अधिकार: बेटी ने कैसे की मां की मदद

प्रेम में त्याग होता है स्वार्थ नहीं. जो यह कहता है कि अगर तुम मेरे नहीं हो सके तो किसी दूसरे के भी नहीं हो सकते…यहां प्यार नहीं स्वार्थ बोल रहा है…सच तो यह है कि प्रेम में जहां अधिकार की भावना आती है वहीं इनसान स्वार्थी होने लगता है और जहां स्वार्थ होगा वहां प्रेम समाप्त हो जाएगा. उपरोक्त पंक्तियां पढ़तेपढ़ते विनय ने आंखें मूंद लीं…

एकएक शब्द सत्य है इन पंक्तियों का. क्या उस के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित नहीं हो रहा. अतीत का एकएक पल उस की स्मृतियों में विचरने लगा. विनय जब छोटा था तभी उस के पापा गुजर गए. उसे और उस की छोटी बहन संजना को उस की मां सपना ने बड़ी कठिनाई से पाला था.

वह कैसे भूल सकता है वे दिन जब मां बड़ी कठिनाइयों से दो वक्त की रोटी जुटा पाती थीं. अपने जीवनकाल में पिता ने घर के सामान के लिए इतना कर्ज ले लिया था कि पी.एफ. में से कुछ बचा ही नहीं था. पेंशन भी ज्यादा नहीं थी. मां को आज से ज्यादा कल की चिंता थी. उस की और संजना की उच्चशिक्षा के साथसाथ उन्हें संजना के विवाह के लिए भी रकम जमा करनी थी. उन का मानना था कि दहेज का लेनदेन अभी भी समाज में विद्यमान है. कुछ रकम होगी तो दहेजलोभियों को संतुष्ट किया जा सकेगा अन्यथा बेटी के हाथ पीले करना आसान नहीं है.

बड़े प्रयत्न के बाद उन्हें एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी मिली पर वेतन इतना था कि घर का खर्च ही चल पाता था. फायदा बस इतना हुआ कि अध्यापिका की संतान होने के कारण उन को आसानी से स्कूल में दाखिला मिल गया. मां ने उन की देखभाल में कोई कमी नहीं होने दी. आवश्यकता का सभी सामान उन्हें उपलब्ध कराने की उन्होंने कोशिश की. इस के लिए ट्यूशन भी पढ़ाए. उन दोनों ने भी मां के विश्वास को भंग नहीं होने दिया. उन की खुशी की कोई सीमा नहीं रही जब मैट्रिक में उन्होंने राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया. स्कूल की तरफ से स्कौलरशिप तो मिली ही, उस को पहचान भी मिली. यही 12वीं में हुआ. उसे आई.आई.टी. में दाखिला तो नहीं मिल पाया पर निट में मिल गया.

संजना ने भी अपने भाई विनय का अनुसरण किया. उस ने भी बायो- टैक्नोलौजी को अपना कैरियर बनाया. बच्चों को अपनेअपने सपने पूरे करते देख मां को सुकून तो मिला पर मन ही मन उन्हें यह डर भी सताने लगा कि कहीं बच्चे अपनी चुनी डगर पर इतने मस्त न हो जाएं कि उन की अनदेखी करने लगें. अब वे उन के प्रति ज्यादा ही चिंतित रहने लगीं. मां स्कूल, कालेज की हर बात तो पूछती हीं, उन के मित्रों के बारे में भी हर संभव जानकारी लेने का प्रयास करतीं. विनय और संजना ने कभी उन की इस बात का बुरा नहीं माना क्योंकि उन्हें लगता था कि मां का अतिशय प्रेम ही उन से यह करवा रहा है. भला मां को उन की चिंता नहीं होगी तो किसे होगी. मां की खुशी की सीमा न रही जब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी होते ही उस की एक मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी लग गई. संजना का कोर्स भी पूरा होने वाला था. मां ने उस के विवाह की बात चलानी प्रारंभ कर दी…संजना रिसर्च करना चाहती थी. उस ने अपना पक्ष रखा तो मां ने यह कह कर अनसुना कर दिया कि मुझे प्रयास करने दो, यह कोई आवश्यक नहीं कि तुरंत अच्छा रिश्ता मिल ही जाए.

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संयोग से एक अच्छा घरपरिवार मिल गया. संजना के मना करने के बावजूद मां ने अपने अधिकार का प्रयोग कर उस पर विवाह के लिए दबाव बनाया. विनय ने संजना का साथ देना चाहा तो मां ने उस से कहा कि मुझे अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेने दो, मैं कुछ गलत नहीं कर रही हूं. तुम स्वयं जा कर लड़के से मिल लो, अगर कुछ कमी लगे तो बता देना मैं अपना निर्णय बदल दूंगी और जहां तक संजना की पढ़ाई का प्रश्न है वह विवाह के बाद भी कर सकती है. विनय तब समीर से मिला था. उस में उसे कोई भी कमी नजर नहीं आई, आकर्षक व्यक्तित्व होने के साथ वह अच्छे खातेपीते घर से है, कमा-खा भी अच्छा रहा है.

इंजीनियरिंग कालेज में लैक्चरर है. मां ने जैसे दिन देखे थे, जैसा जीवन जिया था उस के अनुसार उसे उन का सोचना गलत भी नहीं लगा. वे एक मां हैं, हर मां की इच्छा होती है कि उन के बच्चे जीवन में जल्दी स्थायित्व प्राप्त कर लें. आखिर वह संजना को मनाने में कामयाब हो गया. संजना और समीर का विवाह धूमधाम से हो गया. संजना के विवाह के उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर मां कुछ दिनों की छुट्टी ले कर विनय के पास आईं. एक दिन बातोंबातों में उस ने अपने मन की बात उन के सामने रखते हुए कहा, ‘मां अब आप की सारी जिम्मेदारियां समाप्त हो गई हैं. अब नौकरी करने की क्या आवश्यकता है, अब यहीं रहो.’

बेटे के मुख से यह बात सुन कर मां भावविभोर हो गईं. आखिर इस से अधिक एक मां को और क्या चाहिए. उन्होंने त्यागपत्र भेज दिया. कुछ दिन वे उस घर को किराए पर उठा कर तथा वहां से कुछ आवश्यक सामान ले कर आ गईं. उस ने भी आज्ञाकारी पुत्र की तरह मां का कर्ज उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी. घर के खर्च के पूरे पैसे मां को ला कर देता, हर जगह अपने साथ ले कर जाता. उन की हर इच्छा पूरी करने का हरसंभव प्रयत्न करता. धीरेधीरे पुत्र की जिंदगी में उन का दखल बढ़ता गया. वे उस से एकएक पैसे का हिसाब लेने लगीं, अगर वह कभी मित्रों के साथ रेस्तरां में चला जाता तो मां कहतीं, ‘बेटा फुजूलखर्ची उचित नहीं है, आज की बचत कल काम आएगी.’

मां अपने जीवन का अनुभव बांट रही थीं पर यह नहीं समझ पा रही थीं कि उन का बेटा अब बड़ा हो गया है, उस की भी कुछ आवश्यकताएं हैं, इच्छाएं हैं. दिन में 3-4 बार फोन करतीं. रात को अगर आने में देर हो जाती तो 10 तरह के सवाल करतीं इसलिए वह मित्रों की पार्टी में भी सम्मिलित नहीं हो पाता था. झुंझलाहट तब और बढ़ जाती जब देर रात तक उसे आफिस में रुकना पड़ता और मां को लगता कि वह अपने मित्रों के साथ घूम कर आ रहा है. मां के तरहतरह के प्रश्न उसे क्रोध से भर देते खासकर जब वे घुमाफिरा कर यह जानने का प्रयत्न करतीं कि उस के मित्रों में कोई लड़की तो नहीं है. उन का आशय समझ कर भी वह उन्हें कुछ नहीं कह पाता तथा मां का अपने प्रति अतिशय प्रेम, चिंता समझ कर टालने की कोशिश करता.

मां का उस की जिंदगी में दखल और मां के प्रति उस का अतिशय झुकाव भांप कर मित्रों ने मां की पूंछ कह कर उस का मजाक बनाना प्रारंभ कर दिया. कोई कहता यार, तू तो अभी बच्चा है, कब तक मां का आंचल पकड़ कर घूमता रहेगा. आंचल छोड़ कर मर्द बन, कुछ निर्णय तो अपनेआप ले. सुन कर उस का आत्मसम्मान डगमगाता, स्वाभिमान को चोट लगती पर चुप रह जाता. अब उसे लगने लगा था कि मां का अपने बच्चे के प्रति प्यार स्वाभाविक है पर उस की सीमारेखा होनी चाहिए, बच्चे को एक स्पेस मिलना चाहिए. कम से कम उसे इस बात की तो छूट देनी चाहिए कि वह कुछ समय अपने हमउम्र मित्रों के साथ बिता सके. आज भी उस के मन में मां का स्थान सर्वोपरि है. आखिर मां ही तो है जिन्होंने न केवल उसे जिंदगी दी, उसे इस मुकाम तक पहुंचाने में कितने ही कष्ट सहे. फिर भी मन में तरहतरह के प्रश्न और शंकाएं क्यों? वे अब भी जो कर रही हैं उस में उन का प्यार छिपा है. मां ने जीवन दिया है अगर वे ले भी लें तो भी इनसान उन के कर्ज से मुक्त नहीं हो सकता.निदा फाजली ने यों ही नहीं लिख दिया… ‘मैं रोया परदेश में भीगा मां का प्यार दिल ने दिल से बात की बिन चिट्ठी बिन तार…’ साल दर साल बीतने लगे. उस के लगभग सभी मित्रों के विवाह हो गए. वे अकसर कहते यार कब मिठाई खिला रहा है. वह मुसकरा कर कहता, ‘मुझे आजादी प्यारी है, अभी मैं बंधन में बंधना नहीं चाहता.’ इस बीच कई रिश्ते आए पर मां को कोई लड़की पसंद नहीं आती थी. कहीं परिवार अच्छा नहीं है तो कहीं लड़की. अगर सबकुछ ठीक रहा तो लेनदेन के मसले पर बात टूट जाती. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि मां ऐसा क्यों कर रही हैं जिस दहेज की समस्या से वह संजना के समय त्रस्त थीं वही दहेज का लालच अब उन में कैसे समा गया?

एक रिश्ता तो उस की कंपनी में ही काम कर रही एक लड़की का था. उस के मातापिता इस रिश्ते के लिए इसलिए ज्यादा उत्सुक थे क्योंकि उन्हें लगता था कि दोनों के एक ही कपंनी में काम करने से वे एकदूसरे की समस्याओं को अच्छी तरह समझ पाएंगे, लेकिन मां को वह लड़की ही पसंद नहीं आई. उस ने कुछ कहना चाहा तो बोलीं, ‘तू अभी बच्चा है. शादीविवाह ऐसे ही नहीं हो जाता, बहुत कुछ देखना और सोचना पड़ता है. उस की नाक इतनी मोटी और चपटी है कि अगर उस से विवाह हो गया तो आगे की सारी पीढि़यां चपटी नाक ले कर आएंगी.’ उस ने कभी मां की बात नहीं काटी थी तो अब क्या कहता कि उसे लड़की का रंगरूप, सूरतसीरत ठीक ही लगी. नाक भी ऐसी मोटी या चपटी तो नहीं लगी, जैसा मां कह रही हैं. पता नहीं मां ने बहू के रूप में कैसी लड़की मन में बसा रखी है, अब वे क्यों भूल रही हैं कि हर लड़की सर्वगुणसंपन्न नहीं होती.

सच तो यह है वह इस रिश्ते के आने से पहले कई बार आफिस कैंपस में उस लड़की को देख चुका था, आंखें मिली थीं. शायद चाहने भी लगा था. उस दिन वह बहुत निराश हुआ था और एक सपना टूटता महसूस कर रहा था. पर मां के खिलाफ जा कर कुछ कहने या करने का प्रश्न ही नहीं था. वह सबकुछ सहन कर सकता था पर मां की आंखों में आंसू नहीं. दिन बीत रहे थे. बच्चों के स्कूलों की छुट्टी हो गई थी. मां ने संजना को छुट्टियों में बुला लिया तो उसे भी लगा कि चलो, अच्छा है दिलदिमाग पर छाई नीरसता से मुक्ति मिलेगी. संजना के आते ही घर में रौनक हो गई. उस का 2 वर्षीय बेटा दीप तो उसे छोड़ता ही नहीं था, ‘मामा, हमें यह चाहिए, हमें वह चाहिए.’ और वह उस की डिमांड पूरी करतेकरते थकता नहीं था.

