तो मेरा फैसला ठीक ही था. देख शैलेंद्र, तेरी इतनी बड़ी गलती पर परदा डाल कर जो लड़की बिना हंगामा खड़ा किए अपने दांपत्य की इज्जत मेरे सामने बचा ले गई वह लड़की कितनी संस्कारी है, यह बात तू खुद समझ ले. दूसरी ओर, जो लड़की अकेले शादीशुदा मर्द से मिलने आए उस के बारे में क्या कहा जाए. वह दूसरे धर्म की थी यह बात तो थी ही महत्त्व की.’’

‘‘आप ने ठीक कहा, चाचीजी.’’

‘‘सिर्फ ठीक? अरे, सोलह आने सच. और अब ये बता कि सुमि की इस तरह की गलती को क्या तू माफ करता?’’

आगे पढ़ें- शैलेंद्र चाचीजी की बात पर हंस दिया…

पक्षाघात: भाग 2- क्या टूट गया विजय का परिवार

लेखिका- प्रतिभा सक्सेना

चोपड़ा साहब ने कहा, ‘‘हां, ठीक कहते हो. कई साल पहले मेरे सगे फूफाजी इसी बीमारी को 11 साल झेल कर गुजर गए. बेचारी बूआ बहुत परेशान रहा करती थीं. पैसों की काफी तंगी हो गई थी उन्हें. सब रिश्तेदारों के आगे हाथ फैलाया करती थीं. शुरू में तो सब ने मदद की पर धीरेधीरे सब ने हाथ खींच लिए.’’

विजयजी सकते में आ गए. तो क्या इतनी वेदना से गुजरेंगे वह और उन के परिवार के लोग. अगर इतने साल बिस्तर पर पड़ेपड़े गुजारने पड़े तो कैसे गुजरेंगे पहाड़ से ये दिन. बाबूजी दिन भर सोचते कि इस दिमाग पर क्यों नहीं फालिज मार गया. कम से कम हर तकलीफ से नजात तो मिल जाती. बस, बाबूजी बेचारगी में छत को देखते रहते और दूर से आती आवाजें सुनते.

एक दिन किशन ने उन के दोस्तों की बातें सुन लीं. वह उस समय बाबूजी की मालिश कर रहा था. कई दोस्त तो उन्हें खूब तसल्ली देते परंतु कुछ एक ऐसे खरदिमाग होते हैं कि कहां क्या बात करनी चाहिए इस की समझ नहीं रखते. तो किशन ने महसूस किया कि इन दिल बैठा देने वाली बातों को सुन कर बाबूजी का रंग उड़ गया है.

उस ने बाद में सारी बातें ज्यों की त्यों मुकुल और मुकेश को सुना दीं. घर के सारे लोग बहुत खफा हुए कि हम सब तो यहां सेवा करकर के बेदम हो रहे हैं और बाबूजी के दोस्तों की कृपा रही तो वह कभी भी स्वस्थ नहीं हो पाएंगे. इस के बाद जब बाबूजी के दोस्त आते तो बाबूजी अभी सो रहे हैं कह कर बाहर से ही विदा कर दिया जाता. ऐसा कई दिनों तक चला तो बाबूजी के दोस्तों ने आना ही बंद कर दिया.

अब बाबूजी सिवा डाक्टर और किशन के बाहर की दुनिया से कट गए थे.

सुमि के फोन आने पर उस से बहाने तो बना दिए जाते पर आखिर कब तक. एक दिन छोटी बहू ने बता ही दिया. सुमि बहुत नाराज हुई कि अब तक उस से छिपाया क्यों गया? क्या भाई नहीं चाहते कि वह मायके आए. भाइयों ने बहुत समझाया कि ऐसा नहीं है, वह इतनी दूर है कि आसानी से आ नहीं सकती तो उसे परेशान नहीं करना चाहते हैं, इस के अलावा न बताने के पीछे कोई और मंशा नहीं थी.

और सच में सुमि फौरन नहीं आ पाई. हां, उस के फोन अब बाबूजी के हालचाल को जानने के लिए जल्दीजल्दी आने लगे.

एक दिन जाने क्या हुआ कि बाबूजी को घर में होहल्ला, चीखपुकार सुनाई पड़ने लगी. उन के काम लोग बदस्तूर कर रहे थे पर उन्हें कोई कुछ बता नहीं रहा था. किशन की तरफ बाबूजी पूछने वाली निगाहों से देखते पर वह भी चुप ही रहता. जिज्ञासा उन्हें खाए जा रही थी.

2 दिन बाद छोटा बेटा मुकेश आया. वह बहुत तैश में था और चुपचाप उन के पास बैठ गया. उन्होंने बड़े प्यार से सवालिया निगाहों से उसे देखा.

मुकेश अचानक फट पड़ा, ‘‘बाबूजी, आप भैया को समझा दें. बातबात पर मुझ को डांटें नहीं. अब मैं बच्चा नहीं रहा. खुद बालबच्चों वाला हूं.’’

बाबूजी ने हंसने की कोशिश में होंठ फैलाने की कोशिश की, जैसे कह रहे हों, ‘अरे, बेटा, तुम कितने भी बालबच्चेदार हो जाओ, बड़ों के लिए तो तुम छोटे ही रहोगे.’

मुकेश ने फिर कहा, ‘‘भैया अब बातबात पर मुझ से उलझने की कोशिश करते हैं, यह मुझे अब बरदाश्त नहीं.’’

बाबूजी बेचारे क्या करते. समझ गए कि दोनों भाई उन की बीमारी से इतने दुखी हो चुके हैं कि अपनीअपनी भड़ास एकदूसरे पर निकालने लगे हैं.

विजयजी पेशे से वकील थे. सरकारी नौकरी उन्होंने कभी नहीं की. रोज कमाओ, रोज खाओ वाली स्थिति रही. वह मेहनती और काबिल वकील थे, तो अच्छा कमा लेते थे. बच्चों को अच्छा खिलाया, पहनाया. उन की इच्छाएं भी पूरी कीं और संस्कार भी अच्छे दिए. काफी कुछ बचाया जिस में से एक बड़ा हिस्सा बेटी के विवाह और घर बनाने में लग गया. बेटों को अलगअलग घर बना कर दे सकते थे पर उन का मानना था कि एक घर में दोनों साथसाथ रहें तो परिवार मजबूत बनेगा. उन के अनुसार दोनों के परिवार 2 नहीं वरन एक बड़ा परिवार है.

घर उन्होंने बेटी के विवाह के बाद बनाया. दोनों बेटों ने पढ़लिख कर कमाना शुरू कर दिया था. अपने घर में उन्होंने बेटे रूपी 2 मजबूत स्तंभ खड़े कर दिए थे जो इस घर की छत कभी भी गिरने नहीं देंगे.

बहुएं भी उन्होंने अपनी पसंद की चुनी थीं. मध्यम वर्ग की संस्कारी लड़कियां, जो अब तक उन की कसौटी पर खरी उतरी थीं. करुणा और ऋतु मिलजुल कर ही रहतीं, काम भी मिलजुल कर करतीं. कभी कोई कटुता दोनों के बीच आई हो ऐसा कभी नहीं लगा. अगर कोई चिल्लपों रही हो घर में तो वह घर के बच्चों के मासूम झगड़े ही थे. अपना परिवार उन का ऐसा किला था जिस को कोई भेद नहीं सकता था. बड़ा सुखद जीवन चल रहा था कि अचानक इस में पक्षाघात रूपी बवंडर आ गया.

आज अपने इस बेटे के उखड़े हुए रूप को देख कर वह दहल गए कि कहीं यह बवंडर उन के घर को तिनकेतिनके कर न ले उड़े पर एक विश्वास था उन्हें कि उन के द्वारा निर्माण किए हुए ये 2 मजबूत स्तंभ ऐसा नहीं होने देंगे, पर अब डर तो बना रहेगा ही.

ऐसे में एक दिन खबर आई कि सुमि अपने पति और बच्चों सहित आ रही है. एक नीरसता भरे वातावरण में उल्लास की लहर दौड़ गई. वह बाबूजी की बीमारी के ढाई वर्ष बाद आ पा रही थी.

सुमि आई. वह और उस के दोनों बेटे बाबूजी के पास बैठते, वहां ताश, लूडो और तरहतरह के खेल खेलते और अपने मामा के बच्चों को भी अपने साथ खेलने को उकसाते. मुकुलमुकेश के बच्चे बड़े असमंजस में पड़ गए कि क्या वे भी बाबाजी के कमरे में खेल सकते थे? इन दोनों को कोई क्यों नहीं मना करता बाबाजी के पास जाने को? पर रिश्ता ही ऐसा था कि उन पर किसी

भी प्रकार का बंधन नहीं डाला जा सकता.

सुमि के जोर देने पर मुकुल व मुकेश ने भी अपने बच्चों को बाबाजी के पास हुड़दंग मचाने की अनुमति दे दी. क्या पता ऐसे ही कुछ फायदा हो जाए. अभी तक तो पहले जैसी ही स्थिति है बाबूजी की.

आगे पढ़ें- सुमि के वापस जाने का समय…

अभियुक्त: भाग 1- सुमि ने क्या देखा था

घंटी बजने के साथ ही, ‘‘कौन है?’’ भीतर से कर्कश आवाज आई.

‘‘सुमि आई है,’’ दरवाजा खोलने के बाद भैया ने वहीं से जवाब दिया.

‘‘फिर से?’’ भाभी ने पूछा तो सुमि शरम से गड़ गई.

विवेक मन ही मन झुंझला उठा. पत्नी के विरोध भाव को वह बखूबी समझता है. सुमि की दूसरी बार वापसी को वह एक प्रश्नचिह्न मानता है जबकि दीपा इसे अपनी सुखी गृहस्थी पर मंडराता खतरा मानती है. विवेक के स्नेह को वह हिसाब के तराजू पर तौलती है.

चाय पीते समय भी तीनों के बीच मौन पसरा हुआ था.

विवेक की चुप्पी से दीपा भी शांत हो गई लेकिन रात को फिर विवाद छिड़ गया.

‘‘शैलेंद्रजी बातचीत में तो बड़े भले लगते हैं.’’

‘‘ऊपर से इनसान का क्या पता चलता है. नजदीक रहने पर ही उस की असलियत पता चलती है.’’

‘‘मेरा भी यही कहना है. मुझे तो सुमि अच्छी लगती है पर पता नहीं शैलेंद्रजी के लिए कैसी हो. मेरा मतलब है, पत्नी के रूप में वह कैसी है हमें क्या मालूम.’’

सुमि विवेक की लाडली बहन थी. संयोग से इसी शहर में ब्याही गई थी. देखने में सुंदर, कामकाज में सलीकेदार, व्यवहारकुशल, रिश्तेदारों और मित्रों में खासी लोकप्रिय सुमि के बारे में वह गलत बात सोच भी नहीं सकता.

‘‘दीपा, मैं अपनी बहन के बारे में कुछ भी सुनना नहीं चाहता. अनैतिकता को किसी भी वजह का जामा पहना कर जायज नहीं ठहराया जा सकता.’’

भैयाभाभी के बीच बातचीत के कुछ अंश सुमि के कानों में भी पड़े. उस की आंखें भर आईं.

भाभी पहले ऐसी तो नहीं थीं. मां सब से बड़े भैया के पास जयपुर में रहती थीं. पिछले 2 वर्ष से वह विवेक भैया के पास ही रह कर अपनी स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर रही थी. तब भी उन्होंने उसे मां का स्नेह दिया था. हालात के साथ व्यक्ति का व्यवहार भी बदल जाता है.

घर के पास ही एक स्कूल में सुमि पढ़ाने जाती थी. कम तनख्वाह थी पर वक्त बड़े मजे से कट जाता था. उस दिन एक साथी शिक्षिका की मां के गुजर जाने से वह जल्दी घर लौट आई. देखा, दरवाजे पर ताला नहीं था. शायद शैलेंद्र लंच के समय आ गए थे. घंटी बजाई पर बिजली गुल थी. दरवाजे की दरार से झांक कर देखा तो उस पर जैसे सैकड़ों बिजलियां एकसाथ गिर पड़ीं.

दरवाजे की आहट पा कर शैलेंद्र ने दरवाजा खोला. उस के साथ कोई लड़की खड़ी थी. बदहवास.

उस दिन सुमि कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थी. शैलेंद्र भी नजरें चुराता रहा.

सुमि लौट आई थी. घर आ कर फूटफूट कर रोई थी. दीपा ने उसे गले से लगाया था. विवेक ने शैलेंद्र को कोर्ट में खींचने की बात कही थी. लेकिन सुमि को साथ रहते 1 महीना होते ही दीपा का धैर्य चुकने लगा. वह सुमि को समझौते के लिए उकसाने लगी. लंबी जिंदगी का वास्ता देने लगी. सुमि को समझते देर नहीं लगी कि उस की मौजूदगी अब इस घर में अवांछनीय है. सोचा, एक बार जा कर अपनी लड़खड़ाती गृहस्थी संभाल ले. यह निर्णय आसान नहीं था. बारबार दरवाजे की दरार से देखा दृश्य याद आ जाता.

