फिर क्यों: भाग 1- क्या था दीपिका का फैसला

लेखक- राम महेंद्र राय 

विक्रम से शादी कर दीपिका ससुराल आई तो खुशी से झूम उठी. यहां उस का इतना भव्य स्वागत होगा, इस की उस ने कल्पना भी नहीं की थी.

सुबह 9 बजे से शाम 4 बजे तक ससुराल में रस्में चलती रहीं. इस के बाद वह कमरे में आराम करने लगी. शाम करीब 4 बजे कमरे में विक्रम आया और दीपिका से बोला, ‘‘मेरा एक दोस्त बहुत दिनों से कैंसर से जूझ रहा था. उस के घर वालों ने फोन पर अभी मुझे बताया है कि उस का देहांत हो गया है. इसलिए मुझे उस के घर जाना होगा.’’

दीपिका का ससुराल में पहला दिन था, इसलिए उस ने पति को रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन विक्रम उसे यह समझा कर चला गया, ‘‘तुम चिंता मत करो, देर रात तक वापस आ जाऊंगा.’’

विक्रम के जाने के बाद उस की छोटी बहन शिखा दीपिका के पास आ गई और उस से कई घंटे तक इधरउधर की बातें करती रही. रात के 9 बजे दीपिका को खाना खिलाने के बाद शिखा उस से यह कह कर चली गई कि भाभी अब थोड़ी देर सो लीजिए. भैया आ जाएंगे तो फिर आप सो नहीं पाएंगी.

ननद शिखा के जाने के बाद दीपिका अपने सुखद भविष्य की कल्पना करतेकरते कब सो गई, उसे पता ही नहीं चला.

दीपिका अपने मांबाप की एकलौती बेटी थी. उस से 3 साल छोटा उस का भाई शेखर था. वह 12वीं कक्षा में पढ़ता था. पिता की कपड़े की दुकान थी.

ग्रैजुएशन के बाद दीपिका ने नौकरी की तैयारी की तो 10 महीने बाद ही एक बैंक में उस की नौकरी लग गई थी.

2 साल नौकरी करने के बाद पिता ने विक्रम नाम के युवक से उस की शादी कर दी. विक्रम की 3 साल पहले ही रेलवे में नौकरी लगी थी. उस के पिता रिटायर्ड शिक्षक थे और मां हाउसवाइफ थीं.

विक्रम से 3 साल छोटा उस का भाई तुषार था, जो 10वीं तक पढ़ने के बाद एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने लगा था. तुषार से 4 साल छोटी शिखा थी, जो 11वीं कक्षा में पढ़ रही थी.

पति के जाने के कुछ देर बाद दीपिका गहरी नींद सो रही थी, तभी ननद शिखा उस के कमरे में आई. उस ने दीपिका को झकझोर कर उठाया. शिखा रो रही थी. रोतेरोते ही वह बोली, ‘‘भाभी, अनर्थ हो गया. विक्रम भैया दोस्त के घर से लौट कर आ रहे थे कि रास्ते में उन की बाइक ट्रक से टकरा गई. घटनास्थल पर उन की मृत्यु हो गई. पापा को थोड़ी देर पहले ही पुलिस से सूचना मिली है.’’

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यह खबर सुनते ही दीपिका के होश उड़ गए. उस समय रात के 2 बज रहे थे. क्या से क्या हो गया था. पति की मौत का दीपिका को ऐसा गम हुआ कि वह उसी समय बेहोश हो गई.

कुछ देर बाद उसे होश आया तो अपने आप को उस ने घर के लोगों से घिरा पाया. पड़ोस के लोग भी थे. सभी उस के बारे में तरहतरह की बातें कर रहे थे. कोई डायन कह रहा था, कोई अभागन तो कोई उस का पूर्वजन्म का पाप बता रहा था.

रोने के सिवाय दीपिका कर ही क्या सकती थी. कुछ घंटे पहले वह सुहागिन थी और कुछ देर में ही विधवा हो गई थी. खबर पा कर दीपिका के पिता भी वहां पहुंच गए थे.

अगले दिन पोस्टमार्टम के बाद पुलिस ने विक्रम का शव घर वालों को सौंप दिया था. तेरहवीं के बाद दीपिका मायके जाने की तैयारी कर रही थी कि अचानक सिर चकराया और वह फर्श पर गिर कर बेहोश हो गई. ससुराल वालों ने उठा कर उसे बिस्तर पर लिटाया. मेहमान भी वहां आ गए.

डाक्टर को बुलाया गया. चैकअप के बाद डाक्टर ने बताया कि दीपिका 2 महीने की प्रैग्नेंट है. पर वह बेहोश कमजोरी के कारण हुई थी.

2 सप्ताह पहले ही तो दीपिका बहू बन कर इस घर में आई थी तो 2 महीने की प्रैग्नेंट कैसे हो गई. सोच कर सभी लोग परेशान थे. दीपिका के पिता भी वहीं थे. वह सकते में आ गए.

दीपिका को होश आया तो सास दहाड़ उठी, ‘‘बता, तेरे पेट में किस का पाप है? जब तू पहले से इधरउधर मुंह मारती फिर रही थी तो मेरे बेटे से शादी क्यों की?’’

दीपिका कुछ न बोली. पर उसे याद आया कि रोका के 2 दिन बाद ही विक्रम ने उसे फोन कर के मिलने के लिए कहा था. उस ने विक्रम से मिलने के लिए मना करते हुए कहा, ‘‘मेरे खानदान की परंपरा है कि रोका के बाद लड़की अपने होने वाले दूल्हे से शादी के दिन ही मिल सकती है. मां ने आप से मिलने से मना कर रखा है.’’

विक्रम ने उस की बात नहीं मानी थी. वह हर हाल में उस से मिलने की जिद कर रहा था. तो वह उस से मिलने के लिए राजी हो गई.

शाम को छुट्टी हुई तो दीपिका ने मां को फोन कर के झूठ बोल दिया कि आज औफिस में बहुत काम है. रात के 8 बजे के बाद ही घर आ पाऊंगी. फिर वह उस से मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में चली गई.

उस दिन के बाद भी उन के मिलनेजुलने का कार्यक्रम चलता रहा. विक्रम अपनी कसम देदे कर उसे मिलने के लिए मजबूर कर देता था. वह इतना अवश्य ध्यान रखती थी कि घर वालों को यह भनक न लगे.

एक दिन विक्रम उसे बहलाफुसला कर एक होटल में ले गया. कमरे का दरवाजा बंद कर उसे बांहों में भरा तो वह उस का इरादा समझ गई.

दीपिका ने शादी से पहले सीमा लांघने से मना किया लेकिन विक्रम नहीं माना. मजबूर हो कर उस ने आत्मसमर्पण कर दिया.

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गलती का परिणाम अगले महीने ही आ गया. जांच करने पर पता चला कि वह प्रैग्नेंट हो गई है. विक्रम का अंश उस की कोख में आ चुका था. वह घबरा गई और उस ने विक्रम से जल्दी शादी करने की बात कही.

‘‘देखो दीपिका, सारी तैयारियां हो चुकी हैं. बैंक्वेट हाल, बैंड वाले, बग्गी आदि सब कुछ तय हो चुके हैं. एक महीना ही तो बचा है. घर वालों को सच्चाई बता दूंगा तो तुम ही बदनाम होगी. तुम चिंता मत करो. शादी के बाद मैं सब संभाल लूंगा.’’

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अपना-अपना सच: क्या था अभय का सत्य

दिल्ली से तबादला हो कर जालंधर आना हुआ तो सहज सुखद एहसास से मनभर आया. अभय ने पुराने साथियों के बारे में बताया.

‘‘वे जो मेहरा साहब अहमदाबाद में थे न, अरे, वही जो अपनी बेटी को ‘मिस इंडिया’ बनाना चाहते थे…’’

‘‘गुप्ता साहब याद है, जिन के बच्चे बहुत गाली बकते थे. अंबाला में हमारे साथ थे…’’

‘‘जयपुर में थे. हमारे साथ, वह शर्माजी…’’

इस तरह के जाने कितने ही नाम अभय ने गिना दिए. 10 साल का समय और बीत चुका है, कौन क्या से क्या हो गया होगा. और होगा क्यों न जब मैं ही 10 साल में इतनी बदल गई हूं तो प्रकृति के नियम से वे सब कहां बच पाए होंगे.

10 साल पहले जब हम अहमदाबाद में थे तब एक मेहराजी हमारे साथ थे. उन की बेटी बहुत सुंदर थी. कदकाठी भी अच्छी थी. वह अपनी बेटी को बिलकुल मौड कपड़े पहनाते थे. इस बारे में आज से 10 साल पहले भी मेरी सोच वही थी जो आज है कि कदकाठी और रूपलावण्य तो प्रकृति की देन है. जिस रूप के होने न होने पर अपना कोई बस ही न हो उसी को ले कर इतनी स्पर्धा किसलिए? इनसान स्पर्धा भी करे तो उस गुण को ले कर जिस को विकसित करने में हमारा अपना भी कोई योगदान हो.

मैं किसी की विचारधारा को नकारती नहीं पर यह भी तो एक सत्य है न कि हम मध्यवर्गीय लोगों में एक ही तो एहसास जिंदा बच पाया है कि केवल हम ही हैं जो शायद लज्जा और शरम का लबादा ओढ़े बैठे हैं.

10 साल पहले जब मैं उन की बेटी को निकर और टीशर्ट में देखती थी तब अच्छा नहीं लगता था. 17-18 साल की सुंदर, सजीली, प्यारी सी बच्ची जब खुली टांगें, खुली बांहें लिए डोलती फिरेगी तो किसकिस की नजर को आप रोक पाओगे. अकसर जब हमारे संस्कार उस बच्ची को सलवारसूट पहनाना चाह रहे होते थे तब उस के मातापिता नजरों में गौरव लिए सिर उठा कर सब के चेहरे पर पता नहीं क्या पढ़ना चाहते थे.

‘‘शुभा, तुम तो पुराने जमाने की बातें करती हो. ग्लैमर और चकाचौंध की दुनिया में शोहरत और पैसा दोनों हैं. अगर हम ऐसा सोचते हैं तो इस में बुरा क्या है?’’ अकसर श्रीमती मेहरा कह देतीं.

मेरी सोच मेरी है और उस का दायरा केवल मेरा घर, मेरी गृहस्थी और मेरा परिवार है. भला समय से पहले किसी को गलत या सही कहने का मुझे क्या अधिकार था जो मैं किसी पर कोई मोहर लगाती.

कुछ दिन घर को और खुद को व्यवस्थित करने में लग गए.

मेरे दोनों बच्चे पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनेअपने लिए अच्छी नौकरी की तलाश में थे सो अकसर कभी कहीं और कभी कहीं साक्षात्कार के लिए जाते रहते थे. एक शाम सोचा, क्यों न नजदीक के बाजार में जा कर थोड़ीबहुत घूम लूं. इस से पता तो चल ही जाएगा कि कहां क्या सामान मिलता है.

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तबादले की नौकरी वालों का कोई संबंध स्थायी नहीं रह पाता. किसी के प्रति संजोया स्नेह और अपनत्व मात्र यादों में सिमट जाता है या हमारे मन के किसी कोने में दुबक कर हमें कभी पुलकित करता है तो कभी रुलाता है.

दोस्ती द्वारा रोपित रिश्ते आधे भारत में बिखरे पड़े हैं. कहने को हर शहर अपना है, यादों में है लेकिन अब इस उम्र में जब बच्चों के अपनीअपनी दिशा में चले जाने के बाद हमें सुखदुख का साथी चाहिए तो हम खाली हाथ हैं. कभी चाहें भी किसी से बात करना तो किस से करें.

नजदीक में छोटी सी मार्केट की 20-25 दुकानों में जरूरत का सब सामान उपलब्ध था. सोचा अगर मार्केट मिल गई है तो कोई अच्छी सी सखी भी मिल ही जाएगी.मैं ने कुछ जरूरी सामान खरीदा और वापसी पर दुकानों के पीछे से निकली तो सामने दर्जी और ब्यूटी पार्लर की दुकान देख कर सोचा, चलो, अच्छा है यह भी यहीं हैं. तभी एकाएक टांगों में कुछ लिपट सा गया. किसी तरह खुद को संभाल कर देखा तो 3-4 साल का प्यारा सा बच्चा मेरी टांगों में लिपटा नानीनानी की गुहार लगाने लगा.

मैं ने आगेपीछे देखा, किस का होगा यह नन्हा सा रूई का गोले सा बच्चा. दुकानों के पीछे कोई घर भी नहीं था जहां से इस के आने की संभावना हो. सामने दर्जी की 2-3 दुकानें थीं और ब्यूटी पार्लर, कहीं वहीं से तो नहीं आया.

हाथ में खरीदे हुए सामान को किसी तरह संभाल कर मैं ने बच्चे का हाथ पकड़ा. शायद ब्यूटी पार्लर में आई किसी महिला का हो यह प्यारा सा बच्चा. यही सोच कर मैं ने किसी तरह उसे धीरेधीरे पैरों से चलाते हुए अपने साथ ब्यूटी पार्लर तक ले गई और दरवाजा खोल कर पूछा, ‘‘सुनिए, यह बच्चा आप का है क्या? बाहर भटक रहा था.’’

‘‘ओहो, यह फिर बाहर निकल गया. मोनू के बच्चे, मैं तेरी पिटाई कर दूंगी. काम करना मुश्किल हो गया है. मुंह से धागा खींचखींच कर किसी महिला की भवें संवारती युवती की आवाज आई, ‘‘कृपया इसे यहीं छोड़ दीजिएगा.’’

बच्चे को भीतर धकेल कर मैं ने दरवाजा बंद कर दिया लेकिन जो थोड़ी सी झलक मैं ने उस लड़की की देखी थी उस ने विचित्र सी जिज्ञासा मन में भर दी. इसे कहीं देखा सा लगता है.

एक दिन अभय बोले, ‘‘सुनो, तुम बता रही थीं न कि यहां मार्केट में एक ब्यूटी पार्लर भी है जहां वह प्यारा सा बच्चा देखा था. जरा जा कर बालों को रंगवा लो न, सफेदी बहुत ज्यादा झलकने लगी है.’’