‘‘भैया, कब तक यों ही अकेले रहोगे. अब तो भाभी ले आओ. आखिर मां कब तक तुम्हारी गृहस्थी संभालती रहेंगी. इन्हें भी तो आराम चाहिए,’’ एक दिन संजना ने बातोंबातोें में कहा. ‘‘कोई लड़की पसंद आए तब न. विवाह गुड्डेगुडि़यों का खेल तो नहीं, जो किसी से भी कर दें,’’ मां ने कहा. ‘‘आखिर भैया को कैसी लड़की चाहिए. मुझे बता दो, मैं ढूंढ़ लूंगी.’’ ‘‘अरे, विनय, संजना को जलेबी पसंद है, आज छुट्टी है, अभी दीप सो रहा है, जा ले आ वरना वह भी तेरे पीछे लग लेगा,’’ मां ने बात का रुख मोड़ते हुए कहा. ‘‘ठीक है मां,’’ उस ने कपड़े बदले तथा चला गया. अभी आधी सीढ़ी ही उतरा था कि उसे याद आया कि बाइक की चाबी लेना तो भूल गया, चाबी लाने वह उलटे पैर लौट आया, घंटी बजाने ही वाला था कि मां की आवाज सुनाई दी.

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‘‘तू बारबार विनय के विवाह के लिए मुझ पर क्यों दबाव डालती है. अरे, अगर उस का विवाह हो गया तो क्या तू ऐसे आ कर यहां रह पाएगी या मैं घर को अपने अनुसार चला पाऊंगी. हर बात में रोकटोक मुझ से सहन नहीं होगा,’’ मां की आवाज आई. ‘‘पर मां यह तो ठीक है कि भैया तुम से बहुत प्यार करते हैं. भला तुम इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती हो?’’ ‘‘इस दुनिया में हर इनसान स्वार्थी है, फिर मैं क्यों नहीं बन सकती? मैं ने इतने कष्ट झेले हैं अब जा कर कुछ आराम मिला है फिर कोई आ कर मेरे अधिकार छीने यह मुझ से सहन नहीं होगा.’’ ‘‘मां, अगर भैया को तुम्हारी इस भावना का पता चला तो,’’ संजना ने आक्रोश भरे स्वर में कहा. ‘‘पता कैसे चलेगा… यह मैं तुझ से कह रही हूं, अब तुझ पर इतना विश्वास तो कर ही सकती हूं कि इस राज को राज ही रहने देगी.’’ ‘‘पर मां…’’

‘‘इस संदर्भ में अब मैं एक शब्द नहीं सुनना चाहती. तू अपनी गृहस्थी संभाल और मुझे मेरे तरीके से जीने दे.’’ ‘‘अगर ऐसा था तो तुम ने मेरा विवाह क्यों किया. तुम्हारे अनुसार मैं ने भी तो किसी का बेटा छीना है.’’ ‘‘तेरी बात अलग है. तू मेरी बेटी है, तुझे मैं ने अच्छे संस्कार दिए हैं.’’ इस से आगे विनय से कुछ सुना नहीं गया वह उलटे पांव लौट गया. लगभग 1 घंटे बाद मां का फोन आया. मन तो आया बात न करे पर फोन उठा ही लिया. ‘‘कहां हो तुम, बेटे. इतनी देर हो गई. चिंता हो रही है.’’ आज स्वर की मिठास पर वितृष्णा हो आई पर फिर भी आदतन सहज स्वर में बोला, ‘‘कुछ दोस्त मिल गए हैं, नाश्ते पर इंतजार मत करना, मुझे देर हो जाएगी.’’ ‘‘तेरे दोस्त भी तो तेरा पीछा नहीं छोड़ते. अच्छा जल्दी आ जाना वरना दीप उठते ही तुम्हें ढूंढ़ेगा.’’

मां का कई बार फोन आते देख उस ने स्विच औफ ही कर दिया. लगभग शाम को लौटा तो मां के तरहतरह के प्रश्नों के उत्तर में उस ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘अचानक बौस ने बुला लिया, उन के साथ किसी प्रोजैक्ट पर बात करतेकरते गहमागहमी हो गई. आज प्लीज मुझे अकेला छोड़ दीजिए, बहुत थक गया हूं.’’ मां को अचंभित छोड़ वह अपने कमरे में चला गया तथा कमरा बंद कर लिया. ‘‘पता नहीं क्या हो गया है इसे, आज से पहले तो इस ने ऐसा कभी नहीं किया.’’ ‘‘भैया कह रहे थे कि बौस से कुछ गहमागहमी हो गई है. हो सकता है कुछ आफिस की परेशानी हो.’’

‘‘अगर कुछ परेशानी भी है तो ऐसे कमरा बंद कर के बैठने से थोड़े ही हल हो जाएगी, आज तक तो हर परेशानी मुझ से शेयर करता था फिर आज… कहीं उस ने वह बात…’’ ‘‘मां…तुम भी न जाने क्याक्या सोचती रहती हो…’’ उस के कानों में दीदी के वाक्य पड़े. खाने के समय मां व दीदी उस से खाने के लिए कहने आईं पर उस ने कह दिया, ‘‘भूख नहीं है, उन के साथ ही खा लिया था.’’ विनय जानता था कि उस के इस व्यवहार से मां और दीदी दोनों आहत होंगी पर वह अपने आहत मन का क्या करे? मन नहीं लगा तो वह किताब ले कर बैठ गया. वैसे भी किताबें उस की सदा से साथी रही थीं.

उस की लाइब्रेरी शरतचंद से ले कर चेतन भगत, शेक्सपियर से ले कर हैरी पौटर जैसे नएपुराने लेखकों की किताबों से भरी पड़ी थी. जब मन भटकता था तो वह किताब ले कर बैठ जाता. मन का तनाव तो दूर हो ही जाता, मन को शांति भी मिल जाती थी. फिर अचानक से उस ने उन पंक्तियों पर नजर डाली तो क्या अब मां के प्रेम में स्वार्थ आ गया है जिस से अनचाहा डर पैदा हो गया है.

परिस्थितियों पर नजर डाली तो लगा मां का डर गलत नहीं है पर उन का सोचना तो गलत है. उन्हें यह क्यों लगने लगा है कि दूसरा आ कर उन से उन का अधिकार छीन लेगा. अगर वह अपना निस्वार्थ प्रेम बनाए रखती हैं तो अधिकार छिनेगा नहीं वरन उस में वृद्धि होगी. अगर मैं उन का सम्मान करता हूं, उन की हर इच्छा का पालन करता हूं तो क्या उन का कर्तव्य नहीं है कि वे भी मेरी इच्छा का सम्मान करें, मुझे बंधक बना कर रखने के बजाय थोड़ी स्वतंत्रता दें. अगर मां नहीं चाहतीं तो मैं स्वयं प्रयास करूंगा. आखिर मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं. मैं कर्तव्य के साथ अधिकार भी चाहता हूं. मां को मुझे मेरा अधिकार देना ही होगा. मैं संजना से बात करूंगा, अगर उस ने साथ दिया तो ठीक वरना मर्यादा लांघनी ही पड़ेगी. आखिर जब बुजुर्ग अपने ही अंश की भावना को न समझना चाहें तो बच्चों को मर्यादा लांघनी ही पड़ती है.

इस विचार ने उस के मन में चलती उथलपुथल को शांति दी, घड़ी की ओर देखा तो 2 बज रहे थे, वह सोने की कोशिश करने लगा. साल भर बाद विनय ने संजना और विशाखा के साथ अपने अपार्टमैंट के सामने कार खड़ी की. संजना ने कार से उतर कर कहा, ‘‘भैया, आप भाभी को ले कर पहुंचो तब तक मैं आरती का थाल सजाती हूं.’’ ‘‘अरे, संजना तू, अचानक. न कोई सूचना…कहां है समीर और दीप…’’ मां ने दरवाजे पर उसे अकेला खड़ा देख कर प्रश्न किया. ‘‘वे भी आ रहे हैं पर मां अभी आरती का थाल सजाओ… भइया, भाभी ले कर घर आए हैं.’’ ‘‘भाभी…क्या कह रही है तू. वह ऐसा कैसे कर सकता है. मुझे बिना बताए इतना बड़ा फैसला…ऐसा करते हुए एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. क्या तू भी इस में शामिल है?’’

मां ने बौखला कर कहा. ‘‘हां, मैं भी…मां अगर अपना सम्मान बनाए रखना चाहती हो तो खुशीखुशी बहू का स्वागत करो. मैं आरती का थाल सजाती हूं और हां, तुरंत होटल ‘नटराज’ के लिए निकलना है, कोर्टमैरिज हो चुकी है पर समाज की मुहर लगाने के लिए वहां हमें रिसेप्शन के साथ विवाह की रस्में भी पूरी करनी हैं, कार्ड बंट चुके हैं, थोड़ी देर में मेहमान भी आने प्रारंभ हो जाएंगे. यहां कोई हंगामा न हो इसलिए समीर दीप को ले कर सीधे होटल चले गए हैं,’’ जितनी तेजी से संजना का मुंह चल रहा था उतनी तेजी से उस के हाथ भी.

‘‘पर लड़की कौन है, उस का परिवार कैसा है?’’ क्रोध पर काबू पाते हुए मां ने पूछा. ‘‘लड़की से तुम मिल चुकी हो. भैया के साथ ही काम करती है.’’ ‘‘क्या यह विशाखा….’’ ‘‘मां तुम्हें चपटी नाक वाली नजर आई होगी पर मुझे वह बहुत ही सुलझी और व्यावहारिक लड़की लगी और सब से बड़ी बात वह भैया की पसंद है.’’ ‘‘शादी से पहले हर लड़की सुलझी नजर आती है.’’ ‘‘मां, अगर अब भी तुम ने अपना रवैया नहीं बदला तो मेरी बात याद रखना, घाटे में तुम्हीं रहोगी. बच्चे बड़ों से सिर्फ आशीर्वाद चाहते हैं, उस के बदले में बड़ों को सम्मान देते हैं. अगर उन्हें आशीर्वाद की जगह ताने और उलाहने मिलते रहे तो बड़े भी उन से सम्मान की आशा न रखें. वैसे भी तुम्हारे रुख के कारण ही हमें अनचाहे तरीके से फैसला लेना पड़ा और तो और, विशाखा के मातापिता को बड़ी कठिनाई से इस सब के लिए तैयार कर पाए हैं. अब चलो,’’

कहते हुए संजना का स्वर कठोर हो गया था. वह आरती का थाल लिए तेजी से बाहर की ओर चल दी. कहनेसुनने के लिए कुछ रह ही नहीं गया था. पंछी के पर निकल चुके हैं और वह अब बिना किसी की सहायता से उड़ना भी सीख चुका है. बहेलिया अगर चाहे भी तो उसे बांध कर नहीं रख सकता. सोच कर मां ने संजना का अनुसरण किया. संजना बाहर आई तो देखा दरवाजे पर विनय विशाखा के साथ खड़ा है. आरती का थाल संजना मां के हाथ में पकड़ा कर बोली, ‘‘भैया, पहले मेरी मुट्ठी गरम करो तब अंदर आने दूंगी.’’ विनय से मोटा सा लिफाफा पा कर ही वह हटी तथा मां की तरफ मुखातिब हो कर बोली, ‘‘मां, अब तुम्हारी बारी.’’

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‘पूरी जादूगरनी निकली, अभी से मेरे बेटे को फांस लिया, आगे न जाने क्याक्या होगा,’ मन ही मन बुदबुदाई तभी अंतर्मन ने उसे झकझोरा. अब अपना और कितना अपमान करवाएगी सपना. आगे बढ़, खुशियां तेरे द्वार खड़ी हैं, खुशीखुशी स्वागत कर. उन्होंने संजना के हाथ से थाल लिया तथा आरती उतारते हुए बोलीं, ‘‘अच्छा सरप्राइज दिया तुम लोगों ने, मुझे हवा भी नहीं लगने दी. अगर तुझे इसी से विवाह करना था तो मुझ से कहते, क्या मैं मना कर देती? संजना इस में कुछ मीठा तो रखा ही नहीं है अब बिना मुंह मीठा करवाए कैसे बहू को गृहप्रवेश करवाऊं. आज मीठा तो कुछ भी घर में नहीं है. जा थोड़ा सा गुड़ ले आ.’’

विनय और संजना ने एकदूसरे को देखा. मां में आए परिवर्तन ने उन्हें सुखद आश्चर्य से भर दिया. ‘‘अब खड़ी ही रहेगी या लाएगी भी.’’ संजना गुड़ लाने अंदर गई, विनय और विशाखा मां के चरणों में झुक गए.

तजरबा: भाग 3- कैसे जाल में फंस कर रह गई रेणु

‘‘एक रोज मैं और मेरी सहेली रैचेल रतन के कमरे में बैठे हुए आपस में बात कर रहे थे कि नींद की गोलियों में कौन से ब्रांड की गोली सब से असरदायक होती है. रतन ने कहा कि किसी भी ब्रांड की गोली खाने से पहले अगर 1-2 घूंट ह्विस्की पी लो तो गोली जबरदस्त असर करती है. मेरे पूछने पर कि उसे कैसे मालूम, रतन ने कहा कि उस ने किसी उपन्यास में पढ़ा है और रासायनिक तथ्यों को देखते हुए बात ठीक भी हो सकती है.