इतनी अंतरंगता, इतनी उत्तेजना तो उस ने खुद अपने साथ भी अनुभव नहीं की थी.

अपमान की गहरी खाई में जैसे सुमि को किसी ने धक्का दे दिया था.

उस के सौंदर्य, उस के समर्पण, उस के विश्वास का अपमान यहां तक कि उस की कोमल भावनाओं का अपमान.

अपनी वापसी उसे अपनी पराजय लगने लगी. पर शैलेंद्र के फोन ने उसे फिर दोराहे पर ला खड़ा किया.

‘‘सुमि, प्लीज, चली आओ. मैं बहुत दुखी हूं. तुम्हारे पांव पकड़ कर माफी मांगने को तैयार हूं. आइंदा ऐसी गलती नहीं करूंगा. बहुत शर्मिंदा हूं.’’

रिसीवर रखा तो भाभी आशाभरी नजरों से उसे देख रही थीं.

‘‘भाभी, मैं ने सोचा है कि शैलेंद्र को एक मौका दे दिया जाए,’’ दीपा के चेहरे पर राहत के भाव उभरे.

‘‘वही तो, मेरा भी यही मानना है कि यदि वह अपनी गलती मान रहा है तो हमें भी इतना नहीं अकड़ना चाहिए. फिर मांजी से भी यह बात कब तक छिपाई जा सकती है?’’

‘‘सुमि, तू ने ठीक से सोच लिया है न. यह कभी मत सोचना कि तू यहां नहीं रह सकती. बाबूजी के इस घर पर तेरा भी अधिकार है.’’

भैया की इस बात पर सुमि खामोश हो गई. प्रेम की सीमारेखा जहां समाप्त होती है वहीं से अधिकार की बातें शुरू होती हैं. प्रेम तो अपने साथ सब कुछ देना जानता है. अधिकार की फिर भी मर्यादा होती है. बहन के अधिकार का प्रयोग कर के वह यहां भी रह सकती है और पत्नी के अधिकार का प्रयोग कर के वहां भी रह सकती है.

सुमि को सोचने में क्षण भर लगा और वह तैयार हो कर आटो में बैठ गई.

फोन पर शैलेंद्र जितनी सहजता से बोल रहा था, सामने अपनेआप को बहुत कठिनाई में पा रहा था. घर की सफाई से निबट कर सुमि ने खाना बनाया.

रात को बिस्तर पर जाते ही शैलेंद्र की हिम्मत लौट आई. उस ने सुमि का हाथ पकड़ा. सुमि को झटका सा लगा. किसी भी तरह की गलती को वह माफ कर सकती थी पर आंखों देखा वह दृश्य. क्या वह भूलने योग्य था. उसे लगा जैसे सैकड़ों कीड़े उस के हाथ पर रेंग रहे हों. उस ने शैलेंद्र का हाथ झटक सा दिया.

‘‘शैलेंद्र, तुम कितनी ही बार माफी मांगो, मैं वह दृश्य नहीं भूल सकती. तुम ने संबंधों की पवित्रता को कलंकित किया है.’’

शैलेंद्र करवट बदल कर सो गया पर सुमित्रा की आंखों से नींद कोसों दूर थी. कितनी ही बार मन हुआ कि शैलेंद्र को झकझोर कर उसे प्रताडि़त करे लेकिन ऐसा लगता कि उस के आक्रोश को अभिव्यक्त करने योग्य शब्द अभी तक शब्दकोश में भी नहीं लिखे गए हैं. अव्यक्त क्रोध आंसुओं के रूप में बरस कर तकिया भिगोता रहा था.

सुमि मन ही मन घुलने लगी. शैलेंद्र का कलेजा उस की हालत देख कर टूकटूक हो जाता पर वह क्या करता. वह कुसूरवार था. उस दिन शिरीन उस के प्रेमपत्र और तसवीरें लौटाने आई तो वह अपनी भावनाओं को काबू में नहीं रख सका. उसे बांहों में भर कर बेतहाशा चूमने लगा तभी सुमि…

वह शायद आगे बढ़ता भी नहीं पर सुमि तो बहुत आगे तक सोच गई होगी. वैसे भी उस की इतनी भूल भी क्षमायोग्य तो नहीं थी.

दूसरे दिन शैलेंद्र ने भीगे स्वर में कहा, ‘‘सुमि, मुझ से तुम्हारी हालत देखी नहीं जाती. कितनी कमजोर हो गई हो. एक बार डाक्टर को दिखा दो. फिर चाहो तो अपने घर चली जाना.’’

आगे पढ़ें- शैलेंद्र की खुशी का ठिकाना नहीं था…

पक्षाघात: भाग 1- क्या टूट गया विजय का परिवार

लेखिका- प्रतिभा सक्सेना

विजयजी काफी देर लिखने के बाद उठे पर ठीक से उठ न पाए और गिर पड़े. उन्होंने दोबारा उठना चाहा पर हाथपैर बेजान ही रहे. वह घबरा तो गए पर हिम्मत न हारी. उठने का उपक्रम करते रहे, फिर थक कर निढाल हो जमीन पर पड़े रहे.

उन्होंने चिल्लाना चाहा पर जबान ने जैसे न हिलने की कसम खा ली. तभी उन्हें याद आया कि सब तो पिक्चर देखने गए हैं, अब तो आने ही वाले होंगे. अब दरवाजा कौन खोलेगा उन के लिए? बेचारे बाहर ठंड में अकड़ जाएंगे.

थोड़ी देर में दरवाजे की घंटी बजी. सब आ चुके थे. उन्होंने फिर उठना चाहा पर न जाने क्या हो गया है, वह यही सोचसोच कर हैरान हो रहे थे. घंटी लगातार बजती ही जा रही थी.

पत्नी तो बेटे- बहुओं के साथ अकेली जाना ही नहीं चाह रही थी. पर उन्हें कुछ लेखन का काम करना था सो जबरन ही उसे बेटों के साथ भेज दिया था. वह तो बहुएं बड़ी लायक हैं, उन्हें यह विचार ही नहीं आता कि मां- बाबूजी को उन के साथ नहीं लगना चाहिए, पर अब वह अपनी जिद को कोस रहे थे कि क्यों भेजा पत्नी को उन के साथ?

बाहर से बेटे बाबूजीबाबूजी चिल्ला रहे थे. दरवाजे को पीटा जाने लगा. तभी पत्नी का दहशत भरा स्वर सुनाई दिया, ‘‘मुकुल, दरवाजा तोड़ दो.’’

शायद दोनों बेटों ने मिल कर दरवाजा तोड़ा. घर में घुसते ही बाबूजीबाबूजी की आवाजें लगनी शुरू हो गईं. कमरे में बाबूजी को यों पड़े देखा तो हाहाकार मच गया. झट से दोनों बेटों ने मिल कर उन्हें पलंग पर लिटाया. उन की पत्नी ललिता उन के तलवे मलने लगी. बहुएं झट रसोई से उन के लिए पानी और हलदी वाला दूध ले आईं.

मुकेश ने पत्नी के हाथ से पानी का गिलास ले लिया और बाबूजी को हाथ के सहारे से उठा कर पिलाना चाहा तो होंठों के किनारों से पानी बाहर बह निकला. पति की यह हालत देख ललिता बिलखने लगीं. मुकेशमुकुल अपनीअपनी पत्नियों को मां को संभालने की आज्ञा दे कर डाक्टर को बुलाने चल दिए.

डाक्टर ने जांच कर के बताया कि विजयजी को पक्षाघात हुआ है. सब यह सोच कर अचंभित रह गए कि अब क्या होगा? सब को अब अपनी दुनिया अंधेरी नजर आने लगी.

डाक्टर ने दवाइयां और मालिश के लिए तेल लिख दिया और कहा, ‘‘संभालिए आप सब अपनेआप को. यदि आप सब घबरा जाएंगे तो इन्हें कौन संभालेगा? देखिए, इन के जीवन को तो कोई खतरा नहीं है पर कब तक ठीक होंगे यह कहना मुश्किल है. सेवा कीजिए, दवा दीजिए. शायद आप सब का परिश्रम रंग लाए और विजयजी ठीक हो जाएं. और हां, घर का वातावरण शांत रखिए. आप सब हाहाकार मचाएंगे तो मरीज का मन कैसे शांत रहेगा.’’

फिर तो परिवार में हर किसी की दिनचर्या ही बदल गई. फिक्र भरी सुबहें, तो दोपहर व्यस्त हो गई, शामें चिंतित और रातें दुखदायी हो गईं. बेटों ने कुछ दिनों की छुट्टियां ले लीं पर आखिर कब तक घर बैठे रहते. सब की अपनीअपनी उलझनें और परेशानियां थीं, अपनेअपने कार्य थे पर विजयजी कितने निरीह, कितने बेबस हो गए थे यह कौन समझ सकता है. आखिर कोई भी मातापिता अपने बच्चों को परेशान नहीं करना चाहता, पर नियति के आगे किसी की कब चली है.

तय यह हुआ कि अभी सुमि दीदी को खबर नहीं की जाए, इतनी दूर अमेरिका से आ तो पाएंगी नहीं पर परेशान बहुत होंगी. बच्चों को भी सख्त हिदायत दे दी गई कि बूआ का फोन आए तो बाबूजी के बारे में उन से कुछ न कहा जाए.

सुमि का फोन आने पर जब वह बाबूजी से बात कराने को कहती तो अलगअलग बहाने बना दिए जाते. बाबूजी सुमि से क्या बात कर पाते, वह तो जबान ही न हिला पाते.

एक फिजियोथेरैपिस्ट रोज आ कर बाबूजी को हलके व्यायाम करा जाता. दोनों बेटों ने बाबूजी को नहलानेधुलाने और उन की साफसफाई करने के लिए एक नौकर की व्यवस्था कर ली थी. मालिश का काम कभीकभी वह नौकर तो कभी ललिता करतीं.

डाक्टर की नसीहत के कारण बच्चों को बाबूजी के कमरे में ज्यादा देर रुकने को मना कर दिया गया था इसलिए बच्चे कम ही आते थे. विजयजी कमरे में अकेले पड़ेपड़े ऊब गए थे. बेटे तो कामकाजी थे सो वे घर में कम ही रहते थे. बहुएं कमरे में उन का खाना, चाय, दूध, नाश्ता आदि ले कर आतीं और अम्मां को पकड़ा कर चली जातीं. साथ ही कहतीं, ‘‘अम्मांजी, कुछ और जरूरत हो तो आवाज लगा दीजिएगा,’’ फिर वे दोनों अपनेअपने कामों में व्यस्त हो जातीं.

बाबूजी की बीमारी से काम भी तो बहुत बढ़ गए थे. पहले तो उन की मालिश बेटे करते थे पर अब अम्मां और कभीकभी नौकर किशन कर देता था. ललिता उन से दिन भर की बातें करतीं. पर बाबूजी की तरफ से कोई जवाब नहीं आ पाता तो धीरेधीरे बोलने का नियम कम होतेहोते समाप्त सा हो गया. वह भी बस, जरूरत भर की ही बातें करने लगीं.

विजयजी ने कई बार अपनी पत्नी ललिता से कहने की कोशिश की कि बच्चों को कमरे में खेलने दिया करो, कुछ तो मन लगे पर गोंगों का अस्पष्ट स्वर ही निकल पाता. ललिता पूछती ही रह जातीं कि क्या कहना चाह रहे हो? पर स्वत: उन की बात समझने में असफल ही रहतीं.

विजयजी बहुत बेबस हो जाते. दोनों बेटे भी सुबहशाम उन के पास बैठ जाते, पर आखिर कब तक. बाद में तो आफिस से आ कर हालचाल पूछ कर अपनेअपने कमरों में घुस जाते या बाहर आंगन में सब साथ बैठ कर बतियाते. बहुएं भी वहीं बैठ कर कुछ न कुछ करतीं और बच्चे या तो खेलते या फिर पढ़ते पर बाबूजी के कमरे में जाने की उन्हें मनाही थी. ललिता भी अब बाबूजी का काम निबटा कर बहूबेटों के साथ आंगन में बैठने लगीं. अब बाबूजी ज्यादातर दिन भर अकेले ही पड़े रहने लगे.

