समय सीमा: भाग 2- क्या हुआ था नमिता के साथ

अब मनोविज्ञान में शोध कर रहे निखिल को क्या बताती कि अभी समय व्यर्थ न करने के नखरे कर के अब वह जीवन की सांध्य बेला व्यर्थ नहीं करेगी. कुलदीप का सारा परिवार ही उसे बहुत सुलझ हुआ लगा.

निखिल की यह शंका कि उस में आत्मविश्वास की कमी है या वह बीवी की कमाई खाने वाला है, कुलदीप ने यह कह कर निर्मूल सिद्ध कर दी, ‘‘मैरी फैक्टरी सुचारु रूप से चल रही है. अब मैं इस का और विस्तार करना चाहता हूं जिस के लिए मुझे इस में और अधिक समय लगाना पड़ेगा, लेकिन उस के लिए मैं ब्रह्मचारी बनना भी नहीं चाहता और न ही ऐसी पत्नी चाहता हूं जो फैक्टरी को अपनी सौत समझे यानी घरेलू बीवी जिस के लिए त्योहार, रिश्तेदार मेरे काम से ज्यादा जरूरी हों.

‘‘अपने कैरियर के प्रति समर्पित लड़की चाहता हूं जो स्वयं भी व्यस्त रहती हो, फुरसत के क्षणों की अहमियत समझ कर खुद भी उन्हें भरपूर जीए और मुझे भी जीने दे. शादी के

बाद लोग घरगृहस्थी के बारे में सोच कर

रिस्क लेने से डरते हैं, लेकिन कमातीधमाती धर्मपत्नी हो तो कुछ हद तक जोखिम उठाया जा सकता है.’’

इस के बाद कुछ कहनेसुनने को बचा ही नहीं और दोनों की शादी तय हो गई. कुलदीप का छोटा भाई अहमदाबाद में एमबीए के अंतिम वर्ष में था और परीक्षा में कुछ ही सप्ताह शेष थे सो कुलदीप का परिवार चाहता था कि सगाई, शादी उस के आने के बाद ही करें. नमिता के परिवार को तो तैयारी के लिए समय मिल रहा था. कुलदीप और नमिता टीवी देखने या कुछ पढ़ने में बिताती थी. अपनी मित्र मंडली तो थी ही, निखिल और दूसरे कजिन के साथ भी कोई न कोई प्रोग्राम बनता ही रहता था.

लेकिन कुलदीप से मिलने के बाद यह सब क्रियाक्लाप एकदम सतहहीन लगने लगे थे. रिश्ते दोस्ती सब अपनी जगह ठीक थे, लेकिन कुलदीप के साथ कुछ भी करना जैसे भविष्य की नींव डालना था, एक स्थाई रिश्ते का निर्माण जिस में उमंगों के साथ ऊष्मता भी थी और इंद्रधनुष के रंग भी. भविष्य के सपने तो वह पहले भी देखती थी, लेकिन उन में और कुलदीप के साथ देखे सपनों या उस के इर्दगिर्द बुने सपनों में बहुत फर्क था. शादी और सगाई से कुछ दिन पहले नमिता ने कुलदीप से पूछा कि कितने दिन की छुट्टी ले.

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‘‘जितने दिन की आसानी से मिले सके,’’ कुलदीप ने सहजता से कहा, ‘‘तमन्ना तो लंबे हनीमून की है, लेकिन उस के लिए तुम्हारा कैरियर दांव पर नहीं लगाना चाहूंगा.’’

नमिता अभिभूत हो गई, ‘‘मेरी बहुत छुट्टियां जमा हैं, मैं पल्लवी मैडम से बात करूंगी,’’ नमिता ने कहा, ‘‘वे बहुत सहृदता हैं सो स्वयं ही लंबी छुट्टी दे देंगी.’’

इस से पहले वह पल्लवी से बात करती, पल्लवी ने उसे मैनेजमैंट की मीटिंग में

आने के लिए कहा. मीटिंग में पल्लवी के ससुर कंपनी के चेयरमैन धर्मपाल, पल्लवी के जेठ मैनेजिंग डाइरैक्टर सतपाल और पल्लवी के पति डिप्टी मैनेजिंग डाइरैक्टर यशपा के अतिरिक्त अन्य वरिष्ठ अधिकारी भी थे जिन में अधिकांश परिवार के सदस्य ही थे.

‘‘बधाई हो नमिता, मैनेजमैंट को तुम्हारा न्यूयौर्क में औफिस खोलने का सुझव बहुत

पसंद आया है,’’ धर्मपाल ने कहा, ‘‘चूंकि यह तुम्हारा प्रस्ताव है सो मैनेजमैंट ने फैसला किया

है कि इसे पूरा भी तुम्हीं करो यानी न्यूयौर्क औफिस खोलने के लिए तुम ही जाओ पहली

जून को.’’

नमिता बुरी तरह चौंक पड़ी. 28 मई को तो उस की शादी है.

‘‘थैंक यू सो मच सर, लेकिन मैं यह नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘क्यों नहीं कर पाओगी?’’ पल्लवी ने बात काटी, ‘‘मैं और यश चल रहे हैं न तुम्हारे साथ कुछ सप्ताह के लिए. फिर तुम्हारी कजिन और कई जानपहचान वाले वहां हैं, तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी.’’

‘‘होगी भी तो कंपनी के लोग तुम्हारा पूरा खयाल रखेंगे,’’ धर्मपाल मुसकराए, ‘‘वैसे सफलता की सीढि़यां परेशानियों से भरी होती हैं, मैं भी उन पर गिरतापड़ता यहां तक चढ़ सका हूं. जाओ, जा कर जाने की तैयारी यानी अपना चार्ज अपने सहायक को देना शुरू कर दो.’’

नमिता हैरान रह गई यानी आदेश पारित हो चुका था और यहां कुछ भी कहना मुनासिब नहीं था. पल्लवी की सैक्रेटरी के कहने के बावजूद वह बगैर समय लिए पल्लवी से कैसे मिल सकती है. वह पल्लवी का इंतजार करने उन के कमरे में बैठ गई. कुछ देर के बाद पल्लवी आईं और उसे देख कर बोलीं, ‘‘क्या बात है नमिता, इतनी परेशान क्यों लग रही हो?’’

सब सुनने के बाद सहानुभूति के बजाय पल्लवी ने उस की ओर व्यंग्य से देखा,

‘‘इंटरव्यू के समय तो तुम ने कहा था कि अगले कई वर्ष तक तुम्हारी वरीयता तुम्हारी नौकरी

ही रहेगी और उस बात को तो अभी कुछ ही

वर्ष हुए हैं. इतनी जल्दी दिल कैसे भर गया नौकरी से?’’

‘‘नौकरी से दिल नहीं भरा मैडम, सयोग

से ऐसा साथी मिल गया है जो मुझ से कभी नौकरी छोड़ने या उसे तरजीह देने से मना नहीं करेगा,’’ नमिता ने उसे कुलदीप के बारे में सब बताना बेहतर समझ, ‘‘लेकिन एन शादी के मौके पर मैं यह कह कर शादी टालने या तोड़ने को नहीं कहना चाहती कि मेरा अमेरिका जाना अनिवार्य है.’’

‘‘ठीक समझ नमिता तुम ने, अमेरिका

जाना तो अनिवार्य है ही क्योंकि यह चेयरमैन

का आदेश है और अपने आदेश की अवज्ञा

वे अपना अपमान समझते हैं. उन की बात न

मान कर कंपनी में रहने के बजाय कंपनी

छोड़ना ही बेहतर होगा,’’ पल्लवी ने सपाट स्वर में कहा.

‘‘जैसा आप ठीक समझें, मैडम,’’ नमिता धीरे से बोली, ‘‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता ही है.’’

पल्लवी इस उत्तर से चौंकी तो जरूर, लेकिन फिर संभल कर नमिता को ऐसे देखने लगीं जैसे उसे पर तरस खा रही हों.

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‘‘लेकिन तुम्हें तो हो सकता है सबकुछ

ही छोड़ना पड़े. जैसाकि तुम ने अभी बताया

उस से तो लगता है कि कुलदीप ने तुम्हें

तुम्हारी नौकरी और उस के प्रति समर्पित होने

के कारण ही पसंद किया है, अब अगर एक

आम लड़की की तरह भावावेश में आकर तुम

ने नौकरी छोड़ दी तो कैरियर के साथसाथ कुलदीप की तुम से शादी करने की वजह भी खत्म हो सकती है. कोई भी कदम उठाने से पहले अच्छी तरह सोच लो. चाहो तो आज जल्दी घर चली जाओ.’’

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ऐसा तो होना ही था: क्या हुआ था ऋचा के साथ

नमिता की बातें सुन कर ऋचा पलंग पर कटी पतंग की तरह गिर पड़ी. दिल इतनी जोरों से धड़क रहा था मानो निकल कर बाहर ही आ जाएगा. आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे :

‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’

भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है.

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

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मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं.

ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है.

आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं.

एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए.

अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था.

रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

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दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया.

पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी.

अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था.

दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं.

आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी.

अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

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एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है.

सूनापन : जिंदगी में ऋतु को क्या अफसोस रह गया था

सुबह से ही ऋतु उदास थीं. वे बारबार घड़ी की तरफ देखतीं. उन्हें ऐसा महसूस होता कि घड़ी की सूइयां आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रहीं. मानो घर की दीवारें भी घूरघूर कर देख रही हों और फर्श नाक चढ़ा कर चिढ़ाता हुआ कह रहा हो, ‘देखो, हूं न बिलकुल साफसुथरा, चमक रहा हूं न आईने की तरह और तुम देख लो अपना चेहरा मुझ में, शायद तुम्हारे चेहरे के तनाव से बनी झुर्रियां इस में साफ नजर आएं.’ और वे ज्यादा देर घर की काटने को दौड़ती हुई दीवारों के बीच न बैठ पाईं.

वे एक किताब ले कर बाहर लौन में आ कर बैठ गईं. बाहर चलती हवाएं बालों को जैसे सहला रही थीं किंतु मन था कि पुस्तक से बारबार विचलित हो जाता. वे लगीं शून्य में ताकने और पहुंच गईं 20 वर्ष पीछे. सबकुछ उन की नजरों के सामने घूम रहा था.

बेटा 10 वर्ष और बिटिया मात्र 7 वर्ष की थी उस वक्त. छुट्टी का दिन था और वे चीख रही थीं अपने छोटेछोटे 2 बच्चों पर, सारा घर फैला पड़ा था, इधर खिलौने, उधर किताबें, गीला तौलिया बिस्तर पर और जूते शू रैक से बाहर फर्श पर. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे घर में अलमारियों से बाहर निकल कर सामान की सूनामी आ गई हो. वे थीं बहुत सफाईपसंद. सो, वह दृश्य देख उन से रहा न गया और चीख पड़ीं अपने बच्चों पर, ‘घर है या कूड़ेदान? कहां कदम रख कर चलूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. न जाने बच्चे हैं कि शैतान…’

दोनों बच्चे बेचारे उन की चीख सुन कर सहम गए और ‘सौरी मम्मा, सौरी मम्मा’ कह रहे थे. फिर भी वे उन्हें डांट रही थीं, कह रही थीं, ‘क्या मैं तुम्हारी नौकरानी हूं? तुम लोग अपना सामान जगह पर क्यों नहीं रखते?’ बेटी मिन्ना डर कर झटझट सामान जगह पर रखने लगी थी और बेटा अपनी कहानियों की किताबें जमा रहा था.

