बीजी यहीं है: भाग 3- क्या सही था बापूजी का फैसला

तीजत्योहार, ब्याहशादियों में बीजी बहुत याद आती. अपनी पीढ़ी के हर तीजत्योहार, पर्व के लोकगीतों का संग्रह थी वह. ऊपर से आवाज ऐसी कि जो एक बार बीजी के मुंह से कोई लोकगीत सुन ले तो सुनता ही रह जाए.

बीजी के जाने के बाद जब भी मौका मिलता बाबूजी बीजी की बातें ले

बैठते. बीजी के साथ के मेरे होने से पहले के किस्से तब मुझ से सांझ करने से नहीं हिचकते. कई बार तो बाबूजी के नकारने के बाद भी साफ लगता कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी बीजी के और नजदीक हो गए हों जैसे. पता नहीं ऐसा क्यों होता होगा कि किसी के जाने के बाद ही हम उस के पहले से और नजदीक हो आते हैं.

बाबूजी को अपने साथ यों खुलतेघुलते देख मैं हैरान था कि कहां वह बाबूजी का मेरे साथ रिजर्व से भी रिजर्व रहना और कहां आज इतना घुलमिल जाना कि… बाबूजी कभी देवानंद, कभी सुनील दत्त तो कभी किशोर कुमार भी रहे थे, धीरेधीरे वे जब खुश होते तो मेरे पूछे बिना ही अपनी परतें यों खोलते जाते ज्यों अब मैं उन का बेटा न हो कर उन का दोस्त होऊं.

बीजी के जाने के बाद मैं ने ही नहीं, राजी ने भी बाबूजी के चश्मे का नंबर 4 महीने में 4 बार बदलते देखा. हर 20 दिन बाद बाबूजी की शिकायत, मेरी आंखें कुछ देख नहीं पा रहीं. तब राजी ने मन से बाबूजी से कहा भी था कि वे हमारे साथ ही पूरी तरह से रहें. पहले तो बाबूजी माने नहीं, पर बाद में एक शर्त बीच में डाल मान गए. अवसर देख उन्होंने शर्त रखी, ‘‘तो शाम का भोजन सब के लिए नीचे की रसोई में ही बना करेगा. और…’’

‘‘और क्या बाबूजी?’’ उस वक्त ऐसा लगा था जैसे मेरे से अधिक राजी बाबूजी के करीब जा पहुंची हो.

‘‘और रात को मैं नीचे ही

सोया करूंगा.’’

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‘‘यह कैसे संभव है बाबूजी?’’ राजी ने मुझ से पहले आपत्ति जताई तो वे बोले, ‘‘देखो राजी बेटाख् वहां मेरा अतीत है, मेरा वर्तमान है. आदमी हर चीज से कट सकता है पर अपने अतीत, वर्तमान से नहीं. इसलिए… क्या तुम चाहोगी कि मैं अपने अतीत, अपने वर्तमान से कट अपनेआप से कट जाऊं, तुम सब से कट जाऊं? कभीकभी तो आदमी को अपनी शर्तों पर जी लेना चाहिए या कि आदमी को उस की शर्तों पर जी लेने देना चाहिए. इस से संबंधों में गरमाहट बनी रहती है राजी,’’ बाबूजी बाबूजी से दार्शनिक हुए तो मैं अवाक. क्या ये वही बाबूजी हैं जो पहले कभीकभी तो बाबूजी भी नहीं होते थे?

‘‘ठीक है बाबूजी. जैसे आप चाहें,’’ मैं ने और राजी ने उन के आगे ज्यादा जिद्द नहीं की यह सोच कर कि जब 2 दिन बाद ही अकेले वहां ऊब जाएंगे तो फिर जाएंगे कहां?

उस रोज मैं हाफ टाइम के बाद ही औफिस से घर आया तो बाबूजी को धूप में न बैठे देख अजीब सा लगा क्योंकि अब उन को औफिस को जाते, औफिस से आते देखना मुझे पहले से भी जरूरी सा लगने लगा था. अचानक मन में यों ही बेतुका सा सवाल पैदा हुआ कि कहीं बाबूजी से राजी की कोई… पर अब राजी और बाबूजी के रिश्ते को देख कर कहीं ऐसा लगता नहीं था जो… सो इस बेतुके सवाल को परे करते मैं ने राजी से पूछा, ‘‘आज बाबूजी धूप में नहीं आए क्या?’’

‘‘क्यों? आए तो थे. पर तुम?’’

‘‘तबीयत ढीली सी लग रही थी सो सोचा कि घर आ कर आराम कर लूं. शायद तबीयत ठीक हो जाए. कहां गए हैं बाबूजी.’’

‘‘कह गए थे जरा नीचे जा रहा हूं. कुछ देर बाद आ जाऊंगा. चाय बनाऊं क्या?’’

‘‘हां, बना दो सब के लिए. तब तक मैं बाबूजी को देख आता हूं. देखूं तो सही वे…’’ और मैं तुरंत नीचे उतर गया.

बाबूजी जब बाहर नहीं दिखे तो यों ही खिड़की से भीतर झंका यह देखने के लिए कि भीतर बाबूजी क्या कर रहे होंगे? भीतर देखा तो बाबूजी ने पहले सोफोें के कवर ठीक किए, फिर सामने बीजी की टंगी तसवीर की धूल साफ  की अपने कुरते से. उस के बाद बीजी की तरह ही टेबल साफ  करने लगे. टेबल साफ  कर हटे तो बीजी की तरह ही किचन के दरवाजे के पीछे पीछे रखे झड़ू से साफ करने लगे. यह देख बड़ा अचंभा हुआ. जिन चीजों से बाबूजी का अभी दूरदूर तक का कोई वास्ता न होता था, इस वक्त वे चीजें बाबूजी के लिए इतनी अहम हो जाएंगी, मैं ने सपने में भी न सोचा था. मैं ने तो सोचा था कि बीजी के जाने के बाद बाबूजी और भी बेपरवाह हो जाएंगे.

बड़ी देर तक मैं यह सब फटी आंखों से देखता रहा. अचानक मेरी आंखों के गीलेपन के साथ मेरी सिसकी निकली तो सुन बाबूजी चौंके, ‘‘कौन? कौन?’’

‘‘मैं बाबूजी संकु.’’

‘‘तू कब आया?’’ बाबूजी ने अपने को छिपाते सामान्य हो पूछा तो मैं ने भी अपने को छिपा सामान्य होते कहा, ‘‘आज तबीयत ठीक नहीं थी, सो सोचा घर जा कर कुछ आराम कर लूं तो शायद… पर आप यहां… राजी को कह देते, नहीं तो मैं कर देता ये सब…’’

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‘‘नहीं. अपने हिस्से के कई काम कई बार खुद कर के मन को बहुत चैन मिलता है संकु. तुम्हारी बीजी के जाने के इतने महीनों बाद भी जबजब यहां आता हूं तो लगता है कि तुम्हारी बीजी यहीं कहीं है. हम सब के साथ. वह शरीर से ही हम से जुदा हुई है. तुझे ऐसा फील नहीं होता क्या?’’ बाबूजी ने मुझ से पूछा और मुंह दूसरी ओर फेर लिया.

पक्का था उन की आंखें भर आई थीं. सच पूछो तो उस वक्त मैं ने भी बाबूजी के साथ बीजी का होना महसूस किया था पूरे घर में. सोफों पर, टीवी के पास, किचन में हर जगह क्योंकि मैं जानता हूं कि जहां बीजी न हो, वहां बाबूजी एक पल भी नहीं टिकते. एक पल भी नहीं रुकते. कोई उन्हें रोकने की चाहे लाख कोशिशें क्यों न कर ले, वे अपनेआप ऐसी जगह रुकने की हजार कोशिशें क्यों न कर लें. बाबूजी आज भी कुछ मामलों में बड़े स्वार्थी हैं. ऐसे में इस वक्त जो बीजी उन के साथ न होती तो भला वे जब धूप भी धूप तापने को धूप की तलाश में दरदर भटक रही हो, उसे छोड़ बीजी के बिना यहां होते भला?

बीजी यहीं है: भाग 2- क्या सही था बापूजी का फैसला

बीजी की बात जब मौन रह कर भी नकार दी गई या राजी द्वारा ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी गईं कि कुछ दिन तक तो राजी पहले नीचे सब को खाना बनाती पर बाद में बीचबीच में ऊपर की रसोई में बच्चों के लिए स्कूल का भी लंच बना लेती. फिर धीरेधीरे बच्चों के स्कूल से आने के बाद का भोजन भी ऊपर ही बनने लगा और एक दिन जब मैं और राजी नीचे बीजी वाले घर में गए थे कि बीजी ने खुद ही राजी से वह सब कह दिया जो राजी बीजी के मुंह से बहुत पहले सुनना चाहती थी. पर कम से कम बीजी से तो मुझे वह सब कहने की उम्मीद न थी क्योंकि मैं ने बीजी को 40 साल से बहुत करीब से देखा था. इतना करीब से जितना बाबूजी ने भी बीजी को न देखा हो.

बीजी ने उस दिन बिना किसी भूमिका के राजी से कहा था, ‘‘राजी, तू ऊपरनीचे दौड़ती थक जाती है. ऐसा कर, ऊपर की किचन में ही खाना बना लिया कर. मैं नीचे कर लिया करूंगी.’’

‘‘पर बीजी आप?’’

‘‘हमारा क्या? सारा दिन मैं करती भी क्या हूं? इन के और अपने लिए मैं यहीं खाना बना लिया करूंगी. जिस दिन खाना न बने उस दिन को तू तो है ही,’’ पता नहीं कैसे क्या सोच कर बीजी ने हंसते हुए राजी का स्पेस को और स्पेस दी तो मैं हत्प्रभ. आखिर बीजी भी समझौते करना सीख ही गई.

उस वक्त तब मैं ने साफ महसूस किया था कि कल तक जो बीजी उम्र की ढलान

पर बाबूजी से अधिक अपने को फिसलने से बचाए रखे थी, आज वही बीजी उम्र की ढलान से अधिक जज्बाती ढलान पर फिसली जा रही थी. जब आदमी सम?ौता करता हो तो ढलानों पर ऐसे ही फिसलता होगा शायद अपने को पूरी तरह फिसलाव के हवाले कर.

इस निर्णय के बाद से बीजी के  चेहरे पर से धीरेधीरे मुसकराहट गायब रहने लगी. यह बात दूसरी थी कि मैं और दोनों बच्चे सुबहशाम बीजी के पास जा आते. बच्चे तो कई बार वहीं से डिनर कर के आते तो राजी तुनकती भी. पर मुझे अधिक देर तक बीजी, बाबूजी के साथ बच्चों का रहना अच्छा लगता. उस वक्त कई बार तो मुझे ऐसा लगता काश मैं भी चीनू होता. काश मैं भी किट्टी होती.

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जिस बीजी के हाथों के बने खाने से रोगी भी ठीक हो जाते थे, धीरेधीरे वही बीजी अपने ही हाथों बने खाने से बीमार होने लगी.

अब मैं जब भी बीजी को अस्पताल ले जाने को कहता तो वह हंसते हुए टाल जाती, ‘‘अभी तेरे बाबूजी हैं न. वैसे भी अभी कौन सी मरी जा रही हूं. बूढ़ा शरीर है. कब तक इसे उठाए अस्पताल भागता रहेगा. जब लगेगा कि मुझे तेरे साथ अस्पताल जाना चाहिए, तुझे कह दूंगी.’’

और बीजी बिस्तर पर पड़ीपड़ी पता नहीं बड़ी देर तक किस ओर देखती रहती. मुझ से पूरी तरह बेखबर हो. जैसे में उस के पास होने के बाद भी उस के पास बिलकुल भी न होऊं. बीजी को टूटते देख तब टूट तो मैं भी रहा होता पर बीजी से कम तेजी से. कई बार हम केवल अपने को असहाय हो टूटता देखते भर हैं. अपने टूटने को रोकना न उस वक्त अपने हाथ में होता है न किसी और के हाथों में. कई बार टूटना हमारी नियति होती है और उसे चुपचाप भोगने के सिवा हमारे पास दूसरा कोई और विकल्प होता ही नहीं. फिर हम चाहे कितने ही विकल्प खोजने के लिए सैकड़ों सूरजों की रोशनी में कितने ही हाथपांवों को इधरउधर मारते रहें.

दिसंबर का महीना था. आखिर वही हुआ. बीजी ने जम कर चारपाई पकड़ ली. बीजी को जो एक बार बुखार आया तो उसे साथ ले कर

ही गया.

शायद सोमवार ही था उस दिन. सामने पेड़ के पत्ते पीले तो आसमान में सूरज पीला. एक ओर बीजी का चेहरा पीला तो दूसरी ओर बीजी को तापती धूप. बीजी ने चारपाई पर लेटेलेटे पूछा, ‘‘राजी कहां है?’’