‘‘क्यों, इस की क्या जरूरत है. चेहरे का ढलका मांस और काले बाल दोनों साथसाथ कितने बेतुके लगते हैं. क्या आप नहीं जानते… मुझे बाल काले नहीं कराने.’’

‘‘अरे बाबा, आजकल, कोई सफेद बालों वाला नजर नहीं आता. समझा करो न…’’

‘‘न आए, हम तो आएंगे न. जवान बच्चे अगलबगल खड़े हों तो क्या पता नहीं चलता कि हम 50 पार कर चुके हैं. फिर इस सत्य को छिपाने की क्या जरूरत है.’’

जब हम दिल्ली में थे तो मेहंदी लगे काले सुंदर बालों का एक किस्सा मैं आज भी भूली नहीं हूं. मेरी एक हमउम्र सखी जो पलपल खुद को जवान होना मानती थी, इसी बात पर कितने दिन सदमे में रही थी कि बेटे की उम्र का लड़का उसे लगातार छेड़ता रहा था. वह तो उसे बच्चा समझ कर नजरअंदाज करती रही थी, लेकिन एक शाम जब उस युवक ने हद पार कर दी तब सखी से रहा नहीं गया और बोली थी, ‘मेरे बेटे, तुम्हारी उम्र के हैं. शरम नहीं आई तुम्हें ऐसा कहते हुए. तुम्हारी मां की उम्र की हूं मैं.’

‘तो नजर भी तो आइए न मुझे मां की उम्र की. आप तो मेरी उम्र की लगती हैं. मुझ से गलती हो गई तो मेरा क्या कुसूर है.’

वह बेचारी तो झंझावात में थी और हम सुनने वाले न रो पा रहे थे और न ही हंसी आ रही थी. बच्चे तो सफेद बालों से ही उम्र का अंदाजा लगाएंगे न.

एक शाम मेहरा साहब के घर गए तब वास्तव में मिसेज मेहरा को देख कर यही लगा कि उन की उम्र तो वहीं की वहीं खड़ी है जहां आज से 10 साल पहले खड़ी थी.

‘‘अरे शुभा, कितनी बूढ़ी लगने लगी हो,’’ श्रीमती मेहरा ने कहा था.

‘‘बूढ़ी नहीं, बड़ी कहिए श्रीमती मेहरा,’’ और खिलखिला कर हंस पड़ी मैं. कंधों तक कटे बाल और उन पर सफेदी की जगह चमकता भूरा रंग, खुली बांहें और चुस्तदुरुस्त कपड़े. अभय की नजरें मुझ से टकराईं तो मुसकराने लगे, मानो कह रहे हों कि देखा न.

‘‘भई, मेरी बात छोडि़ए न कि मैं कैसी लगती हूं. आप बच्चों के बारे में बताइए कि बेटी क्या करती है और बेटा…’’

अभय और मेहराजी तो बातों में व्यस्त हो गए लेकिन श्रीमती मेहरा की बातों की सूई मेरी बड़ी उम्र पर आ कर रुक गई.

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‘‘नहीं शुभा, इस तरह हार मान लेना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘मैं ने कब कहा कि मैं ने हार मान ली है. हार तो वह मान रहे हैं जो उम्र का बढ़ना स्वीकार ही करना नहीं चाहते. अरे, यह शरीर जिसे हम सब 50 सालों से इस्तेमाल कर रहे हैं, धीरेधीरे कमजोर हो रहा है, इस सत्य को हम लोग मानना ही नहीं चाहते. भई, हम सब बड़़े हो गए हैं. इस सत्य को पूरी इज्जत और सम्मान के साथ हमें मानना चाहिए. बालों का सफेद होना शरम की नहीं गरिमा की बात है, ऐसा मेरा विचार है.’’

‘‘तुम्हारा मतलब है कि मैं सत्य को झुठला रही हूं?’’ सदा की तरह अपनी ही बात को दबाना चाह रही थीं श्रीमती मेहरा. जिस पर सदा की तरह मैं ने भी झुंझलाना चाहा लेकिन किसी तरह खुद को रोक लिया.

‘‘अरे, छोड़ो भी श्रीमती मेहरा, हमारी बीत गई अब बच्चों की सोचो. बताओ न बच्चे क्या कर रहे हैं? आप की वह प्यारी सी बिटिया क्या कर रही है? अब तक उस की तो शादी भी हो गई होगी? बेटा क्या करता है?’’

मेरे सवालों का कोई ठोस उत्तर नहीं दिया श्रीमती मेहरा ने. बस, गोलमोल सा बता कर बहला दिया मुझे भी.

‘‘हां, ठीक हैं बच्चे. मिनी की शादी कर दी है. आशु भी अपना काम करता है.’’

घर चले आए हम. मुझे तो लगा वास्तव में श्रीमती मेहरा की उम्र रुकी ही नहीं, काफी पीछे लौट गई है. इस उम्र में भी वह स्वयं को 25-30 से ज्यादा का मानना नहीं चाहती रही थीं. बातों की धुरी को बस, अपने ही हावभाव और रूपसज्जा के इर्दगिर्द घुमाती रही थीं. जबकि इस उम्र में हमारी सोच पर बच्चों की चर्चा प्रभावी होनी चाहिए और वह अपना ही साजशृंगार कर रही थीं.

‘‘देखा न, श्रीमती मेहरा आज भी वैसी ही लगती हैं,’’ अभय बोले.

‘‘अरे भई, वैसी ही कहां, वह तो और भी छोटी हो गई हैं. लगता है बहुत मेहनत करती हैं अपनेआप पर.’’

‘‘हां, तभी तो आशु एक वर्कशाप में नौकरी करता है और मिनी भी यहीं कहीं किसी ब्यूटी पार्लर में काम करती है,’’ दुखी मन से अभय ने उत्तर दिया.

सहसा मुझे याद आया कि वह नन्हा सा बच्चा और वह काम करती लड़की… कहीं मिनी तो नहीं थी. मेहरा साहब ने बातोंबातों में अभय को सब बताया होगा जिस से वे काफी उदास थे.

‘‘शुभा, अपना बनावशृंगार बुरी बात नहीं है लेकिन जीवन में एक उचित तालमेल, एक उचित सामंजस्य होना बहुत जरूरी है. मिसेज मेहरा को ही देख लो. 50 की होने को आईं पर अभी भी एक किशोरी सी दिखने की उन की चाह कितनी छिछोरी सी लगती है. मिनी को शुरू से बस, सुंदर ही दिखना सिखाया उन्होंने, कोई भी और गुण विकसित नहीं होने दिया. न पढ़ाईलिखाई न कामकाज. नतीजा क्या निकला? यही न कि वह मिस इंडिया तो बन नहीं पाई और जो होना चाहिए था वह भी न हुई.

यही हाल आशु का है. वह भी ज्यादा पढ़लिख नहीं पाया. तो अब किसी मोटर वर्कशाप में काम करता है. ऐसा ही तो होता है. जिन मांबाप को आज तक अपने ही शौक पूरे करने से फुरसत नहीं वे बच्चों का कब और कैसे सोचेंगे.’’

कहतेकहते अभय चुप हो गए और मैं उन की बातें सुन कर असमंजस में रह गई. एकाएक फिर बोले, ‘‘बच्चों को कुछ बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है, शुभा. एक मध्यवर्गीय परिवार को तो बहुत ही ज्यादा. सच है, तुम ने अपने बच्चों को बड़ी मेहनत से पाला है.’’

2 दिन के बाद फुरसत में मैं उसी ब्यूटी पार्लर में जा पहुंची. गौर से उस युवती को देखा तो लगा वही तो थी वह प्यारी सी बच्ची, मिनी.

‘‘आइए मैडम, क्या कराएंगी?’’ यह पूछते हुए उस युवती ने भी गौर से मेरा चेहरा देखा. सामने सोफे के एक किनारे पर उस का बच्चा सो रहा था.

‘‘मुझे पहचाना नहीं, बेटा, मैं शुभा आंटी हूं… याद है, हम अहमदाबाद में साथसाथ रहते थे. तुम मेहरा साहब की बेटी हो न… मिनी?’’

अवाक् सिर से ले कर पैर तक वह बारबार मुझे ही देख रही थी. तभी उस का बच्चा जाग गया. लपक कर उसे थपकने लगी ताकि वह एकाग्र मन से काम कर सके. शायद वह मुझे पहचान नहीं पा रही थी. उस का रूई सा गोरागोरा बच्चा जाग उठा था.

‘‘आजा बेटा, मेरे पास आ. अरे, मैं नानी हूं तुम्हारी,’’ ढेर सारा प्यार उमड़ आया था उस पर. मेरी अपनी बेटी होती तो शायद मैं भी अब तक नानी बन  चुकी होती.

पहले ही दिन इस बच्चे ने मुझे नानी मान लिया था न. बच्चा मेरी गोद में चला आया लेकिन मिनी जड़वतसी खड़ी रही.

‘‘बेटा, क्या मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं जो पहचान में ही नहीं आती?’’

उस का सकपकाया सा चेहरा बता रहा था कि मेरे सामने वह खुद को सामान्य नहीं कर पा रही थी. क्याक्या सपने थे मिनी के? भारत सुंदरी, विश्व सुंदरी के बाद सारे संसार पर छा जाने जैसा कुछ. तब मिनी के जमीन पर पैर कहां थे. उस का भी क्या दोष था? जिस आकार में उस की मां उसे ढाल रही थी उसी में तो मिनी की गीली मिट्टी ढल रही थी. बेचारी, न पढ़ती थी और न ही कोई अन्य काम सीखने की उस में ललक थी तब.

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उस का सत्य यही था कि भला एक सुपर माडल को हाथपैर गंदे करने की क्या जरूरत थी. हम सब के जीवन में न जाने कितने पड़ाव आते हैं जिन में हर पड़ाव का अपना ही सत्य होता है. उस  पल का सत्य वह था और आज का सत्य यह कि वही मिनी कुछ नहीं बन पाई और मुझ से यों नजरें चुरा रही थी जैसे मैं उस पर अभी यह प्रश्न दाग दूंगी कि क्या हुआ मिनी, तुम भारत सुंदरी बनना चाहती थीं तो बनी क्यों नहीं?

‘‘मैं शुभा आंटी हूं न, सौरभगौरव की मम्मी.’’

मिनी का स्वर तो नहीं फूटा पर मेरा हाथ उस ने कस कर पकड़ लिया. उस की आंखों में कितना कुछ तैरने लगा था. तभी उस की 2-3 महिला ग्राहक चली आईं और मैं अपने घर का पता उसे दे कर चली आई.

अगले दिन सुबह ही मिनी अपने बेटे को कंधे से लगाए मेरे सामने खड़ी थी.

लपक कर उस का सोया बच्चा मैं ने बिस्तर में सुला दिया और मिनी की बांह पकड़ कर सस्नेह सहला दिया तो मेरे कंधे से लग कर रो पड़ी मिनी.

मैं जानती थी कि मिनी के भीतर बहुत कुछ होगा जिसे वह मुझ से बांटना चाहती होगी क्योंकि 10 साल पुरानी हमारी मुलाकातों में विषय अकसर यही होता था. मैं कहा करती थी कि तुम्हें पढ़ाईलिखाई और दूसरे कामों में भी रुचि लेनी चाहिए. खूबसूरती कोई स्थायी विशेषता नहीं है जिसे कोई सारी उम्र भुना सके.

‘‘आप सच कहती थीं, आंटी,’’ मिनी मेरे कंधे से अलग होते हुए बोली, ‘‘मैं अपने जीवन में कुछ भी नहीं बन पाई. मेरी खूबसूरती ने मुझे कहीं का नहीं रखा. अगर सुंदर न होती तो ही अच्छा होता.’’

‘‘जो बीत गया सो बीत गया. अब आगे का सोचो. तुम्हारे पति क्या काम करते हैं?’’

‘‘वह भी मेरी तरह ज्यादा  पढ़ेलिखे नहीं हैं. किसी जगह छोटी सी नौकरी करते हैं. हम दोनों काम न करें तो हमारा गुजारा नहीं चलता.’’

क्या कहती मैं. किसी के हालात बदल पाना भला मेरे हाथ में था क्या? मिनी का रोना ही सारी कथा का सार था.

‘‘आंटी, मैं ज्यादा पढ़ीलिखी होती तो किसी स्कूल में नौकरी कर लेती. ट्यूशन का काम भी मिल जाता. सिलाईकढ़ाई आती तो किसी बुटीक में काम मिल जाता. मुझे तो कुछ भी नहीं आता.’’

‘‘खूबसूरती संवारना तो आता है न पगली, जो काम कर रही हो उसी में तरक्की कर लो, क्या बुरा है? कुछ न आने से कुछ तो आना ज्यादा अच्छा है.’’

‘‘मम्मी से कहा था कि थोड़ी देर मोनू को संभाल लिया करें, मम्मी के पास समय ही नहीं है… मेरी मां ने मुझे यह कैसा जीवन दिया है, आंटी, कैसी शिक्षा दी है जिस से मैं अपनी गृहस्थी भी नहीं चला सकती.’’

‘‘मोनू के लिए अगर मैं ठीक लगती हूं तो बेशक इसे कुछ घंटे मेरे पास छोड़ जाया करो. तुम्हारे अंकल से बात करती हूं, बैंक से कर्ज ले कर तुम पतिपत्नी अगर छोटा सा काम खोल सको तो…’’

मैं नहीं जानती कि मिनी का भविष्य संवार पाऊंगी या नहीं क्योंकि भविष्य संवारना तो बचपन से ही शुरू किया जाता है न. अब पीछे लौटा नहीं जा सकता. आज तो मिनी की जरूरत

सिर्फ इतनी सी है कि कुछ समय के लिए उस का बच्चा कोई अपने पास रख लिया करे. अफसोस हो रहा है मुझे श्रीमती मेहरा की बुद्धि पर, कम से कम बच्ची का इतना सा साथ तो दे दें कि वह अपना गुजारा चलाने लायक कुछ कर सके.