हां, उन के पति अनूप जरूर नाराज हो गए थे उन के चीखने से. वे कहने लगे थे, ‘ऋतु, यह घर है, होटल नहीं. घर में 4 लोग रहेंगे तो थोड़ा तो बिखरेगा ही. यह सुन कर ऋतु और भी ज्यादा नाराज हो गईं और अपने पति को टोकते हुए कह रही थीं, ‘तुम्हारी स्वयं की ही आदत है घर को फैलाने की. वरना, क्या तुम बच्चों को न टोकते’

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अनूप ने धड़ से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था और ऋतु ने छुट्टी का पूरा दिन अलमारियां और बच्चों के खिलौने व किताबें जमाने में बिता दिया था. वे लाख सोचतीं कि छुट्टी के दिन बच्चों को कुछ न कहूंगी, घर बिखरा पड़ा रहे मेरी बला से, किंतु सफाई की आदत से मजबूर हो उन से रहा ही न जाता और अब यह हर छुट्टी के दिन का रूटीन बन गया था. बच्चे भी सुनसुन कर शायद ढीठ हो गए थे और बड़े होते जा रहे थे.

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अनूप कभी कहते कि तुम अपना ध्यान कहीं दूसरी जगह भी लगाओ, बच्चों को करने दो वे जो करना चाहें. किंतु ऋतु को तो घर में हर चीज अपनी जगह पर चाहिए थी और पूरी तरह से व्यवस्थित भी. सो, लगी रहतीं अकेली वे उसी में और अंदर ही अंदर कुढ़ती भी रहतीं. एक तरफ से उन का कहना भी सही था कि हम महंगेमहंगे सामान घर में लाते हैं इसीलिए न कि घर अच्छा लगे, न कि कूड़ेदान सा. किंतु हर बात की एक अपनी सीमा होती है. सो, अनूप चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते.

ऋतु अपना दिल मानो घर में ही लगा बैठी थीं. विवाह के बाद एक ही साल में बेटे का जन्म हो गया और ऋतु ने अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश व गृहस्थी को संभालने में लगा दिया था. उम्र बढ़ती जा रही थी, साथ ही साथ, बच्चे भी. घर पहले की अपेक्षा व्यवस्थित रहने लगा था.

वक्त मानो पंख लगा उड़ता जा रहा था और ऋतु के चेहरे की झुर्रियों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और साथ ही मन में बढ़ती कड़वाहट भी. उन्होंने अपना पूरा ध्यान सिर्फ घर को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, उन्हें अच्छे संस्कार देने व अनुशासित करने में ही लगा दिया. इन सब के चलते शायद वे यह भी भूल गईं कि खुशी भी एक शब्द होता है और कई बार हमें दूसरों की खुशियों के लिए अपनी आदतों को छोड़ आपस में सामंजस्य बैठाना पड़ता है.

खैर, जिंदगी ठीक ही चल रही थी. बिलकुल साफसुथरा एवं व्यवस्थित घर, अनुशासित बच्चे और रोज रूटीन से काम करते घर के सभी सदस्य. जब घर में मेहमान आते तो तारीफ किए बिना न रहते उन के घर की व बच्चों की. बस, ऋतु को तो वह तारीफ एक अवार्ड के समान लगती. उन के जाने के बाद वे फूली न समातीं और कहती न थकतीं, ‘देखो, सारा दिन टोकती हूं और लगी रहती हूं घर में, तभी तो सभी तारीफ करते हैं.’

वक्त बीतता गया. बच्चे और बड़े हो गए. बेटा मैडिकल की पढ़ाई पूरी कर अमेरिका चला गया और बेटी विवाह कर विदा हो गई. अब ऋतु रह गईं बिलकुल अकेली. कामवाली एक बार सुबह आ कर घर साफ कर देती तो पूरा दिन वह साफ ही रहता. कोई न बिखेरने वाला, न ही घर की व्यवस्था बिगाड़ने वाला.

सूना घर ऋतु को काटने को दौड़ता. अनूप रिटायर हो गए. वे अपनी किताबों में ही मस्त रहते. ऋतु रह गईं नितांत अकेली. मन भी न लगता, किताबों में अपना ध्यान लगाने की कोशिश करतीं किंतु शांत होते ही एक ही सवाल आता मन में. ‘अब कोई नहीं, घर बिखेरने वाला, क्यों न मैं खेली अपने बच्चों के साथ जब उन्हें मेरी जरूरत थी, क्यों न पढ़ीं कहानियां उन के लिए, घर बिखरा था तो क्यों न रहने दिया, कौन से रोज ही मेहमान आते थे जिन की चिंता में अपने बच्चों के साथ खुशनुमा माहौल न रहने दिया घर का?’

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अब घर में तो चिडि़या भी पर नहीं मारती, क्या करूं इस घर का? कभीकभी परेशान हो अपनी बेटी मिन्ना को फोन करतीं, किंतु वह भी हांहूं में ही बात करती. वह तो खुद अपने बच्चों में व्यस्त होती. बेटा अपनी रिसर्च में व्यस्त होता. ऋतु अपने जिस घर को देख कर फूली न समाती थीं, उसी की सूनी दीवारें उन्हें कोसती थीं और कहतीं, ‘लो, बिता लो हमारे साथ वक्त.’

ये सारी बातें याद कर ऋतु उदास थीं. अब, उन्हें अपनी भूल का एहसास हो रहा था. अब वे छोटे बच्चों की माओं से मिलतीं तो कहतीं, ‘‘वक्त बिताओ अपने बच्चों के साथ, उन्हें कहानियां सुनाओ, बच्चे बन जाओ उन के साथ, आप इस के लिए तैयार रहो कि बच्चों का घर है तो बिखरा ही रहेगा. घर को गंदा भी न रखो, किंतु उसी घर में ही न लगे रहो. घर तो हम बच्चों के बड़े होने पर भी मेंटेन कर सकते हैं किंतु बच्चे एक बार बड़े हो गए तो उन के बचपन का वक्त वापस न आएगा, और रह जाओगी मेरे ही तरह उन कड़वी यादों के साथ, जिन से शायद तुम खुद ही डरोगी.’’ ऋतु अब कहती हैं कि बच्चों को तो बड़े हो कर चिडि़या के बच्चों की तरह उड़ ही जाना है, किंतु उन के साथ बिताए पलों की यादों को तो हम संजो कर खुश हो सकते हैं जो नहीं हैं मेरे पास अब, मुझे काटने को आता है यह सूनापन.

एक भावनात्मक शून्य: भाग 3- क्या हादसे से उबर पाया विजय

मानो आसमान से नीचे गिरा मैं. कानों से सुनी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ. क्या विजय अपनी सगी बहन से बात नहीं करता? लेकिन क्यों? ऐसा क्यों?

‘‘एक वक्त था…मुझे बहुत तकलीफ हुई थी जब मेरी बहन ने इतना बड़ा मजाक मेरे साथ किया था. किसी पराई लड़की के साथ शर्त लगाई थी. मेरा दोष सिर्फ इतना था कि मैं ने उसे किसी के साथ दोस्ती करने से रोका था. कोई था जो अच्छा नहीं था. उन दिनों मिन्नी बी.सी.ए. कर रही थी. उस की सुरक्षा चाहता था मैं. उस के मानसम्मान की चिंता थी मुझे. नहीं मानी तो मैं ने मम्मी से बात की. मान गई थी मिन्नी…उस के साथ दोस्ती तोड़ दी…और उस का बदला मुझ से लिया अपनी एक सहेली से मेरी दोस्ती करा कर.’’

मैं टुकुरटुकुर उस का चेहरा पढ़ता रहा.

‘‘मेरी बहन है न मिन्नी. मुझे कैसी लड़कियां पसंद हैं उसे पता था. बिलकुल उसी रूप में ढाल कर उसे घर लाती रही. मुझे सीधीसादी वह मासूम प्यारी सी लड़की भा गई. मम्मीपापा को भी वह घरेलू लगने वाली लड़की इतनी अच्छी लगी कि उसे बहू बना लेने पर उतारू हो गए. हमारा पूरा परिवार उस पर निछावर था. वह मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मेरी समूल भावनाएं उसी पर जा टिकी थीं.

‘‘मैं कोई सड़कछाप आशिक तो नहीं था न सोम, ईमानदारी से अपना सब उस पर वार देने को आतुर था. क्या यही मेरा दोष था? क्या प्रेम की भूख लगना अनैतिक था? पूरी श्रद्धा थी मेरे मन में उस के लिए और जिस दिन मैं ने उसे अपने मन की बात कही उस ने खिलखिला कर हंसना शुरू कर दिया. क्षण भर में उस का रूप ऐसा बदला कि मेरी आंखें विश्वास ही नहीं कर पाईं. वह मिन्नी से शर्त जीत चुकी थी.

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‘‘ ‘तुम्हारी बहन को किसी से प्रेम हो जाए तो गलत. अब तुम्हें मुझ से प्रेम हो गया तो सही. कैसे दोगले इनसान हो तुम.’ ’’

चुप हो गया विजय कहताकहता. धीरेधीरे बच्ची की आंखों के किनारे पोंछने लगा. सोईसोई भी वह रो रही थी. प्रश्न लिए आंखों में मुझे देखा विजय ने.

‘‘यह बेजबान बच्ची देखी है न, इतना रोई मेरे गले को अपने छोटेछोटे हाथों से कस कर कि मैं पत्थर हूं क्या जो समझ ही न पाऊं? मिन्नी तो मेरा खून है. क्या उसे पता नहीं चल सकता था मैं उस से कितना प्यार करता हूं. दुश्मन था क्या मैं? प्यार कोई तमाशा है क्या जिसे जहां चाहो मोड़ लो. उस का भला चाहा क्या यही मेरा दोष था. वह पल और आज का दिन मेरा मन ही मर गया. अब न मिन्नी के लिए दर्द होता है न अपने लिए ही कोई इच्छा जागती है.’’

रो पड़ा था मैं. स्नेह से विजय का हाथ पकड़ लिया, सोच रहा था…मैं भावुक हूं…मैं हूं जो भावना को सब से ऊपर मानता हूं.

