पुरसुकून की बारिश : मायके के कारण जब बर्बाद हुई बेटी की शादीशुदा गृहस्थी

पूरे 2 वर्षों के बाद उसे देखा, सरेराह, भीड़ भरे बाजार में, रोमरोम से मानो आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा था. बमुश्किल नयनों के कोरों पर उन्हें सहेजा. पिछली बार जब मिली थी, उसे दो बोल धन्यवाद के फूल भी अर्पित नहीं कर पाई थी. कितना एहसान था उस का मुझ पर. कालेज से लौट रही थी, जैसे ही गली की नुक्कड़ पर सहेली के अपने घर मुड़ने पर अकेली हुई थी कि इंसानी खाल में छिपे कुछ दरिंदों ने हमला कर दिया था. इस से पहले कि उन के नाखून मेरी अस्मिता को क्षतविक्षत करते, जाने कहां से यह रक्षक प्रकट हुआ था.

जहां अकेली नारी का बल कौडि़यों का मोल होता है वहीं एक पुरुष की उपस्थिति उसे दस हाथियों का बल दे जाती है. हुआ भी यही, उस के आते ही सभी नरपिशाच अपने पंजे समेट अदृश्य हो गए. जब दुपट्टा खींचा गया, किसी ने नहीं देखा, पर जब उसे ओढ़ाया गया, लोगों ने देख लिया. उस के नाम से मैं अपने दकियानूसी परिवार में बदनाम हो गई. जिस की हिम्मत और नेकदिली की ढाल ने परिवार की बेटी के स्वाभिमान की रक्षा की थी, उसी ढाल को गलत समझा गया.

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बड़ी मुश्किल से मां को सारा हाल बताया था. मां ने मेरे होंठों पर चुप्पी का ताला टांग ताकीद की कि यदि गली वाली बात का जिक्र घर में किया तो कल से ही पढ़ाई रोक दी जाएगी. बिना किसी गुनाह के अगले दिन से गुनाहगारों सरीखी सिर झुकाए कालेज जाना अनवरत चलता रहा. कभी 7 वर्षीय भाई मेरा अंगरक्षक बनता तो कभी 80 वर्षीया दादी.

हां, एक साया था जो बिला नागा, मेरा हमसाया बना चलता था. कभी नजरें भी नहीं मिलती थीं पर मालूम रहता था कि वह है. उस के होने का एहसास मात्र ही मुझे अगले कुछ महीने कालेज जाने और परीक्षा देने की हिम्मत देता रहा. नहीं जानती कि उस के लिए मेरा क्या महत्त्व था पर वह तो मेरे लिए कुछ खास ही था, जिस की उपस्थिति मात्र की परिकल्पना मुझे उन भेडि़यों व नरपिशाचों के बीच से गुजरने का हौसला देती थी.

बहरहाल, येनकेनप्रकारेण स्टडी सैशन पूरा किया, आती गरमी में मेरी शादी करा दी गई. अब गायबकरियों या भेड़ों से राय तो ली नहीं जाती है, सो मुझ से पूछने का तो कोई औचित्य ही नहीं था. सुन रही थी बड़ा ही भरापूरा परिवार है. पति का बहुत बड़ा कारोबार है. काफी संपन्न लोग हैं. रोका की रस्म के वक्त एक बड़े भारी जरीदार दुपट्टे से लंबा घूंघट कर एक वजनी सतलड़ा हार को गले में डाल दिया गया. इसी पगहे को पकड़ मायके के खूंटे से खोल ससुराल के खूंटे में बांध दी गई.

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यों कहा जाए कि एक जेल से दूसरे जेल में शिफ्ंिटग हो गई. मायके में भी सिर झुका जमीन ताकती ही चलती थी, यहां भी घूंघट से बस उतनी ही धरती दिखती थी जहां अगला पग रखना होता था. सुना था आसमान का रंग नीला होता है पर मैं ने तो आज तक कभी देखा ही नहीं था.

नए परिवार में सामंजस्य बैठाने में कोई खास समस्या नहीं आई क्योंकि बचपन से बस यही तो सिखाया गया था कि जब शादी हो, अपने घर जाऊंगी तो कैसे तालमेल बैठाना है. बस, एक बात खटकती थी, घर के पुरुषों की नीयत. मुझे हर वक्त लगता जैसे आज भी मायके की उन्हीं गलियों से कालेज जा रही हूं. हर वक्त देवर का स्पर्श गलत जगह हो जाना अनायास तो नहीं था. मानसिक रूप से अविकसित कुंआरे जेठ की लोलुपता से बचना दिनोंदिन दूभर हो रहा था. फिर सास का बारबार मुझे गाहेबगाहे बिना मतलब जेठजी के पास भेजना, अब मुझे खटकने लगा था. घर में हर वक्त लगता मैं किसी दोधारी तलवार पर चल रही थी. आज बच भी गई तो जाने कल क्या होगा.

मेरे पति का घर में बड़ा रोब था. उन के आते सब पलकपांवड़े बिछा शालीनता की प्रतिमूर्ति बन जाते. पर उन के रोब तले मेरा दम घुटता था. हमारा आपसी संबंध मित्रवत न हो कर दासी और मालिक का होता था.

मैं ने कई बार बताना चाहा कि आज देवर की दृष्टता सीमा लांघ गई या सास ने उसी वक्त मुझे जेठ के पास जाने को मजबूर किया जब वे नहा रहे थे. पर मेरे अतिसफल समृद्घ कारोबारी पति के लिए ये सारी बातें मेरी कपोलकल्पना थीं. मैं हर दिन उन गंदी कामुक निगाहों से दोचार होती, बचतीबचाती एकएक दिन काटती. इतने सफल, समृद्ध पति के होते हुए भी मुझे पुरसुकून मयस्सर नहीं था.

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उन दिनों 2 बातें हुई, एक अच्छी और एक बुरी. मैं मां बनने वाली हूं, यह मेरे लिए एक बड़ी खुशी की बात थी. नन्हे की आहट ने मुझे फिर से उसी बल से समृद्ध कर दिया जो मुझे कालेज जाते वक्त उस अनजान हमसाए से मिलती थी. एक नवीन ऊर्जा और बल से संचारित मैं, अनचाहे स्पर्शों को झटकने और कामुक नजरों को आंखें दिखाने का साहस करने लगी. मेरे बदलते अंदाज जाने किनकिन लांछनों के साथ नमकमिर्च छिड़क मेरे पति को परोसे जाने लगे. पति नाम का वह महान, बलशाली व्यक्तित्व न पहले मेरा था, न अब. उस के समक्ष मेरी हैसियत तुच्छ थी.

दूसरी बुरी बात यह हुई कि मेरे मायके में विभिन्न कारणों से द्वेष और कलह की अग्नि भड़क गई. उस की आंच से मैं भी अछूती नहीं रह पाई. यह उन दिनों की बात थी, जब मेरे बेटे के जन्म को अभी 2 महीने ही हुए थे और उस दिन मैं खुद को एक अर्धविकसित मानसिक पुरुष के पाश्विक पंजों से आजाद नहीं कर पाई थी.

पर गोद के बालक के बल से संचारित ऊर्जावान मैं ने इस बात पर बहुत कुहराम मचाया. मूक गुडि़या की जबान उस दिन देख सभी चकित थे. दुख इसी बात का था कि मेरे भगवान, मेरे देव, मेरे पतिदेव ने एक रहस्यमय चुप्पी लगा ली थी.

इस बीच, मायके में रिश्तों के बीच घमासान हुआ और आग लग गई मेरी गृहस्थी में. ताऊ के बेटे ने मेरे पति के जाने क्या कान भरे कि बीच आंगन में मेरे बेटे की वैधता को फिर उस के नाम से कलंकित किया गया, उसी के नाम से जिसे 2 सालों से देखा भी नहीं था.

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सीता, अहल्या के बाद अब मेरी बारी थी. गृह निष्कासन की सजा सुनाई गई थी. आज फिर इज्जत की चीथड़ों में लिपटी मैं जीवन के मुहाने पर खड़ी थी कि वह दिख गया. अपने आंसुओं को तो मैं ने जज्ब कर लिया पर उसी वक्त कुदरत मूसलाधार बारिश के रूप में बिलख पड़ी. दीवार की ओट में बेटे को गोद में लिए बारिश से बचने का प्रयास विफल साबित हो रहा था कि अचानक भीगना बंद हो गया. दरअसल, वह छतरी थामे, खुद भीगता, मुझे बचा रहा था. उस के एहसानों की बारिश तले मैं सुकूनमंद हो, नयनों से मोती लुटाने लगी.

सौत से सहेली: भाग 2- क्या शिखा अपनी गृहस्थी बचा पाई

लेखिका-दिव्या साहनी

उस दिन नीरजा ने छोलेभूठूरे बनाने की तैयारी करी हुई थी. चोट लगने से पहले छोले उस ने तैयार कर लिए थे. अब भठूरे बनाने की जिम्मेदारी शिखा के ऊपर आ पड़ी.

‘‘मैं ने अपनी मम्मी के साथ मिल कर ही हमेशा भठूरे बनवाए हैं. पता नहीं आज अकेले बनाऊंगी, तो कैसे बनेंगे,’’ शिखा का आत्मविश्वास डगमगा गया था.

अंजु आई ही आई, पर साथ में उस के दोनों बच्चे व पति भी लंच करने आ गए. अंजु ने एक बार शिखा को भठूरे बेलने व तलने की विधि ढंग से समझा दी और फिर किचन से गायब हो गई.

सब को छोलेभठूरों का लंच करातेकराते शिखा बहुत थक गई. राजीव को जब मौका मिलता रसोई में आ कर उस का हौसला बढ़ा जाता. जरूरत से ज्यादा थक जाने के कारण शिखा खुद अपने बनाए भठूरों का स्वाद पेटभर कर नहीं उठा सकी.

सदा बनसंवर कर रहने वाली शिखा ने अपने घर में कभी इतना ज्यादा काम नहीं किया था. उस दिन नीरजा के यहां इतना ज्यादा काम करने का उसे कोई मलाल नहीं था क्योंकि उस ने नीरजा की आंखों में अपने लिए ‘धन्यवाद’ के और राजीव की आंखों में गहरे ‘प्रेम’ के भाव बारबार पढ़े थे.

‘‘अगर नीरजा रात को रुकने के लिए कहे, तो रुक जाना. उस की अच्छी दोस्त बन जाओगी, तो हमें मिलने और मौजमस्ती करने के ज्यादा मौके मिला करेंगे,’’ राजीव की इस सलाहको शिखा ने फौरन मान लिया.

शाम को नीरजा की शह पर चारों छोटे बच्चों ने अपनी शिखा आंटी के साथ आइसक्रीम खाने जाने की रट लगा दी.

शिखा अपनी थकावट व दर्द को भुला कर उन के साथ बाजार गई. बच्चों को आइसक्रीम खिलाने के बाद उस ने घर में बचे बड़े लोगों के लिए ‘ब्रिक’ भी खरीदी. करीब 6 सौ रुपए का खर्चा कर वह घर लौट आईर्.

उस के घर में कदम रखते ही नीरज ने उसे सूचित किया, ‘‘मैं ने तुम्हारी मम्मी से फोन पर बात कर के उन की इजाजत ले ली है, शिखा.’’

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‘‘किसलिए?’’ शिखा ने चौंक कर पूछा.

‘‘तुम्हारे कुछ दिनों के लिए यहां रुकने को. उन्हें कोई एतराज नहीं है. बस, अब तुम इनकार न करना, प्लीज. तुम्हारी हैल्प के बिना तो हम सब बहुत परेशान हो जाएंगे.’’

सोनू, मोनू और अंजु के दोनों बच्चों ने फौरन ‘‘शिखा आंटी, रुक जाओ’’ का नारा बारबार लगाते हुए इतना ज्यादा शोर मचाया कि शिखा को फौरन ‘हां’ कहनी पड़ी.

राजीव के साथ शाम को शिखा अपने घर कुछ जरूरी सामान और कपड़े लाने गई. लौटते हुए उन्होंने कौफी पी. दोनों कुछ दिन एक ही छत के नीचे गुजारने की संभावना के बारे में सोच कर काफी खुश नजर आ रहे थे.

लौटते हुए दोनों ने बाजार से सप्ताहभर

के लिए सब्जी खरीदी. इस काम को करने

की याद नीरजा ने ही शिखा को फोन कर के दिलाई थी.

शिखा ने बड़े जोश के साथ सब के लिए पुलाव बनाया. कुछ होमवर्क करने में सोनू की सहायता भी खुशीखुशी करी. उस के सोने का इंतजाम गैस्टरूम में हुआ था. रात को राजीव से गैस्टरूम के एकांत में मुलाकात हुई, तो क्या होगा? इस सवाल के मन में उभरते ही शिखा के मन में अजीब सी गुदगुदी पैदा हो जाती थी.

सोनू और मोनू शिखा आंटी के जबरदस्त फैन बन गए थे. उन्होंने सोने से पहले उस से

2 कहानियां सुनीं. शिखा को अंगरेजी फिल्में देखने का शौक था. उस ने बैंक डकैती, मारधाड़ और कुछ अन्य सनसनीखेज घटनाओं को जोड़ कर जो कहानी सोनू, मोनू को सुनाई वह दोनों बच्चों को पसंद तो काफी आई पर साथ ही साथ उन्हें डर भी लगा.

इस का नतीजा यह हुआ कि दोनों रातभर अपनी शिखा आंटी से लिपट कर सोए. नींद में डूबने से पहले बेहद थकी शिखा ने राजीव के गैस्टरूम में आने का इंतजार किया, पर उस से मुलाकात किए बिना ही वह सो गई थी.

नीरजा को दर्द के कारण नींद नहीं आ रही थी. राजीव को उस के पास बैठना

पड़ा. चाह कर भी वह शिखा के साथ कुछ

समय नहीं गुजार सका. उसे भी नींद ने एक बार दबोचा तो नीरजा के जगाने पर ही नींद सुबह

6 बजे खुली.

शिखा को भी नीरजा ने ही उस के मोबाइल की घंटी बजा कर 6 बजे उठा दिया.

