सुवीरा: भाग 2- घर परिवार को छोड़ना गलत है या सही

‘‘अरे, मेरा हिसाब कभी गलत नहीं होता. जीएम की पोस्ट तक ऐसे ही नहीं पहुंचा मैं.’’

‘‘तुम्हारी लाइफ में हिसाबकिताब लगाने या अपनी पोस्ट के रोब में रहने के अलावा भी कुछ बचा है क्या?’’

‘‘हां, बचा है न,’’ यह कहते हुए विनोद सुवीरा के चेहरे की ओर झुकता चला गया. एक हफ्ते बाद विनोद 15 दिन के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. महेश सुबह 10 बजे जा कर शाम 6 बजे आता. सुवीरा उसे चाय, फिर डिनर ऊपर भिजवा देती. सिद्धि, समृद्धि को जब भी कुछ पूछना होता, वे उसे नीचे से ही आवाज देतीं, ‘‘अंकल, कुछ पूछना है, नीचे आइए न.’’ महेश मुसकराता हुआ आता और वहीं ड्राइंगरूम में उन्हें पढ़ाने लगता. सुवीरा को महेश का सरल स्वभाव अच्छा लगता. न बड़ीबड़ी बातें, न दूसरों को छोटा समझने वाली सोच. एक सरल, सहज, आकर्षक पुरुष. बराबर वाला घर सीमा का ही था. सीमा, उस का पति रंजन और उन का 14 वर्षीय बेटा विपुल भी महेश से मिल चुके थे. विपुल भी अकसर शाम को महेश से मैथ्स पढ़ने चला आता था. इतवार को भी महेश कोचिंग इंस्टिट्यूट जाता था. उस दिन उस की क्लास ज्यादा लंबी चलती थी. एक इतवार को सिद्धि, समृद्धि किसी बर्थडे पार्टी में गई हुई थीं. सुवीरा डिनर करने बैठी ही थी, इतने में बाइक रुकने की आवाज आई. महेश आया, पूछा, ‘‘सिद्धि,समृद्धि कहां है? बड़ा सन्नाटा है.’’

‘‘बर्थडे पार्टी में गई हैं.’’

‘‘आप अच्छे समय पर आए, मैं बस खाना खाने बैठी ही थी, आप का खाना भी लगा देती हूं.’’

‘‘महेश ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘आप अकेली हैं, आप को डिनर में कंपनी दूं?’’

‘‘अरे, आइए न, बैठिए.’’

‘‘अभी फ्रैश हो कर आता हूं.’’

दोनों ने खाना शुरू किया. कहां तो पलभर पहले सुवीरा सोच रही थी कि महेश से वह क्या बात करेगी और कहां अब बातें थीं कि खत्म ही नहीं हो रही थीं. एक नए अनोखे एहसास से भर उठी वह. ध्यान से महेश को देखा, पुरुषोचित सौंदर्य, आकर्षक मुसकराहट, बेहद सरल स्वभाव. महेश ने खंखारा, ‘‘बोर हो गईं क्या?’’

हंस पड़ी सुवीरा, बोली, ‘‘नहींनहीं, ’’ ऐसी बात नहीं. सुवीरा हंसी तो महेश उसे देखता ही रह गया. 2 बेटियों की मां, इतनी खूबसूरत हंसी, इतना आकर्षक चेहरा, बोला, ‘‘इस तरह हंसते हुए आप को आज देखा है मैं ने, आप इतनी सीरियस क्यों रहती हैं?’’ सुवीरा ने दिल में कहा, किस से हंसे, किस से बातें करे, उस की बात सुनने वाला इस घर में है कौन, बेटियां स्कूल, फोन, नैट, दोस्तों में व्यस्त हैं, विनोद की बात करना ही बेकार है. महेश ने उसे विचारों में खोया देख टोका, ‘‘सौरी, मैं ने आप को सीरियस कर दिया?’’

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‘‘नो, इट्स ओके,’’ कह कर सुवीरा ने मुसकराने की कोशिश की लेकिन आंखों की उदासी महेश से छिपी न रही.

महेश ने कहा, ‘‘आप बहुत सुंदर हैं तन से और मन से भी.’’ उस की आंखों में प्रशंसा थी और वह प्रशंसा उस के शरीर को जितना पिघलाने लगी उस का मन उतना ही घबराने लगा. सुवीरा हैरान थी, कोई उस के बारे में भी इतनी देर बात कर सकता है. महेश ने अपनी प्लेट उठा कर रसोई में रखी. सुवीरा के मना करने पर भी टेबल साफ करवाने में उस का हाथ बंटाया. फिर गुडनाइट कह कर ऊपर चला गया. इस मुलाकात के बाद औपचारिकताएं खत्म सी हो गई थीं. धीरेधीरे सुवीरा के दिल में एक खाली कोने को महेश के साथ ने भर दिया. अब उसे महेश का इंतजार सा रहने लगा. वह लाख दिल को समझाती कि अब किसी और का खयाल गुनाह है मगर दिल क्या बातें समझ लेता है? उस में जो समा जाए वह जरा मुश्किल से ही निकलता है. विनोद आ गया, घर की हवा में उसे कुछ बदलाव सा लगा. लेकिन बदले माहौल पर ध्यान देने का कुछ खास समय भी नहीं था उस के पास. विनोद के औफिस जाने का रुटीन शुरू हो गया. वह कार से 8 बजे दादर के लिए निकल जाता था. आने का कोई टाइम नहीं था. सुवीरा ने अब कुछ कहना छोड़ दिया था.

एक दिन विनोद ने हंसीमुसकराती सुवीरा से कहा, ‘‘अब तुम समझदार हो गई हो. अब तुम ने मेरी व्यस्तता के हिसाब से खुद को समझा ही लिया.’’ सुवीरा बस उसे देखती रही थी. बोली कुछ नहीं. क्या कहती, एक पराए पुरुष ने उसे बदल दिया है, एक पराए पुरुष की ओर उस का मन खिंचता चला जा रहा है. महेश के शालीन व्यवहार और अपनेपन के आगे वह दीवानी होती जा रही थी. 15 दिन रह कर विनोद एक हफ्ते के लिए दिल्ली चला गया. अब तक सुवीरा और महेश दोनों ही एकदूसरे के प्रति अपना लगाव महसूस कर चुके थे. एक दिन सिद्धि, सम़ृद्धि स्कूल जा चुकी थीं. सुवीरा को अपनी तबीयत कुछ ढीली सी लगी, वह अपने बैडरूम में जा कर आराम करने लगी. महेश को देखने का उस का मन था लेकिन उस से उठा नहीं गया.

महेश को भी जब वह दिखाई नहीं दी तो वह उसे ढूंढ़ता हुआ दरवाजे पर दस्तक दे कर अंदर आ गया. वह संकोच से भर उठी. कोई परपुरुष पहली बार उस के बैडरूम में आया था. उस ने उठने की कोशिश की लेकिन महेश ने उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे लिटा दिया. महेश के स्पर्श ने उसे एक अजीब सी अनुभूति से भर दिया. उस के गाल लाल हो गए. महेश ने पूछा,‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही.’’

महेश ने उस के माथे को छू कर कहा, ‘‘बुखार तो नहीं है, सिरदर्द है?’’ सुवीरा ने ‘हां’ में गरदन हिलाई तो महेश वहीं बैड पर बैठ कर अपने हाथ से उस का सिर दबाने लगा. सुवीरा ने मना करने के लिए मुंह खोला तो महेश ने दूसरा हाथ उस के होंठों पर रख कर उसे कुछ बोलने से रोक दिया. सुवीरा तो जैसे किसी और दुनिया में खोने लगी. कोई उसे ऐसे प्यार से सहेजे, संभाले कि छूते ही तनमन की तकलीफ कम होती लगे. उसे तो याद ही नहीं आया कि विनोद के स्पर्श से ऐसा कभी हुआ हो. इस स्पर्श में कितना रस कितना सुख, कितना रोमांच कितनी मादकता थी. उस के हलके गरम माथे पर महेश के हाथ की ठंडक देती छुअन. सुवीरा की आंखें बंद हो गईं. महेश का हाथ अब माथे से सरक कर उस के गाल सहला रहा था, सुवीरा ने अपनी आंखें नहीं खोलीं. महेश उसे अपलक देखता रहा. फिर खुद को रोक नहीं पाया और उस के माथे पर पहला चुंबन अंकित कर दिया. सुवीरा यह सब रोक देना चाहती थी. लेकिन वह आंख बंद किए लेटी रही. महेश धीरेधीरे उस के करीब आता गया. जब महेश उस की तरफ झुका तो सुवीरा ने अचानक अपनी आंखें खोलीं तो दोनों की नजरें मिलते ही बिना बोले बहुतकुछ कहासुना गया. वह कसमसा उठी. शरीर का अपना संगीत, अपना राग होता है.

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महेश ने जब उस के शरीर को छुआ तो उस के अंदर एक झंकार सी पैदा हुई और वह उस की बांहों में खोती चली गई. महेश ने उस के होंठों को चूमा तो मिश्री की तरह कुछ मीठामीठा, उस के होंठों तक आया. उस स्पर्श में कुछ तो था. वह ‘नहीं’ कर ही नहीं पाई. दोनों एकदूसरे में खोते चले गए. कुछ देर बाद अपने अस्तव्यस्त कपड़े संभाल कर महेश ने प्यार से पूछा, ‘‘मुझ से नाराज तो नहीं हो?’’ सुवीरा ने शरमा कर ‘न’ में गरदन हिला दी. महेश ने कहा, ‘‘मैं अभी जाऊं? मेरी क्लास है.’’ सुवीरा के गाल पर किस कर के महेश चला गया. सुवीरा फिर लेट गई. पूरा शरीर एक अलग ही एहसास से भरा था. कहां विनोद के मशीनी तौरतरीके, कहां महेश का इतना प्यार व भावनाओं से भरा स्पर्श, हर स्पर्श में चाहत ही चाहत. वह हैरान थी, उसे अपराधबोध क्यों नहीं हो रहा है. क्या वह इतने सालों से विनोद के अतिव्यावहारिक स्वभाव, अतिव्यस्त दिनचर्या से सचमुच थक चुकी है, क्या विनोद कभी उस के दिल तक पहुंचा ही नहीं था. वह, बस, अब अपने लिए सोचेगी. वह एक पत्नी है, मां है तो क्या हुआ, वह एक औरत भी तो है.

अगले दिन सिद्धि, समृद्धि स्कूल चली गईं. महेश तैयार हो कर नीचे आया. सुवीरा ने उसे प्यार से देखा, कहा कुछ नहीं. महेश ने उस का हाथ खींच कर उसे अपने सीने से लगा लिया. दोनों एकदूसरे की बांहों में बंधे चुपचाप खड़े रहे. फिर महेश ने उसे होंठों पर किस कर के उसे बांहों में उठा लिया और बैडरूम की तरफ चल दिया. सुवीरा ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. सुवीरा को लगा, उस का मन सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिना मांगे ही सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई. महेश के साथ बने संबंधों ने जैसे सुवीरा को नया जीवन दे दिया. उस का रोमरोम पुलकित हो उठा.  फोन पर तो विनोद दिन में एक बार सुवीरा और बच्चों के हालचाल लेता था. वह भी ऐसे नपेतुले सवालजवाब होते, कैसी हो? ठीक, तुम कैसे हो? ठीक, बच्चे कैसे हैं? ठीक, चलो, फिर बात करता हूं ठीक है, बाय. इतनी ही बातचीत अकसर होती थी. सुवीरा को लगता कि उन के पास बात करने के लिए क्या कुछ नहीं बचा? लेकिन महेश, वह कैसे बातें करता है, उस की सुनता है. विनोद को तो जब भी वह किसी के बारे में बताने लगती है, वह कह देता है, अरे छोड़ो, किसी की बात क्या सुनूं. उसे तो किसी की बात न कहनी होती है न सुननी होती है. वह बस अपने में जीता है. पैसा हाथ पर रख देने से ही तो पति का कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता.

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सुवीरा: भाग 1- घर परिवार को छोड़ना गलत है या सही

विनोद औफिस से चहकता हुआ आया तो सुवीरा ने पूछा, ‘‘कुछ खास बात है क्या?’’

‘‘हां, कितने दिनों से इच्छा थी आस्ट्रेलिया जाने की, कंपनी अब भेज रही है.’’

सुवीरा मुसकराई, ‘‘अच्छा, वाह, कब तक जाना है?’’

‘‘पेपर्स तो मेरे तैयार ही हैं, बस, जल्दी ही समझ लो.’’

‘‘लेकिन मेरा तो पासपोर्ट भी नहीं बना है, इतनी जल्दी बन जाएगा?’’

‘‘अभी मैं अकेला ही जा रहा हूं.’’

‘‘और मैं?’’ सुवीरा को धक्का लगा.

‘‘अभी फैमिली नहीं ले जा सकते, तुम्हारा बाद में देखेंगे.’’

‘‘मैं कैसे रहूंगी अकेले? फिर तुम्हें क्यों इतनी खुशी हो रही है?’’

‘‘यह मौका बड़ी मुश्किल से मिला है, मैं इसे नहीं छोड़ूंगा.’’

‘‘तो ठीक है, पर मुझे भी तो ले जाओ.’’

‘‘नहीं, अभी तो यह असंभव है.’’

‘‘शादी के 6 महीने बाद ही मुझे अकेला छोड़ कर जाओगे और वह भी तब जब मुझे तुम्हारी सब से ज्यादा जरूरत है.’’

‘‘सुवीरा अभी तुम प्रैग्नैंट हो, 5 महीने बाद डिलीवरी है, मैं तब तक आ ही जाऊंगा और आनाजाना तो लगा ही रहेगा.’’

‘‘डिलीवरी के बाद ले कर जाओगे?’’

‘‘हां, अभी बहुत टाइम है, अभी तो तुम मेरे साथ खुशी मनाओ.’’ सुवीरा आंखों में आए आंसू छिपाते हुए विनोद की फैली बांहों में समा गई. विनोद भविष्य के प्रति बहुत उत्साहित था. लेकिन सुवीरा का मूड ठीक होने को नहीं आ रहा था. सुवीरा ने कई बार अपने आंसू पोंछते हुए डिनर तैयार किया और विनोद के साथ बैठ कर बहुत बेमन से खाया. विनोद तो आराम से सो गया लेकिन सुवीरा को चैन नहीं आ रहा था. पूरी रात करवटें ही बदलती रही वह.