इस उम्र में मुझे उन के चेहरे पर न बुढ़ापा नजर आया था और न ही संतान के अस्तव्यस्त जीवन के प्रति पैदा हुआ कोई दर्द या पश्चात्ताप. समझ नहीं पा रही हूं कि मेहरा जैसे दंपती किस सोच में जीते हैं, किस सत्य को अपना सत्य मानते हैं और सत्य उन का अपना सत्य होता भी है या नहीं. श्रीमती मेहरा जैसी औरतें न जवानी में बच्चों के लिए बड़प्पन का एहसास करती हैं और न ही बुढ़ापे में खुद को बड़ा मानने को तैयार होती हैं, न ही अच्छी मां बनना चाहती हैं और न ही नानी कहलाना उन्हें पसंद है.

‘‘मोनू को आप रख लेंगी तो बड़ा उपकार होगा, आंटी. सिर्फ 3-4 महीने के लिए. उस के बाद नर्सरी में डाल दूंगी. मोनू नानी कह सकता है न आप को?’’

आंखें भर आईं मेरी. उम्र के साथ कानों के परदे भी यह शब्द सुनना चाहते हैं, दादी, नानी.

‘‘हांहां क्यों नहीं, बेटी, मुझे तो इस से खुशी ही होगी. तुम चिंता न करो, समय एक समान नहीं रहता. सब ठीक हो जाएगा.’’

कुछ घंटे हर रोज के लिए एक प्यारा सा खिलौना मिल गया मुझे. इतवार को अभय के लिए मेहंदी घोलने लगी तो टोक दिया अभय ने, ‘‘रहने दो, शुभा, सफेद बाल अब अच्छे लगने लगे हैं. हर उम्र का अपना ही रंगरूप, अपना ही सत्य होता है और होना भी चाहिए.’’

अवाक् मैं अभय का चेहरा देखती रही. अभय अखबार के पन्ने पलटते रहे और मेरे होंठों पर मुसकान चली आई. अभय भी समझने लगे थे अपना सत्य.

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अंधेरे के हमसफर: भाग 3- क्या था पिंकी के बदले व्यवहार की वजह

लेखक- निर्मल कुमार

‘‘अच्छा मां, माफ कर दो,’’ कहते हुए पिंकी की आंखें भर आईं और वह अपने कमरे में चली गई. पिंकी के आंसू देख सोमांश के मन में परिवर्तन आ गया. अब पिंकी का पलड़ा भारी हो गया. अब पूरी घटना उन्हें एक मामूली सी बात लगने लगी जिसे कजली अकारण तूल दे बैठी थी. अब उन का गुस्सा धीरेधीरे कजली की तरफ मुड़ रहा था कि कजली कुछ नहीं समझती. ग्रेजुएट होते हुए भी अपने जमाने से आगे नहीं बढ़ना चाहती. समझती है कि जो भी अच्छाई है, सारी उस की पीढ़ी की लड़कियों में थी. जरा भी लचीलापन नहीं. समझने को तैयार नहीं कि अब पिंकी नए जमाने की युवती है, जो उस की परछाईं नहीं हो सकती. रात को बिस्तर पर काफी देर तक उन्हें नींद नहीं आई. वे यही बातें सोचते रहे. उधर कजली उन का इंतजार करती रही. कोई एक स्पर्श या कोई प्रेम की एक बात. यह इंतजार करतेकरते उस की कितनी रातें वीराने में लुटी थीं. मगर यह हसरत जैसे पूरी न होने के लिए ही उस की जिंदगी में अब दफन होती जा रही थी. शायद औरतों का मिजाज इसीलिए कड़वा हो जाता है कि वह कभी भी अपने भीतर की युवती को भुला नहीं पाती. वह उस का अभिमान है. देह ढल जाती है मगर वह अभिमान नहीं ढलता. यदि उस का पति उसे थोड़ा सा एहसास भर कराता रहे कि उस की नजरों में वह सब से पहले प्रेमिका है, फिर पत्नी और फिर बाद में किसी की मां, तो उस का संतुलन शायद कभी न बिगड़े मगर पति तो उसे मातृत्व का बोझ दे कर प्रेमिका से अलग कर देता है.

कजली सिसकने लगी. सोमांश झुंझला उठे. वे पहले से ही गुस्से में थे. उन की समझ में नहीं आया कि वह चाहती क्या है. पिंकी पर पूरी विजय पा लेने के बाद भी अभी कुछ कसर रह गई, शायद तभी वह रो रही है. पिंकी को यह अपनी नासमझी से कुचल देगी. वह भी एक भयभीत, दबी, कुचली भारतीय नारी बन कर रह जाएगी. वे कजली की ओर मुड़े मगर उन्हें बोलने से पहले अपने गुस्से पर काबू पाना पड़ा क्योंकि वे जानते थे कि यदि गुस्से में बोला तो कजली सारी रात रोरो कर गुजार देगी. न सोएगी न सोने देगी. कठोर शब्द उस से बरदाश्त नहीं होते और असुंदर परिस्थितियां सोमांश से बरदाश्त नहीं होतीं.

‘‘देखो कजली,’’ सोमांश अपनी आवाज को संयत करते हुए बोले, मगर कजली की नारी सुलभ प्रज्ञा फौरन समझ गई कि वे वास्तव में कु्रद्ध हैं, ‘‘हमें समझना होगा कि यह एक नई पीढ़ी है, कुछ पुराने मूल्य हमारे पास हैं, कुछ नए मूल्य इन के पास हैं. अगर मूल्य इसी तरह आपस में टकराते रहे तो वे विध्वंसक हो जाएंगे. हमें नए और पुराने मूल्यों के बीच समझ पैदा करनी होगी.’’

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‘‘कैसे?’’ कजली ने पूछा.

‘‘मान लो, पिंकी कहती है कि यह क्या फूहड़पन है मां. अब पुराने मूल्यों से देखो तो यह एक गाली है और यदि नए मूल्यों से देखो तो स्पष्ट अभिव्यक्ति. स्पष्ट अभिव्यक्ति की खूबी यह होती है कि वह मन में कोई जहर पलने नहीं देती. स्पष्ट अभिव्यक्ति के कारण ही अमेरिका में लोग स्पष्ट सुनने और कहने के आदी हैं. वहां कोई ऐसी बातों का बुरा नहीं मानता. सब जानते हैं कि स्पष्टता की तलाश में अभिव्यक्ति इतनी कड़वी हो ही गई है. इस में दिल की कड़वाहट नहीं है. ‘‘इस के विपरीत मेरा और अपना जमाना लो. बहुत सी कड़वी बातें जबान पर आ कर रह जाती थीं. वे कहां जाती थीं, सब की सब दिल में. जब कड़वी बात जबान से दिल में लौट आती है तो वह दिल में लौट कर गाली बन जाती है.’’

‘‘मैं समझती हूं,’’ कजली बोली, ‘‘मगर क्या करूं, मेरे दिमाग को यह सूझता ही नहीं. जब तुम कहते हो तो दूसरा पहलू दिखता है वरना मुझे लगता है, बच्चे बड़े हो गए हैं, किसी को मेरी जरूरत नहीं अब. बस, कोको है. यह भी बड़ा हो जाएगा. फिर मैं क्या करूंगी? इतनी अकेली होती जाऊंगी मैं…’’

‘‘ऐसा क्यों सोचती हो?’’ सोमांश का हृदय करुणा से भर आया. कजली को उस ने बांहों में भर लिया. तब तक चांद पेड़ों पर चढ़ताचढ़ता खिड़की के सामने आ गया था. चांदनी पेड़ों से छनती कुछ शय्या पर आ रही थी. उस उजाले में कजली का आधा मुंह दमक रहा था और आधे पर स्वप्निल साए थे. उस की विशाल आंखों में न आंसू थे न थकान और न ही निराशा. उन की जगह थी एक स्निग्ध चमक, वासना का वह पवित्र आलोक जो कामकलुषित मन से नहीं, शरीर के अंग गहन स्रोतों से निकलता है. यह वह साफ पाशविकता थी जो प्रकृति को दोनों हाथों से पकड़ कर बरसता नभ उमड़उमड़ कर उस के असंख्य गर्भकोषों में उतार देता है. सोमांश को लगा, यौन की पूर्णता के सर्वथा दैहिक होने में है. मन इस का साक्षी न बने, लजा कर छिप जाए अन्यथा मन इसे देख कर कामकलुषित हो जाता है. विप्लव नहीं, एक संयमित, यौन सुरभ्य क्रिया थी, उम्र ने कामविप्लव को झेल कर सुंदर बनाना सिखा दिया था. जो यौवन में उन्मुक्त मद था, प्रौढ़ावस्था में एक कोमल अनुराग विनिमय बन गया था. तृप्ति दोनों में है मगर यह तृप्ति प्रवृत्त होने वालों पर आश्रित है जो प्रौढ़ता को यौवन का अभाव नहीं, एक परिपक्वता की प्राप्ति समझाते हैं, वे इस की देन से जीवन संवारते हैं. सौंदर्य के तार चांद की किरणों के साथ यौनकर्म भी शय्या पर बुन रहा था. आकाश पर दूर छितरे बादलों को देख अब कजली के मन में उठते विचार बदल गए थे. इतनी पीड़ा थी बादलों के मन में, उस ने सोचा गरजगरज कर जी खोल कर आंसू बहाए थे उन्होंने, मगर अब वे दूरदूर थके बच्चों की तरह सो रहे थे. सफेद बादलों से दुख के श्यामल स्पर्श दूर नहीं हुए थे किंतु उन के पाश से अब बादल बेखबर थे. चांदनी में चमकती उन की रुई जैसी सफेदी को श्यामलता का अब जैसे कोई एहसास ही नहीं था.

दुखों से निकलने की राह क्या यही ह? दुखों से लड़ी तो दुख अनंत लगे और दुखों पर साहसपूर्वक आत्मबलि दी तो वे निष्प्रभ हो गए. उधर सोमांश मूल्यों के इस संघर्ष में किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने में असमर्थ थे. न तो पत्नी को दबा सकते थे न बेटी को. एक के साथ शताब्दियां थीं, संस्कृति थी तो दूसरी के साथ वह ताजगी, वह चिरनूतन जीवन था जिस से मूल्य और संस्कृति जन्म लेते हैं. दोनों में संघर्ष अनिवार्य है क्योंकि यह दौर अनिश्चितता के नाम है. जब काल के ही तेवर ऐसे हैं तो मैं संभावनाओं के कालरचित खेल को एक निश्चित हल दे कर रोकने वाला कौन हूं. ये छोटेछोटे पारिवारिक संघर्ष ही नए मूल्यों को जन्म देंगे शायद. अपने छोटे से परिवार का हर सदस्य उन की आंखों के आगे अपनी सारी शरारत के साथ आया. हम सब अंधेरे के हमसफर हैं. रोशनी कहां है? कभीकभी इतिहास में ऐसा दौर भी आता है जब पूरी श्रद्धा से अपनेअपने अंधेरे के सहारे चलना पड़ता है.

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अगली सुबह चारों एकसाथ मानो किसी अज्ञात प्रेरणा के अधीन नाश्ता करने बैठे, ‘‘पिताजी, आज आप ने ब्रिल क्रीम लगाई है या तेल?’’ कोको ने पूछा.

‘‘ब्रिल क्रीम.’’

‘‘बहुत सारी लगाई होगी,’’ कोको बोला, ‘‘तभी तो चेहरा इतना चमक रहा है.’’

पिंकी हंसने लगी. कजली भी हंसने लगी और बोली, ‘‘या तो लगाते नहीं और जब लगाते हो तो थोक के भाव.’’ सोमांश की ऐसी बचकानी हरकतों पर अकसर घर में हंसी बिखर जाती थी. पुराने मूल्यों और नए मूल्यों के बीच अमूल्य कोको भी था जिस के मूल्य अभी प्रकृति ने समन्वित कर रखे थे, जो सनातन थे कालजन्य नहीं. उस के बचपन का भोलापन अकसर दोनों मूल्यों के बीच ऐसे संगम अकसर रच दिया करता था. कुछ देर में ही कोको और पिंकी की लड़ाई होने लगी, ‘‘देखो मां,’’ पिंकी बोली, ‘‘अब की बार जो रस्कीज (शकरपारे) लाई हो, सब कोको ने छिपा लिए हैं. हमें भी दिलवाओ.’’

‘‘मांमां…’’ कोको बोला, ‘‘पहले दीदी से मेरे 30 रुपए दिलवाओ.’’

‘‘वाह, इसे मैं कहीं ले जाऊं तो ठंडा पिलवाऊं और आइसक्रीम खिलवाऊं…’’

‘‘जो खिलाते हैं, उस के दाम क्या छोटे भाई से वसूल किए जाते हैं?’’ कजली बोली.

‘‘मां, मेरे रुपए दिलवाओ,’’ कोको फिर बोला.

‘‘मैं नहीं दूंगी,’’ कहती हुई पिंकी कमरे में भागी और उस के पीछेपीछे कोको.

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अंधेरे के हमसफर: भाग 2- क्या था पिंकी के बदले व्यवहार की वजह

लेखक- निर्मल कुमार

अब भी उस का मन करता कि उस के पति दफ्तर से लौटते ही उसे उसी तरह बांहों में लें जैसे शुरू में लेते थे. उस का शरीर चाहता अठखेलियां हों, कुछ रातों को जागा जाए, कुछ फुजूल की बातें हों और सुबह की रोशनी में धुंधला चांद हो जब वे दोनों सोएं. मगर ये इच्छाएं अब एकतरफा थीं. उसे ग्लानि होने लगी थी अपनी दैहिकता पर. वह अगर खुल कर अपने व्यक्तित्व को जीए तो दुनिया हंसेगी और अगर व्यक्तित्व को न जीए तो शरीर का पोरपोर घुटता है और वह स्थूल होता जाता है. अजब मूल्य है आधुनिक समाज का भी, जो युवावर्ग को तो पूरी आजादी देता है मगर वही युवा वर्ग अपने मातापिता की जरा सी शारीरिक अल्हड़ता बरदाश्त नहीं करता. वह चाहता है कि मातापिता आदर्श मातापिता बने रहें, यह भूल जाएं कि वे स्त्रीपुरुष हैं. 3 बजे पिंकी कालेज से लौटी. वह खाना खा रही थी कि तभी फोन आया. कजली ने फोन उठाया. पिंकी का मित्र संजय था. कजली उस से बातें करने लगी, ‘‘कैसे हो बेटे? मां कैसी हैं? पढ़ाई कैसी चल रही है? तुम कोको की पार्टी में नहीं आए, मुझे बहुत दुख हुआ.’’