‘‘बीजी ऊपर है, कोई गैस्ट आया है. उसे देख रही होगी. कुछ करना है क्या?’’

‘‘नहीं. तू जो पास है तो लगता है मेरे पास मेरी पूरी दुनिया है,’’ बीजी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरते कहा.

बाबूजी साफ मुकर गए थे, ‘‘तेरी बीजी ने मेरा बहुत खयाल रखा है सारी उम्र, मेरे बदले खुद मरती रही. अब मैं भी चाहता हूं कि…’’

‘‘टाइम क्या हो गया?’’ बीजी ने पूछा तो मैं ने मोबाइल में टाइम देख कर कहा, ‘‘बीजी, 5 बजे रहे हैं.’’

‘‘बड़ी देर नहीं कर दी आज इन्होंने बजने में?’’ बीजी ने अपना दर्द अपने में छिपाते पूछा.

‘‘बीजी, रोज तो इसी वक्त 5 बजते हैं. हमारी जल्दी से तो समय नहीं चलेगा न?’’ मैं ने बीजी के अजीब से सवाल पर कहा तो वह बोली, ‘‘देख न, रोज 5 बजते हैं और एक दिन हम ही नहीं होते, पर 5 फिर भी बजते हैं. हमारे जाने के बाद भी सब वैसा ही तो रहता है संकु. बस कोई एक नहीं रहता. एक समय के बाद उसे क्या, किसी को भी नहीं रहना चाहिए,’’ कह बीजी ने पता नहीं क्यों दूसरी ओर मुंह फेर लिया था तब.

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और बीजी चली गई. 15 दिन तक उस के जाने के अनुष्ठान होते रहे. बाबूजी ने

मुझ से बीजी का मेरा काम भी न करने दिया. जब भी मैं कुछ कहता, वे मुझे बस चुप भर रहने का इशारा कर के रोक देते. तब पहली बार पता चला था कि बाबूजी बीजी को कितना चाहते थे? बीजी को कितनी गंभीरता से लेते थे? नहीं तो मैं ने तो आज तक यही सोचा था कि बाबूजी ने बीजी को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं. बीजी ही बाबूजी की चिंता करती रही उम्रभर और मरने के बाद भी करती रहेगी.

बीजी अपने रास्ते चली गई तो हम सब की जिंदगी बीचबीच में बीजी को याद करते अपने रास्ते चलने लगी. मैं महसूस करता कि बाबूजी को अब बीजी पहले से अधिक याद आ रही हो जैसे. जब कभी परेशान होता तो बाबूजी को कम बीजी को अपने कंधे पर हाथ रखे अधिक महसूस करता.

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बीजी यहीं है: भाग 1- क्या सही था बापूजी का फैसला

बीजी के जाने से पहले हम 6 सदस्य थे इस घर के- मैं, मेरी पत्नी, बाबूजी, बीजी और 2 बच्चे किट्टी और चीनू. यह घर बाबूजी ने 35 साल तक क्लर्की करने के बाद बड़ी मुश्किल से बनवाया था. डेढ़ साल पहले मैं ने बीजी के पहले खुल कर, फिर चुप विरोध के बाद भी घर की छत पर 4 कमरों का सैट बना ही दिया. राजी के कहने पर मैं अपने बच्चों के साथ अब इसी से में रह रहा हूं.

मुझे तब बाबूजी, बीजी को नीचे वाले घर में अकेले छोड़ते हुए बुरा भी लगा था, पर राजी के सामने हथियार डालने पड़े थे. शायद इस के पीछे यह भी हो सकता है कि हर मर्द को चाहे अपने घर की तलाश हो या न हो, पर हर औरत को जरूरत होती है. हर मर्द कहीं अपने लिए स्पेस ढूंढ़े या न ढूंढ़े पर हर औरत को अपने लिए एक स्पेस चाहिए, जो केवल और केवल उसी की हो.

बाबूजी तब माहौल ताड़ गए थे जब मैं ने उन से छत पर सैट बनाने के बारे में बताया था, पर बीजी साफ मुकर गई थी यह कहते हुए, ‘‘क्या जरूरत है छत पर एक और घर बनाने की? इसी में जब सब ठीक चल रहा है तो और बेकार का खर्चा क्यों? जिस को तंगी हो रही हो वह बता दे. मैं बाहर के कमरे में सो जाया करूंगी. संकेत, क्या तुझे अच्छा नहीं लगता कि सारा परिवार एक छत के नीचे रहे? एक चूल्हे पर बना सब एकसाथ खाएं?’’ कह बीजी को जैसे आभास हो गया था कि छत के ऊपर सैट बन जाने का सीधा सा मतलब है कि…

बीजी के बाल धूप में सफेद न हुए थे, इस बात का पता मुझे बीच में लगता रहा था.

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‘‘सो तो ठीक है बीजी पर अब बच्चे भी बड़े हो रहे हैं और ऊपर से…’’  राजी एकदम बोल पड़ी तो मैं चौक उठा. घर में कहीं अपने लिए स्पेस तलाशने निकली राजी कुछ और न कह जाए, इसलिए उसे संभालने को मैं ने खुद को एकदम तैयार कर लिया, पर आगे कुछ कहने के बदले वह चुप हो गई. पर चुप होने के बाद भी वह कहना चाहती थी कि वह कह चुकी थी मेरे हिसाब से. उस के यह खुल कर कहने के बाद मैं कहीं से टूटा जरूर था. पर जब बाबूजी ने मेरी ओर शांत हो देखा था तो मुझे लगा था कि मैं इतनी जल्दी टूटने वाला नहीं. कोई साथ अभी भी है, बरगद की तरह. राजी को पता था कि अभी जो चुप रहा गया तो फिर बात कहना और आगे चला जाएगा और वह नहीं चाहती थी कि उस की स्वतंत्रता कुछ और आगे सरक जाए.

ऐसा नहीं कि बीजी ने कभी भी उसे कुछ करने से रोकाटोका हो बल्कि बीजी उसे

अपने से भी अधिक मानती थी. जब देखो, पड़ोस में राजी की तारीफ करते नहीं थकती. मेरी राजी. वाह क्या कहने मेरी राजी के. मौका मिलते ही बीजी हर कहीं बखान करने लग जाती, बहू हो तो राजी जैसी. घर में मुझे कभी कुछ करने ही नहीं देती.

सच कहूं जब से राजी घर में आई है, मैं तो रसोई में जाना ही भूल गई हूं. सब को राजी जैसी बहू मिले. राजी को ले कर बीजी इतनी संजीदा कि उतनी तो राजी अपने को ले कर भी कभी क्या ही रही होगी.

राजी के आगे मैं विवश था, पता नहीं क्यों? मेरी विवशता को बाबूजी मुझ से अधिक जान गए थे. इसलिए जब उन्होंने जैसेतैसे बीजी को समझया तो बीजी ने छत पर सैट बनाने का न तो विरोध किया और न ही हामी भरी. वह बस मन ही मन मसोसती न्यूट्रल हो गई.

और मैं ने लोन ले कर छत पर सैट बनाने का काम शुरू कर दिया. छत पर बन रहे सैट की दीवारें ज्योंत्यों ऊपर उठ रही थीं, बीजी को लगा ज्यों आपस में हम हर पल ईंट एकदूसरे से ओझल होते जा रहे हैं पर राजी खुश थी. अंदर से या बाहर से या फिर अंदरबाहर दोनों ही जगह से, वही जाने.

मगर इतना सब होने के बाद भी बीजी सारा दिन बाबूजी के साथ काम कर रहे मजदूरों की निगरानी करती. मजदूरों के काम करते रहने के बाद भी वजहबेवजह टोकती रहती कि पहले यह करो, वह करो.

4 महीने में सैट बन कर तैयार हो गया तो राजी ने संकेत में वह सब कह डाला जिस का मुझे महीनों पहले यकीन था, ‘‘संकेत, कैसा रहेगा जो हम यहां किचन में कुछकुछ किचन का सामान रख कुछ बनाना भी शुरू कर दें?’’

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‘‘पर नीचे भी तो किचन है. बीजी है, बाबूजी हैं. राजी एक ही किचन में सब एकसाथ मिलबैठ कर खाएं तो तुम्हें नहीं लगता कि खाने का स्वाद कुछ और ही हो जाता है?’’ मैं ने पता नहीं तब कहां से कैसे यह हिम्मत जुटा कर राजी से कहा था. पर मुझे पता था कि मेरी यह हिम्मत अधिक दिन टिकने वाली नहीं और हफ्ते बाद ही वह पस्त भी हो गई. ऊपर वाले सैट में व्हाइटवाश हो चुका था. फर्नीचर भी खरीदा जा चुका था.

राजी ये सब देख बहुत खुश थी तो बीजी उदास. बाबूजी न खुश थे, न उदास.

शायद उन्हें सब पता था कि अब आगे क्या होने वाला है. घर के हर मौसम को वे बड़ी बारीकी से पढ़ने में सिद्धहस्त जो थे.

नई किचन में सब के लिए खुशीखुशी खाना बना. फिर हम सब खाना खाने बैठे. तब बीजी ने मेरी थाली में दाल डालते हुए मेरे भीतर झंकते पूछा, ‘‘संकेत, ऊपर वाला सैट बन गया सो तो ठीक, पर साफ कह देती हूं, चूल्हा जलेगा तो बस एक ही जगह.’’

मैं चुप. मेरे हाथ का ग्रास हाथ में तो मुंह का मुंह में. बाबूजी सब जानते थे. इसलिए वे चुपचाप खाना खाते रहे. उस वक्त वे बीजी के इस फैसले के न तो पक्ष में बोले न विपक्ष में. वैसे, पता नहीं उस वक्त क्यों मुझे ही कुछ ऐसा लगा था जैसे वे कुछ कहने की हिम्मत कर रहे हों. पर ऐन मौके पर चुप हो गए थे. दोनों बच्चे नए लाए सोफोें पर पलटियां खा रहे थे. हमें खाना देती बीजी उन्हें कनखियों से घूरने लग गई थी. पर मैं ने उस वक्त खाना खाते हुए साफ महसूस किया था जैसे आज बीजी के हाथ उदास हैं. उस के हाथों से खाना बनाने की वह मास्टरी कहीं दूर चली गई है.

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नीड़ का निर्माण फिर से: भाग 1- क्या मानसी को मिला छुटकारा

लेखक- श्रीप्रकाश

मानसी का मन बेहद उदास था. एक तो छुट्टी दूसरे चांदनी का ननिहाल चले जाना और अब चांदनी के बिना अकेलापन उसे काट खाने को दौड़ रहा था. मानसी का मन कई तरह की दुश्ंिचताओं से भर जाता. सयानी होती बेटी वह भी बिन बाप की. कहीं कुछ ऊंचनीच हो गया तो. चांदनी की गैरमौजूदगी उस की बेचैनी बढ़ा देती. कल ही तो गई थी चांदनी. तब से अब तक मानसी ने 10 बार फोन कर के उस का हाल लिया होगा. चांदनी क्या कर रही है? अकेले कहीं मत निकलना. समय पर खापी लेना. रात देर तक टीवी मत देखना. फोन पर नसीहत सुनतेसुनते मानसी की मां आजिज आ जाती.

‘‘सुनो मानसी, तुम्हें इतना ही डर है तो ले जाओ अपनी बेटी को. हम क्या गैर हैं?’’ मानसी को अपराधबोध होता. मां के ही घर तो गई है. बिलावजह तिल का ताड़ बना रही है. तभी उस की नजर सुबह के अखबार पर पड़ी. भारत में तलाक की बढ़ती संख्या चिंताजनक…एक जज की इस टिप्पणी ने उस की उदासी और बढ़ा दी. सचमुच घर एक स्त्री से बनता है. एक स्त्री बड़े जतन से एकएक तिनका जोड़ कर नीड़ का निर्माण करती है. ऐसे में नियति उसे जब तहसनहस करती है तो कितनी अधिक पीड़ा पहुंचती है, इस का सहज अनुमान लगा पाना बहुत मुश्किल होता है. आज वह भी तो उसी स्थिति से गुजर रही है. तलाक अपनेआप में भूचाल से कम नहीं होता. वह एक पूरी व्यवस्था को नष्ट कर देता है पर क्या नई व्यवस्था बना पाना इतना आसान होता है. नहीं…जज की टिप्पणी निश्चय ही प्रासंगिक थी.

पर मानसी भी क्या करती. उस के पास कोई दूसरा रास्ता न था. पति घर का स्तंभ होता है और जब वह अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाए तो अकेली औरत के लिए घर जोड़े रखना सहज नहीं होता. मानसी उस दुखद अतीत से जुड़ गई जिसे वह 10 साल पहले पीछे छोड़ आई थी. उस का अतीत उस के सामने साकार होने लगा और वह विचारसागर में डूब गई. उस की सहकर्मी अचला ने उस दिन पहली बार मानसी की आंखों में गम का सागर लहराते देखा. हमेशा खिला रहने वाला मानसी का चेहरा मुरझाया हुआ था. कभी सास तो कभी पति को ले कर हजार झंझावातों के बीच अचला ने उसे कभी हारते हुए नहीं देखा था. पर आज वह कुछ अलग लगी. ‘मानसी, सब ठीक तो है न?’ लंच के वक्त उस की सहेली अचला ने उसे कुरेदा. मानसी की सूनी आंखें शून्य में टिकी रहीं. फिर आंसुओं से लबरेज हो गईं.