और देखते ही देखते तेजी से दिन बीतते गए. विनोद डिलीवरी के समय वापस आने का वादा कर आस्ट्रेलिया चला गया. सुवीरा की मम्मी बीना आ चुकी थीं. हमेशा लखनऊ में ही रही बीना का मन मुंबई में नहीं लग रहा था. वे कहतीं, ‘‘यहां तो न आसपड़ोस है न कोई जानपहचान, कैसे कटेगा टाइम. मांबेटी दोनों की तबीयत ढीली रहने लगी थी. विनोद से वैबकैम के माध्यम से बात तो हो जाती लेकिन सुवीरा की बेचैनी और बढ़ जाती. 2-2 मेड होने से सुवीरा को आराम तो था लेकिन एक तो गर्भावस्था, उस पर इतना अकेलापन. एक दिन मां ने कहा, ‘‘सुवीरा, मैं यहां नहीं रह पाऊंगी ज्यादा दिन, मन बिलकुल नहीं लगता यहां, कोई कितना टीवी देखे, कितना आराम करे. ऐसा कर, तू ही लखनऊ चल.’’

‘‘नहीं मां, विनोद चाहते हैं कि मैं यहीं रहूं. डिलीवरी के बाद आप चली जाना.’’ डिलीवरी की डेट से एक हफ्ता पहले आ गया विनोद. सुवीरा खिल उठी. सुवीरा के ऐडमिट होने की सारी तैयारी शुरू हो गई. सुवीरा ने एक सुंदर, स्वस्थ बच्ची को जन्म दिया. विनोद ने बेटी का नाम सिद्धि रखा. सब खुश थे. एक महीना हो चुका था. विनोद ने कोई बात नहीं छेड़ी तो एक दिन सुवीरा ने ही कहा, ‘‘अब तो ले चलोगे न हमें?’’

‘‘सिद्धि अभी छोटी है. वहां नई जगह इसे संभालने में तुम्हें दिक्कत होगी. बाद में देखते हैं.’’ मां ने पतिपत्नी की बात में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा. बस, इतना ही कहा, ‘‘मैं तो अब जाने की सोच रही हूं.’’

‘‘हां मां, आप अब चली जाओ,’’ सुवीरा ने अपने दिल पर पत्थर रखते हुए कहा. मां ने कहा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी? मेरे साथ ही चलो.’’

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‘‘नहीं मां, मैं रह लूंगी, मेड और मेरी सहेली सीमा है. वह आतीजाती रहती है. मैं मैनेज कर लूंगी.’’ बीना बेटी को बहुत सारी हिदायतें दे कर चिंतित मन से चली गईं. कुछ दिनों बाद जल्दी आने का वादा कर विनोद भी चला गया. सुवीरा ने अपनेआप को सिद्धि में रमा दिया. सीमा ने एक बहुत शरीफ और मेहनती महिला नैना को सुवीरा और सिद्धि की देखरेख के लिए ढूंढ़ लिया. नैना के दोनों बच्चे गांव में उस की मां के पास रहते थे. वह तलाकशुदा थी. उस ने बहुत उत्साह से नन्ही सिद्धि की देखभाल में सुवीरा का साथ दिया. सुवीरा विनोद के साथ रहने की आस में दिन गिनती रही. 1 साल बाद विनोद आया. आते ही उस ने सुवीरा और सिद्धि पर महंगे उपहारों की बरसात कर दी. विनोद को देख खुशी के मारे सुवीरा अकेले बिताया पूरा साल भूल सी गई. एक दिन विनोद ने कहा, ‘‘मैं वापस आने की कोशिश कर रहा हूं. बौस से बात की है. वे भी कुछ तैयार से लग रहे हैं. रहूंगा यहीं लेकिन विदेश के दौरे चलते रहेंगे. पोस्ट बढ़ी है तो काम भी बढ़ेगा ही और इस बार तो 6 महीने में ही आ जाऊंगा.’’

‘‘ठीक है विनोद, इस बार आ ही जाओ तो ठीक है. अकेले रहा नहीं जाता.’’ विनोद 6 महीने में आने के लिए कह कर फिर से चला गया. उस के चैक लगातार समय पर आते रहे. नैना ने सुवीरा को कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था. नैना, सिद्धि, सीमा, अंजना और बाकी सहेलियों के साथ सुवीरा अपना दिन तो बिता देती लेकिन रात को जब बिस्तर पर लेटती तो विनोद की अनुपस्थिति उस का कलेजा होम कर देती. दिन में सब के सामने वह एक हिम्मती लड़की थी लेकिन उस का दिल किस अकेलेपन से भरा था, यह वही जानती थी. विनोद 6 महीने बाद सचमुच आ गया है. सुवीरा की खुशी का ठिकाना नहीं था. अब सब ठीक हो गया था. बस, बीचबीच में विनोद को टूर पर जाना था. सिद्धि 4 साल की हुई तो सुवीरा ने एक और बेटी को जन्म दिया जिस का नाम विनोद ने समृद्धि रखा. दोनों बेटियों को  सुवीरा ने कलेजे से लगा लिया. उसे इस समय अपनी मां की बहुत याद आई जिन की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी. उस के पिता लखनऊ में अकेले ही रह रहे थे.

अब वह रातदिन बेटियों की परवरिश में व्यस्त थी. विनोद को अपने काम की जिम्मेदारियों से फुरसत नहीं थी. समय अपनी रफ्तार से चलता रहा. सिद्धि, समृद्धि बड़ी हो रही थीं पर कहीं कुछ ऐसा था जो सुवीरा को उदास कर देता था. वह जो चाहती थी, उसे मिल नहीं पा रहा था. वह चाहती थी विनोद उसे और समय दे, बैठ कर बातें करे, कुछ अपनी कहे व कुछ उस की सुने. लेकिन विनोद के पास किसी भी भावना में बहने का समय नहीं था अब. वह हर समय व्यस्त दिखता. सुवीरा उस का मुंह देखती रह जाती. वह बिलकुल प्रैक्टिकल, मशीनी इंसान हो गया था. सुवीरा दिन पर दिन अकेली होती जा रही थी. सुवीरा ने एक दिन  कहा भी, ‘‘विनोद, थोड़ा तो टाइम निकालो कभी मेरे लिए.’’

‘‘सुवीरा, यही टाइम है बढि़या लाइफस्टाइल के लिए खूब भागदौड़ करने का. कितनों के पास है मुंबई में ऐसा शानदार घर. सब सुखसुविधाएं तो हैं घर में. तुम, बस आराम से ऐश करो. फोन, इंटरनैट, कार, क्या नहीं है तुम्हारे पास.’’ सुवीरा क्या कहती, मन मार कर रह गई. वह विनोद के मशीनी जीवन से उकता चुकी थी. या तो बाहर, या घर पर फोन, लैपटौप पर व्यस्त रहना. रात को अंतरंग पलों में भी उस का रोबोटिक ढंग सुवीरा को आहत कर जाता.

एक दिन विनोद बाहर से आया तो उस के साथ में उस की हमउम्र का एक पुरुष था. विनोद ने परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘सुवीरा, यह महेश है. एक साथ ही पढ़े हैं. यह सीए है.’’ महेश और सुवीरा ने एकदूसरे का अभिवादन किया. महेश बहुत सादा सा इंसान लगा सुवीरा को. महेश ने विनोद के घर की खुलेदिल से तारीफ की. सुवीरा महेश के लिए कुछ लाने रसोई में गई तो विनोद भी वहीं पहुंच गया, बोला, ‘‘मेरे अच्छे दोस्तों में से एक रहा है यह. बहुत अच्छा स्वभाव है लेकिन कमाई में मुझ से बहुत पीछे रह गया. आज अचानक एक होटल के बाहर मिल गया. इस का अपना औफिस है मुलुंड में. एक कोचिंग सैंटर में अकाउंटैंसी की क्लासेज लेता है. बहुत इंटैलिजैंट है. मैं ने सोचा है, इसे यहीं ऊपर के रूम में रहने के लिए कह दूं. बच्चों की पढ़ाई भी देख लेगा, इस पर एहसान भी हो जाएगा और बच्चों को ट्यूशन के लिए कहीं जाना नहीं पड़ेगा.’’

‘‘इस का परिवार?’’

‘‘शादी नहीं की इस ने, किसी लड़की को चाहता तो था लेकिन घरपरिवार की जिम्मेदारी, अपनी 2 बहनों की शादी निबटातेनिबटाते खुद को भूल गया. उस लड़की ने कहीं और शादी कर ली थी किसी अमीर लड़के से. बस, दूसरों के बारे में ही सोच कर जीता रहा बेवकूफ.’’ सुवीरा को दिल ही दिल में विनोद की आखिरी कही गई बात पर तेज गुस्सा आया, लेकिन इतना ही बोली, ‘‘जैसे तुम ठीक समझो.’’ विनोद ने दिल ही दिल में पूरा हिसाबकिताब लगा कर महेश से कहा, ‘‘देख, घर होते हुए तू कहीं और नहीं रहेगा.’’

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‘‘नहीं यार, मैं आराम से एक लड़के के साथ शेयर कर के एक फ्लैट में रह रहा हूं. कोई प्रौब्लम नहीं है. सुबह अपनी क्लास ले कर औफिस चला जाता हूं.  औफिस पास ही है.’’

‘‘नहीं, मैं तेरी एक नहीं सुनूंगा. अभी ड्राइवर के साथ जा और अपना सामान ले कर आ,’’ विनोद ने उसे कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया और ड्राइवर को बुला कर आदेश भी दे दिया  दोनों की बातचीत में सुवीरा ने कोई हिस्सा नहीं लिया था. महेश के जाने के बाद विनोद ने सिद्धि, समृद्धि से कहा, ‘‘लो भई, तुम्हारे लिए टीचर का इंतजाम घर में ही कर दिया, अब जितना चाहो, जब चाहो इस से पढ़ लेना.’’ दोनों ‘‘थैंक्यू पापा,’’ कह कर हंसते हुए पिता से लिपट गईं. सुवीरा को चुप देख कर विनोद ने पूछा, ‘‘तुम क्यों सीरियस हो? तुम पर इस का कोई काम नहीं बढ़ेगा. अरे, इसे रखना नुकसानदायक नहीं होगा.’’ सुवीरा मन ही मन विनोद के हिसाबकिताब पर झुंझला गई. कैसा है विनोद, हर बात में हिसाबकिताब, दिल में किसी के लिए कोई कोमल भावनाएं नहीं, दोस्ती में भी स्वार्थ, क्या सोच है.

महेश अपना सामान ले कर आ गया. सामान क्या, एक बौक्स में किताबें ही किताबें थीं. कपड़े कम, किताबें ज्यादा थीं. सुवीरा से झिझकते हुए कहने लगा, ‘‘मेरे आने से आप को प्रौब्लम तो होगी?’’

‘‘नहीं, प्रौब्लम कैसी. आप आराम से रहें. किसी चीज की भी जरूरत हो तो जरूर कह दें.’’ डिनर के समय विनोद ने सुवीरा से कहा, ‘‘ऐसा करते हैं, आज पहला दिन है, इसे नीचे बुला लेते हैं. कल से महेश का नाश्ता और डिनर ऊपर ही भिजवा देना. लंच टाइम में तो यह रहेगा नहीं.’’ सुवीरा ने हां में सिर हिला दिया. महेश नीचे आ गया. उस की बातों ने, आकर्षक हंसी ने सब को प्रभावित किया. सिद्धि, समृद्धि तो खाना खत्म होने तक उस से फ्री हो चुकी थीं. विनोद अपनी कंपनी टूर के बारे में बताता रहा. डिनर के बाद महेश सब को ‘गुडनाइट’ और ‘थैंक्स’ बोल कर ऊपर चला गया. थोड़ी देर बाद विनोद और सुवीरा अपने बैडरूम में आए. सुवीरा कपड़े बदल कर लेट गई. विनोद ने पूछा, ‘‘इसे रख कर ठीक किया न?’’

‘‘अभी क्या कह सकते हैं? अभी तो एक दिन भी नहीं हुआ.’’

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सही वसीयत: भाग 2- हरीश बाबू क्या था आखिरी हथियार

हरीश बाबू के समझानेबुझाने पर वह मान गया. समय सरकता रहा. एक दिन सुमंत इंजीनियर बन गया. जब उस का कैंपस चयन हुआ तो सभी खुश थे. हरीश बाबू ने इस अवसर पर सभी का मुंह मीठा कराया. खुशी के साथ उन्हें यह जान कर तकलीफ भी थी कि सुमंत अब बेंगलुरु में रहेगा. पहली बार वह अकेला गया.

हरीश बाबू बूढ़े हो चले थे. उन की देखभाल सुनीता और सुधीर के लिए समस्या थी. समय पर दवा और भोजन न मिलता तो वे चिढ़ जाते. कभी सुनीता, तो कभी सुधीर से उलझ जाते. दोनों उन की हरकतों से आजिज थे. सिर्फ मौके की तलाश में थे.

जैसे ही सुमंत ने उन्हें बेंगलुरु बुलाया, दोनों ने एक पल में हरीश बाबू के एहसानों को धो डाला. जिस हरीश बाबू ने सुमंत को कलेजे से लगा कर पालापोसा, सुधीर, सुनीता का खर्चा भी उठाया, सुमंत की इंजीनियरिंग की फीस भरी, अपनी पत्नी के सारे जेवरात सुनीता को दे दिए, बची उन की असल संपति, फिक्स डिपौजिट के रुपए, वे सभी सुमंत को ही मिलते, को छोड़ कर सुधीर व सुनीता ने बेंगलुरु में बसने का फैसला लिया तो उन्हें गहरा आघात लगा.

वे नितांत अकेला महसूस करने लगे. पत्नी के गुजर जाने पर उन्हें उतना नहीं खला, जितना आज. कैसे कटेगा वक्त उन चेहरों के बगैर जिन्हें रोज देखने के वे आदी थे. कल्पनामात्र से ही उन के दिल में हूक उठती. वे अपने दुखों का बयान किस से करें. घर के आंगन में एक रोज वे रोने लगे. ‘वे अपनेआप को कोसने लगे. मैं ने ऐसा कौन सा अपराध किया था जो प्रकृति ने बुढ़ापे का एक सहारा देना भी मुनासिब नहीं समझा. लोग गंदे काम कर के भी आनंद का जीवन गुजारते हैं, मुझे तो याद भी नहीं आता कि मैं ने किसी का दिल दुखाया है. फिर अकेलेपन की पीड़ा मुझे ही क्यों?’ तभी सुनीता की आवाज ने उन की तंद्रा तोड़ी. जल्दीजल्दी उन्होंने आंसू पोंछे.