‘‘उफ, मां,’’ खीज कर पिंकी उठी और मां से फोन छीन लिया. रिसीवर हाथ से ढकते हुए बरसी, ‘‘यह क्या मां, क्या जरूरत है आप को इतनी बातें करने की?’’

तब तक फोन कट गया. ‘‘यह लो, फोन भी कट गया. सारा वक्त तो फोन पर आप ले लेती हैं. फोन पर चाहे मेरा ही मित्र हो, उसे भी आप अपना ही मित्र समझती हैं. ऐसे ही जब अनीता आती है तो ऐसे प्यार करने लगती हो जैसे वह आप की दोस्त है.’’ ‘‘तो इस में क्या हुआ? मुझे अच्छी लगती है, सीधी और नाजुक सी लड़की है.’’

‘‘बस भी कर मां, मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ कि तुम संजय को कह रही थीं, तुम कोको की पार्टी में नहीं आए. अब कोको खुद यह बात कहे तो और बात है. आप कौन होती हैं यह बात कहने वाली?’’

‘आप कौन होती हैं’ यह वाक्य तीर की तरह चुभा कजली को, ‘‘मैं कौन होती हूं?’’ वह बोली, ‘‘मैं कोको की मां हूं.’’

‘‘मेरा यह मतलब नहीं था, मां.’’

‘‘तुम क्या अपनी जबान को थोड़ा भी नियंत्रण नहीं कर सकतीं? बाहर वालों के सामने तो ऐसी बन जाती हो जैसे मुंह से फूल झड़ रहे हों और घर वालों से कितनी बदतमीजी से बोलती हो?’’

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‘‘आप को कुछ समझाना बेकार है, मां,’’ कह कर पिंकी अपने कमरे में चली गई. बाद में कजली भी अपने कमरे में चली गई. अब दोनों को शाम तक, गृहस्वामी के लौटने तक, अपनाअपना अवसाद जीना था, अपनीअपनी खिन्नता को अकेले झेलना था. दोनों दुखी थीं मगर अपने दुखों को बांट नहीं सकती थीं. कोई दीवार थी जो दुखों ने ही चुन दी थी या फिर अभिमान था, एक मां का सहज अभिमान और एक युवा लड़की के तन में बसे उभरते यौवन का अभिमान जो उसे एक अलग पहचान बनाने को मजबूर कर रहा था, जो मां को आहत सिर्फ इसलिए कर रहा था ताकि वह उस के साए से निकल सके और अपना नीला आसमान खुद बना सके. स्कूल से आते ही कोको ने अपना बस्ता फेंका और बिना जूते खोले मां के पास लेट गया. मां से चिपट गया जैसे इतनी देर दूर रहने मात्र से उस के शरीर के कण प्यासे हो गए थे. उस रस के लिए जो सिर्फ मां के शरीर से झरता था. रात को खाने के बाद कजली ने पति से शिकायत की, ‘‘पिंकी बहुत बदतमीज हो गई है. आज इस ने मुझे फूहड़ आदि न जाने क्याक्या कहा.’’

पति सोमांश, जो पेशे से जज हैं, कुछ देर चुप रहे और पत्नी के दुख को कलेजे में उतर जाने दिया और जब उन के भी कलेजे को इस का लावा झुलसाने लगा तो बोले, ‘‘पिंकी, अब तुम बच्ची तो नहीं रहीं. अगर तुम अपनी मां का आदर नहीं कर सकतीं तो किस का करोगी? जो व्यक्ति अपनी भाषा को नहीं निखारता, उस का व्यक्तिव नहीं निखरता. क्या तुम गंवार लड़की बनी रहना चाहती हो? संस्कार कौन बताएगा? कोई और तो आएगा नहीं. वाणी और करनी पर सौंदर्य का संयम रखोगी तो संस्कार बनेंगे वरना वाणी और कर्म दोनों जानवर बना देंगे. तुम मनोवेगों में जीती हो. मनोवेगों में जीना प्राकृतिक जीवन नहीं है. बुद्धि और संयम भी तो प्राकृतिक हैं, केवल मनोवेग ही प्राकृतिक हो ऐसा तो नहीं.’’ पिंकी रोंआसी हो गई, ‘‘पिताजी, मैं किसी की शिकायत नहीं करती और मां रोरो कर रोज मेरी शिकायत करती हैं. रो पड़ती हैं तो लगता है ये सच बोल रही हैं. यदि मैं भी रोऊं तो आप समझोगे कि सच बोल रही हूं वरना आप मुझे झूठी समझोगे.’’

‘‘तो क्या मैं झूठ बोल रही हूं?’’ कजली बोली.

‘‘आप जिस तरह बात को पेश कर रही हैं, मैं ने उस तरह नहीं कहा था. आप के मुंह से सुन कर तो लगता है, जैसे मुझे जरा भी तमीज नहीं है, मैं पागल हूं.’’ ‘‘तुम पिताजी के सामने निर्दोष बनने की कोशिश मत करो. तुम जिस तरह का बरताव करती हो वह किसी भी लड़की को शोभा नहीं देता. हम तो बरदाश्त कर लेंगे मगर तुम्हें पराए घर जाना है. सब यही कहेंगे कि मां ने कुछ नहीं सिखाया होगा.’’

पिता बोले, ‘‘यह तो मैं भी देखता हूं पिंकी कि तुम ‘मम्मी’ को कुछ नहीं समझती हो.’’

‘‘पिताजी, आप भी ‘मम्मी’ कह रहे हैं,’’ पिंकी हंसने लगी.

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‘‘यह हंसी में टालने की बात नहीं है, पिंकी,’’ पिता ने गंभीर आवाज में कहा, ‘‘तुम ने अमेरिकन संस्कृति अपना ली है. वह भारत में नहीं चलेगी. हमारी संस्कृति की जड़ें बहुत मजबूत हैं अमेरिका के मुकाबले. जिस घर में जाओगी वहां की भारतीय जड़ें तुम्हारी अमेरिका की वाहियात बातों को बरदाश्त नहीं करेंगी.’’ पिंकी बोली, ‘‘अमेरिकन संस्कृति कोई संस्कृति नहीं, प्रेग्मेटिज्म है, उपयोगितावाद है यानी जो वक्त का तकाजा है वही करो. इस आदर्श को अपना लेने में हर्ज ही क्या है? जिन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की दुहाई आप देते हैं उन्होंने हमें दिया ही क्या? सदियों की गुलामी, औरतों की दुर्दशा, दहेज व जातिवाद के अलावा और क्या? इस संस्कृति को भी तो खुल कर नहीं जी पाते हम लोग. जीएं तो विदेशों से हुकूमत करने आए लोग सांप्रदायिकता का आरोप लगाते हैं. कितना अस्तव्यस्त कर डाला है आप की पीढ़ी के मूल्यों ने. इस से तो हम ही अच्छे हैं. जो भीतर हैं वही बाहर हैं. अगर हम बहुत मीठी बातें नहीं करते तो हमारे दिल भी तो काले नहीं हैं. वे मूल्य क्या हुए कि दिल में जहर भरा है और ऊपर से सांप्रदायिक एकता का ढोंग रच रहे हैं?’’

‘‘बात तुम्हारी हो रही है,’’ पिता बोले, ‘‘अपनी बात करो, पूरे समाज की नहीं. सारांश यह है कि तुम्हें अपनी मां से माफी मांगनी चाहिए और आइंदा बदतमीजी न करने का वादा करना चाहिए.’’

‘‘मां को भी तो हमारी बात समझनी चाहिए. हम उन की पीढ़ी तो हो नहीं सकते. हमारी सब बातों को वे अपनी पीढ़ी से क्यों तोलती हैं? हमें परखें नहीं. हम से प्यार करें तो समझें हमें.’’

‘‘तुम सचमुच जबानदराज हो गई हो, पिंकी,’’ सोमांश को गुस्सा आ गया, ‘‘अब तुम मां से प्रेम का सुबूत मांगती हो. अरे, कौन मां है जो अपने बच्चों से प्यार नहीं करती?’’

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अंधेरे के हमसफर: भाग 1- क्या था पिंकी के बदले व्यवहार की वजह

लेखक- निर्मल कुमार

पिंकी के कालेज जाने के बाद बादल घिर आए. आज फिर वह कजली से लड़ी थी. इसी बात को ले कर कजली दुखी थी. कपड़े धोते हुए कई बार उसे रुलाई आई. उस से खाना भी नहीं खाया गया और वह बैडरूम में चली गई. कुछ देर बादलों के घुमड़ते शोर और कजराए नभ ने उस के मन को बहलाए रखा. मगर जैसे ही बूंदें गिरने लगीं उसे फिर पिंकी की बदतमीजी याद आई कि मैं उस की मां हूं और वह मुझे ऐसे झिड़कती है जैसे मैं उस की नौकरानी हूं. पिंकी का व्यवहार अपनी मां के प्रति अच्छा नहीं था. कई बार कजली ने अपने पति से रोते हुए शिकायत की थी. जवाब में वे एक उदास, बेबस सी गहरी सांस लेते और पूरी समस्या का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उसे धीरज न खोने की राय देते, ‘पुराने मूल्य टूट रहे हैं, नए बन नहीं पाए. नई पीढ़ी इसी दोहरे अंधेरे से घिरी है. अगर हम उन्हें डांटेंगे तो वे भयाक्रांत हो, नए मूल्य ढूंढ़ना छोड़ देंगे. उन का व्यक्तित्व पहले ही मूल्यहीनता की कमी के एहसास से हीनताग्रस्त है. डांटफटकार से वे टूट जाएंगे. उन का विकास रुक जाएगा. बेहतर यही है कि उन के साथ समान स्तर पर कथोपकथन चलता रहे. इस से उन्हें अपने लिए नए मूल्य ढूंढ़ने में मदद मिलेगी.’

पति की इस कमजोर करती, असहाय बनाती प्रतिक्रिया को याद कर कजली की आंखों से विवशता के आंसू बहने लगे. उसे अपना छोटा बेटा कोको याद आया, जो स्कूल गया हुआ था. बड़ा बेटा आईआईटी में इंजीनियरिंग कर रहा था. वह पिंकी की तरह दुर्व्यवहार तो नहीं करता था मगर उस में भी आधुनिक युवावर्ग की असहनशीलता और वह पुरानेपन के प्रति निरादर था. केवल नन्हा कोको ही ऐसा था जो नए और पुराने मूल्यों के भेद से अनभिज्ञ था, जो सिर्फ यह देखता था कि मां की प्यारी आंखें ढुलक रही हैं और यह वह देख नहीं सकता था क्योंकि मां के आंसू देख उस का उदर रोता था. वह अपने मायूस हाथों से उस के आंसू पोंछते हुए उस के गले से लग जाता था  बात कुछ नहीं थी. बात कभी भी कोई खास नहीं होती थी. बस, छोटीछोटी बातें थीं जिन्हें ले कर अकसर पिंकी दुर्व्यवहार करती. आज वह देर तक सोती रही थी. कजली ने उसे जगाया तो वह झुंझला कर बोली, ‘‘उफ, मां, तुम इतनी अशिष्ट क्यों हो गई हो?’’

‘‘क्यों, इस में क्या अशिष्टता हो गई?’’

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‘‘अच्छा, इतनी जोर से मुझे हिलाया और ऊपर से कह रही हो कि इस में क्या अशिष्टता हो गई? क्या प्यार से नहीं जगा सकती थीं?’’

‘‘मुझ से ये चोंचले नहीं होते.’’

‘‘ये चोंचले नहीं, मां, आधुनिक संस्कृति है. मेरा सारा मूड आप ने खराब कर दिया. मैं ने कई बार कहा है कि जब मैं सो रही होऊं तो ऐसी कठोर आवाज में मत बोला करो. सुबह उठने पर पहला बोल प्यार का होना चाहिए.’’

‘‘तो अब तुम मुझे सिखाओगी कि कैसे उठाया करूं, कैसे तुम से बात किया करूं? एक तो 9 बजे तक सोई रहती हो ऊपर से मुझे उठाने की तमीज सिखा रही हो. हमारे जमाने में सुबह 6 बजे उठा दिया जाता था. हमारी हिम्मत नहीं होती थी कि कुछ कह सकें.’’

‘‘वह पुराना जमाना था, तब लड़कियों को घर की नौकरानी समझा जाता था. मेरे साथ यह सब नहीं चलेगा.’’

‘‘क्या नहीं चलेगा? तू बहुत जबान चलाने लगी है. जरा सी भी तमीज है तुझ में? मैं तेरी मां हूं.’’

‘‘मां, आप हद से आगे बढ़ रही हो. मैं ने आप को ऐसा कुछ नहीं कहा है. आप मुझे गालियां दे कर निरुत्साहित कर रही हो. आप क्या समझती हो कि मैं आप के इस मूर्खतापूर्ण व्यवहार को बरदाश्त कर जाऊंगी.’’

‘मूर्खतापूर्ण’ शब्द सुनते ही कजली आश्चर्यचकित रह गई. उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे. अपना सारा उफान उसे पीना पड़ा. नाश्ते की मेज पर फिर पिंकी ने अपने नखरे शुरू कर दिए, ‘‘यह क्या नाश्ता है, मां? परांठे और दूध, क्या यह क्रौकरी लगाने का ढंग है? प्लेटें हरे रंग की हैं तो डोंगे भूरे रंग के. मां, मैं तो ऐसे नहीं खा सकती. खाने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है खाना परोसने का तरीका. फूहड़ तरीके से परोसने से वैसे ही भूख मर जाती है.’’ अब यह दूसरा कठोर शब्द था, ‘फूहड़’. यानी मां फूहड़ है. ‘‘तू अब मां को फूहड़ कहना सीख गई. मैं भी ग्रेजुएट हूं. इस घर में बस यही मेरी इज्जत है?’’