‘‘वह लड़का अच्छा होता तो मैं मिन्नी का साथ देता,’’ विजय पुन: बोला, ‘‘उस की पढ़ाई पूरी हो जाती, कुछ तो भविष्य होता दोनों का. मैं तो नौकरी कर रहा था. शादी की उम्र थी मेरी. मांबाप भी सहमत थे. मैं गलत कहां था जो उस लड़की के मुंह से मुझे दोगला इनसान कहला भेजा. उस की हंसी मैं आज भी भूल नहीं पाता.

‘‘उस के बाद कुछ समझ में आया होगा मिन्नी के. मम्मीपापा ने भी डांटा. मुझ से माफी भी मांगी लेकिन दिल से मैं उसे माफ नहीं कर सका. बहन है राखी पर राखी बांध देती है. भाई हूं न, कहीं भाग तो नहीं सकता. मुसाफिर जैसी लगती है वह मुझे, जैसे सफर में कोई साथ हो. अपनी नहीं लगती. मैं मन को समझाता भी हूं. बुरा सपना समझ सब भूल जाना चाहता हूं लेकिन मन का कोना जागता ही नहीं, सदासदा के लिए मर गया.’’

‘‘मर गया मत कहो विजय, सो गया कहो. जीवन में सब का एक हिस्सा प्रकृति निश्चित कर देती है. जो लड़की उस ने तुम्हारे लिए बनाई है वह अभी तुम्हारी आंखों के सामने आई ही नहीं तो कैसे तुम्हारा सोया कोना जागे. तुम एक अच्छे ईमानदार इनसान हो. कोई भी ऐसीवैसी तुम्हारी साथी नहीं न हो सकती. तुम्हारे समूल भाव बस उसी के लिए हैं जिन्हें तुम टुकड़ाटुकड़ा कर कहीं भी बिखेरना नहीं चाहते, जिसे भी मिलोगे तुम पूरेपूरे मिलोगे.

‘‘यह पूरापूरा, प्यारा सा मेरा भाई जिसे मिलेगा वह खुद भी तो उतनी ही सच्ची और ईमानदार होगी…और ऐसी लड़कियां आजकल बहुत कम मिलती हैं, बहत कम होती हैं ऐसी लड़कियां. इसलिए कीमती होती हैं लेकिन होती हैं यह एक शाश्वत सत्य है. तुम्हारा हिस्सा तुम्हें मिलेगा यह निश्चित है.’’

टपकने लगी थीं विजय की आंखें. मैं कंधा थपका कर कहने लगा, ‘‘क्या इसीलिए सब से दूरदूर भागते हो? चोर या अपराधी हो क्या तुम? मत भागो सब से दूर. मिन्नी तो सब के साथ घुलमिल कर खुश है और तुम व्यर्थ कटे से हो सब से. हादसा था, हुआ, बीत गया. माफ कर दो बहन को. हो सकता है उसे भी वह लड़का बहुत ज्यादा पसंद हो. प्यार की सीमा जरा अलग और ज्यादा विशाल होती है इतना तो मानते हो न. तुम भाई हो, तुम्हारे प्यार की हद उस सीमा से टकरा गई थी…बस, इतना ही हुआ था. इस में इतना गंभीर होने की क्या जरूरत है. जरा सोचो…माफ कर दो मिन्नी को. तुम्हारा हर सोया कोना जाग उठेगा.’’

सुनता रहा विजय. जैसे उस ने भी बरसों बाद अपना मन खोला था किसी के साथ. बच्ची सहसा उठ कर रोने लगी थी. वही टूटेफूटे शब्द थे, ‘पा…पा…’

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‘‘आजा बच्चे मेरे पास.’’

समस्त अनुराग से विजय ने नताशा की मासूम सी गुडि़या बिटिया को पास खींच लिया…चूम कर गले से लिपटा लिया… बड़बड़ाने लगा, ‘क्या होगा इस बच्ची का. हम सब तो परसों चले जाएंगे तब इस का क्या होगा?’

विजय उठ कर कमरे में टहलने लगा था और बच्ची को थपथपा कर सुलाने का प्रयास करने लगा. नताशा भी बच्ची का रोना सुन कर चली आई थी. दोनों मिल कर उसे चुप कराने की कोशिश में थे.

मैं सब सुन कर और देख कर कुछ दुखी था. भावनाओं में जीने वाला इनसान ऐसे ही तो जीता है. कभी अपनी पीड़ा पर परेशान और कभी दूसरे की तकलीफ…दर्द पर दुखी. सत्य है उस की पीड़ा…और यही तो उस की कमाई है. भावुक न हो तो जी ही न पाए. यह भावुकता ही तो है जो मनुष्य को जमीन से जोड़ती है. आज हर तीसरा इनसान आज के तेज युग के साथ भागता हुआ कहीं न कहीं अपनी जमीन से कट रहा है और गहरा अवसाद उस का साथी बनता जा रहा है. सोचा जाए तो आज हम कहां जा रहे हैं, हमें ही पता नहीं. कहीं न कहीं तो हमें जमीन से जुड़ना पड़ेगा न. बिना जुड़े हमारा भविष्य हमें एक भावनात्मक शून्य के सिवा कुछ नहीं दे पाएगा…वह चाहे आप हों चाहे हम.

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एक भावनात्मक शून्य: भाग 2- क्या हादसे से उबर पाया विजय

सुनता रहा विजय सब. बस, जरूरत की बात करता रहा जिस के बिना गुजारा नहीं चल सकता था.

‘‘अब तुम्हारे घर पर ही देख लो. मिन्नी की शादी के बाद तुम भी अकेले रह जाओगे. घरबाहर, मांबाप सब को अकेले ही तो देखना होगा. मिन्नी का पति घुलमिल गया तो ठीक. नहीं तो एक असुरक्षा की भावना तो है ही न. जैसे मुझ में है… किसी अपने को ही खोजता रहता हूं… कोई अपना ऐसा जिस पर भरोसा कर सकूं. तुम्हारी तो एक बहन है भी, मेरे पास तो वह भी नहीं है.’’

मेरे इस वाक्य से उसे एक झटका सा लगा. गाड़ी के स्टेयरिंग पर उस के हाथ घूम गए और पैर बे्रक पर जम गए. बहुत गौर से उस ने मुझे देखा.

‘‘क्या हुआ, विजय? रुक क्यों गए?’’ इतना कह कर मैं सोचने लगा कि सामने कोई वाहन भी नहीं था जिस वजह से उस ने गाड़ी कच्चे पर उतार दी थी. परेशान सा हो गया सहसा जैसे कुछ नया ही सुन लिया हो, कुछ ऐसा जो अविश्वसनीय हो.

विजय स्वयं ही मुसकरा भी पड़ा. हंस कर गरदन हिला दी मानो मैं ने कोई बेवकूफी भरी बात कर दी हो. कहीं वह मुझे ‘इमोशनल फूल’ तो नहीं समझ रहा. अकसर लोग मुझ जैसे इनसान को एक भावुक मूर्ख की संज्ञा भी देते हैं. ऐसा इनसान जिस की जिंदगी में भावना का स्थान सब से ऊपर आता है, ऐसा इनसान जो सोचता है कि एक मानव दूसरे मानव के बिना अधूरा है, ऐसा इनसान जो रिश्तों को तोड़ना नहीं, निभाना चाहता है.

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विजय के व्यवहार से मैं किसी निष्कर्ष तक पहुंचने लगा था, कहीं कुछ ऐसा है अवश्य जिस की वजह से उस में इतना बदलाव है वरना विजय तो ऐसा नहीं था, खुश रहता था, भावुक था, 20 साल की उम्र तक तो हम निरंतर मिले ही थे, वह तो इंजीनियरिंग करने के लिए मुझे इतना दूर जाना पड़ा था, जिस वजह से मेरा ननिहाल छूट गया था. मेरी शादी में मामा अकेले आए थे क्योंकि तब मिन्नी के एम.सी.ए. के इम्तहान थे. विजय तब भी नहीं आया था क्योंकि उस के पास छुट्टी नहीं थी.

घर चले आए थे हम. घर के बाहर पार्क में रात को महिला संगीत का कार्यक्रम था. खासी चहलपहल थी. नताशा की सहेलियां, सीमा की सहेलियां, सभी पढ़ीलिखी, सुंदर, स्मार्ट. मेरी तो भावनाएं अब पत्नी तक सीमित हैं लेकिन विजय तो कुंआरा है, वह एक बार भी बाहर भीड़ में नहीं आया. उस ने एक बार भी किसी चेहरे पर नजर टिकाना नहीं चाहा. कपड़े बदल कर वहीं अपने कमरे में चुपचाप किसी किताब में लीन था.

‘‘आओ विजय, नीचे आ जाओ न. देखो, कितनी रौनक है. इतने पराए से क्यों हो गए हो भाई. क्या हो गया है तुम्हें? तुम तो ऐसे नहीं थे.’’

मेरे होंठों से निकल ही गया. बड़ी चाह से मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया. किताब हाथ से छीन ली.

मेरा मान रख लिया था विजय ने. कोट पहन नीचे चला आया. बहुत सुंदर और शालीन है विजय. लंबा कद और आकर्षक व्यक्तित्व. आंखों पर चश्मा, इंजीनियरिंग कालिज में पढ़ाने वाला एम-टेक नौजवान. क्या कमी है इस में? सुनने में आया था, शादी ही नहीं करना चाहता. चला तो आया था मेरे साथ लेकिन भीड़ से अलग एक तरफ जा बैठा था जहां सोफे पर नताशा की बेटी सो रही थी. प्यारी सी गुडि़या, बुखार में तपती हुई.

‘‘खाना खा ले बेटा.’’

मौसी के अनुरोध पर मैं खाने की तरफ चला आया. आंखों पर विश्वास ही नहीं हुआ. नताशा की प्यारी सी गुलाबी कपड़ों वाली बिटिया विजय के गले से लिपटी हुई थी और वह बड़े ममत्व से उस से बातें कर रहा था.

नताशा की सास पास ही खड़ी खाना खा रही थी. पता चला पिछले 2 घंटे से बिटिया ने विजय को इसी तरह पकड़ रखा है. नताशा का पति देखने में ऐसा ही लगता है न, मासूम बच्ची पिता समझ यों लिपट गई थी कि बस. सारा बुखार उड़न छू हो गया था. विजय के हाथ से ही उस ने दूध की बोतल पी थी और विजय के हाथों में ही अब वह सोने भी जा रही थी. नताशा को भी चैन की सांस आई थी.

‘‘विजय भैया ने मेरी बेटी बचा ली,’’ नताशा बोली, ‘‘मुझे तो लगता था यह बुखार इस की जान ही ले लेगा.’’

आंखें गीली थीं नताशा की. मैं ने स्नेह से पास खींच लिया था. उदास थी नताशा. विजय ने भी हाथ बढ़ा कर उदास नताशा का माथा सहला दिया.

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‘‘अब कितनी बार रोएगी पगली, बच्ची तो नासमझ है जो बस, पापापापा ही बोल पाती है. तुम ने मामा कहना सिखाया ही नहीं वरना मुझे मामा कह कर ही पुकारती. बेचारी पापा कहना ही जानती है इसलिए पापा कह कर ही मेरी गोद में आ गई…चल, फोन लगा अमेरिका…अभी इस के पापा से बात कर.’’