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‘‘गाड़ी का वक्त हो रहा है,’’ वह बोली. दोनों ने हरीश बाबू के पैर छू कर रस्मअदायगी की. दोनों अंदर ही अंदर खुश थे कि चलो, मुक्ति मिली इस बूढ़े की सेवा करने से. अकेले रहेगा तो दिमाग ठिकाने पर आ जाएगा. बेंगलुरु आने का न्योता सुधीर ने सिर्फ औपचारिकतावश दिया. पर उन्होंने इनकार कर दिया. ‘‘इस बुढ़ापे में परदेस में बसने की क्या तुक? यहां तो लोग मुझे जानते हैं, वहां कौन पहचानेगा?’’ हरीश बाबू के कथन पर दोनों की जान छूटी. अब यह कहने को तो नहीं रह जाएगा कि हम ने साथ रहने को नहीं कहा.

सुधीर और सुनीता अच्छी तरह जानते थे कि हरीश बाबू गोदनामा बदलेंगे नहीं. इस उम्र में दूसरा कदम उठाने से हर आदमी डरता है. वैसे भी, हरीश बाबू को अपने मकान का कोई मोह नहीं था. उम्र के इस पड़ाव पर वे सिर्फ यही चाहते थे कि कोई उन्हें समय पर खाना व बीमारी में दवा का प्रबंध कर दे. सुधीर के संस्कारों का ही असर था कि सुमंत भी सुधीर और अपनी मां की तरह सोचने लगा. सिर्फ कहने के लिए वह हरीश बाबू का दत्तक पुत्र था. जब तक अबोध था तभी तक उस के दिल में हरीश बाबू के प्रति लगाव था. जैसे ही उस में दुनियादारी की समझ आई, अपने मांबाप का हो कर रह गया.

सुमंत के चले जाने के बाद हरीश बाबू को अपने फैसले पर पछतावा होने लगा. वे सोचने लगे, इस से अच्छा होता कि वे किसी को गोद ही न लेते. मरने के बाद संपत्ति जो चाहे लेता. क्या फर्क पड़ता? गोद ले कर एक तरह से सभी से बैर ले लिया.

एक सुबह, हरीश बाबू टहल कर आए. आते ही उन्हें चाय की तलब हुई. दिक्कत इस बात की थी कि कौन बनाए? नौकरानी 3 दिनों से छुट्टी पर थी. वे चाय बनाने ही जा रहे थे कि फाटक पर किसी की दस्तक हुई. चल कर आए. देखा, सामने नटवर सपत्नी खड़ा था. दोनों ने हरीश बाबू के चरण स्पर्श किए.

‘‘बैठो, मैं तुम लोगों के लिए चाय ले कर आता हूं,’’ वे किचन की तरफ जाने लगे.

‘‘आप क्यों चाय बनाओगे, सुधीर नहीं है क्या?’’ नटवर बोला.

‘‘वह सपरिवार बेंगलुरु में बस गया.’’

‘‘आप को खाना बना कर कौन देता होगा?’’

‘‘नौकरानी है. वही सुबहशाम खाना बनाती है.’’

नटवर को अपने रिश्ते की अहमियत दिखाने का अच्छा मौका मिला. तुरंत अपनी पत्नी को चायनाश्ता बनाने का आदेश दिया. हरीश बाबू मना करते रहे मगर नटवर ने रिश्ते की दुहाई दे कर उन्हें कुछ नहीं करने दिया. इस बीच उन के कान भरता रहा.

‘‘सुमंत को गोद लेने से क्या फायदा जब बुढ़ापे में अपने ही हाथ से खाना बनाना है,’’ नटवर बोला.

‘‘ऐसी बात नहीं है, वह मुझे भी ले जाना चाहता था,’’ हरीश बाबू ने सफाई दी.

‘‘सिर्फ कहने को. वह जानता है कि आप अपना घरशहर छोड़ कर जाने वाले नहीं. सुमंत तक तो ठीक था, सुधीर क्यों चला गया?’’

‘‘सुमंत को खानेपीने की तकलीफ थी.’’

‘‘शादी कर देते और खुद आप के पास रहते,’’ नटवर को लगा कि तीर निशाने पर लगा है तो आगे बोला, ‘‘आप की करोड़ों की अचल संपत्ति का मालिक सुधीर का बेटा ही तो है. क्या उस का लाभ सुधीर को नहीं मिलेगा? ऐसे में क्या सुधीर और सुनीता का फर्ज नहीं बनता कि मृत्युपर्यंत आप की सेवा करें?’’ नटवर की बात ठीक थी. कल तक जिस नटवर से उन्हें चिढ़ थी, आज अचानक उस की कही बातें उन्हें तर्कसंगत लगने लगीं.

उस रोज नटवर दिनभर वहीं रहा. नटवर ने भरसक सुमंत के खिलाफ हरीश बाबू को भड़काया. हरीश बाबू सुनते रहे. उन के दिल में सुमंत को ले कर कोई मलाल नहीं था. तो भी, क्या सुधीर का कोई फर्ज नहीं बनता?

इस बीच, नटवर की पत्नी ने घर की साफसफाई की. हरीश बाबू के गंदे कपड़े धोए. घर में जिन चीजों की कमी थी उन्हें नटवर ने अपने रुपयों से खरीद कर घर में रख दिया. रोजाना के लिए कुछ नाश्ते का सामान बना कर रख दिया ताकि सुबहसुबह उन्हें खाली पेट देर तक न रहना पड़े. जातेजाते रात का खाना भी बना दिया. एक तरह से नटवर और उस की पत्नी ने हरीश बाबू को खून का लगाव दिखाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ी. जातेजाते नटवर ने अकसर आने का हरीश बाबू को आश्वासन दिया.

सुधीर को हरीश बाबू का पूछना नागवार लगा.

ऐंठ कर बोला, ‘‘बचता तो आप को नहीं दे देता.’’

‘‘नहीं देते, इसलिए पूछ रहा हूं,’’ हरीश बाबू बोले. सुनीता के कानों में दोनों के संवाद पड़ रहे थे. उसे भी हरीश बाबू का तहकीकात करना बुरा लग रहा था. जानने को वह अपने पति की हर आदत जानती थी.

‘‘यानी मैं बचे पैसे उड़ा देता हूं,’’ सुधीर अकड़ा.

‘‘पैसे बचते हैं.’’

‘‘आप सठिया गए हैं. बेसिरपैर की बातें करते हैं. सुनीता से अनापशनाप खानेपीने की फरमाइश करते हैं. न देने पर मुंह फुला लेते हैं और मुझे चोर समझते हैं.’’

‘‘मैं तुम्हें चोर समझ रहा हूं?’’ हरीश बाबू भड़के.

‘‘और नहीं तो क्या? आप के साथ जब से रह रहा हूं सिवा जलालत के कुछ नहीं मिला. कभीकभी तो जी करता है कि घर छोड़ कर चला जाऊं.’’

‘‘चले जाओ, मैं ने कब रोका है.’’

‘‘चला जाऊंगा, आज ही चला जाऊंगा,’’ पैर पटक कर वह बाहर चला गया.

उस रात उस ने सुनीता से सलाह कर ससुराल में रहने का निश्चय किया, हालांकि यह व्यावहारिक नहीं था. भले ही तैश में आ कर उस ने कहा हो, पर वह अपनी औकात जानता था. वहां जा कर खाएगा क्या? सुमंत भी किसी लायक नहीं था. उस पर यहां से चला गया तो हो सकता है हरीश बाबू वसीयत ही बदल दें. फिर तो वह न घर का रहेगा, न घाट का. अचल संपत्ति तो थी ही, सावित्री के जेवरात, बैंक में फिक्स रुपए इन सब से उसे हाथ धोना पड़ता.

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सुनीता भी कम शातिर नहीं थी. थोड़ा अपमान सह कर रहने में उसे हर्ज नहीं नजर आता था. एक कहावत है, ‘दुधारी गाय की लात भी भली.’ सुधीर को उस ने अच्छे से समझाया. सुधीर इतना बेवकूफ नहीं था जितना सुनीता समझती थी. उस ने तो सिर्फ गीदड़ धमकी दी थी हरीश बाबू को. वह हरीश बाबू की कमजोरी जानता था. सुमंत के बगैर वे एक पल नहीं रह सकते थे. दिखाने के लिए वह अपना सामान पैक करने लगा.

‘‘कहां की तैयारी है?’’ हरीश बाबू का गुस्सा शांत हो चुका था.

‘‘मैं आप के साथ नहीं रह सकता.’’

‘‘मैं तुम्हारा जीजा हूं. उम्र में तुम से बड़ा हूं. क्या इतना भी पूछने का हक नहीं है मुझे?’’

‘‘सलीके से पूछा कीजिए. क्या मेरी कोई इज्जत नहीं. मेरा बेटा बड़ा हो रहा है, क्या सोचेगा वह मेरे बारे में.’’ सुधीर के कथन में सचाई थी, इसलिए वे भी मानमनौवल पर आ गए.

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कारवां: भाग 3- क्यों परिवार की ईष्या झेल रही थी सौंदर्या

‘‘‘शुरुआत में सभी ऐसा करने की सोचते हैं. देखती नहीं, कमरे में एसी लगा हुआ है, पंखा नहीं है. बहुत जल्द कैमरा भी लग जाएगा. वैसे, कैमरा नहीं है तो क्या? नम्रता मैडम की आंखें उस से कम हैं क्या?’ वह लड़की बोली तो मैं ने कहा, ‘बेटा, तुम यहां कब…’ मेरा वाक्य खत्म होने से पहले वह बोल पड़ी,‘चुप कर, खबरदार, जो मुझे बेटा कहा. इस शब्द से छली गई हूं मैं. तू राधा मैडम बोलेगी मुझे, समझी.’

‘‘‘क्या?’ मैं हैरान रह गई.

‘‘मुझे डांटती हुई सी वह आगे बोली, ‘सीनियर की रिस्पैक्ट करना नहीं सीखा क्या? उम्र में भले ही तू मुझ से बड़ी होगी, पर इस लाइन में मैं तेरी सीनियर हूं. पढ़ीलिखी नहीं है क्या तू? सीनियर का मतलब तो पता होगा?’

‘‘ऐसे समय में भी अपनी हंसी नहीं रोक पाई थी मैं. ‘आप काफी पढ़ीलिखी लगती हैं, राधा मैडम?’ अपनी हंसी दबाते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘‘किताब नहीं मैडम, मैं ने जिंदगी पढ़ी है. तुम्हें भी तैयार कर दूंगी,’ वह बोली.

‘‘‘यहां, यह सब. मेरा मतलब है…’ मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोली, ‘यहां जितनी साध्वियां दिख रहीं, वे सब…’ उस ने अपनी बात जारी रखी, ‘तेरे साथ एक नई लड़की भी आई है. नम्रता दीदी उसे ले कर आती होंगी. देखा तो है उसे तूने. क्या नाम है उस का? हां, गुडि़या, यही है उस का नाम.’

‘‘‘पर वह तो बहुत छोटी है,’ मैं ने चिंता प्रकट की.

‘‘‘छोटी, इस काम में क्या छोटी, क्या बड़ी? अब खुद को ही देख लें,’  राधा बोली थी.

‘‘‘सिर्फ 7 साल की है वह,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘मैं 10 साल की थी जब इस लाइन में आई थी,’ राधा के शब्द थे.

‘‘सचमुच, उम्र में बड़ी होते हुए भी मैं उस के सामने कितनी छोटी थी, मैं सोच रही थी.

‘‘‘देख, तेरा नाम क्या है?’ राधा ने पूछा तो मैं ने कहा, सौंदर्या.

‘‘‘अरे वाह, मांबाप ने नाम बड़ा चुन कर रखा,’ राधा ने अपनी सोच प्रकट की.

‘‘मैं कुछ न बोली.’’

‘‘‘देखो, ऐसा है, कुछ लोगों को तेरी जैसी अनुभवी औरतें पसंद आती हैं तो कुछ को हमारे जैसी. वहीं, कुछ लोगों को गुडि़या की उम्र की लड़कियां चाहिए होती हैं. डिमांड और सप्लाई का खेल है.’ उस ने बताया.

‘‘‘ढोंगी हैं ये सारे?’ मैं ने घृणा भरे लहजे में कहा.

‘‘‘सही कहा. चल सो जा, वरना नम्रता दीदी आ जाएंगी,’ राधा बोली थी.

‘‘‘वे कौन हैं?’ मैं ने जानना चाहा.

‘‘‘इन सब से भी बढ़ कर,’ राधा ने कह कर ठहाका लगाया.’

‘‘राधा चली गई थी. वह मेरी बगल में सो रही थी. पता नहीं, कब मेरे आंसू बहने लगे. क्या हुआ मौसी? कहीं चोट लगी है? दर्द हो रहा है?’

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‘‘अब क्या बताऊं उस मासूम को? कैसे दिखाऊं उसे अपनी चोट? खुद ही रिश्ता जोड़ लिया था उस ने. मौसी, …मां सी… मेरा अपना बचपन कौंध गया था मेरे सामने. ‘नहीं, गुडि़या को मैं एक और सौंदर्या या राधा नहीं बनने दूंगी.’ मेरे लक्ष्यविहीन जीवन को एक लक्ष्य मिल गया था.

‘‘अपने अंदर आए इस बदलाव से मैं खुद ही आश्चर्यचकित थी. अगले दिन मैं खुद उस पाखंडी के पास गई थी.

‘‘‘जयजय गुरुजी.’

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, आइए,आइए. जयजय.’

‘तो क्या सोचा आप ने?’

‘‘‘कुछ सोचने लायक कहां छोड़ा आप ने?’

‘‘जी?’

‘‘‘गुरुजी, आज तक मैं अपने सौंदर्य को अपना शत्रु मानती थी. परंतु आप की कृपा से मैं यह जान पाई हूं कि इस का इस्तेमाल कर के मैं कितना कुछ प्राप्त कर सकती हूं. इसी की माया है कि आप जैसा पुरुष भी मेरा दास बनने को तैयार है. कहिए गुरुजी, कुछ गलत कहा मैं ने.’

‘‘‘बिलकुल भी नहीं.’

‘‘‘मैं इस कार्य के लिए सहमत हूं, परंतु आप से एक विनती है?’

‘‘‘तुम तो हुक्म करो.’

‘‘‘मुझे आप अभी अपनी सेवा में ही रहने दें.’

‘‘‘देखो, वैसे तो भगत तुम्हें बहुत पसंद करता है परंतु…अच्छा, परसों समागम का आयोजन किया गया है. उस के बाद बात करते हैं.’

‘‘‘ठीक है.’

‘‘उस ढोंगी से अनुमति मिल चुकी थी. अब मुझे सिर्फ एक काम करना था, वह भी उस के चाटुकारों की फौज से छिप कर. इस काम में मेरी मदद की सुषमा ने. सुषमा एक इलैक्ट्रौनिक इंजीनियर थी. अंधविश्वास और अंधश्रद्घा एक मनुष्य का कितना पतन कर सकती है, इस का वह जीताजागता उदाहरण थी. एक बड़ी कंपनी में काम करने वाली सुषमा आज इस कामी के पिंजरे में बंद थी.