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‘मनोहर की नशे की लत बढ़ती ही जा रही है. कल रात उस ने मेरी कलाई मोड़ी…’ इतना बतातेबताते मानसी का कंठ रुंध गया. ‘गाल पर यह नीला निशान कैसा…’ अचला को कुतूहल हुआ. ‘उसी की देन है. जैकेट उतार कर मेरे चेहरे पर दे मारी. जिप से लग गई.’ इतना जालिम है मानसी का पति मनोहर, यह अचला ने सपने में भी नहीं सोचा था.  मानसी ने मनोहर से प्रेम विवाह किया था. दोनों का घर आसपास था इसलिए अकसर उन दोनों परिवारों का एकदूसरे के घर आनाजाना था. एक रोज मनोहर मानसी के घर आया तो मानसी की मां पूछ बैठीं, ‘कौन सी क्लास में पढ़ते हो?’ ‘बी.ए. फाइनल,’ मनोहर ने जवाब दिया था. ‘आगे क्या इरादा है?’ ‘ठेकेदारी करूंगा.’ मनोहर के इस जवाब पर मानसी हंस दी थी. ‘हंस क्यों रही हो? मुझे ढेरों पैसे कमाने हैं,’ मनोहर सहजता से बोला. उधर मनोहर ने सचमुच ठेकेदारी का काम शुरू कर दिया था. इधर मानसी भी एक स्कूल में पढ़ाने लगी.

24 साल की मानसी के लिए अनेक रिश्ते देखने के बाद भी जब कोई लायक लड़का न मिला तो उस के पिता कुछ निराश हो गए. मानसी की जिंदगी में उसी दौरान एक लड़का राज आया. राज भी उसी के साथ स्कूल में पढ़ाता था. दोनों में अंतरंगता बढ़ी लेकिन एक रोज राज बिना बताए चेन्नई नौकरी करने चला गया. उस का यों अचानक चले जाना मानसी के लिए गहरा आघात था. उस ने स्कूल छोड़ दिया. मां ने वजह पूछी तो टाल गई. अब वह सोतेजागते राज के खयालों में डूबी रहती.

करवटें बदलते अनायास आंखें छलछला आतीं. ऐसे ही उदासी भरे माहौल में एक दिन मनोहर का उस के घर आना हुआ. डूबते हुए को तिनके का सहारा. मानसी उस से दिल लगा बैठी. यद्यपि दोनों के व्यक्तित्व में जमीनआसमान का अंतर था पर किसी ने खूब कहा है कि खूबसूरत स्त्री के पास दिल होता है दिमाग नहीं, तभी तो प्यार में धोखा खाती है. मनोहर से मानसी को तत्काल राहत तो मिली पर दीर्घकालीन नहीं.

मांबाप ने प्रतिरोध किया. हड़बड़ी में शादी का फैसला लेना उन्हें तनिक भी अच्छा न लगा. पर इकलौती बेटी की जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा. मानसी की सास भी इस विवाह से नाखुश थीं इसलिए थोड़े ही दिनों बाद उन्होंने रंग दिखाने शुरू कर दिए. मानसी का जीना मुश्किल हो गया. वह अपना गुस्सा मनोहर पर उतारती. एक रोज तंग आ कर मानसी ने अलग रहने की ठानी. मनोहर पहले तो तैयार न हुआ पर मानसी के लिए अलग घर ले कर रहने लगा.

यहीं मानसी ने एक बच्ची चांदनी को जन्म दिया. बच्ची का साल पूरा होतेहोते मनोहर को अपने काम में घाटा शुरू हो गया. हालात यहां तक पहुंच गए कि मकान का किराया तक देने के पैसे न थे. हार कर उन्हें अपने मांबाप के पास आना पड़ा. मानसी ने दोबारा नौकरी शुरू कर दी. मनोहर ने लगातार घाटे के चलते काम को बिलकुल बंद कर दिया. अब वह ज्यादातर घर पर ही रहता. ठेकेदारी के दौरान पीने की लत के चलते मनोहर ने मानसी के सारे गहने बेच डाले.

यहां तक कि अपने हाथ की अंगूठी भी शराब के हवाले कर दी. एक दिन मानसी की नजर उस की उंगलियों पर गई तो वह आपे से बाहर हो गई, ‘तुम ने शादी की सौगात भी बेच डाली. मम्मी ने कितने अरमान से तुम्हें दी थीं.’ मनोहर ने बहाने बनाने की कोशिश की पर मानसी के आगे उस की एक न चली. इसी बात को ले कर दोनों में झगड़ा होने लगा. तभी मानसी की सास की आवाज आई, ‘शोर क्यों हो रहा है?’ ‘आप के घर में चोर घुस आया है.’

वह जीने से चढ़ कर ऊपर आईं. ‘कहां है चोर?’ उन्होंने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं. मानसी ने मनोहर की ओर इशारा किया, ‘पूछिए इन से… अंगूठी कहां गई.’ सास समझ गईं. वह कुछ नहीं बोलीं. उलटे मानसी को ही भलाबुरा कहने लगीं कि अपने से छोटे घर की लड़की लाने का यही नतीजा होता है. मानसी को यह बात लग गई. वह रोंआसी हो गई. आफिस जाने को देर हो रही थी इसलिए जल्दीजल्दी तैयार हो कर इस माहौल से वह निकल जाना चाहती थी.

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शाम को मानसी घर आई तो जी भारी था. आते ही बिस्तर पर निढाल पड़ गई. अपने भविष्य और अतीत के बारे में सोचने लगी. क्या सोचा था क्या हो गया. ससुर कभीकभार मानसी का पक्ष ले लेते थे पर सास तो जैसे उस के पीछे पड़ गई थीं. एक दिन मनोहर कुछ ज्यादा ही पी कर आया था. गुस्से में पिता ने उसे थप्पड़ मार दिया. ‘कुछ भी कर लीजिए आप, मैं  पीना  नहीं  छोड़ूंगा. मुझे अपनी जिंदगी की कोई परवा नहीं. आप से पहले मैं मरूंगा. फिर नाचना मानसी को ले कर इस घर में अकेले.’ शराब अधिक पीने से मनोहर के गुरदे में सूजन आ गई थी. उस का इलाज उस के पिता अपनी पेंशन से करा रहे थे. डाक्टर ने तो यहां तक कह दिया कि अगर इस ने पीना नहीं छोड़ा तो कुछ भी हो सकता है. फिर भी मनोहर की आदतों में कोई बदलाव नहीं आया था. मानसी ने लाख समझाया, बेटी की कसम दी, प्यार, मनुहार किसी का भी उस पर कोई असर नहीं हो रहा था.

बस, दोचार दिन ठीक रहता फिर जस का तस. मानसी लगभग टूट चुकी थी. ऐसे ही उदास क्षणों में मोबाइल की घंटी बजी. ‘हां, कौन?’ मानसी पूछ बैठी. ‘मैं राज बोल रहा हूं. होटल अशोक के कमरा नं. 201 में ठहरा हूं. क्या तुम किसी समय मुझ से मिलने आ सकती हो,’ उस के स्वर में निराशा का भाव था. राज आया है यह जान कर वह भावविह्वल हो गई. उसे लगा इस बेगाने माहौल में कोई एक अपना हमदर्द तो है. वह उस से मिलने के लिए तड़प उठी.

आफिस न जा कर मानसी होटल पहुंची. दरवाजे पर दस्तक दी तो आवाज आई, ‘अंदर आ जाओ.’ राज की आवाज पल भर को उसे भावविभोर कर गई. वह 5 साल पहले की दुनिया में चली गई. वह भूल गई कि वह एक शादीशुदा है.  मानसी की अप्रत्याशित मौजूदगी ने राज को खुशियों से भर दिया. ‘मानसी, तुम?’ ‘हां, मैं,’ मानसी निर्विकार भाव से बोली, ‘कुछ जख्म ऐसे होते हैं जो वक्त के साथ भी नहीं भरते.’ ‘मानसी, मैं तुम्हारा गुनाहगार हूं.’ ‘पर क्या तुम मुझे वह वक्त लौटा सकते हो जिस में हम दोनों ने सुनहरे कल का सपना देखा था?’ राज खामोश था.

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नजरिया: क्या श्रुति के बदलाव को रोक पाया उसका पति

सुरभिअपने भाई से मिलने दुबई जाने वाली फ्लाइट में बैठी विंडो के बाहर नजारों का आनंद ले रही थी. वह लंबे समय बाद अकेली सफर कर रही थी. अकेले सफर करना उसे रोमांचित कर रहा था.

उड़ते बादलों के संग उस का मन भी उड़ान भर रहा था. रूई के समान बिखरे हुए बादलों पर गिरती सुनहरी किरणें मानों सोना बरसा रही थीं. रंगों को नयनों में भर कर उस का दिल तूलिका पकड़ने के लिए मचलने लगा. उस के भाव उमड़ने लगे. इस नीले आसमान में डूबने की चाहत व विचारों की अनुभूति अपनी पराकाष्ठा तक पहुंचती कि अचानक एअर होस्टेस की आवाज ने सुरभि की तंद्रा भंग कर दी.

‘‘कृपया सभी यात्री ध्यान दें, खराब मौसम के कारण विमान को हमें टरमैक पर उतारना होगा. आप को हुई असुविधा के लिए हमें खेद है. मौसम साफ होते ही हम दोबारा उड़ान भरेंगे. तब तक यात्री अपनीअपनी सीट पर ही बैठे रहें.’’

विमान को टरमैक पर उतार दिया गया. सुरभि के बराबर वाली सीट पर एक बातूनी सा सभ्य दिखने वाला व्यक्ति बैठा था. विमान में बैठेबैठे लोग कर भी क्या सकते थे.

समय काटने के लिए उस ने स्वयं सुरभि से बात छेड़ दी, ‘‘हैलो, मैं राहुल हूं, आप दुबई से हैं?

सुरभि ने उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उस ने पलक झपकते ही कहा, ‘‘आप अन्यथा न लें, मौसम के व्यवधान के कारण हमें विमान में ही बैठना होगा. आप के हाथ में किताब देख कर लगा कि आप को पढ़ने का शौक है. सोचा आप से बात करतेकरते वक्त कट जाएगा. आप क्या करती हैं?’’

‘‘हां, आप ने सही कहा…’’ शांत मन से सुरभि ने भी जवाब दिया, ‘‘मैं थोड़ाबहुत लिखती हूं पर मुझे रंगों से ज्यादा लगाव है. चित्रकारी का भी बहुत शौक है.’’

‘‘अरे वाह, मुझे भी पहले लिखने का शौक था जो कहीं खो सा गया. समय के साथ सब बदल जाता है, जरूरतें भी. कितना अच्छा लगता है रंगों से खेलना… अच्छा आप के पसंदीदा राइटर?’’

फिर लेखकों व किताबों से शुरू हुई बातों का सिलसिला धीरेधीरे गहराता चला गया. एकजैसी पसंद व स्वभाव ने एकदूसरे के साथ को आसान बना दिया था. राहुल की आंखों में गजब की गहराई थी. गहरे बोलते नयन व बातों की कशिश ने जहां सुरभि को राहुल की तरफ आकर्षित किया, वहीं सुरभि के हंसमुख, सरल स्वभाव व सादगी ने राहुल के

मन को गुदगुदा दिया. दोनों एकदूसरे के प्रति आकर्षण महसूस कर रहे थे. सुरभि चेहरापढ़ना जानती थी. यह आकर्षण दैहिक न हो कर नए आत्मिक रिश्ते की शुरुआत जैसा लग रहा था. एकदूजे के प्रति सम्मानित भाव दोनों की नजरों में दिख रहे थे. शायद दोनों को दोस्त की जरूरत थी.

बातें करते हुए दोनों एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि अपने जीवन के पन्ने भी एकदूसरे के सामने खोलते चले गए. अपनी ही दुनिया में दोनों इतने मग्न थे कि कब विमान अपने गंतव्य तक पहुंच गया उन्हें खबर ही नहीं हुई.

इन 6-7 घंटों में दोस्ती इतनी गहराई कि फोन नंबरों के आदानप्रदान के साथ अनकहे शब्द भी नजरों ने बांच दिए थे. विदा लेने के क्षण धीरेधीरे करीब आ रहे थे.

तभी एअरहोस्टेस ने अनाउंस किया, ‘‘यात्रीगण कृपया सीट बैल्ट बांध लें. विमान अपने गंतव्य पर उतरने वाला है.’’