पहले खबर लगते ही विजयजी के दोस्त घर में जुटने लगे थे. 3-4 दोस्त साथ आ जाते तो उन की गप्पें शुरू हो जातीं. बाबूजी का उन की बातें ही सुन कर वक्त कट जाता पर कभीकभी उन की बातें सुन कर परेशान भी होने लगते. एक दिन गुप्ताजी कहने लगे, ‘‘वैसे यह रोग है बड़ा जानलेवा, जल्दी ठीक ही नहीं होता. मेरे साढू भाई के बड़े भाई साहब को हुआ तो 10 साल बिस्तर पर पड़े रहे. हिलडुल भी नहीं पाते थे, बड़े कष्ट झेले.’’

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अनुगामिनी

कहानी- कृष्ण कांत

जि लाधीश राहुल की कार झांसी शहर की गलियों को पार करते हुए शहर के बाहर एक पुराने मंदिर के पास जा कर रुक गई. जिलाधीश की मां कार से उतर कर मंदिर की सीढि़यां चढ़ने लगीं.

‘‘मां, तेरा सुहाग बना रहे,’’ पहली सीढ़ी पर बैठे हुए भिखारी ने कहा.

सरिता की आंखों में आंसू आ गए. उस ने 1 रुपए का सिक्का उस के कटोरे में डाला और सोचने लगी, कहां होगा सदाशिव?

सरिता को 15 साल पहले की अपनी जिंदगी का वह सब से कलुषित दिन याद आ गया जब दोनों बच्चे राशि व राहुल 8वीं9वीं में पढ़ते थे और वह खुद एक निजी स्कूल में पढ़ाती थी. पति सदाशिव एक फैक्टरी में भंडार प्रभारी थे. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. एक दिन वह स्कूल से घर आई तो बच्चे उदास बैठे थे.

‘क्या हुआ बेटा?’

‘मां, पिताजी अभी तक नहीं आए.’

सरिता ने बच्चों को ढाढ़स बंधाया कि पिताजी किसी जरूरी काम की वजह से रुक गए होंगे. जब एकडेढ़ घंटा गुजर गया और सदाशिव नहीं आए तो उस ने राशि को घनश्याम अंकल के घर पता करने भेजा. घनश्याम सदाशिव की फैक्टरी में ही काम करते थे.

कुछ समय बाद राशि वापस आई तो उस का चेहरा उतरा हुआ था. उस ने आते ही कहा, ‘मां, पिताजी को आज चोरी के अपराध में फैक्टरी से निकाल दिया गया है.’

‘यह सच नहीं हो सकता. तुम्हारे पिता को फंसाया गया है.’

‘घनश्याम चाचा भी यही कह रहे थे. परंतु पिताजी घर क्यों नहीं आए?’ राशि ने कहा.

रात भर पूरा परिवार जागता रहा. दूसरे दिन बच्चों को स्कूल भेजने के बाद सरिता सदाशिव की फैक्टरी पहुंची तो उसे हर जगह अपमान का घूंट ही पीना पड़ा. वहां जा कर सिर्फ इतना पता चल सका कि भंडार से काफी सामान गायब पाया गया है. भंडार प्रभारी होने के नाते सदाशिव को दोषी करार दिया गया और उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया.

सरिता घर आ कर सदाशिव का इंतजार करने लगी. दिन भर इंतजार के बाद उस ने शाम को पुलिस में रिपोर्र्ट लिखवा दी.

अगले दिन पुलिस तफतीश के लिए घर आई तो पूरे महल्ले में खबर फैल गई कि सदाशिव फैक्टरी से चोरी कर के भाग गया है और पुलिस उसे ढूंढ़ रही है. इस खबर के बाद तो पूरा परिवार आतेजाते लोगों के हास्य का पात्र बन कर रह गया.

सरिता ने सारे रिश्तेदारों को पत्र भेजा कि सदाशिव के बारे में कोई जानकारी हो तो तुरंत सूचित करें. अखबार में फोटो के साथ विज्ञापन भी निकलवा दिया.

इस मुसीबत ने राहुल और राशि को समय से पहले ही वयस्क बना दिया था. वह अब आपस में बिलकुल नहीं लड़ते थे. दोनों ने स्कूल के प्राचार्य से अपनी परिस्थितियों के बारे में बात की तो उन्होंने उन की फीस माफ कर दी.

राशि ने शाम को बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया. राहुल ने स्कूल जाने से पहले अखबार बांटने शुरू कर दिए. सरिता की तनख्वाह और बच्चों की इस छोटी सी कमाई से घर का खर्च किसी तरह से चलने लगा.

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इनसान के मन में जब किसी वस्तु या व्यक्ति विशेष को पाने की आकांक्षा बहुत बढ़ जाती है तब उस का मन कमजोर हो जाता है और इसी कमजोरी का लाभ दूसरे लोग उठा लेते हैं.

सरिता इसी कमजोरी में तांत्रिकों के चक्कर में पड़ गई थी. उन की बताई हुई पूजा के लिए कुछ गहने भी बेच डाले. अंत में एक दिन राशि ने मां को समझाया तब सरिता ने तांत्रिकों से मिलना बंद किया.

कुछ माह के बाद ही सरिता अचानक बीमार पड़ गई. अस्पताल जाने पर पता चला कि उसे टायफाइड हुआ है. बताया डाक्टरों ने कि इलाज लंबा चलेगा. यह राशि और राहुल की परीक्षा की घड़ी थी.

ट्यूशन पढ़ाने के साथसाथ राशि लिफाफा बनाने का काम भी करने लगी. उधर राहुल ने अखबार बांटने के अलावा बरात में सिर पर ट्यूबलाइट ले कर चलने वाले लड़कों के साथ भी मजदूरी की. सिनेमा की टिकटें भी ब्लैक में बेचीं. दोनों के कमाए ये सारे पैसे मां की दवाई के काम आए.

‘तुम्हें यह सब करते हुए गलत नहीं लगा?’ सरिता ने ठीक होने पर दोनों बच्चों से पूछा.

‘नहीं मां, बल्कि मुझे जिंदगी का एक नया नजरिया मिला,’ राहुल बोला, ‘मैं ने देखा कि मेरे जैसे कई लोग आंखों में भविष्य का सपना लिए परिस्थितियों से संघर्ष कर रहे हैं.’

दोनों बच्चों को वार्षिक परीक्षा में स्कूल में प्रथम आने पर अगले साल से छात्रवृत्ति मिलने लगी थी. घर थोड़ा सुचारु रूप से चलने लगा था.

सरिता को विश्वास था कि एक दिन सदाशिव जरूर आएगा. हर शाम वह अपने पति के इंतजार में खिड़की के पास बैठ कर आनेजाने वालों को देखा करती और अंधेरा होने पर एक ठंडी सांस छोड़ कर खाना बनाना शुरू करती.

इस तरह साल दर साल गुजरते चले गए. राशि और राहुल अपनी मेहनत से अच्छी नौकरी पर लग गए. राशि मुंबई में नौकरी करने लगी है. उस की शादी को 3 साल गुजर गए. राहुल भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में उत्तीर्ण हो कर झांसी में जिलाधीश बन गया. 1 साल पहले उस ने भी अपने दफ्तर की एक अधिकारी सीमा से शादी कर ली.

सरिता की तंद्रा भंग हुई. वह वर्तमान में वापस आ गई. उस ने देखा कि बाहर काफी अंधेरा हो गया है. हमेशा की तरह उस ने सदाशिव के लिए प्रार्थना की और घर के लिए रवाना हो गई.

‘‘मां, बहुत देर कर दी,’’ राहुल ने कहा.

सरिता ने राहुल और सीमा को देखा और उन का आशय समझ कर चुपचाप खाना खाने लगी.

‘‘बेटा, यहां से कुछ लोग जयपुर जा रहे हैं. एक पूरी बस कर ली है. सोचती हूं कि मैं भी उन के साथ हो आऊं.’’

‘‘मां, अब आप एक जिलाधीश की भी मां हो. क्या आप का उन के साथ इस तरह जाना ठीक रहेगा?’’ सीमा ने कहा.

सरिता ने सीमा से बहस करने के बजाय, प्रश्न भरी नजरों से राहुल की ओर देखा.

‘‘मां, सीमा ठीक कहती है. अगले माह हम सब कार से अजमेर और फिर जयपुर जाएंगे. रास्ते में मथुरा पड़ता है, वहां भी घूम लेंगे.’’

अगले महीने वे लोग भ्रमण के लिए निकल पड़े. राहुल की कार ने मथुरा में प्रवेश किया. मथुरा के जिलाधीश ने उन के ठहरने का पूरा इंतजाम कर के रखा था. खाना खाने के बाद सब लोग दिल्ली के लिए रवाना हो गए. थोड़ी दूर चलने पर कार को रोकना पड़ा क्योंकि सामने से एक जुलूस आ रहा था.

‘‘इस देश में लोगों के पास बहुत समय है. किसी भी छोटी सी बात पर आंदोलन शुरू हो जाता है या फिर जुलूस निकल जाता है,’’ सीमा ने कहा.

राहुल हंस दिया.

सरिता खिड़की के बाहर आतेजाते लोगों को देखने लगी. उस की नजर सड़क के किनारे चाय पीते हुए एक आदमी पर पड़ गई. उसे लगा जैसे उस की सांस रुक गई हो.

वही तो है. सरिता ने अपने मन से खुद ही सवाल किया. वही टेढ़ी गरदन कर के चाय पीना…वही जोर से चुस्की लेना…सरिता ने कई बार सदाशिव को इस बात पर डांटा भी था कि सभ्य इनसानों की तरह चाय पिया करो.

चाय पीतेपीते उस व्यक्ति की निगाह भी कार की खिड़की पर पड़ी. शायद उसे एहसास हुआ कि कार में बैठी महिला उसे घूर रही है. सरिता को देख कर उस के हाथ से प्याली छूट गई. वह उठा और भीड़ में गायब हो गया.

उसी समय जुलूस आगे बढ़ गया और कार पूरी रफ्तार से दिल्ली की ओर दौड़ पड़ी. सरिता अचानक सदाशिव की इस हरकत से हतप्रभ सी रह गई और कुछ बोल भी नहीं पाई.

दिल्ली में वे लोग राहुल के एक मित्र के घर पर रुके.

रात को सरिता ने राहुल से कहा, ‘‘बेटा, मैं जयपुर नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों, मां?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘क्या मेरा जयपुर जाना बहुत जरूरी है?’’

‘‘हम आप के लिए ही आए हैं. आप की इच्छा जयपुर जाने की थी. अब क्या हुआ? आप क्या झांसी वापस जाना चाहती हैं.’’

‘‘झांसी नहीं, मैं मथुरा जाना चाहती हूं.’’

‘‘मथुरा क्यों?’’

‘‘मुझे लगता है कि जुलूस वाले स्थान पर मैं ने तेरे पिताजी को देखा है.’’

‘‘क्या कर रहे थे वह वहां पर?’’ राहुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मैं ने उन्हें सड़क के किनारे बैठे देखा था. मुझे देख कर वह भीड़ में गायब हो गए,’’ सरिता ने कहा.

‘‘मां, यह आप की आंखों का धोखा है. यदि यह सच भी है तो भी मुझे उन से नफरत है. उन के कारण ही मेरा बचपन बरबाद हो गया.’’

‘‘मैं जयपुर नहीं मथुरा जाना चाहती हूं. मैं तुम्हारे पिताजी से मिलना चाहती हूं.’’

‘‘मां, मैं आप के मन को दुखाना नहीं चाहता पर आप उस आदमी को मेरा पिता मत कहो. रही मथुरा जाने की बात तो हम जयपुर का मन बना कर निकले हैं. लौटते समय आप मथुरा रुक जाना.’’

सरिता कुछ नहीं बोली.

सदाशिव अपनी कोठरी में लेटे हुए पुराने दिनों को याद कर रहा था.

3 दिन पहले कार में सरिता थी या कोई और? यह प्रश्न उस के मन में बारबार आता था. और दूसरे लोग कौन थे?

आखिर उस की क्या गलती थी जो उसे अपनी पत्नी और बच्चों को छोड़ कर एक गुमनाम जिंदगी जीने पर मजबूर होना पड़ा. बस, इतना ही न कि वह इस सच को साबित नहीं कर सका कि चोरी उस ने नहीं की थी. वह मन से एक कमजोर इनसान है, तभी तो बीवी व बच्चों को उन के हाल पर छोड़ कर भाग खड़ा हुआ था. अब क्या रखा है इस जिंदगी में?

खट् खट् खट्, किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

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सदाशिव ने उठ कर दरवाजा खोला. सामने सरिता खड़ी थी. कुछ देर दोनों एक दूसरे को चुपचाप देखते रहे.

‘‘अंदर आने को नहीं कहोगे? बड़ी मुश्किलों से ढूंढ़ते हुए यहां तक पहुंच सकी हूं,’’ सरिता ने कहा.

‘‘आओ,’’ सरिता को अंदर कर के सदाशिव ने दरवाजा बंद कर दिया.

