डैबिट कार्ड: क्या पत्नी सौम्या का हक समझ पाया विवेक

सौम्याके मोबाइल पर एक के बाद एक 2 मैसेज आए थे. उस ने चैक किया कि उस के उकाउंट से विवेक ने 15 हजार निकाल लिए हैं. यह आज की बात नहीं हमेशा की है. विवेक सौम्या के पैसों पर अपना हक समझता है.

सौम्या आज भी उस दिन को कोसती है जब प्यार में अंधी हो कर तन, मन और धन सबकुछ विवेक को शादी की पहली ही रात समर्पित कर दिया था.

विवेक और सौम्या शादी से पहले से एकदूसरे को जानते थे. दोनों ने जब एकसाथ जिंदगी गुजारने का फैसला किया तो उन के घर वालों ने भी कोई आपत्ति नहीं करी.

प्यार में भीगी सौम्या ने पत्नी का फर्ज निभाते हुए अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की बागडोर विवेक के हाथों में थमा दी थी. यह वही सौम्या थी जो शादी से पहले नारी मुक्ति और भी न जाने कितनी बड़ीबड़ी बातें करती थी.

शुरू के कुछ महीनों में तो सौम्या को कोई फर्क नहीं पड़ा पर जब शादी के बाद वह पहली बार कुछ दिन रहने के लिए अपने घर जाने लगी तो उस ने विवेक से कहा, ‘‘विवेक मुझे कुछ पैसे चाहिए, अपने घर वालों के लिए मुझे गिफ्ट लेने हैं.’’

विवेक हंसते हुए बोला, ‘‘क्यों अपने घर वालों के ऊपर एहसान चढ़ा रही हो. बेटियों से कोई कुछ लेता थोड़े ही है. रही बात पैसों की तो जान अपने घर जा रही हो, वहां की तो तुम प्रिंसेस हो, तुम्हें क्या जरूरत पड़ेगी.’’

‘‘अरे यार मेरे भी तो कुछ खर्चे होंगे,’’ सौम्या बोली, ‘‘शादी से पहले तो मैं ने कभी अपने मम्मीपापा के आगे हाथ नहीं फैला, तो अब क्या हाथ फैलाना अच्छा लगेगा?’’

विवेक ने सौम्या को क्व5 हजार दे तो दिए थे, मगर ऐसे जैसे वह कोई एहसान कर रहा हो. पहली बार सौम्या को लगा कि शायद विवेक

को अपना डैबिट कार्ड दे कर उस ने गलती कर दी है.

मगर घर जा कर सौम्या मौजमस्ती में सब भूल गई. सौम्या अपने पापा की लाड़ली थी, इसलिए जब वह वापस आई तो उस का पर्स

नोटों से भरा था. कुछ दिनों तक जब तक सौम्या का पर्स नोटों से भरा हुआ रहा, यह बात आईगई हो गई थी. फिर अगले महीने जब सौम्या को पार्लर जाना हुआ तो उस ने विवेक से पैसे मांगे, तो विवेक ने क्व1 हजार पकड़ा दिए.

सौम्या ठुनकते हुए बोली, ‘‘यार इतने पैसों में तो कुछ भी नहीं होगा.’’

‘‘कोई भी फेशियल क्व1,200 से नीचे नहीं है और फिर मुझे वैक्सिंग, आईब्रोज, ब्लीच भी कराना है और मैं तो बालों को हाईलाइट कराने की भी सोच रही थी.’’

इस से पहले कि विवेक कुछ बोलता, सौम्या की सास कल्पना बोल पड़ीं, ‘‘अरे मेरा सौम्या बेटा वैसे ही इतना सुंदर है… पार्लर जा कर अपनी नैसर्गिक खूबसूरती को खत्म मत करो.’’

सौम्या ने विवेक की तरफ देखा तो वह बोला, ‘‘बस आईब्रोज और थोड़ा हेयर ट्रिम करा लो और बाकी पैसे तुम्हारे.’’

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सौम्या को कुछ समझ नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करे. अत: वह चुपचाप पार्लर चली गई और थोड़ा सा काम करा कर, मार्केट चली गई. वेस्ट साइड पर बेहद खूबसूरत कुरते आए हुए थे. एक कुरते को देख कर सौम्या की नजर ठहर गई. ग्रे कुरते पर लाल फूल थे और लाल फूलों वाला प्लाजो व लाल और ग्रे रंग का दुपट्टा.

जब सौम्या ने रेट देखा तो क्व1,500 का टैग देख कर उस ने ठंडी आह भरी.

घर वापस आ कर जब सौम्या ने विवेक को सूट के बारे में बताया तो वह बोला, ‘‘तुम्हारी इसी फुजूलखर्ची को रोकने के लिए तुम्हारा डैबिट कार्ड मैं ने अपने पास रखा है.’’

कल्पना भी मीठी मुसकान बिखेरते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, शादी के बाद तेरामेरा कुछ नहीं होता बस हमारा होता है. मेरी सारी साडि़यां तुम्हारी हैं… औफिस में बदलबदल कर पहना करो.’’

सौम्या मन मसोस कर रह गई. वह कैसे कहे कि वह इतनी चमकदमक के कपड़े पहनना पसंद नहीं करती है.

एक दिन सौम्या ने अपनी मम्मी से जब अपने डैबिट कार्ड के बारे में बात करी तो वे

बोलीं, ‘‘अरे तो क्या विवेक तुम्हें ऐब्यूज करता है? तुम्हें किसी चीज की कमी है क्या?’’

सौम्या ने कहा, ‘‘मम्मी बात मेरी फ्रीडम की है… मेरे पैसे हैं जैसे चाहे वैसे खर्च करूं.’’

मम्मी बोलीं, ‘‘तेरी इसी फुजूलखर्ची के कारण विवेक ने यह किया होगा.’’

सौम्या को लगने लगा था कि शायद वही गलत है, विवेक सही है. मगर रोज उसे विवेक के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता था. जब कभी भी वह विवेक से अपने डैबिट कार्ड को वापस करने को बोलती तो वह हमेशा कहता, ‘‘अगर मैं गलत कर रहा होता तो तुम्हारे मम्मीपापा क्या ऐसा होने देते?’’

मगर सौम्या को यह गुलामी वाला जीवन रास नहीं आ रहा था.

आज शुक्रवार है. सौम्या की पूरी टीम का बाहर शौपिंग और मस्ती करने का इरादा था. जयति ने सौम्या से पूछा, ‘‘चलोगी न तुम भी?’’

‘‘हां चलूंगी मगर आज मैं अपना वालेट घर भूल गई हूं’’ सौम्या ने कहा.

जयति खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘अरे तो क्या मुश्किल है, मेरा कार्ड स्वाइप कर लेना.’’

उस दिन सौम्या ने खूब मजा किया. तय था कि सारा खर्च बराबर बांट लेंगे. सौम्या के हिस्से में क्व2 हजार खानेपीने का खर्च था और सौम्या ने क्व2 हजार की एक ड्रैस भी ले ली थी.

जब सौम्या रात को 11 बजे घर लौटी तो पूरा घर सो चुका था. विवेक सौम्या को देख कर बोला, ‘‘यह क्या तुम ने शराब पी रखी है?’’

सौम्या हंसते हुए बोली, ‘‘अरे यार भूल गए क्या पहले भी तो मैं तुम्हारे साथ हर फ्राइडे नाइट ऐसे ही पीती थी?’’

‘‘हां पर यार तब की बात और थी,’’

विवेक बोला.

‘‘अब हम शादीशुदा हैं… हम पर घर की जिम्मेदारिया हैं. तुम्हारी इसी फुजूलखर्ची के कारण मैं तुम्हारा डैबिट कार्ड नहीं देता हूं.’’

सौम्या बोली, ‘‘पर मैं ने तो जयति से ले कर क्व4 हजार खर्च कर दिए हैं आज.’’

विवेक गुस्से में बोला, ‘‘क्या जरूरत थी? जयति जैसी औरतों के आगेपीछे कोई नहीं है. उन्हें तो तितली बन कर उड़ने का शौक होता है ताकि नया शिकार फंसा सकें.’’

सौम्या को विवेक का जयति के बारे में ऐसा बोलना बिलकुल अच्छा नहीं लगा.

सोमवार को पूरा दिन सौम्या जयति से नजरें चुराती रही. सौम्या को ऐसे पाईपाई का मुहताज होना अच्छा नहीं लग रहा था.

सौम्या रोज विवेक से जयति को देने के लिए पैसे मांगती, विवेक रोज उसे एक लंबाचौड़ा लैक्चर देता. मगर आज जब सौम्या ने देखा कि विवेक उस के ही डैबिट कार्ड से अपने लिए शौपिंग कर रहा है तो उसे उस के दोगलेपन पर बहुत गुस्सा आया.

सौम्या ने जयति को पूरी बात बता दी. जयति बोली, ‘‘यार तुम इतना सब सह ही क्यों रही हो. आज मेरे साथ बैंक चलना और नए डैबिट कार्ड के लिए अप्लाई कर देना.’’

सौम्या बोली, ‘‘मगर क्या यह ठीक रहेगा?’’

‘‘अरे यह ठीकगलत नहीं बल्कि तुम्हारा मौलिक अधिकार है,’’ जयति बोली.

सौम्या ने जयति के साथ बैंक जा कर नए डैबिट कार्ड के लिए ऐप्लिकेशन दे दी.

अगले दिन जब सौम्या दफ्तर से आई तो विवेक गुस्से में बोला, ‘‘क्या तुम ने अपना डैबिट कार्ड ब्लौक करवाया है?’’

सौम्या बिना डरे बोली, ‘‘हां क्योंकि मैं अपनी कमाई को अपने तरीके से खर्च करना चाहती हूं.’’

विवेक की मम्मी कल्पना बोलीं, ‘‘किस चीज की कमी है तुम्हें सौम्या? विवेक तभी मैं ऐसी तेज लड़की के खिलाफ थी.’’

‘‘सौम्या मैं ने अपने परिवार वालों को बड़ी मुश्किल से मनाया था,’’ विवेक बोला, ‘‘बस इतना ही विश्वास है तुम्हें मुझ पर?’’

सौम्या बोली, ‘‘चलो अगर अपना डैबिट कार्ड दे कर ही विश्वास को जीत सकते हैं, तो तुम अपना डैबिट कार्ड दे दो, मैं अपना तुम्हें दे दूंगी.’’

विवेक पैर पटकते हुए अंदर चला गया और फिर पूरे घर ने सौम्या से बोलना छोड़ दिया. सौम्या के घर वालों को भी सौम्या की गलती लग रही थी.

सौम्या से जब और अधिक सहन नहीं

हुआ तो वह जयति के साथ रहने चली गई. जयति 35 वर्षीय तलाकशुदा महिला थी जो जिंदगी अपनी शर्तों पर जीती थी.

सौम्या को अपना नया डैबिट कार्ड मिल गया था. सब से पहले उस ने जयति के पैसे लौटाए और फिर जयति को डिनर पर ले गई.

विवेक वहां अपने क्लाइंट के साथ पहले से बैठा था. सौम्या को जयति के साथ देख कर उस के तनबदन में आग लग गई और सौम्या

के पास आ कर बोला, ‘‘इसी सैरसपाटे के लिए तुम्हें कार्ड चाहिए था. अभी भी समय है आंखें खोलो नहीं तो तुम भी जयति जैसी कैटेगरी में

आ जाओगी.’’