‘‘सुरभि, आप कब तक दुबई में हैं?’’ राहुल ने उत्सुकता से पूछा.

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‘‘मैं 4 दिनों के लिए आई हूं. फिर वापस दिल्ली चली जाऊंगी. आप कब तक हैं राहुलजी?’’

‘‘मुझे राहुल ही कहो, यह अपनेपन का एहसास देता है. मैं अपने काम से यहां आयाहूं. 2 दिन बाद दिल्ली फिर वहां से मुंबई चला जाऊंगा.’’‘‘ठीक है राहुल, वक्त कितनी जल्दी पंख लगा कर उड़ गया पता ही नहीं चला. अच्छा लगा तुम से मिल कर…’’

‘‘हां सुरभि, मुझे भी तुम से मिल कर बहुत अच्छा लगा. अब हम दोस्त हैं और यह

दोस्ती बनी रहेगी. एक बात और कहना चाहता हूं कि परिस्थिति कैसी भी हो, हमें उसे खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए, नहीं तो जीवन बोझिल प्रतीत होता है. हम सभी अपने कर्तव्यों से बंधे हुए हैं. हमें कर्म को प्राथमिकता देनी पड़ती है. विषम परिस्थितियों में भी अपनी प्यारभरी अनुभूतियों को याद कर के गुनगुनानाओ और हंस कर जीयो. तुम से मिल कर बहुत कुछ समेटा है अपने भीतर… यों ही हंसती रहना सुरभि,’’ राहुल एक ही सांस में बोल गया.

‘‘हां राहुल, मुझे भी यह छोटा सा साथ बहुत अच्छा लगा. दोबारा मिलना तो शायद न हो सकेगा, पर फोन पर बात जरूर होगी,’’ सुरभि ने उदास स्वर में कहा.

एकदूसरे से मन की बात कह दोनों विमान से बाहर आ गए. राहुल वहां सुरभि के परिजनों के आने तक रुका, फिर उन से मिल कर चला गया. सुरभि का मन उमंगों से भरा था, धड़कनें न जाने क्यों बढ़ी हुई थीं, मन न जाने क्यों गुदगुदा रहा था. साथ ही एक अजीब सी उलझन भी थी जैसे कुछ छूट रहा हो. वह जब तक घर नहीं पहुंच गई तब तक राहुल के फोन हालचाल के लिए आते रहे. उसे पहले अटपटा सा लगा, मगर राहुल का यह केयरिंग नेचर सुरभि के मन को रोमांचित करने लगा.

घर आ कर वह अपनों के साथ मस्ती में जैसे खुद को भूल गई थी. हंसीमजाक व ठहाकों के दौर शुरू थे. कालेज की बातें, पुराने दिन, सहेलियों से मस्ती, बचपन के सभी पल याद

आ गए. घर में भाई ने पार्टी रखी थी. सभी दोस्त आने वाले थे जो बचपन से साथ पढ़े थे और सुखद पहलू यह भी था कि कुदरत ने उन्हें फिर से मिला दिया था. सब से मिल कर सुरभि बहुत उत्साहित थी. पार्टी खत्म होने के बाद सब सोने चले गए, पर सुरभि की आंखों से नींद गायब थी.

सब के जाने के बाद सुरभि आसमान निहार रही थी कि कुछ काले बादल देख कर उसे अपने बीते दिन याद आने लगे…

उस के आसमान पर ही काले बादल क्यों मंडराते हैं? नींद उस की आंखों से कोसों दूर हो गई. रात में उस ने दिल्ली फोन लगा कर अपने सकुशल पहुंचने की सूचना दे दी थी. पर स्नेह की एक बूंद को तरसता उस का प्यासा मन रेगिस्तान के समान तपने लगा. विनोद का व्यवहार उसे अंदर तक सालता था. अनजाने ही मन को उदासी के बादल घेर रहे थे. राहुल ने उस के मन में दबी चिनगारी को अनजाने ही हवा दे दी थी. शायद उस चिनगारी का कारण विनोद ही थे.

विनोद बिलकुल उस के विपरीत स्वभाव के थी. जहां सुरभि खुले विचारों वाली हंसमुख व विनोदी स्वभाव की लड़की थी, वहीं पेशे से वकील विनोद की सोच पारंपरिक व संकीर्ण थी. आकर्षक व्यक्तित्व वाले इंसान की सोच इतनी छोटी होगी सुरभि को शादी के बाद ही पता चला. किसी से भी ज्यादा बातें करना विनोद को पसंद नहीं था. सुरभि का परपुरुष से बातें करना उसे नागवार गुजरता था, कोई राह चलता पुरुष भी यदि सुरभि को देखता तब भी विनोद की शक्की निगाहें व तीखे बाण सुरभि पर ही चलते कि फलां तुम्हें क्यों देख रहा था? जरूर तुम ने ही पहले उसे देखा होगा… शादी के बाद सुरभि के पारिवारिक संबंधी व मित्रों की संख्या कम होने लगी. विनोद कब किस के बारे में क्या समझ ले कहना मुश्किल था.

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सुरभि ने धीरेधीरे खुद को बदल कर विनोद के इर्दगिर्द समेट लिया था. कहते हैं इंसान प्यार में अंधा हो जाता है. सुरभि ने प्यार किया पर विनोद का प्यार जंजीर बन कर उसे जकड़ चुका था. बच्चे भी विनोद की मानसिकता के शिकार होने लगे. जब उस का मन करता सब से मेलजोल बढ़ाता पर जब पारिवारिक संबंध बनने लगते तो वहीं पर लगाम कसने लगता. गुस्सा आने पर मतभेद होने पर कई दिनों तक अकारण अबोलापन कायम रहना आम बात थी. घर में सीमित वार्त्तालाप अकेलेपन को जन्म दे चुका था.

घर का बोझिल वातावरण घुटनभरा होने लगा. जैसे हवा का दबाव सांस लेने के लिए अनुपयुक्त था. सासससुर, मामाभानजी, सालीसलहज जैसे रिश्ते भी विनोद के शक की आग में जल गए थे. डर का दानव अपना विकराल रूप लेने लगा. मन की कली रंगों से परहेज करने लगी थी.

सुरभि के पास ये सब सहने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था. विनोद घर पर न हो तो सभी हंसतेबोलते थे, उस के सामने मजाक करना भी दुश्वार था. धीरेधीरे बच्चे भी अपनी जिंदगी में रम गए. अपना अकेलापन दूर करने के लिए सुरभि का समय सहेलियों के साथ ही व्यतीत होने लगा. पर मन आज भी प्यासा सा पानी की तलाश कर रहा है. विनोद ने कभी भूल से भी सुरभि से यह नहीं पूछा कि तुम्हें क्या पसंद है? रूठनामनाना तो बस फिल्मों में होता है. न कोई शौक न उत्साह. जब आधी उम्र गुजर जाने के बाद भी विनोद की सोच में परिवर्तन नहीं आया, तो मन उस से दूर भागने लगा. अब उस से दूर रहना ही मन को शांति देता था.

आज राहुल के अपनेपन ने कलेजे में ठंडक सी प्रदान की. दर्द बह कर निकल चुका था. सुरभि का मन हलका था. काश, विनोद उस का सच्चा हमसफर व एक दोस्त बन पाता जिस से वह खुल कर अपने सब रंग बांट सकती, जिंदगीके सारे चटक रंगों को अपने जीवन में भर सकती… सोचतेसोचते कब आंख लगी पता ही नहीं चला.

कोरों से निकले आंसू गालों पर रेखाचित्र बना कर अपने निशान छोड़ गए थे. मुख चूमती हुई भोर की किरणों ने उसे गुदगुदा कर उठा दिया. आईने में खुद को निहारते हुए होंठों पर तैर आई मुसकान ने आंखों में चमक पैदा कर दी थी. खुद को देख कर खुद के लिए जन्मा प्यार, मस्तीभरी जीवन के रंगों में भीगी शोख अदाएं जिस पर कालेज में सब मरमिटते थे, आज उसे अपने अंदर वही शोखी नजर आ रही थी. उस के अंदर नई ऊर्जा का संचार हो चुका था. 4 दिन पंख लगा कर उड़ गए. सुरभि खुद को बदलाबदला महसूस कर रही थी.

दिल्ली आने तक पुरानी सुरभि उस के अंदर वापस आ गई थी. राहुल की बातों ने उस की सोई हुई लालसा को जगा दिया था. आज उस के भीतर की सुरभि जाग गई थी. कालेज के दिनों के उस के शौक अब जीवन में नए रंग भरने के लिए तैयार थे. उस ने अपने जीवन को फिर से रंगों के इर्दगिर्द समेट लिया था. विनोद भी उस के इस परिवर्तन से हैरान था.

चाय पीते हुए विनोद अचानक बोले, ‘‘क्या बात है सुरभि, बहुत बदलीबदली नजर आ रही हो, इतने दिनों में किसकिस से मिली… क्याक्या नए जलवे बिखेरे?’’

‘‘कुछ नहीं, बस बचपन जी कर आ रही हूं. तुम ने मुझे कभी उस तरह देखा ही कहां है… कितना जानते हो मेरे शौक को?’’ सुरभि की आवाज में जाने क्या था कि आज विनोद चुप

हो गया.

एक समय के बाद नदी का प्रवाह भी पत्थर से टकरा कर अपनी दिशा बदल लेता है. आज वे कोमल संवेदनाएं पत्थर से टकरा कर चूरचूर हो गई थीं.

फिर से जीवन ने करवट बदल ली. अपने नाम को सार्थक करती हुई सुरभि फिर से महकने लगी. उस के रंगों ने अपना एक आसमान तैयार कर लिया था. विनोद ने कुछ कहा नहीं बस चुपचाप उसे बदलते हुए देखता रहा.

काम करते समय जब भी फोन की घंटी बजती सुरभि की आंखें फोन में कुछ तलाशने लगतीं. कानों को राहुल की आवाज का इंतजार था. उस ने 1-2 बार संदेश भी भेजा पर कोई जवाब नहीं आया.

राहुल अपनी सीमा जानता था. इंतजार सप्ताह से बढ़ कर महीना और फिर साल में परिवर्तित हो गया पर राहुल का फोन नहीं आया. उस के साथ बिताए 6-7 घंटों ने ऐसी चिनगारी भड़काई कि सुरभि दोबारा जी उठी थी. मगर उस के उपेक्षित व्यवहार से सुरभि का पुरुषों के प्रति नजरिया बदल गया था. राहुल ने कहा था खून से बढ़ कर नमक का रिश्ता नहीं होता. हर बात की एक मर्यादा होती है.

सब पुरुष एकजैसे ही होते हैं. स्त्री के प्रति उन का नजरिया नहीं बदलता. पुरुष उस

पर एकछत्र राज्य ही करना चाहता है. अपने घर के बाहर मर्यादा की रेखा खींच कर दोहरा व्यक्तित्व जीता है. स्त्रीपुरुष की मित्रता वह सामान्य तरीके से लेना कब सीखेगा? नारी के लिए लकीर खींचने का हक पुरुष को किस ने दिया? दोनों अलगअलग व्यक्तित्व हैं, फिर हर फैसला लेने का अधिकार एक को कैसे हो सकता है? मन के भाव शब्दों व रंगों के माध्यम से अपनी बात बेखौफ कहने लगे. तूफान गुजरने के बाद घर का नजारा कुछ बिखरा सा था.

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आज मन शांत हो गया. विनोद को समझना उस के लिए अब आसान हो गया था. शायद सभी पुरुषों की सोच ऐसी ही होती है. कूची जीवन को सफेद कागजों पर जीवंत करने लगी. सुप्त मन के भाव आकार लेने लगे. उस का मन चंचल हिरणी के समान हो गया था जो अपने ही जंगल में विचरण का पूर्ण आनंद लेती है. अपने रंगों व अनुभूतियों में डूबी सुरभि आज अपने पिंजरे में भी खुश थी. मेज पर रखा खाली गिलास भी उसे खाली नहीं लग रहा था. उस  में हवा थी जो चुपचाप पानी की बूंदों को आत्मसात कर के गिलास को सुखाने का प्रयत्न कर रही थी.

उस के जीवन में अब खालीपन का स्थान नहीं था. उस के चाय के कप से निकलती भाप हवा में अपने अस्तित्व का संकेत दे कर विलय हो रही थी. इलायची की खुशबू वातावरण को महका रही थी. चाय पीने की तलब ने हाथों को कप की तरफ बढ़ा कर होंठों से लगा लिया.

चाय की चुसकियां व बंजर से जीवन में वसंत ने अपने रंग भर दिए थे. रेडियो पर बज रहा गाना गुनगुनाने को मजबूर कर रहा था, ‘मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो मैं बता दूं…’ दिल आज भी उस आवाज को सुन कर धन्यवाद देना चाहता है, जिस ने अनजाने ही सूखे गुलाब में इत्र की कुछ बूंदें छिड़क दी थीं.