‘‘मेरी प्यारी बहन, सोनू और मोनू को

स्कूल भेजना है. उन्हें जरा सख्ती से उठाओ… नाश्ते में ब्रैडबटर ही दे देना. राजीव दूध लेने

जा रहे हैं. दोनों की यूनीफौर्म यहां मेरे कमरे में

है. उन्हें भेजने के बाद हम दोनों साथसाथ

तसल्ली से चाय पीएंगे, माई डियर,’’ शिखा को

ये सब हिदायतें देते हुए नीरजा की आवाज में इतनी मिठास और अपनापन था कि शिखा ने बड़े जोश के साथ मुसकराते हुए पलंग छोड़ा था.

वक्त के साथ रेस लगाते हुए शिखा ने बड़ी कठिनाई से ही सोनू और मोनू को

स्कूल भेजा. कई बार उन की लापरवाही से तंग आ कर उस ने उन्हें डांटा भी, पर दोनों डांट सुन कर बेशर्मी से हंस पड़ते थे.

नीरजा ने बाद में उस के साथ चाय पीते हुए उस की भूरिभूरि प्रशंसा करी, ‘‘तुम बड़ी कुशल गृहिणी बनोगी किसी दिन, शिखा. बच्चों का दिल जीतने की कला आती है तुम्हें.’’

नीरजा का व्यवहार शिखा के प्रति बहुत दोस्ताना और प्रेमपूर्ण था. उसे अपने पास बैठा कर नीरजा उस का प्यार से हाथ पकड़ लेती. शिखा की प्रशंसा करते हुए उस का चेहरा फूल सा खिल जाता. कभीकभी आभार प्रकट करते हुए नीरजा की आंखें डबडबा उठतीं, तो शिखा भी भावुक हो जाती. ऐसे क्षणों में शिखा को नीरजा के बहुत करीब होने का एहसास होता. फिर उसे राजीव का खयाल आता. उस के साथ अपने अवैध प्रेम संबंध का ध्यान आते ही वह अजीब सा खिंचाव महसूस करते हुए इन कोमल भावों को दबा लेती थी.

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शिखा ने नीरजा के घर की लगभग सभी जिम्मेदारियों को संभाल लिया था. शाम को वह राजीव के साथ ही घर लौटती. दोनों का दिल तो करता था कि कुछ देर किसी पार्क या रेस्तरां में साथसाथ बैठें, पर नीरजा की ‘हैल्प’ के लिए फोन शिखा को लंच के बाद से ही मिलने लगते थे.

ऐसी ही भागमभाग में पहला हफ्ता कब निकल गया, शिखा को पता ही नहीं चला. रविवार फिर से आ गया और उस दिन सुबह उठने को उस का मन ही नहीं किया. शिखा को न अपने शरीर में भागदौड़ करने की जान महसूस हो रही थी और मन में भी अजीब सी खीज का एहसास छाया हुआ था.

अपनी आदत के अनुरूप रविवार सुबह देर तक सोना चाहती थी, पर कामवाली ने न आ कर ऐसी किसी भी संभावना का अंत कर दिया.

‘‘कल दोपहर में मैं ने कामवाली को डांट दिया था. वह कामचोर सफाई से काम जो नहीं कर रही थी. उस ने काम छोड़ दिया तो बड़ी गड़गड़ हो जाएगी, शिखा तुम प्लीज उसे किसी भी तरह से मना लाओ,’’ नीरजा ने उसे जब कामवाली को मना लाने की जिम्मेदारी सौंपी, तो एक बार को शिखा का रोमरोम गुस्से की आग में सुलग उठा.

कामवाली राधा से मिलाने के लिए सोनू

उसे पड़ोस में रहने वाली निर्मल आंटी के घर ले गया. उस से बातें करते हुए शिखा को बड़ा धैर्य रखना पड़ा क्योंकि वह काफी बदतमीजी से पेश आ रही थी.

‘‘सब से कम पैसा देती हैं नीरजा मैम और सब से ज्यादा डांटती और बेकार के नुक्स निकालती हैं. बिना पगार बढ़ाए मैं नहीं आऊंगी काम पर,’’ शिखा की कोई दलील सुने बिना राधा अपनी इस जिद पर अड़ी रही.

‘‘देख, जब तक नीरजा मैम का प्लस्तर कट नहीं जाता, तुम काम पर आती रहो. मैं उन से छिपा कर तुम्हें 2 सौ रुपए दूंगी?’’ इस समस्या का यही समाधन शिखा को समझ में आया.

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‘‘आप की खातिर मैं आ जाऊंगी, पर 5 सौ रुपए अलग से लूंगी,’’ राधा ने मौके का फायदा उठाते हुए अपनी शर्त बता दी.

‘‘2 सप्ताह के लिए 5 सौ रुपए. इतना लालच ठीक नहीं है, राधा,’’ शिखा गुस्सा हो उठी.

‘‘आप को 5 सौ रुपए ज्यादा लग रहे हैं, तो कोई बात नहीं. किसी दूसरी कामवाली को ढूंढ़ लो या खुद बरतन व सफाई कर लेना.’’

खुद बरतन व घर की सफाई की बात सोच कर ही शिखा की जान निकल गई. उस ने राधा को 5 सौ रुपए अपनी तरफ से देना स्वीकार किया और मन ही मन उसे गालियां देती सोनू के साथ घर लौट आई.

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रिश्तों का कटु सत्य: अंकल को क्या मिला ईमानदारी का फल

लेखक- जसबीर कौर

उस दिन दोनों ने अपनेअपने काम से छुट्टी ली थी. कई दिनों से दोनों ने एक फैसला लिया था कि वे अपने पुश्तैनी मकान में रहेंगे, क्योंकि आंटी का रिटायरमैंट करीब था और अंकल भी अपनी सेहत के चलते कचहरी के अपने काम को ज्यादा नहीं ले रहे थे. शुगर होने के चलते थक जाते थे. अंकल और आंटी को हालांकि आंटी के अनुज के बच्चों का पूरा प्यार और अपनत्व मिल जाता था, लेकिन वास्तविकता में दोनों ही एकदूसरे का सच्चा सहारा थे.

पारिवारिक मूल्यों को बखूबी समझने वाले अंकल ने अब तक जो कमाया, सारा का सारा अपनी मां और अपने भाईभतीजों को ही दिया था. आंटी की एक निजी विद्यालय में नौकरी थी, उसी से उन का घरखर्च चल रहा था. इसी सब के चलते दोनों ने किराए के मकान को छोड़ कर अपने पुश्तैनी मकान के फर्स्टफ्लोर के अपने कमरे में जा कर रहने का फैसला लिया था.

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लगभग 30 वर्षों पहले दोनों किराए के मकान में आ गए थे. आंटी जब से ससुराल में ब्याह कर आई थीं, वहां उन्होंने कलहक्लेश, झगड़े जैसा माहौल ही देखा था. घर के किसी भी सदस्य का व्यवहार अच्छा नहीं था. ताने, उलाहने, मारपीट, भद्दी भाषा और चरित्रहीनता जैसे उन के आचरण से तंग आ कर ही अंकल और आंटी ने एक दिन अपना जरूरी सामान बांधा और एक रिकशा में सवार हो कर घर से निकल पड़े.

मानसिक अशांति से थोड़ी राहत तो पाई, लेकिन बहुत सी कठिनाइयों से उन्हें दोचार होना पड़ा, क्योंकि उन के पास पलंगबरतन कुछ भी नहीं था. हर चीज पर घरवालों ने अधिकार जमा रखा था. वह घर नहीं, मुसीबतों का एक अड्डा नजर आता था. पानी की एक बूंद को तरसते थे.

आंटी एक संपन्न परिवार से ऐसी ससुराल में आई थीं जहां तमीज और तहजीब नाम की चीज कोई नहीं जानता था. अंकल की मां को चुगलखोर औरत के रूप में सारा महल्ला जानता था. अंकल ने जब अपनी आंखों से देखा, कानों से सुना कि किस तरह घर के लोग आंटी के नाक में दम करते हैं जब वे घर पर नहीं होते हैं, तब उन्हें यकीन हुआ कि वास्तव में घरवाले बदतमीजी की सारी हदें लांघ चुके हैं.

किराए के मकान में आ जाने के बाद भी अंकलअांटी अपने पुश्तैनी मकान में बराबर आतेजाते थे, हर मौके पर मौजूद रहते. वहां अपनत्व या इज्जत नाम की कोई बात ही नहीं थी, तब भी अंकल पारिवारिक मूल्यों के पक्षधर और बेहद सरल स्वभाव के धनी होने के नाते अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी कभी नहीं करते थे.

अधिकार शब्द को तो अंकल ने जैसा भुला ही दिया था. अधिवक्ता थे तो रोजाना कचहरी आनाजाना रहता था, जाते और आते रोज अपनी मां के पास रुकते थे, हर तरह की मदद करने को तैयार रहते. खुद कितनी भी तंगी में हों, मां को हमेशा बिना मांगे ही रुपएपैसे देते थे बिजली के बिल, राशन सबकुछ के लिए. ये उन की सादगी कहें, मां की चतुराई या कहें अंकल की दूरदर्शिता.

आंटी की जहां तक बात है, ससुराल वालों के साथ रहते समय बहुत सारे कटु और कसक देने वाले अनुभव उन्हें वहां मिले थे. विवाह के कुछ समय बाद ही, अभी आंटी नईनवेली ही थीं कि, उन के सासससुर ने एक दिन उन के कमरे में आ कर उन से उन के सभी जेवर उतरवा लिए थे, जो अलमारी में थे, वे भी सारे ले लिए इस वादे के साथ कि जल्द ही लौटा देंगे. अब चूंकि आंटी का सारा स्त्रीधन वे लोग ले ही चुके थे, तो अब उन को उन से वास्ता भी क्या रखना था. अब वो देनदार थे, सो, जितना हो सकता था उतना परेशान करते थे.

इसी बीच, आंटी के पीहर पक्ष से बड़ी रकम लाखों में उधार मांग ली लौटा देने की शर्त पर आंटी ने अपने पीहर पक्ष को कभी भी अपनी आपबीती नहीं बताई थी. एक तो आंटी को संस्कार ही ऐसे मिले थे कि वे स्वभाव से ही गंभीर थीं और दे ही देंगे तो उन्हें क्यों कहना जैसा भाव भी मन में था.

अंकल को भी आंटी ने बहुत दिनों बाद बताया कि सारे जेवर आप के मातापिता ने ले लिए. अंकल ने जरा भी आशंका नहीं जताई. सोचा, कोई बात नहीं, दे देंगे वापस. उधर आंटी के मातापिता ने ताउम्र अपना धन वापस नहीं मांगा. मांग ही नहीं सके, अपने दामाद के लिए उन के मन में सम्मान और प्यार था इस कारण. आंटी का पीहर बहुत दूर था, आंटीअंकल खुद ही वर्ष में एकदो बार मिल आते थे.

बहुत आहत मन से अंकलआंटी उस घर से निकले थे, लेकिन अब समय का लंबा फर्क और मजबूरी उन्हें फिर वहां ले जा रही थी. किराया नहीं दे सकेंगे, सो, अपने कमरे में जाने का विचार किया.

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आंटी ने अंकल से कहा, ‘‘आप कल उधर जाओगे तो अपना कमरा खोल आना, मैं साफ करने के लिए जाऊंगी, फिर जरूरी सामान रख आएंगे.’’

अंकल ने कहा, ‘‘ठीक है.’’

अगले दिन अंकल ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, हम ने अपने कमरे में लौटने का विचार किया है क्योंकि आप की बहू रिटायरमैंट के करीब है, मकान का किराया देना मुश्किल होगा. सेहत की वजह से मैं भी वकालत का काम कम ही लेता हूं.’’

अंकल की बात सुनते ही मां को तो जैसे सांप सूंघ गया हो. बिना जवाब दिए घर से बाहर निकल गईं.

अंकल अपने घर आ गए. आंटी ने कहा, ‘‘कमरा खोल आए क्या?’’

अंकल ने कहा, ‘‘नहीं, कल चलेंगे, तब कमरा झाड़ देना तुम.’’

अगले दिन अंकल, मां के पास रोजाना की तरह जा बैठे और कहा, ‘‘मां, आप की बहू को अभी साथ ला रहा हूं, कमरा साफ कर जाएंगे. और कल रविवार है, कल से यहीं आ जाएंगे हम आप के पास.’’

अंकल की बात सुनते ही आसपास के कमरों से सारा कुनबा ही जैसे कूद पड़ा. बरामदे में पहले से सभी जमा थे. अंकल रोजाना इसी समय आया करते थे. बेटी और दामाद को भी बुला रखा था. छोटेबड़े सभी इकट्ठा थे. कोई कुछ बोले, इस से पहले अंकल ने फिर कहा, ‘‘मां, क्या बात है, बोल नहीं रहा कोई?’’

इतने में बिजली सी कड़कती कर्कश आवाज में बोलते हुए अंकल की मां अंकल पर टूट पड़ीं. अंकल को धकियाती हुई बाहर के दरवाजे तक ले गई. बहन, जीजा ने धक्के मारे. भाइयों ने जलीकटी कहीं. भाभियां मुसकरा रही थीं.

अंकल अचानक हुए इस हमले को सह न सके, कुछ समझ न सके और लड़खड़ा कर नीचे गिर पड़े. मां व बहन ने गिरने पर भी धक्के दिए. अंकल का बाजू हिल गया, पैंट घुटने से फट गई. इस अजीब व्यवहार व अपमान ने अंकल का दिमाग घुमा दिया. पगड़ी उतर कर दूर जा गिरी. अंकल अकेले उठ पाने की हालत में नहीं थे. किसी तरह सीढ़ी पकड़ कर उठे और अपने घर पहुंचे. बदहवास, परेशान, लज्जित और चुप, वे तत्काल बोलने की स्थिति में नहीं थे. आंटी ने उन्हें देखा तो सहम गईं और प्रश्नों की झड़ी लगा दी.  किसी भी प्रश्न का कोईर् जवाब अंकल नहीं दे रहे थे.

आंटी ने खाना परोसा. अंकल ने नहीं खाया. आराम करने को कह कर करवट ले ली. आंटी को काटो तो खून नहीं. अंकल ही सेहत को ले कर वैसे भी हर वक्त चिंता में रहती थीं और आज क्या हुआ, क्यों नहीं बताते. ऐसे में स्वभाविक ही था चिंता का बढ़ना. आंटी ने देखा कुहनी तथा घुटने छिले थे, पैंट फटी थी, अब तो यही अनुमान लगाया कि स्कूटर तेज चलाया होगा. पर मन नहीं माना. अंकल कभी तेज चलाते ही न थे स्कूटर. चोट आखिर कैसे लगी होगी. कहीं खड्डों वाली सड़क पर स्कूटर फंस गया होगा.