‘‘समागम का जम कर प्रचार हुआ था. वैसे भी इस देश में धर्र्म के नाम पर तो पैसे लुटाने के लिए लोग तत्पर रहते ही हैं. परंतु एक गरीब को उस के हक का पैसा भी देने में लोग सौ तरह के बहाने करते हैं. पंक्तियों के हिसाब से बैठने का रेट निर्धारित था. प्रथम पंक्ति वीआईपी लोगों की थी. जिस देश में भगवान के दर्शन में भी मुद्रा की माया चलती है, उस देश में भगवान के इन तथाकथित मैनेजरों के दर्शन आप मुफ्त में कैसे पा सकते हैं. ईश्वर से संवाद तो आखिर यही बेचारे करते हैं.

‘‘प्रथम पंक्ति में कुछ खास लोगों तथा पत्रकारों को मुफ्त पास दिए गए थे. बाकी जो लोग उस पंक्ति में बैठना चाहते थे उन्हें 15 हजार रुपए देने पड़े थे. इसी प्रकार हर पंक्ति का अपना रेट फिक्स था. जो बेचारे मूल्य चुका नहीं सकते थे, परंतु गुरुजी को सुनने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे, वे आसपास के पेड़ों पर टंगे हुए थे.

‘‘नियत समय पर लोगों का आना शुरू हो गया. सुधाकर और नम्रता उन लोगों को समझा रहे थे जिन्हें गुरुजी भीड़ में से बीचबीच में उठाने वाले थे. उन्हें बस यही कहना था कि गुरुजी के उन के जीवन में आने से उन की जिंदगी में कितना सुधार हुआ है. किसी को नौकरी मिल गई थी, किसी के बच्चे की बीमारी ठीक हो गई थी. आखिर प्रोडक्ट का प्रचार भी तो करना होता है.

‘‘गुरुजी का समागम में आने का समय 12 बजे का था, उस के पहले उन्होंने राधा को बुलाया था. वह ढोंगी एक टोटके को मानता था. उस का मानना था कि समागम  के पहले अगर वह किसी लड़की के साथ संबंध बनाएगा तो उस का वह आयोजन काफी सफल होगा.

‘‘‘गुरुजी’ राधा पहुंच गई थी.

‘‘‘आ गई. चल, कपड़े उतार और लेट जा. क्या हुआ, खड़ी क्यों है,’ गुरुजी बोले.

‘‘‘गुरुजी वह…मेरी तबीयत ठीक नहीं है. मेरा महीना…’ राधा बनावटीपन में कह रही थी.

‘‘‘क्या आज पहली बार कर रहा हूं, चल.’’

‘‘दर्द हो…’’

‘‘नाटक कर रही है. उतार साड़ी…’

‘‘‘नहीं उतारूंगी,’ राधा अब दहाड़ी थी.’

‘‘‘तेरी इतनी हिम्मत, भूल गई, पहली बार तेरा क्या हाल किया था. 10 दिनों तक उठ नहीं पाई थी.’

‘‘‘याद है भेडि़ए, सब याद है. पर अब तेरा खेल खत्म. अब किसी और लड़की को तू छू भी नहीं पाएगा?’

‘‘राधा ने यह कहा तो गुरुजी के भेष में वह घिनौना अपराधी जवाब में बोला, ‘‘‘अच्छा, कैसे भला, कौन बचाएगा उन्हें?’

‘‘‘मैं, दरवाजे पर मुझे देख कर वह ढोंगी चौंक गया.’

‘‘‘तू, वह मक्कारी का ठहाका लगा रहा था.’’

‘‘‘हां, मैं और ये सब लोग…’

‘‘उस कमीने और चाटुकारों की उस की फौज को पता ही नहीं चला था. एक रात पहले सुषमा ने समागम के लिए आए कैमरों में से 2 कैमरे गुरुजी के कमरे में लगा दिए थे. और अंदर का सारा नाटक, बाहर बैठे उस के भक्तगण देख चुके थे. और फिर उस भीड़ ने वही किया जिस की उम्मीद थी.

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‘‘गुरुजी के प्राणपखेरु भीड़ की पिटाई से उड़ गए थे. सभी चाटुकारों तथा गुरुजी के सभी ग्राहकों के खिलाफ आश्रम की हर स्त्री ने गवाही दी थी.

‘‘जिंदगी ने मुझे सिखा दिया है, मेरी सुंदरता कभी भी मेरी दुश्मन नहीं थी. अगर कोई मुझे गलत नजर से देखता था, तो दोष उस की नजर का था. खुद से प्रेम करना हम सभी सीख गए हैं.

‘‘अब हम से कोई भी साध्वी नहीं है. सब अपनी इच्छानुसार चुने हुए क्षेत्रों में कार्यरत हैं. हमारा कोई आश्रम नहीं है. एक कारवां है हम सब पथिकों का जो एक ही राह के राही हैं. मेरी इस पुस्तक में इन सभी पथिकों के संघर्ष की कहानियां हैं.

‘‘मेरा और मेरी सखियों का सफर अभी समाप्त नहीं हुआ है, न कभी होगा. कई नए साथी आएंगे, कई पुराने हंसते हुए हम से विदा हो जाएंगे परंतु यह कारवां बढ़ता ही जाएगा, चलता ही जाएगा.

‘‘अपनी और अपने कारवां की सखियों की सभी कहानियों का निचोड़ इन पंक्तियों द्वारा व्यक्त कर रही हूं-

‘‘चले थे इस पथ पर खुशियों को खोजते

मगर इस तलाश में खुद को ही खो दिया

स्वयं को खो कर, ढूंढ़ना था मुश्किल

चल पड़े हैं यारो, शायद रस्ते में मिल जाएं.’?’

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कारवां: भाग 2- क्यों परिवार की ईष्या झेल रही थी सौंदर्या

‘‘‘चलचल, बाकी बात कल कर लेंगे. पत्नी है न, तो पत्नी का फर्ज पूरा कर.’

‘‘मेरे सारे स्वप्न सुहाग सेज पर जल कर राख हो गए. मेरा कहीं भी अकेले आनाजाना बंद था, फोन उठाना भी मना था. औफिस की पार्टियों में भी वे अकेले ही जाते. मेरा मेकअप करना भी अजय को पसंद नहीं था. कपड़े भी मुझे उन से पूछ कर पहनने पड़ते थे. एक बार दुकान में उन के एक सहकर्मी मिल गए थे.

‘‘‘अरे अजय, क्या हाल हैं, अच्छा, भाभीजी भी साथ हैं, नमस्ते, भाभीजी.’

‘‘‘जी नमस्ते,’ मैं ने नमस्ते का जवाब दिया.

‘‘‘आज पता चला, भाभीजी, अजय आप को छिपा कर क्यों रखता है. कई बार कहा मिलाओ भाभी से. पर यह तो…’

‘‘‘अच्छा भाई रमेश, कल औफिस में मिलते हैं, आज थोड़ा जल्दी है,’ कहते हुए पति ने अपने साथी से पीछा छुड़ाया.

‘‘फिर घर आ कर अजय ने मुझ पर पहली बार हाथ उठाया था. परंतु वह आखिरी बार नहीं था. उस के बाद तो यह उन की आदत में शुमार हो गया. अब सोचती हूं तो लगता है कि मुझे मार कर, मेरे चेहरे पर निशान बना कर अजय अपने अहं को संतुष्ट करते थे. अजय का साधारण नैननक्श का होना मेरे लिए कोई बड़ी बात नहीं थी. परंतु उन्हें कौन समझाता?

‘‘जब मेरे दोनों बच्चों नमन और रजनी का जन्म हुआ, मेरी जिंदगी बदल सी गई. मुझे लगा ये दोनों मेरा दर्द समझेंगे. परंतु जैसेजैसे बच्चे बड़े होते गए, उन का व्यवहार मेरे प्रति बदलता चला गया. उन्होंने अपने पिता का रूपरंग ही नहीं उन की सोच तथा उन का व्यवहार भी ले लिया था. दोनों की जिंदगी में दखल सिर्फ उन के पिता का था. रजनी और नमन के 15वें जन्मदिन पर तो कुछ ऐसा हुआ जिस ने मुझे मानसिक रूप से तोड़ दिया.

‘‘नमन तो अपना जन्मदिन किसी होटल में मनाने चला गया था परंतु रजनी का प्लान कुछ और था. उस दिन रजनी की कुछ सहेलियां घर आई थीं. उन सब को मेरा बनाया खाना बड़ा पसंद आया था. एक सहेली बोल पड़ी,‘रजनी, आंटी तो ग्रेट हैं. जितनी सुंदर हैं, खाना तो उस से भी स्वादिष्ठ बनाती हैं. लगता ही नहीं, इन के इतने बड़े बच्चे होंगे और तू तो आंटी की बेटी लगती ही नहीं.’

‘‘‘ऐसा नहीं है बेटा, सुमन,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘मम्मी, आप अंदर जाइए,’ रजनी ने मुझे निर्देश दिया.

‘‘बाद में  क्या होने वाला था, उस का कुछकुछ एहसास मुझे हो गया था. अपने पापा और भाई के आने पर रजनी ने कुहराम मचा दिया था.

‘‘‘पापा, इन से कह दीजिए, अपनी सुंदरता की नुमाइश करने के लिए कोई और जगह ढूंढ़ लें. हमेशा मुझे नीचा दिखाने के तरीके ढूंढ़ती रहती हैं.’

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‘‘‘रजनी, मां हूं मैं तुम्हारी,’ मैं बोली थी.

‘‘‘तो मां बन कर रहो, अक्ल तो ढेले बराबर कि नहीं है. मेरे बच्चों की जिंदगी से दूर रहो समझी या दूसरी तरह समझाऊं?’ इतना कह कर पति अजय बेटी रजनी को ले कर उस के कमरे में चले गए.

‘‘बेटा नमन जो अब तक चुपचाप सब तमाशा देख रहा था, मेरे पास आया और बोला, ‘चुपचाप रह नहीं सकतीं, पिटने की आदत हो गई है क्या?’

‘‘अजय के रोजरोज के अपमान ने मेरे बच्चों को भी मुझे अपमानित करने का हक दे दिया था. हर पल मैं यही सोचती कि काश, ऐसा हो कि मेरी सुंदरता नष्ट हो जाए. मैं ने अपनेआप को अपने अंदर ही कैद कर लिया था. मानसिक व्यथा को दूर करने के लिए मैं ने अपनेआप को दूसरे कामों में लगा लिया. इसी दौरान मेरी मुलाकात स्वामीजी से हुई.

‘‘जीवन में पहली बार मैं ने इतनी बात किसी से की थी. हमेशा श्रोता रही थी मैं. अपनी पड़ोसिन गीता के घर में उन से पहली बार मेरी मुलाकात हुई थी. उस के बाद तो मैं गुरुजी की परमभक्त हो गई. दर्द से भरे हुए मेरे हृदयरूपी रेगिस्तान

में गुरुजी ठंडी फुहार के रूप में बरसने लगे थे. लगातार उन के आश्रम में मेरा आनाजाना होने लगा. धीरेधीरे मुझे यकीन होने लगा था कि मेरा जन्म ही गुरुजी की सेवा के लिए हुआ है.

‘‘मैं ने संन्यास लेने का निर्णय ले लिया. अजय गुस्से से पागल हो गए थे. बच्चे मजाक बना रहे थे. अपनेअपने तरीके से सब ने समझाने की कोशिश की, परंतु मैं रुकती भी तो किस के लिए, अजय और बच्चों के जीवन में तो मेरा अस्तित्व घर में रखे हुए फर्नीचर से ज्यादा कभी रहा नहीं था. गुरुजी में ही मुझे अपना वर्तमान तथा भविष्य दोनों नजर आ रहे थे.

‘‘आरंभ में सबकुछ अच्छा लग रहा था. लगभग एक महीने के बाद एक रात गुरुजी ने कुछ व्यक्तिगत मसलों पर चर्चा करने के लिए मुझे बुलाया था.

उस रात का मेरे इस जीवन पर सब से ज्यादा प्रभाव पड़ा था, सबकुछ बदल

गया था.

‘‘वहां जब मैं पहुंची, 2 सज्जन पहले से मौजूद थे. शायद गुरुजी के भक्त होंगे, सोच कर मैं अंदर आ गई थी. परंतु उन की नजरों में छिपी हुई भावना को मैं चाह कर भी नजरअंदाज नहीं कर पाई. इस नजर से मेरा सामना कई बार मेरे जीवन में हुआ था.

‘‘‘जैसा कि आप ने कहा था गुरुदेव, साध्वीजी तो उस से भी ज्यादा…’ उन में से एक बोला.

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, क्या हुआ? डरें नहीं, अपने ही लोग हैं,’ गुरुजी ने प्यार से कहा.

‘‘जहां सब से ज्यादा विश्वास होता है, विश्वासघात भी वहीं होता है. विश्वास करना सही है, परंतु अंधविश्वास पतन की ओर ले जाता है.

‘‘गुरुजी की बात सुन कर मैं बैठ गई.

‘‘गुरुजी बोले, ‘साध्वीजी, आश्रम में दुखियारी स्त्रियों के लिए जो भवन बनने वाला था, उस के बारे में तो आप को बताया था.’

‘‘‘देखो, आप के कदम हमारे आश्रम के लिए कितने लाभकारी हैं. ये

2 परोपकारी मनुष्य सहयोग करने को तैयार हैं.’

‘‘‘अरे वाह, गुरुदेव,’ मैं ने खुशी जाहिर की.

‘‘‘अब, आप लोग आपस में बात कर लो. क्योंकि इस प्रोजैक्ट की पूरी जिम्मेदारी मैं आप को देना चाहता हूं, साध्वीजी,’ गुरुजी ने गेंद मेरे पाले में डाल दी.

‘‘‘क्या बात कह रहे हैं आप गुरुजी? मुझ में कहां इतनी काबिलीयत है?’ मैं ने दिल की सचाई को बयान कर दिया.

‘‘‘आप तो कमाल की हैं. हम से पूछिए अपनी काबिलीयत दूसरा आदमी बोला.’

‘‘‘आप चुप रहें, लालजी, हम बात कर रहे हैं न,’ गुरुजी ने उसे चुप कराया.

‘‘‘साध्वी सौंदर्या, यह तो एक शुरुआत है. बहुत जल्द पूरे आश्रम की जिम्मेदारी मैं आप को देना चाहता हूं.’

‘‘मैं तो भावविभोर हो गई, ‘गुरुजी, शब्द नहीं हैं मेरे पास आप का आभार व्यक्त करने के लिए, मेरे जीवन को एक दिशा देने के लिए.’