सौम्या चुपचाप सुनती रही और विवेक के जाने के बाद रोने लगी.

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जयति समझते हुए बोली, ‘‘क्या तुम्हें लगता है कि तुम वापस वही गुलामी वाला जीवन जी सकती हो? यदि हां तो बेशक वापस चली जाओ.’’

सौम्या रोआंसी आवाज में बोली, ‘‘मैं विवेक को क्या समझती थी और वह कैसा है.’’

जयति ने कहा, ‘‘खुद को खो कर अगर

तुम विवेक को पाना चाहती हो, तो आज ही

चली जाओ. मगर अपने लिए खुश होना है

तो कुछ असुविधा जरूर होगी, मगर परिणाम सुखद होगा.’’

सौम्या को विवेक ने पहले डरायाधमकाया मगर जब बात नहीं बनी तो उस ने

फिर से बहलायाफुसलाया मगर जब सौम्या टस से मस नहीं हुई तो विवेक भी डर गया.

विवेक भी अपनी शादी को एक डैबिट कार्ड के कारण दांव पर लगाना नहीं चाहता था. एक आम पति की तरह वह सौम्या की हर चीज पर अपना हक समझता था, मगर वह ऐसा करतेकरते भूल गया था कि वह सौम्या के मौलिक अधिकार का हनन कर रहा है.

विवेक ने सौम्या को फ्राइडे की रात फोन कर के डिनर के लिए बुलाया. सौम्या जब पहुंची तो विवेक पहले से ही वहां बैठा उस की प्रतीक्षा कर रहा था.

विवेक सौम्या से बोला, ‘‘सौम्या आई एम सौरी, मैं शादी के बाद अपनी सीमारेखा भूल गया था. सच पूछो तो जब तुम ने मुझे अपना डैबिट कार्ड खुद ही दे दिया था तो मुझे लगा कि शायद मैं तुम्हारी पूरी जिंदगी को अपने हिसाब से

कंट्रोल कर सकता हूं. बिना मेहनत करे तुम्हारे डैबिट कार्ड से पैसे निकलवाने में मुझे मजा आने लगा था. मगर मैं गलत था यह मुझे एहसास हो गया है.’’

सौम्या बोली, ‘‘इस के लिए हमें जयति का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिस ने मुझे मेरे हक के लिए खड़ा होना सिखाया वरना मैं तो समझ रही थी कि तुम से अपनी कमाई पर अपना हक मांग कर मैं कुछ गलत कर रही हूं.’’

तभी वेटर बिल ले कर आया तो विवेक बोला, ‘‘मैडम क्या आप आज इस बिल को स्पौंसर करना पसंद करेंगी.’’

सौम्या ने मुसकराता हुए अपना डैबिट कार्ड स्वाइप कर दिया.

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और वक्त बदल गया: क्या हुआ था नीरज के साथ

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कटु सत्य: भाग 3- क्या हुआ था छवि के साथ

मंदिर पहुंचते ही फिर सती दादी का विचार मन पर हावी हो गया. जिन से वह कभी मिली नहीं थी,  देखा भी नहीं था, उन से कुछ ही दिनों में न जाने कैसा तारतम्य स्थापित हो गया था. बारबार उन का चेहरा उस के जेहन में आ कर उसे बेचैन कर रहा था. वह मंदिर के सामने खड़ी हो कर मंदिर में लगी उन की तसवीर को निहारने लगी. तसवीर में वे 20-22 वर्ष से ज्यादा नहीं होंगी, चेहरे पर छाई भोली मुसकान ने उस का मन मोह लिया. वह कल्पना ही नहीं कर पा रही थी कि जब वे जली होंगी तो उन का यही चेहरा कितना वीभत्स हो गया होगा.

‘‘बेटी, तुम कभी विवाह नहीं करना और अगर विवाह हो गया है तो कभी कन्या को जन्मने नहीं देना,’’ पीछे से आवाज आई. आवाज सुन कर उस ने पलट कर देखा तो पाया सफेद बाल तथा झुर्रियों वाला चेहरा उस की ओर निहार रहा था. छवि को अपनी ओर देख कर उस ने अपनी बात फिर दोहराई.

‘‘यह आप क्या कर रही हैं?’’

‘‘मैं सच कह रही हूं बेटी, बेटी के दुख से बड़ा कोई दुख इस दुनिया में नहीं है.’’

हताश निराश औरत की दुखभरी आवाज सुन कर छवि का मन विचलित हो उठा. ध्यान से देखा तो पाया वह लगभग 80 वर्ष की बुढि़या है. वह मंदिर की दीवार के सहारे टेक लगा कर बैठी थी तथा उसी की तरह मंदिर को निहारे जा रही थी. चेहरे पर दर्द की अजीब रेखाएं खिंच आई थीं. उसे एहसास हुआ कि यह अनजान वृद्धा भी उसी की भांति किसी बात से परेशान है. इस से बातें कर के शायद उस के मन का द्वंद्व शांत हो जाए. वह नहीं जानती थी कि वह वृद्धा उस की बात समझ भी पाएगी या नहीं. पर कहते हैं मन का गुबार किसी के सामने निकाल देने से मन शांत हो जाता है, यही सोच कर वह जा कर उस के पास बैठ गई तथा मन की बातें जबान पर आ ही गईं.

‘‘दादी, यह सती रानी का मंदिर है. कहते हैं ये अपने पति को बहुत प्यार करती थीं, उन के जाने का गम नहीं सह पाईं, इसलिए उन के साथ सती हो गईं. पर क्या एक औरत की अपने पति से अलग कोई दुनिया नहीं होती, यह तो आत्मदाह ही हुआ न? ’’ कहते हुए उस ने फोन पर यह सोच कर रिकौर्डिंग करनी प्रारंभ कर दी कि शायद इस घटना से संबंधित कोई सूत्र उसे मिल जाए.

वृद्धा कुछ क्षण के लिए उसे देखती रही, फिर कहा, ‘‘बेटी, तुम्हारा प्रश्न जायज है पर मर्द के लिए औरत सिर्फ औरत है. मर्द ही उसे कभी पत्नी बनाता है तो कभी मां, यहां तक कि सती भी. इस संसार की जननी होते हुए भी स्त्री सदा अपनों के हाथों ही छली गई है.’’

‘‘आप क्या कहना चाहती हैं, दादी?’’

‘‘मैं सच कह रही हूं बिटिया, लगता है तुम इस गांव में नई आई हो?’’

‘‘हां दादी, प्यार अलग बात है, पर मुझे विश्वास ही नहीं होता कि कोई औरत अपनी मरजी से अपनी जान दे सकती है.’’

‘‘तू ठीक कह रही है, बेटी. मैं तुझे सचाई बताऊंगी पर पता नहीं तू भी औरों की तरह बात पर विश्वास करेगी या नहीं. मेरी बात पर किसी ने भी विश्वास नहीं किया, बल्कि पगली कह कर लोग सदा मेरा तिरस्कार ही करते रहे. सती रानी और कोई नहीं, मेरी अपनी बेटी सीता है.’’

‘‘आप की बेटी सीता?’’आश्चर्य से छवि ने कहा.

‘‘हां बेटी, मेरी बेटी, सीता. पिछले 40 वर्षों से मैं इसे न्याय दिलवाने के लिए भटक रही हूं पर कोई मेरी बात पर विश्वास ही नहीं करता. इस के पति वीरेंद्र प्रताप सिंह की मृत्यु एक बीमारी में हो गई थी. उस समय यह पेट से थी. उस समय उस के जेठ को लगा भाई तो गया ही, अब दूसरे घर की यह लड़की उन की सारी संपत्ति में हिस्सा मांगेगी, इसलिए बलपूर्वक इसे अपने भाई की चिता के साथ जलने को मजबूर कर दिया. इस बात की खबर उस घर में काम करने वाली नौकरानी ने हमें दी थी. हम ने जब अपनी बात ठाकुर के सामने रखी तो वे आगबबूला हो गया. हम ने गांव वालों के सामने अपनी बात रखी तब ठाकुर के डर से किसी गांव वाले ने हमारा समर्थन नहीं किया. और तो और, नौकरानी भी अपनी बात से मुकर गई. जब मेरे पति और बेटे ने ठाकु र को देख लेने की धमकी दी तब ठाकुर ने न केवल मेरे पति बल्कि मेरे बेटे को भी अपने गुंडों के हाथों मरवा दिया. सबकुछ समाप्त हो गया बेटी.’’

‘‘दादी, वह दरिंदा कौन था?’’

‘‘ठाकुर राघवेंद्र प्रताप सिंह.’’

‘‘ठाकुर राघवेंद्र्र प्रताप सिंह?’’ सुन कर छवि स्तब्ध रह गई.

‘‘हां बेटी, वह दरिंदा ठाकुर राघवेंद्र प्रताप सिंह ही है जिस ने मेरी बेटी को मरने के लिए मजबूर किया. हमारे विरोध करने पर उस ने मेरे पूरे परिवार को मिटा डाला. मैं किसी तरह बच भागी तो मुझे पागल घोषित कर दिया.’’

‘‘दादाजी ने ऐसा किया, नहींनहीं. ऐसा नहीं हो सकता. मेरे दादाजी ऐसा नहीं कर सकते,’’ अचानक छवि के मुंह से निकला.

‘‘क्या तुम ठाकुर राघवेंद्र की पोती हो?’’ उस वृद्धा के चेहरे पर आश्चर्य झलका पर उस के उत्तर देने से पूर्र्व ही वह फिर कह उठी, ‘‘मैं जानती थी, तुम भी औरों की तरह मेरी बातों पर विश्वास नहीं करोगी. मुझ पर कोई विश्वास नहीं करता, सब मुझे पगली कहते हैं, पगली.’’

 

अट्टहास करती हुई वृद्धा उठी और टेढ़ेमेढे रास्तों में खो गई. वह वृद्धा सचमुच उसे पगली ही लगी. पर वह झूठ क्यों कहेगी. एक मां हो कर वह भला अपनी बेटी की छवि को धूमिल क्यों करेगी. किसी पर बेबुनियाद आरोप क्यों लगाएगी. यह नहीं हो सकता, अगर यह नहीं हो सकता तो आखिर सचाई क्या है? तभी पिछली सारी घटनाएं उस के मनमस्तिष्क में घूमघूम कर उस बुढि़या की बात की सत्यता का एहसास कराने लगीं.

नील भी यही कह रही थी कि सती दादी

हमारी छोटी दादी हैं तो क्या, दादाजी ने जायदाद के लिए अपने छोटे भाईर् की पत्नी को सती होने के लिए मजबूर किया. उन पर किसी को शक न हो, इसलिए उन्होंने सती दादी को इतना महिमामंडित कर दिया कि वहां हर वर्ष मेला लगने लगा. छवि का मन कल से भी ज्यादा अशांत हो गया था. दादाजी का एक वीभत्स चेहरा सामने आया था. एक दबंग और उस से भी अधिक लालची, जिस ने पैसों के लिए अपने ही छोटे भाई की गर्भवती पत्नी की जान ले ली. उस का मन किया कि जा कर सीधे दादाजी से पूछे पर उन से पूछने की हिम्मत नहीं थी. वे इतने रोबीले थे कि बच्चे, बड़े सभी उन से डरते थे. जमींदारी चली गई पर जमींदार होने का एहसास अभी भी बाकी था. वैसे भी, वे अपना गुनाह क्यों कुबूल करेंगे. जिस गुनाह को छिपाने के लिए उन्होंने छोटी दादी के घर वालों को मिटा डाला, गांव वालों का मुंह बंद कर दिया.