जेब से मोबाइल निकाल विजय ने नताशा की तरफ बढ़ा दिया था.

‘‘आज उन का फोन आया था. पूछ रहे थे बिटिया के बारे में. अभी मैं बात नहीं कर…’’

इतना कह नताशा पुन: रोने लगी थी. क्षण भर में फूट पड़ी थी नताशा जिसे विजय ने किसी तरह समझाबुझा कर बहलाया था.

रात अपने कमरे में सोने गए तब बिटिया विजय की बगल में ही थी. मिन्नी पास नहीं थी, वह शायद सीमा के साथ थी. उस की जगह मैं लेट गया. प्यारी सी बच्ची हम दोनों के बीच में सो रही थी. विजय उस का माथा सहला रहा था. ढेर सा प्यार था उस पल विजय की आंखों में, सहसा पूछने लगा, ‘‘भाभी का हाल पूछा कि नहीं. वह ठीक हैं न?’’

हां में सिर हिला दिया मैं ने. ऐसा लग रहा था जैसे विजय किसी खोल में से बाहर आ गया है. बिटिया का नन्हा सा हाथ चूमते हुए मानो भीतर की सारी ममता वह उस पर बरसा रहा था.

‘‘इनसान को भूख हर पल तो नहीं लगती न. इस पल इस जरा सी जान को पिता के प्यार की भूख है. पिता पास नहीं हैं, नताशा को पति का प्यार चाहिए, पति पास नहीं है, मां इस पल यही सोच कर बेचैन हैं…अगर मर गईं तो बेटा आग भी दे पाएगा या नहीं, बुढ़ापे को जवान बेटा चाहिए जो दूर है. आज ये सब लोग उस इनसान के भूखे हैं कल नहीं रहेंगे. आदत पड़ जाएगी इन्हें भी उस के बिना जीने की. इन की भूख धीरेधीरे मर जाएगी. यह जीना सीख जाएंगे. ऐसा ही होता है सोम जब भूख हो तभी कुछ मिले तो संतुष्टि होती है. हर भूख का एक निश्चित समय होता है.’’

सांस रोके मैं उसे सुन रहा था.

‘‘ऐसा ही होगा इस बच्ची के साथ भी. धीरेधीरे पिता को भूल जाएगी. नताशा का भी पति से बस उतना ही मोह रह जाएगा जितना डालर का भाव होगा. आज वह इन के मोह को पीठ दिखा कर चला गया कल जब उसे जरूरत होगी इन लोगों के मन मर चुके होंगे. किसी के प्यार का तिरस्कार कभी नहीं करना चाहिए सोम. बदनसीब है वह पिता जो आज इस बच्ची का प्यार नकार कर चला गया. मैं होता तो इतनी प्यारी बेटी को छोड़ कभी नहीं जाता. रुपया रुपया होता है, सोम. वह भावना का स्थान कभी नहीं ले सकता.’’

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‘‘तुम शादी क्यों नहीं करते विजय. पता चला था तुम ने फैसला ही कर लिया है…क्या मिन्नी का इंतजार कर रहे हो. उस की हो जाए उस के बाद करोगे.’’

‘‘मिन्नी का तो मम्मीपापा जानें… मुझे अपना पता है. बस, शादी नहीं करना चाहता.’’

‘‘मिन्नी के लिए मम्मीपापा क्यों जानें? तुम भाई हो न.’’

‘‘मिन्नी से बात किए मुझे शायद 5-6 साल हो गए. हम आपस में बात ही नहीं करते. तुम तरस रहे हो तुम्हारी कोई बहन होती. मेरी है न, मैं उस से बोलता ही नहीं.’’

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एक भावनात्मक शून्य: भाग 1- क्या हादसे से उबर पाया विजय

काफी समय के बाद विजय से मिलना हुआ. मौसी की बेटी की शादी थी. मामा की एक बेटी थी मिन्नी और बेटा विजय. मिन्नी बचपन से ही नकचढ़ी थी और विजय मेधावी और शालीन. मिन्नी काफी सभ्य, समझदार और विजय भी एक पूर्ण अस्तित्व. समूल परिपक्वता लिए हुए नजरों के सामने आए तो समझ ही नहीं पाया कैसे बात शुरू करूं. अजनबी से लगे वे. बचपन का प्यार, बिना लागलपेट का व्यवहार कहां चला गया. मिलने का उत्साह उड़नछू हो गया जब विजय ने बस इतना ही पूछा, ‘‘कहो, कैसे हो? सोम ही हो न. बहुत समय के बाद मिलना हुआ. घर में सब ठीक हैं न. शांति बूआ के ही बेटे हो न?’’

अवाक् रह गया था मैं. सोचा था झट से गले मिलूंगा सब से. कितना सब बांट लूंगा बचपन का, वह बारिश में भीग कर छींकना…

मेरे और विजय के कपड़े बदलवाती मामी सारा दोष विजय पर ही थोप देतीं. ‘क्यों वह मेरे साथ मस्ती करता रहा,’ बड़बड़ा कर तुलसी का काढ़ा पिलातीं और खबरदार करतीं कि फिर से बारिश में गए तो घर से ही निकाल देंगी. बहुत प्यार करती थीं मामी मुझे. हर साल मामी के पास जाने की एक और वजह भी थी, मामी नारियल और खसखस के लड्डू बड़े स्वादिष्ठ बनाती थीं. तरहतरह के व्यंजन बना कर खिलाना मामी का प्रिय शौक था.

‘‘मामीजी कैसी हैं विजय, उन्हें साथ नहीं लाए?’’

‘‘मां भी चली आतीं तो पापा अकेले रह जाते. मेरे पास भी छुट्टी नहीं थी. मजबूरीवश आना पड़ा. यहां मामा की जगह सारी रस्में मुझे जो निभानी हैं. पापा तो चलफिर नहीं न सकते…’’

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विजय ने मजबूरी स्वीकार कर ली थी, जो उस के व्यवहार में भी झलक रही थी. जाहिर था वह यहां आ कर खुश नहीं था. एक मजबूरी ढोने आया था, बस.

‘‘बूआ और फूफाजी नहीं आए? कैसे हैं वे दोनों?’’ मिन्नी ने सवाल किया था. शायद मैं ने उस के मांबाप का हालचाल पूछा था इसलिए मिन्नी ने भी कर्ज उतार दिया था. मन बुझ सा गया था. ये दोनों वे नहीं रहे, कहीं खो से गए हैं दोनों.

खासी चहलपहल थी घर में. मौसी की बड़ी बेटी नताशा और छोटी सीमा है जिस की शादी में हम आए हैं. नताशा का पति अभी कुछ दिन पूर्व अमेरिका गया है. शादीब्याह में दस काम करने को होते हैं. एक वजह यह भी थी सोम के आने की.

‘‘सोमू भैया, तुम….’’

मेरी तंद्रा टूटी थी.

नताशा सामने खड़ी थी. गहनों से लदीफंदी. पहले से थोड़ी मोटी और सुंदर.

‘‘हाय, सोमू भैया,’’ हाथों में पकड़े बैग पटक लगभग भाग कर आई थी मेरे पास और मेरे गले से लिपट मेरे गाल पर ढेर सारे चुंबन अंकित कर दिए थे.

‘‘कैसी हो, नताशा?’’

मन भर आया था मेरा. मैं अकेली संतान हूं न अपने मांबाप की जिस वजह से किसी भाईबहन का प्यार मुझे सदा दरकार रहता है. नताशा मेरी प्यारी सी बहन है. इस की शादी में भी आया था मैं, भाई की हर रस्म मैं ने ही पूर्ण की थी.

‘‘सुना है श्रीमान अमेरिका गए हैं… बिटिया कैसी है?’’

‘‘क्या बताऊं भैया, बिटिया ने बहुत तंग कर रखा है. अपने पापा के बिना उदास हो गई है. उस का बुखार ही नहीं उतर रहा. जब से गए हैं तब से बुखार में तप रही है.’’

अपनी दादी की गोद में थी बिटिया. खाना खा कर हम सब अपने कमरे में आ गए, जहां नन्ही सी बच्ची बुखार में तप रही थी. नताशा शादी के काम में व्यस्त थी और उस की सास पोती की देखभाल में. कुछ ही पल में मैं तो दोनों दादीपोती से हिलमिल गया लेकिन मिन्नी और विजय औपचारिक बातचीत के बाद आराम करने के लिए लेट गए. 2 साल की गोलमटोल बच्ची तेज बुखार में तप रही थी.

‘‘क्या बताएं बेटा, सभी टेस्ट करा चुके हैं. कोई रोग नहीं. बाप वहां उदास है… बेटी यहां तप रही है.’’

बेटे के वियोग में मां भी बेचैन और बेटी भी. नताशा की आंखें भी भर आई थीं.

‘‘मैं ने बहुत समझाया था उन्हें, माने ही नहीं. कहने लगे, तरक्की करनी है तो परिवार का मोह छोड़ना पड़ेगा.’’

‘‘एक ही बेटा है मेरा…इतना बड़ा घर है. बिटिया के दादाजी की पेंशन आती है. हमारी कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी उस पर, कहता है कि बिटिया ही बहुत है और बच्चा नहीं चाहिए…अब इस बिटिया के लिए क्या यहां कुछ कम था जो पराए देश में जा बसा है. इस बिटिया के लिए ही न सारा झमेला, बिटिया ही न रही तो किस के लिए सब. महीना भर हुआ है उसे गए और महीना ही हो गया है हमें डाक्टरों के चक्कर लगाते. क्या करें हम.’’

‘‘आजा, बेटा मेरे पास,’’ यह कह कर मैं ने हाथ बढ़ाए तो बिटिया ने झटक दिए.

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‘‘किसी के पास जाती भी तो नहीं, दादीदादा और मां के सिवा कोई हाथ न लगाए.

वैसे तो सारा इंतजाम होटल में है फिर भी…’’ नताशा ने मन खोला था.

‘‘कोई बात नहीं, मैं और विजय हैं ही. तुम हमें काम समझा दो. आज और कल 2 दिन की ही तो बात है. काम बांट दो न, हम कर लेंगे सब…क्यों विजय?’’

पुकार लिया था मैं ने विजय को. ममेरा भाई है, शादी में काम तो कराएगा न. लाख अजनबी लगे, है तो अपना.

तय हो गया सब. कल जब सब घर से चले जाएं तब पूरे घर की जिम्मेदारी विजय पर. शादी का सारा सामान घर पर है न. सोना, चांदी, जेवर, कपड़े और क्या नहीं. सिर्फ मामा की मिलनी के समय विजय होटल में जाएगा. जैसे ही रस्म हो जाए वह घर वापस आ जाएगा और तब तक मौसी के पड़ोसी उन के घर का खयाल रखेंगे. मेरे जिम्मे था होटल का सारा इंतजाम देखना.