‘‘‘परंतु उस के लिए आप को…’ उन दो में से एक व्यक्ति बोला तो गुरुजी ने ‘चुप रह रामदास’ कह कर उसे चुप करा दिया, फिर मेरी तरफ मुखातिब हुए, ‘साध्वीजी को पता है सामाजिक उत्थान के लिए यदि थोड़ा व्यक्तिगत नुकसान भी उठाना पड़े तो उस में कोई बुराई नहीं है.’

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‘‘‘जी, मैं मेहनत करने से कभी पीछे नहीं हटती.’ मैं उत्साहित हो गई थी.

‘‘‘अरेअरे, आप को मेहनत कौन करने देगा? मेहनत तो हम कर लेंगे. आप तो बस…’ एक व्यक्ति बोला तो गुरुजी ने कहा, ‘चुप रह भगत, मैं बात कर रहा हूं न.’

‘‘मेरे अंदर संशय का नाग फन उठा चुका था, परंतु मेरी अंधश्रद्घा ने उसे कुचल दिया.

‘‘‘आप को कुछ नहीं करना, साध्वीजी. बस, जगत कल्याण का कार्य करना है,’ गुरुजी के शब्द थे.

‘‘‘जी,’ मैं ने धीरे से कहा, तो फिर उन्होंने इशारा किया, ‘आप को तो पता ही है, पुराने समय में देवदासी होती थीं. वे होती तो भगवान की ब्याहता थीं, परंतु जगतकल्याण के लिए ईश्वर के सभी भक्तों को सुख प्रदान करती थीं.’

‘‘‘जी, क्या?’ मैं कांप गई थी.

‘‘‘जी, बस, वही सुख आप को मुझे तथा परमपिता के भक्तों को प्रदान करना है.’

‘‘‘आप पागल हो गए हो क्या?’ क्रोधित हो कर मैं बोली.

‘‘गुरुजी थोड़ा नाराजगी के साथ बोले, ‘आप शब्दों का चुनाव सोचसमझ कर करें तो सही रहेगा. और वैसे भी, दुखीजनों के कल्याण से पुण्य ही मिलेगा. और आप की भी दबी हुई कामनाओं को…आखिर उम्र ही क्या है आप की?’

‘‘‘केवल 38 साल’ एक भक्त बोला.

‘‘‘गुरुजी, नहीं…नहीं,’ मैं सिसकते हुए बोली.

‘‘भक्त जब अपने भगवान का घिनौना रूप देख ले तो उस के जीने की रहीसही इच्छा भी दम तोड़ देती है. कई बार छली गई थी मैं, परंतु आज मैं टूट गई थी. मेरे आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. रोती हुई मैं आगे बोली, ‘मैं तो आप की पूजा करती थी, गुरुजी.’

‘‘‘मेरा प्रेम तो आप के साथ रहेगा ही, उस प्रेम को भी तो पूर्णरूप देना अभी बाकी है.’

‘‘आप जाइए, सोच लीजिए. आप के पास 2 दिनों का समय है,’ गुरुजी के शब्द थे.

‘‘मुझे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था. भाग कर जाती भी तो कहां, कोई दरवाजा मेरे लिए नहीं खुला था. किसी को मेरा इंतजार नहीं था. उस समय ही मैं ने आत्महत्या के विकल्प के बारे में सोचा. जहर खरीदने के लिए पैसे नहीं थे. नस काटने के लिए चाकू लाना होगा. साड़ी से फंदा लगा कर मरना ही मुझे सही लग रहा था. साड़ी तो मैं ने पहनी हुई थी, बस, उस का फंदा लगाना था. चादर का भी इस्तेमाल कर सकती थी. फंदा लगाने के लिए मैं ऊपर कील ढूंढ़ने लगी थी. परंतु तभी एक आवाज ने मेरे विचारों की शृंखला को तोड़ दिया.

‘‘‘कोई कील नहीं है इस कमरे में, पंखा भी नहीं है.’

‘‘मेरे सामने एक 15-16 साल की सुंदर लड़की थी. ऐसा लगा जैसे रजनी खड़ी हो. मां का दिल ऐसा ही होता है, चाह कर भी अपनी संतान से नफरत नहीं कर पाती. मैं ने उस से पूछा, ‘तुम, तुम्हें कैसे पता…?’

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कारवां: भाग 1- क्यों परिवार की ईष्या झेल रही थी सौंदर्या

कौन से भगवान को पूजें, सोचते हैं हम मंदिर में बैठा या दरगाह में सोया है शायद बिजी है वो, तभी उसे पता न चला कि तू रोया है, बहुत रोया है.

‘‘मौसीमौसी गाड़ी आ गई.’’ गुडि़या की आवाज ने मेरी कलम की रफ्तार को रोक दिया था.

‘‘थोड़ी देर से चले जाएंगे तो…’’

‘‘राधा… उन का फोन आया तो.’’

राधा ने इस आयोजन के लिए बहुत मेहनत की थी. इन 10 सालों में कितनी बदल गई थी राधा.

‘‘मौसी, फिर खो गईं आप, माना कि आप लेखकों को कल्पनालोक की यात्रा कुछ ज्यादा ही पसंद है किंतु यथार्थ में रहना उतना भी बुरा नहीं है, क्यों?’’

‘‘चलो.’’ कलम नीचे रख कर सौंदर्या चल पड़ी. आज उस की पुस्तक ‘कारवां’ के लिए उसे सम्मानित किया जाना था.

पूरा हौल खचाखच भरा था. कार्यक्रम संचालक तथा बाकी साथी लेखक उस की किताब व उस के बारे में मधुर बातें बोल रहे थे. जब सौंदर्या से दो शब्द बोलने को कहा गया तो वह बहुत पीछे चली गई थी, अपनी स्मृतियों के साथ. उस ने बोलना शुरू किया-

‘‘मध्य प्रदेश का एक छोटा सा शहर ‘सागर’, जहां मेरा बचपन बीता था. सागर का वास्तविक नाम सौगोर हुआ करता था. ‘सौ’ यानी एक सौ, ‘गोर’ यानी किला, असंख्य किलों का शहर सागर. परंतु कालांतर में लोगों ने सौगोर का सागर कर दिया.

‘‘मेरे पिता एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे और माता एक गृहिणी. 3 भाईबहनों की सूची में, मैं आखिरी नंबर में आती थी. भैया व दीदी दोनों की लाड़ली हुआ करती थी मैं. परंतु धीरेधीरे यह प्यार ईर्ष्या में बदलने लगा. इस का प्रमुख कारण था मेरा सुंदर होना. साधारण रूपरंग वाले परिवार में मैं न जाने कहां से आ गई थी.

‘‘दीदी को मेरी सुंदरता से ईर्ष्या थी, तो भैया को मेरी बुद्घि से. जहां भैया इंटरमीडिएट से ज्यादा नहीं पढ़ पाए वहीं मैं हर साल अपनी कक्षा में प्रथम आती थी.

‘‘‘यह लड़की तो डायन लगती है मुझे, सारे मंतर जानती है. इसी ने कुछ कर के मेरे बेटे से विद्या चुराई होगी. वरना औरत जात में इतनी बुद्घि कहां होती है,’ मां कहा करती थीं.

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‘‘एक दिन स्कूल से लौटने पर पता चला, दीदी को लड़के वाले देखने आ रहे हैं. पड़ोस की रमा काकी रिश्ता लाई थीं. दीदी 18 वर्ष की होने वाली थीं, मां को उन की शादी की जल्दी थी.

‘‘‘सोनू की मां, इस राजकुमारी को छिपा कर रखना. पता चला कि देखने बड़ी को आए हैं और पसंद छोटी को कर लिया. बाद में न कहना कि रमा ने बताया नहीं.’

‘‘‘क्या काकी, मैं क्यों छिपूं,’ मैं ने कहा था.

‘‘‘चुप कर छोटी, अंदर जा.’ मां ने मुझे डांट कर अंदर भेज दिया था. ‘अरे बहन, यही तो रोना है. इतना रूप ले कर मुझ गरीब के घर में आ गई है. इस खुले खजाने को देख कर लूटने वाले भी तो पीछे आते हैं.’

‘‘फिर उस रात मां, पापाजी तथा भैया में मंत्रणा हुई और उस की परिणति मेरी कैद से हुई. अगला पूरा दिन मैं कमरे में बंद रही. कहीं अपनी बालसुलभ जिज्ञासा के वशीभूत हो कर मैं बाहर न निकल जाऊं, इस के लिए कमरे के बाहर ताला लगा दिया गया था. दीदी की शादी तय हो गई थी.

‘‘शादी से 3-4 दिनों पहले से ही रिश्तेदारों का आना शुरू हो गया था. एक दिन जब मैं दीदी की साड़ी में गोटे लगाने का काम कर रही थी तो मौसी को कहते सुना, ‘जीजी, छोटी भी तो 13 वर्ष की हो गई होगी?’

‘‘‘हां, और क्या, 14 वर्ष की हो जाएगी इस साल तो. पिछले महीने तो महीना भी शुरू हो गया इस का,’ मां ने कहा था.

‘‘मुझे बड़ी शर्म आ रही थी मां के इस तरह से यह बात कहने पर. ऐसा लग रहा था जैसे मैं ने कोई गलती कर दी हो.

‘‘‘अच्छा, तभी इस का रूप और निखर आया है’ मौसी ने अपनी सोच जाहिर की थी.

‘‘‘उसी का तो रोना है. बड़ी की दिखाई में बंद कर के रखा था इसे,’ मां बोली थीं.

‘‘‘जीजी, शादी के दिन क्या करोगी? मर्द जात है, शादी के दिन मना कर दिया तो क्या करोगी? मेरी बात मानो, शादी तक इसे कहीं भेज दो,’ मौसी ने कहा तो मैं बोल पड़ी थी, ‘मैं कहीं नहीं जाऊंगी. मैं सुंदर हूं इस में मेरा क्या गलती है?’

‘‘‘नहीं, हमारी है? चुप कर. बात तो सही है. मेरा बस चले तो इस का चेहरा गरम राख से जला दूं,’ मां ने कहा तो मैं बोली, ‘तो जला क्यों नहीं देतीं. मैं भी हमेशा की…’

‘‘फिर मां ने मेरा मुंह हमेशा की तरह थप्पड़ से बंद कर दिया. निरपराध रोतीबिलखती मुझे नानी के घर भेज दिया गया. विवाह में बनने वाले पकवान, नए कपड़ों का लोभ मैं विस्मरण नहीं कर पा रही थी. परंतु वहां मेरी कौन सुनने वाला था?

‘‘जब मैं दीदी की शादी के बाद घर आई, सारे मेहमान जा चुके थे. दीदी अपने पगफेरों के लिए घर आई हुई थीं. मैं ने पहली बार उस आदमी को देखा जिस से छिपाने के लिए मुझे सजा दी गई थी. मेरे जीजाजी की नजर जब एक बार मुझ पर पड़ी, फिर वह हटी ही नहीं. आंखों ही आंखों में वे मुझे जैसे उलाहना दे रहे थे कि कहां थी अब तक…

‘‘‘कौन है यह, आभा?’ वह पूछ तो दीदी से रहे थे परंतु उन की नजर मुझ पर ही थी.

‘‘‘मैं, आप की इकलौती साली, जीजाजी,’ मैं ने कहा तो वे बोले ‘कहां थी अब तक?’

‘‘‘आप से बचाने के लिए मुझे यहां से दूर भेजा गया था. आप क्या इतने बुरे हो? लगते तो नहीं हो,’ मैं ने कह दिया.

‘‘‘कुछ अज्ञानता और कुछ नाराजगी में मैं और न जाने क्याक्या बोल जाती, अगर दीदी मुझे वहां से खींच कर मां के पास न ले जातीं.’

‘‘‘मां, इस छोटी को संभाल लो वरना अपनी बड़ी बहन की सौतन बनने में देर न लगाएगी,’ दीदी ने शंका जाहिर की.

‘‘‘यह सौतन क्या होता है?’ मैं ने जिज्ञासावश कहा था.

‘‘‘क्या हो गया?’ मां बोली थीं.

‘‘‘कुछ कांड कर देगी तब समझोगी क्या?’ दीदी ने कहा.

‘‘‘अब मैं ने क्या किया? अपने दूल्हे को देखो. कैसे घूर रहा था मुझे. मां, वह अच्छा आदमी नहीं है,’ मैं ने स्पष्ट कह दिया.

‘‘चटाक… मां के थप्पड़ ने बता दिया कि गलती मेरी ही थी. फिर जब तक दीदी व जीजाजी चले नहीं गए, मुझे कमरे में नजरबंद कर दिया गया.

‘‘स्कूल तथा कालेज के रास्ते में भी मैं ने इन नारीलोलुप नजरों का सामना कई बार किया था. कुछ नजरों में हवस होती थी, कुछ में जलन तथा कुछ में कामना. इस पुरुषदंभी समाज का सामना कई लड़कियों ने किया था. शिक्षा पाने की यह कीमत मान ली हो जैसे उन्होंने. उस रास्ते से जाने वाली किसी नारी ने कभी भी मुड़ कर उन पुरुषों का प्रतिवाद नहीं किया था. परंतु यह गलती एक दिन मुझ से हो गई थी.

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‘‘मेरे कालेज का पहला दिन था. रोज की तरह मैं पैदल ही घर आ रही थी. उस दिन वह रास्ता खाली था. मैं खुश थी, तभी पीछे से मोटरसाइकिल की आवाज सुनाई दी. मैं तो किनारे पर चल रही थी, इसलिए मैं ने ध्यान नहीं दिया. वह मोटरसाइकिल मेरे पास आ कर थोड़ी धीमी हो गई. एक हाथ आगे बढ़ कर मेरे वक्षों को इतनी जोर से खींचा कि मैं गिर पड़ी. दर्द और शर्मिंदगी के ज्वार ने मुझे घेर लिया. अपने सीने पर हाथ रख कर मैं कई घंटे बैठी रही थी.

‘‘जब मैं घर पहुंची, दीदी भी आई हुई थीं. मुझे रोता देख कर दीदी व मां दोनों मेरे पास चली आईं. मां को मुझे गले लगाना चाहिए था, परंतु… ‘अरी, रो क्यों रही है? कुछ करवा कर आ रही है क्या?’ कह कर मुझ पर आरोप लगाने की कोशिश की.

‘‘मैं ने रोतेरोते मां को सब बताया, ‘मां, मैं ने मोटरसाइकिल का नंबर देखा था, चलो पुलिस के पास. मैं उसे नहीं छोड़ूंगी.’

‘‘‘लो, अब यही दिन रह गए थे. सुन, तूने ही कुछ किया होगा,’ मां ने मेरे स्पष्टीकरण को नजरअंदाज किया तो दीदी भी मुझे ही दोषी ठहराने लगीं.