दादाजी से छवि का बात करना या बहस करना व्यर्थ था पर उस के जमीर ने उस का साथ नहीं दिया. वह अपने प्रश्नों का भंडार ले कर उन के कमरे की ओर गई. कमरे से आती आवाजों ने उसे चौकन्ना कर दिया. सुराग पाने की कोशिश में उस ने मोबाइल औन कर दिया- ‘‘ठाकुर साहब, संभालिए अपनी पोती को, आज जब वह गन्ने के खेत में थी तभी हम उस कम्मो को सताते हुए उधर से गुजरे. आप की बात मान कर हम ने कम्मो को लोगों की नजरों में डायन बना दिया है. कम्मो को मारते देख कर आप की पोती ने हमें मना किया. जब हम ने कहा कि वह डायन है तब उस ने कहा कि डायनवायन कोई नहीं होती, बच्चे उस की बुरी नजर के कारण नहीं बल्कि अन्य कारणों से मरे हैं. वह बड़ीबड़ी बातें कर रही थी. आज उसे मंदिर में उस बुढि़या से बातें करते भी देखा. अगर कुछ दिन और वह  यहां रही तो हमें डर है कि कहीं कम्मो का भेद न खुल जाए. आज तो कम्मो ने उस से बात नहीं की, कहीं…’’

‘‘नहींनहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा. ऐसा करो, कम्मो को समाप्त कर दो.’’

‘‘ आप क्या कह रहे हैं, ठाकुर साहब?’’

‘‘मैं ठीक कह रहा हूं. मैं नहीं चाहता कि उस की वजह से हमारे चरित्र पर कोई दाग लगे. बस, इतना ध्यान रखना कि उस की मृत्यु एक हादसा लगे. इतना अभी रखो, बाद में और दूंगा.’’ दादाजी ने उस के हाथ में नोट की गड्डी रखते हुए कहा.

तो क्या दादाजी और कम्मो…पहले उसे भोगा, फिर दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका. वह किसी को सचाई न बता पाए, इसलिए उसे डायन बना दिया. यह सुन कर वह अवाक रह गई. दरवाजा खुलने की आवाज ने उसे चैतन्य किया. वह ओट में खड़ी हो गई. दादाजी का एक अन्य घिनौना रूप उस के सामने था.

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समय सीमा: क्या हुआ था नमिता के साथ

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कटु सत्य: भाग 3- क्या हुआ था छवि के साथ

अवसर पा कर मां से बात कही तो वे एकदम घबरा गईं. उन्होंने इधरउधर देखा, फिर उस का हाथ पकड़ कर कोने में ले गईं और संयत हो कर बोलीं, ‘‘क्या बकवास कर रही है, छवि?’’

‘‘मां, आप का व्यवहार देख कर लग रहा है, मेरी बातों में सचाई है. कम्मो, वह वृद्ध औरत जो सीता दादी की मां है और जिसे सब पगली कहते हैं, ने मुझ से जो कुछ भी कहा, वह सच है.’’

‘‘व्यर्थ के पचड़ों में मत फंसो. जो मुझ से कहा है वह घर में किसी अन्य से न कहना. हलदी की रस्म प्रारंभ होने वाली है, कपडे़ बदल कर वहां पहुंचो.’’ मां किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना उसे आदेश देती हुई चली गईं.

दादाजी, जिन्हें वह सदा सम्मान देती आई थी, आज उसे दरिंदा नजर आने लगे- इंसान के रूप में खूंखार जानवर, जिन्होंने जायदाद के लिए अपने छोटे भाई की पत्नी को मरने को मजबूर किया, कम्मो को बरबाद किया. इन जैसे लोगों के  लिए किसी का मानसम्मान कोई माने नहीं रखता, यहां तक कि जायदाद के आगे इंसानी रिश्तों, भावनाओं की भी इन के लिए कोई अहमियत नहीं है. वे अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं. पर उन से भी ज्यादा मां का व्यवहार उसे आश्चर्यजनक लग रहा था. वे शहर में महिला मुक्ति आंदोलन की संरक्षक हैं. जहां कहीं अत्याचार होते, वे अपनी महिला वाहिनी ले कर पहुंच जातीं हैं तथा पीडि़ता को न्याय दिलवाने का प्रयत्न करती हैं. पर यहां सबकुछ जानतेसमझते हुए भी वे मौन हैं. पर क्यों?

 

यह सच है कि यह घटना उन के सामने घटित नहीं हुई लेकिन उस वृद्धा को तो न्याय दिलवा सकती थीं जो अब भी न्याय की आस में भटक रही है. तो क्या वे दादाजी, अपने ससुर, के विरुद्ध आवाज उठातीं, अवचेतन मन ने सवाल किया, अगर वे ऐसा करतीं तो क्या उन का भी वही हाल नहीं होता जो उस वृद्धा का हुआ. और फिर वे सुबूत कहां से लातीं. किसी आरोप को सिद्ध करने के लिए सुबूत चाहिए. कौन दादाजी के विरुद्ध गवाही देता? आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि पापा जज होते हुए भी मौन रहे.

छवि का मन बारबार उसे धिक्कार रहा था, ‘पर अब तुम क्या कर रही हो, तुम्हें भी तो अब सब पता है. क्यों नहीं सब के सामने जा कर सचाई उगल देती. क्यों नहीं दादाजी के चेहरे पर लगे मुखौटे को हटा कर उन का वीभत्स चेहरा समाज के सामने ला कर उन्हें बेनकाब कर देती.

पर क्या यह इतना आसान है. सचाई यह है कि इंसान दूसरों से तो लड़ भी ले लेकिन अपनों के आगे बौना हो जाता है. गांव की जिन मधुर स्मृतियों को वह सहेजे हुए थी, उन में ग्रहण लग गया था. उस का मन कर रहा था कि यहां के घुटनभरे माहौल से कहीं दूर भाग जाए जहां उसे सुकून मिल सके. पर जाए भी तो जाए कहां, जहां भी जाएगी, क्या इन विचारों से मुक्ति पा पाएगी? तो वह क्या करे? क्या वह भी पूरा जीवन अपने परिवार के अन्य सदस्यों की तरह ही इस अन्याय को दिल में समाए जीवन गुजार दे. पर वह ऐसे नहीं जी पाएगी. तब, वह क्या करे?

उस का सर्वांग सुलग उठा. मन का ज्वालामुखी फटने को आतुर था. ‘आज तो मीडिया का जमाना है. इस घटना को किसी पत्रपत्रिका में प्रकाशित करवा दो,’ अवचेतन मन से आवाज आई.

हां, यही ठीक होगा. आरोपी को दंड नहीं दिलवा पाई तो क्या हुआ, समाज का यह विदू्रप चेहरा, कटु सत्य तो कम से कम सामने आएगा. कम से कम ऐसी घटनाओं को अंजाम देने से पहले लोग एक बार तो सोचेंगे, किसी को आत्मदाह के लिए बाध्य तो नहीं किया जाएगा.

उस ने डायरी निकाली तथा अपने विचारों को कलमबद्ध करने लगी. मन के झंझावातों से मुक्त होने का उस के पास एक यही साधन था. अपने लेख को किसी पत्रिका में छपवा कर दादाजी को बेनकाब करने का उस ने मन ही मन प्रण कर लिया था.

‘‘दीदी, आप क्या कर रही हैं, यहां भी आप का लिखनापढ़ना नहीं छूटा. चलिए, नीचे सब आप को ढूंढ़ रहे हैं.’’ नील ने आ कर कहा.

‘‘हां, चल रही हूं,’’ उस ने डायरी अपने सूटकेस में रख दी.

नील उसे लगभग खींचते हुए नीचे ले आई. शिखा को हलदी लगाई जा रही थी. कुछ औरतें ढोलक पर बन्नाबन्नी गा रही थीं. मां के चेहरे पर उसे देखते ही चिंता की रेखाएं खिंच गईं. शायद, उन्हें डर था कि वह कहीं किसी से कुछ कह न दे, व्यर्थ रंग में भंग हो जाएगा.

सब को हंसतेगाते देख कर भी वह स्वयं को सहज नहीं कर पा रही थी. उसे लग रहा था कि वह भीड़ में अकेली है. तभी उस ने सोचा, उसे जो करना है वह तो करेगी ही पर वह हंसीखुशी के माहौल को बदरंग नहीं करेगी.

जब लौट कर आई तो उस ने डायरी के पन्ने फटे पाए. पीछेपीछे उस की मां भी आ गई. उसे परेशान देख कर बोली, ‘‘बेवकूफ लड़की, गड़े मुरदे उखाड़ने की कोशिश मत कर, मत भूल कि वे तेरे दादाजी हैं, इस गांव के सम्मानित व्यक्ति. लोगों के लिए देवतास्वरूप. ऐसा तो सदियों से होता आ रहा है. वैसे भी , तेरी बात पर विश्वास कौन करेगा? वह तो अच्छा हुआ कि मैं किसी काम से यहां आई थी, तेरा सूटकेस खुला देख कर बंद करने लगी तो डायरी देख कर शक हुआ और मैं ने देख लिया. अगर तेरी यह हरकत घर में किसी को भी पता चल गई तो तेरे साथ हमारा जीना भी दूभर हो जाएगा.

फिर जायदाद, आखिर यह पैसा इंसान को किस हद तक गिराएगा. नीचे ताईजी की आवाज सुन कर मां दनदनाती हुई चली गई थी. वह लाचार सी बैठी सोचने लगी कि हर काल, हर समय में ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ वाली कहावत ही चरितार्थ होती रही है. जिस के हाथ में ताकत है वही समर्थ है. कानून उस के हाथ का खिलौना बन कर रह जाता है. शायद इसीलिए मांपापा सबकुछ जानते और समझते हुए भी चुप रहे और शायद इसी मानसिकता के तहत उस के अन्याय के विरुद्ध मुंह खोलने की कोशिश को मां गलत ठहरा कर उसे चुप रहने के लिए विवश कर रही हैं. बारबार उस वृद्धा के शब्दों के साथ उस का अट्टहास मनमस्तिष्क में गूंज कर उसे बेचैन करने लगा. ‘पिछले 40 वर्षों से मैं उसे न्याय दिलवाने के लिए भटक रही हूं पर कोई मेरी बात पर विश्वास ही नहीं करता. सब मुझे पगली कहते हैं, पगली.’ वह तो उस वृद्धा से भी अधिक लाचार है. वह कम से कम न्याय की गुहार तो लगा रही है पर  वह तो सब जानतेबूझते हुए भी चुप रहने को विवश है.