‘‘सीमा को ब्यूटी पार्लर से लाने का काम भी विजय का. विजय सीमा को होटल छोड़, रस्म पूरी कर घर आ जाएगा. क्यों विजय, ठीक रहेगा न?’’

गरदन हिला दी थी विजय ने. उसी शाम हम दोनों जा कर सभी रास्ते समझ आए थे. लगभग पूरी शाम हम साथ रहे थे. वह चुप था. उस ने अपनी तरफ से कोई भी बात नहीं की थी. मैं ही था जो निरंतर उसे कुरेद रहा था.

‘‘शादी कब कर रहे हो, विजय? सीमा के बाद अब तुम दोनों ही बच गए हो, जो आजाद घूम रहे हो.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी कैसी है सोम? उसे साथ क्यों नहीं लाए?’’

‘‘तुम चाचा बनने वाले हो न. आजकल में कभी भी, इसीलिए मम्मी और पापा भी नहीं आ पाए.’’

‘‘अरे, ऐसी हालत में तुम पत्नी को छोड़ कर यहां चले आए.’’

‘‘क्या करें भाई, यही तो गृहस्थी है. अपने घर के साथसाथ भाईबहन का घर भी तो देखना चाहिए. यहां मौसी का कोई बेटा होता तो वही संभाल लेता न सब. अब संयोग देखो, दामादजी हैं तो ठीक शादी से पहले अमेरिका चले गए. छोटे परिवारों की यही तो त्रासदी है. एक भी सदस्य कम हो जाए तो सब अस्तव्यस्त हो जाता है.’’

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तजरबा: भाग 2- कैसे जाल में फंस कर रह गई रेणु

ऋषि रिपोर्ट ले कर बैठा हुआ था. ‘‘रेणु और रतन मोहन में आज कोई संपर्क नहीं हुआ है,’’ ऋषि ने बताया, ‘‘पुराने सहपाठियों को कभी रेणु और रतन का रिश्ता आपत्तिजनक नहीं लगा. पड़ोसियों और पारिवारिक जानपहचान वालों में जैसा व्यवहार होता है वैसा ही था. रेणु अपनी और अपने सहपाठियों की समस्याएं ले कर रतन के पास जाया करती थी. वह कोई बहुत काबिल डाक्टर नहीं था, लेकिन सीनियर होने के नाते सुझाव तो दे ही देता था.

‘‘रतन जिस अस्पताल में काम कर रहा था वहीं रेणु और उस के साथ की कुछ लड़कियों ने इंटर्नशिप की थी और तब रतन ने उन सब की बहुत मदद की. उसी दौरान रेणु के साथ इंटर्नशिप कर रही एक लड़की डाक्टर रैचेल का अचानक हार्ट फेल हो गया. रेणु सहेली की मौत के बाद ज्यादा सहमी सी लगने लगी और रतन को देखते ही और ज्यादा सहम जाती थी. इंटर्नशिप खत्म होते ही रेणु तुझ से शादी कर के विदेश चली गई. जब तुम लोग विदेश से लौटे तब तक रतन कहीं और नौकरी पर जा चुका था. अच्छा, यह बता धवल, जब तुम लोग लंदन में थे तो रतन के साथ संपर्क थे भाभी के?’’

‘‘मुझे तो रतन के अस्तित्व के बारे में अभी पता चला है, रहा सवाल लंदन का तो उस जमाने में ई-मेल और एसएमएस जैसी सुविधाएं तो थीं नहीं और चिट्ठी लिखने की रेणु को फुरसत नहीं थी.’’

‘‘अब तक जो सूत्र हाथ लगे हैं उन से तो नहीं लगता कि भाभी और रतन में प्रेम या अनैतिक संबंध हैं. हां, ब्लैकमेल का मामला हो सकता है लेकिन किस बिना पर इस का पता लगवा रहा हूं.’’

‘‘रैचेल की मौत से कुछ संबंध हो सकता है?’’

‘‘खैर, मैं रैचेल की मौत की सही वजह पता लगाता हूं. तू यह पता कर सकता है कि रतन अभी तक कुंआरा क्यों है?’’

धवल कुछ देर सोचता रहा फिर बोला, ‘‘मैं बच्चों को नानी से मिलवाने ले जाता हूं और फिर किसी तरह रतन का जिक्र चला कर उस के बारे में मालूम करूंगा.’’

धवल की उम्मीद के मुताबिक उस की सास ने उसे बच्चों के साथ अकेला देख कर पूछा, ‘‘रेणु आजकल इतनी व्यस्त कैसे हो गई?’’

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‘‘कुछ तो रोज ही 1-2 डिलीवरी के मामले आ जाते हैं, मां. दूसरे, जब से उसे डा. रतन मोहन ने फोन किया है वह न जाने क्या सोचती रहती है.’’

‘‘उस कफन फाड़ रतन की इतनी हिम्मत कि रेणु को फोन करे?’’ मां चिल्लाईं, ‘‘मीनू, लगा तो फोन अपने बाबूजी को, पूछती हूं उन से कि उन्होंने रेणु का नंबर रतन को दिया क्यों?’’

‘‘बाबूजी से जवाबतलब करने से क्या फायदा, मां,’’ मीनू ने कहा, ‘‘अब तो आप डा. रतन मोहन को बुला कर फटकारिए कि आइंदा जीजी को परेशान न करे.’’

‘‘मैं मुंह नहीं लगती उस मरघट के ठेकेदार के. तेरे बाबूजी के आते ही उन से फोन करवाऊंगी.’’

‘‘अरे, नहीं मां, इस सब की कोई जरूरत नहीं है. मगर यह रतन है कौन और रेणु से क्या चाहता है?’’ धवल ने पूछा.

जो कुछ मां ने बताया, वह वही था जो मीनू बता चुकी थी.

धवल के यह पूछने पर कि रतन के बीवीबच्चे कहां हैं? मां ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘उस आलसी निखट्टू से शादी कौन करेगा? किसी तरह लेदे कर डाक्टरी तो बाप ने पास करवा दी लेकिन बेटे ने मरीज देखने की सिरदर्दी से बचने के लिए पोस्टमार्टम करना आसान समझा. बगैर मेहनत के काम में इतना पैसा तो मिलने से रहा कि कोई अपनी बेटी का हाथ थमा दे.’’

‘‘खैर, ऐसी बात तो नहीं है, मांजी, सरकारी डाक्टर को भी अच्छी तनख्वाह मिलती है. हो सकता है वह खुद ही शादी न करना चाहता हो. क्या नाम था रेणु की उस सहेली का, जिस की मौत हो गई थी?’’ धवल ने कुरेदा.

‘‘रैचेल. उस से रतन का क्या लेनादेना? उस आलसी को लड़कियों में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही. उसे तो दिन भर लेट कर टीवी देखने या उपन्यास पढ़ने का शौक है. सरकारी नौकरी में भी दुर्घटना की रिपोर्ट पर हार्ट फेल लिख दिया. वह किसी नेता के बेटे की लाश थी. उन का मुआवजा मारा गया सो उन्होंने उस की छुट्टी करवा दी,’’ मां ने कहा, ‘‘रेणु भी इसीलिए परेशान होगी कि इसे क्या काम दे.’’

सास से यह कह कर कि वह बच्चों को खाने के बाद घर छोड़ आएं और इसी बहाने रेणु से भी मिल लें, धवल ऋषि के घर आया. इस से पहले कि उस से सब सुन कर ऋषि कोई प्रतिक्रिया जाहिर करता, एक फोन आ गया.

‘‘रेणु भाभी पर नजर रख रही लड़की का फोन था. भाभी इस समय एडवोकेट कादिरी के चैंबर में हैं,’’ ऋषि ने फोन सुनने के बाद बताया, ‘‘घबरा मत यार, कादिरी तलाक के नहीं फौजदारी के मुकदमे का वकील है.’’

‘‘यह तो और भी घबराने की बात है. रेणु किस गुनाह में फंसी हुई है?’’

‘‘यह अगर तू खुद भाभी से पूछे तो बेहतर रहेगा. यह तो पक्का है कि वह तेरे से बेवफाई नहीं कर रही हैं सो वह जिस परेशानी में हैं उस में से उन्हें निकालना तेरा फर्ज है. अगर समस्या सुलझाने में कहीं भी मेरी जरूरत हो तो बताना.’’

जब धवल घर पहुंचा तो रेणु अपने मातापिता के साथ बैठी अनमने ढंग से बात कर रही थी. कुछ देर के बाद वे लोग उठ खड़े हुए और उस के पिता ने चलतेचलते कहा, ‘‘तू बेफिक्र रह बेटी, मैं रतन को आश्वासन दे देता हूं कि मैं उस की नौकरी लगवा दूंगा, वह तुझे परेशान न करे.’’

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रेणु चुप रही मगर उस के चेहरे पर अविश्वास की मुसकान थी. सासससुर के जाते ही धवल ने मौका लपका.

‘‘यह डा. रतन मोहन है कौन, रेणु, जो सभी उस के लिए इतने परेशान हैं?’’

पहले तो रेणु सकपकाई फिर संभल कर बोली, ‘‘बाबूजी के करीबी दोस्त का बेटा है.’’

‘‘तब तो मेरा साला हुआ न, उसे तो अपने यहां काम मिलना ही चाहिए. भई, बाबूजी को फोन कर देता हूं कि उसे कल ही भेज दें, मरीज की केस हिस्ट्री नोट करने के लिए मुंहमांगी तनख्वाह पर रख लूंगा. बाबूजी का मोबाइल नंबर बोलो?’’

‘‘रहने दो, धवल. रतन को नौकरी नहीं चाहिए,’’ रेणु थके स्वर में बोली.

‘‘तो फिर क्या चाहिए?’’ धवल ने लपक कर रेणु को बांहों में भर लिया. धवल के स्पर्श की ऊष्मा से रेणु पिघल कर फूटफूट कर रोने लगी. धवल पहले तो चुपचाप उस की पीठ सहलाता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘बताओ न, रेणु, रतन क्यों परेशान कर रहा है तुम्हें, क्या चाहिए उसे?’’

‘‘मेरी जान.’’

‘‘वह किस खुशी में, भई?’’

‘‘मेरी बेवकूफी की.’’

‘‘ऐसी कैसी बेवकूफी जिस की भरपाई जान दे कर हो? अगर तुम को मुझ पर भरोसा है तो मुझे सबकुछ खुल कर बताओ.’’

‘‘कैसी बात करते हो, धवल. तुम पर नहीं तो और किस पर भरोसा करूंगी? तुम्हें बेकार में परेशान नहीं करना चाहती थी सो अब तक चुप थी पर अब सहन नहीं होता,’’ रेणु ने सुबकते हुए कहा, ‘‘मैं ने गांधी अस्पताल में इंटर्नशिप की थी और उन दिनों रतन की नियुक्ति भी उसी अस्पताल में थी.