‘‘रैचेल ने कहा कि अनिंद्रा की बीमारी से पीडि़त लोगों के लिए तो यह नुस्खा बहुत कारगर सिद्ध हो सकता है लेकिन बगैर आजमाए तो किसी को बताना नहीं चाहिए. मुझे पता था कि रैचेल के घर में शराब का कोई परहेज नहीं है और ज्यादा थके होने पर रैचेल भी 1-2 घूंट लगा लेती है. मैं ने उस से कहा कि वह खुद पर ही यह फार्मूला आजमा के देख ले. भरपूर नींद सो लेगी तो अगले दिन तरोताजा हो जाएगी. रैचेल बोली कि ह्विस्की की तो कोई समस्या नहीं है लेकिन नींद की गोली बगैर डाक्टर के नुस्खे के नहीं मिलती, रतन अगर नुस्खा लिख दे तो वह तजरबा करने को तैयार है.

‘‘रतन ने कहा कि नुस्खे की क्या जरूरत है. रेणु की नाइट ड्यूटी आजकल आरथोपीडिक वार्ड में है, जहां आमतौर पर सब को ही गोली दे कर सुलाना पड़ता है. सो इस से कह, यह किसी मरीज के नाम पर तुम्हें भी एक गोली ला देगी. उस रात बहुत से मरीजों के लिए एक ही ब्रांड की गोली लिखी गई थी सो नर्स स्टोर से पूरी शीशी ले आई. आधी रात को सब की नजर बचा कर मैं ने वह शीशी अपने पर्स में रख ली और मौका मिलते ही रैचेल को दे दी.

‘‘अगले दिन हमारी छुट्टी थी. रात के 10 बजे के करीब रैचेल के पिता का फोन आया कि बहुत पुकारने पर भी रैचेल जब रात का खाना खाने नहीं आई तो उन्होंने उस के कमरे में जा कर देखा कि वह एकदम बेसुध पड़ी है. मैं ने उन्हें रैचेल को फौरन अस्पताल लाने को कहा और आश्वासन दिया कि मैं भी वहां पहुंच रही हूं. संयोग से रतन की उस रात नाइट ड्यूटी थी, मैं ने तुरंत उसे फोन पर सब बता कर कहा कि मुझे लगता है कि रैचेल ने तजरबा कर लिया. मैं ने उसे वार्ड से चुरा कर नींद की गोलियों की शीशी दी थी.

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‘‘रतन बोला कि वह तो उसे मालूम है. आधी शीशी नींद की गोलियां गायब होने से वार्ड में काफी शोर मचा हुआ था, जिसे सुनते ही वह समझ गया था कि यह किस का काम है. खैर, चिंता की कोई बात नहीं, उसे बता दिया है सो वह सब संभाल लेगा और उस ने संभाला भी. अस्पताल पहुंचने से पहले ही रैचेल की मौत हो चुकी थी. रतन ने मौत की वजह मैसिव हार्ट अटैक बता कर किसी और डाक्टर के आने से पहले आननफानन में पोस्टमार्टम कर बौडी रैचेल के घर वालों को दे दी.

‘‘अगले रोज उस ने मुझे अकेले में बताया कि उस ने मुझे बचा लिया है. रैचेल ने काफी मात्रा में नींद की गोलियां खाई थीं. पलंग के पास पड़ी नींद की गोलियों की खाली शीशी भी उस के बाप को मिल गई थी, मगर रतन के समझाने पर कि आत्महत्या का पुलिस केस बनने पर उन की बहुत बदनामी होगी, उन्होंने चुपचाप रैचेल का जल्दी से अंतिम संस्कार कर दिया. यही नहीं जच्चाबच्चा वार्ड जहां रैचेल की ड्यूटी थी, वहां भी एक नर्स ने मुझे अचानक वार्ड में आ कर हंसते हुए रैचेल को कुछ पकड़ाते हुए देखा था. रतन ने उसे भी डांट कर चुप करा दिया कि सब के सामने हंसते हुए च्युंगम दी जाती है चुराई हुई नींद की गोलियों की शीशी नहीं.

‘‘मेरे आभार प्रकट करने पर रतन ने कहा कि खाली धन्यवाद कहने से काम नहीं चलेगा. जब वह किसी परेशानी में होगा तो वह जो कहेगा मुझे उस के लिए करना पड़ेगा. हामी भरने के सिवा कोई चारा भी नहीं था. उस के बाद से मैं रतन से डरने लगी थी, हालांकि उस ने दोबारा वह विषय कभी नहीं छेड़ा.

‘‘कुछ अरसे के बाद रैचेल की गोलियां खाने की वजह भी समझ में आ गई. डा. राममूर्ति ने एक रोज बताया कि वह और रैचेल एकदूसरे से प्यार करते थे और जल्दी ही शादी करने वाले थे लेकिन उस के घर वालों ने उस की शादी कहीं और तय कर दी थी.

राममूर्ति ने रैचेल को आश्वासन दिया था कि छुट्टी मिलते ही चेन्नई जा कर अपने घर वालों को सब बता कर वह रिश्ता खत्म कर देगा, लेकिन काफी कोशिश के बाद भी उसे छुट्टी नहीं मिल रही थी और रैचेल इसे उस की टालमटोल समझ कर काफी बेचैन थी. शायद इसी वजह से उस का हार्ट फेल हो गया. यह जान कर मेरे मन से एक बोझ उतर गया कि रैचेल की जान मेरे मजाक के कारण नहीं गई. वह आत्महत्या करने का फैसला कर चुकी थी. फिर मैं तुम से शादी कर के लंदन चली गई. वापस आने पर भी रतन से कभी मुलाकात नहीं हुई.

‘‘अब अचानक इतने साल बाद उस ने मुझे ब्लैकमेल करना शुरू किया है कि रैचेल की सही पोस्टमार्टम रिपोर्ट और विसरा वगैरा उस के पास सुरक्षित है, जिस के बल पर वह मुझे कभी भी सलाखों के पीछे भेज सकता है. अपना मुंह बंद रखने की कीमत उस ने 1 लाख रुपए मांगी थी जो मैं ने चुपचाप उसे दे दी. आसानी से मिले पैसे ने उस की भूख और भी बढ़ा दी. उस ने मुझे कहा कि मैं और भी मेहनत कर के पैसे कमाऊं क्योंकि अब वह अपनी नहीं मेरी कमाई पर जीएगा…’’

‘‘जुर्म के सुबूत छिपाने वाला जुर्म करने वाले जितना ही अपराधी होता है सो रतन तुम्हें फंसाने की कोशिश में खुद भी पकड़ा जाएगा,’’ धवल ने रेणु की बात काटी.

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‘‘यह बात मैं ने रतन से कही थी तब वह बोला, ‘कह दूंगा कि तुम्हारे रूपजाल में फंस कर मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी लेकिन अब विवेक जागा है तो मैं आत्मसमर्पण करना चाहता हूं. मुझे थोड़ीबहुत सजा हो जाएगी, तुम शायद सुबूतों के अभाव में बरी भी हो जाओ लेकिन यह सोचो कि तुम्हारी कितनी बदनामी होगी, तुम्हारे नर्सिंग होम की ख्याति और पति की प्रतिष्ठा पर कितना बुरा असर पड़ेगा?’

‘‘उस की दलील में दम था, फिर भी मैं ने एक जानेमाने वकील से सलाह ली तो उन्होंने भी यही कहा कि सजा तो मुझे नहीं होने देंगे लेकिन बदनामी और उस से होने वाली हानि से नहीं बचा सकते. अब तुम ही बताओ, धवल, मैं क्या करूं?’’ रेणु ने पस्त मन से पूछा.

‘‘अब तुम्हें कुछ करने या परेशान होने की जरूरत नहीं है. जो भी करना है, अब मैं सोचसमझ कर करूंगा. फिलहाल तो चलो, आराम किया जाए,’’ धवल ने रेणु को बांहों में भर कर पलंग पर लिटा दिया.

अगले रोज धवल ऋषि से मिला.

‘‘भाभी को कह कि यह टेप रिकार्डर हरदम अपने पास रखें और जब भी रतन का फोन आए, इसे आन कर दें, ताकि वह जो भी कहे इस में रिकार्ड हो जाए,’’ ऋषि ने सब सुन कर एक छोटी सी डिबिया धवल को पकड़ाई, ‘‘फिर रतन को देने के लिए जो भी पैसा बैंक से निकाले उन नोटों के नंबर वहां दर्ज करवा दे जिन की बुनियाद पर हम पुलिसकर्मी बन कर उसे ब्लैकमेल के जुर्म में गिरफ्तार करने का नाटक कर के उसे इतना डराएंगे कि वह फिर कभी भाभी के सामने आने की हिम्मत नहीं करेगा. उस के पकड़े जाने पर उस के डाक्टर बाप की इज्जत या प्रेक्टिस की साख पर असर नहीं पड़ेगा?’’

‘‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं था. रेणु के तजरबे के सुझाव ने खुद रेणु को फंसा दिया था पर लगता है तुम्हारा रतन को डराने का तजरबा सफल रहेगा.’’

‘‘होना भी चाहिए, यार. भाभी अपने गलत सुझाव के लिए काफी आर्थिक और मानसिक यातना भुगत चुकी हैं.’’

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और वक्त बदल गया: भाग 1- क्या हुआ था नीरज के साथ

लेखिका- शकीला एस हुसैन

नीरज की परेशानी दिन ब दिन बढ़ती जा रही थी. स्कूल के इम्तिहान खत्म हो चुके थे. ट्यूशन क्लासेज भी बंद हो गई थीं. अभी उस के सामने कई खर्चे खड़े थे- कमरे का किराया, घर का सामान. उस के पास इतने पैसे न थे कि सारे खर्च एकसाथ निबट जाते. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. नीरज को एकाएक खयाल आया कि मकानमालकिन मिसेज रेमन से बात की जाए, शायद कोई हल निकल आए. मिसेज रेमन उस 2 कमरों के मकान में अकेली ही रहती थीं. छत पर उस का कमरा था. वहां एक कमरा वाशरूम के साथ था. बरामदे को घेर कर छोटी सी रसोई बना दी थी. नीरज के लिए कमरा ठीकठीक था. उस की अच्छी गुजर हो रही थी. पिछले दिनों उस की बीमारी की वजह से पैसों की समस्या खड़ी हो गई थी. इलाज में पैसा खर्च हो गया और बचत न हो सकी.

शाम को वह मिसेज रेमन के दरवाजे की घंटी बजा रहा था. उन्होंने दरवाजा खोला और मुसकरा कर बोलीं, ‘‘हैलो यंगमैन, कैसे हो?’’ उस के जवाब का इंतजार किए बगैर उन्होंने प्यार से उसे बिठाया. उस के न कहने के बावजूद वे चाय ले आईं. फिर पूछा, ‘‘बताओ, कैसे आना हुआ?’’ नीरज ने धीमे से कहा, ‘‘मैम, आप को तो पता है मैं एमई कर रहा हूं और ट्यूशन कर के अपना खर्च चलाता हूं. छुट्टियों में कोई काम कर लेता हूं पर इस बार बीमारी के इलाज में खर्च ज्यादा हो गया, इसलिए इस महीने का किराया वक्त पर नहीं दे पाऊंगा. मुझे थोड़ी मोहलत दे दीजिए.’’

इस से पहले कभी नीरज से मिसेज रेमन को कोई शिकायत न थी. बहुत शिष्ट और शालीन था वह. किराया हमेशा वक्त पर देता था. मिसेज रेमन अच्छी महिला थीं, बोलीं, ‘‘कोई बात नहीं, जब तुम्हें सहूलियत हो तब किराया दे देना. तुम स्टूडैंट हो और बहुत अच्छे लड़के हो. इतनी रियायत तो मैं तुम्हें दे सकती हूं.’’

नीरज खुश हो गया, बोला, ‘‘बहुतबहुत शुक्रिया मैम.’’

वे बोलीं, ‘‘नीरज मेरे पास तुम्हारे लिए एक औफर है. मेरा एक स्टोर है. उस को मेरे एक पुराने मित्र मिस्टर जैकब देखते हैं. वे भी काफी उम्र के हैं. हिसाबकिताब में उन्हें परेशानी होती है. अगर तुम शाम को थोड़ा वक्त निकाल कर हिसाबकिताब देख लो तो तुम्हारे किराए के रुपए भी उसी में से कट जाएंगे और कुछ रुपए तुम्हें मिल भी जाएंगे.’’

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नीरज ने तुरंत कहा, ‘‘ठीक है मैम, मैं कल से यह काम शुरू कर दूंगा. इस से मुझे बहुत मदद मिल जाएगी. मैं आप का बहुत एहसानमंद हूं.’’

दूसरे दिन से नीरज 1-2 घंटे स्टोर पर हिसाबकिताब वगैरा देखने लगा. मिस्टर जैकब बहुत सुलझे हुए और सहयोग करने वाले इंसान थे. बड़े अच्छे से उस का काम चलने लगा. महीना पूरा होने पर किराए के पैसे काट कर उसे कुछ रकम भी मिलगई. नीरज के सैमेस्टर शुरू हो गए. परीक्षाएं खत्म होने पर उसे सुकून मिला. उस दिन वह अच्छे मूड में नीचे गार्डन में बैठा था कि मिसेज रेमन आ गईं. उस की परीक्षाएं खत्म होने की बात सुन कर वे बहुत खुश हुईं. उसे रात के खाने पर आमंत्रित किया. बहुत अच्छे माहौल में खाना खाया गया. उन्होंने बिरयानी बहुत अच्छी बनाई थी. बरसों बाद उसे किसी ने इतने प्यार से खाना खिलाया था. मिसेज रेमन ने छुट्यों में उसे 1-2 जगह और काम दिलाने का भी वादा किया.