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कजली की आंखों में आंसू भर आए. ये ऐसे आघात थे, जो उस ने कभी बचपन में जाने नहीं थे. जिस संस्कृति में वह पली थी उस में मां की शान में गुस्ताखी अक्षम्य थी. कोई भी मां अपनी बेटी से ‘फूहड़’ शब्द सुन कर शांत नहीं रह सकती थी. मां को रोते देख पिंकी सहम गई, ‘‘मैं ने आप को नहीं कहा, मां. मैं तो कुंदन को कह रही थी. इस को कुछ सिखाओ, मां. यह कुछ भी नहीं सीखना चाहता. जैसा गंवार आया था वैसा ही है.’’

‘‘मैं सब समझती हूं. बेवकूफ नहीं हूं. क्या यहां कुंदन था जब तू यह सब बोल रही थी?’’ पिंकी अवाक् हो गई और अपना उतरता चेहरा छिपाने के लिए कालेज के लिए देरी होने का बहाना करते हुए बाहर हो गई. एक पीड़ा थी, एक गहन पीड़ा, एक अनंत सी लगती पीड़ा, जिस का उद्गम पेट के गड्ढे में था, जहां से वह लावे की तरह उबल रही थी. जो आंसू कजली की आंखों से बरस रहे थे वे देखने में तो पानी थे लेकिन वे पिघले लावे की तरह आंखों को लग रहे थे. इस दुख में और सारे दुख आ मिले थे. सब से बड़ा यह था कि गृहस्थ जीवन ने उसे क्या दिया? 3 बच्चे, दुनियाभर की चिंताएं. दुनियादारी के दबाव, भय व दिन पर दिन आकर्षण खोता शरीर और सैक्स से विरक्त होते पति. पूरीपूरी रात वह थक कर, दफ्तर

की चिंताओं और जिंदगी की उलझनों को हफ्ते में 2-3 बार 3 पैगों में गर्त कर के ऐसे सोते रहते जैसे स्त्री शरीर के प्रति उन में केवल मातृभाव था. वासना जैसे थी ही नहीं, किंतु चोट तब लगती जब पार्टियों में या कार में साथ जाते हुए वे जी खोल कर सुंदर युवतियों की रूपसुधा से मोटे चश्मे के पीछे आंखों की वीरानी दूर करते. अब उम्र की ढलान पर उतरते हुए कजली को लगता जैसे इतनी धूप में वह अकेली रह गई है.

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अस्तित्व: भाग 3- क्या प्रणव को हुआ गलती का एहसास

लेखक- नीलमणि शर्मा

तनु का क्रोध आज फिर अपना चरम पार करने लगा, ‘‘चुप रहिए, मैं ने पहले ही कहा था कि अब मुझ से बरदाश्त नहीं होता. ’’

‘‘कौन कहता है कि बरदाश्त करो…अब तो तुम ने मकान भी ले लिया है. जाओ…चली जाओ यहां से…मैं भूल गया था कि तुम जैसी मिडिल क्लास को कोठीबंगले रास नहीं आते. तुम्हारे लिए तो वही 2-3 कमरों का दड़बा ही ठीक है.’’

तनु इस अपमान को सह नहीं पाई और तुरंत ही अंदर जा कर अपना सूटकेस तैयार किया और वहां से निकल पड़ी. आंखों में आंसू लिए आज कोठी के फाटक को पार करते ही तनु को ऐसा लगा मानो कितने बरसों की घुटन के बाद उस ने खुली हवा में सांस ली है.

सारी रात आंखों में ही काट दी तनु ने अपने नए घर में…सुबह ही झपकी लगी कि डोरबेल से आंख खुल गई. सोचा, शायद प्रणव होंगे पर प्रोफेसर दीप्ति थी.

‘‘बाहर से ताला खुला देखा इसलिए बेल बजा दी. कब आईं आप?’’ शालीनता से पूछा था दीप्ति ने.

‘‘रात ही में.’’

‘‘ओह, अच्छा…पता ही नहीं चला. और मिस्टर राय?’’

‘‘वह बाहर गए हैं…तब तक दोचार दिन मैं यहां रह कर देखती हूं, फिर देखेंगे.’’

दीप्ति भेदभरी मुसकान से ‘बाय’ कह कर वहां से चल दी.

पूरा दिन निकल गया प्रतीक्षा में. तनु को बारबार लग रहा था प्रणव अब आए, तब आए. पर वह नहीं ही आए.

रात होतेहोते तनु ने अपने मन को समझा लिया था कि यह किस का इंतजार था मुझे? उस का जिस ने घर से निकाल दिया. अगर उन्हें आना ही होता तो मुझे निकालते ही क्यों…सचमुच मैं उन की जिंदगी का अवांछनीय अध्याय हूं. लेकिन ऐसा तो नहीं कि मैं जबरदस्ती ही उन की जिंदगी में शामिल हुई थी…

कालिज में मैं और निमिषा एक साथ पढ़ते थे. एक ही कक्षा और एक जैसी रुचियां होने के कारण हमारी शीघ्र ही दोस्ती हो गई. निमिषा और मुझ में कुछ अंतर था तो बस, यही कि वह अपनी कार से कालिज आती जिसे शोफर चलाता और बड़ी इज्जत के साथ कार का गेट खोल कर उसे उतारताबैठाता, और मैं डीटीसी की बस में सफर करती, जो सचमुच ही कभीकभी अंगरेजी भाषा का  ‘सफर’ हो जाता था. मेरा मुख्य उद्देश्य था शिक्षा के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना और निमिषा का केवल ग्रेजुएशन की डिगरी लेना. इस के बावजूद वह पढ़ाई में बहुत बुद्धिमान थी और अभी भी है…

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ग्रेजुएशन करने तक मैं कभी निमिषा के घर नहीं गई…अच्छी दोस्ती होने के बाद भी मुझे लगता कि मुझे उस से एक दूरी बनानी है…कहां वह और कहां मैं…लेकिन जब मैं ने एम.ए. का फार्म भरा तो मुझे देख उस ने भी भर दिया और इस तरह हम 2 वर्ष तक और एकसाथ हो गए. इस दौरान मुझे दोचार बार उस के घर जाने का मौका मिला. घर क्या था, महल था.

मेरी हैरानी तब और बढ़ गई जब एम.फिल. के लिए मेरे साथसाथ उस ने भी आवेदन कर दिया. मेरे पूछने पर निमिषा ने कहा था, ‘यार, मम्मीपापा शादी के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं, जब तक नहीं मिलता, पढ़ लेते हैं. तेरे साथसाथ जब तक चला जाए…’ बिना किसी लक्ष्य के निमिषा मेरे साथ कदम-दर-कदम मिलाती हुई बढ़ती जा रही थी और एक दिन हम दोनों को ही लेक्चरर के लिए नियुक्त कर लिया गया.

इस खुशी में उस के घर में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था. उसी पार्टी में पहली बार उस के भाई प्रणव से मेरी मुलाकात हुई. बाद में मुझे पता चला कि उस दिन पार्टी में मेरे रूपसौंदर्य से प्रभावित हो कर निमिषा के मम्मीपापा ने निमिषा की शादी के बाद मुझे अपनी बहू बनाने पर विचार किया, जिस पर अंतिम मोहर मेरे घर वालों को लगानी थी जो इस रिश्ते से मन में खुश भी थे और उन की शानोशौकत से भयभीत भी.

इस सब में लगभग एक साल का समय लगा. प्रणव कई बार मुझ से मिले, वह जानते थे कि मैं एक आम भारतीय समाज की उपज हूं…शानोशौकत मेरे खून में नहीं…लेकिन शादी के पहले मेरी यही बातें, मेरी सादगी, उन्हें अच्छी लगती थी, जो उन की सोसाइटी में पाई जाने वाली लड़कियों से मुझे अलग करती थी.

तनु को यहां रहते एक महीना हो चुका था. कुछ दिन तो दरवाजे की हर घंटी पर वह प्रणव की उम्मीद लगाती, लेकिन उम्मीदें होती ही टूटने के लिए हैं. इस अकेलेपन को तनु समझ ही नहीं पा रही थी. कभी तो अपने छोटे से घर में 55 वर्षीय प्रोफेसर डा. तनुश्री राय का मन कालिज गर्ल की तरह कुलाचें मार रहा होता कि यहां यह मिरर वर्क वाली वाल हैंगिंग सही लगेगी…और यह स्टूल यहां…नहीं…इसे इस कोने में रख देती हूं.

घर में कपडे़ की वाल हैंगिंग लगाते समय तनु को याद आया जब वह जनपथ से यह खरीद कर लाई थी और उसे ड्राइंग रूम में लगाने लगी तो प्रणव ने कैसे डांट कर मना कर दिया था कि यह सौ रुपल्ली का घटिया सा कपडे़ का टुकड़ा यहां लगाओगी…इस का पोंछा बना लो…वही ठीक रहेगा…नहीं तो अपने जैसी ही किसी को भेंट दे देना.

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तनु अब अपनी इच्छा से हर चीज सजा रही थी. कोई मीनमेख निकालने वाला या उस का हाथ रोकने वाला नहीं था, लेकिन फिर भी जीवन को किसी रीतेपन ने अपने घेरे में घेर लिया था.

कालिज की फाइनल परीक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं. सभी कहीं न कहीं जाने की तैयारियों में थे. प्रणव के साथ मैं भी हमेशा इन दिनों बाहर चली जाया करती थी…सोच कर अचानक तनु को याद आया कि बेटा  ‘यश’ के पास जाना चाहिए…उस की शादी पर तो नहीं जा पाई थी…फिर वहीं से बेटी के पास भी हो कर आऊंगी.

बस, तुरतफुरत बेटे को फोन किया और अपनी तैयारियों में लग गई. कितनी प्रसन्नता झलक रही थी यश की आवाज में. और 3 दिन बाद ही अमेरिका से हवाई जहाज का टिकट भी भेज दिया था.

फ्लाइट का समय हो रहा था… ड्राइवर सामान नीचे ले जा चुका था, तनु हाथ में चाबी ले कर बाहर निकलने को ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई, उफ, इस समय कौन होगा. देखा, दरवाजे पर प्रणव खड़े हैं.

क्षण भर को तो तनु किंकर्तव्य- विमूढ़ हो गई. उफ, 2 महीनों में ही यह क्या हो गया प्रणव को. मानो बरसों के मरीज हों.

‘‘कहीं जा रही हो क्या?’’ प्रणव ने उस की तंद्रा तोड़ते हुए पूछा.

‘‘हां, यश के पास…पर आप अंदर तो आओ.’’

‘‘अंदर बैठा कर तनु प्रणव के लिए पानी लेने को मुड़ी ही थी कि उस ने तनु का हाथ पकड़ लिया, ‘‘तनु, मुझे माफ नहीं करोगी. इन 2 महीनों में ही मुझे अपने झूठे अहम का एहसास हो गया. जिस प्यार और सम्मान की तुम अधिकारिणी थीं, तुम्हें वह नहीं दे पाया. अपने  ‘स्वाभिमान’ के आवरण में घिरा हुआ मैं तुम्हारे अस्तित्व को पहचान ही नहीं पाया. मैं भूल गया कि तुम से ही मेरा अस्तित्व है. मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं…यह सच है तनु, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं…पहले भी करता था पर अपने अहम के कारण कहा नहीं, आज कहता हूं तनु, तुम्हारे बिना मैं मर जाऊंगा…मुझे माफ कर दो और अपने घर चलो. बहू को पहली बार अपने घर बुलाने के लिए उस के स्वागत की तैयारी भी तो करनी है…मुझे एक मौका दो अपनी गलती सुधारने का.’’

तनु बुढ़ापे में पहली बार अपने पति के प्यार से सराबोर खुशी के आंसू पोंछती हुई अपने बेटे को अपने न आ पाने की सूचना देने के लिए फोन करने लगा.

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मृत्युदंड से रिहाई: विपिन की मम्मी क्या छिपा रही थी

लेखिक-श्रुति अग्रवाल

उस की मुखमुद्रा कठोर हो गई थी और हाथ में लिया पेन कागज पर दबता चला गया. ‘खट’ की आवाज हुई तो विपिन चौंक कर बोला, ‘‘ओह मम्मी, आप ने फिर पेन की निब तोड़ दी. आप बौलपेन से क्यों नहीं लिखतीं, अब तो उसी का जमाना है.’’ विपिन के सुझव को अनसुना कर वे बेटे के हाथ को अपनी गरदन से निकाल कर बालकनी में चली गईं. बिना कुछ कहेसुने यों मां का बाहर निकल जाना विपिन को बेहद अजीब लगा था. पर इस तरह का व्यवहार वे आजकल हमेशा ही करने लगी हैं. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मां ऐसा क्यों कर रही हैं.

आज ही क्या हुआ था भला? वह औफिस से लौट कर आया तो पता चला मम्मी उस के ही कमरे में हैं. वहां पहुंच कर देखा तो वे उस की स्टडी टेबल पर झकी कुछ लिख रही थीं. विपिन ने कुरसी के पीछे जा, शरारती अंदाज में उन के गले में बांहें डाल कर किसी पुरानी फिल्म के गीत की एक कड़ी गुनगुना दी थी, ‘तेरा बिटवा जवान हो गवा है, मां मेरी शादी करवा दे.’ इतनी सी बात में इतना गंभीर होने की क्या बात हो सकती है? वे तो पेन की निब को कागज पर कुछ उसी अंदाज में दबाती चली गई थीं जैसे किसी मुजरिम को मृत्युदंड देने के बाद जज निब को तोड़ दिया करते हैं.

इस समय विपिन सीधा सुधा से मिल कर आया था और आज उन दोनों ने और भी शिद्दत से महसूस किया था कि अब एकदूसरे से दूर रहना संभव नहीं है. फिर अब परेशानी भी क्या थी? उस के पास एक अच्छी नौकरी थी, अमेरिका से लौट कर आने के बाद तनख्वाह भी बहुत आकर्षक हो गई थी. फ्लैट और गाड़ी कंपनी ने पहले ही दे रखे थे. और फिर, अब वह बच्चा भी नहीं रहा था.