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उसी दहलीज पर बार-बार: भाग 3- क्या था रोहित का असली चेहरा

कहानी- यामिनी वर्मा

‘‘रोहित, क्या तुम ने कभी मुझे मिस नहीं किया?’’

‘‘ममता, मैं ने तुम्हें मिस किया है. शिखा के साथ रहते हुए भी मैं सदा तुम्हारे साथ ही था.’’

रोहित की बातें सुन कर ममता भीतर तक भीग उठी.

पहाड़ खामोश थे… बस्ती खामोश थी… हर तरफ पसरी खामोशी को देख कर ममता को नहीं लगता कि जिंदगी कहीं है ही नहीं… फिर वह क्यों जिंदगी के लिए इतनी लालायित रहती है. वह भी उम्र के इस पड़ाव पर जब इनसान व्यवस्थित हो चुका होता है. वह क्यों इतनी अव्यवस्थित सी है और उस के मन में क्यों यह इच्छा होती है कि यह जो पुरुष साथ चल रहा है, फिर पुराने दिन वापस लौटा दे?

ममता ने महसूस किया कि वह अंदर से कांप रही है और उस ने शाल को सिर से ओढ़ लिया, फिर भी ठंड गई नहीं. उस पर रोहित ने जब उस  का हाथ पकड़ा तो वह और भी थरथरा उठी. गरमाई का एक प्रवाह उस के अंदर तिरोहित होने लगा तो वह रोहित से और भी सट गई. रोहित उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे अपनी ओर खींच कर बोला, ‘‘कांप रही हो तुम तो,’’ और फिर रोहित ने उसे समूचा भींच लिया था.

ममता को लगा कि बस, ये क्षण… यहीं ठहर जाएं. आखिर इसी लमहे व रोहित को पाने की चाहत में तो उस ने इतने साल अकेले बिताए हैं.

शकुन इंतजार कर के लौट गई थी. मेज पर खाना रखा था. उस ने ढीलीढाली नाइटी पहन ली और खाना लगाने लगी. फायरप्लेस में बुझती लकडि़यों में उस ने और लकडि़यां डाल दीं.

दोनों चुपचाप खाना खाते रहे. अचानक ममता ने पूछा, ‘‘अब क्या रुचि है तुम्हारी, रोहित? कुछ पढ़ते हो या… बस, गृहस्थी में ही रमे रहते हो?’’

‘‘अरे, अब कुछ भी पढ़ना कहां संभव हो पाता है, अब तो जिंदगी का यथार्थ सामने है. बस, काम और काम, फिर थक कर सो जाना.’’

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बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे. फायरप्लेस में लकडि़यां डालने के बाद ममता अलमारी खोल कर वह नोटबुक निकाल लाई जिस में कालिज के दिनों की ढेरों यादें लिखी थीं. रोहित को यह देख कर आश्चर्य हुआ, ममता की अलमारी में उस की तसवीर रखी है.

नोटबुक के पन्ने फड़फड़ा रहे थे. अनमनी सी बैठी ममता का चेहरा रोहित ने अपने हाथों में ले कर अधरों का एक दीर्घ चुंबन लिया. ममता ने आंखें बंद कर लीं. उस के बदन में हलचल हुई तो उस ने रोहित को खींच कर लिपटा लिया. बरसों का बांध कब टूट गया, पता ही नहीं चला.

‘‘क्या आज ही जाना जरूरी है, रोहित?’’ सुबह सो कर उठने के बाद रात की खामोशी को ममता ने ही तोड़ा था.

‘‘हां, ममता, अब और नहीं रुक सकता. वहां मुझे बहुत जरूरी काम है,’’ अटैची में कपड़े भरते हुए रोहित ने कहा.

ममता ने रिया को बुलवा लिया था. जाने का क्षण निकट था. रिया रो रही थी. ममता की आंखें भी भीगी हुई थीं. उस के मन में विचार कौंधा कि क्या अब भी रोहित से कहना पड़ेगा कि मुझे अपनालो… अकेले अब मुझ से नहीं रहा जाता. तुम्हारी चाहत में कितने साल मैं ने अकेले गुजारे हैं. क्या तुम इस सच को नहीं जानते?

सबकुछ अनकहा ही रह गया. रोहित लगातार खामोश था. उस को गए 5 महीने बीत गए. फोन पर वह रिया का हालचाल पूछ लेता. ममता यह सुनने को तरस गई कि ममता, अब बहुत हुआ. तुम्हें मेरे साथ चलना होगा.

वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गई थी. सभी बच्चे घर वापस जा रहे थे. रोहित का फोन उस आखिरी दिन आया था जब होस्टल बंद हो रहा था.

‘‘रिया की मौसी आ रही हैं. उन के साथ उसे भेज देना.’’

‘‘तुम नहीं आओगे, रोहित?’’

‘‘नहीं, मेरा आना संभव नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’ और उस के साथ फोन कट गया था. कानों में सीटी बजती रही और ममता रिसीवर पकड़े हतप्रभ रह गई.

दूसरे दिन रिया की मौसी आ गईं. होस्टल से रिया उस के घर ही आ गई थी क्योंकि होस्टल खाली हो चुका था.

‘‘रोहित को ऐसा क्या काम आ पड़ा जो अपनी बेटी को लेने वह नहीं आ सका?’’ ममता ने रिया की मौसी से पूछा.

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‘‘सच तो यह है ममताजी कि शिखा दीदी की मौत के बाद रोहित जीजाजी के सामने रिया की ही समस्या है क्योंकि वह अब जिस से शादी करने जा रहे हैं, वह उन की फैक्टरी के मालिक की बेटी है. लेकिन वह रिया को रखना नहीं चाहती और मेरी भी पारिवारिक समस्याएं हैं, क्या करूं… शायद मेरी मां ही अब रिया को रखेंगी. एक बात और बताऊं, ममताजी कि रोहित जीजाजी हमेशा से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं. शिखा दीदी के सामने ही उन का प्रेम इस युवती से हो गया था… मुझे तो लगता है कि शिखा दीदी की बीमारी का कारण भी यही रहा हो, क्योंकि दीदी ने बीच में एक बार नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

इतना सबकुछ बतातेबताते रिया की मौसी की आवाज तल्ख हो गई थी और उन के चुप हो जाने तक ममता पत्थर सी बनी बिना हिलेडुले अवाक् बैठी रह गई. याद नहीं उसे आगे क्या हुआ. हां, आखिरी शब्द वह सुन पाई थी कि रोहित जीजाजी ने जहां कालिज जीवन में प्यार किया था, वहां विवाह न करने का कारण कोई मजबूरी नहीं थी बल्कि वहां भी उन का कैरियर और भारी दहेज ही कारण था.

तपते तेज बुखार में जब ममता ने आंखें खोलीं तो देखा रिया उस के पास बैठी उस का हाथ सहला रही है और शकुन माथे पर पानी की पट्टियां रख रहीहै.

ममता ने सोमी की तरफ हाथ बढ़ा दिए और फिर दोनों लिपट कर रोने लगीं तो शकुन रिया को ले कर बाहर के कमरे में चली गई.

‘‘सोमी, मैं ने अपनी संपूर्ण जिंदगी दांव पर लगा दी, और वह राक्षस की भांति मुझे दबोच कर समूचा निगल गया.’’

सोमी ने उस का माथा सहलाया और कहा, ‘‘कुछ मत बोलो, ममता, डाक्टर ने बोलने के लिए मना किया है. हां, इस सदमे से उबरने के लिए तुम्हें खुद अपनी मदद करनी होगी.’’

ममता को लगा कि जिन हाथों की गरमी से वह आज तक उद्दीप्त थी वही स्पर्श अब हजारहजार कांटों की तरह उस के शरीर में चुभ रहे हैं. काश, वह भी सांप के केंचुल की तरह अपने शरीर से उस केंचुल को उतार फेंकती जिसे रोहित ने दूषित किया था… कितना वीभत्स अर्थ था प्यार का रोहित के पास.

‘‘सोमी,’’ वह टूटी हुई आवाज में बोली, ‘‘मैं रिया के बगैर कैसे रहूंगी,’’ और उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. एक भयावह स्वप्न देख घबरा कर ममता ने आंखें खोलीं तो देखा सोमी फोन पर बात कर रही थी, ‘‘रोहित, तुम ने जो भी किया उस के बारे में मैं तुम से कुछ नहीं कहूंगी, लेकिन क्या तुम रिया को ममता के पास रहने दोगे? शायद ममता से बढ़ कर उसे मां नहीं मिल सकती…’’

रिया की मौसी ने रिया को ला कर ममता की गोद में डाल दिया और बोली, ‘‘मैं सब सुन चुकी हूं. सोमीजी… रिया अब ममता के पास ही रहेगी, इन की बेटी की तरह, इसे स्वीकार कीजिए.’’

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उसी दहलीज पर बार-बार: भाग 1- क्या था रोहित का असली चेहरा

कहानी- यामिनी वर्मा

घ ड़ी की तरफ देख कर ममता ने कहा, ‘‘शकुन, और कोई बैठा हो तो जल्दी से अंदर भेज दो. मुझे अभी जाना है.’’

और जो व्यक्ति अंदर आया उसे देख कर प्रधानाचार्या ममता चौहान अपनी कुरसी से उठ खड़ी हुईं.

‘‘रोहित, तुम और यहां?’’

‘‘अरे, ममता, तुम? मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां इस तरह तुम से मुलाकात होगी. यह मेरी बेटी रिया है. 6 महीने पहले इस की मां की मृत्यु हो गई. तब से बहुत परेशान था कि इसे कैसे पालूंगा. सोचा, किसी आवासीय स्कूल में दाखिला करा दूं. किसी ने इस स्कूल की बहुत तारीफ की थी सो चला आया.’’

‘‘बेटे, आप का नाम क्या है?’’

‘‘रिया.’’

बच्ची को देख कर ममता का हृदय पिघल गया. वह सोचने लगी कि इतना कुछ खोने के बाद रोहित ने कैसे अपनेआप को संभाला होगा.

‘‘ममता, मैं अपनी बेटी का एडमिशन कराने की बहुत उम्मीद ले कर यहां आया हूं,’’ इतना कह कर रोहित न जाने किस संशय से घिर गया.

‘‘कमाल करते हो, रोहित,’’ ममता बोली, ‘‘अपनी ही बेटी को स्कूल में दाखिला नहीं दूंगी? यह फार्म भर दो. कल आफिस में फीस जमा कर देना और 7 दिन बाद जब स्कूल खुलेगा तो इसे ले कर आ जाना. तब तक होस्टल में सभी बच्चे आ जाएंगे.’’

‘‘7 दिन बाद? नहीं ममता, मैं दोबारा नहीं आ पाऊंगा, तुम इसे अभी यहां रख लो और जो भी डे्रस वगैरह खरीदनी हो आज ही चल कर खरीद लेते हैं.’’

‘‘चल कर, मतलब?’’

‘‘यही कि तुम साथ चलो, मैं इस नई जगह में कहां भटकूंगा.’’