रात को जब वह बिस्तर पर लेटा तो मिसेज रेमन के बारे में सोच रहा था. पर पता नहीं कैसे एक खूबसूरत चेहरा उस के खयालों में उभर आया. उस हसीन चेहरे को वह भूल जाना चाहता था. अपने अतीत को अपने जेहन से खुरच कर फेंक देना चाहता था. पर न जाने क्यों वह चेहरा बारबार उस की यादों में चला आता था. न चाहते हुए भी वह अतीत में डूब गया…

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उस समय वह करीब 6 साल का था. एक बहुत खूबसूरत औरत, जो उस की मम्मी थी, उसे प्यार करती, उस का खयाल रखती. उस के पापा भी बहुत हैंडसम और डैश्ंिग थे. वे उसे घुमाने ले जाते, खिलौने दिलाते. पर एक बात से वह बहुत परेशान रहता कि अकसर किसी न किसी बात पर उस के मातापिता के बीच लड़ाई हो जाती, खूब तकरार होती. वह सहम कर अपने कमरे में छिप जाता. उस का मासूम दिल यह समझ ही नहीं पाता कि उस के मम्मी-पापा क्यों झगड़ते हैं. फिर घर में खाना नहीं पकता. पापा गुस्से से बाहर चले जाते और खूब देर से घर लौटते. वह दूध और डबलरोटी खा कर सो जाता. इसी तरह दिन गुजर रहे थे. एक दिन दोनों के बीच बड़ी जोरदार लड़ाई हुई. फिर पापा जोरजोर से चिल्ला कर पता नहीं क्याक्या बक कर बाहर चले गए. मम्मी भी देर तक चिल्लाती रहीं. उस रात को पापा घर वापस लौट कर नहीं आए. दूसरे दिन आए तो फिर दोनों में तकरार शुरू हो गई. बीचबीच में उस का नाम भी ले रहे थे. फिर पापा सूटकेस में अपना सामान भर कर चले गए और कभी लौट कर नहीं आए. मम्मी का मिजाज बिगड़ा रहता.

3 महीने इसी तरह गुजर गए, फिर मम्मी एकदम, खुश दिखने लगीं. एक दिन एक बैग में उस का सामान पैक किया, फिर उस की मम्मी, जिस का नाम सोनाली था, ने कहा, ‘नीरज, मुझे विदेश में जौब मिल गई है. अब तुम मेरी कजिन नीता आंटी के साथ रहोगे. वे तुम्हारा बहुत खयाल रखेंगी. बेटा, तुम भी उन को तंग न करना.’ दूसरे दिन सोनाली उसे नीता आंटी के यहां छोड़ने गई. नीरज किसी भी हाल में मम्मी को छोड़ना नहीं चाहता था. रोरो कर उस की हिचकियां बंध गईं. मम्मी भी रो रही थीं पर फिर वे आंचल छुड़ा कर चली गईं. नीरज उदास सा, हालात से समझौता करने को मजबूर था. उस के पास और कोई रास्ता न था. उस का ऐडमिशन दूसरे स्कूल में हो गया. नीता आंटी का व्यवहार उस से अच्छा था. वे उसे प्यार भी करती थीं. अंकल बहुत कम बोलते, उसे अलग कमरे में अकेले सोना होता था. रात में सोते समय वह कई बार डर कर उठ जाता, तकिया सीने से लगाए रोरो कर रात काट देता. कोई ऐसा न था जो उसे उन काली रातों में उसे सीने से लगा कर प्यार करता. उसे समझ नहीं आता था, मां उसे छोड़ कर क्यों चली गईं? पापा कहां चले गए? दिन बीतते रहे. 10-12 दिनों बाद मम्मी उस से मिलने आईं. खिलौने, चौकलेट, कपड़े लाई थीं. उसे खूब प्यार किया और फिर उसे रोताबिलखता छोड़ कर मलयेशिया चली गईं.

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और वक्त बदल गया: भाग 3- क्या हुआ था नीरज के साथ

लेखिका- शकीला एस हुसैन

धीरे धीरे रेनू ने अंकल के कान भरने शुरू कर दिए. अब नीरज उन की नजरों में भी खटकने लगा. बेवजह के ताने व प्रताड़ना शुरू हो गई. उस दिन तो हद हो गई, उसे एक किताब की जरूरत थी, उस ने अंकल से पैसे मांगे. इस बात को ले कर इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा हो गया कि अतीत के सारे कालेपन्ने खोल कर उसे सुनाए गए. उस पर किए गए एहसान जताए गए, खर्च के हिसाब बताए गए. नीरज खामोश खड़ा सब सुनता रहा.  उस के पास कहने को क्या था? उस के मांबाप ने उसे ऐसी स्थिति में ला कर खड़ा कर दिया था कि शरम से उस का सिर झुक जाता था. अच्छे मार्क्स लाने के बाद उस की न कोई कद्र थी, न कोई तारीफ. 10वीं में उस के 97 फीसदी नंबर आए थे. स्कौलरशिप मिल रही थी. पढ़ाई के सारे खर्चे उसी में से पूरे हो जाते. कभीकभार किताबें वगैरा के लिए कुछ पैसे मांगने पड़ते थे. उस पर भी हंगामा खड़ा हो जाता.

उस दिन वह अपने कमरे में आ कर बेतहाशा रोया. उस के मांबाप ने अपनी मुहब्बत व अपने ऐश, अपनी सहूलियतों, अपने स्वार्थ के लिए उस की जिंदगी बरबाद कर दी थी. अगर उन दोनों ने विधिवत शादी की होती, अपनी जिम्मेदारी समझी होती तो ननिहाल या ददिहाल में से कोई भी उसे रख लेता. उस की जिंदगी यों शर्मसार न हुई होती. उसी दिन रात को उस ने तय किया कि 12वीं पास होते ही वह यह घर छोड़ देगा. अपने बलबूते पर अपनी पढ़ाईर् पूरी करेगा. 12वीं उस ने मैरिट में उत्तीर्ण की. पर घर में कोई खुशी मनाने वाला न था. रूखीफीकी मुबारकबाद मिली. बस, बूआ ने बहुत प्यार किया. अपने पास से मिठाई मंगा कर उसे खिलाई. हां, उस के दोस्तों ने खूब सैलिब्रेट किया. 2-4 दिनों बाद उस ने घर छोड़ दिया. पढ़ाई के खर्चे की उसे कोई फिक्र न थी. स्कौलरशिप मिल रही थी. एक अच्छे स्टूडैंट के लिए कुछ मुश्किल नहीं होती.

उस की परफौर्मेंस बहुत अच्छी थी. उस का ऐडमिशन एक अच्छे कालेज में हो गया. उस ने अपने एक दोस्त के साथ मिल कर कमरा किराए पर ले लिया और ट्यूशन कर के निजी खर्च निकालने लगा. उस का पढ़ाने का ढंग इतना अच्छा था कि उसे 10वीं के बच्चों की ट्यूशन मिल गई. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. छुट्टियों में काम कर के कुछ और पैसे कमा लेता. बीई में उस ने पोजीशन ली. बीई के बाद उस के दोस्त ने जौब कर ली और दूसरे शहर में चला गया. मकानमालिक को कमरे की जरूरत थी, उसे वह घर छोड़ना पड़ा. फिर थोड़ी कोशिश के बाद उसे मिसेज रेमन के यहां कमरा मिल गया. यह खूब पुरसुकून व अच्छी जगह थी. उस ने दुनिया के सारे शौक, सारे मजे छोड़ दिए थे. उस की जिंदगी का बस एक मकसद था, पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई. यहां भी वह ट्यूशन कर के अपना खर्च चलाता था. अब स्टोर में भी काम मिल गया, ये सब पुरानी बातें सोचतेसोचते वह नींद की आगोश में चला गया.

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नीरज का यह फाइनल सैमेस्टर था. कैंपस सिलैक्शन में उसे एक अच्छी कंपनी ने चुन लिया. जीभर कर उस ने खुशियां मनाई. फाइनल होने के बाद उस ने वही कंपनी जौइन कर ली. शानदार पैकेज, बहुत सी सहूलियतें जैसे उस की राह देख रही थीं. मिसेज रेमन और मिस्टर जैकब को भी उस ने बाहर डिनर कराया. उन दोनों ने भी उसे तोहफे व दुआएं दे कर उस का हौसला बढ़ाया. मिसेज रेमन ने एक मां की तरह प्यार किया. बूआ को साड़ी व पैसे दिए. वक्त और हालात बदलते देर नहीं लगती. आज वह 6 साल का मजबूर व बेबस बच्चा न था, 24 साल का खूबसूरत, मजबूत और समृद्ध जवान था. एक शानदार घर में रह रहा था. दुनिया की सारी सुखसुविधाएं उस के पास थीं. पर फिर भी उस की आंखों में उदासी और जिंदगी में तनहाई थी. वह हर वीकैंड पर मिसेज रेमन से मिलने जाता. वही एकमात्र उस की दोस्त, साथी या रिश्तेदार थीं. अच्छा वक्त तो वैसे भी पंख लगा कर उड़ता है.

उस दिन शाम को वह लौन में बैठा चाय पी रहा था कि गेट पर एक टैक्सी आ कर रुकी. उस में से एक सांवली सी अधेड़ औरत उतरी और गेट खोल कर अंदर चली आई. नीरज उस महिला को पहचान न सका, फिर भी शिष्टाचार के नाते कहा, ‘‘बैठिए, आप कौन हैं?’’ उस औरत की आंखें गीली थीं. चेहरे पर बेपनाह मजबूरी और उदासी थी. उस ने धीरेधीरे कहना शुरू किया, ‘‘नीरज, तुम ने मुझे पहचाना नहीं. मैं सोनाली हूं, तुम्हारी मम्मी.’’ नीरज भौचक्का रह गया. कहां वह जवान और खूबसूरत औरत, कहां यह सांवली सी अधेड़ औरत. दोनों में बड़ा फर्क था. ‘मम्मी’ शब्द सुन कर नीरज के मन में कोई हलचल न हुई. उस की सारी कोमल भावनाएं बर्फ की तरह सर्द हो कर जम चुकी थीं. अब दिल पर इन बातों का कोई असर न होता था. उस ने सपाट लहजे में कहा, ‘‘कहिए, कैसे आना हुआ? आप को मेरा पता कहां से मिला?’’

‘‘बेटा, मैं दूर जरूर थी पर तुम से बेखबर न थी. तुम्हारा रिजल्ट, तुम्हारी कामयाबी, नौकरी सब की खबर रखती थी. इंटरनैट से दुनिया बहुत छोटी हो गई है. जीजाजी से मिसेज रेमन का पता चला. उन से तुम्हारे बारे में मालूम हो गया. इस तरह तुम तक पहुंच गई. मैं जानती हूं, मेरा तुम से माफी मांगना व्यर्थ है क्योंकि जो कुछ मैं ने किया है उस की माफी नहीं हो सकती. तुम्हारा बचपन, तुम्हारा लड़कपन, मेरी नादानी और मेरे स्वार्थ की भेंट चढ़ गया. मैं ने जज्बात में आ कर गलत फैसला किया. न मैं खुश रह सकी न तुम्हें सुख दे सकी. मैं ने वह खिड़की खुद ही बंद कर दी जहां से ताजी हवा का झोंका, मुहब्बत की ठंडी फुहार मेरे तपते वजूद की तपिश कम कर सकती थी. मैं ने थोड़े से ऐश की खातिर उम्रभर के दुखों से सौदा कर लिया. अब सिर्फ पछतावा ही मेरी जिंदगी है.’’

‘‘ठीक है, सोनाली मैम, जो आप ने किया, सोचसमझ कर किया था. आज से 30-32 साल पहले ‘लिवइन रिलेशनशिप’ इतनी आम बात न थी. बहुत कम लोग यह कदम उठाते थे. आप उस समय इतनी बोल्ड थीं, आप ने यह कदम उठाया. फिर उस को निभाना था. एक बच्चे को जन्म दे कर आप ने उस की जिंदगी के साथ खिलवाड़ किया. न मेरा कोई ननिहाल रहा, न ददिहाल. मैं ने कैसे खुद को संभाला, यह मैं जानता हूं. ‘‘जिस उम्र में बच्चे मां के सीने पर सिर रख कर सोते हैं उस उम्र में मैं ने तकिए से लिपट कर रोरो कर रातें काटी हैं. आप ने और पापा ने सिर्फ अपने ऐश देखे. एक पल को भी, उस बच्चे के बारे में न सोचा जिसे दुनिया में लाने के आप दोनों जिम्मेदार थे. अब मेरी मासूमियत, मेरा बचपन, मेरी कोमल भावनाएं सब बेवक्त मर चुकी हैं.’’