उस के संगीसाथी कब के शादी कर अपने बालबच्चों में व्यस्त थे. अब तक तो खुद मम्मी को ही उस की शादी के बारे में सोच लेना चाहिए था. पर पता नहीं क्यों उस की शादी के मामले में वे खामोश हैं. यद्यपि अमेरिका जाने से पहले वे अपने से ही 2-1 बार शादी का प्रसंग उठा चुकी थीं. पर उस समय उस के सामने अपने भविष्य का प्रश्न था. वह कैरियर बनाने के समय में शादी के बारे में कैसे सोच सकता था? उसे ट्रेनिंग के लिए पूरे 2 वर्षों तक अमेरिका जा कर रहना था और मम्मी इस सचाई को जानती थीं कि किसी भी लड़की को ब्याह के तुरंत बाद सालों के लिए अकेली छोड़ जाना युक्तिसंगत नहीं लगता. सो, हलकेफुलके प्रसंगों के अलावा उन्होंने इस विषय को कभी जोर दे कर नहीं उठाया था. यही स्वाभाविक था. वहीं, उस ने भी कभी मां से सुधा के बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं समझ थी. सोचा था जब समय आएगा, बता ही देगा.

पर अब हालात बदल चुके हैं. अपने संस्कारजनित संकोच के कारण यह बात वह साफसाफ मां से कह नहीं पा रहा था. परंतु आश्चर्य तो यह है कि मां भी अपनी ओर से ऐसी कोई बात नहीं उठातीं. हंसीमजाक में वह कुछ इशारे भी करता, तो उन की भावभंगिमा से लगता कि वे इस बात को बिलकुल समझती ही न हों.

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मम्मी का व्यवहार बड़ा बदलाबदला सा है आजकल. अचानक ही मानो उन पर बुढ़ापा छा गया है, जिस से उन के व्यक्तित्व में एक तरह की बेबसी का समावेश हो गया है. चुप भी बहुत रहने लगी हैं वे. वैसे, ज्यादा तो कभी नहीं बोलती थीं. उन का व्यक्तित्व संयमित और प्रभावशाली था, जिस से आसपास के लोग जल्दी ही प्रभावित हो जाते थे. हालात ने उन के चेहरे पर कठोरता ला दी थी. फिर भी उस के लिए तो ममता ही छलकती रहती थी.

वह जब 3-4 साल का रहा होगा तब किसी दुर्घटना में पिताजी चल बसे थे. मायके और ससुराल से किसी तरह का सहारा न मिलने पर मम्मी ने कमर कस ली और जीवन संग्राम में कूद पड़ीं. बहुत पढ़ीलिखी नहीं थीं, पर जीवन के प्रति बेहद व्यावहारिक नजरिया था. छोटी सी नौकरी और मामूली सी तनख्वाह के बावजूद उस को कभी याद नहीं कि उस के भोजन या शिक्षा के लिए कभी पैसों की कमी पड़ी हो. इसी से वह उन आंखों के हर इशारे की उतनी ही इज्जत करता था, जितनी बचपन में. शायद उन की ममता में ही वह ताकत थी, जिस ने उसे कभी गलत राह पर जाने ही नहीं दिया. मनचाहा व्यक्तित्व मढ़ा था उस का और फिर अपने कृतित्व पर फूली न समाई थीं.

पर यह सब विदेश जाने से पहले की बात है. अब तो मम्मी को बहुत बदला हुआ सा पा रहा था वह. अच्छीखासी बातें करतेकरते एकाएक वितृष्णा से मुंह फेर लेती हैं. हंसना तो दूर, मुसकराना भी कभीकभी होता है. तिस पर से पेन तोड़ने की जिद? उस ने स्पष्ट देखा है, निब अपने से नहीं टूटती, जानतेबूझते दबा कर तोड़ी जाती है.

उस दिन एक और भी अजीब सी घटना हुई थी. वह गहरी नींद में था, पर अपने ऊपर कुछ गीला, कुछ वजनी एहसास होने से उस की नींद टूट गई थी. उस ने देखा कि मम्मी फूटफूट कर रोए जा रही थीं. छोटे बच्चे की तरह उस का चेहरा हथेलियों में भर कर और अस्फुट स्वर में कुछ बड़बड़ा रही थीं, पर उस के आंखें खोलते, वे पहले की तरह खामोश हो गईं. वह लाख पूछता रहा, पर केवल यही कह कर चली गईं कि कुछ बुरा सपना देखा था. उस ने इतने सालों में पहली बार मम्मी को रोते हुए देखा था, जिस ने इतनी बड़ीबड़ी मुसीबतें सही हों, वह सपने से डर जाए? क्या ऐसा भी होता है?

इधर सुधा का मम्मी से मिलने का इसरार बढ़ता जा रहा था, क्योंकि उस के घर वाले उस के लिए रिश्ते तलाश रहे थे और वह विपिन के बारे में किसी से कुछ कहने से पहले एक बार मम्मी से मिल लेना चाहती थी, पर मम्मी का स्वभाव उसे कुछ रहस्यमय लग रहा था. इसीलिए विपिन पसोपेश में था और कोई रास्ता निकाल नहीं पा रहा था. एक बार उस के मन में यह विचार आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि घर में किसी दूसरी औरत के आने से मां डर रही हैं कि स्वामित्व का गर्व बंटाना पड़ जाएगा? उसे अपना यह विचार इतना ओछा लगा कि मन खराब हो गया. अपना घर मानो काटने को दौड़ रहा था. सो कुछ समय किसी मित्र के साथ बिताने की सोच विपिन बाहर निकल गया.

विपिन उन के व्यवहार से उकता कर घर से निकल गया है, यह उन्हें भी पता है. पर वह भी क्या करे? उन का तो सबकुछ स्वयं ही मुट्ठी से फिसलता जा रहा है. अंधेरों के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं है. यह हरीभरी खूबसूरत बालकनी, जिस के कोनेकोने को सजातेसंवारते वे कभी थकती ही नहीं थीं, आज काट खाने को दौड़ रही है. हालांकि, यह जगह उन्हें बहुत पसंद थी. यहां से सबकुछ छोटा, पर खूबसूरत दिखता है. कुछ उसी तरह जैसे कर्तव्य की नुकीली धार पर से जिंदगी अब मखमलों पर उतर आई थी. शायद अब जीने का लुत्फ लेने का समय आ गया था. नौकरी छोड़ चुकी थीं, इसलिए उन के पास खूब सारा समय था रचरच कर अपने घर को सजाया था उन्होंने. इसी उत्साह में विपिन का 2 वर्षों के लिए अपने से दूर जाना भी उन को इतना नहीं खला था. उसे अपनी जिंदगी को रास्ते दिखाने हैं, तो हाथ आए मौके लपकने तो पड़ेंगे ही. वे क्यों अपने आंसुओं से उस का रास्ता रोकें?

यह भी सोचा था कि जैसे जीवनभर केवल अपने सहारे ही खड़ी रहीं, बुढ़ापे में भी अपने ही सहारे रहेंगी. मानसिक स्तर पर बेटे पर इतनी आश्रित नहीं होंगी कि उन का वजूद उसे बोझ नजर आने लगे. आर्थिक स्तर पर तो उन की कोई खास जरूरतें ही नहीं थीं. जीवनभर जरूरतों में कतरब्योंत करतेकरते अब तो वह सब आदत में आ चुका है. हां, समय का सदुपयोग करने के लिए आसपास के ड्राइवरों, मालियों और नौकरों के बच्चों को इकट्ठा कर उन्होंने एक छोटा सा स्कूल खोल लिया था और व्यस्त हो गई थीं.

सबकुछ सुखद और बेहद सुंदर था, पर क्या पता था कि खुशियां इतनी क्षणिक होती हैं. एक दिन मेकअप से पुता एक अनजान चेहरा उन के पास आया था. उन्होंने उसे आश्चर्य से देखा था क्योंकि उस के चेहरे पर कोमलता का नामोनिशान न था. उस ने बताया था कि वह अनुपमा प्रकाश, विपिन की प्रेमिका है. उन लोगों ने सभी सीमाएं पार कर ली थीं. सो, अब उस अतिक्रमण का बीज उस के गर्भ में पल रहा है, पर विपिन अमेरिका से न उस की चिट्ठी का जवाब देता है, न फोन पर ही बात करता है. सब तरह से हार कर अब वह उन की शरण में आई है.

क्या इन परिस्थितियों में फंसी हुई किसी परेशान लड़की की आंखें इतनी निर्भीक हो सकती हैं? यह सोच कर उन्होंने उसे डांट कर घर से बाहर निकाल दिया था, पर तब भी शक का बीज तो मन में पड़ ही चुका था. उन्होंने यह भी सोचा कि लड़की के बारे में जांचपड़ताल करेंगी और अगर नादानी में विपिन से कोई गलती हुई है तो इस के साथ कोई अन्याय नहीं होने देंगी. अपने विपिन के बारे में उन के मन में अगाध विश्वास था.

अनुपमा गुस्से से फुंफकारती हुई कह गई थी, ‘मैं आत्महत्या कर लूंगी और आप के बेटे को जेल भिजवा कर रहूंगी.’ अनुपमा तो गुस्से में कह कर चली गई पर उस के बाद कई प्रश्न उन के दिमाग में उभरते रहे कि कैसा प्रेम होता है यह आजकल का? प्रेम का मतलब एकदूसरे के लिए जान दे देना है या दूसरों को अपने ऊपर जान देने को मजबूर करना है? एक मुंह छिपा कर अमेरिका जा बैठा है तो दूसरी जेल भेजने के लिए जान देना चाहती है. अगर कोई तुम से मुंह मोड़ ही बैठा है तो क्या धमकियों के माध्यम से उसे अपना सकोगी? दबाव में अगर रिश्ता कायम हो ही गया तो कितने दिन चलेगा और कितना सुख दे सकेगा? वैसे, क्या विपिन जैसे समझदार लड़के की पसंद इतनी उथली हो सकती है?

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वेतो समझती थीं कि गरजते हुए बादल कभी बरसते नहीं, पर उस पागल लड़की ने तो सचमुच जान दे दी. उस के मरने की खबर से वे एकाएक ही खुद को गुनहगार समझने लगीं. लगा, खुद उन्होंने ही तो उसे ‘मृत्युदंड’ की सजा दी है. उस ने उन्हें अपने दुख सुनाए और उन्होंने उस पर अविश्वास किया और उसी दिन उस लड़की ने आत्महत्या कर ली.

यह आत्महत्या उन के लिए अविश्वसनीय थी. महानगरों में आधुनिक जीवन जीती हुई ये लड़कियां क्या इतनी भावुक हो सकती हैं कि गर्भ ठहर जाने पर इन्हें आत्महत्या करनी पड़े? जबकि आजकल तो स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां सहेली के घर रुकने का बहाना कर के गर्भपात करा आती हैं और घर वालों को पता तक नहीं चलता. पर हर तरह की लड़कियां होती हैं, हो सकता है कि वह विपिन से इतनी जुड़ गई हो कि उसे खो देने की कल्पना तक न कर सके. पर उस की आंखों की वह शातिर चमक कैसे भूली जा सकती है. तो क्या कोई बदला लेने को इतना पागल हो सकता है कि अपनी जान पर ही खेल जाए?

पर नहीं, यह गलती खुद उन से हुई है. अपने पक्ष में लाख दलीलें दें वह, पर एक भावुक, निर्दोष लड़की को समझने में भूल कर ही बैठी हैं वे. अपनी बहू के साथसाथ अपने अजन्मे पोते को भी मृत्युदंड दे चुकी हैं वे. अब इस का क्या प्रायश्चित्त हो सकता है. उस के शव से ही माफी मांगने को जी चाहा था, एक बार उस चेहरे को ध्यान से देखने का मन किया था और शायद यह भी पता करना था कि वह पागल लड़की उन के बेटे के विरुद्ध तो कुछ नहीं कर गई. इसलिए वे बदहवास सी अस्पताल पहुंच गई थीं.

वहां जा कर कुछ और ही पता चला कि वह आत्महत्या से नहीं, बल्कि एड्स से मरी थी, एड्स…? यह जानते ही उन के मन में एक नया डर समा गया. वे सोचने लगीं कि कहीं मेरे विपिन को भी तो नहीं हो गया यह रोग? ऐसा लगता तो नहीं. देखने में तो वह बिलकुल स्वस्थ लगता है. छिपतेछिपाते जहां से भी संभव हुआ, वे इस असाध्य रोग के बारे में जानकारी एकत्र करती रहीं और पता चला कि इस के कीटाणु कभीकभी तो 6 वर्ष तक भी शरीर के अंदर निष्क्रिय बैठे रहते हैं, फिर जब हमला करते हैं तो जाने कितनी बीमारियां लग जाती हैं और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बिलकुल समाप्त हो जाती है.

असुरक्षित यौन संबंधों से फैलता है यह रोग और संबंध तो असुरक्षित ही रहे होंगे जो वह गर्भवती हो बैठी. कुछ भी नहीं बचता इस रोग के बाद, सिवा मौत के.

मौत? विपिन की? नहीं, इस के आगे वे नहीं सोच पातीं. दिमाग ही चक्कर खाने लग जाता है. वे अपनेआप को अपने बेटे की सच्चरित्रता का विश्वास दिलाना चाहती हैं, पर मन का डर हटता ही नहीं. वैसे भी, उम्र बढ़ने के साथसाथ अपनों की फिक्र बढ़ती जाती है, तिस पर से ऐसे भयंकर रोग का अंदेशा?

विपिन की शादी के लिए जो भी रिश्ता आया, उन्होंने उलटे हाथ लौटा दिया. अनुपमा प्रकाश को तो उन्होंने अनजाने में मृत्युदंड दिया था, पर अब जानतेबूझते एक अनजान लड़की को मौत के मुंह में कैसे धकेल दें. पर विपिन का क्या करें जो उन के व्यवहार से भरमाया हुआ है. कैसे वे बेटे से कहें कि तेरी जिंदगी में अब तो गिनती के दिन ही बचे हैं. कोशिश करती हैं कि सामान्य दिखें, पर इतना सटीक अभिनय कोई कर सकता है क्या? उठतेबैठते वह इशारा करता है कि शादी करा दो, पर क्या करें वे? क्या जवाब दें?