कहते हैं कि जब स्नेह, प्रीति, लगाव का दायरा छोटा हो तो वह एक पर ही केंद्रित हो जाता है, आंटी की कुछ ऐसी ही स्थिति थी. अंकल ही उन के पास थे, जीवनसाथी से लगाव होना स्वभाविक भी है. फिर दोनों का साथ. तीसरा तो कोई जबतब ही पास आता, अधिकतर तो दोनों अकेले ही होते थे. अंकल से आंटी ने सब जानना चाहा. पर अंकल शायद सोए तो थे ही नहीं, सुबक रहे थे, रो रहे थे. तकिया आंसुओं से भीग गया था.

बहुत मनुहारें करने के बाद अंकल ने बताया, ‘‘मैं गया था उस घर में, किंतु अब हम कभी वहां नहीं जाएंगे. कभी भी नहीं.’’

‘‘आखिर क्यों?’’ आंटी ने तुरंत जानना चाहा था. अब आशंकाओं ने आंटी के मन को घेरना शुरू कर दिया था,  आशंकाओं को आधार भी मिलने लगा था भीतर ही भीतर. जिस घर में उचित सम्मान कभी नहीं मिला, बड़े होने के नाते भी नहीं, वहां तो कुछ भी गड़बड़ हो सकती है. ऐसा आंटी के मन में विचार उठ रहा था.

अब अंकल ने सारी बात बताई, लेकिन रोते हुए, सुबकते हुए. अंकल के चेहरे पर मन की पीड़ा को साफ पढ़ा जा सकता था. आंखों से मानो दिल का दर्द टपकटपक पड़ रहा था. सारी आपबीती बताई. आंटी अंकल को दुखी देख कर तड़प उठीं, किंतु खुद को रोका. यह वक्त अंकल को सहारा देने का है, सताने या सुनाने का नहीं. अब जबकि अंकल खुद भुगत कर आए हैं, तो क्या बचा है कहनेसुनने को.

अब तो उन्हें मां की भक्ति से मिले रिजल्ट का साक्षात अनुभव हुआ है. जिन भाइयों ने कभी भैया कह कर बुलाया भी नहीं, उन्हें अंकल ने कहांकहां सहारा नहीं दिया? एक को तो सरकारी नौकरी भी अपनी जानपहचान के बूते परीक्षा के प्रश्नपत्र पूर्व में ही बता कर दिलवाई जैसेतैसे. शेष की आर्थिक मदद, कानूनी मदद करते रहे. आज उन्होंने ठोकरें मार कर बाहर कर दिया था.

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आंटी ने अंकल को सहारा दिया, ‘‘हमें जाना ही नहीं वहां, आप चिंता न करें. आप के साले, साली कितना पूछते हैं आप को, हमेशा मदद के लिए खड़े रहते हैं. सो, परेशान नहीं होना है. बस, इस बात को यहीं रोको.’’ आंटी अंकल की सेहत न बिगड़ जाए, इस बात से भीतर ही भीतर डर रही थीं. इस के बाद अंकल हमेशा गुमसुम रहने लगे थे. काम पर जाते, जल्दी घर आ जाते.

फिर एक दिन बहुत कठिन घड़ी आई. अंकल कचहरी में बेहोश हो कर गिर गए. आंटी के भाई को सूचना मिली तो फौरन उन्होंने संभाला, अस्पताल पहुंचाया. सभी जांचें हुईं. अंकल को बीते दिनों अपनों से मिली प्रताड़ना के कारण गहरा आघात पहुंचा था. विश्वासघात के शिकार हुए थे वे. सूचना तो उन के घरवालों को भी दी गई किंतु किसी ने हाल जानना जरूरी नहीं समझा, वे ही तो गुनाहगार थे, वे क्यों आते पूछने. पक्षपातिनी मां, वह बेरहम बहन किसी को दुख नहीं हुआ अपने ही घर के सदस्य के बीमार होने का.

आंटी नौकरी पर थीं, लौटीं तो बहुत दुखी हुईं. उन की व्यथा का कोई पारावार न था. आते ही अंकल से लिपट गईं. सब पूछ डाला भाई से, चिकित्सक से, रिपोर्ट पढ़ी.

अंकल अपने साथ घटित उस अपमानजनक व्यवहार को याद करें भी तो कैसे? कटु सत्य से सामना हुआ था उन का. एक बहुत बड़े राज से परदा उठा था. मन में चल रही उठापटक ने अंकल को असामान्य हालत में पहुंचा दिया था. अंकल रहरह कर यही बुदबुदाते, ‘मैं ने बिगाड़ा क्या है उन का?’

लगभग 8 माह तक ससुराल वालों की सेवा से अंकल थोड़ा स्वस्थ हुए.

एक दिन अंकल के पास उन का

एक नजदीकी रिश्तेदार फुफेरा

भाई आया और कहने लगा, ‘‘तुम्हारा पुश्तैनी मकान वे लोग बेच रहे हैं, ऐसी भनक मुझे लगी है.’’ अंकल के साथ हुए अमानवीय व्यवहार का उसे पता था. उस ने आगे कहा, ‘‘तुम्हें कानूनी मदद लेनी चाहिए.’’

अब क्योंकि अपने पुश्तैनी घर में वे जा नहीं सकते थे, सो, याचिका लगा कर न्याय दिलाने की व घर में अपना हक लेने की अपील की. पहली पेशी पर ही सारा राज जाहिर हो गया. अंकल की मां, भाई सब मिल कर कचहरी में आए. वकील के माध्यम से अंकल के हाथ की लिखी दस्तबरदारी के सरकारी कागजात पेश कर दिए वह भी 15 वर्ष पूर्व की गई समस्त कार्यवाही के. केस वहीं खत्म हो गया, जब खुद ही अपना हक छोड़ने को लिख दिया तो अब  कोई प्रावधान ऐसा न बचा था कि आगे सुनवाई हो.

अंकल अनजान थे इस कटु सत्य से. यदि जानते होते तो केस ही क्यों लगाते भला? खुद अधिवक्ता हो कर भी मां की चाल न समझ सके, क्योंकि कोई मां पर ही विश्वास नहीं करेगा तो किस पर करेगा? अब सारा मामला समझ आ गया कि क्यों घर से खदेड़ा? क्यों उन्हें वापस घर आने देना नहीं चाहते थे. उन्होंने सिर्फ मिल्कीयत की खातिर यह षड्यंत्र रचा था. मिल कर आपस में बांटना था, घर की कीमत, जमीनजायदाद सब बहुत पहले ही लिखवा ली थी, बेच भी दी थी, ये राज भी खुल गए. अंकल के पास कुछ नहीं था.

ऐसे आस्तान के सांप निकले अंकल के अपने. और मां की ऐसी घिनौनी हरकत को क्या कहा जाए? क्या इस बेटे को पैदा नहीं किया था? यह आसमान से गिरा था? या इस बेटे को उस की सरलता या ईमानदारी का यह इनाम दिया गया था? अपनों द्वारा दी गई ऐसी सजा जिसे दिल पर ले लिया अंकल ने. शहरभर के शुभचिंतक अंकल का हालचात पूछते रहते हैं. आंटी के पितृगृह के भाईबहन ने तनमनधन से अंकल की सहायतासेवा की. यदि इन लोगों का सहारा न होता तो पता नहीं क्या हाल होता दोनों का? एक वे अपने हैं जिन्होंने मार कर फेंका, एक ये पराए हैं जिन्होंने संभाला ही नहीं, सहारा भी बने हैं.

अनेक लोग अंकल के परिजनों को लानतें दे चुके हैं, सामाजिक बहिष्कार कर चुके हैं उन का. तब भी धन की लालसा में घिरे वे लोग एकजुट हैं. उन के लिए तो एक ही बात अर्थ रखती है, ‘बाप बड़ा न भैया, सब से बड़ा रुपैया.’ हंसतेमुसकराते दंपती की हंसी छीन कर आज वे पुश्तैनी मकान की करोड़ों की कीमत पाने को प्रयासरत हैं. भविष्य के वे लखपति अपने इस अनमोल हीरे के हृदय को चूरचूर कर के कितने आनंद में हैं, और इधर अपनों द्वारा विश्वासघात की मार सह कर न केवल घर में, बल्कि एक ही कक्ष में कैद हो कर रह गए है अंकलआंटी, यह कैसा समाज है, कैसा न्याय है.

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प्रकाश स्तंभ: भाग 1- क्या पारिवारिक झगड़ों को सुलझा पाया वह

‘‘दीदी, जरा गिलास में पानी डाल दो,’’ रम्या ने खाने की मेज के दूसरी ओर बैठी अपनी बड़ी बहन नंदिनी से कहा था.

‘‘आलस की भी कोई सीमा होती है या नहीं? तुम एक गिलास पानी भी अपनेआप डाल कर नहीं पी सकतीं,’’ नंदिनी ने टका सा जवाब दिया था.

‘‘पानी का जग तुम्हारे सामने रखा था इसीलिए कह दिया. भूल के लिए क्षमा चाहती हूं. मैं खुद ही डाल लूंगी,’’ रम्या उतने ही तीखे स्वर में बोली थी.

‘‘वही अच्छा है. तुम जितनी जल्दी अपना काम खुद करने की आदत डाल लो तुम्हारे लिए उतना ही अच्छा रहेगा,’’ नंदिनी सीधेसपाट स्वर में बोली थी.

‘‘मैं सब समझती हूं, इतनी मूर्ख नहीं हूं. ईर्ष्या करती हो तुम मुझ से.’’

‘‘लो और सुनो. मैं क्यों ईर्ष्या करने लगी तुम से?’’

‘‘बड़ी बहन कुंआरी बैठी रहे और छोटी का विवाह हो जाए, क्या यह कारण कम है?’’ रम्या तीखे स्वर में बोली थी पर इस से पहले कि नंदिनी कुछ बोल पाती, उन की मां रचना ने दोनों का ध्यान आकर्षित किया था.

‘‘तुम दोनों अपने झगड़े से थोड़ा सा समय निकाल सको तो मैं भी कुछ बोलूं?’’

‘‘क्या मां? आप भी मुझे ही दोष दे रही हैं?’’ नंदिनी ने शिकायत की थी.

‘‘मैं किसी को दोष नहीं दे रही बेटी. मैं तो भली प्रकार जानती हूं कि मेरी 30-30 साल की दोनों बेटियां 5 मिनट के लिए भी आपस में लड़े बिना नहीं रह सकतीं.’’

‘‘30 साल की होने का ताना आप मुझे ही दे रही हैं न? रम्या तो मुझ से 2 साल छोटी है और मैं बड़ी हूं तो सारा दोष भी मेरा ही होगा,’’ नंदिनी ने आहत होने का अभिनय किया था.

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‘‘मेरा ऐसा कोई तात्पर्य नहीं था. मैं जो कहने जा रही हूं उस का तुम दोनों से कुछ भी लेनादेना नहीं है. मैं तो केवल यह कहना चाहती हूं कि मैं ने यह शहर या यों कहूं कि यह देश ही छोड़ कर जाने का निर्णय कर लिया है,’’ रचना ने मानो शांत जल में पत्थर दे मारा था.

‘‘क्या? कहां जा रही हैं आप?’’ खाने की मेज पर बैठे पति नीरज के विस्फारित होते नेत्रों को उस ने देखा था. रम्या के पति प्रतीक का मुंह खुला का खुला रह गया था और दोनों बेटियों की नजर मां पर ही गड़ी हुई थी.

‘‘हमारे बैंक की एक नई शाखा ‘सीशेल्स’ में खुलने जा रही है. मैं ने वहीं जा कर नई शाखा का कार्यभार संभालने की स्वीकृ ति दे दी है. हमारे बैंक से और 2-3 कर्मचारी भी साथ जा रहे हैं,’’ रचना ने अपनी बात पूरी की थी.

‘‘क्यों उपहास कर रही हैं मां? अब इस आयु में आप देश छोड़ कर जाएंगी?’’ रम्या हंस पड़ी थी पर नंदिनी केवल उन का मुंह ताकती रह गई थी.

‘‘यह उपहास नहीं वास्तविकता है बेटी. दिनरात की इस कलह में मेरा मन घुटने लगा है. मैं शायद मां की भूमिका सफलतापूर्वक नहीं निभा पाई. तुम दोनों का व्यवहार इस का प्रमाण है. फिर भी मैं कहूंगी कि मैं ने अपनी ओर से पूरा प्रयत्न किया था. नंदिनी की पढ़ाई में कभी कोई रुचि नहीं रही. फिर भी पीछे पड़ कर उसे स्नातक तक की पढ़ाई करवाई. कंप्यूटर कोर्स करवाया. एकदो जगह नौकरी भी लगवाई पर यह मेरा और उस का…या कहें हम दोनों की बदनसीबी है कि वह अब तक जीवन में व्यवस्थित नहीं हो सकी.

‘‘तुम्हारे लिए भी मैं ने अपनी सामर्थ्य के अनुसार सबकुछ किया पर तुम ने अच्छीभली नौकरी छोड़ कर विवाह कर लिया और अब तुम और तुम्हारे पति प्रतीक दोनों बेकार बैठे हैं,’’ रचना का स्वर बेहद निरीह प्रतीत हो रहा था.

‘‘और ऐसे में आप ने हम सब को छोड़ कर जाने का फैसला ले लिया?’’ रम्या और नंदिनी ने समवेत स्वर में प्रश्न किया था.

‘‘यहां रह कर भी मैं तुम दोनों के लिए कहां कुछ कर पाई. वहां थोड़ा अधिक पैसा मिलेगा तो शायद मैं तुम लोगों की कुछ अधिक सहायता कर पाऊंगी. वैसे भी ऐसे अवसर कभीकभी ही मिलते हैं. वह तो सीशेल्स जैसे छोटे से द्वीप पर कोई जाना नहीं चाहता वरना तो मुझे यह भी मौका नहीं मिलता.’’

‘‘आप कब तक  जाएंगी, मम्मीजी?’’ प्रतीक ने प्रश्न किया था.

‘‘1 माह तो जाने में लग ही जाएगा, थोड़ा अधिक समय भी लग सकता है,’’ परिवार के अन्य सदस्यों को गहरी सोच में डूबे छोड़ कर रचना अपने कमरे में चली गई थीं.

