लेखक- डा. भारत खुशालानी
मांझे के अपराधों ने पतंगों को भी बदनाम कर दिया था जिस से पतंगों में रोष था. सख्त आदेश थे कि कांच से घोटे हुए मांझे का इस्तेमाल नहीं होगा. ऐसे किसी भी तेज मांझे का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा जिस से पक्षियों की जान को खतरा हो. जो उड़ाएगा वह खुद अपने अरमान को आसमानों में पहुंचाएगा और जो नहीं उडाएगा वह महोत्सव देख कर अपना मुफ्त मनोरंजन करेगा, उड़ाने वालों की हौसलाअफजाही करेगा.
आज इन 5 बजे से ही जमा हो रहे आवारा लड़कों को भी कोई कुछ नहीं कहेगा क्योंकि भारत की प्राचीन परंपरा को जिंदा रखने की जिम्मेदारी इन्हीं के सिर पर है. पक्षियों को तो जैसे हर बात का पता पहले से होता है. इस बात का पता भी पहले ही चल चुका था कि उन के प्रतिद्वंदी से आज उन की मुलाकात है. सर्दी के कारण लोग स्वैटर पहन कर पार्क में आ रहे थे. सूर्योदय होतेहोते डोर पर सवार पतंगों की सवारियां किसी दुलहन की तरह सज कर निकल चुकी थीं.
पिछले कई दिनों से सूर्यास्त देखने वाली पतंगों को आज सूर्योदय देखने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ. कुछ लोग अपने वफादार अनुयायिओं को साथ ले कर आ रहे थे जो मांझे की रील पकड़ेंगे. जैसे पतंग के साथ डोर बंधी होती है, वैसे ही ये निष्ठावान अनुगामी भी अपने पतंग उड़ाने वाले मालिक के साथ बंधे थे,ठीक उसी तरह जैसे कोई समर्पित सेनापति अपने राजा के साथ बंधा होता है.
8 बजे जिव्हानी अपने मातापिता और अपने बेटे स्वाभेश के साथ पार्क पहुंच गई. उस के हाथ में पिताजी की स्पेशल बनाई पतंग थी जो सिल्क से बनी थी. 1 मीटर चौड़ी और आधा मीटर लंबी इस पतंग की शान का मुकाबला अगर कोई कर पाएगा, तो वह मुरुक्षेश पतंग ही होगी. स्वाभेश के नानाजी ने दिल लगा कर अपने हाथों से इसे बनाया था. पतंग के बीच में ‘मुरुक्षेश’ भी प्रिंट कर दिया था ताकि आकाशवाणी की तरह ही आसमान से सब तक यह संदेश पहुंचे कि शान से पतंग उड़ानी है तो मुरुक्षेश पतंग ही उडाएं.
ठीक 9 बजे दिलेंद्र अपनी पतंगों के सैट और अपने भैयाभाभी के साथ पार्क पहुंच गया. पार्क बहुत बड़ा था. और जमा होती लोगों की भीड़ में एकदूसरे को ढूंढ़ निकालना आसान नहीं था. जिन के पास रजिस्ट्रेशन के समय प्राप्त संक्रांति महोत्सव का टिकेट था, वही पतंग प्रतियोगिता में भाग ले सकते थे और उन्हीं के लिए विशेष भोजन और उपहारों की छोटी टोकरी थी. भैया ने चक्री संभाली और दिलेंद्र ने अपनी पहली पतंग को आसानी से मंद सर्द हवाओं में ऊपर उठा लिया.
दिलेंद्र के मन में अचानक यह खयाल आया कि हो सकता है हवा का रुख इस प्रकार चले कि जिव्हानी की पतंग अपनेआप ही उस की पतंग से आ कर मिल जाए या फिर दोनों की पतंगों की डोरें आपस में जुड़ जाएं. आज दोनों के पतंगों की लड़ाई हो ही जाए और दोनों में से जो भी पतंग कटेगी, वह आज अपशकुन नहीं बल्कि लूट प्रतियोगिता का कारण बनेगी.
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कभी संक्रांति महोत्सव में भाग न लेने वाले किवैदहेय ने भी आज हिस्सा लिया. उस ने भी भारतीय संस्कृति में होली के रंगों की तरह रंग जाने का प्रमाण दे कर पतंग उड़ाई लेकिन एक ही झटके में उस की पतंग कट गई. ठीक तरह से ऊंचाई भी न पकड़ पाई. आसपास के बच्चे उस के इस अनुभवहीन प्रयास को देख कर हंसने लगे. उस की कटी पतंग को किसी दौड़ते बच्चे के पांवों ने रौंद दिया.
स्वाभेश पतंग उड़ाने वालों की भीड़ को चीरता हुआ दिलेंद्र तक जा पहुंचा. उस के पास नानाजी द्वारा बनाई गई पतंग थी, लेकिन जिव्हानी की पतंग से छोटी थी. अपनी पतंग नीचे रख कर पहले वह शांति सिंह के साथ खिलवाड़ करने लगा. शांति सिंह की जोड़ी उस के साथ जम चुकी थी. फिर उस ने दिलेंद्र से अनुरोध किया कि उस की मुरुक्षेश पतंग की उड़ान भरने में उस की सहायता करे.