वह बेचैनी में अपना मोबाइल सर्च करने लगी. तभी मंदिर में वृद्धा से बातचीत का वीडियो नजर आया. साथ ही, गन्ने के खेत में लोगों का कम्मो के साथ जोरजबरदस्ती का भी वीडियो था. साथ ही, उस में कम्मो की आवाज, ‘मैं डायन नहीं हूं, डायन नहीं हूं. मैं बड़े ठाकुर को नहीं छोड़ूंगी.’ यह आवाज उसे विचलित करने लगी थी. अपने बेटे के जीवन की भीख मांगते आदमी का तथा उस की आवाज को नकारते दादाजी की आवाज के साथ कम्मो को मारने का आदेश देते हुए दादाजी की आवाज ने उसे संज्ञाशून्य बना दिया था. सारे सुबूत सिर्फ एक ही ओर इशारा कर रहे थे.

‘तुम विवश नहीं हो, संवेदनशील मस्तिष्क कभी विवश नहीं हो सकता,’ अपने भीतर की यह आवाज सुन कर एकाएक उस ने निर्णय लिया कि वह अपनी पत्रकार मित्र शिल्पा की सहायता से वीडियो क्लिप के जरिए अपराधियों को दंड दिलवाएगी तथा समाज का यह विद्रूप चेहरा सामने लाएगी. समाज का कटु सत्य तो कम से कम समाज के सामने आएगा, सोच कर छवि ने संतोष की सांस ली.

शिल्पा और उस की टीम के एक महीने के अथक परिश्रम के बाद आखिर धीरजपुर गांव का धीरज टूट गया और दादाजी का घिनौना रूप समाज के सामने आ ही गया. टीवी पर फ्लैश होती वीडियो क्लिप को देख कर मां बाप हैरान थे पर छवि संतुष्टि का अनुभव कर रही थी.

कटु सत्य: भाग 1- क्या हुआ था छवि के साथ

करीब 10 वर्षों बाद छवि अपने गांव धीरजपुर आई है. इस गांव में उस का बचपन बीता है. यहां उस के दादाजी, तायाजी, ताईजी और उन के बच्चे व चचेरे भाईबहन हैं. तायाजी की बड़ी बेटी शिखा का विवाह है. चारों ओर धूमधाम है. कहीं हलवाई बैठा मिठाई बना रहा है तो कहीं मसाले पीसे जा रहे हैं, कहीं दरजी बैठा सिलाई कर रहा है तो कहीं हंसीठिठोली चल रही है. पर वह सब से अनभिज्ञ घर की छत पर खड़ी प्राकृतिक सौंदर्य निहार रही थी. चारों तरफ हरेभरे खेत, सामने दिखते बगीचे में नाचते मोर तथा नीचे कुएं से पानी भरती पनिहारिन के दृश्य आज भी उस के जेहन में बसे थे. वह सोचा करती थी न जाने कैसे ये पनिहारिनें सिर पर 2 और बगल में 1 पानी से भरे घड़े ले कर चल पाती हैं.

यह सोच ही रही थी कि छत पर एक मोर दिखाई दिया. फोटोग्राफी का उसे बचपन से शौक था और जब से उस के हाथ में स्मार्टफोन आया है, हर पल को कैद करना उस का जनून बनता जा रहा था, मानो हर यादगार भोगे पल से वह स्वयं को सदा जोड़े रखना चाहती हो. कुतूहलवश उस ने उस के नृत्य का वीडियो बनाने के लिए अपने मोबाइल का कैमरा औन किया पर वह मोर जैसे आया था वैसे ही चला गया, शायद प्रकृति में आए बदलाव से वह भी अछूता नहीं रह पाया.

अनमने मन से वह अंदर आई. दीवानखाने में लगे विशालकाय कपड़े का कढ़ाईदार पंखा याद आया जिसे बाहर बैठा पसीने में लथपथ नौकर रस्सी के सहारे झला करता था और वह व अन्य सभी आराम से बैठे पंखे की ठंडी हवा में मस्ती किया करते थे. वह सोचने लगी, न जाने कैसी संवेदनहीनता थी कि हम उस निरीह इंसान के बारे में सोच ही नहीं पाते थे.

पिछले 10 वर्षों में सबकुछ बदल गया है, कच्चे घरों की जगह पक्के घरों, टूटीफूटी कच्ची सड़कों की जगह पक्की सड़कों तथा हाथ के पंखों की जगह बिजली से चलने वाले पंखों ने ले ली है. किसीकिसी घर में गैस के चूल्हे तथा पानी की पाइपलाइन भी आ गई हैं. विकास सिर्फ शहरों में ही नहीं, गांव में भी स्पष्ट नजर आने लगा है.

‘‘दीदी, चलिए आप को गांव घुमा लाऊं,’’  छोटी बहन नील ने उस के पास आ कर कहा.

गांव घूमने की चाह उस के अंदर भी थी. सो वह उस के साथ चल पड़ी. पहले वह मंदिर ले कर गई. मंदिर परिसर में ही एक छोटा सा मंदिर और दिखा. रानी सती मंदिर. वहां पहुंचने के बाद छवि ने नील की ओर आश्चर्य से देखा.

‘‘दीदी, हमारी छोटी दादी अपने पति के साथ यहीं सती हुई थीं. उन की स्मृति में दादाजी ने उन के नाम से मंदिर बनवा दिया. जिस दिन वे सती हुई थीं, उस दिन यहां हर साल बहुत बड़ा मेला लगता है. दूरदूर से औरतें आ कर अपने सुहाग की मंगलकामना करते हुए उन के समान बनने की कसमें खाती हैं,’’ श्रद्धा से नतमस्तक होते हुए नील ने कहा.

‘‘छोटी दादी सती हो गई थीं पर यह तो आत्मदाह हुआ. क्या किसी ने उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया?’’ आश्चर्य से छवि ने पूछा.

‘‘यह तो पता नहीं दीदी, पर लोग कहते हैं कि वे अपने पति को बेहद चाहती थीं. वे उन की मृत्यु को सहन नहीं कर पाईं. अंतिम क्षण तक साथ रहने की कामना के साथ वे श्मशान घाट तक गईं. जब अग्नि ने जोर पकड़ लिया तब वे चिता में कूद पड़ीं. जब तक लोग कुछ समझ पाते तब तक उन का शरीर धूधू कर जलने लगा. उन को बचाने की सारी कोशिशें व्यर्थ हो गई थीं,’’ नील ने कहा.

‘‘यह घटना कब घटित हुई?’’

‘‘करीब 40 वर्ष हो गए होंगे.’’

नील की बात सुन कर छवि अपने विचारों में खोने लगी थी…

 

इस मंदिर की उसे याद क्यों नहीं है? ‘बचपन की सब बातें याद थोड़े ही रहती हैं,’ सोच कर मन को तसल्ली दी. फिर यहां रही ही कितना है वह.

4 वर्ष की थी तभी अपने मांपापा के साथ शहर चली गई थी. बीचबीच में कभी आती भी थी तो हफ्तादोहफ्ता रह कर चली जाती थी. पिछले 10 वर्षों  से तो उस का आना ही नहीं हो पाया. कभी उस की परीक्षा तो कभी भाई प्रियेश की. इस बार शिखा दीदी के विवाह को देखने की चाह उसे गांव लाई थी, वरना उस की तो मैडिकल में प्रवेश परीक्षा के लिए कोचिंग चल रही हैं.

वह तो आ गई पर उस का भाई प्रियेश आ ही नहीं पाया. अगले सप्ताह से उस की पै्रक्टिकल परीक्षा होने वाली है. शहर की भागदौड़ वाली जिंदगी में गांव की सहज, स्वाभाविक एवं नैसर्गिक स्मृतियां उस के जेहन में जबतब आ कर उसे सदा गांव से जोड़े रखती थीं. इन स्मृतियों को जबजब उस ने अपनी कहानी और कविताओं में ढाला था, चित्रों में गढ़ा था, उस की सहेलियां मजाक बनातीं, ‘साइंस स्टूडैंट हो कर भी इतनी भावुक क्यों हो, कल्पनाओं की दुनिया से निकल कर यथार्थ की दुनिया में रहना सीखो.’ तब वह कहती, ‘यह मेरा शौक है. दरअसल, मैं जीवन में घटी हर घटना को मस्तिष्क से नहीं दिल से महसूस करना चाहती हूं, उन का हल खोजना चाहती हूं. शायद, शहर की मशीनी जिंदगी से त्रस्त जीवन को मेरा यह शौक मेरे दिल को सुकून पहुंचाता है, जीवन के हर पहलू को समझने की शक्ति देता है और यही दर्द, मेरे दिल से निकली ध्वनियों में प्रतिध्वनित होता है.’

तभी विचारों के भंवर से निकलते हुए छवि ने नील से कहा, ‘‘और तू कह रही है कि हर वर्ष यहां मेला लगता है तथा स्त्रियां उन के जैसा ही बनने की कामना करती हैं.’’

‘‘हां दीदी.’’

‘‘इस का अर्थ है कि हम सतीप्रथा का विरोध करने के बजाय उसे बढ़ावा देने का प्रयत्न कर रहे हैं.’’

नील उस की बात का कोई उत्तर नहीं दे पाई. वे दोनों निशब्द आगे बढ़ते गए. चारों ओर प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा था. वह उसे आत्मसात करने का प्रयत्न करने लगी.

‘‘दीदी, देखो यह ट्यूबवैल. याद है, यहां हम नहाया करते थे. यहां से देखो तो जहां तक नजर आ रहा है वह पूरी जमीन  अपनी है. यह देखो गेहूं, सरसों के खेत, यह मटर तथा गन्ने के खेत. यहां से गन्ने वीरपुर स्थित शूगर फैक्टरी में जाते हैं. देखो, गन्ने ट्रकों पर लादे जा रहे हैं. दीदी, गन्ना खाओगी?’’ अचानक नील ने पूछा.

‘‘हां, क्यों नहीं.’’

छवि को गन्ना चूसना बेहद पसंद था. शहर में भी मां गन्ने के सीजन में गन्ने मंगा लेती थीं. वह और प्रियेश आंगन में बैठ कर आराम से गन्ना चूसा करते थे. अब जब गन्ने के खेत के पास खड़ी है तब बिना गन्ना चूसे कैसे आगे बढ़ सकती है. नील ने गन्ना तोड़ा और वे दोनों गन्ने का स्वाद लेने लगीं. गन्ने की मिठास से मन की कड़वाहट दूर हो गई. घर लौटने से पूर्व  उस ने प्राकृतिक सौंदर्य को कैद करने के लिए कैमरा औन किया ही था कि कुछ लोगों के चिल्लाने व एक औरत के भागने की आवाज सुनाई दी. उस ने नील की ओर देखा.

‘‘दीदी, यह औरत बालविधवा है. इस के देवर के घर बच्चा पैदा हुआ था. पर कुछ ही दिनों में वह मर गया. उस के देवर ने इसे यह कह कर घर से निकाल दिया कि यह डायन है, इसी ने उस के बच्चे को खा लिया है. तब से यह घरघर मांग कर खाती है और इधरउधर घूमती रहती है. बच्चे वाली औरतें तो इसे अपने पास फटकने भी नहीं देतीं. आज किसी बच्चे से अनजाने में टकरा गई होगी, जिस की वजह से इसे पीटा जा रहा है,’’ नील ने उस की जिज्ञासा शांत करने का प्रयत्न किया.

‘‘नील, क्या तुम्हें भी ऐसा लगता है कि यह डायन है?’’