‘‘‘और नहीं तो क्या मां, हमारे साथ तो ऐसा कभी न हुआ. पहले मर्दों को ऐसे कपड़े पहन कर भड़काओ, फिर वे कुछ कर दें तो उन का क्या दोष?’

‘‘‘दीदी, सूट ही तो पहना है,’  मैं ने साफ कहा तो उन्होंने कहा, ‘सीना नहीं ढका होगा.’

‘‘‘चुप करो तुम दोनों. और सुन छोटी, यह बात यहीं भूल जा. तेरे भाई को पता चला तो तुझे काट कर रख देगा. तुझे ही ध्यान रखना चाहिए था,’ मां बोलीं.

‘‘‘और पढ़ाओ इसे, मां. अभी तो शुरुआत है,’ दीदी ने ताना सा मारा.

‘‘औरत की इज्जत औरत के पास ही सब से कम है. वह नहीं जानती कि इसी वजह से घरघर में उस की उपेक्षा होती है. दीदी और मां भी इस के इतर नहीं थीं. इस घटना का नतीजा यह हुआ कि मेरी पढ़ाई छुड़ा दी गई और मेरे लिए लड़का ढूंढ़ा जाने लगा, जैसे कि विवाह हर समस्या का समाधान हो. वैसे भी, बोझ जितना जल्दी उतर जाए उतना अच्छा, यह समाज का नियम है. और इस नियम को बनाने वाले भी पुरुष ही होंगे. जब तक हम किसी क्रांति को पैदा करने में असमर्थ हैं, तब तक समाज के विधान को सिर झुका कर स्वीकार करना ही होगा. यही मैं ने भी किया.

‘‘अजय एक सरकारी बैंक में कार्यरत थे, शादी कर के मैं भोपाल आ गई. गहन अंधकार में ही प्रकाश की किरणें घुली रहती हैं, यह सोच कर मैं ने अपने नवजीवन में प्रवेश किया. परंतु शादी की पहली रात मैं अजय के व्यवहार से दुखी हो गई.

‘‘‘सुनो, अपनी सुंदरता का घमंड मुझे मत दिखाना. मेरी पत्नी हो, अपनी औकात कभी मत भूलना. और हां, ज्यादा ताकझांक करने की जरूरत नहीं है. मेरी नजर रहेगी तुम पर. समझ गईं,’ पति महोदय ऐसा बोले तो मैं बोली, ‘यह क्या कह रहे हैं आप? मैं आप की पत्नी हूं.’

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तजरबा: भाग 1- कैसे जाल में फंस कर रह गई रेणु

अगले मुलाकाती का नाम देखते ही ऋषिराज चौंक पड़ा. ‘डा. धवल पनंग.’ इस से पहले कि वह अपनी सेक्रेटरी सीपा से कुछ पूछता, उस ने आगंतुक के आने की सूचना दे दी. सीपा के सामने वह गाली तो दे नहीं सकता था फिर भी कहे बिना न रह सका, ‘‘तू अपना नर्सिंग होम छोड़ कर मेरे आफिस में क्या कर रहा है?’’

‘‘मास्टर डिटेक्टिव ऋषिराज से मुलाकात का इंतजार. भाई, क्लाइंट हूं आप का, बाकायदा फीस भर कर समय लिया…’’

‘‘मगर क्यों? घर पर नहीं आ सकता था?’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘जैसे मरीज के रोग का इलाज डाक्टर नर्सिंग होम में करते हैं वैसे ही मैं समझता हूं कि जासूस समस्या का सही समाधान अपने आफिस में करते होंगे,’’ धवल बोला.

‘‘वह तो है पर तू अपनी समस्या बता?’’

‘‘पिछले सप्ताह की बात है. एक दिन नर्सिंग होम में मोबाइल पर बात करते वक्त रेणु ने घबराए स्वर में कहा था, ‘कहा न मैं आऊंगी, फिर बारबार फोन क्यों…हां, जितना भी हो सकेगा करूंगी.’ रेणु के मायके वाले अपनी हर छोटीबड़ी घरेलू समस्या में रेणु को जरूर उलझाते हैं. सो यह सोच कर कि वहीं से फोन होगा, मैं ने कुछ नहीं पूछा. फिर मैं ने गौर किया कि रेणु काफी कोशिश कर के भी अपनी घबराहट छिपा नहीं पा रही है और अपने कुछ खास मरीज भी उस ने अपनी सहायक डा. सुरेखा के सिपुर्द कर दिए.

‘‘भले ही एकसाथ काम करते हैं, मगर मैं और रेणु अपनीअपनी गाड़ी से जाते हैं ताकि जिसे जब फुरसत मिले वह बच्चों को देखने घर आ जाए. उस दिन रेणु ने कहा कि उस का गाड़ी चलाने का मन नहीं है सो वह मेरे साथ चलेगी. मैं ने कहा कि शौक से चले, मगर वापस कैसे आएगी क्योंकि मुझे तो एक आपरेशन करने जल्दी आना है तो उस ने कहा कि सुरेखा से पिकअप करने को कह दिया है. रास्ते में मैं ने उस से पूछा कि किस का फोन था तो उस के चेहरे पर ऐसे डर के भाव आए जैसे कोई खून करते हुए वह रंगेहाथों पकड़ी गई हो.

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‘‘वह सकपका कर बोली, ‘यहां तो सारे दिन ही फोन आते रहते हैं, आप किस की बात कर रहे हो?’ मैं चाह कर भी नहीं कह सका कि जिसे सुन कर तुम्हारा हाल बेहाल हो गया है, लेकिन ऋषि, घर पहुंचने पर रेणु के बाथरूम जाते ही मैं ने उस के मोबाइल में वह नंबर ढूंढ़ लिया. वह रेणु के मायके वालों का नंबर नहीं था…’’

‘‘नंबर बता, अभी नामपता मंगवा देता हूं,’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘तेरा खयाल है, मैं नंबर पता लगवाने तेरे पास आया हूं?’’ धवल सूखी सी हंसी हंसा. फिर कहने लगा, ‘‘खैर, अगली सुबह मैं तो जल्दी निकल गया और आपरेशन से फुरसत मिलने पर जब बाहर आया तो देखा कि रेणु आज नर्सिंग होम आई ही नहीं है. घर पर फोन किया तो पता चला कि मैडम वहां भी नहीं है और गाड़ी नर्सिंग होम में खड़ी है. उस के मोबाइल पर फोन किया तो बोली कि किसी जरूरी काम से सिविल लाइन आई थी, अब ट्रैफिक में फंसी हुई हूं. सिविल लाइन में मेरी ससुराल है सो सोचा कि मायके की परदादारी रखना चाह रही है तो रखे.

‘‘मगर परसों शाम जब रेणु एक डिलीवरी केस में व्यस्त थी, मैं बच्चों को ले कर डिजनी वर्ल्ड चला गया. वहां जिस बैंक में हमारा खाता है उस के मैनेजर भी सपरिवार घूम रहे थे. उन्होंने मजाक में पूछा कि क्या डाक्टर साहिबा अभी भी खरीदारी में व्यस्त हैं, कल उन्होंने खरीदारी करने के लिए 1 लाख रुपए निकलवाए थे.

‘‘मैं यह सुन कर स्तब्ध रह गया. रेणु जो घरखर्च के लिए भी मुझ से पूछ कर पैसे निकलवाती थी, चुपचाप 1 लाख रुपए निकलवा ले, यकीन नहीं आया. अभी इस उलझन से उबर नहीं पाया था कि मेरी छोटी साली और साला मिल गए. वह हमारे घर गए थे, पता चलने पर कि हम यहां हैं, वह भी यहीं आ गए. बच्चों को उन के मामा को सौंप कर मैं साली के साथ बैठ गया और पूछा कि घर में ऐसी क्या परेशानी है जिसे फोन पर सुनते ही रेणु भी परेशान हो जाती है.

‘‘सुनते ही मीनू चौंक पड़ी. बोली, ‘क्या कह रहे हैं, जीजाजी? दीदी को घर पर आए 15 रोज से ज्यादा हो गए हैं और पिछले 4-5 रोज से उन्होंने फोन भी नहीं किया. तभी तो मां ने हमें उन का हालचाल जानने को भेजा है क्योंकि हमें फोन करने को तो जीजी ने मना कर रखा है.’

‘‘अब चौंकने की मेरी बारी थी, ‘रेणु ने कब से तुम्हें फोन करने को मना किया हुआ है?’

‘‘‘हमेशा से बहुत ही जरूरी काम होने पर हम उन्हें फोन करते हैं, फुरसत मिलने पर वह खुद ही रोज सब से बात कर लेती हैं, कभीकभी तो दिन में 2 बार भी. सो 4-5 रोज से फोन न आने पर सब को चिंता हो रही है.’

‘‘‘चिंता की कोई बात नहीं है, रेणु आजकल थोड़ी व्यस्त है,’ अपनी चिंता को दरकिनार करते हुए मैं ने मीनू की चिंता दूर की. वह अनजान फोन नंबर जो मैं ने अपने मोबाइल में नोट कर लिया था, दिखा कर मीनू से पूछा कि यह किस का नंबर है?

‘‘‘यह तो अपने पड़ोसी डा. शिवमोहन चाचा का नंबर है. छोटीमोटी बीमारी में हम उन्हीं के पास जाते हैं. समझ में आ गया जीजाजी, इस नंबर से फोन आने पर जीजी क्यों परेशान हुई थीं और क्यों काम छोड़ कर उन से मिलने गई थीं. डा. चाचा का एक डाक्टर बेटा रतन मोहन है. भोपाल के सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम करता था. एक गलत रिपोर्ट देने के सिलसिले में नौकरी से निलंबित कर दिया गया सो यहां आ गया है. चाचाजी जीजी के पीछे पड़े होंगे कि उसे अपने नर्सिंग होम में रख लें और जीजी परेशान होंगी कि पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर का नर्सिंग होम में क्या काम?’

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‘‘मैं ने जब मीनू से पूछा कि रतन की उम्र क्या है? तो वह बताने लगी कि वह मेडिकल कालिज में रेणु दीदी से 2 साल सीनियर था. पहले उस का घर में बेहद आनाजाना था लेकिन फिर मां ने मुर्दे चीरने वाले रतन के घर में आनेजाने पर रोक लगा दी.

‘‘मैं बुरी तरह आहत हो गया. साफ जाहिर था कि रेणु ने वह 1 लाख रुपए रतन को पुरानी दोस्ती की खातिर दिए थे. जब किसी अपने से किसी गैर के लिए धोखा मिले तो बहुत तकलीफ होती है, ऋषि. खैर, जब मैं बच्चों के साथ घर पहुंचा तो रेणु आ चुकी थी. बच्चों से यह सुन कर कि उन्हें डिजनी वर्ल्ड में बड़ा मजा आया, रेणु के चेहरे पर अजीब से राहत और संतुष्टि के भाव उभरे और मैं ने उसे बुदबुदाते हुए सुना, ‘चलो, यह तसल्ली तो हुई कि मेरे जाने के बाद धवल बच्चों को बहला लेंगे.’ उस की यह बात सुनते ही मैं स्तब्ध रह गया. ऋषि, रेणु मुझे छोड़ने की सोच रही है.’’

‘‘तू ने भाभी से इस बुदबुदाने का मतलब नहीं पूछा?’’ ऋषि ने धवल से पूछा.

‘‘नहीं, ऋषि, मैं उस से अभी कुछ भी पूछना नहीं चाहता. तू मुझे रेणु और रतन के सही संबंधों के बारे में जो भी पता लगा कर दे सकता है, दे. उस के बाद मैं सोचूंगा कि क्या करना है. कितना समय लगेगा यह सब पता लगाने में?’’

‘‘अगर रतन के कालिज का नाम, किस साल से किस साल तक उस ने पढ़ाई की और उस के अन्य सहपाठियों के नाम का पता चल जाए तो 2-3 रोज में गड़े मुर्दे उखड़ जाएंगे और फिलहाल क्या हो रहा है, यह जानने के लिए भाभी और रतन की गतिविधियों पर पहरा बैठा देता हूं. रतन का अतापता मालूम है?’’

धवल को जो भी मालूम था वह ऋषि को बता कर थके कदमों से लौट आया. उस का खयाल था कि ऋषि 2-3 रोज से पहले क्या फोन करेगा लेकिन ऋषि ने उसी शाम फोन किया.

‘‘धवल, या तो अभी मेरे आफिस में आजा या फिर रात में खाने के बाद मेरे घर पर आ जाना.’’

‘‘अभी आया,’’ कह कर धवल ने फोन रख दिया. काम में दिल नहीं लग रहा था सो उस ने कल से ही नए मरीजों को समय देने से मना किया हुआ था.

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पतंग: भाग 1- जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

लेखक- डा. भारत खुशालानी

दिलेंद्रके भैया ने पूछा, ‘‘कल जिस से मिलने गए थे तुम, उस का क्या हुआ?’’

दिलेंद्र ने ठंडी सांस भरी, ‘‘होना क्या था? वही हुआ जो हमेशा होता है. वह औरत अपने ही बारे में बोलती रही. इतना ज्यादा बोलती रही कि मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने.’’

भैया ने कहा, ‘‘लेकिन स्वभाव में वह

कैसी है?’’

‘‘आप और भाभी ने मुझे उस से मिलाया. आप की पहचान की थी. आप को उस के स्वभाव के बारे में ज्यादा पता होगा. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया,’’ दिलेंद्र बोला.

भैया ने निराशा में कहा, ‘‘मतलब इस रिश्ते को भी ना ही समझें, है ना?’’

दिलेंद्र ने कुछ नहीं कहा.

भाभी सुन रही थी. उस ने भैया से कहा, ‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था आप से कि वह लड़की भैया के लायक नहीं है.’’

भैया, ‘‘अब दिलेंद्र के जन्मदिन पर इसे किसी से मिलाएंगे.’’

‘‘आज से संक्त्रांति महोत्सव का रजिस्ट्रेशन शुरू कर दिया है संस्था वालों ने,’’ भाभी बोली.

‘‘दिलेंद्र तो बचपन से आज तक कभी चूका नहीं है इस में भाग लेने से,’’ भैया बोले.

‘‘बस वहीं जा रहा हूं. चल भई शांति सिंह,’’ दिलेंद्र ने कहा.

शांति सिंह उस के कुत्ते का नाम था. एकदम शांतिप्रिय था. इसीलिए दिलेंद्र ने उस का यह नाम रख दिया था. लेकिन अभी इस कुत्ते को कुछ आता नहीं था. अपना नाम भी नहीं पहचान

पाता था. दिलेंद्र अपने कुत्ते को ले कर

भैयाभाभी के घर से रवाना हो गया.