आरामकुरसी पर पसर कर रचना देर तक शून्य में ताकती रही थीं. कमरे के अंधेरे में वह काल्पनिक आकृतियों को बनतेबिगड़ते देखती रही थीं. साथ ही अतीत की अनेक बातें उन के मानसपटल से टकराने लगी थीं.

‘क्या हुआ रचना? इस तरह सिर थामे क्यों बैठी हो?’ उस दिन उन की सहेली निमिषा ने रचना को आंखें मूंदे स्वयं में ही डूबे देख कर पूछा था.

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उत्तर में रचना ने अपनी आंखें खोल दी थीं. उन की डबडबाई आंखें लगातार बरसने लगी थीं.

‘क्या हुआ? कुशलमंगल तो है? मैं ने तुम्हें इस तरह स्वयं पर नियंत्रण खोते कभी नहीं देखा,’ निमिषा हैरान हो गई थी.

‘तुम स्वयं पर नियंत्रण की बात कर रही हो, मैं ने तो अपने सारे जीवन को अनियंत्रित होते देखा है.’

‘क्यों, क्या हुआ? कोई विशेष बात?’

‘सप्ताह भर से रम्या के फोन पर फोन आ रहे हैं. अपने पति के साथ यहीं हमारे पास रहना चाहती है,’ रचना धीमे स्वर में बोली थीं.

‘क्यों? प्रतीक का स्थानांतरण यहीं हो गया है क्या?’

‘किस का स्थानांतरण, निमिषा. वही हुआ जिस का डर था. फोन पर रम्या बता रही थी कि प्रतीक की नौकरी छूट गई है. मुझे तो पहले ही संदेह था कि वह नौकरी करता भी था या नहीं. अब वह नौकरी नहीं करना चाहता. व्यापार करेगा और व्यापार उसे मेरे अलावा करवाएगा कौन? एक और राज की बात बताऊं तुम्हें?’

‘क्या?’

‘प्रतीक खुद कोई बात नहीं करता. हर बात में रम्या को आगे करता है. पहले उसी की चिकनीचुपड़ी बातों में आ कर रम्या यहां अच्छीभली नौकरी छोड़ कर गुंइर चली गई. अब दिन में 2-3 बार फोन आता है. मैं सप्ताह भर से समझा रही हूं कि मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि उस की सहायता कर सकूं तो रोने लगी. बोली कि आप तो बैंक में अफसर हैं, क्या कर्ज नहीं ले सकतीं?’

‘नीरज भाई साहब क्या कहते हैं?’

‘वह क्या कहेंगे? आज तक कुछ कहा है जो अब कहेंगे? उन पर तो जीवन भर व्यापार का भूत सवार रहा. पर व्यापार में कमाया कम और गंवाया अधिक. अब तो उन का शरीर ही साथ नहीं देता. अस्थमा तो पुराना रोग है ही पर हर दिन कुछ न कुछ लगा ही रहता है. बेटीदामाद के आने के समाचार से भी उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता. वह तो, बस अपनी ही दुनिया में खोए रहते हैं.’

‘फिर तुम क्यों चिंता में घुली जा रही हो? आ रही है तो आने दो. उन दोनों के आने से भला कितना अंतर पड़ जाएगा,’ निमिषा ने समझाना चाहा था.

‘प्रश्न केवल भोजनकपड़े का नहीं है. व्यापार के लिए पूंजी कहां से जुटाऊं. ऊपर से मेरी दोनों बेटियों में बिलकुल नहीं पटती. नंदिनी को कोई वर अपने उपयुक्त लगता ही नहीं. संसार के सब से अधिक धनवान, सुदर्शन और प्रसिद्ध वर से ही विवाह करेगी वह. हम तो उस के विवाह की उधेड़बुन में खोए थे कि रम्या ने अपनी इच्छा से विवाह कर लिया. जगहंसाई न हो इसलिए हम ने परंपरागत रूप से विवाह करवा दिया. वर पक्ष से तो कोई औपचारिकता निभाने भी नहीं आया.’

‘विवाह के पहले तो प्रतीक बड़ी डींगें हांकता था. विवाह को 6 माह भी नहीं हुए कि नौकरी छूट गई. घर वालों ने घर से निकाल दिया. अब वह हमारी शरण में आना चाहते हैं. अब स्थिति यह है कि मेरी नौकरी न हो तो हमारा परिवार भूखों मर जाए,’ रचना अपनी रामकहानी सुनाती रही थी.

‘तुम्हारी समस्या तो वास्तव में विकट है. मैं तो केवल सलाह दे सकती हूं पर उस पर अमल तो तुम को ही करना है. मैं तुम्हारे स्थान पर होती तो कब की भाग खड़ी होती. तनिक सोचो, यदि तुम उन्हें छोड़ कर चली जाओ तो क्या वे भूखे मरेंगे? अपना पेट भरने के लिए तो हाथपैर हिलाएंगे ही न,’ निमिषा ने बात सच कही थी पर रचना को लगा कि उस की सलाह मानने की शक्ति उस में नहीं थी.

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‘तुम ठीक कहती हो. मेरी नियति ही ऐसी है. कालिज में प्रवेश लेते ही मातापिता चल बसे. अपने छोटे भाई और स्वयं को व्यवस्थित करने में मैं ने कठिन परिश्रम किया. संतोष इसी बात का है कि उस का जीवन पूरी तरह से व्यवस्थित है, व्यावसायिक रूप से भी और पारिवारिक तौर पर भी. उसे देख कर बड़ी संतुष्टि मिलती है. पर मुझे तो विवाह के बाद भी चैन नहीं मिला. मुझे तो लगता है कि मेरी दोनों बेटियां अभिशाप बन कर मेरे जीवन में आई हैं. थकीहारी घर पहुंचती हूं तो नंदिनी एक प्याली चाय को भी नहीं पूछती. सर्वगुण संपन्न वर न जुटा पाने के लिए शायद वह मुझे ही दोषी समझती है. सदा मुंह फूला ही रहता है उस का.’

‘भूल जाओ यह सब, रचना. अपनी ओर से तुम ने दोनों बेटियों के लिए कर्तव्य पूरा कर दिया. हो सके तो उन पर जिम्मेदारी डाल कर उन में परिवर्तन लाने का प्रयत्न करो. कभीकभी परिस्थितियां स्वयं बदलने लगती हैं अत: प्रतीक्षा करो.’

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सौतेली: भाग 4- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

शेफाली को लग रहा था वंदना ठीक कह रही है. वह अपना घर क्यों छोडे़. उस को हालात का सामना करना चाहिए था. फिर उस औरत से नफरत कैसी जिसे अभी उस ने देखा भी नहीं था.

अगले दिन सुबह वंदना चली गई.

कुछ भी नहीं होते हुए वंदना कुछ दिनों में ही अपनेपन का जो कोमल स्पर्श शेफाली को करवा गई थी उस को भूलना मुश्किल था. यही नहीं वह शेफाली की दिशाहीन जिंदगी को एक दिशा भी दे गई थी.

परीक्षाओं के शुरू होते ही शेफाली ने जानकी बूआ से घर जाने की बात कह दी और थोड़ाथोड़ा कर के अपना सामान पैक करना शुरू कर दिया.

परीक्षाएं खत्म होते ही शेफाली अपने घर को रवाना हुई तो जानकी बूआ खुद उस को अमृतसर जाने वाली बस में बैठाने के लिए बस अड्डे पर आई थीं.

बस जब चल पड़ी तो शेफाली के मन में कई सवाल बुलबुले बन कर उभरने लगे कि पापा उस का सामना कैसे करेंगे, उस का सौतेली मां से सामना कैसे होगा? वह कैसा व्यवहार करेंगी?

शेफाली जानती थी कि उस को बस में बैठाने के बाद बूआ ने फोन पर इस की सूचना पापा को दे दी होगी. शायद घर में उस के आने के इंतजार में होंगे सभी…

सामान का बैग हाथ में लिए घर के दरवाजे के अंदर दाखिल होते एक बार तो शेफाली को ऐसा लगा था कि किसी बेगानी जगह पर आ गई है.

पापा उस के इंतजार में ड्राइंगरूम में ही बैठे थे. उन के साथ मानसी और अंकुर भी थे जोकि दौड़ कर उस से लिपट गए.

उन को प्यार करते हुए शेफाली की नजरें पापा से मिलीं. चाह कर भी शेफाली मुसकरा नहीं सकी. उस ने केवल इतना ही कहा, ‘‘हैलो पापा, कैसे हैं आप?’’

‘‘अच्छा हूं. अपनी सुनाओ. सफर में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?’’

‘‘नहीं…और होती भी तो अब कोई फर्क नहीं पड़ता. मुझ को कुछ समय से तकलीफें बरदाश्त करने की आदत पड़ चुकी है,’’ कोशिश करने पर भी अपने गुस्से और आक्रोश को छिपा नहीं सकी शेफाली.

इस पर पापा ने मानसी और अंकुर से कहा, ‘‘तुम दोनों जा कर जरा अपनी दीदी का कमरा ठीक करो, मैं तब तक इस से बातें करता हूं.’’

पापा का इशारा समझ कर दोनों तुरंत वहां से चले गए.

‘‘मैं जानता हूं तुम मुझ से नाराज हो,’’ उन के जाने के बाद पापा ने कहा.

‘‘मुझ को बहाने के साथ घर से बाहर भेज कर मेरी ममी की जगह एक दूसरी ‘औरत’ को दे दी पापा और इस के बाद भी आप उम्मीद करते हैं कि मुझ को नाराज होने का भी हक नहीं?’’

‘‘यह मत भूलो कि वह ‘औरत’ अब तुम्हारी नई मां है,’’ पापा ने शेफाली को चेताया.

इस से शेफाली जैसे बिफर गई और बोली, ‘‘मैं इस रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं करूंगी, पापा,’’

‘‘मैं इस के लिए तुम पर जोर भी नहीं डालूंगा, मगर तुम उस से एक बार मिल लो…शिष्टाचार के नाते. वह ऊपर कमरे में है,’’ पापा ने कहा.

‘‘मैं सफर की वजह से बहुत थकी हुई हूं, पापा. इस वक्त आराम करना चाहती हूं. इस बारे में बाद में बात करेंगे,’’ शेफाली ने अपने कमरे की तरफ बढ़ते हुए रूखी आवाज में कहा.

शेफाली कमरे में आई तो सबकुछ वैसे का वैसा ही था. किसी भी चीज को उस की जगह से हटाया नहीं गया था.

मानसी और अंकुर वहां उस के इंतजार में थे.

कोशिश करने पर भी शेफाली उन के चेहरों या आंखों में कोई मायूसी नहीं ढूंढ़ सकी. इस का अर्थ था कि उन्होंने मम्मी की जगह लेने वाली औरत को स्वीकार कर लिया था.

‘‘तुम दोनों की पढ़ाई कैसी चल रही है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘एकदम फर्स्ट क्लास, दीदी,’’ मानसी ने जवाब दिया.

‘‘और तुम्हारी नई मम्मी कैसी हैं?’’ शेफाली ने टटोलने वाली नजरों से दोनों की ओर देख कर पूछा.

‘‘बहुत अच्छी. दीदी, तुम ने मां को नहीं देखा?’’ मानसी ने पूछा.

‘‘नहीं, क्योंकि मैं देखना ही नहीं चाहती,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘ऐसी भी क्या बेरुखी, दीदी. नई मम्मी तो रोज ही तुम्हारी बातें करती हैं. उन का कहना है कि तुम बेहद मासूम और अच्छी हो.’’

‘‘जब मैं ने कभी उन को देखा नहीं, कभी उन से मिली नहीं, तब उन्होंने मेरे अच्छे और मासूम होने की बात कैसे कह दी? ऐसी मीठी और चिकनीचुपड़ी बातों से कोई पापा को और तुम को खुश कर सकता है, मुझे नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

शेफाली की बातें सुन कर मानसी और अंकुर एकदूसरे का चेहरा देखने लगे.

उन के चेहरे के भावों को देख कर शेफाली को ऐसा लगा था कि उन को उस की बातें ज्यादा अच्छी नहीं लगी थीं.

मानसी  से चाय और साथ में कुछ खाने के लिए लाने को कह कर शेफाली हाथमुंह धोने और कपडे़ बदलने के लिए बाथरूम में चली गई.

सौतेली मां को ले कर शेफाली के अंदर कशमकश जारी थी. आखिर तो उस का सामना सौतेली मां से होना ही था. एक ही घर में रहते हुए ऐसा संभव नहीं था कि उस का सामना न हो.

मानसी चाय के साथ नमकीन और डबलरोटी के पीस पर मक्खन लगा कर ले आई थी.

भूख के साथ सफर की थकान थी सो थोड़ा खाने और चाय पीने के बाद शेफाली थकान मिटाने के लिए बिस्तर पर लेट गई.

मस्तिष्क में विचारों के चक्रवात के चलते शेफाली कब सो गई उस को इस का पता भी नहीं चला.

शेफाली ने सपने में देखा कि मम्मी अपना हाथ उस के माथे पर फेर रही हैं. नींद टूट गई पर बंद आंखों में इस बात का एहसास होते हुए भी कि? मम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं, शेफाली ने उस स्पर्श का सुख लिया.

फिर अचानक ही शेफाली को लगा कि हाथ का वह कोमल स्पर्श सपना नहीं यथार्थ है. कोई वास्तव में ही उस के माथे पर धीरेधीरे अपना कोमल हाथ फेर रहा था.

चौंकते हुए शेफाली ने अपनी बंद आंखें खोल दीं.

आंखें खोलते ही उस को जो चेहरा नजर आया वह विश्वास करने वाला नहीं था. वह अपनी आंखों को बारबार मलने को विवश हो गई.

थोड़ी देर में शेफाली को जब लगा कि उस की आंखें जो देख रही हैं वह सच है तो वह बोली, ‘‘आप?’’

दरअसल, शेफाली की आंखों के सामने वंदना का सौम्य और शांत चेहरा था. गंभीर, गहरी नजरें और अधरों पर मुसकराहट.

‘‘हां, मैं. बहुत हैरानी हो रही है न मुझ को देख कर. होनी भी चाहिए. किस रिश्ते से तुम्हारे सामने हूं यह जानने के बाद शायद इस हैरानी की जगह नफरत ले ले, वंदना ने कहा.