‘‘स्नेह की एक बूंद को तरसता उस का प्यासा मन रेगिस्तान के समान तपने लगा. विनोद का व्यवहार उसे अंदर तक सालता था…’’

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हम साथ साथ हैं: भाग 2- क्या जौइंट फैमिली में ढल पाई पीहू

सीमा के ही बहुत कहने पर वह इंटरव्यू के लिए चली गई. मल्टीनैशनल कंपनी थी. पीहू का क्रिएटिव वर्क उन्हें बहुत पसंद आया. उन्होंने पीहू को अच्छा पैकेज औफर किया और कंपनी जौइन करने के लिए कहा. पीहू को ऐसी बिलकुल उम्मीद नहीं थी. अपने बलबूते पर पहले इंटरव्यू में ही सेलैक्शन हो जाना काफी बड़ी बात थी. पीहू ने हां कहने में देर नहीं लगाई.

घर लौटते हुए उस के पांव जमीं पर नहीं टिक रहे थे. पीहू कैब कर के ही यहां आई थी क्योंकि इतनी दूर ड्राइव करने का उस का मन नहीं था. कंपनी के बाहर आ कर वह कैब बुक करने लगी. पूरे आधे घंटे की वेटिंग आ रही थी. पीहू ने सोचा, आधा घंटा इंतजार करने के बजाय वह मैट्रो न ले ले. सामने ही मैट्रो स्टेशन नजर आ रहा था. ‘चलो, आज मैट्रो ही सही,’ सोचते हुए मैट्रो स्टेशन की ओर चल दी.

रोड क्रौस करने ही वाली थी कि एक बाइक ने जोर से हौर्न दिया. पीहू ने पीछे मुड़ कर देखा. बाइक पर बैठे युवक के चेहरे पर हैल्मेट का काला शीशा था, सो, वह शक्ल नहीं देख पा रही थी, लेकिन वह उसे हाथ हिला कर पास आने का इशारा कर रहा था. ‘कौन बदतमीज है’ पीहू जोर से बोलने ही वाली थी कि युवक ने अपना हैल्मैट उतार दिया. ‘अरे हर्ष, वाऊ व्हाट अ कोइंसिडैंट, कहां जा रहे हो?’

‘मैडम, जा नहीं रहा, औफिस से आ रहा हूं. बताया तो था कि गुरुग्राम के सैक्टर 26 में मेरा औफिस है. लेकिन तुम कहां से आ रही हो?’

‘हर्ष, आज मेरा इंटरव्यू था और आई गोट द जौब, बहुत खुश हूं मैं,’ पीहू ने चहकते हुए बताया.

‘वाऊ, फिर तो ट्रीट हो जाए इस खुशी में,’ हर्ष ने मौके का फायदा उठाते हुए कहा.

‘बिलकुल, लेकिन आज नहीं. कल पक्का,’ पीहू ने कहा, ‘घर जाना है अभी. मम्मी इंतजार कर रही हैं. पापा घर पर नहीं हैं, वे अकेली हैं.’

‘यार, मैट्रो छोड़ो. मेरी बाइक पर बैठो. देखो कितनी जल्दी पहुंचाता हूं तुम्हें घर,’ हर्ष ने कहा तो पीहू भी मान गई और हर्ष की बाइक पर बैठ गई.

आज वह वैसे ही बहुत खुश थी. ऊपर से हर्ष का साथ उसे और प्रफुल्लित कर रहा था. स्पीड ब्रेकर आया तो झटके के कारण उस ने हर्ष को दोनों हाथों से पकड़ लिया. ‘मैडम जरा अच्छी तरह से बैठो. बाइक तेज चला रहा हूं, इसलिए कह रहा हूं. कोई गलत मतलब मत समझना,’ हर्ष हंसते हुए बोला.

‘और अगर गलत मतलब समझूं तो?’ पीहू ने जानबूझ कर मस्ती करने के लिए कहा.

‘तुम तो जानती हो, मैं कितना शरीफ लड़का हूं,’ हर्ष ने अपना वही पुराना डायलौग मारा तो दोनों हंस पड़े.

इस तरह से हर्ष और पीहू की जानपहचान बढ़ती गई. मुलाकातें पहले हफ्ते में एक, फिर 2 और अब तो रोज ही दोनों मिलते थे क्योंकि अब दोनों एकदूसरे के प्यार में अच्छी तरह से डूब गए थे.

‘‘हर्ष, तुम मुझ से हमेशा इसी तरह प्यार करते रहोगे?’’

‘‘पीहू, शादी करोगी मुझ से,’’ जवाब सुनाने के बजाय हर्ष का उस से एकदम से यह पूछना पीहू को चौंका गया. हर्ष आगे बोला, ‘‘बोलो न, जितना सीधा साफ मैं ने तुम से सवाल किया वैसा ही जवाब चाहता हूं?’’

‘‘घर कब आ रहे हो मम्मीपापा से मिलने?’’ पीहू ने शरारती नजरों से हर्ष को देखते हुए कहा.

‘‘यस, मुझे पता था, तुम इनकार क्यों करोगी भला. वह तो मैं ऐसे ही पूछ रहा था,’’ हर्ष ने पीहू को छेड़ा.

‘‘अच्छा, बताऊं तुम्हें. वैसे भी, मैं ने कब हां कहा. मैं ने तो ऐसे ही पूछा है कि मम्मीपापा से मिलने कब आ रहे हो. मेरे फ्रैंड्स क्या मेरे घर नहीं आते,’’ पीहू भी अकड़ कर बोली.

‘‘अच्छा… अच्छा, अब सब मजाक बंद. सच में पीहू, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं क्योंकि तुम मेरे परिवार के लिए फिट हो,’’ हर्ष गंभीर हो कर बोला.

‘‘परिवार के लिए फिट हूं, मतलब?’’ पीहू ने हैरानी से पूछा.

‘‘पीहू, तुम्हें शायद मैं ने बताया नहीं कि हमारी जौइंट फैमिली है,’’ हर्ष बोला.

‘‘हां, तो फिर क्या हुआ. मुझे तो अच्छी लगती है जौइंट फैमिली. हमारी न्यूक्लिर फैमिली रही है. इसलिए मैं तो चाहती थी कि मेरी शादी ऐसी जगह हो जहां घर में सब रिश्ते निभाने को मिलें,’’ पीहू हर्ष का हाथ अपने हाथ में ले कर बोली.

‘‘मेरे घर में तुम्हें इतने रिश्ते निभाने को मिलेंगे कि निभातेनिभाते थक जाओगी. माई डियर, छोटीमोटी जौइंट फैमिली नहीं है मेरी, अच्छाखासा भरापूरा बहुत बड़ा परिवार है हमारा.

‘‘ताऊजी उन के 2 बेटे, दोनों की शादी हो गई है और उन के 1-1 बच्चा है. 2 मामा जिन की 2-2 बेटियां हैं, अनमैरिड हैं. 3 मौसियां हैं, तीनों का परिवार यहीं दिल्ली में है. 2 बूआ हैं, एक अंबाला में रहती थीं, वे भी पिछले साल दिल्ली शिफ्ट हो गईं. दोनों चाचा तो साथ ही रहते हैं. पता है, मेरी दादी और नानी 80 वर्ष से ज्यादा की हो गईं. दोनों अभी भी अपने सारे काम खुद करती हैं. दादी हमारे साथ रहती हैं. एक तरह से उन्होंने ही मुझे बचपन में पाला है.

‘‘इतना ही नहीं, मेरी मम्मी की 4 मौसियां हैं और पापा के 3 मामा हैं. मेरे कजिंस से मिलोगी तो लगेगा किसी गैंग से मिल रही हो. सब एक से बढ़ कर एक हैं. लेकिन हम सब में बहुत प्यार है. व्हाट्सऐप ग्रुप बनाया हुआ है हम ने. सभी अपनी सारी बातें सब से शेयर करते हैं. और वो…’’

‘‘अरे, अरे, और भी है अभी बताने को?’’ पीहू आंखें फैला कर बोली, ‘‘हर्ष, इतना बड़ा परिवार. बाप रे. कैसे संभालते हो सब रिश्तेनाते. रोज किसी का कुछ न कुछ लगा ही रहता होगा. याद कैसे रखते हो. और एक मेरी फैमिली है उंगली पर गिना सकती हूं सब को.’’

‘‘पीहू, तुम से मिल कर, तुम्हारी बातें, तुम्हारी आदतें सब देख कर मुझे लगा कि तुम मेरे लिए ही नहीं, मेरी फैमिली के लिए भी परफैक्ट हो.

‘‘अब बोलो, बनोगी मेरी फैमिली का हिस्सा?’’ हर्ष पीहू को अपनी बांहों में भरते हुए बोला.

‘‘बिलकुल बनूंगी. मैं आज ही तुम्हारे बारे में मम्मीपापा को बताती हूं,’’ पीहू ने हर्ष को प्यारभरा किस किया और फिर ‘बाय’ कहती हुई अपनी गाड़ी से घर चली गई.

पीहू ने घर आ कर हर्ष के बारे में मम्मीपापा को बताया. उन्हें सब ठीक लगा लेकिन सूई परिवार पर आ कर रुक गई.

मम्मी बोलीं, ‘‘पीहू, इतना बड़ा परिवार है, तेरे लिए सब निभाना मुश्किल हो जाएगा, बेटा. हर्ष तो तुझ से यही अपेक्षा रखता है कि तू उस के परिवार में आ कर उन जैसी बन जाए लेकिन बेटी, हमारे घर का माहौल और उन के घर का माहौल बिलकुल अलग होगा. तू कैसे सब निभाएगी?’’

‘‘हां पीहू, तुझे अभी सब अच्छा लग रहा है लेकिन शादी के बाद तुझे यह सब बंधन लगेगा. तुझे हम ने बहुत लाड़प्यार से पाला है और तुझे हम दुखी हरगिज नहीं देख सकते,’’ पीहू के पापा विनय बोले.

‘‘नहीं पापा, ऐसा कुछ नहीं होगा. बचपन से ही जब मेरे फ्रैंडस अपने मामा, चाचा, बूआ, कजिंस की बात बताते थे तो मैं सोचती थी कि काश, मैं भी ये रिश्ते महसूस कर पाती. समझ लीजिए, मेरी यह ख्वाहिश अब पूरी होने जा रही है,’’ पीहू ने पापा को समझाने की कोशिश की.

‘‘देख बेटा, तेरी खुशी में ही हमारी खुशी है. लेकिन फिर भी सोचसमझ ले. मेरा तो मन नहीं मान रहा,’’ मां बोलीं.

‘‘मम्मीपापा, कल आप हर्ष से मिल लीजिए, आप दोनों की सारी टैंशन दूर हो जाएगी. ओके, अब मैं सोने जा रही हूं. बहुत नींद आ रही है, गुड नाइट,’’ कहती हुई पीहू अपने कमरे में गई और बैड पर लेट कर हर्ष के मीठे सपने लेती हुई सो गई.

उधर रेखा और विनय बैडरूम में लेटे हुए हर्ष की ही बात कर रहे थे. विनय बोले, ‘‘रेखा, मैं ने अकसर देखा है बड़े परिवारों में मनमुटाव रहता है. संपत्ति, व्यापार, बच्चों को ले कर झगड़े हो ही जाते हैं. अरे, हमारी पीहू को तो हजारों लड़के मिल जाएंगे. किस बात में कम है वह. पता नहीं क्यों अपने को इतने बड़े परिवार के झमेले में फंसाना चाहती है.’’

‘‘अभी उस के दिमाग में हर्ष छाया हुआ है, हमारी कोई बात उसे समझ नहीं आएगी. चलो, कल हर्ष से मिल लेते हैं. फिर सोचेंगे आगे क्या करना है.’’

हर्ष से मिल कर रेखा और विनय बहुत खुश हुए. तय हुआ कि अगले रविवार को ही वह अपने मम्मीपापा के साथ आएगा शगुन ले कर.

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औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 3

दरवाजे पर लहराता परदा एक ओर खिसका कर मैं ने अंदर प्रवेश किया तो सभी शब्द मेरे हलक में ही सूख गए. सामने कुरसी पर एक ऐसा इनसान बैठा हुआ था, जिस की कमर के नीचे दोनों टांग गायब थीं. उसे इनसान न कह कर सिर्फ एक धड़ कहा जाए तो बेहतर होगा.

‘‘आ जाओ, रेखा, मुझे विश्वास था  जीवन में दोबारा तुम से मुलाकात अवश्य होगी,’’ एक दर्दीला चिरपरिचित स्वर गूंज उठा.

उस पुरुष को पहचान कर मेरा रोंआरोंआ सिहर उठा था. पैरों तले जमीन खिसकती जा रही थी.

यह कोई और नहीं, मेरे भूतपूर्व पति सूरज थे. इन से वर्षों पहले मेरा तलाक हो चुका था. फिर मैं ने संदीप के साथ नई दुनिया बसा ली थी और संदीप को अपने अतीत से हमेशा अनभिज्ञ रखा था.