‘‘रोहित, मेरा जाना कठिन है,’’ फिर उस ने बच्ची की ओर देखा जो उसे ही देखे जा रही थी तो वह हंस पड़ी और बोली, ‘‘अच्छा चलेंगे, क्यों रियाजी?’’

शकुन आश्चर्य से अपनी मैडम को देखे जा रही थी. इतने सालों में उस ने ऐसा कभी नहीं देखा कि प्रधानाचार्या स्कूल का जरूरी काम टाल कर किसी के साथ जाने को तैयार हुई हों. उस के लिए तो सचमुच यह आश्चर्य की ही बात थी.

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‘‘मैडम, खाना?’’ शकुन ने डरतेडरते पूछा.

‘‘ओह हां,’’ कुछ याद करती हुई ममता चौहान बोलीं, ‘‘देखो शकुन, कोई फोन आए तो कह देना, मैं बाहर गई हूं. और खाना भी लौट कर ही खाएंगे. हां, खाना थोड़ा ज्यादा ही बना लेना.’’

मेज पर फैली फाइलों को रख देने का शकुन को इशारा कर ममता चौहान उठ गईं और रोहित व रिया को साथ ले कर गेट से बाहर निकल गईं.

‘‘रुको, रोहित, जीप बुलवा लेते हैं,’’ नर्वस ममता ने कहा, ‘‘पर जीप भी बाजार के अंदर तक नहीं जाएगी. पैदल तो चलना ही पड़ेगा.’’

यद्यपि रिया उन के साथ चल रही थी पर कोई भी बाल सुलभ चंचलता उस के चेहरे पर नहीं थी. ममता ने ध्यान दिया कि रोहित का चेहरा ही नहीं बदन  भी कुछ भर गया है. पूरे 8 साल के बाद वह रोहित को देख रही थी. अतीत में उस के द्वारा की गई बेवफाई के बाद भी ममता का दिल रोहित के लिए मानो प्रेम से लबालब भरा हुआ था.

ममता को विश्वविद्यालय के वे दिन याद आए जब सुनसान जगह ढूंढ़ कर किसी पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे रहते थे. कभीकभी वह भयभीत सी रोहित के सीने में मुंह छिपा लेती थी कि कहीं उस के प्यार को किसी की नजर न लग जाए.

जीप अपनी गति से चल रही थी. अतीत के खयालों में खोई हुई ममता रोहित को प्यार से देखे जा रही थी. उसे 8 साल बाद भी रोहित उसी तरह प्यारा लग रहा था जैसे वह कालिज के दिनों में लगताथा.

ममता ने रोहित को भी अपनी ओर देखते पाया तो वह झेंप गई.

‘‘तुम आज भी वैसी ही हो, ममता, जैसी कालिज के दिनों में थीं,’’ रोहित ने बेझिझक कहा, ‘‘उम्र तो मानो तुम्हें छू भी नहीं सकी है.’’

तभी जीप रुक गई और दोनों नीचे उतर कर एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान की ओर चल दिए. ममता ने रिया को स्कूल डे्रस दिलवाई. वह जिस उत्साह से रिया के लिए कपड़ों की नापजोख कर रही थी उसे देख कर कोई भी यह अनुमान लगा सकता था कि मानो वह उसी की बेटी हो.

दूसरी जरूरत की चीजें, खानेपीने की चीजें ममता ने स्वयं रिया के लिए खरीदीं. यह देख कर रोहित आश्वस्त हो गया कि रिया यहां सुखपूर्वक, उचित देखरेख में रहेगी.

ममता बाजार से वापस लौटी तो उस का तनमन उत्साह से लबालब भरा था. उस के इस नए अंदाज को शकुन ने पहली बार देखा तो दंग रह गई कि जो मैडमजी मुसकराती भी हैं तो लगता है उन के अंदर एक खामोशी सी है, वह आज कितना चहक रही हैं लेकिन उन का व्यक्तित्व ऐसा है कि कोई भी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता.

कौन है यह व्यक्ति और उस की छोटी बच्ची… क्यों मैडम इतनी खुश हैं, शकुन समझ नहीं पा रही थी.

ममता ने चाहा था कि कम से कम 2 दिन तो रोहित उस के पास रुके, लेकिन वह रुका नहीं… रोती हुई रिया को गोद में ले कर ममता ने ही संभाला था.

‘‘मैडमजी, इस बच्ची को होस्टल में छोड़ दें क्या?’’

‘‘अरी, पागल हो गई है क्या जो खाली पड़े होस्टल में बच्ची को छोड़ने की बात कह रही है. बच्चों को होस्टल में आने तक रिया मेरे पास ही रहेगी.’’

शकुन सोच रही थी कि सोमी मैडम भी घर गई हैं वरना वह ही कुछ बतातीं. जाने क्यों उस के दिल में उस अजनबी पुरुष और उस के बच्चे को ले कर कुछ खटक रहा था. उसे लग रहा था कि कहीं कुछ ऐसा है जो मैडमजी के अतीत से जुड़ा है. वह इतना तो जानती थी कि ममता मैडम और सोमी मैडम एकसाथ पढ़ी हैं. दोनों कभी सहेली रही थीं, तभी तो सोमी मैडम बगैर इजाजत लिए ही प्रिंसिपल मैडम के कमरे में चली जाती हैं जबकि दूसरी मैडमों को कितनी ही देर खड़े रहना पड़ता है.

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दूसरे दिन सुबह शकुन उठी तो देखा मैडम हाथ में दूध का गिलास लिए रिया के पास जा रही थीं. प्यार से रिया को दूध पिलाने के बाद उस के बाल संवारने लगीं. तभी शकुन पास आ कर बोली, ‘‘लाओ, मैडम, बिटिया की चोटी मैं गूंथे दे रही हूं. आप चाय पी लें.’’

‘‘नहीं, तुम जाओ, शकुन… नाश्ता बनाओ…चोटी मैं ही बनाऊंगी.’’

चोटी बनाते समय ममता ने रिया से पूछा, ‘‘क्यों बेटे, तुम्हारी मम्मी को क्या बीमारी थी?’’

‘‘मालूम नहीं, आंटी,’’ रिया बोली, ‘‘मम्मी 4-5 महीने अस्पताल में रही थीं, फिर घर ही नहीं लौटीं.’’

एक हफ्ता ऐसे ही बीत गया. रिया भी ममता से बहुत घुलमिल गई थी. लड़कियां होस्टल में आनी शुरू हो गई थीं. सोमी भी सपरिवार लौट आई थी. शकुन ने ही जा कर सोमी को सारी कहानी सुनाई.

सोमी ने शकुन को यह कह कर भेज दिया कि ठीक है, शाम को देखेंगे.

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सुवीरा: भाग 3- घर परिवार को छोड़ना गलत है या सही

विनोद दिल्ली से लौटा तो इस बार सुवीरा उसे देख कर खुश नहीं, उदास ही हुई. अब महेश से मिलने में बाधा रहेगी. खैर, देखा जाएगा. विनोद ने रात को पत्नी का अनमना रवैया भी महसूस नहीं किया. सुवीरा आहत हुई. वह इतना आत्मकेंद्रित है कि उसे पत्नी की बांहों का ढीलापन भी महसूस नहीं हो रहा है. पत्नी की बेदिली पर भी उस का ध्यान नहीं जा रहा है. वह मन ही मन महेश और विनोद की तुलना करती रही. अब वह पूरी तरह बदल गई थी. उस का एक हिस्सा विनोद के पास था, दूसरा महेश के पास. विनोद जैसे एक जरूरी काम खत्म कर करवट बदल कर सो गया. वह सोचती रही, वह हमेशा कैसे रहेगी विनोद के साथ. उसे सुखसुविधाएं, पैसा, गाड़ी बड़ा घर कुछ नहीं चाहिए, उसे बस प्यार चाहिए. ऐसा साथी चाहिए जो उसे समझे, उस की भावनाओं की कद्र करे. रातभर महेश का चेहरा उस की आंखों के आगे आता रहा.

सुबह नाश्ते के समय विनोद ने पूछा, ‘‘महेश कैसा है? बच्चों को पढ़ाता है न?’’

‘‘हां.’’

‘‘नाश्ता भिजवा दिया उसे?’’

‘‘नहीं, नीचे ही बुला लिया है.’’

‘‘अच्छा? वाह,’’ थोड़ा चौंका विनोद. महेश आया विनोद से हायहैलो हुई. सुवीरा महेश को देखते ही खिल उठी. विनोद ने पूछा, ‘‘और तुम्हारा औफिस, कोचिंग कैसी चल रही है?’’

‘‘अच्छी चल रही है.’’

‘‘भई, टीचर के तो मजे होते हैं, पढ़ाया और घर आ गए, यहां देखो, रातदिन फुरसत नहीं है.’’

‘‘तो क्यों इतनी भागदौड़ करते हो? कभी तो चैन से बैठो?’’

‘‘अरे यार, चैन से बैठ कर थोड़े ही यह सब मिलता है,’’ गर्व से कह कर विनोद नाश्ता करता रहा. महेश ने बिना किसी झिझक के सुवीरा से पूछा, ‘‘आप का नाश्ता कहां है?’’

विनोद थोड़ा चौंक कर बोला, ‘‘अरे, सुवीरा तुम भी तो करो.’’ सुवीरा बैठ गई, अपना भी चाय का कप लिया. विनोद नाश्ता खत्म कर जल्दी उठ गया. सिद्धि, समृद्धि भी जाने के लिए तैयार थीं. सुवीरा महेश एकदूसरे के प्यार में डूबे नाश्ता करते रहे. महेश ने कहा, ‘‘मैं भी चलता हूं.’’ बच्चे भी निकल गए तो सुवीरा ने कहा, ‘‘रुकोगे नहीं?’’

‘‘बहुत जरूरी क्लास है. फ्री होते ही आ जाऊंगा. औफिस में भी एक जरूरी क्लाइंट आने वाला है, जल्दी आ जाऊंगा, सब निबटा कर.’’

‘‘लेकिन तब तक तो बच्चे भी आ जाएंगे.’’

‘‘इतनी बेताबी?’’