‘‘मैं आप से कैसे नफरत कर सकती हूं?’’ शेफाली ने कहा.

‘‘मुझ से नहीं, लेकिन अपनी मां की जगह लेने वाली एक बुरी औरत से तो नफरत कर सकती हो. वह बुरी औरत मैं ही हूं. मैं ही हूं तुम्हारी सौतेली मां जिस की शक्ल देखना भी तुम को गवारा नहीं. बिना देखे और जाने ही जिस से तुम नफरत करती रही हो. मैं आज वह नफरत तुम्हारी इन आंखों में देखना चाहती हूं.

‘‘हम जब पहले मिले थे उस समय तुम को मेरे साथ अपने रिश्ते की जानकारी नहीं थी. पर मैं सब जानती थी. तुम ने सौतेली मां के कारण घर आने से इनकार कर दिया था. किंतु सौतेली मां होने के बाद भी मैं अपनी इस रूठी हुई बेटी को देखे बिना नहीं रह सकती थी. इसलिए अपनी असली पहचान को छिपा कर मैं तुम को देखने चल पड़ी थी. तुम्हारे पापा, तुम्हारी बूआ ने भी मेरा पूरा साथ दिया. भाभी को सहेली के बेटी बता कर अपने घर में रखा. मैं अपनी बेटी के साथ रही, उस को यह बतलाए बगैर कि मैं ही उस की सौतेली मां हूं. वह मां जिस से वह नफरत करती है.

‘‘याद है तुम ने मुझ से कहा था कि मैं बहुत अच्छी हूं. तब तुम्हारी नजर में हमारा कोई रिश्ता नहीं था. रिश्ते तो प्यार के होते हैं. वह सगे और सौतेले कैसे हो सकते हैं? फिर भी इस हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता कि मैं मां जरूर हूं, लेकिन सौतेली हूं. तुम को मुझ से नफरत करने का हक है. सौतेली मांएं होती ही हैं नफरत और बदनामी झेलने के लिए,’’ वंदना की आवाज में उस के दिल का दर्द था.

‘‘नहीं, सौतेली आप नहीं. सौतेली तो मैं हूं जिस ने आप को जाने बिना ही आप को बुरा समझा, आप से नफरत की. मुझ को अपनेआप पर शर्म आ रही है. क्या आप अपनी इस नादान बेटी को माफ नहीं करेंगी?’’ आंखों में आंसू लिए वंदना की तरफ देखती हुई शेफाली ने कहा.

‘‘धत, पगली कहीं की,’’ वंदना ने झिड़कने वाले अंदाज से कहा और शेफाली का सिर अपनी छाती से लगा लिया.

प्रेम के स्पर्श में सौतेलापन नहीं होता. यह शेफाली को अब महसूस हो रहा था. कोई भी रिश्ता हमेशा बुरा नहीं होता. बुरी होती है किसी रिश्ते को ले कर बनी परंपरागत भ्रांतियां.

सौतेली: भाग 3- क्या धोखे से उभर पाई शेफाली

एक दिन शेफाली को चौंकाते हुए वंदना रात को अचानक उस के कमरे में आ गई.

शेफाली को रात देर तक पढ़ने की आदत थी.

वंदना को अपने कमरे में देख चौंकी थी शेफाली, ‘‘आप,’’ उस के मुख से निकला था.

‘‘बाथरूम जाने के लिए उठी थी. तुम्हारे कमरे की बत्ती को जलते देखा तो इधर आ गई. मेरे इस तरह आने से तुम डिस्टर्ब तो नहीं हुईं?’’

‘‘जी नहीं, ऐसी कोई बात नहीं,’’ शेफाली ने कहा.

‘‘रात की शांति में पढ़ना काफी अच्छा होता है. मैं भी अपने कालिज के दिनों में अकसर रात को ही पढ़ती थी. मगर बहुत देर रात जागना भी सेहत के लिए अच्छा नहीं होता. अब 1 बजने को है. मेरे खयाल में तुम को सो जाना चाहिए.’’

वंदना ने अपनी बात इतने अधिकार और अपनत्व से कही थी कि शेफाली ने हाथ में पकड़ी हुई किताब बंद कर दी.

‘‘मेरा यह सब कहना तुम को बुरा तो नहीं लग रहा?’’ उस को किताब बंद करते हुए देख वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, बल्कि अच्छा लग रहा है. बहुत दिनों बाद किसी ने इस अधिकार के साथ मुझ से कुछ कहा है. आज मम्मी की याद आ रही है. वह भी मुझ को बहुत देर रात तक जागने से मना किया करती थीं,’’ शेफाली ने कहा. उस की आंखें अनायास आंसुओं से झिलमिला उठी थीं.

शेफाली की आंखों में झिलमिलाते आंसू वंदना की नजरों से छिपे न रह सके थे. इस से वह थोड़ी व्याकुल सी दिखने लगी. उस ने प्यार से शेफाली के गाल को सहलाया और बोली, ‘‘जो बीत गया हो उस को याद कर के बारबार खुद को दुखी नहीं करते. अब सो जाओ, सुबह बहुत सारी बातें करेंगे,’’ इतना कहने के बाद वंदना मुड़ कर कमरे से बाहर निकल गई.

इस के बाद तो शेफाली और वंदना के बीच की दूरी जैसे सिमट गई और दोनों के बीच की झिझक भी खत्म हो गई.

एकाएक ही शेफाली को वंदना बहुत अपनी सी लगने लगी थी. जाहिर है अपने व्यवहार से शेफाली के विश्वास को जीतने में वंदना सफल हुई थी. अब दोनों में काफी खुल कर बातें होने लगी थीं.

शेफाली के शब्दों में सौतेली मां के प्रति आक्रोश को महसूस करते हुए एक दिन वंदना ने कहा, ‘‘आखिर तुम दूसरों के साथसाथ अपने से भी इतनी नाराज क्यों हो?’’

‘‘क्या जानकी बूआ ने मेरे बारे में आप को कुछ नहीं बतलाया?’’

‘‘बतलाया है,’’ गंभीर और शांत नजरों से शेफाली को देखती हुई वंदना बोली.

‘‘क्या?’’

‘‘यही कि तुम्हारे पापा ने किसी और औरत से दूसरी शादी कर ली है. वह भी तुम्हारी गैरमौजूदगी में…और तुम को बतलाए बगैर,’’ शेफाली की आंखों में झांकती हुई वंदना ने शांत स्वर में कहा.

‘‘इतना सब जानने के बाद भी आप मुझ से पूछ रही हैं कि मैं नाराज क्यों हूं,’’ शेफाली के स्वर में कड़वाहट थी.

‘‘अधिक नाराजगी किस से है? अपने पापा से या सौतेली मां से?’’

‘‘नाराजगी सिर्फ पापा से है.’’

‘‘सौतेली मां से नहीं?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं, उन से मैं नफरत करती हूं.’’

‘‘नफरत? क्या तुम ने अपनी सौतेली मां को देखा है या उन से कभी मिली हो?’’ वंदना ने पूछा.

‘‘नहीं.’’

‘‘फिर सौतेली मां से नफरत क्यों? नफरत तो हमेशा बुरे इनसानों से की जाती है न,’’ वंदना ने कहा.

‘‘सौतेली मांएं बुरी ही होती हैं, अच्छी नहीं.’’

‘‘ओह हां, मैं तो इस बात को जानती ही नहीं थी. तुम कह रही हो तो यह ठीक ही होगा. बुरी ही नहीं, हो सकता है सौतेली मां देखने में डरावनी भी हो,’’ हलका सा मुसकराते हुए वंदना ने कहा.

शेफाली को इस बात से भी हैरानी थी कि जानकी बूआ ने अपने घर की बातें अपनी सहेली की बेटी से कैसे कर दीं?

वंदना अपने मधुर और आत्मीय व्यवहार से शेफाली के बहुत करीब तो आ गई मगर वह उस के बारे में ज्यादा जानती न थी, सिवा इस के कि वह जानकी बूआ की किसी सहेली की लड़की थी.

फिर एक दिन शेफाली ने उस से पूछ ही लिया, ‘‘आप की शादी हो चुकी है?’’

‘‘हां,’’ वंदना ने कहा.

‘‘फिर आप अकेली यहां क्यों आई हैं? अपने पति को भी साथ में लाना चाहिए था.’’

‘‘वह साथ नहीं आ सकते थे.’’

‘‘क्यों?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘क्योंकि कोई ऐसा काम था जो उन के साथ रहने से मैं नहीं कर सकती थी,’’ बड़ी गहरी और भेदपूर्ण मुसकान के साथ वंदना ने कहा.

‘‘ऐसा कौन सा काम है?’’ शेफाली ने पूछा भी लेकिन वंदना जवाब में केवल मुसकराती रही. बोली कुछ नहीं.

अब पढ़ाई के लिए शेफाली जब भी ज्यादा रात तक जागती तो वंदना उस के कमरे में आ जाती और अधिकारपूर्वक उस के हाथ से किताब पकड़ कर एक तरफ रख देती व उस को सोने के लिए कहती.

शेफाली भी छोटे बच्चे की तरह चुपचाप बिस्तर पर लेट जाती.

‘‘गुड गर्ल,’’ कहते हुए वंदना अपना कोमल हाथ उस के ललाट पर फेरती और बत्ती बुझा कर कमरे से बाहर निकल जाती.

वंदना शेफाली की कुछ नहीं लगती थी फिर भी कुछ दिनों में वह शेफाली को इतनी अपनी लगने लगी कि उस को बारबार ‘मम्मी’ की याद आने लगी थी. ऐसा क्यों हो रहा था वह स्वयं नहीं जानती थी.

एक दिन रंजना ने शेफाली को यह बतलाया कि वंदना अगले दिन सुबह की ट्रेन से वापस अपने घर जा रही हैं तो उस को एक धक्का सा लगा था.

‘‘आप ने मुझ को बतलाया नहीं कि आप कल जा रही हैं?’’ मिलने पर शेफाली ने वंदना से पूछा.

‘‘मेहमान कहीं हमेशा नहीं रह सकते, उन को एक न एक दिन अपने घर जाना ही पड़ता है.’’

शेफाली का मुखड़ा उदासी की बदलियों में घिर गया.

‘‘आप जिस काम से आई थीं क्या वह पूरा हो गया?’’ शेफाली ने पूछा तो उस की आवाज में उदासी थी.

‘‘ठीक से बता नहीं सकती. वैसे मैं ने कोशिश की है. नतीजा क्या निकलेगा मुझ को मालूम नहीं,’’ वंदना ने कहा.

‘‘आप कितनी अच्छी हैं. मैं आप को भूल नहीं सकूंगी,’’ वंदना के हाथों को अपने हाथ में लेते शेफाली ने उदास स्वर में कहा.

‘‘शायद मैं भी नहीं,’’ वंदना ने जवाब में कहा.

‘‘क्या हम दोबारा कभी मिलेंगे?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘भविष्य के बारे में कुछ बतलाना मुश्किल है और दुनिया में संयोगों की कमी भी नहीं है,’’ शेफाली के हाथों को दबाते हुए वंदना ने कहा.

रवानगी से पहली रात को शेफाली के कमरे में वंदना आई तो वह बहुत गंभीर थी. उस की तरफ देख कर वंदना बोली, ‘‘जाने से पहले मैं तुम को कुछ समझाना चाहती हूं. मेरी बात पर अमल करना, न करना तुम्हारी मर्जी होगी. जीवन के सच से मुंह मोड़ना और हालात का सामना करने के बजाय उस से दूर भागना समझदारी नहीं. जिस को तुम ने देखा नहीं, जाना नहीं, उस के लिए नफरत क्यों? नफरत इसलिए क्योंकि उस के साथ ‘सौतेली’ शब्द जुड़ा है. प्यार और नफरत करने का तुम को हक है. किंतु तब तक नहीं जब तक तुम किसी को देख या जान न लो. अगर तुम्हारे पापा ने किसी दूसरी औरत से शादी कर के तुम्हारा दिल दुखाया है तो इस का मतलब यह नहीं कि तुम अपने घर पर अपना हक छोड़ दो. तुम को परीक्षाएं देने के बाद अपने घर वापस जाना ही है. यह पक्का इरादा कर लो. अपनों पर नाराज हुआ जाता है, उन को छोड़ा नहीं जाता. रही बात तुम्हारे पापा के साथ शादी करने वाली दूसरी औरत, मेरा मतलब तुम्हारी सौतेली मां से है. एक बार उस को भी देख लेना. अगर वह सचमुच तुम्हारी सोच के मुताबिक बुरी हो तो उस को घर से बाहर का रास्ता दिखलाने का इंतजाम कर देना. इस के लिए तुम को अपने पापा से भी झगड़ना पडे़ तो कोई हर्ज नहीं.’’

जब वंदना अपनी बात कह रही थी तो शेफाली हैरानी से उस के चेहरे को देख रही थी. वंदना की बातों से उस को एक बल मिल रहा था.

आगे पढ़ें- जानकी बूआ ने शेफाली पर घर जाने और पापा से फोन पर बात करने का दबाव बनाने की कोशिश की तो उस ने बूआ को सीधी धमकी दे डाली, ‘‘बूआ, अगर आप किसी बात के लिए मुझे ज्यादा परेशान करोगी तो सच कहती हूं, मैं इस घर को भी छोड़ कर कहीं चली जाऊंगी और फिर कभी किसी को नजर नहीं आऊंगी.’’

शेफाली की इस धमकी से बूआ थोड़ा डर गई थीं. इस के बाद उन्होंने शेफाली पर किसी बात के लिए जोर देना ही बंद कर दिया था.

शेफाली को यह भी पता था कि वह हमेशा के लिए बूआ के घर में नहीं रह सकती थी. 5-6 महीने के बाद जब उस की बी.एड. की पढ़ाई खत्म हो जाएगी तो उस के पास बूआ के यहां रहने का कोई बहाना नहीं रहेगा.

तब क्या होगा?

आने वाले कल के बारे में जितना सोचती उतना ही अनिश्चितता के धुंधलके में घिर जाती. बगावत पर आमादा शेफाली का मन उस के काबू में नहीं रहा था.

फूफा से शेफाली कम ही बात करती थी. बूआ से तो उस का छत्तीस का आंकड़ा था लेकिन उस घर में शेफाली जिस से अपने दुखसुख की बात करती थी वह थी रंजना, जानकी बूआ की बेटी.