अब सूरज को देख कर मेरे कड़वे अतीत का वह काला पन्ना फिर से उजागर हो गया था, जिस की यादें मेरे मन की गहराइयों में दफन हो चुकी थीं.

वर्षों पहले मांबाप ने बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह सूरज के साथ किया था. सूरज एक कुशल वास्तुकार थे. घर भी संपन्न था. विवाह के प्रथम वर्ष में ही मैं एक सुंदर, स्वस्थ बेटे की मां बन गई थी.

फिर हमारी खुशियों पर एकाएक वज्रपात हुआ. एक सड़क दुर्घटना में सूरज की दोनों टांगों की हड्डियां टूट कर चूरचूर हो गई थीं. जान बचाने हेतु डाक्टरों को उन की टांगें काट देनी पड़ी थीं.

एक अपाहिज पति को मेरा मन स्वीकार नहीं कर पाया. मैं खिन्न हो उठी. बातबात पर लड़ने, चिड़चिड़ाने लगी. मन का असंतोष अधिक बढ़ गया तो मैं सूरज को छोड़ कर मायके  में जा कर रहने लगी थी.

मायके वालों के प्रयासों के बाद भी मैं ससुराल जाने को तैयार नहीं हो पाई तो सब ने मुझे दुखी देख कर मेरा तलाक कराने के लिए कचहरी में प्रार्थनापत्र दिलवा दिया. मैं सूरज से छुटकारा पा कर किसी समर्थ पूर्ण पुरुष से विवाह करने के लिए अत्यंत इच्छुक थी.

एक दिन हमेशा के लिए हमारा संबंधविच्छेद हो गया. कानून ने सूरज की विकलांगता के कारण हमारे बेटे विक्की को मेरी सुपुर्दगी में दे दिया.

विक्की की वजह से मेरे पुनर्विवाह में अड़चनें आने लगीं. बच्चे वाली स्त्री से विवाह करने के लिए कौन पुरुष तैयार हो सकता था. मेरे मायके वाले भी विक्की की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार नहीं हो पाए.

इन सब बातों की जानकारी हो जाने पर एक दिन सूरज की माताजी मेरे मायके आ पहुंचीं. उन्होंने रोरो कर विक्की को मुझ से ले लिया.

सूरज की माताजी प्रसन्न मन से वापस लौट आईं. मेरा बोझ हलका हो गया था. विक्की की जुदाई के गम से अधिक मुझे दूसरे विवाह की अभिलाषा थी.

एक दिन मेरा विवाह संदीप से संपन्न हो गया. हम दोनों का यह दूसरा विवाह था. संदीप विधुर थे. विवाह की पहली रात ही हम दोनों ने अपनेअपने अतीत को हमेशा के लिए भुला देने की प्रतिज्ञा कर ली थी.

फिर एक दिन मायके जाने पर मुझे मालूम हुआ कि सूरज की माताजी सूरज और विक्की को ले कर किसी अन्य शहर में चली गई हैं.

‘‘बैठो, रेखा. खड़ी क्यों हो? लगता है, मुझे अचानक देख कर हैरान रह गई हो. तुम ने तो समझ लिया होगा मैं कहीं मरखप गया होऊंगा.’’

‘‘नहीं, सूरज, ऐसा मत कहो. सभी को जीवित रहने का पूरापूरा अधिकार है,’’ मेरे मुंह से अचानक निकल गया और मैं एक कुरसी पर निढाल सी बैठ गई.

‘‘मेरे जीवित रहने का अधिकार तो तुम छीन कर ले गई थीं. रेखा, तुम छोड़ कर चली गईं तो मैं लाश बन कर रह गया था. अगर विनीता का सहारा नहीं मिलता तो मैं अब तक अवश्य मर चुका होता. आज विनीता की बदौलत ही मैं इतनी बड़ी फर्म का मालिक बना बैठा हूं.’’

बहुत प्रयत्न करने के बाद भी मेरे आंसू रुक नहीं पाए. मैं ने मुंह फेर कर रूमाल से अपना चेहरा साफ किया.

सूरज कहते जा रहे थे, ‘‘तुम्हें वह नर्स याद है जो मेरी देखभाल के लिए मां ने घर में रखी थी. वह शर्मीली सी छुईमुई लड़की विनी.’’

‘ओह, अब मैं समझी कि मुझे विनीताजी का चेहरा इतना जानापहचाना क्यों लग रहा था.’

‘‘तुम विनी को नहीं पहचान पाईं, परंतु विनी ने पहली बार देख कर ही तुम्हें पहचान लिया था. उस ने मुझे तुम्हारे बारे में, तुम्हारी आर्थिक स्थिति और रहनसहन के बारे में सभी कुछ बतला दिया था. मैं तुम्हारी यथासंभव सहायता करने के लिए तुरंत तैयार हो गया था. मेरे आग्रह पर विनीता ने कदमकदम पर तुम्हारी और तुम्हारे पति की मदद की थी.

‘‘मेरे पैर मौजूद होते तो मैं खुद चल कर तुम्हारे घर आता. तुम्हारे सामने दौलत के ढेर लगा कर कहता, ‘जितनी दौलत की आवश्यकता हो, ले कर अपनी भूख मिटा लो. तुम इसी वजह से मुझे छोड़ कर गई थीं कि मैं अपाहिज हूं. दौलत पैदा करने में असमर्थ हूं…तुम्हें पूर्ण शारीरिक सुख नहीं दे पाऊंगा…’’ कहतेकहते सूरज का गला भर आया था.

‘‘बस, रहने दो सूरज, मैं और अधिक नहीं सुन सकूंगी,’’ मैं रो पड़ी, ‘‘एक जहरीली चुभती हुई यादगार ही तो हूं, भुला क्यों नहीं दिया मुझे.’’

‘‘कैसे भुला पाता कि मेरे विक्की की तुम मां हो…’’

‘‘विक्की कहां है, सूरज? वह कैसा है, क्या मैं उसे देख सकती हूं,’’ मैं व्यग्र हो कर कुरसी से उठ कर खड़ी हो गई.

सूरज अपनेआप को संयत कर चुके थे, ‘‘विक्की यानी विकास से तुम विनीता के दफ्तर में मिल चुकी हो. वह विनीता के बराबर वाली कुरसी पर बैठ कर दफ्तर के कामों में उस का हाथ बंटाता है. अब वह एक प्रसिद्ध वास्तुकार है. तुम्हारे मकान का नक्शा उसी ने तैयार किया था.’’

‘‘सच, वही मेरा विक्की है,’’ हर्ष व उत्तेजना से मैं गद्गद हो उठी. मेरी आंखों के सामने वह गोरा, स्वस्थ युवक घूम गया, जिस से मैं कई बार मिल चुकी थी, बातें कर चुकी थी. मेरे मकान के मुहूर्त पर वह विनीता के साथ मेरे घर भी आया था.

अचानक मेरे मन में एक अनजाना डर उभर आया, ‘‘क्या विक्की जानता है कि मैं उस की मां हूं?’’

‘‘नहीं, वह उस मां से नफरत करता है जो उस के अपाहिज पिता को छोड़ कर सुख की तलाश में अन्यत्र चली गई थी. वह विनीता को ही अपनी सगी मां मानता है. जानती हो रेखा, वह मुझे कितना चाहता है, मेरे बिना भोजन भी नहीं करता.’’

‘‘सूरज, मेरी एक बात मानोगे.’’

‘‘कहो, रेखा.’’

‘‘विक्की से कभी मत कहना कि मैं उस की मां हूं. यही कहना कि विनीता ही उस की असली मां है,’’ रोती हुई मैं सूरज के कमरे से बाहर निकल आई.

जिस पौधे को मैं उजाड़ कर चली गई थी, विनीता ने उसे जीवनदान दे कर हराभरा कर दिया था, मैं सोचती रह गई कि स्वार्थी विनीता है या मैं. कितना गलत समझ बैठी थी मैं विनीता को. इस महान नारी ने 2 बार मेरा घर बसाया था. एक बार अपाहिज सूरज और मासूम बेसहारा विक्की को अपनाकर और दूसरी बार मेरा मकान बनवा कर.

मैं सीढि़यां उतर कर नीचे आ गई.

घर वापस लौटी तो मेरे चेहरे की उड़ी हुई रंगत देख कर बच्चे और संदीप सब सोच में पड़ गए. एकसाथ ही मुझ से कारण पूछने लगे. मैं ने एक गिलास पानी पिया और इत्मीनान से बिस्तर पर बैठ कर संदीप से कहने लगी, ‘‘सुनो, तुम विनीताजी के दफ्तर में जा कर उन्हें और उन के पूरे परिवार को रात के खाने के लिए आमंत्रित कर आओ. उन्होंने हमारे लिए इतना सब किया है, हमारा भी तो उन के प्रति कुछ फर्ज है.’’

बच्चे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकते रह गए. संदीप मेरी ओर ऐसे देखने लगे, जैसे कह रहे हों, ‘औरत सचमुच एक पहेली होती है. उसे समझ पाना असंभव है.

औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 1

संदीप बाहर धूप में बैठे सफेद कागजों पर आड़ीतिरछी रेखाएं बनाबना कर भांतिभांति के मकानों के नक्शे खींच रहे थे. दोनों बेटे पंकज, पवन और बेटी कामना उन के इर्दगिर्द खड़े बेहद दिलचस्पी के साथ अपनीअपनी पसंद बतलाते जा रहे थे.

मुझे हमेशा की भांति अदरक की चाय और कोई लजीज सा नाश्ता बनाने का आदेश मिला था.

बापबेटों की नोकझोंक के स्वर रसोईघर के अंदर तक गूंज रहे थे. सभी चाहते थे कि मकान उन की ही पसंद के अनुरूप बने. पवन को बैडमिंटन खेलने के लिए लंबेचौड़े लान की आवश्यकता थी. व्यावसायिक बुद्धि का पंकज मकान के बाहरी हिस्से में एक दुकान बनवाने के पक्ष में था.

कामना अभी 11 वर्ष की थी, लेकिन मकान के बारे में उस की कल्पनाएं अनेक थीं. वह अपनी धनाढ्य परिवारों की सहेलियों की भांति 2-3 मंजिल की आलीशान कोठी की इच्छुक थी, जिस के सभी कमरों में टेलीफोन और रंगीन टेलीविजन की सुविधाएं हों, कार खड़ी करने के लिए गैराज हो.

संदीप ठठा कर हंस पड़े, ‘‘400 गज जमीन में पांचसितारा होटल की गुंजाइश कहां है हमारे पास. मकान बनवाने के लिए लाखों रुपए कहां हैं?’’

‘‘फिर तो बन गया मकान. पिताजी, पहले आप रुपए पैदा कीजिए,’’ कामना का मुंह फूल उठा था.

‘‘तू क्यों रूठ कर अपना भेजा खराब करती है? मकान में तो हमें ही रहना है. तेरा क्या है, विवाह के बाद पराए घर जा बैठेगी,’’ पंकज और पवन कामना को चिढ़ाने लगे थे.

बच्चों के वार्त्तालाप का लुत्फ उठाते हुए मैं ने मेज पर गरमगरम चाय, पकौड़े, पापड़ सजा दिए और संदीप से बोली, ‘‘इस प्रकार तो तुम्हारा मकान कई वर्षों में भी नहीं बन पाएगा. किसी इंजीनियर की सहायता क्यों नहीं ले लेते. वह तुम सब की पसंद के अनुसार नक्शा बना देगा.’’

संदीप को मेरा सुझाव पसंद आया. जब से उन्होंने जमीन खरीदी थी, उन के मन में एक सुंदर, आरामदेह मकान बनवाने की इच्छाएं बलवती हो उठी थीं.

संदीप अपने रिश्तेदारों, मित्रों से इस विषय में विचारविमर्श करते रहते थे. कई मकानों को उन्होंने अंदर से ले कर बाहर तक ध्यानपूर्वक देखा भी था. कई बार फुरसत के क्षणों में बैठ कर कागजों पर भांतिभांति के नक्शे बनाएबिगाड़े थे, परंतु मन को कोई रूपरेखा संतुष्ट नहीं कर पा रही थी. कभी आंगन छोटा लगता तो कभी बैठक के लिए जगह कम पड़ने लगती.

परिवार के सभी सदस्यों के लिए पृथकपृथक स्नानघर और कमरे तो आवश्यक थे ही, एक कमरा अतिथियों के लिए भी जरूरी था. क्या मालूम भविष्य में कभी कार खरीदने की हैसियत बन जाए, इसलिए गैराज बनवाना भी आवश्यक था. कुछ ही दिनों बाद संदीप किसी अच्छे इंजीनियर की तलाश में जुट गए.