‘‘नहीं दीदी, पर गांव के लोग ऐसा मानते हैं.’’

‘‘लोग नहीं, अशिक्षा उन के मुंह से यह कहलवा रही है. अगर ये शिक्षित होते तो ऐसा कभी नहीं कहते,’’ कहते हुए वह आगे बढ़ी तथा उस औरत को बचाने का प्रयत्न करते हुए अपने मन की बात उस ने लोगों से कही.

‘‘आप यहां की नहीं हो. आप क्या जानो इस की करतूतें,’’ एक गांववाला बोला.

‘‘भाई, यह एक इंसान हैं और एक इंसान के साथ ऐसा व्यवहार शोभा नहीं देता.’’

‘‘अगर इंसान होती तो बच्चों की मौत नहीं होती, 1-2 नहीं, पूरे 4 बच्चों को डस गई है यह डायन.’’

‘‘भाई, बच्चों की मृत्यु संयोग भी तो हो सकता है. किसी बेसहारा पर इस तरह के आरोप लगाना उचित नहीं है.’’ वह कुछ और कहने जा रही थी, तभी पीछे से किसी ने कहा,‘‘चलो भाई, चलो, ये बड़े ठाकुर साहब की पोती हैं. इन के मुंह लगना उचित नहीं है.’’ यह कह कर सब चले गए.

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दूसरी बार

आसमान से गिर कर खजूर में अटकना इसी को कहते हैं. गांव के एकाकी जीवन से ऊब कर अम्मां शहर आई थीं, किंतु यहां भी बोझिल एकांत उन्हें नागपाश की तरह जकड़े हुए था. लगता था, जहां भी जाएंगी वहां चुप्पी, वीरानी और मनहूसियत उन के साथ साए की तरह चिपकी रहेगी. गांव में कष्ट ही क्या था उन्हें? सुबह चाय के साथ चार रोटियां सेंक लेती थीं, उन के सहारे दिन मजे में कट जाता था. कोई कामधाम नहीं, कोई सिरदर्द नहीं. उलझन थी तो यही कि पहाड़ सा लंबा दिन काटे नहीं कटता था.

भूलेभटके कोई पड़ोसिन आ जाती तो कमर पर हाथ रख कर ठिठोली करती, ‘‘अम्मांजी को अपनी गृहस्थी से बड़ा मोह है. रातदिन चारपाई पर पड़ेपड़े गड़े धन की चौकसी किया करती हैं.’’

‘‘कैसा गड़ा धन, बहू?’’ वह उदासीन भाव से जवाब देतीं, ‘‘लेटना तो वक्त काटने का एक जरिया है. बैठेबैठे थक जाती हूं तो लेटी रहती हूं. लेटेलेटे थक जाती हूं तो उठ बैठती हूं.’’

पड़ोसिन सहानुभूति जताते हुए वहीं देहरी पर बैठ जाती, ‘‘जिंदगी का यही रोना है. जवानी में आदमी के पास काम ज्यादा, वक्त कम होता है. बुढ़ापे में काम कुछ नहीं, वक्त ही वक्त रह जाता है. बालबच्चे अपनी दुनिया में रम जाते हैं. बूढ़े मांबाप बैठ कर मौत का इंतजार करते हैं. उन में से अगर एक चल बसे तो दूसरे की जिंदगी दूभर हो जाती है. जब से बाबूजी गुजरे हैं, तुम्हारे चेहरे पर हंसी नहीं दिखाई दी. न हो तो कुछ दिन के लिए राकेश भैया के यहां घूम आओ. मन बदल जाएगा.’’

‘‘यही मैं भी सोचती हूं,’’ वह गंभीर भाव से सिर हिलातीं, ‘‘राकेश की चिट्ठी आई है कि वह अगले महीने आएगा. तभी उस से कहूंगी कि मुझे अपने साथ ले चले.’’

पर अम्मां को कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. राकेश खुद ही उन्हें साथ ले चलने के लिए आतुर हो उठा. वजह यह थी कि बेटे के सत्कार में मां ने बड़े चाव से भोजन बनाया था…दाल, चावल, रोटी, तरकारी और चटनी.

किंतु जब थाली सामने आई तो राकेश समझ नहीं सका कि इन में से कौन सी वस्तु खाने लायक है? दाल, चावल में कंकड़ भरे हुए थे. कांपते हाथों की वजह से कोई रोटी अफगानिस्तान का नक्शा बन गई थी तो कोई रोटी कम, डबलरोटी ज्यादा लग रही थी. तरकारी के नाम पर नमकीन पानी में तैरते आलू के टुकड़े थे. कुचले हुए आम में कहने भर के लिए पुदीना था.

अम्मां ने खुद ही अपराधी भाव से सफाई दी, ‘‘यह खाना कैसे खा सकोगे, बेटा? बुढ़ापे में न हाथपांव चलते हैं, न आंखों से सूझता है. अपने लिए जैसेतैसे चार टिक्कड़ सेंक लेती हूं. तुम्हारे लायक खाना नहीं बना सकी. आज तुम भूखे ही रह जाओगे.’’

‘‘खाना बहुत अच्छा बना है, अम्मां. सालों बाद तुम्हारे हाथ की बनी रोटी खाई तो पेट से ऊपर खा गया हूं,’’ राकेश ने आधा पेट खा कर उठते हुए कहा. उस ने मन ही मन फैसला भी कर लिया कि अम्मां को इस हालत में एक दिन भी अकेला नहीं छोड़ेगा.

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भावनाओं के जोश में उस ने दूसरा फैसला यह किया कि गांव का मकान बेच देगा. वह जानता था कि अगर मकान रहा तो अम्मां कुछ ही दिनों में गांव लौटने की जिद करेंगी. कांटा जड़ से उखड़ जाए तभी अच्छा है. सदा की संकोची अम्मां बेटे के सामने अपनी अनिच्छा जाहिर न कर सकीं. नतीजा यह हुआ कि 2 दिन में मकान बिक गया. तीसरे दिन गांव के जीवन को अलविदा कह कर अम्मां बेटे के साथ शहर चली आईं.

शहर आते ही पहला एहसास उन्हें यही हुआ कि गांव का मकान बेचने में जल्दबाजी हो गई है. बहू ने उन्हें देख कर जिस अंदाज में पांव छुए और जिस तरह मुंह लटका लिया, वह उन्हें बहुत खला. आखिर वह बच्ची तो थी नहीं. अनमने ढंग से किए जाने वाले स्वागत को पहचानने की बुद्धि रखती थीं. बच्चों ने भी एक बार सामने आ कर नमस्ते की औपचारिकतावश और फिर न जाने घर के किस कोने में समा गए.

बहू ने नौकर को हुक्म दिया, ‘‘अम्मांजी के लिए पीछे वाला कमरा ठीक कर दो. गुसलखाना जुड़ा होने के कारण वहां इन को आराम रहेगा. एक पलंग बिछा दो और इन का सामान वहीं पहुंचा दो. उस के बाद चाय दे आना. मैं लता मेम साहब के यहां किटी पार्टी में जा रही हूं.’’

बहू सैंडल खटखटाती हुई चली गई और वह भौचक्की सी सोफे पर बैठी रह गईं. कुछ देर बाद नौकर ने उन्हें उन के कमरे में पहुंचा दिया. एक ट्रे में चायनाश्ता भी ला दिया. अकेले बैठ कर चाय का घूंट भरते हुए उन्होंने सोचा, ‘क्या सिर्फ इसी चाय की खातिर भागी हुई यहां आई हूं?’

पर यह चाय भी अगली सुबह कहां मिल सकी थी? रात का खाना वह नहीं खातीं, यह बात बहू जानती थी. इसलिए उस ने शाम को खाने के लिए नहीं पुछवाया. कुछ और लेंगी, यह भी पूछने की जरूरत नहीं समझी.

वह इंतजार करती रहीं कि बहूबच्चों में से कोई न कोई उन के पास अवश्य आएगा, हालचाल पूछेगा पर निराशा ही हाथ लगी.

जब बहूबच्चों की आवाजें आनी बंद हो गईं और घर में सन्नाटा छा गया तो एक ठंडी सांस ले कर वह भी लेट गई. टूटे मन को उन्होंने खुद ही दिलासा दिया, ‘मुझे सफर से थका जान कर ही कोई नहीं आया. फुजूल ही मैं बात को इतना तूल दे रही हूं.’

सुबह  जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो वह बेचैन होने लगीं. मुंह अंधेरे उठ कर उन्होंने दैनिक कार्यों से छुट्टी पा ली थी. अब चाय की तलब उन्हें व्याकुल बना रही थी. दूर से आती चाय के प्यालों की खटरपटर जब सही न गई तो उन्होंने सोचा, ‘लो, मैं भी कैसी मूर्ख हूं. यहां बैठी चाय का इंतजार कर रही हूं. आखिर कोई मेहमान तो हूं नहीं. मुझे खुद उठ कर बालबच्चों के बीच पहुंच जाना चाहिए. यहां हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना कितना बेतुका है?’

बीच के कमरों को पार कर के वह खाने के कमरे में जा पहुंचीं. वहां बड़ी सी मेज के इर्दगिर्द बैठे बहूबच्चे चायनाश्ता कर रहे थे. राकेश शायद पहले ही खापी कर उठ चुका था. अम्मां को देख कर एकबारगी सन्नाटा सा खिंच गया. अगले ही पल बहू तमक कर उठते हुए बोली, ‘‘बुढ़ापे में जबान शायद ज्यादा ही चटोरी हो जाती है.’’

अम्मां समझ नहीं सकीं कि इस बात का मतलब क्या है? भौचक्की सी बहू का मुंह ताकने लगीं.

बहू ने तीखी आवाज में बात स्पष्ट की, ‘‘इन्हें दफ्तर जाने की जल्दी थी. बच्चों के स्कूल का समय हो रहा था. मैं जल्दीजल्दी सब को खिलापिला कर आप के पास चाय भेजने की सोच रही थी पर तब तक सब्र नहीं कर सकीं आप?’’

अम्मां फीकी हंसी हंसते हुए बोलीं, ‘‘ठीक कहती हो, बहू. अभी चाय के लिए कौन सी देर हो गई थी? मैं ही हड़बड़ी में बैठी न रह सकी.’’

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वह वापस अपने कमरे में लौट आईं. कुछ देर बाद नौकर एक गिलास में ठंडी चाय और एक तश्तरी में 2 जले हुए टोस्ट ले कर आ पहुंचा. जिस चाय के लिए वह इतनी आकुल थीं, वह चाय अब जहर का घूंट बन चुकी थी. बड़ी मुश्किल से ही अम्मां उसे गले से नीचे उतार सकीं. न चाहते हुए भी आंखों के सामने मेवे, फल और मिठाई से सजी हुई खाने की मेज बारबार घूम रही थी.

चाय पी कर गिलास रख रही थीं कि बेटा बड़े व्यस्त भाव से कमरे में आ कर बोला, ‘‘क्या हाल है, अम्मां? यहां आ कर अच्छा लगा तुम्हें?’’

‘‘हां, बेटा.’’

‘‘चायवाय पी?’’

‘‘पी ली.’’