सुवीरा हंस पड़ी. सुवीरा को अपने सीने से लगा कर प्यार कर महेश चला गया. सुवीरा उस के पास से आती खुशबू में बहुत देर खोई रही. अब उसे किसी बात की न चिंता थी न डर. वह अपनी ही हिम्मत पर हैरान थी, क्या प्यार ऐसा होता है, क्या प्रेमीपुरुष का साथ एक औरत को इतनी हिम्मत से भर देता है. तो वह जो 15 साल से विनोद के साथ रह रही है, वह क्या है. विनोद के लिए उस का दिल वह सब क्यों महसूस नहीं करता जो महेश के लिए करता है. विनोद का स्पर्श उस के अंदर वह उमंग, वह उत्साह क्यों नहीं भरता जो महेश का स्पर्श भरता है. अब रातदिन एक बार भी विनोद का ध्यान क्यों नहीं आता. महेश ही उस के दिलोदिमाग पर क्यों छाया रहता है. एक उत्साह उमंग सी भरी रहने लगी थी उस के रोमरोम में. वह कई बार सोचती, घर में सक्षम, संपन्न पति के रहने के बावजूद वह पराए पुरुष के स्पर्श के लिए कैसे उत्सुक रहने लगी है. कहां गए वो सालों पुराने संस्कार जिन्हें खून में संचारित करते हुए इतने सालों में किसी पुरुष के प्रति कोई आकर्षण तक न जागा था. आंखें बंद कर वह महसूस करती कि यह कोई अपरिचित पुरुष नहीं है बल्कि उस का स्वप्नपुरुष है, स्त्रियों के चरित्र और चरित्रहीनता का मामला सिर्फ शारीरिक घटनाओं से क्यों तय किया जाता है. कितना विचित्र नियम है यह.

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फिर कई दिन बीत गए. दोनों के संबंध दिन पर दिन पक्के होते जा रहे थे. मौका मिलते ही दोनों काफी समय साथ बिताते. सुवीरा अपनी सब सहेलियों को जैसे भूल गई थी. सब उस से न मिलने की शिकायत करतीं पर वह बच्चों की पढ़ाई की व्यस्तता का बहाना बना सब को बहला देती. सुवीरा विनोद की अनुपस्थिति में अकसर महेश की बाइक पर बैठ कर बाहर घूमतीफिरती. दोनों शौपिंग करते, मूवी देखते, और घर आ कर एकदूसरे की बांहों में खो जाते. सीमा ने दोनों को बाइक पर आतेजाते कई बार देखा था. कुछ था जो उसे खटक रहा था लेकिन किस से कहती और क्या कहती. कितनी भी अच्छी सहेली थी लेकिन यह बात छेड़ना भी उसे उचित नहीं लग रहा था. सुवीरा को अब यह चिंता लगी थी कि इस संबंध का भविष्य क्या होगा. वह तो अब महेश के बिना जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी. एक दिन अकेले में सुवीरा को उदास देख कर महेश ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? उदास क्यों हो?’’

‘‘महेश, क्या होगा हमारा? मैं अब तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगी.’’

‘‘तो मैं भी कहां रह पाऊंगा अब. मैं ने तो कभी यह सोचा ही नहीं था कि तुम भी मुझ से इतना प्यार करोगी क्योंकि समाज के इस ढांचे को तोड़ना आसान नहीं होता. इतना तो जानता हूं मैं.’’

‘‘लेकिन एक न एक दिन विनोद को पता चल ही जाएगा.’’

‘‘तब देख लेंगे, क्या करना है.’’

‘‘नहीं महेश, कोई भी अप्रिय स्थिति आने से पहले सोचना होगा.’’

‘‘तो बताओ फिर, क्या चाहती हो? मुझे तुम्हारा हर फैसला मंजूर है.’’

‘‘तो हम दोनों कहीं और जा कर रहें?’’

‘‘क्या?’’ करंट सा लगा महेश को, बोला,‘‘विनोद? बच्चे?’’

‘‘विनोद को तो पत्नी का मतलब ही नहीं पता, बेटियों को वह वैसे भी बहुत जल्दी एक मशहूर होस्टल में डालने वाला है. और वैसे भी, मेरी बेटियां शायद पिता के ही पदचिह्नों पर चलने वाली हैं. वही पैसे का घमंड, वही अकड़, जब घर में किसी को मेरी जरूरत ही नहीं है तो क्या मैं अपने बारे में नहीं सोच सकती,’’ कहते हुए सुवीरा का स्वर भर्रा गया. महेश ने उसे सीने से लगा लिया. उस के बाद सहलाते हुए बोला, ‘‘लेकिन मैं शायद तुम्हें इतनी सुखसुविधाएं न दे पाऊं, सुवीरा.’’

‘‘जो तुम ने मुझे दिया है उस के आगे ये सब बहुत फीका है. महेश, हम जल्दी से जल्दी यहां से चले जाएंगे. अपने मन को मारतेमारते मैं थक चुकी हूं.’’

‘‘ठीक है, मैं रहने का इंतजाम करता हूं.’’

‘‘और तुम पैसे की चिंता मत करना. मुझे कोई ऐशोआराम नहीं चाहिए, सादा सा जीवन और तुम्हारा साथ, बस.’’

‘‘पर तुम देख लो, रह पाओगी अपने परिवार के बिना?’’

‘‘हां, मैं ने सबकुछ सोच लिया है. तुम से मिले एक साल हो रहा है और मैं ने इतने समय में बहुत कुछ सोचा है.’’ महेश उस के दृढ़ स्वर की गंभीरता को महसूस करता रहा. सुवीरा ने कहा, ‘‘मैं विनोद को बहुत जल्दी बता दूंगी कि मैं अब उस के साथ नहीं रह सकती.’’ दोनों आगे की योजना बनाते रहे. सिद्धि, समृद्धि आ गईं तो महेश ऊपर चला गया. सुवीरा ने पूछा, ‘‘बड़ी देर लगा दी पार्टी में?’’

‘‘हां मम्मी, फ्रैंड्स के साथ टाइम का पता ही नहीं चलता.’’ सुवीरा अपनी बेटियों का मुंह देखती रही, छोड़ पाएगी इन्हें. वह मां है,  क्या करने जा रही है. इतने में समृद्धि ने कहा,

‘‘मम्मी, रिंकी की मम्मी को देखा है आप ने?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘अरे, आप देखो उन्हें. क्या लगती हैं. क्या इंजौय करती हैं लाइफ. और आप कितनी चुपचुप सी रहती हैं.’’

‘‘तो क्या करूं, तुम दोनों तो अपने स्कूल फ्रैंड्स में बिजी रहती हो, मैं अकेली क्या खुश होती घूमूं?’’

सिद्धि शुरू हो गई, ‘‘ओह मम्मी, क्या नहीं है हमारे पास. डैड को देखो, कितने सक्सैसफुल हैं.’’ सुवीरा ने मन में कहा, जैसा बाप वैसी बेटियां. कुछ बोली नहीं, सब को छोड़ कर जाने का इरादा और पक्का हो गया उस का. आगे के तय प्रोग्राम के हिसाब से महेश विनोद के घर से यह कह कर चला गया कि उसे कहीं अच्छा जौब मिल गया है, जहां का आनाजाना यहां से दूर पड़ेगा. विनोद ने बस ‘एज यू विश’ कह कर कुछ खास प्रतिक्रिया नहीं दी. अब सुवीरा और महेश मोबाइल पर ही बात कर रहे थे. 3 दिनों बाद सुवीरा का 37वां बर्थडे था. विनोद ने औफिस से आते ही कहा, ‘‘सुवीरा, मैं परसों जरमनी जा रहा हूं, एक मीटिंग है.’’

वहीं बैठी सिद्धि ने कहा, ‘‘मम्मी का बर्थडे?’’

‘‘हां, तो वहां से महंगा गिफ्ट ले कर आऊंगा तुम्हारी मम्मी के लिए और क्या चाहिए बर्थडे पर.’’ सिद्धि अपने कमरे में चली गई. डिनर के बाद विनोद बैडरूम में अपनी अलमारी में कुछ पेपर्स देख रहा था. वह काफी व्यस्त दिख रहा था. सुवीरा ने बहुत गंभीर स्वर में कहा, ‘‘विनोद, कुछ जरूरी बात करनी है.’’

‘‘अभी नहीं, बहुत बिजी हूं.’’

‘‘नहीं, अभी करनी है.’’

‘‘जल्दी क्या है, लौट कर करता हूं.’’

‘‘तब नहीं हो पाएगी.’’

‘‘क्यों डिस्टर्ब कर रही हो इतना?’’

‘‘विनोद, मैं जा रही हूं.’’

पेपर्स से नजरें हटाए बिना ही विनोद ने पूछा, ‘‘कहां?’’

‘‘महेश के साथ, हमेशा के लिए.’’

पेपर पटक कर विनोद दहाड़ा, ‘‘यह क्या बकवास है,’’ कहतेकहते सुवीरा को मारने के लिए हाथ उठाया तो सुवीरा ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘यह हिम्मत मत करना, विनोद, बहुत पछताओगे.’’

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‘‘क्या बकवास कर रही हो यह?’’

‘‘मैं अब तुम्हारे साथ एक दिन भी नहीं रह सकती.’’

‘‘क्यों , क्या परेशानी है तुम्हें, सबकुछ तो है घर में, कितना पैसा देता हूं तुम्हें.’’

‘‘पैसा अगर खुशी खरीद सकता तो मैं भी खुश होती. मेरे अंदर कुछ टूटने की यह प्रक्रिया लंबे समय से चल रही है विनोद. मुझे जो चाहिए वह नहीं है घर में.’’

‘‘वह धोखेबाज है, उसे मैं हरगिज नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘तुम्हारे पास किसी को पकड़नेछोड़ने के लिए समय है कहां,’’ व्यंग्यपूर्वक कहा सुवीरा ने, ‘‘जिस के पास पत्नी का मन समझने के लिए थोड़ी भी कोई भावना न हो, वह क्या किसी को दोष देगा?’’ विनोद उस का मुंह देखता रह गया, सुवीरा एक बैग में अपने कपड़े रखने लगी. रात हो रही थी. बच्चे सो चुके थे. विनोद पैर पटकते हुए बैडरूम से निकला. कुछ समझ नहीं आया तो सीमा को फोन पर पूरी बता बता

कर उसे फौरन आने के लिए कहा. सुवीरा ने चारों ओर एक उदास सी नजर डाली. ये सब छोड़ कर एक अनजान रास्ते पर निकल रही है. वह गलत तो नहीं कर रही है. अगर गलत होगा भी तो क्या, देखा जाएगा. महेश का साथ अगर रहेगा तो ठीक है वरना पिता के पास चली जाएगी या कहीं अकेली रह लेगी. अब भी तो वह अकेली ही जी रही है. सीमा रंजन के साथ फौरन आ गई. सुवीरा अपना बैग ले कर निकल ही रही थी, वह समझ गई विनोद ने सीमा को बुलाया है. सीमा ने उसे झ्ंिझोड़ा, ‘‘यह क्या कर रही हो, सुवीरा ऐसी क्या मजबूरी हो गई जो इतना बड़ा कदम उठाने के लिए तैयार हो गई?’’

‘‘बस, सीमा, दिमाग को तो सालों से समझा रही हूं, बस, दिल को नहीं समझा पाई. दिल से मजबूर हो गई. अब नहीं रुक पाऊंगी,’’ कह कर सुवीरा गेट के बाहर निकल गई. विनोद जड़वत खड़ा रह गया. सीमा और रंजन देखते रह गए. सुवीरा चली जा रही थी, नहीं  जानती थी कि उस ने गलत किया या सही. बस, वह उस रास्ते पर बढ़ गई जहां महेश उस का इंतजार कर रहा था.

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