रंजना लगभग उसी की हमउम्र थी और एम.ए. कर रही थी.

रंजना उस के दिल के हाल को समझती थी और मानती थी कि उस के पापा ने उस की गैरमौजूदगी में शादी कर के गलत किया था. इस के साथ वह शेफाली को हालात के साथ समझौता करने की सलाह भी देती थी.

सौतेली मां के लिए शेफाली की नफरत को भी रंजना ठीक नहीं समझती थी.

वह कहती थी, ‘‘बहन, तुम ने अभी उस को देखा नहीं, जाना नहीं. फिर उस से इतनी नफरत क्यों? अगर किसी औरत ने तुम्हारी मां की जगह ले ली है तो इस में उस का क्या कुसूर है. कुसूर तो उस को उस जगह पर बिठाने वाले का है,’’ ऐसा कह कर रंजना एक तरह से सीधे शेफाली के पापा को कुसूरवार ठहराती थी.

कुसूर किसी का भी हो पर शेफाली किसी भी तरह न तो किसी अनजान औरत को मां के रूप में स्वीकार करने को तैयार थी और न ही पापा को माफ करने के लिए. वह तो यहां तक सोचने लगी थी कि पढ़ाई पूरी होने पर उस को जानकी बूआ का घर भले ही छोड़ना पडे़ लेकिन वह अपने घर नहीं जाएगी. नौकरी कर के अपने पैरों पर खड़ी होगी और अकेली किसी दूसरी जगह रह लेगी.

2 बार मना करने के बाद पापा ने फिर शेफाली से फोन पर बात करने की कोशिश नहीं की थी. हालांकि जानकी बूआ से पापा की बात होती रहती थी.

मानसी और अंकुर से शेफाली ने फोन पर जरूर 2-3 बार बात की थी, लेकिन जब भी मानसी ने उस से नई मम्मी के बारे में चर्चा करने की कोशिश की तो शेफाली ने उस को टोक दिया था, ‘‘मुझ से इस बारे में बात मत करो. बस, तुम अपना और अंकुर का खयाल रखना,’’ इतना कहतेकहते शेफाली की आवाज भीग जाती थी. अपना घर, अपने लोग एक दिन ऐसे बेगाने बन जाएंगे शेफाली ने कभी सोचा नहीं था.

पहले तो शेफाली सोचती थी कि शायद पापा खुद उस को मनाने जानकी बूआ के यहां आएंगे पर एकएक कर कई दिन बीत जाने के बाद शेफाली के अंदर की यह आशा धूमिल पड़ गई.

इस से शेफाली ने यह अनुमान लगाया कि उस की मम्मी की जगह लेने वाली औरत (सौतेली मां) ने पापा को पूरी तरह से अपने वश में कर लिया है. इस सोच में उस के अंदर की नफरत को और गहरा कर दिया.

अचानक एक दिन बूआ ने नौकरानी से कह कर ड्राइंगरूम के पिछले वाले हिस्से में खाली पड़े कमरे की सफाई करवा कर उस पर कीमती और नई चादर बिछवा दी थी तो शेफाली को लगा कि बूआ के घर कोई मेहमान आने वाला है.

शेफाली ने इस बारे में रंजना से पूछा तो वह बोली, ‘‘मम्मी की एक पुरानी सहेली की लड़की कुछ दिनों के लिए इस शहर में घूमने आ रही है. वह हमारे घर में ही ठहरेगी.’’

‘‘क्या तुम ने उस को पहले देखा है?’’ शेफाली ने पूछा.

‘‘नहीं,’’ रंजना का जवाब था.

शेफाली को घर में आने वाले मेहमान में कोई दिलचस्पी नहीं थी और न ही उस से कुछ लेनादेना ही था. फिर भी वह जिन हालात में बूआ के यहां रह रही थी उस के मद्देनजर किसी अजनबी के आने के खयाल से उस को बेचैनी महसूस हो रही थी.

वह न तो किसी सवाल का सामना करना चाहती थी और न ही सवालिया नजरों का.

जानकी बूआ की मेहमान जब आई तो शेफाली उसे देख कर ठगी सी रह गई.

चेहरा दमदमाता हुआ सौम्य, शांत और ऐसा मोहक कि नजर हटाने को दिल न करे. होंठों पर ऐसी मुसकान जो बरबस अपनी तरफ सामने वाले को खींचे. आंखें झील की मानिंद गहरी और खामोश. उम्र का ठीक से अनुमान लगाना मुश्किल था फिर भी 30 और 35 के बीच की रही होगी. देखने से शादीशुदा लगती थी मगर अकेली आई थी.

जानकी बूआ ने अपनी सहेली की बेटी को वंदना कह कर बुलाया था इसलिए उस के नाम को जानने के लिए किसी को कोई कोशिश नहीं करनी पड़ी थी.

मेहमान को घर के लोगों से मिलवाने की औपचारिकता पूरी करते हुए जानकी बूआ ने अपनी भतीजी के रूप में शेफाली का परिचय वंदना से करवाया था तो उस ने एक मधुर मुसकान लिए बड़ी गहरी नजरों से उस को देखा था. वह नजरें बडे़ गहरे तक शेफाली के अंदर उतर गई थीं.

शेफाली समझ नहीं सकी थी कि उस के अंदर गहरे में उतर जाने वाली नजरों में कुछ अलग क्या था.

‘‘तुम सचमुच एक बहुत ही प्यारी लड़की हो,’’ हाथ से शेफाली के गाल को हलके से थपथपाते हुए वंदना ने कहा था.

उस के व्यवहार के अपनत्व और स्पर्श की कोमलता ने शेफाली को रोमांच से भर दिया था.

शेफाली तब कुछ बोल नहीं सकी थी.

जानकी बूआ वंदना की जिस प्रकार से आवभगत कर रही थीं वह भी कोई कम हैरानी की बात नहीं थी.

एक ही घर में रहते हुए कोई कितना भी अलगअलग और अकेला रहने की कोशिश करे मगर ऐसा मुमकिन नहीं क्योंकि कहीं न कहीं एकदूसरे का सामना हो ही जाता है.

शेफाली और वंदना के मामले में भी ऐसा ही हुआ. दोनों अकेले में कई बार आमनेसामने पड़ जाती थीं. वंदना शायद उस से बात करना चाहती थी लेकिन शेफाली ही उस को इस का मौका नहीं देती थी और केवल एक हलकी सी मुसकान अधरों पर बिखेरती हुई वह तेजी से कतरा कर निकल जाती थी.

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अपनी-अपनी जिम्मेदारियां: भाग 4- आशिकमिजाज पति को क्या संभाल पाई आभा

रास्तेभर वह सोचविचार करता रहा कि वह कितना गलत था और आभा कितनी सही. मैं ने कभी उसे नहीं समझा. बच्चे घर में मौज करते रहे और मैं बाहर और वह बेचारी हम सब की तीमारदारी में लगी रही. कभी अपने लिए नहीं सोचा उस ने और मैं ने भी क्या सोचा उस के लिए? एक डाक्टर को तो दिखा नहीं पाया. अगर आज उसे कुछ हो जाता, तो क्या करता मैं? क्या पूरी जिंदगी जी पाता मैं उस के बिना? बेटाबेटी, जिन्हें मैं जान से बढ़ कर प्यार करता हूं, उन के सामने आभा को कभी अहमियत नहीं दी वही बच्चे 1 गिलास पानी मांगने पर चिढ़ उठते. देख लिया मैं ने सब और समझ भी लिया. वह रंभा, जो मेरी जेबें खाली करवाती रहती थी, उसे भी देख लिया. कैसे मुंह फेर लिया उस ने मुझ से? चलो अच्छा ही है. वह कहते हैं न, जो होता है अच्छे के लिए ही होता है यही सब सोचते हुए वह कब घर पहुंच गया, पता ही नहीं चला.

देखा तो रिनी बड़े मजे से झूला झूलते हुए किसी से फोन

पर बातें करने में मशगूल थी. सोनू कमरे में बैठा हमेशा की तरह लैपटौप चला रहा था और निर्मला, बाबाजी की आवभगत में लगी हुई थीं. नवल को देखते ही सब की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. बाबाजी तो तुरंत वहां से रफूचक्कर हो गया, क्योंकि पहले ही नवल ने चेता दिया था कि बाबा को घर में न बुलाया करें. उस दिन तो वह चुप रह गया था, लेकिन आज लगता है आभा एकदम सही कहती थी, ये ढोंगी बाबा लोगों को बहला कर सिर्फ उन से पैसे ऐंठते हैं और कुछ नहीं. बाबाओं के कारनामे सुनसुन कर तो अब उन पर से विश्वास ही उठ गया है. लेकिन अभी भी निर्मला जैसे कुछ लोग हैं, जो उन के चरणों में लोट जाने के लिए तत्पर रहते हैं.

‘‘चाय पिलाओ रिनी, 1 कप,’’ झूले पर बैठते हुए एकबारगी नवल ने सब को देखा. निर्मला पूछने लगीं, ‘‘अब आभा कैसी है?’’

‘‘ठीक है. डाक्टर कह रहे थे 2-4 दिन में छुट्टी कर देंगे, लेकिन आप लोगों से कुछ बात करनी है मुझे,’’ कह नवल ने सोनू और रिनी को भी आवाज दे कर बुलाया.

‘‘रिनी, आभा घर आ तो रही है, पर डाक्टर ने अभी उसे आराम करने को कहा है, इसलिए जब तक तुम्हारी मां पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाती खाना तुम बनाओगी.’’

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खाना बनाने का नाम सुनते ही रिनी के हाथपांव फूलने लगे. घबरा कर बोली, ‘‘पर पापा, मैं कैसे… मुझे कहां कुछ बनाना आता है? नहींनहीं, मुझ से ये सब नहीं होगा. वैसे भी मां तो अब आ ही रही हैं न?’’

रिनी की बात पर नवल ऐसे गुर्राया कि वह सहम उठी. बोला, ‘‘क्या वह हम सब की नौकरानी है? मैं ने कहा कि जब तक तुम्हारी मां पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो जाती, खाना तुम ही बनाओगी यह बात तय है और रही बात बनाना न आने की, तो दादी से पूछो, यूट्यूब में देखो और बनाओ. कोई बहाना नहीं चलेगा, अब तुम बच्ची नहीं रही. कालेज में चली गई हो. कल को शादी भी होगी, तो क्या वहां भी तुम्हारी मां तुम्हारे नखरे उठाने जाएगी?’’

समझ गई रिनी कि अब वह नहीं बचने वाली. काम तो करना ही पड़ेगा. इसलिए सिर झुका कर उसे नवल के फैसले को स्वीकार करना पड़ा.

रिनी के बाद नवल ने सोनू को घूर कर देखा, तो बेचारा डर के मारे अपनेआप में ही सिकुड़ने लगा. कहा भी गया है सामने वाले को पहले अपने हावभाव से डराओ ताकि उस की आधी हिम्मत वैसे ही पस्त हो जाए. जैसेकि सोनू की हो गई.

‘‘क्यों, अगले महीने से तुम्हारी परीक्षा शुरू होने वाली है न? तो क्या पढ़ाई तुम्हारा बाप करेगा? पढ़ाई छोड़ कर दोस्तों के साथ चैटिंग करने में लगे रहते हो. क्या इसलिए मैं ने तुम्हें लैपटौप खरीद कर दिया था? जिंदगीभर का ठेका नहीं ले रखा है मैं ने तुम सब का समझे?’’

नवल ने कड़कती आवाज में कहा, तो सोनू जी पापा, जी पापा करने लगा. समझ में आ गया नवल को कि प्यार के साथसाथ बच्चों के साथ सख्ती भी जरूरी होती है. बोला, ‘‘पढ़ाई के अलावा आज से बाहर के सारे काम, जैसे दूध, फलसब्जी लाना आदि जो भी घर से जुड़े काम हैं वे सब तुम करोगे और हां, अपने कपड़े भी तुम खुद ही धोओगे आज से, समझ गए?’’

नवल की सख्त आवाज से दोनों बच्चों की घिग्गी बंध गई.

‘‘और मां आप, बाबाओं को घर में बुलाना बंद कीजिए. कितनी बार आभा ने आप को समझाया, लेकिन आप हैं कि सुनती ही नहीं हैं. आप बड़ी हैं घर की. कम से कम इतना तो ध्यान रख ही सकती हैं कि बच्चे क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं, घर पर हैं की नहीं, घर में कौन आया, कौन गया, क्या ये सब ध्यान रखने की जिम्मेदारी आप की नहीं बनती? आप ही बताइए न, एक अकेला इंसान आखिर कितना काम करेगा. मैं तो सुबह से रात के 8 बजे तक औफिस में ही रहता हूं, तो मैं क्या कर सकता हूं?’’ प्यार से ही, पर निर्मला को भी नवल ने उन की जिम्मेदारी अच्छी तरह समझा दी.

हफ्तेभर बाद जब आभा घर पहुंची, तो उसे सबकुछ बदलाबदला सा

लगा. क्या सोचा था उस ने कि उस के बिना घर की क्या स्थिति हो गई होगी और यहां तो सब अलग ही था. सब बिस्तरों पर सलीके से चादरें बिछी थीं. हाल भी एकदम करीने से सजा चमका था. किचन भी एकदम साफसुथरी व व्यवस्थित थी. खाने की बड़ी अच्छी खुशबू भी आ रही थी. पूरा घर चमक रहा था. विश्वास नहीं हुआ आभा को कि यह उस का ही घर है.

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‘‘क्या देख रही हो आभा? यह तुम्हारा ही घर है और ये सब मां और बच्चों ने मिल कर किया है,’’ नवल ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘मां को देखते ही दोनों बच्चे आ कर उस से लिपट गए. निर्मला ने भी बहू को अपने सीने से लगा लिया. यह सब अप्रत्याशित था आभा के लिए, क्योंकि  उस ने सपने में भी नहीं सोचा था ये सब होगा.’’

रात में बड़ी सुकून की नींद आई आभा को. वह जैसे ही उठने लगी नवल ने उस का हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘आज से हर सुबह की चाय यह बंदा बनाएगा आप के लिए,’’ कह कर वह उठने लगा तो लड़खड़ा गया.