एकांत क्षणों में मैं भी मकान के बारे में सोचने लगती थी. एक बड़ा, आधुनिक सुविधाओं से पूर्ण रसोईघर बनवाने की कल्पनाएं मेरे मन में उभरती रहती थीं. अपने मकान में गमलों में सजाने के लिए कई प्रकार के पेड़पौधों के नाम मैं ने लिख कर रख दिए थे.

एक दिन संदीप ने घर आ कर बतलाया कि उन्होंने एक भवन निर्माण कंपनी की मालकिन से अपने मकान के बारे में बात कर ली है. अब नक्शा बनवाने से ले कर मकान बनवाने तक की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं की होगी.

सब ने राहत की सांस ली. मकान बनवाने के लिए संदीप के पास कुल डेढ़दो लाख की जमापूंजी थी. घर के खर्चों में कटौती करकर के वर्षों में जा कर इतना रुपया जमा हो पाया था.

संदीप एक दिन मुझे भवन निर्माण कंपनी की मालकिन विनीता से मिलवाने ले गए.

मैं कुछ ही क्षणों में विनीता के मृदु स्वभाव, खूबसूरती और आतिथ्य से कुछ ऐसी प्रभावित हुई कि हम दोनों के बीच अदृश्य सा आत्मीयता का सूत्र बंध गया.

हम उन्हें अपने घर आने का औपचारिक निमंत्रण दे कर चले आए. मुझे कतई उम्मीद नहीं थी कि वह हमारे घर आ कर हमारा आतिथ्य स्वीकार करेंगी. लेकिन एक शाम आकस्मिक रूप से उन की चमचमाती विदेशी कार हमारे घर के सामने आ कर रुक गई. मैं संकोच से भर उठी कि कहां बैठाऊं इन्हें, कैसे सत्कार करूं.

विनीता शायद मेरे मन की हीन भावना भांप गई. मुसकरा कर स्वत: ही एक कुरसी पर बैठ गईं, ‘‘रेखाजी, क्या एक गिलास पानी मिलेगा.’’

मैं निद्रा से जागी. लपक कर रसोई- घर से पानी ले आई. फिर चाय की चुसकियों के साथ वार्त्तालाप का लंबा सिलसिला चल निकला. इस बीच बच्चे कालिज से आ गए थे, वे भी हमारी बातचीत में शामिल हो गए. फिर विनीता यह कह कर चली गईं, ‘‘मैं ने आप की पसंद को ध्यान में रख कर मकान के कुछ नक्शे बनवाए हैं. कल मेरे दफ्तर में आ कर देख लीजिएगा.’’

विनीत के जाने के बाद मेरे मन में अनेक अनसुलझे प्रश्न डोलते रह गए थे कि उस का परिवार कैसा है? पति कहां हैं और क्या करते हैं? इन के संपन्न होने का रहस्य क्या है?

कभीकभी ऐसा लगता है कि मैं विनीता को जानती हूं. उन का चेहरा मुझे परिचित जान पड़ता, लेकिन बहुत याद करने पर भी कोई ऐसी स्मृति जागृत नहीं हो पाती थी.

कभी मैं सोचने लगती कि शायद अधिक आत्मीयता हो जाने की वजह से ऐसा लगता होगा. अगले दिन शाम को मैं और संदीप दोनों उन के दफ्तर में नक्शा देखने गए. एक नक्शा छांट कर संतुष्ट भाव से हम ने वैसा ही मकान बनवाने की अनुमति दे दी.

बातों ही बातों में संदीप कह बैठे, ‘‘रुपए की कमी के कारण शायद हम पूरा मकान एकसाथ नहीं बनवा पाएंगे.’’

विनीता झट आश्वासन देने लगीं, ‘‘आप निश्चिंत रहिए. मैं ने आप का मकान बनवाने की जिम्मेदारी ली है तो पूरा बनवा कर ही रहूंगी. बाकी रुपए मैं अपनी जिम्मेदारी पर आप को कर्ज दिलवा दूंगी. आप सुविधानुसार धीरेधीरे चुकाते रहिए.’’

संदीप उन के एहसान के बोझ से दब से गए. मुझे विनीता और भी अपनी सी लगने लगीं.

नक्शा पास हो जाने के पश्चात मकान का निर्माण कार्य शुरू हो गया.

अब तक विनीता का हमारे यहां आनाजाना बढ़ गया था. अब वह खाली हाथ न आ कर बच्चों के लिए फल, मिठाइयां और कुछ अन्य वस्तुएं ले कर आने लगी थीं.

आते ही वह सब के साथ घुलमिल कर बातें करने लग जातीं. रसोईघर में पटरे पर बैठ कर आग्रह कर के मुझ से दाल- रोटी ले कर खा लेतीं.

मैं संकोच से गड़ जाती. उन्हें फल, मिठाइयां लाने को मना करती, परंतु वह नहीं मानती थीं. संदीप मुझ से कहते, ‘‘विनीताजी जो करती हैं, उन्हें करने दिया करो. मना करने से उन का दिल दुखेगा. उन के अपने बच्चे नहीं हैं इसलिए वह हमारे बच्चों पर अपनी ममता लुटाती रहती हैं.’’

औरत एक पहेली: संदीप और विनीता के बीच कैसी थी दोस्ती- भाग 2

मैं परेशान सी हो उठती. भरेपूरे शरीर की स्वामिनी विनीता के अंदर ऐसी कौन सी कमी है, जिस ने उन्हें मातृत्व से वंचित कर दिया है. मैं उन के प्रति असीम सहानुभूति से भर उठती थी. एक दिन मन का क्षोभ संदीप के सामने प्रकट किया तो उन्होंने बताया, ‘‘विनीताजी के पति अपाहिज हैं. बच्चा पैदा करने में असमर्थ हैं. एक आपरेशन के दौरान डाक्टरों ने गलती से उन की शुक्राणु वाली नस काट दी थी.’’

मैं और अधिक सहानुभूति से भर उठी.

संदीप बताते रहे, ‘‘विनीताजी के पति की प्रथम पत्नी का एक पुत्र उन के साथ रहता है, जिसे उन्होंने मां की ममता दे कर बड़ा किया है. इतनी बड़ी फर्म, दौलत, प्रसिद्धि सबकुछ विनीताजी के अटूट परिश्रम का सुखद परिणाम है.’’

अचानक मेरे मन में खयाल आया, ‘विनीता की गुप्त बातों की जानकारी संदीप को कैसे हो गई? कब और कैसे दोनों के बीच इतनी अधिक घनिष्ठता हो गई कि वे दोनों यौन संबंधों पर भी चर्चा करने लगे.’

मैं ने इस विषय में संदीप से प्रश्न किया तो वह झेंप कर खामोश हो गए.

मेरे अंतर में संदेह का कीड़ा कुलबुला उठा था. मुझे लगने लगा कि विनीता अकारण ही हम लोगों से आत्मीयता नहीं दिखलाती हैं. वह हमारे बच्चों पर खर्च कर के हमारे घर में अपना स्थान बनाना चाहती हैं. कोई ऐसे ही तो किसी को हजारों का कर्जा नहीं दिलवा सकता. इन सब का कारण संदीप के प्रति उन का आकर्षण भी तो हो सकता है.

संदीप 50 वर्ष के होने पर भी स्वस्थ, सुंदर थे. शरीर सौष्ठव के कारण अपनी आयु से कई वर्ष छोटे दिखते थे. किसी समआयु की महिला का उन की ओर आकर्षित हो जाना आश्चर्य की बात नहीं थी.

मैं सोचने लगी, ‘विनीता जैसी सुंदर महिला एक अपाहिज आदमी के साथ संतुष्ट रह भी कैसे सकती है?’ मुझे अपना घर उजड़ता हुआ लगने लगा था.

अब जब भी विनीता मेरे घर आतीं, मेरा मन उन के प्रति कड़वाहट से भर उठता था. उन की मधुर मुसकराहट के पीछे छलकपट दिखाई देने लगता. ऐसा लगता जैसे विनीता अपनी दौलत के कुछ सिक्के मेरी झोली में डाल कर मुझ से मेरी खुशियां और मेरा पति खरीद रही हैं. मुझे विनीता, उन की लाई गई वस्तुओं और उन की दौलत से नफरत होती चली गई.

मैं ने उन के दफ्तर जाना बंद कर दिया. वह मेरे घर आतीं तो मैं बीमारी या व्यस्तता का बहाना बना कर उन्हें टालने का प्रयास करने लगती थी. मेरे बच्चे और संदीप उन के आते ही उन की आवभगत में जुटने लगते थे. यह सब देख मुझे बेहद बुरा लगने लगता था.

मैं विनीता के जाने के पश्चात बच्चों को डांटने लगती, ‘‘तुम सब लालची प्रवृत्ति के क्यों बनते जा रहे हो? क्यों स्वीकार करते हो इन के लाए उपहार? इन से इतनी अधिक घनिष्ठता किसलिए? कौन हैं यह हमारी? मकान बन जाएगा, फिर हमारा और इन का रिश्ता ही क्या रह जाएगा?’’

बच्चे सहम कर मेरा मुंह देखते रह जाते क्योंकि अभी तक मैं ने उन्हें अतिथियों का सम्मान करना ही सिखाया था. विनीता के प्रति मेरी उपेक्षा को कोई नहीं समझ पाता था. सभी  मेरी मनोदशा से अनभिज्ञ थे. मकान के किसी कार्यवश जब भी संदीप मुझ से विनीता के दफ्तर चलने को कहते, मैं मना कर देती. वह अकेले चले जाते तो मैं मन ही मन कुढ़ती रहती, लेकिन ऊपर से शांत बनी रहती थी.

मैं संदीप को विनीता के यहां जाने से नहीं रोकती थी. सोचती, ‘मर्दों पर प्रतिबंध लगाना क्या आसान काम है? पूरा दिन घर से बाहर बिताते हैं. कोई पत्नी आखिर पति का पीछा कहां तक कर सकती है?’

मेरे मनोभावों से बेखबर संदीप जबतब विनीता की प्रशंसा करने बैठ जाते. अकसर कहते, ‘‘विनीताजी से मुलाकात नहीं हुई होती तो हमारा मकान इतनी जल्दी नहीं बन पाता.’’

कभी कहते, ‘‘विनीताजी दिनरात परिश्रम कर के हमारा मकान इस प्रकार बनवा रही हैं जैसे वह उन का अपना ही मकान हो.’’

कभी ऐसा भी हो जाता कि विनीता अपने किसी निजी कार्यवश संदीप को कार में बैठा कर कहीं ले जातीं. संदीप घंटों के पश्चात प्रसन्न मुद्रा में वापस लौटते और बताते कि वह किसी बड़े होटल में विनीता के साथ भोजन कर के आ रहे हैं.

मेरे अंदर की औरत यह सब सहन नहीं कर पा रही थी. मैं यह सोच कर ईर्ष्या से जलतीभुनती रहती कि विनीता की खूबसूरती ने संदीप के मन को बांध लिया है. अब उन्हें मैं फीकी लगने लगी हूं. उन के मन में मेरा स्थान विनीता लेती जा रही है.

कभी मैं क्षुब्ध हो कर सोचने लगती, इस शहर में मकान बनवाने से मेरा जीवन ही नीरस हो गया. एक शहर में रहते हुए संदीप और विनीता का साथ कभी नहीं छूट पाएगा. अब संदीप मुझे पहले की भांति कभी प्यार नहीं दे पाएंगे. विनीता अदृश्य रूप से मेरी सौत बन चुकी है, हो सकता है दोनों हमबिस्तर हो चुके हों. आखिर होटलों में जाने का और मकसद भी क्या हो सकता है?’

हमारा मकान पूरा बन गया तो मुहूर्त्त करने के पश्चात हम अपने घर में आ कर रहने लगे.

विनीता का आनाजाना और संदीप के साथ घुलमिल कर बातें करना कम नहीं हो पाया था.

एक दिन मेरे मन का आक्रोश जबान पर फूट पड़ा, ‘‘अब इस औरत के यहां आनाजाना बंद क्यों नहीं कर देते? मकान कभी का बन कर पूरा हो चुका है, अब इस फालतू मेलजोल का समापन हो जाना ही बेहतर है.’’

‘‘कैसी स्वार्थियों जैसी बातें करने लगी हो. विनीताजी ने हमारी कितनी सहायता की थी, अब हम उन का तिरस्कार कर दें, क्या यह अच्छा लगता है?’’

‘‘तब क्या जीवन भर उसे गले से लगाए रहोगे.’’

‘‘तुम्हें जलन होती है उस की खूबसूरती से,’’ संदीप मेरे क्रोध की परवा न कर के मुसकराते रहे. फिर लापरवाही से बाहर चले गए.

क्रोध और उत्तेजना से मैं कांप रही थी. जी चाह रहा था कि अभी जा कर उस आवारा, चरित्रहीन औरत का मुंह नोच डालूं.

अपने अपाहिज पति की आंखों में धूल झोंक कर पराए मर्दों के साथ गुलछर्रे उड़ाती फिरती है. अब तक न मालूम कितने पुरुषों के साथ मुंह काला कर चुकी होगी.