दिलेंद्र ने भैया के कहने पर अपनी पतंग को नीचे कर लिया तथा स्वाभेश के साथ मुरुक्षेश पतंग तान दी. कलाबाजियां खाती हुई स्वाभेश की पतंग शान के साथ सूरज की पीली चमकदार किरणों को सीना तान कर आत्मसात करने लगी. आकाश में 2 नायाब मुरुक्षेश पतंगें दिख रही थीं. जैसे 2 राजा एकसाथ सिंहासन पर बैठे राज कर रहे हों. आकाश में नजारा देखने लायक था, 2 महलों के आसपास ढेर सारी झोपडि़यां, लेकिन एक म्यान में 2 तलवारें. दिलेंद्र ने धीरेधीरे ढील देते हुए सूरज की सुनहरी किरणों को प्रतिबिंबित करती हुई अपनी चमकदार पतंग को आकाश में उड़ रही दूसरी मुरुक्षेश पतंग की ओर मोड़ दिया. उल्फत और उमंगों के संगम से बने दिलेंद्र के संदेश को ले कर पतंग अपनी बड़ी बहन से मिलने चल दी.
दोनों पतंगें बहनें थीं क्योंकि उन का निर्माता सह पिता एक ही था- स्वाभेश के नानाजी. चंद ही क्षणों में संदेश के साथ छोटी बहन ने बड़ी का दरवाजा खटखटाया. आकाश के पंछी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे. वैसे तो उन्होंने आज सबेरे से ही सैकड़ों भिन्नभिन्न प्रकार की पतंगों के दर्शन कर लिए थे, लेकिन इन 2 महारथियों की शान बेमिसाल थी. 2-4 पंछी और आ गए और इन दोनों महारथियों के ऊपर मंडराने लगे जैसे इंतजार में हों कि देखें आगे क्या होता है.
पार्क वालों ने भी जब यह नजारा देखा तो अपनी पतंगों को भूल कर वृहंगम पतंगों की जंग का अद्भुत दृश्य देखने लगे. दोनों महाकाय पतंगों की डोरें आपस में उलझ गईं. दोनों बहनें एकदूसरे से लिपट गईं. दोनों के बीच स्नेहशील गुत्थमगुत्था होने लगी. सुबह की कुनकुनी धूप से छंटते हुए बादलों की छांव तले दोनों विशाल पतंगें में जैसे द्वंद्वयुद्ध हो रहा हो. युद्ध का तेज किरणों को मात देने लगा. बाकियों की पतंगें उन के आसपास घूमफिर कर चुपचाप वहां से खिसक लीं.
न तो उन में इतना दम था, न ही उन के हौसले इतने बुलंद थे कि इस महायुद्ध में भागीदार बन सकें. बस ऊंची नजरें कर इन दोनों में से जो कटेगी, आज जिसे वह मिलेगी, उस की खुशहाल हो गया समझो. इस महायुद्ध में डोर की शक्ति उस की शारीरिक क्षमता पर नहीं, अपितु उड़ाने वाले के जोश पर निर्भर थी और दोनों उड़ाने वाले, दिलेंद्र और जिव्हानी जोशखरोश में आ गए थे. दिलेंद्र का अनमनापन कब काफूर हो गया उसे पता ही न चला. महाशक्तियों की पैतरेबाजी से विरक्ति आह्लाद में परिवर्तित हो चुकी थी. विशेष कर यह जान कर कि दूसरी पतंग की डोर जिव्हानी के हाथों में है. मुरुक्षेश की प्रेमरूपी पतंगों का यह खेल चलता रहा.
और फिर जोर की आवाज से आकाश गूंज उठा, ‘‘वह काट,’’ जैसे सारा स्टेडियम क्रिकेट के मैदान में छक्का लगने से गूंज उठ हो. कटी हुई पतंग लहराती हुई दूर अनजान प्रदेश में जाने लगी. 30-40 बच्चे और युवक उस के पीछे भागे.
दिलेंद्र की बांछें खिल गईं. स्वाभेश खुशी से झूमने लगा. जिव्हानी की पतंग कट गई थी. स्वाभेश की पतंग आसमान में अपनी बुलंदी पर इतरा रही थी.
थोड़ी ही देर में जिव्हानी आकाश में उडती इकलौती मुरुक्षेश पतंग की डोर की
दिशा पकड़ कर उन के पास आ पहुंची. अपनी रोबीली पतंग कट जाने से उस के चेहरे पर न तो कोई शिकन के भाव थे न ही गम.
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आते ही सब से पहले उस ने अपने ही हाथों से बनी तिलगुड़ की मिठाई का डब्बा भैयाभाभी के सामने खोल दिया. दिलेंद्र ने स्वाभेश की पतंग नीचे ला कर वापस अपने पास खींच ली. सभी ने मुंह मीठा किया.
भाभी ने मौका देख कर जिव्हानी से पूछ ही डाला, ‘‘तुम किवैदहेय के साथ हो क्या?’’
जिव्हानी ने हैरानी के साथ कहा, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’
भाभी ने किवैदहेय और दिलेंद्र के बीच हुए संवाद को दोहरा दिया. जिव्हानी ने सभी से इस बात के लिए माफी मांगी और कहा, ‘‘दरअसल, मेरे मम्मीपापा की पहचान का है वह. मम्मीपापा ने मेरे इस शहर में आने से पूर्व मेरी सगाई की बात उस से की थी. लेकिन मुझे मंजूर नहीं है, यह बात मैं ने अपने मम्मीपापा से साफ कह दी है. किवैदहेय भ्रम में है. ऐसा कुछ भी नहीं है. बस, उस ने मुझे फ्लैट दिलाया है.’’
दिलेंद्र के अरमानों ने एक बार फिर पंख फैलाए. एक बार फिर पतंग की तरह आसमान में उड़ने के लिए वह तैयार था और अब उस की पतंग को कोई नहीं काट सकेगा. सर्वसम्मति से संक्रांति महोत्सव का उसे विजेता घोषित कर दिया गया.