सरिता ने देखा कि कोठरी में एक चारपाई पर बिस्तर बिछा है. चादर फट चुकी है और गंदी है. एक रस्सी पर तौलिया, पाजामा और कमीज टंगी है. एक कोने में पानी का घड़ा और बालटी है. दूसरे कोने में एक स्टोव और कुछ खाने के बरतन रखे हैं.

सरिता चारपाई पर बैठ गई.

‘‘कैसे हो?’’ धीरे से पूछा.

‘‘कैसा लगता हूं तुम्हें?’’ उदास स्वर में सदाशिव ने कहा.

सरिता कुछ न बोली.

‘‘क्या करते हो?’’ थोड़ी देर के बाद सरिता ने पूछा.

‘‘इस शरीर को जिंदा रखने के लिए दो रोटियां चाहिए. वह कुछ भी करने से मिल जाती हैं. वैसे नुक्कड़ पर एक चाय की दुकान है. मुझे तो कुछ नहीं चाहिए. हां, 4 बच्चों की पढ़ाई का खर्च निकल आता है.’’

‘‘बच्चे?’’ सरिता के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘हां, अनाथ बच्चे हैं,’’ उन की पढ़ाई की जिम्मेदारी मैं ने ले रखी है. सोचता हूं कि अपने बच्चों की पढ़ाई में कोई योगदान नहीं कर पाया तो इन अनाथ बच्चों की मदद कर दूं.’’

‘‘घर से निकल कर सीधे…’’ सरिता पूछतेपूछते रुक गई.

‘‘नहीं, मैं कई जगह घूमा. कई बार घर आने का फैसला भी किया पर जो दाग मैं दे कर आया था उस की याद ने हर बार कदम रोक लिए. रोज तुम्हें और बच्चों को याद करता रहा. शायद इस से ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता था. पिछले 5 सालों से मथुरा में हूं.’’

‘‘अब तो घर चल सकते हो. राशि अब मुंबई में है. नौकरी करती है. वहीं शादी कर ली है. राहुल झांसी में जिलाधीश है. मुझे सिर्फ तुम्हारी कमी है. क्या तुम मेरे साथ चल कर मेरी जिंदगी की कमी पूरी करोगे?’’ कहतेकहते सरिता की आंखों में आंसू आ गए.

सदाशिव ने सरिता को उठा कर गले से लगा लिया और बोला, ‘‘मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है. यदि तुम्हारे साथ जा कर मेरे रहने से तुम खुश रह सकती हो तो मैं तैयार हूं. पर क्या इतने दिनों बाद राहुल मुझे पिता के रूप में स्वीकार करेगा? मेरे जाने से उस के सुखी जीवन में कलह तो पैदा नहीं होगी? क्या मैं अपना स्वाभिमान बचा सकूंगा?’’

‘‘तुम क्या चाहते हो कि मैं तुम से दूर रहूं,’’ सरिता ने रो कर कहा और सदाशिव के सीने में सिर छिपा लिया.

‘‘नहीं, मैं चाहता हूं कि तुम झांसी जाओ और वहां ठंडे दिल से सोच कर फैसला करो. तुम्हारा निर्णय मुझे स्वीकार्य होगा. मैं तुम्हारा यहीं इंतजार करूंगा.’’

सरिता उसी दिन झांसी वापस आ गई. शाम को जब राहुल और सीमा साथ बैठे थे तो उन्हें सारी बात बताते हुए बोली, ‘‘मैं अब अपने पति के साथ रहना चाहती हूं. तुम लोग क्या चाहते हो?’’

‘‘एक चाय वाला और जिलाधीश साहब का पिता? लोग क्या कहेंगे?’’ सीमा के स्वर में व्यंग्य था.

‘‘बहू, किसी आदमी को उस की दौलत या ओहदे से मत नापो. यह सब आनीजानी है.’’

‘‘मां, वह कमजोर आदमी मेरा…’’

‘‘बस, बहुत हो गया, राहुल,’’ सरिता बेटे की बात बीच में ही काटते हुए उत्तेजित स्वर में बोली.

राहुल चुप हो गया.

‘‘मैं अपने पति के बारे में कुछ भी गलत सुनना नहीं चाहती. क्या तुम लोगों से अलग हो कर वह सुख से रहे? उन के प्यार और त्याग को तुम कभी नहीं समझ सकोगे.’’

‘‘मां, हम आप की खुशी के लिए उन्हें स्वीकार सकते हैं. आप जा कर उन्हें ले आइए,’’ राहुल ने कहा.

‘‘नहीं, बेटा, मैं अपने पति की अनुगामिनी हूं. मैं ऐसी जगह न तो खुद रहूंगी और न अपने पति को रहने दूंगी जहां उन को अपना स्वाभिमान खोना पड़े.’’

सरिता रात को सोतेसोते उठ गई. पैर के पास गीलागीला क्या है? देखा तो सीमा उस का पैर पकड़ कर रो रही थी.

‘‘मां, मुझे माफ कर दीजिए. मैं ने आप का कई बार दिल दुखाया है. आज आप ने मेरी आंखें खोल दीं. मुझे आशीर्वाद दीजिए कि मैं भी आप के समान अपने पति के स्वाभिमान की रक्षा कर सकूं.’’

सरिता ने भीगी आंखों से सीमा का माथा चूमा और उस के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा.’’

भोर की पहली किरण फूट पड़ी. जिलाधीश के बंगले में सन्नाटा था. सरिता एक झोले में दो जोड़े कपड़े ले कर रिकशे पर बैठ कर स्टेशन की ओर चल दी. उसे मथुरा के लिए पहली ट्रेन पकड़नी थी.

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family story in hindi

देवी: नीला क्यों छोड़ा अपना घर

लेखक- नितीन उपाध्ये

मंदार का जिक्र सपना के मन में ही नहीं बल्कि घर में भी एक नई चेतना भर देता. आखिर क्यों न हो, इतना सुशील, पढ़ालिखा और सुंदर दामाद, उस से भी ज्यादा सभ्य और समझदार उस के पिताजी आज के इस दहेज लोलुप समाज में कहां मिलते हैं. तभी तो उस के पिताजी कहते हैं, ‘‘आज लोग भले ही रहनसहन और पहनावे से आधुनिक हो गए हों पर शादी की बात चलते ही एकदम पुरातनपंथी हो जाते हैं. कुंडलियां देखेंगे, गोत्र मिलाएंगे और नाड़ी भी मिलाएंगे. लड़की पढ़ी- लिखी भी हो, नौकरी करती हो, साथ ही घर के काम में भी कुशल हो. लेकिन मंदार के पिता इस भीड़ से बिलकुल अलग हैं.मंदार के खयालों में खोई सपना को एक साल पहले की घटना याद आ गई जब वह पहली बार मंदार से मिली थी. पिछले साल जब आई.आई.टी. दिल्ली से कंप्यूटर साइंस में बी. टेक. करने के बाद वह अमेरिका जाने की तैयारी कर रही थी तब पड़ोस के खन्ना अंकल ने उस से अपनी साफ्टवेयर कंपनी ज्वाइन करने को कहा था. पहले तो सपना का इरादा नहीं था पर बाद में उस ने सोचा कि जब तक वीजा आदि की औपचारिकता पूरी नहीं हो जाती तब तक थोड़ा अनुभव लेने में हर्ज क्या है. पहले ही दिन खन्ना अंकल की कंपनी में मंदार को देखने के बाद जो सपना के दिल में हुआ था, वह पहली नजर का प्यार नहीं तो और क्या था?

मंदार आई.आई.टी. मुंबई से बी.टेक. कर के यहां दिल्ली में अपने पिताजी के साथ रहता था. जब सपना ने मंदार से अपने अमेरिका के प्लान के बारे में पूछा तो बिना नजर उठाए उस ने कहा था कि यहां पिताजी अकेले रह जाएंगे.

बस, एक सीधा सा जवाब. शायद उस की नजरों में इस सवाल की कोई खास अहमियत नहीं थी. इसीलिए तो उस ने नजरें उठा कर सपना की ओर देखा भी नहीं था.

हमेशा चुपचुप रहने वाले मंदार की आंखों में एक अजीब सा आकर्षण था, जिसे देखे बिना न तो समझ पाना आसान था और न ही शब्दों में बता पाना संभव था. कई बार तो बिना बोले भी अपनी आंखों से वह सारी बातें कह जाता था जिस का अर्थ ढू़ंढ़ने में सपना रातरात भर जागती रहती थी.

वह कब मंदार के करीब आ गई उसे पता भी नहीं चल पाया. हर वह प्रोजेक्ट जिस पर मंदार काम करता था उस में खन्ना अंकल से कह कर वह भी शामिल हो जाती थी. इस तरह वह जितना मंदार के करीब होने की कोशिश करती वह सपना से उतना ही दूरी बना के रहता.

सपना के दिल में पल रही इन हसरतों को उस की सहेली रागिनी जानती थी. पर उस का कहना था कि अगर मंदार पहल नहीं करता तो सपना तो पहल कर ही सकती है. अरे, भाई, बराबरी का जमाना है. पर सपना कुछ भी कह कर अपने पहले प्यार को असफल होता देखने से डरती थी.

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रागिनी का मकान मंदार के घर से कुछ आगे की ओर था अत: आफिस से घर जाते समय वह मंदार को लिफ्ट दे दिया करती थी. कई बार रागिनी जानबूझ कर कह देती कि आज उसे मार्केट में कुछ काम है अत: सपना तुम मंदार को उस के घर तक लिफ्ट दे देना. ऐसे किसी मौके पर सपना देखती कि पूरे रास्ते मंदार अपनी फाइलों में ही सिर झुकाए रहता. अगर सपना कुछ पूछ बैठती तो बस, हां हूं कर के चुप हो जाता.

दूसरे दिन जब रागिनी छेड़ते हुए सपना से पूछती, ‘‘कल अपने मंदनाथ को डेटिंग पर कहां ले गई थी,’’ तो वह न चाहते हुए भी मुसकरा देती. फिर रागिनी हमेशा की तरह कहती, ‘‘बालिके, ऐसे में तो तेरा बैंड बजने से रहा.’’

एक दिन मंदार के घर के बाहर उस के पिता शर्माजी खड़े थे. सपना की कार देखते ही वह उस की तरफ आए. उन्हें अपनी ओर आते देख सपना कार के बाहर आ गई. बडे़ प्यार से उन्होंने सपना से कहा, ‘‘बेटी, अगर जल्दी न हो तो  अंदर आओ, हम साथ बैठ कर ठंडा पी लेते हैं.’’ उन के आग्रह को सपना मना न कर सकी.

घर काफी सादगी से सजाया हुआ था. सपना को पिताजी के पास बैठा छोड़  मंदार अपने कमरे में चला गया. उस के इस व्यवहार पर शर्माजी नाराज हुए और सपना से कहने लगे कि बेटी, यह तुम्हें बहुत चाहता है पर थोड़ा शर्मीला है. फिर डरता भी है कि हमारे अतीत के बारे में जान कर अगर तुम ने उसे ठुकरा दिया तो दोबारा वह यह सबकुछ झेल नहीं पाएगा.

सपना के लिए तो यह सबकुछ किसी मनपसंद फिल्म के फास्ट फारवर्ड होने जैसा था. उस का मन मंदार का अपने प्रति लगाव की अनपेक्षित खुशी के साथ ही उस के रहस्यमय डर के बीच झूलने लगा. और यह सब बातें शर्माजी के मुंह से बिना किसी प्रस्तावना के सुन कर उसे कुछ अजीब सा लगा.

शर्माजी ने धीरेधीरे उसे अपने बारे में सबकुछ सचसच बता दिया कि मंदार के जन्म के बाद से ही उस की मां नीला का ध्यान घर में कम और भजनपूजन में ज्यादा लगने लगा था. मंदार तो अपनी दादी की गोद में ही रहता था और नीला साधुसंन्यासियों के चक्कर में इस मंदिर से उस मंदिर तक घूमती रहती थी. कईकई बार मैं ने हंसीहंसी में पत्नी से कहा भी कि मंदिर को छोड़ कर जरा अपने मंदार पर ध्यान दे दो तो हम सब का कल्याण हो जाएगा. कुछ दिनों बाद नीला का भगवान प्रेम इतना बढ़ा कि साधु और बाबा घर में भी आने लगे थे.

उन्हीं दिनोंएक बाबा का मेरे घर में काफी आनाजाना हो गया था. जब मंदार 7 साल का था तो एक दिन नीला अपना बसा- बसाया घर छोड़ कर बाबा के साथ सन्ंयासिन बन कर न जाने कहां चली गई. बदनामी से बचने के लिए मैं

ने अपना तबादला दिल्ली करवा लिया और अम्मां व मंदार को ले कर यहां

आ गया.