मुझे उस अपरिचित अनदेखे व्यक्ति से गहरी सहानुभूति होने लगी, जिस की पत्नी बन कर विनीता उस के प्रति विश्वासघात कर रही थी.

मैं सोचने लगी, ‘अगर यह कांटा अभी से उखाड़ कर नहीं फेंका गया तो मेरा मन जख्मी हो कर लहूलुहान हो जाएगा. इस से पहले कि मामला और आगे बढ़े मुझे विनीता के पति के पास जा कर सबकुछ साफसाफ बता देना चाहिए कि वे अपनी बदचलन पत्नी के ऊपर अंकुश लगाना शुरू कर दें. वह दूसरों के घर उजाड़ती फिरती है.’

उन के घर का पता मुझे मालूम था. एक बार मैं संदीप के साथ घर के बाहर तक जा चुकी थी. उस वक्त विनीता घर पर नहीं थीं. नौकर के बताने पर हम बाहर से ही लौट आए थे.

घर के सभी काम बच्चों पर छोड़ कर मैं विनीता के घर जाने के लिए तैयार हो गई. एक रिकशे में बैठ कर मैं उन के घर पहुंच गई.

विनीता घर में नहीं थीं. नौकर से साहब का कमरा पूछ कर मैं दनदनाती हुई सीढि़यां चढ़ कर ऊपर पहुंची.

नौकर ने कमरे के अंदर जा कर साहब को मेरे आगमन की सूचना दे दी. फिर मुझे अंदर जाने का इशारा कर के वह किसी काम में लग गया.

विमलाजी : क्या था विमली जी का सच

विमलाजी का रोरो कर बुरा हाल था. उन का इकलौता बेटा मनीष 10 दिनों से लापता था. सब ने समझाया कि थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा देनी चाहिए, लेकिन इस बात पर वे चुप्पी साध लेती थीं. उन के पति बारबार कालोनी के लोगों के सामने उन को ताने दे रहे थे कि उन के सिर चढ़ाने का ही यह परिणाम है, अवश्य किसी लड़की के साथ भाग गया होगा, जब पैसे खत्म होंगे तो अपनेआप घर लौट कर आएगा. अचानक एक दिन विमला भी घर से गईं और लौट कर नहीं आईं तो उन के पति और कालोनीवासियों का माथा ठनका कि जरूर दाल में कुछ काला है. पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई. विमलाजी की खोज जोरशोर से की जाने लगी, सब ने अंदाजा लगाया कि मांबेटे दोनों के लापता होने के पीछे एक ही कारण होगा.

पुलिस ने घर के आसपास तथा उन सभी स्थानों पर उन को तलाशा, जहां उन के जाने की संभावना थी, लेकिन सब बेकार. कालोनी के पास ही एक कोठी थी, जिस में कोई नहीं रहता था. लोगों का मानना था कि उस में भूत रहते हैं, इसलिए वह ‘भुतहा कोठी’ कही जाती थी. किसी की उस के अंदर जाने की हिम्मत नहीं होती थी. पुलिस ने वहां भी छानबीन करनी चाही, अंदर का भयावह दृश्य देख कर पुलिस वाले और कालोनी वाले सन्न रह गए. विमलाजी की लाश वहां पड़ी थी, पूरा शरीर चाकुओं से गुदा हुआ था. हाथों में जो मोटेमोटे सोने के कंगन थे और गले में 5 तोले की चैन पहने रहती थीं, वे सब गायब थे. उन के आभूषण रहित नग्न शरीर को उन की ही साड़ी से ढक कर रखा गया था.

बहुत से लोग अटकलें लगाया करते थे कि उस कोठी को भुतहा कोठी कह कर जानबूझ कर बदनाम किया गया था जिस से उस में डर के मारे कोई प्रवेश न करे. वास्तविकता यह थी कि उस कोठी को आपराधिक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. कालोनी में सनसनी फैल गई. पुलिस कार्यवाही कर के चली गई. लाश के क्रियाकर्म की तैयारी आरंभ हो गई, तभी उन का बेटा मनीष आता हुआ दिखाई पड़ा. सब लोग विस्फारित आंखों से अवाक् उस की ओर देख रहे थे. वह भी अपनी मां की लाश देख कर सकते में आ गया था और पेड़ की डाल की तरह टूट कर अपनी मां से लिपट कर खूब रोया. फिर उस ने जो वृतांत सुनाया, उसे सुन कर सभी सन्न रह गए. उस ने बताया, ‘‘मैं घर से भागा नहीं, मुझे दुकान से लौटते हुए कुछ लोगों ने किडनैप कर लिया था और अगले दिन से ही मां से 50 लाख रुपए की फिरौती की मांग करने लगे थे मेरे सामने उन के फिरौती न देने पर मुझे मार देने की धमकी देते थे. उन का फोन स्पीकर पर रहता था. मेरी मां ने इतना रुपया न देने की असमर्थता जताई, तो ऊंची आवाज में उन को धमकाते थे कि चाहे जैसे भी दो, हमें पैसा चाहिए. ‘‘वे पापा से भी कुछ नहीं बता सकती थीं, क्योंकि उन्होंने मां को सख्ती से मना कर रखा था कि वे उन को न बताएं वरना वे लोग पापा को बता देंगे कि वे अकसर एक बाबा से अपनी परेशानियों का समाधान पूछने के लिए मिलती थीं. उन के वार्त्तालाप से ही उसे ये सब जानकारी मिली थी और इस से साफ जाहिर था कि मां उन को अच्छी तरह जानती थीं.

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‘‘फिर परसों अचानक उस भुतहा कोठी में अपनी मां को अपने सामने देख मैं हक्काबक्का रह गया. मां के हाथ में एक पोटली थी, जिस में गहने थे. मां तो वहीं खड़ी रहीं और मुझे आधी रात को एक कार में ले जा कर कहीं दूर छोड़ दिया था. मुझे मां से गले लग कर रोने भी नहीं दिया.’’ इतना कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा. सारा अप्रत्याशित वृतांत सुन कर, सभी डर कर कांपने लगे. पुलिस ने मनीष से पूछा, ‘‘तुम उन लोगों का चेहरा पहचान सकते हो.’’

‘‘नहीं सर, वे हर समय अपना मुंह ढके रहते थे.’’ पुलिस को सारी स्थिति समझने में देर नहीं लगी. पुलिस ने कहा, ‘‘अपराधियों ने गहने मिलने के बाद लड़के को तो छोड़ दिया क्योंकि वह तो उन्हें पहचान ही नहीं पाया था और मां को जान से मार दिया कि कहीं वह घर जा कर उन का भेद न खोल दे.’’ थोड़ी देर सोच कर जांच अधिकारी ने कहा, ‘‘ठीक है, हम पूरी कोशिश करेंगे अपराधी को ढूंढ़ने की.’’

प्रतिदिन ही कुछ न कुछ इन बाबाओं के कुकृत्य मीडिया के द्वारा तथा इधरउधर से सुनने को मिलते हैं, फिर भी लोग न जाने क्यों इतने अंधविश्वासी होते हैं कि उन के जाल में फंस जाते हैं और एक बार फंसने के बाद ये ढोंगी अपने ग्राहक को ऐसा सम्मोहित कर लेते हैं कि फिर उन से पीछा छुड़ाना असंभव सा हो जाता है. लेकिन बाबाओं के चक्कर में पड़ने के पीछे पारिवारिक पृष्ठभूमि भी बहुत बड़ा कारण होती है, उस का ही ये लोग फायदा उठाते हैं और विमलाजी तथा उन के क्रियाकलाप ऐसे ही थे  विमलाजी कालोनी में फर्स्ट फ्लोर पर पिछले 5 वर्षों से रह रही थीं. अकसर वे आंगन में घूमती दिखाई पड़ जाती थीं. कपड़े धोना, सब्जी काटना, बरतन साफ करना, स्वेटर बुनना, कंघी करना आदि, जैसे उन के घर का सारा काम आंगन में ही सिमट कर आ गया हो. घर का अंदरूनी हिस्सा तो उन्हें काटने को दौड़ता था. आखिर, क्यों न ऐसा हो, सुबह ही दोनों बापबेटे दुकान के लिए निकल जाते थे और रात के 12 बजे तक आते थे. बेटी कोई थी नहीं.

पति को उन से अधिक अपना व्यवसाय प्यारा था. कभी मैं ने उन दोनों को आंगन में एकसाथ बैठे नहीं देखा. छुट्टी वाले दिन भी विमलाजी के पति अपने काम में व्यस्त रहते थे. पैसे की बहुतायत होने के कारण उन का इकलौता बेटा मनीष बुरी आदतों का शिकार हो गया था. इस कारण विमलाजी बहुत परेशान रहती थीं. अकसर उन की अपने बेटे पर चिल्लाने की जोरजोर से आवाजें सब के घर तक आती थीं. उन को इस बात की तनिक भी परवा नहीं थी कि सुनने वालों की क्या प्रतिक्रिया होगी. विमलाजी पढ़ीलिखी नहीं थीं. पति से तिरस्कृत होने के कारण, अपने रखरखाव के प्रति बहुत लापरवाह थीं. यों भी कह सकते हैं कि विमलाजी की इस लापरवाही के कारण ही उन के पति उन से दूरदूर रहते थे. कभी मैं उन के घर के सामने से निकलती तो अकेलेपन के कारण ही वे अकसर गेट पर ही खड़ी दिख जातीं. वे अकसर मुझे बड़े आग्रह से अपने घर के अंदर बुलातीं, लेकिन बैठातीं आंगन में ही थीं. वहीं बैठे हुए घर के अंदर का दृश्य देखने लायक होता था. ऐसा लगता था जैसे अभी चोर आ कर गए हों. उन की ओर दृष्टि जाती तो चेहरा ऐसा लगता जैसे सुबह से धोया तक नहीं है, कपड़े मैचेकुचैले होते, बाल बिखरे होते, लगता जैसे घर के काम में उन का बिलकुल रुझान नहीं है और अपनेआप से भी उन्हें दुश्मनी जैसी है.

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समझ नहीं आता था कि कोई गतिविधि न होने के कारण वे सारा दिन काटती कैसे थीं. उन की इस प्रवृत्ति के कारण कोई उन के घर नहीं जाना चाहता था, लेकिन कभीकभी उन के अकेलेपन पर तरस आ जाता था और मैं उन के घर चली जाती थी. पूरी कालोनी में उन के रवैये के चर्चे होते थे कि इतना पैसा होने पर भी उन्होंने अपना यह हाल क्यों बना रखा है. अपनी व्यक्तिगत बातें वे किसी से साझा नहीं करती थीं, इसलिए सब को वे बड़ी रहस्यमय लगती थीं. किसी से तवज्जुह न मिलने के कारण दिशाहीन हो कर अपनेआप में उलझी रहती थीं. उन्हें यह समझ नहीं थी कि जवान होते हुए बेटे के साथ दोस्ताना व्यवहार रखना कितना आवश्यक था. उन के पति को तो बेटे से अपने व्यवसाय में पूरा सहयोग मिल रहा था, पर वह काम के सिलसिले में बाहर जा कर क्या करता था, उन्हें कोई मतलब नहीं था, लेकिन विमला से उस के देर रात घर आने पर उस के क्रियाकलाप देख कर कुछ भी छिपा नहीं था. उन्हें कुछ समझ नहीं आया तो बाबा की शरण ली. वे भविष्य तो बताते ही थे, साथ में उपाय भी बताते थे और विमलाजी उन उपायों को अपने बेटे के लिए अपनाती भी थीं.

धीरेधीरे बाबा के वर्चस्व का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि वे अकसर उन का प्रवचन सुनने उन के पास चली जाती थीं. इस क्रियाकलाप से उन के पति और बेटा अनभिज्ञ थे. यह बात बहुत समय बाद, जब उस का भयंकर दुष्परिणाम, उन की मृत्यु के रूप में सामने आया तब सब को पता लगा. पड़ोसियों को रातदिन अपने आंगन में दिखाई देने वाली विमलाजी का आंगन सूना देख कर मन बहुत व्यथित होता था. काश वे पढ़ीलिखी होतीं और अंधविश्वास में पड़ कर बाबाओं के पास चक्कर लगाने के स्थान पर अच्छी पुस्तकें पढ़तीं, अच्छे लोगों के संपर्क में रह कर अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ़तीं. कहते हैं, अपना दुख बांटने से वह आधा रह जाता है. उन की नासमझी के कारण, उन की स्वयं की तो दर्दनाक मृत्यु हुई ही, साथ में परिवार की जड़ें भी हिल गईं. इस सब के लिए उन के पति भी कम दोषी नहीं थे, जिन को यह समझ नहीं थी कि पत्नी को भौतिक सुख के साथ भावनात्मक संबल भी चाहिए होता है. विमलाजी की त्रासदी शायद कुछ लोगों की आंखें खोल सके.

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