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‘‘नीरज, तुम जो भी कह रहे हो, एकदम सच है. मैं ने हर कदम सोचसमझ कर उठाया था. पर उस के अंजाम ने मुझे ऐसा सबक सिखाया है कि हर लमहा मैं खुद को बुराभला कहती हूं. मलयेशिया में मैं ने दूसरी शादी की थी. पर 6 साल तक मुझे औलाद न हुई तो उस ने मुझे तलाक दे दिया. उसे औलाद चाहिए थी और मैं मां न बन सकी. औलाद की बेकद्री की मुझे सजा मिल गई. मैं औलाद मांगती रही, मेरे बच्चा न हुआ. सारे इलाज कराए. यहां औलाद थी तो मैं ने दूसरों को दे दी. मेरे गुनाहों का अंत नहीं है. ‘‘मुझे कैंसर है. थोड़ा ही वक्त मेरे पास है. मैं अपने गुनाहों का, अपनी भूलों का प्रायश्चित्त करना चाहती हूं. अब मैं तुम्हारे पास रहना चाहती हूं. मैं तनहाई से तंग आ गई हूं. मुझे तुम्हारी तनहाई का भी एहसास है. पैसा है मेरे पास, पर उस से तनहाई कम नहीं होती. भले तुम मुझे खुदगर्ज समझो पर यह मेरी आखिरी ख्वाहिश है. एक बार मुझे मेरी गलतियां सुधारने का मौका दो. अपनी बेबस व मजबूर मां की इतनी बात रख लो.’’

नीरज सोच में पड़ गया. एक बार दिल हुआ, मां को माफ कर दे. दूसरे पल संघर्षभरे दिन, अकेले रोतेरोते गुजारी रातें याद आ गईं. उस ने धीमे से कहा, ‘‘सोनाली मैम, इतने सालों से मैं बिना रिश्तों के जीने का आदी हो गया हूं. रिश्ते मेरे लिए अजनबी हो गए हैं. मुझे थोड़ा वक्त दीजिए कि मैं अपने दिल को रिश्ते होने का यकीन दिला सकूं, अपनों के साथ जीने का तरीका अपना सकूं. ‘‘इतने सालों तक तपते रेगिस्तान में झुलसा हूं, अब एकदम से ठंडी फुहार बरदाश्त न कर सकूंगा. मुझे अपनेआप को ‘मां’ शब्द से मिलने का, समझने का मौका दीजिए. अभी मुझे नए तरीकों को अपनाने में थोड़ी हिचकिचाहट है. जैसे ही मुझे लगेगा कि मैं ने मां को पहचान लिया है, मैं आप को खबर कर के लेने आ जाऊंगा. आप अपना फोन नंबर और पता मुझे दे जाइए.’’

सोनाली ने एक उम्मीदभरी नजर से बेटे को देखा. उस की आंखें डबडबा गईं. वह थकेथके कदमों से गेट की तरफ मुड़ गई.

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और वक्त बदल गया: भाग 2- क्या हुआ था नीरज के साथ

लेखिका- शकीला एस हुसैन

जिंदगी एक ढर्रे पर चलने लगी. नीता आंटी उस का बहुत खयाल रखतीं. आंटी के यहां रहते हुए उसे कई बातें पता चलीं. आंटी की शादी को 8 साल हो गए थे. उन के यहां औलाद न थी. इसलिए उन्होंने उसे गोद लिया था. जैसेजैसे वह बड़ा होता गया, उसे सारी बातें समझ में आती गईं. कुछ बातें उसे नीता आंटी से पता चलीं. कुछ बातें उन की पुरानी बूआ कमला से पता चलीं. उस के मांबाप की कहानी भी उन्हीं लोगों से मालूम पड़ीं. उस की मम्मी सोनाली बहुत खूबसूरत, चंचल और जहीन थीं. जब वे एमएससी कर रही थीं, उन की मुलाकात उस के पापा रवि से हुई. पहले दोस्ती, फिर मुहब्बत. दोनों के धर्म में फर्क था. दोनों के घरों से शादी का इनकार ही था. पर इश्के जनून कहां रुकावटों से रुकता है. दोनों की पढ़ाई पूरी होते ही उन दोनों ने सोचसमझ कर आपसी सहमति से अपना शहर छोड़ दिया और इस शहर में आ कर बस गए. सोनाली और रवि दोनों ही नए जमाने के साथ चलने वाले, ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे सरीखे थे. पुराने रीतिरिवाजों के विरोधी, नई सोच नई डगर, आजाद खयालों के हामी, उन दोनों ने ‘लिवइन रिलेशन’ में एकसाथ रहना शुरू कर दिया. विवाह उन्हें एक बंधन लगा.

उन का एजुकेशनल रिकौर्ड काफी अच्छा था. जल्द ही उन्हें अच्छी नौकरी मिल गई. जल्द ही उन्होंने जीवन की सारी जरूरी सुविधाएं जुटा लीं. एक साल फूलों की महक की तरह हलकाफुलका खुशगवार गुजर गया. फिर उन की जिंदगी में नीरज आ गया. शुरूशुरू में दोनों ने खुशी से जिम्मेदारी उठाई. दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. सोनाली चंचल और आजाद रहने वाली लड़की थी. घर में सासससुर या कोई बड़ा होता तो कुछ दबाव होता, थोड़ा समझौता करने की आदत बनती. पर ऐसा कोई न था. रवि बेहद महत्त्वाकांक्षी और थोड़ा स्वार्थी था. खर्च और काम बढ़ने से दोनों के बीच धीरेधीरे कलह होने लगी. पहले तो कभीकभार लड़ाई होती, फिर अंतराल घटने लगा. दोनों में बरदाश्त और सहनशीलता जरा न थी. फिर हर दूसरे, तीसरे दिन लड़ाई होने लगी. रवि के अपने मांबाप, परिवार से सारे संबंध टूट चुके थे और वे लोग उस से कोई संबंध रखना भी नहीं चाहते थे. उन के रवि के अलावा एक बेटा और एक बेटी थी. उन्हें डर था कि कहीं रवि के व्यवहार का दोनों बच्चों पर बुरा प्रभाव न पड़ जाए. जो लड़का प्यार की खातिर घरपरिवार छोड़ दे, उस से उम्मीद भी क्या रखी जा सकती है.

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रिश्तेदारों से तो रवि पूरी तरह कट चुका था. कभी किसी दोस्त या सहयोगी के यहां कोई समारोह में शामिल होने का मौका मिलता, वहां भी कोई न कोई ऐसी बात हो जाती कि मन खराब हो जाता. कभी कोई इशारा कर के कहता, ‘यही हैं जो लिवइन रिलेशन में रह रहे हैं.’ या कोई कह देता, ‘इन लोगों की शादी नहीं हुई है, ऐसे ही साथ रहते हैं.’ उन दिनों लिवइन रिलेशन बहुत कम चलन में था. लोग इसे बहुत बुरा समझते थे. लोग खूब आलोचना भी करते थे. रवि भी इस बात को महसूस करता था कि अगर समाज में घुलमिल कर रहना है तो समाज के बनाए उसूलों के अनुसार चलना जरूरी है. पर अब इन सब बातों के लिए बहुत देर हो चुकी थी. जो जैसा चल रहा था, वही अच्छा लगने लगा था.

सोनाली अपने परिवार की बड़ी बेटी थी. उस से छोटी 2 बहनें थीं. उस ने घर से भाग कर रवि के साथ रहना शुरू कर दिया. इन सब बातों की उस के मांबाप को खबर हो गई थी. बिना शादी के दोनों साथ रहते हैं, इस बात से उन्हें बहुत धक्का लगा. ऐसी खबरें तो पंख लगा कर उड़ती हैं. उन की 2 बेटियां कुंआरी थीं. कहीं सोनाली की कालीछाया उन दोनों के भविष्य को भी ग्रहण न लगा दे, यह सोच कर उन लोगों ने सोनाली से कोई संबंध नहीं रखा, न उस की कोई खोजखबर ली. वैसे भी, एक आजाद लड़की को क्या समझाना. इस तरह सोनाली भी अपने परिवार से अलग हो गई थी. उस की रिश्ते की एक बहन नीता इसी शहर में रहती थी. उस से मेलमुलाकात होती रहती थी. उस की शादी को 8 साल हो गए थे. उस की कोई औलाद न थी. वह बच्चे के लिए तरसती रहती थी. इधर, रवि और सोनाली के बीच अहं का टकराव होता रहता. दोनों पढ़ेलिखे, सुंदर और जहीन थे. कोई झुकना न चाहता था. एक बात और थी, दोनों ही अपने परिवारों से कटे हुए थे. इस बात का एहसास उन्हें खटकता तो था पर खुल कर इस को कभी स्वीकार नहीं करते थे क्योंकि उन की ही गलती नजर आती. फिर सोशललाइफ भी कुछ खास न थी. इसी घुटन और कुंठा ने दोनों को चिड़चिड़ा बना दिया था.

नीरज की जिम्मेदारी और खर्च दोनों को ही भारी पड़ता. दोनों को अपनाअपना पैसा बचाने की धुन सवार रहती. नतीजा निकला रोजरोज की लड़ाई और अंजाम, रवि घर, नीरज और सोनाली को छोड़ कर चला गया. न कोई बंधन था, न कोई दवाब, न कोई कानूनी रोक. बड़ी आसानी से वह सोनाली और बच्चे को छोड़ चला गया. किसी से पता चला कि वह दुबई चला गया. इधर, सोनाली भी बहुत महत्त्वाकांक्षी थी. उस ने भी दौड़धूप व कोशिश की. उसे मलयेशिया में नौकरी मिल गई. अब सवाल उठा बच्चे का. उस का क्या किया जाए. सोनाली भी अकेले यह जिम्मेदारी उठाना नहीं चाहती थी.

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अभी उस के सामने पूरी जिंदगी पड़ी थी. उस की कजिन नीता ने सुझाव दिया कि उस की कोई औलाद नहीं है, वह नीरज को अपने बेटे की तरह रखेगी. सोनाली ने नीरज को उसे दे दिया. एक मौखिक समझौते के तहत बच्चा उसे मिल गया. कोई कानूनी कार्यवाही की जरूरत ही नहीं समझी गई. इस तरह मासूम नीरज, नीता आंटी के पास आ गया. बिना मांबाप के एक मांगे की जिंदगी गुजारने की खातिर. नीता आंटी उस का खूब खयाल रखती थीं, पढ़ाई भी अच्छी चल रही थी. जो बच्चे बचपन में दुख उठाते हैं, तनहाई और महरूमी झेलते हैं, वे वक्त से पहले सयाने और समझदार हो जाते हैं. नीरज ने अपना सारा ध्यान पढ़ाई में लगा दिया. एक ही धुन थी उसे कि कुछ बन कर दिखाना है. मेहनत और लगन से उस का रिजल्ट भी खूब अच्छा आता था.

दुख और हादसे कह कर नहीं आते. नीता आंटी का रोड ऐक्सिडैंट हो गया. 4-5 दिन मौत से संघर्ष करने के बाद वे चल बसीं. नीरज की तो दुनिया उजड़ गई. अब बूआ एकमात्र सहारा थीं. वे उस का बहुत ध्यान रखतीं. अंकल पहले से ही कटेकटे से रहते थे. अब और तटस्थ हो गए. धीरेधीरे हालात सामान्य हो गए. उस वक्त वह 10वीं में पढ़ रहा था. एक साल गुजर गया. आंटी की कमी तो बहुत महसूस होती पर सहन करने के अलावा कोई रास्ता न था. पहले भी वह अकेला था अब और अकेला हो गया. उस के सिर पर आसमान तो तब टूटा जब अंकल दूसरी शादी कर के दूसरी पत्नी को घर ले आए. दूसरी पत्नी रेनू 30-31 साल की स्मार्ट औरत थी. कुछ अरसे तक वह चुपचाप हालात देखती और समझती रही और जब उसे पता चला, नीरज गोद लिया बच्चा है, तो उस के व्यवहार में फर्क आने लगा.

नीरज ने अपनेआप को अपने कमरे तक सीमित कर लिया. खाने वगैरा का काम बूआ ही देखतीं. डेढ़ साल बाद जब रेनू का बेटा पैदा हुआ तो नीरज के लिए जिंदगी और तंग हो गई. अब तो रेनू उसे बातबेबात डांटनेफटकारने लगी थी. खानेपीने पर भी रोकटोक शुरू हो गई. बासी बचा खाना उस के लिए रखा जाता. वह तो गनीमत थी कि बूआ उसे बहुत प्यार करती थीं, छिपछिपा कर उसे खिला देतीं.