संस्था के कार्यालय में रजिस्ट्रेशन के इंचार्ज किवैदहेय से उस की मुलाकात हो

गई. हमेशा की तरह संक्रांति महोत्सव के फ्लायर और पैंपलेट पर किवैदहेय ने अपना फोटो नीचे दाईं ओर लगा दिया था. वह अपना प्रचार करने का कोई अवसर नहीं चूकता था. महोत्सव के लिए उस ने दिलेंद्र की ऐंट्री ले ली.

दिलेंद्र के पीछेपीछे जिव्हानी आ गई. किवैदहेय को देख कर वह मुसकरा दी. किवैदहेय ने ही उसे संस्था में फ्लैट दिलाया था. वैसे तो जिव्हानी शहर से अपरिचित नहीं थी, लेकिन नौकरी के लिए उस ने यह शहर छोड़ दिया था. महानगर में चली गई थी. वहीं उस का ब्याह भी हुआ और बेटा भी. बस कुछ ही दिन हुए थे उसे वापस आए हुए. अपने बच्चे स्वाभेश के साथ वापस आ गई थी. आज स्वाभेश भी उस के साथ ही था.

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किवैदहेय ने मुसकरा कर आश्चर्य से उस से पूछा, ‘‘आप यहां क्या कर रही हैं? यहां तो संक्रांति महोत्सव का रजिस्ट्रेशन हो रहा है. सिर्फ पतंगबाजी के शौकीनों के लिए है.’’

स्वाभेश की नजर तब तक शांति सिंह पर पड़ चुकी थी और वह कुत्ते को पुचकार रहा था. उस ने दिलेंद्र से पूछा, ‘‘यह आप का कुत्ता है?’’

दिलेंद्र ने हामी भर कर उत्तर दिया, ‘‘काटता नहीं है. विश्व शांति संगठन का सदस्य है.’’

7 साल की उम्र का स्वाभेश यह तो समझा नहीं, लेकिन उस ने कुत्ते को सहलाना शुरू कर दिया.

दिलेंद्र को यह देख कर अच्छा लगा, ‘‘शांति सिंह है इस का नाम. तुम को पतंग उड़ाने का शौक है?’’

स्वाभेश ने अचरजभरा उत्तर दिया, ‘‘मेरी मां को है. अभीअभी हम लोग यहां फ्लैट में रहने के लिए आए हैं. मैं ने तो आज तक पतंग कभी नहीं उड़ाई है.’’

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‘‘अरे, बहुत मजा आता है पतंग उड़ाने में. इस कालोनी में तो एक से बढ़ कर एक महारथी हैं. मेरे पास कुछ पतंगें हैं. आ कर ले जाना. सभी लोग येवकर्णिम पार्क में उड़ाते हैं,’’ दिलेंद्र ने कहा.

किवैदहेय ने जिव्हानी का रजिस्ट्रेशन लेते हुए उसे बताया, ‘‘आप के मम्मीपापा से मुलाकात हुई थी.’’

‘‘अच्छा,’’ जिव्हानी बोली.

किवैदहेय की पहचान जिव्हानी के मांबाप से थी. जब उन्होंने कहा कि उन की बेटी शहर वापस आ रही है और उस के रहने के लिए फ्लैट चाहिए, तो किवैदहेय ने तुरंत अपनी संस्था की बिल्डिंगों में से एक फ्लैट दिलवा दिया. फिलहाल किराए पर था.

किवैदहेय, ‘‘मेरा नंबर तो है ही आप के पास. कोई बात हो तो जरूर काल करिए.’’

स्वाभेश ने उत्साहित हो कर अपनी मां से कहा, ‘‘मम्मी, अंकल मुझे पतंग देने वाले हैं. मैं भी पतंग उड़ाऊंगा.’’

जिव्हानी ने मुसकरा कर दिलेंद्र को धन्यवाद दिया, ‘‘वैसे भी मुझे देख कर तो कभी न कभी इसे शौक लगना ही था. आप ने शुरुआत करा दी, वह भी ठीक है.’’

दिलेंद्र ने अपना परिचय दिया, ‘‘मेरा

नाम दिलेंद्र है. मैं डांस कोरियोग्राफर हूं. डांस सिखाता हूं.’’

स्वाभेश यह सुन कर प्रफुल्लित हो उठा. बोला, ‘‘मुझे डांस करने का बेहद शौक है.’’

‘‘बेटा, आप के नानानानी यहीं रहते हैं?’’ दिलेंद्र ने पूछा.

‘‘मेरे मम्मीपापा कुछ दूरी पर रहते हैं.

मेरे पिताजी की पतंग बनाने की फैक्टरी है,’’ जिव्हानी बोली.

दिलेंद्र को अचंभा हुआ. पूछा, ‘‘किस नाम से?’’ पतंगों का शौकीन होने से उसे इस क्षेत्र की काफी जानकारी थी.

‘‘मुरुक्षेश पतंग फैक्टरी,’’ जिव्हानी ने बताया.

‘‘बिलकुल सुना है नाम और कई बार उड़ाई भी हैं मुरुक्षेश पतंगें. लेकिन आम लोगों के लिए नहीं हैं. वे उच्च क्वालिटी की महंगी पतंगें बनाते हैं,’’ दिलेंद्र बोला.

जिव्हानी को यह सुन कर प्रसन्नता हुई, ‘‘हम लोग आकार में बड़ी और नायाब पतंगें बनाते हैं. भेड़चाल वाली आम बाजारू पतंगों की तरह नहीं.

अपने घर वापस आ कर जिव्हानी फिर से घर के सामान की फेरबदल करने लगी. घर अभी भी अस्तव्यस्त पड़ा था. स्वाभेश पतंग लेने दिलेंद्र के घर पहुंचा, तो वह कुछ महिलाओं को जुंबा सिखा रहा था. जब जुंबा डांस क्लास खत्म हुई तो उस ने खुशी से कुछ पतंगें स्वाभेश को दे दीं. स्वाभेश येवकर्णिम पार्क पहुंचा और पतंग उड़ाने लगा. फरफर की आवाज के साथ हवा से खेलती हुई उस की पतंग थोड़ी ही देर में आसमान की सैर करने लगी. नानाजी और मां कितने खुश होंगे यह देख कर, वह सोचने लगा. पतंग थोड़ी देर इधरउधर मंडराती रही, फिर नीचे गिर गई.

थोड़ी ही देर में अपने कुत्ते को टहलाने दिलेंद्र भी वहां आ पहुंचा और उस ने स्वाभेश को पतंग उड़ाने के उचित तरीके बताए. स्वाभेश शांति सिंह को देख कर और भी खुश हुआ. खेलने की 2 वस्तुएं उसे दिलेंद्र से प्राप्त हुई थीं.

कुछ देर वह खेलता रहा. फिर स्वाभेश को बुलाने उस की मम्मी आ गईं. जिव्हानी ने स्वाभेश को दिलेंद्र के कुत्ते के साथ खेलते देखा. उस ने दिलेंद्र से कहा, ‘‘अगर पतंगों का आप को इतना ही शौक है, तो हमारी फैक्टरी में आइए. मैं वहीं जा रही हूं. आप चाहें तो चल सकते हैं.’’

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दिलेंद्र ने बिना हिचकिचाहट के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. जिव्हानी की कार में बैठ कर तीनों मुरुक्षेश फैक्टरी पहुंच गए जहां दिलेंद्र की मुलाकात जिव्हानी के मातापिता से भी हुई. जिव्हानी ने दिलेंद्र को फैक्टरी की सैर कराई.

इतने वर्षों से दिलेंद्र पतंगें उड़ा रहा था, लेकिन आज उस की आंखें खुल गईं. जिन्हें

वाकई में पतंगबाजी का शौक है और जो अव्वल दर्जे की पतंगें उड़ाने में विश्वास रखते हैं, उन्हीं लोगों के लिए यहां पतंगें बन रही थीं. कोई कारीगर यहां कागजों की कटाई नहीं कर रहा था. एक मशीन बेहद महीनता से कृत्रिम पौलिएस्टर कपडे की कटाई कर रही थी. कपड़ा लचीला था. हां, अलगअलग रंग के कटे हुए टुकड़ों को एक कारीगर जरूर इकट्ठा कर के वहीं स्टील की मेज पर रख रहा था. इस कपड़े पर प्रिंट जमाने के लिए 2 लड़के स्क्रीन प्रिंटिंग कर रहे थे. जिव्हानी ने बताया कि प्रिंट की स्याही, विशेष मिश्रण होती है और वह भी एकदम सही अनुपात में.

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पतंग: भाग 3- जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

लेखक- डा. भारत खुशालानी

‘‘मुझे पता है कि आप दोनों मेरा रिश्ता खोजने के लिए बेताब हो. मैं भी आप दोनों को निराश नहीं करना चाहता, परंतु अपनी वर्तमान स्थिति में भी मैं वास्तव में बहुत संतुष्ट और खुश हूं,’’ दिलेंद्र की इच्छा हुई कि अपने भैयाभाभी को ऐसी जीवनशैली की खासीयतों के बारे में बताए जिन्हें वह जी रहा है लेकिन जिस के बारे में लोग बात या तो करते नहीं थे या करना पसंद नहीं करते थे.

‘‘वह कैसे?’’ भैया ने पूछा.

‘‘अपनी मरजी का टीवी प्रोग्राम देख रहा हूं, जितने पर पंखा चाहिए, उतने पर चलाता हूं, जब मन होता है तब उठता हूं,’’ दिलेंद्र बोला.

‘‘परिवार चलाने के समक्ष ये सारी बातें नगण्य हैं,’’ भैया बोले.

‘‘मेरी जितनी भी आदतें हैं, उन में से किसी से भी मैं शर्र्मिंदा नहीं हूं. पत्नी आने के बाद यह स्थिति बदल जाएगी,’’ दिलेंद्र बोला.

‘‘भैया, अपनी उम्र का भी खयाल कीजिए. 40 हो रही है और आप डांस सिखाते हो, कहीं किसी जनरल मैनेजर के पद पर नहीं हो,’’ भाभी बोली.

बात चुभने वाली थी, लेकिन एकदम सत्य.

‘‘भाभी, आप जो कह रही हो, मैं वाकई उस की सराहना करता हूं और मेरा विश्वास कीजिए कि मैं आप की बात पर अच्छे से विचार करूंगा.’’

भाभी ने उसे चिंतित नजरों

से देखा.

उसी दिन सुबह करीब 10 बजे जिव्हानी किवैदहेय के औफिस पहुंची. किवैदहेय वहीं था जिस ने उसे फ्लैट दिलाया था. संक्रांति महोत्सव के रजिस्ट्रेशन के समय जिव्हानी की उस से मुलाकात हुई थी. उस के मांबाप की पहचान का था. उम्र करीब 40 बरस होगी. जिव्हानी ज्यादा कुछ नहीं जानती थी उस के बारे में. किवैदहेय का औफिस देख कर अचरज में पड गई. इतना भव्य औफिस. महानगरों में तो ऐसा औफिस सिर्फ बड़ी कंपनियों का ही होता है. उस ने प्रवेश किया, यहांवहां देखा और रिसैप्शनिस्ट से बात कर के किवैदहेय के कक्ष तक पहुंची.

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उस ने आश्चर्य जताते हुए कहा, ‘‘आप का कार्यालय तो बहुत फैंसी है?’’

किवैदहेय ने उस का मुसकरा कर अभिवादन किया.

‘‘आप तो कह रहे थे कि मेरा छोटा सा व्यापार है. यहां तो मध्यम साइज की कंपनी दिख रही है?’’ जिव्हानी ने पूछा.

‘‘‘छोटा’ शब्द सापेक्ष है,’’ किवैदहेय बोला. फिर उस ने जिव्हानी के फ्लैट वाली फाइल निकाली और एक पेज पर उसे हस्ताक्षर करने के लिए कहा, ‘‘आप के पिताजी ने तो डिपौजिट भर ही दिया है. बस आप के हस्ताक्षर चाहिए.’’

फ्लैट के मालिक विदेश में थे और अपने फ्लैट का जिम्मा किवैदहेय को दे दिया था.

जिव्हानी ने साइन करते हुए कहा, ‘‘मैं बहुत आभारी हूं आप की. अब अपनी फीस बताइए.’’

किवैदहेय बोला, ‘‘कैसी बातें करती हैं आप.’’

महानगरों में कोई भी व्यक्ति बिना स्वार्थ भाव से किसी के लिए कोई

काम नहीं करता. इसीलिए जिव्हानी को थोड़ा अटपटा लगा, ‘‘कम से कम दलाली का तो हिस्सा बता दीजिए.’’

‘‘कुछ नहीं,’’ किवैदहेय बोला. इस तरह किसी का आर्थिक एहसान लेने में जिव्हानी को असुविधा हो रही थी, ‘‘आप के मम्मीपापा ने भी यही बात कही, लेकिन मैं उन से भी कैसे पैसे ले सकता हूं. बिलकुल सही नहीं लगेगा.’’

जिव्हानी ने कुछ कहना चाहा पर किवैदहेय ने कहने का अवसर नहीं दिया, ‘‘इसके बदले हम लोग कभी आप के बेटे के साथ मिल कर खाने पर किसी अच्छे से रैस्टोरैंट जा सकते हैं.’’

जिव्हानी को यह बात अजीब लगी, लेकिन उसने मुसकरा कर हामी भर दी, ‘‘बिलकुल.’’

किवैदहेय ने जिज्ञासा से पूछा, ‘‘अभी बेटा कहां हैं? स्कूल गया है क्या?’’

‘‘स्कूल में अभी दाखिला पूरा नहीं हुआ है. पापा की पहचान वाले हैं. कुछ ही दिन में ट्रांसफर पूरा हो जाएगा. अभी उसे उस के नए मित्र दिलेंद्रजी के पास छोड़ आई हूं.’’

किवैदहेय को सुन कर जैसे टीस लगी, ‘‘दिलेंद्र के पास वह क्या करेगा?’’

जिव्हानी ने किवैदहेय की जलन को भांप लिया, ‘‘उन के कुत्ते के साथ खेलता है. दिलेंद्र उसे डांस भी सिखाते हैं और पतंग उड़ाना भी सिखा रहे हैं.’’

दिलेंद्र को इस तरह से पूरी तरह जिव्हानी के घरपरिवार में घुसा जान कर किवैदहेय का चेहरा लाल हो गया. अपनी भावनाओं को वह अपने चेहरे पर आने से छिपा न सका. जिव्हानी चकित हो कर उसके हावभाव देखती रह गई. उसे इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी.