‘‘मैं ने सुधा से कह दिया है कि तुम्हारे आराम का पूरा खयाल रखे. दोपहर के खाने में अपनी मनपसंद चीज बनवा लेना. मैं दफ्तर जा रहा हूं. शाम को देर से लौटूंगा. इस मशीनी जिंदगी में मुझे मिनट भर की फुरसत नहीं. तुम बिना किसी संकोच के अपनी हर जरूरत सुधा को बता देना.’’

‘‘ठीक है, बेटा,’’ वह प्लास्टिक के चाबी भरे बबुए की तरह नपेतुले शब्द ही बोल पाईं.

बस, दिनभर में सिर्फ यही बातचीत थी, जो किसी ने उन के साथ की. उस के बाद सारा दिन वह अकेली पड़ीपड़ी ऊबती रहीं. नौकर एक बार आ कर उन के कमरे में पानी से भरी सुराही रख गया. दोबारा आ कर उन्हें खाने की थाली दे गया.

उस के बाद कोई उन के कमरे में झांकने तक नहीं आया. सुबह का अनुभव इतना कड़वा था कि खुद उन की हिम्मत भी दोबारा बहूबच्चों के बीच जाने की नहीं हुई. बोझिल अकेलापन सांप की तरह उन को निरंतर डसता रहा.

वह पहली दफा बेटेबहू के यहां नहीं आई थीं. पहले भी तनु और सोनू के जन्म पर राकेश उन्हें लिवा लाया था. जिद कर के सालसालभर रोके रखा था. उस समय इसी बहू ने उन्हें हाथोंहाथ लिया था. इतना लाड़ लड़ाती थी कि अपनी सगी बेटी भी क्या दिखाएगी? दूध, फल, दवा हर चीज उन्हीं के हाथ से लेती थी. जरा देर होती नहीं कि ‘अम्मांअम्मां’ कह कर आसमान सिर पर उठा लेती थी.

राकेश हंस कर कहा करता था, ‘तुम ने इसे बहुत सिर चढ़ा रखा है, अम्मां. देखता हूं कि इस के सामने मेरी कदर घट गई है. यह पराए घर की लड़की तुम्हारी सगी हो गई है और मैं सौतेला हो गया हूं. इस चालाक बिल्ली ने सीधे मेरी दूध की हांडी पर मुंह मारा है,’ सुन कर वह भी हंस पड़ती थीं.

उन दिनों राकेश की आर्थिक स्थिति साधारण थी. घर में एक भी नौकर न था. अम्मां बहू की देखभाल करतीं, नवजात बच्ची को संभालती और घर की सारसंभाल करतीं. एक पांव बहू के कमरे में रहता था और एक रसोई में.

इन महारानी को तो बच्ची को झबला पहनाना तक नहीं आता था. बच्ची कपड़े भिगोती तो लेटेलेटे गुहार लगाती थीं, ‘अम्मांजी, जल्दी आना. अपनी नटखट पोती की कारस्तानी देखना.’

अब भी वही अम्मां थीं और वही बहूरानी. बदलाव आया था तो सिर्फ स्थितियों में. बहू अब हर महीने हजारों रुपए कमाने वाले अफसर की बीवी थी और अम्मां बूढ़ी व लाचार होने के कारण उस के किसी काम की नहीं रहीं. तभी तो घर के कबाड़ की तरह कोने में पटक दी गईं. अगर अब भी उन के बदन में अचार, मुरब्बे और बडि़यां बनाने की ताकत होती तो यह बहू अपनी मिसरी घुली आवाज में ‘अम्मांअम्मां’ पुकारते नहीं थकती.

अशक्त प्राणी को दया कर के परसी हुई थाली दे देती थी यही क्या कम था? पर बूढ़े आदमी की पेटभर रोटी के अलावा भी कोई जरूरत होती है, इसे बहू क्यों नहीं समझती? जिस अकेलेपन को भरने के लिए गांव छोड़ा, वही अकेलापन यहां भी कुंडली मार कर उन्हें अपनी गिरफ्त में लिए हुए था. इस वेदना को कौन समझता?

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अम्मां ठंडी सांस भर कर पलंग पर लेट जातीं. अपनेआप उन के कमरे में कोई नहीं आता. यदि वह उठ कर सब के बीच पहुंचतीं तो एकएक कर के सब खिसकने लगते. यों आपस में बहूबच्चे हंसते, कहकहे लगाते, पर अम्मां के आते ही सब को कोई न कोई काम जरूर याद आ जाता. सब के चले जाने पर वह अचकचाई हुई कुछ देर खड़ी रहतीं, फिर खिसिया कर अपने कमरे की तरफ चल पड़तीं.

पांव में जहर फैल जाने पर आदमी उसे काट कर फेंक देना पसंद करता है, लेकिन अम्मां तो बहूबच्चों के उल्लासभरे जीवन का जहर न थीं फिर क्यों घर वालों ने उन्हें विषाक्त अंग की भांति अलग कर दिया है, इसे वह समझ नहीं पाती थीं. वह इतनी सीधी और सौम्य थीं कि उन से किसी को शिकायत हो ही नहीं सकती थी.

बहू आधीआधी रात को पार्टियों से लौटती. तनु और सोनू अजीबोगरीब पोशाकें पहने हुए बाजीगर के बंदर की तरह भटकते. अम्मां कभी किसी को नहीं टोकतीं. फिर भी सब उन की निगाहों से बचना चाहते थे. हर एक की दिली ख्वाहिश यही रहती थी कि वह अपने कमरे से बाहर न निकलें. खानेपीने, नहानेधोने और सोने की सारी व्यवस्थाएं जब कमरे में कर दी गई हैं तो अम्मां को बाहर निकलने की क्या आवश्यकता है?

एक दिन अकेले बैठेबैठे जी बहुत ऊबा तो वह कमरे में झाड़ ू लगाने के लिए आए नौकर से इधरउधर की बातें पूछने लगीं, क्या नाम है? कहां घर है? कितने भाईबहन हैं? बाप क्या करता है?

उन का यह काम कितना निंदनीय था, इस का आभास कुछ देर बाद ही हो गया. बहू पास वाले कमरे में आ कर, ऊंची आवाज में उन्हें सुनाते हुए बोलीं, ‘‘जैसा स्तर है वैसे ही लोगों के साथ बातें करेंगी. नौकर के अलावा और कोई नहीं मिला उन्हें बोलने के लिए.’’

उत्तर में तनु की जहरीली हंसी गूंज गई. वह अपनी कुरसी पर पत्थर की तरह जड़ बैठी रह गई थीं.

गांव में भी अम्मां अकेली थीं, पर वहां यह सांत्वना थी कि सब के बीच पहुंचने पर एकाकीपन की यंत्रणा से मुक्ति मिल जाएगी. यहां आ कर वह निराशा के अथाह समुद्र में डूब गई थीं. रेगिस्तान में प्यासे मर जाना उतनी पीड़ा नहीं देता, जितना कि नदी किनारे प्यास से दम तोड़ देना.

गली का घर होता, सड़क के किनारे बना मकान होता तो कम से कम खिड़की से झांकने पर राह चलते आदमियों के चेहरे नजर आते. यहां अम्मां किसी सजायाफ्ता कैदी की तरह खिड़की की सलाखों के नजदीक खड़ी होतीं तो उन्हें या तो ऊंचे दरख्त नजर आते या फूलों से लदी क्यारियां. फिर भी वह खिड़की के पास कुरसी डाले बैठी रहती थीं. कम से कम ठंडी हवा के झोंके तो मिलते थे.

बैठेबैठे कुछ देर को आंखें झपक जातीं तो लगता जैसे बाबूजी पास खड़े कह रहे हैं, ‘सावित्री, उठोगी नहीं? देखो, कितनी धूप चढ़ आई है? चायपानी का वक्त निकला जा रहा है.’ चौंक कर आंखें खोलते ही सपने की निस्सारता जाहिर हो जाती. बाबूजी अब कहां, याद आते ही मन गहरी पीड़ा से भर उठता.

झपकी लेते हुए अम्मां खीझ जातीं, ‘ओह, यह बाबूजी इतना शोर क्यों कर रहे हैं? चीखचीख कर आसमान सिर पर उठाए ले रहे हैं. क्या कहा? राकेश ने दवात की स्याही फैला दी. अरे, बच्चा है. फैल गई होगी स्याही. उस के लिए क्या बच्चे को डांटते ही जाओगे? बस भी करो न.’

चौंक कर जाग उठीं अम्मां. बाबूजी की नहीं, यह तो खिड़की के नीचे भूंकते कुत्तों की आवाज है. वह हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुईं और ‘हटहट’ कर के कुत्तों को भगाने लगीं. बुढ़ापे के कारण नजर कमजोर थी. फिर भी इतना मालूम पड़ गया कि किसी कमजोर और मरियल कुत्ते को 3-4 ताकतवर कुत्ते सता रहे हैं. शायद धोखे से फाटक खुला ही रह गया होगा, तभी लड़ते हुए भीतर घुस आए थे.

इधरउधर देख कर अम्मां ने मच्छरदानी का डंडा निकाला और उसे खिड़की की सलाखों से बाहर निकाल कर भूंकते हुए कुत्तों को धमकाने लगीं. काफी कोशिश के बाद वह सूखे मरियल कुत्ते को आतताइयों के शिकंजे से बचा सकीं.

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हमलावरों के चले जाने पर चोट खाया हुआ कमजोर कुत्ता वहीं हांफता हुआ बैठ गया और कातर निगाहों से अम्मां की ओर देखने लगा. सब ओर से दुरदुराया हुआ वह कुत्ता उन से शरण की भीख मांग रहा था. इस गंदे, घिनौने, जख्मी और मरियल कुत्ते पर अनायास ही अम्मां सदय हो उठीं. वह खुद क्या उस जैसी नहीं थीं? बूढ़ी, कमजोर, उपेक्षिता और सर्वथा एकाकी. तन चाहे रोगी न था, पर मन क्या कम जख्मी और लहूलुहान था?

दोपहर को जब नौकर खाना लाया तो अम्मां ने बड़े प्यार से उस घायल कुत्ते को 2 रोटियां खिला दीं. भावावेश के न जाने किन क्षणों में नामकरण भी कर दिया ‘झबरा.’ झड़े हुए रोएं वाले कुत्ते के लिए यह नाम उतना ही बेमेल था, जितना किसी भिखारी का करोड़ीमल. पर अम्मां को इस असमानता की चिंता न थी. उन की निगाह एक बार भी कुत्ते की बदसूरती पर नहीं गई.

अम्मां अब काफी संतुष्ट थीं, प्रसन्न थीं. उन्हें लगता, जैसे अब वह अकेली नहीं हैं. झबरा उन के साथ है. झबरा को उन की जरूरत थी. दोएक दिन उन्हें उस के भाग जाने की चिंता बनी रही. पर धीरेधीरे यह आशंका भी मिट गई. झबरा के स्नेह दान ने अम्मां के बुझते हुए जीवन दीप की लौ में नई जान डाल दी थी.

पर घर वालों को उन का यह छोटा सा सुख भी गवारा नहीं हुआ.

एक दिन बहू तेज चाल से चलती हुई कमरे में आई और खिड़की के पास जा कर नाक सिकोड़ते हुए बोली, ‘‘छि:, कितना गंदा कुत्ता है. न जाने कहां से आ गया है. चौकीदार को डांटना पड़ेगा. उस ने इसे भगाया क्यों नहीं?’’