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समय सीमा: भाग 3- क्या हुआ था नमिता के साथ

उस ने जल्दी घर जाना ही बेहतर समझ. आज काम करने की मनोस्थिति तो रही

नहीं थी. पल्लवी ने जो कहा था उसे नकारा नहीं जा सकता था. कुलदीप साफ कह चुका था कि

उसे घरेलू नहीं कैरियर माइंडेड बीवी चाहिए. महज शादी के कारण वह कैरियर बरबाद करे

यह तो उसे स्वीकार नहीं होगा और उस का

शादी स्थगित कर के अमेरिका जाना न उस के अपने परिवार को न ससुराल वालों को मंजूर होगा. दोनों परिवार ही हौल बगैरा बुक करने के लिए काफी अग्रिम पैसा दे चुके हैं और तैयारियां भी जोरों पर हैं. क्या करें? जब वह पर पहुंची तो अमिता और जगदीश तो बाहर गए हुए थे, निखिल अपने कमरे में पढ़ रहा था. नमिता ने उसे सब बताया.

‘‘पल्लवी मैडम को आप की पर्सनल लाइफ से ज्यादा आप के काम की परवाह है और उन के अनुसार कुलदीप को भी आप से ज्यादा आप की नौकरी पसंद है यानी आप की खुशी या भावनाओं की किसी को कद्र या फिक्र नहीं है,’’ निखिल कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘तो फिर आप को क्या जरूरत है ऐसे हृदयहीन लोगों के साथ अपनी जिंदगी खराब करने की दीदी? छोड़ दीजिए नौकरी और अगर कुलदीप इस से नाराज हो कर रिश्ता तोड़ता है तो तोड़ने दीजिए. आज नहीं तो कल दूसरी नौकरी मिल जाएगी और शादी के लिए दूसरा घरवर भी.’’

नमिता ने पूछना चाहा कि क्या यह गारंटी होगी कि दूसरी बार उस की

भावनाओं को वरीयता मिल जाएगी, कहीं वह

इस व्यक्तिगत अहं के चक्कर में ‘एकला चलो रे’ की राह पर तो नहीं चल पड़ेगी? रेणु दीदी के शब्द याद कर के वह सिहर उठी. मम्मीपापा

और सासससुर को तो उस के अमेरिका न जाने और नौकरी छोड़ने के फैसले पर एतराज नहीं होगा, एतराज होगा तो केवल कुलदीप को तो क्यों न पहले उस से बात की जाए. अत: उस ने कुलदीप को फोन पर सब बता कर मिलने को कहा.

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‘‘शादी तो स्थगित नहीं करवा सकता,’’ कुलदीप ने साफ कहा, ‘‘न ही तुम से यह कहूंगा कि शादी के लिए नौकरी छोड़ दो या नौकरी के लिए शादी और फिर अपने फैसले पर उम्रभर पछताती रहो क्योंकि जिंदगी में हमेशा सबकुछ तो अपनी मनमरजी का होता नहीं और तब यह खयाल कि उस समय वैसा न किया होता तो ऐसा नहीं होता, हालात को और भी असहनीय बना देता है.’’

‘‘तो फिर मैं करूं क्या?’’ नमिता ने असहाय भाव से पूछा.

‘‘शादी कर के मुझे अपने साथ अमेरिका

ले चलो. हनीमून के लिए कहीं तो जाना ही है

सो अमेरिका सही. तुम अपना काम करना मैं अपने बिजनैस संबंधी काम कर लूंगा. जब तक यहां की फैक्टरी से दूर रह सकूंगा रह लूंगा, फिर लौट आऊंगा और तुम्हारे लौटने की इंतजार करूंगा.’’

‘‘उस में समय लगेगा, शादी के तुरंत बाद ऐसे अलग होना मुनासिब होगा?’’

‘‘हां, अगर हम परिस्थितियों और समय सीमा को ध्यान में रखें तो तुम्हें पहले स्वयं को एक समय सीमा देनी होगी कि तुम कितने दिनों में क्या कर सकती हो और फिर वह समय सीमा तुम्हें अपनी कंपनी को बताती होगी कि तुम इतने दिनों में यह काम कर दोगी और यह काम करने के बाद वहां नहीं रुकोगी.

‘‘इस के साथ ही हमें इस दौरान पैसे का मोह छोड़ना होगा, जब मुझे फुरसत होगी मैं

कुछ दिनों के लिए तुम्हारे पास आ जाऊंगा, तुम्हें मौका लगे तुम आ जाना अपने खर्चे पर. यह सम?ौते का युग है नमिता,’’ कुलदीप ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘परिस्थितियों को समझ कर उन के साथ तालमेल बैठाने का, व्यक्तिगत अहं या मान्यताओं को वरीयता देने का नहीं. समय

की सीमा को समझे तो समय हमेशा तुम्हारे अनुकूल चलेगा.’’

‘‘आप का कहना बिलकुल ठीक है,’’ नमिता के स्वर में सराहना थी और शंका भी, ‘‘लेकिन और सब भी इस से सहमत होंगे?’’

‘‘और सब से अगर तुम्हारा मतलब परिवार और औफिस वालों से है तो दोनों परिवारों को तो मैं संभाल लूंगा और तुम्हारा पति अगर अपने खर्च पर तुम्हारे साथ जा रहा  है तो औफिस वालों की तरफ से भी कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, यह समाधान पल्लवी मैडम को बता दो. उन की प्रतिक्रिया जानने के बाद आगे की सोचेंगे,’’ कह कर कुलदीप उठ खड़ा हुआ, ‘‘फैक्टरी में काम बीच में छोड़ कर आया हूं.’’

पल्लवी ने उस की बात बड़े ध्यान से सुनी.

‘‘औफिस में इस से पहले ऐसा कुछ हुआ नहीं है सो इस के लिए कोई प्रावधान तो है नहीं और इस पर मैनेजमैंट की क्या प्रतिक्रिया होगी यह मैं नहीं जानती, लेकिन कुलदीप ने जो सुझया है उस की मैं सराहना करती हूं और उस से पूर्णतया सहमत भी हूं,’’ पल्लवी बोली, ‘‘मैं तुम्हें आश्वासन देती हूं कि मैं भरसक तुम्हारा साथ दूंगी. सब को समझऊंगी कि कुलदीप जैसे सुलझे हुए जीवनसाथी को नौकरी के लिए नकारना तुम्हारी बेवकूफी होगी और तुम्हारे ऐसा न करने पर कंपनी का तुम्हें नकारना, कंपनी का तुम्हारे प्रति अन्याय होगा. तुम्हें चांस तो मिलना ही चाहिए.’’

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पल्लवी के प्रयास से नमिता को पहली जून के बजाय 1 सप्ताह बाद

पति के साथ आने की इजाजत मिल गई, लेकिन यह बौंड भरने के बाद कि न्यूयौर्क औफिस को सुचारु रूप से संचालित करने से पहले वह छुट्टी नहीं लेगी और भारत लौटने के बाद भी एक निश्चित अवधि तक कंपनी में काम करेगी.

‘‘नौकरी तो करनी है ही नमिता, सो बौंड भर दो लेकिन एक शर्त के साथ कि भारत

लौटने पर तुम्हें मैटरनिटी लीव लेने का अधिकार होगा,’’ कुलदीप ने कहा, ‘‘जब शादी होगी तो बच्चे भी होंगे ही और उन्हें भी सही समय पर होना चाहिए.’’

नमिता ने यह शर्त पल्लवी को बताई.

‘‘मैटरनिटी लीव तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है नमिता,’’ पल्लवी हंसी, ‘‘उस के मिलने में कोई परेशानी नहीं होगी. बस इस अधिकार का दुरुपयोग अमेरिका प्रवास के दौरान मत करना.’’

दोनों परिवारों में नमिता और कुलदीप के फैसले को ले कर चखचख तो बहुत हुई, लेकिन कुलदीप के इस तर्क को कि जो कुछ भी समय की मांग और समय सीमा को ध्यान में रख कर किया जाए वह गलत नहीं होगा, कोई काट

नहीं सका.

अब 5 साल बाद दोनों परिवार अपने

तब तक फैसले  से बहुत संतुष्ट हैं. नमिता कोविड के पहले भारत मैटरनिटी लीव पर

आई थी और उन लौकडाउन के दिनों में वह लगातार औनलाइन वर्क फ्रौम होम करती रही. कुछ को तो पता भी न चला कि वह भारत में है या न्यूयौर्क में.

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समय सीमा: भाग 1- क्या हुआ था नमिता के साथ

‘‘नमिता,मैं अपनी कंपनी के उत्पादनों के लिए अमेरिका के बाजार में संभावनाएं तलाश करने जा रही हूं और तुम्हें मेरे साथ चलना है,’’ बिक्री निर्देशक पल्लवी ने कहा, ‘‘परेशानी बस इतनी है कि जिन शहरों में हम जाएंगे वहां मेरे

तो अपने रहते हैं और मैं उन्हीं के साथ रहूंगी, तुम्हारा प्रबंध होटल में करवा दूंगी. अकेले रह लोगी न?’’

यह बात 2016 की थी.

‘‘उस की जरूरत नहीं पड़ेगी मैडम,’’ नमिता ने जहां जाना था उन शहरों की लिस्ट पढ़ते हुए कहा, ‘‘संयोग से इन सभी जगहों पर मेरे भी करीबी लोग हैं जो अकसर मुझे बुलाते रहते हैं तो मैं भी उन के साथ रह लूंगी.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा है, वैसे आजकल शायद ही कोई ऐसा मिले जिस का अमेरिका में कोई अपना न हो,’’ पल्लवी हंसी.

अमेरिका की यात्रा व्यावसायिक दृष्टिकोण से अपेक्षा से अधिक लाभदायक रही सो पल्लवी और नमिता बहुत खुश थीं.

‘‘आप को नहीं लगता मैडम कि हमारा न्यूयौर्क में स्थाई औफिस होना चाहिए?’’ वापसी की उड़ान के दौरान नमिता ने पूछा.

‘‘होना तो चाहिए मगर भारत से यहां स्थाई सीनियर मैनेजर और स्टाफ भेजना बहुत महंगा पड़ेगा,’’ पल्लवी ने कहा.

‘‘स्थाई स्टाफ भेजने की क्या जरूरत है, मैडम? कुछ अरसे के लिए एक सीनियर मैनेजर को 2-3 सहायकों के साथ लोकल लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए भेज दीजिए.’’

‘‘बढि़या सुझव है, नमिता,’’ पल्लवी मुसकराई, ‘‘ऐसे ही सोचती रहो. जिंदगी में बहुत आगे बढ़ोगी. अमेरिका प्रवास कैसा रहा?’’

‘‘उम्मीद से ज्यादा अच्छा. जानपहचान वालों के साथ रहने से घूमने में बहुम मजा आया. आप का कैसा रहा, मैडम?’’

‘‘व्यावसायिक सफलता, सब से मिलने और उन के साथ घूमने तक तो बढि़या ही रहा, मगर मैं बराबर बच्चों और उन के पापा को मिस करती थी,’’ पल्लवी ने उसांस ले कर कहा, ‘‘सो मजा नहीं उठा सकी यानी व्यक्तिगतरूप से अच्छा नहीं रहा.’’

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नमिता ने कहना चाहा कि उस का तो व्यक्तिगतरूप से बहुत अच्छा रहा. भविष्य के जिस अनदेखे लेकिन अनिवार्य पहलू के बारे में उस ने कभी सोचने की जरूरत ही नहीं समझ थी, उस से रेणु दीदी ने उसे अनजाने में अवगत करा कर उस के प्रति जागरूक कर दिया.

रेणु दीदी उस से कई वर्र्ष बड़ी चचेरी बहन थीं. वह स्कूल में थी तभी रेणु दीदी अमेरिका चली गई थीं और उन की उपलब्धियों की कहानियां सुनने को मिलने लगी थीं. चाचाचाची उन के लिए आए दिन आने वाले शादी के प्रस्तावों से परेशान हो गए थे, लेकिन रेणु दीदी फिलहाल न तो शादी के लिए तैयार थीं न घर आने को.

चाची के बहुत कहने पर कि वह उन्हें देखने को तड़प रही हैं, रेणु दीदी ने उन के और चाचा के लिए टिकट भेज दिए थे.

अगले साल छोटी बहन कनु और भाई रवि को बुला लिया था. कनु को वहीं पड़ोस में रहने वाले एक इंजीनियर ने पसंद कर लिया और रवि के लिए अगले सत्र में एमबीए में प्रवेश की व्यवस्था हो गई. बच्चे के वहां जाने के बाद धीरेधीरे चाचाचाची भी भारत से उखड़ कर वहीं चले गए. परिवार के आ जाने से रेणु दीदी और भी लग्न से काम करने लगीं. आज वह अग्रणी और मशहूर सौफ्टवेयर कंपनी में प्रैसिडैंट थी. सुसज्जित बंगला, बड़ी गाड़ी और अमेरिका की दुर्लभ सुविधा नौकरानी उन के पास थी. कनु और रवि के अपने घर थे. चाचाचाची अधिकतर उन के पास रहते थे.

‘‘काम से थक कर आने पर आप के घर में बहुत सुकून और शांति मिलती है, दीदी,’’ नमिता ने कहा.

‘‘कुछ रोज को, उस के बाद सन्नाटा काटने लगता है.’’

‘‘ऐसा क्या?’’