इस घटना का मंदार के बालमन पर काफी गहरा असर हुआ. वह अपनेआप में सिमट गया, न तो कोई दोस्त और न ही किसी तरह के शौक, बस, अपनी पढ़ाई में ही डूबा रहता. जिस साल मंदार का आई.आईर्.टी. मुंबई में दाखिला हुआ उस की दादी की मृत्यु हो गई. बस, तब से मंदार के सूने जीवन में और कोई औरत नहीं आई.

इस खालीपन में बापबेटे के बीच का रिश्ता बहुत हद तक दोस्तों जैसा हो गया. मंदार अपने दिल की कोई बात मुझ से छिपाता नहीं था. इसीलिए जब उस ने तुम्हारे लिए अपने दिल में पैदा हुए लगाव को मुझ से बताया तो मैं ने सीधे तुम से ही बात करना ठीक समझा.

बेटी, मैं अकसर देखता हूं कि तुम अपनी कार से मंदार को छोड़ने आती हो तो वह जब तक घर के अंदर नहीं आ जाता तुम उसी को देखती रहती हो. तुम्हारी आंखों की चाहत की भाषा को मैं ने पढ़ लिया था इसीलिए तुम से ही सारी बात करना ठीक समझा.

यह सुन सपना जोर से हंसने लगी.

जाते समय शर्माजी ने कहा, ‘‘बेटी, तुम अपने मातापिता को मेरे बारे में सबकुछ बता कर उन की राय पूछ लेना. अगर उन्हें कोई एतराज न हो तो मैं उन से बात करने आऊंगा.’’

घर आने पर सपना ने मां और पिताजी को शर्माजी के परिवार टूटने की कहानी बताई तो उन्हें मंदार में कोई बुराई नजर नहीं आई. दूसरे ही दिन वे दोनों शर्माजी के घर जा कर सपना और मंदार की शादी तय कर आए.

शादी का दिन नजदीक आ रहा था इसलिए गांव से दादादादी भी आ गए. दादी नाराज थीं कि एक तो इस मामले में उन की कोई राय नहीं ली गई, दूसरे लड़कालड़की की कुंडलियां भी नहीं मिलवाई गईं. अत: दादी ने जब पापा से कहा कि वह सपना को अपने गुरु महाराज के पास ले जाना चाहती हैं तो इच्छा होते हुए भी पापा मना नहीं कर पाए.

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दादी के साथ सपना गुरु महाराज के आश्रम में पहुंची तो वहां का वातावरण उसे कुछ अजीब सा लगा. एक अजीब सी महक के बीच साधु इधरउधर आराम कर रहे थे. दादी से पहले मोटी दक्षिणा रखवाने के बाद रात 8 बजे मिलने का समय दिया गया. वहां की व्यवस्था देख कर सपना को हिंदी फिल्मों के खलनायक का अड्डा याद आया.

दादी बड़ी खुश थीं कि आज इतनी जल्दी गुरुमहाराज ने दर्शन का समय दे दिया. वह सपना के भाग्य को सराहने लगीं. रात को ठीक 8 बजे दादी और सपना को गुरु महाराज के शयनकक्ष में भेजा गया.

एक बडे़ से कमरे में गुरु महाराज रेशमी वस्त्र पहने मोटे आरामदायक गद्दे पर लेटे हुए थे. उन से कुछ ही दूरी पर एक प्रौढ़ा बैठी माला जप रही थी. कमरे में चंदन की खुशबू फैली हुई थी. जाने क्यों सपना वहां असहज महसूस कर रही थी. तभी दादी ने उस से कहा, ‘‘बेटी, गुरुमहाराज और गुरुमाई के चरण स्पर्श करो.’’

गुरुमहाराज के बाद सपना गुरुमाई के पास पहुंची तो उन का चेहरा कुछ जानापहचाना सा लगा.

सपना पर गुरुमहाराज की नजरें टिकी देख कर दादी ने कहा, ‘‘गुरु महाराज, इस के पिता ने इस का विवाह इस के साथ काम करने वाले मंदार शर्मा से करना तय किया है. मैं दोनों की कुंडलियां आप को दिखाने आई हूं. अब आप का आशीर्वाद मिल जाए तो मैं निश्ंिचत हो जाऊं.’’

सपना को दादी का इस तरह गुरु महाराज को अपनी शादी का निर्णय करने का अधिकार देना अच्छा नहीं लगा मगर वह कुछ बोली नहीं. उधर उस के चेहरे पर अपनी नजरें टिकाए हुए गुरु महाराज ने दादी से कहा, ‘‘बेटी, मुझे कुंडली पढ़ने की क्या जरूरत है. मैं तो इस का चेहरा देख कर ही बता सकता हूं कि कन्या तो साक्षात ‘देवी मां’ का अवतार है. इस का एक सामान्य इनसान की तरह सांसारिक बातों में पड़ना एक बड़ी भूल होगी. इस संसार में ऐसा कोई मानव नहीं है जो ‘देवी मां’ से विवाह कर सके. इसे तो आश्रम की अधिष्ठात्री बनना है. तुम कल सुबह अपने बेटेबहू के साथ यहां आ जाना. मैं एक यज्ञ का अनुष्ठान कर के कन्या को विधिवत देवी के रूप में स्थापित करूंगा.’’

अब सपना में गुरुमहाराज की बकवास सुनने की ताकत नहीं रही. वह बिजली की गति से वहां से उठी और तेज आवाज में दादी से बोली, ‘‘दादी, मैं यह तमाशा देखने नहीं आई थी. मैं जा रही हूं. आप का काम हो जाए तो घर पर आ जाना.’’

घर आ कर उस ने मां और पापा से पूरी रामकहानी बता दी तो पापा ने कहा, ‘‘बेटी, तुम डरो मत. मेरे रहते हुए अम्मां इस तरह की बेवकूफी नहीं कर पाएंगी.’’

रात भर दादी आश्रम में ही रहीं.

सारी रात सपना काफी परेशान रही. उस ने सुबह होते ही मंदार को फोन कर सारा किस्सा बता दिया. थोड़ी ही देर में शर्माजी और मंदार उस के घर आ गए. शर्माजी ने पापा और मां को समझाते हुए कहा, ‘‘आज विज्ञान के इस युग में हमें ऐसी पुरानी सड़ीगली मान्यताओं और उन्हें फैलाने वाले ढोंगी बाबाओं से बचना चाहिए.’’

शर्माजी की बातों से घर का वातावरण फिर से खुशनुमा हो गया. मां चाय बना कर ले आईं तो सब चाय पीने लगे. तभी पापा ने शर्माजी से कहा कि आप थोड़ी देर और रुकें तो मैं अम्मां को आश्रम से ले कर आता हूं.

शर्माजी ने हंसते हुए कहा, ‘‘चलिए, मैं भी तो वह जगह देख आऊं, जहां मेरे घर की लक्ष्मी देवी बन कर विराजने वाली थी.’’

सपना और मंदार बातों में ऐसे खो गए कि गुजरते समय का पता ही नहीं चला. टेलीफोन की घंटी कब बजी और मां ने कब रिसीवर उठाया इस का भी उन्हें पता नहीं चला. पर जब मां के मुंह से खून, गुरुमहाराज, जैसे शब्द सुने तो दोनों भागते हुए मां के पास आए.

मां के हाथ से रिसीवर ले कर सपना ने पापा से बात की तो पापा ने बताया कि आज सुबह जब लोग गुरुमहाराज के दर्शन के लिए उन के कमरे में गए तो देखा कि महाराज की लाश के पास गुरुमाई हाथ में देवी का त्रिशूल ले कर बैठी हैं और पुलिस के पूछने पर गुरुमाई ने सिर्फ यही कहा कि इस का वध मैं ने किया है.

मामला काफी संवेदनशील था. गुरु महाराज के भक्तों में काफी राजनेता, अभिनेता, बडे़बडे़ उद्योगपति और विदेशी भी थे इसलिए पुलिस कोई चूक नहीं करना चाहती थी.

चूंकि पुलिस को घटनास्थल से सपना और मंदार की कुंडलियां और फोटो मिले थे इसलिए उन्हें अंदर ले जाया गया. उन दोनों ने देखा कि गुरुमाई सिर झुका कर बैठी थीं और उन के चरणों में पुलिस महानिरीक्षक बैठे हुए पूछ रहे थे, ‘‘मां, तुम ने यह क्या कर डाला?’’

आहट सुन कर गुरुमाई ने जैसे ही सिर उठाया शर्माजी के मुंह से अपनेआप निकल पड़ा, ‘‘नीला, तुम यहां.’’

यह सुनते ही मंदार, सपना और उस के पापा ने चौंक कर गुरुमाई की ओर देखा. सपना को अब समझ में आया कि क्यों उसे कल रात गुरुमाई का चेहरा जानापहचाना लग रहा था.

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शर्माजी और मंदार को सामने देख कर गुरुमाई के धैर्य का बांध टूट गया. वह उठीं और शर्माजी के पैरों में गिर पड़ीं. जब शर्माजी ने उन्हें उठाया तो वह पास में स्तब्ध खडे़ मंदार का चेहरा अपने हाथों में ले कर उसे पागलों की तरह चूमने लगीं.

पुलिस महानिरीक्षक की ओर देख गुरुमाई बोलीं, ‘‘तुम जानना चाहते हो कि मैं ने इस पापी की हत्या क्यों की तो सुनो, मुझ जैसी कितनी ही औरतों का सर्वनाश कर अब यह पापी सपना पर अपनी गंदी नजर डाल रहा था. जब मैं ने मंदार का नाम सुना और उस की कुंडली देखी तो समझ गई कि यह मेरा ही बेटा है. मैं एक बार पहले भी अपना बसाबसाया घरसंसार इस पापी की वजह से उजाड़ चुकी थी. अब दूसरी बार इसे अपने बेटे का बसता हुआ चमन कैसे उजाड़ने देती.’’

गुरुमाई एक पल को रुकीं फिर बोलीं, ‘‘शायद मैं ने आज वह काम किया जो मुझे काफी पहले करना चाहिए था क्योंकि यह पापी जब तक जीवित रहता, तब तक धर्म के नाम पर भोलेभाले लोगों को लूटता रहता.’’

शर्माजी कहने लगे, ‘‘नीला, ऐसे पापियों को प्रश्रय देने वाले भी हम ही हैं, हमें अपने मन से अंधविश्वास के राक्षस को भगाना होगा.’’

नीला ने पुलिस महानिरीक्षक से कहा, ‘‘चलिए, मुझे अपने कर्मों का फल भी तो पाना है.’’

जातेजाते नीला के कानों में शर्माजी के शब्दों ने शहद घोल दिया, ‘‘नीला, तुम्हें जल्दी घर वापस आना है, अपनी बहू का स्वागत करने के लिए.’’

मेरा अपना नीड़: विवाह नाम से ही अंशिका को क्यों चिढ़ थी? 

आजसुबह जैसे ही अंशिका की आंख खुली देखा कि उस की मम्मी परेशान सी अंदरबाहर घूम रही हैं. आंख मलते हुए अंशिका बाहर आई और पूछा, ‘‘मम्मी क्या हुआ आप इतनी परेशान क्यों हो?’’

मम्मी बोलीं, ‘‘अंशिका, सौम्या को अचानक सुबह चक्कर आ गया था, सौरभ उसे हौस्पिटल ले गया है.’’

यह सुन कर अंशिका को भी चिंता हो गई. ढाई साल पहले सौम्या और सौरभ अशोकजी के ऊपर वाले घर में किराएदार बन कर आए थे. 1-2 महीनों में ही वे कब किराएदार से अशोक के परिवार के सदस्य जैसे हो गए किसी को पता ही नहीं चला.

दरअसल, यह ऊपर वाला पूरा घर अशोकजी ने बड़े प्यार से अपने बेटे रुद्राक्ष के लिए बनवाया था पर शादी के बाद उस की पत्नी रति का यहां पर मन नहीं लगा. कहने को मेरठ इतना छोटा शहर भी नहीं है पर दिल्ली में पलीबढ़ी रति को यह शहर और यहां की मानसिकता हमेशा दकियानूसी ही लगी. रिश्तों में खटास आने से पहले रुद्राक्ष ने समझदारी का परिचय दिया और अपना ट्रांसफर दिल्ली ही करवा लिया.

बेटेबहू के जाने के बाद अशोकजी ने ऊपर वाले पोर्शन को किराए पर देने की सोची. इस की वजह आर्थिक कम पर भावनात्मक ज्यादा थी. दरअसल, उन्होंने बड़े अरमानों के साथ ऊपर वाला घर बनवाया था, पर उसे वे अब खाली नहीं रखना चाहते थे.