‘‘अम्मांजी का पालतू कुत्ता है जी. अब तो चुपड़ी रोटी खाखा कर मोटा हो गया है,’’ पीछे खड़े हुए नौकर ने पीले गंदे दांतों की नुमाइश दिखा दी.

‘‘बेशर्म, सड़क के लावारिस कुत्ते को हमारा पालतू कुत्ता बताता है. हमें पालना ही होगा तो कोई बढि़या विदेशी नस्ल का कुत्ता पालेंगे. ऐसे सड़कछाप कुत्ते पर तो हम थूकते भी नहीं हैं,’’ बहू रुष्ट स्वर में बोली.

अगले ही पल उस ने नौकर को नादिरशाही हुक्म दिया, ‘‘देखो, अंधेरा होने पर इस कुत्ते को कहीं दूर फेंक आना. इसे बोरी में बंद कर के ऐसी जगह फेंकना, जहां से दोबारा न आ सके.’’

बहू जिस अफसराना अंदाज से आई थी वैसे ही वापस चली गई.

अम्मां ने बड़े असहाय भाव से खिड़की की ओर देखा. न जाने क्यों उन का जी डूबने लगा.

पिछले साल बाबूजी के मरते समय भी उन्हें ऐसी ही अनुभूति हुई थी. लगा था, जैसे इतनी बड़ी दुनिया में अनगिनत आदमियों की भीड़ होने पर भी वह अकेली रह गई हैं.

अकेलेपन का वही एहसास इस समय अम्मां को हुआ. उन्होंने खुद को धिक्कारा, ‘छि:, कितनी ओछी हूं मैं? बेटे, बहू और चांदसूरज जैसे 2 पोतीपोते के रहते हुए मैं अकेली कैसे हो गई? यह मामूली कुत्ता क्या मुझे अपने बच्चों से भी ज्यादा अजीज है?’

पर खुद को धोखा देना आसान न था. अकेलेपन की भयावहता से आशंकित मन दूसरी बार दहशत से भर गया. पिछले साल बाबूजी के चिर बिछोह पर वह रोई थीं. हालांकि तब से मन बराबर रोता रहा था, पर आज भी आंखें दूसरी बार छलछला उठीं.

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सौत से सहेली: भाग 1- क्या शिखा अपनी गृहस्थी बचा पाई

लेखिका-दिव्या साहनी

नीरजाने शिखा को अपने घर के गेट के पास कार से उतरते देखा तो उस की मुट्ठियां कस गईं. उन का घर दिल्ली की राजौरी गार्डन कालोनी में था जहां पुराने होते हुए मकानों में से कुछ को तोड़ कर नए फ्लोर बना कर बेचे जा रहे थे और सड़क पर आ जा रहे लोगों को पहली मंजिल से आराम से देखा जा सकता था. आजकल सड़कों पर सन्नाटा सा ज्यादा रहता है, इसलिए शिखा को कार से उतरते ही नीरजा ने देख लिया.

‘‘आजकल तेरे पति और शिखा के बीच चल रही आशिकी की औफिस में खूब चर्चा

हो रही है. तुम जल्दी से कुछ करो, नहीं तो

एक दिन पछताओगी,’’ अपने पति राजीव की सहयोगी आरती की इस चेतावनी को नीरजा पिछले 15 दिनों से लगातार याद कर रही थी.

राजीव की इस प्रेमिका से नीरजा 3 दिन पहले एक समारोह में मिली थी. वहीं पर बड़ा अपनापन जताते हुए नीरजा ने शिखा को अपने घर रविवार को लंच पर आने का निमंत्रण दिया था.

शिखा के लिए दरवाजा खोलने से पहले उस ने घर का मुआयना किया. सोफा चमचमा रहा था. सौफे पर मैचिंग कुशन तरतीब से लगे थे. दीवारों पर महंगी तो नहीं पर सुंदर पेंटिंग्स थीं. एसी चल रहा था और उस ने पंखा बंद कर रखा था ताकि कोई आवाज पंखें की घरघर में दब न जाए. वह जानती थी कि उसे आज क्या करना है.

शिखा की बेचैनी भरे सहमेपन को नीरजा ने दूर से ही भांप लिया था. घंटी का बटन दबाने से पहले शिखा को बारबार हिचकिचाते देख वह मुसकराई और फिर से दरवाजा खोलने चल पड़ी.

राजीव नहाने के बाद शयनकक्ष में तैयार हो रहा था. अपने दोनों बेटों सोनू और मोनू को नीरजा ने कुछ देर पहले पड़ोसिन अंजु के बच्चों के साथ खेलने भेज दिया था.

‘‘कितनी सुंदर लग रही हो तुम,’’ खुल

कर मुसकरा रही नीरजा दरवाजा खोलेते ही यों शिखा के गले लगी मानो दोनों बहुत पक्की सहेलियां हों.

‘‘थैंक यू,’’ जवाबी मुसकान फौरन होंठों पर सजा कर शिखा ने ड्राइंगरूम में नजरें घुमाईं और फिर प्रशंसाभरे स्वर में कहा, ‘‘बहुत अच्छ सजा रखा है ड्राइंगरूम को.’’

‘‘थैंक यू, डियर वैसे तुम्हारे कारण कमरे की सुंदरता को चार चांद लग गए हैं.’’

‘‘आप कुछ…’’

‘‘‘आप’ नहीं ‘तुम’ बुलाओ मुझे तुम, शिखा. मेरा नाम ले सकती हो तुम,’’ नीरजा ने उसे प्यार से टोक दिया.

‘‘ओ.के. मैं कह रही थी कि तुम कुछ ज्यादा ही मेरी तारीफ कर रही हो. मेरे हिसाब से तो तुम मुझ से ज्यादा सुंदर हो.’’

‘‘अरे यार, हम शादीशुदा औरतों की सुंदरता में वह कशिश कहां जो तुम कुंआरियों में होती है. देखो, मेरा कोई आशिक नहीं है और तुम्हारे चाहने वालों की पक्का एक लंबी लिस्ट होगी.’’

‘‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है,’’ शिखा के मन की बेचैनी फौरन उस की आंखों से झांकने लगी थी.

नीरजा के जवाब देने से पहले ही राजीव ड्राइंगरूम में आ गया. उस ने शिखा का अभिवादन किया. नीरजा दोनों की नजरों को

पढ़ रही थी. परस्पर आकर्षण को छिपाने का प्रयास दोनों को करते देख वह मन ही मन हंस पड़ी ‘‘राजीव देखे तो शिखा मान नहीं रही है कि वह मुझ से कहीं ज्यादा सुंदर है. आप उसे इस बात का विश्वास दिलाओ. तब तक मैं चायनाश्ता तैयार कर लाती हूं,’’ नीरजा ने शिखा का कंधा बड़े प्यार से दबाया और फिर मुसकराती हुई रसोई की तरफ बढ़ चली.

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नीरजा की मुसकराहट को देख कर कोई कह नहीं सकता था कि वह अपने पति की प्रेमिका के प्रति अपने मन में रत्तीभर भी वैरभाव रखती होगी.

उसे चायनाश्ता तैयार करने में करीब

15 मिनट लगते पर उस ने जानबूझ कर कुछ ज्यादा ही देर लगाई ताकि वह राजीव और शिखा को परेशान होने दे. अंदर ड्राइंगरूम में राजीव और शिखा औफिस से संबंधित वार्त्तालाप कर रहे थे पर केवल दिखाने भर के लिए.

अचानक किचन से कई कपप्लेटों के टूटने की तेज आवाज सुन दोनों चौंक कर खड़े हो गए.

‘‘हाय, मर गई रे,’’ नीरजा की दर्द में डूबी आवाज भी जब दोनों के कानों तक पहुंची, तो लगभग भागते हुए रसोई की तरफ बढ़े.

बरामदे में कपप्लेटों के टुकड़े, चाय व नाश्ता फर्श पर बिखरा पड़ा था. फर्श पर गिरी नीरजा अपने बांएं घुटने को पकड़े कराह रही थी.

‘‘क्या हुआ?’’ नीरजा के पास बैठ कर राजीव ने चिंतित लहजे में सवाल किया.

‘‘पैर फिसल गया मेरा… बहुत दर्द है घुटने में,’’ नीरजा की लाल हो रही आंखों से आंसू बह रहे थे.

‘‘चलो, कमरे में चलो,’’ राजीव उस के कंधों को सहारा दे कर उसे उठाने की कोशिश करने लगा.

‘‘अभी नहीं उठ सकती हूं मैं. शिखा, तुम फ्रिज से बर्फ निकाल लाओ, प्लीज… हाय रे…’’ नीरजा जोर से कराही.

शिखा भागती हुई बर्फ लाने रसोई में चली गईर्. राजीव उसे हौसला रखने के लिए कह रहा था, पर नीरजा रहरहकर जोर से करा उठती.

बर्फ ला कर शिखा ने नीरजा के घुटने की ठंडी सिंकाई शुरू कर दी. राजीव फर्श की सफाई करने लग गया.

‘‘कुछ आराम पड़ रहा है?’’ कुछ देर बाद चिंतित शिखा ने प्रश्न किया तो नीरजा रो ही पड़ी.

‘‘दर्द के मारे मेरी जान निकली जा रही है, शिखा. आई एम सो सौरी… तुम्हारी खातिर करने के बजाय मैं ने तो तुम्हें इस झंझट में फंसा दिया,’’ नीरजा ने शिखा से माफी मांगी.

‘‘अरे, इंसान ही इंसान के काम आता है, नीरजा. क्या तुम बैडरूम तक चल सकोगी

सहारे से?’’ शिखा हौसला बढ़ाने वाले अंदाज

में मुसकराई.

‘‘नहीं, दर्द बहुत ज्यादा है. सुनिए, आप डाक्टर राजेश को फोन करो कि वे ऐंबुलैंस भेज दें. मुझे विश्वास है कि मेरी घुटने हड्डी जरूर ही टूटी या खिसक गई है. घुटने का ऐक्सरे होना जरूरी है… हाय रे… पता नहीं करोना के बाद इन अस्पतालों का क्या हाल होगा.’’

राजीव ने और्थोपैडिक सर्जन डाक्टर राजेश से मोबाइल पर बात करी. उन्होंने फौरन ऐंबुलैंस भेजने का वादा किया.

करीब 30 मिनट के बाद स्ट्रैचर पर लेटी नीरजा ऐंबुलैंस से डाक्टर राजीव के नर्सिंगहोम पहुंच गई. शिखा उस के साथ आईर् थी जबकि राजीव उन के पीछे अपनी कार से नर्सिंगहोम पहुंचा.

डाक्टर राजेश की फिजियोथेरैपिस्ट मीनाक्षी से नीरजा की पुरानी

जानपहचान थी. अपने कमर का दर्द दूर करने के लिए 6 महीने पहले नीरजा 3 सप्ताह के लिए उस की देखभाल में रही थी.

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मीनाक्षी ने जांचपड़ताल हो जाने के बाद डाक्टर राजेश के कक्ष से बाहर आ कर उन दोनों को बताया, ‘‘हड्डी खिसक जाने के कारण घुटने के जोड़ पर सूजन आ गई है. पूरे 3 हफ्ते का प्लस्तर चढ़ेगा. नीरजा को इतने समय तक बिस्तर में पूरा आराम करना होगा.’’