‘‘हां नमिता, निरर्थक लगने लगता है यह सब तामझम… अकेले कितना आनंद लो इस सब का. कभी अपने लगने वाले दूसरे सब अपनी अलग दुनिया बसाने के बाद उस में मस्त हो

जाते हैं. उन्हें आने की फुरसत ही नहीं रहती. यदाकदा आप का स्वागत जरूरत है उन की दुनिया में जिस की रौनक अब आप को अधिक रास नहीं आती,’’ रेणु ने उमांस ले कर कहा, ‘‘जीवन में कुछ भी करने की एक समय सीमा होती है. अगर आप ने उसे नकार दिया तो बस जीवनभर ‘एकला चलो रे’ ही अलापना पड़ता है जो आसान नहीं है. अगर आप में योग्यता और क्षमता है तो जब भी मौका लगेगा आप को आप का लक्ष्य तो मिल ही जाएगा, लेकिन किसी का सान्निध्य जब चाहो तब मिल जाएगा, ऐसा सोचना महज एक खुशफहमी है.’’

रेणु दीदी ने बगैर उस से उस की भविष्य की योजना पूछे या प्रवचन दिए बहुत कुछ समझ दिया था जिसे नकारना मुश्किल था. उस ने सोचा कि अब जब कभी मां इस विषय में बात करेंगी तो वह हमेशा की तरह मना नहीं करेगी. अमेरिका से लौटने के कुछ रोज बाद ही पापा के दोस्त खुशालचंद अपने किसी रिश्तेदार का रिश्ता ले कर आ गए उस के लिए.

‘‘कुलदीप की अपनी ग्लास फैक्टरी है, बहुत अच्छी चल रही है. वह शादी करना चाह रहा है, लेकिन उसे लड़की बढि़या नौकरी

वाली चाहिए…’’

‘‘वह क्यों चाचाजी?’’ नमिता के छोटे भाई निखिल ने बात काटी.

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‘‘दूरदर्शिता,’’ खुशालचंद बोले, ‘‘कुलदीप का कहना है कि बिजनैस कभी भी डुबकी मार सकता है सो सिर को पानी से ऊपर रखने के लिए सैकंड लाइन औफ डिफैंस यानी स्थाई कमाई का जरीया होना जरूरी है और प्रोफैशनली क्वालीफाइड लड़की से शादी इस समस्या का स्थाई हल है. मुझे लगा कि यह कुलदीप की

ही नहीं तुम लोगों की समस्या का भी स्थाई हल हो सकता है क्योंकि नमिता भी तो इसीलिए

शादी नहीं कर रही कि वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ना चाहती और कुलदीप छुड़वाएगा नहीं.

मेरे खयाल में जगदीश, तुम लोग एक बार इस लड़के से मिल तो लो. आप क्या कहती हैं अमिता भाभी?’’

‘‘मैं ने क्या कहना है भाईर् साहब, होगा तो वही जो नमिता कहेगीं,’’ अमिता बोली.

‘‘नमिता यहीं बैठी सब सुन रही है. बता बेटी क्या करें?’’ जगदीश ने पूछा.

‘‘जैसा आप ठीक समझें,’’ नमिता ने सिर झका कर कहा.

‘‘मैं उन लोगों से मिलने का समय तय

कर के तुम्हें बताऊंगा,’’ कह कर खुशालचंद

चले गए.

‘‘आप ने ऐसे कैसे हां कर दी, दीदी?’’ निखिल ने मौका लगते ही पूछा, ‘‘साफ जाहिर है कि या तो लड़के में आत्मविश्वास की कमी है या फिर वह बीवी की कमाई खाने वाला है. आप ऐसे आदमी से मिल कर क्यों अपना समय व्यर्थ कर रही हैं?’’

‘‘खुशालचंदजी के सामने जब यह सब कहने की तेरी ही हिम्मत नहीं हुई तो मेरी कैसे होती?’’ नमिता ने टालने के स्वर में कहा.

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सही वसीयत: भाग 3- हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

हरीश बाबू लेटेलेटे सोचने लगे, अच्छा होता अगर वे अनाथालय से कोई बच्चा गोद ले लेते. कम से कम एक बच्चे का तो जीवन सुधर जाता. करीबी संबंधी को गोद ले कर उन्हें क्या मिला? सुमंत तब तक उन का दुलारा रहा जब तक उसे उन की जरूरत थी. जैसे ही अपने पैरों पर खड़ा हुआ, अपने मांबाप का हो गया. आज की तारीख में उस को मेरी जरूरत नहीं. तभी तो बेगानों जैसा व्यवहार करने लगा. सोचतेसोचते कब उन की आंख लग गई, उन्हें पता ही न चला. अगली सुबह एक ठोस नतीजे के साथ फोन कर के उन्होंने अपने वकील को बुलाया.

‘‘क्या गोदनामा बदल सकता है?’’ एकाएक उन के फैसले से वकील को भी आश्चर्य हुआ.

‘‘यह तो नहीं हो सकता? पर आप ऐसा चाहते क्यों है?’’ वकील ने प्रश्न किया. हरीश बाबू ने सारा वाकेआ बयां कर दिया.

‘‘आप ही बताइए सुमंत को मैं ने अपना बेटा माना, बदले में उस ने मुझे क्या समझा. वह अच्छी तरह जानता है कि मैं ने उस के लिए क्याकुछ नहीं किया. तिस पर उस ने मेरी उपेक्षा की. क्यों? या तो उसे मेरी अब जरूरत नहीं या फिर वह यह सोच कर बैठा है कि भावनात्मक रूप से जुड़े होने के नाते मैं उस के खिलाफ कोई ऐक्शन नहीं लूंगा?’’

कुछ सोच कर वकील बोला, ‘‘आप चाहेंगे तो वसीयत बदल  सकते हैं और सुमंत को कुछ भी न दें.’’

‘‘आप वसीयत बदल दीजिए, ताकि उसे सबक मिले. इस तरह मुझे भी अपनी गलती सुधारने का मौका मिलेगा.’’

वकील ने वही किया जो हरीश बाबू चाहते थे. यानी वसीयत बदलवा दी. यह खबर किसी को कानोंकान न लगी. नटवर जब भी आता, यही रट लगाता कि आप गोदनामा बदल दें. मैं आप का सगा भाई हूं, जब तक जीवित रहूंगा, आप की सेवा करता रहूंगा. आप की संपत्ति गैर को मिले, यह बड़े शर्म की बात होगी. हरीश बाबू उस का मन टटोलने की नीयत से बोले, ‘‘क्या तुम लालच में मेरी सेवा करोगे?’’

‘‘नहीं भैया, ऐसी बात नहीं है,’’ नटवर सकपकाया.

‘‘मैं सिर्फ आप को राय दे रहा हूं. खुदगर्ज को देने से क्या फायदा? सुधीर को दे कर आप ने देख लिया.’’

‘‘तुम मुझे खून के रिश्ते का वास्ता दे रहे हो. मान लिया जाए कि मैं तुम्हें फूटी कौड़ी भी न दूं तो भी क्या तुम मेरी ऐसी ही देखभाल करते रहोगे?’’ नटवर ने बेमन से हामी भर तो दी मगर हरीश बाबू उसे अच्छी तरह से जानते थे कि उस के मन में क्या है?

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एक रोज हरीश बाबू अकेले पैंशन ले कर लौट रहे थे. रिकशे से गिर पड़े. टांग की हड्डी टूट गई. किसी तरह कुछ हमदर्द लोगों की मदद से अस्पताल ले जाए गए. जहां उन के प्लास्टर लगा. एक महीने से ज्यादा तक वे किसी काम के नहीं रहे. सुधीर को खबर दी तो भी वह नहीं आया, ‘सुमंत को दिक्कत होगी,’ बहाना बना दिया. सुमंत तो कहीं भी खापी सकता था. पर वे कैसे रहेंगे, वह भी इस हालत में? उस ने यह नहीं सोचा. नौकरानी ही उन्हें डंडे के सहारे उठातीबैठाती, उन की देखभाल करती व खाना बना कर देती. बुढ़ापे का शरीर एक बार झटका तो उबर न सका. एक सुबह खुदगर्ज दुनिया में उन्होंने अंतिम सांस ली. उस समय उन के पास कोई नहीं था.

मौत की खबर लगी तो नटवर भी भागेभागे आया. उस समय सगे में वही था. हरीश बाबू का एक और साला किशन भी आ चुका था. नटवर भाई का क्रियाकर्म करने का इंतजाम करने लगा. उसे ऐसा करते देख किशन बोला, ‘‘आप को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं. उन का दत्तक पुत्र सुमंत बेंगलुरु से चल चुका है.’’

‘‘बेटा, कैसा बेटा, उन के कोई औलाद नहीं थी,’’ नटवर बोला.

‘‘आप अच्छी तरह जानते हैं कि उन्होंने सुमंत को गोद लिया था. कानूनन वही उन का बेटा है,’’ किशन को क्रोध आया.

‘‘मैं किसी सुमंत को नहीं जानता. मैं उन का क्रियाकर्म करूंगा क्योंकि वे मेरे सगे भाई थे. उन पर हमारा हक है. इस से हमें कोई नहीं रोक सकता,’’ नटवर हरीश बाबू के शरीर पर से कपड़ा हटाने लगा.

‘‘रुक जाइए,’’ किशन बिगड़ा, ‘‘अपनी हद में रहिए वरना मुझे पुलिस बुलानी पड़ेगी.’’

‘‘पुलिस, वह क्या करेगी? हम ने इन की हत्या तो की नहीं, जो लाश चोरी से जलाने जा रहे रहे हैं. भाई का क्रियाकर्म भाई नहीं करेगा, तो कौन करेगा?’’ नटवर ने भी उसी अंदाज में जवाब दिया. जब नटवर नहीं माना तो किशन ने थाने में जा कर शिकायत की. पुलिस मामले की तहकीकात में जुट गई.

‘‘उन का कोई बेटा नहीं था,’’ नटवर बोला.

‘‘क्या यह सच है?’’ थानेदार ने किशन से पूछा.

‘‘हां, पर उन्होंने अपने साले के बेटे सुमंत को बाकायदा गोद लिया था. गोदनामा न्यायालय में रजिस्टर्ड है.’’

‘‘क्या आप मुझे वे कागजात दिखा सकते हैं?’’

‘‘क्यों नहीं? परंतु आप को 1-2 दिन इंतजार करना होगा. कागज उन्हीं के पास हैं.’’ थानेदार को किशन की बात में सचाई नजर आई. लाश का क्रियाकर्म उन के आने तक रुक गया.

प्लेन से आने में सुधीर, सुनीता व सुमंत को ज्यादा समय नहीं लगा. नटवर तो जानता ही था कि हरीश बाबू ने सुमंत को गोद लिया था. मगर जिस तरह से उस ने जल्दबाजी की वह सब की समझ से परे था. अंतिम संस्कार करने के बाद जब सब लौटे तो सुनीता हरीश बाबू के फोटो के सामने टेसुए बहाते हुए बोली, ‘‘कितना तो कहा, बेंगलुरु चलिए पर नहीं गए. कहने लगे इस शहर से न जाने कितनी यादें जुड़ी हैं. बेगाने शहर में एक पल जी नहीं सकूंगा.’’

तेरहवीं के बाद सुधीर वकील के पास गया. वह मकान पर जल्द से जल्द सुमंत का नाम चढ़वा देना चाहता था ताकि भविष्य में मकान बेच कर अच्छी रकम प्राप्त की जा सके.

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‘‘वसीयत में सुमंत के नाम कुछ नहीं है,’’ वकील बोला.

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं. गोदनामा तो बाकायदा रजिस्टर्ड है,’’ सुधीर को पैरों तले जमीन सिखकती नजर आई.

‘‘हरीश बाबू अपने जीतेजी अपनी संपत्ति के बारे में कुछ भी कर सकते थे,’’ वकील ने कहा.

‘‘मैं नहीं मान सकता. जरूर उन की मानसिक दशा ठीक नहीं होगी. किसी ने उन्हें बरगलाया है,’’ सुधीर की त्योरियां चढ़ गईं.

‘‘आप जो समझें.’’

‘‘फिर यह मकान किस का होगा?’’ सुधीर ने सवाल किया.

‘‘उन के भाई के बेटों का,’’ वकील कुछ छिपा रहा था जो सुधीर समझ न सका. नटवर को पता चला कि हरीश बाबू ने वसीयत में उस का नाम लिखा है तो मकान पर अपना मालिकाना हक जमाने चला आया.

‘‘मैं मकान खाली नहीं करूंगा. वे मेरे पिता थे,’’ सुमंत तैश में बोला.

‘‘करना तो पड़ेगा ही, क्योंकि वसीयत में तुम्हारा हक रद्द हो चुका है. सुना नहीं वकील ने क्या कहा,’’ नटवर ने कहा कि अब यह मकान मेरे बेटों का होगा. जाहिर सी बात है कि मुझ से ज्यादा करीबी कौन होगा? नटवर के चेहरे पर विजय की मुसकान बिखर गई.

‘‘अगर ऐसा है तो मैं इसे अदालत में चुनौती दूंगा. उन्होंने यह सब अपने मन से नहीं किया होगा,’’ सुमंत के तर्क को नटवर ने नहीं माना.