तभी किसी जानपहचान वाले ने सौरभ के बारे में अशोकजी को बताया. वे स्टेट बैंक में मैनेजर थे और हाल ही में उस का ट्रांसफर मेरठ हुआ था और वे अपने लिए किराए का आशियाना ढूंढ़ रहे थे. 2 दिन बाद ही वे सामान सहित ऊपर वाले घर में शिफ्ट हो गए. जहां सौरभ बहुत कम बोलते था वहीं सौम्या की बात खत्म ही नहीं होती थीं. सौरभ का रंग सांवला था और उन का कद 6 फुट था वहीं इस के विपरीत सौम्या 5 फुट की थी और उस का दूध जैसा गोरा रंग था. दोनों एकदूसरे से बिलकुल विपरीत थे स्वभाव में भी, रहनसहन में भी और देखनेभालने में भी पर एकदूसरे के साथ दोनों बेहद अच्छे लगते थे.

जल्द ही सौम्या की एक स्थानीय विद्यालय में इंग्लिश के टीचर के रूप में नियुक्ति हो गई. घर और स्कूल का कार्य करते हुए वह बहुत थक जाती थी पर उस ने कोई कामवाली भी नहीं लगा रखी थी. जब अंशिका ने टोका तो हंस कर बोली, ‘‘अंशिका, कोई बालबच्चा तो है नहीं… 2 जनों का काम ही कितना होता हैं.’’

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पासपड़ोस का कोई भी कार्यक्रम सौम्या के बिना संपूर्ण नहीं हो सकता था. किसी का जन्मदिन हो या किसी के यहां किट्टी पार्टी सब घरों में सौम्या अपनी पाककला का हुनर जरूर दिखाती. उस के हाथों में अन्नपूर्णा का वास था और उस के घर तो हर शनिवार जरूर ही कोई न कोई आया होता, छोटामोटा कोई न कोई कार्यक्रम जरूर ही होता.

ऐसे ही एक शनिवार की रात जब अंशिका सौम्या से रविवार को अपने कालेज की

फेयरवैल में पहनने वाली ड्रैस की सलाह लेने जैसे ही सीढि़यां चढ़ने लगी, एक कर्कश सी आवाज सुनाई दी, ‘‘यह सारा दिन क्या थकानथकान का नाटक लगा रखा है… 4 लोगों के आने से घर में रौनक आ जाती है और काम ही क्या है तुम्हें, कोई बच्चा हो तो समझ भी आए.’’

यह सौरभ की आवाज थी. इस से पहले कि अंशिका मुड़ती वापस जाने के लिए सौरभ दनदनाते सीढि़यां उतरने लगे फिर अंशिका को देखते ही बोले, ‘‘अरे सौम्या देखो अंशिका आई हैं.’’

सौम्या ने अपनी छलछलाई आंखों को धीरे दे पोंछा और बोली, ‘‘कहो अंशिका फेयरवैल पर क्या पहन रही हो.’’

अंशिका ने कुछ न कहा और चेहरा नीचे किए खड़ी रही. आज उसे सौरभ का ऐसा चेहरा देखने को मिला, जिस की अंशिका ने कभी कल्पना भी नहीं की.

अंशिका चुपचाप खड़ी रही तो सौम्या बोली, ‘‘मुझे आदत पड़ गई है अंशिका यह सब सुनने की… जो पेड़ फल नहीं दे सकता उसे किसी और तरह से तो अपनी उपयोगिता साबित करनी ही होती है, ऐसा ही मेरे साथ है.’’

‘‘वैसे भी अंशिका शादी के कुछ सालों बाद अगर परिवार न बढ़े तो थोड़ी सी हताशा हो जाना स्वाभाविक है, सौरभ उस अकेलेपन को दोस्तों को घर बुला कर बांटते हैं पर मु?ो पता नहीं क्यों इन सब आयोजनों में खास दिलचस्पी नहीं है.’’

कुछ दिनों बाद बातों ही बातों में सौम्या ने बताया, ‘‘उस की और सौरभ की सारी मैडिकल रिपोर्ट्स ठीक हैं पर जहां उस से रातदिन यह प्रश्न पूछा जाता है कि अब तक उन की बगिया में कोई फूल क्यों नहीं खिला है वहीं सौरभ को कोई इस बाबत परेशान नहीं करता.’’

आज सौम्या ने फ्रैंच टोमैटो और पनीर के परांठे बनाए थे और अशोक परिवार का रात का डिनर उन के साथ ही था. सौम्या ने बहुत अच्छा खाना बनाया था. उस के सासससुर भी आए हुए थे. वह आज पिंक सिल्क के सूट में सच में गुलाब का फूल लग रही थी.

अंशिका मुसकराते हुए बोली, ‘‘भाभी, अगर मैं लड़का होती तो मैं आप के लिए जरूर रिश्ता भिजवाती… आप को पता है आप कितनी खूबसूरत हो, अभी भी लड़की लगती हो.’’

अंशिका की मम्मी भी हंसते हुए सौम्या की सास से बोली, ‘‘भाभी अंशिका सही बोल रही है, सच आप को बहुत प्यारी बहू मिली है.’’

सौम्या की सास व्यंग्यात्मक ढंग से मुसकरा कर बोली, ‘‘जी हां, यह बात हम से ज्यादा कौन जान सकता है.’’

वातावरण में खामोशी छा गई. फिर अंशिका ने ही टैलीविजन चला दिया और सब उस में खो गए. खाने के बाद बहुत ही स्वादिष्ठ गाजर हलवा था पर किसी की हिम्मत न हुई फिर से सौम्या की तारीफ करने की.

इस घटना के कुछ दिन बाद सौम्या की सास नीचे अंशिका की मम्मी के साथ बैठी हुई थीं.

अंशिका की मम्मी ने जब सौम्या की सास से कहा, ‘‘भाभी दिल्ली में मेरी रिश्ते की देवरानी हैं. वे काफी मानी हुई महिलाओं की डाक्टर हैं.

मैं आपको पता दे देती हूं आप सौम्या और सौरभ के साथ जा कर एक बार सलाह लेना चाहो तो ले सकते हो.’’

सौम्या की सास बोलीं, ‘‘मुझे क्यों बता रही हो दीदी? सौरभ और सौम्या को अगर जरूरत होगी तो चले जाएंगे. अब जा कर तो थोड़ा फ्री हुई हूं. वैसे भी मुझे नहीं लगता इन्हें बच्चा चाहिए नहीं तो शादी के इतने साल बाद भी ये लोग डाक्टर के पास नहीं गए हैं, हमारा फर्ज तो अपने बच्चों तक है… मु?ो कोई शौक नहीं है इस उम्र में तोपड़े धोने का.’’

अंशिका और उस की मम्मी ने यह अनुभव किया था कि जब तक सौम्या के सासससुर रहे वे एक मेहमान की तरह ही रहे, उन्होंने सौम्या और सौरभ की जरा भी मदद नहीं करी. जब तक वे रहे सौम्या स्कूल जाने से पहले और बाद में काम में ही लगी रहती थी. न जाने क्यों सौरभ ने जानेअनजाने यह बात सौम्या के दिमाग में बैठा दी थी कि बच्चों के बिना जीवन अधूरा है और उस अधूरेपन को सौरभ दोस्तों के साथ तो सौम्या रातदिन काम कर के बांटती थी.

सौरभ के मातापिता को गए अभी 10 दिन ही हुए थे कि रविवार की सुबह

सौम्या नीचे आई और अशोकजी की घरवाली कमला आंटी से बोली, ‘‘आंटी मेरी गलती क्या है… कहीं भी ससुराल में कोई शादी होती है, सारी जिम्मेदारी मुझ पर डाल देते हैं.’’

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‘‘हां, मुझे मां बनने की खुशी नहीं प्राप्त हुई पर इस का मतलब ये तो नहीं कि मेरे पास कोई काम नहीं है, हंसती हूं, बोलती हूं क्योंकि रोतेरोते मु?ो जीना पसंद नहीं है… कब तक शोक प्रकट करूं,’’ आखिरी वाक्य बोलते हुए सौम्या का गला भर गया.

कमला आंटी ने सौम्या को बांहों में भर लिया. फिर अगली सुबह सौम्या के घर से बहुत तेजतेज आवाजें आ रही थीं. अंशिका और उस की मम्मी मूकबधिरों की तरह सुन रही थीं. वे कुछ कर भी नहीं सकते थे.

फिर कुछ देर बाद सौरभ चाबी देते हुए बोला, ‘‘बूआ की बेटी की शादी है, सौम्या वहीं जा रही है. अगले रविवार तक आ जाएगी.’’

कमला आंटी चुप न रह सकीं और बोल पड़ीं, ‘‘बेटा उसे स्कूल से इतनी छुट्टियां मिल जाएंगी, पिछले माह भी तो सौम्या को ऐसे छुट्टियां लेने पर चेतावनी मिली थी.’’

सौरभ सपाट स्वर में बोला, ‘‘आंटी और सब के घर परिवार में बच्चे हैं. उन की जिंदगी बच्चों की दिनचर्या पर निर्भर करती है. हरकोई हमारी तरह खुश नहीं है. वैसे भी सौम्या नौकरी समय काटने के लिए करती है और बूआ की बेटी की शादी में मदद करने से उन्हें सहारा भी हो जाएगा और सौम्या का समय भी कट जाएगा.’’

अंशिका को अंदर से चिढ़ हो गई पर प्रत्यक्ष में कुछ न बोली. सौम्या मां नहीं बन पा रही थी इस कारण गाहेबगाहे उसे अतिरिक्त जिम्मेदारी स्कूल और घर में निभानी पड़ती थी पर सौरभ को भी तो पिता बनने की खुशी प्राप्त नहीं हुई, फिर ये मानदंड उस के लिए क्यों नहीं हैं. सौरभ को क्यों समय काटने के लिए कुछ अतिरिक्त जिम्मेदारी नहीं मिलती? यह कैसा दोहरा मानदंड है समाज का?

1 हफ्ते बाद सौम्या आ गई थी. जैसे ही वो घर पहुंची, सौरभ ने ऐलान कर दिया कि आज उस के दफ्तर के दोस्त सपरिवार रात के खाने पर आ रहे हैं. सौम्या चिड़चिड़ाती हुई नीचे आ गई. अंशिका ने उस के सिर पर तेल मालिश करी और गरमगरम नाश्ता परोसा.

सौरभ भी नीचे आ गए और बोले, ‘‘सौम्या, तुम यहां पर नाश्ता कर रही हो और मैं वहां भूखा बैठा हूं.’’

अंशिका ने मुसकराते हुए सौरभ को भी नाश्ते की प्लेट पकड़ा दी.

सौरभ नाश्ता करते हुए अंशिका की मम्मी से बोला, ‘‘आंटी उलटी गंगा बह रही है, कहां तो सौम्या को आप के लिए बनाना चाहिए और कहां आप उसे खिला रही हैं.’’

इस से पहले कोई कुछ बोलता, सौम्या गुस्से में बोली, ‘‘क्यों सारे फर्ज मेरे और सारे हक तुम्हारे, सबकुछ करना मेरी ही जिम्मेदारी है क्योंकि हमारे बच्चे नहीं हैं पर हम में तुम भी आते हो सौरभ. तुम क्या करते हो सौरभ अपना समय काटने के लिए क्योंकि तुम भी तो पिता नहीं बन पाए हो?’’

सौरभ सौम्या की बात पर तिलमिला गया और बोला, ‘‘तुम अभी तक बड़ी नहीं हो पाई हो… हर बात का गलत मतलब निकालती हो… आज तक मैं ने या मेरे परिवार ने कुछ कहा है तुम्हें?’’

हमें लगा बात और न बढ़ जाएं पर सौम्या बिना कोई उत्तर दिए, अपना पर्स उठा कर

बाहर निकल गई. मकानमालिकन ने सौरभ से कहा भी, ‘‘सौरभ, वह 1 हफ्ते बाद लौटी थी, सांस तो लेने देता… क्या जरूरत थी आज मेहमानों को बुलाने की?’’

सौरभ मासूमियत से बोला, ‘‘आंटी, मैं क्या उस का दुश्मन हूं? मैं तो इसलिए यह सब करता हूं ताकि उसे अकेलापन न लगे.’’

सौम्या 2 घंटे बाद लौटी तो काफी फ्रैश लग रही थी. साथ में सौरभ भी था. हाथों में बहुत सारे शौपिंग बैग थे. पता नहीं अंशिका को सौम्या से एक अलग सा लगाव हो गया था इसलिए सौम्या को खुश देख कर आंशिका ने चैन की सांस ली.

रात को फिर से सौम्या के घर एक छोटा सी पार्टी थी. सौम्या ने अंशिका को भी बुलाया था. सौम्या ग्रे और मजैंटा रंग की शिफौन साड़ी में बेहद सुंदर लग रही थी.