दोपहर 2 बजे जब किवैदहेय भोजन करने घर पहुंचा, तो अचानक बिल्डिंग के बाहर ही उस की मुलाकात दिलेंद्र से हो गई.

‘‘क्या बात है बड़े खुशमिजाज लग रहे हो?’’ किवैदहेय ने पूछा.

दिलेंद्र को स्वयं पता नहीं था कि यह जिंदादिल मनोवृत्ति कहां से उस के अंदर इतने सालों के बाद जाग उठी है.

‘‘मेरे लिए तो यह थकाऊ दिन रहा है… औफिस का बहुत काम है,’’ किवैदहेय बोला.

दिलेंद्र ने उस का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘शाम को पार्क में पतंग उड़ा कर देखना कैसे पतंग के साथसाथ मन भी आकाश में उड़ने लगेगा.’’

‘‘वास्तव में पहले तो मैं ने कभी भाग नहीं लिया है, लेकिन सोचता हूं इस बार जरूर लूं,’’ किवैदहेय बोला.

‘‘पतंग उड़ाना अपने घावों पर मरहम लगाने जैसा है. सब दुखों को दूर करने वाला अनुभव, सब घावों को भर देने वाली दवा. हवा में उड़ती हुई किसी चीज को अपने काबू में रख पाने की अनुभूति… सच बहुत मजा आएगा तुम्हें भी,’’ दिलेंद्र बोला.

किवैदहेय ने रुक कर कहा, ‘‘जिव्हानी ने बताया कि तुम उस के बेटे के लिए आया का काम कर रहे हो जब तक उस का स्कूल में दाखिला नहीं हो जाता?’’

दिलेंद्र जैसे आसमान से नीचे गिर गया हो. बोला, ‘‘आया?’’

‘‘हां, तुम्हारे पास इतना काम नहीं है इसीलिए तुम दाई का काम करके दूसरों के बच्चों की देखभाल कर सकते हो. वैसे भी डांस क्लास के बहाने लोग अपने बच्चे तुम्हारे पास छोड़ कर ही जाते हैं.’’

किवैदहेय का मुंह ताकता रह गया.

किवैदहेय ने मोबाइल में समय देखा और कहा, ‘‘मेरा समय हो रहा है. स्वाभेश का ध्यान रखने के लिए हम दोनों की ओर से बहुत शुक्रिया.’’

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दिलेंद्र के मुंह से निकला, ‘‘हम दोनों?’’

‘‘मेरी और जिव्हानी की ओर से,’’ किवैदहेय बोला और फिर चला गया.

दिनभर दिलेंद्र को यह वार्त्तालाप परेशान करता रहा. शाम को पार्क में स्वाभेश उस का इंतजार करता रहा. सूर्यास्त हो गया, लेकिन दिलेंद्र दिखाई नहीं दिया. स्वाभेश मायूस हो कर घर लौट आया. सोफे पर हताश हो कर बैठ गया तो मां ने कारण पूछा. स्वाभेश ने बता दिया. मां को समझ आ गया कि स्वाभेश का दिल दिलेंद्र के साथ लग चुका है.

दूसरी ओर दिलेंद्र दोपहर से शाम तक अपने बिस्तर पर पड़ा रहा. दोपहर

की क्लास भी रद्द कर दी. उसे बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि अचानक उस के साथ ऐसा कैसे हो रहा है. 7 बजे उस ने अपनेआप को हिम्मत दी और निकल कर भैयाभाभी के घर पहुंचा और उन से जिक्र किया.

भैयाभाभी को एक ही क्षण में सारा मामला समझ में आ गया. दिलेंद्र के मन को गहरी चोट पहुंची थी. लेकिन यह इसीलिए था कि उस ने जिव्हानी और उस के बेटे को अपना समझा.

भाभी ने उसे समझाया, ‘‘कोई कुछ भी कहे उस की बातों का एकदम यकीन नहीं करना चाहिए जो कुछ भी किवैदहेय ने कहा है मुझे उस पर जरा भी विश्वास नहीं कि यह जिव्हानी ऐसा कह सकती हैं.’’

मकर संक्रांति का दिन आ गया. सुबह से ही लोगों में उत्साह था. येवकर्णिम पार्क को सुबह सबेरे ही खोल दिया गया. इक्कादुक्का आवारा लड़के भटक कर अपनी पतंगों के साथ 5 बजे ही आ गए. एक दिन पहले ही तिलगुड़ के लड्डू बन चुके थे. आज एकदूसरे में वितरित होंगे. आज पतंगें जब हवा में लहराएंगी, तो चोरीछिपे या ग्लानि की भावना से नहीं, बल्कि सीना तान कर आधिकारिक रूप से. आज उन्हीं का दिन है.

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पतंग: भाग 2- जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

लेखक- डा. भारत खुशालानी

स्याही को सूखने के लिए रख दिया जाता. तत्पश्चात यह देखा जाता कि उस के छिल जाने या रंग उतरने का खतरा तो नहीं. कुछकुछ अंतराल पर ऐसी टेबलें थीं, जिन में नीचे से प्रकाश आ रहा था, जिस से टेबल के ऊपर रखे पतंग के कपडे की जांच हो सके कि उस में छेद या कोई और नुक्स तो नहीं है. पतंग के अलगअलग रंग के गत्तों को एक कारीगर बड़े प्रेम से टेप लगा कर चिपका रहा था. टेप से चिपके हुए गत्ते सिलाई मशीन तक जा रहे थे, जहां एक महिला मशीन से उन की सिलाई कर रही थी. जैसे कागज की पतंग पर बारीक लकड़ी की तीलियां लगती थीं, यहां उन तीलियों के बजाय रौड से पतंग का ढांचा बनाया जा रहा था जिस से पतंग के सिकुड़ने का डर नहीं था.

फैक्टरी देख कर दिलेंद्र को दंग रहते देखा तो जिव्हानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘कागज की पतंग कभी आसमान में बादलों को नहीं छू सकती है. लेकिन आधुनिक तरीके से बनाई ये पतंगें छूने में सक्षम हैं.’’

स्तब्ध दिलेंद्र ने पूछा, ‘‘यह सब पिताजी ने सीखा कहां से?’’

पिताजी ने अपने नाम का जिक्र सुना तो बुला कर एक ज्यामितीय आकार की तीनआयामी पतंग दिखाई. त्रिकोणीय बक्से सी दिखने वाली पतंग पर वे काम कर रहे थे, ‘‘मिस्र के पिरामिड देखे हैं? उन्हीं के आकार की पतंग है यह वाली.’’

माताजी, जो कांच के बने औफिस के अंदर लेखांकन का काम कर रही थीं, ने कहा, ‘‘पहले जिव्हानी महज शौकिया नजरिए से पतंगों को देखती थी.’’

‘‘अब वह दार्शनिक हो गई है. कहती है कि डोर तो मेरे हाथ में है, लेकिन

पतंग कोई और उड़ा रहा है,’’ पिताजी बोले.

दिलेंद्र ने हंसते हुए कहा, ‘‘बिलकुल सही बात है. न जाने कब किस की नौकरी छूट जाए, किसी का परिवार टूट जाए, इन्हीं सब को भारतीय दर्शन में कटी हुई पतंग से जोड़ा जाता है.’’

जिव्हानी को ऐसा लगा कि दिलेंद्र और उस की सोच मेल

खाती है.

‘‘कितनी उमंगों के साथ उड़ती हुई हमारी बच्ची नौकरी के लिए इस घर से निकली थी…’’

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माताजी ने तुरंत बात काट दी, ‘‘सब कुदरत का लेखाजोखा है,’’ पिताजी बोले.

दिलेंद्र को कुछ भी नहीं समझा कि वे क्या कह रहे हैं. उस ने बात को कुरेदना उचित नहीं समझा.

वापस जाते वक्त पिताजी ने अपनी पसंद की एक बड़ी सी आलीशान पतंग दिलेंद्र को भेंट की. उस की खुशी की सीमा न रही.

अगले दिन उस ने भैयाभाभी के घर संपूर्ण किस्सा

बयां किया. भाभी ने अचरज से कहा, ‘‘मैं तो जानती हूं जिव्हानी को, हमारे ही स्कूल में पढ़ती थी. मुझ से 1 साल छोटी है. मुझे नहीं पता था कि अब वह यहां आ गई है रहने के लिए.’’

भैयाभाभी तुरंत दिलेंद्र के साथ उस के घर गए. भैया और दिलेंद्र घर पर ही रहे, भाभी जिव्हानी से मिलने उस के फ्लैट पहुंची.

भाभी ने घंटी बजाई. जिव्हानी ने दरवाजा खोला तो पहचान न सकी. भाभी ने परिचय दिया, तो खुशी से भाभी का स्वागत किया. चाय पिलाई. दोनों ने बहुत बातें की. अस्तव्यस्त सामान में भाभी को एक तसवीर दिखी जिस में जिव्हानी की गोद में छोटी उम्र का स्वाभेश था और उनके साथ एक व्यक्ति था.

भाभी ने फोटो की ओर इशारा कर पूछा, ‘‘ये पति हैं?’’

जिव्हानी ने थोड़ी मायूसी से कहा, ‘‘थे.’’

भाभी समझ गई कि मामला नाजुक है. अत: उस ने कुछ नहीं कहा.

जिव्हानी ने स्वयं ही कह दिया, ‘‘चल बसे.’’

जिव्हानी के साथ कोई नजदीकी रिश्ता न होते हुए भी भाभी को यह सुन कर बहुत दुख हुआ.

‘‘2 साल पहले गुजर गए,

तब स्वाभेश 5 साल का था. कुछ समय वहीं रह कर नौकरी की, फिर मन लगना बंद हो गया. इसीलिए यहां चली आई हूं. अब पिताजी की ही पतंग फैक्टरी संभालूंगी,’’ जिव्हानी बोली.

जिव्हानी ने सही निर्णय लिया था. इतनी कम उम्र में ऐसा हादसा हो जाना किसी भी इंसान को असमंजस की स्थिति में डाल देने के लिए काफी था. स्वयं को भ्रमित महसूस कर इस उलझन और शहर से बाहर निकलना ही उसे उपयुक्त लगा. कोई उसे दोष नहीं दे सकता था. मांबाप ने बहुत समझाया कि उन्हीं के साथ रहे, कोई कुछ नहीं कहेगा, लेकिन वह अड़ी रही कि उसे अपनी जिंदगी आगे भी बढ़ानी है. सब से जटिल कार्य उसे यह लगा कि स्वाभेश को कैसे बताए. 5 वर्ष के बच्चे को क्या स्पष्ट और प्रत्यक्ष शब्दों का प्रयोग कर के कहा जा सकता है कि उस के पिताजी की मृत्यु हो गई है? किस प्रकार की प्रतिक्रिया होगी उस की?

मगर न तो वह रोया, न ही उस ने कोई सवाल पूछा. जिव्हानी को लगा कि शायद अपने दुखी होने की भावना को वह अपने बच्चे से साझा करे तो हो सकता है कि उस की भी भावनाएं सामने आ जाएं. शहर छोड़ते वक्त भी उसे ग्लानि महसूस हुई कि 7 साल के बालक को कैसे बताया जाए कि उसके जीवन और उस की दिनचर्या दोनों में बदलाव आने वाला है, इस के लिए वह तैयार हो जाए. अपने बेटे को दिलेंद्र के साथ सामान्य तरीके से व्यवहार करते देख समझ में आ गया कि स्वाभेश ने अपनी नई जिंदगी को बिना किसी झिझक के अपना लिया है.

भाभी वापस चली आई तथा भैया और दिलेंद्र को स्थिति से अवगत किया. फिर भैया और भाभी वापस अपने घर लौट गए.

शाम को फिर पार्क में पतंगें हवा में लहराने लगीं. उड़ती हुई पतंगें देख कर सभी खुश थे. आसमान में उड़ नहीं सकते तो क्या हुआ, कम से कम पतंग तो उड़ा सकते हैं. जिन वयस्कों के परिवार थे और उन की स्त्रियां यह दलील देती थी कि ए जी, आप तो इतने बड़े हो गए हो. अब क्यों आप पतंग उड़ा रहे हो? तो उन्हें वे कहते कि श्रीराम ने भी तो पतंग उड़ाई थी.

पार्क में एक पागल भिखारी कचरे में मिली हुई एकदम पतले कपडे़ की बनी टोपी को रस्सी से बांध कर पतंग बना कर उड़ाने का प्रयास कर रहा था. बच्चों का एक झुंड, कटी हुई पतंग को लूटने के लिए दौड़ रहा था.

दिलेंद्र जब अपने कुत्ते को ले कर पार्क पहुंचा, तो स्वाभेश को पतंग उड़ाने की कोशिश करते पाया. दिलेंद्र ने स्वाभेश को धागे का तनाव बनाए रखने के गुर सिखाए ताकि कमान तनी रही. किस प्रकार हवा पतंग के नीचे से होती हुई ऊपर से गुजर जाती है, इस के बारे में समझाया ताकि स्वाभेश हवा के प्रवाह का लाभ उठा सके और पतंग को निश्चित दिशा दे सके. ठीक हवाईजहाज की तरह पतंग के नीचे हवा का दबाव ज्यादा होने से वह हवा में उड़ पाती है, इस वैज्ञानिक सिद्धांत को समझाया. थोड़ी ही देर में स्वाभेश ने ढील देने के दांवपेंच सीख लिए.

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जब स्वाभेश वापस घर लौटा, तो सूर्यास्त हो चुका था. ्र

आज वह 7वें आसमान पर था. संक्रांति महोत्सव से पहले उस में इतना आत्मविश्वास तो भर ही जाएगा कि वह चंद लोगों के साथ पेंच लड़ा सके. घर में उस के नानानानी आए हुए थे. नानी ने गरमगरम बेसन और प्याज के पकोड़े तले थे.

जिस आदमी के साथ स्वाभेश और उस की मम्मी फैक्टरी आए थे, उस के विषय में चर्चा हो रही थी.

‘‘क्या करता है वह?’’ नानी

ने पूछा.

‘‘डांस सिखाता है. बच्चों को भी, बड़ों को भी,’’ जिव्हानी ने बताया.

‘‘और पतंग उड़ाने में भी नंबर वन,’’ स्वाभेश बोला.

‘‘तभी तो फैक्टरी में इतने ध्यान से सबकुछ देख रहा था,’’ नाना बोले.

‘‘और एक प्यारा सा कुत्ता भी है उनके पास, शांतिसिंह नाम का,’’ स्वाभेश ने बताया.

‘‘स्वाभेश भी उस से डांस सीखेगा,’’ जिव्हानी बोली.

अगले दिन दिलेंद्र की मुलाकात अपने भैयाभाभी से हुई तो एक बार फिर किसी के साथ उस के मेलमिलाप की संभावना की चर्चा हुई.

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