‘‘क्या इस वसीयत को अदालत में चुनौती दी जा सकती है?’’ सुधीर ने वकील से पूछा.

‘‘क्या सिद्ध करना चाहेंगे?’’

‘‘यही कि उन की मानसिक दशा ठीक नहीं थी. लिहाजा, यह वसीयत गैरकानूनी है.’’

उन की नई वसीयत में बाकायदा 2 प्रतिष्ठित लोगों के हस्ताक्षर हैं जिस पर साफसाफ लिखा है कि मैं पूरे होशोहवास में अपनी वसीयत बदल रहा हूं.

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सुधीर हताश था. वकील के चेहरे पर स्मित की हलकी रेखा खिंच गई. अब क्या किया जा सकता है? सुधीर इस उधेड़बुन में था. वह भारी कदमों से वकील के चैंबर से अपने घर जाने के लिए निकला ही था तभी वकील ने कहा, ‘‘जनाब, आप ने क्या सोचा था कि बिना जिम्मेदारी निभाए करोड़ों की संपत्ति पर कब्जा कर लेंगे?’’

‘‘इसी बात का अफसोस है.’’

‘‘अब अफसोस करने से क्या फायदा. वैसे, हरीश बाबू ने एक ट्रस्ट बना दिया है. न सुमंत को दिया है न भाई के बेटों को. उन्होंने इस मकान को गरीबों की शिक्षा के लिए स्कूल बनवाने के लिए दे दिया है,’’ वकील के कथन पर सुधीर का चेहरा देखने लायक था.

सुनीता ने सुना तो लगा वह बेहोश हो जाएगी. उसे विश्वास था कि किन्हीं भी परिस्थितियों में हरीश बाबू गोदनामा नहीं बदलेंगे, इसलिए वह उन के प्रति लापरवाह हो गई थी. उसी का फल उसे अब मिला. अब सिवा पछताने के, उन के पास कुछ नहीं रहा. हरीश बाबू ने सही वसीयत कर के लालची बिलौटों को सही जवाब दे दिया था.

सही वसीयत: भाग 1- हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

हरीश बाबू और उन की पत्नी सावित्री सरकारी मुलाजिम थे. रुपए पैसों की कोई कमी नहीं थी, मगर निसंतान होने की कसक दोनों को हमेशा रहती. हरीश बाबू का साला सुधीर उन के करीब ही किराए के मकान में रहता था. उस की माली हालत ठीक न थी. उस का 4 वर्षीय बेटा सुमंत हरीश बाबू से घुलामिला था. एक तरह से दोनों की जिंदगी में निसंतान न होने के चलते जो शून्यता थी वह काफी हद तक सुमंत से भर जाती. हरीश बाबू अकसर सुमंत को अपने घर ले आते. कंधे पर बिठा कर बाजार ले जाते. उस की हर फरमाइश पूरी करते. उस की हर खुशी में वे अपनी खुशी तलाशते. सावित्री भी सुमंत के बगैर एक पल न रह पाती. दोनों सुमंत की थका देने वाली धमाचौकड़ी पर जरा भी उफ न करते. वहीं सुधीर व सुनीता, उस की बेजा हरकतों के लिए उसे डांटते, ‘‘जाओ फूफाजी के पास. वही तुम्हारी शैतानी बरदाश्त करेंगे.’’ एक दिन सुनीता सुमंत पर चिल्ला रही थी कि तभी हरीश बाबू उन के घर में घुसे. उन्हें देख कर सुमंत लपक कर उन की गोद में चढ़ गया.

‘‘बच्चे को डांट क्यों रही हो?’’ हरीश बाबू रोष से बोले.

‘‘आप के लाड़प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है. हर समय कोई न कोई फरमाइश करता रहता है. आप तो जानते हैं कि हमारी आर्थिक स्थिति क्या है. उस की जरूरतों को पूरा करना हमारे वश में नहीं है,’’ सुधीर का भी मूड खराब था. उस रोज हरीश बाबू निराश घर आए. सावित्री से कहा, ‘‘अब वे सुमंत को नहीं लाएंगे.’’

‘‘क्यों, कुछ हो गया,’’ सावित्री आशंकित स्वर में बोली.

‘‘सुधीर को बुरा लगता है.’’

‘‘वह क्यों बुरा मानेगा? आप ही को कोई गलतफहमी हुई है. वह मेरा भाई है. मैं उसे अच्छी तरह से जानती हूं,’’ हंस कर सावित्री ने टाला.

2 दिन सुमंत नहीं आया. दोनों बेचैन हो उठे. उन का किसी काम में मन नहीं लग रहा था. बारबार ध्यान सुमंत पर चला जाता. हरीश बाबू से कहते नहीं बन रहा था, गैर के बेटे पर क्या हक? सावित्री, हरीश बाबू का मुंह देख रही थी. वह उन की पहल का इंतजार कर रही थी. जब उसे लगा कि वे संकोच कर रहे हैं तो उठी, ‘‘मैं सुधीर के घर जा रही हूं.’’

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‘‘जाने की कोई जरूरत नहीं,’’ उन्होंने रोका.

‘‘आप भी बच्चों की तरह रूठ जाते हैं. वह मेरा भाई है. आप न जाएं, मैं तो जा सकती हूं,’’ कह कर वह निकलने लगी.

‘‘सुमंत को लाने की कोई जरूरत नहीं,’’ हरीश बाबू ने बेमन से कहा. पर सावित्री ने उन के भीतर छिपे भावों को पढ़ लिया. वह मंदमंद मुसकराने लगी.

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’ सावित्री ने रुक कर पूछा तो हरीश बाबू नजरें चुराने लगे. तभी फाटक पर किसी की आहट हुई. सुमंत, सुधीर की उंगली पकड़ कर अंदर घुसा. जैसे ही उस की नजर हरीश बाबू पर पड़ी, उंगली छुड़ा कर तेजी से भागा. हरीश बाबू उस की बोली सुनते ही भावविभोर हो गए. झट से उठ कर उसे गोद में उठा लिया.

‘‘आप के पास आने की जिद कर रहा था. रोरो कर इस का बुरा हाल था,’’ सुधीर थोड़ा नाराज था.

‘‘तो भेज देता. बच्चों को कोई बांध सकता है,’’ सावित्री रुष्ट स्वर में बोली. सुधीर बिना कोई प्रतिक्रिया जताए चला गया. हरीश बाबू, सुमंत के साथ 2 दिनों की कसर निकालने लगे. खूब मौजमस्ती की दोनों ने. हरीश बाबू ने उस के लिए बाजार से बड़ी मोटर खरीदी. सावित्री ने उसे अपने हाथों से खाना खिलाया. आइसक्रीम की जिद की तो वह भी दिलवाई. थक गया तो अपने सीने से लगा कर थपकी दे कर सुलाया. शाम को सुनीता आई. तब वह अपने घर गया. वह तब भी नहीं जा रहा था, कहने लगा, ‘‘मम्मी, तुम भी यहीं रहो.’’ लेकिन सुनीता किसी तरह से उसे पुचकार कर घर ले गई.

उस के जाते ही फिर वही उदासी, अकेलापन. हरीश बाबू और सावित्री के पास करने को कुछ था नहीं. साफसफाई का काम नौकरानी कर जाती. सिर्फ खाना बनाना भर रह जाता. हरीश बाबू का काम ऐसा था कि वे बहुत कम औफिस जाते. वहीं सावित्री के स्कूल की 2 बजे तक छुट्टी हो जाती. उस के बाद शुरू होती सुमंत की तलब. सुमंत आता, तो घर में चहलपहल हो जाती.

एक दिन हरीश बाबू सावित्री से बोले, ‘‘सावित्री, बुढ़ापे के लिए कुछ सोचा है. 15 साल बाद हम रिटायर हो जाएंगे. फिर कैसे कटेगी बिना औलाद के जिंदगी? अकेला घर काटने को दौड़ेगा?’’

‘‘तब की तब देखी जाएगी. उस के लिए अभी से क्या सोचना?’’ सावित्री ने टालने के अंदाज में कहा.

हरीश बाबू कुछ सोचने लगे. क्षणिक विचारप्रक्रिया से उबरने के बाद बोले, ‘‘क्यों न हम सुमंत को गोद ले लें?’’

‘‘खयाल तो अच्छा है, पर सुधीर तैयार होगा?’’ सावित्री बोली.

‘‘उसे तुम तैयार करोगी,’’ कह कर हरीश बाबू चुप हो गए. सावित्री ने अनुभव किया कि वे कुछ और कहना चाह रहे थे, पर संकोचवश कह नहीं रहे थे. सावित्री ने ही पहल की, ‘‘आप कुछ और कहना चाह रहे थे?’’

‘‘तुम्हें एतराज न हो तो?’’ हरीश बाबू बोले.

‘‘कह कर तो देखिए, हो सकता है न हो,’’ सावित्री मुसकुराई.

‘‘क्यों न सुधीर सपरिवार यहीं आ कर रहे. इतना बड़ा घर है. सब मिलजुल कर रहेंगे तो अकेलापन खलेगा नहीं.’’ हरीश बाबू का प्रस्ताव सावित्री को जंच गया. वैसे भी सुमंत को गोद लेने पर मकान उन्हीं लोगों का होगा. रुपयापैसा क्या कोई अपने साथ ले कर जाएगा. एक दिन मौका पा कर सावित्री ने सुधीर से अपने मन की बात कही. सुधीर तो यही चाहता था. इसी बहाने उसे रहने का स्थायी ठौर मिल जाएगा. साथ में दोनों का लाखों का बैंकबैलेंस. थोड़ी नानुकुर के बाद सुधीर सपरिवार आ कर रहने लगा. घर की रौनक बढ़ गई. घर संभालने का काम सुनीता के कंधों पर आ गया. हरीश बाबू, सावित्री नौकरी पर चले जाते तो सुनीता ही घर का सारा काम निबटाती. उन्हें समय पर खानापीना मिल जाता, साथ में मन बहलाने के लिए सुमंत की घमाचौकड़ी.

हरीश बाबू ने सुमंत की हर जरूरतें पूरी कीं. शहर के अच्छे स्कूल में नाम लिखवाया. जिस चीज की जिद करता, चाहे कितनी ही महंगी हो, अवश्य दिलवाते.

सुधीर के रहते हुए 6 महीने से ज्यादा हो गए. एक रात हरीश बाबू और सावित्री ने फैसला लिया कि जो काम कल करना है उसे अभी करने में क्या हर्ज है.

लिहाजा, आपसी सलाह से सुमंत को गोद लेने के फैसले को एक दिन दोनों ने मूर्तरूप दे दिया. गोदनामे की एक शानदार पार्टी दी. पार्टी में उन्होंने अपने सारे रिश्तेदारों और दोस्तों को बुलाया. उन का सगा भाई नटवर भी आया. वह हरीश बाबू के इस गोदनामे से खुश नहीं था. सो, अपनी नाखुशी जाहिर करने में उस ने कोई कसर नहीं छोड़ी. हरीश बाबू शुरू से अपनी पत्नी की ही करते आए.

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इस की सब से बड़ी वजह थी ससुराल के बगल में उन का स्थायी मकान का होना. नटवर का दोष यह था कि वह एक नंबर का धूर्त और चालबाज था. इसी वजह से हरीश बाबू उस को पसंद नहीं करते थे. उस रोज वह बिना खाएपिए चला गया. लोगों की नाराजगी से बेखबर हरीश बाबू अपने में खोए रहे.

गोदनामे के बाद जब सुधीर, हरीश बाबू के बल पर आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो गया तो अपने कामधंधे से लापरवाह हो गया. आलसी वह शुरू से था. फिर जब बिना मेहनत के मिले तो कोई क्यों हाथपांव मारे. वैसे भी व्यापार में अनिश्चितता बनी रहती है.

कुछ महीनों बाद सुधीर दुकान बंद कर के घर पर ही रहने लगा. हरीश बाबू चुप रहते मगर सावित्री बहन होने के नाते सुधीर को डांटडपट देती. धीरेधीरे हरीश बाबू को भी उस की बेकारी खलने लगी. वे भी मुखर होने लगे. इन्हीं सब वजहों से महीने में एकाध बार दोनों में तूतूमैंमैं हो जाती. एक दिन अचानक सावित्री को ब्रेन हैमरेज हो गया. 2 दिन कोमा में रहने के बाद वह चल बसी. हरीश बाबू का दिल टूट गया. वे गहरी वेदना में डूब गए. उस समय सुमंत न होता, तो निश्चय ही वे जीने की आस छोड़ देते.

सुमंत हाईस्कूल में पहुंच गया तो मोटरसाइकिल की जिद करने लगा. हरीश बाबू ने उसे तुरंत मोटरसाइकिल खरीदवा दी. घरगृहस्थी चलाने के लिए एकमुश्त रुपया वे सुधीर को दे देते. सुधीर उन पैसों में से अपने महीने का खर्च निकाल लेता. एक दिन हरीश बाबू ने पूछा, ‘‘जितना तुम्हें देते हैं, तुम सब खर्च कर देते हो, क्या कुछ बचता नहीं?’’

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