सौरभ भैया के दोनों दोस्त सौम्या की तारीफ करते हुए बोले, ‘‘सौरभ यार सौम्या भाभी तो अब तेरी बेटी जैसी लगती हैं, अपना वजन कम कर कहीं जल्द ही पोती न लगने लगे.’’

यह सुन कर सौरभ के दोस्त की बीवी तिलमिला कर बोली, ‘‘लड़कोरी का आंचल चिकना और बांझन का चेहरा, यह कहावत आज भी इतनी ही सच है, है न सौम्या?’’

सौम्या की आंखें अपमान से तिलमिला गईं. फिर से एक बो?िल वातावरण के साथ डिनर समाप्त हुआ. पता नहीं क्यों सौम्या की सुंदरता और सुघड़ता हमेशा महिलाओं के लिए ईर्ष्या का विषय रही है.

आज कमला आंटी की बड़ी बहू की गोदभराई की रस्म थी. सभी पासपड़ोस के लोग इकट्ठा थे और पूरे आयोजन की जिम्मेदारी सौम्या पर थी पर अंशिका को बहुत बुरा तब लगा जब होने वाली मां की रस्म में सब को बुलाया पर सौम्या से वह रस्म नहीं करवाई गई क्योंकि पंडितों का विधान इस के खिलाफ था.

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एक दिन बातों ही बातों में मकानमालिकन ने सौम्या और सौरभ से बच्चा गोद लेने की बात करी तो जहां सौम्या की आंखें चमक उठीं वहीं सौरभ बोला, ‘‘मैं ने कितनी बार सौम्या को समझया मुनेश दीदी की छोटी बेटी गोद ले लेते हैं पर यह माने तब न… इसे तो अपना अकेलापन बहुत प्यारा है.’’

वहीं सौम्या के अनुसार वह अनाथाश्रम से बच्चा गोद लेना चाहती हैं क्योंकि उस पर बस उन का ही अधिकार होगा. वह उस की परवरिश अपने हिसाब से कर पाएगी और उस बच्चे के मन में कोई ग्रंथि नहीं पलेगी कि क्यों उस के मातापिता ने उसे किसी को गोद दे दिया था पर उन की ससुराल वाले इस के खिलाफ  थे. उन्हें अपना खून ही चाहिए था, परवरिश से अधिक उन्हें नाम और खानदान पर भरोसा था.

सतही तौर पर कहें तो सौम्या और सौरभ की जिंदगी में कोई कमी नहीं थी और कमी थी भी जिसे बस महसूस कर सकते हैं पर समझ नहीं सकते. समय बदल गया और साथ में समाज भी पर पहले जो बात सीधे तौर पर कहीं जाती थी, उस का बस कहने का तरीका बदल गया है.

सौम्या हर समय काम में ही लगी रहती थी क्योंकि इर समय यह तलवार उस पर लटकी रहती है कि काम क्या है, 2 जने ही तो हैं, न कोई बालबच्चा,’’ यह सब सुनते और समझते वह अपने वजूद से अधिक काम करती गई. सौरभ यह सोचता रहा कि सौम्या को ऐसा करने से अकेलापन नहीं लगेगा पर दोनों ने ही कभी इस विषय पर खुल कर बात नहीं करी.

यह सोचतेसोचते अंशिका वर्तमान में आ गई. अंशिका की मम्मी सुबह ही हौस्पिटल चली गई थी. मम्मी और सौरभ के लिए नाश्ता ले कर जब अंशिका हौस्पिटल पहुंची तो देखा सौम्या के सासससुर भी आ गए हैं और सास बोल रही थी, ‘‘हमें तो लगा कोई खुशखबरी होगी पर यहां तो माजरा ही दूसरा है.’’

मकानमालकिन ने बताया डाक्टर के अनुसार सौम्या के अंदर खून की कमी है और यह सौम्या का अपना ध्यान न रखने के कारण से है. वह इतनी कमजोर हो गई है अंदर से कि अब उसे कुछ दिन आराम करना होगा.

जब डाक्टर यह सब बता रहा था तो सौरभ आश्चर्य से बोला, ‘‘पर डाक्टर सौम्या को काम क्या है कोई बच्चा तो है नहीं हमारे जिस के कारण सौम्या थक जाए?’’

इस बात पर डाक्टर सख्ती से बोली, ‘‘सौरभ तुम्हारा यही रवैया उसे यहां ले कर आ गया है, वह शरीर के साथसाथ मन से भी थक चुकी है… यह एक दिन या कुछ महीनों का नहीं पर वर्षों तक अपने पोषण पर ध्यान न देने के कारण हुआ है. ऐनीमिया किसी भी व्यक्ति को और कभी भी हो सकता है अगर वह अपनी तरफ से लापरवाह हो जाए.’’

2 दिन बाद सौम्या घर आ गई थी, साथ में उस की सास भी थीं जो पूरा 1 हफ्ते तक जानेअनजाने ढंग से उन का मन छलनी करती रहीं.

उन के जाने के बाद सौम्या ने अंशिका से कहा, ‘‘मुझे अपनी सास की बातों से कहीं ज्यादा सौरभ की चुप्पी छलनी कर देती है.’’

समय बीत रहा था, पर सौम्या ने अपने को पहले से बेहतर संभाल लिया था.

अब भी वह पासपड़ोस के आयोजनों में मदद जरूर करती है पर अपनी सहूलियत के अनुसार पासपड़ोस की जिम्मेदारियों को वह बड़ी विनम्रतापूर्वक ठुकरा देती है.

अब अंशिका के लिए भी विवाहप्रस्ताव आ रहे थे, लेकिन मन ही मन अंशिका डर रही थी कि कहीं उसे भी सौरभ जैसा पति न मिल जाए.

सौरभ के ट्रांसफर का और्डर आ गए थे और उन की अगली पोस्टिंग गाजियाबाद में थी. सारा सामान बंध चुका था और ट्रक में जमाया जा चुका था, पर पता नहीं अंशिका को बहुतबहुत खाली लग रहा था सौम्या अंशिका की सहेली ही नहीं उसे अपनी हमसाया लगती थी. कहीं अंशिका रोने ना लगे ये सोच कर अंशिका चुपचाप कालेज की तरफ चली गई थी.

आ कर देखा तो घर में सन्नाटा नहीं था. अंदर रसोई में सौम्या की आवाज आ रही थी. अंशिका को लगा उसे गलतफहमी हुई है. अंदर देखा तो सौम्या ही थी. उस ने आश्चर्य से कहा, ‘‘सौम्या भाभी आप यहीं हो सौरभ भैया के साथ गई नहीं?’’

अंशिका के मुंह पर हाथ रख कर सौम्या बोली, ‘‘भाभी चली गई हैं भैया के साथ पर यह सौम्या अब अपने को पहचानना चाहती है और समझना चाहती है. अगर सौरभ को यह सौम्या पसंद है तो वो वापस चली जाएगी उस नीड़ पर नहीं तो नीड़ का फिर से निर्माण करेगी, उस नीड़ में सौम्या सौम्या ही रहेगी.’’

आज जो सौम्या खड़ी है उस सौम्या ने बस अपनेआप को और अपनी खुशी को ही चुना है और यह बात कहते हुए सौम्या आंखों में जिंदगी की चमक झलक रही थी. अंशिका को लगा सौम्या ने शायद उस नीड़ के निर्माण के लिए अपना पहला तिनका चुन लिया है, जिस घर में इज्जत न हो उसे नीड़ नहीं कहते नीड़ बराबरी, इज्जत और प्रेम से बनता है.

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बंटी हुई औरत: लाजो को क्यों कर दिया शेखर व विजय ने दरकिनार

लाजवंती को अपनी पत्नी बना कर शेखर ने सभी रिश्तेदारों के साथसाथ अपने पिता की आशाओं पर भी पानी फेर दिया था, क्योंकि वह तो कब से इस बात की उम्मीद लगाए बैठे थे कि बेटा ज्यों ही प्रशासनिक सेवा में लगेगा उस का विवाह किसी कमिश्नर या सेक्रेटरी की बेटी से कर देंगे. इस से शेखर के साथसाथ सारे परिवार का उद्धार होगा.

दूरदर्शी शेखर के पिता यह भी जानते थे कि बड़े ओहदेदारों से पारिवारिक संबंध बनाना बेटे के भविष्य के लिए भी जरूरी है साथ ही स्थानीय प्रशासन पर भी अच्छा रौबदाब बना रहता है.

उधर भाईबहनों में यह धुन सवार थी कि कब भैया की शादी हो और कब घर को संभालने वाला कोई आए. उन्हें तो यह भी विश्वास था कि भाभी अवश्य ही अलादीन का चिराग ले कर आएंगी.

एक मध्यवर्गीय परिवार के टूटेफूटे स्वप्न…

शेखर जब भी अपनी मौसी या बूआ के घर जाता तो उस का स्वागत एक ही वाक्य से होता, ‘‘बेटे, मैं ने तुम्हारे लिए सर्वगुण संपन्न चांद सी दुलहन ढूंढ़ रखी है. बस, नौकरी ज्वाइन करने का इंतजार है.’’

जीवनसाथी के मामले में शेखर की सोच कुछ और थी. उस ने एक गरीब असहाय लड़की को अपना जीवन- साथी बनाने का निर्णय किया था. चूंकि

लाजवंती उस के सोच के पैमाने पर खरी उतरी थी इसीलिए उस ने उसे अपना जीवनसाथी बनाया. बचपन में ही लाजवंती के पिता का देहांत हो चुका था. घर में एक भाई था और 4 बहनें. अब तक 2 बहनों का विवाह हो चुका था. मां थीं जो ढाल बन कर बच्चों को ऊंचनीच से बचाने के प्रयास में लगी रहतीं. शेखर का विचार था कि दरिद्रता में पली हुई लाजवंती जिंदगी के उतारचढ़ाव से परिचित होगी. भलेबुरे की उसे पहचान होगी.

लाजवंती में ऐसा कुछ भी न था. वह उस गंजी कबूतरी की तरह थी जो महलों में डेरा डाल चुकी हो. शेखर की धारणा गलत साबित हुई. इतना ही नहीं लाजवंती अपने साथ अपना अतीत भी समेट कर लाई थी.

मां के कंधों का बोझ कम करने के लिए 14 वर्ष की आयु में ही लाजवंती को उस की सब से बड़ी बहन ने अपने पास बुला कर स्कूल में दाखिल करा दिया. हर सुबह लाजो सफेद चोली और नीला स्कर्ट पहने अपना बस्ता कंधे पर लटकाए स्कूल जाने लगी. घड़ी की टिकटिक चढ़ती जवानी का अलार्म बन गई.

उधर लाजो के रूप में निखार आने लगा. चाल में लचक पैदा होने लगी. आंखें भी चमकने लगीं और यौवन का प्रभाव उन्नत डरोजों पर स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा.

पिता के प्यार की चाहत लिए लाजो अकसर अपने जीजा के सामने बैठ कर अपना पाठ दोहराती या फिर उस की गोद में सिर रख कर एलिस के वंडरलैंड में खो जाती. जीजा लाजो के केशों में अपनी उंगलियां फेरता या फिर उस के मुलायम गालों को सहलाता तो नारी स्पर्श से उस की आंखों में नशा छा जाता.

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लाजो भी नासमझी के कारण इस कोमल अनुभूति का आनंद लेने की टोह में लगी रहती. एक दिन पत्नी की गैर- मौजूदगी ने भावनाओं को विवेक पर हावी कर दिया. नदी अपने किनारे तोड़ कर अनियंत्रित हो गई. लाजो को जब होश आया तो बहुत देर हो चुकी थी.

उस घटना के बाद लाजो अपने आप से घृणा करने लगी. वह हर समय खोईखोई रहती. परिणाम की कल्पना से ही भयभीत हो जाती. बहन से कहने में भी उसे डर लगता था इसलिए अंदर ही अंदर घुटती रहती, हालांकि  उस में उस का कोई दोष नहीं था. जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो असहाय मासूम बच्ची क्या कर सकती थी.

मन पर बोझ लिए लाजो को रात भर भयानक सपने आते. अंधेरे जंगलों में वह जान बचाने के लिए भागती, चीखतीचिल्लाती, मगर उस की सहायता के लिए कोई नहीं आता. सपने में देखा चेहरा जाना- पहचाना लगता पर आंख खुलती तो सपने में देखे चेहरे को पहचानने में असफल रहती. इस तरह एक मासूम बच्ची बड़ी अजीब मानसिक स्थिति में जी रही थी.

बहन इतनी पढ़ीलिखी समझदार नहीं थी कि उस के मानसिक द्वंद्व को समझ सकती.

इस के बावजूद लाजो को बारबार उसी दलदल में कूदने की तीव्र इच्छा होती. डर और चाह चोरसिपाही का खेल खेलते. कई महीने के बाद जब उस की बहन को अचानक ही इस संबंध की भनक पड़ी तो उस ने लाजो को वापस मायके भेज दिया.