यह सुन कर राजीव चिंतित हो उठा. उस ने पहले अपनी मां को मेरठ फोन किया तो पता लगा कि वे उस के छोटे भाई के पास रहने मुंबई गई हुई हैं.

अपनी सास को कानपुर फोन किया तो मामूल पड़ा कि उस के ससुर की 2 दिन बाद ऐंजयोग्राफी होनी है. वे वर्षों से उच्च रक्तचाप के मरीज हैं और पिछले दिनों से उन की छाती में दर्द कुछ ज्यादा ही रहने लगा था.

राजीव ने सुस्त स्वर में जब यह समाचार कुछ देर बाद नीरजा को सुनाया तो उस ने फौरन शिखा का हाथ पकड़ कर उस से प्रार्थना करी, ‘‘शिखा, क्या तुम इस कठिन समय में  मेरा साथ दोगी? मेरा दिल कह रहा है कि मुझे अपनी इस छोटी बहन के होते हुए किसी भी बात की फिक्र करने की जरूरत नहीं है.’’

‘‘श्योर, नीरजा. मैं संभाल लूंगी सब.

बस, तुम जल्दी से ठीक हो जाओ,’’ शिखा ने उत्साहित लहजे में नीरजा को आश्वस्त किया

तो भावविभोर हो नीरजा ने बारबार उस का हाथ चूम डाला.

अपने प्रेमी राजीव की पत्नी की ‘गुड बुक्स’ में आने की खातिर शिखा ने उस क्षण से नीरजा की घरगृहस्थी की अच्छी देखभाल करने का बीड़ा उठा लिया. वह यह सोचसोच कर प्रसन्न हो उठती कि आगामी कुछ दिनों तक उसे राजीव के करीब रहने के भरपूर अवसर प्राप्त होंगे.

अपने पैर पर प्लस्तर चढ़वा कर नीरजा ऐंबुलैंस से करीब 3 घंटे बाद घर पहुंच गई. सारे समय शिखा उस के पास रुकी थी.

‘‘तुम स्वभाव से कितनी अच्छी हो, शिखा. मैं तुम्हारे इन एहसानों का बदला कभी नहीं उतार आऊंगी,’’ आभार प्रकट करने वाले ऐसे वाक्यों को बोलते हुए नीरजा की जबान बिलकुल थक नहीं रही थी.

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कटु सत्य: भाग 2- क्या हुआ था छवि के साथ

छवि ने उस औरत को अपने हाथ में पकड़ा गन्ने का टुकड़ा देना चाहा पर वह औरत, ‘‘मैं डायन नहीं हूं, डायन नहीं हूं. मैं बड़े ठाकु र को नहीं छोड़ूंगी,’’ कहते हुए भाग कर झाडि़यों में छिप गई. उस के चेहरे पर डर स्पष्ट नजर आ रहा था.

‘बड़े ठाकुर को नहीं छोड़ूंगी,’ ये शब्द छवि के दिल पर हथौडे़ की तरह प्रहार कर रहे थे. उस ने नील की तरफ देखा. वह इस सब से बेखबर गन्ना चूस रही थी.

उस औरत की बातें तथा गांव वालों का व्यवहार देख कर वह समझ नहीं पा रही थी कि लोगों के मन में दादाजी के प्रति डर उन के प्रति सम्मान के कारण है या उन के आंतक के कारण. दादाजी गांव के सर्वेसर्वा हैं. लोग कहते हैं उन की मरजी के बिना इस गांव में एक पत्ता भी नहीं हिलता. तो क्या दादाजी का इन सब में हाथ है. अगर दादाजी न्यायप्रिय होते तो न छोटी दादी के साथ ऐसी घटना घटती और न ही लोग उस औरत को डायन कह कर मारतेपीटते. अजीब मनोस्थिति के साथ वह घर लौटी. मन की बातें मां से करनी चाही पर वे ताईजी के साथ विवाह की तैयारियों में इतना व्यस्त थीं कि बिना सुने ही कहा, ‘‘मैं बहुत व्यस्त हूं. कुछ चाहिए तो जा शिखा या नील से कह, वे दिलवा देंगी. शिखा के मेहंदी लगने वाली है, तू भी नीचे आ जा.’’

मां की बात मान कर वह नीचे आई. मेहंदी की रस्म चल रही थी. वह कैमरा औन कर वीडियो बना रही थी. तभी एक आदमी की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘माईबाप, मेरे बेटे को क्षमा कर दीजिए, वे उसे फांसी देने वाले हैं.’’

‘‘तेरे बेटे ने काम ही ऐसा किया है. उसे यही सजा मिलनी चाहिए जिस से दूसरे लोग सबक ले सकें और दोबारा इस गांव में ऐसी घटना न हो,’’ दादाजी कड़कती आवाज में बोले.

‘‘माईबाप, सूरज की कोई गलती नहीं थी. वह तो कल्लू की बेटी ने उसे फंसा लिया. इस बार उसे क्षमा कर दीजिए, आगे वह कोई ऐसा काम नहीं करेगा.’’

‘‘सिर्फ उसे ही नहीं, कल्लू की बेटी को भी फांसी देने का फैसला पंचायत सुना चुकी है. मैं उस में कोई फेरबदल कर समाज को गलत संदेश नहीं देना चाहता.’’ इतना कह कर दादाजी अंदर चले गए औैर वह आदमी वहीं सिर पटकने लगा. नौकर लोग उसे घसीट कर बाहर ले जाने लगे.

पूरा परिवार मूकदर्शक बना पूरी घटना देख रहा था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर उस आदमी के लड़के ने किया क्या है जो वह आदमी, दादाजी से अपने पुत्र का जीवनदान मांग रहा है. तभी बूआजी का स्वर गूंजा, ‘‘लड़कियो, रुक क्यों गईं, अरे भई, नाचोगाओ. ऐसा मौका बारबार नहीं आता. ’’

इतनी संवेदनहीनता, ऐसा आचरण वह भी गांव के लोगों का, जिन के  बारे में वह सदा से यही सुनती आई है कि गांव में एक व्यक्ति का दुख सारे गांव का दुख होता है. उसे लग रहा था कैसे हैं इस गांव के लोग, कैसा है इस गांव का कानून जो एक प्रेमी युगल को फांसी पर लटकाने का आदेश देता है. इस को रोकने का प्रयास करना तो दूर, कोई व्यक्ति इस के विरुद्ध आवाज भी नहीं उठाता मानो फांसी देना सामान्य बात हो.

जब उस से रहा नहीं गया तब वह नील का हाथ पकड़ कर उसे अपने कमरे में ले आई. इस पूरे घर में एक वही थी जो उस के प्रश्न का उत्तर दे सकती थी. कमरे में पहुंच कर छवि ने उस से प्रश्न किया तब नील ने उस का आशय समझ कर उस का समाधान करने का प्रयास करते हुए कहा, ‘‘दीदी, गांव में हम सब एक परिवार की तरह रहते हैं, उस आदमी के बेटे ने इस गांव की ही एक लड़की से प्रेम किया तथा उस के साथ विवाह करना चाहता था. उन का गोत्र  एक है. एक ही गोत्र में विवाह करना हमारे समाज में वर्जित है. उसे पता था कि उन के प्यार को गांव वालों की मंजूरी कभी नहीं मिल सकती. सो, उन दोनों ने भागने की योजना बनाई. इस का पता गांव वालों को लग गया. पंचायत ने दोनों को मौत की सजा सुना दी. अगर दादाजी चाहते तो वे बच सकते थे पर दादाजी गांव के रीतिरिवाजों के विरुद्ध नहीं जाना चाहते हैं.’’

नील ने जो कहा उसे सुन कर उस के रोंगटे खड़े हो गए. भावनाओं पर अंकुश न रख पाई और कहा, ‘‘गांव वाले कानून अपने हाथ कैसे ले सकते हैं, दादाजी ने पुलिस को क्यों नहीं बुलाया?’’

‘‘दीदी, हमारे गांव में पुलिस का नहीं, दादाजी का शासन चलता है. कोई कुछ नहीं कर सकता.’’

‘‘दादाजी का शासन, क्या दादाजी इस देश के कानून से ऊपर हैं?’’

‘‘यह तो मैं नहीं जानती दीदी, पर दादाजी की इच्छा के विरुद्ध हमारे गांव का एक पत्ता भी नहीं हिलता.’’

‘‘अरे, तुम दोनों यहां बैठी गपशप कर रही हो. नीचे तुम्हें सब ढूंढ़ रहे हैं,’’ ताईजी ने कमरे में झांकते हुए कहा.

‘‘चलो दीदी, वरना डांट पड़ेगी,’’ सकपका कर नील ने कहा.

 

छवि उस के पीछे खिंची चली गई. शिखा को मेहंदी लगाईर् जा रही थी. कुछ औरतें ढोलक पर बन्नाबन्नी गा रही थीं. सब को हंसतेगाते देख कर उसे लग रहा था कि वह भीड़ में अकेली है. गाने की आवाज के साथ हमउम्र लड़कियों को थिरकते देख उस के भी पैर थिरकने को आतुर हो उठे थे पर मन ने साथ नहीं दिया.

अवसर पा कर मन की बात मां से की तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, यह गांव है, यहां के रीतिरिवाज पत्थर की लकीर की तरह हैं. यहां हमारा कानून नहीं चलता.’’

‘‘तो क्या दबंगों का राज चलता हैं?’’ तिक्त स्वर में छवि ने कहा.

‘‘चुप रह लड़की, मुंह बंद रख. अगर तेरे दादाजी ने तेरी बात सुन ली या किसी ने उन तक पहुंचा दी तो तुझे अंदाजा भी नहीं है कि हम सब के साथ कैसा व्यवहार होगा?’’

‘‘मां, क्या इसी डर से सब उन की गलत बात का भी समर्थन करते रहें.?’’

‘‘नहीं बेटा, वे बड़े हैं, उन्होंने दुनिया देखी है. वे जो कर रहे हैं वही शायद गांव के लिए उचित हो,’’ मां ने स्वर में नरमी लाते हुए कहा.

‘‘मां कहने को तो हम 21वीं सदी में पहुंच चुके हैं पर 2 प्यार करने वालों को इतनी बेरहमी से मृत्युदंड?’’

‘‘बेटा, मैं मानती हूं यह गलत है, लेकिन जिन बातों पर हमारा वश नहीं, उन के बारे में  सोचने से कोई लाभ नहीं.’’

‘‘मां, बात हानिलाभ की नहीं, उचितअनुचित की है.’’

‘‘कहां हो छवि की मां, शिखा का सूटकेस पैक करा दो,’’ ताईजी की आवाज आई.

‘‘आई दीदी,’’ कह कर मां शीघ्रता से चली गईं.

उस के प्रश्नों का उत्तर किसी के पास नहीं है, विचारों का झंझावात उस का पीछा नहीं छोड़ रहा था. पहले सती दादी, फिर डायन और अब यह खाप पंचायत का फैसला, कहीं तो कुछ गलत हो रहा है जिसे उस का मासूम मन पचा नहीं पा रहा था. मन की शांति के लिए वह अकेली ही मंदिर की ओर चल दी.

आगे पढ़ें- आवाज सुन कर उस ने पलट कर देखा तो…

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