‘‘नहींनहीं, घबराओ नहीं मैं ठीक हूं और अगर कभी ठोकर खा कर गिर भी जाऊं, तो

तुम संभाल लेना,’’ नवल ने कहा, तो आभा

को हंसी आ गई. वर्षों बाद आभा के चेहरे पर हंसी देख नवल भी मुसकरा उठा, ‘‘अब मैं तुम्हें कभी मुरझाने नहीं दूंगा आभा… बस आप का साथ रहे.’’

औरत का सरोवर तो आदमी होता है. पुरुषरूपी पानी के साथ वह बढ़ती जाती है, ऊपर से ऊपर, पर जैसे ही पानी घटा, पीछे हटा, वैसे ही औरत बेसहारा हो कर सूखने लगती है. आभा के साथ भी वही हुआ. जब तक नवल का सहयोग था, वह खिलती रही, जब से नवल का प्यार घटा, वह मुरझाने लगी. लेकिन आज फिर उसी पुराने नवल को देख वह खिल उठी. मन लहराने को करने लगा. मन के साथ उस के पूरे शरीर में भी ताकत समा गई.

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विदाई: भाग 4- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

सुधा एक नेक इनसान की बात न टाल सकी. घर आ कर उन्होंने पूछा, ‘‘माजरा क्या है नीता?’’

‘‘ये क्या बताएंगी मैं आप को बताती हूं,’’ सुधा बोली.

‘‘शादी के दिन से ही आप की बेटी ससुराल में नहीं रहना चाहती थी. वह अपनी हर इच्छा नरेश पर लादती रहती और उस के मना करने पर आत्महत्या की धमकी देती. बेचारा नरेश क्या करता, चुपचाप सबकुछ सहन करता. यह हर बात अपनी मम्मी को बताती और आप की पत्नी अपनी बेटी टीना को उल्टी शिक्षा देतीं. ताकि बेटी को ससुराल में रह कर कुछ न करना पड़े.’’

‘‘यह सच नहीं है,’’ नीता बोली.

‘‘तो आप ही बात दीजिए सच क्या है?’’ नरेश तीखे स्वर में बोला.

‘‘मेरे बेटे को वश में करने के लिए ये मांबेटी किसी बाबा से अनुष्ठान करवा रही हैं. विश्वास न हो तो खुद चल कर देख लीजिए. हम स्वयं उस बाबा से मिल कर आ रहे हैं, सुधा बोली.’’

‘‘क्या यह सच है?’’ पापा ने पूछा.

‘‘यह क्या जवाब देंगी. इस ने तो एक पल को भी अपनी ससुराल को अपना घर नहीं समझा. इस में इस का भी क्या दोष? इसे अपनी मां से शिक्षा ही ऐसी मिली थी. अब अपनी बेटी को आप अपने ही पास रखिए. इस से न इसे तकलीफ होगी न इस की मम्मी को. मेरे बेटे को भी इन की ज्यादतियों से मुक्ति मिल जाएगी. इस एक साल में हमारे बेटे ने क्या कुछ न सहा… क्या सुख मिला इसे शादी का. ससुराल के नाम से ही चिढ़ है टीना को, बेचारा छिपा कर सब बातें अपनी मां को बताता रहा. मेरे समझाने पर उस ने टीना की, हर नाजायज बात स्वीकार कर ली. मुझे उम्मीद थी कि टीना को एक दिन अपनी गलती का एहसास जरूर होगा पर वह दिन देखना शायद हम लोगों की किस्मत में नहीं था.हम जा रहे हैं. आप अपनी बेटी को अपने पास रखिए. अगर हम इस की हरकतों से तंग आ कर इसे वापस मायके भेजते तो किसी को हमारी बात का यकीन न होता. सब हमें ही दोषी ठहराते. आज सबकुछ आप अपनी आंखों से देख सकते हैं,’’ नरेश के पापा बोले.ॉ

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सुधा, पति व बेटे के साथ जाने लगी तो टीना के पापा ने उन के पैर पकड़ लिए.

‘‘भाई साहब, इस में आप का कोई दोष नहीं है. नीता ने आप को घर का मुखिया समझा ही कब? पहले ये खुद मनमानी करती रहीं अब वही सब बेटी के साथ दोहरा रही हैं.’’

‘‘मेरी बेटी की गलती को माफ कर दीजिए,’’ टीना के पापा बोले.

नरेश उन से हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘पापाजी, ससुराल में टीना को रहना है. इस में आप और हम क्या कर सकते हैं. मम्मी की शह पर टीना ने कभी आप को पिता होने का ओहदा न दिया. जो लड़की पिता को कुछ न समझे वह ससुर को क्या समझेगी? अभी हम जा रहे हैं. बाकी निर्णय तो टीना को लेना है.’’

नरेश अपने मम्मीपापा के साथ वापस लखनऊ चला आया.

ससुराल वालों से जलील हो कर टीना बड़ी आहत थी. नीता की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? नरेश अपने मम्मीपापा के साथ मिल कर ऐसा खेल खेलेगा इस की टीना व नीता को रत्ती भर भी उम्मीद न थी.

अपने घर में अपने ही कर्मों से नीता बुरी तरह लज्जित हो गई. पति के सामने उस की हरकतों का कच्चा चिट्ठा दामाद ने खोल दिया. उन के जाते ही प्रकाश बोले, ‘‘तुम मांबेटी की हरकतों ने आज मेरी इज्जत सरेआम उछाल दी. जो कोई भी सुनेगा, थूकेगा तुम दोनों पर. कितनी ओछी हरकत की है तुम दोनों ने.’’

आज पहली बार प्रकाश की बातों का नीता ने पलट कर जवाब नहीं दिया. दामाद को अपनी ओर करने के चक्कर में वह खुद एकदम अकेली पड़ गई.

नीता को गुमसुम देख कर टीना बोली, ‘‘मम्मी, जो होना था सो हो गया. शायद मेरे भाग्य में यही लिखा था. अब मैं आप को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगी.’’

‘‘तुम्हारे ससुराल के रास्ते मैं ने ही अपने हाथों बंद किए हैं बेटी, उन्हें खोलना मेरा ही फर्ज है,’’ कह कर नीता ने अपनी ननद को फोन मिलाया और सारी बातें ज्यों की त्यों उन्हें बात दीं.

रमा ने भाभी की कही बातें सुनीं तो उन के पैरों तले जमीन खिसक गई. उस ने ही टीना का रिश्ता अपनी ससुराल के दूर के रिश्ते में तय करवाया था.

‘‘भाभी, तुम चिंता मत करो. मैं सुधा व नरेश से बात करूंगी,’’ रमा बोली.

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‘‘रमा, मुझे माफ कर दो. यह बात लोग सुनेंगे तो कहेंगे कि दामाद ने मेरी नासमझी को मेरे ही घर में सुबूत सहित सब को दिखा दिया. मेरे लिए तो चुल्लू भर पानी में डूब मरने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.’’

‘‘भाभी, हिम्मत रखो. जिंदगी के रास्ते एकदम सीधे नहीं, टेढे़मेढ़े होते हैं. एक रुकावट आने से मंजिल नहीं छूटती, रास्ते का फेर बढ़ जाता है. टीना को तुम ने लापरवाह बनाया है तो सुधारना भी तुम्हें ही होगा.’’

‘‘मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. बस, टीना को इस बदनामी से बचा लो.’’

‘‘एक अच्छी पत्नी का अच्छी बहू होना जरूरी है. पति के दिल में उतरने का सब से सरल रास्ता उस के मातापिता की सेवा से बनता है. तुम उसे इस बार नरेश के पास नहीं सुधा के पास लखनऊ ले कर चलो. मैं भी वहीं पहुंच रही हूं.’’

नीता के पहुंचने से पहले रमा सुधा के पास पहुंच चुकी थी.

‘‘सुधा, टीना मक्कार नहीं भटकी हुई है. उसे रास्ता दिखाना तुम्हारा फर्ज बनता है. नीता के लाड़प्यार ने आज उसे इस स्थिति पर ला दिया है. यह दो जिंदगियों का सवाल है.’’

रमा के समझाने का सुधा पर अच्छा प्रभाव पड़ा. वह रमा का आग्रह न टाल सकी.

‘‘बहनजी, मैं वादा करती हूं कि आप के परिवार के बीच कभी कोई अड़चन नहीं डालूंगी,’’ नीता सिर झुका कर बोली, ‘‘यहां तक कि टीना से बात तक नहीं करूंगी. इसे जो कहना होगा अपने पापा से कहेगी, मुझ से नहीं. मैं टीना को आप की छत्रछाया में छोड़ कर जा रही हूं. हो सके तो इसे भी कुछ अच्छे संस्कार सिखा दीजिएगा.’’

‘‘यह टीना के जीवन का प्रश्न है और उसे पति व उस के परिवार के साथ खुद को एडजस्ट करना है. हम उस पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते,’’ सुधा बोली.

‘‘मम्मीजी, मुझे आप की हर शर्त मंजूर है. प्लीज, मुझे यहीं रहने दीजिए,’’ टीना बोली.

‘‘यह घर तुम्हारा ही था बेटी पर तुम ने इसे कभी अपना नहीं समझा. केवल पति तक सीमित हो कर रह गई थीं तुम्हारी भावनाएं. और भावनाएं शर्तों पर नहीं जगाई जा सकतीं.’’

‘‘भूल मुझ से हुई तो प्रायश्चित्त भी मैं ही करूंगी. 6 महीने आप के साथ रह कर अपने को एक अच्छी बहू साबित कर के दिखा दूंगी, मुझे एक मौका दीजिए.’’

सुधा ने नीता और टीना को माफ कर दिया. भारी मन से नीता ने टीना से विदा ली. चलते समय वह बेटी को नसीहत दे रही थी, ‘‘टीना, अपने व्यवहार से सब को खुश रखना. सासससुर की सेवा करना,’’ आगे वह कुछ न कह सकी. सही माने में सच्ची विदाई तो टीना की आज ही हुई थी, मां के आशीर्वाद के साथ.

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विदाई: भाग 3- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

एक दिन नरेश ने टीना को बताया कि उस के आफिस का माहौल कुछ ठीक नहीं चल रहा है. यही हाल रहा तो एक दिन वापस घर जाना पडे़गा. यह सुन कर टीना अंदर ही अंदर कांप गई कि कैसे रहेगी वह सासससुर, ननददेवर के बीच. सुबह- शाम खाना बनाना और घर की देखभाल करना उस के बूते की बात न थी. अब भी वह कई बार 9 बजे सो कर उठती. नरेश कभी विरोध न करता. चुपचाप चाय पी कर आफिस चला जाता है. नरेश की कही बात टीना ने तुरंत अपनी मम्मी को बताई. ‘‘यह तो बड़ी बुरी खबर है टीना.’’

‘‘मम्मी, मैं तो नरेश के साथ दिल्ली आ जाऊंगी.’’

‘‘नरेश न माना तो…’’

‘‘इस के लिए आप कोई उपाय करो न मम्मी.’’

‘‘अच्छा, सोच कर बताती हूं,’’ कह कर नीता ने फोन रख दिया.

शाम को नरेश के आने से पहले  नीता ने टीना को फोन किया, ‘‘टीना, तुम्हारी बातों ने मुझे बड़ा विचलित किया है. ससुराल में कैसे रहोगी जीवन भर. मैं एक तांत्रिक को जानती हूं. उस के पास हर समस्या का उपाय है. वह हमारी समस्या चुटकियों में हल कर देंगे.’’

‘‘यह ठीक है मम्मी, कल सुबह बात करूंगी,’’ कह कर टीना आश्वस्त हो गई.

अगले दिन दोपहर को टीना के पास उस की मां का फोन आया,  ‘‘बेटी, घबराने की बात नहीं है. बाबा ने यकीन दिलाया है कि सब ठीक हो जाएगा. उन्होंने नरेश को पहनने के लिए एक अंगूठी दी है. मैं ने कूरियर से उसे तुम्हारे पास भेज दिया है. तुम उसे नरेश को जरूर पहना देना.’’

2 दिन में अंगूठी टीना के पास पहुंच गई. अगूंठी सोने की थी. टीना ने वह बड़े प्यार से नरेश की उंगली में पहना दी. नरेश ने प्रश्नवाचक दृष्टि से टीना को देखा.

‘‘मम्मी ने भेजी है तुम्हारे लिए.’’

‘‘मेरे पास तो अंगूठियां हैं.’’

‘‘यह स्पेशल है. बडे़ सिद्ध बाबा ने दी है. इस से तुम्हारे दफ्तर के सारे कष्ट दूर हो जाएंगे.’’

‘‘अच्छा,’’ कह कर नरेश ने बड़ी श्रद्धा से अंगूठी को आंखों से छुआ लिया. टीना आश्वस्त हो गई.

नरेश के साथ हुई पूरी बात टीना ने मम्मी को बताई. नीता बहुत खुश थी कि बाबा की अंगूठी वास्तव में चमत्कारी थी. वह बोली, ‘‘बेटी, तांत्रिक बाबा ने एक छोटा सा अनुष्ठान करवाने के लिए कहा है. तुम्हें 15 दिन के लिए मायके आना होगा. मैं ने सारा प्रबंध कर लिया है. तुम इस बारे में नरेश से बात करना. इस से उस का काम फिर से चल पड़ेगा.’’

शाम को टीना ने नरेश को मम्मी से हुई पूरी बात बता दी और उस से मायके जाने की अनुमति ले ली. नरेश स्वयं उसे दिल्ली छोड़ कर मुंबई आ गया.

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नीता का हर पत्ता सही पड़ रहा था. मांबेटी नियम से बाबा के पास जातीं और घंटों अनुष्ठान में लगी रहतीं. इन 12-13 दिनों में बाबा ने अनुष्ठान के नाम पर हजारों रुपए ठग लिए. आखिर वह दिन आ पहुंचा जिस का मांबेटी को इंतजार था.

तांत्रिक बोला, ‘‘बेटी को अनुष्ठान का पूरा लाभ चाहिए तो अंतिम आहुति उसी व्यक्ति से डलवानी होगी जिस के लिए यह अनुष्ठान किया जा रहा है. आप अपने दामाद को तुरंत बुला लीजिए. ध्यान रहे, इस अनुष्ठान की खबर किसी को नहीं होनी चाहिए.’’

नीता और टीना ने एकदूसरे को देखा और घर की ओर चल पड़ीं. टीना ने खामोशी तोड़ी, ‘‘मम्मी, अब क्या होगा?’’