उस मासूम बच्ची की आत्मा घायल हो चुकी थी. अब हर पुरुष उस को भूखा और खूंखार नजर आने लगा था. फिर भी मुंह से खून लगी शेरनी की तरह उस को मर्दों की बारबार चाह सताती रहती थी. कालिज के यारदोस्तों ने जब घर के दरवाजे खटखटाने शुरू किए तो वह अपनी मां के साथ गांव चली आई. कुनबे के प्रयास से लाजवंती को देखने के लिए शेखर आया और उस ने लाजो को पसंद कर लिया.

लाजवंती ने कभी सपने में भी न सोचा था कि उस को ऐसा जीवनसाथी मिल जाएगा और वह भी किसी मोल- तोल के बिना. वह फूली न समा रही थी.

पहली रात में एक औरत के अंदर सेक्स के प्रति जो झिझक, घबराहट होती है ऐसा कुछ लाजवंती में न पा कर शेखर को उस पर शक होने लगा. उस  पर लाजवंती के व्यवहार ने उस के शक को यकीन में बदल दिया. यद्यपि शेखर ने इस बात को टालने की बहुत कोशिश की मगर उस के दिमाग में अंगारे सुलगते रहे. वह किस को दोषी ठहराता. विवाह के लिए उस ने खुद ही सब की इच्छा के खिलाफ हां की थी. अत: परिस्थितियों से समझौता करना ही उस ने उचित समझा.

लाजवंती अपने अतीत को भूल जाना चाहती थी, मगर अपने द्वारा लूटे जाने की जो पीड़ा उस के मन में घर कर चुकी थी वह अकसर उसे झिंझोड़ती रहती. शेखर ने उस के अतीत को कुरेद कर जानने का कभी प्रयास नहीं किया, शायद यही वजह थी कि लाजवंती खुद ही अपने गुनाहों के बोझ तले दब रही थी. कई बार उस के दिमाग में आया कि जा कर शेखर के सामने अपनी भूल को स्वीकार कर ले. फिर जो भी दंड वह दे उसे हंसीखुशी सह लेगी पर हर बार मां की नसीहत आड़े आ जाती.

अपनी असुरक्षा की भावना को दूर करने के लिए लाजवंती ने अपनी आकर्षक देह का यह सोच कर सहारा लिया कि शेखर की सब से बड़ी कमजोरी औरत है.

अब वह हर रोज नएनए पहनावे व मेकअप में शेखर के सामने अपने आप को पेश करने लगी. वह शेखर को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहती थी. वह अपनी बांहों की जकड़ शेखर के चारों तरफ इतनी मजबूत कर देना चाहती थी कि वह उस में से जीवन भर निकल न सके. इस के लिए लाजवंती ने शेखर के हर कदम पर पहरा लगा दिया. उस के सामाजिक जीवन की डोर भी अपने हाथों में ले ली. वह चाहती थी कि शेखर जहां भी जाए उसी के शरीर की गंध ढूंढ़ता फिरे.

यह पुरुष जाति से लाजवंती के प्रतिशोध का एक अनोखा ढंग था. अकसर ऐसा होता है कि करता कोई है और भरता कोई. लाजवंती शेखर के चारों तरफ अपना शिकंजा कसती रही और वह छटपटाता रहा.

आखिर तनी हुई रस्सी टूट गई. शेखर ने अपने एक नजदीकी दोस्त से परामर्श किया.

‘‘तुम तलाक क्यों नहीं ले लेते?’’ दोस्त ने कहा.

तलाक…शब्द सुनते ही शेखर के चेहरे का रंग उड़ गया. वह बोला, ‘‘शादी के इतने सालों बाद ढलती उम्र में तलाक?’’

‘‘अरे भई, जब तुम दोनों एक छत के नीचे रहते हुए भी एकदूसरे के नहीं हो और तुम्हारी निगाहें हमेशा औरत की तलाश में भटकती रहती हैं. बच्चों को भी तुम लोगों ने भुला दिया है. कभी तुम ने सोचा है कि इस हर रोज के लड़ाईझगड़े से बच्चों पर क्या असर पड़ता होगा.’’

‘‘तो मैं क्या करूं?’’ शेखर बोला, ‘‘वह पढ़ीलिखी औरत है. मैं ने सोचा था कि स्थिति की गंभीरता को समझ कर या तो वह संभल जाएगी या फिर तलाक के लिए सहमत हो जाएगी पर वह है कि जोंक की तरह चिपटी हुई है.’’

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‘‘तुम खुद ही तलाक के लिए आवेदन क्यों नहीं कर देते? वैसे भी हमारे देश में औरतें तलाक देने में पहल नहीं करतीं. एक पति को छोड़ कर दूसरे की गोद का आसरा लेने का चलन अभी मध्यवर्गीय परिवारों में आम नहीं है.’’

‘‘मैं ने इस बारे में बहुत सोचविचार किया है. मुसीबत यह है कि इस देश का कानून कुछ ऐसा है कि कोर्ट से तलाक मिलतेमिलते वर्षों बीत जाते हैं. फिर तलाक की शर्तें भी तो कठिन हैं. केवल मानसिक स्तर बेमेल होने भर से तलाक नहीं मिलता. तलाक लेने के लिए मुझे यह साबित करना पड़ेगा कि लाजवंती बदचलन औरत है.

‘‘इस के लिए झूठी गवाही और झूठे सुबूत के सहारे कोर्ट में उस की मिट्टी पलीद करनी पड़ेगी और तुम तो जानते हो कि यह सब मुझ से नहीं हो सकता’’.

‘‘शेखर, जब तुम तलाक नहीं दे सकते तो भाभी के साथ बैठ कर बात कर लो कि वह ही तुम्हें तलाक दे दें.’’

‘‘यही तो रोना है मेरी जिंदगी का. लाजवंती तलाक क्यों देगी? इतने बड़े अधिकारी की बीवी, यह सरकारी ठाटबाट, नौकरचाकर, मकान, गाड़ी, सुविधाओं के नाम पर क्या कुछ नहीं है उस के पास. जिन संबंधियों के सामने आज वह अभिमान से अपना सिर ऊंचा कर के अपनी योग्यता की डींगें मारती है उन्हीं के पास कल वह कौन सा मुंह ले कर जाएगी. ऐसे में वह भला तलाक क्यों देगी?’’

‘‘देखो शेखर, तुम्हारा मामला बहुत उलझा हुआ है, फिर भी मैं तुम्हें यही सलाह दूंगा कि कोर्ट में आवेदन देने में कोई हर्ज नहीं है.’’

‘‘बात तो सही है. अगर तलाक होने में 10 साल भी लग गए तो इस आजीवन कारावास से तो छुटकारा मिल ही सकता है,’’ शेखर अपने दिल की गहराइयों में डूब गया.

उन्हीं दिनों शेखर का तबादला पटना हो गया. वह लाजवंती को अकेला छोड़ कर बच्चों के साथ पटना चला गया. लाजवंती उसी शहर में इसलिए रुक गई क्योंकि एक कालिज में वह लेक्चरर थी.

घर में अब वह पहली सी रौनक न थी. शेखर के जाते ही तमाम सरकारी साधन, नौकरचाकर भी चले गए. सारा घर सूनासूना हो गया. रात के समय तो मकान की दीवारें काटने को दौड़तीं. इस अकेलेपन से वह धीरेधीरे उकता गई और फिर हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष विजयकुमार की शरण में चली गई.

विजयकुमार और लाजवंती के सोचने- समझने का ढंग एक जैसा ही था, रुचियां एक जैसी थीं. यहां तक कि दोनों के मुंह का स्वाद भी एक जैसा ही था. दोपहर में खाने के दौरान लाजवंती अपना डब्बा खोलती तो विजयकुमार भी स्वाद लेने आ जाता.

‘‘तुम बहुत अच्छा खाना बना लेती हो. कहां से सीखी है यह कला,’’ विजय ने पूछा तो लाजवंती उस की आंखों में कुछ टटोलते हुए बोली, ‘‘अपनी मां से सीखी है मैं ने पाक कला.’’

‘‘कभी डिनर पर बुलाओ तब बात बने,’’ विजयकुमार ने लाजवंती को छेड़ते हुए कहा.

‘‘क्यों नहीं, आने वाले रविवार को मेरे साथ ही डिनर कीजिए,’’ लाजवंती को मालूम था कि पुरुष का दिल पेट के रास्ते से ही जीता जा सकता है.

अगले रविवार को विजयकुमार लाजवंती के घर पहुंच गया.

इस तरह एक बार विजयकुमार को घर आने का मौका मिला तो फिर आने- जाने का सिलसिला ही चल पड़ा. अब विजयकुमार न केवल खाने में बल्कि लाजवंती के हर काम में रुचि लेने लगा. उसे तो अब लाजो में एक आदर्श पत्नी का रूप भी दिखाई देने लगा. उस की निकटता में विजय अपनी गर्लफ्रेंड अर्चना को भी भूल गया जिस के प्रेम में वह कई सालों से बंधा था. अब उस के जीवन का एकमात्र लक्ष्य लाजवंती को पाना था और कुछ भी नहीं.

उधर लाजवंती जैसा चल रहा था वैसा ही चलने देना चाहती थी. इस बंटवारे से उस के जीवन के विविध पहलू निखर रहे थे. भौतिक सुख, ऐशोआराम और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए शेखर का सहारा काफी था और मानसिक संतुष्टि के लिए था विजयकुमार. लाजवंती चाहती थी कि बचीखुची जिंदगी इसी तरह व्यतीत हो, मगर विजय इस बंधन को कानूनी रंग देने पर तुला हुआ था.

विजयकुमार की अपेक्षाओं से घबरा कर लाजवंती ने अपनी छोटी बहन अमृता को आगे कर दिया. उस ने अमृता को अपने पास बुलाया, विजयकुमार से परिचय करवाया और फिर स्वयं पीछे हो गई.

लाजो का यह तीर भी निशाने पर लगा. शारीरिक भूख और आपसी निकटता ने दो शरीरों को एक कर दिया. लाजवंती तो इसी मौके की तलाश में थी. उस ने फौरन दोनों की शादी का नगाड़ा बजवा दिया. विवाह के शोर में लाजवंती के चेहरे पर विजय की मुसकान झलक रही थी.

विजयकुमार ने सोचा कि अमृता के साथ रिश्ता जोड़ने पर लाजवंती भी उस के समीप रहेगी मगर वह औरत की फितरत से अपरिचित था. लाजवंती बहन का हाथ पीला करते ही उस के साए से भी दूर हो गई.

विजयकुमार की आंखों से जब लाजवंती के सौंदर्य का परदा हटा तो उसे पता चला कि वह तो लाजो के हाथों ठगा गया है. अत:  उस ने सोचा एक गंवार को जीवन भर ढोने से तो अच्छा है कि उस से तलाक ले कर छुटकारा पाया जाए.

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मन में यह फैसला लेने के बाद विजयकुमार अपनी पूर्व प्रेमिका अर्चना के पास पहुंचा. प्रेम का हवाला दिया. अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी. यही नहीं सारा दोष लाजवंती के कंधों पर लाद कर उस ने अर्चना के मन में यह बात बिठा दी कि वह निर्दोष है. अर्चना अपने प्रेमी की आंखों में आंसू देख कर पसीज गई और उस ने विजयकुमार को माफ कर दिया.

एक दिन अदालत परिसर में शेखर की विजयकुमार से भेंट हुई.

‘‘हैलो विजय, आप यहां… अदालत में?’’ शेखर ने विजयकुमार का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए कहा.

‘‘आज तारीख पड़ी है,’’ विजय कुमार ने उत्तर दिया.

‘‘कैसी तारीख?’’ शेखर ने फिर पूछा.

‘‘मैं ने अमृता को तलाक देने के लिए कोर्ट में आवेदन किया है,’’ विजयकुमार ने अपनी बात बता कर पूछा बैठा, ‘‘पर शेखर बाबू, आप यहां अदालत में क्या करने आए हैं?’’

‘‘विजय बाबू, आज मेरे भी मुकदमे की तारीख है, मैं भी तो लाजवंती से अलग रह रहा हूं. मैं ने तलाक लेने का मुकदमा दायर कर रखा है,’’ शेखर ने गंभीरता से उत्तर दिया.

फिर 10 साल यों ही बीत गए तारीखें लगती रहीं. काला कोट पहने वकील आते रहे और जाते रहे. फाइलों पर धूल जमती रही और फिर झड़ती रही.

बारबार एक ही नाम दुहराया जाता शेखर सूरी सुपुत्र रामलाल सूरी हाजिर हो… लाजवंती पत्नी शेखर सूरी हाजिर हो…

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