और फिर एक दिन एक लड़की को ले आया विपिन उन से मिलाने. साधारण शक्लसूरत की नाजुक सी लड़की सुधा थी. पता नहीं क्यों उन्हें उस लड़की पर बहुत गुस्सा आया. क्या सोचती हैं ये लड़कियां? कोई कमाताखाता कुंआरा लड़का मिल जाए तो मक्खियों की तरह गिरती जाएंगी उस पर. एक ही औफिस में साथ काम करती है तो क्या विपिन के पुराने किस्से न सुने होंगे? सब भूल कर जान देने को तैयार बैठी हैं इस फ्लैट, गाड़ी और तनख्वाह के पैसों के लिए? वे क्या मृत्युदंड देंगी किसी को, थोड़ेथोडे़ भौतिक सुखों के लिए लोग स्वयं को मृत्युदंड देने को तैयार रहते हैं और इस विपिन को क्या लड़कियों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं?

यही सब सोच कर वे सुधा के साथ काफी रुखाई से पेश आई थीं. और उतरा मुंह लिए विपिन उसे वापस पहुंचा आया था. लौट कर उन के सामने आया तो उस की आंखों में एक कठोर निश्चय चमक रहा था. वे समझ रही थीं कि आज वे उस के प्रश्नों को टाल नहीं सकेंगी. डर भी लग रहा था. मन ही मन तैयारी भी करती जा रही थीं कि क्या कहेंगी और कितना कहेंगी.

‘‘मम्मी, सुधा बहुत रो रही थी,’’ विपिन के स्वर में उदासी थी.

‘‘रोने की क्या बात थी?’’ उन्होंने कड़ा रुख अपना कर बोला था.

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‘‘क्या वह तुम्हें पसंद नहीं आई मम्मी?’’

‘‘मुझे ऐसी लड़कियां बिलकुल पसंद नहीं जो लड़कों के साथ घूमतीफिरती रहती हैं.’’

‘‘क्या बात करती हो, मां, वह मुझे प्यार करती है. मैं उसे तुम को दिखाने के लिए लाया था.’’

‘‘क्या होता है यह प्यारव्यार… अपनाअपना स्वार्थ ही न? क्या चाहिए था उसे, फ्लैट, गाड़ी, रुपया यही न?’’

‘‘नहीं मम्मी, तुम उसे गलत समझ रही हो. हम तो एकदूसरे को उसी समय से चाहते हैं जब मैं ने मामूली तनख्वाह पर यह नौकरी शुरू की थी.’’

विपिन इस तरह से उन के सामने झूठ बोलेगा, वह सोच भी नहीं सकती थीं. तैश में मुंह से निकल गया, ‘‘यह अनुपमा प्रकाश कौन थी? तुम उसे कैसे जानते हो?’’

‘‘मेरे औफिस में टाइपिस्ट थी.’’

‘‘तुम्हें कैसी लगती थी?’’

‘‘मैं उसे ज्यादा नहीं जानता था. अमेरिका से वापस आने पर पता चला कि उस के साथ कोई घटना घटी थी.’’

‘‘तेरे अमेरिका जाने पर वह आई थी. ऐयाशी का सुबूत ले कर गर्भवती थी वह,’’ क्रोध में वह तुम से तू पर उतर आईर् थी.

‘‘क्या कह रही हो तुम?’’

‘‘मर गई वह तेरे लिए और उस की बिना पर तू दूसरी शादी की तैयारी कर रहा है? यही संस्कार हैं तेरे?’’

‘‘ओह, तो यह बात है, मम्मी? वह अच्छी लड़की नहीं थी. काफी बदनाम थी. मैं उस का अधिकारी था. एक बार काम में बहुत सी गलतियां मिलने पर कुछ डांट दिया था. वह बुरा मान गई होगी शायद और बदला लेने चली आई होगी.’’

‘‘झठ मत बोल. किसी लड़की के लिए ऐसे कहते शर्म नहीं आती तुझे, जिस ने तेरे लिए जान दे दी?’’

ए काएक ही उन्हें आशा की एक

किरण नजर आई. वह रुंधी आवाज में पूछ रही थीं, ‘‘सच बोल विपिन, उस से तेरा कोई संबंध नहीं था. मेरी कसम खाकर बोल.’’

‘‘नहीं मम्मी, मैं तो उस से बहुत कम बार मिला हूं. मेरा विश्वास करो.’’

‘‘मैं उस के मरने पर अस्पताल गई थी बेटे, उसे एड्स था. यह तो छूत की बीमारी होती है न?’’ उन्होंने सहमते हुए अपना मन खोल ही डाला.

विपिन अवाक सा उन का मुंह देखे जा रहा था, फिर एकाएक ठठा कर हंस पड़ा. उस ने उठ कर अपनी बांहों में मां को उठा कर गोलगोल घुमाना शुरू कर दिया.

मर गई वह तेरे लिए और उस की बिना पर तू दूसरी शादी की तैयारी कर रहा है? यही संस्कार हैं तेरे?’’

‘‘ओह, तो यह बात है, मम्मी? वह अच्छी लड़की नहीं थी. काफी बदनाम थी. मैं उस का अधिकारी था. एक बार काम में बहुत सी गलतियां मिलने पर कुछ डांट दिया था. वह बुरा मान गई होगी शायद और बदला लेने चली आई होगी.’’

‘‘झठ मत बोल. किसी लड़की के लिए ऐसे कहते शर्म नहीं आती तुझे, जिस ने तेरे लिए जान दे दी?’’

ए काएक ही उन्हें आशा की एक

किरण नजर आई. वह रुंधी आवाज में पूछ रही थीं, ‘‘सच बोल विपिन, उस से तेरा कोई संबंध नहीं था. मेरी कसम खाकर बोल.’’

‘‘नहीं मम्मी, मैं तो उस से बहुत कम बार मिला हूं. मेरा विश्वास करो.’’

‘‘मैं उस के मरने पर अस्पताल गई थी बेटे, उसे एड्स था. यह तो छूत की बीमारी होती है न?’’ उन्होंने सहमते हुए अपना मन खोल ही डाला.

विपिन अवाक सा उन का मुंह देखे जा रहा था, फिर एकाएक ठठा कर हंस पड़ा. उस ने उठ कर अपनी बांहों में मां को उठा कर गोलगोल घुमाना शुरू कर दिया.

‘‘मेरी पगली मम्मी.’’

‘‘मुझे सुधा के घर ले चलेगा आज? बेचारी सोचती होगी कि कैसी खूसट सास है.’’

वे हवा में लटकेलटके बोलती जा रही थीं. गोलगोल घूमते हुए उस कमरे में ताजे फूलों की खुशबू लिए बालकनी से ठंडीठंडी हवा आ कर उन के फेफड़ों में भरती जा रही थी, आज तो मृत्युदंड से रिहाई का दिन था, सुधा का नहीं, विपिन का भी नहीं, खुद उन का.

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नीड़ का निर्माण फिर से: भाग 4- क्या मानसी को मिला छुटकारा

लेखक- श्रीप्रकाश

मनोहर की हालत दिनोदिन बिगड़ने लगी. एक दिन अपनी मां को ढकेल दिया. वह सिर के बल गिरतेगिरते बचीं.

तंग आ कर उस के पिता ने अपने बड़े बेटे राकेश को बंगलौर से बुलाया.

‘अब तुम ही संभालो, राकेश. मैं हार चुका हूं,’ मनोहर के पिता के स्वर में गहरी हताशा थी.

‘मनोहर, तुम पीना छोड़ दो,’ राकेश बोला.

‘नहीं छोड़ूंगा.’

‘तुम्हारी हर जरूरत पूरी होगी बशर्ते तुम पीना छोड़ दो.’

राकेश के कथन पर मनोहर बोला, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए सिवा चांदनी और मानसी के.’

‘मानसी अब तुम्हारी जिंदगी में नहीं है. बेहतर होगा तुम अपनी आदत में सुधार ला कर फिर से नई जिंदगी शुरू करो. मैं तुम्हें अपनी कंपनी में काम दिलवा दूंगा.’ मुझे शादी नहीं करनी.’

‘मत करो शादी पर काम तो कर सकते हो.’

मनोहर पर राकेश के समझाने का असर पड़ा. वह शून्य में एकटक देखतेदेखते अचानक बच्चों की तरह फफक कर रो पड़ा, ‘भैया, मैं ने मानसी को बहुत कष्ट दिए. मैं उस का प्रायश्चित्त करना चाहता हूं. मैं अपनी फूल सी कोमल बेटी को मिस करता हूं.’

‘चांदनी अब भी तुम्हारी बेटी है. जब कहो तुम्हें उस से मिलवा दूं, पर…’

‘पर क्या?’

‘तुम्हें एक जिम्मेदार बाप बनना होगा. किस मुंह से चांदनी से मिलोगे. वह तुम्हें इस हालत में देखेगी तो क्या सोचेगी,’ राकेश कहता रहा, ‘पहले अपने पैरों पर खड़े हो ताकि चांदनी भी गर्व से कह सके कि तुम उस के पिता हो.’

उस रोज मनोहर को आत्मचिंतन का मौका मिला. राकेश उसे बंगलौर ले गया. उस का इलाज करवाया. जब वह सामान्य हो गया तो उस की नौकरी का भी बंदोबस्त कर दिया. धीरेधीरे मनोहर अतीत के हादसों से उबरने लगा.

इधर मानसी के आफिस के लोगों को पता चला कि उस का  तलाक हो गया है तो सभी उस पर डोरे डालने लगे. एक दिन तो हद हो गई जब स्टाफ के ही एक कर्मचारी नरेन ने उस के सामने शादी का प्रस्ताव रख दिया. नरेन कहने लगा, ‘मैं तुम्हारी बेटी को अपने से भी ज्यादा प्यार दूंगा.’

मानसी चाहती तो नरेन को सबक सिखा सकती थी पर वह कोई तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी. काफी सोचविचार कर उस ने अपना तबादला इलाहाबाद करवाने की सोची. वहां मां का भी घर था. यहां लोगों की संदेहास्पद दृष्टि हर वक्त उस में असुरक्षा की भावना भरती.

इलाहाबाद आ कर मानसी निश्ंिचत हो गई. शहर से मायका 10 किलोमीटर दूर गांव में था. मानसी का मन एक बार हुआ कि गांव से ही रोजाना आएजाए. पर भाईभाभी की बेरुखी के चलते कुछ कहते न बना. मां की सहानुभूति उस के साथ थी पर भैया किसी भी सूरत में मानसी को गांव में नहीं रखना चाहते थे क्योंकि उस के गांव में रहने पर अनेक तरह के सवाल उठते और फिर उन की भी लड़कियां बड़ी हो रही थीं. इस तरह 10 साल गुजर गए. चांदनी भी 15 की हो गई.

तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी तो मानसी अतीत से जागी. वह चौंक कर उठी और जा कर दरवाजा खोला तो भतीजे के साथ चांदनी खड़ी थी.

‘‘क्या मां, मैं कितनी देर से दरवाजा खटखटा रही थी. आप सो रही थीं क्या?’’

‘‘हां, बेटी, कुछ ऐसा ही था. तू हाथमुंह धो ले, मैं कुछ खाने को लाती हूं,’’ यह कह कर मानसी अंदर चली गई.

एक दिन स्कूल से आने के बाद चांदनी बोली, ‘‘मम्मी, मेरे पापा कहां हैं?’’

मानसी क्षण भर के लिए अवाक् रह गई. तत्काल कुछ नहीं सूझा तो डपट दिया.

‘‘मम्मी, बताओ न, पापा कहां हैं?’’ वह भी मानसी की तरह जिद्दी थी.

‘‘क्या करोगी जान कर,’’ मानसी ने टालने की कोशिश की.

‘‘इतने साल गुजर गए. जब भी पेरेंट्स मीटिंग होती है सब के पापा आते हैं पर मेरे नहीं. क्यों?’’

अब मानसी के लिए सत्य पर परदा डालना आसान नहीं रहा. वह समय आने पर स्वयं कहने वाली थी पर अब जब उसे लगा कि चांदनी सयानी हो गई है तो क्या बहाने बनाना उचित होता?

‘‘तेरे पिता से मेरा तलाक हो चुका है.’’

‘‘तलाक क्या होता है, मम्मी?’’ उस ने बड़ी मासूमियत से पूछा.

‘‘बड़ी होने पर तुम खुद समझ जाओगी,’’ मानसी ने अपने तरीके से चांदनी को समझाने का प्रयत्न किया, ‘‘बेटी, तेरे पिता से अब मेरा कोई संबंध नहीं.’’

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‘‘वह क्या मेरे पिता नहीं?’’

मानसी झल्लाई, ‘‘अभी पढ़ाई करो. आइंदा ऐसे बेहूदे सवाल मत करना,’’ कह कर मानसी ने चांदनी को चुप तो करा दिया पर वह अंदर ही अंदर आशंकित हो गई. अनेक सवाल उस के जेहन में उभरने लगे. चांदनी कल परिपक्व होगी. अपने पापा को जानने या मिलने के लिए अड़ गई तो? कहीं मनोहर से मिल कर उस के मन में उस के प्रति मोह जागा तो? कल को मनोहर ने, उस के मन में मेरे खिलाफ जहर भर दिया तो कैसे देगी अपनी बेगुनाही का सुबूत. कैसे जिएगी चांदनी के बगैर?

मानसी जितना सोचती उस का दिल उतना ही डूबता. उस की स्थिति परकटे परिंदे की तरह हो गई थी. न रोते बनता था न हंसते. अचला को फोन किया तो वह बोली, ‘‘तू व्यर्थ में परेशान होती है. वह जो जानना चाहती है, उसे बता दे. कुछ मत छिपा. वैसे भी तू चाह कर भी कुछ छिपा नहीं पाएगी. बेहतर होगा धीरेधीरे बेटी को सब बता दे,’

मानसी एक रोज आफिस से घर आई तो देखा कि चांदनी के पास अपने नएनए कपड़ों का अंबार लगा था. चांदनी खुशी से चहक रही थी.