‘‘होना क्या है, अनुष्ठान के कारण नरेश का मन पहले ही काफी बदल गया है. तुम ने देखा है, वह तुम्हारी किसी बात का विरोध नहीं करता. मुझे यकीन है, वह तुम्हारी यह बात तुरंत मान लेगा. तुम फोन करो तो सही.’’

बाबा का ध्यान कर के टीना ने नरेश को फोन मिलाया.

‘‘कैसी हो टीना, कब आ रही हो?’’

‘‘जब तुम लेने आ जाओ.’’

‘‘तब ठीक है, आज ही चल देता हूं तुम से मिलने.’’

‘‘आज नहीं 2 दिन बाद.’’

‘‘कोई खास बात है क्या?’’

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‘‘यही समझ लो. मैं जिस काम के लिए मायके आई थी वह 2 दिन बाद खत्म हो जाएगा और उस में तुम्हारा आना जरूरी है. आओेगे न?’’

‘‘जैसी तुम्हारी आज्ञा, हम तो हुजूर के गुलाम हैं.’’

‘‘पर एक शर्त है कि यह बात तुम्हारे और मेरे सिवा किसी को मालूम नहीं चलनी चाहिए वरना अनुष्ठान का प्रभाव खत्म हो जाएगा.’’

‘‘मेरे तुम्हारे अलावा मम्मीजी भी तो यह बात जानती हैं.’’

‘‘मम्मी हम दोनोें से अलग थोड़े ही हैं. सच पूछो तो हमारी भलाई उन के अलावा कोई सोच ही नहीं सकता.’’

‘‘इस अनुष्ठान से तुम्हें यकीन है कि हम सुखी हो जाएंगे?’’

‘‘100 प्रतिशत. मम्मी ने हमारी खुशी के लिए क्या कुछ नहीं किया? दिनरात एक कर के ऐसे सिद्ध बाबा से अनुष्ठान करवाया है. तुम आ रहे हो न.’’

‘‘टीना, मैं ठीक समय पर घर पहुंच जाऊंगा.’’

‘‘अरे, बाबा घर नहीं, तुम्हारे लिए मम्मी होटल में कमरा बुक करा देंगी.’’

‘‘ऐसा क्यों?’’

‘‘बहुत भोले हो तुम. घर पर पापा भी तो हैं. उन्हें तुम्हारे आने से सबकुछ पता चला जाएगा जबकि यह बात सब से छिपा कर रखनी है.’’

‘‘ओह, आई एम सौरी,’’ कह कर नरेश ने फोन रख दिया.

टीना ने जैसे समझाया था उसी तरह अंतिम आहुति देने के लिए नरेश दिल्ली पहुंच गया. टीना उस के स्वागत में एअरपोर्ट पर खड़ी थी. वह नरेश को ले कर सीधा होटल आ गई और नरेश से लिपट कर बोली, ‘‘ये 15 दिन मुझे कितने लंबे महसूस हुए जानते हो?’’

‘‘तुम्हें ही क्यों मुझे भी तो ऐसा ही एहसास हुआ पर मजबूरी थी. तुम्हारी खुशी जो इसी में थी.’’

‘‘मेरी नहीं हमारी. आज के बाद हमारी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी.’’

‘‘चलो, कहां चलना है?’’

‘‘बाबा के शिविर में.’’

‘‘यह बाबा का शिविर कहां पर है?’’

‘‘मैं तुम्हारे साथ चल रही हूं. तुम्हें खुद ब खुद पता चल जाएगा.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर नरेश चलने को तैयार हुआ. दरवाजे पर आ कर वह टीना से बोला, ‘‘डार्लिंग, मैं अपना पर्स तो अंदर ही भूल गया. तुम नीचे चलो मैं उसे लेकर आता हूं.’’

टीना होटल के मुख्य गेट पर आ गई. पापा की गाड़ी उस के पास थी. नरेश आ कर गाड़ी में बैठ गया. उधर नीता बाबा की विदाई की तैयारी में व्यस्त थी. अंतिम आहुति के साथ उसे बाबा को वस्त्र, धन और फलफूल देने थे. नीता ने कपड़े तो पहले ही खरीद लिए थे. ताजे फल खरीदने के लिए वह फल की दुकान पर खड़ी थी. टीना ने गाड़ी एक किनारे पार्क की और मम्मी की ओर बढ़ गई. फल खरीद कर टीना व नीता ज्यों ही दुकान से बाहर निकले सामने पापा के साथ नरेश के मम्मीपापा को देख कर वे दंग रह गईं.

नीता को काटो तो खून नहीं. वह अचकचा कर बोली, ‘‘आप यहां?’’

‘‘हम लोगों का यहां आना आप को अच्छा नहीं लगा?’’

‘‘नहींनहीं ऐसी बात नहीं है. असल में एक जरूरी काम से हमें जाना है. आप घर चलिए.’’

‘‘टीना, मेरी मम्मी को जरूरी काम नहीं बताओगी?’’

टीना चुप रही तो नरेश ही बोला, ‘‘मैं बताता हूं पूरी बात. मम्मीजी, बेटी के मोह में अंधी हो कर क्या कर रही हैं यह इन को खुद नहीं पता.’’

‘‘नरेश…’’ टीना चीखी.

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‘‘मर गया तुम्हारा नरेश. तुम लोगों की पोल यहीं खोल दूं या तुम्हारे घर जा कर सबकुछ बताऊं?’’

‘‘यह क्या कह रहे हो नरेश तुम. क्या हुआ बेटा?’’ टीना के पापा ने पूछा.

‘‘यह आप अपनी पत्नी और बेटी से पूछिए भाई साहब, जो रातदिन मेरे घर को बरबाद करने की साजिश रचते रहे,’’ सुधा बोली.

‘‘बहनजी, मेरी इज्जत का कुछ तो लिहाज कीजिए. घर चल कर बात करते हैं,’’ टीना के पापा हाथ जोड़ कर बोले.

आगे पढ़ें- ‘शादी के दिन से ही…

विदाई: भाग 2- पत्नी और सास को सबक सिखाने का क्या था नरेश का फैसला

शादी के बाद पहली होली पर नरेश ने टीना से घर चलने का आग्रह किया तो वह तुनक गई.

‘‘होली का त्योहार मुझे अच्छा नहीं लगता. रंगों से मुझे एलर्जी होती है.’’

‘‘बड़ों की भावनाओं का सम्मान करना जरूरी होता है टीना, मेरी खातिर तुम लखनऊ चलो न, वहां सब तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’ नरेश दुविधा में था कि क्या करे, क्योंकि टीना ससुराल जाने के लिए तैयार न थी. तभी नरेश के दिमाग में एक आइडिया आया और वह बोला, ‘‘टीना, चलो दिल्ली चलते हैं.’’ दिल्ली का नाम सुनते ही टीना तैयार हो गई.

होली से 2 दिन पहले वे दिल्ली पहुंच गए. नीता बेटीदामाद को देख कर फू ली न समाई. बेटी को होली पर मायके देख कर टीना के पापा पहली बार बोले, ‘‘टीना, इस समय तुम्हें मायके के बजाय अपनी ससुराल में होना चाहिए था. यह तुम्हारी ससुराल की पहली होली है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है? टीना यहां रहे या ससुराल में.’’

‘‘फर्क हमें नहीं हमारे समधीजी को पड़ेगा, जिन का बेटा होली के दिन अपनी ससुराल में पत्नी के साथ…’’

‘‘बसबस, रहने दो. तुम्हें कुछ पता है रिश्तेनातों के बारे में. मैं न होती तो…’’

‘‘आप दोनों हमें ले कर आपस में क्यों उलझ रहे हैं. टीना यहां रह लेगी और चूंकि मेरा यहां रुकना ठीक नहीं है इसलिए मैं लखनऊ चला जाता हूं.’’

टीना के सामने अब कोई रास्ता न था. मजबूर हो कर उसे भी नरेश के साथ लखनऊ आना पड़ा. होली पर गुलाल के रंग टीना के सुंदर चेहरे पर बहुत फब रहे थे पर खुशी का असली रंग उस के चेहरे से नदारद था.

सुधा से बहू की उदासी और उकताहट छिपी न थी. वह सबकुछ देख कर भी चुप थी. इस अवसर पर उसे कोई नसीहत देना उस के दुख को क्रोध में बदलना था. बस, एक बार सुधा ने कहा, ‘‘टीना, कितना अच्छा लगता है जब तुम और नरेश यहां होते हो.’’

सुधा की बात सुन कर टीना चुप रही. रात को नरेश ने पूछा, ‘‘टीना, तुम्हारा मन कुछ दिन ससुराल में रहने को हो तो मैं अपनी छुट्टी आगे बढ़ा लेता हूं.’’

सुधा के शब्दों की खीज वह नरेश पर उतारते हुए बोली, ‘‘3 दिन में आप का मन नहीं भरा अपने लोगों के साथ रह कर.’’

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‘‘अपनापन तो मन में होता है, टीना. मुझे तो तुम से जुड़े सभी लोग अपने लगते हैं.’’

‘‘मुझे तुम्हारी फिलोसफी नहीं सुननी, और यहां रुकना मेरे बस की बात नहीं.’’

टीना का दो टूक जवाब सुन कर भी नरेश हंस दिया और बोला, ‘‘सौरी डार्लिंग, हम कल सुबह ही यहां से चल पड़ेंगे.’’

मुंबई वापस लौट कर टीना ने राहत की सांस ली और ससुराल में घटी सब बातोें की जानकारी अपनी मम्मी को दे दी.

अकसर टीना और नरेश शाम को घर से बाहर ही खाना खाते क्योंकि टीना को खाना पकाना नहीं आता था और वह सीखने का प्रयास भी नहीं करती. कभी वह जिद कर के टीना से कुछ बनाने को कहता तो गैस के चूल्हे जलने के साथ टीना का मोबाइल कान से लग जाता.

हां, मम्मी, बताओ कढ़ी बनाने के लिए सब से पहले क्या करना है? इस तरह मम्मी से पूरी रेसिपी सुन कर जितना फोन का बिल बढ़ता उस से कम पैसे में होटल से लजीज खाना मंगाया जा सकता था. सो नरेश ने फरमाइश करनी ही छोड़ दी.

इधर नरेश ने महसूस किया कि टीना उस से उलझने का कोई न कोई बहाना ढूंढ़ती रहती है. कल की ही बात है, टीना को शोरूम में एक घड़ी बहुत पसंद आई. उस ने नरेश से घड़ी लेने का आग्रह किया, ‘‘नरेश देखो, कितनी सुंदर घड़ी है.’’

‘‘टीना, तुम्हारे पास पहले ही कई घडि़या हैं. उन में से कुछ तो तुम ने आज तक पहनी भी नहीं हैं और घड़ी ले कर क्या करोगी?’’

‘‘वे घडि़यां मुझे पसंद नहीं. मुझे तो यही चाहिए,’’ टीना जिद करते हुए  बोली.

इतनी देर में नरेश काउंटर से हट कर अलग खड़ा हो गया. टीना नरेश की ओर बढ़ी तो वह दुकान से बाहर आ गया. गुस्से से भरी टीना, नरेश के साथ घर तो आ गई पर घर में घुसते ही वह फट पड़ी, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, दुकान में मेरी बेइज्जती करने की.’’

‘‘मेरा ऐसा कोई इरादा न था. मैं तो बस, दुकान में उपहास का पात्र नहीं बनना चाहता था.’’

‘‘आज तक मेरी मम्मी ने कभी मेरी किसी इच्छा से इनकार नहीं किया. मैं जैसे चाहूं रहूं, खाऊंपीऊं, खरीदारी करूं या घूमू फिरूं.’’

‘‘मैं तुम्हारा दिल नहीं दुखाना चाहता था. टीना, प्लीज, मुझे माफ कर दो. मेरी जेब में उस वक्त उतने रुपए नहीं थे.’’

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‘‘के्रडिट कार्ड तो था. पहली बार मैं ने तुम्हारे सामने अपनी इच्छा रखी और तुम ने मेरी बेइज्जती की.’’

‘‘मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

‘‘तुम्हारा मेरे प्रति यही नजरिया रहा तो देख लेना मैं यहीं इसी घर में आत्महत्या कर लूंगी.’’

‘‘आत्महत्या तुम्हें नहीं मुझे करनी चाहिए जिस ने अपनी इतनी प्यारी पत्नी का दिल दुखाया. चलो, मैं अभी तुम्हारे लिए घड़ी ले आता हूं.’’

‘‘अब मुझे घड़ी नहीं चाहिए, जिस चीज के लिए एक बार ना हो जाए उसे मैं कभी हाथ नहीं लगाती,’’ कहते हुए टीना मुंह फुला कर सो गई. उस ने खाना भी नहीं खाया तो नरेश को भी भूखा सोना पड़ा.

अगले दिन नरेश के आफिस जाते ही टीना ने मम्मी को कल की पूरी घटना सुना दी. सुन कर नीता को बड़ा गुस्सा आया और वह बोलीं, ‘‘यह तो नरेश ने अच्छा नहीं किया टीना, उस की हिम्मत तो देखो कि अपनी पत्नी की छोटी सी इच्छा पूरी न कर सका.’’

‘‘मुझे इस बात का बड़ा दुख हुआ मम्मी.’’

‘‘ऐसे मौकों पर तुम कमजोर न पड़ना. आखिर वह इतनी तनख्वाह का करता क्या है? कहीं सारे रुपए घर तो नहीं भेज देता?’’

‘‘मैं ने कभी पूछा नहीं मम्मी.’’

‘‘नरेश की हर हरकत पर नजर रखना. तुम अभी कमजोर पड़ गईं तो फिर कभी पति पर राज नहीं कर सकोगी.’’

मम्मी के कहे अनुसार टीना ने नरेश की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू कर दी पर ऐसा कुछ हाथ न लगा जिसे ले कर नरेश पर हावी हुआ जा सके.

टीना ने महसूस किया कि नरेश कुछ दिनों से खोयाखोया सा रहता है. पत्नी की इच्छा के खिलाफ उस ने कभी मांबाप से मिलने की इच्छा जाहिर नहीं की. उसे यकीन था उस का प्यार और धैर्य एक दिन टीना को बदल देगा. लेकिन एक साल गुजर गया पर टीना के व्यवहार में कोई फर्क न था. अपनी सास से वह नरेश के अनुरोध पर 10-15 दिनों में एकआध मिनट के लिए बात कर लेती. हां, अपनी मम्मी से सुबहशाम नियम से बात करना वह कभी न भूलती.

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