‘‘ये सब क्या है?’’ मानसी ने तनिक रंज होते हुए पूछा.

‘‘पापा ने दिया है.’’

‘‘हर ऐरेगैरे को तुम पापा बना लोगी,’’ मानसी आपे से बाहर हो गई.

‘‘मम्मी, वह मेरे पापा ही थे.’’

तभी मानसी की मां कमरे में आ गईं तो वह बोली, ‘‘मां, सुन रही हो यह क्या कह रही है.’’

‘‘ठीक ही तो कह रही है. मनोहर आया था,’’ मानसी की मां निर्लिप्त भाव से बोलीं.

‘‘मां, आप ने ही उसे मेरे घर का पता दिया होगा,’’ मानसी बोली.

‘‘हर्ज ही क्या है. बेटी से बाप को मिला दिया.’’

‘‘मां, तुम ने यह क्या किया? मेरी वर्षों की तपस्या भंग कर दी. जिस मनोहर को मैं ने त्याग दिया था उसे फिर से मेरी जिंदगी में ला कर तुम ने मेरे साथ छल किया है,’’ मानसी रोंआसी हो गई.

‘‘मांबाप अपनी औलाद के साथ छल कर ही नहीं सकते. मनोहर ने फोन कर के सब से पहले मुझ से इजाजत ली. उस ने काफी मन्नतें कीं तब मैं ने उसे चांदनी से मिलवाने का वचन दिया. आखिरकार वह इस का पिता है. क्या उसे अपनी बेटी से मिलने का हक नहीं?’’ मानसी की मां ने स्पष्ट किया, ‘‘मनोहर अब पहले जैसा नहीं रहा.’’

‘‘अतीत लौट कर नहीं आता. मैं ने उस के बगैर खुद को तिलतिल कर जलाया. 10 साल कैसे काटे मैं ही जानती हूं. चांदनी और मेरी इज्जत बची रहे उस के लिए कितनी रातें मैं ने असुरक्षा के माहौल में काटीं.’’

‘‘आज भी तुम क्या सुरक्षित हो. खैर, छोड़ो इन बातों को…चांदनी से मिलने आया था, मिला और चला गया,’’ मानसी की मां बोलीं.

‘‘कल फिर आया तो?’’

‘‘तुम क्या उस को मना कर दोगी,’’ तनिक रंज हो कर मानसी की मां बोलीं, ‘‘अगर चांदनी ने जिद की तो? क्या तुम उसे बांध सकोगी?’’

मां के इस कथन पर मानसी गहरे सोच में पड़ गई. सयानी होती बेटी को क्या वह बांध सकेगी? सोचतेसोचते उस के हाथपांव ढीले पड़ गए. लगा जैसे जिस्म का सारा खून निचोड़ दिया गया हो. वह बेजान बिस्तर पर पड़ कर सुबकने लगी. मानसी की मां ने संभाला.

अगले दिन मानसी हरारत के चलते आफिस नहीं गई. चांदनी भी घर पर ही रही. मम्मीपापा के बीच चलने वाले द्वंद्व को ले कर वह पसोपेश में थी. आखिर सब के पापा अपने बच्चों के साथ रहते हैं फिर उस के पास रहने में मम्मी को क्या दिक्कत हो रही है? यह सवाल बारबार उस के जेहन में कौंधता रहा. मानसी ने सफाई में जो कुछ कहा उस से चांदनी संतुष्ट न थी.

एक रोज स्कूल से चांदनी घर आई तो रोने लगी. मानसी ने पूछा तो सिसकते हुए बोली, ‘‘कंचन कह रही थी कि उस की मां तलाकशुदा है. तलाकशुदा औरतें अच्छी नहीं होतीं.’’

मानसी का जी धक से रह गया. परिस्थितियों से हार न मानने वाली मानसी के लिए बच्चों के बीच होने वाली सामाजिक निंदा को बरदाश्त कर पाना असह्य था. इनसान यहीं हारता है. उत्तेजित होने की जगह मानसी ने प्यार से चांदनी के सिर पर हाथ फेरा और बोली, ‘‘तुझे क्या लगता है कि तेरी मां सचमुच गंदी है?’’

‘‘फिर पापा हमारे साथ रहते क्यों नहीं?’’

‘‘तुम्हारे पापा और मेरे बीच अब कोई संबंध नहीं है,’’ मानसी अब कुछ छिपाने की मुद्रा में न थी.

‘‘फिर वह क्यों आए थे?’’

‘‘तुझ से मिलने,’’ मानसी बोली.

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‘‘वह क्यों नहीं हमारे साथ रहते हैं?’’ किंचित उस के चेहरे से तनाव झलक रहा था.

‘‘नहीं रहेंगे क्योंकि मैं उन से नफरत करती हूं,’’ मानसी का स्वर तेज हो गया.

‘‘मम्मी, क्यों करती हो नफरत? वह तो आप की बहुत तारीफ कर रहे थे.’’

‘‘यह सब तुम्हें भरमाने का तरीका है.’’

‘‘मम्मी, जो भी हो, मुझे पापा चाहिए.’’

‘‘अगर न मिले तो?’’

‘‘मैं ही उन के पास चली जाऊंगी. और अपने साथ तुम्हें भी ले कर जाऊंगी.’’

‘‘मैं न जाऊं तो…’’

‘‘तब मैं यही समझूंगी कि आप सचमुच में गंदी मम्मी हैं.’’

आगे पढ़ें- मानसी यह नहीं समझ पाई कि…

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अस्तित्व: भाग 2- क्या प्रणव को हुआ गलती का एहसास

लेखक- नीलमणि शर्मा

‘क्या सहन कर रही हो तुम, जरा मैं भी तो सुनूं. ऐसा स्टेटस, ऐसी शान, सोसाइटी में एक पहचान है तुम्हारी…और कौन सी खुशियां चाहिए?’

तनु तंग आ गई इन बातों से. हार कर उस ने कह दिया,  ‘देखो प्रणव, यह रोज की खिचखिच बंद करो. अब इस उम्र में मुझ से और सहन नहीं होता. मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता.’

‘नहीं सहन होता तो चली जाओ यहां से, जहां अच्छा लगता है वहां चली जाओ. क्यों रह रही हो फिर यहां.’

‘चली जाऊं, छोड़ दूं, उम्र के इस पड़ाव पर, आप को बेशक यह कहते शर्म नहीं आई हो, पर मुझे सुनने में जरूर आई है. इस उम्र में चली जाऊं, शादी के 30 साल तक सब झेलती रही, अब कहते हो चली जाओ. जाना होता तो कब की सबकुछ छोड़ कर चली गई होती.’

तनु तड़प उठी थी. जिंदगी का सुख प्रणव ने केवल भौतिक सुखसुविधा ही जाना था. पूरी जिंदगी अपनेआप को मार कर जीना ही अपनी तकदीर मान जिस के साथ निष्ठा से बिता दी, उसी ने आज कितनी आसानी से उसे घर से चले जाने को कह दिया.

‘हां, आज मुझे यह घर छोड़ ही देना चाहिए. अब तक पूरी जिंदगी प्रणव के हिसाब से ही जी है, यह भी सही.’ सारी रात तनु ने इसी सोच के साथ बिता दी.

शादी के बाद कितने समय तक तो तनु प्रणव का व्यवहार समझ ही नहीं पाई थी. किस बात पर झगड़ा होगा और किस बात पर प्यार बरसाने लगेंगे, कहा नहीं जा सकता. कालिज से आने में देर हो गई तो क्यों हो गई, घरबार की चिंता नहीं है, और अगर जल्दी आ गई तो कालिज टाइम पास का बहाना है, बच्चों को पढ़ाना थोड़े ही है.

दुनिया की नजर में प्रणव से आदर्श पति और कोई हो ही नहीं सकता. मेरी हर सुखसुविधा का खयाल रखना, विदेशों में घुमाना, एक से एक महंगी साडि़यां खरीदवाना, जेवर, गाड़ी, बंगला, क्या नहीं दिया लेकिन वह यह नहीं समझ सके कि सुखसुविधा और खुशी में बहुत फर्क होता है.

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तनु की विचारशृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी…मैं इन की बिना पसंद के एक रूमाल तक नहीं खरीद सकती, बिना इन की इच्छा के बालकनी में नहीं खड़ी हो सकती, इन की इच्छा के बिना घर में फर्नीचर इधर से उधर एक इंच भी सरका नहीं सकती, नया खरीदना तो दूर की बात… क्योंकि इन की नजर में मुझे इन चीजों की, इन बातों की समझ नहीं है. बस, एक नौकरी ही है, जो मैं ने छोड़ी नहीं. प्रणव ने बहुत कहा कि सोसाइटी में सभी की बीवियां किसी न किसी सोशल काम से जुड़ी रहती हैं. तुम भी कुछ ऐसा ही करो. देखो, निमिषा भी तो यही कर रही है पर तुम्हें क्या पता…पहले हमारे बीच खूब बहस होती थी, पर धीरेधीरे मैं ने ही बहस करना छोड़ दिया.

आज मैं थक गई थी ऐसी जिंदगी से. बच्चों ने तो अपना नीड़ अलग बना लिया, अब क्या इस उम्र में मैं…हां…शायद यही उचित होगा…कम से कम जिंदगी की संध्या मैं बिना किसी मानसिक पीड़ा के बिताना चाहती हूं.

प्रणव तो इतना सबकुछ होने के बाद भी सुबह की उड़ान से अपने काम के सिलसिले में एक सप्ताह के लिए फ्रैंकफर्ट चले गए. उन के जाने के बाद तनु ने रात में सोची गई अपनी विचारधारा पर अमल करना शुरू कर दिया. अभी तो रिटायरमेंट में 5-6 वर्ष बाकी हैं इसलिए अभी क्वार्टर लेना ही ठीक है, आगे की आगे देखी जाएगी.

तनु को क्वार्टर मिले आज कई दिन हो गए, लेकिन प्रणव को वह कैसे बताए, कई दिनों से इसी असमंजस में थी. दिन बीतते जा रहे थे. प्रोफेसर दीप्ति, जो तनु के ही विभाग में है और क्वार्टर भी तनु को उस के साथ वाला ही मिला है, कई बार उस से शिफ्ट करने के बारे में पूछ चुकी थी. तनु थी कि बस, आजकल करती टाल रही थी.

सच तो यह है कि तनु ने उस दिन आहत हो कर क्वार्टर के लिए आवेदन कर दिया था और ले भी लिया, पर इस उम्र में पति से अलग होने की हिम्मत वह जुटा नहीं पा रही थी. यह उस के मध्यवर्गीय संस्कार ही थे जिन का प्रणव ने हमेशा ही मजाक उड़ाया है.

ऐसे ही एक महीना बीत गया. इस बीच कई बार छोटीमोटी बातें हुईं पर तनु ने अब खुद को तटस्थ कर लिया, लेकिन वह भूल गई थी कि प्रणव के विस्फोट का एक बहाना उस ने स्वयं ही उसे थाली में परोस कर दे दिया है.

कालिज से मिलने वाली तनख्वाह बेशक प्रणव ने कभी उस से नहीं ली और न ही बैंक मेें जमा पैसे का कभी हिसाब मांगा पर तनु अपनी तनख्वाह का चेक हमेशा ही प्रणव के हाथ में रखती रही है. वह भी उसे बिना देखे लौटा देते हैं. इतने वर्षों से यही नियम चला आ रहा है.

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तनु ने जब इस महीने भी चेक ला कर प्रणव को दिया तो उस पर एक नजर डाल कर वह पूछ बैठे, ‘‘इस बार चेक में अमाउंट कम क्यों है?’’

पहली बार ऐसा सवाल सुन कर तनु चौंक गई. उस ने सोचा ही नहीं था कि प्रणव चेक को इतने गौर से देखते हैं. अब उसे बताना ही पड़ा,  ‘‘अगले महीने से ठीक हो जाएगा. इस महीने शायद स्टाफ क्वार्टर के कट गए होंगे.’’

अभी उस का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, ‘‘स्टाफ क्वार्टर के…किस का…तुम्हारा…कब लिया…क्यों लिया… और मुझे बताया भी नहीं?’’

तनु से जवाब देते नहीं बना. बहुत मुश्किल से टूटेफूटे शब्द निकले,  ‘‘एकडेढ़ महीना हो गया…मैं बताना चाह रही थी…लेकिन मौका ही नहीं मिला…वैसे भी अब मैं उसे वापस करने की सोच रही हूं…’’

‘‘एक महीने से तुम्हें मौका नहीं मिला…मैं मर गया था क्या? यों कहो कि तुम बताना नहीं चाहती थीं…और जब लिया है तो वापस करने की क्या जरूरत है…रहो उस में… ’’

‘‘नहीं…नहीं, मैं ने रहने के लिए नहीं लिया…’’

‘‘फिर किसलिए लिया है?’’

‘‘उस दिन आप ने ही तो मुझे घर से निकल जाने को कहा था.’’

‘‘तो गईं क्यों नहीं अब तक…मैं पूछता हूं अब तक यहां क्या कर रही हो?’’

‘‘आप की वजह से नहीं गई. समाज क्या कहेगा आप को कि इस उम्र में अपनी पत्नी को निकाल दिया…आप क्या जवाब देंगे…आप की जरूरतों का ध्यान कौन रखेगा?’’

‘‘मैं समाज से नहीं डरता…किस में हिम्मत है जो मुझ से प्रश्न करेगा और मेरी जरूरतों के लिए तुम्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं है…जिस के मुंह पर भी चार पैसे मारूंगा…दौड़ कर मेरा काम करेगा…मेरा खयाल कर के नहीं गई…चार पैसे की नौकरी पर इतराती हो. अरे, मेरे बिना तुम हो क्या…तुम्हें समाज में लोग मिसिज प्रणव राय के नाम से जानते हैं.’’

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